Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन Important Questions and Answers.
Haryana Board 11th Class Biology Important Questions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन
(A) वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions )
1. यूरिया का संश्लेषण किसके टूटने से होता है ?
(A) ग्लूकोस
(B) वसा अम्ल
(C) अमीनो अम्ल
(D) अमोनिया ।
उत्तर:
(C) अमीनो अम्ल
2. हेनले के लूप में होता है-
(A) ग्लोमेरुलर निस्यंदन
(B) यूरिया
(C) मूत्र
(D) रुधिर ।
उत्तर:
(A) ग्लोमेरुलर निस्यंदन
3. परानिस्यंदन कहाँ होता है ?
(A) बोमेन सम्पुट में
(B) मूत्राशय में
(C) रुधिर वाहिनी में
(D) केशिकागुच्छ में।
उत्तर:
(D) केशिकागुच्छ में।
4. स्तनियों का मुख्य उत्सर्जी पदार्थ होता है ?
(A) अमोनिया
(B) अमीनो अम्ल
(D) यूरिया !
(C) यूरिक अम्ल
उत्तर:
(D) यूरिया !
5. केशिकागुच्छ (ग्लोमेरुलस) में परानिस्यंद कब बनता है ?
(A) बोमेन सम्पुट में केशिकागुच्छ से हाइड्रोस्टेटिक दबाव अधिक हो
(B) बोमेन सम्पुट में कोलॉयडली ऑस्मोटिक दबाव तथा हाइड्रोस्टेटिक दबाव ग्लोमेरुलर हाइड्रोस्टेटिक दबाव से कम हो ।
(C) हाइड्रोस्टेटिक दबाव ऑस्मोटिक दबाव से अधिक हो
(D) ऑस्मोटिक दबाव हाइड्रोस्टेटिक दबाव से अधिक हो ।
उत्तर:
(B) बोमेन सम्पुट में कोलॉयडली ऑस्मोटिक दबाव तथा हाइड्रोस्टेटिक दबाव ग्लोमेरुलर हाइड्रोस्टेटिक दबाव से कम हो ।
6. ग्लोमेरुलर निस्यंद होता है-
(A) रुधिराणु एवं प्लाज्मा प्रोटीन रहित रुधिर
(B) रुधिराणु रहित रुधिर
(C) जल, अमोनिया तथा रुधिराणु का मिश्रण
(D) मूत्र ।
उत्तर:
(A) रुधिराणु एवं प्लाज्मा प्रोटीन रहित रुधिर
7. सोडियम तथा जल का सर्वाधिक अवशोषण कहाँ होता है ?
(A) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में
(B) दूरस्थ कुण्डलित नलिका में
(C) हेनले के लूप में
(D) इन सभी में।
उत्तर:
(A) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में
8. स्तनी के वृक्क में ग्लोमेरुलस से निकलने वाली रुधिर वाहिनी कहलाती है-
(A) अपवाही धमनिका
(B) अभिवाही धमनिका
(C) रीनल धमनी
(D) रीनल शिरा ।
उत्तर:
(A) अपवाही धमनिका
9. रुधिर प्लाज्मा का ग्लोमेरुलस से वोमेन सम्पुट में निस्यंदन किस कारण होता है ?
(A) डाएलिसिस
(B) अवशोषण
(C) स्त्रावण
(D) ग्लोमेरुलर हाइड्रोस्टेटिक दबाव ।
उत्तर:
(D) ग्लोमेरुलर हाइड्रोस्टेटिक दबाव ।
10. जब ADH की मात्रा कम होती है तो मूत्र विसर्जन की दर-
(A) कम होती है।
(B) अधिक होती है
(C) यथावत् रहती है
(D) इनमें से कोई नहीं ।
उत्तर:
(B) अधिक होती है
11. स्तनियों में जल का सर्वाधिक अवशोषण किस भाग में होता है?
(A) त्वचा में
(B) आन्त्र में
(C) फेफड़े में
(D) वृक्क में।
उत्तर:
(D) वृक्क में।
12. मैलपीघी कोष में होता है-
(A) वृक्क नलिका
(B) बोमेन सम्पुट व केशिका गुच्छ
(C) बोमेन सम्पुट तथा वृक्क नलिका
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(B) बोमेन सम्पुट व केशिका गुच्छ
13. ग्लूकोस का अवशोषण वृक्क नलिका के किस भाग में होता है ?
(A) संग्रह नलिका में
(B) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में
(C) दूरस्थ कुण्डलित नलिका में
(D) हेनले लूप में ।
उत्तर:
(B) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में
14. यकृत में यूरिया का निर्माण किसके द्वारा होता है ?
(A) नाइट्रोजन चक्र
(B) ग्लाइकोलिसिस
(C) आर्निथीन चक्र
(D) क्रैब चक्र ।
उत्तर:
(C) आर्निथीन चक्र
15. गुर्दे (वृक्क) की कार्यिकी इकाई है- (UPPMT)
(A) डैन्ड्रॉन
(B) नेफ्रॉन
(C) न्यूरॉन
(D) एक्सॉन ।
उत्तर:
(B) नेफ्रॉन
16. कीटों का मुख्य उत्सर्जी पदार्थ है- (RPMT)
(A) अमोनिया
(B) यूरिक अम्ल
(C) अमीनो अम्ल
(D) यूरिया ।
उत्तर:
(B) यूरिक अम्ल
17. Na+ तथा CI– दोनों का पुनः अवशोषण होता है-
(A) हेनले लूप की आरोही भुजा में
(B) हेनले लूप की अवरोही भुजा में
(C) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में
(D) दूरस्थ कुण्डलित नलिका में।
उत्तर:
(A) हेनले लूप की आरोही भुजा में
18. मनुष्य के वृक्क होते हैं-
(A) मीसोनेफ्रिक प्रकार के
(B) मेटानेफ्रिक प्रकार के
(C) प्रोनेफिक प्रकार के
(D) सभी प्रकार के ।
उत्तर:
(B) मेटानेफ्रिक प्रकार के
19. मांसाहारी व्यक्ति के मूत्र में अधिक मात्रा निकलेगी-
(A) ग्लूकोस की
(B) ग्लाइकोजन की
(C) यूरिया की
(D) क्रिएटीनीन की ।
उत्तर:
(C) यूरिया की
20. ग्लोमेरुलस में रुधिर लाने वाली वाहिनी कहलाती है-
(A) अभिवाही धमनिका
(B) अपवाही धमनिका
(D) वृक्कीय शिरा ।
(C) वृक्कीय धमनी
उत्तर:
(A) अभिवाही धमनिका
21. कुण्डलित नलिका के दूरस्थ भाग द्वारा जल अवशोषण नियन्त्रित होता
(A) ऐण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन द्वारा
(B) ऐन्ड्रोजन्स द्वारा
(C) टेस्टोस्टीरोन द्वारा
(D) लेक्टोजेनिक हॉर्मोन द्वारा ।
उत्तर:
(A) ऐण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन द्वारा
22. मूत्र का आयतन किसके द्वारा नियन्त्रित होता है ?
(A) केवल ADH द्वारा
(B) केवल एल्डोस्टीरोन द्वारा
(C) एल्डोस्टीरोन तथा ADH द्वारा
(D) ADH व टेस्टोस्टीरोन द्वारा ।
उत्तर:
(C) एल्डोस्टीरोन तथा ADH द्वारा
23. यूरिया का उत्सर्जन कहलाता है- (RPMT)
(A) यूरियोटेलिज्म
(B) ऐमीनोटेलिज्म
(C) यूरिकोटेलिज्म
(D) इनमें से कोई नहीं ।
उत्तर:
(A) यूरियोटेलिज्म
24. ग्लोमेरुलस निस्यंद में होते हैं- (RPMT)
(A) यूरिया, यूरिक अम्ल, अमोनिया और जल
(B) केवल यूरिया एवं यूरिक अम्ल
(C) यूरिया, यूरिक अम्ल एवं जल
(D) यूरिया, यूरिक अम्ल, ग्लूकोज और जल ।
उत्तर:
(A) यूरिया, यूरिक अम्ल, अमोनिया और जल
25. जन्तुओं के शरीर में यूरिया का निर्माण होता है- (RPMT)
(A) ऐमीनो अम्ल के डिएमीनेशन से,
(B) ग्लूकोज में ऑक्सीकरण से
(C) वसा के जल में अपघटन से
(D) वसा में इमेल्सीकरण से ।
उत्तर:
(A) ऐमीनो अम्ल के डिएमीनेशन से,
26. वृक्क का कार्य नहीं है-
(A) उत्सर्जन
(B) जल नियन्त्रण
(C) रुधिर आयतन नियन्त्रण
(D) मृत रुधिराणुओं का विनाश।
उत्तर:
(D) मृत रुधिराणुओं का विनाश।
27. अमीबा में परासरण नियमन किसके द्वारा होता है- (RPMT)
(A) संकुचनशील धानी द्वारा
(B) एक्टोप्लाज्म द्वारा
(C) कूटपाद द्वारा
(D) हायलोप्लाज्मा द्वारा
उत्तर:
(A) संकुचनशील धानी द्वारा
28. एक व्यक्ति अत्यधिक मात्रा में प्रोटीन आहार लेता है वह किस पदार्थ की अधिक मात्रा उत्सर्जित करेगा ? (UPCPMT)
(A) अमोनिया
(B) यूरिया
(C) ग्लाइकोजन
(D) पित्त ।
उत्तर:
(B) यूरिया
29. कौनसा यकृत से वृक्क की ओर जाता है ? (UPCPMT)
(A) अमोनिया
(B) यूरिया
(C) शर्करा
(D) पित्त ।
उत्तर:
(B) यूरिया
30. यूरिया का सान्द्रण होता है- (UPCPMT)
(A) वृक्क में
(B) यकृत में
(C) कोलन में
(D) हृदय में
उत्तर:
(A) वृक्क में
31. बोमेन्स सम्पुट पाए जाते हैं- (UPCPMT)
(A) ग्लोमेरुलस में
(C) नेफ्रॉन में
(B) यूरी नेफरस नलिका में
(D) मैल्पीघी नलिका में ।
उत्तर:
(C) नेफ्रॉन में
32. अमीनो (NH2) समूह का पृथक्करण कहलाता है- (RPMT)
(A) उत्सर्जन
(B) अवशोषण
(C) ट्रांस एमीनेशन
(D) ऐमीनेशन ।
उत्तर:
(D) ऐमीनेशन ।
33. डिऐमीनेशन पाया जाता है- (UPCPMT)
(A) वृक्क में
(B) यकृत में
(C) नेफ्रॉन में
(D) अ व द दोनों ।
उत्तर:
(B) यकृत में
34. एक व्यक्ति लम्बे समय से भूख हड़ताल पर है और केवल पानी पर आश्रित है, उसके-
(A) मूत्र में अधिक सोडियम होगा
(B) मूत्र में कम एमीनो अम्ल होंगे
(C) रुधिर में अधिक ग्लूकोज होगा
(D) मूत्र में कम यूरिया होगा ।
उत्तर:
(A) मूत्र में अधिक सोडियम होगा
35. निम्न में से आर्निथीन चक्र में अंश नहीं है-(CBSE PMT) (RPMT)
(A) आथीन, सिलीन, एलेनीन
(B) आनिथीन, सिटुलीन, अर्जिनीन
(C) अमीनो अम्ल प्रयोग नहीं होते
(D) आर्नीथीन, सिटूलीन, फ्यूमेरिक अम्ल ।
उत्तर:
(C) अमीनो अम्ल प्रयोग नहीं होते
(B) अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)
प्रश्न 1.
उत्सर्जन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
नाइट्रोजनयुक्त उपापचयी अपशिष्ट पदार्थों एवं अतिरिक्त लवणों को शरीर से बाहर निकालने की प्रक्रिया को उत्सर्जन कहते हैं।
प्रश्न 2.
उत्सर्जन की रचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई क्या है ?
उत्तर:
उत्सर्जन की रचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई वृक्क नलिका या नेफ्रॉन है।
प्रश्न 3.
अमोनिया के उत्सर्जन की प्रक्रिया को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
अमोनिया के उत्सर्जन की प्रक्रिया को अमोनियोत्सर्ग (ammonotelism) कहते हैं।
प्रश्न 4.
