Class 11

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

HBSE 11th Class Political Science विधायिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
आलोक मानता है कि किसी देश को कारगर सरकार की जरूरत होती है जो जनता की भलाई करे। अतः यदि हम सीधे-सीधे अपना प्रधानमंत्री और मंत्रिगण चुन लें और शासन का काम उन पर छोड़ दें, तो हमें विधायिका की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर:
आलोक का उक्त विचार उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि सीधे-सीधे प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल चुनने से शासन का संचालन जनहित की अपेक्षा स्वहित के लिए होगा। शासक वर्ग निरंकुश हो जाएगा। इसलिए विधायिका का होना अत्यंत जरूरी है। विधायिका ही कार्यपालिका को नियंत्रित करती है और उसके अनुचित एवं मनमाने कार्यों की आलोचना करती है। विधायिका के ऐसे नियन्त्रण से ही कार्यपालिका जन-कल्याण के कार्य करने के लिए बाध्य होती है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 2.
किसी कक्षा में द्वि-सदनीय प्रणाली के गुणों पर बहस चल रही थी। चर्चा में निम्नलिखित बातें उभरकर सामने आयीं। इन तर्कों को पढ़िए और इनसे अपनी सहमति-असहमति के कारण बताइए।
(क) नेहा ने कहा कि द्वि-सदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता।
(ख) शमा का तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए।
(ग) त्रिदेव ने कहा कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती।
उत्तर:
(क) मैं नेहा के तर्क पर असहमति व्यक्त करता हूँ क्योंकि नेहा के अनुसार द्वि-सदनीय व्यवस्था से कोई उद्देश्य नहीं सधता, जबकि ऐसा नहीं है। किसी भी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में द्वितीय सदन की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए विश्व में केवल सभ्यवादी देशों को छोड़कर सभी जगह द्वि-सदनीय विधानमंडल ही पाया जाता है। भारत में द्वि-सदनीय विधानमंडल की व्यवस्था को अपनाया गया है जिसके द्वारा दूसरा सदन प्रथम सदन के मनमाने निर्णय लेने पर अंकुश लगाता है वहाँ निर्विवाद बिलों पर पहले विचार-विमर्श कर प्रथम सदन के समय को भी बचाता है। अतः द्वि-सदनीय प्रणाली अपने उद्देश्य में सफल हो जाती है।

(ख) मैं शमा के तर्क पर सहमति व्यक्त करते हुए यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि दूसरे सदन में मनोनयन की प्रणाली सही है जैसे कि भारत में ऐसी व्यवस्था है। राष्ट्रपति उन 12 सदस्यों को राज्यसभा में मनोनीत करते हैं, जिन्हें कला, विज्ञान, साहित्य और समाज सेवा के क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त होती है। ये मनोनीत सदस्य विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञ होने के कारण संसद में विशेष क्षेत्रों सम्बन्धी नीति-निर्माण करवाने में अपने-अपने अनुभवों एवं ज्ञान के माध्यम से विशेष योगदान दे सकते हैं।

(ग) त्रिदेव के अनुसार संघीय शासन में ही द्वितीय सदन की आवश्यकता होती है अन्यथा यह निरर्थक है। यह तर्क उचित प्रतीत होता है। साधारणतः संघीय व्यवस्था वाले राज्यों में द्वितीय सदन संघ की इकाइयों (प्रदेशों) का प्रतिनिधित्व करता है। यद्यपि गैर-संघात्मक देशों में भी द्वितीय सदन पाया जाता है। परन्तु यह प्रथम सदन की अपेक्षा कमजोर होता है।

यह जनहित के लिए कोई भी कार्य नहीं करता। हालाँकि कानून निर्माण में इसकी भी भूमिका होती है। कोई भी विधेयक इसकी स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। परन्तु उस विधेयक पर इसका निर्णय अंतिम नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त धन विधेयक पर इसकी स्वीकृति औपचारिक मात्र ही होती है। साधारण विधेयक को यह सदन 6 माह से अधिक नहीं रोक सकता है। इस प्रकार गैर-संघात्मक राज्यों में द्वितीय अनावश्यक कार्य में विलम्ब एवं शक्तिहीन प्रतीत होता है।

प्रश्न 3.
लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में क्यों कारगर ढंग से नियंत्रण में रख सकती है?
उत्तर:
लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में इसलिए अधिक कारगर ढंग से नियंत्रित करती है, क्योंकि कार्यपालिका संघीय विधायिका के निम्न सदन लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है और लोकसभा में जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होने के कारण लोकसभा को जनता के प्रति भी उत्तरदायी माना जाता है। इसके अतिरिक्त लोकसभा में बहुमत दल का नेता प्रधानमंत्री होता है। प्रधानमंत्री ही राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद् की नियुक्ति करता है।

मंत्रिपरिषद् में भी लोकसभा के ही सदस्य होते हैं। परन्तु, फिर भी मंत्रिपरिषद् को अपने प्रत्येक कार्य एवं निर्णय के लिए लोकसभा को विश्वास में लेना आवश्यक है। यदि लोकसभा मंत्रिपरिषद् के किसी निर्णय के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव बहुमत से पास कर दे तो उसे अपना त्यागपत्र देना पड़ता है जबकि राज्यसभा को ऐसा अविश्वास प्रस्ताव पारित करने का अधिकार नहीं होता। इसलिए यह कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में अधिक आसानी से नियंत्रित कर लेता है।

प्रश्न 4.
लोकसभा कार्यपालिका पर कारगर ढंग से नियंत्रण रखने की नहीं बल्कि जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है। क्या आप इससे सहमत हैं? कारण बताएँ।
उत्तर:
हाँ, निश्चित रूप से मैं लोकसभा को ऐसा मंच मानता हूँ जहाँ जनभावनाओं का सम्मान किया जाता है और उसकी । इच्छा के अनुरूप कार्य किया जाता है, क्योंकि लोकसभा वास्तविक रूप से जनता की ही सभा है। जनता यहाँ अपने प्रतिनिधियों को निर्वाचित करके भेजती है। ये प्रतिनिधि जन-अभिव्यक्ति के साधन होते हैं अर्थात् यह न केवल कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है बल्कि जन-सामान्य के कल्याण एवं विकास के लिए भी सदैव तत्पर रहती है। इस तरह लोकसभा को एक विचारशील मंच भी कहा जाता है, जिसमें जनहितों से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर विचार-विमर्श कर नीतियों का निर्माण किया जाता है।

प्रश्न 5.
नीचे संसद को ज़्यादा कारगर बनाने के कुछ प्रस्ताव लिखे जा रहे हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ अपनी सहमति या असहमति का उल्लेख करें। यह भी बताएँ कि इन सुझावों को मानने के क्या प्रभाव होंगे?
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज़्यादा समय तक काम करना चाहिए।
(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।
(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दंडित कर सकें।
उत्तर:
(क) संसद को अपेक्षाकृत अधिक समय तक काम करना चाहिए। इस पर सहमति व्यक्त की जा सकती है। वर्तमान में यदि देखा जाए तो संसद की बैठकों की अवधि का कार्य दिवस निरन्तर कम होता जा रहा है। संसद की बैठकों का अधिकांश समय धरने, बहिष्कार, सदन की कार्यवाही को स्थगित करने में ही निकल जाता है, जबकि महत्त्वपूर्ण निर्णयों पर पर्याप्त विचार-विमर्श ही नहीं हो पाता और महत्त्वपूर्ण विधेयक भी बिना बहस के ही पास हो जाता है। इसलिए यदि संसद की कार्य अवधि को हम बढ़ाएंगे तो सदन में पर्याप्त संघ से जनहित के मुद्दों पर विचार-विमर्श होगा एवं कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता पर भी अंकुश लगेगा।

(ख) दूसरे तर्क पर सहमति व्यक्त करते हुए यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि सांसद की उपस्थिति अनिवार्य करनी चाहिए, क्योंकि जनता अपना बहुमूल्य मत देकर इन्हें देश एवं अपने हितों की रक्षा करने के लिए निर्वाचित कर संसद में भेजती है। वास्तव में जनप्रतिनिधियों की सक्रिय भागीदारी से ही उत्तरदायी शासन की स्थापना की जा सकती है।

(ग) तीसरे कथन के सन्दर्भ में यह कहने में कोई आपत्ति नहीं कि लोकसभा के स्पीकर को यह अधिकार होना चाहिए कि वह सदन में व्यवधान उत्पन्न करने वाले सदस्य को दंडित करे। स्पीकर का कार्य होता है कि वह सदन में शांति स्थापित करे, परंतु आजकल जिस तरह लोकसभा में सांसद अनुचित एवं असंसदीय आचरण करते हैं और सदन की कार्यव हैं, इससे संसद सत्र का बहुमूल्य समय नष्ट होता है। यदि स्पीकर को यह अधिकार देने से संसद निःसंदेह सदस्य अनुचित व्यवहार करने से डरेंगे और सदन में भी अनुशासन के साथ कार्यवाही का संचालन सम्भव हो सकेगा।।

प्रश्न 6.
आरिफ यह जानना चाहता था कि अगर मंत्री ही अधिकांश महत्त्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत करते हैं और बहुसंख्यक दल अकसर सरकारी विधेयक को पारित कर देता है, तो फिर कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की भूमिका क्या है? आप आरिफ को क्या उत्तर देंगे?
उत्तर:
आरिफ के प्रश्न के उत्तर में मैं यह कह सकता हूँ कि कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। धन विधेयक को छोड़कर शेष विधेयक किसी भी सदन में पेश किए जा सकते हैं। यह एक सदन से पारित होने के उपरांत दूसरे सदन में जाता है। इस संदर्भ में स्पष्टता हेतु यह उल्लेखनीय है कि प्रत्येक सदन में किसी विधेयक को विभिन्न अवस्थाओं या चरणों से पास होना पड़ता है;

जैसे प्रथम वाचन, द्वितीय वाचन, तृतीय वाचन, समिति स्तर, रिपोर्ट स्तर। इन सभी अवस्थाओं/चरणों से पास होने के बाद विधेयक अंतिम स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास जाता है। राष्ट्रपति भी संसद का अभिन्न अंग होता है जिनकी स्वीकृति मिलने पर पारित विधेयक कानून का रूप ले लेता है। इस प्रकार विधि निर्माण में संसद की भूमिका पर अंगुली उठाने का कोई औचित्य नज़र नहीं आता। वास्तव में कानून निर्माण में संसद की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है।

प्रश्न 7.
आप निम्नलिखित में से किस कथन से सबसे ज्यादा सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण दें।
(क) सांसद/विधायकों को अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट होनी चाहिए।
(ख) दलबदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी के सांसद विधायकों पर बढ़ा है।
(ग) दलबदल हमेशा स्वार्थ के लिए होता है और इस कारण जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री-पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।
उत्तर:
(क) सांसद विधायकों को किसी दल के चुनाव चिह्न पर या निर्दलीय निर्वाचित होने पर अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट नहीं होनी चाहिए, क्योंकि ऐसी छूट देने से राजनीतिक अस्थिरता बनी रहेगी। जिन सांसदों या विधायकों को जिस दल में अपना स्वार्थ सिद्ध होता या भविष्य सुनहरा होता नज़र आएगा, वे उसी दल में शामिल हो जाएँगे, जैसा कि आजकल हो रहा है। इसके परिणामस्वरूप न केवल राजनीतिक मूल्यों का ह्रास होगा बल्कि अस्थाई एवं दुर्बल सरकार का निर्माण होगा। ऐसी स्थिति निश्चित ही लोकसभा के प्रति एक प्रश्न चिह्न लगाएगी।

(ख) दलबदल विरोधी कानून के अस्तित्व में आने के बाद भी इस दलबदल की राजनीति पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। है क्योंकि अब दलबदल सामूहिक रूप से बढ़ा है। हाँ, इससे नेताओं का दबदबा अवश्य बढ़ा है। इन्हें अपने नेता द्वारा जारी किए गए आदेश को मानना पड़ता है अन्यथा दलबदल कानून के अंतर्गत उनकी सदस्यता समाप्ति की कार्यवाही की जा सकती है।

(ग) तीसरे कथन से मैं सबसे अधिक सहमत हूँ, क्योंकि इस कथन के अनुसार दलबदल करने पर किसी सांसद या विधायक को मंत्री-पद के आयोग्य घोषित करने से इस प्रथा पर कुछ हद तक रोक लगेगी। जैसा कि प्रायः देखने में आता है कि अधिकतर दलबदल सरकार बनाने या सरकार में शामिल होने के लिए होते हैं। दलबदल की प्रक्रिया पूरी करने हेतु सांसद या विधायक को मंत्री-पद का प्रलोभन दिया जाता है। अतः इस दलबदल की बुराई को रोकने के लिए इस प्रकार का प्रावधान प्रभावी सिद्ध हो सकता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 8.
डॉली और सुधा में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि मौजूदा वक्त में संसद कितनी कारगर और प्रभावकारी है। डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिर्गमन) करने में ज़्यादा। सुधा का तर्क था कि लोकसभा में अलग-अलग सरकारों ने मुँह की खायी है, धराशायी हुई है। आप सुधा या डॉली के तर्क के पक्ष या विपक्ष में और कौन-सा तर्क देंगे?
उत्तर:
भारत में पिछले कुछ वर्षों में संसद में जिस तरह अप्रिय घटनाएँ एवं असंसदीय व्यवहार हो रहा है, उससे तो यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि संसद का बहुमूल्य समय नष्ट हो रहा है। इसलिए इस बात में कोई दोराय नहीं है कि हाल ही के दिनों में संसद की कार्यकुशलता एवं क्षमता पर प्रश्न-चिह्न लगा है, यद्यपि ऐसा कुछ सदस्य ही करते हैं। उस संदर्भ में डॉली का तर्क उचित नहीं है। संसद के अधिकांश सदस्य सदन में उचित रूप से कार्य करते हैं। सदन तो वाद-विवाद का मंच है। यहाँ सभी सदस्य अपने विचारों एवं तर्कों को रखते हैं, जिन पर बहस होती है। संसद देश की कानून बनाने की सर्वोच्च संस्था है। इसी कार्य से संसद की गरिमा बनी रहेगी और देश का विकास भी होगा।

प्रश्न 9.
किसी विधेयक को कानून बनने के क्रम में जिन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है उन्हें क्रमवार सजाएँ।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है बताएँ कि वह अगर इस पर हस्ताक्षर नहीं करता/करती है, तो क्या होता है?
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(घ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है – समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(छ) संबद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि-मंत्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।
उत्तर:
किसी विधेयक को कानून बनाने के लिए निम्नलिखित क्रम से विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है

(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।

(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। इस पर राष्ट्रपति की स्वीकृति अति आवश्यक है। कोई विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद ही कानून बनता है। परंतु राष्ट्रपति चाहे तो इसे पुनः विचार के लिए वापिस कर स लेकिन यदि संसद पुनः उसे पारित कर दे तो राष्ट्रपति को हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।

(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है। (ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है। और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।

(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है-समिति उसमें कुछ फेरबदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।

(छ) संबद्ध मंत्री विधयेक की ज़रूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।

(ज) विधि-मंत्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।

प्रश्न 10.
संसदीय समिति की व्यवस्था से संसद के विधायी कामों के मूल्यांकन और देखरेख पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
संसदीय समिति व्यवस्थापिका के समस्त कार्यों का निरीक्षण करने के कारण एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है। संसदीय समिति का गठन विधायी कार्यों को उचित ढंग से निपटाने के लिए ही किया गया है, क्योंकि संसद केवल अधिवेशन के दौरान ही बैठती है। इसलिए उसके पास समय बहुत कम जबकि काम बहुत अधिक होता है। अतः ऐसी स्थिति में संसदीय समितियाँ विभिन्न मामलों की जाँच एवं निरीक्षण का कार्य करती हैं। ये समितियाँ विभिन्न मंत्रालयों के अनुदान माँगों का अध्ययन करती हैं।

संसद के दोनों सदनों में व्यवस्था कुछ मामलों में छोड़कर एक-जैसी है। ये समितियाँ दो प्रकार की होती हैं तदर्थ और स्थायी। इसमें स्थायी समितियाँ विभिन्न विभागों के कार्यों, उनके बजट, व्यय तथा संबंधित विधेयक की देखरेख करती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विधायी कार्यों पर इन समितियों का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। संसदीय समितियों द्वारा की जाने वाली जाँच और आलोचना के भय से अधिकारी अनुचित निर्णय लेने से घबराते हैं एवं सचेत भी रहते हैं। सरकार द्वारा इसे बहुत प्रोत्साहन दिया जाता है और इसके सुझावों को सरकार स्वीकार भी करती है।

विधायिका HBSE 11th Class Political Science Notes

→ साधारण शब्दों में, सरकार उस व्यवस्था का नाम है जो शासन चलाती है। राजतन्त्र में कानून बनाने व उन्हें लागू करने की शक्ति राजा या सम्राट के पास होती है।

→ परन्तु आधुनिक लोकतन्त्र के युग में सरकार का निर्माण जनता के प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। प्रजातन्त्र में सरकार के तीन अंग होते हैं कार्यपालिका, विधानपालिका तथा न्यायपालिका। तीनों अंगों में विधानपालिका अधिक महत्त्वपूर्ण है।

→ विधानपालिका का मुख्य कार्य कानूनों का निर्माण करना होता है। कार्यपालिका विधानपालिका द्वारा निर्मित कानूनों को लागू करने का कार्य करती है। अतः विधानपालिका सरकार का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है।

→ वह जनता की इच्छाओं का दर्पण है। इस अध्याय में अध्ययन का विषय रहेगा कि निर्वाचित विधायिकाएँ कैसे काम करती हैं और प्रजातान्त्रिक सरकार बनाए रखने में कैसे सहायता करती हैं? भारत में संसद और राज्यों की विधायिकाओं की संरचना और कार्यों तथा लोकतान्त्रिक शासन में उनके महत्त्व का अध्ययन करेंगे।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

HBSE 11th Class Political Science कार्यपालिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
संसदीय कार्यपालिका का अर्थ होता है
(क) जहाँ संसद हो वहाँ कार्यपालिका का होना
(ख) संसद द्वारा निर्वाचित कार्यपालिका
(ग) जहाँ संसद कार्यपालिका के रूप में काम करती है
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो संसद के बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो
उत्तर:
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो संसद के बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

प्रश्न 2.
निम्नलिखित संवाद पढ़ें। आप किस तर्क से सहमत हैं और क्यों?
अमित – संविधान के प्रावधानों को देखने से लगता है कि राष्ट्रपति का काम सिर्फ ठप्पा मारना है।
शमा – राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है। इस कारण उसे प्रधानमंत्री को हटाने का भी अधिकार होना चाहिए।
राजेश – हमें राष्ट्रपति की ज़रूरत नहीं। चुनाव के बाद, संसद बैठक बुलाकर एक नेता चुन सकती है जो प्रधानमंत्री बने।
उत्तर:
उक्त तीनों संवादों से पता चलता है कि संसदीय व्यवस्था में राष्ट्रपति की स्थिति पर चर्चा की गई है। प्रथम संवाद के अनुसार राष्ट्रपति को रबर स्टांप बताया गया है। उक्त कथन को हमें संसदीय शासन प्रणाली के अनुरूप देखना चाहिए जिसमें राष्ट्रपति की भूमिका संवैधानिक मुखिया के रूप में निश्चित की गई है। इसलिए संविधान में प्रदत अपनी शक्तियों का प्रयोग वह वास्तविक मुखिया प्रधानमंत्री के परामर्श पर ही करता है। इसी कारण उसकी स्थिति संदेहात्मक हो जाती है। लेकिन उसका पद गौरव और गरिमा का पद है।

दूसरा कथन प्रधानमंत्री की नियुक्ति पदच्युति पर राष्ट्रपति के अधिकारों की स्थिति के सम्बन्ध में है। इस कथन के सम्बन्ध में मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार प्रधानमंत्री की नियुक्ति देश के राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। इस नियक्ति के संबंध में वस्ततः राष्ट्रपति के अधिकार सीमित है क्योंकि संसदीय प्रणाली के सिद्धांत के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा में बहमत दल के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है।

यद्यपि कुछ विशेष परिस्थिति में राष्ट्रपति को स्वैच्छिक शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है; जैसे यदि लोकसभा में किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो तो ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार संसद के किसी भी सदन के सदस्य को जिस पर उन्हें लोकसभा में बहुमत सिद्ध करने का विश्वास हो उसे प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकता है। यद्यपि उन्हें एक ‘निश्चित’ अवधि में बहुमत सिद्ध करने के लिए कहा जाता है। इसी क्रम यह कहना कि राष्ट्रपति को विशेष परिस्थिति में प्रधानमंत्री को हटाने का अधिकार भी प्राप्त होना चाहिए ताकि वह परिस्थिति के अनुसार उसका प्रयोग कर सके।

यहाँ मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि प्रधानमंत्री को लोकसभा के प्रति उत्तरदायी ठहराया गया है। ऐसे में विशेष परिस्थिति में भी यह अधिकार जनता के प्रतिनिधियों को ही होना चाहिए न कि राष्ट्रपति को हटाने का अधिकार दिया जाए। तीसरे संवाद के अनुसार राष्ट्रपति की उपस्थिति व्यर्थ बताई गई है। परंतु इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि आज जिस तरह छोटे-छोटे दल उभर रहे हैं और कई बार किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

राष्ट्रपति अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए संसद के किसी भी सदन के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकता है। इसके अतिरिक्त हमने संविधान में संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया है जिसमें दो प्रकार की कार्यपालिका-संवैधानिक एवं वास्तविक होनी अनिवार्य है। प्रधानमंत्री हमारी वास्तविक कार्यपालिका अध्यक्ष है तो राष्ट्रपति संवैधानिक कार्यपालिका की पूर्ति करता है। इसलिए हम राष्ट्रपति के पद को समाप्त नहीं कर सकते।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित को सुमेलित करें
(क) भारतीय विदेश सेवा जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा केंद्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती है जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं ओर।
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है, इसमें प्रतिनियुक्ति पर केंद्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) केंद्रीय सेवाएँ भारत के लिए विदेशों में कार्यरत।
उत्तर:
(क) भारतीय विदेश सेवा – भारत के लिए विदेशों में कार्यरत।
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा – जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ – जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है। इसमें प्रतिनियुक्ति पर केंद्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) केंद्रीय सेवाएँ – केंद्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती है जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं ओर।

प्रश्न 4.
उस मंत्रालय की पहचान करें जिसने निम्नलिखित समाचार को जारी किया होगा। यह मंत्रालय प्रदेश की सरकार का है या केंद्र सरकार का और क्यों?
(क) आधिकारिक तौर पर कहा गया है कि सन् 2004-05 में तमिलनाडु पाठ्यपुस्तक निगम कक्षा 7, 10 और 11 की नई पुस्तकें जारी करेगा।

(ख) भीड़ भरे तिरूवल्लुर-चेन्नई खंड में लौह-अयस्क निर्यातकों की सुविधा के लिए एक नई रेल लूप लाइन बिछाई जाएगी। नई लाइन लगभग 80 कि०मी० की होगी। यह लाइन पुटुर से शुरू होगी और बंदरगाह के निकट अतिपटू तक जाएगी।

(ग) रमयमपेट मंडल में किसानों की आत्महत्या की घटनाओं की पुष्टि के लिए गठित तीन सदस्यीय उप-विभागीय समिति ने पाया कि इस माह आत्महत्या करने वाले दो किसान फ़सल के मारे जाने से आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहे थे।
उत्तर:
(क)उक्त प्रश्न में प्रथम समाचार राज्य मंत्रिमंडल द्वारा जारी किया गया है, जो राज्य सरकार के अधीन शिक्षा मंत्रालय के कार्यक्षेत्र में आता है। ये पुस्तकें इसलिए जारी करेगा क्योंकि सन् 2004-05 में नए सत्र का आरंभ होगा जिसमें तमिलनाडु पाठ्यपुस्तक निगम कक्षा 7, 10 और 11 में नई पुस्तकें होंगी। शिक्षा संघ एवं राज्य दोनों का विषय है।

(ख) दूसरा समाचार रेल मंत्रालय द्वारा जारी किया गया है। यह कार्य केंद्र सरकार के अधीन रेल मंत्रालय द्वारा लौह-अयस्क निर्यातकों की सुविधा को ध्यान में रखकर किया गया है। रेल सम्बन्धी विषय संघ सूची के अन्तर्गत केन्द्र सरकार के अधीन आता है।

(ग) तीसरा समाचार भी राज्य मंत्रिमण्डल के अधीन कृषि मंत्रालय द्वारा जारी किया गया है। यद्यपि यह विषय समवर्ती सूची के अन्तर्गत आता है। उस आधार पर केंद्र सरकार राज्य सरकार के माध्यम से किसानों को विभिन्न प्रकार की योजनाओं के द्वारा सहायता प्रदान करने का कार्य भी कर सकती है।

प्रश्न 5.
प्रधानमंत्री की नियुक्ति करने में राष्ट्रपति
(क) लोकसभा के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ख) लोकसभा में बहुमत अर्जित करने वाले गठबंधन-दलों में सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ग) राज्यसभा के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(घ) गठबंधन अथवा उस दल के नेता को चुनता है जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो।
उत्तर:
(घ) गठबंधन अथवा उस दल के नेता को चुनता है जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो।

प्रश्न 6.
इस चर्चा को पढ़कर बताएँ कि कौन-सा कथन भारत पर सबसे ज्यादा लागू होता है
आलोक – प्रधानमंत्री राजा के समान है। वह हमारे देश में हर बात का फ़ैसला करता है।
शेखर – प्रधानमंत्री सिर्फ ‘बराबरी के सदस्यों में प्रथम’ है। उसे कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं। सभी मंत्रियों और प्रधानमंत्री के अधिकार बराबर हैं।
बॉबी – प्रधानमंत्री को दल के सदस्यों तथा सरकार को समर्थन देने वाले सदस्यों का ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन कुल मिलाकर देखें तो नीति-निर्माण तथा मंत्रियों के चयन में प्रधानमंत्री की बहुत ज्यादा चलती है।
उत्तर:
उपर्युक्त कथनों में बॉबी द्वारा व्यक्त किया गया कथन भारत पर सबसे ज्यादा लागू होता है क्योंकि देश का प्रधानमंत्री बहुमत दल का नेता होने के साथ-साथ लोकसभा का नेता भी होता है। प्रधानमंत्री की शक्तियाँ एवं अधिकार व्यापक है।

प्रश्न 7.
क्या मंत्रिमंडल की सलाह राष्ट्रपति को हर हाल में माननी पड़ती है? आप क्या सोचते हैं? अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
भारत में संसदीय शासन-प्रणाली होने के कारण राष्ट्रपति नाममात्र का अध्यक्ष है। भारतीय संविधान के निर्माण के समय डॉ० बी० आर० अम्बेडकर (Dr. B.R. Ambedkar) ने कहा था, “राष्ट्रपति की वैसी ही स्थिति है जैसी ब्रिटिश संविधान में सम्राट की है। वह राज्य का मुखिया है, कार्यपालिका का नहीं।” इसी विचार का समर्थन करते हुए भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद (Dr. Rajendra Prasad) ने कहा था,

“यद्यपि संविधान में कोई ऐसी धारा नहीं रखी गई है जिसके अनुसार राष्ट्रपति के लिए मंत्रिमंडल की सलाह मानना आवश्यक हो, परन्तु यह आशा की जाती है कि जिस संवैधानिक परम्परा के अनुसार इंग्लैण्ड में सम्राट् सदा ही अपने मंत्रियों का परामर्श मानता है, उसी प्रकार की परम्परा भारत में भी स्थापित की जाएगी और राष्ट्रपति एक सवैधानिक शासक अर्थात् मुखिया बन जाएगा।”

इसके बावजूद भी कुछ विद्वानों का यह मत था कि राष्ट्रपति मंत्रिमंडल के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है। परन्तु अब संविधान के 42वें संशोधन (1976) द्वारा राष्ट्रपति की स्थिति को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया गया है। अब संविधान के अनुच्छेद 74 में संशोधन करके इसे इस प्रकार बना दिया गया है, “राष्ट्रपति को परामर्श तथा सहायता देने के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रि-परिषद् होगा तथा राष्ट्रपति उसके परामर्श के अनुसार कार्य करेगा।” इस प्रकार अब राष्ट्रपति केवल सवैधानिक मुखिया (Constitutional Head) है और वह मंत्रि-परिषद् के परामर्श के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य है।

प्रश्न 8.
संसदीय-व्यवस्था में कार्यपालिका को नियंत्रण में रखने के लिए विधायिका को बहुत-से अधिकार दिए हैं। कार्यपालिका को नियंत्रित करना इतना जरूरी क्यों है? आप क्या सोचते हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुसार देश में संसदीय शासन की व्यवस्था की गई है। संसदीय शासन व्यवस्था विशेषतः विधानमंडल एवं कार्यपालिका के घनिष्ठ सम्बन्धों पर आधारित होती है। इन्हीं सम्बन्धों के आधार पर ब्रिटेन की तरह भारत में भी मंत्रिमंडल का निर्माण संसद में से किया जाता है। संसद के निम्न सदन लोकसभा में जिस राजनीतिक दल अथवा दलीय गठबन्धन को पूर्ण बहुमत प्राप्त हो जाता है उस दल के नेता को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है और फिर प्रधानमंत्री के परामर्श के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति की जाती है।

इसके साथ-साथ विधानमंडल के प्रति मंत्रिमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व संसदीय शासन-प्रणाली की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 में कहा गया है, “मंत्रि-परिषद् सामूहिक रूप में लोकसभा के सामने उत्तरदायी है।” इसका अर्थ यह है कि मंत्रिमंडल जो भी निर्णय संसद तथा देश के सामने रखता है प्रत्येक मंत्री उसके लिए उत्तरदायी होता है। मंत्रिमंडल तब तक ही कार्य करता है जब तक वह विधायिका के निम्न सदन लोकसभा के प्रति पूर्णतः उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है। इसके अतिरिक्त संसद के पास भी कार्यपालिका पर नियन्त्रण रहते अनेक अधिकार; जैसे अधिवेशन के दौरान प्रश्न पूछकर, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, स्थगन प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव एवं अविश्वास प्रस्ताव आदि दिए गए हैं।

ऐसा करना आवश्यक भी है, क्योंकि कार्यपालिका देश के शासन का सबसे प्रमुख अंग है। इसकी शक्ति असीमित है। इसका वास्तविक अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। चूंकि प्रधानमंत्री जनता द्वारा निर्वाचित होता है अत: वह जनता के प्रति उत्तरदायी भी होना चाहिए, जो वह लोकसभा के प्रति उत्तरदायित्व के आधार पर निभाता है।

यदि कार्यपालिका को विधायिका नियंत्रण में न रखे तो इसके निरंकुश होने की संभावना अत्यधिक हो सकती है और वह कोई भी असंवैधानिक कार्य कर सकता है। परंतु विधायिका का नियंत्रण होने से उसमें यह भय बना रहता है कि यदि ऐसा किया गया तो संसद अथवा विधायिका अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर संघीय मन्त्रि-परिषद् एवं उसके मुखिया प्रधानमंत्री को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य कर सकती है। अतः इसीलिए संसदीय शासन को उत्तरदायी शासन कहा जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

प्रश्न 9.
कहा जाता है कि प्रशासनिक-तंत्र के कामकाज में बहुत ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। सुझाव के तौर पर कहा जाता है कि ज्यादा से ज्यादा स्वायत्त एजेंसियाँ बननी चाहिए जिन्हें मंत्रियों को जवाब न देना पड़े।
(क) क्या आप मानते हैं कि इसमें प्रशासन ज्यादा जन-हितैषी होगा?
(ख) क्या आप मानते हैं कि इससे प्रशासन की कार्य कुशलता बढ़ेगी?
(ग) क्या लोकतंत्र का अर्थ यह होता है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण हो?
उत्तर:
(क) जैसा कि सर्वविदित है कि भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है, जहाँ प्रशासनिक तंत्र जनता और सरकार के बीच एक कड़ी का काम करता है। सरकार द्वारा जनहित में बनाए गए कानून इसी तंत्र के द्वारा क्रियान्वित कर जनता तक पहुँचाए जाते हैं। दूसरी ओर यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि प्रशासनिक तंत्र अथवा नौकरशाही में अहंभाव एवं मालिक बनने की भावना होती है जिससे जनसाधारण प्रशासनिक अधिकारियों तक नहीं पहुँच पाते है तथा नौकरशाही भी आम नागरिकों की माँगों और आशाओं के प्रति संवेदनशील नहीं होती है।

इसी कारण लोकतंत्रीय ढंग से निर्वाचित सरकार का महत्त्व नौकरशाही को नियंत्रित करने एवं जन समस्याओं को प्रभावी तरीके से हल करने में बढ़ जाता है। परंतु इसका दूसरा परिणाम यह भी होता है कि इससे नौकरशाही राजनीतिज्ञों के हाथों की कठपुतली बन जाती है। अत: तमाम समस्याओं के निदान के लिए यह सुझाव दिया जा सकता है कि स्वायत्त एजेंसियाँ स्थापित होनी चाहिए। इस तरह की एजेंसियाँ प्रायः सरकार अथवा राजनीतिज्ञ हस्तक्षेप से मुक्त रहती है जिससे प्रशासन के जन-हितैषी बनने की अधिक सम्भावनाएँ होगी।

(ख) स्वायत्त एजेंसियाँ स्थापित होने से प्रशासन की कार्य कुशलता अवश्य बढ़ेगी, क्योंकि राजनीतिक हस्तक्षेप से इनका कार्य बहुत प्रभावित होता है और प्रशासनिक अधिकारी कोई भी कार्य स्वतंत्र एवं निष्पक्ष वातावरण में नहीं कर पाते हैं। स्वायत्त एजेंसियों के स्थापित होने से ये अपना कार्य अधिक से अधिक कुशलता पूर्वक करने में सफल हो सकते हैं।

(ग) लोकतंत्र का अर्थ जनता द्वारा निर्वाचित हुई सरकार से होता है, जहाँ शासन का संचालन जनता की इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुरूप हो। परंतु प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण हो, यह उचित नहीं है। क्योंकि प्रशासनिक तंत्र एक स्वतंत्र निकाय है। यह सरकार द्वारा बनाई गई नई नीतियों को क्रियात्मक रूप प्रदान करता है। यदि यह राजनीतिज्ञों के नियंत्रण में हो जाएगा तो पूरी व्यवस्था अव्यवस्थित हो जाएगी और जनता के हितों की उपेक्षा होने लगेगी। जिससे प्रशासन का वास्तविक उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा।

प्रश्न 10.
नियुक्ति आधारित प्रशासन की जगह निर्वाचन आधारित प्रशासन होना चाहिए – इस विषय पर 200 शब्दों में एक लेख लिखो।
उत्तर:
इस प्रश्न के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि नियुक्ति आधारित प्रशासन की जगह निर्वाचन आधारित प्रशासन होना सर्वथा अनुचित होगा, क्योंकि भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश, जहाँ कि जनसंख्या ही लगभग 130 करोड़ से अधिक है और जहाँ ..कि लोकतांत्रिक व्यवस्था अभूतपूर्व है लेकिन प्रशासनिक कार्य कुशलता की दृष्टि से निम्न श्रेणी में आता हो वहाँ निर्वाचन पद्धति को आधार बनाकर नियुक्ति करने का कोई औचित्य नहीं है। इसके अतिरिक्त ऐसी पद्धति से सत्ता में बैठे भ्रष्ट नेताओं को, जो अपने-अपने क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं, अपने चेहतों एवं समर्थकों को प्रशासनिक अधिकारी बनाने का मौका मिल जाएगा।

जिसके द्वारा वे प्रशासनिक मामले में ज्यादा से ज्यादा हस्तक्षेप करने लगेंगे। जिसके परिणामस्वरूप प्रशासनिक भ्रष्टाचार जाएगी। अतः ऐसा करना बिल्कुल भी सही नहीं होगा क्योंकि अपराध से ग्रस्त इस देश में अपराधी न सिर्फ खुली हवा में इन नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से घूम सकेंगे बल्कि इससे अपराध का ग्राफ भी काफी बढ़ जाएगा।

अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति एक स्वतंत्र निकाय के द्वारा परीक्षाओं के माध्यम से होने से प्रतिभागियों की विभागीय क्षमता और प्रशासनिक कार्य कुशलता को आँका जाता है। इसके साथ-साथ उनसे ये अपेक्षा भी की जाती है कि वे विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी इस विशाल देश की जनता की भावनाओं और संवेदनाओं का आदर करते हुए अपनी कार्यक्षमता का परिचय देंगे और विषम से विषम परिस्थितियों का सामना भी सफलतापूर्वक करेंगे, जो निर्वाचन आधारित प्रशासन के . द्वारा कतई संभव नहीं लगता है।

कार्यपालिका HBSE 11th Class Political Science Notes

→ सरकार राज्य का आवश्यक तत्त्व है। यह राज्य का कार्यवाहक यन्त्र है जो राज्य की इच्छा को निर्धारित, व्यक्त व क्रियान्वित करता है। सरकार के बिना राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि सरकार राज्य का मूर्त रूप है।

→ सरकार को राज्य की आत्मा कहा जा सकता है। सरकार राज्य का वह यन्त्र है जिस पर राज्य को कानून बनाने, उन्हें क्रियान्वित तथा उनकी व्याख्या करने की जिम्मेवारी होती है।

→ सरकार के तीनों अंगों में से कार्यपालिका सरकार का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग है, जो विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करता है। वास्तव में यह वह धुरी है जिसके चारों ओर राज्य का शासन तन्त्र घूमता है।

→ विशाल अर्थों में ‘कार्यपालिका’ शब्द का प्रयोग सरकार के उन सभी अधिकारियों के लिए किया जाता है जो विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करने का कार्य करते हैं।

→ इस प्रकार राज्य के अध्यक्ष से लेकर छोटे-से-छोटे कर्मचारी तक कार्यपालिका में आ जाते हैं परन्तु राजनीतिक विज्ञान में कार्यपालिका का विशेष अर्थ है।

→ इस अध्याय में हम कार्यपालिका के अर्थ, प्रकार, कार्य तथा भारत की संसदीय व्यवस्था के अधीन संघीय एवं राज्य स्तरीय कार्यपालिका के गठन एवं इसके कार्यों का उल्लेख करते हुए नौकरशाही रूपी कार्यपालिका पर भी दृष्टिपात करेंगे।

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HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे? Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
संविधान उन मौलिक नियमों, सिद्धांतों तथा परम्पराओं का संग्रह होता है, जिनके अनुसार राज्य की सरकार का गठन, सरकार के कार्य, नागरिकों के अधिकार तथा नागरिकों और सरकार के बीच संबंधों को निश्चित किया जाता है।

प्रश्न 2.
लिखित संविधान किसे कहा जाता है?
उत्तर:
लिखित संविधान वह संविधान होता है जो एक गठित संविधान सभा द्वारा बनाया जाए और एक निश्चित तिथि को लागू हो; जैसे अमेरिका, भारत, जापान, आयरलैण्ड आदि देशों के संविधान लिखित संविधान कहलाते हैं।

प्रश्न 3.
अलिखित संविधान किसे कहा जाता है?
उत्तर:
अलिखित संविधान ऐसा संविधान होता है जो प्रायः रीति-रिवाजों, परम्पराओं तथा समय-समय पर दिए गए न्यायिक निर्णयों पर आधारित होता है जिनका धीरे-धीरे विकास होता है। ऐसे संविधान के लिए न संविधान सभा निर्मित होती है और ही उन्हें लागू करने की निश्चित शर्त को पूर्ण करना होता है। इंग्लैण्ड का संविधान अलिखित संविधान है।

प्रश्न 4.
संविधान हमारे लिए क्यों आवश्यक है? कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:

  • संविधान ऐसे मौलिक नियमों को निश्चित करता है जो समाज में रहने वाले लोगों में समन्वय तथा आपसी विश्वास की स्थापना करते हैं।
  • संविधान समाज में सरकार के वर्तमान एवं भविष्य में सरकार के संचालन के मूल सिद्धांतों एवं आदर्शों पर प्रकाश डालता है।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान सभा में प्रारम्भ में कुल सदस्यों की संख्या कितनी थी?
उत्तर:
भारतीय संविधान सभा में प्रारम्भ में कुल सदस्यों की संख्या 389 थी जिसमें 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 4 चीफ कमिश्नर प्रांतों के तथा 93 देशी रियासतों के प्रतिनिधि थे।

प्रश्न 6.
संविधान सभा के प्रथम स्थायी अध्यक्ष कौन थे? उन्हें कब स्थायी अध्यक्ष चुना गया?
उत्तर:
संविधान सभा के प्रथम स्थायी अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद थे, जिन्हें 11 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा द्वारा निर्विरोध चुना गया था।

प्रश्न 7.
भारत की स्वाधीनता एवं विभाजन के बाद संविधान सभा के सदस्यों की संख्या कितनी रह गई?
उत्तर:
भारत की स्वाधीनता एवं विभाजन के बाद संविधान सभा के कुल सदस्यों की संख्या 324 रह गई जिसमें 235 प्रांतों के प्रतिनिधि तथा 89 देशी रियासतों के प्रतिनिधि थे।

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान सभा के किन्हीं चार सदस्यों के नाम बताइए।
उत्तर:

  • डॉ० राजेन्द्र प्रसाद,
  • जवाहरलाल नेहरू,
  • सरदार पटेल,
  • डॉ० बी०आर० अम्बेडकर।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान सभा में उद्देश्य संबंधी प्रस्ताव कब और किसके द्वारा प्रस्तुत किया गया?
उत्तर:
भारतीय संविधान सभा में 13 दिसम्बर, 1946 को पं० जवाहरलाल नेहरू ने उद्देश्य संबंधी प्रस्ताव प्रस्तुत किया।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान सभा में प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव संबंधी किन्हीं दो बातों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • संविधान सभा भारत को एक प्रभुसत्ता सम्पन्न प्रजातंत्रीय गणराज्य घोषित करने के दृढ़-निश्चय की घोषणा करती है।
  • यह प्राचीन भूमि विश्व में अपना उचित तथा सम्मानित स्थान ग्रहण करती है और मानव-कल्याण व विश्व शांति के विस्तार में अपना पूर्ण तथा ऐच्छिक योगदान करती है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान सभा द्वारा निर्मित विभिन्न समितियों में से किन्हीं चार समितियों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • संघीय संविधान समिति,
  • संघीय शक्तियाँ समिति,
  • प्रांतीय संविधान समिति,
  • अल्पसंख्यकों तथा मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित समिति।

प्रश्न 12.
भारतीय संविधान सभा की मसौदा समिति में कुल कितने सदस्य थे?
उत्तर:
भारतीय संविधान सभा की मसौदा समिति के अध्यक्ष सहित कुल सात सदस्य थे, जिनमें दो सदस्य गोपाल स्वामी आयंगर एवं के०एम० मुन्शी थे।

प्रश्न 13.
भारतीय संविधान सभा द्वारा पारित संविधान पर कब और किसके अन्तिम हस्ताक्षर हुए थे?
उत्तर:
भारतीय संविधान सभा द्वारा पारित संविधान पर 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के अन्तिम हस्ताक्षर हुए थे।

प्रश्न 14.
भारतीय संविधान सभा के द्वारा संविधान के निर्माण हेतु कितने अधिवेशन हुए एवं कुल कितने दिन विचार-विमर्श हुआ?
उत्तर:
भारतीय संविधान सभा के द्वारा संविधान निर्माण हेतु कुल 11 अधिवेशन हुए और उन्होंने 165 दिनों तक विचार-विमर्श किया।

प्रश्न 15.
भारतीय संविधान सभा के किन सदस्यों को संविधान सभा का आन्तरिक वर्ग (Inner Circle) कहा जाता है?
उत्तर:
पं० जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ० अब्दुल कलाम आज़ाद, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, सीता रमैया, गोविंद बल्लभ पन्त, डॉ० अम्बेडकर, एन०सी० आयंगर, के०एम० मुन्शी, आयर एवं सत्यनारायण सिन्हा सहित कुल 11 सदस्यों को संविधान सभा के आन्तरिक-वर्ग (Inner-circle) में शामिल किया जाता था।

प्रश्न 16.
संविधान सभा के प्रतिनिधित्व के स्वरूप की आलोचना किन आधारों पर की जाती है? कोई दो आधार लिखें।
उत्तर:

  • संविधान के प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ।
  • संविधान सभा में एक विशेष जाति हिन्दुओं को प्रतिनिधित्व दिया गया था।

प्रश्न 17.
संविधान सभा में निर्णय लेने की प्रक्रिया का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
संविधान सभा में निर्णय की प्रक्रिया सहमति एवं समायोजन के सिद्धांत पर आधारित थी जो कि पूर्णतः लोकतांत्रिक प्रक्रिया थी।

प्रश्न 18.
भारतीय संविधान के किन्हीं दो स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • भारत सरकार अधिनियम, 1935 तथा,
  • विदेशी संविधानों का प्रभाव।

प्रश्न 19.
भारतीय संविधान पर कनाडा के संविधान के पड़ने वाले किन्हीं दो प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • भारतीय संविधान में कनाडा की भाँति भारत को ‘राज्यों का संघ’ कहा है।
  • संघात्मक ढाँचे के साथ-साथ केन्द्र को शक्तिशाली बनाना भी कनाडा के संविधान की देन है।

प्रश्न 20.
भारतीय संविधान में राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धांतों संबंधी प्रावधान किस देश के संविधान से प्रभावित होकर किया गया है?
उत्तर:
आयरलैण्ड के संविधान से प्रभावित होकर किया।

प्रश्न 21.
भारतीय संविधान के संचालन में भूमिका निभाने वाली किन्हीं दो राजनीतिक प्रथाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • राष्ट्रपति के पद पर दो बार से अधिक एक ही व्यक्ति का न रहना भी प्रथा पर आधारित है क्योंकि संविधान कोई ऐसी पाबन्दी नहीं लगाता है।
  • राज्यपाल के पद पर नियुक्त होने वाला व्यक्ति उस राज्य का निवासी नहीं होना चाहिए। यह भी प्रथा पर आधारित है।

प्रश्न 22.
भारतीय संविधान 26 जनवरी को ही क्यों लागू किया गया?
उत्तर:
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 26 जनवरी को पूर्ण स्वराज्य दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया गया था। इस तिथि को विशेष महत्त्व देने एवं यादगार बनाने हेतु नया संविधान 26 जनवरी, 1950 को ही लागू किया गया।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान की कोई दो परिभाषाएँ दीजिए। उत्तर-संविधान की दो परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

1. गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “संविधान लिखित अथवा अलिखित नियमों अथवा कानूनों का वह समूह होता है जिनके द्वारा सरकार का संगठन, सरकार की शक्तियों का विभिन्न अंगों में वितरण और इन शक्तियों के प्रयोग के सामान्य सिद्धांत निश्चित किए जाते हैं।”

2. लार्ड ब्राईस (Lord Bryce) के अनुसार, “संविधान ऐसे निश्चित नियमों का संग्रह होता है, जिसमें सरकार की कार्यविधि निहित होती है और जिनके द्वारा उसका संचालन होता है।”

प्रश्न 2.
लिखित एवं अलिखित संविधान में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लिखित संविधान-लिखित संविधान वह संविधान है जो पूर्ण रूप से या जिसका अधिकांश भाग लिखित होता है। इसके अंतर्गत सरकार के रूप और उसके संगठन के बारे में तथा सरकार के तीनों अंगों के पारस्परिक संबंधों को स्पष्ट रूप में लिख दिया जाता है। इसके अतिरिक्त नागरिकों के अधिकारों तथा उनके सरकार से संबंधों के बारे में लिख दिया जाता है।

लिखित संविधान में उस प्रणाली का भी वर्णन किया जा सकता है जिसके द्वारा संविधान में संशोधन किया जा सकता है। ऐसा संविधान प्रायः एक संविधान सभा द्वारा बनाया जाता है जो कुछ समय लगाकर उसे एक निश्चित लेख के रूप में तैयार करती है और ऊपर दिए गए सभी विषयों पर निर्णय लेकर उन्हें लिखित रूप देती है। कई बार कुछ उदार शासकों द्वारा स्वयं ही कुछ लोगों को यह प्रदान किया जाता है. या लोग स्वयं राजा की निरंकुश शक्तियों का बलपूर्वक विरोध करके उसे ऐसा करने पर विवश कर देते हैं।

अलिखित संविधान इसके विपरीत अलिखित संविधान वह संविधान है जिसका अधिकतर भाग अलिखित होता है। ऐसा संविधान प्रायः रीति-रिवाजों, परंपराओं तथा समय-समय पर दिए गए न्यायिक निर्णयों पर आधारित होता है। इसमें शासन का रूप, सरकार की शक्तियाँ तथा नागरिकों के अधिकार आदि मुख्यतः रीति-रिवाजों पर ही आधारित होते हैं जिनका धीरे-धीरे विकास हुआ है।

वहाँ पर संविधान में संशोधन के लिए भी कोई विशेष प्रणाली नहीं अपनाई जाती, बल्कि बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार उसमें आसानी से परिवर्तन कर लिया जाता है। ऐसा संविधान न तो किसी संविधान सभा द्वारा एक निश्चित समय पर बनाया जाता है और न ही किसी सम्राट् द्वारा प्रदान किया जाता है, बल्कि इसका आवश्यकता के अनुसार विकास होता है। इसका मुख्य उदाहरण इंग्लैण्ड का संविधान है जिसका कभी निर्माण नहीं किया गया और जो मुख्यतः रीति-रिवाज़ों पर आधारित है।

प्रश्न 3.
संविधान सभा में निर्णय लेने की प्रक्रिया का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संविधान सभा में काँग्रेस दल के सदस्यों का एक बहुत बड़ा बहुमत था, लेकिन इस दल ने कभी किसी भी फैसले को बहुमत के आधार पर लादने का प्रयास नहीं किया। अगर किसी भी संवैधानिक प्रश्न पर नेहरू एवं पटेल दोनों ही सहमत होते थे, तो उस विषय में निर्णय बहुत सुगमता के साथ ले लिया जाता था। अगर उन दोनों में आपस में मतभेद होता था तो उनके समर्थक एक-दूसरे का समर्थन करते थे।

संविधान सभा में लंबी-लंबी बहसें होती थीं तथा जब तक नेहरू एवं पटेल अपने मतभेदों को समाप्त नहीं कर पाते थे, तब तक कोई निर्णय नहीं हो पाता था। लेकिन ये दोनों विभूतियाँ जल्दी ही विषय पर सहमति प्रकट कर देती थीं। इसके अलावा संविधान सभा में काँग्रेस दल के सदस्यों की महत्त्वपूर्ण विषयों पर बैठक होती थी, खुलकर वाद-विवाद होता था, मतदान भी हो जाता था एवं अंत में विषय पर निर्णय ले लिया जाता था।

प्रत्येक महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में अल्पतंत्र वर्ग के नेताओं का विशेष महत्त्व होता था। इस प्रकार यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि इन नेताओं ने प्रजातंत्रीय सिद्धांतों के आधार पर संविधान सभा में निर्णय सहमति के द्वारा ही लिए थे। यही कारण है कि हमारा संविधान इतना व्यावहारिक बन सका है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान पर पड़े किन्हीं चार अमेरिकी संविधान के प्रावधानों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत के संविधान पर संयुक्त राज्य अमेरिका (U.S.A.) के संविधान का भी काफी प्रभाव है जैसे

(1) हमारे संविधान के आरम्भ से पूर्व एक प्रस्तावना है। इसमें अमेरिका के संविधान की प्रस्तावना की भान्ति यह लिखा गया है कि संविधान का निर्माण करने वाले ‘हम भारत के लोग’ (‘We the People of India’) हैं।

(2) हमारे मौलिक अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका के बिल ऑफ राईट्स (Bill of Rights) से मिलते-जुलते हैं।

(3) भारत की सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) के कार्य और दर्जा अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट जैसे हैं।

(4) न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सिद्धांत।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान पर पड़े किन्हीं चार ब्रिटिश संविधान के प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में सबसे अधिक प्रभाव ब्रिटिश संविधान का है। यह शायद इस कारण है कि अंग्रेजों ने स्वतंत्रता-प्राप्ति से पूर्व लगभग 200 वर्ष तक भारत पर शासन किया और इस बीच भारतीयों को उनकी राजनीतिक संस्थाओं का काफी अनुभव हुआ। ब्रिटिश संविधान से हमने निम्नलिखित बातें अपनाई हैं

  • इंग्लैण्ड के सम्राट की भान्ति भारत का राष्ट्रपति नाममात्र का तथा संवैधानिक मुखिया है।
  • संसदीय प्रणाली इंग्लैण्ड की नकल है।
  • मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री का श्रेष्ठ स्थान है तथा मंत्रिमंडल वास्तविक कार्यपालिका है जैसे कि ब्रिटेन में है।
  • संसद का द्विसदनीय विधानमंडल होना और लोकसभा इंग्लैण्ड के कॉमन सदन की भान्ति अधिक शक्तिशाली है।

प्रश्न 6.
भारतीय संविधान के विकास में भूमिका निभाने वाले संसद द्वारा पारित किन्हीं पाँच अधिनियमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
संविधान के अनुसार अनेक शासकीय व्यवस्थाओं को पूरा करने के लिए संसद को कानून बनाने का अधिकार दिया गया है। इसके अधीन संसद द्वारा बनाए गए निम्नलिखित कानून उल्लेखनीय हैं

  • निरोधक नजरबन्दी अधिनियम, 1950,
  • 1950, 1951 का जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम,
  • 1951 का वित्त आयोग का अधिनियम,
  • 1951 का राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति चुनाव अधिनियम,
  • भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 ।

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान के निर्माण पर पड़े ‘भारत सरकार अधिनियम, 1935’ के किन्हीं पाँच प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत के वर्तमान संविधान का अधिकांश भाग भारत सरकार अधिनियम, 1935 पर आधारित है। यह निम्नलिखित बातों से स्पष्ट है

  • वर्तमान संविधान में संघीय शासन की व्यवस्था सन् 1935 के अधिनियम पर आधारित है।
  • केन्द्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन भी इसी अधिनियम पर आधारित है। उस एक्ट की भान्ति नए संविधान में शासन-शक्तियों का तीन सूचियों
    (a) संघीय सूची,
    (b) राज्य सूची तथा
    (c) समवर्ती सूची में विभाजन किया गया है।
  • सन् 1935 के एक्ट की भान्ति नए संविधान में भी केन्द्रीय सरकार को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है।
  • सन् 1935 के एक्ट की भान्ति नए संविधान द्वारा भी केन्द्र में द्विसदनीय विधानमंडल की स्थापना की गई है।
  • नए संविधान की धारा 356 के अंतर्गत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने की व्यवस्था का आधार सन 1935 के एक्ट का सैक्शन 93 है।

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान के विकास के स्रोत के रूप में भूमिका निभाने वाले किन्हीं पाँच सवैधानिक विशेषज्ञों की टिप्पणियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सवैधानिक विशेषज्ञों के विचार और टिप्पणियाँ भी हमारे संविधान का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इन विशेषज्ञों ने संविधान के बारे में अपने-अपने विचार अपने संवैधानिक लेखों में व्यक्त किए हैं। चाहे इन विचारों को कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं फिर भी इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इन विचारकों का प्रभाव हमारे कानून निर्माताओं तथा न्यायाधीशों पर अवश्य पड़ सकता है। इस श्रेणी के विशेषज्ञों व उनके संवैधानिक लेखों के नाम निम्नलिखित हैं

  • D.D. Basu : Commentary on the Constitution of India.
  • V.N. Rao : The Constitution of India.
  • K.V. Rao : Parliamentary Democracy of India.
  • N.A. Palkivala : Our Constitution : Defaced and Defiled.
  • M.C. Setelvad : The Indian Constitution.

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘संविधान’ शब्द से क्या अभिप्राय है? हमें संविधान की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:
प्रत्येक राज्य का प्रायः एक संविधान होता है। साधारण शब्दों में, संविधान उन मौलिक नियमों, सिद्धांतों तथा परंपराओं का संग्रह होता है, जिनके अनुसार राज्य की सरकार का गठन, सरकार के कार्य, नागरिकों के अधिकार तथा नागरिकों और सरकार के बीच संबंध को निश्चित किया जाता है। शासन का स्वरूप लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी, कुछ ऐसे नियमों के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता जो राज्य में विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं तथा शासकों की भूमिका को निश्चित करते हैं।

इन नियमों के संग्रह को ही संविधान कहा जाता है। संविधान में शासन के विभिन्न अंगों तथा उनके पारस्परिक संबंधों का विवरण होता है। इन संबंधों को निश्चित करने हेतु कुछ नियम बनाए जाते हैं, जिनके आधार पर शासन का संचालन सुचारू रूप से संभव हो जाता है तथा शासन के विभिन्न अंगों में टकराव की संभावनाएँ कम हो जाती हैं। संविधान के अभाव में शासन के सभी कार्य निरंकुश शासकों की इच्छानुसार ही चलाए जाएँगे जिससे नागरिकों पर अत्याचार होने की संभावना बनी रहेगी।

ऐसे शासक से छुटकारा पाने के लिए नागरिकों को अवश्य ही विद्रोह का सहारा लेना पड़ेगा जिससे राज्य में अशांति तथा अव्यवस्था फैल जाएगी। इस प्रकार एक देश के नागरिकों हेतु एक सभ्य समाज एवं कुशल तथा मर्यादित सरकार का अस्तित्व एक संविधान की व्यवस्थाओं पर ही निर्भर करता है।

संविधान की दो परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
1. गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “संविधान लिखित अथवा अलिखित नियमों अथवा कानूनों का वह समूह होता है जिनके द्वारा सरकार का संगठन, सरकार की शक्तियों का विभिन्न अंगों में वितरण और इन शक्तियों के प्रयोग के सामान्य सिद्धांत निश्चित किए जाते हैं।”

2. लार्ड ब्राईस (Lord Bryce) के अनुसार, “संविधान ऐसे निश्चित नियमों का संग्रह होता है, जिसमें सरकार की कार्यविधि निहित होती है और जिनके द्वारा उसका संचालन होता है।”

हमारे लिए संविधान क्यों आवश्यक है? (Why do we need a Constitution?)-किसी भी देश के लिए उसका संविधान बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। यह सरकार की शक्तियों को निश्चित करता है तथा उन पर अंकुश लगाता है। संविधान सरकार के । विभिन्न अंगों की शक्तियों को भी निश्चित करता है जिससे उनमें झगड़े की संभावना नहीं रहती। यह नागरिकों के अधिकारों तथा सरकार के साथ नागरिकों के संबंध भी निश्चित करता है।

संविधान के द्वारा लोग अपने अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं तथा सरकार पर अंकुश लगा सकते हैं। संविधान के अभाव में शासन के सभी कार्य शासकों की इच्छानुसार ही चलाए जाएँगे, जिससे नागरिकों पर अत्याचार होने की संभावना बनी रहेगी। ऐसे शासक से छुटकारा पाने के लिए नागरिकों को विद्रोह का सहारा लेना पड़ेगा जिससे देश में अशांति व अव्यवस्था का वातावरण बना रहेगा। प्रो० जैलीनेक (Prof. Jellineck) ने लिखा है, “संविधान के बिना राज्य नहीं रहेगा, बल्कि अराजकता होगी।”

संविधान समाज के लिए निम्नलिखित कार्य करता है
(1) सर्वप्रथम, संविधान कुछ ऐसे मौलिक नियम निश्चित करता है जो समाज में रहने वाले लोगों में समन्वय तथा आपसी विश्वास की स्थापना करते हैं। संविधान के द्वारा ही किसी राज्य के स्वरूप को निश्चित किया जा सकता है।

(2) संविधान ही सरकार के विभिन्न अंगों पर नियंत्रण स्थापित करता है और उन्हें तानाशाह होने से बचाता है।

(3) संविधान ही नागरिकों के मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों की रक्षा करता है। यह नागरिक स्वतंत्रता (Civil Liberties) की धरोहर है। व्यवहार में इन अधिकारों पर कुछ पाबंदियाँ लगानी आवश्यक होती हैं। संविधान ही उन परिस्थितियों को निश्चित करता हैं, जिनमें सरकार द्वारा नागरिकों के अधिकारों को छीना जा सकता है। भारत में भी राष्ट्रीय संकट के समय सरकार को नागरिकों पर पाबंदी लगाने का अधिकार दिया गया है।

(4) संविधान एक ध्रुव तारे के समान है, जो शासक को हमेशा दिशा-निर्देश देता है और उसका मार्गदर्शन करता है।

(5) संविधान ही सरकार के विभिन्न अंगों के बीच संबंध बनाए रखता है और उनमें जो मनमुटाव पैदा होता है, उसे स्पष्ट करता है।

(6) संविधान एक ऐसा आईना (Mirror) है जिसमें उस देश के भूत, वर्तमान और भविष्य की झलक मिलती है।

(7) विश्व के अधिकतर पुराने संविधान ऐसे हैं जिनमें केवल सरकार के गठन तथा शक्तियों और उन पर लगे प्रतिबंधों की ही व्यवस्था की गई है, परंतु, 20वीं शताब्दी में बने अनेक ऐसे संविधान हैं, जिनमें इन बातों के अतिरिक्त सरकार से नागरिकों की भलाई के लिए कुछ सकारात्मक कार्य करने के लिए भी कहा गया है। भारतीय संविधान भी एक ऐसा ही संविधान है।

इसके द्वारा भारतीय समाज में मौजूदं सामाजिक असमानता को समाप्त करने के लिए व्यवस्था की गई है। सरकार द्वारा कानून पास करके छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है। इस प्रकार संविधान द्वारा सरकार को बच्चों की शिक्षा तथा नागरिकों के स्वास्थ्य की देखभाल करने की जिम्मेवारी भी सौंपी गई है।

सरकार को नागरिकों के लिए रोज़गार की व्यवस्था करने तथा उनको इतने आर्थिक साधन जुटाने के लिए भी कहा गया है, जिससे नागरिक एक सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकें। इसी प्रकार दक्षिण अफ्रीका का संविधान सरकार को यह निर्देश देता है कि वह देश में लंबे समय से चली आ रही जातीय भेदभाव की नीति को समाप्त करे तथा सभी के लिए मकान तथा स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराए। इंडोनेशिया का संविधान भी सरकार को राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था (National Education System) की व्यवस्था करने का निर्देश देता है।

प्रश्न 2.
भारत की संविधान सभा के गठन का वर्णन कीजिए। भारतीय संविधान के उद्देश्य-प्रस्ताव की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत के वर्तमान संविधान का निर्माण एक संविधान सभा ने किया, जिसकी स्थापना 1946 में मंत्रिमंडल मिशन योजना के अंतर्गत की गई थी। इस संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 389 निश्चित की गई, जिसमें से 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 4 चीफ कमिश्नर वाले प्रांतों के तथा 93 देशी रियासतों के प्रतिनिधि होने थे।

प्रांतों के 296 सदस्यों के चुनाव जुलाई, 1946 में करवाए गए। इनमें से 212 स्थान काँग्रेस को, 73 मुस्लिम लीग को एवं 11 स्थान अन्य दलों को प्राप्त हुए। काँग्रेस की इस शानदार सफलता को देखकर मुस्लिम लीग को बड़ी निराशा हुई और उसने संविधान सभा का बहिष्कार करने का निर्णय किया। 9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा का विधिवत् उद्घाटन हुआ और भारत के भविष्य के संविधान का निर्माण करने के लिए प्रतिनिधि पहली बार इकट्ठे हुए, लेकिन मुस्लिम लीग के किसी भी सदस्य ने इसमें भाग नहीं लिया और उसने पाकिस्तान के लिए अलग संविधान सभा की माँग शुरू कर दी।

संविधान सभा का अधिवेशन सच्चिदानन्द सिन्हा, जो संविधान सभा के सबसे वयोवृद्ध सदस्य थे, की अध्यक्षता में शुरू हुआ। 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा का निर्विरोध रूप से स्थायी अध्यक्ष चुन लिया गया। संविधान सभा के अधिवेशन चलते रहे, लेकिन मुस्लिम लीग ने उनमें भाग नहीं लिया। राजनीतिक गतिविधियों के कारण माऊंट बैटन योजना 3 जून, 1947 के अनुसार भारत स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 पारित किया गया।

इस कानून के अनुसार भारत दो डोमिनियन राज्यों भारत और पाकिस्तान में विभाजित हो गया। इस विभाजन के कारण जहाँ संविधान सभा के गठन में भी परिवर्तन हुआ, वहाँ संविधान सभा के स्तर में भी परिवर्तन हो गया। स्वतंत्रता-प्राप्ति और विभाजन के बाद संविधान सभा के कुल सदस्यों की संख्या 324 रह गई, जिनमें से 235 प्रांतों के प्रतिनिधि और 89 रियासतों के प्रतिनिधि थे।

पंजाब और बंगाल के दो भाग, जो भारत में रह गए थे, उनके लिए फिर से चुनाव हुआ। इन सदस्यों ने 14 जुलाई, 1947 को संविधान सभा में स्थान ग्रहण किया। स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद संविधान सभा पूरी तरह से प्रभुता-संपन्न हो गई थी, क्योंकि कैबिनेट मिशन योजना 1946 के द्वारा उस पर जो प्रतिबंध लगाए गए थे, वे समाप्त हो गए थे। इस संविधान सभा ने संविधान बनाने का कार्य 26 नवम्बर, 1949 को पूरा कर लिया था।

26 जनवरी की यादगार को हमेशा बनाए रखने के लिए संविधान निर्माताओं ने जान-बूझकर संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया। 26 जनवरी का दिन ‘भारत में गणतंत्र दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस तरह से भारत का संविधान भारतीयों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा निर्मित किया गया है। इस संविधान सभा में देश के प्रसिद्ध नेता, वकील तथा राजनीतिज्ञ शामिल थे।

इनमें मुख्य-मुख्य के नाम इस प्रकार थे-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, सरदार पटेल, गोविंद बल्लभ पंत, अल्लादी कृष्ण स्वामी अय्यर, डॉ० बी०आर० अम्बेडकर, आचार्य कृपलानी, सच्चिदानन्द सिन्हा, गोपाल स्वामी आयंगर, सर फजरूल्ला खां, सर फिरोज शाहनून आदि।

उद्देश्य संबंधी प्रस्ताव (Objective Resolution):
13 दिसम्बर, 1946 को पं० जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में उद्देश्य संबंधी प्रस्ताव पेश किए, जो इस प्रकार थे

(1) “संविधान सभा भारत को एक प्रभुसत्ता सम्पन्न प्रजातंत्रीय गणराज्य (Sovereign Democratic Republic) घोषित करने और उसके भविष्य के शासन के लिए संविधान बनाने के अपने दृढ़ और पवित्र निश्चय की घोषणा करती है, तथा

(2) जो क्षेत्र इस समय ब्रिटिश भारत में या भारतीय रियासतों के अंतर्गत हैं एवं भारत के ऐसे अन्य भाग जो ब्रिटिश भारत तथा रियासतों के बाहर हैं, वे सभी अगर प्रभुसत्ता सम्पन्न भारत में मिलना चाहते हैं, तो सभी मिलकर एक संघ का निर्माण करेंगे, तथा

(3) जिसमें उपरोक्त क्षेत्रों का अपनी वर्तमान सीमाओं सहित या ऐसी सीमाओं सहित जो संविधान सभा द्वारा और उसके बाद संविधान की विधि द्वारा निश्चित की जाएगी, स्वायत्त इकाइयों का पद मिलेगा और वह सरकार शासन की सभी शक्तियों का प्रयोग करेगी, सिवाय उन अधिकारों के जो संघ को दिए गए हैं तथा

(4) जिसमें प्रभुसत्ता सम्पन्न स्वतंत्र भारत, इसके संगठित भागों और सरकार के अंगों की समस्त शक्ति तथा अधिकार जनता से प्राप्त किए गए हैं, तथा

(5) जिसमें भारत के सभी लोगों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, पद तथा अवसर व कानून के समक्ष समानता, विचार, विश्वास, धर्म, पूजा, व्यवसाय, समुदाय बनाने की, कानून तथा सार्वजनिक नैतिकता के अनुसार स्वतंत्रता मिली हुई हो और सुरक्षित हो, तथा

(6) जिसमें अल्पसंख्यक वर्गों, पिछड़े हुए कबीलों और जातियों को काफी सुरक्षा की व्यवस्था होगी, तथा

(7) जिसके द्वारा सभ्य राष्ट्रों के कानून तथा न्याय के अनुसार गणतंत्र के स्थायित्व जल, थल व वायु पर अधिकार होगा।

(8) यह प्राचीन भूमि विश्व में अपना उचित तथा सम्मानित स्थान ग्रहण करती है और मानव-कल्याण व विश्व-शांति के विस्तार में अपना पूर्ण तथा ऐच्छिक योगदान करती है।”

इस प्रस्ताव के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इनमें उन आधारभूत उद्देश्यों की घोषणा की गई थी जिनके आधार पर भारत के नए संविधान का निर्माण किया जाना था। इसमें भारत को सम्पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न लोकतंत्रीय गणराज्य घोषित करना, जनता को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, समानता तथा अन्य स्वतंत्रताएँ मिलें, पिछड़ी हुई तथा अनुसूचित जातियों के विकास के लिए कुछ संरक्षण हों तथा भारत में ऐसा संघ स्थापित हो जिसमें ब्रिटिश प्रांत, देशी रियासतें तथा अन्य भारतीय क्षेत्र शामिल हों, जो विश्व-शांति को बढ़ावा दें, आदि मुख्य बातें थीं।

इसके महत्त्व की चर्चा करते हुए के०एम० मुन्शी ने कहा था, “नेहरू का उद्देश्य संबंधी यह प्रस्ताव ही हमारे स्वतंत्र गणराज्य की जन्म कुंडली है।” (“Objective resolution cast the horoscope of our Sovereign Democratic Republic.”) इस उद्देश्य-प्रस्ताव को संविधान सभा द्वारा 22 जनवरी, 1947 को सर्वसम्मति से पास कर दिया गया।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के स्रोतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान एक ऐसा संविधान है जिसमें संसार के अनेक संविधानों के अच्छे तत्त्वों को अपनाया गया है। हमारे संविधान के निर्माताओं का उद्देश्य किसी आदर्श अथवा मौलिक संविधान का निर्माण करना नहीं था, वे तो देश के लिए एक व्यावहारिक तथा कामचलाऊ संविधान का निर्माण करना चाहते थे। अतः भारतीय संविधान के निर्माण में अनेक स्रोतों की सहायता ली गई। भारतीय संविधान के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं

1. भारत सरकार अधिनियम, 1935 (Government of India Act, 1935):
भारत के वर्तमान संविधान का अधिकांश भाग भारत सरकार अधिनियम, 1935 पर आधारित है। यह निम्नलिखित बातों से स्पष्ट है

  • वर्तमान संविधान में संघीय शासन की व्यवस्था सन् 1935 के अधिनियम पर आधारित है।
  • केन्द्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन भी इसी अधिनियम पर आधारित है। उस एक्ट की भान्ति नए संविधान में शासन-शक्तियों का तीन सूचियों
    (a) संघीय सूची,
    (b) राज्य सूची तथा
    (c) समवर्ती सूची में विभाजन किया गया है।
  • सन 1935 के एक्ट की भान्ति नए संविधान में भी केन्द्रीय सरकार को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है।
  • सन 1935 के एक्ट की भान्ति नए संविधान द्वारा भी केन्द्र में द्विसदनीय विधानमंडल की स्थापना की गई है।
  • नए संविधान की धारा 356 के अंतर्गत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने की व्यवस्था का आधार सन 1935 के एक्ट का सैक्शन 93 है।
  • नए संविधान की धारा 352 के अंतर्गत राष्ट्रपति को प्राप्त संकटकालीन शक्तियाँ सन 1935 के एक्ट के सैक्शन 10 की नकल है।

2. विदेशी संविधानों का प्रभाव (Influence of Foreign Constitutions) भारत के संविधान पर विश्व के विभिन्न देशों के संविधानों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने संसार के अनेक देशों के संविधानों का अध्ययन किया और अपने देश का संविधान बनाते समय उन देशों में प्रचलित सवैधानिक प्रणालियों में से वे बातें अपनाईं जो हमारे देश की परिस्थितियों के अनुकूल थीं. मुख्य विदेशी संविधान जिनका प्रभाव विशेष रूप से पड़ा है, निम्नलिखित हैं

(क) ब्रिटिश संविधान (British Constitution)-भारतीय संविधान में सबसे अधिक प्रभाव ब्रिटिश संविधान का है। यह शायद इस कारण है कि अंग्रेजों ने स्वतंत्रता-प्राप्ति से पूर्व लगभग 200 वर्ष तक भारत पर शासन किया और इस बीच भारतीयों को उनकी राजनीतिक संस्थाओं का काफी अनुभव हुआ। ब्रिटिश संविधान से हमने निम्नलिखित बातें अपनाई हैं

  • इंग्लैण्ड के सम्राट की भान्ति भारत का राष्ट्रपति नाममात्र का तथा संवैधानिक मुखिया है।
  • संसदीय प्रणाली इंग्लैण्ड की नकल है।
  • मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री का श्रेष्ठ स्थान है तथा मंत्रिमंडल वास्तविक कार्यपालिका है जैसे कि ब्रिटेन में है।
  • मंत्रिमंडल सामूहिक तौर पर लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है।
  • संसद का द्विसदनीय विधानमंडल होना और लोकसभा इंग्लैण्ड के कॉमन सदन की भान्ति अधिक शक्तिशाली है।।
  •  कानून के शासन का होना (Rule of Law)।

परंतु भारत और ब्रिटेन के संविधानों में इन सब बातों में एकरूपता होते हुए भी मूल अंतर इस बात का है कि इंग्लैण्ड में इन सबके बारे में कोई लिखित व्यवस्था नहीं की गई जबकि भारत में उन्हें लिखित संविधान द्वारा अपनाया गया है।

(ख) संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान (Constitution of the U.S.A.):
भारत के संविधान पर संयुक्त राज्य अमेरिका (U.S.A.) के संविधान का भी काफी प्रभाव है; जैसे

  • हमारे संविधान के आरम्भ से पूर्व एक प्रस्तावना है। इसमें अमेरिका के संविधान की प्रस्तावना की भान्ति यह लिखा गया है कि संविधान का निर्माण करने वाले ‘हम भारत के लोग’ ‘We the People of India’ हैं।
  • हमारे मौलिक अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका के बिल ऑफ राईट्स (Bill of Rights) से मिलते-जुलते हैं।
  • भारत की सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) के कार्य और दर्जा अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट जैसे हैं।
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सिद्धांत।
  • उप-राष्ट्रपति के कार्य और दर्जा।

(ग) कनाडा का संविधान (Canadian. Constitution) कुछ बातें हमने कनाडा के संविधान से भी अपनाई हैं; जैसे

  • कनाडा की भान्ति हमने भारत को राज्यों का संघ (Union of States) माना है।
  • संघात्मक ढाँचा अपनाने के साथ-साथ केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया है।
  • शेष शक्तियाँ केन्द्र को दी गई हैं।

(घ) ऑस्ट्रेलिया का संविधान (Australian Constitution)-ऑस्ट्रेलिया की भान्ति हमारे संविधान में समवर्ती-सूची की व्यवस्था और केन्द्र तथा राज्यों में झगड़ों का निपटारा करने की विधि (अनुच्छेद 251) अपनाई गई है।

(ङ) आयरलैण्ड का संविधान (The Irish Constitution)-राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत, राष्ट्रपति के एक विशेष निर्वाचन मंडल द्वारा चुनाव की व्यवस्था, राज्यसभा के सदस्यों में मनोनीत सदस्यों की व्यवस्था आदि आयरलैण्ड के संविधान पर आधारित है।

(च) अन्य संविधान (Other Constitutions)-उपरोक्त संविधानों के अतिरिक्त कई अन्य संविधानों ने भी हमारे संविधान को प्रभावित किया है; जैसे राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का स्रोत जर्मनी का संविधान है। इसी प्रकार संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया तथा राज्यसभा के सदस्यों की निर्वाचन विधि दक्षिणी अफ्रीका के संविधान की देन है।

3. संसद द्वारा पास किए गए अधिनियम (Statutes)-संविधान के अनुसार अनेक शासकीय व्यवस्थाओं को पूरा करने के लिए संसद को कानून बनाने का अधिकार दिया गया है। इसके अधीन संसद द्वारा बनाए गए निम्नलिखित कानून उल्लेखनीय हैं–

  • निरोधक नजरबन्दी अधिनियम, 1950,
  • 1950, 1951 का जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम,
  • 1951 का वित्त आयोग का अधिनियम,
  • 1951 का राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति चुनाव अधिनियम,
  • भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955,
  • सर्वोच्च न्यायालय (न्यायाधीश संख्या) अधिनियम, 1956,
  • सरकारी भाषा अधिनियम, 1963,
  • पंजाब पुनर्गठन अधिनियम, 1966,
  • 1971 का आन्तरिक सुरक्षा स्थापित रखने संबंधी एक्ट,
  • 1977 का प्रधानमंत्री तथा स्पीकर के चुनाव-विवादों के संबंध में अधिनियम,
  • 1977 का राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के चुनाव के विवाद के संबंध में अधिनियम,
  • 1981 का राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी कानून,
  • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार कानून, 1992,
  • पोटा, 2002

4. मसौदा संविधान, 1948 (Draft Constitution of 1948)-भारतीय संविधान का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत सन 1948 का मसौदा संविधान है, जिसे डॉ० अम्बेडकर की अध्यक्षता में स्थापित की गई मसौदा समिति ने तैयार किया। इसमें 315 अनुच्छेद तथा 8 सूचियाँ थीं। इस पर संविधान सभा में खूब वाद-विवाद हुआ। सदस्यों द्वारा इसमें 7635 संशोधन पेश किए गए जिनमें से 2473 पर विचार किया गया। नए संविधान के अधिकांश अनुच्छेद इसी मसौदा संविधान में से ही लिए गए हैं।

