Class 12

HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे

प्रश्न 1.
घरेलू वाहित मल के विभिन्न घटक क्या हैं? वाहित मल के नदी में विसर्जन से होने वाले प्रभावों की चर्चा करें।
उत्तर:
घरेलू वाहित मल में मुख्यतः जैव निम्नीकरण कार्बनिक पदार्थ होते हैं जिनका अपघटन जीवाणु व अन्य सूक्ष्म जीवों द्वारा होता है। इसके अतिरिक्त वाहित मल में अनेक प्रकार के निलम्बित ठोस, रेत व सिल्ट कण, अकार्बनिक, कोलाइडी कण (जैसे क्ले), मल, कपड़ा, खाद्य अपशिष्ट, कागज, रेशे आदि एवं घुले हुये पदार्थ (फॉस्फेट, नाइट्रेट, धातु आयन) होते हैं इसी के साथ पाठ्यसामग्री के बिन्दु को देखिये ।

घरेलू वाहित मल और औद्योगिक बहि: स्राव (Domestic sewage and Industrial effluents) नगरों व शहरों में अपने घरों का कार्य करते हुए हम सभी चीजों को नालियों में बहा देते हैं। यह वाहित कचरा तथा घरों से निकलने वाला वाहित मल समीपस्थ नदी में बह जाता है। केवल 0.1 प्रतिशत अपद्रव्यों (Impurities) के कारण ही घरेलू वाहित मल मानव के उपयोग के लायक नहीं रहता है।

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प्रश्न 2.
आप अपने घर, विद्यालय या अपने अन्य स्थानों के भ्रमण के दौरान जो अपशिष्ट उत्पन्न करते हैं, उनकी सूची बनाएँ। क्या आप उन्हें आसानी से कम कर सकते हैं? कौनसे ऐसे अपशिष्ट हैं जिनको कम करना कठिन या असंभव होगा?
उत्तर:
घर, विद्यालय व अन्य स्थानों पर भ्रमण के दौरान विभिन्न प्रकार के अपशिष्ट प्राप्त होते हैं। इन अपशिष्टों को जैव अपघटनीय, जैव अनअपघटनीय, विषाक्त अविषाक्त तथा जैव चिकित्सकीय श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं। प्रकृति में बिना किसी उत्प्रेरकों की उपस्थिति में अपघटन होने वाले अपशिष्ट जैव अपघटनीय अपशिष्ट (Biodegradable waste) होते हैं। इन्हें भी सरल व जटिल दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
(i) सरल जैव अपघटनीय अपशिष्ट इन अपशिष्ट पदार्थों को सूक्ष्म जीवों द्वारा प्रकृति में अत्यंत सरलता व तीव्रता से अपघटित किया जाता है। उदाहरण पादप व जंतुओं के मृत एवं उत्सर्जी अवशिष्ट, मल एवं विष्ठा, अपशिष्ट जल आदि ।

(ii) जटिल जैव अपघटनीय अपशिष्टये अपशिष्ट प्रकृति में लंबे समय तक रहते हैं, इनका विघटन धीरे-धीरे होता है व प्रकृति में हानिकारक होते हैं, क्योंकि ये प्रकृति में लंबे समय तक अनअपघटित अवस्था में रहते हैं। उदाहरण पीड़कनाशी Simazine व PCP, कागज, चमड़ा, प्लास्टिक थैलियाँ, ऊन, प्लास्टिक की बोतलें आदि । जैव अनअपघटनीय अवशिष्ट- ये जीवाणु व कवक आदि से अपघटित नहीं होते। इसमें कार्बनिक यौगिक, धात्विक ऑक्साइड, पारा, लैंड, आर्सिनिक, पीड़कनाशी DDT, रेडियोधर्मी पदार्थ आदि होते हैं।

प्रश्न 3.
वैश्विक उष्णता में वृद्धि के कारणों और प्रभावों की चर्चा करें। वैश्विक उष्णता वृद्धि को नियंत्रित करने वाले उपाय क्या हैं?
उत्तर:
वैश्विक उष्णता को निम्नलिखित उपायों द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है-
1. जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को कम करना
2. ऊर्जा दक्षता में सुधार करना
3. वनोन्मूलन को कम करना
4. मनुष्य की बढ़ती हुई जनसंख्या को कम करना
5. जानवरों की विलुप्त हो रही प्रजातियों को संरक्षित करना
6. वनों का विस्तार करना
7. वृक्षारोपण को बढ़ावा देना।

प्रश्न 4.
कॉलम अ और ब में दिए गए मदों का मिलान करें-

कॉलम ‘अ’कॉलम ‘ब’
(क) उत्त्रेरक परिवर्तक1. कणकीय पदार्थ
(ख) स्थिर वैद्युत अपक्षेपित्न (इलेक्ट्रोस्टैटिक प्रेसिपिटेटर)2. कार्बन मोनो ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड
(ग) कर्ण मफ (इयर मफ्स)3. उच्च शोर स्तर
(घ) लैंडफिल4. ठोस अपशिष्ट

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित पर आलोचनात्मक टिप्पणी लिखें-
(क) सुपोषण (यूट्रोफिकेशन )
(ख) जैव आवर्धन (बायोलॉजिकल मैग्निफिकेशन)
(ग) भौमजल (भूजल ) का अवक्षय और इसकी पुनपूर्ति के तरीके।
उत्तर:
(क) सुपोषण (यूट्रोफिकेशन )
सुपोषण (Eutrophication)-सुपोषणता किसी जलाशय या झील का प्राकृतिक काल प्रभावन (Ageing) को दर्शाता है अर्थात् सुपोषणीय झील अधिक उम्र की (पुरानी) हो जाती है। यह सब इसके जल की जैव समृद्धि (Biological enrichment) के कारण होता है।

नई या कम उम्र की झील का जल शीतल व स्वच्छ होता है। समय के साथ-साथ अपशिष्ट जलों के बहाव के साथ अकार्बनिक पोषक तत्वों (नाइट्रोजन और फॉस्फोरस) के आने के अतिरिक्त, कार्बनिक अपशिष्टों का जमाव भी जलाशयों की पोषक मात्रा को बढ़ा देता है। इसके कारण जलीय जीवों में वृद्धि होती रहती है। जैसेजैसे झील की उर्वरता बढ़ती है वैसे-वैसे पादप और प्राणी जीवन बढ़ने लगता है।

विशेषतः शैवालों की अधिक वृद्धि होने से पूर्ण जलाशय शैवाल युक्त (खासकर नील हरित शैवाल अधिक होती है) होकर शैवाल ब्लूम (Algal bloom) की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे जल में जहर का निष्कासन होता है व जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। शैवाल ब्लूम से जलाशयों में अन्य शैवालों का विकास जहरीलेपन के कारण अवरुद्ध हो जाता है व जलीय प्राणी जहरीलेपन व ऑक्सीजन की कमी से मरने लगते हैं। जल में पोषण की वृद्धि की प्रक्रिया से प्रजातियों की विविधताओं का नष्ट होना सुपोषण कहलाता है। इस प्रक्रिया के कारण मृत पादप व प्राणी तथा कार्बनिक अवशेष झील के तल में बैठने लगते हैं।

सैकड़ों वर्षों में इसमें जैसे-जैसे गाद (Silt) और जैव मलबे (organic debris) का ढेर लगता जाता है वैसेवैसे झील कम गहरी या उथली (shallower) और गर्म होती जाती है झील के ठंडे पर्यावरण वाले जीव के स्थान पर उष्ण जलजीव रहने लगते हैं। कच्छ पादप (marsh plants) उथली जगह पर जड़ जमा लेते हैं और झील की मूल द्रोणी (Basin) को भरने लगते हैं। उथले झील में अब कच्छ (Marsh) पादप उग जाते हैं और मूल झील बेसिन उनसे भर जाता है ।

कालांतर में झील काफी संख्या में प्लावी पादपों Bog से भर जाता है और अंत में यह भूमि में परिवर्तित हो जाता है। जलवायु, झील का आकार और अन्य कारकों के अनुसार झील का यह प्राकृतिक काल-प्रभावन हजारों वर्षों में होता है। फिर भी मनुष्य के क्रियाकलाप, जैसे उद्योगों और घरों के बहिःस्राव (effluents) कालप्रभावन प्रक्रम में मूलतः तेजी ला सकते हैं।

इस प्रक्रिया को त्वरित सुपोषण (Accelerated Eutrophication) कहा जाता है। गत शताब्दी में पृथ्वी के कई भागों के झील का वाहित मल और कृषि तथा औद्योगिक अपशिष्ट के कारण तीव्र सुपोषण हुआ है। विद्युत उत्पादन करने वाले यानी तापीय विद्युत् संयंत्रों से बाहर निकलने वाला गर्म अपशिष्ट जल भी एक प्रदूषक ही है।

गर्म अपशिष्ट जल में अधिक ताप के प्रति संवेदनशील जीव जीवित नहीं रह पाते या इसमें जीवों की संख्या कम हो जाती है। तापमान के बढ़ने से जल में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा भी कम हो जाती है व इससे अन्य रासायनिक प्रकियायें बढ़ जाती हैं। कुल मिलाकर जल पारितंत्र का संतुलन बिगड़ जाता है।

(ख) जैव आवर्धन (बायोलॉजिकल मैग्निफिकेशन)
जैव आवध्धन (Biological Magnification or Biomagnification)-उद्योगों के अपशिष्ट जल में उपस्थित कुछ विषैले पदार्थ जलीय खाद्य शृंखला में जैव आवर्धन कर सकते हैं। तात्पर्य यह है कि वह परिघटना, जिसके अंतर्गत कुछ विशेष प्रदूषक आहार शृंखला के साथ सांद्रता में बढ़ते हुए ऊतकों में जमा हो जाते हैं, उसे जैव आवर्धन (Biomagnification) कहते हैं।

कुछ प्रदूषक जैव अनिम्नीकरणीय होते हैं, उदाहरण के लिए एक बार अवशोषित होने पर उनका जीवों के द्वारा विघटन होना या मलमूत्र के द्वारा बाहर निकलना असंभव हो जाता है। ये प्रदूषक साधारणत: जीवों के वसा वाले ऊतकों में जमा होते हैं। जैव आवर्धन का मुख्य कारण है कि जीव द्वारा संग्रहित आविषालु पदार्थ उपापचयित या उत्सर्जित नहीं हो पाते हैं और इस प्रकार ये अगले उच्चतर पोषण स्तर पर पहुँच जाते हैं।

इसका उचित उदाहरण पारा व DDT ।का है जिसे चित्र 16.4 की सहायता से जलीय खाद्य शृंखला में DDT का जैव आवर्धन बताया गया है। इस प्रकार क्रमिक पोषण स्तरों पर DDT की सांद्रता बढ़ जाती है। यदि जल में यह सांद्रता 0.003 ppb (parts per billion) से आरंभ होती है तो अंत में जैव आवर्धन के द्वारा मत्स्यभक्षी पक्षियों में बढ़कर 25 ppm हो जाती है। पक्षियों में DDT की उच्च सांद्रता कैल्सियम उपापचय को हानि पहुँचाती है जिसके कारण अंड कवच (Egg shell) पतला हो जाता है और यह समय से पूर्व फट जाता है जिसके कारण पक्षी समष्टि (Bird population) अर्थात् इनकी संख्या में कमी हो जाती है।
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(ग) भौमजल (भूजल ) का अवक्षय और इसकी पुनपूर्ति के तरीके (Groundwater depletion and ways for its replenishment ) जल ही जीवन है। पृथ्वी पर जल की 71 प्रतिशत उपलब्धता से ही इसे नीला ग्रह भी कहा जाता है। अलवणीय उपलब्ध जल मात्रा 1 प्रतिशत है। वर्तमान समय में जल संकट उत्पन्न हो गया है। इसका कारण जल स्रोतों का प्रदूषण, भू-जल का अतिदोहन, जल की अधिक मांग, जनसंख्या विस्फोट, मानसून की अनिश्चितता तथा पारंपरिक स्रोतों की उपेक्षा आदि हैं। जल अभाव की समस्या ने राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तनाव पैदा कर दिया है।

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भारत में लगभग सभी नदियों के जल के बंटवारे को लेकर पड़ौसी राज्यों में तनाव की स्थिति बनी हुई है। जल एक चक्रीय संसाधन है। यदि इसका युक्तियुक्त उपयोग किया जाए तो इसकी कमी नहीं होगी। जल के संरक्षण तथा पुनर्पूर्ति हेतु निम्न उपाय किये जाने चाहिये
(1) जल को बहुमूल्य राष्ट्रीय संपदा समझकर इसका समुचित नियोजन किया जाना चाहिये।

(2) वर्षा जल संग्रहण विधियों द्वारा जल का संग्रहण किया जाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि भूमि सतह पर प्रवाहित वर्षा जल को भूमिगत करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

(3) नदियों पर छोटे-बड़े बांध बनाये जाने चाहिए जिससे बाढ़ नियंत्रण के साथ एकत्रित जल को सिंचाई, पेयजल, बिजली उत्पादन आदि में उपयोग किया जा सके। गाँवों में तालाबों का निर्माण करना चाहिए।

(4) सिंचाई में जल को अधिक नष्ट न कर फव्वारा विधि या टपकन विधि, घरेलू उपयोग में समुचित उपयोग व हमें अधिकाधिक वृक्षारोपण करना चाहिए। अच्छे वन जल का सर्वोत्तम संचय करते हैं। वन ऐसे जलाशय हैं जिनमें कभी भी अवसादन होने की संभावना नहीं होती है।

(5) बाढ़ नियंत्रण व जल के समुचित उपयोग के लिए नदियो को परस्पर जोड़ा जाना चाहिए ।

(6) भवनों में खाली स्थान होने चाहिए जिससे छतों के जल को भूमिगत करने के लिए टैंक का प्रावधान कर सके । इस दिशा में प्रथम कदम है समाकलित जल संभर प्रबंधन (Integrated Watershed Management ) द्वारा जल संसाधनों क वैज्ञानिक प्रबंधन, दूसरा कदम वर्षा जल संग्रहण का है तथा तीसरा कदम् जल को अप्रदूषित रखने का है। इन सब में वर्षा जल संग्रहण, भूजल पुनर्भरण का एक महत्वपूर्ण उपाय है।

प्रश्न 6.
ऐंटार्कटिका के ऊपर ओजोन छिद्र क्यों बनते हैं- पराबैंगनी विकिरण के बढ़ने से हमारे ऊपर किस प्रकार प्रभाव पड़ेंगे?
उत्तर:
वायुमंडल के समतापमंडल (Stratosphere) में ओजोन की परत होती है। समतापमंडल में पराबैंगनी विकिरण ओजोन का प्रकाश विच्छेदन कर O2 एवं आण्विक ऑक्सीजन (O) बना देता है जो शीघ्र ही फिर से जुड़कर O3 बना देता है।
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इस क्रिया में पराबैंगनी किरणों से ताप के रूप में ऊर्जा निकलती है । इस प्रकार ओजोन के निर्माण एवं विघटन में एक संतुलन स्थापित हो जाता है जिससे समुद्र तल से 20 से 26 कि.मी. ऊपर समतापमंडल में ओजोन की सांद्रता स्थिर हो जाती है। मानक ताप एवं दाब में समतापमंडल ओजोन परत भूमध्य रेखा 0.29 सेमी. एवं ध्रुवों के नजदीक 0.40 सेमी. मोटी हो जाती है।

यह ओजोन परत पृथ्वी के जीव जगत् को तेज पराबैंगनी विकिरण के हानिकारक प्रभाव से बचाती है। ओजोन परत की मोटाई मौसम के हिसाब से बदलती है। बसंत ऋतु ( फरवरी- अप्रेल) में सबसे ज्यादा एवं वर्षा ऋतु (जुलाई- अक्टूबर) में सबसे कम रहती है। ओजोन परत की मोटाई को डॉबसन इकाई (Dobson Unit) में मापा जाता है।

समतापमण्डल में ओजोन के उत्पादन और अवक्षय निम्नीकरण में संतुलन होना चाहिए। वर्तमान में, क्लोरोफ्लुरोकार्बन (CFCs) के द्वारा ओजोन निम्नीकरण बढ़ जाने से इसका संतुलन बिगड़ गया है। वायुमण्डल के निचले भाग में उत्सर्जित CFCs ऊपर की ओर उठता है और यह समतापमंडल में पहुँचता है । समतापमंडल में पराबैंगनी किरणें उस पर कार्य करती हैं जिसके कारण क्लोरीन (CI) परमाणु का मोचन ( release) होता है, जो अत्यधिक क्रियाशील होती है ।

CFCl3 + light → CFCL2 + Cl
यह क्लोरीन उत्प्रेरक का कार्य करती हुई ओजोन को विघटित कर देती है तथा स्वयं अपरिवर्तित रहती है।
Cl + O3 → ClO + O2
CIO + O → Cl + O2
इस प्रकार उत्प्रेरक का कार्य करते हुए CFC का प्रत्येक अणु ओजोन के लाखों अणुओं को विघटित कर सकता है। इसलिए समतापमंडल में जो भी क्लोरोफ्लुरोकार्बन जुड़ते जाते हैं उनका ओजोन स्तर पर स्थायी और सतत प्रभाव पड़ता है। यद्यपि समतापमंडल में ओजोन का अवक्षय विस्तृत रूप से होता रहता है लेकिन यह अवक्षय ऐंटार्कटिक क्षेत्र में खासकर विशेषरूप से अधिक होता है। इसके फलस्वरूप यहाँ काफी बड़े क्षेत्र में ओजोन की परत अधिक पतली हो गई है जिसे सामान्यतः ओजोन छिद्र (Ozone Hole) कहा जाता है (चित्र 16.7 ) ।
सजीवों में DNA व प्रोटीन विशेषकर पराबैंगनी (UV) किरणों को अवशोषित करते हैं और इसकी उच्च ऊर्जा इन अणुओं के रासायनिक आबंध (chemical bonds) को भंग करते हैं। इस प्रकार पराबैंगनी
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विकिरण सजीवों के लिए अत्यधिक हानिकारक हैं। पराबैंगनी – बी (UV- -B) की अपेक्षा छोटे तरंगदैर्घ्य (wavelength) युक्त पराबैंगनी (UV) विकिरण पृथ्वी के वायुमंडल द्वारा लगभग पूरा का पूरा अवशोषित हो जाता है बशर्ते कि ओजोन स्तर ज्यों का त्यों रहे। लेकिन UV-B, DNA को क्षतिग्रस्त करता है और उत्परिवर्तन करता है। इसके कारण त्वचा में बुढ़ापे के लक्षण दिखते हैं, इसकी कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और विविध प्रकार के त्वचा कैंसर हो जाते हैं।

हमारे आँख का स्वच्छमण्डल (Cornea ) UV-B विकिरण का अवशोषण करता है। इसकी उच्च मात्रा के कारण कॉर्निया का शोथ हो जाता है जिसे हिम अंधता (Snow-blindness), मोतियाबिंद आदि कहा जाता है। इसके उद्भासन ( exposure) से कॉर्निया स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो सकता है।ओजोन के अवक्षय ( ह्रास) के हानिकारक प्रभाव को देखते हुए सन् 1987 में माँट्रियल (कनाडा) में अंतर्राष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर हुए, जिसे माँट्रियल प्रोटोकॉल कहा जाता है।

यह संधि 1989 से प्रभावी हुई। इसके अन्तर्गत ओजोन अवक्षयकारी गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण हेतु प्रतिबंध लगाया गया तथा और अधिक अन्य प्रयास किये गये। प्रोटोकॉल में विकसित व विकासशील देशों के लिये अलग-अलग निश्चित दिशा- निर्देश दिये गये जिससे CFCs व अन्य ओजोन अवक्षयकारी रसायनों के उत्सर्जनों को कम किया जा सके।

प्रश्न 7.
वनों के संरक्षण और सुरक्षा में महिलाओं और समुदायो की भूमिका की चर्चा करें।
उत्तर:
इसी प्रकार का आंदोलन कर्नाटक में भी चला जिसका नाम ‘एप्पिको’ था। इसी क्रम में देखें तो एक अश्वेत अफ्रीकी महिला वांगरी मधाई को वर्ष 2004 में पर्यावरण संरक्षण के प्रचार-प्रसार हेतु 2004 का नोबल शांति पुरस्कार दिया गया। वांगरी मथाई 1977 से केन्या में ग्रीन बेल्ट आंदोलन चला रही थीं।

उन्होंने आंदोलन के द्वारा वहां की अर्थव्यवस्था, पर्यावरण संरक्षण तथा सांस्कृतिक विकास को प्रोत्साहित किया। मथाई की धारणा थी कि धरती का अमन, शांति तथा सद्भाव तब तक कायम नहीं किया जा सकता, जब तक पर्यावरण को सुरक्षित करने का संकल्प न ले लिया जाए।

मथाई के प्रयास से ही केन्या की ऊबड़-खाबड़ धरती को हरा-भरा किया गया है। इस प्रकार उन्होंने धरती को हरा-भरा करने के लिए अपने सहयोगियों के साथ पूरे केन्या में 3 करोड़ से अधिक पौधे लगवाये इस प्रकार उन्होंने जंगल एवं जमीन की धरोहर को सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

प्रश्न 8.
पर्यावरणीय प्रदूषण को रोकने के लिए एक व्यक्ति के रूप में आप क्या उपाय करेंगे?
उत्तर:
प्रदूषण वायु, भूमि, जल या मृदा के भौतिक, रासायनिक या जैवीय अभिलक्षणों का एक अवांछनीय परिवर्तन है अवांछनीय परिवर्तन उत्पन्न करने वाले कारकों को प्रदूषक (Pollutant) कहते हैं। पर्यावरण सुधार हेतु सरकार के द्वारा पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया गया है। जीव श्वसन संबंधी आवश्यकताओं के लिए वायु पर निर्भर रहते हैं।

वायु प्रदूषक गैस या कणकीय पदार्थ होते हैं ताप विद्युत संयंत्रों के धूम्र स्तंभ (Smokestacks), कणिकीय धूम्र व अन्य उद्योगों से हानिकर गैसें, जैसे- नाइट्रोजन, ऑक्सीजन आदि के साथ (Particulate) तथा गैसीय वायु प्रदूषक भी निकलते हैं। वायुमंडल में इन हानिकारक गैसों को छोड़ने से पूर्व इन प्रदूषकों को पृथक् करके या नियंदित (Filtered ) कर बाहर निकाल देना चाहिए।

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कणिकीय पदार्थों को निकालने के लिए स्थिर वैद्युत अवक्षेपित्र (Electrostatic Precipitator ) का उपयोग किया जाना चाहिये। किसी भी उद्योग को स्थापित करने से पूर्व वहाँ वृक्ष लगाने तथा कचरे के निष्पादन की गारंटी होनी चाहिए। वाहनों की देखभाल तथा इसमें CNG ईंधन का उपयोग किया जाना चाहिए।

इसी प्रकार जलीय प्रदूषण हेतु नगरों से निकला गंदा पानी, वाहित मल-मूत्र तथा उद्योगों से निकले अपशिष्ट की व्यवस्था होनी चाहिए। घरेलू अपशिष्टों के निपटाने हेतु समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। अपशिष्टों से वाष्पशील व विलयशील यौगिकों को पृथक् करना चाहिए। इन्हें जला देना चाहिए। पोलीथीन की थैलियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। ठोस कचरा निष्पादन के लिए उच्च तकनीकों का प्रयोग व सुनियोजित भूमि भराव करना चाहिए। ठोस अपशिष्टों का पुनः चक्रण व पुन: उपयोग करना तथा पर्यावरण, स्नेही कृषि तकनीकों का उपयोग आवश्यक है।

शोर प्रदूषण नियंत्रण के लिए शोर की तीव्रता के स्रोत पर ही कम करके, ध्वनि के प्रसार माध्यम में गतिरोध उत्पन्न करके, ग्राही को ध्वनि के उत्पन्न होने के स्थान से दूर रखकर, औद्योगिक इकाइयों को आवासीय स्थलों से दूर स्थापित करने से हरित पट्टी का विकास करके, ध्वनि की तीव्रता को ग्रहण करने वाले अवशोषकों का इस्तेमाल करके, हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों आदि को रिहायशी क्षेत्रों से दूर स्थापित करके तथा विभिन्न स्थलों हेतु ध्वनि स्तर निश्चित करके किया जा सकता है। ” इसी के साथ-साथ हमें CFCs के उत्सर्जन को कम करना चाहिए।

प्रश्न 9.
निम्नलिखित के बारे में संक्षेप में चर्चा करें-
(क) रेडियो-सक्रिय अपशिष्ट
(ख) पुराने बेकार जहाज और ई- अपशिष्ट
(ग) नगरपालिका के ठोस अपशिष्ट ।
उत्तर:
(क) रेडियो सक्रिय अपशिष्ट ( Radio-active Wastes ) – पूर्व में न्यूक्लीय ऊर्जा को विद्युत उत्पादन हेतु गैर-प्रदूषक (Non-polluting) विधि मानी जाती थी। परंतु बाद में यह ज्ञात हुआ कि न्यूक्लीय ऊर्जा के प्रयोग से दो सर्वाधिक खतरनाक अंतर्निहित (Inherent) समस्याएँ हैं। पहली समस्या इनके आकस्मिक रिसाव से है जैसा कि श्री माइल द्वीप (Three Mile Island) और चेनोंबिल (Chernobly) की घटनाओं में हुआ था रेडियो-सक्रिय अपशिष्ट से दूसरी समस्या इन अपशिष्टों के सुरक्षित निपटान (Disposal) की है।

रेडियो-सक्रिय पदार्थों से निकलने वाला विकिरण जीवों के लिए अत्यधिक नुकसानदेह होता है क्योंकि इसके कारण अति उच्चदर से उत्परिवर्तन (Mutation) होते हैं। रेडियो-सक्रिय अपशिष्ट विकिरण की अधिक मात्रा (doses) घातक यानी जानलेवा (Lethal ) होती है परंतु इसकी कम मात्रा से भी अनेक विकार उत्पन्न होते हैं। इनसे सबसे अधिक बार-बार होने वाला विकार कैंसर है।

इस प्रकार ये अपशिष्ट अत्यंत प्रभावकारी प्रदूषक हैं तथा इनके उपचार में अधिक सावधानी बरतने की जरूरत होती है। वैज्ञानिकों ने इसके निपटान के लिए सुझाया है कि इनका समुचित पूर्व में उपचारित (Pre-treatment) कर कवचित पात्रों (Shielded Containers) में भंडारण करके चट्टानों के नीचे लगभग 500 मीटर की गहराई में पृथ्वी में गाड़कर करना चाहिए।

(ख) पुराने बेकार जहाज और ई अपशिष्ट (Old useless Ships and E-Wastes) – पुराने बेकार जहाज जिनका निर्माण धातुओं से होता है, इनको फेंकने के बजाय इसमें से धातु भाग को पृथक् कर पुनः चक्रण में उपयोग में लेकर पुनः धातु का निर्माण कर नये जहाज बनाने के उपयोग में लाया जा सकता है। ऐसे कम्प्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक सामान जो मरम्मत के लायक नहीं रह जाते हैं इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट (E-Wastes) कहलाते हैं। ई-अपशिष्ट को लैंडफिल्स (Landfills) में गाड़ दिया जाता है या जलाकर भस्म कर दिया जाता है।

विकसित देशों में उत्पादित ई- अपशिष्ट का आधे से अधिक भाग विकासशील देशों, विशेषकर चीन, भारत तथा पाकिस्तान में निर्यात किया जाता है जबकि ताँबा, लोहा, सिलिकॉन, निकल और स्वर्ण जैसे धातु पुनश्चक्रण (Recycling) प्रक्रियाओं द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। विकसित देशों में ई- अपशिष्ट के पुनश्चक्रण की सुविधाएँ तो उपलब्ध हैं, लेकिन विकासशील देशों में यह कार्य प्रायः हाथ से किया जाता है।

इस प्रकार इस कार्य से जुड़े कर्मियों पर ई- अपशिष्ट में मौजूद विषैले पदार्थों का प्रभाव पड़ता है। ई अपशिष्ट के उपचार का एकमात्र हल पुनश्चक्रण है, परंतु इसे पर्यावरण अनुकूल या अच्छे तरीके से किया जाना चाहिए।

(ग) नगरपालिका के ठोस अपशिष्ट [संकेत – पाठ्यसामग्री के बिंदु 16.3 को देखिये। ]

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प्रश्न 10.
दिल्ली में वाहनों से होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने के लिए क्या प्रयास किये गये? क्या दिल्ली में वायु की गुणवत्ता में सुधार हुआ?
उत्तर:
एक अध्ययन (Controlling vehicular air pollution A case study of Delhi)
वाहनों की संख्या अधिक होने के कारण दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर देश में सबसे अधिक है। यहाँ पर वाहनों की संख्या गुजरात और पश्चिम खंगाल में कुल मिलाकर जितने वाहन हैं या उससे अधिक है। सन् 1990 के आकड़ों के अनुसार दिल्ली का स्थान विश्व के 41 सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में चौथा है। दिल्ली में वायु प्रदूपण की स्थिति इतनी खतरनाक हो गई कि भारत के सर्षोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (पी आई एल) दायर की गई।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसकी कड़ी निंदा की गई और न्यायालय ने भारत सरकार से एक निश्चित अर्वधि में उचित उपाय करने का आदेश दिया साथ ही, यह भी आदेश दिया कि सभी सरकारी वाहनों व बसों में डीजल के ₹धान पर संपीडित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) का प्रयोग किया जाए। वर्ष 2002 के अंत तक दिल्ली की सभी बसों को सीएनजी में परिवरित कर दिया गया सीएनजी डीजल से बेहतर होता है क्योंकि वाहन में सीएनजी सबसे अच्छी तरह जलता (Burn) है और यहुत ही कम मात्रा में जलने के उपरांत बचता है जब्बकि डीजल या पेट्रोल के मामले में ऐसा नहीं है। इसके अतिरित्त यह पेट्रोल या दीजल से सस्ता होता है।

पेट्रोल तथा डीजल की तरह इसे अपमिश्रित नहीं किया जा सक्ता। सीएनजी में परिवर्तित करने में मुख्य समस्या इसे वितरण स्थल/पंप तक ले जाने के लिए पाइप लाइन विछाने की कठिनाई को लेकर और इसकी अबाधित सप्लाई करने की है। साथ ही साथ दिल्ली में वाहन प्रदृषण को कम करने के अन्य उपाय भी किए गए हैं जैसे-पुरानी गाड़ियों को धीरेधीरे हृटा देना, सीसा रहित पेट्रोल और डीजल का प्रयोग, कम गंधक (सल्फर) युक्ठ पेट्रोल और डीजल का प्रयोग, वाहनों में उत्प्रेरक परिवर्तकों का प्रयोग, वाहनों के लिए कठोर प्रदूषण स्तर लागू करना आदि।

भारत सरकार ने एक नयी वाहन नीति के वहत यहाँ के शहरों में वाहन प्रदूषण को कम करने के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत निर्धारित किया है। ईंधन के लिए अधिक कठोर मानक बनाए गए हैं ताकि पेट्रोल और डीजल ईंधनों में धीरे-धीरे गंधक और एरोमेटिक की माभा कम की जाए। उदाहरण के लिए, बूरो II मानक के अनुसार डीजल और पेट्रोल में गंधक भी निर्यंत्रित कर क्रमशः 305 और 150 पार्ट्स प्रति मिलियन (पी पी एम) करना चाहिए। संबंधित इंधन में एरोमैंटिक हाइड्रोकार्बन 42 प्रतिशत पर सीमित करना चाहिए।

मार्गदर्शी के अनुसार पेट्रोल और डीजल में गंधक को कम कर 50 पी पी एम पर लाकर लध्ष्य को 35 प्रतिशत के स्तर पर लाना चाहिए। ईंधन के अनुरूप वाहन के इंजनों में भी सुधार करना होगा। भारत स्टेज II, जो यूरो-II मानक के तुल्य है, और जो अभी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बंगलौर, हैदराबाद, अहमदाबाद, पुणे, सूरत, कानपुर और आगरा में लागू है।

वह 1 अप्रेल, 2005 से पूरे देश में सभी स्वचालित वाहनों में लागू किया जाना चाहिए। 1 अप्रेल, 2005 से ऊपर वर्णित सभी ग्यारह शहरों में सभी स्वचालित वाहनों और ईंधन, पेट्रोल और डीजल के उत्सर्जन मानक यूरो-III होना चाहिए था और 1 अप्रेल, 2010 के लिए यह यूरो-IV निर्धारित किया गया है। देश अन्य सभी भागों में 2010 तक यूरो-III मानक लागू करने का लक्ष्य रखा गया है। दिल्ली में किए गए इन प्रयासों के कारण यहाँ की वायु की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित के बारे में संक्षेप में चर्चा करें- (क) ग्रीन हाउस गैसें (Green House Gases )
(ख) उत्प्रेरक परिवर्तक (Clatalytic Converter )
(ग) पराबैंगनी – बी (Ultraviolet-B)
उत्तर:
(क) ग्रीन हाउस गैसें (Green House Gases ) वातावरण में उपस्थित CO2, मीथेन (CH4), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), नाइट्स ऑक्साइड (N2O), क्लोरो फ्लोरो कार्बन्स (CFCs) गैसें ग्रीन हाउस गैसें कहलाती हैं। इन गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन से पृथ्वी के तापक्रम में वृद्धि होती जाती है।

(ख) उत्प्रेरक परिवर्तक (Clatalytic Converter) – महानगरों में स्वचालित वाहन वायुमंडल प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं। जैसे-जैसे सड़कों पर वाहनों की संख्या बढ़ती है यह समस्या अन्य शहरों में भी पहुँच रही है। स्वचालित वाहनों का रखरखाव उचित होना चाहिए। उनमें सीसा रहित पेट्रोल या डीजल का प्रयोग होने से उत्सर्जित प्रदूषकों की मात्रा कम हो सकती है। उत्प्रेरक परिवर्तक ( Clatalytic converter ) में कीमती धातु, प्लैटिनम- पैलेडियम और रोडियम लगे होते हैं जो उत्प्रेरक (Catalyst) का कार्य करते हैं । ये परिवर्तक स्वचालित वाहनों में लगे होते हैं जो विषैले गैसों के उत्सर्जन को कम करते हैं।

जैसे ही निर्वात उत्प्रेरक परिवर्तक से होकर गुजरता है अदग्ध हाइड्रोकार्बनडाइऑक्साइड और जल में बदल जाता है और कार्बन मोनोऑक्साइड तथा नाइट्रिक ऑक्साइड क्रमश: कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन गैस में परिवर्तित हो जाती है। उत्प्रेरक परिवर्तक युक्त मोटर वाहनों में सीसा रहित (Unleaded) पेट्रोल का उपयोग करना चाहिए क्योंकि सीसा युक्त पेट्रोल उत्प्रेरक को अक्रिय करता है।

HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 16 पर्यावरण के मुद्दे

(ग) पराबैंगनी – बी (Ultraviolet B)
विकिरण सजीवों के लिए अत्यधिक हानिकारक हैं। पराबैंगनी-बी (UV- B) की अपेक्षा छोटे तरंगदैर्घ्य (wavelength) युक्त पराबैंगनी (UV) विकिरण पृथ्वी के वायुमंडल द्वारा लगभग पूरा का पूरा अवशोषित हो जाता है बशर्ते कि ओजोन स्तर ज्यों का त्यों रहे । लेकिन UV-B, DNA को क्षतिग्रस्त करता है और उत्परिवर्तन करता है। इसके कारण त्वचा में बुढ़ापे के लक्षण दिखते हैं, इसकी कोशिकाएँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और विविध प्रकार के त्वचा कैंसर हो जाते हैं।

हमारे आँख का स्वच्छमण्डल (Cornea) UV-B विकिरण का अवशोषण करता है। इसकी उच्च मात्रा के कारण कॉर्निया का शोथ हो जाता है जिसे हिम अंधंता (Snow-blindness), मोतियाबिंद आदि कहा जाता है। इसके उद्भासन (exposure) से कॉर्निया स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो सकता है। ओजोन के अवक्षय (ह्रसस) के हानिकारक प्रभाव को देखते हुए सन् 1987 में माँट्रियल (कनाडा) में अंतर्राष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर हुए, जिसे माँट्रियल प्रोटोकॉल कहा जाता है। यह संधि 1989 से प्रभावी हुई।

इसके अन्तर्गत ओजोन अवक्षयकारी गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण हेतु प्रतिबंध लगाया गया तथा और अधिक अन्य प्रयास किये गये। प्रोटोकॉल में विकसित व विकासशील देशों के लिये अलग-अलग निश्चित दिशानिर्देश दिये गये जिससे CFCs व अन्य ओजोन अवक्षयकारी रसायनों के उत्सर्जनों को कम किया जा सके।

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HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 15 जैव-विविधता एवं संरक्षण

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 15 जैव-विविधता एवं संरक्षण Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 15 जैव-विविधता एवं संरक्षण

प्रश्न 1.
जैव विविधता के तीन आवश्यक घट कों (Components) के नाम बताइए।
उत्तर:
जैव विविधता के तीन स्तर या आवश्यक घटक निम्न प्रकार से हैं, ये तीनों स्तर एक-दूसरे से इतने गुँथे (Interwined) होते हैं कि प्रायोगिक आधार पर इन्हें विभक्त करना असंभव है-
(1) जातीय विविधता (Species Diversity)
(2) पारितंत्र विविधता (Ecosystem Diversity)
(3) आनुवंशिक विविधता (Genetic Diversity)

प्रश्न 2.
पारिस्थितिकीविद् किस प्रकार विश्व की कुल जातियों का आंकलन करते हैं?
उत्तर:
समुदाय में पाई जाने वाली स्पीशीज की संख्या, जाति समृद्धि ( Species richness ) मापन कहलाता है। विविधता “एकक प्रतिदर्शज (Statistics) है जिसमें जाति की संख्या और समता (evenness) संयोजित (compounded) होती है।” विविधता परिकलन के कई तरीके बताये गये हैं जो इन दो प्रकार की जानकारी को जोड़ते हैं। जैव विविधता की गणितीय अक्षांक (Mathematical Indices) भी विकसित की गई है, जिससे भिन्न भौगोलिक पैमानों पर जाति विविधता को निम्नलिखित रूप में नोट किया जा सकता है-
(1) अल्फा विविधता (Alpha Diversity ) – यह एकक समुदाय में स्पीशीज की संख्या है। यह विविधता जाति समृद्धि के लोकप्रिय संकल्पना के निकट है और भिन्न पारिस्थितिक तंत्र प्रकारों में जाति की संख्या की तुलना करने में सहायक हो सकती है।

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(2) बीटा विविधता ( Beta Diversity ) – यह उस मापन को बताता है जिसमें स्पीशीज पर्यावरणीय अंतरों (Gradients) के बीच परिवर्तित होनी है। उदाहरण के लिये पर्वत ढलान पर उत्तरोत्तरत: उच्च ऊँचाई पर यदि मॉस समुदायों की जाति लगातार एक के बाद एक परिवर्तित होती है तो बीटा विविधता उच्च है परन्तु यदि वही जाति संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र पर रहती है तो यह निम्न होती है।

(3) गामा विविधता (Gamma Diversity ) – यह बड़े भौगोलिक क्षेत्रों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। इसे कुछ इस प्रकार परिभाषित किया जाता है, “वह दर जिस पर एक ही आवासीय प्रकार के विभिन्न स्थानों में भौगोलिक विस्थापितों के रूप में अतिरिक्त जातियाँ पाई जाती हैं।” अतः गामा विविधता समान आवास के स्थानों के बीच में दूरी के साथ अथवा विस्तार होते हुए भौगोलिक क्षेत्रों के फलस्वरूप जाति बदलाव की दर ( Species Turnover Rate) है।

जैव विविधता को वर्तमान में उपलब्ध जातीय सूचियों के आधार पर देखते हैं। आकलित जातियों में से 70 प्रतिशत से अधिक जंतु हैं जबकि शैवाल, कवक, ब्रायोफाइट, आवृत्तबीजी तथा अनावृत्तबीजी पादपों को मिलाकर 22 प्रतिशत से अधिक नहीं है। जंतुओं में कीट सबसे अधिक समृद्ध जातीय वर्ग समूह है, जो संपूर्ण जातियों के 70 प्रतिशत से अधिक है।

संसार में कवक जातियों की कुल संख्या, मछली, उभयचर (Amphibia), सरीसृप ( Reptile) तथा स्तनधारियों (Mammals) से अधिक है। चित्र में कुछ मुख्य वर्गक ( Texa) की जातियों की जैव विविधता को प्रदर्शित किया जा रहा है (चित्र 15.1 ) ।

प्रश्न 3.
उष्ण कटिबंध क्षेत्रों में सबसे अधिक स्तर की जाति- समृद्धि क्यों मिलती है ? इसकी तीन परिकल्पनाएँ दीजिए।
उत्तर:
भारत में अधिकतर भू-भाग उष्ण कटिबंध क्षेत्र में है, यहाँ 1200 से अधिक पक्षी जातियाँ हैं। इक्वाडोर के उष्ण कटिबंध के वन क्षेत्र में, जैसे कि इक्वाडोर, संवहनी पौधों की जातियाँ यू. एस. ए. के मध्य पश्चिम में स्थित शीतोष्ण क्षेत्र के वनों से 10 गुना अधिक है। दक्षिण अमेरिका के अमेजन उष्ण कटिबंध वर्षा वनों की जैव विविधता पृथ्वी पर सबसे अधिक है। उष्ण कटिबंध क्षेत्र में ही सबसे अधिक जैव विविधता मिलती है। इस संबंध में पारिस्थितिक एवं जैव विकासविदों ने निम्न कल्पनाएँ प्रस्तुत की हैं-

(1) जाति उद्भवन (Speciation) आम तौर पर समय का कार्य है। शीतोष्ण क्षेत्र में प्राचीन समय से बार-बार हिमनदन (Glaciations ) होता रहा जबकि उष्ण कटिबंध क्षेत्र लाखों वर्षों से अपेक्षाकृत अबाधित रहा है, इसी कारण इन क्षेत्रों में जाति विकास तथा विविधता हेतु बहुत समय मिला।

(2) उष्ण कटिबंध पर्यावरण, शीतोष्ण पर्यावरण से भिन्न तथा कम मौसमीय परिवर्तन वाला होता है। यह स्थिर पर्यावरण निकेत विशिष्टीकरण (Niche Specialization) को प्रोत्साहित करता रहा जिसके कारण से अधिक से अधिक जाति विविधता हुई।

(3) उष्ण कटिबंध क्षेत्रों में अधिक सौर ऊर्जा उपलब्ध होती है। जिससे उत्पादन अधिक होता है जिससे परोक्ष रूप से अधिक जैव विविधता होती है।

