Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 शांति Textbook Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 9 शांति
HBSE 11th Class Political Science शांति Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
क्या आप जानते हैं कि एक शांतिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव जरूरी है? क्या मस्तिष्क शांति को बढ़ावा दे सकता है? और क्या मानव मस्तिष्क पर केंद्रित रहना शांति स्थापना के लिए पर्याप्त है?
उत्तर:
यह पूर्णतः सत्य है कि एक शांतिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में परिवर्तन आवश्यक है। यदि संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन के संविधान में की गई टिप्पणी का उल्लेख करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि, “चूँकि युद्ध का आरंभ लोगों के दिमाग में होता है, इसलिए शांति के बचाव भी लोगों के दिमाग में ही रचे जाने चाहिए।”
अतः काफी सीमा तक यूनिसेफ के संविधान की यह टिप्पणी उचित प्रतीत होती है। जब तक हम अपने दिमाग में शांति की बातें लाते रहेंगे और उसके अनुसार अपनी गतिविधियों को बनाएँ रखेंगे तो हमारे आस-पास भी शांति का ही वातावरण बना रहेगा। स्पष्ट है कि हिंसा सबसे पहले हमारे दिमाग में पनपती है और जैसे ही वह तीव्र रूप धारण कर लेती है तो वह युद्ध तक का भी रूप ले लेती है।
अत: आवश्यकता इस बात की है कि हम व्यवहार में जिओ और जीने दो’ के सिद्धान्त का पालन करें और ऐसा वातावरण बनाने में सक्रिय भूमिका निभाएँ जिसमें सभी शांतिपूर्ण ढंग से मिल-जुलकर रहें । यद्यपि मानव मस्तिष्क पर केंद्रित रहना ही शांति की स्थापना के लिए पर्याप्त नहीं है, बल्कि हमें न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना के लिए हिंसा के सभी रूपों को त्यागना होगा।
हमें शांति स्थापित करने के लिए युद्ध की स्थिति को बनने से बचना होगा और परमाण्विक प्रतिद्वंद्विता को खत्म करना शांति स्थापना की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण सकारात्मक कदम हो सकता है। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि शांति एक बार में हमेशा के लिए हासिल नहीं की जा सकती” बल्कि इसे बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयास करने होंगे।
प्रश्न 2.
राज्य को अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा अवश्य करनी चाहिए। हालाँकि कई बार राज्य के कार्य इसके कुछ नागरिकों के खिलाफ हिंसा के स्त्रोत होते हैं। कुछ उदाहरणों की मदद से इस पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
प्रत्येक राज्य स्वयं को पूर्णतः स्वतंत्र और सर्वोच्च इकाई के रूप में देखता है। इसलिए उसका यह कर्त्तव्य बनता है कि वह अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा करे। यद्यपि कई बार वह अपने दायित्व को पूरा करने में असफल भी हो जाता है। आजकल हर राज्य ने बल प्रयोग के अपने उपकरणों को मजबूत किया है।
यद्यपि राज्य से यह अपेक्षा होती है कि वह सेना या पुलिस का प्रयोग अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए करे लेकिन व्यवहार में इन शक्तियों का प्रयोग वह अपने ही नागरिकों के विरोध के स्वर को दबाने के लिए भी करने लगता है; जैसे राज्य कई बार अपने हितों की रक्षा करने के लिए दंगों को भड़काने का काम कर बैठता है।
प्रश्न 3.
शांति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो। क्या आप सहमत हैं?