5. संविधान सभा के विवाद (Debates of Constituent Assembly) भारत के वर्तमान संविधान की रूप-रेखा निर्धारित करने में संविधान सभा में हुए वाद-विवाद भी विशेष महत्त्व रखते हैं। इन विवादों में उच्चकोटि के विद्वानों, कानून शास्त्रियों तथा राजनीतिज्ञों ने भाग लिया जो संविधान सभा के सदस्य थे। गोपालन बनाम मद्रास राज्य (Gopalan V/s State of Madras) के मुकद्दमें में उच्चतम न्यायालय में संविधान सभा की रिपोर्ट का उदाहरण दिया गया था।

6. न्यायिक निर्णय (Judicial Decisions) भारतीय संविधान के विकास में सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के निर्णय भी विशेष महत्त्व रखते हैं और ये भी हमारे संविधान का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इन न्यायालयों ने संविधान के रक्षक और व्याख्याता होने के नाते कई प्रसिद्ध फैसले दिए हैं जो अब संविधान का भाग बन गए हैं; जैसे (Gopalan V/s State of Madras के मुकद्दमे में सुप्रीम कोर्ट ने निजी स्वतंत्रता के क्षेत्र की व्याख्या की।

इसी प्रकार Madras V/s Champkan के मुकद्दमे में न्यायालय ने यह फैसला दिया कि राज्य-नीति के निदेशक सिद्धांत मौलिक अधिकारों से ऊपर नहीं। I.C.,Golaknath V/s State of Punjab के मुकद्दमे में यह कहा गया कि संसद मौलिक अधिकारों को नहीं बदल सकती। सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 1973 के प्रसिद्ध Fundamental Rights Case में अपने सन 1967 के फैसले को बदल दिया और संसद के संविधान के किसी भी भाग में संशोधन । करने के अधिकार को मान्यता दी।

7. सवैधानिक विशेषज्ञों के विचार (Views of Constitutional Experts)-संवैधानिक विशेषज्ञों के विचार और टिप्पणियाँ भी हमारे संविधान का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इन विशेषज्ञों ने संविधान के बारे में अपने-अपने विचार अपने संवैधानिक लेखों में व्यक्त किए हैं। चाहे इन विचारों को कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं फिर भी इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इन विचारकों का प्रभाव हमारे कानून निर्माताओं तथा न्यायाधीशों पर अवश्य पड़ सकता है।

8. संवैधानिक संशोधन (Constitutional Amendments)-संविधान के लागू होने के समय से लेकर अब तक इसमें लगभग 104 संशोधन (दिसम्बर, 2019 तक) हो चुके हैं, जो अब संविधान के अभिन्न अंग हैं तथा एक मुख्य स्रोत के रूप में कार्य करते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन संशोधनों द्वारा मूल संविधान में बहुत परिवर्तन आए हैं।

इनसे बहुत-सी बातों को संविधान से निकाल दिया गया है। प्रथम संशोधन द्वारा नागरिकों के स्वतन्त्रता के अधिकार पर प्रतिबन्ध लगाने की व्यवस्था की गई है। 15वें संशोधन द्वारा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की पदावधि 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष कर दी गई। 22वें संशोधन द्वारा सिन्धी भाषा को भी भारतीय भाषाओं की सूची में जोड़ दिया गया है। 24वें संशोधन द्वारा संसद को यह अधिकार दिया गया कि वह संविधान के किसी भी भाग में, जिसमें मौलिक अधिकारों वाला भाग भी शामिल है, संशोधन कर सकती है।

26वें संशोधन के अनुसार राजा-महाराजाओं के प्रिवी पर्सी (Privy Purses) को समाप्त कर दिया गया। 27वें संशोधन द्वारा मणिपुर तथा मेघालय को पूर्ण राज्य का स्तर दे दिया गया। 42वें संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना (Preamble) में संशोधन करके भारत को प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य (Sovereign, Socialist, Secular, Democratic Republic) घोषित किया गया और संविधान में नागरिकों के मौलिक कर्तव्य से जोड़ दिया गया।

44वें संशोधन के अनुसार, ‘सम्पत्ति के अधिकार’ को मौलिक अधिकारों की सूची से निकाल दिया गया। केन्द्र एवं राज्यों में प्रधानमन्त्री/मुख्यमन्त्री सहित मन्त्रियों की कुल संख्या निचले सदन में सदस्यों की संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। 95वें संशोधन द्वारा अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा एंग्लो इंडियन समुदाय के लिए लोकसभा तथा विधानसभाओं आदि में आरक्षण की अवधि बढ़ाकर 25 जनवरी, 2020 तक कर दी गई।

संविधान में किए गए 96 व 97वें संशोधन सहकारी समितियों (Co-operative Societies) के संबंध में हैं। इनके द्वारा सहकारी समितियों की आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहन देना है जिससे वे ग्रामीण भारत के विकास में सहायता कर सकें। 98वें (2013) संशोधन द्वारा कर्नाटक के राज्यपाल को यह शक्ति दी गई है कि हैदराबाद-कर्नाटक खण्ड (Hyderabad- Karnataka Region) के विकास के लिए कदम उठा सकें।

सन् 2015 में हुए 99वें संशोधन द्वारा भारत तथा बांग्लादेश के बीच हुई सन्धि के अन्तर्गत दोनों देशों के बीच भू-भाग परिवर्तन के परिणामस्वरूप उन क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्तियों को नागरिकता देने के अधिकार से संबंधित है। . ‘वस्तु एवं सेवा कर’ सम्बन्धी 101वां संशोधन अधिनियम राज्यसभा एवं लोकसभा में क्रमशः 3 अगस्त एवं 8 अगस्त, 2016 – को पारित करने के उपरान्त 8 सितम्बर, 2016 को राष्ट्रपति ने अपनी स्वीकृति प्रदान की।

यद्यपि उक्त संशोधन अधिनियम संख्या की दृष्टि से 122वां था, परन्तु पूर्व में संसद द्वारा 100 संशोधन विधेयक पारित किए जा चुके थे अतः संशोधन की दृष्टि से 101वां संशोधन विधेयक था। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) को संवैधानिक दर्जा देने सम्बन्धी 123वाँ संविधान संशोधन विधेयक संसद से पारित होने के पश्चात् राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर 11 अगस्त, 2018 को लागू हुआ जो संशोधन की संख्या दृष्टि से 102वां संशोधन विधेयक था।

इसी क्रम में 124वां संविधान संशोधन विधेयक के रूप में 9 जनवरी, 2019 को संसद द्वारा पारित करने के पश्चात् 12 जनवरी, 2019 को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को शिक्षा एवं रोजगार में 10 प्रतिशत आरक्षण देने सम्बन्धी संशोधन विधेयक लागू किया गया जो संवैधानिक संशोधन की संख्या दृष्टि से 103वाँ संशोधन विधेयक है। इसी क्रम में 104वें सवैधानिक संशोधन (संशोधन प्रस्ताव संख्या 126) द्वारा दिसम्बर, 2019 में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के साथ-साथ सरकारी सेवाओं में भी आरक्षण की अवधि को दस वर्ष बढ़ाकर 25 जनवरी, 2030 तक कर दिया गया है।

इस प्रकार संविधान के लागू होने के समय से लेकर अब तक (दिसम्बर, 2019) इसमें कुल 104 संशोधन हो चुके हैं। इस प्रकार इन संशोधनों द्वारा बहुत परिवर्तन हुए हैं और इनका अध्ययन किए बिना संविधान की पूरी जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती।

9. प्रथाएँ (Conventions) यद्यपि भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है, फिर भी इस देश में महत्त्वपूर्ण प्रथाएँ विकसित हुई हैं, जो संविधान के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इनमें से कुछ प्रथाएँ इस प्रकार हैं

(1) राज्यपाल की नियुक्ति करने का अधिकार राष्ट्रपति के पास है, परंतु प्रथा के आधार पर संघीय सरकार किसी राज्यपाल की नियुक्ति करते समय सम्बन्धित राज्य के मुख्यमंत्री की सलाह लेती है।

(2) अब यह भी प्रथा बन गई है कि राज्यपाल के पद पर नियुक्त होने वाला व्यक्ति उस राज्य का निवासी नहीं होना चाहिए।

(3) लोकसभा तथा विधानमंडलों के अध्यक्ष (स्पीकर) निष्पक्षता के साथ अपना कार्य करते हैं चाहे वे किसी भी दल से सम्बन्धित क्यों न हों।

(4) प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है, परंतु प्रथा के आधार पर राष्ट्रपति उसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त करता है जो लोकसभा में बहुसंख्यक दल का नेता होता है। राष्ट्रपति उसकी नियुक्ति करते समय स्वेच्छा से काम नहीं करता।

(5) राष्ट्रपति का दो बार से अधिक एक ही व्यक्ति का न रहना भी प्रथा पर आधारित है। संविधान के द्वारा ऐसी कोई पाबन्दी नहीं लगाई गई है। निष्कर्ष (Conclusion) ऊपर दिए गए विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय संविधान के अनेक स्रोत हैं। हमारे संविधान के निर्माताओं ने विदेशी संविधानों से बहुत-सी बातें ली हैं जिसके परिणामस्वरूप कई बार इसे ‘उधार ली का थैला’ (Bag of Borrowings) अथवा विविध संविधानों की खिचड़ी (Hotch-Potch) कहकर पुकारा जाता है, परंतु यह आलोचना न्यायसंगत नहीं है।

वास्तव में, संविधान निर्माताओं द्वारा विदेशी संविधानों की केवल उन धाराओं तथा व्यवस्थाओं को अपने संविधान में अपना लिया गया जो उन देशों में सफलतापूर्वक कार्य कर चुकी थीं और भारत की परिस्थितियों के अनुकूल थीं।

वस्तु निष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. निम्नलिखित देश का संविधान अलिखित है
(A) चीन
(B) फ्रांस
(C) स्विटज़रलैंड
(D) इंग्लैंड
उत्तर:
(D) इंग्लैंड

2. भारतीय संविधान का निर्माण करने वाली संविधान सभा की स्थापना हुई
(A) 1947 ई०
(B) 1946 ई०
(C) 1949 ई०
(D) 1950 ई०
उत्तर:
(B) 1946 ई०

3. मूल रूप में संविधान सभा के सदस्यों की संख्या निश्चित की गई थी
(A) 389
(B) 360
(C) 272
(D) 420
उत्तर:
(A) 389

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

4. भारतीय संविधान का निर्माण किया गया
(A) संविधान सभा द्वारा
(B) ब्रिटिश संसद द्वारा
(C) भारतीय संसद द्वारा
(D) ब्रिटिश सम्राट द्वारा
उत्तर:
(A) संविधान सभा द्वारा

5. भारतीय संविधान
(A) लचीला है
(B) कठोर है
(C) अंशतः लचीला तथा अंशतः कठोर है
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) अंशतः लचीला तथा अंशतः कठोर है

6. संविधान सभा की प्रथम बैठक हुई
(A) 7 दिसंबर, 1947
(B) 9 दिसंबर, 1946
(C) 3 जून, 1947
(D) 14 जुलाई, 1947
उत्तर:
(B) 9 दिसंबर, 1946

7. निम्नलिखित देश का संविधान लिखित है
(A) भारत
(B) संयुक्त राज्य अमेरिका
(C) चीन
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. निम्नलिखित देश का संविधान लचीला है
(A) भारत
(B) संयुक्त राज्य अमेरिका
(C) इंग्लैंड
(D) स्विटजरलैंड
उत्तर:
(C) इंग्लैंड

9. भारतीय संविधान
(A) सरकार के विभिन्न अंगों के गठन तथा
(B) सरकार के विभिन्न अंगों पर नियंत्रण स्थापित करता है शक्तियों को निश्चित करता है। और उन्हें तानाशाह बनने से रोकता है।
(C) नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है
(D) उपर्युक्त तीनों कार्य करता है।
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों कार्य करता है।

10. निम्नलिखित देश का संविधान कठोर है
(A) चीन
(B) इंग्लैंड
(C) संयुक्त राज्य अमेरिका
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) संयुक्त राज्य अमेरिका

11. निम्नलिखित राजनीतिक दल के सदस्यों द्वारा संविधान सभा का बहिष्कार किया गया था
(A) कांग्रेस
(B) अकाली दल
(C) मुस्लिम लीग
(D) भारतीय जनता पार्टी
उत्तर:
(C) मुस्लिम लीग

12. संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव किया गया था
(A) वयस्क मताधिकार के आधार पर
(B) जातीय आधार पर
(C) सांप्रदायिक आधार पर
(D) ब्रिटिश सम्राट द्वारा
उत्तर:
(C) सांप्रदायिक आधार पर

13. भारतीय संविधान में अनुसूचियाँ हैं
(A) 7
(B) 8
(C) 10
(D) 12
उत्तर:
(D) 12

14. संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव (Objective Resolution) निम्न सदस्य द्वारा पेश किया गया था
(A) जवाहरलाल नेहरू
(B) सरदार पटेल
(C) आचार्य कृपलानी
(D) मौलाना आज़ाद
उत्तर:
(A) जवाहरलाल नेहरू

15. निम्नलिखित भारतीय संविधान का स्रोत नहीं है
(A) भारत सरकार अधिनियम, 1935
(B) इंग्लैंड का संविधान
(C) चीन का संविधान
(D) संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान
उत्तर:
(C) चीन का संविधान

16. भारतीय संविधान बनकर तैयार हो गया था
(A) 26 जनवरी, 1950
(B) 14 नवंबर, 1949
(C) 26 नवंबर, 1949
(D) 30 नवंबर, 1950
उत्तर:
(C) 26 नवंबर, 1949

17. भारत का संविधान लागू हुआ
(A) 26 नवंबर, 1949
(B) 26 जनवरी, 1950
(C) 26 जनवरी, 1949
(D) 15 अगस्त, 1947
उत्तर:
(B) 26 जनवरी, 1950

18. स्वतंत्रता प्राप्ति तथा देश के विभाजन के पश्चात् संविधान सभा के सदस्यों की संख्या रह गई थी
(A) 280
(B) 324
(C) 213
(D) 235
उत्तर:
(B) 324

19. भारतीय संविधान सभा में निम्नलिखित राजनीतिक दल को भारी बहुमत प्राप्त था
(A) कांग्रेस
(B) मुस्लिम लीग
(C) अकाली दल
(D) हिंदू महासभा
उत्तर:
(A) कांग्रेस

20. निम्नलिखित संविधान सभा की मसौदा समिति (Drafting Committee) के अध्यक्ष थे
(A) डॉ० राजेंद्र प्रसाद
(B) डॉ० अंबेडकर
(C) जवाहरलाल नेहरू
(D) के०एम० मुंशी
उत्तर:
(B) डॉ० अंबेडकर

21. भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष थे
(A) जवाहरलाल नेहरू
(B) डॉ० अंबेडकर
(C) डॉ० राजेंद्र प्रसाद
(D) सरदार पटेल
उत्तर:
(C) डॉ० राजेंद्र प्रसाद

22. भारतीय संविधान सभा के निर्माण में लगे
(A) 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन
(B) पूरे 3 वर्ष
(C) 2 वर्ष तथा 4 महीने
(D) 2 वर्ष 6 महीने तथा 15 दिन
उत्तर:
(A) 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन

23. भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का वर्णन संविधान के निम्नलिखित अनुच्छेद में किया गया है
(A) अनुच्छेद 324
(B) अनुच्छेद 368
(C) अनुच्छेद 370
(D) अनुच्छेद 326
उत्तर:
(B) अनुच्छेद 368

24. भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों को जोड़ने की प्रेरणा निम्नलिखित संविधान से मिली
(A) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से
(B) इंग्लैंड के संविधान से
(C) जर्मनी के संविधान से
(D) कनाडा के संविधान से
उत्तर:
(A) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से

25. भारतीय संविधान में दिए गए राज्यनीति के निदेशक सिद्धांतों पर निम्नलिखित देश के संविधान की छाप है
(A) इंग्लैंड के संविधान की
(B) आयरलैंड के संविधान की
(C) जर्मनी के संविधान की
(D) कनाडा के संविधान की
उत्तर:
(B) आयरलैंड के संविधान की

26. निम्नलिखित भारतीय संविधान का स्रोत है
(A) इंग्लैंड का संविधान
(B) संवैधानिक संशोधन
(C) संसद द्वारा पारित अधिनियम
(D) उपर्युक्त तीनों संविधान
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों संविधान

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में –

1. भारतीय संविधान सभा का गठन कब किया गया?
उत्तर:
सन् 1946 में।

2. भारतीय संविधान सभा की प्रथम बैठक कब हुई?
उत्तर:
9 दिसम्बर, 1946 को।

3. संविधान सभा के प्रथम अस्थायी अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
डॉ० सच्चिदानन्द

4. प्रारम्भ से ही किस राजनीतिक दल ने संविधान सभा की बैठकों का बहिष्कार किया?
उत्तर:
मुस्लिम लीग ने।

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5. भारतीय संविधान सभा ने संविधान बनाने का कार्य कब पूर्ण किया?
उत्तर:
26 नवम्बर, 1949 को।

6. भारतीय संविधान कब लागू हुआ?
उत्तर:
26 जनवरी, 1950 को।

7. भारतीय संविधान सभा के किसी एक प्रमुख संवैधानिक परामर्शदाता का नाम लिखिए।
उत्तर:
बी०एन० राव।

8. भारतीय संविधान सभा के मसौदा समिति (Drafting Committee) के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
डॉ० बी०आर० अम्बेडकर।

9. भारतीय संविधान सभा की मसौदा समिति में कुल कितने सदस्य थे?
उत्तर:
अध्यक्ष सहित कुल सात सदस्य थे।

10. भारतीय संविधान का निर्माण करने में कितना समय लगा?
उत्तर:
2 वर्ष, 11 महीने एवं 18 दिन।

11. ‘The Indian Constitution-Corner stone of a Nation’ नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं?
उत्तर:
जी० ऑस्टिन।

12. वर्तमान संविधान में कितने अनुच्छेद एवं कितनी अनुसूचियाँ हैं?
उत्तर:
वर्तमान संविधान में 395 अनुच्छेद एवं 12 अनुसूचियाँ हैं।

13. भारतीय संविधान में राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का प्रावधान किस देश के संविधान से प्रभावित होकर किया है?
उत्तर:
जर्मनी के संविधान से।

14. भारतीय संविधान में राज्य-नीति के निदेशक सिद्धांतों संबंधी प्रावधान किस देश के संविधान से प्रभावित होकर किया गया है?
उत्तर:
आयरलैण्ड के संविधान से।

15. उद्देश्य प्रस्ताव को संविधान सभा द्वारा कब स्वीकृति प्रदान की गई थी?
उत्तर:
22 जनवरी, 1947 को।

16. डॉ० अम्बडेकर की अध्यक्षता में प्रारूप समिति का गठन कब किया गया?
उत्तर:
29 अगस्त, 1947 को।

17. संविधान सभा की अन्तिम बैठक कब हुई?
उत्तर:
24 जनवरी, 1950 को।

18. मूल भारतीय संविधान में कुल कितने अनुच्छेद, अनुसूचियाँ एवं भाग थे?
उत्तर:
395 अनुच्छेद, 8 अनुसूचियाँ एवं 22 भाग थे।

19. संविधान सभा के सदस्यों ने संविधान पर अन्तिम रूप में हस्ताक्षर कब किए?
उत्तर:
24 जनवरी, 1950 को।

20. संविधान सभा के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद

रिक्त स्थान भरें

1. भारतीय संविधान में कुल ………….. अनुच्छेद हैं।
उत्तर:
395

2. भारतीय संविधान सभा के कुल ………….. अधिवेशन हुए हैं।
उत्तर:
12

3. भारतीय संविधान सभा का गठन ……………. में हुआ।
उत्तर:
1946

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4. ……………. भारतीय संविधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष थे।
उत्तर:
डॉ० सच्चिदानन्द

5. संविधान सभा की प्रथम बैठक ……………. को हुई।
उत्तर:
9 दिसम्बर, 1946

6. ………….. मसौदा समिति के अध्यक्ष थे।
उत्तर:
डॉ० अम्बेडकर

7. मूल संविधान में कुल ………….. अनुसूचियाँ थी।
उत्तर:
8

8. भारतीय संविधान …………… को लागू हुआ।
उत्तर:
26 जनवरी, 1950

9. ………….. संविधान सभा के प्रथम स्थायी अध्यक्ष थे।
उत्तर:
डॉ० राजेन्द्र प्रसाद

10. संविधान सभा के कुल सदस्यों की संख्या ………….. निर्धारित की गई थी।
उत्तर:
389

11. संविधान में …………. सदस्य अनुसूचित जाति के थे।
उत्तर:
26

12. संविधान में ……………. सवैधानिक सलाहकार थे।
उत्तर:
बी.एन. राव

13. संविधान सभा की प्रान्तीय संविधान समिति के अध्यक्ष ………….. थे।
उत्तर:
सरदार पटेल

14. भारतीय संविधान को ………….. द्वारा अपनाया गया।
उत्तर:
संविधान सभा

15. संविधान सभा की अन्तिम एवं 12वीं बैठक ……………. को हुई थी।
उत्तर:
24 जनवरी, 1950

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे? Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

HBSE 11th Class Political Science संविधान : क्यों और कैसे? Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
इनमें कौन-सा संविधान का कार्य नहीं है?
(क) यह नागरिकों के अधिकार की गारंटी देता है।
(ख) यह शासन की विभिन्न शाखाओं की शक्तियों के अलग-अलग क्षेत्र का रेखांकन करता है।
(ग) यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता में अच्छे लोग आयें।
(घ) यह कुछ साझे मूल्यों की अभिव्यक्ति करता है।
उत्तर:
(ग) यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता में अच्छे लोग आयें।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सा कथन इस बात की एक बेहतर दलील है कि संविधान की प्रमाणिकता संसद से यादा है?
(क) संसद के अस्तित्व में आने से कहीं पहले संविधान बनाया जा चुका था।
(ख) संविधान के निर्माता संसद के सदस्यों से कहीं ज्यादा बड़े नेता थे।
(ग) संविधान ही यह बताता है कि संसद कैसे बनायी जाये और इसे कौन-कौन-सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
(घ) संसद, संविधान का संशोधन नहीं कर सकती।
उत्तर:
(ग) संविधान ही यह बताता है कि संसद कैसे बनायी जाये और इसे कौन-कौन-सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।

प्रश्न 3.
बतायें कि संविधान के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत?
(क) सरकार के गठन और उसकी शक्तियों के बारे में संविधान एक लिखित दस्तावेज़ है।
(ख) संविधान सिर्फ लोकतांत्रिक देशों में होता है और उसकी जरूरत ऐसे ही देशों में होती है।
(ग) संविधान एक कानूनी दस्तावेज़ है और आदर्शों तथा मूल्यों से इसका कोई सरोकार नहीं।
(घ) संविधान एक नागरिक को नई पहचान देता है।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) गलत,
(घ) सही।

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प्रश्न 4.
बतायें कि भारतीय संविधान के निर्माण के बारे में निम्नलिखित अनुमान सही हैं या नहीं? अपने उत्तर का कारण बतायें।
(क) संविधान-सभा में भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं हुई। इसका निर्वाचन सभी नागरिकों द्वारा नहीं हुआ था।

(ख) संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया क्योंकि उस समय नेताओं के बीच संविधान की बुनियादी रूपरेखा के बारे में आम सहमति थी।

(ग) संविधान में कोई मौलिकता नहीं है क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा दूसरे देशों से लिया गया है।
उत्तर:
(क) भारत की संविधान सभा का निर्माण कैबिनेट मिशन योजना, 1946 के अनुसार किया गया था। इस योजना के अनुसार पहले प्रांतों की विधानसभाओं के चुनाव हुए। विधानसभा के चुने हुए सदस्यों के द्वारा प्रांतों में संविधान सभा के प्रतिनिधियों को निर्वाचित किया गया। देशी रियासतों के प्रतिनिधियों को देशी रियासतों के राजाओं के द्वारा मनोनीत किया गया था।

भारतीय संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 389 निश्चित की गई, जिसमें से 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 4 चीफ कमिश्नर वाले प्रांतों के तथा 93 देशी रियासतों के प्रतिनिधि होते थे। प्रांतों के 296 सदस्यों के चुनाव जुलाई, 1946 में करवाए गए। इनमें से 212 स्थान काँग्रेस को, 73 मुस्लिम लीग को एवं 11 स्थान अन्य दलों को प्राप्त हुए।

काँग्रेस की इस शानदार सफलता को देखकर मुस्लिम लीग को बड़ी निराशा हुई और उसने संविधान सभा का बहिष्कार करने का निर्णय किया। 9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा का विधिवत उद्घाटन हुआ। प्रायः संविधान सभा के गठन के लिए यह आरोप लगाया जाता है कि इसके प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था, लेकिन उस समय की परिस्थितियों के अनुसार यह अनिवार्य था कि संविधान सभा को शीघ्र गठित किया जाए। अगर मान लिया जाए कि चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर भी होता तो भी यही प्रतिनिधि निर्वाचित होकर आने थे, क्योंकि काँग्रेस देश में एक बहुत ही शक्तिशाली एवं प्रभावशाली संस्था बन चुकी थी। जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व था।

इसके अतिरिक्त इसमें भी तनिक सन्देह नहीं कि देशी रियासतों के प्रतिनिधियों को भी संविधान सभा में मनोनीत किया गया था और यह पद्धति प्रजातंत्र सिद्धांतों के विपरीत थी, लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए ऐसा करना आवश्यक था, अन्यथा देशी रियासतों के राजा संविधान सभा में शामिल ही नहीं होते। अतः भारतीय संविधान सभा हर दृष्टि से भारत की एक सच्ची प्रतिनिधित्व सभा थी। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि इसमें भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं हुई।

(ख) यदि देखा जाए तो किसी भी विविधतापूर्ण एवं व्यापक प्रतिनिध्यात्मक संस्था में सदस्यों के बीच मतभेद का होना अस्वाभाविक नहीं है। भारतीय संविधान सभा में भी सदस्यों के बीच वैचारिक मतभेद होते थे लेकिन वे मतभेद वास्तव में वैध सैद्धान्तिक आधार पर होते थे। भारतीय संविधान सभा में व्यापक मतभेद के पश्चात् भी संविधान का केवल एक ही प्रावधान ऐसा है, जो बिना किसी वाद-विवाद के पास हुआ। यह प्रावधान सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार था, जिस पर वाद-विवाद आवश्यकह सदस्यों के लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा का ही सचक था। अत: यह कहना सही नहीं है कि संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया, क्योंकि उस समय नेताओं के बीच संविधान की बुनियादी रूपरेखा के बारे में सामान्यतया आम सहमति थी।

(ग) यह कहना सही नहीं है कि भारतीय संविधान में कोई मौलिकता नहीं है, क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा विश्व के दूसरे देशों से लिया गया है। वास्तविकता तो यह है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने विभिन्न देशों के संविधान के आदर्शों, मूल्यों एवं परंपराओं से बहुत कुछ सीखने अथवा ग्रहण करने का प्रयास किया।जो उन देशों में सफलतापूर्वक कार्य कर रही थीं और भारत की परिस्थितियों के अनुकूल थीं। इस प्रकार भारतीय संविधान विदेशों से उधार लिया हुआ संविधान नहीं, बल्कि विभिन्न विदेशी संविधानों की आदर्श-व्यवस्थाओं का संग्रह है।

वास्तव में हमारे संविधान निर्माताओं ने दूरदर्शिता का ही कार्य किया। विदेशी संविधान की आँख मूंदकर नकल नहीं की गई है, बल्कि विभिन्न संविधानों की विशेषताओं को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल संशोधित कर अपनाने से भारतीय संविधान में मौलिकता भी आ गई है। वैसे भी संवैधानिक व्यवस्थाओं पर किसी भी देश का एकाधिकार नहीं है और कोई भी देश किसी भी सवैधानिक व्यवस्था को अपना सकता है। ऐसे में भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा भी विश्व की किसी संवैधानिक व्यवस्था को अपनाने से भारतीय संविधान की मौलिकता के प्रति कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाना चाहिए।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान के बारे में निम्नलिखित प्रत्येक निष्कर्ष की पुष्टि में दो उदाहरण दें।
(क) संविधान का निर्माण विश्वसनीय नेताओं द्वारा हुआ। उनके लिए जनता के मन में आदर था।
(ख) संविधान ने शक्तियों का बँटवारा इस तरह किया कि इसमें उलट-फेर मुश्किल है।
(ग) संविधान जनता की आशा और आकांक्षाओं का केंद्र है।
उत्तर:
(क) भारतीय संविधान का निर्माण एक ऐसी संवैधानिक सभा द्वारा किया गया था जिसका निर्माण समाज के सभी वर्गों, जातियों, धर्मों और समुदायों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा ये प्रतिनिधि सक्रिय रूप से भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन से भी जुड़े हुए थे। अतः स्वाभाविक रूप से उन्हें जनता की अपेक्षाओं, आशाओं, आकांक्षाओं और समस्याओं का पूर्ण ज्ञान था।

संविधान निर्माण के क्रम में इन नेताओं द्वारा समस्त तथ्यों का गहन विश्लेषणात्मक अध्ययन कर देश के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए संविधान का निर्माण किया गया। इन नेताओं के प्रति जनता के मन में आदर होना बिल्कुल स्वाभाविक है। जनता के इसी आदर भाव के कारण लोकसभा संविधान लागू होने के बाद हुए प्रथम आम लोकसभा चुनाव, 1952 में संविधान सभा के लगभग सभी सदस्यों ने चुनाव लड़ा और जिनमें अधिकांश विजयी हुए। अतः जनता द्वारा उनको विजयी बनाना संविधान सभा के सदस्यों के प्रति आदर भाव को ही व्यक्त करना है।

(ख) संविधान में विभिन्न संस्थाओं और अंगों की शक्तियों और दायित्वों का स्पष्ट और पृथक वितरण किया गया है ताकि सरकार के विभिन्न अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के कार्य-संचालन में किसी प्रकार की समस्या एवं टकराहट उत्पन्न न हो। इसके साथ-साथ संविधान में शक्ति-वितरण में नियंत्रण एवं संतुलन के सिद्धांत को अपनाया गया और जन-कल्याण के लिए प्रतिबद्धता को भी दर्शाया गया।

संविधान सभा ने शक्ति के समुचित और संतुलित वितरण के लिए संसदीय शासन व्यवस्था और संघात्मक व्यवस्था को स्वीकार किया तथा न्यायपालिका को स्वतंत्र एवं सर्वोच्च रखा और उसे संसद तथा समीक्षा का अधिकार भी दिया गया। इस प्रकार किसी भी प्रकार के टकराहट और उलट-फेर को रोकने का पर्याप्त प्रावधान भारतीय संविधान में किया गया है।

(ग) भारतीय संविधान बहुत ही संतुलित एवं न्यायपूर्ण स्वरूप का है। इसमें समाज के विभिन्न वर्गों के व्यापक हितों के अनुरूप अनेक विशेष प्रावधान किए गए हैं। इसमें समाज के उपेक्षित, दलित, शोषित और कमजोर वर्गों के लिए अलग से विशेष प्रावधान किए गए हैं। संविधान में जन-कल्याण को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है। संविधान निर्माण में न्याय के बुनियादी सिद्धांत का पालन किया गया है।

इसके अतिरिक्त वयस्क मताधिकार, मौलिक अधिकार एवं राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से जनता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को साकार करने की व्यवस्था भी की गई है। अतः यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान जनता की आशाओं और अपेक्षाओं के अनुरूप है और उनका केंद्र भी है।

प्रश्न 6.
किसी देश के लिए संविधान में शक्तियों और जिम्मेदारियों का साफ-साफ निर्धारण क्यों जरूरी है? इस तरह का निर्धारण न हो तो क्या होगा?
उत्तर:
किसी भी संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत सरकार के विभिन्न अंगों के बीच शक्तियों और कार्यों का स्पष्ट और संतुलित विभाजन बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके अभाव में इन संस्थाओं के बीच परस्पर टकराहट और तनाव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। संविधान में सरकार के तीनों अंगों के बीच शक्ति का निर्धारण इस प्रकार किया गया है कि उनमें शक्ति संतुलन बना रहे और उनका आचरण संविधान की मर्यादाओं के विरुद्ध न हो; जैसे यदि विधायिका द्वारा अपने अधिकार का दुरुपयोग किया जाता है अथवा किसी प्रकार संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण किया जाता है, तो न्यायपालिका को यह अधिकार प्राप्त है कि वह इसके द्वारा बनाए कानून को ही असंवैधानिक घोषित कर सकती है।

उसी प्रकार, विधायिका कार्यपालिका के कार्यों को; जैसे प्रश्नकाल, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव आदि द्वारा नियंत्रण रख सकती है। इस प्रकार वह सभी संस्थाएँ स्वतंत्र एवं सुचारु रूप से अपना कार्य कर सकती हैं, परन्तु अपने-अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं कर सकती हैं। यदि इनके द्वारा अतिक्रमण का प्रयास किया जाता है तो दूसरी संस्थाओं द्वारा उस पर संविधान द्वारा नियंत्रण का पर्याप्त प्रावधान किया गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने अत्यंत सूझबूझ एवं दूरदर्शिता के साथ विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के उत्तरदायित्वों का निर्धारण किया है।

हाँ, इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट है कि यदि ऐसा नहीं किया जाता, तो इन संवैधानिक संस्थाओं द्वारा परस्पर अतिक्रमण की संभावनाएँ हो सकती थी जिसके परिणामस्वरूप अराजकता एवं अव्यवस्था की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। ऐसी स्थिति में जनता के अधिकार एवं स्वतंत्रताएँ भी असुरक्षित हो सकती हैं। अतः इससे देश का संवैधानिक ढाँचा ही असफलता की ओर अग्रसर हो सकता है।

प्रश्न 7.
शासकों की सीमा का निर्धारण करना संविधान के लिए क्यों ज़रूरी है? क्या कोई ऐसा भी संविधान हो सकता है जो नागरिकों को कोई अधिकार न दें।
उत्तर:
किसी भी शासन में शासकों की निरंकुश तथा असीमित शक्ति पर नियंत्रण लगाने के लिए संविधान द्वारा शासकों की सीमाओं का निर्धारण किया जाता है। समाज में नागरिकों के अधिकारों को सुरक्षित रखना संविधान का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। कई बार संसद या मंत्रिमंडल के सदस्यों द्वारा मनमाना कानून बनाकर जनता की स्वतंत्रता को सीमित करने का प्रयास किया जाता है। ऐसी स्थिति में संसद अथवा मंत्रिमंडल की इस शक्ति पर अंकुश लगाना आवश्यक होता है। इसीलिए संविधान में शासकों की शक्तियों पर अंकुश लगाने के व्यापक प्रावधान किए गए हैं।

किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में इस शक्ति का उपयोग एक निश्चित अवधि के पश्चात् होने वाले चुनाव में जनता द्वारा मताधिकार के रूप में किया जाता है। संविधान शासकों की सीमाओं को संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का स्पष्ट प्रावधान करके भी नियंत्रित कर सकता है। क्योंकि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कोई भी सरकार नहीं कर सकती है। इस प्रकार शासकों की शक्ति पर सीमाएँ लगाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी स्पष्ट है कि विश्व में कोई ऐसी संवैधानिक व्यवस्था नहीं है जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का प्रावधान नहीं किया गया हो। यहाँ तक कि साम्यवादी व्यवस्था वाले देशों; जैसे चीन के संविधान में भी मौलिक अधिकारों का . प्रावधान किया गया है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

प्रश्न 8.
जब जापान का संविधान बना तब दूसरे विश्व युद्ध में पराजित होने के बाद जापान अमेरिकी सेना के कब्जे में था। जापान के संविधान में ऐसा कोई प्रावधान होना असंभव था, जो अमेरिकी सेना को पसंद न हो। क्या आपक लगता है कि संविधान को इस तरह बनाने में कोई कठिनाई है? भारत में संविधान बनाने का अनुभव किस तरह इससे अलग है?
उत्तर:
जापान का संविधान-निर्माण करते समय जापान पर अमेरिकी सेना का नियंत्रण था। इसलिए संवैधानिक प्रावधानों पर अमेरिकी प्रभाव का होना स्वाभाविक सी बात है। इसीलिए जापान के संविधान का कोई भी प्रावधान अमेरिका की सरकार की आकांक्षाओं एवं इच्छाओं के विरुद्ध नहीं था। इसमें अमेरिका के हितों एवं प्राथमिकताओं को पर्याप्त महत्त्व दिया गया। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि किसी भी देश के संविधान का निर्माण किसी दूसरे देश के प्रभाव में करना निश्चित रूप से बहुत ही कठिन कार्य है।

संविधान निर्माण की प्रक्रिया पर अन्य देश का नियंत्रण होने के कारण स्वयं उस देश की जनता की अपेक्षाओं एवं आशाओं की अनदेखी की जाती है। अतः ऐसा संविधान जनता की इच्छाओं पर खरा नहीं उतर सकता है। दूसरी तरफ, भारतीय संविधान का निर्माण सर्वथा भिन्न परिस्थितियों में निर्मित हुआ था। भारतीय संविधान का निर्माण एक प्रतिनिध्यात्मक संविधान सभा द्वारा किया गया था।

विभिन्न विषयों के लिए संविधान सभा में अलग-अलग समितियाँ थीं। सदस्यों द्वारा विभिन्न विषयों पर व्यापक तर्क-वितर्क एवं गहन विचार-विमर्श के बाद ही अधिकांशतः सर्वसम्मति के आधार पर अंतिम निर्णय लिया गया। ऐसे में कहा जा सकता है कि संविधान का निर्माण लोकतांत्रिक आधार पर किया गया।

यद्यपि सदस्यों के बीच कुछ विषयों पर मत-भेद थे, तथापि देश के व्यापक हितों के मद्देनजर सहमति एवं समायोजन के सिद्धांत के आधार पर फैसले लिए गए। भारतीय संविधान का निर्माण एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है। भारतीय संविधान के निर्माण में 2 वर्ष, 11 महीने एवं 18 दिन लगे। संविधान निर्माण में राष्ट्रीय आंदोलनों के क्रम में उभरी जनता की इच्छाओं और अपेक्षाओं को भी प्राथमिकता दी गई।

इसके अतिरिक्त भारतीय संविधान में समाज के सभी वर्गों के व्यापक हितों का ध्यान रखा गया है। अतः संविधान में समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की विलक्षण क्षमता है। अतः संविधान निर्माण का भारतीय अनुभव दूसरे देशों से सर्वथा भिन्न था।

प्रश्न 9.
रजत ने अपने शिक्षक से पूछा- “संविधान एक पचास साल पुराना दस्तावेज़ है और इस कारण पुराना पड़ चुका है। किसी ने इसको लागू करते समय मुझसे राय नहीं माँगी। यह इतनी कठिन भाषा में लिखा हुआ है कि मैं इसे समझ नहीं सकता। आप मुझे बतायें कि मैं इस दस्तावेज़ की बातों का पालन क्यों करूँ?” अगर आप शिक्षक होते तो रजत को क्या उत्तर देते?
उत्तर:
रजत के प्रश्न का उत्तर यह है कि संविधान पचास साल पुराना दस्तावेज़ मात्र नहीं है बल्कि यह नियमों एवं कानूनों का एक ऐसा संग्रह है जिसका पालन समाज के व्यापक हितों की दृष्टि से बहुत आवश्यक है। जैसा कि हम जानते हैं कि कानूनों के कारण ही समाज में शांति और व्यवस्था कायम रहती है। लोगों का जीवन एवं संपत्ति सुरक्षित रहती है तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास के लिए उचित वातावरण सम्भव होता है।

इसके अतिरिक्त संविधान सरकार के तीनों अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियों का स्रोत है। संविधान द्वारा ही सरकार के तीन अंगों का गठन होता है तथा इनकी शक्तियों का विभाजन होता है। इसके द्वारा ही जनता के अधिकारों को सुरक्षित एवं कर्त्तव्य निश्चित किया जाता है। संविधान ही सरकार के निरंकुश स्वच्छेचारी आचरण पर अंकुश लगाता है।

इसके अतिरिक्त यह कहना गलत है कि संविधान पचास साल पुराना दस्तावेज़ हो चुका है और इसकी उपयोगिता समाप्त हो गई है। वास्तविकता तो यह है कि भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह कठोर और लचीले संशोधन विधि का मिश्रित रूप है। इसमें समय, परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तन किया जा सकता है।

संविधान में विषयानुरूप संशोधन की अलग-अलग प्रक्रियाओं का प्रावधान है। कुछ विषयों में संसद के स्पष्ट बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित प्रस्ताव के आधार पर संशोधन किया जा सकता है। परंतु कुछ विषयों में संशोधन की प्रक्रिया जटिल है। इसके लिए कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमंडलों से प्रस्ताव का अनुमोदित होना आवश्यक है।

दूसरे शब्दों में, भारतीय संविधान एक ऐसा संविधान है जो कभी भी पुराना नहीं पड़ सकता, क्योंकि इसके प्रावधानों को समय और परिस्थिति के अनुकूल संशोधित किया जा सकता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मात्र लगभग 70 वर्षों में ही संविधान में 104 संशोधन किए जा चुके हैं। इस प्रकार समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए संविधान में पर्याप्त प्रावधान किए गए हैं। अतः हमारा संविधान एक जीवन्त प्रलेख है जो सदैव गतिमान रहता है। इसलिए हमें संविधान की पालना अवश्य करनी चाहिए।

प्रश्न 10.
संविधान के क्रिया-कलाप से जुड़े अनुभवों को लेकर एक चर्चा में तीन वक्ताओं ने तीन अलग-अलग पक्ष लिए
(क) हरबंस-भारतीय संविधान एक लोकतांत्रिक ढाँचा प्रदान करने में सफल रहा है।

(ख) नेहा-संविधान में स्वतंत्रता, समता और भाईचारा सुनिश्चित करने का विधिवत् वादा है। चूँकि ऐसा नहीं हुआ इसलिए संविधान असफल है।

(ग) नाजिमा संविधान असफल नहीं हुआ, हमने उसे असफल बनाया। क्या आप इनमें से किसी पक्ष से सहमत हैं, यदि हाँ, तो क्यों? यदि नहीं, तो आप अपना पक्ष बतायें।
उत्तर:
वाद-विवाद के द्वारा इन वक्ताओं ने संविधान की सार्थकता, उपयोगिता और सफलता पर अलग-अलग प्रश्न उठाने का प्रयास किया है। प्रथम वक्ता हरबंस के अनुसार भारतीय संविधान लोकतांत्रिक शासन का ढाँचा तैयार करने में सफल रहा है, तो दूसरे वक्ता नेहा के अनुसार संविधान में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के वायदे किए गए, परन्तु ये पूरे नहीं हुए।

इस कारण संविधान असफल रहा, जबकि तीसरे वक्ता नाजिमा का दृष्टिकोण है कि संविधान स्वयं असफल नहीं हुआ, बल्कि हमने ही इसे असफल बनाया। इस तथ्य को हम सब स्वीकार करते हैं कि भारतीय संविधान का निर्माण तत्कालीन समय के योग्यतम, अनुभवी एवं दूरदर्शी नेताओं द्वारा व्यापक विचार-विमर्श एवं गहन तर्क-वितर्क के आधार पर ही किया गया था।

इसमें जनता की अपेक्षाओं, आशाओं का पूरा ध्यान रखा गया। इसके अतिरिक्त जन सामान्य के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए इसमें मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया तथा न्यायपालिका को इन मूल अधिकारों के संरक्षण का दायित्व सौंपा गया है। संविधान द्वारा व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता को मौलिक अधिकारों के द्वारा सुनिश्चित किया गया।

वास्तविक सत्ता का केंद्र जनता में निहित किया गया है। जिसका प्रयोग जनता अपने मताधिकार के माध्यम से करती है, क्योंकि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से ही सरकार का गठन एवं संचालन किया जाता है। संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है।

इन सबके मूल में एक प्रमुख उद्देश्य यह था कि भारत में लोकतांत्रिक ढाँचा सशक्त बने । जिसमें हमें काफी हद तक सफलता भी मिली है, जिसका प्रमाण यह है कि यहाँ अब तक 17 लोकसभा एवं अनेक राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हो चुके हैं। जनता द्वारा मताधिकार का प्रयोग किया जाता रहा है।

या है कि चुनाव के समय धन और बाहुबलियों द्वारा चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है जिससे संविधान की मूल भावना को ठेस भी पहुँची है। नेहा के अनुसार संविधान असफल रहा, क्योंकि संविधान में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए गए वायदे सफल नहीं हुए। लेकिन वास्तविक स्थिति इससे बिल्कुल अलग है।

क्योंकि जनता द्वारा विभिन्न स्तरों पर व्यापक स्वतंत्रता का उपयोग किया जाता है। कुछ विशेष स्थितियों में ही सरकार द्वारा नागरिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। समाज के सभी वर्गों को शिक्षा, रोजगार तथा अन्य प्रकार की समानता प्राप्त है। छुआछूत और भेदभाव की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा है। यद्यपि इसमें हमें पूर्ण सफलता प्राप्त करना शेष है। परन्तु फिर भी स्थिति में सुधार हुआ है।

तीसरी वक्ता नाजिमा का विश्वास है कि संविधान असफल नहीं हुआ बल्कि हमने इसे असफल बनाया। हाँ, नाजिमा के तर्क से सहमत होने के कारण पर्याप्त हैं, क्योंकि व्यक्ति अपने संकीर्ण हितों के मद्देनजर संविधान के मूल ढाँचे से भी छेड़छाड़ करने से नहीं चूकते हैं। यद्यपि संविधान में विभिन्न परिस्थितियों और परिवर्तनों तथा चुनौतियों का सामना करने के लिए व्यापक प्रावधान किए गए हैं तथापि संविधान में छुआछूत की समाप्ति, बाल-श्रम उन्मूलन, समान कार्य के लिए समान वेतन इत्यादि अनेक प्रावधानों के होते हुए भी व्यवहार में अमल न करना यही दर्शाता है कि हमने संवैधानिक व्यवस्थाओं और प्रावधानों को पूर्ण सच्चाई और ईमानदारी से लागू नहीं किया है।

संविधान में समाजवादी ढाँचे को अपनाया है, लेकिन आजादी के 70 वर्षों के बाद भी देश की जनसंख्या का लगभग 26 प्रतिशत भाग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहा है। आज भी देश के विभिन्न भागों में लोग भुखमरी एवं कुपोषण के शिकार हैं। ये सारे तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि कहीं न कहीं हमारी कार्यप्रणाली में दोष है। इन सबके बावजूद देश में हो रहे चहुंमुखी विकास, साक्षरता की बढ़ती दर, लोक-स्वास्थ्य की बेहतर स्थिति, गिरती मृत्यु दर, बढ़ती औसत आयु आदि ऐसे संकेत हैं, जो भारत के सुखद भविष्य की ओर संकेत कर रहे हैं।

संविधान : क्यों और कैसे? HBSE 11th Class Political Science Notes

→ आधुनिक समय में प्रत्येक राज्य का प्रायः एक संविधान होता है। साधारण शब्दों में, संविधान उन मौलिक नियमों, सिद्धांतों तथा परंपराओं का संग्रह होता है, जिनके अनुसार राज्य की सरकार का गठन, सरकार के कार्य, नागरिकों के अधिकार तथा नागरिकों और सरकार के बीच संबंध को निश्चित किया जाता है।

→ शासन का स्वरूप लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी, कुछ ऐसे नियमों के अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता जो राज्य में विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं तथा शासकों की भूमिका को निश्चित करते हैं।

→ इन नियमों के संग्रह को ही संविधान कहा जाता है। संविधान में शासन के विभिन्न अंगों तथा उनके पारस्परिक संबंधों का विवरण होता है।

→ इन संबंधों को निश्चित करने हेतु कुछ नियम बनाए जाते हैं, जिनके आधार पर शासन का संचालन सुचारू रूप से संभव हो जाता है तथा शासन के विभिन्न अंगों में टकराव की संभावनाएँ कम हो जाती हैं।

→ संविधान के अभाव में शासन के सभी कार्य निरंकुश शासकों की इच्छानुसार ही चलाए जाएँगे जिससे नागरिकों पर अत्याचार होने की संभावना बनी रहेगी।

→ ऐसे शासक से छुटकारा पाने के लिए नागरिकों को अवश्य ही विद्रोह करना पड़ेगा जिससे राज्य में अशांति तथा अव्यवस्था फैल जाएगी।

→ इस प्रकार एक देश के नागरिकों हेतु एक सभ्य समाज एवं कुशल तथा मर्यादित सरकार का अस्तित्व एक संविधान की व्यवस्थाओं पर ही निर्भर करता है।

→ इसीलिए हम इस अध्याय में संविधान के अर्थ को जानने के पश्चात् संविधान की आवश्यकता एवं संविधान के निर्माण की पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए संविधान के विभिन्न स्रोतों का भी हम उल्लेख करेंगे।

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HBSE 11th Class Political Science Important Questions and Answers

Haryana Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions and Answers

HBSE 11th Class Political Science Important Questions in Hindi Medium

HBSE 11th Class Political Science Important Questions: भारत का संविधान-सिद्धांत और व्यवहार

HBSE 11th Class Political Science Important Questions: राजनीतिक-सिद्धान्त

HBSE 11th Class Political Science Important Questions in English Medium

HBSE 11th Class Political Science Important Questions: Indian Constitution at Work

  • Chapter 1 Constitution: Why and How? Important Questions
  • Chapter 2 Rights in the Indian Constitution Important Questions
  • Chapter 3 Election and Representation Important Questions
  • Chapter 4 Executive Important Questions
  • Chapter 5 Legislature Important Questions
  • Chapter 6 Judiciary Important Questions
  • Chapter 7 Federalism Important Questions
  • Chapter 8 Local Governments Important Questions
  • Chapter 9 Constitution as a Living Document Important Questions
  • Chapter 10 The Philosophy of the Constitution Important Questions

HBSE 11th Class Political Science Important Questions: Political Theory

  • Chapter 1 Political Theory: An Introduction Important Questions
  • Chapter 2 Freedom Important Questions
  • Chapter 3 Equality Important Questions
  • Chapter 4 Social Justice Important Questions
  • Chapter 5 Rights Important Questions
  • Chapter 6 Citizenship Important Questions
  • Chapter 7 Nationalism Important Questions
  • Chapter 8 Secularism Important Questions
  • Chapter 9 Peace Important Questions
  • Chapter 10 Development Important Questions

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Haryana Board

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HBSE 11th Class Political Science Solutions in Hindi Medium

HBSE 11th Class Political Science Part 1 Indian Constitution at Work (भारत का संविधान-सिद्धांत और व्यवहार भाग-1)

HBSE 11th Class Political Science Part 2 Political Theory (राजनीतिक-सिद्धान्त भाग-2)

HBSE 11th Class Political Science Solutions in English Medium

HBSE 11th Class Political Science Part 1 Indian Constitution at Work

  • Chapter 1 Constitution: Why and How?
  • Chapter 2 Rights in the Indian Constitution
  • Chapter 3 Election and Representation
  • Chapter 4 Executive
  • Chapter 5 Legislature
  • Chapter 6 Judiciary
  • Chapter 7 Federalism
  • Chapter 8 Local Governments
  • Chapter 9 Constitution as a Living Document
  • Chapter 10 The Philosophy of the Constitution

HBSE 11th Class Political Science Part 2 Political Theory

  • Chapter 1 Political Theory: An Introduction
  • Chapter 2 Freedom
  • Chapter 3 Equality
  • Chapter 4 Social Justice
  • Chapter 5 Rights
  • Chapter 6 Citizenship
  • Chapter 7 Nationalism
  • Chapter 8 Secularism
  • Chapter 9 Peace
  • Chapter 10 Development

HBSE 11th Class Political Science Question Paper Design

Class: XI
Subject: Political Science
Paper: Annual or Supplementary
Marks: 80
Time: 3 Hours

1. Weightage to Objectives:

ObjectiveKUASTotal
Percentage of Marks503515100
Marks40281280

2. Weightage to Form of Questions:

Forms of QuestionsESAVSAOTotal
No. of Questions31081637
Marks Allotted1830161680
Estimated Time35705025180

3. Weightage to Content:

Units/Sub-UnitsMarks
1. राजनीतिक सिद्धांत-एक परिचय4
2. स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक न्याय8
3. अधिकार4
4. नागरिकता3
5. राष्ट्रवाद3
6. धर्मनिरपेक्षता2
7. शांति, विकास8
8. संविधान-क्यों और कैसे?4
9. भारतीय संविधान में अधिकार6
10. चुनाव और प्रतिनिधित्व6
11. कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका15
12. संघवाद5
13. स्थानीय शासन6
14. संविधान-एक जीवंत दस्तावेज3
15. संविधान का राजनीतिक दर्शन3
Total80

4. Scheme of Sections:

5. Scheme of Options: Internal Choice in Long Answer Question i.e. Essay Type.

6. Difficulty Level:
Difficult: 10% Marks
Average: 50% Marks
Easy: 40% Marks

Abbreviations: K (Knowledge), U (Understanding), A (Application), E (Essay Type), SA (Short Answer Type), VSA (Very Short Answer Type), O (Objective Type)

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

HBSE 11th Class Political Science चुनाव और प्रतिनिधित्व Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में कौन प्रत्यक्ष लोकतंत्र के सबसे नजदीक बैठता है?
(क) परिवार की बैठक में होने वाली चर्चा
(ख) कक्षा-संचालक (क्लास-मॉनीटर) का चुनाव
(ग) किसी राजनीतिक दल द्वारा अपने उम्मीदवार का चयन
(घ) मीडिया द्वारा करवाये गये जनमत-संग्रह
उत्तर:
(ख) कक्षा-संचालक (क्लास-मॉनीटर) का चुनाव

प्रश्न 2.
इनमें कौन-सा कार्य चुनाव आयोग नहीं करता?
(क) मतदाता-सूची तैयार करना
(ख) उम्मीदवारों का नामांकन
(ग) मतदान केंद्रों की स्थापना
(घ) आचार-संहिता लागू करना
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण
उत्तर:
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में कौन-सी राज्य सभा और लोक सभा के सदस्यों के चुनाव की प्रणाली में समान है?
(क) 18 वर्ष से ज्यादा की उम्र का हर नागरिक मतदान करने के योग्य है।
(ख) विभिन्न प्रत्याशियों के बारे में मतदाता अपनी पसंद को वरीयता क्रम में रख सकता है।
(ग) प्रत्येक मत का समान मूल्य होता है।
(घ) विजयी उम्मीदवार को आधे से अधिक मत प्राप्त होने चाहिएँ।
उत्तर:
(क) 18 वर्ष से ज्यादा की उम्र का हर नागरिक मतदान करने के योग्य है।

प्रश्न 4.
फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में वही प्रत्याशी विजेता घोषित किया जाता है जो
(क) सर्वाधिक संख्या में मत अर्जित करता है।
(ख) देश में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले दल का सदस्य हो।
(ग) चुनाव-क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।
(घ) 50 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करके प्रथम स्थान पर आता है।
उत्तर:
(ग) चुनाव-क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।

प्रश्न 5.
पृथक निर्वाचन-मंडल और आरक्षित चुनाव-क्षेत्र के बीच क्या अंतर है? संविधान निर्माताओं ने पृथक निर्वाचन-मंडल को क्यों स्वीकार नहीं किया?
उत्तर:
पृथक निर्वाचन-मंडल एक ऐसी व्यवस्था को कहते हैं जिसके अंतर्गत किसी जाति-विशेष के प्रतिनिधि के चुनाव में केवल उसी वर्ग के लोग मतदान कर सकते हैं। भारत में अंग्रेजों के शासन काल में 1909 के एक्ट द्वारा मुसलमानों के लिए यह व्यवस्था लागू की गई थी। जबकि दूसरी तरफ आरक्षित चुनाव-क्षेत्र का अर्थ है कि चुनाव में सीट जिस वर्ग के लिए आरक्षित है, प्रत्याशी उसी वर्ग-विशेष अथवा समुदाय का होगा परंतु मतदान का अधिकार समाज के सभी वर्गों को प्राप्त होगा।

अब प्रश्न यह उठता है कि भारतीय संविधान निर्माताओं ने पृथक निर्वाचन-मंडल को क्यों स्वीकार नहीं किया तो इस संदर्भ में सबसे विशेष तर्क यह है कि यह अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति पर आधारित थी। यह राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को चुनौती देने में सहायक सिद्ध हो रही थी। इसके अतिरिक्त यह व्यवस्था पूरे देश को जाति के आधार पर विभाजित करने वाली थी इस व्यवस्था में प्रत्याशी अपने समुदाय के हितों का ही प्रतिनिधित्व करता है।

इसके विपरीत, आरक्षित निर्वाचन व्यवस्था में प्रत्याशी समाज के सभी वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है और पूरे समाज के विकास पर बल देता है। इसलिए भारतीय संविधान निर्माताओं ने पृथक निर्वाचन-मंडल व्यवस्था में व्याप्त दोषों को देखते हुए देश विभाजन के साथ ही इस व्यवस्था को ही अस्वीकार कर दिया और आरक्षित चुनाव क्षेत्र की व्यवस्था करते हुए संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था को लागू किया।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में कौन-सा कथन गलत है? इसकी पहचान करें और किसी एक शब्द अथवा पद को बदलकर, जोड़कर अथवा नये क्रम में सजाकर इसे सही करें।
(क) एक फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (सर्वाधिक मत से जीत वाली) प्रणाली का पालन भारत के हर चुनाव में होता है।
(ख) चुनाव आयोग पंचायत और नगरपालिका के चुनावों का पर्यवेक्षण नहीं करता।
(ग) भारत का राष्ट्रपति किसी चुनाव आयुक्त को नहीं हटा सकता।
(घ) चुनाव आयोग में एक से ज्यादा चुनाव आयुक्त की नियुक्ति अनिवार्य है।
उत्तर:
(ग) भारत का राष्ट्रपति किसी चुनाव आयुक्त को नहीं हटा सकता। यह कथन गलत है, क्योंकि भारत का राष्ट्रपति चुनाव आयुक्त को अपने पद से हटा सकता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 7.
भारत की चुनाव-प्रणाली का लक्ष्य समाज के कमजोर तबके की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना है। लेकिन हमारी विधायिका में महिला सदस्यों की संख्या केवल 12 प्रतिशत तक पहुँची है। इस स्थिति में सुधार के लिए आप क्या उपाय सुझायेंगे?
उत्तर:
भारतीय संविधान में आरक्षण की व्यवस्था को समाज के विशेष पिछड़े वर्गों को समाज के अन्य वर्गों के बराबर लाने के उद्देश्य से की गई है। संविधान के अनुसार किसी भी वर्ग को आरक्षण प्रदान करने के लिए आवश्यक है कि वह वर्ग सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा हो तथा उसे राज्याधीन पदों पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व न प्राप्त हो। यदि उपर्युक्त सन्दर्भ में देखा जाए तो राजनीतिक क्षेत्र में संघ एवं राज्यों के स्तर पर महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय है। देश की जनसंख्या के अनुपात में इनकी स्थिति बहुत खराब है।

संघीय संसद जो देश की कानून निर्मात्री संस्था है। वहाँ इतनी बड़ी जनसंख्या की उपेक्षा करना, राष्ट्र के विकास की दृष्टि से अनुचित है। इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान में समानता के अधिकार पर बल दिया गया है और स्त्री-पुरुष में किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं किया गया है। इसलिए भारत में पिछले कई वर्षों से महिला संगठनों द्वारा माँग की जा रही है कि महिलाओं को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण प्रदान किया जाए ताकि देश के कानून निर्माण में उन्हें भी भागीदार बनाया जा सके। महिला एवं पुरुषों की जब समान भागीदारी होगी तभी कोई समाज अथवा राष्ट्र पूर्ण रूप से विकसित एवं समृद्ध हो सकता है।

प्रश्न 8.
एक नये देश के संविधान के बारे में आयोजित किसी संगोष्ठी में वक्ताओं ने निम्नलिखित आशाएँ जतायीं। प्रत्येक कथन के बारे में बताएं कि उनके लिए फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (सर्वाधिक मत से जीत वाली)प्रणाली उचित होगी या समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाली प्रणाली?
(क) लोगों को इस बात की साफ-साफ जानकारी होनी चाहिए कि उनका प्रतिनिधि कौन है ताकि वे उसे निजी तौर पर जिम्मेदार ठहरा सकें।
(ख) हमारे देश में भाषाई रूप से अल्पसंख्यक छोटे-छोटे समुदाय हैं और देश भर में फैले हैं, हमें इनकी ठीक-ठीक नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना चाहिए।
(ग) विभिन्न दलों के बीच सीट और वोट को लेकर कोई विसंगति नहीं रखनी चाहिए।
(घ) लोग किसी अच्छे प्रत्याशी को चुनने में समर्थ होने चाहिए भले ही वे उसके राजनीतिक दल को पसंद न करते हों।
उत्तर:
उपर्युक्त कथनों में
(क) इसके लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली उचित होगी।
(ख) इसके लिए फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली उचित होगी।
(ग) इसके लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली उचित होगी।
(घ) इसके लिए फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली उचित होगी।

प्रश्न 9.
एक भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने एक राजनीतिक दल का सदस्य बनकर चुनाव लड़ा। इस मसले पर कई विचार सामने आये। एक विचार यह था कि भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र नागरिक है। उसे किसी राजनीतिक दल में होने और चुनाव लड़ने का अधिकार है। दूसरे विचार के अनुसार, ऐसे विकल्प की संभावना कायम रखने से चुनाव आयोग की निष्पक्षता प्रभावित होगी। इस कारण, भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। आप इसमें किस पक्ष से सहमत हैं और क्यों?
उत्तर:
भारत विश्व का सबसे बड़ा एक लोकतांत्रिक देश है। इस लोकतंत्र को सफल एवं सुचारू रूप से चलाने के लिए समय-समय पर चुनाव आयोग द्वारा एक निश्चित अवधि के पश्चात् चुनाव कराने की व्यवस्था की गई है। हमारा वर्तमान चुनाव आयोग बहु-सदस्यीय है जिसमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा दो अन्य चुनाव आयुक्त हैं। देश में चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र वातावरण में हों, यह चुनाव आयोग के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की सफलता की आवश्यकता शर्त है। चुनाव प्रणाली को पारदर्शी बनाने में मुख्य चुनाव आयुक्त की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य चुनाव आयुक्त छः वर्ष का कार्यकाल या अधिकतम 65 वर्ष की आयु पूर्ण होने पर सेवानिवृत्त हो जाते हैं।

यहाँ प्रश्न यह उठता है कि क्या सेवानिवृत्ति के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति देनी चाहिए या नहीं? ऐसी स्थिति में इस संदर्भ में ऊपर दिए गए कथनों में पहला कथन उचित एवं सही है। मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति मिलनी चाहिए, क्योंकि वह भी देश का अन्य नागरिकों की तरह एक स्वतंत्र नागरिक है। इसलिए एक साधारण नागरिक को चुनाव लड़ने के जो अधिकार संविधान द्वारा प्राप्त हैं, उन्हें भी होने चाहिएँ। यद्यपि राजनीतिक दल का सदस्य बनकर चुनाव लड़ने से जनसाधारण में यह भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि इससे चुनाव की निष्पक्षता प्रभावित होती है, परंतु ऐसी कोई बात नहीं होती। उसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता पर कोई आँच नहीं आएगी क्योंकि चुनाव लड़ने वाला मुख्य चुनाव आयुक्त अपना कार्यकाल पूरा करके ही चुनाव लड़ता है।

उसके पास एक लंबा कार्य-अनुभव तथा व्यावहारिक ज्ञान होता है। निर्वाचित होने पर संसद सदस्य के रूप में वह अपने बहुमूल्य सुझावों के द्वारा चुनाव सुधारों एवं राष्ट्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है। इसलिए भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति देनी चाहिए और इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

प्रश्न 10.
भारत का लोकतंत्र अब अनगढ़ ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को छोड़कर समानुपातिक प्रतिनिध्यिात्मक प्रणाली को अपनाने के लिए तैयार हो चुका है’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं? इस कथन के पक्ष अथवा विपक्ष में तर्क दें।
उत्तर:
भारतीय संविधान सभा द्वारा जब भारत के संविधान का निर्माण किया जा रहा था तभी इस विषय पर विवाद उत्पन्न हो गया था जिसके परिणामस्वरूप स्थिति का अवलोकन करते हुए भारत के चुनाव में ‘फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट’ अर्थात् सर्वाधिक मत से विजय वाली प्रणाली को स्वीकार किया गया। इस प्रणाली के अन्तर्गत एक निर्वाचन-क्षेत्र में एक उम्मीदवार जिसे अन्य उम्मीदवारों की अपेक्षा सबसे अधिक मत मिलते हैं, चाहे उसे कुल मतों का एक छोटा-सा भाग ही मिले, को विजयी घोषित कर दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, विजय स्तम्भ (Post) चुनावी दौड़ का अन्तिम बिन्दु बचता है और जो उम्मीदवार इसे पहले पार कर लेता है, वही विजेता होता है।

पक्ष में तर्क (Arguments in Favour)-इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क हैं

(1) यह प्रणाली बहुत ही सरल है, जिसे सभी मतदाता आसानी से समझ सकते हैं। एक मतदाता किसी भी दल अथवा उम्मीदवार के पक्ष में मतदान कर सकता है, जिसे वह सबसे अच्छा समझता है। इस प्रणाली पर आधारित निर्वाचन-क्षेत्रों में मतदाता जानते हैं कि उनका प्रतिनिधि कौन है और उसे उत्तरदायी ठहरा सकते हैं।

(2) इस प्रणाली के अन्तर्गत सदन में किसी एक दल के पूर्ण बहुमत प्राप्त करने के अवसर बढ़ जाते हैं, जिससे एक स्थायी सरकार की स्थापना करना सम्भव हो जाता है।

(3) इस प्रणाली में द्वि-दलीय प्रणाली के विकास को बल मिलता है, लेकिन भारत में अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है।
विपक्ष में तर्क (Arguments in Against)-कई विद्वानों द्वारा चुनाव की इस प्रणाली की आलोचना की जाती है। उनका कहना है कि यह प्रणाली अलोकतान्त्रिक और अनुचित है क्योंकि इसके अन्तर्गत यह आवश्यक नहीं है कि निर्वाचित व्यक्ति उस निर्वाचन-क्षेत्र के मतदाताओं का बहुमत प्राप्त करने वाला हो। उदाहरणस्वरूप, चुनाव में चार उम्मीदवार खड़े होते हैं और उन्हें मत प्राप्त हुए-
(क) एक लाख,
(ख) 80,000,
(ग) 70,000 तथा
(घ) 50,000
इस चुनाव में ‘क’ को निर्वाचित घोषित कर दिया जाएगा, जिसे केवल एक-तिहाई मतदाताओं ने अपना मत दिया है। उदाहरणस्वरूप, सन् 1984 में हुए लोकसभा चुनावों में काँग्रेस पार्टी को कुल 48.1 प्रतिशत वोट मिले, परन्तु उसने लोकसभा के 76 प्रतिशत स्थानों पर विजय प्राप्त की। इस चुनाव में भाजपा 7.4 प्रतिशत मत लेकर दूसरे स्थान पर रही, परन्तु लोकसभा की 542 सीटों में से उसे केवल 2 स्थानों पर ही विजय प्राप्त हुई।

इसके विपरीत मार्क्सवादी साम्यवादी दल को 5.8 प्रतिशत मत मिले और उसे लोकसभा में 22 स्थान प्राप्त हुए। इसके अतिरिक्त इस प्रणाली का एक दोष यह भी है कि यह अल्पसंख्यकों तथा छोटे और कम शक्तिशाली राजनीतिक दलों के हितों के विरुद्ध है, क्योंकि इसके अन्तर्गत, उन्हें जितने मत प्राप्त होते हैं, उस अनुपात में उन्हें स्थान (सीटें) प्राप्त नहीं होते। अत: उपर्युक्त पक्ष एवं विपक्ष के तर्कों के उपरान्त यह कहा जा सकता है कि समानुपातिक प्रणाली की जटिल व्यवस्था को भारत में अपनाना कठिन है इसलिए सरलता की दृष्टि से फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली ही उपयुक्त है।

चुनाव और प्रतिनिधित्व HBSE 11th Class Political Science Notes

→ आधुनिक युग लोकतन्त्र का युग है। लोकतन्त्र में शासनाधिकार जनता के हाथों में होता है। वास्तविक प्रभुसत्ता जनता के हाथों में होती है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन में भागीदार होती है।

→ प्राचीन समय में छोटे-छोटे नगर-राज्य होते थे जिनकी जनसंख्या बहुत कम होने के कारण सभी नागरिकों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से शासन में भाग लिया जाता था। धीरे-धीरे नगर-राज्यों के स्थान पर बड़े-बड़े राष्ट्र-राज्यों का निर्माण हुआ जिनकी जनसंख्या अरबों तक पहुंच गई है।

→ इसके परिणामस्वरूप सभी नगारिकों के लिए प्रत्यक्ष रूप से शासन चलाने में भाग लेना सम्भव नहीं रहा और प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के स्थान पर प्रतिनिधिक लोकतन्त्र (Representative Democracy) प्रणाली का उदय हुआ।

→ इस प्रणाली में जनता शासन में अपने द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से भाग लेती है। इस शासन-प्रणाली के दो आधार होते हैं। प्रथम, मताधिकार जिसके आधार पर जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है।

→ जिन व्यक्तियों को मतदान करने का अधिकार होता है, उन्हें मतदाता (Voter) कहते हैं। प्रतिनिधियों को चुनने की विधि को चुनाव अथवा निर्वाचन-व्यवस्था कहते हैं।

→ मतदान करने की व्यवस्था को निर्वाचन-व्यवस्था (Election System) कहा जाता है। वोट किसे दिया जाए और इसका प्रयोग किस प्रकार से किया जाए, यह विषय राजनीति-विज्ञान के विद्वानों के बीच वाद-विवाद का विषय रहा है।

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HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मताधिकार का क्या अर्थ है?
उत्तर:
एक देश के नागरिकों को अपने प्रतिनिधियों को चुनने के अधिकार को मताधिकार कहा जाता है। भारत में प्रत्येक वयस्क नागरिक को मतदान करने का अधिकार दिया गया है।

प्रश्न 2.
निर्वाचकगण (Electorate) किसे कहते हैं?
उत्तर:
वे व्यक्ति जिन्हें मतदान करने का अधिकार होता है, उनके सामूहिक रूप को निर्वाचकगण कहा जाता है।

प्रश्न 3.
प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जिस चुनाव-प्रणाली में साधारण मतदाता स्वयं अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं, उसे प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली कहा जाता है। लोकसभा के सदस्यों का चुनाव इसी प्रणाली द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 4.
अप्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली का क्या अर्थ है?
उत्तर:
ऐसे प्रतिनिधि जो जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से न चुने जाकर जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा चुने जाते हों, उस प्रणाली को अप्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली कहा जाता है। राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति के चुनाव इस प्रणाली द्वारा कराए जाते हैं।

प्रश्न 5.
प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के दो गुण लिखिए।
उत्तर:

  • यह लोकतान्त्रिक सिद्धांतों के अनुसार है,
  • लोगों को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त होती है।

प्रश्न 6.
अप्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के दो दोष बताइए।
उत्तर:

  • यह अलोकतांत्रिक है,
  • इसमें भ्रष्टाचार की संभावना होती है।

प्रश्न 7.
वयस्क मताधिकार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
एक विशेष आयु प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को यदि वोट का अधिकार दिया जाए तो उसे वयस्क मताधिकार कहते हैं। वोट देने की आयु विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न होती है। भारत में मतदान की आयु 18 वर्ष निश्चित की गई है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 8.
वयस्क मताधिकार के कोई दो लाभ बताइए।
उत्तर:

  • यह समानता पर आधारित है,
  • इसमें सभी को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त होती है।

प्रश्न 9.
वयस्क मताधिकार के दो दोष बताइए।
उत्तर:

  • वयस्क मताधिकार गुणों की अपेक्षा संख्या को महत्त्व देता है और अशिक्षित तथा अज्ञानियों का, जिनकी संख्या अधिक है, शासन स्थापित हो जाता है,
  • यह अप्राकृतिक है क्योंकि प्रकृति ने सबको समान न बनाकर कुछ को बुद्धिमान तथा कुछ को कम बुद्धिमान बनाया है।

प्रश्न 10.
एक-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
एक-सदस्यीय निर्वाचन-क्षेत्र का अर्थ है कि एक निर्वाचन-क्षेत्र से एक ही प्रतिनिधि चुना जाएगा।

प्रश्न 11.
एक-सदस्यीय निर्वाचन-क्षेत्र के दो गुण बताइए।
उत्तर:

  • यह तरीका बड़ा सरल है और आम व्यक्ति इसे समझ सकता है,
  • प्रतिनिधि और मतदाता के बीच सीधा संपर्क होता है क्योंकि चुनाव-क्षेत्र छोटा होता है।

प्रश्न 12.
बहु-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
बह-सदस्यीय निर्वाचन-क्षेत्र से तात्पर्य उस निर्वाचन-क्षेत्र से है, जहाँ से एक से अधिक सदस्य निर्वाचित होते हैं।

प्रश्न 13.
बहु-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र के दो अवगुण बताइए।
उत्तर:

  • यह खर्चीली प्रणाली है,
  • प्रतिनिधियों व मतदाताओं में संपर्क का अभाव रहता है।

प्रश्न 14.
बहु-सदस्यीय निर्वाचन-क्षेत्र के दो गुण बताइए।
उत्तर:

  • मतदाता की पसंद सीमित नहीं होती और वह अपनी पसंद के प्रतिनिधि का चुनाव कर सकता है,
  • इस प्रकार से एक योग्य प्रतिनिधि का चयन होता है।

प्रश्न 15.
प्रादेशिक चुनाव-प्रणाली का क्या अर्थ है?
उत्तर:
प्रादेशिक चुनाव-प्रणाली में सारे देश को समान प्रादेशिक क्षेत्रों में विभाजित कर दिया जाता है और प्रत्येक चुनाव-क्षेत्र विधानमंडल में अपने प्रतिनिधि को चुनकर भेजता है।

प्रश्न 16.
प्रादेशिक चुनाव-प्रणाली के कोई दो गुण लिखिए।
उत्तर:

  • यह साधारण प्रणाली है,
  • स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है।

प्रश्न 17.
प्रादेशिक चुनाव क्षेत्र के दो अवगुण लिखिए।
अथवा
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व की दो मूलभूत सीमा लिखिए।
उत्तर:

  • क्षेत्रीयवाद को बढ़ावा मिलता है,
  • विभिन्न हितों का प्रतिनिधित्व नहीं होता।

प्रश्न 18.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व का अर्थ बताइए।
उत्तर:
आनुपातिक प्रतिनिधित्व से तात्पर्य है कि प्रत्येक वर्ग, राजनीतिक दल व अल्पसंख्यक वर्ग आदि को उनके मतों की संख्या अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान करना।

प्रश्न 19.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की दो विधियों के नाम बताइए।
उत्तर:

  • इकहरी परिवर्तनीय मत प्रणाली तथा
  • सूची प्रणाली।

प्रश्न 20.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दो गुण लिखिए।
उत्तर:

  • प्रत्येक वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व का मिलना,
  • लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित।

प्रश्न 21.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के दो दोष बताइए।
उत्तर:

  • यह जटिल प्रणाली है,
  • बड़े देशों में लागू नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 22.
संग्रहीत मत-प्रणाली (Cumulative Vote System) से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
इस प्रणाली के लिए बहु-सदस्यीय निर्वाचन-क्षेत्र अनिवार्य है। एक मतदाता को उतने वोट दिए जाते हैं, जितने स्थान भरे जाने हैं। मतदाता अपने सारे मत एक उम्मीदवार को दे सकता है और यदि वह चाहे तो अपने मत अलग-अलग उम्मीदवारों को भी दे सकता है।

प्रश्न 23.
क्षेत्रीय (Territorial) और कार्यात्मक प्रतिनिधित्व (Functional Representation) में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

  • क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व में क्षेत्रीय आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाता है जबकि कार्यात्मक प्रतिनिधित्व का आधार व्यवसाय होता है,
  • क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व में प्रतिनिधि अपने निर्वाचन-क्षेत्र के सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि कार्यात्मक प्रतिनिधित्व व्यवसाय के लोगों का ही प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 24.
उप-चुनाव (Bye-Election) से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
विधानपालिका के रिक्त स्थान को भरने के लिए करवाए गए चुनाव को उप-चुनाव कहा जाता है।

प्रश्न 25.
मध्यावधि चुनाव (Mid-Term Election) से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
यदि लोकसभा व विधानसभा को उसके निश्चित कार्यकाल से पहले ही भंग कर दिया जाए तो उस स्थिति में जो चुनाव करवाने पड़ते हैं, उसे मध्यावधि चुनाव कहा जाता है।

प्रश्न 26.
भारत में मतदाता कौन हो सकता है?
उत्तर:
भारत में प्रत्येक नागरिक को, जिसकी आयु 18 वर्ष या इससे अधिक हो, मताधिकार प्राप्त है। चुनाव में उसी नागरिक को मत डालने दिया जाता है जिसका नाम मतदाता सूची में हो।।

प्रश्न 27.
भारतीय मतदाता में कौन-कौन-सी दो योग्यताएँ होनी चाहिएँ?
उत्तर:

  • वह भारत का नागरिक होना चाहिए,
  • उसकी आयु कम-से-कम 18 वर्ष होनी चाहिए।

प्रश्न 28.
चुनाव आयोग क्या है?
उत्तर:
भारत एक लोकतंत्रीय राज्य है जिसमें समय-समय पर चुनाव होते रहते हैं। यह चुनाव निष्पक्ष रूप से हों, इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत चुनाव आयोग के गठन की व्यवस्था की गई है जिसमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा कुछ अन्य चुनाव आयुक्त हो सकते हैं।

प्रश्न 29.
चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति कैसे की जाती है?
उत्तर:
संविधान में की गई व्यवस्था के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्तों (वर्तमान स्थिति में दो) की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

प्रश्न 30.
चुनाव आयुक्त को अथवा मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से कैसे हटाया जा सकता है?
उत्तर:
चुनाव आयुक्त को संसद में महाभियोग चलाकर उसके पद से हटाया जा सकता है।

प्रश्न 31.
चुनाव आयोग के सदस्यों का कार्यकाल कितना है?
उत्तर:
चुनाव आयोग के आयुक्तों (सदस्यों) का कार्यकाल साधारणतः 6 वर्ष होता है, लेकिन राष्ट्रपति द्वारा इस कार्यकाल को बढ़ाया भी जा सकता है।