प्रश्न 4.
जातीय क्षेत्र संबंध में समाश्रयण (Regression) की ढलान का क्या महत्व है?
उत्तर:
जैव विविधता के प्रतिरूप (Patterns of Biodiversity)
(क) अक्षांशीय प्रवणता (Latitudinal gradients ) – जंतु तथा पादपों की विविधता संपूर्ण विश्व में समान न होकर असमान वितरण प्रदर्शित करती है। अनेक जंतु व पादप समूहों में रोचक विविधता देखने को मिलती है जिसमें मुख्य रूप से अक्षांशों पर विविधता में क्रमबद्ध प्रवणता है। सामान्यतः भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर जाति विविधता घटती जाती है। केवल कुछ अपवादों को छोड़कर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों (अक्षांशीय सीमा 23.5° उत्तर से 23.5° दक्षिण तक ) में शीतोष्ण या ध्रुव प्रदेशों से अधिक जातियाँ पायी जाती हैं।

भूमध्य रेखा के पास कोलम्बिया में 1,400 पक्षी जातियाँ, जबकि न्यूयार्क जो कि 41° उत्तर में है 105 पक्षी जातियाँ व ग्रीनलैण्ड के 71° उत्तर में केवल 56 पक्षियों की जातियाँ हैं। भारत में जिसका अधिकतर भू-भाग उष्ण कटिबंधीय (tropical) क्षेत्र में है, 1,200 से अधिक पक्षी जातियाँ हैं । इक्वाडोर के उष्ण कटिबंध के वन क्षेत्र में जैसे कि इक्वाडोर, संवहनी पौधों की जातियाँ U.S.A. के मध्य पश्चिम में स्थित शीतोष्ण क्षेत्र के वनों से 10 गुना अधिक हैं, दक्षिणी अमेरिका के अमेजन उष्ण कटिबंध वर्षावनों की जैव विविधता पृथ्वी पर सर्वाधिक है।

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यहां पर 40 हजार पादप जातियाँ, तीन हजार मत्स्य, 1,300 पक्षी, 427 स्तनधारी, 427 उभयचर, 378 सरीसृप तथा 1,25,000 से अधिक अकशेरुकी (invertebrates) जातियों का आवास है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इन वर्षा वनों में अभी भी कम से कम 2 लाख कीट जातियों की खोज तथा पहचान होना शेष है। उष्ण कटिबंध क्षेत्र में ऐसा क्या विशेष है जिसके कारण उसमें सबसे अधिक जैव विविधता मिलती है। इस संबंध में पारिस्थितिक तथा जैव विकासविदों ने बहुत सी परिकल्पनाएँ की हैं जिनमें से कुछ निम्न प्रकार से हैं-

(i) जाति उद्भवन (speciation) आमतौर पर समय का कार्य है। शीतोष्ण क्षेत्र में प्राचीन काल से ही बार-बार हिमनद (glaciation) होता रहा है जबकि उष्ण कटिबंध क्षेत्र लाखों वर्षों से अबाधित रहा है। इसी कारण जाति विकास तथा विविधता के लिये लंबा समय मिला है।

(ii) शीतोष्ण पर्यावरण में सौर ऊर्जा कम होने से उत्पादन दर कम होती है जबकि उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की सौर ऊर्जा अधिक होने से वहाँ उत्पादकता अधिक होती है जो एक प्रकार से जैव विविधता को बढ़ाने में सहायक होती है।

(iii) शीतोष्ण क्षेत्रों में मौसम बदलता रहता है जबकि उष्ण कटिबंधीय पर्यावरण में कम परिवर्तन देखने को मिलते हैं जिससे पादप व जीव जंतुओं के निकेत विशिष्टीकरण (Niche specialization) को बढ़ावा मिलता है जो अन्ततः जैव विविधता बढ़ाने में सहायक होता है।
(ख) जातीय क्षेत्र संबंध ( Species area relation ) – जर्मनी के प्रसिद्ध प्रकृतिविद् व भूगोलशास्त्री अलैक्जेण्डर वॉन हेमबोल्ट (Alexander Von Hamboldt) ने दक्षिण अमेरिका के जंगलों में कार्य करते हुये बताया कि कुछ सीमा तक किसी क्षेत्र की जातीय समृद्धि (species richness) अन्वेषण क्षेत्र की सीमा बढ़ाने के साथ बढ़ती है। वास्तव में, जाति समृद्धि और वर्गकों (अनावृत्तबीजी पादप, पक्षी चमगादड़, अलवणजलीय मछलियाँ) की व्यापक किस्मों के क्षेत्र के बीच संबंध आयताकार अतिपरवलय (Rectangular Hyperbola) होता है ।
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लघुगणक पैमाने पर यह संबंध एक सीधी रेखा दर्शाता है जो कि निम्न समीकरण द्वारा प्रदर्शित है-
Log S = log C+ Zlog A
जहाँ पर S = जातीय समृद्धि, A = क्षेत्र, Z रेखीय ढाल (Regression Coefficient)
C = Y – अंत:खंड ( Intersept)
पारिस्थितिक वैज्ञानिकों ने बताया कि Z का मान 0.1 से 0.2 परास में होता है भले ही वर्गिकी समूह अथवा क्षेत्र (जैसे कि ब्रिटेन के पादप, कैलिफोर्निया के पक्षी या न्यूयार्क के मोलस्क) कुछ भी हो। समाश्रयण रेखा ( Regression line) की ढलान आश्चर्यजनक रूप से एक जैसी होती है। लेकिन यदि हम किसी बड़े समूह, जैसे संपूर्ण महाद्वीप, के जातीय क्षेत्र संबंध का विश्लेषण करते हैं तब ज्ञात होता है कि समाश्रयण रेखा की ढलान तीव्र रूप से तिरछी खड़ी है (Z के मान की परास 0.6 से 1.2 है)। उदाहरण – विभिन्न महाद्वीपों के उष्ण कटिबंध वनों के फलाहारी पक्षी तथा स्तनधारियों की रेखा की ढलान 1.15 है। यह ढलान क्षेत्र की वृहत् सीमा तथा अत्यधिक जातीय समृद्धि को दर्शाती है।

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प्रश्न 5.
किसी भौगोलिक क्षेत्र में जाति क्षति के मुख्य कारण क्या हैं?
उत्तर:
वर्तमान में जातीय विलोपन की दर बढ़ती जा रही है। यह विलोपन मुख्यरूप से मानव क्रियाकलापों के कारण है। जाति क्षति के मुख्य कारण निम्न प्रकार से हैं-
(1) आवास विनाश (Habitat Destruction) – यह जंतु व पौधे के विलुप्तीकरण का मुख्य कारण है। उष्ण कटिबंधीय वर्षा वनों में होने वाली आवासीय क्षति का सबसे अच्छा उदाहरण है। एक समय वर्षा वन पृथ्वी के 14 प्रतिशत क्षेत्र में फैले थे, परन्तु अब 6 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में नहीं हैं। ये अधिक तेजी से नष्ट होते जा रहे हैं।

विशाल अमेजन -वन (जिसे विशाल होने के कारण ‘पृथ्वी का फेफड़ा’ कहा जाता है) उसमें सम्भवत: करोड़ों जातियाँ निवास करती हैं। इस वन को सोयाबीन की खेती तथा जानवरों के चरागाहों के लिये काटकर साफ कर दिया गया है। वर्षा- के विलुप्तीकरण का मुख्य कारण है। उष्ण कटिबंधीय वर्षा वनों में होने वाली आवासीय क्षति का सबसे अच्छा उदाहरण है।

एक समय वर्षा वन पृथ्वी के 14 प्रतिशत क्षेत्र में फैले थे, परन्तु अब 6 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में नहीं हैं। ये अधिक तेजी से नष्ट होते जा रहे हैं। विशाल अमेजन वर्षा-वन (जिसे विशाल होने के कारण ‘पृथ्वी का फेफड़ा’ कहा जाता है) उसमें सम्भवत: करोड़ों जातियाँ निवास करती हैं। इस वन को सोयाबीन की खेती तथा जानवरों के चरागाहों के लिये काटकर साफ कर दिया गया है।

अनेक घटनाओं में, आवास विनाश करने वाले कारक बड़ी औद्योगिक और व्यावसायिक क्रियाएँ, भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था जैसे खनन (Mining), पशु रैंचन (Cattle ranching), व्यावसायिक मत्स्यन ( Commercial fishing ), वानिकी (Forestry) रोपण (Plantation), कृषि, निर्माण कार्य व बाँध निर्माण, जो लाभ के उद्देश्य से शुरू हुए हैं।

आवास की बड़ी मात्रा प्रतिवर्ष लुप्त हो रही है क्योंकि विश्व के वन कट रहे हैं। वर्षा वन, उष्णकटिबंधीय शुष्क वन, आर्द्रभूमियाँ (Wetlands), मैन्यूव (Mangrooves) और घास भूमियाँ ऐसे आवास हैं जिनका विलोपन हो रहा है और इनमें मरुस्थलीकरण हो रहा है।

(2) आवास खण्डन (Habitat Fragmentation ) – आवास जो पूर्व में बड़े क्षेत्र घेरते थे ये प्राय: सड़कों, खेतों, कस्बों, नालों, पावर लाइन आदि द्वारा अब खंडों में विभाजित हो गए हैं। आवास खंडन वह प्रक्रम है जहाँ आवास के बड़े, संतत क्षेत्र, क्षेत्रफल में कम हो गए हैं और दो या अधिक खंडों में विभाजित हो गए हैं।

जब आवास क्षतिग्रस्त होते हैं वहाँ प्रायः आवास खंड छोटा भाग (Patch work) शेष रह जाता है। ये खंड प्रायः एक-दूसरे से अधिक रूपांतरित या निम्नीकृत दृश्य भूमि (Degraded landscape) द्वारा विलग होते हैं। आवास खंडन स्पीशीज के सामर्थ्य को परिक्षेपण ( dispersal) और उपनिवेशन (colonisation) के लिए सीमित करता है। प्रदूषण के कारण भी आवास में खंडन हुआ है, जिससे अनेक जातियों के जीवन को खतरा उत्पन्न हुआ है।

जब मानव क्रियाकलापों द्वारा बड़े आवासों को छोटे-छोटे खण्डों में विभक्त कर दिया जाता है तब जिन स्तनधारियों और पक्षियों को अधिक आवास चाहिए, वे प्रभावित हो रहे हैं तथा प्रवासी (migratory ) स्वभाव वाले कुछ प्राणी भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं जिससे समष्टि (Population) में कमी होती है।

(3) आवास निम्नीकरण और प्रदूषण (Habitat Degradation and Pollution ) वन आवास में अनियंत्रित धरातलीय अग्नि भले ही पेड़ों को नष्ट नहीं कर सकती परन्तु वन के धरातल पर उगने वाले छोटे पादप समुदाय व कीट प्राणीजगत अधिक प्रभावित होते हैं, यह आवास निम्नीकरण है।

प्रवाल भित्ति क्षेत्रों (Coral reef areas) में नौकाविहार भंगुर स्पीशीज (Fragile species) को निम्नीकृत करता है। पीड़कनाशी, औद्योगिक रसायन और अपशिष्ट, कारखानों और मोटरगाड़ियों से उत्सर्जन और अपरदित पहाड़ी से अवसाद निक्षेप (Sediments deposits) आदि आवास निम्नीकरण करते हैं। जल व वायु प्रदूषण, अम्ल वर्षा आदि भी निम्नीकरण करते हैं।

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(4) विदेशी जातियों का प्रवेश (Introduction of Exotic Species) जब बाहरी जातियाँ अनजाने में या जानबूझकर किसी भी उद्देश्य से एक क्षेत्र में लाई जाती हैं तब उनमें से कुछ आक्रामक होकर स्थानिक जातियों में कमी या उनकी विलुप्ति का कारण बन जाती हैं। जैसे जब नील नदी की मछली (Nele Perch) को पूर्वी अफ्रीका की विक्टोरिया झील में डाला गया तब झील में रहने वाली पारिस्थितिक रूप से बेजोड़ सिचलिड (Cichlid) मछलियों की 200 से अधिक जातियाँ विलुप्त हो गई।

हम गाजर घास (Parthenium), लैंटाना और हायसिंध (Eichornia) जैसी आक्रामक खरपतवार जातियों से पर्यावरण को होने बाली क्षति और हमारी देशज जातियों के लिए पैदा हुए खतरे से अच्छी तरह से परिचित हैं। मत्स्य पालन के उद्देश्य से अफ्रीकन कैटफिश (Charias gariepinas ) मछली को हमारी नदियों में लाया गया; लेकिन अब ये मछली हमारी नदियों की मूल अशल्कमीन (कैटफिश जातियों) के लिए खतरा पैदा कर रही हैं।

(5) अतिदोहन या अतिशोषण (Overexploitation ) बढ़ती मानव जनसंख्या प्राकृतिक सम्पदाओं के उपयोग को तीव्र कर रही है। विश्व के अधिकतर भागों में जितना जल्दी हो सके आजकल सम्पदाओं का शोषण हो रहा है। सम्पदाओं का अतिशोषण किसी स्थानीय जाति के लिये व्यावसायिक बाजार उत्पन्न होने से भी होता है।

मानव हमेशा भोजन तथा आवास के लिए प्रकृति पर निर्भर रहा है, लेकिन जब ‘आवश्यकता’ ‘लालच’ में बदल जाती है तब इस प्राकृतिक संपदा का अधिक दोहन (Over-exploitation) शुरू हो जाता है मानव द्वारा अति दोहन से पिछले 500 वर्षों में बहुत सी जातियाँ (स्टीलर समुद्री गाय, पैसेंजर कबूतर ) विलुप्त हुई हैं। आज बहुत सारी समुद्री मछलियों की संख्या शिकार के कारण कम होती रही है जिसके कारण व्यावसायिक महत्त्व की जातियाँ ख़तरे में हैं। बढ़ती ग्रामीण गरीबी, पैदावार के बढ़ते योग्य तरीके और अर्थव्यवस्था का भूमण्डलीकरण मिलकर जातियों को विलोपन के कगार तक पहुँचा रहे हैं।

(6) स्थानांतरी या झूम जुताई (Shifting or Jhum Cultivation) विश्व के अनेक विकासशील देशों में बड़े भूमिपति तथा व्यवसाय में रुचि वाले व्यक्ति, स्थानीय किसान को जबरदस्ती हटा देते हैं अतः स्थानीय किसानों के पास सुदूर अविकसित क्षेत्रों में जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाता, ये अपनी जीविका स्थानांतरी जुताई द्वारा चलाते हैं।

इस प्रक्रिया में ये प्राकृतिक पेड़ वनस्पति (वन) के क्षेत्र को जलाते हैं तथा इसकी पोषण समृद्ध भस्म पर दो या तीन वर्ष कृषि कर छोड़ देते हैं फिर से अन्य स्थान का चयन कर यही प्रक्रिया दोहराते हैं। इस प्रक्रिया से वहाँ की विविध पादप व प्राणीजात जातियाँ नष्ट हो जाती हैं। आदिवासी व्यक्ति इसी प्रकार की कृषि करते हैं। भारत में यह कृषि असम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर, मेघालय, नागालैण्ड, सिक्किम और त्रिपुरा राज्यों में की जाती है।

(7) सहविलुप्तता (Co-extinctions) जब एक जाति विलुप्त होती है तब उस पर आधारित दूसरी जंतु व पादप जातियाँ भी विलुप्त होने लगती हैं। जब एक परपोषी मत्स्य जाति विलुप्त होती है तब उसके विशिष्ट परजीवियों का भी वही भविष्य होता है। दूसरा उदाहरण सहविकसित (Cocvolved), परागणकारी (Pollinator), सहोपकारिता (Mutualism) का है जहाँ एक (पादप) के विलोपन से दूसरे (कीट) का विलोपन भी निश्चित रूप से होता है।

प्रश्न 6.
पारितंत्र के कार्यों के लिए जैव विविधता कैसे उपयोगी है?
उत्तर:
मानव जैव जगत से अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लाभ प्राप्त करता है। यह भोजन, औषधियों, रेशे, रबर एवं इमारती लकड़ी का स्रोत है। जैविक संसाधनों में प्रमुख लाभकारी नवीन संसाधन भी हैं। जीवों की विविधता जैसे अनेक पारिस्थितिक कार्य शुल्क रहित प्रदान करती है, जो पारितंत्र के स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए आवश्यक है। जैव विविधता के उपयोग निम्न प्रकार से हैं-
(1) भोजन एवं उन्नत किस्मों का स्रोत (Sources of Food and Improved Varieties) जैव विविधता आधुनिक कृषि के लिए तीन प्रकार से उपयोगी है-
(क) नई फसलों के स्रोत के रूप में।
(ख) उन्नत किस्मों के प्रजनन के लिए सामग्री के रूप में और (ग) नए जैवनिम्नकरणीय पीड़कों के स्रोत के रूप में।
भोजनीय पादपों की कई हजार जातियों में से 70 प्रतिशत से भी कम जातियाँ विश्व के भोजन का अधिकांश ( 85 प्रतिशत) भाग उत्पन्न करने के लिए उगाई जाती हैं। गेहूँ, मक्का एवं चावल ये तीन प्रमुख कार्बोहाइड्रेट फसलें, मानव आबादी को जीवित रखने के लिए लगभग दो-तिहाई भोजन प्रदान करती हैं। अन्न, फल, सब्जियाँ व मिर्च-मसाले सभी पौधों से प्राप्त होते हैं।

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वसा, तेल, रेशे आदि अन्य उपयोग के लिए और अधिक नई जातियों की खोज और इन्हें उगाने की आवश्यकता है। व्यापारिक एवं घरेलू खाद्य जातियों के गुणों को सुधारने के लिए इनको वन्य संबंधियों से संरक्षित रखा जाता है। घरेलू खाद्य जातियों को नए गुणों, जैसे रोग प्रतिरोध या उन्नत उपज प्रदान करने के लिए वन जातियों के जीनों का उपयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ, एशिया में उगाये जा रहे धान को भारत की वन्य धान की एकमात्र जाति (Oryza nivara) से प्राप्त जीनों द्वारा चार प्रमुख रोगों से सुरक्षित रखा गया है।

(2) दवाएँ एवं औषधियाँ (Drugs and Medicines) – अनेक महत्त्वपूर्ण औषधियाँ पादप आधारित पदार्थों से उत्पन्न हुई हैं। पादपों से प्राप्त पदार्थ, जिन्हें बहुमूल्य दवाओं में विकसित किया गया है, इसके उदाहरण हैं- मार्फीन (Papaver somniferum) का दर्द निवारक के रूप में उपयोग, कुनैन (Cinchona ladgeriana), मलेरिया के उपचार हेतु एवं टैक्सोल (Taxus brevifolia) कैंसर की दवा है ।

सदाबहार (Catharanthus roseus) के पौधे से विनब्लास्टीन (Vinblastine) एवं विन्क्रिस्टीन नामक कैंसर रोधी औषधियाँ निर्मित की जाती हैं। इन औषधियों से बाल्यकाल में होने वाले रक्त कैंसर ‘ल्यूकेमिया’ (Leukemia) पर 99 प्रतिशत नियंत्रण कर लेने में सफलता अर्जित हुई है। कवक द्वारा पैनीसिलीन, जीवाणु से एरिथ्रोमाइसिन, टेट्रासाइक्लिन नामक प्रतिजैविक औषधियाँ निर्मित की जाती हैं। वर्तमान में औषधि निर्माण में दवाओं का 25 प्रतिशत, पादप की मात्र 120 जातियों से प्राप्त होता है परन्तु सम्पूर्ण विश्व में परंपरागत औषधियों में हजारों पादप जातियों का उपयोग होता है। वन्य पादपों विशेषतः उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों के पादपों में उच्च स्तर की औषधियाँ पाई जाती हैं। ये पादप विषों एवं औषधियों के स्रोत के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं।

(3) सौंदर्यपरक एवं सांस्कृतिक लाभ (Aesthetic and Cultural Benefits)- प्रकृति को सुन्दर रूप प्रदान करने में जैव विविधता की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जैव विविधता का सौंदर्य में योगदान है। उदाहरण के तौर पर पारिस्थितिक पर्यटन, पक्षी निरीक्षण, पालतू जीवों की देखभाल, बागवानी आदि । जन्तुआलय (Zoo) में जितनी ज्यादा जैव विविधता होती है, वह दर्शकों को उतना ही ज्यादा मनोरंजक लगती है।

पर्यटक प्राकृतिक सुन्दरता व वन्यप्राणियों को देखते हैं, इसे इकोटूरिज्म (Ecotourism) कहते हैं । कुछ पौधे सुन्दरता के लिए सड़कों के दोनों ओर उगाये जाते हैं । मानव के सम्पूर्ण इतिहास में लोगों ने जैव विविधता के महत्त्व को मानव जाति के अस्तित्व से सांस्कृतिक एवं धार्मिक विश्वास के माध्यम से जोड़ा है।

अधिकतर गाँवों एवं कस्बों में तुलसी, पीपल, केला, आंवला एवं खेजड़ी जैसे पादप तथा विभिन्न अन्य वृक्ष लगाये जाते हैं, जिन्हें लोग पवित्र मानकर पूजा करते हैं। अशोक, आम की पत्तियों की ‘बन्दनवार’, यज्ञ, विवाह, धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान अनिवार्य रूप से लगाई जाती हैं। निःसंदेह, मानव की इस प्रकार की मनोवृत्ति प्रकृति की वानस्पतिक सम्पदा को सुरक्षित रखती है।

(4) नीति मान (Ethical Value) – हमारा समाज आदिकाल से सदैव वृक्षों की पूजा करके उन्हें संरक्षित करने में अग्रणी रहा है। हमारे देश के राजस्थान प्रान्त में कदम्ब एवं खेजड़ी व आंवला, उड़ीसा में आम, इमली; मध्य प्रदेश में ढाक तथा बिहार में महुआ की पूजा की जाती है।

(5) आनुवंशिक मूल्य ( Genetic Value) – जीवधारियों में ऐसे अनेक लक्षण हैं जिनका अनुसंधान होना अभी तक शेष है। किसी भी समष्टि में जीन – कोश ( Gene pool) संबंधित जाति का प्रतिनिधि होता है। जीन कोश से तात्पर्य है कि किसी भी समष्टि के जीवधारियों के जीनों का साथ-साथ जुड़ना। इनका संरक्षित रहना परम आवश्यक है ताकि निकट भविष्य में इनका लाभदायक उपयोग किया जा सके। अतः प्रकृति प्रदत्त जैव विविधता मानव के लिए एक वरदान है। जैव विविधता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव को लाभ देती है, यद्यपि यह मानव से कुछ नहीं लेती है।

प्रश्न 7.
पवित्र उपवन क्या हैं? उनकी संरक्षण में क्या भूमिका है?
उत्तर;
भारत में पारिस्थितिकतः अद्वितीय और जैवविविधता – समृद्ध क्षेत्रों को राष्ट्रीय उद्यानों, वन्यजीव अभयारण्यों जीवमंडल आरक्षितियों (Biosphere Reserves) के रूप में कानूनी सुरक्षा प्रदान की गई है। अब भारत में 14 जीवमंडल संरक्षित क्षेत्र, 90 राष्ट्रीय उद्यान तथा 448 वन्य जीव अभयारण्य हैं। भारत में सांस्कृतिक व धार्मिक परम्परा का इतिहास जो प्रकृति की रक्षा करने पर जोर देता है ।

HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 15 जैव-विविधता एवं संरक्षण

बहुत-सी संस्कृतियों में वनों के लिए अलग भू-भाग छोड़े जाते थे और उनमें सभी पौधों तथा वन्यजीवों की पूजा की जाती थी। इस तरह के पवित्र उपवन (Sacred groves) या आश्रय मेघालय की खासी तथा जयंतिया पहाड़ी, राजस्थान की अरावली, कर्नाटक तथा महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट व मध्यप्रदेश की सरगूजा, चंदा व बस्तर क्षेत्र हैं।

मेघालय के पवित्र उपवन बहुत सी दुर्लभ व संकटोत्पन्न पादपों की अंतिम शरणस्थली हैं। भारत तथा कुछ अन्य एशियाई देशों में जैव विविधता के संरक्षण की सुरक्षा के लिए एक पारंपरिक नीति अपनाई जाती रही है। ये विभिन्न आमापों के वन खंड हैं जो जनजातीय समुदायों द्वारा धार्मिक पवित्रता प्रदान किये जाने से सुरक्षित हैं ।

पवित्र वन सबसे अधिक निर्विघ्न वन हैं जहाँ मानव का कोई प्रभाव नहीं है। ये द्वीपों ( Islands ) का प्रतिनिधित्व करते हैं और सभी प्रकार के विघ्नों से मुक्त हैं। यद्यपि ये बहुधा अत्यधिक निम्नीकृत भू-दृश्य द्वारा घिरे होते हैं। इस सन्दर्भ में देखें तो सिक्किम की केचियोपालरी झील पवित्र मानी जाती है एवं इसका संरक्षण जनता द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 8.
पारितंत्र सेवा के अंतर्गत बाढ़ व भू-अपरदन (Soil Erosion) नियंत्रण आते हैं। यह किस प्रकार पारितंत्र के जीवीय घटकों (Biotic Components) द्वारा पूर्ण होते हैं?
उत्तर:
जैव विविधता पृथ्वी की संरचना को बनाए रखती है, जिसके कारण मिट्टी तथा पोषकों की कमी नहीं होती है। पारिस्थितिक तंत्र की धारण क्षमता के अभाव में मृदा अपरदन होता है, जिसके फलस्वरूप मिट्टी में लवणता विकसित होती है। मिट्टी में पोषकों की मात्रा घट जाती है तथा मिट्टी की ऊपरी परत का अपक्षय हो जाता है, जिसके कारण मिट्टी की उर्वरता प्रभावित होती है।

विभिन्न प्रकार के मृदा जीव मिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं तो वनस्पति का आवरण मिट्टी की ऊपरी परत को ढँक कर रखता है। इस कारण मृदा संरक्षित रहती है। जीवों के मृत भाग मृदा में मिलकर ह्यूमस बनाते हैं। मृदा से पौधे जल को ग्रहण करते हैं व वाष्पोत्सर्जन की क्रिया करते हैं। वनस्पति आवरण बाढ़ को भी नियंत्रित करता है। वनस्पति जल – चक्र को नियंत्रित करती है। वनस्पति के कारण मृदा में जल का संतुलन बना रहता है, यही नहीं, पर्यावरण का संतुलन भी बना रहता है।

वन विनाश से प्राकृतिक आपदाएं बढ़ने लगी हैं, जिसमें बाढ़ भी एक है। वैज्ञानिकों का कथन है कि मौसम को सुव्यवस्थित बनाये रखने में वनों की महती भूमिका है। यदि वनस्पति घटती जायेगी तो उस क्षेत्र का मौसम गड़बड़ाने लगेगा। वृक्षों की जड़ें जमीन से गहराई तक होने के कारण वर्षा के प्रवाह में बहने वाली मिट्टी को रोकती हैं, साथ ही धरती के जलस्तर में भी वृद्धि करती हैं।

प्रश्न 9.
पादपों की जाति विविधता (22 प्रतिशत ) जंतुओं (72 प्रतिशत) की अपेक्षा बहुत कम है; क्या कारण है कि जंतुओं में अधिक विविधता मिलती है?
उत्तर:
पृथ्वी पर जैव विविधिता को देखें तो सभी आकलित जातियों में से 70 प्रतिशत से अधिक जन्तु हैं, जबकि शैवाल, कवक, ब्रायोफाइट, आवृत्तबीजी तथा अनावृत्तबीजियों जैसे पादपों को मिलाकर 22 प्रतिशत से अधिक नहीं हैं। जन्तुओं में कीट सबसे अधिक समृद्ध जातीय वर्ग समूह है, जो संपूर्ण जातियों के 70 प्रतिशत से अधिक है इसका अर्थ यह है कि इस ग्रह में प्रत्येक 10 जंतुओं में से 7 कीट हैं। पुनः कीटों की इस अत्यधिक विविधता को हम कैसे समझाएँ ? संसार में कवक जातियों की कुल संख्या मछली, उभयचर (एम्फीबिया ), सरीसृप ( रेप्टाइल) तथा स्तनधारियों (मैमल्स) से अधिक है।

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इसका कारण यह है कि जन्तुओं में वर्गकों (Texa) के समूह अधिक होते हैं तथा इसमें भी कीटों की संख्या सर्वाधिक होती है। पादपों में वर्गक समूह कम होते हैं तथा बचाव के साधन कम होने व पर्यावरण में परिवर्तन होने के कारण विलुप्त होने की सम्भावना अधिक रहती है। जन्तु अपनी रक्षा करने में सक्षम होते हैं तथा इन पर परिवर्तित पर्यावरण का प्रभाव पादपों की तुलना में कम होता है।

पादपों की वृद्धि व जैव विविधता के लिए उष्ण कटिबंध क्षेत्र अधिक उपयुक्त होते हैं। पृथ्वी पर इस प्रकार के क्षेत्र सम्पूर्ण पृथ्वी की तुलना में कम हैं। प्राणियों में तन्त्रिका तंत्र तथा अन्तःस्रावी तंत्र पाया जाता है। जिससे प्राणी वातावरण से संवेदनाओं को ग्रहण करके उसके प्रति अनुक्रिया करते हैं व स्वयं को वातावरण के प्रति अनुकूलित कर लेते हैं। इस कारण किसी भी पारितंत्र में जन्तुओं में अधिक जैव विविधता मिलती है।

प्रश्न 10.
क्या आप ऐसी स्थिति के बारे में सोच सकते हैं, जहाँ पर जानबूझकर किसी जाति को विलुप्त करना चाहते हैं? क्या आप इसे उचित समझते हैं?
उत्तर:
जब कोई जाति पर्यावरण को हानि पहुँचाना प्रारम्भ कर देती है तथा अन्य प्राकृतिक जातियों को पीड़ित करने लगती है तब इस प्रकार की जाति को जान-बूझकर विलुप्त करना आवश्यक हो जाता है। उदाहरण के तौर पर ऐवीज मच्छर (जो डेंगू ज्वर, हाथी पांव तथा अन्य रोग फैलाता है) तथा ऐनोफेलीज मच्छर (जो कि मलेरिया फैलाता है) को विलुप्त किया जा रहा है। इन मच्छरों को नष्ट या विलुप्त करके अनेक लोगों का जीवन बचा सकते हैं।

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HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 14 पारितंत्र

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 14 पारितंत्र Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 14 पारितंत्र

प्रश्न 1.
रिक्त स्थानों को भरो।
(क) पादपों को ……………….. कहते हैं; क्योंकि ये कार्बन डाइऑक्साइड का स्थिरीकरण करते हैं।
(ख) पादप द्वारा प्रमुख पारितंत्र का पिरैमिड ( संख्या का ) ……………………. प्रकार का है।
(ग) एक जलीय पारितंत्र में, उत्पादकता का सीमा कारक …………………. है।
(घ) हमारे पारितंत्र में सामान्य अपरदन …………………….. है।
(च) पृथ्वी पर कार्बन का प्रमुख भंडार ……………….. है।
उत्तर:
(क) उत्पादक,
(ख) उल्टा
(ग) प्रकाश,
(घ) केंचुआ,
(च) समुद्र एवं वायुमंडल ।

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प्रश्न 2.
एक खाद्य श्रृंखला में निम्नलिखित में सर्वाधिक संख्या किसकी होती है-
(क) उत्पादक
(ग) द्वितीयक उपभोक्ता
(घ ) अपघटक ।
(ख) प्राथमिक उपभोक्ता
उत्तर:
(घ) अपघटक

प्रश्न 3.
एक झील में द्वितीय (दूसरी) पोषण स्तर होता है-
(क) पादपप्लवक
(ग) नितलक (बैनथॉस)
(ख) प्राणिप्लवक
(घ) मछलियाँ
उत्तर:
(ख) प्राणिप्लवक ।

प्रश्न 4.
द्वितीयक उत्पादक हैं-
(क) शाकाहारी (शाकभक्षी )
(ख) उत्पादक
(ग) मांसाहारी ( मांसभक्षी)
(घ) उपरोक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(क) शाकाहारी (शाकभक्षी ) ।

प्रश्न 5.
प्रासंगिक सौर विकिरण में प्रकाश संश्लेषणात्मक सक्रिय विकिरण का क्या प्रतिशत होता है?
(क) 100%
(ग) 1-5%
(ख) 50%
(घ) 2-10%
उत्तर;
(ख) 50%

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में अंतर स्पष्ट करें-
(क) चारण खाद्य श्रृंखला एवं अपरद खाद्य श्रृंखला
(ख) उत्पादन एवं अपघटन
(ग) ऊर्ध्ववर्ती (शिखरांश) व अधोवर्ती पिरैमिड |
उत्तर:
(क) चारण खाद्य श्रृंखला एवं अपरद खाद्य श्रृंखला में अन्तर (Difference between Grazing Food Chain and Detritus Food Chain)
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(ख) उत्पादन तथा अपघटन में अन्तर (Difference between Production and Decomposition)

उत्पादन (Production)अपघटन (Decomposition)
1. हरे पादप प्रकाश संश्लेषण क्रिया के फलस्वरूप जल तथा CO2 से कार्बनिक भोज्य पदार्थों का संश्लेषण करते हैं। यह क्रिया सौर प्रकाश तथा पर्णहरित की उपस्थिति में होती है ।1. जीवाणु, कवक आदि अपघटक मृत जटिल कार्बनिक पदार्थों को सरल पदार्थों में विघटित कर देते हैं। इस प्रक्रिया में ऊर्जा, जल तथा CO2 मुक्त होती है।
2. सौर ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा में बदलकर कार्बनिक भोज्य पदार्थों में संचित हो जाती है। इस प्रक्रिया को उत्पादन कहते हैं ।2. रासायनिक ऊर्जा गतिज ऊर्जा तथा ऊष्मा के रूप में मुक्त होती है। इस प्रक्रिया को अपघटन कहते हैं ।

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(ग) ऊर्ध्ववर्ती पिरैमिड व अधोवर्ती पिरैमिड में अन्तर (Difference between Upright Pyramid and Inverted Pyramid)

ऊर्ध्ववर्ती पिरैमिड (Upright pyramid)अधोवर्ती पिरैमिड (Inverted pyramid)
1. ऊर्जा के पिरैमिड सदैव ऊर्ध्ववर्ती होते हैं क्योंकि प्रत्येक पोषक | स्तर पर ऊर्जा की मात्रा कम हो जाती है।1. वृक्ष के पारितन्त्र की संख्या का पिरैमिड उल्टा या अधोवर्ती होता है ।
2. वन पारितन्त्र, घास के मैदान पारितन्त्र में जीवों की संख्या तथा जैवभार के पिरैमिड सीधे बनते हैं, क्योंकि प्रत्येक पोषक स्तर पर जीवों की संख्या तथा जैवभार कम होता जाता है।2. तालाब तथा समुद्र के पारितन्त्र में जैवभार का पिरैमिड उल्टा बनता है, क्योंकि मांसाहारी बड़ी मछलियों का जैवभार प्राणीप्लवक व पादप प्लवक से अधिक होता है ।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में अंतर स्पष्ट कीजिए-
(क) खाद्य श्रृंखला तथा खाद्य जाल (वेब)
(ख) लिटर (कर्कट) एवं अपरद
(ग) प्राथमिक एवं द्वितीयक उत्पादकता ।
उत्तर:
(क) खाद्य श्रृंखला तथा खाद्य जाल में अन्तर (Difference between Food Chain and Food Web)

खाद्य श्रृंखला (Food Chain)खाद्य जाल (Food Web)
1. खाद्य शृंखला जीवों का वह क्रम है जिसमें समुदाय के एक जीव से दूसरे जीव में ऊर्जा भोज्य पदार्थ के रूप में स्थानान्तरित होती है ।1. अनेक खाद्य श्रृंखलाएँ मिलकर खाद्य जाल बनाती हैं। इसमें जीवधारियों को भोजन प्राप्त करने के अनेक वैकल्पिक रास्ते होते हैं।
2. इसमें जीवों की संख्या सीमित होती है ।2. अपेक्षाकृत जीवों की संख्या अधिक या असीमित होती है।
3. एक खाद्य स्तर का जीव दूसरे खाद्य स्तर के जीव से जुड़ता है।3. एक जीव का उपयोग खाद्य पदार्थ के रूप में एक से अधिक खाद्य शृंखलाओं के जीवों द्वारा किया जा सकता है।

उदाहरण-

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(ख) लिटर (कर्कट) एवं अपरद में अन्तर (Difference between Litter and Detritus)

लिटर (Litter)अपरद (Detritus)
1. यह मृदा (भूमि) की ऊपरी सतह पर पाया जाने वाला जीवधारियों का मृत पदार्थ है; जैसे पत्ते, छाल, टहनियाँ, पुष्प, फल, गोबर आदि एवं मृत पादप व प्राणियों के अवशेष इत्यादि । ये सभी भूमि की सतह पर पाये जाने वाले पदार्थ होते हैं।1. यह मृदा में पाये जाने वाले पादप व प्राणियों के अवशेष होते हैं ( पत्तियाँ, लकड़ी, टहनियाँ, पुष्प, पादप व प्राणियों के अवशेष मल सहित अपरद बनाते हैं) । यह विघटित अवस्था में होने के कारण पादपों के लिए उपयोगी होता है। यह मृदा में मिलकर मृदा की उर्वरता (fertility) को बढ़ाता है।

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(ग) प्राथमिक तथा द्वितीयक उत्पादकता में अन्तर (Difference between Primary and Secondary Productivity)

प्राथमिक उत्पादकता (Primary Productivity)द्वितीयक उत्पादकता (Secondary Productivity)
1. हरे पादप प्राथमिक उत्पादक होते हैं। एक निश्चित समयावधि में प्रति इकाई क्षेत्र द्वारा उत्पन्न किये गये जैव पदार्थ (कार्बनिक पदार्थ) की मात्रा के उत्पादन की दर को प्राथमिक उत्पादकता कहते हैं। इसे भार g/m2 या ऊर्जा (Kcal/m2) के रूप में व्यक्त किया जा सकता है ।1. एक पारितन्त्र की सकल प्राथमिक उत्पादकता (GPP) प्रकाश- संश्लेषण के दौरान कार्बनिक तत्व की उत्पादन दर होती है। इसमें से पौधे अपनी जैविक क्रियाओं के लिए कार्बनिक भोज्य पदार्थों का उपयोग करते हैं। इस मात्रा को सकल प्राथमिक उत्पादकता (GPP) को घटा देने पर नेट प्राथमिक उत्पादकता (NPP) प्राप्त होती है, जो प्राथमिक उपभोक्ता को उपलब्ध होती है। इसे द्वितीयक उत्पादकता कहते हैं ।
2. प्राथमिक उत्पादकता दो प्रकार की होती है-सकल प्राथमिक उत्पादकता (GPP) तथा शुद्ध या नेट प्राथमिक उत्पादकता (NPP ) । GPP – R = NPP (R= श्वसन में क्षति)2. द्वितीयक उत्पादकता दो प्रकार की होती है सकल द्वितीयक उत्पादकता (GSP) तथा शुद्ध द्वितीयक उत्पादकता (NSP) NSP = GSP – R ( श्वसन में क्षति)

प्रश्न 8.
पारिस्थितिक तंत्र के घटकों की व्याख्या करें।
उत्तर:
सर्वप्रथम इकोसिस्टम (Ecosystem) शब्द का प्रयोग ए.जी. टैन्सले (A.G. Tansley, 1935 ) ने किया था। ‘Eco’ शब्द का तात्पर्य पर्यावरण से है तथा ‘system’ का बोध अन्योन्य क्रियाओं (Interactions) से है। टेन्सले ने इकोसिस्टम को परिभाषित करते हुए कहा कि “इकोसिस्टम वह तंत्र है जो पर्यावरण के सम्पूर्ण सजीव व निर्जीव कारकों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा प्रक्रियाओं द्वारा प्रकट होता है” या इकोसिस्टम प्रकृति का वह तंत्र है जिसमें जीवीय व अजीवीय घटकों की संरचना व कार्यों का पारिस्थितिक सम्बन्ध निश्चित नियमों के अनसार गतिज संतुलन में रहता है तथा ऊर्जा व पदार्थों का प्रवाह सुनियोजित मार्गों से होता रहता है ।

पारिस्थितिक तंत्र की संरचना (Structure of Ecosystem)- पारिस्थितिक तंत्र की संरचना के दो मुख्य घटक होते हैं-
I. जीवीय घटक (Biotic Component) तथा
II. अजीवीय घटक (Abiotic Component )
I. जीवीय घटक (Biotic Component ) – पारिस्थितिक तंत्र में जीवीय घटक का प्रथम स्थान होता है। इस तंत्र में नाना प्रकार के प्राणियों व वनस्पति की समष्टि (Population) के समुदाय होते हैं तथा ये सभी जीव आपस में किसी न किसी प्रकार से सम्बन्धित होते हैं। पारिस्थितिक तंत्र के प्रकार्य या इन विभिन्न जीवों के भोजन प्राप्त करने के प्रकार के अनुसार इस जीवीय घटक को दो प्रमुख भागों में विभक्त किया गया है-

(क) स्वपोषी या उत्पादक (Autotrophs or Producers)-पारिस्थितिक तंत्र के वे सजीव सदस्य, जो साधारण अकार्बनिक पदार्थों को प्राप्त कर, सूर्य प्रकाशीय ऊर्जा को ग्रहण कर जटिल पदार्थों अर्थात् प्रकाश संश्लेषण ( Photosynthesis) की क्रिया कर भोजन का संश्लेषण करते हैं। अपने पोषण हेतु स्वयं भोजन का निर्माण करने में सक्षम होते हैं।

ऐसे सजीव सदस्य स्वपोषी घटक (Autotrophic Component) कहलाते हैं। यह अद्भुत क्षमता प्रायः क्लोरोफिल युक्त हरे पौधों में तथा विशेष प्रकार के रसायन संश्लेषी जीवाणुओं में होती है। स्वपोषी घटक को प्राथमिक उत्पादक भी कहते हैं, क्योंकि हरे पौधे भोजन का निर्माण कर उन्हें संचित करते हैं तथा यह संचित खाद्य पदार्थ ही अन्य समस्त प्रकार के जीवों हेतु प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भोजन के रूप में प्रयुक्त होता है।

स्थल पर उगने वाले समस्त पौधे तथा जलीय माध्यम ( तालाब, झील व समुद्र) में विद्यमान जलोद्भिद पादप शैवाल व सूक्ष्मदर्शी पौधे उत्पादक की श्रेणी में आते हैं । समस्त पौधे कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण करते हैं न कि ऊर्जा का। वास्तविक रूप से उत्पादक पौधे प्रकाशीय ऊर्जा को जटिल कार्बनिक पदार्थ की रासायनिक स्थितिज ऊर्जा (Potential Chemical Energy ) में परिवर्तित करते हैं । इसी कारण कोरोमेन्डी (Koromondy) ने इन्हें उत्पादक के स्थान पर परिवर्तक या पारक्रमी (Converter or Transducer) कहा है।

