HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई और यह किस भाषा का है?
उत्तर:
राजनीति शब्द की उत्पत्ति ‘पोलिस’ (Polis) शब्द से हुई है और यह यूनानी भाषा का शब्द है।

प्रश्न 2.
राजनीति विज्ञान का पितामह किसको माना जाता है और उसका संबंध किस देश से था?
उत्तर:
राजनीति विज्ञान का पितामह अरस्तू को माना जाता है। अरस्तू का संबंध यूनान देश से था।

प्रश्न 3.
राजनीति को ‘सर्वोच्च विज्ञान’ (Master Science) की संज्ञा किसने दी थी?
उत्तर:
राजनीति को सर्वोच्च विज्ञान की संज्ञा अरस्तू ने दी थी।

प्रश्न 4.
राजनीति से संबंधित विभिन्न दृष्टिकोणों के नाम लिखिए।
उत्तर:
राजनीति से संबंधित मुख्यतः तीन दृष्टिकोण हैं-

  • प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण,
  • परंपरागत दृष्टिकोण,
  • आधुनिक दृष्टिकोण।

प्रश्न 5.
प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण के किन्हीं दो मुख्य समर्थकों का नाम लिखिए।
उत्तर:
अरस्तू और प्लेटो को प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण का समर्थक माना जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 6.
प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण की तीन मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण की तीन मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • नगर राज्यों से संबंधित है,
  • राज्य और समाज में भेद नहीं करता,
  • आदर्श राज्य की परिकल्पना करता है।

प्रश्न 7.
राजनीति की कोई एक परंपरागत परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
लॉर्ड एक्टन के अनुसार, “राजनीति शास्त्र राज्य व उसके विकास के लिए अनिवार्य दशाओं से संबंधित है।”

प्रश्न 8.
किन्हीं दो विद्वानों के नाम लिखें जो राजनीति को राज्य का अध्ययन मानते हैं।
उत्तर:
गार्नर व लॉर्ड एक्टन राजनीति को केवल राज्य का अध्ययन मानते हैं।

प्रश्न 9.
राजनीतिक सिद्धांत के आधुनिक दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर:
आधुनिक दृष्टिकोण में औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं के स्थान पर अनौपचारिक राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 10.
आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति के क्षेत्र के मूल में क्या आता है?
उत्तर:
आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति के क्षेत्र में शक्ति का अध्ययन आता है। यह मानव व्यवहार का भी अध्ययन करता है।

प्रश्न 11.
पोलिटिक्स (Politics) नामक पुस्तक किस विद्वान ने लिखी थी और किस देश का निवासी था?
उत्तर:
पोलिटिक्स नामक पुस्तक अरस्तू ने लिखी थी और वह यूनान देश का निवासी था।

प्रश्न 12.
गैर-राजनीतिक क्षेत्र में राजनीति के हस्तक्षेप के दो शीर्षकों के नाम लिखें।
उत्तर:
गैर-राजनीतिक क्षेत्र में राजनीति के हस्तक्षेप के मुख्य दो उदाहरण हैं-(1) घरेलू मामलों में राजनीति का हस्तक्षेप, (2) महिलाओं को संपत्ति के अधिकार की प्राप्ति।

प्रश्न 13.
सिद्धांत से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सिद्धांत से अभिप्राय एक ऐसी मानसिक दृष्टि से है जो कि एक वस्तु के अस्तित्व एवं उसके कारणों को प्रकट करती है।

प्रश्न 14.
‘सिद्धांत’ शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई और यह किस भाषा का है?
उत्तर:
‘सिद्धांत’ शब्द की उत्पत्ति ‘थ्योरिया’ शब्द से हुई और यह ग्रीक भाषा का है।

प्रश्न 15.
सिद्धांत की कोई एक परिभाषा दें।।
उत्तर:
गिब्सन के अनुसार, “सिद्धांत ऐसे व्यक्तियों का जो विभिन्न जटिल तरीकों के द्वारा आपस में एक दूसरे से संबंधित हो एक समूह का संग्रह है।”

प्रश्न 16.
राजनीतिक सिद्धांत के मुख्य तीन तत्त्वों के नाम लिखें।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत के मख्य तीन तत्त्व-(1) अवलोकन. (2) व्याख्या और (3) मल्यांकन हैं।

प्रश्न 17.
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:

  • यह मुख्यतः वर्णनात्मक अध्ययन है,
  • यह समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है।

प्रश्न 18.
राजनीतिक सिद्धांत के परंपरागत तथा आधुनिक विचारों में दो मुख्य अंतर लिखें।[
उत्तर:

  • परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत संस्थाओं से जबकि आधुनिक राजनीति सिद्धांत एक प्रयोग सिद्ध अध्ययन है।
  • परंपरावादी आदर्शवादी है जबकि आधुनिक यथार्थवादी है।

प्रश्न 19.
राजनीतिक सिद्धांत का आधुनिक दृष्टिकोण किस बात पर अधिक बल देता है?
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत का आधुनिक दृष्टिकोण विस्तृत है। यह यथार्थवाद एवं व्यावहारिक अध्ययन पर भी बल देता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 20.
राजनीतिक सिद्धांत की कोई दो महत्त्वपूर्ण उपयोगिताएं लिखें।
उत्तर:

  • यह भविष्य की योजना संभव बनाता है,
  • यह राजनीतिक वास्तविकताओं को समझाने में सहायक है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति का क्या अर्थ है?
उत्तर:
‘राजनीति’ आधुनिक युग में सबसे अधिक प्रयोग होने वाला शब्द है। इसलिए भिन्न-भिन्न लोगों ने इस शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में किया है। साधारण अर्थों में इस शब्द का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में किया जाता है। इस शब्द का प्रयोग उन क्रियाओं और प्रक्रियाओं के लिए किया जाता है जिन्हें अच्छा नहीं समझा जाता है; जैसे विद्यार्थियों को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए या फिर अपने मित्रों के साथ राजनीति नहीं खेलनी चाहिए अर्थात् राजनीति शब्द का प्रयोग विकृत अर्थ में किया जाता है।

वर्तमान लोक जीवन में यह शब्द बड़ा अप्रतिष्ठित हो गया है और इससे छल, कपट, बेईमानी आदि का बोध होता है। राजनीति का उपरोक्त अर्थ संकुचित व विकृत है, परंतु राजनीति शब्द का अर्थ संकुचित न होकर व्यापक है। राजनीति एक ऐसी क्रिया है जिसमें हम सभी किसी-न-किसी रूप में अवश्य भाग लेते हैं। लोकतंत्र में रहते हुए राजनीति से अलग नहीं रहा जा सकता।

राजनीति अरस्तू के समय से ही समाज में है। अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं और स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज में अनेक प्रकार के संघ, दल और समुदायों का निर्माण करता है। इन संस्थाओं या संगठनों के संघर्ष से समाज में मतभेद पैदा हो जाते हैं, मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते क्रांति या शक्ति का सहारा न लेकर शांतिपूर्ण संघर्ष द्वारा अपने मतभेदों को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। समाज के इस संघर्ष से उत्पन्न क्रिया को राजनीति कहा जाता है।

प्रश्न 2.
राजनीति की कोई दो परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
यद्यपि ‘राजनीति’ शब्द को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है फिर भी सुविधा की दृष्टि से राजनीति की कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  • हरबर्ट जे० स्पाइरो (Herbert J. Spiro) के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव समाज अपनी समस्याओं का समाधान करता है।”
  • डेविड ईस्टन (David Easton) के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव आवश्यकताओं तथा इच्छाओं की पूर्ति सीमित (मानवीय, भौतिक और आध्यात्मिक) साधनों का सामाजिक इकाई में (चाहे नगर हो, राज्य हो या संगठन) बंटवारा करता है।”

प्रश्न 3.
राजनीति के प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
यूनानी दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1. नगर-राज्यों से संबंधित-प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण नगर-राज्य को राजनीति के अध्ययन का प्रमुख विषय मानता है। नगर-राज्यों का आकार बहुत छोटा होता था। जनसंख्या भी सीमित होती थी, परंतु नगर-राज्य अपने-आप में निर्भर और स्वतंत्र होते थे। नगर-राज्य का उद्देश्य लोगों को अच्छा जीवन प्रदान करना था।

2. सामुदायिक जीवन में भाग लेना जरूरी-यूनानी विचारकों के अनुसार प्रत्येक नागरिक के लिए राजनीति में भाग लेना आवश्यक है। इसलिए अरस्तू ने नागरिक का अर्थ बताते हुए कहा था कि वह व्यक्ति नागरिक है जो राज्य के कानूनी और न्यायिक कार्यों में भाग लेता है, लेकिन अरस्तू ने नागरिकों को राजनीतिक जीवन में भाग लेने तक सीमित रखा अर्थात् समाज के कुछ ऐसे वर्ग थे जिन्हें राजनीति में या राज्य के कार्यों में भाग लेने का अधिकार प्राप्त नहीं था; जैसे श्रमिकों, गुलामों और स्त्रियों को राज्य . के कार्यों में भाग लेने के अधिकार से वंचित रखा गया था।

3. राज्य और समाज में भेद नहीं यूनानी दार्शनिकों ने राज्य और समाज में कोई अंतर नहीं किया। दोनों शब्दों का प्रयोग उन्होंने एक-दूसरे के लिए किया है। उनके अनुसार, राज्य व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक पक्ष; सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक से संबंधित है।

4. आदर्श राज्य यूनानी विचारकों के लिए राज्य एक नैतिक संस्था है। मनुष्य केवल राज्य में रहकर ही नैतिक जीवन व्यतीत करता है। राज्य द्वारा ही नागरिकों में नैतिक गुणों का विकास किया जाता है। इसलिए यूनानी एक आदर्श राज्य की स्थापना करना चाहते थे।