प्रश्न 32.
भारतीय चुनाव आयोग के सदस्यों के नाम लिखें।
उत्तर:
भारतीय चुनाव आयोग बहु-सदस्यीय है। इसके मुख्य चुनाव आयुक्त श्री सुशील चंद्रा तथा अन्य दो चुनाव आयुक्त हैं।

प्रश्न 33.
भारतीय चुनाव-प्रणाली की तीन मुख्य विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:

  • वयस्क मताधिकार,
  • एक-सदस्यीय चुनाव-प्रणाली,
  • गुप्त मतदान।

प्रश्न 34.
गुप्त मतदान से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
गुप्त मतदान का अर्थ है कि चुनाव अधिकारियों द्वारा मतदान के समय ऐसा प्रबंध किया जाता है कि यह मालूम न पड़े कि मतदाता ने अपने मताधिकार का प्रयोग किसके पक्ष में किया है या नहीं किया है।

प्रश्न 35.
चुनाव आयोग के कोई दो कार्य लिखिए।
उत्तर:

  • चुनाव आयोग संसद तथा राज्य विधानसभाओं के चुनावों की व्यवस्था करता है,
  • चुनाव आयोग को चुनाव संबंधी सभी मामलों पर निरीक्षण तथा निर्देशन का अधिकार है।

प्रश्न 36.
चुनाव याचिका का वर्णन करें। अथवा भारत में चुनाव-याचिका की सुनवाई कौन करता है?
उत्तर:
चुनावों के समय यदि किसी उम्मीदवार के द्वारा कोई अनियमितता बरती गई है, या कोई उम्मीदवार कानून के विरुद्ध कार्य करके चुनाव जीत गया है, तो उसका चुनाव रद्द करवाने के लिए कोई भी अन्य उम्मीदवार या कोई भी मतदाता याचिका दायर कर सकता है। यह याचिका सीधे उच्च न्यायालय में दी जाती है और वह स्वयं इसे सुनता है। यदि निर्वाचित उम्मीदवार के विरुद्ध लगाए गए आरोप सही सिद्ध हो जाएँ तो उच्च न्यायालय उसका चुनाव रद्द कर सकता है तथा संबंधित आरोपों के आधार पर उसे चुनाव के अयोग्य भी ठहरा सकता है।

प्रश्न 37.
भारतीय संविधान में निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण के प्रावधान पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
भारत के संविधान में सांप्रदायिक चुनाव-प्रणाली को समाप्त करके संयुक्त चुनाव-प्रणाली की व्यवस्था की गई है परंतु अनुच्छेद 330 के द्वारा समाज के पिछड़े वर्गों अनुसूचित जातियों (SC) तथा अनुसूचित जनजातियों (ST) के सदस्यों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इस समय लोकसभा में 84 सीटें अनुसूचित जातियों तथा 47 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। 104वें संशोधन द्वारा आरक्षित स्थानों की अवधि सन् 2030 तक बढ़ा दी गई है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 38.
भारतीय चुनाव-प्रणाली की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  • वयस्क मताधिकार,
  • एक सदस्य निर्वाचन-क्षेत्र,
  • गुप्त मतदान,
  • अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए स्थान सुरक्षित रखना।

प्रश्न 39.
भारतीय चुनाव-प्रणाली के दो दोष लिखें।
उत्तर:

  • चुनावों में धन की बढ़ती हुई भूमिका,
  • चुनाव में बाहुबल तथा हिंसा का प्रयोग।

प्रश्न 40.
भारतीय चुनाव-प्रणाली में सुधार के दो सुझाव दीजिए।
उत्तर:

  • चुनाव आयोग को अधिक शक्तिशाली तथा प्रभावी बनाया जाना चाहिए। उन्हें चुनावों में होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए अधिक शक्तियाँ दी जाएँ,
  • सभी मतदाताओं को परिचय-पत्र (Identity Cards) दिए जाने चाहिएँ ताकि गलत (Bogus) मतदान को रोका जा सके।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली तथा अप्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली साधारण शब्दों में, प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली उस चुनाव व्यवस्था को कहा जाता है जिसमें साधारण मतदाता प्रत्यक्ष रूप से (स्वयं) अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं। प्रत्येक मतदाता चुनाव-स्थान पर जाकर स्वयं अपनी पसन्द के उम्मीदवार के पक्ष में, अपने मत का प्रयोग करता है और जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है।

भारत में लोकसभा तथा राज्य विधानसभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली द्वारा किया जाता है। अप्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली-अप्रत्यक्ष चुनाव वह चुनाव व्यवस्था है जिसमें साधारण मतदाता कुछ प्रतिनिधियों (निर्वाचकों) का चुनाव करते हैं और वे निर्वाचक प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं। प्रतिनिधि के चुनाव में साधारण मतदाता प्रत्यक्ष रूप से अपने मत का प्रयोग नहीं करते। भारत में राष्ट्रपति तथा उप-राष्ट्रपति के चुनाव के लिए इस चुनाव-प्रणाली को अपनाया जाता है।

प्रश्न 2.
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के पक्ष में चार तर्क (लाभ) लिखें।
उत्तर:
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के पक्ष में चार तर्क निम्नलिखित हैं

1. अधिक लोकतन्त्रीय प्रणाली-इस प्रणाली में जनता को स्वयं प्रत्यक्ष रूप से मतदान करके अपने प्रतिनिधि चुनने का अवसर मिलता है। अतः यह प्रणाली अधिक लोकतान्त्रिक है।

2. मतदाताओं तथा प्रतिनिधियों में सीधा सम्पर्क-इस प्रणाली में मतदाता तथा उम्मीदवार सीधे रूप से सम्पर्क में आते हैं तथा मतदाता उम्मीदवारों को भली-भांति जान सकते हैं। उम्मीदवार भी अपनी नीतियाँ तथा कार्यक्रम जनता के सामने रख सकते हैं।

3. राजनीतिक शिक्षा-इस प्रणाली में मतदाताओं तथा उम्मीदवारों में सीधा सम्पर्क होता है। इससे मतदाताओं को राजनीतिक शिक्षा मिलती है और उनमें राजनीतिक जागरूकता की भावना का भी उदय होता है।

4. अधिकारों और कर्तव्यों का ज्ञान-इस प्रणाली के अन्तर्गत सामान्य जनता को मताधिकार तथा अन्य अधिकारों का ज्ञान प्राप्त होता है तथा कर्तव्यों की भी जानकारी मिलती है।

प्रश्न 3.
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व किसे कहते हैं?
उत्तर:
लोकतन्त्रीय राज्यों में चुनाव के लिए निर्वाचन-क्षेत्रों का गठन भौगोलिक आधार पर किया जाता है। समस्त राज्य को एक-सदस्य अथवा बहु-सदस्य निर्वाचन-क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है। एक चुनाव-क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों को उस चुनाव-क्षेत्र का निवासी होने के नाते अपने प्रतिनिधि चुनने के अधिकार को ही प्रादेशिक प्रतिनिधित्व कहा जाता है। संक्षेप में, सामान्य प्रतिनिधियों का निर्वाचन जब प्रादेशिक आधार पर हो, तो उस प्रणाली को प्रादेशिक प्रतिनिधित्व कहा जाता है। भारत, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका आदि राज्यों में इसी प्रणाली को लागू किया गया है।

प्रश्न 4.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व का क्या अर्थ है? इसकी दो पद्धतियों के नाम लिखें।
उत्तर:
आनुपातिक प्रतिनिधित्व का अर्थ है प्रत्येक जाति या वर्ग को उसकी जनसंख्या के अनुपात में संसद या प्रतिनिधि सभा में प्रतिनिधित्व का मिलना। जैकी का कहना है, “अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने का महत्त्व अतिशय महान है। यदि किसी निर्वाचन-क्षेत्र के दो तिहाई मतदाता एक दल को मत दें और शेष मतदाता किसी दूसरे दल को, तो स्पष्ट है कि बहुसंख्यक वर्ग को दो-तिहाई और अल्पसंख्यक वर्ग को एक-तिहाई प्रतिनिधित्व प्राप्त होना चाहिए।” अर्थात प्रत्येक वर्ग, जाति या दल को उसके समर्थकों के अनुपात के अनुसार प्रतिनिधित्व का मिलना ही आनुपातिक प्रतिनिधित्व कहलाता है।

प्रश्न 5.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व के चार गुण बताइए। उत्तर-आनुपातिक प्रतिनिधित्व के चार गुण निम्नलिखित हैं
1. सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व इस प्रणाली का यह गुण है कि समाज के सभी वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में विधानमण्डल में प्रतिनिधित्व मिल जाता है। कोई वर्ग प्रतिनिधित्व से वंचित नहीं रहता और सबको संतुष्टि मिलती है।

2. अल्पसंख्यकों में सुरक्षा की भावना-इस प्रणाली का यह गुण है कि सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व मिलने से उनके हितों की रक्षा होती है और अल्पसंख्यक वर्ग के लोग स्वयं को सुरक्षित समझते हैं। वे स्वयं को बहुसंख्यक वर्ग की तानाशाही का शिकार नहीं समझते।

3. मतदाताओं को मतदान में अधिक सुविधा इस प्रणाली में मतदाता को अपनी पसन्द के कई उम्मीदवारों के पक्ष में मत डालने का अवसर मिलता है। उसे एक ही व्यक्ति के पक्ष में मत डालने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता। इससे उसे अपनी पसन्द के उम्मीदवार को मत देने में सुविधा हो जाती है।

4. निर्वाचन के लिए निर्धारित मत प्राप्त करना आवश्यक है इस प्रणाली में यह सम्भावना नहीं रहती कि कोई उम्मीदवार थोड़े-से प्रतिशत मत लेकर भी चुन लिया जाएगा। इस प्रणाली में चुने जाने के लिए उम्मीदवार को एक निश्चित संख्या में मत प्राप्त करना आवश्यक होता है अर्थात् चुने जाने के लिए उम्मीदवार को एक निश्चित संख्या के मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करना आवश्यक है।

प्रश्न 6.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व के चार अवगुण लिखें।
उत्तर:
आनुपातिक प्रतिनिधित्व के चार अवगुण निम्नलिखित हैं

1. जटिल प्रणाली आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली बहुत जटिल है। साधारण मतदाता इसे समझ नहीं सकता।

2. राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अन्तर्गत छोटे-छोटे दलों को प्रोत्साहन मिलता है। अल्पसंख्यक जातियाँ भी अपनी भिन्नता बनाए रखती हैं और दूसरी जातियों के साथ अपने हितों को मिलाना नहीं चाहतीं। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र छोटे-छोटे वर्गों और गुटों में बँट जाता है और राष्ट्रीय एकता पनप नहीं पाती।

3. राजनीतिक दलों को अधिक महत्त्व आनुपातिक प्रतिनिधित्व की सूची प्रणाली के अन्तर्गत राजनीतिक दलों का महत्त्व बहुत अधिक होता है। मतदाता को किसी-न-किसी दल के पक्ष में वोट डालना होता है क्योंकि इस प्रणाली के अन्तर्गत निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव नहीं लड़ सकते।

4. उत्तरदायित्व का अभाव इस प्रणाली के अन्तर्गत निर्वाचन-क्षेत्र बहु-सदस्यीय होते हैं और एक क्षेत्र में कई प्रतिनिधि होते हैं। चूंकि एक क्षेत्र का प्रतिनिधि निश्चित नहीं होता, इसलिए प्रतिनिधियों में उत्तरदायित्व की भावना पैदा नहीं होती।

प्रश्न 7.
अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व समस्या का क्या अर्थ है?
उत्तर:
आधुनिक युग प्रजातान्त्रिक युग है और वास्तविक प्रजातन्त्र वही होता है जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग को समुचित प्रतिनिधित्व मिले। समुचित प्रतिनिधित्व से हमारा तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वर्ग, धर्म या जाति के प्रतिनिधि विधानमण्डल में होने चाहिएँ, ताकि वे भी अपना पक्ष रख सकें। यदि इस प्रकार का प्रतिनिधित्व नहीं होता तो विधानमण्डल को ‘जनमत का दर्पण’ नहीं कहा जा सकेगा। परन्तु आधुनिक लोकतन्त्र प्रणाली इस प्रकार की है कि उसमें अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व नहीं मिलता।

साधारणतः आजकल प्रायः सभी देशों में एक-सदस्यीय चुनाव क्षेत्रों के आधार पर होने वाले चुनावों में बहुमत प्राप्त वर्ग को अधिकतर क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व मिलता है और अल्पसंख्यक वर्गों को अपने प्रतिनिधि चुनने का अवसर प्राप्त नहीं होता। परिणामस्वरूप बहुसंख्यक वर्ग को अपनी जनसंख्या के अनुपात में काफी अधिक स्थान विधानमण्डन में मिल जाते हैं और अल्पसंख्यक बिना प्रतिनिधित्व के रह जाते हैं; जैसे एक दल को 60% मत प्राप्त होते हैं तो उस दल को 60% स्थान प्राप्त हो जाते हैं और उनकी सरकार बन जाती है परन्तु 40% लोग बिना किसी प्रतिनिधित्व के रह जाते हैं और उनके हितों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। इसी को अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की समस्या कहते हैं।

प्रश्न 8.
सीमित मत प्रणाली पर नोट लिखें।
उत्तर:
सीमित मत-प्रणाली (Limited Vote System) के अन्तर्गत सारा देश बहुत-से निर्वाचन-क्षेत्रों में विभाजित होता है। प्रत्येक निर्वाचन-क्षेत्र में से कम-से-कम 3 प्रतिनिधियों का निर्वाचन हो सकता है। इस प्रणाली में मतदाताओं को उम्मीदवारों की निश्चित संख्या से कम वोट देने का अधिकार होता है। उदाहरण के लिए, यदि हिसार निर्वाचन-क्षेत्र में से 5 उम्मीदवार चुने जाने हैं तो प्रत्येक मतदाता को 3 या 4 वोट देने का अधिकार होगा, परन्तु एक मतदाता एक उम्मीदवार को एक से अधिक मत नहीं दे सकता।

मतों की संख्या सीमित होने के कारण सभी स्थान बहुसंख्यक दल द्वारा पूरित नहीं होंगे, परिणामस्वरूप अल्पसंख्यकों को भी प्रतिनिधित्व मिल सकेगा। लेकिन जनसंख्या के अनुपात में उन्हें प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो पाता। इसके द्वारा बड़े तथा सुसंगठित अल्पमत वर्गों को ही प्रतिनिधित्व मिल सकता है।

प्रश्न 9.
वयस्क मताधिकार के पक्ष में चार तर्क (गुण) दीजिए।
उत्तर:
व्यस्क मताधिकार के पक्ष में चार तर्क निम्नलिखित हैं

1. लोक प्रभुसत्ता के सिद्धान्त के अनुकूल लोक प्रभुसत्ता का अर्थ है कि सर्वोच्च शक्ति जनता में निहित है। लोकतन्त्र तब तक वास्तविक लोकतन्त्र नहीं हो सकता जब तक कि प्रतिनिधियों के चुनाव में प्रत्येक नागरिक का योगदान न हो। अतः प्रतिनिधियों का चुनाव सामान्य जनता द्वारा किया जाना चाहिए।

2. यह समानता पर आधारित है लोकतन्त्र का मुख्य आधार है-समानता। सभी व्यक्ति समान हैं और विकास के लिए सभी को मताधिकार देना भी आवश्यक है। जिन नागरिकों को मतदान का अधिकार नहीं होता, उनके हितों तथा अधिकारों की सरकार तनिक भी परवाह नहीं करती। इसलिए प्रत्येक वयस्क को मत देने का अधिकार होना चाहिए। नों का प्रभाव सभी पर पड़ता है-राज्य के कानूनों तथा नीतियों का प्रभाव सभी व्यक्तियों पर पड़ता है। उसे निश्चित करने में भी सबका भाग होना चाहिए।

4. नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है वयस्क मताधिकार होने से सभी नागरिक समय-समय पर देश में होने वाले चुनावों में भाग लेते रहते हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता अपने दल की नीति का लोगों में प्रचार करते हैं और देश की समस्याओं के बारे में उनको जानकारी देते रहते हैं। इससे नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है।

प्रश्न 10.
वयस्क मताधिकार के चार अवगुण लिखें।
उत्तर:
व्यस्क मताधिकार के चार अवगुण निम्नलिखित हैं

1. अशिक्षित व्यक्तियों को मताधिकार देना अनुचित है-प्रत्येक देश में अधिकतर जनता अशिक्षित तथा अज्ञानी होती है। वे उम्मीदवार के गुणों को न देखकर जाति, धर्म तथा मित्रता आदि के आधार पर अपने मत का प्रयोग करते हैं। ऐसे व्यक्ति राजनीतिक नेताओं के जोशीले भाषणों से भी शीघ्र प्रभावित हो जाते हैं। अतः अशिक्षित व्यक्तियों को मताधिकार देना उचित नहीं है।

2. भ्रष्टाचार को बढ़ावा-वयस्क मताधिकार प्रणाली में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। निर्धन व्यक्ति थोड़े-से लालच में पड़कर अपना मत स्वार्थी तथा भ्रष्टाचारी उम्मीदवारों के हाथों में बेच देते हैं।

3. प्रशासन तथा देश की समस्याएँ जटिल- आधुनिक युग में शासन संबंधी प्रश्न तथा समस्याएँ दिन-प्रतिदिन जटिल होती जा रही हैं, जिन्हें समझ पाना साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं है। प्रायः साधारण मतदाता अयोग्य व्यक्ति को चुन लेते हैं क्योंकि उनके पास देश की समस्याओं पर विचार करने तथा उन्हें समझने के लिए समय ही नहीं होता।

4. साधारण जनता रूढ़िवादी होती है वयस्क मताधिकार के विरुद्ध एक तर्क यह प्रस्तुत किया जाता है कि साधारण जनता रूढ़िवादी होती है। उनके द्वारा आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्र में प्रगतिशील नीतियों का विरोध किया जाता है। अतः मताधिकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को ही मिलना चाहिए जो इसका उचित प्रयोग करने की योग्यता रखते हों।

प्रश्न 11.
चुनाव आयोग के कोई चार कार्य लिखें।
उत्तर:
चुनाव आयोग के चार कार्य निम्नलिखित हैं

1. चुनाव प्रबन्धन, निर्देशन व नियन्त्रण चुनाव आयोग का प्रमुख कार्य निष्पक्ष चुनाव करवाना है, इसलिए सम्पूर्ण चुनाव व्यवस्था चुनाव आयोग के अधीन है। यह चुनावों का प्रबन्ध, निर्देशन व नियन्त्रण करता है तथा चुनावों से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान करता है।

2. मतदाता सूचियाँ तैयार करना चुनाव आयोग चुनाव से पूर्व चुनाव क्षेत्र के आधार पर मतदाता सूचियाँ तैयार करवाता है, जिसके लिए यथासम्भव उन सभी वयस्क नागरिकों को मतदाता सूची में सम्मिलित करने का प्रयास किया जाता है जो मतदाता बनने की योग्यता रखते हैं।

3. राजनीतिक दलों को निर्वाचन में ठीक व्यवहार रखने के निर्देश-चुनाव आयोग चुनाव के समय उचित वातावरण बनाए रखने के लिए सभी राजनीतिक दलों और साधारण जनता के लिए आचार संहिता बना सकता है; जैसे मत प्राप्त करने के लिए राजनीतिक दल जातिवाद या सांप्रदायिकता की भावना को नहीं भड़काएँगे तथा भ्रष्ट तरीकों को नहीं अपनाएँगे।

4. चुनाव की तिथि की घोषणा करना-चुनाव आयोग उम्मीदवारों के लिए नामांकन-पत्र भरने, नाम वापस लेने तथा नामांकन-पत्रों की जांच करने की तिथि निश्चित करता है। यह आयोग उस तिथि की भी घोषणा करता है, जिस दिन आम चुनाव होने होते हैं और नागरिकों को अपने मतदान के अधिकार का प्रयोग करना होता है।

प्रश्न 12.
चुनाव आयोग का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
भारतीय चुनाव आयोग की महत्ता का विवरण निम्नलिखित आधारों पर किया जा सकता है

1. भारतीय लोकतन्त्र के लिए आवश्यक-भारत में लोकतन्त्र की स्थापना की गई है। लोकतन्त्र स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनावों पर आधारित है। भारत के संविधान निर्माताओं ने भारत में स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए चुनाव आयोग का गठन किया। अतः चुनाव आयोग स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव करवाकर भारतीय लोकतन्त्र की सुरक्षा करता है।

2. राजनीतिक दलों पर नियन्त्रण के लिए आवश्यक-चुनाव आयोग चुनाव के दिनों में राजनीतिक दलों के कार्यों को निर्देशित व नियंत्रित करने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। चुनाव आयोग ही विभिन्न राजनीतिक दलों को मान्यता प्रदान करता है एवं उनकी मान्यता को रद्द भी करता है। इसके साथ ही चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के लिए आचार संहिता को निश्चित करता है। आचार संहिता की अवहेलना करने वाले दलों के या उनके सदस्यों के विरुद्ध कार्रवाई भी करता है।

3. भारतीय चुनाव राजनीति को प्रदूषित होने से बचाने वाली संस्था के रूप में चुनाव आयोग भारतीय चुनाव राजनीति को प्रदूषित होने से बचाने वाली संस्था के रूप में अहम भूमिका निभाता है। चुनाव आयोग समय-समय पर सन् 1951 के भारतीय प्रतिनिधित्व अधिनियम के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न आदेश देता है जिससे चुनाव प्रक्रिया को भ्रष्ट होने से बचाया जा सकता है; जैसे प्रत्येक उम्मीदवार को चुनाव के बाद चुनाव में हुए खर्च का ब्यौरा देना होता है, शासक दल सरकारी मशीनरी का प्रयोग नहीं कर सकता, चुनाव के दौरान कोई घोषणा नहीं की जा सकती आदि।

4. सरकारों पर नियन्त्रण की भूमिका चुनाव आयोग केंद्र सरकार व राज्य सरकारों पर नियन्त्रण रखने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत में बहुमत प्राप्त दल सरकार का निर्माण करता है। सत्तारूढ़ दल अपनी शक्ति का प्रयोग करके चुनाव के लिए धन एकत्रित कर सकता है, जबकि विरोधी दल ऐसा नहीं कर सकता। इसलिए आयोग आदर्श आचार संहिता के अन्तर्गत सरकारों को निर्देश देता है और उन पर नियन्त्रण रखता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 13.
भारतीय चुनाव प्रणाली की कोई चार विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
भारतीय चुनाव प्रणाली की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. वयस्क मताधिकार-भारतीय चुनाव व्यवस्था की प्रमुख विशेषता वयस्क मताधिकार है। इसका अर्थ यह है कि देश के प्रत्येक नागरिक, जिसकी आयु 18 वर्ष अथवा उससे अधिक है, को मतदान में भाग लेने का अधिकार है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 61वें संवैधानिक संशोधन द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई थी। इसके अतिरिक्त भारत में जाति, धर्म, वर्ण, लिंग, शिक्षा आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति को मताधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।

2. अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा एंग्लो-इंडियन जाति के सदस्यों के लिए स्थान सुरक्षित रखना भारतीय संविधान के अनुसार संसद, राज्यों के विधानमण्डलों तथा स्थानीय स्वशासन की इकाइयों में पिछड़ी हुई जातियों, अनुसूचित जातियों तथा एंग्लो-इंडियन जाति के सदस्यों के लिए स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है। आरंभ में यह व्यवस्था केवल 10 वर्ष के लिए अर्थात् 1960 तक थी, परन्तु दस-दस वर्ष के लिए बढ़ाकर इसे लागू रखा गया है। अब यह व्यवस्था 104वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सन् 2030 तक कर दी गई है।

3. एक-सदस्यीय चनाव क्षेत्र भारतीय चनाव व्यवस्था की एक अन्य विशेषता एक-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र का होना है। चुनाव के समय प्रत्येक राज्य को लगभग बराबर जनसंख्या वाले क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है और एक निर्वाचन क्षेत्र से एक ही प्रतिनिधि चुना जाता है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व चुनाव में कुछ क्षेत्र दो सदस्यों वाले भी होते थे-एक साधारण जनता के लिए और दूसरा आरक्षित स्थान से । परन्तु अब इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया है।

4. गुप्त मतदान स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष चुनाव के लिए गुप्त मतदान आवश्यक है। भारत में भी लोकसभा, विधानसभा आदि के चुनाव के लिए गुप्त मतदान प्रणाली को अपनाया गया है। मत डालने वाले के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति को इस बात का पता नहीं लगता कि उसने अपना मतदान किस उम्मीदवार को दिया है। इससे भ्रष्टाचार में भी कमी होती है।

प्रश्न 14.
भारतीय चुनाव-प्रणाली की कोई चार त्रुटियाँ लिखें।
उत्तर:
भारतीय चुनाव-प्रणाली की चार त्रुटियाँ निम्नलिखित हैं

1. मतदाता सूचियों के बनाने में लापरवाही यह भी देखा गया है कि भारत में मतदाता सूचियों के बनाने में बड़ी लापरवाही से काम लिया जाता है और कई बार जान-बूझकर तथा कई बार अनजाने में पूरे-के-पूरे मोहल्ले सूचियों से गायब हो जाते हैं। मतदाता सूचियाँ अधिकतर राज्य सरकार के कर्मचारियों द्वारा बनाई जाती हैं और वे इसे फिजूल का काम समझते हैं।

विभिन्न विभागों के सामान्य कर्मचारियों विशेषतः पटवारियों तथा स्कूल के अध्यापकों से यह काम करवाया जाता है। प्रायः यह भी देखने में आता है कि नई मतदाता सूची बनाते समय नए मतदाताओं के नाम तो जोड़ दिए जाते हैं परन्तु स्वर्गवासी हो चुके मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में ज्यों के त्यों बने रहते हैं। इस प्रकार मतदाता सूचियों में अंकित नामों एवं वास्तविक नामों में पर्याप्त अन्तर हो जाता है। अतः मतदाता सूचियों को समय-समय पर संशोधित करने एवं चुनावी प्रक्रिया के प्रथम कार्य को सावधानीपूर्वक करने की आवश्यकता है।

2. सरकारी तन्त्र का दुरुपयोग भारतीय चुनाव व्यवस्था की एक और गम्भीर त्रुटि सामने आई है। मन्त्रियों द्वारा दलीय लाभ के लिए सरकारी तंत्र का प्रयोग किया जाता है। वोट बटोरने के लिए मन्त्रियों द्वारा लोगों को तरह-तरह के आश्वासन दि हैं। विभिन्न वर्गों के लिए अनेकानेक रियायतें और सुविधाओं की घोषणा की जाती है।

अनेक प्रकार की विकास योजनाओं की घोषणा की जाती है; जैसे कारखानों, स्कूलों, कॉलेजों, अस्पतालों व पुलों के शिलान्यास आदि की घोषणा करना। सरकारी कर्मचारियों के वेतन-भत्ते आदि में वृद्धि की जाती है। कर्जे माफ किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त सरकारी गाड़ियों तथा अन्य सुविधाओं का प्रयोग किया जाता है। यद्यपि चुनाव सम्बन्धी अधिनियम के अनुसार ऐसा करना भ्रष्ट व्यवहार में सम्मिलित है परन्तु फिर भी चुनावी प्रक्रिया के दौरान यह सब देखने को मिलता है।

3. राजनीतिक दलों को मतों के अनुपात से स्थानों की प्राप्ति न होना यह भी देखा गया है कि चुनावों में राजनीतिक दलों को उस अनुपात में विधानमण्डलों में स्थान प्राप्त नहीं होते, जिस अनुपात में उन्हें मत प्राप्त होते हैं। जैसे भारत में 13वीं लोकसभा के चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी को 182 स्थान मिले और मतों का प्रतिशत 23.70 प्रतिशत रहा, जबकि काँग्रेस को 28.42 प्रतिशत मत मिलने के पश्चात् भी 114 स्थान ही प्राप्त हुए, फिर भी काँग्रेस का मत-प्रतिशत भाजपा से 5 प्रतिशत अधिक है। इससे दलों में मायूसी का पैदा होना स्वाभाविक है। इस प्रकार एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत इस स्थिति को न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता।

4. चुनाव नियमों में दोष यह भी देखा गया है कि चुनाव सम्बन्धी नियमों में बड़ी कमियाँ हैं और इसी कारण चुनाव में बरती गई अनियमितताओं को न्यायालय के सामने सिद्ध करना बड़ा कठिन हो जाता है। लगभग सभी दल धर्म और जाति के आधार पर अपने उम्मीदवार चुनते हैं तथा इसी के नाम पर वोट माँगते हैं, परन्तु इसको सिद्ध करना कठिन है। सभी उम्मीदवार मतदाताओं को लाने व ले जाने के लिए गाड़ियों का प्रयोग करते हैं, परन्तु यह बात चुनाव-याचिका की सुनवाई के समय सिद्ध नहीं हो पाती।

प्रश्न 15.
भारतीय चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए कोई तीन सुझाव दें।
उत्तर:
भारतीय चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए तीन सुझाव निम्नलिखित हैं

1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली शुरू करना-भारत में चुनाव-प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि कई बार राजनीतिक दल कम मत प्राप्त करते हैं, परन्तु उन्हें अधिक स्थान प्राप्त हो जाते हैं। उदाहरणतः सन् 1980 में काँग्रेस को लोकसभा के लिए केवल 42.6% मत मिले, परन्तु संसद में 67% स्थान मिले। इस बुराई को समाप्त करने के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का सुझाव दिया गया है। यद्यपि भारत में इसे लागू करना कठिन कार्य है।

2. चुनाव याचिकाओं के बारे में सुझाव-गत अनेक वर्षों से चुनाव याचिकाएँ उच्च न्यायालयों के समक्ष आई हैं, जिनका निपटारा करने में कई वर्ष लगे हैं। चुनाव याचिकाएँ चुनावों से भी अधिक खर्चीली तथा कष्टमय बन गई हैं। इसलिए इन याचिकाओं का निपटारा शीघ्र होना चाहिए, ताकि इसके दोनों पक्षों को बेकार की मुसीबत तथा खर्च से छुटकारा मिल सके।

3. निर्दलीय उम्मीदवारों पर रोक-निर्दलीय उम्मीदवार निष्पक्ष चुनावों के लिए एक समस्या हैं। इसलिए निर्दलीय उम्मीदवारों पर रोक लगनी चाहिए। यद्यपि कानून द्वारा स्वतन्त्र उम्मीदवारों को रोका नहीं जा सकता, लेकिन फिर भी ऐसा कुछ अवश्य होना चाहिए कि मजाक के लिए चुनाव लड़ने वालों पर रोक लगे। इस संबंध में यह सुझाव दिया है कि एक तो जमानत की राशि को बढ़ा देना चाहिए। दूसरे यह व्यवस्था होनी चाहिए कि जिस निर्दलीय उम्मीदवार को निश्चित प्रतिशत से कम वोट प्राप्त होते हैं उसे अगले चुनाव में भाग लेने का अधिकार नहीं होगा। इस प्रकार की व्यवस्था से निश्चित रूप से निर्दलीय उम्मीदवारों पर रोक लगेगी।

प्रश्न 16.
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व के चार गुण लिखें।
उत्तर:
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व के चार गुण निम्नलिखित हैं
1. प्रतिनिधियों का उत्तरदायित्व प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होता है। एक क्षेत्र के सभी मतदाताओं का प्रतिनिधि होने के कारण वह अपने उत्तरदायित्व से इन्कार नहीं कर सकता।

2. क्षेत्रीय हितों की रक्षा प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में क्षेत्रीय हितों की अच्छी तरह पूर्ति होती है। प्रतिनिधि अपने क्षेत्र की आवश्यकताओं को अच्छी तरह समझते हैं क्योंकि उनका अपने मतदाताओं व क्षेत्र से समीप का संबंध होता है। अतः प्रतिनिधि अपने निर्वाचन-क्षेत्र की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भरसक प्रयत्न करते हैं। यदि प्रतिनिधि अपने मतदाताओं के हितों की रक्षा नहीं करता, तो ऐसे प्रतिनिधि को मतदाता दोबारा नहीं चुनते। इसलिए प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के हितों की उपेक्षा नहीं कर सकता।

3. अधिक विकास की सम्भावना प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में अधिक विकास की सम्भावना बनी रहती है। इसका कारण यह है कि इस प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्येक प्रतिनिधि अपने क्षेत्र का अधिक-से-अधिक विकास करना चाहता है क्योंकि भावी चुनाव में वह अपनी सीट को सुनिश्चित कर लेना चाहता है। सभी क्षेत्रों के विकास से देश का विकास होना स्वाभाविक है।

4. कम खर्चीली इस प्रणाली में चुनाव कम खर्चीला होता है और उम्मीदवार को भी चुनाव में कम खर्च करना पड़ता है।

प्रश्न 17.
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व के चार अवगुण लिखें।
उत्तर:
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व के चार अवगुण निम्नलिखित हैं

1. क्षेत्रीयवाद की भावना-इस प्रणाली द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। प्रतिनिधि अपने को एक क्षेत्र विशेष का प्रतिनिधि समझने लगते हैं और उसी क्षेत्र के विकास की बात सोचते तथा करते हैं और उसके लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इससे राष्ट्रीय हितों की अवहेलना होने लगती है।

2. सीमित पसन्द-कई बार मतदाताओं की पसन्द सीमित हो जाती है क्योंकि चुनाव लड़ने वाले प्रायः उसी क्षेत्र के निवासी होते हैं और यदि उस क्षेत्र में अच्छे उम्मीदवार न हों तो मतदाताओं को इच्छा न होते हुए भी किसी-न-किसी उम्मीदवार के पक्ष में मत डालना ही पड़ता है।

3. भ्रष्ट होना मतदाताओं को भ्रष्ट किए जाने की सम्भावना रहती है क्योंकि मतदाता कम होते हैं और धनी उम्मीदवार धन के बल पर वोट खरीदने का प्रयत्न करने लगते हैं।

4. अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व न मिलना-इस प्रणाली में अल्पसंख्यक वर्गों को प्रतिनिधित्व आसानी से नहीं मिलता। एक क्षेत्र से एक उम्मीदवार चुना जाता है और स्वाभाविक है कि बहुमत वर्ग का उम्मीदवार ही चुना जाता है। इस प्रकार अल्पसंख्यक वर्ग के प्रतिनिधि लगभग सभी चुनाव क्षेत्रों में हार जाते हैं।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली से आप क्या समझते हैं? इसके पक्ष तथा विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
साधारण शब्दों में, प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली उस चुनाव व्यवस्था को कहा जाता है जिसमें साधारण मतदाता प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं। प्रत्येक मतदाता चुनाव-स्थान पर जाकर स्वयं अपनी पसन्द के उम्मीदवार के पक्ष में, अपने मत का प्रयोग करता है और जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है।

भारत में लोकसभा तथा राज्य विधानसभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली द्वारा किया जाता है। इस प्रणाली के पक्ष तथा विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of Direct Method of Election)-प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली .. की पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं

1. अधिक लोकतन्त्रीय प्रणाली (More Democratic System):
इस प्रणाली में जनता को स्वयं प्रत्यक्ष रूप से मतदान करके अपने प्रतिनिधि चुनने का अवसर मिलता है। अतः यह प्रणाली अधिक लोकतान्त्रिक है।

2. मतदाताओं तथा प्रतिनिधियों में सीधा सम्पर्क (Direct link between the voters and their Representatives):
इस प्रणाली में मतदाता तथा उम्मीदवार सीधे रूप से सम्पर्क में आते हैं तथा मतदाता उम्मीदवारों को भली-भांति जान सकते हैं। उम्मीदवार भी अपनी नीतियाँ तथा कार्यक्रम जनता के सामने रख सकते हैं।

3. राजनीतिक शिक्षा (Political Education):
इस प्रणाली में मतदाताओं तथा उम्मीदवारों में सीधा सम्पर्क होता है। इससे मतदाताओं को राजनीतिक शिक्षा मिलती है और उनमें राजनीतिक जागरूकता की भावना का भी उदय होता है।

4. अधिकारों और कर्तव्यों का ज्ञान (Knowledge of Rights and Duties):
इस प्रणाली के अन्तर्गत सामान्य जनता को मताधिकार तथा अन्य अधिकारों का ज्ञान प्राप्त होता है तथा कर्तव्यों की भी जानकारी मिलती है।

5. राजनीतिक दलों के लिए आसानी (Convenient for Political Parties):
इस प्रणाली में राजनीतिक दलों के लिए भी आसानी होती है और जो राजनीतिक दल अधिक प्रभावशाली होता है उसके लिए अधिक मत प्राप्त करना तथा बहुमत प्राप्त करना सरल हो जाता है।

6. मतदाताओं में आत्म-सम्मान की भावना आती है (It brings sense of Self-respect among the Voters):
प्रत्येक चुनाव-प्रणाली के अनुसार प्रत्येक मतदाता को निर्वाचन में भाग प्राप्त होता है, जिसके फलस्वरूप मतदाताओं में आत्म-सम्मान की भावना जन्म लेती है। वे अपने-आप को शासन-तन्त्र का अंश अनुभव करते हैं और राजनीतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं।

7. प्रतिनिधि सभी लोगों के सामने उत्तरदायित्व निभाते हैं (Representatives owe Responsibility to All):
वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली द्वारा चुने गए प्रतिनिधि अपने-आपको जनता के सामने अधिक उत्तरदायी महसूस करते हैं क्योंकि वे कुछ मतदाताओं द्वारा नहीं, बल्कि सभी मतदाताओं द्वारा चुने जाते हैं।

प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के विपक्ष में तर्क (Arguments Against of Direct Method of Election) प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली . के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं

1. साधारण मतदाताओं में मतं का उचित प्रयोग करने की क्षमता का अभाव (Ordinary Voters cannot exercise the Right to Vote Properly): प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के आलोचकों का कहना है कि साधारण मतदाताओं में अपने मत का उचित प्रयोग करने की क्षमता नहीं होती। वे झूठे प्रचारों और जोशीले भाषणों के प्रभाव में बह जाते हैं और अयोग्य उम्मीदवारों को अपना वोट डाल देते हैं।

2. अनुचित प्रचार (False Propaganda):
इस प्रणाली के अन्तर्गत निर्वाचन अभियान में झूठे प्रचार का सहारा लिया जाता है। उम्मीदवार एक-दूसरे की निन्दा करते हैं और एक-दूसरे पर झूठे आरोप लगाते हैं जिसके परिणामस्वरूप मतदाता पथ-भ्रष्ट हो सके।

3. अधिक खर्चीली प्रणाली (More Expensive System):
प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली अधिक खर्चीली मानी गई है। इसके अन्तर्गत चुनाव कराने वाले अभिकरण को भी बहत खर्चा करना पड़ता है और उम्मीदवारों को भी बहत खर्चा करना पड़ता है।

4. अव्यवस्थाजनक (Causes Disruption):
यह चुनाव-प्रणाली एक ऐसी चुनाव-प्रणाली है जिसमें अव्यवस्था हो जाती है। अधिक जोश-खरोश के कारण दंगे-फसाद और अन्य प्रकार की अव्यवस्थाजनक स्थितियाँ सामने आ जाती हैं जिनका समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

5. दलगत भावना को बढ़ावा (Encourages Partisan Spirit):
प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली राजनीतिक दलों का अखाड़ा बन जाती है, जिसमें राजनीतिक दल एक-दूसरे के विरुद्ध आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हैं।

प्रश्न 2.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के विभिन्न तरीकों या रूपों का वर्णन करें।
उत्तर:
अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए यह प्रणाली सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसकी विशेषता यह है कि इसका उद्देश्य प्रत्येक दल को कुछ प्रतिनिधित्व दिलाना है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक दल को उसके मतदान की शक्ति के अनुपात में ही प्रतिनिधित्व दिया जाता है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व के मुख्य दो रूप हैं-

  • एकल संक्रमणीय मत-प्रणाली (Single Transferable Vote System) और
  • सूची-प्रणाली (List System)। ये दोनों प्रणालियाँ अल्पसंख्यकों को उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार प्रतिनिधित्व दिलाती हैं।

1. एकल संक्रमणीय मत प्रणाली (Single Transferable Vote System) इस प्रणाली को हेयर प्रणाली (Hare System) भी कहा जाता है, क्योंकि सर्वप्रथम इसका वर्णन एक अंग्रेज़ विद्वान थॉमस हेयर (Thomas Hare) ने सन् 1851 में अपनी पुस्तक ‘प्रतिनिधियों का चुनाव’ (Election of Representatives) में किया था।

सन् 1855 में डेनमार्क के एक मन्त्री एंड्रे (Andrae) द्वारा इसे पहली बार लागू किया गया। इसे अधिमान्य प्रणाली (Preferential System) भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें मतदाता मत-पत्र (Ballot-Paper) पर अपने अधिमानों (Preferences) का संकेत दे सकता है। भारतवर्ष में राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव इसी प्रणाली के द्वारा किया जाता है। इस प्रणाली के अनुसार चुनाव जीतने के लिए जितने मत प्राप्त करने आवश्यक हैं, उनकी संख्या एक सूत्र (Formula) के अनुसार निश्चित की जाती है। इसे कोटा (Quota) कहा जाता है। इसकी गणना निम्नलिखित प्रकार से की जाती है
HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 Img 1
मतदान-पत्र (Ballot Paper) में निर्वाचन के लिए खड़े सभी उम्मीदवारों के नाम लिखे हुए होते हैं। निर्वाचन के लिए जितने उम्मीदवार खड़े होते हैं, मतदाता को उतने ही अधिमान या पूर्वाधिकार (Preferences) देने का अधिकार होता है। उसे अपने अधिमानों (Preferences) को 1, 2, 3, 4, 5, 6 आदि के रूप में लिखना पड़ता है। . जब मतदान की प्रक्रिया (Polling) समाप्त हो जाती है तो सभी उम्मीदवारों को प्राप्त हुए प्रथम अधिमानों (First Preferences) को गिन लिया जाता है।

जो उम्मीदवार निश्चित कोटा प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें शीघ्र ही निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। ऐसे उम्मीदवार निश्चित कोटे से कुछ अधिक वोट भी प्राप्त कर सकते हैं। इन अतिरिक्त (Additional) वोटों का उनके लिए कुछ भी महत्त्व नहीं होता। इसीलिए इन अतिरिक्त (Additional) वोटों को मत-पत्र (Ballot Paper) में लिखे गए अधिमानों (Preferences) के क्रम के अनुसार दूसरे उम्मीदवारों को दे दिया जाता है अर्थात् हस्तांतरित कर दिया जाता है।

इस प्रकार का हस्तांतरण उस समय तक जारी रहता है, जब तक कोटा प्राप्त करने वाले उम्मीदवारों की संख्या निर्वाचन-क्षेत्र से चुने जाने वाले उम्मीदवारों की संख्या के बराबर न हो जाए। जिस समय यह संख्या समान हो जाती है तो उस समय हस्तांतरण की प्रक्रिया बन्द कर दी जाती है और निर्वाचन परिणाम घोषित कर दिया जाता है।

2. सूची प्रणाली (List System)-आनुपातिक प्रतिनिधित्व का दूसरा रूप सूची प्रणाली है। यह प्रणाली बहु-सदस्यीय निर्वाचन-क्षेत्र में, जिसमें कम-से-कम तीन सीटें हों, लागू की जा सकती है। इस प्रणाली के अन्तर्गत चुनाव में जो उम्मीदवार खड़े होते हैं, उनकी अपने-अपने दलों के अनुसार अनुसूचियाँ बना ली जाती हैं। प्रत्येक मतदाता को उतने मत देने का अधिकार होता है जितने कि सदस्य उस निर्वाचन-क्षेत्र से चुने जाते हैं, परन्तु वह एक उम्मीदवार को एक से अधिक मत नहीं दे सकता।

उदाहरणस्वरूप, यदि किसी निर्वाचन-क्षेत्र में 4 सीटें हैं तो प्रत्येक मतदाता को 4 मत देने का अधिकार होगा। इस प्रणाली में चुनाव का परिणाम अलग-अलग उम्मीदवारों को प्राप्त हुए मतों के अनुसार नहीं निकाला जाता, बल्कि प्रत्येक सूची के उम्मीदवारों के मत इकट्ठे जोड़ लिए जाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि मतदाता अपना मत उम्मीदवार को नहीं देते, बल्कि सूची को देते हैं।

इसके अन्तर्गत भी उपर्युक्त एकल संक्रमणीय प्रणाली में दिए गए फार्मूले के अनुसार कोटा (Quota) निकाला जाता है और एक स्थान से चुनाव जीतने के लिए न्यूनतम मतों की संख्या को निश्चित किया जाता है, इसके पश्चात प्रत्येक सूची को कितने स्थान मिलने चाहिएँ, यह उस सूची को दिए गए मतों की कुल संख्या को कोटा से विभाजित करके निकाल लिया जाता है। उदाहरणस्वरूप, एक आएगा।
HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 Img 2
यदि चुनाव में तीन दल भाग ले रहे हैं और उनको मत इस प्रकार मिले हैं जनता दल 4,200, काँग्रेस 3,000 और साम्यवादी दल 2,800 तो उस समय जनता दल को दो स्थान, काँग्रेस को एक स्थान तथा साम्यवादी दल को एक स्थान प्राप्त हो जाएगा। यदि इसमें किसी दल को कोटे से कम मत प्राप्त होते हैं तो बची हुई सीट उस दल को दी जाएगी, जिसके शेष मतों की संख्या सबसे अधिक है। इस प्रकार प्रत्येक दल को उसकी मत-संख्या के अनुपात से प्रतिनिधित्व मिल जाता है। यह प्रणाली नार्वे, स्वीडन तथा बेल्जियम आदि देशों में अपनाई गई है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 3.
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के पक्ष तथा विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of System of Proportional Representation)-आधुनिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के पक्ष में तर्क निम्नलिखित हैं

1. सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व (Representation to All Classes):
इस प्रणाली का यह गुण है कि समाज के सभी वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में विधानमण्डल में प्रतिनिधित्व मिल जाता है। कोई वर्ग प्रतिनिधित्व से वंचित नहीं रहता और सबको संतुष्टि मिलती है।

2. अल्पसंख्यकों में सुरक्षा की भावना (Feeling of Protection among Minorities):
इस प्रणाली का यह गुण है कि सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व मिलने से उनके हितों की रक्षा होती है और अल्पसंख्यक वर्ग के लोग स्वयं को सुरक्षित समझते हैं। वे स्वयं को बहुसंख्यक वर्ग की तानाशाही का शिकार नहीं समझते।

3. मतदाताओं को मतदान में अधिक सुविधा (More Scope of Choice for Voters):
इस प्रणाली में मतदाता को अपनी पसन्द के कई उम्मीदवारों के पक्ष में मत डालने का अवसर मिलता है। उसे एक ही व्यक्ति के पक्ष में मत डालने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता। इससे उसे अपनी पसन्द के उम्मीदवार को मत देने में सुविधा हो जाती है।

4. निर्वाचन के लिए निर्धारित मत प्राप्त करना आवश्यक है (Quota is Necessary to Win the Election):
इस प्रणाली भावना नहीं रहती कि कोई उम्मीदवार थोड़े-से प्रतिशत मत लेकर भी चुन लिया जाएगा। इस प्रणाली में चुने जाने के लिए उम्मीदवार को एक निश्चित संख्या में मत प्राप्त करना आवश्यक होता है, अर्थात् चुने जाने के लिए उम्मीदवार को एक निश्चित संख्या के मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करना आवश्यक है।

5. मत व्यर्थ नहीं जाते (Votes do not go Waste):
इस प्रणाली का यह भी गुण है कि इसमें कोई भी मत व्यर्थ नहीं जाता। मतदाता का मत यदि पहली पसन्द के अनुसार काम नहीं आता है, तो वह दूसरी या तीसरी या चौथी पसन्द के पक्ष में अवश्य काम आता है। मतदाता को भी यह तसल्ली रहती है कि. उसके मत का मूल्य है।

6. विधानमण्डल जनमत का सही प्रतिनिधित्व करता है (Legislature becomes Real Mirror of Public Opinion):
इस प्रणाली से विधानमण्डल जनमत का सही प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि इसमें सभी वर्गों और जातियों के लोग अपने अनुपात से विधानमण्डल में स्थान प्राप्त कर लेते हैं।

7. बहु-दलीय प्रणाली के लिए उपयोगी (Useful in case of Multi-party System):
जिस देश में कई राजनीतिक दल हैं, उसमें यह प्रणाली बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है क्योंकि इसके अन्तर्गत सभी राजनीतिक दलों को प्रतिनिधित्व मिल जाता है और किसी एक दल की तानाशाही स्थापित नहीं हो पाती।

8. लोगों को अधिक राजनीतिक शिक्षा (More Political Education to People):
इस प्रणाली का यह भी गुण है कि इससे लोगों को राजनीतिक शिक्षा अधिक मिलती है। लोगों को मत डालते समय काफी सोच-विचार के बाद अपनी पसन्द का प्रयोग करना पड़ता है और मतगणना के समय भी काफी सोच-समझ से काम लेना पड़ता है, इसलिए यह प्रणाली लोगों को अधिक राजनीतिक शिक्षा देती है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के विपक्ष में तर्क (Arguments Against the System of Proportional Representation) आधुनिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के विपक्ष में तर्क निम्नलिखित हैं

1. जटिल प्रणाली (Complicated System):
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली बहुत जटिल है। साधारण मतदाता इसे समझ नहीं सकता। वोटों पर पसन्द अंकित करना, कोटा निश्चित करना, वोटों की गिनती करना और वोटों को पसन्द के अनुसार हस्तांतरित करना आदि ये सब बातें एक साधारण पढ़े-लिखे व्यक्ति समझ नहीं पाते।

2. राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध (Against National Unity):
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अन्तर्गत छोटे-छोटे दलों को प्रोत्साहन मिलता है। अल्पसंख्यक जातियाँ भी अपनी भिन्नता बनाए रखती हैं और दूसरी जातियों के साथ अपने हितों को मिलाना नहीं चाहतीं। इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र छोटे-छोटे वर्गों और गुटों में बँट जाता है और राष्ट्रीय एकता पनप नहीं पाती।

3. राजनीतिक दलों को अधिक महत्त्व (More Importance to Political Parties):
आनुपातिक प्रतिनिधित्व की सूची प्रणाली के अन्तर्गत राजनीतिक दलों का महत्त्व बहुत अधिक होता है। मतदाता को किसी-न-किसी दल के पक्ष में वोट डालना होता है क्योंकि इस प्रणाली के अन्तर्गत निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव नहीं लड़ सकते।

4. उत्तरदायित्व का अभाव (Lack of Responsibility):
इस प्रणाली के अन्तर्गत निर्वाचन-क्षेत्र बहु-सदस्यीय होते हैं और एक क्षेत्र में कई प्रतिनिधि होते हैं। चूंकि एक क्षेत्र का प्रतिनिधि निश्चित नहीं होता, इसलिए प्रतिनिधियों में उत्तरदायित्व की भावना पैदा नहीं होती।

5. मतदाता और प्रतिनिधि में सम्पर्क का अभाव (Lack of Contact between Voters and Representatives):
इस प्रणाली में चुनाव-क्षेत्र बड़े-बड़े होते हैं, जिस कारण से मतदाताओं को उम्मीदवारों की पूरी जानकारी प्राप्त नहीं होती और उनमें घनिष्ठ संबंध होना असम्भव-सा हो जाता है। परिणाम यह निकलता है कि प्रतिनिधियों का लोगों के साथ सम्पर्क नहीं हो पाता।

6. मतदाताओं की पसन्द सीमित हो जाती है (Voter’s Choice is Limited):
कई बार मतदाता की पसन्द का व्यक्ति नहीं चुना जाता। मान लो कि एक मतदाता ने किसी सूची में चौथे नंबर पर लिखे हुए उम्मीदवार के कारण अपना मत उस सूची के पक्ष में डाला, परन्तु उस सूची के हिस्से में केवल दो सीटें आईं तो ऐसी दशा में उस मतदाता की पसन्द अर्थहीन हो गई।

7. सरकार की अस्थिरता (Government is Unstable):
इस प्रणाली के अन्तर्गत देश में बहुत-से दल बन जाते हैं और सभी दल विधानमण्डल में कुछ-न-कुछ सीटें प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं। जिन देशों में इस चुनाव-प्रणाली को अपनाया गया है, उनके विधानमण्डलों में किसी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो पाता और प्रायः मिली-जुली सरकार बनती है जो अधिक देर तक स्थिर नहीं रहती।

8. उप-चुनाव करवाने में कठिनाई (Difficulty in holding By-election):
इस प्रणाली के अधीन निर्वाचन-क्षेत्र का बहु-सदस्यीय होना बहुत आवश्यक है, परन्तु यदि आम चुनाव के बाद किसी क्षेत्र में एक सीट खाली हो जाए तो उसका उप-चुनाव कैसे किया जाए, यह एक ऐसी समस्या है, जिसे आसानी से सुलझाया नहीं जा सकता।

निष्कर्ष (Conclusion)-आनुपातिक प्रतिनिधित्व के पक्ष और विपक्ष का अध्ययन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकालना आसान है कि यह प्रणाली केवल ऐसे देश में लागू हो सकती है जहाँ लोग अधिक पढ़े-लिखे हों, साथ ही यह प्रणाली ऐसे राज्य के लिए कदाचित उचित नहीं ठहराई जा सकती, जहाँ पर संसदीय शासन लागू हो। इस चुनाव-प्रणाली का एक गुण तो सराहनीय है कि यह अल्पसंख्यक जातियों को प्रतिनिधित्व दिलाने में बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है। भारत में विधानपालिका के ऊपरी सदनों के चुनाव इसी प्रणाली के अनुसार होते हैं।

प्रश्न 4.
भारतीय चुनाव-प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
भारतीय चुनाव-प्रणाली की मुख्य विशेषताओं का विवरण निम्नलिखित है

1. वयस्क मताधिकार (Adult Franchise):
भारतीय चुनाव-प्रणाली की प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ वयस्क मत्तधिकार प्रणाली को लागू किया गया है। 18 वर्ष की आयु पूरी करने वाले प्रत्येक नागरिक को संसद, विधानमण्डल, नगरपालिका, पंचायत आदि के चुनावों में मत डालने का अधिकार दिया गया है।

मताधिकार के लिए जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता। हाँ, मतदान क्षेत्र (Constituency) में एक निश्चित अवधि तक रहने, मतदाता-सूची में नाम होने आदि की शर्ते निश्चित की गईं हैं, परन्तु अमीर-गरीब, छूत-अछूत, हिन्दू-मुसलमान आदि के आधार पर किसी को मताधिकार से वंचित नहीं किया गया है।

वयस्क मताधिकार में लोकतान्त्रिक सहभागिता के सिद्धान्त को लागू किया गया है और लगभग 50% से अधिक जनसंख्या को मत डालने का अधिकार मिला हुआ है। सितम्बर-अक्तूबर, 1999 के लोकसभा चुनाव के समय भारत में कुल मतदाताओं की संख्या लगभग 62.04 करोड़ थी, जो 14वीं लोकसभा चुनाव (अप्रैल-मई, 2004) के समय बढ़कर लगभग 67.5 करोड़ हो गई थी।

15वीं लोकसभा चुनाव (अप्रैल-मई, 2009) में मतदाताओं की कुल संख्या लगभग 71 करोड़ 40 लाख, 16वीं लोकसभा चुनाव (अप्रैल-मई, 2014) में लगभग 83.41 करोड़ थी जो अप्रैल-मई, 2019 में हुए 17वीं लोकसभा में बढ़कर लगभग 89 करोड़ 78 लाख हो गई। इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में जनता के एक बहुत बड़े भाग को चुनावों में अपनी सहभागिता निभाने का अधिकार प्राप्त है।

2. प्रत्यक्ष चुनाव (Direct Election):
भारतीय चुनाव-प्रणाली की एक विशेषता यह भी है कि यहाँ जनता के प्रतिनिधि जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। केवल राज्यसभा तथा विधान परिषदों के सदस्य ही अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं और ये संस्थाएँ इतनी शक्तिशाली नहीं हैं। वास्तविक शक्ति-प्राप्त संस्थाएँ लोकसभा, राज्य विधानसभा, पंचायत, नगरपालिका हैं और इन सबके प्रतिनिधि जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। इनमें मनोनीत किए जाने की व्यवस्था भी नाममात्र है।

3. संयुक्त निर्वाचन (Joint Election):
भारत में चुनाव अब पृथक् निर्वाचन के आधार पर नहीं होते, बल्कि संयुक्त निर्वाचन के आधार पर होते हैं। एक चुनाव-क्षेत्र में रहने वाले सभी मतदाता, चाहे वे किसी भी जाति या धर्म से सम्बन्ध रखते हैं, अपना एक प्रतिनिधि चुनते हैं। संविधान के अनुच्छेद 325 के अनुसार प्रत्येक प्रादेशिक चुनाव के लिए संसद के सदस्य चुनने के लिए एक सामान्य निर्वाचक सूची होगी और कोई भी भारतीय धर्म, जाति तथा लिंग के आधार पर सूची में नाम लिखवाने के अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि एक निर्वाचन क्षेत्र के समस्त मतदाता मिलकर संयुक्त रूप से अपने एक प्रतिनिधि का निर्वाचन करते हैं।

4. गुप्त मतदान (Secret Voting):
भारत में गुप्त मतदान की व्यवस्था की गई है। निष्पक्ष और स्वतन्त्र चुनाव के लिए गुप्त मतदान की व्यवस्था आवश्यक है। इस व्यवस्था में मत डालने वाले व्यक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति को इस बात का पता नहीं चलता कि उसने अपना मत किसको दिया है। इस प्रकार आपसी झगड़े और शत्रुता की सम्भावना कम हो जाती है तथा देश में शान्ति और व्यवस्था बनी रहती है।

5. एक-सदस्यीय चुनाव-क्षेत्र (Single-Member Constituencies):
भारत में एक-सदस्यीय चुनाव-क्षेत्र बनाए जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि चुनाव के समय सारे भारत या उस राज्य को, जिसमें कि चुनाव होना हो, बराबर जनसंख्या वाले चुनाव-क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है और प्रत्येक क्षेत्र में से एक प्रतिनिधि चुना जाता है। पहले चुनावों में कुछ क्षेत्र दो सदस्यों वाले भी होते थे एक सदस्य साधारण जनता में से और दूसरा सुरक्षित स्थान से, परन्तु अब जिन क्षेत्रों में अनुसूचित जातियों अथवा जनजातियों की संख्या अधिक होती है, उस इलाके से उस जाति का एक ही सदस्य चुना जाता है और उसे सभी मतदाता चुनते हैं। इस प्रकार अब सभी चुनाव-क्षेत्र एक-सदस्यीय हैं। वर्तमान में भारतीय संघ को 543 संसदीय क्षेत्रों में बाँटा गया है।

6. आनुपातिक प्रतिनिधित्व और एकल संक्रमणीय मत प्रणाली (Proportional Representation and Single Transferable Vote System):
भारत में इस प्रकार की चुनाव-प्रणाली का प्रयोग भारतीय गणराज्य के राष्ट्रपति एवं उप-राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए किया जाता है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार संसद व राज्य विधानसभाओं के सदस्यों को अनुपात के अनुसार समान मूल्य के मत देने का अधिकार होता है।

एकल संक्रमणीय प्रणाली के अनुसार मतदाता को उम्मीदवारों के नाम के आगे अपनी पसन्द लिखनी होती है। मतगणना के समय यदि प्रथम पसन्द वाला कोई व्यक्ति नहीं चुना जाता तो द्वितीय या उससे अगली पसन्द वालों के नाम मतों का संक्रमण हो जाता है। इस प्रकार किसी मतदाता का कोई मत व्यर्थ नहीं जाता।

7. चुनाव आयोग (Election Commission):
भारतीय संविधान द्वारा चुनावों के सुचारू रूप से संचालन के लिए चुनाव आयोग की व्यवस्था की गई है, जिसमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा दो अन्य चुनाव आयुक्त होते हैं। इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। वर्तमान में श्री सुशील चंद्रा मुख्य निर्वाचन आयुक्त हैं एवं अन्य दो चुनाव आयुक्त बहु-सदस्यीय आयोग में कार्यरत हैं। इसी तरह भारत में बहु-सदस्यीय चुनाव आयोग कार्य कर रहा है।

8. स्थानों का आरक्षण (Reservation of Seats):
भारत में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है। इसके साथ ही पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए संसद, विधानसभाओं, नगरपालिकाओं तथा पंचायतों में स्थान आरक्षित किए गए हैं। कुछ निर्वाचन-क्षेत्र ऐसे रखे जाते हैं, जिनसे किसी पिछड़े वर्ग या अनुसूचित जाति अथवा जनजाति का सदस्य ही चुनाव लड़ सकता है।

आरम्भ में यह व्यवस्था केवल 10 वर्ष के लिए अर्थात् 1960 तक थी, परन्तु दस-दस वर्ष बढ़ाकर इसे लागू रखा गया। वर्तमान में 104वें संशोधन के द्वारा इसे बढ़ाकर 2030 तक कर दिया गया। यह व्यवस्था समाज के पिछड़े वर्ग को सुविधा प्रदान करके उन्हें शेष वर्गों के समान स्तर पर लाने के अभिप्राय से की गई है। यह व्यवस्था लोकतन्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध नहीं, बल्कि उसे वास्तविक व व्यावहारिक बनाने के लिए की गई है।

9. चनाव याचिका (Election Petition):
भारत में चनाव सम्बन्धी झगडों को निपटाने के लिए चनाव याचिका की व्यवस्था की गई है। इसके अनुसार कोई भी उम्मीदवार या मतदाता यदि किसी चुनाव से सन्तुष्ट नहीं है या वह महसूस करता है कि किसी चुनाव-विशेष में भ्रष्ट साधन अपनाए गए हैं, तो वह अपनी याचिका सीधे उच्च न्यायालय के पास भेज देता है। यदि यह सिद्ध हो जाए कि किसी प्रतिनिधि ने चुनाव के समय भ्रष्ट साधन अपनाए हैं, तो न्यायालय उसके चुनाव को रद्द घोषित कर सकता है।

10. परिणाम साधारण बहुमत के आधार पर (Result on the basis of Simple Majority):
भारत के संविधान निर्माताओं , ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत के लिए ब्रिटेन में 16वीं शताब्दी में प्रचलित चुनाव प्रणाली, जिसे ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम’ (First Past the Post System) या एकल बहुमत प्रणाली (Single Plurality System) कहा जाता है, को अपनाना अधिक उचित समझा। इस प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवारों में से सबसे अधिक मत पाने वाला उम्मीदवार लोकसभा/राज्यसभा विधानसभा विधान-परिषद्/स्थानीय नगर निकायों/पंचायत राज संस्थाओं के लिए निर्वाचित हो जाता है।

11. ऐच्छिक मतदान (Optional Voting):
चुनावों में प्रत्येक मतदाता द्वारा अपने मत का प्रयोग करना एवं न करना उसकी इच्छा पर निर्भर करता है। वह कानून द्वारा वोट डालने के लिए बाध्य नहीं है। यद्यपि गुजरात सरकार द्वारा स्थानीय स्तर (पंचायती राज संस्थाओं) पर मतदान के अनिवार्य सम्बन्धी कानून पास करके भारत में एक बार पुनः चर्चा का विषय बना दिया गया है कि . मतदान की अनिवार्यता के कानून को लागू करना कितना व्यावहारिक एवं सार्थक है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सन् 2014 में लागू किए गए मतदान की अनिवार्यता सम्बन्धी कानून को लागू करने वाला गुजरात राज्य भारत का प्रथम राज्य बन गया है।

12. नोटा का प्रावधान (Provision of NOTA):
भारतीय चुनाव प्रणाली में नोटा (None of the Above) के प्रावधान को लागू करके चुनाव में एक नए विकल्प को भी जनता के लिए प्रदान किया गया है। इस विकल्प द्वारा मतदाता चुनाव में खड़े हुए सभी प्रत्याशियों को नकार सकता है। इस तरह यदि मतदाता चुनाव में खड़े हुए सभी प्रत्याशियों को अयोग्य या भ्रष्ट प्रवृत्ति का समझते हैं तो वे अपनी भावना को व्यक्त करने का पूर्ण अधिकार रखते हैं।

भारत में हुए 16वीं लोकसभा चुनाव, 2014 में प्रथम बार नकारात्मक मतदान के लिए नोटा (NOTA) विकल्प मतदाताओं को उपलब्ध करवाया गया। 16वीं लोकसभा चुनाव में कुल 59,97,054 मतदाताओं ने इस विकल्प का प्रयोग किया। यह सभी 543 लोकसभा सीटों के लिए पड़े कुल मतों का लगभग 1.1% है। यह व्यवस्था निश्चित जन-प्रतिनिधियों को जहाँ उत्तरदायित्वपूर्ण बना सकती है, वहाँ उन्हें इस बात के लिए भी प्रेरित कर सकती है कि वे वास्तव में समाज में एक सच्चे जन-सेवक के आदर्श के रूप में अपने-आपको प्रस्तुत करें, अन्यथा जनता उन्हें नकार भी सकती है।

प्रश्न 5.
भारतीय चुनाव-प्रणाली की मुख्य त्रुटियों (दोषों) का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है। अब यहाँ लगभग 89 करोड़ 78 लाख से अधिक मतदाता अपने मत का प्रयोग करने का अधिकार रखते हैं और आने वाली सरकार का निर्णय करते हैं। भारत में अब तक लोकसभा के 17 चुनाव हो चुके हैं तथा विभिन्न राज्य विधानसभाओं के चुनाव हो चुके हैं। इन चुनावों की आम प्रशंसा भी हुई है, परन्तु भारतीय चुनाव-प्रणाली में कुछ उभरे दोषों सम्बन्धी तथ्य अब छिपे हुए नहीं हैं।

सामान्य तौर पर उम्मीदवारों की अपराधिक पृष्ठभूमि, अवैध तरीके से जमा की गई प्रत्याशियों की अचूक सम्पत्ति, अपराधिक व्यक्तियों से प्रत्याशियों की साँठ-गाँठ, मतदान केन्द्रों पर जबरन कब्जा कर लेने, फायरिंग करके या डरा-धमका कर वैध मतदाताओं को मतदान करने से रोकने पर फर्जी मतदान करने जैसी घटनाएँ एवं दोष भारतीय चुनाव प्रणाली में प्रायः देखी जा सकती है।

इसलिए भारत में चुनाव सुधार का मुद्दा सबसे अधिक चर्चित विषय रहता है। यद्यपि इस सम्बन्ध में भारतीय चुनाव आयोग, सरकार एवं न्यायपालिका ने समय-समय पर परिस्थितियों के अनुसार अपना-अपना सहयोग दिया है, परन्तु अब भी चुनाव-सुधार के लिए वास्तविक क्रिया चयन हेतु महत्त्वपूर्ण कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। यहाँ हम चुनाव-सुधार सम्बन्धी सुझावों पर चर्चा करने से पूर्व भारतीय चुनाव प्रणाली के दोषों पर दृष्टिपात कर रहे हैं जो निम्नलिखित हैं

1. चुनावों में धन की बढ़ती हुई भूमिका (The Increasing Role of Money in Elections):
भारतीय चुनाव-प्रणाली का सबसे बड़ा दोष चुनावों में धन की बढ़ती हुई भूमिका है। भारतीय चुनावों में धन के अन्धाधुन्ध प्रयोग और दुरुपयोग ने भारत की राजनीति को काफी भ्रष्ट किया है। भारत में काले धन का बड़ा बोलबाला है और उसका चुनावों में दिल खोलकर प्रयोग किया जाता है।

मतदाताओं के लिए शराब के दौर चलाए जाते हैं, मत खरीदे जाते हैं, उम्मीदवारों को धनी लोगों द्वारा खड़ा किया जाता है और पैसे के बल पर उम्मीदवारों को बैठाया जाता है तथा मतदाताओं को लाने व ले जाने के लिए गाड़ियों का प्रयोग किया जाता है। आज का चुनाव पैसे के बल पर ही जीता जा सकता है और इस धन ने मतदाताओं, राजनीतिक दलों तथा प्रतिनिधियों आदि सबको भ्रष्ट बना दिया है।

सार्वजनिक जीवन से सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों का कहना है कि लोकसभा के एक उम्मीदवार ने 2 से 10 करोड़ रुपए तक खर्च किए हैं अर्थात् इतना चुनाव खर्च राजनीतिक व आर्थिक स्थिति को दूषित कर रहा है। एक अनुमान के अनुसार, समय के साथ भारत में लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनावों की लागत (राजकोष पर भारित) तथा उम्मीदवारों एवं राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले खर्च का परिमाण सन् 1952 के खर्चों की तुलना में सन् 2014 में बढ़कर लगभग 328 गुना हो गया।

यहाँ तक कि राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों द्वारा किए जाने वाले व्यय में तो 500 गुना से भी अधिक वृद्धि हो गई है। एक तथ्य के अनुसार सन् 1952 के लोकसभा चुनावों पर मात्र 10.45 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे जिससे प्रति व्यक्ति चुनाव खर्च लगभग 0.60 रुपए था तथा सन् 2019 के 17वीं लोकसभा चुनाव में कुल खर्च लगभग 70 हजार करोड़ रुपए अनुमानित है जिससे प्रति व्यक्ति खर्च बढ़कर लगभग 60 रुपए हो गया है।

भारतीय लोकतन्त्र धीरे-धीरे ऐसे दौर में पहुंच गया है जहाँ किसी भी सामान्य पृष्ठभूमि के कार्यकर्ता के लिए किसी राजनीतिक दल का टिकट प्राप्त करना तथा चुनाव लड़ना लगभग असम्भव हो गया है। एक तथ्य के अनुसार, 17वीं लोकसभा में 88 प्रतिशत सांसदों की सम्पत्ति औसतन एक-एक करोड़ रुपए से अधिक थी जबकि सन् 2004, 2009 एवं 2014 में करोड़पति सांसदों का औसत क्रमशः लगभग 30 प्रतिशत एवं 82 प्रतिशत था।

इस तरह स्पष्ट है कि राजनीति में धनाढ्य लोगों का ही प्रभुत्व बनता जा रहा है जो भारतीय लोकतन्त्र एवं चुनाव प्रणाली के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता। निश्चित ही चुनाव प्रबंधन में काले धन के उपयोग से भारतीय चुनाव परिदृश्य अत्यन्त भ्रष्ट, कलुषित, फिजूलखर्ची एवं हिंसक होता जा रहा है।

2. जाति और धर्म के नाम पर वोट (Voting on the basis of Caste and Religion):
भारत में साम्प्रदायिकता का बड़ा प्रभाव है। जाति और धर्म के नाम पर खुले रूप से मत माँगे और डाले जाते हैं। राजनीतिक दल भी अपने उम्मीदवार खड़े करते समय इस बात को ध्यान में रखते हैं और उसी जाति और धर्म का उम्मीदवार खड़ा करने का प्रयत्न करते हैं, जिस जाति का उस निर्वाचन-क्षेत्र में बहुमत हो। भारत में अब तक जो चुनाव हुए हैं, उनके आँकड़े भी इस बात का समर्थन करते हैं।

यद्यपि 16वीं एवं 17वीं लोकसभा चुनाव में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के चमत्कारिक नेतृत्व को मिला अपार जनसमर्थन यह दर्शा रहा है कि भारत में भ्रष्टाचार को समाप्त करने एवं विकास तथा सुशासन के लिए आम जनता ने जाति एवं धर्म के आधार से ऊपर उठकर मतदान किया है। यही कारण है कि 16वीं लोकसभा चुनाव के बाद लगभग 30 वर्षों के बाद भारत में एक दल वाली स्पष्ट बहुमत की सरकार बनी। वहाँ 17वीं लोकसभा चुनाव के बाद मोदी नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को पुनः पूर्णतः स्पष्ट जनसमर्थन मिला।

3. राजनीतिक दलों को मतों के अनुपात से स्थानों की प्राप्ति न होना (Political Parties not get the seats in Proportion to Votes):
यह भी देखा गया है कि चुनावों में राजनीतिक दलों को उस अनुपात में विधानमण्डलों में स्थान प्राप्त नहीं होते, जिस अनुपात में उन्हें मत प्राप्त होते हैं। जैसे भारत में 13वीं लोकसभा के चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी को 182 स्थान मिले और मतों का प्रतिशत 23.70 प्रतिशत रहा, जबकि काँग्रेस को 28.42 प्रतिशत मत मिलने के पश्चात् भी 114 स्थान ही प्राप्त हुए, फिर भी काँग्रेस का मत-प्रतिशत भाजपा से 5 प्रतिशत अधिक है। इससे दलों में मायूसी का पैदा होना स्वाभाविक है। इस प्रकार एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत इस स्थिति को न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता।

4. मतदाताओं की अनुपस्थिति (Absence of the Voters):
चुनावों में बहुत-से मतदाता चुनावों में रुचि लेते ही नहीं। उनके लिए वोट डालना एक समस्या बन गई है। वे मतपत्र का प्रयोग करते ही नहीं। मत का प्रयोग न करना एक प्रकार से लोकतन्त्र को धोखा देना ही है। अक्सर देखने में आता है कि मतदान लगभग 60% होता है। मतदान का प्रतिशत कई चुनावों में तो 60% से भी कम रहता है।

इससे यह होता है कि कम वोट प्राप्त करने वाले दल को अधिक सीटें मिल जाती हैं; जैसे 13वीं लोकसभा के चुनाव, जो सन् 1999 में हुए, में 59.30 प्रतिशत मतदाताओं ने 14वीं लोकसभा चुनाव में 58 प्रतिशत मतदाताओं ने, 15वीं लोकसभा चुनाव, 2009 में भी 71 करोड़ 40 लाख मतदाताओं में से केवल 42 करोड़ 80 लाख मतदाताओं ने, 16वीं लोकसभा चुनाव में कुल पंजीकृत 83.41 करोड़ मतदाताओं में से केवल 66.4 प्रतिशत मतदाताओं ने तथा 17वीं लोकसभा चुनाव, 2019 में 89.78 करोड़ मतदाताओं में से 67.11 प्रतिशत मतदाताओं ने ही भाग लिया।

यानि चुनाव आयोग एवं विभिन्न सामाजिक संगठनों के प्रयास के बावजूद आज भी लगभग 33 प्रतिशत मतदाता अपने पवित्र एवं अमूल्य मताधिकार के प्रति जागरूक नहीं हैं। ऐसी स्थिति में यह कहना बहत कठिन है कि जीतने वाला प्रत्याशी लोकतान्त्रिक भावना के अनुरूप बहमत

5. चुनाव नियमों में दोष (Defective Election Rules):
यह भी देखा गया है कि चुनाव सम्बन्धी नियमों में बड़ी कमियाँ हैं और इसी कारण चुनाव में बरती गई अनियमितताओं को न्यायालय के सामने सिद्ध करना बड़ा कठिन हो जाता है। लगभग सभी दल धर्म और जाति के आधार पर अपने उम्मीदवार चुनते हैं तथा इसी के नाम पर वोट माँगते हैं, परन्तु इसको सिद्ध करना कठिन है। सभी उम्मीदवार मतदाताओं को लाने व ले जाने के लिए गाड़ियों का प्रयोग करते हैं, परन्तु यह बात चुनाव-याचिका की सुनवाई के समय सिद्ध नहीं हो पाती।

6. राजनीति का अपराधीकरण (Criminalization of Politics):
पिछले कुछ वर्षों में भारतीय चुनाव-प्रणाली में एक और दोषपूर्ण मोड़ आया है। प्रायः सभी राजनीतिक दलों ने ऐसे बहुत-से उम्मीदवार चुनाव में खड़े किए, जिनका अपराधों की दनिया में नाम था। ऐसे व्यक्तियों ने राजनीति में अपराधीकरण को बढ़ावा देने का काम किया और लोगों को भय दिखाकर वोट माँगे। जब अपराधी, तस्कर और लुटेरे पहले किसी दल के सक्रिय सदस्य तथा बाद में विधायक बन जाएँ तो उस देश के भविष्य के उज्ज्वल होने की आशा नहीं की जा सकती।

यदि एक तथ्य पर नजर डाली जाए तो राजनीति में अपराधीकरण की प्रवृत्ति स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है; जैसे 14वीं लोकसभा में 128 सांसद ऐसे थे जिन पर विभिन्न मामलों पर अपराधिक मामले चल रहे थे जबकि 15वीं लोकसभा में यह संख्या बढ़कर 162 हो गई। जो कुल सांसदों का 30 प्रतिशत थी। एक तथ्य के अनुसार 162 में से 78 सांसदों के विरुद्ध गम्भीर अपराधिक मामले दर्ज थे।

इसके अतिरिक्त 16वीं लोकसभा, (2014) के निर्वाचित सांसदों पर ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्स’ के द्वारा निर्वाचित सांसदों के दिए गए शपथ पत्रों के विश्लेषण के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष के अनुसार 34 प्रतिशत सांसदों (185) के विरुद्ध विभिन्न न्यायालयों में अपराधिक मामले लम्बित हैं। इनमें से 112 सांसदों के विरुद्ध तो हत्या, हत्या का प्रयास, आगजनी, अपहरण जैसे गम्भीर प्रवृत्ति के मामले दर्ज हैं।

सन् 2019 में हुए 17वीं लोकसभा चुनाव में लगभग 233 सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मामले लम्बित हैं जिनमें बीजेपी के 116, कांग्रेस के 29, जनता दल के 13, डी.एम.के. के 10 एवं टी०एम०सी० के 9 सांसद सम्मिलित हैं जो कुल सांसदों का 43 प्रतिशत हैं। इनमें से 29 प्रतिशत सांसदों पर गम्भीर जुर्म (हत्या, घर में घुसना, डकैती, फिरौती की मांग, धमकाने आदि) के आरोप हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय राजनीति में अपराधीकरण की प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ती जा रही है जो कि चिन्तनीय है।

7. जाली वोट की समस्या (Problem of Impersonation):
भारतीय चुनाव-प्रणाली का एक और महत्त्वपूर्ण दोष है जाली मतदान। चुनावों में जाली मतदान किया जाता है। यहाँ तक कि मृत व्यक्तियों के वोटों का भुगतान भी होता है। वास्तविकता यह है कि जाली मतदान भारतीय लोकतन्त्र के लिए खतरा बनता जा रहा है। इससे बड़ा खतरा तो यह है कि जाली मतदान विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा संगठित तौर पर करवाया जाता है।

