HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विकास का क्या अर्थ है?
उत्तर:
विकास की अवधारणा का अर्थ भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। भौतिकवाद में विकास का अर्थ आर्थिक विकास से तथा अध्यात्मवाद में आध्यात्मिक विकास से है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकास की अवधारणा का तात्पर्य भौतिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास से भी है। अतः विकास एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति मात्र नहीं है, बल्कि यह ऐसी प्रक्रिया है जो समाज में उत्पन्न समस्याओं (आर्थिक, सामाजिक, नैतिक व राजनीतिक) का समाधान निकालने में समर्थ हो।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

प्रश्न 2.
विकास की दो मुख्य परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
विकास की दो मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
1. विलियम चैम्बर्स (William Chambers) के अनुसार, “विकास को एक ऐसी आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था की ओर अग्रसर समझा जा सकता है जिसमें उन समस्याओं का समाधान ढूँढने की क्षमता हो जिनका उसे सामना करना पड़ता है। उसमें संरचनाओं का निवेदन और कार्यों की विशिष्टता होती है।”
2. मैकेंजी (Mackenzie) का कहना है, “विकास समाज में उच्चस्तरीय अनुकूलन के प्रति अनुकूल होने की क्षमता है।”

प्रश्न 3.
प्रकृति के दोहन से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्रकृति के दोहन का अर्थ है कि प्रकृति द्वारा दी गई वस्तुओं का अधिक-से-अधिक उपयोग करना चाहिए जिससे भौतिक सुख प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रकृति का बिना किसी सीमा के प्रयोग करना एक भूल है, क्योंकि प्रकृति ने विश्व में प्रत्येक वस्तुओं को सीमित रूप से बनाया है। यदि उसका उपयोग आँख बन्द करके किया गया तो यह अहितकर होगा।

इसलिए मानव जाति से यह आशा की जाती है कि वे प्राकृतिक साधनों का प्रयोग एक सीमा में रहकर करें, जिससे प्राकृतिक साधनों का नाश न हो अर्थात् प्राकृतिक साधनों का शोषण न करके उनका मात्र दोहन (Milking the Nature) होना चाहिए।

प्रश्न 4.
विकास के कोई दो पक्ष या रूप लिखें।
उत्तर:
विकास के दो पक्ष या रूप निम्नलिखित हैं
1. सामाजिक विकास-सामाजिक विकास से तात्पर्य है-समाज में परिवर्तन। इसमें सामाजिक न्याय, सामाजिक समानता, सार्वजनिक शिक्षा एवं जन-स्वास्थ्य की सुविधाएँ सम्मिलित हैं।

2. आर्थिक विकास आर्थिक विकास से तात्पर्य हैप्रति व्यक्ति की वास्तविक आय में वृद्धि। इसमें उत्पादक की प्रणालियों का आधुनिकीकरण, रोज़गार के अवसर में बढ़ोतरी, नई तकनीक का विकास आदि शामिल हैं।

प्रश्न 5.
विकास के विभिन्न मॉडलों के नाम लिखें।
उत्तर:

  • बाजार अर्थव्यवस्था मॉडल,
  • कल्याणकारी राज्य के विकास का मॉडल,
  • विकास का समाजवादी मॉडल,
  • विकास का गांधीवादी मॉडल।

प्रश्न 6.
बाजार मॉडल की तीन विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
बाजार मॉडल की तीन विशेषताएँ हैं-

  • बिक्री के लिए उत्पादन,
  • मुक्त उद्यम,
  • मुक्त व्यापार।

प्रश्न 7.
बाजार अर्थव्यवस्था के कोई दो गुण लिखें।
उत्तर:
1. लोकतान्त्रिक व्यवस्था-बाजार अर्थव्यवस्था का लाभ है कि यह लोकतान्त्रिक व्यवस्था का समर्थन करती है, क्योंकि प्रत्येक व्यापारी व उद्योगपति को अपने ढंग से विकास करने की इजाजत होती है।

2. उत्तम उत्पादन इस मॉडल में उत्पादन उत्तम स्तर का होता है, नहीं तो उसकी माँग होगी ही नहीं और उत्पादन को हानि पहुँचेगी।

प्रश्न 8.
बाजार अर्थव्यवस्था मॉडल के दो अवगुण लिखें।
उत्तर:

  • यह व्यवस्था समाज के लाभ के विरुद्ध है। इस व्यवस्था में निजी लाभ को ध्यान में रखकर ही सभी कार्य किए जाते हैं।
  • यह मॉडल आय व धन को असमानता की ओर ले जाता है, क्योंकि उद्योग केवल कुछ ही लोगों को लाभ पहुंचाते हैं।

प्रश्न 9.
कल्याणकारी राज्य की दो परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:

  • केन्ट के अनुसार, “वह राज्य कल्याणकारी राज्य होता है, जो अपने नागरिकों के लिए व्यापक समाज सेवाओं की व्याख्या करता है।”
  • डॉ० अब्राहम के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य वह समुदाय है जो अपनी आर्थिक व्यवस्था के संचालन में आय के अधिकाधिक समान वितरण के उद्देश्य से कार्य करता है।”

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

प्रश्न 10.
विकास के कल्याणकारी राज्य मॉडल के दो लक्षण या उद्देश्य लिखें।
उत्तर:
1. आर्थिक सुरक्षा के रूप में इस मॉडल में कोई व्यक्ति निर्धन नहीं होगा। राज्य प्रत्येक व्यक्ति के रोज़गार का प्रबन्ध करता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवनयापन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।

2. भेदभाव का अन्त इस मॉडल में समाज के व्यक्तियों में किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता सामाजिक न्याय पर बल दिया जाता है। सभी व्यक्तियों से समानता का व्यवहार किया जाता है।

प्रश्न 11.
कल्याणकारी राज्य के कोई दो कार्य लिखें।
उत्तर:

  • इसमें आन्तरिक सुव्यवस्था तथा नागरिकों की विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा की व्यवस्था की जाती है।
  • इसमें व्यक्तियों के जीवन और सम्पत्ति की रक्षा की जाती है।

प्रश्न 12.
कल्याणकारी राज्य सिद्धान्त की आलोचना के दो शीर्षक लिखें।
उत्तर:

  • इस व्यवस्था में नागरिकों के लिए अनेक कार्य करने से यह व्यवस्था अधिक खर्चीली बन जाती है।
  • राज्य के अधिक हस्तक्षेप के कारण नागरिकों की स्वतन्त्रता में कमी आ जाती है।

प्रश्न 13.
समाजवादी मॉडल की कोई एक परिभाषा दो।
उत्तर:
इमाइल के अनुसार, “समाजवाद मजदूरों का संगठन है, जिसका उद्देश्य पूँजीवादी सम्पत्ति को समाजवादी सम्पत्ति में परिवर्तित करके राजनीतिक सत्ता को प्राप्त करना है।”

प्रश्न 14.
समाजवादी मॉडल की कोई दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
समाजवादी मॉडल की दो विशेषताएँ हैं-

  • उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में,
  • क्रान्ति की तुलना में शान्तिपूर्ण तरीके अपनाए जाते हैं।

प्रश्न 15.
गांधीवादी मॉडल के मुख्य रूप लिखें।
उत्तर:
गांधीवादी मॉडल के मुख्य तीन निम्नलिखित रूप हैं

  • विकास का आर्थिक पक्ष,
  • विकास का सामाजिक पक्ष,
  • विकास का राजनीतिक पक्ष

प्रश्न 16.
गांधीवादी मॉडल के सामाजिक पक्ष की तीन विशेषताओं का विवरण दें।
उत्तर:

  • यह वर्ण व्यवस्था को दूर करने के पक्ष में है,
  • यह मॉडल अस्पृश्यता के अन्त के पक्ष में है,
  • यह मॉडल साम्प्रदायिक एकता पर बहुत बल देता है।

प्रश्न 17.
गांधीयन मॉडल के विकास के आर्थिक पक्ष की दो बातें लिखें।
उत्तर:

  • यह मॉडल कृषि के महत्त्व पर बल देता है,
  • यह मॉडल कुटीर व ग्रामीण उद्योगों की स्थापना के पक्ष में है।

प्रश्न 18.
पोषणकारी विकास का क्या अर्थ है?
उत्तर:
साधारण शब्दों में पोषणकारी विकास की अवधारणा का अर्थ निरन्तर चलने वाला विकास अथवा अखण्ड विकास है।

प्रश्न 19.
वर्तमान पीढ़ी व भावी पीढ़ी के दावों को सन्तुलन करने वाले तीन तत्त्वों के नाम लिखें।
उत्तर:

  • विकासशील देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करना,
  • गरीबी उन्मूलन,
  • पर्यावरण संरक्षण।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विकास की अवधारणा से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
विकास की अवधारणा का सम्बन्ध परिवर्तन से लिया जाता है। वर्तमान भौतिकवादी युग में व्यक्ति या समाज के विकास की अवधारणा का अर्थ आर्थिक विकास से ही लिया जाता है। भौतिकवाद का सम्बन्ध मुख्य रूप से पूँजीवाद का साम्यवाद से लिया जाता है, परन्तु यह अर्थ सीमित है। क्योंकि मनुष्य केवल भौतिक प्राणी ही नहीं होता, उसमें मन, बुद्धि, आत्मा भी होती है।

वह भौतिक लक्ष्यों से भी उच्चतर लक्ष्यों के लिए जीवित रहता है और उन्हें प्राप्त करना चाहता है। वह भौतिक सुख से ऊपर उठकर आध्यात्मिक सुख प्राप्त करना चाहता है। भौतिक सुख क्षणभंगुर होता है, जबकि आत्मिक सुख चिरस्थायी होता है। आत्मिक सुख परमानन्द की स्थिति होती है और यही विकास की भारतीय अवधारणा है लेकिन समय परिवर्तन के कारण भारतीय भी भौतिक विकास की ओर आकर्षित हो गए हैं और भारत में भी आज भौतिक सुख में विकास को ही विकास माना जाने लगा है।

इसीलिए विकास की अवधारणा को परिभाषित करना कठिन कार्य है। कुछ विद्वान विकास का सम्बन्ध केवल भौतिकता से मानते हैं, तो कुछ राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक परिवर्तन से मानते हैं। कुछ लेखक विकास को आधुनिकीकरण का सूचक मानते हैं। फिर भी विकास की कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं के अनुसार, “राजनीतिक विकास, संस्कृति का विसरण और जीवन के पुराने प्रतिमानों को नई माँगों के अनुकूल बनाने, उन्हें उनके साथ मिलाने या उनके साथ सामंजस्य बैठाना है।”

2. आमंड और पावेल के अनुसार, “विकास राजनीतिक संरचनाओं की अभिवृद्धि, विमिनीकरण और विशेषीकरण तथा राजनीतिक संस्कृति का बढ़ा हुआ लौकिकीकरण है।” उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि विकास एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति मात्र नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो ऐसी संरचनाओं या संस्थाओं का निर्माण करती है, जो समाज में उत्पन्न समस्याओं का समाधान निकालने में समर्थ हो।

प्रश्न 2.
विकास की चार अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
विकास की चार अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं
1. राजनीतिक एकीकरण-इस अवस्था में सरकार राज्य की जनसंख्या पर राजनीतिक व प्रशासनिक नियन्त्रण रखती है, क्योंकि इस नियन्त्रण के अभाव में लोगों की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती। राजनीतिक एकीकरण के अभाव में राज्य का आर्थिक विकास भी रुक जाता है।

2. औद्योगीकरण-विकास की द्वितीय अवस्था औद्योगीकरण से सम्बन्धित है। इस अवस्था में लोगों द्वारा संचित पूँजी का प्रयोग करके औद्योगीकरण किया जाता है। बड़े-बड़े उद्योग-धन्धे स्थापित किए जाते हैं, जिसमें लोगों को अधिक रोज़गार मिलता है और वे अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं।

3. राष्ट्रीय लोक-कल्याण-तीसरी अवस्था औद्योगीकरण के बाद आती है, जब सरकार औद्योगिक विकास के बाद राष्ट्रीय लोक-कल्याण के कार्य करती है; जैसे शिक्षा, मानव-अधिकार, स्वतन्त्रता के अधिकार, धर्म-निरपेक्षता आदि।

4. समृद्धि यह विकास की चौथी व अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में लोग समृद्धि की ओर अग्रसर होते हैं। लोग शासन के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। राजनीतिक, प्रजातन्त्र का विकास होता है। लोगों के पास आराम के साधन होते हैं। वे भोग-विलास की वस्तुओं का प्रयोग करते हैं।

प्रश्न 3.
विकास के चार उद्देश्य लिखें।
उत्तर:
विकास के चार उद्देश्य निम्नलिखित हैं

1. जीवन का स्तर-विकास का पहला और महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है कि लोगों के रहन-सहन के स्तर का विकास हो। इसका तात्पर्य है कि लोगों को जीवन के स्तर की न केवल आवश्यक सुविधाएँ ही प्राप्त हों, बल्कि उन्हें वे सुविधाएँ भी मिलनी चाहिएं, जिन्हें प्राप्त करके वे अपने जीवन को सुखी और सम्पन्न बना सकें। उन्हें वे सभी सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिएं जिन्हें प्राप्त करके वे अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें, अपनी कार्य-कुशलता को बढ़ा सकें। यही नहीं, उन्हें अवकाश के क्षणों का भी इस्तेमाल करना चाहिए।

2. प्रकृति का दोहन-विकास का दूसरा लक्ष्य है, प्रकृति का दोहन। भौतिकवादियों की यह धारणा है कि जो भी इस विश्व में है, उसका जी भर कर अधिक-से-अधिक उपयोग किया जाना चाहिए और इसी में ही भौतिक सुख मिलता है। इसलिए आज वे प्रकृति का अधिक-से-अधिक शोषण कर रहे हैं। लेकिन वे इस प्रकार प्रकृति का बिना किसी सीमा के प्रयोग करते समय यह भूल जाते हैं कि प्रकृति ने विश्व में प्रत्येक वस्तु को सीमित रूप से बनाया है।

यदि उसका उपभोग आँख बन्द करके किया गया तो यह अहितकर होगा। इसलिए मानव जाति से यह आशा की जाती है कि वे प्राकृतिक साधनों का प्रयोग एक सीमा में रहकर करें, जिससे प्राकृतिक साधनों का नाश न हो अर्थात् प्राकृतिक साधनों का शोषण न करके उनका मात्र दोहन होना चाहिए।

3. दरिद्र की सहायता-विकास के लिए राज्य द्वारा विभिन्न योजनाओं का निर्माण किया जाता है। लेकिन विकास को वास्तविक विकास तब माना जाएगा, जब इससे दरिद्र का विकास होगा अर्थात् विकास का उद्देश्य दरिद्रतम का विकास होना चाहिए। यदि विकास के उद्देश्य में दरिद्र की सहायता न रखी गई तो विकास तो अवश्य होगा, लेकिन विकास का लाभ धनी लोगों को होगा, न कि दरिद्र वर्ग को। यदि विकास से धनी वर्ग को ही लाभ होता है और उन्हीं का जीवन-स्तर ऊँचा उठता है, तो इसे वास्तविक स्थिति में विकास नहीं कह सकते। विकास से सभी का, विशेषकर दरिद्र का (गरीब का) विकास होना चाहिए।

4. रोज़गार देना विकास का एक और अन्य लक्ष्य है, देश के नागरिकों को रोजगार उपलब्ध करवाना। आधुनिक युग को कई बार मशीनी युग भी कहा जाता है। फलस्वरूप जिन देशों की जनसंख्या पहले ही अधिक है, वहाँ पर बेरोज़गारी की समस्या और अधिक बढ़ गई है। अतः जनसंख्या पर नियन्त्रण रखना रोज़गार के लिए आवश्यक है। इसलिए यह जरूरी है कि विकास के लक्ष्य को निर्धारित करते समय बेरोज़गारी को दूर करने का लक्ष्य सामने होना चाहिए।

