HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन

(A) वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

1. तन्तुक विसर्पण सिद्धान्त के अनुसार पेशी संकुचन के समय पेशी की लम्बाई कम करने के लिए गति करने वाला अणु है-
(A) कोलैजन
(B) एक्टिन
(C) मायोसिन
(D) टायटिन।
उत्तर:
(B) एक्टिन

2. कोहनी की सन्धि का प्रकार है-
(A) अचल सन्धि
(B) कब्जा सन्धि
(C) दृढ़ सन्धि
(D) धुरा सन्धि।
उत्तर:
(B) कब्जा सन्धि

3. संकुचनशील प्रोटीन है-
(A) ट्रोपोनिन
(B) मायोसिन
(C) ट्रोपोमायोसिन
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(B) मायोसिन

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4. मानव के पश्चपाद में अस्थियों की संख्या होती है –
(A) 14
(C) 26
(B) 24
(D) 30
उत्तर:
(D) 30

5. पेशियों का अनॉक्सी संकुचन किसके संचयन के कारण पीड़ादायक होता है?
(A) कैल्सियम आयन
(B) मायोसि
(C) लैक्टिक अम्ल
(D) क्रियेटिन फॉस्फेट।
उत्तर:
(C) लैक्टिक अम्ल

6. अनुप्रस्थ सेतुओं के बन्धन के लिए कौन-से आयन की उपस्थिति आवश्यक है?
(A) कैल्सियम
(C) लौह
(B) सोडियम
(D) पोटैशियम।
उत्तर:
(A) कैल्सियम

7. अस्थियों को परस्पर जोड़ने वाला तन्तुकीय ऊतक होता है –
(A) वसा ऊतक
(B) कण्डरा
(C) स्नायु
(D) पेशी ऊतक।
उत्तर:
(C) स्नायु

8. पेशी संकुचन के लिए आवश्यक ऊर्जा का स्रोत है –
(A) एक्टिन
(B) ATP
(C) एक्टोमायोसिन
(D) मायोसिन।
उत्तर:
(B) ATP

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9. मनुष्य में सबसे दृढ़ पेशी होती है –
(A) हाथों की
(B) जबड़ों की
(D) पीठ की।
(C) जाँघों की
उत्तर:
(B) जबड़ों की

10. कण्डरा (tendon) जोड़ती है –
(A) पेशी को पेशी से
(B) हड्डी को हड्डी से
(C) पेशी को हड्डी से
(D) तन्त्रिका को पेशी से।
उत्तर:
(C) पेशी को हड्डी से

11. मनुष्य की पेशियाँ किसकी सुरक्षा करती हैं?
(A) हृदय की
(B) फेफड़ों की
(C) हृदय एवं फेफड़ों की
(D) आमाशय की।
उत्तर:
(C) हृदय एवं फेफड़ों की

12. ग्लीनॉइड गुहा किसमें पायी जाती है?
(A) अंसमेखला में
(B) श्रोणि मेखला में
(C) करोटि में
(D) हृदय में।
उत्तर:
(A) अंसमेखला में

13. श्रोणि के साथ फीमर की सन्धि होती है –
(A) धुराम
(B) कब्जा
(C) सैडल
(D) कन्दुक खल्लिका।
उत्तर:
(D) कन्दुक खल्लिका।

14. मानव की दायीं भुजा में हड़ियों की कुल संख्या होती है –
(A) 20
(B) 34
(C) 30
(D) 32
उत्तर:
(C) 30

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15. मनुष्य तथा अन्य स्तनियों में ग्रीवा कशेरुकाओं की आदर्श संख्या है –
(A) 7
(B) 12
(C) 10
(D) 11
उत्तर:
(A) 7

16. मनुष्य की श्रोणि मेखला की तीन अस्थियाँ हैं –
(A) प्यूबिस, ऐसीटाबुलम, इस्वियम
(B) इलियम, इस्वियम, सैक्रम
(C) इस्वियम, इलियम, प्यूबिस
(D) इलियम, प्यूबिस ऐसीटाबुलम।
उत्तर:
(C) इस्वियम, इलियम, प्यूबिस

17. मनुष्य की अंसमेखला की प्रमुख अस्थि है –
(A) स्कैपुला
(B) इलियम
(C) प्यूबिस
(D) कोरैकोएड।
उत्तर:
(A) स्कैपुला

18. मनुष्य में एक्रोमियन प्रवर्ध होता है –
(A) अंसमेखला में
(B) श्रोणि मेखला में
(C) रेडियो- अल्ना में
(D) अंसफलक में।
उत्तर:
(D) अंसफलक में।

19. लम्बी हड्डियों के सिरों पर स्थित लचीली रचनाएँ होती हैं –
(A) कण्डराएँ
(C) स्नायु
(B) पेशियाँ
(D) उपास्थियाँ।
उत्तर:
(D) उपास्थियाँ।

20. अक्षीय कंकाल के निर्माण में भाग नहीं लेती हैं –
(A) करोटि की अस्थियाँ
(B) रेडियो अल्ना का
(C) स्टर्नम की अस्थियाँ
(D) टीबियो फीबुला का।
उत्तर:
(D) टीबियो फीबुला का।

21. श्रोणि मेखला की ऐसीटाबुलम गुहिका में शीर्ष फिट रहता है –
(A) ह्यूमरस का
(C) फीमर का
(B) कशेरुक दण्ड की अस्थियाँ
(D) पैक्टोरल गर्डिल की अस्थियाँ।
उत्तर:
(A) ह्यूमरस का

22. श्रोणि मेखला (Pelvic girdle) के साथ फीमर की सन्धि होती है –
(A) धुराम
(B) सैडल
(C) कन्दुक- खल्लिका
(D) कब्जा।
उत्तर:
(C) कन्दुक- खल्लिका

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23. महारन्ध्र होता है –
(A) करोटि के आधार में
(B) कशेरुक दण्ड के शिखर पर
(C) मस्तिष्क के आधार में
(D) मैड्यूला के आधार में।
उत्तर:
(A) करोटि के आधार में

24. मनुष्य की अंसमेखला की प्रमुख हड्डी है –
(A) स्कैपुला
(B) इलियम
(C) प्यूबिस
(D) कोराकॉयड।
उत्तर:
(A) स्कैपुला

25. कलाई की अस्थियाँ कहलाती हैं –
(A) टार्सल्स
(B) मैटाटार्सल्स
(C) मैटाकार्पल्स
(D) कार्पल्स।
उत्तर:
(D) कार्पल्स।

26. अंसमेखला का घटक है –
(A) इलियम
(B) ग्लीनॉयड गुहा
(C) ऐसीटाबुलम
(D) स्टर्नम।
उत्तर:
(B) ग्लीनॉयड गुहा

27. अँगूठी के आकार की कशेरुका होती है –
(A) एटलस
(B) प्रारूपी प्रीवा
(C) एक्सिस
(D) थोरेसिक।
उत्तर:
(A) एटलस

28. टिम्पैनिक हड्डी पायी जाती है –
(A) नाक में
(B) कान में
(C) गर्दन में
(D) पैर में।
उत्तर:
(B) कान में

29. निम्न में अग्रपाद की हड्डी
(A) ह्यमरस
(C) टीबिया
(B) फीमर
(D) फीबुला।
उत्तर:
(A) ह्यमरस

30. मेटाकार्पल्स पायी जाती है –
(A) हथेली में
(B) कपाल में
(C) गर्दन में
(D) पीठ में।
उत्तर:
(A) हथेली में

31. मानव शरीर में अस्थियों की कुल संख्या होती है –
(A) 260
(B) 206
(C) 360
(D) 306
उत्तर:
(B) 206

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32. कण्डरा एवं स्नायु विशिष्ट प्रकार के –
(A) तन्त्रिका ऊतक हैं
(B) उपकला ऊतक हैं
(C) पेशीय ऊतक हैं
(D) तन्तुमय संयोजी ऊतक हैं।
उत्तर:
(C) पेशीय ऊतक हैं

33. ओब्ट्यूरेटर फोरामेन पाया जाता है –
(A) खरगोश की अंसमेखला में
(B) मेढक की अंसमेखला में
(C) खरगोश की श्रोणि मेखला में
(D) मेढक की श्रोणि मेखला में।
उत्तर:
(C) खरगोश की श्रोणि मेखला में

34. त्रिकोणाकार कटक (deltoid ridge) पाया जाता है –
(A) ह्यमरस में
(B) टीबियो फीबुला में
(C) रेडियो अल्ना में
(D) फीमर में।
उत्तर:
(C) रेडियो अल्ना में

35. न्यूरल केनाल उपस्थित होती है-
(A) ह्यमरस में
(B) टीबियो फीबुला में
(C) कशेरुक दण्ड में
(D) कपाल अस्थि में।
उत्तर:
(C) कशेरुक दण्ड में

32. कण्डरा एवं स्नायु विशिष्ट प्रकार के –
(A) तन्त्रिका ऊतक हैं
(B) उपकला ऊतक हैं
(C) पेशीय ऊतक हैं
(D) तन्तुमय संयोजी ऊतक हैं।
उत्तर:
(C) पेशीय ऊतक हैं

33. ओब्ट्यूरेटर फोरामेन पाया जाता है –
(A) खरगोश की अंसमेखला में
(B) मेढक की अंसमेखला में
(C) खरगोश की श्रोणि मेखला में
(D) मेढक की श्रोणि मेखला में।
उत्तर:
(C) खरगोश की श्रोणि मेखला में

34. त्रिकोणाकार कटक (deltoid ridge) पाया जाता है –
(A) ह्यमरस में
(B) टीजियो फीबुला में
(C) रेडियो अल्ना में
(D) फीमर में।
उत्तर:
(C) रेडियो अल्ना में

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35. न्यूरल केनाल उपस्थित होती है-
(A) ह्यमरस में
(B) टीबियो फीबुला में
(C) कशेरुक दण्ड में
(D) कपाल अस्थि में।
उत्तर:
(C) कशेरुक दण्ड में

36. मुर्गे की सिन सेक्रम बना होता है –
(A) 29 कशेरुकाओं का
(B) 3 कशेरुकाओं का
(C) 16 कशेरुकाओं का
(D) एक कशेरुका का।
उत्तर:
(C) 16 कशेरुकाओं का

37. एक क्रिकेट खिलाड़ी मैदान में तेजी से गेंद का पीछा कर रहा है। इस क्रिया के लिए निम्न में से अस्थियों का कौन-सा समूह सीधा उत्तरदायी है-
(A) फीमर, मेलियस, टीबिया, मेटाटार्सल
(B) पेल्विस, अल्ना, पैटेला, टार्सल
(C) स्टर्नम, फीमर, टीबियो, फीबुला
(D) टार्सल, फीमर, मेटाटार्सल, टीबिया।
उत्तर:
(D) टार्सल, फीमर, मेटाटार्सल, टीबिया।

(B) अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
अमीबीय गति किस प्राणी में पायी जाती है ?
उत्तर:
अमीबीय गति अमीबा में पायी जाती है।

प्रश्न 2.
पैरामीशियम में किस प्रकार की गति पायी जाती है ?
उत्तर:
पैरामीशियम में पक्ष्माभी गति (ciliary movement) पायी जाती

प्रश्न 3.
कोशिका भक्षण में कौन-सी गति काम आती है ?
उत्तर:
कोशिका भक्षण में अमीबीय गति काम आती है।

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प्रश्न 4.
अनैच्छिक एवं रेखित लक्षणों वाली पेशी का नाम लिखिए।
उत्तर:
हृदय पेशियाँ (cardiac muscles)।

प्रश्न 5.
पेशी की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई बताइये।
उत्तर:
सार्कोमीयर ( sarcomere)।

प्रश्न 6.
पेशी किसके द्वारा अस्थि से जुड़ती है ?
उत्तर:
कण्डराओं (tendons) द्वारा।

प्रश्न 7.
अस्थि से अस्थि किसके द्वारा जुड़ती है ?
उत्तर:
स्नायुओं ( ligaments) द्वारा।

प्रश्न 8.
प्रेरक तन्त्रिका एवं पेशी के मध्य कौन-सा तन्त्रिकाप्रेषी रसायन स्त्रावित होता है ?
उत्तर:
ऐसीटिलकोलीन (acetylcholine) ।

प्रश्न 9.
अनुप्रस्थ सेतु का निर्माण कौन-सी प्रोटीन द्वारा होता है ?
उत्तर:
एक्टिन द्वारा।

प्रश्न 10.
मनुष्य के त्रिक का निर्माण कितने कशेरुक करते हैं ?
उत्तर:
पाँच कशेरुकाएँ।

प्रश्न 11.
मनुष्य में करोटि का निर्माण कितनी अस्थियों से होता है ?
उत्तर:
28 अस्थियाँ ।

प्रश्न 12.
किस रसायन के कारण पेशियों में थकावट उत्पन्न होती है ?
उत्तर:
लैक्टिक अम्ल (lactic acid) के कारण।

प्रश्न 13.
मनुष्य में पायी जाने वाली कर्णास्थियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
मनुष्य में मैलियस, इन्कस तथा स्टेपीज नामक कर्ण अस्थियाँ पायी जाती हैं।

प्रश्न 14.
चल सन्धियों में पाये जाने वाले स्नेहन का नाम लिखिए।
उत्तर:
चल सन्धियों में सायनोवियल तरल (Synovial fluid) स्नेहन के रूप में पाया जाता हैं।

प्रश्न 15.
कन्दुक खल्लिका सन्धि का एक उदाहरण लिखिए।
उत्तर:
श्रोणि सन्धि (Hip joint)।

प्रश्न 16.
मेखलाओं का कंकाल में क्या कार्य है ?
उत्तर:
मेखलाएँ उपांगीय कंकाल को सन्धान एवं सहारा प्रदान करती हैं।