प्रश्न 4.
राजनीति के परंपरागत दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
राजनीति के परंपरागत दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • प्राचीन लेखक संस्थाओं की संरचनाओं और सरकार के गठन पर विचार करते हैं। वे यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि संस्थाओं का उदय कैसे हुआ।
  • परंपरागत विचारक आदर्शवादी हैं। वे देखते हैं कि क्या होना चाहिए? उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि क्या है? अर्थात् वह राजनीतिक मूल्यों, नैतिकता व सात्विक विचारों पर अधिक बल देते हैं। इसमें कल्पना अधिक है।
  • परंपरावादियों का दृष्टिकोण व्यक्तिगत अधिक है। उसमें चिंतन और कल्पना है। ये दार्शनिक व विचारात्मक पद्धति में विश्वास करते हैं।
  • परंपरावादी विचारक राजनीति शास्त्र को विज्ञान मानते हैं।

प्रश्न 5.
राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. सीमित साधनों का आबंटन राजनीति है समाज में मूल्य-भौतिक साधन; जैसे सुख-सुविधाएँ, लाभकारी पद, राजनीतिक पद आदि सीमित हैं। इन सीमित साधनों को समाज में बांटना है। अतः सीमित साधनों को पाने के लिए संघर्ष होता है तथा एक होड़-सी लग जाती है। प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह द्वारा साधनों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। साधनों के बंटवारे की इसी प्रक्रिया को राजनीति कहा जाता है।

2. समूची राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण ही राजनीति है-परंपरावादियों ने राजनीति को राज्य व शासन का अध्ययन मात्र माना है। लेकिन आधुनिक विचारक न केवल राज्य व शासन का अध्ययन करते हैं, बल्कि उन सभी पहलुओं का भी अध्ययन करते हैं जिनका संबंध प्रत्यक्ष या अप्रयत्क्ष रूप से राज्य व शासन से होता है अर्थात वह समुदाय, समाज, श्रमिक संगठन, दबाव-समूह व हित-समूह आदि का अध्ययन करते हैं।

3. राजनीति शक्ति का अध्ययन है-आधुनिक लेखकों ने राजनीति की शक्ति के अध्ययन में अधिक रुचि प्रकट की है। उन्होंने राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष कहा है। इन लेखकों में से केटलिन, लासवैल, वाइज़मैन, मैक्स वेबर और राबर्ट डहल उल्लेखनीय हैं।

4. राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है-आधुनिक लेखक राजनीति को एक वर्ग-संघर्ष के अतिरिक्त कुछ और नहीं मानते।जैसे कार्ल मार्क्स ने राजनीति को वर्ग-संघर्ष माना है। उसके अनुसार समाज सदा ही दो वर्गों में विभाजित रहा है शासक वर्ग व शासित वर्ग।

प्रश्न 6.
क्या गैर-राजनीति क्षेत्र में राजनीति का हस्तक्षेप है? व्याख्या करें।
उत्तर:
साधारणतः यह धारणा बन चुकी है कि राजनीति आम जीवन को प्रभावित नहीं करती, लेकिन आधुनिक समय में इस धारणा में परिवर्तन हुआ है और यह सोचा जाने लगा है कि राजनीति सामान्य जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करती है। 19वीं शताब्दी के आधुनिकीकरण ने तथा जन-आंदोलनों ने राजनीति के क्षेत्र का विस्तार किया है। अब राजनीति लगभग प्रत्येक घर में प्रवेश कर चुकी है। अब हम कुछ ऐसे क्षेत्रों का अध्ययन करेंगे जो कभी राजनीति की परिधि से बाहर माने जाते थे, लेकिन अब के राजनीति से अछूते नहीं हैं।

1. घरेलू मामलों में राजनीति का हस्तक्षेप-पारिवारिक मामलों को कभी राजनीति से पूर्ण रूप से स्वतंत्र माना जाता और घरेलू मामलों में राजनीति का हस्तक्षेप न के बराबर था। लेकिन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में घरेलू मामलों में राजनीति के हस्तक्षेप का आरंभ हुआ।

2. महिलाओं को संपत्ति में अधिकार की प्राप्ति-भारतीय संसद ने संविधान में संशोधन कर हिंदू संपत्ति उत्तराधिकार अधिनियम में सन् 2005 में संशोधन किया। अब महिलाओं को पारिवारिक संपत्ति में बराबर का अधिकार प्राप्त हो गया है।

3. विभिन्न अधिकारों के क्षेत्र में बढ़ोतरी-प्रारंभ में व्यक्ति को केवल कर्त्तव्य-पालन की ही शिक्षा मिलती थी। उसके अधिकार बड़े सीमित थे। लेकिन राजनीति के हस्तक्षेप से व्यक्तियों के अधिकारों में बढ़ोतरी हुई है। जैसे उसे अब दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। उसे विदेश भ्रमण का भी अधिकार प्राप्त हो चुका है।

4. शिक्षा का अधिकार-किसी भी समाज की उन्नति व विकास शिक्षा पर निर्भर करता है। यदि नागरिक शिक्षित है तो निश्चित रूप से समाज अनेक प्रकार के कष्टों से मुक्त होता है। इसलिए निरक्षरता को दूर करने के लिए संविधान में संशोधन कर शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों की श्रेणी रख दिया है।

प्रश्न 7.
पर्यावरण के संरक्षण में राजनीति का हस्तक्षेप कैसे है? व्याख्या करें।
उत्तर:
राजनीति पर्यावरण के संरक्षण को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। विकास और पर्यावरण एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। यदि पर्यावरण विकास के लिए आधार प्रदान करता है तो विकास पर्यावरण के रख-रखाव, इसके पोषण और समृद्धि में सहायता देता है। पर्यावरण विकास की प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण सहायक तत्व है।

यही नहीं मानव जीवन के लिए पर्यावरण अति-आवश्यक है और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए भारतीय संसद ने पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक अधिनियमों वायु प्रदूषण अधिनियम, जल प्रदूषण अधिनियम, पर्यावरण प्रदूषण अधिनियम आदि का निर्माण किया है।

प्रश्न 8.
राजनीतिक सिद्धांत की कोई चार परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत की चार परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

1. डेविड हैल्ड (David Held):
के अनुसार, “राजनीतिक सिद्धांत राजनीतिक जीवन से संबंधित अवधारणाओं और व्यापक अनुमानों का एक ऐसा ताना-बाना है जिसमें शासन, राज्य और समाज की प्रकृति व लक्ष्यों और मनुष्यों की राजनीतिक क्षमताओं का विवरण शामिल है।”

2. जॉन प्लेमैंनेज़ (John Plamentaz):
के अनुसार, “एक सिद्धांतशास्त्री राजनीति की. शब्दावली का विश्लेषण और स्पष्टीकरण करता है। वह उन सभी अवधारणाओं की समीक्षा करता है जो कि राजनीतिक बहस के दौरान प्रयोग में आती हैं। सीमाओं के उपरान्त अवधारणाओं के औचित्य पर भी प्रकाश डाला जाता है।”

3. कोकर (Coker):
के अनुसार, “जब राजनीतिक शासन, उसके रूप एवं उसकी गतिविधियों का अध्ययन केवल अध्ययन या तुलना मात्र के लिए नहीं किया जाता अथवा उनको उस समय के और अस्थायी प्रभावों के संदर्भ में नहीं आंका जाता, बल्कि उनको लोगों की आवश्यकताओं, इच्छाओं एवं उनके मतों के संदर्भ में घटनाओं को समझा व इनका मूल्य आंका जाता है, तब हम इसे राजनीतिक सिद्धांत कहते हैं।” ।

4. एण्ड्रयु हैकर (Andrew Hecker):
के शब्दों में, “राजनीतिक सिद्धांत एक ओर बिना किसी पक्षपात के अच्छे राज्य तथा समाज की तलाश है तो दूसरी ओर राजनीतिक एवं सामाजिक वास्तविकताओं की पक्षपात रहित जानकारी का मिश्रण है।”

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 9.
आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की कोई तीन विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. विश्लेषणात्मक अध्ययन आधुनिक विद्वानों ने विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है। वे संस्थाओं के सामान्य वर्णन से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझना चाहते थे। इस कारण से उन्होंने व्यक्ति व संस्थाओं के वास्तविक व्यवहार को समझने के लिए अनौपचारिक संरचनाओं, राजनीतिक प्रक्रियाओं व व्यवहार के विश्लेषण पर बल दिया।

2. अध्ययन की अन्तर्शास्त्रीय पद्धति-आधुनिक विद्वानों की यह मान्यता है कि राजनीतिक व्यवस्था समाज व्यवस्था की अनेक उपव्यवस्थाओं (Multi-Systems) में से एक है और इन सभी व्यवस्थाओं का अध्ययन अलग-अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक उपव्यवस्था अन्य उप-व्यवस्थाओं के व्यवहार को प्रभावित करती है।

इसीलिए किसी एक उपव्यवस्था का अध्ययन अन्य उपव्यवस्थाओं के संदर्भ में ही किया जा सकता है। राजनीतिक व्यवस्था पर समाज की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आदि व्यवस्थाओं का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। अतः हमें किसी समाज की राजनीतिक व्यवस्था को ठीक ढंग से समझने के लिए उस समाज की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करना आवश्यक है।

3. आनुभाविक अध्ययन-राजनीति के आधुनिक विद्वानों ने राजनीति को शुद्ध विज्ञान बनाने के लिए राजनीतिक तथ्यों के माप-तोल पर बल दिया है। यह तथ्य-प्रधान अध्ययन है जिसमें वास्तविकताओं का अध्ययन होता है। इससे उन्होंने नए-नए तरीके अपनाए, जैसे जनगणना तथा आंकड़ों का अध्ययन करना तथा जनमत जानने की विधियां और साक्षात्कार के द्वारा कुछ परिणाम निकालना आदि।