प्रश्न 4.
विकास के तीन पक्षों का वर्णन करें।
उत्तर:
विकास के तीन पक्षों का वर्णन निम्नलिखित है
1. सामाजिक विकास-समाज का निर्माण उसी दिन ही हो गया था जब मनुष्य ने इस भूमि पर कदम रखा था। प्राचीन समाज आधुनिक समाज से भिन्न था और धीरे-धीरे समाज का विकास हुआ। इसका अर्थ हुआ कि प्राचीन समाज में परिवर्तन होना विकास कहलाता है। समाज में सामाजिक न्याय की व्यवस्था करना, जाति-पाति की भावना को दूर करना, सामाजिक समानता स्थापित करना, धार्मिक भेदभाव को दूर करना, सार्वजनिक शिक्षा, जन-स्वास्थ्य की सुविधाएँ तथा मकान की सुविधाएँ उपलब्ध कराना, अनेक सामाजिक कुरीतियों को दूर करना आदि सामाजिक विकास के क्षेत्र में आते हैं।

2. आर्थिक विकास आर्थिक विकास का सम्बन्ध समाज के आर्थिक जीवन से सम्बन्धित है। आर्थिक विकास की एक निश्चित और सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन कार्य है। कुछ विद्वान् आर्थिक विकास का अर्थ कुल राष्ट्रीय आय में वृद्धि से तथा कुछ विद्वान् प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि से लगाते हैं। कुछ विद्वानों ने आर्थिक कल्याण में वृद्धि को आर्थिक विकास माना है।

आधुनिक युग के विद्वानों ने आर्थिक विकास की विचारधारा को पूर्ण विकास का रूप माना है। अतः आर्थिक विकास का लक्ष्य केवल मात्र वास्तविक प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि लाना ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आय में वृद्धि के लिए उत्पादन की प्रणालियों का आधुनिकीकरण करना, रोज़गार के अवसर बढ़ाना, उद्योगों का विकास करना, आर्थिक विषमताओं को दूर करना, नई टैक्नोलाजी का विकास करना, प्राकृतिक संसाधनों का सही रूप से दोहन करना आदि सभी आर्थिक विकास के क्षेत्र में आते हैं।

3. राजनीतिक विकास-विकास की अवधारणा का अर्थ साधारणतया राजनीतिक विकास से जोड़ा जाता है। राजनीतिक विकास के स्वरूप के बारे में भी पर्याप्त अस्पष्टता है। कुछ विद्वान् राजनीतिक विकास को ऐसी स्थिति मानते हैं जोकि आर्थिक उन्नति में सुविधा पहँचा सके। कई विद्वान औद्योगिक समाजों की विशेष राजनीति के रूप में राजनीतिक विकास का अध्ययन करते हैं। कुछ लेखक राजनीतिक विकास को राजनीतिक आधुनिकीकरण का संसूचक मानते हैं। यह भी कहा जाता है कि राजनीतिक विकास राज्य की संस्थाओं के प्रसंग में राष्ट्रवाद की राजनीति है। कुछ लेखक राजनीतिक विकास को प्रशासकीय और वैधानिक विकास भी मानते हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

प्रश्न 5.
बाजार अर्थव्यवस्था के मॉडल से क्या अर्थ है?
अथवा
बाजार अर्थव्यवस्था विकास के मॉडल का क्या रूप है?
उत्तर:
बाजार अर्थव्यवस्था का मॉडल विकास का नया मॉडल नहीं है। भारत में यह व्यवस्था मुगल साम्राज्य से चली आ रही है। अंग्रेज़ी काल में इस मॉडल का चलन धीमा हो गया, परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इस मॉडल में तेजी से विकास हुआ है भारत में आज इसी मॉडल का बोलबाला है। इस मॉडल के अन्तर्गत ही उदारीकरण की नीति को अपनाया गया है।

मूल रूप से इस व्यवस्था का सम्बन्ध अर्थशास्त्र से है, लेकिन इस व्यवस्था को देशों में विकास का आधार बनाया गया है। साधारण शब्दों में बाजार अर्थव्यवस्था का अर्थ है कि उत्पादकों द्वारा अपने उत्पादन को अपने द्वारा ही निश्चित की गई कीमतों पर बाजार में बेचना। इस व्यवस्था में उदारीकरण किया जाता है। इसे विश्वीकरण के नाम से भी जाना जाता है।

अन्तिम रूप में यह मॉडल निजीकरण की ओर बढ़ता है। यह मॉडल आर्थिक उदारवाद, प्रतियोगिता, अहस्तक्षेप और माँग व पूर्ति की शक्तियों का समर्थन करता है। जिस प्रकार यातायात के साधनों के विकास ने सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार में परिवर्तित कर दिया है, राष्ट्रीय सीमाओं को समाप्त कर दिया है, उसी तरह विकास का बाजार, अर्थव्यवस्था का मॉडल व्यापार, पूँजी व उद्यमशीलता के क्षेत्र में राष्ट्रीय सीमाओं को समाप्त करने के पक्ष में है।

प्रश्न 6.
बाजार अर्थव्यवस्था के विकास मॉडल की चार विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
बाजार अर्थव्यवस्था के विकास मॉडल की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. बिक्री के लिए उत्पादन इस मॉडल की सर्वप्रथम विशेषता यह है कि उत्पादक वस्तुओं का उत्पादन अपने लिए नहीं करता, बल्कि बाजार में खरीद तथा बिक्री के लिए करता है। इस तरह उत्पादन की कीमतें माँग व पूर्ति की शक्तियों के आधार पर निश्चित होती हैं, जिनसे उन्हें अधिकतम लाभ होता है। इस तरह समाज के लाभ की उपेक्षा होती है।

2. स्वदेशी उद्योगों का ह्रास-विकास का यह मॉडल उदारीकरण की नीति पर आधारित है, जिससे बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ नवोदित राष्ट्रों में भारी मुनाफा कमाने की दृष्टि से आती हैं। नवोदित राष्ट्रों के उद्योग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुकाबले में नहीं टिक सकते और अन्त में उन्हें इन कम्पनियों में विलीन होना पड़ता है। इस तरह से स्वदेशी उद्योगों का ह्रास होता है। भारत को आजकल इसी प्रकार की स्थिति का ही सामना करना पड़ रहा है।

3. आय व धन की असमानता-विकास का यह मॉडल आय व धन की असमानता की ओर ले जाता है, क्योंकि उद्योग केवल कुछ ही लोगों को लाभ पहुंचाते हैं। उद्योग केवल कुछ ही प्रान्तों में लगाए जाते हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ उद्योगों को केवल पहले से ही विकसित प्रान्तों में लगाती हैं। पिछड़े हुए प्रान्तों में किसी भी प्रकार के उद्योगों को नहीं लगाया जाता। अतः यह क्षेत्रीय असन्तुलन को पैदा करता है जोकि हर दृष्टि-सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि से हानिकारक है।

4. बेरोज़गारी को दूर नहीं करता-विकास के इस मॉडल के पक्ष में यह तर्क दिया गया है कि यह रोज़गार उत्पन्न करता है, क्योंकि जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ प्रवेश करती हैं, तो अधिक रोज़गार प्रदान करने का वायदा करती हैं। नवोदित राष्ट्र इस लालच में फंस जाते हैं। लेकिन जब ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने ही देशों में बेरोज़गारी की समस्या को दूर नहीं कर पाई हैं, तो यह विदेशों में बेरोज़गारी को कैसे दूर कर सकती हैं, यह विचारणीय प्रश्न है।

प्रश्न 7.
विकास के समाजवादी मॉडल का क्या अर्थ है? अथवा विकास के समाजवादी मॉडल की व्याख्या करें।
उत्तर:
विकास के समाजवादी मॉडल को निम्नलिखित आधार पर स्पष्ट कर सकते हैं विकास के विभिन्न मॉडलों में से विकास का समाजवादी मॉडल एक महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली मॉडल है। यह दृष्टिकोण समाजवादी मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़ा हुआ है। इस मॉडल के अन्तर्गत विकासशील देशों का विकास साम्यवादी तथा समाजवादी मापदण्डों के आधार पर होना चाहिए।

समाजवादी राज्य की स्थापना ही विकास का अन्तिम उद्देश्य है। इस दृष्टिकोण या मॉडल के समर्थकों का विचार है कि विकसित देशों व विकासशील देशों की पूँजीवादी व्यवस्था में अन्तर है क्योंकि विकसित देश पूँजीवादी व्यवस्था के माध्यम से अपनी सभी समस्याओं का निदान कर चुके हैं लेकिन विकासशील देश पूँजीवादी व्यवस्था को नहीं अपना सकते, क्योंकि उन्होंने अभी-अभी साम्राज्यवादी शक्तियों से स्वतन्त्रता प्राप्त की है।

साम्राज्यवादी शक्तियाँ अभी तक उनका शोषण कर रही थीं। उन्होंने इन विकासशील देशों का आर्थिक दृष्टि से जी भरकर शोषण किया। ये देश पूँजीवादी व्यवस्था को अपनाकर अपना और अधिक शोषण नहीं करवा सकते। इसलिए उन्होंने पूँजीवाद से अपने सम्बन्ध पूर्ण रूप से तोड़ने में ही विकास की आशा की है।

यह मॉडल अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा का विरोधी है, क्योंकि इसमें शक्तिशाली राष्ट्र ही लाभ उठाते हैं। विकासशील देशों को इससे उसी प्रकार हानि पहुँचती है, जिस प्रकार खुली प्रतियोगिता तथा मुक्त व्यापार से श्रमिकों को हानि पहुँचती है। उन्नत देश विकासशील देशों में पूँजी लगाकर उस देश का कच्चा माल खरीदते हैं। कच्चे माल से उत्पादन करके उस उत्पादन बाजार में भारी कीमतों में बेचकर उनका शोषण करते हैं। अतः विकासशील देशों को पूँजीवादी व्यवस्था, अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा एवं मुक्त बाजार से कोई लाभ नहीं पहुँचता। इस प्रकार विकास का मॉडल समाजवादी व्यवस्था को अपना आदर्श मानता है और इसी व्यवस्था के अन्तर्गत विकास की किरण देखता है और अपनी गतिविधियों का संचालन करता है।

प्रश्न 8.
कल्याणकारी राज्य किसे कहते हैं? परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
साधारण शब्दों में कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो जनता के जीवन को सुखी तथा समृद्ध बनाने के लिए कार्य करे, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके।
1. केन्ट के शब्दों में, “कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो अपने नागरिकों के लिए पर्याप्त मात्रा में सामाजिक सेवाएँ प्रदान करता है।”

2. जी०डी०एच० कोल के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य वह है जिसमें प्रत्येक नागरिक को रहन-सहन के निम्नतम स्तर तथा अवसर प्राप्त हों।”

3. पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक भाषण में कल्याणकारी राज्य को परिभाषित करते हुए कहा था, “सबके लिए समान अवसर प्रदान करना, अमीरों और गरीबों के बीच अन्तर मिटाना और जीवन-स्तर को ऊपर उठाना लोक-हितकारी राज्यों का आधारभूत तत्त्व है।” अतः कल्याणकारी राज्य के प्रसंग में लोक कल्याण से हमारा तात्पर्य राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से व्यक्ति को अवसर की समानता देकर उसकी साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करना है।

प्रश्न 9.
कल्याणकारी राज्य की कोई चार मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
कल्याणकारी राज्य की चार महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. व्यक्ति के न्यूनतम जीवन-स्तर की व्यवस्था-कल्याणकारी राज्य की पहली विशेषता यह है कि इसमें स्वतन्त्र उद्योग का अन्त किए बिना सभी नागरिकों के न्यूनतम जीवन-स्तर की व्यवस्था की जाती है। साथ ही व्यक्ति को स्वतन्त्रता के पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाते हैं।

2. व्यक्तियों की आय में कुछ अंश तक विषमता का अन्त-कल्याणकारी राज्य में आय का सीमित पुनर्वितरण किया जाता है और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ऊँचे कर लगाए जाते हैं। जिसकी जितनी अधिक आय होती है, उस पर उतने ही अधिक कर लगाए जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक समानता लाने का प्रयत्न किया जाता है।

3. सामाजिक सुरक्षा-कल्याणकारी राज्य की अन्य विशेषता सामाजिक सुरक्षा है। इसके अन्तर्गत राज्य समाज में किसी भी आधार पर किए जा रहे भेदभाव को समाप्त करता है। राज्य द्वारा कानूनों के सम्मुख समानता तथा सबके लिए समान अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं।

4. राजनीतिक सुरक्षा-कल्याणकारी राज्य में राजनीतिक सुरक्षा भी स्थापित की जाती है। राजनीतिक सुरक्षा से तात्पर्य है शासन में सभी लोगों की सहभागीदारी होना। सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के राजनीति अधिकार प्राप्त कराए जाते हैं लोकतन्त्र की स्थापना की जाती है।

प्रश्न 10.
कल्याणकारी राज्य के प्रभाव पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
कल्याणकारी राज्य का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। कल्याणकारी राज्य ने गरीबी और बेरोज़गारी को दूर करने में काफी सफलता प्राप्त की है। श्रमिकों और किसानों का जीवन-स्तर ऊँचा हुआ है। भारत में कल्याणकारी राज्य का प्रभाव काफी पड़ा है। शिक्षा का प्रसार हआ है तथा बच्चों को प्राइमरी शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य दी जाती है।

उद्योगों और कृषि में बहत उन्नति हई है। बड़े-बड़े उद्योगों तथा बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया है। आजकल बैंक गरीब किसानों तथा पढ़े-लिखे बेरोज़गार नौजवानों को कम ब्याज पर ऋण दे रहे हैं। यद्यपि कल्याणकारी राज्य के कारण काफी उन्नति हुई है, तथापि अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। भारत की अधिकांश जनता गरीब है और करोड़ों लोग बेरोज़गार हैं।

आर्थिक असमानता बहुत अधिक है। कल्याणकारी राज्य की सफलता के लिए आर्थिक विकास दर को बढ़ाना होगा। सामाजिक तथा आर्थिक न्याय की स्थापना के लिए प्रभावी कदम उठाने होंगे और सरकार को जाति, वर्ग, समुदाय आदि बातों से ऊपर उठकर सभी के कल्याण के लिए काम करना होगा जिससे कि सच्चे कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जा सकेगी।

प्रश्न 11.
कल्याणकारी राज्य के चार कार्य बताएँ।
उत्तर:
कल्याणकारी राज्य के चार प्रमख कार्य निम्नलिखित हैं
1. आन्तरिक शान्ति व व्यवस्था की स्थापना-राज्य के अन्दर शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखना भी सरकार का एक कार्य है। यदि राज्य में अव्यवस्था होगी तो उन्नति और विकास के रास्ते में बाधा आएगी, इसलिए शान्ति व व्यवस्था बनाए रखना कल्याणकारी राज्य का महत्त्वपूर्ण कार्य है।

2. नौकरी देना-राज्य का कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों के लिए नौकरी का प्रबन्ध करे जिससे नागरिक अपनी जीविका कमा सकें। राज्य में नए उद्योग-धन्धे स्थापित किए जाएँ, ताकि नागरिकों को अधिक कार्य मिल सके। कई कल्याणकारी राज्यों में ना राज्य का काननी कर्त्तव्य घोषित किया गया है। नौकरी न दे पाने की स्थिति में बेरोजगार नागरिकों को निर्वाह भत्ता दिया जाता है।

3. गरीबी दूर करना कल्याणकारी राज्य गरीबी को दूर करने के लिए अनेक कार्य करता है। प्रत्येक नागरिक को अच्छा वेतन मिले, उसकी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति हो और नागरिकों को रोजी, रोटी तथा कपड़ा प्रदान करने के लिए राज्य द्वारा अनेक योजनाएँ बनाई जाती हैं।