प्रश्न 17.
एक वयस्क मनुष्य के कशेरुक दण्ड में कुल कितनी कशेरुकाएँ होती हैं ?
उत्तर:
एक वयस्क मनुष्य के कशेरुक दण्ड में कुल 26 कशेरुकाएँ होती

प्रश्न 18.
मनुष्य में कितनी जोड़ी वास्तविक पसलियाँ पायी जाती हैं ?
उत्तर:
मनुष्य में 7 जोड़ी वास्तविक पसलियाँ पायी जाती हैं।

प्रश्न 19.
मनुष्य के शरीर की सबसे लम्बी अस्थि कौन-सी होती है ?
उत्तर:
मनुष्य के शरीर की सबसे लम्बी अस्थि फीमर होती है।

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प्रश्न 20.
मनुष्य के शरीर की सबसे छोटी अस्थि का नाम लिखिए।
उत्तर;
मनुष्य के अन्तः कर्ण में पायी जाने वाली स्टेपीज (Stapes) नामक अस्थि सबसे छोटी होती है।

प्रश्न 21.
मानव शरीर की ऐसी अस्थि का नाम बताइए जो कि किसी अन्य अस्थि से नहीं जुड़ती है ?
उत्तर:
हाय ऑयड अस्थि (Hyoid bone)

प्रश्न 22.
कलाई की हड्डियाँ क्या कहलाती हैं ?
उत्तर:
कार्पल्स (Carpals)।

प्रश्न 23.
स्कैपुला अस्थि (Scapula) किसमें पायी जाती है।
उत्तर:
अंसमेखला में।

प्रश्न 24.
पेशियों में आकुंचन के समय कौन-सा पदार्थ बनता है ?
उत्तर:
पेशियों में आकुंचन के समय एक्टोमायोसिन बनता है।

प्रश्न 25.
क्रिएटिन फॉस्फेट का कार्य लिखिए।
उत्तर:
पेशी संकुचन के समय क्रिएटिन फॉस्फेट ADP को ATP में बदलकर ऊर्जा प्रदान करता है।

प्रश्न 26.
मनुष्य के अक्षीय कंकाल में कितनी अस्थियाँ होती हैं ?
उत्तर:
मनुष्य के अक्षीय कंकाल में 80 अस्थियाँ होती हैं।

प्रश्न 27.
पेशी तन्तु में संकुचन कौन-सी छड़ों के कारण होता है ?
उत्तर:
एक्टिन छड़ें मायोसिन छड़ों के ऊपर फिसलती हैं। इससे पेशी खण्डों के छोटे हो जाने से पेशी तन्तुक सिकुड़ते हैं।

प्रश्न 28.
पेशी संकुचन के लिए आवश्यक ऊर्जा कहाँ से प्राप्त होती
उत्तर:
पेशी संकुचन के लिए आवश्यक ऊर्जा ATP तथा क्रिएटिन फॉस्फेट से प्राप्त होती है।

प्रश्न 29.
पेशी संकुचन के लिए कौन-सा अकार्बनिक आयन आवश्यक होता है ?
उत्तर:
पेशी संकुचन के लिए कैल्सियम आयन (Ca+) आवश्यक होता है

प्रश्न 30.
पेशी तन्तु संकुचन का छड़ विसर्पण सिद्धान्त ( सर्पी तन्तु सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया था ?
उत्तर:
पेशी तन्तु का छड़ विसर्पण सिद्धान्त H. E. हक्सले ने प्रस्तुत किया था।

प्रश्न 30.
पेशी तन्तु संकुचन का छड़ विसर्पण सिद्धान्त ( सर्पी तन्तु सिद्धान्त) किसने प्रस्तुत किया था ?
उत्तर:
पेशी तन्तु का छड़ विसर्पण सिद्धान्त H. E. हक्सले ने प्रस्तुत किया था।

प्रश्न 31.
पेशी संकुचन के समय पेशी तन्तु की कौन-सी पट्टी की लम्बाई कम होती है ?
उत्तर:
पेशी संकुचन के समय ‘ पट्टी (I-band) की लम्बाई कम हो जाती है।

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प्रश्न 32.
पेशियों के विशेष गुण बताइए।
उत्तर:
पेशियों के विशेष गुण होते हैं-उत्तेजनशीलता, संकुचनशीलता, प्रसारण एवं प्रत्यास्थता ।

(C) लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions )

प्रश्न 1.
अस्थियों के क्या कार्य हैं ?
उत्तर:
अस्थियों के निम्नलिखित कार्य हैं –

  • अस्थियाँ शरीर को निश्चित आकार (Shape) प्रदान करती हैं।
  • ये गति, चलन आदि क्रियाओं में सहायक होती हैं।
  • ये आन्तरिक तथा कोमल अंगों को सुरक्षा (Protection) तथा आलम्बन ( Support ) प्रदान करती हैं।

प्रश्न 2.
स्नायु तथा कण्डरा में भेद लिखिए।
उत्तर:
स्नायु एवं कण्डरा में भेद

स्नायु (Ligaments ) कण्डरा (Tendon )
1. स्नायु प्रत्यास्थ होता है। 1. यह अप्रत्यास्थ होता है।
2. यह पट्टी के रूप में दो अस्थियों के बीच में सन्धि स्थल पर स्थित होता है। 2. यह पेशी एवं अस्थि को जोड़ता है।
3. स्नायु अस्थियों को अपने स्थान से हटने से रोकता है। 3. यह गति में सहायक होता है।
4. यह दो अस्थियों के आवरण के बीच स्थित होता है। 4. यह पेशी तथा अस्थि आवरण के बीच स्थित होता है।

प्रश्न 3.
संकुचन के लिए पेशी किस प्रकार उत्तेजित होती है ?
उत्तर:
तन्त्रिका आवेग के कारण तन्त्रिका पेशी सन्धि पर तन्त्रिका के सिरों द्वारा मुक्त ऐसीटिलकोलीन नामक तन्त्रिकाप्रेषी रसायन पेशी की प्लाज्मा झिल्ली को Na+ के प्रति पारगम्यता को बढ़ा देता है जिससे Na+ पेशी कोशिका में प्रवेश करते हैं और प्लाज्मा झिल्ली की आन्तरिक सतह पर धनात्मक विभव उत्पन्न हो जाता है। यह विभव पूरी प्लाज्मा झिल्ली पर संचरित होकर सक्रिय विभव (Action potentia) उत्पन्न करता है। यही अवस्था पेशी कोशिका की उत्तेजन अवस्था कहलाती है।

प्रश्न 4.
मनुष्य की भुजा की सभी सन्धियाँ अचल हो जायें तो क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
मनुष्य की भुजा की सभी सन्धियों के अचल होने पर पेशीय संकुचन अप्रभावी हो जायेगा तथा भुजा में किसी भी प्रकार की गति सम्भव नहीं हो पायेगी।

प्रश्न 5.
ओस्टियोपोरोसिस किसे कहते हैं ?
उत्तर:
यह एक अस्थि रोग होता है। इसमें अस्थि के द्रव्यमान की क्षति हो जाती है। अस्थि पतली, कमजोर तथा कम प्रत्यास्थ हो जाती है जिससे इसकी मजबूती घट जाती है। फलतः मामूली सी चोट लगने पर अस्थि टूट जाती है। ओस्टियोपोरोसिस एस्ट्रोजन हॉर्मोन की कमी के कारण वृद्ध महिलाओं में अधिक होता है। कैल्सियमयुक्त सन्तुलित आहार एवं नियमित व्यायाम से इस रोग से बचा जा सकता है।

प्रश्न 6.
पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा स्रोत क्या है ?
उत्तर:
पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा ATP द्वारा मिलती है। संकुचन के समय ADP को क्रिएटिन फॉस्फेट पुनः ATP में परिवर्तित कर देता है। पेशी में ATP का निर्माण संचित ग्लाइकोजन तथा वसीय अम्लों के ऑक्सीकरण के द्वारा होता है।

प्रश्न 7.
यदि कंकाल पेशी को जाने वाली तन्त्रिका को काट दिया जाये तो संकुचन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
कंकाल पेशी को जाने वाली तन्त्रिका को काट देने पर तन्त्रिकाप्रेषी रसायन ऐसीटिलकोलीन का स्त्रावण नहीं होगा फलतः पेशी प्लाज्मा झिल्ली की Na++ के प्रति पारगम्यता नहीं बढ़ेगी और सोडियम आयन के पेशी कोशिका में प्रवेश न कर पाने के कारण झिल्ली की आन्तरिक सतह पर धनात्मक विभव उत्पन्न नहीं होगा और पेशी का उत्तेजन नहीं होगा। परिणामस्वरूप पेशी संकुचन नहीं होगा।

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प्रश्न 8.
शरीर में कंकाल के कार्यों का वर्णन कीजिए। उत्तर-जन्तुओं के शरीर में कंकाल के निम्नलिखित प्रमुख कार्य होते हैं-

  1. कंकाल शरीर को दृढ़ता तथा निश्चित आकृति प्रदान करता है।
  2. शरीर के अनकों कोमल अंगों जैसे—हृदय, यकृत, फेफड़े, प्लीहा, मस्तिष्क आदि की रक्षा करता है।
  3. कंकाल पेशियों को जुड़ने के लिए आधार प्रदान करता है।
  4. पेशियों के गति करने में सहायक होता है।
  5. अस्थियों की अस्थि मज्जा (Bone marrow) में R.B.C. का निर्माण होता है।
  6. जन्तु को गति, प्रचलन, श्रवण, जनन आदि क्रियाओं में सहयोग प्रदान करता है।
  7. पसलियाँ श्वसन क्रिया में सहायक होती हैं।
  8. कर्ण अस्थियाँ सुनने की क्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

प्रश्न 9.
शरीर में कशेरुक दण्ड (Vertebral Column) के कार्य बताइए ।
उत्तर:
कशेरुक दण्ड के निम्नलिखित प्रमुख कार्य होते हैं-

  1. अक्ष कंकाल के रूप में प्राणी को एक निश्चित आकृति प्रदान करती
  2. कशेरुक दण्ड के अगले सिरे पर खोपड़ी लगी होती है।
  3. देहगुहा में स्थित अन्तरंगों का सन्धान करती है।
  4. अनेकों कोमल अन्तरंगों को सुरक्षा प्रदान करती है 1
  5. मेरु रज्जु (Spinal cord) को सुरक्षा प्रदान करती है।
  6. यह मेखलाओं को सहारा देती है तथा गमन में सहायक होती है।
  7. श्वसन क्रिया में सहायता करती है।
  8. कशेरुकाओं के सभी प्रवर्ध बड़ी-बड़ी पेशियों को सन्धि स्थल प्रदान करते हैं।

प्रश्न 10.
मनुष्य के कंकाल तन्त्र में पायी जाने वाली समस्त अस्थियों की गणना कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य के कंकाल तन्त्र में कुल 206 अस्थियाँ पायी जाती हैं, जो निम्न प्रकार हैं-
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन 1

प्रश्न 11.
उपास्थि और अस्थि में अन्तर बताइए।
उत्तर:
डत्तर- उपास्थि तथा अस्थि में अन्तर

उपास्थि (Cartilage) अस्थि (Bone)
1. यह लचीली तथा कोमल होती है। 1. यह मजबूत, दृढ़ तथा कठोर होती है।
2. उपास्थि का मैट्रिक्स कॉण्ड़रन (Chondrin) का बना होता है। 2. इनका मैट्रिक्स ओसीन (Ossein) का बना होता है।
3. इनका मैट्रिक्स अर्द्ध ठोस होता है। 3. इनका मैट्रिक्स ठोस होता है।
4. इनकी कोशिकाएँ अर्द्धगोल होती हैं। 4. इनकी कोशिकाएँ अनियमित होती हैं।
5. उपास्थि कोशिकाओं की संख्या उनके विभाजन से बढ़ती है । 5. अस्थि कोशिकाएँ सदैव ओस्टियोब्लास्ट (Osteoblast) के विभाजन से बढ़ती हैं।
6. हैवर्सियन तन्त्र (Haversian system) का निर्माण नहीं होता है। 6. हैवर्सियन तन्त्र (Haversian system) का निर्माण होता है।
7. इनमें R.B.C. नहीं बनती हैं। 7. इनमें R.B.C. बनती हैं।

प्रश्न 12.
अरेखित तथा रेखित पेशियों में अन्तर बताइए।
उत्तर:
अरेखित तथा रेखित पेशियों में अन्तर

अरेखित पेशी (Unstriped muscle) रेखित पेशी (Striped muscle)
1. इनकी कोशिकाएँ तर्कुरूप होती हैं। 1. इनकी कोशिकाएँ बेलनाकार तथा पेशीचोल नामक झिल्ली से स्तरित होती हैं।
2. कोशिकाओं में केवल एक केन्द्रक होता है। 2. कोशिका एवं झिल्ली के बीच अनेक केन्द्रक स्थित होते हैं।
3. इनमें पट्टियों का अभाव होता है। 3. इसमें गहरी एवं हल्की पट्टियाँ होती हैं।
4. ये निश्चित क्रम में स्वतः फैलती एवं सिकुड़ती हैं। 4. ये जीव की इच्छानुसार फैलती, सिकुड़ती या हिलती-डुलती हैं।
5. इनमें थकान का अनुभव कभी नहीं होता है। 5. इनमें थकान का अनुभव होता है।

प्रश्न 13.
अरेखित पेशी एवं ह्द् पेशी की तुलना कीजिए।
उत्तर:
अरेखित पेशी एवं हृद् पेशी की तुलना (अन्तर)

