Class 11

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 4 समतल में गति

Haryana State Board HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 4 समतल में गति Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Physics Important Questions Chapter 4 समतल में गति

बहुविकल्पीय प्रश्न:

प्रश्न 1.
किसी प्रक्षेप्य पर ऊँचाई y तथा क्षैतिज तल के अनुदिश दूरी x क्रमश: y = 8t – 5t2 तथा x = 6t है, जहाँ t सेकण्ड में तथा दूरियाँ मीटर में हैं। प्रक्षेप्य का प्रक्षेपण वेग होगा:
(a) 8 मीटर/सेकण्ड
(b) 6 मीटर/सेकण्ड
(c) 10 मीटर/सेकण्ड
(d) उपर्युक्त विवरण से प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
उत्तर:
(c) 10 मीटर/सेकण्ड

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प्रश्न 2.
आकाश में उड़ता एक वायुयान क्षैतिज तल में मोड़ ले रहा है। ऐसा करते समय उसके पंख:
(a) क्षैतिज रहते हैं
(b) ऊर्ध्वाधर हो जाते हैं।
(c) भीतर की ओर झुक जाते हैं।
(d) बाहर की ओर झुक जाते हैं।
उत्तर:
(c) भीतर की ओर झुक जाते हैं।

प्रश्न 3.
यदि एक बन्दूक से वेग से छोड़ी गयी गोली की परास R हो, तो बन्दूक का क्षैतिज से झुकाव होगा।
(a) cos-1\(\frac{v^2}{R g}\)
(b) cos-1\(\frac{R g}{v^2}\)
(c) tan-1\(\frac{v^2}{R g}\)
(d) sin-1\(\frac{g R}{v^2}\)
उत्तर:
(d) sin-1\(\frac{g R}{v^2}\)

प्रश्न 4.
एक कण x y तल में गति कर रहा है और किसी बिन्दु पर उसके निर्देशांक, x = Asin ωt तथा y = Acosωt हैं, जहाँ ω एक नियत राशि है। कण का पथ है।
(a) सरल रेखा
(b) दीर्घ वृत्ताकार
(c) वृत्ताकार
(d) परवलयाकार
उत्तर:
(c) वृत्ताकार

प्रश्न 5.
एक नाव जिसकी शान्त जल में चाल 5 km/hr है, 1 km चौड़ी नदी को सबसे छोटे सम्भव मार्ग से 15 मिनट में पार करती है। नदी के जल का km/hr में वेग है।
(a) 1
(b) 3
(c) 4
(d) √41
उत्तर:
(b) 3

प्रश्न 6.
दो कण A व B एक दृढ़ छड़ AB द्वारा जुड़े हैं। छड़ लम्बवत् पटरियों पर फिसलती है, जैसा कि चित्र में प्रदर्शित है । कण 4 का बायीं ओर वेग 10 m/s है। जब कोण α = 60° है, तो कण B का वेग होगा।

(a) 5.8m/s
(b) 9.8m/s
(c) 10m/s
(d) 17.3m/s
उत्तर:
(a) 5.8m/s

प्रश्न 7.
एक कण एक समान चाल से वृत्ताकार पथ पर चक्कर लगाता है। कण का त्वरण है।
(a) वृत्त की परिधि के अनुदिश
(b) स्पर्श रेखा के अनुदिश
(c) त्रिज्या के अनुदिश
(d) शून्य।
उत्तर:
(c) त्रिज्या के अनुदिश

प्रश्न 8.
किसी प्रक्षेप्य का पथ होता है?
(a) सरल रेखीय
(b) परवलयिक
(c) दीर्घवृत्तीय
(d) अतिपरवलयिक
उत्तर:
(b) परवलयिक

प्रश्न 9.
एक प्रक्षेप्य से किस कोण से प्रक्षेपित किया जाये कि उसकी परास एवं अधिकतम ऊँचाई समान हो।
(a) tan-1 (√3)
(b) tan-1 (√2)
(c) tan-1 (4)
(d) tan-1 (√4)
उत्तर:
(c) tan-1 (4)

प्रश्न 10.
एक कण r त्रिज्या के वृत्तीय पथ में गति करता हैं। अर्द्धवृत्त पूर्ण करने पर उसका विस्थापन होगा।
(a) 2r
(b) \(\frac{r}{2}\)
(c) \(\frac{r}{4}\)
(d) r
उत्तर:
(a) 2r

प्रश्न 11.
एक गेंद को क्षैतिज θ कोण पर किसी वेग फेंका जाता है। उसकी क्षैतिज परास अधिकतम होने के लिए θ का मान होगा:
(a) 30°
(b) 0°
(c) 45°
(d) 60°
उत्तर:
(c) 45°

प्रश्न 12.
समान परास के लिए एक पिण्ड को समान चाल से कितनी दिशाओं में (कोणों पर) प्रेक्षित किया जा सकता है?
(a) 2
(b) 3
(c) 4
(d) 1
उत्तर:
(a) 2

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प्रश्न 13.
एक प्रक्षेप्य की अधिकतम ऊँचाई पर चाल उसकी प्रारम्भिक चाल की आधी है। प्रक्षेप्य की क्षैतिज परास है।
(a) \(\frac{3 u^2}{g}\)
(b) \(\frac{\sqrt{3} u^2}{2 g}\)
(c) \(\frac{u^2}{2 g}\)
(d) \(\frac{2 u^2}{g}\)
उत्तर:
(b) \(\frac{\sqrt{3} u^2}{2 g}\)

प्रश्न 14.
एक मोटर कार 30 मीटर / सेकण्ड की चाल से 500 मीटर त्रिज्या के वृत्तीय पथ पर गतिमान है। यदि इसकी चाल 2 मीटर/सेकण्ड2 की दर से बढ़ रही है तब इसका परिणामी त्वरण है।
(a) 2 मी/से2
(b) 2.2 मी/से2
(c) 2.7 मी/से2
(d) 3.8 मी/से2
उत्तर:
(c) 2.7 मी/से2

अति लघुत्तरीय प्रश्न:

प्रश्न 1.
एकांक सदिश किसे कहते हैं?
उत्तर:
वह सदिश जिसका परिमाण इकाई होता है, एकांक सदिश कहलाता है। इसका उपयोग सदिश को दिशा देने के लिए किया जाता है।

प्रश्न 2.
X- अक्ष, Y-अक्ष तथा Z-अक्ष के अनुदिश एकांक सदिश बताइये।
उत्तर:
X- अक्ष की दिशा में एकांक वेक्टर \(\hat{i}\), Y-अक्ष के अनुदिश \(\hat{j}\) तथा Z-अक्ष के अनुदिश \(\hat{k}\) होता है।

प्रश्न 3.
शून्य सदिश किसे कहते हैं?
उत्तर:
ऐसा सदिश जिसका परिमाण शून्य होता है, शून्य सदिश कहलाता है। इस सदिश की दिशा का निर्धारण सम्भव नहीं है।

प्रश्न 4.
सदिशों का वियोजन कितने प्रकार का होता है?
उत्तर:
सदिशों का वियोजन दो प्रकार का होता है:

  1.  द्विविमीय वियोजन
  2.  त्रिविमीय वियोजन।

प्रश्न 5.
क्या दो सदिशों के परिणामी सदिश का परिमाण दिये गये सदिशों में से किसी एक सदिश के परिमाण से कम हो सकता है?
उत्तर:
हाँ, यदि दोनों सदिशों के मध्य कोण 90° से अधिक हो।

प्रश्न 6.
निम्न भौतिक राशियों में से अदिश तथा सदिश राशियों को अलग-अलग कीजिए-
बल आघूर्ण, पृष्ठ तनाव, संवेग, ताप, ऊर्जा, वेग, त्वरण, चाल।
उत्तर:
अदिश राशियाँ: पृष्ठ तनाव, ताप, ऊर्जा, वेग, त्वरण चाल।
सदिश राशियाँ: बल आघूर्ण, संवेग।

प्रश्न 7.
क्या एक अदिश और एक सदिश राशि को जोड़ा जा सकता है?
उत्तर:
नहीं, क्योंकि एक सी प्रकार की राशियों का योग सम्भव है। और अदिश में दिशा नहीं होती है, जबकि सदिश में परिमाण के साथ-साथ दिशा भी होती है।

प्रश्न 8.
यदि किसी सदिश राशि का एक घटक शून्य हो व अन्य घटक शून्य न हो, तो क्या वह सदिश राशि शून्य हो सकती है?
उत्तर:
नहीं।

प्रश्न 9.
दो सदिशों के सदिश गुणनफल से प्राप्त सदिश की दिशा क्या होती है?
उत्तर:
दो सदिशों के सदिश गुणनफल की दिशा (\(\hat{n}\)) दोनों सदिशों के तल की लम्ब दिशा में होती है।

प्रश्न 10.
दो समान्तर सदिशों का सदिश गुणनफल क्या होता है?
उत्तर:
यदि \(\vec{A} \| \vec{B}\) A x B = A. B. sin O \(\hat{n}\) = 0 (शून्य) अर्थात् दो समान्तर सदिशों का सदिश गुणनफल शून्य होता है।

प्रश्न 11.
क्या एक स्केलर को वेक्टर से गुंणा किया जा सकता
उत्तर:
हाँ ; बल \(\vec{F}=m \vec{a}\) एवं संवेग \(\vec{p}=m \vec{v}\) इसी के उदाहरण हैं।

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प्रश्न 12.
क्या विभिन्न परिमाणों के दो सदिशों को ऐसे जोड़ा जा सकता है कि उनका परिणामी शून्य हों?
उत्तर:
नहीं।

प्रश्न 13.
बल F एक स्थिर पिण्ड को दूरी तक विस्थापित करता है। इस क्रिया को सदिश संकेत से कैसे दिखायेंगे?
उत्तर:
W = \(\vec{F} \cdot \vec{d}\)
= F.d.cos θ

प्रश्न 14.
किस अवस्था में दो अशून्य सदिशों का स्केलर गुणनफल अधिकतम होता है?
उत्तर:
\(\vec{A} \cdot \vec{B}\)
= ABcos θ
जब
θ = 0° तो cos θ = 1
\((\vec{A} \cdot \vec{B})\)max = AB
अतः समान दिशा में होने पर स्केलर गुणनफल अधिकतम होगा।

प्रश्न 15.
किसी सदिश का ग्राफीय निरूपण कैसे किया जाता।
उत्तर:
तीर (Arrow) चिन्ह द्वारा।

प्रश्न 16.
क्या सदिशों की वियोजन संक्रिया में साहचर्य गुणधर्म लागू होता है?
उत्तर:
हाँ; क्योंकि \((\vec{P}+\vec{Q})-\vec{R}=\vec{P}+(\vec{Q}-\vec{R})\)

प्रश्न 17.
क्या चार असमतलीय सदिशों का परिणामी शून्य हो सकता है?
उत्तर:
हाँ।

प्रश्न 18.
यदि a अदिश राशि है और b सदिश राशि हो तो ab किस प्रकार की राशि होगी?
उत्तर:
सदिश।

प्रश्न 19.
यदि \(\vec{P} \cdot \vec{R}=\vec{Q} \cdot \vec{R}\) तो क्या \(\overrightarrow{\boldsymbol{P}}\) और \(\overrightarrow{\boldsymbol{Q}}\) सदैव परस्पर बराबर होंगे?
उत्तर:
\(\vec{P}\) और \(\vec{Q}\) परस्पर तभी बराबर होंगे, जब दोनों में से प्रत्येक \(\vec{R}\) के साथ समान कोण बनाए।

प्रश्न 20.
दो अक्षीय सदिशों के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
कोणीय वेग, बल-आघूर्ण।

प्रश्न 21.
बल तथा दाब में कौन सी सदिश राशि है?
उत्तर:
बल।

प्रश्न 22.
क्या \(\vec{A}+\vec{B}\) का परिमाण वही है जो \(\vec{B}+\vec{A}\) का है?
उत्तर:
हाँ दोनों के परिमाण एवं दिशाएं समान हैं।

प्रश्न 23.
क्या \(\vec{A}-\vec{B}\) का परिमाण वही है जो \(\overrightarrow{\boldsymbol{B}}-\overrightarrow{\boldsymbol{A}}\) का है? क्या दोनों की दिशाएं भी समान हैं?
उत्तर:
\(\vec{A}-\vec{B}\) व \(\overrightarrow{\boldsymbol{B}}-\overrightarrow{\boldsymbol{A}}\) दोनों के परिमाण तो समान होंगे लेकिन दिशाएं परस्पर विपरीत होंगी।

प्रश्न 24.
दो सदिशों का योग कब अधिकतम व कब न्यूनतम होता है?
उत्तर:
जब दोनों सदिश एक ही दिशा में होते हैं (अर्थात् θ = 0) तो उनका योग अधिकतम होता है और जब परस्पर विपरीत दिशा में (अर्थात् θ = 180°) होते हैं तो उनका योग न्यूनतम होता है।

प्रश्न 25.
यदि किन्हीं दो सदिशों के पीरमाण को अपरिवर्तित रखते हुए केवल उनके बीच का कोण परिवर्तित कर दें तो उनके परिणामी सदिश पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
उत्तर:
परिणामी सदिश के परिमाण व दिशा दोनों बदल जायेंगे।

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प्रश्न 26.
क्या किसी सदिश के वियोजित घटक का मान उस सदिश के मान से अधिक हो सकता है?
उत्तर:
नहीं; किसी सदिश के वियोजित घटक का अधिकतम मान सदिश के मान के बराबर हो सकता है।

प्रश्न 27.
क्या दो सदिशों का अदिश गुणन ऋणात्मक हो सकता है?
उत्तर:
हाँ, यदि दोनों सदिशों के मध्य कोण 90° से 270° के मध्य हों।

प्रश्न 28.
प्रक्षेप्य पथ के किस बिन्दु पर चाल न्यूनतम होती है?
उत्तर:
उच्चतम बिन्दु पर।

प्रश्न 29.
प्रक्षेप्य पथ किस प्रकार का होता है? क्या यह ऋजुरेखीय हो सकता है?
उत्तर:
प्रक्षेप्य पथ परवलयाकार होता है। प्रक्षेपण कोण θ = 90° के लिए यह ऋजुरेखीय होगा।

प्रश्न 30.
प्रक्षेप्य गति में अधिकतम परास के लिए प्रक्षेपण कोंण कितना होना चाहिए?
उत्तर:
45°

प्रश्न 31.
वायु के प्रतिरोध का प्रक्षेप्य के उड्डयन काल तथा परास क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
वायु के प्रतिरोध के कारण उड्डयन काल बढ़ जाता है। लेकिन परास घट जाता है।

प्रश्न 32.
किस प्रक्षेपण कोण के लिए महत्तम ऊँचाई एवं परास बराबर होते हैं?
उत्तर:
0 = tan-1(4) = 76°

प्रश्न 33.
जब प्रक्षेप्य को क्षैतिज के साथ किसी कोण (90° को छोड़कर) पर प्रक्षेपित किया जाता है तो गति के दौरान वेग का कौन सा घटक नियत रहता है?
उत्तर:
वेग का क्षैतिज घटक (ucosθ) नियत रहता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न:

प्रश्न 1.
दो बराबर सदिशों का परिणामी सदिश कब:
1. शून्य हो सकता है
2. प्रत्येक के बराबर हो सकता है?
उत्तर:

  1. परिमाण में समान दो सदिश के मध्य जब 180° का कोण होता है तो उनका परिणामी शून्य होगा।
  2. जब परिमाण में समान दो सदिश 120° के कोण पर होते हैं तो उनके परिणामी का परिमाण उनके परिमाण के बराबर प्राप्त होता है।

प्रश्न 2.
दो सदिश \(\vec{A}\) व \(\vec{B}\) इस प्रकार हैं कि \(\vec{A} \cdot \vec{B}\) = 0 \(\vec{A}\) व \(\vec{B}\) के विषय में क्या जानकारी मिलती है?
उत्तर:
यदि \(\vec{A} \cdot \vec{B}\) = 0 तो निम्नलिखित दो सम्भावनाएँ हैं:

  1. \(\vec{A}\) व \(\vec{B}\) में कोई एक शून्य है।
  2.  \(\vec{A} \cdot \vec{B}\) = 0 या ABcosθ = 0

AB ≠ 0 या cos θ = 0
अतः θ = 90°
इस प्रकार \(\vec{A} \perp \vec{B}\) अर्थात् दोनों सदिश परस्पर लम्बवत् होंगे।

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प्रश्न 3.
यदि \(\vec{A} \cdot \vec{B}\) = AB तो \(\vec{A}\) व \(\vec{B}\) के विषय में क्या जानकारी मिलती है?
उत्तर:
\(\vec{A} \cdot \vec{B}\) = AB
या
AB cosθ = AB
या
cos θ = 1
∴ θ = 0°
अर्थात् \(\vec{A}\) व \(\vec{B}\) परस्पर समान्तर होंगे।

प्रश्न 4.
यदि \(\vec{R}=\vec{A} \times \vec{B}\) तो
(i) R तथा 1 के बीच कोण क्या है?
(ii) में तथा 8 के बीच कोण क्या है?
उत्तर:
दिया है:
R = 1 x B
अतः की दिशा व के तल के लम्बवत् होगी।
∴ की दिशा व B दोनों के लम्बवत् होगी अर्थात् दोनों के साथ कोण 90° होगा।

प्रश्न 5.
क्या तीन असमतलीय सदिशों का परिणामी शून्य हो सकता है?
उत्तर:
नहीं; किन्हीं दो सदिशों का परिणामी उन सदिशों के तल में ही होता है, अतः यह तीसरे सदिश जो कि भिन्न तल में है, के प्रभाव को निरस्त नहीं कर सकता है।

प्रश्न 6.
जब सदिश \(\vec{A}\) का सदिश \(\vec{B}\) में की दिशा में घटक शून्य है तो आप दोनों सदिशों के बारे में क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं?
उत्तर:
माना दो सदिशों \(\vec{A}\) का \(\vec{B}\) के मध्य कोण θ है। सदिश \(\vec{B}\) की दिशा में सदिश \(\vec{A}\) का घटक Acosθ होगा।
यदि यह घटक शून्य है अर्थात्
या
A cosθ = 0
cos θ = 0
⇒ θ = 90°
स्पष्ट है कि \(\vec{A} \perp \vec{B}\) अर्थात् दोनों सदिश परस्पर लम्बवत् होंगे।

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प्रश्न 7.
क्या शून्य सदिश (\(\overrightarrow{\mathbf{0}}\)) को सदिश कहना सही है?
उत्तर:
दो सदिशों का अन्तर भी सदिश होता है अत: \(\vec{R}-\vec{R}=\overrightarrow{0}\) अतः शून्य सदिश को सदिश कहना सही है।

प्रश्न 8.
यद्यपि बल \(\vec{F}\) है व विस्थापन \(\overrightarrow{\boldsymbol{S}}\) दोनों सदिश राशियाँ हैं, फिर भी इन दोनों के गुणन से प्राप्त कार्य अदिश राशि है क्यों? यदि
\(\overrightarrow{\boldsymbol{F}}\) व \(\overrightarrow{\boldsymbol{s}}\) शून्य न हों फिर भी W का मान शून्य हो सकता है, कब?
उत्तर:
दो सदिश राशियों का डॉट गुणनफल अदिश राशि होती है
और कार्य W = \(\vec{F}\)\(\vec{S}\) डे, अतः कार्य अदिश राशि है।
पुन:
W = \(\vec{F}\)\(\vec{S}\) = F S cosθ
स्पष्ट है कि जब cosθ = 0 तो W = 0 होगा।
अर्थात्
θ = 90° हो \(\overrightarrow{\boldsymbol{F}}\) व \(\overrightarrow{\boldsymbol{s}}\) के अशून्य होने पर भी W का मान शून्य होगा।

प्रश्न 9.
सदिशों के योग का समान्तर चतुर्भुज नियम लिखिए।
उत्तर:
सदिशों के संयोजन का समान्तर चतुर्भुज नियम (Law of Parallelogram of Vectors Addition): इस नियम की सहायता से हम दो सदिशों को जोड़ सकते हैं। इस नियम के अनुसार, “यदि दो सदिशों को परिमाण व दिशा दोनों में किसी समान्तर चतुर्भुज की दो आसन्न भुजाओं द्वारा व्यक्त किया जा सके तो उनका परिणामी परिमाण व दिशा दोनों में चतुर्भुज के उस विकर्ण द्वारा प्रदर्शित होगा जो उन भुजाओं के कटान बिन्दु से होकर जाता है। ”

“चित्र 4.15 में माना दो सदिश व परिमाण व दिशा दोनों में समान्तर चतुर्भुज OABC की आसन्न भुजाओं OA व OB द्वारा व्यक्त किये जाते हैं तो इनका परिणामी विकर्ण OB द्वारा व्यक्त होगा अर्थात्

प्रश्न 10.
सदिशों के योग के लिए बहुभुज नियम लिखिए।
उत्तर:
(C) सदिशों के संयोजन का बहुभुज नियम (Law of Polygon of Vectors Addition): इस नियम की सहायता से दो से अधिक सदिशों को जोड़ा जा सकता है। इस नियम के अनुसार, यदि (n-1) सदिशों को भुजाओं वाले बहुभुज की (n-1) क्रमागत भुजाओं द्वारा प्रदर्शित किया जा सके तो उनका परिणामी बहुभुज की अन्तिम (n वीं) भुजा द्वारा नियमित क्रम में प्रदर्शित होगा।” सदिशों के बहुभुज नियम को दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी व्यक्त कर सकते हैं, “यदि दो से अधिक सदिशों को परिमाण व दिशा दोनों में एक खुले बहुभुज की भुजाओं द्वारा एक क्रम में निरूपित किया जा सके तो बहुभुज को बन्द करने वाली भुजा द्वारा परिमाण व दिशा दोनों में उनका परिणामी व्यक्त होगा।”

विधि – बहुभुज नियम द्वारा सदिश योग ज्ञात करने के लिए उचित पैमाना मानकर योग की क्रिया किसी एक सदिश को खींचकर प्रारम्भ करते हैं, फिर उसके शीर्ष पर दूसरे सदिश का पुच्छ रखकर दूसरा सदिश खींचते हैं। इसी प्रकार दिये गये सभी सदिश क्रमशः खींच लेते हैं। प्रथम सदिश के पुच्छ एवं अंतिम वेक्टर के शीर्ष को मिला देते हैं। यही परिणामी वेक्टर होता है। इसे नापकर पैमाने का गुणा करके परिणामी का परिमाण ज्ञात करं – लेते हैं।
उदाहरणार्थ: माना चार सदिश A, B, C, D का योग बहुभुज नियम द्वारा ज्ञात करना है।

सत्यापन: त्रिभुज नियम के आधार पर

प्रश्न 11.
निम्न कथन की विवेचना कीजिए।
विस्थापन सदिश मूलतः स्थिति सदिश है।
उत्तर:
संलग्न चित्र में A व B के स्थिति सदिश क्रमशः \(\overrightarrow{r_A}\) व \(\overrightarrow{r_B}\) हैं। यदि कोई वस्तु A से B तक विस्थापित होती है तो विस्थापन सदिश

यदि प्रारम्भिक बिन्दु A मूल बिन्दु पर हो तो \(\overrightarrow{r_A}\) = 0 होगा, अतः
\(\overrightarrow{\Delta r}\) = \(\overrightarrow{r_B}\) जो कि B का स्थिति सदिश है।
स्पष्ट है कि विस्थापन सदिश मूलतः स्थिति सदिश है।

प्रश्न 12.
क्या सदिश को अदिश से गुणा करने पर इसकी प्रकृति बदल जाती है?
उत्तर:
बदल भी सकती है और नहीं भी उदाहरण के लिए जब एक सदिश शुद्ध अंक (जैसे, 1, 2, 3….. ) से गुणा करते हैं तो सदिश की प्रकृति नहीं बदलती है लेकिन यदि सदिश को अदिश भौतिक राशि से गुणा करते हैं तो सदिश की प्रकृति बदल जाती है। उदाहरण के लिए जब वेग \(\vec{v}\) सदिश को द्रव्यमान (m) अदिश से गुणा करते हैं तो सदिश राशि संवेग \(\vec{p}\) प्राप्त होता है जिसकी प्रकृति वेग से भिन्न है।

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प्रश्न 13.
किसी चुम्बकीय क्षेत्र में स्थित एक समतल से सम्बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स (अदिश), समतल के क्षेत्रफल तथा चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता (सदिश) के गुणनफल के बराबर होता है। बताइये कि समतल का क्षेत्रफल सदिश है या अदिश?
उत्तर:
दो सदिश राशियों का स्केलर गुणनफल एक अदिश राशि होता है।
चुम्बकीय फ्लक्स Φ = \(\vec{B}\) . \(\vec{A}\)
अतः समतल का क्षेत्रफल सदिश राशि (\(\vec{A}\)) है।

प्रश्न 14.
क्या परिमाण व दिशा दोनों वाली राशियाँ निश्चित रूप से सदिश राशियाँ होती हैं? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नहीं; क्योंकि परिमाण व दिशा वाली राशियाँ यदि सदिश योग के नियम का पालन करती हैं तो वे सदिश राशियाँ होती हैं परन्तु यदि वे सदिश योग के नियम का पालन नहीं करती हैं तो वे अदिश राशि की श्रेणी में आती हैं; उदाहरणार्थ – विद्युत् धारा, समय आदि।

प्रश्न 15.
एक गेंद को वेग से ऊर्ध्वाधर ऊपर फेंकने पर यह ऊँचाई तक जाती है। यदि वेग को दोगुना (2u) कर दें तो ऊँचाई पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
उत्तर:
गेंद का वेग उच्चतम बिन्दु पर शून्य हो जायेगा, अत: सूत्र
v2 = u2 + 2as’
से
0 = u2 – 2gh
या
2gh = u2
h = \(\frac{u^2}{2 g}\)
यदि वेग (2u) कर दिया जाये तो माना ऊँचाई ‘ हो जाती है अतः
h = \(\frac{(2 u)^2}{2 g}\) = \(\frac{4 u^2}{2 g}\) = \(4 \times\left(\frac{u^2}{2 g}\right)\)
या
h = 4h
अर्थात् वेग दो गुना कर देने पर ऊँचाई चार गुनी हो जायेगी।

प्रश्न 16.
प्रक्षेप्य गति किसे कहते हैं?
उत्तर:
प्रक्षेप्य गति: जब किसी वस्तु को क्षैतिज से किसी कोण पर ऊर्ध्वाधर तल में किसी प्रारम्भिक वेग से प्रक्षेपित की जाती है तो फेंके जाने के पश्चात् यह वस्तु पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में गति करती है। इस प्रकार की गति को प्रक्षेप्य गति कहा जाता है। इस गति के दौरान वस्तु परवलयाकार पथ का अनुसरण करती है।

प्रश्न 17.
क्रिकेट का एक खिलाड़ी किसी गेंद को 100 मी० की अधिकतम क्षैतिज दूरी तक फेंक सकता है। वह खिलाड़ी उसी गेंद को जमीन से ऊपर कितनी ऊँचाई तक फेंक सकता है?
उत्तर:
दिया है, Rmax = 100 मी०
किसी प्रक्षेप्य की अधिकतम ऊँचाई
⇒ \(Y=\frac{T^2}{4 \pi^2 L}\)
= 100 मी०
\(h_m=\frac{v_0^2 \sin ^2 \theta_0}{2 g} \)
\(\left(h_m\right)_{\max }=\frac{v_0^2}{2 g} \)
जबकि θ° = 90°
H = \(\frac{1}{2}\) x \(\frac{v_0^2}{g}\)
= \(\frac{1}{2}\) x 100 मी० = 50 मी०

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प्रश्न 18.
एक प्रक्षेप्य की महत्तम ऊँचाई H तथा उड्डयन काल T है। सिद्ध कीजिए कि 8H = gT2
उत्तर:
महत्तम ऊँचाई, H = \(\frac{u^2 \sin ^2 \theta}{2g}\)
एवं उड्डयन काल T = \(\frac{2 u \sin \theta}{g}\)
∴ \(\frac{H}{T^2}=\frac{\frac{u^2 \sin ^2 \theta}{2 g}}{\frac{4 u^2 \sin ^2 \theta}{g^2}}=\frac{g}{8}\)
∴ 8H = gT2

प्रश्न 19.
सिद्ध कीजिए H ऊँचाई (महत्तम ऊँचाई) तक पहुँचाने के लिए प्रक्षेपण वेग u = \(\frac{\sqrt{2 g H}}{\sin \theta}\) होगा।
उत्तर:
प्रक्षेप्य द्वारा प्राप्त महत्तम ऊँचाई
\(H=\frac{u^2 \sin ^2 \theta}{2 g}\)
u2 sin2 θ = 2Hg
या
u2 = \(\frac{2 H g}{\sin ^2 \theta}\) ⇒ u = \(\sqrt{\frac{2 H g}{\sin ^2 \theta}}\)
या
u = \(\frac{\sqrt{2 H g}}{\sin \theta}\)

प्रश्न 20.
यदि प्रक्षेप्य का परास एवं महत्तम ऊँचाई बराबर हों तो प्रक्षेपण कोण ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
∵ क्षैतिज परास = महत्तम ऊँचाई
\(\frac{u^2 \sin 2 \theta}{g}=\frac{u^2 \sin ^2 \theta}{2 g}\)
या
sin 2θ = \(\frac{\sin ^2 \theta}{2}\)
या
2sinθ.cosθ = \(\frac{\sin ^2 \theta}{2}\)
या
2cos θ = \(\frac{\sin \theta}{2}\)
या
4 = \(\frac{\sin \theta}{\cos \theta}\)
= tan θ
∴ θ = tan-1 (4) = 75.96°

प्रश्न 21.
समान ऊँचाई से एक ही क्षण एक गोली 4 स्वतन्त्रता पूर्वक गिराई जाती है तथा दूसरी गोली B क्षैतिज दिशा में फेंकी जाती है। यदि वायु का प्रतिरोध नगण्य हो तो बताइये।
1. कौन सी गेंद जमीन पर पहले टकरायेगी?
2. जमीन से टकराते समय किस गोली का ऊर्ध्वं वेग अधिक होगा?
3. क्या गोलियाँ एक ही स्थान पर गिरेंगी?
4. गोली B का क्षैतिज परास किस बात पर निर्भर करेगा?
उत्तर:

  1. दोनों गोलियाँ एक साथ जमीन से टकरायेंगी।
  2.  दोनों का ऊर्ध्व वेग समान होगा।
  3. नहीं।
  4.  ऊँचाई तथा क्षैतिज वेग पर।

प्रश्न 22.
सभी दिशाओं में, वेग से कई गोलियाँ दागी जाती हैं. पृथ्वी तल पर वह अधिकतम क्षेत्रफल क्या होगा। जिस पर ये गोलियाँ फैल जायेंगी?
उत्तर:
वह क्षेत्रफल जिसमें गोलियाँ फैलेगी = πr2
जहाँ r = अधिकतम परास Rmax = \(\frac{u^2}{g}\)
यहाँ
u = v
∴ r = \(\frac{v^2}{g}\)
(जब θ = 45°)
अतः प्रभावित क्षेत्रफल = πr2 = π \(\left(\frac{v^2}{g}\right)^2\) = \(\frac{\pi v^4}{g^2}\)

प्रश्न 23.
वृत्तीय गति में अभिकेन्द्रीय त्वरण क्या होता है? इसके लिए सूत्र प्राप्त कीजिए।
उत्तर:
अभिकेन्द्रीय त्वरण (Centripetal Acceleration):
चित्र 4.30 के अनुसार हम एक कण की वृत्ताकार गति पर विचार करते हैं। किसी भी क्षण t पर कण बिन्दु P पर है जिसकी कोणीय स्थिति θ है। अब P बिन्दु पर एक एकांक सदिश \(\overrightarrow{P A}=\hat{e_r}\) वृत्त की त्रिज्या के बाहर की ओर की दिशा में खींचते हैं तथा एक एकांक सदिश \(\overrightarrow{P B}=\hat{e_t}\) इस बिन्दु P पर स्पर्श रेखा की ओर कोण θ के बढ़ने की दिशा में खींचते हैं। \(\hat{e_r}\) को हम त्रिज्या एकांक सदिश तथा \(\hat{e_t}\) को स्पर्श रेखीय एकांक संदिश कहते हैं।

अब X- अक्ष के समान्तर PX’ एवं Y-अक्ष के समान्तर PY’ रेखाएं खींचते हैं। अब चित्र 4.30 से स्पष्ट है
\(\overrightarrow{P A}=P A \cdot \cos \theta \hat{i}+P A \sin \theta \hat{j}\)
या
\(\frac{\overrightarrow{P A}}{P A}=\hat{i} \cos \theta+\hat{j} \sin \theta\)
या
\(\hat{e}_r=\hat{i} \cdot \cos \theta+\hat{j} \sin \theta\) ……(1)
यहाँ PA = \(|\overrightarrow{P A}|\) = 1 तथा \(\hat{i}\) एवं \(\hat{j}\) क्रमश: X – एवं Y अक्षों की दिशाओं में एकांक सदिश हैं।
इसी प्रकार
\(\frac{\overrightarrow{P B}}{P B}=-\hat{i} \sin \theta+\hat{j} \cos \theta\)
या
\(\overrightarrow{e_t}=-\hat{i} \sin \theta+\hat{j} \cos \theta\) ……(2)
अब समय t पर कण का स्थिति सदिश
\(\vec{r}=\overrightarrow{O P}\)
या
\(\vec{r}=\hat{i} \cdot r \cos \theta+\hat{j} r \sin \theta\)
या
\(\vec{r}=r(\hat{i} \cdot \cos \theta+\hat{j} \sin \theta)\) ……..(3)
समीकरण (3) का समय के साथ अवकलन करने पर हमें किसी भी
समय t पर कण का वेग ज्ञात होता है।
अतः कण का वेग
\(\vec{v}=\frac{d \vec{r}}{d t}=\frac{d}{d t}[r(\hat{i} \cos \theta+\hat{j} \sin \theta)]\)
= \(\left[\hat{i}\left(-\sin \theta \cdot \frac{d \theta}{d t}\right)+\hat{j}\left(\cos \theta \cdot \frac{d \theta}{d t}\right)\right]\)
= rω[-\(\hat{i}\)sinθ +[-\(\hat{j}\)cosθ] ……….(4)
क्योंकि
\(\frac{d \theta}{d t}\) = ω
या
\(\vec{v}\) = rω.\(\hat{e_t}\) ……..(5)
[समी० (2) से]
उपरोक्त समी० (5) से हम देखते हैं कि पद rω किसी भी समय t पर कण की चाल है और इसकी दिशा \(\hat{e}_t\) की ओर अर्थात् स्पर्श रेखा की ओर है।
किसी समय t पर कण का त्वरण समी० (4) को समय t के सापेक्ष अवकलन करके ज्ञात किया जा सकता है। अतः कण का त्वरण

या \(\vec{a}\) = -ω2.r.\(\hat{e}_r\) + rα\(\hat{e}_t\) ………..(6)
यहाँ पर सभी ० (1) व (2) का उपयोग किया गया है। समी० (6) से हम देखते हैं कि एक कण की सामान्य वृत्तीय गति में त्वरण \(\vec{a}\) के दो घटक होते हैं
(i) \(\vec{a}\) = -ω2 r\(\hat{e}_r\), जिसकी दिशा (-\(\hat{e}_r\)) की ओर अर्थात् वृत्त के केन्द्र की ओर होती है। अतः इसे ‘अभिकेन्द्रीय त्वरण’ (centripetal acceleration) कहते हैं होती है अत: ‘स्पर्श रेखीय त्वरण’ (tangential acceleration) कहते हैं। इसका मान होगा। एक कण की असमान वृत्तीय गति में ये दोनों त्वरण होंगे। एक कण की एक समान वृत्तीय
ω नियत रहता है (क्योंकि v = rω)।
अत: \(\frac{d v}{d t}\) = \(r \frac{d \omega}{d t}\) = 0
अतः स्पर्श रेखीय त्वरण \(\vec{a}_t\) का मान शून्य होगा। अत: समी० (6) से अभिकेन्द्रीय त्वरण
\(\vec{a}_r\) = -ω2.r.\(\hat{e}_r\) ………..(7)
इस त्वरण की दिशा केन्द्र की ओर होगी। इस त्वरण का परिणाम
ar = ω2.r = \(\frac{\omega^2 r^2}{r}\) = \(\frac{v^2}{r}\) ……..(8)
यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि एक समान वृत्तीय गति में कण की चाल तो नियत रहती है, परन्तु वेग की दिशा प्रति क्षण बदलने से वेग परिवर्तित होता रहता है। इसीलिए कण में अभिकेन्द्र त्वरण होता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न:

प्रश्न 1.
निम्न की परिभाषा दीजिए:
1. एकांक सदिश
2. समान या तुल्य सदिश
3. विपरीत सदिश
4. शून्य सदिश
5. समान्तर संदिश।
उत्तर:
1. तुल्य या समान सदिश (Equivalent Vectors): वे सदिश जिनके परिमाण एवं दिशाएँ समान होते हैं, समान वेक्टर या तुल्य सदिश कहलाते हैं।

संलग्न चित्र में प्रदर्शित दो वेक्टर \(\vec{A}\) व \(\vec{B}\) बराबर वेक्टर हैं अर्थात्
\(\vec{A}\) = \(\vec{B}\)
तथा
A = B

2. असमान सदिश (Unequal Vectors): यदि दो सदिशों के परिमाण समान हों परन्तु दिशाएँ भिन्न हों अथवा परिमाण भिन्न हों किन्तु दिशाएँ समान हों अथवा परिमाण व दिशाएँ दोनों भिन्न हों तो दोनों सदिश असमान सदिश कहलाते हैं। चित्र 4.6 में असमान सदिशों की उक्त तीनों स्थितियाँ प्रदर्शित की गई हैं-

3. विपरीत सदिश (Opposite Vectors): जब दो सदिशों के परिमाण तो समान हों किन्तु दिशाएँ विपरीत हों तो वे परस्पर विपरीत सदिश कहलाते हैं। संलग्न चित्र 4.7 में दो सदिश \(\vec{A}\) व \(\vec{B}\) दिये हैं तो

\(\vec{A}\) = \(\vec{B}\)
अथवा
\(\vec{B}\) = –\(\vec{A}\)

4. एकांक सदिश (Unit Vectors): वह सदिश जिसका परिमाण इकाई अर्थात् 1 होता है, एकांक सदिश कहलाता है।
एकांक सदिश को किसी सदिश की दिशा प्रदर्शित करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। उदाहरणार्थ: माना किसी सदिश का परिमाण है एवं सदिश की दिशा में एकांक सदिश है। [ एकांक सदिश को व्यक्त करने के लिए कैप (^) का प्रयोग किया जाता है।]
\(\vec{r}\) = r.r
या
\(\hat{r}=\frac{\vec{r}}{r}=\frac{\vec{r}}{|\vec{r}|}\)

5. समकोणिक एकांक सदिश (Orthogonal Unit Vectors): X- अक्ष, Y-अक्ष एवं Z अक्ष के अनुदिश एकांक सदिश क्रमश: \hat{i} \hat{j} एवं \hat{k} समकोणिक एकांक सदिश कहलाते हैं। संलग्न चित्र 4.8 में इन एकांक सदिशों को प्रदर्शित किया गया है।

6. सरेखीय सदिश (Collinear Vectors): ऐसे सदिश जो एक ही रेखा के अनुदिश होते हैं, संरेखीय सदिश कहलाते हैं। ये सदिश दिशीय अथवा विपरीत दिशीय हो सकते हैं जैसा कि संलग्न चित्र 4.9 में प्रदर्शित है।

7. शून्य सदिश (Zero Vectors): वह सदिश जिसका परिमाण शून्य हो, शून्य सदिश कहलाता है। इसकी दिशा का निर्धारण नहीं किया जा सकता है। यह निम्न स्थितियों में प्राप्त किया जाता है:

  1. \(\vec{A}\) व –\(\vec{A}\) सदिशों को जोड़ने पर \(\vec{A}\) + –\(\vec{A}\) = \(\overrightarrow{0}\)
  2. सदिश \(\vec{A}\) को शून्य से गुणा करने पर \(\vec{A}\) .0 = \(\overrightarrow{0}\)
  3.  वस्तु गति करने के पश्चात् अपनी प्रारम्भिक स्थिति में लौट आती है तो उसका ‘शून्य सदिश’ अर्थात् \(\overrightarrow{0}\) होता है।

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 4 समतल में गति

प्रश्न 2.
कार्तीय निर्देशांक पद्धति में, एक विमीय, द्विविमीय एवं त्रिविमीय सदिशों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
कार्तीय निर्देशांक पद्धति में एक विमीय, द्विविमीय एवं त्रिविमीय सदिश (One Dimensional, Two Dimensional and Three Dimensional Vectors in Cartesian Coordinate System):
किसी बिन्दु की स्थिति को पूर्णतः व्यक्त करने के लिए मूल बिन्दु एवं तीन परस्पर लम्बवत् अक्षों से निर्मित तन्त्र कार्तीय निर्देशांक तन्त्र कहलाता है। कार्तीय निर्देशांक तन्त्र में क्रमश: धनात्मक एवं Z – अक्ष के अनुदिश एकांक सदिश क्रमश: \(\hat{i}\) \(\hat{j}\) व \(\hat{k}\) X- अक्ष, Y-अक्ष होते हैं। संलग्न

चित्र 4.10 में बिन्दु P (x, y, z) की स्थिति मूल बिन्दु 0 तथा परस्पर लम्बवत् अक्षों X, Y व Z के सापेक्ष बताई गयी है। निर्देश तन्त्र में मूल बिन्दु 0 तथा किसी एक अक्ष का चयन स्वच्छ है, शेष दो अक्षों का निर्धारण क्रमागत वामावर्त (Anticlockwise) दिशा में स्वतः हो जाता है।

(i) एक विमीय सदिश (One Dimensional Vectors): वह सदिश जिसकी दिशा केवल एक अक्ष (X- अक्ष अथवा Y अक्ष अथवा Z-अक्ष) के अनुदिश हो तो उसे एक विमीय सदिश कहते हैं।
निम्न चित्र 4.11 में तीन दिशाओं में एक विमीय सदिश की स्थितियाँ दर्शायी गई हैं।

(i) यदि सदिश X- अक्ष की दिशा में है तो \(\vec{r}\) = x\(\hat{i}\)
(ii) यदि सदिश – अक्ष की दिशा में है तो \(\vec{r}\) = y\(\hat{j}\)
(iii) यदि सदिश Z-अक्ष की दिशा में है तो \(\vec{r}\) = z\(\hat{k}\)

(ii) द्विविमीय सदिश (Two Dimensional Vectors): वह सदिश जो एक तल में स्थित होता है, द्विविमीय सदिश कहलाता है। द्विविमीय सदिश का प्रभाव किन्हीं दो दिशाओं अथवा दो अक्षों के अनुदिश होता है। इस प्रकार के सदिश की निम्न तीन स्थितियाँ सम्भव हैं।
(a) यदि कोई सदिश \(\vec{r}\), X-Y तल में स्थित है तो,
\(\vec{r}\) = (x\(\hat{i}\) + y\(\hat{j}\)) चित्र 4.12 (a)
(b) यदि कोई सदिश X-Z तल में है तो,
\(\vec{r}\) = (x\(\hat{i}\) + z\(\hat{k}\)) चित्र 4.12(b)
(c) यदि कोई सदिश Y-Z तल में है तो,
\(\vec{r}\) = (y\(\hat{j}\) + z\(\hat{k}\)) चित्र 4.12(c)

(iii) त्रिविमीय सदिश (Three Dimensional Vector):
वह सदिश जो आकाश (Space) में स्थित हो, त्रिविमीय सदिश कहलाता है। इस सदिश का प्रभाव तीनों अक्षों के अनुदिश होता है। चित्र (4.13) में ऐसा ही एक सदिश प्रदर्शित है जिसका प्रारम्भिक बिन्दु मूलबिन्दु 0 एवं शीर्ष बिन्दु P (x, y, z) है। अतः यह सदिश,

प्रश्न 3.
सदिशों के संयोजन के लिए त्रिभुज नियम क्या है? इस नियम का उपयोग करके परिणामी के परिमाण व दिशा के लिए सूत्र स्थापित कीजिए।
उत्तर:
(i) दो सदिशों के परिणामी सदिश का परिमाण ज्ञात करना (To Determine the Magnitude of Resultant Vector of Two Vectors): त्रिभुज नियम का उपयोग करके यदि दो सदिशों \(\vec{A}\) व \(\vec{B}\) को जोड़ा जाये तो उनका परिणामी \(\vec{R}\) चित्र 4.17(b) की भाँति प्राप्त होगा। माना दोनों सदिशों के बीच कोण है। परिणामी का परिमाण ज्ञात करने के लिए आधार ON आगे बढ़ाते हैं और इस पर Q से OP लम्ब डालते हैं।

∴ समकोण त्रिभुज NPQ में,
sin α = \(\frac{Q P}{N Q}\)=\(\frac{Q P}{B}\)
QP = B sinα …(1)
तथा
cos α = \(\frac{N P}{N Q}\)=\(\frac{N P}{B}\)
∴NP = Bcosα …(2)
अब त्रिभुज OPQ में,
OP = ON + NP = A + B cosα …(3)
पाइथागोरस प्रमेय से
समकोण ∆OPQ में
या
(OQ)2 = (OP)2 + (QP)2
(R)2 = (A + B cosα)2 + (Bsinα)2
या R2 = A2+ 2 AB cosα + B2 cos2α + B2 sin2α
या
R2 = A2 + B2 (cos2α + sin2α ) + 2AB cosα
या
R2 = A2 + B2 + 2ABcosα
या
R = \(\sqrt{A^2+B^2+2 A B \cos \alpha}\) …(4)
उपरोक्त समीकरण को कोज्या का नियम कहते हैं।

प्रश्न 4.
सदिशों के द्विविमीय वियोजन की विस्तार से व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सदिशों का वियोजन (Resolution of Vectors):
व्यापक रूप से एक सदिश को अनेक स्वैच्छ घटकों में वियोजित किया जा सकता है परन्तु यहाँ हम केवल दो या तीन समकोणिक घटकों में वियोजन का अध्ययन करेंगे। इस प्रकार के वियोजन के लिए कार्तीय निर्देशांक पद्धति का उपयोग करेंगे। वियोजन की क्रिया योग की क्रिया की विपरीत क्रिया है। इस क्रिया में एक सदिश को दो या तीन घटकों (Components) में वियोजित किया जाता है। सदिश के घटकों का योग करने पर योगफल के रूप में मूल सदिश ही प्राप्त होता है। सदिश वियोजन की निम्न दो विधियाँ हैं।
(i) द्विविमीय निर्देश तन्त्र में वियोजन (Resolution in Two Dimensions):

माना X-Y तल में स्थित \(\vec{A}\) जो X- अक्ष के साथ 6 कोण बनाता है, का दो लम्बवत् घटकों में वियोजन करता है। सदिश \(\vec{A}\) के शीर्ष P से X व Y- अक्षों पर लम्ब क्रमश: PM व PN खींचे तो OM सदिश \(\vec{A}\) का X- अक्ष के अनुदिश घटक \(\overrightarrow{A_x}\) होगा और ON, Y-अक्ष के अनुदिश घटक \(\overrightarrow{A_y}\) होगा।
अतः त्रिभुज ∆OPM में त्रिभुज नियम से संयोजन करने पर
\(\overrightarrow{O P}=\overrightarrow{O M}+\overrightarrow{M P}\)
या
\(\vec{A}=\overrightarrow{A_x}+\overrightarrow{A_y}\) …(1)
(क्योंकि \(\overrightarrow{M P}\) = \(\overrightarrow{O N}\) = \(\overrightarrow{A_y}\))
यदि X व Y – अक्षों के अनुदिश एकांक सदिश क्रमशः \(\hat{i}\) व \(\hat{j}\) हों तो,
\(\overrightarrow{A_x}\) = Ax\(\hat{i}\) ……..(2)
एवं
\(\overrightarrow{A_y}\) = Ay\(\hat{j}\) …….(3)
अतः समी० (1) को निम्न प्रकार लिख सकते हैं:
\(\vec{A}\) = Ax\(\hat{i}\) + Ay\(\hat{j}\) ……..(4)

वेक्टर \(\vec{A}\) के घटकों के परिमाण निम्न प्रकार ज्ञात करते हैं:
समकोण त्रिभुज OMP से
cos θ = \(\frac{A_x}{A}\)
अतः
Ax = A.cosθ …(5)
तथा
sin θ = \(\frac{A_Y}{A}\)
अतः
Ay = A sinθ ……(6)
घटकों के पदों में सदिश \(\vec{A}\) का परिमाण
समी० (5) व (6) के वर्गों को जोड़ने पर:
AxA2 + 4 = ( A cosθ)2 + (Asinθ)2
= A2cos2θ + A2 sin2θ
= A2 [cos2θ + sin2θ] = A2
या
A2 = AxA2 + AyA2
∴ A = \(\sqrt{A_x^2+A_y^2}\)
घटकों के पदों में 8 का मान
पुन: समी० (5) व (6) से
\(\frac{A_y}{A_x}=\frac{A \sin \theta}{A \cos \theta}\) = tanθ
या
tanθ = \(\frac{A_y}{A_x}=\frac{A \sin \theta}{A \cos \theta} \)
∴ θ = tan-1 \(\frac{A_y}{A_x}=\frac{A \sin \theta}{A \cos \theta}\)
स्पष्ट है कि यदि किसी सदिश के घटक ज्ञात हों तो उसका परिमाण समी० (7) की सहायता एवं उसकी दिशा समी० (8) की सहायता से ज्ञात कर सकते हैं।

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प्रश्न 5.
सदिशों के सदिश गुणनफल की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सदिश गुणनफल या क्रॉस गुणनफल (Vector Product or Cross Product): सदिशों का यह गुणनफल सदिश राशि होता है अत: इसे सदिश गुणनफल कहते हैं और इसे व्यक्त करने के लिए क्रॉस (x) चिन्ह का उपयोग किया जाता है, अतः इसे क्रॉस गुणनफल या वज्रीय गुणनफल भी कहते हैं। दो सदिशों का सदिश गुणनफल दोनों सदिशों के परिमाणों व उनके मध्य कोण की ज्या के गुणनफल के बराबर होता है एवं परिणामी सदिश की दिशा उन दोनों सदिशों के तल के लम्बवत् दक्षिणावर्त पेंच नियम द्वारा निर्धारित दिशा में होती है।
दो सदिशों का सदिश गुणनफल निम्न सूत्र से प्राप्त होता है:
\(\vec{A} \). \(\vec{B} \) = A.Bsinθ. \(\hat{n}\) …..(1)
जहाँ
A = | \(\vec{A} \)| = \(\vec{A} \) का परिमाण
B = | \(\vec{B} \) | = \(\vec{B} \) का परिमाण
तथाव के तल के लम्बवत् दिशा में एकांक वेक्टर
सदिश गुणनफल \(\vec{A} \times \vec{B} \) की दिशा निम्न दो नियमों से प्राप्त कर सकते हैं।

(i) दायें हाथ का नियम (Right Hand Rule): इस नियम के अनुसार, यदि हम दाँयें हाथ की अंगुलियों को इस प्रकार मोड़ें कि ये सदिश \(\vec{A} \) से सदिश \(\vec{b} \) की ओर रहे तथा उनके बीच के लघु कोण की ओर घूमने की दिशा को प्रदर्शित करें तो अंगूठा सदिश \(\vec{A} \times \vec{B} \) की दिशा को व्यक्त करेगा [चित्र 4.20 (a)]

(ii) दक्षिणावर्त पेंच का नियम (Right Hand Screw Rule): इस नियम के अनुसार, “यदि हम अपने दाँये हाथ से पेंच को सदिश \(\vec{A} \) से \(\vec{B} \) की ओर उनके बीच के लघु कोण की ओर घुमाएँ तो पेंच की नोंक की गति की दिशा \(\vec{A} \times \vec{B} \) की दिशा होगी [चित्र 4.20 (b)]।

प्रश्न 6.
सिद्ध कीजिए कि प्रक्षेप्य की गति का पथ परवलय होता है।
उत्तर:
प्रक्षेप्य का पथ (Path of Projectile):
माना कोई प्रक्षेप्य क्षैतिज के साथ 6 के कोण पर ऊपर की ओर प्रक्षेपित किया जाता है। प्रक्षेप्य के वेग का क्षैतिज घटक
ux = ucosθ ……(1)

एवं ऊर्ध्व घटक,
uy = usinθ …(2)
गति के दौरान वस्तु पर केवल गुरुत्वीय त्वरण कार्य करता है, जो कि ऊर्ध्वाधर नीचे की ओर होता है, अतः त्वरण के क्षैतिज व ऊर्ध्व घटक, ax = 0 तथा ay = -g होंगे।
माना प्रक्षेप्य पथ पर कोई बिन्दु P (x,y,t) स्थित है तो सूत्र
s = ut + \(\frac{1}{2}\) का प्रयोग करने पर
x = ux.t + 0 = ucosθ.t
x = ucosθ.t …(3)
y = uyt + \(\frac{1}{2}\)ayt2
या
y = usinθ.t – \(\frac{1}{2}\)gt2 …(4)
समी० (3) से,
x = \(\frac{x}{u \cos \theta}\)
समय का यह मान समी० (4) में रखने पर
y = usinθ x \(\frac{x}{u \cos \theta}-\frac{1}{2} g \frac{x^2}{u^2 \cos ^2 \theta}\)
या
y = tanθ.x – \(\left(\frac{g}{2 u^2 \cos ^2 \theta}\right) \cdot x^2\)
या
y = ax – bx2 …..(5)
जहाँ
a = tanθ एवं b = \(\frac{g}{2 u^2 \cos ^2 \theta}\)
समीकरण (5) एक परवलय का समीकरण है अतः “प्रक्षेप्य पथ परवलयाकार होता है।”

प्रश्न 7.
प्रक्षेप्य की गति हेतु उड्डयन काल (T), प्रक्षेप्य की अधिकतम ऊँचाई (H) व प्रक्षेप्य की क्षैतिज परास (R) हेतु व्यंजक प्राप्त कीजिए।
उत्तर:
प्रक्षेप्य का उड्डयन काल (T) (Time of Flight of Projectile):
प्रक्षेप्य जितने समय तक वायु में रहता है अर्थात् प्रक्षेपण के बाद भूमि से टकराने तक प्रक्षेप्य को जितना समय लगता है, उसे प्रक्षेप्य का उड्डयन काल कहते हैं। इसे 7 से व्यक्त करते हैं।
प्रक्षेप्य जब अपने पथ के उच्च बिन्दु पर पहुँचता है तो ऊर्ध्व वेग घटक uy = 0 हो जाता है; अतः यदि इस आधी यात्रा का समय : मान लें तो ऊर्ध्व वेग घटक के लिए सूत्र
v = u + at
0 = usinθ – gt
या
gt = usinθ
∴ t = \(\frac{u \sin \theta}{g}\)
वायु के प्रतिरोध को यदि नगण्य मान लें तो जितना समय प्रक्षेप्य ऊपर जाने में लेता है ठीक उतना ही समय नीचे आने में लेता है। अतः प्रक्षेप्य का उड्डयन काल
T = t + t = 2t
या
T = \(\frac{2 u \sin \theta}{g}\) …….(6)

प्रक्षेप्य की महत्तम ऊँचाई (H) (Maximum Height of Projectile):
प्रक्षेप्य पथ के उच्चतम बिन्दु के संगत प्रक्षेप्य की ऊँचाई को महत्तम ऊँचाई कहते हैं। इसे H से व्यक्त करते हैं। सूत्र
v2 = u2 + 2as से के लिए
ऊर्ध्वं वेग घटक uy के लिए,
या
0 = (usinθ)2 + 2(-g) H = u2sin2θ – 2gH
2gH = u2 sin2θ
H = \(\frac{u^2 \sin ^2 \theta}{2 g}\) ………(7)
प्रक्षेप्य को अधिकतम ऊँचाई प्रदान करने के लिए sin2θ का मान
अधिकतम अर्थात् 1 होना चाहिए। अतः के लिए,
sin2θ = 1 => sinθ = 1
अधिकतम ऊँचाई के लिए,
=> θ = 90°
स्पष्ट है कि अधिकतम ऊँचाई तक फेंकने के लिए प्रक्षेप्य को 90° के प्रक्षेपण कोण पर अर्थात् ऊर्ध्वाधर ऊपर की ओर फेंकना होगा।
Hmax = \(\frac{u^2}{2 g}\) ………(8)

प्रक्षेप्य की क्षैतिज परास (R) (Horizontal Range of a Projectile):
प्रक्षेप्य द्वारा सम्पूर्ण उड्डयन काल के दौरान तय की गई क्षैतिज दूरी को प्रक्षेप्य का परास कहते हैं। इसे R से व्यक्त करते हैं।
यदि वायु के घर्षण को नगण्य मान लें तो प्रक्षेप्य के क्षैतिज वेग में कोई परिवर्तन नहीं होता है अतः प्रक्षेप्य का क्षैतिज परास,
R = क्षैतिज वेग x उड़ान का समय
= ucosθ x T
= ucosθ x \(\frac{2 u \sin \theta}{g}\)
या
R = \(\frac{u^2 \sin ^2 \theta}{2 g}\) ……(9)
(i) अधिकतम क्षैतिज परास के लिए,
sin2θ = 1 ⇒ 2θ = 90°
θ = 45°
अतः अधिकतम परास के लिए प्रक्षेपण कोण 45° होना चाहिए।
Rmax = \(\frac{u^2}{g}\) …….(10)

(ii) θ प्रक्षेपण कोण के लिए परास
R = \(\frac{u^2 \sin ^2 \theta}{2 g}\)
यदि प्रक्षेपण कोण (90° – θ) हो तो परास,
R’ = \(\frac{u^2}{g}\)sin2( 90°- θ)
या R = \(\frac{u^2}{g}\) sin (180° – 2θ) = \(\frac{u^2 \sin ^2 \theta}{2 g}\)
या
R = R
अर्थात् प्रक्षेपण कोण θ हो या (90° – θ) हो; दोनों स्थितियों में परास का मान समान होगा लेकिन महत्तम ऊँचाई भिन्न होगी।

आंकिक प्रश्न:

प्रश्न 1.
यदि \(\vec{a}\) तथा \(\vec{b}\) एकांक सदिश हों तो सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
\(\sin \left(\frac{\theta}{2}\right)=\frac{1}{2}|(\vec{a}-\vec{b})\)

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प्रश्न 2.
30 N तथा 40 N के दो बल एक ही बिन्दु पर परस्पर 60° के कोण पर कार्य कर रहे हैं। इन बलों का परिणामी बल ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
60.83 NJ

प्रश्न 3.
एक कण पर दो बल 5 N तथा 10 N एक साथ कार्यरत् हैं। उनके बीच का कोण 120° है। इन बलों का परिणामी बल ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
8.66 N

प्रश्न 4.
क्षैतिज से 30° के कोण पर कार्यरत एक बल का ऊर्ध्व घटक 200 N है। आरोपित बल का मान बताइये।
उत्तर:
400N

प्रश्न 5.
घास के रोलर के हत्थे को 50N के बल से खींचा जाता है। यदि हत्था क्षैतिज से 30° का कोण बनाए तो बल के क्षैतिज एवं ऊर्ध्व घटक बताइये।
उत्तर:
43.3 N; 25 N

प्रश्न 6.
किसी बिन्दु पर बल \(\vec{F}=(2 \hat{i}-3 \hat{j}+4 \hat{k})\) न्यूटन \(\vec{s} = (3 \hat{i}+2 \hat{j}+3 \hat{k})\) मीटर है। इसके बल आघूर्ण की गणना कीजिए।
उत्तर:
\((17 \hat{i}-6 \hat{j}-13 \hat{k})\)N-m

प्रश्न 7,
यदि वेक्टर \(\vec{A}=(2 \hat{i}+2 \hat{j}-2 \hat{k})\) और \(\overrightarrow{\boldsymbol{B}}= \hat{i}-5 \hat{j}+2 \hat{k}\) हों, तो \(\vec{A} \times \vec{B}\) का मान ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
\(-6 \hat{i}-18 \hat{j}-24 \hat{k}\)

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प्रश्न 8.
यदि \(\vec{A}=(2 \hat{i}+2 \hat{j}-2 \hat{k})\) तथा \(\vec{B}=-5 \hat{i}-5 \hat{j}+5 \hat{k}\) तो \(\vec{A} \times \vec{B}\) का मान ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
\((15 \hat{i}-20 \hat{j}-5 \hat{k}\)

प्रश्न 9.
एक मीनार से तीन गोलियाँ A, B व C क्रमश: 0.5 ms-1; 1ms-1 तथा 2ms-1 के क्षैतिज वेग से फेंकी जाती है। सबसे पहले कौन सी गोली पृथ्वी से टकरायेगी? कौन सी गोली मीनार के आधार पर सबसे अधिक दूर टकरायेगी?
उत्तर:
तीनों गोलियाँ एक साथ पृथ्वी से टकरायेंगी C गोली सबसे अधिक दूरी तय करेगी।

प्रश्न 10.
40m ऊँची मीनार की चोटी से एक गोला क्षैतिज में 20ms-1 के वेग से छोड़ा जाता है। यह कितने समय पश्चात् तथा मीनार से कितनी क्षैतिज दूरी पर पृथ्वी से टकरायेगा ? (g = 9.8ms-2)
उत्तर:
2.88 s; 57.14m

प्रश्न 11.
एक हवाई जहाज 1960 m की ऊंचाई पर 500/3 ms-1 के क्षैतिज वेग से उड़ रहा है। जब जहाज पृथ्वी के किसी स्थान 4 के ठीक ऊपर होता है, तो उससे एक बम छोड़ा जाता है जो पृथ्वी तल पर किसी बिन्दु Q पर टकराता है। बम की प्रक्षेपण बिन्दु से टकराने के बिन्दु तक की क्षैतिज दूरी ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
3.333km

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 4 समतल में गति

प्रश्न 12.
एक गेंद 30ms-1 के वेग से क्षैतिज से 60° का कोण बनाते हुए फेंकी जाती है। ज्ञात कीजिए
1. उड़ान का समय,
2. अधिकतम ऊँचाई,
3. परास,
4. पृथ्वी से टकराने पर गेंद के वेग का परिमाण व दिशा।
उत्तर:

  1.  5.2s,
  2. 33.75m,
  3. 78m,
  4. 30ms-1, क्षैतिज के साथ 60° नीचे की ओर

प्रश्न 13.
एक पुल से एक पत्थर क्षैतिज से नीचे की ओर 30° के कोण पर 20 ms-1 के वेग से फेंका जाता है। यदि पत्थर 2.0s में जल से टकराता है तो जल के तल से पुल की ऊँचाई क्या है? (g = 9:8 ms-2)
उत्तर:
39.6m

प्रश्न 14.
0.1 kg द्रव्यमान के एक पत्थर को 1.0m लम्बी डोरी के एक सिरे पर बाँधकर \(\frac{10}{\pi}\) चक्कर प्रति सेकण्ड की दर से एक क्षैतिज वृत्त में घुमाया जाता है। डोरी में तनाव ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
40N

प्रश्न 15.
एक डोरी के सिरे पर बँधी हुई 1kg द्रव्यमान की एक वस्तु 0.1m त्रिज्या के क्षैतिज वृत्त में 3 चक्कर प्रति सेकण्ड के वेग से घुमायी जा रही है। गुरुत्व का प्रभाव नंगण्य मानकर
1. वस्तु का रेखीय वेग,
2. अभिकेन्द्रीय त्वरण
3. डोरी में तनाव का परिकलन कीजिए।
4. यदि डोरी टृट जाये तो क्या होगा?
उत्तर:

  1. 1.88 ms-1
  2. 35.34ms-2
  3. 35.34N
  4. यदि डोरी टूट जाती है तो डोरी टूटने पर तनाव समाप्त हो जायेगा, फलस्वरूप वस्तु स्पर्श रेखा की दिशा में गति करने लगेगी।

प्रश्न 16.
0.10kg द्रव्यमान का पिण्ड 1.0m व्यास के वृत्तीय पथ पर 31.4s में 10 चक्कर की दर से घूम रहा है। पिण्ड पर लगने वाले
उत्तर:
0.2N

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HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

(A) वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

1. तन्तुक विसर्पण सिद्धान्त के अनुसार पेशी संकुचन के समय पेशी की लम्बाई कम करने के लिए गति करने वाला अणु है-
(A) कोलैजन
(B) एक्टिन
(C) मायोसिन
(D) टायटिन।
उत्तर:
(B) एक्टिन

2. कोहनी की सन्धि का प्रकार है-
(A) अचल सन्धि
(B) कब्जा सन्धि
(C) दृढ़ सन्धि
(D) धुरा सन्धि।
उत्तर:
(B) कब्जा सन्धि

3. संकुचनशील प्रोटीन है-
(A) ट्रोपोनिन
(B) मायोसिन
(C) ट्रोपोमायोसिन
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(B) मायोसिन

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

4. मानव के पश्चपाद में अस्थियों की संख्या होती है –
(A) 14
(C) 26
(B) 24
(D) 30
उत्तर:
(D) 30

5. पेशियों का अनॉक्सी संकुचन किसके संचयन के कारण पीड़ादायक होता है?
(A) कैल्सियम आयन
(B) मायोसि
(C) लैक्टिक अम्ल
(D) क्रियेटिन फॉस्फेट।
उत्तर:
(C) लैक्टिक अम्ल

6. अनुप्रस्थ सेतुओं के बन्धन के लिए कौन-से आयन की उपस्थिति आवश्यक है?
(A) कैल्सियम
(C) लौह
(B) सोडियम
(D) पोटैशियम।
उत्तर:
(A) कैल्सियम

7. अस्थियों को परस्पर जोड़ने वाला तन्तुकीय ऊतक होता है –
(A) वसा ऊतक
(B) कण्डरा
(C) स्नायु
(D) पेशी ऊतक।
उत्तर:
(C) स्नायु

8. पेशी संकुचन के लिए आवश्यक ऊर्जा का स्रोत है –
(A) एक्टिन
(B) ATP
(C) एक्टोमायोसिन
(D) मायोसिन।
उत्तर:
(B) ATP

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

9. मनुष्य में सबसे दृढ़ पेशी होती है –
(A) हाथों की
(B) जबड़ों की
(D) पीठ की।
(C) जाँघों की
उत्तर:
(B) जबड़ों की

10. कण्डरा (tendon) जोड़ती है –
(A) पेशी को पेशी से
(B) हड्डी को हड्डी से
(C) पेशी को हड्डी से
(D) तन्त्रिका को पेशी से।
उत्तर:
(C) पेशी को हड्डी से

11. मनुष्य की पेशियाँ किसकी सुरक्षा करती हैं?
(A) हृदय की
(B) फेफड़ों की
(C) हृदय एवं फेफड़ों की
(D) आमाशय की।
उत्तर:
(C) हृदय एवं फेफड़ों की

12. ग्लीनॉइड गुहा किसमें पायी जाती है?
(A) अंसमेखला में
(B) श्रोणि मेखला में
(C) करोटि में
(D) हृदय में।
उत्तर:
(A) अंसमेखला में

13. श्रोणि के साथ फीमर की सन्धि होती है –
(A) धुराम
(B) कब्जा
(C) सैडल
(D) कन्दुक खल्लिका।
उत्तर:
(D) कन्दुक खल्लिका।

14. मानव की दायीं भुजा में हड़ियों की कुल संख्या होती है –
(A) 20
(B) 34
(C) 30
(D) 32
उत्तर:
(C) 30

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

15. मनुष्य तथा अन्य स्तनियों में ग्रीवा कशेरुकाओं की आदर्श संख्या है –
(A) 7
(B) 12
(C) 10
(D) 11
उत्तर:
(A) 7

16. मनुष्य की श्रोणि मेखला की तीन अस्थियाँ हैं –
(A) प्यूबिस, ऐसीटाबुलम, इस्वियम
(B) इलियम, इस्वियम, सैक्रम
(C) इस्वियम, इलियम, प्यूबिस
(D) इलियम, प्यूबिस ऐसीटाबुलम।
उत्तर:
(C) इस्वियम, इलियम, प्यूबिस

17. मनुष्य की अंसमेखला की प्रमुख अस्थि है –
(A) स्कैपुला
(B) इलियम
(C) प्यूबिस
(D) कोरैकोएड।
उत्तर:
(A) स्कैपुला

18. मनुष्य में एक्रोमियन प्रवर्ध होता है –
(A) अंसमेखला में
(B) श्रोणि मेखला में
(C) रेडियो- अल्ना में
(D) अंसफलक में।
उत्तर:
(D) अंसफलक में।

19. लम्बी हड्डियों के सिरों पर स्थित लचीली रचनाएँ होती हैं –
(A) कण्डराएँ
(C) स्नायु
(B) पेशियाँ
(D) उपास्थियाँ।
उत्तर:
(D) उपास्थियाँ।

20. अक्षीय कंकाल के निर्माण में भाग नहीं लेती हैं –
(A) करोटि की अस्थियाँ
(B) रेडियो अल्ना का
(C) स्टर्नम की अस्थियाँ
(D) टीबियो फीबुला का।
उत्तर:
(D) टीबियो फीबुला का।

21. श्रोणि मेखला की ऐसीटाबुलम गुहिका में शीर्ष फिट रहता है –
(A) ह्यूमरस का
(C) फीमर का
(B) कशेरुक दण्ड की अस्थियाँ
(D) पैक्टोरल गर्डिल की अस्थियाँ।
उत्तर:
(A) ह्यूमरस का

22. श्रोणि मेखला (Pelvic girdle) के साथ फीमर की सन्धि होती है –
(A) धुराम
(B) सैडल
(C) कन्दुक- खल्लिका
(D) कब्जा।
उत्तर:
(C) कन्दुक- खल्लिका

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

23. महारन्ध्र होता है –
(A) करोटि के आधार में
(B) कशेरुक दण्ड के शिखर पर
(C) मस्तिष्क के आधार में
(D) मैड्यूला के आधार में।
उत्तर:
(A) करोटि के आधार में

24. मनुष्य की अंसमेखला की प्रमुख हड्डी है –
(A) स्कैपुला
(B) इलियम
(C) प्यूबिस
(D) कोराकॉयड।
उत्तर:
(A) स्कैपुला

25. कलाई की अस्थियाँ कहलाती हैं –
(A) टार्सल्स
(B) मैटाटार्सल्स
(C) मैटाकार्पल्स
(D) कार्पल्स।
उत्तर:
(D) कार्पल्स।

26. अंसमेखला का घटक है –
(A) इलियम
(B) ग्लीनॉयड गुहा
(C) ऐसीटाबुलम
(D) स्टर्नम।
उत्तर:
(B) ग्लीनॉयड गुहा

27. अँगूठी के आकार की कशेरुका होती है –
(A) एटलस
(B) प्रारूपी प्रीवा
(C) एक्सिस
(D) थोरेसिक।
उत्तर:
(A) एटलस

28. टिम्पैनिक हड्डी पायी जाती है –
(A) नाक में
(B) कान में
(C) गर्दन में
(D) पैर में।
उत्तर:
(B) कान में

29. निम्न में अग्रपाद की हड्डी
(A) ह्यमरस
(C) टीबिया
(B) फीमर
(D) फीबुला।
उत्तर:
(A) ह्यमरस

30. मेटाकार्पल्स पायी जाती है –
(A) हथेली में
(B) कपाल में
(C) गर्दन में
(D) पीठ में।
उत्तर:
(A) हथेली में

31. मानव शरीर में अस्थियों की कुल संख्या होती है –
(A) 260
(B) 206
(C) 360
(D) 306
उत्तर:
(B) 206

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32. कण्डरा एवं स्नायु विशिष्ट प्रकार के –
(A) तन्त्रिका ऊतक हैं
(B) उपकला ऊतक हैं
(C) पेशीय ऊतक हैं
(D) तन्तुमय संयोजी ऊतक हैं।
उत्तर:
(C) पेशीय ऊतक हैं

33. ओब्ट्यूरेटर फोरामेन पाया जाता है –
(A) खरगोश की अंसमेखला में
(B) मेढक की अंसमेखला में
(C) खरगोश की श्रोणि मेखला में
(D) मेढक की श्रोणि मेखला में।
उत्तर:
(C) खरगोश की श्रोणि मेखला में

34. त्रिकोणाकार कटक (deltoid ridge) पाया जाता है –
(A) ह्यमरस में
(B) टीबियो फीबुला में
(C) रेडियो अल्ना में
(D) फीमर में।
उत्तर:
(C) रेडियो अल्ना में

35. न्यूरल केनाल उपस्थित होती है-
(A) ह्यमरस में
(B) टीबियो फीबुला में
(C) कशेरुक दण्ड में
(D) कपाल अस्थि में।
उत्तर:
(C) कशेरुक दण्ड में

32. कण्डरा एवं स्नायु विशिष्ट प्रकार के –
(A) तन्त्रिका ऊतक हैं
(B) उपकला ऊतक हैं
(C) पेशीय ऊतक हैं
(D) तन्तुमय संयोजी ऊतक हैं।
उत्तर:
(C) पेशीय ऊतक हैं

33. ओब्ट्यूरेटर फोरामेन पाया जाता है –
(A) खरगोश की अंसमेखला में
(B) मेढक की अंसमेखला में
(C) खरगोश की श्रोणि मेखला में
(D) मेढक की श्रोणि मेखला में।
उत्तर:
(C) खरगोश की श्रोणि मेखला में

34. त्रिकोणाकार कटक (deltoid ridge) पाया जाता है –
(A) ह्यमरस में
(B) टीजियो फीबुला में
(C) रेडियो अल्ना में
(D) फीमर में।
उत्तर:
(C) रेडियो अल्ना में

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

35. न्यूरल केनाल उपस्थित होती है-
(A) ह्यमरस में
(B) टीबियो फीबुला में
(C) कशेरुक दण्ड में
(D) कपाल अस्थि में।
उत्तर:
(C) कशेरुक दण्ड में

36. मुर्गे की सिन सेक्रम बना होता है –
(A) 29 कशेरुकाओं का
(B) 3 कशेरुकाओं का
(C) 16 कशेरुकाओं का
(D) एक कशेरुका का।
उत्तर:
(C) 16 कशेरुकाओं का

37. एक क्रिकेट खिलाड़ी मैदान में तेजी से गेंद का पीछा कर रहा है। इस क्रिया के लिए निम्न में से अस्थियों का कौन-सा समूह सीधा उत्तरदायी है-
(A) फीमर, मेलियस, टीबिया, मेटाटार्सल
(B) पेल्विस, अल्ना, पैटेला, टार्सल
(C) स्टर्नम, फीमर, टीबियो, फीबुला
(D) टार्सल, फीमर, मेटाटार्सल, टीबिया।
उत्तर:
(D) टार्सल, फीमर, मेटाटार्सल, टीबिया।

(B) अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
अमीबीय गति किस प्राणी में पायी जाती है ?
उत्तर:
अमीबीय गति अमीबा में पायी जाती है।

प्रश्न 2.
पैरामीशियम में किस प्रकार की गति पायी जाती है ?
उत्तर:
पैरामीशियम में पक्ष्माभी गति (ciliary movement) पायी जाती

प्रश्न 3.
कोशिका भक्षण में कौन-सी गति काम आती है ?
उत्तर:
कोशिका भक्षण में अमीबीय गति काम आती है।

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प्रश्न 4.
अनैच्छिक एवं रेखित लक्षणों वाली पेशी का नाम लिखिए।
उत्तर:
हृदय पेशियाँ (cardiac muscles)।

प्रश्न 5.
पेशी की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई बताइये।
उत्तर:
सार्कोमीयर ( sarcomere)।

प्रश्न 6.
पेशी किसके द्वारा अस्थि से जुड़ती है ?
उत्तर:
कण्डराओं (tendons) द्वारा।

प्रश्न 7.
अस्थि से अस्थि किसके द्वारा जुड़ती है ?
उत्तर:
स्नायुओं ( ligaments) द्वारा।

प्रश्न 8.
प्रेरक तन्त्रिका एवं पेशी के मध्य कौन-सा तन्त्रिकाप्रेषी रसायन स्त्रावित होता है ?
उत्तर:
ऐसीटिलकोलीन (acetylcholine) ।

प्रश्न 9.
अनुप्रस्थ सेतु का निर्माण कौन-सी प्रोटीन द्वारा होता है ?
उत्तर:
एक्टिन द्वारा।

प्रश्न 10.
मनुष्य के त्रिक का निर्माण कितने कशेरुक करते हैं ?
उत्तर:
पाँच कशेरुकाएँ।

प्रश्न 11.
मनुष्य में करोटि का निर्माण कितनी अस्थियों से होता है ?
उत्तर:
28 अस्थियाँ ।

प्रश्न 12.
किस रसायन के कारण पेशियों में थकावट उत्पन्न होती है ?
उत्तर:
लैक्टिक अम्ल (lactic acid) के कारण।

प्रश्न 13.
मनुष्य में पायी जाने वाली कर्णास्थियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
मनुष्य में मैलियस, इन्कस तथा स्टेपीज नामक कर्ण अस्थियाँ पायी जाती हैं।

प्रश्न 14.
चल सन्धियों में पाये जाने वाले स्नेहन का नाम लिखिए।
उत्तर:
चल सन्धियों में सायनोवियल तरल (Synovial fluid) स्नेहन के रूप में पाया जाता हैं।

प्रश्न 15.
कन्दुक खल्लिका सन्धि का एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
श्रोणि सन्धि (Hip joint)।

प्रश्न 16.
मेखलाओं का कंकाल में क्या कार्य है ?
उत्तर:
मेखलाएँ उपांगीय कंकाल को सन्धान एवं सहारा प्रदान करती हैं।

प्रश्न 17.
एक वयस्क मनुष्य के कशेरुक दण्ड में कुल कितनी कशेरुकाएँ होती हैं ?
उत्तर:
एक वयस्क मनुष्य के कशेरुक दण्ड में कुल 26 कशेरुकाएँ होती

प्रश्न 18.
मनुष्य में कितनी जोड़ी वास्तविक पसलियाँ पायी जाती हैं ?
उत्तर:
मनुष्य में 7 जोड़ी वास्तविक पसलियाँ पायी जाती हैं।

प्रश्न 19.
मनुष्य के शरीर की सबसे लम्बी अस्थि कौन-सी होती है ?
उत्तर:
मनुष्य के शरीर की सबसे लम्बी अस्थि फीमर होती है।

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प्रश्न 20.
मनुष्य के शरीर की सबसे छोटी अस्थि का नाम लिखिए।
उत्तर;
मनुष्य के अन्तः कर्ण में पायी जाने वाली स्टेपीज (Stapes) नामक अस्थि सबसे छोटी होती है।

प्रश्न 21.
मानव शरीर की ऐसी अस्थि का नाम बताइए जो कि किसी अन्य अस्थि से नहीं जुड़ती है ?
उत्तर:
हाय ऑयड अस्थि (Hyoid bone)

प्रश्न 22.
कलाई की हड्डियाँ क्या कहलाती हैं ?
उत्तर:
कार्पल्स (Carpals)।

प्रश्न 23.
स्कैपुला अस्थि (Scapula) किसमें पायी जाती है।
उत्तर:
अंसमेखला में।

प्रश्न 24.
पेशियों में आकुंचन के समय कौन-सा पदार्थ बनता है ?
उत्तर:
पेशियों में आकुंचन के समय एक्टोमायोसिन बनता है।

प्रश्न 25.
क्रिएटिन फॉस्फेट का कार्य लिखिए।
उत्तर:
पेशी संकुचन के समय क्रिएटिन फॉस्फेट ADP को ATP में बदलकर ऊर्जा प्रदान करता है।

प्रश्न 26.
मनुष्य के अक्षीय कंकाल में कितनी अस्थियाँ होती हैं ?
उत्तर:
मनुष्य के अक्षीय कंकाल में 80 अस्थियाँ होती हैं।

प्रश्न 27.
पेशी तन्तु में संकुचन कौन-सी छड़ों के कारण होता है ?
उत्तर:
एक्टिन छड़ें मायोसिन छड़ों के ऊपर फिसलती हैं। इससे पेशी खण्डों के छोटे हो जाने से पेशी तन्तुक सिकुड़ते हैं।

प्रश्न 28.
पेशी संकुचन के लिए आवश्यक ऊर्जा कहाँ से प्राप्त होती
उत्तर:
पेशी संकुचन के लिए आवश्यक ऊर्जा ATP तथा क्रिएटिन फॉस्फेट से प्राप्त होती है।

प्रश्न 29.
पेशी संकुचन के लिए कौन-सा अकार्बनिक आयन आवश्यक होता है ?
उत्तर:
पेशी संकुचन के लिए कैल्सियम आयन (Ca+) आवश्यक होता है

प्रश्न 30.
पेशी तन्तु संकुचन का छड़ विसर्पण सिद्धान्त ( सर्पी तन्तु सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया था ?
उत्तर:
पेशी तन्तु का छड़ विसर्पण सिद्धान्त H. E. हक्सले ने प्रस्तुत किया था।

प्रश्न 30.
पेशी तन्तु संकुचन का छड़ विसर्पण सिद्धान्त ( सर्पी तन्तु सिद्धान्त) किसने प्रस्तुत किया था ?
उत्तर:
पेशी तन्तु का छड़ विसर्पण सिद्धान्त H. E. हक्सले ने प्रस्तुत किया था।

प्रश्न 31.
पेशी संकुचन के समय पेशी तन्तु की कौन-सी पट्टी की लम्बाई कम होती है ?
उत्तर:
पेशी संकुचन के समय ‘ पट्टी (I-band) की लम्बाई कम हो जाती है।

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प्रश्न 32.
पेशियों के विशेष गुण बताइए।
उत्तर:
पेशियों के विशेष गुण होते हैं-उत्तेजनशीलता, संकुचनशीलता, प्रसारण एवं प्रत्यास्थता ।

(C) लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions )

प्रश्न 1.
अस्थियों के क्या कार्य हैं ?
उत्तर:
अस्थियों के निम्नलिखित कार्य हैं –

  • अस्थियाँ शरीर को निश्चित आकार (Shape) प्रदान करती हैं।
  • ये गति, चलन आदि क्रियाओं में सहायक होती हैं।
  • ये आन्तरिक तथा कोमल अंगों को सुरक्षा (Protection) तथा आलम्बन ( Support ) प्रदान करती हैं।

प्रश्न 2.
स्नायु तथा कण्डरा में भेद लिखिए।
उत्तर:
स्नायु एवं कण्डरा में भेद

स्नायु (Ligaments )कण्डरा (Tendon )
1. स्नायु प्रत्यास्थ होता है।1. यह अप्रत्यास्थ होता है।
2. यह पट्टी के रूप में दो अस्थियों के बीच में सन्धि स्थल पर स्थित होता है।2. यह पेशी एवं अस्थि को जोड़ता है।
3. स्नायु अस्थियों को अपने स्थान से हटने से रोकता है।3. यह गति में सहायक होता है।
4. यह दो अस्थियों के आवरण के बीच स्थित होता है।4. यह पेशी तथा अस्थि आवरण के बीच स्थित होता है।

प्रश्न 3.
संकुचन के लिए पेशी किस प्रकार उत्तेजित होती है ?
उत्तर:
तन्त्रिका आवेग के कारण तन्त्रिका पेशी सन्धि पर तन्त्रिका के सिरों द्वारा मुक्त ऐसीटिलकोलीन नामक तन्त्रिकाप्रेषी रसायन पेशी की प्लाज्मा झिल्ली को Na+ के प्रति पारगम्यता को बढ़ा देता है जिससे Na+ पेशी कोशिका में प्रवेश करते हैं और प्लाज्मा झिल्ली की आन्तरिक सतह पर धनात्मक विभव उत्पन्न हो जाता है। यह विभव पूरी प्लाज्मा झिल्ली पर संचरित होकर सक्रिय विभव (Action potentia) उत्पन्न करता है। यही अवस्था पेशी कोशिका की उत्तेजन अवस्था कहलाती है।

प्रश्न 4.
मनुष्य की भुजा की सभी सन्धियाँ अचल हो जायें तो क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
मनुष्य की भुजा की सभी सन्धियों के अचल होने पर पेशीय संकुचन अप्रभावी हो जायेगा तथा भुजा में किसी भी प्रकार की गति सम्भव नहीं हो पायेगी।

प्रश्न 5.
ओस्टियोपोरोसिस किसे कहते हैं ?
उत्तर:
यह एक अस्थि रोग होता है। इसमें अस्थि के द्रव्यमान की क्षति हो जाती है। अस्थि पतली, कमजोर तथा कम प्रत्यास्थ हो जाती है जिससे इसकी मजबूती घट जाती है। फलतः मामूली सी चोट लगने पर अस्थि टूट जाती है। ओस्टियोपोरोसिस एस्ट्रोजन हॉर्मोन की कमी के कारण वृद्ध महिलाओं में अधिक होता है। कैल्सियमयुक्त सन्तुलित आहार एवं नियमित व्यायाम से इस रोग से बचा जा सकता है।

प्रश्न 6.
पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा स्रोत क्या है ?
उत्तर:
पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा ATP द्वारा मिलती है। संकुचन के समय ADP को क्रिएटिन फॉस्फेट पुनः ATP में परिवर्तित कर देता है। पेशी में ATP का निर्माण संचित ग्लाइकोजन तथा वसीय अम्लों के ऑक्सीकरण के द्वारा होता है।

प्रश्न 7.
यदि कंकाल पेशी को जाने वाली तन्त्रिका को काट दिया जाये तो संकुचन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
कंकाल पेशी को जाने वाली तन्त्रिका को काट देने पर तन्त्रिकाप्रेषी रसायन ऐसीटिलकोलीन का स्त्रावण नहीं होगा फलतः पेशी प्लाज्मा झिल्ली की Na++ के प्रति पारगम्यता नहीं बढ़ेगी और सोडियम आयन के पेशी कोशिका में प्रवेश न कर पाने के कारण झिल्ली की आन्तरिक सतह पर धनात्मक विभव उत्पन्न नहीं होगा और पेशी का उत्तेजन नहीं होगा। परिणामस्वरूप पेशी संकुचन नहीं होगा।

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प्रश्न 8.
शरीर में कंकाल के कार्यों का वर्णन कीजिए। उत्तर-जन्तुओं के शरीर में कंकाल के निम्नलिखित प्रमुख कार्य होते हैं-

  1. कंकाल शरीर को दृढ़ता तथा निश्चित आकृति प्रदान करता है।
  2. शरीर के अनकों कोमल अंगों जैसे—हृदय, यकृत, फेफड़े, प्लीहा, मस्तिष्क आदि की रक्षा करता है।
  3. कंकाल पेशियों को जुड़ने के लिए आधार प्रदान करता है।
  4. पेशियों के गति करने में सहायक होता है।
  5. अस्थियों की अस्थि मज्जा (Bone marrow) में R.B.C. का निर्माण होता है।
  6. जन्तु को गति, प्रचलन, श्रवण, जनन आदि क्रियाओं में सहयोग प्रदान करता है।
  7. पसलियाँ श्वसन क्रिया में सहायक होती हैं।
  8. कर्ण अस्थियाँ सुनने की क्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

प्रश्न 9.
शरीर में कशेरुक दण्ड (Vertebral Column) के कार्य बताइए ।
उत्तर:
कशेरुक दण्ड के निम्नलिखित प्रमुख कार्य होते हैं-

  1. अक्ष कंकाल के रूप में प्राणी को एक निश्चित आकृति प्रदान करती
  2. कशेरुक दण्ड के अगले सिरे पर खोपड़ी लगी होती है।
  3. देहगुहा में स्थित अन्तरंगों का सन्धान करती है।
  4. अनेकों कोमल अन्तरंगों को सुरक्षा प्रदान करती है 1
  5. मेरु रज्जु (Spinal cord) को सुरक्षा प्रदान करती है।
  6. यह मेखलाओं को सहारा देती है तथा गमन में सहायक होती है।
  7. श्वसन क्रिया में सहायता करती है।
  8. कशेरुकाओं के सभी प्रवर्ध बड़ी-बड़ी पेशियों को सन्धि स्थल प्रदान करते हैं।

प्रश्न 10.
मनुष्य के कंकाल तन्त्र में पायी जाने वाली समस्त अस्थियों की गणना कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य के कंकाल तन्त्र में कुल 206 अस्थियाँ पायी जाती हैं, जो निम्न प्रकार हैं-
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन 1

प्रश्न 11.
उपास्थि और अस्थि में अन्तर बताइए।
उत्तर:
डत्तर- उपास्थि तथा अस्थि में अन्तर

उपास्थि (Cartilage)अस्थि (Bone)
1. यह लचीली तथा कोमल होती है।1. यह मजबूत, दृढ़ तथा कठोर होती है।
2. उपास्थि का मैट्रिक्स कॉण्ड़रन (Chondrin) का बना होता है।2. इनका मैट्रिक्स ओसीन (Ossein) का बना होता है।
3. इनका मैट्रिक्स अर्द्ध ठोस होता है।3. इनका मैट्रिक्स ठोस होता है।
4. इनकी कोशिकाएँ अर्द्धगोल होती हैं।4. इनकी कोशिकाएँ अनियमित होती हैं।
5. उपास्थि कोशिकाओं की संख्या उनके विभाजन से बढ़ती है ।5. अस्थि कोशिकाएँ सदैव ओस्टियोब्लास्ट (Osteoblast) के विभाजन से बढ़ती हैं।
6. हैवर्सियन तन्त्र (Haversian system) का निर्माण नहीं होता है।6. हैवर्सियन तन्त्र (Haversian system) का निर्माण होता है।
7. इनमें R.B.C. नहीं बनती हैं।7. इनमें R.B.C. बनती हैं।

प्रश्न 12.
अरेखित तथा रेखित पेशियों में अन्तर बताइए।
उत्तर:
अरेखित तथा रेखित पेशियों में अन्तर

अरेखित पेशी (Unstriped muscle)रेखित पेशी (Striped muscle)
1. इनकी कोशिकाएँ तर्कुरूप होती हैं।1. इनकी कोशिकाएँ बेलनाकार तथा पेशीचोल नामक झिल्ली से स्तरित होती हैं।
2. कोशिकाओं में केवल एक केन्द्रक होता है।2. कोशिका एवं झिल्ली के बीच अनेक केन्द्रक स्थित होते हैं।
3. इनमें पट्टियों का अभाव होता है।3. इसमें गहरी एवं हल्की पट्टियाँ होती हैं।
4. ये निश्चित क्रम में स्वतः फैलती एवं सिकुड़ती हैं।4. ये जीव की इच्छानुसार फैलती, सिकुड़ती या हिलती-डुलती हैं।
5. इनमें थकान का अनुभव कभी नहीं होता है।5. इनमें थकान का अनुभव होता है।

प्रश्न 13.
अरेखित पेशी एवं ह्द् पेशी की तुलना कीजिए।
उत्तर:
अरेखित पेशी एवं हृद् पेशी की तुलना (अन्तर)

अरेखित पेशी (Unstriped Muscleहद्द पेशी (Cardiac Muscles)
1. ये हृदय को छोड़कर शेष आन्तरांगों में मिलती हैं।1. ये केवल हृदय की भित्तियों में ही मिलती हैं।
2. इसकी कोशिकाएँ तर्कुरू होती हैं।2. इसकी कोशिकाएँ जाल सदृश होती हैं।
3. कोशिकाओं में केवल एक केन्द्रक स्थित होता है।3. प्रत्येक खण्ड में एक केन्द्र होता है।
4. इनमें पद्धियों का अभाव होल है।4. इनमें अनुप्रस्थ पट्टियाँ होत हैं।
5. ये स्वतः फैलती व सिकुड़ती अतः अनैच्छिक होती हैं।5. ये निश्चित क्रम में स्व फैलती व सिकुड़ती हैं औ इच्छा पर निर्भर नहीं करती हैं
6. धीमी गति से सिकुड़ती हैं औ थकान का अनुभव नहीं होत है।6. ये जीवनपर्यन्त निरन्तर का करती हैं, फिर भी थकान क अनुभव नहीं होता है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

प्रश्न 14.
निम्नलिखित पर टिप्पणियाँ लिखिए-
(क) माइस्थेनियाप्रेविस,
(ख) पेशीय दुष्पोषण,
(ग) अपतानिका
(घ) सन्धिशोध
(ङ) अस्थिसुषिरता
(च) गाउट ।
उत्तर:
(क) माइस्थेनियाप्रेविस (Myastheniagravis) यह एक स्वप्रतिरक्षा विकार है जो तन्त्रिका पेशी सन्धि को प्रभावित करता है। इससे कमजोरी और कंकाली पेशियों का पक्षाघात होता है।
(ख) पेशीय दुष्पोषण (Muscular dystrophy ) – इसमें विकारों के कारण कंकालीय पेशी का अनुक्रमित अपह्रासन हो जाता है।
(ग) अपतानिका – शरीर में कैल्सियम आयनों (Ca+) की कमी से पेशी में तीव्र ऐंठन को ‘अपतानिका’ कहते हैं ।
(घ) सन्धिशोथ (Arthritis) – इस रोग में सन्धि झिल्ली में सूजन आ जाने से झिल्ली मोटी हो जाती है तथा सन्धि तरल का स्राव बढ़ जाता है। इस कारण सन्धि पर दबाव बढ़ता है तथा दर्द होने लगता है।
(ङ) अस्थि सुषिरता (Ostcoporosis) – यह वृद्धावस्था में होने वाला रोग है। इस रोग में सन्धि (जोड़) क्षतिमस्त हो जाती है। इससे अस्थि के पदार्थों में कमी आ जाने से अस्थि भंग की प्रबल सम्भावना रहती है। एस्ट्रोजन स्तर में कमी इसका सामान्य कारण है।
(च) गाउट (Gout) – जोड़ों में यूरिक अम्ल कणों के एकत्र होने के कारण जोड़ों में शोथ (सूजन आ जाने को गाउट (सन्धिशोथ) कहते हैं।

(D) निबन्धात्मक प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
मनुष्य की करोटि का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य की करोटि (Human Skull)
मनुष्य की करोटि या खोपड़ी का कंकाल 18 अस्थियों का बना होता है। करोटि की अस्थियाँ अन्य अस्थियों से अधिक सुदृढ़ होती हैं। इसमें निम्नलिखित भाग होते हैं –

  1. कपाल की अस्थियाँ तथा
  2. चेहरे की अस्थियाँ ।

1. कपाल का क्रेनियम (Cranium) इसमें मस्तिष्क सुरक्षित रहता है। इसमें कुल 8 अस्थियाँ होती हैं-
ललाटिका (Frontal) – 1, भित्तिकास्थि (Parietal) – 2,
अनुकपाल (Occipital) – 1 टेम्पोरल (Temporal ) – 2,
जत्रुक (Sphenoid) – 1, झर्झरिका (Ethmoid) – 1
कपाल की सभी अस्थियाँ टेढ़ी-मेढ़ी सीवनों से दृढ़तापूर्वक जुड़ी रहती हैं। सीवन सिर पर लगे आघात को कम करते हैं । कपाल के नीचे की ओर एक महारन्ध्र (Foramen magnum) होता है। इसमें से होकर मस्तिष्क मेरुरज्जु (Spinal cord) से जुड़ा रहता है। महारन्ध्र के दोनों ओर एक-एक अनुकपाल अस्थिकन्द (Occipital condyle) होता है जो एटलस कशेरुका से जुड़कर सन्धि बनाते हैं।

2. चेहरे की अस्थियाँ (Facial Bones) – इनकी संख्या 14 होती है। ये चेहरे का कंकाल बनाती हैं और संवेदी अंगों की रक्षा करती हैं। ये अस्थियाँ हैं-
नासास्थियाँ (Nasals) – 2, तालाब अस्थि (Palatines ) – 2,
लैक्राइमल (Lacrimals) – 2,
वोमर (Vomer) – 1,
जम्भका (Maxielary ) – 2
स्क्वैमोजल या जाइगोमेटिक
(Squamosals or Zygomatic ) – 2,
मैक्सिली (Maxillae ) – 2,
मैण्डीबल (Mandible) – 1

जीभ को सहारा देने के लिए एक हाऑइड (Hyoid) भी मनुष्य में पायी जाती है। इनके अतिरिक्त 3 जोड़ी (6) कर्ण अस्थियाँ भी होती हैं-

  • मेलियस -2,
  • इन्कस – 2 तथा
  • स्टेपीज – 2 1

करोटि के कार्य-

  1. मस्तिष्क की सुरक्षा करना ।
  2. नेत्र, श्रवण कोषों, घ्राण कोषों की रक्षा करना ।
  3. चेहरे की कुछ अस्थियाँ मुख को अवलम्बन प्रदान करने हेतु जबड़ा बनाती हैं।
  4. आहार नाल तथा श्वसन पथ के अगले भाग को अवलम्बन प्रदान करना ।
  5. कण्ठिका (Hyoid ) द्वारा जीभ को सहारा देना ।

निचला जबड़ा एक ही अस्थि मैण्डीबल का बना होता है।

प्रश्न 2.
मनुष्य के कशेरुक दण्ड का संक्षेप में वर्णन कीजिए और उसके कार्य बताइए ।
उत्तर:
मनुष्य का कशेरुक दण्ड (Human Vertebral Column)
कशेरुक दण्ड पीठ के मध्य रेखा में सिर से धड़ के पश्च सिरे तक फैली एक छड़नुमा रचना है, जिसमें छोटे-छोटे छल्लों जैसी कशेरुक होती है। इसे रीढ़ की हड्डी भी कहते हैं। मनुष्य के कशेरुक अगर्ती (Acoelour) होते हैं। सभी कशेरुक उपास्थियों की डिस्क से जुड़े रहते हैं, जिनसे कशेरुक दण्ड लचीला बना रहता है तथा ये बाहरी आघातों को भी सोख लेते हैं। सभी कशेरुक 5 भागों में बँटे रहते हैं-
(1) गर्दन में ……………. ग्रीवा कशेरुकाएँ – 7
(2) वक्ष भाग ……………. वक्षीय कशेरुकाएँ – 12
(3) कटि भाग में ……………. कटि कशेरुकाएँ-5
(4) त्रिक भाग में ……………. त्रिकास्थि -1 ( शिशुओं में 4)
(5) श्रोणि भाग में ……………. अनुत्रिक – 1 (शिशुओं में 5)
वयस्कों में इनकी संख्या 26 तथा शिशुओं में 33 होती है।

कशेरुक दण्ड के कार्य –
(1) खोपड़ी को साधना,
(2) मेरुरज्जु की रक्षा करना,
(3) खड़ी स्थिति के लिए गर्दन व धड़ को सामर्थ्य प्रदान करना,
(4) पसलियों तथा उरोस्थि को अवलम्बन प्रदान करना,
(5) गर्दन को इधर-उधर घूमने की क्षमता प्रदान करना।

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प्रश्न 3.
मनुष्य के वक्षीय कंकाल का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य का वक्षीय कंकाल (Human Thoracic Skeleton )
मनुष्य के वक्ष भाग में 12 वक्ष कशेरुक, उरोस्थि (Sternum) तथा 10 जोड़ी पसलियाँ मिलकर वक्षीय कंकाल बनाती हैं। वक्षीय कंकाल हृदय, फेफड़ों और उदर गुहा के ऊपरी अंगों की रक्षा करती हैं। मनुष्य में 7 जोड़ी वास्तविक पसलियाँ (True ribs) होती हैं, ये एक ओर वक्ष कशेरुकाओं से तथा दूसरी ओर उरोस्थि से जुड़ी होती हैं ये साँस लेने में सहायता करती हैं। इसके बाद की तीन जोड़ी पसलियों आपस में जुड़ी होती हैं जिन्हें मिथ्या पसलियाँ (False ribs) कहते हैं। अन्तिम दो जोड़ी पसलियों के अन्तिम सिरे खाली पड़े रहते हैं, इन्हें अपूर्ण या मुक्त पसलियाँ (Floating ribs) कहते हैं। सीने की हड्डी उरोस्थि (Sternum) के तीन भाग होते हैं-

  • सबसे ऊपर की ओर छोटी हस्तक (Manubrium),
  • मध्य में सबसे बड़ी उरोस्थिकाय (Mesosternum) तथा
  • नीचे की छोटी सबसे जीफॉइड (Xiphoid)।

प्रश्न 4.
मनुष्य के अप्रपाद की अस्थियों का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य के अग्रपाद की अस्थियाँ-मनुष्य के अग्रपाद में तीन भाग होते हैं-

  1. ऊपरी बाहु,
  2. अग्र बाहु,
  3. हाथ। इसमें निम्नलिखित अस्थियाँ होती हैं-

1.  ऊमरी बाहु (Upperarm)-मनुष्य की ऊपरी बाहु में केवल एक लम्बी, बेलनाकार व खोखली अस्थि प्रगण्डिका या त्रामरस (humerus) होती है। ये कन्धे और कोहनी के मध्य स्थित होती है। इसका ऊपरी गोले सिरा अंसमेखला की ग्लीनॉइड कैविटी में फँसा रहता है। निचला सिरा अग्रबाहु की दो अस्थियों-रेडियस तथा अल्ना (radio-ulna) से जुड़ा रहता है। ह्यामरस की गुहा (cavity of humerus) में चिकना एवं वसीय पदार्थ भरा होता है, जिसे अंस्थि मज्जा कहते हैं, जो रुधिर कणिकाओं का निर्माण करती है।

2. अग्र बाहु (Fore arm) -कोहनी से कलाई तक के भाग-अम्र बाहु में दो अस्थियाँ होती हैं-

  • बहि-प्रकोष्ठिका या रेडियस (radius),
  • अन्तप्रकोष्ठिका या अल्ना (ulna) इनमें अँगूठे की ओर वाली अस्थि रेडियस तथा कनिष्ठा की ओर वाली अस्थि अल्ना होती है।

3. हाथ (Hand)-इस भाग में कलाई, हथेली व अँगुलियों की अस्थियाँ होती हैं-

  • कलाई (Wrist) -इसमें 8 छोटी-छोटी अस्थियाँ 4-4 की दो पंक्तियों में जुड़ी रहती हैं। इनको मणिबन्धिकाएँ (carpals) कहते हैं। ये अस्थियाँ लचीली उपास्थि द्वारा जुड़ी होने के कारण सरलता से घुमायी जा सकती हैं।
  • हथेली (palm)-मणिबन्धिकाओं से 5 लम्बी करभास्थियाँ (metacarpals) जुड़ी होती हैं जो हथेली का निर्माण करती हैं।
  • अंगुलास्थियाँ (Phalanges)-करभास्थियों से अंगुलास्थियाँ (Phalanges) जुड़ी होती हैं। प्रत्येक अँगुली में 3-3 तथा अँगूठे में 2 अंगुलास्थियाँ होती हैं। इस प्रकार पाँचों अँगुलियों में कुल 14 अंगुलास्थियाँ होती हैं।

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प्रश्न 5.
मनुष्य के पश्च पाद की अस्थियों का सचित्र वर्णन करो।
उत्तर:
मनुष्य के पश्चपाद्र की अस्थियाँ (Bones of Hind Limb of Man)
मनुष्य के अग्रपाद में तीन भाग होते हैं-

  1. ऊपरी बाहु,
  2. अप्र बाहु,
  3. हाथ। इसमें निम्नलिखित अस्थियाँ होती हैं-

1. जाँघ (Thigh)-मनुष्य की जाँघ में अस्थि उर्वरका या फीमर (femur) होती है। यह कूल्हे और घटने के मध्य स्थित होती है। यह शरीर की सबसे लम्बी एवं मजबूत अस्थि है। इसका ऊपरी गोल
सिरा श्रोणि मेखला के श्रोणि उलूखल में फँसा रहता है। पश्च भाग या निचला सिरा पगदण्ड की दो अस्थियों-टीबिया तथा फीबुला से जुड़ा रहता है। घुटने में एक गोल-तिकोनी छोटी-सी अस्थि होती है, जिसे पटेला (knee cap) कहते हैं। यह घुटने के जोड़ को ढके रहती है और गति में सहायक होती है। इसकी सहायता से घुटना आसानी से मोड़ा जा सकता है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

2. पगदण्ड (Leg rod) -घुटने से टखने तक के भाग पगदण्ड में दो अस्थियाँ होती हैं-

  • अन्तःजंघिका या टीबिया (Tibia),
  • बहिःजंघिका या फीबुला (Fibula) । इनमें टीबिया अस्थि मोटी तथा अन्दर की ओर होती है एवं फीबुला पतली और कमजोर तथा बाहर की ओर होती है।

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HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन 4

3. पैर (Foot) -इस भाग में गुल्क, तलवा तथा अँगुलियों की अस्थियाँ होती हैं।

  • गुल्फ (Ankle)-टीबिया तथा फीबुला से सात छोटी-छोटी अस्थियाँ जुड़ी रहती हैं, जिनको गुल्फास्थियाँ (टार्सल्स-tarsals) कहते हैं। ये एड़ी व टखने का निर्माण करती हैं।
  • तलवा (Sole)-गुल्फास्थियों से 5 लम्बी और पतली अस्थियाँ जुड़ी होती हैं, जिन्हें प्रपदिका (मेटाटार्सल्स-metatarsals) कहते हैं। ये पैर से तलवे का निर्माण करती हैं।
  • अंगुलास्थियाँ (Phalanges)-मेटाटार्सल से अंगुलास्थियाँ जुड़ी रहती हैं। प्रत्येक अँगुली में 3-3 तथा अँगूठे में 2 अंगुलास्थियाँ होती हैं। इस प्रकार पाँचों अँगुलियों में कुल 14 अंगुलास्थियाँ होती हैं।

प्रश्न 6.
कंकाल सन्धियों का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कंकाल सन्धियाँ (Skeletal Joints)
सन्थि (Joint) – सन्धि दो या दो से अधिक अस्थियों या अस्थि एवं उपास्थि के मिलने का स्थल होती है अर्थात् जहाँ अस्थियाँ या उपास्थियाँ परस्पर जुड़ती हैं उस स्थल को सन्धि कहते हैं। कशेरुकियों में सन्धियों के कारण ही गति सम्भव होती है। शरीर के विभिन्न भागों में अनेकों सन्धियाँ पायी जाती हैं। सन्धियों की गति के आधार पर ये निम्नलिखित तीन प्रकार की होती हैं-

  1. अचल सन्धि,
  2. चल सन्धि,
  3. आंशिक चल सन्धि।

1. अचल सन्धि या स्थिर सन्घि (Fixed Joints) – इस प्रकार की सन्धियों में गति सम्भव नहीं होती तथा ये अस्थियाँ परस्पर संयोजी ऊतक द्वारा जुड़ी रहती हैं। अस्थियों के मध्य कोई स्थान नहीं होता; जैसे -करोटि की अस्थियाँ, दाँत तथा मेक्सिला (maxilla) के मध्य की सन्धियाँ।

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2. चल सन्धि (Movable Joints) – इस प्रकार की सन्धियों में अस्थियाँ एक या अधिक दिशाओं में स्वतन्त्रतापूर्वक गति करती हैं। इस प्रकार की सन्धियों की अस्थियों के मध्य अवकाश या स्थान पाया जाता है। इस स्थान को सन्धि कोटर (synovial cavity) कहते हैं। इस केविटी में एक म्यूसिन युक्त तरल (synovial fluid) भरा होता है जो कि सन्धि को स्नेहन (lubrication) प्रदान करता है। चल सन्धि को पुन: निम्नलिखित प्रकारों में विभाजित कर सकते हैं-

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

(क) कन्नुक खस्तिका सन्यि (Ball and Socket Joint)- इस प्रकार की सन्धि में सभी दिशाओं में गति सम्भव है तथा यह सबसे अधिक गतिशील होती हैं जैसे – स्कन्ध सन्धि (shoulder Joint) एवं श्रोणि सन्धि (hip joint)।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन 6(ख) कक्या सन्धि (Hinge Joint)-इस प्रकार सन्धियों में गति केवल एक ही तल में सम्भव होती है। यह सन्धि दीवार में लगे हुए दरवाजे के समान कार्य करती है; जैसे -कोहिनी की सन्धि (elbow joint) एवं घुटने की सन्धि (knee joint)।
(ग) दीर्घकृतज सन्धि (Ellipsoidal Joint) – इस प्रकार की सन्धि में गति दो तलों में सम्भव है; जैसे-बहिप्रकोष्ठिका (radius) तथा मणिबन्ध (carpus) की सन्धियाँ।

3. आंशिक चल सन्धि (Slightly Movable Joint or Imperfect Joint) – इन सन्धियों में सीमित गति सम्भव होती है। इनकी अस्थियों के सिरे तन्तुमय उपास्थि द्वारा जुड़े रहते हैं। ऐसे जोड़ को सन्धान (symphysis) कहते हैं; जैसे-जघन सन्धान (Pubic symphysis) की सन्धि। यह दो प्रकार की होती है-

(क) धुराप्र सन्यि (Pivot Joint) – इस प्रकार की सन्धि में पार्श्व गति सम्भव है। इसमें गोल या नुकीला सिरा दूसरी अस्थि के हल्के गड्दे में स्थित होता है; जैसे-एटलस तथा एक्सिस के मध्य सन्धि।

(ख) विसर्थी सन्धि (Gliding Joint)-यह सरलतम प्रकार की सन्धि होती है। इसमें एक अस्थि दूसरी पर स्वतन्न्तापूर्वक गति करती है। सन्धि की दोनों अस्थियों के मध्य चपटे सन्धि तल होते हैं जो परस्पर विसर्पण करते हैं; जैसे-कलाई सन्धि (wrist joint)।

प्रश्न 7.
मनुष्य के कंकाल एवं पेशियों से सम्बन्धित रोग लिखिए।
उत्तर:
अस्थियों के रोग (Disorders of Bone)
1. सन्धि शोथ (Arthritis) – यह रोग जोड़ों या सन्धियों की झिल्लियों में सूजन या शोथ के कारण होता है। यह निम्न प्रकार का होता है-
(i) गाउटी सन्धि शोथ
(ii) रूमैटी सन्धि शोथ तथा
(iii) अस्थि सन्धि शोथ।

(i) गाउटी सन्धिशोथ या गाडट (Gouti Arthritis)-इसमें साइनोवियल संधि पर यूरिक अम्ल के क्रिस्टलों की मात्रा बढ़ जाती है क्योंकि यह अम्ल पूरी तरह उत्सर्जित नहीं हो पाता है। इससे बचने के लिए मांसाहारी भोजन को कम कर देना चाहिए। इसे सामान्यतः गठिया भी कहते हैं।

(ii) सूमेटी सन्धिशोथ (Rheumatoid Arthritis) – इसमें रूमेटी कारक इम्यूनोग्लोबिन Igm की मात्रा साइनोवियल झिल्ली पर बढ़ जाती है जिससे झिल्ली मोटी हो जाती है और उस पर साइनोवियल द्रव का दाब बढ़ जाता है। जो कि तीव्र दर्द उत्पन्न करता है। कुछ समय बाद साइनोवियल झिल्ली पैनस नामक असामान्य कणों का स्राव करती है, जो उपास्थि टोपी पर एकत्र हो उसे कठोर बनाते हैं और संधि अचल हो जाती है। जिससे पीड़ा और अधिक बढ़ जाती है। यह रोग अधिकतर अधिक उम्र के व्यक्तियों में होता है। इसके उपचार में व्यायाम, ऊष्मा सेक उपचार आदि प्रभावी है। इसके अतिरिक्त दवा, भौतिक चिकित्सा एवं शल्य क्रिया भी कारगर हैं।

(iii) अस्थि सन्यिशोध (Oste0-arthritis) – इसमें अस्थियों के शीर्ष पर उपस्थित टोपी की उपास्थि विघटित होने लगती है। जिससे संधि तल पर उपास्थि नहीं रहती और साइनोवियल द्रव का स्नेहक (lubricant) प्रभाव भी समाप्त हो जाता है और अस्थि में वृद्धि होने लगती है, जिससे संधि अंचल हो जाती है और तीव्र पीड़ादायक होती है। संधि उपास्थि का पतली व कमजोर हो जाना, जोड़ के बीच स्थान कम रह जाना, सन्धि का क्षतिम्त होना एवं नयी अस्थि का निर्माण हो जाना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं। रोग के उपचार हेतु दर्द निवारक दवा दी जाती है। स्थिति अधिक खराब हो जाने पर धातु एवं प्लास्टिक से बने अवयवों द्वारा संधि को प्रतिस्थापित किया जाता है।