अमोनिया उत्सर्जी प्राणियों को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
अमोनिया उत्सर्जी प्राणियों को अमोनोटेलिक (ammonotelic) प्राणी कहते हैं।
प्रश्न 5.
यूरिक अम्ल का उत्सर्जन करने वाले प्राणियों को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
यूरिक अम्ल का उत्सर्जन करने वाले प्राणियों को यूरिकोटेलिक (Urecotelic) प्राणी कहते हैं।
प्रश्न 6.
अमोनिया को कौन-सा अंग यूरिया में बदलता है ?
उत्तर:
अमोनिया को यूरिया में यकृत बदल देता है।
प्रश्न 7.
यूरिया का उत्सर्जन करने वाले प्राणियों को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
यूरिया का उत्सर्जन करने वाले प्राणियों को यूरियोटैलिक (Ureotelic) प्राणी कहते हैं।
प्रश्न 8.
केशिकागुच्छ कहाँ पाया जाता है ? इसका प्रमुख कार्य क्या ?
उत्तर:
केशिकागुच्छ (glomerulus) वृक्क नलिका के समीपस्थ भाग बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) में पाया जाता है। यह परानिस्यंदन द्वारा ग्लोमेरुलर निस्यंद बनाता हैं।
प्रश्न 9.
मैलपीघी काय किसे कहते हैं ?
उत्तर:
बोमेन सम्पुट तथा केशिकागुच्छ को संयुक्त रूप से मैलपीघी काय (Malpighian body) कहते हैं।
प्रश्न 10.
हैनले पाश (लूप) कहाँ पाया जाता है ?
उत्तर:
हैनले पाश (लूप) वृक्क नलिका में पाया जाता है जो इसकी समीपस्थ एवं दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं के बीच ‘U’ के आकार की रचना के रूप में स्थित होता है।
प्रश्न 11.
केशिकागुच्छ को रुधिर ले जाने वाली रुधिरवाहिनी का नाम लिखिए ।
उत्तर:
अभिवाही वृक्क धमनिका ( Afferent renal arteriole)।
प्रश्न 12.
परानिस्यंदन की क्रिया वृक्क नलिका के किस भाग में होती है ?
उत्तर:
परानिस्यंदन (ultrafiltration) की क्रिया केशिकागुच्छ (glomerulus) में होती है।
प्रश्न 13.
चयनात्मक पुनरावशोषण वृक्क नलिका के किस भाग में होता ?
उत्तर:
चयनात्मक पुनरावशोषण वृक्क नलिका के कुण्डलित भाग में होता है।
The
प्रश्न 14.
मूत्र निर्माण के अन्तर्गत आने वाली तीन आवश्यक क्रियाओं के नाम बताइए।
उत्तर:
- परानिस्यंदन या अति सूक्ष्म निस्यंदन (ultrafiltration),
- वरणात्मक या चयनात्मक पुनरावशोषण (selective reabsorption) तथा
- स्रावण ( Secretion ) ।
प्रश्न 15.
उत्सर्जन क्रिया के तीन चरणों के नाम लिखिए।
उत्तर:
- उत्सर्जी पदार्थों का निर्माण,
- उत्सर्जी पदार्थों का परिवहन,
- उत्सर्जी पदार्थों का निष्कासन ।
प्रश्न 16.
ग्लोमेरुलर निस्यंद में उपस्थित पदार्थों के नाम बताइये।
उत्तर:
ग्लोमेरुलर निस्यंद में उत्सर्जी पदार्थ यूरिया, लाभदायक जल, . अनेक लवण, ग्लूकोज तथा अन्य कुछ विषैले पदार्थ उपस्थित होते हैं।
प्रश्न 17.
सबसे अधिक पुनरावशोषण नेफ्रॉन के किस भाग में होता है ?
उत्तर:
सबसे अधिक पुनरावशोषण नेफ्रॉन की समीपस्थ कुण्डलित नलिका होता है।
प्रश्न 18.
बर्टिनी के स्तम्भ किन्हें कहते हैं ?
उत्तर:
वृक्क कॉर्टेक्स की उभारों को बर्टिनी के स्तम्भ कहते हैं ।
प्रश्न 19.
शरीर में वृक्कों का मुख्य कार्य बताइए ।
उत्तर:
वृक्कों द्वारा शरीर में जल व लवण सन्तुलन स्थापित होता है।
प्रश्न 20.
मनुष्य में प्रभावी निस्यंद दाब कितना होता है ?
उत्तर:
मनुष्य में प्रभावी निस्यंद दाब (effective filtration pressure) 60 – (32 +18) 10mm Hg होता है।
प्रश्न 21.
मूत्र का pH तथा आपेक्षिक घनत्व बताइए।
उत्तर:
- मूत्र का pH = 4.8 से 7.5 तक,
- मूत्र का आपेक्षिक घनत्व = 1.003 से 1.032 तक ।
प्रश्न 22.
वृक्कों के दो प्रमुख कार्यों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर:
- शरीर के नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालना ( उत्सर्जन) ।
- शरीर के आन्तरिक वातावरण को सन्तुलित बनाए रखना ।
प्रश्न 23.
यकृत में अमोनिया के यूरिया में परिवर्तन के प्रक्रम को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
यकृत में अमोनिया के यूरिया में परिवर्तन के प्रक्रम को आर्निथीन चक्र कहते हैं।
प्रश्न 24.
नेफ्रॉन कितने प्रकार के होते हैं ? उनके नाम लिखिए।
उत्तर:
नेफ्रॉन दो प्रकार के होते हैं-
- वल्कुटीय नेफ्रॉन,
- मध्यांशीय नेफ्रॉन ।
प्रश्न 25.
हेनले लूप में क्या अवशोषित होता है ?
उत्तर:
हेनले लूप में जल का पुनरावशोषण होता है ।
प्रश्न 26.
एक स्वस्थ मनुष्य के केशिकागुच्छ की धमनिकाओं में आने वाले रुधिर का द्रव स्थैतिक दाब कितना होता है ?
उत्तर:
70 mm Hg होता है ।
प्रश्न 27.
हीमेटूरिया क्या है ?
उत्तर:
ग्लोमेरुलस (glomerulus) में सूजन आने अथवा इसकी झिल्लियों के अत्यधिक पारगम्य हो जाने के कारण लाल रक्ताणु (RBCs) तथा प्रोटीन (protein) भी छनकर निस्यन्द ( filtrate) में आ जाते हैं। इसी घटना को हीमेटूरिया (haematuria) कहते हैं।
प्रश्न 28.
ग्लाइकोसूरिया किसे कहते हैं ?
उत्तर:
मूत्र (Urine) में शर्करा (Glucose) की उपस्थिति एवं उत्सर्जन ग्लाइकोसूरिया (glycosuria) कहलाता है।
प्रश्न 29.
यदि किसी मनुष्य की वृक्क नलिका (nephron ) में से हल का लूप ( Henle’s loop) हटा दिया जाये तो इसके उत्सर्जन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
यदि किसी मनुष्य की वृक्क नलिका ( nephron ) में से हेनले का लूप (Henle’s loop) हटा दिया जाये तो मूत्र (Urine ) अधिक तनु हो जायेगा ।
प्रश्न 30.
रक्त में यूरिया (urea) की उपस्थिति को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
रक्त में यूरिया की उपस्थिति को यूरेमिया ( uremia) कहते हैं जो अत्यन्त हानिकारक है।
प्रश्न 31.
मूत्र में रक्त की उपस्थिति को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
मूत्र (urine) में रक्त (blood) की उपस्थिति हीमेटूरिया (haematuria) कहलाती है।
प्रश्न 32.
रक्त अपोहन (हीमोडायलिसिस) क्या है ?
उत्तर:
रोगी के शरीर से कृत्रिम विधि द्वारा उत्सर्जी पदार्थ को बाहर निकालने की क्रिया को रक्त अपोहन ( haemodialysis) कहते हैं।
प्रश्न 33.
एण्टीडाइयूरेटिक हार्मोन (ADH) के अल्पस्त्रावण का उत्सर्जन क्रिया पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
एण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (ADH) के अल्पस्रावण से दूरस्थ कुण्डलित नलिका एवं संग्राहक नलिका में जल का अवशोषण नहीं होगा फलस्वरूप बार-बार अधिक मात्रा में मूत्र त्याग करना पड़ेगा।
प्रश्न 34.
केशिकागुच्छ निस्यंदन दर ( GFR) कितनी होती है ?
उत्तर:
एक स्वस्थ व्यक्ति में केशिका गुच्छ निस्यंदन दर (GFR ) 125 मिली / मिनट या 180 लीटर प्रतिदिन होती है ।
प्रश्न 35.
रेनिन एन्जियोटेन्सिन क्रिया-विधि पर नियंत्रक का कार्य कौन करता है ?
उत्तर:
रेनिन एन्जियोटेन्सिन क्रिया विधि पर नियंत्रण का कार्य अलिन्दीय नेटियेरेटिक कारक करता है।
प्रश्न 36.
वृक्क की पथरी क्या है ?
उत्तर:
जब केशिकागुच्छ निस्यंदन में ऑक्सलेट एवं फॉस्फेट आयनों की मात्रा अधिक हो जाती है तो वे पेल्विस में अवक्षेपित हो जाते हैं और पथरी बनाते हैं। पथरी द्वारा मूत्रवाहिनी अवरुद्ध हो जाने से वृक्क में तेज दर्द होता है।
प्रश्न 37
परानिस्यंदन किसे कहते हैं ?
उत्त;
ग्लोमेरुलस (glomerulus) की रक्त केशिकाओं से उत्सर्जी तथा अन्य उपयोगी पदार्थों का छनकर बोमेन कैप्सूल ( Bowman’s capsule) की गुहा में जाने की क्रिया परानिस्यन्दन (ultrafiltration) कहलाती है ।
प्रश्न 38.
वृक्क के ग्लोमेरुलस से निकलने वाली रुधिर वाहिनी का नाम लिखिए।
उत्तर:
वृक्क के ग्लोमेरुलस से निकलने वाली रुधिर वाहिनी अपवाही धमनिका (efferent arteriole) कहलाती है।
(C) लघूत्तरात्मक प्रश्न ( Short Answer Type Questions)
प्रश्न 1.
परानिस्यन्दन तथा चयनात्मक पुनः अवशोषण की मूत्र निर्माण में क्या भूमिका है ?
उत्तर:
परानिस्यन्दन (Ultrafiltration ) – यकृत कोशिकाओं (liver cells) में यूरिया का निर्माण होने के पश्चात् रक्त नलिकाओं द्वारा यूरिया वृक्क (kidney) में पहुँचता है। वृक्क नलिका में बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) एक सूक्ष्म छलनी की भाँति कार्य करता है। इसमें अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) यूरिया युक्त रुधिर लेकर आती है और अपवाही धमनियाँ (efferent arteriole) रुधिर बाहर लेकर आती है।
ग्लोमेरुलस की केशिका दीवारों में लगभग 1.0 µ व्यास के असंख्य छिद्र होते हैं, जिससे छिद्रित दीवार की पारगम्यता (permeability) सामान्य रुधिर केशिकाओं की तुलना में अधिक होती है, जिससे तरल प्लाज्मा व अन्य उत्सर्जी पदार्थ छनकर बोमेन सम्पुट की गुहा में आ जाते हैं, परन्तु ग्लोमेरुलस केशिकाओं से रुधिर कणिकाएँ तथा रक्त में घुले हुए रुधिर प्रोटीन नहीं छन पाते हैं।
ग्लोमेरुलस से छना हुआ रक्त प्लाज्मा जो बोमेन सम्पुट की गुहा में आता है, ग्लोमेरुलर निस्यन्द (glomerular filtrate) कहलाता है तथा यह प्रक्रिया परानिस्यन्दन (ultrafiltration) कहलाती है। इस प्रक्रिया द्वारा रक्त से उत्सर्जी पदार्थ अलग हो जाते हैं।
चयनात्मक पुनः अवशोषण (Selective Reabsorption ) – परानिस्यन्दन (ultrafiltration) क्रिया द्वारा निस्यन्द (glomerular filtrate) में उत्सर्जी पदार्थों; जैसे-यूरिया, यूरिक अम्ल, क्रियेटिन आदि उत्सर्जी पदार्थों के साथ-साथ लाभदायक पदार्थ जैसे-ग्लूकोस (glucose), एमीनो अम्ल ( amino acid), कुछ वसीय अम्ल (fatty acids), विटामिन (vitamins), जल (water) तथा उपयोगी लवण (salts) भी छनकर आ जाते हैं। रक्त में उपस्थित जल का लगभग 95% भाग छनकर निस्यन्द में आ जाता है परन्तु इसका केवल 0.8% भाग के लगभग ही मूत्र में परिवर्तित होकर बाहर निकलता है।
निस्यन्द (filtrate) में उपस्थित लाभदायक पदार्थों का वृक्क की नलिकाओं द्वारा रुधिर में पुनरावशोषण (reabsorption ) कर लिया जाता है। वृक्क नलिकाओं द्वारा निस्यन्द (filtrate) में उपस्थित लाभदायक पदार्थों के पुनः रुधिर में पहुँचने की क्रिया ही चयनात्मक पुनः अवशोषण कहलाती है। इस प्रकार परानिस्यन्दन (ultrafiltration ) तथा चयनात्मक पुनः अवशोषण (selective reabsorption ) मूत्र निर्माण की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण पद हैं।
प्रश्न 2.