अरेखित पेशी (Unstriped Muscle हद्द पेशी (Cardiac Muscles)
1. ये हृदय को छोड़कर शेष आन्तरांगों में मिलती हैं। 1. ये केवल हृदय की भित्तियों में ही मिलती हैं।
2. इसकी कोशिकाएँ तर्कुरू होती हैं। 2. इसकी कोशिकाएँ जाल सदृश होती हैं।
3. कोशिकाओं में केवल एक केन्द्रक स्थित होता है। 3. प्रत्येक खण्ड में एक केन्द्र होता है।
4. इनमें पद्धियों का अभाव होल है। 4. इनमें अनुप्रस्थ पट्टियाँ होत हैं।
5. ये स्वतः फैलती व सिकुड़ती अतः अनैच्छिक होती हैं। 5. ये निश्चित क्रम में स्व फैलती व सिकुड़ती हैं औ इच्छा पर निर्भर नहीं करती हैं
6. धीमी गति से सिकुड़ती हैं औ थकान का अनुभव नहीं होत है। 6. ये जीवनपर्यन्त निरन्तर का करती हैं, फिर भी थकान क अनुभव नहीं होता है।

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प्रश्न 14.
निम्नलिखित पर टिप्पणियाँ लिखिए-
(क) माइस्थेनियाप्रेविस,
(ख) पेशीय दुष्पोषण,
(ग) अपतानिका
(घ) सन्धिशोध
(ङ) अस्थिसुषिरता
(च) गाउट ।
उत्तर:
(क) माइस्थेनियाप्रेविस (Myastheniagravis) यह एक स्वप्रतिरक्षा विकार है जो तन्त्रिका पेशी सन्धि को प्रभावित करता है। इससे कमजोरी और कंकाली पेशियों का पक्षाघात होता है।
(ख) पेशीय दुष्पोषण (Muscular dystrophy ) – इसमें विकारों के कारण कंकालीय पेशी का अनुक्रमित अपह्रासन हो जाता है।
(ग) अपतानिका – शरीर में कैल्सियम आयनों (Ca+) की कमी से पेशी में तीव्र ऐंठन को ‘अपतानिका’ कहते हैं ।
(घ) सन्धिशोथ (Arthritis) – इस रोग में सन्धि झिल्ली में सूजन आ जाने से झिल्ली मोटी हो जाती है तथा सन्धि तरल का स्राव बढ़ जाता है। इस कारण सन्धि पर दबाव बढ़ता है तथा दर्द होने लगता है।
(ङ) अस्थि सुषिरता (Ostcoporosis) – यह वृद्धावस्था में होने वाला रोग है। इस रोग में सन्धि (जोड़) क्षतिमस्त हो जाती है। इससे अस्थि के पदार्थों में कमी आ जाने से अस्थि भंग की प्रबल सम्भावना रहती है। एस्ट्रोजन स्तर में कमी इसका सामान्य कारण है।
(च) गाउट (Gout) – जोड़ों में यूरिक अम्ल कणों के एकत्र होने के कारण जोड़ों में शोथ (सूजन आ जाने को गाउट (सन्धिशोथ) कहते हैं।

(D) निबन्धात्मक प्रश्न (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
मनुष्य की करोटि का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य की करोटि (Human Skull)
मनुष्य की करोटि या खोपड़ी का कंकाल 18 अस्थियों का बना होता है। करोटि की अस्थियाँ अन्य अस्थियों से अधिक सुदृढ़ होती हैं। इसमें निम्नलिखित भाग होते हैं –

  1. कपाल की अस्थियाँ तथा
  2. चेहरे की अस्थियाँ ।

1. कपाल का क्रेनियम (Cranium) इसमें मस्तिष्क सुरक्षित रहता है। इसमें कुल 8 अस्थियाँ होती हैं-
ललाटिका (Frontal) – 1, भित्तिकास्थि (Parietal) – 2,
अनुकपाल (Occipital) – 1 टेम्पोरल (Temporal ) – 2,
जत्रुक (Sphenoid) – 1, झर्झरिका (Ethmoid) – 1
कपाल की सभी अस्थियाँ टेढ़ी-मेढ़ी सीवनों से दृढ़तापूर्वक जुड़ी रहती हैं। सीवन सिर पर लगे आघात को कम करते हैं । कपाल के नीचे की ओर एक महारन्ध्र (Foramen magnum) होता है। इसमें से होकर मस्तिष्क मेरुरज्जु (Spinal cord) से जुड़ा रहता है। महारन्ध्र के दोनों ओर एक-एक अनुकपाल अस्थिकन्द (Occipital condyle) होता है जो एटलस कशेरुका से जुड़कर सन्धि बनाते हैं।

2. चेहरे की अस्थियाँ (Facial Bones) – इनकी संख्या 14 होती है। ये चेहरे का कंकाल बनाती हैं और संवेदी अंगों की रक्षा करती हैं। ये अस्थियाँ हैं-
नासास्थियाँ (Nasals) – 2, तालाब अस्थि (Palatines ) – 2,
लैक्राइमल (Lacrimals) – 2,
वोमर (Vomer) – 1,
जम्भका (Maxielary ) – 2
स्क्वैमोजल या जाइगोमेटिक
(Squamosals or Zygomatic ) – 2,
मैक्सिली (Maxillae ) – 2,
मैण्डीबल (Mandible) – 1

जीभ को सहारा देने के लिए एक हाऑइड (Hyoid) भी मनुष्य में पायी जाती है। इनके अतिरिक्त 3 जोड़ी (6) कर्ण अस्थियाँ भी होती हैं-

  • मेलियस -2,
  • इन्कस – 2 तथा
  • स्टेपीज – 2 1

करोटि के कार्य-

  1. मस्तिष्क की सुरक्षा करना ।
  2. नेत्र, श्रवण कोषों, घ्राण कोषों की रक्षा करना ।
  3. चेहरे की कुछ अस्थियाँ मुख को अवलम्बन प्रदान करने हेतु जबड़ा बनाती हैं।
  4. आहार नाल तथा श्वसन पथ के अगले भाग को अवलम्बन प्रदान करना ।
  5. कण्ठिका (Hyoid ) द्वारा जीभ को सहारा देना ।

निचला जबड़ा एक ही अस्थि मैण्डीबल का बना होता है।

प्रश्न 2.
मनुष्य के कशेरुक दण्ड का संक्षेप में वर्णन कीजिए और उसके कार्य बताइए ।
उत्तर:
मनुष्य का कशेरुक दण्ड (Human Vertebral Column)
कशेरुक दण्ड पीठ के मध्य रेखा में सिर से धड़ के पश्च सिरे तक फैली एक छड़नुमा रचना है, जिसमें छोटे-छोटे छल्लों जैसी कशेरुक होती है। इसे रीढ़ की हड्डी भी कहते हैं। मनुष्य के कशेरुक अगर्ती (Acoelour) होते हैं। सभी कशेरुक उपास्थियों की डिस्क से जुड़े रहते हैं, जिनसे कशेरुक दण्ड लचीला बना रहता है तथा ये बाहरी आघातों को भी सोख लेते हैं। सभी कशेरुक 5 भागों में बँटे रहते हैं-
(1) गर्दन में ……………. ग्रीवा कशेरुकाएँ – 7
(2) वक्ष भाग ……………. वक्षीय कशेरुकाएँ – 12
(3) कटि भाग में ……………. कटि कशेरुकाएँ-5
(4) त्रिक भाग में ……………. त्रिकास्थि -1 ( शिशुओं में 4)
(5) श्रोणि भाग में ……………. अनुत्रिक – 1 (शिशुओं में 5)
वयस्कों में इनकी संख्या 26 तथा शिशुओं में 33 होती है।

कशेरुक दण्ड के कार्य –
(1) खोपड़ी को साधना,
(2) मेरुरज्जु की रक्षा करना,
(3) खड़ी स्थिति के लिए गर्दन व धड़ को सामर्थ्य प्रदान करना,
(4) पसलियों तथा उरोस्थि को अवलम्बन प्रदान करना,
(5) गर्दन को इधर-उधर घूमने की क्षमता प्रदान करना।

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प्रश्न 3.
मनुष्य के वक्षीय कंकाल का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य का वक्षीय कंकाल (Human Thoracic Skeleton )
मनुष्य के वक्ष भाग में 12 वक्ष कशेरुक, उरोस्थि (Sternum) तथा 10 जोड़ी पसलियाँ मिलकर वक्षीय कंकाल बनाती हैं। वक्षीय कंकाल हृदय, फेफड़ों और उदर गुहा के ऊपरी अंगों की रक्षा करती हैं। मनुष्य में 7 जोड़ी वास्तविक पसलियाँ (True ribs) होती हैं, ये एक ओर वक्ष कशेरुकाओं से तथा दूसरी ओर उरोस्थि से जुड़ी होती हैं ये साँस लेने में सहायता करती हैं। इसके बाद की तीन जोड़ी पसलियों आपस में जुड़ी होती हैं जिन्हें मिथ्या पसलियाँ (False ribs) कहते हैं। अन्तिम दो जोड़ी पसलियों के अन्तिम सिरे खाली पड़े रहते हैं, इन्हें अपूर्ण या मुक्त पसलियाँ (Floating ribs) कहते हैं। सीने की हड्डी उरोस्थि (Sternum) के तीन भाग होते हैं-

  • सबसे ऊपर की ओर छोटी हस्तक (Manubrium),
  • मध्य में सबसे बड़ी उरोस्थिकाय (Mesosternum) तथा
  • नीचे की छोटी सबसे जीफॉइड (Xiphoid)।

प्रश्न 4.
मनुष्य के अप्रपाद की अस्थियों का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य के अग्रपाद की अस्थियाँ-मनुष्य के अग्रपाद में तीन भाग होते हैं-

  1. ऊपरी बाहु,
  2. अग्र बाहु,
  3. हाथ। इसमें निम्नलिखित अस्थियाँ होती हैं-

1.  ऊमरी बाहु (Upperarm)-मनुष्य की ऊपरी बाहु में केवल एक लम्बी, बेलनाकार व खोखली अस्थि प्रगण्डिका या त्रामरस (humerus) होती है। ये कन्धे और कोहनी के मध्य स्थित होती है। इसका ऊपरी गोले सिरा अंसमेखला की ग्लीनॉइड कैविटी में फँसा रहता है। निचला सिरा अग्रबाहु की दो अस्थियों-रेडियस तथा अल्ना (radio-ulna) से जुड़ा रहता है। ह्यामरस की गुहा (cavity of humerus) में चिकना एवं वसीय पदार्थ भरा होता है, जिसे अंस्थि मज्जा कहते हैं, जो रुधिर कणिकाओं का निर्माण करती है।

2. अग्र बाहु (Fore arm) -कोहनी से कलाई तक के भाग-अम्र बाहु में दो अस्थियाँ होती हैं-

  • बहि-प्रकोष्ठिका या रेडियस (radius),
  • अन्तप्रकोष्ठिका या अल्ना (ulna) इनमें अँगूठे की ओर वाली अस्थि रेडियस तथा कनिष्ठा की ओर वाली अस्थि अल्ना होती है।

3. हाथ (Hand)-इस भाग में कलाई, हथेली व अँगुलियों की अस्थियाँ होती हैं-

  • कलाई (Wrist) -इसमें 8 छोटी-छोटी अस्थियाँ 4-4 की दो पंक्तियों में जुड़ी रहती हैं। इनको मणिबन्धिकाएँ (carpals) कहते हैं। ये अस्थियाँ लचीली उपास्थि द्वारा जुड़ी होने के कारण सरलता से घुमायी जा सकती हैं।
  • हथेली (palm)-मणिबन्धिकाओं से 5 लम्बी करभास्थियाँ (metacarpals) जुड़ी होती हैं जो हथेली का निर्माण करती हैं।
  • अंगुलास्थियाँ (Phalanges)-करभास्थियों से अंगुलास्थियाँ (Phalanges) जुड़ी होती हैं। प्रत्येक अँगुली में 3-3 तथा अँगूठे में 2 अंगुलास्थियाँ होती हैं। इस प्रकार पाँचों अँगुलियों में कुल 14 अंगुलास्थियाँ होती हैं।

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प्रश्न 5.
मनुष्य के पश्च पाद की अस्थियों का सचित्र वर्णन करो।
उत्तर:
मनुष्य के पश्चपाद्र की अस्थियाँ (Bones of Hind Limb of Man)
मनुष्य के अग्रपाद में तीन भाग होते हैं-

  1. ऊपरी बाहु,
  2. अप्र बाहु,
  3. हाथ। इसमें निम्नलिखित अस्थियाँ होती हैं-

1. जाँघ (Thigh)-मनुष्य की जाँघ में अस्थि उर्वरका या फीमर (femur) होती है। यह कूल्हे और घटने के मध्य स्थित होती है। यह शरीर की सबसे लम्बी एवं मजबूत अस्थि है। इसका ऊपरी गोल
सिरा श्रोणि मेखला के श्रोणि उलूखल में फँसा रहता है। पश्च भाग या निचला सिरा पगदण्ड की दो अस्थियों-टीबिया तथा फीबुला से जुड़ा रहता है। घुटने में एक गोल-तिकोनी छोटी-सी अस्थि होती है, जिसे पटेला (knee cap) कहते हैं। यह घुटने के जोड़ को ढके रहती है और गति में सहायक होती है। इसकी सहायता से घुटना आसानी से मोड़ा जा सकता है।

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2. पगदण्ड (Leg rod) -घुटने से टखने तक के भाग पगदण्ड में दो अस्थियाँ होती हैं-

  • अन्तःजंघिका या टीबिया (Tibia),
  • बहिःजंघिका या फीबुला (Fibula) । इनमें टीबिया अस्थि मोटी तथा अन्दर की ओर होती है एवं फीबुला पतली और कमजोर तथा बाहर की ओर होती है।