2. अस्थि सुसिरता या ओस्टियोपोरोसिस (Osteoporosis) – यह वृद्धावस्था में होने वाला एक सामान्य अस्थि रोग है। इसमें अस्थि निर्माण की क्रियाओं के घटने के कारण अस्थि से Ca+तथा PO4- आयन बाहर निकल जाते हैं जिससे अस्थि का घनत्व कम हो जाता है और अस्थि भंगुर हो जाती है। इससे अस्थियाँ इतनी कमजोर हो जाती हैं कि मामूली चोट पर ये टूट सकती हैं। इस रोग के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

  • भोजन में कैल्शियम व विटामिन C व D की कमी से।
  • स्तियों में रजनोनिवृत्ति के बाद एस्ट्रोजन हारमोन की मात्रा के कम होने के कारण।
  • कॉर्टिसोल के लम्बे समय तक उपचार के रूप में सेवन करने से।
  • आयु बढ़ने के साथ-साथ GH (वृद्धि हारमोन्स) के स्रावण में कमी से।
  • अस्थि निर्माण व अस्थिभवन की क्रियाओं के आयु के साथ कम होने के कारण।
  • केल्सिटोनिन, ग्लूकोकोर्टिकॉयड, लिंग हारमोन के असंतुलन के कारण।

3. माइस्थेनिया श्रेविस (Myasthenis gravis) – यह व्यक्ति के स्वयं के प्रतिरक्षा तन्त्र के कारण उत्पन्न रोग है। इनमें तन्त्रिका पेशी सन्धि स्थल प्रभावित होता है। इसमें कंकाली पेशियों का पक्षाघात (paralysis) भी हो सकता है।

4. पेशीय दुषोषण (Muscular dystrophy) – अन्य रोगों के कारण कंकाल पेशियों का अनुक्रमित उपशासन हो जाता है।

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5. अफ्तान्रिका (Tetany) – यह Ca+आयनों की कमी से होने वाला रोग है। इसमें पेशियों में तीव्र ऐंठन होती है इसे सामान्यतः धनुषबाण भी कहा जाता है

6. मोच (Sprain) – सन्धि सम्पुट से जुड़े हुए कंडरा (tendons) या स्नायु (Ligaments) के खिंचने या फटने को मोच कहते हैं। इससे उस स्थान पर सूजन आ जाती है और दर्द होता है।

प्रश्न 8.
विभिन्न प्रकार की जैविक गतियों को समझाइए ।
उत्तर:
गतियों के प्रकार (Types of Movements)
जन्तुओं में मुख्यतः चार प्रकार की गतियाँ होती हैं-

  1. कोशिका द्रव्यी अंगों द्वारा गति (Movement by cellular organelles)
  2. शरीर के उपांगों द्वारा गति (Movements by body appandages)
  3. आन्तरिक अंगों द्वारा गति (Movements by Internal Organs)
  4. कंकालीय पेशियों द्वारा गति (Movements by Skeletal Muscles)

उपर्युक्त में से पहले दो प्रकार की गतियाँ अपेक्षीय गतियाँ कहलाती हैं, क्योंकि इनमें किसी भी प्रकार की पेशीय संरचना गति में भाग नहीं लेती है।

1. कोशिकाद्रव्यी अंगों द्वारा गति (Movements by Cellular Organelles) – इस प्रकार की गति प्राय: उन जन्तुओं में पायी जाती है जिनमें शरीर संगठन कोशिकीय स्तर का होता है। इस प्रकार की गति को पुन: निम्न प्रकारों में बाँटा जा सकता है-
(i) अमीबीय गति (Amoeboid Movement) – इस प्रकार की गति सभी सार्कोडीन (Sarcodine), मैस्टिगोफोर (Mastigophore) तथा स्पोरोजोअन (Sporozoan) प्रोटोजोअन प्राणियों की विशेषता है।

इनके अतिरिक्त यह उन्च जन्तुओं की श्रमणशील कोशिकाओं, जैसे-श्वेत रुधिर कोशिकाओं, ध्रूणीय मीसेनकाइम कोशिकाओं तथा अन्य अनेक कोशिकाओं जो ऊतकीय अन्तरालों में गति करती हैं, में भी पायी जाती हैं। यह नग्न जीवद्रव्य (protoplasm) की विसर्पी गति होती है।

इस प्रकार की गति जीवद्रव्य द्वारा एक ओर से कुछ प्रवर्ध (outgrowth) बढ़ाकर व दूसरी ओर से खिंचकर होती है। यह गति अमीबा की गति के समान होती है इसलिए इसे अमीबीय गति कहते हैं। अमीबा के बाह्य जीवद्रव्य (actoplasm) में एक्टिन एवं मायोसिन नामक प्रोटीन्स के बने सूक्ष्म तन्तुक पाए जाते हैं। इन्हीं में संकुचन एवं शिथिलन से अमीबीय गति होती है। यह अमीबा में गमन तथा भोजन प्रहण करने के काम आती है।

(ii) कशाभिकीय गति (Flagellar Movements) – मैस्टिगोफोर प्रोटोजोअन (जैसे-युग्लीना, ट्रिपेनोसोमा), स्पंजों तथा शुक्राणुओं में कशाभी गति पायी जाती है। कशाभ (flagella), कोशिका की सतह से निकले चाबुक की तरह (whiplike) संरचनाएँ होती हैं। कशाभ केवल द्रव माध्यम में ही गति करते हैं।

द्रव माध्यम में कशाभ प्रभावी (effective) तथा प्रतिप्राप्त (recovery) चरणों (strokes) की सहायता से गति करते हैं। प्रभावी चरण में दृढ़ता से पीछे की ओर जाता है तथा प्रतिप्राप्त चरण में यह वक्रित होकर आगे की ओर आ जाता है। इस प्रकार क्रमिक प्रभावी एवं प्रतिप्राप्त चरणों की क्रिया द्वारा कशाभी गति सम्पन्न होती है। इसे क्षेपणी गति (paddle movement) भी कहते हैं।

(iii) पक्ष्माभिकी गति (Ciliary Movement) – पक्ष्माभ (cilia) अत्यन्त गतिशील, छोटे-छोटे बहिद्रव्यीय प्रवर्ध (ectopolasmic projection) होते हैं जो अनेक जन्तुओं की कोशिकीय सतह पर विस्तारित होते हैं। ये पक्ष्माभी प्रोटोजोअन प्राणियों की विशेषता है। बड़े जन्तुओं में ये पक्ष्माभी उपकला पर विभिन्न द्रवों एवं पदार्थों को ढकेलने का कार्य करते हैं।

ये पैरामीशियम, ओपेलाइना आदि में गमन व यूनियो में भोजन प्रहणण करने में सहायक होते हैं। मानव की शुक्रवाहिनी, अण्डवाहिनी, ट्रेकिया आदि में भी इनकी गति पायी जाती है। पक्ष्माभी गति के समय प्रत्येक पक्ष्माभ लोलक (pendulum) की तरह दोलन करता है। प्रत्येक दोलन दो स्ट्रॉक्स में पूर्ण होता है जिसमें प्रथम तीव्र प्रथावी स्ट्रोक तथा उसके बाद दूसरा मंद प्रतित्राप्त स्ट्रोक होता है।

(iv) साइक्लोसिस (Cyelosis) – यह प्रोटोजोअन्स के कुछ जन्तुओं के जीवद्रव्य में पायी जाने वाली चक्राकार गति है, जिससे भोजन आदि का वितरण किया जाता है। यह कुछ स्पंजों में भी पायी जाती है।

2. शारीरिक उपांगों द्वारा गति (Movements by Body Appendages) – यह गति शरीर में पाये जाने वाले उपांगों के द्वारा होती है। यह निम्न प्रकार की होती है-

  • शूक एवं पैरापोडिया (Setae and Parapodia)-संघ एनीलिडा के प्राणियों, जैसे-केंचुआ में शूकों द्वारा तथा नेरीस में पैरापोडिया के द्वारा गति होती है।
  • स्पर्शक द्वारा (By Tantacle)-संघ सीलेन्ट्रेटा के प्राणियों (जैसे-हाइड्रा, फाइसेलिया आदि) प्राणियों के मुख के चारों ओर स्पर्शक पाए जाते हैं। ये इन प्राणियों की गति में सहायक होते हैं।
  • सन्धियुक्त उपांग (Jointed Appendages) – संघ आथोंपोडा के प्राणियों में गमन के लिए सन्धियुक्त उपांग पाए जाते हैं। सन्धियुक्त उपांगों की उपस्थिति इस संघ का लाक्षणिक गुण है। ये उपांग भोजन पकड़ने में भी सहायक होते हैं।
  • नलिकाकार पाद (Tube Feet) – संघ इकाइनोडमेंटा के प्राणियों में नलिकाकार पाद पाए जाते हैं। ये समुद्र की सतह पर चलने में सहायता करते हैं।
  • पंख (Fins)-मछलियों में गति के लिए पंख पाए जाते हैं। ये नाव के चपुओं की तरह कार्य करते हैं।

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3. आन्तरिक अंगों द्वारा गति (Movement by Internal Organs) – इस प्रकार की गति लगभग सभी प्राणियों में पायी जाती है तथा विभिन्न क्रियाओं को सरल बनाती है। इसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं-

  • वक्षीय एवं उदरीय गति अर्थात् डायाफ्राम व पसलियों की पेशीय गति जिसके कारण फेफड़े फूलते व पिचकते हैं व श्वासोच्छ्वास सम्पन्न होता है।
  • आहारनाल की क्रमाकुंचन गति जिससे भोजन आमाशय में खिसकता है।
  • हृदय व रुधिर वाहनियों के संकुचन व शिधिलन के कारण होने वाली स्पंदन गति।
  • मूत्र जनन वाहनियों में होने वाली गतियाँ।
  • नेत्र के गोलक में विभिन्न पेशियों के कारण होने वाली गति।

4. कंकालीय पेशियों द्वारा गति (Movement by Skeletal Muscle)-विभिन्न प्रकार की पेशियाँ जो अस्थियों से जुड़ी होती हैं और अस्थियों की गति में सहायता करती हैं। कंकालीय पेशियाँ कहलाती हैं। इनमें होने वाली संकुचन व शिथिलन गति के कारण जन्तुओं में विभिन्न अंगों में गतियाँ होती हैं और इनकी समन्वित गति के कारण जन्तुओं में प्रचलन (locomotion) होता है। पेशीय संकुचन के कारण उपांगों की अस्थियों में गति उत्पन्न होती है। अस्थियों (bones) तथा पेशियों (muscles) की समन्वित गति के फलस्वरूप चलन सम्भव होता है। अतः पेशियों की कंकाल की गति महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

प्रश्न 9.
रेखित पेशियों की संरचना एवं कार्य लिखिए
उत्तर:
रेखित (कंकाल) पेशी के संकुचन की कार्यविधि (Contraction Mechanism of Striated Muscie)
रेखित पेशियाँ तन्निकीय उत्तेजन पर संकुचित होती हैं। पेशियों में जाने वाले तन्त्रिका तन्तु अपने सिरों पर ऐसिटिलकोलीन (acetylcholine) नामक पदार्थ स्रावित करके संकुचन की प्रेरणाओं को पेशियों में पहुँचाते हैं। प्रत्येक पेशी तन्तु के अन्दर इन प्रेणाओं को तन्तुओं तक प्रसारित करने का काम सारकोप्लार्भिक आल करता है।

हक्सले के पेशी संकुचन सर्पी सिद्धान्त के अनुसार, पेशी संकुचन के समय ‘ A ‘ पहियों की लम्बाई तो यथावत् बनी रहती है किन्तु इसके दोनों ओर की ‘ T ‘ पट्टियों के अर्द्धांों की एक्टिन छड़ें मायोसिन छड़ों के कंटकों पर शीष्वतापूर्वक बनते-बिगड़ते आड़े रासायनिक सेतु बन्यनों की सहायता से साकोंमियर के मध्य की ओर खिसककर ‘M’ रेखा तक पहुँच जाते हैं या इनके सिरे एक-दूसरे पर चढ़ जाते हैं। इस प्रकार पेशीय खण्डों या साकोंमियर्स के छोटे हो जाने से पेशी तन्तु सिकुड़े हैं।

प्रेरणास्थान से प्रारम्भ होकर पेशी तन्नु में दोनों ओर संकुचन की लहर-सी दौड़ जाती है, किन्तु संकुचन एक ही दिशा की ओर होता है, जिस ओर सम्बन्धित पेशी किसी अचल अस्थि से लगी होती है। अधिकतम संकुचन में दोनों ओर की ‘ Z ‘ रेखाएँ ‘ A ‘ पट्टियों की मायोसिन छड़ों को छूने लगती हैं, अर्थात् ‘T’ पट्टियाँ और ‘H’ क्षेत्र अन्तर्धान हो जाते हैं और पेशी तन्तु की लम्बाई घटकर 2/3 रह जाती है। शिथिलन (relaxation) में एक्टिन तथा मायोसिन छड़ों को जोड़ने वाले सेतु बन्य सब खुल जाते हैं।

अतः प्रत्येक पेशीखण्ड (साकोंमियर) की सब एक्टिन छड़ें वापस अपनी सामान्य स्थिति में आ जाती हैं और पेशी संकुचन समाप्त हो जाता है। कार्यविधि के लिए ऊर्जा की आपूर्ति (Energy Supply to muscle contractíon)-पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा की आपूर्ति ATP द्वारा होती है। ATP प्राप्ति का स्रोत ग्लाइकोजन है। इसके अपचय (या विघटन) के फलस्वरूप ATP का निर्माण होता है।

पेशी संकुचन के समय ATP के जल अपघटन से ऊर्जा की प्राप्ति होती है। पेशियों में क्रिएटिन फोस्फेट नामक एक उच्च ऊर्जा यौगिक उपस्थित होता है। यह भी ATP निर्माण में प्रयुक्त होता है। विश्रामावस्था में ATP द्वारा फिर से क्रिएटिन फॉस्फेट बन जाता है। इस प्रकार पेशी में क्रिएटिन फॉस्फेट का भण्डार बना रहता है, जो आवश्यकता पड़ने पर ATP प्रदान कर सकता है।
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प्रश्न 10.
अरेखित पेशियों की संरचना एवं कार्य लिखिए।
उत्तर:
अरेखित या अनैच्छिक पेशी ऊतक (Unstriped or Smooth Muscle Tissue)
स्थिति (Location)-ये पेशियाँ कभी भी अस्थियों से जुड़ी हुई नहीं पायी जाती हैं। इसीलिए इन्हें अकंकालीय पेशियाँ भी कहते हैं। ये आहारनाल, मूत्राशय, गर्भाशय, योनि, पित्ताशय, पित्तवाहिनी, श्वासनली, रुधिर वाहनियों एवं नेत्र आदि की भित्तियों में पायी जाती हैं।

ये आंतरागी पेशियाँ (visceral muscle) एवं चिकनी पेशियाँ भी कहलाती हैं। संरच्रा (Structure) – अरेखित पेशी ऊतक लम्बी, सँकरी एवं तर्कुरूपी (spindle shaped) पेशी कोशिकाओं या पेशी तन्तुओं का बना होता है। ये तन्तु झिल्ली सदृश अधात्री (matrix) द्वारा परस्पर सटे रहते हैं। प्रत्येक तन्तुवत् कोशिका लम्बाई में 120 सेमी तथा चौड़ाई में 160 मिमी होती है।

इसके दोनों सिरे नुकीले या कभी-कभी शाखान्वित होते हैं। बीच के चौड़े़ भाग में एक बड़ा व लम्बा-सा केन्द्रक होता है। केन्द्रक के चारों ओर स्थित थोड़ा-सा कोशिकाद्रव्य तरल अवस्था में होता है और यह साकोंप्लाज्म (sarcoplasm) कहलाता है। इसके बाहर की ओर पेशी तन्तु के शेष भाग में असंख्य छोटे-छोटे व महीन पेशी तन्नु (myofibrils) निलम्बित रहते हैं।

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पेशी कोशिका की छोटे-छोटे व महीन पेशी तन्तु (myofibrils) निलम्बित रहते हैं। पेशी कोशिका की संकुचनशीलता इन्हीं पेशी तन्तुओं की उपस्थिति के कारण होती है अर्थात् पेशी तन्तुओं में फैलने व सिकुड़ने की अपार क्षमता होती है। पेशी कोशिका का जीवद्रव्य एक महीन आवरण में बन्द रहता है। जो सारकोलेमा (sarcolemma) कहलाता है। अरेखित पेशी तन्तु अलग-अलग या बण्डलों में बँधे होते हैं। प्रायः बहुत-से पेशी तन्तु संयोजी ऊतक द्वारा बँधकर पतली एवं चपटी पद्विकाएँ या शीथ बनाते हैं जो पुनः मिलकर बेलनाकार पेशी बण्डल बनाते हैं।

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कार्य (Functions) – इनके आकुंचन पर जीव की इच्छा का कोई नियन्त्रण नहीं होता है, इसी कारण इन पेशियों को अनैच्छिक पेशियाँ (involuntary muscles) कहते हैं। इनका कार्य गुहाओं को चौड़ा करना तथा छिद्रों को खोलना तथा बन्द करना है। छिद्र के चारों ओर स्थित ये पेशियाँ संवरणी (sphincter) बनाती हैं।

प्रश्न 11.
पेशी संकुचन की क्रिया-विधि लिखिए।
उत्तर:
पेशी संकुचन की क्रियाविधि (Mechanism of Muscle Contraction)
पेशी संकुचन की क्रियाविधि को समझाने के लिए हक्सले (Huxley, 1965) ने सर्थी तन्तु सिद्धान्त (sliding filament theory) प्रस्तुत किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार, पेशीय रेशों का संकुचन पतले तन्तुओं (एक्टिन तन्तुओं) के मोटे तन्तुओं (माइसिन तन्तुओं) के ऊपर विसर्पण (खिसकने) से होता है।

रेखित (ककाल) पेशी के संकुचन की कार्यविधि (Contraction Mechanism of Striated Muscie)
रेखित पेशियाँ तन्त्रिकीय उत्तेजन पर संकुचित होती हैं। पेशियों में जाने वाले तन्त्रिका तन्तु अपने सिरों पर ऐसिटिलकोलीन (acetylcholine) नामक पदार्थ स्रावित करके संकुचन की प्रेरणाओं को पेशियों में पहुँचाते हैं। प्रत्येक पेशी तन्तु के अन्दर इन प्रेरणाओं को तन्तुओं तक प्रसारित करने का काम सारकोप्लारिमक जाल करता है।

हक्सले के पेशी संकुचन सर्पी सिद्धान्त के अनुसार, पेशी संकुचन के समय ‘A’ पट्टियों की लम्बाई तो यथावत् बनी रहती है किन्तु इसके दोनों ओर की ‘I’ पट्टियों के अर्द्धाशों की एक्टिन छड़ें, मायोसिन छड़ों के कंटकों पर शीघ्रतापूर्वक बनते-बिगड़ते आड़े रासायनिक सेतु बन्धनों की सहायता से साकरोंमियर के मध्य की ओर खिसककर ‘M’ रेखा तक पहुँच जाते हैं या इनके सिरे एक-दूसरे पर चढ़ जाते हैं।

इस प्रकार पेशीय खण्डों या सार्कोमियर्स के छोटे हो जाने से पेशी तन्तु सिकुड़ते हैं। प्रेरणास्थान से प्रारम्भ होकर पेशी तन्तु में दोनों ओर संकुचन की लहर-सी दौड़ जाती है, किन्तु संकुचन एक ही दिशा की ओर होता है, जिस ओर सम्बन्धित पेशी किसी अचल अस्थि से लगी होती है। अधिकतम संकुचन में दोनों ओर की ‘ Z ‘ रेखाएँ ‘ A ‘ पट्टियों की मायोसिन छड़ों को छूने लगती हैं, अर्थात् ‘ T ‘ पट्टियाँ और ‘ H ‘ क्षेत्र अन्तर्धान हो जाते हैं और पेशी तन्तु की लम्बाई घटकर 2/3 रह जाती है।

शिधिलन (relaxation) में एक्टिन तथा मायोसिन छड़ों को जोड़ने वाले सेतु बन्ध सब खुल जाते हैं। अतः प्रत्येक पेशीखण्ड (साकौमियर) की सब एक्टिन छड़ें वापस अपनी सामान्य स्थिति में आ जाती हैं और पेशी संकुचन समाप्त हो जाता है। कार्यविधि के लिए ऊर्जा की आपूर्ति (Energy Supply to muscle contraction) पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा की आपूर्ति ATP द्वारा होती है।

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ATP प्राप्ति का स्रोत ग्लाइकोजन है। इसके अपचय (या विघटन) के फलस्वरूप ATP का निर्माण होता है। पेशी संकुचन के समय ATP के जल अपघटन से ऊर्जा की प्राप्ति होती है। पेशियों में क्रिएटिन फोस्फेट नामक एक उच्च ऊर्जा यौगिक उपस्थित होता है। यह भी ATP निर्माण में प्रयुक्त होता है। विश्रामावस्था में ATP द्वारा फिर से क्रिएटिन फॉस्फेट बन जाता है। इस प्रकार पेशी में क्रिएटिन फॉस्फेट का भण्डार बना रहता है, जो आवश्यकता पड़ने पर ATP प्रदान कर सकता है।

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पेशी संकुचन के प्रमुख चरण (Main Steps of Muscle Contractions)
पेशी संकुचन की क्रियाविधि को सर्पीतनुु या छड़ विसर्पण सिद्धान्त (sliding filament theory) द्वारा अच्छी तरह समझाया जा सकता है, जिसके अनुसार पेशीय रेशों का संकुचन पतले तन्तुओं के मोटे तन्तुओं के ऊपर सरकने या विसर्पण से होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार पेशी संकुचन चार चरणों में पूरा होता है-

(1) उत्तेजन (Excitation)-यह पेशी संकुचन का प्रथम चरण है। उत्तेजन में तन्न्किका आवेग के कारण तत्रिकाक्ष (axon) के सिरों द्वारा ऐसीटिलकोलीन (एक तन्त्रिका प्रेषी रसायन), तन्त्रिका पेशी सन्धि पर मुक्त होता है। यह ऐसीटिलकोलीन पेशी-प्लाज्मा की Na+के प्रति पारगम्यता को बढ़ावा देता है, जिसके फलस्वरूप प्लाज्मा झिल्ली की आन्तरिक सतह पर धनात्मक विभव उत्पन्न हो जाता है। यह विभव (active potential) पूरी प्लाज्मा झिल्ली पर फैलकर सक्रिय विभव उत्पन्न कर देता है और पेशी कोशिका उत्तेजित हो जाती है।

(2) उन्तेजन-संकुचन युग्म (Excitation-Contraction Coupling)-इस चरण में सक्रिय विभव पेशी कोशिका में संकुचन प्रेरित करता है। यह विभव पेशी प्रद्रव्य में तीव्रता से फैलता है और Ca++ मुक्त होकर ट्रोपोनिन-सी से जुड़ जाते हैं और ट्रोपोनिन अणु के संरूपण में परिवर्तन हो जाते हैं। इन परिवर्तनों के कारण एक्टिन के सक्रिय स्थल पर उपस्थित ट्रोपोमायोसिन एवं ट्रोपोनिन दोनों वहाँ से पृथक् हो जाते हैं। मुक्त सक्रिय स्थल पर तुरन्त मायोसिन तन्तु के अनुप्रस्थ सेतु इनसे जुड़ जाते हैं और संकुचन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

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(3) संकुचन (Contraction) – एक्टिन तन्तु के सक्रिय स्थल से जुड़ने से पूर्व सेतु का सिरा एक ATP से जुड़ जाता है। मायोसिन के सिरे के ATPase एन्जाइम द्वारा ATP, ADP तथा Pi में टूट जाते हैं किन्तु मायोसिन के सिर पर ही लगे रहते हैं। इसके उपरान्त मायोसिन का सिर एक्टिन तन्तु के सक्रिय स्थल से जुड़ जाता है। इस बन्धन के कारण मायोसिन के सिर में संरूपण परिवर्तन होते हैं और इसमें झुकाव

उत्पन्न हो जाता है जिसके फलस्वरूप एक्टिन तन्तु साकोंमियर के केन्द्र की ओर खींचा जाता है। इसके लिए ATP के विदलन से प्राप्त ऊर्जा काम आती है और सिर के झुंकाव के कारण इससे जुड़ा ADP तथा Pi भी मुक्त हो जाते हैं। इसके मुक्त होते ही नया ATP अणु सिर से जुड़ जाता है। ATP के जुड़ते ही सिर एक्टिन से पृथक् हो जाता है। पुनः ATP का विदलन होता है। मायोसिन सिर नये सक्रिय स्थल पर जुड़ता है तथा पुनः यही क्रिया दोहाई जाती हैं जिससे एक्टिन तन्तुक खिसकते हैं और संकुचन हो जाता है।

(4) शिथिलन (Relaxation)-पेशी उत्तेजन समाप्त होते ही Ca++पेशी प्रद्रव्यी जालिका में चले जाते हैं। जिससे टोपोनिन-सी Ca++ से मुक्त हो जाती है और एक्टिन तन्नुक के सक्रिय स्थल अवरुद्ध हो जाते हैं। पेशी तन्तु अपनी सामान्य स्थिति में आ जाते हैं तथा पेशीय शिथिलन हो जाता है।

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प्रश्न 12.
पेशियों की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
पेशियों की विशेषताएँ (Characteristics of Muscles)

(1) उत्तेजनशीलता (Irritabilitv) – पेशियाँ किसी यान्त्रिक, तन्त्रिकीय, रासायनिक, विद्युत या तापीय उद्दीपन के प्रति उत्तेजनशीलता प्रकट करती हैं।

(2) संकुव्वनशीलता (Contractibility) – उद्दीपन पाकर पेशियाँ संकुचित हो जाती हैं तथा कुछ समय बाद पुनः शिथिल हो जाती हैं।

(3) संवहनशीलता (Conductibility) – पेशी के एक सिरे पर दिया गया उद्दीपन संप्रहित होकर क्षणभर में सभी दिशाओं में फैल जाता है।

(4) देहलीज उद्दीपन (Threshold Stimulus) – उद्दीपन की वह न्यूनतम मात्रा जो पेशीय संकुचन या प्रतिक्रिया के लिए आवश्यक है उसे देहलीज उद्दीपन कहते हैं।

(5) प्रत्यास्थता (Elasticity) – सभी पेशियों में निश्चित मात्रा में फैलने तथा पुनः अपना पूर्व आकार प्रहण कर लेने की क्षमता होती है।

(6) सभी या कोई नहीं नियम (All or None Law) – पेशी का संकुचन उद्दीपन के प्रति समानुपाती होता है। उद्दीपन प्राप्त होते ही पेशी या तो पूर्ण क्षमता से संकुचित होती है या संकुचित नहीं होती है। इसे ऑल और नन लौ या बोवड्टिच का नियम कहते हैं।

(7) पेशीय श्रान्ति (Muscle Fatigue) – लगातार उद्दीपन देते रहने से पेशी में संकुचन की क्षमता कम होती जाती है और कुछ समय पश्चात् पेशी नए उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया अथवा संकुचन नहीं कर पाती। इस अवस्था को पेशीय श्रान्ति कहते हैं। ऐसा पेशियों में लैक्टिक अम्ल के बनने से होता है।

(8) संकलन (Summation) – जब एक पेशी सूत्र को जोकि संकुचन अवस्था में है, दूसरा उद्दीपन दिया जाता है तो इस द्वितीय उद्दीपन का प्रभाव भी प्रथम उद्दीपन के प्रभाव के साथ संकलित हो जाता है और पेशी संकुचन बना रहता है।

(9) एकल पेशी स्कुरण (Single muscle twitch)-जब पेशी को एक पृथक् उद्दीपन दिया जाये तो उसके एक पेशी तन्तु में होने वाले संकुचन व शिथिलन को एकल पेशी स्फुरण कहते हैं। इसमें तीन अवस्थाएँ होती हैं। मेढ़क के एक पेशी स्फुरण का मान 0.1 सेकण्ड है।

  • गुप्त काल (Latent Phase) – उद्दीपन देने व संकुचन होने के बीच के समय को गुप्त काल (latent period) कहते हैं। इसमें 0.01 सेकण्ड का समय लगता है।
  • संकुचन काल (Contraction Phase) – इस काल में पेशी अधिकतम संकुचन प्रदर्शित करती है। इसमें लगभग 0.04 सैकण्ड का समय लगता है।
  • विश्रान्ति काल (Relaxation Phase) – इसमें पेशी पुनः अपनी सामान्य स्थिति में लौटती है, इसमें 0.05 सेकण्ड का समय लगता है।

(10) उत्तेजन/अनुत्तेजन अवधि (Refractory Period) – यह वह समयन्तराल है जिसमें तन्तु द्वितीय उद्दीपन के प्रति प्रतिक्रिया नहीं कर पाता है। अर्थात् एक देहलीज उद्दीपन के फलस्वरूप संकुचन करने के पश्चात् तथा दूसरे देहलीज उद्दीपन के प्रति प्रतिक्रिया दर्शाने से पहले एक निश्चित विश्रामावधि आवश्यक होती है। यह रेखित पेशी के लिए 0.002 से 0.005 सैकण्ड व हद्य पेशी के लिए 0.1-0.2 सैकण्ड होता है।

(11) बलवर्धि (Tonicity) – एक शिथिल पेशी के कुछ पेशी तन्तु सदैव संकुचन व शिथिलन करते रहते हैं और इससे पेशी का स्वास्थ्य सही बना रहता है, इसे पेशी टोनस (muscle tonus) भी कहते हैं।

(12) टिटेनस (Tetanus)-यह एक निलम्बित संकुचन की अवस्था है, जो निरन्तर तन्त्रिकीय उद्दीपनों के प्राप्त होने से उत्पन्न होती है। इसमें पेशियाँ लगातार संकुचन करती हैं।

(13) समतानी तथा समलम्बाक्षीय या सममितीय संकुचन (Isotonic and Isometric Contraction)-वह पेशी संकुचन जिसमें पेशी पेशीय तन (पेशी टोनस) समान बना रहता है परन्तु पेशी की लम्बाई कम हो जाती है। उसे समतानी संकुचन कहते हैं। इसी के कारण पेशी कार्य करती हैं। वह पेशी संकुचन जिसमें पेशी की लम्बाई समान बनी रहती है लेकिन पेशी टोनस बढ़ जाता है। उस समलम्बाक्षी संकुचन कहते हैं। इसमें पेशी कार्य नहीं करती है।

(14) मृत कठोरता (Rigor Mortis) – मृत्यु के पश्चात् पेशियों में ATP की अनुपस्थिति में एक्टोमायोसिन से एक्टिन एवं मायोसिन अलग-अलग नहीं हो पाते हैं और शरीर कठोर हो जाता है। इसे ही मृत कठोरता कहते हैं।

प्रश्न 13.
पेशी तन्तुओं के प्रकार लिखिए तथा लाल पेशी तन्तु एवं श्वेत पेशी तन्तुओं में अन्तर लिखिए।
उत्तर:
पेशी तन्तुओं के प्रकार (Types of Muscle Fibres)
रंग के आधार पर पेशी तन्तु दो प्रकार के होते हैं-
(1) श्वेत पेशी तन्तु (White Muscle Fibres) – इनमें मायोग्लोबिन (myoglobin) अनुपस्थित होता है जो कि पेशियों को लाक्षणिक लाल रंग प्रदान करता है। इन तन्तुओं में माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria) की संख्या कम होती है। इनमें तीव्र संकुचन पाया जाता है जिससे ऑक्सीजन की आवश्यकता बढ़ जाती है और ऑक्सीजन की कमी होने पर इनमें अवायवीय श्वसन होता है जिसके फलस्वरूप लैक्टिक अम्ल बनता है। पेशियों में लैक्टिक अम्ल के संचयन के कारण ही थकान (fatigue) उत्पन्न होती है। उदाहरण-नेत्र गोलक की पेशियाँ।

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(2) लाल पेशी तन्तु (Red Muscle Fibre)-ये पेशी तन्तु मायोग्लोबिन की उपस्थिति के कारण लाल रंग के दिखाई देते हैं। इसमें माइटोकॉष्ड्रिया की संख्या अधिक होती है। लाल पेशी तन्तुओं में धीमी गति से संकुचन होते हैं। इन पेशियों में वायवीय श्वसन होता है जिसके कारण इनमें लैक्टिक अम्ल (lactic acid) का संचय नहीं होता है। इसलिए इन पेशी तन्तुओं में थकान नहीं होती है। इन पेशी तन्तुओं में ऑक्सीजन संग्रहित रहती है। इसीलिए अवायवीय श्वसन नहीं होता है।

लाल और श्वेत पेशियों में अन्तर:

लाल पेशीय तन्तु (Red muscle fibres)श्वेत पेशीय तन्तु (White muscle fibres)
1. ये पतले, गहरे, लाल रंग के होते हैं।1. ये मोटे, चौड़े व हल्के रंग के होते हैं।
2. इनमें मायोग्लोबिन अधिक मात्रा में उपस्थित होता है।2. इनमें मायोग्लोबिन कम मात्रा में पाया जाता है।
3. इनमें माइटोकॉण्डिया अधिक संख्या में होते हैं।3. इनमें ‘माइटोकॉष्ड्रिया’ कम संख्या में होते हैं।
4. इनमें ऑक्सीश्वसन द्वारा ऊर्जा प्राप्त होती है।4. इनमें अनॉक्सीश्वसन द्वारा ऊर्जा प्राप्त होती है।
5. इनमें सार्कोप्लाज्ञिक जालिका कम होती है।5. इनमें साकोप्लाखिमक जालिका अधिक होती है।
6. इनमें रुधिर केशिकाएँ अपेक्षाकृत अधिक संख्या में होती हैं।6. इनमें रुधिर केशिकाएँ अपेक्षाकृत कम संख्या में होती हैं।
7. इन पेशी तन्तुओं में थकावट नहीं होती है।7. ये पेशी तन्तु शीघ्र ही थक जाते हैं।
8. ये लम्बे समय के लिए धीमा रुका हुआ संकुचन करते हैं।8. ये कम समय के लिए तेज व भारी संकुचन करते हैं।
9. ये धीरे से संकुचित होते हैं एवं धीरे से मूच्छित हो जाते हैं।9. ये लेक्टिक अम्ल के कारण शीघ्र ही संकुचित हो जाते हैं एवं शीघ्र ही मूर्च्छित हो जाते हैं।
10. इनमें लेक्टिक अम्ल नहीं जमता है।10. इनमें लेक्टिक अम्ल जम जाता है।

प्रश्न 14.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए-
(a) प्रारूपी प्रीया कशेरुका
(b) उरोस्थि
(c) कण्ठ उपकरण
(d) एटलस कशेरुका
उत्तर:
(a) प्रारूपी प्रीया कशेरुका
कशेरुक दण्ड (Vertebral Column):
कशेरुक दण्ड छोटी-छोटी अस्थियों की बनी एक भृंखला होती है जिन्हें कशेरुकाएँ कहते हैं। मनुष्य के कशेरुक दण्ड में 33 कशेरुकाएँ पायी जाती हैं, परन्तु वयस्क में कुछ कशेरुकाओं में समेकन के कारण इनकी संख्या 26 रह जाती है।

मानव कशेरुकाओं की विशेषताएँ –

  • इनका कशेरुकाय (centrum) उभयपट्टित या अगर्ती प्रकार का होता है।
  • दो कशेरुकाओं के बीच अन्तरा कशेरुक डिस्क पायी जाती है जो तन्तुमय उपास्थि की बनी होती है।
  • सेण्ट्रम के प्रत्येक सिरे पर कशेरुका की एपिफाइसिस नामक अस्थि की प्लेट जुड़ी होती है।
  • दो कशेरुकाओं में से एक के अग्र दूसरी के पश्च योजी प्रवर्ध आपस में जुड़कर कशेरुक दण्ड को झुकने की क्षमता प्रदान करते हैं।
  • कशेरुकाओं में तन्त्रिका नाल पायी जाती है जिसमें मेरुरज्जु सुरक्षित रहता है।
  • अन्तरा कशेरुक बिम्ब एवं स्नायुओं की उपस्थिति से कशेरुक दण्ड लचीला बना रहता है।

कशेरुक दण्ड को अग्र पाँच भागों में बाँटा जा सकता है –

  • ग्रीवा भाग (Cervical Vertebrae) (7)
  • वक्षीय भाग (Thoracic Vertebrae) (12)
  • कटि भाग (Lumber Vertebrae) (5)
  • त्रिक भाग (Sacral Vetebrae) (5 या 1)
  • पुच्छीय भाग (Caudal Vertebrae) (4 या 1)

(1) ग्रीवा कशेरककाएँ-मनुष्य एवं अन्य सभी स्तनियों के ग्रीवा भाग में
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन - 1
सात ग्रीवा कशेरुकाएँ होती हैं जिनमें प्रथम म्रीवा कशेरुका एटलस, द्वितीय एक्सिस तथा 3 से 7 वीं तक की ग्रीवा कशेरुकाएँ प्रारूपी कशेरुकाएँ कहलाती हैं। (नोट-समुद्री गाय या मेन्टीज में 6 तथा स्लॉथ में 9 ग्रीवा कशेरुकाएँ होती हैं।)
(i) एटलस (Atlas) – यह प्रथम ग्रीवा कशेरुका है जो अँगूठी के आकार की होती है। यह अग्रभाग में करोटि से तथा पश्च भाग में एक्सिस से जुड़ी होती है। इसमें सेन्ट्रम अनुपस्थित होता है। न्यूरल केनाल बड़ी होती है तथा अनुप्रस्थ लिगामेंट की उपस्थिति के कारण दो भागों में विभाजित होती है।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन - 2
इसका तत्त्रिका प्रवर्ध (nural Spine) छोटा होता है तथा जाइगोफाइसिस (zygophysis) अनुपस्थित होता है। अनुप्रस्थ प्रवर्ध चपटे होते हैं। इसके अग्र भाग में दो गड्डे पाए जाते हैं। जिसमें करोटि के अस्थि कन्द फिट रहते हैं।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

(ii) एक्सि (Axis) – यह द्वितीय ग्रीवा कशेरुका है। इसी के द्वारा सिर कशेरुक दण्ड पर घूम पाता है। इसमें अग्र सेन्ट्रम (centrum) कंटक के समान होता है जिसे आडॉन्टाइड प्रवर्ध (odontoid process) या दन्ताभ प्रवर्ध कहते हैं। यह एटलस से सन्धि करता है। एक्सिस का तत्त्रिका प्रवर्ध चपटा व आगे की ओर झुका होता है तथा अनुप्रस्थ प्रवर्ध छोटे होते हैं। इसमें प्री जाइगोफाइसिस पाए जाते हैं।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन - 3

(iii) प्रारूपी प्रीवा कशेरुका (Typical Cervical Vertebrae) – तीसरी से सातवीं तक की प्रीवा कशेरुकाएँ प्रारूपी प्रीवा कशेरुकाएँ कहलाती हैं। इसमें सेन्ट्रम पाया जाता है तथा प्रीजाइगोफाइसिस तथा पोस्ट जाइगोफाइसिस पूर्ण विकसित होते हैं। इनका तन्त्रिका कंटक छोटा किन्तु नुकीला होता है। इनके अनुप्सस्थ प्रवर्ध कम विकसित होते हैं। इनमें न्यूरल केनाल के दोनों ओर दो सूक्ष्म कशेरुक धमनी नाल पायी जाती है। इनमें द्विशाखित पसलियाँ सन्धि बनाती हैं।

(2) वक्षीय कशेरुकाएँ (Thoracic vertebrae) – ये संख्या में 12 होती हैं, इनमें कंटिका प्रवर्ध (न्यूरल स्पाइन) अधिक लम्बा एवं नुकीला होता है। इनमें तन्त्रिकीय नाल एवं तन्निकीय चाप पाए जाते हैं। ये भी पसलियों से जुड़ी होती हैं।
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प्रथम वक्षीय कशेरुका आगे की ओर अन्तिम प्रारूपी म्रीवा कशेरुका से सन्धि बनाती है जबकि अन्तिम वक्षीय कशेरुका प्रथम कटि कशेरुका से सन्धि करती है।

(3) कटि कशेरुकाएँ (Lumber Vertebrae) – ये अधिक बड़ी व मजबूत होती हैं। इनकी संख्या 5 होती है, इनमें सेन्द्रम विकसित होता है। कंटिका प्रवर्ध आगे की ओर झुके हए होते हैं। डनमें एक-एक जोडी मैक्सिलरी प्रवर्ध (maxillary process) पाए जाते हैं। ये कशेरुकाएँ सबसे बड़ी होती हैं, क्योंकि शरीर का अधिकतम भार इन पर होता है। इनके कंटक प्रवर्ध कुल्हाड़ी के आकार के होते हैं और कमर को सहारा देने वाली पेशी से जुड़े होते हैं।
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(4) सेक्रल या त्रिक कशेरुकाएँ (Secral Vertebrae) – शिशु में इनकी संख्या 5 होती है, किन्तु वयस्क होने तक ये आपस में समेकित होकर केवल एक संयुक्त संरचना सेक्रम (sacrum) बनाती है। यह श्रोणि मेखला के (pelvic girdle) के पीछे नीचे की ओर निकलकर कमर वक्र (backward curve) बनाती है। इसका अधर भाग चौड़ा व अन्तिम भाग सँकरा होता है। अन्तिम भाग पर यह काँक्सिस से सन्धि बनाती हैं। मेरु नाल से तन्त्रिकाओं का एक गुच्छा निकला होता है, जिसे कोडे इक्वीना (cauda equina) कहते हैं।

(5) कॉक्सिस या पुच्छ कशेरुकाएँ (Coccyx or Caudal Vertebrae) – इनकी शिशु में संख्या चार होती है जो वयस्क में एक साथ जुड़कर छोटी कॉक्सिक्स (coccyx) बनाती है। यह पूँछ का अवशेषी भाग बनाती है। वयस्क मनष्य में कशेरुक दण्ड में 26 व बच्चे में 33 कशेरकाएँ होती हैं।

(b) उरोस्थि (Sternum) – मनुष्य की उरोस्थि में सात छड़ाकार अस्थियाँ पायी जाती हैं। जिन्हें तीन समूहों में विभेदित किया गया है-

(a) प्रथम समूह – इसमें प्रथम उरोस्थि आती है जिसे प्रीस्टर्नम (presternum) कहते हैं। इससे प्रथम जोड़ी पसलियाँ व अंश मेखला की क्लैविकल अस्थियाँ जुड़ी होती हैं, इसे मैनुब्रियम (manubrium) भी कहते हैं।

(b) द्वितीय समूह-इसमें दूसरी से छठी उरोस्थियाँ आती हैं जिन्हें मीसोस्टरनम (mesosternum) या ग्लेडियोलस (Gladiolus) या मध्यकाय कहते हैं।

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(c) तृतीय समूह-इसमें सातवीं (अन्तिम) उरोस्थि आती है, इसे मेटार्स्टन्दम (metasternum) या जिफीर्स्टन्नम उरोस्थि प्रवर्ध कहते हैं।
इन सातों उरोस्थियों को सम्मिलित रूप से स्टेने़ी (sternebrae) भी कहते हैं। इन सातों स्टनेबबीयो से प्रथम सात जोड़ी पसलियाँ (ribs) जुड़ी रहती हैं। उरोस्थि को जुड़ने के लिए स्थल प्रदान करती है तथा हुदय व फेफड़ों को सुरक्षा प्रदान करती है। यह वक्षीय कटघरे का भी निर्माण करती है।
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(c) कण्ठ उपकरण:
अक्षीय कंकाल (Axial Skeleton)
कपाल या खोपड़ी या करोटि (Skull) – यह सिर भाग का कंकाल बनाती है। स्तनियों की करोटि की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं-

  • स्तनियों की करोटि पूर्णतः अस्थियों की बनी होती है।
  • करोटि द्विकन्दीय (dicondylic) होती है।
  • क्रेनियल गुहा (cranial cavity) बड़ी होती है।
  • करोटि के पार्श्व में गंड चाप (zygometic arch) पायी जाती है।
  • मैक्सिला तथा पेलेटाइन अस्थियों से बना तालु पाया जाता है जो भोजन एवं स्वास मार्ग को पृथक् करता है।
  • नासा मार्ग में घुमावदार टरबाइनल अस्थियाँ पायी जाती हैं।
  • टिम्पैनिक बुल्ला पाया जाता है, जिसमें तीन कर्ण अस्थियाँ होती हैं।
  • निचला जबड़ा केवल एक अस्थि का बना होता है जिसे डेन्टरी अस्थि कहते हैं।
  • जबड़ों का निलम्बन (Jaw suspension) क्रेनियोस्टाइलिक होता है।
  • दाँत विषमदन्ती, गर्तदन्ती तथा द्विबारदन्ती होते हैं।

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मानव करोटि में कुल 29 अस्थियाँ होती हैं। ये सभी सीवनों (bony sutures) द्वारा परस्पर संधित रहती हैं। करोटि की अस्थियों को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है-

  1. कपाल की अस्थियाँ
  2. चेहरे की अस्थियाँ
  3. कण्ठिका उपकरण
  4. कर्ण की अस्थियाँ

1. कपाल की अस्थियाँ (Cranial Bones) – ये निम्न प्रकार हैं-

  • ऑक्सीपीटल 01
  • पैराइटल 02
  • फ्रन्टल 01
  • टेम्पोरल 02
  • स्फीनॉइड 01

(i) ऑक्सीपीटल खण्ड (Occipital Segment) – यह कपाल का पश्च भाग है जो महारन्ध्र (foraman magnum) के चारों ओर चार उपास्थि जात अस्थियों (cartilagenous bones) का बना होता है। इसमें महारन्ध्र के ऊपर की ओर एक सुप्रा-ओक्सी-पीटल (supra occipital) अस्थि, नीचे की ओर एक बेसीऑक्सीपीटल अस्थि तथा पाश्वों में दो एक्सो ऑक्सीपीटल (exo-occipital) अस्थियाँ पायी जाती हैं।

दोनों ऑक्सीपीटल अस्थियों पर एक-एक उभार पाया जाता है जिसे ऑक्सीपीटल कॉण्डाइल कहते हैं। अर्थात् मनुष्य में दो ऑक्सीपीटल कॉण्डाइल पाए जाते हैं। इन्हीं से प्रथम ग्रीवा कशेरुका एटलस (atlas) जुड़ी होती है। रुधिर पहुँचाने वाली धमनियों के लिए छिद्र होते हैं जबकि अशुद्ध रुधिर वापस लाने के लिए एक बड़ा छिद्र पाया जाता है।

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(ii) पैराइटल (Parietal) – इसमें दो चपटी अस्थियाँ पायी जाती हैं जो कपाल के किनारे की छत बनाती हैं। इनके आन्तरिक स्तर पर मस्तिष्क को शुद्ध रुधिर पहुँचाने वाली धमनियों के लिए छिद्र होते हैं जबकि अशुद्ध रुधिर वापस लाने के लिए एक बड़ा छिद्र पाया जाता है।
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(iii) फ्रन्टल (Frontal) – यह एक चपटी अस्थि है जो कपाल की छत बनाती है। इसमें दो गुहाएँ होती हैं, इनमें हवा भरी होती है और ये फ्रन्टल शिराएँ कहलाती हैं। ये शिराएँ फ्रन्टल को हल्का बनाती हैं और ध्वनि वेश्मों के समान कार्य करके ध्वनि को गुंजित करती हैं। माथा व कोटर के बन्ध पर ऑर्बिटल हॉशिया पाया जाता है, जिसके ऊपर मेहराब पाया जाता है।

(iv) टेम्पोरल (Temporal) – ये दो अनियमित आकार की अस्थियाँ होती हैं जो कपाल के आधार व पार्श्व में भित्ति बनाती हैं।

इसमें निम्नलिखित पाँच भाग होते हैं –

  • शल्की भाग (Temporal squama) -यह कनपटी (Tample) बनाता है।
  • पेट्स भाग (Petrous) -इसमें अन्तः कर्ण पाया जाता है।
  • टिम्यैनिक भाग (Tympanic)-इसमें मध्य कर्ण की टिम्पैनिक गुहा पायी जाती है।
  • मैस्टाइड भाग (Mastaid) -इसमें शंक्वाकार मेस्टाइड प्रवर्ध पाया जाता है।
  • जाइगोमेटिक भाग (Zygomatic)-यह कपोल अस्थि के साथ मिलकर गंड चाप बनाते हैं।

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(v) स्पीनॉइड (Sphenoid) – यह कपाल के अधर तल के मध्य में पायी जाने वाली छैनी के आकार की अस्थि है। इसके मध्य में सेला टर्सिका (sella turcica) नामक गर्त होता है जिसमें पीयूष प्रन्थि का हाइपोपाइसिस (hypophysis) भाग लटका रहता है।

(vi) एथमॉइड (Ethmoid) – यह अनियमित आकार की भंगुर अस्थि है जो दो कोटरों के बीच नाक की छत बनाती है। इसके तीन भाग होते हैं-

  • चालनी पट्ट (Sieve septum) -इसके छिद्रों से गन्ध तन्निकाएँ निकलती हैं।
  • लम्बवत् प्लेट (Longitudinal plate) -वह दोनों नासा गुहाओं के मध्य खड़े सममतल पट्ट का निर्माण करती है।
  • स्पंजी भाग (Spongy part) -यह अति छिद्रल होता है।
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(2) चेहरे की अस्थियाँ (Facial Bone) – इसमें कुल 14 अस्थियाँ होती हैं और चेहरे का निर्माण करती हैं। ये निम्न प्रकार हैं-

  • नेजल (Nasal) – ये संख्या में दो होती हैं। ये आयताकार होती हैं तथा आपस में जुड़ी होती हैं। ये फन्टल से जुड़ी होती हैं।
  • वोमर (Vomer) – एक होती है और नासा गुहाओं के बीच पही बनाती है।
  • टखाइनल (Terbinal) – दो होती हैं और नासागुहा में घुमावदार मार्ग का निर्माण करती हैं।
  • लैक्राइमल (Lacrimal) – दो होती हैं और बहुत छोटी होती हैं। ये लेक्राइमल कोष का निर्माण करती हैं।
  • जाइगोमेटिक (Zygomatic) – दो होती हैं और चेहरे के पार्श्व में पायी जाती हैं। ये कपोल अस्थि बनाती हैं।
  • पैलेटाइन (Palatine)-ये एक जोड़ी होती हैं और नासा गुहाओं के पीछे की ओर पायी जाती हैं।
  • डेनेरी या मैन्डिबल (Mandible) – यह एक बड़ी अस्थि होती है और निचले जबड़े का निर्माण करती है। यह कपाल की एकमात्र अस्थि है जो गतिशील होती है। इसके कप्स (Theca) में ही निचले जबड़े के दाँत पाए जाते हैं। इसीलिए इसे दन्तिकास्थि (Dentary bone) भी कहते हैं।

मैक्सिला (Maxilla) – इसमें दो अस्थियाँ होती हैं जो मध्य रेखा पर जुड़कर दोनों ऊपरी जबड़ों का निर्माण करती हैं। इसी पर ऊपरी दन्त स्थित होते हैं। ये मुखगुहा की छत, अधरतल बनाने में भी भाग लेती हैं।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन - 11
(3) कंठिका उपकरण या हाइओइड (Hyoid) – यह $U$ के आकार के अस्थि है जो मेंडिबल तथा कंठ के बीच जीभ के नीचे स्थित होती है। अक्षीय कंकाल की यही एकमात्र अस्थि है जो किसी अन्य अस्थि से सन्धि नहीं करती, केवल स्नायुओं (ligament) तथा पेशियों द्वारा टेम्पोरल के स्टाइलॉइड प्रवर्धों से जुड़ी होती है। यह जीभ को सहारा देती है। हाइऑइड में एक क्षैतिज काय (body) होती है। इससे दोनों ओररएक-एक जोड़ी शृंग (horns) निकले रहते हैं। प्रत्येक ओर एक बड़ा शृंग तथा एक छोटा कार्नु (cornu) होता है।

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(4) कर्ण अस्थिकाएँ (Ear Ossicles) – ये प्रत्येक ओर के मध्य कर्ण में एक-दूसरे से जुड़ी तीन छोटी-छोटी अस्थियाँ हैं। ये बाहर से अन्दर की ओर क्रमशः मैलियस (malleus), इन्कस (incus) तथा स्टैपीज (stapes) हैं।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन - 12

(d) प्रारूपी प्रीया कशेरुका कशेरुक दण्ड (Vertebral Column):
कशेरुक दण्ड छोटी-छोटी अस्थियों की बनी एक भृंखला होती है जिन्हें कशेरुकाएँ कहते हैं। मनुष्य के कशेरुक दण्ड में 33 कशेरुकाएँ पायी जाती हैं, परन्तु वयस्क में कुछ कशेरुकाओं में समेकन के कारण इनकी संख्या 26 रह जाती है।

मानव कशेरुकाओं की विशेषताएँ –

  • इनका कशेरुकाय (centrum) उभयपट्टित या अगर्ती प्रकार का होता है।
  • दो कशेरुकाओं के बीच अन्तरा कशेरुक डिस्क पायी जाती है जो तन्तुमय उपास्थि की बनी होती है।
  • सेण्ट्रम के प्रत्येक सिरे पर कशेरुका की एपिफाइसिस नामक अस्थि की प्लेट जुड़ी होती है।
  • दो कशेरुकाओं में से एक के अग्र दूसरी के पश्च योजी प्रवर्ध आपस में जुड़कर कशेरुक दण्ड को झुकने की क्षमता प्रदान करते हैं।
  • कशेरुकाओं में तन्त्रिका नाल पायी जाती है जिसमें मेरुरज्जु सुरक्षित रहता है।
  • अन्तरा कशेरुक बिम्ब एवं स्नायुओं की उपस्थिति से कशेरुक दण्ड लचीला बना रहता है।

कशेरुक दण्ड को अग्र पाँच भागों में बाँटा जा सकता है –

  • ग्रीवा भाग (Cervical Vertebrae) (7)
  • वक्षीय भाग (Thoracic Vertebrae) (12)
  • कटि भाग (Lumber Vertebrae) (5)
  • त्रिक भाग (Sacral Vetebrae) (5 या 1)
  • पुच्छीय भाग (Caudal Vertebrae) (4 या 1)

(1) ग्रीवा कशेरककाएँ-मनुष्य एवं अन्य सभी स्तनियों के ग्रीवा भाग में
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन - 1
सात ग्रीवा कशेरुकाएँ होती हैं जिनमें प्रथम म्रीवा कशेरुका एटलस, द्वितीय एक्सिस तथा 3 से 7 वीं तक की ग्रीवा कशेरुकाएँ प्रारूपी कशेरुकाएँ कहलाती हैं। (नोट-समुद्री गाय या मेन्टीज में 6 तथा स्लॉथ में 9 ग्रीवा कशेरुकाएँ होती हैं।)
(i) एटलस (Atlas) – यह प्रथम ग्रीवा कशेरुका है जो अँगूठी के आकार की होती है। यह अग्रभाग में करोटि से तथा पश्च भाग में एक्सिस से जुड़ी होती है। इसमें सेन्ट्रम अनुपस्थित होता है। न्यूरल केनाल बड़ी होती है तथा अनुप्रस्थ लिगामेंट की उपस्थिति के कारण दो भागों में विभाजित होती है।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन - 2
इसका तत्त्रिका प्रवर्ध (nural Spine) छोटा होता है तथा जाइगोफाइसिस (zygophysis) अनुपस्थित होता है। अनुप्रस्थ प्रवर्ध चपटे होते हैं। इसके अग्र भाग में दो गड्डे पाए जाते हैं। जिसमें करोटि के अस्थि कन्द फिट रहते हैं।

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(ii) एक्सि (Axis) – यह द्वितीय ग्रीवा कशेरुका है। इसी के द्वारा सिर कशेरुक दण्ड पर घूम पाता है। इसमें अग्र सेन्ट्रम (centrum) कंटक के समान होता है जिसे आडॉन्टाइड प्रवर्ध (odontoid process) या दन्ताभ प्रवर्ध कहते हैं। यह एटलस से सन्धि करता है। एक्सिस का तत्त्रिका प्रवर्ध चपटा व आगे की ओर झुका होता है तथा अनुप्रस्थ प्रवर्ध छोटे होते हैं। इसमें प्री जाइगोफाइसिस पाए जाते हैं।
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(iii) प्रारूपी प्रीवा कशेरुका (Typical Cervical Vertebrae) – तीसरी से सातवीं तक की प्रीवा कशेरुकाएँ प्रारूपी प्रीवा कशेरुकाएँ कहलाती हैं। इसमें सेन्ट्रम पाया जाता है तथा प्रीजाइगोफाइसिस तथा पोस्ट जाइगोफाइसिस पूर्ण विकसित होते हैं। इनका तन्त्रिका कंटक छोटा किन्तु नुकीला होता है। इनके अनुप्सस्थ प्रवर्ध कम विकसित होते हैं। इनमें न्यूरल केनाल के दोनों ओर दो सूक्ष्म कशेरुक धमनी नाल पायी जाती है। इनमें द्विशाखित पसलियाँ सन्धि बनाती हैं।

(2) वक्षीय कशेरुकाएँ (Thoracic vertebrae) – ये संख्या में 12 होती हैं, इनमें कंटिका प्रवर्ध (न्यूरल स्पाइन) अधिक लम्बा एवं नुकीला होता है। इनमें तन्त्रिकीय नाल एवं तन्निकीय चाप पाए जाते हैं। ये भी पसलियों से जुड़ी होती हैं।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन - 4
प्रथम वक्षीय कशेरुका आगे की ओर अन्तिम प्रारूपी म्रीवा कशेरुका से सन्धि बनाती है जबकि अन्तिम वक्षीय कशेरुका प्रथम कटि कशेरुका से सन्धि करती है।

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(3) कटि कशेरुकाएँ (Lumber Vertebrae) – ये अधिक बड़ी व मजबूत होती हैं। इनकी संख्या 5 होती है, इनमें सेन्द्रम विकसित होता है। कंटिका प्रवर्ध आगे की ओर झुके हए होते हैं। डनमें एक-एक जोडी मैक्सिलरी प्रवर्ध (maxillary process) पाए जाते हैं। ये कशेरुकाएँ सबसे बड़ी होती हैं, क्योंकि शरीर का अधिकतम भार इन पर होता है। इनके कंटक प्रवर्ध कुल्हाड़ी के आकार के होते हैं और कमर को सहारा देने वाली पेशी से जुड़े होते हैं।
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(4) सेक्रल या त्रिक कशेरुकाएँ (Secral Vertebrae) – शिशु में इनकी संख्या 5 होती है, किन्तु वयस्क होने तक ये आपस में समेकित होकर केवल एक संयुक्त संरचना सेक्रम (sacrum) बनाती है। यह श्रोणि मेखला के (pelvic girdle) के पीछे नीचे की ओर निकलकर कमर वक्र (backward curve) बनाती है। इसका अधर भाग चौड़ा व अन्तिम भाग सँकरा होता है। अन्तिम भाग पर यह काँक्सिस से सन्धि बनाती हैं। मेरु नाल से तन्त्रिकाओं का एक गुच्छा निकला होता है, जिसे कोडे इक्वीना (cauda equina) कहते हैं।

(5) कॉक्सिस या पुच्छ कशेरुकाएँ (Coccyx or Caudal Vertebrae) – इनकी शिशु में संख्या चार होती है जो वयस्क में एक साथ जुड़कर छोटी कॉक्सिक्स (coccyx) बनाती है। यह पूँछ का अवशेषी भाग बनाती है। वयस्क मनष्य में कशेरुक दण्ड में 26 व बच्चे में 33 कशेरकाएँ होती हैं।

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HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

(A) वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions )

1. यूरिया का संश्लेषण किसके टूटने से होता है ?
(A) ग्लूकोस
(B) वसा अम्ल
(C) अमीनो अम्ल
(D) अमोनिया ।
उत्तर:
(C) अमीनो अम्ल

2. हेनले के लूप में होता है-
(A) ग्लोमेरुलर निस्यंदन
(B) यूरिया
(C) मूत्र
(D) रुधिर ।
उत्तर:
(A) ग्लोमेरुलर निस्यंदन

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3. परानिस्यंदन कहाँ होता है ?
(A) बोमेन सम्पुट में
(B) मूत्राशय में
(C) रुधिर वाहिनी में
(D) केशिकागुच्छ में।
उत्तर:
(D) केशिकागुच्छ में।

4. स्तनियों का मुख्य उत्सर्जी पदार्थ होता है ?
(A) अमोनिया
(B) अमीनो अम्ल
(D) यूरिया !
(C) यूरिक अम्ल
उत्तर:
(D) यूरिया !

5. केशिकागुच्छ (ग्लोमेरुलस) में परानिस्यंद कब बनता है ?
(A) बोमेन सम्पुट में केशिकागुच्छ से हाइड्रोस्टेटिक दबाव अधिक हो
(B) बोमेन सम्पुट में कोलॉयडली ऑस्मोटिक दबाव तथा हाइड्रोस्टेटिक दबाव ग्लोमेरुलर हाइड्रोस्टेटिक दबाव से कम हो ।
(C) हाइड्रोस्टेटिक दबाव ऑस्मोटिक दबाव से अधिक हो
(D) ऑस्मोटिक दबाव हाइड्रोस्टेटिक दबाव से अधिक हो ।
उत्तर:
(B) बोमेन सम्पुट में कोलॉयडली ऑस्मोटिक दबाव तथा हाइड्रोस्टेटिक दबाव ग्लोमेरुलर हाइड्रोस्टेटिक दबाव से कम हो ।

6. ग्लोमेरुलर निस्यंद होता है-
(A) रुधिराणु एवं प्लाज्मा प्रोटीन रहित रुधिर
(B) रुधिराणु रहित रुधिर
(C) जल, अमोनिया तथा रुधिराणु का मिश्रण
(D) मूत्र ।
उत्तर:
(A) रुधिराणु एवं प्लाज्मा प्रोटीन रहित रुधिर

7. सोडियम तथा जल का सर्वाधिक अवशोषण कहाँ होता है ?
(A) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में
(B) दूरस्थ कुण्डलित नलिका में
(C) हेनले के लूप में
(D) इन सभी में।
उत्तर:
(A) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में

8. स्तनी के वृक्क में ग्लोमेरुलस से निकलने वाली रुधिर वाहिनी कहलाती है-
(A) अपवाही धमनिका
(B) अभिवाही धमनिका
(C) रीनल धमनी
(D) रीनल शिरा ।
उत्तर:
(A) अपवाही धमनिका

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

9. रुधिर प्लाज्मा का ग्लोमेरुलस से वोमेन सम्पुट में निस्यंदन किस कारण होता है ?
(A) डाएलिसिस
(B) अवशोषण
(C) स्त्रावण
(D) ग्लोमेरुलर हाइड्रोस्टेटिक दबाव ।
उत्तर:
(D) ग्लोमेरुलर हाइड्रोस्टेटिक दबाव ।

10. जब ADH की मात्रा कम होती है तो मूत्र विसर्जन की दर-
(A) कम होती है।
(B) अधिक होती है
(C) यथावत् रहती है
(D) इनमें से कोई नहीं ।
उत्तर:
(B) अधिक होती है

11. स्तनियों में जल का सर्वाधिक अवशोषण किस भाग में होता है?
(A) त्वचा में
(B) आन्त्र में
(C) फेफड़े में
(D) वृक्क में।
उत्तर:
(D) वृक्क में।

12. मैलपीघी कोष में होता है-
(A) वृक्क नलिका
(B) बोमेन सम्पुट व केशिका गुच्छ
(C) बोमेन सम्पुट तथा वृक्क नलिका
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(B) बोमेन सम्पुट व केशिका गुच्छ

13. ग्लूकोस का अवशोषण वृक्क नलिका के किस भाग में होता है ?
(A) संग्रह नलिका में
(B) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में
(C) दूरस्थ कुण्डलित नलिका में
(D) हेनले लूप में ।
उत्तर:
(B) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में

14. यकृत में यूरिया का निर्माण किसके द्वारा होता है ?
(A) नाइट्रोजन चक्र
(B) ग्लाइकोलिसिस
(C) आर्निथीन चक्र
(D) क्रैब चक्र ।
उत्तर:
(C) आर्निथीन चक्र

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

15. गुर्दे (वृक्क) की कार्यिकी इकाई है- (UPPMT)
(A) डैन्ड्रॉन
(B) नेफ्रॉन
(C) न्यूरॉन
(D) एक्सॉन ।
उत्तर:
(B) नेफ्रॉन

16. कीटों का मुख्य उत्सर्जी पदार्थ है- (RPMT)
(A) अमोनिया
(B) यूरिक अम्ल
(C) अमीनो अम्ल
(D) यूरिया ।
उत्तर:
(B) यूरिक अम्ल

17. Na+ तथा CI दोनों का पुनः अवशोषण होता है-
(A) हेनले लूप की आरोही भुजा में
(B) हेनले लूप की अवरोही भुजा में
(C) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में
(D) दूरस्थ कुण्डलित नलिका में।
उत्तर:
(A) हेनले लूप की आरोही भुजा में

18. मनुष्य के वृक्क होते हैं-
(A) मीसोनेफ्रिक प्रकार के
(B) मेटानेफ्रिक प्रकार के
(C) प्रोनेफिक प्रकार के
(D) सभी प्रकार के ।
उत्तर:
(B) मेटानेफ्रिक प्रकार के

19. मांसाहारी व्यक्ति के मूत्र में अधिक मात्रा निकलेगी-
(A) ग्लूकोस की
(B) ग्लाइकोजन की
(C) यूरिया की
(D) क्रिएटीनीन की ।
उत्तर:
(C) यूरिया की

20. ग्लोमेरुलस में रुधिर लाने वाली वाहिनी कहलाती है-
(A) अभिवाही धमनिका
(B) अपवाही धमनिका
(D) वृक्कीय शिरा ।
(C) वृक्कीय धमनी
उत्तर:
(A) अभिवाही धमनिका

21. कुण्डलित नलिका के दूरस्थ भाग द्वारा जल अवशोषण नियन्त्रित होता
(A) ऐण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन द्वारा
(B) ऐन्ड्रोजन्स द्वारा
(C) टेस्टोस्टीरोन द्वारा
(D) लेक्टोजेनिक हॉर्मोन द्वारा ।
उत्तर:
(A) ऐण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन द्वारा

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

22. मूत्र का आयतन किसके द्वारा नियन्त्रित होता है ?
(A) केवल ADH द्वारा
(B) केवल एल्डोस्टीरोन द्वारा
(C) एल्डोस्टीरोन तथा ADH द्वारा
(D) ADH व टेस्टोस्टीरोन द्वारा ।
उत्तर:
(C) एल्डोस्टीरोन तथा ADH द्वारा

23. यूरिया का उत्सर्जन कहलाता है- (RPMT)
(A) यूरियोटेलिज्म
(B) ऐमीनोटेलिज्म
(C) यूरिकोटेलिज्म
(D) इनमें से कोई नहीं ।
उत्तर:
(A) यूरियोटेलिज्म

24. ग्लोमेरुलस निस्यंद में होते हैं- (RPMT)
(A) यूरिया, यूरिक अम्ल, अमोनिया और जल
(B) केवल यूरिया एवं यूरिक अम्ल
(C) यूरिया, यूरिक अम्ल एवं जल
(D) यूरिया, यूरिक अम्ल, ग्लूकोज और जल ।
उत्तर:
(A) यूरिया, यूरिक अम्ल, अमोनिया और जल

25. जन्तुओं के शरीर में यूरिया का निर्माण होता है- (RPMT)
(A) ऐमीनो अम्ल के डिएमीनेशन से,
(B) ग्लूकोज में ऑक्सीकरण से
(C) वसा के जल में अपघटन से
(D) वसा में इमेल्सीकरण से ।
उत्तर:
(A) ऐमीनो अम्ल के डिएमीनेशन से,

26. वृक्क का कार्य नहीं है-
(A) उत्सर्जन
(B) जल नियन्त्रण
(C) रुधिर आयतन नियन्त्रण
(D) मृत रुधिराणुओं का विनाश।
उत्तर:
(D) मृत रुधिराणुओं का विनाश।

27. अमीबा में परासरण नियमन किसके द्वारा होता है- (RPMT)
(A) संकुचनशील धानी द्वारा
(B) एक्टोप्लाज्म द्वारा
(C) कूटपाद द्वारा
(D) हायलोप्लाज्मा द्वारा
उत्तर:
(A) संकुचनशील धानी द्वारा

28. एक व्यक्ति अत्यधिक मात्रा में प्रोटीन आहार लेता है वह किस पदार्थ की अधिक मात्रा उत्सर्जित करेगा ? (UPCPMT)
(A) अमोनिया
(B) यूरिया
(C) ग्लाइकोजन
(D) पित्त ।
उत्तर:
(B) यूरिया

29. कौनसा यकृत से वृक्क की ओर जाता है ? (UPCPMT)
(A) अमोनिया
(B) यूरिया
(C) शर्करा
(D) पित्त ।
उत्तर:
(B) यूरिया

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

30. यूरिया का सान्द्रण होता है- (UPCPMT)
(A) वृक्क में
(B) यकृत में
(C) कोलन में
(D) हृदय में
उत्तर:
(A) वृक्क में

31. बोमेन्स सम्पुट पाए जाते हैं- (UPCPMT)
(A) ग्लोमेरुलस में
(C) नेफ्रॉन में
(B) यूरी नेफरस नलिका में
(D) मैल्पीघी नलिका में ।
उत्तर:
(C) नेफ्रॉन में

32. अमीनो (NH2) समूह का पृथक्करण कहलाता है- (RPMT)
(A) उत्सर्जन
(B) अवशोषण
(C) ट्रांस एमीनेशन
(D) ऐमीनेशन ।
उत्तर:
(D) ऐमीनेशन ।

33. डिऐमीनेशन पाया जाता है- (UPCPMT)
(A) वृक्क में
(B) यकृत में
(C) नेफ्रॉन में
(D) अ व द दोनों ।
उत्तर:
(B) यकृत में

34. एक व्यक्ति लम्बे समय से भूख हड़ताल पर है और केवल पानी पर आश्रित है, उसके-
(A) मूत्र में अधिक सोडियम होगा
(B) मूत्र में कम एमीनो अम्ल होंगे
(C) रुधिर में अधिक ग्लूकोज होगा
(D) मूत्र में कम यूरिया होगा ।
उत्तर:
(A) मूत्र में अधिक सोडियम होगा

35. निम्न में से आर्निथीन चक्र में अंश नहीं है-(CBSE PMT) (RPMT)
(A) आथीन, सिलीन, एलेनीन
(B) आनिथीन, सिटुलीन, अर्जिनीन
(C) अमीनो अम्ल प्रयोग नहीं होते
(D) आर्नीथीन, सिटूलीन, फ्यूमेरिक अम्ल ।
उत्तर:
(C) अमीनो अम्ल प्रयोग नहीं होते

(B) अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
उत्सर्जन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
नाइट्रोजनयुक्त उपापचयी अपशिष्ट पदार्थों एवं अतिरिक्त लवणों को शरीर से बाहर निकालने की प्रक्रिया को उत्सर्जन कहते हैं।

प्रश्न 2.
उत्सर्जन की रचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई क्या है ?
उत्तर:
उत्सर्जन की रचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई वृक्क नलिका या नेफ्रॉन है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

प्रश्न 3.
अमोनिया के उत्सर्जन की प्रक्रिया को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
अमोनिया के उत्सर्जन की प्रक्रिया को अमोनियोत्सर्ग (ammonotelism) कहते हैं।

प्रश्न 4.
अमोनिया उत्सर्जी प्राणियों को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
अमोनिया उत्सर्जी प्राणियों को अमोनोटेलिक (ammonotelic) प्राणी कहते हैं।

प्रश्न 5.
यूरिक अम्ल का उत्सर्जन करने वाले प्राणियों को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
यूरिक अम्ल का उत्सर्जन करने वाले प्राणियों को यूरिकोटेलिक (Urecotelic) प्राणी कहते हैं।

प्रश्न 6.
अमोनिया को कौन-सा अंग यूरिया में बदलता है ?
उत्तर:
अमोनिया को यूरिया में यकृत बदल देता है।

प्रश्न 7.
यूरिया का उत्सर्जन करने वाले प्राणियों को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
यूरिया का उत्सर्जन करने वाले प्राणियों को यूरियोटैलिक (Ureotelic) प्राणी कहते हैं।

प्रश्न 8.
केशिकागुच्छ कहाँ पाया जाता है ? इसका प्रमुख कार्य क्या ?
उत्तर:
केशिकागुच्छ (glomerulus) वृक्क नलिका के समीपस्थ भाग बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) में पाया जाता है। यह परानिस्यंदन द्वारा ग्लोमेरुलर निस्यंद बनाता हैं।

प्रश्न 9.
मैलपीघी काय किसे कहते हैं ?
उत्तर:
बोमेन सम्पुट तथा केशिकागुच्छ को संयुक्त रूप से मैलपीघी काय (Malpighian body) कहते हैं।

प्रश्न 10.
हैनले पाश (लूप) कहाँ पाया जाता है ?
उत्तर:
हैनले पाश (लूप) वृक्क नलिका में पाया जाता है जो इसकी समीपस्थ एवं दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं के बीच ‘U’ के आकार की रचना के रूप में स्थित होता है।

प्रश्न 11.
केशिकागुच्छ को रुधिर ले जाने वाली रुधिरवाहिनी का नाम लिखिए ।
उत्तर:
अभिवाही वृक्क धमनिका ( Afferent renal arteriole)।

प्रश्न 12.
परानिस्यंदन की क्रिया वृक्क नलिका के किस भाग में होती है ?
उत्तर:
परानिस्यंदन (ultrafiltration) की क्रिया केशिकागुच्छ (glomerulus) में होती है।

प्रश्न 13.
चयनात्मक पुनरावशोषण वृक्क नलिका के किस भाग में होता ?
उत्तर:
चयनात्मक पुनरावशोषण वृक्क नलिका के कुण्डलित भाग में होता है।
The

प्रश्न 14.
मूत्र निर्माण के अन्तर्गत आने वाली तीन आवश्यक क्रियाओं के नाम बताइए।
उत्तर:

  • परानिस्यंदन या अति सूक्ष्म निस्यंदन (ultrafiltration),
  • वरणात्मक या चयनात्मक पुनरावशोषण (selective reabsorption) तथा
  • स्रावण ( Secretion ) ।

प्रश्न 15.
उत्सर्जन क्रिया के तीन चरणों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • उत्सर्जी पदार्थों का निर्माण,
  • उत्सर्जी पदार्थों का परिवहन,
  • उत्सर्जी पदार्थों का निष्कासन ।

प्रश्न 16.
ग्लोमेरुलर निस्यंद में उपस्थित पदार्थों के नाम बताइये।
उत्तर:
ग्लोमेरुलर निस्यंद में उत्सर्जी पदार्थ यूरिया, लाभदायक जल, . अनेक लवण, ग्लूकोज तथा अन्य कुछ विषैले पदार्थ उपस्थित होते हैं।

प्रश्न 17.
सबसे अधिक पुनरावशोषण नेफ्रॉन के किस भाग में होता है ?
उत्तर:
सबसे अधिक पुनरावशोषण नेफ्रॉन की समीपस्थ कुण्डलित नलिका होता है।

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प्रश्न 18.
बर्टिनी के स्तम्भ किन्हें कहते हैं ?
उत्तर:
वृक्क कॉर्टेक्स की उभारों को बर्टिनी के स्तम्भ कहते हैं ।

प्रश्न 19.
शरीर में वृक्कों का मुख्य कार्य बताइए ।
उत्तर:
वृक्कों द्वारा शरीर में जल व लवण सन्तुलन स्थापित होता है।

प्रश्न 20.
मनुष्य में प्रभावी निस्यंद दाब कितना होता है ?
उत्तर:
मनुष्य में प्रभावी निस्यंद दाब (effective filtration pressure) 60 – (32 +18) 10mm Hg होता है।

प्रश्न 21.
मूत्र का pH तथा आपेक्षिक घनत्व बताइए।
उत्तर:

  • मूत्र का pH = 4.8 से 7.5 तक,
  • मूत्र का आपेक्षिक घनत्व = 1.003 से 1.032 तक ।

प्रश्न 22.
वृक्कों के दो प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर:

  • शरीर के नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालना ( उत्सर्जन) ।
  • शरीर के आन्तरिक वातावरण को सन्तुलित बनाए रखना ।

प्रश्न 23.
यकृत में अमोनिया के यूरिया में परिवर्तन के प्रक्रम को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
यकृत में अमोनिया के यूरिया में परिवर्तन के प्रक्रम को आर्निथीन चक्र कहते हैं।

प्रश्न 24.
नेफ्रॉन कितने प्रकार के होते हैं ? उनके नाम लिखिए।
उत्तर:
नेफ्रॉन दो प्रकार के होते हैं-

  • वल्कुटीय नेफ्रॉन,
  • मध्यांशीय नेफ्रॉन ।

प्रश्न 25.
हेनले लूप में क्या अवशोषित होता है ?
उत्तर:
हेनले लूप में जल का पुनरावशोषण होता है ।

प्रश्न 26.
एक स्वस्थ मनुष्य के केशिकागुच्छ की धमनिकाओं में आने वाले रुधिर का द्रव स्थैतिक दाब कितना होता है ?
उत्तर:
70 mm Hg होता है ।

प्रश्न 27.
हीमेटूरिया क्या है ?
उत्तर:
ग्लोमेरुलस (glomerulus) में सूजन आने अथवा इसकी झिल्लियों के अत्यधिक पारगम्य हो जाने के कारण लाल रक्ताणु (RBCs) तथा प्रोटीन (protein) भी छनकर निस्यन्द ( filtrate) में आ जाते हैं। इसी घटना को हीमेटूरिया (haematuria) कहते हैं।

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प्रश्न 28.
ग्लाइकोसूरिया किसे कहते हैं ?
उत्तर:
मूत्र (Urine) में शर्करा (Glucose) की उपस्थिति एवं उत्सर्जन ग्लाइकोसूरिया (glycosuria) कहलाता है।

प्रश्न 29.
यदि किसी मनुष्य की वृक्क नलिका (nephron ) में से हल का लूप ( Henle’s loop) हटा दिया जाये तो इसके उत्सर्जन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
यदि किसी मनुष्य की वृक्क नलिका ( nephron ) में से हेनले का लूप (Henle’s loop) हटा दिया जाये तो मूत्र (Urine ) अधिक तनु हो जायेगा ।

प्रश्न 30.
रक्त में यूरिया (urea) की उपस्थिति को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
रक्त में यूरिया की उपस्थिति को यूरेमिया ( uremia) कहते हैं जो अत्यन्त हानिकारक है।

प्रश्न 31.
मूत्र में रक्त की उपस्थिति को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
मूत्र (urine) में रक्त (blood) की उपस्थिति हीमेटूरिया (haematuria) कहलाती है।

प्रश्न 32.
रक्त अपोहन (हीमोडायलिसिस) क्या है ?
उत्तर:
रोगी के शरीर से कृत्रिम विधि द्वारा उत्सर्जी पदार्थ को बाहर निकालने की क्रिया को रक्त अपोहन ( haemodialysis) कहते हैं।

प्रश्न 33.
एण्टीडाइयूरेटिक हार्मोन (ADH) के अल्पस्त्रावण का उत्सर्जन क्रिया पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
एण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (ADH) के अल्पस्रावण से दूरस्थ कुण्डलित नलिका एवं संग्राहक नलिका में जल का अवशोषण नहीं होगा फलस्वरूप बार-बार अधिक मात्रा में मूत्र त्याग करना पड़ेगा।

प्रश्न 34.
केशिकागुच्छ निस्यंदन दर ( GFR) कितनी होती है ?
उत्तर:
एक स्वस्थ व्यक्ति में केशिका गुच्छ निस्यंदन दर (GFR ) 125 मिली / मिनट या 180 लीटर प्रतिदिन होती है ।

प्रश्न 35.
रेनिन एन्जियोटेन्सिन क्रिया-विधि पर नियंत्रक का कार्य कौन करता है ?
उत्तर:
रेनिन एन्जियोटेन्सिन क्रिया विधि पर नियंत्रण का कार्य अलिन्दीय नेटियेरेटिक कारक करता है।

प्रश्न 36.
वृक्क की पथरी क्या है ?
उत्तर:
जब केशिकागुच्छ निस्यंदन में ऑक्सलेट एवं फॉस्फेट आयनों की मात्रा अधिक हो जाती है तो वे पेल्विस में अवक्षेपित हो जाते हैं और पथरी बनाते हैं। पथरी द्वारा मूत्रवाहिनी अवरुद्ध हो जाने से वृक्क में तेज दर्द होता है।

प्रश्न 37
परानिस्यंदन किसे कहते हैं ?
उत्त;
ग्लोमेरुलस (glomerulus) की रक्त केशिकाओं से उत्सर्जी तथा अन्य उपयोगी पदार्थों का छनकर बोमेन कैप्सूल ( Bowman’s capsule) की गुहा में जाने की क्रिया परानिस्यन्दन (ultrafiltration) कहलाती है ।

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प्रश्न 38.
वृक्क के ग्लोमेरुलस से निकलने वाली रुधिर वाहिनी का नाम लिखिए।
उत्तर:
वृक्क के ग्लोमेरुलस से निकलने वाली रुधिर वाहिनी अपवाही धमनिका (efferent arteriole) कहलाती है।

(C) लघूत्तरात्मक प्रश्न ( Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
परानिस्यन्दन तथा चयनात्मक पुनः अवशोषण की मूत्र निर्माण में क्या भूमिका है ?
उत्तर:
परानिस्यन्दन (Ultrafiltration ) – यकृत कोशिकाओं (liver cells) में यूरिया का निर्माण होने के पश्चात् रक्त नलिकाओं द्वारा यूरिया वृक्क (kidney) में पहुँचता है। वृक्क नलिका में बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) एक सूक्ष्म छलनी की भाँति कार्य करता है। इसमें अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) यूरिया युक्त रुधिर लेकर आती है और अपवाही धमनियाँ (efferent arteriole) रुधिर बाहर लेकर आती है।

ग्लोमेरुलस की केशिका दीवारों में लगभग 1.0 µ व्यास के असंख्य छिद्र होते हैं, जिससे छिद्रित दीवार की पारगम्यता (permeability) सामान्य रुधिर केशिकाओं की तुलना में अधिक होती है, जिससे तरल प्लाज्मा व अन्य उत्सर्जी पदार्थ छनकर बोमेन सम्पुट की गुहा में आ जाते हैं, परन्तु ग्लोमेरुलस केशिकाओं से रुधिर कणिकाएँ तथा रक्त में घुले हुए रुधिर प्रोटीन नहीं छन पाते हैं।

ग्लोमेरुलस से छना हुआ रक्त प्लाज्मा जो बोमेन सम्पुट की गुहा में आता है, ग्लोमेरुलर निस्यन्द (glomerular filtrate) कहलाता है तथा यह प्रक्रिया परानिस्यन्दन (ultrafiltration) कहलाती है। इस प्रक्रिया द्वारा रक्त से उत्सर्जी पदार्थ अलग हो जाते हैं।

चयनात्मक पुनः अवशोषण (Selective Reabsorption ) – परानिस्यन्दन (ultrafiltration) क्रिया द्वारा निस्यन्द (glomerular filtrate) में उत्सर्जी पदार्थों; जैसे-यूरिया, यूरिक अम्ल, क्रियेटिन आदि उत्सर्जी पदार्थों के साथ-साथ लाभदायक पदार्थ जैसे-ग्लूकोस (glucose), एमीनो अम्ल ( amino acid), कुछ वसीय अम्ल (fatty acids), विटामिन (vitamins), जल (water) तथा उपयोगी लवण (salts) भी छनकर आ जाते हैं। रक्त में उपस्थित जल का लगभग 95% भाग छनकर निस्यन्द में आ जाता है परन्तु इसका केवल 0.8% भाग के लगभग ही मूत्र में परिवर्तित होकर बाहर निकलता है।

निस्यन्द (filtrate) में उपस्थित लाभदायक पदार्थों का वृक्क की नलिकाओं द्वारा रुधिर में पुनरावशोषण (reabsorption ) कर लिया जाता है। वृक्क नलिकाओं द्वारा निस्यन्द (filtrate) में उपस्थित लाभदायक पदार्थों के पुनः रुधिर में पहुँचने की क्रिया ही चयनात्मक पुनः अवशोषण कहलाती है। इस प्रकार परानिस्यन्दन (ultrafiltration ) तथा चयनात्मक पुनः अवशोषण (selective reabsorption ) मूत्र निर्माण की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण पद हैं।

प्रश्न 2.
मूत्र की तनुता एवं सान्द्रण को नियन्त्रित करने वाली हॉर्मोन की कार्य प्रणाली को समझाइए ।
उत्तर:
शरीर में जल की मात्रा बढ़ने पर मूत्र पतला तथा मात्रा में अधिक हो जाता है तथा शरीर में जल की मात्रा घटने पर मूत्र की मात्रा कम तथा सान्द्रता अधिक हो जाती है। मूत्र की मात्रा एवं सान्द्रता में परिवर्तन के लिए वृक्क नलिका (nephron ) की दूरस्थ कुण्डलित नलिका एवं संग्रह नलिकाओं की पारगम्यता जिम्मेदार होती है। इनकी पारगम्यता का नियमन दो विशेष हॉर्मोन (hormones) द्वारा किया जाता है। ये हॉर्मोन निम्नलिखित हैं-

(1) एल्डोस्टीरॉन (Aldosterone ) – इस हॉर्मोन का स्त्रावण एड्रीनल कॉर्टेक्स प्रन्थि ( adrenal cortex gland) द्वारा किया जाता है। यह हॉर्मोन वृक्क नलिकाओं (Nephrons) में ग्लोमेरुलर निस्यन्द (glomerular filtrate) से सोडियम आयनों Na+ के पुनः अवशोषण ( re-absorption ) में वृद्धि करता है, जिससे शरीर मे सोडियम आयनों (Nat) की सान्द्रता निश्चित बनी रहती है।

(2) एण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन अथवा वेसोप्रेसिन (Antidiuretic Hormone, ADH or Vasopressin) – इस हॉर्मोन (hormone) का स्रावण पश्च पीयूष मन्यि (posterior pituitary gland) द्वारा किया जाता है। यह हॉर्मोन वृक्क नलिका (Nephron ) के संग्राहक नलिका (Collecting tubule) वाले भाग में जल के पुनः अवशोषण एवं स्त्रावण (reabsorption and secretion) के नियमन द्वारा मूत्र ( urine) की मात्रा एवं सान्द्रता को नियन्त्रित रखता है।

जब शरीर में जल की अधिकता होती है तो ADH का स्त्रावण कम तथा ऐल्डोस्टीरीन हॉर्मोन का स्त्रावण अधिक होता है जिसके फलस्वरूप सोडियम आयनों (Na+) का अधिक अवशोषण तथा जल का काम अवशोषण होता है परिणामस्वरूप मूत्र की सान्द्रता कम तथा आयतन ज्यादा होता है। इसके विपरीत शरीर में जल की कमी होने पर एण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (ADH) का स्रावण अधिक तथा ऐल्डोस्टीरॉन हॉर्मोन का स्त्रावण कम होने से मूत्र अधिक सान्द्र तथा मात्रा में कम होता है।

प्रश्न 3.
नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थों के आधार पर निर्धारित श्रेणियों को उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थों के आधार पर प्राणियों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है-

  1. अमोनिया उत्सर्जी जन्तु ( Ammonotelic animals),
  2. यूरिया उत्सर्जी जन्तु (Ureotelic animals),
  3. यूरिक अम्ल उत्सर्जी जन्तु (Urecotelic animals)।
  4. अमोनिया उत्सर्जी जन्तु (Ammonotelic Animals) वे जन्तु जो नाइट्रोजनी अपशिष्ट के रूप में अमोनिया ( ammonia) का उत्सर्जन करते हैं, अमोनिया उत्सर्जी जन्तु या अमोनोटेलिक जन्तु ( Ammonotelic animal) कहलाते हैं।
    उदाहरण- संघ प्रोटोजोआ (Protozoa), पोरीफेरा ( Porifera ), सीलेन्ट्रेटा (Coelentrata ), ऐनिलिडा ( Annelida ), जलीय आर्थ्रोपोडा (Aquatic arthropoda) इत्यादि ।

2. यूरिया उत्सर्जी जन्तु (Ureotelic Animals) – जिन जन्तुओं में मुख्य नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थ यूरिया (Urea ) होती है वे जन्तु यूरिया उत्सर्जी जन्तु या यूरियोटेलिक जन्तु (ureotelic) कहलाते हैं। उदाहरण- मेंढक (Frog ), उपारिस्थल मछलियाँ (cartilaginous fishes), जल व स्थल पर रहने वाले सरीसृप ( amphibian reptiles) तथा स्तनी प्राणी (mammals) इत्यादि ।

3. यूरिक अम्ल उत्सर्जी जन्तु (Urecotelic Animals) – जिन जन्तुओं मुख्य नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थ यूरिक अम्ल (uric acid) होता है वे जन्तु यूरिक अम्ल उत्सर्जी जन्तु या यूरिकोटेलिक जन्तु (urecotelic) कहलाते हैं। उदाहरण – शुष्क वातावरण में रहने वाले जन्तु, जैसे- सरीसृप (Reptiles), कीट (Insects), पक्षी (Birds ) तथा घोंघे ( Snails) इत्यादि ।

प्रश्न 4.
मूत्र के संघटन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संग्राहक वाहिनी (Collecting tubule) के अन्तिम भाग में ग्लोमेरुलर निस्यन्द (glomerular filtrate) मूत्र (Urine) कहलाता है।

मानव मूत्र का संघटन निम्न प्रकार से होता है-

(1) जल-लगभग96 %
(2) यूरिया2.0 %
(3) अकार्बनिक लवण .5 %
(4) कार्बनिक लवण0.5 %
(5) क्रियेटिनिन0.5 %
(6) यूरिक अम्ल0.2-0.5 %
(7) हिपेरिक अम्ल0.5 %
(8) अमोनिया0.25 %

प्रश्न 5.
स्तनियों की उत्सर्जन क्रिया में वरणात्मक पुनः अवशोषण की क्रिया कहाँ होती है ? इस क्रिया का महत्व बताइए ।
उत्तर:
वरणात्मक पुनः अवशोषण स्तनधारियों की उत्सर्जन क्रिया में वरणात्मक पुनः अवशोषण (selective reabsorption) वृक्क नलिकाओं के कुण्डलित भाग में होती है। इस क्रिया के अन्तर्गत केशिकागुच्छ से छनकर आए हुए निस्यंद से वृक्क नलिका के कुण्डलित भाग की प्रन्थिल कोशिकाएँ इसमें से ग्लूकोज, अमीनो अम्ल, विटामिन्स, Na+, CI, K+, Ca++ HCO3 तथा PO4, आदि लवणों के आयन व जल आदि उपयोगी पदार्थों को अवशोषित करके पुनः अपवाही धमनिका के केशिका जाल (परिनलिका जाल ) में पहुंचा देती हैं। इसमें यूरिया व यूरिक अम्ल आदि का अवशोषण नहीं होता है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

इसलिए इस प्रक्रिया को वरणात्मक पुनः अवशोषण या चयनात्मक पुनरावशोषण कहते हैं। वरणात्मक पुनः अवशोषण का महत्व उत्सर्जन क्रिया का यह एक महत्वपूर्ण चरण है, क्योंकि यह क्रिया मूत्र निर्माण में प्रमुख योगदान करती है। इसके द्वारा शरीर के लिए उपयोगी पदार्थों को कुण्डलित वृक्क नलिकाओं में पुनः अवशोषित करके उन्हें रुधिर में मुक्त कर दिया जाता है और के साथ शरीर से बाहर निकल जाने से रोक दिया जाता है। इससे शरीर के आन्तरिक वातावरण (रुधिर, लसिका व ऊतक द्रव्य) का रासायनिक संघटन, परासरणी दाब की मात्रा आदि का सन्तुलन यथावत् बना रहता है।

प्रश्न 6.
वृक्कों के विभिन्न नियन्त्रक कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वृक्कों के नियन्त्रक कार्य (Regulatory Functions of Kidney)
उत्सर्जी उत्पादों के उत्सर्जन के अतिरिक्त प्राणियों के वृक्क निम्नलिखित नियन्त्रक कार्य भी करते हैं-
1. रुधिर में से आवश्यकता से अधिक और निरर्थक पदार्थों का चयनात्मक उत्सर्जन (selective excretion) करके वृक्क शरीर के भीतरी वातावरण की रासायनिक अखण्डता (समस्थापन – होमियोस्टेसिस) बनाये रखने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।

2. उपापचयी प्रक्रियाओं के फलस्वरूप बने आवश्यकता से अधिक अम्ल व क्षारों का वृक्क चयनात्मक उत्सर्जन करके रुधिर के pH को सामान्य बनाये रखते हैं।

3. हॉर्मोन्स की सहायता से रुधिर तथा ऊतक द्रव्य में जल एवं लवणों की उपयुक्त मात्रा बनाये रखकर वृक्क रुधिर दाब और ऊतक द्रव्यों की परासरणीयता ( osmolarity) का नियन्त्रण करते हैं।

4. शरीर में ऑक्सीजन की कमी (हाइपोक्सिया hypoxia) होने पर वृक्क एक विशेष एन्जाइम एरिथ्रोजेनिन का स्त्रावण करते हैं जो रुधिर में मुक्त होकर उसकी ग्लोब्यूलिन प्रोटीन से मिलकर एरिथ्रोपोयटिन ( erythropoitin) नामक पदार्थ बनाता है, जो अस्थि मज्जा में पहुँचकर अधिकाधिक लाल रुधिर कणिकाओं के निर्माण को प्रेरित करता है, जिससे ये फेफड़ों में वायु से अधिक ऑक्सीजन ग्रहण कर सकें।

5. वृक्क शरीर में परासरण नियन्त्रण द्वारा जल की निश्चित मात्रा को बनाये रखते हैं।

प्रश्न 7.
वृक्क के कार्यों का नियन्त्रण किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
वृक्क के कार्यों का नियन्त्रण-वृक्कों का प्रमुख कार्य मूत्र-निर्माण । मूत्र की मात्रा, सान्द्रता आदि का नियन्त्रण कुछ हॉर्मोन्स द्वारा किया जाता
(1) जल अवशोषण का नियन्त्रण- पीयूष पन्थ (pituitary gland) के पश्च पिण्ड से स्त्रावित ऐन्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (Antidiuretic hormone : ADH) द्वारा वृक्क नलिकाओं में जल अवशोषण का नियन्त्रण किया जाता है। इस प्रकार ADH मूत्र के तनुकरण व सान्द्रण का प्रमुख नियन्त्रक होता है।

(2) सोडियम (Na+) व पोटैशियम (K+) का नियन्त्रण मूत्र में Na+ व K+ लवणों की मात्रा का नियन्त्रण अधिवृक्क ग्रन्थियों (adrenal glands) से स्त्रावित ऐल्डोस्टीरोन (aldosterone) नामक हॉर्मोन द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित में अन्तर बताइए-
(क) उत्सर्जन तथा बहिष्करण
(ख) परानिस्यंदन तथा चयनात्मक पुनरावशोषण ।
उत्तर:
(क) उत्सर्जन तथा बहिष्करण में अन्तर

उत्सर्जन (Excretion)बहिष्करण (Egestion)
1. यह एक कोशिकीय प्रक्रिया है।1. यह कोशिकीय क्रिया नहीं है।
2. इसमें अनेक उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप कई उत्सर्जी पदार्थ बनते हैं जिनका बाद में उत्सर्जन होता है।2. इसमें भोजन के पाचन के बाद अपच भाग शेष रह जाता है। इसे मल विसर्जन द्वारा शरीर से बाहर निष्कासित किया जाता है।
3. उत्सर्जी पदार्थ प्राय: जल में विलेय होते हैं। अतः इनका उत्सर्जन प्राय: जलीय विलयन के रूप में होता है।3. प्राय: मल अपच व जटिल कार्बनिक पदार्थ होते हैं जो जल में अविलेय होते हैं। इनका बहिष्करण अर्द्धठोस के रूप में होता है।
4. फेफड़े, वृक्क व त्वचा उत्सर्जन के मुख्य अंग हैं।4. मल का बहिष्करण आहारनाल के अन्तिम भाग गुदा अथवा क्लोएका के द्वारा होता है।

(ख) परानिस्यंदन तथा चयनात्मक पुनरावशोषण में अन्तर

परानिस्यन्दन (Ultrafiltration)चयनार्मक पुनरावशोषण (Selective Reabsorption)
1. यह क्रिया बोमेन सम्पुट तथा केशिकागुच्छ (ग्लोमेरुलस) के मध्य होती है।1. यह क्रिया वृक्क नलिका की काय (body) तथा इसके उप लिपटी अपवाही धमनिका की केशिकाओं के मध्य सम्पन्न होती है।
2. इसमें लाभदायक तथा हानिकारक पदार्थ रुधिर दाब के कारण जल में घुलित अवस्था में केशिकागुच्छ से छनकर बोमेन्स सम्पुट में आ जाते हैं।2. इसमें लाभदायक पदार्थ एवं जल ही वृक्क नलिका की काय से पुनः अवशोषित होकर अपवाहीी धमनिका की केशिकाओं में आते हैं। हानिकारक पदार्थों का अवशोषण नहीं होता है तथा रुधिर केशिकाओं से यूरिया व हानिकारक लवण वृक्क नलिकाओं की काय में विसरित हो जाते हैं।
3. यह क्रिया रुधिर दाब की भिन्नता के कारण होती है।3. यह क्रिया रुधिर में जल की कमी के कारण होती है।

प्रश्न 9.
निम्नलिखित के संक्षिप्त उत्तर दीजिए-
(क) यूरिया का निर्माण किस अंग द्वारा तथा किस पदार्थ से होता है ?
(ख) मूत्रलता या डाइयूरेसिस किसे कहते हैं ?
(ग) यूरीमिया किसे कहते हैं ?
(ब) जक्स्टा ग्लोमेरुलर नलिकाएँ क्या हैं ?
(ङ) परासरण नियन्त्रण को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
(क) यूरिया का निर्माण यकृत में अमीनो अम्लों के डीएमीनेशन की क्रिया से प्राप्त अमोनिया (NH ) तथा CO2 के संयोग से होता है। ये सभी क्रियाएँ जिनके अन्तर्गत यूरिया (NH2.CO.NH2) बनता है, आर्निवीन चक्र कहलाती है।

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(ख) मूत्रलता (Diuresis) शरीर में जल की मात्रा बढ़ जाने पर रुधिर, लसीका तथा ऊतक द्रव्य की परासरणीयता कम हो जाती है। इसके कारण वृक्कों से उत्सर्जित मूत्र पतला व अधिक मात्रा में होता है। मूत्र की मात्रा के बढ़ने की क्रिया को मूत्रलता या डाइयूरेसिस कहते हैं। इसे बहुमूत्र रोग भी कहते हैं । इस रोग में बार-बार पेशाब आता है और प्यास भी बहुत लगती है।

(ग) यूरीमिया (Uremia) – वृक्कों की कार्यिकी अव्यवस्थित ( गड़बड़ ) हो जाने पर हमारे रुधिर में यूरिया की मात्रा बढ़ जाती है। इसे ‘यूरीमिया का रोग’ कहते हैं।

(घ) जक्स्टा ग्लोमेरुलर नलिकाएँ (Juxta Glomerular Tubules) – ये वे वृक्क नलिकाएँ होती हैं जिनका हेनले लूप अपेक्षाकृत बहुत लम्बा तथा वृक्क के पेल्विस (pelvis) तक फैला होता है। वृक्क नलिकाओं में लगभग 20-30% जक्स्टा ग्लोमेरुलर वृक्क नलिकाएँ होती हैं।

(ङ) परासरण नियन्त्रण (Osmoregulation) – हॉर्मोन्स की सहायता से रुधिर तथा ऊतक द्रव्य में जल एवं लवणों की उपयुक्त मात्रा बनाये रखकर वृक्क रुधिर दाब और ऊतक द्रव्यों की परासरणीयता का नियन्त्रण करते हैं। इसे ही परासरण नियन्त्रण कहते हैं।

प्रश्न 10.
परासरण नियन्त्रण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
परासरण नियन्त्रण (Osmoregulation) की परिभाषा लघु उत्तरीय प्रश्न 9 (ङ) के उत्तर में देखिए ।
वृक्कों द्वारा परासरण नियन्त्रण (Osmoregulation by Kidneys ) – समस्थापन (Homeostasis) के अन्तर्गत शरीर के तरल को छानने के अतिरिक्त शरीर के जल एवं लवणों की मात्रा का नियन्त्रण भी वृक्कों का एक महत्वपूर्ण कार्य होता है। शरीर में जल की मात्रा अधिक हो जाने पर भूत्र पतला और मात्रा में अधिक हो जाता है।

इसी प्रकार शरीर में जल की कमी हो जाने में पर मूत्र गाढ़ा और मात्रा में कम हो जाता है। मूत्र में ये परिवर्तन दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं और संग्रह नलिकाओं की पारगम्यता के बदलने से सम्भव हो पाते हैं। इसीलिए इन नलिकाओं की पारगम्यता निम्नलिखित दो प्रमुख हॉर्मोन्स द्वारा नियन्त्रित होती है-

(1) एल्डोस्टीरॉन (Aldosterone) हॉमोंन-इसका स्रावण अधिवृक्क ग्रन्थियों ( adrenal glands) से होता है। यह हॉर्मोन दूरस्थ कुण्डलित एवं संग्रह नलिकाओं में बहते हुए निस्यंद से Na+ के पुनरावशोषण को बढ़ाता है जिससे शरीर के अन्तः वातावरण में Na+ की उपयुक्त मात्रा बनी रहती है।

(2) ऐण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (Antidiuretic Hormone ADH ) – इसका स्रावण मस्तिष्क में स्थित पीयूष ग्रन्थि (pituitary gland) द्वारा होता है। यह हॉर्मोन मूत्र के पतलेपन (तनुकरण) या गाढ़ेपन (सान्द्रण) को नियन्त्रित करता है।

प्रश्न 11.
वल्कुटीय वृक्क नलिकाओं एवं जक्स्टा मेड्यूलरी वृक्क नलिकाओं में अन्तर बताइए।
उत्तर:
वल्कुटीय एवं जक्स्टा मेड्यूलरी वृक्क नलिकाओं में अन्तर

वर्कुटीय वृक्क नलिकाएँ (Cortical Nephrons)जक्स्टा मेड्यूलरी वृक्क नलिकाएँ (Juxta Medullary Nephrons)
1. ये अपेक्षाकृत छोटी होती हैं।1. ये अपेक्षाकृत बड़ी होती हैं।
2. इनके बोमैन सम्पुट वृक्कों की सतह के समीप स्थित होते हैं।2. इनके बोमैन सम्पुट वृक्कों के वल्कलीय (cortical) एवं मध्यांश (medullary) भाग के संगम क्षेत्र पर स्थित होते हैं।
3. इनके हेनले लूप छोटे एवं वृक्कों के मध्यांश भाग में कुछ ही दूरी तक फैले होते हैं।3. इनके हेनले लूप बहुत बड़े एवं वृक्कों के मध्यांश भाग के पिरैमिड्स में पूरी गहराई तक फैले होते हैं।
4. इनमें रुधिर की आपूर्ति परिनलिका केशिकाओं के द्वारा होती है।4. इनमें रुधिर की आपूर्ति वासारेक्टा द्वारा होती है।

प्रश्न 12.
हीमोडाइलेसिस पर टिप्पणी लिखिए ।
उत्तर:
हीमोडाइलेसिस (Haemodialysis)
वृक्कों के निष्क्रिय होने पर रक्त में यूरिया एकत्रित हो जाता है। इसे यूरिमिया ( uremia) कहते हैं जो कि अत्यन्त हानिकारक है। यह वृक्क पात (kidney failure) के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है। इसके मरीजों में यूरिया का निष्कासन हीमोडाइलेसिस (रक्त अपोहन) द्वारा होता है। इस क्रिया में रोगी की मुख्य धमनी से रक्त निकालकर 0°C पर ठण्डा करते हैं।

अथवा इस रक्त में हिपेरिन (heparin) नामक थक्कारोधी (प्रतिस्कन्दक) मिलाते हैं। तत्पश्चात् इस रक्त को अपोहनकारी इकाई में भेजा जाता है। इस इकाई में एक कुण्डलित सेलोफेन नली होती है और यह ऐसे द्रव से घिरी रहती है, जिसका संगठन नाइट्रोजनी अपशिष्टों को छोड़कर प्लाज्मा के समान होता है।

छिद्र युक्त सेलोफेन झिल्ली से अपोहनी द्रव में अणुओं का आवागमन सान्द्रण प्रवणता के अनुसार होता है। अपोहनी द्रव में नाइट्रोजनी अपशिष्ट अनुपस्थित होते हैं, अतः वे पदार्थ बाहर की ओर गमन करते हैं और रक्त को शुद्ध करते हैं। शुद्ध रक्त में हिपेरिन विरोधी डालकर उसे रोगी की शिराओं द्वारा पुनः शरीर में भेज दिया जाता है। हीमोडाइलेसिस विधि द्वारा यूरिमिया व्याधि से रोगियों का उपचार किया जाता है।

(D) निबन्धात्मक प्रश्न (Long Answer Type Questions )

प्रश्न 1.
उत्सर्जन किसे कहते हैं ? सरल जन्तुओं में उत्सर्जन किस प्रकार होता है ? उत्सर्जन (Excretion)
उत्तर:
प्राणियों के शरीर में होने वाली विभिन्न उपापचयिक क्रियाओं (metabolic activities) के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले हानिकारक पदार्थों, मुख्यतः प्रोटीन के अपचय (catabolism) से उत्पन्न अमोनिया यूरिया, यूरिक अम्ल आदि नाइट्रोजनी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने की जैव-प्रक्रिया को उत्सर्जन (excretion) कहते हैं। शरीर में बनने वाले ऐसे नाइट्रोजनी वर्ज्य व हानिकारक पदार्थों को उत्सर्जी पदार्थ (excretory products) कहते हैं।

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इन वर्ज्य पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने वाले अंगों को उत्सर्जी अंग (excretory organs) कहते हैं। उत्सर्जन अंगों को सामूहिक रूप से उत्सर्जन तन्त्र (excretory system) कहते हैं। संक्षेप में- “शरीर के अन्दर प्रोटीन के अपचय के फलस्वरूप उत्पन्न अमोनिया, यूरिया तथा यूरिक अम्ल आदि हानिकारक वर्ज्य पदार्थों को उत्सर्जी अंगों द्वारा शरीर से बाहर त्यागने की प्रक्रिया को उत्सर्जन (excretion) कहते हैं। इस क्रिया से सम्बन्धित अंगों को उत्सर्जन अंग कहते हैं। ”

नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थों का उत्सर्जन (Excretion of Nitrogenous Waste Products):
नाइट्रोजनी वर्ज्य (अपशिष्ट पदार्थ अमोनिया, यूरिया एवं यूरिक अम्ल के रूप में शरीर से बाहर निकलते हैं।

इनके आधार पर जन्तुओं की तीन श्रेणियाँ होती हैं-
1. अमोनियोटेलिक जन्तु (Ammoniotelic Animals) – ये वे जन्तु होते हैं जो अपने शरीर से अमोनिया का उत्सर्जन करते हैं। इस प्रक्रिया को अमोनियोटेलिज्म (ammoniotelism) कहते हैं। अमोनिया जल में घुलनशील होती है, अतः इसे बाहर निकालने के लिए अधिक मात्रा में जल की आवश्यकता होती है। अतः केवल सरल जलीय जन्तु ही अपने जलीय वातावरण में इसका उत्सर्जन करने में समर्थ होते हैं। उदाहरणार्थ – अमीबा, स्पंज, हाइड्रा, जेलीफिश तथा स्वच्छ जलीय मछलियाँ, पोलीकीट कृमि, सेफेलोपोड्स तथा क्रस्टेशियन एवं अन्य मॉलस्क आदि अमोनिया का उत्सर्जन करते हैं।

2. यूरियोटेलिक जन्तु (Ureotelic Animals) – ये वे जन्तु होते हैं जो नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों को यूरिया के रूप में अपने शरीर से बाहर निकालते हैं। इस प्रक्रिया को यूरियोटेलिज्म (ureotelism) कहते हैं। इसमें अपेक्षाकृत कम जल की आवश्यकता होती है। यूरिया अधिक मात्रा में होने पर विषाक्त होता है।

अतः रुधिर में से इसे पृथक् करने के लिए पर्याप्त मात्रा में जल की आवश्यकता होती है। इसीलिए यूरिया के साथ मूत्र के रूप में काफी मात्रा में जल भी बाहर निकलता है। सभी स्तनी, कुछ सरीसृप, (जैसे-मगर, घड़ियाल, कछुआ आदि), कुछ समुद्री मछलियाँ तथा मेंढक व टोड आदि यूरियोटेलिक जन्तुओं के उदाहरण हैं।

3. यूरिकोटेलिक जन्तु (Uricotelic Animals) – ये वे जन्तु होते हैं। जो नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों को यूरिक अम्ल के रूप में अपने शरीर से बाहर निकालते हैं। इस प्रक्रिया को यूरिकोटेलिज्म (uricotelism) कहते हैं। यूरिक अम्ल ठोस या अर्द्ध ठोस के रूप में उत्सर्जी होता है, उदाहरणार्थ- सभी पक्षी कीट, कुछ सरीसृप, जैसे–छिपकली, गिरगिट, स्थलीय साँप आदि यूरिकोटेलिक जन्तु हैं।

रहता सरल जन्तुओं में उत्सर्जन (Excretion in Simple Animals)
एककोशिकीय प्राणियों; जैसे-संघ प्रोटोजोआ के जन्तु और सबसे निम्नकोटि के बहुकोशिकीय जन्तुओं जैसे स्पंज, सीलेन्ट्रेट्स (हाइड्रा, जैलीफिश आदि) में शरीर की प्रत्येक कोशिका का बाहरी जलीय वातावरण से सीधा सम्पर्क है और ये सामान्य विसरण (simple diffusion) द्वारा अपने उत्सर्जी पदार्थों (मुख्यतः अमोनिया) का इस जल में विसर्जन करती रहती हैं।

इन प्राणियों की कोशिकाओं में निरन्तर उपापचय के कारण उत्सर्जी पदार्थों का सान्द्रण बाहर के जलीय वातावरण की अपेक्षा सदैव अधिक रहता है। इसलिए ये पदार्थ सामान्य विसरण द्वारा कोशिकाओं से बाहर निकलते रहते हैं। अलवण जलीय प्रोटोजोआ एवं स्पंजों की कुछ कोशिकाओं में परासरण नियन्त्रण हेतु संकुचनशील रिक्तिकाएँ (contractile vacuoles) होती हैं। उत्सर्जन के लिए इन सरल प्राणियों में कोई विशिष्ट संरचनाएँ नहीं होती हैं।

प्रश्न 2.
मनुष्य के उत्सर्जी तन्त्र का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य का उत्सर्जी तन्त्र (Excretory System of Human)
मनुष्य एवं अन्य उच्च कशेरुकी प्राणियों का उत्सर्जन तन्त्र नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों के निष्कासन तथा परासरण नियमन का कार्य करता है। इसमें निम्नलिखित अंग होते हैं-

  1. एक जोड़ी वृक्क (Kidneys)
  2. एक जोड़ी मूत्र वाहनियाँ (Ureters)
  3. एक मूत्राशय (Urinary Bladder)
  4. एक मूत्र मार्ग (Urethra)

1. वृक्क या गुर्दे (Kidneys) – मनुष्य में एक जोड़ी वृक्क होते हैं, जो उदर गुहा के पृष्ठभाग में डायाफ्राम के नीचे व कशेरुकदण्ड के इधर-उधर (दायें-बायें) स्थित होते हैं। दाहिनी ओर यकृत (Liver) की उपस्थिति के कारण दाहिना वृक्क बायें वृक्क से कुछ आगे स्थित होता है। दोनों वृक्क एक पतली पेरिटोनियम झिल्ली द्वारा उदरगुहा की पृष्ठ दीवार से लगे होते हैं और वसीय ऊतक के अन्दर धँसे होते हैं।