मूत्र की तनुता एवं सान्द्रण को नियन्त्रित करने वाली हॉर्मोन की कार्य प्रणाली को समझाइए ।
उत्तर:
शरीर में जल की मात्रा बढ़ने पर मूत्र पतला तथा मात्रा में अधिक हो जाता है तथा शरीर में जल की मात्रा घटने पर मूत्र की मात्रा कम तथा सान्द्रता अधिक हो जाती है। मूत्र की मात्रा एवं सान्द्रता में परिवर्तन के लिए वृक्क नलिका (nephron ) की दूरस्थ कुण्डलित नलिका एवं संग्रह नलिकाओं की पारगम्यता जिम्मेदार होती है। इनकी पारगम्यता का नियमन दो विशेष हॉर्मोन (hormones) द्वारा किया जाता है। ये हॉर्मोन निम्नलिखित हैं-
(1) एल्डोस्टीरॉन (Aldosterone ) – इस हॉर्मोन का स्त्रावण एड्रीनल कॉर्टेक्स प्रन्थि ( adrenal cortex gland) द्वारा किया जाता है। यह हॉर्मोन वृक्क नलिकाओं (Nephrons) में ग्लोमेरुलर निस्यन्द (glomerular filtrate) से सोडियम आयनों Na+ के पुनः अवशोषण ( re-absorption ) में वृद्धि करता है, जिससे शरीर मे सोडियम आयनों (Nat) की सान्द्रता निश्चित बनी रहती है।
(2) एण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन अथवा वेसोप्रेसिन (Antidiuretic Hormone, ADH or Vasopressin) – इस हॉर्मोन (hormone) का स्रावण पश्च पीयूष मन्यि (posterior pituitary gland) द्वारा किया जाता है। यह हॉर्मोन वृक्क नलिका (Nephron ) के संग्राहक नलिका (Collecting tubule) वाले भाग में जल के पुनः अवशोषण एवं स्त्रावण (reabsorption and secretion) के नियमन द्वारा मूत्र ( urine) की मात्रा एवं सान्द्रता को नियन्त्रित रखता है।
जब शरीर में जल की अधिकता होती है तो ADH का स्त्रावण कम तथा ऐल्डोस्टीरीन हॉर्मोन का स्त्रावण अधिक होता है जिसके फलस्वरूप सोडियम आयनों (Na+) का अधिक अवशोषण तथा जल का काम अवशोषण होता है परिणामस्वरूप मूत्र की सान्द्रता कम तथा आयतन ज्यादा होता है। इसके विपरीत शरीर में जल की कमी होने पर एण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (ADH) का स्रावण अधिक तथा ऐल्डोस्टीरॉन हॉर्मोन का स्त्रावण कम होने से मूत्र अधिक सान्द्र तथा मात्रा में कम होता है।
प्रश्न 3.
नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थों के आधार पर निर्धारित श्रेणियों को उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थों के आधार पर प्राणियों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है-
- अमोनिया उत्सर्जी जन्तु ( Ammonotelic animals),
- यूरिया उत्सर्जी जन्तु (Ureotelic animals),
- यूरिक अम्ल उत्सर्जी जन्तु (Urecotelic animals)।
- अमोनिया उत्सर्जी जन्तु (Ammonotelic Animals) वे जन्तु जो नाइट्रोजनी अपशिष्ट के रूप में अमोनिया ( ammonia) का उत्सर्जन करते हैं, अमोनिया उत्सर्जी जन्तु या अमोनोटेलिक जन्तु ( Ammonotelic animal) कहलाते हैं।
उदाहरण- संघ प्रोटोजोआ (Protozoa), पोरीफेरा ( Porifera ), सीलेन्ट्रेटा (Coelentrata ), ऐनिलिडा ( Annelida ), जलीय आर्थ्रोपोडा (Aquatic arthropoda) इत्यादि ।
2. यूरिया उत्सर्जी जन्तु (Ureotelic Animals) – जिन जन्तुओं में मुख्य नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थ यूरिया (Urea ) होती है वे जन्तु यूरिया उत्सर्जी जन्तु या यूरियोटेलिक जन्तु (ureotelic) कहलाते हैं। उदाहरण- मेंढक (Frog ), उपारिस्थल मछलियाँ (cartilaginous fishes), जल व स्थल पर रहने वाले सरीसृप ( amphibian reptiles) तथा स्तनी प्राणी (mammals) इत्यादि ।
3. यूरिक अम्ल उत्सर्जी जन्तु (Urecotelic Animals) – जिन जन्तुओं मुख्य नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थ यूरिक अम्ल (uric acid) होता है वे जन्तु यूरिक अम्ल उत्सर्जी जन्तु या यूरिकोटेलिक जन्तु (urecotelic) कहलाते हैं। उदाहरण – शुष्क वातावरण में रहने वाले जन्तु, जैसे- सरीसृप (Reptiles), कीट (Insects), पक्षी (Birds ) तथा घोंघे ( Snails) इत्यादि ।
प्रश्न 4.
मूत्र के संघटन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संग्राहक वाहिनी (Collecting tubule) के अन्तिम भाग में ग्लोमेरुलर निस्यन्द (glomerular filtrate) मूत्र (Urine) कहलाता है।
मानव मूत्र का संघटन निम्न प्रकार से होता है-
(1) जल-लगभग | 96 % |
(2) यूरिया | 2.0 % |
(3) अकार्बनिक लवण | .5 % |
(4) कार्बनिक लवण | 0.5 % |
(5) क्रियेटिनिन | 0.5 % |
(6) यूरिक अम्ल | 0.2-0.5 % |
(7) हिपेरिक अम्ल | 0.5 % |
(8) अमोनिया | 0.25 % |
प्रश्न 5.
स्तनियों की उत्सर्जन क्रिया में वरणात्मक पुनः अवशोषण की क्रिया कहाँ होती है ? इस क्रिया का महत्व बताइए ।
उत्तर:
वरणात्मक पुनः अवशोषण स्तनधारियों की उत्सर्जन क्रिया में वरणात्मक पुनः अवशोषण (selective reabsorption) वृक्क नलिकाओं के कुण्डलित भाग में होती है। इस क्रिया के अन्तर्गत केशिकागुच्छ से छनकर आए हुए निस्यंद से वृक्क नलिका के कुण्डलित भाग की प्रन्थिल कोशिकाएँ इसमें से ग्लूकोज, अमीनो अम्ल, विटामिन्स, Na+, CI–, K+, Ca++ HCO–3 तथा PO–4, आदि लवणों के आयन व जल आदि उपयोगी पदार्थों को अवशोषित करके पुनः अपवाही धमनिका के केशिका जाल (परिनलिका जाल ) में पहुंचा देती हैं। इसमें यूरिया व यूरिक अम्ल आदि का अवशोषण नहीं होता है।
इसलिए इस प्रक्रिया को वरणात्मक पुनः अवशोषण या चयनात्मक पुनरावशोषण कहते हैं। वरणात्मक पुनः अवशोषण का महत्व उत्सर्जन क्रिया का यह एक महत्वपूर्ण चरण है, क्योंकि यह क्रिया मूत्र निर्माण में प्रमुख योगदान करती है। इसके द्वारा शरीर के लिए उपयोगी पदार्थों को कुण्डलित वृक्क नलिकाओं में पुनः अवशोषित करके उन्हें रुधिर में मुक्त कर दिया जाता है और के साथ शरीर से बाहर निकल जाने से रोक दिया जाता है। इससे शरीर के आन्तरिक वातावरण (रुधिर, लसिका व ऊतक द्रव्य) का रासायनिक संघटन, परासरणी दाब की मात्रा आदि का सन्तुलन यथावत् बना रहता है।
प्रश्न 6.
वृक्कों के विभिन्न नियन्त्रक कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वृक्कों के नियन्त्रक कार्य (Regulatory Functions of Kidney)
उत्सर्जी उत्पादों के उत्सर्जन के अतिरिक्त प्राणियों के वृक्क निम्नलिखित नियन्त्रक कार्य भी करते हैं-
1. रुधिर में से आवश्यकता से अधिक और निरर्थक पदार्थों का चयनात्मक उत्सर्जन (selective excretion) करके वृक्क शरीर के भीतरी वातावरण की रासायनिक अखण्डता (समस्थापन – होमियोस्टेसिस) बनाये रखने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।
2. उपापचयी प्रक्रियाओं के फलस्वरूप बने आवश्यकता से अधिक अम्ल व क्षारों का वृक्क चयनात्मक उत्सर्जन करके रुधिर के pH को सामान्य बनाये रखते हैं।
3. हॉर्मोन्स की सहायता से रुधिर तथा ऊतक द्रव्य में जल एवं लवणों की उपयुक्त मात्रा बनाये रखकर वृक्क रुधिर दाब और ऊतक द्रव्यों की परासरणीयता ( osmolarity) का नियन्त्रण करते हैं।
4. शरीर में ऑक्सीजन की कमी (हाइपोक्सिया hypoxia) होने पर वृक्क एक विशेष एन्जाइम एरिथ्रोजेनिन का स्त्रावण करते हैं जो रुधिर में मुक्त होकर उसकी ग्लोब्यूलिन प्रोटीन से मिलकर एरिथ्रोपोयटिन ( erythropoitin) नामक पदार्थ बनाता है, जो अस्थि मज्जा में पहुँचकर अधिकाधिक लाल रुधिर कणिकाओं के निर्माण को प्रेरित करता है, जिससे ये फेफड़ों में वायु से अधिक ऑक्सीजन ग्रहण कर सकें।
5. वृक्क शरीर में परासरण नियन्त्रण द्वारा जल की निश्चित मात्रा को बनाये रखते हैं।
प्रश्न 7.
वृक्क के कार्यों का नियन्त्रण किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
वृक्क के कार्यों का नियन्त्रण-वृक्कों का प्रमुख कार्य मूत्र-निर्माण । मूत्र की मात्रा, सान्द्रता आदि का नियन्त्रण कुछ हॉर्मोन्स द्वारा किया जाता
(1) जल अवशोषण का नियन्त्रण- पीयूष पन्थ (pituitary gland) के पश्च पिण्ड से स्त्रावित ऐन्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (Antidiuretic hormone : ADH) द्वारा वृक्क नलिकाओं में जल अवशोषण का नियन्त्रण किया जाता है। इस प्रकार ADH मूत्र के तनुकरण व सान्द्रण का प्रमुख नियन्त्रक होता है।
(2) सोडियम (Na+) व पोटैशियम (K+) का नियन्त्रण मूत्र में Na+ व K+ लवणों की मात्रा का नियन्त्रण अधिवृक्क ग्रन्थियों (adrenal glands) से स्त्रावित ऐल्डोस्टीरोन (aldosterone) नामक हॉर्मोन द्वारा किया जाता है।
प्रश्न 8.