(ख) विषमपोषी या उपभोक्ता (Heterotrophs or Consumers) – पारिस्थितिक तंत्र के वे जीव जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उत्पादकों द्वारा निर्मित भोजन पर निर्भर रहते हैं। इन सजीव सदस्यों में भोजन सृजन की क्षमता नहीं होती है। इस प्रकार के जीवों को विषमपोषी कहते हैं । वस्तुतः ये उत्पादकों द्वारा संश्लेषित भोजन का हैं। इन परपोषित या उपभोक्ता जीवों को पुनः दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है-

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1. वृहद् या गुरु उपभोक्ता या भक्षपोषी या जीवभक्षी (Macroconsumers or Phagotrophs ) – वे जीव उपभोक्ता जो अपना भोजन जीवित पौधों या जन्तुओं से प्राप्त करते हैं उन्हें वृहद् उपभोक्ता या भक्षपोषी या जीवभक्षी (Phagotroph, Phago = to eat) कहते हैं। इस प्रकार के उपभोक्ता भोजन को ग्रहण कर अपने शरीर के अन्दर उसका पाचन करते हैं। शाक या पादप भक्षी शाकाहारी (Herbivores), जन्तुभक्षी मांसाहारी (Carnivores) तथा शाक व मांस दोनों को खाने वाले को सर्वाहारी (Omnivores) कह सकते हैं। उपभोक्ताओं को तीन श्रेणियों में विभेदित किया गया है-

(i) प्राथमिक उपभोक्ता (Primary Consumers) – वे जीव जो भोजन की प्राप्ति हेतु प्रत्यक्ष रूप से हरे पौधों अर्थात् उत्पादकों पर निर्भर होते हैं। ऐसे प्राथमिक उपभोक्ता मुख्य रूप से शाकाहारी (Herbivores) जन्तु होते हैं। जैसे-कीट, गाय, भैंस, बकरी, खरगोश, भेड़, हिरण, चूहा इत्यादि । स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र के सामान्यतः शाकाहारी प्राथमिक उपभोक्ता होते हैं।

(ii) द्वितीयक उपभोक्ता (Secondary Consumers) – इस श्रेणी के उपभोक्ता अपना भोजन प्रथम श्रेणी के शाकाहारी उपभोक्ताओं से प्राप्त करते हैं । इस श्रेणी के उपभोक्ता प्रायः मांसाहारी (Carnivores) होते हैं, जैसे- मेंढक, लोमड़ी, कुत्ता, बिल्ली, चीता इत्यादि ।

(iii) तृतीयक उपभोक्ता ( Tertiary Consumers ) – इस श्रेणी के उपभोक्ता अपना भोजन द्वितीयक श्रेणी के मांसाहारी उपभोक्ताओं से प्राप्त करते हैं और यही नहीं, यहाँ तक सर्वाहारी व शाकाहारी का भी भक्षण कर लेते हैं। कुछ उपभोक्ता उच्च मांसाहारी (Top Carnivores) होते हैं, जो स्वयं तो अन्य मांसाहारी जन्तुओं को खा जाते हैं किन्तु उन्हें कोई प्राणी नहीं खा सकता। इस प्रकार के उपभोक्ताओं को शीर्ष या उच्च उपभोक्ता ( Top Consumers) कहा जाता है; जैसे- शेर, चीता, बाज व गिद्ध इत्यादि ।
अतः उपर्युक्त उपभोक्ताओं की श्रेणियों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि भोजन उत्पादकों से होता हुआ उपभोक्ताओं की विभिन्न श्रेणियों से गुजर कर उच्च उपभोक्ताओं तक पहुँच जाता है। अतः भोजन या खाद्य की इस श्रृंखला को खाद्य श्रृंखला (Food Chain) कहते हैं ।

2. सूक्ष्म या लघु उपभोक्ता या अपघटक जीव (Microconsumers or Decomposers) – लघु उपभोक्ता भी पारिस्थितिक तंत्र के महत्त्वपूर्ण सजीव घटक हैं । इस श्रेणी के जीव विभिन्न प्रकार के कार्बनिक पदार्थों को उनके अवयवों में विघटित कर देते हैं । इस क्रिया में यह जीव पाचन विकर का स्रवण कर भोजन को सरल पदार्थों में तोड़कर इस पचित भोजन को अवशोषित करते हैं ।

इनमें मुख्यतः कवक, जीवाणु, एक्टिनोमाइसीटिज तथा मृतोपजीवी होते हैं । इन्हें अपघटक या मृतोपजीवी (Saprotrophs) या परासरणजीवी (Osmotrophs) कहते हैं। इस प्रकार के जीव उत्पादक तथा उपभोक्ता के मृत शरीरों पर क्रिया कर जटिल कार्बनिक पदार्थों को साधारण पदार्थों में परिवर्तित करते हैं। इन साधारण कार्बनिक पदार्थ पर अन्य प्रकार के जीवाणु क्रिया कर अन्त में इन्हें अकार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित कर देते हैं ।
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यह प्राणी क्रिया करते समय अपघटन से निर्मित उत्पादों का स्वयं अवशोषण कर अपने पोषण में उपयोग कर लेते हैं व अन्य पदार्थों को वातावरण में मुक्त कर देते हैं। अपघटक व परिवर्तक क्रिया से निर्मित अकार्बनिक पदार्थ पुनः उत्पादकों या हरे पौधों द्वारा उपयोग में ले लिये जाते हैं।

इस प्रकार से हरे पौधों में जिसमें भोजन का निर्माण या संचय हुआ था उसका उपयोग उपभोक्ताओं ने किया तथा उपभोक्ताओं व उत्पादकों के मृत होने पर ये सूक्ष्म उपभोक्ता अपघटन क्रिया कर अकार्बनिक पदार्थों को पर्यावरण में वापस लौटाने का कार्य करते हैं। अतः अपघटनकर्ता तथा परिवर्तक पारिस्थितिक तंत्र के अस्तित्व को बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं ।

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II. अजीवीय घटक (Abiotic Component) – ये पारिस्थितिक तंत्र के अजीवीय घटक हैं तंत्र के प्रथम भाग में जीवीय घटक का उल्लेख करते हुए उसके महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। उसी प्रकार अजीवीय घटक जो कि भौतिक पर्यावरण से बनता है, यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। इस भौतिक पर्यावरण को तीन भागों में विभाजित किया गया है-

(क) अकार्बनिक पदार्थ ( Inorganic Substances) – जैसे- मृदा, जल, कार्बन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड, कैल्सियम कार्बोनेट व फॉस्फेट इत्यादि जो पारिस्थितिक तंत्र में चक्रीय पथों से गुजरते हैं, जिसे जैव-भू- रासायनिक चक्र (Biogeochemical Cycle) कहते हैं।

(ख) कार्बनिक पदार्थ ( Organic Substances ) – इसमें वसा, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, ह्यूमस, क्लोरोफिल, लिपिड इत्यादि होते हैं तथा ये पारिस्थितिक तंत्र के अजीवीय और जीवीय घटकों को जोड़ने का सम्बन्ध स्थापित करने में प्रयुक्त होते हैं।

(ग) जलवायवीय कारक (Climatic Factors) – जैसे – प्रकाश, तापक्रम, आर्द्रता, पवन, वर्षा इत्यादि भौतिक कारक हैं। इन सभी भौतिक कारकों में से सूर्य की विकिरण ऊर्जा पारिस्थितिकी तंत्र के ऊर्जा स्रोत के लिए महत्त्वपूर्ण होती है। किसी पारिस्थितिक तंत्र में नियत समय में उपस्थित अजैव पदार्थों की मात्रा को स्थायी अवस्था (Standing State) या स्थायी गुणता (Standing Quality) कहा जाता है, जबकि जैविक पदार्थों या कार्बनिक पदार्थों की कुल मात्रा को खड़ी फसल या स्थित शस्य (Standing Crop ) कहते हैं। इसे इकाई क्षेत्र में उपस्थित जीवों की संख्या या जैवभार (Biomass) द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।

उपर्युक्त अजीवीय घटक पारिस्थितिक तंत्र की प्रकृति को सुनिश्चित कर इसमें जीवों को सीमित रखते हुए इस तंत्र के प्रकार्यों को नियंत्रित करते हैं। मृदा में पाये जाने वाले खनिजों को पौधे अवशोषित कर शरीर निर्माण में उपयोग लेते हैं तथा सूर्य के प्रकाश में उपस्थित ऊर्जा के सहयोग से भोजन का निर्माण करते हैं। इन सभी खनिजों में से विशेषत: C, H, N, P इत्यादि पौधों तथा जन्तुओं के शरीर निर्माण हेतु परम आवश्यक हैं। जीवों की मृत्यु पश्चात् इनके शरीर अपघटित कर दिये जाते हैं।

इस क्रिया के फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड वायुमण्डल में वापस चली जाती है तथा खजिन लवण पुनः भूमि में मिल जाते हैं तथा इस भूमि से पौधे उनका पुनः अवशोषण करते रहते हैं। अतः इस प्रकार पारिस्थितिक तंत्र में खनिज लवणों का चक्र चलता रहता है। इसे खनिज प्रवाह कहा जाता है। इस खनिज प्रवाह को चलायमान रखने हेतु जीवीय तथा अजीवीय दोनों घटक निरन्तर क्रियाशील रहते हैं । इसलिए इसे खनिज प्रवाह के साथ-साथ जैव- भूरासायनिक चक्र (Bio-geochemical cycle) भी कहते हैं ।

प्रश्न 9.
पारिस्थितिक पिरैमिड को परिभाषित करें तथा जैवमात्रा या जैवभार तथा संख्या के पिरैमिडों की उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर:
यदि पारितंत्र के प्रथम पोष स्तर को आधार मानकर क्रमश: उत्तरोत्तर विभिन्न पोष स्तरों को चित्र में दिखाया जावे तो इससे स्तूपाकार (Pyramid) लेखाचित्र प्रदर्शित होता है तथा इन्हें ही पारिस्थितिक स्तूप या पिरैमिड कहते हैं ।

(i) जीवभार के पिरामिड (Pyramid of Biomass )-
पारिस्थितिक तंत्र में भोजन श्रृंखला तथा प्रत्येक भोजन स्तर के जीवों के पारस्परिक सम्बन्ध दर्शाने का अन्य पारिस्थितिक पिरामिड जीवभार पिरामिड है। एक पारिस्थितिक तंत्र के जीवों का जो इकाई क्षेत्र में शुष्क भार (Dry Weight) होता है उसे जीवभार (Biomass) कहते हैं । इसमें भी यदि प्रत्येक भोजन स्तर के जीवों के जीवभार के आधार पर लेखाचित्र बनाया जावे तो यह ठीक स्तूप जैसा बनता है। जीवभार के आधार पर जो पिरामिड बनते हैं उनसे यह ज्ञात होता है कि प्रायः उत्पादक स्तर का जीवभार सर्वाधिक होता है तथा धीरे-धीरे अन्य स्तरों में यह जीवभार क्रमशः कम होता है।

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जीवभार के आधार पर स्थलीय पारिस्थितिक तंत्रों के पिरामिड सीधे तथा जलीय पारिस्थितिक तंत्र के पिरामिड उल्टे बनते हैं, जैसे- घास स्थलीय व वनों के जीवभार पिरामिड ठीक सीधे बनते हैं। परन्तु उत्पादक से उपभोक्ता की ओर क्रमशः जीवभार की निरन्तर कमी होती जाती है। जलीय माध्यम अर्थात् तालाब के अध्ययन पर जीवभार की निरन्तर कमी होती जाती है। जलीय माध्यम अर्थात् तालाब के अध्ययन पर जीवभार की निरन्तर कमी होती जाती है।

जलीय माध्यम अर्थात् तालाब के अध्ययन पर जीवन भार के आधार पर बनने वाले पिरामिड ठीक उल्टे होते हैं क्योंकि इनमें उत्पादक छोटे जीव होते हैं अतः इनका जीवभार कम होता है तथा जैसे-जैसे उपभोक्ताओं की ओर अग्रसर होते हैं त्यों-त्यों जीवभार में वृद्धि होती जाती है। यदि एक विशाल वृक्ष के पारिस्थितिक तंत्र का जीवभार आधार पर पिरामिड बनाया जावे तो यह भी ठीक सीधा बनता है।
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(ii) जीवों की संख्या के स्तूप (Pyramid of Numbers of Organisms ) – जब किसी पारिस्थितिक तंत्र के उत्पादक व प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक श्रेणी के उपभोक्ताओं के जीवों की संख्या का चित्रण किया जाता है तो उसे जीवों की संख्या का पिरामिड कहते हैं । इसमें जैसे-जैसे उत्पादक से उपभोक्ताओं की तरफ बढ़ते हैं वैसे-वैसे जीवों की संख्या कम होती जाती है अर्थात् इसमें उत्पादकों की संख्या सर्वाधिक एवं प्रथम, द्वितीय व तृतीय श्रेणी के उपभोक्ताओं की संख्या क्रमशः कम तथा उच्चतम उपभोक्ताओं की संख्या सबसे कम होती है। इसके चित्रण में यह पिरामिड सीधा (Upright ) होता है।

परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि यह स्तूप सदैव सीधे ही होते हैं, जैसे परजीवी खाद्य श्रृंखला वाले तंत्र में यह स्तूप उल्टा (Inverted) होता है। इसी प्रकार एक विशाल वृक्ष के पारिस्थितिक तंत्र का स्तूप भी उल्टा बनेगा। घास स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र के उत्पादक मुख्य रूप से घास होती है, जो संख्या में सर्वाधिक होती है। परन्तु इसके पश्चात् उपभोक्ताओं की संख्या में निरन्तर कमी आती जाती है। अतः इसका पिरामिड सीधा होता है।
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इसी प्रकार तालाब का पारिस्थितिक तंत्र सीधा होता है। इसमें पादप प्लावक (शैवाल) मुख्य उत्पादक होते हैं तथा संख्या में सर्वाधिक होते हैं। इसके पश्चात् विभिन्न श्रेणी के उपभोक्ताओं की संख्या में कमी होती जाती है। वन ( Forest) पारिस्थितिक तंत्र में जीवों की संख्या को पिरामिड की आकृति कुछ अलग ही प्रकार की होती है। क्योंकि इनमें उत्पादक बड़े आकार (Size) के वृक्ष होते हैं परन्तु संख्या में कम होते हैं। इनमें शाकाहारी उपभोक्ताओं की संख्या में निरन्तर कमी आती जाती है परन्तु फिर भी यह सीधा होता है।

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परजीवी भोजन श्रृंखला में पिरामिड सदैव उल्टा होता है क्योंकि एक पौधा अनेक परजीवियों की वृद्धि हेतु पर्याप्त होता है तथा ये परजीवी अनेक परात्पर जीवों (Hyperparasite) को पोषणता प्रदान करने में सक्षम होते हैं और इस प्रकार से निरन्तर उत्पादक से उपभोक्ताओं की ओर संख्या बढ़ने के कारण चित्र में उल्टी आकृति का पिरामिड बनता है।

प्रश्न 10.
प्राथमिक उत्पादकता क्या है? उन कारकों की संक्षेप में चर्चा करें जो प्राथमिक उत्पादकता को प्रभावित करते हैं।
उत्तर:
हरे पादपों द्वारा उत्पादित द्रव्यों की कुल मात्रा को प्राथमिक उत्पादन (Primary Production) कहा जाता है। इसे प्रति इकाई समय में प्रति इकाई क्षेत्र में उत्पादित जैव भार या संचित ऊर्जा के रूप में व्यक्त करते हैं। सामान्यतया इसे ग्राम / मीटर / वर्ष या कि. कैलोरी / मीटर / वर्ष के रूप में व्यक्त किया जाता है। प्राथमिक उत्पादकता दो प्रकार की होती है-
(i) सकल (Gross ) तथा
(ii) नेट (Net)
या वास्तविक या शुद्ध । प्राथमिक उत्पादकों द्वारा ऊर्जा के पूर्ण अवशोषण की दर को या कार्बनिक पदार्थों यथा जैव भार के कुल उत्पादन की दर को सकल प्राथमिक उत्पादकता (Gross Primary Productivity) कहते हैं तथा उत्पादकों की श्वसन क्रिया के पश्चात् बचे हुए जैव भार या ऊर्जा की दर को वास्तविक या नेट प्राथमिक उत्पादकता कहते हैं अर्थात् वास्तविक या नेट प्राथमिक उत्पादकता (NPP) सकल प्राथमिक उत्पादकता (GPP) श्वसन दर (R) प्राथमिक उत्पादकता, प्रकाश संश्लेषण तथा श्वसन को प्रभावित करने वाले पर्यावरणीय कारकों से सर्वाधिक प्रभावित होती है, जैसे विकिरण, तापमान, प्रकाश, मृदा की आर्द्रता आदि जलीय पारिस्थितिक तंत्र में उत्पादकता प्रकाश के कारण सीमित रहती है। महासागरों (गहरे) में पोषक तत्त्व (जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस आदि) उत्पादकता को सीमित करते हैं।

प्रश्न 11.
अपघटन की परिभाषा दें तथा अपघटन की प्रक्रिया एवं उसके उत्पादों की व्याख्या करें।
उत्तर:
आपने शायद सुना होगा कि केंचुए किसान के मित्र होते हैं, क्योंकि ये खेतों व बगीचों में जटिल कार्बनिक पदार्थों का खण्डन करने के साथ-साथ मृदा को भुरभुरा बनाते हैं। इसी प्रकार अपघटक (Decomposer ) जटिल कार्बनिक पदार्थों को अकार्बनिक तत्वों  सेCO2 जल व पोषक पदार्थों में खण्डित करने में सहायता करते हैं व इस प्रक्रिया को अपघटन ( Decomposition) कहते हैं। पादपों के मृत अवशेष जैसे- पत्तियाँ, छाल, टहनियाँ, पुष्प तथा प्राणियों (पशुओं) के मृत अवशेष, मल सहित अपरद (Detritus) बनाते हैं, जो कि अपघटन हेतु कच्चे माल का काम करते हैं।

इस प्रक्रिया में कवक, जीवाणुओं, अन्य सूक्ष्म जीवों के अतिरिक्त छोटे प्राणियों जैसे निमेटोड कीट, केंचुए आदि का मुख्य योगदान रहता है। अपघटन की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण चरण खण्डन (fragmentation), निक्षालन (leaching ), अपचयन (reduction) ह्यूमीफिकेशन (humification), खनिजीकरण (mineralization) है।

अपरदहारी (जैसे कि केंचुए) अपरद को छोटे-छोटे कणों में खण्डित कर देते हैं, इस प्रक्रिया को खण्डन कहते हैं। निक्षालन (leaching) प्रक्रिया के अन्तर्गत जल विलेय अकार्बनिक पोषक भूमि मृदा संस्तर में प्रविष्ट कर जाते हैं व अनुपलब्ध लवण के रूप में अवक्षेपित हो जाते हैं। जीवाणुवीय एवं कवकीय एन्जाइम्स अपरदों को सरल अकार्बनिक तत्वों में तोड़ देते हैं। इस प्रक्रिया को अपचय (reduction) कहते हैं।

ह्यूमीफिकेशन (humification) तथा खनिजीकरण (mineralization) की प्रक्रियाएँ अपघटन के समय मृदा में सम्पन्न होती हैं। ह्यूमीफिकेशन के कारण एक गहरे रंग का क्रिस्टल रहित पदार्थ का निर्माण होता है जिसे ह्यूमस (humus) कहते हैं। ह्यूमस सूक्ष्मजैविकी क्रियाओं के लिए उच्च प्रतिरोधी होता है और इसका अपघटन बहुत धीमी गति से होता है। स्वभाव में कोलॉइडल होने के कारण यह पोषक के भण्डार का कार्य करता है। ह्यूमस पुनः सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटित होता है। और खनिजीकरण प्रक्रिया के द्वारा अकार्बनिक पोषक उत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 12.
एक पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा प्रवाह का वर्णन करें।
उत्तर:
पारिस्थितिक तन्त्र में ऊर्जा का प्रवेश, स्थानान्तरण, रूपान्तरण एवं वितरण ऊष्मागतिकी के दो मूल नियमों (Law of thermodynamics) के अनुरूप होता है। कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं। प्रत्येक जीव को अपनी जैविक क्रियाओं के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा का एकमात्र एवं अन्तिम मुख्य स्रोत सूर्य है (देखें चित्र 14.2) । पृथ्वी पर पहुँचने वाली कुल प्रकाश ऊर्जा का केवल 1% भाग प्रकाश संश्लेषण द्वारा खाद्य ऊर्जा या रासायनिक ऊर्जा में रूपान्तरित हो पाता है।

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वन वृक्षों में यह दक्षता 5% तक हो सकती है। शेष ऊर्जा का ऊष्मा के रूप में ह्रास हो जाता है। पृथ्वी पर कुल प्रकाश संश्लेषण का लगभग 90% भाग जलीय पौधों विशेषत: समुद्रीय डायटमों (Diatoms) शैवालों द्वारा सम्पन्न होता है और शेष भाग स्थलीय पौधों द्वारा होता है। इनमें भी वन वृक्ष सबसे अधिक प्रकाश संश्लेषण करते हैं। इसके बाद कृष्य (cultivated) पौधे तथा घास जातियाँ आती हैं।

कोई भी जीव प्राप्त की गई ऊर्जा के औसतन 10% से अधिक ऊर्जा अपने शरीर निर्माण में प्रयोग नहीं कर पाता है तथा शेष 90% ऊर्जा का ऊष्मा के रूप में श्वसन आदि क्रियाओं में ह्रास हो जाता है अर्थात् खाद्य शृंखला में ऊर्जा के स्थानान्तरण में एक पोष स्तर पर लगभग 10% ऊर्जा ही संग्रहित होती है। इसे पारिस्थितिक दशांश का नियम (Rule of ecological tenthe) कहते हैं।

इस प्रकार यदि किसी स्थान पर सौर ऊर्जा की मात्रा 100 कैलोरी हो तो पादपों (प्राथमिक उत्पादक) को 10 कैलोरी, उन पादपों का चारण करके शाक भक्षी को केवल 1 कैलोरी और उस शाकाहारी (प्राथमिक उपभोक्ता) को खाकर मांसाहारी (द्वितीयक उपभोक्ता) में केवल 0.1 कैलोरी ऊर्जा संग्रहित होगी तथा अपघटक तक यह बहुत न्यून मात्रा में पहुँचेगी। वास्तव में ऊर्जा संकल्पना में ऊर्जा का एक पोष स्तर से दूसरे पोष स्तर में स्थानान्तरण एवं रूपान्तरण है।
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प्रश्न 13.
एक पारिस्थितिक तंत्र में एक अवसादीय चक्र की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
एक पारिस्थितिक तन्त्र में अवसादी चक्र की महत्त्वपूर्ण विशिष्टताएँ अग्रलिखित हैं-
(i) अवसादन चक्र जैव भू-रसायन चक्र (Biogeochemical Cycle) का एक प्रकार है।
(ii) अवसादीय चक्र (Sedimentary cycle) में पोषक तत्वों का संचय पृथ्वी की चट्टानों में होता है। उदाहरण के लिए फॉस्फोरस, पोटैशियम, कैल्सियम, सल्फर आदि के चक्र ।
(iii) ये चक्र अपेक्षाकृत अधिक धीमे होते हैं। ये अधिक परिपूर्ण (perfect) भी नहीं होते क्योंकि चक्रित तत्व किसी भी संचय स्थल में फँसकर रह जाते हैं तथा चक्रण से बाहर हो जाते हैं अतः इनकी प्रकृति में ( पारितन्त्र) में उपलब्धता पर गहरा प्रभाव पड़ता है, हो सकता है। यह रुकावट सैकड़ों से सहस्रों वर्षों के लिए बनी रहे।

प्रश्न 14
एक पारिस्थितिक तंत्र में कार्बन चक्रण की महत्वपूर्ण विशिष्टताओं की रूपरेखा प्रस्तुत करें।
उत्तर:
(Ecosystem-Carbon cycle) सजीवों की संरचना का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि जीवों के शुष्क भार का 49 प्रतिशत भाग कार्बन से बना होता है। जल के पश्चात् सर्वाधिक मात्रा कार्बन की ही होती है। यदि भूमण्डलीय कार्बन की कुल मात्रा का ध्यान करें तो हम यह पाते हैं कि समुद्र में 71 प्रतिशत कार्बन विलेय के रूप में विद्यमान है।

यह सागरीय कार्बन भंडार वायुमण्डल में CO2 की मात्रा को नियमित करता है।  कुल भूमण्डलीय कार्बन का केवल एक प्रतिशत भाग ही वायुमण्डल में समाहित है। जीवाश्मी ईंधन भी कार्बन के भंडार का प्रतिनिधित्व करता है। कार्बन चक्र वायुमण्डल, सागर तथा जीवित व मृतजीवों द्वारा सम्पन्न होता है।

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अनुमानानुसार जैव मण्डल में प्रकाश-संश्लेषण के द्वारा प्रतिवर्ष 4×1013 कि.ग्रा. कार्बन का स्थिरीकरण होता है। एक महत्वपूर्ण कार्बन की मात्रा CO2 के रूप में उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं के श्वसन क्रिया के माध्यम से वायुमण्डल में वापस आती है। इसके साथ ही भूमि एवं सागरों की कचरा सामग्री एवं मृत कार्बनिक सामग्री की अपघटन प्रक्रियाओं के द्वारा भी CO2 की काफी मात्रा अपघटकों द्वारा छोड़ी जाती है।
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कार्बन भू-शैलों में भी मुख्यतः कैल्सियम और मैग्नीशियम कार्बोनेट के रूप में पाया जाता है। यह कार्बन अधिकांशतः उत्पत्ति में कार्बन होता है परंतु यह्समुद्री जंतुओं के कंकालों में खानिज के रूप में होता है। कार्बोनेट शैल स्थल पर भी पाये जाते हैं और अपक्षय द्वारा मृदापोषक और पादप पोषक में जुड़ते हैं।

जब कुल प्राथमिक उत्पादन, श्वसन से अधिक होता है तब पारिस्थितिक तंत्र में कार्बन-समृद्ध जैविक पदार्थ संचित होता है। प्राचीन समय में इस प्रकार का संचयन जीवाष्मी ईंधन, कोयला और तेल के रूप में होता था। यौगिकीकृत कार्बन की कुछ मात्रा अवसादों में नष्ट होती है और संचरण द्वारा निकाली जाती है।

लकड़ी के जलाने, जंगली आग एवं जीवाश्मी ईंधन के जलने के कारण, कार्बनिक सामग्री, ज्वालामुखीय क्रियाओं आदि के अतिरिक्त स्रोतों द्वारा वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड को मुक्त किया जाता है। कार्बन चक्र में मानवीय क्रियाकलापों का महत्वपूर्ण प्रभाव है। तेजी से जंगलों का विनाश तथा परिवहन एवं ऊर्जा के लिए जीवाश्मी ईंधनों को जलाने आदि से महत्वपूर्ण रूप से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड को मुक्त करने की दर बढ़ी है।

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HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 12 जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके उपयोग

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 12 जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके उपयोग Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 12 जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके उपयोग

प्रश्न 1.
बी टी (Bt) आविष के रवे कुछ जीवाणुओं द्वारा बनाये जाते हैं लेकिन जीवाणु स्वयं को नहीं मारते हैं, क्योंकि-
(क) जीवाणु आविष के प्रति प्रतिरोधी हैं।
(ख) आविष परिपक्व है।
(ग) आविष निष्क्रिय होता है।
(घ) आविष जीवाणु की विशेष थैली में मिलता है।
उत्तर:
(ग) जीवाणु में यह आविष निष्क्रिय रूप में होता है।

‘प्रश्न 2.
पारजीवी (transgenic) जीवाणु क्या है? किसी एक उदाहरण द्वारा सचित्र वर्णन करो।
उत्तर;
ऐसे जीवाणु जिनके DNA में परिचालन द्वारा एक अतिरिक्त (बाहरी) जीन व्यवस्थित होता है, जो अपना लक्षण व्यक्त करता है, उसे पारजीवी जीवाणु कहते हैं। इसका उपयुक्त उदाहरण- – बैसीलस थुरीनजिएंसिस (Bacillus thuringiensis) है। यह एक छड़ाकार जीवाणु है। इसके बीजाणुओं द्वारा एक विशिष्ट पदार्थ Bt विष उत्पन्न किया जाता है। यह जीवाणु मृदा में आवास बनाता है तथा बीजाणु उत्पन्न करता है।

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इसके बीजाणुजनन (sporulation) के समय एक क्रिस्टलीय प्रोटीन विष का निर्माण होता है जिसे पैरास्पोरल क्रिस्टल (perasporal crystal) कहा जाता है। इस विष में जो प्रोटीन होता है, उसे डेल्टा ऐंडोटॉक्सिन (Delta endotoxin) या क्राई प्रोटीन (cry protein) कहा जाता है। यह विशेष प्रकार का विष अनेक प्रकार के कीटों, जैसे-गण लेपीडॉप्टेरा (Lepidoptera) एवं डिप्टेरा (Diptera) समूह के कीटों हेतु अत्यन्त घातक साबित होता है।

इन जीवाणुओं से ऐसी विशिष्ट Bt जीव विष जींस पृथक् कर अनेक फसलों जैसे कपास में समाविष्ट करवाई गई है। इन जींस को Bt जीन अथवा क्राई जीन (cry gene) कहते हैं व इस पादप को Bt कपास कहते हैं जो कि बालकृमि ( Bollworm) के लिये प्रतिरोधी होता है। Bt जीन युक्त कपास को किलर कॉटन (Killer cotton) कहा जाता है।

प्रश्न 3.
आनुवंशिक रूपांतरित फसलों के उत्पादन के लाभ हानि का तुलनात्मक विभेद कीजिए ।
उत्तर:
आनुवंशिक रूपांतरित फसलों (GM) या ट्रांसजीनिक पादप, पादपों के आण्विक जीव वैज्ञानिक अध्ययन हेतु बहुत ही महत्त्वपूर्ण साधन हैं। जीन अभिव्यक्ति के नियमन हेतु नियामक, प्रचालक ( operator) आदि अनुक्रमों की पहचान हेतु इन्हें उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इनका उपयोग विभिन्न उपापचयी पदों के विश्लेषण, जीन अभिव्यक्ति में DNA बंधित प्रोटीन्स की भूमिका के अध्ययन तथा विपरीत वातावरणीय परिस्थितियों में पादप किस प्रकार अपने को व्यक्त करते हैं, इसके अध्ययन हेतु किया जाता है।

इसके अतिरिक्त इनके उपयोग से निम्न लाभ हैं –
(1) फसली पादपों में विशिष्ट जीन्स के स्थानान्तरण अर्थात् ट्रांसजीनिक पादप अपने मूल पादपों से अच्छी गुणवत्ता वाले होते हैं। फसली पादपों में वांछित जीन को स्थानान्तरित करके इच्छित लक्षण उत्पन्न किये जा सकते हैं। जैसे कि फसली पादपों में शाकनाशी जीन का स्थानान्तरण कर उन्हें जैव अपघटनीय शाकनाशी का उपयोग करने हेतु सक्षम बनाया गया है जिससे फसल व पर्यावरण को कम नुकसान पहुँचता है।

(2) कीट, विषाणु आदि जैविक घटकों के प्रति प्रतिरोधकता उत्पन्न करने के लिए ट्रांसजीनिक पादपों में प्रतिरोधक जीन्स का समावेश कर दिया जाता है।

(3) फसलीय पादपों में अधिक उत्पादन प्राप्त करने एवं उच्च गुणवत्ता, जैसे- प्रोटीन्स या लिपिड्स की मात्रा बढ़ाने के उद्देश्य को पूरा करने हेतु कई तरह के जीन्स को फसलीय पादपों में समावेशित कर ट्रांसजीनिक पादप प्राप्त किये जा सकते हैं।

(4) पादपों में कुछ उपयोगी जैव रासायनिक पदार्थों, जैसे- इन्टरफेरोन (Interferon ), इन्सुलिन ( Insulin), इम्यूनोग्लोब्यूलिन (Immunoglobulin) तथा कुछ उपयोगी बहुलक जैसे- पॉलीहाइड्रोक्सी ब्यूटाइरेट जो कि पादपों में सामान्यतः उत्पादित नहीं होते हैं, ट्रांसजीनिक पादपों में इनका उत्पादन सम्भव हो जाता है जिनका उपयोग दवाइयाँ बनाने में किया जाता है।

(5) ट्रांसजीनिक पादपों का उपयोग टीके के रूप में अनेक रोगकारकों के प्रति प्रतिरक्षा उत्पन्न करने के लिये किया जा सकता है।
भविष्य में फसली पादपों में जीन स्थानांतरण के द्वारा उपयोगी एवं बेहतर गुणवत्ता वाले ट्रांसजैनिक पौधे तैयार करके हम कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त निम्न प्रयास किये जा रहे हैं-

(1) मृदा का उपजाऊपन बढ़ाने के उद्देश्य से उच्च श्रेणी के पौधों में जीवाणुओं जैसे- राइजोबियम एजोटोबेक्टर एवं क्लॉस्ट्रीडियम तथा साइनोजीवाणु जैसे ऐनाबीना आदि के नाइट्रोजन स्थिरकारी जीनों (Nif – जीन) को स्थानान्तरित कर ट्रान्सजैनिक पौधे प्राप्त करने के प्रयास किये जा रहे हैं, जिससे कि बिना खाद व रासायनिक उर्वरकों के भी हम भरपूर मात्रा में फसल प्राप्त कर सकते हैं।

(2) विभिन्न प्रकार के खाद्योपयोगी कृषि उत्पादों में प्रोटीनीय पदार्थों की मात्रा एवं किस्मों में बढ़ोतरी करने के प्रयास किये जा रहे हैं। इससे विश्व की जनसंख्या को भूख एवं कुपोषण से बचाया जा सकेगा।

(3) जीन स्थानान्तरण द्वारा C3 पौधों का C4 पौधों में परिवर्तन तथा इनके एन्जाइम्स मुख्यतः प्रकाश-संश्लेषी एन्जाइमों जैसे रुबिस्को ( RUBISCO) की कार्य- शैली में बदलाव लाने के प्रयास किये जा रहे हैं।

(4) सब्जियों व फलों के आयु में इच्छित परिवर्तन करने के पकने के समय में व पादपों की प्रयास किये जा रहे हैं। ट्रांसजीनी पादपों के सम्भावित खतरे- सजीनी पादपों की खेती से अनेक प्रकार के हानिकारक प्रभावों की बातें देश-विदेश में उठ रही हैं। उदाहरणस्वरूप कीट अवरोधी कपास की फसल भारत में गंगानगर व अन्य स्थानों पर बेची जा रही है। यह बताया जा रहा है कि इसके पत्ते यदि पशु खा लें तो यह पशु के लिये हानिकारक है।

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ट्रांसजीनी पादपों की खेती से निम्न कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं-
(1) यदि किसी ट्रांसजीनी पादप का परागकोष उड़ कर किसी सम्बन्धित फसल पर जाकर विकसित हो जाये तो इसे नष्ट करना भविष्य में कठिन हो सकता है। इसे जीन प्रदूषण भी कहते हैं।
(2) ट्रांसजीनी पादप मृदा में अपना टॉक्सिन छोड़ता है या नहीं, ऐसा ज्ञात नहीं है। किन्तु यह मृदा पर अपना प्रभाव दिखा कर जैव विविधता को नष्ट कर सकता है। इस पर शोध ( research) की आवश्यकता है।
(3) प्रत्येक पादप अनेक प्रकार के जीवों जैसे कीट, सहजीवियों या जीवाणुओं को आश्रय देता है। यह जैव विविधता में वृद्धि करते हैं। कीट प्रतिरोधक ट्रांसजीनी पादप इन सभी को आश्रय देने में सक्षम हैं अथवा नहीं, यह ज्ञात नहीं है।
(4) ट्रांसजीनी पादप को यदि दूसरे जानवर खा लेते हैं तो यह उनमें विकार उत्पन्न करता है।
(5) ट्रांसजीन मूंगफली को खाने से एलर्जी की शिकायतें आई। हैं। अब ऐसी मूंगफली पर टैग लगाकर बेचा जाने लगा है। अन्य ट्रांसजीनी उत्पाद बिना टैग के ही बाजार में उपलब्ध हैं। उपभोक्ता इन्हें खाने के लिये चाहे अनचाहे मजबूर हैं।
(6) ट्रांसजीनी पादपों का अनेक पीढ़ियों तक गमन के दौरान कुछ नये नॉन ट्रांसजीनी के साथ क्रॉस होने पर क्या परिस्थितियाँ होंगी व नई प्रजातियाँ विकसित होने पर क्या परिवर्तन होंगे, यह भविष्य में ही ज्ञात हो सकेगा।

सम्पूर्ण विश्व में ट्रांसजीनी पादपों के व्यापारिक स्तर पर आमजन के लिये उत्पादन करके बाजार में बेचने पर विरोध हो रहा है। इसका मुख्य कारण इनसे होने वाले हानिकारक प्रभावों के विषय में अनभिज्ञता होना है। लोग इनसे होने वाले दुष्प्रभावों के विषय में चिंतित हैं। Bt कॉटन को संक्रमित करने वाला बुलवर्म (Bullworm) भी इसके प्रति प्रतिरोधित हो गया है। यदि ऐसा है तो इसकी खेती का कोई लाभ नहीं। विश्व में सबसे अधिक ट्रांसजीनी फूड न्यूजीलैण्ड में निर्मित हो रहा है। ब्रिटेन में पर्यावरण विभाग ने ऐसे पादपों पर तीन साल के लिये प्रतिबन्ध लगाने की सिफारिश की है। यूरोपियन कमीशन साइंटिफिक एडवाइजर ने ट्रांसजीनी आलू पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये सिफारिश की है।

प्रश्न 4.
क्राई प्रोटींस क्या है? उस जीव का नाम बताओ जो इसे पैदा करता है। मनुष्य इस प्रोटीन को अपने फायदे के लिये कैसे उपयोग में लाता है?
उत्तर:
एक विशेष प्रकार के छड़ाकार जीवाणु बेसीलस थुरीनजिएंसिस (B1) के बीजाणुओं द्वारा एक विशिष्ट पदार्थ Bt विष (Bt-toxin) उत्पन्न किया जाता है। यह जीवाणु मृदा में रहता है तथा बीजाणु उत्पन्न करता है। इसके बीजाणुजनन के दौरान एक क्रिस्टलीय प्रोटीन विष का निर्माण होता है जिसे पेरास्पोरल क्रिस्टल (Perasporal crystal) कहा जाता है। इस विष में जो प्रोटीन होता है, उसे क्राई प्रोटीन (Cry protein) कहते हैं ।

यह प्रोटीन विशिष्ट कीटों जैसे लीपीडोप्टेरान (Lepidopteran – तम्बाकू की कलिका कीड़ा, सैनिक कीड़ा), कोलियोप्टेरान (Coleopterans – भृंग ) व डीप्टेरान (Dipterans – मक्खी, मच्छर ) को मारने में सहायक है। यह जीवाणु अपनी वृद्धि की विशेष अवस्था में कुछ प्रोटीन रवा ( crystals) का निर्माण करते हैं। इन क्रिस्टल में विषाक्त कीटनाशक प्रोटीन होता है।

इस विष से जीवाणु को कोई हानि नहीं होती है क्योंकि यह जीव विष (prototoxin) प्रोटीन निष्क्रिय रूप अवस्था में होता है परन्तु जैसे ही कोई कीट इस निष्क्रिय विष को खाता है तो उसके रवे आंत में क्षारीय PH के कारण घुलनशील होकर सक्रिय हो जाते हैं। सक्रिय जीव विष (prototoxins ) मध्य आंत के उपकलीय कोशिकाओं (midgur epithelial cells) की सतह से बंधकर उसमें छिद्रों का निर्माण करते हैं, जिस कारण से कोशिकाएँ फूलकर फट जाती हैं और परिणामस्वरूप कीट की मृत्यु हो जाती है।

अध्ययन में यह पाया गया है कि इस जीवाणु के बीजाणुओं का कीटों द्वारा भक्षण करने पर इनके साथ चिपका हुआ प्रोटीन किस्टल भी कीटों की आहार नाल में पहुंच जाता है, जहाँ यह गल जाने के बाद कीट में मुख उपांगों एवं आहार नाल को पक्षाघात (paralysis) से ग्रसित कर देता है। पक्षाघात से ग्रसित ऐसे कीट कुछ ही समय पश्चात् अपना आहार लेने में अक्षम हो जाते हैं व कुछ भी नहीं खा सकते।

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इसके अतिरिक्त इन कीटों की आहार नाल में उपस्थित बीजाणु अंकुरित होकर और अधिक संख्या में बीजाणुओं का निर्माण करते हैं। इस प्रक्रिया में जहाँ पक्षाघात से ग्रसित कीट एक ओर तो फसल उत्पादक पौधों को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचा सकते, वहीं दूसरी ओर ये अधिक संख्या में बीजाणुओं के निर्माण हेतु एक कारखाने का काम करते हैं । अन्त में जब कीटों की मृत्यु होती है तो इनके मृत शरीरों से असंख्य बीजाणु मुक्त हो जाते हैं, जो कि हानिकारक कीटों को पक्षाघात से ग्रसित कर देते हैं।

विशिष्ट BI जीव विष जींस बैसीलस थुरीनजिएंसिस से पृथक् कर अनेक फसलों जैसे कपास में समाविष्ट किया जा चुका है। इस कॉटन को किलर कॉटन (Killer cotton) या बीटी कॉटन भी कहते हैं। जींस का चुनाव फसल व निर्धारित कीट पर निर्भर करता है, जबकि सर्वाधिक बी टी जीवविष कीट समूह विशिष्टता पर निर्भर करते हैं।

जीव विष जिस जीन द्वारा कूटबद्ध होते हैं उसे क्राई (Cry) कहते हैं। ये कई प्रकार के होते हैं। जैसे-जो प्रोटींस जीन क्राई 1 ए सी व क्राई 2 ए बी द्वारा कूटबद्ध होते हैं वे कपास के मुकुल कृमि को नियंत्रित करते हैं जब कि क्राई 1 ए बी मक्का छेदक को नियंत्रित करता है।

प्रश्न 5.
जीन चिकित्सा क्या है? एडीनोसीन डिएमीनेज (ADA) की कमी का उदाहरण देते हुए इसका वर्णन करें।
उत्तर:
जो व्यक्ति आनुवंशिक रोग के साथ पैदा होते हैं उनका उपचार जीन चिकित्सा द्वारा किया जाता है। जीन चिकित्सा के द्वारा दोषी जीन का प्रतिस्थापन सामान्य व स्वस्थ जीन से कर दिया जाता है। आनुवंशिक दोषयुक्त जीनों की आनुवंशिक अभियान्त्रिकी तकनीक से नवजात शिशु या अजन्मे बच्चे में से पृथक् कर पुनः संयोजित ( recombinant ) जीन का निर्माण करके उसके स्थान पर स्थानापन्न (transfer) कर दिया जाता है।