मनुष्य के वृक्क गहरे लाल रंग के तथा सेम के बीज जैसी आकृति के होते हैं। प्रत्येक वृक्क लगभग 10-11 सेमी लम्बा, 5 सेमी चौड़ा तथा 2.5-3 सेमी मोटा होता है। प्रत्येक वृक्क का बाहरी तल उत्तल (convex) तथा भीतरी तल अवतल (Concave) होता है। अवतल सतह की ओर गड्डे जैसी एक रचना होती है, जिसे वृक्क नाभि या हाइलस (hilus) कहते हैं।

इसी से होकर रीनल धमनी (renal artery) वृक्क में प्रवेश करती है और रीनल शिरा (renal vein) तथा मूत्रवाहिनी (ureter) इसमें से बाहर निकलती है। वृक्क के चारों ओर तन्तुमय संयोजी ऊतक का बना पतला रीनल कैप्सूल (renal capsule) होता है।
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2. मूत्रवाहिनियाँ (Ureters) – प्रत्येक वृक्क की नाभि (hilus) से मोटी व पेशीय भित्चि की बनी सँकरी नलिका निकलती है। इसे मूत्वाहिनी (यूरेटर; ureter) कहते हैं। यह नीचे की ओर चलकर झिर्री के समान एक छिद्र द्वारा मूत्राशय में खुलती है। दोनों ओर की मूत्र वाहिनियाँ वृक्कों से मूत्र को लाकर मूत्राशय में पहुँचाती हैं।

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3. मूत्राशय (Urinary Bladder) – यह थैले के समान एक पेशीय संरचना है, जिसमें मूत्र का स्थाई रूप से संभह किया जाता है। इसकी भित्ति में तीन स्तर पाए जाते हैं- बाल्य स्तर-पेरीटोनियम का सीरोसा स्तर, मध्य-अरेखित पेशी स्तर तथा आन्तरिक-श्लेष्मिका स्तर। मूत्राशय शंकुरूपी होता है जिसका ऊपरी भाग चौड़ा तथा निचला भाग संकरा होता है।

सँकरा भाग एक छिद्र द्वारा मूत्रोजनन मार्ग (urethra) में खुलता है। इस छिद्र रेखित पेशी की बनी अवरोधनी (sphincter) पायी जाती है। मूत्राशय नर में मलाशय (rectum) के आगे तथा मादा में योनि के ठीक ऊपर पाया जाता है। मूत्राशय में 700-800 मिली मूत्र का संग्रह किया जा सकता है। पक्षियों, सर्पों, घड़ियाल तथा प्रोटोथीरिया वर्ग के जन्तुओं में मूत्राशय का अभाव होता है। परन्तु उड़ानविहीन पक्षी शुतुर्मुर्ग में मूत्राशय पाया जाता है। पक्षियों में मूत्राशय का अभाव इनके उड़ने के लिए अनुकूलन है।

4. मूत्र मार्ग (Urethra) – मूत्राशय की ग्रीवा से एक पतली नलिका निकलती है जिसे मूत्रमार्ग या यूरेश्रा कहते हैं। मूत्रमार्ग द्वारा मूत्र शरीर से बाहर निकलता है। मूत्रमार्ग पर अवरोधनी पेशी (sphincter muscle) उपस्थित होती है जो सामान्यतः मूत्रमार्ग को कसकर बन्द रखती है। मूत्रत्याग के समय अवरोधनी शिथिल हो जाती है, जिससे मूत्र आसानी से बाहर निकल जाता है।

पुरुषों में मूत्रमार्ग लगभग 15 सेमी लम्बा होता है और शिश्न में से होकर गुजरता है। इसमें होकर मूत्र व वीर्य (शुक्ररस जिसमें शुक्राणु उपस्थित होते हैं) दोनों ही बाहर निकलते हैं। स्तियों में मूत्रमार्ग लगभग 4 सेमी लम्बा होता है तथा इसमें केवल मूत्र ही बाहर निकलता है।

नर में मूत्रमार्ग तीन भागों का बना होता है-

  • प्रोस्टेट भाग या यूरिध्रल भाग (Prostatic or Urethral Part) – यह 2.5 सेमी लम्बा होता है जो प्रोस्टेट प्रन्थि के मध्य से गुजरता है। इसी भाग में दोनों शुक्रवाहनियाँ खुलती हैं।
  • झिल्लीनुमा थाग (Membranous Part) – यह प्रोस्टेट ग्रन्थि एवं शिश्न के मध्य का छोटा भाग होता है।
  • शिश्नी भाग (Penile Part) – यह लगभग 15 सेमी लम्बा मार्ग है, जो शिश्न (penis) के कॉर्पस स्पंजियोसम से निकलकर शिश्न मुण्ड के शीर्ष पर बाह्य मत्र छिद्र के रूप में बाहर खुलता है।

प्रश्न 3.
मनुष्य के वृक्क की आन्तरिक संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए। –
उत्तर:
मनुष्य के वृक्क की आन्तरिक संरचना (Internal Structure of Human Kidney)
मनुष्य का प्रत्येक वृक्क या गुर्दा एक दृढ़ तन्तुमय संयोजी ऊतक के बने वृक्क सम्पुट या रीनल कैप्सूल (capsule) से ढँका रहता है। वृक्क की एक अनुलम्ब काट (longitudinal section) में दो भाग स्पष्ट दिखाई देते हैं।
(1) प्रानसस्थ या वल्कीय भाग या वस्कुट (Cortex) -यह वृक्क का बाहरी एवं गहरे लाल रंग का भाग होता है। इसमें वृक्क नलिकाओं या नेफ्रोन्स (uriniferous tubules or nephrons) के मैलपीघी कोष (malpighian capsules) तथा संवलित नलिकाओं के समीपस्थ एवं दुरस्थ भाग स्थित होते हैं।
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(2) अन्तस्थ या मध्यांश या मज्जक (medulla) – यह वृक्क का भीतरी व हल्के रंग का भाग होता है। अन्तस्थ का मध्यभाग एक स्पष्ट वृक्क अंकुर (renal papilla) के रूप में वृक्क नाभि (hilum or hilus) की ओर उभरा होता है। प्रान्तस्थ भाग के कुछ छोटे-छोटे एवं सँकरे उभार अन्तस्थ के बाहरी भाग में धँसे रहते हैं। इन्हें बर्टिनी के वृक्क स्तम्भ (renal columns of Bertini) कहते हैं।

इनके कारण अन्तस्थ (medulla) का बाहरी भाग 6-12 शंक्वाकार उभारों के रूप में बँटा-सा दिखाई देता है। जिन्हें पिरामिझ्स (pyramids) कहते हैं। ये पिरामिड्स ही वृक्क नाभि की ओर वृक्क अंकुर (Renal papilla) के रूप में एक कीप जैसे भाग-पेल्विस (Pelvis) में उभरे रहते हैं।

यहीं से मूत्रवाहिनी (ureter) निकलती है। पेल्विस (वृक्क श्रोणि) पिरामिड्स की ओर छोटी-छोटी शाखाओं में बँटी रहती है जिन्हें वृद् कैलिक्स (major calyx) कहते हैं। ये फिर लघु कैलिक्स (minor calyxes) में बँटे रहते हैं। वृक्क अंकुर लघु कैलिक्स के उपर खुलते हैं। मनुष्य के प्रत्येक वृक्क में 10-12 लाख सूक्ष्म, बहुत लम्बी तथा कुण्डलित वृक्क नलिकाएँ या नेक्रॉन्स होती हैं।

ये संयोजी ऊतक में रुधिर वाहनियों, लसीका वाहनियों, तन्त्रिका एवं पेशी तन्तुओं सहित दबी हुई व सटी हुई रहती हैं। ये उत्सर्जन की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाइयाँ होती हैं। प्रत्येक वृक्क नलिका के निम्नलिखित प्रमुख भाग होते हैं-

  • मैल्पीघी सम्पुट (Malpighian capsule),
  • प्रीवा (Neck),
  • समीपस्थ कुण्डलित नलिका,
  • हेनले लूप (Henle’s loop),
  • दूरस्थ कुण्डलित नलिका,
  • संमह नलिका (Collecting duct)।

वृक्क नलिकाओं के मैलपीघी सम्पुट, ग्रीवा, समीपस्थ कुण्डलित नलिका युक्त भाग तो प्रान्तस्थ (cortex) में और इनका हेनले. लूप वाला भाग अन्तस्थ (medulla) में स्थित रहता है।

वृक्क नलिकाएँ (नेक्रॉन्स) भी दो प्रकार की होती हैं-

  • वल्कुटीय नेक्रॉन्स (Cortical nephrons) – इनका मैलपीघी सम्पुट प्रान्तस्थ (cortex) में दूर स्थित होता है।
  • मध्यांशीय नेक्रॉंस्स (Medullary nephrons) – इनका मैलपीघी सम्पुट अन्तस्थ (medulla) के बहुत ही समीप स्थित होता है।

प्रान्तस्थ और अन्तस्थ के जोड़ पर वृक्क शिरा (renal vein) तथा वृक्क धमनी (renal artery) समान्तर चलती है तथा धमनी से धमनिकाएँ निकलकर केशिका गुच्छ (ग्लोमेरुलस- glomerulus) बनाती हैं तथा वृक्क नलिका के कुण्डलित भाग के चारों ओर केशिका जाल बनाती हैं। ये केशिकाएँ मिलकर शिरिकाएँ बनाती हैं जो अन्त में वृक्क शिरा में खुलती हैं।

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प्रश्न 4.
मनुष्य की वृक्क नलिका या नेफ्रोन की संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य की वृक्क नलिका या नेफ्रॉन की संरचना (Structure of Urineferous Tubule or Nephron)
वृक्क नलिकाएँ वृक्क की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई होती हैं। मनुष्य के प्रत्येक वृक्क में लगभग 10-12 लाख सूक्ष्म, बहुत्त लम्बी व कुण्डलित वक्क नलिकाएँ होती हैं। प्रत्येक वृक्क नलिका में निम्नलिखित भाग होते हैं-
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(1) मैलपीघी कोष (Malpighian Capsule)-प्रत्येक वृक्क नलिका का अगला स्वतत्र सिरा प्यालेवत् दोहरी दीवार का बना हुआ होता है। इसे बोमेन समपट (Bowman’s capsule) कहते हैं। यह दोही दीवार का बना होता है। बाहरी दीवार शल्की एपिथीलियम की बनी होती है तथा भीतरी दीवार पोडोसाइद्स (podocytes) नामक विशेष प्रकार की कोशिकाओं की बनी होती है।

पोडोसाइट्स से अनेक अंगुलीवत् प्रवर्ध बाहर की ओर निकलकर ग्लोमेरलस की केशिकाओं से लिपटे रहते हैं। केशिकाओं एवं पोड़साइट्स के प्रवर्धों की दीवरों मिलकर महीन ग्लोमेरूलस कला बनाती हैं जिसमें होकर परानिस्यंदन (ultrafiltration) होता है। बोमेन समुट में कोशिका गुच्छ या ग्लोमेरलस (glomerulus) नामक रुधर कोशिकाओं का घना जाल स्थित होता है।

बोमेन सम्युट तथा केशिका गुच्छ को सम्मिलित रूप में मैलपीघी कोष कहते हैं। केशिका गुच्छ में रुधिर अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) द्वारा प्रवेश करता है तथा अपवाही धमनिका (efferent arteriole) द्वारा बाहर निकलता है। अभिवाही धमनिका का व्यास अपवाही धमनिका के व्यास से अधिक होता है, जिसके कारण केशिका गुच्छ में रुधर दाब बढ़ जाता है।

अपवाही धमनिका पुनः वृक्क नलिका के कुण्डलित भाग पर केशिकाओं का जाल बनाती है। जिसे परिनलिका केशिका जालक (peritubular capillary network) कहते हैं। ये केशिकाएँ मिलकर वृक्क शिरा (renal vein) के रूप में बाहर आती हैं।

(2) ग्रीवा (Neck) – बोमेन समुट का निचला भाग पतली नलिका के रूप में होता है जिसे प्रीवा कहते हैं। यह भीतर की ओर रोमाभि उपकला (ciliated epithelium) से स्तरित रहती है तथा निस्यंदन (filtrate) को आगे की ओर प्रवाहित करने में सहायता करती है।

(3) वृक्क नलिका का स्रावी भाग (Secretory Part of nephron)-प्रीवा के पीछे वृक्क नलिका अत्यधिक लम्बी, स्रावी एवं कुण्डलित होती है।
(i) समीपस्थ कुण्डलित नलिका (Proximal convoluted tubule)-यह बोमेन सम्पुट से निकलने वाली छोटी, मोटी एवं कुण्डलित नलिका होती है। आगे की ओर यह पतली और सीधी हो जाती है। यह भाग घनाकार उपकला (cuboidal epithelium) का बना होता है। कोशिकाओं की स्वतन्त्र सतह पर सूक्ष्मांकुर (microvilli) होते हैं। ये समीपस्थ कुण्डलित नलिका को अवशोषण के उपयुक्त बनाते हैं।

(ii) हेनले लूप (Henle’s loop) – समीपस्थ कुण्डलित भाग के बाद वृक्क नलिका का कुछ भाग सीधा और चाप ‘ U ‘ के रूप में होता है। इसे हेनले लूप कहते हैं। इसकी अवरोही नलिका (descending tubule) समीपस्थ कुण्डलित नलिका से मिली रहती है तथा आरोही़ नलिका (ascending tubule) दूरस्थ कुण्डलित नलिका से मिली रहती है।

(iii) दूरस्थ कुष्डलित नलिका (Distal convoluted tubule) – हेनले लूप की आरोही नलिका से मिली हुई यह नलिका भी समीपस्थ कुण्डलित नलिका के समान छोटी-मोटी और कुण्डलित होती है तथा इसी के समीप स्थित रहती है और किसी संग्रह नलिका (collecting duct) में खुलती है।
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(4) संग्रह नलिका (Collecting duct) – अनेक वृक्क नलिकाएँ अन्त में संम्रह नलिका में खुलती हैं। संप्रह नलिका वृक्क नलिका का भाग नहीं है। कई संप्रह नलिकाएँ (जो अन्तस्थ के पिरैमिड्स में स्थित होती हैं) एक चौड़ी प्रमुख संम्रह नलिका में खुलती है, जिसे बेलिनी की नलिका (duct of Bellini) कहते हैं। सभी बेलिनी की नलिकाएँ वृक्क अंकुरों के शिखर पर मूत्रवाहिनी (ureter) में खुलती हैं।

वृक्क नलिकाओं (नेफ्रोन) के प्रकार (Kinds of Nephrons)
मनुष्य (तथा अन्य स्तनियों) के वृक्कों में स्थिति, लम्बाई तथा रुधि आपूर्ति में भिन्न दो स्पष्ट प्रकार की वृक्क नलिकाएँ होती हैं-
(1) वल्कलीय या वस्कुटीय वृक्क नलिकाएँ (Cortical nephrons) – इनकी संख्या लगभग 80% होती है। ये अपेक्षाकृत छोटी होती हैं। इनके बोमेन सम्पुट वृक्कों की सतह के अधिक निकट स्थित होते हैं। इनके हेनले के लूप बहुत छोटे और वृक्कों के अन्तस्थ या मज्जक (medullary) भाग के कुछ ही दूर तक फैले होते हैं।

(2) मध्यांशीय वृक्क नलिकाएँ या जक्स्टामेडुलरी नेक्रॉंन (Medullary nephron or Juxtamedullary nephron) – इनकी संख्या लगभग 20% होती है। ये वल्कीय वृक्क नलिकाओं को अपेक्षा बड़ी होती हैं। इनके वोमैन सम्पुट वृक्कों के प्रान्तस्थ या वल्कीय (Cortical) तथा अन्तस्थ या मज्जक (medullary) भागों के संगम क्षेत्र में स्थित होते हैं तथा इनके हेनले लूप बहुत लम्बे और वृक्कों के मज्जक (medullary) भाग के पिरामिडों में लगभग पूरी गहराई तक फैले होते हैं । इनके हेनले लूप के समान्तर एक ‘ U ‘ के आकार की कोशिका होती है, जिसे वासा रेक्टा (vasa recta) कहते हैं। ये कोशिकाएँ जल के पुनरावशोषण में सहायता करती हैं।

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प्रश्न 5.
मनुष्य में यूरिया के निर्माण की क्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मूत्र निर्माण (Formation of Urine)
यकृत कोशिकाओं में बने यूरिया को रुधिर द्वारा वृक्कों में लाया जाता है। यकृत से यूरिया युक्त रुधि यकृत शिरा द्वारा पश्च महाशिरा में डाल दिया जाता है। पश्च महाशिरा से यूरिया युक्त रधधर वृक्कों में पहुँचता है। वृक्कों में यूरिया को रुधिर से पृथक् किया जाता है। इसे मूत्र निर्माण कहते हैं। मूत्र निर्माण की क्रिया निम्न चरणों में पूर्ण होती है-

  • परानिस्यन्दन (Ultrafiltration),
  • वरणात्मक पुनरावशोषण (Selective reabsorption),
  • स्रावण (Secretion)।

1. परानिस्यन्दन या अस्ट्राफिल्ट्रेशन (Ultrafiltration) – वृक्क के बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) सूक्ष्म छलनी की भाँति कार्य करते हैं। मनुष्य के ग्लोमेरलस (glomerulus) में लगभग 50 समानान्तर केशिकाएँ पायी जाती हैं। इसमें अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) यूरिया युक्त रुधिर लाती है तथा अपवाही धमनिका (efferent arteriole) इससे रुधिर बाहर ले जाती है।

ग्लोमेरुलस की दीवार में असंख्य छिद्र होते हैं, जिनका व्यास लगभग 0.1µm होता है, इन छिद्रों में से प्लाज्मा में घुले पदार्थ छनकर निकल सकते हैं। छिद्रित दीवार की पारगम्यता (permeability) सामान्य रुधिर केशिकाओं की अपेक्षा 100 से 1000 गुना अधिक होती है। ग्लोमेरूलस में आने वाला रुधिर जितना तेजी से आता है, बाहर जाते समय उतनी तेजी से नहीं जा पाता है।

इसी कारण एक स्वस्थ मनुष्य में ग्लोमेरूलस में आने वाले रुधिर का रुधिर दाब 70mm Hg होता है, जबकि ग्लोमेरुलस से जाते समय रीधर दाब 30mm Hg होता है। इसके फलस्वरूप ग्लोमेरुलस के रुधिर से तरल प्लाज्मा (plasma) व उत्सर्जी पदार्थ बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) की गुहा में पहुँच जाते हैं।

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ग्लोमेरूलस से छनकर बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) की गुहा में जाने वाले द्रव को ग्लोमेरलर निस्यन्द (glomerular filtrate) कहते हैं। इसमें रुधिर के जल का 95% भाग, अमीनो अम्ल (amino acids), यूरिया (urea), ग्लूकोस (glucose), यूरिक अम्ल (uric acid), क्रिएटिन (criatine) तथा लवण (salts) होते हैं। बोमेन सम्मुट के नीचे म्रीवा (neck) का भीतरी अस्तर पक्ष्माभी एपिथीलियम का बना होता है। पक्ष्माभों (cilia) की गति से ग्लोमेरलर फिल्ट्रेट तेजी से नलिका में आगे बढ़ता रहता है।

(2) वरणात्पक पुनरावशोषण (Selective Reabsorption) – ग्लोमेरूलर निस्यन्द (Glomerular filtrate) में रुधिर के जल का 95% भाग छनकर आ जाता है परन्तु इसका लगभग 0.8 % भाग ही मूत्र में परिवर्तित होकर बाहर निकलता है। शेष भाग का रुधिर में पुन: अवशोषण हो जाता है। लाभदायक पदार्थों का वृक्क नलिकाओं से पुनः रुधर में पहुँचना वरणात्मक पुनरावशोषण (selective reabsorption) कहलाता है। यह पुन: अवशोषण निम्नानुसार होता है-

(i) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में पुनरावशोषण (Reabsorption in Proximal Convoluted Tubules) – इन कोशिकाओं द्वारा निस्यन्द का लगभग 75% भाग अवशोषित होकर परिनलिका केशिका जाल (peritubular capillary network) के रुधिर में पहुँचता है। जिसके फलस्वरूप ग्लूकोज (glucose), ऐमीनो अम्ल (amino acids), विटामिन (vitamins), अकार्बनिक लवण, जैसे – फॉस्फेट, स्ल्फेट, सोडियम, कैल्सियम, पोटैशियम आदि सक्रिय गमन (active transport) द्वारा पुनः रुधिर में चले जाते हैं, परासरण द्वारा जल भी रुधिर में पहुँचता है।
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(ii) हेन्ले के लूप में पुनरावशोषण (Reabsorption in Loop of Henle) – इसके तीन भाग होते हैं-
(अ) अवरोही भुजा (Descending Limb) – लूप का यह भाग मैड्यूला में स्थित होता है जिस कारण यहाँ सोडियम आयन Na+ की अधिकता होती है। इस कारण यहाँ जल का अधिक मात्रा में अवशोषण होता है तथा सोडियम Na+ पोटैशियम K+ तथा क्लोराइड CI आयनों का अवशोषण कम होता है।

(ब) आरोही भुआ का महीन खण्ड (Thin Segment of Ascending Limb) – यह जल के लिए अपारगम्य, यूरिया के लिए अर्द्धपारगम्य तथा Na+ एवं CI के लिए पूर्ण पारगम्य होता है।

(स) आरोही भुजा का चौड़ा खण्ड (Thick Segment of Ascending Limb) – इस खण्ड की दीवार मोटी व जल और यूरिया के लिए अपारगम्य होती है। यहाँ Na+ तथा CI आयनों का सक्रिय अभिगमन द्वारा निस्यन्द से बाहर स्थानान्तरण होता है।

(iii) दूरस्थ कुण्डलित नलिका में पुनरावशोषण (Reabsorption in Distal Convoluted Tubule)-इस भाग में सोडियम आयनों Na+तथा क्लोराइड आयनों CI का सक्रिय अभिगमन द्वारा अवशोषण होता है।

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(3) स्रावण (Secretion)- कुछ हानिकारक पदार्थ, जैसे- रंगा पदार्थ (pigments), कुछ औषधियाँ (drugs), यूरिक अम्ल (uric acid) इत्यादि हानिकारक पदार्थ परानिस्यन्दन (ultrafiltration) द्वारा नहीं छन पाते हैं। हेनले के लूप तथा समीपस्थ एवं दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं की उपकला कोशिकाएँ इन अपशिष्ट पदार्थों को सक्रिय अभिगमन द्वारा वृक्क नलिकाओं (nephrons) की गुहा में मुक्त करती रहती हैं। इस प्रक्रिया को नलिकीय स्रावण (secretion) कहते हैं। संप्राहक नलिका (collecting tubule) के अन्तिम भाग में ग्लोमेरलर निस्यन्द (glomerular filtrate) मूत्र (Urine) कहलाने लगता है।

मूत्र (Urine) – ग्लोमेलुलर निस्यन्द का अवशेष, जो पेल्विस में तथा वहाँ से मूत्रवाहिनी में पहुँचता है, मूत्र (urine) होता है। मूत्र में सामान्यतया 95% जल, 2% अनावश्यक लवण, 2.6% यूरिया, 0.3% क्रिटिनीन, सूक्ष्म मात्रा में यूरिक अम्ल तथा अन्य पदार्थ होते हैं। मूत्र का पीला रंग यूरोक्रोम (urochrome) के कारण होता है। मूत्र हल्का अम्लीय (pH-6) होता है। निम्न ताप पर मूत्र अधिक मात्रा में उत्सर्जित होता है। उच्च ताप, शारीरिक परिश्रम तथा अधिक पसीना आने के कारण मूत्र की मात्रा कम हो जाती है। चाय, कॉफी, ऐल्कोहॉल आदि के प्रभाव से मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है। इन पदार्थों को मूत्रलता (diuretic) कहते हैं।

मूत्र का संगठन

जल95%
अकार्बनिक लवण1.5%Na+Mg++K+PO2,Se
यूरिया2.6%
यूरिक अम्ल0.5%
हिप्यूरिक अम्ल.0.5%
अमोनिया0.25%
क्रिएटिन, क्रिऐटिनिन0.5%

प्रश्न 6.
मनुष्य में मूत्र निर्माण कहाँ होता है ? मूत्र निर्माण का वर्णन कीजिए ।
उत्तर:
मूत्र निर्माण (Formation of Urine)
यकृत कोशिकाओं में बने यूरिया को रुधिर द्वारा वृक्कों में लाया जाता है। यकृत से यूरिया युक्त रुधि यकृत शिरा द्वारा पश्च महाशिरा में डाल दिया जाता है। पश्च महाशिरा से यूरिया युक्त रधधर वृक्कों में पहुँचता है। वृक्कों में यूरिया को रुधिर से पृथक् किया जाता है। इसे मूत्र निर्माण कहते हैं। मूत्र निर्माण की क्रिया निम्न चरणों में पूर्ण होती है-

  • परानिस्यन्दन (Ultrafiltration),
  • वरणात्मक पुनरावशोषण (Selective reabsorption),
  • स्रावण (Secretion)।

(1) परानिस्यन्दन या अस्ट्राफिल्ट्रेशन (Ultrafiltration) – वृक्क के बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) सूक्ष्म छलनी की भाँति कार्य करते हैं। मनुष्य के ग्लोमेरलस (glomerulus) में लगभग 50 समानान्तर केशिकाएँ पायी जाती हैं। इसमें अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) यूरिया युक्त रुधिर लाती है तथा अपवाही धमनिका (efferent arteriole) इससे रुधिर बाहर ले जाती है।

ग्लोमेरुलस की दीवार में असंख्य छिद्र होते हैं, जिनका व्यास लगभग 0.1µm होता है, इन छिद्रों में से प्लाज्मा में घुले पदार्थ छनकर निकल सकते हैं। छिद्रित दीवार की पारगम्यता (permeability) सामान्य रुधिर केशिकाओं की अपेक्षा 100 से 1000 गुना अधिक होती है। ग्लोमेरूलस में आने वाला रुधिर जितना तेजी से आता है, बाहर जाते समय उतनी तेजी से नहीं जा पाता है।

इसी कारण एक स्वस्थ मनुष्य में ग्लोमेरूलस में आने वाले रुधिर का रुधिर दाब 70mm Hg होता है, जबकि ग्लोमेरुलस से जाते समय रीधर दाब 30mm Hg होता है। इसके फलस्वरूप ग्लोमेरुलस के रुधिर से तरल प्लाज्मा (plasma) व उत्सर्जी पदार्थ बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) की गुहा में पहुँच जाते हैं।

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ग्लोमेरूलस से छनकर बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) की गुहा में जाने वाले द्रव को ग्लोमेरलर निस्यन्द (glomerular filtrate) कहते हैं। इसमें रुधिर के जल का 95% भाग, अमीनो अम्ल (amino acids), यूरिया (urea), ग्लूकोस (glucose), यूरिक अम्ल (uric acid), क्रिएटिन (criatine) तथा लवण (salts) होते हैं। बोमेन सम्मुट के नीचे म्रीवा (neck) का भीतरी अस्तर पक्ष्माभी एपिथीलियम का बना होता है। पक्ष्माभों (cilia) की गति से ग्लोमेरलर फिल्ट्रेट तेजी से नलिका में आगे बढ़ता रहता है।

(2) वरणात्पक पुनरावशोषण (Selective Reabsorption) – ग्लोमेरूलर निस्यन्द (Glomerular filtrate) में रुधिर के जल का 95% भाग छनकर आ जाता है परन्तु इसका लगभग 0.8 % भाग ही मूत्र में परिवर्तित होकर बाहर निकलता है। शेष भाग का रुधिर में पुन: अवशोषण हो जाता है। लाभदायक पदार्थों का वृक्क नलिकाओं से पुनः रुधर में पहुँचना वरणात्मक पुनरावशोषण (selective reabsorption) कहलाता है। यह पुन: अवशोषण निम्नानुसार होता है-

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(i) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में पुनरावशोषण (Reabsorption in Proximal Convoluted Tubules) – इन कोशिकाओं द्वारा निस्यन्द का लगभग 75% भाग अवशोषित होकर परिनलिका केशिका जाल (peritubular capillary network) के रुधिर में पहुँचता है। जिसके फलस्वरूप ग्लूकोज (glucose), ऐमीनो अम्ल (amino acids), विटामिन (vitamins), अकार्बनिक लवण, जैसे – फॉस्फेट, स्ल्फेट, सोडियम, कैल्सियम, पोटैशियम आदि सक्रिय गमन (active transport) द्वारा पुनः रुधिर में चले जाते हैं, परासरण द्वारा जल भी रुधिर में पहुँचता है।
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(ii) हेन्ले के लूप में पुनरावशोषण (Reabsorption in Loop of Henle) – इसके तीन भाग होते हैं-
(अ) अवरोही भुजा (Descending Limb) – लूप का यह भाग मैड्यूला में स्थित होता है जिस कारण यहाँ सोडियम आयन Na+ की अधिकता होती है। इस कारण यहाँ जल का अधिक मात्रा में अवशोषण होता है तथा सोडियम Na+ पोटैशियम K+ तथा क्लोराइड CI आयनों का अवशोषण कम होता है।

(ब) आरोही भुआ का महीन खण्ड (Thin Segment of Ascending Limb) – यह जल के लिए अपारगम्य, यूरिया के लिए अर्द्धपारगम्य तथा Na+ एवं CI के लिए पूर्ण पारगम्य होता है।

(स) आरोही भुजा का चौड़ा खण्ड (Thick Segment of Ascending Limb) – इस खण्ड की दीवार मोटी व जल और यूरिया के लिए अपारगम्य होती है। यहाँ Na+ तथा CI आयनों का सक्रिय अभिगमन द्वारा निस्यन्द से बाहर स्थानान्तरण होता है।

(iii) दूरस्थ कुण्डलित नलिका में पुनरावशोषण (Reabsorption in Distal Convoluted Tubule)-इस भाग में सोडियम आयनों Na+ तथा क्लोराइड आयनों CI का सक्रिय अभिगमन द्वारा अवशोषण होता है।

(3) स्रावण (Secretion)- कुछ हानिकारक पदार्थ, जैसे- रंगा पदार्थ (pigments), कुछ औषधियाँ (drugs), यूरिक अम्ल (uric acid) इत्यादि हानिकारक पदार्थ परानिस्यन्दन (ultrafiltration) द्वारा नहीं छन पाते हैं। हेनले के लूप तथा समीपस्थ एवं दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं की उपकला कोशिकाएँ इन अपशिष्ट पदार्थों को सक्रिय अभिगमन द्वारा वृक्क नलिकाओं (nephrons) की गुहा में मुक्त करती रहती हैं। इस प्रक्रिया को नलिकीय स्रावण (secretion) कहते हैं। संप्राहक नलिका (collecting tubule) के अन्तिम भाग में ग्लोमेरलर निस्यन्द (glomerular filtrate) मूत्र (Urine) कहलाने लगता है।

मूत्र (Urine) – ग्लोमेलुलर निस्यन्द का अवशेष, जो पेल्विस में तथा वहाँ से मूत्रवाहिनी में पहुँचता है, मूत्र (urine) होता है। मूत्र में सामान्यतया 95% जल, 2% अनावश्यक लवण, 2.6% यूरिया, 0.3% क्रिटिनीन, सूक्ष्म मात्रा में यूरिक अम्ल तथा अन्य पदार्थ होते हैं। मूत्र का पीला रंग यूरोक्रोम (urochrome) के कारण होता है। मूत्र हल्का अम्लीय (pH-6) होता है।

निम्न ताप पर मूत्र अधिक मात्रा में उत्सर्जित होता है। उच्च ताप, शारीरिक परिश्रम तथा अधिक पसीना आने के कारण मूत्र की मात्रा कम हो जाती है। चाय, कॉफी, ऐल्कोहॉल आदि के प्रभाव से मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है। इन पदार्थों को मूत्रलता (diuretic) कहते हैं।

प्रश्न 7.
मानव में उत्सर्जन से सम्बन्धित प्रमुख क्रिया रोगों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर:
उत्सर्जन सम्बन्धी रोग (Disorders Related to Excretion)
मानव में उत्सर्जन क्रिया में अनियमितता होने पर कई रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं-

  1. यूरेमिया (Uremia) – जब रक्त में यूरिया की मात्रा सामान्य मात्रा (10-30) mg प्रति 100 ml से अधिक हो जाती है तो यह स्थिति यूरेमिया (uremia) कहलाती है।
  2. गॉड्ट (Gout) – यह एक आनुवंशिक रोग होता है जिसमें रक्त में यूरिक अम्ल (uric acid) की मात्रा अधिक हो जाती है तथा यह सन्धियों (joints) तथा वृक्क ऊतकों (kidney tissues) में जमा हो जाता है।
  3. वृक्क पथरी (Kidney stones) – सामान्यतः वृक्क श्रोणि (renal pelvis) में यूरिक अम्ल के क्रिस्टल, कैल्सियम के ऑक्सलेट्स, फॉस्फेट लवण इत्यादि पथरी के रूप में जमा हो जाते हैं जिसमें रोगी को दर्द या मूत्र त्याग में बाधा उत्पन्न होती है।
  4. बाइट का रोग अधवा नेक्रिटिस (Bright’s Disease or Nephritis) – इस रोग में ग्लोमेरुलस में जीवाणु संक्रमण (bacterial infection) के कारण ग्लोमेरूलस में सूजन आ जाती है जिस कारण लाल रक्ताणु तथा प्रोटीन थी छनकर निस्यन्द (filtrate) में आ जाते हैं।
  5. ग्लाइकोसूरिया (Glycosuria)-मूत्र (urine) में शर्करा (glucose) की उपस्थिति एवं उत्सर्जन ग्लाइकोसूरिया (glycosuria) कहलाता है। यह रोग इन्सुलिन हॉर्मोन (insuline hormone) की कमी से उत्पन्न होता है।
  6. डिसयूरिया (Disurea) – मूत्र त्याग के समय दर्द की अवस्था डिसयूरिया कहलाती है।
  7. पोलीयूरिया (Polyurea) – वृक्क नलिकाओं (nephrons) द्वारा पुन: अवशोषण (Re-absorption) में कमी आने या न होने से मूत्र के आयतन के बढ़ने की अवस्था पोलीयूरिया (polyurea) कहलाती है।
  8. सिस्टिटि (Cystitis) – मूत्राशय (Urinay bladder) में सूजन आ जाने से यह रोग उत्पन्न होता है।
  9. डायबिटीज इन्सिपिड्स (Diabetes Insipidus) – पीयूष ग्रन्थि (pituitary gland) द्वारा स्नावित एण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (ADH) के कम स्नावण के कारण दूरस्थ कुण्डलित नलिका (distal convoluted tubules) एवं संयाहक नलिका (collecting tubule) में जल के अवशोषण में कमी आती है जिस कारण रोगी बार-बार अधिक मात्रा में मूत्र त्याग करता है।
  10. ओलीगोयूरिया (Oligouria) – मूत्र (urine) की बहुत कम मात्रा के निर्माण होने से यह रोग उत्पन्न होता है।
  11. प्रोटीन्यूरिया (Proteinuria) – मूत्र में प्रोटीन की मात्रा का सामान्य से अधिक होना प्रोटीन्यूरिया कहते हैं।
  12. एल्ब्यूमिनयूरिया (Albuminuria) – नेफ्रोन के ग्लोमेरूलस में सूजन के कारण अल्ट्रा छिद्रों (ultra pore) का व्यास बढ़ जाता है जिसे नेक्राइटिस (Nephritis) कहते हैं। इस रोग के कारण मूत्र में एल्ब्यूमिन प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है।
  13. कीटोन्यूरिया (Ketonuria) – मूत्र में कीटोनकाय जैसे ऐसीटिक अम्ल आदि की मात्रा का बढ़ना कीटोन्यूरिया कहलाती है।
  14. हीमेटोयूरिया-मूत्र के साथ लाल रक्त कणिकाओं (RBC) का निष्कासित होना हीमेटोयूरिया कहलाता है।
  15. हीमोग्लोबिनयूरिया (Haemoglobinuria) – मूत्र में हीमोग्लोबिन की उपस्थिति हीमोग्लोबिनयूरिया कहलाती है।
  16. पाइयूरिया (Pyuria) – मूत्र में मवाद कोशिकाओं (pus cells) का पाया जाना पाइयूरिया कहलाती है।
  17. पीलिया (Jaundice) – मूत्र में पित्त वर्णकों का अस्यधिक मात्रा में पाया जाना पीलिया कहलाता है। यह प्रायः हिपेटाइटिस या पित्त नलिका में रुकावट के समय दिखाई देता है।
  18. एल्कैप्टोन्यूरिया (Alcaptonuria) – मूत्र में एल्कैप्टोन या होमोजेन्टीसिक अम्ल का पाया जाना एल्कैप्टोन्यूरिया कहलाता है। जब एल्कैप्टोन वायु के सम्पर्क है तो मूत्र काले रंग का दिखाई देता है।

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प्रश्न 8.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-
(अ) अपोहन
(ब) परानिस्यंदन
(स) चयनात्मक पुनः अवशोषण
(द) जक्स्टा ग्लोमेरुलर उपकरण ।
उत्तर:
(अ) अपोहन
अपाहन या हामाडाइालासस (Haemodialysis)
वृक्कों के निक्क्रिय होने पर रक्त में यूरिया एकत्रित हो जाता है। इसे यूरिनिया (urenia) कहते हैं जो कि अत्यन्त हानिकारक है। यह वृक्क-पात (kidney failure) के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है। इसके मरीजों में यूरिया का निष्कासन हीमोडाइलिसिस (रक्त अपोहन) द्वारा होता है। इस क्रिया में रोगी की मुख्य धमनी से रक्त निकालकर 0° पर उण्डा करते हैं।

अथवा इस रक्त में हिपेरिन (heparin) नामक थक्कारोधी (प्रतिस्कन्दक) मिलाते हैं। तत्पश्चात् इस रक्त को अपोहनकारी इकाई में भेजा जाता है। इस इकाई में एक कुण्डलित सेलोफेन नली होती है और यह ऐसे द्रव से घिरी रहती है, जिसका संगठन नाइट्रोजनी अपशिष्टों को छोड़कर प्लाज्मा के समान होता है।

छिद्र युक्त सेलोफेन झिल्ली से अपोहनी द्रव में अणुओं का आवागमन सान्द्रण प्रवणता के अनुसार होता है। अपोहनी द्रव में नाइट्रोजनी अपशिष्ट अनुपस्थित होते हैं, अतः वे पदार्थ बाहर की ओर गमन करते हैं और रक्त को शुद्ध करते हैं। शुद्ध रक्त में हिपेरिन विरोधी डालकर, उसे रोगी की शिराओं द्वारा पुनः शरीर में भेज दिया जाता है। हीमोडाइलिसिस विधि द्वारा यूरिमिया व्याधि से रोगियों का उपचार किया जाता है।

(ब) परानिस्यंदन
(1) परानिस्यन्दन या अल्ट्राफिल्ट्रेशन (Ultrafiltration) – वृक्क के बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) सूक्ष्म छलनी की भाँति कार्य करते हैं। मनुष्य के ग्लोमेरूलस (glomerulus) में लगभग 50 समानान्तर केशिकाएँ पायी जाती हैं। इसमें अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) यूरिया युक्त रुधिर लाती है तथा अपवाही धमनिका (efferent arteriole) इससे रुधिर बाहर ले जाती है। ग्लोमेरुलस की दीवार में असंख्य छिद्र होते हैं, जिनका व्यास लगभग 0.1 µm होता है, इन छिद्रों में से प्लाज्मा में घुले पदार्थ छनकर निकल सकते हैं।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन 9

छिद्रित दीवार की पारगम्यता (permeability) सामान्य रुधिर केशिकाओं की अपेक्षा 100 से 1000 गुना अधिक होती है। ग्लोमेरुलस में आने वाला रुधिर जितना तेजी से आता है, बाहर जाते समय उतनी तेजी से नहीं जा पाता है। इसी कारण एक स्वस्थ मनुष्य में ग्लोमेरुलस में आने वाले रुधिर का रुधिर दाब 70 mm Hg होता है, जबकि ग्लोमेरुलस से जाते समय रुधर दाब 30mm = Hg होता है।

इसके फलस्वरूप ग्लोमेरुलस के रुधिर से तरल प्लाज्मा (plasma) व उत्सर्जी पदार्थ बोमेन सम्पट (Bowman’s capsule) की गुहा में पहुँच जाते हैं। ग्लोमेरलस से छनकर बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) की गुहा में जाने वाले द्रव को ग्लोमेरेलर निस्यन्द (glomerular filtrate) कहते हैं।

इसमें रुधिर के जल का 95% भाग, अमीनो अम्ल (amino acids), यूरिया (urea), ग्लूकोस (glucose), यूरिक अम्ल (uric acid), क्रिएटिन (criatine) तथा लवण (salts) होते हैं। बोमेन सम्मुट के नीचे प्रीवा (neck) का भीतरी अस्तर पक्ष्माभी एपिथीलियम का बना होता है। पक्ष्माभों (cilia) की गति से ग्लोमेरुलर फिल्टेट तेजी से नलिका में आगे बढ़ा रहता है।

(स) चयनात्मक पुनः अवशोषण
वरणात्भक पुनरावशोषण (Selective Reabsorption) – ग्लोमेरुलर निस्यन्द (Glomerular filtrate) में रुधिर के जल का 95% भाग छनकर आ जाता है परन्तु इसका लगभग 0.8% भाग ही मूत्र में परिवर्तित होकर बाहर निकलता है। शेष भाग का रुधिर में पुन: अवशोषण हो जाता है। लाभदायक पदार्थों (र)। यह पन: अवशोषण निम्नानुसार होता है-

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

(द) जक्स्टा ग्लोमेरुलर उपकरण ।
(ii) सानिध्य मध्यांश वृक्काणु या जक्स्ता मैड्यूलरी नेक्रान्स (Juxta medullary nephrons)
ये कुल नेक्रॉन्स का5-35% होते हैं। ये वृक्क में कार्टेक्स व मेड्यूला के मिलने के स्थान पर पाए जाते हैं। इनके हेनले के लूप लम्बे होते हैं जोकि वृक्क अंकुर (renal papilla) तक फैले होते हैं। इनकी परिनलिका केशिका जाल आलपिन की नोंक जैसा लूप बनाता है जिसे वासा रेक्टा (vasa recta) या
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन 10

रीटी माइेबिल (rete Mirabile) कहते हैं। इसमें बोमेन सम्पुट, आरोही भुजा तथा अभिवाही व अपवाही धमनिका में विशिष्ट कोशिकाएँ पायी जाती हैं, जिन्हें क्रमशः पोल्कीसन कोशिका (polkisson cells), मैक्युला डेस्सा (macula densa) तथा जक्स्टा म्लोमेरललर कोशिका (Juxta-Glomerular cells) कहते हैं। ये तीनों प्रकार की कोशिकाएँ मिलकर जक्स्टा-ग्लोमेुलर समिश्र (Juxta-glomerular apparatus) बनाते हैं। ये अन्त्रान्रावी प्रन्थि की भाँति कार्य कर वृक्क हामोंन रेनिन का स्रावण करते हैं।

वृक्कों में गुच्छ निस्यंदन की दर के नियमन के लिए गुच्छीय आसन्न उपकरण या जक्स्टा ग्लोमेरुलर समिश्र पाया जाता है जो अभिवाही व अपवाही धमनिकाओं के दूरस्थ कुण्डलित नलिका की केशिकाओं के रूपान्तरण से बनता है। इसी के सक्रियण से रेनिन का स्रावण होता है। रेनिन मून्र के सान्द्रण तथा गुच्छ निस्यंदन को नियन्त्रित करता है।

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HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 2 मात्रक और मापन

Haryana State Board HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 2 मात्रक और मापन Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Physics Important Questions Chapter 2 मात्रक और मापन


बहुविकल्पीय प्रश्न:

प्रश्न 1.
यदि बल, लम्बाई तथा समय मूल मात्रक हों तो द्रव्यमान का विमीय सूत्र होता है:
(a) [F1 L-1 T2]
(b) [F1 L1 T2]
(c) [F1 L1 T-1]
(d) [F1 l1 T1]
उत्तर:
(b) [F1 L1 T2]

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 2 मात्रक और मापन

प्रश्न 2.
एक ठोस गोले की त्रिज्या के आयतन मापन में 2% त्रुटि है, इसके मापन में 2% की त्रुटि है:
(a) 10%
(b) 20%
(c) 6%
(d) 8%
उत्तर:
(c) 6%

प्रश्न 3.
\(\frac{1}{\sqrt{\mu_0 \varepsilon_0}}\) का विमीय सूत्र है:
(a) [[M0L0T0]
(b) [M0L1T-1A-1]
(c) [M0L1T-1A-1]
(d) [M0LT-1]
उत्तर:
(d) [M0LT-1]

प्रश्न 4.
\(\frac{E}{B}\) का विमीय सूत्र है:
(a) [M0L0T0]
(b) [ML2T-2K-1]
(c) [M0LT-1]
(d) [MLT3A-1]
उत्तर:
(c) [M0LT-1]

प्रश्न 5.
एक प्रकाश वर्ष (ly) की दूरी का मान है:
(a) 9.46 x 1010 km
(b) 9.46 x 1012 km
(c) 9.46 x 1012m
(d) 9.46 x 1015 cm
उत्तर:
(b) 9.46 x 1012 km

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 2 मात्रक और मापन

प्रश्न 6.
किसी कण द्वारा तय की गई दूरी तथा समय में निम्न सम्बन्ध हैं:
x = At + Bt2 इनमें A व B की विमाएँ हैं:
(a) [M0L1T1][M0L1T-2]
(b) [M0L1T-1][M0L1T-2]
(c) [M0L1T1][M0L1T-2]
(d) [M0L1T1][M0L1T-1]
उत्तर:
(b) [M0L1T-1][M0L1T-2]

प्रश्न 7.
एक भौतिक राशि Y = MaLbT-c द्वारा व्यक्त की जाती है। यदि M, L व T के मापन में क्रमशः α%, β% व γ% त्रुटि हो, तो कुल प्रतिशत त्रुटि होगी-
(a) [aα – bβ + cγ]%
(b) [aα – bβ – cγ]%
(c) [aα + bβ – cγ]%
(d) [aα + bβ + cγ]?
उत्तर:
(d) [aα + bβ + cγ]?

प्रश्न 8.
कोणीय संवेग व रेखीय संवेग के अनुपात की विमा है:
(a) [M0LT0]
(b) [MLT-1]
(c) [ML2T-1]
(d) [M-1L-1T-1]
उत्तर:
(a) [M0LT0]

प्रश्न 9.
एक घन की लम्बाई और द्रव्यमान के मापन में अधिकतम प्रतिशत त्रुटि 2% और 3% है। घनत्व के मापन में अधिकतम प्रतिशत त्रुटि होगी:
(a) 9%
(b) 3%
(c) 27%
(d) 6%
उत्तर:
(a) 9%

प्रश्न 10.
1 सेकण्ड तुल्य है:
(a) क्रिप्टॉन घड़ी के 1650763.73 आवर्ती के
(b) क्रिप्टॉन घड़ी के 652189.63 आवर्ती के
(c) सीजियम घड़ी के 1650763.73 आवर्तों के
(d) सीजियम घड़ी के 9192631770 आवतों के
उत्तर:
(a) क्रिप्टॉन घड़ी के 1650763.73 आवर्ती के

प्रश्न 11.
गुरुत्वीय नियतांक G का विमीय सूत्र है:
(a) [M1L2T2]
(b) [M-1L3T-2]
(c) [M-1L2T-2]
(d) [M-1L1T-2]
उत्तर:
(b) [M-1L3T-2]

प्रश्न 12.
विमीय विश्लेषण विधि से निम्न सूत्र व्युत्पन्न नहीं किया जा सकता है:
(a) T = 2π \(\sqrt{\frac{l}{g}}\)
(b) s = ut + at2
(c) F = 6πrv
(d) v = \(\sqrt{\frac{T}{m}}\)
उत्तर:
(b) s = ut + at2

प्रश्न 13.
ताप का SI पद्धति में मात्रक है:
(a) सेण्टीग्रेड
(b) लम्बाई
(c) केल्विन
(d) रूमर
उत्तर:
(c) केल्विन

प्रश्न 14.
निम्न में से कौन सी राशि व्युत्पन्न है?
(a) द्रव्यमान
(b) फॉरेनहाइट
(c) समय
(d) वेग
उत्तर:
(d) वेग

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प्रश्न 15.
एक वैज्ञानिक किसी प्रयोग में 100 प्रेक्षण लेता है। वह पुन: इस प्रयोग को दोहराता है तथा 400 प्रेक्षण लेता है, तो त्रुटि:
(a) अपरिवर्तित होगी
(b) आधी हो जायेगी
(c) चौथाई हो जायेगी
(d) चौगुनी हो जायेगी
उत्तर:
(c) चौथाई हो जायेगी

प्रश्न 16.
7000 में सार्थक अंकों की संख्या है:
(a) 1
(b) 2
(c) 3
(d) 4
उत्तर:
(a) 1

प्रश्न 17.
जूल सेकण्ड मात्रक है:
(a) बल आघूर्ण का
(b) कोणीय संवेग का
(c) ऊर्जा का
(d) शक्ति का
उत्तर:
(b) कोणीय संवेग का

प्रश्न 18.
धारा I = ktan θ सूत्र में का मात्रक होगा:
(a) ऐम्पियर
(b) रेडियन
(c) वोल्ट
(d) ओम
उत्तर:
(a) ऐम्पियर

प्रश्न 19.
तरंग संख्या k = \(\frac{2 \pi}{\lambda}\) का विमीय सूत्र होगा:
(a) [M0L-1T1]
(b) [M0L0T1]
(c) [M0L0T0]
(d) [M0L-1T0]
उत्तर:
(d) [M0L-1T0]

प्रश्न 20.
एक मोल गैस के लिए PV = RT समीकरण में R का विमीय सूत्र होगा:
(a) [M1L-2T-2K-1]
(b) [M1L2T2K-1]
(c) [M1L2T-2K-1]
(d) [M2L2T-2K]
उत्तर:
(c) [M1L2T-2K-1]

प्रश्न 21.
1 नैनोमीटर तुल्य है:
(a) 109 मीटर
(b) 106 मीटर
(c) 10-7 सेमी
(d) 10-9 सेमी
उत्तर:
(c) 10-7 सेमी

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प्रश्न 22.
3.513 kg का एक पिण्ड 5.0 m/s की चाल से x- दिशा में संवेग का परिमाण रिकॉर्ड किया अनुदिश गतिमान है। इसके जायेगा:
(a) 17.56 kg ms-1
(b) 17.57 kg ms-1
(c) 17.6 kg ms-1
(d) 17.565 kg ms-1
उत्तर:
(c) 17.6 kg ms-1

प्रश्न 23.
यदि E = ऊर्जा, G = गुरुत्वाकर्षण नियतांक l = आवेग तथा M द्रव्यमान, \(\frac{G I M^2}{E^2}\) तब की विमाएँ किस राशि को प्रदर्शित करती हैं?
(a) समय
(b) द्रव्यमान
(c) लम्बाई
(d) बल
उत्तर:
(a) समय

प्रश्न 24.
निम्नलिखित इकाइयों में से कौन-सी विमा दर्शाती है, जहाँ विद्युत आवेश दर्शाता है?
(a) \(\frac{\mathrm{Wb}}{\mathrm{m}^2}\)
(b) हेनरी (H)
(c) \(\frac{\mathrm{H}}{\mathrm{m}^2}\)
(d) वेबर (Wb)
उत्तर:
(b) हेनरी (H)

अति लघु उत्तरीय प्रश्न:

प्रश्न 1.
माइक्रोन किस भौतिक राशि का मात्रक है?
उत्तर:
माइक्रोन दूरी अथवा लम्बाई का मात्रक है। (एक माइक्रोन = 10-6 मीटर)

प्रश्न 2.
रेडियन तथा स्टेरेडियन किसके मात्रक हैं?
उत्तर:
रेडियन समतलीय कोण का एवं स्टेरेडियन घन कोण का मात्रक है।

प्रश्न 3.
पूरक मात्रकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
रेडियन व स्टेरेडियन।

प्रश्न 4.
1 सेकण्ड में कितने नैनो सेकण्ड होते हैं?
उत्तर:
1 सेकण्ड में 109 नैनो सेकण्ड होते हैं।

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प्रश्न 5.
1 सेकण्ड माध्य सौर दिवस का कौन सा भाग होता है?
उत्तर:
1 सेकण्ड माध्य सौर दिवस का 86,400 वाँ भाग होता है।

प्रश्न 6.
mN, Nm तथा nm में क्या अन्तर है?
उत्तर:
mN मिली न्यूटन को, Nm न्यूटन मीटर को तथा nm नैनो मीटर को प्रदर्शित करते हैं।

प्रश्न 7.
वेग प्रवणता का विमीय ‘सूत्र’ लिखिये।
उत्तर:
वेग प्रवणता =
अतः वेग प्रवणता का विमीय सूत्र
\(\frac{\left[\mathrm{M}^0 \mathrm{~L}^1 \mathrm{~T}^{-1}\right]}{\left[\mathrm{M}^0 \mathrm{~L}^1 \mathrm{~T}^0\right]}\) = [M0L0T-1 ]

प्रश्न 8.
S.I. पद्धति में प्रदीपन तीव्रता का मात्रक क्या होता है?
उत्तर:
S.I. पद्धति में प्रदीपन तीव्रता का मात्रक “कैण्डिला” (cd) होता है।

प्रश्न 9.
पदार्थ की मात्रा का मूल मात्रक क्या है?
उत्तर:
पदार्थ की मात्रा का मूल मात्रक ‘मोल’ (mol) है।

प्रश्न 10.
एक जूल ऊर्जा कितने अर्ग के बराबर होती है?
उत्तर:
1 जूल = 107 अर्ग।

प्रश्न 11.
प्लांक नियतांक का मात्रक क्या होता है?
उत्तर:
प्लांक नियतांक / का मात्रक ‘जूल सेकण्ड’ (Js) होता है।

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प्रश्न 12.
गुरुत्वीय त्वरण तथा सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण नियतांक (G) की विमाएं लिखिए।
उत्तर:
गुरुत्वीय त्वरण (g) का विमीय सूत्र = [M0L1T-2] तथा सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण नियतांक (G) का विमीय सूत्र = [M-1L3T-2]

प्रश्न 13.
उस भौतिक राशि का नाम बताइये, जिसकी विमा प्लाँक नियतांक की विमा के बराबर हो।
उत्तर:
कोणीय संवेग।

प्रश्न 14.
उन राशियों के नाम बताइये जिनका विमीय सूत्र [M1L2T-1] हो।
उत्तर:
कोणीय संवेग तथा प्लांक नियतांक।

प्रश्न 15.
उन राशियों के नाम बताइये जिनका विमीय सूत्र [M1L2T-1] हो।
उत्तर:
कार्य एवं बल आघूर्ण।

प्रश्न 16.
समीकरण E = at + bt2 में E ताप विद्युत् वाहक बल है एवं तापान्तर है तथा वb नियतांक है। यहाँ का मात्रक क्या होगा ?
उत्तर:
∵ at का मात्रक = E का मात्रक
∴ का मात्रक = \(\frac{E}{t}\) = imm वोल्ट / डिग्री।

प्रश्न 17.
पृष्ठ तनाव की विमा क्या होती है?
उत्तर:
[M1L0T-2]

प्रश्न 18.
एक मीटर में Kr 86 की कितनी तरंगदैर्ध्य होती हैं?
उत्तर:
1 मीटर में Kr86 की तरंग संख्या = 1,650,763.73

प्रश्न 19.
आवेग की विमा किसकी विमा के समान होती है?
उत्तर:
आवेग की विमा [M1L1T-1] ‘संवेग’ की विमा के समान होती है।

प्रश्न 20.
दो विमाहीन राशियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कोण, विकृति।

प्रश्न 21.
उन भौतिक राशियों के नाम लिखिये जिनके विमीय सूत्र [M1L-1 T-2] हैं।
उत्तर:
दाब, प्रतिबल, प्रत्यास्थता गुणांक।

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प्रश्न 22.
किसी ऐसी भौतिक राशि का नाम लिखिये जिसका मात्रक तो हो लेकिन विमाहीन हो।
उत्तर:
कोण

प्रश्न 23.
सूत्र \(T=2 \pi \sqrt{L Y}\) में T समय एवं L लम्बाई हो तो Y का विमीय सूत्र लिखिए।
उत्तर:
दिया है:
\(T=2 \pi \sqrt{L Y}\) ⇒ \(Y=\frac{T^2}{4 \pi^2 L}\)
∴ [y] = [M0L-1T-2]

प्रश्न 24.
बल, त्वरण, संवेग तथा शक्ति में न्यूटन सेकण्ड किसका मात्रक है?
उत्तर:
संवेग का।

प्रश्न 25.
क्या किसी भौतिक राशि की विमाएँ भिन्न-भिन्न पद्धतियों में भिन्न-भिन्न होती हैं?
उत्तर:
नहीं; किसी भौतिक राशि की विमाएँ सभी पद्धतियों में समान होती हैं।

प्रश्न 26.
भौतिक राशि Z की गणना सूत्र Z = \(\frac{a b^3}{c^6}\)द्वारा की जाती है। a, b तथा में से कौन सी राशि अधिक यथार्थता से नापी जानी चाहिए और क्यों?

उत्तर:
c क्योंकि c की घात अधिकतम है और त्रुटि में घात का गुणा किया जाता है।

प्रश्न 27.
प्लॉक के सार्वत्रिक नियतांक (h) का मात्रकं प्राप्त कीजिए।
उत्तर:
फोटॉन की ऊर्जा, E = hv ⇒ h = \(\frac{E}{\mathrm{v}}\)
∴ h का मात्रक =
= जूल- सेकण्ड

प्रश्न 28.
किसी कोण की माप क्या लम्बाई के मात्रक पर निर्भर करती है?
उत्तर:
नहीं कोण दो लम्बाइयों का अनुपात होता है; अतः यह लम्बाई के मात्रक से स्वतन्त्र है।

प्रश्न 29.
X के मान में आपेक्षिक त्रुटि बताइये यदि X = \(\frac{A^4 B^{1 / 3}}{C \cdot D^{3 / 2}}\)
उत्तर:
X के मान में अधिकतम आपेक्षिक त्रुटि
\(\left|\frac{\Delta X}{X}\right|_{\max }=4 \frac{\Delta A}{A}+\frac{1}{3} \frac{\Delta B}{B}+\frac{\Delta C}{C}+\frac{3}{2} \frac{\Delta D}{D}\)

प्रश्न 30.
निम्न में सार्थक अंकों की संख्या बताइये:
1. 0.0020 × 104m;
2. 5.30 x 106 kg
उत्तर:

  1.  दो सार्थक अंक
  2. तीन सार्थक अंक

प्रश्न 31.
1 मिली सेकण्ड में कितने नैनो सेकण्ड होते हैं?
उत्तर:
1 ms = 10-3 s = 10-3 × 109 s = 106 ns.

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प्रश्न 32.
बल नियतांक का विमीय सूत्र लिखिये।
उत्तर:
बल नियतांक का विमीय सूत्र = [M1 L0T-2]

प्रश्न 33.
उन दो राशियों के नाम बताइये जिनके विमीय सूत्र [M1L0T-2] हों।
उत्तर:
बल नियतांक पृष्ठ तनाव।

प्रश्न 34.
आवेग का विमीय सूत्र लिखिए।
उत्तर:
आवेग = बल x समयान्तराल
= [M1L1T-2] × [T1] = [M1L1T-1]

प्रश्न 35.
किसी तार में अनुप्रस्थ तरंग की चाल V = \(\sqrt{\frac{T}{m}}\) है, जहाँ T तनाव बल है। यदि m तार की एकांक लम्बाई का द्रव्यमान kg-m-1 में हो तथा वेग 1, ms-1 में हो तो तनाव t का मात्रक बताइये
उत्तर:
सूत्र V = \(\sqrt{\frac{T}{m}}\)
⇒ T = v2.m
∴ T का मात्रक = (ms-1)2 kg.m-1 = kg.m.s-2 या न्यूटन

प्रश्न 36.
कोणीय संवेग की विमा तथा मात्रक लिखिए।
उत्तर:
कोणीय संवेग L = Iω
∴ L का मात्रक = kg-m2 s-1 तथा विमीय सूत्र
= [M2L2T-1]

प्रश्न 37.
दो ऐसे नियतांकों के नाम बताइये जो विमाहीन न हों।
उत्तर:
प्लांक नियतांक; गैस नियतांक

प्रश्न 38.
श्यानता गुणांक की विमा लिखिये।
उत्तर:
[M1L-1T-1]

लघु उत्तरीय प्रश्न:

प्रश्न 1.
मात्रक किसे कहते हैं तथा मात्रकों की कितनी पद्धतियाँ होती हैं?
उत्तर:
भौतिक राशि के मापन के लिए नियत किये मान को मात्रक कहते हैं। किसी भौतिक राशि के निश्चित वास्तविक मूल रूप को उस राशि का मानक मात्रक कहते हैं।
मात्रकों की निम्नलिखित तीन पद्धतियाँ हैं:

  1. C.GS. पद्धति अर्थात् सेन्टीमीटर ग्राम सेकण्ड पद्धति।
  2. M. KS. पद्धति अर्थात् मीटर किलोग्राम सेकण्ड पद्धति।
  3. F.P.S. पद्धति अर्थात् फुट पाउण्ड सेकण्ड पद्धति।

प्रश्न 2.
एक रेडियन की परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
एक तलीय कोण
∆s = \(\frac{\Delta s}{r}\) rad
यदि
∆s = r तो ∆θ = 1 rad.
अर्थात् एक रेडियन वह तलीय कोण है जो वृत्त की त्रिज्या के बराबर चाप द्वारा वृत्त के केन्द्र पर अन्तरित किया जाता है।

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 2 मात्रक और मापन

प्रश्न 3.
किसी माप की यथार्थता तथा परिशुद्धता में क्या अन्तर है?
उत्तर:
किसी माप की यथार्थता से अभिप्राय है कि राशि का मापित मान उसके वास्तविक मान के कितना निकट है, जबकि किसी माप की परिशुद्धता से अभिप्राय है कि राशि किस विभेदन सीमा तक मापी गयी।
माप की परिशुद्धता ∝

प्रश्न 4.
आपेक्षिक तथा निरपेक्ष त्रुटि से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
निरपेक्ष त्रुटि: किसी राशि के वास्तविक एवं मापित मान के अन्तर को निरपेक्ष या परम त्रुटि कहते हैं।
जब वास्तविक मान न दिया हो बल्कि मापन के पाठ्यांक दिये हों उनका माध्यमान ही वास्तविक मान मान लिया जाता है अर्थात्
\(\bar{a}=\sum_{i=1}^n \frac{a_i}{n}\)
अतः i वे माप की निरपेक्ष त्रुटि
∆a = \(\bar{a}-a_i\)
और कुल निरपेक्ष त्रुटि
∆\(\bar{a}=\frac{1}{n} \sum_{i=1}^n\left|\Delta a_i\right|\)
आपेक्षिक त्रुटि: माध्य परम त्रुटि एवं माध्यमान के अनुपात को आपेक्षिक त्रुटि कहते हैं।
∴ आपेक्षिक त्रुटि = \(\frac{\Delta \bar{a}}{a}\)

प्रश्न 5.
शून्य अंक किन परिस्थितियों में सार्थक माना जाता है?
उत्तर:
शून्य अंक निम्न परिस्थितियों में सार्थक माना जाता है:

  1. यदि यह दो अशून्य अंकों के मध्य हो।
  2. यदि यह दशमलव बिन्दु के आगे अशून्य अंक के बाद हो।
  3.  यदि शून्य युक्त पूर्ण संख्या मापन से प्राप्त होती है जैसे किसी छड़ की लम्बाई मापने पर 200 cm प्राप्त होती है तो इसके दोनो शून्य सार्थक हैं।

प्रश्न 6.
एक गोले की त्रिज्या के मापन में 2% की त्रुटि होती है। इसके आयतन के मापन में कितने प्रतिशत त्रुटि होगी?
उत्तर:
गोले का आयतन v = \(\frac{4}{3}\)πr3
∴ \(\frac{\Delta V}{V}\) x 100 = 3 \(\frac{\Delta r}{r}\) × 100 = 3 x 2% = 6%
∴ गोले के आयतन में प्रतिशत त्रुटि = 6%

प्रश्न 7.
3.27 मीटर तथा 3.25 मीटर का अन्तर 0.02 मीटर या 2 x 10-2 मीटर है। क्या इसे 2.00 × 102 मीटर लिख सकते हैं?
उत्तर:
नहीं, क्योंकि 2 के बाद के अंक निश्चित नहीं है अतः इन अंकों को शून्य नहीं माना जा सकता है।

प्रश्न 8.
यदि किसी प्रयोग में विभिन्न मापों में सार्थक अंकों की संख्या भिन्न-भिन्न हो तो किस राशि को अधिक शुद्धता से मापना चाहिए तथा क्यों?
उत्तर:
जिस राशि में सार्थक अंकों की संख्या सबसे कम हो, उसको अधिक शुद्धता से मापना चाहिए क्योंकि इसके कारण प्रतिशत त्रुटि सबसे अधिक आती है।

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 2 मात्रक और मापन

प्रश्न 9.
किसी कण का विस्थापन s = ct3 द्वारा प्रदर्शित है, जहाँ t समय है। c का विमीय सूत्र ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
विस्थापन s = ct3 ⇒ c =
∴ c का विमीय सूत्र = \(\frac{\left[\mathrm{M}^0 \mathrm{~L}^1 \mathrm{~T}^0\right]}{\left[\mathrm{M}^0 \mathrm{~L}^0 \mathrm{~T}^3\right]}\)
= [M0L1T-3]
= [M0L1T-3]

प्रश्न 10.
यदि वेग, बल एवं समय को मूल मात्रक मान लिया जाये तो ऊर्जा का विमीय सूत्र ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
∵ ऊर्जा = कार्य = बल x विस्थापन = बल x वेग x समय
∴ ऊर्जा का विमीय सूत्र = [F1V1t1]

प्रश्न 11.
S.I. पद्धति की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  1. यह मात्रकों की परिमेयकृत पद्धति है अर्थात् इस पद्धति में किसी एक भौतिक राशि के लिए एक ही मात्रक का उपयोग होता है।
  2.  इस पद्धति में मात्रक अचर तथा उपलब्ध मानकों पर आधारित हैं।
  3.  यह मात्रकों की सम्बद्ध पद्धति है अर्थात् इस पद्धति में सभी भौतिक राशियों के व्युत्पन्न मात्रक केवल मूल मात्रकों को गुणा एवं भाग करके प्राप्त हो सकते हैं।
  4.  ये सभी मात्रक सुपरिभाषित एवं पुन: स्थापित होने वाले हैं।
  5.  यह मीट्रिक या दशमलव पद्धति है।
  6.  S.I. पद्धति विज्ञान की सभी शाखाओं में प्रयोग की जा सकती है परन्तु M.K.S. पद्धति को केवल यांत्रिकी में प्रयोग किया जा सकता है।

प्रश्न 12.
विमीय विश्लेषण विधि के उपयोग बताइये।
उत्तर:
विमीय समीकरणों के निम्नलिखित उपयोग हैं:

  1.  किसी समीकरण की सत्यता की जाँच करना।
  2. विभिन्न भौतिक राशियों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करना।
  3.  भौतिक राशियों के मात्रकों को मापन की एक पद्धति से दूसरी पद्धति में बदलना।

1. किसी समीकरण की सत्यता की जाँच करना (To Check the Truthfulness of an Equation):
जिस समीकरण की सत्यता की जाँच करनी होती है, उसके दोनों पक्षों की विमाओं की तुलना करते हैं। यदि दोनों पक्षों की विमाएं समान मिलती हैं तो समीकरण सही होगा अन्यथा गलत होगा। यदि समीकरण के किसी पक्ष में एक से अधिक पदों का योग अथवा अन्तर हो तो सत्यता की जाँच अर्द्ध-समीकरण बनाकर करते हैं। यदि सभी अर्द्ध समीकरण विमीय दृष्टि से सही मिलते हैं तो दिया गया समीकरण सही होगा, अन्यथा गलत होगा।

प्रश्न 13.
क्या विमाहीन एवं मात्रकहीन भौतिक राशि का अस्तित्व सम्भव है?
उत्तर:
विमाहीन राशियों का अस्तित्व सम्भव है जैसे – कोण, विकृति इसी प्रकार मात्रक विहीन राशियों का अस्तित्व भी संभव है जैसे – विकृति, अपवर्तनांक, आपेक्षिक घनत्व।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न:

प्रश्न 1.
अन्तर्राष्ट्रीय पद्धति में मात्रकों के नाम एवं संकेत लिखने के नियम लिखिए।
उत्तर:

  1. भौतिक राशियों को प्रतीक रूप में सामान्यतः अंग्रेजी वर्णमाला के किसी अक्षर से निरूपित करते हैं तथा इन्हें तिरछे अथवा ढालू टाइप में छपवाया जाता है तथापि जिस राशि के लिए दो अक्षरीय प्रतीक आवश्यक हों तो उन्हें दो प्रतीकों के गुणनफल के रूप में प्रदर्शित करना होता है परन्तु इन प्रतीकों को पृथक् दर्शाने के लिए कुछ स्थान छोड़ना आवश्यक होता है।
  2.  नामों अथवा व्यंजकों के संक्षिप्त रूपों, जैसे- Potential Energy के लिए P.E. का उपयोग भौतिक समीकरणों में नहीं किया जाता है। पाठ्य सामग्री में इन संक्षिप्त रूपों को साधारण रोमन (सीधे) टाइप में छपवाया जाता है।
  3.  सदिश राशियों को मोटे टाइप में तथा सीधे छपवाया जाता है।
  4.  दो भौतिक राशियों के गुणनफल को उनके बीच कुछ स्थान छोड़कर लिखा जाता है। एक भौतिक राशि को दूसरी राशि से विभाजित करना एक क्षैतिज दण्ड खींचकर अथवा सॉलिडस (अर्थात् तिरछा रेखा) के साथ निर्दिष्ट किया जा सकता है अथवा अंश तथा हर के प्रथम घात के व्युत्क्रम के (जैसे- m/s या ms) के रूप में गुणनफल लिख सकते हैं।
  5.  मात्रकों के मानक तथा अनुमोदित प्रतीकों को अंग्रेजी वर्णमाला के छोटे अक्षरों से आरम्भ करके रोमन (सीधे टाइप) में लिखा जाता है। मात्रकों के लघु उल्लेखों, जैसे- kg, m, s, cd आदि को प्रतीकों के रूप में लिखा जाता है, संक्षिप्त रूप में नहीं मात्रकों को केवल तभी बड़े अक्षर से लिखा जाता है जब प्रतीक को किसी वैज्ञानिक के नाम से व्युत्पन्न किया जाता है जैसे- न्यूटन (N), जूल (J), ऐम्पियर (A) आदि।
  6.  मात्रकों के प्रतीकों को उनके लिए अनुमोदित अक्षरों में लिखने के पश्चात् उनके अन्त में पूर्ण विराम नहीं लगाया जाता तथा मात्रकों के प्रतीकों के केवल एक वचन में ही लिखा जाता है बहुवचन में नहीं अर्थात् किसी मात्रक का प्रतीक बहुवचन में अपरिवर्तित रहता है।
  7.  सॉलिडस (Solidus) अर्थात् (l) के उपयोग का अनुमोदन केवल एक अक्षर के मात्रक प्रतीक के अन्य मात्रक प्रतीक द्वारा विभाजन का संकेतन करने के लिए किया गया है। एक से अधिक सॉलिडस का उपयोग नहीं किया जाता है।

प्रश्न 2.
विमीय समीकरणों के उपयोग से किसी समीकरण में नियतांकों एवं चरों की विमाएँ ज्ञात करने की विधि का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
किसी समीकरण में नियतांकों एवं चरों की विमाएं ज्ञात करना (To Find the Dimensions of Constants and Variables in the Given Equation):
समीकरणों में नियतांकों और चरों की विमाएँ भी विमाओं की समांगता के नियम से ज्ञात की जा सकती हैं अर्थात् किसी भी भौतिक राशि में जोड़ी या घटाई जाने वाली राशियों की विमाएँ समान होती हैं तथा समीकरण के दोनों पक्षों की विमाएँ भी समान होती हैं।

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प्रश्न 3.
विमा, विमीय सूत्र, विमीय समीकरण एवं विमीय समांगता का सिद्धान्त विस्तार पूर्वक समझाइये।
उत्तर:
विमा (Dimensions and Dimensional Analysis):
“किसी भौतिक राशि की विमाएँ वे घातें होती हैं, जिन्हें उस भौतिक राशि के व्युत्पन्न मात्रक प्राप्त करने के लिए मूल मात्रकों पर चढ़ाया जाता है।” उदाहरणार्थ-

= (दूरी का मात्रक)1 x ( समय का मात्रक)-1
स्पष्ट है कि चाल का मात्रक प्राप्त करने के लिए हमें लम्बाई के मात्रक पर 1 की घात एवं समय के मात्रक पर (-1) की घात चढ़ानी होती है। चाल के मात्रक को विभिन्न पद्धतियों में लिख सकते हैं – मीटर / सेकण्ड, सेमी/सेकण्ड, फुट/सेकण्ड। अतः ये सभी मात्रक अलग-अलग हैं परन्तु प्रत्येक की विमा में दूरी की । घात एवं समय की (-1) घात है। अतः, “किसी भौतिक राशि की विमाएँ राशि को व्यक्त करने वाले मात्रकों पर निर्भर नहीं करती हैं।”

कुछ पदों की परिभाषा निम्न प्रकार की जा सकती है:
1. विमीय सूत्र (Dimensional Formula): वह पद जो यह प्रदर्शित करता है कि व्युत्पन्न मात्रक को बनाने के लिए कौन सी मूल राशियों के मात्रक प्रयुक्त किये गये हैं, और कौन सी घातें इस कार्य में प्रयुक्त हैं, इसे भौतिक राशि का विमीय सूत्र कहते हैं। विमीय सूत्रों को सदैव बड़े कोष्ठक में लिखा जाता है।
उदाहरणार्थ: बल का विमीय सूत्र [M1L1 T-2] है।

2. विमीय समीकरण (Dimensional Equation): भौतिक राशि के संकेत को उसके विमीय सूत्र के बराबर रखने पर प्राप्त समीकरण को विमीय समीकरण कहते हैं।
उदाहरणार्थ:
[बल] = [M1L1T-2]
या
[F] = [M1L1T-2]

3. विमाओं का समांगता का सिद्धान्त (Principle of Homogeneity of Dimensions): इस सिद्धान्त के अनुसार “किसी भौतिक सम्बन्ध के लिए दोनों ओर के सभी पदों की विमाएँ समान होनी चाहिए।”
उदाहरण के लिए:
v = u + at में,
v की विमाएँ = [L1T-1]
u की विमाएँ = [L1T-1]
at की विमाएँ = [L1 T-2][T]=[LT-1]
उपयुक्त भौतिक समीकरण के दोनों पक्षों के सभी पदों की विमाएँ समान हैं, जोकि विमाओं की समांगता के सिद्धान्त के अनुरूप है।
विमीय सूत्र ज्ञात करना-यदि हमें यह ज्ञात हो कि किसी भौतिक राशि में कौन-कौन सी मूल राशियाँ शामिल हैं तो उस राशि का विमीय सूत्र हम निम्न प्रकार ज्ञात कर सकते हैं

प्रश्न 4.
किसी भौतिक राशि के संख्यात्मक मान तथा उसके मात्रक में क्या सम्बन्ध है? विमीय विधि में इस सम्बन्ध की क्या उपयोगिता है?
उत्तर:
भौतिक राशियों के मात्रकों को एक पद्धति से दूसरी पद्धति में बदलना (Conversion of Units of Physical Quantities from One to Another System):
किसी भौतिक राशि के आंकिक मान (n) तथा मात्रक (u) का गुणनफल नियत रहता है; अर्थात्
n. [u] = नियतांक …….(1)
माना किसी भौतिक राशि Q का विमीय सूत्र [MaLbTc] है। इस राशि का एक पद्धति में आंकिक मान n1 एवं मात्रक [Ma1Lb1T c1] तथा दूसरी पद्धति में आंकिक मान n2 एवं मात्रक [Ma2Lb2Tc2] है। अत: समीकरण (1) से
Q = n1u1 = n2u2
या Q = n1 [M4LT] = n2[M£LT′′]
या n2 = n \(\frac{\left[\mathrm{M}_1^a \mathrm{~L}_1^b \mathrm{~T}_1^c\right]}{\left[\mathrm{M}_2^a \mathrm{~L}_2^b \mathrm{~T}_2^c\right]}\)
या n2 = n1 \(\left[\frac{\mathrm{M}_1}{\mathrm{M}_2}\right]^a\left[\frac{\mathrm{L}_1}{\mathrm{~L}_2}\right]^b\left[\frac{\mathrm{T}_1}{\mathrm{~T}_2}\right]^c\)
इस सूत्र की सहायता से किसी भौतिक राशि के आंकिक मान को एक पद्धति से दूसरी पद्धति में बदला जा सकता है।

प्रश्न 5.
त्रुटि किसे कहते हैं? विभिन्न प्रकार की त्रुटियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
(A) क्रमबद्ध त्रुटियाँ (Systematic Errors): ” वे त्रुटियाँ जो किसी क्रमबद्ध नियम से निर्धारित होती हैं, क्रमबद्ध त्रुटियाँ कहलाती हैं।” क्रमबद्ध त्रुटियों को निर्धारित करने वाले नियम का पता लगाया जा सकता है। इस नियम के ज्ञात होते ही क्रमबद्ध त्रुटि को न्यूनतम किया जा सकता है। क्रमबद्ध त्रुटियों के कुछ स्रोत निम्नलिखित हैं-
(a) उपकरणी त्रुटियाँ ( Instrumental Errors ): सभी उपकरणी त्रुटियाँ क्रमबद्ध त्रुटियों के अन्तर्गत आती हैं। इनके उदाहरण हैं

  1.  स्केल का त्रुटिपूर्ण अंशांकन: त्रुटिपूर्ण अंशांकन के कारण एक तापमापी द्वारा N. T.P. पर जल का क्वथनांक 100°C के स्थान पर 95°C पढ़ा जा सकता है।
  2.  उपकरण की शून्यांक त्रुटि: वर्नियर कैलीपर्स, पेंचमापी की शून्यांक त्रुटि प्रकाशिक बेंच की सूचक त्रुटि (index error) भी क्रमबद्ध त्रुटियाँ हैं। सुग्राही एवं उच्च गुणवत्ता के यंत्रों का उपयोग करके इस प्रकार की त्रुटि को कम किया जा सकता है।

(b) प्रायोगिक तकनीक में अपूर्णता (Imperfection in Experimental Technique): प्रयोग के दौरान बाह्य प्रतिबन्धों जैसे – ताप, आर्द्रता, वायु-वेग आदि में क्रमबद्ध परिवर्तन तथा मापन की अनुचित तकनीक ( Imperfect Technique) क्रमबद्ध त्रुटियों के अन्तर्गत आते हैं। उदाहरणार्थ: यदि किसी व्यक्ति का ताप कन्धे व भुजा के बीच तापमापी को दबाकर मापा जाये तो इसका पाठ वास्तविक ताप से कम होगा। ऊष्मा के प्रयोगों में कुछ ऊष्मा का विकिरण द्वारा ह्रास हो जाता है।

(c) व्यक्तिगत त्रुटियाँ (Personal Errors): ये त्रुटियाँ उपकरण की अनुचित व्यवस्था तथा प्रेक्षण के दौरान उचित सावधानी न बरतने के कारण उत्पन्न होती हैं।
निराकरण (Elimination): क्रमबद्ध त्रुटियों को दूर करने के लिए भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न विधियों प्रयुक्त की जाती हैं।

  1. कुछ स्थितियों में त्रुटियों का निर्धारण वास्तविक प्रयोग से पहले किया जाता है। उदाहरणार्थ: यंत्र की शून्यांक त्रुटि प्रयोग से पहले ज्ञात की जाती है तथा प्रत्येक माप से संगत संशोधन किया जाता है।
  2.  कुछ स्थितियों में त्रुटियों का निर्धारण प्रयोग के बाद किया जाता है। उदाहरणार्थ: ऊष्मा के प्रयोग में विकिरण के ह्रास का संशोधन विभिन्न समयों में लिए ताप के प्रेक्षण से किया जाता है।

(B) यादृच्छिक त्रुटियाँ (Random Errors): इस प्रकार की त्रुटियाँ अत्यधिक भिन्नता के कारण होती हैं। कभी-कभी इस प्रकार की त्रुटियाँ अवसरीय त्रुटि कहलाती हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने पाठ्यांकों की पुनरावृत्ति करे तो व्यक्ति प्रत्येक प्रेक्षण में त्रुटि करता है एवं इस प्रकार की त्रुटि को अंकगणितीय माध्य के द्वारा कम करके शुद्धतम मान प्राप्त किया जा सकता है।
माना किसी राशि के लिए लिये गये n पाठ्यांकों का मान क्रमश a1, a2, a3, ……….. an हो, तो शुद्ध मान निम्न होगा
या
स्पष्ट है कि प्रेक्षणों की संख्या n जितनी अधिक होगी, त्रुटि उतनी ही \(\left(\frac{1}{n}\right)\)
यदि 100 प्रेक्षणों के औसत मान में यादृच्छिक त्रूटि x है तो 500 प्रेक्षणों के औसत मान में यह त्रुटि \(\left(\frac{x}{5}\right)\) होगी।

(C) स्थूल त्रुटियाँ (Gross Errors): व्यक्ति की असावधानी के कारण मापन में जो त्रुटि हो जाती है, वह सम्पूर्ण अथवा स्थूल त्रुटि कहलाती है। इनके उत्पन्न होने के कारण निम्न हैं।

  1.  किसी उपकरण की उचित व्यवस्था किये बिना पाठ्यांक लेने के कारण।
  2.  गलत तरीके से पाठ्यांक लेना।
  3.   पाठ्यांक को लिखते समय गलत लिख लेना।
  4.  परिकलन में पाठ्यांक का मान गलत रख देना।

प्रश्न 6.
दो राशियों के गुणनफल तथा भागफल में होने वाली अधिकतम त्रुटियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राशियों के गुणनफल में त्रुटि (Error in Product of Quantities): माना कोई भौतिक राशि Z राशियों A व B के गुणनफल के बराबर है, अर्थात्
Z = A x B
माना ∆A = A राशि में परम त्रुटि
∆B = B राशि में परम त्रुटि
और ∆Z = Z के आंकलन में परम त्रुटि

∵ राशि \(\frac{\Delta A \cdot \Delta B}{A B}\) बहुत छोटी राशि है अत: इसे छोड़ने पर,
\(\pm \frac{\Delta Z}{Z}\) = \(\pm \frac{\Delta A}{A} \pm \frac{\Delta B}{B}\)
∴ अधिकतम भिन्नात्मक त्रुटि-
\(\left|\frac{\Delta Z}{Z}\right|_{\max }\) = \(\frac{\Delta A}{A}+\frac{\Delta B}{B}\)

वैकल्पिक विधि (Alternative Method):
∴ Z = A.B
दोनों ओर का लघुगुणक (log) लेने पर:
log Z = log A.B
या log Z = log A + log B
दोनों पक्षों का अवकलन करने पर,
\(\frac{\Delta Z}{Z}\) = \(\frac{\Delta A}{A}+\frac{\Delta B}{B}\)
∴ \(\left|\frac{\Delta Z}{Z}\right|_{\max }\) = \(\frac{\Delta A}{A}+\frac{\Delta B}{B}\)
अतः दो राशियों के गुणनफल में अधिकतम भिन्नात्मक त्रुटि, गुणक राशियों की भिन्नात्मक त्रुटियों के योग के बराबर होती है।

राशियों के भागफल में त्रुटि (Error in Division of Quantities): माना कोई भौतिक राशि Z दो राशियों A व B के बराबर है, अर्थात्
Z = \(\frac{A}{B}\)
माना ∆A = A के मापन में परम त्रुटि ∆B = B के मापन में परम त्रुटि
तथा ∆Z = Z के आंकलन में परम त्रुटि
अतः
Z = \(\frac{A}{B}\)
दोनों ओर का लघुगुणक लेने पर
log Z = log A – log B
दोनों पक्षों का अवकलन करने पर
\(\frac{\Delta Z}{Z}\) = \(\frac{\Delta A}{A}-\frac{\Delta B}{B}\)
अतः अधिकतम त्रुटि के लिए
\(\left|\frac{\Delta Z}{Z}\right|_{\max }\) = \(\frac{\Delta A}{A}+\frac{\Delta B}{B}\)
अतः दो राशियों के गुणनफल में अधिकतम भिन्नात्मक त्रुटि, गुणक राशियों की भिन्नात्मक त्रुटियों के योग के बराबर होती है।

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 2 मात्रक और मापन

प्रश्न 7.
अल्पतमांक से क्या अभिप्राय है? वर्नियर कैलिपर्स एवं स्क्रूगेज की अल्पतमांक का उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
उत्तर:
(A) वर्नियर कैलीपर्स: “किसी उपकरण द्वारा मापी जा सकने वाली न्यूनतम माप को उस उपकरण की अल्पतमांक (Least Count) कहते हैं।” साधारण मीटर स्केल का अल्पतमांक 0.1 cm होता है। इससे छोटी दूरी के मापन के लिए फ्रान्सीसी वैज्ञानिक “पियरे वर्नियर” ने मुख्य पैमाने के साथ सरकने वाले एक सहायक पैमाने का विकास किया जिसे वर्नियर पैमाना कहते हैं। वर्नियर पैमाने के n भागों का मान मुख्य पैमाने के (n – 1) भागों के मान के बराबर होता है अर्थात् वर्नियर पैमाने के 1 खाने का मान मुख्य स्केल के 1 भाग के मान से छोटा होता है। इन दोनों के मानों में अन्तर ही अल्पतमांक कहलाता है।

वर्नियर पैमाने का उपयोग दो जबड़ों वाले कैलीपर्स के साथ करने से वर्नियर कैलीपर्स बनता है। वर्नियर कैलीपर्स का अल्पतमांक साधारणतः 0.01 cm होता है। वर्नियर पैमाने के 10 भागों का मान 9 mm होता है, अतः एक भाग का मान 0.9mm होगा।
∴ वर्नियर कैलीपर्स का अल्पतमांक
= 1mm – 0.9mm = 0.1mm
= 0.01 cm
इस प्रकार व्यापक रूप से वर्नियर कैलीपर्स का

वर्नियर कैलीपर्स का नामांकित आरेख संलग्न चित्र 2.7 में दर्शाया है।

(B) स्क्रूगेज अथवा पेंचमापी – यह उपकरण पेंच के सिद्धान्त पर कार्य करता है, इसलिए इसे पेंचमापी (Screw gauge) कहते हैं। पेंच में दो क्रमागत चूड़ियों के बीच की दूरी को चूड़ी अन्तराल (pitch) कहते हैं। पेंच को एक पूरा चक्कर घुमाने पर पेंच की नोंक का विस्थापन चूड़ी अन्तराल के बराबर होता है। पेंचमापी का नामांकित आरेख संलग्न चित्र 2.8 में दर्शाया है। इसमें एक वृत्ताकार पैमाना एक मुख्य पैमाने पर एक पेंच की सहायता से गति करता है।

प्रश्न 8.
सूक्ष्म दूरियों के मापन की स्पष्ट विवेचना कीजिए एवं उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(A) सूक्ष्म दूरियों का मापन (Measurement of Very Small Distances): अणु का व्यास 108 m से 10-10m की कोटि का होता है। किसी भी सूक्ष्मदर्शी की एक सीमा होती है। प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी में प्रयुक्त प्रकाश की तरंगदैर्ध्य 5 x 10-7m होती है। ऐसा सूक्ष्मदर्शी 10-7 मी कोटि की तरंगदैर्ध्य के तुल्य विभेदन के लिए उपयोगी होता है इसलिए सूक्ष्मदर्शी से 100 मी कोटि के आकार वाले कणों की माप की जा सकती है। इलेक्ट्रॉन पुंज में भी तरंग गुण होते हैं एवं इलेक्ट्रॉन-तरंगों की तरंगदैर्ध्य 1A = 10-10 m की कोटि की होती है तथा इलेक्ट्रॉनों को वैद्युत् व चुम्बकीय क्षेत्रों द्वारा फोकसित भी किया जा सकता है। इसी आधार पर इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की रचना की गई है। इसके द्वारा परमाणुओं एवं अणुओं का विभेदन सम्भव है। जिससे इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी अणुओं के आंकलन के लिए उपयुक्त होता है। आजकल सुरंगन सूक्ष्मदर्शी (Tunnelling microscope) उपयोग किया जाता है। अतः अति सूक्ष्म लम्बाइयों के मापन के लिए कुछ परोक्ष विधियाँ भी उपयोगी होती हैं। यहाँ पर हम कुछ ऐसी विधियों का वर्णन करेंगे

आंकिक प्रश्न:

प्रश्न 1.
विमीय विधि से निम्न समीकरण की सत्यता की जाँच कीजिए
v = \(\sqrt{\frac{2 G M}{r}}\) जहाँ v वेग; G गुरुत्वाकर्षण नियतांक एवं दूरी है।
उत्तर:
सत्या

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प्रश्न 2.
m द्रव्यमान का एक पिण्ड किसी स्प्रिंग के सिरे पर लटका हुआ दोलन करता है। स्प्रिंग का बल नियतांक K तथा दोलनकाल T है। विमीय विधि से ज्ञात कीजिए कि T = 2π \(\frac{m}{K}\) अशुद्ध है।
उत्तर:
अशुद्ध।

प्रश्न 3.
आइंस्टीन के अनुसार किसी पदार्थ की ऊर्जा उसके द्रव्यमान (m), तथा प्रकाश की चाल (c) पर निर्भर करती है। विमीय विधि से ऊर्जा के लिए सूत्र व्युत्पन्न कीजिए।
उत्तर:
E = mc2

प्रश्न 4.
मान लीजिए किसी माध्यम में अनुदैर्ध्य तरंगों की चाल (v), प्रत्यास्थता गुणांक (E) व घनत्व (p) पर निर्भर करती है। विमीय विधि से चाल (v) के लिए सूत्र व्युत्पन्न कीजिए।
उत्तर:
v = \(\sqrt{\frac{E}{\rho}}\)

प्रश्न 5.
एक क्षैतिज तल में वृत्तीय कक्षा में परिक्रमा कर रहा है। कण पर लगने वाला अभिकेन्द्र बल कण के द्रव्यमान (m), वृत्त की त्रिज्या (r) तथा कण की चाल (ρ) पर निर्भर करता है। विमीय विधि से अभिकेन्द्र बल के लिए सूत्र प्राप्त कीजिए।
उत्तर:
F = \(\frac{m v^2}{r}\)

प्रश्न 6.
गुरुत्वीय त्वरण का मान 9.8 ms-2 है। इसका मान किलोमीटर/मिनट में विमीय विधि से ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
35.28 किमी / मिनट2

प्रश्न 7.
जल में ध्वनि की चाल 1440ms-1 है। यदि लम्बाई का मात्रक km तथा समय का मात्रक hr हो तो इसका मान क्या होगा?
उत्तर:
5184 km. hr-1

प्रश्न 8.
स्टील का यंग प्रत्यास्थता गुणांक 19 × 1010 Nm2 है। इसका मान dyne cm2 में ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
19 x 1011 dyne cm-2

प्रश्न 9.
पृथ्वी के दो व्यासतः अभिमुख बिन्दुओं A व B से चन्द्रमा को प्रेक्षित करने पर, प्रेक्षण दिशाओं के मध्य कोण θ का मान 1.54° प्राप्त होता है। पृथ्वी का व्यास 1.276 x 107 m लेते हुए पृथ्वी से चन्द्रमा की दूरी का आंकलन कीजिए।
उत्तर:
3.85 x 105 km

प्रश्न 10.
हाइड्रोजन परमाणु का आकार लगभग 0.4Å है। हाइड्रोजन परमाणु के एक मोल का कुल आयतन m3 में ज्ञात कीजिए। दिया है: 1 A = 10-10 m.
उत्तर:
1.6 x 107 m3

प्रश्न 11.
एक पेंचमापी की अल्पतमांक 0.001 cm है। इसके द्वारा तार का व्यास 0.225 cm मापा जाता है। इस माप में प्रतिशत त्रुटि ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
0.4%

प्रश्न 12.
एक वर्नियर कैलिपर्स का अल्पतमांक 0.01 cm है। इसके द्वारा किसी गोले कां व्यास 2.52 cm मापा जाता है। इस माप में प्रतिशत त्रुटि ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
0.39%

प्रश्न 13.
सरल लोलक के प्रयोग में लोलक की लम्बाई L नापने में 0.1% की त्रुटि तथा आवर्तकाल T नापने में 2% की त्रुटि होती है। इन प्रेक्षणों से प्राप्त L/T2 के मान में अधिकतम प्रतिशत त्रुटि ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
4.1%

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प्रश्न 14.
घनत्व नापने के प्रयोग में एक विद्यार्थी ने वस्तु का द्रव्यमान 7.34 g तथा आयतन 13.4 cm3 मापा उसके फल में कितने प्रतिशत अधिकतम सम्भावित त्रुटि है?
उत्तर:
0.88%

प्रश्न 15.
एक तनी हुई डोरी में ध्वनि की चाल = \(\sqrt{\frac{T}{m}}\) जहाँ T = Mg है। प्रयोग द्वारा M 2.0kg तथा m = 1.5g.m ज्ञात किया गया। के मान में अधिकतम सम्भावित प्रतिशत त्रुटि ज्ञात कीजिए। उत्तर:
5.8%

प्रश्न 16.
एक घन के द्रव्यमान तथा उसकी एक भुजा की लम्बाई की मापों में अधिकतम त्रुटियाँ क्रमशः 3% तथा 2% हैं। घन के पदार्थ के परिकलित घनत्व में प्रतिशत त्रुटि ज्ञात कीजिए।
उत्तर:
9%

प्रश्न 17.
एक भौतिक राशि तीन मापी गई भौतिक राशियों a, b व c से निम्न सूत्र द्वारा सम्बन्धित हैं:
\(s=\frac{a b^2}{c^3}\)
यदि a, b व c के मापन में क्रमशः 1, 2 और 3 प्रतिशत की त्रुटियाँ हों तो s के मान में अधिकतम सम्भावित त्रुटि क्या होगी?
उत्तर:
14%

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HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 1 भौतिक जगत

Haryana State Board HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 1 भौतिक जगत Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Physics Important Questions Chapter 1 भौतिक जगत

बहुविकल्पीय प्रश्न:

प्रश्न 1.
सबसे क्षीण मूल बल है:
(a) गुरुत्वीय बल
(b) विद्युत् चुम्बकीय बल
(c) प्रबल नाभिकीय बल
(d) क्षीण नाभिकीय बल
उत्तर:
(a) गुरुत्वीय बल

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 1 भौतिक जगत

प्रश्न 2.
जगदीश चन्द्र बोस की प्रमुख खोज है:
(a) X – किरण
(b) इलेक्ट्रॉन
(c) अति लघु रेडियो तरंगें
(d) जड़त्व का नियम
उत्तर:
(c) अति लघु रेडियो तरंगें

प्रश्न 3.
जब निकाय पर बाह्य बल शून्य है, तो संरक्षित भौतिक राशि है:
(a) यांत्रिक ऊर्जा
(b) रेखीय संवेग
(c) कोणीय संवेग
(d) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(b) रेखीय संवेग

प्रश्न 4.
β-क्षय उत्सर्जन के साथ कौन-सा कण उत्सर्जित होता है?
(a) न्यूट्रिनो
(b) इलेक्ट्रॉन
(c) प्रोटॉन
(d) न्यूट्रॉन
उत्तर:
(a) न्यूट्रिनो

प्रश्न 5.
X- किरणों के आविष्कारक थे:
(a) न्यूटन
(b) आइंस्टीन
(c) रोजन
(d) गोल्डस्टीन
उत्तर:
(c) रोजन

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 1 भौतिक जगत

प्रश्न 6.
दो कारों की टक्कर में संरक्षित राशि होगी:
(a) गतिज ऊर्जा
(b) कुल यान्त्रिक ऊर्जा
(c) रेखीय संवेग
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) रेखीय संवेग

प्रश्न 7.
बोसॉन है:
(a) अर्द्ध-पूर्णांक चक्रण वाले कण
(b) पूर्णांक चक्रण वाले कण
(c) गैसों के कण
(d) अनावेशित कण
उत्तर:
(b) पूर्णांक चक्रण वाले कण

प्रश्न 8.
दो प्रोटॉनों के बीच का वैद्युत् बल उनके बीच लगे गुरुत्वाकर्षण बल का कितने गुना होता है:
(a) 1014
(b) 1017
(c) 1034
(d) 1036
उत्तर:
(d) 1036

अति लघु उत्तरीय प्रश्न: 

प्रश्न 1.
प्रकृति के मूल बलों में अल्प परास का सबसे प्रबल बल कौन-सा है?
उत्तर:
नाभिकीय बल।

प्रश्न 2.
सूर्य के परितः ग्रहों की गति में कौन सी राशि संरक्षित रहती है?
उत्तर:
कोणीय वेग।

प्रश्न 3.
वैज्ञानिक व्यवहार क्या है?
उत्तर:
वैज्ञानिक विधियों के प्रयोग से समस्याएँ हल करने का व्यवहार, वैज्ञानिक व्यवहार कहलाता है।

प्रश्न 4.
विज्ञान का मूलभूत लक्ष्य क्या है?
उत्तर:
विज्ञान का मूलभूत लक्ष्य हमारे चारों ओर के वातावरण में होने वाली प्राकृतिक परिघटनाओं का विश्लेषण तथा सत्य की खोज करना है।

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 1 भौतिक जगत

प्रश्न 5.
प्रकृति के चार मूलभूत बलों के नाम दीजिए।
उत्तर:

  1.  गुरुत्वाकर्षण बल,
  2.  विद्युत् चुम्बकीय बल
  3.  प्रबल नाभिकीय बल
  4.  दुर्बल नाभिकीय बल।

प्रश्न 6.
द्रव्यमान ऊर्जा तुल्यता का सम्बन्ध लिखिए।
उत्तर:
E = mc2, यहाँ
c → प्रकाश का वेग।

प्रश्न 7.
भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम वैज्ञानिक का क्या नाम है?
उत्तर:
सर सी०वी० रमन (रमन प्रभाव के लिए)।

प्रश्न 8.
नाभिक में धनावेशित कण किस मूल बल के कारण बँधे रहते हैं?
उत्तर:
नाभिकीय बल।

लघु उत्तरीय प्रश्न:

प्रश्न 1.
भौतिक विज्ञान क्या है?
उत्तर:
भौतिकी अर्थात् भौतिक विज्ञान शब्द की उत्पत्ति यूनानी (ग्रीक) शब्द ‘फुसिस’ (Pheusis / Fusis) से हुई है जिसका तात्पर्य है ‘प्रकृति’। वेदों में भी ‘प्राकृतिक’ (Natural) के लिए अधिकांशतः “भौतिक” (Physical) शब्द का उपयोग किया गया है। इसी से ‘भौतिकी’ या ‘भौतिक विज्ञान’ शब्द की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार ” भौतिकी अर्थात् भौतिक विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत प्रकृति और प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन किया जाता है।” [Physics is the branch of Science which deals with the study of nature and natural phenomena] चूँकि प्रकृति में ब्रह्माण्ड की सभी सजीव तथा निर्जीव वस्तुएँ समाहित हैं, जो द्रव्य तथा ऊर्जा से मिलकर बनी हैं; अत: दूसरे शब्दों में, विज्ञान की उस शाखा को जिसमें द्रव्य तथा ऊर्जा और उनकी पारस्परिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है, भौतिक विज्ञान कहते हैं।

प्रश्न 2.
भौतिकी की हमारे आम जीवन में क्या भूमिका है?
उत्तर:
आपसी सम्पर्क तथा आदान-प्रदान सुलभ होने से सभी देशों की सभ्यता, रहन-सहन और सोचने-विचारने के तरीकों में बहुत परिवर्तन हुआ है। इस प्रकार भौतिक विज्ञान ने अन्तर्राष्ट्रीय एवं विश्व-बन्धुत्व के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। शक्ति के साधनों का विकास- मानव का अस्तित्व तथा विकास शक्ति के साधनों पर निर्भर है।

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 1 भौतिक जगत

प्रश्न 3.
न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम लिखिए।
उत्तर:
1. गुरुत्वाकर्षण बल (Gravitational Force ): गुरुत्वाकर्षण बल दो पिण्डों के बीच उनके द्रव्यमानों के कारण लगने वाला आकर्षण बल है। यह सार्वत्रिक बल है। न्यूटन के अनुसार, “दो द्रव्य पिण्डों के मध्य आरोपित गुरुत्वाकर्षण बल उनके द्रव्यमानों के गुणनफल के अनुक्रमानुपाती व इनके मध्य दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होता है।” यह संरक्षी बल है।
माना दो पिण्ड m1 व m2 हैं, जिनके बीच की दूरी हो तो गुरुत्वाकर्षण बल
F = G \(\frac{m_1 m_2}{r^2}\)
G सार्वत्रिक नियतांक कहलाता है जिसका मान 6.67 x 10-11 N- m2 kg-2 होता है।
पृथ्वी के परित: चन्द्रमा तथा मानव निर्मित उपग्रहों की गति, सूर्य के परितः पृथ्वी तथा ग्रहों की गति और पृथ्वी पर गिरते पिण्डों की गति गुरुत्व बल द्वारा ही नियन्त्रित होती है। गुरुत्वीय बल का क्षेत्र कण ‘ग्रेविटोन’ कहलाता है।

प्रश्न 4.
भौतिकी तथा प्रौद्योगिकी के बीच सम्बन्ध बताइए।
उत्तर:
विज्ञान एवं उसमें भी विशेष रूप से भौतिकी का अनुप्रयोगात्मक स्वरूप ही प्रौद्योगिकी है। भौतिकी के सिद्धान्तों एवं नियमों का उपयोग करके बहुत-सी युक्तियाँ विकसित की गई हैं तथा यंत्र और उपकरण बनाये गये हैं। जिनके उपयोग से मानव जीवन अत्यन्त ही लाभान्वित और उन्नत हुआ है।
इससे सम्बन्धित अनेकों उदाहरण हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं:

  1.  गुरुत्वाकर्षण के नियमों एवं गति के अध्ययन से अन्तरिक्षयानों तथा कृत्रिम उपग्रहों का प्रक्षेपण संभव हो सका, जिससे मनुष्य का चन्द्रमा तक जाना संभव हो सका है
  2.  ऊष्मागतिकी के नियमों के अध्ययन से ही ऊष्मीय इंजन तथा प्रशीतक (Refrigerator ) का विकास संभव हुआ है।
  3.  फैराडे के विद्युत् चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धान्त के आधार पर ही विद्युत् ऊर्जा का उत्पादन (हाइड्रोइलेक्ट्रिक संयंत्रों तथा थर्मल पावर संयंत्रों द्वारा) किया जाता है। यह विद्युत् ऊर्जा आधुनिक प्रौद्योगिकी का मूल आधार है।
  4.  प्रकाश विद्युत् प्रभाव का उपयोग करके सौर बैटरी, सौर-कार, सौर लैम्प आदि का निर्माण सम्भव हो सका।
  5.  नाभिकीय विखण्डन की प्रक्रिया के आधार पर परमाणु ऊर्जा का उत्पादन तथा परमाणु बम, नाभिकीय पनडुब्बियों आदि का निर्माण किया जाता है।
  6.  इलेक्ट्रॉनिक्स के ज्ञान से टेलीविजन, कम्प्यूटर आदि का विकास संभव हुआ है।

प्रश्न 5.
भौतिकी तथा समाज के बीच सम्बन्ध बताइए।
उत्तर:
भौतिक विज्ञान में होने वाले तरह-तरह की खोजों, नए-नए नियमों एवं अवधारणाओं के सूत्रपात से नए नए साधनों और उपकरणों का आविष्कार हुआ। इन उपकरणों का प्रयोग समाज ही करता है, जिससे उसका जीवन सुगम होता है। उसका श्रम,धन और समय बचता है। इसलिए भौतिकी में हुई शोध, खोज और अविष्कारों का फल सकारात्मक रूप में समाज को मिलता है और समाज स्वयं को विकास के रास्ते पर ले जाता है, इसलिए समाज एवं भौतिकी में गहरा संबंध है।

  1.  ऊर्जा के नए स्रोतों की खोज बहुत बड़ी है। समाज के लिए महत्व।
  2.  परिवहन के तीव्र साधन किसके लिए कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। समाज।

प्रश्न 6.
ऊर्जा संरक्षण नियमों का कथन एक उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
विभिन्न बलों से नियन्त्रित होने वाली किसी भी भौतिक घटना में कई राशियाँ समय के साथ बदलती रहती हैं, लेकिन कुछ विशिष्ट भौतिक राशियाँ समय के साथ नहीं बदलती, जैसे- द्रव्यमान, ऊर्जा, संवेग, आदेश आदि । ये प्रकृति की संरक्षी भौतिक राशियाँ हैं। इन राशियों का संरक्षित
रहना कई प्रकार के संरक्षण नियमों का आधार है ऐसी ज्ञात 14 संरक्षी भौतिक राशियों में से कुछ संरक्षण नियम निम्नलिखित हैं-
1. द्रव्यमान-ऊर्जा संरक्षण का नियम (Law of Conservation of Mass Energy): बाह्य संरक्षी बलों के अन्तर्गत होने वाली गति कुल यांत्रिक ऊर्जा (अर्थात् गतिज ऊर्जा स्थितिज ऊर्जा) संरक्षित रहती है। उदाहरण के लिए, गुरुत्व के अन्तर्गत मुक्त रूप से गिरते पिण्ड की गतिज ऊर्जा तथा स्थितिज ऊर्जा समय के साथ परिवर्तित होती रहती है। लेकिन उनका योग नियत रहता है। संरक्षी बलों के लिए यांत्रिक ऊर्जा संरक्षण का नियम विलगित निकाय के ऊर्जा संरक्षण के सामान्य नियम पर लागू नहीं होता है।

ऊर्जा संरक्षण का सामान्य नियम सभी बलों के लिए तथा ऊर्जा के सभी रूपों के परस्पर एक-दूसरे में परिवर्तन के लिए सत्य है। इसी प्रकार आइन्सटीन के सापेक्षवाद के सिद्धान्त के पूर्व अवधारणा सर्वमान्य थी कि द्रव्य अविनाशी है। रासायनिक अभिक्रियाओं के विश्लेषण एवं अध्ययन में यह नियम अभी भी लागू होता है। नाभिकीय अभिक्रियाओं में द्रव्य का ऊर्जा में तथा ऊर्जा का द्रव्य में रूपान्तरण होता है। आइंस्टीन के द्रव्य ऊर्जा समीकरण E = mc2 के अनुसार यदि किसी द्रव्य के m द्रव्यमान का ऊर्जा में पूर्णतः रूपान्तरण होने पर E ऊर्जा उत्पन्न होती है। अतः नाभिकीय अभिक्रियाओं में ऊर्जा संरक्षण का नियम तथा द्रव्यमान संरक्षण का नियम अलग-अलग लागू नहीं होता, अपितु द्रव्यमान-ऊर्जा संरक्षण का नियम लागू होता है।

2. रेखीय संवेग संरक्षण का नियम (Law of Conservation of Linear Conservation): इस नियम के अनुसार, “किसी विलगित निकाय का कुल रेखीय संवेग संरक्षित रहता है।” संवेग एक सदिश राशि है। यद्यपि संवेग संरक्षण के नियम की व्युत्पत्ति न्यूटन के गति के नियमों से की जा सकती है तथा संरक्षण का नियम प्रकृति का एक सार्वत्रिक नियम है। और वहाँ भी लागू रहता है जहाँ न्यूटन के गतिविषयक नियम लागू नहीं होते।

HBSE 11th Class Physics Important Questions Chapter 1 भौतिक जगत

प्रश्न 7.
विभिन्न मूल बलों के एकीकरण के प्रयासों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भौतिक विज्ञान की महत्वपूर्ण उपलब्धि विभिन्न सिद्धान्तों तथा प्रभाव क्षेत्रों तथा मूल बलों को एकीकरण की ओर ले जाती है। प्रकृति के विभिन्न बलों एवं प्रभाव क्षेत्रों के एकीकरण में प्रगति में महत्वपूर्ण प्रयास निम्नलिखित हैं:

  1.  सन् 1687 में आइजेक न्यूटन ने खगोलीय तथा पार्थिव यांत्रिकी को एकीकृत किया। उन्होंने यह दर्शाया कि दोनों प्रभाव क्षेत्रों पर समान गति के नियम तथा गुरुत्वाकर्षण लागू होते हैं।
  2.  सन् 1820 में हेंस क्रिश्चियन ऑस्टेंड ने यह दर्शाया कि वैद्युत् तथा चुम्बकीय परिघटनाएँ एक एकीकृत प्रभाव क्षेत्र हैं।
  3.  सन् 1830 में माइकल फैराडे ने विद्युत् चुम्बकत्व के अविक्षेप रूप को प्रस्तुत किया।
  4.  सन् 1873 में जेम्स क्लॉर्क मैक्सवेल ने विद्युत् चुम्बकत्व तथा प्रकाशिकी को एकीकृत किया तथा यह दर्शाया कि प्रकाश विद्युत् चुम्बकीय तरंगें हैं।

प्रश्न 8.
भौतिकी की तकनीकी से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
वह विधि जिसमें द्रव्य, ऊर्जा तथा उनकी अन्तर क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है तथा भौतिकी के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है, भौतिकी की तकनीक कहलाती है। इसे वैज्ञानिक विधि (Scientific method) भी कहते हैं।
अनुसंधान कार्यों के लिए वैज्ञानिकों द्वारा अपनायी जाने वाली सुविचारित, सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध तथा तर्कसंगत विधि को वैज्ञानिक विधि कहते हैं।

वैज्ञानिक विधि के मुख्य चरण निम्नलिखित हैं:

  1.  क्रमबद्ध प्रेक्षण (Systematic Obervation): किसी प्रश्न या समस्या के हल या समाधान के लिए योजनाबद्ध तरीके से प्रयोग किये जाते हैं, जिनसे ये क्रमबद्ध प्रेक्षण लेते हैं। इस प्रेक्षणों से आँकड़े एकत्र किये जाते हैं और फिर उनका गहन अध्ययन और विश्लेषण किया जाता है।
  2.  परिकल्पना (Hypothesis): प्राप्त प्रेक्षणों एवं आँकड़ों की व्याख्या करने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा कुछ परिकल्पनाएँ प्रस्तुत की जाती हैं।
  3.  परिकल्पनाओं का परीक्षण (Testing of Hypothesis): परिकल्पनाएँ बनाने के उपरान्त इन परिकल्पनाओं का परीक्षण किया जाता है। इसके लिए वैज्ञानिकों द्वारा परिकल्पनाओं के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले जाते हैं और भविष्यवाणियाँ (Predictions) की जाती हैं। इन भविष्यवाणियों का नये प्रयोगों द्वारा सत्यापन किया गया है।
  4. अन्तिम सिद्धान्त (Final Theory): यदि प्राप्त निष्कर्षों तथा भविष्यवाणियों का प्रयोगों द्वारा सत्यापन हो जाता है, तो इसे अन्तिम सिद्धान्त मान लिया जाता है। सत्यापन न होने की स्थिति में परिकल्पनाओं में आवश्यकतानुसर संशोधन किये जाते हैं अथवा नई परिकल्पनाएँ बनाई जाती हैं तथा उनका पुनः परीक्षण किया जाता है। परिकल्पनाएँ बनाने और उनका परीक्षण करने का यह क्रम तब तक जारी रखा जाता है जब तक कि प्रयोगों द्वारा सत्यापित अंतिम सिद्धान्त प्राप्त न हो जाये।