प्रश्न 10.
राजनीतिक सिद्धांत के कार्यक्षेत्र के किन्हीं तीन शीर्षकों की व्याख्या करें।
उत्तर:”
राजनीतिक सिद्धांत के तीन कार्यक्षेत्र निम्नलिखित हैं

1. राज्य का अध्ययन-प्राचीनकाल से ही राज्य की उत्पत्ति, प्रकृति तथा कार्य-क्षेत्र के बारे में विचार होता रहा है कि राज्य का विकास कैसे हुआ तथा नगर-राज्य के समय से लेकर वर्तमान राष्ट्रीय राज्य के रूप में पहुंचने तक इसके स्वरूप का कैसा विकास हुआ आदि।

2. सरकार का अध्ययन सरकार ही राज्य का वह तत्व है जिसके द्वारा राज्य की अभिव्यक्ति होती है। अतः सरकार भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। सरकार के तीन अंग व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका-माने गए हैं। इन तीनों अंगों का संगठन, इनके अधिकार, इनके आपस में संबंध तथा इन तीनों से संबंधित भिन्न-भिन्न सिद्धांतों का अध्ययन भी हम करते हैं।

3. शक्ति का अध्ययन वर्तमान समय में शक्ति के अध्ययन को भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में शामिल किया जाता है। शक्ति के कई स्वरूप हैं, जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक शक्ति, व्यक्तिगत शक्ति, राष्ट्रीय शक्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति इत्यादि।

प्रश्न 11.
राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के कोई चार लाभ लिखें।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के लाभों को निम्नलिखित तथ्यों से प्रकट किया जा सकता है

1. भविष्य की योजना संभव बनाता है नई परिस्थितियों में समस्याओं के निदान के लिए नए-नए सिद्धांतों का निर्माण किया जाता है। ये सिद्धांत न केवल तत्कालीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं बल्कि भविष्य की परिस्थितियों का भी आंकलन करते हैं। वे कुछ सीमा तक भविष्यवाणी भी कर सकते हैं। इस प्रकार देश व समाज के हितों को ध्यान में रखकर भविष्य की योजना बनाना संभव होता है।

2. वास्तविकता को समझने का साधन-राजनीतिक सिद्धांत हमें राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने में सहायता प्रदान करता है। सिद्धांतशास्त्री सिद्धांत का निर्माण करने से पहले समाज में विद्यमान सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों का तथा समाज की इच्छाओं, आकांक्षाओं व प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है तथा उन्हें उजागर करता है।।

3. अवधारणा के निर्माण की प्रक्रिया संभव-राजनीतिक सिद्धांत विभिन्न विचारों का संग्रह है। यह किसी राजनीतिक घटना को लेकर उस पर विभिन्न विचारों को इकट्ठा करता है तथा उनका विश्लेषण करता है। जब कोई निष्कर्ष निकल आता है तो उसकी तुलना की जाती है। उन विचारों की परख की जाती है तथा अंत में एक धारणा बना ली जाती है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है जो नए संकलित तथ्यों को पुनः नए सिद्धांत में बदल देती है।।

4. समस्याओं के समाधान में सहायक-राजनीतिक सिद्धांत का प्रयोग शांति, विकास, अभाव तथा अन्य सामाजिक, आर्थिक . व राजनीतिक समस्याओं के लिए भी किया जाता है। राष्ट्रवाद, प्रभुसत्ता, जातिवाद तथा युद्ध जैसी गंभीर समस्याओं को सिद्धांत के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है। सिद्धांत समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रशस्त करते हैं और निदानों (Solutions) को बल प्रदान करते हैं। बिना सिद्धांत के जटिल समस्याओं को सुलझाना संभव नहीं होता।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति से आप क्या समझते हैं? इसकी परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
राजनीति क्या है, यह एक विवादास्पद व रोचक प्रश्न है। इस प्रश्न का सही उत्तर देना बड़ा कठिन है। साधारण व्यक्ति से लेकर विद्वानों तक ने इस प्रश्न का अपने-अपने ढंग से उत्तर देने का प्रयत्न किया है, लेकिन कोई भी इसका संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया है। राजनीति का अध्ययन प्राचीन समय से चला आ रहा है। अरस्तू ने राजनीति को सामान्य जीवन से संबंधित माना और राजनीति को ‘सर्वोच्च विज्ञान’ (Master Science) की संज्ञा दी। उनके अनुसार मनुष्य के चारों ओर के वातावरण को समझने के लिए राजनीति-शास्त्र का ज्ञान अति आवश्यक है।

अरस्तू के विचार में मनुष्य के जीवन के विभिन्न पहलुओं में से उसका राजनीतिक पहलू अधिक महत्त्वपूर्ण है। यही पहलू जीवन के अन्य पहलुओं को प्रभावित करता है। उसका कहना था कि राजनीति वैज्ञानिक रूप से यह निश्चित करती है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।

वर्तमान काल में राजनीति की महत्ता और भी अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि अब राज्य एक पुलिस राज्य न होकर एक कल्याणकारी राज्य बन गया है, जो व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक पक्ष में हस्तक्षेप करता है अर्थात राज्य व्यक्ति की हर छोटी व बड़ी आवश्यकता को पूरा करने का प्रयास करता है। इस प्रकार शासक व शासितों में घनिष्ठ संबंध स्थापित हो जाते हैं। एक ओर शासक अपने-आपको सत्ता में रखने का प्रयत्न करते हैं तो दूसरी ओर शासित उन पर अंकुश लगाना चाहते हैं। इससे राजनीति का जन्म होता है।

अतः राजनीति का मनुष्य जीवन पर इतना प्रभाव होने से यह अनिवार्य हो जाता है कि इस शब्द की उत्पत्ति और अर्थ को समझा जाए। राजनीति शब्द की उत्पत्ति और अर्थ (Origin and Meaning of Politics)-प्राचीन काल से ही राजनीति विज्ञान के लिए ‘राजनीति’ शब्द का प्रयोग होता आ रहा है। अरस्तू ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘पॉलिटिक्स’ (Politics) रखा था।

पॉलिटिक्स शब्द ग्रीक भाषा के पॉलिस (Polis) शब्द से बना है। पॉलिस शब्द का संबंध नगर-राज्यों (City States) से है। प्राचीन यूनान में छोटे-छोटे नगर-राज्य होते थे। प्रत्येक नगर एक प्रभुसत्ता संपन्न राज्य था। इसलिए यूनानियों के दृष्टिकोण से पॉलिटिक्स का अर्थ उस विज्ञान से हुआ जो राज्य की समस्याओं से संबंधित हो, परंतु आधुनिक समय में बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना होने के कारण पॉलिटिक्स का अर्थ उन राजनीतिक समस्याओं से है जो किसी ग्राम, नगर, प्रांत, देश और विश्व के सामने हैं।

‘राजनीति’ आधुनिक युग में सबसे अधिक प्रयोग होने वाला शब्द है। इसलिए भिन्न-भिन्न लोगों ने इस शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में किया है। साधारण अर्थों में इस शब्द का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में किया जाता है। इस शब्द का प्रयोग उन क्रियाओं और प्रक्रियाओं के लिए किया जाता है जिन्हें अच्छा नहीं समझा जाता है; जैसे विद्यार्थियों को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए या फिर अपने मित्रों के साथ राजनीति नहीं खेलनी चाहिए अर्थात् राजनीति शब्द का प्रयोग विकृत अर्थ में किया जाता है। वर्तमान लोक जीवन में यह शब्द बड़ा अप्रतिष्ठित हो गया है और इससे छल, कपट, बेईमानी आदि का बोध होता है।

राजनीति का उपर्युक्त अर्थ संकुचित व विकृत है, परंतु राजनीति शब्द का अर्थ संकुचित न होकर व्यापक है। राजनीति एक ऐसी क्रिया है जिसमें हम सभी किसी-न-किसी रूप में अवश्य भाग लेते हैं। लोकतंत्र में रहते हुए राजनीति से अलग नहीं रहा जा सकता। राजनीति अरस्तू के समय से ही समाज में है। अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं और स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है।

वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज में अनेक प्रकार के संघ, दल और समुदायों का निर्माण करता है। इन संस्थाओं या संगठनों के संघर्ष से समाज में मतभेद पैदा हो जाते हैं, मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते क्रांति या शक्ति का सहारा न लेकर शांतिपूर्ण संघर्ष द्वारा अपने मतभेदों को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। समाज के इस संघर्ष से उत्पन्न क्रिया को राजनीति कहा जाता है।

गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “राजनीति से अभिप्राय आजकल सरकार की वर्तमान समस्याओं से होता है जो अक्सर वैज्ञानिक दृष्टि से राजनीति के ढंग की होने की बजाय आर्थिक ढंग की होती हैं। जब हम किसी मनुष्य के बारे में यह कहते हैं कि वह राजनीति में रुचि रखता है तो हमारा आशय यह होता है कि वह वर्तमान समस्याओं, आयात-निर्यात, श्रम समस्याओं, कार्यकारिणी का विधानपालिका से संबद्ध और वास्तव में किसी अन्य ऐसे प्रश्नों में रुचि रखता है, जिनकी ओर देश के कानून निर्माताओं को ध्यान देना आवश्यक है या ध्यान देना चाहिए।”

इस प्रकार राजनीति का क्षेत्र बहुत व्यापक है। वह केवल व्यावहारिक बातों तक ही सीमित नहीं होती। राजनीति में हम राजनीतिक क्रियाओं तथा संबंधों को शामिल करते हैं। राजनीति प्रत्येक समाज में पाई जाती है। राजनीति में सर्वव्यापकता है। राजनीति व्यक्ति की हर गतिविधि में विद्यमान है।