इस विधि में DNA के उतने भाग को (जितने में वह दोषी जीन है) काट कर अलग किया जाये तथा उसके स्थान पर सही टुकड़ा जोड़ दिया जाये। इस विधि से पुटी तंतुमयता (Cystic fibrosis), हंसियासम कोशिका अरक्तता (Sickle cell anaemia), गंभीर संयुक्त प्रतिरक्षा अपूर्णता (Severe combined immuno deficiency) जैसे घातक रोगों की चिकित्सा की जाती है। जीन उपचार के निम्नलिखित चरण होते हैं-
(i) आनुवंशिक रोग उत्पन्न करने वाले जीन की पहचान करना ।
(ii) इस जीन के उत्पाद की रोग / स्वास्थ्य में भूमिका ज्ञात करना ।
(iii) जीन का विलगन एवं क्लोनन (Cloning) ।
(iv) जीन उपचार की उपयुक्त युक्ति का विकास।
जीन चिकित्सा का सर्वप्रथम प्रयोग वर्ष 1990 में एक चार वर्षीय लड़की में एडीनोसीन डिएमीनेज (adinosine deaminase = ADA) की कमी को दूर करने के लिये किया गया था। यह एंजाइम प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) के कार्य के लिये अति आवश्यक होता है। यह समस्या एंजाइम एडीनोसीन डिएमीनेज की अनुपस्थिति के कारण होती है।

कुछ बच्चों में ADA की कमी का उपचार अस्थिमज्जा (bone marrow) के प्रत्यारोपण से होता है। जबकि दूसरों में एंजाइम प्रतिस्थापन चिकित्सा द्वारा उपचार किया जाता है; इसमें सुई द्वारा रोगी को सक्रिय ADA दिया जाता है। उपरोक्त दोनों विधियों में यह कमी है कि ये पूर्णतया रोगनाशक नहीं हैं। जीन चिकित्सा में सर्वप्रथम रोगी के रक्त से लसीकाणु (Lymphocytes) को निकालकर शरीर से बाहर संवर्धन किया जाता है।

सक्रिय ADA का DNA (पश्च विषाणु संवाहक अर्थात् retroviral vector का प्रयोग कर ) लसीकाणु में प्रवेश कराकर अंत में रोगी के शरीर में वापस कर दिया जाता है। ये कोशिकाएँ मृतप्राय होती हैं। इसलिये आनुवंशिक निर्मित लसीकाणुओं को समय-समय पर रोगी के शरीर से अलग करने की आवश्यकता होती है। यदि मज्जा कोशिकाओं से विलगित अच्छे जीनों को प्रारम्भिक भ्रूणीय अवस्था की कोशिकाओं से उत्पादित ADA में प्रवेश करा दिये जाएँ तो यह एक स्थायी उपचार हो सकता है।

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प्रश्न 6
ई. कोलाई जैसे जीवाणु में मानव रोग की क्लोनिंग एवं अभिव्यक्ति के प्रायोगिक चरणों का आरेखीय निरूपण प्रस्तुत करें।
उत्तर:
मानव में मधुमेह (diabetes ) रोग अग्नाश्य (Pancreas) की दोषपूर्ण कार्यप्रणाली के कारण होता है । यह पर्याप्त रूप से इन्सुलिन का निर्माण नहीं कर पाता है। अग्नाश्य की दोषपूर्ण कार्यप्रणाली के फलस्वरूप शरीर में अधिक शर्करा का हो जाना तथा रक्त में शर्करा के स्तर को नियंत्रित नहीं कर पाता है। इसका केवल मात्र इलाज इन्सुलिन के द्वारा ही सम्भव है। मधुमेह रोगियों के उपचार में लाए जाने वाला इंसुलिन ( insulin) जानवरों व सुअरों को मारकर उनके अग्नाश्य से निकाला जाता था। जानवरों द्वारा प्राप्त इंसुलिन से कुछ रोगियों में प्रत्यूर्जा (allergy) या बाह्य प्रोटीन के प्रति दूसरे तरह की प्रतिक्रिया होने लगती थी।

इंसुलिन दो छोटी पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाओं का बना होता है, श्रृंखला ‘ए’ व श्रृंखला ‘बी’ (Chain ‘A’ and Chain ‘B’)। ये श्रृंखलायें आपस में डाईसल्फाइड बंधों द्वारा जुड़ी होती हैं। मानव सहित स्तनधारियों में इंसुलिन प्राक् – हार्मोन (pro-hormone) संश्लेषित होता है। प्राक् एन्जाइम (pro enzyme) की जैसे प्राक्- हार्मोन को भी पूर्ण परिपक्व व क्रियाशील हार्मोन बनने से पूर्व संसाधित (processed) होने की आवश्यकता होती है।

इस संश्लेषित इंसुलिन हार्मोन में एक अतिरिक्त फैलाव ( stretch ) होता है जिसे पेप्टाइड ‘सी’ (C peptide ) कहते हैं। यह ‘सी’ पेप्टाइड परिपक्वता के दौरान इंसुलिन से अलग हो जाता है अतः ‘सी’ पेप्टाइड परिपक्व इंसुलिन में अनुपस्थित होता है । पुनर्योगज DNA तकनीकियों प्रयोग (recombinant DNA technologies or r.DNA) का करते हुए इंसुलिन के उत्पादन में मुख्य चुनौती यह है कि इंसुलिन को एकत्रित कर परिपक्व रूप में तैयार किया जाए।

1983 में एली लिली (Eli Lilly) नामक एक अमेरिकी कम्पनी ने DNA अनुक्रमों को तैयार किया जो मानव इंसुलिन की श्रृंखला ‘ए’ और ‘बी’ के अनुरूप होती है, जिसे ई. कोलाई के प्लाज्मिड में प्रवेश कराकर इंसुलिन श्रृंखलाओं का उत्पादन किया। इन अलग-अलग निर्मित श्रृंखलाओं ‘ए’ और ‘बी’ को निकालकर डाईसल्फाइड बंध बनाकर आपस में संयोजित कर मानव इंसुलिन का निर्माण किया गया।
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‘सी’ पेप्टाइड में 35 एमिनो अम्ल होते हैं और यह देखा गया है कि ‘सी’ पेप्टाइड के 6 एमिनो अम्ल जोड़ने के कार्य हेतु सक्षम होते हैं । इन्सुलिन उत्पन्न करने वाली जीन को जीवाणु में क्लोन (clone) करके इन्सुलिन के संश्लेषण हेतु उपयोग किया गया। इन्सुलिन की जीन क्लोन का कार्य भारतीय मूल के डॉ. सरन नारंग (Dr. Saran Narang) ने किया जो कनाडा के ओटावा (Ottawa) में कार्यरत थे।

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इस इन्सुलिन को ह्यूमिलिन (Humiline) नाम दिया गया है तथा यह बाजारों में बिक रही है। इस तकनीक द्वारा मानव वृद्धि हार्मोन (Human Growth Hormone =HGH) प्रोटोपिन सन् 1986 में निर्मित किया जा चुका है। इसको बौनेपन के उपचार हेतु प्रयोग में लाया जाता है।

प्रश्न 7.
तेल के रसायनशास्त्र तथा आर. डी. एन. ए. जिसके बारे में आपको जितना भी ज्ञान प्राप्त है, उसके आधार पर बीजों से तेल हाइड्रोकार्बन हटाने की कोई एक विधि सुझाइए ।
उत्तर:
इस क्रिया के लिए जैव प्रौद्योगिकी की आण्विक, जैव तकनीक का प्रयोग किया जा सकता है।

प्रश्न 8.
इंटरनेट से पता लगाइए कि गोल्डन राइस ( गोल्डन धान) क्या है?
उत्तर;
गोल्डन राइस में जैव संश्लेषित बीटा कैरोटीन (प्रो- विटामिन A ) प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। सन् 2005 में गोल्डन राइस की एक और किस्म तैयार की गई है जिसमें 23 गुना अधिक बीटा कैरोटीन होता है। प्रो. इंगो पोट्रीकस तथा डॉ. पीटर बेयर ने इस आनुवंशिकतः अभियांत्रित चावल प्रजाति ‘गोल्डन राइस’ का विकास किया। बीटा कैरोटीन विटामिन ‘ए’ का पूर्ववर्ती (precursor) पदार्थ है।

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प्रश्न 9.
क्या हमारे रुधिर में प्रोटिओजेज तथा न्यूक्लीएजेज हैं?
उत्तर:
हमारे रक्त में प्रोटीओजेज तथा न्यूक्लीएजेज नहीं होते हैं।

प्रश्न 10.
इंटरनेट से पता लगाइये कि मुखीय सक्रिय औषध प्रोटीन को किस प्रकार बनायेंगे? इस कार्य में आने वाली मुख्य समस्याओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मुखीय औषध प्रोटीन के निर्माण में ड्यूटेरियम एक्सचेंज मास स्पेक्ट्रोमीटरी (DXMS Deuterium Exchange Mass Spectrometry) तकनीक का प्रयोग किया जाता है। यह तकनीक प्रोटीन संरचना और उसके प्रकार्यों का अध्ययन करने के लिए एक शक्तिशाली माध्यम है। इस कार्य में आने वाली मुख्य समस्याएँ श्रम और समय की हैं। यह एक जटिल प्रक्रिया होती है।

अतः मुखीय प्रोटीन का निर्माण कम ही किया जा रहा है। जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग करके जीवाणुओं की सहायता से पुनर्योगज चिकित्सीय औषधि मानव इन्सुलिन (ह्युमिलिन) प्राप्त की गई है। यह एक औषध प्रोटीन है। निकट भविष्य में मानव इन्सुलिन मधुमेह रोग से पीड़ित व्यक्तियों को मुख से दिया जा सकेगा।

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HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 11 जैव प्रौद्योगिकी-सिद्धांत व प्रक्रम

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 11 जैव प्रौद्योगिकी-सिद्धांत व प्रक्रम Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 11 जैव प्रौद्योगिकी-सिद्धांत व प्रक्रम

प्रश्न 1.
क्या आप दस पुनर्योंगज प्रोटीन के बारे में बता सकते हैं जो चिकित्सीय व्यवहार के काम में लाये जाते हैं? पता लगाइये कि वे चिकित्सीय औष्षि के रूप में कहाँ प्रयोग किये जाते हैं?
उत्तर:

प्रोटीन उत्पादअनुप्रयोग (Applications)
1. इंटरफेरोन (Interferon, IFN)अर्बुद (tumour) उपचार रोगजनक विषाणु संक्रमण तथा कैंसर का उपचार।
2. मानव वृद्धि हार्मोन (Human Growth Hormone, $\mathrm{HGH})=$ सोमेटोट्रोपिन (Somatotropin)पीयूष ग्रन्थि द्वारा उत्पन्न बौनेपन को ठीक करने या बौने मनुष्यों में अनुपलब्ध हार्मोनों का प्रतिस्थापन।
3. एरिथ्रोपोएटिन (Erythropoietin)रक्ताल्पता (anaemia) का उपचार।
4. रुधिर स्कंदन कारक VIII (Blood Clotting Factor VIII)हिमोफीलिया (Haemophilia) का उपचार।
5. इन्सुलिन ( ह्यूमिलिन, Humulin)मधुमेह (Diabetes) के उपचार।
6. यूरोकाइनेजप्रतिस्कंदक (anticoagulant) ।
7. यकृतशोथ-B सतह प्रतिजन (Hepatitis-B Surface antigen, HBS)यकृतशोध-B का टीका (Vaccine)।
8. इंटरल्यूकिनप्रतिरक्षा तंत्र क्रियाशीलता में वृद्धि, ट्यूमर तथा प्रतिरक्षी रोगों व कैंसर के उपचार।
9. केल्सीटोनिनसूखा रोग (Rickets) का उपचार।
10. रक्ताणु उत्पत्तिकारक (एरिथ्रोपिओटिन)वृक्कअपोहन (डाइलेसिस) अथवा एड्स (AIDS) प्रभावित रोगियों के उपचार के कारण हुई रक्तक्षीणता के समय रक्ताणु का निर्माण उत्तेजित करना।

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प्रश्न 2.
एक सचित्र ( चार्ट ) (आरेखित निरूपण के साथ) बनाइए जो प्रतिबंध एंजाइम को (जिस क्रियाधार DNA पर यह कार्य करता है उसे ), उन स्थलों को जहाँ यह DNA को काटता हैव इनसे उत्पन्न उत्पाद को दर्शाता है।
उत्तर:
यहाँ ई.कोलाई से प्राप्त EcoRI नामक प्रतिबंधन एन्जाइम का उदाहरण दिया जा रहा है-
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प्रश्न 3.
कक्षा ग्यारहवं में जो आप पढ़ चुके हैं, उसके आधार पर क्या आप बता सकते हैं कि आण्विक आकार के आधार पर एंजाइम बड़े हैं या DNA? आप इसके बारे में कैसे पता लगायेंगे?
उत्तर:
एन्जाइम प्रोटीन होते हैं। प्रोटीन्स अणु अत्यधिक जटिल संरचना वाले वृहदाणु होते हैं। इनका निर्माण ऐमीनो अम्ल से होता है। प्रकृति में लगभग 300 प्रकार के ऐमीनो अम्ल पाए जाते हैं, परन्तु इनमें से केवल 20 ऐमीनो अम्ल ही जन्तु एवं पादप कोशिकाओं में पाए जाते हैं। ऐमीनो अम्ल शृंखलाबद्ध होकर परस्पर पेप्टाइड बन्ध द्वारा जुड़े रहते हैं। प्रत्येक प्रोटीन अणु की पॉलीपेप्टाइड शृंखला में ऐमीनो अम्ल का क्रम विशिष्ट प्रकार का होता है। प्रोटीन्स का आण्विक भार बहुत अधिक होता है। विभिन्न ऐमीनो अम्ल से बनने वाली प्रोटीन्स विभिन्न प्रकार की होती हैं। हमारे जरीर में लगभग 50,000 प्रकार के प्रोटीन्स पाये जाते हैं।

DNA के जैविक-वृहदाणु जटिल संरचना वाले होते हैं। ये प्रोटीन्स (एन्जाइम) से भी बड़े जीविक गुरुअणु होते हैं। इनका अणुभार 106 से 109 डाल्टन तक होता है। DNA अणु पॉलीन्यूक्लिओोटाइड भृंखला से बना होता है। DNA से कम अणुभार वाले m-RNAt-RNA तथा r-RNA का निर्माण होता है। RNA प्रोटीन संश्लेषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। RNA संश्लेषण हेतु DNA अणु विभिन्न स्थान पर द्विगुणित होकर छोटी-छोटी अनुपूरक सृंखलायें अर्थात् राइबोन्यूक्लिओटाइड अम्ल का एक छोटा अणु बनाती है। इन्हें प्रवेशक (Primers) कहते है। RNA प्रवेशकों के संश्लेषण का उत्प्रेरण RNA पॉलिमरेज (Polymerase) एन्जाइम करता है। RNA अणु प्रोटीन संश्लेषण के काम आते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि RNA अणु प्रोटीन्स (एन्जाइम्स) से भी बड़े अणु होते है। अतः अण्विक आकार के आधार पर DNA, एन्जाइम से बड़े होते हैं।

प्रश्न 4.
मानव की एक कोशिका में DNA की मोलर सान्द्रता क्या होगी? अपने अध्यापक से परामर्श लीजिए।
उत्तर:
मोलर सान्दता (Molar Concentration)-किसी पदार्थ की सान्द्रता प्रति इकाई आयतन में उसकी माश्रा की माप होती है। इसे सामान्यतया मोलरता (Molarity) के पदों में व्यक्त किया जाता है। किसी पदार्थ की मोलरता एक लीटर आयतन में उपस्थित उसके अणुओं की संख्या होती है। अणुओं की सान्द्रता की गणना निम्न सूत्र से की जा सकती है-
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DNA अणु जटिल जैविक वृहदाणु होते हैं इनका अणुभार 106 से 10 डाल्टन तक होता है हमारे शरीर में DNA के न्यूक्लियोटाइड का औसत आण्विक द्रव्यमान 130.86 होता है। अतः मानव DNA अणु का आण्विक द्रव्यमान 6 × 109 न्यूक्लियोटाइड (मानव जीवोम प्रोजेक्ट के अनुसार ) × 130.86 = 784.56 × 109 g/mol होगा।

प्रश्न 5.
क्या सुकेन्द्रकी कोशिकाओं में प्रतिबंधन एण्डोन्यूक्लिएज मिलते हैं? अपने उत्तर को सही सिद्ध कीजिए ।
उत्तर:
नहीं, सुकेन्द्रकी कोशिकाओं में प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज नहीं मिलते हैं ये कुछ जीवाणुओं में उपस्थित रहते हैं। सन् 1963 में ई. कोलाई (E. Coll) से दो एन्जाइम पृथक् किये गये थे। ये जीवाणुभोजी की वृद्धि को रोक देते हैं। इनमें एक एन्जाइम DNA से मैथिल समूह को जोड़ता है, जबकि दूसरा एन्जाइम DNA को काटता है। दूसरे एन्जाइम को प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज (Restriction Endonuclease) कहते हैं। प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज का उपयोग आनुवंशिक इन्जीनियरिंग में DNA के पुनर्योगज अणु (Recombinant Molecules of DNA) बनाने में किया जाता है जिसका निर्माण विभिन्न जीनोमों से प्राप्त DNA से मिलकर होता है।

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प्रश्न 6.
अच्छी हवा व मिश्रण विशेषता के अतिरिक्त विलोडन हौज बायोरिएक्टर में कौनसी अन्य कम्पन फ्लास्क सुविधाएँ हैं?
उत्तर:
सभी पुनर्योगज प्रौद्योगिकियों का अंतिम उद्देश्य वांछित प्रोटीन का उत्पादन करना होता है। इसके लिये पुनर्योगज DNA के अभिव्यक्त होने की आवश्यकता होती है। बाहरी जीन उपयुक्त परिस्थितियों में अभिव्यक्त होती है। वांछित जीन को क्लोन करने पर लक्ष्य प्रोटीन की अभिव्यक्ति को प्रेरित करने वाली परिस्थितियों को अनुकूलतम बनाने के पश्चात् इनका व्यापक स्तर पर उत्पादन किया जाता है। उत्पादों की अधिक मात्रा में उत्पादन हेतु बायोरिएक्टर (Bioreactor) की सहायता ली जाती है।

बायोरिएक्टर, वांछित उत्पादन हेतु अनुकूलतम परिस्थितियाँ उपलब्ध करता है। अनुकूलतम परिस्थितियों में तापमान, pH क्रियाधार, लवण, विटामिन, ऑक्सीजन आदि आते हैं। विलोडन हौज बायोरिएक्टर में प्रक्षोभक तंत्र (Agitator System), O2 प्रदाय तंत्र, झाग नियंत्रण तंत्र, तापक्रम तंत्र, पीएच नियंत्रण तंत्र व प्रतिचयन प्रद्वार (Sampling Ports) लगा होता है जिससे संवर्धन की थोड़ी मात्रा समय-समय पर निकाली जा सकती है (प्र. 10 के ‘ख’ में चित्र देखिए)।

प्रश्न 7.
शिक्षक से परामर्श कर पाँच पैलिंड्रोमिक अनुप्रयास करना होगा कि क्षारकयुग्म नियमों का पालन करते हुए पैलिंड्रोमिक अनुक्रम बनाने के उदाहरण का पता लगाइए।
उत्तर:
प्रत्येक सीमाकारी एन्जाइम, DNA स्ट्रेण्ड के विशिष्ट 4 से 6 न्यूक्लियोटाइड क्षार अनुक्रम को पहचानता है। इस क्रम को अभिज्ञेय स्थल (Recognisation Site ) या पैलिन्ड्रोम (Palindrome) कहते हैं पैलिन्ड्रोम वे शब्द होते हैं जिन्हें बायें से दायें अथवा दायें से बायें पढ़ने पर एक समान नजर आते हैं, जैसे-
MOM, BOB, MADAM, MALAYALAM

परन्तु शब्द पैलिंड्रोम और DNA पैलिंड्रोम में अंतर है। DNA में पैलिंड्रोम क्षारक युग्मों का एक ऐसा अनुक्रम होता है जो पढ़ने के अभिविन्यास को समान रखने पर दोनों लड़ियों में एक जैसा पढ़ा जाता है । उदाहरणार्थ – निम्न अनुक्रमों को 5→3 दिशा में पढ़ने पर दोनों लड़ियों में एक जैसा पढ़ा जायेगा । यदि इसे 3→5 दिशा में पढ़ा जाए तब भी यह बात सही बैठती है-
5′ GAATTC 3′
3′ – CTTAAG – 5′
प्रतिबंधन एंजाइम DNA लड़ी को पैलिंड्रोम स्थल के केंद्र से कुछ दूरी पर परन्तु विपरीत लड़ियों में दो समान क्षारकों के बीच काटते हैं । यहाँ पाँच पैलिंड्रोम क्षारकों के क्रम का उदाहरण दिया जा रहा है-
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Note-यहाँ तीर प्रतिबन्धित एन्डोन्यूक्लिएज एन्जाइम के कट को दर्शाता है।
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प्रश्न 8.
अर्धसूत्री विभाजन को ध्यान में रखते हुए क्या आप बता सकते हैं कि पुनर्योगज DNA किस अवस्था में बनते हैं?
उत्तर:
जैसा कि हम जानते हैं कि अर्धसूत्री विभाजन में गुणसूत्रों की संख्या घटकर आधी रह जाती है । प्रथम अर्धसूत्री विभाजन में प्रत्येक जोड़ी के समजात गुणसूत्रों (Homologous Chromosomes) के मध्य एक या अनेक खण्डों की अदला-बदली अर्थात् पारगमन (Crossing Over ) होता है ।

प्रथम अर्धसूत्री विभाजन की प्रथम पूर्वावस्था (Ist Prophase) की उपअवस्था ज़ाइगोटीन (Zygotene ) में समजात गुणसूत्र जोड़े बनते हैं। इसे सूत्रयुग्मक (Synapsis) कहते हैं। पैकिटीन (Pachytene) उपअवस्था में सूत्रयुग्मक सम्मिश्र ( Synaptonemal Complex) में एक या अधिक स्थानों पर गोल सूक्ष्म घुण्डियाँ दिखाई देने लगती हैं, इन्हें पुनर्संयोजन घुण्डियाँ (Recombination Nodules) कहते हैं ।

समजात गुणसूत्रों के परस्पर जुड़े क्रोमेटिड्स (Chromatids ) के मध्य एक या अधिक खण्डों की पारस्परिक अदला-बदली को पारगमन कहते हैं। इससे ही समजात पुनर्संयोजित DNA (Recombinant DNA) बन जाता है। पुनर्संयोजन घुण्डियाँ उन स्थानों पर बनती हैं जहाँ पर पारगमन हेतु क्रोमेटिड्स के टुकड़े टूटकर पुनः जुड़ते हैं ।

प्रश्न 9.
क्या आप बता सकते हैं कि प्रतिवेदक ( रिपोर्टर) एंजाइम को वरणयोग्य चिन्ह की उपस्थिति में बाहरी DNA को परपोषी कोशिकाओं में स्थानान्तरण के लिये मॉनिटर करने के लिये किस प्रकार उपयोग में लाया जा सकता है?
उत्तर:
DNA द्वारा आदाता (ग्राही) कोशिका में प्रवेश करने का कार्य तभी किया जाता है जब आदाता कोशिका अपने चारों ओर स्थित DNA को धारण करने में सक्षम हो जाती है। यह कार्य अनेक विधियों के द्वारा किया जाता है। यदि पुनर्योगज DNA को जिसमें प्रतिजैविक, जैसे ऐम्पिसिलिन के प्रति प्रतिरोधी जीन स्थित होती है, ई. कोलाई ( E. coli ) कोशिकाओं में स्थानान्तरित किया जाए तो परपोषी कोशिकाएँ प्रतिरोधी कोशिकाओं में रूपान्तरित हो जाती हैं।

यदि रूपान्तरित कोशिकाओं को एगार युक्त प्लेट पर फैलाया जाता है तो केवल रूपान्तरित कोशिकाएँ ही विकसित हो पाती हैं, जबकि अरूपान्तरित आदाता कोशिकाओं की मृत्यु हो जाती है। प्रतिरोधी जीन के कारण कोई भी ऐम्पिसिलिन की उपस्थिति में रूपान्तरित कोशिका का चयन कर सकता है। ऐसे प्रक्रम में प्रतिरोधी जीन को वरणयोग्य चिन्हक कहते हैं।

प्रश्न 10.
निम्नलिखित का संक्षिप्त वर्णन कीजिए-
(क) प्रतिकृतियन का उद्भव
(ख) बायोरिएक्टर
(ग) अनुप्रवाह संसाधन ।
उत्तर:
(क) प्रतिकृतियन का उद्भव (Origin of Replication = ori)-यह वह अनुक्रम है जहाँ से प्रतिकृतियन की शुरुआत होती है और जब कोई डीएनए का कोई खंड इस अनुक्रम से जुड़ जाता है तब परपोषी कोशिकाओं के अंदर प्रतिकृति कर सकता है। यह अनुक्रम जोड़े गए डीएनए के प्रतिरूपों की संख्या के नियंत्रण के लिए भी उत्तरदायी है। इसलिए यदि कोई लक्ष्य डीएनए की काफी संख्या प्राप्त करना चाहता है तो इसे ऐसे संवाहक में क्लोन करना चाहिए जिसका मूल (ori) अत्यधिक प्रतिरूप बनाने में सहयोग करता है (देखें चित्र 115 ) ।

(ख) बायोरिएक्टर (Bioreactor ) – लगभग सभी पुनर्योगज प्रौद्योगिकियों का मुख्य उद्देश्य वांछित प्रोटीन का उत्पादन करना होता है। इसके लिये पुनर्योगज डीएनए (recombinant DNA ) के अभिव्यक्त (Express) होने की आवश्यकता होती है। बाहरी जीन उपयुक्त परिस्थितियों में अभिव्यक्त होत हैं।

वांछित जीन को क्लोन करने, लक्ष्य प्रोटीन की अभिव्यक्ति को प्रेरित करने वाली परिस्थितियों को अनुकूलतम बनाने के पश्चात् इनका व्यापक स्तर पर उत्पादन संभव है। लाभकारी जीनों को आश्रय देने वाली कोशिकाओं का छोटे पैमाने पर प्रयोगशाला में वर्धन किया जा सकता है। संवर्धन को वांछित प्रोटीन का निष्कर्षण कर पृथक्करण की विभिन्न विधियों का प्रयोग कर प्रोटीन का शोधन कर सकते हैं।

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कोशिकाओं को सतत संवर्धन तंत्र में गुणित कर सकते हैं, जिसमें उपयोग किये गए माध्यम को एक तरफ से निकालकर दूसरी तरफ से ताजा माध्यम को भरते हैं ताकि कोशिकाएँ अपने क्रियात्मक रूप से सर्वाधिक सक्रिय लॉग (exponential ) प्रावस्था में बनी रहें। यह संवर्धन विधि अधिक जैव मात्रा के उत्पादन में वांछित प्रोटीन के अधिक उत्पादन हेतु उपयोगी है।

इन उत्पादों के अधिक मात्रा में उत्पादन हेतु बायोरिएक्टर का उपयोग किया जाता है। बायोरिएक्टर एक बर्तन के समान होते हैं, जिसमें सूक्ष्मजीवों, पौधों, जंतुओं व मानव कोशिकाओं का उपयोग करते हुए कच्चे माल को जैव रूप से विशिष्ट उत्पादों व्यष्टि एंजाइम आदि में परिवर्तित किया जाता है। बायोरिएक्टर वांछित उत्पाद प्राप्त करने के लिये अनुकूलतम परिस्थितियाँ उपलब्ध करता है।

तापमान, pH, क्रियाधार, लवण, विटामिन, ऑक्सीजन आदि वृद्धि हेतु अनुकूलतम परिस्थितियाँ हैं। प्राय: विलोडन (stirring) प्रकार का बायोरिएक्टर सर्वाधिक उपयोग में लाया जाता है। विलोडित हौज बायोरिएक्टर (stirred tank bioreactor ) बेलनाकार होते हैं। इसके आधार घुमावदार होने से बायोरिएक्टर के अंदर अंतर्वस्तु के मिश्रण में सहायता मिलती है। बायोरिएक्टर में ऑक्सीजन की उपलब्धता तथा मिश्रण मिलाने की विलोडन ( stirrer) सुविधा होती है।

एकान्तर में बायोरिएक्टर में हवा बुलबलों के रूप में भेजी जाती है। बायोरिएक्टर में एक प्रक्षोभक तंत्र (agitator system), ऑक्सीजन प्रदाय तंत्र, झाग नियंत्रण तंत्र, पी एच नियंत्रण तंत्र, तापक्रम नियंत्रण तंत्र व प्रतिचयन प्रद्वार ( sampling ports) लाभ होता है। जिससे संवर्धन की थोड़ी मात्रा समय-समय पर निकाली जा सकती है।

(ग) अनुप्रवाह संसाधन (Downstream Processing ) – जैव संश्लेषित अवस्था के पूर्ण होने के बाद परिष्कृत तैयार होने व विपणन (marketing) के लिए भेजे जाने से पहले कई प्रक्रमों से होकर गुजरता है। इन प्रक्रमों में पृथक्करण व शोधन सम्मिलित है और इसे सामूहिक रूप से अनुप्रवाह संसाधन कहते हैं। उत्पाद को उचित परिरक्षक के साथ संरूपित करते हैं।

औषधि के मामले में ऐसे संरूपण ( फार्मुलेशन) को चिकित्सीय परीक्षण से गुजारते हैं । प्रत्येक उत्पाद के लिए सुनिश्चित गुणवत्ता नियंत्रण परीक्षण की भी आवश्यकता होती है। अनुप्रवाह संसाधन व गुणवत्ता नियंत्रण परीक्षण प्रत्येक उत्पाद के लिए भिन्न-भिन्न होता है।

प्रश्न 11.
संक्षेप में बताइए –
(क) पी सी आर (ख) प्रतिबंधन एंजाइम और डी एन ए (ग) काइटिनेज ।
उत्तर:
(क) पी सी आर (PCR ) – पी सी आर का अर्थ पोलीमरेज श्रृंखला अभिक्रिया (Polymerase Chain Reaction PCR) है। यह एक जीन प्रवर्धन की तकनीक है। वस्तुतः यह एक फोटोकॉपी करने वाले यंत्र की भांति है। DNA के छोटे से टुकड़े की सहायता से कुछ ही समय में करोड़ों कापियाँ बनाई जा सकती हैं।

इस क्रिया में प्राइमर्स (छोटे रासायनिक संश्लेषित ओलिगोन्यूक्लियोटाइड्स जो DNA क्षेत्र के पूरक होते हैं) के दो सेट तथा DNA पॉलिमरेज एंजाइम का उपयोग कर पात्रे (in vitro) विधि द्वारा उपयोगी जीन की अनेक प्रतिकृतियों का संश्लेषण होता है। यह एंजाइम जिनोमिक DNA को टेंपलेट (template) के रूप में काम में लेकर, अभिक्रिया से मिलने वाले न्यूक्लियोटाइडों का उपयोग करते हुये प्राइमर्स को विस्तृत कर देता है।

यदि DNA प्रतिकृतियन प्रक्रम अनेक बार दोहराया जाता है तब DNA खंड को लगभग एक अरब गुना (एक बिलियन) प्रवर्धित किया जा सकता है अर्थात् एक अरब प्रतिरूपों का निर्माण होता है। यह सतत प्रवर्धन तापस्थायी (Thermostable) DNA पॉलीमरेज (जीवाणु, थर्मस एक्वेटिकस से पृथक् किया गया है) द्वारा किया जाता है। उच्च तापमान द्वारा प्रेरित द्विलड़ीय DNA के विकृतीकरण (Denaturation) के समय भी सदैव सक्रिय बना रहता है। प्रवर्धित खंड को यदि चाहें तो संवाहक के साथ बांध कर आगे क्लोनिंग में प्रयोग कर सकते हैं ।

(ख) प्रतिबंधन एन्जाइम और डी एन ए (Restriction Enzyme and DNA)-वे एन्जाइम जो DNA को निश्चित बिन्दुओं पर काटकर उसको निश्चित आकार के छोटे-छोटे टुकड़ों में कर देते हैं, उन्हें प्रतिबंधन एन्जाइम कहते हैं। वर्तमान में 900 से अधिक प्रतिबंधन एन्जाइमों के विषय में जानकारी है जो जीवाणुओं की 230 से अधिक प्रभेदों (Strains) से पृथक् किये गये हैं। ये प्रत्येक विभिन्न पहचान अनुक्रमों को पहचानते हैं।

प्राकृतिक रूप से ये एन्जाइम जीवाणुओं में पाये जाते हैं। प्रतिबंधन एन्जाइम जीवाणुओं पर आक्रमण करने वाले विषाणु या वांछित DNA से जीवाणु की सुरक्षा करते हैं क्योंकि ये आक्रमणकारी विषाणु या वांछित DNA का अपघटन कर देते हैं। प्रतिबंधन एन्जाइम जीवाणु DNA का अपघटन नहीं करते हैं। प्रत्येक प्रतिबंधन एन्जाइम, DNA स्ट्रेण्ड के विशिष्ट 4 से 6 न्यूक्लियोटाइड क्षार अनुक्रम को पहचानता है। इस क्रम को अभिज्ञेय स्थल (Recognisation Site ) या पेलिन्ड्रोम (Palindrome) कहते हैं। विशिष्ट क्रम की अभिज्ञेयता के पश्चात् प्रतिबंधन एन्जाइम अभिज्ञेय स्थल की प्रत्येक लड़ी में एक-एक काट (Cut) लगाता है।

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प्रतिबंधन एन्जाइम, न्यूक्लिएज कहलाने वाले एंजाइमों के बड़े वर्ग में आते हैं। ये दो प्रकार के एक्सोन्यूक्लिएज व एंडोन्यूक्लिएज होते हैं। एक्सोन्यूक्लिएज DNA के सिरे से न्यूक्लियोटाइड को अलग करते हैं जबकि एंडोन्यूक्लिएज DNA को भीतर विशिष्ट स्थलों पर काटते हैं। प्रत्येक प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज DNA अनुक्रम की लंबाई के ‘निरीक्षण’ उपरान्त कार्य करता है। जब यह अपना विशिष्ट पहचान अनुक्रम पा जाता है तब यह DNA से जुड़ता है तथा द्विकुंडलिनी की दोनों लड़ियों को शर्करा- फॉस्फेट आधारस्तंभों में विशिष्ट केन्द्रों पर काटता है।

इनके नामकरण में नाम का प्रथम अक्षर वंश व दूसरा तथा तीसरा शब्द प्राकेंद्रकी (prokaryotic) कोशिकाओं की जाति से लिया गया है, जिनसे ये पृथक् किये गये हैं। जैसे EcoRI, Eco एशरिशिया कोलाई से तथा ‘R’ प्रभेद के नाम से लिया गया है। नाम के बाद रोमन अंक उस क्रम को दर्शाते हैं जिसको जीवाणु के प्रभेद से एंजाइम पृथक् किये गये हैं।

(ग) काइटिनेज (Chitinase) – DNA को पृथक् करने के लिये प्रतिबंधन एंजाइम का उपयोग लिया जाता है। परन्तु इसमें यह आवश्यक है कि यह DNA दूसरे अन्य वृहत् – अणुओं से मुक्त होकर शुद्ध रूप में होना चाहिये। हम जानते हैं कि DNA झिल्लियों के द्वारा घिरा होता है । अतः इसमें कोशिका को तोड़ना होता है। यह प्रक्रिया विशेष एंजाइमों द्वारा होती है जैसे लाइसोजाइम जीवाणु कोशिका को, सेलुलेज पादप कोशिका को व काइटिनेज कवक कोशिकाओं को तोड़ने का कार्य करते हैं। कवक कोशिका की भित्ति में काइटिन (Chitin) रसायन होता है अत: काइटिन को तोड़ने वाला एंजाइम काइटिनेज होता है।

प्रश्न 12.
अपने अध्यापक से चर्चा करके पता लगाइए कि निम्नलिखित के बीच कैसे भेद करेंगे-
(क) प्लाज्मिड DNA और गुणसूत्रीय DNA
(ख) RNA और DNA
(ग) एक्सोन्यूक्लिएज और एंडोन्यूक्लिएज ।
उत्तर:
(क) प्लाज्मिड DNA और गुणसूत्रीय DNA
(Plasmind DNA and Chromosomal DNA ) – प्लाज्मिड अतिरिक्त गुणसूत्री रचनाएँ होती हैं जो जीवाणुओं के अन्दर स्वतः गुणित होती रहती हैं। इनका DNA दो सूत्रों का बना, प्रायः गोलाकार (Circular) होता है। इन पर अन्य जीनों के अतिरिक्त प्लाज्मिड की प्रतिकृति करने वाले जीन भी पाए जाते हैं। पुनर्योगज DNA तकनीक में प्रयुक्त प्लाज्मिड में प्रतिजैविक रोधिता वाले जीन भी होते हैं जिनसे पुनर्योगज DNA अणुओं की पहचान सम्भव हो पाती है ।

गुणसूत्रों में उपस्थित DNA गुणसूत्रीय DNA होता है। यह भी दो सूत्रों का होता है परन्तु गोलाकार नहीं होता तथा कोशिका के केन्द्रक में होता है। इसमें प्रतिजैविक रोधिता वाले जीन नहीं होते हैं। यह प्लाज्मिड DNA की तुलना में अधिक लम्बा तथा अधिक न्यूक्लियोटाइड युक्त होता है ।

HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 11 जैव प्रौद्योगिकी-सिद्धांत व प्रक्रम

(ख) RNA व DNA की तुलना-

RNADNA
1. इसमें रिबोस (Ribose) शर्करा होती है।1. इसमें डिऑक्सीरिबोस (Deoxyribose) शर्करा होती है।
2. RNA अणु में फॉस्फेरिक अम्ल होता है, जो शर्करा के एक अणु को दूसरे अणु से जोड़ता है।2. RNA के समान।
3. इसमें निम्नलिखित नाइट्रोजन क्षार (base) होते हैं-

(अ) प्यूरीन्स (एडीनीन व ग्वानीन)

(ब) पिरिमीडिन्स (साइटोसीन व यूरेसिल)

3. निम्नलिखित नाइट्रोजन बेस होते हैं-

(अ) प्यूरीन्स (एडीनीन व ग्वानीन)

(ब) पिरिमीडिन्स (साइटोसीन व थायमीन)

4. अणुओं के चार न्यूक्लियोटाइड इस प्रकार होते हैं-

(अ) एडिनोसीन मोनोफॉस्फेट

(ब) ग्वानोसीन मोनोफॉस्फेट

(स) साइटोसीन मोनोफॉस्फेट

(द) यूरिडीन मोनोफॉस्फेट

4. अणुओं के चार न्यूक्लियोटाइड इस प्रकार हैं-

(अ) डिऑक्सीएडिनोसीन मोनोफॉस्फेट

(ब) डिऑक्सीग्वानोसीन मोनोफॉस्फेट

(स) डिऑक्सीसाइटोसीन मोनोफॉस्फेट

(द) डिऑक्सीथायमिडीन मोनोफॉस्फेट

5. RNA में अनेक न्यूक्लियोटाइट्स का बना एक लम्बा सूत्र होता है।5. DNA में दो लम्बे सूत्रों की बनी कुण्डली (helix) होती है, जिसमें अनेक न्यूक्लियोटाइड्स के जोड़े क्रम में लगे रहते हैं।
6. यह आनुवंशिक सूचनावाहक है और प्रोटीन के संश्लेषण में विशेष योगदान करता है, परन्तु अपवादस्वरूप आनुवंशिक पदार्थ का कार्य कर सकता है।6. DNA आनुवंशिक पदार्थ है और कोशिका में होने वाली सभी क्रियाओं पर नियन्त्रण करता है।
7. यह केन्द्रिका (Nucleolus), Nucleoplasm, cytoplasm में पाया जाता है।7. यह Chromosome, Nucleoplasm, Mito-chondria व Chloroplast में पाया जाता है।

(ग) एक्सोन्यूक्लिएज और एंडोन्यूक्लिएज (Exonuclease and Endonuclease)-

एक्सोन्यूक्लिएजएंडोन्यूक्लिएज
ये DNA के सिरे से न्यूक्लियोटाइड को अलग करते हैं।ये DNA के भीतर विशिष्ट स्थलों पर काटते हैं। प्रत्येक प्रतिबंधन एंडोन्यूक्लिएज DNA अनुक्रम की लम्बाई के निरीक्षण पश्चात् कार्य करता है। जब यह अपना विशिष्ट पहचान अनुक्रम पा जाता है तब यह DNA से जुड़ता है तथा द्विकुंडलिनी की दोनों लड़ियों को शर्करा-फॉस्फेट आधारस्तम्भों के विशिष्ट केन्द्रों पर काटता है।

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HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 10 मानव कल्याण में सूक्ष्मजीव

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 10 मानव कल्याण में सूक्ष्मजीव Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 10 मानव कल्याण में सूक्ष्मजीव

प्रश्न 1.
जीवाणुओं को नग्न नेत्रों द्वारा नहीं देखा जा सकता, लेकिन सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखा जा सकता है। यदि आपको . अपने घर से अपनी जीव विज्ञान प्रयोगशाला तक एक नमूना ले ना हो और सूक्ष्मदर्शी की सहायता से इस नमूने से सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति को प्रदर्शित करना हो, तो किस प्रकार का नमूना आप अपने साथ ले जायेंगे और क्यों?
उत्तर:
हम प्रतिदिन सूक्ष्मजीवियों अथवा उनसे व्युत्पन्न उत्पादों का प्रयोग करते हैं। इसका सामान्य उदाहरण दूध से दही का उत्पादन है। सूक्ष्मजीव जैसे लैक्टोबैसिलस तथा अन्य जिन्हें सामान्यतः लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया (एल.ए.बी.) कहते हैं, दूध में वृद्धि करते हैं और उसे दही में परिवर्तित कर देते हैं। इसी प्रकार एक बैकर यीस्ट ( सैकरोमाइसीज सैरीवीसी) का प्रयोग ब्रेड बनाने में किया जाता है।

यदि हमको अपने घर से अपनी जीव विज्ञान प्रयोगशाला तक एक नमूना ले जाना हो और सूक्ष्मदर्शी की सहायता से इस नमूने से सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति को देखना हो तो हम एक सड़ी हुई ( खराब) ब्रेड का टुकड़ा या फिर थोड़ी सी मात्रा में दही ले जायेंगे। क्योंकि ये दोनों चीजें आसानी से उपलब्ध हैं और इनमें सूक्ष्मजीव आसानी से दिखाई दे जाते हैं। ब्रेड पर जो हरा हरा-सा रंग दिखाई देता है, वास्तव में वह फंजाई (Fungus) है। उसके स्पोर वायु में उपस्थित रहते हैं जो खाद्य पदार्थ में वृद्धि करते रहते हैं।