8. बहुत अधिक चुनाव प्रत्याशी (Too many Candidates for Election):
भारतीय चुनाव-प्रणाली में एक और दोष है उम्मीदवारों की बढ़ती हुई संख्या। सन् 1996 के लोकसभा के चुनावों में उम्मीदवारों की संख्या 13,952 थी, जो फरवरी-मार्च, 1998 के आम चुनावों में बढ़कर 47,501 हो गई।

1999 में हुए 13वीं लोकसभा के चुनावों में भी कुल प्रत्याशियों की संख्या 4,648 थी जोकि 15वीं लोकसभा चुनाव में कुल प्रत्याशियों की संख्या बढ़कर 8070 हो गई और अप्रैल-मई, 2014 में हुए 16वीं लोकसभा चुनाव में कुल प्रत्याशियों की संख्या बढ़कर 8251 हो गई। यद्यपि 17वीं लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों की संख्या 8040 ही रही जो कि 16वीं लोकसभा से कम है।

17वीं लोकसभा चुनाव के समय 7 राष्ट्रीय एवं 59 राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त दल थे परन्तु अत्यधिक प्रत्याशियों के कारण जनमत का ठीक प्रदर्शन नहीं हो पाता। वोटें अधिक भागों में बंट जाती हैं। बहुत कम वोट प्राप्त करने वाले उम्मीदवार की जीतने की संभावना रहती है। इस समस्या को निर्दलीय उम्मीदवारों की बढ़ती हुई संख्या ने और भी जटिल बना दिया है। यद्यपि सन् 1999, 2004, 2009, 2014 एवं 2019 के लोकसभा चुनावों में निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या में कमी अवश्य हुई है फिर भी निर्दलीय प्रत्याशियों का अस्तित्व जनमत विभाजन की दृष्टि से निश्चित ही हानिकारक माना जाता है।

9. प्रतिनिधियों को वापस बुलाने की व्यवस्था का न होना (No Provision for Recall of Representatives):
प्रतिनिधियों को अपने उत्तरदायित्व का आभास करवाने के लिए उन्हें वापस बुलाने की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे प्रतिनिधि वापस बुलाए जाने के भय से अपने कर्तव्यों का ठीक ढंग से पालन करेंगे। इस प्रकार की व्यवस्था स्विट्ज़रलैण्ड में है, जबकि भारत में .इस व्यवस्था का अभाव है।

10. अत्यधिक राजनीतिक दल (Too many Political Parties):
भारत एक बहुदलीय प्रणाली वाला देश है। भारत की बहुदलीय प्रणाली के कारण हुए जनमत विभाजन के परिणामस्वरूप सन् 2014 के 16वीं लोकसभा से पूर्व तक पिछले तीन दशकों से भारत में गठबन्धन सरकार का युग रहा ।

यद्यपि 17वीं लोकसभा चुनाव में गठबन्धन सरकार के बावजूद एन०डी०ए० गठबन्धन का नेतृत्व कर रही भारतीय जनता पार्टी को अकेले. ही 303 लोकसभा सीटों पर स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ, परन्तु फिर भी भारतीय राजनीति में अत्यधिक राजनीतिक दलों का होना जिनमें से अधिकांश राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय भी नहीं होते कोई अधिक शुभ संकेत नहीं है।

एक तथ्य के अनुसार 17वीं लोकसभा चुनाव, 2019 के समय चुनाव आयोग के पास लगभग 2293 राजनीतिक दल पंजीकृत थे, जिसमें केवल 7 राष्ट्रीय स्तर एवं 59 राज्य स्तरीय राजनीतिक दल थे। शेष राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग की मान्यता प्राप्त नहीं थी। इससे स्पष्ट है कि भारत में बने अधिकांश राजनीतिक दल ऐसे हैं जो राजनीतिक सक्रियता नहीं रखते हैं। अतः भारतीय चुनाव प्रणाली की यह अपनी ही ऐसी व्यवस्था बन गई है जिसमें गैर-मान्यता प्राप्त दल भी चुनावों में भाग लेते हैं।

11. चुनावों में हिंसा का प्रयोग (Use of Violence in Elections):
भारतीय चुनाव प्रणाली का एक अन्य महत्त्वपूर्ण दोष . यह भी है कि चुनावी प्रक्रिया में हिंसा की घटनाएँ होती रहती हैं। हिंसा एवं शारीरिक बल से कई जगह मतदान केन्द्रों पर जबरन कब्जे की कोशिश की जाती है जिसके कारण कई बार कुछ मतदान केन्द्रों पर पुनर्मतदान भी करवाना पड़ता है। इस तरह हिंसक घटनाओं से जहाँ राजनीतिक वातावरण दूषित होता है वहाँ आम जनता का भी लोकतन्त्रीय प्रणाली से मोह भंग होता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 6.
भारतीय चुनाव प्रणाली की त्रुटियों को दूर करने के लिए सुझाव दीजिए।
उत्तर:
भारत में वर्तमान चुनाव पद्धति 1952 से कार्य करती चली आ रही है। इस चुनाव पद्धति में अनेक दोष देखने को मिले हैं। समय-समय पर राजनीतिक विद्वानों व राजनीतिज्ञों ने विभिन्न सुधार एवं सुझाव प्रस्तुत किए हैं। भारतीय चुनावों के दोषों को दूर करने के लिए दिए गए सुझावों का ब्यौरा अग्रलिखित है

1. चुनाव आयोग को अधिक शक्तिशाली और प्रभावी बनाया जाना (Making Election Commission more Powerful and Effective):
चुनावी अनियमितताओं को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक है कि चुनाव आयोग को अधिक प्रभावी और शक्तिशाली बनाया जाए। सरकार इस सुझाव पर विचार कर रही है कि चुनाव आयोग को दीवानी न्यायालयों (Civil Courts) द्वारा प्रयुक्त निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की जाएँ

(1) ऐसी शक्ति जिससे वह यह निर्णय दे सके कि चुनावी भ्रष्टाचार के कारण कोई व्यक्ति संसद या विधानसभा का सदस्य बना रहने के योग्य नहीं है।

(2) चुनावी अनियमितताओं की जांच-पड़ताल करने का अधिकार ।

(3) चुनावी अपराध सिद्ध हो जाने पर लोगों को दंडित करने का अधिकार, जिसमें जुर्माना वसूल करना या हर्जाना दिलाना शामिल है। एक सुझाव यह दिया जा सकता है कि ‘चुनाव आयोग’ के पास अपनी ‘स्वतन्त्र निधि’ होनी चाहिए जिससे हर छोटी-बड़ी बात के लिए उसे राज्य सरकारों का मुंह न ताकना पड़े।

2. चुनाव आयोग का पुनर्गठन (Reorganization of Election Commission):
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार चुनाव आयोग बहु-सदस्यीय हो सकता है; परन्तु काफी समय तक चुनाव आयोग एक-सदस्यीय रहा। इसे बहु-सदस्यीय बनाने की माँग जोर पकड़ती गई और इसे अब बहु-सदस्यीय बना दिया गया है। वर्तमान चुनाव आयोग के सदस्य मुख्य निर्वाचन आयुक्त सहित तीन हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमन्त्री के परामर्श पर की जाती है।

इसके लिए सुझाव दिया गया है कि चुनाव आयोग का गठन वैसे ही किया जाए, जैसे संघ लोक सेवा आयोग का होता है। मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए एक समिति बनाई जाए, जिसमें प्रधानमन्त्री, मुख्य न्यायाधीश व संसद में प्रतिपक्ष का नेता हो। मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य आयुक्तों की योग्यताएँ संविधान में निर्धारित की जाएँ। मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य आयुक्तों का कार्यकाल पांच वर्ष निर्धारित किया गया है।

इनकी पुनः नियुक्ति राष्ट्रपति व प्रधानमन्त्री पर आधारित है। वे जितनी बार चाहें, उन्हें पुनः नियुक्त कर सकते हैं। संविधान में यह धारा चुनाव आयोग की स्वतन्त्रता के विरुद्ध है। इसके कारण मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य आयुक्तों की ईमानदारी पर सन्देह किया जा सकता है। इस कारण सुझाव दिया गया है कि मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य आयुक्तों का निश्चित कार्यकाल हो।

3. आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली शुरू करना (To Start Proportional Representation System):
भारत में चुनाव प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि कई बार राजनीतिक दल कम मत प्राप्त करते हैं, परन्तु उन्हें अधिक स्थान प्राप्त हो जाते हैं। उदाहरणतः सन् 1980 में काँग्रेस को लोकसभा के लिए केवल 42.6% मत मिले, परन्तु संसद में 67% स्थान मिले। इस बुराई को समाप्त करने के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का सुझाव दिया गया है। यद्यपि भारत में इसे लागू करना कठिन कार्य है।

4. मतदाता पहचान-पत्र (Identity Cards for the Voters):
चुनाव आयोग के द्वारा 28 अगस्त, 1993 को मतदान हेतु अनिवार्य पहचान-पत्र बनाने का निर्णय लिया गया था। इस सम्बन्ध में मुख्य चुनाव आयुक्त ने राज्य सरकारों से कहा है कि मतदाताओं को पहचान-पत्र जारी कर दें। इस सुझाव के सम्बन्ध में सभी पार्टियाँ सहमत हैं जैसे कि पूर्व चुनावों की भाँति 17वीं लोकसभा चुनाव, 2019 में भी पहचान-पत्र मतदाता के लिए अनिवार्य कर दिया गया, हालांकि चुनाव आयोग द्वारा पहचान-पत्र सभी मतदाताओं को उपलब्ध न कराए जाने के कारण पहचान के लिए नए प्रमाण-पत्र; जैसे राशन-कार्ड, बस-पास, विद्यार्थी पहचान पत्र, अंक तालिका आदि को भी मान्य कर दिया गया है।

17वीं लोकसभा चुनाव में इसका आशातीत परिणाम सामने आया और फर्जी मतदान रोकने में विशेष सहायता मिली। पहचान-पत्र की उपयोगिता मतदान केन्द्रों तक ही सीमित नहीं। बैंक, अदालत, सरकारी सेवा और सरकारी कार्य व्यवहार में भी इससे अनुकूल सहायता मिल सकती है और नागरिकों की कई कठिनाइयाँ दूर हो सकती हैं। अतः भारतीय लोकतन्त्र की सुरक्षा एवं निष्पक्ष चुनाव करवाने की दृष्टि से हमें सभी मतदाताओं के फोटोयुक्त पहचान-पत्र बनाने के लिए निरन्तर सरकारी तन्त्र की ओर से सार्थक प्रयास करना बहुत आवश्यक है जिससे प्रत्येक मतदाता की चुनाव में निष्पक्ष एवं सही सहभागिता सुनिश्चित की जा सके।

5. सरकारी तन्त्र का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए (There should not be misuse of the Official Machinery):
चुनावों के अवसर पर प्रायः शासन-तन्त्र का दुरुपयोग किया जाता है। वोट बटोरने के लिए मन्त्रियों द्वारा लोगों को तरह-तरह के आश्वासन दिए जाते हैं तथा उद्घाटन और शिलान्यास के बहाने सरकारी गाड़ियों और दूरदर्शन सुविधाओं का दुरुपयोग किया जाता है।

सन् 1968 में उच्चतम न्यायालय ने ‘घासी बनाम दलसिंह’ नामक केस में यह कहा था कि चुनाव से पूर्व पानी, बिजली, सड़कों की सफाई आदि पर राजकोष से व्यय करके चुनावों को प्रभावित करना ‘बुरा आचरण’ (Bad Practice) है। सरकारी खर्च से विज्ञापन छपवाना या सरकारी तन्त्र का चुनाव-कार्य के लिए प्रयोग पूरी तरह से निषिद्ध किया जाए।

6. चुनावों के व्यय के बारे में सुझाव (Suggestions about the Expenditure of Elections):
चुनाव आयोग ने समय-समय पर होने वाले चुनाव पर होने वाले व्यय को निर्धारित किया है। पहले दो चुनावों में विधानसभा के लिए अधिकतम सात हजार व लोकसभा के लिए 25 हजार रुपए निर्धारित किए गए थे।

जबकि समय-समय किए गए संशोधनों के पश्चात् वर्तमान में 1 मार्च, 2014 से प्रभावी नवीन संशोधन के अनुसार व्यय राशि को बढ़ाकर लोकसभा चुनाव हेतु इन राज्यों; जैसे आंध्र प्रदेश, असम बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु तथा दिल्ली आदि के लिए 70 लाख रुपए जबकि राज्य विधानसभा चुनाव के लिए उपर्युक्त राज्यों के अतिरिक्त उत्तराखण्ड एवं हिमाचल प्रदेश के लिए 28 लाख रुपए की व्यय राशि निर्धारित की गई।

शेष राज्यों के लोकसभा चुनावों के लिए 54 लाख रुपए, जबकि शेष राज्यों के विधानसभा चुनाव के लिए 20 लाख रुपए की व्यय राशि निर्धारित की गई इसके अतिरिक्त इस चुनाव खर्च को रोकने के लिए विभिन्न सुझाव दिए गए हैं

(1) राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव पर किया गया खर्च उम्मीदवार के खर्चे की सीमा में शामिल किया जाना चाहिए।

(2) राजनीतिक दलों के आय-व्यय विवरण की विधिवत जांच की जानी चाहिए। प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए आय-व्यय का समस्त विवरण रखा जाना अनिवार्य किया जाए और उसकी जांच मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा नियुक्ति किए गए लेखा परीक्षक द्वारा होनी चाहिए।

(3) चुनाव प्रचार की अवधि में कमी करनी चाहिए, ताकि चुनाव खर्च कम हो सके। सुझाव है कि अवधि 10 दिन से भी कम होनी चाहिए।

(4) संसद और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होने चाहिएँ। सन् 1996 के चुनावों में यह प्रयत्न किया गया था कि लोकसभा व विधानसभा के चुनाव साथ-साथ हों।

(5) चुनाव अवधि में सार्वजनिक संस्थाओं को अनुदान देने पर रोक लगानी चाहिए।

(6) चुनाव खर्च का कुछ भाग राज्य द्वारा वहन किया जाना चाहिए। वर्तमान समय में विश्व के कुछ देशों के राज्य चुनाव के सारे खर्च वहन करते हैं; जैसे स्वीडन, फ्राँस आदि में। कुछ देशों में मिश्रित चुनाव व्यय की व्यवस्था है जिसमें सरकार खर्च का कुछ भाग देती है।

(7) पार्टियों को चन्दा मात्र चैक द्वारा दिया जाना चाहिए।

7. चुनाव याचिकाओं के बारे में सुझाव (Suggestions about the Election Petitions):
गत अनेक वर्षों से चुनाव याचिकाएँ उच्च न्यायालयों के समक्ष आई हैं, जिनका निपटारा करने में कई वर्ष लगे हैं। चुनाव याचिकाएँ चुनावों से भी अधिक खर्चीली तथा कष्टमय बन गई हैं। इसलिए इन याचिकाओं का निपटारा शीघ्र होना चाहिए, ताकि इसके दोनों पक्षों को बेकार की मुसीबत तथा खर्च से छुटकारा मिल सके।

8. निर्दलीय उम्मीदवारों पर रोक (Restrictions on Independent Candidates):
निर्दलीय उम्मीदवार निष्पक्ष चुनावों के लिए एक समस्या हैं, इसलिए निर्दलीय उम्मीदवारों पर रोक लगनी चाहिए। यद्यपि कानून द्वारा स्वतन्त्र उम्मीदवारों को रोका नहीं जा सकता, लेकिन फिर भी ऐसा कुछ अवश्य होना चाहिए कि मज़ाक के लिए चुनाव लड़ने वालों पर रोक लगे।

इस सम्बन्ध में यह सुझाव दिया है कि एक तो जमानत की राशि को बढ़ा देना चाहिए। जुलाई, 1996 में चुनाव आयोग की एक बैठक हुई, जिसमें जमानत की राशि बढ़ाने का फैसला लिया गया और लोकसभा के लिए यह राशि बढ़ाकर 25,000 रुपए और विधानसभा के लिए 10,000 रुपए कर दी गई है।

दूसरे यह व्यवस्था होनी चाहिए कि जिस निर्दलीय उम्मीदवार को निश्चित प्रतिशत से कम वोट प्राप्त होते हैं उसे अगले चुनाव में भाग लेने का अधिकार नहीं होगा। इस प्रकार की व्यवस्था से निश्चित रूप से निर्दलीय उम्मीदवारों पर रोक लगेगी। जैसे 15वीं लोकसभा चुनाव में केवल 9 सदस्य, 16वीं एवं 17वीं लोकसभा के चुनावों में भी केवल 3-3 प्रत्याशी ही निर्दलीय तौर पर विजयी रहे। स्पष्ट है कि निर्दलीय प्रत्याशियों के प्रति जनता का रुझान कम हुआ है।

9. वोटिंग मशीनों का प्रयोग (Use of Voting Machines):
सामान्यतः देखा गया है कि तस्कर, माफ़िया और गुंडा तत्त्व को तथाकथित कुछ जन-प्रतिनिधियों का संरक्षण प्राप्त होता है और वे शासन पर हावी हो जाते हैं। इस स्थिति को दूर करने के लिए सुझाव दिया गया है कि संवेदनशील केंद्रों पर सुरक्षा को बढ़ा दिया जाना चाहिए और चुनाव में वोटिंग मशीनों का प्रयोग किया ।

जा सकता है। सन् 1999 में 13वीं लोकसभा के चुनावों में राज्यों के 46 निर्वाचन क्षेत्रों में वोटिंग मशीन का प्रयोग कर सफल मतदान सम्भव करवाया गया। 22 फरवरी, 2000 को हुए हरियाणा राज्य के विधानसभा चुनावों में भी 90 निर्वाचन क्षेत्रों में से 45 निर्वाचन क्षेत्रों में वोटिंग मशीन का प्रयोग किया गया। ऐसे में हरियाणा भारत का पहला राज्य बन गया, जहाँ वोटिंग मशीन द्वारा चुनाव सम्पन्न हुआ। 14वीं, 15वीं, 16वीं एवं 17वीं लोकसभा के चुनाव भी पूर्णतः वोटिंग मशीन द्वारा सम्पन्न हुए थे।

10. अपराधीकरण पर अंकुश (Check on Criminalization):
भारतीय राजनीति में बढ़ती अपराधीकरण की प्रवृत्ति ने भारतीय लोकतन्त्र को सबसे अधिक प्रभावित किया है। इसलिए लोकतन्त्र की रक्षा हेतु आवश्यक है कि ऐसी प्रवृत्ति पर अंकुश हेतु तुरन्त कानून बनाया जाए। पूर्व राष्ट्रपति डॉ० के०आर० नारायणन ने भी कहा था कि, “आपराधिक पृष्ठभूमि और माफिया से संबंध रखने वाले लोगों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने के लिए कानून बनाया जाए।” अतः ऐसी प्रवृत्ति पर अंकुश आवश्यक है।

11. अन्य प्रयास (Other Efforts):
भारतीय चुनाव-प्रणाली में सुधार किए जाने का सिलसिला जारी है। इस संबंध में तारकुंडे समिति, गोस्वामी समिति तथा चुनाव आयुक्त आर०के० द्विवेदी ने कुछ सुझाव दिए। इसके अतिरिक्त 23 जुलाई, 1996 को चनाव आयोग और राजनीतिक दलों की एक बैठक हुई, जिसमें कछ सधारों पर विचार किया गया तथा कछ सुधारों पर सहमा हो गई।

इस बैठक में कुछ निर्णय लिए गए और चुनाव संशोधन किए गए। जन-प्रतिनिधि अधिनियम (The Representation of the People Act) में संशोधन किया गया है। इस संशोधन को राष्ट्रपति ने 1 अगस्त, 1996 को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी है। कुछ मुख्य संशोधन निम्नलिखित प्रकार से हैं-

(1) इस चुनाव सुधार संशोधन द्वारा चुनाव प्रचार का समय 21 दिन से घटाकर 14 दिन कर दिया गया है। उम्मीदवारों के लिए जमानत की राशि बढ़ा दी गई है,

(2) लोकसभा के उम्मीदवार के लिए जमानत की राशि बढ़ाकर 25,000 रुपए और विधानसभा के उम्मीदवार के लिए 10,000 रुपए कर दी गई है। आरक्षित लोकसभा चुनाव क्षेत्र के लिए जमानत की राशि 12,500 रुपए तथा विधानसभा चुनाव क्षेत्र के लिए 5,000 रुपए निश्चित की गई है,

(3) इसके साथ ही अरुचिकर उम्मीदवारों (Non-serious Candidates) की संख्या कम करने के लिए नाम पेश करने वालों की संख्या बढ़ाकर 10 कर दी गई है,

(4) चुनाव अधिकारियों या चुनाव पर्यवेक्षकों को मतदान केंद्र के कब्जे के मामले में गिनती रोकने के अधिकार दे दिए गए हैं,

(5) नए कानून के अधीन चुनाव से 48 घंटे पहले शराब के बेचने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है तथा मत के पास शस्त्र लेकर घूमना अपराध घोषित कर दिया गया है।

12. चुनाव आयोग द्वारा जारी किए गए नए दिशा-निर्देश (New Guidelines issued by the Election Commission):
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के आधार पर 1 अप्रैल, 2003 को चुनाव आयोग ने एक आदेश जारी किया है जिसके अनुसार संसद तथा विधानसभाओं के चुनावों में उम्मीदवार को नामांकन-पत्र के साथ एक हलफ़नामा (Affidavit) देना जरूरी होगा जिसमें उसे अपने क्रिमिनल बैकग्राऊंड (Criminal Background) का भी उल्लेख करना होगा।

नामांकन-पत्र के साथ ही उसे अपनी सम्पत्ति और देनदारी तथा शैक्षिक योग्यता की जानकारी भी हलफनामे में देनी होगी। आयोग ने यह भी स्पष्ट किया है कि यदि कोई उम्मीदवार नामांकन के समय यह जानकारी हलफनामे में नहीं देगा तो यह सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का उल्लंघन माना जाएगा और चुनाव अधिकारी को जांच के समय उस नामांकन-पत्र को रद्द करने का अधिकार होगा।

आयोग ने यह भी कहा कि प्रत्येक उम्मीदवार को यह शपथ-पत्र प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट, नोटरी पब्लिक (Notary Public) अथवा शपथ आयुक्त (Oath Commissioner) के समक्ष विधिवत शपथ लेकर प्रस्तुत करना होगा।

13. निर्वाचन एवं अन्य सम्बन्धित अधिनियम (संशोधन) विधेयक, 2003 (Election and Other Related Laws Amendment Bill, 2003)-राजनीतिक दलों द्वारा चन्दा लिए जाने की प्रक्रिया के साथ-साथ चुनाव प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं को भी अधिक पारदर्शी बनाने के उद्देश्य से निर्वाचन एवं अन्य सम्बन्धित अधिनियम संशोधन विधेयक, 2003 (Election and Other Related laws Amendment Bill, 2003) को संसद के दोनों सदनों ने पारित कर दिया है। वरिष्ठ काँग्रेसी नेता प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाली स्थायी समिति की सिफारिशों को विधेयक में समाहित कर लिया गया। विधेयक के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं-

(1) राजनीतिक दलों के लिए 20 हजार रुपए या अधिक राशि के चन्दों की रिपोर्टिंग अनिवार्य (अभी यह सीमा 10 हजार रुपए थी),

(2) रिपोर्टिंग न करने वाले दलों को इन राशियों पर आयकर में छूट नहीं होगी,

(3) राजनीतिक दलों को प्रदत्त चन्दे पर सम्बन्धित कंपनी को आयकर अधिनियम के तहत छूट। लाभांश का अधिकतम 5 प्रतिशत ही चन्दे के रूप में देने की अनुमति होगी,

(4) मतदाताओं व मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों को कुछेक सामग्री चुनाव आयोग द्वारा उपलब्ध कराने का प्रावधान। दूसरे शब्दों में, चुनावों के आंशिक सरकारी वित्तीय सहायता की शुरुआत।

प्रश्न 7.
वयस्क मताधिकार प्रणाली के पक्ष तथा विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
वयस्क मताधिकार से तात्पर्य मतदान करने की ऐसी व्यवस्था से हैं जिसमें प्रत्येक नागरिक को, बिना किसी प्रकार के भेदभाव के, एक निश्चित आयु पूरी करने पर मतदान का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इस प्रणाली में शिक्षा, लिंग, सम्पत्ति, जन्म-स्थान अथवा अन्य आधार पर नागरिकों में भेदभाव नहीं किया जा सकता। केवल पागल, दिवालिए तथा कुछ विशेष प्रकार के अपराधी व विदेशियों को ही मतदान के अधिकार से वंचित किया जाता है। संसार के विभिन्न देशों में वयस्क होने की आयु भिन्न-भिन्न है। भारत, अमेरिका तथा इंग्लैण्ड में यह 18 वर्ष, नार्वे में 23 वर्ष तथा जापान में यह 25 वर्ष है। वयस्क मताधिकार के पक्ष तथा विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं

पक्ष में तर्क (Arguments in Favour)-वयस्क मताधिकार के पक्ष में प्रायः निम्नलिखित तर्क पेश किए जाते हैं

1. लोक प्रभुसत्ता के सिद्धान्त के अनुकूल (In Harmony with the Principle of Popular Sovereignty):
लोक प्रभुसत्ता का अर्थ है कि सर्वोच्च शक्ति जनता में निहित है। लोकतन्त्र तब तक वास्तविक लोकतन्त्र नहीं हो सकता जब तक कि प्रतिनिधियों के चुनाव में प्रत्येक नागरिक का योगदान न हो। अतः प्रतिनिधियों का चुनाव सामान्य जनता द्वारा किया जाना चाहिए।

2. यह समानता पर आधारित है (It is based on Equality):
लोकतन्त्र का मुख्य आधार है-समानता। सभी व्यक्ति समान हैं और विकास के लिए सभी को मताधिकार देना भी आवश्यक है। जिन नागरिकों को मतदान का अधिकार नहीं होता, उनके हितों तथा अधिकारों की सरकार तनिक भी परवाह नहीं करती। इसलिए प्रत्येक वयस्क को मत देने का अधिकार होना चाहिए।

3. कानूनों का प्रभाव सभी पर पड़ता है (Laws AffectAll):
राज्य के कानूनों तथा नीतियों का प्रभाव सभी व्यक्तियों पर पड़ता है। उसे निश्चित करने में भी सबका भाग होना चाहिए।

4. नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है (Citizens get Political Education):
वयस्क मताधिकार होने से सभी नागरिक समय-समय पर देश में होने वाले चुनावों में भाग लेते रहते हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता अपने दल की नीति का लोगों में प्रचार करते हैं और देश की समस्याओं के बारे में उनको जानकारी देते रहते हैं। इससे नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है।

5. सभी के अधिकार सुरक्षित रहते हैं (Rights of all are Safeguarded):
वयस्क मताधिकार प्रणाली में देश के सभी नागरिकों के लिए अपने अधिकारों की रक्षा करना सम्भव होता है। मतदाता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं तथा उन पर नियन्त्रण बनाए रखते हैं। सरकार नागरिकों के भय से उनके अधिकारों को छीन नहीं सकती।

6. यह स्वाभिमान जागृत करती है (It awakens Self-respect):
वयस्क मताधिकार नागरिकों में स्वाभिमान की भावना को जागृत करता है। जब बड़े-बड़े नेता उनके पास वोट माँगने के लिए आते हैं तो उन्हें अपनी वास्तविक शक्ति का ज्ञान होता है और उनकी सोई हुई आत्मा जागती है। उन्हें इस बात का अनुभव होता है कि देश के शासन में उनका भी योगदान है। इससे उनके मन में स्वाभिमान की भावना जागृत होती है।

7. सार्वजनिक कार्यों में रुचि उत्पन्न करती है (It creates Interest in Public Matters):
वयस्क मताधिकार प्रणाली नागरिकों में सार्वजनिक कार्यों में रुचि उत्पन्न करती है। उन्हें यह अनुभव होता है कि शासन में उनका भी कुछ हाथ है और वे भी देश के कानून तथा नीतियों को प्रभावित कर सकते हैं। वे राष्ट्रहितों के कार्यों का समर्थन करते हैं तथा राष्ट्र-विरोधी कार्यों का विरोध करते हैं। इससे नागरिकों में राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्र-प्रेम की भावना जागृत होती है।

8. अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा (Protection of the Interests of the Minorities):
यह एक ऐसी प्रणाली है जिसमें अल्पसंख्यकों को भी अपने प्रतिनिधि भेजने का अवसर मिल जाता है। उनके द्वारा वे अपने हितों की रक्षा कर सकते हैं।

9. धन का प्रभाव बहुत कम होता है (Less Influence of Money):
इस प्रणाली में सभी वयस्क नागरिकों को मतदान करने का अधिकार होता है, मतों का खरीदना सम्भव नहीं होता। इस प्रकार यह प्रणाली चुनाव में धन के प्रभाव को बहुत कम कर देती है।

10. क्रांति की कम सम्भावना (Less Chance of Revolution):
वयस्क मताधिकार प्रणाली में शांति तथा व्यवस्था की स्थापना की सम्भावना अधिक रहती है क्योंकि नागरिक अपने द्वारा चुनी गई सरकार के विरुद्ध क्रांति नहीं करते।

11. सार्वजनिक हित की दृष्टि से वांछनीय (Necessary for Welfare of All):
लोकतन्त्र का शुद्ध रूप वही होता है जिसमें सार्वजनिक हित की कामना की जाती है। सब वर्गों के हितों और उनके अधिकारों का उचित संरक्षण तभी हो सकता है, जब प्रत्येक वर्ग के लोगों को अपने मत द्वारा शासन की नीतियों और उसके कार्यों को प्रभावित करने का अवसर प्राप्त हो। ऐसा अवसर अधिक-से-अधिक वर्गों को केवल वयस्क मताधिकार द्वारा ही प्राप्त करवाया जा सकता है। अतः वयस्क मताधिकार वर्ग हित की दृष्टि से वांछनीय है।

12. इससे राष्ट्रीय एकता में वृद्धि होती है (It Increases National Unity):”
प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के मताधिकार देने से राष्ट्रीय एकता में वृद्धि होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में कोई भी व्यक्ति अपने-आप को सर्वश्रेष्ठ नहीं समझता, क्योंकि सब व्यक्तियों को जीवन का विकास करने के लिए समान अवसर प्राप्त होते हैं।

यदि किसी एक विशेष वर्ग या जाति को मताधिकार दिया जाए तो राष्ट्रीय एकता के नष्ट होने की सम्भावना हो सकती है। राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ यह नागरिकों में देश-प्रेम की भावना को भी जागृत करता है क्योंकि प्रत्येक नागरिक स्वयं को सरकार का अंग समझता है और उसके मन में अपने देश के प्रति सम्मान पैदा होता है।

विपक्ष में तर्क (Arguments Against)-वयस्क मताधिकार के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं

1. अशिक्षित व्यक्तियों को मताधिकार देना अनुचित है (It is not proper to give Right to Vote to the Ignorants):
प्रत्येक देश में अधिकतर जनता अशिक्षित तथा अज्ञानी होती है। वे उम्मीदवार के गुणों को न देखकर जाति, धर्म तथा मित्रता आदि के आधार पर अपने मत का प्रयोग करते हैं। ऐसे व्यक्ति राजनीतिक नेताओं के जोशीले भाषणों से भी शीघ्र प्रभावित हो जाते हैं। अतः अशिक्षित व्यक्तियों को मताधिकार देना उचित नहीं है।

2. भ्रष्टाचार को बढ़ावा (Encourages Corruption):
वयस्क मताधिकार प्रणाली में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। कुछ निर्धन व्यक्ति थोड़े-से लालच में पड़कर अपना मत स्वार्थी तथा भ्रष्टाचारी उम्मीदवारों के हाथों में बेच देते हैं।

3. प्रशासन तथा देश की समस्याएँ जटिल (Administration and Problems of the Country are Complicated):
आधुनिक युग में शासन संबंधी प्रश्न तथा समस्याएँ दिन-प्रतिदिन जटिल होती जा रही हैं, जिन्हें समझ पाना साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं है। प्रायः साधारण मतदाता अयोग्य व्यक्ति को चुन लेते हैं क्योंकि उनके पास देश की समस्याओं पर विचार करने तथा उन्हें समझने के लिए समय ही नहीं होता।

4. साधारण जनता रूढ़िवादी होती है (Masses are Conservative):
वयस्क मताधिकार के विरुद्ध एक तर्क यह प्रस्तुत किया जाता है कि साधारण जनता रूढ़िवादी होती है। उनके द्वारा आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्र में प्रगतिशील नीतियों का विरोध किया जाता है। अतः मताधिकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को ही मिलना चाहिए जो इसका उचित प्रयोग करने की योग्यता रखते हों।

5. मताधिकार प्राकृतिक अधिकार नहीं है (Right to Vote is not a Natural Right):”
वयस्क मताधिकार के आलोचकों द्वारा यह तर्क पेश किया जाता है कि मताधिकार कोई प्राकृतिक अधिकार नहीं है जो प्रत्येक नागरिक को प्राप्त होना चाहिए। उनके अनुसार मताधिकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को ही दिए जाने चाहिएँ जो उनका उचित प्रयोग करने की योग्यता रखते हैं। मताधिकार के बारे में तो यह बात और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह एक ऐसा अधिकार है जो देश के भविष्य को उज्ज्वल भी बना सकता है और मिट्टी में भी मिला सकता है। अतः मताधिकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को दिया जाना चाहिए, जो इसके योग्य हों।

6. सभी नागरिक समान नहीं होते (AIICitizens are not Equal):
वयस्क मताधिकार के विरुद्ध एक तर्क यह दिया जाता है कि सभी नागरिक किसी भी दृष्टि से समान नहीं होते, इसलिए उन सभी को समानता के आधार पर मतदान का अधिकार देना उचित नहीं है।

प्रश्न 8.
भारत के चुनाव आयोग (Election Commission) पर नोट लिखें।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 में चुनाव व्यवस्था के अधीक्षण, निर्देशन एवं नियन्त्रण का कार्य भारत में संवैधानिक मान्यता प्राप्त, स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष चुनाव आयोग को सौंपा है जिसमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य चुनाव आयुक्त हो सकते हैं, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। संविधान के अनुच्छेद 324 में यह भी प्रावधान है कि मुख्य चुनाव आयुक्त की सलाह के लिए राष्ट्रपति द्वारा अन्य आयुक्तों की नियुक्ति की जा सकती है।

भारत में 1951 में पहली बार संविधान के अन्तर्गत एक सदस्यीय निर्वाचन आयोग का गठन किया गया, परन्तु केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने 16 अक्तूबर, 1989 को राष्ट्रपति वेंकटरमन द्वारा अन्य चुनाव और प्रतिनिधित्व दो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति करवाते हुए निर्वाचन आयोग को पहली बार बहु-सदस्यीय आयोग बनाते हुए इसे व्यापक स्वरूप प्रदान किया, लेकिन 2 जनवरी, 1990 को राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार ने चुनाव आयोग को फिर से एक-सदस्यीय बना दिया।

2 अक्तूबर, 1993. में भारत के राष्ट्रपति ने अध्यादेश जारी करके चुनाव आयोग में दो अन्य सदस्यों (एम०एस० गिल एवं जी०वी०जी० कृष्णामूर्ति) की नियुक्ति कर दी। 20 दिसम्बर, 1993 में संसद ने एक विधेयक पास करके चुनाव आयोग को बहु-सदस्यीय बना दिया और दो अन्य आयुक्तों को मुख्य निर्वाचन आयुक्त के बराबर दर्जा प्रदान किया गया।

14 जुलाई, 1995 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में अन्य दो आयुक्तों की स्थिति को मुख्य निर्वाचन आयुक्त की स्थिति के बराबर दर्जा देने को वैध ठहराया। अतः इस समय चुनाव आयोग बहु-सदस्यीय है और मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य दो चुनाव आयुक्तों की स्थिति बराबर है। इस समय चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त श्री सुशील चंद्रा हैं। इसके अतिरिक्त दो अन्य चुनाव आयुक्त हैं।

नियुक्ति (Appointment)-संविधान के अनुच्छेद 324 (2) के अनुसार चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य आयुक्तों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति एवं संसद द्वारा निर्धारित विधि के अनुसार की जाती है। प्रान्तीय व क्षेत्रीय चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा ही की जाती है।

योग्यताएँ (Qualifications) भारतीय संविधान में मुख्य निर्वाचन आयुक्त एवं अन्य आयुक्तों की नियुक्ति सम्बन्धी योग्यताओं का संविधान में कोई उल्लेख नहीं किया गया है अर्थात् इस सम्बन्ध में हमारा संविधान मौन है।

कार्यकाल (Term)-भारतीय संसद ने सन् 1995 में चुनाव आयोग के कार्यकाल सम्बन्धी एक कानून पास किया है, जिसके अनुसार चुनाव आयुक्त का कार्यकाल 6 वर्ष होगा। इस कानून में यह भी व्यवस्था की गई है कि यदि चुनाव आयुक्त की आयु 6 वर्ष की अवधि से पहले 65 वर्ष की हो जाती है, तो वह अपने पद से अवकाश ग्रहण कर लेता है अर्थात् 6 वर्ष की अवधि या 65 वर्ष की आयु दोनों में से जो पहले पूरी हो, तब तक चुनाव आयुक्त अपने पद पर बने रहते हैं। विशेष परिस्थितियों में मुख्य चुनाव आयुक्तों की अवधि को बढ़ाया जा सकता है, जैसा कि श्री सुकुमार सेन व श्री एस०पी० सेन वर्मा का कार्यकाल 6 वर्ष से अधिक बढ़ाया गया था।

चुनाव आयुक्तों को पदच्युत करना (Removal of Election Commissioners) भारतीय संविधान में चुनाव आयुक्तों को पद से हटाने की व्यवस्था भी की गई है। संविधान के अनुच्छेद 324 (5) के अनुसार चुनाव आयुक्तों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की विधि द्वारा ही हटाया जा सकता है अर्थात् चुनाव आयुक्तों को उनके पद से हटाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाए जाने की विधि को ही अपनाया गया है।

इसका अभिप्राय यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्तों को तभी हटाया जा सकता है, जब संसद के दोनों सदन अलग-अलग अपने कुल सदस्यों के बहुमत से तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से महाभियोग को पारित कर दें। अन्य चुनाव आयुक्तों या क्षेत्रीय चुनाव आयुक्तों को तो राष्ट्रपति मुख्य चुनाव आयुक्त की सलाह से ही उनके पद से हटाता है अर्थात् मुख्य चुनाव की मंजूरी के बिना चुनाव आयुक्तों या क्षेत्रीय चुनाव आयुक्तों को उनके पद से हटाया नहीं जा सकता।

सन् 2009 में मुख्य चुनाव आयुक्त श्री एन० गोपालास्वामी द्वारा चुनाव आयुक्त नवीन चावला को पक्षपात करने के आधार पर पद से हटाने की सिफारिश की गई थी, परन्तु डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा इसे स्वीकार नहीं किया गया और उसने राष्ट्रपति को इसके लिए कोई सलाह नहीं भेजी। इसके बावजूद श्री नवीन चावला को नया मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिया गया था।

वेतन तथा सेवा शर्ते (Salary and Terms of Service)-चुनाव आयुक्तों के वेतन, भत्ते व सेवा शर्ते समय-समय पर संसद द्वारा निश्चित की जाती हैं। इनके वेतन व भत्ते भारत सरकार की संचित निधि में से दिए जाते हैं। निर्वाचन आयुक्तों के वेतन, भत्तों व सेवा शर्तों में इनके कार्यकाल में कटौती नहीं की जा सकती। 1 अक्तूबर, 1993 में संसद द्वारा पास किए गए एक विधेयक द्वारा चुनाव आयुक्तों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के वेतन के समान वेतन दिए जाने की व्यवस्था कर दी गई अर्थात् वर्तमान में मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य आयुक्तों को 2,50,000 रुपए मासिक वेतन दिया जाता है।

चुनाव आयोग के लिए कर्मचारी (Staff for Election Commission) संविधान के अनुच्छेद 324 (6) के अनुसार चुनाव आयोग अपने कार्यों को पूरा करने के लिए राष्ट्रपति एवं राज्यों के मुखिया राज्यपालों से आवश्यकतानुसार कर्मचारियों की माँग कर सकता है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति तथा राज्यपालों का यह कर्त्तव्य है कि वे चुनाव आयुक्तों व क्षेत्रीय आयुक्तों की प्रार्थना पर

उचित स्टाफ का प्रबन्ध करें। चुनाव आयोग को अपने दायित्व का पालन करने के लिए राज्य व जिला स्तर पर बहुत-से कर्मचारियों की आवश्यकता होती है। मतदान केन्द्रों के लिए प्रधान पदाधिकारी (Presiding Officers) व पोलिंग अधिकारी (Polling Officers) चाहिए। इसके अतिरिक्त मतदान केन्द्रों की सुरक्षा एवं व्यवस्थित रूप से संचालन के लिए आवश्यक पुलिस बल चाहिए। अतः केन्द्र में राष्ट्रपति तथा राज्यों में राज्यपाल का कर्त्तव्य है कि चुनाव आयोग की सिफारिश पर आवश्यकतानुसार सुविधाएँ जुटाई जाएँ।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 9.
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से आप क्या समझते हैं? इसके पक्ष तथा विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व का अर्थ (Meaning of Territorial Representation)-लोकतन्त्रीय राज्यों में चुनाव के लिए निर्वाचन-क्षेत्रों का गठन भौगोलिक आधार पर किया जाता है। समस्त राज्य को एक-सदस्य अथवा बहु-सदस्य निर्वाचन-क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है। एक चुनाव-क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों को उस चुनाव-क्षेत्र का निवासी होने के नाते अपने प्रतिनिधि चुनने के अधिकार को ही प्रादेशिक प्रतिनिधित्व कहा जाता है।

संक्षेप में, सामान्य प्रतिनिधियों का निर्वाचन जब प्रादेशिक आधार पर हो, तो उस प्रणाली को प्रादेशिक प्रतिनिधित्व कहा जाता है। भारत, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका आदि राज्यों में इसी प्रणाली को लागू किया गया है। प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुण अथवा पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of Territorial Representation) प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं

1. सरल चुनाव-प्रणाली (Simple Electoral System):
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि यह प्रणाली अति सरल है। इस प्रणाली में मतदाताओं की सूचियाँ बड़ी सरलता से तैयार की जाती हैं और प्रत्येक निर्वाचन-क्षेत्र की एक मतदाता सूची होती है। एक चुनाव-क्षेत्र में कई उम्मीदवार खड़े होते हैं, मतदाता को किसी एक उम्मीदवार को मत डालना होता है और जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं, उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। साधारण जनता के लिए भी इस प्रणाली को समझना आसान होता है।

2. लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों पर आधारित (Based on Democratic Principles):
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों पर आधारित है। लोकतन्त्र का मुख्य सिद्धान्त यह है कि सभी व्यक्ति समान हैं तथा उनमें जाति, धर्म, रंग तथा लिंग आदि किसी भी आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए। इस प्रणाली में एक निर्वाचन-क्षेत्र में रहने वाले सभी मतदाता समानता के आधार पर अपने प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं। वह प्रतिनिधि अपने निर्वाचन-क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है।

3. राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा (Promotes National Unity):
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलता है। देश के विधानमण्डल में समस्त राष्ट्र के प्रतिनिधि होते हैं न कि विभिन्न वर्गों या व्यवसायों के। ऐसे प्रतिनिधि अपने-आपको किसी वर्ग अथवा व्यवसाय का प्रतिनिधि न मानकर समस्त राष्ट्र का प्रतिनिधि मानते हैं और राष्ट्रीय हितों को प्रधानता देते हैं। इसका प्रभाव जनता पर भी पड़ता है। उनका दृष्टिकोण भी राष्ट्रीय बनता है तथा राष्ट्रीय एकता में वृद्धि होती है।

4. प्रतिनिधियों तथा मतदाताओं में निकटता का संबंध (Close Relation between Representatives and Voters):
प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्र प्रायः छोटे होते हैं और एक निर्वाचन-क्षेत्र से प्रायः एक ही सदस्य चुना जाता है, जिससे मतदाताओं और प्रतिनिधियों में निकटता का संबंध स्थापित होने की अधिक सम्भावना रहती है। प्रतिनिधि प्रायः उसी निर्वाचन-क्षेत्र का निवासी होता है, जिस क्षेत्र का वह प्रतिनिधित्व कर रहा होता है।

मतदाता और प्रतिनिधि प्रायः एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते होते हैं। अतः प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के मतदाताओं की इच्छाओं और आवश्यकताओं को अच्छी तरह समझता है और उन्हें पूरा करने के लिए प्रयास करता है।

5. प्रतिनिधियों का उत्तरदायित्व (Fixed Responsibility):
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होता है। एक क्षेत्र के सभी मतदाताओं का प्रतिनिधि होने के कारण वह अपने उत्तरदायित्व से इन्कार नहीं कर सकता।

6. क्षेत्रीय हितों की रक्षा (Safeguards Territorial Interests):
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में क्षेत्रीय हितों की अच्छी तरह पूर्ति होती है। प्रतिनिधि अपने क्षेत्र की आवश्यकताओं को अच्छी तरह समझते हैं क्योंकि उनका अपने मतदाताओं व क्षेत्र से समीप का संबंध होता है। अतः प्रतिनिधि अपने निर्वाचन-क्षेत्र की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भरसक प्रयत्न करते हैं। यदि प्रतिनिधि अपने मतदाताओं के हितों की रक्षा नहीं करता, तो ऐसे प्रतिनिधि को मतदाता दोबारा नहीं चुनते। इसलिए प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के हितों की उपेक्षा नहीं कर सकता।

7. अधिक विकास की सम्भावना (Possibility of Greater Development):
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में अधिक विकास की सम्भावना बनी रहती है। इसका कारण यह है कि इस प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्येक प्रतिनिधि अपने क्षेत्र का अधिक-से-अधिक विकास करना चाहता है क्योंकि भावी चुनाव में वह अपनी सीट को सुनिश्चित कर लेना चाहता है। सभी क्षेत्रों के विकास से देश का विकास होना स्वाभाविक है।

8. कम खर्चीली (Less Expensive):
इस प्रणाली में चुनाव कम खर्चीला होता है और उम्मीदवार को भी चुनाव में कम खर्च करना पड़ता है। क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व प्रणाली के दोष अथवा विपक्ष में तर्क (DemeritsArguments against of Territorial Representation) कई विद्वानों ने क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व प्रणाली की कड़ी आलोचना की है। ड्यूगी (Duguit), जी०डी०एच० कोल (GD.H. Cole) और ग्राहम वालास (Graham Wallas) ने इस प्रणाली की कटु आलोचना की है। इस प्रणाली में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं

1. क्षेत्रीयवाद की भावना (Feeling of Regionalism):
इस प्रणाली द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। प्रतिनिधि अपने को एक क्षेत्र विशेष का प्रतिनिधि समझने लगते हैं और उसी क्षेत्र के विकास की बात सोचते तथा करते हैं और उसके लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इससे राष्ट्रीय हितों की अवहेलना होने लगती है।

2. सीमित पसन्द (Limited Choice):
कई बार मतदाताओं की पसन्द सीमित हो जाती है क्योंकि चुनाव लड़ने वाले प्रायः उसी क्षेत्र के निवासी होते हैं और यदि उस क्षेत्र में अच्छे उम्मीदवार न हों तो मतदाताओं को इच्छा न होते हुए भी किसी-न-किसी उम्मीदवार के पक्ष में मत डालना ही पड़ता है।

3. भ्रष्ट होना (Corruption):
मतदाताओं को भ्रष्ट किए जाने की सम्भावना रहती है क्योंकि मतदाता कम होते हैं और धनी उम्मीदवार धन के बल पर वोट खरीदने का प्रयत्न करने लगते हैं।

4. अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व न मिलना (Minorities fail to get proper Representation):
इस प्रणाली में अल्पसंख्यक वर्गों को प्रतिनिधित्व आसानी से नहीं मिलता। एक क्षेत्र से एक उम्मीदवार चना जाता है और स्वाभाविक है कि बहमत वर्ग का उम्मीदवार ही चुना जाता है। इस प्रकार अल्पसंख्यक वर्ग के प्रतिनिधि लगभग सभी चुनाव क्षेत्रों में हार जाते हैं।

वस्तु निष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. निम्न में से कौन-सा अप्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली का गुण है?
(A) यह अधिक लोकतांत्रिक है
(B) खर्च अधिक होता है।
(C) केवल योग्य तथा बुद्धिमान व्यक्तियों को चुना जाता है
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) केवल योग्य तथा बुद्धिमान व्यक्तियों को चुना जाता है

2. भारत में अपनाई गई है
(A) वयस्क मताधिकार प्रणाली
(B) धर्म पर आधारित मत प्रणाली
(C) शिक्षा पर आधारित मत प्रणाली
(D) जाति के आधार पर मत प्रणाली
उत्तर:
(A) वयस्क मताधिकार प्रणाली

3. भारत में निम्न का चुनाव प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली द्वारा किया जाता है
(A) राष्ट्रपति
(B) उप-राष्ट्रपति
(C) राज्यपाल
(D) लोकसभा के सदस्य
उत्तर:
(D) लोकसभा के सदस्य

4. वह चुनाव-प्रणाली जिसमें साधारण मतदाता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं, कहलाती है
(A) प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली
(B) अप्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली
(C) सीमित मत प्रणाली
(D) सूची प्रणाली
उत्तर:
(A) प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली

5. वयस्क मताधिकार प्रणाली में मतदान के अधिकार का आधार होता है
(A) शिक्षा
(B) संपत्ति
(C) आयु
(D) व्यवसाय
उत्तर:
(C) आयु

6. भारत की चुनाव-प्रणाली की विशेषता है
(A) वयस्क मताधिकार
(B) एक-सदस्य निर्वाचन क्षेत्र
(C) सीटों का आरक्षण
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

7. निम्न वयस्क मताधिकार का अवगुण है
(A) राजनीतिक शिक्षा मिलती है
(B) भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है
(C) इस प्रणाली में महिलाओं को भी मतदान का
(D) इस प्रणाली में गरीबों को भी मतदान का अधिकार अधिकार होता है होता है।
उत्तर:
(B) भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है

8. भारत में मतदान के लिए न्यूनतम आयु निश्चित की गई है
(A) 18 वर्ष
(B) 21 वर्ष
(C) 25 वर्ष
(D) 20 वर्ष
उत्तर:
(A) 18 वर्ष

9. निम्न वयस्क मताधिकार का गुण है
(A) यह समानता पर आधारित है ।
(B) नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा मिलती है
(C) सभी के अधिकार सुरक्षित रहते हैं
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

10. भारत में लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आयु होनी चाहिए
(A) 21 वर्ष
(B) 30 वर्ष
(C) 18 वर्ष
(D) 25 वर्ष
उत्तर:
(D) 25 वर्ष

11. निम्न में से कौन-सा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली का गुण है?
(A) अधिक लोकतांत्रिक है
(B) योग्य तथा बुद्धिमान व्यक्तियों का चुनाव
(C) खर्च कम होता है
(D) राजनीतिक दलों का प्रभाव कम होता है।
उत्तर:
(A) अधिक लोकतांत्रिक है

12. भारत में निम्न का चुनाव अप्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली से किया जाता है
(A) लोकसभा के सदस्य
(B) राज्य विधानसभा के सदस्य
(C) राष्ट्रपति
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) राष्ट्रपति

13. भारत में पहला आम चनाव निम्न वर्ष में हआ था
(A) सन् 1947
(B) सन् 1950
(C) सन् 1952
(D) सन् 1955
उत्तर:
(C) सन् 1952

14. निम्न प्रादेशिक प्रतिनिधित्व का गुण है
(A) सरल चुनावे-प्रणाली
(B) मतदाताओं की सीमित पसंद
(C) अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) सरल चुनाव-प्रणाली

15. देश में चुनाव करवाने संबंधी निर्णय लेने का अधिकार है
(A) राष्ट्रपति के पास
(B) प्रधानमंत्री के पास
(C) चुनाव आयोग के पास
(D) उप-राष्ट्रपति के पास
उत्तर:
(C) चुनाव आयोग के पास

16. चुनाव आयोग में आजकल कितने सदस्य (मुख्य चुनाव आयुक्त सहित) हैं
(A) 4
(B) 3
(C) 2
(D) 5
उत्तर:
(B) 3

17. निम्न चुनाव आयोग का कार्य नहीं है
(A) चुनाव कराना
(B) राजनीतिक दलों को मान्यता प्रदान करना
(C) मतदाता सूचियाँ तैयार करना
(D) चुनाव के लिए उम्मीदवार खड़े करना
उत्तर:
(D) चुनाव के लिए उम्मीदवार खड़े करना

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

18. भारत में सांप्रदायिक चुनाव-प्रणाली निम्न वर्ष में लागू हुई
(A) सन् 1906
(B) सन् 1909
(C) सन् 1935
(D) सन् 1952
उत्तर:
(B) सन् 1909

19. मुख्य निर्वाचन आयुक्त को मासिक वेतन मिलता है
(A) 1,50,000
(B) 2,00,000
(C) 1,00,000
(D) 2,50,000
उत्तर:
(D) 2,50,000

20. आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एक शर्त है
(A) एक-सदस्य निर्वाचन-क्षेत्र
(B) बहु-सदस्य निर्वाचन-क्षेत्र
(C) शहरी निर्वाचन-क्षेत्र
(D) ग्रामीण निर्वाचन-क्षेत्र
उत्तर:
(B) बहु-सदस्य निर्वाचन-क्षेत्र

21. भारत में अब तक लोकसभा के कितने चुनाव हो चुके हैं?
(A) 10
(B) 12
(C) 15
(D) 17
उत्तर:
(D) 17

22. भारत में मुख्य चुनाव आयुक्त हैं
(A) श्री नवीन चावला
(B) हरिशंकर ब्रह्मा
(C) श्री सुशील चंद्रा
(D) श्री ओमप्रकाश रावत
उत्तर:
(C) श्री सुशील चंद्रा

23. निम्न भारतीय चुनाव-प्रणाली का दोष है
(A) चुनावों में धन की बढ़ती हुई भूमिका
(B) सरकारी तंत्र का दुरुपयोग
(C) जाति तथा धर्म के नाम पर मतदान
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

24. निम्न निर्वाचन आयोग का कार्य है
(A) चुनावों का प्रबंध करना
(B) मतदाता सूचियां तैयार करना
(C) चुनाव तिथि की घोषणा करना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. 17वीं लोकसभा के चुनाव कब हुए?
उत्तर:
अप्रैल-मई, 2019 में।

2. 17वीं लोकसभा चुनाव में कितनी महिला सांसद निर्वाचित हुईं?
उत्तर:
78 महिलाएँ।

3. 17वीं लोकसभा चुनाव में मतदाताओं की कुल संख्या कितनी थी?
उत्तर:
लगभग 89.78 करोड़।

4. 17वीं लोकसभा चुनाव में कुल मतदान प्रतिशत कितना रहा?
उत्तर:
67.11 प्रतिशत।

5. 17वीं लोकसभा चुनाव के बाद महिला सांसदों का प्रतिशत कितना हो गया?
उत्तर:
17वीं लोकसभा चुनाव के बाद महिला सांसदों का 14.4 प्रतिशत हो गया है।

6. 17वीं लोकसभा में सर्वाधिक महिला सांसद किस राजनीतिक दल से हैं एवं कितनी हैं?
उत्तर:
सर्वाधिक महिला सांसद भाजपा से हैं जिनकी संख्या 42 है।

7. वर्तमान में भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त कौन हैं?
उत्तर:
श्री सुशील चंद्रा।

8. मुख्य निर्वाचन आयुक्त एवं अन्य आयुक्तों को कितना मासिक वेतन मिलता है?
उत्तर:
2,50,000 रुपए मासिक।

9. भारत में मतदान के अधिकार के लिए न्यूनतम आयु कितनी निश्चित की गई है?
उत्तर:
18 वर्ष।

रिक्त स्थान भरें

1. भारत में अब तक ……………. लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हो चुके है।
उत्तर:
17

2. ……… को भारत में 17वीं लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हुए।
उत्तर:
अप्रैल-मई, 2019

3. ………… भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त हैं।
उत्तर:
श्री सुशील चंद्रा

4. भारत में 61वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार मताधिकार की आयु वर्ष निचित की गई।
उत्तर:
18

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

5. भारत में प्रथम आम चुनाव सन् ……………. में हुआ।
उत्तर:
1952

6. भारतीय चुनाव आयोग में कुल …………… सदस्य हैं।
उत्तर:
3

7. 17वीं लोकसभा चुनाव में …………… प्रतिशत मतदान हुआ।
उत्तर:
67.11

8. 16वीं लोकसभा चुनाव में मतदाताओं के नए विकल्प के रूप ……………. का प्रयोग प्रारम्भ हुआ था।
उत्तर:
नोटा (Nota)

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HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
सर्वप्रथम मानवाधिकारों की घोषणा कब और कहाँ हुई थी?
उत्तर:
सर्वप्रथम मानवाधिकारों की घोषणा 1789 ई० में फ्रांस की राष्ट्रीय सभा में हुई थी।

प्रश्न 2.
भारत में सर्वप्रथम कब और किसके द्वारा मौलिक अधिकारों की माँग की गई?
उत्तर:
भारत में सर्वप्रथम 1895 ई० में बाल गंगाधर तिलक के द्वारा मौलिक अधिकारों की माँग की गई।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान द्वारा दिए अधिकारों को मौलिक कहने के कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:
(1) अधिकारों को मौलिक इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन्हें देश की मौलिक विधि अर्थात् संविधान में स्थान दिया गया है और इनमें विशेष संशोधन प्रक्रिया के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार से परिवर्तन नहीं किया जा सकता,

(2) ये अधिकार – व्यक्ति के प्रत्येक पक्ष के विकास हेतु मूल रूप में आवश्यक हैं, जिनके अभाव में उनके व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

प्रश्न 4.
दक्षिण अफ्रीका के संविधान में वर्णित किन्हीं दो मूल अधिकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • गरिमा का अधिकार,
  • स्वास्थ्य की रक्षा, रोटी, पानी तथा सामाजिक सुरक्षा का अधिकार।

प्रश्न 5.
मूल अधिकारों को संविधान में रखने के किन्हीं दो उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • सत्तारूढ़ दल के अत्याचार से सुरक्षा करने हेतु तथा,
  • अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने के लिए।

प्रश्न 6.
भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  • मौलिक अधिकार पूर्ण तथा निरंकुश नहीं हैं,
  • संसद मूल अधिकारों को निलम्बित कर सकती है।

प्रश्न 7.
‘कानून के समक्ष समानता’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
कानून के समक्ष समानता का तात्पर्य है कि किसी व्यक्ति को कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होता और समस्त व्यक्ति कानून के सामने बराबर होते हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

प्रश्न 8.
‘कानून के समक्ष संरक्षण’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
कानून के समक्ष संरक्षण से तात्पर्य है कि समान परिस्थितियों में सभी व्यक्तियों के साथ कानून का एक-समान व्यवहार होना।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में वर्णित ‘समानता के अधिकार’ के कोई दो अपवाद लिखिए।
उत्तर:

  • विदेशी राज्यों के मुखियाओं और राजनायिकों के विरुद्ध भारतीय कानून के अंतर्गत कार्रवाई नहीं की जा सकती,
  • राष्ट्रपति तथा राज्यपालों के विरुद्ध उनके कार्यकाल के दौरान कोई फौजदारी मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान में उल्लेखित स्वतंत्रता के अधिकार के किन्हीं दो अपवादों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • ये अधिकार शत्रु-देश के नागरिकों को प्राप्त नहीं होंगे,
  • निवारक नजरबन्दी के अधीन की गई गिरफ्तारी के सन्दर्भ में भी स्वतंत्रता संबंधी अधिकार की व्यवस्थाएँ लागू नहीं होंगी।

प्रश्न 11.
‘बन्दी प्रत्यक्षीकरण’ (Habeas Corpus) का क्या अर्थ है?
उत्तर:
हैबियस कॉरपस’ लेटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘शरीर हमारे सामने पेश करो।’ इस लेख द्वारा न्यायालय बन्दी बनाने वाले अधिकारी को यह आदेश देता है कि बन्दी बनाए गए व्यक्ति को एक निश्चित तिथि और स्थान पर न्यायालय में उपस्थित किया जाए, जिससे न्यायालय यह निर्णय कर सके कि किसी व्यक्ति को बन्दी बनाए जाने के कारण वैध हैं या अवैध । यदि बन्दी बनाने के कारण अवैध हैं तो उसे मुक्त करने संबंधी लेख जारी किया जाता है।

प्रश्न 12.
‘परमादेश लेख (Writ of Mandamus) से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
‘मेण्डेमस’ शब्द लेटिन भाषा का है जिसका अर्थ है ‘हम आज्ञा देते हैं। यह लेख न्यायालय उस समय जारी करता है, जब कोई व्यक्ति या संस्था अपने सार्वजनिक दायित्व का निर्वाह न कर रही हो और जिसके फलस्वरूप व्यक्तियों के मूल अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो।

प्रश्न 13.
भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों की आलोचना के कोई दो आधार लिखिए।
उत्तर:

  • संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों पर बहुत अधिक प्रतिबंध हैं, जिसके फलस्वरूप साधारण व्यक्ति इन्हें समझने में प्रायः असमर्थ-सा रहता है,
  • मौलिक अधिकारों की भाषा कठिन एवं अस्पष्ट है जिसे साधारण एवं अशिक्षित व्यक्ति समझ नहीं पाता।

प्रश्न 14.
मौलिक अधिकारों की कोई दो उपयोगिताएँ लिखिए।
उत्तर:

  • मौलिक अधिकार कानून का शासन स्थापित करते हैं,
  • मौलिक अधिकारों द्वारा समाज में सामाजिक समानता की स्थापना होती है।

प्रश्न 15.
भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों को कब और कौन-से भाग में जोड़ा गया?
उत्तर:
भारतीय संविधान में सन् 1976 में 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान के भाग चार में अनुच्छेद 51-A में जोड़ा गया।

प्रश्न 16.
भारतीय संविधान में दिए गए किन्हीं दो मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • संविधान का पालन करना तथा इसके आदर्शों, इसकी संस्थाओं, राष्ट्रीय झण्डे तथा गान का सम्मान करना,
  • भारत की प्रभुसत्ता, एकता तथा अखण्डता को बनाए रखना और सुरक्षित रखना।।

प्रश्न 17.
भारतीय संविधान में सम्मिलित मौलिक कर्तव्यों के कोई दो महत्त्व लिखिए।
उत्तर:

  • मौलिक कर्तव्य व्यक्ति के आदर्श एवं पथ-प्रदर्शक हैं,
  • मौलिक कर्त्तव्य मूल अधिकारों की प्राप्ति में सहायक हैं।

प्रश्न 18.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के कोई दो कार्य लिखिए।
उत्तर:

  • यह मानवाधिकारों के उल्लंघन की शिकायतों की जाँच करता है,
  • यह मानवाधिकारों के क्षेत्र में अनुसन्धान को प्रोत्साहित करता है।

प्रश्न 19.
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों का तात्पर्य यह है कि ये सिद्धान्त संविधान के द्वारा आगामी सरकारों के लिए कुछ नैतिक निर्देश हैं। ये सिद्धान्त इस प्रकार के आदेश हैं जिन पर आगामी सरकारों को जनता के हित में कार्य करने के लिए प्रेरणा दी गई है।

प्रश्न 20.
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों के कोई दो लक्षण लिखिए।
उत्तर:

  • ये राज्य की शासन-व्यवस्था के आधारभूत सिद्धान्त हैं,
  • ये सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं।

प्रश्न 21.
राज्य-नीति के कोई दो समाजवादी निदेशक सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • राज्य ऐसा प्रयास करें कि सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों का इस प्रकार केंद्रीयकरण न हो कि सार्वजनिक हित को किसी प्रकार की बाधा पहुँचे,
  • स्त्री और पुरुष दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले।

प्रश्न 22.
राज्य-नीति के कोई दो गाँधीवादी निदेशक सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) अनुच्छेद 40 के अनुसार राज्य ग्राम पंचायतों के गठन के लिए प्रयत्न करेगा और उन्हें ऐसी शक्तियाँ तथा प्राधिकार प्रदान करेगा जिनसे कि वे स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य कर सकें,

(2) अनुच्छेद 46 के अनुसार राज्य समाज के दुर्बल वर्गों विशेषकर अनुसूचित जातियों तथा कबीलों की शिक्षा और आर्थिक उन्नति के लिए प्रयत्न करेगा तथा उन्हें सामाजिक अन्याय एवं शोषण से बचाएगा।

प्रश्न 23.
राज्य-नीति के कोई दो उदारवादी निदेशक सिद्धान्त लिखिए।
उत्तर:

  • राज्य समस्त भारत में समान आचार-संहिता लागू करने का प्रयत्न करेगा,
  • राज्य ऐतिहासिक एवं कलात्मक महत्त्व रखने वाले स्मारकों, स्थानों तथा वस्तुओं की रक्षा करेगा और उनको नष्ट होने से बचाएगा।

प्रश्न 24.
राज्य-नीति के किन्हीं दो अंतर्राष्ट्रीय निदेशक सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • राज्य द्वारा अंतर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा को बढ़ावा देने का प्रयास करना,
  • राष्ट्रों के मध्य उचित व सम्मानपूर्वक संबंध बनाए रखने का प्रयास करना।

प्रश्न 25.
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों की आलोचना के कोई दो आधार बताइए।
उत्तर:

  • निदेशक सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति का अभाव है,
  • 20वीं शताब्दी में लागू होने वाले निदेशक सिद्धान्त 21वीं शताब्दी में भी उपयोगी होंगे, यह आवश्यक नहीं है।

प्रश्न 26.
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों के कोई दो महत्त्व लिखिए।
उत्तर:

  • ये सिद्धान्त कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक सिद्ध होंगे,
  • इन सिद्धान्तों से सरकार की नीतियों में निरन्तरता तथा स्थिरता सम्भव होगी।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकार का क्या अर्थ है? भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को कौन-से मौलिक अधिकार दिए गए हैं?
उत्तर:
मौलिक अधिकार उन सुविधाओं, स्वतन्त्रताओं तथा अधिकारों को कहते हैं जो एक व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए अति आवश्यक हैं। ये वे मूल अधिकार हैं जिनका प्रयोग किए बिना व्यक्ति अपना शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक विकास नहीं कर सकता। प्रत्येक लोकतन्त्रीय राज्य अपने सभी नागरिकों को बिना किसी भेद-भाव के कुछ मौलिक अधिकार देता है। भारतीय संबिधान द्वारा भी नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार दिए गए हैं जो इस प्रकार हैं-

  • समानता का अधिकार,
  • स्वतन्त्रता का अधिकार,
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार,
  • धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार,
  • सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार,
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में दिए गए मूल अधिकारों का महत्त्व बताइए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का बहुत महत्त्व है। ये देश के सभी नागरिकों को समान रूप से विकास के अवसर प्रदान करते हैं। ये सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा कानून के सामने समानता पर बल देते हैं। ये नागरिकों को अनेक प्रकार की स्वतन्त्रताएँ प्रदान करते हैं जिनके प्रयोग से वे अपने जीवन की उन्नति तथा विकास कर सकते हैं।

इन अधिकारों से भारत के एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होने का भी संकेत मिलता है। मौलिक अधिकार सरकार की निरंकुशता पर रोक लगाते हैं और उसे मनमानी करने से रोकते हैं। ये अधिकार सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देते हुए भारत में सामाजिक-आर्थिक लोकतन्त्र के विकास में सहायता करते हैं। मौलिक अधिकार अल्पसंख्यकों को संरक्षण प्रदान करते हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ।।
उत्तर:
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की पाँच विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार बहुत ही व्यापक तथा विस्तृत हैं,
  • मौलिक अधिकार न्याय-संगत हैं। इसका अर्थ यह है कि इनका उल्लंघन होने पर नागरिकों को न्यायालय में जाकर न्याय माँगने का अधिकार है,
  • मौलिक अधिकार सीमित हैं। इनके प्रयोग पर कुछ सीमाएँ लगी हुई हैं,
  • मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त हैं,
  • संकटकाल में मौलिक अधिकारों को निलम्बित (Suspend) किया जा सकता है।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में दिए गए समानता के अधिकार की व्याख्या करो।
अथवा
भारतीय संविधान के अनच्छेद 14-18 में दिए गए समानता के अधिकार का वर्णन करो।
उत्तर:
‘समानता का अधिकार’ का वर्णन संविधान की धारा 14-18 में किया गया है। अनुच्छेद 14 के अनुसार भारत के सभी नागरिकों को कानून के सामने समानता प्रदान की गई है।
अनुच्छेद 15 के अनुसार नागरिकों में जाति, धर्म, रंग, लिंग तथा जन्म-स्थान आदि के आधार पर सभी प्रकार के भेद-भावों को समाप्त कर दिया गया है।
अनुच्छेद 16 के अनुसार सभी नागरिकों को सरकारी नौकरी पाने के क्षेत्र में समानता प्रदान की गई है।
अनुच्छेद 17 के अनुसार देश में छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है और इसके प्रयोग को कानून द्वारा अवैध घोषित कर दिया गया है।
अनुच्छेद 18 द्वारा सैनिक तथा शिक्षा-सम्बन्धी उपाधियों को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की उपाधियों को समाप्त कर दिया गया है।

प्रश्न 5.
संविधान के अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत नागरिकों को कौन-कौन-सी स्वतन्त्रताएँ प्रदान की गई हैं? अथवा भारतीय संविधान में दी गई विभिन्न मूल स्वतन्त्रताओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
संविधान के अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत नागरिकों को दी गई स्वतन्त्रताएँ इस प्रकार हैं-

  • भाषण देने तथा विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता,
  • शान्तिपूर्ण तथा बिना हथियारों के सभा करने की स्वतन्त्रता,
  • समुदाय अथवा संघ बनाने की स्वतन्त्रता,
  • देश के किसी भी भाग में घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता,
  • देश में किसी भी स्थान पर बसने की स्वतन्त्रता,
  • कोई भी व्यवसाय अपनाने की स्वतन्त्रता।

प्रश्न 6.
मौलिक स्वतन्त्रताओं पर किन आधारों पर तार्किक प्रतिबन्ध (Reasonable Restrictions) लगाए जा सकते हैं?
उत्तर:
अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत दी गई स्वतन्त्रताओं पर निम्नलिखित तार्किक प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं-

(1) संसद भारत की प्रभुसत्ता, अखण्डता तथा सुरक्षा को बनाए रखने के लिए इन स्वतन्त्रताओं पर प्रतिबन्ध लगा सकती है,
(2) संसद विदेशी राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को बनाए रखने के लिए इन स्वतन्त्रताओं पर प्रतिबन्ध लगा सकती है,
(3) संसद सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टता अथवा नैतिकता, न्यायालय का अपमान, मान-हानि व हिंसा के लिए उत्तेजित करना आदि के आधारों पर इन स्वतन्त्रताओं पर प्रतिबन्ध लगा सकती है,
(4) राज्य जनता के हितों और अनुसूचित कबीलों के हितों की सुरक्षा के लिए इन स्वतन्त्रताओं पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकते हैं।

प्रश्न 7.
शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right against Exploitation) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
संविधान के अनुच्छेद 23 और 24 के अनुसार नागरिकों को शोषण के विरुद्ध अधिकार दिया गया है। इस अधिकार के अनुसार व्यक्तियों को बेचा या खरीदा नहीं जा सकता है। किसी भी व्यक्ति से बेगार नहीं ली जा सकती। किसी भी व्यक्ति की आर्थिक दशा से अनुचित लाभ नहीं उठाया जा सकता और उसे कोई भी काम उसकी इच्छा के विरुद्ध करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी ऐसे कारखाने या खान में नौकर नहीं रखा जा सकता, जहाँ उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने की सम्भावना हो।

प्रश्न 8.
मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए भारतीय संविधान में की गई व्यवस्थाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
(1) संविधान के अनुच्छेद 13 में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य कोई ऐसा कानून नहीं बना सकता जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सीमित अथवा समाप्त करता हो।

(2) मौलिक अधिकार न्यायसंगत हैं और हम उनकी रक्षा के लिए न्यायालयों में जा सकते हैं। न्यायालय अधिकारों की रक्षा के लिए आदेश जारी कर सकते हैं।

(3) सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के पास पुनर्निरीक्षण की शक्ति है। इस शक्ति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय संसद तथा राज्य विधानमण्डल के कानूनों को और राष्ट्रपति तथा राज्यपालों के आदेश को रद्द कर सकते हैं, यदि वे कानून या आदेश मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हों।

प्रश्न 9.
संवैधानिक उपचारों के अधिकार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सवैधानिक उपचारों का अधिकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों की प्राप्ति की रक्षा का अधिकार है। अनुच्छेद 32 के अनुसार प्रत्येक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की प्राप्ति और रक्षा के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के पास जा सकता है।

यदि सरकार हमारे किसी मौलिक अधिकार को लागू न करे या उसके विरुद्ध कोई काम करे तो उसके विरुद्ध न्यायालय में प्रार्थना-पत्र दिया जा सकता है और न्यायालय द्वारा उस अधिकार को लागू करवाया जा सकता है या उस कानन को रद्द कराया जा सकता है। उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय को इस सम्बन्ध में कई प्रकार के लेख (Writs) जारी करने का अधिकार है।

प्रश्न 10.
सवैधानिक उपचारों के अधिकार के अन्तर्गत न्यायपालिका किस प्रकार के आदेशों को जारी कर सकती है?
उत्तर:
मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिए न्यायपालिका निम्नलिखित आदेश जारी कर सकती है-

  • बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख,
  • परमादेश का आज्ञा-पत्र,
  • मनाही आज्ञा-पत्र,
  • उत्प्रेषण लेख तथा
  • अधिकार-पृच्छा लेख।

प्रश्न 11.
‘बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख’ (Writ of Habeas Corpus) तथा ‘परमादेश लेख’ (Writ of Mandamus) पर नोट लिखिए।
उत्तर:
1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख-‘बन्दी प्रत्यक्षीकरण’ शब्द लेटिन भाषा के शब्द ‘हेबियस कॉर्पस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है-‘हमारे सम्मुख शरीर को प्रस्तुत करो’ (Let us have the body.) इस आदेश के अनुसार न्यायालय किसी अधिकारी को जिसने किसी व्यक्ति को गैर-कानूनी ढंग से बन्दी बना रखा हो, आज्ञा दे सकता है कि कैदी को समीप के न्यायालय में उपस्थित किया जाए, ताकि उसकी गिरफ्तारी के कानून के औचित्य या अनौचित्य का निर्णय किया जा सके। अनियमित गिरफ्तारी की दशा में न्यायालय उसको स्वतन्त्र करने का आदेश दे सकता है।

2. ‘परमादेश’ लेख-‘परमादेश लेख’ लेटिन भाषा के शब्द ‘मैण्डमस’ से लिया गया है। जिसका अर्थ है-‘हम आदेश देते हैं। (We Command.) इस आदेश द्वारा न्यायालय किसी अधिकारी, संस्था अथवा निम्न न्यायालय को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाधित कर सकता है। इस आदेश द्वारा न्यायालय राज्य के कर्मचारियों से ऐसे कार्य करवा सकता है जिनको वे किसी कारण से न कर रहे हों तथा जिनके न किए जाने से किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो।

प्रश्न 12.
अधिकार-पृच्छा लेख (Writ of Quo-Warranto) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अधिकार-पृच्छा लेख का अर्थ है ‘किसके आदेश से’ अथवा ‘किस अधिकार से’। यह आदेश उस समय जारी किया जाता है, जब कोई व्यक्ति ऐसे कार्य को करने का दावा करता हो, जिसको करने का उसको अधिकार न हो। इस आदेश के अनुसार उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय किसी व्यक्ति को कोई पद ग्रहण करने से रोकने के लिए निषेधाज्ञा जारी कर सकता है और उक्त पद के रिक्त होने की तब तक के लिए घोषणा कर सकता है, जब तक कि न्यायालय द्वारा कोई निर्णय न दिया जाए।

प्रश्न 13.
संकटकाल में मौलिक अधिकारों के स्थगन पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
संविधान राष्ट्रपति को अधिकार देता है कि जब अनुच्छेद 352 तथा 356 के अन्तर्गत संकटकालीन व्यवस्था की जाए तो संविधान के अनुच्छेद 19 में दिए गए मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जा सकता है। मौलिक अधिकार तभी स्थगित किए जा सकते हैं, जब संकटकाल की घोषणा युद्ध या बाहरी आक्रमण के कारण हो, न कि शस्त्र-विद्रोह के आधार पर।

राष्ट्रपति संकटकाल में मौलिक अधिकारों को लागू करवाने के लिए न्यायालय का सहारा लेने के अधिकार को समस्त भारत या उसके किसी भाग में स्थगित कर सकता है, परन्तु अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को लागू करवा अधिकार को स्थगित नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 14.
‘निवारक नजरबन्दी’ (Preventive Detention) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
किसी भी व्यक्ति को राज्य की सुरक्षा को भंग किए जाने के सन्देह पर बन्दी बनाया जा सकता है। ऐसे व्यक्ति को किसी भी प्रकार की ‘निजी स्वतन्त्रता’ प्राप्त नहीं होती, परन्तु यदि उसे दो महीने से अधिक नजरबन्द रखना हो, तो ऐसा सलाहकार बोर्ड के परामर्श पर ही किया जा सकता है। निवारक नजरबन्दी में बन्दी बनाए गए व्यक्ति को उसके बंदी बनाए जाने का कारण बताया जाना आवश्यक है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

प्रश्न 15.
सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
इस अधिकार का वर्णन संविधान के अनुच्छेद 29 तथा 30 में किया गया है। इसके अन्तर्गत-
(1) सभी नागरिकों को अपनी भाषा, धर्म व संस्कृति को सुरक्षित रखने तथा उसका विकास करने का पूरा अधिकार है,