 

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HBSE 11th Class Physics Important Questions and Answers

Haryana Board HBSE 11th Class Physics Important Questions and Answers

HBSE 11th Class Physics Important Questions in Hindi Medium

HBSE 11th Class Physics Important Questions in English Medium

  • Chapter 1 Physical World Important Questions
  • Chapter 2 Units and Measurements Important Questions
  • Chapter 3 Motion in a Straight Line Important Questions
  • Chapter 4 Motion in a Plane Important Questions
  • Chapter 5 Laws of Motion Important Questions
  • Chapter 6 Work Energy and Power Important Questions
  • Chapter 7 System of Particles and Rotational Motion Important Questions
  • Chapter 8 Gravitation Important Questions
  • Chapter 9 Mechanical Properties of Solids Important Questions
  • Chapter 10 Mechanical Properties of Fluids Important Questions
  • Chapter 11 Thermal Properties of Matter Important Questions
  • Chapter 12 Thermodynamics Important Questions
  • Chapter 13 Kinetic Theory Important Questions
  • Chapter 14 Oscillations Important Questions
  • Chapter 15 Waves Important Questions

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HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण


(A) वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

1. ट्रिप्सिनोजन को ट्रिप्सिन में बदलने में सहायक होता है-
(A) HCI
(B) एण्टेरोकाइनेज
(C) पेप्सिन
(D) गैस्ट्रिन
उत्तर:
(B) एण्टेरोकाइनेज

2. रेनिन का स्राव कहाँ से होता है ?
(A) क्षुद्रान्त्र से
(B) वृक्क से
(C) यकृत से
(D) आमाशय से
उत्तर:
(D) आमाशय से

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण

3. कौन-से एन्जाइम प्रोटीन पाचक हैं-
(A) टायलिन, पेप्सिन, इरेप्सिन
(B) ट्रिप्सिन एमाइलेज
(C) ट्रिप्सिन, पेप्सिन, इरेप्सिन
(D) इनमें से कोई नहीं ।
उत्तर:
(C) ट्रिप्सिन, पेप्सिन, इरेप्सिन

4. अग्न्याशयी रस होता है-
(A) अम्लीय
(B) क्षारीय
(C) एन्जाइम
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) क्षारीय

5. वसा का इमल्सीकरण पित्त द्वारा कहाँ पर होता है ?
(A) महणी में
(B) आन्त्र में
(C) आमाशय में
(D) यकृत में
उत्तर:
(B) आन्त्र में

6. काइमोट्रिप्सिन क्या है ?
(A) प्रोटीन पाचक एन्जाइम
(B) विटामिन
(D) हॉर्मोन्स
(C) वसा पाचक एन्जाइम
उत्तर:
(A) प्रोटीन पाचक एन्जाइम

7. केसीन क्या है ?
(A) दुग्ध शर्करा
(B) दुग्ध प्रोटीन
(C) दुग्ध जीवाणु
(D) दुग्ध वसा
उत्तर:
(B) दुग्ध प्रोटीन

8. पित्त का प्रमुख कार्य है-
(A) पाचन में वसा का इमल्सीकरण
(B) उत्सर्जी पदार्थों का बहिष्करण
(C) एन्जाइम द्वारा वसा का पाचन
(D) पाचन क्रियाओं में तालमेल रखना
उत्तर:
(A) पाचन में वसा का इमल्सीकरण

9. कार्बोहाइड्रेट पाचन के अन्तिम उत्पाद हैं-
(A) गैलेक्टोज, माल्टोज, फ्रक्टोज
(B) माल्टोज, फ्रक्टोज, लैक्टोज
(C) ग्लाइकोजन, ग्लूकोज, गैलेक्टोज
(D) ग्लूकोज, फ्रक्टोज, गैलेक्टोज
उत्तर:
(D) ग्लूकोज, फ्रक्टोज, गैलेक्टोज

10. ट्रिप्सिनोजन एन्जाइम स्रावित होता है-
(A) आमाशय से
(B) महणी से
(C) अग्न्याशय से
(D) यकृत से
उत्तर:
(C) अग्न्याशय से

11. लार में कौन-सा एन्जाइम होता है-
(A) एमाइलेज
(B) टायलिन
(C) रेनिन
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(C) रेनिन

12. अग्न्याशयी रस किसके पाचन में सहायक होता है ?
(A) प्रोटीन
(B) प्रोटीन और वसा
(C) प्रोटीन और कार्बोहाइट्रेट
(D) प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और वसा ।
उत्तर:
(D) प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और वसा ।

13. मण्ड (स्टार्च) का पाचन कहाँ होता है ?
(A) आमाशय में
(B) आमाशय तथा महणी में
(C) मुखगुहिका एवं प्रासनली में
(D) मुखगुहिका एवं महणी में
उत्तर:
(D) मुखगुहिका एवं महणी में

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण

14. आन्त्रीय रसांकुरों का प्रमुख कार्य है-
(A) पचे हुए भोजन का स्वांगीकरण
(B) परानिस्पंदन
(C) अवशोषण तल को बढ़ाना
(D) एन्जाइमों का स्रावण
उत्तर:
(C) अवशोषण तल को बढ़ाना

15. पूर्ण पाचन के फलस्वरूप प्रोटीन टूटती है-
(A) ग्लूकोज में
(B) ट्राइग्लिसराइड में
(C) अमीनो अम्ल में
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) अमीनो अम्ल में

16. पित्त लवणों की वसाओं पर प्रतिक्रिया को कहते हैं-
(A) जल अपघटन
(C) साबुनीकरण
(B) इमल्सीकरण
(D) अपघटन
उत्तर:
(B) इमल्सीकरण

17. यदि आन्ध्र में रसांकुरों (villi) की संख्या चौथाई कर दी जाये तो पचे हुए भोजन का अवशोषण-
(A) नहीं होगा
(B) बिना असर चलता रहेगा
(C) बढ़ जायेगा
(D) घट जायेगा
उत्तर:
(D) घट जायेगा

18. यदि यकृत निष्क्रिय हो जाय तो रुधिर में किसकी मात्रा बढ़ जायेगी ?
(A) यूरिया की
(B) यूरिक अम्ल की
(C) अमोनिया की
(D) प्रोटीन्स की
उत्तर:
(A) यूरिया की

19. निम्न में से कौन-सा दाँत जीवन में केवल एक बार निकलता है ?
(A) प्रीमोलर
(B) किनाइन
(C) इन्साइजर
(D) मोलर
उत्तर:
(D) मोलर

20. बालीरुविन और वाइलीनि कहाँ पाये जाते हैं ? (RPMT)
(A) पित्त में
(B) रक्त में
(C) लार में
(D) लसीका में
उत्तर:
(A) पित्त में

21. यकृत में ग्लाइकोजन का संश्लेषण (RPMT)
(A) ग्लाइकोलिसिस द्वारा
(B) ग्लाइकोनीनोलिसिस द्वारा
(C) ग्लाइकोजिनेसिस द्वारा
(D) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(C) ग्लाइकोजिनेसिस द्वारा

22. विटामिन है- (RPMT)
(A) कार्बनिक पदार्थ
(B) हॉर्मोन
(C) खनिज लवण
(D) लवण।
उत्तर:
(A) कार्बनिक पदार्थ

23. जीवद्रव्य निर्माण में उपयोगी पोषक पदार्थ है- (RPMT)
(A) वसा
(B) प्रोटीन
(C) कार्बोहाइड्रेट
(D) कैल्शियम
उत्तर:
(B) प्रोटीन

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण

24. पावन का वह भाग जो भोजन में नहीं होता- (RPMT)
(A) बड़ी आंत
(B) छोटी और
(C) ट्रेकिया
(D) यकृत
उत्तर:
(C) ट्रेकिया

25. सार परिवर्तित करती है ? (RPMT)
(A) स्टार्च को माल्टोज में
(B) वसा को वसीय अम्ल में
(C) ग्लाइकोजन को ग्लूकोज
(D) प्रोटीन को अमीनो अम्ल में
उत्तर:
(A) स्टार्च को माल्टोज में

26. वह कौन सा रस है, जो प्रोटीन एवं कार्बोहाइड्रेट दोनों का पावन करता है- (RPMT)
(A) टायलिन
(B) पेप्सिन
(C) अग्याशयी रस
(D) लार।
उत्तर:
(C) अग्याशयी रस

27. विल्सन के संयुक्त पाए जाते हैं- (UPCPMT)
(A) यकृत में
(B) फेफड़े में
(C) वुक्क में
(D) आमाशय में
उत्तर:
(D) आमाशय में

28. ऑस्टिओमेलेशिया किसकी कमी से होता है- (UPCPMT)
(A) विटामिन-A
(B) विटामिन-B
(C) विटामिन-C
(D) विटामिन-D
उत्तर:
(D) विटामिन-D

29. दाँतों की पत्य गुहा सीमित होती है- (UPCPMT, RPMT)
(A) ओडटोब्लास्ट से
(B) कोन्ड्रोब्लास्ट से
(C) ओस्टिओब्लास्ट
(D) एमाइलोब्लास्ट से।
उत्तर:
(A) ओडटोब्लास्ट से

30. लार में उपस्थित एन्जाइम है- (UPCPMT)
(A) माल्टोज
(B) टाइलिन
(C) सुक्रेज
(D) इन्वर्टेज।
उत्तर:
(B) टाइलिन

31. कौन-सा जोड़ा सही सुमेलित नहीं है ? (CBSE PMT)
(A) विटामिन B12 – पर्नीशियस एनीमिया
(B) विटामिन B1 – बेरी-बेरी
(C) विटामिन C- स्कर्वी
(D) विटामिन B2 – पैलाग्रा।
उत्तर:
(D) विटामिन B2 – पैलाग्रा।

32. विटामिन C किस रूप में पाया जाता है- (RPMT)
(A) एस्कार्बिक अम्ल
(B) ग्लूटेरिक अम्ल
(C) एसीटिक अम्ल
(D) साइट्रिक अम्ल
उत्तर:
(A) एस्कार्बिक अम्ल

33. खरगोश के दाँत होते हैं- (UPCPMT)
(A) गर्तदंती
(B) द्विवदन्ती
(C) विषम दन्ती
(D) पेसकी
उत्तर:
(D) पेसकी

34. पाचन का अर्थ है- (UPCPMT)
(A) भोजन का जलना
(B) भोजन का ऑक्सीकरण
(C) भोजन का जल अपघटन
(D) भोजन का टूटना।
उत्तर:
(C) भोजन का जल अपघटन

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण

35. आमाशयी रस का खाव नियन्त्रित होता है- (RPMT)
(A) गरिन
(B) कोलिस्टोकारनिन
(C) एन्टीरोगस्ट्रिन
(D) इनमें कोई नहीं।
उत्तर:
(A) गरिन

36. जन्तु शरीर का सबसे कठोरतम पदार्थ होता है- (RPMT)
(A) अस्थि
(B) रोम
(C) डेन्टीन
(D) इनैमल
उत्तर:
(D) इनैमल

37. लैमरस की द्वीपिकाएँ पापी जाती हैं- (RPMT)
(A) अग्न्याशय में
(B) आमाशय में
(C) यकृत में
(D) आहार नाल में।
उत्तर:
(A) अग्न्याशय में

38. वयस्क मानव में सबसे बड़ी पन्थि है- (UPCPMT)
(A) थाइमस
(B) यकृत
(C) थाइरॉइड
(D) अग्नाशय।
उत्तर:
(B) यकृत

39. लीवर कुशन की गुहिकाएं सम्मिलित होती है- (RPMT, UPCPMT)
(A) सक्कस एन्टेरिक्स के स्त्रावण में
(B) रेनिन के स्वायण में
(C) टायलिन के स्रावण में
(D) भोजन के पाचन में।
उत्तर:
(A) सक्कस एन्टेरिक्स के स्त्रावण में

40. कुफ्फर की कोशिकाएँ होती हैं- (RPMT, UPCPMT)
(A) यकृत में
(B) छोटी आंत
(C) अग्न्याशय
(D) पाइरॉइड
उत्तर:
(A) यकृत में

41. यदि जठर पन्दियों की पैराइटल कोशिकाओं के लवण को किसी एक संदमक के द्वारा रोक दिया जाए तो क्या परिणाम होगा ? (CBSE AIPMT)
(A) जठर रस में काइमोसिन का अभाव होगा
(B) जठर रस में पेप्सिनोजन का अभाव होगा
(C) HCL के खावी की अनुपस्थिति में निष्क्रिय पेप्सिनोजन में परिवर्तित नहीं होगा
(D) महणी श्लेष्मकला से स्टोरोकाइनेज नहीं निकलेगा और इस ट्रिप्सिनोजन का ट्रिप्सिल में परिवर्तन नहीं हो पाएगा।
उत्तर:
(C) HCL के खावी की अनुपस्थिति में निष्क्रिय पेप्सिनोजन में परिवर्तित नहीं होगा

42. भोजन के निम्नलिखित पटक युग्मों में से कौन मनुष्य के आमाशय में पूर्ण रूप से अपचित अवस्था में पहुँचता है ? (CBSE AIPMT)
(A) प्रोटीन तथा मण्ड
(B) मण्ड तथा वसा
(C) वसा तथा सेल्युलोज
(D) मण्ड तथा सैल्युलोज ।
उत्तर:
(C) वसा तथा सेल्युलोज

43. ट्रिप्सिनोजन सक्रिय होता है- (UPCPMT)
(A) ट्रान्सफरेज द्वारा
(B) हाइड्रोलेस द्वारा
(C) एन्टेरोमाइज द्वारा
(D) लाइपेज द्वारा।
उत्तर:
(C) एन्टेरोमाइज द्वारा

44. यदि किसी कारण हमारी गौवनेट कोशिकाएँ अक्रिय हो जाएँ तो इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा- (CBSE AIPMT)
(A) सोमेटोस्टेनिन के उत्पादन पर
(B) सीबेशियस मन्धियों से सीबम के लावग पर
(C) शुक्राणुओं के परिपक्वन पर
(D) आन्त्र में भोजन के नीचे की ओर गति पर
उत्तर:
(B) सीबेशियस मन्धियों से सीबम के लावग पर

45. मानव में दुग्ध के पाचन की क्रिया का प्रारम्भिक पद निम्नलिखित में से किस एन्जाइम द्वारा सम्पन्न होता है ? (CBSE AIPMT)
(A) रेनिन द्वारा
(B) लाइपेज द्वारा
(C) ट्रिप्सिन द्वारा
(D) पेप्सिन द्वारा।
उत्तर:
(D) पेप्सिन द्वारा।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण

46. शशक में सेल्युलोस का पाचन होता है- (UPCPMT)
(A) बृहदान्त्र (colon) में
(B) शेषान्त्र (ileum) में
(C) अन्धनाल (caccum) में
(D) मलाशय (rectum) में।
उत्तर:
(C) अन्धनाल (caccum) में

47. ग्लाइकोजनोलाइसिस में होता है-
(A) शर्करा का ग्लाइकोजन में परिवर्तन
(B) शर्करा का ऑक्सीकरण
(C) ग्लाइकोजन का शर्करा में परिवर्तन
(D) ग्लाइकोजन का वसा में परिवर्तन।
उत्तर:
(C) ग्लाइकोजन का शर्करा में परिवर्तन

48. निम्नलिखित में से किस पाचक रस में एन्ज़ाइम नहीं होते किन्तु पाचन में सहायक होता है- (RPMT)
(A) पिस
(B) शक्कर एण्टेरिकस
(C) काइल
(D) काहम
उत्तर:
(A) पिस

49. ट्रिप्सिन खावित होता है- (RPMT)
(A) अग्न्याशय द्वारा
(B) पिट्यूटरी द्वारा
(C) चाइमस द्वारा
(D) थाइरॉइड द्वारा
उत्तर:
(A) अग्न्याशय द्वारा

50. मनुष्य में किस प्रकार के दन्त पाए जाते हैं ? (UPCPMT)
(A) अग्रदन्ती
(B) गर्तदन्ती
(C) बहुदन्ती
(D) एकदन्ती।
उत्तर:
(B) गर्तदन्ती

(B) अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
आमाशय के तीन भागों के नाम लिखिए।
उत्तर:
आमाशय के तीन भाग हैं-

  • कार्डियक भाग (cardiac part),
  • पाइलोरिक भाग (pyloric part) तथा
  • फण्डिक भाग (fundic part)।

प्रश्न 2.
अग्न्याशय रस के प्रमुख किकीय घटकों का नामांकन करें।
उत्तर:

  • ट्रिप्सिन तथा काइमोट्रिप्सिन
  • एमाइलेज या एमाइलोप्सिन तथा
  • स्टीएप्सिन या लाइपेज

प्रश्न 3.
लैगरहेन्स की द्वीपिकाएँ कहाँ पायी जाती हैं तथा इनके द्वारा उत्पादित रसायनों के क्या नाम होते हैं ?
उत्तर:
लैंगर हैन्स की द्वीपिकाएँ अग्न्याशय (pancreas) में पायी जाती हैं। इनके द्वारा

  • इन्सुलिन (insulin) तथा
  • ग्लूकैगोन नामक हॉर्मोन्स का उत्पादन किया जाता है।

प्रश्न 4.
मनुष्य की आहारनाल में यूनर ग्रन्थियाँ कहाँ पायी जाती हैं ? इनका कार्य क्या है ?
उत्तर:
मनुष्य की आहारनाल में चुनर पन्थियाँ महणी की अधः श्लेष्मिका में पायी जाती हैं ये आन्त्रीय रस उत्पन्न करती हैं।

प्रश्न 5.
आमाशय के पेशी संकुचन को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
आमाशय के पेशी संकुचन को क्रमाकुंचन (peristalsis) कहते

प्रश्न 6.
मनुष्य की जर ग्रन्थियों से सावित दो एन्जाइमों के नाम तथा उनका कार्य लिखिए।
उत्तर:
मनुष्य की जठर मन्थियों से निम्न दो हॉर्मोन्स लावित होते हैं-

  • ट्रिप्सिन (Trypsin) यह प्रोटीन्स को पेप्टोन्स व प्रोटिओलेज में बदलता है।”
  • रेजिन (Rennin) दूध में उपस्थित केसीनोजन प्रोटीन को केसीन में बदलता है।

प्रश्न 7.
यदि किसी कारणवश आहारनाल में क्रमाकुंचन गति रुक जाये तो क्या होगा ?
उत्तर:
भोजन आहारनाल में आगे नहीं बढ़ेगा, फलतः भोजन का पाचन रुक जायेगा।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण

प्रश्न 8.
मनुष्य के जर रस में पेप्सिनोजन तथा प्रोरेनिन नामक एन्जाइम निष्क्रिय अवस्था में पाये जाते हैं फिर ये भोजन के पाचन में किस प्रकार भाग लेते हैं ?
उत्तर:
मनुष्य के जठर रस में यद्यपि पेप्सिनोजन (pepsinogen) तथा प्रोरेनिन (prorannin) निष्क्रिय अवस्था में पाये जाते हैं, किन्तु इन्हें हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCL) द्वारा सक्रिय रूपों पेप्सिन व रेनिन में परिवर्तित कर दिया जाता है और ये भोजन के पाचन में भाग लेते हैं।

प्रश्न 9.
आन्त्रीय रस में पाये जाने वाले दो एन्जाइम के नाम तथा उनका कार्य चलाइए।
उत्तर:

  • पेप्टिडेजेज (इरेप्सिन) – यह पेण्टोज शर्करा, प्रोटिओजेज एवं पॉलीपेप्टाइड्स को अपघटित करके इन्हें अमीनो अम्लों में परिवर्तित कर देता है।
  • मल्टेज (Maltase) यह माल्टोज शर्करा को ग्लूकोज में बदल देता है।

प्रश्न 10.
मनुष्य में वसाओं का अवशोषण किस दशा में तथा किस प्रक्रिया द्वारा होता है ?
उत्तर:
मनुष्य में बसाओं का अवशोषण पायसीकृत (इमल्सीकृत) दशा में तथा कोशिकापायन (pinocytosis) प्रक्रिया द्वारा होता है।

प्रश्न 11.
पाचन क्रियाओं को नियन्त्रित करने वाले हॉर्मोन्स के नाम लिखिए।
उत्तर:
पाचन क्रिया को नियन्त्रित करने वाले हॉर्मोन्स

  • गैस्ट्रिन,
  • एण्टेरोगैस्ट्रिन,
  • कोलेसिस्टोकाइनिन,
  • सिक्रिटिन,
  • पेन्क्रियोजाइमन तथा
  • एण्टेरोकाइनिन हैं।

प्रश्न 12.
पचे हुए भोजन के अवशोषण की क्रियात्मक इकाई का नाम बताइए।
उत्तर:
रसांकुर (विलाई)।

प्रश्न 13.
डीएमीनेशन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
यकृत की कोशिकाएँ आवश्यकता से अधिक अमीनो अम्लों को ग्रहण करके उनको पाइरुविक अम्ल (pyruvic acid) तथा अमोनिया NH में विघटित कर देती हैं। इस प्रक्रिया को डीएमीनेशन कहते हैं।

प्रश्न 14.
गैस्ट्रिन की क्रिया का मुख्य स्थान कौन-सा है ?
उत्तर:
आमाशय (stomach) ।

प्रश्न 15.
कुफ्फर की कोशिकाएँ कहाँ पायी जाती हैं ?
उत्तर:
यकृत (liver) में।

प्रश्न 16.
पचित वसा का अवशोषण कहाँ होता है ?
उत्तर:
पचित वसा का अवशोषण लसीका (lacteal) में होता है।

प्रश्न 17.
आहार नाल के किस भाग में रसांकुर पाये जाते हैं ? इनका कार्य बताइए।
उत्तर:
रसांकुर (villi) आहारनाल की क्षुद्रान्त्र में पाये जाते हैं। ये पचे हुए भोज्य पदार्थ का अवशोषण करते हैं।

प्रश्न 18.
लार में कौन-सा एन्जाइम होता है ? इसका कार्य बताइए।
उत्तर:
लार में टायलिन (ptylin) नामक एन्जाइम उपस्थित होता है। यह मण्ड (स्टार्च) को शर्करा (शुगर) में परिवर्तित करता है।

प्रश्न 19.
पेप्सिन किस रूप में स्रावित होता है ?
उत्तर:
पेप्सिन निष्क्रिय पेप्सिनोजन के रूप में स्त्रावित होता है।

प्रश्न 20.
अग्न्याशय से स्त्रावित होने वाले पाचक एन्जाइम के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • एमाइलेज
  • ट्रिप्सिन
  • कार्बोक्सीडेज
  • लाइपेज
  • ईस्टरेज
  • न्यूक्लिएजेज।

प्रश्न 21.
पित रस का सबसे महत्वपूर्ण एक कार्य बताइए ।
उत्तर:
पित्त रस भोजन की वसा का इमल्सीकरण ( emulsification) करता है ताकि वसा का भलीभाँति पाचन हो सके।

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प्रश्न 22.
पंचे हुए भोजन का अवशोषण आहार नाल के किस भाग में होता है ?
उत्तर:
पचे हुए भोजन का पूर्ण अवशोषण आहारनाल की क्षुद्रान्त्र (small intestine) में होता है।

प्रश्न 23.
स्वांगीकरण किसे कहते हैं ?
उत्तर:
कोशिका के अन्दर पचे हुए भोज्य पदार्थों के कोशिका द्रव्य में विलीन (आत्मसात) होने की क्रिया को स्वांगीकरण कहते हैं।

प्रश्न 24.
मिसेल किसे कहते हैं ?
उत्तर:
वसा एवं पित्त लवणों की छोटी गोलाकार रचना को मिसेल ( micelles) कहते हैं।

प्रश्न 25.
पीलिया रोग किसे कहते हैं ?
उत्तर:
पीलिया (jaundice ) रोग में यकृत प्रभावित होता है। इस रोग में त्वचा और नेत्र पित्त वर्णकों के जमा हो जाने से पीले रंग के दिखाई देते हैं।

(C) लघु उत्तरात्मक प्रश्न ( Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
पायसीकरण किसे कहते हैं ? इसका क्या महत्व है ?
उत्तर:
पायसीकरण
(Emulsification)
बड़ी वसा गोलिकाओं का छोटे आकार की वसा बूंदों में टूट जाना पायसीकरण (emulsification) कहलाता है। भोजन में पाये जाने वाले वसा पर पित्त लवण एवं लैसीथिन अणु क्रिया करते हैं। इनका एक भाग ध्रुवीय तथा दूसरा भाग अध्रुवीय होता है। अध्रुवीय भाग वसा गोलिकाओं की सतह में घुल जाता है तथा ध्रुवीय भाग भोजन में उपस्थित जल में विलेय रहता है।

इस क्रिया के कारण वसा गोलिकाओं का पृष्ठ तनाव कम हो जाता है, फलस्वरूप बड़ी वसा गोलिकाएँ (fat globules) बूँदों में परिवर्तित हो जाती हैं। पायसीकृत वसा पर एन्जाइम तीव्रता से क्रिया करते हैं ।

वसा + पित्त रस → पायसीकृत वसा
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प्रश्न 2.
काइलोमाइकॉन क्या है ?
उत्तर:
काइलोमाइकॉन (Chylomicron)
पाचन क्रिया के पश्चात् पचित भोजन के फलस्वरूप वसा का अवशोषण वसा अम्लों, मोनोग्लिसरॉइड एवं कोलेस्ट्रॉल के रूप में विसरण द्वारा लसिका (lymph) में होता है। इन वसा के साथ पित्त रस (bile juice) सूक्ष्म जटिल रचनाएँ बनाता है ये सूक्ष्म रचनाएँ मिसेल कहलाती हैं जिनमें काइम विलेय रहता है। प्रत्येक मिसेल बसा एवं पित्त लवणों की छोटी गोलाकार या बेलनाकार गोलिका होती है।

इस गोलिका के केन्द्रीय भाग में वसा अम्ल एवं मोनोग्लिसरॉइड होते हैं, जिनके चारों ओर पित लवण एकत्र हो जाते हैं। जब मिसेल सूक्ष्मांकुर (microvilli) के समीप आती है तब इसमें स्थित वसा कोशिका मिसेल से निकलकर कोशिका में विसरित होने लगती है एवं पित्त लवण काइम में रह जाते हैं और पुनः मिसेल (micelle) बनाने लगते हैं। कोशिका में वसा अम्ल एवं मोनोग्लिसरॉइड चिकनी अन्तप्रद्रव्यी जालिका (SER) में प्रवेश कर ट्राइग्लिसरॉइड संश्लेषित करते हैं।

प्रश्न 3.
पाचन तथा पोषण में क्या अन्तर है ? मनुष्य में पाये जाने वाले किन्हीं दो पाचक रसों के नाम लिखिये।
उत्तर:
पाचन (Digestion) प्राणी द्वारा ग्रहण किये गये अघुलनशील जटिल पदार्थों को सरल घुलनशील अणुओं में बदलने की प्रक्रिया को प्राचन कहते हैं जबकि पोषण (nutrition) वह सम्पूर्ण क्रिया है जिसके अन्तर्गत प्राणी भोज्य पदार्थों को ग्रहण करके, उसे कोशिकाओं में प्रयुक्त होने योग्य बनाता है। मनुष्य में पाये जाने वाले पाचक रस आमाशय से जठर रस (gastric juice) तथा अग्न्याशय (pancreas) से अग्न्याशयी रस (pancreatic juice) स्त्रावित होता है।

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प्रश्न 4.
पित्त रस का रासायनिक संगठन एवं पाचन तन्त्र में इसके कार्यों का संक्षेप में उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
पितरस (Bile Juice) पित्त रस हरे पीले रंग का द्रव्य होता है। इसका अधिकांश भाग जल तथा शेष कुछ भाग पित्त लवणों (bile salts) एवं पित्त रंगाओं (bile pigments) का बना होता है। पित्त रस में पाचक एन्जाइम (digestive enzyme) नहीं होते हैं, किन्तु पाचन क्रिया में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

पाचन तन्त्र में पितरस का महत्व-यकृत द्वारा निर्मित पित्त रस (bile juice) पाचन क्रिया में निम्नवत् योगदान करता है-
(1) पित्तरस क्षारीय (pH 7-9) होता है और यह आमाशय से ग्रहणी (duodenum) में काइम के रूप में आये हुए भोजन के माध्यम को क्षारीय कर देता है तथा इसे अधिक तरल बनाता है, क्योंकि अग्न्याशयिक रस के एन्जाइम्स क्षारीय माध्यम में ही क्रियाशील होते हैं।

(2) भोजन को अम्लीय से क्षारीय, पित्त लवणों में उपस्थित अकार्बनिक सोडियम क्लोराइड (NaCl) तथा सोडियम कार्बोनेट (Na2 CO3) बनाते हैं। इसके अतिरिक्त वे अकार्बनिक लवण भोजन में उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करके भोजन को सड़ने से रोकते हैं।

(3) पित्त रस में सोडियम ग्लाइकोलेट (sodium glycolate ), सोडियम टारकोलेट (sodium tarcholate) तथा कोलेस्ट्रॉल (cholestrol) नामक कार्बनिक लवण भी उपस्थित होते हैं। ये लवण भोजन की वसाओं का विखण्डन (पायसीकरण या इमल्सीकरण ( emulsification) करते हैं तथा अग्न्याशयिक रस (pancreatic juice) के लाइपेज एन्जाइम को वसा से प्रतिक्रिया करने के लिये उत्तेजित करते हैं ।

(4) पित्त रस (bile juice) में उपस्थित पित्त लवण वसा अम्लों तथा विटामिन A, D, E वK आदि के अवशोषण में सहायक होते हैं।

(5) पित्त में बाइलीरुबिन (bilirubin) तथा बाइलीवर्डिन (biliverdin) नामक रंगा (pigments) प्रमुख हैं। ये उत्सर्जी पदार्थ होते हैं जो लाल रक्त कणिकाओं के लिखण्डन से बनते हैं। ये पाचन में भाग नहीं लेते और मल के साथ शरीर के बाहर निकल जाते हैं।

प्रश्न 5.
मनुष्य की आहारनाल में कार्बोहाइड्रेट्स का पाचन कैसे होता है ? सविस्तार बताइए ।
उत्तर:
आनुष्य की आहारनाल में कार्बोहाइड्रेट्स का पाचन
(1) मनुष्य की आहारनाल में कार्बोहाइड्रेट्स का पाचन मुखगुहा से ही प्रारम्भ होता है। भोजन चबाते समय इसमें लार मिल जाती है। लार में उपस्थित टायलिन (ptylin) नामक एन्जाइम स्टार्च (मण्ड – कार्बोहाइड्रेट) का जल अपघटन करके उसे माल्टोज (maltose) एवं डेक्सट्रिन नामक शर्करा में बदल देता है।
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(2) आमाशय (stomach) में कार्बोहाइड्रेट्स का पाचन नहीं होता है। इसके बाद कार्बोहाइड्रेट्स का पाचन महणी में होता है। ग्रहणी में भोजन का माध्यम क्षारीय हो जाने पर अग्न्याशिक रस में उपस्थित एमाइलेज ( amylase) नामक एन्जाइम स्टार्च व ग्लाइकोजन को अपघटित करके उन्हें माल्टोज शर्करा में बदल देता है।
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(3) इसके पश्चात् कार्बोहाइड्रेट्स का पाचन क्षुद्रान्त्र (small intestine) में निम्नवत् होता है –
(i) आन्त्रीय / रस का माल्टेज (maltose) नामक एन्जाइम माल्टोज शर्करा ( maltose) को ग्लूकोज में बदल देता है।
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(ii) लैक्टेज (lactose) नामक एन्जाइम दूध की लैक्टोज शर्करा को ग्लूकोज एवं गेलेक्टोज (galactose) में बदल देता है।
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(iii) सुक्रेज ( sucrase) नामक एन्जाइम सुक्रोज शर्करा (sucrose sugar) को ग्लूकोज एवं फ्रक्टोज (glucose and fructose) में परिवर्तित कर देता है ।
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इस प्रकार मनुष्य की आहारनाल में मुखगुहा से क्षुद्रान्त्र तक आते-आते कार्बोहाइड्रेट्स का पूर्णतः पाचन हो जाता है।

प्रश्न 6.
मनुष्य के पाचन में भाग लेने वाली प्रमुख पाचन प्रन्थियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य की पाचन ग्रन्थियाँ (Digestive Glands in Man )
(1) लार ग्रन्थियाँ (Salivary glands) – मनुष्य में तीन जोड़ी लार प्रन्थियाँ पायी जाती हैं-

  • कर्णपूर्व (parotid),
  • अधोजंभ (submaxillary),
  • अधोजिहा (sublingual)।

इन मन्थियों से एक प्रकार का क्षारीय तरल साबित होता है। इस तरल में जल, टायलिन (ptylin) या α- एमाइलेज, लाइसोजाइम, श्लेष्मा एवं सोडियम क्लोराइड, पोटैशियम, बाइकार्बोनेट आदि आयन उपस्थित होते हैं। लार में पाया जाने वाला टायलिन (ptylin) एक पाचक एन्जाइम है जो कार्बोहाइड्रेट पर क्रिया करता है एवं भोजन
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को लसलसा बनाकर निगलने योग्य बनाता है। इसमें उपस्थित लाइसोजाइम (lysozyme) जीवाणुओं को नष्ट करता है।

(2) यकृत (Liver) – यह शरीर की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण प्रन्थि है। यह उदरगुहा में दायीं ओर तनुपट के ठीक नीचे, मीसेण्ट्री द्वारा सधी, कत्थई रंग (brown colour) की एक बड़ी-सी कोमल, किन्तु ठोस रचना होती है जो गहरी खाँचों द्वारा दायीं पाली तथा बायीं पाली में बँटी होती है। दायीं बड़ी पाली के नीचे पित्ताशय (gall bladder) सटा रहता है। इसमें यकृत कोशिकाओं में बना पित रस (bile juice) एकत्रित होता है। पित्त के कारण पित्ताशय हरा, नीला-सा दिखायी देता है। पित्त रस पित्तवाहिनी (bile duct) द्वारा आवश्यकतानुसार समय-समय पर ग्रहणी में पहुँचता रहता है।

(3) अग्न्याशय (Pancreas) – यह अनियमित आकार की पत्ती जैसी हल्के पीले गुलाबी रंग की ग्रन्थि है, जो ग्रहणी के ‘U’ भाग के बीच में मीसेण्ट्री द्वारा सधी रहती है। इस प्रन्थि का प्रमुख ऊतक अग्न्याशयिक रस (pancreatic juice) स्त्रावित करता है जो अग्न्याशयिक वाहिनी (pancreatic duct) द्वारा ग्रहणी में पहुँचता है। प्रन्थि के प्रमुख ऊतक में ही जगह-जगह लैंगरहैन्स की डीपिकाएँ (Islets of Langerhans) नामक अन्तःस्रावी ग्रन्थि कोशिकाएँ होती हैं। इनसे इन्सुलिन (insulin) तथा ग्लूकागोन (glucagon) नामक हॉर्मोन्स स्त्रावित होते हैं जो रुधिर में शर्करा की मात्रा के उपापचय का नियमन (regulation) करते हैं।

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प्रश्न 7.
टायलिन तथा पेप्सिन के स्रोत एवं कार्यों का उल्लेख कीजिये ।
उत्तर:
1. टायलिन (ptylin ) लार मन्थियों से स्त्रावित लार में उपस्थित होता है। यह एक एन्जाइम है जो भोजन की मण्ड (starch) को शर्करा में बदल देता है।

2. पेप्सिन (pepsin) नामक एन्जाइम जठर मन्थियों (gastric glands) से स्त्रावित जठर रस में निष्क्रिय पेप्सिनोजन (pepsinogen) के रूप में होता है जो आमाशय (stomach) में HCI के साथ मिलकर सक्रिय पेप्सिन (peptone) में बदल जाता है। यह भोजन की प्रोटीन को अपघटित करके पेप्टोन तथा पॉलीपेप्टाइड (polypeptide ) में बदल देता है।
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प्रश्न 8.
रोटी अधिक देर तक चबाने पर मीठी क्यों लगती है ? सकारण उत्तर प्रस्तुत करें।
उत्तर:
रोटी में मण्ड (starch) नामक पॉलीसेकेराइड कार्बोहाइड्रेट अघुलनशील अवस्था में होता है। जब रोटी को अधिक देर तक चलाया जाता है तो उसमें लार ग्रन्थियों से निकली हुई लार मिल जाती है। लार में टायलिन (ptylin) नामक पाचक एन्जाइम उपस्थित होता है। टायलिन रोटी की 5% अघुलनशील मण्ड (starch) को घुलनशील शर्करा (sugar) में बदल देता है। इसलिए अधिक देर तक चबाने पर रोटी मीठी लगती है।

प्रश्न 9.
मनुष्य के जठर रस में मिलने वाले एन्जाइमों के नाम और उनके कार्य बताइए ।
उत्तर:
मनुष्य के जठर रस में नमक के अम्ल (HCl) के साथ पेप्सिनोजन तथा प्रोरेनिन नामक प्रोएन्जाइम्स (proenzyme ) होते हैं। ये एन्जाइम्स आमाशय में आए भोजन में मिलने से पूर्व निष्क्रिय अवस्था में होते हैं। आमाशय में आये हुए भोजन में मिलते समय निष्क्रिय पेप्सिनोजन HCI के साथ मिलकर सक्रिय पेप्सिन में बदल जाता है। इसी समय प्रोरेजिन भी रेनिन में बदल जाता है। रेनिन दूध को फाड़कर उसकी प्रोटीन-केसीन (cascine) को अलग कर देता है। अब पेप्सिन (pepsin) भोजन को प्रोटीन को अपघटित करके पेण्टोन तथा पॉलीपेप्टाइड में बदल देता है।

प्रश्न 10.
यदि किसी व्यक्ति का अग्न्याशय निष्क्रिय हो जाए तो उसकी पाचन क्रिया पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
अथवा
यदि किसी मनुष्य का अग्न्याशय कार्य करना बन्द कर दे तो उस पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
अग्न्याशय के निष्क्रिय हो जाने या कार्य न करने पर –
(i) उससे अग्न्याशयिक रस (pancreatic juice) नहीं निकलेगा जिसमें ट्रिप्सिन, काइमोट्रिप्सिन, एमाइलेज तथा लाइपेज (स्टीएप्सिन), कार्बोक्सी पेप्टिडेज नामक एन्जाइम्स होते हैं। ये क्रमशः प्रोटीन, मण्ड एवं वसा का पाचन करते हैं। अतः अग्न्याशयिक रस के अभाव में भोजन की प्रोटीन, मण्ड तथा वसा का पाचन नहीं हो सकेगा।

(ii) अग्न्याशय में स्थित लैंगरहैन्स के द्वीप पुंज (islets of Langerhans) की बीटा तथा एल्फा नामक कोशिकाओं से इन्सुलिन तथा ग्लूकागोन हॉर्मोन्स का स्राव नहीं हो सकेगा, जिसके फलस्वरूप ग्लाइकोजिनेसिस ( यकृत में ग्लूकोस के ग्लाइकोजन में बदलने की क्रिया) तथा ग्लाइकोजिनोलाइसिस (यकृत कोशिका में संचित ग्लाइकोजन के पुनः ग्लूकोस में बदलने की क्रिया) की क्रियाएँ नहीं हो सकेंगी। परिणामस्वरूप रुधिर में शर्करा की मात्रा का सन्तुलन बिगड़ जाएगा। रुधिर में शर्करा की मात्रा आवश्यकता से अधिक बढ़ जाने से ऐसा व्यक्ति मधुमेह या डायबिटीज (diabetes) का रोगी हो जाएगा।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित कहाँ पाये जाते हैं ? प्रत्येक के एक प्रमुख कार्य का उल्लेख कीजिये-
उत्तर:

  1. कृन्तक
  2. एमाइलेज
  3. कार्बोहाइड्रेट
  4. अग्न्याशय
  5. पित्त।
फ्दार्थ/वस्तु का नामप्राप्ति स्थल/खातेप्रमुख कार्य
1. कृम्तक (incisors)स्तनी जन्तु की मुख गुहा में जबड़ों परभोजन को चीरनाकाड़ना
2. समाइलेज (amylase)अग्याशयिक रस में उपस्थितकार्बोहाइड्रेट पाचक एन्जाइम
3. कार्बोहाइड्रेटस (carbohydrates)गेहूँ, चावल, मक्का, आलू व सभी फलों मेंप्राणी शरीर को ऊर्जा प्रदान करना
4. अग्नाशय (pancrease)उदर गुहा में आमाशय के नीचे स्थितएन्जाइमों द्वारा भोजन का पाचन, इन्सुलिन व ग्लूकागोन हॉमोंन्स द्वारा शर्करा का नियन्त्रण व नियमन
5. पित्त (bile)यकृत कोशिकाओं द्वारा स्नावितपित्त वसाओं का इमल्सीकरण

प्रश्न 12.
निम्नलिखित के कार्यों का वर्णन कीजिए-
(i) एमाइलेज (Amylase)
(ii) गैस्ट्रिन (Gastrin )
(iii) बिलिवर्डिन (Biliverdin)।
उत्तर:
(i) एमाइलेज (Amylase ) – यह अग्न्याशयिक रस में पाया जाने वाला मण्ड पाचक एन्जाइम है। यह मण्ड को शर्करा में परिवर्तित करता है-
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(ii) गैस्ट्रिन (Gastrin ) – यह आमाशय की श्लेष्मकला से स्त्रावित होने वाला हॉर्मोन है। यह हॉर्मोन रुधिर के माध्यम से आमाशय की जठर मन्थियों (gastric glands) को उत्तेजित करता है
जिससे वे सक्रिय हो जाती हैं और जठर रस का स्राव करती हैं।

(iii) बिलिवर्डिन (Biliverdin) – यकृत में मृत लाल रुधिर कणिकाओं ( R. B. C. ) के हीमोग्लोबिन के विखण्डन से बिलिवर्डिन तथा बिलिरुबिन (vilirubin) नामक वर्णक (pigments) बनते हैं। ये उत्सर्जी पदार्थ हैं जो पित्त रस द्वारा ग्रहणी में पहुँचते हैं और फिर मल के साथ शरीर से बाहर निकल जाते हैं।

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प्रश्न 13.
मनुष्य की आन्त्र में वसा अवशोषण की प्रक्रिया समझाइए ।
उत्तर:
आन्त्र में वसा का अवशोषण वसा अम्लों, मोनोग्लिसरॉइड एवं कोलेस्ट्रॉल के रूप में विसरण द्वारा लसिका में होता है। इस वसा के साथ पित्त मिलकर सूक्ष्म जटिल रचनाएँ बनाता है। ये रचनाएँ मिसेल कहलाती हैं। ये मिसेल काइम में विलेय होती हैं। प्रत्येक मिसेल के केन्द्रीय भाग में वसा अम्ल एवं मोनोग्लिसरॉइड होता है, जिसके चारों ओर पित्त लवण एकत्रित रहते हैं। सूक्ष्मांकुर के समीप मिसेल के आते ही इसमें स्थित वसा कोशिका झिल्ली में घुलनशील होने के कारण मिसेल ( micelle) से निकलकर कोशिका में विसरित हो जाता है।

इसके विसरण के पश्चात् पित्त लवण एवं काइम शेष रह जाते हैं। अब कोशिका में वसा अम्ल एवं मोनोग्लिसरॉइड (monoglyceroids) चिकनी अन्त प्रद्रव्यी जालिका में प्रवेश करके ट्राइग्लिसराइड संश्लेषित करता है। ये ट्राइग्लिसरॉइड चारों ओर से प्रोटीन द्वारा
घिर जाते हैं। इस प्रकार लिपोप्रोटीन से 0.1 व्यास की गोलिकाएँ बनती हैं जिन्हें काइलोमाइक्रॉन (chylomicron) कहते हैं। काइलोमाइक्रॉन बहिर्कोशिकालयन (exocytosis) द्वारा बाहर निकलकर लसिका केशिका में चला जाता है। ये लसीका तन्त्र से होते हुए शिरा के रुधिर प्लाज्मा में पहुंच जाते हैं। अब प्लाज्मा में लिपोप्रोपीन लाइपेज की सहायता से इन्हें वसा अम्लों एवं मोनोग्लिसरॉइड में बदल देती है।

प्रश्न 14.
निम्नलिखित पाचक एन्जाइम भोजन के किस अवयव पर क्रिया करते हैं ?
उत्तर:
केवल रासायनिक अभिक्रिया द्वारा व्यक्त कीजिये।
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(D) निबन्धात्मक प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
मनुष्य की आहारनाल का नामांकित चित्र बनाकर विभिन्न भागों का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
आहार नाल (Alimentary canal):
मनुष्य की आहार नाल 8-10 मीटर लम्बी कुण्डलित होती है। विभिन्न भागों में इसका व्यास अलग-अलग होता है। आहार नाल को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-

  • मुख एवं मुख गुहिका,
  • ग्रसनी,
  • ग्रासनली,
  • आमाशय,
  • छोटी आंत,
  • बड़ी आंत तथा
  • मलाशय।

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1. मुख एवं मुख गुहिका (Mouth and Buccal Cavity) – मुख सिर की अधर सतह पर एक अनुप्रस्थ दरार के रूप में होता है जो दो मांसल होठों (lips) द्वारा घिरा होता है। होंठ (lips) बाहर की ओर त्वचा से तथा भीतर की ओर श्लेष्मा कला (mucous membrane) के द्वारा ढके होते हैं। मुख अन्दर की ओर मुखगुहा में खुलता है। मुखगुहा (buccal cavity) में गालों व दांतों के बीच का स्थान प्रघाण (vestibule) कहलाता है। दाँतों की दोनों कतारों के बीच पेशीय जीभ (tongue) पायी जाती है। मुख गुहा की ऊपरी छत्त तालु कहलाती है। तालु (Palate) – मुख गुहिका की छत को तालु कहते हैं। यह मेहराब (arch) की भाँति होती है और मुखगुहिका को श्वसन मार्ग (Nasal passages) से अलग करता है।

तालु को दो भागों में बाँटा जा सकता है- तालु का अगला कड़ा व अस्थिल भाग होता है। यह मैक्सिला (maxilla) तथा पैलेटाइन (palatine) अस्थियों का बना होता है। इसे कठोर तालु (hard Palate) कहते हैं। इसे आस्तरित करने वाली श्लेष्मिका या म्यूकस झिल्ली पर खुरदरे अनुप्रस्थ मूल होते हैं। इनको तालु बलियाँ कहते हैं। तालु का पिछला भाग केवल संयोजी ऊतक (connective tissue) व पेशियों का बना होता है। इसे कोमल तालु (soft palate) कहते हैं। इसका पिछला भाग एक उभार के रूप में ग्रसनी (pharynx) की गुहा में लटका रहता है। इसको तालु विच्छद्द (velum palatiar uvula) कहते हैं। इसके समीप लसीका ऊतक के बने टॉन्सिल्स (tonsils) होते हैं।

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2. जीभ (Tongue) – जीभ पेशीय व लचीली संरचना होती है। यह पीछे की ओर स्नायु के एक कोमल वलन, जिसे फ्रेनुलम (frenulum) कहते हैं, द्वारा मुख गुहिका के फर्श से जुड़ी रहती है। जीभ की म्यूकस झिल्ली श्लेष्म स्रावित करती है। श्लेष्म जीभ को गीली रखती है। जीभ की ऊपरी सतह पर जिह़्ा अंकुर (lingual papillae) तथा स्वाद कलिकाएँ होती हैं।
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(a) जिता प्राकुर (Lingual papillae)-सूक्ष्म प्रांकुर है जो जीभ को खुरदरा बनाते हैं, इन पर स्वाद कलिकाएँ होती हैं। ये तीन प्रकार की होती हैं-

  • फिलिफार्म अंकुर (Filiform papillae)-ये छोटे शंक्वाकार अंकुर हैं जो जिह्हा की ऊपरी सतह पर छितरे रहते हैं। ये संख्या में सबसे अधिक होते हैं। इनकी उपस्थिति के कारण जीभ खुरदरी होती है।
  • फंजीरार्म अंकुर (Fungiform papillae)-ये गोलाकार उभारों के रूप में जिन्का के छोर पर तथा पार्श्वों में केवल किनारे पर स्थित होते हैं।
  • सरकम वैलेट अंकुर (Circumvallate papillae) ये जित्रा के आधार भाग की ऊपरी सतह पर उल्टे ‘V’ के आकार के होते हैं। प्रत्येक अंकुर के आधार के चारों ओर एक खाँच-सी होती है।

(b) स्वाद कलिकाएँ (Taste buds) – मुख्य रूप से जीभ की ऊपरी सतह तथा जिन्दा प्रांकुरों (lingual papillae) पर होती हैं। जीभ के अगले भाग पर मीठे, पिछले भाग पर कडुवे, दोनों ओर किनारों पर खट्टे तथा जीभ के अगले सिरे के पीछे कुछ भाग में नमकीन स्वाद की कलिकाएँ होती हैं। जीथ के कार्य-जीभ भोजन के स्वाद का ज्ञान कराती है। यह भोजन को मुखगुहा में इधर-उधर घुमाती है और इसमें लार को मिलाती है। यह भोजन को दाँतों की ओर धकेलकर उसको चबाने में मदद करती है। यह भोजन को निगलने में सहायता करती है तथा भोजन करने के बाद दाँतों में फँसे भोजन कणों को साफ करती है।
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3. दाँत (Teeth) – मुखगुहा (buccal cavity) को बनाने वाले दोनों जबड़ों के किनारों पर दाँतों की एक-एक पंक्ति होती है। मनुष्य के दाँत गर्तदन्ती (thecodont) तथा द्विबार दंती (diphyodont) होते हैं, अर्थात् दाँत अस्थियों में धँसे तथा दो बार उगते हैं। दाँत चार प्रकार के होते हैं। अतः ये विषमदन्ती (heterodont) कहलाते हैं। मनुष्य के प्रत्येक जबड़े में 16 तथा कुल 32 दाँत (teeth) होते हैं। प्रत्येक जबड़े को दो भागों दायीं ओर के दाँत तथा बायीं ओर के दाँतों में विभेदित किया जाता है।

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प्रत्येक ओर दो कृन्तक (incisors; i) एक रदनक (canine;c) दो अप्र चवर्णक (Premolars; pm) तथा तीन चवर्णक (molars; m) दाँत पाए जाते हैं। कृन्तक (incisors) सबसे आगे तथा चपटे व धारदार होते हैं। ये भोजन को काटते हैं। रदनक नुकीले होते हैं जो कठोर भोजन को पकड़ने तथा चीर-फाड़ करने में मदद करते हैं। अग्र चवर्णक तथा चवर्णक (premolar and molars) चौड़े और मजबूत होते हैं। ये भोजन को चबाने का काम करते हैं। दन्त सूत्र (Dental formula) – दाँतों के विन्यास को प्रदर्शित करने के लिए दन्तसूत्र का प्रयोग किया जाता है। दन्त सूत्र में दिए गए ऊपरी व निचले-जबड़े के दाँतों की संख्या को जोड़कर अगर दो से गुणा कर दिया जाए तो दताँ की कुल संख्या ज्ञात हो जाती है।
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i = कृन्तक दन्त (incisors) c = भेदक दन्त या रदनक (canine)
pm = अग्र चवर्णक दन्त (premolars) m = चवर्णक दन्त (molars)

दाँत की संरचना (Structure of tooth)
स्तनधारियों (mammals) के दाँत में तीन भाग पाए जाते हैं-(i) शीर्ष (head), (ii) ग्रीवा (neck) तथा (iii) मूल (root)। शीर्ष (crown) वह भाग है जो हमे दिखाई देता है। इस प्रकार इनैमल या दन्तवल्क (enamal) का कठोर चमकीला व पारदर्शी आवरण पाया जाता है जिसकी उत्पत्ति भूरूण की एक्टोडर्म (ectoderm) से होती है। इनैमल (enamal) स्तनधारियों के शरीर का सबसे कठोरतम भाग होता है। म्रीवा (neck) मसूड़े के अन्दर पाया जाने वाला भाग है। मूल (root) जबड़े की अस्थि के गर्त (bone socket) में पाया जाता है।

कृन्तक व रदनक में एक-एक अग्र चवर्णक में 2-3 तथा चवर्णक में 3-4 मूल पायी जाती है। दाँत की आंतरिक संरचना (Internal Structure of Tooth) दाँत में सबसे बाहर की ओर इनैमल (enamel) नामक स्तर पाया जाता है। यह रंगहीन व चमकदार स्तर होता है। इसमें 90-95% अकार्बनिक यौगिक (कैल्शियम फॉस्फेट व कार्बोनेट) व जल की मात्रा केवल 5-6% होती है। यह स्तर प्रायः शीर्ष तक ही सीमित रहता है।

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दाँत को बनाने वाला मुख्य पदार्थ डेन्टीन (dentine) होता है। इसमें सूक्ष्म-नलिकाएँ कैनालीक्युली (canaliculi) होती हैं। केवल शिखर क्राउन (crown) भाग की डैन्टीन की बाह्य सतह पर इनैमल का आवरण होता है। दाँत अंदर से खोखला होता है। इस गुहा को पल्प गुहा (pulp cavity) कहते हैं। यह गुहा चारों ओर से डेन्टीन से घिरी होती है। डेन्टीन की आन्तरिक सतह पर ऑडोन्टोब्लास्ट (odontoblast) आवरण होता है जो ऑडोन्टोब्लास्ट कोशिकाओं का बना होता है।
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इसी की क्रियाशीलता से दन्त के आकार में वृद्धि होती है। प्रायः एक निश्चित आयु के पश्चात् यह निक्किय होकर दाँत के विकास को रोक देता है। हाथी में ऊपरी कृन्तक (incisor) जीवनभर वृद्धि करते रहते हैं जो गजदन्त (tusk of elephant) कहलाते हैं। ऑडोन्टोब्लास्ट स्तर के अन्दर की ओर पल्प गुहा में रक्त वाहिनियाँ, तन्त्रिका तन्तु व संयोजी ऊतक का बना तरल द्रव्य भरा होता है। इसके आधार भाग में एक छिद्र पाया जाता है। इस छिद्र के द्वारा दन्त को रक्त व तन्त्रिकीय संवहन दिया जाता है।

3. ग्रसनी (Pharynx) – मुखगुहा पीछे की ओर एक कीपाकार गुहा में खुलती है, जिसे ग्रसनी (pharynx) कहते हैं। यह लगभग 12.5 सेमी लम्बी नली है, जो तीन भागों में बंटी होती है-
(1) नासोफैरिंक्स (Nasopharynx) – यह तालू (palate) के ऊपर का चौड़ा और कोमल भाग है। इसमें एक जोड़ी अन्त: नासाछिद्र (nostril) तथा एक जोड़ी यूस्टेकियन नलिका (eustachian tube) के छिद्र खुलते हैं। अन्त: नासाछिद्र का श्वसन से तथा यूस्टेकियन छिद्र का कर्णगुहा से सम्बन्ध होता है।

(2) ओरोफरिक्स (Oropharynx) – यह कोमल तालू (soft palate) के नीचे स्थित होता है। यह भोजन के संवह में सहायता करता है।

(3) लैरिंगोफरिक्स (Laryngopharynx) – यह कोमल तालू के नीचे तथा कंठ या लैरिंक्स (larynx) के पीछे स्थित होता है। इस भाग में दो मार्गों के छिद्र खुलते हैं। भोजन नली का द्वार (gullet) जो ग्रासनली (oesophagus) में खुलता है तथा श्वासनली का द्वार या घांटी द्वार (glottis) जो श्वसन नली में खुलता है। घांटी द्वार पर छोटी ढक्कन या एपिग्लॉटिस (epiglottis) नामक एक पतला-सा पर्दा लटका रहता है।

कार्य-भोजन तथा वायु क्रमशः म्मसनी (pharynx) में से होकर भोजन नली और श्वास नली में पहुँचते हैं। श्वास लेते समय घांटी ढक्कन (epiglottis) घांटी द्वार से हट जाता है परन्तु भोजन निगलते समय कोमल तालू (soft palate) उपर उठ जाता है तथा घांटी ढक्कन (epiglottis) घांटी द्वार को ढक लेता है जिससे भोजन कंठ (larynx) में नहीं जा पाता है। जब कभी भोजन के कण श्वास नली में चले जाते हैं तो भयंकर खाँसी आती है। इसे फंदा लगना कहते हैं।
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4. ग्रासनली (Oesophagus) – म्रासनली लगभग 25 सेमी लम्बी पेशीय नली है। यह ट्रेकिया (trachea) के साथ-साथ गर्दन तथा वक्ष भाग से होती हुई डायाफ्राम (diaphragm) को बेधकर उदर गुहा में प्रवेश करने के बाद आमाशय (stomach) में खुलती है। ग्रासनली की दीवार की म्यूकस या श्लेष्मा प्रन्थियों से स्तावित श्लेष्मा (mucus) इसकी गुहा को तरल व लसदार बनाती है। मासनली की दीवार की क्रमाकुंचन गति द्वारा भोजन आसानी से आमाशय में पहुँच जाता है।
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ग्रासनाल की औतिकी (Histology of oesophagus) – उदर गुहा के बाहर होने के कारण ग्रासनली की दीवार में बाहर की ओर सीरोसा (serosa) का स्तर नहीं होता बल्कि इसके स्थान पर ढीले अंतराली तंतुमय संयोजी ऊतक (fibrous connective tissue) का बाह्य स्तर होता है जिसे एडवेन्शिया एक्स्टर्ना (adventia externa) कहते हैं। ग्रासनली में पेशी स्तर सुविकसित होता है। बाहरी अनुलम्ब पेशी स्तर (longitudinal muscle layer) भीतरी वर्तुल पेशी स्तर (circular muscle layer) से अधिक मोटा होता है।

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ग्रासनली के अगले भाग में पेशियाँ रेखित, मध्य भाग में रेखित व अरेखित तथा अन्तिम भाग में केवल अरेखित (unstriped) होती हैं। अधः श्लेष्मिका या सब म्यूकोसा (submucosa) मोटी होती है तथा इसमें छोटी श्लेष्म ग्रन्थियाँ (mucus glands) होती हैं। ये श्लेष्म का स्राव करती हैं। श्लेष्म के कारण ग्रासनली में भोजन सुगमता से फिसलता हुआ आमाशय (stomach) में पहुँचता है। अधः श्लेष्मिका या सबम्यूकोसा में पाचन ग्रन्थियाँ नहीं होतीं। श्लेष्मिक पेशी स्तर में अरेखित पेशी तन्तु होते हैं। म्यूकोसा स्तर स्तरित शल्की एपिथीलियम (stratified squamous epithelium) का बना होता है।

5. आमाशय (Stomach) – आमाशय डायाफ्राम के नीचे उदर गुहा में बायीं ओर होता है। यह लचीली थैली के समान रचना है। इसकी दीवारें मोटी, पेशीय तथा वलित होती हैं। इन वलनों को रगी (rugae) कहते हैं। आमाशय की दीवार की क्रमाकुंचन गति द्वारा आमाशय में भोजन पिसकर लेई जैसा हो जाता है। आमाशय को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-बायाँ बड़ा पिंडक कार्डियक भाग (cardiac part) दायाँ छोटा पिंडक पाइलोरिक भाग (pyloric part) तथा दोनों के बीच का फंडिक भाग (fundic part)।

प्रासनली (oesophagus) आमाशय के कार्डियक भाग में खुलती है। ग्रासनली के द्वार पर एक पेशीय कपाट होता है जिसे कार्डियक संकोचक (cardiac sphincter) कहते हैं। यह कपाट भोजन को म्रासनली से आमाशय (stomach) में आने तो देता है परन्तु वापस ग्रास नली में नहीं जाने देता है। इसी प्रकार पाइलोरिक भाग के ड्यूओडिनम (duodenum) में खुलने वाले छिद्र पर पाइलोरिक स्फिक्टर (pyloric sphincter) होता है जो आंत्र में आए हुए भोजन को आमाशय में वापस नहीं जाने देता।
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प्रश्न 2.
संतुलित आहार से आप क्या समझते हैं ? संतुलित आहार के प्रमुख पोषक तत्व बताइए ।
उत्तर:
संतुलित आहार (Balanced Diet):
वह आहार जिसमें शरीर की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अर्थात् शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए सभी आवश्यक पोषक पदार्थ समुचित मात्रा में उपलब्ध हों, उसे संतुलित आहार (balanced diet) कहते हैं। आहार में सभी पोषक पदार्थों का निश्चित अनुपात में होना अवश्यक होता है। हमारे भोजन का सबसे प्राथमिक पोषक कार्बोहाइड्रेट होता है जो ऊर्जा का सबसे प्रमुख ल्रोत है। इसकी अनेक श्रेणियाँ हैं किन्तु ग्लूकोज सर्वमान्य ऊर्जा स्रोत है अर्थात् अन्य कार्बोहाइड्रेट्स भी ऊर्जा उत्पादन के समय ग्लूकोज (glucose) में बदल जाते हैं।

वसा में अत्यावश्यक वसीय अम्ल (जैसे-लिनोलिनिक अम्ल, लिनोलिक अम्ल, अरेकिडोनिक अम्ल आदि) होते हैं। यद्यपि वसा भी ऊर्जा स्रोत का कार्य करती हैं परन्तु इनका पचाना कठिन होता है। प्रोटीन्स में आवश्यक अमीनो अम्ल (वैलीन, हिस्टिडीन, आर्जिनीन, ट्रिप्टोफेन, लाइसीन आदि) होते हैं। प्रोटीन्स शरीर के निर्माणी अवयव (building components) होते हैं।

भोजन में रूक्ष रेशों (raugse fibres) का होना भी आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त एक संतुलित आहार में लवण एवं विटामिन्स होना भी आवश्यक होता है। लवण एवं विटामिन्स (salt and vitamins) शरीर में उपापचयी नियन्रक (metabolic regulators) कहलाते हैं। इनकी अनुपस्थिति या कमी से अनेक विकार (disorders) उत्पन्न हो जाते हैं। आयु अवस्था, शारीरिक, आकार, कार्य आदि के अनुसार संतुलित आहार में भी पोषक पदार्थों की मात्रा का अनुपात बदलता रहता है। जिसका विवरण निम्नांकित सारणी में दिया गया है।

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खाध्य पदार्थों में उफलब्च ऊर्जा मात्रा-खाध्य पदार्थों में उपस्थित ऊर्जा की मात्रा को किलो कैलोरी (k. cal) में व्यक्त किया जाता है। एक किलो कैलोरी में खाद्य पदार्थ के एक ग्राम अणु के पूर्ण ऑक्सीकरण से मुक्त ऊर्जा को सकल कैलोरी मान (gross calory value) कहते हैं। विभिन्न खाद्य पदार्थों द्वारा हमारे शरीर में मुक्त की गयी ऊर्जा को कार्यिकीय ऊर्जा (functional energy) कहते हैं।
तालिका : आई. सी. एम. आर. द्वारा अनशंसित सन्तुलित आहार (मात्रा प्राम में पकेे)

खाद्य फदार्थसकल कैलारी मानकार्यिकीय कैलोरी मान
1. कार्बोहाइड्रेट (carbohydrates)4.10 किलोकैलोरी/प्राम4.00 किलोकैलोरी/प्राम
2. वसा (Fat)9.45 किलोकैलोरी/ग्राम9.00 किलोकैलोरी/म्राम
3. प्रोटीन (Protein)5.11 किलोकैलोरी/म्राम4.00 किलोकैलोरी/म्राम।

संतुलित आहार के प्रमुख पोषक तत्व (Chief Nutrients of Balanced Diet):
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विभिन्न विटामिन, उनकी रासायनिक प्रकृति, साधारण नाम, महत्वपूर्ण स्रोत, कार्य, न्यूनता रोग (Various Vitamins, their Chemical Nature, Common Name, Important Sources, Functions and Deficiency Disorders):

पोषक तख्व (Nutrients)प्रमुख खांध स्वेत (Source)सामान्य कार्य (Functions)
कार्बोहाइड्रेट, स्टार्च, शर्करा, ग्लूकोस, फ्रक्टोज, लैक्टोस।अन्न, आलू चीनी, दूध, पके फल।ऊर्जा एवं संचित भोजन ग्लाइकोजन के रूप में।
वसा (लिपिड) वसा अम्ल।वनस्पति तेल, घी, दूध, अण्डा, मूँगफली, तिल।ऊर्जा एवं संचित वसा के रूप में।
प्रोटीन एवं ऐमीनो अम्ल (आवश्यक ऐमीनो अम्ल)।दूध, माँस, दालें, अण्डा, सोयाबीन, सेम जन्तु प्रोटीन, सोयाबीन ।वृद्धि एवं मरम्मत व जैव उत्रेरक के रूप में।
विटामिन A,B,C,D,Eयकृत, अण्डे का पीतक, दूध, सब्चियाँ, अन्न फल।नियमन एवं सुरक्षा के रूप कार्य।
खनिज Na,K,Ca,PI,Fe,Clसामान्य नमक, दूध, अण्डा, सब्जियाँ, माँस, फल।नियमन एवं सुरक्षा के कार्य।

तालिका 16.7. मनुष्य में मुख्य पाचक-विकरों की तालिका (Main Digestive Enzymes in Man):
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प्रश्न 3.
मनुष्य में आंत्रीय पाचन का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मध्यांत्र या झलियम में पादन (Digestion of Food in Ileum) – इलियम में भोजन प्रवेश करते ही इसकी भित्ति से एन्दीरोकाइनिन (enterokinin) एवं इ्युओक्ईानि (duocrinin) नामक हार्मोंस स्नावित होते हैं जो आन्त्र को आन्न्रीय रस स्रावण करने के लिए उत्तेजित करते हैं। आंग्र स्राव
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण - 15
आंत्र के इलियम (ileum) भाग्ग में भोजन का लगभग पूर्ण पाचन हो जाता है। इस प्रकार काबोहाइड्रेट मोनोसैकेराइड में, प्रोटीन्स अमीनो अम्लों में, वसा वसीय अम्लों एवं ग्लसरॉल में तथा न्यूक्लिक अम्ल नाइड्रोजनी क्षारकों, पेट्टोज शर्करा एवं फॉस्पेट में विषटित हो जाते हैं। मानव में सेलुलोज (cellulose) का पाचन नहीं होता है। परन्तु यह पाचन में रफेज (raughes) का कार्य करके सहायक अवश्य होता है।
मनुष्य में मुख्य पाचक-विकरों की तालिका
(Main Digestive Enzymes in Man)
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प्रश्न 4.
मनुष्य में पचे हुए भोजन का अवशोषण कहाँ और क्यों होता है-
उत्तर:
पचित पदार्थों का अवशोषण (Absorption of Digested Materials):
पचित भोज्य कणों का आंत्र की दीवार द्वारा रुधिर केशिकाओं या लसिका वाहनियों (lymph vessels) में पहुँचना अवशोषण कहलाता है। खाद्य पदार्थों का अवशोषण निक्किय एवं सक्रिय दोनों विधियों से होता है। निष्क्रिय अवशोषण में भोजन कणों का गमन अधिक सान्द्रता से कम सान्द्रता की ओर होता है। इसके द्वारा वसीय अम्ल, वसा में विलेय पदार्थ, एक ग्लिसराइड व कोलेस्ट्रॉल (cholestrol) का अवशोषण होता है। जल तथा इसमें घुले लवणों का अवशोषण सामान्य परासरण विधि द्वारा हो जाता है।

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सक्रिय अवशोषण के लिए ATP की ऊर्जा की आवश्यकता होती है। इसमें सान्द्रता प्रवणता के विरुद्ध अवशोषण होता है। जैसे अमीनो अम्ल एवं कुछ आयन्स का अवशोषण। पाचन क्रिया के पूर्ण होने पर भोजन अपनी सरल घटक इकाइयों में टूट जाता है। कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, ऐल्कोहॉल, जल, विटामिन्स आदि का अवशोषण सामान्य रुधर काशकाओं द्वारा होता है। जबकि वसा का अवशोषण इलियम रसांकुरों (ileumvilli) में उपस्थित विशिष्ट लसीका वाहनियाँ लैक्टियल (lacteal) द्वारा होता है।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण - 18
मुखगुहा (buccal cavity) एवं ग्रासनाल में अवशोषण की क्रिया नहीं होती है तथा आमाशय में केवल सम्पूर्ण एल्कोहल तथा कुछ मात्रा में लवणों का होता है। सर्वाधिक अवशोषण इलियम भाग में होता है क्योंकि इसकी श्लेष्मिका स्तर में ये उपस्थित रसांकुर (villi) इसका सतह क्षेत्रफल बढ़ा देते हैं।

(i) ग्लूकोज एवं एमीनो अम्ल का अवशोषण ग्लूकोज एवं अमीनो अम्ल का अवशोषण सक्रिय अभिगमन द्वारा रुधिर में होता है। इसके लिए ऊर्जा सोडियम सह अभिगमन द्वारा प्राप्त होती है। इसमें सर्वप्रथम आंत्र की एपीथिलयम से Na+ सक्रिय अभिगमन द्वारा आन्त्र गुहा में आ जाते हैं। इसके लिए ATP की ऊर्जा प्रयुक्त होती है।
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Na+ के बाहर आने से आंत्र उपकला में इनकी कमी होने लगती है। Na+ आयन सरल विसरण द्वारा उपकला में प्रवेश कर सकते हैं। परन्तु इस क्रिया में एक वाहक प्रोटीन (carrier protein) की आवश्यकता होती है। जब यह प्रोटीन Na+ व ग्लूकोज या एमीनो अम्ल से जुड़ जाता है तो सोडियम की विद्युत रासायनिक प्रवणता (electro-chemical gradient) के कारण सोडियम के साथ-साथ पोषक पदार्थ ग्लूकोज या एमीनो अम्ल आंत्र उपकला में प्रवेश कर जाते हैं इसे सोडियम सह अभिगमन कहते हैं।

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(ii) वसा का अवशोषण-वसा का अवशोषण वसीय अम्ल, मोनोग्लिसरॉइड या कोलेस्ट्रॉल के रुप में आन्त्र विलाई में पायी जाने वाली विशिष्ट लसिका वाहिनी लैक्टियल (lacteal) द्वारा होता है। इसमें पित्त (bile) में पाए जाने वाले पित्त लवणों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सर्वप्रथम संचित वसा अम्ल के अणुओं को पित्त लवण घेरकर गोल या बेलनाकार सूक्ष्म जटिल रचना बनाते हैं। जिसे मिसेल (micelles) कहते हैं। ये काइम (chyme) में विलेय होती हैं। प्रत्येक मिसेल के केन्द्र में वसा एवं परिधि पर पित्त लवण पाए जाते हैं। जब ये मिसेल सूक्ष्मांकुरों (microvilli) के सम्पर्क में आती हैं तो वसा उपकला कोशिका की झिल्ली को विसरित (diffuse) होकर अन्दर प्रवेश कर जाती है।
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पित्त लवण पुन: काइम (chyme) में आकर इस क्रिया को पुनः आरम्भ कर देते हैं। कोशिका में वे त्वचा अम्ल SER प्रवेश कर नए ट्राइग्लसिराइड (triglyceride) बनाते हैं। ये प्रोटीन द्वारा घेर लिए जाते हैं और ग्लाइकोप्रोटीन (glycoprotein) बनाते हैं। ग्लाइकोप्रोटीन से बनी गोलियों को काइलोमाइक्रोन (chylomicron) कहते हैं।

ये एक्सोसाइटोसिस द्वारा कोशिका से बाहर निकलकर लसिका कोशिका में चली जाती है और लसीका वन्त इन्हें शिरा द्वारा रुधिर प्लाज्मा में पहुँचा देता है। जहाँ लाइपेज विकर वसा (lipase enzyme) को वसा अम्लों व मोनोग्लिसराइड में तोड़ देता है। विटामिन्स तथा लवणों का अवशोषण निक्रिय एवं सक्रिय दोनों विधियों द्वारा होता है। जल का अवशोषण केवल विसरण विधि द्वारा होता है। बड़ी आँत में जल व विटामिन K का अवशोषण होता है।
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आहारनाल के विभिन्न भागों में अवशोषण:

  • मुख में अवशोषण जिन्हा (tongue) की निचली सतह की म्यूकोसा कुछ औषधियों का अवशोषण करती है।
  • आमाशय में अवशोषण-जल, मोनोसैकराइड व एल्कोहल का अवशोषण आमाशय (stomach) में होता है।
  • छोटी आँत में अवशोषण-यहाँ सर्वाधिक पोषकों का अवशोषण होता है। क्योंकि यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते भोजन का पाचन (digestion) पूर्ण हो जाता है। ग्लूकोज, फक्टोज,

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प्रश्न 5.
मनुष्य की आहारनाल में मण्ड प्रोटीन तथा वसा का पाचन किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
संतुलित आहार (Balanced Diet):
वह आहार जिसमें शरीर की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अर्थात् शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए सभी आवश्यक पोषक पदार्थ समुचित मात्रा में उपलब्ध हों, उसे संतुलित आहार (balanced diet) कहते हैं। आहार में सभी पोषक पदार्थों का निश्चित अनुपात में होना अवश्यक होता है। हमारे भोजन का सबसे प्राथमिक पोषक कार्बोहाइड्रेट होता है जो ऊर्जा का सबसे प्रमुख ल्रोत है। इसकी अनेक श्रेणियाँ हैं किन्तु ग्लूकोज सर्वमान्य ऊर्जा स्रोत है अर्थात् अन्य कार्बोहाइड्रेट्स भी ऊर्जा उत्पादन के समय ग्लूकोज (glucose) में बदल जाते हैं।

वसा में अत्यावश्यक वसीय अम्ल (जैसे-लिनोलिनिक अम्ल, लिनोलिक अम्ल, अरेकिडोनिक अम्ल आदि) होते हैं। यद्यपि वसा भी ऊर्जा स्रोत का कार्य करती हैं परन्तु इनका पचाना कठिन होता है। प्रोटीन्स में आवश्यक अमीनो अम्ल (वैलीन, हिस्टिडीन, आर्जिनीन, ट्रिप्टोफेन, लाइसीन आदि) होते हैं। प्रोटीन्स शरीर के निर्माणी अवयव (building components) होते हैं।

भोजन में रूक्ष रेशों (raugse fibres) का होना भी आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त एक संतुलित आहार में लवण एवं विटामिन्स होना भी आवश्यक होता है। लवण एवं विटामिन्स (salt and vitamins) शरीर में उपापचयी नियन्रक (metabolic regulators) कहलाते हैं। इनकी अनुपस्थिति या कमी से अनेक विकार (disorders) उत्पन्न हो जाते हैं। आयु अवस्था, शारीरिक, आकार, कार्य आदि के अनुसार संतुलित आहार में भी पोषक पदार्थों की मात्रा का अनुपात बदलता रहता है। जिसका विवरण निम्नांकित सारणी में दिया गया है।

खाध्य पदार्थों में उफलब्च ऊर्जा मात्रा-खाध्य पदार्थों में उपस्थित ऊर्जा की मात्रा को किलो कैलोरी (k. cal) में व्यक्त किया जाता है। एक किलो कैलोरी में खाद्य पदार्थ के एक ग्राम अणु के पूर्ण ऑक्सीकरण से मुक्त ऊर्जा को सकल कैलोरी मान (gross calory value) कहते हैं। विभिन्न खाद्य पदार्थों द्वारा हमारे शरीर में मुक्त की गयी ऊर्जा को कार्यिकीय ऊर्जा (functional energy) कहते हैं।
तालिका : आई. सी. एम. आर. द्वारा अनशंसित सन्तुलित आहार (मात्रा प्राम में पकेे)

खाद्य फदार्थसकल कैलारी मानकार्यिकीय कैलोरी मान
1. कार्बोहाइड्रेट (carbohydrates)4.10 किलोकैलोरी/प्राम4.00 किलोकैलोरी/प्राम
2. वसा (Fat)9.45 किलोकैलोरी/ग्राम9.00 किलोकैलोरी/म्राम
3. प्रोटीन (Protein)5.11 किलोकैलोरी/म्राम4.00 किलोकैलोरी/म्राम।

संतुलित आहार के प्रमुख पोषक तत्व (Chief Nutrients of Balanced Diet)
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विभिन्न विटामिन, उनकी रासायनिक प्रकृति, साधारण नाम, महत्वपूर्ण स्रोत, कार्य, न्यूनता रोग (Various Vitamins, their Chemical Nature, Common Name, Important Sources, Functions and Deficiency Disorders)

पोषक तख्व (Nutrients)प्रमुख खांध स्वेत (Source)सामान्य कार्य (Functions)
कार्बोहाइड्रेट, स्टार्च, शर्करा, ग्लूकोस, फ्रक्टोज, लैक्टोस।अन्न, आलू चीनी, दूध, पके फल।ऊर्जा एवं संचित भोजन ग्लाइकोजन के रूप में।
वसा (लिपिड) वसा अम्ल।वनस्पति तेल, घी, दूध, अण्डा, मूँगफली, तिल।ऊर्जा एवं संचित वसा के रूप में।
प्रोटीन एवं ऐमीनो अम्ल (आवश्यक ऐमीनो अम्ल)।दूध, माँस, दालें, अण्डा, सोयाबीन, सेम जन्तु प्रोटीन, सोयाबीन ।वृद्धि एवं मरम्मत व जैव उत्रेरक के रूप में।
विटामिन A,B,C,D,Eयकृत, अण्डे का पीतक, दूध, सब्चियाँ, अन्न फल।नियमन एवं सुरक्षा के रूप कार्य।
खनिज Na,K,Ca,PI,Fe,Clसामान्य नमक, दूध, अण्डा, सब्जियाँ, माँस, फल।नियमन एवं सुरक्षा के कार्य।

मनुष्य में मुख्य पाचक-विकरों की तालिका (Main Digestive Enzymes in Man)
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प्रश्न 6.
मनुष्य के शरीर में पाए जाने वाले विभिन्न पाचक एन्जाइमों को तालिकाबद्ध कीजिए। इनके कार्यक्षेत्र भी बताइए।
उत्तर:
स्वांगीकरण (Assimilation):
अवशोषित भोज्य पदार्थों का रुधिर के माध्यम से शरीर की विभिन्न कोशिकाओं में पहुँचकर जीवद्रव्य का एक भाग बन जाना या ऊर्जा उत्पन्न करना स्वांगीकरण (assimilation) कहलाता है। उत्पन्न ऊर्जा ATP के रूप में संचित होती है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण

भोजन के अवयवों का स्वांगीकरण निम्न प्रकार होता है –
(1) कार्बोंाइड्रेट का स्वांगीकरण-यकृत (liver) में पहुँचने के पश्चात्, मोनोसैकेराइइस रुधिर (blood) द्वारा बदय (heart) में और यहाँ से शरीर के विभिन्न भागों में भेज दिए जाते हैं। यहाँ ऊतकों के अन्दर ऑक्सीकरण द्वारा ये ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। अधिक मात्रा में उपस्थित शर्करा (sugar) को यकृत में ग्लाइकोजन में बदलकर संग्मह कर लिया जाता है।

(2) प्रोटीन का स्वांगीकरण-रुधिर द्वारा अमीनो अम्ल शरीर की प्रत्येक कोशिका में पहुँचकर कोशिका एवं उसके अवयवों का निर्माण करते हैं एन्जाइम्स तथा विभिन्न हॉर्मोन्स के निर्माण में भी अमीनो अम्ल भाग लेते हैं। इसके अतिरिक्त अमीनो अम्ल यकृत में डिएमिनेशन (deamination) द्वारा NH उत्पन्न करते हैं जो यूरिया (urea) का निर्माण करती है। यूरिया को मूत्र (urine) के रूप में बाहर निकाल दिया जाता है।

(3) वसा का स्वांगीकरण-वसीय अम्ल एवं ग्लिसरॉल शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचकर संरचनात्मक विकास के साथ-साथ हार्मोंन्स का निर्माण करते हैं। अतिरिक्त वसा चर्म (skin) के नीचे वसा स्तर (adipose layer) के रूप में संमहित हो जाती हैं और ऊष्मारोधी स्तर (insulating layer) का कार्य करती है। जटिल वसा अम्ल, ट्राईग्लिसराइड्स, फॉस्फोलिपिड व कॉलेस्टेरॉल प्रोटीन के खोल में बन्द कर काइलोमाइक्रॉन (chylomicron) नामक वसा गोलिका (fat globule) में बदलकर लसिका में छोड़ दिये जाते हैं। जहाँ से केन्द्रीय लसिका वाहिनी (central lymph vessel) इन्हें रक्त में छोड़ देती है।

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HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Important Questions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण

(A) बहुविकल्पीय प्रश्न (Objective Type Questions

1. होंमोन होता है-
(A) एन्जाइम
(B) रासायनिक सन्देशवाहक
(C) ग्रन्थिल स्नाव
(D) उत्सर्जी पदार्थ
उत्तर:
(B) रासायनिक सन्देशवाहक

2. वृद्धि हॉर्मोन का स्राव किससे होता है ?
(A) एड्रीनल
(B) थायरॉइड
(C) पिट्यूटरी
(D) थाइमस
उत्तर:
(C) पिट्यूटरी

3. शरीर में तालमेल स्थापित करने वाले तन्र होते हैं-
(A) अन्त स्रावी
(B) रुधि परिवहन
(C) तन्त्रिकीय
(D) तन्त्रिकीय एवं अन्तःर्तावी
उत्तर:
(D) तन्त्रिकीय एवं अन्तःर्तावी

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण

4. शरीर की कोशिकाओं में आधारी उपापचय दर का संचालन कौन करता है ?
(A) पैराथाइरॉइड
(B) थाइरॉइड
(C) पिट्यूटरी
(D) थाइमस
उत्तर:
(B) थाइरॉइड

5. रुधिर दमब तथा हृदय स्पन्दन किस हॉर्मोन द्वारा बढ़ जाते हैं ?
(A) ऐड्रीनेलिन
(B) थाइरॉक्सिन
(C) सीक्रिटिन
(D) गैस्ट्रिन
उत्तर:
(A) ऐड्रीनेलिन

6. गोनेडोट्रॉपिन हॉमोन का स्रावण कहाँ से होता है ?
(A) एड्रीनल कर्टेक्स
(B) एड्रीनल मेड्यूला
(C) थाइरॉइड
(D) ऐडीनोहाइपोफाइसिस
उत्तर:
(D) ऐडीनोहाइपोफाइसिस

7. ग्लूकोज को ग्लाइकोजन में परिवर्तित करने धाला हॉर्मोन स्र्रावित होता है-
(A) पिट्यूटरी
(B) थाइमस
(C) अग्न्याशय
(D) थाइरॉइड
उत्तर:
(C) अग्न्याशय

8. पीयूष ग्रन्थि या पिट्यूटरी कहाँ स्थित होती है ?
(A) जनद
(B) मस्तिष्क
(C) श्वास नाल के इधर-उधर
(D) अगन्याशय
उत्तर:
(B) मस्तिष्क

9. एण्ड्रोजन किससे खावित होता है ?
(A) पीयूष ग्रन्थि
(B) वृषण
(C) अण्डाशय
(D) थाइरॉइड
उत्तर:
(B) वृषण

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण

10. मधुमेह का सम्बन्ध किससे है ?
(A) पेयर के गुच्छे
(B) ग्लिसन कोष
(C) लैंगर हैन्स की द्वीपिकाएँ
(D) प्रॉफियन पुटिकाएँ।
उत्तर:
(C) लैंगर हैन्स की द्वीपिकाएँ

11. शरीर की मास्टर ग्रन्थि किसे कहा जाता है ?
(A) पीयूष मन्थि
(B) थाइरॉइड
(C) थाइमस
(D) रड्रीनल
उत्तर:
(A) पीयूष मन्थि

12. न्यूरोहाइपोफाइसिस से क्या खावित होता है ?
(A) वेसोप्रेसिन
(B) ऑक्सीटोसिन
(C) ऑक्सीटोसिन व प्रोलेक्टिन
(D) बेसोप्रेसिन व ऑक्सीटोसिन
उत्तर:
(D) बेसोप्रेसिन व ऑक्सीटोसिन

13. ग्लूकागॉन का खावण कहाँ से होता है
(A) लोडिग कोशिकाएँ
(B) लैंगर हेन्स की द्वीपिकाएँ
(C) कॉर्पस ल्यूटियम
(D) ग्लिसन कोष
उत्तर:
(B) लैंगर हेन्स की द्वीपिकाएँ

14. ग्लूकागॉन के अतिवावण से हो जाता है-
(A) टैटनी
(B) उदकमेह
(C) एकोमिगेली
(D) ग्लाइकोरिया
उत्तर:
(D) ग्लाइकोरिया

15. लैगरहेन्स की द्वीपिकाएँ कहाँ स्थित होती हैं ?
(A) यकृत
(B) तिल्ली
(C) अग्न्याशय
(D) पीयूष मन्थि
उत्तर:
(C) अग्न्याशय

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण

16. TSH का पूरा नाम क्या है ?
(A) थाइरॉक्सिन स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन
(B) टायरोसीन स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन
(C) टायरोसीन स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन
(D) धायरॉइड स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन
उत्तर:
(D) धायरॉइड स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन

17. कौन-सी प्रति वहिःस्रावी तथा अन्तःस्रावी दोनों का कार्य करती है ?
(A) पीयूष ग्रन्थि
(B) यकृत
(C) थाइरॉइड
(D) अग्न्याशय
उत्तर:
(D) अग्न्याशय

18. महाकायता व अप्रातिकायता किस कारण होते हैं ?
(A) पीयूष पन्थि का अतिस्रावण
(B) पीयूष ग्रन्थि का अल्पस्रावण
(C) थाइरॉइड मन्थि का अतिस्रावण
(D) थायरॉइड पन्थि का अल्पखावण
उत्तर:
(A) पीयूष पन्थि का अतिस्रावण

19. लीडिंग कोशिकाओं का कार्य होता है-
(A) शुक्राणु जनन
(B) प्रोजेस्टेरॉन का स्त्रावण
(C) टेस्टोस्टेरॉन का खावण
(D) शुक्राणु का पोषण
उत्तर:
(C) टेस्टोस्टेरॉन का खावण

20. मनुष्य में पैराथॉर्मोन की कमी से -कौन-सा रोग हो जाता है ?
(A) हाइपरकेल्सिमिया
(B) हाइपोकैल्सिमिया
(C) घेंघा
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) हाइपोकैल्सिमिया

21. गोनेडोट्रॉपिन का वायण कहाँ होता है ?
(A) वृषण में
(B) अण्डाशय में
(C) पीयूष मन्थि में
(D) थाइमस में
उत्तर:
(C) पीयूष मन्थि में

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण

22. लंगरहैन्स की द्वीपिकाएँ, जिनसे ग्लूकागॉन हॉर्मोन स्रावित होता है कहलाती है-
(A) अल्फा कोशिकाएँ
(B) बीटा कोशिकाएँ
(C) डेल्टा कोशिकाएँ
(D) मीटा और डेल्टा कोशिकाएँ
उत्तर:
(A) अल्फा कोशिकाएँ

23. पीयूष ग्रन्थि का नियंत्रण कौन करता है ?
(A) एड्रीनल ग्रन्थि
(B) हाइपोथैलेमस
(C) पीनियल काय
(D) थाइरॉइड ग्रन्थि
उत्तर:
(B) हाइपोथैलेमस

24. आपातकालीन हॉमॉन है-
(A) थाइरॉक्सिन
(B) पेड्रीनेलिन
(C) इन्सुलिन
(D) प्रोजेस्टेरॉन
उत्तर:
(B) पेड्रीनेलिन

25. कौन-सी अन्तःस्रावी ग्रन्थि वृद्ध आयु में निष्क्रिय हो जाती है ?
(A) एड्रीनल
(C) थाइमस
(B) पीनियल काय
(D) पीयूष ग्रन्थि
उत्तर:
(C) थाइमस

26. अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के खावण को कहते हैं-
(A) हॉर्मोन्स
(B) फीरोमोन्स
(C) एन्जाइम्स
(D) म्यूकॉइड्स
उत्तर:
(A) हॉर्मोन्स

27. मेड़क के टैडपोल में कायान्तरण किस हॉर्मोन द्वारा प्रेरित होता है ?
(A) थायरॉक्सिन
(C) ग्लूकागॉन
(B) इन्सुलिन
(D) एड्रीनेलिन
उत्तर:
(A) थायरॉक्सिन

28. किस हॉर्मोन के कारण रुधिर दाव एवं हृदय गति में वृद्धि होती है ?
(A) एड्रिनेलिन
(C) सीक्रिटिन
(B) थायरॉक्सिन
(D) गैस्ट्रिन
उत्तर:
(A) एड्रिनेलिन

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण

29 नलिकाविहीन प्रतियों के स्राव को कहते हैं-
(A) एन्जाइम
(C) म्यूकस
(B) फीरोमोन
(D) हॉर्मोन
उत्तर:
(D) हॉर्मोन

30. किस हॉर्मोन के अत्यस्राव के कारण मूत्रलता उत्पन्न होती है ?
(A) वेसोप्रेसिन
(C) कैल्सिटोनिन
(B) थायरॉक्सिन
(D) ऑक्सीटोसिन
उत्तर:
(A) वेसोप्रेसिन

31. मनुष्य में आयोडीन की कमी से होने वाला रोग है-
(A) मिक्सिडिमा
(C) ऐक्रोमिगेली
(B) ऐडीसन रोग
(D) पेघा
उत्तर:
(D) पेघा

32. कैल्सियम व फॉस्फोरस उपापचय का नियन्त्रण करने वाला हॉमॉन कहाँ से स्वावित होता है ?
(A) थाइमस
(B) थाइरॉइड
(C) पैराथाइरॉइड
(D) अग्न्याशय
उत्तर:
(C) पैराथाइरॉइड

33. लैंगर हैन्स की द्वीपिकाओं की बीटा कोशिकाओं द्वारा स्रावित हॉर्मोन है –
(A) ग्लूकागॉन
(B) इन्सुलिन
(C) सोमेटोस्टेटिन
(D) मिलैटोनिन
उत्तर:
(B) इन्सुलिन

34. संकटकालीन परिस्थितियों में मनुष्य को लड़ने, डरने तथा पलायन को प्रेरित करने वाली ग्रन्थि है –
(A) एड्रीनल
(B) थाइमस
(C) भाइरॉइड
(D) पीयूष
उत्तर:
(A) एड्रीनल

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35. त्वचा में उपस्थित रंग का कारण हैं –
(A) स्ट्रेटम मन्यूलोसम परत में पाया जाने वाला क्रेटाहापलिन
(B) उपत्वचीय परत में पाया जाने वाला संयोजी ऊतक
(C) डर्मिस में उपस्थित मेलेनिन
(D) (A) व (B) दोनों।
उत्तर:
(C) डर्मिस में उपस्थित मेलेनिन

36. स्तन प्रवियों व्युत्पन है –
(A) स्वेद मन्थियों से
(C) हेयर फॉलिकल से
(B) वसीय ऊतक से
(D) सिबेसियस ग्रन्धि से।
उत्तर:
(A) स्वेद मन्थियों से

37. DCT में H20 का अवशोषण नियन्त्रित होता है –
(A) ADH द्वारा
(B) ACTH द्वारा
(C) LH द्वारा
(D) ऑक्सीटोसिन द्वारा।
उत्तर:
(A) ADH द्वारा

38. ACTH का स्रावण होता है –
(A) थाइरॉइड से
(B) थाइमस से
(C) पिट्यूटरी से
(D) लैंगर हैंस की द्वीपिकाओं से
उत्तर:
(C) पिट्यूटरी से

39. घेंघा ( goiter) सम्बन्धित है –
(A) ग्लूकेगॉन से
(B) थाइरॉक्सिन से
(C) प्रोजेस्ट्रान से
(D) टेस्टोस्टीरॉन से।
उत्तर:
(B) थाइरॉक्सिन से

40. नोरएपी नेफ्रीन का कार्य है-
(A) रुधिर दाब बढ़ाना
(B) मूत्र निर्माण
(C) एड्रिनेलिन का स्राव बढ़ाना
(D) इनमें कोई नहीं।
उत्तर:
(A) रुधिर दाब बढ़ाना

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41. अमीनो अम्ल व्युत्पन्न हार्मोन हैं –
(A) इंसुलिन
(B) ऑक्सीटोसिन
(C) एरीथ्रोपोएटिन
(D) धाइरॉक्सिन।
उत्तर:
(D) धाइरॉक्सिन।

42. कौन-सा गोनेडोट्रोपिक हार्मोन है –
(A) GH
(B) MSH
(C) ADH
(D) FSH व LH
उत्तर:
(D) FSH व LH

43. आमाशयी रस का स्त्राव नियन्त्रित होता है –
(A) गेल्ट्रिन द्वारा
(B) कोलिस्टो काइनिन द्वारा
(C) एन्टीरोगोस्ट्रिन द्वारा
(D) इनमें कोई नहीं।
उत्तर:
(A) गेल्ट्रिन द्वारा

44. थाइरोक्सिन हार्मोन का कार्य है-
(A) वृद्धि में सहायक
(B) विकास में सहायक
(C) स्वप्रतिरक्षित
(D) उपापचयी नियन्त्रण।
उत्तर:
(D) उपापचयी नियन्त्रण।

45. स्टीरॉइड हार्मोन जो ग्लूकोज उपापचय का नियमन करता है –
(A) कार्टिसोल
(C) 11-डि कोर्टिकोस्टेरॉन
(B) कोर्टिकोस्टेरॉन
(D) कॉटिसोन।
उत्तर:
(A) कार्टिसोल

46. जब चूहे के दोनों अण्डाशयों को हटा दिया जाए तो रुचिर में कौन से हार्मोन की कमी होगी –
(A) ऑक्सिटोसिन
(B) प्रोलैक्टिन
(C) एस्ट्रोजन
(D) गोनेडीट्रोपिक रिलीजिका कारक
उत्तर:
(C) एस्ट्रोजन

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47. मुख्य रूप से कौन से हार्मोन मानव मासिक चक्र को निर्धारित करते हैं-
(A) FSH
(B) LH
(C) FSH, LH, एस्ट्रोजन
(D) प्रोजेस्ट्रोन।
उत्तर:
(C) FSH, LH, एस्ट्रोजन

48. स्तनीय थाइमस ग्रन्थि सम्बन्धित है –
(A) ताप नियन्त्रण से
(B) वृद्धि नियन्त्रण से
(C) प्रतिरक्षा से
(D) थाइरोट्रोपिन स्त्रावण से।
उत्तर:
(A) ताप नियन्त्रण से

49. वयस्क मानव में सबसे बड़ी अन्त: स्रावी ग्रन्थि है –
(A) थाइमस
(B) यकृत
(C) थाइरॉइड
(D) अग्न्याशय।
उत्तर:
(C) थाइरॉइड

50. फेरोमोन्स होते हैं –
(A) अन्तःस्रावी ग्रन्थि उत्पाद
(B) संप्रेषण रसायन
(C) संदेशवाहक RNA
(D) प्रोटीन
उत्तर:
(B) संप्रेषण रसायन

51. सबसे छोटी अन्तस्रावी ग्रन्थि हैं –
(A) थाइरॉइड
(B) पैराथाइरॉइड
(C) पीयूष
(D) एड्रीनल।
उत्तर:
(C) पीयूष

52. स्तनधारियों के अण्डाशय का कौन-सा भाग अण्डोत्सर्ग के बाद अन्तःस्रावी ग्रन्थि का कार्य करने लगता हैं-
(A) माफियन फैलिकल
(B) पीठिका
(D) पीतकी झिल्ली।
(D) प्रोटीन
उत्तर:
(A) माफियन फैलिकल

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(B) अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
अन्तःस्रावी तन्त्र का सर्वोच्च कमाण्डर कौन कहलाता है ?
उत्तर:
हाइपोथैलेमस (Hypothalamus) को अन्तःस्रावी तंत्र का सर्वोच्च कमाण्डर (supreme commander of endocrine system) कहा जाता है।

प्रश्न 2.
लैंगर हैन्स की डीपिकाएँ शरीर में कहाँ पायी जाती हैं ?
उत्तर:
सैगरहैन्स की द्वीपिकाएँ (Islets of Langerhans) अग्न्याशय ग्रन्थि (pancreas) की पालियों के बीच-बीच में उपस्थित संयोजी ऊतकों में पायी जाती हैं।

प्रश्न 3.
शरीर की सबसे बड़ी अन्तःस्रावी ग्रन्थि का नाम लिखिए।
उत्तर:
शरीर की सबसे बड़ी अन्तःसावी मन्थि थायरॉइड (thyroid) होती

प्रश्न 4.
थाइरॉक्सिन हॉर्मोन के अधिक स्राव के कारण होने वाले रोग का नाम लिखिए।
उत्तर:
थाइरॉक्सिन (thyroxin) हॉर्मोन के अधिक स्राव के कारण नेत्रोत्सेधी गलगण्ड ( exophthalmic goiter ) तथा प्लूमर का रोग (Plummer’s Disease) हो जाते हैं।

प्रश्न 5.
पैराथॉमॉन के विपरीत रूप में कार्य करने वाले हॉमोन का नाम लिखिए।
उत्तर:
थाइरॉइड (thyroid) ग्रन्थि द्वारा सावित कैल्सिटोनिन (calcitonin) पैराथॉमॉन (parathormone) के विपरीत कार्य करता है।

प्रश्न 6.
किस प्रन्थि को लिम्फोसाइट्स का प्रशिक्षण केन्द्र कहा जाता है ?
उत्तर:
थाइमस ग्रन्थि (thymus gland) को T- लिम्फोसाइट्स का प्रशिक्षण केन्द्र कहा जाता है।

प्रश्न 7.
शरीर में लैंगिक जैविक घड़ी की भाँति कार्य करने वाली ग्रन्थि का नाम लिखिए।
उत्तर:
पीनियल काय (pineal body) शरीर में लैंगिक जैविक घड़ी (sexual biological clock) की भांति कार्य करती है।

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प्रश्न 8.
यदि लैंगर हैन्स द्वीपिकाएँ कार्य करना बन्द कर दें तो किन हॉर्मोन्स की कमी होगी ?
उत्तर:
यदि लैंगरहैन्स द्वीपिकाएँ कार्य करना बन्द कर दें तो इन्सुलिन ( insulin) हॉर्मोन की कमी होगी।

प्रश्न 9.
जीवन रक्षक हॉर्मोन्स किस अन्तःस्रावी ग्रन्थि द्वारा खावित होते हैं ?
उत्तर:
जीवन रक्षक हॉर्मोन्स अधिवृक्क प्रन्थि अथवा एड्रीनल ग्रन्थि (adrenal gland) द्वारा स्लावित होते हैं।

प्रश्न 10.
कॉर्पस ल्युटियम द्वारा स्त्रावित हॉर्मोन का नाम लिखिए।
उत्तर:
कॉर्पस ल्युटियम (corpus luteum) द्वारा प्रोजेस्टेरॉन हॉर्मोन (progesterone hormone) का स्राव होता है।

प्रश्न 11.
हॉर्मोनी क्रिया में द्वितीय सन्देशवाहक का कार्य कौन करता
उत्तर:
हॉर्मोनी क्रिया में द्वितीय सन्देशवाहक का कार्य साइक्लिक एडीनोसीन मोनो फॉस्फेट या साइक्लिक AMP या cAMP (cyclic AMP) द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 12.
यदि भोजन में आयोडीन की कमी हो तो कौन-सा हॉर्मोन नहीं बनेगा ?
उत्तर:
यदि भोजन में आयोडीन की कमी हो तो थाइरॉक्सिन हॉर्मोन नहीं बनेगा।

प्रश्न 13.
यदि अधिवृक्क ग्रन्थि को काटकर निकाल दें तो क्या होगा ?
उत्तर:
अधिवृक्क मन्धि को काटकर निकाल देने से कॉर्टिकॉइड्स तथा एड्रीनलीन हॉर्मोन्स नहीं बन सकेंगे और इनके अभाव में कई जैविक क्रियाएँ नहीं हो सकेंगी तथा जीव की मृत्यु हो जायेगी।

प्रश्न 14.
मिक्सीडिमा रोग किन दशाओं में होता है ?
उत्तर:
मिक्सीडिमा रोग प्रौढ़ व्यक्तियों में थाइरॉइड के द्वारा थाइरॉक्सिन (thyroxin) के अल्पस्रावण से होता है।

प्रश्न 15.
लैंगर हैन्स की द्वीपिकाएँ कहाँ पायी जाती हैं और किन हॉर्मोन्स का स्वायण करती हैं ?
उत्तर:
लैंगर हैन्स की द्वीपिकाएँ अग्न्याशय (pancreas) में पायी जाती हैं। इसकी 8 कोशिकाएँ इन्सुलिन (insulin) तथा अल्फा कोशिकाएँ ग्लूकागॉन (glucagon) का स्रावण करती हैं।

प्रश्न 16.
उस हॉर्मोन का नाम बताइए जो थाइरॉक्सिन की मात्रा को नियन्त्रित करता है।
उत्तर:
पीयूष ग्रन्थि से निकलने वाला थाइरोट्रापिन हॉर्मोन थाइरॉक्सिन की मात्रा को नियन्त्रित करता है।

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प्रश्न 17.
यदि बाल्यावस्था में ही थाइरॉक्सिन की कमी हो जाये तो बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
थाइरॉक्सिन (thyroxin) की कमी बच्चा अवटुवामन अथवा बौना रह जायेंगा।

प्रश्न 18.
घेंघा रोग किस हॉर्मोन की कमी से हो जाता है ?
उत्तर:
भोजन में आयोडीन की कमी से थाइरॉइड मन्धि फूल जाती है तथा थाइरॉक्सिन (thyroxin) का स्राव बहुत कम हो जाता है। अतः थाइरॉक्सिन की कमी से घेंघा या गलगण्ड रोग हो जाता है।

प्रश्न 19.
इन्सुलिन किस प्रकार का हॉर्मोन है ? इनका निर्माण किन कोशिकाओं द्वारा होता है ?
उत्तर:
इन्सुलिन (insulin) दो पॉलिपेप्टाइड (polypeptide ) श्रृंखलाओं से बना हॉर्मोन है। इसका स्रावण लैंगर हैन्स की द्वीपिकाओं (islets of langerhans) की बीटा कोशिकाओं (B cells) द्वारा होता है।

प्रश्न 20.
किस हॉर्मोन की कमी से ग्लाइकोसूरिया नामक रोग हो जाता है ?
उत्तर:
इन्सुलिन (insulin) की कमी से ग्लाइकोसूरिया (glycosuria) रोग हो जाता है।

प्रश्न 21.
पीत पिण्ड (कॉर्पस ल्यूटियम) से निकलने वाले हॉर्मोन्स का नाम लिखिए।
उत्तर:
पीत पिण्ड (कॉर्पस ल्यूटियम) से प्रोजेस्टेरॉन (progesteron) हॉर्मोन का स्त्रावण होता है।

प्रश्न 22.
पीयूष ग्रन्थि की पश्च पालि से स्वावित होने वाले दो हॉर्मोन्स के नाम लिखिए।
उत्तर:
(i) वेसोप्रेसिन (vasopressin) तथा
(ii) ऑक्सीटोसिन (oxytocin )।

प्रश्न 23.
एकोमिक्रिया रोग क्या है और किन में तथा क्यों हो जाता है ?
उत्तर:
एक्रोमिक्रिया रोग वामन व्यक्तियों में वृद्धि हॉर्मोन्स की अधिकता से उत्पन्न हुए अनुपातहीन वृद्धि को कहते हैं।

प्रश्न 24.
स्नूकागॉन हॉर्मोन्स कौन-सी द्वीपिकाओं से स्वावित होता है ? इसका क्या कार्य है ?
उत्तर:
ग्लूकागॉन (glucagon) हॉर्मोन लेंगरहेन्स की द्वीपिकाओं (Islets of Langerhans) की अल्फा कोशिकाओं (a cells) से स्त्रावित होता है तथा यह यकृत में वसीय अम्लों तथा अमीनों अम्लों से ग्लूकोज के स्त्रावण को प्रेरित करता है तथा आवश्यकता के समय संचित ग्लाइकोजन को विखण्डित करके ग्लूकोज बनाने की क्रिया को प्रेरित करता है।

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प्रश्न 25.
अन्तः:वावी प्रन्थियों के अध्ययन को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
अन्तः सांवी मन्दियों के अध्ययन को अन्तःस्रावी विज्ञान अथवा एण्डोक्राइनोलॉजी (endocrinology) कहते हैं।

प्रश्न 26.
कौन-सा हॉर्मोन वृक्क नलिकाओं में जल अवशोषण का नियमन करता है ?
उत्तर:
एण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (antidiuretic Hormone ADH) वृक्क नलिकाओं में जल अवशोषण का नियमन करता है।

प्रश्न 27.
रक्त में कैल्सियम तथा फॉस्फोरस की मात्रा का नियमन कौन करता है ?
उत्तर:
रक्त में कैल्सियम तथा फॉस्फोरस की मात्रा का नियमन पैराथॉमन (parathormone) करता है।

प्रश्न 28.
बाँझपन व नपुंसकता किस हॉमॉन की कमी के कारण होती
उत्तर:
बांझपन एस्ट्रोजन ( estrogen) की कमी से तथा नपुंसकता एण्ड्रोजन्स (endrogens) हॉर्मोन्स की कमी से हो जाती है।

प्रश्न 29.
हॉर्मोन्स शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किसने किया था ?
उत्तर:
हॉर्मोन (hormone) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग स्टरलिंग (sterling) ने किया था।

प्रश्न 30.
शरीर की मास्टर ग्रन्थि किसे कहते हैं ?
उत्तर:
पीयूष मन्थि (pituitary gland) को शरीर की मास्टर प्रन्थि कहते

(C) लघुत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
अन्तःस्रावी तथा वहिःस्रावी प्रन्थियों में उदाहरण सहित अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अन्तःस्रावी तथा वहिःस्रावी ग्रन्थियों में अन्तर

अन्त:स्रावी ग्रन्धियाँ:बहिस्तावी ग्रन्थियाँ:
ये नलिका विहीन होती हैं।ये नलिका युक्त होती हैं।
इनमें संश्लेषित होने वाला स्राव सीधे ही रुधिर में मुक्त होकर शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँचता है।इनमें संश्लेषित होने वाला स्राव नलिकाओं द्वारा किसी निश्चित अंग या शरीर की सतह पर पहुँचता है।
इनसे स्तावित पदार्थों को हॉर्मोन्स कहते हैं।इनमें स्रावित पदार्थों को हॉमोन्स नहीं कहते हैं। इनमें कोई भी रसायन हो सकता है।
उदाहरण-पीयूष ग्रन्थि, थाइाॉयड प्रन्थि, एड्रीनल मन्थि आदि।उदाहरण-यकृत, स्नेह मन्थियाँ, दुग्ध मन्थियाँ आदि।

प्रश्न 2.
हाइपोथैलेमस द्वारा स्त्रावित मोचक तथा निरोधी हॉर्मोन्स का ना लिखिए।
उत्तर:
हाइपोथैलेमस की तन्त्रिका स्रावी कोशिकाओं (neurosecretar cells) से लगभग 10 तन्त्रिका हॉर्मोन्स (neurohormones) का स्राव होत है जो पीयूष ग्रन्थि की अप्र व पश्चपालियों से हॉर्मोन्स के स्राव का नियम- करते हैं। ये न्यूरोहॉर्मोन्स दो प्रकार के होते हैं –

(I) मोचक हॉर्मोन्स (Releasing Hormones) – ये हॉर्मोन्स पीयू ग्रन्थि से हॉर्मोन्स के स्राव या मोचन को उद्दीपित करते हैं। ये निम्नलिखित होत
(1) थाइरोट्रॉपिन मोचन कारक या थाइरोट्रॉपिन मोचक हॉर्मोन्स (Thyrotropin-Releasing Factor: TRF)
(2) एंड्रीनोकॉर्टिकोट्रॉपिन मोचक हॉर्मोन (Adrenocorticotropin Releasing Hormone : ACTRH)
(3) ल्यूटीनाइजिंग हॉर्मोन मोचक हॉर्मोन (Luteinizing Hormone Releasing Hormone: LHRH)
(4) फॉलिकल उद्दीपन हॉर्मोन मोचक हॉर्मोन (Follicle stimulating Hormone-Releasing Hormone: FSHRH)
(5) वृद्धि हॉर्मोन या सोमेटोट्रॉपिन-मोचक हॉर्मोन (Growth Hormone or Somatotropin-Releasing Hormone)
(6) प्रोलेक्टिन मोचक हॉर्मोन (Prolactin Releasing Hormone : PRH)
(7) मिलेनोसाइट उद्दीपन हॉर्मोन मोचक हॉर्मोन (Melanocyte stimulating Hormone-Releasing Hormone: MSHRH)

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(II) निरोधी हॉर्मोन्स (Inhibiting Hormones : IH ) – ये हॉर्मोन्स पीयूष ग्रन्थि से कुछ हॉर्मोन्स के स्राव को रोकते हैं।
ये निम्नलिखित होते हैं –
(1) वृद्धि हॉर्मोन्स निरोधी हॉर्मोन (Growth Hormone Release-Inhibiting Hormone: GHR-IH)
(2) प्रोलेक्टिन मोचन -निरोधी हॉर्मोन (Prolactin Release-Inhibiting Hormone: PR-IH)
(3) मिलेनोसाइट उद्दीपन हॉर्मोन मोचन निरोधी हॉर्मोन (Melanocyte Hormone-Release Inhibiting Hormone stimulating MSH-RIH)

प्रश्न 3.
पीयूष ग्रन्थि के वृद्धि हॉर्मोन के अतिस्राव के कारण होने वाले रोगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पीयूष पन्थि (pituitary gland) के वृद्धि हॉर्मोन (growth hormones) के अतिस्राव (hypersecretion ) से निम्नलिखित रोग हो जाते हैं –
(1) अतिवृद्धि (Gigantism) – बाल्यकाल में वृद्धि हॉमोंन की अधिकता से बहुत लम्बे तथा हृष्टपुष्ट भीमकाय (giant) व्यक्तियों का विकास होता है । इन्हें पिट्यूटरी जायण्ट (pituitary giants) कहते हैं।
(2) अप्रातिकायता (Acromegaly ) वृद्धिकाल के बाद वृद्धि हॉर्मोन की अधिकता से गोरिल्ला के समान कुरूप भीमकाय व्यक्ति बनते हैं। क्योंकि हड्डियों की लम्बाई में वृद्धि सम्भव नहीं होती तो शरीर लम्बाई में नहीं बढ़ पाता है, अतः हाथ, पाँव, चेहरे के कुछ भाग जबड़े आदि अधिक लम्बे हो जाते हैं। हड्डियाँ मोटाई में बढ़ती हैं, जिससे चेहरा व शरीर भद्दा हो जाता है। इस अवस्था को एक्रोमेगैली (acromegaly) कहते हैं।
(3) काइफोसिस (Kyphosis) – कभी-कभी कशेरुक दण्ड के झुक जाने से व्यक्ति कुबड़ा हो जाता है।

प्रश्न 4.
क्या कारण है कि प्रायः घेंघा की बीमारी पहाड़ी क्षेत्र पर रहने वाले मनुष्यों में ज्यादा होती है ?
उत्तर:
पहाड़ी क्षेत्र में उपलब्ध जल एवं मिट्टी में आयोडीन की कमी होती है। अतः भोजन व पेयजल में आयोडीन की कमी से इस क्षेत्र के लोगों में प्रायः घेंघा रोग हो जाता है। इस रोग में गले की ‘थाइरॉइड ग्रन्थि’ फूल जाती है, जिससे गर्दन कुरूप हो जाती है। आयोडीन की उपयुक्त मात्रा सेवन करने से यह रोग ठीक हो जाता है। इस रोग से बचने के लिए भोजन के साथ आयोडीनयुक्त नमक का सेवन करना चाहिए।

प्रश्न 5.
थायरॉक्सिन हॉर्मोन के कार्यों को समझाइए।
उत्तर:
थायरॉक्सिन हॉर्मोन (thyroxin hormone) के निम्नलिखित कार्य होते हैं –