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प्रश्न 2.
उपापचय के दौरान सूक्ष्मजीव गैसों का निष्कासन करते हैं; उदाहरण द्वारा सिद्ध करें।
उत्तर:
दाल-चावल का बना ढीला-ढाला आटा जिसका प्रयोग ‘डोसा’ तथा ‘इडली’ जैसे आहार को बनाने में किया जाता है, बैक्टीरिया द्वारा किण्वित होता है। इस आटे की फूली उभरी शक्ल CO2 गैस के उत्पादन के कारण होती है। स्विस चीज में पाए जाने वाले बड़े-बड़े छिद्र प्रोपिओनिबैक्टीरिया शारमैनाई नामक बैक्टीरियम द्वारा बड़ी मात्रा में उत्पन्न CO2 के कारण होते हैं। ‘रॉक्यूफोर्ट चीज’ एक विशेष प्रकार के कवक की वृद्धि से परिपक्व होते हैं जिससे विशेष सुगंध आने लगती है।

प्रश्न 3.
किस भोजन (आहार) में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया मिलते हैं? इनके कुछ लाभप्रद उपयोगों का वर्णन करें।
उत्तर:
लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया (एल. ए.बी.) दूध में मिलते हैं। ये दूध में वृद्धि करते हैं और दही में परिवर्तित कर देते हैं। वृद्धि के दौरान ये अम्ल उत्पन्न करते हैं जो दुग्ध प्रोटीन को स्कंदित तथा आंशिक रूप से पचा देते हैं। दही बनने पर विटामिन बी12 की मात्रा बढ़ने से पोषण संबंधी गुणवत्ता में भी सुधार हो जाता है। हमारे पेट में भी सूक्ष्मजीवियों द्वारा उत्पन्न होने वाले रोगों को रोकने में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया एक लाभदायक भूमिका का निर्वाह करते हैं ।

प्रश्न 4.
कुछ पारंपरिक भारतीय आहार जो गेहूँ, चावल तथा चना ( अथवा उनके उत्पाद) से बनते हैं और उनमें सूक्ष्मजीवों का प्रयोग शामिल हो, उनके नाम बताएँ ।
उत्तर:
बहुत से पारंपरिक भारतीय आहार हैं जो गेहूँ, चावल तथा चना से बनते हैं और उनमें सूक्ष्मजीवों का प्रयोग शामिल होता है। उनके नाम इस प्रकार हैं- दही, पनीर, चीज, डोसा, इडली; कुछ भारतीय ब्रेड जैसे ‘भटूरा’ दक्षिण भारत के कुछ भागों में एक पारंपरिक पेय ‘टोडी’ है। किण्वित मछली, सोयाबीन तथा ब्राँस प्ररोह आदि के भोजन तैयार करने में किया जाता है।

प्रश्न 5.
हानिप्रद जीवाणु द्वारा उत्पन्न करने वाले रोगों के नियंत्रण में किस प्रकार सूक्ष्मजीव महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं?
उत्तर:
हानिप्रद जीवाणु द्वारा उत्पन्न करने वाले रोगों के नियंत्रण में सूक्ष्मजीव महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
प्रतिजैविक (एंटीबॉयोटिक) एक प्रकार के रासायनिक पदार्थ हैं, जिनका निर्माण कुछ सूक्ष्मजीवियों द्वारा होता है। यह अन्य (रोग उत्पन्न करने वाले) सूक्ष्मजीवियों की वृद्धि को मंद अथवा उन्हें मार सकते हैं। पैनीसिलीन सबसे पहला एंटीबॉयोटिक था।

इस एंटीबॉयोटिक का प्रयोग दूसरे विश्व युद्ध में घायल अमेरीकन सिपाहियों के उपचार में व्यापक रूप से किया गया पैनिसिलीन के बाद अन्य सूक्ष्मजीवियों से अन्य एंटीबॉयोटिक को भी परिशुद्ध किया गया। प्लेग, काली खाँसी, डिफ्थीरिया (गलघोट्ट), लैप्रोसी (कुष्ठ रोग) जैसे भयानक रोग जिनसे संसार में लाखों लोग मरे हैं, के उपचार के लिए एंटिबॉयोटिक ने हमारी क्षमता में वृद्धि करके वे एक शक्ति के रूप में उभरकर आये हैं।

प्रश्न 6.
किन्हीं दो कवक प्रजातियों के नाम लिखें, जिनका प्रयोग प्रतिजैविकों (एंटीबॉयोटिक) के उत्पादन में किया जाता है।
उत्तर:
पैनीसिलीन, पैनीसिलीयम नोटेटम और पैनीसिलीन कैरीसोगेनियम नामक मोल्ड से उत्पन्न होता है।

प्रश्न 7.
वाहितमल से आप क्या समझते हैं? वाहितमल हमारे लिए किस प्रकार से हानिप्रद है?
उत्तर:
प्रतिदिन नगर एवं शहरों से व्यर्थ जल की एक बहुत बड़ी मात्रा जनित होती है। इस व्यर्थ जल का प्रमुख घटक मनुष्य का मलमूत्र है । नगर के इस व्यर्थ जल को वाहितमल (सीवेज) भी कहते हैं। इसमें कार्बनिक पदार्थों की बड़ी मात्रा तथा सूक्ष्मजीव पाये जाते हैं जो अधिकाशत रोगजनकीय होते हैं।
प्रश्न 8.
प्राथमिक तथा द्वितीयक वाहितमल उपचार के बीच पाए जाने वाले मुख्य अन्तर कौन से हैं?
उत्तर:
प्राथमिक वाहितमल उपचार वाहितमल से बड़े-छोटे कणों का निस्यंदन (फिल्ट्रेशन) तथा अवसादन (सेडीमेंटेशन) द्वारा भौतिक रूप से अलग कर दिया जाता है। इन्हें भिन्न-भिन्न चरणों में अलग किया जाता है। आरंभ में तैरते हुए कूड़े-करकट को अनुक्रमिक निस्यंदन द्वारा हटा दिया जाता है। इसके बाद शिंतबालुकाश्म (ग्रिट) (मृदा तथा छोटे पुटिकाओ पेवल) को अवसादन द्वारा निष्कासित किया जाता हैं।

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सभी ठोस जो प्राथमिक आपंक ( स्लज) के नीचे बैठे कण हैं, वह और प्लावी (सुपरनैटेड) बहि:स्राव (इफ्लुएंट) का निर्माण करता है। बहिःस्राव को प्राथमिक निःसादन (सेटलिंग) टैंक से द्वितीयक उपचार के लिए ले जाया जाता है। द्वितीयक वाहितमल उपचार – प्राथमिक बहि:स्राव को बड़े वायवीय टैंकों में से गुजारा जाता है। जहाँ यह लगातार यांत्रिक रूप से हिलाया जाता है और वायु को इसमें पंप किया जाता है। इससे लाभदायक वायवीय सूक्ष्मजीवियों की प्रबल सशक्त वृद्धि ऊर्णक के रूप में होने लगती है ।

वृद्धि के दौरान यह सूक्ष्मजीव बहि:स्राव में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों के प्रमुख भागों की खपत करता है। यह बहि:स्राव के बी.ओ.डी. (बॉयोकेमीकल ऑक्सीजन डिमांड) को महत्त्वपूर्ण रूप से घटाने लगता है। बी.ओ.डी. ऑक्सीजन की उस मात्रा को संदर्भित करता है जो जीवाणु द्वारा एक लीटर पानी में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों की खपत कर उन्हें ऑक्सीकृत कर दे। वाहितमल का तब तक उपचार किया जाता है जब तक बी.ओ.डी. घट न जाए।

प्रश्न 9.
सूक्ष्मजीवों का प्रयोग ऊर्जा के स्रोतों के रूप में भी किया जा सकता है। यदि हाँ, तो किस प्रकार से ? इस पर विचार करें।
उत्तर:
हाँ, सूक्ष्मजीवों का प्रयोग ऊर्जा के स्रोतों के रूप में भी किया जा सकता है। बॉयोगैस एक प्रकार से गैसों का मिश्रण है जो | ये सूक्ष्मजीवी सक्रियता द्वारा उत्पन्न होती है वृद्धि तथा उपापचयन के दौरान सूक्ष्मजीवी विभिन्न किस्मों के गैसीय अंतिम उत्पाद उत्पन्न करते हैं। जैसे मीथेन, हाइड्रोजन सल्फाइड तथा कार्बन डाइ ऑक्साइड । गैसें बॉयोगैस का निर्माण करती हैं। चूँकि ये ज्वलनशील होती हैं, इस कारण इनका प्रयोग ऊर्जा के स्रोत के रूप में किया जा सकता है। बॉयोगैस को सामान्यतः ‘गोबर गैस’ भी कहते हैं।

प्रश्न 10.
सूक्ष्मजीवों का प्रयोग रसायन उर्वरकों तथा पीड़कनाशियों के प्रयोग को कम करने के लिए भी किया जा सकता है। यह किस प्रकार संपन्न होगा? व्याख्या कीजिए ।
उत्तर:
आज पर्यावरण प्रदूषण चिंता का एक मुख्य कारण है। कृषि उत्पादों की बढ़ती माँगों को पूरा करने के लिए रसायन उर्वरकों का प्रयोग इस प्रदूषण के लिए महत्त्वपूर्ण है। जैव उर्वरक एक प्रकार के जीव हैं, जो मृदा की पोषक गुणवत्ता को बढ़ाते हैं। जैव उर्वरकों का मुख्य स्रोत जीवाणु, कवक तथा सायनोबैक्टीरिया होते हैं। लैग्यूमिनस पादपों की जड़ों पर स्थित ग्रंथियों के बारे में हम पढ़ चुके हैं।

इन ग्रंथियों का निर्माण राइजोबियम के सहजीवी संबंध द्वारा होता है। यह जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिरीकृत कर कार्बनिक रूप में परिवर्तित कर देते हैं। पादप इसका प्रयोग पोषकों के रूप में करते हैं। अन्य जीवाणु ( उदाहरण – ऐजोस्पाइरिलम तथा ऐजोबैक्टर) मृदा में मुक्तावस्था में रहते हैं। यह भी वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को स्थिर कर सकते हैं। इस प्रकार मृदा में नाइट्रोजन बढ़ जाती है।

कवक पादपों के साथ सहजीवी संबंध स्थापित करते हैं। ऐसे संबंधों से युक्त पादप कई अन्य लाभ जैसे-मूलवातोढ़ रोगजनक के प्रति प्रतिरोधकता, लवणता तथा सूखे के प्रति सहनशीलता तथा कुलवृद्धि तथा विकास प्रदर्शित करते हैं। सायनोबैक्टीरिया स्वपोषित, सूक्ष्मजीव हैं जो जलीय तथा स्थलीय वायुमण्डल में विस्तृत रूप से पाए जाते हैं। इनमें बहुत से वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को स्थिरीकृत कर सकते हैं।

पादप रोगों तथा पीड़कों के नियंत्रण के लिए जैव वैज्ञानिक विधि का प्रयोग ही जैव नियंत्रण है आधुनिक समाज में ये समस्याएँ रसायनों, कीटनाशियों तथा पीड़कनाशियों के बढ़ते हुए प्रयोगों की सहायता से नियंत्रित की जाती हैं ये रसायन मनुष्यों तथा जीव-जन्तुओं के लिए अत्यन्त ही विषैले तथा हानिकारक हैं। ये पर्यावरण (मृदा, भूमिगत जल) को प्रदूषित करते हैं तथा फलों, साग-सब्जियों और फसलों पर भी हानिकारक प्रभाव डालते है। खरपतवारनाशियों का प्रयोग खरपतवार को हटाने में किया जाता है।

ये भी हमारी मृदा को प्रदूषित करते हैं। बैक्टीरिया बैसीलस धूरिजिऐसिस (B) का प्रयोग बटरफ्लाई केटरपिलर नियंत्रण में किया जाता है। वैक्यूलोवायरेसिस ऐसे रोगजनक हैं जो कीटों तथा संधिपादों पर हमला करते हैं। न्यूक्लिओ- पॉलीहीड्रोसिस वायरस (NPU) प्रजाति विशेष, संकरे स्पैक्ट्रम कीटनाशीय उपचारों के लिए उत्तम माने गए हैं।

प्रश्न 11.
जल के तीन नमूने लो एक नदी का जल, दूसरा अनुपचारित वाहितमल जल तथा तीसरा वाहितमल उपचार संयंत्र से निकला द्वितीयक बहिःस्राव। इन तीनों नमूनों पर “अ”, “ब”, “स” के लेबल लगाओ। इस बारे में प्रयोगशाला कर्मचारी को पता नहीं है कि कौन-सा क्या है? इन तीनों नमूनों “अ”,”ब”, “स” का बी.ओ.डी. का रिकॉर्ड किया गया जो क्रमश: 20mg / L, 8mg/ L तथा 400mg/L निकला। इन नमूनों में कौनसा सबसे अधिक प्रदूषित नमूना है ? इस तथ्य को सामने रखते हुए कि नदी का जल अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छ है। क्या आप सही लेबल का प्रयोग कर सकते हैं?
उत्तर:
बी.ओ.डी. ऑक्सीजन की उस मात्रा को संदर्भित करता है जो जीवाणु द्वारा एक लीटर पानी में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों की खपत पर उन्हें ऑक्सीकृत कर दे। वाहितमल का तब तक उपचार किया जाता है जब तक बी.ओ.डी. घट न जाए। जल के एक नमूने में सूक्ष्मजीवियों द्वारा ऑक्सीजन के उद्ग्रहण की दर का मापन बी.ओ.डी. परीक्षण से किया जाता है, अतः अप्रत्यक्ष रूप से जल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों का मापन ही बी.ओ.डी. है। जब व्यर्थ जल का बी.ओ.डी. अधिक होगा, तब उसकी प्रदूषण क्षमता भी अधिक होगी। दिए गए जल के तीन नमूनों में से नदी के जल का बी.ओ.डी.
(अ) 20mg/L है; अनुपचारित वाहितमल जल का बी.ओ.डी.
(ब) 8mg/L तथा द्वितीयक बहि:स्राव के जल का बी.ओ.डी.
(स) 400mg / L है सही लेबल इस प्रकार है-

(अ) नदी का जल (स्वच्छ जल ) ।
(ब) द्वितीयक बहि:स्राव ( उपचारित वाहित जल ) ।
(स) दूसरा अनुपचारित ( वाहितमल जल ) ।

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प्रश्न 12.
उस सूक्ष्मजीवी का नाम बताओ जिसमें साइक्लोस्पोरिन ए ( प्रतिरक्षा निषेधात्मक औषधि) तथा स्टैटिन ( रक्त कोलिस्ट्रोल लघुकरण कारक ) को प्राप्त किया जाता है।
उत्तर:
साइक्लोस्पोरिन ए जिसका प्रयोग अंग प्रतिरोपण में प्रतिरक्षा निरोधक (इम्यूनोसप्रेसिव) कारक के रूप में रोगियों में किया जाता है। इसका उत्पादन ट्राइकोडर्मा पॉलोस्पोरम नामक कवक से किया जाता है। मोनॉस्कस परप्यूरीअस यीस्ट से उत्पन्न इस स्टैटिन का व्यापारिक स्तर पर प्रयोग रक्त कॉलिस्ट्रॉल को कम करने वाले कारक के रूप में किया जाता है।

प्रश्न 13.
निम्नलिखित में सूक्ष्मजीवियों की भूमिका का पता लगाएँ तथा अपने अध्यापक से इनके विषय में विचार-विमर्श करें-
(क) एकल कोशिका प्रोटीन (एस.सी.पी. )
(ख) मृदा ।
उत्तर:
(क) एकल कोशिका प्रोटीन (एस.सी.पी. ) – पशु तथा
मानव पोषण के लिए प्रोटीन के वैकल्पिक स्रोतों में से एक एकल कोशिका प्रोटीन है।
सूक्ष्मजीवों का प्रोटीन के अच्छे स्रोत के रूप में बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा रहा है। वास्तव में अधिकांश लोगों द्वारा मशरूम भोजन के रूप में खाए जाने लगे हैं। अतः बड़े पैमाने में मशरूम – संवर्धन एक प्रकार से बढ़ता हुआ उद्योग है जिससे अब विश्वास होने लगा है कि सूक्ष्मजीव आहार के रूप में स्वीकार्य हो जायेंगे। सूक्ष्मजीवी स्पाइरुलाइना में प्रोटीन, खनिज, वसा कार्बोहाइड्रेट तथा विटामिन प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। इसका उपयोग पर्यावरणीय प्रदूषण को भी कम करता | सूक्ष्मजीव जैसे मिथाइलोफिलस मिथाइलोट्रोपस की वृद्धि तथा बायोमास उत्पादन की उच्च दर से संभावित 25 टन तक प्रोटीन उत्पन्न कर सकते हैं।

(ख) मृदा जैव उर्वरक एक प्रकार के जीव हैं, जो मृदा की पोषक गुणवत्ता को बढ़ाते हैं जैव उर्वरकों का मुख्य स्रोत जीवाणु, कवक तथा सायनोबैक्टीरिया होते हैं। लैग्यूमिनस पादपों की जड़ों पर स्थित ग्रंथियों का निर्माण राइजोबियम के सहजीवी संबंध द्वारा होता है। ये जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिरीकृत कर कार्बनिक रूप में परिवर्तित कर देते हैं। पादप इसका उपयोग पोषकों के रूप में करते हैं। यह भी वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को स्थिर कर सकते हैं। इस मृदा में नाइट्रोजन अवयव बढ़ जाते हैं।

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प्रश्न 14.
निम्नलिखित को घटते क्रम में मानव समाज कल्याण के प्रति उनके महत्त्व के अनुसार संयोजित करें, महत्त्वपूर्ण पदार्थ को पहले रखते हुए कारणों सहित अपना उत्तर लिखें। बायोगैस, सिट्रिक एसिड, पैनीसिलीन तथा दही।
उत्तर:
दी गई सूची में सबसे महत्वपूर्ण पदार्थ पैनीसिलीन है क्योंकि यह मानव सभ्यता के कल्याण के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह कई जानलेवा बीमारियों को ठीक कर सकता है। इसके बाद सूची में बॉयोगैस का नम्बर आता है क्योंकि यह ईंधन का स्रोत है। इसके बाद सूची में दही का स्थान आता है क्योंकि यह हमें पोषक दुग्ध उत्पादन प्रदान करता है। इसके बाद सूची में ( अंत में सिट्रिक एसिड का नम्बर आता है जिसका उपयोग प्रोसेसिंग उद्योगों में किया जाता है।

प्रश्न 15.
जैव उर्वरक किस प्रकार से मृदा की उर्वरता को बढ़ाते हैं?
उत्तर:
जैव उर्वरक एक प्रकार के जीव हैं, जो मृदा की पोषक गुणवत्ता को बढ़ाते हैं। जैव उर्वरकों का मुख्य स्रोत कवक, जीवाणु तथा सायनोबैक्टीरिया होते हैं। दूसरे जीवाणु ऐजोस्पाइरिलम तथा ऐजोबैक्टर भी वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को स्थिर कर जाते हैं। धान के खेत में सायनोबैक्टीरिया महत्त्वपूर्ण जैव उर्वरक की भूमिका निभाते हैं। नील हरित शैवाल भी मृदा में कार्बनिक पदार्थ बढ़ा देते हैं, जिससे उसकी उर्वरता बढ़ जाती है।

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HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 9 खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 9 खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 9 खाद्य उत्पादन में वृद्धि की कार्यनीति

प्रश्न 1.
मानव कल्याण में पशुपालन की भूमिका की संक्षेप में व्याख्या दीजिये।
उत्तर:
पशुपालन, पशुप्रजनन तथा पशुधन वृद्धि की एक कृषि पद्धति है। पशुपालन का संबंध पशुधन जैसे- भैंसें, गाय, सुअर, घोड़ा, भेड़, ऊँट, बकरी आदि के प्रजनन तथा उनकी देखभाल से होता है जो मानव के लिए लाभप्रद है। इसमें कुक्कुट तथा मत्स्यपालन भी शामिल हैं। अति प्राचीन काल से मानव द्वारा जैसे – मधुमक्खी, रेशमकीट, झींगा, केकड़ा, मछलियाँ, पक्षी, सुअर, भेड़, ऊँट आदि का प्रयोग उनके उत्पादों जैसे- दूध, अंडे, मांस, ऊन, रेशम, शहद आदि प्राप्त करने के लिए किया जाता रहा है।
विश्व की बढ़ती जनसंख्या के साथ खाद्य उत्पादन की वृद्धि एक प्रमुख आवश्यकता है।

पशुपालन खाद्य उत्पादन बनाने के प्रयासों में मुख्य भूमिका निभाता है। शहद का उच्च पोषक मान तथा इसके औषधीय महत्त्व को ध्यान में रखते हुए मधुमक्खी पालन अथवा मौन पालन पद्धति में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। डेयरी उद्योग से मानव खपत के लिए दुग्ध तथा इसके उत्पाद प्राप्त होते हैं। कुक्कुट का प्रयोग भोजन के लिए अथवा उनके अंडों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है । हमारी जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग आहार के रूप में मछली, मछली उत्पादों तथा अन्य जलीय जन्तुओं पर आश्रित है। हमारे देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या पशुपालन उद्योग से किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई है। पशुपालन हमारी अर्थव्यवस्था का आधार है। अतः मानव कल्याण में पशुपालन की बहुत बड़ी भूमिका है।

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प्रश्न 2.
यदि आपके परिवार के पास एक डेयरी फार्म है तब आप दुग्ध उत्पादन में उसकी गुणवत्ता तथा मात्रा में सुधार लाने के लिए कौन-कौनसे उपाय करेंगे?
उत्तर:
दुग्ध उत्पादन मूल रूप से फार्म में रहने वाले पशुओं की नस्ल की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। अच्छी नस्ल, , जिसमें उच्च उत्पादन क्षमता वाली अच्छी नस्ल का चयन तथा उनकी रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अच्छी उत्पादन क्षमता प्राप्त करने के लिए पशुओं की अच्छी देखभाल जिसमें उनके रहने का अच्छा घर, पर्याप्त जल तथा रोगमुक्त वातावरण होना आवश्यक है। पशुओं को भोजन प्रदान करने का ढंग वैज्ञानिक होना चाहिए। जिसमें विशेषकर चारे की गुणवत्ता तथा मात्रा पर बल दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त दुग्धीकरण तथा दुग्ध उत्पादों के भण्डारण तथा परिवहन के दौरान कड़ी सफाई तथा स्वास्थ्य का महत्त्व सर्वोपरि है।

इन कठोर उपायों को सुनिश्चित करने के लिए सही-सही रिकॉर्ड रखने एवं निरीक्षण की आवश्यकता होती है। इससे समस्याओं की परिवहन के दौरान कड़ी सफाई तथा स्वास्थ्य का महत्त्व सर्वोपरि है। इन कठोर उपायों को सुनिश्चित करने के लिए सही-सही रिकॉर्ड रखने एवं निरीक्षण की आवश्यकता होती है। इससे समस्याओं की पहचान और उनका समाधान शीघ्रतापूर्वक निकालना संभव हो जाता है। पशु चिकित्सक का नियमित जाँच हेतु आना अनिवार्य है।

प्रश्न 3.
‘नस्ल’ शब्द से आप क्या समझते हैं? पशु प्रजनन के क्या उद्देश्य हैं ?
उत्तर:
पशुओं का वह समूह जो वंश तथा सामान्य लक्षणों जैसे- सामान्य दिखावट, आकृति, आकार, संरूपण आदि में समान हो, एक नस्ल (Breed) के कहलाते हैं । पशु प्रजनन का उद्देश्य पशुओं के उत्पादन को बढ़ाना तथा उनके उत्पादों की वांछित गुणवत्ता में सुधार लाना है। पशुओं में श्रेष्ठ मादा वह चाहे गाय अथवा भैंस हो, प्रति दुग्धीकरण पर दूध अधिक देती है। दूसरी ओर, साँड़ों में श्रेष्ठ अन्य नरों में श्रेष्ठ किस्म की संतति उत्पन्न कर सकते हैं।

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प्रश्न 4.
पशु प्रजनन के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली विधियों के नाम बताइये । आपके अनुसार कौन-सी विधि सर्वोत्तम है ? क्यों?
उत्तर:
पशुओं में प्रजनन की निम्न विधियाँ हैं-
(1) अंत:प्रजनन (Inter Breeding) – किसी एक ही नस्ल के विभिन्न जन्तुओं जिनकी वंशावली में कोई उभयनिष्ठ पूर्वज होता है, में क्रॉस अन्तःप्रजनन कहलाता है। अन्तः प्रजनन की विधि में किसी एक ही नस्ल की उत्कृष्ट मादाओं एवं उत्कृष्ट नर सदस्यों की पहचान कर उनके जोड़ों में प्रजनन कराया जाता है। इन जोड़ों से उत्पन्न संततियों का मूल्यांकन कर, उनमें से उत्कृष्ट मादा एवं नर जन्तुओं की पहचान की जाती है। उत्कृष्टता का मानदण्ड अधिक लाभदायक एवं गुणवत्ता के मानक चरों की अभिव्यक्ति को माना जाता है। उदाहरण के लिए गायों में उत्कृष्ट मादा, अन्य गायों की तुलना में प्रति दुग्धस्रवण काल, अधिक दूध देने वाली गाय होती है। इसी प्रकार उत्कृष्ट साँड़ वह होता है जो अन्य नरों की तुलना में उत्कृष्ट संततियां उत्पन्न करता है।

ऐसी उत्कृष्ट संततियों के पुनः जोड़े बनाकर आगे प्रजनन कराया जाता है। अन्तःप्रजनन से प्राप्त संततियों में समयुग्मजता में वृद्धि होती है। व ऐसी समष्टि के सदस्यों में मूल नस्ल की तुलना में कम विविधता पायी जाती है। अन्तःप्रजनन के कारण हानिकारक एवं अप्रभावी युग्मविकल्पियों को अभिव्यक्त होने का अवसर मिलता है जो कि चयन की प्रक्रिया द्वारा समष्टि से निष्कासित कर दिए जाते हैं तथा साथ ही इसके द्वारा लाभदायक एवं श्रेष्ठ जीनों का संचय होता है ।

अतः इस विधि द्वारा जन्तुओं की उत्पादकता एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती है किन्तु निरन्तर अन्तःप्रजनन, विशेषत: निकट व्यष्टियों में अन्तःप्रजनन के कारण जनन क्षमता एवं उत्पादकता में कमी आती है। इस परिघटना को अन्तः प्रजनन अवसादन (Inter breeding depression) कहते हैं। अन्तःप्रजनन अवसादन की स्थिति में चयन किये गये जन्तुओं का संगम उसी नस्ल के ऐसे उत्कृष्ट जन्तुओं से कराया जाता है जो उनसे सम्बन्धित नहीं होते।

(2) बहिः प्रजनन (Out Breeding ) – इस विधि या युक्ति के द्वारा दो भिन्न-भिन्न नस्लों में मिलने वाले लाभदायक लक्षणों को एक साथ समाविष्ट कर उन्नत नस्ल का विकास किया जाता है। इस विधि में किसी नस्ल की उत्कृष्ट मादाओं का संगम किसी अन्य नस्ल के उत्कृष्ट नर से कराया जाता है। इनसे प्राप्त संततियों का व्यापारिक उत्पादन हेतु संकर जीवों के रूप में उपयोग किया जाता है अथवा इनमें अन्तःप्रजनन कराकर, चयन पद्धति द्वारा इनसे कोई नई स्थायी व अधिक श्रेष्ठ नस्ल उत्पन्न की जा सकती है। इस विधि द्वारा कई नई जन्तु साथ समाविष्ट कर उन्नत नस्ल का विकास किया जाता है।

इस विधि में किसी नस्ल की उत्कृष्ट मादाओं का संगम किसी अन्य नस्ल के उत्कृष्ट नर से कराया जाता है। इनसे प्राप्त संततियों का व्यापारिक उत्पादन हेतु संकर जीवों के रूप में उपयोग किया जाता है अथवा इनमें अन्तःप्रजनन कराकर, चयन पद्धति द्वारा इनसे कोई नई स्थायी व अधिक श्रेष्ठ नस्ल उत्पन्न की जा सकती है। इस विधि द्वारा कई नई जन्तु नस्लों का विकास किया जा चुका है।

उदाहरणार्थ – भारतीय जेबू नस्ल अपनी अनुकूली क्षमता तथा रोग प्रतिरोधकता के गुणों में विदेशी यूरोपियन नस्लों से बेहतर है किन्तु इनमें दुग्ध उत्पादन क्षमता यूरोपियन नस्लों की तुलना में काफी कम है। अतः भारतीय जेबू नस्ल तथा यूरोपियन नस्लों (होल्सटीन, ब्राउन स्विस, जर्सी, रैड डेन इत्यादि) के मध्य बाह्य संकरण द्वारा संकर गायों की उन्नत नस्ल विकसित की गई है जिनमें कि रोग प्रतिरोधकता, अनुकूली क्षमता एवं अधिक दुग्ध उत्पादन जैसे लाभदायक गुणों का समावेश हो सकता है। राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान, करनाल द्वारा विकसित करनस्विस नस्ल ऐसी ही एक उन्नत किस्म है।

(3) बहि:संकरण (Out Crossing ) – एक ही नस्ल के भीतर पशुओं के संगम की यह क्रिया बहि:- संकरण कहलाती है । परन्तु इसमें चार से छ: पीढ़ियों तक दोनों ओर की किसी भी वंशावली में उभय पूर्वज नहीं होना चाहिए। इस संगम के परिणामस्वरूप जो संतति उत्पन्न होती है वह बहि: संकरण कहलाती है । प्रजनन की यह विधि ऐसे पशुओं के लिए सर्वश्रेष्ठ होती है जिनकी दुग्ध उत्पादन क्षमता तथा मांसदायी दर औसत से कम होती है। एकल बहि: संकरण से बहुधा अंत:प्रजनन अवसादन समाप्त हो जाता है।

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(4) संकरण (Cross Breeding ) – इस विधि में एक नस्ल के श्रेष्ठ नर का दूसरी नस्ल की श्रेष्ठ मादा के साथ संगम कराया जाता है। संकरण दो विभिन्न नस्लों के वांछनीय गुणों के संयोजन में सहायक होता है। संतति संकर पशुओं का प्रयोग व्यापारिक स्तर पर उत्पादन के लिए किया जा सकता है। इनका प्रयोग अंतःप्रजनन के किसी रूप एवं चयन के विकल्पी रूप में विकसित हो सके, जिससे नई स्थायी नस्लें जो वर्तमान नस्लों से हर प्रकार से श्रेष्ठ हो। इस विधि द्वारा पशुओं की अनेक नई नस्लों का विकास हुआ है । हिसरडैल भेड़ की एक नयी नस्ल है, जिसका विकास पंजाब में बीकानेरी एैवीज (भेड़) तथा मैरीनो रेम्स (मेढा या मेष) के बीच संगम कराने से हुआ।

(5) अंतः विशिष्ट (Inter Specific Hybridisation) – जन्तुओं में सुधार हेतु प्रयुक्त इस विधि में एक जाति के नर या मादा जन्तुओं का किसी अन्य जाति के मादा या नर जन्तुओं के साथ संगम कराया जाता है। ऐसे संगम से उत्पन्न संततियाँ सामान्यतः दोनों जनक जातियों से भिन्न लक्षण दर्शाती हैं। दुर्भाग्य से अधिकतर अन्तरजातीय संकर जन्तु बन्ध्य होते हैं तथा इनकी उत्तरजीविता काफी कम होती है किन्तु कई बार ऐसे कुछ संकरों की संततियों में दोनों ही जनक प्रजातियों के वांछनीय लक्षण उपस्थित होते हैं जो कि आर्थिक महत्त्व के हो सकते हैं। उदाहरणार्थ – घोड़ी एवं गधे के बीच संगम से उत्पन्न खच्चर अपनी जनक प्रजातियों की तुलना में अधिक दमदार एवं पुष्ट होता है। यह कठिन मार्गों तथा पर्वतीय क्षेत्रों में ढुलाई जैसे कठिन कार्य के लिए अधिक उपयोगी होते हैं।

कृत्रिम वीर्य सेचन (Artificial Insemination ) – हमारे विचार में सबसे अच्छी (सर्वोत्तम ) पशु प्रजनन विधि है। इस विधि द्वारा अधिकतर महत्त्वपूर्ण प्रजातियाँ पैदा होती हैं। यह विधि गाय, भैंस, कुक्कुट, भेड़, घोड़े, खच्चर तथा बकरी आदि के गुणों को सुधारने के लिए काफी प्रयुक्त की जाती है ।

प्रश्न 5.
मौन (मधुमक्खी ) पालन से आप क्या समझते हैं? हमारे जीवन में इसका क्या महत्त्व है ?
उत्तर:
शहद के उत्पादन के लिए मधुमक्खियों के छत्तों का रख- रखाव ही मधुमक्खी पालन अथवा मौन पालन है।
मधुमक्खी पालन का हमारे दैनिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है-
(1) शहद उच्च पोषक महत्त्व का एक आहार है तथा औषधियों की देशी प्रणाली में भी इसका प्रयोग किया जाता है।
(2) मधुमक्खियाँ मोम भी पैदा करती हैं जिसका कांतिवर्धक वस्तुओं की तैयारी तथा विभिन्न प्रकार के पॉलिश वाले उद्योगों में प्रयोग किया जाता है।
(3) मधुमक्खियाँ हमारी बहुत सी फसलों जैसे- सूर्यमुखी, सरसों, सेब तथा नाशपाती के लिए परागणक हैं। पुष्पीकरण के समय यदि इनके छत्तों को खेतों के बीच रख दिया जाए तो इससे पौधों की परागण क्षमता बढ़ जाती है और इस प्रकार फसल तथा शहद दोनों के उत्पादन में सुधार हो जाता है।

प्रश्न 6.
खाद्य उत्पादन को बढ़ाने में मात्स्यकी की भूमिका का विवेचन करें।
उत्तर:
मात्स्यकी एक प्रकार का उद्योग है जिसका संबंध मछली अथवा अन्य जलीय जीवों को पकड़ना, उनका प्रसंस्करण तथा उन्हें बेचने से होता है। हमारी जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग आहार के रूप में मछली, मछली उत्पादों तथा जलीय जन्तुओं आदि पर आश्रित है। भारतीय अर्थव्यवस्था में मात्स्यकी का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यह तटीय राज्यों में विशेषकर लाखों मछुआरों तथा किसानों को आय तथा रोजगार प्रदान करती है।

बहुत से लोगों के लिए यही जीविका का एकमात्र साधन है। मात्स्यकी की बढ़ती हुई माँग को देखते हुए इसके उत्पादन को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार की तकनीकें अपनाई जा रही हैं। मात्स्यकी उद्योग विकसित हुआ है तथा फला-फूला है। जिससे सामान्यतः देश को तथा विशेषत: किसानों को काफी आमदनी हुई। इसकी प्रगति को देखते हुए अब हम ‘हरित क्रांति’ (Green Revolution) की भाँति ‘नील क्रांति’ (Blue Revolution) की बात करने लगे हैं।

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प्रश्न 7.
पादप प्रजनन में भाग लेने वाले विभिन्न चरणों का संक्षेप में वर्णन करो ।
उत्तर:
पादप प्रजनन कार्यक्रम अत्यन्त सुव्यवस्थित तरीके से पूरे विश्व में सरकारी संस्थानों तथा व्यापारिक कंपनियों द्वारा चलाये जा रहे हैं। फसल की एक नयी आनुवंशिक नस्ल के प्रजनन में निम्न मुख्य पद होते हैं-
(1) परिवर्तनशीलता का संग्रहण – आनुवंशिक परिवर्तनशीलता किसी भी प्रजनन कार्यक्रम का मूलाधार है। विभिन्न जंगली किस्मों, प्रजातियों तथा कृष्टय प्रजातियों के संबंधियों का संग्रहण एवं परिरक्षण तथा उनके अभिलक्षणों का मूल्यांकन उनके समष्टि में उपलब्ध प्राकृतिक जीन के प्रभावकारी समुपयोजन के लिए पूर्वापेक्षित होता है । किसी फसल में पाए जाने वाले सभी जीनों के विविध अलील के समस्त संग्रहण को उसका जननद्रव्य (जर्मप्लाज्म ) संग्रहण कहते हैं ।

(2) जनकों का मूल्यांकन तथा चयन- जननद्रव्य मूल्यांकित किए जाते हैं, ताकि पादपों को उनके लक्षणों के वांछनीय संयोजनों के साथ अभिनिर्धारित किया जा सके। इस प्रकार जहाँ वांछनीय तथा संभव है, वहाँ शुद्ध वंशक्रम उत्पन्न कर ली जाती है।

(3) चयनित जनकों के बीच संकरण – वांछित लक्षणों को बहुधा दो भिन्न पादपों से प्राप्त कर संयोजित किया जाता है, उदाहरणार्थ एक जनक जिसमें उच्च प्रोटीन गुणवत्ता है और अन्य जनक जिसमें रोग निरोधक गुण है, दोनों के संयोजन की आवश्यकता है। यह परसंकरण द्वारा संभव है कि दो जनक ऐसे संकर पैदा करें, जिससे आनुवंशिक वांछित लक्षणों का संगम एक पौधे में हो सके।

(4) श्रेष्ठ पुनर्योगज का चयन तथा परीक्षण – इसके अन्तर्गत संकरों की संतति के बीच से पादप का चयन किया जाता है जिनमें वांछित लक्षण संयोजित हों। प्रजनन उद्देश्यों को प्राप्त करने में चयन की यह प्रक्रिया काफी महत्त्वपूर्ण है।

(5) नये कंषणों का परीक्षण, निर्मुक्त होना तथा व्यापारीकरण – नव चयनित वंशक्रम का उनके उत्पादन तथा अन्य गुणवत्ता वाली शस्यी विशेषकों, रोगप्रतिरोधकता आदि गुणों के आधार पर मूल्यांकित किया जाता है। मूल्यांकित पौधों को अनुसंधान वाले खेतों में जहाँ उन्हें आदर्श उर्वरक प्राप्त हो रहे हैं, उन्हें सिंचाई का पानी मिल रहा हो तथा अन्य समुचित शस्य प्रबंधन आदि उपलब्ध हों, वहाँ पैदा किया जाता है तथा उसमें उपर्युक्त गुणों का मूल्यांकन किया जाता है ।

प्रश्न 8.
जैव प्रबलीकरण का क्या अर्थ है? व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
जैव प्रबलीकरण (biofortification) उन्नत खाद्य गुणवत्ता रखने वाली पादप प्रजनन फसलें हैं । जैवपुष्टि-कारण-विटामिन तथा खनिज के उच्च स्तर वाली अथवा उच्च प्रोटीन तथा स्वास्थ्यवर्धक वसा वाली प्रजनित फसलें जन स्वास्थ्य को सुधारने के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रायोगिक माध्यम हैं । उन्नत पोषण / पोषक गुणवत्ता के लिए निम्न को सुधारने के उद्देश्य से प्रजनन किया गया है –
(1) प्रोटीन अंश तथा गुणवत्ता
(2) तेल अंश तथा गुणवत्ता
(3) विटामिन अंश
(4) सूक्ष्म पोषक तथा खनिज अंश
पहले से विद्यमान संकर मक्का की तुलना में 2000 में विमुक्त संकर मक्का में अमीनो एसिड, लायसीन तथा ट्रिप्टोफैन की दुगुनी मात्रा विकसित की गयी है। गेहूँ की किस्म जिसमें उच्च प्रोटीन अंश हो, एटलस 66 कृष्य गेहूँ की ऐसी उन्नतशील किस्म तैयार करने के लिए दाता की तरह से प्रयोग किया गया है। लौह तत्व बहुल धान की किस्म को विकसित करना अब संभव हो गया है, इसमें सामान्यतः प्रयोग में लाई गई किस्मों की तुलना में लौह तत्व की मात्रा पाँच गुणा अधिक होती है।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नयी दिल्ली ने बहुत सी सब्जियों की फसलों का मोचन किया है जिनमें विटामिन तथा खनिज प्रचुर मात्रा में होते हैं जैसे- गाजर, पालक, कद्दू में विटामिन- – ए; : करेला, बथुआ, सरसों, टमाटर में विटामीन सी; पालक तथा बथुआ जिसमें आयरन तथा कैल्सियम प्रचुर मात्रा में तथा ब्रॉड बींस, लबलब, फ्रेंच तथा गार्डन मटर में प्रोटीन प्रचुर मात्रा में पायी जाती है।

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प्रश्न 9.
विषाणु मुक्त पादप तैयार करने के लिए पादप का कौन-सा भाग सबसे अधिक उपयुक्त है तथा क्यों?
उत्तर:
विषाणु मुक्त पादप तैयार करने के लिए पादप का तना (meristems apical and axillary) एपिकल तथा एक्सीलरी भाग हमेशा विषाणु मुक्त रहता है। पादप विषाणु जड़, भूमिगत तना, बल्ब, राइजोम (root, tubers, bulb, rhizome etc.) आदि संचारित होते हैं विषाणु मुक्त स्वस्थ पादप प्राप्त करने के लिए यदि ऊतक संवर्धन (tissue culture) तकनीक का प्रयोग किया जाये तो हमें एक स्वस्थ रोगाणु मुक्त पादप प्राप्त होगा। यह तकनीक आलू, गन्ना तथा स्ट्राबेरी आदि में सफलतापूर्वक प्रयोग की जा रही है।

प्रश्न 10.
सूक्ष्म प्रवर्धन द्वारा पादपों के उत्पादन के मुख्य लाभ क्या हैं?
उत्तर:
ऊतक संवर्धन द्वारा कृषि, उद्यान तथा वानिकी के लिए उपयुक्त पादप सामग्री के त्वरित गुणन को सूक्ष्म प्रवर्धन कहते हैं । सूक्ष्म प्रवर्धन द्वारा पादपों के उत्पादन के मुख्य लाभ इस प्रकार हैं-
(1) बहु प्ररोहिका उत्पादन (Multiple Shootlet Production) – प्ररोह शिखाग्र को संवर्धित करके, किसी विलक्षण पौधे या संकर की अनेक प्रतिकृतियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। विशिष्ट उपचारों के फलस्वरूप कैलस के बजाय अनेक कलिकाएँ बनती हैं, जिन्हें उगाकर प्ररोह प्राप्त किये जा सकते हैं, जिनमें हार्मोनों की सहायता से जड़ों के निर्माण को प्रेरित कर सकते हैं। आलू, इलायची, केला, क्रिसेन्थिमम आदि के प्रवर्धन में इससे काफी सहायता मिली है।

(2) कायिक भ्रूण विकास (Somatic Embryogenesis)- कायिक भ्रूण या एम्ब्रयॉयड ( embryoids) वे भ्रूण हैं जो ऊतक संवर्धन में कायिक कोशिकाओं से विकसित होते हैं। ये उन सभी प्रावस्थाओं में से गुजरते हैं, जिनमें से लैंगिक जनन के फलस्वरूप उत्पन्न भ्रूण गुजरते हैं। थोड़े से संवर्धन माध्यम से गाजर के हजारों एम्ब्रयॉयड प्राप्त किये जा सकते हैं, जिनसे पौधे विकसित किये जा सकते हैं।