निम्नलिखित में अन्तर बताइए-
(क) उत्सर्जन तथा बहिष्करण
(ख) परानिस्यंदन तथा चयनात्मक पुनरावशोषण ।
उत्तर:
(क) उत्सर्जन तथा बहिष्करण में अन्तर
उत्सर्जन (Excretion) | बहिष्करण (Egestion) |
1. यह एक कोशिकीय प्रक्रिया है। | 1. यह कोशिकीय क्रिया नहीं है। |
2. इसमें अनेक उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप कई उत्सर्जी पदार्थ बनते हैं जिनका बाद में उत्सर्जन होता है। | 2. इसमें भोजन के पाचन के बाद अपच भाग शेष रह जाता है। इसे मल विसर्जन द्वारा शरीर से बाहर निष्कासित किया जाता है। |
3. उत्सर्जी पदार्थ प्राय: जल में विलेय होते हैं। अतः इनका उत्सर्जन प्राय: जलीय विलयन के रूप में होता है। | 3. प्राय: मल अपच व जटिल कार्बनिक पदार्थ होते हैं जो जल में अविलेय होते हैं। इनका बहिष्करण अर्द्धठोस के रूप में होता है। |
4. फेफड़े, वृक्क व त्वचा उत्सर्जन के मुख्य अंग हैं। | 4. मल का बहिष्करण आहारनाल के अन्तिम भाग गुदा अथवा क्लोएका के द्वारा होता है। |
(ख) परानिस्यंदन तथा चयनात्मक पुनरावशोषण में अन्तर
परानिस्यन्दन (Ultrafiltration) | चयनार्मक पुनरावशोषण (Selective Reabsorption) |
1. यह क्रिया बोमेन सम्पुट तथा केशिकागुच्छ (ग्लोमेरुलस) के मध्य होती है। | 1. यह क्रिया वृक्क नलिका की काय (body) तथा इसके उप लिपटी अपवाही धमनिका की केशिकाओं के मध्य सम्पन्न होती है। |
2. इसमें लाभदायक तथा हानिकारक पदार्थ रुधिर दाब के कारण जल में घुलित अवस्था में केशिकागुच्छ से छनकर बोमेन्स सम्पुट में आ जाते हैं। | 2. इसमें लाभदायक पदार्थ एवं जल ही वृक्क नलिका की काय से पुनः अवशोषित होकर अपवाहीी धमनिका की केशिकाओं में आते हैं। हानिकारक पदार्थों का अवशोषण नहीं होता है तथा रुधिर केशिकाओं से यूरिया व हानिकारक लवण वृक्क नलिकाओं की काय में विसरित हो जाते हैं। |
3. यह क्रिया रुधिर दाब की भिन्नता के कारण होती है। | 3. यह क्रिया रुधिर में जल की कमी के कारण होती है। |
प्रश्न 9.
निम्नलिखित के संक्षिप्त उत्तर दीजिए-
(क) यूरिया का निर्माण किस अंग द्वारा तथा किस पदार्थ से होता है ?
(ख) मूत्रलता या डाइयूरेसिस किसे कहते हैं ?
(ग) यूरीमिया किसे कहते हैं ?
(ब) जक्स्टा ग्लोमेरुलर नलिकाएँ क्या हैं ?
(ङ) परासरण नियन्त्रण को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
(क) यूरिया का निर्माण यकृत में अमीनो अम्लों के डीएमीनेशन की क्रिया से प्राप्त अमोनिया (NH ) तथा CO2 के संयोग से होता है। ये सभी क्रियाएँ जिनके अन्तर्गत यूरिया (NH2.CO.NH2) बनता है, आर्निवीन चक्र कहलाती है।
(ख) मूत्रलता (Diuresis) शरीर में जल की मात्रा बढ़ जाने पर रुधिर, लसीका तथा ऊतक द्रव्य की परासरणीयता कम हो जाती है। इसके कारण वृक्कों से उत्सर्जित मूत्र पतला व अधिक मात्रा में होता है। मूत्र की मात्रा के बढ़ने की क्रिया को मूत्रलता या डाइयूरेसिस कहते हैं। इसे बहुमूत्र रोग भी कहते हैं । इस रोग में बार-बार पेशाब आता है और प्यास भी बहुत लगती है।
(ग) यूरीमिया (Uremia) – वृक्कों की कार्यिकी अव्यवस्थित ( गड़बड़ ) हो जाने पर हमारे रुधिर में यूरिया की मात्रा बढ़ जाती है। इसे ‘यूरीमिया का रोग’ कहते हैं।
(घ) जक्स्टा ग्लोमेरुलर नलिकाएँ (Juxta Glomerular Tubules) – ये वे वृक्क नलिकाएँ होती हैं जिनका हेनले लूप अपेक्षाकृत बहुत लम्बा तथा वृक्क के पेल्विस (pelvis) तक फैला होता है। वृक्क नलिकाओं में लगभग 20-30% जक्स्टा ग्लोमेरुलर वृक्क नलिकाएँ होती हैं।
(ङ) परासरण नियन्त्रण (Osmoregulation) – हॉर्मोन्स की सहायता से रुधिर तथा ऊतक द्रव्य में जल एवं लवणों की उपयुक्त मात्रा बनाये रखकर वृक्क रुधिर दाब और ऊतक द्रव्यों की परासरणीयता का नियन्त्रण करते हैं। इसे ही परासरण नियन्त्रण कहते हैं।
प्रश्न 10.
परासरण नियन्त्रण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
परासरण नियन्त्रण (Osmoregulation) की परिभाषा लघु उत्तरीय प्रश्न 9 (ङ) के उत्तर में देखिए ।
वृक्कों द्वारा परासरण नियन्त्रण (Osmoregulation by Kidneys ) – समस्थापन (Homeostasis) के अन्तर्गत शरीर के तरल को छानने के अतिरिक्त शरीर के जल एवं लवणों की मात्रा का नियन्त्रण भी वृक्कों का एक महत्वपूर्ण कार्य होता है। शरीर में जल की मात्रा अधिक हो जाने पर भूत्र पतला और मात्रा में अधिक हो जाता है।
इसी प्रकार शरीर में जल की कमी हो जाने में पर मूत्र गाढ़ा और मात्रा में कम हो जाता है। मूत्र में ये परिवर्तन दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं और संग्रह नलिकाओं की पारगम्यता के बदलने से सम्भव हो पाते हैं। इसीलिए इन नलिकाओं की पारगम्यता निम्नलिखित दो प्रमुख हॉर्मोन्स द्वारा नियन्त्रित होती है-
(1) एल्डोस्टीरॉन (Aldosterone) हॉमोंन-इसका स्रावण अधिवृक्क ग्रन्थियों ( adrenal glands) से होता है। यह हॉर्मोन दूरस्थ कुण्डलित एवं संग्रह नलिकाओं में बहते हुए निस्यंद से Na+ के पुनरावशोषण को बढ़ाता है जिससे शरीर के अन्तः वातावरण में Na+ की उपयुक्त मात्रा बनी रहती है।
(2) ऐण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (Antidiuretic Hormone ADH ) – इसका स्रावण मस्तिष्क में स्थित पीयूष ग्रन्थि (pituitary gland) द्वारा होता है। यह हॉर्मोन मूत्र के पतलेपन (तनुकरण) या गाढ़ेपन (सान्द्रण) को नियन्त्रित करता है।
प्रश्न 11.
वल्कुटीय वृक्क नलिकाओं एवं जक्स्टा मेड्यूलरी वृक्क नलिकाओं में अन्तर बताइए।
उत्तर:
वल्कुटीय एवं जक्स्टा मेड्यूलरी वृक्क नलिकाओं में अन्तर
वर्कुटीय वृक्क नलिकाएँ (Cortical Nephrons) | जक्स्टा मेड्यूलरी वृक्क नलिकाएँ (Juxta Medullary Nephrons) |
1. ये अपेक्षाकृत छोटी होती हैं। | 1. ये अपेक्षाकृत बड़ी होती हैं। |
2. इनके बोमैन सम्पुट वृक्कों की सतह के समीप स्थित होते हैं। | 2. इनके बोमैन सम्पुट वृक्कों के वल्कलीय (cortical) एवं मध्यांश (medullary) भाग के संगम क्षेत्र पर स्थित होते हैं। |
3. इनके हेनले लूप छोटे एवं वृक्कों के मध्यांश भाग में कुछ ही दूरी तक फैले होते हैं। | 3. इनके हेनले लूप बहुत बड़े एवं वृक्कों के मध्यांश भाग के पिरैमिड्स में पूरी गहराई तक फैले होते हैं। |
4. इनमें रुधिर की आपूर्ति परिनलिका केशिकाओं के द्वारा होती है। | 4. इनमें रुधिर की आपूर्ति वासारेक्टा द्वारा होती है। |
प्रश्न 12.
हीमोडाइलेसिस पर टिप्पणी लिखिए ।
उत्तर:
हीमोडाइलेसिस (Haemodialysis)
वृक्कों के निष्क्रिय होने पर रक्त में यूरिया एकत्रित हो जाता है। इसे यूरिमिया ( uremia) कहते हैं जो कि अत्यन्त हानिकारक है। यह वृक्क पात (kidney failure) के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है। इसके मरीजों में यूरिया का निष्कासन हीमोडाइलेसिस (रक्त अपोहन) द्वारा होता है। इस क्रिया में रोगी की मुख्य धमनी से रक्त निकालकर 0°C पर ठण्डा करते हैं।
अथवा इस रक्त में हिपेरिन (heparin) नामक थक्कारोधी (प्रतिस्कन्दक) मिलाते हैं। तत्पश्चात् इस रक्त को अपोहनकारी इकाई में भेजा जाता है। इस इकाई में एक कुण्डलित सेलोफेन नली होती है और यह ऐसे द्रव से घिरी रहती है, जिसका संगठन नाइट्रोजनी अपशिष्टों को छोड़कर प्लाज्मा के समान होता है।
छिद्र युक्त सेलोफेन झिल्ली से अपोहनी द्रव में अणुओं का आवागमन सान्द्रण प्रवणता के अनुसार होता है। अपोहनी द्रव में नाइट्रोजनी अपशिष्ट अनुपस्थित होते हैं, अतः वे पदार्थ बाहर की ओर गमन करते हैं और रक्त को शुद्ध करते हैं। शुद्ध रक्त में हिपेरिन विरोधी डालकर उसे रोगी की शिराओं द्वारा पुनः शरीर में भेज दिया जाता है। हीमोडाइलेसिस विधि द्वारा यूरिमिया व्याधि से रोगियों का उपचार किया जाता है।
(D) निबन्धात्मक प्रश्न (Long Answer Type Questions )
प्रश्न 1.