4. सामाजिक सुरक्षा कल्याणकारी राज्य बुढ़ापे, दुर्घटना, बीमारी, बेकारी से दुःखी व्यक्तियों के लिए सामाजिक सुरक्षा का प्रबन्ध करता है। दुर्घटना की स्थिति में अंगहीन व्यक्तियों को आर्थिक सहायता दी जाती है। बेकार व्यक्तियों को भत्ता दिया जाता है। बूढ़े व्यक्तियों को पेन्शन दी जाती है। युद्ध में मारे जाने वाले सैनिकों के परिवारों को आर्थिक सहायता दी जाती है। कर्मचारियों के लिए पेन्शन एवं भविष्य निधि के प्रावधान की व्यवस्था की जाती है।

प्रश्न 12.
कल्याणकारी राज्य के विरुद्ध आपत्तियों का वर्णन करें।
अथवा
कल्याणकारी राज्य की आलोचना कीजिए।
उत्तर:
कल्याणकारी राज्य की आलोचनाएँ अग्रलिखित हैं
1. महँगी व्यवस्था कल्याणकारी राज्य के विरुद्ध प्रथम आपत्ति है कि इसकी स्थापना पर बहुत अधिक खर्चा होता है। प्रायः इसके अन्तर्गत आने वाले सभी विषयों पर काफी धन खर्च होता है।

2. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का हनन-कल्याणकारी राज्य की एक अन्य कमी है कि इसमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का हनन होता है। कल्याणकारी राज्य में व्यक्तियों को सब कुछ प्राप्त हो जाता है अथवा प्राप्त होने की सम्भावना होती है, इसलिए उनमें कार्य करने की प्रवृत्ति कम होने लगती है। परिणामस्वरूप लोगों में हाथ फैलाने की भावना भी उत्पन्न होने लगती है।

3. अफसरशाही का पनपना कल्याणकारी राज्य में कर्मचारियों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है। उनके अधिकार व शक्तियाँ बहुत अधिक बढ़ जाती हैं। परिणामस्वरूप लाल फीताशाही पनपने लगती है।

4. पूँजीवाद का दूसरा नाम लोक कल्याणकारी राज्य को पूँजीवाद का दूसरा नाम दिया जाता है, क्योंकि आर्थिक दृष्टि से राज्य में कोई परिवर्तन नहीं आता और समाज की सत्ता शोषक वर्ग के हाथ में ही बनी रहती है।

5. आदर्श मात्र है-कल्याणकारी राज्य की स्थापना केवल एक आदर्श मात्र ही है। किसी भी देश में इसे पूर्ण रूप से स्थापित नहीं किया गया है और न ही इसके स्थापित किए जाने की कोई सम्भावना है।

प्रश्न: 13.
मार्क्स के समाजवादी मॉडल का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
समाजवाद का सबसे प्रभावशाली समर्थक मार्क्स था। उसने दीन, दुःखी व शोषित श्रमिक वर्ग के विकास के लिए एक नई राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिपादन किया। वह जानता था कि श्रमिक वर्ग की दयनीय हालत में सुधार केवल राज्य द्वारा ही किया जा सकता है। मार्क्स समाज को दो वर्गों में बाँटता है-शोषक व शोषित वर्ग ।

पहले वर्ग का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण होता है, वह साधनों का स्वामी होता है और दूसरा वर्ग अपने श्रम पर जीने वाला है। पूँजीपति अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना चाहता है। इस कारण वह मजदूरों को कम-से-कम मजदूरी देना चाहता है। दूसरी ओर मज़दूर अधिक-से-अधिक मज़दूरी लेना चाहते हैं। अतः हितों के इस विरोध के कारण दोनों में संघर्ष आरम्भ हो जाता है। यह वर्ग-संघर्ष की बुनियाद है और इसी कारण वर्ग-संघर्ष हमेशा चलता रहता है।

मार्क्स का विचार था कि मज़दूरों में असन्तोष, चेतना तथा संगठन बढ़ेगा। वह विश्व के मजदूरों को संगठित होने के लिए कहता है। उसने कहा है कि विश्व के मज़दूरों, इकट्ठे हो जाओ और पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्ति कर दो। इस क्रान्ति के फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग राज्य की शक्ति पर काबू पा लेगा। पूँजीवाद को जड़ से समाप्त कर देगा। सारी सम्पत्ति पर मजदूरों का ही नियन्त्रण हो जाएगा।

सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की स्थापना हो जाएगी और ऐसे समाज की स्थापना हो जाएगी जिसमें अन्याय, शोषण और अत्याचार नहीं होगा। वर्ग-विहीन व राज्य-विहीन व्यवस्था की स्थापना हो जाएगी, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को उसके सामर्थ्य और उसकी आवश्यकतानुसार सुविधाएँ प्रदान की जाएंगी। इस तरह मार्क्स एक नवीन समाज का विकास करता है।

प्रश्न 14.
विकासवादी या लोकतान्त्रिक समाजवादी मॉडल की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स की मृत्यु के बाद उसके विचारों का संगठित रूप से प्रचार किया गया, लेकिन कुछ बातों को लेकर मार्क्सवादियों में मतभेद उत्पन्न हो गए और उसी आधार पर एक नई विचारधारा ने जन्म लिया, जिसे लोकतान्त्रिक समाजवाद (Democratic Socialism) या विकासवादी समाजवाद का नाम दिया गया।

लोकतान्त्रिक समाजवाद, समाजवाद का वह रूप है जो जन-सहमति के आधार पर धीरे-धीरे स्थापित किया जाता है। समाजवाद (मार्क्सवाद) व लोकतान्त्रिक समाजवाद में मुख्य अन्तर दोनों द्वारा अपनाए गए साधनों पर है। दोनों का उद्देश्य तो एक ही है–पूँजीवाद को समाप्त करना, उसे जड़ से उखाड़ फेंकना।

दोनों ही व्यक्तिगत सम्पत्ति को समाप्त करने के पक्ष में हैं, परन्तु जहाँ मार्क्सवादी इस उद्देश्य की प्राप्ति रक्तिम क्रान्ति (Bloody Revolution) द्वारा करना चाहते हैं, वहाँ लोकतान्त्रिक समाजवादी इस उद्देश्य की प्राप्ति संवैधानिक तरीके से करने के पक्ष में हैं। वे वर्ग-सहयोग व शान्तिपूर्ण उपायों से सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं। उनका विश्वास है कि क्रान्ति के द्वारा श्रमिकों की तानाशाही द्वारा समाजवाद की स्थापना नहीं की जा सकती। लोकतान्त्रिक समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में।
  • समाज में दो वर्गों की बजाय तीन वर्ग हैं।
  • समाजवाद की स्थापना धीरे-धीरे कानून बनाकर होगी।
  • क्रान्ति की तुलना में शान्तिपूर्ण तरीके अपनाने होंगे।
  • राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, समाज-कल्याण व आर्थिक सुरक्षा के क्षेत्र में नागरिकों को अनेक सुविधाएँ जुटाते हैं।
  • श्रमिकों की तानाशाही अनावश्यक व लोकतन्त्र विरोधी है।
  • राज्य-विहीन समाज की स्थापना कोरी कल्पना है। समाजवाद की स्थापना में राज्य को अहम् भूमिका निभानी है।

अन्त में यह कहा जा सकता है कि समाजवाद की चाहे कितनी भी शाखाएँ क्यों न हों, लेकिन विकास के बारे में सभी समाजवादियों ने सहमति प्रकट की है। उनका कहना है कि उत्पादन और वितरण व्यक्ति के हाथ में न होकर राज्य के में होना चाहिए। व्यक्तिगत लाभ की तुलना में सामाजिक हित को प्रमुखता दी जानी चाहिए। उत्पादन समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। उत्पादन के क्षेत्र में स्वतन्त्र प्रतिस्पर्द्धा समाप्त की जानी चाहिए।

प्रश्न 15.
विकास सम्बन्धी गाँधीयन मॉडल के राजनीतिक पक्ष की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
गांधी जी का विकास का मॉडल एक ‘राम-राज्य’ की स्थापना करने के पक्ष में है। यह आदर्श राज्य लोकतन्त्र पर आधारित होगा। राज्य के प्रबन्ध के मामलों में अहिंसक ढंगों का प्रयोग किया जाएगा।

नागरिकों को प्रत्येक प्रकार की स्वतन्त्रता प्राप्त होगी। राज्य को साधन माना जाएगा अर्थात् राज्य व्यक्ति के लिए है, न कि व्यक्ति राज्य के लिए। राज्य का मुख्य कार्य सभी व्यक्तियों के अधिकतम हित का सम्पादन करना है।

अपने इस आदर्श राज्य के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गांधी जी ने ग्राम पंचायत को महत्त्व दिया। वे सत्ता के विकेन्द्रीयकरण के पक्ष में थे। केन्द्र के पास तो कुछ निश्चित अधिकार होंगे, जबकि बाकी सभी शक्तियाँ पंचायतों के पास होंगी। अतः सत्ता का आधार नीचे से ऊपर की ओर होगा। इस तरह गांधीयन मॉडल के विकास के लिए लोकतन्त्रीय व्यवस्था पर बल दिया गया है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

प्रश्न 16.
पोषणकारी विकास की अवधारणा का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
विकास और पर्यावरण के सम्बन्ध के बारे में विकास की एक अवधारणा है, जिसे पोषणकारी विकास की अवधारणा कहते हैं। साधारण शब्दों में पोषणकारी विकास का अर्थ निरन्तर चलने वाला विकास अथवा अखण्ड विकास अर्थात् ऐसा विकास जिसकी गति में खण्ड न हो, इसे अक्षय विकास भी कहा जाता है।

यह अवधारणा वर्तमान पीढ़ी के दावों एवं भविष्य पीढ़ी के दावों में सन्तुलन बनाने पर बल देती है। जो आज आर्थिक विकास के परिणामों का उपभोग कर रहे हैं वे पृथ्वी के संसाधनों का अधिक शोषण करके तथा पृथ्वी को प्रदूषित करके भावी पीढ़ी के बारे में अहितकर सोच रख सकते हैं। ऐसा न हो कि एक पीढ़ी प्रकृति की सम्पदा का पूरा उपभोग कर ले और भविष्य की पीढ़ी को पर्यावरण में असन्तुलन हो जाने के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़े और उन्हें विकास के अवसर ही प्राप्त न हों।

इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि किस तरह वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करते समय भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाए। इसे वर्तमान पीढ़ी तथा भावी पीढ़ी के दावों के मध्य सामंजस्य बनाना भी कहा जा सकता है। यही कारण था कि पर्यावरण और विकास पर विश्व पर्यावरण आयोग गठित किया गया। विश्व पर्यावरण आयोग के अनुसार “पोषणकारी विकास का अर्थ है, ऐसा विकास जो हमारी आज की आवश्यकता की पूर्ति के साथ-साथ भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं की अनदेखी न करता हो।”

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विकास को परिभाषित करते हुए विकास के विभिन्न उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विकास की अवधारणा का सम्बन्ध परिवर्तन से बताया जाता है। वर्तमान भौतिकवादी युग में व्यक्ति या समाज के विकास की अवधारणा का अर्थ आर्थिक विकास से ही लिया जाता है । भौतिकवाद से सम्बन्धित दो मुख्य विचारधाराएँ हैं-पूँजीवाद व साम्यवाद। इस समय साम्यवादी विचारधारा अपने अन्तर्विरोधों के कारणों से नष्ट होती जा रही है और पूँजीवादी विचारधारा अपने ही बोझ में दबकर समाप्त होने के कगार पर खड़ी है, लेकिन मनुष्य केवल भौतिक प्राणी नहीं होता। उसमे मन, बुद्धि तथा आत्मा भी होती है। वह भौतिक स्यों से भी उच्चतर लक्ष्यों के लिए जीवित रहता है। वह भौतिक सुख से ऊपर उठकर आध्यात्मिक सुख को प्राप्त करना चाहता है।

भौतिक क्षण-भंगुर होता है, जबकि आध्यात्मिक सुख चिर-स्थायी होता है। आध्यात्मिक सुख की तुलना भौतिक सुख से नहीं की जा सकती। आध्यात्मिक सुख परमानन्द की स्थिति है। यही विकास की भारतीय अवधारणा है। विकास के इसी रूप को व्यक्ति का आदर्श माना गया है, किन्तु गत हज़ार वर्षों की गुलामी के कारण, विदेशियों के आक्रमण के कारण और समाजवाद के प्रभाव के कारण भारतीय आध्यात्मिक विकास की धारणा भौतिकवाद की अवधारणा में परिवर्तित हो गई।

भारतीय भी भौतिक विकास की ओर आकर्षित हो गए और आज भारत में भी विकास से तात्पर्य मात्र भौतिक विकास माना जाने लगा है। अतः जब हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकास की अवधारणा का अध्ययन करते हैं तो इसका तात्पर्य भौतिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास भी है। विकास की परिभाषाएँ विकास की परिभाषा करना एक कठिन कार्य है, क्योंकि विभिन्न खकों ने इसकी परिभाषाएँ अपने-अपने दृष्टिकोण से दी हैं।

विकास के स्वरूप के बारे में पर्याप्त अस्पष्टता है। कुछ विद्वान विकास को राजनीति की ऐसी स्थिति मानते हैं, जो आर्थिक उन्नति में सुविधा पहँचा सके। कुछ लोग इसका सम्बन्ध राजनीतिक परिवर्तन से बताते हैं। कुछ विद्वान औद्योगिक समाजों का विशेष राजनीतिक विकास के रूप में अध्ययन करते हैं। कुछ लेखक राजनीतिक विकास को आधुनिकीकरण (Modernization) का सूचक मानते हैं।

विकास को राज्य की संस्थाओं के प्रसंग में राष्ट्रवाद की राजनीति भी माना गया है। इस दृष्टिकोण के अन्तर्गत विकास के लिए राष्ट्रवाद का होना बहुत आवश्यक होगा। कुछ विद्वान विकास का अर्थ प्रशासनिक और वैधानिक विकास से लेते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि विकास का अर्थ राजनीति में अधिक-से-अधिक लोगों का भाग लेना भी है। विकास की परिभाषाओं पर विभिन्न मत होने पर भी सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित कुछ परिभाषाएँ दी गई हैं

1. विलियम चैम्बर्स (William Chambers) के अनुसार, “विकास को एक ऐसी आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था की ओर अग्रसर समझा जा सकता है जिसमें उन समस्याओं का समाधान ढूँढने की क्षमता हो जिनका उसे सामना करना पड़ता है। उसमें संरचनाओं का निवेदन और कार्यों की विशिष्टता होती है।”

2. मैकेंजी (Mackenzie) का कहना है, “विकास समाज में उच्चस्तरीय अनुकूलन के प्रति अनुकूल होने की क्षमता है।”

3. ल्यूसियन पाई (Lucian Pye) के अनुसार, “राजनीतिक विकास, संस्कृति का विसरण (diffusion) और जीवन के पुराने प्रतिमानों को नई माँगों के अनुकूल बनाने, उन्हें उनके साथ मिलाने या उनके साथ सामंजस्य बैठाना है।” ‘विकास का अर्थ सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों के तर्क-संगत प्रयोग की क्षमता को बढ़ाना है।”

उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि विकास एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति मात्र नहीं है, बल्कि यह ऐसी प्रक्रिया है जो ऐसी संरचनाओं या संस्थाओं का निर्माण करती है, जो समाज में उत्पन्न समस्याओं का समाधान निकालने में समर्थ है।

विकास के उद्देश्य (Objectives of Development) ऊपर हमने चर्चा की कि विश्व दो प्रकार के राष्ट्रों में बंटा हुआ है विकसित व विकासशील देश। जब हम विकासशील देशों की बात करते हैं, तो वहाँ के निर्धन व दरिद्र लोगों का ध्यान आता है क्योंकि इन लोगों की स्थिति अच्छी नहीं है, लेकिन ऐसी बात नहीं है। विकसित देशों में भी वहाँ की जनसंख्या का बड़ा भाग ऐसा है, जिन तक देश की समृद्धि का अंश पहुँच नहीं पाया है और वहाँ की समृद्धि की तुलना में ये लोग अपने-आपको दरिद्र पाते हैं।