उत्तर:
हाँ, मैं इस कथन से पूरी तरह सहमत हूँ। वास्तव में इन तीनों का उचित समन्वय शांति स्थापना का सशक्त रूप हो सकता है। यदि हम सभी नागरिकों को समस्त स्वतंत्रताएँ प्रदान करें जो एक सफल और गरिमामय जीवन जीने के लिए आवश्यक हैं तो मुझे नहीं लगता कि व्यक्ति कभी हिंसा के बारे में विचार करेगा। इसके अतिरिक्त व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ समानता का होना भी आवश्यक है।
यद्यपि यह समानता केवल राजनीतिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक भी होनी चाहिए अर्थात् सभी को समान रूप से मत डालने का अधिकार तो हो ही, उसके साथ-साथ वे सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भी समान होने चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि समाज में शोषण की समाप्ति हो एवं उन्हें अवसरों की समानता भी प्राप्त हो। अगर सभी को अपनी योग्यता के अनुसार काम मिलेगा तो सभी व्यस्त जीवन बिताएँगे और हिंसा के बारे में सोचने का उन्हें अवसर ही नहीं मिलेगा।
इसके अतिरिक्त न्याय का सम्बन्ध समाज में हमारे जीवन और सार्वजनिक जीवन को व्यवस्थित करने के नियमों और तरीकों से होता है। जिस समाज में न्यायिक व्यवस्था सशक्त है उस समाज में शांति स्वतः ही कायम रहती है। लोग संतुष्ट रहते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि अगर किसी ने उनके साथ अन्याय किया तो उसे तुरन्त सजा मिलेगी। ऐसी स्थिति में गलत प्रवृत्ति के लोगों की संख्या न्यून होती है और जब ऐसे लोग न्यून संख्या में होते हैं तो हिंसा पनपने की कोई भी सम्भावना नहीं होती।
अतः आवश्यक है एक ऐसे समाज की स्थापना करनी चाहिए जहाँ स्वतंत्रता, समानता और न्याय का एक अच्छा समन्वय हो, जहाँ कोई किसी का बुरा न सोचे, कोई किसी के साथ गलत न करे, बल्कि सह-अस्तित्व के सिद्धांत का अनुसरण करते हुए सभी आगे बढ़ने का कार्य करें।
प्रश्न 4.
हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं?
उत्तर:
हाँ, यह कथन पूरी तरह से सत्य है। हिंसा को किसी भी स्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता है और न ही इसके माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। हिंसा का शिकार व्यक्ति जिन मनोवैज्ञानिक और भौतिक प्रताडनाओं एवं नुकसानों से गुजरता है, वे उसके भीतर अनेक शिकायतों को जन्म देती हैं। ये शिकायतें पीढ़ियों तक कायम रहती हैं।
ऐसे समूह कभी-कभी किसी घटना या टिप्पणी से भी उत्तेजित होकर संघर्षों के ताजा दौर की शुरुआत कर सकते हैं। न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतों और संघर्ष के कारणों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने और बातचीत द्वारा ही हल की जा सकती है। इसके साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंसा एक बुराई है और शांति बनाए रखने के लिए इसकी आवश्यकता नहीं है।
शांति की प्राप्ति के तरीकों में विफलता के बाद ही हिंसा का उपयोग होना चाहिए और ऐसे में भी कोशिश यही होनी चाहिए कि इतनी सीमित हिंसा का प्रयोग हो जो विवादों के निपटारे में सहायक सिद्ध हो। अतः निष्कर्षतः जहाँ तक हो सके हिंसा से परहेज करना चाहिए, क्योंकि यही मानव हित में है।
प्रश्न 5.
विश्व में शांति स्थापना के जिन दृष्टिकोणों की अध्याय में चर्चा की गई है उनके बीच क्या अंतर है?