  1. थाइरॉक्सिन सभी उपापचय क्रियाओं की गति का नियमन करता है। यह ऊर्जा उत्पन्न करने वाली ऑक्सीकृत प्रक्रियाओं की गति को बढ़ाता है।
  2. यह आन्त्र में ग्लूकोज अवशोषण, कोशिकाओं में ग्लूकोज की खपत, हृदय स्पन्दन दर, प्रोटीन संश्लेषण की गति व शरीर के ताप आदि में वृद्धि है करता है।
  3. यह शरीर के तापमान को बढ़ाता है।
  4. थाइरॉक्सिन वृद्धि एवं भिन्नन (growth and differentiation) के लिए अति आवश्यक है। यह अधिवृक्क वल्कुट (adrenal cortex) तथा जनदों की क्रिया को उत्तेजित करता है।
  5. न्यूरोस्स्रावी रसायन ऐड्रीनेलिन ( adrenalin) तथा नॉरऐड्रीनेलिन (nor adrenalin) की क्रिया विधि को बढ़ाता है।
  6. कायान्तरण में इसकी विशेष भूमिका होती है। इसकी कमी से कायान्तरण नहीं होता।
  7. शीत रुधिर या अनियततापी कशेरुकी प्राणियों में थाइरॉइड हॉर्मोन परासरण नियमन (osmoregulation) तथा निर्मोचन (moulting) का नियन्त्रण करता है।

प्रश्न 6.
लैंगर हैन्स की द्वीपिकाओं द्वारा स्रावित हॉर्मोनों के कार्यों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लैंगरहैन्स की द्वीपिकाओं में तीन प्रकार की अन्तःस्रावी कोशिकाएँ पायी जाती हैं –
बीटा कोशिकाएँ – cells, अल्फा कोशिकाएँ (c-cells) तथा डेल्टा कोशिकाएँ (D-cells)। इनके द्वारा क्रमशः इन्सुलिन ( Insulin), ग्लूकागॉन (glucagon) तथा सोमेटोस्टेटिन (somatostatin) हॉर्मोन्स का स्त्राव किया जाता है।

इनके कार्य निम्नलिखित हैं –
(A) इन्सुलिन के कार्य (Functions of Insulin) –

  •  कार्बोहाइड्रेट (carbohydrate) के पाचन से बने ग्लूकोज (Glucose) को ग्लाइकोजन (glycogen) में बदल देता है और यकृत (liver) एवं पेशियों (muscles) में संगृहीत करता है।
  • ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से ऊर्जा विमुक्त होती है।
  • रुधिर में ग्लूकोज की मात्रा निश्चित बनाये रखता है।
  • कोशिकाओं की आधारी उपापचयी दर (Basal Metabolic Rate : BMR) को प्रभावित करता है।
  • वसा ऊतकों में वसा संश्लेषण अर्थात् लाइपोजेनेसिस ( lipogenesis) को प्रभावित करता है।

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(B) ग्लूकैगॉन के कार्य (Function of Glucagon ) –
(1) यह यकृत (liver) में ऐमीनो अम्लों तथा वसा से ग्लूकोज के संश्लेषण अर्थात् लूकोजीनोलाइसिस (gluconeogenesis) को प्रेरित करता है।
(2) वसा ऊतक में वसा के विघटन अर्थात् लाइपोलाइसिस (lypolysis ) को प्रेरित करता है।
(3) यकृत में ग्लूकोज को बनाने (glycogenalysis) को प्रेरित करता है।

(C) सोमेटोस्टेटिन के कार्य (Functions of Somatostatin) – यह हॉर्मोन पचे हुए भोजन के स्वांगीकरण की अवधि बढ़ाता है। इससे शरीर में भोजन की उपयोगिता अधिक समय तक रहती है।

प्रश्न 7.
हॉर्मोनी क्रिया में CAMP की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कुछ हॉर्मोनी क्रियाओं में साइक्लिक एडीनोसिन मोनो फॉस्फेट (Cyclic Adenosine Monophosphate) द्वितीयक सन्देशवाहक (Second messenger) की भाँति कार्य करता है। कुछ हॉर्मोन (hormone) के अणु बड़े होते हैं जिस कारण ये लक्ष्य कोशिका की कोशिका कला से पारगमित नहीं हो पाते हैं। इन लक्ष्य कोशिकाओं की कला में हॉर्मोन माही प्रोटीन होती है। यह हॉर्मोन माही प्रोटीन प्रथम सन्देशवाहक कहलाती है। माही प्रोटीन के हॉर्मोन से क्रिया करने पर कोशिका कला की G प्रोटीन सक्रिय हो जाती है जो कि कोशिका कला में उपस्थित एडीनिलेट साइक्लेस (adenylate cyclase) एन्जाइम को उद्दीपित कर देता है। यह उद्दीपित एन्जाइम अणु ATP को CAMP (एडीनोसिन ट्राइ फॉस्फेट को चक्रीय एडीनोसीन मोनो फॉस्फेट) में बदल देता है।

चक्रीय एडीनोसीन मोनो फॉस्फेट (Cyclic Adensosine Monophosphate cAMP) के सक्रिय अणु प्रोटीन काइनेस एन्जाइम्स (protein kinase enzymes) को सक्रिय कर देते हैं जो कि कोशिकाओं की उपापचयी क्रियाओं को उत्प्रेरित करता है। अतः उपरोक्त हॉर्मोनी क्रियाओं में CAMP एक मध्यस्थ दूत या द्वितीयक दूत (second messenger) की भाँति कार्य करता है।

प्रश्न 8.
हॉर्मोन्स एवं एन्जाइम में अन्तर लिखिए।
उत्तर:
हॉर्मोन एवं एन्जाइम में अन्तर –

हॉर्मोन (Hormone)एन्जाइम (Enzyme)
हॉर्मोन किसी क्रिया को उत्तेजित या उद्दीप्त करते हैंएन्जाइम किसी क्रिया में उत्र्रेरक का कार्य करते हैं और पुनः दूसरी क्रिया में काम करते हैं।
हॉर्मोन ‘रोटीन व स्टीरॉइड, वसा अम्ल, टायरोसिन के समान प्रकृति के होते हैं।सभी एन्जाइम्स प्रोटीन के बने होते हैं।
हॉर्मोन का अणुभार कम और अणु छोटे होते हैं।एन्जाइम के अणु बड़े और इनका अणुभार अधिक होता है।
ये रासायनिक अभिक्रियाओं में विधटित हो जाते हैं और ये इनमें पुन: भाग नहीं ले सकते हैं।ये रासायनिक अभिक्रियाओं में विघटित नहीं होते हैं और इनमें ये पुन: भाग ले सकते हैं।
हॉर्मोन्स अन्तःावी ग्रन्थियों में स्रावित होते हैं तथा इनका कार्यक्षेत्र उत्पत्ति स्थान से दूर होता है।एन्जाइम कोशिका व बहिंस्रावी ग्रन्थियों में बनते हैं तथा इनका कार्यक्षेत्र उत्पत्ति स्थान के पास होता है।
ये शरीर में संचित नहीं हो सकते।ये कुछ समय के लिए शरीर में संचित हो सकते हैं।

प्रश्न 9.
एस्ट्रोजन एवं एड्रीनेलिन हॉर्मोन के स्रोत तथा कार्य लिखिए।
उत्तर:
(1) एस्ट्रोजन (Estrogen) यह अण्डाशय की मैफियन पुटिकाओं की धीका इण्टरना कोशिकाओं से स्त्रावित होता है। यह सभी सहायक जननांगों अण्डवाहिनी, गर्भाशय, योनि लेबिया, क्लाइटोरिस आदि एवं द्वितीयक लैंगिक लक्षणों यथा दुग्ध-प्रन्थियों के विकास को प्रेरित करता है। स्त्रियों में रजोधर्म इसी के प्रभाव से प्रारम्भ होता है।

(2) एड्रीनेलिन ( Adrenaline ) – यह एड्रीनल अन्थि के मैड्यूला से स्त्रावित होता है। यह व्यक्ति को संकटकालीन परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार करता है, इसके प्रमुख कार्य है-भय, क्रोध, पीड़ा, अपमान, दुर्घटना, अत्यधिक ठण्ड या गर्मी के प्रभाव का नियन्त्रण व नियमन, हृदय, यकृत, कंकाल पेशियों व मस्तिष्क की रुधिर वाहिनियों का प्रसार हृदय की स्पन्दन दर रुधिर दाब, श्वास दर व उपापचय दर में वृद्धि पुतलियों का प्रसार आदि।

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प्रश्न 10.
अप्रातिकायता, घेघा एडीसन का रोग तथा हाइपोग्लाइसीमिया रोग से कौन-से हॉर्मोॉन सम्बन्धित हैं ?
उत्तर:

रोग का नामसम्बन्यित हॉरोंन
अमातिकायता (Acromegaly)सोमेटोट्रॉपिन का अतिस्रावण (Hypersecretion of Somatotropin)
घेंघा (Goiter)थाइर्र्क्सिन का अल्पस्नावण (Hyposecretion of Thyroxin)
एडीसन का रोग (Addison’s disease)ग्लूकोकॉर्टिकायड्स हॉर्मोन का अल्प सूवण (Hyposecretion Glucocorticoids Hormone)
हाइपोग्लाइसीमिया (Hypoglycemia)ग्लूकोकॉर्टिकायड्स की कमी (Hyposecretion of Glucocorticoids)

प्रश्न 11.
जनद ग्रन्थियों में उपस्थित अन्तःस्रावी प्रवियों द्वारा स्त्रावित हॉर्मोन्स का शरीर में महत्व लिखिए।
उत्तर:
जनद प्रन्थियों में उपस्थित अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ जनद प्रन्थियाँ जनन कोशिकाएँ बनाने के अतिरिक्त अन्तःस्रावी मन्धियों के समान कार्य करती हैं जनद ग्रन्थियों में उपस्थित अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ व उनके हॉर्मोन्स निम्नलिखित है –
(i) वृषण एवं नर हॉर्मोन्स (Testes and Male Hormones) वृषणों में अन्तराली कोशिकाएं ( interstitial cells) या लीडिंग कोशिकाएँ (Leydig’s cells) नर हॉर्मोन्स के रूप में एण्ड्रोजन्स का स्त्रावण करती है। प्रमुख नर हॉर्मोन्स हैं –
(i) एण्ड्रोजन टेस्टोस्टेरॉन
(ii) एण्ड्रोस्टेरॉन
ये नर में पुरुषोचित लैंगिक लक्षणों के परिवर्धन तथा यौन आचरण को प्रेरित करते। इनके अतिरिक्त टेस्टोस्टेरॉन शुक्राणु जनन को प्रेरित करता है।

(ii) अण्डाशय एवं मादा हॉर्मोन्स (Ovary and Female Hormones) – स्तनियों के अण्डाशय के स्ट्रोमा के कॉर्टेक्स भाग में अनेक विकासशील वैफियन पुटिकाएँ (graffian follicles) पायी जाती हैं। मैफियन पुटिकाओं की थीका इण्टरना (theca interna) एस्ट्रोजन (estrogen) हॉर्मोन का लावण करती है। यह हॉर्मोन यौवनावस्था प्रारम्भ से लेकर रजोनिवृत्ति की आयु तक साबित होता है।

कॉर्पस ल्यूटियम से भी दो हॉर्मोन्स –
(i) प्रोजेस्टेरॉन तथा
(ii) रिलैक्सिन स्त्रावित होते हैं।
(a) एस्ट्रोजन जननांगों व स्तनों के विकास को प्रेरित करता है।
(b) प्रोजेस्टेरॉन रजोचक्र का नियमन करता है, भ्रूण का रोपण करता है तथा गर्भधारण के बाद गर्भाशय के संकुचन को भी रोकता है।
(c) रिलैक्सिन शिशु जन्म के समय श्रोणि मेखला के प्यूबिक सिम्फाइसिस तथा पेशियों के शिथिलन का नियमन करता है।

प्रश्न 12.
अप्रातिकायता (Acromegaly) किसे कहते हैं ? यह किन परिस्थितियों में होता है ? इस रोग के लक्षणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अप्रातिकायता (acromegaly ) – पीयूष ग्रन्थि की अग्र पालि से सावित वृद्धि हॉर्मोन (growth hormone /GH) या सोमेटोट्रॉपिक हॉर्मोन (somatotropic hormone / STH) के आधिक्य से शरीर की कोशिकाओं में अमीनो अम्ल आवश्यकता से अधिक पहुँचने लगते हैं। इसके फलस्वरू कंकाल एवं अन्य ऊतकों की अतिवृद्धि हो जाती है और व्यक्ति की ऊँचाइ औसत से अधिक (7 फुट या इससे अधिक) हो जाती है। ऐसे व्यक्तियों को महाकाय तथा रोग को महाकाय या अतिकायता (gigantism) कहते हैं। यदि इस हॉर्मोन का स्राव वयस्कावस्था प्राप्त करने के बाद या कंकालीय वृद्धि पूरी होने के बाद बढ़ा हो तो रोग को अप्रातिकायता कहते हैं।

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अश्रातिकायता रोग के लक्षण-इस रोग के लक्षण निम्नलिखित हैं –

  • कंकाल की सभी अस्थियों में आनुपातिक वृद्धि नहीं हो पाती है।
  • हाथ व पैर लम्बे हो जाते हैं।
  • निचला जबड़ा आगे की ओर निकल आता है।
  • गालों की अस्थियाँ उभर आती हैं।
  • शरीर बेडौल, बड़ा व लम्बा हो जाता है।

प्रश्न 13.
अप्डाशय के हॉमोंस के नाम तथा कार्य बतताइए।
उत्तर:
अण्डाशय के हॉर्मोन्स व उनके कार्य खियों के अण्डाशय से तीन प्रकार के हॉमोन्स स्रावित होते हैं-
(1) एट्टोजन (Estrogen)-यह अण्डाशय की मैफियन पुटिकाओं की थीका इण्टरना कोशिकाओं से यौवनावस्था से लेकर रजोनिवृत्ति की आयु (लगभग 48 वर्ष) तक स्वावित होता है। यह सभी सहायक जननांगों एवं द्वितीयक लैंगिक लक्षणों के विकास को प्रेरित करता है। स्तियों में रजोधर्म इसी के प्रभाव से – प्रारम्भ होता है। इसे नारी विकास ‘होंमोंन’ भी कहते हैं। इस हॉमोंन का नियन्तण पीयूष मन्थि के दो हॉर्मोन्स FSH तथा LH द्वारा होता है।

(2) प्रोजेस्टेरॉन (Progesterone)-यह् अण्डाशय की मैफियन पुटिका कोशिकाओं से अप्डोत्सर्ग के बाद बनी पीले रंग के पीत पिण्ड (कॉर्पस ल्यूटियम) नामक प्रन्थियों से स्रावित होता है। यह स्तियों में मासिक-चक्र का नियमन करके गर्भाधान के लिए आवश्यक दशाओं के विकास को प्रेरित करता है। गर्भधारण के समय होने वाले परिवर्तन का नियन्त्रण इसी हॉर्मोन द्वारा किया जाता है। इसके प्रभाव से गर्भकाल में स्तन अधिक विकसित हो जाते हैं और दुग्ध-ग्रन्थियाँ सक्रिय होकर बड़ी हो जाती हैं। प्रोजेस्टेरॉन का स्रावण पीयूष प्रन्थि के हॉम्योंन LH दूारा नियान्तित होता है।

(3) रिलैक्सिन (Relaxin)-इस हॉमोंन का स्रावण भी पीत पिण्ड (कॉर्पस ल्यूटियम) द्वारा गर्भावस्था की समाप्ति पर शिशु-जन्म के समय होता है। यह हाँरोन शिशु-जन्म के समय जघन सन्धान (pubic symphysis) नामक जोड़ व इससे सम्बन्धित प्रेियों का शिथिलन करके शिशु-जन्म को सुगम बनाता है।

प्रश्न 14.
मधुमेह (Diabetes) किसे कहते हैं ? यह रोग क्यों हो जता है ? इसके लक्षणों का वर्णन कीजिए।
अथवा
इन्सुलिन के अनियमित स्रावण से कौन-से रोग उत्पन्न हो जाते हैं ?
उत्तर:
इन्सुलिन की अनियमितता से उत्पन्न रोग
(क) अल्पस्रावण (Hypoinsulinism) का प्रभाव मधुमेह या डाइबिटीज (Diabetes) रोग-यह रोग इन्तुलिन हॉर्मोन के अल्प या न्यून स्रावण के कारण उत्पन्न होता है। इन्दुलिन के अल्पस्रावण के कारण शरीर की कोशिकाएँ रुधिर से ग्लूकोज को नहीं ले पाती हैं। इससे रुधिर में ग्लूकोज की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। अधिक वृद्धि हो जाने पर ग्लूकोज मूत्र में उत्सर्जित होने लगता है। अन्त में जब रुधिर और मात्र में ग्लूकोज की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है तो मधुमेह का रोग हो जाता है।

4 % मनुष्यों में यह रोग आनुवंशिक होता है। इस रोग में बहुमूत्रता के कारण शरीर में निर्जलीकरण एवं प्यास की शिकायतें हो जाती हैं। शरीर की कोशिकाएँ रुधिर से ग्लूकोज प्रहण न कर पाने के कारण ऊर्जा उत्पादन हेतु अपनी प्रोटीन्स का विखण्डन करने लगती हैं। इससे शरीर कमजोर हो जाता है। वसा ऊतकों में वसा के अपूर्ण विखण्डन से कीटोन काय (ketone bodies) बनने लगते हैं। ये मीठे, अम्लीय तथा विषाक्त होते हैं। धीरे-धीरे शरीर में इनकी मात्रा और अम्लीयता में वृद्धि हो जाने से रोगी बेहोश होने लगता है और शीष्र ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। मधुमेह के रोगियों को इन्सुलिन के इंजेक्शन देने से लाभ होता है।

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(ख) अतिस्नावण (Hyperinsulinism) का प्रभाव हाइपोम्लाइसीमिया (Hypoglycemia) रोग-यह रोग इन्सुलिन के अधिक स्रावण के कारण उत्पन्न होता है। इन्सुलिन के अतिस्रावण के कारण शरीर-कोशिकाएँ रुधिर से अधिक मात्रा में ग्लूकोज लेने लगती हैं, जिससे रुधिर में इसकी मात्रा कम होने लगती है। इसके कारण आवश्यक ऊर्जा प्राप्ति हेतु तन्त्रिका कोशिकाओं, नेत्रों की रेटिना व जननिक एपीथीलियम की कोशिकाओं की ग्लूकोज की आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती है। अतः रोगी का दृष्टि ज्ञान एवं जनन क्षमता कम हो जाती है। मस्तिष्क की कोशिकाओं में अत्यधिक उत्तेजना से थकान, मूर्च्छा व ऐंठन अनुभव होती है और अन्त में मृत्यु हो जाती है। एश्रीनेफ्रीन, वृद्धि हॉमोंन, कॉर्टीसोल ग्लूकागॉन देने से इस रोग में लाभ होता है।

प्रश्न 15.
अन्त स्वावी विज्ञान के जनक कौन शे ? हॉर्मोंस का रासायनिक स्वभाव क्या होता है ?
उत्तर:
अन्तःसावी विझान के जनक धॉमस ए्ड़सन थे। होमोंन्स का रासायनिक स्वभाव-हॉर्मोन्स जटिल कार्बनिक पदार्थ हैं, जिनका स्वभाव भिन्न-भिन्न हो सकता है यथा-
(1) अमीनो अम्ल (Amino acids) – कुछ हॉमोंन अमीनो अम्ल या इनके व्युत्पन्न पदार्थ होते हैं। जैसे-धाइर्रॉक्सन हॉर्मोन।
(2) प्रोटीन या पॉलीपेप्टाइ्ड्स (Proteins or Polypeptides) – ये कम अणुभार वाले प्रोटीन या इससे व्युत्पन्न पदार्थ होते हैं; जैसे पीयूष ग्रन्यि के हॉमोंस्स।
(3) स्टीरॉइडस (Steroids) – इनका आधार पदार्थ कलेस्ट्रॉल होता है जैसे लिंग होंगोन्स अधिवृक्क गन्थि के कुछ होंगोन्स।
(4) कैटेकोलेमीन्स (Catecholamines)-जैसे- एड़नेलिन। हॉर्मोन्स रासायनिक उत्रेरक के रूप में कार्य करते हैं। ये रासायनिक क्रियाओं का नियन्न्रण करने में सहयोग देते हैं। अधिकतर हॉमोंन्स उपापचयिक अभिक्रियाओं में सीधे भाग न लेकर इनकी क्रियाशीलता के स्तर को प्रभावित करते हैं। ये जल में विलेय होते हैं।

प्रश्न 16.
कौन-सी ग्रन्थियाँ निम्नलिखित हॉमोन्स का स्रावण करती हैं-
(1) वृद्धि हॉमोन
(2) ऑक्सीदोसि
(3) बाइरॉक्सि
(4) कैस्तिटोनिन
(5) धाइमोसिन
(6) इन्सुलिन
(7) ग्लूकाग्नों
(8) ग्लूकोकर्टिकॉयड्स
(9) ऐडीनेलिन
(10) टेस्टोस्टेरॉन।
उत्तर:

हॉमोंनअन्त:स्तावी ग्रन्यि
वृद्धि हॉर्मोन (Growth hormone)एडीनोहाइपोफाइसिस (Adenohypophysis)
ऑक्सीटोसिन (Oxytocin or Pitocin)न्यूरोहापोफाइसिस (Neurohypophysis)
थाइरॉक्सिन (Thyroxin)थाइरॉइड ग्रन्थि (Thyroid gland)
कैल्सिटॉनिन (Calcitonin)थाइरॉइड ग्रन्थि (Thyroid gland)
थाइमोसिन (Thymosin)थाइमस प्रन्थि (Thymus gland)
इन्सुलिन (Insulin)अग्याशय (Pancreas) में उपस्थित लैंगरहैंस की द्वीपिकाएँ (Islets of Langerhans)
ग्लूकागॉन (Glucagon)अग्याशय (Pancreas) में उपस्थित लैंगरहैंस की द्वीपिकाएँ (Islets of Langerhans)
ग्लूकोकॉर्टिकॉयड्स (Glucocorticoids)एड्रीनल कॉर्टेक्स (Adrenal cortex)
ऐड्रीनेलिन (Adrenalin)एड्रीनल मैड्यूला (Adrenal Medulla)
टेस्टोस्टेरॉन (Testosterone)वृषण (Testes)

प्रश्न 17.
मनुष्य में उपस्थित अन्य अन्तःस्रावी अंगों का वर्णन कीजिए। उत्तर – मनुष्य में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों (Endocrine glands) के अतिरिक्त कुछ अन्य अंग भी हॉर्मोन्स उत्पन्न करते हैं जो शरीर की क्रियाओं पर अपना प्रभाव डालते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख अंग निम्न हैं –

(1) वृक्क की जक्स्टा मेड्यूलरी जटिल कोशिकाएँ (Complex cells of Juxta Medullary Nephrons) वृक्क की जक्स्टा मेड्यूलरी जटिल कोशिकाओं द्वारा रेनिन (renin) नामक हॉर्मोन का स्राव होता है जो कि बुक्क नलिकाओं (nephrons) में परानिस्यन्दन (ultrafiltration) तथा एल्डोस्टेरॉन (aldosteron) हॉर्मोन के स्त्रावण को प्रेरित करता है तथा रक्त दाब में वृद्धि है।

(2) त्वचा (Skin) त्वचा में उपस्थित तैल पन्थियों की कोशिकाएँ विटामिन डी का स्त्रावण करती हैं जो कि आन्त्र द्वारा कैल्सियम के अवशोषण तथा अस्थि निर्माण को प्रेरित करता है।
(3) अपरा या जरायु (Placenta ) अपरा या जरायु की कोरियोनिक उपकला (chorionic epithelium) द्वारा ऐस्टूडियॉल (Estradiol) हॉर्मोन जो कि गर्भाशय की पेशियों के संकुचन का नियन्त्रण करता है तथा प्रोजेस्टेरॉन (progesterone) हॉर्मोन, जोकि गर्भावस्था को बनाये रखता है का स्त्रावण किया जाता है। इसके द्वारा कोरियोनिक गोनेडोट्रोपिन्स (chorionic gonado tropic hormone) का स्त्रावण किया जाता है जो कॉर्पस ल्यूटियम (Corpus luteum) के विकास का नियन्त्रण करता है। अपरा लैक्टोजन (Placental lactogen) द्वारा दुग्ध मन्धियों के विकास को प्रेरित किया जाता है।

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प्रश्न 18.
तंत्रिकीय एवं अन्तःस्रावी संचार में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
तंत्रिका तंत्र एवं अन्तःस्रावी तंत्र ये दोनों ही शारीरिक क्रियाओं का नियंत्रण, नियमन एवं समन्वयन करते हैं। इन दोनों ही तंत्रों की क्रियाविधि में अग्रलिखित अंतर होते हैं –
तंत्रिकीय एवं अन्तःस्त्रावी संचार में अन्तर –

तंत्रिकीय संचार (Nervous Communication):अन्त:सावी संचार (Endocrine Communication):
तंत्रिकाएँ जिस अंग की क्रियाओं को प्रभावित करती हैं, उनके सम्पर्क में रहती हैं।अन्त:सावी भन्थि किसी अंग से सम्बन्धित नहीं होती हैं। इनसे स्रावित होने वाले हॉर्मोन्स रक्त के माध्यम से अंग या लक्ष्य कोशिका तक पहुँचते हैं।
तंत्रिकीय नियंत्रण अतिशीघ्र होता है। इसका प्रभाव तत्काल होता है। जिस अंग तक प्रेरणा पहुँचती है, उसमें तत्काल सम्बन्धित क्रिया सम्पन्न होती है ।अन्त:स्रावी नियंत्रण धीमी गति से होता है। इसका प्रभाव तत्काल नहीं होता है। हॉमोंन उपापचयी क्रिया को प्रभावित करके प्रभाव डालते हैं।
तंत्रिका तंत्र बाहरी सूचनाओं (या उह्दीपनों) को प्रहण करके संगृहीत कर सकता है और भविष्य में उनका उपयोग कर सकता है।अंतःन्नावी तंत्र में इस प्रकार सूचनाएँ संगृहीत करने की कोई व्यवस्था नहीं होती है।

(D) निबन्धात्मक प्रश्न (Long Answer Type Questions )

प्रश्न 1.
अन्तःस्रावी ग्रन्थियों क्या हैं ? मनुष्य में पाये जाने वाली अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के नाम, स्थिति तथा प्रत्येक से उत्पन्न हॉर्मोन्स के नाम लिखिए तथा उनके कार्य बताइए।
उत्तर:
हॉर्मोन्स-परिभाषा एवं विशेषताएँ (Hormones-Definition and Properties):
हॉर्मोन (Hormone) -ये अन्तस्रावी प्रन्थियों में बनने वाले ऐसे सक्रिय तथा कार्यकारी जटिल कार्बनिक पदार्थ हैं, जो रुधिर द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचकर विशेष अंगों की कोशिकाओं की कार्यिकी को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार ये रासायनिक उत्रेरक का कार्य करते हैं। रासायनिक दृष्टि से ये स्टीरॉइड्स या प्रोटीन या प्रोटीन से व्युत्पन्न होते हैं।

हॉमोंस की विशेष्ताएँ (Properties of Hormones):

  1. हार्मोन्स कार्बनिक रासायनिक पदार्थ (Organic Chemical Substances) होते हैं, जिनका निर्माण कोशिकाओं द्वारा होता है।
  2. हॉंमॉन्स अन्तस्रावी प्रन्थियों द्वारा रुधिर में स्रावित किए जाते हैं।
  3. हॉमॉन्स का संमहण नहीं किया जाता है। ये तीव्र विसरणशील होते हैं।
  4. हॉम्मोन्स जल में घुलनशील होते हैं।
  5. ये उत्पत्ति स्थल से दूर जाकर क्रिया करते हैं अर्थात् इनके लक्ष्य निश्चित होते हैं।
  6. हॉमोन्स का अणुभार एन्जाइम्स की तुलना में कम होता है।
  7. हॉर्मोंस का निर्माण प्रोटीन्स या स्टीरॉइड्स से होता है।
  8. हॉर्मोन्स अल्प मात्रा में स्रावित होकर शरीर की उपापचयी क्रियाओं को प्रभावित करते हैं।

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मनुष्य की अन्त: व्वावी ग्रन्थियाँ (Endocrine glands of Human):
मनुष्य के शरीर में भिन्न-भिंन्न स्थानों पर निम्नलिखित अन्त्रावी मन्थियाँ स्थित होती है-
(1) हाइपोथैलेमस (Hypothalamus)
(2) थाइॉॉइड प्रन्थि (Thyroid gland)
(3) पैराथाइडॉइड प्रन्थि (Parathyroid gland)
(4) थाइमस प्रन्थि (Thymus gland)
(5) अधिवृक्क भ्रन्थि (Adrenal gland)
(6) पीयूू मन्थि (Pituitary gland)
(7) पीनियल काय (Pineal body)
(8) अग््याशय यन्थि (Pancreas)
(9) वृषण (Testes)
(10) अण्डाशय (Ovaries)।
(11) अन्य (Others) – प्लेसेन्टा (Placenta), कार्पसल्यूटियस (Corpus Leutium), आहारनाल (Alimentary canal), यकृत (liver), वृक्क आदि (kidney) ।
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प्रश्न 2.
पीयूष ग्रन्थि का नामांकित चित्र बनाते हुए एडीनोहाइपोफाइसिस तथा न्यूरोहाइपोफाइसिस द्वारा स्वावित हॉमोंनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पीयूष ग्रन्थि/हाइपोफाइसिस (Pituitary Gland/ Hypophysis):
पीयूष ग्रन्थि एक जटिल ग्रन्थि होती है। यह अग्रमस्तिष्क के पश्च भाग-डाइएनसेफेलॉन (diencephalon) की आधारभित्ति हाइपोथैलेमस (hypothalamus) से एक छोटे से वृन्त इन्फण्डीबुलम (infundibulum) द्वारा जुड़ी रहती है। पीयूष ग्रन्थि को हाइपोफाइसिस सेरीब्राइ (hypophysis cerebri) भी कहते हैं। इसका आकार मटर के दाने के बराबर होता है। इसका भार 5-6 ग्राम होता है। स्रियों में यह कुछ अधिक बड़ी होती है तथा गर्भावस्था में इसका आकार बढ़ जाता है।

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रचना तथा कार्य की दृष्टि से यह दो भागों में बँटी होती है –
(1) एडीनोहाइपोफाइसिस (Aden- ohypophysis) – यह पीयूष प्रन्थि का अगला गुलाबी भाग है जो कुल प्रन्थि का $75 \%$ है। यह भूरूण की मसनी (pharynx) से राथके कोष्ठ (Rathke pouch) के रूप में एक्टोडर्म से विकसित होता है। इसे पीयूष यन्थ का अप्रपिण्ड या अप्र पालि भी कहते हैं। यह स्वयं तीन भागों से मिलकर बना होता है-
(a) इन्फण्डीबुलर बृन्त से लिपटी समीपस्थ पालि (pars infundibularis or tuberalis)
(b) बड़ी फूली हुई गुलाबी-सी दूरस्थ पालि (pars distalis)
(c) संकरी पट्टीनुमा मध्य पालि (pars intermedia or intermediate lobe)।

(2) ग्यूरोहाइपोफाइसिस (Neurohypophysis) – यह हाइपोथैलेमस के इन्मण्डीबुलम से विकसित होता है। इसे पश्चपालि (posterior lobe) या तन्त्रिकीय पिण्ड (pars nervosa) भी कहते हैं। यह पीयूष प्रन्थि का एक-चौथाई भाग बनाता है। एडीनोहाइपोफाइसिस द्वारा स्रावित हॉम्मोन्स (Hormones of Adenohypophysis)
(1) सोमेटोटॉंपिक होंमोन अथवा वृद्धि होंमोंन (Somatotropic Hormone or Growth Hormone) – यह शरीर की वृद्धि को प्रभावित करता है। यह ऊतकों के क्षय को रोकता है, कोशिका के विभाजन, हहुुियों व पेशियों के विकास तथा संयोजी ऊतक की वृद्धि को प्रोत्साहित करता है। यकृत में ऐमीनो अम्लों से ग्लूकोज तथा ग्लूकोज से ग्लाइकोजन के संश्लेषण को बढ़ाता है। वसा के विघटन को प्रेरित करता है। इसकी कमी से व्यक्ति बौना रह जाता है तथा अधिकता से भीमकायता (acromegaly) हो जाता है।
कार्य –

  • शारीरिक वृद्धि के नियमन करता है।
  • कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा के उपापचय का नियमन करता है।
  • अग्याशय से इन्सुलिन व ग्लूकेगॉन हार्मोन का स्रावण उद्दीपित करता है।
  • यह यूरिया उत्सर्जन व मूत्र निष्कासन में वृद्धि करता है।
  • स्तनियों में दुग्ध हावण को उद्दीपित करता है।
  • कोशिका विभाजन को प्रेरित करता है।
  • ग्लूकोनियोजिनोसिस तथा ग्लाइकोजिनेसिस को प्रेरित करता है।

(2) गोनेडोट्रॉपिक हॉम्नोस्स (Gonadotropic Hormones: GTH) – यह हॉर्मोन नर तथा मादा में क्रमशः वृषण तथा अण्डाशय को उत्तेजित करता है। ये हॉर्मोन जनन ग्रन्थियों तथा अन्य सहायक जननांगों की सक्रियता के लिए महत्वपूर्ण हैं।

ये मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं –
नलिकाओं (seminiferous tubules) तथा शुक्राणु निर्माण (sperm formation) प्रेरित करता है तथा स्रियों में अण्डाशयी पुटिकाओं की वृद्धि एवं एस्ट्रोजन (estrogens) के स्रावण को प्रेरित करता है।
(ब) ल्युटिनाइर्जिं हॉर्मोन अथवा अन्तराली कोशिका प्रेरक हॉर्मोन (Lutenizing Hormone : LH, or Interstitial Cell Stimulating Hormone : CSH – स्त्रियों में यह कॉर्पस ल्यूटिनम (corpus leutium) कोशिकाओं को प्रोजस्टेरॉन (Progesteron) हॉर्मोन के स्राव को प्रेरित करता है तथा पुरुषों में एण्ड्रोजन्स के स्राव को प्रेरित करता है।
(3) थाइ्रॉइड उस्तेजक होर्मोन (Thyroid Stimulating Hormone : TSH) – यह एक ग्लाइकोप्रोटीन (Glycoprotein) हॉर्मोन है जो थाइरॉइड ग्रन्थि की वृद्धि एवं स्रावण क्रिया को उत्तेजित करता है।
(4) ऐड्रिनोकोर्टिकोट्रॉपिक हॉर्मोन (Adrenocorticotropic Hormone : ACTH) – यह एड्रीनल प्रन्थि (adrenal gland) के वल्कुट भाग (cortex) को हॉर्मोन स्रावण के लिए प्रेरित करता है।

कार्य –

  • यह एड्रीनल प्रन्थि के कारेक्स भाग से स्रावित हॉर्मोन के उत्पादन व स्रावण को उत्रेरित करता है।
  • वसा अपघटनीय एन्जाइमों को सक्रिय करता है।
  • मेलेनिन के संश्लेषण को उत्रेरित करता है।

(5) लैक्टोजेनिक या प्रौलैक्टिन अथवा मैमोर्ट्रोपिक होंरोंन (Lactogenic Hormone : LTH)-यह हॉर्मोन स्त्रियों में गर्भावस्था के समय अधिक मात्रा में स्रावित होकर स्तनों की वृद्धि को प्रेरित करता है। शिशु जन्म के बाद दुग्ध स्राव को प्रेरित करता है।

(6) मिलैनोसाइट प्रेरक हॉर्मोन (Melanocyte Stimulating Hormone : MSH) – यह मध्यपिण्ड द्वारा स्रावित हॉर्मोन है जो त्वचा की वर्णकता का नियमन करता है। मानव में यह तिल बनने तथा चकत्ते बनने को प्रेरित करता है।

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न्यूरोहाइपोफाइसिस द्वारा स्तावित हॉर्मोन्स (Hormones of Neurohypophysis):
(1) वेसाप्रेसिन या पिट्रोसिन या एण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (Vasopressin or Pitrossin or Antidiuretic Hormone- ADH) – यह वृक्क नलिकाओं के दूरस्थ भागों एवं संग्रह नलिकाओं से जल के पुनरावशोषण को बढ़ाता है जिससे मूत्र की मात्रा कम हो जाती है। अतः इसे मूत्ररोधी या प्रतिमूत्रल हॉंमोन भी कहते हैं। यह शरीर के कुछ भागों की रुधिर वाहिनियों को सिकोड़कर रुधिर दाब को बढ़ाता है।

(2) ऑक्सीटोसिन (Oxytocin-OT) या पिटोसिन (Pitocin)-यह हॉर्मोन स्त्रियों में प्रसव पीड़ा उत्पन्न करके शिशु जन्म को आसान बनाता है। शिशु जन्म के बाद गर्भाशय को सामान्य अवस्था में लाता है। स्तनों में दुग्ध स्राव को प्रेरित करता है। यह गर्भाधान क्रिया को सुगम बनाता है।
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वृद्धि हॉर्मोन GH के अति स्रावण से होने वाले रोग पीयूष म्रन्थि (Pituitary gland) के वृद्धि हॉमोंन (growth hormones) के अतिस्नाव (hypersecretion) से निम्नलिखित रोग हो जाते हैं –
(1) अतिवृद्धि (Gigantism) – बाल्यकाल में वृद्धि हॉर्मोन की अधिकता से बहुत लम्बे तथा छष्टपुष्ट भीमकाय (giant) व्यक्तियों का विकास होता है। इन्हें पिट्यूटरी आयण्ट (pituitary giants) कहते हैं।

(2) अश्रातिकायता (Acromegaly) – वृद्धिकाल के बाद वृद्धि हॉमोंन की अधिकता से गोरिल्ला के समान कुरूप भीमकाय व्यक्ति बनते हैं। क्योंकि हडुदुयों की लम्बाई में वृद्धि सम्भव नहीं होती तो शरीर लम्बाई में नहीं बढ़ पाता है, अत: हाथ, पाँव, चेहरे के कुछ भाग जबड़े आदि अधिक लम्बे हो जाते हैं। हडुद्याँ मोटाई में बढ़ती हैं जिससे चेहरा व शरीर भद्दा हो जाता है। इस अवस्था को एकोमेगैली (acromegaly) कहते हैं।

(3) काइफोसिस (Kyphosis) – कभी-कभी कशेरुक दण्ड के झुक जाने से व्यक्ति कुबड़ा हो जाता है।

वृद्धि हॉमोंन GH के अल्पस्तावण से होने वाले रोग –
1. बाल्यकाल में STH या GH के अल्प स्रावण से व्यक्ति बौना रह जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति नपुसंक या बाँझ (sterile) होते हैं। पिट्टयूटरी से होने वाले बौनेपन को एटिओलिसिस (ateolisis) तथा ऐसे व्यक्तियों को मिगेद्स (midgets) कहते हैं। सरकस में काम करने वाले बौने मिगेद्स होते हैं। साइमण्ड रोग (Simonds’ Disease) – यह रोग वृद्धिकाल के बाद STH की कमी के कारण होता है। इसके कारण शरीर से ऊतक क्षतिग्रस्त होने लगते हैं, जिससे व्यक्ति दुर्बल हो जाता है।
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प्रश्न 3.
थाइरॉइड ग्रन्थि के द्वारा स्त्रावित हॉर्मोन्स व उनके अनियमित स्वाव के कारण उत्पन्न रोगों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
थाइरॉइड ग्रन्थि (Thyroid gland):
थाइरॉइड प्रन्थि (thyroid gland) शरीर की सबसे बड़ी अन्त.स्रावी (endocrine gland) है जो कि गर्दन में श्वास नली के अगले भाग पर स्वरयन्त्र (larynx) के नीचे स्थित होती है। वयस्क मनुष्य में यह लगभग 5 सेमी लम्बी तथा 3 सेमी चौड़ी होती है। इसका भार लगभग 25-30 प्राम होता है। स्तियों में यह अपेक्षाकृत बड़ी होती है।
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थाइरॉइड प्रन्थि अनेक छोटे-छोटे गोलाकार फॉलिकल्स (follicles) के समूहों की बनी होती है जो संयोजी ऊतक द्वारा आपस में बँधे रहते हैं। ये संयोजी ऊतक स्ट्रोमा (stroma) कहलाते हैं। इनमें कहीं-कहीं पर कोशिकाओं के ठोस गुच्छे पाये जाते हैं। इन्हें पैरापुटिकीय कोशिकाएँ (parafollicular cells या C- cells) कहते हैं।

थाइरॉइड ग्रन्थि द्वारा स्त्रावित हॉर्मोन्स थाइरॉइड ग्रन्थि से तीन हॉर्मोन्स का स्राव होता है –
(1) थाइरॉक्सिन या टेट्रा आयोडोथाइरोनिन (Thyroxin or Tetraiodo-thyronine : T4)
(2) ट्राइआयोडोथाइरोनिन (Tri-iodothyronine T3)
(3) कैल्सिटोनिन (Calcitonin)।

(1) टेट्रा आयोडो थाइरोनिन (Tetra lodothyronine, T4 ) – इस हार्मोन का नियमन पीयूष ग्रन्थि के TSH हार्मोन द्वारा किया जाता है। इसकी कुल मात्रा 65 से 90% तक होती है। इसे थायरॉक्सिन हार्मोन के नाम से जाना जाता है। इसका निर्माण आयोडीन व टायरोसिन के द्वारा होता है। यह अपेक्षाकृत कम सक्रिय होता है। प्रत्येक टेट्रा आयोडोथाइरोनिन में टाइरोसीन के दो अणु तथा आयोडीन के चार परमाणु (T2 + T2 = T4)होते हैं।

(2) ट्राई- आयोडो थाइरोनिन (Tri- lodothyronine, T3 ) – यह भी आयोडीन युक्त हार्मोन है लेकिन यह T4 की तुलना में अत्यधिक सक्रिय व शक्तिशाली होता है। यह कुल हॉर्मोन का 10% भाग बनाता है। प्रत्येक ट्राइ आयडोथाइरोनिन में दो अणु टाइरोसीन के तथा आयोडीन के तीन परमाणु (T2 + T1 + होते हैं। T4 व T3 दोनों थाइरॉइड ग्रन्थि में बनने वाले आयोडीन युक्त हार्मोन हैं। इन दोनों के निर्माण में टाइरोसीन अमीनो अम्ल का उपयोग होता है।

इन दोनों हार्मोन्स का संग्रह पुटिकाओं की गुहा में उपस्थित कोलॉइड पदार्थ करता है। T4 व T3 हार्मोन्स पुटिका कोशिकाओं से मुक्त होकर रक्त में पहुंच जाते हैं। जब रक्त से यह हार्मोन्स ऊतक द्रव में जाते हैं तब अधिकांश T4 अणुओं का आयोडीन हरण या डीआयोडीनेशन होने पर T3 अणु बनते हैं । प्रत्येक T4 अणु से एक आयोडीन अणु पृथक् हो जाता है जिससे वह T3 में बदल जाता है। T3 तथा T4 को सम्मिलित रूप में थायरॉइड हार्मोन कहते हैं।

(3) कैल्सिटोनिन (Calcitonin ) – इस हार्मोन का स्त्रावण थायरॉइड ग्रन्थि की C-कोशिकाओं के द्वारा किया जाता है। ये पैरापुटिका कोशिकाएँ या “C” कोशिकाएँ थाइरॉइड ग्रन्थि की पीठिका / स्ट्रोमा में पाई जाती हैं। इस हार्मोन को थाइरोकैल्सिटोनिन भी कहते हैं। यह आयोडीन रहित हार्मोन है। यह हार्मोन मूत्र में कैल्सियम (Ca+2) के उत्सर्जन में वृद्धि तथा अस्थियों के विघटन को कम करने का कार्य करता है। यह हार्मोन पैराथायरॉइड ग्रन्थि के पैराथारमोन (PTH) के विपरीत कार्य करता है।

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थाइरॉक्सिन के कार्य –
1. आधारी उपापचयी दर (BMR Basal Metabolic Rate) में वृद्धि करता है। जिससे ऊर्जा उत्पादन बढ़ता है इससे “जीवन की रफ्तार” ( Tempo of life) भी बढ़ती है।
2. यह सभी उपापचयी क्रियाओं का नियमन करता है।
3. यह कोशिकीय श्वसन दर को भी बढ़ाता है।
4. देह के तापक्रम को नियमित करता है।
5. मेढ़क के टेडपोल लार्वा के कायान्तरण में सहायक होता है।

गुडरनैश (Gudrnatsch; 1912 ) ने उभयचरों के टेडपोल लार्वा के कायान्तरण का अध्ययन कर यह बताया कि थायरॉक्सिन हार्मोन कायान्तरण (metamorphosis ) हेतु आवश्यक होता है। यदि टेडपोल की थाइरॉइड ग्रन्थि निष्क्रिय हो जाये या निकाल दी जाये या जल में आयोडीन की कमी हो तो टैडपोल लार्वा में कायान्तरण नहीं होता है तथा टेडपोल शारीरिक वृद्धि कर आकार में बड़ा हो जाता है। उत्तरी अमेरिका के पहाड़ी क्षेत्रों में ऐक्सोलोटल लार्वा (Axolotal Larva) बहुतायत से मिलता है।

यह लार्वा एम्बीस्टोमा (Ambistoma) नामक पुच्छयुक्त उभयचर का होता । जल में आयोडीन की कमी के कारण लार्वा की थायरॉइड ग्रन्थि का विकास नहीं हो पाता है। इस कारण थायरॉक्सिन हार्मोन नहीं बन पाता है। फलस्वरूप लार्वा में कायान्तरण नहीं होता है। यह ऐक्सोलोटल लार्वा शारीरिक वृद्धि कर बड़ा हो जाता है। इससे जननांग विकसित हो जाते हैं तथा ये पीडोजेनेटिक (pedogenetic) हो जाता है। इसी अवस्था में यह जनन प्रारम्भ कर देता है। यह प्रक्रिया नियोटिनी (neotiny) कहलाती है।

6. यह एड्रीनल कोर्टेक्स व जनदों की क्रिया को उत्तेजित करता है ।
7. जल सन्तुलन में सहायक होता है।
४. यह शीत रक्तधारी प्राणियों में त्वचा के निर्मोचन को नियन्त्रित करता है 1
9. यह शरीर की वृद्धि व विभेदन को प्रेरित करता है।
10. यह हृदय स्पन्दन व श्वसन दर को बढ़ाता है।
11. यह विद्युत अपघट्यों का नियमन भी करता है।
12. यह RBCs निर्माण में भी सहायक होता है।
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13. लक्ष्य कोशिकाओं में माइटोकॉन्ड्रिया की संख्या और माप बढ़ जाता है। ATP का अधिक उत्पादन होता है। ग्लूकोज व ऑक्सीजन का उपयोग बढ़ जाता है। इसे हार्मोन का कैलोरीजनिक प्रभाव कहते हैं।

थाइरॉइड ग्रन्थि की अनियमितताएँ एवं उत्पन्न होने वाले रोग
शरीर में थाइरॉक्सिन हॉर्मोन के अनियमित स्रावण से निम्नलिखित रोग हो जाते हैं –
(क) अल्पस्त्रावण (Hypothyroidism) का प्रभाव थाइरॉइड में हॉर्मोन्स का अल्पस्रावण आनुवंशिक दोष या भोजन में आयोडीन की कमी, मूत्र में आयोडीन के अधिक उत्सर्जन आदि के कारण होता है।

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इससे निम्नलिखित रोग हो सकते हैं –
(1) जड़-वामनता (Cretinism ) – यह रोग बच्चों में थाइरॉक्सिन हॉर्मोन की कमी से हो जाता है। आधारी उपापचय दर (BMR), हृदय गति, शारीरिक ताप, उपापचय, ऑक्सीजन की खपत, अस्थियों की वृद्धि आदि की दर घट जाने से शरीर व मस्तिष्क की वृद्धि अवरुद्ध हो जाती है। ऐसे बच्चे बौने और कुरूप हो जाते हैं। इनके ओंठ मोटे, जीभ निकली हुई, त्वचा मोटी व शुष्क, उदर भाग बाहर निकला हुआ और जननांग अपूर्ण विकसित होने से प्रजनन के अयोग्य होते हैं। ये मानसिक रूप से अल्प विकसित होते हैं।

(2) मिक्सिडिमा (Myxeedema ) – यह रोग वयस्कों में थाइरॉक्सिन की कमी से हो जाता है। इस रोग में त्वचा फूल जाती है, उपापचय की दर घट जाती है तथा प्रोटीन संश्लेषण के कम हो जाने से शरीर भारी किन्तु कमजोर और सुस्त हो जाता है। समय से पूर्व ही बुढ़ापे की सी कमजोरी, क्षीण रुधिर दाब, बालों का झड़ना व सफेद हो जाना, त्वचा का पीलापन, आवाज धीमी व भारी, मस्तिष्क व पेशियों की कमजोरी, ठण्ड सहन-क्षमता का घट जाना एवं प्रजनन क्षमता की कमी आदि लक्षण दिखायी देने लगते हैं। ऐसे रोगी को थाइरॉक्सिन को दवा के रूप में देने से रोग नष्ट हो जाता है।

(3) सामान्य घेंघा रोग या गलगण्ड (Simple Goitre) – यह रोग भोजन व पेयजल में आयोडीन की कमी से हो जाता है । थाइरॉक्सिन की कमी को पूरा करने के लिए थाइरॉइड ग्रन्थि अधिक स्त्रावण हेतु बड़ी होकर फूलने लगती है। इससे गर्दन . फूलकर मोटी और कुरूप हो जाती है। इसे घेंघा रोग या गलगण्ड कहते हैं। यह रोग उन पहाड़ी क्षेत्रों में, जहाँ जल व मिट्टी में आयोडीन की कमी होती है, अधिकांश मनुष्यों में हो जाता है।
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नेत्रोत्सेधी गलगंड (Exophthalmic Goitre)

(4) हाशीमोटो रोग (Hashimoto’s Disease) – इस रोग में थाइरॉक्सिन की अत्यधिक कमी हो जाती है पर इसकी आपूर्ति हेतु दी गयी दवाएँ स्वयं शरीर में विष या ऐण्टीजेन्स का कार्य करने लगती हैं। इससे शरीर में प्रतिविष या एण्टीबॉडी बनने लगते हैं जो कि ग्रन्थि को ही नष्ट कर देते हैं।
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सामान्य घेंघा (Simple Goitre)

(ख) अतिस्रावण (Hyperthyroidism) का प्रभाव थाइरॉक्सिन हॉर्मोन के अतिस्रावण से उपापचय दर, रुधिर दाब, हृदय की स्पन्दन – दर, आन्त्र में ग्लूकोज का अवशोषण, ऑक्सीजन की खपत आदि में वृद्धि हो जाती है। माइटोकॉण्ड्रिया में अत्यधिक ऊर्जा बनने से यह ATP में संचित न होकर ऊष्मा के रूप में मुक्त होने लगती है। अतः शरीर में अनावश्यक उत्तेजना, थकान, उच्चताप, घबराहट, चिड़चिड़ापन एवं कम्पन हो जाता है और अत्यधिक पसीना निकलने लगता है।

थाइरॉक्सिन के अतिस्रावण से निम्नलिखित रोग हो जाते हैं –
(1) नेत्रोत्सेधी गलगण्ड (Exophthalmic Goitre) – इस रोग में नेत्र गोलकों के नीचे श्लेष्म एकत्रित हो जाने से गोलक बाहर की ओर उभर आते हैं, जिससे नेत्र चौड़े हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति की दृष्टि घूरती हुई-सी व भयावह होती है।
(2) प्लूमर रोग (Plummer’s Disease) – इस रोग में थाइरॉइड ग्रन्थि में जगह-जगह गाँठें बन जाने से यह फूल जाती है
(3) ग्रेवी रोग (Grave’s Disease) – इस रोग में थाइरॉइड ग्रन्थि असमान रूप से वृद्धि करके फूल जाती है।

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प्रश्न 4.
एड्रीनल ग्रन्थि के द्वारा स्त्रावित विभिन्न हार्मोनों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अधिवृक्क ग्रन्थि (Adrenal gland):
प्रत्येक वृक्क के अगले सिरे पर एक-एक पीले भूरे रंग की टोपी के समान अधिवृक्क या एड्रीनल प्रन्थि (adrenal gland) लगी रहती है। इसका वजन 4-5 माम होता है। इसका बाहरी भाग कर्टेक्स (cortex) तथा केन्द्रीय भाग मेडूला (medulla) कहलाता है।
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(A) तडीनल कर्टिक्स (Adrenal Cortex) – यह एड़ीनल का परिधीय भाग है। यह पीला-सा होता है तथा कुल प्रन्थि का 80-90% भाग बनाता
है। यह धूरण की मीसोडर्म से बनता है। इस भाग की कोशिकाएँ लगभग 50 हार्मोन्स का स्रावण करती हैं। इनको सामूहिक रूप से कॉर्टिककोस्टिरॉएड्स (corticosteroids) कहते हैं। कार्य की दृष्टि से इनको तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
(I) ग्लूकोज नियन्रण हॉर्मोन्स या ग्लूकोकॉर्टिकोस्टीरॉयइस (Glucocorticosteroids)-इनमें कॉर्टिसोल (cortisol) तथा कॉर्टिकोस्टीरोन (corticosterone) मुख्य हैं। ये शरीर में निम्नलिखित कार्य करते हैं-
(1) यकृत में प्रोटीन संश्लेषण, यूरिया संश्लेषण, ग्लाइकोजेनेसिस तथा ग्लूकोनिओजेनेसिस तथा ग्लूकोनिओजेनेसिस की क्रिया को प्रेरित करना।
(2) इन्सुलिन के विपरीत कार्य करके रुधिर में ग्लूकोज, ऐमीनो अम्लों तथा वसा अम्लों की मात्रा में वृद्धि करना।
(3) लसिका ऊतकों, वसाकायों, अस्थियों एवं आहारनाल में प्रोटीन संश्लेषण तथा ग्लूकोज के उपयोग को रोकना।
(4) ग्लूकोकॉर्टिकोस्टिरॉइड्स प्रतिरक्षी निषेधात्मक (Immuno suppressors) होते हैं। अतः एलर्जीं के उपचार में तथा अंगों के प्रत्यारोपण को सफल बनाने के लिए इनका इंजेक्शन दिया जाता है।
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(5) ये लाल रुधिराणुओं की संख्या को बढ़ाते हैं तथा श्वेत रुधिराणुओं की संख्या को घटाता है।
(II) खन्जि नियन्तक होमोन्स या मिनरेलो-कॉर्टिकोस्टिरॉइस्स (Mineralocoticosteroids) – ये हॉम्मोन्स रुधिर में खनिज आयनों की सान्द्रता को नियन्त्रित रखते हैं। इनमें एल्डोस्टेरॉन (aldosterone) मुख्य है। यह वृक्क नलिकाओं द्वारा Na+तथा Cl-ऑयन के अवशोषण को तथा K+ आयनों का उत्सर्जन बढ़ा देता है।
(III) लिंग हॉर्मोन्स (Sex Hormones) – एड्रीनल कर्टेक्स से कुछ मात्रा में लिंग हॉर्मोन्स भी स्रावित होते हैं। इनमें नर हॉर्मोन एण्ड्रोजन्स (Androgens) तथा मादा हॉमोंन ऐस्ट्रोजेन्स (estrogens) स्रावित होकर पेशियों तथा जननांगों के विकास को प्रेरित करते हैं।

(B) एड़्रिक मेडुला (Adrenal Medulla) – यह एड्रीनल का केन्द्रीय भाग है। यह भूरे लाल रंग का होता है। यह रूपान्तरित तन्त्रिका कोशिकाओं का बना होता है। यह अधिवृक्क म्नन्थि का लगभग 10% भाग बनाता है। ये अनुकम्पी स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र की ही रूपान्तरित कोशिकाएँ होती हैं। एड्रीनल मेड्यूला द्वारा स्रावित हॉर्मोन्स (Hormones Secreted From Adrenal Medulla) इस भाग में क्रोमेफिन कोशिकाएँ टाइरोसीन अभीनो अम्ल से दो हॉर्मोस्स बनाती हैं, जो कैटेकोलेमीन होते हैं। ये निम्न हैं –

(1) ऐरीनेलिन या एपीनैक्रीन (Adrenaline or Epine-phrine)- मैड्यूला से स्रावित इस हॉमोन का 80% भाग ऐड्रीनेलिन होता है। यह व्यक्ति को संकटकालीन परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार करता है।

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इसके प्रमुख कार्य हैं –
(i) भय, क्रोध, पीड़ा, अपमान, दुर्घटना, व्यम्रता, बेचैनी, मानसिक तनाव, जल जाने, अचानक कोई रोग हो जाने, जीवाणुओं का संक्रमण हो जाने, विषाक्त पदार्थों के शरीर में पहुँच जाने, अधिक ठण्ड या गर्मी लगने आदि आकस्मिक संकटकालीन दशाओं में अनुकम्पी प्रेरणा के फलस्वरूप ऐड्रीनेलिन का स्राव बढ़ जाता है, जिससे इन दशाओं का सामना करने हेतु उचित कदम उठाने का निर्णय लिया जा सकता है।
(ii) यह शरीर की समस्त रुधिर वाहिनियों को सिकोड़कर रुधिर दाब को बढ़ाता है।
(iii) यह कंकाल पेशियों, हदय, यकृत, मस्तिष्क आदि की रुधिर वाहिनियों को फैलाकर इनमें रुधिर संचार को बढ़ाता है।
(iv) यह हृदय स्पन्दन की दर, श्वास दर, आधारी उपापचय दर तथा रुधिर में पोषक पदार्थों की मात्रा में वृद्धि करता है।
(v) इसके प्रभाव से तिल्ली संकुचित होकर संचित रुधिर को मुक्त कर देती है। पुतलियाँ फैल जाती हैं। रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मस्तिष्क व संवेदांग अधिक सक्रिय हो जाते हैं। त्वचा पीली पड़ जाती है। लार के कम निकलने से मुख सूखने लगता है। रुधिर के थक्का जमने का समय कम हो जाता है।

(2) नॉरएड़ीनेलिन या नॉरएपीनैफ्रीन (Noradrenaline or Norepinephrine)- मेड्यूला से स्तावित हॉर्मोन का यह $20 \%$ भाग होता है। यह सम्पूर्ण शरीर की रुधि वाहिनियों को संकुचित करके रुधि दाब को बढ़ाता है। ऐड्रीनल स्रावण की अनियमितताएँ एवं उत्पन्न रोग एड्रीनल प्रन्थि के अनियमित स्राव से निम्नलिखित रोग हो सकते हैं –

(क) अल्पस्नावण (Hyposecretion) का प्रभाव:
(1) एडीसन रोग (Addison’s Disease) – यह रोग ऐड्रीनल प्रन्थि के ग्लूकोकॉर्टिकॉएड्स से अल्पस्नाव (कमी) से हो जाता है। इस रोग में सोडियम तथा जल की अधिक मात्रा का मूत्र के साथ उत्सर्जन हो जाने से शरीर का निर्जलीकरण (dehydration) हो जाता है और रुधिर दाब (blood pressure) घट जाता है। चेहर, गर्दन व हाथ की त्वचा में चकते पड़ जाते हैं।
(2) हाइपोग्लाइसीमिया (Hypoglycemia) – ग्लूकोकॉर्टि-कॉएड्स की कमी से रुधिर में शर्करा की मात्रा कम हो जाती है, जिससे हृदय की पेशियों, यकृत एवं मस्तिष्क की क्रियाएँ शिथिल हो जाती हैं। आधारी उपापचय दर (BMR) और शरीर-ताप घट जाते हैं। भूख की कमी, मिचली व घबराहट आदि होने लगती है। ठण्ड, गर्मी व संक्रमण आदि के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है।
(3) कान्स रोग (Conns’ Disease) – यह रोग मिनरेलोकॉर्टिकॉएड्स की कमी से उत्पन्न होता है। इसमें सोडियम तथा पोटैशियम का सन्तुलन बिगड़ जाता है, जिससे तन्त्रिकाओं में अव्यवस्था हो जाने से पेशियों में अकड़न हो जाती है। रोगी प्रायः कुछ दिनों में मर जाता है।

(ख) अतित्रावण (Hypersecretion) का प्रभाव:
(1) हाइपरफ्लाइसीमिया (Hyperglycemia) – यह रोग एड्रीनेलिन के अति स्रावण के कारण होता है। इसमें रुधिर में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे मधुमेह (Diabetes) हो सकता है।
(2) इ्डीमा (Edema)- ऐड्रीनेलिन के अतिस्रावण से रुधर में सोडियम व जल की मात्रा बढ़ जाने से रुधिर दाब बढ़ जाता है और जगह-जगह से शरीर फूल जाता है। इसके साथ ही शरीर में पोटैशियम की अत्यधिक कमी हो जाने से पेशियों व तन्त्रिका तन्त्र के कार्य अव्यवस्थित हो जाते हैं। इससे लकवा (Paralysis) भी हो सकता है। इसे इडीमा रोग कहते हैं।
(3) कुर्शिग का रोग (Cushing’s Disease) – इस रोग में वक्षस्थल में वसा का असामान्य जमाव हो जाने से शरीर बेडौल हो जाता है।
(4) ऑस्टियोपोरोस्सि (Osteoporosis) – इस रोग में अस्थियाँ गलने लगती हैं।
(5) ऐड़ीनल विरलिज्म (Adrenal virilism) – इसमें लड़कियों में लड़कों जैसे लक्षण उत्पन्न होने लगते हैं; जैसे-आवाज का भारी हो जाना, चेहरे पर दाढ़ी-मूँछों का आ जाना आदि। लड़कियों में बाँझपन (sterility) हो जाता है। लड़कों में लैंगिक परिपक्वता समय से पूर्व ही (शीघ्र) हो जाती है।
एल्डोस्टेरॉन के प्रभाव:

एल्डोस्टेरॉन की अधिकताएल्डोस्टेरॉन की कमी
नेफ्रोन में Na+ तथा Cl T के अवशोषण का बढ़ना।नेफ्रोन में Na+ अवशोषण कम होना।
K+ का कम अवशोषण।K+ का अधिक अवशोषण।
रुधिर में Na+ की मात्रा का बढ़ना तथा K+ की मात्रा घटना।इससे रुधिर में Na+ की मात्रा का कम होना तथा K+ की मात्रा का बढ़ना।

प्रश्न 5.
एड्रीनल ग्रन्थि अनियमित स्त्रावण के फलस्वरूप होने वाले रोगों को संक्षिप्त में समझाइए ।
उत्तर:

अधिवृक्क ग्रन्थि (Adrenal gland):
प्रत्येक वृक्क के अगले सिरे पर एक-एक पीले भूरे रंग की टोपी के समान अधिवृक्क या एड्रीनल प्रन्थि (adrenal gland) लगी रहती है। इसका वजन 4-5 माम होता है। इसका बाहरी भाग कर्टेक्स (cortex) तथा केन्द्रीय भाग मेडूला (medulla) कहलाता है।
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(A) तडीनल कर्टिक्स (Adrenal Cortex) – यह एड़ीनल का परिधीय भाग है। यह पीला-सा होता है तथा कुल प्रन्थि का 80-90% भाग बनाता
है। यह धूरण की मीसोडर्म से बनता है। इस भाग की कोशिकाएँ लगभग 50 हार्मोन्स का स्रावण करती हैं। इनको सामूहिक रूप से कॉर्टिककोस्टिरॉएड्स (corticosteroids) कहते हैं। कार्य की दृष्टि से इनको तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
(I) ग्लूकोज नियन्रण हॉर्मोन्स या ग्लूकोकॉर्टिकोस्टीरॉयइस (Glucocorticosteroids)-इनमें कॉर्टिसोल (cortisol) तथा कॉर्टिकोस्टीरोन (corticosterone) मुख्य हैं। ये शरीर में निम्नलिखित कार्य करते हैं-
(1) यकृत में प्रोटीन संश्लेषण, यूरिया संश्लेषण, ग्लाइकोजेनेसिस तथा ग्लूकोनिओजेनेसिस तथा ग्लूकोनिओजेनेसिस की क्रिया को प्रेरित करना।
(2) इन्सुलिन के विपरीत कार्य करके रुधिर में ग्लूकोज, ऐमीनो अम्लों तथा वसा अम्लों की मात्रा में वृद्धि करना।
(3) लसिका ऊतकों, वसाकायों, अस्थियों एवं आहारनाल में प्रोटीन संश्लेषण तथा ग्लूकोज के उपयोग को रोकना।
(4) ग्लूकोकॉर्टिकोस्टिरॉइड्स प्रतिरक्षी निषेधात्मक (Immuno suppressors) होते हैं। अतः एलर्जीं के उपचार में तथा अंगों के प्रत्यारोपण को सफल बनाने के लिए इनका इंजेक्शन दिया जाता है।
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(5) ये लाल रुधिराणुओं की संख्या को बढ़ाते हैं तथा श्वेत रुधिराणुओं की संख्या को घटाता है।
(II) खन्जि नियन्तक होमोन्स या मिनरेलो-कॉर्टिकोस्टिरॉइस्स (Mineralocoticosteroids) – ये हॉम्मोन्स रुधिर में खनिज आयनों की सान्द्रता को नियन्त्रित रखते हैं। इनमें एल्डोस्टेरॉन (aldosterone) मुख्य है। यह वृक्क नलिकाओं द्वारा Na+तथा Cl-ऑयन के अवशोषण को तथा K+ आयनों का उत्सर्जन बढ़ा देता है।
(III) लिंग हॉर्मोन्स (Sex Hormones) – एड्रीनल कर्टेक्स से कुछ मात्रा में लिंग हॉर्मोन्स भी स्रावित होते हैं। इनमें नर हॉर्मोन एण्ड्रोजन्स (Androgens) तथा मादा हॉमोंन ऐस्ट्रोजेन्स (estrogens) स्रावित होकर पेशियों तथा जननांगों के विकास को प्रेरित करते हैं।

(B) एड़्रिक मेडुला (Adrenal Medulla) – यह एड्रीनल का केन्द्रीय भाग है। यह भूरे लाल रंग का होता है। यह रूपान्तरित तन्त्रिका कोशिकाओं का बना होता है। यह अधिवृक्क म्नन्थि का लगभग 10% भाग बनाता है। ये अनुकम्पी स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र की ही रूपान्तरित कोशिकाएँ होती हैं। एड्रीनल मेड्यूला द्वारा स्रावित हॉर्मोन्स (Hormones Secreted From Adrenal Medulla) इस भाग में क्रोमेफिन कोशिकाएँ टाइरोसीन अभीनो अम्ल से दो हॉर्मोस्स बनाती हैं, जो कैटेकोलेमीन होते हैं। ये निम्न हैं –

(1) ऐरीनेलिन या एपीनैक्रीन (Adrenaline or Epine-phrine)- मैड्यूला से स्रावित इस हॉमोन का 80% भाग ऐड्रीनेलिन होता है। यह व्यक्ति को संकटकालीन परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार करता है।

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इसके प्रमुख कार्य हैं –
(i) भय, क्रोध, पीड़ा, अपमान, दुर्घटना, व्यम्रता, बेचैनी, मानसिक तनाव, जल जाने, अचानक कोई रोग हो जाने, जीवाणुओं का संक्रमण हो जाने, विषाक्त पदार्थों के शरीर में पहुँच जाने, अधिक ठण्ड या गर्मी लगने आदि आकस्मिक संकटकालीन दशाओं में अनुकम्पी प्रेरणा के फलस्वरूप ऐड्रीनेलिन का स्राव बढ़ जाता है, जिससे इन दशाओं का सामना करने हेतु उचित कदम उठाने का निर्णय लिया जा सकता है।
(ii) यह शरीर की समस्त रुधिर वाहिनियों को सिकोड़कर रुधिर दाब को बढ़ाता है।
(iii) यह कंकाल पेशियों, हदय, यकृत, मस्तिष्क आदि की रुधिर वाहिनियों को फैलाकर इनमें रुधिर संचार को बढ़ाता है।
(iv) यह हृदय स्पन्दन की दर, श्वास दर, आधारी उपापचय दर तथा रुधिर में पोषक पदार्थों की मात्रा में वृद्धि करता है।
(v) इसके प्रभाव से तिल्ली संकुचित होकर संचित रुधिर को मुक्त कर देती है। पुतलियाँ फैल जाती हैं। रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मस्तिष्क व संवेदांग अधिक सक्रिय हो जाते हैं। त्वचा पीली पड़ जाती है। लार के कम निकलने से मुख सूखने लगता है। रुधिर के थक्का जमने का समय कम हो जाता है।

(2) नॉरएड़ीनेलिन या नॉरएपीनैफ्रीन (Noradrenaline or Norepinephrine)- मेड्यूला से स्तावित हॉर्मोन का यह $20 \%$ भाग होता है। यह सम्पूर्ण शरीर की रुधि वाहिनियों को संकुचित करके रुधि दाब को बढ़ाता है। ऐड्रीनल स्रावण की अनियमितताएँ एवं उत्पन्न रोग एड्रीनल प्रन्थि के अनियमित स्राव से निम्नलिखित रोग हो सकते हैं –

(क) अल्पस्नावण (Hyposecretion) का प्रभाव:
(1) एडीसन रोग (Addison’s Disease) – यह रोग ऐड्रीनल प्रन्थि के ग्लूकोकॉर्टिकॉएड्स से अल्पस्नाव (कमी) से हो जाता है। इस रोग में सोडियम तथा जल की अधिक मात्रा का मूत्र के साथ उत्सर्जन हो जाने से शरीर का निर्जलीकरण (dehydration) हो जाता है और रुधिर दाब (blood pressure) घट जाता है। चेहर, गर्दन व हाथ की त्वचा में चकते पड़ जाते हैं।
(2) हाइपोग्लाइसीमिया (Hypoglycemia) – ग्लूकोकॉर्टि-कॉएड्स की कमी से रुधिर में शर्करा की मात्रा कम हो जाती है, जिससे हृदय की पेशियों, यकृत एवं मस्तिष्क की क्रियाएँ शिथिल हो जाती हैं। आधारी उपापचय दर (BMR) और शरीर-ताप घट जाते हैं। भूख की कमी, मिचली व घबराहट आदि होने लगती है। ठण्ड, गर्मी व संक्रमण आदि के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है।
(3) कान्स रोग (Conns’ Disease) – यह रोग मिनरेलोकॉर्टिकॉएड्स की कमी से उत्पन्न होता है। इसमें सोडियम तथा पोटैशियम का सन्तुलन बिगड़ जाता है, जिससे तन्त्रिकाओं में अव्यवस्था हो जाने से पेशियों में अकड़न हो जाती है। रोगी प्रायः कुछ दिनों में मर जाता है।

(ख) अतित्रावण (Hypersecretion) का प्रभाव:
(1) हाइपरफ्लाइसीमिया (Hyperglycemia) – यह रोग एड्रीनेलिन के अति स्रावण के कारण होता है। इसमें रुधिर में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे मधुमेह (Diabetes) हो सकता है।
(2) इ्डीमा (Edema)- ऐड्रीनेलिन के अतिस्रावण से रुधर में सोडियम व जल की मात्रा बढ़ जाने से रुधिर दाब बढ़ जाता है और जगह-जगह से शरीर फूल जाता है। इसके साथ ही शरीर में पोटैशियम की अत्यधिक कमी हो जाने से पेशियों व तन्त्रिका तन्त्र के कार्य अव्यवस्थित हो जाते हैं। इससे लकवा (Paralysis) भी हो सकता है। इसे इडीमा रोग कहते हैं।
(3) कुर्शिग का रोग (Cushing’s Disease) – इस रोग में वक्षस्थल में वसा का असामान्य जमाव हो जाने से शरीर बेडौल हो जाता है।
(4) ऑस्टियोपोरोस्सि (Osteoporosis) – इस रोग में अस्थियाँ गलने लगती हैं।
(5) ऐड़ीनल विरलिज्म (Adrenal virilism) – इसमें लड़कियों में लड़कों जैसे लक्षण उत्पन्न होने लगते हैं; जैसे-आवाज का भारी हो जाना, चेहरे पर दाढ़ी-मूँछों का आ जाना आदि। लड़कियों में बाँझपन (sterility) हो जाता है। लड़कों में लैंगिक परिपक्वता समय से पूर्व ही (शीघ्र) हो जाती है।
एल्डोस्टेरॉन के प्रभाव:

एल्डोस्टेरॉन की अधिकताएल्डोस्टेरॉन की कमी
नेफ्रोन में Na+ तथा Cl T के अवशोषण का बढ़ना।नेफ्रोन में Na+ अवशोषण कम होना।
K+ का कम अवशोषण।K+ का अधिक अवशोषण।
रुधिर में Na+ की मात्रा का बढ़ना तथा K+ की मात्रा घटना।इससे रुधिर में Na+ की मात्रा का कम होना तथा K+ की मात्रा का बढ़ना।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए
(A) थाइमस मन्दि
(C) पीनियल ग्रन्थि
उत्तर:
(A) थाइमस ग्रन्थि (Thymus Gland):
यह मन्थि हृदय के आगे स्थित चपटी व गुलाबी रंग की द्विपिण्डकीय संरचना होती है। ये पिण्ड संयोजी ऊत्तक से ढंके रहते हैं। यह प्थन्थि जन्म के समय विकसित होती है और 8-10 वर्ष या यौवनावस्था तक बड़ी होती रहती है। इसके बाद आकार में घटने लगती है और वृद्धावस्था में एक तन्तुकीय डोरी के रूप में रह जाती है। इसकी बाहरी सतह पर लिम्फोसाइट्स जमा रहती है, जो शिशुओं में जीवाणुओं के संक्रमण से शरीर की रक्षा करती है थाइमस म्रन्थि थाइमोसीन (Thymosin) नामक हॉर्मोन का स्राव करती है। थाइमोसीन लिम्फोसाइट्स को जीवाणुओं या इनके द्वारा मुक्त प्रतिजन पदार्थों (एण्टीजेन्स) को नष्ट करने की प्रेरणा देता है। इसके बाद लिम्फोसाइट विभाजित होकर प्लाज्मा में आ जाती है और प्रतिरक्षी (antibodies) बनाकर शरीर की रक्षा करती है।

पैराथाइरॉइड ग्रन्थि (Parathyroid Gland):
पैराथाइॉॉडड प्रन्थि मटर के दाने के बराबर चार छोटी एवं गोल रचनाएँ हैं। ये थाइॉइड प्रन्थि की पृष्ठ सतह में धँसी रहती हैं। मनुष्य में प्रत्येक प्रन्थि 6-7 मिमी लम्बी एवं 3-4 मिमी चौड़ी होती है। इसका भार 0.01 से 0.03 प्राम तक होता है। पैराथाइॉॉडड ग्रन्थि से दो हॉमोंन स्नावित होते हैं –
(1) पैराथॉमोन (Parathormone) – इसे कॉलिप हॉमोंन (Colip’s hormone) भी कहते हैं। इसके निम्नलिखित कार्य हैं-
(a) फॉस्फेट के उत्सर्जन में वृद्धि करता है।
(b) आन्त्र द्वारा कैल्सियम के अवशोषण तथा वृक्क द्वारा इसके पुनरावशोषण में वृद्धि करता है।
(c) यह अस्थियों की वृद्धि तथा दाँतों के निर्माण का नियमन करता है।
(d) नई अस्थियों के अनावश्यक भागों को विघटित करता है।
(e) पेशियों को क्रियाशील रखता है।

(I) रुधिर में कैल्सियम तथा फॉस्फेट आयनों की मात्रा का नियमन करके शरीर के अन्तःवातावरण में होमियोस्टेसिस को बनाये रखता है।
(2) कैल्सिटोनिन होंमोंन (Calcitonin Hormone) – यह पैराथॉमोंन के विपरीत कार्य करता है। यह अस्थियों के विघटन को कम करता है।
पैराथॉम्रोन की कमी से हाइपोपैराथाइरिडिज्म (Hypopara-thyroidism), टिटेनी (Tetany), हाइपोकैल्सीमिया (Hypocalcemia) तथा गुर्दें में पथरी Kidney stones) बनने लगती है। आन्त्र एवं आमाशय में रुधिर स्राव की आशंका रहती है।

(C) पीनियल काय (Pineal Body)
यह प्रन्थि अप्र मस्तिष्क में डायनसिफेलॉन (diencephalon) के मध्य पृष्ठ तल पर स्थित होती है। इसे एपीफाइसिस सेरीबाई (epiphysis ceribri) भी कहते हैं।
यह एक छोटी, सफेद व चपटी रचना होती है और एक खोखले वृन्त पर स्थित रहती है। इसका भार 150 मिलीग्राम होता है। यह उत्तक पिण्डों में बँटी होती है। इसकी उत्पत्ति न्यूरल एक्टोडर्म से होती है। इसमें दो प्रकार की कोशिकाएँ होती है –
(i) पीनिपलोसाइटस तथा
(ii) न्यूरोग्लियल कोशिकाएँ।
इस ग्रन्थि के द्वारा स्वावित हॉर्मोन को मिलैटोनिन हॉमोंन (melatonin hormone) कहते हैं।

मिलैटोनिन हॉमोंन के कार्य-इस हॉर्मोन के कार्य अग्रलिखित हैं –

  • निम्नकोटि के कशेरुकियों में इसके प्रभाव से त्वचा का रंग हल्का हो जाता है।
  • स्तनियों में जननांग के विकास एवं उनके कार्यों का अवरोधन करता है।
  • यह प्रन्थि लैंगिक आचरण को प्रकाश की विभिन्नताओं के अनुसार नियन्त्रित करके एक ‘जैविक घड़ी’ का कार्य करती है।
  • जन्म से अन्धे बच्चों में प्रकाश प्रेरणा के अभाव में मिलैटोनिन का यथोचित स्रावण न होने से यौवनावस्था शीघ ही आ जाती है।

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(D) अग्याशय ग्रन्थि (Pancreas)
अग्याशय मुख्यतः एक पाचक मन्थि (digestive gland) है जो भोजन के पाचन के लिए अग्याशयी रस स्रावित करती है। इसकी लम्बाई लगभग 15 सेमी तथा वजन लगभग 8.5 ग्राम होता है। यह अन्त सावी (endocrine) तथा बहिख्रावी (exocrine) प्रन्थि (मिश्रित ग्नि्थि) का कार्य करती है। इस मन्थि की पालियों में उपस्थित संयोजी ऊतक में अन्त:्रावी कोशिकाओं के समूह पाये जाते हैं जिन्हें लैंगरहैन्स की द्वीपिकाएँ (Islets of Langerhans) कहते हैं। इनमें तीन प्रकार की अन्तःावी कोशिकाएँ (endocrine cells) होती हैं –

(1) बीटा कोशिकाएँ (Beta beta or cells) – ये कोशिकाएँ आकार में बड़ी व संख्या में सर्वाधिक होती हैं। इनके द्वारा इन्सुलिन हॉर्मोंन का सावण किया जाता है। रुधर में ग्लूकोज का सामान्य स्तर बनाये रखता है तथा आवश्यकता से अधिक ग्लूकोज को यकृत एवं पेशियों में ग्लाइकोजन में बदलने की क्रिया को प्रेरित करता है।

(2) अल्का कोशिकाएँ (Alpha or (alpha) cells) – ये कोशिकाएँ मध्यम आकार की एवं संख्या में लगभग 25% होती हैं। इन कोंशिकाओं द्वारा ग्लूकागॉन (glucagon) हॉर्मोन का स्ताव होता है जो ग्लाइकोजन (glycogen) को ग्लूकोज (glucose) में परिवर्तित करता है। यह वसा अम्लों एवं अमीनो अम्लों से ग्लूकोनियोजेनेसिस (gluconeogensesis) क्रिया द्वारा ग्लूकोज के संश्लेषण को प्रेरित करता है।
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(3) डेल्टा कोशिकाएँ (Delta or delta-cells) – ये संख्या में सबसे कम या छोटी कोशिकाएँ होती हैं, जो सोमेटोस्टेटिन (somatostatin) का स्राव करती हैं। यह इन्सुलिन (insulin) तथा ग्लूकागॉन (glucagon) की क्रिया में अवरोध उत्पन्न करता है तथा पचे हुए भोजन के स्वांगीकरण की अवधि को बढ़ाता है। अन्याशयी प्रन्यि द्वारा स्रावित ह्वार्मोन्स एवं उनके कार्य- लैंगरहैन्स की द्वीपिकाओं में तीन प्रकार की अन्त.्रावी कोशिकाएँ पायी जाती हैं-बीटा कोशिकाएँ beta-cells), अल्फा कोशिकाएँ alpha-cells तथा डेल्टा कोशिकाएँ (delta-cells) इनके द्वारा क्रमशः इन्सुलिन (Insulin), ग्लूकागॉन (Glucagon) तथा सोमेटोस्टेटिन (Somatostain) हॉमोंन्स का स्राव किया जाता है। इनके कार्य हैं –

I. इन्सुलिन के कार्य (Functions of Insulin) –

  • कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrate) के पाचन से बने ग्लूकोज (Glucose) को ग्लाइकोजन (glycogen) में बदल देता है और यकृत (liver) एवं पेशियों (muscles) में संगृहीत करता है।
  • ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से ऊर्जा विमुक्त होती है।
  • रुधिर में ग्लूकोज की मात्रा निश्चित बनाये रखता है।
  • कोशिकाओं की आधारी उपापचयी दर (Basal Metabolic Rate : BMR) को प्रभावित करता है।
  • वसा ऊतकों में वसा संश्लेषण अर्थात् लाइपोजेनेसिस (lipogenesis) को प्रभावित करता है।

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इन्सुलिन की अनियमितता से उत्पन्न रोग –
(क) अल्पस्तावण (Hypoinsulinism) का प्रभाव मधुमेह या डाइबिटीज (Diabetes) रोग-यह रोग इन्सुलिन हॉर्मोन के अल्प या न्यून स्रावण के कारण उत्पन्न होता है। इन्सुलिन के अल्पस्रावण के कारण शरीर की कोशिकाएँ रुधिर से ग्लूकोज को नहीं ले पाती हैं। इससे रुधिर में ग्लूकोज की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। अधिक वृद्धि हो जाने पर ग्लूकोज मूत्र में उत्सर्जित होने लगता है। अन्त में जब रुधिर और मूत्र में ग्लूकोज की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है तो मधुमेह का रोग हो जाता है। $4 \%$ मनुष्यों में यह रोग आनुवंशिक होता है।

इस रोग में बहुमूत्रता के कारण शरीर में निर्जलीकरण एवं प्यास की शिकायतें हो जाती हैं। शरीर की कोशिकाएँ रुधिर से ग्लूकोज ग्रहण न कर पाने के कारण ऊर्जा उत्पादन हेतु अपनी प्रोटीन्स का विखण्डन करने लगती हैं। इससे शरीर कमजोर हो जाता है। वसा ऊतकों में वसा के अपूर्ण विखण्डन से कीटोन काय (Ketone bodies) बनने लगते हैं। ये मीठे, अम्लीय तथा विषाक्त होते हैं। धीरे-धीरे शरीर में इनकी मात्रा और अम्लीयता में वृद्धि हो जाने से रोगी बेहोश होने लगता है और शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। मधुमेह के रोगियों को इन्सुलिन के इंजेकशन देने से लाभ होता है।

(ख) अतिस्तावण (Hyperinsulinism) का प्रभाव:
हाइपोग्लाइसीमिया (Hypoglycemia) रोग-यह रोग इन्सुलिन के अधिक स्रावण के कारण उत्पन्न होता है। इन्सुलिन के अतिस्रावण के कारण शरीर-कोशिकाएँ रुधिर से अधिक मात्रा में ग्लूकोज लेने लगती हैं जिससे रुधिर में इसकी मात्रा कम होने लगती है। इसके कारण आवश्यक ऊर्जा प्राप्ति हेतु तन्त्रिका कोशिकाओं, नेत्रों की रेटिना व जननिक एपीथीलियम की कोशिकाओं की ग्लूकोज की आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती है। अतः रोगी का दृष्टि ज्ञान एवं जनन क्षमता कम हो जाती है। मस्तिष्क की कोशिकाओं में अत्यधिक उत्तेजना से थकान, मूच्छा व ऐंठन अनुभव होती है और अन्त में मृत्यु हो जाती है। एप्रीनेक्रीन, वृद्धि हॉर्मोन, कॉर्टीसोल ग्लूकागॉन देने से इस रोग में लाभ होता है।

II. ग्लूकैगॉन के कार्य (Function of Glucagon) –
(1) यह यकृत (liver) में ऐमीनो अम्लों तथा वसा से ग्लूकोज के संश्लेषण अर्थात् ग्लूकोजीनोलाइसिस (Gluconeogenesis) को प्रेरित करता है।
(2) वसा ऊतक में वसा के विघटन अर्थात् लाइपोलाइसिस (lypolysis) को प्रेरित करता है।
(3) यकृत में ग्लूकोज को बनाने अर्थात् ग्लाइकोजीनोलाइसिस (glycogenolysis) को प्रेरित करता है।

III. सोमेटोस्टेटिन के कार्य (Functions of.Somatostatin) – यह हॉर्मोन पचे हुए भोजन के स्वांगीकरण की अवधि बढ़ाता है। इससे शरीर में भोजन की उपयोगिता अधिक समय तक रहती है।

प्रश्न 7.
हाइपोथैलेमस से स्वावित कीजिए।
उत्तर:
हाइपोथैलेमस (Hypothalamus):
हाइपोथैलेमस अममस्तिष्क पश्च के डाएनोसिफेलॉन की गुहा, डायोसील (diocoel) अर्थात तृतीय निलय का फर्श बनाता है। इसके श्वेत पदार्थ में धूसर पदार्थ के अनेक क्षेत्र बिखरे रहते हैं। इन्हें हाइपोथेलेमिक बेण्ड कहते हैं। इनके न्यूरॉन्स विशेष हॉर्मोन्स का संश्लेषण करते हैं। ये हॉर्मोन्स हाइपोथैलेमस से निकलकर रुधिर द्वारा एडिनोहाइपोफाइसिस में पहुँचकर पिट्टयूटरी ग्रन्थि की अप्रपालि को विभिन्न हॉमोन्स के स्रावण के लिए उद्दीपित करते हैं।

पिट्टयूटरी ग्रन्थि एक छोटे से वृन्त द्वारा हाइपोथेलेमस से निकले कीपनुमा इन्फन्डीबुलम से जुड़ी होती है। हाइपोथेलेमस की तंत्रिकास्रावी कोशिकाएँ अग्र पिट्टयुटरी को हाइपोथेलेमो हाइपोफाइसियल निवाहिका शिराओं के रुधिर द्वारा अपने हॉर्मोन्स पहुँचाती हैं और उसकी अंतःस्रावी कोशिकाओं से हॉर्मोन्स के स्राव को नियन्त्रित करती हैं।

हाइपोथेलेमस तन्त्रिका कोशकाओं के एक्सॉन्स द्वारा पश्च पिट्टयूटरी से सम्बन्धित होता है। हाइपोथेलेमस एवं पिट्यूटरी ग्रन्थि के घनिष्ठ सम्बन्ध से तंत्रिका एवं अन्तःस्रावी तन्त्रों के बीच समाकलन (integration) का पता चलता है। इस प्रकार पिट्टयूटरी ग्रन्थि के माध्यम से हाइपोथेलेमस शरीर की अधिकांश क्रियाओं का नियमन करता है। हॉर्मोन्स – हाइपोथैलेमस की तन्त्रिका स्रावी कोशिकाओं (neurosecretary cells) से लगभग 10 तन्त्रिका – हॉर्मोन्स (neurohormones) का स्त्राव होता है, जो पीयूष ग्रन्थि की अप्र व पश्चपालियों से हॉर्मोन्स के स्त्राव का नियमन करते हैं।

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ये न्यूरोहॉर्मोन्स दो प्रकार के होते हैं –
(I) मोचक हॉर्मोन्स (Releasing Hormones) – ये हॉर्मोन्स पीयूष ग्रन्थि से हॉर्मोन्स के स्त्राव या मोचन को उद्दीपित करते हैं। ये निम्नलिखित होते हैं –

  • थाइरोट्रॉपिन मोचन कारक या थाइरोट्रॉपिन मोचक हॉर्मोन्स (Thyrotropin Releasing Factor : TRF)
  • एड्रीनोकॉर्टिकोट्रॉपिन मोचक हॉर्मोन (Adrenocorticotropin Releasing Hormone : ACTRH)
  • ल्यूटीनाइजिंग हॉर्मोन मोचक हॉर्मोन (Luteinizing Hormone Releasing Hormone LHRH)
  • फॉलिकल उद्दीपन हॉर्मोन मोचक हॉर्मोन (Follicle stimulating Hormone Releasing Hormone : FSHRH)
  • वृद्धि हॉर्मोन या सोमेटोट्रॉपिन मोचक हॉर्मोन (Growth Hormone or Somatotropin Releasing Horemone)
  • प्रोलेक्टिन मोचक हॉर्मोन (Prolactin Releasing Hormone : PRH)
  • मिलेनोसाइट उद्दीपन हॉर्मोन मोचक हॉर्मोन (Melanocyte stimulating Hormone Releasing Hormone : MSHRH)

(II) निरोधी हॉर्मोन्स (Inhibiting Hormones : IH) – ये हॉर्मोन्स पीयूष ग्रन्थि से कुछ हॉर्मोन्स के स्राव को रोकते हैं। ये निम्नलिखित होते हैं-
(1) वृद्धि हॉर्मोन्स निरोधी हॉर्मोन (Growth Hormone Release Inhibiting Hormone : GHR-IH)
(2) प्रोलेक्टिन मोचन -निरोधी हॉर्मोन (Prolactin Release – Inhibiting Hormone : PR-IH)
(2) प्रोलेक्टिन मोचन -निरोधी हॉर्मोन (Prolactin Release-Inhib )
(3) मिलेनोसाइट उद्दीपन हॉर्मोन – मोचन निरोधी हॉर्मोन (Melanocyte stimulating Hormone-Release Inhibiting Hormone : MSH-RIH) पिट्ट्यूटरी ग्रन्थि की पश्च पालि से स्रावित हॉर्मोन्स वास्तव में हाइपोथेलेमस के न्यूरॉन्स में संश्लेषित होते हैं एवं इनके एक्सॉन सिरों एवं पश्च पालि में संग्रहीत हो जाते हैं तथा आवश्यकतानुसार मोचित होते हैं। हाइपोथैलेमिक-पिट्ट्यूटरी तन्त्र समस्थापन के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि शरीर में यह अधिकांश शरीर क्रियात्मक क्रियाओं का नियममन करता है। यह अन्तःस्रावी तन्त्र तथा तन्त्रिका तन्त्र के निकटवर्ती सम्बन्धों को भी इंगित करता है।

प्रश्न 8.
वृद्धि हार्मोन (GH) के अल्पखावण व अतिस्रावण के प्रभाव लिखिए।
उत्तर:
पीयूष (Pituitary Gland/Hypophysis)
पीयूष ग्रन्थि एक जटिल प्रन्थि होती है। यह अप्रमस्तिष्क के पश्च भाग – डाइएनसेफेलॉन (diencephalon) की आधारभित्ति हाइपोथैलेमस (hypothalamus) से एक छोटे से वृन्त इन्फण्डीबुलम (infundibulum) द्वारा जुड़ी रहती है। पीयूष ग्रन्थि को हाइपोफाइसिस सेरीब्राइ (hypophysis cerebri) भी कहते हैं। इसका आकार मटर के दाने के बराबर होता है। इसका भार 5 -6 ग्राम होता है। स्यियों में यह कुछ अधिक बड़ी होती है तथा गर्भावस्था में इसका आकार बढ़ जाता है। रचना तथा कार्य की दृष्टि से यह दो भागों में बँटी होती है –

(1) एडीनोहाइपोफाइसिस (Aden- ohypophysis) – यह पीयूष प्रन्थि का अगला गुलाबी भाग है जो कुल प्रन्थि का $75 \%$ है। यह भ्रूण की प्रसनी (pharynx) से राथके कोष्ठ (Rathke pouch) के रूप में एक्टोडर्म से विकसित होता है। इसे पीयूष यन्थि का अप्रपिण्ड या अप्र पालि भी कहते हैं।

यह स्वयं तीन भागों से मिलकर बना होता है –
(a) इन्फण्डीबुलर वृन्त से लिपटी समीपस्थ पालि (pars infundibularis or tuberalis)
(b) बड़ी फूली हुई गुलाबी-सी दूरस्थ पालि (pars distalis)
(c) संकरी पट्टीनुमा मध्य पालि (pars intermedia or intermediate lobe)।

(2) न्यूरोहाइपोफाइसिस (Neurohypophysis) – यह हाइपोथैलेमस के इन्फण्डीबुलम से विकसित होता है। इसे पश्चपालि (posterior lobe) या तन्त्रिकीय पिण्ड (pars nervosa) भी कहते हैं। यह पीयूष प्रन्थि का एक-चौथाई भाग बनाता है। एडीनोहाइपोफाइसिस द्वारा स्तावित हॉमोन्स (Hormones of Adenohypophysis)
(1) सोमेटोटोंपिक हॉर्मोन अथवा वृद्धि हॉमोंन (Somatotropic Hormone or Growth Hormone)-यह शरीर की वृद्धि को प्रभावित करता है।
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यह ऊतकों के क्षय को रोकता है, कोशिका के विभाजन, हुुद्यों व पेशियों के विकास तथा संयोजी ऊतक की वृद्धि को प्रोत्साहित करता है। यकृत में ऐमीनो अम्लों से ग्लूकोज तथा ग्लूकोज से ग्लाइकोजन के संश्लेषण को बढ़ाता है। वसा के विघटन को प्रेरित करता है। इसकी कमी से व्यक्ति बौना रह जाता है तथा अधिकता से भीमकायता (acromegaly) हो जाता है।
कार्य –

  • शारीरिक वृद्धि के नियमन करता है।
  • कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा के उपापचय का नियमन करता है।
  • अग्याशय से इन्सुलिन व ग्लूकेगॉन हार्मोन का स्रावण उद्दीपित करता है।
  • यह यूरिया उत्सर्जन व मूत्र निष्कासन में वृद्धि करता है।
  • स्तनियों में दुग्ध स्तावण को उद्दीपित करता है ।
  • कोशिका विभाजन को प्रेरित करता है।
  • ग्लूकोनियोजिनोसिस तथा ग्लाइकोजिनेसिस को प्रेरित करता है।

(2) गोनेडोट्रॉपिक हॉमॉन्स (Gonadotropic Hormones: GTH) – यह हॉर्मोन नर तथा मादा में क्रमशः वृषण तथा अण्डाशय को उत्तेजित करता है। ये हॉर्मोन जनन ग्रन्थियों तथा अन्य सहायक जननांगों की सक्रियता के लिए महत्वपूर्ण हैं। ये मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-

(अ) पुटिका प्रेरक हॉर्मोन (Follicle Stimulating Hormone : FSH) – पुरुषों में यह शुक्रजनन नलिकाओं (seminiferous tubules) तथा शुक्राणु निर्माण (sperm formation) प्रेरित करता है तथा स्तियों में अण्डाशयी पुटिकाओं की वृद्धि एवं एस्ट्रोजन (estrogens) के स्रावण को प्रेरित करता है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण

(ब) ल्युटिनाइजिंग होंमोन अथवा अन्नराली कोशिका प्रेरक होंमोन (Lutenizing Hormone : LH, or Interstitial Cell Stimulating Hormone : ICSH)-स्तियों में यह कॉर्पस ल्यूटिनम (corpus leutium) कोशिकाओं को प्रोजेस्टेरॉन (Progesteron) हॉर्मोन के स्राव को प्रेरित करता है तथा पुरुषों में एण्ड्रोजन्स के त्राव को प्रेरित करता है।

(3) थाइरॉइड उतेजक हॉर्मोन (Thyroid Stimulating Hormone : TSH) – यह एक ग्लाइकोप्रोटीन (Glycoprotein) हॉर्मोन है जो थाइॉइड ग्रन्थि की वृद्धि एवं स्रावण क्रिया को उत्तेजित करता है।
(4) ऐड़िनोकोर्टिकोट्रोंपिक होंरोंन (Adrenocorticotropic Hormone : ACTH) – यह एड्रीनल यन्थि (adrenal gland) के वल्कुट भाग (cortex) को हॉमोंन स्रावण के लिए प्रेरित करता है।
कार्य –

  • यह एड्रीनल प्रन्थि के कारेंक्स भाग से स्रावित हॉर्मोन के उत्पादन व स्रावण को उत्रेरित करता है।
  • वसा अपषटनीय एन्जाइमों को सक्रिय करता है।
  • मेलेनिन के संश्लेषण को उत्रेरित करता है।

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(5) लैक्टोजेनिक या प्रौलैक्टिन अथवा मैमोट्रोंपिक होंरोंन (Lactogenic Hormone : LTH)-यह हॉर्मोन स्रियों में गर्भावस्था के समय अधिक मात्रा में स्रावित होकर स्तनों की वृद्धि को प्रेरित करता है। शिशु जन्म के बाद दुग्ध स्राव को प्रेरित करता है।

(6) मिलैनोसाइट प्रेरक होंमोन (Melanocyte Stimulating Hormone : MSH ) – यह मध्यपिण्ड द्वारा स्रावित हॉमोंन है जो त्वचा की वर्णकता का नियमन करता है। मानव में यह तिल बनने तथा चकते बनने को प्रेरित करता है। न्यूरोहाइपोफाइसिस द्वारा स्रावित हॉर्मोन्स (Hormones of Neurohypophysis)

(1) वेसाप्रेसिन या पिट्रोसिन या एण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (Vasopressin or Pitrossin or Antidiuretic Hormone- ADH) – यह वृक्क नलिकाओं के दूरस्थ भागों एवं संप्रह नलिकाओं से जल के पुनरावशोषण को बढ़ाता है जिससे मूत्र की मात्रा कम हो जाती है। अतः इसे मूत्ररोधी या प्रतिमून्रल होंमोंन भी कहते हैं। यह शरीर के कुछ भागों की रुधिर वाहिनियों को सिकोड़कर रुधिर दाब को बढ़ाता है।

(2) ऑक्सीटोसिन (Oxytocin-OT) या पिटोसिन (Pitocin) – यह हॉर्मोन स्तियों में प्रसव पीड़ा उत्पन्न करके शिशु जन्म को आसान बनाता है। शिशु जन्म के बाद गर्भाशय को सामान्य अवस्था में लाता है। स्तनों में दुग्ध स्राव को प्रेरित करता है। यह गर्भाधान क्रिया को सुगम बनाता है।
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वृद्धि हॉर्मान GH के अति स्रावण से होने वाले रोग पीयूष प्रन्थि (Pituitary gland) के वृद्धि हॉमोंन (growth hormones) के अतिस्नाव (hypersecretion) से निम्नलिखित रोग हो जाते हैं –
(1) अतिवृद्धि (Gigantism)-बाल्यकाल में वृद्धि हॉर्मोन की अधिकता से बहुत लम्बे तथा छष्टपुष्ट भीमकाय (giant) व्यक्तियों का विकास होता है। इन्हें पिट्यूटरी जायण्ट (pituitary giants) कहते हैं।
(2) अप्रातिकायता (Acromegaly) – वृद्धिकाल के बाद वृद्धि हॉमोंन की अधिकता से गोरिल्ला के समान कुरूप भीमकाय व्यक्ति बनते हैं। क्योंकि हहुुुयों की लम्बाई में वृद्धि सम्भव नहीं होती तो शरीर लम्बाई में नहीं बढ़ पाता है, अत: हाथ, पाँव, चेहरे के कुछ भाग जबड़े आदि अधिक लम्बे हो जाते हैं। हरुदुयाँ मोटाई में बढ़ती हैं जिससे चेहरा व शरीर भद्दा हो जाता है। इस अवस्था को एक्रोमेगैली (acromegaly) कहते हैं।
(3) काइफोसिस (Kyphosis) – कभी-कभी कशेरुक दण्ड के झुक जाने से व्यक्ति कुबड़ा हो जाता है।

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वृद्धि हॉर्मोंन GH के अल्पस्वावण से होने वाले रोग –
1. बाल्यकाल में STH या GH के अल्प स्रावण से व्यक्ति बौना रह जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति नपुसक या बाँझ (sterile) होते हैं। पिट्टयूटरी से होने वाले बौनेपन को एटिओलिसिस (ateolisis) तथा ऐसे व्यक्तियों को मिगेद्स्स (midgets) कहते हैं। सरकस में काम करने वाले बौने मिगेद्स होते हैं। साइमण्ड रोग (Simonds’ Disease) – यह रोग वृद्धिकाल के बाद STH की कमी के कारण होता है। इसके कारण शरीर से ऊतक क्षतिग्रस्त होने लगते हैं, जिससे व्यक्ति दुर्बल हो जाता है।
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प्रश्न 9.
वृषण एवं अण्डाशय से स्त्रावित हॉर्मोन्स का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वृषण (Testes):
स्तनधारियों में वृषण, उदर गुहा के बाहर स्क्रोटल कोषों (scrotal sacs) में स्थित होते हैं क्योंकि शुक्राणु जनन के लिए कम ताप की आवश्यकता होती है। वृषण की शुक्र जनन नलिकाओं के बीच के स्थान में भरे संयोजी ऊत्तक में अन्तराली कोशिकाएँ या लेडिग कोशिकाएँ (interstitial cells or Leydig cells) होती हैं। ये कोशिकाएँ नर हार्मोन्स बनाती हैं जिन्हें एड्ड्रोजन्स (Androgens) कहते हैं।

एन्ड्रोजन्स (Androgens) – ये मुख्य रूप से टेस्टोस्टीरॉन (testosteron) तथा एण्ड्रोस्टीरोन (Androsteron) हैं। ये स्टीरॉइड हामोंन हैं और वसा में घुलनशील हैं। ये नर में गौण लैंगि लक्षणों (secondary sexual characters) के लिए उत्तरदायी होते हैं। यह हार्मोन पौरुष विकास हार्मोन (masculiniqation hormone) कहलाते हैं। इस हाम्मोन का नियन्त्रण पीयूष य्यन्थि के LH व ICSH द्वारा होता है।

कार्य –
(i) ये स्क्रोटल कोष, एपीडिडाइमिस, शुक्रवाहनियों, शुक्राशयों तथा सहायक जनन ग्रन्थियों के विकास को प्रेरित करते हैं।
(ii) इनके प्रभाव से गौंण लैंगिक लक्षणों जैसे-दाढ़ी-मूँछ, भारी आवाज, सुदृढ़ अस्थियों एवं पेशियों का विकास, शरीर पर बालों का उगना, आक्रामक रवैया, उत्साह, मैथुन इच्छा के विकास को प्रेरित करता है।
(iii) शुक्राणु जनन (spermatogenesis) की प्रक्रिया को पूरा करने में सहायक हैं। बधियाकरण या आकीडिक्टोमी (Castration or Archidectomy) यह वृषणों को काटकर हटा देने की क्रिया है। यौवनारम्भ से पूर्व बधिया कर कर देने से अतिरिक्त लैंगिक लक्षणों का विकास नहीं होता है और व्यक्ति नपुंसक या हिजड़ा (eunch) हो जाता है। इससे आक्रमणशीलता कम हो जाती है तथा ये मृदु स्वभाव के हो जाते हैं। बधिया घोड़े गेर्डिंग (Gelding), बधिया मुर्गे केपॉन (Capon) तथा बधिया बैल स्टीयर (Steer) कहलाते हैं।

अण्डाशय (Ovary):
स्तनधारियों की उदर गुहा में एक जोड़ी अण्डाशय (ovaries), गर्भाशय (uterus), के दोनों ओर एक-एक स्थित होते हैं। ये मीसेन्ट्री द्वारा गर्भाशय की दीवार से जुड़े होते हैं। बाल्यावस्था में बालिकाओं के अण्डाशयों से हार्मोन स्वावित नहीं होते हैं। किशोरावस्था में (11-13 वर्ष की आयु में) अण्डाशय सक्रिय हो जाता है। अब इससे विभिन्न हार्मोन्स का स्राव होता है।
स्तियों के अण्डाशय से तीन प्रकार के हॉर्मोन्स स्वावित होते हैं –

(1) एस्ट्रोजन (Estrogen) – यह अण्डाशय की ग्रैफियन पुटिकाओं की थीका इण्टरना कोशिकाओं से यौवनावस्था से लेकर रजोनिवृत्ति की आयु (लगभग 48 वर्ष) तक स्नावित होता है। यह सभी सहायक जननांगों एवं द्वितीयक लैंगिक लक्षणों के विकास को प्रेरित करता है। स्तियों में रजोधर्म इसी के प्रभाव से प्रारम्भ होता है। इसे नारी विकास ‘हॉर्मों’ भी कहते हैं। इस हॉर्मोन का नियन्त्रण पीयूष प्रन्थि के दो हॉम्मोन्स FSH तथा LH द्वारा होता है।

(2) प्रोजेस्टेरॉन (Progesterone) – यह अण्डाशय की प्रैफियन पुटिका कोशिकाओं (grafian follicle cells) से अण्डोत्सर्ग के बाद बनी पीले रंग के पीत पिण्ड (कॉर्पस ल्यूटियम) नामक प्रन्थियों से स्वावित होता है। यह स्तियों में मासिक-चक्र का नियमन करके गर्भाधान के लिए आवश्यक दशाओं के विकास को प्रेरित करता है। गर्भधारण के समय होने वाले परिवर्तन का नियन्त्रण इसी हॉमोन द्वारा किया जाता है। इसके प्रभाव से गर्भकाल में स्तन अधिक विकसित हो जाते हैं और दुग्-ग्रन्थियाँ सक्रिय होकर बड़ी हो जाती हैं। प्रोजेस्टेरॉन का स्रावण पीयूष प्रन्थि के हॉर्मोन LH द्वारा नियन्त्रित होता है।

(3) रिलैक्सिन (Relaxin)-इस हॉमोंन का स्रावण भी पीत पिण्ड (कॉर्पस ल्यूटियम) द्वारा गर्भावस्था की समाप्ति पर शिशु-जन्म के समय होता है। यह हॉर्मोन शिशु-जन्म के समय जघन सन्धान (Pubic symphysis) नामक जोड़ व इससे सम्बन्धित पेशियों का शिथिलन करके शिशु-जन्म को सुगम बनाता है।

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प्रश्न 10.
हार्मोन्स की क्रियाविधि समझाइए।
उत्तर:
हार्मोन्स की क्रिया-विधि (Mechanism of Hormone):
हॉमोन्स अति सूक्ष्म मात्रा में स्रावित किये जाते हैं, इनकी अतिसूक्ष्म मात्रा भी कोशिकाओं की क्रियाशीलता को प्रभावित करती है। एक ही हॉर्मोन की लक्ष्य कोशिकाएँ कई प्रकार की हो सकती हैं। हॉर्मोन्स कोशिकाओं की सक्रियता बढ़ाने का कार्य निम्नलिखित तीन विधियों से करते हैं –
(1) जीन स्तर पर प्रोटीन संश्लेषण को प्रभावित करके।
(2) द्वितीयक सन्देशवाहक के माध्यम से कोशिका की कार्यिकी को प्रभावित करके।
(3) कोशिका कला की पारगम्यता बदलकर कोशिका की कार्यिकी को प्रभावित करके।
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(1) जीनस्तर पर उपापचयी परिवर्तन (Change of Metabolism at gene level) – स्टेरॉइड हॉर्मोन्स तथा थाइरॉइड प्रन्थि के हॉर्मोन्स लिपिड में घुलनशील होते हैं। ये लक्ष्य कोशिकाओं की कोशिका कला से पारित होकर कोशिकाद्रव्य में पहुँच जाते हैं। जहाँ ये ग्राही प्रोटीन के अणु से मिलकर हॉर्मोन + ग्राही प्रोटीन
संकर का निर्माण करते हैं। यह संकर केन्द्रक में पहुँचकर सुप्त जीन्स को सक्रिय कर देते हैं। इससे बने m-RNA अणु कोशिका में विशिष्ट प्रोटीन्स का संश्लेषण प्रारम्भ करके कोशिका के उपापचय को प्रभावित करते हैं।

(2) द्वितीय सन्देशवाहक के माध्यम से कोशिकीय उपापचयी परिवर्तन (Changes in cells matabolism through Second messenger) – कुछ हॉमोंन्स के अणु बड़े होते हैं, ये लक्ष्य कोशिका की कोशिका कला को पार नहीं कर पाते हैं। अतः इन हॉर्मोन्स के लिए लक्ष्य कोशिका की कोशिका कला पर प्राही प्रोटीन स्थित होती है। हॉर्मोन तथा प्राही प्रोटीन संकर बनते ही G-प्रोटीन सक्रिय हो जाती है।
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यह ऐडेनिलेट साइक्लेस (Adenylate cyclase) के एक अणु को उद्दीपित करता है। यह कोशिकाद्रव्य में उपस्थित ऐडीनोसीन ट्राइ फॉस्फेट (Adenosin tri phosphate : ATP) के जलीय अपघटन को प्रेरित करता है जिससे साइक्लिक एडीनोसिन मोनो फॉस्पेट (Cyclic Adenosin Monophosphate : cAMP) के कई अणु बनते हैं जो प्रोटीन काइनेस एन्जाइम (Protein kinase enzyme) को सक्रिय करते हैं। जिससे कोशिका का एन्जाइम तन्त सक्रिय हो जाता है तथा कोशिका की उपापचयी क्रियाओं को उत्रेरित करता है। उपर्युक्त क्रिया में cAMP एक मध्यस्थ दूत या द्वितीय दूत (Second messenger) की भाँति कार्य करता है।

(3) कोशिकाकला की पारगम्यता को बदलने में उपापचयी परिवर्वन (Change in Metabolism by changing Membrane Permeability) – कुछ हॉर्मोन्स कोशिका कला की पारगम्यता को प्रभावित करते हैं। इन हॉमोंन्स के प्राही प्रोटीन्स भी लक्ष कोशिकाओं की कोशिका कला में पाये जाते हैं। ये गाही प्रोटीन्स भी कोशिका कला के आर-पार दोनों सतहों पर निकले रहते हैं। सोडियम, पोटैशियम, कैल्सियम आदि के आयनों का आवागमन भी इन्हीं प्रोटीन्स के द्वारा होता है। हॉमोंस्स इन प्रोटीन्स के साथ संयोग करके इन आयनों के आवागमन को रोक देते हैं जिससे कोशिका कला की पारगम्यता बदल जाती है। पारगम्यता बदलने से कोशिका की उपापचय प्रक्रिया में भी परिवर्तन आ जाता है।

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HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

(A) बहुविकल्पीय प्रश्न (Objective Type Questions)

1. शरीर में समन्वय किसके द्वारा होता है ?
(A) रुधिर परिवहन तन्न्र
(B) तन्त्रिका तन्त्र
(C) अन्तवी तन्त्र
(D) तन्त्रिका तन्त्र एवं अन्तख्तावी तन्त्र।
उत्तर:
(D) तन्त्रिका तन्त्र एवं अन्तख्तावी तन्त्र।

2. मनुष्य के मस्तिष्क में ताप नियन्त्रक केन्द्र होतात है-
(A) पीयूष ग्रन्थि
(B) डाइऐनसेफेलॉन
(C) हाइपोथेलेमस
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) हाइपोथेलेमस

3. परिधीय तन्त्रिका तत्र में होती है-
(A) कपालीय तथा मेरु तन्त्रिकाएँ
(B) मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु
(C) अनुकम्पी तथा परानुकम्पी तन्त्रिकाएँ
(D) माइलिनेटेड तथा नॉन-माइलिनेटेड तन्त्रिकाएँ
उत्तर:
(A) कपालीय तथा मेरु तन्त्रिकाएँ

4. परानुकम्पी तन्रिका तन्त्र का एक कार्य है-
(A) नेत्रों की पुतली का फैलना
(B) यकृत में शर्करा का स्राव
(C) हृदय की धड़कन तेज करना
(D) लार स्रावण का उत्तेजन
उत्तर:
(D) लार स्रावण का उत्तेजन

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

5. तत्रिका तन्त्र की सरखनाभक एवं क्रियातक क्राई है-
(A) न्याहान
(B) स्नीमीयर
(C) बण्डा
(D) रनादु का संक्ता है ?
उत्तर:
(A) न्याहान

6. मान्व के तन्रिका तन्र (Nervous system) को कितने भागों में बाँटा जा सकता है ?
(A) 2
(B) 3
(C) 4
(D) 5
उत्तर:
(B) 3

7. घपनुकमी चनिका क्षा ज्ञा –
(A) उदय की घार्न बह चाती है
(B) दिय घी धहक्त बह बाही है
(C) इदय की पड़फल कारम्य हो जाती है
उत्तर:
(B) दिय घी धहक्त बह बाही है

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

8. प्रतिबनित क्षांक्रो जिया का प्रदर्शतन संख्राण किसने बिया ?
(A) पाबहोच
(B) एक्ले
(C) चेहबन
(D) संर्टिबन।
उत्तर:
(A) पाबहोच

9. प्रािजन्रो किषा का नियक्षण क्षेता है –
(A) केग्रीय तनिद्यि वन्त हारा
(B) परिपीय वन्दिका वन्ब हारा
(C) स्वाप्त व्भिष तन्ब छार
(D) ानमे से को नात्रा। होता है ?
उत्तर:
(A) केग्रीय तनिद्यि वन्त हारा

10. कशेखिकी उनुओं में वेशीय चलन का तालमेल किरके द्रारा होता है ?
(A) प्रमस्तिष्क
(B) अनुमस्तिष्क
(C) पीयूष म्रन्थि
(D) थायरॉइड म्रन्थि
उत्तर:
(B) अनुमस्तिष्क

11. तन्तिका तुुु की सताद पर निश्चित दूरी पर संकुचित धाग करलना है ?
(A) श्वान के नोड
(B) श्वान कोशिकाएँ
(C) रेनवियर के नोड्ज
(D) निसल्स कण
उत्तर:
(C) रेनवियर के नोड्ज

12. स्वांत तनिता तन्त में द्वाजी है –
(A) कपालीय एवं रीक तन्त्रिकाएँ
(B) मस्तिक एवं गैळुरज़ु
(C) अनुकम्पी एवं परानुकम्पी तन्त्रिकाएँ
(D) माझस्तियेट्ड व नान्ननादलियेटे लन्बिकाष्य
उत्तर:
(C) अनुकम्पी एवं परानुकम्पी तन्त्रिकाएँ

13. मेक कम्किजां बी संख्या दोगी है-
(A) 31 जोड़ी
(B) 34 बोक्षी
(C) 37 कोड़ी
(D) 39 जोड़ी
उत्तर:
(A) 31 जोड़ी

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

14. सेनवियत का येड कहत्त सिक्ता होंा है ?
(A) माइटोन
(B) नेख्रॉन
(C) एक्ष्मोन
(D) टीलोफैंज्द्या
उत्तर:
(C) एक्ष्मोन

15. कारम्त कीजाहल कितें जोक्ता है ?
(A) दो सेरिकल गोलार्द
(B) दो अं।द्धक विन्द
(C) दो पन धिन्द
(D) घंडिष्टक बोरेक्षा
उत्तर:
(A) दो सेरिकल गोलार्द

16. किस भाग के धंतिभर्त हो जने से स्परण-शंक्त कम हों जयेगी ?
(A) अनुमस्ति
(B) प्रमक्तिक
(C) प्तापोित्तेनह
(D) बेद्यला
उत्तर:
(B) प्रमक्तिक

17. स्वाप्त काजिका का जदाहरतण है-
(A) ओंजन निजकरा
(B) नेत्र के तारे का संकुन
(C) आान्तीय क्रमाकुंन
(D) पुटने घश घंका
उत्तर:
(B) नेत्र के तारे का संकुन

18. कर्ण असिख्य मैक्सयत्त का अलक्षार कोता है-
(A) हृदाषे के जैसा
(B) होहे की नाल यैसा
(C) बोडे की जीन की रकाष कैसा
(D) अण्डायार
उत्तर:
(A) हृदाषे के जैसा

19. अन्दकर्ण में सुुून स्बापित करते चाला भाज है-
(A) अर्द्ववालाभार नाए
(B) कारोसिश्य एणं सेचिना
(C) सेचिना प्तें सैव्युलस
(D) सैक्युक्तस, पृर्टीकलस, अर्षवृत्राकार नलिका
उत्तर:
(D) सैक्युक्तस, पृर्टीकलस, अर्षवृत्राकार नलिका

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

20. सुने के लिए उदिक्न कात अंतम्ब क्षेता है ?
(A) जचण तजिका
(B) कर्ग बटह
(C) कर्ग असिखयाँ
(D) कीक्तिया
उत्तर:
(D) कीक्तिया

21. नेच्छ में प्रकास कर्जो का परिकर्वन होता है-
(A) रासायनिक उत्जा
(B) यानिय कर्जा
(C) भौनतक ऊर्गा
(D) विद्युलौय कर्बा
उत्तर:
(A) रासायनिक उत्जा

22. फल्टि श्रें का कार्ष है-
(A) श्रवंग, सानुलन
(B) अन्षक्त में दीवान
(C) एक नेत्र दृष्टि बनाये रखना
(D) तेज प्रकाश में दृष्टि ज्ञान तथा रंगों का विभेदन
उत्तर:
(D) तेज प्रकाश में दृष्टि ज्ञान तथा रंगों का विभेदन

23. मध्य कर्ण में कर्ण पद्ठ से स्ी कर्णास्थि का नाम है-
(A) इन्कस
(B) मैलियस
(C) स्टैपीज
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) मैलियस

24. आँख की पुत्री के चारों ओर पायी जने वाली पेशियाँ होती हैं-
(A) रेखित ऐच्चिक
(B) अरेखित ऐच्चिक
(C) रेखित अनैच्छिक
(D) अरेखित अनैच्छिक
उत्तर:
(D) अरेखित अनैच्छिक

25. औँख की पुंत्री का संदुग्न किसके कारण होता है ?
(A) अधिक तापमान से
(B) तीव्र प्रकाश से
(C) अँघेरा छोने पर
(D) हल्की रोशनी से
उत्तर:
(B) तीव्र प्रकाश से

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26. कौम-सी परा आईरिस का निर्माण करती है ?
(A) एक्लीरॉटिक परत
(B) दृष्टि पटल
(C) रक्तक पटल
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(C) रक्तक पटल

27. अनक्षर्ण में कन्रुन्त स्वाधित काने बाते घाग है-
(A) अध्षवृत्ताक नसिकायँ
(B) अर्थाताका नतिकाप, यदीकुलत, सैस्युत्ता
(C) हेखिना तथा सैक्युलक्त
(D) ओंटेहिय पव्वे क्षेकिना
उत्तर:
(B) अर्थाताका नतिकाप, यदीकुलत, सैस्युत्ता

28. बांत्यो के अंग कास सिक्त क्षोते है ?
(A) बतनियर नलिका में
(B) अर्षचृत्ताकार नीक्षिक्यों। में
(C) सैक्तुलक मे
(D) यद्रीकुलस में
उत्तर:
(A) बतनियर नलिका में

29. नेर्र में क्रकात के प्रयेश ब्र निख्न करती है-
(A) कॉक्लियर नलिका में
(B) अर्धवृत्ताकार नलिकाओं में
(C) सैक्युलस में
(D) यूट्रीकुलस में
उत्तर:
(A) कॉक्लियर नलिका में

29. नेत्र में प्रकाश के प्रवेश का नियमन करती है-
(A) तारा
(B) परितारिका
(C) कंजक्टाइवा
(D) कॉर्निया
उत्तर:
(D) कॉर्निया

30. नेत्र के जिस भाग में प्रतिबिम्ब बनता है, उसे कातो हैं-
(A) दढ़ पटल
(B) रक्तक पटल
(C) कॉर्निया
(D) दृष्टि पटल
उत्तर:
(D) दृष्टि पटल

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

31. दृष्टि शलकाओं घ्रा ज्ञान प्राप्त होता है-
(A) अन्धकार का
(B) प्रकाश का
(C) रंग का
(D) अन्धकार व प्रकाश दोनों का
उत्तर:
(D) अन्धकार व प्रकाश दोनों का

32. काला गढन किस जबती क्रा में पाया खाता है ?
(A) नाक में
(B) कान में
(C) नेत्र में
(D) मीित्युज में
उत्तर:
(B) कान में

33. अन्तकर्ण तथा मध्य कर्ण को जोड़े वाला जित्र है-
(A) यद्रीढुलस
(B) सैक्युतर
(C) केनेस्द्धा ओबेलिय
(D) हुम्बला
उत्तर:
(C) केनेस्द्धा ओबेलिय

34. नेम्र का कौन-या धाग समापोलान में साकायता करहा है ?
(A) लेन्ष का आकार बदलक
(B) बानगया बा अाकास घदलबन
(C) ‘अं तथा ‘ब’ बोनों
(D) करों नाता
उत्तर:
(A) लेन्ष का आकार बदलक

35. तीज हननि तरंगो से कार्य की घन्ति निम्न में से चित्रा क्वारा सेकी काति है?
(A) कर्ण पटह द्वारा
(B) टेक्टोहिद्त द्विस्ती क्षाता
(C) कर्ग अस्थियों हारा
(D) यूस्टेकियन बहिका छारा
उत्तर:
(D) यूस्टेकियन बहिका छारा

36. रेटिना पर घना श्रतिबिम्ब होता हैं-
(A) बास्तबिक उस्टा
(B) वास्वविक सीधा
(C) अवास्तबिक उाच्या
(D) अवारतविक सीधा
उत्तर:
(A) बास्तबिक उस्टा

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37. दृष्टि शंकु किसका बोध कराते हैं ?
(A) प्रका
(B) अन्थकार
(C) रंग
(D) अन्कलार तथा प्रकारा दोनो
उत्तर:
(C) रंग

38. संध्टि कंकु कबा शालाएँ सिख्त होने हैं-
(A) आाहित्र में
(B) सेन्स्म में
(C) रेटिना में
(D) निमेषक पटत्त में
उत्तर:
(C) रेटिना में

39. काषित्या नापष औं पाखा क्ता है-
(A) श्रोणि मेखाता में
(B) कानिया में
(C) कता गबन में
(D) नस्तिक मे
उत्तर:
(C) कता गबन में

40. कीजिया नामक और पाया जता है-
(A) गय्ष (हतग) से
(B) घबन (घनि) से
(C) स्वाद से
(D) सन्दुलन से
उत्तर:
(B) घबन (घनि) से

41. ने का अन्ष किन्दु कखष स्थित केता है ?
(A) हाने के बौच में
(B) लेन्द्ध के बैंत्र में
(C) यहज रेटिना से तहि वान्तिका निकलती है
(D) फोबिचा सेम्ट्रेतिस में
उत्तर:
(C) यहज रेटिना से तहि वान्तिका निकलती है

42. III, VI कंवा XI की कपात कंजियाएँ है-
(A) आरिक, के सिपस ब स्पाइनल
(B) आक्युलोमोटर, ट्राइजेमिनल व स्पाइनल
(C) दूत्बेंमनल, एइएकूमेना व बेगस
(D) आक्युलोमोटर, एब्डूसेन्स व स्पाइनल अतिरिक्त
उत्तर:
(A) आरिक, के सिपस ब स्पाइनल

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

43. कौन-सी त्रतिका कर्दी के अं को सुख्ता पाँचाजी है –
(A) ज्रबंण
(B) घान
(C) द्रोक्लिखर
(D) बेना
उत्तर:
(A) ज्रबंण

44. सिप्रैंटिक तंस्रिका तंत्र प्रेरित करता है-
(A) ह्दय निस्पंदन
(B) बीर्च का ल्वाषण
(C) सार का स्रावण
(D) वावक रहों का स्रावण
उत्तर:
(A) ह्दय निस्पंदन

45. श्द चात्क तंशिका है –
(RPMT)
(A) आल्क्षर्री
(B) आंड्डिक
(C) एम्बयूत्रेन्भ
(D) बेनस्त
उत्तर:
(C) एम्बयूत्रेन्भ

46. मेक्ष में केनिय्न कत्रिजाओं की संड्या है –
(A) x जोह़ी
(B) IX कोड़ी
(C) XII बोड़ी
(D) इनमें से बोऱ्े नहीं
उत्तर:
(A) x जोह़ी

47. कत्रिका तत्र का उद्य क्षेता है –
(A) मध्य अन्तः त्वं से
(B) मप्य त्वचा से
(C) अन्नं: कचा से
(D) बाल वचचा से
उत्तर:
(D) बाल वचचा से

(B) अनिसघुन्तरात्मक प्रश्न (Very Shart Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
तर्चिका त्रत्य बा निर्वाण किस पृणीय स्तर से क्षेता है ?
उत्तर:
वनिक्रा तन (Nervous system) का निर्माण एक्येडर्म (Ectoderm) भ्णीय जनन स्तर से होता है।

प्रत्व 2.
कविका कर्म को कितने भागों वें विकक्त किया गया है ?
उत्तर:
सन्विका तन्द को तौन भागो में विभक्त किषदा गया है –
(i) क्षित्दीय (Peripheral nervous system) तथा
(ii) स्थायन्त हत्बिका तन्ब (Autonomic nervous system)।

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प्रश्न 3.
मनुष्य के मस्तिकावरण में पाये जने वाली झिलिखियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
मनुष्य का मस्तिष्कावरण तीन झिल्लियों से मिलकर बनता है-(1) दृढ़-तानिका (duramater), (2) जालतानिका (arachnoid) तथा (3) मृदुतानिका (piamater) !