अतः विकास के उद्देश्यों पर विचार करते समय समद्ध देशों के इन वर्गों का भी अध्ययन करना होगा। विकास के उद्देश्यों के सम्बन्ध में यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आधुनिक युग के परिवेश में विकास की परिभाषा या लक्ष्य बदल गया है। एक समय था, जब विकास का अर्थ मनुष्य की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति से था, लेकिन आज सामान्य लोग आवश्यक वस्तुओं के साथ-साथ विलास की वस्तुओं का भी उपयोग करने लगे हैं अर्थात् वर्तमान में आर्थिक दृष्टि से दुर्बल व सबल वर्गों की अवधारणा अब धमिल हो गई है।

इसी सन्दर्भ में प्रो० गालब्रेथ (Galbraith) ने ठीक ही कहा है कि अब विलास की वस्तुओं (Luxury Goods) व आवश्यक वस्तुओं (Necessity goods) का अन्तर समाप्त हो गया है। कारण यह है कि जनसाधरण अब उन वस्तुओं का प्रयोग करने लगा है, जिन्हें कभी विलास की वस्तुएँ माना जाता था। इसलिए विकास के लक्ष्यों या उद्देश्यों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। विकास के उद्देश्यों का विवरण निम्नलिखित है

1. जीवन का स्तर-विकास का पहला और महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है कि लोगों के रहन-सहन के स्तर का विकास हो। इसका तात्पर्य है कि लोगों को जीवन के स्तर की न केवल आवश्यक सुविधाएँ ही प्राप्त हों, बल्कि उन्हें वे सुविधाएँ भी मिलनी चाहिएँ, जिन्हें प्राप्त करके वे अपने जीवन को सुखी और सम्पन्न बना सकें। उन्हें वे सभी सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिएँ, जिन्हें प्राप्त करके वे अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें, अपनी कार्य-कुशलता को बढ़ा सकें। यही नहीं, उन्हें अवकाश के क्षणों का भी इस्तेमाल करना चाहिए।

2. प्रकृति का दोहन-विकास का दूसरा लक्ष्य है, प्रकृति का दोहन। भौतिकवादियों की यह धारणा है कि जो भी इस विश्व में है, उसका जी भर कर अधिक-से-अधिक उपयोग किया जाना चाहिए और इसी में ही भौतिक सुख मिलता है। इसलिए आज वे प्रकृति का अधिक-से-अधिक शोषण कर रहे हैं। लेकिन वे इस प्रकार प्रकृति का बिना किसी सीमा के प्रयोग करते समय यह भूल जाते हैं कि प्रकृति ने विश्व में प्रत्येक वस्तु को सीमित रूप से बनाया है।

यदि उसका उपभोग आँख बन्द करके किया गया तो यह अहितकर होगा। इसलिए मानव जाति से यह आशा की जाती है कि वे प्राकृतिक साधनों का प्रयोग एक सीमा में रहकर करें, जिससे प्राकृतिक साधनों का नाश न हो अर्थात् प्राकृतिक साधनों का शोषण न करके उसका मात्र दोहन होना चाहिए।

3. दरिद्र की सहायता-विकास के लिए राज्य द्वारा विभिन्न योजनाओं का निर्माण किया जाता है, लेकिन विकास को वास्तविक विकास तब माना जाएगा, जब इससे दरिद्र का विकास होगा अर्थात् विकास का उद्देश्य दरिद्रतम का विकास होना चाहिए। यदि विकास के उद्देश्य में दरिद्र लोगों को ध्यान में नहीं रखा गया, तो विकास तो अवश्य होगा, लेकिन विकास का लाभ धनी लोगों को होगा, न कि दरिद्र वर्ग को।

यदि विकास से धनी वर्ग को ही लाभ होता है और उन्हीं का जीवन-स्तर ऊँचा उठता है, तो इसे वास्तविक स्थिति में विकास नहीं कह सकते। विकास से सभी का, विशेषकर दरिद्र का (गरीब का) विकास होना चाहिए। समाज के पिछड़े वर्ग का कल्याण होना चाहिए। विकास के लिए सरकार को चाहिए कि निवेश ग्रामीण क्षेत्र में किया जाए, जिससे ग्रामीण क्षेत्र भी विकसित होकर देश की मुख्य धारा में आ जाए। वह भी देश की समृद्धि का लाभ उठा सकें।

4. रोज़गार देना-विकास का एक और अन्य लक्ष्य है, देश के नागरिकों को रोजगार उपलब्ध करवाना। आधुनिक,युग को कई बार मशीनी युग भी कहा जाता है। फलस्वरूप जिन देशों की जनसंख्या पहले ही अधिक है, वहाँ पर बेरोज़गारी की समस्या और भी अधिक बढ़ गई है। यही नहीं, बेरोज़गारी की समस्या इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि उन्नत देशों में भी विकट रूप धारण करती जा रही है।

यह बात अलग है कि विकसित देशों में बेरोज़गारों को ‘बेकारी भत्ता’ (Unemployment Allowance) दिया जाता है। लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है। यह ठीक है कि इस भत्ते से बेरोज़गार व्यक्ति की भौतिक आवश्यकता तो पूरी हो जाती है, लेकिन उसकी मानसिक पीड़ा का कोई समाधान नहीं निकलता, क्योंकि वह बेरोज़गार होने पर अपने-आपको समाज का अवांछित व्यक्ति समझता है।

इसलिए यह जरूरी है कि विकास के लक्ष्य को निर्धारित करते समय बेरोज़गारी को दूर करने के लिए कुछ प्रावधान रखे जाएँ; जैसे भारत में बेरोज़गारी को दूर करने के लिए योजनाएँ बनाई जाती हैं और बजट में इसके लिए व्यवस्था (Budgetary Provisions) की जाती है।

5. लोकतन्त्र का विकास-विकास का एक अन्य लक्ष्य है-लोकतन्त्र का विकास। ‘विकास’ लोकतन्त्र के विकास में सहायता करता है और इसके फलस्वरूप लोकतन्त्र विकास में अपना योगदान देता है।

यह ठीक है कि तानाशाही देशों में विकास की गति तेज़ होती है, क्योंकि भय और आतंक की वजह से विकास के रास्ते में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आती, लेकिन यह विकास चिरस्थायी नहीं होता क्योंकि इसमें जनता के सहयोग का अभाव होता है; जैसे साम्यवादी देशों में विकास के कितने ढोल पीटे गए, लेकिन वास्तविकता में विकास था ही नहीं।

उनके विकास की पोल खुलने पर पता चला कि वहाँ विकास के नाम पर लोगों की स्वतन्त्रता व अधिकारों का किस तरह हनन किया गया। अतः लोकतन्त्र के विकास में जन-सहयोग होता है। यह विकास खुला और जन-हिताय होता है। किसी विशिष्ट वर्ग के लिए किए जाने वाले विकास का विरोध होता है। लोकतन्त्र में ही विकास के लाभ का समानता के आधार पर वितरण सम्भव होता है। लोकतन्त्र को विकास विरोधी बताना अनुचित है। यदि यह कहा जाए कि “जब लोकतन्त्र सुरक्षित रहेगा, तभी विकास सर्वाधिक सुरक्षित होगा।” तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है।

प्रश्न 2.
विकास के कल्याणकारी राज्य मॉडल की विवेचना कीजिए।
अथवा
कल्याणकारी राज्य के विकास मॉडल से आप क्या समझते हैं? इसके लक्षणों एवं कार्यों का वर्णन कीजिए। अथवा कल्याणकारी राज्य को परिभाषित करते हुए विकास के कल्याणकारी राज्य मॉडल की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
विकास के लिए दिए गए विभिन्न मॉडलों में से एक कल्याणकारी राज्य का मॉडल है। यह कल्याणकारी राज्य के लक्षणों को विकास का मापदण्ड मानता है। यह मॉडल भी प्रजातन्त्रीय दृष्टिकोण पर आधारित है। इस दृष्टिकोण के अनुसार विकास का अर्थ है-एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना।

हम सभी यह जानते हैं कि राज्य का सबसे बड़ा उद्देश्य अपनी जनता का सामाजिक व आर्थिक कल्याण करना है। इस सिद्धान्त के समर्थक देश औद्योगीकरण करना चाहते हैं। साथ में वे यह भी चाहते हैं कि सर्वसाधारण का जीवन-स्तर भी ऊँचा उठे। राज्य में केवल शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करने से ही काम नहीं चलेगा, बल्कि समाज की विभिन्न प्रकार की विषमताओं को दूर करना होगा, ताकि व्यक्ति का प्रत्येक दृष्टि से विकास हो सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति केवल लोक-कल्याण राज्य द्वारा ही की जा सकती है।

कल्याणकारी राज्य द्वारा लोगों का आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक व आध्यात्मिक विकास सम्भव होगा अर्थात् राज्य का कर्तव्य समाज का सर्वांगीण विकास करना होगा। कल्याणकारी राज्य व्यक्ति के आर्थिक विकास की ओर ध्यान देकर उसे भौतिक सुख-साधन प्रदान करता है, लेकिन केवल भौतिक विकास ही व्यक्ति के लिए काफी नहीं हैं।

मनुष्य केवल भौतिक प्राणी ही नहीं है, बल्कि उसमें मन, बुद्धि और आत्मा भी है, इसलिए आध्यात्मिक व नैतिक विकास की भी आवश्यकता होती है। कल्याणकारी राज्य मनुष्य के आध्यात्मिक व नैतिक विकास के लिए भी कार्य करता है। अतः राज्य मनुष्य के नैतिक कल्याण व आर्थिक कल्याण का साधन है और इसे विकास के महत्त्वपूर्ण मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।

यद्यपि यह ठीक है कि आधुनिक युग में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को विकास के मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन कल्याणकारी राज्य की अवधारणा कोई नई अवधारणा नहीं है। इस अवधारणा का वर्णन राजनीति शास्त्र के जनक अरस्तु ने भी किया है। आधुनिक युग में कल्याणकारी राज्य के इस मॉडल को इंग्लैण्ड, फ्रांस, इटली, ऑस्ट्रेलिया, ज आदि देशों में भी अपनाया गया है।

सुविधा की दृष्टि से विकास के इस मॉडल का ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक हो जाता , है कि कल्याणकारी राज्य की विस्तृत जानकारी प्राप्त करें। कल्याणकारी राज्य की परिभाषाएँ (Definitions of Welfare State) कल्याणकारी राज्य को परिभाषित करना एक बड़ा कठिन कार्य है क्योंकि राज्य को कार्यों की सीमा में बांधना मुश्किल है। फिर भी इसकी कुछ परिभाषाएँ अग्रलिखित हैं

1. कैन्ट (Kent) के अनुसार, “वह राज्य कल्याणकारी राज्य होता है, जो अपने नागरिकों के लिए व्यापक समाज सेवाओं की व्याख्या करता है।”

2. डॉ० अब्राहम (Dr. Abraham) के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य वह समुदाय है जो अपनी आर्थिक अवस्था के संचालन में आय के अधिकाधिक समान वितरण के उद्देश्य से कार्य करता है।”

3. जी०डी०एच० कोल (G.D.H. Cole) के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य एक ऐसा समुदाय है, जिसमें जीवन का न्यूनतम स्तर प्राप्त करने का विश्वास तथा अवसर प्रत्येक नागरिक के अधिकार में होते हैं।”

4. शकैल सिंगर (Schlesinger) के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें सरकार प्रत्येक व्यक्ति को रोज़गार, आय, विद्या, डॉक्टरी सहायता, सामाजिक सुरक्षा तथा रहने के लिए मकान आदि एक न्यूनतम अथवा विशिष्ट स्तर तक स्वीकार करती है।”

5. डॉ० गार्नर (Dr. Garner) के अनुसार, “कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य राष्ट्रीय जीवन, राष्ट्रीय धन तथा जीवन में भौतिक तथा नैतिक स्तर को विस्तृत करना है।”
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर स्पष्ट हो जाता है कि कल्याणकारी राज्य विकास के मॉडल के रूप में उन सभी सुविधाओं या अवस्थाओं को प्रदान करता है, जिनको प्राप्त करके व्यक्ति अपने जीवन का राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक आधार पर विकास कर सकता है। इस व्यवस्था में विकास के मॉडल का उद्देश्य किसी विशेष समुदाय, वर्ग विशेष अथवा समाज के अंग विशेष के हित की ओर ध्यान देना नहीं होता, बल्कि इसका उद्देश्य जनता के सभी वर्गों के कुछ आवश्यक हितों की साधना करना होता है।

यद्यपि आर्थिक हित मानव-कल्याण के लिए अत्यन्त आवश्यक है, तथापि आर्थिक हित साधन से होता है, जिसमें सामाजिक, नैतिक, आर्थिक तथा बौद्धिक सभी प्रकार के साधन आ जाते हैं। इस प्रकार कल्याणकारी राज्य सर्वांगीण विकास की ओर ध्यान देता है।

विकास के कल्याणकारी राज्य मॉडल के उद्देश्य या लक्षण कल्याणकारी राज्य के विकास के मॉडल या मार्ग के रूप में उद्देश्यों का वर्णन निम्नलिखित है

1. विकास लोकतन्त्र के रूप में कल्याणकारी राज्य में शासन का मुख्य उद्देश्य लोक-कल्याण करना होता है। शासन के सभी कार्य इस प्रकार सम्पादित किए जाते हैं कि उससे जनता का हित एवं कल्याण हो। इसमें कुछ सम्भ्रान्त व्यक्तियों या समूहों के स्थान पर सारी जनता के भले के बारे में विचार करके कार्य होते हैं।

2. विकास आर्थिक सुरक्षा के रूप में कल्याणकारी राज्य में कोई व्यक्ति निर्धन नहीं होता। राज्य हर व्यक्ति के रोज़गार एवं आजीविका की व्यवस्था करता है। राज्य यह देखता है कि किस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन-यापन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो।

3. विकास सामाजिक सुरक्षा के रूप में कल्याणकारी राज्य में प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान की जाती है। बूढ़े, असहाय, प्राकृतिक प्रकोपों से पीड़ित व्यक्तियों को राज्य की ओर से सुरक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की जाती है। शासन की ओर से सार्वजनिक स्वास्थ्य की व्यवस्था की जाती है।

4. विकास राजनीतिक सुरक्षा के रूप में कल्याणकारी राज्य में सभी व्यक्तियों का जीवन सुरक्षित रखने के लिए पुलिस आदि की व्यवस्था की जाती है। शासन का यह प्रथम कार्य होता है कि वह कानून और व्यवस्था को बनाए रखे। राज्य ही ऐसी व्यवस्था करता है जिसमें कि लोग अपनी सहज एवं सामान्य गतिविधियाँ निर्भीकतापूर्वक सम्पादित कर सकें।

5. विकास भेदभाव के अन्त के रूप में कल्याणकारी राज्य में भाषा, जाति, सम्प्रदाय आदि किसी भी आधार पर समाज में व्यक्तियों के साथ भेदभाव का व्यवहार नहीं होता। इस व्यवस्था में सामाजिक न्याय पर बल दिया जाता है। सभी व्यक्तियों के साथ समानता का व्यवहार किया जाता है।

6. विकास लोकतान्त्रिक शासन-व्यवस्था के रूप में कोई ऐसा शासन जहाँ निरंकुशवादी हो और जो अत्याचारी हो, वहाँ कल्याणकारी राज्य हो ही नहीं सकता। कल्याणकारी राज्य के लिए यह आवश्यक है कि वहाँ की शासन-व्यवस्था लोकतान्त्रिक हो। जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों का और नागरिकों का शासन हो और नागरिकों को विचार एवं अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता हो। अन्यथा पता ही कैसे चलेगा कि राज्य कल्याणकारी है या नहीं।