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3. पैर (Foot) -इस भाग में गुल्क, तलवा तथा अँगुलियों की अस्थियाँ होती हैं।

  • गुल्फ (Ankle)-टीबिया तथा फीबुला से सात छोटी-छोटी अस्थियाँ जुड़ी रहती हैं, जिनको गुल्फास्थियाँ (टार्सल्स-tarsals) कहते हैं। ये एड़ी व टखने का निर्माण करती हैं।
  • तलवा (Sole)-गुल्फास्थियों से 5 लम्बी और पतली अस्थियाँ जुड़ी होती हैं, जिन्हें प्रपदिका (मेटाटार्सल्स-metatarsals) कहते हैं। ये पैर से तलवे का निर्माण करती हैं।
  • अंगुलास्थियाँ (Phalanges)-मेटाटार्सल से अंगुलास्थियाँ जुड़ी रहती हैं। प्रत्येक अँगुली में 3-3 तथा अँगूठे में 2 अंगुलास्थियाँ होती हैं। इस प्रकार पाँचों अँगुलियों में कुल 14 अंगुलास्थियाँ होती हैं।

प्रश्न 6.
कंकाल सन्धियों का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कंकाल सन्धियाँ (Skeletal Joints)
सन्थि (Joint) – सन्धि दो या दो से अधिक अस्थियों या अस्थि एवं उपास्थि के मिलने का स्थल होती है अर्थात् जहाँ अस्थियाँ या उपास्थियाँ परस्पर जुड़ती हैं उस स्थल को सन्धि कहते हैं। कशेरुकियों में सन्धियों के कारण ही गति सम्भव होती है। शरीर के विभिन्न भागों में अनेकों सन्धियाँ पायी जाती हैं। सन्धियों की गति के आधार पर ये निम्नलिखित तीन प्रकार की होती हैं-

  1. अचल सन्धि,
  2. चल सन्धि,
  3. आंशिक चल सन्धि।

1. अचल सन्धि या स्थिर सन्घि (Fixed Joints) – इस प्रकार की सन्धियों में गति सम्भव नहीं होती तथा ये अस्थियाँ परस्पर संयोजी ऊतक द्वारा जुड़ी रहती हैं। अस्थियों के मध्य कोई स्थान नहीं होता; जैसे -करोटि की अस्थियाँ, दाँत तथा मेक्सिला (maxilla) के मध्य की सन्धियाँ।

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2. चल सन्धि (Movable Joints) – इस प्रकार की सन्धियों में अस्थियाँ एक या अधिक दिशाओं में स्वतन्त्रतापूर्वक गति करती हैं। इस प्रकार की सन्धियों की अस्थियों के मध्य अवकाश या स्थान पाया जाता है। इस स्थान को सन्धि कोटर (synovial cavity) कहते हैं। इस केविटी में एक म्यूसिन युक्त तरल (synovial fluid) भरा होता है जो कि सन्धि को स्नेहन (lubrication) प्रदान करता है। चल सन्धि को पुन: निम्नलिखित प्रकारों में विभाजित कर सकते हैं-

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(क) कन्नुक खस्तिका सन्यि (Ball and Socket Joint)- इस प्रकार की सन्धि में सभी दिशाओं में गति सम्भव है तथा यह सबसे अधिक गतिशील होती हैं जैसे – स्कन्ध सन्धि (shoulder Joint) एवं श्रोणि सन्धि (hip joint)।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 20 गमन एवं संचलन 6(ख) कक्या सन्धि (Hinge Joint)-इस प्रकार सन्धियों में गति केवल एक ही तल में सम्भव होती है। यह सन्धि दीवार में लगे हुए दरवाजे के समान कार्य करती है; जैसे -कोहिनी की सन्धि (elbow joint) एवं घुटने की सन्धि (knee joint)।
(ग) दीर्घकृतज सन्धि (Ellipsoidal Joint) – इस प्रकार की सन्धि में गति दो तलों में सम्भव है; जैसे-बहिप्रकोष्ठिका (radius) तथा मणिबन्ध (carpus) की सन्धियाँ।

3. आंशिक चल सन्धि (Slightly Movable Joint or Imperfect Joint) – इन सन्धियों में सीमित गति सम्भव होती है। इनकी अस्थियों के सिरे तन्तुमय उपास्थि द्वारा जुड़े रहते हैं। ऐसे जोड़ को सन्धान (symphysis) कहते हैं; जैसे-जघन सन्धान (Pubic symphysis) की सन्धि। यह दो प्रकार की होती है-

(क) धुराप्र सन्यि (Pivot Joint) – इस प्रकार की सन्धि में पार्श्व गति सम्भव है। इसमें गोल या नुकीला सिरा दूसरी अस्थि के हल्के गड्दे में स्थित होता है; जैसे-एटलस तथा एक्सिस के मध्य सन्धि।

(ख) विसर्थी सन्धि (Gliding Joint)-यह सरलतम प्रकार की सन्धि होती है। इसमें एक अस्थि दूसरी पर स्वतन्न्तापूर्वक गति करती है। सन्धि की दोनों अस्थियों के मध्य चपटे सन्धि तल होते हैं जो परस्पर विसर्पण करते हैं; जैसे-कलाई सन्धि (wrist joint)।

प्रश्न 7.
मनुष्य के कंकाल एवं पेशियों से सम्बन्धित रोग लिखिए।
उत्तर:
अस्थियों के रोग (Disorders of Bone)
1. सन्धि शोथ (Arthritis) – यह रोग जोड़ों या सन्धियों की झिल्लियों में सूजन या शोथ के कारण होता है। यह निम्न प्रकार का होता है-
(i) गाउटी सन्धि शोथ
(ii) रूमैटी सन्धि शोथ तथा
(iii) अस्थि सन्धि शोथ।

(i) गाउटी सन्धिशोथ या गाडट (Gouti Arthritis)-इसमें साइनोवियल संधि पर यूरिक अम्ल के क्रिस्टलों की मात्रा बढ़ जाती है क्योंकि यह अम्ल पूरी तरह उत्सर्जित नहीं हो पाता है। इससे बचने के लिए मांसाहारी भोजन को कम कर देना चाहिए। इसे सामान्यतः गठिया भी कहते हैं।

(ii) सूमेटी सन्धिशोथ (Rheumatoid Arthritis) – इसमें रूमेटी कारक इम्यूनोग्लोबिन Igm की मात्रा साइनोवियल झिल्ली पर बढ़ जाती है जिससे झिल्ली मोटी हो जाती है और उस पर साइनोवियल द्रव का दाब बढ़ जाता है। जो कि तीव्र दर्द उत्पन्न करता है। कुछ समय बाद साइनोवियल झिल्ली पैनस नामक असामान्य कणों का स्राव करती है, जो उपास्थि टोपी पर एकत्र हो उसे कठोर बनाते हैं और संधि अचल हो जाती है। जिससे पीड़ा और अधिक बढ़ जाती है। यह रोग अधिकतर अधिक उम्र के व्यक्तियों में होता है। इसके उपचार में व्यायाम, ऊष्मा सेक उपचार आदि प्रभावी है। इसके अतिरिक्त दवा, भौतिक चिकित्सा एवं शल्य क्रिया भी कारगर हैं।

(iii) अस्थि सन्यिशोध (Oste0-arthritis) – इसमें अस्थियों के शीर्ष पर उपस्थित टोपी की उपास्थि विघटित होने लगती है। जिससे संधि तल पर उपास्थि नहीं रहती और साइनोवियल द्रव का स्नेहक (lubricant) प्रभाव भी समाप्त हो जाता है और अस्थि में वृद्धि होने लगती है, जिससे संधि अंचल हो जाती है और तीव्र पीड़ादायक होती है। संधि उपास्थि का पतली व कमजोर हो जाना, जोड़ के बीच स्थान कम रह जाना, सन्धि का क्षतिम्त होना एवं नयी अस्थि का निर्माण हो जाना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं। रोग के उपचार हेतु दर्द निवारक दवा दी जाती है। स्थिति अधिक खराब हो जाने पर धातु एवं प्लास्टिक से बने अवयवों द्वारा संधि को प्रतिस्थापित किया जाता है।

2. अस्थि सुसिरता या ओस्टियोपोरोसिस (Osteoporosis) – यह वृद्धावस्था में होने वाला एक सामान्य अस्थि रोग है। इसमें अस्थि निर्माण की क्रियाओं के घटने के कारण अस्थि से Ca+तथा PO4- आयन बाहर निकल जाते हैं जिससे अस्थि का घनत्व कम हो जाता है और अस्थि भंगुर हो जाती है। इससे अस्थियाँ इतनी कमजोर हो जाती हैं कि मामूली चोट पर ये टूट सकती हैं। इस रोग के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

  • भोजन में कैल्शियम व विटामिन C व D की कमी से।
  • स्तियों में रजनोनिवृत्ति के बाद एस्ट्रोजन हारमोन की मात्रा के कम होने के कारण।
  • कॉर्टिसोल के लम्बे समय तक उपचार के रूप में सेवन करने से।
  • आयु बढ़ने के साथ-साथ GH (वृद्धि हारमोन्स) के स्रावण में कमी से।
  • अस्थि निर्माण व अस्थिभवन की क्रियाओं के आयु के साथ कम होने के कारण।
  • केल्सिटोनिन, ग्लूकोकोर्टिकॉयड, लिंग हारमोन के असंतुलन के कारण।

3. माइस्थेनिया श्रेविस (Myasthenis gravis) – यह व्यक्ति के स्वयं के प्रतिरक्षा तन्त्र के कारण उत्पन्न रोग है। इनमें तन्त्रिका पेशी सन्धि स्थल प्रभावित होता है। इसमें कंकाली पेशियों का पक्षाघात (paralysis) भी हो सकता है।

4. पेशीय दुषोषण (Muscular dystrophy) – अन्य रोगों के कारण कंकाल पेशियों का अनुक्रमित उपशासन हो जाता है।

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5. अफ्तान्रिका (Tetany) – यह Ca+आयनों की कमी से होने वाला रोग है। इसमें पेशियों में तीव्र ऐंठन होती है इसे सामान्यतः धनुषबाण भी कहा जाता है

6. मोच (Sprain) – सन्धि सम्पुट से जुड़े हुए कंडरा (tendons) या स्नायु (Ligaments) के खिंचने या फटने को मोच कहते हैं। इससे उस स्थान पर सूजन आ जाती है और दर्द होता है।

प्रश्न 8.
विभिन्न प्रकार की जैविक गतियों को समझाइए ।
उत्तर:
गतियों के प्रकार (Types of Movements)
जन्तुओं में मुख्यतः चार प्रकार की गतियाँ होती हैं-

  1. कोशिका द्रव्यी अंगों द्वारा गति (Movement by cellular organelles)
  2. शरीर के उपांगों द्वारा गति (Movements by body appandages)
  3. आन्तरिक अंगों द्वारा गति (Movements by Internal Organs)
  4. कंकालीय पेशियों द्वारा गति (Movements by Skeletal Muscles)

उपर्युक्त में से पहले दो प्रकार की गतियाँ अपेक्षीय गतियाँ कहलाती हैं, क्योंकि इनमें किसी भी प्रकार की पेशीय संरचना गति में भाग नहीं लेती है।

1. कोशिकाद्रव्यी अंगों द्वारा गति (Movements by Cellular Organelles) – इस प्रकार की गति प्राय: उन जन्तुओं में पायी जाती है जिनमें शरीर संगठन कोशिकीय स्तर का होता है। इस प्रकार की गति को पुन: निम्न प्रकारों में बाँटा जा सकता है-
(i) अमीबीय गति (Amoeboid Movement) – इस प्रकार की गति सभी सार्कोडीन (Sarcodine), मैस्टिगोफोर (Mastigophore) तथा स्पोरोजोअन (Sporozoan) प्रोटोजोअन प्राणियों की विशेषता है।

इनके अतिरिक्त यह उन्च जन्तुओं की श्रमणशील कोशिकाओं, जैसे-श्वेत रुधिर कोशिकाओं, ध्रूणीय मीसेनकाइम कोशिकाओं तथा अन्य अनेक कोशिकाओं जो ऊतकीय अन्तरालों में गति करती हैं, में भी पायी जाती हैं। यह नग्न जीवद्रव्य (protoplasm) की विसर्पी गति होती है।

इस प्रकार की गति जीवद्रव्य द्वारा एक ओर से कुछ प्रवर्ध (outgrowth) बढ़ाकर व दूसरी ओर से खिंचकर होती है। यह गति अमीबा की गति के समान होती है इसलिए इसे अमीबीय गति कहते हैं। अमीबा के बाह्य जीवद्रव्य (actoplasm) में एक्टिन एवं मायोसिन नामक प्रोटीन्स के बने सूक्ष्म तन्तुक पाए जाते हैं। इन्हीं में संकुचन एवं शिथिलन से अमीबीय गति होती है। यह अमीबा में गमन तथा भोजन प्रहण करने के काम आती है।

(ii) कशाभिकीय गति (Flagellar Movements) – मैस्टिगोफोर प्रोटोजोअन (जैसे-युग्लीना, ट्रिपेनोसोमा), स्पंजों तथा शुक्राणुओं में कशाभी गति पायी जाती है। कशाभ (flagella), कोशिका की सतह से निकले चाबुक की तरह (whiplike) संरचनाएँ होती हैं। कशाभ केवल द्रव माध्यम में ही गति करते हैं।

द्रव माध्यम में कशाभ प्रभावी (effective) तथा प्रतिप्राप्त (recovery) चरणों (strokes) की सहायता से गति करते हैं। प्रभावी चरण में दृढ़ता से पीछे की ओर जाता है तथा प्रतिप्राप्त चरण में यह वक्रित होकर आगे की ओर आ जाता है। इस प्रकार क्रमिक प्रभावी एवं प्रतिप्राप्त चरणों की क्रिया द्वारा कशाभी गति सम्पन्न होती है। इसे क्षेपणी गति (paddle movement) भी कहते हैं।