प्रश्न 4,
कौरसं कीलोस किसे कछा हैं ?
उत्तर:
प्रनीस्तक (cerebrum) दो भागो में बैंद होता है बिन्दे प्रमक्जिक कहत्ताती है।

प्रश्न 5.
प्राण मसित्रिक क्या है ?
उत्तर:
प्रमस्तिष्क गोलाद्धों के वे सभी क्षेत्र जो घाण सम्बन्धी अनुक्रियाओं से सम्बद्ध होते हैं, संयुक्त रूप से घ्राण मस्तिष्क या राइनेन्सेफेलॉन (rhinencephalon) कहलाते हैं।

प्रश्न 6.
मछ्य मरिलब किन धागों से सिकबर क्ता है ?
उत्तर:
चध्य मस्तिक हो धागों से निलक्र बनता है –

  • प्रमधिक्षिक्ष यन्तक या कुत सेखिजाइ (cerebral pedubcles or crura cerebri), तबा
  • पिय्ड बतुद्धि या काफेंता क्वाहुीजिमिना (corpora quadrigemina) ।

प्रश्न 7.
प्रतिक्ती जिया किसे ब्धाते है ?
उत्तर:
खवेदी अंगों वाता बहुन किये गये उद्दीष्नों को संबेदी तन्दिकाओं दारा पेकियो, ऊर्से या औरों में लाकर उसको उत्तेजित करने की किया को

प्रश्न 8.
मनुय्य में कुल किजनी कायातीय कािकाएँ पाखी बादी हैं ?
उत्तर:
यनुष्य में कुल 12 योड़ी काषातीय वील्तकाएं (cranial nerves) घायौ जाती है ?

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प्रश्न 9.
तन्त्रिका तन्त की संरचनात्पक एवं क्रियाकक इकाई क्या होती है ?
उत्तर:
वन्रिका तन्य (nervous system) की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई (structural and lunctional unit) त्रान्बका कोरिका अथबा न्युर्रन (neuron) होती है।

प्रश्न 10.
तान्यिक्छ कोसिकाषं किकने प्रकार की दोती है। ?
उत्तर:
निन्रका कोशिकापे (Neurons) चा की प्रकार की होती हैं –

  1. अधुवीय तन्विका कोशिका (nonpolar aeuron)
  2. एकमुबौय (unipolar) तन्विका कोत्रिका
  3. सिणुवीय (bipolar) वनिक्या को किका न्या
  4. बहुपुवीय (multipolar) तनिका कोशिका।

प्रश्न 11.
संकेदी तत्तिका कोशिकाएँ किसे काहते हैं ?
उत्तर:
शरीर के विभिन्न संवेदी अंगों (sensory organs) से प्राप्त संवेदी तन्त्रिका आवेगों या उत्तेजनाओं को केन्द्रीय तन्त्रिका अंगों तक ले जाने वाली तन्त्रिका कोशिकाएँ, संवेदी तन्त्रिका कोशिकाएँ (sensory neurons) कहलाती हैं।

प्रश्न 12.
चालक तन्रिका कोशिकाएँ किसे कहते हैं ?
उत्तर:
जो तन्त्रिका कोशिकाएँ (neurons) प्रेरक आवेगों को केन्द्रीय तन्त्रिका अंगों से कार्यकारी अंगों तक पहुँचाती है, चालक तन्त्रिका कोशिकाएँ (motor neurons) कहलाती हैं। ये प्रेरक कोशिकाएँ भी कहलाती हैं।

प्रश्न 13.
सार्टेटोरियल आवेग संवरण किसे कहोे हैं?
उत्तर:
गायलिन (myelin) खोलदुक्त तनिका कोशिकाओं में वन्यिक आवेग (nerve impulse) केवल वर्ष सन्यि (node) से पर्च संन्थि पर है संघरिव होते है। अता इनमें त्वल्बफीय कावेगों का संचरण लगषन 10 गुना अधिक तीन गत्ति से छोता है, ऐसे प्रसारण को वली प्रसारन या सात्टेटोरियल भावेग संच्रण (saltatorial trensmission) कहले हैं।

प्रश्न 14.
कॉड़ा एकिषना क्या है ?
उत्तर:
मेरुज्दु (spinal cord) का अन्तिम भाग एक पतले सूत्र के रूप में होता है। यह कर्ड तन्त्रिकाओं के साथ मिलकर अश्व पुच्छ रूप (horse tail) के समान रचना बना लेता है जिसे कॉडा एक्विना (cauda equina) कहते हैं।

प्रश्न 15.
अनुकम्पी तन्त्रिकाएँ नेत्र की आइरिस पर क्या प्रभाव डालती हैं ?
उत्तर:
अनुकम्पी तन्त्रिकाएँ (sympathetic nerves) के प्रभाव से नेत्र की आइरिस का विस्तारण हो जाता है अर्थात् फैल जाती है।

प्रश्न 16.
मनुष्य में प्रतिवर्ती क्रियाओं को कौन नियन्त्रित करता है ?
उत्तर:
मनुष्य में प्रतिवर्ती क्रियाओं (reflex actions) को मेरुरज्जु (spinal cord) नियन्त्रित करता है।

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प्रश्न 17.
सिनैप्स किसे कहते हैं ?
उत्तर:
एक तन्त्रिका कोशा के अन्तिम छोर पर उपस्थित साइनेप्टिक बटन्स (synaptic buttons) दूसरी तन्त्रिका कोशा के डेड्रान्स (dendrons) शीर्ष पर उपस्थित बटनों से कार्यकारी सम्बन्ध स्थापित करते हैं, इन्हीं को सिनैप्स (synapse) कहते हैं।

प्रश्न 18.
तन्त्रिका उद्दीपन के सम्बन्ध में देहली उद्दीपन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
वह न्यूनतम उद्दीपन शक्ति, जिसे तन्त्रिका तन्तु (nerve fibre ) को उद्दीपित किया जा सकता है, देहली उद्दीपन (threshold stimulus ) कहलाती है।

प्रश्न 19.
मध्य कर्ण में उपस्थित अस्थियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
मध्य कर्ण में तीन अस्थियाँ पायी जाती है –

  • मैलियस (malleus)
  • इनकस (incus) तथा
  • स्टैपीज (stapes )।

प्रश्न 20.
नेत्र में पाये जाने वाले शलाका एवं शंकु कोशिका कार्य बताइए।
उत्तर:
नेत्र में पाये जाने वाले शलाका ( rods) प्रकाश तथा अन्धकार के भेद तथा शंकु (cones) विभिन्न प्रकार के रंगों को पहचानती है।

प्रश्न 21.
मनुष्य के कर्ण को कितने भागों में विभक्त किया गया है ?
उत्तर;
मनुष्य के कर्ण को तीन भागों में विभक्त किया गया है –

  • बाह्य कर्ण (external ear)
  • मध्य कर्ण (middle ear) तथा
  • आन्तरिक कर्ण (internal ear) ।

प्रश्न 22.
कर्ण द्वारा शरीर के सन्तुलन की क्रिया कौन-सी रचना द्वारा किया जाता है ?
उत्तर:
कर्ण द्वारा शरीर के सन्तुलन की क्रिया युट्रीकुलस (utriculus), सैक्युलस (sacculus ) तथा तीनों अर्धवृत्ताकार नलिकाओं (semicircular canals) द्वारा की जाती है।

प्रश्न 23.
नेत्र में रंग पहचानने की क्या व्यवस्था होती है ?
उत्तर:
नेत्र में रंग पहचानने के लिए दृष्टि पटल (रेटिना) के तन्त्रिका संवेदी स्तर में दृष्टि शंकु (optic cones) नामक कोशिकाएँ होती हैं। इनके बाहरी भाग में रंगों की पहचान हेतु आइडोप्सिन (idopsin) नामक वर्णक होता है।

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प्रश्न 24.
कला गहन के बाहर तथा अन्दर उपस्थित द्रवों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कला गहन (membranous labyrinth ) के बाहर श्रवण कोष में उपस्थित द्रव परिलसिका द्रव या पैरीलिम्फ (perilymph) तथा कला गहन के भीतर भरे द्रव को अन्तः लसिका द्रव या एण्डोलिम्फ (endolymph) कहते हैं।

प्रश्न 25.
कला गहन के दो वेश्मों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कला गहन के दो वेश्म –

  • युट्रीकुलस (utriculus) तथा
  • सैक्युलस (sacculus) कहलाते हैं।

प्रश्न 26.
सैक्युलस से जुड़ी कुण्डलित रचना क्या कहलाती है ?
उत्तर:
सैक्युलस (Sacculus) से जुड़ी कुण्डलित नलिका कॉक्लिया (cochlea) कहलाती है।

प्रश्न 27.
कण्ठ-कर्ण नलिका या यूस्टेकियन द्यूब्ब का क्या कार्य होता है ?
उत्तर:
कण्ठ-कर्ण नलिका या यूस्टेकियन ट्यूष कर्ण पटह के अन्दर तथा बाहर वायु का समान दबाव बनाये रखती है जिससे कर्ण पटह फटने से बची रहती है।

प्रश्न 28.
सेलूमिनस प्रन्थियाँ किस अंग में उपस्थित कोती हैं ?
उत्तर:
सेरूमिनस प्रन्थियाँ (ceruminous glands) बाहा कर्ण कुछर (external auditory meatus) में उपस्थित होती हैं।

प्रश्न 29.
नेत्र के कॉनिया को चिकना बनाये रखने का कार्य कौन-सी व्रच्चि करती है ?
उत्तर:
नेत्र के कॉर्निया को चिकना बनाये रखने का कार्य मीबोमियन पन्थियाँ (meibomian glands) करती हैं।

प्रश्न 30.
हृंद्धि क्टल के चार सतरों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • रंगा का वर्णकी स्तर
  • तन्त्रिका संवेंदी स्तर
  • दृधि शलाका एवं दृधि शंकु स्तर
  • गुच्छकीय स्तर।

प्रश्न 31.
ऑटोकॉनिया नामक कण कहाँ पाये जाते हैं?
उत्तर:
ऑटोकोर्निया (otocornea) कण कला गहन के अन्दर उपस्थित एण्डोलिम्फ में पाये जाते हैं।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

प्रश्न 32.
तंत्रिका कोशिका कला का विश्रामावस्था विथव कितना कोता है ?
उत्तर:
तंत्रिका कोशिका कला का विश्रामावस्था विभव -70mV होता है।

प्रश्न 33.
अन्य बिन्दु क्या होता है ?
उत्तर:
रेटिना में जिस स्थान से दृष्टि तंत्रिका बाहर निकलती है, वहाँ प्रतिबिम्ब नहीं बनता है। उस स्थान को अंघ बिन्दु कहते हैं।

प्रश्न 34.
नेत्र में पीत बिन्दु का क्या कार्य है ?
उत्तर:
नेत्र में पीत बिन्दु पर किसी वस्तु का सबसे स्पष्ट व उल्टा प्रतिबिम्ब बनता है।

प्रश्न 35.
ऐसीटिलकोलीन क्या है ? यदि यहु शरीर में न रहे तो क्या होगा ?
उत्तर:
ऐसीटिलकोलीन एक विशिष्ट रसायन है। यह सिनैप्स पर आवेग को विद्युत तरंग के रूप में स्थापित करता है। इसके अभाव में तंत्रिका आवेग का संचरण नहीं हो सकेगा।

(C) लघूत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
मस्तिष्क के विभिन्न भागों एवं उपभागों के नाम लिखिए।
उत्तर:
मानव मस्तिष्क (brain) अन्य सभी जन्तुओं के मस्तिष्क से अधिक विकसित होता है। एक औसत व्यक्ति के मस्तिष्क का भार लगभग 1.4 kg होता है। यह अस्थियों (bones) से बनी करोटि (cranium) में बन्द रहता है। करोटि बाहा आघातों से मस्तिष्क की रक्षा करती है। मस्तिष्क के प्रमख भाग तथा उपभाग निम्नानुसार होते हैं-

प्रमुख भाग (Major divisions)उपभाग (Sub-divisions)
1. अम्म मस्तिक्क या प्रोसेनसेफेलॉन (Forebrain or Prosencephalon)(i) प्रमस्तिष्क या सेरीब्रम (Cerebrum)

(ii) अप्रमस्विष्कपश्च या डाइऐनसेफेलॉन (Diencephalon)

2. मध्यमस्तिष्क मीसेनसेफेलॉन (Midbrain or Mesencephalon)(i) प्रमस्तिष्क वृन्तक या क्रूरा सेरिबाइ (Cerebral peduncles or Crura cerebri)

(ii) पिण्ड चतुष्टि या कॉपोंरा क्वाड्रीजेमिना (Corpora quadrigemina)

3. पश्च मस्तिक्क रॉम्बेनसेफेलॉन (Hindbrain or Rhombencephalon)(i) अनुमस्तिष्क या सेरीबेल (Cerebellum)

(ii) पोन्स वेरोलाई (Pons varolli)

(iii) मेडुला ऑष्लांगेटा (Medulla oblongata)

प्रश्न 2.
मसिंक्क के उसर से मस्तिकाबरण हटा दिया जये तो क्या प्रथाब पक्षेता ?
उत्तर:
मस्तिष्क (brain) चारों ओर से तन्तुमय संयोजी ऊतक (Connective tissues) से बनी झिल्लियों (membranes) से घिरा रहता है। इन झिल्लियों को मस्तिष्कावरण (cranial meninges) कहते हैं। मस्तिक्कावरण विभिन्न चोटों, दुर्घटना एवं बाहरी आघातों से सुरक्षा प्रदान करती है। इनमें उपस्थित सीरमी द्रव (serous fluid) दो परतों को नम तथा चिकना बनाने का कार्य करता है। मस्तिष्कावरण में विद्यमान रक्त जालक (choroid plexuses) द्वारा प्रमस्तिक्क मेरद्रव्य या सेरिख्रोस्पाइनल फ्लूड (cerebrospinal fluid, CSF) का स्रावण किया जाता है, इसमें प्रोटीन (protein), ग्लूकोस (glucose), क्लोराइड्स (chlorides) के अलावा सोडियम, पोटैशियम, कैल्सियम के बाइकार्बोनेट, सल्फेट आदि पाये जाते हैं जो मस्तिष्क को पोषण प्रदान करते हैं। प्रमस्तिष्क मेरुद्रव्य रुधिर एवं मस्तिष्क कोशिकाओं के बीच उपापचयी पदार्थों का आदान-प्रदान करता है। अतः मस्तिष्कावरण (Cranial meninges) को हटा देने पर इन सभी क्रियाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा ।

प्रश्न 3.
मध्बमसित्धक के कार्य लिखिए।
उत्तर:
मध्यमस्तिष्क (midbrain) मस्तिष्क का छोटा-सा भाग होता है, जो अपमस्तिष्क पश्च या डाइएनसेफेलॉन (Diencephalon) के पीछे, प्रमस्तिष्क या सेरेख्रम (Cerebrum) के नीचे तथा पश्चमस्तिष्क (Hindbrain) के ऊपर स्थिर होता है।

इसे दो भागों में बाँटा जा सकता है –
(i) प्रमस्तिक्क वृन्तक या क्रूरा सेरिब्राइ (cerebral peduncle or crura cerebri) तथा
(ii) पिण्ड चतुष्हि या कॉर्पोरा क्वाह्रीजेमिना (corpora quadrigemina) !
मध्यमस्तिष्क के प्रमस्तिष्क वृन्तक या कूरा सेरिजाइ (crura cerebri) पेशी गतियों (muscular movements) के लिए समन्वय केन्द्रों का कार्य करते हैं। पिण्ड चतुष्टि (corpora quadrigemina) के ऊपरी उभार दृष्टि सम्बन्धी (visual) प्रतिवर्त (reflex) केन्द्र की तरह तथा निचले उभार श्रवण सम्बन्थी (auditory) प्रतिवर्त केन्द्रों (reflex centers) की तरह कार्य करते हैं।

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प्रश्न 4.
मान्व के अनुमसिस्षक्क को नट्ट करने पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
मानव का अनुमस्तिष्क या सेरीबेलम (Cerebellum) मस्तिक्क का दूसरा सबसे बड़ा भाग होता है। यह् ऐच्छिक गतियों के लिए आवश्यक पेशियों में समन्वय स्थापित करता है। यह कंकाल पेशियों के समुचित संकुचन द्वारा चलने फिरने, दौड़ने लिखने इत्यादि क्रियाओं को आसान बनाता है। यह शरीर को सन्तुलित बनाये रखता है तथा साम्यावस्था का नियमन करता है। यदि अनुमस्तिक्क या सेरीबेलम (cerebellum) को नष्ट कर दिया जाये तो ऐच्छिक पेशियों का समन्वय नहीं हो पायेगा जिससे ऐच्छिक पेशियों के तनाव का नियमन नहीं होगा फलस्वरूप शरीर की गतियाँ अनियन्त्रित होने लगेंगी।

प्रश्न 5.
मेरुज्यु (Spinal cord) पर संद्रिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
मेरुज्जु (spinal cord) मेहुला (medulla) का ही प्रसार है, जो कशेरुक दण्ड की तन्त्रिका नाल में स्थित होती है। यह प्रथम कशेरुक से प्रारम्भ होकर कटि प्रदेश तक फैली रहती है। मनुष्य में यह लगभग 45 सेमी लम्बी, खोखली बेलनाकार रचना होती है, जो अप्र तथा पश्च पादों के संगत भागों के जोड़ों पर फूलकर बाहु उत्फलन (brachial swelling) एवं कटि उत्फलन (lumber swelling) बनाती है। इसका अन्तिम भाग एक पतले सूत्र के रूप में होता है जिसे अन्त्य सूत्र या फाइलम टर्मिनल (filum terminal) कहते हैं।

यह कई तन्त्रिकाओं से मिलकर अश्व पुच्छ (horse tail) जैसी रचना बना लेता है जिसे कोडा एक्विना (cauda equina) कहते हैं। मस्तिक्क के समान मेरुरज्जु पर भी तीन झिल्लियों का आवरण होता है। इनके मध्य खाली स्थानों में प्रमस्तिष्क मेरुख्य (cerebrospinal fluid) भरा रहता है। इसके भीतर की ओर धूसर द्रव्य (gray matter) तथा बाहर की ओर श्वेत द्रव्य (white matter) का स्तर होता है।

धूसर द्रव्य दोनों ओर पार्श्व में पंखनुमा पाश्व धूसर भृंग (lateral horns) बनाता है। पृष्ठ तल की ओर पृष्ठ भृंग (dorsal horns) तथा अधर तल की ओर उभार अधर भृंग (ventral horns) कहलाते हैं। पृष्ठ भृंग में केवल संवेद्षे तन्क्रका तन्यु (sensory nerve fibres) एवं अधर शंग में केवल प्रेरक तन्तिका तन्बु (motor nerve fibres) पाये जाते हैं। मेरुरज्जु (Spinal cord) प्रतिवर्ती क्रियाओं (Reflex action) का मुख्य केन्द्र होता है। यह शरीर के विभिन्न भागों एवं मस्तिष्क में तन्त्रिकाओं द्वारा समन्वय रखता है।

प्रश्न 6.
मेलुला और्लांगेटा के कार्यों को लिखिए।
उत्तर:
मेदुला ऑब्लांगेटा (medulla oblongata) मस्तिष्क का सबसे निचला भाग बनाता है। इसमें अधिकांश संवेदी तन्तु एक ओर से दूसरी ओर क्रॉस करते हैं।। इस प्रकार बायाँ सेरीबल गोलाई शरीर के दाहिने भाग को तथा दाहिना गोलार्द्ध शरीर के बायें भाग को नियन्त्रित करता है। मेडुला के फर्श पर धूसर पदार्थ के क्षेत्र होते हैं, जिनमें न्यूरॉन्स (Neurons) होते हैं।

इन्हें के न्द्रक (nuclei) कहते हैं। मेडुला का निचला सिरा मेरुख्जु में समाप्त होता है। मेहुला (medulla) सभी अनेच्छिक क्रियाओं जैसे-उदय स्पन्दन (heart beating), श्वसन दर (respiration rate) तथा आहार नाल की पेशियों के संकुचन का नियन्त्रण करता है। इसमें श्वसन केन्द्र, कार्डियक केन्द्र तथा वासामोटर केन्द्र होते हैं। मेहुला में निगलने, वमन करने, खाँसने व छींकने की क्रियाओं के केन्द्र भी होते हैं।

प्रश्न 7.
वत्रिका आवेग से क्या समझत्ते हैं ? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जब किसी अंग में स्थित संवेदी कोशिकाएँ (sensory neurons) किसी बाहरी उद्दीपन से उत्तेजित होती हैं तो उद्दीपनों को सम्बन्धित तन्त्रिका तन्तुओं में प्रेरित कर देती हैं। तन्त्रिका तन्तुओं का उद्दीपन ही तन्त्रिका आवेग (nerve impulses) कहलाता है। तन्त्रिका बन्तुओं में आवेग का संचरण एक विं्युत रासायनिक (electro-chemical) घटना है। जिसमें विद्युत-रासायनिक परिवर्तन की एक लहर-सी उठती है जो कि तन्त्रिका तन्तु की लम्बाई में संचारित होती है।

तन्त्रिका तन्तुओं में आवेग का संचरण केवल एक दिशा में ही होता है, संवेदी तनिकाकाओं (sensory neurons) में इसकी दिशा मस्तिष्क की ओर तथा चालक तन्त्रिकाओं (motor nerves) में इसकी दिशा मस्तिष्क से कार्यकारी अंग की ओर होती है। तन्त्रिकाओं में थकावट नहीं होती परन्तु इन्हें लगातार ऑक्सीजन मिलते रहना आवश्यक है। मनुष्य में सामान्य परिस्थिति में तन्त्रिकीय आवेग का संचरण 45 मीटर/सेकण्ड से होता है। माइलिन आच्छद (myelin sheath) तन्तुओं में संचरण अधिक तीव्र होता है। इसे साल्टेटोरियल आवेग संचरण (saltatorial transmission) कहते हैं।

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प्रश्न 8.
मस्तिष्कावरण (Meninges) पर टिपणी लिखिए।
उत्तर:
मस्तिष्क एक कोमल एवं नाजुक अंग है। यह अस्थियों से बनी करोटि (cranium) में बन्द रहता है। मस्तिष्क चारों ओर से तन्तुमय संयोजी ऊतकों से बनी झिल्लियों द्वारा घिरा होता है, जिन्हें मस्तिष्कावरण (cranial meninges) कहते हैं।

यह निम्नलिखित आवरणों का बना होता है –
(1) दुक्षानिक या ड्यूरामेटर (Duramater) – यह सबसे बाहरी झिल्ली है। यह कड़ी (rigid) और मोटी होती है। यह कपाल की अस्थियों के निकट स्थित होती है। कपाल की अस्थियाँ एवं दृढ़तानिका के बीच सँकरे स्थान को एपिड्यूरल अवकाश (epidural space) कहते हैं।

(2) जसतानिका या ऐक्नॉइड (Arachnoid) – यह स्तर दढ़्तानिका की तुलना में कम मोटा होता है। इसमें रुधिर केशिकाओं का जाल-सा फैला रहता है। दृढ़तानिका एवं जालतानिका के बीच का खाली स्थान सबड्यूरल अवकाश (subdural space) कहलाता है। इसमें सीरमी प्रव (serous fluid) भरा रहता है।

(3) मृदुतानिका या पायामेटर (Plamater) – यह सबसे भीतरी परत है, जो मस्तिक्क एवं मेरुरज्जु से चिपकी रहती है। जालतानिका एवं मृदुतानिका के बीच की गुहा को अवजालतानिका अवकाश (subarchnoid space) कहते हैं तथा इसमें प्रमस्तिक्क मेरु द्रव (cerebro spinal fluid) भरा रहाता है। यह दो स्थान पर सूक्षम उभारों के रूप में मस्तिक्क की गुहा में लटकी रहती है, इन क्षेत्रों को रक्तक जालक (choroid plexus) कहते हैं। इन स्थानों पर प्रमस्तिक्क मेरु द्रव (cerebro spinal fluid) रिस-रिसकर मस्तिक्क गुहा में पहुँचता रहता है।

प्रश्न 9.
प्रमसिष्ति मेरु द्रच या सेरीजोस्पाइनल फ्लूड (CSF) के कार्यों को लिखिए।
उत्तर:
यस्तिथ्कावरण (Cranial meninges) की मुदुतानिका में स्थित अम एवं पश्च रक्तक जालिकाओं (choroid plexuses) से लसिका के समान द्रव हावित होकर बाहर निकलता रहता है यह द्रव प्रमस्तिष्क मेहु द्रव या सेरीज्याप्पनल फ्लूड (cerebro-spinal fluid, CFS) कहलाता है। एक स्वस्थ वयस्क मनुष्य के मस्तिष्क में इसकी मात्रा लगभग 150ml पायी जाती है। प्रमस्तिष्क मेरु द्रव में प्रोटीन, ग्लूकोज, युरिया तथा क्सोराइड के अलावा पोटैशियम, सोडियम, केल्सियम के बाइकार्बोनेट, सल्फेट, क्रिएटिनिन तथा यूरिक अम्ल भी सूक्ष मात्रा में पाये जाते हैं। यह आगे से पीछे की ओर बढ़कर अधोजालतानिका (sub-arachnoid space) में होता हुआ अन्त में दृक्तानिका (duramater) के रक्त पात्रों के माध्यम से वापस रक्त में जाता रहता है।

प्रमस्तिष्क मेरुद्रव निम्नलिखित कार्य करता है –

  • यह मस्तिष्क (brain) तथा मेरुरज्जु की बाहरी आधातों से सुरक्षा करता है।
  • यह तन्त्रिकीय कोशिकाओं से पोषक पदार्थो, वर्ज्य पदार्थों, श्वसन गैसों तथा अन्य पदारों के लिए एक माध्यम का कार्य करता है।
  • यह कपाल के अन्दर एक स्थिर दाब बनाये रखता है तथा तन्त्रिका कोशिकाओं की सुचारु कार्यिकी के लिए एक स्थायी दशा का निर्माण करता है।
  • यह मस्तिष्क तथा मेरुर्जु (spinal cord) को नम रखता है।
  • यह हानिकारक रोगाणुओं से मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु की सुरक्षा तथा मस्तिष्क की बीमारियीं के निदान (diagnosis) में सढायता करता है।

प्रश्न 10.
हाइपोबैलेमस पर टिपणी लिखिए।
उत्तर:
यह डाइऐनसेफेलॉन की पार्श्व दीवारों का निचला भाग तथा तृतीय निलय का फर्श बनाता है। इसे मस्तिष्क के अधर तल से ही देखा जा सकता है। इसमें तन्त्रिका कोशिकाओं के बड़े-बड़े के न्द्रक होते हैं। छाइपोधैलेमस (hypothalamus) को अग चार भागों में बाँटा जा सकता है –

  • चुन्रकाथ काय या मैमिलरी बॉड़ी भाग (Mamillary Body)-यह मध्यमस्तिष्क के निकट पिछला भाग है, जिसमें दो छोटे गोल उभार होते हैं।
  • केन्द्रीय भाग (Tuberal Region) – यह हाइपोथैलेमस का सबसे चौड़ा मध्य का भाग होता है। यह भाग पीयूष प्रन्थि को हाइपोथैलमस को जोड़ता है।
  • अधिद्दुक् भाग (Supraoptic Region) – यह द्क् काऐज्मा (optic chiasma) के ठीक ऊपर स्थित होता है जहाँ तन्त्रिका कोशिकाओं के अक्ष तन्तु पश्च पीयूष मन्थि में जाते हैं।
  • पूर्क्दृक्क थाग (Preoptic Region)-यह अधिद्क् भाग (supraoptic region) के आगे स्थित होता है।

हाइपोधैलेमस के कार्य (functions of hypothalamus):

  1. यह तन्तिका तन्त्र एवं अन्त्रावी तन्त्र (endocrine system) में सम्बन्ध स्थापित रखता है।
  2. इसमें स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र के उच्च्व केन्द्र होते हैं जो भूख, प्यास, नींद, तृप्ति, क्रोध, प्रसन्नता, सन्तुष्टि आदि पर नियन्त्रण रखते हैं।
  3. यह ताप तथा समस्थापन (homeostasis) का नियन्त्रण रखता है।
  4. यह पीयूष प्रन्थि (pituitary gland) के स्राव पर नियन्त्रण रखता है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

प्रश्न 11.
एकन्रीय दृट तथा हिन्रीय कृष्टि से आप क्या समझाते हैं?
उत्तर:
एक्तनीय द्रि (Monocular Vision)-अधिकाश जन्तुओं; जैसे-मेंढक, खरगोश आदि में नेत्र सिर के पार्व भागों में स्थित होते हैं, इससे जन्तु को दोनों ओर का विस्तृत क्षेत्र दिखाई देता है। दोनों ही नेत्रों में अपनी-अपनी ओर के भिन्न-भिन्न प्रतिबिम्ब बनते हैं। दोनों नेत्रों को एक साथ किसी वस्तु पर केन्द्रित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार की दृधि को एकनेत्रीय दृधि (monocular vision) कहते हैं। एकनेत्रीय दृष्टि वाले जीवों को किसी वस्तु की गहराई का ज्ञान नहीं हो पाता है।

fिलेख्राय नृष्टि (Binocular Vision)-अधिक विकसित प्राणियों; जैस-बन्दर, मानव तथा अधिकतर मांसाहारी प्राणियों में दोनों नेत्र सामने की ओर पास-पास स्थित होते हैं। इससे जन्तु को केवल सामने का क्षेत्र दिखाई देता हैं तथा दोनों नेत्रों को एक साथ किसी वस्तु पर केन्द्रित किया जा सकता है। ऐसी दृष्टि को द्विनेत्रीय दृष्टि (binocular vision) कहते हैं। विकसित क्विनेत्रीय द्षि से प्राणी को गहराई का श्ञान हो जाता है। इस प्रकार की दृष्टि को स्टीरियास्थोषिक सृष्टि (stereoscopic vision) भी कहते हैं।

प्रश्न 12.
क्या कारण है कि तीज्र प्रकाश से यकायक अधरे स्बान में जाने पर कुतु बी दिखाइ नकी देवा है ?
उत्तर:
नेन्न गोलक के सबसे भीतर स्तर दुष्ट ष्टल (retina) में उपस्थित दिधि शलाकाओं में बाहरी सिरों पर प्रकाश संवेदी रसायन (वर्णक) रोओ ब्सिन छोता है। रोडोप्तिन में दो यौगिक होते हैं –
(i) ऑप्तिन तथा
(ii) रेटिनी।

जब तेज प्रकाश की किरणें दृष्टि पटल पर पड़ती हैं तो रोडोप्सिन ओप्सिन तथा रेटिनीन में विघटित हो जाता है। अँधेरे स्थान या कम प्रकाश में ऑप्सिन तथा रेटिनीन से रोडोप्सिन का पुनः संश्लेषण हो जाता है और यह शलाकाओं में संगुह्कीत हो जाता है। अतः जब तेज प्रकाश से अचानक (यकायक) अँधेरे में जाते हैं तो कुछ देर के लिए कुछ भी दिखाई नहीं देता है। यही वह समय है जिसमें ओप्तन तथा रेटिनीन में रोडोप्सिन का संश्लेषण होता है। जैसे-जैसे रोडोष्सिन का संश्लेषण होता जाता है, धीरे-धीरे दिखाई भी देने लगता है।

प्रश्न 13.
सूत्र संदुत्मन् या युम्मानुबन्यन संचार तन्त में ऐसीदाइल कोलीनेस्टर्य के अथाव में क्या होगा ?
उत्तर:
ऐसीटाइल कोलीनेस्टेज नामक एन्जाइम का निर्माण दो तन्त्रिका कोशिकाओं के मध्य सूत्र युग्मन या युग्मानुबन्धन (synapse) के ऊतक में होता है। तन्त्रिका आवेग एक तन्त्रिका कोशिका के एक्सॉन में होकर जब युग्मानुबन्थन में पहाँचता है तो सिनेप्टिक घुण्डियों में ऐसीटायलकोलीन नामक पदार्थ थर जाता है। यह पदार्थ प्रेरणा को युग्मानुबन्धन के पार ले जाता है। ठीक इसी समय ऐसीटाइल कोलीनेस्टरजज एन्जाइम उतक में बनता है और यह पेसीटायकोलीन को कोलीन तथा ऐसीटेट में विघटित कर देता है। इससे पुनः नई प्रेरणा इस युग्मानुबन्धन से एक ही दिशा में संचारित होती है। अतः ऐसीटाइल कोलीनेस्टरज के अभाव में प्रेरणा एक तन्त्रिका कोशिका (न्यूरॉन) से दूसरी तन्त्रिका कोशिका में नहीं पहुँच पाएगी।

प्रश्न 14.
न्दूरीलेमा के बाहर सोडियम आयन (Na+) समाप्त कर दिए जाएँ तो तन्रिका आवेग के संचारण पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
वन्त्रिका कोशिका की न्यूरीलेमा के बाहर ऊतक द्रव्य में सोडियम आयन (Na+) पर्याप्त मात्रा में संचित होते हैं, जबकि तन्त्रिका के ऐक्सोप्लाउन में पोटैशियम आयन (K+)संचित रहते हैं। जब कोई उद्दीपन तन्त्रिका पर पहुँचता है तो सोडियम आयन (Na+)न्यूरीलेमा से होते हुए ऐक्सोप्लाज्म में प्रवेश करते हैं और बदले में पोटेशियम आयन (K+)ऐक्सोप्लाज्म से निकलकर ऊतक द्रव्य में जाने लगते हैं। इसी से तन्त्रिका आवेग का संचारण होता है। अतः न्यूरीलेमा के बाहर सोडियम आयन (Na+) समाप्त कर दिए जाने पर तन्त्रिका से तन्त्रिका आवेग प्रसारित (संचारित) नहीं होगा और तन्त्रिका कार्य नहीं करेगी।

प्रश्न 15.
यदि उपतारा (आइरिस) की वर्मुल पेशियाँ गतितीन हो जाएँ तो जनु पर इसका क्या प्रथाव पड़ेगा ?
उत्तर:
नेत्र में उपतारा (आइरिस) की वर्तुल पेशियाँ (circular muscles) प्रकाश की मात्रा के अनुसार अर्थात् प्रकाश की मात्रा की आवश्यकतानुसार तारा या पुतली (pupil) के व्यास को कम (छ)टा) या अधिक (बड़ा) करती रहती है। यदि उपतारा (iris) की वर्तुल पेशियाँ गतिहीन हो जाएँ तो वारा (पुतली) का व्यास सदैव समान बना रहेगा।

इसके फलस्वरूप धीमे या मन्द प्रकाश में नेत्र के अन्दर आवश्यकता से कम प्रकाश जाएगा और पीतबिन्दु पर वस्तु का धुँधला प्रतिबिम्ब बनेगा। इसके विपरीत, तेज प्रकाश में नेत्र के अन्दर आवश्यकता से अधिक प्रकाश पहुँचेगा, जिससे पीतबिन्दु पर वस्तु का बहुत चमकीला प्रतिबिम्ब बनेगा और जन्तु को अधिक चकाचाध लगेगा और वह दोनों ही स्थितियों में वस्तु को भली-भाँति नहीं देख पाएगा।

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प्रश्न 16.
क्या कारण है कि बाुुत तेज ध्वानि या घमाका सुतने पर मुख एकाएक संत्रा ही सुल जता है ?
उत्तर:
जब कमी कहीं बहुत तेज ध्वनि होती है या धमाका होता है तब उसकी ध्वनि तरंगें कर्णकुहर से होती हुई अन्तकर्ण में स्थित कलागहन (membranous labyrinth) के कौफित्या (cochlea) तथा षर्जी के अंग (organ of corti) पर पहुँचती हैं। यहाँ पर श्रवण संवेदना (उद्दीपन) की प्रेरणा स्थापित हो जाती है।

कॉकित्रिर तनिका से यह प्रेरणा क्रिण तन्रिका (auditory nerve) में पहुँचती है तथा श्रवण तन्त्रिका इन्हें मरित्का तक पहुँचा देती हैं। मस्तिष्क से मुख के जबड़ों को अनुकूल प्रतिक्रिया (या प्रेरणा अथवा आदेश) भेज दी जाती है। कण्ठकर्ण नलिका (eustachian canal) द्वारा कर्णष्ट (tympanum) के बाहर (बाहा कर्ण गुहा) तथा भीतर (प्रसनी की गुहा) में वायु के दबाव को सन्तुलित बनाए रखने के लिए प्रतिवर्ती क्रिया के रूप में मुख एकाएक खुल जाता है।

प्रश्न 17.
श्रवणेन्द्रियों में ऑटोकोनिया का क्या कार्य है ? यदि एण्डोलिम्क में इनका अभाव हो जए तो जनु पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
अन्तक्रण में स्थित कलागहन की खोखली गुहा व इसकी अर्द्धवृत्ताकार नलिकाओं में लसदार व दृधिया रंग का अन्तर्लसिका या एण्डोलिम्फ (endolymph) नामकं द्रव भरा होता है। इस द्रव्य में कैल्सियम काबोंनेट CaCO3 के कण उतराते रहते हैं, जिन्हें औटोकोनिया (autoconia) कहते हैं। ऑटोकोनिया के कारण श्रवणकूट के संवेदी रोमों में संवेदना उत्पन्न होती है, जिससे जन्तु को अपने शरीर का सन्तुलन ठीक (सही) बनाए रखने में सहायता मिलती है।

जन्तु का शरीर असन्तुलित होते समय ऑटोकोनिया अर्द्धवृत्ताकार नलिकाओं में विपरीत दिशा में एकत्रित होकर श्रवणकुटी के संवेदी रोमों को उत्तेजित करते हैं। यह संवेदना श्रकण तन्रिका द्वारा मस्तिष्क को पहुँचती है, जिससे जन्तु शीष्र ही अपने शरीर का सन्तुलन ठीक कर लेता है। यदि एण्डोलिम्फ में ऑटोकोनिया का अभाव हो जाए तो श्रवणकूटों के संवेदी रोमों में संवेदना उत्पन्न नहीं होगी और जन्तु के शरीर का सन्तुलन ठीक (सही) नहीं रह पाएगा।

प्रश्न 18.
निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट कीजिए –
(अ) सरल प्रतिवर्ती क्रियाओं एवं प्रतिखन्यित प्रतिकर्ती क्रियाओं में।
(ब) एड्रुनेर्जिक एवं कोलीनेर्जिक तन्तिका तन्रु में।
(स) अनुकम्पी एवं परानुकम्पी तत्रिका तन्त्र के कार्यों में।
उत्तर:
(अ) सरल प्रतिवती एवं प्रतिबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाओं में अन्तर-

सरल प्रतिवर्ती कियाएँ (Simple Reflex Actions)प्रतिक्जित्यित प्रतिकर्बी ज्रियाएँ (Controled Reflex Actions)
1. ये क्रियाएँ वंशानुगत या आनुवंशिक होती हैं।ये क्रियाएँ वंशानुगत नहीं होती हैं। इनको प्राणी अपने जीवन काल में अर्जित करता है।
2. ये जन्मजात होती हैं।ये पूर्व अनुभव प्रशिक्षण एवं सीखने आदि पर निर्भर होती हैं।
3. ये प्राकृतिक मल प्रवृत्ति के अन्तर्गत आती हैं।ये प्राणी को सिखाई जाती हैं।
4. इन्हें जन्तु बिना किसी पूर्व अनुभव के करते है। उबाइखण्रचनन, प्रणय निवेदन, घौसला बनाना, पधियों का हेशान्तरण आदि।इन्हें जन्तु पूर्व अनुभव के आधार पर करते हैं। उदाधरणन्नाचंना, गाना, बजाना, साइकिल चलाना, जल में तैरना आदि।

(ब) एदिनेतिक एवं कोलीनेजिक त्रिक्रिका तन्तुओं में अन्तर-

एंग्रीजिक्ष तम्रिका तन्दु (Arenergic Nerve Fibres)छोलीनिजिक तन्तिका तनु (Cholinergic Nerve Fibres)
इन तन्त्रिका तन्तुओं के सिरे पर नॉरएड्रीनेलिन (noradrenaline) का सावण होता है।इन तन्त्रिका तन्तुओं के सिरों पर ऐसीटिं (acetylcholine) का सावण होता है।
अनुकंपी तन्त्रिका तंत्र के पश्चगुच्छीय तन्तु एूीनिर्जिक तन्तु होते हैं।केन्द्रीय तन्न्रिका तंत्र, परानुकंपी तन्त्रिका तंत्र एवं अनुर्कपी तन्त्रिका तंतु के पूर्वगुच्छीय तंतु कोलीनेर्रिक तंतु होते हैं।
ये तंतु सामान्यतः अंगों को आकस्मिकता से निपटने के लिए उद्वीपित करते हैं।ये तंतु प्राय: अंगों की क्रियाएँ वर्धी या सामान्य स्तर पर रखते हैं।

(स) अनकम्यी एवं परानकम्पी तन्तिका तंत्र के कार्यो में अन्तर-

आन्तरागों के नाम (Name of Internal organs)अनुफम्पी तन्त्र के कार्य (Sympathetic System)परानुकम्मी तन्र के कार्य (Parasympa-thetic System)
1. समस्त शरीरक्रोध, भय तथा पीड़ा का अनुभव कराना।शारीरिक आराम व सुख की स्थितियाँ उत्पन करना।
2. नेत्रों की पुतलियाँपुतलियों को फैलाता है।पुतलियों को संकुचित करता है।
3. अश्रु म्रन्थियाँअश्रुस्राव में वृद्धि करता है।अश्रुस्ताव को कम करता है।
4. लार ग्रन्थियाँलार के स्राव को कम करता है।लार के स्राव में वृद्धि करता है।
5. स्वेद प्रन्थियाँपसीने के स्राव को बढ़ाता है।पसीने के स्राव को कम करता है।
6. फेफड़े, वायुनाल तथा श्वसनीअधिकाधिक एवं सुगम श्वसन हेतु इन अंगों को प्रसारित करता है।साधारण श्वसन क्रिया में इन अंगों को संकुचित करता है।
7. हृदयइसकी स्पंदन दर को बढ़ाता है।इसकी स्पंदन दर को कम करता है।
8. रुधिर वाहिनियाँधमनियों की गुहा को संकुचित करता है जिससे रुधिर दाब बढ़ जाता है।धमनियों की गुहा को फैलाकर रुधिर दाब को कम करता है।
9. आहारनालपेशियों का शिधिलन करके क्रमाकुंचन गतियों को कम करता है।क्रमाकुंचन गति की दर को बढ़ाता है।
10. यकृत अग्न्याशयइनके साव को कम करता है तथा रक्त में ग्लूकोज की मात्रा में वृद्धि करता है।इन्सुलिन के स्नाव को उत्तेजित करके रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियन्त्रित करता है।
11. अधिवृक्क मन्थिइसके हॉमोंन्स स्राव को उत्तेजित करता है।इसके हॉर्मोन्स स्राव को कम करता है।
12. मूत्राशयइसकी पेशियों को शिथिल करता है।इसकी पेशियों का संकुचित करता है।
13. गुदा संकोचक पेशीइन पेशियों को सिकोड़कर (मलद्वार) को गुदा करता है।इन पेशियों को शिधिल करके गुदा को खोलता है।
14. रोमों की पेशियाँइन्हें सिकोड़कर रोमों (बालों) को खड़ा करता है।इन्हें शिथिल करके रोमों को गिराता है।
15. बाह्य जननांगइन्हें उत्तेजित होने से रोकता है।इन्हें उत्तेजित करता है।
16. ऊर्जाऊर्जा व्यय एवं वातावरण की प्रतिकूल दशाओं में शरीर की सरक्षा करता है।ऊर्जा संरक्षण में सहायता करता है।

प्रश्न 19.
निम्नलिखित पर टिप्पणियों लिखिये –
(अ) दृष्टि वैषम्य (ऐस्टिगमैटिज्म)
(ब) सबलबाय (ग्लूकोमा)
(स) मोतियाबिन्द (कैटरेक्ट)
(द) भेंगापन (स्ट्बिस्पस)
(य) जीरोप्थैस्मिया
(र) रतौंधी
(ल) वर्णांधता।
उत्तर:
(अ) दृष्टि वैषम्य या ऐस्टिगमैटिज्म (Astigmatism) – मनुष्य में दृष्टि वैषम्य दोष कॉर्निया की आकृति असामान्य हो जाने से हो जाता है। इस दोष के कारण मनुष्य को धुँधला और अधूरा दिखाई देता है। इस नेत्र दोष को दूर करने के लिए बेलनाकार लेन्स (cylindrical lens) का चश्मा लगाया जाता है।

(ब) सबलबाय या ग्लूकोमा (Glucoma) – नेत्र गोलक की दीवार सामान्य तेजोजल (ऐक्वस ह्यूमर) तथा काचाभ जल (विट्रिअस ह्युमर) के दबाव से सधी रहती है। यदि श्लेष्म की नाल में अवरोध आ जाये तो नेत्र कक्ष में दबाव बढ़ जाता है, जिससे रेटिना क्षतिप्रस्त हो जाती है। इसे सबलबाय या म्लूकोमा रोग कहते हैं। इससे रोगी को दिखाई देना बंद हो जाता है।

(स) मोतियाबिन्द या कैटरेक्ट (Cataract) – यह रोग वृद्धावस्था में, लेन्स का लचीलापन कम हो जाने तथा लेन्स की दोनों सतहों के कम उत्तल हो जाने से हो जाता है। इस स्थिति में लेन्स घना-भूरा तथा अपारदर्शी (opaque) हो जाता है, तब इस अवस्था को मोतियाबिन्द कहते हैं। इस नेत्र-दोष को दूर करने के लिए शल्य क्रिया (ऑपरेशन) करके दोषपूर्ण लेन्स को निकाल दिया जाता है और उपयुक्त लेन्स का चश्मा दिया जाता है।

(द) भेंगापन या स्ट्बेब्सम (Strabismus) – यह नेत्र रोग नेत्र गोलक की पेशियों के बड़ी या छोटी हो जाने के कारण नेत्र गोलक के एक ओर झुक जाने से हो जाता है।

(घ) जीरॉफ्यैस्मिया (Xerophthalmia) – यह नेत्र दोष कजक्टाइवा पर्त में किरेटिन (keratin) संचित हो जाने से घनी हो जाने के कारण हो जाता है। यह नेत्र रोग भोजन में विटामिन A की कमी से होता है।

(र) रतौधी (Nightblindness) – यह नेत्र रोग भोजन में विटामिन A (Retinol) की कमी से हो जाता है। विटामिन $\mathrm{A}$ की कमी से रोडोप्सिन (Rhodopsin) का पर्याप्त मात्रा में संश्लेषण नहीं हो पाता है। इससे व्यक्ति को मन्द प्रकाश में साफ दिखाई नहीं देता है।

(ल) वर्णान्यता (Colourblindness) – यह एक आनुवंशिक नेत्र रोग है, जो ‘X ‘ लिंग गुणसूत्र से संलग्न जीन के द्वारा सन्तान में स्थानान्तरित हो जाने से होता है। इस दोष के कारण व्यक्ति हरे व लाल रंगों में पहचान नहीं कर पाता है।

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(D) निबन्धात्मक प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
प्रमस्तिक्क की संरचना एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
(I) प्रमस्तिक्क या सेरीब्रम (Cerebrum) यह सर्वाधिक विकसित एवं पूरे मस्तिष्क का लगभग $80 \%$ भाग होता है। यह दाहिने एवं बार्यें प्रमस्तिष्क गोलाह्धो (Cerebral hemispheres) का बना होता है। दोनों गोलार्द्ध तन्त्रिका तन्तुओं की एक पड्टी द्वारा एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं, जिसे कॉर्पस कैलोसम (corpus callosum) कहते हैं।

प्रत्येक प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध तीन गहरी दरारों द्वारा चार पालियों में बँटा रहता है –
(a) अंग्रलाट या प्रप्टल पालि (Frontal Lobe) – यह आगे की ओर तथा सबसे बड़ी होती है। यह सिल्वियन विदर द्वारा शंख पाली से पृथक रहता है तथा यह़ बोलने की क्रिया को नियंत्रित करता है।
(b) भि्तिय या पैराइटल पाली (Parietal Lobe) – यह फ्रन्टल पालि के पीछे की ओर स्थित होती है। यह रोलेन्डो के विदर (Fissure of Rolendo) के द्वारा अप्रललाट पालि से पथक रहती है।
(c) शंख या टेम्पोरल पालि (Temporal Lobe) – यह भित्तीय पालि के नीचे तथा सामने की ओर होती है। यह पार्श्व सेरीव्रल विदर या शिल्वियन विदर (sylvian cleft) द्वारा अप्रललाट पालि से पृथक् रहती है।
(d) अनुकपाल या ऑक्सीपिटल पालि (Occipital lobe) – यह अपेक्षाकृत छोटी तथा सबसे पीछे की ओर स्थित होती है। यह कपाल के महारन्य (Foramen of Magnum) के चारों ओर मस्तिक्क में पायी जाती है। यह पैराइटो ऑक्सीपीटल विदर द्वारा भित्तीय पाली से पृथक रहती है।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय - 1

प्रमस्तिक्क की आन्तरिक संरचना (Internal Structure of Cerebrum) – प्रमस्तिष्क का बाहरी भाग प्रमस्तिष्क बल्कुट (Cerebral cortex) कहलाता है जो धूसर द्रव (grey matter) का बना होता है। इसकी भित्ति $2-4$ सेमी मोटी होती है। प्रमस्तिष्क गोलार्ध की सतह पर उभारों को गाइरी (Gyri) तथा खाँचों को सर्काई (Sulci) कहते हैं। ये वलन प्रमस्तिक्क गोलार्ध की सतह का क्षेत्रफल तीन गुना बढ़ा देते हैं।

घ्राण मस्तिष्क को बेरने वाली भित्ति को आध्य प्रावार (आर्कपिलियम) तथा शेष भाग को घेरने वाली भित्ति को नव प्रवार (मियोपेलियम) कहते हैं। बल्कुट में प्रेरक क्षेत्र व संवेदी भाग के बड़े भाग होते हैं, जो न तो स्पष्ट रुप से प्रेरक होते हैं न ही संवेदी। ये सहभागी क्षेत्र कहलाते हैं। प्रमस्तिष्क के भीतरी भाग को प्रमस्तिष्क मैड्यूला कहते हैं। प्रमस्तिक्क गोलार्धों में पायी जाने वाली गुहा को पार्श्व निलय (Lateral Ventricle) या पेरासील (Paracoel) कहते हैं।

प्रमस्तिष्क के कार्य (Function of Cerebrum):
(1) संवेदन कार्य (Sensory functions) – ये मस्तिष्क के संवेदी क्षेत्र द्वारा नियन्त्रित होते हैं जो कि केन्द्रीय विदर के पीछे की ओर स्थित होता है। ये शरीर के विभिन्न भागों से ताप, स्पर्श, चुभन, दाब, दर्द आदि की संवेदनाओं को ग्रहण करता है।

प्रमस्तिक्क के पिण्डों के अनुसार –

  • फ्रन्टल पिण्ड क्रियात्मक विचारों (creative idea) को नियन्त्रित करता है।
  • टैम्पोरल पिण्ड श्रवण संवेदनाओं को प्राप्त करता है।
  • ऑक्सीपीटल पिण्ड दृष्टि संवेदनाओं को प्राप्त करता है।
  • पैराइटल पिण्ड बोध अनुभव (feeling) जैसे-स्पर्श, गर्म, ठण्डा, दर्द, चुभन आदि की संवेदनाएँ म्रहण करता है।

(2) प्रेरक कार्य (Motor functions)-इनका नियंत्रण प्रमस्तिष्क में उपस्थित प्रेरक केन्द्र द्वारा होता है जो फ्रन्टल पालि के अम्र भाग में केन्द्रीय विदर के समीप स्थित होता है। इसी भाग में पायी जाने वाली पिरेमिड कोशिकाएँ शरीर की सभी ऐच्छिक पेशियों की क्रियाओं को नियन्त्रित करती हैं। इसके अविरिक्त यह मस्तिष्क का सबसे महत्वपूर्ण भाग है जो समस्त उच्चतम क्रियाओं को नियन्त्रित करता है जैसे खुद्धिमत्ता (Intelligence), याददाश्त (Memory), अनुभव (Experience), चेतना (Consciousness), वाणी (Speech), तर्कशक्ति (Reasoning), योजना (planning), संवेदना जैसे रोना, हैसना आदि। प्रमस्तिक्क में संवेदनाओं, प्रेरणाओं व समन्वय (coordination) के लिये भी विशिष्ट क्षेत्र पाये जाते हैं।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

2. घ्राण मस्तिष्क या राइन्स्सिलेलॉन (Rhinenlcephalon)-ये छोटे पिण्ड हैं जो फ्रंटल लोब के अग्र भाग में धँसे होते हैं। इनमें दो स्पष्ट भाग होते हैं।
(i) घ्राण पिण्ड तथा
(ii) घ्राणमार्ग या घ्राण क्षेत्र।
यह भाग गंध (घ्राण) से संबंधित क्रियाओं को नियंत्रित करता है।

3. अप्रमस्तिक पश्च या डाइऐनसेफेलॉन (Diencephalon)-यह मस्तिष्क का पिछला भाग है जो प्रमस्तिष्क (Cerebrum) तथा मध्य मस्तिष्क (Midbrain) के बीच स्थित होता है। इसमें पायी जाने वाली गुहा डायोसील (Diocoel) या तृतीय निलय कहलाती है।

इसके तीन भाग होते हैं –
(a) अधिवेतक या एपीधैलेमस (Epithalamus) – यह तृतीय गुहा की छत बनाता है। इसमें एक रक्तक जालक (choroid plexus) होता है। इसके मध्य रेखा में एक छोटे से वृन्त पर पीनियल श्रन्बि (pineal gland) होती है।
(b) चेतक या थैलेमस (Thalamus) – यह डाइऐनसेफेलॉन की पार्श्व दीवारों का ऊपरी भाग बनाता है। यह अण्डाकार एवं दो मोटे पिप्डकों के रूप में होता है।

थैलेमस के निम्न कार्य है –

  • यह दृष्टि, स्पर्श, ताप, दबाव, पीड़ा, श्रवण, स्वाद आदि की संवेदनाओं का प्रसारण केन्द्र है।।
  • यह उपरोक्त संवेदनाओं की व्याख्या करता है।
  • इसके कुछ केन्द्र प्रेम, घृणा भावुकता, बोध, ज्ञान व स्मृति से संबंधित कार्य को नियंत्रित करते हैं।

(c) अधश्चेतक या हाइपोथैलेमस (Hypothalamus) – यह डाइऐनसेफेलॉन की पार्श्व दीवारों का निचला भाग तथा डायोसील का फर्श बनाता है। इसमें तन्त्रिका कोशिकाओं के लगभग एक दर्जन बड़े-बड़े केन्द्रक होते हैं। इसमें एक दृक किआज्या (optic chaisma) होता है।

यह चार भागों में बना होता है –

  • मेमिलरी काय (Mammilary body) – ये पीनियल काय के पीछे एवं पिटट्यूटरी म्रन्थि के समीप पायी जाने वाली दो गोल संरचनाएँ हैं। ये घ्राण संवेदनाओं की प्रतिवर्ती क्रियाओं के लिए प्रसारण केन्द्र का काम करती हैं।
  • केन्द्रीय भाग (Tuberal region) – वह हाइ़ोथैलमस का सबसे चौड़ा भाग है। यहाँ ग्रे मैटर का बना ट्यूबर साइनेरियम तथा कीचक (infundibulum) नामक वृन्त पाया जाता है जिससे पिट्टयूटरी प्रन्थि का हाइपोफाइसिस भाग हाइपोथैलेमस से जुड़ा होता है।
  • अधि दुक् भाग (Supraoptic region) – यह दृक किआज्मा (optic chiasma) के ऊपरी भाग में स्थित होता है। यहाँ पाए जाने वाले न्यूरॉन के एक्सॉन पिट्टयूटरी ग्रन्थि तक जाते हैं।
  • पूर्व दृक् भाग (Preoptic region) – यह अधि दृक् भाग के आगे की ओर स्थित होता है।

हाइपोथेलेमस के कार्य (Function of Hypothalamus) –

  1. यह पीयूष म्रन्थि से जुड़ा होने के कारण तन्त्रिका तन्न्र को अन्तझावी तन्त से जोड़ने का कार्य करता है।
  2. इसकी तन्त्रिका स्नावी कोशिकाएँ मोचन (Releasing) व निरोधी (Inhibitory) न्यूरोहॉॅॉोंन का स्रावण करती है, जो पीयूष मन्थि की स्रावण क्रिया को नियन्त्रित करते हैं।
  3. इसकी तन्त्रिका स्रावी कोशिकाएँ वेसोप्रेसिन ADH व ऑक्सीटोसीन नामक हारोन का निर्माण करती हैं जो पीयूष मन्थि से रक्त से संचरित होते हैं।
  4. इसमें स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र के केन्द्र पाये जाते हैं जो भूख, प्यास, प्रेम, घृणा, नींद, सन्तुष्टि, भावनाओं, वृत्ति, क्रोध, सम्भोग, प्रसन्नता आदि को नियन्त्रित करते हैं।
  5. यह शरीर के ताप को नियन्त्रित करता है।
  6. यह शरीर में समस्थापन (Homeostatis) की स्थिति को बनाये रखता है।
    नोट-पीयूष मन्थि पर नियन्त्रण के कारण हाइपोथैलेमस को अन्तख्रावी नियमन का सवोंच्च कमाण्डर या प्रधान म्रन्थि का भी नियंन्नक (Master of Master gland) कहते हैं।

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प्रश्न 2.
तंत्रिका कोशिका अथवा न्यूरॉन का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
तंत्रिका तंत्र की इकाई-न्यूरॉन की संरचना (Unit of Nervous System-Structure of Neuron):
तन्त्रिका कोशिका अथवा न्यूरॉन (nerve cell or neuron) तन्त्रिका तन्न (nervous system) की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक (structural and functional) इकाई होती है। ये श्रूणीय बाहात्वचा (ectoderms) से व्युत्पन्न होती हैं। ये वातावरणीय परिवर्तनों को उद्दीपनों के रूप में ग्रहण करके, उन्हें विद्युतनरासायनिक आवेगों (electro-chemical impulses) के रूप में प्रसारित करती हैं।

तन्त्रिका कोशिका या न्यूरॉन के निम्नलिखित तीन भाग होते हैं –
(1) कोशिकाकाय या साइ्टोन (Cyton or Cell Body) – यढ़ तन्त्रिका कोशिका का गोल या अण्डाकार भाग है। इसमें एक केन्द्रक (nucleus) तथा अनिश्चित आकार के असंख्य निस्सल कण (Nissl’s granules) पाये जाते हैं। तन्त्रिका कोशिका या न्यूर्रोन (neuron) के कोशिकाद्रव्य को न्यूरोप्लाउन (neuroplasm) तथा इसमें पाये जाने वाले महीन तन्तुओं को न्यूरोफाइक्रिल्स (neurofibrils) कहते हैं।

(2) वृक्षिका या डेष्डॉस्स (Dendrons) – तन्त्रिका कोशिका के कोशिकाकाय (cyton) से अनेक सुक्ष्म बहुशाखी प्रवर्ष निकले रहते हैं, इन्हें डेण्ड्रान्स (dendrons) कहते हैं। प्रत्येक ड्डेण्ड्रॉन से भी अनेक छोटे-छोटे पदार्थ निकले रहते हैं जिन्हें वृक्षिकान्त या डेष्ड्राइट्स (dendrites) कहते हैं। इनके द्वारा तन्त्रिका कोशिका अन्य तन्त्रिका कोशिका से जुड़ी रहती है।

(3) तन्तिकाई या ऐक्सोंन (Axon) – साइटोन (cyton) से निकले कई प्रवर्धों में से एक प्रवर्ध अपेक्षाकृत लम्बा, मोटा तथा बेलनाकार होता है। यह प्रवर्ध ऐक्सॉन (axon) कहलाता है। इसकी मोटाई 1-20 तक होती है। ऐक्सॉन के अन्तिम छोर पर घुण्डी के समान रचनाएँ दिखायी देती हैं जिन्हें साइनेष्टिक घुण्डियाँ या बटन्स (synaptic buttons) कहते हैं। ये साइनेप्टिक बटन्स दूसरी तन्त्रिका कोशिका के डेण्ञान (Dendrons) से कार्यकारी सम्बन्ध बनाते हैं जिन्हें सिनैप्स (synapse) कहते हैं। एक्सॉन में उपस्थित कोशिकाद्रव्य एक्सोप्लाज्म कहलाता है।

ऐक्सॉन का बाहरी आवरण न्यूरीलेमा (neurilemma) कहलाता है। परिधीय तन्न्रिका तन्त्र की कोशिकाओं पर श्वान कोशिकाओं (Schwann cells) का बना आवरण होता है। न्यूरीलेमा के अन्दर वसा की एक परत होती है जिसे मेड्यूलरी शीथ (medullary sheath) कहते हैं। यह स्थान-स्थान पर अन्दर की ओर धँसी रहती हैं। इन स्थानों को रेनवीयर की पर्वसन्यि (node of ranvier) कहते हैं। दो पर्वसन्धियों के बीच का स्थान पर्व (internode) कहलाता है। माइलिन आच्छद (myelin sheath) से युक्त तन्तु माइलीनेटेड तन्तु (myelinated fibres) तथा माइलिन आच्छद से रहित तन्तिका तन्तु नॉन-माइलीनेटेड तन्तु (non-myelinated fibres) कहलाते हैं।

डेन्ड्राइट्स तथा एक्सॉन की संरचना में तो अन्तर होता ही है किन्तु इनके कार्य अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। डेन्डाइट आवेगों को संवेदी कोशिकाओं तथा अन्य न्यूरॉंस्स से पहाण करके साइटॉन में लाते हैं। साइटॉन भी अन्य न्यूरॉॅ्स से आवेगों को सीधे ही महण कर सकते हैं। इसके विपरीत ऐक्सॉन आवेगों को साइटान से अन्य न्यूरॉन या कार्यकर कोशिकाओं, उत्तकों (पेशियों, मान्थियों) आदि को ले जाने का काम करते हैं। इसीलिए डेन्ड्राइट को अभिवाही (afferent) तथा एक्सॉन को अपवाही (efferent) प्रवर्ध भी कहते हैं। इसमें स्पष्ट है कि डेंड्राट्स तथा साइटॉन आवेगों को उत्पन्न करते हैं, जबकि एक्सॉन आवेगों के संचारण के लिए विशिष्टीकृत होते हैं। डेन्द्राइट केन्द्रीय तंत्रिका तंग्र एवं स्वायत्त तंत्रिका तंत्र में होते है, जबकि एक्सान पूरे तंत्रिका तंत्र में फैले रहते हैं।
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प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex Action):
वातावरण में होने वाले परिवर्तनों से उत्पन्न उद्दीपनों के प्रति प्राणियों में प्रायः दो प्रकार की शारीरिक क्रियाएँ होती हैं –
1. ऐच्छिक क्रिया (Voluntary actions) -ये क्रियाएँ प्राणी की चेतना एवं इच्छनुसार, सुनियोजित एवं उद्देश्यपूर्ण होती हैं; जैसे -किसी वस्तु को ह्याथ में पकड़ना, शत्रु से बचकर भागना आदि। इन क्रियाओं पर प्रमस्तिक्क (cerebrum) का नियन्त्रण रहता है।

2. अनैछ्छक क्रियाएँ (Involuntary actions) – ये क्रियाएँ प्राणी की चेतना या इच्छाशक्ति के अधीन नहीं होती हैं और न ही इनका नियन्त्रण प्रमस्तिष्क द्वारा होता है। ये क्रियाएँ भी दो प्रकार की होती हैं –

(क) प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex actions) – बाह्म उद्दीपनों के फलस्वरूप शरीर में होने वाली अनैच्छिक क्रियाओं को प्रतिवरी क्रियाएँ कहते हैं। इनका नियन्नण (या नियमन) मेरुज्जु (सुषुम्ना-Spinal cord) द्वारा किया जाता है। इन क्रियाओं के संचालन में मस्तिक्क (Brain) भाग नहीं लेता है। ये क्रियाएँ यन्न्रवत् सम्पन्न हो जाती हैं; जैसे -काँटा चुभ जाने पर पर का तुरन्त हट जाना, गर्म वस्तु का स्पर्श होते ही हाथ का तुरन्त हट जाना, तीव्र प्रकाश में नेत्रों की पुतलियों का सिकुड़ जाना, पकवान की सुगन्ध के फलस्वरूप मुख में लार (पानी) का आ जाना, खाँसना, छींकना, उबासी आना आदि।

(ख) स्वायत्त क्रियाएँ (Autonomic actions) – आन्तरांगों की अनैच्छिक पेशियों एवं मन्थियों से सम्बन्धित समस्त अनैच्चिक क्रियाओं का नियन्त्रण केन्द्र प्रमस्तिक्ष में न होकर मस्तिषक के हाइपोथैलेमस (Hypothalamus) में होता है; जैसे – ठदय का स्चन्दन (धड़कना), सामान्य श्वास क्रिया, शारीरिक ताप का नियमन, आहारनाल का क्रमाकुंचन, जठर रसों का स्रावण, होमिओस्टैसिस आदि स्वायत्त अनैच्छिक क्रियाएँ हैं।

प्रतिवर्ती क्रिया की कार्य-विधि (Mechanism of Reflex Action):
मेरुज्जु (spinal cord) से निकलने वाली तन्तिकाओं को मेरु तन्त्रिकाएँ या सुषुम्नीय तत्रिकाएँ (Spinal nerves) कहते हैं। प्रत्येक मेरु तन्त्रिका का निर्माण पृष्ठ मूल (dorsal root) तथा अधर मूल (ventral root) से मिलकर होता है। पृष्ठ मूल में संवददी तन्त्रिका तनु (sensory nerve fibres) तथा अधर मूल में चालक या प्रेक तन्रिका तन्तु (motor nerve fibres) होते हैं। पृष्ठमूल में स्थित संवेदी तन्चिका तन्तु संवेदनाओं (stimulus) की लहर को संवेदी अंगों प्ष्ठ मूल गुच्छक (dorsal root ganglion) में स्थित तन्तिका कोशिका (यूरॉन) के कोशिकाकाय (साइटॉन) में प्रसारित करते हैं। यह संवेदना अब न्यूरॉन के एक्सॉन में होती हुई मेरूज्जु के धूसरद्रव्य (gray matter) में पहुँचती है।

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धूसर द्रव्य संवेदनाओं को आदेश में परिवर्तित कर युग्मानुबन्धन (सुत्र-युग्मन-Synapses) द्वारा प्रेरणा (Impulses) को मेरुरज्जु की अधरमूल में स्थित प्रेरक या चालक तन्तिका तन्तु के डेन्ट्राइट्स, साइटॉन तथा एक्सॉन में होकर प्रेरणा कार्यकारी अंग की पेशियों में पहुँचाता है। इसी प्रेरणा द्वारा उस अंग की पेशियाँ तुर्त्त क्रियाशील होकर अंग को गति प्रदान करती हैं और अंग तदनुसार प्रतिक्रिया (या अनुक्रिया) करता है। इस सम्पूर्ण क्रिया को प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex action) कहते हैं जो अत्यन्त तीव्र गति से होती है और जन्तु को इसका आभास तक नहीं होता है।

प्रतिवर्ती क्रिया में संवेदनाओं का संवेदी अंगों से संवेदी तन्त्रिका तन्तुओं द्वारा मेरूरज्जु तक आने और मेरुरज्जु से प्रेरणा के रूप में अनुक्रिया करने वाले अंगों (कार्यकारी अंगों) की मांसपेशियों तक पहुँचने में एक चापवत् तन्त्रिकीय प्रेरणा परिपथ (nerveimpulse path) स्थापित हो जाता है। इसी परिपथ को प्रतिवर्तीं चाप (reflex arch) कहते हैं।

प्रतिवर्ती चाप के घटक निम्नवत् होते हैं –
संवेदांग → संवेदी तन्त्रिका कोशिका (न्यूरॉन) का वृक्षिकान्त (डेन्ड्राइट) → संवेदी कोशिका का तन्त्रिका काय (Cell body) → संवेदी कोशिका का तन्त्रिकाक्ष (एक्सॉन) → प्रेरक (चालक) त्रत्रिका कोशिका के वृक्षिकान्त (Dendrites) → प्रेरक (चालक) तन्न्रिका कोशिका का तन्त्रिका काय → प्रेरक तन्त्रिका कोशिका का
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प्रश्न 4.
त्वचा में पाए जाने वाले संवेदांगों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर:
त्वक् संवेदना या त्वचा (Cutaneous Receptor or Skin):
वैसे तो त्वचा को स्पर्शग्राही (tactile receptor) माना जाता है, किन्तु इसकी डर्मिस में अनेक प्रकार के ग्राही अंग होते हैं और त्वचा स्पर्श, दबाव, सर्दी, गर्मी व दर्द के उद्दीपन को प्रहण करती है, सभी त्वक् ग्राही संरचना में सरल होते हैं। कुछ त्वक् ग्राही बहुकोशिकीय व कुछ एक कोशिकीय होते हैं तथा कुछ में तंत्रिका सूत्रों के अन्तिम सिरे ही आवेग प्रहण करते हैं।

त्वचा में पाँच प्रकार के ग्राही अंग पाए जाते हैं –
(1) पीड़ा ग्राही (Pain receptor) – त्वचा की एपीडर्मल कोशिकाओं के बीच में पाए जाने वाले डेन्ड्राइटल यांत्रिक, रासायनिक तापीय एवं विद्युतीय उद्दीपनों के प्रति अनुक्रिया प्रदर्शित करते हैं। ये समस्त शरीर में फैले रहते हैं।

(2) स्पर्शग्राही (Tactoreceptor) – त्वचा की एपीडर्मिस के ठीक नीचे डर्मिस में स्पर्श प्राही उपस्थित होते हैं। इनमें तान्त्रिक सूत्र के अन्तिम सिरे बहुत सी शाखाओं में विभाजित हो जाते हैं। संयोजी ऊतक इनके चारों ओर एक सम्पुट जैसी संरचना बनाता है। ये एपीडर्मिस के मैल्पीपियन स्तर में छोटे-छोटे उभार से बना लेते हैं। इनको मीसनर्स कणिकाएँ (Meissner’s corpuscles) कहते हैं। इनके अतिरिक्त त्वचा में मक्केल्स बिम्ब (Merckel’s dise) भी होते हैं।

(3) दबावग्राही (Pressure receptor)-ये त्वचा की डर्मिस में अधिक गहराई पर स्थित होते हैं। इनमें अशाखित तंत्रिका सूत्र के चारों ओर संयोजी ऊतक की कई परतें सम्पुट बनाती हैं। इन्हें पोसीनियन कणिका (Pocinian corpuscles) कहते हैं।
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(4) ऊष्माग्राही (Heat receptor) – ये त्वचा की एपीर्डर्मिस के ठीक नीचे स्थित होते हैं और बहुशाखित तंत्रिका सूत्रों के बने होते हैं। ये बल्ब के समान दिखाई देते हैं। इन्हें क्राउस के अन्त बर्ब (end bulb of Krause) कहते हैं।

(5) शीतग्राही (Cold receptor)- ये भी एपीडर्मिल के नीचे स्थित होते हैं। इनके तंत्रिका सूत्र शाखित नहीं होते हैं । ये सर्दी के उद्दीपनों के प्रति अनुक्रिया करते हैं। इन्हें रुफिनी के शीर्ष अंग (Ruffinis end organs) कहते हैं।

स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र (Autonomic Nervous System):
स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र (Autonomic nervous system) अन्तरांगों की क्रिया का नियमन एवं नियन्त्रण करता है। यह हृदय (heart), रुधिर वाहिनियों (blood vessels), आमाशय (stomach), गर्भाशय (uterus), मूत्राशय (urinary bladder), वृक्क (kidney), फेफड़ों (lungs), स्वेद प्रन्थियों (sweat glands), यकृत (liver), अग्याशय (pancreas), विशिष्ट अन्न:स्रावी प्रन्थियों (endocrine glands) तथा अन्य अंगों की सक्रियता का नियन्न्रण करत्र है। इन अंगों की क्रियाएँ हमारी इच्छा पर निर्भर नहीं करती हैं।
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संरचना व कार्यिकी के आधार पर स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र दो प्रकार का होता है –
(1) अनुकम्पी या सिम्पैथेटिक तन्त्रिका तन्त्र (Sympathetic Nervous System)- यह मेरुरज्जु (spinal cord) के वक्ष (thoracic) तथा कटि प्रदेश (lumbar region) के धूसर द्रव्य से निकलती है। अनुकम्पी गुच्छिकाओं के 22 जोड़े पाये जाते हैं।

(2) परानुकम्पी य्र पैरासिम्पथेटिक तन्त्रिका तन्त्र (Parasympathetic Nervous System)- परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र मस्तिष्क से निकलने वाली III, VII, IX एवं X कपालीय तथा मेरुरज्जु की II, III तथा IV तन्त्रिकाओं में उपस्थित तन्तुओं से बना होता है। इस तन्त्र को कपाल त्रिक् अर्थात क्रेनियो-सेक्रल बहिर्गमन (Cranio-Sacral Outflow) भीं कहते हैं। इस तन्त्र द्वारा ऐसी सभी क्रियाओं को सन्तुलन में रखा जाता है, जिससे शरीर का आन्तरिक वातावरण अखण्ड बना रहे। इस तन्त्र में अनुकम्पी (sympathetic) तथा परानुकम्पी (parasympathetic) तन्त्र एक-दूसरे के विपरीत प्रभाव दर्शाते हुए कार्य करते हैं।

जैसे –

  1. अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र नेत्रों की पुतली को फैलाता है तथा परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र पुतली को सिकोड़ता है।
  2. परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र अश्रु स्रावण को कम करता है, परन्तु अनुकम्पी तन्त्रिका अश्रु स्वावण को उत्तेजित करता है।
  3. अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र के प्रभाव से लार स्रावण में कमी आती है, जबकि परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र लार स्रावण को उत्तेजित करता है।
  4. हृदय स्पन्दन अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र के प्रभाव से बढ़ता है तथा परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र हृदय स्पन्दन की दर में कमी लाता है।
  5. अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र फेफड़ों तथा वायुनाल का फैलाव करता है, जबकि परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र इनको सिकोड़ता है।
  6. अनुकम्पी तन्त्र रुधिर वाहिनियों को सिकोड़कर रक्त दाब बढ़ाता है तथा परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र रुधिर वाहिनियों का वितरण कर रक्त दाब घटाता है।
  7. परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र आहारनाल की क्रमाकुंचन गति को बढ़ाता है, जबकि अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र पेशियों में शिथिलन करके गति की दर को कम करता है।
  8. अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र अधिवृक्क ग्रन्थि (Adrenal gland) के स्रावण को बढ़ाता है, जबकि परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र स्रावण में कमी लाता है।
  9. अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र पसीने के स्रावण को बढ़ाता है, परन्तु परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र पसीने के स्रावण को कम करता है।
  10. पेशियों के संकुचन से अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र रोमों (hair) को खड़ा करता है, परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र पेशियों में शिथिलन उत्पन्न करके बालों को गिराता है।

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तालिका : अनुकंपी तथा परानुकंपी तन्त्रिका तंत्रों में संरचनात्मक अंतर –

अनुकंपी तन्रिका तंत्र(Sympathetic nervous system)परानुकंपी तन्रिका तंत्र (Parasympathetic nervous system)
इसमें अनुकंपी तन्त्रिका तन्त्र तथा प्रिबर्टिबल गुच्छक होते हैं।इसमें अंतस्थ गुच्छक होते हैं।
गेनिलया या गुच्छक केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के समीप किन्तु विसरल कार्य कर होते हैं।गैंग्लिया विसरल कार्य करों के निकट या भीतर होते हैं।
प्रत्येक प्रिगैंग्लिओनिक हेतु अनेक पोस्ट गैंग्लिओनिक न्यूरॉन से सिनैप्स करता है तथा ये विसरल कार्यकारी हो जाते हैं।प्रत्येक प्रिर्गैंग्लिनिक तंतु एक ही विसरल कार्यकर को जाने वाले चार या पाँच पोस्ट गैंग्लिओनिक न्यूरॉन से सिनैप्स करता है।
यह समस्त शरीर एवं त्वचा पर फैला रहता है।इसका वितरण केवल सिर तथा वक्ष, उदर एवं श्रोणि प्रदेश के आंतरांगों तक सीमित होतां है।

तालिका : अनुकंपी एवं परानुकम्पी तन्त्रिका तंत्र के कार्यों में अन्तर (Difference between Functions of Sympathetic and Parasympathetic Nervous System)

आन्तरांगों के नाम (Name of Internal organs)अनुकम्पी तन्न के कार्य (Sympathetic System)परानुकम्पी तन्न्र के कार्य (Parasympa-thetic System)
1. समस्त शरीरक्रोध, भय तथा पीड़ा का अनुभव कराना।शारीरिक आराम व सुख की स्थितियाँ उत्पन्न करना। पुतलियों को संकुचित करता है।
2. नेत्रों की पुतलियाँपुतलियों को फैलाता है।अश्रुस्राव को कम करता है।
3. अश्रु ग्रन्थियाँअश्रुसाव में वृद्धि करता है।लार के स्राव में वृद्धि करता है।
4. लार प्रन्थियाँलार के स्राव को कम करता है।पसीने के स्राव को कम करता है।
5. स्वेद प्रन्थियाँपसीने के स्राव को बढ़ाता है।साधारण श्वसन क्रिया में इन अंगों को संकुचित करता है।
6. फेफड़े, वायुनाल तथा श्वसनीअधिकाधिक एवं सुगम श्वसन हेतु इन अंगों को प्रसारित करता है।इसकी स्पंदन दर को कम करता है।
7. हुदयइसकी स्पंदन दर को बढ़ाता है।धमनियों की गुहा को फैलाकर रुधिर दाब को कम करता है।
8. रुधिर वाहिनियाँधमनियों की गुहा को संकुचित करता है जिससे रुधर दाब बढ़ जाता है।क्रमाकुंचन गति की दर को बढ़ाता है।
9. आहारनालपेशियों का शिथिलन करके क्रमाकुंचन गतियों को कम करता है। इनके स्राव को कम करता है तथा रक्त में ग्लूकोज की मात्रा में वृद्धि करता है।इन्सुलिन के स्नाव को उत्तेजित करके रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियन्त्रित करता है।
10. यकृत एवं अग्याशयइसके हॉर्मोन्स स्राव को उत्तेजित करता है।इसके हॉर्मोन्स स्राव को कम करता है।
11. अधिवृक्क ग्रन्थिइसकी पेशियों को शिथिल करता है।इसकी पेशियों का संकुचित करता है।
12. मूत्राशयइन पेशियों को सिकोड़कर गुदा (मलद्वार) को बन्द करता है।इन पेशियों को शिथिल करके गुदा को खोलता है।
13. गुदा संकोचक पेशीइन्हें सिकोड़कर रोमों (बालों) को खड़ा करता है।इन्हें शिथिल करके रोमों को गिराता है।
14. रोमों की पेशियाँइन्हें उत्तेजित होने से रोकता है।इन्हें उत्तेजित करता है।
15. बाह्य जननांगऊर्जा व्यय एवं वातावरण की प्रतिकूल दशाओं में शरीर की सुरक्षा करता है।ऊर्जा संरक्षण में सहायता करता है।
16. ऊर्जाअनुकम्पी तन्न के कार्य (Sympathetic System)परानुकम्पी तन्न्र के कार्य (Parasympa-thetic System)

प्रश्न 6.
अकशेरुकी प्राणियों में तत्रिकीय समन्वय समझाइए।
उत्तर:
अकशेरुकी प्राणियों में तंत्रिका समन्वय (Nervous Coordination in Invertebrates):
1. प्रोटोजोअन्स तथा पोरीफेरा में तंत्रिका तंत्र का अभाव होता है। ये प्राणी उद्दीपनों (stimuli) के प्रति प्रतिक्रिया हेतु प्लाज्मा कला की उत्तेजनशीलता तथा उसके कोशिकीय सतह के पार संचलित होने पर आश्रित होते हैं। तंत्रिका तंत्र का उद्भव संघ सीलेन्ट्रेटा या नीडेरिया (हाइड्रा) से माना गया है। ये तंत्रिकाएँ बाह्यचर्म तथा जठरचर्म (gastodermis) के मध्य परस्पर जुड़कर एक तंत्रिका जाल का निर्माण करती हैं। ये सभी तंत्रिका कोशिकाएँ तंत्रिका आवेग का संचरण केन्द्र से सभी दिशा में करती हैं। इन कोशिकाओं के बीच-बीच युग्मानुबंधन (synapsis) भी पाया जाता है। हाइड्रा में तंत्रिका जाल तो पाया जाता है किन्तु मस्तिष्क का अभाव होता है।
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2. फीताकृमि (Flatworm)-चपटे कृमियों, जैसे-फीताकृमि, यकृतकृमि आदि में तंत्रिका कोशिकाओं के दो अम्र गुच्छिका (ganglia) होते हैं। जिनसे दो पाश्र्वीय अनुदुर्ध्य तंत्रिका रज्जु (lateral longitudinal nerve cords) निकलकर पश्च सिरे तक जाते हैं जिनमें निकली पार्श्व शाखाएँ शरीर के विभिन्न अंगों तक जाती हैं। यहीं से केन्द्रीय तथा परिधीय तंत्रिका तंत्र की शुरुआत हुई। यहीं से रेखीय प्रकार के तंत्रिका तंत्र की उत्पत्ति हुई।

3. गोलकृमि (Roundworm) – गोल कृमियों में भी तंत्रिका तंत्र का प्रारूप चपटे कृमियों के समान ही रहा परन्तु संवेदी या अभिवाही (sensory or afferent) तथा प्रेरक या अपवाही (motor or efferent) तंत्रिका कोशिकाओं के प्रारम्भिक विभेदन का प्रारम्भ प्राणियों के इसी वर्ग से हुआ।

4. केंचुआ (Earthworm) – केंचुए में विकसित प्रकार का तंत्रिका तंत्र पाया जाता है। केंचुए में तंत्रिका रज्जु होती है जो अग्र सिरे से पश्च अन्त तक फैली होती है। इसके तीसरे खण्ड में ग्रसनी भाग के चारों ओर तंत्रिका वलय (nerve ring) पायी जाती हैं जिसकी उत्पत्ति एक जोड़ी अधिग्रसनी गुच्छिका (supra-pharyngeal connective) तथा एक जोड़ी अधोप्रसनी गुच्छिकां (sub-pharyngeal ganglia) से होता है।
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तंत्रिका रज्जु शरीर के प्रत्येक खण्ड में फूलकर गुच्छक (ganglia) का निर्माण करती है। प्रत्येक खण्डीय गुच्छक से तीन जोड़ी पाशर्वीय तंत्रिकाएँ निकलती हैं। इन तंत्रिकाओं में संवेदी तथा प्रेरक दोनों प्रकार के तंत्रिका तंतु पाए जाते हैं। अर्थात् ये मिश्रित प्रकार की होती है।
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5. कोंरोच (Cockroach) – यह संघ आर्थोपोडा का सदस्य है। इसमें निम्न वर्ग के जन्तुओं से अधिक विकसित प्रकार का तंत्रिका तंत्र पाया जाता है। यह केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (central nervous system) में मस्तिक्क तथा अधरीय तंत्रिका रज्जु (ventral nerve cord) से मिलकर बना होता है। मस्तिष्क शीर्ष भाग में पाया जाता है। जिसका निर्माण एक जोड़ी अधिग्रसिका, गुच्छिका, एक जोड़ी अधोमसिका गुच्छिका तथा एक जोड़ी परिमसिका संयोजक के समेकन से होता है। अधरीय तंत्रिका रज्जु पर प्रथम तीन वक्षीय गुच्छक (thoracic ganglia) तथा शेष 6 उदरीय गुच्छक (abdominal ganglia) पाए जाते हैं। इन गुच्छकों से निकली तंत्रिकाएँ शरीर के विभिन्न भागों से जुड़ी होती हैं। वक्षीय व उदरीय गुच्छकों से निकली तंत्रिकाएँ कॉकरोच के परिधीय तंत्रिका तंत्र का निर्माण करती हैं।

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प्रश्न 7.
तंत्रिका आवेग के संचरण की विधि बताइए।
उत्तर:
तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का ध्रुवीकरण (Polarisation of the Nerve fibre Membrane):
तन्त्रिका तन्तु के ऐक्सोप्लाज्म में सोडियम आयन (Na+) की संख्या काफी कम किन्तु ऊतक तरल में लगभग बारह गुना अधिक होती है। ऐक्सोप्लाज्म में पोटेशियम आयन (K+) की संख्या ऊतक तरल की तुलना में लगभग 30 गुना अधिक होती है। विसरण अनुपात के अनुसार Na+ की ऊतक तरल से ऐक्सोप्लाज्म में एवं K+ के ऐक्सोप्लाज्म से ऊतक तरल में विसरित होने की प्रवृत्ति होती है। किन्तु तंत्रिकाच्छद (neurilemma) Na+ के लिए कम तथा K+ के लिए अधिक पारगम्य होती है।

विश्राम अवस्था में ऐक्सोप्लाज्म में – ve आयनों और ऊतक तरल में +ve आयनों का आधिक्य रहता है। तन्त्रिकाच्छद की बाहरी सतह पर +ve आयनों और भीतरी सतह पर ve आयनों का जमाव रहता है। तन्त्रिकाच्छद की बाहरी सतह पर +ve और भीतरी सतह पर 70 mV (मिली वोल्ट) का – ve आवेश रहता है। इस स्थिति में तन्त्रिकाच्छद विद्युत आवेशी या ध्रुवण अवस्था में बनी रहती है। तन्त्रिकाच्छद के इधर-उधर विद्युतावेशी अन्तर के कारण तन्त्रिकाच्छद में बहुत-सी विभव ऊर्जा संचित रहती है। यही ऊर्जा विश्राम कला विभव या सुप्त कला विभव (resting membrane potential ) कहलाती है। इसी ऊर्जा का उपयोग प्रेरणा संचारण में होता है।
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तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का विधुवीकरण (Depolarisation of the Nerve fibre Membrane):
जब तन्त्रिका तन्तु उद्दीपित होता है तो तन्त्रिकाच्छद (न्यूरीलेमा) की पारगम्यता परिवर्तित हो जाती है। यह सोडियम आयन (Na+ ) के लिए अधिक पारगम्य एवं पोटैशियम आयन (K+) के लिए अपारगम्य हो जाती है। इसलिए तन्त्रिका तन्तु विश्राम कला विभव (resting membrane potential) की ऊर्जा का प्रेरणा संचरण के लिए उपयोग करने में सक्षम होते हैं ।

तन्त्रिका तन्तु के उद्दीपित होने पर इसके विश्राम कला विभव की ऊर्जा एक विद्युत प्रेरणा के रूप में तन्तु के क्रियात्मक कला विभव (action membrane potential) या प्रेरण क्षमता में परिवर्तित हो जाती है। यह विद्युत प्रेरणा तन्त्रिकीय प्रेरणा होती है। सोडियम आयन ( Na+) ऐक्सोप्लाज्म में द्रुत गति से प्रवेश करने लगते हैं, इसके परिणामस्वरूप तन्त्रिका तन्तु का विधुवीकरण होने लगता है। विध्रुवीकरण के कारण तन्त्रिकाच्छद की भीतरी सतह पर +ve और बाहरी सतह पर – ve विद्युत आवेश स्थापित हो जाता है। यह स्थिति विश्राम अवस्था के विपरीत होती है।

तंत्रिका तंतु की झिल्ली का पुनर्धुवण (Repolarisation of the Nerve fibre membrane)
तन्त्रिका तन्तु के बाहर + 30 mV विभव पहुँचते ही सोडियम आयनों (Na+) का आवागमन बन्द हो जाता है तथा पोटैशियम आयनों (K+) का आवागमन आरम्भ हो जाता है। सोडियम आयन (Na+) बाहर की ओर तथा पोटैशियम आयन (K+) अन्दर की ओर तेजी से विस्थापित होते हैं। जिससे तन्त्रिका तन्तु कला पुनः अपनी विश्रान्ति अवस्था (polarised stage) में पहुँच जाती है। इस क्रिया को पुनर्धुवण (repolarisation) कहते हैं। इस सम्पूर्ण क्रिया में 1-5 मिली सेकण्ड का समय लगता है।

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इस प्रकार न्यूरॉन पर ध्रुवीकरण, विध्रुवीकरण तथा पुनः ध्रुवीकरण क्रमबद्ध रूप से चलता रहता है और तंत्रिका कोशिका विराम अवस्था (resting stage) में आने के बाद नये आवेग को ग्रहण करने के लिए पुनः तैयार हो जाती है। माइलिन आच्छद युक्त तन्त्रिका कोशिका में आवेग का संचरण अधिक तीव्र गति से होता है, क्योंकि ऐसे न्यूरॉन की वसा युक्त परत जैविक इन्सुलेटर की तरह कार्य कर विद्युत अवरोध उत्पन्न करती है।

ऐसे न्यूरॉन्स पर बीच-बीच में रेनवीयर्स की पर्वसन्धियाँ पायी जाती हैं जिन पर आयन विनियम तथा विध्रुवण की क्रिया भी तेज होती है, फलस्वरूप तन्त्रिका आवेग उछल उछल कर एक पर्वसन्धि से दूसरी पर्वसन्धि पर पहुँचता है। इसलिए आवेग की गति 20 गुना अधिक होती है। इस प्रकार के संचरण को उच्छलित संचरण या साल्टेटोरियल संचरण (Sultatorial conduction) कहते हैं। इस संचरण में ATP ऊर्जा की आवश्यकता भी कम होती है। मनुष्य में तंत्रिका आवेग संचरण की सामान्य दर 100-120 मीटर/सेकण्ड होता है।

प्रश्न 8.
रासायनिक सिनेप्स द्वारा तंत्रिका आवेगों का संवहन किस प्रकार होता है। समझाइए।
उत्तर:
रासायानिक सिनैप्स द्वारा तन्त्रिका आवेगों का संवहन (Transmission of a Nerve Impulse across a Chemical Synapse) तत्रिका तन्त्र एक अविच्छिन्न संचार तन्त (contineous transmission system) होता है। इसकी अरबों पृथक् ज्यूरॉंस्स के प्रत्येक न्यूरॉन का ऐक्सॉन स्वतन्त सिरे पर अनेक नन्हींनन्हीं शाखाओं में बंटा होता है जो समीपवर्ती न्यूरॉॅन्स के साइटॉन और डेन्र्राइड्टस व प्रन्थियों पर फैली रहती हैं। इन शाखाओं के सिरों पर सिनेट्टिक धुष्डियाँ होती हैं। इनके और इनसे सम्बन्धित रचनाओं के मध्य तरल पदार्थ से भरा सिनैट्टिक विद्धर (synaptic buttons) होता है। इस प्रकार के अनेक स्थान होते हैं जिन्हें युग्मानुबन्थन या सिनैभ्सिस (synapses) कहते हैं।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय - 10
तन्तिका आवेग का प्रसारण एक तन्त्रिका से दूसरी तन्त्रिका में युम्मानुबन्यन द्वारा होता है जो एक रासायनिक प्रक्रिया है। सिनेप्टिक घुण्डी के नीचे सिनेप्टिक थैलियों में रासायनिक संचारी पदार्थ ऐसीटिलकोलीन (acetylcholine) भरा रहता है, जो प्रेरणा को सिनेष्टिक विद्धर के पार ले जाता है। जैसे ही प्रेरणा ऐक्सॉन से होकर सिनेष्टिक घुण्डी में पहुँचती है, Ca+ आयन ऊतक द्रव्य से घुण्डी में प्रसारित होते हैं, जिनके प्रभाव से ऐसीटिलकोलीन मुक्त होकर पश्च सिनेष्टिक न्युरॉन की कला की पारगम्यता को प्रभावित करके प्रेरणा का पुन: विद्युत सम्प्रेषण प्रेरित करता है। इसके बाद सिनेष्टिक क्दिर में उपस्थित एन्जाइम ऐसीटिलकोलीन का विघटन कर देता है। इसलिए प्रेरणा का संचारण एक दिशात्मक होता है ।

(ऐक्सान → नन्हीं शाखाएँ → टीलोडेन्ड्रिया → सिनैप्टिक घुण्डी → युग्मानुबन्धन (सिनैप्सिस) → डेन्ड्राइट → दूसरा न्यूरॉन)। अधिकांश तन्जिका कोशिकाएँ (न्यूरॉन्स) संवेदी और चालक होती हैं। संवेदी तन्तिकाएँ प्रेरणाओं को संवेदी अंगों से केन्द्रीय तन्त्रिका तन्न्र में ले जाती हैं और चालक तन्त्रिकाएँ प्रेरणाओं को केन्र्रीय तन्तिका तन्त्र से प्रतिक्रिया करने वाले क्रियात्मक अंगों में पहँचाती हैं जो उद्दीपनों के अनसार शरीर की प्रतिक्रियाओं को सम्पादित करते हैं।

तालिका-रासायनिक युग्मानुबंधन तथा विध्युतीय युग्मानुबंधन में अन्तर (Difference between Chemical Synapse and electric synapse)

लक्षणरासायनिक युगमानुबंधनविद्युतीय युग्मानुबंधन
सूचना स्थानान्तरण का माध्यमन्यूरोट्रांसमीटर एवं रसायन ग्राही होते हैंविद्युत आयन तथा सक्रिय विभव होते हैं।
सिनैप्टिक विदर10-20 नैनोमीटर होता है।0.2 नैनोमीटर होता है।
सिनैप्टिक पुटिकाउपस्थित होती है।अनुपस्थित होती है।
माइटोकॉन्ड्रियाअत्यधिक होते हैं।कम होते हैं।
रसायनम्राहीपश्च सिनैप्टिक कला पर।अनुपस्थित होते हैं।
गतिमध्यम होती है।तीव होती है।

तंत्रिका आवेग की विशेषताएँ (Characteristics of Nerve Impulse):

  1. तंत्रिका आवेग भौतिक व रासायनिक क्रियाओं द्वारा सम्पन्न होने वाली एक जटिल प्रक्रिया है।
  2. तंत्रिका आवेग के प्रारम्भन एवं संचरण के लिए एक न्यूनतम उद्दीपन की आवश्यकता होती है जिसे देहली उद्दीपन (threshold stimulus) कहते हैं।
  3. तंत्रिका आवेग का संचरण जैव विद्युतीय व जैव रासायनिक विभिन्नताओं के कारण संचरित होता है।
  4. तंत्रिका आवेग का संचरण संपूर्ण अथवा बिल्कुल नहीं (All or None) के नियम का पालन करता है। अर्थात् आवेग संचरण या तो पूर्ण शक्ति से होता है या फिर प्रारम्भ ही नहीं होता है।
  5. एक युग्मानुबंधन (synapse) के बाद दूसरे युग्मानुबंधन की क्रिया तंत्र तक स्थगित रहती है जब तक कि एक्सोन की अन्तिम घुंडी में न्यूरोट्रांसमीटर्स एकत्रित हो जाए। इस अंतराल को सिनैप्टिक धकान (synaptic fatigue) कहा जाता है।
  6. दो तंत्रिका आवेगों के मध्य निश्चित समयान्तराल होता है। यदि पहले आवेग के तुरंत बाद कोई अन्य प्रभावी आवेग न आ जाए तो वे संयुक्त हो जाते हैं इसे समेशन (Summation) कहते हैं।
  7. तंत्रिका आवेग की दर मनुष्य में 100-120 m/s होती है जबकि मेढ़क में यह 50-70 m/s होती है।

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प्रश्न 9.
मनुष्य के मध्य मस्तिक्क की संरचना बताइए।
उत्तर:
मध्य मस्तिष्क (Mid brain or Mesencephalon):
यह मस्तिष्क का अपेक्षाकृत छोटा भाग है जो डाइऐनसेफेलॉन के पीछे, प्रमस्तिष्क के नीचे तथा पश्च-मस्तिष्क के ऊपर स्थित होता है। इसकी गुहा अत्यधिक संकरी होती है, जिसे आइटर (Iter) अथवा सिल्वियस की एक्वीडक्ट (Aqueduct or sylvius) कहते हैं।

मध्य मस्तिष्क को दो भागों में बाँटा जा सकता है –
(a) प्रमस्तिष्क वृन्तक या सेरिब्रल पिडंकल या क्रूरा सेरिब्राइ (Cerebral Peduncles or Crura Cerebri)-ये अधर सतह पर माइलिनेटेड (myelinated) तन्त्रिका तन्तुओं से बने डण्ठलनुमा वृन्त हैं। ये प्रमस्तिष्क (cerebrum) को पश्चमस्तिष्क तथा मेरुरज्जु (spinal cord) से जोड़ते हैं।

(b) पिण्ड चतुष्ट्रि या कॉर्पोरा क्वाड्रीजेमिना (Corpora Quadrigemina)-ऐक्वीडक्ट (Aqueduct) के पीछे कुछ भाग धूसर पदार्थ के चार गोल से उभारों का बना होता है। प्रत्येक उभार को कोलिकुलस (Colliculus) कहते हैं तथा चारों उभारों को सम्मिलित रूप से कोर्पोरा क्वाड़रजेमिना या पिण्ड चतुष्टि (Corpora Quadrigemina) कहते हैं। मध्य मस्तिष्क के ऊपरी दृढ़ पिण्ड (Superior caolliculi) दृष्टि से संबंधित प्रतिवर्ती केन्द्र हैं जबकि निचले दृक् पिण्ड (Inferior colliculi) श्रवण संबंधी प्रतिवर्ती केन्द्र है।

प्रश्न 10.
पश्च मस्तिष्क के विभिन्न भागों तथा उनके कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पश्च मस्तिष्क (Hind Brain or Rhombencephalon)
इसमें निम्न तीन प्रमुख भाग होते हैं –
(a) अनुमस्तिष्क (Cerebellum)
(b) पॉन्स (Pons) तथा
(c) मैड्युला ऑब्लोंगेटा (Medulla oblongata)

(a) अनुमस्तिष्क (Crebellum) – यह स्तनधारियों के मस्तिष्क का सबसे अधिक विकसित तथा दूसरा बड़ा भाग है। इसका बाहरी भाग ग्रे मैटर से बना होता है जो अनुमस्तिष्क बल्कुट कहलाता है। अनुमस्तिष्क में तीन पिण्ड पाए जाते हैं। मध्य पिण्ड को वर्मिस (Vermis) कहते हैं। जो श्वेत द्रव्य का बना होता है। इसके दोनों पार्श्व भागों में दो बड़े पार्श्व पिण्ड पाए जाते हैं। जिन्हें अनुमस्तिक्कीय गोलार्ध (Cerebral Hemisphere) कहते हैं।