7. विकास विश्व-शान्ति में विश्वास के रूप में कल्याणकारी राज्य विश्व-शान्ति में विश्वास रखता है। वह जानता है कि परस्पर युद्ध का रास्ता विनाश का रास्ता है। इसलिए कल्याणकारी राज्य सभी पड़ोसियों के साथ मित्रता स्थापित करने के लिए प्रयास करता है। इतना ही नहीं वरन् वह तो सम्पूर्ण विश्व में शान्ति चाहता है और विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान में विश्वास करता है।

कल्याणकारी राज्य के कार्य (Functions of Welfare State) कई विद्वानों ने राज्य के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया है-अनिवार्य कार्य और ऐच्छिक कार्य। लेकिन कल्याणकारी राज्य इस प्रकार के कार्य विभाजन में विश्वास नहीं रखता। अतः कल्याणकारी राज्य के कार्य निम्नलिखित हैं

1. आन्तरिक सुव्यवस्था तथा विदेशी आक्रमणों से रक्षा एक राज्य जब तक विदेशी आक्रमणों से अपनी भूमि और सम्मान की रक्षा करने की क्षमता नहीं रखता और आन्तरिक शान्ति तथा व्यवस्था स्थापित रखते हुए व्यक्तियों के जीवन की सुरक्षा का आश्वासन नहीं देता, उस समय तक वह राज्य कहलाने का ही अधिकारी नहीं है। इस कार्य को पूरा करने के लिए राज्य सेना और पुलिस रखता है। जिस देश के नागरिकों को इस बात का विश्वास नहीं कि उसकी सरकार बाहरी आक्रमणों से उनकी रक्षा कर सकेगी तो वे नागरिक निश्चिन्त नहीं रह सकते।

2. जीवन और सम्पत्ति की रक्षा राज्य का प्रमुख कार्य नागरिकों की रक्षा करना है। वास्तव में राज्य का जन्म ही इस आवश्यकता के कारण हुआ है। यदि राज्य व्यक्ति के जीवन, सम्पत्ति और स्वतन्त्रता की रक्षा नहीं करेगा तो राज्य का अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। राज्य में व्यक्ति इस कारण रहता है कि राज्य में उसके जीवन और सम्पत्ति की रक्षा हो सकती है। राज्य के पास प्रभुसत्ता होती है और ऐसे व्यक्तियों को, जो दूसरों के अधिकारों की अवहेलना करते हैं, राज्य कठोर-से-कठोर दण्ड दे सकता है।

3. शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्य-कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य व्यक्तियों के लिए उन सभी सुविधाओं की व्यवस्था करना होता है, जो उनके व्यक्तित्व के विकास हेतु सहायक और आवश्यक हैं। इस दृष्टि से शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। इस प्रकार राज्य शिक्षण-संस्थाओं की स्थापना करता है और एक निश्चित स्तर तक शिक्षा को अनिवार्य तथा निःशुल्क किया जाता है। औद्योगिक तथा प्राविधिक शिक्षा की व्यवस्था भी राज्य द्वारा की जाती है। इसी प्रकार राज्य द्वारा चिकित्सा-गृहों तथा प्रसव-गृहों आदि की स्थापना की जाती है जिसका उपयोग जनसाधारण निःशुल्क कर सकते हैं।

4. न्यायिक व्यवस्था करना यह बात एकदम स्वाभाविक है कि समाज में रहने वाले व्यक्तियों में अनेक विषयों पर तरह-तरह के विवाद और झगड़े उत्पन्न हों। उन विवादों का समाधान करने के लिए राज्य की ओर से न्यायिक व्यवस्था की जानी चाहिए। यह कल्याणकारी राज्य का ही कार्य है कि वह सभी व्यक्तियों को समान रूप से, बिना किसी भेदभाव के न्याय प्रदान करे। न्यायपालिका निष्पक्ष हो और सभी के मन में उसके प्रति आदर की भावना हो।

5. आर्थिक विकास की व्यवस्था आज का युग तेजी का युग है। संसार के देशों में आर्थिक विकास की होड़ लगी हुई है। व्यक्तियों का जीवन-स्तर तेजी से सुधर रहा है। ऐसी अवस्था में समाज की अर्थव्यवस्था और व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति के प्रति कोई भी राज्य मूक दर्शक बनकर नहीं रह सकता। उसका यह प्रमुख कार्य हो जाता है कि वह सम्पूर्ण देश के आर्थिक विकास का प्रयत्न करे।

समाजवादी देशों में तो राज्य यह कार्य स्वयं हाथ में लेता ही है; परन्तु पूँजीवादी देशों में आर्थिक विकास के लिए राज्य की ओर से विशाल पैमाने पर प्रयत्न किए जाने लगे हैं। अनेक उद्योग निजी उद्योगपतियों के हाथों में होने पर भी राज्य पर उनका पर्याप्त नियन्त्रण रहता है। सभी देशों में आर्थिक विकास के लिए तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति तथा अनुसन्धान भी राज्य का कार्य बन गया है।

राज्य की ओर से आर्थिक विकास के कार्य करते समय यह देखना भी जरूरी है कि समाज का कोई वर्ग या समुदाय उपेक्षित न रह जाए। पूर्ण रूप से समानता तो किसी भी देश में सम्भव नहीं है। रूस में भी वह नहीं है। चीन में भी नहीं; परन्तु आर्थिक समानता को कम किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार दिया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति गरीबी की रेखा के नीचे न रहे-यह प्रयत्न किया जा सकता है और यही कल्याणकारी राज्य को करना चाहिए।

6. कृषि, उद्योग और व्यवसायों का विकास-अपनी सीमा के अन्दर रहने वाले नागरिकों के आर्थिक विकास की जिम्मेदारी भी लोक-कल्याणकारी राज्य की है। इसके लिए राज्य कृषि, उद्योगों और व्यवसायों को प्रोत्साहन देता है। राज्य के द्वारा सिंचाई के साधन उपलब्ध कराने के लिए नहरों, नलकूपों आदि का निर्माण किया जाता है और बड़ी-बड़ी नदियों पर बांध आदि बनाकर बिजली के उत्पादन द्वारा उद्योग-धन्धों और व्यापार को प्रोत्साहित किया जाता है।

7. आर्थिक शोषण की समाप्ति-लोक-कल्याणकारी राज्य आर्थिक शोषण की समाप्ति के लिए औद्योगिक क्षेत्र पर नियन्त्रण रखता है और यदि किन्हीं उद्योगों को सरकारी अधिकार में लेना आवश्यक मालूम होता है तो राज्य उनका राष्ट्रीयकरण कर देता है।

8. श्रमिकों के हित में कानून बनाना-उद्योग-धन्धों को नियन्त्रण करने के साथ-साथ लोक-कल्याणकारी राज्य श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए काम के घण्टे निश्चित करने, उन्हें उचित वेतन प्राप्त कराने, कारखानों में स्वच्छ वातावरण उत्पन्न करने, श्रमिकों की शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था करने, अयोग्य होने ही हालत में बीमा योजना को लागू करने, तालाबन्दी आदि से उनकी रक्षा करने और बोनस आदि दिलाने के सम्बन्ध में कानून बनाते हैं। श्रम-न्यायालय (Labour Courts) की स्थापना करके श्रमिक झगड़ों का शीघ्र निपटारा करने की व्यवस्था भी लोक-कल्याणकारी राज्यों द्वारा की जाती है।

9. समाज-सुधार सम्बन्धी कार्य-सामाजिक प्रगति को बढ़ावा देने के लिए छुआछूत, जाति और वर्गों की संकुचित भावना, रूढ़ियों, अन्ध-विश्वासों और बाल-विवाह एवं दहेज सरीखी कुरीतियों को दूर करना भी लोक-कल्याणकारी राज्य के लिए आवश्यक है। महिलाओं की दशा सुधारने या विधवाओं के भरण-पोषण की व्यवस्था और उन्हें सम्मानपूर्ण जीवन दिलाने की व्यवस्था भी लोक-कल्याणकारी राज्यों द्वारा की जाती है। ..

10. सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी कार्य-इसके अन्तर्गत लोक-कल्याणकारी राज्य रोगी, दिव्यांग, असहाय तथा वृद्ध व्यक्तियों को पेन्शन देने का प्रबन्ध करता है और उनके लिए आश्रय केन्द्र स्थापित करता है। समाज के पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें कुछ विशेष सुविधाएँ भी दी जा सकती हैं।

11. उच्च नैतिक विकास-लोक-कल्याणकारी राज्य नागरिकों को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सरक्षा देकर ही अपने कार्यों को पूरा हुआ नहीं मान लेता। उसे नागरिकों के नैतिक विकास की भी चिन्ता होती है। अतः श्रेष्ठ साहित्य के निर्माण में सहायता देना, विभिन्न विषयों के अभिकृत विद्वानों को पुरस्कृत करना और अश्लील साहित्य पर रोक लगाकर नागरिकों के नैतिक विकास में भी लोक-कल्याणकारी राज्य सहायक बनता है।

12. नागरिक स्वतन्त्रता की रक्षा-लोक-कल्याणकारी राज्य जनहित के अनेक कार्यों को करते हुए भी नागरिक स्वाधीनता को छीनने की कोशिश नहीं करता; उल्टे उसकी सुरक्षा करके उसे बढ़ावा देता है। इसका कारण यह है कि नागरिकों का सभी तरह का विकास स्वतन्त्रता के उत्तम वातावरण में ही सम्भव है, राजनीतिक घुटन से भरे वातावरण में नहीं।

इसलिए लोक-कल्याणकारी राज्य नागरिकों को अपने विचार प्रकट करने और उनका प्रचार करने की पूरी छूट देता है। आर्थिक सुरक्षा की गारण्टी देकर राज्य स्वतन्त्रता को सही अर्थों में सार्थक बना देता है। कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त की आलोचना लोक-कल्याणकारी राज्यों के कार्यों के वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि इस तरह का राज्य मानव-समाज के लिए बहुत अधिक उपयोगी है। फिर भी लोक-कल्याणकारी राज्य की कुछ विद्वानों ने आलोचना की है, जो निम्नलिखित है

1. खर्चीली व्यवस्था-कल्याणकारी राज्य के आलोचकों का कहना है कि इस व्यवस्था में राज्य द्वारा अनेक तरह के कार्य करने से राज्य पर होने वाला व्यय-भार बहुत अधिक बढ़ जाता है। अतः इस व्यवस्था का उपयोग ब्रिटेन, अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के अन्य सम्पन्न देशों में ही किया जा सकता है, भारत जैसे गरीब देश में नहीं। यदि यहाँ इस व्यवस्था का सहारा लिया गया तो सरकार को जनता पर और अधिक टैक्स लगाने पड़ेंगे जिससे जनमत का जीवन और अधिक कष्टपूर्ण हो जाएगा।

2. पूँजीपतियों द्वारा विरोध-लोक-कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था का सबसे अधिक विरोध पूँजीपतियों द्वारा किया जाता है, क्योंकि इस व्यवस्था में उनके द्वारा संचालित उद्योगों में मनमाना मुनाफा कमाने पर राज्य द्वारा रोक लगाकर उन पर भारी कर भी लगाए जाते हैं। पूँजीपतियों का कहना है कि इससे उत्पादन घट जाएगा और राष्ट्रीय आय को हानि होगी।

3. नौकरशाही को अनुचित महत्त्व लोक-कल्याणकारी राज्य के विरुद्ध प्रायः यह तर्क भी दिया जाता है कि इस व्यवस्था में राज्य के कार्य-क्षेत्र का दायरा बहुत अधिक बढ़ जाने से शासन में नौकरशाही का प्रभाव और महत्त्व अनावश्यक रूप से बढ़ जाता है। विशेषज्ञ होने के कारण आमतौर पर नीतियों और कार्यक्रमों का निर्धारण सरकारी अधिकारियों द्वारा ही उन पर केवल हस्ताक्षर करते हैं। अतः लोक-कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था ठीक नहीं है।

4. नागरिक स्वतन्त्रता में कमी-भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में राज्य का कार्य बढ़ाने से नागरिकों की स्वतन्त्रता में कमी आ जाती है। राज्य द्वारा लागू नियमों को मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है और इससे उनका नैतिक विकास भी रुक जाता है। राज्य पर निर्भरता बढ़ने से व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं रह पाता और उसकी राज्य पर आश्रित होने की भावना बढ़ती चली जाती है।

5. विरोधाभासी अवधारणा कल्याणकारी राज्य में आर्थिक असमानता समाप्त करने पर विशेष आग्रह नहीं किया जाता। केवल गरीबों का स्तर ऊँचा उठाने की बात की जाती है, परन्तु जिस समाज में आर्थिक विषमता बहुत अधिक हो, वहाँ अवसर की समानता हो ही नहीं सकती। अतः मूल रूप से कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ‘यथास्थितिवादी अवधारणा’ है।

6. अस्पष्ट अवधारणा कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का सबसे बड़ा दोष यह है कि यह एक अस्पष्ट अवधारणा है। यह कहना तो अच्छा है कि राज्य का उद्देश्य लोक-कल्याण होना चाहिए। परन्तु लोक-कल्याण से तात्पर्य क्या है, इसकी सुनिश्चित व सर्वमान्य व्याख्या किसी ने नहीं की। किसी विद्वान ने लोक-कल्याण का अर्थ कुछ लगाया, किसी ने कुछ लगाया।

निष्कर्ष:
यद्यपि आलोचकों ने लोक-कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था के विरुद्ध अनेक तर्क दिए हैं, लेकिन गहराई से विचार करने पर उनका खोखलापन स्वतः प्रकट हो जाता है। उदाहरण के लिए, यह कहना बिल्कुल गलत है कि इस व्यवस्था का सहारा ब्रिटेन और अमेरिका जैसे सम्पन्न देशों में ही लिया जा सकता है, भारत जैसे गरीब देश में नहीं।

आजादी मिलने के बाद भारत में भी लोक-कल्याण के अनेक कार्य शासन द्वारा पूरे किए गए हैं और उससे सर्व-साधारण को लाभ ही हुआ है। इसी तरह नागरिक स्वतन्त्रता का उपभोग भूखे पेट नहीं किया जा सकता, यह भी हमें स्मरण रखना चाहिए। लोक-कल्याणकारी राज्य में नौकरशाही के कार्यों में बढोतरी होती है, इसमें संदेह नहीं।

इस तरह विकास का यह मॉडल बल पकड़ता जा रहा है और अमेरिका जैसे विकसित देशों ने अपने नागरिकों को और अधिक सुविधाएँ प्राप्त कराने के लिए इसी मॉडल को ही अपनाया है। सच्चाई तो यह है कि विकास के इस मॉडल की बढ़ती हुई लोकप्रियता ही उसके औचित्य का सबसे बड़ा प्रमाण है। इसलिए कोई भी समझदार व्यक्ति लोक-कल्याण के इस मॉडल की आलोचना या विरोध करने के लिए तैयार नहीं है। भारत में विकास के इसी मॉडल को अपनाया गया है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

प्रश्न 3.
विकास सम्बन्धी समाजवादी मॉडल का विवेचन कीजिए।
अथवा
विकास सम्बन्धी समाजवादी मॉडल से आप क्या समझते हैं? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
समाजवाद क्या है? विकास सम्बन्धी समाजवादी दृष्टिकोण या मॉडल की समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
विकास के विभिन्न मॉडलों में से विकास का समाजवादी मॉडल एक महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली मॉडल है। यह मॉडल समाजवादी मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़ा हुआ है। इस मॉडल के अन्तर्गत विकासशील देशों का विकास साम्यवादी तथा समाजवादी मापदण्डों के आधार पर होना चाहिए। समाजवादी राज्य की स्थापना ही विकास का अन्तिम उद्देश्य है।