(iii) पक्ष्माभिकी गति (Ciliary Movement) – पक्ष्माभ (cilia) अत्यन्त गतिशील, छोटे-छोटे बहिद्रव्यीय प्रवर्ध (ectopolasmic projection) होते हैं जो अनेक जन्तुओं की कोशिकीय सतह पर विस्तारित होते हैं। ये पक्ष्माभी प्रोटोजोअन प्राणियों की विशेषता है। बड़े जन्तुओं में ये पक्ष्माभी उपकला पर विभिन्न द्रवों एवं पदार्थों को ढकेलने का कार्य करते हैं।

ये पैरामीशियम, ओपेलाइना आदि में गमन व यूनियो में भोजन प्रहणण करने में सहायक होते हैं। मानव की शुक्रवाहिनी, अण्डवाहिनी, ट्रेकिया आदि में भी इनकी गति पायी जाती है। पक्ष्माभी गति के समय प्रत्येक पक्ष्माभ लोलक (pendulum) की तरह दोलन करता है। प्रत्येक दोलन दो स्ट्रॉक्स में पूर्ण होता है जिसमें प्रथम तीव्र प्रथावी स्ट्रोक तथा उसके बाद दूसरा मंद प्रतित्राप्त स्ट्रोक होता है।

(iv) साइक्लोसिस (Cyelosis) – यह प्रोटोजोअन्स के कुछ जन्तुओं के जीवद्रव्य में पायी जाने वाली चक्राकार गति है, जिससे भोजन आदि का वितरण किया जाता है। यह कुछ स्पंजों में भी पायी जाती है।

2. शारीरिक उपांगों द्वारा गति (Movements by Body Appendages) – यह गति शरीर में पाये जाने वाले उपांगों के द्वारा होती है। यह निम्न प्रकार की होती है-

  • शूक एवं पैरापोडिया (Setae and Parapodia)-संघ एनीलिडा के प्राणियों, जैसे-केंचुआ में शूकों द्वारा तथा नेरीस में पैरापोडिया के द्वारा गति होती है।
  • स्पर्शक द्वारा (By Tantacle)-संघ सीलेन्ट्रेटा के प्राणियों (जैसे-हाइड्रा, फाइसेलिया आदि) प्राणियों के मुख के चारों ओर स्पर्शक पाए जाते हैं। ये इन प्राणियों की गति में सहायक होते हैं।
  • सन्धियुक्त उपांग (Jointed Appendages) – संघ आथोंपोडा के प्राणियों में गमन के लिए सन्धियुक्त उपांग पाए जाते हैं। सन्धियुक्त उपांगों की उपस्थिति इस संघ का लाक्षणिक गुण है। ये उपांग भोजन पकड़ने में भी सहायक होते हैं।
  • नलिकाकार पाद (Tube Feet) – संघ इकाइनोडमेंटा के प्राणियों में नलिकाकार पाद पाए जाते हैं। ये समुद्र की सतह पर चलने में सहायता करते हैं।
  • पंख (Fins)-मछलियों में गति के लिए पंख पाए जाते हैं। ये नाव के चपुओं की तरह कार्य करते हैं।

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3. आन्तरिक अंगों द्वारा गति (Movement by Internal Organs) – इस प्रकार की गति लगभग सभी प्राणियों में पायी जाती है तथा विभिन्न क्रियाओं को सरल बनाती है। इसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं-

  • वक्षीय एवं उदरीय गति अर्थात् डायाफ्राम व पसलियों की पेशीय गति जिसके कारण फेफड़े फूलते व पिचकते हैं व श्वासोच्छ्वास सम्पन्न होता है।
  • आहारनाल की क्रमाकुंचन गति जिससे भोजन आमाशय में खिसकता है।
  • हृदय व रुधिर वाहनियों के संकुचन व शिधिलन के कारण होने वाली स्पंदन गति।
  • मूत्र जनन वाहनियों में होने वाली गतियाँ।
  • नेत्र के गोलक में विभिन्न पेशियों के कारण होने वाली गति।

4. कंकालीय पेशियों द्वारा गति (Movement by Skeletal Muscle)-विभिन्न प्रकार की पेशियाँ जो अस्थियों से जुड़ी होती हैं और अस्थियों की गति में सहायता करती हैं। कंकालीय पेशियाँ कहलाती हैं। इनमें होने वाली संकुचन व शिथिलन गति के कारण जन्तुओं में विभिन्न अंगों में गतियाँ होती हैं और इनकी समन्वित गति के कारण जन्तुओं में प्रचलन (locomotion) होता है। पेशीय संकुचन के कारण उपांगों की अस्थियों में गति उत्पन्न होती है। अस्थियों (bones) तथा पेशियों (muscles) की समन्वित गति के फलस्वरूप चलन सम्भव होता है। अतः पेशियों की कंकाल की गति महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

प्रश्न 9.
रेखित पेशियों की संरचना एवं कार्य लिखिए
उत्तर:
रेखित (कंकाल) पेशी के संकुचन की कार्यविधि (Contraction Mechanism of Striated Muscie)
रेखित पेशियाँ तन्निकीय उत्तेजन पर संकुचित होती हैं। पेशियों में जाने वाले तन्त्रिका तन्तु अपने सिरों पर ऐसिटिलकोलीन (acetylcholine) नामक पदार्थ स्रावित करके संकुचन की प्रेरणाओं को पेशियों में पहुँचाते हैं। प्रत्येक पेशी तन्तु के अन्दर इन प्रेणाओं को तन्तुओं तक प्रसारित करने का काम सारकोप्लार्भिक आल करता है।

हक्सले के पेशी संकुचन सर्पी सिद्धान्त के अनुसार, पेशी संकुचन के समय ‘ A ‘ पहियों की लम्बाई तो यथावत् बनी रहती है किन्तु इसके दोनों ओर की ‘ T ‘ पट्टियों के अर्द्धांों की एक्टिन छड़ें मायोसिन छड़ों के कंटकों पर शीष्वतापूर्वक बनते-बिगड़ते आड़े रासायनिक सेतु बन्यनों की सहायता से साकोंमियर के मध्य की ओर खिसककर ‘M’ रेखा तक पहुँच जाते हैं या इनके सिरे एक-दूसरे पर चढ़ जाते हैं। इस प्रकार पेशीय खण्डों या साकोंमियर्स के छोटे हो जाने से पेशी तन्तु सिकुड़े हैं।

प्रेरणास्थान से प्रारम्भ होकर पेशी तन्नु में दोनों ओर संकुचन की लहर-सी दौड़ जाती है, किन्तु संकुचन एक ही दिशा की ओर होता है, जिस ओर सम्बन्धित पेशी किसी अचल अस्थि से लगी होती है। अधिकतम संकुचन में दोनों ओर की ‘ Z ‘ रेखाएँ ‘ A ‘ पट्टियों की मायोसिन छड़ों को छूने लगती हैं, अर्थात् ‘T’ पट्टियाँ और ‘H’ क्षेत्र अन्तर्धान हो जाते हैं और पेशी तन्तु की लम्बाई घटकर 2/3 रह जाती है। शिथिलन (relaxation) में एक्टिन तथा मायोसिन छड़ों को जोड़ने वाले सेतु बन्य सब खुल जाते हैं।

अतः प्रत्येक पेशीखण्ड (साकोंमियर) की सब एक्टिन छड़ें वापस अपनी सामान्य स्थिति में आ जाती हैं और पेशी संकुचन समाप्त हो जाता है। कार्यविधि के लिए ऊर्जा की आपूर्ति (Energy Supply to muscle contractíon)-पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा की आपूर्ति ATP द्वारा होती है। ATP प्राप्ति का स्रोत ग्लाइकोजन है। इसके अपचय (या विघटन) के फलस्वरूप ATP का निर्माण होता है।

पेशी संकुचन के समय ATP के जल अपघटन से ऊर्जा की प्राप्ति होती है। पेशियों में क्रिएटिन फोस्फेट नामक एक उच्च ऊर्जा यौगिक उपस्थित होता है। यह भी ATP निर्माण में प्रयुक्त होता है। विश्रामावस्था में ATP द्वारा फिर से क्रिएटिन फॉस्फेट बन जाता है। इस प्रकार पेशी में क्रिएटिन फॉस्फेट का भण्डार बना रहता है, जो आवश्यकता पड़ने पर ATP प्रदान कर सकता है।
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प्रश्न 10.
अरेखित पेशियों की संरचना एवं कार्य लिखिए।
उत्तर:
अरेखित या अनैच्छिक पेशी ऊतक (Unstriped or Smooth Muscle Tissue)
स्थिति (Location)-ये पेशियाँ कभी भी अस्थियों से जुड़ी हुई नहीं पायी जाती हैं। इसीलिए इन्हें अकंकालीय पेशियाँ भी कहते हैं। ये आहारनाल, मूत्राशय, गर्भाशय, योनि, पित्ताशय, पित्तवाहिनी, श्वासनली, रुधिर वाहनियों एवं नेत्र आदि की भित्तियों में पायी जाती हैं।

ये आंतरागी पेशियाँ (visceral muscle) एवं चिकनी पेशियाँ भी कहलाती हैं। संरच्रा (Structure) – अरेखित पेशी ऊतक लम्बी, सँकरी एवं तर्कुरूपी (spindle shaped) पेशी कोशिकाओं या पेशी तन्तुओं का बना होता है। ये तन्तु झिल्ली सदृश अधात्री (matrix) द्वारा परस्पर सटे रहते हैं। प्रत्येक तन्तुवत् कोशिका लम्बाई में 120 सेमी तथा चौड़ाई में 160 मिमी होती है।

इसके दोनों सिरे नुकीले या कभी-कभी शाखान्वित होते हैं। बीच के चौड़े़ भाग में एक बड़ा व लम्बा-सा केन्द्रक होता है। केन्द्रक के चारों ओर स्थित थोड़ा-सा कोशिकाद्रव्य तरल अवस्था में होता है और यह साकोंप्लाज्म (sarcoplasm) कहलाता है। इसके बाहर की ओर पेशी तन्तु के शेष भाग में असंख्य छोटे-छोटे व महीन पेशी तन्नु (myofibrils) निलम्बित रहते हैं।

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पेशी कोशिका की छोटे-छोटे व महीन पेशी तन्तु (myofibrils) निलम्बित रहते हैं। पेशी कोशिका की संकुचनशीलता इन्हीं पेशी तन्तुओं की उपस्थिति के कारण होती है अर्थात् पेशी तन्तुओं में फैलने व सिकुड़ने की अपार क्षमता होती है। पेशी कोशिका का जीवद्रव्य एक महीन आवरण में बन्द रहता है। जो सारकोलेमा (sarcolemma) कहलाता है। अरेखित पेशी तन्तु अलग-अलग या बण्डलों में बँधे होते हैं। प्रायः बहुत-से पेशी तन्तु संयोजी ऊतक द्वारा बँधकर पतली एवं चपटी पद्विकाएँ या शीथ बनाते हैं जो पुनः मिलकर बेलनाकार पेशी बण्डल बनाते हैं।

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कार्य (Functions) – इनके आकुंचन पर जीव की इच्छा का कोई नियन्त्रण नहीं होता है, इसी कारण इन पेशियों को अनैच्छिक पेशियाँ (involuntary muscles) कहते हैं। इनका कार्य गुहाओं को चौड़ा करना तथा छिद्रों को खोलना तथा बन्द करना है। छिद्र के चारों ओर स्थित ये पेशियाँ संवरणी (sphincter) बनाती हैं।

प्रश्न 11.
पेशी संकुचन की क्रिया-विधि लिखिए।
उत्तर:
पेशी संकुचन की क्रियाविधि (Mechanism of Muscle Contraction)
पेशी संकुचन की क्रियाविधि को समझाने के लिए हक्सले (Huxley, 1965) ने सर्थी तन्तु सिद्धान्त (sliding filament theory) प्रस्तुत किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार, पेशीय रेशों का संकुचन पतले तन्तुओं (एक्टिन तन्तुओं) के मोटे तन्तुओं (माइसिन तन्तुओं) के ऊपर विसर्पण (खिसकने) से होता है।

रेखित (ककाल) पेशी के संकुचन की कार्यविधि (Contraction Mechanism of Striated Muscie)
रेखित पेशियाँ तन्त्रिकीय उत्तेजन पर संकुचित होती हैं। पेशियों में जाने वाले तन्त्रिका तन्तु अपने सिरों पर ऐसिटिलकोलीन (acetylcholine) नामक पदार्थ स्रावित करके संकुचन की प्रेरणाओं को पेशियों में पहुँचाते हैं। प्रत्येक पेशी तन्तु के अन्दर इन प्रेरणाओं को तन्तुओं तक प्रसारित करने का काम सारकोप्लारिमक जाल करता है।

हक्सले के पेशी संकुचन सर्पी सिद्धान्त के अनुसार, पेशी संकुचन के समय ‘A’ पट्टियों की लम्बाई तो यथावत् बनी रहती है किन्तु इसके दोनों ओर की ‘I’ पट्टियों के अर्द्धाशों की एक्टिन छड़ें, मायोसिन छड़ों के कंटकों पर शीघ्रतापूर्वक बनते-बिगड़ते आड़े रासायनिक सेतु बन्धनों की सहायता से साकरोंमियर के मध्य की ओर खिसककर ‘M’ रेखा तक पहुँच जाते हैं या इनके सिरे एक-दूसरे पर चढ़ जाते हैं।