(3) रोग-मुक्त पौधों के उत्पादन में (Production of Disease-free Plants) – कायिक प्रवर्धन करने वाले पौधों में रोगाणु विषाणुओं का संचरण आसानी से प्रवर्ध्य (Propagules) द्वारा होता है। ऐसा पाया गया है कि रोगग्रस्त पौधे प्ररोह शीर्ष के विभज्योतक की कोशिकाओं में रोगाणु नहीं होते। इन कोशिकाओं के संवर्धन से आलू, गन्ना, स्ट्राबेरी इत्यादि अनेक पौधों को रोगमुक्त अवस्था में प्राप्त किया जाता है।

(4) पुंजनिक अगुणित पौधों की प्राप्ति (Production of Androgenic Haploids) – अगुणित पौधों का पादप प्रजनन कार्यक्रमों में काफी महत्त्व है। आप लानते हैं कि शुद्ध (समजात) पौधों को प्राप्त करना अति कठिन काम है। कई पीढ़ियों तक स्वपरागण कराना पड़ता है। परन्तु ऊतक संवर्धन द्वारा यह काफी सरल हो गया है। आप जानते हैं कि प्रत्येक परागकोष में कई हजार अगुणित कोशिकाएँ (परागकण ) होती हैं। इनको संवर्धित करके, इनसे अगुणित पौधे प्राप्त किये जाते हैं । कोलचिसिन की सहायता से इनके गुणसूत्रों को दुगुना करके समजात द्विगुणित पौधे भी प्राप्त किए जा सकते हैं। इस प्रकार समजात विभेदों की प्राप्ति के लिए लम्बे समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। सर्वप्रथम गुहा एवं माहेश्वरी (Guha and Maheshwari, 1965 ) ने धतुरा इनोक्सिया (Datura inoxia) के पुंजनिक अगुणित पौधे प्राप्त किए थे।

(5) भ्रूण रक्षा (Embryo Rescue ) – अन्तर्जातीय संकरण के फलस्वरूप उत्पन्न भ्रूण की प्रायः मृत्यु हो जाती है तथा बीज बेकार हो जाता है। नव-उत्पन्न भ्रूण को निकालकर, उसे संवर्धित करके बचाया जा सकता है।

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(6) उत्परिवर्तनों का प्रेरण व चयन (Induction and Selection of Mutants) – कोशिकाओं को तरल संवर्धन माध्यम से उगाकर अच्छी तरह हिलाया जाता है ताकि कोशिकाएँ माध्यम में निलंबित हो जायें। तत्पश्चात् इन कोशिकाओं की विभिन्न पैट्रीडिशों में ऐसे संवर्धन माध्यम पर स्थानान्तरित कर देते हैं, जिनमें उत्परिवर्तक प्रेरक रसायन हो। प्राप्त उत्परिवर्तक में से लाभदायक विभेदकों को चुन लिया जाता है। इसी प्रकार माध्यम में अपतृणनाशक, लवण आदि डालने से सभी कोशिकाओं की मृत्यु हो जायेगी। केवल वे बच पायेंगी जो इनका प्रतिरोध कर सकती हैं। उनसे पौधे की रोधी किस्में विकसित की जा सकती हैं।

(7) जीवद्रव्यक संलयन (Protoplast Fusion ) – इस विधि से ऐसे पौधों के संकर तैयार किये जा सकते हैं, जिनके बीच लैंगिक प्रजनन संभव नहीं है। पौधों की कोशिकाओं से एंजाइम की सहायता से कोशिका भित्ति हटा दी जाती है तथा जीवद्रव्य को संवर्धन माध्यम में उगाया जाता है। इससे पूर्व कि कोशिका भित्ति पुनः बने दोनों जातियों तथा उपजातियों के जीवद्रव्यकों को पॉलिइथाइलीन ग्लाइकोल (PEG) अथवा अन्य उपयुक्त पदार्थों की सहायता से संलयन करा दिया जाता है। इन संकर जीवद्रव्यकों को संवर्धित करके उनसे संकर पौधे प्राप्त किये जाते हैं। आलू तथा टमाटर का संकर पोटोमेटो इसका अच्छा उदाहरण है।

प्रश्न 11.
पत्ती में कर्तोंतकी पादप के प्रवर्धन में जिस माध्यम का प्रयोग किया गया है, उनसे विभिन्न घटकों का पता लगाओ ।
उत्तर:
एक पूर्ण पादप कर्तोतकी से पुनर्जनित किया जा सकता है। जैसे- पादप का कोई भाग ले लीजिये, उसे विशिष्ट पोषक मीडिया तथा रोगाणुरहित स्थिति में एक टेस्टट्यूब में उगने दिया जाये। किसी कोशिका कर्त्तेतकी से पूर्ण पादप में जनित्र होने की यह क्षमता पूर्णशक्तता (Totipotency) कहलाती है ।
पोषक माध्यम कार्बन स्रोत जैसे- स्युक्रोज तथा अकार्बनिक लवण, विटामिन, अमीनो अम्ल तथा वृद्धि नियंत्रक हार्मोन जैसे – ऑक्सिन, सायटोकाइनिन आदि प्रदान करे। इन विधियों द्वारा अत्यंत ही अल्प अवधि में हजारों पादपों का प्रवर्धन संभव हो सका।

प्रश्न 12.
शस्य पादपों के किन्हीं पाँच संकर किस्मों के नाम बताएँ, जिनका विकास भारतवर्ष में हुआ है ।
उत्तर:
भारत में शस्य पादपों की संकरी किस्म गेहूँ, मक्का, चावल (धान), ज्वार तथा बाजरा का सफलतापूर्वक विकास किया जा चुका है। इन किस्मों के कुछ नाम इस प्रकार हैं –

फसलकिस्म
धानआई.आर. 8, जया, पद्मा, बाला, पूसा, आर. एच. 20 , शक्ति, रतन
गेहूँशरबती, सोनारा, सोनालिका, कल्याण सोना, हीरा-मोती, आर.आर. 21, यू.पी. 301 तथा एच. यू. डब्ल्यू, 468
मक्कागंगा 101, रंकित और दक्किन हाइब्रिड, प्रोटीना
भिंडीपूस आवनी
बैंगनपूसा बैंगनी, पूसा क्रांति और मुक्तवेशी

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HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 8 मानव स्वास्थ्य तथा रोग

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 8 मानव स्वास्थ्य तथा रोग Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 8 मानव स्वास्थ्य तथा रोग

प्रश्न 1.
कौनसे विभिन्न जन स्वास्थ्य उपाय हैं, जिन्हें आप संक्रामक रोगों के विरुद्ध रक्षा उपायों के रूप में सुझाएँगे?
उत्तर:
संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए हम निम्नलिखित उपाय सुझाएँगे-
(1) संक्रामक रोगों के प्रति टीकाकरण (प्रतिरक्षीकरण) कार्यक्रमों का आयोजन करना।
(2) खाने और पानी आपूर्ति के संसाधनों का स्वच्छ रख-रखाव रखने के लिए लोगों एवं सरकार (प्रशासन) को प्रेरित करें।
(3) रोग और शरीर के विभिन्न प्रकार्यों पर उनके प्रभाव के बारे में जागरूकता (लोगों को रोगों के प्रति शिक्षित करना)।
(4) रोगवाहकों (वेक्टर्स) पर नियंत्रण रखने के उपाय करने चाहिए, जैसे गदंगी के ढेर और गंदे पानी को (बाढ़ या नालियों के पानी को) इकट्ठा न होने दें।
(5) अपशिष्टों (वेस्ट) का समुचित निपटान ताकि वातावरण स्वच्छ बना रहे।

प्रश्न 2.
जैविकी के अध्ययन ने संक्रामक रोगों को नियंत्रित करने में किस प्रकार हमारी सहायता की है?
उत्तर:
जीव विज्ञान में हुई प्रगति से हमें संक्रामक रोगों से निबटने के लिए कारगर हथियार मिल गये हैं। टीका ( Vaccine) के उपयोग और प्रतिरक्षीकरण कार्यक्रमों से चेचक, डिफ्थीरिया, न्यूमोनिया और टिटेनस जैसे अनेक संक्रामक रोगों को काफी हद तक नियंत्रित कर लिया गया है। जैव प्रौद्योगिकी (बायोटेक्नोलॉजी) के उपयोग से नए- नए और अधिक सुरक्षित वैक्सीन बनाये जा रहे हैं। प्रतिजैविकों (एंटीबायोटिक) एवं अन्य दूसरी औषधियों की खोज ने भी संक्रामक रोगों के प्रभावी ढंग से उपचार करने में हमें सक्षम बनाया है ।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित रोगों का संचरण कैसे होता है?
(क) अमीबता
(ख) मलेरिया
(ग) एस्के रिसता
(घ) न्यूमोनिया।
उत्तर:
(क) अमीबता ( Amoebiasis) – मानव की वृहत् आंत्र में पाए जाने वाले एंटअमीबा हिस्टोलिटिका (Entamoeba histolytica) नामक प्रोटोजोन परजीवी से अमीबता (अमीबिएसिस) या अमीबी अतिसार होता है। कोष्ठबद्धता (कब्ज), उदरीय पीड़ा और ऐंठन, अत्यधिक श्लेषमल और रक्त के थक्के वाला मल इस रोग के लक्षण हैं। घरेलू मक्खियाँ इस रोग की शारीरिक वाहक हैं और परजीवी को संक्रमित व्यक्ति के मल से खाद्य पदार्थों तक ले जाकर उन्हें संदूषित कर देती हैं। मल पदार्थों द्वारा संदूषित पेयजल और खाद्य पदार्थ संक्रमण के प्रमुख स्रोत हैं।

(ख) मलेरिया (Malaria) – प्लैज्मोडियम (Plasmodium) नामक एक बहुत ही छोटा-सा प्रोटोजोअन मलेरिया के लिए उत्तरदायी है। प्लैज्मोडियम की विभिन्न जातियाँ ( प्लै वाइवैक्स, प्लै मेलिरिआई और प्लै. फैल्सीपेरम) विभिन्न प्रकार के मलेरिया के लिए उत्तरदायी हैं। इनमें से प्लैज्मोडियम फैल्सीपेरम द्वारा होने वाला दुर्दम (मेलिगनेंट) है और यह घातक भी हो सकता है। मादा ऐनोफेलीज मच्छर मानव में इस रोग का संचारण करती है ।

(ग) एस्केरिसता (Ascariasis) – आंत्र परजीवी ऐस्केरिस लुम्बिकॉयड्स (Ascaris lumbricoids) से एस्के रिसता (एस्केरिएसिस) नामक रोग होता है। आंतरिक रक्तस्राव, पेशीय पीड़ा, ज्वर, अरक्तता और आंत्र का अवरोध इस रोग के लक्षण हैं। इस परजीवी के अंडे संक्रमित व्यक्ति के मल के साथ बाहर निकल आते हैं। और मिट्टी, जल, पौधों आदि को संदूषित कर देते हैं। स्वस्थ व्यक्ति में यह संक्रमण संदूषित पानी, शाक-सब्जियों, फलों आदि के सेवन से हो जाता है।

(घ) न्यूमोनिया (Pneumonia)- स्ट्रेप्टोकोकस न्यूमोनी (Streptococcus pneumoniac ) एवं हीमोफिल्स इंफ्लुएंजी (Haemophilus influenzae) नामक जीवाणु मानव में न्यूमोनिया रोग के लिए उत्तरदायी हैं। वायु के माध्यम से जीवाणु स्वस्थ व्यक्ति में संचरित होते हैं। इस रोग में फुफ्फुस के वायुकोष्ठ संक्रमित हो जाते हैं । संक्रमण के फलस्वरूप वायुकोष्ठकों में तरल भर जाता है जिसके कारण सांस लेने में गंभीर समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। ज्वर, ठिठुरन, खाँसी और सिरदर्द आदि न्यूमोनिया के लक्षण हैं।

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प्रश्न 4.
जल-वाहित रोगों की रोकथाम के लिए आप क्या उपाय अपनायेंगे?
उत्तर:
पानी के द्वारा संचारित होने वाले कुछ मुख्य रोग हैं- टायफॉइड, अमीबता, एस्केरिसता, मलेरिया, कॉलेरा आदि। इन रोगों की रोकथाम के लिए-
(1) जलाशयों, कुंडों और मलकुंडों और तालाबों की समय- समय पर सफाई करनी चाहिए।
(2) पानी को उबालकर या फिल्टर करके पीना चाहिए। पीने के पानी को साफ बर्तन में ढककर रखें।
(3) मानव मल-मूत्र का उचित निस्तारण करना चाहिए। इसके लिए शौचालयों से मल-मूत्र को भूमिगत टैंकों एवं सीवेज सिस्टम में निस्तारण करना चाहिए।
(4) मलेरिया एवं फाइलेरिया जैसे रोगों के रोगवाहकों के प्रजनन स्थलों को नष्ट कर देना चाहिए।
(5) आवासीय क्षेत्रों में और उसके आसपास पानी को जमा नहीं होने देना चाहिए।
(6) शीतल यंत्रों (कूलर ) की नियमित सफाई ।
(7) मच्छरों के लार्वा को खाने वाली गंबुजिया जैसी मछलियों का उपयोग करना चाहिए।
(8) दवाइयों, जल निकास क्षेत्रों और अनूपों ( दलदलों) (स्वप्स) आदि में कीटनाशकों के छिड़काव किए जाने चाहिए।
(9) मच्छरदानी का प्रयोग। इसके अतिरिक्त दरवाजों और खिड़कियों में जाली लगानी चाहिए ताकि मच्छर अंदर प्रवेश न कर सकें।

प्रश्न 5.
डी एन ए वैक्सीन के सन्दर्भ में ‘उपयुक्त जीन’ के अर्थ के बारे में अपने अध्यापक से चर्चा कीजिये ।
उत्तर:
जीवाणु या खमीर में रोगजनक की प्रतिजनी पॉलीपेप्टाइड का उत्पादन पुनर्योगज डीएनए (Recombinant DNA) प्रौद्योगिकी से होने लगा है। इसे उपयुक्त जीन ( Suitable Gene) कहा जाता है। इस विधि से बड़े पैमाने पर उत्पादित टीकों (उपयुक्त जीन) की प्रतिरक्षीकरण हेतु उपलब्धता बढ़ गई है। उदाहरण के लिये खमीर से बनने वाला यकृत शोध का टीका (Hapatitis B Vaccine) इसी प्रकार का टीका है।

प्रश्न 6.
प्राथमिक एवं द्वितीयक लसीकाओं के अंगों के नाम बताइये
उत्तर:
(i) प्राथमिक लसीका अंग (Primary Lymphoid Organs) – अस्थि मज्जा (Bone Marrow) एवं थाइमस (Thymus )।
(ii) द्वितीयक लसीका अंग (Secondary Lymphoid Organs) – प्लीहा (Spleen), लसीका ग्रन्थियां (Lymph Glands), टान्सिल्स (Tonsils), परिशेषिका ( Appendix ) एव क्षुद्रांत्र के पेयर पेंच आदि।

HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 8 मानव स्वास्थ्य तथा रोग

प्रश्न 7.
इस अध्याय में निम्नलिखित सुप्रसिद्ध संकेताक्षर इस्तेमाल किये गये हैं।
इनका पूरा रूप बताइये –
(क) एम. ए. एल. टी.
(ख) सी. एम.आई.
(ग) एड्स
(घ) एन.ए.सी. ओ.
(च) एच.आई.वी.।
उत्तर:

संकेताक्षरपूरा नाम
(क) एम ए एल टी (M.A.L.T.)म्यूकोसल एसोसिएटेड लिम्फॉयड टिशू (श्लेष्म संबद्ध लसीकाभ ऊतक)
(ख) सी एम आई (C.M.I.)सेल मेडिएटेड इम्यूनिटी (कोशिका-माध्यित प्रतिरक्षा)
(ग) एड्स (A.I.D.S.)एक्वायर्ड इम्यूनो डिफीसियेंसी सिंड्रोम (उपार्जित प्रतिरक्षा न्यूनता संलक्षण)
(घ) एन ए सी ओ (N.A.C.O.)नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन (राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन)
(च) एचआईवी (H.I.V.)ह्यूमन इम्यू नो डिफीसियें सी वायरस (मानव में प्रतिरक्षा न्यूनता विषाणु)

प्रश्न 8.
निम्नलिखित में भेद कीजिये और प्रत्येक के उदाहरण दीजिये-
(क) सहज (जन्मजात ) और उपार्जित प्रतिरक्षा
(ख) सक्रिय और निष्क्रिय प्रतिरक्षा।
उत्तर:
(क) सहज (जन्मजात) और उपार्जित प्रतिरक्षा में भेद (Difference between Innate and Aquired Immunity)

सहज (जन्मजात) प्रतिरक्षा (Innate Immunity):उपार्जित प्रतिरक्षा (Acquired Immunity):
यह शरीर की सामान्य प्रतिरक्षा प्रणाली होती है।यह विशिष्ट प्रतिरक्षा प्रणाली है।
यह जन्मजात उपस्थित होती है।यह जन्म के पश्चात् व्यक्ति अर्जित करता है।
यदि किसी प्रकार से रोगकारक शरीर में प्रविष्ट होने में सफल हो जाते हैं तो प्राकृतिक प्रतिरोधकता/ सहज प्रतिरक्षा के घटक (मुख्यतः वृहत् भक्षाणु) उन्हें समाप्त कर देते हैं।शरीर के भीतर प्रवेश करने वाले विशिष्ट एवं हानिकारक पदार्थों को विशेष अभिज्ञान द्वारा पहचान कर नष्ट कर दिया जाता है।
यह जीवों की सुरक्षा हेतु प्रथम रक्षा पंक्ति बनाती है।यह पूरक (Supplementary) प्रतिरक्षी की तरह कार्य करती है अर्थात् जब प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता आंशिक या पूर्ण रूप से असफल होने पर यह एक पूरक प्रतिरक्षी की तरह कार्य करती है।
उदाहरण-त्वचा, श्लेषमल झिल्लियाँ, आँसुओं में मौजूद रोगाणुरोधी पदार्थ, लार और भक्षाणुक कोशिकाएं आदि।उदाहरण-बी एवं टी कोशिकाएं।

(ख) सक्रिय और निष्क्रिय प्रतिरक्षा में भेद (Difference between Active and Passive Immunity):

सक्रिय प्रतिरक्षा (Active Immunity):निष्क्रिय प्रतिरक्षा (Passive Immunity):
जब परपोषी प्रतिजनों (एंटीजेंस) का सामना करता है तो शरीर में प्रतिरक्षी पैदा होते हैं। प्रतिजन जीवित या मृत रोगाणुओं या अन्य प्रोटीनों के रूप में हो सकते हैं। इस प्रकार की प्रतिरक्षा सक्रिय प्रतिरक्षा कहलाती है।जब शरीर की रक्षा के लिये बने-बनाए प्रतिरक्षी सीधे ही शरीर को दिये जाते हैं तो यह निष्क्रिय प्रतिरक्षा कहलाती है।
सक्रिय प्रतिरक्षा धीमी होती है।जबकि निष्क्रिय प्रतिरक्षा तेज होती है।
यह अपनी पूरी प्रभावशाली अनुक्रिया प्रदर्शित करने में समय लेती है।यह अपनी पूरी प्रभावशाली अनुक्रिया प्रदर्शित करने में समय नहीं लेती है।
यह हानिरहित है।हानि अथवा खतरे की संभावना रहती है।

प्रश्न 9.
प्रतिरक्षी ( प्रतिपिण्ड ) अणु का अच्छी तरह नामांकित चित्र बनाइये।
उत्तर:
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 8 मानव स्वास्थ्य तथा रोग - 1

प्रश्न 10.
वे कौनसे विभिन्न रास्ते हैं जिनके द्वारा मानव प्रतिरक्षा न्यूनता विषाणु (एच आई वी ) का संचारण होता है?
उत्तर:
मानव प्रतिरक्षा न्यूनता विषाणु (एच. आई. वी.) सामान्यतः संक्रमित व्यक्ति के रक्त, वीर्य एवं योनि स्रावों में उपस्थित रहते हैं। अतः इनका संचरण ऐसी क्रियाओं के माध्यम से होता है जिनसे ये द्रव स्वस्थ व्यक्ति के संपर्क में आते हैं। सामान्यतः रोग का संचरण लैंगिक तथा रक्त संपर्क से होता है।
एच.आई.वी. के संचरण के निम्न रास्ते हैं –
(1) समलैंगिक व्यक्तियों के बीच गुदा मैथुन क्रिया द्वारा
(2) संक्रमित व्यक्ति के रक्त आधान द्वारा
(3) एक ही सूई ( Injection) द्वारा नशीले पदार्थों का उपयोग
(4) माता से शिशु में प्लेसेंटा (Placenta ) द्वारा
(5) संक्रमित व्यक्ति के यौन संपर्क से
(6) संक्रमित व्यक्ति का किस (Kiss ) लेने से एच आई वी का संचरण हो जाता है जिसके मुंह में घाव होता है।
(7) संक्रमित रेजर के उपयोग से ।
करता है जहाँ उसका आर एन ए जीनोम विलोम ट्रांसक्रिप्टेज प्रकिण्व ( रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज एंजाइम ) की सहायता से प्रतिकृतीयन ( रेप्लीकेसन) द्वारा विषाणवीय डी एन ए बनता

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प्रश्न 11.
वे कौनसी क्रियाविधि हैं जिससे एड्स विषाणु संक्रमित व्यक्ति के प्रतिरक्षा तंत्र का ह्रास करता है?
उत्तर:
संक्रमित व्यक्ति के शरीर में आ जाने के बाद विषाणु बृहत् भक्षकाणु (मेक्रोफेग) में प्रवेश करता है जहाँ उसका आर एन ए जीनोम विलोम ट्रांसक्रिप्टेज प्रकिण्व (रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज एंजाइम) की सहायता से प्रतिकृतीयन (रेप्लीकेसन) द्वारा विषाणवीय डी एन ए बनता है। यह विषाणवीय डी एन ए परपोषी की कोशिका के डी एन ए में समाविष्ट होकर संक्रमित कोशिकाओं को विषाणु कण पैदा करने का निर्देश देता है।

बृहत् भक्षकाणु विषाणु उत्पन्न करना जारी रखते हैं और एक एच आई वी फैक्टरी की तरह काम करते हैं। इसके साथ ही एच आई वी सहायक टी- लसीकाणुओं (टीएच) में घुस जाता है, प्रतिकृति बनाता है और संतति विषाणु पैदा करता है। यह क्रम बार-बार दोहराया जाता है जिसकी वजह से संक्रमित व्यक्ति के शरीर में सहायक टी- लसीकाणुओं की संख्या में उत्तरोत्तर कमी होती है। इस अवधि के दौरान बार-बार बुखार और दस्त आते हैं तथा वजन घटता है।

सहायक टी-लसीकाणुओं की संख्या में गिरावट के कारण व्यक्ति जीवाणुओं, विशेष रूप से माइक्रोबैक्टीरियम, विषाणुओं, कवकों यहाँ तक कि टॉक्सोप्लैज्मा जैसे परजीवियों के संक्रमण का शिकार हो जाता है। रोगी में इतनी प्रतिरक्षा न्यूनता हो जाती है कि वह इन संक्रमणों से अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो जाता है। एड्स के लिए व्यापक रूप से काम में लिया जाने वाला नैदानिक परीक्षण एंजाइम्स संलग्न प्रतिरक्षा रोधी आमापन एलीसा ( एलीसा – एंजाइम लिंक्ड इम्यूनो जारबेट एस्से ) है। प्रति- पश्चविषाणवीय (एंट्री रिट्रोवायरल ) औषधियों से एड्स का उपचार आंशिक रूप से प्रभावी है। ये औषधियाँ रोगी की अवश्यंभावी मृत्यु को आगे सरका सकती हैं, रोक नहीं सकतीं।

प्रश्न 12.
प्रसामान्य कोशिका से कैंसर कोशिका किस प्रकार भिन्न हैं?
उत्तर:
हमारे शरीर में कोशिका वृद्धि और विभेदन अत्यधिक नियंत्रित और नियमित है। कैंसर कोशिकाओं में ये नियामक क्रियाविधियाँ टूट जाती हैं। प्रसामान्य कोशिकाएँ ऐसा गुण दर्शाती हैं। जिसे संस्पर्श संदमन (कांटेक्ट इनहिबिसन) कहते हैं और इसी गुण के कारण दूसरी कोशिकाओं से उनका संस्पर्श उनकी अनियंत्रित वृद्धि को संदमित करता है। ऐसा लगता है कि कैंसर कोशिकाओं में यह गुण खत्म हो गया है। इसके फलस्वरूप कैंसर कोशिकाएँ विभाजित होना जारी रख कोशिकाओं का भंडार खड़ा कर देती हैं जिसे अर्बुद (ट्यूमर) कहते हैं ।

अर्बुद दो प्रकार के होते हैं – सुदम (बिनाइन) और दुर्दम (मैलिग्नेंट)। सुदम अर्बुद सामान्यतया अपने मूल स्थान तक सीमित रहते हैं। दूसरी ओर, दुर्दम अर्बुद प्रचुरोद्भवी कोशिकाओं का पुंज है जो नवद्रव्यीय नियोप्लास्टिक कोशिकाएँ कहलाती हैं। ये बहुत तेजी से बढ़ती हैं और आस-पास के सामान्य ऊतकों पर हमला करके उन्हें क्षति (मैलिग्नेंट) । सुदम अर्बुद सामान्यतया अपने मूल स्थान तक सीमित रहते हैं। दूसरी ओर, दुर्दम अर्बुद प्रचुरोद्भवी कोशिकाओं का पुंज है जो नवद्रव्यीय नियोप्लास्टिक कोशिकाएँ कहलाती हैं। ये बहुत तेजी से बढ़ती हैं और आस-पास के सामान्य ऊतकों पर हमला करके उन्हें क्षति पहुँचाती हैं।

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प्रश्न 13.
मैटास्टेसिस का क्या मतलब है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अर्बुद कोशिकाएँ सक्रियता से विभाजित और वर्धित होती हैं जिससे वे अत्यावश्यक पोषकों के लिए सामान्य कोशिकाओं से स्पर्धा करती हैं और उन्हें भूखा मारती हैं। ऐसे अर्बुदों से उतरी हुई कोशिकाएं – रक्त द्वारा दूरदराज स्थलों पर पहुँच जाती हैं और जहाँ भी ये जाती हैं नये अर्बुद बनाना प्रारंभ कर देती हैं। मैटास्टेसिस कहलाने वाला यह गुण दुर्दम अर्बुदों का सबसे डरावना गुण है।

प्रश्न 14.
ऐल्कोहॉल / ड्रग के द्वारा होने वाले कुप्रयोग के हानिकारक प्रभावों की सूची बनाएँ।
उत्तर:
ड्रग और ऐल्कोहॉल के तात्कालिक प्रतिकूल प्रभाव अंधाधुंध व्यवहार, बर्बरता और हिंसा के रूप में व्यक्त होते हैं। ड्रगों की अत्यधिक मात्रा से श्वसन-पात ( रिस्पाइरेटरी फेल्योर ), हृदय – पात (हार्ट फेल्योर ) अथवा प्रमस्तिष्क रक्तस्राव (सेरेब्रल हेमरेज) के कारण संमूर्च्छा (कोमा) और मृत्यु हो सकती है।

ड्रगों का संयोजन या ऐल्कोहॉल के साथ उनके सेवन का आमतौर पर यह परिणाम –
1. अतिमात्रा होती है। युवाओं में ड्रग और ऐल्कोहॉल दुरुपयोग के सबसे सामान्य लक्षण शैक्षिक क्षेत्र में प्रदर्शन में कमी, बिना किसी स्पष्ट कारण के स्कूल या कॉलेज से अनुपस्थिति, व्यक्तिगत स्वच्छता की रुचि में कमी, विनिवर्तन, एकाकीपन, अवसाद, थकावट, आक्रमणशील और विद्रोही व्यवहार, परिवार और मित्रों से बिगड़ते संबंध, शौक की रुचि में कमी, सोने और खाने की आदतों में परिवर्तन, भूख और वजन में घट-बढ़ आदि हैं। ड्रग / ऐल्कोहॉल के कुप्रयोग के दूरगामी परिणाम भी हो सकते हैं। अगर कुप्रयोगकर्ता को ड्रग / ऐल्कोहॉल खरीदने के लिए पैसे नहीं मिलें तो वह चोरी का सहारा ले सकता है।

ये प्रतिकूल प्रभाव केवल ड्रग / ऐल्कोहॉल का सेवन करने वाले तक सीमित नहीं रहता। कभी- कभी ड्रग / ऐल्कोहॉल अपने परिवार या मित्र आदि के लिए भी मानसिक और आर्थिक कष्ट का कारण बन सकता/सकती है। जो अंतःशिरा द्वारा ड्रग लेते हैं उनको एड्स और यकृतशोथ – बी जैसे गंभीर संक्रमण होने की संभावना अधिक होती है। जो अंतःशिरा द्वारा ड्रग लेते हैं उनको एड्स और यकृतशोथ – बी जैसे गंभीर संक्रमण होने की संभावना अधिक होती है।

गर्भावस्था के दौरान ड्रग एवं ऐल्कोहॉल का उपयोग गर्भ पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। महिला खिलाड़ियों द्वारा उपचयी स्टेराइडों के सेवन के अनुषंगी प्रभावों में पुस्त्वन, बड़ी आक्रामकता, भावदशा में उतार- चढ़ाव, अवसाद, असामान्य आर्तव चक्र, मुँह और शरीर पर बालों की अत्यधिक वृद्धि भगशेफ का बढ़ जाना, आवाज का गहरा होना शामिल हैं। पुरुष खिलाड़ियों में मुँहासे, बढ़ी आक्रामकता भावदशा में उतार- चढ़ाव, अवसाद, वृषणों के आकार का घटना, शुक्राणु उत्पादन में कमी, यकृत और वृक्क की संभावित दुष्क्रियता, वक्ष का बढ़ना, समयपूर्व गंजापन, प्रोस्टेट ग्रंथि का बढ़ना आदि शामिल हैं।

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प्रश्न 15.
क्या आप ऐसा सोचते हैं कि मित्रगण किसी को ऐल्कोहॉल / ड्रग सेवन के लिए प्रभावित कर सकते हैं? यदि हाँ, तो व्यक्ति ऐसे प्रभावों से कैसे अपने आपको बचा सकते हैं?
उत्तर:
ऐसे मामलों में माता-पिता और अध्यापकों का विशेष उत्तरदायित्व है। ऐसा लालन-पालन जिसमें पालन-पोषण का स्तर ऊँचा हो और सुसंगत अनुशासन हों, ऐल्कोहॉल / ड्रग / तंबाकू के कुप्रयोग का खतरा कम कर देता है। यहाँ दिए गए कुछ उपाय किशोरों में ऐल्कोहॉल और ड्रग के कुप्रयोग की रोकथाम तथा नियंत्रण में विशेष रूप से कारगर होंगे –

(1) माता-पिता और समकक्षियों से सहायता लेना – माता-पिता और समकक्षियों से फौरन मदद लेनी चाहिए, ताकि वे उचित मार्गदर्शन कर सकें । निकट और विश्वसनीय मित्रों से भी सलाह लेनी चाहिए। युवाओं की समस्याओं को सुलझाने के लिए समुचित सलाह से उन्हें अपनी चिंता और अपराध भावना को अभिव्यक्त करने में सहायता मिलेगी।

(2) आवश्यक समकक्षी दबाव से बचें – प्रत्येक बच्चे की अपनी पसंद और अपना व्यक्तित्व होता है, जिसका सम्मान और जिसे प्रोत्साहित करना चाहिए। बालक को उसकी अवसीमा (थ्रेसोल्ड) से अधिक करने के लिए आवश्यक दबाव नहीं डालना चाहिए।

(3) संकट के संकेतों को देखना- सावधान माता – पिता और अध्यापकों को चाहिए कि ऊपर बताए गये खतरों के संकेतों पर ध्यान दें और उन्हें पहचानें। मित्रों को भी चाहिए कि अगर वे परिचित को ड्रग या ऐल्कोहॉल लेते हुए देखें तो वे उस व्यक्ति के भले के लिए माता-पिता या अध्यापक को बताने में हिचकिचाएँ नहीं। इसके बाद बीमारी को पहचानने और उसके पीछे छुपे कारणों का पता लगाने के लिए उचित उपाय करने होंगे। इससे समुचित चिकित्सकीय उपाय आरंभ करने में सहायता मिलेगी।

(4) व्यावसायिक और चिकित्सा सहायता लेना – जो व्यक्ति दुर्भाग्यवश ड्रग ऐल्कोहॉल के कुप्रयोग रूपी दलदल में फँस गया, उसकी सहायता के लिए उच्च योग्यता प्राप्त मनोवैज्ञानिकों, मनोरोगविज्ञानियों की उपलब्धता और व्यसन छुड़ाने तथा पुनः स्थापना कार्यक्रमों हेतु काफी सहायता उपलब्ध है। ऐसी सहायता से प्रभावित व्यक्ति पर्याप्त प्रयासों और इच्छाशक्ति द्वारा इस समस्या से पूरी तरह छुटकारा पा सकता है और पूर्णरूपेण प्रसामान्य और स्वस्थ जीवन जी सकता है।

(5) शिक्षा और परामर्श – समस्याओं और दबावों का सामना करने और निराशाओं तथा असफलताओं को जीवन का एक हिस्सा समझकर स्वीकार करने की शिक्षा एवं परामर्श उन्हें देना चाहिए। यह भी उचित होगा कि बालक की ऊर्जा को खेल-कूद, पढ़ाई, संगीत और पाठ्यक्रम के अलावा दूसरी स्वस्थ गतिविधियों की दिशा में भी लगाना चाहिए।

प्रश्न 16.
ऐसा क्यों है कि जब कोई व्यक्ति ऐल्कोहॉल या ड्रग लेना शुरू कर देता है तो उस आदत से छुटकारा पाना कठिन होता है? अपने अध्यापक से चर्चा कीजिए ।
उत्तर:
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐल्कोहॉल और ड्रग की अंतर्निहित व्यसनी प्रकृति है, लेकिन व्यक्ति इस बात को समझ नहीं पाता । ड्रगों और ऐल्कोहॉल के कुछ प्रभावों के प्रति लत, एक मनोवैज्ञानिक आसक्ति है जो व्यक्ति को उस समय भी ड्रग एवं ऐल्कोहॉल लेने के लिए प्रेरित करने से जुड़ी है जबकि उनकी जरूरत नहीं होती या उनका इस्तेमाल आत्मघाती है। ड्रग के बार-बार उपयोग से हमारे शरीर में मौजूद ग्राहियों का सह्य स्तर बढ़ जाता है।

इसके फलस्वरूप ग्राही, ड्रगों या ऐल्कोहॉल की केवल उच्चतर मात्रा के प्रति अनुक्रिया करते हैं, जिसके कारण अधिकाधिक मात्रा में लेने की लत पड़ जाती है। लेकिन एक बात बुद्धि में बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिए कि इन ड्रग को एक बार लेना भी व्यसन बन सकता है। इस प्रकार ड्रग और ऐल्कोहॉल की व्यसनी शक्ति उन्हें इस्तेमाल करने वाले / वाली को एक दोषपूर्ण चक्र में घसीट लेते हैं, जिससे वे इनका नियमित सेवन (कुप्रयोग ) करने लगते हैं और इस चक्र से बाहर निकलना उनके बस में नहीं रहता । किसी मार्गदर्शन या परामर्श के अभाव में व्यक्ति व्यसनी (लती) बन जाता है और उनके ऊपर आश्रित होने लगता है।

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प्रश्न 17.
आपके विचार से किशोरों को ऐल्कोहॉल या ड्रग के सेवन के लिए क्या प्रेरित करता है और इससे कैसे बचा जा सकता है ?
उत्तर:
जिज्ञासा, जोखिम उठाने और उत्तेजना के प्रति आकर्षण और प्रयोग करने की इच्छा ऐसे सामान्य कारण हैं जो किशोरों को ड्रग और ऐल्कोहॉल के प्रति अभिप्रेरित करते हैं। बच्चे की प्राकृतिक जिज्ञासा उसे प्रयोग करने के लिए अभिप्रेरित करती है। ड्रग और ऐल्कोहॉल के प्रभाव को फायदे के रूप में देखने से समस्या और जटिल हो जाती है। ड्रग या ऐल्कोहॉल का पहली बार सेवन जिज्ञासा या प्रयोग करने के कारण हो सकता है। लेकिन बाद में बच्चा इनका उपयोग समस्याओं का सामना करने से बचने के लिए करने लगता है। पिछले कुछ समय से शैक्षिक क्षेत्र में या परीक्षा में सबसे आगे रहने के दबाव से उत्पन्न तनाव ने भी किशोरों को ऐल्कोहॉल या ड्रगों को आजमाने के लिए फुसलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

युवकों में यह बोध भी कि धूम्रपान करना, ड्रग या ऐल्कोहॉल का उपयोग व्यक्ति के ‘ठंडा’ या ‘प्रगति’ का प्रतीक है, यही इन आदतों को शुरू करने का मुख्य कारण है। इस बोध को बढ़ावा देने में टेलीविजन, सिनेमा, समाचार पत्र, इंटरनेट ने भी सहायता की है। किशोरों में ड्रग और ऐल्कोहॉल के कुप्रयोग के अन्य कारणों में, परिवार के ढाँचे में अस्थिरता या एक-दूसरे को सहारा देने तथा मित्रों के दबाव का अभाव है। माता-पिता और अध्यापकों का विशेष उत्तरदायित्व है। ऐसा लालन-पालन, जिसमें पालन-पोषण का स्तर ऊँचा हो और सुसंगत अनुशासन हो, ऐल्कोहॉल / ड्रग / तंबाकू के कुप्रयोग का खतरा कम कर देते हैं।

प्रत्येक बच्चे को अपनी पसंद और अपना व्यक्तित्व होता है, जिसका सम्मान करना चाहिए। किसी बात के लिए उन पर अनावश्यक दबाव नहीं डालना चाहिए। समस्याओं और दबावों का सामना करने और निराशाओं तथा असफलताओं को जीवन का एक हिस्सा समझकर स्वीकार करने की शिक्षा एवं परामर्श उन्हें देना चाहिए। युवाओं की समस्याओं को सुलझाने में उनकी मदद करनी चाहिए। जो व्यक्ति दुर्भाग्यवश ड्रग / ऐल्कोहॉल के कुप्रयोग रूपी दलदल में फँस गया है उसकी सहायता के लिए उच्च योग्यता प्राप्त मनोवैज्ञानिकों, मनोरोगविज्ञानियों की सहायता उपलब्ध करानी चाहिए।

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HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 7 विकास

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 7 विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 7 विकास

प्रश्न 1.
डार्विन के चयन सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में जीवाणुओं में देखी गई प्रतिजैविक प्रतिरोध का स्पष्टीकरण करें।
उत्तर:
डार्विन ने विकास के लिए प्राकृतिक वरण (Natural Selection) सिद्धान्त दिया है। प्रकृति में अत्यधिक शाकनाशकों एवं कीटनाशकों के उपयोग के कारण केवल प्रतिरोध किस्मों का चयन हुआ। ठीक यही बात सूक्ष्मजीवों के प्रति भी सही साबित होती है। सूक्ष्म जीव हानिप्रद व लाभप्रद दोनों प्रकार के होते हैं। अनेक प्रकार के जीवाणुओं से यूकेरियोटिक जीवों में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। रोगों की रोकथाम के लिये हम विभिन्न प्रकार के प्रतिजैविक (Antibiotics) या अन्य दवाइयों का उपयोग करते हैं।

प्रतिजैविकों के प्रभाव जीवाणु समाप्त हो जाते हैं तथा ये अपना प्रभाव समाप्त कर देते हैं, परन्तु इनमें से कुछ जीवाणु फिर भी बचे रहते हैं। इस प्रकार कुछ समयावधि में प्रतिरोधक जीवाणु प्रकट हो जाते हैं। धीरे-धीरे प्रतिरोध जीवाणुओं की संख्या बढ़ जाती है। वस्तुतः प्रतिजैविकों से 100 प्रतिशत जीवाणु नष्ट नहीं होते हैं। कुछ जीवाणुओं में परिवर्तन होने से उसे वातावरण में बचे रहकर प्रतिरोधी किस्म के बन जाते हैं।

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प्रश्न 2.
समाचार पत्रों और लोकप्रिय वैज्ञानिक लेखों से विकास सम्बन्धी नए जीवाश्मों और मतभेदों की जानकारी प्राप्त करें।
उत्तर:
जब क्रॉस में लेमार्क एवं ग्रेट ब्रिटेन में डार्विन ने जैव विकास के अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किये इस समय पादरी वर्ग (Clergy ) से अत्यधिक विरोध प्रकट हुआ। इन दोनों प्रकृतियों ने अत्यधिक उत्पीड़न सहा। परन्तु आज स्थिति बिल्कुल विपरीत है। आज हमारे पास पर्याप्त प्रमाण हैं। जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि सभी जीवित जीवों में जैवविकास हुआ है, पादप एवं जन्तु जो पृथ्वी पर विद्यमान हैं उनकी उत्पत्ति भूतपूर्व पौधे एवं जन्तुओं से हुई है। इस सम्बन्ध में एक प्रमाण जीवाश्म (Fossil ) इतिहास से मिलता है।
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 7 विकास - 1
पौधे एवं जन्तु जो विलुप्त हो गये हैं और वे अब चट्टानों में संरक्षित अवशेषों के रूप में मिलते हैं, उन्हें जीवाश्म कहते हैं। जीवाश्मों के अध्ययन को जीवाश्मिकी (Palaentology) कहते हैं। जीवाश्मों के रूप में पूर्ण जन्तु या उसके शरीर के कुछ कठोर भागों के चिन्ह संरक्षित हो जाते हैं। यद्यपि जीवाश्म लेखा अत्यधिक अधूरा है, अतीत की स्तरित चट्टानों में पौधे एवं जन्तुओं के जीवाश्म संग्रहित हैं। जीवाश्म वैज्ञानिकों ने अध्ययन कर यह स्पष्ट किया कि किस काल में किस प्रकार के जन्तु या पौधे पंजे पृथ्वी पर उपस्थित थे। पृथ्वी की तहों में दबे जीवाश्मों को खोदकर दंतयुक्त चोंच निकालकर एवं इनके चिन्हों के आधार पर पूर्व प्राणि का चित्र बनाकर कल्पना की जाती है।

HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 7 विकास

यही नहीं, जीवाश्मों की उम्र ज्ञात पंख लम्बी पूंछ कर उस समय का ज्ञान हो पाता है जब ये सक्रिय थे। अमेरिका की आधुनिक फिल्म (जुरेसिक पार्क) में डायनोसौर ( Dinosour) को अधिक संजीवक दिखाया गया है। डायनोसौर बहुत बड़ी आकृति के सरीसृप थे, जिनका मीसोजोइक (Meszoic ) युग में साम्राज्य था । इस काल को सरीसृपों का स्वर्ण युग (Golden Age of Reptiles) कहा जाता है। चट्टानों में मिलने वाले जीवाश्म आज भी कुछ आधुनिक जीवों से मिलते-जुलते हैं। चित्र में डायनोसौर का वंश वृक्ष और उनके आज के मिलते-जुलते जीवों को बताया जा रहा है।
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 7 विकास - 2