इन गोलार्धों की बाह्म सतह पर अत्यधिक बलन पाए जाते हैं जिनकी खाँचों में श्वेत द्रव्य से निर्मित संरचनाएँ जुड़कर वृक्ष जैसी रचना बनाती हैं जिसे प्राण वृक्ष (Arbor vitae) कहते हैं। इसकी शाखाएँ धूसर द्रव्य में धँसी होती है। प्रत्येक अनुमस्तिष्क गोलार्ध श्वेत द्रव्य से बना तीन अनुमस्तिष्कीय वृन्तों के द्वारा मस्तिष्क स्तम्भ के भागों क्रमशः मध्य मष्तिस्क, पोन्स व मेड्यूला से जुड़ा रहता है।

ये निम्न प्रकार के होते हैं –

  1. ऊर्ध्व अनुमस्तिष्क वृन्त-अनुमस्तिष्क के मध्य मस्तिष्क से जोड़ता है।
  2. मध्य अनुमस्तिष्क वृन्त-यह अनुमस्तिष्क को पोन्स से जोड़ता है।
  3. अधो अनुमस्तिष्क वृन्त-अनुमस्तिष्क मेड्यूला व मेरुरज्जु से जोड़ता है।

प्रश्न 11.
मानव में पायी जाने वाली विभिन्न कपालीय तंत्रिकाओं के नाम व कार्य लिखिए।
उत्तर:
परिधीय तंत्रिका तंत्र (Peripheral Nervous System):
मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु से निकलने वाली तंत्रिकाएँ मिलकर परिधीय तंत्रिका तंत्र बनाती हैं। ये तंत्रिकाएँ दो प्रकार की होती है-
2. कपालीय या क्रेनियल तंत्रिकाएँ (Cranial Nerve) – मस्तिष्क के विभिन्न भागों से निकलने वाली तंत्रिकाओं को कपालीय तंत्रिकाएँ कहते हैं। स्तनियों में 12 जोड़ी कपालीय तंत्रिकाएँ (cranial nerves) पायी जाती हैं, जिनके नाम एवं संख्या निश्चित होते हैं। ये कार्य की प्रकृति के आधार पर तीन प्रकार की होती है –

  1. संवेदी तंत्रिकाएँ (Sensory Nerves) – ये अंगों से संवेदना या उद्दीपनों को मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं। इनकी संख्या 3 जोड़ी होती है। इन्हें प्रथम, द्वितीय तथा 20 वीं तंत्रिकाएँ कहते हैं।
  2. चालक या प्रेरक तंत्रिका (Motor Nerves)-ये संवेदना को केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र से अपवाहक अंगों तक पहुँचाती हैं। इनकी संख्या पाँच जोड़ी होती है। जैसे-तीसरी, चौथी, छठी, ग्यारहवीं तथा बारहवीं क्रेनियल तंत्रिकाएँ।
  3. मिश्रित तंत्रिकाएँ (Mixed Nerves)-ये संवेदी तथा प्रेरक दोनों प्रकार के कार्य करती हैं। इनकी संख्या 4 जोड़ी होती है। जैसे—पाचवीं, सातवी, नौवीं तथा 10 वीं जोड़ी की तंत्रिकाएँ।

तालिका : मनुष्य की क्रेनियल तत्रिकाओं का संक्षिप्त विवरण (Brief Descrintion of Human’s Cranial Nerves)
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2. मेरु या स्पाइनल तंत्रिकाएँ (Spinal Nerve):
मेरुरज्जु से निकलने वाली तंत्रिकाओं को मेरुतंत्रिकाए या स्पाइनल तंत्रिकाएँ कहते हैं।
मनुष्य में 31 जोड़ी स्पाइनल तंत्रिकाएँ पायी जाती हैं जबकि खरगोश में उन जोड़ी स्पाइनल तंत्रिकाएँ पायी जाती हैं मनुष्य में खरगोश के समान 6 जोड़ी पुच्छ तंत्रिकाएं नहीं पायी जाती हैं। सभी स्पाइनल तंत्रिकाए मिश्रित प्रकार की होती हैं क्योंकि मेरुरज्जु के पृष्ठ श्रंंग से निकलने वाली तंत्रिकाएँ संवेदी व अधर श्रंग से निकलने वाली तंत्रिकाएँ चालक (प्रेरक) प्रकार की होती हैं और दोनों मिलकर संयुक्त तंत्रिका बनाती है, जो मेरुदण्ड (Vertebral column) की कशेरुकाओं की बर्टीबेट्रियल कैनाल से बाहर निकल कर तीन शाखाओं में बंट जाती हैं। ये शाखाएँ हैं-

  1. पृष्ठ शाखा (Ramus dorsales)
  2. अधर शाखा (Ramus ventralis)
  3. संबन्धक शाखा (Ramus communicans)

मनुष्य की मेरु तंत्रिकाओं को पाँच समूहों में बाँटा जा सकता है।

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ये निम्न प्रकार हैं –

  • ग्रीवा या सर्विकल तंत्रिकाएँ (Cervical Nerves)
  • वक्ष या थोरेसिक तंत्रिकाएँ (Thoracic Nerves) -8 जोड़ी (1 से 8)
  • कटि या लम्बर तंत्रिकाएँ (Lumbar Nerves) -12 जोड़ी (9 से 20)
  • त्रिक या सैक्रस तंत्रिकाएँ (Sacral Nerves) -5 जोड़ी (21 से 25)
  • पुच्छी या कोकजियल तंत्रिकाएँ (Coccygeal Nerve) -5 जोड़ी (26 से 30) -1 जोड़ी (31वी)

कायिक तंत्रिका तंत्र (Somatic Nervous System)
यह तंत्रिका तंत्र उद्दीपनों को वातावरण से ग्रहण कर शरीर के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र से अनैच्छिक अंगों व चिकनी अरेखित पेशियों तक पहुँचाता है।
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प्रश्न 12.
स्वायन्त तंत्रिका तंत्र से आप क्या समझते हैं ? इसके कार्य लिखिए।
उत्तर:
स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र (Autonomic Nervous System)
स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र (Autonomic nervous system) अन्तरांगों की क्रिया का नियमन एवं नियन्त्रण करता है। यह हृदय (heart), रुधिर वाहिनियों (blood vessels), आमाशय (stomach), गर्भाशय (uterus), मूत्राशय (urinary bladder), वृक्क (kidney), फेफड़ों (lungs), स्वेद प्रन्थियों (sweat glands), यकृत (liver), अग्याशय (pancreas), विशिष्ट अन्न:स्रावी प्रन्थियों (endocrine glands) तथा अन्य अंगों की सक्रियता का नियन्न्रण करत्र है। इन अंगों की क्रियाएँ हमारी इच्छा पर निर्भर नहीं करती हैं।
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संरचना व कार्यिकी के आधार पर स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र दो प्रकार का होता है-
(1) अनुकम्पी या सिम्पैथेटिक तन्त्रिका तन्त्र (Sympathetic Nervous System)- यह मेरुरज्जु (spinal cord) के वक्ष (thoracic) तथा कटि प्रदेश (lumbar region) के धूसर द्रव्य से निकलती है। अनुकम्पी गुच्छिकाओं के 22 जोड़े पाये जाते हैं।

(2) परानुकम्पी य्र पैरासिम्पथेटिक तन्त्रिका तन्त्र (Parasympathetic Nervous System)- परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र मस्तिष्क से निकलने वाली III, VII, IX एवं X कपालीय तथा मेरुरज्जु की II, III तथा IV तन्त्रिकाओं में उपस्थित तन्तुओं से बना होता है। इस तन्त्र को कपाल त्रिक् अर्थात क्रेनियो-सेक्रल बहिर्गमन (Cranio-Sacral Outflow) भीं कहते हैं। इस तन्त्र द्वारा ऐसी सभी क्रियाओं को सन्तुलन में रखा जाता है, जिससे शरीर का आन्तरिक वातावरण अखण्ड बना रहे। इस तन्त्र में अनुकम्पी (sympathetic) तथा परानुकम्पी (parasympathetic) तन्त्र एक-दूसरे के विपरीत प्रभाव दर्शाते हुए कार्य करते हैं।

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जैसे –

  1. अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र नेत्रों की पुतली को फैलाता है तथा परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र पुतली को सिकोड़ता है।
  2. परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र अश्रु स्रावण को कम करता है, परन्तु अनुकम्पी तन्त्रिका अश्रु स्वावण को उत्तेजित करता है।
  3. अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र के प्रभाव से लार स्रावण में कमी आती है, जबकि परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र लार स्रावण को उत्तेजित करता है।
  4. हृदय स्पन्दन अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र के प्रभाव से बढ़ता है तथा परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र हृदय स्पन्दन की दर में कमी लाता है।
  5. अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र फेफड़ों तथा वायुनाल का फैलाव करता है, जबकि परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र इनको सिकोड़ता है।
  6. अनुकम्पी तन्त्र रुधिर वाहिनियों को सिकोड़कर रक्त दाब बढ़ाता है तथा परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र रुधिर वाहिनियों का वितरण कर रक्त दाब घटाता है।
  7. परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र आहारनाल की क्रमाकुंचन गति को बढ़ाता है, जबकि अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र पेशियों में शिथिलन करके गति की दर को कम करता है।
  8. अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र अधिवृक्क ग्रन्थि (Adrenal gland) के स्रावण को बढ़ाता है, जबकि परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र स्रावण में कमी लाता है।
  9. अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र पसीने के स्रावण को बढ़ाता है, परन्तु परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र पसीने के स्रावण को कम करता है।
  10. पेशियों के संकुचन से अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र रोमों (hair) को खड़ा करता है, परानुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र पेशियों में शिथिलन उत्पन्न करके बालों को गिराता है।

तालिका : अनुकंपी तथा परानुकंपी तन्त्रिका तंत्रों में संरचनात्मक अंतर –

अनुकंपी तन्रिका तंत्र(Sympathetic nervous system)परानुकंपी तन्रिका तंत्र (Parasympathetic nervous system)
इसमें अनुकंपी तन्त्रिका तन्त्र तथा प्रिबर्टिबल गुच्छक होते हैं।इसमें अंतस्थ गुच्छक होते हैं।
गेनिलया या गुच्छक केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के समीप किन्तु विसरल कार्य कर होते हैं।गैंग्लिया विसरल कार्य करों के निकट या भीतर होते हैं।
प्रत्येक प्रिगैंग्लिओनिक हेतु अनेक पोस्ट गैंग्लिओनिक न्यूरॉन से सिनैप्स करता है तथा ये विसरल कार्यकारी हो जाते हैं।प्रत्येक प्रिर्गैंग्लिनिक तंतु एक ही विसरल कार्यकर को जाने वाले चार या पाँच पोस्ट गैंग्लिओनिक न्यूरॉन से सिनैप्स करता है।
यह समस्त शरीर एवं त्वचा पर फैला रहता है।इसका वितरण केवल सिर तथा वक्ष, उदर एवं श्रोणि प्रदेश के आंतरांगों तक सीमित होतां है।

तालिका : अनुकंपी एवं परानुकम्पी तन्त्रिका तंत्र के कार्यों में अन्तर (Difference between Functions of Sympathetic and Parasympathetic Nervous System)

आन्तरांगों के नाम (Name of Internal organs)अनुकम्पी तन्न के कार्य (Sympathetic System)परानुकम्पी तन्न्र के कार्य (Parasympa-thetic System)
1. समस्त शरीरक्रोध, भय तथा पीड़ा का अनुभव कराना।शारीरिक आराम व सुख की स्थितियाँ उत्पन्न करना। पुतलियों को संकुचित करता है।
2. नेत्रों की पुतलियाँपुतलियों को फैलाता है।अश्रुस्राव को कम करता है।
3. अश्रु ग्रन्थियाँअश्रुसाव में वृद्धि करता है।लार के स्राव में वृद्धि करता है।
4. लार प्रन्थियाँलार के स्राव को कम करता है।पसीने के स्राव को कम करता है।
5. स्वेद प्रन्थियाँपसीने के स्राव को बढ़ाता है।साधारण श्वसन क्रिया में इन अंगों को संकुचित करता है।
6. फेफड़े, वायुनाल तथा श्वसनीअधिकाधिक एवं सुगम श्वसन हेतु इन अंगों को प्रसारित करता है।इसकी स्पंदन दर को कम करता है।
7. हुदयइसकी स्पंदन दर को बढ़ाता है।धमनियों की गुहा को फैलाकर रुधिर दाब को कम करता है।
8. रुधिर वाहिनियाँधमनियों की गुहा को संकुचित करता है जिससे रुधर दाब बढ़ जाता है।क्रमाकुंचन गति की दर को बढ़ाता है।
9. आहारनालपेशियों का शिथिलन करके क्रमाकुंचन गतियों को कम करता है। इनके स्राव को कम करता है तथा रक्त में ग्लूकोज की मात्रा में वृद्धि करता है।इन्सुलिन के स्नाव को उत्तेजित करके रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियन्त्रित करता है।
10. यकृत एवं अग्याशयइसके हॉर्मोन्स स्राव को उत्तेजित करता है।इसके हॉर्मोन्स स्राव को कम करता है।
11. अधिवृक्क ग्रन्थिइसकी पेशियों को शिथिल करता है।इसकी पेशियों का संकुचित करता है।
12. मूत्राशयइन पेशियों को सिकोड़कर गुदा (मलद्वार) को बन्द करता है।इन पेशियों को शिथिल करके गुदा को खोलता है।
13. गुदा संकोचक पेशीइन्हें सिकोड़कर रोमों (बालों) को खड़ा करता है।इन्हें शिथिल करके रोमों को गिराता है।
14. रोमों की पेशियाँइन्हें उत्तेजित होने से रोकता है।इन्हें उत्तेजित करता है।
15. बाह्य जननांगऊर्जा व्यय एवं वातावरण की प्रतिकूल दशाओं में शरीर की सुरक्षा करता है।ऊर्जा संरक्षण में सहायता करता है।
16. ऊर्जाअनुकम्पी तन्न के कार्य (Sympathetic System)परानुकम्पी तन्न्र के कार्य (Parasympa-thetic System)

प्रश्न 13.
अनुकम्पी तथा परानुकम्पी तंत्रिका तंत्र में भेद्द कीजिए।
उत्तर:
प्रकाश संवेदांग-नेत्र (Photoreceptor-Eye):
स्तनियों में एक जोड़ी नेत्र सिर पर पृष्ठ पार्श्व में स्थित होते हैं। ये गोलाकार व कुछकुछ गेंद सरीखे होते हैं। ये खोपड़ी के मध्य भाग में. अस्थिल गड्ढों में स्थित होते हैं। इन गड़ों को नेत्र कोटर (orbits) कहते हैं। आँख का लगभग 4 / 5 भाग नेत्र मोटर में धँसा रहता है। नेत्र गोलक के इस उभरे हुए भाग को कार्निया (cornea) कहते हैं। प्रत्येक भाग के साथ पलकें तथा कुछ म्रन्थियाँ भी होती हैं।

1. नेत्र पलकें (Eye lids) – दोनों नेत्रों पर त्वचा के वलन से बनी दो गतिशील पलके (eyelids) पायी जाती हैं जो नेत्र गोलक को सुरक्षा प्रदान करती हैं। जिनके किनारे पर लम्बे रोम उपस्थित होते हैं, जिन्हें बरौनियाँ (eye lashes) कहते हैं। ये धूल व मिट्टी के कणों को नेत्र में जाने से रोकती हैं। इनके अतिरिक्त नेत्र गोलक के अन्दर की ओर एक पेशीविहीन पलक और पायी जाती है जिसे निमेषक पटल या निक्टेटिंग झिल्ली (nictitating membrane) कहते हैं। खरगोश में यह समय-समय पर कॉनिर्या पर फैलकर उसे साफ करने का कार्य करती है। मनुष्य में यह एक अवशेषी अंग (vestigeal organ) के रूप में पायी जाती है। इसे पलीका सेमीन्यूलेरिस (Plica seminularis) भी कहते हैं।

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2. नेत्र श्रन्धियाँ (Eye Glands) – स्तनधारियों के नेत्रों में निम्नलिखित नेत्र प्रन्थियाँ पायी जाती हैं –
(i) माइबोमियन प्रन्बियाँ (Meibomian glands) – ये सिबेसियस ग्रन्थियों का रूपान्तरण होती हैं जो कि पलकों के किनारों पर समकोण पर लगी होती हैं। इनका स्नाव कॉर्निया को नम तथा चिकना बनाता है तथा आँसुओं को सीधे गाल पर गिरने से रोकता है।

(ii) जाइस की ग्रन्थियाँ (Zeis’s glands) – ये रूपान्तरित सिबेसियस (तेल) ग्रन्थियाँ होती हैं जो बरोनियों की पुटिकाओं में पायी जाती हैं। ये कोर्निया को चिकना बनाती हैं।

(iii) हारडिरियन ग्रन्थियाँ (Harderian glands) – ये ग्रन्थियाँ मानव में अनुपस्थित होती हैं परन्तु क्छेल, चूहों व छछुन्दरों में पायी जाती हैं। ये निमेषक झिल्ली को चिकना व नम बनाती हैं।

(iv) अश्रुप्रन्थियाँ (Lachrymal glands) -ये आँख के बाहरी कोण पर स्थित होती है और जल सदृश द्रव स्नावित करती हैं। गैस, धुआँ धूल या तिनका आदि आँख में गिर जाने पर अथवा बहुत भावुक हो उठने पर इन ग्रन्थियों के स्राव से आँखें गीली हो जाती हैं जिन्हें अश्रु कहते हैं। ऊपरी पलक के झपकने से ये स्राव पूरी आँख में फैल जाता है और धूल आदि कण घुल जाते हैं। जन्म के लगभग चार माह बाद मानव शिशु में अश्रु ग्रन्थियाँ सक्रिय होती हैं।
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3. नेत्र कोटर की पेशियाँ (Eye Muscles) – नेत्र कोटर में नेत्र गोलक को इधर-उधर घुमाने के लिये छः नेत्र पेशी समूह पाये जाते हैं जिनमें चार रेक्टस पेशियाँ व दो तिरछी (oblique) पेशियाँ होती हैं।

  1. बाह्य या पार्श्व रैक्टस पेशी (External or lateral rectus muscle) – ये नेत्र गोलक को नेत्र कोटर से बाहर की ओर लाती हैं।
  2. अन्त या मध्य रैक्टस पेशी (Internal or medial rectus muscle)- ये नेत्र गोलक को अन्दर की ओर ले जाती हैं।
  3. उत्तर रेक्टस पेशी (Superior Rectus Muscle)-ये नेत्र गोलक को ऊपर की ओर गति कराती हैं।
  4. अधो रेक्टस पेशी (Inferior Rectus Muscle)-ये नेत्र गोलक को नीचे की ओर गति कराती हैं।
  5. उत्तर तिरछी पेशी (Superior oblique muscle) – ये नेत्र गोलक को नीचे की ओर व बाहर की तरफ खींचती हैं।
  6. अधो तिरछी पेशी (Inferior oblique muscle) – ये नेत्र गोलक को ऊपर की ओर व बाहर की तंरफ खींचती हैं।

इन सभी पेशियों की लम्बाई स्थिर होती है। यदि कोई पेशी छोटी या बड़ी हो जाये तो नेत्र गोलक की स्थिति बिगड़ जाती है और वह एक ओर झुका हुआ सा दिखाई देता है, इससे बेंगापन (Squint or strabismus) उत्पन्न हो जाता है।

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4. कंजैक्टिवा (Conjuctiva) – नेत्र की दोनों पलकों की आन्तरिक अधिचर्म अन्दर की ओर कॉर्निया पर फैलकर एक पतले व पारदर्शी स्तर का निर्माण करती है। यह कंजैक्टिवा कहलाती है। यह अधिचर्म शरीर की सबसे पतली अधिचर्म होती है। यह पारदर्शी होती है।
नेत्रगोलक की आन्तरिक संरचना (Internal structure of Eye ball)-कॉर्निया को छोड़कर शेष नेत्र गोलक की दीवार में तीन स्तर होते हैं –
(1) श्वेत पटल या स्केलरा या स्क्लेरोटिक (Sclerotic) – यह सबसे बाहरी स्तर होता है। नेत्र गोलक (Eye ball) का बाहरी उभरा हुआ पारदर्शक भाग कॉर्निया कहलाता है। यह दृढ़ तन्तुमय संयोजी ऊतकों का बना होता है। यह नेत्र गोलक का आकार बनाये रखता है।

(2) रक्तक पटल या कोरॉयड (Choroid) – यह कोमल संयोजी ऊतकों का बना नेत्र गोलक का मध्य स्तर है। इसकी कोशिकाओं में रंग कणिकाएँ होती हैं, इनके कारण ही आँखों में रंग दिखायी देता है। इस स्तर में रक्त केशिकाओं का सघन जाल पाया जाता है। नेत्र के अगले भाग में यह निम्नलिखित रचनाएँ बनाता है –

(अ) उपतारा या आइरिस (Iris)-कॉर्निया के आधार पर यह भीतर की ओर गोल रंगीन पर्दा बनाता है जिसे उपतारा या आइरिस (Iris) कहते हैं। आइरिस के बीचोंबीच में एक छिद्र होता है, इसको पुतली या तारा (Pupil) कहते हैं। आइरिस पर अरेखित अरीय प्रसारी पेशियाँ फैली रहती हैं जिसके संकुचन से पुतली का व्यास बढ़ता है तथा वर्तुल स्फिक्टर पेशियाँ संकुचन द्वारा पुतलीक के व्यास को कम करती हैं।

(ब) सिलियरी काय (Ciliary body)-रक्तक पटल के आइरिस का भीतरी भाग कुछ मोटा होता है। यह सिलियरी बॉडी कहलाता है। सिलियरी काय संकुचनशील होता है। इससे अनेक महीन एवं लचीले निलम्बन रज्जु निकलते हैं, जो लेन्स (lens) से संलग्न रहते हैं।

(3) मूर्तिपटल या दृष्ट्पिपटल या रेटिना (Retina) – यह नेत्र गोलक का सबसे भीतरी स्तर होता है। यह पतला कोमल संवेदी स्तर होता है। इसमें तन्न्रिका सूत्र, संयोजी ऊतक व वर्णक कोशिकाएँ पायी जाती हैं। दृष्टिपटल में दो स्तर होते हैं-

(अ) वर्णकी स्तर (Pigment layer) – यह स्तर चपटी एवं कणिका युक्त एपीथिलियमी कोशिकाओं का एकाकी स्तर होता है।

(ब) तन्न्रिका संवेदी स्तर (Neuro Sensory layer) – यह वर्णकी स्तर के ठीक नीचे स्थित होता है जो कि दृष्टि शलाका (rods) तथा दृष्टि शंकु (cones) से बनी होती है। दृष्टि शलाका लम्बी कोशिकाएँ होती हैं जो अन्धकार तथा प्रकाश में भेद करती हैं तथा दृष्टि शंकु छोटी तथा मोटी कोशिकाएँ होती हैं, जिनके द्वारा रंगों की पहचान होती है। ये द्विध्रुवीय (bipolar) तन्त्रिका कोशिकाओं से जुड़े रहते हैं।
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द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिकाओं के तत्रिकार्ष (axons) लम्बे होते हैं, जो आपस में मिलकर दृष्टि तन्रिका (optic nerve) बनाते हैं, जो दृष्टि छिद्र से निकलकर मस्तिष्क को जाती है। दृष्टि तन्त्रिका के बाहर निकलने वाले स्थान पर प्रतिबिम्ब नहीं बनता है, इसे अन्ध बिन्दु (blind spot) कहते हैं। इससे थोड़ा ऊपर पीत बिन्दु (yellow spot) होता है। जहाँ वस्तु का प्रतिबिम्ब सबसे स्पष्ट बनता है। इस बिन्दु का रंग पीला-सा होता है। पीत बिन्दु को मैक्यूला ल्यूटिया (Macula lutea) भी कहते हैं। इसके केन्द्र में एक गर्त होता है जिसे फोविया सेट्रेलिस (Fovea centralis) कहते हैं। लेन्स (Lens) – उपतारा (pupil) के पीछे नेत्रगोलक (eye ball) की गुहा में एक बड़ा रंगहीन, पारदर्शक एवं उभयोतल (biconvex) लेन्स होता है।

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भागों में विभक्त करता है-
(i) जलीय वेश्म या ऐक्वस चैम्बर (Aquous chamber) – लेन्स (lens) तथा कॉर्निया के बीच स्वच्छ पारदर्शक जल सदृश द्रव भरा रहता है। इसे तेजो जल या ऐक्वस ह्यमर (aquous humor) कहते हैं।

(ii) काचाभ द्रव्य वेश्म या विट्रिस चैम्बर (Vitreous chamber)-लेन्स (lens) तथा रेटिना (retina) के बीच गाढ़ा पारदर्शक जैली सदृश द्रव्य भरा रहता है जिसे काचाभ द्रव्य (vitreous humor) कहते हैं। ये दोनों ही द्रव नेत्र गुहा में निश्चित दबाव बनाये रखते हैं जिससे दृष्टिपटल (retina) तथा अन्य नेत्र पटल अपने यथास्थान बने रहते हैं। रेटिना (Retina) की संरचना दृष्टि पटल (रेटिना) नेत्र गोलक (eye ball) का सबसे भीतरी स्तर है। यह पतला, कोमल संवेदी स्तर होता है। यह कॉर्निया (Cornea) को छोड़कर शेष नेत्र गोलक के तीन-चौथाई भाग में फैला रहता है।

दृष्टि पटल दो प्रमुख स्तरों का बना होता है –
(1) रंगा या वर्णकी स्तर (Pigment layer)-यह रक्तपटल से चिपका एक कोशिकीय स्तर होता है जो सिलीयरी काय एवं आइरिस (Iris) की भीतरी सतह पर भी फैला रहता है लेकिन सिलीयरी काय वाले भाग में रंगा कण नहीं पाये जाते हैं।

(2) तत्त्रिका संवेदी स्तर (Neuro sensory layer)-वर्णकी स्तर के ठीक नीचे भीतर की ओर मोटा और जटिल तन्त्रिका संवेदी स्तर होता है। यह केवल सीलियरी काय तक फैला रहता है। इस भाग में तन्त्रिका एवं संवेदी कोशिकाओं के तीन स्तर होते हैं-

(A) दृक् शलाका एवं शंकु स्तर (Layer of Rods and Cones)-इस स्तर में लम्बी-लम्बी रूपान्तरित तन्त्रिका संवेदी कोशिकाएँ होती हैं। ये वर्णक युक्त कोशिकाएँ होती हैं। इसमें दो प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती हैं-
(i) दृष्टि शलाकाएँ (Rods) – ये पतली, लम्बी तथा बेलनाकार कोशिकाएँ होती हैं। ये संख्या में अधिक होती हैं। इनकी लम्बाई शंकु कोशिकाओं (Cones) से अधिक होती हैं। इनमें रोडोप्सिन (rhodopsin) नामक वर्णक उपस्थित होता है। दृष्टि शलाकाएँ प्रकाश तथा अन्धकार का ज्ञान कराती हैं।

(ii) दृष्टि शंकु (Cones) – ये छोटी, मोटी तथा मुग्दराकार कोशिकाएँ होती हैं। इनके सिरे नुकीले नहीं होते हैं। ये संख्या में अपेक्षाकृत कम होती हैं। इनमें आइडप्सिन (Iodopsin) वर्णक उपस्थित होता है। ये तीव्र प्रकाश में वस्तुओं तथा विभिन्न रंगों का ज्ञान कराती हैं। दृष्टि शलाकाओं तथा शंकुओं के भीतरी सिरों से निकले हुए पतले तन्त्रिका सूत्रों से द्विध्रुवीय (bipolar) तन्त्रिका कोशिकाओं के डेण्ड्राइट्स प्रवर्धों के साथ पुग्मानुबन्धनों द्वारा सम्बन्धित रहते हैं।
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(B) द्विधुवीय तन्त्रिका कोशिका परत (Bipolar neuronic layer) – इस स्तर में अनेक द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिकाएँ होती हैं। इनके डेण्ड्राइट्स दृष्टि शलाकाओं तथा दृष्टि शंकुओं के एक्मॉन्न के साथ युग्मानुबन्यन बनाते हैं। इस स्तर की तन्त्रिकाएँ गुच्छकीय स्तर की कोशिकाओं से जुड़कर युग्मानुबन्धन (synapse) बनाते हैं।

(C) गुच्छकीय स्तर (Ganglionic layer) – इस स्तर में बड़े आकार की द्विध्रुवीय कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें गुच्छकीय कोशिकाएँ (ganglionic cells) भी कहते हैं। इन कोशिकाओं के तन्तिकाद्ध (axon) लम्बे होते हैं जो परस्पर मिलकर दृष्टि तत्तिका बनाते हैं।

देखने की प्रक्रिया (Process of Vision):
हमारे नेत्र कैमरे के समान कार्य करते हैं। ये प्रकाश की 380 से 760 नैनोमीटर तरंगदैर्ध्य (wavelength) की किरणों की ऊर्जा को ग्रहण करके इसे तन्त्रिका तन्तु के क्रिया विभव में परिवर्तित कर देते हैं।

नेत्र की क्रियाविधि (Working of Eye) – जब उचित आवृत्ति की प्रकाश तरंग कॉनिया पर पड़ती हैं तब कॉर्निया तथा तेजोजल (aqueous humor) प्रकाश किरणों का अपवर्तन (refraction) कर देते हैं। ये किरणें तारे (pupil) से होकर लेन्स (lens) पर पड़ती हैं। लेन्स इनका पूर्ण अपवर्तन कर देता है। इससे रेटिना के पीत बिन्दु पर वस्तु का उल्टा और वास्तविक प्रतिबिम्ब बन जाता है। उपतारा (आइरिस) तारे (पुतली-pupil) को छोटा या बड़ा करके प्रकाश की मात्रा को नियन्त्रित करता है। तेज प्रकाश में तारा सिकुड़ जाता है और कम प्रकाश नेत्र के भीतर प्रवेश करता है। कम प्रकाश में तारा फैल जाता है और अधिक प्रकाश नेत्र के भीतर प्रवेश करता है।
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नेत्र द्वारा समायोजन (Accommodation by Eye) – सीलियरी बॉडी तथा निलम्बन स्नायु लेन्स के फोकस में अन्तर लाकर वस्तु के प्रतिबिम्ब को रेटिना पर केन्द्रित करते हैं। सामान्य स्थिति में सीलियरी बाँडी की पेशियाँ शिथिल रहती हैं जिस कारण इससे लगे निलम्बन स्नायु तनी हुई अवस्था में रहते हैं, जिससे लेन्स चपटा हो जाता हैं तथा लेन्स की फोकस दूरी बढ़ जाती है।

ऐसी स्थिति में दूर की वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है। जब निकट की वस्तु को देखना होता है तो सीलियरी काय की पेशियों में संकुचन होता है जिससे यह काय खिंचकर चोड़ी हो जाती है जिससे निलम्बन स्नायु ढीले हो जाते हैं तथा लेन्स तनाव कम हो जाने के कारण अधिक उत्तल हो जाता है जिससे लेन्स की फोकस दूरी कम हो जाती है तथा निकट की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं।

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प्रकाश-रासायनिक परिवर्तन (Photo-chemical Changes) – जब विशिष्ट तरंगदैर्ध्य वाली प्रकाश की किरणें रेटिना पर पड़ती हैं, तब ये दृष्टि शलाकाओं एवं दृष्टि शंकुओं में उपस्थित रसायनों में परिवर्तन करती हैं।
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जब प्रकाश की किरणें शलाकाओं के रोड्डिप्सिन (rhodopsin) पर पड़ती हैं, तब यह रेटिनीन (retinene) तथा आप्सिन (opsin) में टूट जाता है।. अन्धकार में शलाकाओं में एन्जाइम्स की सहायता से रेटिनीन एवं आप्सिन मिलकर रोडोप्सिन संश्लेषण करते हैं। इसीलिए जब हम तेज प्रकाश से अन्धकार में जाते हैं, तब हमें तत्काल (तुरन्त) कुछ दिखाई नहीं देता है, किन्तु धीर-धीरे दिखाई देने लगता है। शंकुओं में आयोडोप्सिन (Iodopsin) नामक वर्णक उपस्थित होता है।

इसमें वर्णक घटक रेटिनीन तथा प्रोटीन घटक फोटोप्सिन (Photopsin) होता है। शंकु तीन प्रारम्भिक रंगों को-लाल, हरा, व नीले को कहते हैं। इन्हीं तीन प्रकार के शंकुओं के विभिन्न मात्राओं में उद्दीपनों के मिश्रणों से प्रारस्भिक रंमों के मिश्रणों-सफेद नारंगी, पीले, बैंगनी आदि का हमें ज्ञान हो जाता है। मानव एवं अन्य प्राइमेट्स में दोनों नेत्रों द्वारा एक ही प्रतिबिम्ब बनता है। इस प्रकार की दृष्टि को द्विनेत्रीय दृष्टि (binocular vision) कहते हैं। विकसित द्विनेत्रीय दृष्टि से हमें वस्तु का गहराई से ज्ञान हो जाता है।
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दृष्टि दोष (Defects of Vision):
एक सामान्य नेत्र 20 इंच से 20 फीट तक की दूरी की वस्तुओं को स्पष्ट देख सकता है। ऐसे नेत्र को एमेट्रोपिक नेत्र (Ammetropic eye) कहते हैं। कभी-कभी नेत्रों में कुछ दोष उत्पन्न हो जाते हैं।

प्रमुख दृष्टि दोष अग्ग प्रकार है –
1. निकट दृष्टि दोष (Myopia) – इस दोष में व्यक्ति समीप की वस्तुओं को तो स्पष्ट देख सकता है किन्तु दूर की वस्तुओं को स्पष्ट नहीं देख पाता है। ऐसा नेत्र गोलक के व्यास के अधिक होने या नेत्र लैंस की फोकस दूरी के कम हो जाने के कारण होता है। इसमें वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना से पहले ही बन जाता है। इस दोष का निवारण अवतल लैंस युक्त चश्मा पहन कर किया जा सकता है।

2. दूर दृष्टि दोष (Hypermetropia) – इस दृष्टि दोष में व्यक्ति को दूर की वस्तु स्पष्ट दिखाई देती हैं किन्तु समीप की वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं देती है। ऐसा नेत्र गोलक के व्यास कम हो जाने या नेत्र लैंस की फोकस दूरी बढ़ जाने के कारण होता है। इसमें वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटना के बाहर बनता है। इस दोष का निवारण चश्मे में उत्तल लैंस (convex lens) लगाकर किया जा सकता है।

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3. जरा दृष्टि दोष (Presbiopia) – इस प्रकार के दृष्टि दोष में व्यक्ति को समीप व दूर की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देती हैं। यह दोष वृद्धावस्था में होता

4. दृष्टि वैषम्य या ऐस्टिगमैटिज्म (Astigmatism) – मनुष्य में दृष्टि वेषम्य दोष कानिया की आकृति असामान्य हो जाने से हो जाता है। इस दोष के कारण मनुष्य को धुँधला और अधूरा दिखाई देता है। इस नेत्र दोष को दूर करने के लिए बेलनाकार लेन्स (Cylindrical lens) का चश्मा लगाया जाता है।

5. सबलबाय या ग्लूकोमा (Glucoma)- नेत्र गोलक की दीवार सामान्य तेजोजल (ऐक्वस ह्यूमर) तथा काचाभ जल (विट्रिस ह्यूमर) के दबाव से सधी रहती है। यदि श्लेष्म की नाल में अवरोध आ जाये तो नेत्र कक्ष में दबाव बढ़ जाता है, जिससे रेटिना क्षतिम्रस्त हो जाती है। इसे सबलबाय या ग्लूकोमा रोग कहते हैं। इससे रोगी को दिखाई देना बंद हो जाता है।

6. मोतियाबिन्द या कैटारेक्ट (Cataract) – यह रोग वृद्धावस्था में, लेन्स का लचीलापन कम हो जाने तथा लेन्स की दोनों सतहों के कम उत्तल हो जाने से हो जाता है। इस स्थिति में लेन्स घना-भूरा तथा अपारदर्शी (Opaque) हो जाता है तब इस अवस्था को मोतियाबिन्द कहते हैं। इस नेत्र-दोष को दूर करने के लिए शल्य क्रिया (ऑपरेशन) करके दोषपूर्ण लेन्स को निकाल दिया जाता है और उपयुक्त लेन्स का चश्मा दिया जाता है।
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7. थेंगापन या स्ट्रेबिस्मस (Strabismus) – यह नेत्र रोग नेत्र गोलक की पेशियों के बड़ी या छोटी हो जाने के कारण नेत्र गोलक के एक ओर झुक जाने से हो जाता है।

8. जीरॉप्यैल्भिया (Xerophthalmia) – यह नेत्र दोष कंजक्टाइवा पर्त में किरेटिन (Keratin) संचित हो जाने से घनी हो जाने के कारण हो जाता है। यह नेत्र रोग भोजन में विटामिन A की कमी से होता है।

9. रतौंधी (Nightblindness) – यह नेत्र रोग भोजन में विटामिन A (retinol) की कमी से हो जाता है। विटामिन A की कमी से रोडोप्सिन (rhodopsin) का पर्याप्त मात्रा में संश्लेषण नहीं हो पाता है। इससे व्यक्ति को मन्द प्रकाश में साफ दिखाई नहीं देता है।

10. वर्णान्थता (Colourblindness) – यह एक आनुवंशिक नेत्र रोग है, जो ‘X’ लिंग गुणसूत्र से संलग्न जीन के द्वारा सन्तान में स्थानान्तरित हो जाने से होता है। इस दोष के कारण व्यक्ति हरे व लाल रंगों में पहचान नहीं कर पाता है।

प्रश्न 14.
मानव आँख की संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रकाश संवेदांग-नेत्र (Photoreceptor-Eye):
स्तनियों में एक जोड़ी नेत्र सिर पर पृष्ठ पार्श्व में स्थित होते हैं। ये गोलाकार व कुछकुछ गेंद सरीखे होते हैं। ये खोपड़ी के मध्य भाग में. अस्थिल गड्ढों में स्थित होते हैं। इन गड़ों को नेत्र कोटर (orbits) कहते हैं। आँख का लगभग 4 / 5 भाग नेत्र मोटर में धँसा रहता है। नेत्र गोलक के इस उभरे हुए भाग को कार्निया (cornea) कहते हैं। प्रत्येक भाग के साथ पलकें तथा कुछ म्रन्थियाँ भी होती हैं।

1. नेत्र पलकें (Eye lids) – दोनों नेत्रों पर त्वचा के वलन से बनी दो गतिशील पलके (eyelids) पायी जाती हैं जो नेत्र गोलक को सुरक्षा प्रदान करती हैं। जिनके किनारे पर लम्बे रोम उपस्थित होते हैं, जिन्हें बरौनियाँ (eye lashes) कहते हैं। ये धूल व मिट्टी के कणों को नेत्र में जाने से रोकती हैं। इनके अतिरिक्त नेत्र गोलक के अन्दर की ओर एक पेशीविहीन पलक और पायी जाती है जिसे निमेषक पटल या निक्टेटिंग झिल्ली (nictitating membrane) कहते हैं। खरगोश में यह समय-समय पर कॉनिर्या पर फैलकर उसे साफ करने का कार्य करती है। मनुष्य में यह एक अवशेषी अंग (vestigeal organ) के रूप में पायी जाती है। इसे पलीका सेमीन्यूलेरिस (Plica seminularis) भी कहते हैं।

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2. नेत्र श्रन्धियाँ (Eye Glands) – स्तनधारियों के नेत्रों में निम्नलिखित नेत्र प्रन्थियाँ पायी जाती हैं –
(i) माइबोमियन प्रन्बियाँ (Meibomian glands) – ये सिबेसियस ग्रन्थियों का रूपान्तरण होती हैं जो कि पलकों के किनारों पर समकोण पर लगी होती हैं। इनका स्नाव कॉर्निया को नम तथा चिकना बनाता है तथा आँसुओं को सीधे गाल पर गिरने से रोकता है।

(ii) जाइस की ग्रन्थियाँ (Zeis’s glands) – ये रूपान्तरित सिबेसियस (तेल) ग्रन्थियाँ होती हैं जो बरोनियों की पुटिकाओं में पायी जाती हैं। ये कोर्निया को चिकना बनाती हैं।

(iii) हारडिरियन ग्रन्थियाँ (Harderian glands) – ये ग्रन्थियाँ मानव में अनुपस्थित होती हैं परन्तु क्छेल, चूहों व छछुन्दरों में पायी जाती हैं। ये निमेषक झिल्ली को चिकना व नम बनाती हैं।

(iv) अश्रुप्रन्थियाँ (Lachrymal glands) -ये आँख के बाहरी कोण पर स्थित होती है और जल सदृश द्रव स्नावित करती हैं। गैस, धुआँ धूल या तिनका आदि आँख में गिर जाने पर अथवा बहुत भावुक हो उठने पर इन ग्रन्थियों के स्राव से आँखें गीली हो जाती हैं जिन्हें अश्रु कहते हैं। ऊपरी पलक के झपकने से ये स्राव पूरी आँख में फैल जाता है और धूल आदि कण घुल जाते हैं। जन्म के लगभग चार माह बाद मानव शिशु में अश्रु ग्रन्थियाँ सक्रिय होती हैं।
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3. नेत्र कोटर की पेशियाँ (Eye Muscles) – नेत्र कोटर में नेत्र गोलक को इधर-उधर घुमाने के लिये छः नेत्र पेशी समूह पाये जाते हैं जिनमें चार रेक्टस पेशियाँ व दो तिरछी (oblique) पेशियाँ होती हैं।

  • बाह्य या पार्श्व रैक्टस पेशी (External or lateral rectus muscle) – ये नेत्र गोलक को नेत्र कोटर से बाहर की ओर लाती हैं।
  • अन्त या मध्य रैक्टस पेशी (Internal or medial rectus muscle)- ये नेत्र गोलक को अन्दर की ओर ले जाती हैं।
  • उत्तर रेक्टस पेशी (Superior Rectus Muscle)-ये नेत्र गोलक को ऊपर की ओर गति कराती हैं।
  • अधो रेक्टस पेशी (Inferior Rectus Muscle)-ये नेत्र गोलक को नीचे की ओर गति कराती हैं।
  • उत्तर तिरछी पेशी (Superior oblique muscle) – ये नेत्र गोलक को नीचे की ओर व बाहर की तरफ खींचती हैं।
  • अधो तिरछी पेशी (Inferior oblique muscle) – ये नेत्र गोलक को ऊपर की ओर व बाहर की तंरफ खींचती हैं।

इन सभी पेशियों की लम्बाई स्थिर होती है। यदि कोई पेशी छोटी या बड़ी हो जाये तो नेत्र गोलक की स्थिति बिगड़ जाती है और वह एक ओर झुका हुआ सा दिखाई देता है, इससे बेंगापन (Squint or strabismus) उत्पन्न हो जाता है।

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4. कंजैक्टिवा (Conjuctiva) – नेत्र की दोनों पलकों की आन्तरिक अधिचर्म अन्दर की ओर कॉर्निया पर फैलकर एक पतले व पारदर्शी स्तर का निर्माण करती है। यह कंजैक्टिवा कहलाती है। यह अधिचर्म शरीर की सबसे पतली अधिचर्म होती है। यह पारदर्शी होती है।
नेत्रगोलक की आन्तरिक संरचना (Internal structure of Eye ball)-कॉर्निया को छोड़कर शेष नेत्र गोलक की दीवार में तीन स्तर होते हैं-
(1) श्वेत पटल या स्केलरा या स्क्लेरोटिक (Sclerotic) – यह सबसे बाहरी स्तर होता है। नेत्र गोलक (Eye ball) का बाहरी उभरा हुआ पारदर्शक भाग कॉर्निया कहलाता है। यह दृढ़ तन्तुमय संयोजी ऊतकों का बना होता है। यह नेत्र गोलक का आकार बनाये रखता है।

(2) रक्तक पटल या कोरॉयड (Choroid) – यह कोमल संयोजी ऊतकों का बना नेत्र गोलक का मध्य स्तर है। इसकी कोशिकाओं में रंग कणिकाएँ होती हैं, इनके कारण ही आँखों में रंग दिखायी देता है। इस स्तर में रक्त केशिकाओं का सघन जाल पाया जाता है। नेत्र के अगले भाग में यह निम्नलिखित रचनाएँ बनाता है-

(अ) उपतारा या आइरिस (Iris)-कॉर्निया के आधार पर यह भीतर की ओर गोल रंगीन पर्दा बनाता है जिसे उपतारा या आइरिस (Iris) कहते हैं। आइरिस के बीचोंबीच में एक छिद्र होता है, इसको पुतली या तारा (Pupil) कहते हैं। आइरिस पर अरेखित अरीय प्रसारी पेशियाँ फैली रहती हैं जिसके संकुचन से पुतली का व्यास बढ़ता है तथा वर्तुल स्फिक्टर पेशियाँ संकुचन द्वारा पुतलीक के व्यास को कम करती हैं।
(ब) सिलियरी काय (Ciliary body)-रक्तक पटल के आइरिस का भीतरी भाग कुछ मोटा होता है। यह सिलियरी बॉडी कहलाता है। सिलियरी काय संकुचनशील होता है। इससे अनेक महीन एवं लचीले निलम्बन रज्जु निकलते हैं, जो लेन्स (lens) से संलग्न रहते हैं।

(3) मूर्तिपटल या दृष्ट्पिपटल या रेटिना (Retina) – यह नेत्र गोलक का सबसे भीतरी स्तर होता है। यह पतला कोमल संवेदी स्तर होता है। इसमें तन्न्रिका सूत्र, संयोजी ऊतक व वर्णक कोशिकाएँ पायी जाती हैं। दृष्टिपटल में दो स्तर होते हैं-
(अ) वर्णकी स्तर (Pigment layer) – यह स्तर चपटी एवं कणिका युक्त एपीथिलियमी कोशिकाओं का एकाकी स्तर होता है।

(ब) तन्न्रिका संवेदी स्तर (Neuro Sensory layer) – यह वर्णकी स्तर के ठीक नीचे स्थित होता है जो कि दृष्टि शलाका (rods) तथा दृष्टि शंकु (cones) से बनी होती है। दृष्टि शलाका लम्बी कोशिकाएँ होती हैं जो अन्धकार तथा प्रकाश में भेद करती हैं तथा दृष्टि शंकु छोटी तथा मोटी कोशिकाएँ होती हैं, जिनके द्वारा रंगों की पहचान होती है। ये द्विध्रुवीय (bipolar) तन्त्रिका कोशिकाओं से जुड़े रहते हैं।
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द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिकाओं के तत्रिकार्ष (axons) लम्बे होते हैं, जो आपस में मिलकर दृष्टि तन्रिका (optic nerve) बनाते हैं, जो दृष्टि छिद्र से निकलकर मस्तिष्क को जाती है। दृष्टि तन्त्रिका के बाहर निकलने वाले स्थान पर प्रतिबिम्ब नहीं बनता है, इसे अन्ध बिन्दु (blind spot) कहते हैं। इससे थोड़ा ऊपर पीत बिन्दु (yellow spot) होता है। जहाँ वस्तु का प्रतिबिम्ब सबसे स्पष्ट बनता है। इस बिन्दु का रंग पीला-सा होता है। पीत बिन्दु को मैक्यूला ल्यूटिया (Macula lutea) भी कहते हैं। इसके केन्द्र में एक गर्त होता है जिसे फोविया सेट्रेलिस (Fovea centralis) कहते हैं। लेन्स (Lens) – उपतारा (pupil) के पीछे नेत्रगोलक (eye ball) की गुहा में एक बड़ा रंगहीन, पारदर्शक एवं उभयोतल (biconvex) लेन्स होता है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

भागों में विभक्त करता है –
(i) जलीय वेश्म या ऐक्वस चैम्बर (Aquous chamber) – लेन्स (lens) तथा कॉर्निया के बीच स्वच्छ पारदर्शक जल सदृश द्रव भरा रहता है। इसे तेजो जल या ऐक्वस ह्यमर (aquous humor) कहते हैं।

(ii) काचाभ द्रव्य वेश्म या विट्रिस चैम्बर (Vitreous chamber)-लेन्स (lens) तथा रेटिना (retina) के बीच गाढ़ा पारदर्शक जैली सदृश द्रव्य भरा रहता है जिसे काचाभ द्रव्य (vitreous humor) कहते हैं। ये दोनों ही द्रव नेत्र गुहा में निश्चित दबाव बनाये रखते हैं जिससे दृष्टिपटल (retina) तथा अन्य नेत्र पटल अपने यथास्थान बने रहते हैं। रेटिना (Retina) की संरचना दृष्टि पटल (रेटिना) नेत्र गोलक (eye ball) का सबसे भीतरी स्तर है। यह पतला, कोमल संवेदी स्तर होता है। यह कॉर्निया (Cornea) को छोड़कर शेष नेत्र गोलक के तीन-चौथाई भाग में फैला रहता है।

दृष्टि पटल दो प्रमुख स्तरों का बना होता है –
(1) रंगा या वर्णकी स्तर (Pigment layer)-यह रक्तपटल से चिपका एक कोशिकीय स्तर होता है जो सिलीयरी काय एवं आइरिस (Iris) की भीतरी सतह पर भी फैला रहता है लेकिन सिलीयरी काय वाले भाग में रंगा कण नहीं पाये जाते हैं।
(2) तत्त्रिका संवेदी स्तर (Neuro sensory layer)-वर्णकी स्तर के ठीक नीचे भीतर की ओर मोटा और जटिल तन्त्रिका संवेदी स्तर होता है। यह केवल सीलियरी काय तक फैला रहता है। इस भाग में तन्त्रिका एवं संवेदी कोशिकाओं के तीन स्तर होते हैं-

(A) दृक् शलाका एवं शंकु स्तर (Layer of Rods and Cones)-इस स्तर में लम्बी-लम्बी रूपान्तरित तन्त्रिका संवेदी कोशिकाएँ होती हैं। ये वर्णक युक्त कोशिकाएँ होती हैं। इसमें दो प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती हैं-
(i) दृष्टि शलाकाएँ (Rods) – ये पतली, लम्बी तथा बेलनाकार कोशिकाएँ होती हैं। ये संख्या में अधिक होती हैं। इनकी लम्बाई शंकु कोशिकाओं (Cones) से अधिक होती हैं। इनमें रोडोप्सिन (rhodopsin) नामक वर्णक उपस्थित होता है। दृष्टि शलाकाएँ प्रकाश तथा अन्धकार का ज्ञान कराती हैं।

(ii) दृष्टि शंकु (Cones) – ये छोटी, मोटी तथा मुग्दराकार कोशिकाएँ होती हैं। इनके सिरे नुकीले नहीं होते हैं। ये संख्या में अपेक्षाकृत कम होती हैं। इनमें आइडप्सिन (Iodopsin) वर्णक उपस्थित होता है। ये तीव्र प्रकाश में वस्तुओं तथा विभिन्न रंगों का ज्ञान कराती हैं। दृष्टि शलाकाओं तथा शंकुओं के भीतरी सिरों से निकले हुए पतले तन्त्रिका सूत्रों से द्विध्रुवीय (bipolar) तन्त्रिका कोशिकाओं के डेण्ड्राइट्स प्रवर्धों के साथ पुग्मानुबन्धनों द्वारा सम्बन्धित रहते हैं।
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(B) द्विधुवीय तन्त्रिका कोशिका परत (Bipolar neuronic layer) – इस स्तर में अनेक द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिकाएँ होती हैं। इनके डेण्ड्राइट्स दृष्टि शलाकाओं तथा दृष्टि शंकुओं के एक्मॉन्न के साथ युग्मानुबन्यन बनाते हैं। इस स्तर की तन्त्रिकाएँ गुच्छकीय स्तर की कोशिकाओं से जुड़कर युग्मानुबन्धन (synapse) बनाते हैं।

(C) गुच्छकीय स्तर (Ganglionic layer) – इस स्तर में बड़े आकार की द्विध्रुवीय कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें गुच्छकीय कोशिकाएँ (ganglionic cells) भी कहते हैं। इन कोशिकाओं के तन्तिकाद्ध (axon) लम्बे होते हैं जो परस्पर मिलकर दृष्टि तत्तिका बनाते हैं।

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देखने की प्रक्रिया (Process of Vision):
हमारे नेत्र कैमरे के समान कार्य करते हैं। ये प्रकाश की 380 से 760 नैनोमीटर तरंगदैर्ध्य (wavelength) की किरणों की ऊर्जा को ग्रहण करके इसे तन्त्रिका तन्तु के क्रिया विभव में परिवर्तित कर देते हैं।

नेत्र की क्रियाविधि (Working of Eye) – जब उचित आवृत्ति की प्रकाश तरंग कॉनिया पर पड़ती हैं तब कॉर्निया तथा तेजोजल (aqueous humor) प्रकाश किरणों का अपवर्तन (refraction) कर देते हैं। ये किरणें तारे (pupil) से होकर लेन्स (lens) पर पड़ती हैं। लेन्स इनका पूर्ण अपवर्तन कर देता है। इससे रेटिना के पीत बिन्दु पर वस्तु का उल्टा और वास्तविक प्रतिबिम्ब बन जाता है। उपतारा (आइरिस) तारे (पुतली-pupil) को छोटा या बड़ा करके प्रकाश की मात्रा को नियन्त्रित करता है। तेज प्रकाश में तारा सिकुड़ जाता है और कम प्रकाश नेत्र के भीतर प्रवेश करता है। कम प्रकाश में तारा फैल जाता है और अधिक प्रकाश नेत्र के भीतर प्रवेश करता है।
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नेत्र द्वारा समायोजन (Accommodation by Eye) – सीलियरी बॉडी तथा निलम्बन स्नायु लेन्स के फोकस में अन्तर लाकर वस्तु के प्रतिबिम्ब को रेटिना पर केन्द्रित करते हैं। सामान्य स्थिति में सीलियरी बाँडी की पेशियाँ शिथिल रहती हैं जिस कारण इससे लगे निलम्बन स्नायु तनी हुई अवस्था में रहते हैं, जिससे लेन्स चपटा हो जाता हैं तथा लेन्स की फोकस दूरी बढ़ जाती है।

ऐसी स्थिति में दूर की वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है। जब निकट की वस्तु को देखना होता है तो सीलियरी काय की पेशियों में संकुचन होता है जिससे यह काय खिंचकर चोड़ी हो जाती है जिससे निलम्बन स्नायु ढीले हो जाते हैं तथा लेन्स तनाव कम हो जाने के कारण अधिक उत्तल हो जाता है जिससे लेन्स की फोकस दूरी कम हो जाती है तथा निकट की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं।

प्रकाश-रासायनिक परिवर्तन (Photo-chemical Changes) – जब विशिष्ट तरंगदैर्ध्य वाली प्रकाश की किरणें रेटिना पर पड़ती हैं, तब ये दृष्टि शलाकाओं एवं दृष्टि शंकुओं में उपस्थित रसायनों में परिवर्तन करती हैं।
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जब प्रकाश की किरणें शलाकाओं के रोड्डिप्सिन (rhodopsin) पर पड़ती हैं, तब यह रेटिनीन (retinene) तथा आप्सिन (opsin) में टूट जाता है।. अन्धकार में शलाकाओं में एन्जाइम्स की सहायता से रेटिनीन एवं आप्सिन मिलकर रोडोप्सिन संश्लेषण करते हैं। इसीलिए जब हम तेज प्रकाश से अन्धकार में जाते हैं, तब हमें तत्काल (तुरन्त) कुछ दिखाई नहीं देता है, किन्तु धीर-धीरे दिखाई देने लगता है। शंकुओं में आयोडोप्सिन (Iodopsin) नामक वर्णक उपस्थित होता है।

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इसमें वर्णक घटक रेटिनीन तथा प्रोटीन घटक फोटोप्सिन (Photopsin) होता है। शंकु तीन प्रारम्भिक रंगों को-लाल, हरा, व नीले को कहते हैं। इन्हीं तीन प्रकार के शंकुओं के विभिन्न मात्राओं में उद्दीपनों के मिश्रणों से प्रारस्भिक रंमों के मिश्रणों-सफेद नारंगी, पीले, बैंगनी आदि का हमें ज्ञान हो जाता है। मानव एवं अन्य प्राइमेट्स में दोनों नेत्रों द्वारा एक ही प्रतिबिम्ब बनता है। इस प्रकार की दृष्टि को द्विनेत्रीय दृष्टि (binocular vision) कहते हैं। विकसित द्विनेत्रीय दृष्टि से हमें वस्तु का गहराई से ज्ञान हो जाता है।
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दृष्टि दोष (Defects of Vision):
एक सामान्य नेत्र 20 इंच से 20 फीट तक की दूरी की वस्तुओं को स्पष्ट देख सकता है। ऐसे नेत्र को एमेट्रोपिक नेत्र (Ammetropic eye) कहते हैं। कभी-कभी नेत्रों में कुछ दोष उत्पन्न हो जाते हैं।

प्रमुख दृष्टि दोष अग्ग प्रकार है –
1. निकट दृष्टि दोष (Myopia) – इस दोष में व्यक्ति समीप की वस्तुओं को तो स्पष्ट देख सकता है किन्तु दूर की वस्तुओं को स्पष्ट नहीं देख पाता है। ऐसा नेत्र गोलक के व्यास के अधिक होने या नेत्र लैंस की फोकस दूरी के कम हो जाने के कारण होता है। इसमें वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना से पहले ही बन जाता है। इस दोष का निवारण अवतल लैंस युक्त चश्मा पहन कर किया जा सकता है।

2. दूर दृष्टि दोष (Hypermetropia) – इस दृष्टि दोष में व्यक्ति को दूर की वस्तु स्पष्ट दिखाई देती हैं किन्तु समीप की वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं देती है। ऐसा नेत्र गोलक के व्यास कम हो जाने या नेत्र लैंस की फोकस दूरी बढ़ जाने के कारण होता है। इसमें वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटना के बाहर बनता है। इस दोष का निवारण चश्मे में उत्तल लैंस (convex lens) लगाकर किया जा सकता है।

3. जरा दृष्टि दोष (Presbiopia) – इस प्रकार के दृष्टि दोष में व्यक्ति को समीप व दूर की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देती हैं। यह दोष वृद्धावस्था में होता

4. दृष्टि वैषम्य या ऐस्टिगमैटिज्म (Astigmatism) – मनुष्य में दृष्टि वेषम्य दोष कानिया की आकृति असामान्य हो जाने से हो जाता है। इस दोष के कारण मनुष्य को धुँधला और अधूरा दिखाई देता है। इस नेत्र दोष को दूर करने के लिए बेलनाकार लेन्स (Cylindrical lens) का चश्मा लगाया जाता है।

5. सबलबाय या ग्लूकोमा (Glucoma)- नेत्र गोलक की दीवार सामान्य तेजोजल (ऐक्वस ह्यूमर) तथा काचाभ जल (विट्रिस ह्यूमर) के दबाव से सधी रहती है। यदि श्लेष्म की नाल में अवरोध आ जाये तो नेत्र कक्ष में दबाव बढ़ जाता है, जिससे रेटिना क्षतिम्रस्त हो जाती है। इसे सबलबाय या ग्लूकोमा रोग कहते हैं। इससे रोगी को दिखाई देना बंद हो जाता है।

6. मोतियाबिन्द या कैटारेक्ट (Cataract) – यह रोग वृद्धावस्था में, लेन्स का लचीलापन कम हो जाने तथा लेन्स की दोनों सतहों के कम उत्तल हो जाने से हो जाता है। इस स्थिति में लेन्स घना-भूरा तथा अपारदर्शी (Opaque) हो जाता है तब इस अवस्था को मोतियाबिन्द कहते हैं। इस नेत्र-दोष को दूर करने के लिए शल्य क्रिया (ऑपरेशन) करके दोषपूर्ण लेन्स को निकाल दिया जाता है और उपयुक्त लेन्स का चश्मा दिया जाता है।
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7. थेंगापन या स्ट्रेबिस्मस (Strabismus) – यह नेत्र रोग नेत्र गोलक की पेशियों के बड़ी या छोटी हो जाने के कारण नेत्र गोलक के एक ओर झुक जाने से हो जाता है।

8. जीरॉप्यैल्भिया (Xerophthalmia) – यह नेत्र दोष कंजक्टाइवा पर्त में किरेटिन (Keratin) संचित हो जाने से घनी हो जाने के कारण हो जाता है। यह नेत्र रोग भोजन में विटामिन A की कमी से होता है।

9. रतौंधी (Nightblindness) – यह नेत्र रोग भोजन में विटामिन A (retinol) की कमी से हो जाता है। विटामिन A की कमी से रोडोप्सिन (rhodopsin) का पर्याप्त मात्रा में संश्लेषण नहीं हो पाता है। इससे व्यक्ति को मन्द प्रकाश में साफ दिखाई नहीं देता है।

10. वर्णान्थता (Colourblindness) – यह एक आनुवंशिक नेत्र रोग है, जो ‘X’ लिंग गुणसूत्र से संलग्न जीन के द्वारा सन्तान में स्थानान्तरित हो जाने से होता है। इस दोष के कारण व्यक्ति हरे व लाल रंगों में पहचान नहीं कर पाता है।

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प्रश्न 15.
मानव नेत्र द्वारा देखने की क्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

प्रकाश संवेदांग-नेत्र (Photoreceptor-Eye):
स्तनियों में एक जोड़ी नेत्र सिर पर पृष्ठ पार्श्व में स्थित होते हैं। ये गोलाकार व कुछकुछ गेंद सरीखे होते हैं। ये खोपड़ी के मध्य भाग में. अस्थिल गड्ढों में स्थित होते हैं। इन गड़ों को नेत्र कोटर (orbits) कहते हैं। आँख का लगभग 4 / 5 भाग नेत्र मोटर में धँसा रहता है। नेत्र गोलक के इस उभरे हुए भाग को कार्निया (cornea) कहते हैं। प्रत्येक भाग के साथ पलकें तथा कुछ म्रन्थियाँ भी होती हैं।

1. नेत्र पलकें (Eye lids) – दोनों नेत्रों पर त्वचा के वलन से बनी दो गतिशील पलके (eyelids) पायी जाती हैं जो नेत्र गोलक को सुरक्षा प्रदान करती हैं। जिनके किनारे पर लम्बे रोम उपस्थित होते हैं, जिन्हें बरौनियाँ (eye lashes) कहते हैं। ये धूल व मिट्टी के कणों को नेत्र में जाने से रोकती हैं। इनके अतिरिक्त नेत्र गोलक के अन्दर की ओर एक पेशीविहीन पलक और पायी जाती है जिसे निमेषक पटल या निक्टेटिंग झिल्ली (nictitating membrane) कहते हैं। खरगोश में यह समय-समय पर कॉनिर्या पर फैलकर उसे साफ करने का कार्य करती है। मनुष्य में यह एक अवशेषी अंग (vestigeal organ) के रूप में पायी जाती है। इसे पलीका सेमीन्यूलेरिस (Plica seminularis) भी कहते हैं।

2. नेत्र श्रन्धियाँ (Eye Glands) – स्तनधारियों के नेत्रों में निम्नलिखित नेत्र प्रन्थियाँ पायी जाती हैं –
(i) माइबोमियन प्रन्बियाँ (Meibomian glands) – ये सिबेसियस ग्रन्थियों का रूपान्तरण होती हैं जो कि पलकों के किनारों पर समकोण पर लगी होती हैं। इनका स्नाव कॉर्निया को नम तथा चिकना बनाता है तथा आँसुओं को सीधे गाल पर गिरने से रोकता है।

(ii) जाइस की ग्रन्थियाँ (Zeis’s glands) – ये रूपान्तरित सिबेसियस (तेल) ग्रन्थियाँ होती हैं जो बरोनियों की पुटिकाओं में पायी जाती हैं। ये कोर्निया को चिकना बनाती हैं।

(iii) हारडिरियन ग्रन्थियाँ (Harderian glands) – ये ग्रन्थियाँ मानव में अनुपस्थित होती हैं परन्तु क्छेल, चूहों व छछुन्दरों में पायी जाती हैं। ये निमेषक झिल्ली को चिकना व नम बनाती हैं।

(iv) अश्रुप्रन्थियाँ (Lachrymal glands) -ये आँख के बाहरी कोण पर स्थित होती है और जल सदृश द्रव स्नावित करती हैं। गैस, धुआँ धूल या तिनका आदि आँख में गिर जाने पर अथवा बहुत भावुक हो उठने पर इन ग्रन्थियों के स्राव से आँखें गीली हो जाती हैं जिन्हें अश्रु कहते हैं। ऊपरी पलक के झपकने से ये स्राव पूरी आँख में फैल जाता है और धूल आदि कण घुल जाते हैं। जन्म के लगभग चार माह बाद मानव शिशु में अश्रु ग्रन्थियाँ सक्रिय होती हैं।
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3. नेत्र कोटर की पेशियाँ (Eye Muscles) – नेत्र कोटर में नेत्र गोलक को इधर-उधर घुमाने के लिये छः नेत्र पेशी समूह पाये जाते हैं जिनमें चार रेक्टस पेशियाँ व दो तिरछी (oblique) पेशियाँ होती हैं।

  • बाह्य या पार्श्व रैक्टस पेशी (External or lateral rectus muscle) – ये नेत्र गोलक को नेत्र कोटर से बाहर की ओर लाती हैं।
  • अन्त या मध्य रैक्टस पेशी (Internal or medial rectus muscle)- ये नेत्र गोलक को अन्दर की ओर ले जाती हैं।
  • उत्तर रेक्टस पेशी (Superior Rectus Muscle)-ये नेत्र गोलक को ऊपर की ओर गति कराती हैं।
  • अधो रेक्टस पेशी (Inferior Rectus Muscle)-ये नेत्र गोलक को नीचे की ओर गति कराती हैं।
  • उत्तर तिरछी पेशी (Superior oblique muscle) – ये नेत्र गोलक को नीचे की ओर व बाहर की तरफ खींचती हैं।
  • अधो तिरछी पेशी (Inferior oblique muscle) – ये नेत्र गोलक को ऊपर की ओर व बाहर की तंरफ खींचती हैं।

इन सभी पेशियों की लम्बाई स्थिर होती है। यदि कोई पेशी छोटी या बड़ी हो जाये तो नेत्र गोलक की स्थिति बिगड़ जाती है और वह एक ओर झुका हुआ सा दिखाई देता है, इससे बेंगापन (Squint or strabismus) उत्पन्न हो जाता है।

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4. कंजैक्टिवा (Conjuctiva) – नेत्र की दोनों पलकों की आन्तरिक अधिचर्म अन्दर की ओर कॉर्निया पर फैलकर एक पतले व पारदर्शी स्तर का निर्माण करती है। यह कंजैक्टिवा कहलाती है। यह अधिचर्म शरीर की सबसे पतली अधिचर्म होती है। यह पारदर्शी होती है।
नेत्रगोलक की आन्तरिक संरचना (Internal structure of Eye ball)-कॉर्निया को छोड़कर शेष नेत्र गोलक की दीवार में तीन स्तर होते हैं-
(1) श्वेत पटल या स्केलरा या स्क्लेरोटिक (Sclerotic) – यह सबसे बाहरी स्तर होता है। नेत्र गोलक (Eye ball) का बाहरी उभरा हुआ पारदर्शक भाग कॉर्निया कहलाता है। यह दृढ़ तन्तुमय संयोजी ऊतकों का बना होता है। यह नेत्र गोलक का आकार बनाये रखता है।

(2) रक्तक पटल या कोरॉयड (Choroid) – यह कोमल संयोजी ऊतकों का बना नेत्र गोलक का मध्य स्तर है। इसकी कोशिकाओं में रंग कणिकाएँ होती हैं, इनके कारण ही आँखों में रंग दिखायी देता है। इस स्तर में रक्त केशिकाओं का सघन जाल पाया जाता है। नेत्र के अगले भाग में यह निम्नलिखित रचनाएँ बनाता है-

(अ) उपतारा या आइरिस (Iris)-कॉर्निया के आधार पर यह भीतर की ओर गोल रंगीन पर्दा बनाता है जिसे उपतारा या आइरिस (Iris) कहते हैं। आइरिस के बीचोंबीच में एक छिद्र होता है, इसको पुतली या तारा (Pupil) कहते हैं। आइरिस पर अरेखित अरीय प्रसारी पेशियाँ फैली रहती हैं जिसके संकुचन से पुतली का व्यास बढ़ता है तथा वर्तुल स्फिक्टर पेशियाँ संकुचन द्वारा पुतलीक के व्यास को कम करती हैं।

(ब) सिलियरी काय (Ciliary body)-रक्तक पटल के आइरिस का भीतरी भाग कुछ मोटा होता है। यह सिलियरी बॉडी कहलाता है। सिलियरी काय संकुचनशील होता है। इससे अनेक महीन एवं लचीले निलम्बन रज्जु निकलते हैं, जो लेन्स (lens) से संलग्न रहते हैं।

(3) मूर्तिपटल या दृष्ट्पिपटल या रेटिना (Retina) – यह नेत्र गोलक का सबसे भीतरी स्तर होता है। यह पतला कोमल संवेदी स्तर होता है। इसमें तन्न्रिका सूत्र, संयोजी ऊतक व वर्णक कोशिकाएँ पायी जाती हैं। दृष्टिपटल में दो स्तर होते हैं-
(अ) वर्णकी स्तर (Pigment layer) – यह स्तर चपटी एवं कणिका युक्त एपीथिलियमी कोशिकाओं का एकाकी स्तर होता है।

(ब) तन्न्रिका संवेदी स्तर (Neuro Sensory layer) – यह वर्णकी स्तर के ठीक नीचे स्थित होता है जो कि दृष्टि शलाका (rods) तथा दृष्टि शंकु (cones) से बनी होती है। दृष्टि शलाका लम्बी कोशिकाएँ होती हैं जो अन्धकार तथा प्रकाश में भेद करती हैं तथा दृष्टि शंकु छोटी तथा मोटी कोशिकाएँ होती हैं, जिनके द्वारा रंगों की पहचान होती है। ये द्विध्रुवीय (bipolar) तन्त्रिका कोशिकाओं से जुड़े रहते हैं।
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द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिकाओं के तत्रिकार्ष (axons) लम्बे होते हैं, जो आपस में मिलकर दृष्टि तन्रिका (optic nerve) बनाते हैं, जो दृष्टि छिद्र से निकलकर मस्तिष्क को जाती है। दृष्टि तन्त्रिका के बाहर निकलने वाले स्थान पर प्रतिबिम्ब नहीं बनता है, इसे अन्ध बिन्दु (blind spot) कहते हैं। इससे थोड़ा ऊपर पीत बिन्दु (yellow spot) होता है।

जहाँ वस्तु का प्रतिबिम्ब सबसे स्पष्ट बनता है। इस बिन्दु का रंग पीला-सा होता है। पीत बिन्दु को मैक्यूला ल्यूटिया (Macula lutea) भी कहते हैं। इसके केन्द्र में एक गर्त होता है जिसे फोविया सेट्रेलिस (Fovea centralis) कहते हैं। लेन्स (Lens) – उपतारा (pupil) के पीछे नेत्रगोलक (eye ball) की गुहा में एक बड़ा रंगहीन, पारदर्शक एवं उभयोतल (biconvex) लेन्स होता है।

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भागों में विभक्त करता है-
(i) जलीय वेश्म या ऐक्वस चैम्बर (Aquous chamber) – लेन्स (lens) तथा कॉर्निया के बीच स्वच्छ पारदर्शक जल सदृश द्रव भरा रहता है। इसे तेजो जल या ऐक्वस ह्यमर (aquous humor) कहते हैं।

(ii) काचाभ द्रव्य वेश्म या विट्रिस चैम्बर (Vitreous chamber)-लेन्स (lens) तथा रेटिना (retina) के बीच गाढ़ा पारदर्शक जैली सदृश द्रव्य भरा रहता है जिसे काचाभ द्रव्य (vitreous humor) कहते हैं। ये दोनों ही द्रव नेत्र गुहा में निश्चित दबाव बनाये रखते हैं जिससे दृष्टिपटल (retina) तथा अन्य नेत्र पटल अपने यथास्थान बने रहते हैं। रेटिना (Retina) की संरचना दृष्टि पटल (रेटिना) नेत्र गोलक (eye ball) का सबसे भीतरी स्तर है। यह पतला, कोमल संवेदी स्तर होता है। यह कॉर्निया (Cornea) को छोड़कर शेष नेत्र गोलक के तीन-चौथाई भाग में फैला रहता है।

दृष्टि पटल दो प्रमुख स्तरों का बना होता है –
(1) रंगा या वर्णकी स्तर (Pigment layer)-यह रक्तपटल से चिपका एक कोशिकीय स्तर होता है जो सिलीयरी काय एवं आइरिस (Iris) की भीतरी सतह पर भी फैला रहता है लेकिन सिलीयरी काय वाले भाग में रंगा कण नहीं पाये जाते हैं।

(2) तत्त्रिका संवेदी स्तर (Neuro sensory layer)-वर्णकी स्तर के ठीक नीचे भीतर की ओर मोटा और जटिल तन्त्रिका संवेदी स्तर होता है। यह केवल सीलियरी काय तक फैला रहता है। इस भाग में तन्त्रिका एवं संवेदी कोशिकाओं के तीन स्तर होते हैं-

(A) दृक् शलाका एवं शंकु स्तर (Layer of Rods and Cones)-इस स्तर में लम्बी-लम्बी रूपान्तरित तन्त्रिका संवेदी कोशिकाएँ होती हैं। ये वर्णक युक्त कोशिकाएँ होती हैं। इसमें दो प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती हैं-
(i) दृष्टि शलाकाएँ (Rods) – ये पतली, लम्बी तथा बेलनाकार कोशिकाएँ होती हैं। ये संख्या में अधिक होती हैं। इनकी लम्बाई शंकु कोशिकाओं (Cones) से अधिक होती हैं। इनमें रोडोप्सिन (rhodopsin) नामक वर्णक उपस्थित होता है। दृष्टि शलाकाएँ प्रकाश तथा अन्धकार का ज्ञान कराती हैं।

(ii) दृष्टि शंकु (Cones) – ये छोटी, मोटी तथा मुग्दराकार कोशिकाएँ होती हैं। इनके सिरे नुकीले नहीं होते हैं। ये संख्या में अपेक्षाकृत कम होती हैं। इनमें आइडप्सिन (Iodopsin) वर्णक उपस्थित होता है। ये तीव्र प्रकाश में वस्तुओं तथा विभिन्न रंगों का ज्ञान कराती हैं। दृष्टि शलाकाओं तथा शंकुओं के भीतरी सिरों से निकले हुए पतले तन्त्रिका सूत्रों से द्विध्रुवीय (bipolar) तन्त्रिका कोशिकाओं के डेण्ड्राइट्स प्रवर्धों के साथ पुग्मानुबन्धनों द्वारा सम्बन्धित रहते हैं।
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(B) द्विधुवीय तन्त्रिका कोशिका परत (Bipolar neuronic layer) – इस स्तर में अनेक द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिकाएँ होती हैं। इनके डेण्ड्राइट्स दृष्टि शलाकाओं तथा दृष्टि शंकुओं के एक्मॉन्न के साथ युग्मानुबन्यन बनाते हैं। इस स्तर की तन्त्रिकाएँ गुच्छकीय स्तर की कोशिकाओं से जुड़कर युग्मानुबन्धन (synapse) बनाते हैं।

(C) गुच्छकीय स्तर (Ganglionic layer) – इस स्तर में बड़े आकार की द्विध्रुवीय कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें गुच्छकीय कोशिकाएँ (ganglionic cells) भी कहते हैं। इन कोशिकाओं के तन्तिकाद्ध (axon) लम्बे होते हैं जो परस्पर मिलकर दृष्टि तत्तिका बनाते हैं।

देखने की प्रक्रिया (Process of Vision):
हमारे नेत्र कैमरे के समान कार्य करते हैं। ये प्रकाश की 380 से 760 नैनोमीटर तरंगदैर्ध्य (wavelength) की किरणों की ऊर्जा को ग्रहण करके इसे तन्त्रिका तन्तु के क्रिया विभव में परिवर्तित कर देते हैं।

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नेत्र की क्रियाविधि (Working of Eye) – जब उचित आवृत्ति की प्रकाश तरंग कॉनिया पर पड़ती हैं तब कॉर्निया तथा तेजोजल (aqueous humor) प्रकाश किरणों का अपवर्तन (refraction) कर देते हैं। ये किरणें तारे (pupil) से होकर लेन्स (lens) पर पड़ती हैं। लेन्स इनका पूर्ण अपवर्तन कर देता है। इससे रेटिना के पीत बिन्दु पर वस्तु का उल्टा और वास्तविक प्रतिबिम्ब बन जाता है। उपतारा (आइरिस) तारे (पुतली-pupil) को छोटा या बड़ा करके प्रकाश की मात्रा को नियन्त्रित करता है। तेज प्रकाश में तारा सिकुड़ जाता है और कम प्रकाश नेत्र के भीतर प्रवेश करता है। कम प्रकाश में तारा फैल जाता है और अधिक प्रकाश नेत्र के भीतर प्रवेश करता है।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय - 18

नेत्र द्वारा समायोजन (Accommodation by Eye) – सीलियरी बॉडी तथा निलम्बन स्नायु लेन्स के फोकस में अन्तर लाकर वस्तु के प्रतिबिम्ब को रेटिना पर केन्द्रित करते हैं। सामान्य स्थिति में सीलियरी बाँडी की पेशियाँ शिथिल रहती हैं जिस कारण इससे लगे निलम्बन स्नायु तनी हुई अवस्था में रहते हैं, जिससे लेन्स चपटा हो जाता हैं तथा लेन्स की फोकस दूरी बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में दूर की वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है। जब निकट की वस्तु को देखना होता है तो सीलियरी काय की पेशियों में संकुचन होता है जिससे यह काय खिंचकर चोड़ी हो जाती है जिससे निलम्बन स्नायु ढीले हो जाते हैं तथा लेन्स तनाव कम हो जाने के कारण अधिक उत्तल हो जाता है जिससे लेन्स की फोकस दूरी कम हो जाती है तथा निकट की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं।

प्रकाश-रासायनिक परिवर्तन (Photo-chemical Changes) – जब विशिष्ट तरंगदैर्ध्य वाली प्रकाश की किरणें रेटिना पर पड़ती हैं, तब ये दृष्टि शलाकाओं एवं दृष्टि शंकुओं में उपस्थित रसायनों में परिवर्तन करती हैं।
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जब प्रकाश की किरणें शलाकाओं के रोड्डिप्सिन (rhodopsin) पर पड़ती हैं, तब यह रेटिनीन (retinene) तथा आप्सिन (opsin) में टूट जाता है।. अन्धकार में शलाकाओं में एन्जाइम्स की सहायता से रेटिनीन एवं आप्सिन मिलकर रोडोप्सिन संश्लेषण करते हैं। इसीलिए जब हम तेज प्रकाश से अन्धकार में जाते हैं, तब हमें तत्काल (तुरन्त) कुछ दिखाई नहीं देता है, किन्तु धीर-धीरे दिखाई देने लगता है। शंकुओं में आयोडोप्सिन (Iodopsin) नामक वर्णक उपस्थित होता है।

इसमें वर्णक घटक रेटिनीन तथा प्रोटीन घटक फोटोप्सिन (Photopsin) होता है। शंकु तीन प्रारम्भिक रंगों को-लाल, हरा, व नीले को कहते हैं। इन्हीं तीन प्रकार के शंकुओं के विभिन्न मात्राओं में उद्दीपनों के मिश्रणों से प्रारस्भिक रंमों के मिश्रणों-सफेद नारंगी, पीले, बैंगनी आदि का हमें ज्ञान हो जाता है। मानव एवं अन्य प्राइमेट्स में दोनों नेत्रों द्वारा एक ही प्रतिबिम्ब बनता है। इस प्रकार की दृष्टि को द्विनेत्रीय दृष्टि (binocular vision) कहते हैं। विकसित द्विनेत्रीय दृष्टि से हमें वस्तु का गहराई से ज्ञान हो जाता है।
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दृष्टि दोष (Defects of Vision):
एक सामान्य नेत्र 20 इंच से 20 फीट तक की दूरी की वस्तुओं को स्पष्ट देख सकता है। ऐसे नेत्र को एमेट्रोपिक नेत्र (Ammetropic eye) कहते हैं। कभी-कभी नेत्रों में कुछ दोष उत्पन्न हो जाते हैं।

प्रमुख दृष्टि दोष अग्ग प्रकार है –
1. निकट दृष्टि दोष (Myopia) – इस दोष में व्यक्ति समीप की वस्तुओं को तो स्पष्ट देख सकता है किन्तु दूर की वस्तुओं को स्पष्ट नहीं देख पाता है। ऐसा नेत्र गोलक के व्यास के अधिक होने या नेत्र लैंस की फोकस दूरी के कम हो जाने के कारण होता है। इसमें वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना से पहले ही बन जाता है। इस दोष का निवारण अवतल लैंस युक्त चश्मा पहन कर किया जा सकता है।

2. दूर दृष्टि दोष (Hypermetropia) – इस दृष्टि दोष में व्यक्ति को दूर की वस्तु स्पष्ट दिखाई देती हैं किन्तु समीप की वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं देती है। ऐसा नेत्र गोलक के व्यास कम हो जाने या नेत्र लैंस की फोकस दूरी बढ़ जाने के कारण होता है। इसमें वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटना के बाहर बनता है। इस दोष का निवारण चश्मे में उत्तल लैंस (convex lens) लगाकर किया जा सकता है।

3. जरा दृष्टि दोष (Presbiopia) – इस प्रकार के दृष्टि दोष में व्यक्ति को समीप व दूर की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई नहीं देती हैं। यह दोष वृद्धावस्था में होता

4. दृष्टि वैषम्य या ऐस्टिगमैटिज्म (Astigmatism) – मनुष्य में दृष्टि वेषम्य दोष कानिया की आकृति असामान्य हो जाने से हो जाता है। इस दोष के कारण मनुष्य को धुँधला और अधूरा दिखाई देता है। इस नेत्र दोष को दूर करने के लिए बेलनाकार लेन्स (Cylindrical lens) का चश्मा लगाया जाता है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

5. सबलबाय या ग्लूकोमा (Glucoma)- नेत्र गोलक की दीवार सामान्य तेजोजल (ऐक्वस ह्यूमर) तथा काचाभ जल (विट्रिस ह्यूमर) के दबाव से सधी रहती है। यदि श्लेष्म की नाल में अवरोध आ जाये तो नेत्र कक्ष में दबाव बढ़ जाता है, जिससे रेटिना क्षतिम्रस्त हो जाती है। इसे सबलबाय या ग्लूकोमा रोग कहते हैं। इससे रोगी को दिखाई देना बंद हो जाता है।

6. मोतियाबिन्द या कैटारेक्ट (Cataract) – यह रोग वृद्धावस्था में, लेन्स का लचीलापन कम हो जाने तथा लेन्स की दोनों सतहों के कम उत्तल हो जाने से हो जाता है। इस स्थिति में लेन्स घना-भूरा तथा अपारदर्शी (Opaque) हो जाता है तब इस अवस्था को मोतियाबिन्द कहते हैं। इस नेत्र-दोष को दूर करने के लिए शल्य क्रिया (ऑपरेशन) करके दोषपूर्ण लेन्स को निकाल दिया जाता है और उपयुक्त लेन्स का चश्मा दिया जाता है।
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7. थेंगापन या स्ट्रेबिस्मस (Strabismus) – यह नेत्र रोग नेत्र गोलक की पेशियों के बड़ी या छोटी हो जाने के कारण नेत्र गोलक के एक ओर झुक जाने से हो जाता है।

8. जीरॉप्यैल्भिया (Xerophthalmia) – यह नेत्र दोष कंजक्टाइवा पर्त में किरेटिन (Keratin) संचित हो जाने से घनी हो जाने के कारण हो जाता है। यह नेत्र रोग भोजन में विटामिन A की कमी से होता है।

9. रतौंधी (Nightblindness) – यह नेत्र रोग भोजन में विटामिन A (retinol) की कमी से हो जाता है। विटामिन A की कमी से रोडोप्सिन (rhodopsin) का पर्याप्त मात्रा में संश्लेषण नहीं हो पाता है। इससे व्यक्ति को मन्द प्रकाश में साफ दिखाई नहीं देता है।

10. वर्णान्थता (Colourblindness) – यह एक आनुवंशिक नेत्र रोग है, जो ‘X’ लिंग गुणसूत्र से संलग्न जीन के द्वारा सन्तान में स्थानान्तरित हो जाने से होता है। इस दोष के कारण व्यक्ति हरे व लाल रंगों में पहचान नहीं कर पाता है।

प्रश्न 16.
मानव कर्ण की संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
श्रवण संतुलन अंग-कण (Statoaucaustic organ-Ear):
मनुष्य में कान सुनने की क्रिया के साथ-साथ सन्तुलन बनाये रखने का भी कार्य करते हैं। मनुष्य के सिर पर दोनों ओर पार्श्व में एक जोड़ी कान होते हैं। मनुष्य के कर्ण में/तीन भाग होते हैं –
(1) बाह्य कर्ण (External ear)
(2) मध्य कर्ण (Middle ear) तथा
(3) आन्तरिक कर्ण (Internal ear)।

(1) बाह्य कर्ण (External Ear)- बाह्य कर्ण के दो भाग होते हैं –

  • कर्ण पल्लव या पिन्ना (Pinna) तथा
  • बाह्य कर्ण कुहर (External auditory meatus)।

कर्ण पल्लव या पिन्ना सबसे बाहरी भाग होता है जो लचीले उपास्थि (cartilage) ऊतकों का बना होता है। यह बाह्य ध्वनि तरंगों को एकत्रित करके बाह्य कर्ण कुहर में भेजने का कार्य करता है। बाह्य कर्ण कुहर 2.5 से 3.0 सेमी लम्बा होता है। इसे भीतरी सिरे पर एक मजबूत झिल्ली होती है जिसे कर्ण पटह (Tympanic membrane) कहते हैं। बाह्य कर्ण कुहर ध्वनि तरंगों को कर्ण पटह तक पहुँचाने का कार्य करता हैं।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

(2) मध्य कर्ण (Middle Ear)-यह कर्ण पटह (tym-panic membrane) से लगा हुआ छोटा-सा कक्ष होता है। इसको कर्ण पटह गुहा (tympanic cavity) भी कहते हैं। कर्ण पटह गुहा एक नलिका द्वारा मुख प्रसनी में खुलती है जिससे कर्ण पटह के बाहर तथा भीतर समान वायुदाब बनाये रखा जाता है। मध्य कर्ण की गुहा दो छोटे-छोटे छिद्रों द्वारा आन्तरिक कर्ण की गुहा से भी सम्बन्धिंत रहती है। ऊपर की ओर स्थित छिद्र अण्डाकार गवाक्ष या फेनेस्ट्रा ओवेलिस (Fenestra Ovalis) तथा नीचे वाला छिद्र वर्तुल गवाक्ष या फेनेस्ट्रा रोटण्डस (Fenestra Rotundus) कहलाते हैं।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय - 25
मध्य कर्ण में तीन छोटी-छोटी अस्थियाँ भी पायी जाती हैं। बाहर से भीतर की ओर इन्हें क्रमशः मैलियस (Malleus), इनकस (Incus) तथा स्टैयीज (Stapes) कहते हैं ।

(3) अन्त्रकर्ण (Internal Ear)-यह कान का सबसे भीतरी हिस्सा होता है तथा इसे भी दो भागों में बाँटा जा सकता है –
(i) अस्थिल गहन्न (Bony Labyrinth) तथा
(ii) कला गंद्न (Membranous Labyrinth)।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय - 22
(i) अस्थिल गहन (Bony labyrinth) – यह सम्पूर्ण कला गहन को घेरे रहता है। कला गहन (Membranous labyrinth) तथा अस्थिल गहन (Bony labyrinth) के बीच संकरी गुहा होती है जिसमें परिलिका (Perilymph) भरा रहता है। यह भाग मध्य कर्ण गुहा से सम्बन्धित रहता है।
(ii) कला गहन (Membranous labyrinth)-यह कोमल अर्क्थ-पारदर्शी झिल्ली की बनी रचना होती है। इसमें दो थैली जैसे वेश्म होते हैं, जिनें युर्रीपुलतस (Utriculus) एवं सैक्युलक (Sacculus) कहते हैं। दोनों वेश एक महीन नलिका द्वारा आपस में सम्बन्धित रहते हैं। इसे सैक्यूलो युर्रीकुलर नलिका (Sacculo-utricular tubule) कहते हैं।

युट्रीकुलस में तीन अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएँ होती हैं। इन्हें अम्र अर्धन्ताकार नलिका (Anterior semicircular tubule), पश्च अर्धव्याकार नलिका (Posterior semicirċular tubule) तथा बाइ अर्धन्तांका नलिका (External semicircular tubule) कहते हैं। अम्र तथा पश्च नलिकाएँ एक ही स्थान से निकलती हैं तथा कुछ दूरी तक जुड़ी रहती हैं। इस स्थान को क्रस कम्यून (cruss commune) कहते हैं। ये अपने दूरस्थ सिरे से फूली रहती हैं। फूला हुआ भाग तुम्बिका या ए्मुला (ampulla) कहलाता है।

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सैक्युल्स (sacculus) का पिछला सिरा लम्बा एवं सिंम की तरह कुण्डलित होता है। इसको छॉक्तियर नलिंका (cochlear duct) कहते हैं। यह नलिका अपने चारों ओर के अस्थिकोष से इस प्रकार जुड़ी रहती हैं कि अस्थिकोष की गुहा दो भागों में बँट जाती है-(a) कौक्लिया नलिका के ऊपर का कक्ष स्केला वेस्टीछुलाई (Scala vestibuli) तथा (b) कॉक्लिया नलिका के नीचे का कक्ष मध्य कर्ण सोपान या स्केला टिप्पेाइं (Scala tympani) अथवा टिम्पेनिक कली कहलाता है। दोनों के मध्य की गुहा स्केता मीडिया (Scala media) कहलाती है।

स्केला वेस्टीबुलाई तथा स्केला टिम्पेनाई में पेरीलिएक (perilymph) भरा रहता है, जबकि स्केला मीडिया में एण्डोलिम्फ (endolymph) भरा होता है। स्केला मीडिया तथा स्केला वेस्टीुुलाई के मध्य रैसर्जस कला (Reissner’s membrane) तथा स्केला मीडिया तथा स्केला टिम्पेनाई के मध्य बेसीलर कला (Basilar membrane) उपस्थित होती है। बेसीलर कला की मध्य रेखा पर लम्बे संवेदी आयाम उभार के रूप में फैले रहते हैं। इन उभारों को करर्टी के अंग (Organ of corti) क्रहते हैं। इन्हीं पर संवेदी रोम युक्त संवेदी कोशिकाएँ पायी जाती हैं। इन कोशिकाओं के आधार भाग से तन्त्रिका तन्तु निकलकर श्रवण तन्त्रिका की कॉक्लियर शाखा बनाते हैं।

भ्रवण की प्रक्रिया (Process of Hearing):
सुनने का प्रमुख कार्य कर्टाई के अंग करते हैं। वायु में फैली ध्वनि की तरंगें कर्ण पल्लवों से टकराकर कर्ण कुहर में होती हुई कर्णप्टह (Tympanum)
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से टकराकर इसमें कम्पन उत्पन्न कर देती हैं। ये ही कम्पन क्रमशः तीनों कर्ण अस्थियों से होता हुआ अण्धकार कबाहा (फेनेस्ट्र ओवेलिस) पर मढ़ी झिल्ली में पहुँचता है। कर्ण अस्थियों की विशिष्ट स्थिति के कारण कर्णपटह से फेनेस्ट्रा ओवेलिस तक पहुँचते-पहुँचते कम्पन तरंगें कम विस्तुत किन्तु अधिक प्रबल हो जाती हैं। फेनेस्ट्रा ओवेलिस की झिल्ली में कम्पन से कॉंक्लियर नलिका के पृष्ठ तल पर स्थित संकैला वेस्टीदुलाई में भरा पेरीलिम्फ कम्पित होने लगता है।

कम्पन की ये तरंगें जब रीसर्न्स कला एवं संकला मीडिया के एण्डोलिए्क के माध्यम से कौंस्लिया के सिरे पर छिद्र हललीकोट्रीमा से होती हुई स्कैला टिम्पैनाई के पैरीलिम्म के माध्यम से बेसीलर काल में पहुँचती हैं तो कॉर्टी के अंग में भी कम्पन होता है। यहाँ पर कॉर्टी के अंग की संवेदी कोशिकाओं के रोम टेक्टोरल कला से टकराते हैं, जिससे श्रवण संवेदना की प्रेरणा स्थापित हो जाती है। कॉक्लियर तन्रिका इसी प्रेरणा को श्रवण तन्रिका में और फिर श्रवण तन्त्रिका इसे मसित्क में पहुँचाती है, जिससे हमें ध्वनि सुनने का ज्ञान होता है। ध्वनि की तीव्रता संवेदी रोमों

के कम्पन की तीव्रता से जात होती है। संवेदी रोमों के किस भाग में कम्पन हो रहा है, इसके द्वारा आवाज को पहचाना जाता है। मस्तिक से अनुकूल प्रतिक्रिया की प्रेरणा उपयुक्त प्रभावी अंगों को भेज दी जाती है। कांक्लिया में उत्पन्न तरंगें स्कैला टिम्यैनाई के पैरीलिम्फ में होती हुई फेनेस्द्रा रोटेडस पर मढ़ी झिल्ली पर पहुँचकर समाप्त हो जाती है। कुछ ध्वनि तरंगें छोटे-से छ्रिं हेलीकोट्रीमा से निकलते समय भी समाप्त हो जाती हैं।

सुनने की क्रिया को संक्षेप में निम्न रेखाचित्र द्वारा दिखाया जा सकता है –
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प्रश्न 17.
घ्राण संखेदांग कहाँ पाए जाते हैं ? घ्राण संवेदांगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
घ्राण संबेदांग-नाक (Olfacto Receptor : Nose)
मनुष्य में गंध का ज्ञान नासिका में उपस्थित गंकीजी या घाण संबेदागों द्वारा होता है। नासिका के अन्दर दो लम्बी कीपाकार नासा गुहाएँ पायी जाती हैं जो एक महीन नासापह्ट के द्वारा पृथक् रहती हैं। दोनों नासा गुहिकाएँ बाहर की ओर बाद्य नासा छिद्रों के द्वारा खुलती हैं।

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प्रत्येक नासा गुहा निम्न तीन भागों से बनी होती है –
1. बेस्टीक्यू (Vestibule)-यह नासा छिद्रों के ठीक पीके का भाग होता है जो रोम युक्त सामान्य त्वचा से ढका रहता है।
2. श्वास भाग (Respiratory Region) – नासा गुहा के इस भाग में टरबाइनल अस्ट्यियाँ पायी जाती हैं। इसका भीतरी स्तर श्लेषा झिल्ली, चूषक कोशिकाओं तथा रोमाभी स्तंभी उपकला द्रा आस्तरित होता है। इस स्तर को श्वसन उपकला भी कहते हैं। इसके दारा स्वित श्लेषा श्वसन के दौरान आयी कुछ वायु को नम करता है।
3. घ्राण थाग (Olfactory Region) – यह नासा वेश्म या नासा गुहा का पश्च भाग है। इस भाग में ऐथमॉइड अस्थि के कुण्डलित उभार मिलते हैं। इसके भीतरी स्तर पर पक्ष्माभ रहित, श्लेषा युक्त्त श्निंरेयन कला (Schneiderian Membrane) पायी जाती है, जो मुख्य ष्राण संवेदांग हैं।

इस झिल्ली में निम्न तीन प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती है –
(i) प्यल्ली या संद्यी कोशिकाएँ (Sensory cells)-गंष की संवेदना को मङण करने के लिए रुपान्तरित कोशिकाएँ होती हैं। ये अपेक्षाकृत लम्बी एवं सँकरी होती हैं। इन पर सूक्ष्म संवेदी रोम होते हैं। जो पतले होकर तन्तुओं का निर्माण करते हैं। ये ततु परस्पर मिलकर घ्राण तंत्रिकाएँ (Olfactory nerve) बनाते हैं। ये तंत्रिकाएँ मस्तिष्क के घ्राण पिण्डों में सूचनाएँ पहुँचाती है।

(ii) अवसंन कोशिंकाएँ (Supporting cells)-संवेदी कोशिकाओं के निकट लम्बी व बेलनाकार कोशिकाओं को अवलम्बन कोशिकाएँ कहते हैं। इनके स्वतंत्र सिरे पर छोटे-छोटे सूक्ष्मांकुर (Microvilli) पाये जाते हैं।

(iii) आधारी कोशिकाएँ (Basal cells)-संवेदी तथा अवलम्बन कोशिकाओं के आधार भाग में बीच-बीच में छोटी शंकु आकार की कोशिकाएँ पायी जाती हैं, जिन्हें आधारी कोशिकाएँ कहते हैं।
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घ्राण भाग के मोटे श्लेष्मा स्तर में विशिष्ट प्रकार की बोमेन प्रन्थियाँ (Bowman Glands) पायी जाती हैं। इनके द्वारा सावित श्लेष्मा वायु के साथ आए गंध कणों को स्वयं के साथ घोलकर गंध का ज्ञान कराता है। मनुष्य के घ्राण भाग में 120 लाख से भी अधिक घ्राण कोशिकाएँ (Olfactory cells) पायी जाती हैं। मानव की मुख गुहा में नेसोपैलेटाइन में जैकब्सन अंग पाया जाता है, जो भोजन की गंध का ज्ञान कराता है।

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HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Important Questions Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन


(A) वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

1. ऑक्सिन का प्रमुख प्रभाव उद्दीपन करना है-
(A) कोशिका विभाजन
(B) कोशिका दीर्घण
(C) कोशिका स्फीति
(D) कोशिका विभेदन
उत्तर:
(B) कोशिका दीर्घण

2. सायटोकाइनिन उद्दीपित करते हैं-
(A) कोशिका विभाजन
(B) कोशिका दीर्घण
(C) कोशिका स्फीति
(D) कोशिका विभेदन
उत्तर:
(A) कोशिका विभाजन

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन

3. जीर्णता के समय पौधों में बढ़ोत्तरी होती है-
(A) क्लोरोफिल की
(C) श्वसन की
(B) प्रोटीन की
(D) प्रकाश संश्लेषण की
उत्तर:
(C) श्वसन की

4. निम्न में से कौन-सा एक पुष्पीय हॉर्मोन समझा जाता है ?
(A) ऑक्सिन
(B) जिबरेलिन
(C) सायटोकाइनिन
(D) एब्सिसिक अम्ल
उत्तर:
(B) जिबरेलिन

5. ज्यामितीय वृद्धि वक्रं का आकार है-
(A) क्यूबॉइड
(B) सिग्मॉइड
(C) सरल रेखा
(D) त्रिकोणीय
उत्तर:
(B) सिग्मॉइड

6. निम्न में से किसके प्रयोग द्वारा कच्चे फलों को पकाया जा सकता है ?
(A) IAA
(B) GA 3
(C) ABA
(D) C2H1
उत्तर:
(D) C2H1

7. आलू को भण्डारगृह में अंकुरित होने से रोका जा सकता है ?
(A) मैलिक हाइड्रेनाइड द्वारा
(B) जिएटिन द्वारा
(C) जिबरेलिन द्वारा
(D) एथिलीन द्वारा
उत्तर:
(A) मैलिक हाइड्रेनाइड द्वारा

8. जब कोई पौधा पुष्पन न कर रहा हो तो इसमें साइटोकाइनिन निर्मित होता है-
(A) पत्तियों में
(B) पार्श्व कलिकाओं में
(C) जड़ों में
(D) प्ररोह शीर्ष में
उत्तर:
(C) जड़ों में

9. पौधों में पुष्पन उत्प्रेरित करने वाला हॉर्मोन है-
(A) वनेंलिन
(B) फ्लोरिजन
(C) ऑक्सिन
(D) एथिलीन
उत्तर:
(B) फ्लोरिजन

10. प्रदीप्तिकालिका परिघटना को सर्वप्रथम खोजा-
(A) गार्नर एवं एलार्ड ने
(B) याबुता व सुमिकी ने
(C) स्कूग व वेण्ट ने
(D) होमनर व बोनर ने ।
उत्तर:
(A) गार्नर एवं एलार्ड ने

11. जैवियम एक ………………. प्रदीप्तिकाली पौधा है।
(A) अल्प
(B) दीर्घ
(C) उदासीन
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) अल्प

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12. कम तापमान द्वारा पुष्पन को त्वरित करने की प्रक्रिया को कहते हैं-
(A) प्रदीप्तिकालिता
(B) बसन्तीकरण
(C) विपुंसीकरण
(D) अनुप्रेरण
उत्तर:
(B) बसन्तीकरण

13. प्रदीप्तिकाली प्रेरण के फलस्वरूप प्रेरित रसायन है-
(A) फ्लोरिजन
(B) वनेंलिन
(C) फाइटोक्रोम
(D) साइटोक्रोम
उत्तर:
(A) फ्लोरिजन

14. साइटोकाइनिन प्रेरित करता है- (UPCPMT)
(A) कोशिका दीर्घन
(B) कोशिका वृद्धि
(C) अनिषेक जनन
(D) कोशिका विभाजन
उत्तर:
(D) कोशिका विभाजन

15. संवहनी कैम्बियम में कोशिका विभाजन को प्रेरित करने वाला वृद्धि नियामक है-
(A) IAA
(B) ABA
(C) साइटोकाइनिन
(D) एथिलीन
उत्तर:
(A) IAA

16. फुलिश सीडलिंग रोग का कारण है-
(A) 2, 4-D
(B) GA
(C) ABA
(D) IAA
उत्तर:
(B) GA

17. निम्न में से खरपतवारनाशी है-
(A) ABA
(C) 2, 4-D
(B) IAA
(D) C2H4
उत्तर:
(C) 2, 4-D

18. साइटोकाइनिन नाम दिया- (RPMT)
(A) लीथम (1968) ने
(B) मिलर (1964) ने
(C) मग (1955) ने
(D) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(A) लीथम (1968) ने

19. कौन-सा दीर्घ दिवस पादप है- (CBSE PMT)
(A) तम्बाकू
(B) सोयाबीन
(C) गुलाबांस
(D) पालक ।
उत्तर:
(D) पालक ।

20. कौन-सा आलू भेद में कलिका प्रसुप्ति तोड़ता है- ( CBSE PMT)
(A) जिब्बरेलिन
(B) V AA
(C) ABA
(D) जिएटिन ।
उत्तर:
(A) जिब्बरेलिन

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21. कोशिका विभाजन प्रेरण तथा जीर्णता में देरी होती है- (UPCPMT)
(A) जिब्बरेलिन द्वारा
(B) ऑक्सिन द्वारा
(C) सायटोकाइनिन द्वारा
(D) इथाइलीन द्वारा।
उत्तर:
(C) सायटोकाइनिन द्वारा

22. शीर्ष प्रमुखता का कारण है- (RPMT, UPCPMT)
(A) IAA
(B) IBA
(C) 2,4-D
(D) 2,4,5-T
उत्तर:
(A) IAA

23. पौधे में जिंक की कमी होने पर किस हार्मोन का जैव संश्लेषण प्रभावित होता है- (CBSE PMT)
(A) एब्सिसिक अम्ल
(B) ऑक्सिन
(C) साइटोकाइनिन
(D) इथाइलीन ।
उत्तर:
(B) ऑक्सिन

24. हरे पौधों में पर्वों पर कोशिका दीर्घीकरण का कारण है- (CBSE PMT)
(A) IAA
(B) साइटोकाइ
(C) जिब्बरेलिन्स
(D) इथाइलीन ।
उत्तर:
(C) जिब्बरेलिन्स

25. बीजों का शीत उपचार कहलाता है- (RPMT)
(A) वनेंलाइजेशन
(B) स्ट्रेटीफिकेशन
(C) डिवनेंलाइजेशन
(D) फोटोफॉस्फोरिलेशन ।
उत्तर:
(A) वनेंलाइजेशन

26. वर्नेलाइजेशन की प्रक्रिया प्रेरित होती है- (UPCPMT)
(A) साइटोकाइनिन द्वारा
(B) ऑक्सिन द्वारा
(C) फोटो-ट्रॉपिस्म द्वारा
(D) GA द्वारा।
उत्तर:
(D) GA द्वारा।

27. पर्ण विलगन का कारण है- (UPCPMT)
(A) ABA
(B) साइटोकाइनिन
(C) ऑक्सिन
(D) जिब्बरेलिन ।
उत्तर:
(A) ABA

28. ऑक्सिन का जैव संश्लेषण है- (UPCPMT)
(A) एवीना वक्रण परीक्षण
(B) कैलस निर्माण
(C) कवक संवर्धन
(D) बीज प्रसुप्ति।
उत्तर:
(A) एवीना वक्रण परीक्षण

29. पुष्पीय पादपों में प्रकाश अवधि का महत्व प्रथम बार देखा गया- (CBSE PMT)
(A) लेम्ना में
(B) तम्बाकू में
(C) कपास में
(D) पिटूनिया में।
उत्तर:
(B) तम्बाकू में

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30. पादपों में बसन्तीकरण की आवश्यकता को प्रतिस्थापित करने वाला हार्मोन है- (RPMT)
(A) इथाइलीन
(B) ऑक्सिन
(C) जिब्बरेलिन
(D) साइटोकाइनिन ।
उत्तर:
(C) जिब्बरेलिन

31. धान का मूठ नवोद्भिद रोग निम्न में से किसकी खोज का कारण बना है ? (RPMT)
(A) GA
(C) 2,4,8
(B) ABA
(D) IAA I
उत्तर:
(A) GA

32. निम्नलिखित में से कौन सा एक संश्लेषित ऑक्सिन है ? (CBSE AIPMT)
(A) NAA
(C) GA
(B) IAA
(D) IBA
उत्तर:
(A) NAA

33. निम्नलिखित में से कौन-सा अम्ल कैरोटीनॉएड्स का व्युत्पन्न है ? (CBSE AIPMT)
(A) इण्डोल ब्यूटारिक अम्ल
(B) इण्डोल-3 एसीटिक अम्ल
(C) जिबरेलिक अम्ल
(D) एब्सिसिक अम्ल ।
उत्तर:
(D) एब्सिसिक अम्ल ।

34. प्रकाशानुक्त झुकाव (phototropic curvature) निम्नलिखित में से किसके असमान वितरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है ? (CBSE AIPMT)
(A) जिबरेलिन
(B) फाइटोक्रोम
(C) साइटोकाइनिन
(D) ऑक्सिन ।
उत्तर:
(D) ऑक्सिन ।

35. दीप्तिकालिता को सर्वप्रथम खोजा गया था- (CBSE AIPMT)
(A) तम्बाकू में
(B) आलू में
(C) टमाटर में
(D) कपास में।
उत्तर:
(A) तम्बाकू में

36. चाय के बगानों में सामान्यतया प्रयोग होने वाला पादप वृद्धि हार्मोन है- (RPMT)
(A) ABA
(B) जीएटिन
(C) IAA
(D) इथाइलीन ।
उत्तर:
(B) जीएटिन

(B) अति लघु उत्तरीय प्रश्न ( Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
गन्ने की खेती में कौन-से वृद्धि नियामक के छिड़कने से तनों की लम्बाई बढ़ती है ?
उत्तर:
जिबरेलिन्स (Gibberellins) ।

प्रश्न 2.
वृद्धि की किस अवस्था में वृद्धि वक्र सबसे अधिक होता है ?
उत्तर:
प्रसार अवस्था में ।

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प्रश्न 3.
कौन-सा हॉर्मोन वृद्धि को कम करता है ?
उत्तर:
एब्सिसिक अम्ल (Abscisic acid )।

प्रश्न 4.
अनिषेक फलन के लिए उत्तरदायी हॉर्मोन का नाम लिखिए।
उत्तर:
जिब्बरेलिन्स (Gibberellins)।

प्रश्न 5.
ऑक्सिन का एक कार्य लिखिए।
उत्तर:
कोशिका की लम्बाई में वृद्धि का प्रेरण ।

प्रश्न 6.
कोशिका वृद्धि की तीन अवस्थाएँ कौन-सी हैं ?
उत्तर:

  • विभाजन,
  • विवर्धन तथा
  • विभेदन ।

प्रश्न 7.
एक कार्यिकीय प्रक्रिया का नाम बताइए जिसमें लैक्टुका सैटाइवा प्रयुक्त होता है।
उत्तर:
अंकुरण (Germination)।

प्रश्न 8.
प्रकाश पर आधारित किन्हीं तीन प्रक्रियाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
प्रकाश संश्लेषण, प्रकाशानुवर्तन, दीप्तिकालिता ।

प्रश्न 9.
LDP तथा SDP का एक-एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
LDP- चुकन्दर, SDP सूर्यमुखी।

प्रश्न 10.
वेण्ट ने अपने प्रयोग किस पौधे पर किये ?
उत्तर:
जई (Avena sativa) ।

प्रश्न 11.
पौधों में शीर्षस्थ प्रभाविता से सम्बन्धित हॉर्मोन कौन-सा है ?
उत्तर:
ऑक्सिन (Auxin) ।

प्रश्न 12.
अधोकुंचन (Epinesty ) से सम्बन्धित पादप हॉर्मोन का नाम बताइए ।
उत्तर:
एथिलीन (Ethylene)।

प्रश्न 13.
जिबरेलिन की खोज किसमें की गई ?
उत्तर:
धान पर परजीवी ऊतक जिबरेला फ्यूजीकुराई ( Gibberella fujikuroi) में ।

प्रश्न 14.
अधिकांश ऑक्सिन का निर्माण किस भाग में होता है ?
उत्तर:
प्ररोह शीर्ष में (shoot apex ) ।

प्रश्न 15.
साइटोकाइनिन की उपस्थिति जीर्णता में देरी का कारण है, इस प्रभाव को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
रिचमॉड एवं लैंग प्रभाव (Richmond and Lang effect)।

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प्रश्न 16.
सायटोकाइनिन रासायनिक आधार पर क्या है ?
उत्तर:
No फरफ्यूरिल – एमीनो प्यूरीन यौगिक ।

प्रश्न 17.
वृद्धि मापन किस यन्त्र द्वारा किया जाता है ?
उत्तर:
ऑक्सेनोमीटर (Auxanometer) द्वारा।

प्रश्न 18.
आलू के कन्द्र अंकुरण रोकने के लिए प्रयुक्त संश्लेषित हॉर्मोन का नाम बताइए।
उत्तर:
MCPA (2-मेथिल, 4- क्लोरोफीनॉक्सी ऐसीटिक अम्ल) ।

प्रश्न 19.
मानव मूत्र से पृथक् किये गये हॉर्मोन का नाम लिखिए।
उत्तर:
ऑक्सिन ।

(C) लघु उत्तरीयं प्रश्न-I (Short Answer Type Questions-1)

प्रश्न 1.
माली हेज लगाने में पौधों की छँटाई क्यों करता है ?
उत्तर:
ऑक्सिन नामक पादप हॉर्मोन प्ररोह शीर्ष में संश्लेषित होता है जो पार्श्व कलिकाओं की वृद्धि को रोकता है। छँटाई करने से शीर्ष कलिका कट जाती है, जिससे पार्श्व कलिकाएँ वृद्धि करने लगती हैं। ऐसा होने से घनी झाड़ियाँ उत्पन्न होती हैं ।

प्रश्न 2.
जिब्बरेलिन की रासायनिक संरचना बताइए।
उत्तर:
इसकी संरचना में एक गिबेन रिंग पायी जाती है।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन 1

प्रश्न 3.
ऑक्सिन की रासायनिक संरचना बताइए।
उत्तर:
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प्रश्न 4.
सायटोकाइनिन की रासायनिक संरचना लिखिए।
उत्तर:
सायटोकाइनिन 6- परफ्यूरिल अमीनोप्यूरीन है।

प्रश्न 5.
एक्सिसिक अम्ल की रासायनिक संरचना लिखिए।
उत्तर:
ओहकुमा ने एब्सिसिक अम्ल की रासायनिक संरचना दी। इसे 3- मेथिल-5 (1- हाइड्रॉक्सी 4-ऑक्सो 2’6’6′ ट्राइमेथिल 2- साइक्लोहेक्सेन-1 आइल)- सिस ट्रान्स 2′, 4′ पेन्टाडिनोइक अम्ल कहते हैं।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन 3