उत्सर्जन किसे कहते हैं ? सरल जन्तुओं में उत्सर्जन किस प्रकार होता है ? उत्सर्जन (Excretion)
उत्तर:
प्राणियों के शरीर में होने वाली विभिन्न उपापचयिक क्रियाओं (metabolic activities) के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले हानिकारक पदार्थों, मुख्यतः प्रोटीन के अपचय (catabolism) से उत्पन्न अमोनिया यूरिया, यूरिक अम्ल आदि नाइट्रोजनी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने की जैव-प्रक्रिया को उत्सर्जन (excretion) कहते हैं। शरीर में बनने वाले ऐसे नाइट्रोजनी वर्ज्य व हानिकारक पदार्थों को उत्सर्जी पदार्थ (excretory products) कहते हैं।
इन वर्ज्य पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने वाले अंगों को उत्सर्जी अंग (excretory organs) कहते हैं। उत्सर्जन अंगों को सामूहिक रूप से उत्सर्जन तन्त्र (excretory system) कहते हैं। संक्षेप में- “शरीर के अन्दर प्रोटीन के अपचय के फलस्वरूप उत्पन्न अमोनिया, यूरिया तथा यूरिक अम्ल आदि हानिकारक वर्ज्य पदार्थों को उत्सर्जी अंगों द्वारा शरीर से बाहर त्यागने की प्रक्रिया को उत्सर्जन (excretion) कहते हैं। इस क्रिया से सम्बन्धित अंगों को उत्सर्जन अंग कहते हैं। ”
नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थों का उत्सर्जन (Excretion of Nitrogenous Waste Products):
नाइट्रोजनी वर्ज्य (अपशिष्ट पदार्थ अमोनिया, यूरिया एवं यूरिक अम्ल के रूप में शरीर से बाहर निकलते हैं।
इनके आधार पर जन्तुओं की तीन श्रेणियाँ होती हैं-
1. अमोनियोटेलिक जन्तु (Ammoniotelic Animals) – ये वे जन्तु होते हैं जो अपने शरीर से अमोनिया का उत्सर्जन करते हैं। इस प्रक्रिया को अमोनियोटेलिज्म (ammoniotelism) कहते हैं। अमोनिया जल में घुलनशील होती है, अतः इसे बाहर निकालने के लिए अधिक मात्रा में जल की आवश्यकता होती है। अतः केवल सरल जलीय जन्तु ही अपने जलीय वातावरण में इसका उत्सर्जन करने में समर्थ होते हैं। उदाहरणार्थ – अमीबा, स्पंज, हाइड्रा, जेलीफिश तथा स्वच्छ जलीय मछलियाँ, पोलीकीट कृमि, सेफेलोपोड्स तथा क्रस्टेशियन एवं अन्य मॉलस्क आदि अमोनिया का उत्सर्जन करते हैं।
2. यूरियोटेलिक जन्तु (Ureotelic Animals) – ये वे जन्तु होते हैं जो नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों को यूरिया के रूप में अपने शरीर से बाहर निकालते हैं। इस प्रक्रिया को यूरियोटेलिज्म (ureotelism) कहते हैं। इसमें अपेक्षाकृत कम जल की आवश्यकता होती है। यूरिया अधिक मात्रा में होने पर विषाक्त होता है।
अतः रुधिर में से इसे पृथक् करने के लिए पर्याप्त मात्रा में जल की आवश्यकता होती है। इसीलिए यूरिया के साथ मूत्र के रूप में काफी मात्रा में जल भी बाहर निकलता है। सभी स्तनी, कुछ सरीसृप, (जैसे-मगर, घड़ियाल, कछुआ आदि), कुछ समुद्री मछलियाँ तथा मेंढक व टोड आदि यूरियोटेलिक जन्तुओं के उदाहरण हैं।
3. यूरिकोटेलिक जन्तु (Uricotelic Animals) – ये वे जन्तु होते हैं। जो नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों को यूरिक अम्ल के रूप में अपने शरीर से बाहर निकालते हैं। इस प्रक्रिया को यूरिकोटेलिज्म (uricotelism) कहते हैं। यूरिक अम्ल ठोस या अर्द्ध ठोस के रूप में उत्सर्जी होता है, उदाहरणार्थ- सभी पक्षी कीट, कुछ सरीसृप, जैसे–छिपकली, गिरगिट, स्थलीय साँप आदि यूरिकोटेलिक जन्तु हैं।
रहता सरल जन्तुओं में उत्सर्जन (Excretion in Simple Animals)
एककोशिकीय प्राणियों; जैसे-संघ प्रोटोजोआ के जन्तु और सबसे निम्नकोटि के बहुकोशिकीय जन्तुओं जैसे स्पंज, सीलेन्ट्रेट्स (हाइड्रा, जैलीफिश आदि) में शरीर की प्रत्येक कोशिका का बाहरी जलीय वातावरण से सीधा सम्पर्क है और ये सामान्य विसरण (simple diffusion) द्वारा अपने उत्सर्जी पदार्थों (मुख्यतः अमोनिया) का इस जल में विसर्जन करती रहती हैं।
इन प्राणियों की कोशिकाओं में निरन्तर उपापचय के कारण उत्सर्जी पदार्थों का सान्द्रण बाहर के जलीय वातावरण की अपेक्षा सदैव अधिक रहता है। इसलिए ये पदार्थ सामान्य विसरण द्वारा कोशिकाओं से बाहर निकलते रहते हैं। अलवण जलीय प्रोटोजोआ एवं स्पंजों की कुछ कोशिकाओं में परासरण नियन्त्रण हेतु संकुचनशील रिक्तिकाएँ (contractile vacuoles) होती हैं। उत्सर्जन के लिए इन सरल प्राणियों में कोई विशिष्ट संरचनाएँ नहीं होती हैं।
प्रश्न 2.
मनुष्य के उत्सर्जी तन्त्र का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य का उत्सर्जी तन्त्र (Excretory System of Human)
मनुष्य एवं अन्य उच्च कशेरुकी प्राणियों का उत्सर्जन तन्त्र नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों के निष्कासन तथा परासरण नियमन का कार्य करता है। इसमें निम्नलिखित अंग होते हैं-
- एक जोड़ी वृक्क (Kidneys)
- एक जोड़ी मूत्र वाहनियाँ (Ureters)
- एक मूत्राशय (Urinary Bladder)
- एक मूत्र मार्ग (Urethra)
1. वृक्क या गुर्दे (Kidneys) – मनुष्य में एक जोड़ी वृक्क होते हैं, जो उदर गुहा के पृष्ठभाग में डायाफ्राम के नीचे व कशेरुकदण्ड के इधर-उधर (दायें-बायें) स्थित होते हैं। दाहिनी ओर यकृत (Liver) की उपस्थिति के कारण दाहिना वृक्क बायें वृक्क से कुछ आगे स्थित होता है। दोनों वृक्क एक पतली पेरिटोनियम झिल्ली द्वारा उदरगुहा की पृष्ठ दीवार से लगे होते हैं और वसीय ऊतक के अन्दर धँसे होते हैं।
मनुष्य के वृक्क गहरे लाल रंग के तथा सेम के बीज जैसी आकृति के होते हैं। प्रत्येक वृक्क लगभग 10-11 सेमी लम्बा, 5 सेमी चौड़ा तथा 2.5-3 सेमी मोटा होता है। प्रत्येक वृक्क का बाहरी तल उत्तल (convex) तथा भीतरी तल अवतल (Concave) होता है। अवतल सतह की ओर गड्डे जैसी एक रचना होती है, जिसे वृक्क नाभि या हाइलस (hilus) कहते हैं।
इसी से होकर रीनल धमनी (renal artery) वृक्क में प्रवेश करती है और रीनल शिरा (renal vein) तथा मूत्रवाहिनी (ureter) इसमें से बाहर निकलती है। वृक्क के चारों ओर तन्तुमय संयोजी ऊतक का बना पतला रीनल कैप्सूल (renal capsule) होता है।
2. मूत्रवाहिनियाँ (Ureters) – प्रत्येक वृक्क की नाभि (hilus) से मोटी व पेशीय भित्चि की बनी सँकरी नलिका निकलती है। इसे मूत्वाहिनी (यूरेटर; ureter) कहते हैं। यह नीचे की ओर चलकर झिर्री के समान एक छिद्र द्वारा मूत्राशय में खुलती है। दोनों ओर की मूत्र वाहिनियाँ वृक्कों से मूत्र को लाकर मूत्राशय में पहुँचाती हैं।
3. मूत्राशय (Urinary Bladder) – यह थैले के समान एक पेशीय संरचना है, जिसमें मूत्र का स्थाई रूप से संभह किया जाता है। इसकी भित्ति में तीन स्तर पाए जाते हैं- बाल्य स्तर-पेरीटोनियम का सीरोसा स्तर, मध्य-अरेखित पेशी स्तर तथा आन्तरिक-श्लेष्मिका स्तर। मूत्राशय शंकुरूपी होता है जिसका ऊपरी भाग चौड़ा तथा निचला भाग संकरा होता है।
सँकरा भाग एक छिद्र द्वारा मूत्रोजनन मार्ग (urethra) में खुलता है। इस छिद्र रेखित पेशी की बनी अवरोधनी (sphincter) पायी जाती है। मूत्राशय नर में मलाशय (rectum) के आगे तथा मादा में योनि के ठीक ऊपर पाया जाता है। मूत्राशय में 700-800 मिली मूत्र का संग्रह किया जा सकता है। पक्षियों, सर्पों, घड़ियाल तथा प्रोटोथीरिया वर्ग के जन्तुओं में मूत्राशय का अभाव होता है। परन्तु उड़ानविहीन पक्षी शुतुर्मुर्ग में मूत्राशय पाया जाता है। पक्षियों में मूत्राशय का अभाव इनके उड़ने के लिए अनुकूलन है।
4. मूत्र मार्ग (Urethra) – मूत्राशय की ग्रीवा से एक पतली नलिका निकलती है जिसे मूत्रमार्ग या यूरेश्रा कहते हैं। मूत्रमार्ग द्वारा मूत्र शरीर से बाहर निकलता है। मूत्रमार्ग पर अवरोधनी पेशी (sphincter muscle) उपस्थित होती है जो सामान्यतः मूत्रमार्ग को कसकर बन्द रखती है। मूत्रत्याग के समय अवरोधनी शिथिल हो जाती है, जिससे मूत्र आसानी से बाहर निकल जाता है।
पुरुषों में मूत्रमार्ग लगभग 15 सेमी लम्बा होता है और शिश्न में से होकर गुजरता है। इसमें होकर मूत्र व वीर्य (शुक्ररस जिसमें शुक्राणु उपस्थित होते हैं) दोनों ही बाहर निकलते हैं। स्तियों में मूत्रमार्ग लगभग 4 सेमी लम्बा होता है तथा इसमें केवल मूत्र ही बाहर निकलता है।
नर में मूत्रमार्ग तीन भागों का बना होता है-
- प्रोस्टेट भाग या यूरिध्रल भाग (Prostatic or Urethral Part) – यह 2.5 सेमी लम्बा होता है जो प्रोस्टेट प्रन्थि के मध्य से गुजरता है। इसी भाग में दोनों शुक्रवाहनियाँ खुलती हैं।
- झिल्लीनुमा थाग (Membranous Part) – यह प्रोस्टेट ग्रन्थि एवं शिश्न के मध्य का छोटा भाग होता है।
- शिश्नी भाग (Penile Part) – यह लगभग 15 सेमी लम्बा मार्ग है, जो शिश्न (penis) के कॉर्पस स्पंजियोसम से निकलकर शिश्न मुण्ड के शीर्ष पर बाह्य मत्र छिद्र के रूप में बाहर खुलता है।
प्रश्न 3.
मनुष्य के वृक्क की आन्तरिक संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए। –
उत्तर:
मनुष्य के वृक्क की आन्तरिक संरचना (Internal Structure of Human Kidney)
मनुष्य का प्रत्येक वृक्क या गुर्दा एक दृढ़ तन्तुमय संयोजी ऊतक के बने वृक्क सम्पुट या रीनल कैप्सूल (capsule) से ढँका रहता है। वृक्क की एक अनुलम्ब काट (longitudinal section) में दो भाग स्पष्ट दिखाई देते हैं।
(1) प्रानसस्थ या वल्कीय भाग या वस्कुट (Cortex) -यह वृक्क का बाहरी एवं गहरे लाल रंग का भाग होता है। इसमें वृक्क नलिकाओं या नेफ्रोन्स (uriniferous tubules or nephrons) के मैलपीघी कोष (malpighian capsules) तथा संवलित नलिकाओं के समीपस्थ एवं दुरस्थ भाग स्थित होते हैं।
(2) अन्तस्थ या मध्यांश या मज्जक (medulla) – यह वृक्क का भीतरी व हल्के रंग का भाग होता है। अन्तस्थ का मध्यभाग एक स्पष्ट वृक्क अंकुर (renal papilla) के रूप में वृक्क नाभि (hilum or hilus) की ओर उभरा होता है। प्रान्तस्थ भाग के कुछ छोटे-छोटे एवं सँकरे उभार अन्तस्थ के बाहरी भाग में धँसे रहते हैं। इन्हें बर्टिनी के वृक्क स्तम्भ (renal columns of Bertini) कहते हैं।
इनके कारण अन्तस्थ (medulla) का बाहरी भाग 6-12 शंक्वाकार उभारों के रूप में बँटा-सा दिखाई देता है। जिन्हें पिरामिझ्स (pyramids) कहते हैं। ये पिरामिड्स ही वृक्क नाभि की ओर वृक्क अंकुर (Renal papilla) के रूप में एक कीप जैसे भाग-पेल्विस (Pelvis) में उभरे रहते हैं।
यहीं से मूत्रवाहिनी (ureter) निकलती है। पेल्विस (वृक्क श्रोणि) पिरामिड्स की ओर छोटी-छोटी शाखाओं में बँटी रहती है जिन्हें वृद् कैलिक्स (major calyx) कहते हैं। ये फिर लघु कैलिक्स (minor calyxes) में बँटे रहते हैं। वृक्क अंकुर लघु कैलिक्स के उपर खुलते हैं। मनुष्य के प्रत्येक वृक्क में 10-12 लाख सूक्ष्म, बहुत लम्बी तथा कुण्डलित वृक्क नलिकाएँ या नेक्रॉन्स होती हैं।
ये संयोजी ऊतक में रुधिर वाहनियों, लसीका वाहनियों, तन्त्रिका एवं पेशी तन्तुओं सहित दबी हुई व सटी हुई रहती हैं। ये उत्सर्जन की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाइयाँ होती हैं। प्रत्येक वृक्क नलिका के निम्नलिखित प्रमुख भाग होते हैं-
- मैल्पीघी सम्पुट (Malpighian capsule),
- प्रीवा (Neck),
- समीपस्थ कुण्डलित नलिका,
- हेनले लूप (Henle’s loop),
- दूरस्थ कुण्डलित नलिका,
- संमह नलिका (Collecting duct)।
वृक्क नलिकाओं के मैलपीघी सम्पुट, ग्रीवा, समीपस्थ कुण्डलित नलिका युक्त भाग तो प्रान्तस्थ (cortex) में और इनका हेनले. लूप वाला भाग अन्तस्थ (medulla) में स्थित रहता है।
वृक्क नलिकाएँ (नेक्रॉन्स) भी दो प्रकार की होती हैं-
- वल्कुटीय नेक्रॉन्स (Cortical nephrons) – इनका मैलपीघी सम्पुट प्रान्तस्थ (cortex) में दूर स्थित होता है।
- मध्यांशीय नेक्रॉंस्स (Medullary nephrons) – इनका मैलपीघी सम्पुट अन्तस्थ (medulla) के बहुत ही समीप स्थित होता है।
प्रान्तस्थ और अन्तस्थ के जोड़ पर वृक्क शिरा (renal vein) तथा वृक्क धमनी (renal artery) समान्तर चलती है तथा धमनी से धमनिकाएँ निकलकर केशिका गुच्छ (ग्लोमेरुलस- glomerulus) बनाती हैं तथा वृक्क नलिका के कुण्डलित भाग के चारों ओर केशिका जाल बनाती हैं। ये केशिकाएँ मिलकर शिरिकाएँ बनाती हैं जो अन्त में वृक्क शिरा में खुलती हैं।
प्रश्न 4.