(2) भाषा अथवा धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी इच्छानुसार शिक्षा-संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार है। इस प्रकार की संस्थाओं को अनुदान देने में राज्य किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं करेगा,

(3) किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा स्थापित अथवा सहायता से चलाए जाने वाले शिक्षा-संस्थान में प्रवेश देने में जाति, धर्म, वंश, भाषा अथवा इनमें से किसी एक के आधार पर मनाही नहीं की जा सकती।

प्रश्न 16.
भारतीय संविधान में दिए गए पाँच मौलिक कर्तव्यों की व्याख्या कीजिए। उत्तर भारतीय संविधान में दिए गए पाँच मौलिक कर्तव्य निम्नलिखित हैं

  • प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह संविधान, राष्ट्रीय झण्डे तथा राष्ट्रीय गीत का सम्मान करे।
  • नागरिकों का कर्तव्य है कि वे राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन के उद्देश्यों को स्मरण तथा प्रफुल्लित करें।
  • प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह भारत की प्रभुसत्ता, एकता व अखण्डता का समर्थन और रक्षा करे।
  • नागरिकों का कर्तव्य है कि वे देश की रक्षा करें तथा राष्ट्रीय सेवाओं में आवश्यकता के समय भाग लें।
  • लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण फैलाना।

प्रश्न 17.
मौलिक कर्तव्यों का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
मौलिक कर्तव्यों का विशेष महत्त्व है। मौलिक कर्त्तव्य नागरिक को आदर्श बनाते हैं तथा उनमें जागरूकता उत्पन्न करते हैं। मौलिक कर्त्तव्य नागरिकों का दृष्टिकोण व्यापक बनाते हैं और नागरिकों में संविधान का पालन, देश की रक्षा, एकता तथा अखण्डता को बनाए रखने की भावना पैदा करते हैं। मौलिक कर्तव्यों का पालन करके लोकतन्त्र को सफल बनाया जा सकता है।

इसके फलस्वरूप व्यक्ति की व्यक्तिगत उन्नति तथा विकास के साथ-साथ समाज और देश भी प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा। इन मौलिक कर्तव्यों के बारे में श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा था कि यदि लोग मौलिक कर्तव्यों को अपने दिमाग में रख लेंगे तो हम शीघ्र ही एक शान्तिपूर्ण एवं मैत्रीपूर्ण क्रान्ति देख सकेंगे। अतः मौलिक कर्तव्यों को संविधान में अंकित किए जाने से नागरिकों को यह ध्यान में रहेगा कि अधिकारों के साथ-साथ उनके कुछ कर्त्तव्य भी हैं।

प्रश्न 18.
संविधान में दिए गए मौलिक कर्तव्यों की आलोचना कीजिए।
उत्तर:
संविधान में दिए गए मौलिक कर्तव्यों की आलोचना निम्नलिखित तथ्यों के अन्तर्गत की जा सकती है

1. कुछ मौलिक कर्त्तव्य अस्पष्ट हैं-मौलिक कर्तव्यों का विवरण देते हुए संविधान में कुछ अस्पष्ट शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिनकी मनमाने ढंग से व्याख्या की जा सकती है; जैसे मिली-जुली संस्कृति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अन्वेषण व सुधार की भावना।

2. दण्ड की भावना का अभाव मौलिक कर्त्तव्यों के पीछे दण्ड की भावना का अभाव है। इसी संदर्भ में स्वर्ण सिंह समिति ने यह सुझाव दिया था कि मौलिक कर्तव्यों की अवहेलना करने वालों को दण्ड दिया जाना चाहिए और इसके लिए संसद द्वारा उचित कानून का निर्माण करना चाहिए।

3. केवल उच्च आदर्श मौलिक कर्तव्यों की आलोचना तीसरे स्थान पर की जा सकती है कि ये मात्र उच्च आदर्श प्रस्तुत करते. हैं। भारत की अंधिक जनसंख्या गाँवों में निवास करती है जो इन उच्च आदर्शों को समझने में असमर्थ है।

4. संविधान के तीसरे अध्याय में सम्मिलित होने चाहिएँ मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान के अध्याय चार में शामिल किया गया है, जबकि इन्हें मौलिक अधिकारों वाले अध्याय तीन में ही रखा जाना चाहिए, व कर्तव्य अच्छे लगते हैं।

प्रश्न 19.
भारतीय संविधान में दिए गए राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों का स्वरूप (प्रकृति) क्या है?
रतीय संविधान के निर्माता भारत को एक आदर्श कल्याणकारी राज्य बनाना चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होंने सरकार की नीति तथा शासन को सही दिशा देने के लिए संविधान में राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों को शामिल किया। ये सिद्धान्त सरकार का मार्गदर्शन करने के लिए हैं और ये न्यायसंगत नहीं हैं।

यदि सरकार इनमें से किसी भी सिद्धान्त को लागू नहीं करती, तो भी नागरिकों को न्यायालय में जाकर सरकार के विरुद्ध न्याय माँगने का अधिकार नहीं है। ये सरकार को सकारात्मक निर्देश हैं और यदि सरकार इन्हें लागू नहीं करती तो जनमत उस सरकार के विरुद्ध हो जाएगा। ऐसी सरकार के अगले चुनावों में जीतने की सम्भावना नहीं होगी।

प्रश्न 20.
हमारे संविधान में राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों से सम्बन्धित अध्याय का क्या महत्त्व है? अथवा राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों का महत्त्व बताएँ।
उत्तर:
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों का महत्त्व इस प्रकार है-
(1) संघीय सरकार तथा राज्य सरकारों द्वारा इन सिद्धान्तों के लागू करने से भारत एक कल्याणकारी राज्य बन सकता है,

(2) संविधान की प्रस्तावना में सभी नागरिकों को राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक न्याय प्रदान करने की जो घोषणा की गई है, ये सिद्धान्त उस उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता करते हैं,

(3) ये सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा की स्थापना में सहायता करते हैं,

(4) सरकारें जब इन सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर अपनी नीति का निर्माण करेंगी, तो समान कानूनों का निर्माण होगा, जिससे राष्ट्रीय एकता की स्थापना होगी,

(5) ये सिद्धान्त जनता के पास सरकार की सफलताओं को जाँचने की कसौटी है।

प्रश्न 21.
42वें संशोधन द्वारा निदेशक सिद्धान्तों में कौन-से नए सिद्धान्त जोड़े गए हैं ?
उत्तर:

  • राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि बच्चों को स्वतंत्र और प्रतिष्ठापूर्ण वातावरण में अपने विकास के लिए अवसर और सुविधाएँ प्राप्त हों,
  • राज्य ऐसी कानून प्रणाली के प्रचलन की व्यवस्था करेगा जो समान अवसर के आधार पर न्याय का विकास करे,
  • राज्य कानून या अन्य ढंग से श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्ध में भागीदारी बनाने के लिए पग उठाएगा,
  • राज्य वातावरण की सुरक्षा और विकास करने के लिए देश के वन तथा वन्य जीवन को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा।

प्रश्न 22.
कोई ऐसे पाँच निदेशक सिद्धान्त बताएँ जिनका सम्बन्ध कल्याणकारी राज्य की स्थापना से है?
उत्तर:
(1) राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि राज्य के सभी नागरिकों, पुरुषों तथा स्त्रियों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हों,

(2) बेकारी, बुढ़ापे, बीमारी तथा अंगहीन होने की अवस्था में ओर से आर्थिक सहायता पाने का अधिकार हो,

(3) राज्य काम करने वालों के लिए न्यायपूर्ण मानवीय परिस्थितियों में काम करने की व्यवस्था का प्रबन्ध करेगा और स्त्रियों के लिए प्रसूति सहायता देने का प्रबन्ध करेगा,

(4) संविधान के लागू होने से दस वर्ष के भीतर राज्य 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करेगा,

(5) राज्य अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के हितों की रक्षा की व्यवस्था करेगा।

प्रश्न 23.
राज्य-नीति के नीति निदेशक सिद्धान्तों के पीछे कौन-सी शक्ति कार्य कर रही है?
उत्तर:
राज्य-नीति के नीति निदेशक सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं हैं अर्थात् इनके पीछे कानून की शक्ति नहीं है, परन्तु इन सिद्धान्तों के पीछे जनमत (Public Opinion) की शक्ति है। लोकतन्त्र में जनमत का बहुत महत्त्व होता है और कोई भी सरकार जनमत की अवहेलना करके अधिक समय तक पद पर बनी नहीं रह सकती।

चूँकि ये सिद्धान्त कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने में सहायता करते हैं, अतः कोई भी सरकार अपनी नीति का निर्माण करते समय इन्हें अपनी आँखों से ओझल नहीं कर सकती। इनकी अवहेलना करने वाली सरकार के लिए अगले चुनावों में जीतने की सम्भावना नहीं होती। अतः निदेशक सिद्धान्तों के पीछे जनमत की शक्ति है।

प्रश्न 24.
भारतीय संविधान में दिए गए निदेशक सिद्धान्तों में से कोई पाँच सिद्धान्त लिखें।
उत्तर:
भारतीय संविधान में दिए गए पाँच निदेशक सिद्धान्त इस प्रकार हैं-

  • राज्य ऐसे समाज का निर्माण करेगा, जिसमें लोगों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्राप्त होगा,
  • स्त्रियों और पुरुषों को आजीविका कमाने के समान अवसर दिए जाएँगे,
  • देश के सभी नागरिकों के लिए समान कानून तथा समान न्याय संहिता की व्यवस्था होनी चाहिए,
  • बच्चों और नवयुवकों की नैतिक पतन तथा आर्थिक शोषण से रक्षा हो,
  • राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा।

प्रश्न 25.
नीति निदेशक सिद्धान्त भारत में किस प्रकार एक धर्म-निरपेक्ष और समाजवादी समाज की नींव डालते हैं?
उत्तर:
नीति निदेशक सिद्धान्त धर्म-निरपेक्ष और समाजवादी समाज की आधारशिला रखते हैं। निदेशक सिद्धान्त राज्य सरकार को भारत में एक समान व्यवहार संहिता लागू करने का निर्देश देते हैं। निदेशक सिद्धान्तों के अनुसार राज्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा, जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त होगा।

प्रश्न 26.
भारत की विदेश नीति से सम्बन्धित निदेशक सिद्धान्त लिखें। अथवा अन्तर्राष्ट्रीय नीति सम्बन्धी सिद्धान्तों का वर्णन करें।
उत्तर:
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त राष्ट्रीय नीति के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय नीति से भी सम्बन्धित हैं। अनुच्छेद 51 में कहा गया है कि राज्य-

  • अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा को बढ़ावा देगा,
  • राष्ट्रों के मध्य उचित व सम्मानपूर्वक सम्बन्ध बनाए रखेगा,
  • अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि व कानूनों को सम्मान देगा,
  • अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का मध्यस्थता द्वारा निपटारा करने का प्रयास करेगा।

प्रश्न 27.
किन बातों के आधार पर राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों की आलोचना की गई है?
उत्तर:
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों की आलोचना दी गई बातों के आधार पर की गई है

  • राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त न्याय-संगत नहीं हैं,
  • राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों में उचित वर्गीकरण तथा स्पष्टता का अभाव है,
  • निदेशक सिद्धान्त केवल आश्वासन मात्र हैं,
  • राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त अव्यावहारिक हैं,
  • निदेशक सिद्धान्तों में स्थायित्व की कमी है।

प्रश्न 28.
मौलिक अधिकारों तथा राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों में कोई पाँच अन्तर बताएँ।
उत्तर:
मौलिक अधिकारों तथा राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों में अन्तर इस प्रकार हैं-

  • मौलिक अधिकार न्याय-योग्य हैं, जबकि राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त न्याय-योग्य नहीं हैं,
  • मौलिक अधिकारों का स्वरूप निषेधात्मक है, जबकि निदेशक सिद्धान्त अधिकतर सकारात्मक हैं,
  • मौलिक अधिकार नागरिकों के लिए हैं, जबकि निदेशक सिद्धान्त सरकार के लिए हैं,
  • मौलिक अधिकार राजनीतिक लोकतन्त्र का आधार हैं, जबकि निदेशक सिद्धान्त सामाजिक तथा आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना में सहायक हैं,
  • मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जा सकता है, जबकि निदेशक सिद्धान्तों को स्थगित नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 29.
मौलिक अधिकारों व राज्य-नीति के निदेशक तत्त्वों में टकराव की स्थिति में प्राथमिकता का क्या प्रश्न है?
उत्तर:
संविधान में स्पष्ट रूप से इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया गया है। इस प्रश्न का उत्तर सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक निर्णयों में दिया है। सर्वप्रथम चम्पाकम दोराय राजन बनाम चेन्नई राज्य, 1951 के मुकद्दमे में सर्वोच्च न्यायालय ने मौलिक अधिकारों में वाद-योग्य होने के कारण माना कि यदि मौलिक अधिकारों व राज्य-नीति के निदेशक तत्त्वों में टकराव पाया जाता है तो मौलिक अधिकारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, लेकिन शीघ्र ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी गलती को महसूस किया और इनरी केरल एजुकेशन विधेयक, चन्द्रभवन बोर्डिंग केस, विजय कॉटन मिल्स केस इत्यादि अनेक मामलों में दोनों को समान धरातल पर माना और निदेशक तत्त्वों को मौलिक अधिकारों पर युक्ति-युक्त प्रतिबन्ध के रूप में स्वीकार किया।

संसद ने सन् 1971 में संविधान के 25वें संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 39 (b) व (c) में निहित निदेशक तत्त्वों की अनुच्छेद 14, 19 व 31 में निहित मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता स्थापित की। इस संशोधन को सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानन्द भारती केस, सन् 1973 में संविधान के मूलभूत ढाँचे के अन्तर्गत नहीं माना, लेकिन इसके बाद सन् 1976 में संसद ने जब 42वें संविधान संशोधन के द्वारा सभी नीति-निदेशक तत्त्वों की अनुच्छेद 14, 19 व 31 में निहित समानता, स्वतन्त्रता व सम्पत्ति के मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता स्थापित की तो सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 1980 में मिनर्वा मिल्स केस में इस संशोधन को संविधान के मूलभूत ढाँचे के विरुद्ध मानते हुए अवैध घोषित कर दिया और प्रतिपादित किया कि संविधान का मूलभूत ढाँचा मौलिक अधिकारों व नीति-निदेशक तत्त्वों के मध्य सन्तुलन पर आधारित है।

दोनों एक-दूसरे के पूरक व सम्पूरक हैं। दोनों में से किसी एक को प्राथमिकता देना संविधान के मूलभूत ढाँचे को विकृत तथा नष्ट करना होगा। … इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों को समान माना है जिसमें केवल एक अपवाद अनुच्छेद 39 (b) व (c) की अनुच्छेद 14 व 19 में निहित समानता व स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता है, क्योंकि अनुच्छेद 31 को सन् 1978 के 44वें समाप्त कर दिया गया है। इस प्रकार मौलिक अधिकार और राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त एक-दूसरे के पूरक हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

प्रश्न 30.
राष्ट्रीय आपात का मौलिक अधिकारों पर प्रभाव पर नोट लिखिए।
उत्तर:
भारत के संविधान में ऐसी व्यवस्था है कि राष्ट्रीय आपात् का भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। भारत का संविधान भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार प्रदान करता है कि जब देश पर किसी विदेशी शक्ति का आक्रमण हुआ हो या आक्रमण होने की सम्भावना हो या देश में सशस्त्र विद्रोह फैल गया हो या ऐसा विद्रोह फैलने की सम्भावना हो तो वह देश में राष्ट्रीय आपात् की घोषणा कर सकता है।

राष्ट्रीय आपात् काल की घोषणा करके नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर सकता है। यहाँ तक कि संवैधानिक उपचारों के अधिकार को भी स्थगित किया जा सकता है। नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय में भी शरण नहीं ले सकते। ऐसी स्थिति में कार्यपालिका अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर सकती है, जैसा कि सन् 1975 में आपातकालीन घोषणा के बाद प्रशासन ने मनमाने तरीके से शक्ति का प्रयोग किया। इस प्रकार से मौलिक अधिकारों का स्थगित किया जाना प्रजातन्त्र की भावना के विपरीत है।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकारों से क्या अभिप्राय है? मौलिक अधिकारों की प्रकृति अथवा विशेषताओं का वर्णन कीजिए। अथवा मौलिक अधिकारों से आप क्या समझते हैं? भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
प्रो० लास्की के अनुसार, “मूल अधिकार जीवन की उन आवश्यक अवस्थाओं को कहते हैं, जिनके बिना व्यक्ति के जीवन का विकास असम्भव है।” (Rights are those conditions of Social Life without which no man can seek in general, to be himself at his best.), अर्थात् प्रो० लास्की के अनुसार ये आवश्यक अवस्थाएँ व्यक्ति के चरित्र के विकास के लिए अनिवार्य हैं, क्योंकि व्यक्ति और राज्य की उन्नति एक-दूसरे के साथ जुड़ी हुई है,

अतः अधिकार एक प्रकार से राज्य के विकास और उन्नति के लिए भी अनिवार्य हैं। लगभग सभी राज्य अपने नागरिकों के लिए इन आवश्यक अवस्थाओं अथवा सुविधाओं की संविधान में व्यवस्था करते हैं। इंग्लैण्ड जैसे अलिखित संविधान में मौलिक अधिकार अलिखित हैं, परन्तु अमेरिका जैसे राज्यों में, जहां लिखित संविधान है, मौलिक अधिकार लिखित संविधान का भाग हैं।

भारतीय संविधान लिखित संविधान है, अतः भारत में मूल अधिकार लिखित संविधान का भाग हैं। संविधान के तीसरे भाग के 12 से 35 अनुच्छेदों में मूल अधिकार दिए गए हैं। भारत में मौलिक अधिकार केवल लिखित ही नहीं, बल्कि न्याय-योग्य भी हैं। मौलिक अधिकारों को न्याय-योग्य इसलिए ठहराया गया है कि विधानमण्डल और कार्यकारिणी के सदस्य नागरिकों को सताने न लगें।

कहने का तात्पर्य यह है कि न्यायपालिका पर लोगों के अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व है अर्थात् न्यायपालिका का यह कर्तव्य है कि वह देखे कि मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण न होने पाए, अतएव न्यायपालिका के पास यह शक्ति है कि वह विधानमण्डल द्वारा बनाए गए उन सब कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर सकती है जो मौलिक अधिकारों का हनन् करते हैं। मौलिक अधिकारों के तत्त्व या विशेषताएँ (Characteristics or Features of Fundamental Rights)-मौलिक अधिकारों के कुछ विशेष तत्त्व निम्नलिखित हैं

1. मौलिक अधिकार न्यायसंगत हैं (Fundamental Rights are Justiciable):
मौलिक अधिकार केवल नाममात्र के ही नहीं हैं, बल्कि इनको अदालत के द्वारा संरक्षित किया गया है। यदि किसी मनुष्य का अधिकार सरकार द्वारा या किसी और द्वारा छीना जाए तो वह अदालत की शरण ले सकता है और उसको न्याय मिलेगा। हम मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सीधे ही उच्चतम तथा उच्च न्यायालय में जा सकते हैं।

2. मौलिक अधिकार सीमित हैं (Fundamental Rights are Limited):
ये मौलिक अधिकार सीमित हैं। नागरिक इनका प्रयोग मनमानी से नहीं कर सकता। इनके ऊपर उचित प्रतिबन्ध लगाए हुए हैं। सुरक्षा, शान्ति बनाए रखने के लिए इन पर प्रतिबन्ध लगाए गए हैं।

3. अति विस्तृत (Most Elaborate):
संविधान के तृतीय भाग में 24 अनुच्छेद (अनुच्छेद 12 से 35) नागरिक के मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित हैं। अनुच्छेद 12, 13, 33, 34 तथा 35 में ऐसे साधारण उपबन्ध हैं, जिनका सम्बन्ध सभी अधिकारों से है। अनुच्छेद 14 से 30 और अनुच्छेद 32 में नागरिकों को छः प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं। मौलिक रूप में अनुच्छेद 31 द्वारा नागरिकों को ‘सम्पत्ति का अधिकार’ दिया गया था, परन्तु 44वें संशोधन द्वारा इस अनुच्छेद को संविधान में से निकाल दिया गया है।

4. मौलिक अधिकार निलम्बित किए जा सकते हैं (Fundamental Rights can be Suspended):
अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 द्वारा राष्ट्रपति को आपात्काल की स्थिति की घोषणा करने का अधिकार दिया गया है। राष्ट्रपति आपात्काल की घोषणा. द्वारा इन अधिकारों को निलम्बित कर सकता है। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 32 में वर्णित सवैधानिक उपचारों के अधिकार पर भी राष्ट्रपति आपातकालीन स्थिति में प्रतिबन्ध लगा सकता है।

यहाँ यह वर्णन करने योग्य है कि नागरिकों के जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को लागू करवाने के लिए किसी आपात्कालीन अवस्था में भी नागरिकों के अदालत में शरण लेने के अधिकार को समाप्त नहीं किया जा सकता। यह व्यवस्था भारतीय संविधान में 44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा की गई है।

5. संसद मौलिक अधिकारों को सीमित कर सकती है (Parliament can Curtail the Fundamental Rights):
संसद मौलिक अधिकारों में हर प्रकार का परिवर्तन कर सकती है। यह व्यवस्था 1971 में 24वें संशोधन द्वारा संविधान में की गई थी। 42वें संविधान संशोधन द्वारा भी यह व्यवस्था की गई है कि संसद मौलिक अधिकारों वाले प्रकरण सहित सम्पूर्ण संविधान में परिवर्तन कर सकती है तथा संसद द्वारा किए गए संशोधन को किसी भी न्यायालय में किसी भी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती। इसका अभिप्रायः यह हुआ कि संसद संविधान संशोधनों द्वारा मौलिक अधिकारों को कम या सीमित कर सकती है।

6. सकारात्मक व नकारात्मक प्रकृति (Positive and Negative Nature):
मौलिक अधिकारों की सकारात्मक प्रकृति से तात्पर्य है कि मौलिक अधिकार राज्य को कुछ कार्य करने का अधिकार प्रदान करते हैं और नकारात्मक प्रकृति से अर्थ है कि मौलिक अधिकार राज्य को कुछ कार्य करने से रोकते हैं।

भारतीय मौलिक अधिकारों में ये दोनों ही प्रवृतियाँ पाई जाती हैं। इसका सर्वोत्तम उदाहरण समानता का अधिकार है, जिसमें नागरिकों को ‘कानून के समक्ष समानता’ (Equality before Law) के साथ-साथ ‘कानून का समान संरक्षण’ (Equal Protection of Law) का अधिकार दिया गया है।

‘कानून के समक्ष समानता’ की प्रकृति नकारात्मक है, क्योंकि यह राज्य को नागरिकों में भेद-भाव करने से रोकती है और इसके विपरीत ‘कानून का समान संरक्षण’ की प्रकृति सकारात्मक है, क्योंकि इसके अन्तर्गत राज्य नागरिकों में भेद-भाव कर सकता है, ताकि गरीब व पिछड़े वर्गों का समान संरक्षण मिल सके।

7. मौलिक अधिकार संविधान द्वारा दिए गए हैं, प्राकृतिक अधिकार नहीं (Fundamental Rights are conferrred by the Constitution, not Natural Rights):
भारत में केवल वे ही मौलिक अधिकार हैं जो संविधान में दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त अन्य किसी अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है। अमेरिका की भाँति भारत में भी प्राकृतिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है। न्यायपालिका का संरक्षण संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को ही प्राप्त है।

8. भारतीय पृष्ठभूमि (Indian Background):
भारत में मौलिक अधिकार किसी अन्य देश की नकल नहीं हैं, बल्कि विशिष्ट भारतीय पृष्ठभूमि के अनुसार प्रदान किए गए हैं, जैसे छुआछूत का निषेध । छुआछूत भारतीय समाज में ही पाया जाता था, इसलिए इसका निषेध एक मौलिक अधिकार के रूप में प्रदान किया गया है। इसी प्रकार से धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार भारतीय समाज के बहुधर्मी रूप को देखते हुए दिया गया है।

9. सभी पर लागू होते हैं (Binding upon Everybody):
मौलिक अधिकार राज्य की सभी संस्थाओं, जिनमें विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, सरकारी संस्थाएँ और यहाँ तक कि भारतीय नागरिक भी शामिल हैं, पर समान रूप से लागू होते हैं। कोई भी इनको मानने से इन्कार नहीं कर सकता और न ही किसी को इनके उल्लंघन का अधिकार है।

10. मुख्यतया राजनीतिक प्रकृति के (Primarily of Political Nature):
भारत में मौलिक अधिकार मुख्य रूप से राजनीतिक प्रकृति के हैं, सामाजिक और आर्थिक अधिकार राज्य-नीति के निदेशक तत्त्वों में दिए गए हैं। संविधान सभा का विचार था कि चूंकि अभी भारत के पास इतने अधिक साधन नहीं हैं कि नागरिकों को सामाजिक व आर्थिक अधिकार भी सुलभ कराए जा सकें। अतः राजनीतिक अधिकार ही प्रदान कर दिए गए, ताकि राजनीतिक दृष्टि से लोकतन्त्र स्थापित किया जा सके।

11. नागरिक व व्यक्ति में अन्तर किया गया है (Difference between Citizen and People):
भारत में कुछ मौलिक अधिकार केवल नागरिकों को प्राप्त हैं तो कुछ अधिकार व्यक्तियों को प्राप्त हैं। व्यक्तियों को दिए गए अधिकार नागरिकों व विदेशियों दोनों को प्राप्त हैं, जब कि नागरिकों को दिए गए अधिकार विदेशियों को प्राप्त नहीं हैं। उदाहरणार्थ, स्वतन्त्रता का अधिकार केवल नागरिकों को प्राप्त है, जबकि वैयक्तिक स्वतन्त्रता का अधिकार व्यक्तियों को प्राप्त है। समानता का अधिकार यदि नागरिकों को प्राप्त है तो शोषण के विरुद्ध अधिकार व्यक्तियों को प्राप्त है।

12. केन्द्र तथा राज्य सरकारों की शक्तियों पर प्रतिबन्ध (Limitations on the Powers of the Centre and the State Governments):
मौलिक अधिकार केन्द्र तथा राज्य सरकारों की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं अर्थात् केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों तथा स्थानीय सरकारों को मौलिक अधिकारों के अनुसार ही कानून बनाने पड़ते हैं और ये सरकारें कोई ऐसा कानून नहीं बना सकतीं जो मौलिक अधिकारों की प्रकृति के विरुद्ध हो। यदि ये सरकारें मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कोई कानून बना दें तो न्यायालय उन्हें अवैध घोषित कर सकता है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान द्वारा भारत के नागरिकों को प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों का उन पर लगी सीमाओं सहित विवेचन कीजिए।
अथवा
हमारे संविधान में निहित मौलिक अधिकारों पर एक लेख लिखिए।
अथवा
निम्नलिखित पर नोट लिखिए
(1) समानता का अधिकार, अनुच्छेद 14 से 18 तक,
(2) स्वतन्त्रता का अधिकार, अनुच्छेद 19 से 22 तक,
(3) शोषण के विरुद्ध अधिकार, अनुच्छेद 23 से 24 तक,
(4) संस्कृति एवं शिक्षा सम्बन्धी अधिकार, अनुच्छेद 29 से 30 तक।
उत्तर:
सन् 1979 से पहले भारतीय नागरिकों को 7 प्रकार के मौलिक अधिकार प्राप्त थे, परन्तु इसके पश्चात् इन अधिकारों की संख्या 6 हो गई है। 30 अप्रैल, 1979 को 44वाँ संविधान संशोधन राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत किया गया था। इस संशोधन के अन्तर्गत नागरिकों का ‘सम्पत्ति का अधिकार’ (Right to Property) मौलिक अधिकारों की सूची में से निकाल दिया गया और अब यह अधिकार एक साधारण अधिकार (Ordinary Right) बन गया है। 44वें संशोधन के द्वारा सम्पत्ति के अधिकार सम्बन्धी यह व्यवस्था 19 जून, 1979 को लागू की गई थी। भारतीयों के शेष छः अधिकारों का विस्तारपूर्वक वर्णन निम्नलिखित है

1. समानता का अधिकार, अनुच्छेद 14 से 18 तक [Right to Equality, Articles 14 to 18|-अनुच्छेद 14 से 18 में वर्णित अधिकारों द्वारा भारतीयों को समानता का अधिकार दिया गया है। समानता के अधिकार के कई पक्ष हैं, जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है

(i) कानून के सामने समानता (Equality before Law):
अनुच्छेद 14 के अनुसार सभी व्यक्ति कानून के सामने समान हैं। कानून की दुनिया में ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, रंग या नस्ल, जाति, जन्म, धर्म आदि के आधार पर कोई मतभेद नहीं है। राष्ट्रपति से लेकर साधारण नागरिक तक सभी कानून की दृष्टि में समान समझे जाते हैं तथा कानून समान रूप से ही सबकी रक्षा करता है।

(ii) कोई भेदभाव नहीं (No Discrimination) संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी नागरिक के साथ जाति, धर्म, नस्ल, लिंग, रंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। सार्वजनिक स्थानों, जैसे होटल, तालाब, कुएँ, सिनेमा घर, दुकानों आदि, के प्रयोग के लिए किसी को मनाही नहीं होगी। अपवाद (Exceptions) अनुच्छेद 15 के दो अपवाद हैं-(क) राज्य बच्चों व महिलाओं के लिए विशेष सुविधाएँ प्रदान कर सकता है, (ख) पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के उत्थान के लिए राज्य विशेष प्रकार की व्यवस्था कर सकता है।

(iii) अवसर की समानता (Equality of Opportunity):
अनुच्छेद 16 के अनुसार सरकारी पदों पर नियुक्ति योग्यता के आधार पर होगी। नियुक्ति करते समय सरकार किसी व्यक्ति के साथ रंग, नस्ल, जाति, जन्म, धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकती। किसी व्यक्ति को इन बातों के आधार पर उसके पद से पदच्युत नहीं किया जा सकता, परन्तु सरकार को संविधान की ओर से अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित रखने की छूट है।

अपवाद (Exceptions) इस व्यवस्था के तीन अपवाद हैं-प्रथम, कुछ विशेष पदों के लिए निवास स्थान सम्बन्धी आवश्यक शर्ते लगाई जा सकती हैं। द्वितीय, पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जा सकती है। तृतीय, किसी धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक संस्था से सम्बन्धित पदों पर एक विशेष धर्म अथवा सम्प्रदाय के लोगों की नियुक्ति की जा सकती है।।

(iv) अस्पृश्यता का अन्त (Abolition of Untouchability):
अनुच्छेद 17 के अनुसार अस्पृश्यता को अवैध घोषित किया गया है। जो व्यक्ति अस्पृश्यता को किसी भी तरीके से लागू करने का यत्न करता है, अथवा प्रोत्साहित करता है उसको कानून द्वारा दण्ड दिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सभी सार्वजनिक स्थान मन्दिर, होटल, कुएँ, स्कूल, कॉलेज आदि हरिजन लोगों के लिए खुले हैं। उनको इनके प्रयोग से रोकना कानूनी अपराध है।

(v) उपाधियों की समाप्ति (Abolition of Titles):
अंग्रेज़ सरकार भारत में नागरिकों को कई प्रकार की उपाधियाँ प्रदान करती थी। ये उपाधियाँ हमारे भारतीय समाज में भेदभाव की भावना पैदा करती थीं। ऐसी स्थिति की समाप्ति के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 18 द्वारा शैक्षणिक अथवा सैनिक उपाधियों के अलावा राज्य को अन्य किसी प्रकार की उपाधियाँ देना वर्जित किया गया है।

2. स्वतन्त्रता का अधिकार, अनुच्छेद 19 से 22 तक (Right to Freedom,Articles 19 to 22):
संविधान में स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 19 से 22 तक किया गया है। यह अधिकार ‘मौलिक अधिकारों की आत्मा’ है, क्योंकि इस अधिकार के बिना अन्य अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं रहता। इस अधिकार के आधार पर ही प्रजातन्त्रीय समाज की कल्पना की जा सकती है। इस विषय में पायली महोदय का कथन महत्त्वपूर्ण है।

उन्होंने कहा है, “संविधान निर्माताओं ने इन अधिकारों को मौलिक अधिकारों के अध्याय में शामिल करके ठीक ही किया है तथा इस प्रकार प्रजातन्त्रीय समाज के विकास में सहायता की है।”

(1) अनुच्छेद 19 के द्वारा निम्नलिखित स्वतन्त्रताएँ प्रदान की गई हैं…
(क) भाषण तथा लेखन की स्वतन्त्रता,
(ख) शान्तिपूर्वक तथा बिना शस्त्रों के इकट्ठा होने की स्वतन्त्रता,
(ग) संघ तथा समुदाय बनाने की स्वतन्त्रता,
(घ) भारत के किसी भी क्षेत्र में आने-जाने की स्वतन्त्रता,
(ङ) भारत के किसी भाग में रहने या निवास करने की स्वतन्त्रता,
(च) कोई भी व्यवसाय करने, पेशा अपनाने या व्यापार करने की स्वतन्त्रता।

इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
(क) भाषण एवं लेखन की स्वतन्त्रता (Freedom of Speech and Expression)-सभी नागरिकों को भाषण देने और अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। वे बोलकर या लिखकर और छपवाकर अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। लोकतन्त्र में इस अधिकार का बड़ा महत्त्व होता है, क्योंकि इसी के द्वारा जनमत का निर्माण और अभिव्यक्ति हो सकती है।

परन्तु इस अधिकार पर राज्य न्यायालय के अपमान, सदाचार तथा नैतिकता, राज्य की सुरक्षा आदि के आधार पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है। कोई भी नागरिक इस अधिकार का प्रयोग दूसरे का अपमान करने के लिए नहीं कर सकता।

(ख) शान्तिपूर्वक तथा बिना शस्त्रों के इकट्ठा होने की स्वतन्त्रता (Freedom to Assemble Peacefully and without Arms) नागरिकों को बिना हथियार और शान्तिपूर्ण तरीके से इकट्ठा होने, सभा करने तथा जुलूस निकालने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। इन सभाओं और जुलूसों में नागरिक अपने विचार प्रकट कर सकते हैं तथा अपने उद्देश्यों की पूर्ति के प्रयत्न कर सकते हैं।

इस स्वतन्त्रता पर भी राज्य उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है। सार्वजनिक शांति और व्यवस्था, भारत की अखण्डता व सुरक्षा की दृष्टि से इस पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। अनुच्छेद 144 का लगाया जाना इसी प्रतिबन्ध का एक उदाहरण है।

(ग) संघ तथा समुदाय बनाने की स्वतन्त्रता (Freedom to form Associations and Unions)-नागरिकों को अपने विभिन्न लक्ष्यों की पूर्ति के लिए संगठित होने और संघ तथा समुदाय बनाने की स्वतन्त्रता दी गई है। इन संघों और समुदायों को भी अपना कार्य स्वतन्त्रता-पूर्वक करने का अधिकार है। परन्तु कोई समुदाय या संघ ऐसा कार्य नहीं कर सकता, जिससे देश की अखण्डता व सुरक्षा को खतरा पैदा हो, जो अनैतिक हो अथवा शान्ति व व्यवस्था में बाधक बने।

(घ) भारत के किसी भी क्षेत्र में आने-जाने की स्वतन्त्रता (Freedom to Move freely Throughout the Territory of India)- सभी नागरिकों को भारत के समस्त क्षेत्र में घूमने-फिरने और आने-जाने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने के लिए किसी भी तरह का आज्ञा-पत्र लेने की आवश्यकता नहीं है।

नागरिक भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक बिना रोक-टोक के आ-जा सकते हैं, परन्तु इस स्वतन्त्रता पर भी सार्वजनिक शांति, सुरक्षा, व्यवस्था तथा अनुसूचित कबीलों के हितों की दृष्टि से उचित सीमा लगाई जा सकती है और नागरिकों के घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाए जाते रहे हैं।

(ङ) भारत के किसी भाग में रहने और निवास करने की स्वतन्त्रता (Freedom to Reside and Settle in any part of the Territory of India)-भारतीय नागरिकों को भारत के किसी भी भाग में निवास करने और बस जाने की स्वतन्त्रता दी गई है। एक राज्य से दूसरे राज्य में जाकर रहने और निवास करने पर कोई अंकुश नहीं है, नागरिक जहाँ उचित समझे रह सकता है, परन्तु राज्य इस पर भी उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।

(च) कोई भी व्यवसाय करने, पेशा अपनाने या व्यापार करने की स्वतन्त्रता (Freedom to practise any Profession or carry on any Occupation, Trade or Business)- सरकार किसी नागरिक को कोई कार्य विशेष करने या न करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती। अपनी आजीविका कमाने के लिए नागरिकों को कोई भी व्यवसाय, पेशा या व्यापार करने की स्वतन्त्रता है, जिसे वे उचित समझें।

इस स्वतन्त्रता पर भी उचित प्रतिबन्ध है। सरकार जन-हित में किसी भी व्यापार, काम-धन्धे और व्यवसाय पर प्रतिबन्ध लगा सकती है और अनैतिक व्यापार को रोक सकती है। सरकार किसी व्यवसाय के लिए व्यावसायिक योग्यताएँ भी निश्चित कर सकती है, जैसे चिकित्सा, व्यवसाय, वकालत आदि के लिए योग्यताएँ। सरकार कानून द्वारा किसी भी व्यापार को अपने स्वामित्व में ले सकती है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि सभी स्वतन्त्रताओं को असीमित रूप में नहीं दिया गया, बल्कि उन पर उचित प्रतिबन्ध लगाए गए हैं और लगाए जा सकते हैं। अधिकतर सार्वजनिक शांति और व्यवस्था, राज्य की सुरक्षा और अखण्डता, सार्वजनिक नैतिकता, लोक-हित, अनुसूचित जातियों और कबीलों के हितों आदि के आधार पर ही ये प्रतिबन्ध लगे हुए हैं और लगाए जा सकते हैं। जब नगर में अशांति हो तो कयूं भी लगाया जाता है और घर से निकलने पर भी प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

(2) अनुच्छेद 20 के अनुसार-

(क) व्यक्ति को किसी ऐसे कानून का उल्लंघन करने पर दण्ड नहीं दिया जा सकता जो उसके अपराध करते समय लागू नहीं था।
(ख) किसी व्यक्ति को एक ही अपराध की एक से अधिक बार सजा नहीं दी जा सकती।
(ग) किसी अपराधी को स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता।

(3) अनुच्छेद 21 के अनुसार, किसी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित विधि के अतिरिक्त जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जा सकता। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 44वें संशोधन द्वारा संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि नागरिकों के इस अधिकार को आपातकाल के समय भी समाप्त नहीं किया जा सकता। इसका भाव यह हुआ कि आपात्कालीन स्थिति के दौरान अन्य स्वतन्त्रताएँ तो समाप्त की जा सकती हैं, परन्तु नागरिकों की ‘जीवन या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता’ को ऐसी स्थिति में भी समाप्त नहीं किया जा सकता।

(4) अनुच्छेद 22 विशेष रूप से बन्दियों के अधिकारों की घोषणा करता है। इस अनुच्छेद के अनुसार,
(क) किसी भी व्यक्ति को उसके अपराध से अवगत कराए बिना बन्दी नहीं बनाया जा सकता।
(ख) अपराधी को उसकी इच्छानुसार किसी वकील से परामर्श लेने की छूट है।
(ग) अपराधी को गिरफ्तार करने के 24 घण्टे के अन्दर-अन्दर किसी निकटतम मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करना आवश्यक है।
(घ) न्यायालय की अनुमति के बिना किसी दोषी को 24 घण्टे से अधिक बन्दी नहीं रखा जा सकता।

अपवाद इस अधिकार के निम्नलिखित अपवाद भी हैं-
(क) ये अधिकार शत्रु-देश के नागरिकों को प्राप्त नहीं होंगे,

(ख) निवारक नजरबन्दी (Preventive Detention) के अधीन की गई गिरफ्तारी के सन्दर्भ में उपर्युक्त व्यवस्थाएँ लागू नहीं होंगी, निवारक नजरबन्दी के सम्बन्ध में 44वें संविधान संशोधन द्वारा व्यवस्थाएँ की गई हैं कि-
(क) नजरबन्दी का मामला दो महीने के अन्दर सलाहकार मण्डल (Advisory Board) के पास जाना आवश्यक है,
(ख) सलाहकार मण्डल का गठन उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाएगा,
(ग) सलाहकार मण्डल का अध्यक्ष उच्च न्यायालय का वर्तमान न्यायाधीश होगा, लेकिन उसके अन्य सदस्य वर्तमान अथवा सेवानिवृत्त न्यायाधीश हो सकते हैं,
(घ) नजरबन्द किए गए व्यक्ति को शीघ्र-से-शीघ्र उसकी नजरबन्दी का कारण बताया जाएगा।

उपर्युक्त व्यवस्थाएँ 1975-77 की आपात स्थिति के कटु अनुभवों को ध्यान में रखकर ही की गई थीं। वर्तमान में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (N.S.A.) इसी अनुच्छेद के अन्तर्गत बनाया गया है। आलोचना (Criticism)-स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार की निम्नलिखित अनुच्छेदों पर आलोचना की जाती है

(क) नागरिकों की स्वतन्त्रताओं पर अनेक सीमाएँ लगा दी गई हैं, जिसके परिणामस्वरूप राज्य-सत्ता के सम उपर्युक्त स्वतन्त्रताएं अर्थहीन होकर रह जाती हैं। ये स्वतन्त्रताएं यदि एक हाथ से दी गई हैं तो दूसरे हाथ से छीन ली गई हैं।

(ख) सीमाएँ अत्यधिक व्यापक होने के कारण अस्पष्टता से ग्रसित हो जाती हैं। परिणामस्वरूप विधायिका व न्यायपालिका में टकराव की सम्भावना बनी रहती है।

(ग) निवारक नजरबन्दी का अधिकार राज्य को प्राप्त है जिसके कारण शान्ति काल में भी जीवन तथा निजी स्वतन्त्रता का अधिकार अर्थहीन हो जाता है। न्यायाधीश मुखर्जी के शब्दों में, “जहाँ तक मुझे मालूम है संसार के किसी भी देश में निवारक नज़रबन्दी को संविधान का अटूट भाग नहीं बनाया गया है, जैसा कि भारत में किया गया है, यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है।”

यद्यपि. उपर्युक्त आलोचनाएँ सही हैं और लोकतन्त्र पर प्रश्न-चिह्न लगाती हैं, नागरिक स्वतन्त्रताओं को दुष्प्रभावित करती हैं, लेकिन हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि भारतीय गणराज्य का जन्म साम्प्रदायिक हिंसा, हत्या तथा लूट-पाट के वातावरण में हुआ है। लोकतन्त्र की सफलता के लिए प्राथमिक अनिवार्यता राष्ट्र व गणराज्य की राष्ट्र-विरोधी असामाजिक तत्त्वों से सुरक्षा है।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार, अनुच्छेद 23 से 24 तक (RightAgainst Exploitation,Articles 23 to 24)-शोषण के विरुद्ध अधिकार का उद्देश्य है-समाज के निर्बल वर्गों को शक्तिशाली वर्ग के अन्याय से बचाना। इस मौलिक अधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित व्यवस्थाएँ हैं

(1) मनुष्यों के क्रय-विक्रय और उनके शोषण पर प्रतिबन्ध (Prohibition of Sale and Purchase of Human beings and their Exploitation): हजारों वर्ष गुलाम रहने के बाद भारतीय समाज में बहुत-सी कुरीतियाँ उत्पन्न हो गई थीं जिनमें से एक थी-स्त्रियों व बच्चों का क्रय-विक्रय। मनुष्यों का पशुओं के समान क्रय-विक्रय किया जाता था और उन्हें दास बनाकर मनमाने तरीके से उनका प्रयोग किया जाता था। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने अनुच्छेद 23 के अनुसार, मानव के इस शोषण के विरुद्ध प्रतिबन्ध लगाया है और इस प्रकार अब भारत में स्त्रियों, पुरुषों के क्रय-विक्रय पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। इस व्यवस्था का उल्लंघन करना एक दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया गया है।

(2) बेगार लेने पर प्रतिबन्ध (Prohibition on Forced Labour)-भारत के मध्य काल में जमींदार लोग तथा राजा और नवाब अपने अधीनस्थ लोगों से बेगार लेते थे। अपने निजी कार्य उनसे कराकर उनके बदले में उन्हें कुछ नहीं देते थे, परन्तु अब भारतीय संविधान के अनुच्छेद 23 के अनुसार कोई व्यक्ति किसी से बेगार नहीं ले सकता अर्थात् बिना मजदूरी दिए किसी व्यक्ति से कोई काम नहीं लिया जा सकता और न ही किसी व्यक्ति से उसकी इच्छा के विपरीत कोई काम कराया जा सकता है। अब ये दोनों ही बातें एक दण्डनीय अपराध घोषित हो चुकी हैं।

अपवाद (Exceptions)-संविधान के अनुच्छेद 23 में दिए गए अधिकारों पर एक प्रतिबन्ध लगा दिया गया है और वह यह है कि सरकार को जनता के हितों के लिए अपने नागरिकों से आवश्यक सेवा करवाने का अधिकार है। उदाहरणस्वरूप, सरकार नागरिकों को अनिवार्य सैनिक-सेवा तथा अनिवार्य सामाजिक सेवा करने के लिए कानून बना सकती है, परन्तु ऐसा करते हुए सरकार धर्म, वंश, जाति, वर्ग अथवा इनमें से किसी के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं कर सकती।

(3) कारखानों आदि में छोटी आयु के बच्चों को काम करने की मनाही (Prohibition of Employment of Children in Factories etc.)-कारखानों व खानों के मालिक छोटी आयु के बच्चों को काम पर लगाना अति लाभदायक समझते थे क्योंकि उन्हें कम मजदूरी देनी पड़ती थी, परन्तु अब भारतीय संविधान के अनुच्छेद 24 में स्पष्ट उल्लेख कर दिया गया है कि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों या खानों में कार्य करने के लिए नहीं लगाया जा सकता। ऐसा करना अब एक दण्डनीय अपराध है। यह व्यवस्था इसलिए की गई है, ताकि बच्चों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव न पड़े।

4. साँस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकार, अनुच्छेद 29 से 30 तक (Cultural and Educational Rights, Articles 29 to 30)
(1)अनुच्छेद 29 तथा 30 के अन्तर्गत नागरिकों को, विशेषतया अल्पसंख्यकों को, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। ये अधिकार निम्नलिखित हैं अनुच्छेद 29 के अनुसार, भारत के किसी भी क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग या उसके किसी भाग को, जिसकी अपनी भाषा, लिपि अथवा संस्कृति हो, यह अधिकार है कि वह अपने संस्कृति व शिक्षा सम्बन्धी अधिकारों की रक्षा करे। अनुच्छेद 29 के अनुसार, केवल अल्पसंख्यकों को ही अपनी भाषा, संस्कृति इत्यादि को सुरक्षित रखने का अधिकार नहीं है, बल्कि यह अधिकार नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को प्राप्त है।

(2) किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा या उसकी सहायता से चलाई जाने वाली शिक्षा संस्था में प्रवेश देने से धर्म, जाति, वंश, भाषा या इनमें से किसी भी आधार पर इन्कार नहीं किया जा सकता। 1951 में मद्रास (चेन्नई) सरकार ने एक मैडिकल कॉलेज में सीटों का विभाजन भिन्न-भिन्न जातियों के आधार पर कर दिया था जिसके कारण चम्पाकम नामक एक ब्राह्मण लड़की को उस कॉलेज में दाखिला न मिल सका, क्योंकि उस जाति को दिए गए

सभी स्थान पूर्ण हो गए थे। चम्पाकम ने अपने अधिकार की प्राप्ति के लिए न्यायालय में रिट (Writ) की। उच्च न्यायालय ने सरकार के आदेश को असंवैधानिक घोषित कर दिया।

(3) अनुच्छेद 30 के अनुसार, सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म पर आधारित हों या भाषा पर, यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपनी इच्छानुसार शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करें तथा उनका प्रबन्ध करें।

(4) अनुच्छेद 30 के अनुसार, राज्य द्वारा शिक्षा संस्थाओं को सहायता देते समय शिक्षा संस्था के प्रति इस आधार पर भेदभाव नहीं होगा कि वह अल्पसंख्यकों के प्रबन्ध के अधीन है, चाहे वे अल्पसंख्यक भाषा के आधार पर हों या धर्म के आधार पर। 44वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 30 में संशोधन करके यह व्यवस्था की गई है कि राज्य अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित की गई व चलाई जा रही शिक्षा संस्थाओं की सम्पत्ति को अनिवार्य रूप से लेने के लिए कानून का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान रखेगा कि कानून के अन्तर्गत निर्धारित की गई रकम से अल्पसंख्यकों के अधिकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस प्रकार अनुच्छेद 29 तथा 30 द्वारा अल्पसंख्यकों के हितों तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकारों को सुरक्षा प्रदान की गई है। भारत में इस अधिकार का बहुत महत्त्व है, क्योंकि भारत में विभिन्न जातियों, धर्मों तथा भाषाओं वाले लोग रहते हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

प्रश्न 3.
धार्मिक स्वतन्त्रता पर एक नोट लिखिए। अथवा भारतीय संविधान में दिए गए धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार की व्याख्या करें।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। इसके अनुसार प्रत्येक भारतीय को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मौलिक अधिकारों में अनुच्छेद 25 से अनुच्छेद 28 तक धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का वर्णन किया गया है, जिसकी व्याख्या निम्नलिखित है

1. अन्तःकरण की स्वतन्त्रता तथा किसी भी धर्म को मानने व उसका प्रचार करने की स्वतन्त्रता (Freedom of Conscience and Freedom to Profess and Propagate any Religion)-अनुच्छेद 25 के द्वारा सभी को अन्तःकरण की स्वतन्त्रता है। इसका अभिप्रायः है कि प्रत्येक व्यक्ति जैसी चाहे पूजा-पद्धति को अपना सकता है।

प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी धर्म को मानने की स्वतन्त्रता है। राज्य किसी धर्म विशेष को मानने के लिए किसी भी व्यक्ति को बाध्य नहीं कर सकता। इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति किसी भी धर्म का प्रचार कर सकता है, परन्तु उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार, “छल, कपट, प्रलोभन या बल-प्रयोग द्वारा किसी भी व्यक्ति का धर्म-परिवर्तन कराना संविधान के विरुद्ध है।”

प्रतिबन्ध (Limitations) अनुच्छेद 25 में दी गई धार्मिक स्वतन्त्रता पर जिस आधार पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं वे इस प्रकार हैं-
(1) यदि धर्म-प्रचार या धर्म-परिवर्तन लोक व्यवस्था, सदाचार और जन स्वास्थ्य के विरुद्ध है तो राज्य द्वारा उसमें हस्तक्षेप किया जा सकता है,

(2) अनुच्छेद 25 में दी गई धार्मिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत किसी भी धार्मिक स्थल का प्रयोग राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं किया जा सकता है,

(3) प्रचार के नाम पर धर्म-परिवर्तन की मनाही है,

(4) समाज सुधार एवं कल्याण के लिए विभिन्न धार्मिक परम्पराओं और अन्धविश्वासों को दूर किया जा सकता है अर्थात् धर्म के नाम पर सामाजिक कुरीतियों और अन्धविश्वासों को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता,

(5) हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों को सभी वर्गों के लिए खोल दिया गया है।

2. धार्मिक मामलों के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता (Freedom to Manage Religious Affairs):
संविधान के अनुच्छेद 26 के द्वारा धार्मिक मामलों के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है, जिसके अन्तर्गत निम्नलिखित स्वतन्त्रताएँ हैं

  • धार्मिक व लोकोपकारी संस्थाएँ चलाना,
  • अपने धार्मिक मामलों का स्वयं प्रबन्ध करना,
  • चल व अचल सम्पत्ति प्राप्त करना,
  • कानून के अनुसार उपर्युक्त सम्पत्ति का प्रबन्ध करना।

धार्मिक मामलों के प्रबन्ध की स्वतन्त्रता का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि धार्मिक संस्थाओं का दुरुपयोग राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के लिए किया जा सके। उदाहरणतः जून 1984 में ऑप्रेशन ब्लू स्टार के द्वारा स्वर्ण मन्दिर अमृतसर में सेना को इसलिए प्रवेश करना पड़ा था क्योंकि उसमें राष्ट्र-विरोधी असामाजिक तत्त्वों का जमाव हो चुका था।

3. किसी धर्म विशेष को बढ़ाने के लिए कर की अदायगी से छूट (Freedom from Payment of Taxes for Promotion of any Particular Religion) संविधान के अनुच्छेद 27 के अनुसार किसी व्यक्ति को कोई ऐसा कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता जिसको किसी धर्म को बढ़ावा देने के लिए व्यय किया जाना हो। राज्य कर के रूप में लिए गए धन को किसी धर्म विशेष की उन्नति के लिए प्रयोग नहीं करेगा, परन्तु यदि राज्य बिना किसी भेदभाव के धार्मिक एवं अन्य संस्थाओं को समान रूप से सहायता प्रदान करता है तो उस स्थिति में अनुच्छेद लागू नहीं होगा।

4. राजकीय शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबन्ध (No Religious Teachings in Educational Institutions maintained by State Funds) अनुच्छेद 28 के अन्तर्गत उन राजकीय शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती, जिनका सारा खर्च राज्य करता हो, लेकिन यह प्रतिबन्ध उन शिक्षण संस्थाओं पर लागू नहीं होता जिन्हें राज्य की ओर से मान्यता प्राप्त है तथा आर्थिक सहायता भी मिलती है, लेकिन सारा खर्च राज्य न करता हो। किन्तु ऐसी शिक्षा संस्थाओं में भी किसी व्यक्ति को उसकी व उसके अभिभावकों की इच्छा के विरुद्ध धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। राज्य द्वारा प्रशासित तथा धर्मस्व व न्यास के अधीन शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देने के बारे में कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

इस प्रकार धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार मौलिक अधिकारों की प्रस्तावना में घोषित उद्देश्यों-धर्म-निरपेक्षता व अंतःकरण की स्वतन्त्रता को निश्चित बनाता है जिसके अन्तर्गत राज्य का कोई सरकारी धर्म नहीं है और न ही राज्य किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देने के लिए कार्य कर सकता है। धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार पर निम्नलिखित तीन सीमाएँ हैं

(1) राज्य शान्ति और व्यवस्था, नैतिकता तथा जन-स्वास्थ्य के आधार पर इस अधिकार पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है। सती-प्रथा तथा देवदासी प्रथा पर रोक इसी आधार पर लगा दी गई है।

(2) धार्मिक समुदायों की आर्थिक तथा राजनीतिक गतिविधियों पर नियन्त्रण रखने वाले कानून बनाए जा सकते हैं।

(3) हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिन्दू समाज के सभी वर्गों के लिए खोला जा सकता है। हिन्दू संस्थाओं के अन्तर्गत सिक्ख, जैन तथा बौद्ध समुदायों की संस्थाएँ भी सम्मिलित हैं।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में लिखित संवैधानिक उपचारों के मौलिक अधिकार का विवेचन कीजिए। अथवा संवैधानिक उपचार के अधिकार का विश्लेषण करें।
उत्तर:
सवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)-भारतीय संविधान के द्वारा भारत के नागरिकों को जो मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं, संविधान में ही उन अधिकारों की रक्षा भी की गई है। मौ की रक्षा की इस व्यवस्था के अभाव में सरकार अथवा कोई अन्य नागरिक इन अधिकारों के उपयोग में बाधा पैदा कर सकता था और इस प्रकार ये मौलिक अधिकार नागरिकों के लिए महत्त्वहीन हो जाते।

संवैधानिक उपचारों के अधिकार के अनुसार यदि सरकार या कोई नागरिक मौलिक अधिकारों से किसी को वंचित करता है तो वह व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की में न्यायालय अथवा उच्च न्यायालयों में कर सकता है। संविधान के अनुच्छेद 32 के अनुसार-

  • भारत के उच्चतम न्यायालय को नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए भिन्न-भिन्न आदेश जारी करने के अधिकार दिए गए हैं,
  • उच्चतम न्यायालय को विभिन्न आदेश या निर्देश जारी करने का अधिकार है,
  • संसद कानून बनाकर किसी भी न्यायालय को मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए आदेश (writ) जारी करने की शक्ति दे सकती है,
  • उन परिस्थितियों को छोड़कर, जिनका संविधान में वर्णन किया गया है, संवैधानिक उपचारों के मौलिक अधिकार को स्थगित नहीं किया जा सकता।

इसीलिए डॉ० अम्बेडकर ने संविधान सभा में बोलते हुए इस अधिकार को संविधान की आत्मा कहा था। उन्होंने इस अनुच्छेद के सन्दर्भ में लिखा था, “यदि मुझे कोई पूछे कि संविधान का कौन-सा महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद है जिसके बिना संविधान प्रभाव शून्य हो जाएगा तो मैं इस अनुच्छेद के अतिरिक्त किसी और अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं कर सकता। यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान का हृदय है।” मौलिक अधिकारों के संरक्षण हेतु निम्नलिखित आदेश जारी करने का अधिकार उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को प्राप्त है

(1) बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख (Writ of Habeas Corpus):
लैटिन भाषा के इस शब्द का अर्थ है-‘हमें शरीर दो’ (Let us have the body), अर्थात् शरीर हमारे सामने पेश करो। इस आदेश के अन्तर्गत न्यायपालिका को अधिकार है कि वह सरकार को बन्दी बनाए गए किसी भी व्यक्ति को अपने सामने प्रस्तुत करने का आदेश दे सकती है।

ऐसे लेख का प्रार्थना-पत्र बन्दी स्वयं या उसका कोई रिश्तेदार न्यायालय के सामने प्रस्तुत कर सकता है, यदि वह महसूस करे कि उसे गैर-कानूनी ढंग से बन्दी बनाया गया है।

बन्दी जब न्यायालय के सामने प्रस्तुत होता है तो न्यायालय उसके मामले पर विचार करता है और यदि न्यायालय यह समझे कि बन्दी को वास्तव में ही गैर-कानूनी ढंग से बन्दी रखा गया है तो वह उसके मुक्त किए जाने का आदेश जारी कर सकता है। इस प्रकार पुलिस किसी व्यक्ति को मनमाने ढंग से बन्दी नहीं बनाए रख सकती। इस अधिकार को आपातकाल में भी निलम्बित नहीं किया जा सकता। न्यायपालिका ने इस अधिकार का प्रयोग करके नागरिकों को पुलिस के अत्याचार से बचाया है। राजनीतिक कैदियों को भी कई बार न्यायालय ने इसका प्रयोग करके मुक्त किया है। इस प्रकार यह लेख नागरिक की दैहिक स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण साबित हुआ है।

(2) परमादेश लेख (Writ of Mandamus):
इस आदेश द्वारा न्यायालय किसी व्यक्ति या अधिकारी या संस्था को अपना कर्त्तव्य-पालन करने के आदेश दे सकता है। लैटिन भाषा के इन शब्दों का अर्थ है “हम आदेश देते हैं” (We Command)। यदि कोई व्यक्ति यह महसूस करे कि कोई अधिकारी या संस्था अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करती तो वह न्यायालय को ऐसा आदेश जारी करने का प्रार्थना-पत्र दे सकता है।

इस प्रार्थना पर विचार करने के बाद न्यायालय यदि यह अनुभव करे कि वास्तव में ही उस अधिकारी या संस्था द्वारा अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं हो रहा है तो न्यायालय उसे आदेश दे सकता है और उस आदेश को मानना उस अधिकारी या संस्था का कर्तव्य है।

(3) प्रतिषेध लेख (Writ of Prohibition):
इस आदेश या लेख का अर्थ है-‘रोकना’ या ‘मनाही करना’ । यदि कोई कर्मचारी या संस्थान कोई ऐसा कार्य कर रहा हो जिसका उसे अधिकार नहीं है और इससे किसी के मौलिक अधिकार का हनन होता हो तो वह व्यक्ति न्यायालय में प्रार्थना-पत्र दे सकता है और यदि न्यायालय यह अनुभव करे कि कर्मचारी या अधिकारी या संस्था अपने अधिकार-क्षेत्र से बाहर जा रहा है या कानून की प्रक्रिया के विरुद्ध जा रहा है तो वह प्रतिषेध लेख जारी करके उसे ऐसा करने से रोक सकता है।

(4) अधिकार पृच्छा लेख (Writ of Quo-Warranto):
इन शब्दों का अर्थ है-“किस अधिकार से” (Under What Authority)। यदि कोई व्यक्ति कोई ऐसा कार्य करने का दावा करता है, जिसे करने का उसे अधिकार नहीं या किसी व्यक्ति ने कानून के विरुद्ध कोई पद-ग्रहण कर लिया हो या किसी के पास पद की योग्यता न हो तो कोई भी नागरिक न्यायालय में प्रार्थना-पत्र देकर उसे ऐसा करने से रोकने की प्रार्थना कर सकता है।

न्यायालय यह आदेश जारी करके उस अधिकारी या कर्मचारी को अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए कह सकता है और यदि वह गैर-कानूनी ढंग से पद ग्रहण किए हुए है तो उसे पदच्युत भी कर सकता है।

(5) उत्प्रेषण लेख (Writof Certiorari):
इसका अर्थ है-“पूर्णतः सूचित करो।” (Be More Fully Informed)। यह आदेश उच्च न्यायालय द्वारा निम्न न्यायालय को दिया जाता है, जिसके द्वारा उच्च न्यायालय निम्न न्यायालय में चल रहे किसी भी मुकद्दमे का पूर्ण ब्यौरा तथा रिकार्ड अपने पास मॅगवा सकता है और यदि उच्च न्यायालय अनुभव करे कि निम्न न्यायालय ने अपने अधि का उल्लंघन किया है

या कानन की प्रक्रिया का समचित पालन नहीं किया है तो वह उस मकद्दमे को स्वयं भी सन सकता है और उसे कुछ निर्देश सहित निम्न न्यायालय को वापस भेज सकता है। इसके द्वारा नागरिकों को न्यायपालिका के अतिक्रमण से मुक्ति दिलाने की व्यवस्था की गई है।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार सभी व्यक्तियों को प्रदान किया गया है। प्रभावित व्यक्ति, अर्थात् जिसके अधिकार का उल्लंघन हुआ हो या जिसके साथ अत्याचार हुआ हो, उसके अतिरिक्त अन्य व्यक्ति तथा संस्थाएँ भी इन उपचारों का प्रयोग कर सकते हैं। न्यायपालिका ने लोगों द्वारा लिखे गए साधारण पत्रों, समाचार-पत्रों में छपी खबरों आदि को भी प्रार्थना-पत्र (Writ Petition) मानकर कार्रवाई की है और लोगों के अधिकारों की रक्षा करने का प्रयास किया है जो कि अत्यन्त सराहनीय है।

निष्कर्ष (Conclusion)-निःसन्देह भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की कई पक्षों से आलोचना की गई है। कुछ विद्वानों का कहना है कि मौलिक अधिकारों के अध्याय में सामाजिक और आर्थिक अधिकार सम्मिलित न करना एक बहुत बड़ी भूल है और इससे मौलिक अधिकार खोखले बनकर रह गए हैं। इन अधिकारों की आलोचना इसलिए भी की जाती है कि सरकार को मौलिक अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाने की शक्तियाँ बहुत दी गई हैं, परन्तु इन सब बातों के बावजूद भी हमें मानना पड़ता है कि मौलिक अधिकार लोकतन्त्र की नींव हैं। अधिकार कभी असीमित नहीं होते।

संसार में कोई भी देश ऐसा नहीं है जहाँ मूल अधिकारों पर बन्धन न लगाए गए हों। मौलिक अधिकारों द्वारा नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा की गई है और कार्यपालिका और संसद की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगा दिया गया है। हम एम०वी० पायली (M.V. Paylee) के इस कथन से ‘सहमत हैं, “सम्पूर्ण दृष्टि में संविधान में अंकित मौलिक अधिकार भारतीय प्रजातन्त्र को दृढ़ तथा जीवित रखने का अधिकार हैं।”

प्रश्न 5.
किन अनुच्छेदों पर मौलिक अधिकारों की आलोचना की गई है? व्याख्या करें। अथवा भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की आलोचना किन-किन आधारों पर की जाती है?
उत्तर:
हमारे संविधान-निर्माताओं ने भारत को प्रभुतासम्पन्न प्रजातन्त्रीय गणराज्य घोषित किया है। प्रजातन्त्रीय व्यवस्थाओं के अनुरूप ही भारतीय संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इनके अध्ययन से स्पष्ट है कि व्यवस्था में कछ दोष पाए जाते हैं। विद्वानों ने इन दोषों को देखते हए यहाँ तक कह दिया है कि मौलिक अधिकार नामक भाग को ‘मौलिक अधिकार तथा उनकी सीमाएँ’ नाम दे दिया जाए। मौलिक अधिकारों की अग्रलिखित अनुच्छेदों पर आलोचना की गई है

1. आर्थिक अधिकारों का न होना (Omission of Economic Rights):
आलोचकों का कहना है कि यद्यपि भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का विस्तार से वर्णन किया गया है, परन्तु इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण आर्थिक तथा सामाजिक अधिकारों, जैसे कार्य पाने का अधिकार (Right to Work), ‘आराम तथा विश्राम का अधिकार’, सामाजिक सुरक्षा का अधिकार (Right to Social Securities) भारतीयों को प्रदान नहीं किए गए। साम्यवादी देशों; जैसे रूस आदि में इन अधिकारों को प्रमुख स्थान दिया गया है।

2. भारतीयों को केवल वे ही अधिकार प्राप्त हैं, जो संविधान में दिए गए हैं (Only Enumerated Rights are granted to Indians):
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की इस आधार पर भी आलोचना की गई है कि भारतीय नागरिकों को केवल वही अधिकार दिए गए हैं, जिनका कि संविधान में उल्लेख किया गया है।

इसके अलावा उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं हैं, परन्तु अमेरिका के नागरिकों को संविधान में वर्णित अधिकारों के अलावा वे अधिकार भी प्राप्त हैं, जो साधारण कानून (Common Law) तथा प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) पर आधारित हैं। भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं है।

3. मौलिक अधिकारों पर प्रतिबन्धों का होना (Limitations on Fundamental Rights):
मौलिक अधिकारों की इस आधार पर भी आलोचना की गई है कि संविधान ने एक हाथ से मौलिक अधिकार देकर उन पर प्रतिबन्धों तथा अपवादों का घेरा लगाकर दूसरे हाथ से उन्हें वापस ले लिया है। इस व्यवस्था से मौलिक अधिकारों की वास्तविकता ही समाप्त हो जाती है।

परन्तु यह आलोचना पूरी तरह से ठीक नहीं है। कोई भी मौलिक अधिकार असीमित नहीं हो सकता तथा देश की बदलती हई राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार उनमें संशोधन भी करना पड़ता है। इस व्यवस्था के लिए आवश्यक है कि मौलिक अधिकारों के बारे में अन्तिम सत्ता संसद के हाथों में होनी चाहिए। यही व्यवस्था भारतीय संविधान में अपनाई गई है।

4. निवारक नजरबन्दी व्यवस्था (Preventive Detention Provision):
अनुच्छेद 22 के अन्तर्गत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की व्यवस्था की गई है, इसके साथ ही संविधान में निवारक नजरबन्दी की भी व्यवस्था की गई है। जिन व्यक्तियों को निवारक नज़रबन्दी कानून के अन्तर्गत गिरफ्तार किया गया हो, उनको अनुच्छेद 22 में दिए गए अधिकार प्राप्त नहीं होते। निवारक नज़रबन्दी के अधीन सरकार कानून बनाकर किसी भी व्यक्ति को बिना मुकद्दमा चलाए अनिश्चित काल के लिए जेल में बन्द कर सकती है तथा उसकी स्वतन्त्रता का हनन कर सकती है।

5. मौलिक अधिकारों पर संसद का नियन्त्रण (Control of Parliament Over Fundamental Rights):
भारतीय संविधान के अनुसार, कानून द्वारा निर्धारित ढंग (Procedure Established by Law) की व्यवस्था की गई है। इसके अनुसार मौलिक अधिकारों के बारे में अन्तिम निर्णय संसद के हाथों में है।

संसद जो भी कानून बनाती है, यदि वह संविधान के अनुकूल है, तो उच्चतम न्यायालय उसे वैध मानेगा। इस व्यवस्था की बजाय ‘उचित कानूनी प्रक्रिया’ (Due Process of Law) को अपनाया जाना चाहिए था, जिससे कि मौलिक अधिकारों के बारे में अन्तिम सत्ता उच्चतम न्यायालय के हाथों में होती, परन्तु भारत में कानून द्वारा निर्धारित ढंग अपनाने का मुख्य कारण मुकद्दमेबाजी को कम करना था।

6. न्यायपालिका के निर्णय संसद के कानूनों द्वारा निरस्त (Decisions of Judiciary struck by Parliament):
उच्चतम न्यायालय ने अनेक बार संसद के कानूनों को इस आधार पर निरस्त किया है कि वे कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, परन्तु संसद ने संविधान में संशोधन करके न्यायपालिका द्वारा निरस्त घोषित किए गए कानूनों को वैध तथा सवैधानिक घोषित कर दिया।

7. कठिन भाषा (Difficult Language):
सर आइवर जेनिंग्स (Sir Ivor Jennings) के अनुसार, भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख बहुत कठिन भाषा में किया गया है। इसको साधारण व्यक्ति समझ नहीं सकता। उनका कहना है कि भारतीय मौलिक अधिकारों की भाषा अमेरिका के संविधान की तरह सरल तथा स्पष्ट होनी चाहिए थी।

8. न्याय का महँगा होना (Costly Judicial Remedies):
भारत में न्याय-व्यवस्था वैसे ही महँगी है। इधर मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए व्यक्ति या तो उच्च न्यायालय में या उच्चतम न्यायालय में प्रार्थना-पत्र दे। इसका अर्थ है-बहुत अधिक धन खर्च करना, जो कि साधारण नागरिक के लिए असहनीय है। न्याय-व्यवस्था सरल तथा सस्ती होनी चाहिए। उपर्युक्त मौलिक अधिकारों की आलोचना तथा उसके उत्तर से स्पष्ट है कि जो प्रतिबन्ध इन अधिकारों पर लगाए गए हैं, वे उचित हैं।

प्रश्न 6.
सम्पत्ति के अधिकार पर संक्षिप्त नोट लिखिए। अथवा भारतीय संविधान के अनुसार राज्य किन शर्तों पर व्यक्तिगत सम्पत्ति को ग्रहण कर सकता है?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 31 के अनुसार किसी व्यक्ति को कानून के प्राधिकार (Authority of Law) के बिना उसकी सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता। इस अनुच्छेद के अनुसार ही सार्वजनिक हित के अतिरिक्त किसी सम्पत्ति पर अधिकार नहीं किया जा सकता और ऐसे कानून द्वारा उस सम्पत्ति के प्रति मुआवज़ा देने की व्यवस्था होनी चाहिए अथवा उन सिद्धान्तों का वर्णन होना चाहिए, जिनके आधार पर मुआवजा दिया जाता हो।

प्रथम संशोधन (1951) द्वारा अनुच्छेद 31-A तथा 31-B को अनुच्छेद 31 में जोड़ा गया। अनुच्छेद 31-A द्वारा यह निर्धारित किया गया कि यदि किसी राज्य का कोई कानून (पिछला या भविष्य में) किसी भी सम्पत्ति या जमींदारी प्रथा के मौलिक अथवा मध्यस्थ अधिकार पर प्रभाव डाले या कुछ समय के लिए किसी के अधिकारों को नियन्त्रित करे या उन अधिकारों को समाप्त करे या सार्वजनिक हित में उस सम्पत्ति का उचित प्रबन्ध करने के लिए, कुछ काल के लिए किसी की सम्पत्ति पर कब्जा करे तो ऐसी किसी भी अवस्था में न्यायालय उस राज्य के अधिकार को केवल इस आधार पर अवैध घोषित नहीं करेंगे कि यह अधिकार या कब्जा संविधान के उन अधिकारों के विरुद्ध है जो अनुच्छेद 14, 19 तथा 31 में प्रदान किए गए हैं।

अनुच्छेद 31-B ने संविधान के साथ 9वीं अनुसूची जोड़ी जिसमें जमींदारी प्रथा समाप्त करने सम्बन्धी 13 जमींदारी उन्मूलन कानून दर्ज किए, जिन्हें 31-A उपबन्ध के अभाव में अनुच्छेद 31 के अन्तर्गत न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती थी। इस सूची के लिए व्यवस्था हुई कि ये कानून इस आधार पर अवैध घोषित नहीं किए जाएँगे कि इनका कोई उपबन्ध संविधान के भाग 3 में दिए गए मूल अधिकारों में से किसी के उलट है। अनुच्छेद 31 (B) द्वारा विधानमण्डल (Competent Legislature) की 9वीं सूची में दर्ज किसी भी अधिनियम को समाप्त अथवा संशोधित करने की शक्ति भी मिली।

25वें संशोधन द्वारा ‘मुआवज़ा’ (Compensation) शब्द के स्थान पर ‘रांशि’ (Amount) शब्द का प्रयोग किया गया। ऐसा इसलिए किया गया, ताकि सार्वजनिक हित के लिए प्राप्त सम्पत्ति के बदले दी जाने वाली राशि को इस न्यायालय में चुनौती न दी जा सके कि राशि अपर्याप्त है। 25वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31-C को जोड़ा गया।

44वें संशेधन द्वारा अनुच्छेद 31 को संविधान में से निकाल दिया गया है परन्तु 31-A, 31-B, 31-C को वही रहने दिया गया है। अतः इस संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय में से निकाल दिया गया है और सम्पत्ति का अधिकार केवल कानूनी अधिकार बन गया है। परन्तु इस बात का ध्यान रखा गया है कि सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों से निकालने का प्रभाव अल्पसंख्यकों की संस्थाओं की स्थापना तथा उनके संचालन के अधिकार पर नहीं पड़ना चाहिए। 44वें संशोधन द्वारा संविधान में एक अनुच्छेद 300-A शामिल किया गया है जो यह घोषणा करता है कि कानून के आदेश के बिना किसी को भी उसकी सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का महत्त्व बताइए।
अथवा
नागरिकों की उन्नति और विकास के लिए मौलिक अधिकार क्यों आवश्यक हैं? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मौलिक अधिकारों का महत्त्व (Importance of Fundamental Rights)-व्यक्ति की उन्नति और विकास के लिए मौलिक अधिकारों का बहुत महत्त्व है। यदि व्यक्ति को मौलिक अधिकार प्रदान न किए जाएँ, तो उसके जीवन, सम्पत्ति और स्वतन्त्रता की रक्षा का कोई उपाय न रहे। मौलिक अधिकार सरकार तथा विधानमण्डल को तानाशाह बनने से रोकते हैं. और व्यक्ति को आत्म-विकास का अवसर प्रदान करते हैं। मौलिक अधिकारों का व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के सम्बन्ध में विशेष महत्त्व है। मौलिक अधिकार वास्तव में लोकतन्त्र की आधारशिला हैं। मौलिक अधिकारों के महत्त्व का वर्णन निम्नलिखित है

1. मौलिक अधिकारों द्वारा सामाजिक समानता की स्थापना होती है (Social Equality is Established by the Fundamental Rights):
मौलिक अधिकारों द्वारा सामाजिक समानता की स्थापना होती है। मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के प्रदान किए गए हैं। धर्म, जाति, भाषा, रंग-लिंग आदि के आधार पर सबको सामाजिक समानता प्राप्त हो तथा जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा हो।

मौलिक अधिकार विभिन्न प्रकार की स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं तथा जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा की व्यवस्था करते हैं। समानता, स्वतन्त्रता तथा भ्रातृत्व लोकतन्त्र की नींव हैं। भारतीय संविधान द्वारा ये तीनों प्रकार के मौलिक अधिकार नागरिकों को प्रदान किए गए हैं। अतः इस तरह से भारत में मौलिक अधिकार यहाँ के लोकतन्त्र की आधारशिला हैं।

2. मौलिक अधिकार कानून का शासन स्थापित करते हैं (Fundamental Rights Establish Rule of Law):
भारत में मौलिक अधिकार कानून के शासन की स्थापना करते हैं। मौलिक अधिकारों में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान हैं और सभी को कानून का समान संरक्षण प्राप्त है।

जो व्यक्ति कानून को तोड़ता है, उसे कानून के अनुसार दण्ड दिया जाता है। कानून जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई मतभेद नहीं करता। किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना जीवन और निजी स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जा सकता। शासन कानून के अनुसार चलाया जाता है, न कि किसी व्यक्ति की इच्छानुसार।

3. मौलिक अधिकार सरकार की निरंकुशता को रोकते हैं (Fundamental Rights check the Despotism of the Government):
मौलिक अधिकारों का महत्त्व इस बात में भी निहित है कि ये अधिकार एक ओर तो कार्यकारिणी तथा व्यवस्थापिका को उनके निश्चित अधिकार क्षेत्रों में रहने का निर्देश देते हैं और इस प्रकार अधिकारों को उनके अनुचित हस्तक्षेप से सुरक्षित रखते हैं।

दूसरी ओर ये अधिकार नागरिकों को सरकार के निरंकुश शासन के विरुद्ध जनमत को संगठित करने का अवसर प्रदान करते हैं। श्री ए०एन० पालकीवाला के अनुसार, “मौलिक अधिकार राज्य के निरंकुश स्वरूप से साधारण नागरिकों की रक्षा करने वाले कवच होते हैं।” हमारे देश में केन्द्रीय सरकार व राज्य सरकारें शासन चलाने के लिए अपनी इच्छानुसार कानून नहीं बना सकतीं, बल्कि उन्हें संविधान के अनुसार कार्य करना पड़ता है।

4. मौलिक अधिकार व्यक्तिगत हितों तथा सामाजिक हितों में उचित सामञ्जस्य स्थापित करते हैं (Co-ordinate Individual and Social Interests) मौलिक अधिकारों द्वारा व्यक्तिगत हितों तथा सामाजिक हितों में उचित सामंजस्य स्थापित करने के लिए काफी सीमा तक सफल प्रयास किया गया है।