इसी प्रकार आर्कियोप्टेरिस (Archaeopteris) एक प्राचीन पक्षी था। इसके जीवाश्म लगभग 15 करोड़ वर्ष पुरानी जुरैसिक चट्टानों (Jurassic Rocks) से मिले हैं। यह सरीसृप और पक्षियों की योजक कड़ी (Connecting Link) था। इसमें सरीसृपों की जैसे लम्बी पूँछ, चोंच में दाँत तथा अग्रपादों की अंगुलियों पर पंजे (Claws) थे फिर भी यह पक्षी ही था क्योंकि इसके अग्रपाद उड़ने के लिए विकसित पंखों में रूपान्तरित हो चुके थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि पक्षियों का उद्भव सरीसृप से हुआ है।

प्रश्न 3.
‘प्रजाति’ की स्पष्ट परिभाषा देने का प्रयास करें।
उत्तर:
जाति (Species) अन्तर्प्रजनन करने वाले जीवों का समूह होती है। परन्तु जाति के वे छोटे समूह जिनके मध्य आनुवंशिक समानता होते हुए अन्तर्प्रजनन सम्भव होता है पर भौगोलिक रूप से पृथक् होती है, इन्हें डीम्स (Demes ) कहा जाता है। इसी प्रकार आनुवंशिक असमानता वाले जाति के छोटे-छोटे समूह जिनमें भौगोलिक पृथक्कता हो तो उन्हें प्रजाति (Race) कहा जाता है। जब दो जातियाँ आकारिकी में समान हों पर अन्तर्जनन नहीं कर सकें तो उन्हें सिबलिंग (Sibling) जातियाँ कहते हैं।

प्रश्न 4.
मानव विकास के विभिन्न घटकों का पता करें (संकेत – मस्तिष्क साइज और कार्य, कंकाल संरचना, भोजन में पसंदगी आदि)।
उत्तर:
मानव जैव सम्भावनाओं के संसार में सबसे उच्चतम कृति है। मानव ने मानव को सबसे विकसित कहा। विकसित मनोभावना और कुछ बुद्धि के कारण मानव ही पहला जीव है जिसने प्रकृति के विषय में सब कुछ जानना चाहा है। अतः मानव मस्तिष्क जैव विकास की परम उपलब्धि है। जीवाश्मों के अध्ययन के आधार पर वैज्ञानिकों का मत है कि मानव का उद्विकास (Evolution) सम्भवतः एक करोड़ तीस लाख वर्ष पूर्व मध्यनूतन ( Miocene ) युग के अन्तिम काल का अतिनूतन (Pliocene ) युग के आरम्भ में हुआ था। मध्यनूतन युग में अफ्रीका, भारत, चीन आदि देशों में वृक्षवासी आदिकपियों की बहुतायत थी।

धीरे-धीरे घास के मैदानों का विकास हुआ और आदिकपियों को वृक्षाशयी जीवन छोड़ कर स्थलीय जीवन अपनाना पड़ा। शाकाहारी स्वभाव के स्थान पर सर्वाहारी होना पड़ा तथा जानवरों के शिकार की आवश्यकता पड़ने लगी, इसके लिए दो पैरों पर चलना एवं हाथों के उपयोग की आवश्यकता पड़ने लगी। लगभग 15 मिलियन वर्ष पूर्व ड्रायपिथिकस (Dryopithecous) तथा रामापिथिकस (Ramapithecous) नामक नर वानर विद्यमान थे। ये गोरिल्ला व चिम्पैंजी के जैसे चलते थे इनमें से रामापिथिकस मानवों की जैसे थे परन्तु ड्रायोपिथिकस वनमानुष (Ape) जैसे थे।

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इथोपिया तथा तंजानिया में कुछ जीवाश्म अस्थियाँ मानवों की जैसे प्राप्त हुई हैं। इन जीवाश्मों से यह ज्ञात होता है कि 3-4 मिलियन वर्ष पूर्व मानव जैसे नर वानर गण (Primates) पूर्वी अफ्रीका में विचरण करते थे। ये सम्भवतः 4 फुट ऊँचे व खड़े होकर चलते थे। रामापिथिकस का प्रथम जीवाश्म भारत की शिवालिक की पहाड़ियों से प्राप्त हुआ। इनमें मानव की तरह जबड़े छोटे, चेहरा अधिक सीधा खड़ा तथा इन्साइजर व कैनाइन अन्य दांतों के बराबर थे। इसे मानव वंशानुक्रम का पहला पूर्वज माना जाता है। इसे अधः मानव ( Subhuman) कहा गया। लगभग दो मिलियन वर्ष पूर्व आस्ट्रेलोपिथिकस (Australopithecus) पूर्वी अफ्रीका के घास स्थलों में रहता था । इसका जीवाश्म रेमण्ड डार्ट को अफ्रीका के इवांग स्थान की गुफा से प्राप्त हुआ था। जीवाश्म के आधार पर इसे आदिमानव (Primitive man) माना।

इसमें मानव व कपि दोनों के लक्षण मिलते हैं –
(i) ये चार फुट लम्बे व सीधे खड़े होकर चलते थे।
(ii) कशेरुक दण्ड में एक स्पष्ट कटिआधान (Lumber Curve) था।
(iii) ठोड़ी का अभाव व चेहरा प्रोग्नेथस प्रकार का था ।
(iv) ये पत्थर के हथियारों से शिकार करते थे परन्तु प्रारम्भ में फलों का भोजन ही करते थे।
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इसे पहला मानव जैसा प्राणि के रूप में जाना गया और उसे होमो हैबिलिस (Homo Habillis) कहा गया था। इसकी दिमागी क्षमता 650-800 सी.सी. के बीच थी। ये सम्भवतः माँस नहीं खाते थे इसके बाद 1991 में जावा में खोजे गये जीवाश्म से अगले चरण का ज्ञान हुआ। इसे होमो इरैक्टस (Homo erectus ) कहा गया। होमो इरैक्टस का मस्तिष्क बड़ा था जो लगभग 900 सी सी का था। ये माँस खाते थे। इन्हें जावा सोलोनदी के आस-पास पाये जाने के कारण जावा मानव कहा गया।

नियंडरथल (Neanderthal) मानव 1400 सी सी आकार वाले मस्तिष्क लिए हुए 100,000 से 40,000 वर्ष पूर्व लगभग पूर्वी व मध्य एशियाई देशों में रहते थे। ये शरीर की रक्षा के लिए खालों का उपयोग करते थे व अपने मृतकों को जमीन में गाड़ते थे। ये सर्वाहारी थे। वर्तमान मानव होमो सैपियंस (Homo sapiens) अफ्रीका में विकसित हुआ और धीरे-धीरे महाद्वीपों से पार पहुँचकर विभिन्न महाद्वीपों में फैला था, फिर वह भिन्न जातियों में विकसित हुआ।

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प्रश्न 5.
इंटरनेट (अंतरजाल – तंत्र) या लोकप्रिय विज्ञान लेखों से पता करें कि क्या मानवेत्तर किसी प्राणी में आत्म-संचेतना थी?
उत्तर:
मानव स्वयं आत्म-संचेतना वाला प्राणी है। प्राणी जगत में सर्वाधिक आत्म-संचेतना वाला प्राणी मानव है। गुजरे समय व वर्तमान समय में अन्य कोई प्राणी आज की तुलनात्मक दृष्टि से मानव के बराबर आत्म-संचेतन प्राणी नहीं है। मानव के विकास को देखें तो रामापिथिकस से प्रारम्भ होकर आस्ट्रेलोपिथिकस की ओर अग्रसर होता है। आस्ट्रेलोपिथिकस मृत मानव को भूमि में गाड़ते थे। अतः उनमें उस समय से ही बोध या संचेतना थी। धीरे-धीरे विकास के क्रम में वह पत्थरों से शिकार करता हुआ आगे लोहे से बने औजारों से शिकार करता है। वह जंगल में समूह में रहता हुआ, गुफाओं, झोंपड़ियों व मकानों में रहने लगता है। पूर्व में वह नग्न रहता था, फिर पत्तियों से अंगों को ढकता हुआ कपड़ों से शरीर को ढकने लगा। इस प्रकार की दशायें किसी भी अन्य जीवों या प्राणियों में नहीं मिलतीं।

मानव धीरे-धीरे अपने आपको मैं (I) से सम्बोधन करने लगा, वह क्यों, क्या कैसे कहने लगा। उसकी आत्म-संचेतना अधिक विकसित होने लगी। उसमें ध्यानशीलता व आत्मसात् का चिन्तन बढ़ने लगा। उसकी इच्छाएँ जागृत होने लगीं। वह अपने तथा अपने चारों ओर का चिन्तन करने लगा। उसमें पुरुषार्थ व कर्म की भावना उठने लगी । अन्य प्राणियों में इस सब का अभाव है। मानव में आत्म-संचेतना व्याप्त होने के कारण उसने अपने आप को इस पर्यावरण में हर दृष्टि से सुरक्षित कर लिया है।

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प्रश्न 6.
इंटरनेट ( अंतरजाल तंत्र ) संसाधनों के उपयोग करते हुए आज के 10 जानवरों और उनके विलुप्त जोड़ीदारों की सूची बनाएँ ।
उत्तर:
आधुनिक एवं विलुप्त जोड़ीदार प्राणी

आधुनिक प्राणी (Modern Animals )जोड़ीदार विलुप्त प्राणी (Corresponding Ancient Animals)
1. मेंढक सदृश आधुनिक उभयचरसीलाकैन्थ (Coelacanth)
2. आधुनिक सरीसृप (छिपकली, मगरमच्छ आदि)सेमोरिया (Seymouria)
3. आधुनिक पक्षीऑर्किओप्टोरिक्स (Archeopteryx)
4. होमो सैपियन्स (आधुनिक मानव )क्रोमैगनॉन मानव (Cromagnon Man)
5. घोड़ा (Equus)इओहिप्पस
6. कंगारू ( Kangaroo )प्रोटोथारिया स्तनी (Prototherians)
7. उड़न गिलहरी (Flying Squirrel)उड़न फैलेन्जर (Flying Phalanger)
8. शिशुधानी चूहा (Marsupial Mouse)चूहा (Mouse)
9. चींटीखोर (Ant Eater )नम्बैट (Numbat)
10. लेमर (Lemur )धब्बेदार कस्कस (Spotted Cuscus )

प्रश्न 7.
विविध जंतुओं और पौधों के चित्र बनाएँ।
उत्तर:
विविध जंतुओं और पौधों के चित्र निम्न हैं –
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प्रश्न 8.
अनुकूलनी विकिरण के एक उदाहरण का वर्णन करें।
उत्तर:
डार्विन अपनी यात्रा के दौरान दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तट पर प्रशान्त महासागर में स्थित गैलपेगोस द्वीप (Galapagos Islands ) गये थे। वहाँ उन्होंने प्राणियों में एक आश्यर्चजनक विविधता देखी। उस द्वीप में पायी जाने वाली फिन्चेज (काली चिड़िया) के अध्ययन में पाया कि ये पक्षी अमेरिका में पाये जाने वाले पक्षियों के समान हैं किन्तु इनके चोंच के आकार एवं संरचना में भिन्नता है। अन्य द्वीपों पर पायी जाने वाली फिन्च में भी इस प्रकार का अन्तर देखा गया। डार्विन को विशेष रूप से काली छोटी चिड़िया (डार्विन फिन्च Drawin’s Finch) ने विशेष रूप से आकर्षित किया। उन्हें वहां अन्य फिन्हें भी मिलीं।

उन्होंने पाया कि जितनी भी अन्य फिन्वें यहाँ पर थीं, वे सभी उसी द्वीप में विकसित हुई थीं। ये पक्षी मूलतः बीजभक्षी विशिष्टताओं के साथ-साथ अन्य स्वरूप में बदलावों के साथ अनुकूलित हुईं और चोंच के ऊपर उठने जैसे परिवर्तनों ने इसे कीटभक्षी एवं शाकाहारी फिंच बना दिया। अतः पक्षियों की चोंच में भिन्नता स्थानीय वातावरण एवं उसमें उपलब्ध भोजन से अनुकूलता का परिणाम है। इस प्रकार मूल रूप से एक जाति के पक्षी में जो भिन्न-भिन्न वातावरण में अभिगमन कर गये उनसे अनेक जातियों एवं उपजातियों का विकास हुआ। इस प्रकार एक विशेष भू-भौगोलिक क्षेत्र में विभिन्न प्रजातियों के विकास का प्रक्रम एक बिन्दु से प्रारम्भ होकर अन्य भू-भौगोलिक क्षेत्रों तक प्रसारित होने को अनुकूली विकिरण ( adaptive radiation) कहा गया।
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प्रश्न 9.
क्या हम मानव विकास को अनुकूलनी विकिरण कह सकते हैं?
उत्तर:
मानव विकास अनुकूलनी विकिरण नहीं है। लगभग 2.4 करोड़ वर्ष पूर्व (मायोसिन युग) होमिनिड (Hominid ) अर्थात् कपियों और मानवों के पूर्वज अस्तित्व में आए। मानव का विकास कपि समान पूर्वजों (आदि कपि) से हुआ होगा। मायोसीन युग में अफ्रीका, चीन व भारत में आदि कपि सफल रूप से अस्तित्व में आए।

इन्हीं आदि कपियों से विकास के फलस्वरूप तीन शाखाएँ निकलीं –
(i) एक शाखा से वर्तमान गिब्बन का विकास।
(ii) दूसरी शाखा से वर्तमान चिम्पैंजी, गोरिल्ला तथा ओरंगउटान अर्थात् पोंगिडी कुल का विकास हुआ।
(iii) तीसरी शाखा से मानव अर्थात् होमोनिडी का विकास हुआ, होमोनिडी कुल की केवल एक जाति जीवित है, यह है मानव (होमो सैपियन्स)।

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प्रश्न 10.
विभिन्न संसाधनों जैसे कि विद्यालय का पुस्तकालय या इंटरनेट (अंतरजाल – तन्त्र) तथा अध्यापक से चर्चा के बाद किसी जानवर जैसे कि घोड़े के विकासीय चरणों को खोजें।
उत्तर:
घोड़े के प्राप्त जीवाश्म से ज्ञात होता है कि पुरातन पूर्वज इओहिप्पस (Eohippus) का आकार खरहा से बढ़ा नहीं था। इसकी गर्दन छोटी, दांतों की संख्या 44 व अगली टांगों में चार तथा पिछली टांगों में तीन पाद अंगुलियाँ (Toes ) थीं। इओहिप्पस की उत्पत्ति लगभग 54 मिलियन वर्ष पूर्व इओसीन काल में हुई थी। इनमें अनेक शारीरिक परिवर्तनों के फलस्वरूप ओलिगोसीन (Oligocene) काल में मीसोहिप्पस (Mesohippus) का विकास हुआ, जिसकी अगली टांगों में तीन पाद अंगुलियाँ थीं। इसमें दो अंगुली पाद कम विकसित (Reduced ) होने लगे तथा इनकी दौड़ने की गति बढ़ी।
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मायोसिन (Miocene ) काल में लगभग 25 मिलियन वर्ष पूर्व मेरीचिप्स (Marychippus) का विकास हुआ, जिसमें दो अंगुली पाद अत्यधिक कम विकसित (Reduced ) हो गये व केवल एक अंगुली पाद अत्यधिक विकसित रहा व इसी पर वह अधिक गति से दौड़ने लगा। यह अधिक लम्बे व लम्बी गर्दन वाले थे। मेरीचिप्पस से प्लीयोसीन काल में प्लीओहिप्पस (Pliohippus) घोड़ों का विकास हुआ। प्लीस्टोसीन (Pleistocene ) काल में प्लीओहिप्पस से आधुनिक घोड़े इक्वस (Equus) का लगभग 2 मिलियन वर्ष पूर्व विकास हुआ जो वर्तमान में भी है। इसमें केवल एक अंगुली पाद विकसित है। इक्वस की ऊँचाई 5 फीट की तथा गति तेज थी। इक्वस आज भी उसी रूप में चला आ रहा है।

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HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 6 वंशागति के आणविक आधार

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 6 वंशागति के आणविक आधार Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 6 वंशागति के आणविक आधार

प्रश्न 1.
निम्न को नाइट्रोजनीकृत क्षार व न्यूक्लियोटाइड के रूप में वर्गीकृत कीजिए- एडेनीन, साइटीडीन, थाइमीन, ग्वानोसीन, यूरेसील व साइटोसीन।
उत्तर:
नाइट्रोजनीकृत क्षार – एडेनीन-प्यूरीन क्षार
न्यूक्लियोटाइड – एडेनीन डिऑक्सीराइबोज न्यूक्लियोटाइड
ग्वानोसीन – प्यूरीन क्षार – ग्वानीन डिऑक्सीराइबोज – न्यूक्लियोटाइड
साइटोसीन – पायरिमिडीन क्षार – साइटोसीन डिऑक्सीराइबोज न्यूक्लियोटाइड
थाइमीन – पायरिमिडीन क्षार – थाइमीडीन न्यूक्लियोटाइड
यूरेसील- पायरिमिडीन क्षार – यूरेसील राइबोस न्यूक्लियोटाइड
नोट- साइटीडीन एक न्यूक्लियोसाइड (Nucleoside ) है।

प्रश्न 2.
यदि एक द्विरज्जुक DNA में 20 प्रतिशत साइटोसीन है तो DNA में मिलने वाले एडेनीन के प्रतिशत की गणना कीजिए।
उत्तर:
इरविन चारगाफ (Erwin Chargaff) ने परीक्षण के आधार पर बताया कि ऐडेनीन व थाइमीन तथा ग्वानीन व साइटोसीन के बीच अनुपात स्थिर व एक-दूसरे के बराबर रहता है। यदि द्विरज्जुक DNA में नाइट्रोजनीकृत क्षार की कुल संख्या 100 है और इसमें साइटोसीन की मात्रा 20 प्रतिशत है तो ग्वानीन की मात्रा भी 20 प्रतिशत होगी। साइटोसीन तथा ग्वानीन की कुल मात्रा 20% + 20% = 40% होगी। इसका तात्पर्य यह है कि ऐडेनीन तथा थाइमीन का कुल प्रतिशत 100 – 40 = 60% होगा। ऐडेनीन तथा थाइमीन की मात्रा बराबर होती है अर्थात् ऐडेनीन 30 प्रतिशत और थाइमीन 30 प्रतिशत होगा। अतः उक्त द्विरज्जुक DNA में ऐडेनीन की मात्रा 30 प्रतिशत होगी।

प्रश्न 3.
यदि DNA के एक रज्जुक के अनुक्रम निम्नवत् लिखे हैं – 5-ATGCATGCATGCATGCATGCATGCATGC-3′ तो पूरक रज्जुक के अनुक्रम को 5-3 ́दिशा में लिखें।
उत्तर:
5′-GCATGCATGCATGCATGCATGCATGCAT-3′

प्रश्न 4.
यदि अनुलेखन इकाई में कूटलेखन रज्जुक के अनुक्रम को निम्नवत् लिखा गया है- 5-ATGCATGCATGCATGCATGCATGCATGC-3 तो दूत RNA के अनुक्रम को लिखें।
उत्तर:
यदि कूटलेखन रज्जुक (Coding strand) के अनुक्रम निम्न प्रकार है –
5′-ATGCATGCATGCATGCATGCATGCATGC-3 तो m. RNA के अनुक्रम निम्न प्रकार होंगे-
5′ – AUGCAUGCAUGCAUGCAUGCAUGCAUGC-3′

प्रश्न 5.
DNA द्विकुंडली की कौन सी विशेषता वाटसन व क्रिक को DNA प्रतिकृति के सेमी- कंजर्वेटिव रूप को कल्पित करने में सहयोग किया। इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
DNA द्विकुण्डली के दोनों रज्जुकों (strands ) का एक-दूसरे का पूरक होना वाटसन व क्रिक को DNA प्रतिकृति के अर्द्ध-संरक्षी (semi-conservative) स्वरूप को कल्पित करने के लिये महत्त्वपूर्ण था।

प्रश्न 6.
टेम्पलेट (DNA or RNA ) के रासायनिक प्रकृति व इससे (DNA or RNA ) संश्लेषित न्यूक्लिक अम्लों की प्रकृति के आधार पर न्यूक्लिक अम्ल पॉलीमरेज के विभिन्न प्रकार की सूची बनाइए।
उत्तर:
(i) DNA आधारित DNA पॉलिमरेज एन्जाइम प्रतिकृति के लिये आवश्यक है । यह DNA संश्लेषण के लिये DNA टेम्पलेट (DNA template) का उपयोग करता है।
(ii) DNA पर निर्भर RNA पॉलिमरेज (DNA dependent RNA polymerase) जो RNA संश्लेषण के लिये DNA टेम्पलेट का उपयोग करता है। RNA पॉलिमरेज अस्थायी रूप से प्रारम्भन कारक या समापन कारक से जुड़कर अनुलेखन का प्रारम्भ या समापन करता है।

केन्द्रक में RNA पॉलीमरेज के अतिरिक्त निम्नलिखित तीन प्रकार के RNA पॉलिमरेज मिलते हैं –
(अ) RNA पॉलिमरेज – I-यह r. RNA ( 28S, 18S व 5.8S) को अनुलेखित करता है ।
(ब) RNA पॉलिमरेज – II-यह t. RNA तथा छोटे केन्द्रकीय RNA का अनुलेखन करता है।
(स) RNA पॉलिमरेज – III-यह m. RNA के पूर्ववर्ती विषमांगी केन्द्रकीय RNA ( heterogenous nuclear RNA= hnRNA) का अनुलेखन करता है।

प्रश्न 7.
DNA आनुवंशिक पदार्थ है, इसे सिद्ध करने हेतु अपने प्रयोग के दौरान हर्षे व चेस ने DNA व प्रोटीन के बीच कैसे अंतर स्थापित किया?
उत्तर:
DNA आनुवंशिक पदार्थ है, इस सम्बन्ध में सुस्पष्ट प्रमाण अल्फ्रेड हर्षे (Alfred Hershay) व मार्था चेस (Martha Chase) द्वारा किये गये प्रयोगों से प्राप्त हुआ। इन्होंने उन विषाणुओं पर कार्य किया जो जीवाणु (Bacteria) को संक्रमित करते हैं, इन्हें जीवाणु (Bacteriophage) कहते हैं। जीवाणुभोजी जीवाणु से चिपकते हैं। अपने आनुवंशिक पदार्थ को जीवाणु कोशिका में भेजते हैं। जीवाणु कोशिका विषाणु के आनुवंशिक पदार्थ को अपना समझने लगते हैं जिससे आगे चलकर अधिक विषाणुओं का निर्माण होता है। हर्षे व चेस ने इस बात का पता लगाने के लिए प्रयोग किया कि विषाणु से प्रोटीन या डीएनए निकल कर जीवाणु में प्रवेश करता है।

हर्षे व चेस ने विषाणुओं का ऐसे माध्यम में संवर्धन (Culture) किया जिसमें रेडियोधर्मी फॉस्फोरस (P32 ) था तथा अन्य विषाणुओं को रेडियोधर्मी सल्फर (S35) युक्त माध्यम में संवर्धन किया। रेडियोधर्मी फॉस्फोरस युक्त माध्यम में विकसित हुए विषाणुओं में रेडियोधर्मिता DNA में पायी गयी क्योंकि फॉस्फोरस प्रोटीन में नहीं होता है, यह केवल DNA में ही होता है। इसी प्रकार प्रोटीन आवरण में रेडियोधर्मी सल्फर पाया गया क्योंकि DNA में सल्फर नहीं होता है। विषाणु का खोल या आवरण प्रोटीन से बना होता है।

विकरणयुक्त जीवाणुभोजी द्वारा ई. कोलाई (Ecoli) को संक्रमित किया गया तथा बाद में विषाणुयुक्त विलियन (Solution) को अच्छी तरह मिक्सर (Blender) द्वारा मिक्स करने से कोशिका भित्ति से प्रोटीन आवरण अलग हो गये। तत्पश्चात् सेन्ट्रीफ्यूज द्वारा संक्रमित कोशिका से विषाणु के शीर्षों को पृथक् कर लिया गया। इस प्रकार जीवाणु कोशिकाओं को विषाणुभोजी के प्रोटीन आवरणों से अलग करके इन दोनों भागों में रेडियोधर्मिता को परखा गया। जब p32 युक्त विषाणु लिये गये तो रेडियोधर्मिता जीवाणु कोशिका में चली गयी जो यह दर्शाता है कि विषाणु DNA जीवाणु में प्रवेश कर गया परन्तु S35 चिन्हित विषाणु को प्रयोग करने पर रेडियोधर्मी पदार्थ विषाणु के आवरणों में से प्राप्त हुआ जो यह सिद्ध करता है कि प्रोटीनयुक्त विषाणु का आवरण जीवाणु कोशिका में प्रवेश नहीं हुआ। इससे यह सिद्ध हुआ कि DNA ही आनुवंशिक पदार्थ है। विषाणु का प्रोटीन संरचनात्मक आवरण बनता है जो DNA को जीवाणु में पहुँचा कर बाहर ही रह जाता है।
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प्रश्न 8.
निम्न के बीच अंतर बताइए –
(क) पुनरावृत्ति DNA एवं अनुषंगी DNA
(ख) m. RNA और t. RNA
(ग) टेम्पलेट रज्जु और कोडिंग रज्जु।
उत्तर:
(क) पुनरावृत्ति DNA एवं अनुषंगी DNA – प्रायः जीवों में DNA की एक से अधिक प्रतियाँ उपस्थित रहती हैं, इन्हें अतिरिक्त DNA कहा जाता है या इसे पुनरावृत्ति DNA (Repetitive DNA) भी कहते हैं। यह DNA का छोटा भाग होता है जिसमें इसकी अनेक बार पुनरावृत्ति होती है। इसका उपयोग DNA अंगुलिछापी (DNA Finger Printing) में किया जाता है। इस पुनरावृत्ति DNA को जीनोमिक DNA (Genomic DNA) में से पृथक् करने के लिये घनत्व प्रवणता अपकेन्द्रीकरण (Density Gradient Centrifugation) की सहायता से विभिन्न शिखर (Peak) बनाते हैं।

पुनरावृत्ति DNA का ऊँचा शिखर (Major Peak) बनता है तथा अन्य छोटेs शिखर (Minor Peak) बनते हैं, उन्हें अनुषंगी DNA (Satellite DNA ) कहते हैं। इनके अनुक्रम सामान्यतया किसी भी प्रोटीन का कूटलेखन नहीं करते हैं। किन्तु दोनों प्रकार के DNA मानव जीनोम के अधिकांश भाग में मिलते हैं। इसके अनुक्रम उच्चश्रेणी बहुरूपता (Polymorphism ) दर्शाते हैं।

(ख) m. RNA और RNA ये दोनों प्रकार के RNA कोशिका में प्रोटीन संश्लेषण हेतु आवश्यक हैं। m. RNA टेम्पलेट प्रदान करता है तो 1. RNA एमीनो अम्लों के लाने व आनुवंशिक कूट को पढ़ने का काम करता है। tRNA स्वतन्त्र रूप से कोशिकाद्रव्य में रहते हैं। आकार में दोनों छोटे होते हैं, इन्हें अन्तरण (transfer) RNA या tRNA कहते हैं। इन्हें विलेय RNA (Soluble RNA or s. RNA ) भी कहा जाता है । अन्तरण RNA में एक प्रतिप्रकूट (anticodon) होता है जिसमें तीन क्षार होते हैं। ये कूट (Code) के पूरक क्षार होते हैं। tRNA में एक अमीनो अम्ल स्वीकार्य छोर होता है जिससे यह अमीनो अम्ल से जुड़ जाता है। प्रत्येक अमीनो अम्ल के लिए विशिष्ट अन्तरण RNA होते हैं। संश्लेषण प्रारम्भन हेतु दूसरा विशिष्ट अन्तरण RNA होता है जिसे प्रारम्भक अन्तरण RNA कहते हैं। tRNA द्वितीयक संरचना में हैं।

संश्लेषण प्रारम्भन हेतु दूसरा विशिष्ट अन्तरण RNA होता है जिसे प्रारम्भक अन्तरण RNA कहते हैं। tRNA द्वितीयक संरचना में क्लोवर की पत्ती जैसा दिखाई देता है। इसकी वास्तविक संरचना के अनुसार tRNA सघन अणु है जो उल्टे एल (L) की तरह दिखाई देता है। संदेशवाहक (Messenger ) RNA या m. RNA संदेश लाता है। यह DNA के द्वारा बनकर केन्द्रक से बाहर कोशिकाद्रव्य में आकर राइबोसोम्स से चिपक जाते हैं। ये लम्बी श्रृंखला के रूप में होते हैं तथा DNA पर उपस्थित कोड्स (Codes) को नकल करके लाते हैं। अतः दूत की भांति कार्य करते हैं। इन पर संदेश, तीन-तीन क्षारकों वाले क्षारक त्रिकों (base-triplets) कोडॉन (codon) के रूप में रहता है। इन संदेशों के अनुसार ही अमीनो अम्लों की श्रृंखला बनकर प्रोटीन का निर्माण होता है (चित्र 6.20 )।

(ग) टेम्पलेट रज्जु और कोडिंग रज्जु (Templet Strand and Coding Strand ) – DNA की प्रतिकृति ( Replication) में देखें या इसकी संरचना को देखें तो रज्जुक विपरीत ध्रुवत्व की ओर होते tRNA स्वतन्त्र रूप से कोशिकाद्रव्य में रहते हैं। आकार में दोनों छोटे होते हैं, इन्हें अन्तरण (transfer) RNA या t. RNA कहते हैं। इन्हें विलेय RNA (Soluble RNA or s. RNA ) भी कहा जाता है। अन्तरण RNA में एक प्रतिप्रकूट (anticodon) होता है जिसमें तीन क्षार होते हैं।

ये कूट (Code) के पूरक क्षार होते हैं। tRNA में एक अमीनो अम्ल स्वीकार्य छोर होता है जिससे यह अमीनो अम्ल से जुड़ जाता है। प्रत्येक अमीनो अम्ल के लिए विशिष्ट अन्तरण RNA होते हैं। संश्लेषण प्रारम्भन हेतु दूसरा विशिष्ट अन्तरण RNA होता है जिसे प्रारम्भक अन्तरण RNA कहते हैं। tRNA द्वितीयक संरचना में क्लोवर की पत्ती जैसा दिखाई देता है। इसकी वास्तविक संरचना के अनुसार tRNA सघन अणु है जो उल्टे एल (L) की तरह दिखाई देता है।

संदेशवाहक (Messenger) RNA या m. RNA संदेश लाता है। यह DNA के द्वारा बनकर केन्द्रक से बाहर कोशिकाद्रव्य में आकर राइबोसोम्स से चिपक जाते हैं। ये लम्बी श्रृंखला के रूप में होते हैं तथा DNA पर उपस्थित कोड्स (Codes) को नकल करके लाते हैं। अतः दूत की भांति कार्य करते हैं। इन पर संदेश, तीन-तीन क्षारकों वाले क्षारक त्रिकों (base-triplets) कोडॉन (codon) के रूप में रहता है। इन संदेशों के अनुसार ही अमीनो अम्लों की श्रृंखला बनकर प्रोटीन का निर्माण होता है (चित्र 6.20 )
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(ग) टेम्पलेट रज्जु और कोडिंग रज्जु (Templet Strand and Coding Strand) – DNA की प्रतिकृति ( Replication) में देखें या इसकी संरचना को देखें तो रज्जुक की ओर होते विपरीत ध्रुवत्व हैं, इसलिए DNA – निर्भर RNA पॉलीमरेज बहुलकन (Polymerisation) केवल एक दिशा 5 से 3 (53) की ओर उत्प्रेरित होते हैं। रज्जुक जिसमें ध्रुवत्व 3 से 5 (35) की ओर है। वह टेम्पलेट के रूप में कार्य करते हैं इसलिए यह टेम्पलेट रज्जुक कहलाता है। दूसरी लड़ी जिसमें ध्रुवत्व ( 53 ) व अनुक्रम RNA जैसा होता है (थाइमीन के अलावा इस जगह पर यूरेसिल होता है)। अनुलेखन के दौरान स्थानान्तरित हो जाता है। यह रज्जुक (जो किसी भी चीज के लिये कूटलेखन नहीं करता है) कूटलेखन या कोडिंग रज्जुक कहलाता है।

प्रश्न 9.
स्थानान्तरण के दौरान राइबोसोम की दो मुख्य भूमिकाओं की सूची बनाइए।
उत्तर:
स्थानान्तरण के दौरान राइबोसोम की दो मुख्य भूमिकाएँ निम्न प्रकार से हैं –
(i) राइबोसोम का छोटा सबयूनिट m. RNA के प्रथम कोडोन (AUG ) के साथ बन्धित होकर समारम्भ कॉम्पलेक्स ( Initiation complex) अमीनो एसिल tRNA बनाता है, जिसकी पहिचान प्रारम्भक tRNA द्वारा की जाती है। अमीनो अम्ल tRNA जुड़कर एक जटिल रचना बनाते हैं जो आगे चलकर tRNA के प्रतिक्रूट (anticodon) से पूरक क्षार युग्म बनाकर m. RNA के उचित आनुवंशिक कोडोन से जुड़ जाती है।

(ii) राइबोसोम के बड़े सबयूनिट पर tRNA अणुओं के जुड़ने के लिये दो खाँच होती हैं, इन्हें P-site या दाता स्थल और A site या ग्राही स्थल कहते हैं। P-site पर पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला को धारण करने वाला tRNA जुड़ता है। A site पर अमीनो एसिल tRNA से जुड़ता है। बड़े सबयूनिट के पेप्टाइड सिन्थेटेज (peptide synthetase) एन्जाइम पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला के अमीनो अम्ल के – COOH तथा अमीनो अम्ल tRNA के अमीनो अम्ल के -NH2 के बीच पेप्टाइड बन्ध बनाता है।

प्रश्न 10.
उस संवर्धन में जहाँ ई. कोलाई वृद्धि कर रहा तो लैक्टोज डालने पर लैक- ऑपेरॉन उत्प्रेरित होता है। तब कभी संवर्धन में लैक्टोज डालने पर लैक-ऑपेरॉन कार्य करना क्यों बंद कर देता है?
उत्तर:
उपरोक्त प्रश्न को समझाने के लिए लैक प्रचालक (Lac operon) को जानना आवश्यक है। इसे जैकब व मोनाड (Jacob & Monad) ने बताया था। ई. कोलाई नामक जीवाणु पर कार्य करते हुये इन्होंने पहली बार अनुलेखनीय नियमित तंत्र के विषय में बताया। इसके अन्तर्गत β-गैलेटओसाइडेज (Lac Operon में β – Galactosidase) नामक एन्जाइम के संश्लेषण की क्रियाविधि के विषय में गहन अध्ययन किया गया। यह एन्जाइम लैक्टोज (Lactose) शर्करा का जल अपघटन गैलेक्टोज एवं ग्लूकोज शर्कराओं में निम्न प्रकार से करता है –

लैक्टोज B – गैलेक्टोसाइडेज ग्लूकोज + गैलेक्टोज
लैक-ऑपेरॉन (लैक = लैक्टोज) में पॉलीसीस्ट्रॉनिक संरचनात्मक जीन (Polycistronic structural gene) का नियमन एक सामान्य प्रोमोटर व नियामक जीन (Promotor and Regulatory Gene) द्वारा होता है। लैक- ऑपेरॉन एक नियामक जीन – i (i-gene) व तीन संरचनात्मक जीन (Z, Y व a) से मिलकर बना होता है। आई (i) जीन का तात्पर्य मंदक ( inhibitor) से है। इसमें आई (i) जीन लैक-ऑपेरॉन में दमनकारी (Repressor) का कूटलेखन (Code) करता है। Z gene बीटा- गैलेक्टोसाइडेज (B- Galactosidase) का कूटलेखन करता है जो डाइसैकेराइड लैक्टोज के जल विघटन से गैलेक्टोज व ग्लूकोज का निर्माण करता है। Y जीन परमीएज का कूटलेखन करता है जो कोशिका हेतु – Galactosidase की पारगम्यता को बढ़ाता है। जीन a द्वारा ट्रांसएसिटीलेज का कूटलेखन होता है। इस प्रकार लैक- ऑपेरान की सभी तीनों जीन के उत्पाद लैक्टोज उपापचय हेतु आवश्यक हैं (चित्र 6.22)।
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 6 वंशागति के आणविक आधार - 3

लैक्टोज एंजाइम B-galactosidase हेतु क्रियाधार का कार्य करता है जो ऑपेरॉन की सक्रियता के आरंभ ( on ) या निष्क्रियता समाप्ति (off) को नियमित करता है। इसे प्रेरक (inducer) कहते हैं। कार्बन स्रोत जैसे ग्लूकोज की अनुपस्थिति में यदि जीवाणु के संवर्धन माध्यम में लैक्टोज डाल दिया जाता है तब परमिऐज (Permease) क्रिया द्वारा लैक्टोज कोशिका के अंदर अभिगमन करता है। लैक्टोज कोशिका के भीतर सक्रिय दमनकारी (repressor) के साथ बंधकर उसकी संरचना को बदल देता है। यह दमनकारी जब ऑपरेटर के साथ बंध (bond) नहीं बना सकता है। इस समय RNA पॉलीमरेज प्रमोटर स्थल P के साथ जुड़कर ऑपेरॉन का अनुलेखन प्रारम्भ कर देता है। कुछ समय बाद तीनों एन्जाइम उपापचय में भाग लेकर लैक्टोज अणुओं को समाप्त कर देते हैं तब उस अवस्था में कोई प्रेरक लैक्टोज ( inducer lactose) उपस्थित नहीं होता है जो दमनकारी के साथ बंध बना सके। इस समय दमनकारी पुनः सक्रिय हो जाता है व ऑपेरटर से जुड़कर ऑपेरॉन को बंद (switch off) कर देता है।

प्रश्न 11.
निम्न के कार्यों का वर्णन (एक या दो पंक्तियों से) करो-
(क) उन्नायक (प्रोमोटर)
(ख) अंतरण RNA (t.RNA)
(ग) एक्जान।
(क) उन्नायक (प्रोमोटर )
(ख) अंतरण RNA (tRNA)
(ग) एक्जान।
उत्तर:
(क) उन्नायक ( Promotor ) – यह DNA खण्ड होता है, इससे RNA Polymerase बन्धित होता है। यह संरचनात्मक जीन के अनुलेखन (Transcription) को प्रारम्भ करता है।

(ख) अंतरण RNA ( tRNA ) – इसे विलेय RNA (Soluble RNA ) भी कहते हैं। इसकी द्वितीयक संरचना क्लोवर की पत्ती जैसे होती है। इसमें एक प्रति प्रकूट (Anticodon) फंदा होता है व इसमें एक अमीनो अम्ल स्वीकार्य छोर होता है। यह प्रोटीन संश्लेषण में विभिन्न प्रकार के अमीनो अम्लों को राइबोसोम पर लाते हैं तथा प्रकूट (Codon) की स्थिति पर आ जाते हैं।

(ग) एक्जान ( Exons ) – कूटलेखन अनुक्रम (coding sequences) या अभिव्यक्त अनुक्रमों (expressed sequences) को व्यक्तेक ( exons) कहते हैं। ये वे अनुक्रम हैं जो परिपक्व या संसाधित RNA (Processed RNA ) में मिलते हैं। ये अवयक्तेक (introns) द्वारा अंतरापित ( interrupted ) होते हैं।

प्रश्न 12.
मानव जीनोम परियोजना को महापरियोजना क्यों कहा गया?
उत्तर:
मानव जीनोम परियोजना ( Human Genome Project = HGP) एक महायोजना (Mega project) है क्योंकि इसमें मानव सम्बन्ध में बड़ी संख्या में आँकड़े तैयार किये जाते हैं, जैसे- मानव जीनोम में लगभग 3 x 10 क्षार युग्म मिलते हैं; यदि अनुक्रम जानने के लिए प्रति क्षार तीन अमेरिकन डॉलर (US $3) खर्च होते हैं तो पूरी योजना पर खर्च होने वाली लागत लगभग 9 बिलियन अमेरिकी डॉलर होगा। प्राप्त अनुक्रमों को टंकणित रूप में किताब में 1000 पृष्ठ होंगे तब इस तरह से एक मानव कोशिका के डीएनए सूचनाओं को संकलित करने हेतु 3300 किताबों की आवश्यकता होगी। इस प्रकार बड़ी संख्या में आँकड़ों की प्राप्ति के लिए उच्च गतिकीय संगणक साधन की आवश्यकता होती है जिससे आँकड़ों के संग्रह, विश्लेषण व पुन: उपयोग में सहायता मिलती है HGP एक बहुत बड़ी परियोजना है, इसके अन्तर्गत विश्व की अनेक प्रयोगशालायें कार्यरत हैं। अतः यह एक अन्तर्राष्ट्रीय परियोजना है, इस कारण इसे महापरियोजना कहा गया है।

प्रश्न 13.
DNA अंगुलिछापी क्या है? इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
विभिन्न जीवों में DNA पाया जाता है किन्तु अलग- अलग जीवों में पाये जाने वाले DNA के क्षार अनुक्रम में अन्तर होता है। DNA के अनुक्रम में मिलने वाले ये अन्तर व्यक्ति विशेष के समलक्षणीय रूप आकार को निर्धारित करते हैं। यदि किन्हीं दो व्यक्तियों या किसी जनसंख्या के व्यक्तियों के बीच आनुवंशिक विभिन्नता का पता लगाना हो तो सदैव DNA का अनुक्रम ज्ञात करना होगा । यह एक कठिन व महंगा कार्य है। दो व्यक्तियों के DNA अनुक्रमों के बीच तुलना करने के लिए DNA अंगुलिछापी एक त्वरित विधि है। इस विधि में DNA अनुक्रम में स्थित कुछ विशिष्ट स्थलों के मध्य विभिन्नता का पता लगाते हैं, इसे पुनरावृत्ति DNA ( Repetitive DNA) कहते हैं। अनुक्रमों में DNA का छोटा भाग अनेक बार पुनरावृत्त होता है। इस पुनरावृत्त DNA को जीनोमिक DNA के ढेर में से घनत्व प्रवणता अपकेन्द्रीकरण द्वारा पृथक करते हैं।

उपयोगिता:
(1) अपराधी की पहचान अपराधी की पहचान हेतु संदेह के घेरे में पाये जाने वाले व्यक्ति / व्यक्तियों के DNA फिंगर प्रिन्ट्स से प्राप्त होने वाले बैण्ड्स (bands) की तुलना, टेस्ट DNA फिंगर प्रिन्ट्स में से प्राप्त होने वाले बैण्ड्स से की जाती है, जिसे अपराधी द्वारा छोड़े गये. प्रमाण जैसे- रक्त तथा वीर्य के धब्बों या बालों आदि से प्राप्त किया जाता है। यदि दोनों में पूर्ण समानता पायी जाती है तभी वास्तविक अपराधी की पहचान हो पाती है।