प्रश्न 6.
एथिलीन की रासायनिक संरचना बताइए ।
उत्तर:
मेथिओनीन एमीनो अम्ल से ऐथिलीन का निर्माण होता है।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन 4

प्रश्न 7.
यदि एक नवोद्भिद पौधे की शीर्षस्थ कलिका को काट दिया जाय तो वृद्धि रुक जाती है, क्यों ?
उत्तर:
तने के शीर्ष पर स्थित विभज्योतक कोशिकाओं से पादप हॉर्मोन संश्लेषित होकर पौधे के विभिन्न भागों में विसरित होते हैं। पादप हॉर्मोन (ऑक्सिन) के कारण कोशिकाओं में विभाजन एवं वृद्धि होती है। अतः शीर्षस्थ कलिका (apical bud) को काटने पर वृद्धि रुक जाती है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन

प्रश्न 8.
जीर्णावस्था पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पादप अंगों की परिपक्वन अवस्था एवं क्रमिक निष्क्रियता आने की अवस्था को जीर्णावस्था कहते हैं। एब्सिसिक अम्ल तथा एथिलीन जीर्णावस्था (senescence) को प्रेरित करते हैं, जबकि सायटोकाइनिन जीर्णता को विलम्बित करता है।

(D) लघु उत्तरीय प्रश्न- II ( Short Answer Type Questions-II)

प्रश्न 1.
पादप हॉर्मोन क्या हैं? इनकी खोज किसने की ? विभिन्न पादप हॉर्मोन के नाम लिखिए।
उत्तर:
पादप हॉर्मोन ऐसे रासायनिक पदार्थ हैं जो पौधों में अल्प मात्रा में संश्लेषित होकर पौधों की वृद्धि का नियन्त्रण करते हैं। सर्वप्रथम जॉन वान सैक (J. V. Sachs) ने पादप हॉर्मोन की खोज की तथा इन्हें वृद्धि कारक कहा । हॉर्मोन्स को पाँच समूहों में बाँटा गया है-

  1. ऑक्सिन जैसे-इण्डोल ऐसीटिक एसिड (IAA), इण्डोल ब्यूटाइरिक एसिड (IBA) 2, 4-डाइक्लोरोफिनोक्सी-ऐसीटिक एसिड (2, 4-D) आदि ।
  2. जिब्बरेलिन्स, जैसे – GA3GA GA4 आदि ।
  3. सायटोकाइनिन, जैसे-काइनेटिन, जिएटिन आदि ।
  4. एब्सिसिक अम्ल, जैसे-ABA ।
  5. एथिलीन – एक गैसीय हॉर्मोन ।

प्रश्न 2.
हॉर्मोन्स तथा एन्जाइम में अन्तर लिखिए।
उत्तर:
हॉर्मोन्स तथा एन्जाइम में अन्तर

हॉर्मोन्स (Hormones)एन्जाइम्स (Enzymes)
1. हॉर्मोन्स पादप विभज्योतक में संश्लेषित होकर किसी भी भाग को स्थानान्तरित होकर प्रभाव उत्पन्न करते हैं।इनका संश्लेषण कोशिकाओं में आवश्यकतानुसार होता है।
2. इनकी रासायनिक प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है।सभी एन्जाइम प्रोटीन प्रकृति के होते हैं।
3. ये सान्द्रता या न्यूनता अलग-अलग प्रभाव डालते हैं।इनकी सान्द्रता व न्यूनता का क्रिया पर कोई प्रभाव नहीं होता है।
4. ये क्रिया में प्रयुक्त हो जाते हैं।ये क्रिया में प्रयुक्त नहीं होते हैं।
5. उदाहरण-ऑक्सिन, जिब्बरेलिन आदि।उदाहरण-एल्डोलेज, हैक्सोकाइनेज आदि।

प्रश्न 3.
विलगन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
विलगन (Abscission) – विभिन्न कारणों जैसे- सूखा, पोषण की कमी, जीर्णावस्था, प्रकाश की कमी आदि से पत्तियों में एथिलीन एवं एक्सिसिक अम्ल का निर्माण बढ़ जाता है जिसके प्रभाव से पत्तियों के वृन्त के आधार पर एक विलगन पर्त बन जाती है। यह पर्त पौधे एवं पत्ती के बीच पदार्थों का स्थानान्तरण रोक देती है। कुछ समय बाद पत्ती पौधे से अलग हो जाती है।

यह क्रिया विलगन कहलाती है। फलों के पकने पर भी इसी प्रक्रिया द्वारा विलगन होता है। IAA पादप हॉर्मोन विलगन एवं जीर्णावस्था में विलम्ब करता है। यदि IAA की उचित सान्द्रता का छिड़काव पर्णवृन्तों पर कर दिया जाय तो विलगन कुछ समय के लिए रुक जाता है।

प्रश्न 4.
ऑक्सिन तथा सायटोकाइनिन किस प्रकार पौधों में ऊतकों के विभेदन को प्रेरित करते हैं ?
उत्तर:
सायटोकाइनिन कोशिका विभाजन के अतिरिक्त ऊतक विभेदन को प्रेरित करता है। यदि किसी पादप ऊतक का संवर्धन शर्करा एवं खनिज लवण युक्त माध्यम पर कराया जाय तो कोशिकाएँ विभाजित होकर समूह कैलस (callus) बना लेती हैं। यदि माध्यम में अधिक सान्द्रता में साइटोकाइनिन तथा ऑक्सिन मिलाया जाय तो कैलस से प्ररोह का विकास हो जाता है।

कम सायटोकाइनिन तथा ऑक्सिन अनुपात में केवल जड़ों का विकास होता है। माध्यमिक सायटोकाइनिन व ऑक्सिन अनुपात में जड़ तथा प्ररोह दोनों विकसित होते हैं। मध्यम सायटोकाइनिन व कम ऑक्सिन अनुपात में केवल कैलस निर्मित होता है।
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प्रश्न 5
कारण बताइए-
(क) पुष्पों का खिलना ।
(ख) कभी-कभी फल परिपक्वता प्राप्त करने से पहले ही गिर जाते हैं। (ग) ड्यूरेन्टा या मेंहदी की झाड़ियों की बाड़ लगाने के लिए इनकी छँटाई करते हैं।
उत्तर:
(क) पौधे में पुष्पन क्रियां प्रकाश से प्रभावित होती है। पौधों को पुष्पन हेतु प्रतिदिन एक निश्चित अवधि तक प्रकाश की आवश्यकता होती है। इसे दीप्तिकाल या पुष्पन काल (Photoperiod or flowering period) कहते हैं। पौधों को अपने निर्णायक काल तक का प्रकाश मिलने पर ही इनमें पुष्पन प्रेरित होता है। इस प्रक्रिया के लिए एक हॉर्मोन फ्लोरिजन का संश्लेषण होता है।

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(ख) कभी-कभी फलों के वृन्त में एब्सिसिक अम्ल की सान्द्रता बढ़ जाती है, जिससे फलों का विलगन हो जाता है।

(ग) ड्यूरेन्टा एवं मेंहदी की शीर्ष कलिकाओं में ऑक्सिन का संश्लेषण होता है जो पार्श्व कलिकाओं (lateral buds) के विकास को रोक देता है जिसके कारण झाड़ियाँ घनी नहीं हो पाती हैं। शीर्ष कलिकाओं (apical buds) की छँटाई से ऑक्सिन का निर्माण रुक जाता है और पार्श्व कलिकाएँ वृद्धि करने लगती हैं।

प्रश्न 6.
अनाज के अंकुरित दानों में जिबरेलिन की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
अंकुरण के समय अनाज के दाने जल अवशोषण करते हैं। इससे भ्रूण में कुछ मात्रा में जिब्बरेलिन का संश्लेषण होने लगता है। जिब्बरेलिन प्रोटिएज तथा एमाइलेज विकरों के संश्लेषण को प्रेरित करता है। यह निष्क्रिय B- एमाइलेज को सक्रिय करता है।

सक्रिय – तथा 8- एमाइलेज मिलकर मण्ड का पाचन करते हैं जिससे ग्लूकोज बनता है। ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से भ्रूण को ऊर्जा उपलब्ध होती है। अब सायटोकाइनिन तथा ऑक्सिन भी संश्लेषित होते हैं, जिससे कोशिका विभाजन, विवर्धन एवं विभेदन प्रारम्भ हो जाता है और एक नवोद्भिद का निर्माण होता है।

प्रश्न 7.
पादप हॉर्मोन्स के निर्माण स्थल एवं परिवहन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:

  1. ऑक्सिन इसका संश्लेषण विभज्योतकों में होता है। इसका संवहन एक कोशिका से दूसरी कोशिका में तथा अन्य ऊतकों तथा पौधे के विभिन्न भागों में विसरण द्वारा होता है। ऑक्सिन का प्रवाह एकदिशीय (unidirectional) होता है।
  2. जिब्बरेलिन इसका संश्लेषण तरुण पत्तियों, कलिकाओं, बीजों और जड़ों में होता है। इनका संवहन जाइलम तथा फ्लोएम द्वारा होता है। ये सम्पूर्ण पौधे को प्रभावित करता है।
  3. सायटोकाइनिन इसका निर्माण मुख्यतः जड़ शीर्ष पर या अंकुरित बीजों में होता है। ये जड़ों से जाइलम द्वारा तनों में पहुँचते हैं।
  4. एक्सिसिक अम्ल इसका संश्लेषण कैरोटिनाइड से होता है। यह जाइलम फ्लोएम तथा मृदूतक कोशिकाओं से पूरे पौधे में संवहन करता है।
  5. एथिलीन इसका निर्माण मेथिओनीन एमीनो अम्ल से होता है। यह जीर्णावस्था वाले पुष्पों, पके फलों, तने के शीर्ष, जड़ों आदि से वायु में मुक्त होता है। इसका स्थानान्तरण वायु द्वारा होता है।

(E) निबन्धात्मक प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
वृद्धि का मापन कैसे किया जाता है ? किन्हीं दो वृद्धि मापक यत्रों की क्रियाविधि लिखिए।
उत्तर:
पाद्वप वृद्धि मापन (Plant growth measurement)
वृद्धि मापन (Measurement of Growth)-पौधों में वृद्धि को निम्न प्रकार मापा जाता है-

  • लम्बाई में वृद्धि,
  • मोटाई में वृद्धि,
  • क्षेत्र तथा आयतन में वृद्धि,
  • कोशिका संख्या में वृद्धि।

वैसे तो मापन की कोई भी विधि प्रयोग की जा सकती है, परन्तु सही जानकारी के लिए हमें कई माप लेने चाहिए। जैसे-बीज के अंकुरण के समय अन्धकार की आवश्यकता होती है जिससे इसमें तीत्र वृद्धि होती है। परन्तु उसी समय उसके शुष्क भार में कमी आ जाती है क्योंकि पौधा संचित भोजन का उपयोग करके लम्बाई में वृद्धि करता है।
वृद्धि को विभिन्न विधियों से मापा जा सकता है-
1. प्रत्यक्ष विधि (Direct Method) – इस विधि द्वारा वृद्धिशील अंग (growing organ) पर निशान लगाकर समय के अन्तराल पर पैमाने से माप लिया जाता है और विशिष्ट समय पर हुई वृद्धि का पता लगाया जाता है।

2. आर्क वृद्धिमापी (Arc Auxanometer) – इस यन्न में एक छोटी घिरनी (pulley) से एक लम्बा सूचक लगा होता है जो एक चापाकार पैमाने पर घूमता है। घिरनी के ऊपर एक मजबूत धागा लगा होता है। धागे के एक सिरे को पौधे के शीर्ष से बाँध दिया जाता है तथा दूसरे सिरे पर एक भार लटका दिया जाता है।

ऐसा करने से धागा घिरनी पर तना रहता है। जब पौधा वृद्धि करता है तो भार के कारण धागा ऊपर खिंचता है साथ ही घिरनी और इसमें लगा सूचक (pointer) भी घूमता है। चाप पर सूचक की दूरी के अनुसार पौधे की इकाई समय में वृद्धि ज्ञात कर ली जाती है।

3. क्षैतिज सूक्ष्कदर्शी द्वारा (By Horizontal microscope) – किसी वृद्धिशील पादप (growing plant) के समीप इस सूक्ष्मदर्शी को लगा देते हैं। पौधे के सिरे पर एक निशान बनाकर उसी स्थान पर सूक्ष्मदर्शी फोकस (focus) कर देते हैं। कुछ दिनों के बाद सूक्ष्मदर्शी (microscope) के पेच को घुमाकर ऊपर उठाकर पुनः उसी बिन्दु पर फोकस करते हैं। दोनों गणनाओं का अन्तर ज्ञात कर लेते हैं। जो पौधे की लम्बाई में वृद्धि को प्रदर्शित करता है।
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4. पेकर का ऑक्सेनोमीटर (Ppeffer’s Auxanometer)- इस यन्त में दो छिरनियाँ (pullies) होती हैं। दोनों घिरनियों को एक स्टैण्ड पर एक सीध में कस द्विया जाता है। दोनों घिरनियों के ऊपर से एक धागा लगाया जाता है। धागे का एक सिरा गमले में लगे पौषे के शीर्ष से बाँध दिया जाता है तथा इसके सिरे पर एक भार लटका दिया जाता है।

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भार लटके धागे वाली ओर एक ऊर्ष्वाधर (vertical) बेलन लगा छोता है जिस पर कालिख लगी होती है। यह बेलन अपनी धुरी पर घूम सकता है। इसी ओर के धागे पर एक सूचक (pointer) लगा दिया जाता है। सूचक (pointer) की नोंक बेलन को छूती है। जब पौधा वृद्धि करता है तो धागा खिंचता है जिससे सूचक घूमते दुए बेलन पर नीचे की ओर चलता है। बेलन पर सूचक द्वारा चली दूरी के अनुसार पौधे की वृद्धि की गणना कर ली जाती है।
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प्रश्न 2.
दीप्तिकालिता तथा क्रान्ति दीप्तिकाल का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
दीप्तिकालिता (Photoperiodism)
पौधों में विभिन्न क्रियाओं के लिए प्रकाश का बहुत्त महत्व है। पौधों के फलने-फूलने, वृद्धि, पुष्मन आदि पर प्रकाश की अवधि का प्रभाव पड़ता है। पौधों द्वारा प्रकाश की अवधि तथा समय के प्रति अनुक्रिया को दीजिक्कालिता कहते हैं। दीप्तिकालिता शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम गार्नर तथा एलाई (Garner and Allard; 1920) ने किया।

इन्होंने बताया कि तम्बाक् (Tobacce) की एक प्रजाति में गर्मी में बहुत अधिक कायिक वृद्धि (vegetative growth) होती है परन्तु यदि यही जाति (Nicotiana tabacum) सर्दियों में लगाई जाए तो कायिक वृद्धि के साथ-साथ बहुत अच्छा पुष्पन भी होता है। तब उन्होंने यह कहा कि दिन की लम्बाई अर्थात् प्रकाश के समय का पुष्पन पर प्रभाव पड़ता है, क्योंकि सर्दियों में प्रकाश की अवधि कम होती है। अतः इन्हें अल्प प्रदीप्तिकाली पौधा (short day plant = SDP) कहा।

प्रकाश काल के पुष्पन पर प्रभाव के अनुसार पौषे तीन प्रकार के होते हैं-

  1. अल्प प्रदीप्तिकाली पौधे (Short Day Plant or SDP)-वे पौधे जिनमें क्रान्तिक दीप्तिकाल से कम समय तक प्रकाश देने से पुष्पन होता है; जैसे-तम्बाकू।
  2. दीर्घ प्रदीफिकाली पौधे (Long day plant or LDP)-ऐसे पौधे जिनमें क्रान्तिक दीप्तिकाल से अधिक समय तक प्रकाश देने से पुष्पन होता है; जैसे-जई, मूली आदि।
  3. दिवस निरेक्ष पौधे (Day Neutral Plants or DNP) – इन पौर्धों के पुष्पन पर प्रकाश के समय का कोई प्रभाव नहीं होता है, जैसे-टमाटर आदि।

कुछ पौधों में कुछ दिन अल्व प्रदीपित काल के पश्चात् फिर दीर्घ प्रदीधित काल मिलने से ही पुष्पन होता है। इन्हें अल्प-दीर्घ प्रद्दीष्तिकाली पौधे (Short-Long Day Plant) कहते हैं। जसे-कैन्डीटफ्ट। क्रान्ति दीप्तिकाल (Critical Day Length) क्रान्ति दीप्तिकाल वह दीप्ति समय है जो पौधे में पुष्वन क्रिया को आरम्भ करने के लिए आवश्यक है। दीप्तिकाल में प्रकाश से अधिक सतत् अन्धकार की आवश्यकता होती है। क्योंकि प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि इनका अन्धकार के समय पड़ने वाली प्रकाश की कुछ किरणें भी पुष्पन को प्रभावित करती हैं।
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दीप्तकालिका का प्रक्रम (Process of Photoperiodism) -फाइटो वर्णक पुष्पन अनुक्रिया के प्रेरण के लिए प्रकाश का अवशोषण करके पुष्पन उत्पन्न करने वाले हॉर्मोंन फ्लोरिजिन (Florigen) का संश्लेषण करता है। सम्पूर्ण प्रक्रम का संक्षेप में वर्णन निम्नवत् हैं।

(1) प्रकाश का अवशोषण (Absorption of Light) – पादपों में पुष्पन तब होता है जब वे प्रकाश तथा अंधेरे का उपयुक्त चक्र प्रहणण कर लेते हैं। इन चक्रों की संख्या विभिन्न प्रजातियों के लिए भिन्नभभिन्न होती है। जैन्थियम पेन्निसिल्वेनिकम (Xanthium pennsylvanicum) को पुष्पन के लिए केवल एक प्रेरक चक्र (Photoinductive cycle) की आवश्यकता होती है।

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साल्विया ऑक्सीडेन्टालिस (Salvia occidentalis) को सत्रह तथा प्लेंटेगो लेन्शियोलेटा (Plantago lanceolata) को 15 प्रकाश प्रेरक चक्रों की आवश्यकता अपने पुष्पन के लिए होती है। पौधों में पुष्पन की क्रिया केवल तभी सम्भव होती है जब वे प्रकाश प्रेरक चक्रों की वांछित संख्या प्राप्त कर लेते हैं। प्रकाश की समस्त तरंगदैर्घ्य पुष्पन को प्रेरित नहीं करती है। पुष्पन की सर्वाधिक उपयुक्त प्रकाश तरंगदैर्ध्य 560 nm – 640 nm

(2) फाइटोक्रोम (Phytochrome) – प्रकाश की तरंगदैर्ध्यों का अवशोषण पत्तियों द्वारा होता है। यह इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि पत्तियों रहित पौधों में कभी भी पुष्पन की क्रिया नहीं होती है। वांछित प्रकाशकाल (photoperiod) को अवशोषित करने के लिए एकल पत्ती भी पर्याप्त होती है। आंशिक रूप से परिपक्व पत्तियाँ प्रकाश के लिए अत्यधिक संवेदनशील होती हैं।

पत्तियों में उपस्थित प्रोटीनयुक्त वर्णक फाइटोक्रोम प्रकाश का अवशोषण करके पुष्पन को प्रेरित करते हैं। फाइटोक्रोम अन्तरापरिवर्तनीय रूपों में पाया जाता है। Pr यह लाल रंग का प्रकाश का 660 nm का अवशोषण करता है तथा Pfr सुदू लाल प्रकाश का अवशोषण शीष्रता से करके या अंधेरे में मंद रूप से Pr में बदल जाता है।

दिन के समय जब श्वेत प्रकाश उपलख्य होता है तो Pfr पौधों में संचित हो जाता है। फाइटोक्रोम का यह रूप SDP में पुष्मन रोधक तथा LDP पुष्पन प्रेरक होता है। सायंकाल में Pfr तापीय रूप से स्वतः Pr में अपषटित हो जाता है। यह वर्णक SDP में पुष्वन प्रेक तथा LDP में पुषन रोधक होता है।
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(3) फ्लोरिजन (Florigen)-प्रकाश प्रेरणिक चक्रों से पुष्पन प्रेक हॉमोंन निर्मित होता है। इस हॉमोंन की उपस्थिति मार्फिंग प्रयोग से प्रमाणित हो जाती है। एक पौधा जिसने पुष्वन के लिए वांछित प्रकाशकाल प्रण नहीं किया हो को ऐसे पौधे के साथ कलम से बाँध दिया जाए जिसने पुष्पन के लिए पर्याप्त प्रकाश काल प्रहण कर लिया हो तो पुष्पन की क्रिया दोनों में होती है क्योंकि दूसरे पौधे में उत्पन्न पुष्वन प्रेरक पदार्थ पहले पौधे में स्थानान्तरित हो जाता है। इस पदार्थ को फ्लोरिजन (Florigen) कछे हैं।

फ्लोरिजन के निर्माण को विभिन्न वैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रकार से समझाया है। SDP पौधों में इसका निर्माण जिबरेलिन सदृश्य हॉॉमोंन द्वारा होता है जोकि लाल प्रकाश की पर्याप्त मात्रा अवशोषित करके फ्लोरिजन में परिवर्तित हो जाता है। अन्थकार में यह हॉमोंन पुनः जिबरेलिन सदृश हॉम्मोन में परिवर्तित हो जाता है। जिबोलिन सदृश्य होंमोंन प्रकाश तथा ताप की उचित परिस्थितियों में फ्लोरिजन में परिवर्वित होता है। इसके पश्चात् यह पौधे के उन भागों में स्थानान्तरित हो जाता है जहाँ पष्षन की क्रिया होनी होती है।
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फ्लोरिजन से पौधों में पुष्पन की क्रिया प्रेरित होती है।

प्रश्न 3.
पादप वृद्धि पर प्रभाव डालने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वृद्धि दर एवं वृद्धि वक्क (Growth Rate and Growth curve) समय की प्रति इकाई के दौरान बढ़ी हुई वृद्धि को वृद्धि दर (growth rate) कहा जाता है। वृद्धि दर को विभिन्न रूपों में प्रदर्शित किया जाता है। जैसे-अंकगणिवीय वृद्धि, ज्यामितीय वृद्धि, सिग्माइड वृद्धि तथा सम्पूर्ण एवं सापेक्ष वृद्धि दर।

(अ) अकगणितीय धृन्दि (Arithmetic Growth)
यह वृद्धि का वह प्रकार है जिसमें आरम्भ से ही एक स्थिर दर से वृद्धि होती है। समसूत्री विभाजन (mitosis) के पश्चात् बनने वाली दो संतति कोशिकाओं में से केवल एक कोशिका निर्त्रर विभाजित होती रहती है और दूसरी कोशिका विभेदित एवं परिपक्व होती रहती है। अंकगणितीय वृद्धि को हम निश्चित दर पर वृद्धि करती जड़ में देख सकते हैं। यह एक सरलतम अभिव्यक्ति होती है। यदि इस वृद्धि का प्राफ पर आकलन किया जाए तो हमें एक सीधी रेखा प्राप्त होती है। इस वृद्धि को छम गणितीय रूप से व्यक्त कर सकते हैं-

Lt=Lo+rt
(यहाँ Lt= समय t पर लम्बाई,
L0= समय शून्य पर लम्बाई, r= वृद्धि दर)
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(ब) उसमिबीय शृबि (Geometrical Growth)
किसी एक कोशिका, पौधे के एक अंग अथवा पूर्ण पौधे की वृद्धि सदैव एकसमान नहीं होती है अर्थात् बदलती रहती है।
प्रारम्भिक अवस्था में वृद्धि धीमी होती है जिसे प्रारम्थिक धीमा वृद्धि काल (initial lag phase) कहते हैं। इसके पश्वात् वृद्धि तीव्रतम होकर उच्चतम बिन्दु पर पहुँच जाती है जिसे मध्य तीव्र वृद्धि काल (middle logarithmic phase) कहते हैं।

z`इसके पश्चात् वृद्धि पुन: धीमी होती है और अन्त में स्थिर हो जाती है। इसे अन्तिम घीमा वृद्धि काल (last stationary phase) कठते हैं। इसे सामूह्हिक रूप से ज्यामितीय वृद्धि (geometrical growth) कहते हैं। इसमें सूत्री विभाजन (mitosis) से बनी दोनों संतति कोशिकाओं में पुनः विभाजन होता है और इनसे बनी कोशिकाएँ मातृ कोशिकाओं का अनुसरण करती हैं।

यद्यपि सीमित पोषण आपूर्ति के साथ वृद्धि दर धीमी होकर स्थिर हो जाती है। समय के प्रति वृद्धि दर को म्राफ पर अंकित करने पर एक सिम्यॉड्ड वार (Sigmoid curve) प्राप्त होता है। यह ‘ S ‘ की आकृति का होता है। ज्यामितीय वृद्धि को गणितीय रूप से निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं-

w1=woert

जहाँ (w1= अन्तिम आकार, भार, ऊँचाई, संख्या आदि, w0= प्रारम्भिक आकार वृद्धि के प्रारम्भ में, r= वृद्धि दर, t= समय, e= स्वाभाविक लघुगणक का आधार)। r एक सापेक्ष वृद्धि दर है। यह पौधे द्वारा नई पादप साममी भी निर्माण क्षमता को मापने के लिए है, जिसे एक दधाता सूंक्कांक (efficiency index) के रूप में सन्दर्रित किया जाता है, अतः w1 का अन्तिम आकार w0 के प्रारम्भिक आकार पर निर्भर करता है।
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(स) सिभ्मॉइड वृद्धि वंज (Sigmoid Growth Curve) : ज्यामितीय वृद्धि को तीन प्रावस्थाओं में बाँटा जा सकता है-

  • प्रारम्भिक धीमा वृद्धि काल (initial lag phase),
  • मध्य तीत्र वृद्धि काल (middle lag phase),
  • अन्तिम धीमा वृद्धि काल (last stationary phase)।

यदि समय के सापेक्ष वृद्धि दर का प्राफ खींचा जाय तो ‘S’ की आकृति का वंक्र प्राप्त होता है। इसे सिम्मॉइ (sigmoid curve) वक्र कहते हैं। एक सिग्मॉइड वक्र में निम्न चार चरण होते है-

  1. पश्चान्त प्राबस्था (Lag phase)-इस प्रावस्था में कोशिका में आन्तरिक परिवर्तन होते हैं, संचित खाध्य पदार्थ के काम आने से इसके शुष्क भार में कमी आती है और वृद्धि बहुत धीमी गति से होती है। इसे मंद वृद्धि काल कहते हैं।
  2. पश्च प्रांस्था (Log phase)-इस प्रावस्था में वृद्धि दर एक साथ तीव्र होती है। इसे ग्याफ में सीधी रेखा से दर्शाया गया है। इसे समग्र वृद्धि काल भी कहते हैं। इसे अधिकतम वृद्धि काल कहते हैं। भी कहते हैं। इसे अधिकतम वृद्धि काल कहते हैं।
  3. घटती प्राक्या (Decline phase)-इस प्रावस्था में वृद्धि दर क्रमशः कम होने लगती है। इसे न्यून वृद्धि काल कहते हैं।
  4. स्याई प्रावस्था (Steady phase)-इस प्रावस्था में कोशिका के पूर्ण परिपक्व हो जाने से वृद्धि लगभग स्थिर हो जाती है। इसे स्थिर वृद्धि काल कहते हैं।

(द) सम्पूर्ण एवं सापेक्ष वृद्धि दर (Absolute and Relative Growth Rate)

  • प्रति इकाई समय और मापन में कुल वृद्धि को सम्पूर्ण या परमवृद्धि दर (absolute growth rate) कहते हैं।
  • किसी दी गई प्रणाली की प्रति इकाई समय में वृद्धि को सामान्य आधार पर प्रदर्शित करना सापेक्ष वृद्धि दर (relative growth rate) कहलाता है। सम्मुख चित्र में दोनों पत्तियों ने एक निश्चित समय में अपने सम्पूर्ण क्षेत्रफल में समान वृद्धि की है, फिर भी A की सापेक्ष वृद्धि दर अधिक है।

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प्रश्न 4.
वृद्धि से आप क्या समझते हैं ? वृद्धि की विभिन्न प्रावस्थाएँ लिखिए।
उत्तर:
वृद्धि (Growth)
जीवधारियों एवं पादपों-का आकार में बढ़ना वृद्धि (growth) कहलाता है, जिसके फलस्वरूप पौधे के शुष्क भार (dry weight) तथा जीवद्रव्य की मात्रा में भी बढ़ोत्तरी होती है। किसी जीवधारी के आकार में परिवर्तन, रूप में भिन्नता एवं जटिलता का उत्पन्न होना परिवर्धन (development) कहालाता है।

अतः वृद्धि एक मात्रात्मक (quantitative) दशा है जिसमें जीवधारियों के पदार्थों की मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है। अतः वृद्धि एवं परिवर्धन को एक-दूसरे से आसानी से पृथक् नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ये क्रियाएँ एक-दूसरे के बाद एक ही जीव में सम्पन्न रहती हैं। वृद्धि को किसी तुला से तौलकर तथा परिवर्धन को गुणात्मक गणना के आधार पर एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है।

परिभाषा (Definition) ब्लैकमैन (Blackman) के अनुसार वृद्धि (growth) वह परिणाम है जो किसी जीव या अंग की विघटनकारी क्रियाओं की तुलना में निर्माणकारी उपापचयी क्रियाओं (metabolic reactions) के कारण उत्पन्न होता है। मिलर (Miller) के अनुसार, वृद्धि वह घटना है जो पादप के किसी अंग, भार, आयतन, आकार एवं रूप में स्थाई एवं अनुक्क्रमणीय (irreversible) परिवर्तन प्रदर्शित करती हैं।
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पादप वृद्धि स्थल (Plant growth places)
निम्न कोटि के पादपों (जैसे-शैवाल, कवक आदि) में वृद्धि उनके सम्पूर्ण शरीर में होती है जबकि उच्चकोटि के पादपों में वृद्धि कुछ विशेष भागों में होती है। इन स्थानों पर पाए जाने वाले ऊतक विभज्योतक (meristems) कहलाते हैं। इन ऊतकों की कोशिकाओं में विभाजन की अपार क्षमता होती है। पादपों में स्थिति के आधार पर विभज्योतक (meristems) निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं-
(a) शीर्षस्थ विभज्योतक (Apical meristem) – यह तने या मूल (stem and root) के शीर्ष (apex) पर पाया जाता है। इसकी सक्रियता के कारण पौधे की लम्बाई में वृद्धि होती है।

(b) पार्श्व विभज्योतक (Lateral meristem) – जैसा कि नाम से स्पष्ट है, ये ऊतक पौधों के पार्श्व उपांगों जैसे-पर्व एवं पर्वसन्धियों (node & internodes) के पार्श्व में पार्श्व कलिकाओं (lateral buds) के आधार भागों आदि स्थानों पर पाए जाते हैं। इनकी क्रियाशीलता के कारण तने एवं जड़ (root & stem की मोटाई में वृद्धि होती है। संवहन एधा (vascular cambium) तथा कॉर्क एधा (cork cambium) इसके उदाहरण हैं।

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(c) अन्तवेशी विभज्योतक (Intercalary meristem) – इस प्रकार के विभज्योतक सर्वदा पर्वसन्धि (node) के ऊपर पाए जाते हैं। इनकी सक्रियता के फलस्वरूप पौधे के तने के पर्व (internodes) लम्बाई में वृद्धि करते हैं।

प्रश्न 5.
वृद्धि दर एवं वृद्धि वक्र से आप क्या समझते हैं ? समझाइए ।
उत्तर:
वृद्धि दर एवं वृद्धि वक्क (Growth Rate and Growth curve) समय की प्रति इकाई के दौरान बढ़ी हुई वृद्धि को वृद्धि दर (growth rate) कहा जाता है। वृद्धि दर को विभिन्न रूपों में प्रदर्शित किया जाता है। जैसे-अंकगणिवीय वृद्धि, ज्यामितीय वृद्धि, सिग्माइड वृद्धि तथा सम्पूर्ण एवं सापेक्ष वृद्धि दर।

(अ) अकगणितीय धृन्दि (Arithmetic Growth)
यह वृद्धि का वह प्रकार है जिसमें आरम्भ से ही एक स्थिर दर से वृद्धि होती है। समसूत्री विभाजन (mitosis) के पश्चात् बनने वाली दो संतति कोशिकाओं में से केवल एक कोशिका निर्त्रर विभाजित होती रहती है और दूसरी कोशिका विभेदित एवं परिपक्व होती रहती है। अंकगणितीय वृद्धि को हम निश्चित दर पर वृद्धि करती जड़ में देख सकते हैं। यह एक सरलतम अभिव्यक्ति होती है। यदि इस वृद्धि का प्राफ पर आकलन किया जाए तो हमें एक सीधी रेखा प्राप्त होती है। इस वृद्धि को छम गणितीय रूप से व्यक्त कर सकते हैं-

Lt=Lo+rt
(यहाँ Lt= समय t पर लम्बाई,
L0= समय शून्य पर लम्बाई, r= वृद्धि दर)
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(ब) उसमिबीय शृबि (Geometrical Growth)
किसी एक कोशिका, पौधे के एक अंग अथवा पूर्ण पौधे की वृद्धि सदैव एकसमान नहीं होती है अर्थात् बदलती रहती है।
प्रारम्भिक अवस्था में वृद्धि धीमी होती है जिसे प्रारम्थिक धीमा वृद्धि काल (initial lag phase) कहते हैं। इसके पश्वात् वृद्धि तीव्रतम होकर उच्चतम बिन्दु पर पहुँच जाती है जिसे मध्य तीव्र वृद्धि काल (middle logarithmic phase) कहते हैं।

इसके पश्चात् वृद्धि पुन: धीमी होती है और अन्त में स्थिर हो जाती है। इसे अन्तिम घीमा वृद्धि काल (last stationary phase) कठते हैं। इसे सामूह्हिक रूप से ज्यामितीय वृद्धि (geometrical growth) कहते हैं। इसमें सूत्री विभाजन (mitosis) से बनी दोनों संतति कोशिकाओं में पुनः विभाजन होता है और इनसे बनी कोशिकाएँ मातृ कोशिकाओं का अनुसरण करती हैं।

यद्यपि सीमित पोषण आपूर्ति के साथ वृद्धि दर धीमी होकर स्थिर हो जाती है। समय के प्रति वृद्धि दर को म्राफ पर अंकित करने पर एक सिम्यॉड्ड वार (Sigmoid curve) प्राप्त होता है। यह ‘ S ‘ की आकृति का होता है। ज्यामितीय वृद्धि को गणितीय रूप से निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं-

w1=woert

जहाँ (w1= अन्तिम आकार, भार, ऊँचाई, संख्या आदि, w0= प्रारम्भिक आकार वृद्धि के प्रारम्भ में, r= वृद्धि दर, t= समय, e= स्वाभाविक लघुगणक का आधार)। r एक सापेक्ष वृद्धि दर है। यह पौधे द्वारा नई पादप साममी भी निर्माण क्षमता को मापने के लिए है, जिसे एक दधाता सूंक्कांक (efficiency index) के रूप में सन्दर्रित किया जाता है, अतः w1 का अन्तिम आकार w0 के प्रारम्भिक आकार पर निर्भर करता है।
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(स) सिभ्मॉइड वृद्धि वंज (Sigmoid Growth Curve) : ज्यामितीय वृद्धि को तीन प्रावस्थाओं में बाँटा जा सकता है-

  • प्रारम्भिक धीमा वृद्धि काल (initial lag phase),
  • मध्य तीत्र वृद्धि काल (middle lag phase),
  • अन्तिम धीमा वृद्धि काल (last stationary phase)।

यदि समय के सापेक्ष वृद्धि दर का प्राफ खींचा जाय तो ‘S’ की आकृति का वंक्र प्राप्त होता है। इसे सिम्मॉइ (sigmoid curve) वक्र कहते हैं। एक सिग्मॉइड वक्र में निम्न चार चरण होते है-
(1) पश्चान्त प्राबस्था (Lag phase)-इस प्रावस्था में कोशिका में आन्तरिक परिवर्तन होते हैं, संचित खाध्य पदार्थ के काम आने से इसके शुष्क भार में कमी आती है और वृद्धि बहुत धीमी गति से होती है। इसे मंद वृद्धि काल कहते हैं।

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(2) पश्च प्रांस्था (Log phase)-इस प्रावस्था में वृद्धि दर एक साथ तीव्र होती है। इसे ग्याफ में सीधी रेखा से दर्शाया गया है। इसे समग्र वृद्धि काल भी कहते हैं। इसे अधिकतम वृद्धि काल कहते हैं। भी कहते हैं। इसे अधिकतम वृद्धि काल कहते हैं।

(3) घटती प्राक्या (Decline phase)-इस प्रावस्था में वृद्धि दर क्रमशः कम होने लगती है। इसे न्यून वृद्धि काल कहते हैं।

(4) स्याई प्रावस्था (Steady phase)-इस प्रावस्था में कोशिका के पूर्ण परिपक्व हो जाने से वृद्धि लगभग स्थिर हो जाती है। इसे स्थिर वृद्धि काल कहते हैं।

(द) सम्पूर्ण एवं सापेक्ष वृद्धि दर (Absolute and Relative Growth Rate)

  • प्रति इकाई समय और मापन में कुल वृद्धि को सम्पूर्ण या परमवृद्धि दर (absolute growth rate) कहते हैं।
  • किसी दी गई प्रणाली की प्रति इकाई समय में वृद्धि को सामान्य आधार पर प्रदर्शित करना सापेक्ष वृद्धि दर (relative growth rate) कहलाता है। सम्मुख चित्र में दोनों पत्तियों ने एक निश्चित समय में अपने सम्पूर्ण क्षेत्रफल में समान वृद्धि की है, फिर भी A की सापेक्ष वृद्धि दर अधिक है।

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प्रश्न 6.
वृद्धि पर प्रभाव डालने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वृद्धि के लिए दशाएँ अधवा वृद्धि पर प्रभाव ज्ञालने वाले कारक (Conditions for Growth or Factors Affecting Plant Growth)
वृद्धि विभिन्न प्रक्रियाओं का परिणाम है। अतः जो भी कारक इन प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं वृद्धि को भी प्रभावित करते हैं। वृद्धि को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्न प्रकार हैं-
1. जल (Water) – जल पादप वृद्धि के लिए महत्वपूर्ण कारक है। जल अनेक पदार्थों के संवहन माध्यम का कार्य करता है। कोशिका की विभिन्न उपापचयी क्रियाएँ (metabolic processes) भी जलीय माध्यम में होती हैं। अधिकांश विकर (enzymes) भी जल की उपस्थिति में सक्रिय रहते हैं। अतः जल की कमी का पौधों की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव होता है।

2. ऑक्सी (respiration) द्रारा प्राप्त होती है और श्वसन के लिए ऑक्सीजन आवश्यक होती है। अतः ऑक्सीजन की कमी का उपापचयी क्रियाओं पर प्रतिकूल प्रभाव होता है जिससे वृद्धि प्रभावित होती है।

3. प्रकाश (Light)-पौधे प्रकाश की उपस्थिति में ही प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) द्वारा भोज्य पदाथों का निर्माण करते हैं। क्लोरोफिल (chlorophyll) का निर्माण भी प्रकाश की उपस्थिति में होता है। क्लोरोफिल भी प्रकाश संश्लेषण में प्रमुख भूमिका अदा करता है। प्रकाश की अनुपस्थिति में पादपों में न तो क्लोरोफिल का गिर्माण होगा और न ही भोज्य पदार्थों का। भोज्य पदार्थों के अभाव में पौरों की वृद्धि नहीं हो सकती।

4. खनिज लवण (Mineral salts) – पौर्रों की वृद्धि के लिए विभिन्न खनिज लवर्णों की आवश्यकता होती है। पौधों में लगभग 92 तत्व पाए जाते हैं। इनमें से ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, कार्बन, पोटेशियम, सल्फर तथा नाइट्रोजन प्रमुख हैं। इनके अलावा बोरोन, जिंक, मोलीब्डेनम, कॉपर, लौह, मैग्नीशियम आदि तत्व भी आवश्यक होते हैं। इनकी कमी से पौधों में विकार उत्पन्न हो जाते हैं तथा पौधे समुचित वृद्धि नहीं कर पाते हैं।

5. होंमोंस (Hormones) – हॉर्मोन्स पौर्षों में ही अल्प मात्रा में संश्लेषित होते हैं और पौषों की वृद्धि को प्रभावित करते हैं, जैसे-ऑक्सि, जिबरेलिन इत्यादि ।

6. ताप (Temperature) -10°C तापक्रम बढ़ने पर जैविक क्रियाओं की दर दोगुनी से तिगुनी हो जाती है किन्तु अत्यधिक ताप वृद्धि पादपों के लिए हानिकारक होती है।

7. प्रकाश तीब्ता (Intensity of Light) – अधिक तीव्र प्रकाश वृद्धि को कम करता है किन्तु पौधे छष्ट-पुष्ट होते हैं।

8. प्रकाश का प्रकार (Quality of Light)-पराबैंगनी (ultraviolet) तथा अवरक्त लाल किरणें (infra red rays) वृद्धि को रोकती हैं किन्तु लाल किरणें वृद्धि को प्रेरित करती हैं।

9. प्रकाश काल (Duration of Light) – प्रकाश काल का प्रभाव मुख्यतः पुष्पन (flowering) पर होता है।

10. प्रकाश की दिशा (Direction of Light)-प्रकाश की दिशा भी वृद्धि को प्रभावित करती है। तनों का प्रकाश की ओर बढ़ना धनात्मक प्रकाशानुवर्तन (positive phototropism) कहलाता है।

प्रश्न 7.
पादप वृद्धि नियम क्या है ? किन्हीं दो पादप वृद्धि नियामकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पादप वृद्धि नियामक (Plant Growth Regulators)
प्राकृतिक पादप वृद्धि नियामक विशेष प्रकार के कार्बनिक यौगिक छोते हैं, जो मुख्य रूप से जिक्योत्रों (Meristems) तथा विकासशील पीतियों एवं फ्रों में उत्पन्न होते हैं। इ्नकी अतिस्थि माश्र पौधों के विभिन्न भागों में पहुँचकर उनकी विभिन्न उपापचयी क्रियाओं (metabolic processes) को प्रभावित एवं नियन्त्रित करती है।

इन्हें पात्य होंकोस्स (plant hormones or phytohormones) भी कहो हैं। अनेक कृत्रिम कार्बनिक योगिक भी पादप हॉर्मोंस की तरह कार्य करते हैं। वेन्ट (Went; 1928) के अनुसार वृद्धि नियामक पदार्थों के अभाव में वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव होता है।
पादप हॉर्मोन्स को निम्नलिखित पाँच समुों में बाँटा जा सकता है-

  1. ऑक्सिन्स (Auxins),
  2. जिबरेलिन्स (Gibberellins),
  3. साइटोकाइनिन्स (Cytokinins)
  4. ऐब्सिसिक अम्ल (Abscisic acid),
  5. एथिलीन (Ethylene)।

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प्रश्न 8.
निम्नलिखित के कार्यिकीय प्रभाव लिखिए-
(अ) ऑक्सिन,
(ब) जिब्बरेलिन,
(स) साइटोकाइनिन।
उत्तर:
देखिए –
(अ)  ऑक्सिन्स (Auxins)
डार्विन (Darwin; 1880) ने केनरी घास (Phalaris canariensis) पर अपने प्रयोगों के दौरान देखा कि इस घास के नवोद्धिद (seedlings) के प्रांकर चोल (coleoptile) को एक ओर से प्रकाश दिया जाय तो यह प्रकाश की ओर मु० जाता है। यदि प्रांर चोल (coleoptile) का शीर्ष काटकर प्रकाश दिया जाय दो यह एक तरफा प्रकाश की ओर नहीं मुड़ता।
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बायसन-जेन्सन (Boysen-Jensen, 1910-1913) ने कटे हुए प्राकुर चोल (coleoptile) को अगार (Agar) के घनाकार टुकड़ों पर रखा। कुछ समय पश्चात् अगार के इस टुकड़े को उन्होने कटे हुए प्रांकुर चोल वाले स्थान पर रखकर एकतरफा प्रकाश दिया। ऐसा करने से प्रांकुर चोल (coleoptile) प्रकाश की ओर मुछ़ जाता है।

वेष्ट ने इसी प्रकार के प्रयोग जई (Avena sativa) के नवोद्भिदों पर किये तथा बताया कि प्रांकुर चोल के शीर्ष भाग में एक रासायनिक पदार्थ बनता है जो प्रकाश से उद्दीप्त हो जाता है। यदि प्रांकुर चोल (coleoptile) के टिप को काट दिया जाय तो इस पदार्थ का संश्लेषण नहीं होता और कटे टिप वाले प्रांकुर चोल पर प्रकाश का कोई प्रभाव नहीं होता है।

यदि टिप को अगार इलाक (agar block) पर रख दिया जाता है तो रासायनिक पदार्थ अगार ब्लाक में रिसकर चला जाता है तथा इस अगार ब्लाक को पुन: कटे प्रांकुर चोल पर रखें तो रासायनिक पदार्थ ठीक उसी प्रकार कार्य करता है जिस प्रकार बिना काटे हुए प्रांकुर चोल का।

एक अन्य प्रयोग में एफ. इन्यू. वेष्ट्ट (F. W. Went : 1926-1928) ने प्रांकुर चोल के कटे हुए टिप को दो अगार के ब्लाकों पर रखा जिनके मध्य पतली अंक्षेटेट (माइका) लगी थी। अब इस टिप को एकतरफा प्रकाश दिया गया। उन्होंने देखा कि रासायनिक पदार्थ की 65% मात्रा छाया वाले अगार ब्लाक में तथा 35% मात्रा प्रकाश की ओर वाले अगार ब्लाक में एकत्र थी।

वेण्ट ने इस रासायनिक पदार्थ को अंक्सि (Auxin) नाम दिया। ऑंक्सिन की उपस्थिति तने में वृद्धि को प्रेरित करती है तथा जड़ में वृद्धि का संदमन करती है। ऑक्सिन के असमान वितरण के कारण ही प्रकाशानुकर्तनी तथा गुर्तचानुकार्ती (phototropism and geotropism) गति होती है।

ऑक्सिन की खोज का श्रेय एफ. छष्ल्यू. वेन्ट को ही दिया जाता है। केनेब बीमान (Kenneth Thimann) ने आंक्सि को शुद्ध रूप में प्राप्त करके इसकी आण्विक संरचना ज्ञात की। ऑक्सिन की रासायनिक प्रकृति (Chemical Nature of Auxin) कॉगल तथा हाओेन स्थिध ने मानव मूत्र से ऑंक्सिन समान पदार्थ पृथक् किया। इसे उन्डोंने ऑंक्सिन्-a (ऑक्सिनोट्रायोलिक अम्ल) कहा जिसका सूत्र C18H32O5 होता है।

ऑक्सिन दो प्रकार के होते हैं-
(1) प्राकृतिक ऑक्सिन (Natural auxin)-कॉगन एवं साथियों ने पुन: मानव के मूत्र से ही एक अन्य पदार्थ पृथक् किया जिसे हि्डोओक्सिन (Heteroauxin) नाम दिया। इसे आजकल IAA (इन्डोल-3 ऐसीटिक एसिड) कहते हैं। यह प्रों में पाया जाने वाला प्राकृतिक ऑंक्सिन है। अन्य प्राकृतिक ऑक्सिन IAA के व्युतन्न के रूप में पाये जाते हैं।

प्राकृतिक आंक्सिन शीर्ष विभाज्योतकों (apical meristem) में बनते हैं और इनका संश्लेषण विभज्योतक क्षेत्र में ‘ट्रिप्टोफेन’ (triptophen) अमीनो अम्ल द्वारा छोता है। यह शीर्ष से सिर्फ आधार की ओर गमन करते हैं। इ्नका ‘बसेीपिट्य ट्रान्सपेर्ट’ (basipetal transport) होता है। इनकी मात्रा शीर्ष विभज्योतकों में अधिकतम छोती है। तीव्र प्रकाश में ऑंक्सिन नह हो जाते हैं। ऑंक्सिन संश्लेषण के लिए Zn अनिवार्य होता है।

(2) संश्लेकि ऑक्सिन (Synthetic auxins)- कुछ संश्लेषित रासायनिक यौगिक मी ऑक्सिन की भाँति कार्य करते हैं। इन्हें संख्लेषित ऑक्सिन (Auxin) कहते हैं। जैसे – नैफ्थलिन ऐसीटिक अम्ल (NAA), इ्डोल-3-ब्यूटाइरिक अम्ल (IBA), 2-4 डाइक्लोरोफिनांक्सि ऐसीटिक अम्ल (2-4D)। आँक्सिन सबसे अधिक103 या 0.001 M की सान्द्रता पर प्रभावी होता है।

संश्लेषित ऑक्सिन में ‘अधुवीय स्थनान्तरण’ पाया जाता है। पादप के किसी भी भाग पर डालने पर यह सम्पूर्ण पादप में फैल जाते हैं। एक पादप में एक समय एक ही ऑक्सिन (Auxin) पाया जाता है। ऑंक्सिन की सर्वाधिक सान्द्रता विभज्योतक उत्तक में पाई जाती है। आंक्सिन का स्थानान्तरण संवहन बंडल (vascular bundle) के द्वारा नहीं होता है बल्कि विसरण (diffusion) द्वारा एक कोशिका से दूसरी कोशिका में होता है।
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ऑक्सिन के कार्यिकीय प्रभाव एवं उपयोग (Physlological Effects & Uses of Auxins)
1. शीर्ष प्रमुख्ता (Apical dominance)- तनों की शीर्ष कलिका (apical bud) में संश्लेषित आक्सिन शीर्ष वृद्धि को बढ़ावा देते हैं तथा पार्श्व कलिकाओं (lateral buds) की वृद्धि का संदमन करते हैं। शीर्ष कलिका को काटने पर पार्श्व कलिकाएँ तेजी से वृद्धि करती हैं। इस गुण का प्रयोग चाय बागानों एवं हेज लगाने के लिए किया जाता है।

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2. विलगन (Abscission) – ऑक्सिन की विशिष्ट सान्द्रता का छिड़काव करने से पत्तियों, पुष्पों व फलों का असमय विलगन रोका जा सकता है।

3. प्रसुपता नियन्रण (Control of dormancy)-आँक्सिन के छिड़काव द्वारा आलू आदि भूमिगत कन्दों (tubers) की कलिकाओं को सामान्य ताप पर प्रस्सुटित (proliferate) होने से रोका जा सकता है।

4. कायिक प्रजनन (Vegetative propogation)-IBA का प्रयोग कलम में निचले भाग में शीष्र जड़ें उत्पन्न करा देता है।

5. खरपतवार नियमन्रण (Weed control) – ऑंक्सि, जैसे – 2, 4-D का प्रयोग चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों (weeds) को नृष्ट करने के लिए किया जाता है ।

6. अनिवेकफलन (Parthenocarpy)- बिना निषेचन (fertilization) फलों का निर्माण होना अनिषेकफलन (parthenocarpy) कहलाता है। कुछ पौधों जैसे-अंगूर, केला, सन्तरा आदि में परागण क्रिया को रोककर यदि ऑंक्सिन की उचित सान्द्रता वर्तिकाम्रों (stigmia) पर लगा दी जाय तो इनमें फलों का विकास हो जाता है।

7. कोशिका दीर्घीकरण (Cell elongation) – आँक्सिन का मुख्य कार्य प्रोह (shoot) में कोशिका दीर्घीकरण है। प्रोह में ऑंक्सिन की अधिक सान्द्रता कोशिका दीर्घीकरण भी प्रेरित करती है। इसलिए प्ररोह धनात्मक प्रकाशानुवर्तीं (+ ve phototropic) एवं ऋ्रणात्मक गुर्त्वानुवर्ती (-ve geotropic) होता है।

8. कोशिका विभाजन (Cell division) – ऑक्सिन कैम्बियम के विभाजन के समय, कलम बाँधने (grafting) के समय, घाव (wounds) होने पर तथा ऊतक संवर्धन (tissue culture) में कोशिका विभाजन को बढ़ाता है।

9. wके का समारथन (Root initiation) – ऑंक्सिन जड़ों के निकलने को प्रेरित करता है। कुछ पौधे जैसे-गुलाब, बोगेनविलिया, नींबू, संतरा आदि में तनों या कलमों को लगाकर नया पौधा तैयार किया जाता है। कलमों के कटे हुए भाग को ऑक्सिन (IBA या NAA) के घोल में हुबोकर लगाने से कलमों से जड़ें शीघ्रता से निकलती हैं तथा कलम जल्दी लग जाती है।

10. पुयन पर प्रथाव (Effects on flowering)-ऑक्सिन अनावश्यक पुष्यन की क्रिया को रोकते हैं, जैसे-आम में। इसी प्रकार सलाद के पौधे में पुष्प निर्माण को रोककर पौषे के वाणिज्य मूल्य को बनाये रखा जा सकता है, क्योंकि इस पौधे की केवल पत्तियाँ उपयोगी होती हैं। अनन्नास तथा लीची में ऑंक्सिन के छिड़ाव से पौधों के सभी फूल एक समय पर उत्पन्न होते हैं।

ऑक्सिन पुर्षों में ‘माद्रप्न प्रभाव’ (feminising effect) डालते हैं। ये मादा पुष्पों के निर्माण को बढ़ाते हैं। नर पुष्यों के निर्माण को रोकते हैं। जैसे-कुकरबिटा (Cucurbita) में दो प्रकार के पुष्प पाये जाते हैं। इसमें ऑक्सिन के छिड़काव द्वारा मादा पुष्प (female flower) अधिक प्राप्त किए जा सकते हैं।.
अन्य प्रभाव (Other effects) : आंक्सिन्स के कुछ अन्य प्रभाव निम्नलिखित हैं-

  • श्वसन क्रियाधारों की उपलब्धता बढाकर श्वसन को प्रेरित करते हैं।
  • कोशिकाओं में विलेयों के संग्रहण को बढ़ाते हैं।
  • एथिलीन में संश्लेषण को बढ़ाते हैं।

(ब) जिबरेलिन (Gibberellins)
जिबरेलिन की खोज (Discovery of Gibberellin)-जापान के फारमोसा (Formosa) में धान के खेत में कुछ पौधे अत्यधिक लम्बे पाए गए, जिनकी पत्तियाँ लम्बी व पीली हो जाती थीं तथा इन पौधों में दाना कम उत्पन्न होता था। धान का यह रोग एक कवक, जिबरेला फ्यूरीकुराई (Gibberella fujikuroiFusarium moniliforme) द्वारा होता है ।

इस रोग को फूलिश सीडलिग रोग या बकानी (Foolish seedling disease or Bakanae) रोग कठा जाता है। &. कुरोसावा (E. Kurosawa, 1926) ने प्रमाणित किया कि यदि कवक (fungus) द्वारा सावित रस को धान के स्वस्थ पौधों पर स्ते कर दिया जाए तो उनमें भी इस रोग के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।

या और ह्याशी (Yabuta and Hayashi, 1939) ने इस फफूँद में से एक वृद्धि नियन्नक पदार्थ पृथक् किया जिसे जिबरेलिन-A (GA) नाम दिया गया। विभिन्न प्रकार के पौधों में अब तक 110 से अधिक जिबरेलिन पृथक् किए जा चुके हैं। जिबरेलिन्स को अपरिपक्व बीजों, जड़ तथा तने के शीर्ष, तरुण पत्तियों तथा कवकों से पृथक् किया गया है। ये संभवतः शैवाल, मॉस तथा फर्न आदि में भी पाए जाते हैं।

श्वसन क्रिया में भाग लेने वाला प्रमुख योगिक ऐसीटिल कोएन्जाइम-A जिबरेलिन-A के निमाण में पूवेवर्ती (Precurser) योंगक का काम करता है।
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रासायनिक सूत्र एवं प्रकृति (Chemical formula and chemical nature): अधिकांश ज्ञात जिबरेलिन्स को GA1, GA2, GA3 ………….. आदि नाम दिए गए हैं।

जिनके रासायनिक संत्र निम्न प्रकार हैं-
GA1 = C19 H24 O6
GA2 = C19 H26 O6
GA3 = C19 H22 O6
सबसे सामान्य तथा सर्वाधिक महत्व का जिबरेलिन GA3 होता है।
(b) रासायनिक प्रकृति (Chemical Nature)-जिबरेलिन का अग्रक पदार्थ (Precurser) कॉरीन (kaurene) होता है। कॉरीन का अग्रक पदार्थ ऐसीटिल Co- A होता है। जिबरेलिन का स्थानान्तरण अधुवीय (non-polar) होता है तथा इनकी संरचना चक्रीय (cyclic structure) होती है। इनमें जिबेन वलय होती है। रासायनिक दृष्टि से सभी जिबरेलिन टरपीन्स (terpenes) होते हैं। ये सभी पादपों में पाये जाते हैं।

जिबरेलिन का कार्यिकीय प्रभाव एवं महत्व (Physiological Effects and Importance of Gibberellins)
1. लम्बाई बक्नाने की क्षमता (Efficiency of increase the length) – जिबरेलिन की उचित सान्द्रता के छिड़काव से बौने पौधे (dwarf plants) लम्बे हो जाते हैं। किन्तु इसका प्रभाव सीमित पौधों पर ही होता है। GA के प्रयोग से सेब के पौधे लम्बे हो जाते हैं। अंगूर के डण्ठल की लम्बाई बढ़ जाती है, गन्ने के तने की लम्बाई बढ़ जाती है।

2. पुप्यन पर प्रभाव (Effect of flowering)-कुछ पौधों को पुष्पन हेतु कम ताप तथा दीर्ष प्रकाश की आवश्यकता होती है। यदि इन पौधों पर GA3 का छिड़काव किया जाय तो पुष्पन आसानी से हो जाता है। द्विवर्षी पौधे (biennial plants), एकवर्षी पौधों (annual plants) की तरह व्यवहार करने लगते हैं, इसे वोस्टित प्रथा (bolting effect) कहते हैं। GA का पुष्पन की क्रिया पर ऑक्सिन की अपेक्षा उल्टा प्रभाव होता है। GA पादपों में पुंजननता (male ness) को प्रेरित करते हैं। अर्थात् नर पुष्पों के निर्माण को बढ़ाते हैं।

3. वृद्धि दर पर प्रथाव (Effect on growth rate)-जिबरेलिन्स कोशिका दीर्घन (cell elongation) के द्वारा वृद्धि को बढ़ाते हैं। जिबरेलिन्स, ऑक्सिन की तुलना में 500 गुना अधिक सक्रिय होते हैं।

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4. अनिषेक फलन (Parthenocarpy) – कृत्रिम अनिषेक फलन में भी GA का उपयोग किया जाता है। इसके द्वारा टमाटर, सेब, नाशपाती आदि फलों में अनिषेक फलन ऑक्सिन की तुलना में अधिक आसानी से कराया जा सकता है। इसका प्रयोग अति तनु अवस्था में किया जाता है।

5. दीर्घ प्रदीप्तिकाली पौधों में पुष्पन (Early flowering in long day plants) – LDP को पुष्पन के लिए दीर्घ प्रकाश अवधि की आवश्यकता होती है। जिबरेलिन के उपचार द्वारा इन पौधों में लघुप्रकाश अवधि (SDP) में ही पुष्पन कराया जा सकता है।

6. बसन्तीकरण या शीत उष्चार का प्रतिस्थापन (Vernalisation or substitution of cold treatment) – द्विवर्षीय पादपों में पुष्पन दूसरे वर्ष में एक शीतकाल के समाप्त होने के बाद होता है। इनमें पुख्पन के लिए शीतकाल में कम तापमान की आवश्यकता होती है। ज़िबरेलिन उपचार से इनमें वृद्धि के प्रथम वर्ष में ही पुष्पन हो जाता है।

7. प्रसुप्तावस्था भंग करना (Breaking of dormancy) – जिबरेलिन बीजों तथा कन्दों (tubers) की प्रसुप्तावस्था (dormancy) को नष्ट करते हैं तथा इन्हें अंकुरित होने के लिए प्रेरित करते हैं। जिबरेलिन बीजों तथा कन्दों के जटिल भोजन के पाचन को प्रेरित करते हैं, जिससे वे अंकुरण कर सकें।

8. एमाइलेज विकर का निर्माण (Synthesis of α-Amylase)-जिबरेलिन मक्का के अंकुरित बीजों में α एमाइलेज के निर्माण को प्रेरित करते हैं।

9. प्रकाश संवेदी बीजों में अंकुरण (Germination in light Sensitive seeds) – सलाद एवं तम्बाकृ के बीजों को अंकुरण के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है। इन बीजों को जिबरेलिन से उपचारित करने से इन्हें अंधेरे में उगाया जा सकता है।

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(स) साइटोकाइनिन।
सार्तेकामनिन के कायिक्डीय प्रथाव (Physiological Effect of Cytokinin)
1. डोरिता निथलन (Cell division)- साइटोकाइनिन का प्रमुख कार्य ऑक्सिन की उपस्थिति में कोरिका विभाजन (cell division) को प्रेरित करना है। ये पादर्यों में विभज्योतक निर्माण को भी प्रेरित करते है।

2. कोशिका वियेद्न (Cell differentiation) – साइ्टोकाइ़नन (cytokinin) ऑंक्सिन की उपस्थिति में विभिन्न अनुपात में अलग-अलग प्रभाव उत्पन्न करते हैं। ऊसक संवर्धन (tissue culture) प्रक्रिया में पोषक माध्यम (culture media) में अधिक सान्द्रता में साइटोकाइनिन तथा कम सान्द्रता में ऑंक्सि हो तो इससे कैलस (callus) का विकास प्रेरित होता है। साइटोकाइनिन की कम एवं ओंक्सिन की अधिक सान्द्रता जड़ निर्माण एवं विभेदन को प्रेरित करती है। यदि दोनों की मात्रा समान रखी जाए तो जड़ एवं तना दोनों ही समान रूप से विकसित होते हैं।

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3. शीर्ष प्रयाबिता निरोध (Counter action of apical dominance)-साइटोकाइनिन के प्रभाव से शीर्ष प्रमुखता प्रभाव नष्ट हो जाता है तथा पाश्व कलिकाओं (lateral buds) की वृद्धि होने लगती है।

4. प्रकाश संब्दी बीजं बा अंरण (Germination of light sensitive seeds)-साइटोकाइनिन से उपचारित सलाद व तम्बाकू के बीजों को अन्धेरे में उगाया जा सकता है।

5. जर्णता विलम्ब (Delay of Senescence)-पादपों में साइटोकाइनिन जीर्णता को विलंबित करते हैं। पर्णहरिम का विघटन, एन्जाइमों का नष्ट होना जीर्णता (senescence) के लक्षण हैं। साइटोकाइनिन के उपश्रार से जीर्णता (senescence) देरी से होती है। इस प्रभाव को रिचमॉण्ड लैंग प्रथाव (Richmond Lang Effect) कहते हैं।

6. घ्रतुर्जा नाशन (Breaking of dormancy)-साइटोकाइनिन के उपचार से कलिकाओं एवं बीजों की प्रसुप्तता को नष्ट किया जा सकता है।

7. लुदीफिकाली पौरों में पुष्मन (Flowering in SDP)-साइटोकाइनिन के उपचार से लघुदीप्तिकाली पौधों (SDP) में पुष्पन प्रेरित किया जा सकता

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HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन


(A) वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

1. ग्लाइकोलाइसिस की क्रिया सम्पन्न होती है-
(A) माइटोकॉण्ड्रिया में
(B) कोशिकाद्रव्य में
(C) हरित लवक में
(D) केन्द्रक द्रव्य में
उत्तर:
(B) कोशिकाद्रव्य में

2. ग्लाइकोलाइसिस में कितने ATP अणुओं का लाभ होता है ? (UPCPMT)
(A) 2
(B) 4
(C) 6
(D) 8
उत्तर:
(A) 2

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन

3. यदि श्वसनी पदार्थ ग्लूकोज है जो इसका R. Q. होगा –
(A) 0.7
(B) 1
(C) 1.8
(D) 2
उत्तर:
(B) 1

4. ग्लूकोज के एक अणु के पूर्ण आक्सीकरण से कितने ATP बनते हैं ?
(A) 8
(B) 16
(C) 32
(D) 38
उत्तर:
(D) 38

5. ग्लाइकोलाइसिस तथा क्रेब्स चक्र के बीच मध्यस्थ कड़ी है-
(A) पाइरुविक अम्ल
(B) एसीटिक अम्ल
(C) ऐसीटिल CO ~ A
(D) सक्सिनिल CO ~ Α
उत्तर:
(C) ऐसीटिल CO ~ A

6. ऑक्सीसोम्स पाये जाते हैं-
(A) माइटोकॉण्ड्रिया की आन्तरिक कला पर
(B) माइटोकॉण्ड्रिया की बाह्य कला पर
(C) माइटोकॉण्ड्रिया की सतह पर
(D) इनमें से किसी में नहीं
उत्तर:
(A) माइटोकॉण्ड्रिया की आन्तरिक कला पर

7. ग्लूकोज के एक अणु के वायवीय ऑक्सीकरण में उत्पन्न ऊर्जा होती है-
(A) 247 kJ
(B) 300kJ
(C) 2870kJ
(D) 6700kJ
उत्तर:
(C) 2870kJ

8. मांसल शुष्कोद्भिदी पादपों में रात्रि में श्वसन भागफल होता है-
(A) 0
(B) 1
(C) 0.7
(D) 1 से अधिक
उत्तर:
(C) 0.7

9. क्रेब्स चक्र में कुल कितने ATP बनते हैं ?
(A) 8
(B) 12
(C) 24
(D) 36
उत्तर:
(C) 24

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन

10. किण्वन में भाग लेने वाला विकर (emzyme)
(A) हैक्सोकाइनेज
(B) पाइरुवेट
(C) फॉस्फेटेज
(D) जाइमेज
उत्तर:
(D) जाइमेज

11. यदि किसी पौधे के चारों ओर CO2 की सान्द्रता अत्यधिक हो तो श्वसन क्रिया-
(A) तीव्र हो जायेगी
(B) रुक जायेगी
(C) धीमी हो जायेगी
(D) अप्रभावित रहेगी
उत्तर:
(C) धीमी हो जायेगी

12. निम्न में से श्वसन संदमक हैं/
(A) आयोडोऐसीटेट
(B) मैलोनेट
(C) सायनाइड
(D) ये सभी
उत्तर:
(B) मैलोनेट

13. प्रकाश सन्तुलन तीव्रता में-
(A) प्रकाश अवशोषण बढ़ जाता है।
(B) वायुमण्डल से गैस विनिमय बढ़ जाता है।
(C) वायुमण्डल से गैस विनिमय नहीं हाता है।
(D) O2 का अवशोषण बढ़ जाता है
उत्तर:
(C) वायुमण्डल से गैस विनिमय नहीं हाता है।

14. क्रेब्स चक्र को कहते हैं-
(A) EMP चक्र
(B) TCA चक्र
(C) हेच स्लेक चक्र
(D) CAM चक्र
उत्तर:
(B) TCA चक्र

15. EMP पथ जैव-रासायनिक पथ है-
(A) ग्लाइकोलाइसिस में
(B) ETS में
(C) क्रेब्स चक्र में
(D) इन सभी में
उत्तर:
(A) ग्लाइकोलाइसिस में

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन

16. R. Q. सर्वाधिक होगा जब श्वसन पदार्थ होगा-
(A) ग्लूकोज
(B) वसा
(C) मैलिक अम्ल
(D) प्रोटीन
उत्तर:
(C) मैलिक अम्ल

17. उच्च श्रेणी के पादप के किस भाग में अनॉक्सी श्वसन होता है ?
(A) भीगे बीज में
(B) फल में
(C) पत्ती में
(D) शुष्क बीज में
उत्तर:
(D) शुष्क बीज में

18. पेन्टोज फॉस्फेट पथ बताया-
(A) नॉरेनवर्ग ने
(B) ब्लैकमैन ने
(C) वारबर्ग ने
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:

19. सायटोक्रोम सहायक होते हैं-
(A) इलेक्ट्रॉन अभिगमन में
(B) ऊर्जा के विमोचन में
(C) ऊर्जा संचयन में है
(D) ग्लूकोज के. ऑक्सीकरण में
उत्तर:
(C) ऊर्जा संचयन में है

20. कार्बनिक पदार्थों के टूटने के
(A) एक अपचय क्रिया
(B) एक उपचय क्रिया
(C) एक पाचन क्रिया
(D) इनमें कोई नहीं
उत्तर:
(B) एक उपचय क्रिया

21. श्वसन दर बढ़ जाएगी यदि मात्रा बढ़ाई जाए-
(A) N2 की
(B) O2 की
(C) CO2 की
(D) CO की
उत्तर:
(C) CO2 की

22. श्वसन के पद नियंत्रित होते
(A) एन्जाइम द्वारा
(B) क्रियाधर द्वारा
(C) हार्मोन्स द्वारा
(D) देह द्रव द्वारा
उत्तर:
(A) एन्जाइम द्वारा

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन

23. पाइकुविक अम्ल किस क्रिया का उत्पाद है ? (RPMT)
(A) क्रेब्स चक्र
(B) केल्विन चक्र
(C) PPP
(D) ग्लाइकोलाइसिस
उत्तर:
(D) ग्लाइकोलाइसिस

24. श्वसन क्रिया में अन्तिम इलेक्ट्रॉन ग्राही है- (RPMT, UPPMT, UPCPMT)
(A) CO2
(B) O2
(C) H2
(D) NADH
उत्तर:
(B) O2

25. RQ श्वसन गुणांक एक से कम होता है-
(A) वसा का
(B) ग्लूकोज का
(C) फ्रक्टोज का
(D) कार्बनिक अम्ल का
उत्तर:
(A) वसा का

26. ऐल्कोड़लीय किण्बन निम्न की उपस्थिति में होता है- (RPMT)
(A) माल्टोज
(B) जाइमेज
(C) एमाइलेज
(D) इनवर्टेंज
उत्तर:
(B) जाइमेज

27. क्षेख घक्र कहुँ सम्पन्न होता है ?
(A) कोशिका द्रव्य
(B) माइटोकॉष्ड्रूया
(C) हरित लवक
(D) ER.
उत्तर:
(B) माइटोकॉष्ड्रूया

28. एक व्यर्ष प्रकिया है-
(A) श्वसन
(B) प्रकाश संश्लेषण
(C) प्रकाश श्वसन
(D) गति
उत्तर:
(C) प्रकाश श्वसन

29. सक्सिनिक जिताइड्रोजिनेय का एक प्रभिसर्षी संखमक्ड क्या दोका है ? (CBSE AIMPT)
(A) मैलानेट
(B) ऑक्सैलोएसीटेट
(C) α कीटोग्लटैरेट
(D) मैलेट
उत्तर:
(A) मैलानेट

30. सीमाकारी कारकों का नियम जिसने दिखा ? (UPCPMT)
(A) लीबिग ने
(B) स्लैकमन ने
(C) कैस्विन ने
(D) आर्नन ने
उत्तर:
(B) स्लैकमन ने

31. माझ्टोकौष्टिया में ATP का निर्माण क्जिता है- (UPCPMT)
(A) बाद्य झिल्ली पर
(B) अन्तः झिल्ली पर
(C)F1 कण पर
(D) क्रिस्टी पर
उत्तर:
(B) अन्तः झिल्ली पर

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32. क्रेख्स चक्र में GTP क्रा निर्माण होता है- (UPCPMT)
(A) ऑक्सीकरणीय फॉस्फेटीकरण में
(B) क्रियाधर फॅ्स्पेटीकरण में
(C) प्रकाश फॉस्पेटीकरण में
(D) विकाबोक्सीकरण में
उत्तर:
(B) क्रियाधर फॅ्स्पेटीकरण में

33. केष्क चक में ‘ऊर्ला सिक्का’ काजनाता है-
(A) AMP
(B) GTP
(C) NADPH2
(D) ATP
उत्तर:
(D) ATP

34. प्वसन मधध्यित वसा कार्बोकाइड्रेट और प्रोटिनों के भुन में कौन-सा उपापचयी सामान्यत होत्ता है ? (NDETUG)
(A) ग्लूकोस-6-फॉस्पेट
(B) फ्रक्टोस-1, 6-डाइफॉस्फेट
(C) पाइकुविक अम्ल
(D) ऐसीटिल CO ~ A
उत्तर:
(D) ऐसीटिल CO ~ A

35. निम्नलिखित में से किस प्रांक्या में CO2 मुक्त कीजी छोती है ?
(A) प्राणियों में वायु श्वसन
(B) ऐल्कोहॉली किण्वन
(C) लैक्टेट किण्वन
(D) पादपों में वायु श्वसन
उत्तर:
(C) लैक्टेट किण्वन

(B) अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions

प्रश्न 1.
श्वसन को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
श्वसन एक अपचयी क्रिया है, जिसमें O2 प्रयुक्त तथा CO2 व ऊर्जा मुक्त होती है।

प्रश्न 2.
ऑक्सीश्वसन का समीकरण लिखिए।
उत्तर:
C6H12O6 + 6O2 → 6CO2+ 6 H2O + 2870kJ

प्रश्न 3.
कोशिकीय श्वसन में इलेक्ट्रॉन अभिगमन कहाँ होता है ?
उत्तर:
माइटोकॉण्ड्रिया के ऑक्सीसोम्स (Oxisomes ) पर ।

प्रश्न 4.
अत्यधिक ताप पर श्वसन क्रिया कैसे प्रभावित होती है ?
उत्तर:
अत्यधिक ताप पर विकर (Enzyme) विघटित हो जाते हैं।

प्रश्न 5.
ऑक्सी तथा अनॉक्सी श्वसन में कौन-सा प्रक्रम समान होता
उत्तर:
ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis)

प्रश्न 6.
कोशिका के कौन-से दो अणु इलेक्ट्रॉन बैंकर का कार्य करते
उत्तर:
NAD तथा FAD

प्रश्न 7.
क्रेन्स चक्र कोशिका के किस भाग में सम्पन्न होता है ?
उत्तर:
माइटोकॉण्ड्रिया (Mitochondria) में।

प्रश्न 8.
कोशिका का ऊर्जा गृह क्या कहलाता है ?
उत्तर:
माइटोकॉण्ड्रिया (Mitochondria)।

प्रश्न 9.
कोशिका की ऊर्जा मुद्राएँ क्या होते हैं ?
उत्तर:
ATP (Adenosine Triphosphate) ।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन

प्रश्न 10.
ग्लूकोज का पायरुविक अम्ल में अपूर्ण आक्सीकरण क्या कहलाता है ?
उत्तर:
ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis) |

प्रश्न 11.
अनॉक्सीश्वसन की अवस्था में यीस्ट द्वारा 38 ATP के उत्पादन के लिए आवश्यक ग्लूकोस अणुओं की संख्या बताइए ।
उत्तर:
अनॉक्सी श्वसन में एक ग्लूकोज से 2 ATP निकलते हैं। अतः 38 ATP निकलने के लिए 19 ग्लूकोज अणुओं की आवश्यकता होगी।

प्रश्न 12.
ग्लूकोज को ग्लूकोज-6- फॉस्फेट में परिवर्तित करने वाले एन्जाइम का नाम लिखिए।
उत्तर:
हेक्सोकाइनेस (Hexokinase) ।

प्रश्न 13.
वान्ट हाफ का नियम लिखिए।
उत्तर:
वान्ट हाफ के अनुसार प्रति 10°C तापमान वृद्धि से श्वसन दर 2-3 गुणा घट जाती है ।

प्रश्न 14.
किसी जीव द्वारा ग्लूकोज पर अनॉक्सीश्वसन किया जा रहा है, इसका R. Q. कितना होगा ?
उत्तर:
अनन्त, क्योंकि अनॉक्सी श्वसन में O2 नहीं ली जाती है।

प्रश्न 15.
पाइरुविक अम्ल से ऐसीटिल CO ~ A के निर्माण में कितने ATP अणु निकलते हैं ?
उत्तर:
2 ATP

प्रश्न 16.
दहन तथा श्वसन में एक अन्तर लिखिए ।
उत्तर:
दहन क्रिया उच्च ताप पर तथा श्वसन क्रिया सामान्य ताप पर होती है।

प्रश्न 17.
दो श्वसन क्रिया संदमक पदार्थों के नाम लिखिए।
उत्तर:
कार्बन मोनो ऑक्साइड, आयोडोऐसीटेट ।

प्रश्न 18.
ETS में इलेक्ट्रॉन का अन्तिम ग्राही कौन होता है ?
उत्तर:
ऑक्सीजन ।

प्रश्न 19.
ATPase की भूमिका लिखिए।
उत्तर:
ADP तथा iP से ATP का निर्माण ।

प्रश्न 20.
जाइमोसिस (Zymosis) क्या है ?
उत्तर:
किण्वन का अन्य रूप ।

(C) लघु उत्तरीय प्रश्न – I (Short Answer Type Questions -1)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित के श्वसन गुणांक लिखिए-
1 अंकुरित मंडयुक्त गेहूँ,
2. अंकुरित तिलहन,
3. अंकुरित दलहनी बीज,
4. नागफनी का प्रकाश में।
उत्तर:
1. अंकुरित गेहूँ में कार्बोहाइड्रेट के श्वसन का RQ = 1
2. अंकुरित तिलहन में वसा होता है, अतः RQ = 0.64
3. अंकुरित दाल में श्वसन पदार्थ प्रोटीन है, अतः RQ = 0.8 – 0.9
4. नागफनी का प्रकाश में डीएसिडिफिकेशन होता है, अत: RQ = 1.33

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प्रश्न 2.
जन्तुओं की पेशियाँ थकावट क्यों महसूस करती हैं ?
उत्तर:
जन्तुओं द्वारा कार्य किये जाने में ऊर्जा खर्च होती है जो कि पेशियों द्वारा अनॉक्सीश्वसन से उत्पन्न होती है। इस क्रिया के फलस्वरूप पेशियों में लैक्टिक अम्ल (Lactic Acid) जमा हो जाती है। लैक्टिक अम्ल की अधिकता के कारण पेशियों में थकावट महसूस होती है।

प्रश्न 3.
पाश्चर प्रभाव क्या है ?
उत्तर:
किसी जीवधारी की अवायवीय परिस्थितियों को वायवीय परिस्थितियों में बदल देने की क्रिया को पाश्चर प्रभाव (Pasteur effect) कहते हैं। यह क्रिया भोज्य पदार्थों ( Substrate – क्रियाधर) को बचाने के लिए होती है।

प्रश्न 4.
एक वायुरोधक काँच के एक जार में एक खरगोश को बन्द कर दिया गया जिसका सम्बन्ध एक द्रोणी (trough) से कर दिया गया जिसमें हरी शैवाल उगी है। क्या खरगोश कुछ समय तक जीवित रहेगा ? कारण बताइए ।
उत्तर:
कोई भी जीव भोजन के बिना कुछ समय तक जीवित रह सकता है किन्तु श्वसन के बिना नहीं। खरगोश को श्वसन के लिए ऑक्सीजन चाहिए जो उसे द्रोणी में उगी शैवाल से प्राप्त हो जाती है । परन्तु शैवाल दिन के समय ही O2 निकालेंगे। रात्रि के समय शैवाल CO2 निकालेंगे अतः रात्रि के समय O2 के अभाव में खरगोश मर सकता है।

प्रश्न 5.
नागफनी जैसे माँसल पौधों में श्वसन गुणांक कैसे पता लगायेंगे ?
उत्तर:
नागफनी में दिन के समय अपूर्ण आक्सीकरण होता है।
C6H12O6 +3O2 → C4H6O5 + 2 CO2 + 3H2O
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन 1
नागफनी में रात के समय डीएसिडीफिकेशन (Deacidification) होता है-
C4H6O5 +3O2 → 4CO2 + 3H2O
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन 2

प्रश्न 6.
श्वसन भागफल तथा प्रकाश संश्लेषण भागफल में दो अन्तर लिखिए।
उत्तर:
श्वसन भागफल तथा प्रकाश संश्लेषण भागफल में अन्तर-

श्वसन भागफल (Respiratory Quotient)प्रकाश संश्लेषण भागफल (Photosynthetic Quotient)
1. यह एक निर्धारित समय में छोड़ी गई CO2 तथा ली गई O2 की मात्रा का अनुपात है ।1. यह एक निर्धारित समय में छोड़ी गई O2 तथा ली गई CO2 की है।
2. विभिन्न श्वसन पदार्थों का R.Q. भिन्न-भिन्न होता है।2. मात्रा का अनुपात है । | लगभग सभी पदार्थों का P.Q. 1. होता है।

(D) लघु उत्तरीय प्रश्न- II ( Short Answer Type Questions-II)

प्रश्न 1.
ऑक्सी श्वसन क्या है ? यह अनॉक्सी श्वसन से अधिक दक्ष क्यों माना जाता है ?
उत्तर:
ऑक्सी श्वसन (Aerobic respiration) – श्वसन का वह प्रकार जिसमें खाद्य पदार्थों में जैवरासायनिक ऑक्सीकरण के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, ऑक्सीश्वसन कहलाता है।
C6H12O + 6O2 → 6CO2 + 6H2O + 2870kJ
ऑक्सी श्वसन, अनॉक्सी श्वसन की अपेक्षा दक्ष होता है, क्योंकि-
1. ग्लाइकोलासिस में जितनी ऊर्जा निकलती है तथा जितने ATP अणु बनते हैं, उनकी संख्या दोनों क्रियाओं में समान है।
2. ऑक्सीश्वसन में क्रेब्स द्वारा पाइरुविक अम्ल (Pyruvic acid) का पूर्ण आक्सीकरण (Oxidation) होता है। मुक्त ऊर्जा ATP के रूप में संचित होती है।
3. अनॉक्सी श्वसन में केवल आन्तरिक परिवर्तन द्वारा CO2 तथा एल्कोहॉल बनते हैं। अधिकतम ऊर्जा इन यौगिकों में रह जाती है।
4. ऑक्सीश्वसन में ग्लूकोज में एक अणु से ATP के 38 अ हैं, जबकि अनॉक्सीश्वसन में केवल 2 ATP अणु ही बनते हैं।
अतः ऑक्सीश्वसन, अनॉक्सीश्वसन की अपेक्षा अधिक दक्ष है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन

प्रश्न 2.
ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में भी श्वसन होता है। कैसे सिद्ध करोगे ? प्रयोग द्वारा समझाइए ।
उत्तर:
श्वसन क्रिया के प्रथम पद में ग्लूकोज से पाइरुविक अम्ल के निर्माण की क्रिया में ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती है। इसे ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis) कहते हैं। ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में नॉक्सीश्वसन (Anaerobic respiration) होता है- विकर C6H12O6 → 2 C2H5OH + 2 CO2 ↑ + 247 kJ
उपरोक्त प्रक्रिया को निम्न प्रयोग द्वारा समझाया जा सकता है- प्रयोग – काँच की एक परखनली को पारे से पूर्णतः भरकर पेट्रीप्लेट में भरे पारे पर इस प्रकार उलटते हैं कि परखनली में पारे का तल नीचे न गिरे।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन 3

अब कुछ अंकुरित बीज चिमटी की सहायता से परखनली में प्रवेश कराते हैं। ये बीज ऊपर उठकर परखनली की पेंदी में ऊपर की ओर पहुँच जाते हैं। परखनली को स्टैण्ड पर कस देते हैं। जैसा कि चित्र में दिखाया गया है। अंकुरित बीजों (germinating seeds) में अनॉक्सीश्वसन की क्रिया होने के फलस्वरूप CO2 उत्पन्न होती है।

CO2 के एकत्र होने के कारण धीरे-धीरे नली में भरे पारे का तल गिरने लगता है। यह देखने के लिए कि परखनली में CO2 ही उत्पन्न हुई है, एक KOH की टिकिया पारे के ऊपर पहुँचाते हैं। यह परखनली की CO2 को सोख लेती है और पारे का तल पुनः ऊपर उठ जाता है।

प्रश्न 3.
हरे पौधों द्वारा श्वसन क्रिया का प्रदर्शन कीजिए।
अथवा
सिद्ध कीजिए कि हरे पौधों में ऑक्सीश्वसन में CO2 उत्पन्न होती है।
उत्तर:
एक बेलजार A में एक हरा पौधा (इसके स्थान पर अंकुरित बीज, आलू अथवा प्याज) लेते हैं । बेलजार के दोनों ओर चूने के पानी से भरी दो बोतलें A तथा B को नली की सहायता से जोड़ दिया जाता है। बेलजार B को काले कपड़े या कागज से ढँक देते हैं ताकि पौधों में प्रकाश संश्लेषण न हो ।

बोतल C का सम्बन्ध KOH से भरी U नली से कर देते हैं, U नली से कर देते हैं, U नली का एक सिरा रखते हैं तथा A नली के एक सिरे से चूषण पम्प जोड़ देते हैं। बोतल, बेलजार तथा नली को चित्रानुसार जोड़ते हैं तथा पूरे उपकरण को वायुरुद्ध (air tight) रखा जाता है। चूषण पम्प को कुछ देर बाद खोलने से वायु का खिंचाव होता है जिससे वायु U नली में रखे KOH से होती हुई C बोतल में प्रवेश करती है।

वायु में उपस्थित CO2 KOH द्वारा अवशोषित हो जाती है। बोतल C के चूने के पानी का दूधिया न होना इसका प्रमाण है । कुछ समय पश्चात् हम देखते हैं कि A बोतल के चूने के पानी का रंग दूधिया हो गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि अंकुरित बीज श्वसन में CO2 गैस निकालते हैं जो कि A बोतल के चूने के पानी को दूधिया कर देती है।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन 4

प्रश्न 4.
श्वसनमापी द्वारा ऑक्सी श्वसन का प्रदर्शन कैसे किया जाता
उत्तर:
श्वसनमापी द्वारा श्वसन क्रिया का प्रदर्शन-
श्वसन मापी काँच का बना एक उपकरण है, जिसमें एक नलिका के मुड़े सिरे पर एक बल्ब लगा रहता है। बल्ब में कॉर्क लगा एक मुँह भी होता है। बल्ब में कुछ अंकुरित बीज रखकर इसमें लगी नली के दूसरे छोर को पारे से भरी एक नाद से सम्पर्क कर देते हैं। नली के मुँह में पारे के ऊपर KOH की एक टिकिया रखकर उपकरण को स्टैण्ड पर कस देते हैं।

दूसरे दिन उपकरण को देखने से ज्ञात होता है कि पारा श्वसनमापी ( Respirometer) नलिका में ऊपर चढ़ गया है। इसका कारण है कि बल्ब में रखे बीज श्वसन क्रिया में. O2 अवशोषित करके CO2 उत्पन्न करते हैं। CO2 को KOH द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है जिससे नलिका में वायुदाब कम होता है और पारा नली में ऊपर चढ़ जाता है।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन 5

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन

प्रश्न 5.
यीस्ट कोशिकाओं को चीनी के घोल में रखने से आप यीस्ट कोशिकाओं एवं चीनी के घोल में किन परिवर्तनों की आशा करते हैं ?
अथवा
खजूर का ताजा रस देर तक रखे रस की अपेक्षा मीठा होता है और मादक होता जाता है। समझाइए ।
उत्तर:
चीनी के घोल में यीस्ट कोशिकाओं को रखने से इसमें निम्न परिवर्तन होता है-
चीनी के घोल में परिवर्तन – यीस्ट कोशिकाओं द्वारा चीनी के घोल में एल्कोहॉलिक किण्वन (Alcoholic fermentation) होता है, फलस्वरूप यीस्ट कोशिकाओं में उपस्थित जाइमेज समूह के विकर, सुक्रोज ( Sucrose) पर क्रिया करके इसे ग्लूकोज आदि में तोड़ देते हैं। बाद में अनॉक्सी श्वसन के द्वारा ग्लूकोज (Glucose) से ऐल्कोहॉल तथा CO2 बनते हैं। इस क्रिया में उत्पन्न ऊर्जा घोल का ताप भी बढ़ाती है। देर तक रखे खजूर (Date palm) के रस का यीस्ट द्वारा किण्वन (Fermentation) से ऐल्कोहॉल बनने के कारण यह मादक (Narcotic) हो जाता है।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन 6

यीस्ट कोशिकाओं में परिवर्तन- यीस्ट कोशिकाएँ प्रचुरता में पोषण तथा ऊर्जा पाकर कायिक वृद्धि करके संख्या में वृद्धि करती हैं। इस प्रक्रिया को मुकुलन (budding) कहते हैं।

प्रश्न 6.
प्रकाश संश्लेषण तथा श्वसन में अन्तर लिखिए ।
उत्तर:
प्रकाश संश्लेषण तथा श्वसन में अन्तर

प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis)श्वसन (Respiration)
1. इसमें प्रकाश आवश्यक है।1. इसमें प्रकाश आवश्यक नहीं है।
2. CO2 तथा H2O कच्चे माल हैं।2. कार्बोहाइड्रेट कच्चा माल (Raw material) है।
3. काबोंहाइड्रेट उत्पाद होता है।3. CO2 व जल उत्पाद होते हैं।
4. यह ऊर्जाशोषी (endo- thermic) अभिक्रिया है।4. यह ऊर्जाक्षेपी अभिक्रिया (Exothermic reaction) है।
5. यह संश्लेषणात्मक क्रिया है।5. यह विघटनात्मक क्रिया है।
6. इससे शुष्क भार में वृद्धि होती है।6. इससे शुष्क भार में कमी होती है।
7. प्रकाश फॉस्फेटीकरण होता है।7. ऑक्सीकरणीय फॉस्फेटीकरण होता है।

प्रश्न 7.
क्या कारण है कि बीज से भरे गोदाम को खोलने पर गर्मी महसूस होती है ?
अथवा
हरी घास के अन्दर का ताप बाहर के वातावरण से अधिक होता है। उत्तर- बीज भरे गोदाम या अनाज से भरे गोदाम को खोलने पर गर्मी निकलती है क्योंकि बीज जीवित होते हैं तथा इनमें धीमी गति से श्वसन क्रिया होती है जिससे ऊष्मा उत्पन्न होती है। यह ऊष्मा हमें गोदाम खोलने पर महसूस होती है। ऐसा ही घास के ढेर में होता है, कटी घास की पत्तियों में काफी समय तक श्वसन होता रहता है जिससे ऊष्मा निकलती है जो अन्दर के वातावरण को गर्म कर देती है।

प्रश्न 8.
ऐसीटिक अम्ल किण्वन तथा लैक्टिक अम्ल किण्वन पर टिप्पणी लिखिए ।
उत्तर:
(i) ऐसीटिक अम्ल किण्वन (Acetic Acid Fermenta- tion) – कुछ जीवाणुओं में एल्कोहॉलिक किण्वन (Fermentation) होने से ऐथिल ऐल्कोहॉल को ऐसीटिक अम्ल में ऑक्सीकृत कर दिया जाता है। इसे ऐसीटिक अम्ल किण्वन कहते हैं-
C2H5 OH + O2 → CH3COOH + H2O + 118.2 kcal ऐथिल एल्कोहल ऐसीटिक अम्ल

(ii) लैक्टिक अम्ल किण्वन (Lactic Acid Fermentation) – उच्च श्रेणी के पादपों, जन्तुओं की माँसपेशियों तथा कुछ जीवाणुओं जैसे- लैक्टोबैसीलस लैक्टाइ आदि में यह क्रिया होती है। इसमें ग्लूकोज से पाइरुविक अम्ल (Pyruvic acid) तथा फिर विकर की उपस्थिति में लैक्टिक अम्ल (Lactic acid) बनता है-
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन 7
किण्वन प्रक्रिया अवायवीय दशाओं में तीव्रतम होती है।

HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 14 पादप में श्वसन

प्रश्न 9.
निम्न पर टिप्पणियाँ लिखिए-
(i) प्रोटोप्लाज्मिक श्वसन,
(ii) फ्लोटिंग श्वसन तथा
(iii) लवणीय श्वसन ।
उत्तर:
(i) प्रोटोप्लाज्मिक श्वसन-यदि क्रिया में श्वंसन पदार्थ प्रोटीन होता है तो ऐसे श्वसन को प्रोटोप्लाज्मिक श्वसन कहते हैं।
(ii) फ्लोटिंग श्वसन यदि श्वसन क्रिया में श्वसनी पदार्थ कार्बोहाइड्रेट्स होते हैं तो इसे फ्लोटिंग श्वसन (Floating respiration) कहते हैं।
(iii) लवणीय श्वसन -पौधों को लवणीय जल में रखने पर श्वसन दर में वृद्धि होती है। इसे लवणीय श्वसन (Salt respiration) कहते हैं।

(E) निबन्धात्मक प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
ग्लाइकोलाइसिस की क्रिया का वर्णन कीजिए।
अथवा
EMP पथवे क्या है ? इसके विभिन्न पदों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ग्लाइकोलिसिस शब्द्ध की उत्पवि ग्रीक शब्द ग्लाइकोस अर्थात् शरंकर एवं लाइसिस अर्थात् टृटना से हुआ है। ग्लाइकोलिसिस की प्रक्रिया गुस्ताव इबेडेन, ओटो मेयर हॉफ तथा जे पारानास द्वारा दिया गया तथा इसे सामान्यतः इएमपी पाथ कहते हैं। अनाक्सी जीवों में साँस की केवल यड़ी प्रक्रिया है। ग्लाइकोलिसिस कोशिका द्रव्य में संपन्न होता है और यह सभी सजीवों में मिलता है । इस प्रक्रिया में ग्लूकोज आशिक ऑक्सीकरण द्वारा पाइरविक अम्ल के दो अणुओं में बदल जाता है।

पादपों में यह ग्लूकोज सुक्रोज से प्राप्त होता है जो कि प्रकाश संश्लेषित कार्बन अभिक्रियाओं का अंतिम उत्पाद है या संचयित कार्बोहाइड्रेट से प्राप्त होता है। सुक्रोस इवर्टेस नामक एंजाइम की सहायता से ग्लूकोज तथा फ्रक्टोज में परिवतितत हो जाता है। ये दोनों मोनोसैकेराइड सरलता से ग्लाइकोलाइटिक चक्र में प्रवेश कर जाते हैं।

ग्लूकोज एवं फ्रक्टोज, हैक्सोकाइनेज एंजाइम द्वारा फॉस्फरिकृत होकर ग्लूकोज-6 फॉस्फ़टट बनाते है। न्लूकोज का फॉस्फरिकृत रुप समायवीकरण द्वारा फ्रुक्टोज- 6 फॉस्पेट में परिवर्तित हो जाता है। ग्लूकोज एवं फ्रुक्टोज के उपापच्य के बाद के क्रम एक समान होते हैं। ग्लाइकोलिसिस के विभिन्न चरण में दर्शाए गए हैं। ग्लाइकीलिसस में दस मृंखलाबद्ध अभिक्रियाओं में विभिन्न एंजाइम द्वारा ग्लूकोज से पाइस्वेट का निर्माण होता है। म्लाइकोलिसिस के विभिन्न चरणों के अध्ययन के दौरान उन चरणों पर ध्यान दें जिसमें एटीपी का उपयोग (एटीपी ऊर्जा) अथवा संश्लेषण (इस मामले में NADH+H+) होता है।

एटीपी का उपयोग दो चरणों में होता है: पहले चरण में जब ग्लूकोज-6 फॉस्फेंट में परिवर्तन होता है तथा दूसरे चरण में व दूसरे फ्रक्टोज -6 फास्फ्टंट का फ्रुक्येज 1,6 , बिसफॉस्फेंड में परिकतन होता है। प्रक्ट्टोज 1.6 विसफॉस्फेट टूटकर डाइहाइड्रोक्सीएसीटोन फॉस्फेंट तथा 3-फौस्फोग्लिखासि्डहाइड (पीजीएएल) बनाता है। जब 3-फॉस्फोंम्लिसरलिद्धाइड (पीजीएएल) का 1 , 3 -बाई फॉस्फोग्लिसरेट (बीपीजीए) में परिवर्तन होता है तो NAD+ से NADH+H+ का निर्मांण होता है।

पीजीएएल से दो समान अपचयोपचय (रिडॉक्स) दो हाइड्रोजन अणु पृथक होकर NAD के एक अणु की और स्थानांतरित होता है। पीजीएल्ल अक्सीकृत होकर अकार्बनिक फॉस्फेट से मिलकर बीपीजीए में परिवर्तित हो जाता है। डीपीजीए का 3- फॉस्फोग्लिसरीक अम्ल में परिवर्तन ऊर्जा उत्पाद्न करने वाली प्रक्रिया है।

इस ऊर्जा का उपयोग एटीपी (ATP) निर्मांण में ह्रोता है। पीईपी (P.E.P.) का पायरूविक अम्ल में परिवर्तन के दौरान भी एटीपी का निमाँण होता है। क्या हुम यह गणना कर सकते हो कि एक अणु से कितने एटीपी के अणुख्तों का प्रत्यक्ष रूप से संश्लेषण होता है? पायरूविक अम्ल न्लाइकोलिसिस का मुख्य उत्पाद है।

पायरुवेट का उपापच्यी भविघ्य क्या है? यह कोशिकीय आवश्यकता पर निर्भर है। यहाँ तीन प्रमुख तरीके हैंजिसमें विधिन्न कोशिकाएं ग्लाइकोलिसिस द्वारा उत्पन्न पायरुविक अम्ल का उपयोग करती हैं। ये लैक्टिक अम्ल किष्वन, एल्कोहलिक किण्वन और ऑक्सी साँस है। अधिकांश प्रोकेरियोट तथा एक कोशिका यूकैरियोट में किण्वन अनाक्सी परिस्थितियों में होता है।

ग्लूकोज के पूर्ण औक्सीकरण के फलस्वरूप कार्बनडाइऑक्साइड तथा जल बनने हंतु जीवथारियों में क्रेंख्स चक्र के द्वारा होता है, जिसे ऑंक्सी श्वसन या साँस कहते हैं, जिसमें ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 2.
ऑक्सीश्वसन से आप क्या समझते हैं ? क्रेब्स चक्र का आरेख बनाकर वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ऑक्सी श्वसन (Aerobic Respiration)
जैसा कि पहले बताया जा चुका है, ऑक्सीश्वसन वह क्रिया है जिसमें ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। यद्यपि उपरोक्त ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis) की क्रिया ऑक्सी तथा अनॉक्सी (acrobic and anaerobic) दोनों प्रकार के श्वसन में ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis) की क्रिया ऑक्सी तथ अनॉक्सी (acrobic and anaerobic) दोनों प्रकार के श्वसन में सामान्य होती है।

परन्तु जब ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis) में बने पाइरुविक अम्ल का विघटन ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है तब इसे ऑक्सीश्वसन (aerobic respiration) कहते हैं। यदि पाइरुविक अम्ल का विघटन ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है तो इसे अनॉक्सीश्वसन (anaerobic respiration) कहते हैं।

ग्लाइकोलाइसिस में उत्पन्न हुआ पाइरुविक अम्ल माइटोकॉण्ड्रिया के मैट्रिक्स में प्रवेश करता है तथा एन्जाइम संकुलों की उपस्थिति में ऑक्सीकरणीय विकार्बोक्सलिकरण से सक्रिय ऐसीटेट बनाता है। अभिक्रिया में पाइर्वेट डिहाइड्रोजिनेस तथा NAD + कोएन्जाइम A, थियामिन फॉस्फेट (TPP) तथा लाइपोइक अम्ल की आवश्यकता होती है। अभिक्रिया का सम्पूर्ण रासायनिक समीकरण अग्रवत् है-

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लाइपोइक अम्ल
पाइरुवेट डिहाइड्रोजिनेस
पाइरुविक अम्ल + सहएन्जाइम A+NaD+ Mg++ ,TPP
ऐसीटिल CO ~ A+ NaDH+H++ CO2
ऐसीटिल CO ~ A क्रेम्स चक्र (Kreb’s cycle) में प्रवेश कर जाता है।

क्रेब्स चक्र या ट्राइकार्बोक्सिलिक अम्ल चक्र (Kreb’s Cycle or Tricarboxylic acid cycle)
इस चक्र की खोज हेन्स क्रेब (Hans Krebs) ने 1937 में की थी। इसके लिए इन्हें 1953 का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था। इसे सिट्रिक अम्ल चक्र (Citric acid cycle) या ट्राइकार्बोक्सिलिक अम्ल चक्र (Tricarboxylic acid cycle or TCA Cycle) भी कहते हैं। यह चक्र माइटोकॉन्ड्रिया के मेट्रिक्स में पूर्ण होता है। इस चक्र के प्रमुख चरण निम्नवत् हैं-

(i) संघनन (Condensation ) ऐसीटिल CO ~ A जल की उपस्थिति में सामान्यतः कोशिका में उपस्थित ऑक्सेलोऐसीटेट से क्रिया करके 6- कार्बन वाला यौगिक सिट्रेट बनाता है तथा COM A को मुक्त कर देता है। इस अभिक्रिया के लिए ऊर्जा ऐसीटिल CO ~ A का उच्च ऊर्जा आबन्ध प्रदान करता है। यह अभिक्रिया सिट्रेट सिन्थेटेस एन्जाइम द्वारा उत्प्रेरित होती है। सिट्रेट में 3- COOH समूह उपस्थित होते हैं। अतः इसे ट्राइकार्बोक्सिलिक अम्ल चक्र (Tricarboxylic acid cycle or TCA cycle) कहते हैं।
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(ii) निर्डलन (Dehvdration)-सिट्टेट ऐकोनाइडेस एन्दाइम की उपस्थिति में H2O निष्कासित करके सिसऐकोनाइट्रेट बनाता हैं।
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(iii) जलयोजन (Hydration)-सिसऐकोनाइट्रेट ऐकोनाइटेस एन्जाइम की उपस्थिति में H2O से संयोग करके आइसोसिट्रेट बनाता है।
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(iv) ऑक्सीकरणीय विकाबोंक्सिलीकरण (Oxidative Decarboxylation) – आइसोसिट्रेट हास्र्रोजन परमाणुओं का एक युग्म देकर (ऑक्सीकरण) CO2 का एक अणु निक्षासित करके (विकार्बोक्सिलीकणण) 5 -कार्षन -कीटोग्लूटरोट बनाता है। यह किया आइसोस्ट्रेट किछाम्रोजिनेस एव्ञाइम द्वारा उत्रेरित होती है।
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(v) ऑक्सीकरणीय विकार्बोक्सिलीकरण (Oxidative Decarboxylation)- यह दो पदों में पूर्ण होता है।

(i) प्रथम पद में Co ~ A, α कीटोग्लूटारेट से अभिक्रिया करके 4- कार्बन सक्सिनिल CO ~ A बनाता है तथा हाइड्रोजन परमाणुओं का एक युग्म तथा CO2 को निर्मुक्त करता है। इस अभिक्रिया में α -कीटोग्लूटारेट डिहाइड्रोजिनेस संकुल एन्जाइम भाग लेता है।
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(ii) द्वितीय पद में सक्सीनिल CO ~ A 4 कार्बन सक्सीनेट तथा CO ~ A एवं HO अणु में टूट जाता है।
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(vi) विहाइड्रोजनीकरण (Dehydrogenation ) – इस प्रक्रम में सक्सीनेट 4- कार्बन फ्यूमेरेट में सक्सीनेट डीहाइड्रोजिनेस एन्जाइम की उपस्थिति में बदल जाता है तथा हाइड्रोजन परमाणुओं का एक युग्म निर्मुक्त करता है।
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(vii) जलयोजन (Hydration) – फ्यूमेरेस एन्जाइम की उपस्थिति में फ्यूमेरेट H2O के साथ जलयोजित होकर 4 कार्बन मेलेट बनाता है।
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(viii) विहाइड्रोजनीकरण (Dehydrogenation ) – इस प्रक्रम में ऑक्सेलोऐसीटेट का निर्माण होता है। यह क्रिया मैलेट डीहाइड्रोजिनेस एन्जाइम द्वारा उत्प्रेरित होती है।
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ऑक्सेलोऐसीटेट ऐसीटिल CO ~ A से संयुक्त होकर सिट्रेट बनाता है।
इस प्रकार क्रेन्स चक्र नियमित रूप से चलता रहता है।

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प्रश्न 3.
इलेक्ट्रॉन परिवहन तंत्र (ETS) का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
इलेक्ट्रोन परिवान तन्र या प्वृसन में ATP का ऑक्सीकरणीय उपादन (Electron Transport System or Oxidative Production of ATP in Respiration) ग्लूकोस का ऑक्सीजन की उपस्थिति में वियोजित होना ऑक्सीकरण प्रक्रिया है। इस प्रक्रम के दौरान कुछ मध्यवर्ती जैसे फॉस्फोग्लिसरेल्हिद्धाइड, पाइइविक अम्ल, आइसोसिट्रिक अम्ल, α-कीटोग्लूटारिक अम्ल, सक्सीनिक अम्ल तथा मैलिक अम्ल ऑक्सीकृत होते हैं। प्रत्येक ऑक्सीकरण पद में 2H निर्मुक्त होते हैं,
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प्रश्न 4.
किण्वन को परिभाषित कीजिए तथा विभिन्न प्रकार की किण्वन प्रक्रियाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
किण्वन (Fermentation)
अनेक सूक्ष्मजीवों में ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में श्वसन क्रिया छोती है तथा यह जीवन की अन्य क्रियाओं से सम्बन्धित होती है। उदाहरण के लिए-सूक्ष्म जीव जिस पोषक माध्यम (किसी कार्बनिक पदार्थ का कोलॉइडी घोल (Colloidal solution) या अन्य प्रकार का नम पदार्थ) में पाये जाते हैं को पहले कुछ पाचक क्रियाओं द्वारा घुलनशील तथा अवशोषण योग्य बनाकर भोजन अवशोषित करते हैं।

ये पोषक पदार्थ जीव के शरीर में पहुँचकर O2 के अभाव में विघटित हो जाते हैं। इससे उत्पन्न कर्जा जैविक क्रियाओं (Vital activities) को सम्पन्न करती है। इस प्रक्रिया में पोषक पदार्थ पूर्णतः विखण्डित नहीं हो पाता है और न ही उससे सम्पूर्ण ऊर्जा कोशिका को प्राप्त छोती है। अपूर्ण विखण्डित पदार्थ वातावरण में मुक्त कर दिया जाता है।

उपरोक्त क्रिया को सामूधिक रूप से दिण्न्न (Fermentation) कहते हैं। यह क्रिया प्रायः कवकों (Fungi) एक जटिल समूह के रूप में होते हैं। जैसे-यीस्ट (Yeast) में इसे जाइमेज (Zymase) समूह का़ जाता है। एल्कोईगिलिक किष्बन (Alcoholic Fermentation) – यह्ठ क्रिया प्राय: यीस्ट (Yeast) में पायी जाती है। इसमें सर्वप्रथम जटिल कार्बोहाड्रेट्स को ग्लूकोज आदि सरल कार्बोहाइड्डेट्स में तोड़ा जाता है।
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किण्वन को प्रर्भावित करने वाले कारक (Factors Affecting Fermentation)
1. ऑक्सीजन की उपस्थिति किण्वन को कम करती है क्योंकि किण्वन अनॉक्सी प्रक्रिया है।
2. प्रकाश की तीव्रता से किण्वन की क्रिया घटती है।
3. तापमान से किण्वन की क्रिया बढ़ती है। तापमान के कम होने से घटती है।

प्रश्न 5.
श्वसन को प्रभावित करने वाले कारक लिखिए।
उत्तर:
श्वसन को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Respiration)
(अ) आन्तरिक कारक (Internal Factors)
1. श्वसनी पदार्थ या क्रियाधर की सान्द्रता (Concentration of Respiratory Substrate)-श्वसन क्रिया में श्वसनी पदार्थ की सान्द्रता बढ़ने पर श्वसन की दर बढ़ जाती है तथा पदार्थ की सान्द्रता में कमी होने पर श्वसन दर घट जाती है।
2. औीवद्रु्य (Protoplasm)-जीवद्रव्य की मात्रा एवं सान्द्रता से श्वसन प्रभावित होता है, जैसे-विभाजन करने वाली कोशिकाओं में जीवद्रव्य की मात्रा अधिक होती है, अत: इनमें श्वसन दर भी अधिक होती है।
3. विकर (Enzyme)-समुचित विकर सान्द्रता होने पर ही श्वसन क्रिया ठीक प्रकार से संचालित होती है।

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(ब) बाद्य कारक (External Factors)
1. तापमान (Temperature)-सामान्यतः श्वसन 5°C से 25°C ताप पर होता है। यदि ताप को 35°C तक बढ़ाया जाय तो श्वसन दर बढ़ती है परन्तु इसमे अधिक ताप बढ़ने पर श्वसन दर घटने लगती है। कुछ जीवाणु 10°C तथा 60°C पर भी श्वसन करते हैं।
2. ऑक्सीजन (Oxygen) – ऑक्सीश्वसन के लिए O2 मङखवपूर्ण कारक है। इसकी उचित सान्द्रता (concentration) में श्वसन दर बड़ती है किन्तु अत्याधक सान्द्रता विकरों का संदमन करती है जिससे श्वसन दर घट जाती है।
3. जल (Water)-समस्त जैविक क्रियाएँ जल की उपस्थिति में होती हैं। विकर (enzyme) जल की उपस्थिति में ही क्रियाशील होते हैं। जल की कमी से श्वसन दर घटती है।
4. प्रकाश (Light)-प्रकाश श्वसन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। प्रकाश के कारण ही श्वसन में प्रयुक्त भोज्य पदार्थ का संश्लेषण होता है। भोज्य पदार्थ की कमी होने पर श्वसन दर घट जाती है।
5. CO2 वायुमण्डल में = CO2 = की सान्द्रता बढ़ने पर श्वसन दर घट जाती है।
6. श्वसन संदमक (Respiration inhibitors) – कुछ पदार्थ जैसे-कार्बन मोनोऑक्साइड (CO)2 सायनाइड (Cyanide), आयोडोऐसेटेट, मैलोनेट आदि श्वसन संदमक का कार्य करते हैं।

प्रश्न 6.
श्वसन भागफल से आप क्या समझते हैं ? विभिन्न खाद्य पदार्थों के श्वसन भागफल बताइए।
उत्तर:
देखिए अनुच्छेद 14.5 (श्वसन भागफल या श्वसन गुणांक) ।
“श्वसन पथ एक ऐम्पीबोलिक पथ होता है”
(Respiratory Pathway is an Amphibolic Pathway)
श्वसन क्रिया के लिए ग्लूकोब एक सामान्य क्रियाधर (Common Substrate) होता है, जिसे कोशिकीय ईधन (Cellular fuel) कहते हैं, अन्य काबोंहाइड्डेटस भी श्वसन क्रिया से पहले ग्लूकोज में परिवर्तित कर दिये जाते हैं। वसा (Fat) को पहले गिलसरॉल तथा वसीय अम्लों (Fatty acids) में विर्घटित किया जाता है।

वसीय अम्ल ऐसीटिल कोएनाइम (Acetyle Co-A) बनकर श्वसन मार्ग में प्रवेश करता है। गिलसरॉल फॉस्पोम्लिसरेलिड़हाइड (PGAL) में बदलकर श्वसन पथ में प्रवेश करता है। प्रोटीन्स विषटित होकर ऐमीनो अम्ल बनाती हैं। एमीनो अम्ल (Amino acids) विएमिनीकरण (veamination) के पश्चात क्रेब्स चक्र के विभिन्न चरणों में प्रवेश करता है।

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इसी प्रकार वसा अम्ल के संश्लेषण में श्वसन मार्ग से ऐसीटिल कोएन्जाइम पृथक् हो जाता है। अत: वसा अम्ल के संश्लेषण एवं विषटन के दौरान श्वसनीय पथ का प्रयोग होता है। इसी प्रकार प्रोटीन के संश्लेषण व विषटन के दौरान मी श्वसन पथ का प्रयोग होता है। इस तरह श्वसन पथ में उपचय (Anabolism) तथा अप्य (Catabohism) क्रियाएँ साथ-साथ होती रहती हैं। यही कारण है कि श्वसन पथ को ऐम्प्रीबोलिक पथ (Amphibolic Pathway) कहा जाता है।
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श्वसन भागफल या श्वसन गुणांक (Respiratory Quotient, R.Q.)
किसी दिये गये समय, ताप व दाब पर निष्कासित CO2 तथा प्रयुक्त O2 के अनुपात को श्वसन भागफल RQ कहते हैं।
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