मनुष्य की वृक्क नलिका या नेफ्रोन की संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य की वृक्क नलिका या नेफ्रॉन की संरचना (Structure of Urineferous Tubule or Nephron)
वृक्क नलिकाएँ वृक्क की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई होती हैं। मनुष्य के प्रत्येक वृक्क में लगभग 10-12 लाख सूक्ष्म, बहुत्त लम्बी व कुण्डलित वक्क नलिकाएँ होती हैं। प्रत्येक वृक्क नलिका में निम्नलिखित भाग होते हैं-
(1) मैलपीघी कोष (Malpighian Capsule)-प्रत्येक वृक्क नलिका का अगला स्वतत्र सिरा प्यालेवत् दोहरी दीवार का बना हुआ होता है। इसे बोमेन समपट (Bowman’s capsule) कहते हैं। यह दोही दीवार का बना होता है। बाहरी दीवार शल्की एपिथीलियम की बनी होती है तथा भीतरी दीवार पोडोसाइद्स (podocytes) नामक विशेष प्रकार की कोशिकाओं की बनी होती है।
पोडोसाइट्स से अनेक अंगुलीवत् प्रवर्ध बाहर की ओर निकलकर ग्लोमेरलस की केशिकाओं से लिपटे रहते हैं। केशिकाओं एवं पोड़साइट्स के प्रवर्धों की दीवरों मिलकर महीन ग्लोमेरूलस कला बनाती हैं जिसमें होकर परानिस्यंदन (ultrafiltration) होता है। बोमेन समुट में कोशिका गुच्छ या ग्लोमेरलस (glomerulus) नामक रुधर कोशिकाओं का घना जाल स्थित होता है।
बोमेन सम्युट तथा केशिका गुच्छ को सम्मिलित रूप में मैलपीघी कोष कहते हैं। केशिका गुच्छ में रुधिर अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) द्वारा प्रवेश करता है तथा अपवाही धमनिका (efferent arteriole) द्वारा बाहर निकलता है। अभिवाही धमनिका का व्यास अपवाही धमनिका के व्यास से अधिक होता है, जिसके कारण केशिका गुच्छ में रुधर दाब बढ़ जाता है।
अपवाही धमनिका पुनः वृक्क नलिका के कुण्डलित भाग पर केशिकाओं का जाल बनाती है। जिसे परिनलिका केशिका जालक (peritubular capillary network) कहते हैं। ये केशिकाएँ मिलकर वृक्क शिरा (renal vein) के रूप में बाहर आती हैं।
(2) ग्रीवा (Neck) – बोमेन समुट का निचला भाग पतली नलिका के रूप में होता है जिसे प्रीवा कहते हैं। यह भीतर की ओर रोमाभि उपकला (ciliated epithelium) से स्तरित रहती है तथा निस्यंदन (filtrate) को आगे की ओर प्रवाहित करने में सहायता करती है।
(3) वृक्क नलिका का स्रावी भाग (Secretory Part of nephron)-प्रीवा के पीछे वृक्क नलिका अत्यधिक लम्बी, स्रावी एवं कुण्डलित होती है।
(i) समीपस्थ कुण्डलित नलिका (Proximal convoluted tubule)-यह बोमेन सम्पुट से निकलने वाली छोटी, मोटी एवं कुण्डलित नलिका होती है। आगे की ओर यह पतली और सीधी हो जाती है। यह भाग घनाकार उपकला (cuboidal epithelium) का बना होता है। कोशिकाओं की स्वतन्त्र सतह पर सूक्ष्मांकुर (microvilli) होते हैं। ये समीपस्थ कुण्डलित नलिका को अवशोषण के उपयुक्त बनाते हैं।
(ii) हेनले लूप (Henle’s loop) – समीपस्थ कुण्डलित भाग के बाद वृक्क नलिका का कुछ भाग सीधा और चाप ‘ U ‘ के रूप में होता है। इसे हेनले लूप कहते हैं। इसकी अवरोही नलिका (descending tubule) समीपस्थ कुण्डलित नलिका से मिली रहती है तथा आरोही़ नलिका (ascending tubule) दूरस्थ कुण्डलित नलिका से मिली रहती है।
(iii) दूरस्थ कुष्डलित नलिका (Distal convoluted tubule) – हेनले लूप की आरोही नलिका से मिली हुई यह नलिका भी समीपस्थ कुण्डलित नलिका के समान छोटी-मोटी और कुण्डलित होती है तथा इसी के समीप स्थित रहती है और किसी संग्रह नलिका (collecting duct) में खुलती है।
(4) संग्रह नलिका (Collecting duct) – अनेक वृक्क नलिकाएँ अन्त में संम्रह नलिका में खुलती हैं। संप्रह नलिका वृक्क नलिका का भाग नहीं है। कई संप्रह नलिकाएँ (जो अन्तस्थ के पिरैमिड्स में स्थित होती हैं) एक चौड़ी प्रमुख संम्रह नलिका में खुलती है, जिसे बेलिनी की नलिका (duct of Bellini) कहते हैं। सभी बेलिनी की नलिकाएँ वृक्क अंकुरों के शिखर पर मूत्रवाहिनी (ureter) में खुलती हैं।
वृक्क नलिकाओं (नेफ्रोन) के प्रकार (Kinds of Nephrons)
मनुष्य (तथा अन्य स्तनियों) के वृक्कों में स्थिति, लम्बाई तथा रुधि आपूर्ति में भिन्न दो स्पष्ट प्रकार की वृक्क नलिकाएँ होती हैं-
(1) वल्कलीय या वस्कुटीय वृक्क नलिकाएँ (Cortical nephrons) – इनकी संख्या लगभग 80% होती है। ये अपेक्षाकृत छोटी होती हैं। इनके बोमेन सम्पुट वृक्कों की सतह के अधिक निकट स्थित होते हैं। इनके हेनले के लूप बहुत छोटे और वृक्कों के अन्तस्थ या मज्जक (medullary) भाग के कुछ ही दूर तक फैले होते हैं।
(2) मध्यांशीय वृक्क नलिकाएँ या जक्स्टामेडुलरी नेक्रॉंन (Medullary nephron or Juxtamedullary nephron) – इनकी संख्या लगभग 20% होती है। ये वल्कीय वृक्क नलिकाओं को अपेक्षा बड़ी होती हैं। इनके वोमैन सम्पुट वृक्कों के प्रान्तस्थ या वल्कीय (Cortical) तथा अन्तस्थ या मज्जक (medullary) भागों के संगम क्षेत्र में स्थित होते हैं तथा इनके हेनले लूप बहुत लम्बे और वृक्कों के मज्जक (medullary) भाग के पिरामिडों में लगभग पूरी गहराई तक फैले होते हैं । इनके हेनले लूप के समान्तर एक ‘ U ‘ के आकार की कोशिका होती है, जिसे वासा रेक्टा (vasa recta) कहते हैं। ये कोशिकाएँ जल के पुनरावशोषण में सहायता करती हैं।
प्रश्न 5.