इस दृष्टिकोण या मॉडल के समर्थकों का विचार है कि विकसित देशों व विकासशील देशों की पूँजीवादी व्यवस्था में अन्तर है, क्योंकि विकसित देश पूँजीवादी व्यवस्था के माध्यम से अपनी सभी समस्याओं का निदान कर चुके हैं, लेकिन विकासशील देश पूँजीवादी व्यवस्था को नहीं अपना सकते, क्योंकि उन्होंने अभी-अभी साम्राज्यवादी शक्तियों से स्वतन्त्रता प्राप्त की है।

साम्राज्यवादी शक्तियाँ अभी तक उनका शोषण कर रही थीं। उन्होंने विकासशील देशों का आर्थिक दृष्टि से जी भरकर शोषण किया। ये देश पूँजीवादी व्यवस्था को अपनाकर अपना और अधिक शोषण नहीं करवा सकते। इसलिए उन्होंने पूँजीवाद से अपने सम्बन्ध पूर्ण रूप से तोड़ने में ही विकास की आशा की है।

यह मॉडल अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा का विरोधी है, क्योंकि इसमें शक्तिशाली राष्ट्र ही लाभ उठाते हैं। विकासशील देशों को इससे उसी प्रकार हानि पहुँचती है, जिस प्रकार खुली प्रतियोगिता तथा मुक्त व्यापार से श्रमिकों को हानि पहुँचती है। उन्नत देश विकासशील देशों में पूँजी लगाकर उस देश का कच्चा माल खरीदते हैं। कच्चे माल से उत्पादन करके उस उत्पादन को उसी देश के बाजार में भारी कीमतों में बेचकर उनका शोषण करते हैं।

अतः विकासशील देशों को पूँजीवादी व्यवस्था, अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा एवं मुक्त बाजार से कोई लाभ नहीं पहुँचता। इस प्रकार विकास का मॉडल समाजवादी व्यवस्था को अपना आदर्श मानता है और इसी व्यवस्था के अन्तर्गत विकास की किरण देखता है और अपनी गतिविधियों का संचालन करता है, अतः इस मॉडल को पूरी तरह समझने के लिए समाजवादी व्यवस्था या समाजवाद पर प्रकाश डालने की आवश्यकता है।

समाजवाद क्या है? समाजवाद व्यक्तिवादी विचारधारा के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है। समाजवाद की परिभाषा देना एक कठिन कार्य है इसलिए इसके विचारकों द्वारा इसे अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया गया है। एक लेखक ने तो समाजवाद की तुलना एक टोपी से की है जिसका आकार बिगड़ चुका है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति ने इसे अपने तरीके से पहना है।

रैम्जेम्योर (Ramsay Muir) ने समाजवाद के बारे में कहा है, “यह एक गिरगिट के समान है जो परिस्थिति के अनुसार अपना रंग बदलता रहता है।” समाजवाद एक व्यापक मानवीय आन्दोलन है। अतः व्यक्तियों, विचारकों तथा परिस्थितियों के अनुसार इसका स्वरूप बदलता रहता है। यह केवल राजनीतिक आन्दोलन ही नहीं है, बल्कि आर्थिक आन्दोलन भी है। समाजवाद की कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

1. रैम्जे मेक्डोनल्ड (Ramsay Macdonald) के अनुसार, “साधारण भाषा में समाजवाद की सबसे अधिक अच्छी परिभाषा यह है कि इसका उद्देश्य समाज के आर्थिक व भौतिक साधनों का संगठन करना तथा मानव साधनों द्वारा उसका नियन्त्रण करना है।”

2. इमाइल (Emiles) ने परिभाषा देते हुए कहा है, “समाजवाद मजदूरों का संगठन है जिसका उद्देश्य पूँजीवादी सम्पत्ति को समाजवादी सम्पत्ति में परिवर्तित करके राजनीतिक सत्ता को प्राप्त करना है।”

3. ह्यून (Hughan) के अनुसार, “समाजवाद मजदूर वर्ग का एक आन्दोलन है जिसका उद्देश्य उत्पादन तथा वितरण के बुनियादी साधनों का सामूहिक स्वामित्व और लोकतन्त्रीय शासन के द्वारा शोषण का अन्त करना है।”

4. रॉबर्ट (Robert) ने समाजवाद की परिभाषा इस प्रकार से दी है, “समाजवाद के कार्यक्रम की मांग है कि सम्पत्ति तथा उत्पाद के अन्य साधन जनता की सामूहिक सम्पत्ति हो और उनका प्रयोग भी जनता के द्वारा जनता के लिए किया जाए।”

समाजवाद की उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि समाजवाद वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एक आन्दोलन है। इसके अनुसार राज्य का कार्य-क्षेत्र इतना विस्तृत होना चाहिए कि वह जनता की भलाई के लिए कार्य कर सके और भिन्न-भिन्न स्वतन्त्रताओं की भी व्यवस्था कर सके। समाजवादियों के अनुसार राज्य एक बुराई न होकर एक अच्छी संस्था है।

इसलिए राज्य को अधिकार है कि वह व्यक्तियों की भलाई के लिए जो उचित समझे, करे। गार्नर का कथन है कि व्यक्तिवादियों के विपरीत, समाजवाद के समर्थक राज्य पर विश्वास करके उसे बुराई न मानकर उसके कार्य-क्षेत्र को सीमित करने की बजाय विस्तृत करना चाहते हैं। वे राज्य को जनता के आर्थिक, नैतिक व बौद्धिक हितों के विकास के लिए अनिवार्य समझते हैं।

समाजवादी, पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था से असन्तुष्ट हैं। अतः वे पूँजीवाद को समाप्त करके उत्पादन और वितरण के साधनों को सरकार के हाथों में देना चाहते हैं, ताकि आर्थिक समानता स्थापित की जा सके और लोगों को बिना किसी भेदभाव के विकास के अवसर मिल सकें। समाजवाद की अवधारणा को साधारणतः दो भागों में विभाजित किया गया है-

  • कार्ल मार्क्स व ऐंजल्स की विचारधारा पर आधारित समाजवाद, जिसे मार्क्सवाद कहा जाता है।
  • विकासवादी अथवा लोकतान्त्रिक समाजवाद।

(मार्क्सवाद-समाजवाद का सबसे प्रभावशाली समर्थक मार्क्स था। उसने दीन, दुःखी व शोषित श्रमिक वर्ग के विकास के लिए एक नई राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिपादन किया। वह जानता था कि श्रमिक वर्ग की दयनीय हालत में सुधार केवल राज्य द्वारा ही किया जा सकता है। मार्क्स समाज को दो वर्गों में बांटता है-शोषक व शोषित वर्ग।

पहले वर्ग का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण होता है, वह साधनों का स्वामी होता है और दूसरा वर्ग अपने श्रम पर जीने वाला है। पूँजीपति अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना चाहता है। इस कारण वह मजदूरों को कम-से-कम मजदूरी देना चाहता है। दूसरी ओर मज़दूर अधिक-से-अधिक मज़दूरी लेना चाहते हैं। अतः हितों के इस विरोध के कारण दोनों में संघर्ष आरम्भ हो जाता है। यह वर्ग-संघर्ष की बुनियाद है और इसी कारण वर्ग-संघर्ष हमेशा चलता रहता है।

मार्क्स का विचार था कि मजदूरों में असन्तोष, चेतना तथा संगठन बढ़ेगा। वह विश्व के मजदूरों को संगठित होने के लिए कहता है। उसने कहा है कि विश्व के मज़दूरों, इकट्ठे हो जाओ और पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्ति कर दो। इस क्रान्ति के फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग राज्य की शक्ति पर काबू पा लेगा। पूँजीवाद को जड़ से समाप्त कर देगा। सारी सम्पत्ति पर मजदूरों का ही नियन्त्रण हो जाएगा। सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की स्थापना हो जाएगी और ऐसे समाज की स्थापना हो जाएगी जिसमें अन्याय, शोषण और अत्याचार नहीं होगा।

वर्ग-विहीन व राज्य-विहीन व्यवस्था की स्थापना हो जाएगी, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को उसके सामर्थ्य और उसकी आवश्यकता अनुसार सुविधाएँ प्रदान की जाएँगी इस तरह मार्क्स एक नवीन समाज का विकास करता है।

(ii) विकासवादी अथवा लोकतान्त्रिक समाजवाद कार्ल मार्क्स की मृत्यु के बाद उसके विचारों का संगठित रूप से प्रचार किया गया, लेकिन कुछ बातों को लेकर मार्क्सवादियों में मतभेद उत्पन्न हो गए और उसी आधार पर एक नई विचारधारा ने जन्म लिया, जिसे लोकतान्त्रिक समाजवाद या विकासवादी समाजवाद का नाम दिया गया।

लोकतान्त्रिक समाजवाद, समाजवाद का वह रूप है जो जन-सहमति के आधार पर धीरे-धीरे स्थापित किया जाता है। समाजवाद (मार्क्सवाद) व लोकतान्त्रिक समाजवाद में मुख्य अन्तर दोनों द्वारा अपनाए गए साधनों से है। दोनों का उद्देश्य तो एक ही है पूँजीवाद को समाप्त करना, उसे जड़ से उखाड़ फेंकना। दोनों ही व्यक्तिगत सम्पत्ति को समाप्त करने के पक्ष में हैं, परन्तु जहाँ मार्क्सवादी इस उद्देश्य की प्राप्ति रक्तिम क्रान्ति (Bloody Revolution) द्वारा करना चाहते हैं, वहाँ लोकतान्त्रिक समाजवादी

इस उद्देश्य की प्राप्ति संवैधानिक तरीके से करने के पक्ष में हैं। वे वर्ग-सहयोग व शान्तिपूर्ण उपायों से सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं। उनका विश्वास है कि क्रान्ति के द्वारा श्रमिकों की तानाशाही द्वारा समाजवाद की स्थापना नहीं की जा सकती। लोकतान्त्रिक समाज की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में।
  • समाज में दो वर्गों की बजाय तीन वर्ग हैं।
  • समाजवाद की स्थापना धीरे-धीरे कानुन बनाकर होगी।
  • क्रान्ति की तुलना में शान्तिपूर्ण तरीके अपनाने होंगे।
  • राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, समाज-कल्याण व आर्थिक सुरक्षा के क्षेत्र में नागरिकों को अनेक सुविधाएँ जुटाते हैं।
  • श्रमिकों की तानाशाही अनावश्यक व लोकतन्त्र विरोधी है।
  • राज्य-विहीन समाज की स्थापना कोरी कल्पना है। समाजवाद की स्थापना में राज्य को अहम् भूमिका निभानी है।

अन्त में यह कहा जा सकता है कि समाजवाद की चाहे कितनी भी शाखाएँ क्यों न हों, लेकिन विकास के बारे में सभी समाजवादियों ने सहमति प्रकट की है। उनका कहना है कि उत्पादन और वितरण व्यक्ति के हाथ में न होकर राज्य के नियन्त्रण में होना चाहिए।

व्यक्तिगत लाभ की तुलना में सामाजिक हित को प्रमुखता दी जानी चाहिए। उत्पादन समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। उत्पादन के क्षेत्र में स्वतन्त्र प्रतिस्पर्धा समाप्त की जानी चाहिए। समाजवादी मॉडल की समीक्षा विकास के समाजवादी मॉडल की आलोचकों द्वारा आलोचना की गई है।

उनका कहना है कि यह मॉडल रूस और चीन में अपनाया गया। रूस में सन् 1917 तथा चीन में सन् 1949 में समाजवादी अथवा साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना की गई। दोनों देशों में क्रान्तिकारी ढंग से समाजवाद की स्थापना की गई है, लेकिन वहाँ पर अभी तक लोकतन्त्र की स्थापना नहीं हो पाई, यद्यपि वहाँ पर संविधान में लोगों के लिए अधिकारों की व्यवस्था की गई है।

ये अधिकार केवल नाममात्र के हैं क्योंकि वहाँ न्यायपालिका, प्रैस और भाषण की पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं है और केवल एक ही साम्यवादी दल की स्थापना का अधिकार दिया गया है। चुनाव लड़ने का अधिकार भी केवल नाममात्र है।

इस मॉडल में व्यक्ति मशीन का मात्र एक पुर्जा बनकर रह गया है। साम्यवादी समाज में व्यक्ति अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं वस्था में शक्तियों का बहत अधिक केन्द्रीयकरण देखने को मिलता है। इसमें व्यक्ति की गरिमा के लिए कोई स्थान नहीं है। अतः रूस में पूर्वी यूरोप के सभी देशों में विकास के इस मॉडल का सफाया हो चुका है। चीन ने भी बाजार अर्थव्यवस्था से समझौता कर लिया गया है।

सभी साम्यवादी देशों ने उदारीकरण की नीति को अपना लिया है। वास्तविकता यह है कि किसी भी देश में अर्थव्यवस्था पर न तो पूर्ण रूप से राज्य का नियन्त्रण है और न ही व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्र छोड़ दिया गया है, बल्कि सभी देशों में ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ को अपनाया गया है। फलस्वरूप राज्य का सीमित हस्तक्षेप होता है।

प्रश्न 4.
विकास सम्बन्धी गाँधीवादी मॉडल की विवेचना कीजिए।
अथवा
विकास के गाँधीवादी दृष्टिकोण की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
विकास के गाँधीवादी मॉडल के विभिन्न पक्षों या रूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
अभी तक अध्ययन किए गए विकास के मॉडलों या मार्गों या दृष्टिकोणों का सम्बन्ध व्यक्ति या राष्ट्र के भौतिकवादी पक्ष से है जिसमें भौतिकता के आधार पर समाज को दो वर्गों में बाँटा जाता है। इन दोनों वर्गों में संघर्ष होता है और संघर्ष के बाद क्रान्ति और क्रान्ति के बाद राज्य-विहीन या वर्ग-विहीन व्यवस्था की स्थापना। इसके बाद कल्याणकारी राज्य रूपी विकास का मॉडल सामने आया। उसमें भी व्यक्ति के जीवन के भौतिक पक्ष को ही महत्त्व दिया गया। अतः सभी उपरोक्त विकास के मॉडलों में विकास के वास्तविक लक्ष्यों की उपेक्षा की गई। उनमें केवल एक ही वर्ग की भलाई या विकास की बात कही गई है।

गांधी जी समाज के एक वर्ग के विकास से सम्बन्धित नहीं थे। वे समाज के प्रत्येक वर्ग के विकास की कामना करते थे। उन्होंने समाज के दलित, उपेक्षित व दरिद्र वर्गों की भलाई की बात की है। गांधी जी ने जो विकास की बात की है वह भारतीय परिप्रेक्ष्य में की है। उनका उद्देश्य था ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ अर्थात् उन्होंने सम्पूर्ण मानव के विकास एवं सुख की बात की है।

इसी सन्दर्भ में यहाँ यह कहा जा सकता है कि गांधी जी के विकास के मॉडल में केवल भौतिक सुख की ही बात नहीं की जाती, बल्कि भौतिक सुख के साथ-साथ आध्यात्मिक सुख की भी बात की जाती है। भौतिक सुख क्षणभंगुर है। इसमें व्यक्ति का बाह्य विकास होता है। गांधीवादी मॉडल में जहाँ अध्यात्मवाद पर बल दिया गया है, वहाँ आध्यात्मिक विकास को भी महत्ता दी गई है। अतः गांधीवादी मॉडल अन्तर्मुखी एवं आदर्शवादी है।

महात्मा गांधी एक अर्थशास्त्री नहीं थे तथा न ही उन्होंने कोई विकास का औपचारिक मॉडल प्रस्तुत किया। उन्होंने भारत की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कृषि व उद्योग से सम्बन्धित कुछ नीतियों का अवश्य ही प्रतिपादन किया है। प्राचार्य एस०एन० अग्रवाल के द्वारा 1994 में ‘गांधीयन योजना’ बनाई गई तथा 1998 में इसकी पुनर्रचना की।