1. राजनीति की परिभाषाएँ (Definitions of Politics):
यद्यपि ‘राजनीति’ शब्द को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है फिर भी सुविधा की दृष्टि से राजनीति की कुछ मुख्य परिभाषाएँ अग्रलिखित हैं हरबर्ट जे० स्पाइरो (Herbert J. Spiro) के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव समाज अपनी समस्याओं का समाधान करता है।”

2. डेविड ईस्टन (David Easton):
के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव आवश्यकताओं तथा इच्छाओं की पूर्ति सीमित (मानवीय, भौतिक और आध्यात्मिक) साधनों का सामाजिक इकाई में (चाहे नगर हो, राज्य हो या संगठन) बंटवारा करता है।”

3. हेनरी बी० मेयो (Henri B. Meyo):
के शब्दों में, “राजनीति केवल विवाद ही नहीं है, बल्कि एक ऐसी विधि भी है जिसके द्वारा झगड़ों को सुलझाकर और संघर्ष का निपटारा करके ऐसी नीतियां बनाई जाती हैं जो शासन से संबंधित और बाध्यकारी होती हैं।”

प्रश्न 2.
परंपरागत तथा आधुनिक दृष्टिकोणों में राजनीति के अर्थ बताएँ।
उत्तर:
परंपरागत दृष्टिकोण (Traditional View)-परंपरागत दृष्टिकोण से तात्पर्य है कि राजनीति का संबंध जीवन की ओं से है। इसलिए परंपरावादियों का दृष्टिकोण औपचारिक व संस्थात्मक (Formal and Institutional) है। उन्होंने अपने अध्ययन के क्षेत्र को संस्थाओं के अध्ययन तक ही सीमित रखा है और उन्होंने राजनीति को राजनीति शास्त्र कहना उचित समझा। इस दृष्टिकोण के मुख्य समर्थक प्लेटो, हॉब्स व रूसो हैं। इस दृष्टिकोणं का अध्ययन निम्नलिखित है

1. राजनीति विज्ञान राज्य से संबंधित (Political Science deals with State):
इस क्षेत्र में ऐसे लेखक आते हैं, जिन्होंने राजनीति विज्ञान को केवल राज्य से संबंधित माना है। उनके अध्ययन का आधार राज्य है और राज्य राजनीति विज्ञान का केंद्र-बिंदु है। ब्लंशली (Bluntschli) के अनुसार, “राजनीति शास्त्र वह विज्ञान है जिसका संबंध राज्य से है और जो यह समझने का प्रयत्न करता है कि राज्य के आधार का मूल तत्व क्या है, उसका आवश्यक रूप क्या है, उसकी किन विविध रूपों में अभिव्यक्ति होती है तथा उसका विकास कैसे हुआ।”

इसी तरह लार्ड एक्टन (Lord Acton) ने कहा है, “राजनीति शास्त्र राज्य व उसके विकास के लिए अनिवार्य दशाओं से संबंधित है।” गार्नर (Garner) द्वारा भी इसी प्रकार का मत व्यक्त किया गया है, “राजनीति शास्त्र का प्रारंभ तथा अंत राज्य के साथ होता है।” उपर्युक्त परिभाषाएं राजनीति शास्त्र में राज्य के महत्त्व को समझने का प्रयत्न करती हैं।

2. राजनीति विज्ञान सरकार से संबंधित है (Political Science is related to Government):
राजनीति शास्त्र में राज्य के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है, परंतु राज्य के अतिरिक्त राजनीति शास्त्र में सरकार, मानव तथा राज्य के बाहरी संबंधों का भी अध्ययन किया जाता है। इसलिए राजनीति शास्त्र को सरकार व शासन से संबंधित संस्थाओं का अध्ययन भी माना जाता है। कुछ परंपरावादी लेखक इसी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।

लीकॉक (Leacock) के अनुसार, “राजनीति शास्त्र सरकार से संबंधित है।” इसी तरह सीले (Seeley) का भी मत है, “राजनीति शास्त्र शासन के तत्वों का अनुसंधान उसी प्रकार करता है; जैसे अर्थशास्त्र संपत्ति का, जीवशास्त्र जीवन का, बीजगणित अंकों का तथा ज्यामिति-शास्त्र स्थान तथा ऊंचाई का करता है।”

इन लेखकों ने सरकार को राजनीति शास्त्र का मुख्य विषय माना है। इसका कारण यह है कि राज्य अपने कार्य स्वयं नहीं कर सकता, इसलिए सरकार की इस उद्देश्य के लिए आवश्यकता पड़ती है। राजनीति शास्त्र में सरकार की रचना, उसके उद्देश्य व उसके विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।

3. राजनीति विज्ञान में राज्य व सरकार का अध्ययन (Study of State and Government in Political Science):
राजनीति विचारकों का एक समूह राज्य के अध्ययन पर बल देता है तो दूसरा सरकार व शासन के अध्ययन को अपना विषय बनाता है। वस्तुतः यह दोनों ही धारणाएँ महत्त्वपूर्ण तो हैं, लेकिन दोनों ही अधूरी हैं। ये दोनों धारणाएं एक-दूसरे की पूरक हैं। क्योंकि राज्य का सरकार के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। सरकार राज्य का न केवल अंग है, बल्कि वह उसके स्वरूप की व्याख्या भी करता है।

इस तरह राजनीतिक वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसी परिभाषाएं दी हैं जो राज्य तथा सरकार दोनों के अध्ययन पर प्रकाश डालती हैं। इसी संदर्भ में गिलक्राइस्ट (Gilchrist) ने कहा है, “राजनीति शास्त्र राज्य तथा सरकार से संबंधित है।” इसी तरह पाल जैनेट (Paul Janet) द्वारा भी विचार व्यक्त किया गया है, “यह समाज शास्त्र का वह भाग है जो राज्य के मूल आधारों तथा शासन के सिद्धांत की विवेचना करता है।”

गैटेल (Gettel) भी राजनीति शास्त्र में सरकार व राज्य दोनों का अध्ययन करता है। गैटेल के अनुसार, “राजनीति शास्त्र राज्य के भूत, वर्तमान तथा भविष्य के राजनीतिक संगठन तथा राजनीतिक कार्यों का, राजनीतिक समस्याओं तथा राजनीति सिद्धांतों का अध्ययन करता है।”

परंपरावादी दृष्टिकोण की विशेषताएँ (Characteristics of the Traditional View)-दी गई विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर परंपरावादी दृष्टिकोण की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) प्राचीन लेखक संस्थाओं की संरचनाओं और सरकार के गठन पर विचार करते हैं। वे यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि संस्थाओं का उदय कैसे हुआ।
परंपरागत विचारक आदर्शवादी हैं।

(2) वे देखते हैं कि क्या होना चाहिए? उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि क्या है? अर्थात् वह राजनीतिक मूल्यों, नैतिकता व सात्विक विचारों पर अधिक बल देते हैं। इसमें कल्पना अधिक है।

(3) परंपरावादियों का दृष्टिकोण व्यक्तिगत अधिक है। उसमें चिंतन और कल्पना है। ये दार्शनिक व विचारात्मक पद्धति में विश्वास करते हैं।

(4) परंपरावादी विचारक राजनीति शास्त्र को विज्ञान मानते हैं।

(5) परंपरावादी केवल राजनीति से संबंधित नहीं हैं। उनका संबंध अनेक समाजशास्त्रों से है। परंपरावादी नैतिकवाद व अध्यात्मवाद में विश्वास रखते हैं। उन्होंने राज्य को एक नैतिक संस्था माना है। उनका झुकाव उदारवाद की ओर था। इसलिए उन्होंने राज्य को कल्याणकारी कहा था। वे व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता देने के पक्ष में हैं।

आधुनिक द्र ष्टिकोण (Modern View)-परंपरावादियों और उदारवादियों ने राजनीति के अध्ययन के विषय को केवल राज्य, सरकार व कानून तक ही सीमित रखा। उन्होंने राजनीति को केवल औपचारिक माना अर्थात उन्होंने राजनीति में औपचारिक दिया, लेकिन इसके विपरीत आधुनिक दृष्टिकोण में राजनीति को औपचारिक संस्थाओं के अध्ययन के बंधन से मुक्त करने का प्रयत्न किया गया है।

आधुनिक विचारधारा के अनुसार राजनीति में औपचारिक संस्थाओं की अपेक्षा अनौपचारिक संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है। उनका कहना है कि संस्थाएं विधानमंडल, कार्यपालिका व न्यायालय तथा अन्य संस्थाएं स्वयं कोई कार्य नहीं कर सकतीं। ये संस्थाएं किस प्रकार से कार्य करती हैं, इन्हें कौन-से लोग चलाते हैं तथा देश की सामाजिक व आर्थिक स्थिति कैसी है, इन सब बातों का अध्ययन राजनीति में किया जाता है।

अतः आधुनिक विचारक राजनीतिक गतिविधियों पर अधिक जोर देते हैं। वे औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं के स्थान पर अनौपचारिक राजनीतिक संस्थाओं; जैसे राजनीतिक दल, दबाव-समूह, लोकमत, चुनाव, मतदान व आचरण आदि पर अधिक ध्यान देते हैं। कछ आधनिक लेखक राजनीति को संघर्ष के रूप में देखते हैं। इस प्रकार आधनिक राजनीति दृष्टिकोण से अधिक विस्तृत है। राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण का संक्षेप में इस प्रकार वर्णन किया जा सकता है

1. सीमित साधनों का आबंटन राजनीति है (Allocation of Scarce Resources is Politics):
डेविड ईस्टन (David Easton) ने राजनीति की परिभाषा देते हुए कहा है, “राजनीति का संबंध मूल्यों के अधिकारिक आबंटन से है।” इसका अर्थ यह है कि समाज में मूल्य–भौतिक साधन; जैसे सुख-सुविधाएं, लाभकारी पद, राजनीतिक पद आदि सीमित हैं। इन सीमित साधनों को समाज में बांटना है। इनका वितरण करने के लिए एक ऐसी शक्ति की आवश्यकता है जिसकी बात सभी मानें।