(2) बच्चे के वास्तविक जनकों की पहचान- जब किसी बच्चे के असली माँ व पिता होने का विवाद हो, ऐसे मामलों में बच्चे के DNA फिंगर प्रिन्ट्स की तुलना माँ तथा सन्देहिल पिता दोनों के DNA फिंगर प्रिन्ट्स से की जाती है। पहले बच्चे के DNA फिंगर प्रिन्ट से प्राप्त होने वाले बैण्ड्स से किया जाता है। इसके पश्चात् बच्चे के DNA फिंगर प्रिन्ट में बचे हुए बैण्ड्स का मिलान माता के DNA फिंगर प्रिन्ट में प्राप्त होने वाले बैण्ड्स की तुलना पिता के DNA फिंगर प्रिन्ट में उपस्थित बैण्ड्स से की जाती है। यदि दोनों में समानता होती है तो वही बच्चे का असली पिता होता है।

(3) चिकित्सा में उपयोग- इसका प्रयोग आनुवंशिक परामर्शों में, बोन मैरो ट्रांसप्लान्ट में दाता कोशिकाओं की आवृत्ति जानने हेतु, ऊतक संवर्धन में कोशिकाओं की पहचान आदि में किया जाता है। इसके अतिरिक्त पेटेन्ट (Patent ) कराने के लिए पादप किस्मों की पहचान तथा उनके जनकों व लक्षणों को चिन्हित करने तथा सूक्ष्म जीवों के प्रभेदों की पहचान करने में DNA फिंगर प्रिन्टिंग विधि अधिक उपयोगी साबित हुई है।

प्रश्न 14.
निम्न का संक्षिप्त वर्णन कीजिए-
(क) अनुलेखन
(ख) बहुरूपता
(ग) स्थानांतरण
(घ) जैव सूचना विज्ञान
उत्तर:
(क) अनुलेखन (Transcription ) – DNA अणुओं के विशेष खण्डों पर उनकी अनुपूरक प्रतिलिपियों के रूप में m.RNA अणुओं का संश्लेषण होता है। यह कोशिका चक्र की अन्तराल अवस्था (Interphase) की G1 तथा G2 उपअवस्थाओं में होती है। प्रत्येक जीन या सिस्ट्रॉन के प्रारम्भ में प्रोमोटर स्थल (Promotor Site) तथा अन्त में समापन स्थल (terminator site) होता है। अतः m.RNA का संश्लेषण प्रोमोटर स्थल के समीप स्थित प्रारम्भन स्थल ( Initiation से शुरू होता है व समापन स्थल पर समाप्त होता है।

अनुलेखन की क्रियाविधि (Mechanism of transcription)-यह क्रिया निम्न चरणों में पूर्ण होती है –

  • RNA पॉलिमरेज एन्जाइम का DNA द्विकुण्डलिनी से जुड़ना।
  • DNA की दोनों श्रृंखलाओं का पृथक होना।
  • क्षारक युग्मन (अनुपूरक क्षारक हाइड्रोजन बन्धों द्वारा जुड़ते हैं)।
  • राइबोन्यूक्लियोटाइड ट्राइफॉस्फेट्स का मोनोफॉस्फेट में परिवर्तन।
  • राइबोन्यूक्लियोटाइड मोनोफॉस्फेट अणुओं का फॉस्फोडाइ एस्टिर बन्धों द्वारा जुड़कर RNA पॉलिन्यूक्लियोटाइड्स श्रृंखला का निर्माण।
  • पॉलिन्यूक्लियोटाइड्स श्रृंखला का समापन।
  • DNA खण्ड का पूर्व स्थिति में वापस आ जाना।

(ख) बहुरूपता (Polymorphism ) – बहुरूपता (आनुवंशिक आधार पर विभिन्नता ) उत्परिवर्तन के कारण ही उत्पन्न होती है। किसी व्यक्ति में नये उत्परिवर्तन उनकी कायिक कोशिकाओं या जनन कोशिकाओं में पैदा होते हैं। यदि जनन कोशिका उत्परिवर्तन किसी व्यक्ति की संतानोत्पत्ति क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित नहीं करते तो यह उत्परिवर्तन स्थानांतरित होता है जिससे जनसंख्या के दूसरे सदस्यों (लैंगिक प्रजनन द्वारा) में यह फैल जाता है। विकल्पी अनुक्रम विभिन्नता जिसे परंपरागत रूप से DNA बहुरूपता कहते हैं। मानव जनसंख्या में 0.01 से अधिक आवृत्ति में एक विस्थल में असंगति मिलने से होती है।

साधारणतया यदि एक वंशागति उत्परिवर्तन जनसंख्या में उच्च आवृत्ति से मिलता है तो इसे DNA बहुरूपता कहते हैं। इस प्रकार की संभावना अव्यक्तेक DNA (intron DNA) अनुक्रम में ज्यादा होती है व इन अनुक्रमों में होने वाला उत्परिवर्तन व्यक्ति की प्रजनन क्षमता को प्रभावित नहीं कर पाता है। इस तरह के उत्परिवर्तन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में एकत्रित होते रहते हैं जिसके फलस्वरूप विभिन्नता / बहुरूपता उत्पन्न होती है। बहुरूपता विभिन्न प्रकार की होती है जिसमें एक न्यूक्लियोटाइड में या विस्तृत स्तर पर परिवर्तन होता है। विकास व जाति उद्भवन में उपरोक्त बहुरूपता की बहुत बड़ी भूमिका होती है।

(ग) स्थानांतरण (Translation) – स्थानांतरण क्रिया के अन्तर्गत अमीनो अम्लों के बहुलकन (Polymerisation) से पॉलीपेप्टाइड का निर्माण होता है। अमीनो अम्लों के क्रम व अनुक्रम m.RNA में पाये जाने वाले क्षारों के अनुक्रमों पर निर्भर करता है। अमीनो अम्ल पेप्टाइड बंध द्वारा जुड़े रहते हैं। पेप्टाइड बंध के निर्माण में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। प्रथम अवस्था के दौरान अमीनो अम्ल स्वयं ATP की उपस्थिति में सक्रिय हो जाते हैं व सजातीय tRNA से जुड़ जाते हैं। इस प्रक्रिया को t RNA का आवेशीकरण (Charging) या tRNA एमीनोएसिलेशन (tRNA aminoacylation) कहते हैं। इस प्रकार से आवेशित दो t. RNA का एक-दूसरे से काफी पास में आने से उनमें पेप्टाइड बंध का निर्माण होता है। उत्प्रेरक की उपस्थिति में पेप्टाइड बंध बनने की दर बढ़ जाती है (चित्र 6.21 )।
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 6 वंशागति के आणविक आधार - 4

प्रोटीन संश्लेषण के लिये राइबोसोम आवश्यक है। राइबोसोम संरचनात्मक RNA व लगभग 80 विभिन्न प्रोटीनों से मिलकर बना होता है। राइबोसोम निष्क्रिय अवस्था में दो उपएककों- एक बड़ी उपएकक व एक छोटी उपकक से मिलकर बना होता है। जब छोटा उपएकक m. RNA में मिलता है तब m. RNA का प्रोटीन में स्थानांतरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। बड़े उपकक में दो स्थल होते हैं जिससे बाद में अमीनो अम्ल जुड़कर एक- दूसरे के काफी पास में आ जाते हैं जिससे पॉलीपेप्टाइड बंध बन जाता है। राइबोसोम पेप्टाइड बंध के निर्माण में उत्प्रेरक (23r. RNA जीवाणु में एंजाइम – राइबोजाइम) का कार्य करता है।

mRNA में स्थानांतरण इकाई RNA का अनुक्रम है जिसके किनारों पर प्रारंभक प्रकूट (AUG Start Codon) व रोध प्रकूट (Stop Codon) मिलते हैं जो पॉलीपेप्टाइड का कूटलेखन करते हैं। mRNA में कुछ अतिरिक्त अनुक्रम होते हैं जो स्थानांतरित नहीं होते हैं उन्हें अस्थानांतरित स्थल (Untranslated Regions, UTR) कहते हैं। UTR दोनों 5- किनारा (प्रारंभक प्रकूट के पूर्व) व 3 – किनारा ( रोध प्रकूट के पश्चात् ) पर स्थित होता है। ये प्रभावी स्थानांतरण प्रक्रिया हेतु आवश्यक हैं।

प्रारंभन के लिये राइबोसोस m. RNA के प्रारंभक प्रकूट (AUG ) से बंधता है जिसकी पहचान tRNA द्वारा की जाती है। राइबोसोम इसके बाद प्रोटीन संश्लेषण की दीर्घीकरण प्रावस्था की ओर बढ़ता है। इस अवस्था में एमीनो अम्ल tRNA से जुड़कर एक जटिल रचना का निर्माण करते हैं जो आगे चलकर tRNA के प्रति प्रकूट (anticodon) से पूरक क्षार युग्म बनाकर m. RNA के उचित प्रकूट से जुड़ जाते हैं। राइबोसोम m. RNA के साथ एक प्रकूट से दूसरे प्रकूट की ओर जाता है। एक के बाद एक अमीनो अम्लों के जुड़ने से पॉलीपेप्टाइड अनुक्रमों का स्थानांतरण होता है जो DNA द्वारा निर्देशित व m. RNA द्वारा निरूपित होते हैं। अंत में विमोचक कारक (Release Factor) का रोध प्रकूट से जुड़ने से स्थानांतरण प्रक्रिया का समापन हो जाता है व राइबोसोम से पूर्ण पॉलीपेप्टाइड अलग हो जाते हैं।

(घ) जैव सूचना विज्ञान (Bioinformatics) – अध्ययनानुसार यह ज्ञात है कि किसी भी जीव की आनुवंशिक व्यवस्था उसके DNA में मिलने वाले अनुक्रम से निर्धारित होती है। दो विभिन्न व्यक्तियों में मिलने वाला DNA अनुक्रम कुछ जगहों पर भिन्न-भिन्न होता है। आनुवंशिक अभियांत्रिक तकनीकों के विकास से किसी भी DNA खंड को विलगित (isolate) व क्लोन किया जा सकता है व DNA अनुक्रमों को जाना जा सकता है। सन् 1990 में मानव जीनोम के अनुक्रमों को ज्ञात करने के लिये मानव जीनोम योजना (Human Genome Project = HGP) प्रारम्भ हुई और यह एक महायोजना थी।

इस योजना के अन्तर्गत एक अन्तर्राष्ट्रीय मानव जीनोम बैंक की स्थापना की गई है जहाँ विश्व में पायी जाने वाली मानव प्रजातियों की कोशिकाओं व DNA नमूनों को संग्रहित किया जा रहा है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य मानव के पूर्ण जीनोम के DNA के न्यूक्लियोटाइडों का अनुक्रम ज्ञात कर, सम्पूर्ण जीनों का जीन चित्रण (Genetic map) बनाना है। मानव जीनोम की सम्पूर्ण सूचना एकत्र करना व उसका संग्रह करना अत्यन्त दुष्कर है परन्तु जीव विज्ञान के नये क्षेत्र जैव सूचना विज्ञान (Bioinformatics) ने इस समस्या का समाधान कर दिया है। क्योंकि मानव जीनोम में लगभग 3 x 10 क्षार युग्म मिलते हैं।

यदि इन अनुक्रमों को टंकणित रूप (typed form ) में पुस्तक में संग्रहित किया जाए तो जिसके प्रत्येक पृष्ठ में 1000 अक्षर हों तो इस प्रकार इस पुस्तक में 1000 पृष्ठ होंगे तब इस तरह से एक मानव कोशिका के DNA सूचनाओं को संकलित करने हेतु 3300 पुस्तकों की आवश्यकता होगी। इस प्रकार बड़ी संख्या में आँकड़ों की प्राप्ति के लिये उच्च गतिकीय संगणक साधन (High Speed Computational Devices) की आवश्यकता होती है जिससे आँकड़ों के संग्रह, विश्लेषण व पुनः उपयोग में सहायता मिलती है। इन सब कार्यों का निष्पादन सुगमता से जैव सूचना विज्ञान के द्वारा किया जाता है।

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HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत

प्रश्न 1.
मेंडल द्वारा प्रयोगों के लिए मटर के पौधे चुनने से क्या लाभ हुए?
उत्तर:
मेंडल ने अपने अध्ययन के लिये मटर के पौधों का चयन निम्न कारणों से किया-
(i) मटर का पौधा वार्षिक (Annual) होता है अतः इसमें अल्प जीवन- चक्र होने के कारण कई पीढ़ियों का अध्ययन आसानी से किया जा सकता है।
(ii) मटर के पुष्प द्विलिंगी (Bisexual) अर्थात् नर व मादा जननांग एक ही पुष्प में उपस्थित होते हैं।
(iii) मटर के पुष्प में स्वपरागण (Self-pollination) की अधिकता होती है। इसमें आसानी से कृत्रिम रूप से परपरागण (Artificial cross-pollination) किया जा सकता है।
(iv) स्व-निषेचन (Self-fertilization) होने के कारण मटर के पौधों में गुणों की शुद्धता (Purity of Characters) कई पीढ़ियों तक बनी रहती है।
(v) इनके पौधों में कई लक्षण विपरीत प्रभाव दर्शाते हैं अर्थात् विपर्यासी (Contrasting Characters) गुण उपस्थित होते हैं जैसे कि पौधे का लम्बा (tall) व कद का छोटा (dwarf) होना इत्यादि। मेंडल ने मटर की विभिन्न किस्मों में 7 विपर्यासी लक्षण चुने थे।

प्रश्न 2.
निम्न में भेद करो –
(क) प्रभाविता और अप्रभाविता
(ख) समयुग्मजी और विषमयुग्मजी
(ग) एकसंकर और द्विसंकर।
उत्तर:
(क) प्रभाविता और अप्रभाविता ( Dominant and Recessive ) – मेंडल ने मटर के पादपों पर प्रयोग करते समय देखा कि लम्बे व बौने (dwari) पादपों के मध्य क्रॉस करवाने पर प्रथम संतानीय पीढ़ी (F) में केवल एक ही लक्षण प्राप्त होता है जो प्रभावी लक्षण (Dominant Character) कहलाता है। दूसरा लक्षण जो F में अदृश्य रह जाता है तथा प्रदर्शित नहीं होता, अप्रभावी लक्षण (Recessive Character) कहलाता है।

(ख) समयुग्मजी और विषमयुग्मजी (Homozygous and Heterozygous ) – जब एक जीव में जीन के दोनों सदस्य समान हों तो उसे समयुग्मजी कहते हैं; जैसे – ‘CC’ अथवा ‘cc’। जब जीव के जीन के दोनों सदस्य असमान हों तो उसे विषमयुग्मजी कहते हैं; जैसे- ‘Cc’ या ‘Tt’

HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत

(ग) एक संकर और द्विसंकर (Monohybrid and Dihybrid) – जब एक जीन की वंशागति का अध्ययन किया जाता है या प्रयोग में केवल एक ही लक्षण को मुख्य रूप से लिया जाता है अथवा एक लक्षण के युग्म विकल्पों का प्रयोग होता है तो इसे एक संकर संकरण कहते हैं। ऐसे संकरण में F2 पीढ़ी में 31 का अनुपात प्राप्त होता है। जब दो जीन की वंशागति का अध्ययन किया जाता है या प्रयोग में दो जोड़े युग्म विकल्पी लिये जाते हों तब इसे द्विसंकर संकरण कहते हैं। इसमें F2 पीढ़ी में 9 : 3 : 3 : 1 का अनुपात मिलता है।

प्रश्न 3.
कोई द्विगुणित जीन 6 स्थलों के लिये विषमयुग्मजी हैं, कितने प्रकार के युग्मकों का उत्पादन सम्भव है?
उत्तर:
इसके लिये 2 सूत्र का उपयोग करते हैं –
n = स्थल
विषमयुग्मनजी जीव में 6 स्थल हैं।
अतः n = 6
2n = 26 अर्थात् 2 x 2 x 2 x 2 x 2 x 2
विषमयुग्मनजी जीव में 64 प्रकार के युग्मकों का उत्पादन होगा।

प्रश्न 4.
एकसंकर क्रॉस का प्रयोग करते हुए, प्रभाविता नियम की व्याख्या करो।
उत्तर:
मेंडल ने अपने प्रयोग मटर पर किये थे। मेंडल ने प्रयोगों के लिए मटर के सात युग्मविकल्पी (allelomorph ) लक्षणों का चयन किया था। प्रत्येक युग्म में दोनों गुण एक-दूसरे के युग्मविकल्पी (allel) होते हैं; जैसे- लम्बा (tall ) व बौना (dwarf), लाल व सफेद, पीला व हरा आदि। मेंडल ने एक-एक करके सातों युग्मविकल्पों के जनक पादपों से सन्तति में संचारण (transmission) का अध्ययन किया और प्रत्येक दशा में परिणाम को एक-सा पाया।

उदाहरण के लिये, जब शुद्ध लाल पुष्प वाली मटर की किस्म का संकरण शुद्ध सफेद पुष्प वाली किस्म से किया। इससे प्रथम संकरण संतति (first filial generation) या F में लाल पुष्प वाले पौधे बने। लाल पुष्पों वाली प्रथम संकरण संतति (F) को स्वपरागित कर, मेंडल ने F2 या द्वितीय संकर संतति प्राप्त की। इसमें लाल पुष्प वाले पौधे और सफेद पुष्प वाले पौधे दोनों ही पाये गये। इस द्वितीय संकर संतति (F2) में दोनों प्रकार के पौधे एक निश्चित अनुपात 3 :1 में थे। दूसरे शब्दों में दोनों प्रकार के पौधे एक निश्चित अनुपात 3 :1 में थे। दूसरे शब्दों में 75% लाल पुष्प सन्तति व 25% सफेद पुष्प संतति प्राप्त हुई।
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत - 1
RR, Rr, Rr = लाल पुष्प वाली संतति rr = सफेद पुष्प वाली संतति अतः अनुपात 31 होता है। इस संकरण के आधार पर मेंडल ने प्रभाविता का नियम बताया। नियम के अनुसार कारक युग्म (Pairs of Factors) का एक कारक (gene) युग्म के दूसरे कारक के प्रभाव को अभिव्यक्त (express ) नहीं होने देता है। जैसे इस क्रॉस में F पीढ़ी में एक युग्मविकल्प जैसे लाल रंग दूसरे युग्मविकल्प यानी सफेद रंग पर प्रभावी हो जाने से सफेद रंग अभिव्यक्त नहीं हो पाता है। यही कारण है कि पीढ़ी में सफेद रंग की जीन होते हुये भी इस पीढ़ी के सभी पादप लाल पुष्पों वाले होते हैं।

अत: यह लक्षण (लाल रंग ) जो प्रभावी होने के कारण F) पीढ़ी में अभिव्यक्त होता है, उसे मेंडल ने प्रभावी लक्षण (Dominant Character) कहा तथा वह गुण जो प्रभावी कारक या लक्षण की उपस्थिति में अभिव्यक्त नहीं हो पाता है या प्रभावी लक्षण द्वारा ढक जाता है, उसे मेंडल ने अप्रभावी लक्षण (Recessive ) की संज्ञा दी। प्रभावी लक्षण को अंग्रेजी भाषा के बड़े अक्षर जिससे उस गुण का नाम आरम्भ होता है, चिन्हित किया जाता है व अप्रभावी लक्षण को अंग्रेजी भाषा के छोटे अक्षर द्वारा चिन्हित करते हैं (उदाहरण- पुष्प के लाल रंग को R व सफेद रंग को से लिखते हैं )।

HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत

प्रश्न 5.
परीक्षार्थ संकरण की परिभाषा लिखो और चित्र बनाओ।
उत्तर:
जब F1 पीढ़ी के जीवों का अप्रभावी जनक (Recessive Parents) के साथ संकरण कराते हैं, उसे परीक्षार्थ संकरण कहते हैं। ऐसे संकरण से होने वाली संतति में 50% शुद्ध अप्रभावी तथा 50% प्रभावी (संकर गुण लिये हुये ) प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिये, यदि F1 पीढ़ी के लाल फूलों (संकर ) का संकरण अप्रभावी जनक सफेद फूलों (शुद्ध) से करते हैं तब हमें फीनोटाइप तथा जीनोटाइप दोनों ही प्रकार से 11 के अनुपात में लाल तथा सफेद फूलों वाले पौधे मिलते हैं।
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत - 2
फीनोटाइप अनुपात – 2 लाल : 2 सफेद या 11 2m या 1 : 1 जीनोटाइप अनुपात – 2 Rr : 2 rr या 1 : 1

प्रश्न 6.
एक ही जीन स्थल वाले समयुग्मजी मादा और विषमयुग्मजी नर के संकरण से प्राप्त प्रथम संतति पीढ़ी के फीनोटाइप वितरण का पनेट वर्ग बनाकर प्रदर्शन करो।
उत्तर:
मान लीजिये कि यहां पौधे का लक्षण पुष्प का रंग लाल व सफेद ले रहे हैं तो संकरण निम्न प्रकार से होगा। प्रश्न में प्रभावी व अप्रभावी नहीं दिया गया है अतः दोनों प्रकार की क्रॉस बताई जा रही है। एक उदाहरण में प्रभावी समयुग्मजी मादा तथा दूसरे में अप्रभावी समयुग्मजी मादा का क्रॉस बताया जा रहा है-
नर जनक विषमयुग्मजी है तो उसका जीनोटाइप Rr होगा। मादा जनक समयुग्मजी है तो उसका जीनोटाइप RR या rr होगा ।
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत - 3
सभी जनक अर्थात् फीनोटाइप लाल रंग के होंगे (फीनोटाइप अनुपात नहीं होगा)। जीनोटाइप अनुपात 2 RR : 2Rr अर्थात् 1 : 1 होगा।
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत - 4
फीनोटाइप अनुपात – 2 लाल : 2 सफेद अर्थात् 1 : 1 होगा। जीनोटाइप अनुपात – 2 Rr : 2 rr अर्थात् 1 : 1 होगा।

प्रश्न 7.
पीले बीज वाले लंबे पौधों (YyTt) का संकरण हरे बीज वाले लंबे (yyTt) पौधे से करने पर निम्न में से किस प्रकार के फीनोटाइप संतति की आशा की जा सकती है –
(क) लंबे हरे
(ख) बौने – हरे।
उत्तर:
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत - 5
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत - 6
इसमें लंबे-हरे 6 फीनोटाइप होंगे तथा बौने-हरे 2 फीनोटाइप होंगे।

प्रश्न 8.
दो विषमयुग्मजी जनकों का क्रॉस 3 और 4 किया गया। मान लें दो स्थल (loci ) सहलग्न हैं, तो द्विसंकर क्रॉस में F पीढ़ी के फीनोटाइप के लक्षणों का वितरण क्या होगा?
उत्तर:
जब क्रॉस में सहलग्न जीनें होती हैं तो वे मेंडलीय सिद्धान्तों का पालन नहीं करती हैं। सहलग्न जीन सदैव साथ-साथ जाती हैं।
F) अ पीढ़ी में चार प्रकार की संततियाँ होंगी-
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत - 7

प्रश्न 9.
आनुवंशिकी में टी. एच. मौरगन के योगदान का संक्षिप्त में उल्लेख करें।
उत्तर:
टी. एच. मौरगन ने आनुवंशिकी क्षेत्र में क्रोमोसोम – वाद या सिद्धांत के प्रयोगात्मक सत्यापन किए तथा गुणसूत्र सहलग्नता सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। मौरगन ने फल मक्खियों (फ्रूटफ्लाई- ड्रोसोफिला मेलनोगैस्टर, Drosophila melanogaster) पर काम किया, जो ऐसे अध्ययनों के लिये उपयुक्त थी। प्रयोगशाला में इसे कृत्रिम माध्यमों पर रखा जा सकता था और इसमें एकल मैथुन से विशाल संख्या में संतति मक्खियों का उत्पादन संभव था। इसके साथ ही इसमें लिंगों का विभेदन स्पष्ट था। इसमें नर व मादा की सरलता से पहचान की जा सकती थी। इसमें आनुवंशिक विविधताओं के अनेक प्रकार थे जो कम क्षमता वाले माइक्रोस्कोप से देखे जा सकते थे मौरगन ने ड्रोसोफिला पर प्रयोग करके सहलग्नता का सम्पूर्ण अध्ययन किया।

HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत

प्रश्न 10.
वंशावली विश्लेषण क्या है? यह विश्लेषण किस प्रकार उपयोगी है?
उत्तर:
मानव समाज में वंशागत विकार व्याप्त हैं तथा पुराने समय से इस बात को सुनते आ रहे हैं। कुछ परिवारों में यह भी कहा जाता है कि कुछ लक्षण वंशबद्ध होते हैं। जैसे ही मेंडल के कार्यों की पुनः खोज हुई त्यों ही मानव के लक्षण प्रतिरूपों की वंशागति के विश्लेषण की बात प्रारम्भ हुई। यह तो निश्चित है कि मटर के पौधे व अन्य जीवों में किये गए तुलनार्थ संकर प्रयोग मानव में संभव नहीं हैं। अतः वंशागत विकारों के सम्बन्ध में केवल एक ही रास्ता है कि विशेष लक्षण की वंशागति के संबंध में वंश के इतिहास का अध्ययन किया जाए। अनेक पीढ़ियों तक जारी लक्षणों के ऐसे विश्लेषण को वंशावली विश्लेषण कहते हैं। इस प्रक्रिया में वंश वृक्ष (Family Tree) में एक विशेष लक्षण का पीढ़ी दर पीढ़ी विश्लेषण (Pedigree Analysis ) किया जाता है।

मानव आनुवंशिकी में वंशावली अध्ययन एक महत्वपूर्ण उपकरण है जिसका उपयोग विशेष लक्षण, अपसामान्यता ( abnormality) या रोग का पता लगाने में किया जाता है। वंशावली विश्लेषण में प्रयुक्त कुछ महत्त्वपूर्ण मानक (Symbols) प्रतीकों को चित्र में दर्शाया गया है। (चित्र 5.14 देखें।) जैसा कि हम जानते हैं कि किसी जीव का प्रत्येक लक्षण गुणसूत्र ( Chromosome ) में विद्यमान DNA पर स्थित जीन में निहित होता है। DNA ही आनुवंशिक सूचना का वाहक है और यह बिना किसी परिवर्तन के एक से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होता जाता है। यह भी सुनिश्चित है कि यदा-कदा परिवर्तन या रूपांतरण होते रहते हैं। इस प्रकार के परिवर्तन या रूपांतरण को उत्परिवर्तन (Mutation) कहते हैं। मानव में कई विकार इस प्रकार के हैं, जिनका संबंध क्रोमोसोम या जीन के परिवर्तन या रूपांतरण से जोड़ा जा सकता है।

प्रश्न 11.
मानव में लिंग निर्धारण कैसे होता है?
उत्तर:
मानव में लिंग निर्धारण XY प्रकार का होता है। मानव में कुल 23 जोड़े अर्थात् 46 गुणसूत्र होते हैं। नर में 44 गुणसूत्र अलिंग गुणसूत्र (Autosomes ) होते हैं तथा दो लिंग गुणसूत्र (Sex Chromosome) ‘X’ तथा ‘Y’ होते हैं। स्त्री या मादा में भी 44 गुणसूत्र ऑटोसोम (Autosomes) होते हैं तथा दो लिंग गुणसूत्र ‘X’ व ‘Y’ होते हैं। जब शुक्राणु बनते हैं तो 50% शुक्राणु 22 + X गुणसूत्र वाले तथा शेष 50% शुक्राणु 22 + Y गुणसूत्र वाले होते हैं। जबकि स्त्री या मादा के सभी अण्डों में 22+ X गुणसूत्र होते हैं। सन्तान में कितनी लड़कियाँ तथा कितने लड़के होंगे यह इस पर निर्भर करता है कि कौनसा शुक्राणु अण्ड से निषेचित करता है। मानव में नर बच्चे का होना ‘Y’ गुणसूत्र की उपस्थिति पर निर्भर करता है। एक शुक्राणु में केवल ‘X’ या ‘Y’ लिंग गुणसूत्र ही हो सकता है, अतः पिता का ‘X’ गुणसूत्र लड़कियों में तथा ‘Y’ गुणसूत्र लड़कों में मिलता है।
HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत - 8

प्रश्न 12.
शिशु का रुधिर वर्ग 0 है। पिता का रुधिर वर्ग A और माता का B है। जनकों के जीनोटाइप मालूम कीजिए और अन्य संतति में प्रत्याशित जीनोटाइपों की जानकारी प्राप्त कीजिए।
उत्तर:
रुधिर वर्गों में वंशागति मेण्डल के नियमों के अनुसार होती है। इसकी वंशागति दो या अधिक तुलनात्मक लक्षणों वाले जीन्स (Genes) अर्थात् ऐलील्स (Alleles) पर निर्भर करती है। रुधिर वर्गों को स्थापित करने वाले प्रतिजन (Antigens) तथा इसकी उपस्थिति या अनुपस्थिति तीन जीन्स के कारण होती है। प्रतिजन ‘A’ के लिये जीन I, प्रतिजन ‘B’ के लिए जीन 1 तथा दोनों प्रतिजन के अभाव के लिए जीन 1° उत्तरदायी होते हैं। एक मुनष्य में इनमें से कोई एक ही प्रकार के दो जीन्स या दो प्रकार के जीन्स एक निश्चित स्थल (Loci) पर स्थित होते हैं। जीन I तथा I क्रमश: 1° पर प्रभावी होते हैं, जबकि जीन I तथा 1 में प्रभाविता का अभाव होता है अर्थात् ये सहप्रभावी (Codominant) होते हैं –
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उदाहरण-A तथा B रुधिर वर्ग वाले माता-पिता की सम्भावित सन्तानों के रृधिर वर्गों का जीनोटाइप (genotype) निम्ननुसार होगा –
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विभिन्न रुधिर वर्ग के व्यक्तियों के रुधिर वर्ग की जीनी संरचना निम्न तालिका के अनुसार हो सकती है –
‘O’ रुधिर वर्ग वाले शिशु के माता-पिता का जीनोटाइप 1 1 तथा 1h 1° है। ‘AB’ रुधिर वर्ग वाले का जीनोटाइप 1 1 A रुधिर वर्ग वाले का जीनोटाइप II°, ‘B’ रुधिर वर्ग वाले का जीनोटाइप I” I° और ‘O’ रुधिर वर्ग वाले का जीनोटाइप I° I° होगा।

प्रश्न 13.
निम्न शब्दों को उदाहरण सहित समझाइये –
(अ) सह-प्रभाविता
(ब) अपूर्ण प्रभाविता।
उत्तर:
(अ) सह प्रभाविता (Co-dominance) – सह-प्रभाविता में युग्मविकल्पी जोड़े (allelomorphic pairs) के सदस्य प्रभावी व अप्रभावी नहीं होते हैं और दोनों ही F पीढ़ी में समान रूप से प्रकट होते हैं, यह प्रक्रिया सह प्रभाविता कहलाती है। सह-प्रभाविता का अच्छा उदाहरण मानवों में ABO रुधिर वर्गों का निर्धारण करने वाली विभिन्न प्रकार की लाल रुधिर कोशिकाएँ हैं। ABO रुधिर वर्गों का नियन्त्रण जीन ” से होता है। लाल रुधिर कोशिकाओं की प्लाज्मा झिल्ली में सतह से बाहर निकलते हुए शर्करा बहुलक होते हैं। नियन्त्रण जीन ‘I’ ही बहुलक के प्रकार का निर्धारण करती है। नियन्त्रण जीन ‘I’ के तीन अलील IA, IB और होते हैं।

अलील IA और अलील 1″ कुछ भिन्न प्रकार की शर्करा का उत्पादन करते हैं और अलील किसी भी प्रकार की शर्करा का उत्पादन नहीं करती है। मानव जीन (21) द्विगुणित होता है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति में इन तीन में से दो प्रकार के जीन अलील होते हैं। तथा I तो i के ऊपर पूर्णरूप से प्रभावी होते हैं अर्थात् जब और विद्यमान हों तो केवल I अभिव्यक्त होता है और जब IB और विद्यमान हों तो केवल 1 अभिव्यक्त होता है, तो शर्करा बनाता ही नहीं है। जब I और IB दोनों उपस्थित हों तो ये दोनों अपने-अपने प्रकार की शर्करा को अभिव्यक्त कर देते हैं। यह घटना ही सह प्रभाविता है। इसी कारण लाल रुधिर कोशिकाओं में A और B दोनों प्रकार की शर्करा होती है। HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 5 वंशागति तथा विविधता के सिद्धांत - 11

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(ब) अपूर्ण प्रभाविता ( Incomplete Dominance) -मेंडल के नियमों को जब मटर वाले प्रयोग को अन्य विशेषकों के सन्दर्भ में दोहराया गया तो पता चला कि कभी-कभार F में ऐसा फीनोटाइप आ जाता है जो किसी भी जनक से नहीं मिलता-जुलता है और इसके बीच का सा लगता है। मेंडल ने अपने प्रयोग में जिन सात जोड़ी लक्षणों का उपयोग किया उनमें से प्रत्येक कारक (जीन) की जोड़ी में एक विकल्पीय सदस्य प्रभावी व दूसरा सदस्य अप्रभावी था। किन्तु बाद में वैज्ञानिकों को ऐसे उदाहरण भी मिले जिनमें F पीढ़ी के दिखने वाले प्रभावी लक्षण के स्थान पर दूसरा लक्षण दिखाई देता है जो प्रभावी व अप्रभावी के बीच का होता है।

श्वान पुष्प (Snapdragon / Antirrhinum) में पुष्प रंग की वंशागति अपूर्ण प्रभाविता को समझने के लिये अच्छा उदाहरण है। शुद्ध प्रजननी लाल फूल वाली (RR) और शुद्ध प्रजननी सफेद फूल वाली (Ir) प्रजाति के संकरण के परिणामस्वरूप F पीढ़ी गुलाबी फूलों (Rr) वाली प्राप्त हुई। जब इस F संतति को स्व- परागित किया गया तो परिणामों का अनुपात 1 ( RR ) लाल था। यहां पर जीनोटाइप अनुपात 1 भी 1 2 1 था।

2 ( Rr) गुलाबी 1(IT) सफेद 21 था तथा फीनोटाइप अनुपात इस प्रयोग से स्पष्ट है कि समयुग्मजी (homozygous) स्थिति में जीन R के प्रभावी (RR) लाल व अप्रभावी (IT) सफेद सदस्य क्रमशः अपने लक्षणों को व्यक्त करते हैं परन्तु विषमयुग्मजी ( heterozygous) अवस्था (अर्थात् Rr) में संकरण प्रभावी लक्षण पूर्ण रूप से व्यक्त न होकर बीच का लक्षण गुलाबी रंग के रूप में अभिव्यक्त होता है। यहाँ R सदस्य, सदस्य पर अपूर्ण (incomplete) रूप से प्रभावी है अतः यह अपूर्ण प्रभाविता कहलाती है। F पीढ़ी के इन पौधों के संकरण कराने से समजीनी व समलक्षणी ( Genotype and Phenotype) अनुपात 3: 1 के स्थान पर 121 प्राप्त होता है।

प्रश्न 14.
बिंदु – उत्परिवर्तन क्या है? एक उदाहरण दें।
उत्तर:
उत्परिवर्तन वह क्रिया है जो DNA अनुक्रम में बदलाव ला देती है। DNA के एकल क्षार युग्म (base pair) के परिवर्तन को बिंदु – उत्परिवर्तन (Point Mutation) कहते हैं। इस प्रकार के उत्परिवर्तन का उदाहरण दात्र- कोशिका अरक्तता (Sickle-cell anaemia) है। दात्र- कोशिका अरक्तता एक अलिंग गुणसूत्र लग्न अप्रभावी लक्षण (autosome linked recessive trait) है जो जनकों में संतति में तभी प्रवेश करता है जबकि दोनों जनक जीन के वाहक होते हैं अर्थात् विषमयुग्मजी (Heterozygous) अवस्था में इस रोग का नियंत्रण अलील का एक जोड़ा Ho और H करता है। रोग का लक्षण (phenotype) तीन संभव समजीनी (genotype ) में से केवल \(\mathrm{H}_{\mathrm{b}^8}\left(\mathrm{H}_{\mathrm{b}^8} \mathrm{H}_{\mathrm{b}^8}\right)\) वाले समयुग्मजी व्यक्तियों में दिखाई देता है। विषमयुग्मजी \(\left(\mathrm{H}_{b^{\mathrm{A}}} \mathrm{H}_{\mathrm{b}^{\mathrm{s}}}\right)\) व्यक्ति रोगमुक्त होते हैं किन्तु वे रोग के वाहक होते हैं।

उत्परिवर्तित जीन के संतति में पहुंचने की 50% संभावना (अर्थात् दात्र कोशिका के लक्षण आने की) होती है। इस विकार का कारण हीमोग्लोबिन अणु की बीटा ग्लोबिन श्रृंखला की छठी स्थिति में एक एमीनो अम्ल ग्लूटैमिक अम्ल (Glu) का वैलीन द्वारा प्रतिस्थापन है। (चित्र 5.17 देखें)। ग्लोबिन प्रोटीन में एमीनो अम्ल का यह प्रतिस्थापन बीटा ग्लोबिन जीन के छठे कोडोन में GAG का GUG द्वारा प्रतिस्थापन के कारण होता है। निम्न ऑक्सीजन तनाव में उत्परिवर्तित हीमोग्लोबिन अणु में बहुलीकरण (Polymerisation) हो जाता है जिसके कारण RBC का आकार द्वि- अवतल बिंब (biconcave disc) में बदलकर दात्राकार हंसिए के आकार जैसा (Elongated sickle like structure) हो जाता है।

प्रश्न 15.
वंशागति के क्रोमोसोम वाद को किसने प्रस्तावित किया?
उत्तर:
मेंडल द्वारा किये गये कार्य का प्रकाशन यद्यपि 1865 में हो चुका था परन्तु अनेक कारणों से 1900 तक यह कार्य अज्ञात ही रहा। 1900 में तीन वैज्ञानिकों (डी ब्रीज, कॉरेन्स और वॉन शेरमाक) ने स्वतन्त्र रूप से लक्षणों की वंशागति संबंधी मेंडल के परिणामों की पुनः खोज की। इसी समय माइक्रोस्कोपी तकनीक में प्रगति होती जा रही थी। वैज्ञानिक इसमें कोशिका विभाजन को देखने में समर्थ हो चुके कोशिका के केन्द्रक में एक संरचना की खोज हो चुकी थी, जो कोशिका विभाजन के पहले द्विगुणित एवं विभाजित भी हो जाता है। इन्हें गुणसूत्र (Chromosome ) कहा गया। 1902 तक अर्धसूत्रणी कोशिका विभाजन के दौरान गुणसूत्र की गति (संचालन) का ज्ञान हो चुका था। वाल्टर सटन और थियोडोर बोवेरी (Walter Sutton and Theodore Boveri) ने देखा कि गुणसूत्र का व्यवहार भी जीन जैसा है। इन्होंने मेंडल के नियमों (तालिका) को गुणसूत्र की गतिविधि (चित्र 5.7 ) द्वारा समझाया। तालिका – क्रोमोसोम और जीन के व्यवहार में तुलना

AB
जोड़ों में होते हैं।जोड़ों में होते हैं।
युग्मकजनन के दौरान इस प्रकार विसंयोजित होते हैं कि एक युग्मक जोड़े में से केवल एक ही जा पाता है ।युग्मकजनन के दौरान विसंयोजित होते हैं और जोड़े में से केवल एक ही युग्मक को प्राप्त होता है।
अलग-अलग जोड़े एक-दूसरे से स्वतंत्र, विसंयोजित होते हैं।एक जोड़ा, दूसरे से स्वतंत्र, विसंयोजित होता है।

अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis or Reduction Division ) व समसूत्री विभाजन (Mitosis or Equational division) के अध्ययन में गुणसूत्रों के व्यवहार देखते हैं। इसमें सबसे मुख्य बात यह है कि गुणसूत्र व जीन सदैव जोड़े में होती हैं। एक जीन जोड़े के दोनों अलील समजात गुणसूत्रों (Homologous Chromosomes ) के समजात स्थान (Homologous sites) पर विद्यमान या स्थित होते हैं (चित्र 5.7 देखें)।
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अर्धसूत्री विभाजन प्रथम ( Meiosis I) की पश्चावस्था (Anaphase) में गुणसूत्र के दो जोड़े मध्यावस्था पट्टिका ( Metaphase Plate) पर एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से पंक्तिबद्ध होते हैं (नीचे दिया गया चित्र देखें)। इसे समझने के लिये दायें और बायें स्तम्भों में चार पृथक् रंगों के गुणसूत्रों की तुलना करनी होगी। बायें स्तम्भ अर्थात् संभावना I में नारंगी और हरे एक साथ विसंयोजित (Segregating ) होते हैं परन्तु दाहिने स्तम्भ अर्थात् संभावना II में नारंगी गुणसूत्र लाल गुणसूत्रों के साथ विसंयोजित हो रहे हैं।

सटन व बोवेरी ने इस सम्बन्ध में तर्क प्रस्तुत किया कि गुणसूत्र युग्म का जोड़ा बन जाना या पृथक् होना अपने में ले जाये जा रहे कारकों के विसंयोजन का कारण है। सटन ने गुणसूत्रों के विसंयोजन के ज्ञान को मेंडल के सिद्धान्तों के साथ जोड़कर ‘वंशागति का गुणसूत्रवाद या सिद्धान्त’ दिया।

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प्रश्न 16.
किन्हीं दो अलिंगी सूत्री आनुवंशिक विकारों का उनके लक्षणों सहित उल्लेख करो।
उत्तर:
दात्र कोशिका – अरक्तता (सिकेल सेल एनीमिया) तथा फीनाइल कीटोनूरिया दोनों विकार अलिंगी सूत्री आनुवंशिक विकार हैं।
(i) दात्र कोशिका – अरक्तता (Sickle Cell Anaemia) – इसे प्रश्न संख्या 14 में देखें।
(ii) फीनाइल कीटोनूरिया ( Phenyl Ketonuria) – यह एक जन्मजात उपापचयी विकार है जो अलिंग गुणसूत्र अप्रभावी लक्षण की जैसी ही वंशागति प्रदर्शित करती है। रोगी व्यक्ति में ऐलेनीन अमीनो- अम्ल को टाइरोसीन (Tyrosin) अमीनो अम्ल में बदलने के लिये आवश्यक एक एन्जाइम की कमी हो जाती है। इस कारण से फीनाइल ऐलेनीन एकत्रित होता जाता है और फीनाइलपाइरुविक अम्ल तथा अन्य व्युत्पन्नों में बदलता जाता है। इनके एकत्रीकरण से मानसिक दुर्बलता आ जाती है। वृक्क द्वारा कम अवशोषित हो सकने के कारण ये मूत्र के साथ उत्सर्जित हो जाते हैं।

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