मनुष्य में यूरिया के निर्माण की क्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मूत्र निर्माण (Formation of Urine)
यकृत कोशिकाओं में बने यूरिया को रुधिर द्वारा वृक्कों में लाया जाता है। यकृत से यूरिया युक्त रुधि यकृत शिरा द्वारा पश्च महाशिरा में डाल दिया जाता है। पश्च महाशिरा से यूरिया युक्त रधधर वृक्कों में पहुँचता है। वृक्कों में यूरिया को रुधिर से पृथक् किया जाता है। इसे मूत्र निर्माण कहते हैं। मूत्र निर्माण की क्रिया निम्न चरणों में पूर्ण होती है-
- परानिस्यन्दन (Ultrafiltration),
- वरणात्मक पुनरावशोषण (Selective reabsorption),
- स्रावण (Secretion)।
1. परानिस्यन्दन या अस्ट्राफिल्ट्रेशन (Ultrafiltration) – वृक्क के बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) सूक्ष्म छलनी की भाँति कार्य करते हैं। मनुष्य के ग्लोमेरलस (glomerulus) में लगभग 50 समानान्तर केशिकाएँ पायी जाती हैं। इसमें अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) यूरिया युक्त रुधिर लाती है तथा अपवाही धमनिका (efferent arteriole) इससे रुधिर बाहर ले जाती है।
ग्लोमेरुलस की दीवार में असंख्य छिद्र होते हैं, जिनका व्यास लगभग 0.1µm होता है, इन छिद्रों में से प्लाज्मा में घुले पदार्थ छनकर निकल सकते हैं। छिद्रित दीवार की पारगम्यता (permeability) सामान्य रुधिर केशिकाओं की अपेक्षा 100 से 1000 गुना अधिक होती है। ग्लोमेरूलस में आने वाला रुधिर जितना तेजी से आता है, बाहर जाते समय उतनी तेजी से नहीं जा पाता है।
इसी कारण एक स्वस्थ मनुष्य में ग्लोमेरूलस में आने वाले रुधिर का रुधिर दाब 70mm Hg होता है, जबकि ग्लोमेरुलस से जाते समय रीधर दाब 30mm Hg होता है। इसके फलस्वरूप ग्लोमेरुलस के रुधिर से तरल प्लाज्मा (plasma) व उत्सर्जी पदार्थ बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) की गुहा में पहुँच जाते हैं।
ग्लोमेरूलस से छनकर बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) की गुहा में जाने वाले द्रव को ग्लोमेरलर निस्यन्द (glomerular filtrate) कहते हैं। इसमें रुधिर के जल का 95% भाग, अमीनो अम्ल (amino acids), यूरिया (urea), ग्लूकोस (glucose), यूरिक अम्ल (uric acid), क्रिएटिन (criatine) तथा लवण (salts) होते हैं। बोमेन सम्मुट के नीचे म्रीवा (neck) का भीतरी अस्तर पक्ष्माभी एपिथीलियम का बना होता है। पक्ष्माभों (cilia) की गति से ग्लोमेरलर फिल्ट्रेट तेजी से नलिका में आगे बढ़ता रहता है।
(2) वरणात्पक पुनरावशोषण (Selective Reabsorption) – ग्लोमेरूलर निस्यन्द (Glomerular filtrate) में रुधिर के जल का 95% भाग छनकर आ जाता है परन्तु इसका लगभग 0.8 % भाग ही मूत्र में परिवर्तित होकर बाहर निकलता है। शेष भाग का रुधिर में पुन: अवशोषण हो जाता है। लाभदायक पदार्थों का वृक्क नलिकाओं से पुनः रुधर में पहुँचना वरणात्मक पुनरावशोषण (selective reabsorption) कहलाता है। यह पुन: अवशोषण निम्नानुसार होता है-
(i) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में पुनरावशोषण (Reabsorption in Proximal Convoluted Tubules) – इन कोशिकाओं द्वारा निस्यन्द का लगभग 75% भाग अवशोषित होकर परिनलिका केशिका जाल (peritubular capillary network) के रुधिर में पहुँचता है। जिसके फलस्वरूप ग्लूकोज (glucose), ऐमीनो अम्ल (amino acids), विटामिन (vitamins), अकार्बनिक लवण, जैसे – फॉस्फेट, स्ल्फेट, सोडियम, कैल्सियम, पोटैशियम आदि सक्रिय गमन (active transport) द्वारा पुनः रुधिर में चले जाते हैं, परासरण द्वारा जल भी रुधिर में पहुँचता है।
(ii) हेन्ले के लूप में पुनरावशोषण (Reabsorption in Loop of Henle) – इसके तीन भाग होते हैं-
(अ) अवरोही भुजा (Descending Limb) – लूप का यह भाग मैड्यूला में स्थित होता है जिस कारण यहाँ सोडियम आयन Na+ की अधिकता होती है। इस कारण यहाँ जल का अधिक मात्रा में अवशोषण होता है तथा सोडियम Na+ पोटैशियम K+ तथा क्लोराइड CI– आयनों का अवशोषण कम होता है।
(ब) आरोही भुआ का महीन खण्ड (Thin Segment of Ascending Limb) – यह जल के लिए अपारगम्य, यूरिया के लिए अर्द्धपारगम्य तथा Na+ एवं CI– के लिए पूर्ण पारगम्य होता है।
(स) आरोही भुजा का चौड़ा खण्ड (Thick Segment of Ascending Limb) – इस खण्ड की दीवार मोटी व जल और यूरिया के लिए अपारगम्य होती है। यहाँ Na+ तथा CI– आयनों का सक्रिय अभिगमन द्वारा निस्यन्द से बाहर स्थानान्तरण होता है।
(iii) दूरस्थ कुण्डलित नलिका में पुनरावशोषण (Reabsorption in Distal Convoluted Tubule)-इस भाग में सोडियम आयनों Na+तथा क्लोराइड आयनों CI– का सक्रिय अभिगमन द्वारा अवशोषण होता है।
(3) स्रावण (Secretion)- कुछ हानिकारक पदार्थ, जैसे- रंगा पदार्थ (pigments), कुछ औषधियाँ (drugs), यूरिक अम्ल (uric acid) इत्यादि हानिकारक पदार्थ परानिस्यन्दन (ultrafiltration) द्वारा नहीं छन पाते हैं। हेनले के लूप तथा समीपस्थ एवं दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं की उपकला कोशिकाएँ इन अपशिष्ट पदार्थों को सक्रिय अभिगमन द्वारा वृक्क नलिकाओं (nephrons) की गुहा में मुक्त करती रहती हैं। इस प्रक्रिया को नलिकीय स्रावण (secretion) कहते हैं। संप्राहक नलिका (collecting tubule) के अन्तिम भाग में ग्लोमेरलर निस्यन्द (glomerular filtrate) मूत्र (Urine) कहलाने लगता है।
मूत्र (Urine) – ग्लोमेलुलर निस्यन्द का अवशेष, जो पेल्विस में तथा वहाँ से मूत्रवाहिनी में पहुँचता है, मूत्र (urine) होता है। मूत्र में सामान्यतया 95% जल, 2% अनावश्यक लवण, 2.6% यूरिया, 0.3% क्रिटिनीन, सूक्ष्म मात्रा में यूरिक अम्ल तथा अन्य पदार्थ होते हैं। मूत्र का पीला रंग यूरोक्रोम (urochrome) के कारण होता है। मूत्र हल्का अम्लीय (pH-6) होता है। निम्न ताप पर मूत्र अधिक मात्रा में उत्सर्जित होता है। उच्च ताप, शारीरिक परिश्रम तथा अधिक पसीना आने के कारण मूत्र की मात्रा कम हो जाती है। चाय, कॉफी, ऐल्कोहॉल आदि के प्रभाव से मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है। इन पदार्थों को मूत्रलता (diuretic) कहते हैं।
मूत्र का संगठन
जल | 95% |
अकार्बनिक लवण | 1.5%Na+Mg++K+PO2,Se |
यूरिया | 2.6% |
यूरिक अम्ल | 0.5% |
हिप्यूरिक अम्ल. | 0.5% |
अमोनिया | 0.25% |
क्रिएटिन, क्रिऐटिनिन | 0.5% |
प्रश्न 6.
मनुष्य में मूत्र निर्माण कहाँ होता है ? मूत्र निर्माण का वर्णन कीजिए ।
उत्तर:
मूत्र निर्माण (Formation of Urine)
यकृत कोशिकाओं में बने यूरिया को रुधिर द्वारा वृक्कों में लाया जाता है। यकृत से यूरिया युक्त रुधि यकृत शिरा द्वारा पश्च महाशिरा में डाल दिया जाता है। पश्च महाशिरा से यूरिया युक्त रधधर वृक्कों में पहुँचता है। वृक्कों में यूरिया को रुधिर से पृथक् किया जाता है। इसे मूत्र निर्माण कहते हैं। मूत्र निर्माण की क्रिया निम्न चरणों में पूर्ण होती है-
- परानिस्यन्दन (Ultrafiltration),
- वरणात्मक पुनरावशोषण (Selective reabsorption),
- स्रावण (Secretion)।
(1) परानिस्यन्दन या अस्ट्राफिल्ट्रेशन (Ultrafiltration) – वृक्क के बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) सूक्ष्म छलनी की भाँति कार्य करते हैं। मनुष्य के ग्लोमेरलस (glomerulus) में लगभग 50 समानान्तर केशिकाएँ पायी जाती हैं। इसमें अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) यूरिया युक्त रुधिर लाती है तथा अपवाही धमनिका (efferent arteriole) इससे रुधिर बाहर ले जाती है।
ग्लोमेरुलस की दीवार में असंख्य छिद्र होते हैं, जिनका व्यास लगभग 0.1µm होता है, इन छिद्रों में से प्लाज्मा में घुले पदार्थ छनकर निकल सकते हैं। छिद्रित दीवार की पारगम्यता (permeability) सामान्य रुधिर केशिकाओं की अपेक्षा 100 से 1000 गुना अधिक होती है। ग्लोमेरूलस में आने वाला रुधिर जितना तेजी से आता है, बाहर जाते समय उतनी तेजी से नहीं जा पाता है।
इसी कारण एक स्वस्थ मनुष्य में ग्लोमेरूलस में आने वाले रुधिर का रुधिर दाब 70mm Hg होता है, जबकि ग्लोमेरुलस से जाते समय रीधर दाब 30mm Hg होता है। इसके फलस्वरूप ग्लोमेरुलस के रुधिर से तरल प्लाज्मा (plasma) व उत्सर्जी पदार्थ बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) की गुहा में पहुँच जाते हैं।
ग्लोमेरूलस से छनकर बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) की गुहा में जाने वाले द्रव को ग्लोमेरलर निस्यन्द (glomerular filtrate) कहते हैं। इसमें रुधिर के जल का 95% भाग, अमीनो अम्ल (amino acids), यूरिया (urea), ग्लूकोस (glucose), यूरिक अम्ल (uric acid), क्रिएटिन (criatine) तथा लवण (salts) होते हैं। बोमेन सम्मुट के नीचे म्रीवा (neck) का भीतरी अस्तर पक्ष्माभी एपिथीलियम का बना होता है। पक्ष्माभों (cilia) की गति से ग्लोमेरलर फिल्ट्रेट तेजी से नलिका में आगे बढ़ता रहता है।
(2) वरणात्पक पुनरावशोषण (Selective Reabsorption) – ग्लोमेरूलर निस्यन्द (Glomerular filtrate) में रुधिर के जल का 95% भाग छनकर आ जाता है परन्तु इसका लगभग 0.8 % भाग ही मूत्र में परिवर्तित होकर बाहर निकलता है। शेष भाग का रुधिर में पुन: अवशोषण हो जाता है। लाभदायक पदार्थों का वृक्क नलिकाओं से पुनः रुधर में पहुँचना वरणात्मक पुनरावशोषण (selective reabsorption) कहलाता है। यह पुन: अवशोषण निम्नानुसार होता है-
(i) समीपस्थ कुण्डलित नलिका में पुनरावशोषण (Reabsorption in Proximal Convoluted Tubules) – इन कोशिकाओं द्वारा निस्यन्द का लगभग 75% भाग अवशोषित होकर परिनलिका केशिका जाल (peritubular capillary network) के रुधिर में पहुँचता है। जिसके फलस्वरूप ग्लूकोज (glucose), ऐमीनो अम्ल (amino acids), विटामिन (vitamins), अकार्बनिक लवण, जैसे – फॉस्फेट, स्ल्फेट, सोडियम, कैल्सियम, पोटैशियम आदि सक्रिय गमन (active transport) द्वारा पुनः रुधिर में चले जाते हैं, परासरण द्वारा जल भी रुधिर में पहुँचता है।
(ii) हेन्ले के लूप में पुनरावशोषण (Reabsorption in Loop of Henle) – इसके तीन भाग होते हैं-
(अ) अवरोही भुजा (Descending Limb) – लूप का यह भाग मैड्यूला में स्थित होता है जिस कारण यहाँ सोडियम आयन Na+ की अधिकता होती है। इस कारण यहाँ जल का अधिक मात्रा में अवशोषण होता है तथा सोडियम Na+ पोटैशियम K+ तथा क्लोराइड CI– आयनों का अवशोषण कम होता है।
(ब) आरोही भुआ का महीन खण्ड (Thin Segment of Ascending Limb) – यह जल के लिए अपारगम्य, यूरिया के लिए अर्द्धपारगम्य तथा Na+ एवं CI– के लिए पूर्ण पारगम्य होता है।
(स) आरोही भुजा का चौड़ा खण्ड (Thick Segment of Ascending Limb) – इस खण्ड की दीवार मोटी व जल और यूरिया के लिए अपारगम्य होती है। यहाँ Na+ तथा CI– आयनों का सक्रिय अभिगमन द्वारा निस्यन्द से बाहर स्थानान्तरण होता है।
(iii) दूरस्थ कुण्डलित नलिका में पुनरावशोषण (Reabsorption in Distal Convoluted Tubule)-इस भाग में सोडियम आयनों Na+ तथा क्लोराइड आयनों CI– का सक्रिय अभिगमन द्वारा अवशोषण होता है।
(3) स्रावण (Secretion)- कुछ हानिकारक पदार्थ, जैसे- रंगा पदार्थ (pigments), कुछ औषधियाँ (drugs), यूरिक अम्ल (uric acid) इत्यादि हानिकारक पदार्थ परानिस्यन्दन (ultrafiltration) द्वारा नहीं छन पाते हैं। हेनले के लूप तथा समीपस्थ एवं दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं की उपकला कोशिकाएँ इन अपशिष्ट पदार्थों को सक्रिय अभिगमन द्वारा वृक्क नलिकाओं (nephrons) की गुहा में मुक्त करती रहती हैं। इस प्रक्रिया को नलिकीय स्रावण (secretion) कहते हैं। संप्राहक नलिका (collecting tubule) के अन्तिम भाग में ग्लोमेरलर निस्यन्द (glomerular filtrate) मूत्र (Urine) कहलाने लगता है।
मूत्र (Urine) – ग्लोमेलुलर निस्यन्द का अवशेष, जो पेल्विस में तथा वहाँ से मूत्रवाहिनी में पहुँचता है, मूत्र (urine) होता है। मूत्र में सामान्यतया 95% जल, 2% अनावश्यक लवण, 2.6% यूरिया, 0.3% क्रिटिनीन, सूक्ष्म मात्रा में यूरिक अम्ल तथा अन्य पदार्थ होते हैं। मूत्र का पीला रंग यूरोक्रोम (urochrome) के कारण होता है। मूत्र हल्का अम्लीय (pH-6) होता है।
निम्न ताप पर मूत्र अधिक मात्रा में उत्सर्जित होता है। उच्च ताप, शारीरिक परिश्रम तथा अधिक पसीना आने के कारण मूत्र की मात्रा कम हो जाती है। चाय, कॉफी, ऐल्कोहॉल आदि के प्रभाव से मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है। इन पदार्थों को मूत्रलता (diuretic) कहते हैं।
प्रश्न 7.