इसलिए ईस्टन ने ‘अधिकारिक’ शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार की बाध्यकारी शक्ति प्रत्येक समाज में होती है। अतः सीमित साधनों को पाने के लिए संघर्ष होता है तथा एक होड़-सी लग जाती है। प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह द्वारा साधनों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। साधनों के बंटवारे की इसी प्रक्रिया को राजनीति कहा जाता है। एक अन्य आधुनिक लेखक लासवैल (Lasswell) ने इसे दूसरे शब्दों में लिखा है, “राजनीति की विषय-वस्तु है कौन प्राप्त करता है, क्या प्राप्त करता है, कब प्राप्त करता है और कैसे प्राप्त करता है।”

2. समूची राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण ही राजनीति है (Politics is an Analysis of the whole Political System):
परंपरावादियों ने राजनीति को राज्य व शासन का अध्ययन मात्र माना है। लेकिन आधुनिक विचारक न केवल राज्य व शासन का अध्ययन करते हैं, बल्कि उन सभी पहलुओं का भी अध्ययन करते हैं जिनका संबंध प्रत्यक्ष या अप्रयत्क्ष रूप से राज्य व शासन से होता है अर्थात वह समुदाय, समाज, श्रमिक संगठन, दबाव-समूह व हित-समूह आदि का अध्ययन करते हैं।

इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि आधुनिक लेखक राजनीति में समूची राजनीतिक व्यवस्था को सम्मिलित करते हैं; जैसे कि ऐलन बाल (Alan Ball) ने कहा है, “राजनीतिक व्यवस्था में केवल औपचारिक संस्थाओं (विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका) का ही समावेश नहीं है, बल्कि उसमें समाज की हर प्रकार की राजनीतिक गतिविधि समाहित है।”

इस तरह राजनीतिक व्यवस्था विभिन्न राजनीतिक गतिविधियों का एक समूह है जिसमें प्रत्येक गतिविधि का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। जैसे चुनाव-प्रणाली के दोषों का प्रभाव सभी गतिविधियों पर पड़ता है। अतः राजनीति में सामाजिक जीवन के उन सभी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है जिनका प्रभाव राजनीतिक संस्थाओं, गतिविधियों व प्रक्रियाओं पर पड़ता है।

राजनीति शक्ति का अध्ययन है (Politics is the study of Power)-आधुनिक लेखकों ने राजनीति की शक्ति के अध्ययन में अधिक रुचि प्रकट की है। उन्होंने राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष कहा है। इन लेखकों में से केटलिन, लासवैल, वाइज़मैन, मैक्स वेबर और राबर्ट डहल उल्लेखनीय हैं। केटलिन (Catlin) ने कहा है, “समस्त राजनीति स्वभाव से शक्ति-संघर्ष है।”

मैक्स वेबर (Max Weber) ने इसी संदर्भ में व्यक्त किया है, “राजनीति शक्ति के लिए संघर्ष है अथवा जिन लोगों के हाथ में सत्ता है उन्हें प्रभावित करने की क्रिया है। यह संघर्ष राज्यों के मध्य तथा राज्य के भीतर संगठित समुदायों के बीच चलता है और यह दोनों संघर्ष राजनीति के अंतर्गत आ जाते हैं।” इस तरह इस परिभाषा से यह निश्चित हो जाता है कि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाला शक्ति के लिए संघर्ष राजनीति के अध्ययन का विषय बन गया है। लासवैल (Lasswell) ने राजनीति को इस प्रकार से परिभाषित किया है, “राजनीति शक्ति को बनाने व उसमें भाग लेने का यन है।”

वाइज़मैन (Wiseman) ने शक्ति की व्याख्या करते हुए अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं “विरोध के होते हुए किसी व्यक्ति की इच्छाओं का पालन करवाने की योग्यता को शक्ति कहते हैं।” अर्थात आधुनिक लेखकों के अनुसार राजनीति में, शक्ति क्या है? कैसे प्राप्त की जाती है? कैसे खोई जाती है? इसके क्या आधार हैं; इत्यादि आते हैं।

4. राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है (Politics is a Class Struggle):
आधुनिक लेखक राजनीति को एक वर्ग-संघर्ष के अतिरिक्त कुछ और नहीं मानते। जैसे कार्ल मार्क्स ने राजनीति को वर्ग-संघर्ष माना है। उसके अनुसार समाज सदा ही दो वर्गों में विभाजित रहा है-शासक वर्ग व शासित वर्ग। शासक वर्ग हमेशा शासित वर्ग का शोषण करता रहा है क्योंकि उसके पास शक्ति है और वह राज्य के यंत्र का प्रयोग शासितों का शोषण करने के लिए करता है।

इसी शोषण प्रक्रिया को राजनीति कहा जाता है। यह शोषण या वर्ग-संघर्ष तब तक चलता रहता है जब तक समाज में वर्ग-भेद समाप्त नहीं हो जाता। इसलिए मार्क्स एक वर्ग-विहीन समाज की स्थापना करना चाहता था। न वर्ग होंगे, न संघर्ष होगा और न राजनीति होगी।

5. राजनीति सामान्य हित स्थापित करने का साधन है (Politics as a mean to bring Common Good):
साधारणतः राजनीति को संघर्ष माना जाता है जिसमें समाज में रहने वाला एक वर्ग दूसरे वर्ग पर अपना आधिपत्य जमाना चाहता है या शक्ति-विहीन लोग शासन पर अधिकार प्राप्त करके शक्ति प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं।

लेकिन यह राजनीति का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है कि राजनीति वर्ग-संघर्ष नहीं है, बल्कि समाज के विभिन्न समुदायों अथवा वर्गों के बीच संघर्षों को दूर करके शांति स्थापित करने का साधन है। राजनीति समाज में शांति व्यवस्था व न्याय की स्थापना का प्रयास है जिसमें समाज हित व व्यक्तिगत हित में सामंजस्य स्थापित किया जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 3.
राजनीतिक सिद्धांत की परिभाषा दीजिए। आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ लिखिए। शांत क्या है? लंबे समय से विद्वानों के बीच यह विवाद का विषय रहा है। विभिन्न अवधारणाएं इसे विभिन्न तरह से परिभाषित करती हैं। इसके लिए विभिन्न शब्दावली; जैसे राजनीति शास्त्र (Political Science), राजनीति (Politics), राजनीतिक दर्शन (Political Philosophy) आदि का प्रयोग किया जाता है।

परंतु इन सभी के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। राजनीतिक सिद्धांत को अंग्रेजी में पॉलिटिकल थ्योरी (Political Theory) कहा जाता है। राजनीतिक सिद्धांत ‘राजनीति एवं सिद्धांत’ दो शब्दों से मिलकर बना है। राजनीतिक सिद्धांत का अर्थ जानने से पूर्व ‘सिद्धांत’ का अर्थ समझना अति आवश्यक है।

सिद्धांत का अर्थ (Meaning of Theory)-सिद्धांत को अंग्रेजी में थ्योरी (Theory) कहा जाता है। ‘थ्योरी’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द थ्योरिया (Theoria) से हुई है, जिसका अर्थ होता है “एक ऐसी मानसिक दृष्टि जो कि एक वस्तु के अस्तित्व एवं उसके कारणों को प्रकट करती है।” ‘विवरण’ (Description) या किसी लक्ष्य के बारे में कोई विचार या सुझाव देने (Proposals of Goals) को ही सिद्धांत नहीं कहा जाता है।

प्रत्येक व्यक्ति संसार में घटने वाली घटनाओं, वस्तुओं, प्राणियों एवं समूहों को अपने दृष्टिकोण से देखता है तथा उस पर अपनी टिप्पणियां करते हैं। प्रत्येक मानव आवश्यकता पड़ने पर उस पर कुछ प्रयोग भी करते हैं तथा आवश्यकता एवं समय के अनुसार उसमें कुछ परिवर्तन भी करते हैं, जिसे सिद्धांत (Theory) कहा जाता है। आर्नोल्ड ब्रेट (Armold Breht) के शब्दों में, “सिद्धांत के अंतर्गत तथ्यों का वर्णन, उनकी व्याख्या, लेखक का इतिहास बोध, उनकी मान्यताएं एवं लक्ष्य शामिल हैं जिनके लिए किसी सिद्धांत का प्रतिपादन किया जाता है।”

आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ (Characteristics of Modern Political Theory)-आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. विश्लेषणात्मक अध्ययन (Analytical Study)-आधुनिक विद्वानों ने विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है। वे संस्थाओं के सामान्य वर्णन से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझना चाहते थे। इस व्यक्ति व संस्थाओं के वास्तविक व्यवहार को समझने के लिए अनौपचारिक संरचनाओं, राजनीतिक प्रक्रियाओं व व्यवहार के विश्लेषण पर बल दिया। ईस्टन, डहल, वेबर तथा आमंड इत्यादि अनेक विद्वानों ने व्यक्ति के कार्यों व उसके व्यवहार पर अधिक बल दिया क्योंकि इनके विश्लेषण से राजनीतिक व्यवस्था को समझना आसान था।

2. अध्ययन की अन्तर्शास्त्रीय पद्धति (Inter-Disciplinary Approach to the Study of Politics)-आधुनिक विद्वानों की यह मान्यता है कि राजनीतिक व्यवस्था समाज व्यवस्था की अनेक उपव्यवस्थाओं (Multi-Systems) में से एक है और इन सभी व्यवस्थाओं का अध्ययन अलग-अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक उपव्यवस्था अन्य उप-व्यवस्थाओं के व्यवहार को प्रभावित करती है।

इसीलिए किसी एक उपव्यवस्था का अध्ययन अन्य उपव्यवस्थाओं के संदर्भ में ही किया जा सकता है। राजनीतिक व्यवस्था पर समाज की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आदि व्यवस्थाओं का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। अतः हमें किसी समाज की राजनीतिक व्यवस्था को ठीक ढंग से समझने के लिए उस समाज की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करना आवश्यक है।