इस प्रकार पेशीय खण्डों या सार्कोमियर्स के छोटे हो जाने से पेशी तन्तु सिकुड़ते हैं। प्रेरणास्थान से प्रारम्भ होकर पेशी तन्तु में दोनों ओर संकुचन की लहर-सी दौड़ जाती है, किन्तु संकुचन एक ही दिशा की ओर होता है, जिस ओर सम्बन्धित पेशी किसी अचल अस्थि से लगी होती है। अधिकतम संकुचन में दोनों ओर की ‘ Z ‘ रेखाएँ ‘ A ‘ पट्टियों की मायोसिन छड़ों को छूने लगती हैं, अर्थात् ‘ T ‘ पट्टियाँ और ‘ H ‘ क्षेत्र अन्तर्धान हो जाते हैं और पेशी तन्तु की लम्बाई घटकर 2/3 रह जाती है।

शिधिलन (relaxation) में एक्टिन तथा मायोसिन छड़ों को जोड़ने वाले सेतु बन्ध सब खुल जाते हैं। अतः प्रत्येक पेशीखण्ड (साकौमियर) की सब एक्टिन छड़ें वापस अपनी सामान्य स्थिति में आ जाती हैं और पेशी संकुचन समाप्त हो जाता है। कार्यविधि के लिए ऊर्जा की आपूर्ति (Energy Supply to muscle contraction) पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा की आपूर्ति ATP द्वारा होती है।

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ATP प्राप्ति का स्रोत ग्लाइकोजन है। इसके अपचय (या विघटन) के फलस्वरूप ATP का निर्माण होता है। पेशी संकुचन के समय ATP के जल अपघटन से ऊर्जा की प्राप्ति होती है। पेशियों में क्रिएटिन फोस्फेट नामक एक उच्च ऊर्जा यौगिक उपस्थित होता है। यह भी ATP निर्माण में प्रयुक्त होता है। विश्रामावस्था में ATP द्वारा फिर से क्रिएटिन फॉस्फेट बन जाता है। इस प्रकार पेशी में क्रिएटिन फॉस्फेट का भण्डार बना रहता है, जो आवश्यकता पड़ने पर ATP प्रदान कर सकता है।

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पेशी संकुचन के प्रमुख चरण (Main Steps of Muscle Contractions)
पेशी संकुचन की क्रियाविधि को सर्पीतनुु या छड़ विसर्पण सिद्धान्त (sliding filament theory) द्वारा अच्छी तरह समझाया जा सकता है, जिसके अनुसार पेशीय रेशों का संकुचन पतले तन्तुओं के मोटे तन्तुओं के ऊपर सरकने या विसर्पण से होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार पेशी संकुचन चार चरणों में पूरा होता है-

(1) उत्तेजन (Excitation)-यह पेशी संकुचन का प्रथम चरण है। उत्तेजन में तन्न्किका आवेग के कारण तत्रिकाक्ष (axon) के सिरों द्वारा ऐसीटिलकोलीन (एक तन्त्रिका प्रेषी रसायन), तन्त्रिका पेशी सन्धि पर मुक्त होता है। यह ऐसीटिलकोलीन पेशी-प्लाज्मा की Na+के प्रति पारगम्यता को बढ़ावा देता है, जिसके फलस्वरूप प्लाज्मा झिल्ली की आन्तरिक सतह पर धनात्मक विभव उत्पन्न हो जाता है। यह विभव (active potential) पूरी प्लाज्मा झिल्ली पर फैलकर सक्रिय विभव उत्पन्न कर देता है और पेशी कोशिका उत्तेजित हो जाती है।

(2) उन्तेजन-संकुचन युग्म (Excitation-Contraction Coupling)-इस चरण में सक्रिय विभव पेशी कोशिका में संकुचन प्रेरित करता है। यह विभव पेशी प्रद्रव्य में तीव्रता से फैलता है और Ca++ मुक्त होकर ट्रोपोनिन-सी से जुड़ जाते हैं और ट्रोपोनिन अणु के संरूपण में परिवर्तन हो जाते हैं। इन परिवर्तनों के कारण एक्टिन के सक्रिय स्थल पर उपस्थित ट्रोपोमायोसिन एवं ट्रोपोनिन दोनों वहाँ से पृथक् हो जाते हैं। मुक्त सक्रिय स्थल पर तुरन्त मायोसिन तन्तु के अनुप्रस्थ सेतु इनसे जुड़ जाते हैं और संकुचन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

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(3) संकुचन (Contraction) – एक्टिन तन्तु के सक्रिय स्थल से जुड़ने से पूर्व सेतु का सिरा एक ATP से जुड़ जाता है। मायोसिन के सिरे के ATPase एन्जाइम द्वारा ATP, ADP तथा Pi में टूट जाते हैं किन्तु मायोसिन के सिर पर ही लगे रहते हैं। इसके उपरान्त मायोसिन का सिर एक्टिन तन्तु के सक्रिय स्थल से जुड़ जाता है। इस बन्धन के कारण मायोसिन के सिर में संरूपण परिवर्तन होते हैं और इसमें झुकाव

उत्पन्न हो जाता है जिसके फलस्वरूप एक्टिन तन्तु साकोंमियर के केन्द्र की ओर खींचा जाता है। इसके लिए ATP के विदलन से प्राप्त ऊर्जा काम आती है और सिर के झुंकाव के कारण इससे जुड़ा ADP तथा Pi भी मुक्त हो जाते हैं। इसके मुक्त होते ही नया ATP अणु सिर से जुड़ जाता है। ATP के जुड़ते ही सिर एक्टिन से पृथक् हो जाता है। पुनः ATP का विदलन होता है। मायोसिन सिर नये सक्रिय स्थल पर जुड़ता है तथा पुनः यही क्रिया दोहाई जाती हैं जिससे एक्टिन तन्तुक खिसकते हैं और संकुचन हो जाता है।

(4) शिथिलन (Relaxation)-पेशी उत्तेजन समाप्त होते ही Ca++पेशी प्रद्रव्यी जालिका में चले जाते हैं। जिससे टोपोनिन-सी Ca++ से मुक्त हो जाती है और एक्टिन तन्नुक के सक्रिय स्थल अवरुद्ध हो जाते हैं। पेशी तन्तु अपनी सामान्य स्थिति में आ जाते हैं तथा पेशीय शिथिलन हो जाता है।

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प्रश्न 12.
पेशियों की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
पेशियों की विशेषताएँ (Characteristics of Muscles)

(1) उत्तेजनशीलता (Irritabilitv) – पेशियाँ किसी यान्त्रिक, तन्त्रिकीय, रासायनिक, विद्युत या तापीय उद्दीपन के प्रति उत्तेजनशीलता प्रकट करती हैं।

(2) संकुव्वनशीलता (Contractibility) – उद्दीपन पाकर पेशियाँ संकुचित हो जाती हैं तथा कुछ समय बाद पुनः शिथिल हो जाती हैं।

(3) संवहनशीलता (Conductibility) – पेशी के एक सिरे पर दिया गया उद्दीपन संप्रहित होकर क्षणभर में सभी दिशाओं में फैल जाता है।

(4) देहलीज उद्दीपन (Threshold Stimulus) – उद्दीपन की वह न्यूनतम मात्रा जो पेशीय संकुचन या प्रतिक्रिया के लिए आवश्यक है उसे देहलीज उद्दीपन कहते हैं।

(5) प्रत्यास्थता (Elasticity) – सभी पेशियों में निश्चित मात्रा में फैलने तथा पुनः अपना पूर्व आकार प्रहण कर लेने की क्षमता होती है।

(6) सभी या कोई नहीं नियम (All or None Law) – पेशी का संकुचन उद्दीपन के प्रति समानुपाती होता है। उद्दीपन प्राप्त होते ही पेशी या तो पूर्ण क्षमता से संकुचित होती है या संकुचित नहीं होती है। इसे ऑल और नन लौ या बोवड्टिच का नियम कहते हैं।

(7) पेशीय श्रान्ति (Muscle Fatigue) – लगातार उद्दीपन देते रहने से पेशी में संकुचन की क्षमता कम होती जाती है और कुछ समय पश्चात् पेशी नए उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया अथवा संकुचन नहीं कर पाती। इस अवस्था को पेशीय श्रान्ति कहते हैं। ऐसा पेशियों में लैक्टिक अम्ल के बनने से होता है।

(8) संकलन (Summation) – जब एक पेशी सूत्र को जोकि संकुचन अवस्था में है, दूसरा उद्दीपन दिया जाता है तो इस द्वितीय उद्दीपन का प्रभाव भी प्रथम उद्दीपन के प्रभाव के साथ संकलित हो जाता है और पेशी संकुचन बना रहता है।

(9) एकल पेशी स्कुरण (Single muscle twitch)-जब पेशी को एक पृथक् उद्दीपन दिया जाये तो उसके एक पेशी तन्तु में होने वाले संकुचन व शिथिलन को एकल पेशी स्फुरण कहते हैं। इसमें तीन अवस्थाएँ होती हैं। मेढ़क के एक पेशी स्फुरण का मान 0.1 सेकण्ड है।

  • गुप्त काल (Latent Phase) – उद्दीपन देने व संकुचन होने के बीच के समय को गुप्त काल (latent period) कहते हैं। इसमें 0.01 सेकण्ड का समय लगता है।
  • संकुचन काल (Contraction Phase) – इस काल में पेशी अधिकतम संकुचन प्रदर्शित करती है। इसमें लगभग 0.04 सैकण्ड का समय लगता है।
  • विश्रान्ति काल (Relaxation Phase) – इसमें पेशी पुनः अपनी सामान्य स्थिति में लौटती है, इसमें 0.05 सेकण्ड का समय लगता है।

(10) उत्तेजन/अनुत्तेजन अवधि (Refractory Period) – यह वह समयन्तराल है जिसमें तन्तु द्वितीय उद्दीपन के प्रति प्रतिक्रिया नहीं कर पाता है। अर्थात् एक देहलीज उद्दीपन के फलस्वरूप संकुचन करने के पश्चात् तथा दूसरे देहलीज उद्दीपन के प्रति प्रतिक्रिया दर्शाने से पहले एक निश्चित विश्रामावधि आवश्यक होती है। यह रेखित पेशी के लिए 0.002 से 0.005 सैकण्ड व हद्य पेशी के लिए 0.1-0.2 सैकण्ड होता है।

(11) बलवर्धि (Tonicity) – एक शिथिल पेशी के कुछ पेशी तन्तु सदैव संकुचन व शिथिलन करते रहते हैं और इससे पेशी का स्वास्थ्य सही बना रहता है, इसे पेशी टोनस (muscle tonus) भी कहते हैं।

(12) टिटेनस (Tetanus)-यह एक निलम्बित संकुचन की अवस्था है, जो निरन्तर तन्त्रिकीय उद्दीपनों के प्राप्त होने से उत्पन्न होती है। इसमें पेशियाँ लगातार संकुचन करती हैं।

(13) समतानी तथा समलम्बाक्षीय या सममितीय संकुचन (Isotonic and Isometric Contraction)-वह पेशी संकुचन जिसमें पेशी पेशीय तन (पेशी टोनस) समान बना रहता है परन्तु पेशी की लम्बाई कम हो जाती है। उसे समतानी संकुचन कहते हैं। इसी के कारण पेशी कार्य करती हैं। वह पेशी संकुचन जिसमें पेशी की लम्बाई समान बनी रहती है लेकिन पेशी टोनस बढ़ जाता है। उस समलम्बाक्षी संकुचन कहते हैं। इसमें पेशी कार्य नहीं करती है।

(14) मृत कठोरता (Rigor Mortis) – मृत्यु के पश्चात् पेशियों में ATP की अनुपस्थिति में एक्टोमायोसिन से एक्टिन एवं मायोसिन अलग-अलग नहीं हो पाते हैं और शरीर कठोर हो जाता है। इसे ही मृत कठोरता कहते हैं।

प्रश्न 13.
पेशी तन्तुओं के प्रकार लिखिए तथा लाल पेशी तन्तु एवं श्वेत पेशी तन्तुओं में अन्तर लिखिए।
उत्तर:
पेशी तन्तुओं के प्रकार (Types of Muscle Fibres)
रंग के आधार पर पेशी तन्तु दो प्रकार के होते हैं-
(1) श्वेत पेशी तन्तु (White Muscle Fibres) – इनमें मायोग्लोबिन (myoglobin) अनुपस्थित होता है जो कि पेशियों को लाक्षणिक लाल रंग प्रदान करता है। इन तन्तुओं में माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria) की संख्या कम होती है। इनमें तीव्र संकुचन पाया जाता है जिससे ऑक्सीजन की आवश्यकता बढ़ जाती है और ऑक्सीजन की कमी होने पर इनमें अवायवीय श्वसन होता है जिसके फलस्वरूप लैक्टिक अम्ल बनता है। पेशियों में लैक्टिक अम्ल के संचयन के कारण ही थकान (fatigue) उत्पन्न होती है। उदाहरण-नेत्र गोलक की पेशियाँ।

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(2) लाल पेशी तन्तु (Red Muscle Fibre)-ये पेशी तन्तु मायोग्लोबिन की उपस्थिति के कारण लाल रंग के दिखाई देते हैं। इसमें माइटोकॉष्ड्रिया की संख्या अधिक होती है। लाल पेशी तन्तुओं में धीमी गति से संकुचन होते हैं। इन पेशियों में वायवीय श्वसन होता है जिसके कारण इनमें लैक्टिक अम्ल (lactic acid) का संचय नहीं होता है। इसलिए इन पेशी तन्तुओं में थकान नहीं होती है। इन पेशी तन्तुओं में ऑक्सीजन संग्रहित रहती है। इसीलिए अवायवीय श्वसन नहीं होता है।

लाल और श्वेत पेशियों में अन्तर:

लाल पेशीय तन्तु (Red muscle fibres) श्वेत पेशीय तन्तु (White muscle fibres)
1. ये पतले, गहरे, लाल रंग के होते हैं। 1. ये मोटे, चौड़े व हल्के रंग के होते हैं।
2. इनमें मायोग्लोबिन अधिक मात्रा में उपस्थित होता है। 2. इनमें मायोग्लोबिन कम मात्रा में पाया जाता है।
3. इनमें माइटोकॉण्डिया अधिक संख्या में होते हैं। 3. इनमें ‘माइटोकॉष्ड्रिया’ कम संख्या में होते हैं।
4. इनमें ऑक्सीश्वसन द्वारा ऊर्जा प्राप्त होती है। 4. इनमें अनॉक्सीश्वसन द्वारा ऊर्जा प्राप्त होती है।
5. इनमें सार्कोप्लाज्ञिक जालिका कम होती है। 5. इनमें साकोप्लाखिमक जालिका अधिक होती है।
6. इनमें रुधिर केशिकाएँ अपेक्षाकृत अधिक संख्या में होती हैं। 6. इनमें रुधिर केशिकाएँ अपेक्षाकृत कम संख्या में होती हैं।
7. इन पेशी तन्तुओं में थकावट नहीं होती है। 7. ये पेशी तन्तु शीघ्र ही थक जाते हैं।
8. ये लम्बे समय के लिए धीमा रुका हुआ संकुचन करते हैं। 8. ये कम समय के लिए तेज व भारी संकुचन करते हैं।
9. ये धीरे से संकुचित होते हैं एवं धीरे से मूच्छित हो जाते हैं। 9. ये लेक्टिक अम्ल के कारण शीघ्र ही संकुचित हो जाते हैं एवं शीघ्र ही मूर्च्छित हो जाते हैं।
10. इनमें लेक्टिक अम्ल नहीं जमता है। 10. इनमें लेक्टिक अम्ल जम जाता है।

प्रश्न 14.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए-
(a) प्रारूपी प्रीया कशेरुका
(b) उरोस्थि
(c) कण्ठ उपकरण
(d) एटलस कशेरुका
उत्तर:
(a) प्रारूपी प्रीया कशेरुका
कशेरुक दण्ड (Vertebral Column):
कशेरुक दण्ड छोटी-छोटी अस्थियों की बनी एक भृंखला होती है जिन्हें कशेरुकाएँ कहते हैं। मनुष्य के कशेरुक दण्ड में 33 कशेरुकाएँ पायी जाती हैं, परन्तु वयस्क में कुछ कशेरुकाओं में समेकन के कारण इनकी संख्या 26 रह जाती है।

मानव कशेरुकाओं की विशेषताएँ –

  • इनका कशेरुकाय (centrum) उभयपट्टित या अगर्ती प्रकार का होता है।
  • दो कशेरुकाओं के बीच अन्तरा कशेरुक डिस्क पायी जाती है जो तन्तुमय उपास्थि की बनी होती है।
  • सेण्ट्रम के प्रत्येक सिरे पर कशेरुका की एपिफाइसिस नामक अस्थि की प्लेट जुड़ी होती है।
  • दो कशेरुकाओं में से एक के अग्र दूसरी के पश्च योजी प्रवर्ध आपस में जुड़कर कशेरुक दण्ड को झुकने की क्षमता प्रदान करते हैं।
  • कशेरुकाओं में तन्त्रिका नाल पायी जाती है जिसमें मेरुरज्जु सुरक्षित रहता है।
  • अन्तरा कशेरुक बिम्ब एवं स्नायुओं की उपस्थिति से कशेरुक दण्ड लचीला बना रहता है।

कशेरुक दण्ड को अग्र पाँच भागों में बाँटा जा सकता है –

  • ग्रीवा भाग (Cervical Vertebrae) (7)
  • वक्षीय भाग (Thoracic Vertebrae) (12)
  • कटि भाग (Lumber Vertebrae) (5)
  • त्रिक भाग (Sacral Vetebrae) (5 या 1)
  • पुच्छीय भाग (Caudal Vertebrae) (4 या 1)

(1) ग्रीवा कशेरककाएँ-मनुष्य एवं अन्य सभी स्तनियों के ग्रीवा भाग में
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सात ग्रीवा कशेरुकाएँ होती हैं जिनमें प्रथम म्रीवा कशेरुका एटलस, द्वितीय एक्सिस तथा 3 से 7 वीं तक की ग्रीवा कशेरुकाएँ प्रारूपी कशेरुकाएँ कहलाती हैं। (नोट-समुद्री गाय या मेन्टीज में 6 तथा स्लॉथ में 9 ग्रीवा कशेरुकाएँ होती हैं।)
(i) एटलस (Atlas) – यह प्रथम ग्रीवा कशेरुका है जो अँगूठी के आकार की होती है। यह अग्रभाग में करोटि से तथा पश्च भाग में एक्सिस से जुड़ी होती है। इसमें सेन्ट्रम अनुपस्थित होता है। न्यूरल केनाल बड़ी होती है तथा अनुप्रस्थ लिगामेंट की उपस्थिति के कारण दो भागों में विभाजित होती है।
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इसका तत्त्रिका प्रवर्ध (nural Spine) छोटा होता है तथा जाइगोफाइसिस (zygophysis) अनुपस्थित होता है। अनुप्रस्थ प्रवर्ध चपटे होते हैं। इसके अग्र भाग में दो गड्डे पाए जाते हैं। जिसमें करोटि के अस्थि कन्द फिट रहते हैं।

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(ii) एक्सि (Axis) – यह द्वितीय ग्रीवा कशेरुका है। इसी के द्वारा सिर कशेरुक दण्ड पर घूम पाता है। इसमें अग्र सेन्ट्रम (centrum) कंटक के समान होता है जिसे आडॉन्टाइड प्रवर्ध (odontoid process) या दन्ताभ प्रवर्ध कहते हैं। यह एटलस से सन्धि करता है। एक्सिस का तत्त्रिका प्रवर्ध चपटा व आगे की ओर झुका होता है तथा अनुप्रस्थ प्रवर्ध छोटे होते हैं। इसमें प्री जाइगोफाइसिस पाए जाते हैं।
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(iii) प्रारूपी प्रीवा कशेरुका (Typical Cervical Vertebrae) – तीसरी से सातवीं तक की प्रीवा कशेरुकाएँ प्रारूपी प्रीवा कशेरुकाएँ कहलाती हैं। इसमें सेन्ट्रम पाया जाता है तथा प्रीजाइगोफाइसिस तथा पोस्ट जाइगोफाइसिस पूर्ण विकसित होते हैं। इनका तन्त्रिका कंटक छोटा किन्तु नुकीला होता है। इनके अनुप्सस्थ प्रवर्ध कम विकसित होते हैं। इनमें न्यूरल केनाल के दोनों ओर दो सूक्ष्म कशेरुक धमनी नाल पायी जाती है। इनमें द्विशाखित पसलियाँ सन्धि बनाती हैं।

(2) वक्षीय कशेरुकाएँ (Thoracic vertebrae) – ये संख्या में 12 होती हैं, इनमें कंटिका प्रवर्ध (न्यूरल स्पाइन) अधिक लम्बा एवं नुकीला होता है। इनमें तन्त्रिकीय नाल एवं तन्निकीय चाप पाए जाते हैं। ये भी पसलियों से जुड़ी होती हैं।
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प्रथम वक्षीय कशेरुका आगे की ओर अन्तिम प्रारूपी म्रीवा कशेरुका से सन्धि बनाती है जबकि अन्तिम वक्षीय कशेरुका प्रथम कटि कशेरुका से सन्धि करती है।

(3) कटि कशेरुकाएँ (Lumber Vertebrae) – ये अधिक बड़ी व मजबूत होती हैं। इनकी संख्या 5 होती है, इनमें सेन्द्रम विकसित होता है। कंटिका प्रवर्ध आगे की ओर झुके हए होते हैं। डनमें एक-एक जोडी मैक्सिलरी प्रवर्ध (maxillary process) पाए जाते हैं। ये कशेरुकाएँ सबसे बड़ी होती हैं, क्योंकि शरीर का अधिकतम भार इन पर होता है। इनके कंटक प्रवर्ध कुल्हाड़ी के आकार के होते हैं और कमर को सहारा देने वाली पेशी से जुड़े होते हैं।
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(4) सेक्रल या त्रिक कशेरुकाएँ (Secral Vertebrae) – शिशु में इनकी संख्या 5 होती है, किन्तु वयस्क होने तक ये आपस में समेकित होकर केवल एक संयुक्त संरचना सेक्रम (sacrum) बनाती है। यह श्रोणि मेखला के (pelvic girdle) के पीछे नीचे की ओर निकलकर कमर वक्र (backward curve) बनाती है। इसका अधर भाग चौड़ा व अन्तिम भाग सँकरा होता है। अन्तिम भाग पर यह काँक्सिस से सन्धि बनाती हैं। मेरु नाल से तन्त्रिकाओं का एक गुच्छा निकला होता है, जिसे कोडे इक्वीना (cauda equina) कहते हैं।

(5) कॉक्सिस या पुच्छ कशेरुकाएँ (Coccyx or Caudal Vertebrae) – इनकी शिशु में संख्या चार होती है जो वयस्क में एक साथ जुड़कर छोटी कॉक्सिक्स (coccyx) बनाती है। यह पूँछ का अवशेषी भाग बनाती है। वयस्क मनष्य में कशेरुक दण्ड में 26 व बच्चे में 33 कशेरकाएँ होती हैं।

(b) उरोस्थि (Sternum) – मनुष्य की उरोस्थि में सात छड़ाकार अस्थियाँ पायी जाती हैं। जिन्हें तीन समूहों में विभेदित किया गया है-

(a) प्रथम समूह – इसमें प्रथम उरोस्थि आती है जिसे प्रीस्टर्नम (presternum) कहते हैं। इससे प्रथम जोड़ी पसलियाँ व अंश मेखला की क्लैविकल अस्थियाँ जुड़ी होती हैं, इसे मैनुब्रियम (manubrium) भी कहते हैं।

(b) द्वितीय समूह-इसमें दूसरी से छठी उरोस्थियाँ आती हैं जिन्हें मीसोस्टरनम (mesosternum) या ग्लेडियोलस (Gladiolus) या मध्यकाय कहते हैं।

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(c) तृतीय समूह-इसमें सातवीं (अन्तिम) उरोस्थि आती है, इसे मेटार्स्टन्दम (metasternum) या जिफीर्स्टन्नम उरोस्थि प्रवर्ध कहते हैं।
इन सातों उरोस्थियों को सम्मिलित रूप से स्टेने़ी (sternebrae) भी कहते हैं। इन सातों स्टनेबबीयो से प्रथम सात जोड़ी पसलियाँ (ribs) जुड़ी रहती हैं। उरोस्थि को जुड़ने के लिए स्थल प्रदान करती है तथा हुदय व फेफड़ों को सुरक्षा प्रदान करती है। यह वक्षीय कटघरे का भी निर्माण करती है।
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(c) कण्ठ उपकरण:
अक्षीय कंकाल (Axial Skeleton)
कपाल या खोपड़ी या करोटि (Skull) – यह सिर भाग का कंकाल बनाती है। स्तनियों की करोटि की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं-

  • स्तनियों की करोटि पूर्णतः अस्थियों की बनी होती है।
  • करोटि द्विकन्दीय (dicondylic) होती है।
  • क्रेनियल गुहा (cranial cavity) बड़ी होती है।
  • करोटि के पार्श्व में गंड चाप (zygometic arch) पायी जाती है।
  • मैक्सिला तथा पेलेटाइन अस्थियों से बना तालु पाया जाता है जो भोजन एवं स्वास मार्ग को पृथक् करता है।
  • नासा मार्ग में घुमावदार टरबाइनल अस्थियाँ पायी जाती हैं।
  • टिम्पैनिक बुल्ला पाया जाता है, जिसमें तीन कर्ण अस्थियाँ होती हैं।
  • निचला जबड़ा केवल एक अस्थि का बना होता है जिसे डेन्टरी अस्थि कहते हैं।
  • जबड़ों का निलम्बन (Jaw suspension) क्रेनियोस्टाइलिक होता है।
  • दाँत विषमदन्ती, गर्तदन्ती तथा द्विबारदन्ती होते हैं।

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मानव करोटि में कुल 29 अस्थियाँ होती हैं। ये सभी सीवनों (bony sutures) द्वारा परस्पर संधित रहती हैं। करोटि की अस्थियों को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है-

  1. कपाल की अस्थियाँ
  2. चेहरे की अस्थियाँ
  3. कण्ठिका उपकरण
  4. कर्ण की अस्थियाँ

1. कपाल की अस्थियाँ (Cranial Bones) – ये निम्न प्रकार हैं-

  • ऑक्सीपीटल 01
  • पैराइटल 02
  • फ्रन्टल 01
  • टेम्पोरल 02
  • स्फीनॉइड 01

(i) ऑक्सीपीटल खण्ड (Occipital Segment) – यह कपाल का पश्च भाग है जो महारन्ध्र (foraman magnum) के चारों ओर चार उपास्थि जात अस्थियों (cartilagenous bones) का बना होता है। इसमें महारन्ध्र के ऊपर की ओर एक सुप्रा-ओक्सी-पीटल (supra occipital) अस्थि, नीचे की ओर एक बेसीऑक्सीपीटल अस्थि तथा पाश्वों में दो एक्सो ऑक्सीपीटल (exo-occipital) अस्थियाँ पायी जाती हैं।