इनके लेख गांधीयन योजना या गांधी के ‘विकास मॉडल’ के आधार माने जाते हैं जिसमें गांधी जी के विचारों का प्रतिपादन किया गया है। गांधीवादी मॉडल का मुख्य उद्देश्य देश की जनता का भौतिक व सांस्कृतिक विकास करना है। इसका मुख्य उद्देश्य देश के 5.5 लाख गांवों की आर्थिक स्थिति में सुधार करना है। इसलिए इस मॉडल में अधिक बल कृषि विकास व ग्रामीण विकास पर दिया गया है।

गांधीवादी मॉडल की विशेषताएँ गांधी जी ने समाज के विकास की जो योजनाएँ प्रस्तुत की, उनका अधिक सम्बन्ध भारत से है। उनका विचार था कि विकास मात्र भौतिक नहीं होता, बल्कि आत्मिक विकास सर्वोपरि है। यह बात अलग है कि भारत बहुत समय तक गुलाम रहा। उस पर पाश्चात्य सभ्यता का पूर्ण प्रभाव था। इसलिए भारतीयों का भी दृष्टिकोण भौतिकवादी ही बन गया। गांधी जी के मॉडल के मुख्य रूप से तीन पक्ष हैं

(क) विकास का आर्थिक पक्ष,
(ख) विकास का सामाजिक पक्ष,
(ग) विकास का राजनीतिक पक्ष।

(क) विकास का आर्थिक पक्ष (Economic Aspect of Development)-गांधी मॉडल में विकास के आर्थिक पक्ष पर गांधी जी के विचार अग्रलिखित हैं

1. कृषि का महत्त्व-भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसमें लगभग 75% लोग कृषि पर निर्भर करते हैं। इसलिए कृषि का विकास अनिवार्य है। गांधी जी ने कृषि विकास पर बल दिया है। इसलिए ज़मींदारी प्रथा का अन्त, भू-धारण प्रणाली में परिवर्तन, खाद्यान्नों में आत्म-निर्भरता, कम ब्याज पर धन उपलब्ध करवाना, किसानों को अच्छे बीज तथा अच्छी खाद उपलब्ध करवाना, सिंचाई की व्यवस्था करना आदि कुछ योजनाएँ हैं जिनके द्वारा कृषि में विकास किया जा सकता है।

2. कुटीर व ग्रामीण उद्योग-गांधीयन मॉडल में कुटीर व ग्रामीण उद्योग-धन्धों पर बल दिया गया है। उन्होंने विकेद्रित अर्थव्यवस्था का प्रतिपादन किया है। उनका विचार था कि भारत की जनसंख्या का अधिक भाग गाँवों में रहता है। इसलिए गाँवों का विकास अनिवार्य है। गाँवों के विकास के लिए उन्होंने जो योजनाएँ प्रस्तुत की हैं, उनमें कुटीर व ग्रामीण उद्योग पर बल दिया गया है।

भारत में आत्म-निर्भरता लाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों का विकास आवश्यक है। उनका विचार है कि जैसे ग्रामीणवासी अपने लिए अन्न उगाते हैं वैसे ही उन्हें अपने लिए कपड़ा बुनना चाहिए। गांधी जी ने खादी बनाने व पहनने पर बल दिया है। एक अनुमान के अनुसार स्वतन्त्रता प्राप्त करने से पहले ग्रामीण उद्योगों में 40% श्रम-शक्ति लगी हुई थी। अब इसमें 20% श्रम-शक्ति लगी हुई है। इससे स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद इस ओर ध्यान नहीं दिया गया है।

3. औद्योगीकरण का विरोध-गांधीयन मॉडल औद्योगीकरण के विरुद्ध है। बड़े उद्योगों में अधिक मात्रा में कच्चे माल और बहुत बड़ी मात्रा में निर्मित पदार्थों के विक्रय के लिए बड़े बाजारों की आवश्यकता होती है तथा कच्चे माल व बड़े बाजारों की खोज में यह प्रवृत्ति साम्राज्यवाद को जन्म देती है। औद्योगीकरण में बड़ी-बड़ी मशीनों की आवश्यकता पड़ती है। गांधी जी मशीनों को पूरी मानव जाति के लिए अभिशाप मानते थे, क्योंकि मशीनों से मानव का शारीरिक व नैतिक पतन होता है। औद्योगीकरण से धन कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हो जाता है। इससे शोषण को प्रोत्साहन मिलता है।

यह बेरोज़गारी को बढ़ावा देता है। इसकी सबसे बड़ी हानि यह है कि केन्द्रीयकृत उत्पादन के परिणामस्वरूप राजनीतिक शक्ति का भी केन्द्रीयकरण हो जाता है जो लोकतन्त्र के सिद्धान्त के विरुद्ध है।

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि गांधी जी उद्योगों में मशीनीकरण के विरुद्ध थे। उनका सिद्धान्त था कि जो मशीनें सर्व-साधारण के हित साधन में काम आती हैं, उनका प्रयोग उचित है और जो मशीनें मनुष्य के शोषण को प्रोत्साहित करती हैं, उनका विरोध करना चाहिए अर्थात् औद्योगीकरण या कुटीर उद्योगों के विकास पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। गांधी जी आधारभूत उद्योगों का विकास सार्वजनिक क्षेत्रों में किए जाने के पक्ष में थे।

4. वर्ग-सहयोग की धारणा मार्क्स ने साम्यवादी व्यवस्था का मुख्य आधार वर्ग-संघर्ष को बनाया था, लेकिन गांधीयन मॉडल में मार्क्स के वर्ग-संघर्ष की धारणा के विपरीत वर्ग-सहयोग की धारणा का प्रतिपादन किया गया है। गांधी जी आर्थिक क्षेत्र में श्रमिक व पूँजीपतियों में सहयोग की बात करते हैं। उनका विचार है कि पूँजीपति वर्ग को समाप्त करने की बजाय उसकी शक्ति को सीमित करना ही उपयोगी होगा और वे श्रमिकों की उद्योगों में भागीदारी के पक्ष में थे। यदि श्रमिकों को उद्योगों में भागीदार बना दिया जाए तो काफी हद तक संघर्ष की समस्या ही समाप्त हो जाएगी।

5. बाजार अर्थव्यवस्था का विरोधी-गांधीयन मॉडल बाजार की अर्थव्यवस्था का विरोध करता है, क्योंकि यह मॉडल प्रतियोगिता पर आधारित है। प्रतियोगिता शोषण के मार्ग के द्वार खोलती है। अधिक उत्पादन शक्ति के आधार पर राजनीतिक शक्ति पर नियन्त्रण हो जाता है और श्रमिकों, कृषकों, छोटा काम करने वालों तथा अन्य सामान्य लोगों को अपने उत्पादन को खरीदने के लिए बाध्य करता है। इसका उदाहरण बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हैं जो अधिक प्रचार करके अपने उत्पादन को खरीदने के लिए मजबूर कर देती हैं। भारत में आजकल ऐसा ही हो रहा है।

6. श्रम के लिए सम्मानगांधी जी ने विकास की योजना के अन्तर्गत श्रम को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उनके अनुसार आदर्श समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने भरण-पोषण हेतु श्रम करना अनिवार्य होगा। कोई भी मनुष्य अपने निर्वाह के लिए दूसरों की कमाई हड़पने का प्रयत्न नहीं करेगा। बौद्धिक श्रम करने वालों को भी वे थोड़ा-बहुत श्रम करने की सलाह देते हैं। इससे समाज में समानता स्थापित होगी।

7. न्यासी-गांधीयन मॉडल के अनसार समाज में विकास आर्थिक विषमताओं को दूर करने के बाद हो सकता है, लेकिन प्रश्न यह है कि इन विषमताओं को कैसे दूर किया जाए? गांधी जी साम्यवादी ढंग से (क्रान्तिकारी ढंग से) इस विषमता को दूर करने के पक्ष में नहीं हैं। इसके लिए गांधी जी ने धनिकों के हृदय परिवर्तन का सुझाव दिया है।

धनिकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन के लिए गांधी जी के द्वारा न्यास सिद्धान्त (Trusteeship Theory) का प्रतिपादन किया गया, जिसके अनुसार धनिकों को चाहिए कि वे अपने धन को अपना न समझकर उसे समाज की धरोहर समझें और उसे अपने ऊपर निर्वाह मात्र खर्च करते हुए, शेष धन समाज के हित-कार्यों में लगाएँ। यदि धनिक ऐसा न करें तो उनके विरुद्ध अहिंसात्मक ढंग अपनाने चाहिएँ। इस तरह न्यास सिद्धान्त द्वारा मनुष्य में शुभ प्रवृत्तियों का विकास होता है और समाज में सहयोग पैदा होता है और इस प्रकार समाज का विकास सम्भव होता है।

(ख) विकास का सामाजिक पक्ष (Social Aspect of Development)-गांधीयन मॉडल केवल आर्थिक विकास की ओर ही ध्यान नहीं देता, बल्कि इसमें मनुष्य के सामाजिक पक्ष के विकास की ओर भी ध्यान दिया गया है। इसके लिए गांधी जी के सामाजिक विचारों पर प्रकाश डालना आवश्यक है। गांधी जी के सामाजिक विचार निम्नलिखित हैं

1. वर्ण-व्यवस्था-हिन्दू समाज का एक दोष वर्ण-व्यवस्था है और अनेक व्यक्तियों व समाज-सुधारकों ने इसे पूर्णतया समाप्त करने की बात कही है। गांधी जी का भी यही विचार है कि समाज में समानता लाने के लिए वर्ण-व्यवस्था को दूर करना चाहिए। उन्होंने कार्य की दृष्टि से किसी को छोटा या बड़ा नहीं समझा है।

2. अस्पृश्यता का अन्त-गांधी जी विकास की दृष्टि से समाज में अस्पृश्यता को दूर करने के पक्ष में थे। उनके अनुसार अस्पृश्यता मानव जाति के लिए एक अपराध है। यह भारतीय समाज के लिए एक कलंक है और उनका कथन था कि यह एक ऐसा घातक रोग है, जो समस्त समाज को नष्ट कर देगा। वे अछूतों को सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक अधिकार दिलवाने के पक्ष में थे।

3. साम्प्रदायिक एकता-गांधीयन मॉडल में साम्प्रदायिक एकता पर बहुत बल दिया गया है, क्योंकि जब तक समाज साम्प्रदायिक भावना के आधार पर बंटा हुआ है, तब तक विकास हो ही नहीं सकता।

4. स्त्री-सुधार-गांधीयन मॉडल स्त्री-सुधार पर बल देता है क्योंकि स्त्री-सुधार न होने से समाज का एक मुख्य भाग अविकसित रह जाएगा और समाज का वांछित विकास नहीं हो पाएगा। इसलिए गांधी जी स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के पक्ष में थे। उन्होंने सती-प्रथा, बाल-विवाह और देवदासी प्रथा आदि स्त्री-जीवन से सम्बन्धित बुराइयों का डटकर विरोध किया और इस बात का प्रतिपादन किया कि कानून तथा व्यवहार में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएँ।

5. बुनियादी शिक्षा-गांधीयन मॉडल में बुनियादी शिक्षा पर बहुत बल दिया गया है। उनका विचार था कि शिक्षा विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकती है। शिक्षा द्वारा मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का समन्वित विकास किया जा सकता है। अंग्रेजों द्वारा लागू की गई शिक्षा-प्रणाली भारतीय आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं थी।

यह प्रणाली भारतीयों के शारीरिक, बौद्धिक या आत्मिक किसी भी प्रकार का विकास करने में असमर्थ थी। इसलिए वे इस शिक्षा-प्रणाली के स्थान पर नवीन शिक्षा-प्रणाली को लागू करना चाहते थे, जिसे बुनियादी शिक्षा का नाम दिया गया। बुनियादी शिक्षा में दस्तकारी पर बल दिया गया। इसमें शिक्षा का माध्यम मातृ-भाषा होगा। यह शिक्षा प्रणाली भारतीयों को स्वावलम्बी बनाएगी और उन्हें विकास के मार्ग पर अग्रसर करेगी।

(ग) विकास का राजनीतिक पक्ष (Political Aspect of Development) गांधी जी का विकास का मॉडल एक ‘राम-राज्य’ की स्थापना करने के पक्ष में है। यह आदर्श राज्य लोकतन्त्र पर आधारित होगा। राज्य के प्रबन्ध के मामलों में अहिंसक ढंगों का प्रयोग किया जाएगा। नागरिकों को प्रत्येक प्रकार की स्वतन्त्रता प्राप्त होगी।

राज्य को साधन माना जाएगा अर्थात् राज्य व्यक्ति के लिए है, न कि व्यक्ति राज्य के लिए। राज्य का मुख्य कार्य सभी व्यक्तियों के अधिकतम हित का सम्पादन करना है। अपने इस आदर्श राज्य के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गांधी जी ने ग्राम पंचायत को महत्त्व दिया। वे सत्ता के विकेन्द्रीयकरण के पक्ष में थे। केन्द्र के पास तो कुछ निश्चित अधिकार होंगे, जबकि बाकी सभी शक्तियाँ पंचायतों के पास होंगी। अतः सत्ता का आधार नीचे से ऊपर की ओर होगा। इस तरह गांधीयन मॉडल के विकास के लिए लोकतन्त्रीय व्यवस्था पर बल दिया गया है।

निष्कर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था को दृष्टि में रखते हुए गांधीयन मॉडल भारत के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद नेहरू का राजनीति में अधिक प्रभाव रहा और गांधीयन मॉडल को एक तरह से भुला दिया गया था। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे०डी० सेठी ने लिखा है कि नेहरू ने अपने अन्तिम समय में यह मान लिया था कि हमनें गांधी मॉडल को भुलाया है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

केवल 1977 में जब पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, तो गांधीयन मॉडल को अपनाने का प्रयास किया गया क्योंकि उस समय इस मॉडल के समर्थक मोरारजी देसाई भारत के प्रधानमन्त्री थे, लेकिन उनके समय में कुछ विशेष नहीं हो पाया।

प्रश्न 5.
अखण्ड विकास की संकल्पना का विस्तार से विवेचन कीजिए। अथवा पोषणकारी विकास की अवधारणा का विस्तार से उल्लेख कीजिए।
अथवा
अखण्ड विकास की अवधारणा वर्तमान एवं भावी पीढ़ी के दावों में कैसे सन्तुलन स्थापित करती है? वर्णन कीजिए।
अथवा
अखण्ड विकास की अवधारणा के मुख्य तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विकास और पर्यावरण के सम्बन्ध के बारे में विकास की एक अवधारणा है, जिसे पोषणकारी विकास की अवधारणा (The concept of sustainable development) कहते हैं। साधारण शब्दों में, पोषणकारी विकास का अर्थ निरन्तर चलने वाला विकास अथवा अखण्ड विकास अर्थात् ऐसा विकास जिसकी गति में खण्ड न हो इसे अक्षय विकास भी कहा जाता है।

यह अवधारणा वर्तमान पीढ़ी के दावों एवं भविष्य पीढ़ी के दावों में सन्तुलन बनाने पर बल देती है। जो आज आर्थिक विकास के परिणामों का उपभोग कर रहे हैं वे पृथ्वी के संसाधनों का अधिक शोषण करके तथा पृथ्वी को प्रदूषित करके भावी पीढ़ी के बारे में अहितकर सोच रख सकते हैं। ऐसा न हो कि एक पीढ़ी प्रकृति की सम्पदा का पूरा उपभोग कर ले और भविष्य की पीढ़ी को पर्यावरण में असन्तुलन हो जाने के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़े और उन्हें विकास के अवसर ही प्राप्त न हों।

इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि किस तरह वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करते समय भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाए। इसे वर्तमान पीढ़ी तथा भावी पीढ़ी के दावों के मध्य सामंजस्य बनाना भी कहा जा सकता है। यही कारण था कि पर्यावरण और विकास पर विश्व पर्यावरण आयोग गठित किया गया। विश्व पर्यावरण आयोग के अनुसार “पोषणकारी विकास का अर्थ है, ऐसा विकास जो हमारी आज की आवश्यकता की पूर्ति के साथ-साथ भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं की अनदेखी न करता हो।”