उत्तर:
विश्व में शांति स्थापना के लिए निम्नलिखित तीन दृष्टिकोणों को अपनाया गया है-
(1) शांति स्थापना का पहला दृष्टिकोण राष्ट्रों को केंद्रीय स्थान देता है। उनकी संप्रभुता का आदर करता है और उनके बीच प्रतिद्वंदिता को जीवंत सत्य मानता है। उसकी मुख्य चिंता प्रतिद्वंद्विता के उपयुक्त प्रबंधन तथा संघर्ष की आशंका का शमन सत्ता-संतुलन की पारस्परिक व्यवस्था के माध्यम से करने की होती है। इसी दृष्टिकोण को अपनाते हुए 19वीं सदी में प्रमुख यूरोपीय देशों ने संभावित आक्रमण को रोकने तथा बड़े पैमाने पर युद्ध से बचने के लिए अपने सत्ता-संघर्षों में गठबंधन बनाते हुए तालमेल स्थापित किया था,
(2) शांति स्थापना करने का दूसरा दृष्टिकोण राष्ट्रों की गहराई तक जमी आपसी प्रतिद्वंद्विता की प्रकृति को स्वीकार करता है, लेकिन इसका जोर सकारात्मक उपस्थिति और परस्पर निर्भरता की संभावनाओं पर होता है। यह विभिन्न देशों के मध्य विकासमान सामाजिक-आर्थिक सहयोग को रेखांकित करता है। आशा की जाती है कि आपसी सहयोग से अंतर्राष्ट्रीय समझदारी में वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरूप वैश्विक संघर्ष कम होंगे और शांति की संभावनाएँ अधिक बढ़ेंगी; जैसे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप का आर्थिक एकीकरण से राजनीतिक एकीकरण की ओर बढ़ना शांति के दूसरे दृष्टिकोण का परिचायक कहा जा सकता है,
(3) शांति स्थापना करने का तीसरा दृष्टिकोण पहले दोनों दृष्टिकोणों से भिन्न है। क्योंकि यह दृष्टिकोण राष्ट्र पर आधारित व्यवस्था को मानव इतिहास की समाप्तप्राय अवस्था मानता है। यह अधिराष्ट्रीय व्यवस्था को मनोचित्र बनाता है और वैश्विक समुदाय के अभ्युदय को शांति की विश्वसनीय गारंटी मानता है। विभिन्न राष्ट्रों के बीच गतिविधियाँ बढ़ी हैं जिनके कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियों की स्थापना हो रही है। इस प्रकार वैश्वीकरण की जारी प्रक्रिया में राष्ट्रों की प्रधानता और संप्रभुता घटने लगी है, जो विश्व शांति की ओर एक सकारात्मक कदम कहा जा सकता है।
शांति HBSE 11th Class Political Science Notes
→ जैसा कि सर्वविदित है कि शान्ति मानवता और विश्व की मौलिक एवं आधारभूत आवश्यकता है। आज समूचा अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश दंगे, नरसंहार, कत्ल या सामान्य शारीरिक प्रहार एवं आतंकवादी गतिविधियों से ग्रस्त है।
→ इसलिए आज प्रत्येक सभ्य नागरिक शान्ति की अनुपस्थिति की भारी कीमत चुकाने के बाद संघर्षमयी एवं अव्यवस्थित स्थिति से छुटकारा पाने के लिए बहुत आतुर है। अन्य शब्दों में कहें तो मानव विकास के लिए आज शान्ति स्थापना की निरन्तरं माँग की जा रही है।
→ यद्यपि यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अतीत में फ्रेडरिक नीत्शे जैसे जर्मन दार्शनिकों ने मानव सभ्यता की उन्नति एवं विकास के लिए शान्ति को बेकार बताया है और युद्ध को महिमामंडित करते हुए संघर्ष को ही सभ्यता के विकास के लिए उपयुक्त बताया है।
→ लेकिन दूसरी तरफ मानव जाति के समक्ष नरसंहार का ताण्डव करने वाले प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका एवं विश्व के अन्य भागों में होने वाले क्षेत्रीय युद्धों चीन-भारत, पाक-भारत, ईरान-इराक, इराक-अमेरिका आदि ने युद्ध या संघर्ष की जगह शान्ति को मानव सभ्यता एवं विश्व के विकास के लिए शान्ति के अस्तित्व को अपरिहार्य बना दिया।
→ इसके अतिरिक्त राष्ट्रों के बीच शस्त्रों की होड़ या प्रतिस्पर्धा एवं परमाणु शस्त्रों के विकास में निरन्तर वृद्धि ने समूची मानव जाति के समक्ष शान्ति की अवधारणा को वर्तमान की अपरिहार्यता के रूप में विकसित कर दिया है।
→ लेकिन वास्तविक शान्ति के दुःसाध्य बने रहने की स्थिति में यह शब्द अपने-आप में बहुत लोकप्रिय हो गया है। इसलिए प्रस्तुत अध्याय में हम शान्ति की – अवधारणा सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं पर पाठ्यक्रमानुसार वर्णन करेंगे।