5. मौलिक अधिकार कानून का शासन स्थापित करते हैं (Fundamental Rights Establish Rule of Law):
मौलिक अधिकारों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि ये कानून के शासन की स्थापना करते हैं, जिससे सबको समान न्याय प्राप्त होता है।

6. मौलिक अधिकार अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करते हैं (Fundamental Rights Protect the interests of Minorities):
अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि तथा संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार दिया गया है। अल्पसंख्यक अपनी पसन्द की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना कर सकते हैं और उनका संचालन करने का अधिकार भी उनको प्राप्त है।

सरकार अल्पसंख्यकों के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगी। निष्कर्ष (Conclusion) यह कहना कि मौलिक अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं है, एक बड़ी मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। सन् 1950 में लीनर नामक पत्रिका ने मौलिक अधिकारों के विषय में कहा था, “व्यक्तिगत अधिकारों पर लेख जनता को कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता की सम्भावना के विरुद्ध आश्वासन देता है। इन मौलिक अधिकारों जिसकी कोई भी बुद्धिमान राजनीतिज्ञ उपेक्षा नहीं कर सकता।” मौलिक अधिकारों का व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के सम्बन्ध में विशेष महत्त्व है। मौलिक अधिकार वास्तव में लोकतन्त्र की आधारशिला हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

प्रश्न 8.
भारतीय संविधान में लिखित मौलिक कर्तव्यों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
अथवा
मौलिक कर्तव्यों से आप क्या समझते हैं? भारतीय संविधान में 42वें संशोधन द्वारा सम्मिलित किए गए मौलिक कर्तव्य कौन-कौन से हैं? इनकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए। आप किन अनुच्छेदों पर इनकी आलोचना कर सकते हैं?
उत्तर:
मौलिक रूप में भारतीय संविधान में अधिकारों सम्बन्धी अनुच्छेद 14 से 32 तक सात प्रकार के मौलिक अधिकार अंकित किए गए थे, परन्तु इन अधिकारों के साथ भारतीय नागरिकों के किसी भी प्रकार के कर्तव्य निश्चित नहीं किए गए थे। काँग्रेस दल के प्रधान श्री डी०के० बरुआ द्वारा सवैधानिक परिवर्तनों के सम्बन्ध में विचार करने के लिए फरवरी, 1976 में एक 9 सदस्यीय समिति नियुक्त की गई थी। इस समिति के अध्यक्ष भारत के भूतपूर्व रक्षा मन्त्री सरदार स्वर्ण सिंह थे।

काफी तर्को के बाद इस समिति ने अपनी रिपोर्ट मई, 1976 में पेश की। अपनी रिपोर्ट में स्वर्ण समिति ने यह सिफारिश की कि भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के साथ-साथ मौलिक कर्तव्यों का भी एक अध्याय शामिल किया जाए। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही संविधान के 42वें संशोधन द्वारा भारतीय संविधान में एक नया भाग 4-A मौलिक कर्तव्य (Part IV-A, Fundamental Duties) अंकित किया गया है। इस नए भाग में भारतीय नागरिकों के दस प्रकार के मौलिक कर्त्तव्य अंकित किए गए हैं। इन दस प्रकार के कर्तव्यों का वर्णन निम्नलिखित है

1. संविधान का पालन तथा राष्ट्र-थ्वज व राष्ट्र-गान का आदर करना (To abide by the Constitution and Respect its Ideals and Institutions like National Flag and National Anthem):
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह संविधान में निहित आदर्शों का पालन करे और देश की सर्वोच्च संस्थाओं, राष्ट्र-ध्वज तथा राष्ट्र-गान का आदर करे। संविधान देश का सर्वोच्च कानून है और इसका पालन करना सरकार का ही नहीं, नागरिकों का भी कर्तव्य है। इसी प्रकार राष्ट्र-गान तथा राष्ट्र-ध्वज का आदर करना भी प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।

2. भारतीय प्रभुसत्ता, एकता व अखण्डता का समर्थन तथा रक्षा करना (To Uphold and protect the Sovereignty unity and Integrity of India): प्रत्येक नागरिक के लिए यह कर्त्तव्य बड़ा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यदि हम इस पर नहीं चलेंगे तो कड़े संघर्ष और बलिदान के बाद प्राप्त हुई स्वतन्त्रता और प्रभुसत्ता खतरे में पड़ सकती है। राष्ट्रीय एकता, देश की अखण्डता और राज्य की प्रभुसत्ता की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।

3. देश की रक्षा करना तथा आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रीय सेवाओं में भाग लेना (To defend the Country and render National Service when called upon to do so):
जिस देश के नागरिक देश की रक्षा के लिए सदैव तैयार रहेंगे, वह देश कभी गुलाम नहीं बन सकता। सबका कर्त्तव्य है कि देश की रक्षा करें और समय आने पर अनिवार्य सेवा के लिए सबको तैयार रहना चाहिए।

4. भारत में सब नागरिकों में भ्रातृत्व की भावना विकसित करना (To promote Spirit of Brotherhood amongest all citizens):
राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए यह लिखा गया है, “प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह धार्मिक, भाषायी तथा क्षेत्रीय या वर्गीय भिन्नताओं से ऊपर उठकर भारत के सब लोगों में समानता तथा भ्रातृत्व की भावना विकसित करे।” नारियों की स्थिति में सुधार लाने के लिए मौलिक कर्तव्यों के अध्याय में अंकित किया गया है कि प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह उन प्रथाओं का त्याग करे जिनसे नारियों का अनादर होता है।

5. स्वतन्त्रता के लिए किए गए राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को मानना तथा उनका प्रसार करना (To accept and follow the Noble Ideals which Inspired our National Struggle for the freedom):
प्रत्येक नागरिक का परम कर्त्तव्य है कि जिन आदर्शों, जैसे स्वतन्त्रता, धर्म-निरपेक्षता, लोकतन्त्र, अहिंसा, राष्ट्रीय एकता, विश्व-बन्धुत्व आदि, के लिए स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा गया और जिनके लिए शहीदों ने अपना बलिदान किया, उन्हें अपनाएँ और उन पर चलते हुए राष्ट्र का विकास करें।

6. लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण फैलाना (To Develop Scientific Attitude in the People):
आधुनिक युग विज्ञान का युग है, परन्तु भारत की अधिकांश जनता आज भी अन्धविश्वासों के चक्कर में फंसी हुई है। उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी है जिस कारण वे अपने व्यक्तित्त्व तथा अपने जीवन का ठीक प्रकार से विकास नहीं कर पाते। इसलिए अब व्यवस्था की है, “प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वैज्ञानिक स्वभाव, मानववाद तथा जाँच करने और सुधार करने की भावना विकसित करे।”

7. प्राचीन संस्कृति की देन को सुरक्षित रखना (To Preserve the Rich Heritage of Composite Culture):
आज आवश्यकता इस बात की है कि युवकों को भारतीय संस्कृति की महानता के बारे में बताया जाए ताकि युवक अपनी संस्कृति पर गर्व अनुभव कर सकें। इसलिए मौलिक कर्तव्यों के अध्याय में यह अंकित किया गया है, “प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह सम्पूर्ण संस्कृति तथा शानदार विरासत का सम्मान करे और उसको स्थिर रखे।”

8. व्यक्तिगत तथा सामूहिक यत्नों के द्वारा उच्च राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के यत्न करना (To Strive towards excellence in spheres of Individual and Collective Activities):
कोई भी समाज तथा देश तब तक उन्नति नहीं कर सकता, जब तक कि उसके नागरिकों में प्रत्येक कार्य को करने की लगन तथा श्रेष्ठता प्राप्त करने की इच्छा न हो। अतः प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है कि वह व्यक्तिगत तथा सामूहिक गतिविधियों के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठता प्राप्त करने का यत्न करे, ताकि उसका उच्च स्तरों के प्रति ज्ञान निरन्तर बढ़ता रहे और राष्ट्र उन्नति के पथ पर अग्रसर हो।

9. वनों, झीलों, नदियों तथा जंगली जानवरों की रक्षा करना तथा उनकी उन्नति के लिए प्रयत्न करना (To protect and improve the National Environment including Forests, Lakes, Rivers and Wildlife and to have compossion for living creatures):
प्रत्येक भारतीय नागरिक का कर्तव्य है कि वनों, झीलों, नदियों तथा वन्य-जीवन सहित प्राकृतिक वातावरण की रक्षा और सुधार करें तथा जीव-जन्तुओं के प्रति दया की भावना रखें।

10. हिंसा को रोकना तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति की रक्षा करना (To safeguard Public Property and Adjure Vio lence) सार्वजनिक सम्पत्ति देश के धन, शक्ति और सम्पन्नता का स्रोत होती है। इसको हानि पहुँचाना एक प्रकार से अपनी सम्पत्ति को हानि पहुँचाना है। हिंसा से नैतिक और मानवीय मूल्यों का पतन होता है तथा देश की प्रगति में बाधा पड़ती है। इसलिए सभी भारतीय नागरिकों का कर्तव्य है कि वे सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करें तथा हिंसा का त्याग करें।

संविधान में मौलिक कर्तव्यों का अंकित किया जाना एक प्रगतिशील कदम है। संविधान में मौलिक कर्त्तव्यों की व्याख्या न होना संविधान की महत्त्वपूर्ण कमी थी, जिसे 42वें संशोधन ने मौलिक कर्तव्यों के अध्याय को शामिल करके दूर किया। कोई देश तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके नागरिक अपने अधिकार की अपेक्षा अपने कर्तव्यों के प्रति अधिक जागृत न हों।

महात्मा गाँधी अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों पर अधिक जोर देते थे। उनका कहना था कि अधिकार कर्तव्यों का पालन करने से प्राप्त होते हैं। मौलिक कर्तव्यों की उपयोगिता एवं महत्त्व (Utility and Importance of the Fundamental Duties) मौलिक कर्त्तव्यों की उपयोगिता एवं महत्त्व निम्नलिखित है

1. मौलिक कर्त्तव्य व्यक्ति के आदर्श व पथ-प्रदर्शक हैं (The Fundamental Duties are the Ideals and Guidelines for the Individual)-भारत के संविधान में सम्मिलित किए गए मौलिक कर्त्तव्य आदर्शात्मक हैं। इन कर्त्तव्यों का उद्देश्य कोई स्वार्थ न होकर नागरिकों के दिलों में देश-हित की भावना जागृत करना है। इसके साथ ही ये कर्तव्य नागरिकों का पथ-प्रदर्शन करते हैं।

आज समाज के चारों तरफ स्वार्थ और भ्रष्टाचार का वातावरण फैला हुआ है तथा व्यक्ति व समाज के हितों में उचित सामंजस्य नहीं है। इसके अतिरिक्त जहाँ व्यक्ति स्वहित को प्राथमिक और समाज के हितों को गौण मानता है तो ऐसे समाज के लिए ये मौलिक कर्तव्य जनता का मार्गदर्शन करते हैं और उनके व्यवहार के लिए आदर्श उपस्थित करते हैं, ताकि वे निजी स्वार्थ की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर सामूहिक हित के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करें।

2. मौलिक कर्त्तव्य नागरिकों में चेतना उत्पन्न करेंगे (The Fundamental Duties will Create Consciousness Among the People):
मौलिक कर्तव्यों को संविधान में सम्मिलित करने से नागरिकों में अपने कर्तव्यों के प्रति चेतना जागृत होगी और लोगों का श्रेष्ठ आचरण सम्भव हो सकेगा। इसके फलस्वरूप व्यक्तिगत उन्नति तथा विकास के साथ-साथ समाज और देश भी प्रगति के पथ पर अग्रसर होंगे।

मौलिक कर्तव्यों को संविधान में सम्मिलित करते समय हमारी स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा था कि अगर लोग मौलिक कर्तव्यों को अपने दिमाग में रख लेंगे तो हम तुरन्त एक शान्तिपूर्ण तथा मैत्रीपूर्ण क्रान्ति देख सकेंगे। अतः इस प्रकार हम देखते हैं कि संविधान में मौलिक कर्त्तव्यों के अंकित किए जाने से ये नागरिकों को सदैव याद दिलाते रहेंगे कि उनके अधिकारों के साथ-साथ कुछ कर्त्तव्य भी हैं।

3. मौलिक अधिकारों की प्राप्ति में सहायक (Helpful in Attaining the Fundamental Rights):
कर्त्तव्यों की तीसरी महत्ता है कि ये भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होंगे क्योंकि कई ऐसे अधिकार हैं जो कर्त्तव्यों को निभाने मात्र से ही प्राप्त हो जाएँगे।

4. मौलिक कर्त्तव्य का नैतिक महत्त्व (Moral Importance of Fundamental Duties):
यद्यपि यह ठीक है कि इन कर्तव्यों के पीछे किसी प्रकार की कानूनी शक्ति नहीं है, फिर भी इनकी नैतिक महत्ता है। कर्तव्यों का नैतिक स्वरूप अपना विशेष महत्त्व रखता है।

5. कमी को पूरा करते हैं (Remove Deficiency):
भारतीय संविधान में मूल रूप से मौलिक कर्तव्यों को शामिल नहीं किया गया था, जिसके कारण भारतीय नागरिक केवल अपने अधिकारों के प्रति ही जागरूक थे तथा अपने कर्तव्यों को भूल गए थे। अतः इन मौलिक कर्त्तव्यों को संविधान में 42वें संशोधन द्वारा शामिल करके इस कमी को पूरा कर दिया गया है। मौलिक कर्त्तव्य प्रारम्भिक कमी को पूरा करते हैं।

6. कर्त्तव्य विवाद रहित हैं (Duties are Non-controversial):
भारतीय संविधान में सम्मिलित किए गए मौलिक कर्त्तव्य विवाद रहित हैं। इस पर विभिन्न विद्वानों में कोई मतभेद नहीं है। सभी विद्वानों ने इन कर्त्तव्यों को भारतीय संस्कृति के अनुकूल बताया है। सभी विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि इन कर्तव्यों का पालन भारतीय विकास में सहायक होगा। मौलिक कर्तव्यों की आलोचना (Criticism of the Fundamental Duties) मौलिक कर्तव्यों की आलोचना इस प्रकार हैं

1. कुछ मौलिक कर्त्तव्य अस्पष्ट हैं (Some of the Fundamental Duties are not Clearly Defined):
आलोचकों का कहना है कि संविधान में ऐसे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, जिनका अर्थ एकदम स्पष्ट हो। परन्तु ‘कर्तव्यों’ वाले भाग में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनका मनमाना अर्थ लगाया जा सकता है, जैसे मिली-जुली संस्कृति (Composite Culture), वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific Temper), अन्वेषण और सुधार की भावना (Spirit of Enquiry and Reform) तथा मानववाद आदि।

कर्तव्यों को लागू करने के लिए कोई दण्डात्मक व्यवस्था नहीं है (There is no Coercive Machinery for the Enforcement of the Duties): स्वर्णसिंह समिति ने यह सुझाव दिया था कि मौलिक कर्तव्यों की अवहेलना करने वालों को दण्ड दिया जाए और उसके लिए संसद उचित कानूनों का निर्माण करे, परन्तु अभी तक ऐसा कुछ नहीं किया गया है। वास्तव में कर्तव्यों के वर्तमान रूप को देखते हुए दण्ड की व्यवस्था की ही नहीं जा सकती। जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है, कर्तव्यों के स्वरूप नितान्त अस्पष्ट हैं, अतः नागरिकों को किस आधार पर दण्ड दिया जा सकता है।।

3. केवल उच्च आदर्श (High Ideals Only):
मौलिक कर्तव्यों की आलोचना तीसरे स्थान पर की जा सकती है कि ये केवल मात्र उच्च आदर्श प्रस्तुत करते हैं। भारत की अधिक जनसंख्या गाँवों में निवास करती है जो इन उच्च आदर्शों को समझने में असमर्थ है।

4. संविधान के तीसरे अध्याय में सम्मिलित होने चाहिएँ (Should have been Included in Chapter No. Three):
मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान के अध्याय चार में शामिल किया गया है, जबकि इन्हें मौलिक अधिकारों वाले अध्याय तीन में ही रखा जाना चाहिए क्योंकि अधिकारों के साथ ही कर्तव्य अच्छे लगते हैं।

5. महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यों का छोड़ा जाना (Some Important Duties have been Left):
मौलिक कर्तव्यों की आलोचना आलोचकों के द्वारा इस आधार पर की गई है कि कई महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यों को कर्तव्यों की सूची में लिखा नहीं गया है, जैसे अनिवार्य मतदान, अनिवार्य सैनिक सेवा, दूसरों के अधिकारों का सम्मान करना आदि को संविधान में शामिल किया जाना चाहिए था। इन कर्तव्यों को सूची से बाहर रखा जाना विचित्र-सा लगता है।

प्रश्न 9.
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। अथवा राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों से क्या अभिप्राय है? निदेशक सिद्धान्तों के स्वरूप का विवेचन कीजिए। अथवा राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों का अर्थ लिखकर उनके स्वरूप की व्याख्या कीजिए। अथवा राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों की प्रकृति का वर्णन करें।
उत्तर:
हमारे संविधान-निर्माताओं ने इस बात को पूरी तरह से ध्यान में रखा और संविधान के चौथे अध्याय (Chapter IV) में कुछ ऐसे सिद्धान्तों का वर्णन किया जो राज्य के पथ-प्रदर्शन का कार्य करते रहें। इन सिद्धान्तों के पीछे कानून की शक्ति नहीं है अर्थात् इन सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता, परन्तु यह बात हमारे संविधान में स्पष्ट शब्दों में कह दी गई है कि राज्य की नीति के इन निदेशक सिद्धान्तों का शासन-व्यवस्था में मौलिक रूप से पालन किया जाएगा। भले ही ये सिद्धान्त कानूनी रूप में लागू न किए जा सकते हों, परन्तु इन्हें व्यवहार में लागू करने के लिए जनमत (Public Opinion) का हाथ अधिक मात्रा में होगा।

हमारे संविधान में इन सिद्धान्तों को राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों (Directive Principles of State Policy) का नाम दिया गया है। इनके नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सिद्धान्त राज्य का पथ-प्रदर्शन करने के लिए बनाए गए हैं। भारतीय संविधान के निर्माताओं का कथन था कि देश में राजनीतिक प्रजातन्त्र के साथ आर्थिक तथा सामाजिक प्रजातन्त्र का होना भी आवश्यक है, तभी राष्ट्र उन्नति कर सकता है।

राज्य-नीति निदेशक सिद्धान्त उन साधनों तथा नीतियों को बताते हैं, जिनका पालन करके भविष्य में भारत में एक क-कल्याणकारी राज्य (Welfare State) की स्थापना की जा सके। एम०बी० पायली के शब्दों में, “सामूहिक रूप से सिद्धान्त लोकतन्त्रात्मक भारत का शिलान्यास करते हैं। ये भारतीय जनता के आदर्शों एवं आकांक्षाओं का वह भाग है जिन्हें वह एक सीमित अवधि के भीतर प्राप्त करना चाहती है।”

दूसरे शब्दों में, राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त वे आदेश-पत्र हैं, जिनको राज्य की व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका को कोई भी कानून या नीति बनाते समय ध्यान में रखना पड़ता है। डॉ० अम्बेडकर (Dr. Ambedkar) ने संविधान सभा में कहा था, “संविधान के इस भाग को अधिनियमित कर भविष्य में सभी व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका को यह निर्देश दिया गया है कि वे किस प्रकार से अपनी शक्तियों का प्रयोग करें।”
निदेशक सिद्धान्तों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. आयरलैण्ड के संविधान से प्रेरित (Inspired from Irish Constitution):
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त आयरलैण्ड के संविधान से प्रेरित कहे जा सकते हैं। आयरलैण्ड के संविधान में भी राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त पाए जाते हैं, परन्तु भारतीय व्यवस्था आयरिश व्यवस्था से कुछ भिन्न; जैसे भारत और आयरलैण्ड में निदेशक तत्त्वों की प्रकृति समान नहीं है तथा भारत में निदेशक तत्त्व राज्य के लिए निर्देश हैं, जबकि आयरलैंड में केवल विधायकों के लिए निर्देश हैं।

2. शासन-व्यवस्था के आधारभूत सिद्धान्त (Fundamental Principles for Governance of the State):
राज्य के निदेशक तत्त्व शासन-व्यवस्था के आधारभूत सिद्धान्त हैं। संविधान की अनुच्छेद 37 में स्पष्ट कहा गया है कि यद्यपि ये सिद्धान्तवाद योग्य नहीं हैं तो भी राज्य के प्रशासन हेतु आधारभूत हैं, जिनके आधार पर राज्य को कानून बनाने चाहिएँ।।

3. समाजवादी व्यवस्था के आधार (Basis of Socialist System):
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त समता पर आधारित समाजवादी व्यवस्था की स्थापना करते हैं जिसमें आर्थिक विषमता व असमानता को दूर करने की बात कही गई है। इसलिए आइवर जेनिंग्स (Ivor Jennings) ने नीति-निदेशक सिद्धान्तों के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा, “संविधान के ये पन्ने समाजवाद शब्द का प्रयोग किए बिना ही लोकतान्त्रिक समाजवाद की पृष्ठभूमि प्रस्तुत करते हैं।”

4. भारतीय सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप (In accordance with Indian Social Background):
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त भारतीय सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप हैं, जैसे इनमें बहुधर्मी समाज होने के नाते समान नागरिक आचार संहिता. गरीबी के दृष्टिकोण से मुफ्त कानूनी सहायता, अनुसूचित जातियों व जनजातियों के विकास के लिए मुफ्त शिक्षा का प्रबन्ध इत्यादि को लागू करने के लिए कहा गया है।

5. व्यापक क्षेत्र (Wide Scope):
निदेशक सिद्धान्तों का क्षेत्र व्यापक है, जिसमें सामाजिक-आर्थिक न्याय से सम्बन्धित तत्त्वों के साथ अन्तर्राष्ट्रीय, गाँधीवादी पंचायत व्यवस्था, मद्य-निषेध, जंगली जीवों व पर्यावरण की रक्षा सम्बन्धी तत्त्व भी पाए जाते हैं। इस प्रकार निदेशक सिद्धान्त समाज के सभी पक्षों सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, पर्यावरण तथा इतिहास से सम्बन्धित हैं।

6. सकारात्मक प्रकृति (Positive Nature):
निदेशक सिद्धान्त की प्रकृति सकारात्मक है जो राज्य को निदेशक तत्त्वों के अनुसार कार्य करने का निर्देश देती है, जैसे राज्य गरीबों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करे, राज्य ऐसी नीतियाँ बनाए, जिनसे सभी नागरिकों को, स्त्री व पुरुषों को समान रूप से जीवनयापन के उचित साधन उपलब्ध हो सकें, इत्यादि।

7. मौलिक अधिकारों के पूरक (Complementary of Fundamental Rights):
नागरिकों को मौलिक अधिकार यथार्थ में तभी प्राप्त हो सकते हैं, जबकि नीति-निदेशक तत्त्वों को लागू किया जाए। राज्य-नीति के निदेशक तत्त्वों में निहित व्यवस्था के अन्तर्गत ही मौलिक अधिकारों की प्राप्ति सम्भव है। इसलिए न्यायपालिका ने बार-बार अनेक निर्णयों में कहा है कि नीति-निदेशक सिद्धान्त मौलिक अधिकारों के पूरक हैं।

8. आदर्शवादी (Idealistic):
नीति-निदेशक सिद्धान्त यथार्थवादी ही नहीं हैं, बल्कि उनमें आदर्श भी निहित हैं, जैसे विश्व-शान्ति का आदर्श, वन्य जीवों की रक्षा का आदर्श इत्यादि।

9. लोक-कल्याणकारी राज्य के आधार (Basis of Welfare State):
अनुच्छेद 38 में प्रतिपादित नीति-निदेशक सिद्धान्त में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य लोगों के कल्याण हेतु ऐसी सामाजिक व्यवस्था करे, जिसमें लोगों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय मिल सके। अनुच्छेद 39 का सम्बन्ध उन नीतियों से है जो लोक-कल्याणकारी राज्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।

10. न्याय-योग्य नहीं (Non-Justiceable):
अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि ये निदेशक सिद्धान्त वाद-योग्य नहीं हैं अर्थात् नागरिक इन तत्त्वों को लागू करवाने के लिए न्यायालय में नहीं जा सकते। न्यायालय सरकार को इन सिद्धान्त को लागू करने लिए निर्देश जारी नहीं कर सकता, लेकिन वाद-योग्य न होने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि नागरिक इन सिद्धान्त के आधार पर किसी कानून तथा शासकीय कार्य को चुनौती नहीं दे सकते और न्यायालय इन सिद्धान्त के आधार पर निर्णय नहीं दे सकते।

नागरिक इन सिद्धान्त के आधार पर कानूनों तथा प्रशासकीय कार्यों को न्यायालय में चुनौती दे सकते हैं और न्यायालय इन सिद्धान्त के आधार पर निर्णय दे सकते हैं, केवल इन सिद्धान्त को लागू करने के लिए निर्देश नहीं दे सकते।

11. ये सिद्धान्त किसी विशेष राजनीतिक विचारअनुच्छेद से सम्बन्धित नहीं हैं (These Principles are not connected with any particular theory):
नीति-निदेशक सिद्धान्तों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि ये किसी विशेष विचारअनुच्छेद से बँधे हुए नहीं हैं। ये सिद्धान्त बहुत लचीले हैं और किसी भी विचारअनुच्छेद के माध्यम से इनकी पूर्ति हो सकती है। वास्तव में राजनीतिक लोकतन्त्र के माध्यम से कल्याणकारी राज्य की स्थापना के प्रयास के कारण इन्हें विचारअनुच्छेदों के बन्धन से मुक्त रखा गया है।

प्रश्न 10.
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त क्या हैं? हमारे संविधान में दिए गए राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए। इन्हें कैसे मनवाया जा सकता है?
अथवा
भारतीय संविधान में दिए गए किन्हीं पाँच राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
संविधान के अध्याय IV में अनुच्छेद 36 से लेकर 51 तक कुल 16 अनुच्छेदों में निदेशक सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। अध्ययन के लिए इन्हें प्रायः तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है-

  • समाजवादी सिद्धान्त (Socialist Principles),
  • गाँधीवादी सिद्धान्त (Gandhian Principles),
  • उदारवादी लोकतन्त्रीय सिद्धान्त (Liberal Democratic Principles)। इन तीन वर्गों में एक और वर्ग भी जोड़ा जा सकता है-
  • अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धी सिद्धान्त (Principles Relating to International Relations) स्मरण रहे कि संविधान में इनका वर्णन इन विभिन्न रूपों में विभाजित करके नहीं किया गया है

1. समाजवादी सिद्धान्त (Socialist Principles)- इस वर्ग के अधीन ऐसे सिद्धान्त रखे जा सकते हैं जिनका उद्देश्य भारत में समाजवादी कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। ऐसे सिद्धान्त हैं-

(1) राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा जिससे
(क) सभी व्यक्तियों को समान रूप से जीविका उपार्जन के पर्याप्त साधन प्राप्त हो सकें,
(ख) समान काम के लिए सभी को समान वेतन मिले,
(ग) देश के भौतिक तथा उत्पादन के साधनों का विभाजन इस प्रकार हो कि सार्वजनिक हित का पालन हो,
(घ) धन का उचित वितरण हो तथा केवल कुछ ही व्यक्तियों के हाथों में धन का केन्द्रीयकरण न हो,
(ङ) मजदूरों, स्त्रियों तथा बालकों की परिस्थितियों का दुरुपयोग न हो और वे अपनी आर्थिक आवश्यकताओं से मजबूर होकर कोई ऐसा कार्य न करें जो उनकी शक्ति से बाहर हो तथा जिससे उनका स्वास्थ्य खराब हो,

(2) मजदूरों को काम करने की न्यायपूर्ण तथा मानवीय परिस्थितियाँ प्राप्त हों तथा स्त्रियों को प्रसति सहायता मिले। राज्य हर प्रकार से यह प्रयत्न करे कि राज्य से बेकारी और बीमारी दूर हो। बूढ़ों और दिव्यांगों को सार्वजनिक सहायता दी जाए,

(3) राज्य में अधिक-से-अधिक नागरिकों के लिए शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था की जाए,

(4) राज्य यह प्रयत्न करेगा कि सभी कर्मचारियों, जो किसी भी उद्योग, कृषि अथवा धन्धे में लगे हों, को काम का उचित वेतन तथा काम की उचित व्यवस्थाएँ उपलब्ध हों, जिनसे वे अपना जीवन-स्तर ऊँचा कर सकें।

2. गाँधीवादी सिद्धान्त (Gandhian Principles)-संविधान-निर्माताओं ने गाँधी जी के विचारों को व्यवहार में लाने के लिए निम्नलिखित सिद्धान्त निदेशक सिद्धान्तों में शामिल किए हैं-
(1) राज्य गाँवों में पंचायतों को संगठित करे तथा उनको इतनी शक्तियाँ दे जिनसे कि वे प्रशासनिक इकाइयों के रूप में सफलतापूर्वक कार्य कर सकें,

(2) राज्य समाज के दुर्बल वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों तथा कबीलों की शिक्षा और आर्थिक उन्नति के लिए प्रयत्न करेगा तथा उन्हें सामाजिक अन्याय एवं शोषप

(3) गाँवों में घरेलू दस्तकारियों की उन्नति के लिए प्रयत्न करेगा,

(4) राज्य नशीली वस्तुओं के सेवन को रोकने का प्रयत्न करेगा,

(5) राज्य कृषि तथा पशुपालन उद्योग का संगठन वैज्ञानिक अनुच्छेदों पर करने का प्रयत्न करेगा। दूध देने वाले पशुओं को मारने पर रोक लगाएगा और पशुओं की नस्ल सुधारने का प्रयत्न करेगा।

3. उदारवादी लोकतन्त्रीय सिद्धान्त (Liberal Democratic Principles)

  • राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए उचित कदम उठाएगा,
  • संविधान के लागू होने के 10 वर्ष के अन्दर-अन्दर राज्य 14 वर्ष के बालकों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध करेगा,
  • राज्य समस्त भारत में सामान्य व्यवहार नियम (Uniform Civil Code) लागू करने का प्रयत्न करेगा,
  • राज्य लोगों के जीवन-स्तर तथा आहार-स्तर को ऊँचा उठाने तथा उनके स्वास्थ्य में सुधार करने का यत्न करेगा,
  • राज्य ऐतिहासिक अथवा कलात्मक दृष्टि से महत्त्व रखने वाले स्मारकों, स्थानों तथा वस्तुओं की रक्षा करेगा और उनको नष्ट होने अथवा कुरूप होने से बचाएगा।

4. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों से सम्बन्धित सिद्धान्त (Principles Relating to International Relations)- नीति-निदेशक सिद्धान्त राष्ट्रीय नीति के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय नीति से भी सम्बन्धित हैं। अनुच्छेद 51 में कहा गया है कि राज्य-

  • अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा को बढ़ावा देगा,
  • राष्ट्रों के मध्य उचित व सम्मानपूर्वक सम्बन्ध बनाए रखेगा,
  • अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि व कानून को सम्मान देगा,
  • अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का मध्यस्थता द्वारा निपटारा करने का प्रयास करेगा।

42वें संशोधन द्वारा राज्य नीति के निदेशक सिद्धान्तों में वृद्धि (Accretion in Directive Principles of State Policy through 42nd Amendment)42वें संशोधन द्वारा राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों में निम्नलिखित नए सिद्धान्त शामिल किए गए हैं

(1) राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार से करेगा जिससे कि बच्चों को स्वस्थ, स्वतन्त्र और प्रतिष्ठापूर्ण वातावरण में अपने विकास के लिए अवसर और सुविधाएँ प्राप्त हों,

(2) राज्य ऐसी कानून प्रणाली के प्रचलन की व्यवस्था करेगा जो समान अवसरों के आधार पर न्याय का विकास करे। राज्य आर्थिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था करने का प्रयत्न करेगा,

(3) राज्य कानून द्वारा या अन्य ढंग से श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्ध में भागीदार बनाने के लिए पग उठाएगा,

(4) राज्य पर्यावरण की सुरक्षा और विकास करने तथा देश के वन और वन्य जीवन को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा।

44वें संशोधन द्वारा राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों का विस्तार किया गया है। 44वें संशोधन के अन्तर्गत अनुच्छेद 38 के अन्तर्गत एक और निदेशक सिद्धान्त जोड़ा गया है। 44वें संशोधन के अनुसार राज्य, विशेषकर आय की असमानता को न्यूनतम करने और न केवल व्यक्तियों में, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों अथवा व्यवसायों में लगे लोगों के समूहों में स्तर, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को दूर करने का प्रयास करेगा।

इस तरह राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त जीवन के पहलू के साथ सम्बन्धित हैं, क्योंकि ये सिद्धान्त कई विषयों के साथ सम्बन्ध रखते हैं, इसलिए स्वाभाविक ही है कि इनको परस्पर किसी विशेष तर्कशास्त्र के साथ नहीं जोड़ा गया है। यह तो एक तरफ का प्रयत्न था कि इन सिद्धान्तों द्वारा सरकार को निर्देश दिए जाएँ, ताकि सरकार उन कठिनाइयों को दूर कर सके जो उस समय समाज में विद्यमान थीं।

प्रश्न 11.
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों की आलोचना किस आधार पर की जाती है?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अध्याय IV में दिए गए निदेशक सिद्धान्तों की आलोचकों द्वारा कटु आलोचना की गई है। इन्हें व्यर्थ व अनावश्यक कहा गया है। संविधान में केवल उन्हीं बातों का वर्णन होता है जिनको व्यवहार में लाया जा सके, परन्तु निदेशक सिद्धान्त ऐसे तत्त्व हैं जिनको तुरन्त व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। सरकार को इन पर चलने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

ये कोरे वायदे हैं जो जनता को धोखा देने के लिए संविधान में रखे गए हैं तथा इनकी वास्तविक उपयोगिता कुछ नहीं है। इनका महत्त्व राजनीतिक घोषणाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। प्रो० व्हीयर (Prof. Wheare) ने इन्हें केवल उद्देश्यों व आकांक्षाओं का घोषणा-पत्र कहा है।

श्री के०टी० शाह (K.T. Shah) के अनुसार, “निदेशक सिद्धान्त उस चैक के समान हैं जिसका बैंक ने अपनी सुविधा के अनुसार भुगतान करना है।” (Directive Principles are like a cheque payable by the bank at its convenience.)

श्री नसीरुद्दीन (Sh. Nasiruddin) ने इनकी तुलना “नए वर्ष के उन प्रस्तावों से की है जो जनवरी के दूसरे दिन ही तोड़े जा सकते हैं।” (New years resolutions which can be broken on the second of January.) आलोचना निम्नलिखित अनुच्छेदों पर की गई है

1. इनके पीछे कानूनी शक्ति नहीं है (They are not backed by Legal Sanctions):
निदेशक सिद्धान्तों के पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं है तथा सरकार को इन पर चलने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इन्हें मौलिक अधिकारों की तरह न्यायालयों द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। ये न्यायसंगत नहीं हैं। इनको व्यावहारिक रूप देना सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है।

2. ये अप्राकृतिक हैं (They are Unnatural):
संविधान में इन सिद्धान्तों का सम्मिलित किया जाना अप्राकृतिक प्रतीत होता है। कोई भी प्रभुत्व-सम्पन्न राज्य अपने आपको इस प्रकार के निर्देश नहीं दे सकता। निर्देश सदा सर्वोच्च सत्ता द्वारा अधीनस्थ सत्ता को दिए जाते हैं, न कि अपने आपको।

3. ये व्यर्थ हैं (They are Superfluous):
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त संविधान की प्रस्तावना में निहित हैं। इनका पृथक् वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। इससे संविधान की जटिलता बढ़ती है।

4. ये स्थाई नहीं हैं (They are not Permanent):
इस प्रकार के सिद्धान्त स्थाई नहीं हो सकते। देश की आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं तथा समय और स्थिति की आवश्यकता के अनुसार सिद्धान्तों को बदलना पड़ता है। यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि जो सिद्धान्त 20वीं शताब्दी में उपयोगी समझे गए हैं, वे 21वीं शताब्दी में भी उपयोगी सिद्ध होंगे।

5. कुछ सिद्धान्त व्यावहारिक नहीं हैं (Some Principles are not Practicable):
निदेशक तत्त्वों में कुछ सिद्धान्त ऐसे हैं, जिनको व्यावहारिक रूप देना कठिन है। उदाहरणतया नशाबन्दी के सिद्धान्त को लागू करने से कई कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। एक ओर सरकार का राजस्व बहुत कम हो जाता है और दूसरी ओर अवैध शराब का निकालना बढ़ जाता है तथा कई कानूनी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। आलोचकों का कहना है कि राज्य द्वारा लागू की गई नैतिकता कोई नैतिकता नहीं होती।

6. ये प्रकृति में विदेशी हैं (They are Foreigner in Nature):
इन सिद्धान्तों पर विदेशी विचारअनुच्छेद का प्रभाव है। सर आइवर जेनिंग्स (Sir Ivor Jennings) के अनुसार, “इन पर इंग्लैण्ड के 19वीं शताबी के फेबियन समाजवाद (Fabian Socialism) का प्रभाव स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। जिन सिद्धान्तों को 19वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में ठीक माना जाता था, उन्हें 20वीं शताब्दी के भारतीय संविधान में स्थान देना प्रगतिशील व्यवस्था नहीं थी। ये सिद्धान्त भारतीय संस्कृति व परम्परा के अनुकूल नहीं हैं।”

इनका सही ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया है (They are not Properly Classified):
डॉ० श्रीनिवासन (Dr. Srinivasan) के अनुसार, “निदेशक सिद्धान्तों का उचित ढंग से वर्गीकरण नहीं किया गया है और न ही उन्हें क्रमबद्ध रखा गया है। इस घोषणा में अपेक्षाकृत कम महत्त्व वाले विषयों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आर्थिक व सामाजिक प्रश्नों के साथ जोड़ दिया गया है। इसमें आधुनिकता का प्राचीनता के साथ बेमेल मिश्रण किया गया है। इसमें तर्कसंगत और वैज्ञानिक व्यवस्थाओं को भावनापूर्ण और द्वेषपूर्ण समस्याओं के साथ जोड़ा गया है।”

8. वे अस्पष्ट व दोहराए गए हैं (They are Vague and Repetitive):
ये सिद्धान्त अस्पष्ट व अनिश्चित हैं। इन्हें बार-बार दोहराया गया है। ये सिद्धान्त संविधान की प्रस्तावना में निहित हैं। डॉ० श्रीनिवासन के अनुसार, “इन्हें उत्साहपूर्ण नहीं कहा जा सकता। ये अस्पष्ट व दोहराए गए सिद्धान्त हैं।” ।

9. ये कोरे वायदे हैं (They are Unused Promises):
आलोचकों का कहना है कि निदेशक सिद्धान्त जनता को धोखा देने का साधन मात्र हैं। ये कोरे आश्वासन हैं जिनसे जनसाधारण को सन्तुष्ट रखने का प्रयास किया गया है। इनके द्वारा भोली-भाली जनता को झुठलाने की कोशिश की गई है।

10. इनमें राजनीतिक दार्शनिकता अधिक है व व्यावहारिक राजनीति कम (They are more a Political Philoso phy than a Practical Politics) ये सिद्धान्त शुद्ध आदर्शवाद प्रस्तुत करते हैं। इनका व्यावहारिक राजनीति से बहुत कम सम्बन्ध है।

प्रश्न 12.
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों की उपयोगिता तथा महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों की उपयोगिता तथा महत्त्व (Utility and Importance of Directive Principles of State Policy)-राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों की काफी आलोचना हुई है और बहुत-से लोगों ने इन्हें केवल नव वर्ष की शुभ कामनाएँ मात्र कहा है, क्योंकि इन्हें लागू करवाने के लिए न्यायालय का द्वार नहीं खटखटाया जा सकता।

ये सरकार की इच्छा पर निर्भर करते हैं, परन्तु इनकी उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता। निदेशक सिद्धान्तों में निहित सामाजिक व आर्थिक लोकतन्त्र के उद्देश्यों को प्राप्त किए बिना भारत में लोकतन्त्र सफल हो ही नहीं सकता। निदेशक सिद्धान्तों की उपयोगिता निम्नलिखित बातों से स्पष्ट होती है

1. ये मौलिक अधिकारों के पूरक हैं (These are Supplement of the Fundamental Rights):
मौलिक अधिकार देश में केवल राजनीतिक लोकतन्त्र (Political Democracy) को स्थापित करते हैं, परन्तु राजनीतिक लोकतन्त्र की सफलता के लिए देश में आर्थिक लोकतन्त्र की व्यवस्था करनी आवश्यक है। आर्थिक लोकतन्त्र के बिना राजनीतिक लोकतन्त्र अधूरा रह जाता है। राजनीतिक लोकतन्त्र में लोगों को राजनीतिक स्वतन्त्रताएँ तो प्राप्त होती हैं, परन्तु उन्हें आर्थिक चिन्ताओं से छुटकारा नहीं मिल पाता।

उन्हें वे सुविधाएँ प्राप्त नहीं होतीं, जिनसे उनका जीवन-स्तर ऊपर उठ सके और वे आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हो सकें। निदेशक सिद्धान्त भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की कमी को दूर करते हैं और उन तत्त्वों को अपनाने के लिए कहते हैं जिन पर चलते हुए इस देश में राजनीतिक लोकतन्त्र के साथ-साथ आर्थिक लोकतन्त्र की भी स्थापना की जा सके।

2. ये सरकारों के लिए निर्देश हैं (They are Directives to Governments):
ये सिद्धान्त केन्द्रीय, राज्य व स्थानीय सरकारों का मागदर्शन करते हैं और उन्हें बतलाते हैं कि संविधान में निश्चित किए गए उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उन्हें क्या-क्या कार्य करने हैं। इन सिद्धान्तों की तुलना 1935 के अधिनियम के अन्तर्गत गवर्नर जनरल व गवर्नरों को जारी किए गए उन निर्देश-पत्रों से की जा सकती है जिनमें उन्हें अपनी शक्तियों का प्रयोग करने के बारे में निर्देश दिए जाते थे।

अन्तर केवल इतना है कि इन निर्देश-पत्रों में निर्देश विधानपालिका व कार्यपालिका दोनों को दिए गए हैं, जबकि नीति निदेशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत निर्देश केवल कार्यपालिका को ही दिए जाते हैं। श्री एम०सी० सीतलवाद (M.C. Setalvad) के अनुसार, “वे संघ में समस्त अधिकारी वर्ग को दिए गए निर्देश-पत्र या सामान्य सिफारिशों के समान प्रतीत होते हैं जो उन्हें उन आधारभूत सिद्धान्तों की याद दिलाते हैं जिनके आधार पर संविधान का उद्देश्य नई सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करना है।”

3. ये राज्य के सकारात्मक दायित्व हैं (They are Positive Obligations of State):
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त राज्य की सकारात्मक ज़िम्मेदारियाँ बतलाते हैं। ग्रेनविल ऑस्टिन (Granville Austin) के शब्दों में, “राज्य के सकारात्मक दायित्व निश्चित करते हुए संविधान सभा के सदस्यों ने भारत की भावी सरकारों को यह ज़िम्मेदारी सौंपी कि वे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सार्वजनिक भलाई के बीच तथा कुछ व्यक्तियों की सम्पत्ति व विशेषाधिकार और सभी लोगों को लाभ पहुँचाने के बीच का मार्ग निकालें, ताकि सभी लोगों की शक्तियों को समान रूप से सभी लोगों की भलाई के लिए प्रयोग किया जा सके।”

4. ये सामाजिक क्रांति का आधार हैं (These are basis of Social Revolution):
राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त नई सामाजिक दशा के सूचक हैं। वे सामाजिक क्रांति का आधार हैं। ग्रेनविल ऑस्टिन (Granville Austin) के अनुसार, “निदेशक सिद्धान्तों में सामाजिक क्रांति का स्पष्ट विवरण मिलता है। वे भारतीय जनता को सकारात्मक अर्थ में स्वतन्त्र करते हैं। वे उन्हें समाज और प्रकृति द्वारा उत्पन्न की गई शताब्दियों की निष्क्रियता से मुक्ति दिलाते हैं। वे उन्हें उन घृणित शारीरिक परिस्थितियों से मुक्त कराते हैं जिन्होंने उन्हें अपने जीवन का सर्वोत्तम विकास करने से रोके रखा था।”

5. इन सिद्धान्तों के पीछे जनमत की शक्ति है (These Principles are backed by Public Opinion):
ये सिद्धान्त न्याय-संगत नहीं हैं, परन्तु इनके पीछे लोकमत की शक्ति है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, कोई भी सरकार लोकमत की अवहेलना नहीं कर सकती। यदि वह ऐसा करेगी तो वह लोगों का विश्वास खो बैठेगी और अगले आम चुनाव में उसकी हार अवश्य होगी।

प्रो० पायली के अनुसार, “ये निर्देश राष्ट्र की आत्मा का आधारभूत स्तर हैं तथा जो इनका उल्लंघन करेंगे, वे अपने आप को जिम्मेदार स्थान (Position of Responsibility) से हटाने का खतरा मोल लेंगे जिसके लिए उन्हें चुना गया है।”

6. ये सरकार की नीतियों में स्थिरता बनाए रखते हैं (These maintain stability in the Policies of Govt.):
संसदीय शासन-प्रणाली में सरकारें बदलती रहती हैं, परन्तु जो भी सरकार सत्तारूढ़ होगी, वह इन सिद्धान्तों पर चलने के लिए बाध्य होगी। इस प्रकार सरकार की मूल नीतियों में निरन्तरता व स्थिरता बनी रहेगी।

7. ये सिद्धान्त शैक्षणिक महत्त्व रखते हैं (These Principles have an Educative Value):
ये सिद्धान्त आने वाली पीढ़ियों के नवयुवकों को इस बात की शिक्षा देंगे कि हमारे संविधान-निर्माता देश में किस प्रकार की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करना चाहते थे तथा इस बारे में क्या कछ किया जा चका है और क्या कछ करना बाकी है। प्रो० एम०वी० पायली (Prof. M.V. Pylee) के अनुसार, “वे भविष्य के नवयुवकों के मन व विचारों में स्थिर व गतिशील राजनीतिक व्यवस्था के मूल तत्त्वों को स्थान देंगे।” .

8. कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक (Helpful for Establishment of a Welfare State):
आज कल्याणकारी राज्य का युग है और इन सिद्धान्तों में ही कल्याणकारी राज्य के आदर्शों की घोषणा की गई है। इन्हें लागू करके ही भारत को एक वास्तविक कल्याणकारी राज्य बनाया जा सकता है। न्यायमूर्ति संपू (Justice Sapru) ने कहा है कि राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों में वे सभी बातें विद्यमान हैं जिनके आधार पर किसी भी आधुनिक जाति में कल्याणकारी राज्य की स्थापना की. जा सकती है।

9. आर्थिक लोकतन्त्र हेत (For Economic Democracy):
आर्थिक लोकतन्त्र के अभाव में राजनीतिक लोकतन्त्र अर्थहीन है। आर्थिक लोकतन्त्र को निदेशक तत्त्वों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। डॉ० अम्बेडकर के शब्दों में, “प्रत्येक सरकार आर्थिक प्रजातन्त्र की स्थापना के लिए प्रयास करेगी। इसी उद्देश्य से संविधान के चौथे भाग में कुछ सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है।”

10. संविधान का पालन (Enforcement of Constitution):
संविधान का पालन निदेशक तत्त्वों के पालन में ही हेत है। डॉ० अल्लादि कृष्णास्वामी का कथन है, “यदि राज्य इन आदर्शों की उपेक्षा करता है तो व्यावहारिक रूप से यह स्वयं संविधान की उपेक्षा करने के समान होगा।”

11. न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शक (Guide for Judiciary):
भारतीय न्यायपालिका ही कानूनों तथा संविधानों की व्यवस्था का अधिकार रखती है। बेशक ये सिद्धान्त न्यायालयों के माध्यम से लागू नहीं करवाए जा सकते, परन्तु इन्होंने कानूनों तथा संविधान की व्याख्या में न्यायपालिका का मार्गदर्शन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णयों में इनका उल्लेख भी कर दिया है।

12. सरकार की नीति में निरन्तरता तथा स्थिरता (Continuity and Stability in Policies of the Government):
वैसे तो जब भी सत्ता में परिवर्तन होता है और दूसरे दल के हाथ में सत्ता आती है तो वह अपनी नीति निश्चित करता है, परन्तु इन सिद्धान्तों के कारण सरकार की नीति में निरन्तरता काफी मात्रा में बनी रहती है और उसे स्थिरता मिलती है क्योंकि प्रत्येक दल जन-कल्याण की नीति अवश्य अपनाता है और ऐसा करते समय उसे इनका सहारा लेना ही पड़ता है।

13. शासकीय कार्यों के मूल्याँकन हेतु मापदण्ड (Measurement for Evaluation of Government’s Functions):
नीति-निदेशक तत्त्व जनता को शासकीय कार्यों के मूल्यांकन के लिए मापदण्ड प्रदान करते हैं जिनके आधार पर जनता शासकीय कार्यों का मूल्यांकन कर सकती है। डॉ० अम्बेडकर के शब्दों में, “यदि कोई सरकार इनकी अवहेलना करती है तो उसे निर्वाचन के समय निर्वाचकों को निश्चित रूप से जवाब देना होगा।”

निष्कर्ष (Conclusion)-निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि भारतीय संविधान में लिखित उद्देश्यों-लोक-कल्याण, लोकतन्त्र, सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, व्यक्ति की गरिमा इत्यादि को नीति-निदेशक तत्त्वों को लागू करके ही प्राप्त किया जा सकता है। वाद-योग्य न होने से इनका महत्त्व कम नहीं हो जाता।

वर्तमान में तो न्यायपालिका भी अपने निर्णय इन सिद्धान्तों के आधार पर देने लगी है। इन्हें उसी प्रकार से भारतीय जनता का समर्थन प्राप्त है, जिस प्रकार इंग्लैण्ड में प्रथाओं को प्राप्त है। भारत का भविष्य इन निदेशक सिद्धान्तों पर ही निर्भर है। एम०सी० छागला (M.C. Chagla) के अनुसार, “यदि इन सिद्धान्तों को ठीक प्रकार से अपनाया जाए तो हमारा देश वास्तव में धरती पर स्वर्ग बन जाएगा।

भारतीयों के लिए लोकतन्त्र तब केवल राजनीतिक अर्थ में ही नहीं होगा, बल्कि यह भारत के नागरिकों के कल्याण के लिए बना एक ऐसा कल्याणकारी राज्य होगा जिसमें कि प्रत्येक व्यक्ति को कार्य करने के लिए शिक्षा प्राप्त करने और अपने श्रम का उचित प्रतिफल पाने का समान अवसर प्राप्त होगा।”

वस्तु निष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. मौलिक अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है-
(A) राष्ट्रपति के द्वारा
(B) संसद के द्वारा
(C) विधानमंडलों के द्वारा
(D) प्रधानमंत्री के द्वारा
उत्तर:
(B) संसद के द्वारा

2. संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की व्यवस्था है
(A) अनुच्छेद 14 से 18 के अंतर्गत
(B) अनुच्छेद 19 से 22 के अंतर्गत
(C) अनुच्छेद 23 से 25 के अंतर्गत
(D) अनुच्छेद 25 से 28 के अंतर्गत
उत्तर:
(D) अनुच्छेद 25 से 28 के अंतर्गत

3. कौन-से संवैधानिक संशोधन द्वारा मौलिक कर्त्तव्य संविधान में अंकित किए गए हैं
(A) 42वें संशोधन द्वारा
(B) 44वें संशोधन द्वारा
(C) 45वें संशोधन द्वारा
(D) 47वें संशोधन द्वारा
उत्तर:
(A) 42वें संशोधन द्वारा

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

4. संविधान के कौन-से भाग में मौलिक कर्त्तव्य अंकित हैं
(A) भाग तृतीय में
(B) भाग चतुर्थ में
(C) भाग चतुर्थ-ए में
(D) भाग पांचवें में
उत्तर:
(C) भाग चतुर्थ-ए में

5. भारतीय नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं
(A) अनुच्छेद 14 से 31
(B) अनुच्छेद 12 से 35
(C) अनुच्छेद 12 से 35
(D) अनुच्छेद 1 से 32
उत्तर:
(C) अनुच्छेद 12 से 35

6. ‘समानता का अधिकार’ (Right to Equality) में सम्मिलित नहीं है
(A) कानून के समक्ष समानता
(B) अवसर की समानता
(C) सामाजिक समानता
(D) आर्थिक समानता
उत्तर:
(D) आर्थिक समानता

7. कौन-से अनुच्छेद द्वारा संसद को मौलिक अधिकारों को सीमित करने की मनाही की गई है?
(A) अनुच्छेद 13 द्वारा
(B) अनुच्छेद 33 द्वारा
(C) अनुच्छेद 35 द्वारा
(D) अनुच्छेद 18 द्वारा
उत्तर:
(A) अनुच्छेद 13 द्वारा

8. निम्नलिखित आदेशों में से कौन-सा आदेश न्यायालय द्वारा गैर-कानूनी ढंग से नजरबन्द किए गए व्यक्ति को छोड़ने के लिए दिया जाता है?
(A) बंदी प्रत्यक्षीकरण
(B) परमादेश
(C) उत्प्रेषण लेख
(D) अधिकार पृच्छा
उत्तर:
(A) बंदी प्रत्यक्षीकरण

9. ‘समानता के अधिकार’ (Right to Equality) की व्यवस्था है
(A) अनुच्छेद 14 से 18 के अंतर्गत
(B) अनुच्छेद 19 से 22 के अंतर्गत
(C) अनुच्छेद 25 से 28 के अंतर्गत
(D) अनुच्छेद 29 से 32 के अंतर्गत
उत्तर:
(A) अनुच्छेद 14 से 18 के अंतर्गत

10. मौलिक अधिकारों वाले अध्याय में स्पष्ट वर्णन नहीं है
(A) विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता का
(B) धार्मिक स्वतंत्रता का
(C) कानून के समक्ष समानता का
(D) प्रेस की स्वतंत्रता का
उत्तर:
(D) प्रेस की स्वतंत्रता का

11. सांस्कृतिक और शिक्षा संबंधी अधिकारों की भारतीय संविधान में व्यवस्था है
(A) अनुच्छेद 31 व 32 के अंतर्गत.
(B) अनुच्छेद 23 व 24 के अंतर्गत
(C) अनुच्छेद 29 व 30 के अंतर्गत
(D) अनुच्छेद 33 व 34 के अंतर्गत
उत्तर:
(C) अनुच्छेद 29 व 30 के अंतर्गत

12. ‘स्वतंत्रता के अधिकार’ (Right to Freedom) में सम्मिलित नहीं है
(A) भाषण देने और विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता
(B) समुदाय बनाने की स्वतंत्रता
(C) कोई कारोबार करने की स्वतंत्रता
(D) हथियारों सहित एकत्र होने और सभा करने की स्वतंत्रता
उत्तर:
(D) हथियारों सहित एकत्र होने और सभा करने की स्वतंत्रता

13. निम्नलिखित में से कौन-सा मौलिक कर्त्तव्य नहीं है?
(A) संविधान का पालन करना
(B) भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखंडता का समर्थन व रक्षा करना
(C) सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना
(D) माता-पिता की सेवा करना
उत्तर:
(D) माता-पिता की सेवा करना

14. निम्नलिखित में से किस आदेश के द्वारा किसी व्यक्ति को उस कार्रवाई को करने से रोक दिया जाता है जिसके लिए वह कानूनी रूप से उपयुक्त नहीं है?
(A) परमादेश
(B) प्रतिषेध
(C) उत्प्रेषण
(D) अधिकार पृच्छा
उत्तर:
(D) अधिकार पृच्छा

15. किसके सुझावानुसार निदेशक सिद्धांत संविधान में अंकित किए गए थे?
(A) डॉ० बी०आर० अंबेडकर
(B) डॉ० राजेंद्र प्रसाद
(C) पं० जवाहरलाल नेहरू
(D) सर वी०एन० राव
उत्तर:
(D) सर वी०एन० राव

16. यह किसने कहा था कि “राज्य-नीति के निदेशक सिद्धांत एक चैक की तरह हैं जिसका भुगतान बैंक की सुविधा पर छोड़ दिया है।”
(A) केन्टी० शाह ने
(B) नसीरुद्दीन ने
(C) डॉ० राजेंद्र प्रसाद ने
(D) श्रीमती इंदिरा गांधी ने
उत्तर:
(A) के०टी० शाह ने

17. संविधान में निदेशक सिद्धांत अंकित करने की प्रेरणा मिली थी
(A) 1935 के भारत सरकार कानून से
(B) ऑस्ट्रेलिया के संविधान से
(C) आयरलैंड के संविधान से
(D) अमेरिका के संविधान से
उत्तर:
(C) आयरलैंड के संविधान से

18. निम्नलिखित में से नीति-निदेशक सिद्धांतों का उद्देश्य कौन-सा है?
(A) पुलिस-राज्य की स्थापना करना
(B) सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना
(C) राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना करना
(D) समाजवादी राज्य की स्थापना करना
उत्तर:
(B) सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना

19. निम्नलिखित निदेशक सिद्धांतों में से कौन-सा उदारवादी है?
(A) काम देने का अधिकार
(B) विश्व-शांति एवं सुरक्षा
(C) समान व्यवहार संहिता
(D) धन केंद्रीकरण पर रोक
उत्तर:
(C) समान व्यवहार संहिता

20. निम्नलिखित निदेशक सिद्धांत सरकार द्वारा अभी तक लागू नहीं किया गया है
(A) पुरुषों तथा स्त्रियों के लिए समान
(B) ग्राम पंचायतों की स्थापना करना कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था
(C) शराब-बंदी लागू करना
(D) कृषि तथा उद्योग को बढ़ावा देने के लिए प्रयत्न करना
उत्तर:
(C) शराब-बंदी लागू करना

21. निम्नलिखित में से किसने नीति-निदेशक सिद्धांतों को संविधान की अनोखी विशेषता कहा है?
(A) श्री वी०एन० राय ने
(B) पंडित जवाहरलाल नेहरू ने
(C) डॉ० बी० आर० अंबेडकर ने
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) डॉ० बी० आर० अंबेडकर ने

22. कौन-से निदेशक सिद्धांतों में भारतीय विदेश नीति के कुछ मूल आधार मिलते हैं?
(A) अनुच्छेद 36 में अंकित निदेशक सिद्धांत में
(B) अनुच्छेद 48 में अंकित निदेशक सिद्धांत में
(C) अनुच्छेद 51 में अंकित निदेशक सिद्धांत में
(D) उपर्युक्त सभी में
उत्तर:
(C) अनुच्छेद 51 में अंकित निदेशक सिद्धांत में

23. “निदेशक सिद्धांतों का कोई महत्त्व नहीं है” यह कथन है
(A) डॉ० बी०आर० अंबेडकर
(B) जैनिंग्स
(C) डॉ० श्रीनिवासन
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(D) इनमें से कोई नहीं ।

24. निम्नलिखित में से कौन-सा सिद्धांत गांधीवादी सिद्धांत है ?
(A) ग्राम पंचायतों और स्वशासन की समाप्ति
(B) स्त्री तथा पुरुषों को समान कार्य के लिए समान वेतन
(C) देश के सभी नागरिकों के लिए आचार संहिता
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) ग्राम पंचायतों और स्वशासन की समाप्ति

25. “राज्य-नीति के निदेशक सिद्धांत नौ वर्षों के प्रस्तावों का संग्रह है।” यह कथन किस विद्वान् का है?
(A) के०सी० ह्वीयर का
(B) नसीरुद्दीन
(C) डॉ० अंबेडकर का
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) नसीरुद्दीन

26. निदेशक सिद्धांतों की आलोचना के संबंध में निम्नलिखित ठीक है
(A) अनिश्चित तथा अस्पष्ट
(B) वैधानिक शक्ति का अभाव
(C) पर्याप्त साधनों का अभाव
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

27. निम्नलिखित निदेशक सिद्धांतों में एक अंतर्राष्ट्रीयवाद संबंधी सिद्धांत है
(A) विश्व-शांति एवं सुरक्षा
(B) ग्राम पंचायतों का संगठन
(C) समान व्यवहार संहिता
(D) समान कार्य, समान वेतन
उत्तर:
(A) विश्व-शांति एवं सुरक्षा

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक वाक्य या एक शब्द में दीजिए-

1. भारतीय संविधान के कौन-से भाग या अध्याय में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई है?
उत्तर:
अध्याय तीन में।

2. मूल अधिकारों का उल्लेख संविधान के किन अनुच्छेदों में किया गया है?
उत्तर:
अनुच्छेद 12 से 35 तक।

3. भारतीय संविधान के किन अनुच्छेदों में ‘स्वतंत्रता के अधिकार’ का उल्लेख है?
उत्तर:
अनुच्छेद 19 से 22 तक।

4. भारतीय संविधान में वर्णित संवैधानिक उपचारों के अधिकार का उल्लेख कौन-से अनुच्छेद में किया गया है?
उत्तर:
अनुच्छेद 32 में।

5. भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना कब की गई?
उत्तर:
अक्तूबर, 1993 में।

6. कौन-से सवैधानिक संशोधन के द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों से निकाला गया?
उत्तर:
44वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा।

7. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के वर्तमान अध्यक्ष कौन हैं?
उत्तर:
पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री एच०एल० दत्तू।

8. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के वर्तमान महासचिव कौन हैं?
उत्तर:
श्री जयदीप गोविंद।

9. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष का कार्यकाल कितना है?
उत्तर:
5 वर्ष या 70 वर्ष की आयु जो भी पहले पूर्ण हो।

10. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष या सदस्य अपना त्यागपत्र किसे सौंपते हैं?
उत्तर:
राष्ट्रपति को।

11. राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों का उल्लेख संविधान के कौन-से अध्याय में किया गया है?
उत्तर:
अध्याय IV में।

रिक्त स्थान भरें

1. भारतीय संविधान के अध्याय ………… में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है।
उत्तर:
III

2. भारतीय संविधान का अध्याय …………. राज्य नीति के निर्देशक सिद्धान्तों से सम्बन्धित है।
उत्तर:
IV

3. भारतीय संविधान में राज्यनीति के निर्देशक सिद्धान्त ………….. के संविधान से प्रेरित होकर सम्माहित किए गए है।
उत्तर:
आयरलैण्ड

4. वर्तमान में ………….. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष हैं।
उत्तर:
श्री एच०एल० दत्तू

5. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष का कार्यकाल ……………. या अधिकतर ……………. तक की आयु तक है।
उत्तर:
5 वर्ष, 70 वर्ष

6. वर्तमान में संविधान में अंकित मौलिक कर्त्तव्यों की संख्या …………. है।
उत्तर:
11

7. भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन ………….. में हुआ।
उत्तर:
1993

8. दक्षिण अफ्रीका का संविधान सन् …………. में लागू हुआ।
उत्तर:
1996

9. भारत में शिक्षा के मूल अधिकार के रूप में …………. संवैधानिक संशोधन द्वारा संवैधानिक रूप दिया गया।
उत्तर:
86वें

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10. संविधान के भाग ……………. में मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया।
उत्तर:
IV क (अनुच्छेद 51क)

11. वर्तमान में ……….. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के महासचिव हैं।
उत्तर:
जयदीप गोविंद

12. …………. ने सवैधानिक उपचारों के अधिकार को संविधान की आत्मा एवं हृदय कहा है।
उत्तर:
डॉ० बी.आर. अम्बेडकर

13. भारतीय संविधान का अनुच्छेद ………….. किसी भी रूप में अस्पृश्यता का निषेध करता है।
उत्तर:
अनुच्छेद 17

14. भारतीय संविधान का अनुच्छेद ………… सामाजिक, शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों हेतु आरक्षण का प्रावधान करता है।
उत्तर:
अनुच्छेद 151

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HBSE 11th Class Political Science भारतीय संविधान में अधिकार Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
निम्नलिखित प्रत्येक कथन के बारे में बताएँ कि वह सही है या गलत
(क) अधिकार-पत्र में किसी देश की जनता को हासिल अधिकारों का वर्णन रहता है।
(ख) अधिकार-पत्र व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
(ग) विश्व के हर देश में अधिकार-पत्र होता है।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) सही,
(ग) गलत।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन मौलिक अधिकारों का सबसे सटीक वर्णन है?
(क) किसी व्यक्ति को प्राप्त समस्त अधिकार
(ख) कानून द्वारा नागरिकों को प्रदत्त समस्त अधिकार
(ग) संविधान द्वारा प्रदत्त और सुरक्षित समस्त अधिकार
(घ) संविधान द्वारा प्रदत्त वे अधिकार जिन पर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।
उत्तर:
(क) किसी व्यक्ति को प्राप्त समस्त अधिकार।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित स्थितियों को पढ़ें। प्रत्येक स्थिति के बारे में बताएँ कि किस मौलिक अधिकार का उपयोग या उल्लंघन हो रहा है और कैसे?
(क) राष्ट्रीय एयरलाइन के चालक-परिचालक दल (Cabin-Crew) के ऐसे पुरुषों को जिनका वजन ज्यादा है-नौकरी में तरक्की दी गई लेकिन उनकी ऐसी महिला सहकर्मियों को, दंडित किया गया जिनका वजन बढ़ गया था।

(ख) एक निर्देशक एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाता है जिसमें सरकारी नीतियों की आलोचना है।

(ग) एक बड़े बाँध के कारण विस्थापित हुए लोग अपने पुनर्वास की माँग करते हुए रैली निकालते हैं।

(घ) आंध्र-सोसायटी आंध्र प्रदेश के बाहर तेलुगु माध्यम के विद्यालय चलाती है।
उत्तर:
(क) राष्ट्रीय एयरलाइन के चालक-परिचालक दल (Cabin-Crew) के ऐसे पुरुषों को जिनका वजन ज्यादा है नौकरी में तरक्की दी गई लेकिन उनकी ऐसी महिला सहकर्मियों को, दंडित किया गया जिनका वजन बढ़ गया था। इस स्थिति में महिला सहकर्मियों के समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 14 के द्वारा सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता तथा कानून के समक्ष समान संरक्षण प्रदान किया गया है।

इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 15 (1) में इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि राज्य किसी नागरिक के धर्म, लिंग, मूलवंश, जाति, जन्म-स्थान या इनमें किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत सभी को अवसर की समानता का अधिकार प्रदान किया गया है तथा राज्य के अधीन किसी पद के सम्बन्ध में किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। उपर्युक्त घटना में महिला कर्मियों के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव किया गया है और उन्हें पदोन्नति से वंचित किया गया। इस प्रकार इनके संविधान द्वारा दिए गए समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है।

(ख) एक निर्देशक एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाता है और इसके माध्यम से वह सरकार की नीतियों की आलोचना करता है। उक्त घटना में एक निर्देशक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के अन्तर्गत दिए गए विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करता है। स्पष्ट है कि इस अधिकार के अन्तर्गत भारत के सभी नागरिकों को अपने विचारों को प्रकट प्रकाशित, प्रचारित एवं आलोचना करने का पूर्ण अधिकार है। अतः उक्त स्थिति में निर्देशक द्वारा मूल अधिकारों का सही उपयोग किया जा रहा है।

(ग) इस घटना में एक बड़े बाँध के कारण विस्थापित हुए लोग अपने पुनर्वास की माँग करते हुए रैली निकालते हैं। स्पष्ट है कि यहाँ पर विस्थापितों द्वारा संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ख) के अन्तर्गत प्रत्याभूत शांतिपूर्ण एवं निरस्र सम्मेलन की स्वतंत्रता का उपयोग किया गया है। अतः विस्थापितों की रैली मूल अधिकारों के अधीन है।

(घ) आंध्र-सोसायटी द्वारा आंध्र प्रदेश के बाहर तेलुगु माध्यम से विद्यालय के चलाए जाने की घटना में अनुच्छेद 30 (1) द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार का उपयोग किया गया है। यहाँ यह स्पष्ट है कि इस अनुच्छेद द्वारा धर्म या भाषा के आधार पर सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि के अनुसार शिक्षा संस्था का गठन करने तथा उनके प्रबन्ध एवं प्रशासन का अधिकार प्राप्त है। अतः आंध्र-सोसायटी द्वारा विद्यालय का संचालन मूल अधिकारों का उपयोग है।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में कौन सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की सही व्याख्या है?
(क) शैक्षिक संस्था खोलने वाले अल्पसंख्यक वर्ग के ही बच्चे इस संस्थान में पढ़ाई कर सकते हैं।

(ख) सरकारी विद्यालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अल्पसंख्यक-वर्ग के बच्चों को उनकी संस्कृति और धर्म-विश्वासों से परिचित कराया जाए।

(ग) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक अपने बच्चों के लिए विद्यालय खोल सकते हैं और उनके लिए इन विद्यालयों को आरक्षित कर सकते हैं।

(घ) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक यह माँग कर सकते हैं कि उनके बच्चे उनके द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थाओं के अतिरिक्त किसी अन्य संस्थान में नहीं पढेंगे।
उत्तर:
(क) उपर्युक्त कथनों में से

(ग) में दिया गया कथन सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की सही व्याख्या करता है, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 29 (1) अल्पसंख्यक वर्गों के हितों के संरक्षण हेतु उन्हें अपनी विशेष भाषा लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार प्रदान करता है एवं अनुच्छेद 30 (1) के अनुसार अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी भाषा, लिपि एवं संस्कृति के विकास के लिए शिक्षण संस्थाओं का गठन और प्रशासन का अधिकार देता है। ऐसी शिक्षण संस्थाओं को सरकार द्वारा आर्थिक सहायता देते समय किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा।

प्रश्न 5.
इनमें कौन-मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और क्यों?
(क) न्यूनतम देय मजदूरी नहीं देना।
(ख) किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाना।
(ग) 9 बजे रात के बाद लाऊड-स्पीकर बजाने पर रोक लगाना।
(घ) भाषण तैयार करना।
उत्तर:
(क) न्यूनतम मज़दूरी न देना ‘शोषण के विरुद्ध अधिकार’ का उल्लंघन है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 23 द्वारा मानव के दुर्व्यापार और बेगार तथा इस प्रकार का अन्य जबरदस्ती लिया जाने वाला श्रम प्रतिबंधित किया गया है। इसका उद्देश्य दुराचारी व्यक्तियों तथा राज्य द्वारा समाज के दुर्बल वर्गों के शोषण की रक्षा करना है।

(ख) इस घटना में मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं हो रहा है। यद्यपि किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाए जाने से उस व्यक्ति के विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन तो होता है, परंतु संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के अनुसार यदि इससे किसी वर्ग या समुदाय-विशेष की भावनाएँ आहत होती हैं या राष्ट्र विरोधी विचार हैं तो सदाचार, शिष्टाचार एवं देशहित के दृष्टिकोण से उन पर प्रतिबंध लगाया जाना कानून के अनुसार सही है।

(ग) उक्त घटना से भी मूल अधिकार का उल्लंघन नहीं हो रहा है क्योंकि रात 9 बजे के बाद लाऊड-स्पीकर पर प्रतिबंध लगाने में भी समाज के व्यापक हितों को ध्यान में रखा जा रहा है। हमें किसी भी कार्य द्वारा दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा पहुँचाने का अधिकार नहीं है।

(घ) किसी नागरिक द्वारा भाषण तैयार करना किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है क्योंकि नागरिकों को अपने विचार अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है।

प्रश्न 6.
गरीबों के बीच काम कर रहे एक कार्यकर्ता का कहना है कि गरीबों को मौलिक अधिकारों की ज़रूरत नहीं है। उनके लिए जरूरी यह है कि नीति-निर्देशक सिद्धांतों को कानूनी तौर पर बाध्यकारी बना दिया जाए। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर:
जैसा कि हम जानते हैं कि मौलिक अधिकारों द्वारा जहाँ एक ओर राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना का प्रयास किया गया है, वहीं नीति-निर्देशक तत्त्वों द्वारा आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना का प्रयास किया गया है। यद्यपि दोनों का उद्देश्य जनकल्याण एवं न्याय की स्थापना करना है। इसके अतिरिक्त मौलिक अधिकारों के पीछे कानून की शक्ति है, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धांतों के पीछे कानून की शक्ति न होकर केवल जनमत एवं नैतिक शक्ति है।

चूँकि नीति-निर्देशक सिद्धांतों में समाज के व्यापक हित एवं जनकल्याण का उद्देश्य निहित है। ऐसी स्थिति में इन्हें कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाकर इन लक्ष्यों की प्राप्ति सुनिश्चित की जा सकती है। अत: इनके प्रभावी क्रियान्वयन द्वारा राज्य के गरीब लोगों संबंधी आदर्शों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करना अधिक सरल होगा।

प्रश्न 7.
अनेक रिपोर्टों से पता चलता है कि जो जातियाँ पहले झाडू देने के काम में लगी थीं उन्हें अब भी मज़बूरन यही काम करना पड़ रहा है। जो लोग अधिकार-पद पर बैठे हैं वे इन्हें कोई और काम नहीं देते। इनके बच्चों को पढ़ाई-लिखाई करने पर हतोत्साहित किया जाता है। इस उदाहरण में किस मौलिक-अधिकार का उल्लंघन हो रहा है?
उत्तर:
उपर्युक्त घटना के सन्दर्भ में वर्णित जातियों के कई मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, जिन्हें हम इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं

1. समानता का अधिकार-उक्त स्थिति में इनके समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है, क्योंकि अधिकार-पद पर बैठे लोग उन्हें कोई और काम नहीं देते हैं। अनुच्छेद 14 के अनुसार भारत के राज्य क्षेत्र में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति कानून के समक्ष समान है। अनुच्छेद 15 के अनुसार किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव निषिद्ध है।

2. स्वतंत्रता का अधिकार-उक्त घटना में इन जातियों को विवश होकर वही कार्य करना पड़ रहा है, क्योंकि वे इसी व्यवसाय को अपनाने के लिए बाध्य हैं। ऐसी स्थिति में उनकी स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन हो रहा है। जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार सभी नागरिकों को अपनी इच्छानुसार वृत्ति, व्यवसाय, व्यापार, आजीविका की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। अतः उपर्युक्त घटना के अन्तर्गत उन जातियों के स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।

3. संस्कृति और शिक्षा का अधिकार-इस घटना में बच्चों को पढ़ाई-लिखाई करने से हतोत्साहित किया जाता है जो संविधान में दिए गए उनके सांस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार का उल्लंघन है। यहाँ यह स्पष्ट है कि संविधान के अनुच्छेद 29 (2) के अनुसार किसी भी व्यक्ति को केवल धर्म, मूलवंश, लिंग, जाति, भाषा के आधार पर राज्य द्वारा घोषित या राज्य विधि से सहायता प्राप्त किसी शिक्षा संस्थान में प्रवेश से वंचित या भेदभाव नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न 8.
एक मानवाधिकार-समूह ने अपनी याचिका में अदालत का ध्यान देश में मौजूद भूखमरी की स्थिति की तरफ खींचा। भारतीय खाद्य-निगम के गोदामों में 5 करोड़ टन से ज्यादा अनाज भरा हुआ था।शोध से पता चलता है कि अधिकांश राशन-कार्डधारी यह नहीं जानते कि उचित-मूल्य की दुकानों से कितनी मात्रा में वे अनाज खरीद सकते हैं। मानवाधिकार समूह ने अपनी याचिका में अदालत से निवेदन किया कि वह सरकार को सार्वजनिक-वितरण-प्रणाली में सुधार करने का आदेश दे।
(क) इस मामले में कौन-कौन से अधिकार शामिल हैं? ये अधिकार आपस में किस तरह जुड़े हैं?
(ख) क्या ये अधिकार जीवन के अधिकार का एक अंग हैं?
उत्तर:
(क) उपर्युक्त वर्णित घटनाओं में संवैधानिक उपचार का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार एवं सूचना का अधिकार सम्मिलित हैं। मानवाधिकार समूह द्वारा अदालत में याचिका दायर करना संवैधानिक उपचार का अधिकार है। भूख से होने वाली मौत उनके जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। राशन कार्डधारी को उचित मूल्य की दुकान से मिलने वाली अनाज की मात्रा का न मालूम होना, उनके सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।

(ख) ये सभी अधिकार अलग-अलग हैं। परंतु इस घटना में ये सभी जीवन के अधिकार के अंग के रूप में जुड़े हुए हैं।

प्रश्न 9.
इस अध्याय में उद्धत सोमनाथ लाहिड़ी द्वारा संविधान-सभा में दिए गए वक्तव्य को पढ़ें। क्या आप उनके कथन से सहमत हैं? यदि हाँ तो इसकी पुष्टि में कुछ उदाहरण दें। यदि नहीं तो उनके कथन के विरुद्ध तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर:
सोमनाथ लाहिड़ी द्वारा संविधान सभा में दिए गए वक्तव्य का विश्लेषण करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को जो भी मौलिक अधिकार दिए गए हैं, वे अपर्याप्त हैं। कई ऐसी बातों की उपेक्षा की गई है जिन्हें मूल अधिकारों में स्थान दिया जाना चाहिए था; जैसे आजीविका का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, चिकित्सा-सुविधा का अधिकार इत्यादि यद्यपि इनमें शिक्षा एवं सूचना के अधिकार को तो मौलिक अधिकारों का रूप दे दिया गया है, लेकिन चिकित्सा-सुविधा के अधिकार इत्यादि को नहीं। जबकि चिकित्सा-सुविधा का अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के साथ जुड़ा हुआ है वहाँ राष्ट्र के सर्वांगीण विकास की आधारशिला भी है।

आलोचकों की दृष्टि में इस अधिकार की उपेक्षा करना गलत है। लाहिड़ी के असंतोष का अन्य कारण यह है कि प्रत्येक मौलिक अधिकार के साथ प्रतिबंध का प्रावधान किया गया है। आलोचकों का मत है कि भारतीय संविधान एक हाथ से मौलिक अधिकार देता हैं तो दूसरे हाथ से इसे छीन लेता है। संविधान द्वारा जिस प्रकार विशेष परिस्थितियों में अलग-अलग प्रतिबंध लगाए गए हैं, उसने मौलिक अधिकारों को एक तरह से व्यर्थ बना दिया है।

सोमनाथ लाहिड़ी का यह कथन है कि-“अनेक मौलिक अधिकारों को एक सिपाही के दृष्टिकोण से बनाया गया है।” संक्षेप में सोमनाथ लाहिड़ी के वक्तव्य से सहमति व्यक्त कर सकते हैं जैसे कि विष्णु कामथ ने मौलिक अधिकारों की आलोचना करते हुए संविधान सभा में कहा था कि-“इस व्यवस्था द्वारा हम तानाशाही राज्य और पुलिस राज्य की स्थापना कर रहे हैं।”

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प्रश्न 10.
आपके अनुसार कौन-सा मौलिक अधिकार सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? इसके प्रावधानों को संक्षेप में लिखें और तर्क देकर बताएँ कि यह क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अध्याय तीन में मौलिक अधिकारों की प्रारम्भिक संख्या 7 थी जोकि बाद में 44वें संशोधन द्वारा सन् 1978 में संपत्ति के अधिकार को समाप्त करने पर मौलिक अधिकारों की संख्या 6 रह गई। इस प्रकार वर्तमान में संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार निम्नलिखित हैं-

  • समानता का अधिकार,
  • स्वतंत्रता का अधिकार,
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार,
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार,
  • सांस्कृतिक और शिक्षा का अधिकार,
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

यहाँ यह स्पष्ट है कि किसी भी अधिकार की उपयोगिता तथा सार्थकता तभी है जब उन्हें कानूनी संरक्षण प्रदान किया जाए। इस क्रम में संवैधानिक उपचारों का अधिकार इस दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है जो संविधान के अनुच्छेद 32 में वर्णित किया गया है। यह अधिकार अन्य मौलिक अधिकारों को न्यायिक संरक्षण प्रदान करता है।

राज्य द्वारा अन्य मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में उच्चतम न्यायालय को इन अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक कानूनी कार्रवाई का अधिकार दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 32 द्वारा दिए गए संवैधानिक उपचारों के अधिकार के तहत कोई भी नागरिक अपने अधिकारों की अवहेलना होने पर न्यायालय में प्रार्थना-पत्र देकर अपने अधिकारों की रक्षा कर सकता है।

ऐसी स्थिति में न्यायपालिका को मूल अधिकारों की रक्षा करने के लिए पाँच प्रकार के लेख जारी करने का अधिकार है जो बंदी-प्रत्यक्षीकरण लेख, परमादेश लेख, प्रतिषेध लेख, उत्प्रेषण और अधिकार पृच्छा लेख हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि संवैधानिक उपचार का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार है। इसी कारण से इस अधिकार को डॉ० भीमराव अंबेडकर ने इसे संविधान की मूल आत्मा कहा है। २७ मा अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न मार कर सकता ।

भारतीय संविधान में अधिकार HBSE 11th Class Political Science Notes

→ राज्य तथा व्यक्ति के आपसी संबंधों की समस्या सदा से ही एक जटिल समस्या रही है और वर्तमान समय की लोकतंत्रीय व्यवस्था में इस समस्या ने विशेष महत्त्व प्राप्त कर लिया है।

→ यदि एक ओर शान्ति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए नागरिकों के जीवन पर राज्य का नियन्त्रण आवश्यक है तो दूसरी ओर राज्य की शक्ति पर भी कुछ सीमाएँ लगाना आवश्यक है, ताकि राज्य मनमाने तरीके से कार्य करते हुए नागरिकों की स्वतंत्रता तथा अधिकारों के विरुद्ध कार्य न कर सके।

→ अधिकारों की व्यवस्था राज्य की स्वेच्छाचारी शक्ति पर प्रतिबंध लगाने का एक श्रेष्ठ उपाय है।

→ मानव इतिहास में सर्वप्रथम 1789 को फ्रांस की राष्ट्रीय सभा ने ‘मानवीय अधिकारों की घोषणा करके राजनीति विज्ञान को क्रांतिकारी सिद्धान्त दिया था।

→ तब से मानवीय अधिकारों का महत्त्व इतना अधिक बढ़ गया है कि आधुनिक युग में शायद ही कोई ऐसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था हो जहाँ के संविधान में इन मानवीय अधिकारों को स्थान नहीं दिया गया हो। भारतीय संविधान निर्माता भी इससे वंचित नहीं रहे।

→ भारत में मौलिक अधिकारों की माँग 1895 ई० में बाल गंगाधर तिलक द्वारा की गई थी। – इसके बाद 1918 में काँग्रेस के अधिवेशन में यह माँग की गई थी कि भारतीय अधिनियम 1919 के द्वारा भारतवासियों को मौलिक अधिकार दिए जाएँ, जिसकी ओर ब्रिटिश शासन ने कोई ध्यान नहीं दिया।

→ सन 1925 में श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने ब्रिटिश सरकार से भारतीयों के लिए अनेक मौलिक अधिकारों की माँग की थी। सन 1928 में नेहरू समिति ने अपनी रिपोर्ट में भारतीयों के लिए ब्रिटिश शासन से अनेक मौलिक अधिकारों की माँग की थी।

→ इन अधिकारों के विषय में विचार लन्दन में हुई गोलमेज कान्फ्रेंस में हुआ। भारत सरकार अधिनियम, 1935 में कुछ अधिकारों को सीमित रूप में मान्यता दी गई।

→ 1946 में जब संविधान सभा गठित हो गई तो मौलिक अधिकारों के संबंध में, सप्रू समिति (Sapru Committee) ने अपने प्रतिवेदन में कहा था, “हमारे विचार से भारत की विशेष परिस्थितियों में यह बहुत जरूरी है कि नए संविधान में मौलिक अधिकार अवश्य शामिल किए जाएँ जिससे देश के अल्पसंख्यक वर्गों को सुरक्षा की गारण्टी देने के साथ-साथ देश के विधानमंडलों, प्रशासनिक विभागों और न्यायालयों में एक समान कार्रवाई की जा सके।”

→ फिर भी भारत के स्वतंत्र होने से पहले मौलिक अधिकार देश के नागरिकों को प्राप्त नहीं थे और भारतीय संविधान द्वारा अपने तीसरे भाग (Part III) में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई है।

→ ये अधिकार व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास के लिए बहुत जरूरी समझकर सभी नागरिकों को दिए गए हैं। अतः सर्वप्रथम यहाँ मौलिक अधिकारों का अर्थ स्पष्ट करना आवश्यक है।

→ तत्पश्चात् भारतीय संविधान में दिए मौलिक अधिकारों का वर्गीकरण एवं अध्याय चार में दिए गए राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्तों पर प्रकाश डालेंगे।

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HBSE 11th Class Physical Education Solutions Chapter 8 मनोविज्ञान एवं खेल मनोविज्ञान

Haryana State Board HBSE 11th Class Physical Education Solutions Chapter 8 मनोविज्ञान एवं खेल मनोविज्ञान Textbook Exercise Questions and Answers.