दोनों ऑक्सीपीटल अस्थियों पर एक-एक उभार पाया जाता है जिसे ऑक्सीपीटल कॉण्डाइल कहते हैं। अर्थात् मनुष्य में दो ऑक्सीपीटल कॉण्डाइल पाए जाते हैं। इन्हीं से प्रथम ग्रीवा कशेरुका एटलस (atlas) जुड़ी होती है। रुधिर पहुँचाने वाली धमनियों के लिए छिद्र होते हैं जबकि अशुद्ध रुधिर वापस लाने के लिए एक बड़ा छिद्र पाया जाता है।

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(ii) पैराइटल (Parietal) – इसमें दो चपटी अस्थियाँ पायी जाती हैं जो कपाल के किनारे की छत बनाती हैं। इनके आन्तरिक स्तर पर मस्तिष्क को शुद्ध रुधिर पहुँचाने वाली धमनियों के लिए छिद्र होते हैं जबकि अशुद्ध रुधिर वापस लाने के लिए एक बड़ा छिद्र पाया जाता है।
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(iii) फ्रन्टल (Frontal) – यह एक चपटी अस्थि है जो कपाल की छत बनाती है। इसमें दो गुहाएँ होती हैं, इनमें हवा भरी होती है और ये फ्रन्टल शिराएँ कहलाती हैं। ये शिराएँ फ्रन्टल को हल्का बनाती हैं और ध्वनि वेश्मों के समान कार्य करके ध्वनि को गुंजित करती हैं। माथा व कोटर के बन्ध पर ऑर्बिटल हॉशिया पाया जाता है, जिसके ऊपर मेहराब पाया जाता है।

(iv) टेम्पोरल (Temporal) – ये दो अनियमित आकार की अस्थियाँ होती हैं जो कपाल के आधार व पार्श्व में भित्ति बनाती हैं।

इसमें निम्नलिखित पाँच भाग होते हैं –

  • शल्की भाग (Temporal squama) -यह कनपटी (Tample) बनाता है।
  • पेट्स भाग (Petrous) -इसमें अन्तः कर्ण पाया जाता है।
  • टिम्यैनिक भाग (Tympanic)-इसमें मध्य कर्ण की टिम्पैनिक गुहा पायी जाती है।
  • मैस्टाइड भाग (Mastaid) -इसमें शंक्वाकार मेस्टाइड प्रवर्ध पाया जाता है।
  • जाइगोमेटिक भाग (Zygomatic)-यह कपोल अस्थि के साथ मिलकर गंड चाप बनाते हैं।

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(v) स्पीनॉइड (Sphenoid) – यह कपाल के अधर तल के मध्य में पायी जाने वाली छैनी के आकार की अस्थि है। इसके मध्य में सेला टर्सिका (sella turcica) नामक गर्त होता है जिसमें पीयूष प्रन्थि का हाइपोपाइसिस (hypophysis) भाग लटका रहता है।

(vi) एथमॉइड (Ethmoid) – यह अनियमित आकार की भंगुर अस्थि है जो दो कोटरों के बीच नाक की छत बनाती है। इसके तीन भाग होते हैं-

  • चालनी पट्ट (Sieve septum) -इसके छिद्रों से गन्ध तन्निकाएँ निकलती हैं।
  • लम्बवत् प्लेट (Longitudinal plate) -वह दोनों नासा गुहाओं के मध्य खड़े सममतल पट्ट का निर्माण करती है।
  • स्पंजी भाग (Spongy part) -यह अति छिद्रल होता है।
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(2) चेहरे की अस्थियाँ (Facial Bone) – इसमें कुल 14 अस्थियाँ होती हैं और चेहरे का निर्माण करती हैं। ये निम्न प्रकार हैं-

  • नेजल (Nasal) – ये संख्या में दो होती हैं। ये आयताकार होती हैं तथा आपस में जुड़ी होती हैं। ये फन्टल से जुड़ी होती हैं।
  • वोमर (Vomer) – एक होती है और नासा गुहाओं के बीच पही बनाती है।
  • टखाइनल (Terbinal) – दो होती हैं और नासागुहा में घुमावदार मार्ग का निर्माण करती हैं।
  • लैक्राइमल (Lacrimal) – दो होती हैं और बहुत छोटी होती हैं। ये लेक्राइमल कोष का निर्माण करती हैं।
  • जाइगोमेटिक (Zygomatic) – दो होती हैं और चेहरे के पार्श्व में पायी जाती हैं। ये कपोल अस्थि बनाती हैं।
  • पैलेटाइन (Palatine)-ये एक जोड़ी होती हैं और नासा गुहाओं के पीछे की ओर पायी जाती हैं।
  • डेनेरी या मैन्डिबल (Mandible) – यह एक बड़ी अस्थि होती है और निचले जबड़े का निर्माण करती है। यह कपाल की एकमात्र अस्थि है जो गतिशील होती है। इसके कप्स (Theca) में ही निचले जबड़े के दाँत पाए जाते हैं। इसीलिए इसे दन्तिकास्थि (Dentary bone) भी कहते हैं।

मैक्सिला (Maxilla) – इसमें दो अस्थियाँ होती हैं जो मध्य रेखा पर जुड़कर दोनों ऊपरी जबड़ों का निर्माण करती हैं। इसी पर ऊपरी दन्त स्थित होते हैं। ये मुखगुहा की छत, अधरतल बनाने में भी भाग लेती हैं।

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(3) कंठिका उपकरण या हाइओइड (Hyoid) – यह $U$ के आकार के अस्थि है जो मेंडिबल तथा कंठ के बीच जीभ के नीचे स्थित होती है। अक्षीय कंकाल की यही एकमात्र अस्थि है जो किसी अन्य अस्थि से सन्धि नहीं करती, केवल स्नायुओं (ligament) तथा पेशियों द्वारा टेम्पोरल के स्टाइलॉइड प्रवर्धों से जुड़ी होती है। यह जीभ को सहारा देती है। हाइऑइड में एक क्षैतिज काय (body) होती है। इससे दोनों ओररएक-एक जोड़ी शृंग (horns) निकले रहते हैं। प्रत्येक ओर एक बड़ा शृंग तथा एक छोटा कार्नु (cornu) होता है।

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(4) कर्ण अस्थिकाएँ (Ear Ossicles) – ये प्रत्येक ओर के मध्य कर्ण में एक-दूसरे से जुड़ी तीन छोटी-छोटी अस्थियाँ हैं। ये बाहर से अन्दर की ओर क्रमशः मैलियस (malleus), इन्कस (incus) तथा स्टैपीज (stapes) हैं।
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(d) प्रारूपी प्रीया कशेरुका कशेरुक दण्ड (Vertebral Column):
कशेरुक दण्ड छोटी-छोटी अस्थियों की बनी एक भृंखला होती है जिन्हें कशेरुकाएँ कहते हैं। मनुष्य के कशेरुक दण्ड में 33 कशेरुकाएँ पायी जाती हैं, परन्तु वयस्क में कुछ कशेरुकाओं में समेकन के कारण इनकी संख्या 26 रह जाती है।

मानव कशेरुकाओं की विशेषताएँ –

  • इनका कशेरुकाय (centrum) उभयपट्टित या अगर्ती प्रकार का होता है।
  • दो कशेरुकाओं के बीच अन्तरा कशेरुक डिस्क पायी जाती है जो तन्तुमय उपास्थि की बनी होती है।
  • सेण्ट्रम के प्रत्येक सिरे पर कशेरुका की एपिफाइसिस नामक अस्थि की प्लेट जुड़ी होती है।
  • दो कशेरुकाओं में से एक के अग्र दूसरी के पश्च योजी प्रवर्ध आपस में जुड़कर कशेरुक दण्ड को झुकने की क्षमता प्रदान करते हैं।
  • कशेरुकाओं में तन्त्रिका नाल पायी जाती है जिसमें मेरुरज्जु सुरक्षित रहता है।
  • अन्तरा कशेरुक बिम्ब एवं स्नायुओं की उपस्थिति से कशेरुक दण्ड लचीला बना रहता है।

कशेरुक दण्ड को अग्र पाँच भागों में बाँटा जा सकता है –

  • ग्रीवा भाग (Cervical Vertebrae) (7)
  • वक्षीय भाग (Thoracic Vertebrae) (12)
  • कटि भाग (Lumber Vertebrae) (5)
  • त्रिक भाग (Sacral Vetebrae) (5 या 1)
  • पुच्छीय भाग (Caudal Vertebrae) (4 या 1)

(1) ग्रीवा कशेरककाएँ-मनुष्य एवं अन्य सभी स्तनियों के ग्रीवा भाग में
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सात ग्रीवा कशेरुकाएँ होती हैं जिनमें प्रथम म्रीवा कशेरुका एटलस, द्वितीय एक्सिस तथा 3 से 7 वीं तक की ग्रीवा कशेरुकाएँ प्रारूपी कशेरुकाएँ कहलाती हैं। (नोट-समुद्री गाय या मेन्टीज में 6 तथा स्लॉथ में 9 ग्रीवा कशेरुकाएँ होती हैं।)
(i) एटलस (Atlas) – यह प्रथम ग्रीवा कशेरुका है जो अँगूठी के आकार की होती है। यह अग्रभाग में करोटि से तथा पश्च भाग में एक्सिस से जुड़ी होती है। इसमें सेन्ट्रम अनुपस्थित होता है। न्यूरल केनाल बड़ी होती है तथा अनुप्रस्थ लिगामेंट की उपस्थिति के कारण दो भागों में विभाजित होती है।
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इसका तत्त्रिका प्रवर्ध (nural Spine) छोटा होता है तथा जाइगोफाइसिस (zygophysis) अनुपस्थित होता है। अनुप्रस्थ प्रवर्ध चपटे होते हैं। इसके अग्र भाग में दो गड्डे पाए जाते हैं। जिसमें करोटि के अस्थि कन्द फिट रहते हैं।

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(ii) एक्सि (Axis) – यह द्वितीय ग्रीवा कशेरुका है। इसी के द्वारा सिर कशेरुक दण्ड पर घूम पाता है। इसमें अग्र सेन्ट्रम (centrum) कंटक के समान होता है जिसे आडॉन्टाइड प्रवर्ध (odontoid process) या दन्ताभ प्रवर्ध कहते हैं। यह एटलस से सन्धि करता है। एक्सिस का तत्त्रिका प्रवर्ध चपटा व आगे की ओर झुका होता है तथा अनुप्रस्थ प्रवर्ध छोटे होते हैं। इसमें प्री जाइगोफाइसिस पाए जाते हैं।
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(iii) प्रारूपी प्रीवा कशेरुका (Typical Cervical Vertebrae) – तीसरी से सातवीं तक की प्रीवा कशेरुकाएँ प्रारूपी प्रीवा कशेरुकाएँ कहलाती हैं। इसमें सेन्ट्रम पाया जाता है तथा प्रीजाइगोफाइसिस तथा पोस्ट जाइगोफाइसिस पूर्ण विकसित होते हैं। इनका तन्त्रिका कंटक छोटा किन्तु नुकीला होता है। इनके अनुप्सस्थ प्रवर्ध कम विकसित होते हैं। इनमें न्यूरल केनाल के दोनों ओर दो सूक्ष्म कशेरुक धमनी नाल पायी जाती है। इनमें द्विशाखित पसलियाँ सन्धि बनाती हैं।

(2) वक्षीय कशेरुकाएँ (Thoracic vertebrae) – ये संख्या में 12 होती हैं, इनमें कंटिका प्रवर्ध (न्यूरल स्पाइन) अधिक लम्बा एवं नुकीला होता है। इनमें तन्त्रिकीय नाल एवं तन्निकीय चाप पाए जाते हैं। ये भी पसलियों से जुड़ी होती हैं।
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प्रथम वक्षीय कशेरुका आगे की ओर अन्तिम प्रारूपी म्रीवा कशेरुका से सन्धि बनाती है जबकि अन्तिम वक्षीय कशेरुका प्रथम कटि कशेरुका से सन्धि करती है।

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(3) कटि कशेरुकाएँ (Lumber Vertebrae) – ये अधिक बड़ी व मजबूत होती हैं। इनकी संख्या 5 होती है, इनमें सेन्द्रम विकसित होता है। कंटिका प्रवर्ध आगे की ओर झुके हए होते हैं। डनमें एक-एक जोडी मैक्सिलरी प्रवर्ध (maxillary process) पाए जाते हैं। ये कशेरुकाएँ सबसे बड़ी होती हैं, क्योंकि शरीर का अधिकतम भार इन पर होता है। इनके कंटक प्रवर्ध कुल्हाड़ी के आकार के होते हैं और कमर को सहारा देने वाली पेशी से जुड़े होते हैं।
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(4) सेक्रल या त्रिक कशेरुकाएँ (Secral Vertebrae) – शिशु में इनकी संख्या 5 होती है, किन्तु वयस्क होने तक ये आपस में समेकित होकर केवल एक संयुक्त संरचना सेक्रम (sacrum) बनाती है। यह श्रोणि मेखला के (pelvic girdle) के पीछे नीचे की ओर निकलकर कमर वक्र (backward curve) बनाती है। इसका अधर भाग चौड़ा व अन्तिम भाग सँकरा होता है। अन्तिम भाग पर यह काँक्सिस से सन्धि बनाती हैं। मेरु नाल से तन्त्रिकाओं का एक गुच्छा निकला होता है, जिसे कोडे इक्वीना (cauda equina) कहते हैं।

(5) कॉक्सिस या पुच्छ कशेरुकाएँ (Coccyx or Caudal Vertebrae) – इनकी शिशु में संख्या चार होती है जो वयस्क में एक साथ जुड़कर छोटी कॉक्सिक्स (coccyx) बनाती है। यह पूँछ का अवशेषी भाग बनाती है। वयस्क मनष्य में कशेरुक दण्ड में 26 व बच्चे में 33 कशेरकाएँ होती हैं।

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