सन् 1987 में आयोग ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वर्तमान पीढ़ी को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय यह ध्यान रखना होगा कि इसके कारण कहीं भावी पीढ़ियाँ अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ न हो जाएँ। इससे अभिप्राय यह याँ, झीलें, खाने, गैस तथा पेट्रोलियम पदार्थों आदि का प्रयोग करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति में इन पदार्थों की मात्रा सीमित है और यह केवल हमारे लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हैं।

अन्तःपीढ़ी साम्या की मूल भावना को स्पष्ट करते हुए “भारत में पर्यावरण विधि और नीति” में स्पष्ट किया गया है कि, “अन्तःपीढ़ी साम्या का केन्द्रीय अभिप्राय यह है कि प्रत्येक मानव प्राणियों की पीढ़ी को भूतकालीन पीढ़ी की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत से लाभ प्राप्त हो। साथ ही साथ यह दायित्व हो कि ऐसी विरासत को भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षित रखा जाए।”

1992 के रियो घोषणा के सिद्धान्त 3 में स्पष्ट कहा गया है कि विकास के अधिकार की पूर्ति इस प्रकार की जानी चाहिए कि वर्तमान और भावी पीढ़ियों की विकासात्मक और पर्यावरणीय आवश्यकताएँ साम्यिक ढंग (Equitable) से पूरी हो सकें। अवधारणा वर्तमान व भावी पीढ़ी के दावों में सन्तुलन स्थापित करती है। अखण्ड विकास के महत्त्वपूर्ण तत्त्व निम्नलिखित हैं

1. विकासशील देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करना-विकासशील देशों में मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मानव संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया जाता है जिससे पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। यही नहीं विकासशील देशों में वित्तीय स्थिति ऐसी नहीं है कि पोषणीय विकास हेतु पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले पदार्थों के प्रयोग को कम किया जा सके या वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।

इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि विकासशील देशों को विकसित देशों से आर्थिक सहायता दी जाए और सस्ती दर पर प्रौद्योगिकी का अन्तरण किया जाए। रोम की सन्धि (यथा संशोधित 1992) के अनुच्छेद 130 U (1) में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की उपेक्षा करते हुए कहा गया कि सदस्य राज्यों द्वारा विकासशील देशों और विशेषकर अति पिछड़े देशों के आर्थिक और सामाजिक विकास को पोषणीय (सतत्) बनाने के लिए आर्थिक सहयोग देना चाहिए। रियो घोषणा में यह सहमति व्यक्त की गयी कि विकसित देश, विकासशील देशों को सस्ती दर पर प्रौद्योगिकी का अन्तरण करेंगे।

2. गरीबी उन्मूलन-गरीबी सबसे बड़ा प्रदूषक तत्त्व मानी गयी है। स्टाकहोम सम्मेलन के समक्ष भारत के प्रधानमन्त्री ने बड़े प्रभावी शब्दों में कहा था कि जितने प्रदूषक तत्त्व हैं गरीबी उनमें सबसे खराब है। पर्यावरण और विकास पर विश्व आयोग ने भी यह आगाह किया था कि गरीबी के कारण लोगों को पोषणीय तरीके से संसाधनों के प्रयोग की क्षमता कम हो जाती है और पर्यावरण पर दबाव घनीभूत हो जाता है।

यही कारण था कि रोम की सन्धि के अनुच्छेद 130 U (1) में सदस्य राष्ट्रों से अपील की गयी थी कि वे विकासशील देशों में गरीबी के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ें। पर्यावरण और विकास पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भी पोषणीय विकास के लिए गरीबी उन्मूलन पर विशेष जोर दिया गया। विकास हेतु निर्धारित कार्यक्रम के अन्तर्गत यह कहा गया कि विकास की संकल्पना के अन्तर्गत गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, मृत्यु-दर को कम करना सम्मिलित है। अतः इन्हें दूर करने के लिए सर्वाधिक प्रभावकारी तरीके अपनाए जाने चाहिएँ।

3. पर्यावरणीय संरक्षण पर्यावरण संरक्षण पोषणीय विकास का एक आवश्यक तत्त्व है। पर्यावरणीय समस्याओं का निराकरण सभी स्तर पर सभी के सहयोग द्वारा आसानी से किया जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति को लोक प्राधिकारियों के पास उपलब्ध पर्यावरणीय सूचनाओं तथा निर्णयकारी प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार स्वीकार किया गया है जिससे कि पर्यावरणीय विकास के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जा सके।

रियो घोषणा के सिद्धान्त 11 में राज्यों से अपेक्षा की गयी है कि वे पर्यावरण संरक्षण हेतु प्रभावी विधान का निर्माण करें और सिद्धान्त 12 के अन्तर्गत यह अपेक्षा की गयी है कि राज्यों को इस प्रकार मुक्त अन्तर्राष्ट्रीय प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए सहयोग करना चाहिए जिससे कि सभी राज्यों का आर्थिक और पोषणीय विकास हो, ताकि पर्यावरणीय अवनयन की समस्याओं का समाधान ढूंढ़ा जा सके।

4. प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग एवं संचय-पोषणीय विकास के लिए यह आवश्यक है कि प्राकृतिक संसाधनों का संयत प्रयोग किया जाए, उनकी वृद्धि और संचय को बढ़ावा दिया जाए। प्राकृतिक साधनों का संचय और विकास बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक है। यह सभी का नैतिक दायित्व है कि प्राकृतिक संसाधनों को सामूहिक विरासत मानकर दूसरे लोगों तथा पीढ़ी के लिए संरक्षित करें।

5. आवश्यकताओं में कमी करना लोगों को अपनी आवश्यकताओं में कमी करनी चाहिए। यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति अपनी इच्छाओं को फैलने न दे, उन्हें अपनी आर्थिक दशा के अनुरूप रखे और कृत्रिम जीवन-स्तर की ओर आकर्षित न हो। पूर्वी विचारधारा के अनुसार ‘सादा जीवन तथा उच्च विचार’ (Simple living and high thinking) का आदर्श अपनाना चाहिए।

व्यक्ति की वास्तविक आवश्यकताएँ कम होती हैं और कृत्रिम आवश्यकताएँ अधिक होती हैं। यदि उत्पादन आवश्यकताओं के अनुसार हो तो पर्यावरण के संरक्षण की समस्या काफी मात्रा में कम हो जाती है। भौतिकवादी दृष्टिकोण की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टिकोण को अपनाने से मन और आत्मा की शुद्धि में व्यक्ति ध्यान देने लगता है और कृत्रिम इच्छाओं तथा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन का त्याग करने लगता है। ऐसे व्यक्तियों के समाज में सभी वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में मिल जाती हैं।

6. जनसंख्या नियन्त्रण-विश्व की जनसंख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है और भारत जैसे देश के लिए तो यह एक गम्भीर समस्या का रूप धारण किए हुए है। एशिया तथा अफ्रीका के अधिकतर देशों की यही स्थिति है और इन्हें अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए रोटी, कपड़ा तथा मकान जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को जुटाना कठिन हो रहा है। जनसंख्या पर नियन्त्रण किए बिना पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर काबू पाना बहुत कठिन है।

कैथौलिक (Catholic) तथा इस्लाम धर्म के कुछ अनुयायी, जो परिवार-नियोजन का धर्म के नाम पर विरोध करते हैं, उन्हें समझा-बुझाकर इसके लिए तैयार करना चाहिए। विवाह की न्यूनतम आयु को बढ़ा देना चाहिए और छोटे परिवारों के बच्चों को सरकारी नौकरियों आदि में प्राथमिकता दी जाए। रेडियो, टेलीविज़न तथा प्रचार के अन्य माध्यमों के द्वारा भी नागरिकों में परिवार-नियोजन के प्रति जागरूकता उत्पन्न की जाए।

7. जनता को पर्यावरण-सम्बन्धी शिक्षा देना–पर्यावरण की सुरक्षा के लिए यह भी आवश्यक है कि साधारण व्यक्ति को इस सम्बन्ध में शिक्षित किया जाए। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में पर्यावरण सम्बन्धी शिक्षा को जोड़ा जाए। भारत में प्रतिवर्ष 19 नवम्बर से 18 दिसम्बर तक का मास ‘राष्ट्रीय पर्यावरण मास’ के रूप में मनाया जाता है।

इस मास के दौरान पर्यावरण के प्रति साधारण जनता में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इन कार्यक्रमों की सफलता के लिए इसमें छात्रों, अध्यापकों, महिलाओं तथा उद्योगपतियों की अधिक-से-अधिक भागीदारी सुनिश्चित की जाए। सन् 1982 में भारत में पर्यावरण सूचना प्रणाली कायम की गई जो सांसदों तथा अन्य पर्यावरण प्रेमियों को पर्यावरण के विषय में महत्त्वपूर्ण शिक्षा प्रदान कर रही है।

8. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग-पर्यावरण प्रदूषण एक विश्वव्यापी समस्या है और इसका समाधान भी अन्तर्राष्ट्रीय संसाधनों के द्वारा ही किया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ तथा इसकी एजेन्सियाँ इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। भारत ने विभिन्न राष्ट्रों अमेरिका, इंग्लैण्ड, नार्वे तथा स्वीडन इत्यादि के साथ कुछ समझौते किए हुए हैं, जिसका प्रमुख लक्ष्य यह हैं कि वन्य प्राणियों और वनस्पति के अवैध व्यापार को रोका जाए और विभिन्न राष्ट्रों से खतरनाक पदार्थों के आवागमन पर रोक लगाए।

सन् 1992 में रियो-द-जनेरियो (ब्राज़ील) में एक विश्व-सम्मेलन हुआ था जिसमें पर्यावरण और विकास से सम्बन्धित उपयुक्त जानकारी का आदान-प्रदान किया गया था। इससे पर्यावरण के संरक्षण में समस्त विश्व की भागीदारी का मार्ग प्रशस्त हुआ। दिए गए पक्षों तथा तर्कों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि पर्यावरण की सुरक्षा के बाद ही अखण्ड विकास सम्भव है और इनके द्वारा ही वर्तमान पीढ़ी व भावी पीढ़ी के मध्य साम्य (Balance) स्थापित किया जा सकता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकास की अवधारणा है
(A) आर्थिक विकास
(B) सामाजिक विकास
(C) आध्यात्मिक विकास
(D) राजनीतिक विकास
उत्तर:
(C) आध्यात्मिक विकास

2. विकास का सम्बन्ध निम्नलिखित से है
(A) आर्थिक विकास से
(B) परिवर्तन से
(C) आधुनिकीकरण से
(D) उपर्युक्त सभी से
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी से

3. कैनेथ आर्गेन्सकी के अनुसार विकास की एक अवस्था सही नहीं है
(A) राजनीतिक एकीकरण
(B) औद्योगीकरण
(C) राष्ट्रीय लोक-कल्याण
(D) जनसंख्या में वृद्धि
उत्तर:
(D) जनसंख्या में वृद्धि

4. विकास का उद्देश्य निम्नलिखित है
(A) जीवन के स्तर का उत्थान
(B) प्रकृति का दोहन
(C) दरिद्र की सहायता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 10 विकास

5. विकास के विभिन्न पक्षों में निम्नलिखित में से कौन-सा है?
(A) सामाजिक पक्ष
(B) आर्थिक पक्ष
(C) राजनीतिक पक्ष
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

6. विकास की बाजार की अर्थव्यवस्था के बारे में निम्नलिखित लक्षण सही है
(A) विदेशी तकनीक का स्वागत
(B) आधुनिकीकरण
(C) मुक्त उद्यम
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

7. निम्नलिखित कल्याणकारी राज्य का कार्य है
(A) अन्तर्राष्ट्रीयवाद का विरोध
(B) निरंकुशता की स्थापना
(C) जीवन व सम्पत्ति की सुरक्षा
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(C) जीवन व सम्पत्ति की सुरक्षा

8. कल्याणकारी सिद्धान्त के अनुसार राज्य की स्थिति निम्नलिखित है
(A) एक साध्य
(B) एक साधन
(C) शोषण का साधन
(D) एक बुराई के रूप में
उत्तर:
(B) एक साधन

9. आर्थिक विकास से सम्बन्धित निम्नलिखित में से कौन-सा पक्ष सही नहीं है?
(A) प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होना
(B) राष्ट्रीय आय में वृद्धि होना
(C) आर्थिक विषमताओं में वृद्धि होना
(D) प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम दोहन करना
उत्तर:
(C) आर्थिक विषमताओं में वृद्धि होना

10. किसी देश में आर्थिक विकास का प्रभाव निम्नलिखित में से होगा
(A) राष्ट्र का विकास की ओर अग्रसर होगा
(B) समाज में व्यक्तियों के शोषण का अन्त होगा
(C) समाज में सभी वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध होंगी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

11. बाजार अर्थव्यवस्था का मॉडल निम्नलिखित में से आर्थिक क्षेत्र में किसका समर्थन करता है?
(A) आर्थिक उदारवाद की नीति का
(B) प्रतियोगिता की नीति का
(C) राज्य के आर्थिक क्षेत्र में अहस्तक्षेप की नीति का
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

12. विकास का बाजार अर्थव्यवस्था का मॉडल निम्नलिखित में से किस क्षेत्र में राष्ट्रीय सीमाओं को समाप्त करने के पक्ष में है?
(A) व्यापार
(B) पूँजी
(C) उद्यमशीलता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

13. बाजार अर्थव्यवस्था पर आधारित मॉडल के लिए आधुनिकीकरण की स्थिति हेतु निम्नलिखित में से कौन-सा पहलू आवश्यक है?
(A) शहरीकरण
(B) साक्षरता का विस्तार
(C) औद्योगीकरण
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

14. बाजार अर्थव्यवस्था का अवगुण निम्नलिखित में से है
(A) स्वदेशी उद्योगों का हास
(B) संस्कृति का पतन
(C) आय एवं धन की असमानता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

15. गाँधी मॉडल में विकास के आर्थिक पक्ष से सम्बन्धित विचार निम्नलिखित में से सही है
(A) कुटीर एवं ग्रामीण उद्योग-धंधों पर बल
(B) न्यासी सिद्धान्त पर बल
(C) औद्योगीकरण का विरोध
(D) उपर्युक्त सभी सही हैं
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी सही हैं

16. गाँधीयन मॉडल में विकास के सामाजिक पक्ष से सम्बन्धित निम्नलिखित में कौन-सा विचार सही नहीं है?
(A) अस्पृश्यता का अन्त
(B) वर्ण व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण
(C) साम्प्रदायिक एकता पर बल
(D) स्त्री-सुधार पर बल
उत्तर:
(B) वर्ण व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. “विकास समाज में उच्चस्तरीय अनुकूलन के प्रति अनुकूल की क्षमता है।” ये शब्द किस विद्वान के हैं?
उत्तर:
मैकेन्जी के।

2. समाजवाद का सबसे प्रभावशाली समर्थक किसे माना जाता है?
उत्तर:
कार्ल मार्क्स को।

3. बाजार मॉडल की कोई एक विशेषता लिखें।
उत्तर:
बिक्री के लिए उत्पादन।

रिक्त स्थान भरें

1. “राज्य का उद्देश्य बाधाओं को बाधित करना है।” यह ……….. के विचार हैं।
उत्तर:
टी०एच० ग्रीन

2. जीवन व सम्पत्ति की सुरक्षा ……………… राज्य का कार्य है।
उत्तर:
कल्याणकारी

3. “राज्य भौतिक सुख के लिए अस्तित्व में आया तथा उसका अस्तित्व अच्छे जीवन के लिए बना रहेगा।” यह कथन ……….. का है।
उत्तर:
अरस्तू

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