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HBSE 11th Class Physical Education मनोविज्ञान एवं खेल मनोविज्ञान Textbook Questions and Answers

दीच उत्तरात्मक परन (Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1.मनोविज्ञान के बारे में आप क्या जानते हैं? इसकी मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। अथवा मनोविज्ञान की परिभाषा देते हुए, अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मनोविज्ञान का अर्थ (Meaning of Psychology):
मनोविज्ञान (Psychology) शब्द यूनानी भाषा के दो शब्दों का मेल है। ये दो शब्द ‘साइके’ (Psyche) और ‘लोगस’ (Logos) हैं। साइके का अर्थ है-आत्मा (Soul) और लोगस (Logos) का अर्थ है-बातचीत या विज्ञान । इसलिए ‘Psychology’ का शाब्दिक अर्थ आत्मा का विज्ञान है। प्लेटो (Plato) के अनुसार, “मनोविज्ञान आत्मा का विज्ञान है।” जैसे-जैसे समय बदलता गया, इसके अर्थों में वांछित परिवर्तन आते गए। सबसे पहले मनोविज्ञान को आत्मा का ज्ञान कहा गया (Psychology is the study of soul)।

परंतु इस विचारधारा की मनोवैज्ञानिकों की ओर से आलोचना की गई। फिर मनोविज्ञान को आत्मा की बजाय मन का विज्ञान कहा जाने लगा। 19वीं शताब्दी के मध्य में मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान को चेतना का विज्ञान कहा। उनका मानना था कि चेतना भी मन का एक भाग है। कोई भी व्यक्ति अपनी मानसिक प्रक्रियाओं के बारे में जागृत हो सकता है, परंतु दूसरों के बारे में सचेत होना कोई जानकारी नहीं हो सकती। अंत में मनोविज्ञान को ‘व्यवहार का विज्ञान’ (Science of Behaviour) के रूप में स्वीकार किया गया।

मनोविज्ञान की परिभाषाएँ (Definitions of Psychology): मनोविज्ञान के बारे में विद्वानों ने समय-समय पर अनेक परिभाषाएँ दी हैं जो निम्नलिखित हैं
1. एन० एल० मुन्न (N.L. Munn) के अनुसार, “मनोविज्ञान को व्यवहार का, वैज्ञानिक खोज का अध्ययन कहा जाता है।”
2. जे०एस० रॉस (J.S. Ross) का कथन है, “मनोविज्ञान मानसिक रूप में व्यवहार और स्पष्टीकरण का उल्लेख है।”
3. रॉबर्ट एस० वुडवर्थ (Robert S. Woodworth) के अनुसार, “मनोविज्ञान व्यक्ति की व्यक्तिगत क्रियाएँ, जो पर्यावरण से जुड़ी हुई हैं, उनका अध्ययन करता है।”
4. क्रो व क्रो (Crow and Crow) के अनुसार, “मनोविज्ञान मानवीय व्यवहार और इसके संबंध का विज्ञान है।”
5. वाटसन (Watson) के कथनानुसार, “मनोविज्ञान व्यवहार का सकारात्मक या यथार्थ विज्ञान है।”
6. स्किनर (Skinner) के अनुसार, “मनोविज्ञान जीवन की विविध परिस्थितियों में व्यक्ति की प्रतिक्रियाओं का . अध्ययन करता है।”
7. डब्ल्यू० बी० काल्सनिक व पील्सबरी (W.B. Kalesnik and Pillsbury) के अनुसार, “मनोविज्ञान मानव व्यवहार का विज्ञान है।”
8. आर०एच० थाउलस (R.H. Thoulous) के अनुसार, “मनोविज्ञान मानव अनुभव एवं व्यवहार का यथार्थ विज्ञान है।”

मनोविज्ञान की विशेषताएँ (Features of Psychology): मनोविज्ञान की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार एवं संबंधों की प्रक्रिया है।
(2) यह व्यक्ति के व्यवहार में भिन्नता लाने में सहायक होता है।
(3) यह व्यक्ति के परिवेश के प्रति किए गए व्यवहार का क्रमिक अध्ययन है।
(4) यह मानव के व्यवहार को नियंत्रित रखने की विधि है।
(5) यह व्यक्ति के संवेगात्मक, ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक क्रियाओं का अध्ययन है।
(6) यह व्यक्ति के व्यवहार के विभिन्न पक्षों का विस्तृत अध्ययन है।
(7) यह व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार का सकारात्मक अध्ययन है।
(8) यह न केवल मानव के व्यवहार का अध्ययन है, बल्कि इसमें पशुओं के व्यवहार का भी अध्ययन किया जाता है।
(9) यह सिद्धांतों एवं प्रयोगों का संग्रह है। इसके सिद्धांतों को जीवन में अपनाया जाता है।
(10) इसमें मानवीय व्यवहार के बारे में पूर्वानुमान लगाने का प्रयास किया जाता है।
(11) इसकी विषय-वस्तु या सामग्री में प्रामाणिकता होती है।
(12) इसके प्रत्येक अध्ययन तथ्यों पर आधारित होते हैं।

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प्रश्न 2.
मनोविज्ञान की आवश्यकता एवं महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक युग में मनोविज्ञान प्रभावशाली एवं व्यावहारिक विषय के रूप में प्रकट हुआ है। अनेक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकों; जैसे बिने, साइमन व फ्रायड आदि ने मानवीय व्यवहार की नवीन व्याख्या की है। आज मनोविज्ञान का स्तर निरंतर बढ़ रहा है। आज के भौतिक युग में इसकी बहुत आवश्यकता है, क्योंकि यह निम्नलिखित प्रकार से हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है
(1) मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार के प्रत्येक पक्ष का बारीकी से अध्ययन करता है; जैसे भौतिक व्यवहार, सामाजिक व्यवहार आदि।

(2) मनोविज्ञान ने हमें ऐसे नियम एवं सिद्धांत प्रदान किए हैं जो हमारे जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैं।

(3) मनोविज्ञान हमारे ज्ञान एवं बुद्धि में वृद्धि करता है। इससे हमारी कल्पना-शक्ति, तर्क-शक्ति, स्मरण-शक्ति का विकास होता है, क्योंकि इसमें ज्ञानात्मक एवं तर्कात्मक क्रियाओं पर अध्ययन किया जाता है।

(4) हमें व्यावहारिक कुशलता प्राप्त करने के लिए मनोविज्ञान की बहुत आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि इसमें व्यवहार पर अध्ययन किया जाता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का कोई भी व्यवहार शुद्ध रूप से मनोविज्ञान पर ही आधारित होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि मनोविज्ञान हमें व्यवहार कुशल बनाता है। एक व्यवहार कुशल व्यक्ति ही सफलता प्राप्त कर
सकता है।

(5) शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। आज पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियाँ मनोवैज्ञानिक मान्यताओं के अनुकूल निर्धारित की जाती हैं। अब बच्चों को दण्ड एवं भय के माध्यम से शिक्षित नहीं किया जाता। यदि बच्चा किसी विषय में अरुचि प्रकट करता है तो उसका मनोवैज्ञानिक आधार पर निरीक्षण कर सुधारात्मक उपाय अपनाया जाता है।
आज की शिक्षा बाल-केंद्रित है और ये सब मनोविज्ञान ने ही संभव किया है।

(6) खेलों के क्षेत्र में भी मनोविज्ञान का बहुत महत्त्व है। मनोविज्ञान के नियमों ने खिलाड़ियों को मानसिक एवं संवेगात्मक रूप से प्रभावित किया है। युद्ध के क्षेत्र में भी मनोवैज्ञानिक कुशलता व ज्ञान बहुत उपयोगी होता है। प्रत्येक देश युद्धकाल में विभिन्न मनोवैज्ञानिक तरीकों द्वारा दुश्मन की सेना का मनोबल गिराने और अपनी सेना के मनोबल को बढ़ाने का प्रयास करता है।

(8) मनोविज्ञान की विषय-वस्तु व्यक्ति का व्यवहार है। व्यक्ति का व्यवहार मन द्वारा नियंत्रित होता है। इसलिए मनोविज्ञान में मानव के व्यवहार का अध्ययन वैज्ञानिक विधियों द्वारा किया जाता है। इस प्रकार से हमें इसकी अनेक विधियों की जानकारी प्राप्त होती है।

(9) मनोविज्ञान मन, शरीर और व्यवहार संबंधी प्रतिक्रियाओं के गहन अध्ययन पर प्रकाश डालता है। इसमें व्यवहार, रुचि, विचार, भावना, प्रेरणा, संवेग, कल्पना, दृष्टिकोण, प्रोत्साहन आदि पक्षों पर अध्ययन किया जाता है।

(10) व्यक्तिगत समस्याओं के कारणों और उनके समाधान हेतु मनोवैज्ञानिक ज्ञान बहुत महत्त्वपूर्ण होता है।

(11) मनोविज्ञान ने वैज्ञानिक शोधों के माध्यम से विभिन्न रोगों के उपचार के लिए नवीन विचारधाराओं या दृष्टिकोणों को उत्पन्न किया है।

(12) औद्योगिक, व्यावसायिक, राजनीतिक एवं आर्थिक आदि क्षेत्रों में भी मनोविज्ञान या मनोवैज्ञानिक ज्ञान की आवश्यकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, क्योंकि मनोवैज्ञानिक ज्ञान विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होता है।

निष्कर्ष (Conclusion): उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मनोविज्ञान मानव जीवन के पहले पहलू के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है। आज के भौतिक एवं वैज्ञानिक युग में इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। मनोविज्ञान का क्षेत्र काफी विस्तृत है। यह मानव व्यवहार एवं ज्ञान से संबंधी विभिन्न नियमों एवं सिद्धांतों का संग्रह है। यह मानव व्यवहार, ज्ञान और क्रियाओं की विभिन्न शाखाओं के रूप में लागू होता है। खेलों के क्षेत्र में भी मनोविज्ञान के सिद्धांतों एवं नियमों को लागू किया जा सकता है।

प्रश्न 3.
मनोविज्ञान को परिभाषित कीजिए। इसका शिक्षा के क्षेत्र में क्या योगदान है?
अथवा
मनोविज्ञान को परिभाषित कीजिए। शिक्षा व मनोविज्ञान में क्या संबंध है?
उत्तर:
मनोविज्ञान की परिभाषाएँ (Definitions of Psychology): विद्वानों ने मनोविज्ञान को इस प्रकार परिभाषित किया है।

1. रॉबर्ट एस० वुडवर्थ (Robert S. Woodworth) के अनुसार, “मनोविज्ञान व्यक्ति की व्यक्तिगत क्रियाएँ, जो पर्यावरण से जुड़ी हुई हैं, उनका अध्ययन करता है।”
2. क्रो व क्रो (Crow and Crow) के अनुसार, “मनोविज्ञान मानवीय व्यवहार और इसके संबंध का विज्ञान है।”

शिक्षा और मनोविज्ञान में संबंध (Relation between Education and Psychology):
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। मनोविज्ञान का उद्देश्य व्यक्ति के व्यवहारों का अध्ययन करना है। व्यक्ति का सर्वांगीण विकास तब तक संभव नहीं, जब तक उसके व्यवहारों का पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। शिक्षा व मनोविज्ञान में परस्पर गहरा संबंध है। मनोविज्ञान ने शिक्षा के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण योगदान दिए हैं। इसके द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न बदलाव हुए हैं। शिक्षण की अधिकांश गतिविधियाँ या विधियाँ इससे संबंधित हैं। बी०एन० झा (B.N. Jha) के मतानुसार, “शिक्षा जो कुछ करती है और जिस प्रकार वह किया जाता है, उसके लिए इसे मनोवैज्ञानिक खोजों पर निर्भर रहना ‘पड़ता है।”

प्राचीनकाल में शिक्षण विधियों में बच्चों की विभिन्न अवस्थाओं की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था। शिक्षण अध्यापक केंद्रित होता था। वे बच्चों को दण्ड आदि देकर पढ़ाते थे, लेकिन आधुनिक समय में शिक्षण बाल केंद्रित हो गया है। अब अध्यापकों द्वारा छात्रों को दण्ड नहीं दिया जाता। वर्तमान में अध्यापकों द्वारा विद्यार्थियों के प्रत्येक पक्ष की ओर ध्यान दिया जाता है। इस बदले हुए दृष्टिकोण के अंतर्गत शिक्षण विधियों में छात्रों की रुचियों, आवश्यकताओं, अभिवृत्तियों आदि पर विशेष ध्यान दिया जाता है अर्थात् शिक्षण विधियाँ छात्रों की आवश्यकताओं एवं रुचियों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं।

परन्तु अध्यापक तभी छात्रों के सर्वांगीण विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है जब वह मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर सीखाने की क्रियाओं का कुशल से संचालन करने में सक्षम होगा अर्थात् उसके लिए मनोविज्ञान का ज्ञान बहुत आवश्यक है। इस प्रकार मनोविज्ञान शिक्षा के हर पहलू या पक्ष को प्रभावित करता है ; जैसे शिक्षण विधियों, शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम में सुधार व बच्चों की विभिन्न अवस्थाओं आदि में महत्त्वपूर्ण योगदान देना। इस संदर्भ में डेविस (Davis) ने कहा है-मनोविज्ञान ने छात्रों की क्षमताओं व विभिन्नताओं का विश्लेषण करके शिक्षा के लिए विशिष्ट योगदान दिया है। इसी प्रकार स्किनर (Skinner) ने मनोविज्ञान को शिक्षा का आधारभूत विज्ञान कहा है।

अतः उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि शिक्षा व मनोविज्ञान का परस्पर गहरा संबंध है। दोनों का बालक के विकास में विशेष महत्त्व है। शिक्षा की प्रत्येक प्रक्रिया मनोविज्ञान पर निर्भर है। इसकी मदद से ही विद्यार्थियों की रुचियों, इच्छाओं व आवश्यकताओं के अनुसार उन्हें उचित शिक्षा प्रदान की जा सकती है और उनका सर्वांगीण विकास किया जा सकता है।

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प्रश्न 4.
खेल मनोविज्ञान क्या है? खेलों या शारीरिक शिक्षा में इसका क्या महत्त्व है?
अथवा
खेल मनोविज्ञान को परिभाषित कीजिए। खेलों में इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
खेल मनोविज्ञान का अर्थ (Meaning of Sports Psychology):
मनोविज्ञान, वास्तव में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं विस्तृत विषय है। यह विषय, मानव ज्ञान और क्रियाओं की सभी शाखाओं में पूर्ण रूप से लागू होता है। मनोविज्ञान का संबंध मनुष्य के शरीर और मन की सुयोग्यता से होता है जबकि खेल मनोविज्ञान, जिसका प्रयोग शारीरिक शिक्षा एवं खेलों में होता है, का संबंध मानव के शरीर की योग्यता पर निर्भर करता है जोकि खेलकूद के द्वारा अर्जित की जा सकती है। इसलिए यह कहना बिल्कुल उचित होगा कि खेल मनोविज्ञान, व्यक्ति के चहुंमुखी विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। अतः हमारे लिए खेल मनोविज्ञान के वास्तविक अर्थ को समझना अति-आवश्यक है।

खेल मनोविज्ञान की परिभाषाएँ (Definitions of Sports Psychology): निम्नलिखित परिभाषाओं के द्वारा हम खेल मनोविज्ञान के वास्तविक अर्थ को अच्छी तरह से समझ सकते हैं
1. जॉन लोथर (John Lauther):
के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान वह क्षेत्र है, जो मनोवैज्ञानिक तथ्यों, सीखने के सिद्धांतों, प्रदर्शनों तथा खेलकूद में मानवीय व्यवहार के संबंधों में लागू होता है।”

2. के०एम० बर्नस (K.M. Burns):
के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान, शारीरिक शिक्षा की वह शाखा है जिसका संबंध व्यक्ति की शारीरिक योग्यता से होता है, जोकि खेलकूद में भाग लेने से आती है।”

3. आर०एन० सिंगर (R.N. Singer):
के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान एथलेटिक्स में व्यक्ति के व्यवहार की खोजबीन करता है।”

4. क्लार्क व क्लार्क (Clark and Clark):
के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान एक व्यावहारिक मनोविज्ञान है। यह व्यक्तियों, खेलों तथा शारीरिक क्रियाओं के प्रेरणात्मक या संवेगात्मक पहलुओं से अधिक संबंधित है। इसमें प्रायः उन सभी विधियों का प्रयोग होता है जो मनोविज्ञान में प्रयोग की जाती हैं।”

5. वेनबर्ग (Weinberg):
के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान लोगों के अध्ययन तथा खेल व व्यायाम संबंधी गतिविधियों में उनके व्यवहार और ज्ञान का व्यावहारिक अनुप्रयोग है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि खेल मनोविज्ञान, खेलकूद के अंतर्गत खिलाड़ियों के व्यवहार एवं अनेक मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अध्ययन है। यह मनोवैज्ञानिक और मानसिक कारकों का अध्ययन है जो भागीदारी, खेलने में प्रदर्शन और शारीरिक गतिविधियों से प्रभावित होते हैं।

शारीरिक शिक्षा या खेलों में खेल मनोविज्ञान का महत्त्व (Importance of Sports Psychology in Physical Education or Sports): शारीरिक शिक्षा या खेलकूद में खेल मनोविज्ञान का महत्त्व अथवा उपयोगिता निम्नलिखित है

(1) खेल मनोविज्ञान खेल प्रतियोगिताओं में शामिल खिलाड़ियों के व्यवहार को समझने में सहायता करता है।
(2) यह खेलों में खिलाड़ियों की क्रियात्मक क्षमताओं या योग्यताओं को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।
(3) यह खिलाड़ियों की भावनात्मक या संवेगात्मक समस्याओं को नियंत्रित करने में सहायक होता है।
(4) यह खेलों में खिलाड़ियों के खेल-स्तर को ऊँचा उठाने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।
(5) यह खिलाड़ियों के गतिपरक कौशल को बढ़ाने में सहायक होता है।
(6) यह खिलाड़ियों की अनेक मानसिक समस्याओं को दूर करने में सहायक होता है।
(7) यह खिलाड़ियों में अनेक सामाजिक गुणों का विकास करने में भी सहायक होता है।
(8) यह खिलाड़ियों को प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने हेतु मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(9) यह खिलाड़ियों के व्यवहार और शारीरिक सुयोग्यता में सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(10) यह खेल के विभिन्न मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अध्ययन करता है और उनमें सुधार करने में सहायक होता है।
(11) इसमें खिलाड़ियों की अभिप्रेरणाओं और उपलब्धियों का मनोवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है।

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प्रश्न 5.
अभिप्रेरणा की अवधारणा से आप क्या समझते हैं? इसके प्रकारों का विस्तार से वर्णन करें। अथवा अभिप्रेरणा को परिभाषित कीजिए। इसके प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
अभिप्रेरणा की अवधारणा (Concept of Motivation):
अभिप्रेरणा या प्रेरणा शब्द लातीनी भाषा के शब्द ‘Movere’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘to change’ तथा ‘to move’ जब यह कहा जाता है कि कोई किसी काम के प्रति प्रेरित हो गया है तो उसका अर्थ यह होता है कि उसकी आंतरिक शक्ति ने उसको उत्साहित किया है। इस शक्ति के कारण ही मनुष्य अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहता है और अंत में सफलता प्राप्त कर लेता है। अतः मनुष्य का प्रत्येक कार्य किसी-न-किसी प्रेरणा या अभिप्रेरणा से संचालित होता है। छात्र इसलिए पढ़ाई करते हैं ताकि वे पढ़ाई में पास होकर अच्छी नौकरी या व्यवसाय हासिल करें। अभिप्रेरणा ही किसी व्यक्ति को उद्देश्य या लक्ष्य की ओर ले जाने का कार्य करती है।

व्यक्ति की बहुत-सी जरूरतें होती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए विभिन्न प्रेरक सहायक होते हैं। इन प्रेरकों के कारण व्यक्ति अधिक प्रयत्नशील हो जाता है। अभिप्रेरणा को सीखने का हृदय (Heart of Learning) तथा सीखने की सुनहरी सड़क (Golden Road of Learning) कहा जा सकता है, क्योंकि यह सीखने की प्रक्रिया है। प्रशिक्षण कोई भी हो, चाहे वह खेलों का क्षेत्र हो या विद्या का, अभिप्रेरणा हर क्षेत्र में अपना विशेष योगदान देती है। इसी कारण ही अभिप्रेरणा अधिक महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। अत: अभिप्रेरणा वह शक्ति है जो मनुष्य में क्रिया सीखने की रुचि को उत्साहित करती है। यह शक्ति चाहे मनुष्य के अंदर से हो अथवा बाहर से उसको सीखने में मुख्य भूमिका निभाती है।

अभिप्रेरणा की परिभाषाएँ (Definitions of Motivation): विद्वानों ने अभिप्रेरणा को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है
1. बी०सी० राय (B.C. Rai):
के कथनानुसार, “अभिप्रेरणा एक ऐसी मनोवैज्ञानिक और शारीरिक स्थिति पैदा करती है जिसके प्रयत्नों से आवश्यकता और इच्छा पूरी होती है।”

2. पी०टी० यंग (P.T. Young):
के अनुसार, “अभिप्रेरणा आगे बढ़ रही क्रिया को जागृत, आगे बढ़ाने और उस क्रिया को आदर्श रूप में क्रमबद्ध करने की प्रक्रिया है।”

3. सैज (Sage):
के कथनानुसार, “एक मनुष्य जितनी शक्ति तथा दिशा से प्रयत्न करता है, उसे प्रेरणा कहा जाता है।”

4. क्रो व क्रो (Crow and Crow):
के अनुसार, “अभिप्रेरणा का संबंध सीखने में रुचि पैदा करने से है तथा अपने इसी रूप में यह सीखने का मूल आधार है।”

5. रॉबर्ट एस० वुडवर्थ (Robert S. Woodworth):
के अनुसार, “अभिप्रेरणा व्यक्ति की वह मनोवैज्ञानिक दशा है जो किसी निश्चित लक्ष्य की पूर्ति हेतु उसे एक निश्चित व्यवहार करने के लिए बाध्य करती हैं।”

6. आर०एन० सिंगर (R.N. Singer):
के अनुसार, “अभिप्रेरणा या प्रेरणा व्यक्ति में क्रिया के लिए उत्तेजन का सामान्य स्तर होता है।”

7. ब्लेयर जॉन्स व सिम्पसन (Blair Jones and Simpson):
के अनुसार, “अभिप्रेरणा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सीखने वाले की आंतरिक शक्तियाँ अथवा आवश्यकताएँ उसके वातावरण में निहित विभिन्न लक्ष्य बिंदुओं की ओर अग्रसर रहती हैं।”

8. मॉर्गेन (Morgan):
के अनुसार, “अभिप्रेरणा से तात्पर्य उन प्रेरक एवं चालक शक्तियों से है जिनके द्वारा व्यवहार को विशेष लक्ष्यों की ओर मोड़कर एक स्थायी रूप प्रदान किया जाता हैं।”

अभिप्रेरणा के प्रकार (Types of Motivation): अभिप्रेरणा मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है जो इस प्रकार है
1. आंतरिक अथवा प्राकृतिक अभिप्रेरणा (Intrinsic or Natural Motivation):
आंतरिक अभिप्रेरणा को प्राकृतिक प्रेरणा भी कहा जाता है। इस प्रेरणा का संबंध प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति की प्राकृतिक इच्छाओं, स्वभाव तथा आवश्यकताओं से जुड़ा हुआ है। कोई भी प्रेरित व्यक्ति किसी काम को इसलिए करता है क्योंकि उसको आंतरिक प्रसन्नता व खुशी मिलती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी विद्यार्थी को गणित की किसी समस्या को हल करके प्रसन्नता मिलती है तो उस समय वह आंतरिक प्रेरणा से प्रेरित होता है। ऐसी स्थिति में प्रसन्नता का स्रोत क्रिया में छिपा होता है। शिक्षा की प्रक्रिया में इस प्रकार की प्रेरणा का बहुत महत्त्व होता है, क्योंकि इससे प्राकृतिक रुचि पैदा होती है जो अंत तक बनी रहती है। कुछ आंतरिक अथवा प्राकृतिक अभिप्रेरणाएँ निम्नलिखित हैं

(1) नकल करने की अभिप्रेरणा (Imitative Motivation): किसी अच्छे खिलाड़ी का खेल से सीखना आदि।
(2) भावनात्मक अभिप्रेरणा (Emotional Motivation): स्नेह, सुरक्षा, सफलता आदि।
(3) भीतरी अभिप्रेरणा (Internal Motivation): इच्छा, शौक आदि।
(4) शारीरिक अभिप्रेरणा (Physical Motivation): भूख, प्यास, कार्य आदि।
(5) सामाजिक अभिप्रेरणा (Social Motivation): सहयोग, सामाजिक आवश्यकताएँ आदि।
(6) स्वाभाविक अभिप्रेरणा (Natural Motivation): आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास आदि।

2. बाहरी या कृत्रिम अभिप्रेरणा (Extrinsic or Artificial Motivation):
बाहरी अभिप्रेरणा अप्राकृतिक अथवा कृत्रिम होती है। इस अभिप्रेरणा में प्रसन्नता का स्रोत कार्य में नहीं छिपा होता। इसमें मनुष्य मानसिक प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए कोई कार्य नहीं करता, अपितु उद्देश्य की प्राप्ति अथवा इनाम जीतने के लिए कार्य करता है। कोई अच्छा स्तर हासिल करना, आजीविका कमाने के लिए कार्य सीखना, प्रशंसा हासिल करने के लिए कार्य करना आदि क्रियाएँ इस अभिप्रेरणा वर्ग में आती हैं।
(1) इनाम (Awards): आर्थिक वस्तुएँ; जैसे बैग, टेबल लैंप, सुंदर तस्वीरें आदि।
(2) सामाजिक इनाम (Social Rewards): नौकरी, उन्नति, प्रमाण-पत्र आदि।
(3) प्रतियोगिताएँ (Competitions): टूर्नामेंट आदि।
(4) सुनने-देखने की सामग्री (Audio-Visual Aids): फिल्में, तस्वीरें आदि।
(5) दंड (Punishment): जुर्माना, डर और शारीरिक दंड आदि।
(6) सहयोग (Co-operation): आपसी सहयोग, सामूहिक सहयोग आदि।
(7) लक्ष्य (Goal): पदोन्नति, प्रशंसा, पुरस्कार आदि।

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प्रश्न 6.
खेल कुशलता में अभिप्रेरणा के योगदान का वर्णन करें।
अथवा
आप एक बिना रुचि वाले खिलाड़ी को खेल निपुणता प्रशिक्षण हेतु कैसे प्रेरित करेंगे?
अथवा
खिलाड़ियों को प्रेरित करने के तरीकों या उपायों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
किसी भी क्षेत्र में चाहे वह खेलों का हो अथवा विद्या अथवा खोज का, अभिप्रेरणा बहुत बड़ा स्रोत बनकर उभरती है। खेलों में अभिप्रेरणा का बहुत बड़ा योगदान है। अच्छी खेल निपुणता या कुशलता के लिए प्रेरणा बहुत ज़रूरी है। यह एक ऐसी शक्ति है जो खिलाड़ी के निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने में सहायता प्रदान करती है। अच्छी खेल निपुणता या कुशलता के लिए बहुत सारे पक्षों का होना ज़रूरी होता है; जैसे अच्छा व्यक्तित्व, वातावरण, स्वभाव और प्रेरणा आदि। परंतु इन सभी के होते हुए भी प्रेरणा की मुख्य भूमिका होती है। इस प्रकार उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए खिलाड़ियों में प्रेरणा उनको अपने खेल के स्तर को ऊंचा उठाने और सुधारने में सहायता करती है।

अभिप्रेरणा सिर्फ अच्छी खेल कुशलता के लिए ज़रूरी नहीं है, अपितु यह कठिन प्रशिक्षण के समय भी बहुत ज़रूरी है। प्रत्येक खिलाड़ी में सर्वोत्तम स्तर भिन्न-भिन्न होता है, परंतु सर्वोत्तम प्रेरणा खेल निपुणता में वृद्धि पैदा करती है। सर्वोत्तम प्रेरणा के कारण ही खिलाड़ी निडरता, बहादुरी और साहस से निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि खेल कुशलता के लिए प्रेरणा की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण तथा लाभदायक होती है। खेलों में किसी व्यक्ति को प्रेरित करना आज के युग में काफी मुश्किल है, क्योंकि खेलें शारीरिक क्रियाओं पर आधारित होती हैं।

खिलाड़ी सुबह-शाम शारीरिक क्रियाओं में भाग लेते हैं। उन पर शारीरिक दबाव के साथ-साथ मानसिक और भावात्मक दबाव भी बढ़ते हैं। इन परिस्थितियों में खिलाड़ी को प्रेरित करना शारीरिक शिक्षा के अध्यापक और कोच की योग्यता पर निर्भर करता है; जैसे उसका आचरण, प्रशिक्षण के आधुनिक ढंगों से परिचित होना। खिलाड़ी को प्रेरित करने के लिए अग्रलिखित तरीके या उपाय अपनाए जा सकते हैं

1. दूसरे अच्छे खिलाड़ियों का खेल देखकर प्रेरित होना (To motivate By Watching the Game of Other Good Players):
आधुनिक युग में खिलाड़ी को खेलों के प्रति प्रेरित करने में टी०वी०, अखबारों, समाचार-पत्रों, रेडियो आदि का बहुत अधिक योगदान रहा है। आजकल क्रिकेट के खेल का बोलबाला है। किसी भी अंतर्राष्ट्रीय मैच वाले दिन बच्चे, जवान, बूढ़े सभी टी०वी० के आगे बैठकर मैच का आनंद उठाते हैं। मैच के बाद बच्चे बैट और बॉल लेकर अच्छे खिलाड़ियों की नकल करते हैं और उन जैसा खेलना पसंद करते हैं। अच्छे खिलाड़ियों का खेल देखकर बच्चे जल्दी प्रेरित होते हैं।

2. खिलाड़ी की लोकप्रियता (Publicity of Player):
कोई भी व्यक्ति जब अपने किए हुए कार्यों की प्रशंसा दूसरों के मुँह से सुनता है तो वह फूला नहीं समाता। जब कोई खिलाड़ी अपने खेल का प्रदर्शन भिन्न-भिन्न माध्यमों द्वारा सुनता है तो गर्व अनुभव करता है। कोई भी खिलाड़ी अपने-आप ही नहीं, बल्कि दूसरे व्यक्तियों द्वारा अपनी उपलब्धियों को सुनकर और देखकर प्रेरित होता हैं।

3. प्रगति और अच्छे परिणामों का रिकॉर्ड रखकर (Maintaining the Record of Progress and Good Results):
खिलाड़ी प्रगति और अपने अच्छे परिणामों का रिकॉर्ड देखकर प्रेरित होता है। जब वह अपनी लगातार बढ़ती हुई प्रगति को देखता है तो वह और भी उत्साहित हो जाता है। इस प्रकार वह अधिक-से-अधिक अभ्यास करता है और राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों में जीत प्राप्त करने को ही अपना उद्देश्य बना लेता है। इसलिए शारीरिक शिक्षा के अध्यापक और कोच को चाहिए कि वे उसके प्रत्येक स्तर के मुकाबलों में की गई प्रगति और अच्छे परिणामों का रिकॉर्ड रखें।

4. शारीरिक शिक्षा के अध्यापक और कोच का व्यक्तित्व और आचरण (Personality and Character of Physical Education Teacher and Coach):
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक और कोच के व्यक्तित्व और आचरण का खिलाड़ी पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। खिलाड़ी अपना काफी समय अध्यापक और कोच के साथ बिताता है। इसलिए उनके गुणों और अवगुणों का उस पर प्रभाव पड़ता है। यदि कोच का व्यवहार, बोलने का तरीका और उसके प्रशिक्षण का ढंग आकर्षक हो तो वह खिलाड़ी के लिए अभिप्रेरणा का स्रोत बनता है।

5. अच्छा खेल का मैदान और आधुनिक उपकरण (Good Playgrounds and Modern Equipments):
अच्छा खेल का मैदान और आधुनिक उपकरण खिलाड़ी को जल्दी प्रेरित करते हैं। अगर खेल का मैदान खेलने के योग्य न हो, तो वह आकर्षण का कारण नहीं बनेगा। इसी प्रकार खेल के उपकरण आधुनिक एवं उत्तम किस्म के हों तो खिलाड़ी की प्रेरणा बढ़ जाती है। खिलाड़ियों को आधुनिक एवं नए उपकरण से खेलने की अधिक उत्सुकता रहती है।

6. अच्छा प्रदर्शन (Good Demonstration):
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक और कोच का खिलाड़ी पर विशेष प्रभाव होता है। वे उसकी आज्ञा को मानते हैं और उसकी कही प्रत्येक बात ध्यान से सुनते हैं और उसे करने के इच्छुक होते हैं। इसलिए खेलों के अध्यापक और कोच के प्रशिक्षण का ढंग बड़ा ही सरल, आकर्षक और ऊंचे स्तर का होना चाहिए। प्रशिक्षक का प्रदर्शन सीखने वाले पर अधिक प्रभाव डालता है।

7.अच्छे इनामों द्वारा प्रेरित (To Motivate by Good Awards):
खिलाड़ियों को मुकाबलों में जीत-हार के बाद अच्छे इनामों से सम्मानित करके उत्साहित किया जा सकता है; जैसे नकद इनाम, प्रमाण-पत्र, पदक, शील्डे, उन्नति देकर, टी०वी० और रेडियो पर मुलाकात करवाकर अधिक प्रेरित किया जा सकता है।

8. अच्छी नौकरियों द्वारा (By Good Services):
अच्छे खिलाड़ियों को भिन्न-भिन्न विभागों; जैसे रेलवे, स्टेट बिजली बोर्ड, पुलिस, बी०एस०एफ०, सी०आर०पी०एफ० में अच्छी नौकरियाँ देकर प्रेरित किया जा सकता है।

9. खिलाड़ियों के लिए विशेष सुविधाएँ (Special Incentives to the Players):
खिलाड़ियों को विशेष सुविधाएँ; जैसे बसों, गाड़ियों और हवाई जहाज़ों में पास देकर, आय-कर और मनोरंजन कर में कमी करके, खिलाड़ी का बीमा करके, खिलाड़ी को चोट आदि लगने पर उसको पूरा खर्चा आदि देकर प्रेरित किया जा सकता है।

प्रश्न 7.
खेल भावना से आप क्या समझते हैं? अच्छे खिलाड़ी या स्पोर्ट्समैन के गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
खेल-भावनाका अर्थ (Meaning of Sportsmanship):
खेल-भावना आत्म-सम्मान का वह स्तर है जो खिलाड़ियों, दर्शकों, प्रशिक्षकों, अध्यापकों एवं विद्यालय प्रबंधों व खेल प्रबंधों के व्यवहार में सदा सभ्य, सम्मानपूर्वक व्यवहार का प्रदर्शन करने के रूप में अभिव्यक्त होता है। सभी खेलों के अपने नियम होते हैं। इन नियमों की तत्परता से पालना करना ही खेल-भावना (Sportsmanship) कहलाता है। यह एक अच्छे खिलाड़ी की ऐसी भावना है जो व्यक्ति के अंदर स्वत: जागृत होती है।

प्रत्येक शारीरिक शिक्षा के प्रशिक्षक एवं अध्यापक की यह कोशिश होती है कि वे इस भावना को बढ़ाने में सहायता करें, क्योंकि ऐसी भावना वाले खिलाड़ी का समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। जो खिलाड़ी या टीम अपने प्रतिद्वन्द्वी के प्रति वैर-विरोध न करके एक-दूसरे के प्रति सद्भावनापूर्वक व्यवहार से खेलता/खेलती है, खिलाड़ी या टीम के ऐसे आचरण को ही खेल-भावना कहते हैं।

अच्छे खिलाड़ी या स्पोर्ट्समैन के गुण (Qualities of Good Sportsman): एक अच्छे खिलाड़ी (स्पोर्ट्समैन) में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है
1. सहनशीलता (Tolerance):
सहनशीलता खिलाड़ी का एक महत्त्वपूर्ण गुण है। यदि खिलाड़ी में सहनशीलता की भावना नहीं होगी तो वह खेलों में अपना अच्छा प्रदर्शन नहीं दिखा सकता। खेलों को खेलते समय अनेक प्रकार की चोटें लग सकती है परन्तु एक अच्छा खिलाड़ी उन चोटों को सहन करते हुए अपना अच्छा प्रदर्शन दिखाता है।

2. समानता की भावना (Spirit of Equality):
समानता की भावना खिलाड़ी का एक महत्त्वपूर्ण गुण है। एक अच्छा खिलाड़ी खेल के दौरान जाति-पाति, धर्म, रंग, संस्कृति तथा सभ्यता के भेदभाव से दूर रहकर प्रत्येक खिलाड़ी के साथ समानता का व्यवहार करता है।

3. सहयोग की भावना (Spirit of Co-operation):
एक अच्छे खिलाड़ी का तीसरा मुख्य गुण सहयोग की भावना है। वह सहयोग की भावना ही खेल के मैदान में टीम के खिलाड़ियों को इकट्ठा रखती है। खिलाड़ी अपने कप्तान के नेतृत्व में अपनी विजय के लिए संघर्ष करते हैं तथा विजय का श्रेय कप्तान अथवा किसी एक खिलाड़ी को प्राप्त नहीं होता बल्कि सारी टीम को प्राप्त होता है।

4. अनुशासन की भावना (Spirit of Discipline):
एक अच्छे स्पोर्ट्समैन का सबसे मुख्य गुण यह है कि वह नियमपूर्वक अनुशासन में कार्य करे। वास्तविक स्पोर्ट्समैन वही होता है जो खेल के सभी नियमों की पालना बहुत ही अच्छे ढंग से करे।

5. चेतनता (Consciousness):
किसी भी खेल के दौरान चेतन रहकर प्रत्येक अवसर का लाभ उठाना ही स्पोर्ट्समैनशिप है। प्रत्येक खिलाड़ी अपना पूरा ध्यान खेल की गतिविधियों में लगाकर ही जीत हासिल कर सकता है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक क्षण की चेतनता स्पोर्ट्समैन का महत्त्वपूर्ण गुण है।

6. ईमानदार तथा परिश्रमी (Honest and Hard Working):
एक अच्छे स्पोर्ट्समैन का ईमानदार तथा परिश्रमी होना सबसे मुख्य गुण है। अच्छा स्पोर्ट्समैन कठोर परिश्रम का सहारा लेता है। वह उच्च खेल की प्राप्ति के लिए अयोग्य ढंगों का प्रयोग नहीं करता अपितु देश की शान के लिए आगे बढ़ता है। आचार्य चाणक्य (Aacharya Chanakya) के अनुसार, “जब आप किसी काम की शुरुआत करें तो असफलता से मत डरें और उस काम को न छोड़ें, जो लोग ईमानदारी से काम करते हैं वे सबसे प्रसन्न होते हैं।”

7. भावुक नहीं होता (Does not become Emotional):
एक अच्छा स्पोर्ट्समैन कभी भावुक नहीं होता। वह जीत-हार में दिखावा नहीं करता, बल्कि हारे हुए विरोधियों का आदर करता है। वह हार जाने पर भी दुःखी नहीं होता बल्कि अपनी कमियों को ढूँढता है।

8. हार-जीत को बराबर समझना (No Difference between Victory or Defeat):
एक अच्छा स्पोर्ट्समैन मन में जीत-हार की भावना न रखते हुए देश के सम्मान तथा खेलों की शान के लिए इनमें भाग लेता है। बैरन डी कोबर्टिन (Barron de Coubertin) के अनुसार, “हमें खेल जीतने के लिए नहीं, बल्कि अच्छा प्रदर्शन करने के लिए खेलना चाहिए।” इसलिए वह बढ़िया खेल का प्रदर्शन करता है। यदि अच्छे खेल के प्रदर्शन से उनकी टीम विजयी होती है तो वह खुशी में मस्त होकर विरोधी टीम अथवा खिलाड़ी का मज़ाक नहीं करता, अपितु वह दूसरे पक्ष को बढ़िया खेल के लिए बधाई देता है। यदि वह हार जाता है तो निराश होकर अपना मानसिक संतुलन नहीं गंवाता। वह हार-जीत को हमेशा बराबर समझता है।

9. जिम्मेवारी की भावना (Spirit of Responsibility):
एक अच्छा स्पोर्ट्समैन अपनी जिम्मेवारी को अच्छी प्रकार समझता । है तथा इसको सही ढंग से निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। उसको इस बात का एहसास होता है कि यदि वह अपनी जिम्मेवारी से थोड़ा-सा भी लापरवाह हुआ तो उसकी टीम हार सकती है। परिणामस्वरूप स्पोर्ट्समैन अपनी जिम्मेवारी को पूरे तन-मन से निभाते हुए खेल में आरंभ से लेकर अंत तक पूरे जोश से भाग लेता है।

10. मुकाबले की भावना (Spirit of Competition):
एक अच्छा स्पोर्ट्समैन वही है जो अपने उत्तरदायित्व को अच्छी प्रकार समझता है। वह प्रत्येक कठिनाई में साथी खिलाड़ियों को धैर्य देता है तथा अच्छे खेल, उत्साह एवं अधिक प्रयास करने की प्रेरणा देता है। वास्तव में खेल की जीत का सारा राज मुकाबले की भावना में होता है। वह करो अथवा मरो की भावना से खेल के मैदान में जाता है। लेकिन यह भावना बिना किसी वैर-विरोध के होती है। इस भावना में किसी टीम अथवा खिलाड़ी के प्रति बुरी भावना नहीं रखी जाती। आरडब्ल्यू० इमर्जन (R.W. Emerson) के अनुसार, “जीतो ऐसे कि तुम्हें इसकी आदत हो, हारो ऐसे जैसे कि आनंद उठाने के लिए एक बदलाव किया हो।”

11. त्याग की भावना (Spirit of Sacrifice):
एक अच्छे स्पोर्ट्समैन में त्याग की भावना का होना भी आवश्यक है। किसी भी टीम में खिलाड़ी केवल अपने लिए ही नहीं खेलता बल्कि उसका मुख्य उद्देश्य सारी टीम को विजयी कराना होता है। इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक खिलाड़ी निजी स्वार्थ को त्याग कर पूरी टीम के लिए खेलता है। वह अपनी टीम की विजय प्राप्ति के लिए खूब संघर्ष करता है। वह अपनी टीम की विजय को अपनी विजय समझता है तथा उसका सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है। परिणामस्वरूप त्याग की भावना रखने वाला खिलाड़ी ही अच्छा स्पोर्ट्समैन होता है। ऐसी भावना वाले खिलाड़ी ही अपनी टीम, स्कूल, प्रांत, क्षेत्र, देश तथा राष्ट्र के नाम को ऊँचा करते हैं।

12. आत्म-विश्वास की भावना (Spirit of Self-confidence):
यह गुण स्पोर्ट्समैन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण गुण है। खेल वही खिलाड़ी जीत सकता है जिसमें आत्म-विश्वास की भावना होती है। आत्म-विश्वास के बिना खेलना असंभव है। अच्छा स्पोर्ट्समैन हमेशा हँसमुख होता है। वह संतुष्ट तथा शांत स्वभाव का दिखाई देता है। इससे उसका आत्म-विश्वास प्रकट होता है।

13. भातृत्व की भावना (Spirit of Brotherhood):
स्पोर्ट्समैन में भातृत्व की भावना होना अति आवश्यक है। वह जात-पात, रंग-भेद, धर्म, संस्कृति तथा सभ्यता को अपनी राह में नहीं आने देता तथा सभी व्यक्तियों से समान व्यवहार करता है।

HBSE 11th Class Physical Education Solutions Chapter 8 मनोविज्ञान एवं खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 8.
खेलों में नैतिकता या नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? खेलों में नैतिक मूल्यों को विकसित करने की विधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
खेलों में नैतिकता का अर्थ (Meaning of Ethical or Ethics in Sports):
खेलों में नीतिशास्त्र की अवधारणा को समझने से पहले यह जानना जरूरी है कि नीतिशास्त्र क्या है? नीतिशास्त्र से अभिप्राय उचित आचरण के सिद्धांतों या नियमों की अवस्था से है जो व्यक्तियों द्वारा अपनाई जाती है। इन नियमों का पालन करने से व्यक्ति के व्यवहार एवं आचरण में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आता है। खेलों में नीतिशास्त्र की बहुत अधिक आवश्यकता है, क्योंकि खेलों के माध्यम से व्यक्तियों या खिलाड़ियों को अनेक सामाजिक व नैतिक गुण सीखने का अवसर प्राप्त होता है।

खेल नीतिशास्त्र का संबंध खेल के क्षेत्र में नैतिकता से है। इसका अर्थ हैखेलकूद में नैतिक आचरण करना। यदि खिलाड़ी नैतिक मूल्य रखते हों तो उनके लिए ये मूल्य केवल खेल के मैदान तक ही उपयोगी नहीं होते, बल्कि मैदान के बाहर भी उतने ही उपयोगी सिद्ध होते हैं। अतः खेलों में नीतिशास्त्र (Ethics in Sports) से अभिप्राय उन व्यक्तियों को, जो खेलों से संबंधित होते हैं, आदर्श आचरण तथा अच्छाई व बुराई की जानकारी देना है ताकि उनको पता चल सके कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है।

खेलों में नैतिक मूल्यों को विकसित करने की विधियाँ (Methods for Developing Ethical Values in Sports)खेलों में व्यक्तियों को अनेक नैतिक मूल्य सीखने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं परन्तु यह व्यक्ति या खिलाड़ी पर निर्भर करता है कि वह खेलों से सकारात्मक पक्ष सीखता है या नकारात्मक पक्ष। खेलों में भी अच्छे एवं बुरे व्यवहार को प्रदर्शित करने के अवसर, अन्य क्रियाओं से अधिक अलग नहीं होते।

यह लक्ष्यों, प्रशिक्षकों, माता-पिता, खिलाड़ियों, दर्शकों के दृष्टिकोण पर अधिक निर्भर करता है कि खिलाड़ियों या बच्चों का किस प्रकार के गुणों की ओर अधिक झुकाव है। इसका मतलब यह हुआ कि खेलों में नैतिकता प्रशिक्षकों, खेल अधिकारियों, माता-पिता, दर्शकों, प्रबंधकों और विशेष रूप से खिलाड़ियों पर निर्भर करती है। खेलों में नैतिक मूल्यों को विकसित करने में निम्नलिखित विधियाँ अधिक लाभदायक हो सकती हैं

(1) खेलों में जीत हासिल करना, एक खिलाड़ी और उसके कोच के लिए गर्व की बात होती है। प्रत्येक खिलाड़ी और कोच को जीत का लुत्फ उठाना चाहिए, परन्तु कभी भी अनैतिक साधनों द्वारा जीत हासिल नहीं करनी चाहिए। यदि कोई खिलाड़ी गलत तरीके अपनाकर जीत हासिल करता है तो उसका नैतिक विकास नहीं हो पाता। इसलिए खिलाड़ियों में नैतिक मूल्यों को विकसित करने के लिए प्रशिक्षकों का लक्ष्य खिलाड़ियों को केवल जीत के लिए तैयार करना नहीं, बल्कि डटकर मुकाबला करवाना होना चाहिए। ए०पी०जे० अब्दुल कलाम (A. P. J. Abdul Kalam) के अनुसार, “मनुष्य के लिए कठिनाइयाँ बहुत जरूरी हैं क्योंकि उनके बिना सफलता का आनंद नहीं लिया ला सकता।”

(2) खिलाड़ियों में बहुत बारीकी से अवलोकन करने की प्रवृत्ति होती है। यदि प्रशिक्षक या अध्यापक खिलाड़ियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करेगा तो इसका उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसलिए खिलाड़ियों में नैतिक मूल्यों को विकसित करने के लिए प्रशिक्षकों तथा शारीरिक शिक्षा के अध्यापकों को अपनी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं रखना चाहिए। कन्फ्यूशियस (Confucius) के अनुसार, “एक श्रेष्ठ व्यक्ति अपनी कथनी में कम, परन्तु अपनी करनी में ज्यादा विनम्र होता है।”

(3) खिलाड़ियों द्वारा नशीली वस्तुओं या दवाओं का सेवन करना पूर्णतया अनैतिकता है। नशीली वस्तुओं का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इसलिए उन्हें नशीली वस्तुओं के सेवन से स्वयं को दूर रखना चाहिए। प्रशिक्षकों एवं अध्यापकों को उन्हें इन पदार्थों के सेवन हेतु निरुत्साहित करना चाहिए ताकि उनमें नैतिक मूल्यों का विकास हो सके और वे देश के अच्छे नागरिक बन सकें।

(4) खिलाड़ियों को अपने सहयोगियों, विरोधी खिलाड़ियों, प्रशिक्षकों व खेल अधिकारियों का आदर-सम्मान करना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनका नैतिक विकास नहीं हो पाएगा और विरोधी खिलाड़ी भी उनका सम्मान नहीं करेंगे।

(5) प्रशिक्षकों एवं अध्यापकों को खिलाड़ियों के साथ एक-समान एवं निष्पक्ष आचरण एवं व्यवहार करना चाहिए। वे खिलाड़ियों को न्याय एवं समानता हेतु प्रोत्साहित कर सकते हैं और उनके नैतिक मूल्यों को विकसित करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

(6) प्रशिक्षकों एवं अध्यापकों को खिलाड़ियों को सकारात्मक क्रियाओं हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए। प्रोत्साहित खिलाड़ी खेल के नियमों का पालन करना, अनुशासन में रहना, सहयोग देना और ईमानदारी से खेलना आदि नैतिक गुणों को सीख सकता है।

(7) प्रशिक्षकों एवं अध्यापकों को खिलाड़ियों के साथ गलत एवं ठीक के बारे में विचार-विमर्श करना चाहिए अर्थात् किसी विषय पर उनके विचारों को जानने का प्रयास करना चाहिए, ताकि वे उचित निर्णय लेने में सक्षम हो सकें। उचित विचार-विमर्श से खिलाड़ियों में नैतिक मूल्यों का विकास होता है।

(8) खिलाड़ियों में सीखने की इच्छा होनी चाहिए, तभी वे नैतिक मूल्यों को प्राप्त करने में सक्षम होंगे। इसलिए प्रशिक्षकों एवं अध्यापकों को खिलाड़ियों को सीखने हेतु प्रेरित करना चाहिए।

(9) खिलाड़ियों को सकारात्मक सोच एवं अच्छी आदतों हेतु प्रेरित करना चाहिए। खिलाड़ियों को स्वयं का चिंतन करके अपने अवगुणों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। जो व्यक्ति स्वयं का मूल्यांकन करता है वह उन्नति की ओर अग्रसर होता है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि खेलों में नैतिक मूल्यों या नीतिशास्त्र को रखना बहुत आवश्यक है। इसके लिए प्रशिक्षक और अध्यापक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वे अपने व्यवहार एवं आचरण से खिलाड़ियों को नैतिक मूल्यों हेतु प्रेरित कर सकते हैं और खिलाड़ी नए-नए सिद्धांतों और नियमों को अपनाकर अपना नैतिक विकास कर सकते हैं।

प्रश्न 9.
रुचि की अवधारणा से आप क्या समझते हैं? इसके प्रकारों को बताते हुए इसको बढ़ाने के तरीकों का वर्णन कीजिए।
अथवा
रुचि को परिभाषित कीजिए। इसको बढ़ाने के उपायों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रुचि की अवधारणा (Concept of Interest):
रुचि खिलाड़ियों को खेल की बारीकियाँ सीखने में ही सहायता नहीं करती, बल्कि उसके खेल में और भी निखार लाने में सहायक होती है। खिलाड़ी की यदि किसी भी खेल में रुचि न हो
और उसका ध्यान भटकता रहे तो वह अच्छे परिणामों की आशा नहीं रख सकता । रुचि और ध्यान एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। रुचि ही क्रियाशील अवस्था में ध्यान बन जाती है। यदि खिलाड़ी की रुचि उस क्रिया की ओर केंद्रित हो जोकि वह सीख रहा है तो उसको सफलता मिलेगी और उसकी खेल कुशलता में वृद्धि होगी। उदाहरणस्वरूप यदि खिलाड़ी की किसी खेल में रुचि है तो ही आप उसको खेल सिखा सकते हो। इसके परिणामस्वरूप उसकी खेल-कुशलता में वृद्धि होगी।

रुचि की परिभाषाएँ (Definitions of Interest):
रुचि को विभिन्न विद्वानों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है
1. क्रो व क्रो (Crow and Crow): के कथनानुसार, “रुचि वह प्रेरित शक्ति है जो हमारा ध्यान किसी व्यक्ति या वस्तु की तरफ दिलाती है या फिर कोई प्रभावशाली अनुभव है जोकि क्रिया से स्वयं उपजता है। दूसरे शब्दों में, रुचि या तो किसी क्रिया का कारण है या उस क्रिया में भाग लेने का परिणाम।”

2. जे०एस० रॉस (J.S. Ross): के अनुसार, “जो वस्तु हमारे साथ अधिक संबंधित होती है, उसके प्रति हमारी रुचि अधिक होती है।”

3. मैक्डूगल (McDougall): के अनुसार, “रुचि छुपा हुआ ध्यान है और ध्यान किसी क्रिया (कार्य) में रुचि है।”

4. रॉस (Ross): के अनुसार, “जो वस्तु हमें अधिक अच्छी लगती है अथवा हमारे लिए कुछ अर्थ रखती है उसी वस्तु में हमारी रुचि होती है।”

5. विलियम जेम्स (William James): के अनुसार, “रुचि चयनित जागरूकता या ध्यान का वह रूप है जो किसी के संपूर्ण अनुभवों में से अर्थ पैदा करता है।”
रुचि के प्रकार (Kinds of Interest)-रुचि दो प्रकार की होती है
1. जन्मजात रुचि (Innate Interest)-कुछ रुचियाँ ऐसी होती हैं, जो व्यक्ति में जन्म से ही होती हैं। इसलिए इनको ‘जन्मजात रुचि’ कहा जाता है। ये रुचियाँ व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों तथा जन्मजात प्रेरकों (चालकों) के कारण होती हैं। इसको प्राकृतिक या स्वभाविक रुचि भी कहते हैं।

2. अर्जित रुचि (Acquired Interest):
जो रुचि किसी वस्तु को देखने या जानने से उत्पन्न होती है, उसे ‘अर्जित रुचि’ कहते हैं। अर्जित रुचियों पर वातावरण का महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है। ये रुचियाँ शिक्षा के द्वारा विकसित की जा सकती हैं । इसे कृत्रिम रुचि भी कहते हैं।

रुचि बढ़ाने के ढंग या उपाय (Methods/Measures to Develop Interest): रुचि को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित उपायों/ढंगों का प्रयोग किया जा सकता है
1. भिन्न-भिन्न शिक्षण विधियाँ (Different Educative Methods):
रुचि को बढ़ाने के लिए शिक्षक को भिन्न-भिन्न शिक्षण विधियों का प्रयोग करना चाहिए। उसको शिक्षण-विधि में चार्ट, ग्राफ़, सहायक सामग्री, स्लाइड्स व चलचित्रों का प्रयोग करना चाहिए। ऐसा करने से विद्यार्थियों में विषय-वस्तु या खेल-कौशल को समझने में रुचि बढ़ जाती है।

2. विषय-वस्तु (Subject Matter): यदि विद्यार्थियों को कोई विषय-वस्तु सिखानी हो तो सबसे पहले उस विषय-वस्तु के लक्ष्यों व उद्देश्यों से विद्यार्थियों को परिचित (Acquaint) करा देना चाहिए। इससे उनकी रुचि उस विषय-वस्तु में बढ़ जाएगी।

3. वातावरण (Environment):
जिस वातावरण में कोई विषय-वस्तु सिखाई जाती है उस वातावरण का प्रभाव रुचि पर अवश्य पड़ता है। यदि वातावरण अच्छा है तो सीखने में खिलाड़ियों या विद्यार्थियों की रुचि अधिक होगी। अत: शिक्षक को अनुकूल वातावरण में ही कोई कौशल (Skill) सिखाना चाहिए।

4. व्यक्तित्व (Personality):
शिक्षक का व्यक्तित्व यदि अच्छा है तो बच्चों की रुचि पर उसके व्यक्तित्व का अच्छा प्रभाव पड़ता है।

5. सिखाने की कुशलता (Skill of Learning):
यदि किसी कौशल (Skill) को ‘सरल से कठिन’ (Simple to Complex) के नियम के आधार पर सिखाया जाता है तो बच्चों में सीखने के प्रति रुचि अधिक होगी।

6. इच्छा-शक्ति (Will-power):
बच्चों की इच्छा-शक्ति बढ़ाकर भी रुचि बढ़ाई जा सकती है।

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प्रश्न 10.
सीखने की अवधारणा से क्या अभिप्राय है? सीखने के नियमों का वर्णन कीजिए।
अथवा
सीखने को परिभाषित कीजिए। सीखने के प्रमुख नियमों या सिद्धांतों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सीखने की अवधारणा (Concept of Learning):
प्रत्येक व्यक्ति बदलते पर्यावरण से समझौता करता है। बदला हुआ पर्यावरण प्रत्येक व्यक्ति पर अपनी छाप छोड़ जाता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वह शारीरिक और मानसिक तौर पर बढ़ता है और नई-नई प्रतिक्रियाएँ सीखता है, जिससे उसमें परिवर्तन आना शुरू हो जाता है। सीखना जिंदगी में सदैव चलता रहता है। बच्चा केवल स्कूल में ही नहीं सीखता, बल्कि जिन तजुर्बो या अनुभवों (Experiences) में से वह गुजर रहा होता है, उनसे भी वह बहुत कुछ सीखता है। बच्चा बचपन में शारीरिक, मानसिक, भावात्मक तौर पर दूसरों पर निर्भर रहता है। परंतु समय बीतने पर जब मानसिक और शारीरिक विशेषताएँ आ जाती हैं तो उसमें आत्म-निर्भरता की भावना बढ़ने लगती है।

सीखने की परिभाषाएँ (Definitions of Learning): सीखने के बारे में अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं, जो निम्नलिखित हैं

1. गेट्स (Gates): के कथनानुसार, “तजुर्बो से व्यवहार में आने वाले परिवर्तनों को सीखना कहा जाता है।”

2. जे०पी० गिलफोर्ड (J.P. Guilford): के अनुसार “व्यवहार के परिणामस्वरूप व्यवहार में कोई भी परिवर्तन सीखना है।”

3. हैनरी पी० स्मिथ (Henry p Smith): के अनुसार, “सीखना नए व्यवहार में बढ़ोतरी करना है या अनुभवों से पुराने व्यवहार को ताकतवर या कमजोर बनाया जा सकता है।”

4. रॉबर्ट एस० वुडवर्थ (Robert S. Woodworth): के कथनानुसार, “कोई भी ऐसी क्रिया सीखना कहलाती है, जो व्यक्ति के (अच्छे या बुरे प्रकार के ) विकास में सहायक होती है, उसका पहला व्यवहार या अनुभव कोई भी हो उससे अलग बनाती है।”

5. क्रो व क्रो (Crow and Crow): के कथनानुसार, “सीखना आदतें, ज्ञान और विचारधारा का समूह है। इसमें काम को करने के ढंग शामिल हैं और इनका आरंभ व्यक्ति की ओर से किसी रुकावट को दूर करने के लिए या नए हालातों में अपने व्यवहार या प्रयत्नों को लेकर होता है। इसकी सहायता से विचारधारा में अच्छे परिवर्तन होते रहते हैं। यह व्यक्ति को अपनी रुचियों और लक्ष्य को प्राप्त करने के योग्य बनाती है।”

6. जी०डी० ब्रूज (G. D. Brooze): के अनुसार, “सीखना एक ऐसी प्रतिक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति उन विविध आदतों, ज्ञान एवं दृष्टिकोणों को प्राप्त करता है जो मनुष्य के जीवन की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जरूरी है।” .

7. स्किनर (Skinner): के अनुसार, “व्यवहार ग्रहण की प्रगतिशील प्रक्रिया ही सीखना है।”

दी गई परिभाषाओं या विचारों के अनुसार सीखना अपने पर्यावरण में परिवर्तन, क्रियाशीलता और पर्यावरण की देन है। सीखना व्यक्ति में आए उस परिवर्तन को कहा जाता है जो किसी विशेष अनुभवों को प्राप्त करने पर उपलब्ध होता है। मनुष्य जिन मूल प्रवृत्तियों में जन्म लेता है, वे जिंदगी के संघर्ष के लिए काफी नहीं होती। इसलिए मुश्किल दशाओं और माहौल में नई प्रतिक्रियाएँ सीखनी पड़ती हैं। सीखने वाले को प्रेरणा उत्साहित करती है। प्रेरणा के कारण व्यक्ति कार्यों का चुनाव करता है। यह चुनाव बाहरी और आंतरिक होता है। सीखने में अंगों का योगदान होने के कारण व्यक्ति में परिवर्तन होता है।

सीखने के नियम (Laws of Learning):
शारीरिक शिक्षा में नई प्रक्रियाओं के सीखने से मनुष्य नए-नए तजुर्बे या अनुभव प्राप्त करता है। कुछ खिलाड़ी खास क्रिया में महारत हासिल करने में कठिनाई अनुभव करते हैं, परंतु कुछ खिलाड़ी शीघ्र ही महारत हासिल कर लेते हैं। सीखने संबंधी कई विद्वानों; जैसे थॉर्नडाइक, वाटसन, पैवलॉव और कोहलर आदि ने कई सिद्धांत दिए हैं। इन नियमों का पालन करके खिलाड़ी अपने कौशल को पूर्ण कर सकता है। सीखने के प्रमुख नियम निम्नलिखित हैं

1. तैयारी का नियम (Law of Readiness):
तैयारी के नियम में जो खिलाड़ी या व्यक्ति प्रशिक्षण के लिए चुना गया है क्या वह शारीरिक, मानसिक और भावात्मक पक्ष से उस काम को सीखने के लिए तैयार है या नहीं। जब किसी व्यक्ति में कुछ सीखने की इच्छा होती है तो उसे सीखने के लिए प्रेरित किया जा सकता है, नहीं तो वह कुछ भी नहीं सीख सकता। इसलिए अगर कोई खिलाड़ी खेल सीखने के लिए तैयार हो और उसकी इच्छा या शौक भी उसे सीखने के लिए प्रेरित करें तो वह मुश्किल-से-मुश्किल क्रिया भी बड़ी आसानी से सीख सकता है। सीखने में प्रेरणा का बहुत योगदान होता है। इसलिए बच्चे को पूर्ण तौर पर प्रेरित करना आवश्यक है। असल में वह जो कुछ कर रहा है, उसके लक्ष्य के बारे में जानकारी होनी जरूरी है। परंतु कई बार बहुत ज्यादा प्रेरणा खिलाड़ी की कुशलता में रुकावट पैदा कर सकती है।

2. अभ्यास का नियम (Law of Exercise):
अभ्यास का नियम खेल सीखने में बहुत महत्त्वपूर्ण है। अभ्यास से मुश्किल-से-मुश्किल खेल आसानी से सीखा जा सकता है। बार-बार अभ्यास करने से खिलाड़ी की खेल-कुशलता में बढ़ोतरी होती है। अभ्यास के इस नियम को ‘प्रयोग’ और ‘गैर-प्रयोग’ का नियम भी कहा जाता है। प्रयोग के नियम के बारे में थॉर्नडाइक ने इस प्रकार विचार रखे हैं, “जब किसी स्थिति और प्रतिक्रिया में परिवर्तन हो सकने वाला संबंध बन जाता है और बाकी सभी चीजें उस प्रकार ही रहती हैं तो उस संबंध की शक्ति ज्यादा होती है।” गैर-प्रयोग के नियम के बारे में उसके विचार इस प्रकार हैं, “जब स्थिति और प्रतिक्रिया में लंबे समय तक परिवर्तन हो सकने वाला संबंध कायम किया जाता है तो उस संबंध की शक्ति कम हो जाती है।” इस नियम को दोहराई का नियम भी कहा जाता है।

3. प्रभाव का नियम (Law of Effect):
खेल बच्चों की मूल प्रवृत्ति है। प्रत्येक बच्चा खेल में मन की आजादी प्राप्त करना चाहता है। प्रभाव के नियम को ‘सजा’ और ‘इनाम’ का सिद्धांत (Law of Punishment and Reward) भी कहा जाता है। यह प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक थॉर्नडाइक का विचार है कि अगर स्थिति और हंगामे के दौरान संबंध सुखमयी है तो उस संबंध का प्रभाव शक्तिशाली होता है। परंतु अगर संबंध का प्रभाव दुखदायी है तो प्रभाव कमजोर हो जाता है। अगर अच्छी तरह जाँच करके देखा जाए तो सब कुछ क्रिया के परिणाम पर निर्भर करता है।

अगर बच्चा जिस क्रिया में भाग ले रहा होता है, वह क्रिया उसको अच्छी लगती है तो उसका प्रभाव भी अच्छा पड़ता है। बच्चा उसको खुशी-खुशी सीखना पसंद करता है और उसको बार-बार करके प्रसन्नता अनुभव करता है। परंतु अगर किसी क्रिया का प्रभाव दुखमयी है या वह क्रिया जो उसको अच्छी नहीं लगती है तो वह उसको सीखने से इंकार कर सकता है, बेशक यह प्रभाव उसकी अपनी गलती या घटिया सम्मान के कारण हो । बच्चे केवल उन क्रियाओं को करके खुश होते हैं, जिनका प्रभाव शारीरिक और मानसिक तौर पर खुशी देता है।

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प्रश्न 11.
सीखने में बढ़ोतरी करने वाले कारकों या तत्त्वों की व्याख्या कीजिए। उत्तर-सीखने में बढ़ोतरी करने वाले प्रमुख कारक या तत्त्व निम्नलिखित हैं
1. प्रशिक्षक का व्यक्तित्व (Personality of the Trainer):
प्रशिक्षक का व्यक्तित्व सीखने वाले पर गहरा प्रभाव डालता है। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक बच्चों के लिए आदर्श होता है। सीखने वाला उसके प्रत्येक कथन को मानता है और उसके अनुसार चलने की कोशिश करता है। इस प्रकार छात्र हमेशा ही अध्यापक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर आने वाले समय की अच्छी नींव रखते हैं।

2. शारीरिक योग्यता (Physical Fitness):
शारीरिक योग्यता शारीरिक क्रियाओं के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। जो व्यक्ति शारीरिक तौर पर सक्षम नहीं है या उसमें शारीरिक योग्यता की कमी है तो उसकी सभी शारीरिक प्रणालियाँ ठीक तौर पर काम नहीं करेंगी और उसे कोई भी क्रिया सीखने के लिए कष्ट अनुभव होगा। शारीरिक क्रियाओं को सीखने में शारीरिक योग्यता एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

3. व्यक्तिगत भिन्नता (Individual Differences):
प्रत्येक व्यक्ति में भिन्नताएँ होती हैं। कुछ व्यक्ति किसी क्रिया को जल्दी सीख जाते हैं और कुछ उसको सीखने में काफी समय लगा देते हैं। यही भिन्नताएँ व्यक्ति को व्यक्ति से अलग करती हैं।

4. सीखने के लिए सही समय (Right Time for Learning):
सीखने का सही समय हर व्यक्ति पर निर्भर करता है। अगर सीखने में रुचि हो और समय भी अनुकूल हो तो सीखना आसान और सार्थक होता है। शारीरिक शिक्षा की क्रियाएँ सुबह या शाम की जा सकती हैं। अगर इन क्रियाओं को समय से हटकर किया जाए तो आवश्यक है कि खिलाड़ी की निपुणता पर प्रभाव पड़ेगा और अच्छे नतीजे प्राप्त करने में कुछ मुश्किल आएगी।

5. खेलों में रुचि (Interest in Games):
किसी भी काम को सीखने के लिए रुचि बहुत महत्त्वपूर्ण है। रुचि किसी खेल को ध्यान से सीखने और अपनी त्रुटियाँ सुधारने में सहायक होती है। रुचि जैसे तत्त्व खिलाड़ी को अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों के लिए प्रेरित करते हैं।

6. दिशा (Direction):
सीखने में सबसे महत्त्वपूर्ण बात खिलाड़ी की दिशा पर निर्भर करती है। दिशाहीन व्यक्ति कभी भी अपनी मंजिल को हासिल नहीं कर सकता। शारीरिक शिक्षा और खेलों में दिशा खास महत्त्व रखती है। किसी भी खेल में बड़े स्तर की निपुणता के लिए खिलाड़ी को अपनी दिशा, मंजिल और लक्ष्य का ज्ञान होना जरूरी है, नहीं तो वह खिलाड़ी जिंदगी-भर दिशाहीन होकर खेल निपुणता से वंचित रह सकता है।

7. अभ्यास और दोहराई (Practice and Revision):
अभ्यास और दोहराई का नियम सीखने में बहुत आवश्यक है। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक नई तकनीकों की जानकारी से क्रियाओं में अधिक-से-अधिक अभ्यास करने पर जोर देता है। अभ्यास और दोहराई का नियम व्यक्ति में आत्म-विश्वास पैदा करता है, जिससे सीखने में बढ़ोतरी होती है।

8. सही समय पर सुधार (Correction at Proper Time):
सीखने में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है। सीखने वाले को अगर उसकी त्रुटियों का एहसास न कराया जाए तो सीखना अधूरा रह जाता है । बार-बार गलती करना सीखने वाले का स्वभाव बन जाता है जिसमें परिवर्तन लाना मुश्किल हो जाता है। सीखने वाले की त्रुटियों का समय पर सुधार कर उसकी निपुणता में बढ़ोतरी करनी चाहिए।

9. सीखने संबंधी सुविधाएँ (Facilities for Learning):
सुविधाएँ प्रत्येक क्षेत्र में बहुत योगदान देती हैं, परंतु सुविधाएँ शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में अधिक आवश्यक हैं। शारीरिक शिक्षा की क्रियाओं में आने वाली मुश्किलें; जैसे ठीक तरीके से प्रशिक्षण, शारीरिक योग्यता, मानसिक योग्यता, अधिक-से-अधिक आधुनिक युग की सुविधाएँ आदि देकर खिलाड़ी की खेल-कुशलता में बढ़ोतरी की जा सकती है। अमेरिका, रूस, जर्मनी, चीन, इंग्लैंड, हॉलैंड जैसे देशों के खिलाड़ी अच्छी सुविधाओं के कारण सभी अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों में अच्छा प्रदर्शन करते हैं।

10. आवश्यक जानकारी (Adequate Knowledge):
सीखना तभी सार्थक हो सकता है अगर सीखने वाले को उस काम या विषय के बारे में आवश्यक जानकारी हो। अधूरा ज्ञान सीखने वाले में हीन भावना पैदा कर सकता है और व्यक्तित्व के विकास में रुकावट बन जाता है। शारीरिक शिक्षा का संबंध क्रियाओं से है। क्रियाओं के बारे में पूर्ण जानकारी, आधुनिक तकनीक का आवश्यक ज्ञान खिलाड़ी की निपुणता में बढ़ोतरी करता है।

11. देखने और सुनने वाली वस्तुओं की सुविधाएँ (Facilities of Audio-Visual Aids):
देखने और सुनने वाली वस्तुओं की सुविधाएँ मनुष्य के दिलो-दिमाग पर गहरा प्रभाव डालती हैं। आजकल की शारीरिक शिक्षा में इसका महत्त्व और भी बढ़ गया है। प्रशिक्षक की ओर से बार-बार समझाए जाने पर भी खिलाड़ी उस क्रिया को समझने में असमर्थ होता है। देखने और सुनने वाली वस्तुओं की सुविधाओं से खिलाड़ी आसानी से सीख लेता है।