वर्तमान समय में यह धारणा ज़ोर पकड़ रही है कि अंतर्राष्ट्रीयकरण (Globalization) की प्रक्रिया को समझे बिना राज्य के बारे में कोई चिंतन नहीं किया जा सकता। राजनीतिक सिद्धांत में विश्व अर्थव्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय कानून तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन अलग-अलग नहीं बल्कि एक साथ करने की आवश्यकता है। इसका कारण यह है कि ये सभी तत्व राज्य के कार्यक्षेत्र और इसकी प्रभुसत्ता को प्रभावित करते हैं।

3. आनुभाविक अध्ययन (Empirical Study or Approach) राजनीति के आधुनिक विद्वानों ने राजनीति को शुद्ध विज्ञान बनाने के लिए राजनीतिक तथ्यों के माप-तोल पर बल दिया है। यह तथ्य-प्रधान अध्ययन है जिसमें वास्तविकताओं का अध्ययन होता है। इससे उन्होंने नए-नए तरीके अपनाए, जैसे जनगणना (Census Records) तथा आंकड़ों (Datas) का अध्ययन करना तथा जनमत जानने की विधियां (Opinion Polls) और साक्षात्कार (Interviews) के द्वारा कुछ परिणाम निकालना आदि।

डेविड ईस्टन (David Easton) ने कहा है, “खोज सुव्यवस्थित रूप से की जानी चाहिए। यदि कोई सिद्धांत आंकड़ों पर आधारित नहीं है तो वह निरर्थक साबित होगा।” आधुनिक विद्वान् वर्तमान काल के लोकतंत्रात्मक शासन के आदर्श स्वरूप के अध्ययन में रुचि न रखकर लोकतंत्र के वास्तविक व्यावहारिक रूप का आनुभाविक अध्ययन करते हैं और इस धारणा से उन्होंने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि अन्य शासन-प्रणालियों की भांति लोकतंत्र में भी एक ही वर्ग-छोटा-सा विशिष्ट वर्ग (Elite)-शासन करता है। यह दृष्टिकोण लोकतंत्र के आनुभाविक अध्ययन का ही परिणाम है।

4. अनौपचारिक कारकों का अध्ययन (Study of Informal Factors) आधुनिक विद्वानों के अनुसार परंपरागत अध्ययन की औपचारिक संस्थाओं; जैसे राज्य, सरकार व दल आदि का अध्ययन काफी नहीं है। वे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने के लिए उन सभी अनौपचारिक कारकों का अध्ययन करना आवश्यक समझते हैं जो राजनीतिक संगठन के व्यवहार को प्रभावित करता है।

वह जनमत, मतदान आचरण (Voting Behaviour), विधानमंडल, कार्यपालिका, न्यायपालिका, राजनीतिक दल, दबाव-समूहों तथा जनसेवकों (Public Servants) के अध्ययन पर भी बल देते हैं। इस श्रेणी में व्यवहारवादी विचारक-डहल, डेविस ईस्टन, आमंड तथा पॉवेल शामिल हैं।

5. मूल्यविहीन अध्ययन (Value-free Study)-आधुनिक लेखक, विशेष रूप से व्यवहारवादी (Behaviouralists), नीति के मूल्यविहीन अध्ययन पर बल देते हैं। उनका कहना है कि राजनीतिक विचारकों को ‘मूल्यनिरपेक्ष’ अर्थात तटस्थ (Neutral) रहना चाहिए। उन्हें ‘क्या होना चाहिए’ (What ought to be) के स्थान पर ‘क्या है’ (What exists) का उत्तर खोजना चाहिए। उन्हें ठीक तथा गलत के प्रश्नों से मुक्त रहना चाहिए।

लेखक को चाहिए कि वह तथ्यों तथा आंकड़ों के स्थान पर मात्र वर्गीकरण तथा विश्लेषण करे। उसे यह कहने का कोई अधिकार नहीं है कि कौन-सी शासन-प्रणाली अच्छी है और कौन-सी बुरी है। इस प्रकार व्यवहारवादी विचारक मूल्यविहीन अध्ययन पर बल देते हैं जिससे उपयुक्त वातावरण में वास्तविकताओं का अध्ययन किया जा सके।

6. उत्तर व्यवहारवाद-मूल्यों को पुनः स्वीकार करने की पद्धति (Post-Behaviouralism : Acceptance of Values in the Study of Politics)-व्यवहारवादी क्रांति ने आदर्शों तथा मूल्यों को पूर्णतः अस्वीकार कर दिया था। राजनीति को पूर्ण विज्ञान बनाने की चाह में व्यवहारवादी लेखक आंकड़ों तथा तथ्यों में ही उलझकर रह गए थे।

उन्होंने किसी लक्ष्य व आदर्श के साथ जुड़ने से साफ इन्कार कर दिया। परंतु शीघ्र ही एक नई क्रांति का उदय हुआ जिसे उत्तर व्यवहारवाद (Post Behaviouralism) के नाम से पुकारा जाता है। इस युग के सिद्धांतशास्त्रियों को यह अनुभव हो गया कि राजनीति प्राकृतिक विज्ञानों की भांति पूर्ण विज्ञान का रूप नहीं ले सकती। अतः उन्होंने मानवीय उद्गम (Normative Approach) और आनुभाविक उद्गम (Empirical Approach) दोनों को स्वीकार कर लिया।

डेविड ईस्टन की ही भांति कोबन (Cobban) तथा ‘लियो स्ट्रास’ (Leo Starauss) ने भी मूल्यों के पुनर्निर्माण (Reconstruction of Values) पर बल दिया है। जॉन रॉल्स (John Rawls) ने उन सिद्धांतों तथा प्रक्रियाओं का पता लगाने का प्रयत्न किया है जिन पर चलकर हम न्यायोचित समाज की स्थापना कर सकते हैं।

7. समस्या समाधान का प्रयास (Problem Solving Efforts) सिद्धांतशास्त्रियों द्वारा मूल्यों को स्वीकार कर लेने का यह परिणाम निकला है कि अब वे समस्याओं के समाधान में जुट गए हैं। आधुनिक सिद्धांतशास्त्री जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं वे हैं युद्ध तथा शांति, बेरोज़गारी, पर्यावरण, असमानता तथा सामाजिक हलचल। राजसत्ता, प्रभुसत्ता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा न्याय आदि तो पहले से ही राजनीतिक विज्ञान के अंग हैं।

प्रश्न 4.
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. मुख्यतः वर्णनात्मक अध्ययन (Mainly Descriptive Studies):
परंपरागत सिद्धांत की मुख्य विशेषता यह है कि यह मुख्यतः वर्णनात्मक है। इसका अर्थ यह है कि इसमें केवल राजनीतिक संस्थाओं का वर्णन किया गया है। अतः यह न तो व्याख्यात्मक है, न विश्लेषणात्मक और न ही इसके माध्यम से राजनीतिक समस्या का समाधान हो पाया है। इन विद्वानों के अनुसार राजनीतिक संस्थाओं का वर्णन मात्र पर्याप्त है और उनके द्वारा इस बात पर विचार नहीं किया गया कि इन संस्थाओं की समानताओं तथा भिन्नताओं के मूल में कौन-सी ऐसी परिस्थितियां हैं, जो इन्हें प्रभावित करती हैं।

2. समस्याओं का समाधान करने का प्रयास (Study for Solving Problems):
परंपरागत लेखकों की रचनाओं पर अपने युग की घटनाओं का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है और वे अपने-अपने ढंग से इन समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए प्रयत्नशील थे। उदाहरणस्वरूप, प्लेटो (Plato) के सामने यूनान के नगर-राज्यों के आपसी ईर्ष्या-द्वेष तथा कलह का जो वातावरण मौजूद था उससे छुटकारा पाने के लिए उसने दार्शनिक राजा (Philosopher King) के सिद्धांत की रचना की। उस व्यवस्था का उद्देश्य शासक वर्ग को निजी स्वार्थ से ऊपर रखना था।

दार्शनिक राजा का अपना कोई निजी परिवार नहीं होगा और शासक वर्ग में शामिल अन्य व्यक्तियों को भी अपना निजी परिवार बसाने का अधिकार नहीं होगा। उन्हें तो समस्त समाज को ही अपना परिवार समझना होगा। इटली की तत्कालीन स्थिति को देखकर मैक्यावली (Machiavelli) इस परिणाम पर पहुंचा कि शासक के लिए अपने राज्य को विस्तृत तथा मज़बूत बनाने के लिए झूठ, कपट, हत्या और अन्य सभी साधन उचित हैं।

इस प्रकार इंग्लैंड में अशांति तथा अराजकता की स्थिति को देखते हुए हॉब्स (1588-1679) ने निरंकुश राजतंत्र (Absolute Monarchy) का समर्थन किया। हॉब्स के चिंतन का मुख्य उद्देश्य किसी ऐसी व्यवस्था की खोज करना था जिससे गृह-युद्ध तथा अशांति के वातावरण को समाप्त किया जा सके।

3. परंपरागत चिंतन पर दर्शन, धर्म तथा नीतिशास्त्र का प्रभाव (Influence of Philosophy, Religion and Ethics on Classical Studies):
परंपरागत चिंतन की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि वे दर्शन तथा धर्म से प्रभावित रहा है तथा उसमें नैतिक मूल्य विद्यमान रहे हैं। यद्यपि प्लेटो तथा अरस्तू के चिंतन में ये कुछ हद तक दिखाई देते हैं परंतु इनका स्पष्ट उदाहरण मध्ययुग में ईसाई धर्म द्वारा राज्य के प्रभावित हो जाने पर प्राप्त हुआ।