मानव में उत्सर्जन से सम्बन्धित प्रमुख क्रिया रोगों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर:
उत्सर्जन सम्बन्धी रोग (Disorders Related to Excretion)
मानव में उत्सर्जन क्रिया में अनियमितता होने पर कई रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं-
- यूरेमिया (Uremia) – जब रक्त में यूरिया की मात्रा सामान्य मात्रा (10-30) mg प्रति 100 ml से अधिक हो जाती है तो यह स्थिति यूरेमिया (uremia) कहलाती है।
- गॉड्ट (Gout) – यह एक आनुवंशिक रोग होता है जिसमें रक्त में यूरिक अम्ल (uric acid) की मात्रा अधिक हो जाती है तथा यह सन्धियों (joints) तथा वृक्क ऊतकों (kidney tissues) में जमा हो जाता है।
- वृक्क पथरी (Kidney stones) – सामान्यतः वृक्क श्रोणि (renal pelvis) में यूरिक अम्ल के क्रिस्टल, कैल्सियम के ऑक्सलेट्स, फॉस्फेट लवण इत्यादि पथरी के रूप में जमा हो जाते हैं जिसमें रोगी को दर्द या मूत्र त्याग में बाधा उत्पन्न होती है।
- बाइट का रोग अधवा नेक्रिटिस (Bright’s Disease or Nephritis) – इस रोग में ग्लोमेरुलस में जीवाणु संक्रमण (bacterial infection) के कारण ग्लोमेरूलस में सूजन आ जाती है जिस कारण लाल रक्ताणु तथा प्रोटीन थी छनकर निस्यन्द (filtrate) में आ जाते हैं।
- ग्लाइकोसूरिया (Glycosuria)-मूत्र (urine) में शर्करा (glucose) की उपस्थिति एवं उत्सर्जन ग्लाइकोसूरिया (glycosuria) कहलाता है। यह रोग इन्सुलिन हॉर्मोन (insuline hormone) की कमी से उत्पन्न होता है।
- डिसयूरिया (Disurea) – मूत्र त्याग के समय दर्द की अवस्था डिसयूरिया कहलाती है।
- पोलीयूरिया (Polyurea) – वृक्क नलिकाओं (nephrons) द्वारा पुन: अवशोषण (Re-absorption) में कमी आने या न होने से मूत्र के आयतन के बढ़ने की अवस्था पोलीयूरिया (polyurea) कहलाती है।
- सिस्टिटि (Cystitis) – मूत्राशय (Urinay bladder) में सूजन आ जाने से यह रोग उत्पन्न होता है।
- डायबिटीज इन्सिपिड्स (Diabetes Insipidus) – पीयूष ग्रन्थि (pituitary gland) द्वारा स्नावित एण्टीडाइयूरेटिक हॉर्मोन (ADH) के कम स्नावण के कारण दूरस्थ कुण्डलित नलिका (distal convoluted tubules) एवं संयाहक नलिका (collecting tubule) में जल के अवशोषण में कमी आती है जिस कारण रोगी बार-बार अधिक मात्रा में मूत्र त्याग करता है।
- ओलीगोयूरिया (Oligouria) – मूत्र (urine) की बहुत कम मात्रा के निर्माण होने से यह रोग उत्पन्न होता है।
- प्रोटीन्यूरिया (Proteinuria) – मूत्र में प्रोटीन की मात्रा का सामान्य से अधिक होना प्रोटीन्यूरिया कहते हैं।
- एल्ब्यूमिनयूरिया (Albuminuria) – नेफ्रोन के ग्लोमेरूलस में सूजन के कारण अल्ट्रा छिद्रों (ultra pore) का व्यास बढ़ जाता है जिसे नेक्राइटिस (Nephritis) कहते हैं। इस रोग के कारण मूत्र में एल्ब्यूमिन प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है।
- कीटोन्यूरिया (Ketonuria) – मूत्र में कीटोनकाय जैसे ऐसीटिक अम्ल आदि की मात्रा का बढ़ना कीटोन्यूरिया कहलाती है।
- हीमेटोयूरिया-मूत्र के साथ लाल रक्त कणिकाओं (RBC) का निष्कासित होना हीमेटोयूरिया कहलाता है।
- हीमोग्लोबिनयूरिया (Haemoglobinuria) – मूत्र में हीमोग्लोबिन की उपस्थिति हीमोग्लोबिनयूरिया कहलाती है।
- पाइयूरिया (Pyuria) – मूत्र में मवाद कोशिकाओं (pus cells) का पाया जाना पाइयूरिया कहलाती है।
- पीलिया (Jaundice) – मूत्र में पित्त वर्णकों का अस्यधिक मात्रा में पाया जाना पीलिया कहलाता है। यह प्रायः हिपेटाइटिस या पित्त नलिका में रुकावट के समय दिखाई देता है।
- एल्कैप्टोन्यूरिया (Alcaptonuria) – मूत्र में एल्कैप्टोन या होमोजेन्टीसिक अम्ल का पाया जाना एल्कैप्टोन्यूरिया कहलाता है। जब एल्कैप्टोन वायु के सम्पर्क है तो मूत्र काले रंग का दिखाई देता है।
प्रश्न 8.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-
(अ) अपोहन
(ब) परानिस्यंदन
(स) चयनात्मक पुनः अवशोषण
(द) जक्स्टा ग्लोमेरुलर उपकरण ।
उत्तर:
(अ) अपोहन
अपाहन या हामाडाइालासस (Haemodialysis)
वृक्कों के निक्क्रिय होने पर रक्त में यूरिया एकत्रित हो जाता है। इसे यूरिनिया (urenia) कहते हैं जो कि अत्यन्त हानिकारक है। यह वृक्क-पात (kidney failure) के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है। इसके मरीजों में यूरिया का निष्कासन हीमोडाइलिसिस (रक्त अपोहन) द्वारा होता है। इस क्रिया में रोगी की मुख्य धमनी से रक्त निकालकर 0° पर उण्डा करते हैं।
अथवा इस रक्त में हिपेरिन (heparin) नामक थक्कारोधी (प्रतिस्कन्दक) मिलाते हैं। तत्पश्चात् इस रक्त को अपोहनकारी इकाई में भेजा जाता है। इस इकाई में एक कुण्डलित सेलोफेन नली होती है और यह ऐसे द्रव से घिरी रहती है, जिसका संगठन नाइट्रोजनी अपशिष्टों को छोड़कर प्लाज्मा के समान होता है।
छिद्र युक्त सेलोफेन झिल्ली से अपोहनी द्रव में अणुओं का आवागमन सान्द्रण प्रवणता के अनुसार होता है। अपोहनी द्रव में नाइट्रोजनी अपशिष्ट अनुपस्थित होते हैं, अतः वे पदार्थ बाहर की ओर गमन करते हैं और रक्त को शुद्ध करते हैं। शुद्ध रक्त में हिपेरिन विरोधी डालकर, उसे रोगी की शिराओं द्वारा पुनः शरीर में भेज दिया जाता है। हीमोडाइलिसिस विधि द्वारा यूरिमिया व्याधि से रोगियों का उपचार किया जाता है।
(ब) परानिस्यंदन
(1) परानिस्यन्दन या अल्ट्राफिल्ट्रेशन (Ultrafiltration) – वृक्क के बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) सूक्ष्म छलनी की भाँति कार्य करते हैं। मनुष्य के ग्लोमेरूलस (glomerulus) में लगभग 50 समानान्तर केशिकाएँ पायी जाती हैं। इसमें अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) यूरिया युक्त रुधिर लाती है तथा अपवाही धमनिका (efferent arteriole) इससे रुधिर बाहर ले जाती है। ग्लोमेरुलस की दीवार में असंख्य छिद्र होते हैं, जिनका व्यास लगभग 0.1 µm होता है, इन छिद्रों में से प्लाज्मा में घुले पदार्थ छनकर निकल सकते हैं।
छिद्रित दीवार की पारगम्यता (permeability) सामान्य रुधिर केशिकाओं की अपेक्षा 100 से 1000 गुना अधिक होती है। ग्लोमेरुलस में आने वाला रुधिर जितना तेजी से आता है, बाहर जाते समय उतनी तेजी से नहीं जा पाता है। इसी कारण एक स्वस्थ मनुष्य में ग्लोमेरुलस में आने वाले रुधिर का रुधिर दाब 70 mm Hg होता है, जबकि ग्लोमेरुलस से जाते समय रुधर दाब 30mm = Hg होता है।
इसके फलस्वरूप ग्लोमेरुलस के रुधिर से तरल प्लाज्मा (plasma) व उत्सर्जी पदार्थ बोमेन सम्पट (Bowman’s capsule) की गुहा में पहुँच जाते हैं। ग्लोमेरलस से छनकर बोमेन सम्पुट (Bowman’s capsule) की गुहा में जाने वाले द्रव को ग्लोमेरेलर निस्यन्द (glomerular filtrate) कहते हैं।
इसमें रुधिर के जल का 95% भाग, अमीनो अम्ल (amino acids), यूरिया (urea), ग्लूकोस (glucose), यूरिक अम्ल (uric acid), क्रिएटिन (criatine) तथा लवण (salts) होते हैं। बोमेन सम्मुट के नीचे प्रीवा (neck) का भीतरी अस्तर पक्ष्माभी एपिथीलियम का बना होता है। पक्ष्माभों (cilia) की गति से ग्लोमेरुलर फिल्टेट तेजी से नलिका में आगे बढ़ा रहता है।
(स) चयनात्मक पुनः अवशोषण
वरणात्भक पुनरावशोषण (Selective Reabsorption) – ग्लोमेरुलर निस्यन्द (Glomerular filtrate) में रुधिर के जल का 95% भाग छनकर आ जाता है परन्तु इसका लगभग 0.8% भाग ही मूत्र में परिवर्तित होकर बाहर निकलता है। शेष भाग का रुधिर में पुन: अवशोषण हो जाता है। लाभदायक पदार्थों (र)। यह पन: अवशोषण निम्नानुसार होता है-
(द) जक्स्टा ग्लोमेरुलर उपकरण ।
(ii) सानिध्य मध्यांश वृक्काणु या जक्स्ता मैड्यूलरी नेक्रान्स (Juxta medullary nephrons)
ये कुल नेक्रॉन्स का5-35% होते हैं। ये वृक्क में कार्टेक्स व मेड्यूला के मिलने के स्थान पर पाए जाते हैं। इनके हेनले के लूप लम्बे होते हैं जोकि वृक्क अंकुर (renal papilla) तक फैले होते हैं। इनकी परिनलिका केशिका जाल आलपिन की नोंक जैसा लूप बनाता है जिसे वासा रेक्टा (vasa recta) या
रीटी माइेबिल (rete Mirabile) कहते हैं। इसमें बोमेन सम्पुट, आरोही भुजा तथा अभिवाही व अपवाही धमनिका में विशिष्ट कोशिकाएँ पायी जाती हैं, जिन्हें क्रमशः पोल्कीसन कोशिका (polkisson cells), मैक्युला डेस्सा (macula densa) तथा जक्स्टा म्लोमेरललर कोशिका (Juxta-Glomerular cells) कहते हैं। ये तीनों प्रकार की कोशिकाएँ मिलकर जक्स्टा-ग्लोमेुलर समिश्र (Juxta-glomerular apparatus) बनाते हैं। ये अन्त्रान्रावी प्रन्थि की भाँति कार्य कर वृक्क हामोंन रेनिन का स्रावण करते हैं।
वृक्कों में गुच्छ निस्यंदन की दर के नियमन के लिए गुच्छीय आसन्न उपकरण या जक्स्टा ग्लोमेरुलर समिश्र पाया जाता है जो अभिवाही व अपवाही धमनिकाओं के दूरस्थ कुण्डलित नलिका की केशिकाओं के रूपान्तरण से बनता है। इसी के सक्रियण से रेनिन का स्रावण होता है। रेनिन मून्र के सान्द्रण तथा गुच्छ निस्यंदन को नियन्त्रित करता है।