12. प्रशंसा की भावना (Sense of Appreciation):
प्रशंसा सुनकर अपने मन में खुश होना मनुष्य का स्वभाव है। यह स्वभाव कई बार मनुष्य को प्रगति के रास्ते पर ले जाता है। प्रशंसा करके एक साधारण मनुष्य को भी खेलों के प्रति प्रेरित किया जा सकता है। यह भावना खिलाड़ी को मुश्किल क्रिया सीखने और असंभव काम को संभव करने की प्रेरणा देती है।

प्रश्न 12.
खेल कुशलता को प्रभावित करने वाले मनोवैज्ञानिक तत्त्वों या कारकों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
खेल कुशलता को प्रभावित करने वाले मनोवैज्ञानिक तत्त्व या कारक निम्नलिखित हैं
1. खिलाड़ी की रुचि (Interest of the Player):
खेलों को ठीक ढंग से सीखने के लिए खिलाड़ी की रुचि बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। खेल-कुशलता को बढ़ाने के लिए खेल की बारीकियाँ तभी सीखी जा सकती हैं अगर खिलाड़ी उस खेल में अधिक-से-अधिक रुचि रखता हो। अगर खिलाड़ी की खेल में रुचि नहीं है तो सफलता का मिलना मुश्किल हो जाता है। खेल-कुशलता में बढ़ोतरी तभी हो सकती है अगर खिलाड़ी की रुचि सीखते समय क्रिया पर केंद्रित हो। इसलिए रुचि और कुशलता में गहरा संबंध होता है।

2. सहनशीलता (Tolerance):
सहनशीलता का खेल-कुशलता पर सीधा असर पड़ता है। सहनशील खिलाड़ी ही हारी हुई बाजी को जीत में बदल सकता है। सहनशीलता खिलाड़ी में हिम्मत व धैर्य जैसे गुण पैदा करती है। सहनशील खिलाड़ी हार-जीत को एक-समान समझता है क्योंकि खेल में हार-जीत निश्चित होती है। इस प्रकार सहनशीलता खिलाड़ी की खेल-कुशलता को सबसे अधिक प्रभावित करती है।

3. संवेगों पर नियंत्रण (Control over Emotions):
संवेगों का खिलाड़ी की खेल-कुशलता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। खेल के दौरान दूसरी टीम के खिलाड़ी की कोशिश होती है कि अच्छे खिलाड़ी को भावात्मक तौर पर प्रभावित किया जाए ताकि वह अपनी अच्छी कुशलता न दिखा सके। अगर अच्छा खिलाड़ी अपने संवेगों पर काबू रखता है तो निश्चित ही वह अपनी अच्छी कुशलता दिखा सकता है। खेल के दौरान संवेगों पर संतुलन रखना जरूरी है क्योंकि कई बार जख्मी होना, दूसरे खिलाड़ी द्वारा बुरे शब्दों का प्रयोग, थकावट, लोगों का शोर संवेगों को प्रभावित करता है। संतुलित संवेगों वाला खिलाड़ी ही खेल के दौरान अच्छी खेल कुशलता का प्रदर्शन कर सकता है।

4. आत्म-विश्वास (Self-Confidence):
खिलाड़ी द्वारा आत्म-विश्वास से खेल सीखने और उसका बार-बार अभ्यास करने से आत्म-विश्वास में बढ़ोतरी होती है। कई बार सीखने वाली क्रिया मुश्किल होती है और कई बार अन्य कारणों से अन्य मुश्किलें पैदा होती हैं, परंतु खिलाड़ी का आत्म-विश्वास मुश्किल क्रिया को आसान क्रिया में बदल देता है। खेल में ऐसे कई उदाहरण हैं कि कई बार अच्छी टीम आत्म-विश्वास खो जाने के कारण मैच हार जाती है और कमजोर टीम आत्म-विश्वास पैदा करके जीत जाती है। इसलिए आत्म-विश्वास प्रत्येक खिलाडी के लिए बहत जरूरी है।

5. खिलाड़ी की बौद्धिक शक्ति (Intelligence of the Player):
खिलाड़ी की बौद्धिक शक्ति और कुशलता का परस्पर सीधा संबंध है। एक अच्छी बुद्धि रखने वाला खिलाड़ी हारती हुई टीम को अपनी ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण रखकर बढ़िया नतीजा निकालने में सक्षम होता है। खेल के दौरान कई प्रकार की मुश्किलें उत्पन्न होती हैं, परंतु बुद्धिमान खिलाड़ी उन समस्याओं का उचित हल जल्दी ही निकाल लेता है। बुद्धिमान खिलाड़ी अपने अनुभवों के प्रयोग से अपनी कुशलता में बढ़ोतरी कर लेता है।

6. खिलाड़ी के लिए प्रेरणा (Motivation for Player):
खिलाड़ी की खेल-कुशलता पर प्रेरणा का गहरा असर पड़ता है। कई बार खिलाड़ी को क्रिया सीखने के बाद मुश्किलें आती हैं। प्रशिक्षक को प्रेरणा से खिलाड़ी इन मुश्किलों पर नियंत्रण पा सकता है। प्रेरणा खेल से पहले और खेल के दौरान खेल-कुशलता को काफी प्रभावित करती है।

7. खिलाड़ी की अभिवृत्ति (Attitude of Player):
खेलों में अभिवृत्ति (Attitude) की बहुत महत्ता है। अगर खिलाड़ी की अभिवृत्ति सीखने की है तो उसका सीखना सरल और आसान हो सकता है। अभिवृत्ति सीखने पर असर डालती है। अगर खिलाड़ी के स्वभाव में एकरूपता नहीं है या तो वह न मानने वाली वृत्ति रखता है या वह भावात्मक प्रवृत्ति का शिकार होता है। वह एक विशेष दायरे से बाहर नहीं निकलना चाहता। खेल में बढ़िया व्यवहार भी महत्त्वपूर्ण होता है। बढ़िया व्यवहार खेल की कुशलता में बढ़ोतरी करता है।

8. साहस (Courage):
खेलों में साहस की अपनी महत्ता है। खेल में साहस रखने वाला ही जीतता है। साहस छोड़ने वाले के लिए जीत प्राप्त करना कठिन होता है। अगर देखा जाए तो जिंदगी के प्रत्येक पहलू में साहस की आवश्यकता होती है, परंतु खेलों में इसका विशेष महत्त्व है। खेलों में खेल से पहले और खेल के दौरान साहस रखना अत्यंत जरूरी है।

9. मुकाबले की भावना (Spirit of Competition):
खिलाड़ियों को वैज्ञानिक ढंग से इस प्रकार क्रियाओं का अभ्यास करवाना चाहिए कि उनमें मुकाबले की भावना जागृत हो सके। मुकाबला जिंदगी के प्रत्येक पहलू में आवश्यक है। मुकाबले के समय साहस छोड़ देना जिंदगी की सबसे बड़ी हार है। मुकाबला करने की भावना के लिए अभ्यास की अत्यंत आवश्यकता है। खेलों में मुकाबले की भावना खिलाड़ी के स्थान को ऊँचा उठाती है। अगर खिलाड़ी में मुकाबले की भावना (Competitive Spirit) नहीं होगी तो उसकी खेल-कुशलता प्रभावित होगी। मुकाबले की भावना खेलों में अहम स्थान रखती है।

10. खिलाड़ी और प्रशिक्षण के ढंग (Players and Learning Process):
व्यक्ति हमेशा जीवन में निरंतर सीखता रहता है। सीखने के नियम व्यक्ति के सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं । अगर कोई खिलाड़ी इन नियमों को सामने रखकर सीखने की कोशिश करता है तो वह अच्छे नतीजे प्राप्त कर लेता है। खिलाड़ी द्वारा किसी खेल को सीखने का ढंग उसकी खेल-कुशलता को प्रभावित करने का मुख्य कारण है। अगर किसी खिलाड़ी के सीखने का ढंग ठीक है तो उसके नतीजे भी ठीक ही निकलते हैं। खेल का प्रशिक्षण खिलाड़ी की खेल-कुशलता पर काफी गहरा प्रभाव डालता है।

11. खिलाड़ी की आदतें (Habits of Player):
खिलाड़ी की आदतें उसकी खेल-कुशलता पर गहरा प्रभाव डालती हैं। खिलाड़ी का समय पर क्रियाएँ करना, सुबह समय पर उठना, रोजाना खेल का अभ्यास करना, अपने कोच, बड़ों और माता-पिता का आदर करना आदि आदतें खेल-कुशलता में बढ़ोतरी करने में सहायक होती हैं। इसके विपरीत, खिलाड़ी का समय पर अभ्यास न करना, नशा करना, कोच की ओर से दिए गए प्रशिक्षण को न अपनाना, नियमों का पालन न करना आदि आदतें खिलाड़ी की खेल-कुशलता को कम करती हैं ।

आदतें खिलाड़ी के व्यवहार और साहस का प्रदर्शन करती हैं। आदतें खिलाड़ी के तौर-तरीके, सामाजिक गुणों, अनुशासन और मेल-मिलाप को असली रूप प्रदान करती हैं। खिलाड़ी को बुरी आदतों से बचना चाहिए और अच्छी आदतों को अपनाकर अपने मान-सम्मान और खेल-कुशलता में बढ़ोतरी करनी चाहिए।

12. जीतने की इच्छा (Will to Win):
मजबूत इरादों वाला खिलाड़ी दिलो-जान से अभ्यास करता है क्योंकि उसमें जीतने की इच्छा होती है। जीत की इच्छा रखने वाला खिलाड़ी अपनी खेल-कुशलता में हमेशा बढ़िया प्रदर्शन करता है।

13. थकावट सहने की क्षमता (Ability to bear Fatigue):
खिलाड़ी खेलों में थकावट होने के बावजूद भी खेल की प्रक्रिया को जारी रखता है। इसे थकावट सहने की क्षमता कहा जाता है। अगर खिलाड़ी थकावट होने के बावजूद भी खेल को जारी रखता है तो निश्चित ही उसकी कुशलता बढ़िया किस्म की कही जाएगी। अगर उसकी थकावट सहने की क्षमता कम है तो उसकी खेल की गति में कमी आ जाएगी और उसकी कुशलता भी प्रभावित होगी।खेलों में अच्छी कुशलता दिखाने के लिए थकावट सहन करने की क्षमता बहुत जरूरी है, परन्तु अधिक थकावट होने पर खेल को जारी रखना हानिकारक हो सकता है।

14. ध्यान (Concentration):
खेल को सीखना और सीखने के बाद क्रियाओं का अभ्यास ध्यानपूर्वक करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। ध्यान से सीखी हुई क्रिया लंबे समय तक असर करती है क्योंकि खिलाड़ी खेल की बारीकियों से परिचित हो जाता है। खेल के दौरान ध्यान न देने से काफी गलतियाँ होती हैं जो खेल की कुशलता पर काफी असर डालती हैं। आधुनिक युग एक तकनीकी युग है। इसमें प्रत्येक खिलाड़ी नए ढंगों से प्रशिक्षण प्राप्त करता है। ध्यान न देने वाला खिलाड़ी आधुनिक प्रशिक्षण से पीछे रह जाता है, जिसके कारण उसकी खेल-कुशलता में कमी आ जाती है।

15. आराम (Relaxation):
खेल में तनाव का आना स्वाभाविक है, परंतु जो खिलाड़ी मानसिक और शारीरिक तनाव-रहित होता है, वह हमेशा ही बुलंदी को छूता है। खेल के दौरान शरीर की सभी प्रणालियाँ प्रभावित होती हैं, उनमें उत्तेजना होती है। अगर खिलाड़ी इन पर नियंत्रण कर लेता है तो निश्चित ही वह अपने खेल की कुशलता बढ़ा सकता है।खेल के दौरान सभी प्रणालियों को आराम की हालत में रखना तभी सार्थक हो सकता है अगर खिलाड़ी क्रियाओं को बार-बार करने का नियम कायम करता है। उपर्युक्त सभी कारक किसी भी खिलाड़ी की खेल-कुशलता को प्रभावित कर सकते हैं।

HBSE 11th Class Physical Education Solutions Chapter 8 मनोविज्ञान एवं खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 13.
गुरु तथा शिष्य के बीच आपसी संबंधों पर प्रकाश डालिए।
अथवा
अध्यापक व छात्रों के बीच सह-संबंधों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
शिक्षा से हमें बहुत अनुभव सीखने को मिलते हैं । यह उन साधनों का वर्णन करती है जिसके द्वारा लोग योग्यता और ज्ञान अर्जित करते हैं। बच्चों को शिक्षित करने में अध्यापकों का मुख्य उत्तरदायित्व होता है। सीखना गुरु और शिष्य के संबंध पर निर्भर करता है। गुरु और शिष्य के बीच स्नेह और घनिष्ठता का संबंध सीखने को उत्साहित करता है।

गुरु और शिष्य के बीच संबंध सहृदयक होना चाहिए ताकि अध्यापक उनको अच्छा मार्गदर्शन प्रदान कर सके। अच्छा मार्गदर्शक केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है यदि गुरु और शिष्य के बीच संबंध अच्छा होगा। गुरु और शिष्य के बीच अच्छे संबंध के लिए निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण बातें आवश्यक हैं
1. अध्यापक एक आदर्श (Teacher as a Model):
अध्यापक को छात्र के सामने आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए, क्योंकि छात्रों के द्वारा उसका अनुसरण किया जाता है। उसका व्यक्तित्व एक आदर्श व्यक्ति जैसा होना चाहिए। उसे अपनी सफलता के अनुभवों को अपने छात्रों के साथ बाँटना चाहिए।

2. दृढ़-निश्चयी (Firm Determinant):
अध्यापक के व्यक्तित्व में दृढ़-निश्चयी का गुण होना चाहिए। उसे अपने सिखाने वाले ढंग के प्रति पूर्ण रूप से दृढ़-निश्चयी होना चाहिए। एक दृढ़-निश्चय वाला अध्यापक कभी भी अपने कार्य को अधूरा नहीं छोड़ता। इससे छात्रों पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है। शारीरिक शिक्षा में भी प्रशिक्षक अगर प्रशिक्षण प्रक्रिया को अच्छी तरह लागू करने के प्रति दृढ़-निश्चयी है तो वह उस प्रशिक्षण को प्रभावशाली ढंग से प्रदान कर सकता है।

3. सहयोगपूर्ण तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार (Co-operative and Sympathetic Behaviour):
एक अध्यापक को छात्रों के प्रति सहयोगपूर्ण तथा सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए। ऐसा दृष्टिकोण छात्रों पर अमिट छाप छोड़ता है जिससे वांछित लक्ष्य प्राप्त करने में सफलता मिलती है। अध्यापक का सहानुभूतिपूर्ण तथा स्नेही दृष्टिकोण छात्रों द्वारा पसंद किया जाता है। इसके साथ-साथ शिक्षण प्रक्रिया भी दिलचस्प बनती है। अध्यापक और छात्र के बीच द्वेष तथा नफरत का संबंध शिक्षण प्रक्रिया में रुकावट उत्पन्न करता है।

4. अच्छा व्यक्तित्व (Good Personality):
अध्यापक के अंदर ऐसे गुण होने चाहिएँ जो छात्रों को प्रभावशाली ढंग से प्रभावित कर सकें। उसका व्यक्तित्व प्रभावशाली होना चाहिए। अच्छा व्यक्तित्व हमेशा ही छात्रों द्वारा सराहनीय होता है। गतिशील व्यक्तित्व छात्रों पर अच्छा प्रभाव डालता है।

5. विषय का ज्ञान (Knowledge of the Subject):
अध्यापक को अपने विषय में पारंगत होना चाहिए और उस विषय में अध्यापक का ज्ञान विस्तृत होना चाहिए। किसी विशेष विषय के बारे में गहन ज्ञान हमेशा अच्छा प्रभाव डालता है। अध्यापक को सभी नवीनतम जानकारियों से सुसज्जित होना चाहिए। ऐसे अध्यापक का छात्रों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

6. अच्छा वक्ता (Good Orator):
अध्यापक को एक अच्छा वक्ता होना चाहिए। उनके पास अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए शब्दों का विस्तृत भंडार होना चाहिए। भली-भांति प्रकार से तैयार भाषण छात्रों पर अच्छा प्रभाव डाल सकता है। अध्यापक को भाषा तथा शब्दावली में दक्ष होना चाहिए।

7. निष्पक्ष (Impartial):
अध्यापक को सभी के प्रति निष्पक्ष दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो छात्रों के विश्वास को जीत सकता है। पक्षपातपूर्ण व्यवहार सदा द्वेष तथा नफरत की भावना पैदा करता है। एक टीम के लिए अंपायर तथा रैफरी का निर्णय निष्पक्ष होना चाहिए, नहीं तो विवाद खड़ा हो सकता है।

8. सुहृदयता (Sincerity):
अध्यापक को अपना कार्य मन से करना चाहिए। उन्हें अपने कार्य तथा छात्रों के प्रति ईमानदार होना चाहिए। छात्र हमेशा एक समझदारीपूर्ण सलाह को मानते हैं।

9. ईमानदार तथा साहसी (Honest and Courageous):
ईमानदार अध्यापक का केवल छात्र ही सम्मान नहीं करते बल्कि समाज में भी उसको सम्मान दिया जाता है। ईमानदार अध्यापक स्कूल की सम्पत्ति तथा फण्ड का विचारणीय ढंग से प्रयोग करता है। छात्रों में अनुशासन को कायम रखने के लिए अध्यापक को साहसी भी होना चाहिए।

10. नियमित तथा समय का पाबंद (Regular and Punctual):
अध्यापक को नियमित तथा समय का पाबंद होना चाहिए। अनियमितता छात्रों पर बुरा प्रभाव डालती है। इसलिए एक आदर्श अध्यापक को समय का पाबंद होना चाहिए।
संक्षेप में अध्यापक को सदा छात्रों की क्षमता, योग्यता और रुचि को समक्ष रखकर ही उनको पढ़ाना चाहिए। अध्यापक को छात्रों का मूल्यांकन करते समय उनके प्रत्येक पक्ष की ओर निष्पक्ष रूप से ध्यान देना चाहिए। अध्यापक को सदा छात्रों को उत्साहित करना चाहिए ताकि वे किसी भी धारणा को स्पष्ट करने में झिझक महसूस न करें।

लघूत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
मनोविज्ञान के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
मनोविज्ञान (Psychology) शब्द यूनानी भाषा के दो शब्दों का मेल है। ये दो शब्द ‘साइके’ (Psyche) और ‘लोगस’ (Logos) हैं। साइके का अर्थ है-आत्मा (Soul) और लोगस (Logos) का अर्थ-बातचीत या विज्ञान है। इसलिए ‘Psychology’ का शाब्दिक अर्थ आत्मा का विज्ञान है। प्लेटो के अनुसार, “मनोविज्ञान आत्मा का विज्ञान है।” जैसे-जैसे समय बदलता गया, इसके अर्थों में वांछित परिवर्तन आते गए। सबसे पहले मनोविज्ञान को आत्मा का ज्ञान कहा गया। परंतु इस विचारधारा की मनोवैज्ञानिकों की ओर से आलोचना की गई।

फिर मनोविज्ञान को आत्मा की बजाय मन का विज्ञान कहा जाने लगा। 19वीं शताब्दी के मध्य में मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान को चेतना का विज्ञान कहा। उनका मानना था कि चेतना भी मन का एक भाग है। कोई भी व्यक्ति अपनी मानसिक प्रक्रियाओं के बारे में जागृत हो सकता है, परंतु दूसरों के बारे में सचेत होना कोई जानकारी नहीं हो सकती। अंत में मनोविज्ञान को व्यवहार का विज्ञान (Science of Behaviour) के रूप में स्वीकार किया गया।

प्रश्न 2.
मनोविज्ञान की कोई पाँच विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
मनोविज्ञान की पाँच विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार एवं संबंधों की प्रक्रिया है।
(2) यह व्यक्ति के व्यवहार में भिन्नता लाने में सहायक होता है।
(3) यह व्यक्ति के परिवेश के प्रति किए गए व्यवहार का क्रमिक अध्ययन है।
(4) यह मानव के व्यवहार को नियंत्रित रखने की विधि है।
(5) यह व्यक्ति के संवेगात्मक, ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक क्रियाओं का अध्ययन है।

प्रश्न 3.
खेल मनोविज्ञान के उद्देश्य क्या हैं?
उत्तर;
खेल मनोविज्ञान के उद्देश्य निम्नलिखित हैं
(1) शरीर-क्रियात्मक क्षमताओं में बढ़ोत्तरी करना।
(2) गति कौशल को सीखाना।
(3) संवेगों या भावनाओं पर नियंत्रण करना।
(4) खिलाड़ी को प्रतियोगिताओं के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करना।
(5) व्यवहार को समझने में सहायता करना।

प्रश्न 4.
अभिप्रेरणा के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अभिप्रेरणा मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है जो निम्नलिखित है
1. आंतरिक अथवा प्राकृतिक अभिप्रेरणा-आंतरिक अभिप्रेरणा को प्राकृतिक अभिप्रेरणा भी कहा जाता है। इस अभिप्रेरणा का संबंध प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति की प्राकृतिक इच्छाओं, स्वभाव तथा आवश्यकताओं से जुड़ा हुआ है। कोई भी प्रेरित व्यक्ति किसी काम को इसलिए करता है क्योंकि उसको आंतरिक प्रसन्नता व खुशी मिलती है। शिक्षा की प्रक्रिया में इस प्रकार की प्रेरणा का बहुत महत्त्व होता है, क्योंकि इससे प्राकृतिक रुचि पैदा होती है जो अंत तक बनी रहती है।

2. बाहरी या कृत्रिम अभिप्रेरणा-बाहरी अभिप्रेरणा अप्राकृतिक अथवा कृत्रिम होती है। इस अभिप्रेरणा में प्रसन्नता का स्रोत कार्य में नहीं छिपा होता। इसमें मनुष्य मानसिक प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए कोई कार्य नहीं करता, अपितु उद्देश्य की प्राप्ति अथवा इनाम जीतने के लिए कार्य करता है। कोई अच्छा स्तर हासिल करना, आजीविका कमाने के लिए कार्य सीखना, प्रशंसा हासिल करने के लिए कार्य करना आदि क्रियाएँ इस अभिप्रेरणा वर्ग में आती हैं।

प्रश्न 5.
रुचि बढ़ाने के मुख्य उपायों या तरीकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रुचि को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित उपायों या तरीकों का प्रयोग किया जा सकता है
1. भिन्न-भिन्न शिक्षण विधियाँ:
रुचि को बढ़ाने के लिए शिक्षक को भिन्न-भिन्न शिक्षण-विधियों का प्रयोग करना चाहिए। उसको शिक्षण-विधि में चार्ट, ग्राफ़, सहायक सामग्री, स्लाइड्स व चलचित्रों का प्रयोग करना चाहिए। ऐसा करने से विद्यार्थियों में विषय-वस्तु या खेल-कौशल को समझने में रुचि बढ़ जाती है।

2. विषय-वस्तु:
यदि विद्यार्थियों को कोई विषय-वस्तु सिखानी हो तो सबसे पहले उस विषय-वस्तु के लक्ष्यों व उद्देश्यों से विद्यार्थियों को परिचित (Acquaint) करा देना चाहिए। इससे उनकी रुचि उस विषय-वस्तु में बढ़ जाएगी।

3. वातावरण:
जिस वातावरण में कोई विषय-वस्तु सिखाई जाती है उस वातावरण का प्रभाव रुचि पर अवश्य पड़ता है। यदि वातावरण अच्छा है तो सीखने में खिलाड़ियों या विद्यार्थियों की रुचि अधिक होगी।अतः शिक्षक को अनुकूल वातावरण में ही कोई कौशल (Skill) सिखाना चाहिए।

4. व्यक्तित्व:
शिक्षक का व्यक्तित्व यदि अच्छा है तो बच्चों की रुचि पर उसके व्यक्तित्व का अच्छा प्रभाव पड़ता है।

5. सिखाने की कुशलता:
यदि किसी कौशल (Skill) को ‘सरल से कठिन’ (Simple to Complex) के नियम के आधार पर सिखाया जाता है तो बच्चों में सीखने के प्रति रुचि अधिक होगी।

HBSE 11th Class Physical Education Solutions Chapter 8 मनोविज्ञान एवं खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 6.
मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा को कैसे प्रभावित करता है?
उत्तर:
मनोविज्ञान का उद्देश्य व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करना है और शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। व्यक्ति का सर्वांगीण विकास तब तक संभव नहीं, जब तक उसके व्यवहार का पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता। मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा की सभी गतिविधियों व क्रियाओं को प्रभावित करता है। अतः शारीरिक शिक्षा की प्रत्येक प्रक्रिया मनोविज्ञान पर निर्भर है।

इसकी मदद से ही छात्रों को उनकी रुचियों, इच्छाओं व आवश्यकताओं के अनुसार उचित शिक्षा प्रदान की जा सकती है और उनका सर्वांगीण विकास किया जा सकता है। मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा को बहुत प्रभावित करता है। मनोविज्ञान द्वारा व्यक्ति के व्यवहार तथा उसकी प्रतिक्रिया सीखने के तरीकों का अध्ययन किया जाता है। अनेक मनोवैज्ञानिक तत्त्व; जैसे अभिवृत्ति, रुचि, प्रेरणा आदि शारीरिक शिक्षा को प्रभावित करते हैं।

मनोवैज्ञानिक तत्त्वों द्वारा खिलाड़ियों के आंतरिक व बाहरी स्वभाव या व्यवहार को समझा जाता है। जब कोई खिलाड़ी या व्यक्ति किसी खेल या व्यायाम में भाग लेता है तो उसके मन व व्यवहार की स्थिति उसकी खेल योग्यता को प्रभावित करती है। अत: मनोविज्ञान के तत्त्वों या पक्षों को ध्यान में रखकर या इसके सिद्धांतों की पालना करके शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में बढ़िया परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।

प्रश्न,7.
अभिवृत्ति की अवधारणा से आप क्या समझते हैं? अभिवृत्ति के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
अभिवृत्ति की अवधारणा-खेल के प्रति खिलाड़ी की अभिवृत्ति (Attitude) का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि खिलाड़ी की अभिवृत्ति अड़ियल अथवा झगड़ालू है तो वह व्यर्थ की हलचलों का शिकार हो जाता है जिसका उसके खेल कौशल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसलिए बढ़िया व्यवहार खेल-कुशलता को बढ़ाता है, परंतु विपरीत अभिवृत्तियाँ खेल-कुशलता पर धब्बा लगा देती हैं। अभिवृत्ति जन्मजात नहीं होती, बल्कि अर्जित होती है। अभिवृति एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे व्यक्ति या खिलाड़ी का व्यक्तित्व उजागर होता है।

कोई भी व्यक्ति अपने आस-पास के वातावरण से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। वातावरण के अनुसार ही हमारी अभिवृत्ति बन जाती है। अभिवृत्ति के बनने में शिक्षा, अनुभव व वातावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। समय के साथ-साथ हमारी अभिवृत्ति भी बदलती रहती है। अभिवृत्ति की परिभाषाएँ-अभिवृत्ति की निम्नलिखित परिभाषाएँ हैं

1. आलपोर्ट के अनुसार, “अभिवृत्ति या मनोवृत्ति मानसिक एवं तटस्थ नियुक्ति की तत्परता की एक ऐसी स्थिति है जो अनुभवों द्वारा निर्धारित होती है तथा जो उन समस्त वस्तुओं व परिस्थितियों के प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं को प्रेरित एवं निर्देशित करती है, जिनसे वह अभिवृत्ति संबंधित है।”

2. ट्रैवर्स के अनुसार, “अभिवृत्ति किसी कार्य को करने के लिए सहमति है जिससे व्यवहार को एक निश्चित दिशा मिल जाती है।” अभिवृत्ति के प्रकार-अभिवृत्ति निम्नलिखित दो प्रकार की होती है
(i) सकारात्मक अभिवृत्ति-यदि किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति हमारा दृष्टिकोण सकारात्मक है तो हम कह सकते हैं कि हमारी अभिवृत्ति सकारात्मक है।
(ii) नकारात्मक अभिवृत्ति-यदि किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति हमारा दृष्टिकोण नकारात्मक है तो उस वस्तु या व्यक्ति के प्रति हमारी अभिवृत्ति नकारात्मक होगी।

प्रश्न 8.
हमें मनोविज्ञान की आवश्यकता क्यों होती है?
उत्तर:
आधुनिक युग में मनोविज्ञान प्रभावशाली एवं व्यावहारिक विषय के रूप में प्रकट हुआ है। अनेक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकों; जैसे बिने, साइमन व फ्रायड आदि ने मानवीय व्यवहार की नवीन व्याख्या की है। आज मनोविज्ञान का स्तर निरंतर बढ़ रहा है। आज के भौतिक युग में इसकी बहुत आवश्यकता है, क्योंकि यह निम्नलिखित प्रकार से हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है
(1) मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार के प्रत्येक पक्ष का बारीकी से अध्ययन करता है; जैसे भौतिक व्यवहार, सामाजिक व्यवहार आदि।

(2) मनोविज्ञान ने हमें ऐसे नियम एवं सिद्धांत प्रदान किए हैं जो हमारे जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैं।

(3) मनोविज्ञान हमारे ज्ञान एवं बुद्धि में वृद्धि करता है। इससे हमारी कल्पना-शक्ति, तर्क-शक्ति, स्मरण-शक्ति का विकास होता है, क्योंकि इसमें ज्ञानात्मक एवं तर्कात्मक क्रियाओं पर अध्ययन किया जाता है।

(4) हमें व्यावहारिक कुशलता प्राप्त करने के लिए मनोविज्ञान की बहुत आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि इसमें व्यवहार पर अध्ययन किया जाता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का कोई भी व्यवहार शुद्ध रूप से मनोविज्ञान पर ही आधारित होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि मनोविज्ञान हमें व्यवहार कुशल बनाता है। एक व्यवहार कुशल व्यक्ति ही सफलता प्राप्त कर सकता है।

(5) शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। आज पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियाँ मनोवैज्ञानिक मान्यताओं

प्रश्न 10.
मनुष्य की मनो-शारीरिक एकता की अवधारणा से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जिसको समाज में रहकर अपना जीवन निर्वाह करना पड़ता है। इसको समाज में रहने के लिए दूसरे के साथ विचार-विमर्श, कौशल व्यवहार और सहयोग करना पड़ता है। मनुष्य के व्यवहार को हम दो भागों में बाँट सकते हैं, एक भाग आंतरिक है जिसे मानसिक कहा जाता है और दूसरा बाहरी जिसे शारीरिक कहा जाता है।

मानसिक अवस्था शारीरिक अवस्था को प्रभावित करती है और शारीरिक अवस्था मानसिक अवस्था को प्रभावित करती है अर्थात् शारीरिक एवं मानसिक-दोनों अवस्थाएँ एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं जिससे इनमें एकता का समन्वय होता है। इस प्रकार व्यक्ति की मनो-शारीरिक एकता बनती है। मन और शरीर अलग-अलग होते हुए भी एक साथ काम करते हैं। निस्संदेह व्यक्ति शरीर, मन, संवेग और दूसरी बहुत-सी वस्तुओं का मिला-जुला रूप है।

रूसो के कथनानुसार, “जब किसी को प्रशिक्षण दिया जाता है तो यह न केवल शारीरिक या मानसिक दिया जाता है, बल्कि संपूर्ण रूप से दिया जाता है।” शारीरिक काम करते समय मन भी काम करता है। इस तरह मानसिक काम के समय शरीर भी काम कर रहा होता है। हैरिक के अनुसार, “जब बच्चा स्कूल जाता है तो वह संपूर्ण रूप में जाता है। शिक्षा व्यक्ति का संपूर्ण विकास करती है न कि शारीरिक पक्ष को अलग और मानसिक पक्ष को अलग करती है। “जे०एफ० विलियम्स का कथन है, “विचारों पर पाचन क्रिया, रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा और ग्रंथि द्वारा पैदा किए रूपों का प्रभाव पड़ सकता है।”

उपर्युक्त विवरण एवं परिभाषाओं से स्पष्ट है कि हमारा शरीर इस प्रकार का अंग-संस्थान है जिसमें मन को शरीर से अलग नहीं किया जा सकता। दोनों परस्पर एक-दूसरे से संबंधित और एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। यदि शरीर बेचैन है तो इससे मन या मानसिक व्यवहार भी प्रभावित होगा और यदि मन बेचैन है तो इससे शारीरिक क्षमता प्रभावित होगी। इस प्रकार से स्पष्ट है कि व्यक्ति के शरीर और मन के सामूहिक कार्य को मनो-शारीरिक एकता (Psycho-physical Unity) कहा जाता है।

प्रश्न 11.
खेलों में प्रेरणा की भूमिका का संक्षेप में वर्णन करें। अथवा अभिप्रेरणा का खेलों में क्या महत्त्व है?
उत्तर:
प्रेरणा या अभिप्रेरणा का क्षेत्र सीमित नहीं है। इसकी आवश्यकता सिर्फ खेलों में ही नहीं अपित अन्य क्षेत्र में भी ज़रूरी है। प्रेरणा व्यक्ति में अतिरिक्त शक्ति पैदा करती है जिससे वह प्रत्येक कार्य को स्वयं और खुशी-खुशी करता है । खेलों में विशेषतौर पर प्रेरणा का बहुत बड़ा योगदान है। यह एक ऐसी शक्ति है जो खिलाड़ी को कठिन परिस्थितियों में भी अच्छे प्रदर्शन के लिए प्रेरित करती है। अच्छी कुशलता के लिए बहुत सारे तत्त्वों का होना ज़रूरी है।

परंतु यदि प्रेरणा वाला तत्त्व निकाल लिया जाए तो शेष सारे तत्त्व व्यर्थ हो जाते हैं । खेलों के प्रति खिलाड़ी को प्रेरित करना एक कठिन तथा लंबे समय का कार्य है। जितने भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी होते हैं, वे खेलों के प्रति बहुत अधिक प्रेरित हुए होते हैं। खिलाड़ियों को मनोवैज्ञानिक, थकावट तथा तनाव जैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। प्रेरणा के बिना खिलाड़ी प्रतियोगिताओं में अपनी कुशलता अच्छी तरह नहीं दिखा सकता।

प्रेरणा न सिर्फ अच्छी कुशलता के लिए प्रेरित करती है, अपितु कठोर प्रशिक्षण तथा दुःखदायी कठिनाइयों या परिस्थितियों से भी बचाकर रखती है। प्रेरणा सिर्फ नए खिलाड़ियों के लिए ही ज़रूरी नहीं, अपितु यह उन सभी खिलाड़ियों के लिए ज़रूरी होती है जो पहले से ही प्रेरित हुए होते हैं। कई बार वे भी कठिनाइयों के कारण साहस छोड़ देते हैं । उनको फिर से प्रतियोगिताओं के लिए तैयार करना प्रेरणा का ही कमाल होता है। इस प्रकार प्रेरणा खेलों में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

HBSE 11th Class Physical Education Solutions Chapter 8 मनोविज्ञान एवं खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 12.
खेलकूद में खेल मनोविज्ञान किस प्रकार से सहायक होता है?
अथवा
खिलाड़ियों के लिए खेल मनोविज्ञान किस प्रकार से उपयोगी होता है?
उत्तर:
खेलकूद में खेल-मनोविज्ञान निम्नलिखित प्रकार से उपयोगी होता है
(1) खेल मनोविज्ञान खेल प्रतियोगिताओं में शामिल खिलाड़ियों के व्यवहार को समझने में सहायता करता है।
(2) यह खिलाड़ियों की क्रियात्मक क्षमताओं या योग्यताओं को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।
(3) यह खिलाड़ियों की भावात्मक या संवेगात्मक समस्याओं को नियंत्रित करने में सहायक होता है।
(4) यह खिलाड़ियों के खेल-स्तर को ऊँचा उठाने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।
(5) यह खिलाड़ियों के गतिपरक कौशल को बढ़ाने में सहायक होता है।
(6) यह खिलाड़ियों की अनेक मानसिक समस्याओं को दूर करने में भी सहायक होता है।
(7) यह खिलाड़ियों में अनेक सामाजिक गुणों का विकास करने में भी सहायक होता है।
(8) यह खिलाड़ियों को प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने हेतु मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

प्रश्न 13.
सीखने के प्रभाव का नियम’ पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
खेल बच्चों की मूल प्रवृत्ति है। प्रत्येक बच्चा खेल में मन की आजादी प्राप्त करना चाहता है। प्रभाव के नियम को ‘सजा’ और ‘इनाम’ का सिद्धांत भी कहा जाता है। यह प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक थॉर्नडाइक का विचार है कि अगर स्थिति और हंगामे के दौरान संबंध सुखमयी है तो उस संबंध का प्रभाव शक्तिशाली होता है। परंतु अगर संबंध का प्रभाव दुखदायी है तो प्रभाव कमजोर हो जाता है।

अगर अच्छी तरह जाँच करके देखा जाए तो सब कुछ क्रिया के नतीजे पर निर्भर करता है। अगर बच्चा जिस क्रिया में भाग ले रहा होता है, वह क्रिया उसको अच्छी लगती है तो उसका प्रभाव भी अच्छा पड़ता है। बच्चा उसको खुशी-खुशी सीखना पसंद करता है और उसको बार-बार करके प्रसन्नता अनुभव करता है।

परंतु अगर किसी क्रिया का प्रभाव दुखमयी है या वह क्रिया जो उसको अच्छी नहीं लगती है तो वह उसको सीखने से इंकार कर सकता है, बेशक यह प्रभाव उसकी अपनी गलती या घटिया सम्मान के कारण हो सकता है। बच्चे केवल उन क्रियाओं को करके खुश होते हैं, जिनका प्रभाव शारीरिक और मानसिक तौर पर खुशी देता है। शारीरिक शिक्षा का भविष्य और खेलों के प्रति बच्चों की रुचि इस नियम पर ज्यादा आधारित है।

प्रश्न 14.
छात्रों को प्रेरित करने हेतु अध्यापक में कौन-कौन-से गुण होने चाहिएँ? उत्तर- छात्रों को प्रेरित करने हेतु अध्यापक में निम्नलिखित गुण होने चाहिएँ
(1) अध्यापक को छात्रों के सामने आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए क्योंकि उसका निरंतर उसके आस-पास रहने वाले व्यक्तियों तथा छात्रों के द्वारा अनुसरण किया जाता है।

(2) अध्यापक के व्यक्तित्व में दृढ़-निश्चयी का गुण होना चाहिए। उसे अपने सिखाने वाले ढंग के प्रति पूर्ण रूप से दृढ़-निश्चयी होना चाहिए। एक दृढ़-निश्चय वाला अध्यापक कभी भी अपने कार्य को अधूरा नहीं छोड़ता। इससे छात्रों पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।

(3) अध्यापक का सहानुभूतिपूर्ण तथा स्नेही दृष्टिकोण छात्रों द्वारा पसंद किया जाता है। इसके साथ-साथ शिक्षण प्रक्रिया भी दिलचस्प बनती रहती है। अध्यापक और छात्र के बीच द्वेष तथा नफरत का संबंध शिक्षण प्रक्रिया में रुकावट उत्पन्न करता है।

(4) अध्यापक के अंदर ऐसे गुण होने चाहिएँ जो छात्रों को प्रभावशाली ढंग से प्रभावित कर सकें। उसका स्वभाव हंसमुख होना चाहिए। अच्छा व्यक्तित्व हमेशा ही छात्रों द्वारा सराहनीय होता है। गतिशील व्यक्तित्व छात्रों पर अच्छा प्रभाव डालता है।

(5) अध्यापक को सभी के प्रति निष्पक्ष दृष्टिकोण अपनाना चाहिए जो छात्रों के विश्वास को जीत सकता है। पक्षपातपूर्ण व्यवहार सदा द्वेष तथा नफरत की भावना पैदा करता है। एक टीम के लिए अंपायर तथा रैफरी का निर्णय निष्पक्ष होना चाहिए, नहीं तो विवाद खड़ा हो सकता है।

प्रश्न 15.
खेलों में संवेगों की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
संवेग जन्म से ही होते हैं। ये सभी में पाए जाते हैं। ये मानसिक विकास की स्थिति में होते हैं। संवेगों से शारीरिक परिवर्तन होता है; जैसे हृदय की धड़कन, ब्लड प्रैशर, पाचन तंत्र, ग्रंथियों और नाड़ी तंत्र की प्रतिक्रिया में परिवर्तन आ जाता है। इसलिए यह जरूरी है कि योजनाबद्ध क्रियाकलाप द्वारा संवेगों से पैदा होने वाली शक्ति को लाभदायक और रचनात्मक कार्यों में लगाया जाए।

शारीरिक शिक्षा के अध्यापक को प्रत्येक छात्र की संवेग परिपक्वता स्तर से परिचित होना आवश्यक है ताकि बच्चों की अपार-शक्ति को किसी उचित काम में लगाया जा सके। संवेगों को दबाना व्यक्ति के शरीर और मन से धोखा है। इससे उसके शारीरिक और मानसिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है। खेल के मैदान में नवयुवक लड़के और लड़कियाँ संवेगों का खुलकर प्रदर्शन करते हैं जिससे उनके संवेगों से उत्तेजना, उत्साह और जीवन में आनंद की प्राप्ति होती है।

भय, क्रोध, खुशी, प्रेम, घृणा और निराशा आदि संवेगों के मुख्य रूप हैं। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक इन संवेगों को समझकर अपने अध्यापन का ढंग अच्छा बना सकता है, जिससे बच्चों की रचनात्मक भावनाओं को शक्ति मिलती है और हानिकारक भावना खत्म होती है। संवेग खिलाड़ी को अपना उद्देश्य प्राप्त करने में भी सहायता करते हैं; जैसे मैच में असफलता का भय उसे अच्छी तरह खेलने के लिए प्रेरित करता है। मानसिक स्वास्थ्य संवेगों पर निर्भर करता है।

अगर इनको सही दिशा की ओर न लगाया जाए तो ये तनाव जैसे विकार पैदा करते हैं, जोकि शरीर पर बुरा प्रभाव डालते हैं। खेल द्वारा बच्चा मानसिक तनाव पर विजय प्राप्त कर सकता है क्योंकि खेल मनोभावुक विचारों के लिए औषधि का काम करता है। खेल में बच्चे का भय, कमजोरी आदि अनैच्छिक भावनाएँ सामने आ जाती हैं। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक इन भावनाओं को अच्छी तरह उभारकर शारीरिक प्रशिक्षण द्वारा सुधार करके बच्चे के पूर्ण विकास में योगदान दे सकता है।

संवेगों पर नियंत्रण का हमारे जीवन और व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। संवेगों पर नियंत्रण करने के लिए खेल एकमात्र ऐसा साधन हैं, जिनसे संवेगों में सुधार किया जा सकता है। संवेगों पर नियंत्रण से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखा जा सकता है। इससे व्यक्ति के सामाजिक जीवन, चरित्र, संतुलित विकास और दृष्टिकोण में सुधार लाया जा सकता है।

प्रश्न 16.
संवेगों की प्रमुख किस्में (प्रकार) कौन-कौन-सी हैं?
उत्तर:
संवेगों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-एक साधारण और दूसरे जटिल संवेग। साधारण संवेग में एक ही संवेग होता है, जबकि जटिल संवेग में एक से अधिक संवेग होते हैं; जैसे घृणा और गुस्सा, प्यार, दया और हमदर्दी मिले-जुले संवेग हैं । साधारण संवेग ज्यादातर बच्चों में पाए जाते हैं और जटिल संवेग बड़ों में पाए जाते हैं। इस प्रकार गम और खुशी साधारण संवेग कहलाते हैं जबकि प्यार और घृणा जटिल संवेग कहलाते हैं जो निम्नलिखित हैं

1. दुःख-दुःख संवेग (Grief Emotion):
उस समय प्रकट होता है जब किसी का लक्ष्य पूरा नहीं होता या इच्छाएँ पूरी नहीं होती। इनमें मुंह सूज जाता है, छाती सिकुड़ जाती है, आँखों में अश्रु, गले का बैठना, बेहोश होना, जोर-जोर से रोना आदि दुःख की निशानियाँ हैं।

2. खुशी-खुशी (Joy):
दु:ख के विपरीत है। यह संवेग उस समय प्रकट होता है जब किसी की इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं। इसमें छाती का फूलना, चेहरे पर खुशी, आँखों में चमक, खुशी से उछलना, नाचना और तालियाँ मारने जैसी निशानियाँ होती हैं।

3. प्यार-प्यार (Love):
शक्तिशाली संवेग है। माँ जब बच्चे को प्यार करती है तो यह उसकी अंत:प्रक्रिया है। प्यार में स्वार्थ प्रायः देखने को मिलता है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है। प्यार में गले मिलना, चूमना आदि साधारण निशानियाँ हैं।

4. घृणा-घृणा (Hate):
एक जटिल संवेग है। घृणा व्यक्ति की सोच पर बहुत निर्भर करती है। कुछ लोग दूसरे लोगों से घृणा करते हैं। वे लोग उनके प्रत्येक काम से घृणा करते हैं और उनसे कोई संबंध कायम नहीं करते।

HBSE 11th Class Physical Education Solutions Chapter 8 मनोविज्ञान एवं खेल मनोविज्ञान

प्रश्न 17.
खिलाड़ी की आदतें उसकी खेल कुशलता को कैसे प्रभावित करती हैं?
उत्तर:
खिलाड़ी की आदतें उसकी खेल-कुशलता पर गहरा प्रभाव डालती हैं। खिलाड़ी का समय पर क्रियाएँ करना, सुबह समय पर उठना, रोजाना खेल का अभ्यास करना, अपने कोच, बड़ों और माता-पिता का आदर करना आदि आदतें खेल-कुशलता में बढ़ोत्तरी करती हैं। इसके विपरीत खिलाड़ी का समय पर अभ्यास न करना, नशा करना, कोच की ओर से दिए गए प्रशिक्षण को न अपनाना, नियमों का पालन न करना आदि आदतें खिलाड़ी की खेल-कुशलता को कम करती हैं।

अच्छी आदतें खिलाड़ी के व्यवहार और साहस का प्रदर्शन करती हैं। ये खिलाड़ी के तौर-तरीके, सामाजिक गुणों और मेल-मिलाप को असली रूप प्रदान करती हैं। खिलाड़ी को बुरी आदतों से बचना चाहिए और अच्छी आदतों को अपनाकर अपने मान-सम्मान और खेल-कुशलता में बढ़ोतरी करनी चाहिए।

अतिलघुत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)]

प्रश्न 1.
मनोविज्ञान की कोई दो परिभाषाएँ लिखें।
उत्तर:
1. रॉस के कथनानुसार, “मनोविज्ञान मानसिक रूप में व्यवहार और स्पष्टीकरण का उल्लेख है।”
2. वाटसन के कथनानुसार, “मनोविज्ञान व्यवहार का सकारात्मक या यथार्थ विज्ञान है।”

प्रश्न 2.
खेल मनोविज्ञान का अर्थ स्पष्ट करें।
अथवा
खेल मनोविज्ञान को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
खेल मनोविज्ञान एक व्यावहारिक मनोविज्ञान है। यह व्यक्तियों, खेलों तथा शारीरिक क्रियाओं के प्रेरणात्मक या संवेगात्मक पहलुओं से संबंधित है। इसमें प्रायः उन सभी विधियों का प्रयोग होता है जो मनोविज्ञान में प्रयोग की जाती हैं।

1. जॉन लोथर के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान वह क्षेत्र है, जो मनोवैज्ञानिक तथ्यों, सीखने के सिद्धांतों, प्रदर्शनों तथा खेलकूद में मानवीय व्यवहार के संबंधों में लागू होता है।”

2. के०एम० बर्नस के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान, शारीरिक शिक्षा की वह शाखा है जिसका संबंध व्यक्ति की शारीरिक योग्यता से होता है, जोकि खेलकूद में भाग लेने से आती है।”

प्रश्न 3.
खेल मनोविज्ञान की कोई दो विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
(1) खेल मनोविज्ञान व्यवहार का मनोविज्ञान है,
(2) यह खिलाड़ियों या व्यक्तियों की मानसिक क्रियाओं का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करता है।

प्रश्न 4.
मनोविज्ञान की अवधारणा का क्रमिक विकास बताएँ।
उत्तर:
मनोविज्ञान सबसे पहले दर्शनशास्त्र की एक शाखा थी। बाद में इसे आत्मा का विज्ञान, मन का विज्ञान, चेतना का विज्ञान कहा गया है। वर्तमान में इसको व्यवहार का विज्ञान कहा जाता है।

प्रश्न 5.
मनोविज्ञान की कोई चार शाखाओं के नाम बताएँ।
उत्तर:
(1) शिक्षा मनोविज्ञान,
(2) बाल मनोविज्ञान,
(3) शारीरिक मनोविज्ञान,
(4) खेल मनोविज्ञान।

प्रश्न 6.
हमें मनोविज्ञान की अधिक आवश्यकता क्यों है? दो कारण बताएँ।
उत्तर:
(1) व्यवहार कुशलता के लिए,
(2) व्यक्तिगत समस्याओं के समाधान के लिए।

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प्रश्न 7.
मनोविज्ञान जीवन के किन-किन क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण माना जाता है?
उत्तर:
(1) राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में,
(2) औद्योगिक व व्यावसायिक क्षेत्र में,
(3) शिक्षा, चिकित्सा व खेलों के क्षेत्र में,
(4) युद्ध के क्षेत्र में,
(5) व्यक्तिगत समस्याओं के क्षेत्र में आदि।

प्रश्न 8.
अभिप्रेरणा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:
अभिप्रेरणा दो प्रकार की होती है
(1) आंतरिक या प्राकृतिक अभिप्रेरणा,
(2) बाहरी या कृत्रिम अभिप्रेरणा।

प्रश्न 9.
पी०टी० यंग के अनुसार अभिप्रेरणा को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
पी०टी० यंग के अनुसार, “अभिप्रेरणा आगे बढ़ रही क्रिया को जागृत, आगे बढ़ाने और उस क्रिया को आदर्श रूप में क्रमबद्ध करने की प्रक्रिया है।”

प्रश्न 10.
अभिप्रेरणा के विभिन्न पक्ष कौन-कौन-से हैं?
उत्तर:
अभिप्रेरणा के कई पक्ष हैं जिनका ज्ञान होना ज़रूरी है। इन पक्षों को सामने रखकर खिलाड़ियों में अच्छी कुशलता लाई जा सकती है:
(1) इच्छा,
(2) आवश्यकता,
(3) मनोवृत्ति,
(4) रुचि,
(5) ध्यान,
(6) इनाम,
(7) दृढ़-निश्चय,
(8) खेलों की कुशलता सीखने की रुचि।

प्रश्न 11.
बाहरी अभिप्रेरणा अथवा कृत्रिम अभिप्रेरणा के कोई तीन उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
(1) सामाजिक इनाम,
(2) प्रतियोगिताएँ,
(3) दंड।

प्रश्न 12.
सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की क्या भूमिका होती है?
उत्तर:
सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि किसी छात्र को किसी कार्य हेतु अभिप्रेरित नहीं किया जाता तो वह सीखने की प्रक्रिया में रुचि नहीं लेता। अभिप्रेरणा ही छात्र को सफलता की ओर ले जाती है। छात्रों में अभिप्रेरणा उत्पन्न करने के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग किया जा सकता है और सीखने की प्रक्रिया को तीव्र किया जा सकता है।

प्रश्न 13.
सीखने की अवधारणा से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्रत्येक व्यक्ति बदलते पर्यावरण से समझौता करता है। बदला हुआ पर्यावरण प्रत्येक व्यक्ति पर अपनी छाप छोड़ जाता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वह शारीरिक और मानसिक तौर पर बढ़ता है और नई-नई प्रतिक्रियाएँ सीखता है, जिससे उसमें परिवर्तन आना शुरू हो जाता है। सीखना जिंदगी में सदैव चलता रहता है।

बच्चा केवल स्कूल में ही नहीं सीखता, बल्कि जिन तजुर्बो या अनुभवों (Experiences) में से वह गुजर रहा होता है, उनसे भी वह बहुत कुछ सीखता है। बच्चा बचपन में शारीरिक, मानसिक, भावात्मक तौर पर दूसरों पर निर्भर रहता है। परंतु समय बीतने पर जब मानसिक और शारीरिक विशेषताएँ आ जाती हैं तो उसमें आत्म-निर्भरता की भावना बढ़ने लगती है।

प्रश्न 14.
सीखने के कौन-कौन-से नियम होते हैं?
उत्तर:
सीखने के निम्नलिखित तीन नियम होते हैं
(1) तैयारी का नियम,
(2) अभ्यास का नियम,
(3) प्रभाव का नियम।

प्रश्न 15.
सीखने में बढ़ोतरी करने वाले कोई तीन कारक बताएँ।
उत्तर:
(1) प्रशिक्षक का व्यक्तित्व,
(2) शारीरिक योग्यता,
(3) खेलों में रुचि।

प्रश्न 16.
सीखने (Learning) को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
1. गेट्स के कथनानुसार, “तजुर्बो से व्यवहार में आने वाले परिवर्तनों को सीखना कहा जाता है।”
2. हैनरी पी० स्मिथ के अनुसार, “सीखना नए व्यवहार में बढ़ोतरी करना है या अनुभवों से पुराने व्यवहार को ताकतवर या कमज़ोर बनाया जा सकता है।”

प्रश्न 17.
रुचि से आप क्या समझते हैं?
अथवा
रुचि को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
रुचि वह प्रेरित शक्ति है जो हमारा ध्यान किसी व्यक्ति या वस्तु की तरफ दिलाती है या फिर कोई प्रभावशाली अनुभव है जोकि क्रिया से स्वयं उपजता है। दूसरे शब्दों में, रुचि या तो किसी क्रिया का कारण है या उस क्रिया में भाग लेने का परिणाम। विलियम जेम्स के अनुसार, “रुचि चयनित जागरूकता या ध्यान का वह रूप है जो किसी के संपूर्ण अनुभवों में से अर्थ पैदा करता है।”

प्रश्न 18.
खिलाड़ी की रुचि खेल-कुशलता को कैसे प्रभावित करती है?
उत्तर:
खेलों को ठीक ढंग से सीखने के लिए खिलाड़ी की रुचि बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। खेल-कुशलता को बढ़ाने के लिए खेल की बारीकियाँ तभी सीखी जा सकती हैं अगर खिलाड़ी उस खेल में अधिक-से-अधिक रुचि रखता हो। अगर खिलाड़ी की खेल में रुचि नहीं है तो सफलता का मिलना मुश्किल हो जाता है। खेल-कुशलता में बढ़ोतरी तभी हो सकती है अगर खिलाड़ी की रुचि सीखते समय क्रिया पर केंद्रित हो। इसलिए रुचि और कुशलता में गहरा संबंध होता है।

प्रश्न 19.
अभिवृत्ति के प्रकार कौन-कौन-से हैं?
उत्तर:
सामान्य तौर पर अभिवृत्ति दो प्रकार की होती है
1. सकारात्मक अभिवृत्ति-किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति हमारा दृष्टिकोण सकारात्मक है तो हम कह सकते हैं कि हमारी अभिवृत्ति सकारात्मक है।
2. नकारात्मक अभिवृत्ति-यदि किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति हमारा दृष्टिकोण नकारात्मक है तो उस वस्तु या व्यक्ति के प्रति हमारी अभिवृत्ति नकारात्मक होगी।

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प्रश्न 20.
खिलाड़ी की खेल-कुशलता को प्रभावित करने वाले कोई चार मनोवैज्ञानिक कारक बताएँ।
उत्तर:
(1) रुचि,
(2) आत्म-विश्वास,
(3) अभिवृत्ति,
(4) साहस।

प्रश्न 21.
आत्म-विश्वास खिलाड़ी की कुशलता को कैसे प्रभावित करता है?
उत्तर:
खिलाड़ी द्वारा आत्म-विश्वास से खेल सीखने और उसका बार-बार अभ्यास करने से आत्म-विश्वास में बढ़ोतरी होती है। कई बार सीखने वाली क्रिया मुश्किल होती है और कई बार अन्य कारणों से अन्य मुश्किलें पैदा होती हैं, परंतु खिलाड़ी का आत्म-विश्वास मुश्किल क्रिया को आसान क्रिया में बदल देता है। खेल में ऐसे कई उदाहरण हैं कि कई बार अच्छी टीम आत्म-विश्वास खो जाने के कारण मैच हार जाती है और कमजोर टीम आत्म-विश्वास पैदा करके जीत जाती है। इसलिए आत्म-विश्वास प्रत्येक खिलाड़ी के लिए बहुत जरूरी तत्त्व है।।

प्रश्न 22.
खिलाड़ी की अभिवृत्ति खेल-कुशलता को कैसे प्रभावित करती है?
उत्तर:
खेलों में अभिवृत्ति (Attitude) की बहुत महत्ता है। अगर खिलाड़ी की अभिवृत्ति सीखने की है तो उसका सीखना सरल और आसान हो सकता है। अभिवृत्ति सीखने पर असर डालती है। अगर खिलाड़ी के स्वभाव में एकरूपता नहीं है या तो वह न मानने वाली प्रवृत्ति रखता है या वह भावात्मक प्रवृत्ति का शिकार होता है। वह एक विशेष दायरे से बाहर नहीं निकलना चाहता। कई बार ऐसे खिलाड़ी को नियमों से दूर रहना पड़ता है। खेल में बढ़िया व्यवहार भी महत्त्वपूर्ण होता है। बढ़िया व्यवहार खेल की कुशलता में बढ़ोतरी करता है।

प्रश्न 23.
खेल-भावना (Sportsmanship) से आपका क्या अभिप्राय है?
अथवा
खेल-भावना क्या है? इसको कैसे बढ़ाया जा सकता है?
उत्तर:
जो खिलाड़ी या टीम अपने प्रतिद्वन्द्वी के प्रति वैर-विरोध न करके एक-दूसरे के प्रति सद्भावनापूर्ण व्यवहार से खेलता/ खेलती है, खिलाड़ी या टीम के ऐसे आचरण को ही खेल-भावना कहते हैं। अच्छा खिलाड़ी वही होता है जो विजयी होने पर भी हारी हुई टीम या खिलाड़ी को उत्साहित करें और हार जाने पर विजयी टीम को पूरे सम्मान के साथ बधाई दे। ऐसा खिलाड़ी खेल-भावना को बढ़ाता है। खेल के दौरान वह अनुशासन में रहकर सहनशीलता, धैर्य, त्याग, आत्मविश्वास आदि भावनाओं को भी अपनाता है जो उसकी आदर्श खेल भावना या खिलाड़ी भावना को उजागर करते हैं । इस प्रकार से खेल भावना को बढ़ाया जा सकता है।

प्रश्न 24.
संवेग (Emotion) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
‘Emotion’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘Emovere’ से बना है जिसका अर्थ हिलाना, उत्तेजित करना या हलचल पैदा करना है। जब हमारी भावनाएँ बहुत अशांत, तीव्र और उत्तेजित हो जाती हैं तो वे संवेग का रूप धारण कर लेती हैं। संवेग शरीर और मन की वह अवस्था है जिसमें उत्तेजना और हलचल पाई जाती है।

HBSE 11th Class Physical Education मनोविज्ञान एवं खेल मनोविज्ञान Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ पर Objective Type Questions)

भाग-I : एक शब्द/वाक्य में उत्तर दें

प्रश्न 1.
मनुष्य के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन क्या कहलाता है?
उत्तर:
मनुष्य के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन मनोविज्ञान कहलाता है।

प्रश्न 2.
“मनोविज्ञान व्यवहार का सकारात्मक या यथार्थ विज्ञान है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन वाटसन का है।

प्रश्न 3.
मनोविज्ञान (Psychology) शब्द किस भाषा का शब्द है?
उत्तर:
मनोविज्ञान (Psychology) शब्द ग्रीक भाषा का शब्द है।

प्रश्न 4.
‘Psychology’ शब्द किन दो शब्दों से मिलकर बना है?
उत्तर:
‘Psychology’ शब्द साइके (Psyche) और लोगस (Logos) शब्दों से मिलकर बना है।

प्रश्न 5.
क्रो व क्रो ने मनोविज्ञान को कैसे परिभाषित किया है?
उत्तर:
क्रो व क्रो के अनुसार, “मनोविज्ञान मानवीय व्यवहार और इसके संबंधों का विज्ञान है।”

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प्रश्न 6.
उपलब्धि क्या है?
उत्तर:
खेलों के समय कुशलता तथा कार्य-क्षमता को उपलब्धि कहते हैं।

प्रश्न 7.
‘अभिप्रेरणा’ शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर:
अभिप्रेरणा शब्द लातीनी भाषा के शब्द ‘Movere’ से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘to change’ तथा ‘to move’ ।

प्रश्न 8.
“मनोविज्ञान को व्यवहार का, वैज्ञानिक खोज का अध्ययन कहा जाता है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन एन०एल० मुन्न का है।

प्रश्न 9.
रुचि कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:
रुचि दो प्रकार की होती है।

प्रश्न 10.
अभिवृत्ति क्या है?
उत्तर:
अभिवृत्ति किसी कार्य को करने के लिए सहमति है जिससे व्यवहार को एक निश्चित दिशा मिल जाती है।

प्रश्न 11.
“मनोविज्ञान मानसिक रूप में व्यवहार और स्पष्टीकरण का उल्लेख है।” यह कथन किसने कहा?
उत्तर:
यह कथन रॉस ने कहा।

प्रश्न 12.
किससे कठिन-से-कठिन खेल आसानी से सीखा जा सकता है?
उत्तर:
निरंतर अभ्यास से कठिन खेल भी आसानी से सीखा जा सकता है।

प्रश्न 13.
भूख, प्यास, स्नेह आदि किस अभिप्रेरणा के उदाहरण हैं?
उत्तर:
भूख, प्यास, स्नेह आदि आंतरिक अभिप्ररेणा के उदाहरण हैं।

प्रश्न 14.
अभिप्रेरणा कितने प्रकार की है?
उत्तर:
अभिप्रेरणा दो प्रकार की है।

प्रश्न 15.
अभिवृत्ति कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:
अभिवृत्ति दो प्रकार की होती है।

प्रश्न 16.
मनोविज्ञान का जन्मदाता शास्त्र किसे माना जाता है?
उत्तर:
मनोविज्ञान का जन्मदाता दर्शनशास्त्र (Philosophy) को माना जाता है।

प्रश्न 17.
मनोविज्ञान का जनक किसे माना जाता है?
उत्तर:
मनोविज्ञान का जनक विल्हेल्म कुंड को माना जाता है।

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प्रश्न 18.
अरस्तू एवं प्लेटो ने मनोविज्ञान को किसका विज्ञान माना है?
उत्तर:
अरस्तू एवं प्लेटो ने मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान माना है।

प्रश्न 19.
वर्तमान में मनोविज्ञान को किसका अध्ययन कहा जाता है?
उत्तर:
वर्तमान में मनोविज्ञान को व्यवहार का अध्ययन कहा जाता है।

प्रश्न 20.
“मनोविज्ञान आत्मा का विज्ञान है।” मनोविज्ञान की यह परिभाषा किसकी है?
उत्तर:
मनोविज्ञान की यह परिभाषा प्लेटो की है।

प्रश्न 21.
आंतरिक अभिप्रेरणा के कोई दो उदाहरण बताएँ।
उत्तर:
(1) सफलता,
(2) सामाजिक आवश्यकताएँ।

प्रश्न 22.
व्यक्ति के शरीर और मन के सामूहिक कार्य को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
व्यक्ति के शरीर और मन के सामूहिक कार्य को मनो-शारीरिक एकता कहा जाता है।

प्रश्न 23.
मानव व्यवहार की नवीन व्याख्या करने वाले कोई दो मनोवैज्ञानिक बताएँ।
उत्तर:
(1) साइमन,
(2) फ्रायड।

प्रश्न 24.
‘Emotion’ शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई?
उत्तर:
‘Emotion’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Emovere’ शब्द से हुई।

प्रश्न 25.
“संवेग वे घटनाएँ हैं जिनमें व्यक्ति अशांत या उत्तेजित होता है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन गेट्स का है।

प्रश्न 26.
“खेल मनोविज्ञान एथलेटिक्स में व्यक्ति के व्यवहार की खोजबीन करता है” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन वाटसन का है।

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प्रश्न 27.
“अज्ञानी होना उतनी शर्म की बात नहीं है जितना कि सीखने की इच्छा न रखना।” यह कथन किसने कहा?
उत्तर:
यह कथन बेंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा।

प्रश्न 28.
खेल के सभी नियमों का पालन बहुत ही अच्छे ढंग से करने वाले खिलाड़ी का कौन-सा गुण उजागर होता है?
उत्तर:
खेल के सभी नियमों का पालन बहुत ही अच्छे ढंग से करने वाले खिलाड़ी का अनुशासन का गुण उजागर होता है।

प्रश्न 29.
एक अच्छे स्पोर्टसमैन का कोई एक गुण बताएँ।
उत्तर:
आत्म-विश्वास की भावना।

प्रश्न 30.
खेल की जीत का सारा राज किस भावना पर अधिक निर्भर करता है?
उत्तर:
खेल की जीत का सारा राज मुकाबले की भावना पर अधिक निर्भर करता है।

प्रश्न 31.
खेल-नीतिशास्त्र का संबंध खेल के क्षेत्र में किससे है?
उत्तर:
खेल-नीतिशास्त्र का संबंध खेल के क्षेत्र में नैतिकता से है।

प्रश्न 32.
खेल-भावना और खेल नीतिशास्त्र का आपस में संबंध कैसा है?
उत्तर:
खेल-भावना और खेल नीतिशास्त्र का आपस में घनिष्ठ संबंध है।

भाग-II : सही विकल्प का चयन करें

1. मनोविज्ञान किसका अध्ययन करता है?
(A) व्यवहार का
(B) समाज का
(C) जाति का
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) व्यवहार का

2. ‘Psychology’ शब्द किस भाषा के दो शब्दों का मेल है?
(A) लैटिन भाषा
(B) फारसी भाषा
(C) यूनानी भाषा
(D) संस्कृत भाषा
उत्तर:
(C) यूनानी भाषा

3. ‘साइके’ और ‘लोगस’ शब्द, जिनसे ‘मनोविज्ञान’ बना है, का अर्थ है
(A) आत्मा, विज्ञान
(B) मन, विज्ञान
(C) विज्ञान, बातचीत
(D) आत्मा, शरीर
उत्तर:
(A) आत्मा, विज्ञान

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4. किसको पहले ‘आत्मा का विज्ञान’ कहा जाता रहा है?
(A) दर्शनशास्त्र को
(B) अर्थशास्त्र को
(C) जीव विज्ञान को
(D) मनोविज्ञान को
उत्तर:
(D) मनोविज्ञान को

5. किस शताब्दी में मनोविज्ञान को चेतना का विज्ञान कहा जाने लगा?
(A) 18वीं शताब्दी में
(B) 19वीं शताब्दी में
(C) 17वीं शताब्दी में
(D) 20वीं शताब्दी में
उत्तर:
(B) 19वीं शताब्दी में

6. “मनोविज्ञान को व्यवहार का, वैज्ञानिक खोज का अध्ययन कहा जाता है।” यह कथन है
(A) रॉस का
(B) क्रो व क्रो का
(C) एन० एल० मुन्न का
(D) वुडवर्थ का
उत्तर:
(C) एन० एल० मुन्न का

7. “मनोविज्ञान मानवीय व्यवहार और उसके संबंधों का विज्ञान है।” यह कथन है
(A) रॉस का
(B) क्रो व क्रो का
(C) एन० एल० मुन्न का
(D) वुडवर्थ का
उत्तर:
(B) क्रो व क्रो का

8. अभिप्रेरणा कितने प्रकार की होती है?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) पाँच
उत्तर:
(A) दो

9. प्राकृतिक प्रेरणा का उदाहरण है
(A) आत्म-सम्मान
(B) स्नेह
(C) इच्छा
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

10. खेलों के समय शारीरिक कुशलता तथा कार्यक्षमता को क्या कहते हैं?
(A) उपलब्धि
(B) अभिप्रेरणा
(C) रुचि
(D) अभिवृत्ति
उत्तर:
(A) उपलब्धि

11. “तजुर्बो से व्यवहार में आने वाले परिवर्तनों को सीखना कहा जाता है।” यह कथन है
(A) बी०सी० राय का
(B) पी०टी० यंग का
(C) आर०एन० सिंगर का
(D) गेट्स का
उत्तर:
(D) गेट्स का

12. “मनोविज्ञान आत्मा का विज्ञान है।” यह कथन है
(A) प्लेटो का
(B) रॉस का
(C) एन०एल० मुन्न का
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) प्लेटो का

13. आंतरिक अभिप्रेरणा को और किस नाम से जाना जाता है?
(A) प्राकृतिक प्रेरणा
(B) अप्राकृतिक प्रेरणा
(C) कृत्रिम प्रेरणा
(D) बाहरी प्रेरणा
उत्तर;
(A) प्राकृतिक प्रेरणा

14. गुरु-शिष्य संबंध के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं
(A) आदर्श अध्यापक
(B) सहयोगपूर्ण एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार
(C) नियमितता तथा समय का पाबंद
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

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15. निम्नलिखित में से सीखने का नियम है
(A) तैयारी का नियम
(B) अभ्यास का नियम
(C) प्रभाव का नियम
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

16. खिलाड़ी की खेल कुशलता को प्रभावित करने वाले मनोवैज्ञानिक तत्त्व हैं
(A) रुचि
(B) अभिवृत्ति
(C) आदतें
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

17. “अभिवृत्ति किसी कार्य को करने के लिए सहमति है जिससे व्यवहार को एक निश्चित दिशा मिल जाती है।’ यह कथन है
(A) ट्रैवर्स का
(B) रॉस का
(C) प्लेटो का
(D) जॉन लोथर का
उत्तर:
(A) ट्रैवर्स का

18. गुरु और शिष्य के बीच संबंध होना चाहिए
(A) लगावपूर्ण
(B) चंचलतापूर्ण
(C) सहृदयक
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) सहृदयक

19. मनोविज्ञान का जन्मदाता शास्त्र है
(A) अर्थशास्त्र
(B) समाजशास्त्र
(C) दर्शनशास्त्र
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) दर्शनशास्त्र

20. मनोविज्ञान में किसके व्यवहार का अध्ययन किया जाता है?
(A) मानव के
(B) पशुओं के
(C) पक्षियों के
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

21. ‘Outline of Psychology’ पुस्तक के लेखक हैं
(A) प्लेटो
(B) अरस्तू
(C) मैक्डूगल
(D) वुडवर्थ
उत्तर:
(C) मैक्डूगल

भाग-III : निम्नलिखित के उत्तर सही या गलत अथवा हाँ या नहीं में दें

1. मनोविज्ञान का संबंध मानव दिमाग से है। (सही/गलत)
उत्तर:
गलत,

2. मनोविज्ञान मानव अनुभव एवं व्यवहार का यथार्थ विज्ञान है। (सही/गलत)
उत्तर:
सही,

3. मनोविज्ञान हमें व्यवहार कुशल बनाने में सहायक होता है। (हाँ/नहीं)
उत्तर:

4. स्किनर ने मनोविज्ञान को शिक्षा का आधारभूत विज्ञान कहा। (सही/गलत)
उत्तर:
हाँ,

5. शिक्षा और मनोविज्ञान में परस्पर विपरीत संबंध है। (सही/गलत)
उत्तर:
गलत,

6. अभिप्रेरणा वह शक्ति है जो मनुष्य में क्रिया सीखने की रुचि को उत्साहित करती है। (सही/गलत)
उत्तर:
सही,

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7. खेल में वही खिलाड़ी जीत सकता है जिसमें आत्म-विश्वास व धैर्य की भावना होती है। (हाँ/नहीं)
उत्तर:
हाँ,

8. खेलों में नैतिक मूल्यों या नीतिशास्त्र को रखना बहुत आवश्यक है। (सही/गलत)
उत्तर:
सही,

9. मनोविज्ञान की उत्पत्ति अर्थशास्त्र से मानी जाती है। (सही/गलत)
उत्तर:
गलत,

10. सीखना निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। (हाँ/नहीं)
उत्तर:
हाँ,

11. मानव व्यवहार को समझने वाले विषय को दर्शनशास्त्र के नाम से जाना जाता है। (हाँ/नहीं)
उत्तर:
नहीं,

12. अध्यापक को सभी के प्रति निष्पक्षपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। (सही/गलत)
उत्तर:
सही,

13. सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। (सही/गलत)
उत्तर:
सही,

14. खेल मनोविज्ञान खिलाड़ियों के गतिपरक कौशल को बढ़ाने में सहायक होता है। (हाँ/नहीं)
उत्तर:
हाँ,

15. आंतरिक अभिप्रेरणा को कृत्रिम अभिप्रेरणा भी कहा जाता है। (सही/गलत)
उत्तर:
गलत,

16. मनोविज्ञान मानव मन का विज्ञान है। (सही/गलत)।
उत्तर:
गलत।

भाग-IV : रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. मनोविज्ञान का संबंध मानव …………….. से है।
उत्तर:
व्यवहार

2. …….. को मनोविज्ञान का जनक माना जाता है।
उत्तर:
विल्हेल्म कुंड,

3. मनोविज्ञान की विषय-वस्तु व्यक्ति का …………….. है।
उत्तर:
व्यवहार

4. “अभिप्रेरणा का संबंध सीखने में रुचि पैदा करने से है तथा अपने इसी रूप में यह सीखने का मूल आधार है।” यह कथन ……………. ने कहा।
उत्तर:
क्रो व क्रो,

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5. रुचि …………….. प्रकार की होती है।
उत्तर:
दो,

6. अनुभवों से व्यवहार में आने वाले परिवर्तनों को …………….. कहा जाता है।
उत्तर:
सीखना,

7. ………….. के अनुसार मनोविज्ञान आत्मा का विज्ञान है।
उत्तर:
प्लेटो,

8. …………….. अभिप्रेरणा में प्रसन्नता का स्रोत क्रिया में नहीं छिपा होता।
उत्तर:
बाहरी,

9. “मनोविज्ञान व्यवहार का सकारात्मक या यथार्थ विज्ञान है।” यह कथन …………….. ने कहा।
उत्तर:
वाटसन,

10. खेल भावना और नीतिशास्त्र का आपस में …………….. संबंध होता है।
उत्तर:
घनिष्ठ,

11. ‘मनोविज्ञान (Psychology) शब्द …………….. भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है।
उत्तर:
यूनानी,

12. …………….. व्यक्ति के व्यवहार, संवेगात्मक, ज्ञानात्मक और क्रियात्मक क्रियाओं का अध्ययन है।
उत्तर:
मनोविज्ञान।

मनोविज्ञान एवं खेल मनोविज्ञान Summary

मनोविज्ञान एवं खेल मनोविज्ञान परिचय

मनोविज्ञान (Psychology):
आधुनिक युग विज्ञान एवं तकनीकी का युग है। आज मानव वैज्ञानिक अनुसंधानों से चाँद तक पहुँच गया है। आज जितना भी ज्ञान विकसित हुआ है, उसमें मानव-व्यवहार का महत्त्वपूर्ण योगदान है। मानव व्यवहार को समझने वाले विषय को मनोविज्ञान के नाम से जाना जाता है। इसकी उत्पत्ति दर्शनशास्त्र (Philosophy) से मानी जाती है, क्योंकि प्राक्-वैज्ञानिक में मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र की ही एक शाखा थी, परन्तु जब विल्हेल्म कुंड (Wilhelm Wundt) ने सन् 1871 में मनोविज्ञान की पहली प्रयोगशाला खोजी, तब से मनोविज्ञान एक स्वतंत्र विषय बन गया। इसी कारण विल्हेल्म बुंड को मनोविज्ञान का जनक माना जाता है।

मनोविज्ञान को अंग्रेजी में ‘Psychology’ कहते हैं। यह शब्द ग्रीक (यूनानी) भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है। साइके (Psyche) का अर्थ है-आत्मा और लोगस (Logos) का अर्थ है-विज्ञान। अतः इसका शाब्दिक अर्थ है-आत्मा का विज्ञान । जैसे-जैसे समय बदलता गया, इसके अर्थ में भी वांछित बदलाव होता गया। वर्तमान में मनोविज्ञान को व्यवहार का विज्ञान कहा जाता है। मनोविज्ञान व्यक्ति के मानसिक कार्यों या व्यवहारों का वैज्ञानिक अध्ययन करता है और व्यक्ति के हर पक्ष या पहलू को अत्यधिक प्रभावित करता है। एन०एल० मुन्न (N.L. Munn) के अनुसार, “मनोविज्ञान को व्यवहार का, वैज्ञानिक खोज का अध्ययन कहा जाता है।”

मनोविज्ञान का क्षेत्र काफी विस्तृत है। यह मानव व्यवहार एवं ज्ञान से संबंधित विभिन्न नियमों एवं सिद्धांतों का संग्रह है। यह मानव व्यवहार, ज्ञान और क्रियाओं की विभिन्न शाखाओं के रूप में लागू होता है। खेलों के क्षेत्र में भी मनोविज्ञान के सिद्धांतों एवं नियमों को लागू किया जा सकता है। खेलों के क्षेत्र में मनोविज्ञान के सिद्धांतों के विस्तार ने मनोविज्ञान की एक नवीन शाखा को जन्म दिया है जिसे खेल मनोविज्ञान कहा जाता है।

खेल-मनोविज्ञान (Sports Psychology):
मनुष्य की प्रत्येक क्रियाएँ मनोविज्ञान द्वारा निर्धारित होती हैं। इसकी विभिन्न शाखाएँ हैं जो हमें प्रभावित करती हैं। खेल मनोविज्ञान शारीरिक शिक्षा में व्यक्ति की शारीरिक क्षमता या योग्यता पर प्रकाश डालता है। यह इस बात पर बल देता है कि व्यक्ति खेलकूद में किस प्रकार अपनी शारीरिक-मानसिक क्षमता को बढ़ा सकता है। अतः यह व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए अति आवश्यक है। क्लार्क व क्लार्क (Clark and Clark) के अनुसार, “खेल मनोविज्ञान एक व्यावहारिक मनोविज्ञान है। यह व्यक्तियों, खेलों तथा शारीरिक क्रियाओं के प्रेरणात्मक या संवेगात्मक पहलुओं से अधिक संबंधित है। इसमें प्रायः उन सभी विधियों का प्रयोग होता है जो मनोविज्ञान में प्रयोग की जाती हैं।”

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