इस समय राज्य तथा चर्च (Church) के आपसी संबंध को लेकर एक भीषण विवाद उठ खड़ा हुआ जो उस काल की विचारधारा का मुख्य विषय बन गया। यूरोप के कई विद्वानों ने यह विचार व्यक्त किया कि धर्म राज्य से श्रेष्ठ है और धर्माधिकारी भी राज्य के मामलों में हस्तक्षेप कर सकते हैं।

सेंट थॉमस एक्वीनास (Saint Thomas Acquinas) इसी मत के समर्थक थे। दूसरी ओर, यह विचार निरंतर महत्त्वपूर्ण बना रहा कि राजसत्ता, धर्मसत्ता से श्रेष्ठ है और उसे चर्च को विनियमित करने का अधिकार है। इस विचार का समर्थन मुख्य रूप से विलियम ऑकम (William Occam) द्वारा किया गया।

4. मुख्यतः आदर्शात्मक अध्ययन (Mainly Normative Studies):
परंपरागत चिंतनों के ग्रंथों को पढ़ने से यह पता चलता है कि इनमें कुछ आदर्शों को न केवल पहले से ही स्वीकार कर लिया गया है, बल्कि इन्हीं मान्यताओं की कसौटी पर अन्य देशों की राजनीतिक संस्थाओं व शासन को परखा जाता है। इस प्रकार उन लेखकों ने मानवीय उद्गम (Normative Approach) का सहारा लिया।

मानवीय उद्गम का अर्थ यह है कि पहले मस्तिष्क में किसी विशेष आदर्श की कल्पना कर ली जाती है और फिर उस कल्पना को व्यावहारिक रूप देने के लिए सिद्धांत का निर्माण किया जाता है। इस अध्ययन पद्धति को अपनाने वाले लेखकों में प्लेटो, हॉब्स, रूसो, थाटे तथा हीगल आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों ने मनघड़त अथवा काल्पनिक आदर्शों के आधार पर आदर्श राज्य की रचना का प्रयास किया।

प्लेटो ने दार्शनिक राजा (Philosopher King) तथा रूसो ने सामान्य इच्छा (General Will) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। रूसो के अनुसार सामान्य इच्छा कभी असत्य व भ्रांत नहीं हो सकती और वही शासन अच्छा होगा जो सामान्य इच्छा के अनुसार चलाया जाएगा। हीगल (Hegal) ने लिखा है कि पूर्ण विकसित राज्य राजतंत्र हो सकता है। सम्राट राज्य की एकता का प्रतीक है।

परंतु कुछ परंपरागत लेखक ऐसे भी हैं जिन्होंने मानवीय उद्गम के साथ-साथ आनुभाविक उद्गम (Empirical Approach) को भी अपनाया। उन्होंने तथ्यों तथा आंकड़ों का संकलन करके उनका विधिवत् विश्लेषण किया। उदाहरणस्वरूप अरस्तू ने अपने काल के 158 नगर-राज्यों के संविधानों का अध्ययन किया और फिर उसने अपने आदर्श राज्य की कल्पना की। इसी प्रकार मार्क्स के विचारों में भी मानवीय तथा आनुभाविक, दोनों पद्धतियों का मिला-जुला रूप मिलता है।

5. मुख्यतः कानूनी, औपचारिक तथा संस्थागत अध्ययन (Primarily Legal, Formal and Institutional Studies) परंपरागत अध्ययन मुख्यतः विधि तथा संविधान द्वारा निर्मित औपचारिक संस्थाओं से संबंधित था। उस काल के लेखकों ने इस बात का प्रयास नहीं किया कि संस्था के औपचारिक रूप से बाहर जाकर उसके व्यवहार का अध्ययन किया जाए, जिससे उसके विशिष्ट व्यवहार का परीक्षण किया जा सके।

उदाहरणस्वरूप डायसी (Diecy), जेनिंग्स (Jennings), लास्की (Laski) तथा मुनरो (Munro) आदि विद्वानों ने अपने अध्ययनों में संस्थाओं के कानूनी व औपचारिक रूप का ही अध्ययन किया। इस प्रकार परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत दार्शनिक, आदर्शवादी तथा इतिहासवादी था। प्रश्न 5. राजनीति सिद्धांत के कार्यक्षेत्र या विषय-वस्तु का वर्णन करो।
उत्तर:
आज के युग में मनुष्य के जीवन का कोई भी भाग ऐसा नहीं है जो राजनीति से अछूता रह सके। उदारवादियों ने राज्य तथा राजनीति का संबंध केवल सरकार तथा नागरिकों तक ही सीमित रखा जबकि मार्क्सवादियों ने उत्पादन के सभी साधनों पर राज्य का स्वामित्व माना है। आज के नारीवादी लेखक (Feminist Writers) पारिवारिक तथा घरेलू मामलों में भी राज्य के हस्तक्षेप का समर्थन करते हैं।

इस प्रकार अब राजनीति विज्ञान का क्षेत्र बहुत ही व्यापक हो गया है। राजनीतिक सिद्धांतशास्त्रियों को अब बहुत से विषयों के बारे में सिद्धांतों का निर्माण करना पड़ता है। आजकल मुख्य रूप से निम्नलिखित विषयों को राजनीतिक सिद्धांत के कार्यक्षेत्र में शामिल किया जाता है

1. राज्य का अध्ययन (Study of State):
प्राचीनकाल से ही राज्य की उत्पत्ति, प्रकृति तथा कार्य-क्षेत्र के बारे में विचार होता रहा है कि राज्य की उत्पत्ति कैसे हुई, उसका विकास कैसे हुआ तथा नगर-राज्य के समय से लेकर वर्तमान राष्ट्रीय राज्य के रूप में पहुंचने तक इसके स्वरूप का कैसा विकास हुआ आदि। इसके अतिरिक्त मनुष्य के राज्य संबंधी विचारों में भी लगातार परिवर्तन होता आया है।

प्राचीनकाल में लोग राजा की आज्ञा को ईश्वर की आज्ञा मानते थे और उसका विरोध करना पाप समझा जाता था। परंतु वर्तमान काल में राजनीति शास्त्रियों के अनुसार राज्य की सत्ता का अंतिम स्रोत जनता है और राज्य को जनता की भलाई के लिए ही कार्य करना होता है। इस प्रकार हम राज्य के स्वरूप, उद्देश्यों तथा कार्यक्षेत्र के बारे में अध्ययन करते हैं।

2. सरकार का अध्ययन (Study of the Government):
सरकार ही राज्य का वह तत्त्व है जिसके द्वारा राज्य की अभिव्यक्ति होती है। अतः सरकार भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। सरकार के तीन अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका-माने गए हैं। इन तीनों अंगों का संगठन, इनके अधिकार, इनके आपस में संबंध तथा इन तीनों से संबंधित भिन्न-भिन्न सिद्धांतों का अध्ययन भी हम करते हैं।

जिस प्रकार राज्य के ऐतिहासिक स्वरूप का हमें अध्ययन करना होता है, ठीक उसी प्रकार हमें सरकार के स्वरूप का भी अध्ययन करना होता है जैसे एक समय था, जब दरबारियों की सरकारें हुआ करती थीं, अब वह समय है, जब सरकारें जनता के प्रतिनिधियों की होती हैं। अतः राजनीतिशास्त्र में सरकार के अंग, उसके प्रकार तथा उसके संगठन आदि का भी अध्ययन किया जाता है।

3. नीति-निर्माण प्रक्रिया (Policy-making Process):
आधुनिक विद्वानों के अनुसार नीति-निर्माण प्रक्रिया भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में अध्ययन की जानी चाहिए। इस विषय में उन सब साधनों का अध्ययन होना चाहिए जो कि शासकीय नीति निश्चित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं। इस दृष्टि से राजनीतिशास्त्र में विधानपालिका तथा कार्यपालिका के शासन-संबंधी कार्यों, मतदाताओं, राजनीतिक दलों, उनके संगठनों तथा उनको प्रभावित करने वाले ढंगों का अध्ययन किया जाता है।

राज्य की अनेक संस्थाएं क्या नीतियां अपनाएं, उन नीतियों को किस प्रकार लागू किया जाए, यह भी राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन का एक मुख्य विषय है। सिद्धांतशास्त्रियों ने राजनीतिक दलों की न केवल परिभाषाएं दी हैं, बल्कि उनकी संरचना, कार्यों तथा उनके रूपों के बारे में भी लिखा है।

प्रायः तीन प्रकार की दल-प्रणालियों की चर्चा की जाती है-एकदलीय पद्धति, द्विदलीय पद्धति तथा बहुदलीय पद्धति। इसी प्रकार मतदान तथा प्रतिनिधित्व के विषय में भी कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। कुछ वर्ष पहले तक महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखा गया था और इसके पक्ष में अनेक दलीलें दी जाती थीं परंतु अंत में व्यस्क मताधिकार के सिद्धांत की विजय हुई। इस प्रणाली के अंतर्गत केवल कुछ लोगों (पागल, दिवालिये तथा अपराधियों) को छोड़कर अन्य सभी नागरिकों को एक निश्चित आयु प्राप्त करने पर मतदान का अधिकार दे दिया जाता है।

4. शक्ति का अध्ययन (Study of Power):
वर्तमान समय में शक्ति के अध्ययन को भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में शामिल किया जाता है। शक्ति के कई स्वरूप हैं, जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक शक्ति, व्यक्तिगत शक्ति, राष्ट्रीय शक्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति इत्यादि। राजनीतिक सिद्धांतकार शक्ति के इन विभिन्न रूपों के पारस्परिक संबंधों को देखता है और यह जानना चाहता है कि मानव समाज में किसको क्या मिलता है, कैसे मिलता है और क्यों मिलता है। परंतु शक्ति के अध्ययन में प्रमुख स्थान राजनीतिक शक्ति को दिया जाता है और राजनीतिक सिद्धांतकार इसी को महत्त्व देते हैं।

5. व्यक्ति तथा राज्य के संबंधों का अध्ययन (Study of Individual’s Relations with State):
व्यक्ति और राज्य का क्या संबंध हो, इस विषय पर राजनीतिक सिद्धांत के विद्वानों ने अपने-अपने मत दिए। प्राचीनकाल से लेकर अब तक इस विषय पर अनेक विरोधी विचार आए हैं। 18वीं सदी में व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अत्यधिक बल दिया गया तथा राज्य के अधिकारों को सीमित करने का समर्थन किया गया। आदर्शवादियों के विचारों में काफी मतभेद रहा है।

वर्तमान लोकतंत्रीय व्यवस्था ने मौलिक अधिकारों पर बहुत जोर दिया है, ताकि व्यक्ति का पूर्ण विकास हो सके। संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से आरंभ होकर अब तक जितने भी संविधान बने हैं उनमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है। यहाँ तक कि साम्यवादी राज्यों में भी नागरिकों को मौलिक अधिकर दिए गए हैं भले ही उनकी रक्षा की उचित व्यवस्था न की गई हो।

आज जबकि भिन्न-भिन्न विचारधाराओं को अपनाने वाले देश अपने राज्यों में ‘कल्याणकारी राज्य’ के सिद्धांतों को अपना रहे हैं जिनके अनुसार राज्य नागरिकों के जीवन के सभी क्षेत्रों-राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, साहित्यिक आदि में हस्तक्षेप कर सकता है। यह प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण बना हुआ है कि इस परिस्थिति में नागरिकों के अधिकारों को किस हद तक सुरक्षित किया जाए।

भारत में जहाँ आर्थिक व्यवस्था एक निश्चित योजना के अनुसार चलाई जा रही है, वहाँ भी यह प्रश्न गंभीर है कि कहीं इससे राज्य नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण न कर दे। अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्ति तथा राज्य के आपसी संबंध राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के महत्त्वपूर्ण विषय हैं।

6. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन (Study of International Relations):
आवागमन के विकास के कारण आज का संसार एक लघु संसार बन गया है जिसके कारण भिन्न-भिन्न राज्यों में आपसी संबंध होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि आज हमें राजनीतिक सिद्धांत में अंतर्राष्ट्रीय कानून तथा भिन्न-भिन्न अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nations Organization) आदि का अध्ययन भी राजनीतिक क्षेत्र में आता है।

7. शक्ति सिद्धांत तथा क्षेत्रीय संगठन जैसे यूरोपियन समुदाय तथा दक्षेस का अध्ययन (Study of the concept of Power and Regional Organization like SAARC and European Community):
राजनीतिशास्त्र के आधुनिक विद्वानों ने शक्ति को इस शास्त्र का मुख्य विषय माना है। उनके अनुसार राजनीति में जो कुछ होता है वह सब इसी शक्ति-संघर्ष के कारण होता है। कैटलीन ने भी राजनीति को संघर्ष पर आधारित माना है। उसके अनुसार जहाँ कहीं भी राजनीति है, वहाँ शक्ति का होना स्वाभाविक है। इसी विचारधारा का समर्थन लासवैल ने भी किया है।

इन विद्वानों के अनुसार शक्ति के कई रूप; जैसे सत्ता, प्रभाव, बल, अनुनय, दमन या दबाव भी हो सकते हैं जो परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। राज्य और राजनीतिक संस्थाओं द्वारा शक्ति और उसके विभिन्न रूपों का प्रयोग किया जाता है परंतु इसके साथ-साथ राजनीति में सहयोग का भी प्रमुख स्थान है।

8. स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के आदर्शों की समीक्षा (Review of the ideals of Liberty, Equality and Justice):
प्राचीनकाल से लेकर अब तक ऐसे अनेक राजनीतिक विचारक हुए हैं जो बहुत-सी विचारधाराओं–व्यक्तिवाद, आदर्शवाद, मार्क्सवाद, समाजवाद, उपयोगितावाद तथा गांधीवाद आदि के साथ जुड़े हुए हैं। इन सभी विचारधाराओं का लक्ष्य एक ऐसे समाज की स्थापना करना था जिसमें स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के सिद्धांत को समर्थन प्राप्त हो।

उदारवादियों ने राजनीतिक स्वतंत्रता तथा नागरिकों के अधिकारों के लिए जो संघर्ष किया उसका समर्थन कार्ल मार्क्स द्वारा भी किया गया। यद्यपि उन्होंने इस बात पर बल दिया कि वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना तभी होगी जब समाज से वर्ग-भेद दूर हो जाएंगे। महात्मा गांधी ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें सत्ता का अधिक से अधिक विकेंद्रीकरण होगा। यह विकेंद्रीकरण न केवल राजनीतिक तथा प्रशासनिक क्षेत्रों में बल्कि आर्थिक क्षेत्रों में भी होगा। ऐसी व्यवस्था में प्रशासन, उत्पादन तथा वितरण की मूल इकाई ‘ग्राम’ (Village) होगा। इसे उन्होंने ग्राम स्वराज्य का नाम दिया।

9. नारीवाद (Feminism):
इसमें कोई संदेह नहीं है कि पारिवारिक मामलों में केवल एक सीमा तक ही सरकार द्वारा हस्तक्षेप किया जा सकता है परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार इस ओर कोई भी ध्यान न दे। अनेक देशों में स्त्रियों की दशा को लए आंदोलन हो रहे हैं परंतु व्यक्तिवादी तथा मार्क्सवादी विचारकों ने एक लंबे अर्से तक नारी-उत्पीड़न के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठाई।

सन् 1970 के दशक में स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए बहुत गंभीर प्रयत्न किए गए और अनेक लेखकों ने इस बात पर विचार प्रकट किया है कि सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक सभी क्षेत्रों में उनकी स्थिति कैसे सुनिश्चित की जाए।

भारत में सती-प्रथा, बाल-विवाह तथा देवदासी प्रथा के विरुद्ध लड़ाई लड़ी गई और राज्य द्वारा इनके विरुद्ध कानून पास करके ही इन्हें समाप्त किया गया। अब भारत में सभी स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए 1/3 स्थान सुरक्षित करने की व्यवस्था की गई है और संसद तथा राज्य विधानमंडलों में भी उनके लिए स्थान सुरक्षित रखने से संबंधित बिल विचाराधीन है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

10. मानव व्यवहार का अध्ययन (Study of Human Behaviour):
राजनीति के आधुनिक विद्वानों ने राजनीतिक व्यवहार को राजनीतिशास्त्र का मुख्य विषय माना है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि राजनीतिक क्षेत्र में व्यक्ति जो कुछ करता है उसके पीछे जो प्रेरणाएं कार्य करती हैं उनका अध्ययन राजनीतिक सिद्धांत में होना चाहिए। इस प्रकार राजनीति मनुष्य व्यवहार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

मनुष्य समाज में रहते हुए जो कुछ क्रिया-कलाप करता है वे सभी क्रिया-कलाप राजनीतिक सिद्धांत के अंतर्गत आने चाहिएं। इन आधुनिक विद्वानों, जो व्यवहारवादी दृष्टिकोण से राजनीतिक सिद्धांत के विषय का अध्ययन करते हैं, की मान्यताएं हैं कि मनुष्य भावनाओं का समूह होता है, उसकी अपनी प्रवृत्तियां और इच्छाएँ होती हैं जिनके अनुसार उसका राजनीतिक व्यवहार नियंत्रित होता है।

इसलिए ये आधुनिक विद्वान् व्यक्ति या व्यक्ति-समूहों के राजनीतिक व्यवहार को बहुत महत्व देते हैं और राजनीतिक संस्थाओं को बहुत कम। मनुष्य के व्यवहार का वैज्ञानिक रीति से अध्ययन करके उसकी कमियों को दूर करने के उपाय बतलाए जा सकते हैं जिससे कि भविष्य में ऐसी गलतियां न हों।

11. विकास, आधुनिकीकरण और पर्यावरण की समस्याएँ (Problems of Development, Modernization and Environment):
समाजशास्त्र के बढ़ते प्रभाव के कारण राजनीतिक सिद्धांत में कुछ नवीन अवधारणाओं को भी अपनाया गया है जिसमें समाजीकरण, विकास, गरीबी, असमानता तथा आधुनिकीकरण आदि शामिल हैं। विकासशील देशों के राजनीतिक विकास के संबंध में लिखने वाले लेखकों में जी० आमण्ड (G. Almond) तथा डेविड एप्टर (David Apter) हैं।

माईरन वीनर (Myren Wenir) तथा रजनी कोठारी (Rajni Kothari) ने भारत के सामाजिक एवं राजनीतिक विकास का क्रमबद्ध अध्ययन किया जिससे जातिवाद, संप्रदायवाद तथा दलित राजनीति अब भारतीय राजनीति के मुख्य केंद्र-बिंदु बन गए हैं।

पिछले कई वर्षों से पर्यावरण संबंधी समस्याएं भी मनुष्य जाति के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरकर सामने आई हैं। पर्यावरण संरक्षण के अनेक उपाय सुझाए जाते हैं; जैसे जनसंख्या नियंत्रण, वन सर्वेक्षण तथा औद्योगिक विकास के लिए साफ-सुथरे वातावरण की आवश्यकता आदि।
इस प्रकार हम देखते हैं कि राजनीतिक सिद्धांत का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है और यह दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है।

प्रश्न 6.
राजनीति सिद्धांत के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के समक्ष आने वाली सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं का समाधान ढूंढना है। यह मनुष्य के सामने आई कठिनाइयों की व्याख्या करता है तथा सुझाव देता है ताकि मनुष्य अपना जीवन अच्छी प्रकार व्यतीत कर सके। राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के महत्त्व (उद्देश्य) को निम्नलिखित तथ्यों से प्रकट किया जा सकता है

1. भविष्य की योजना संभव बनाता है (Makes Future Planning Possible):
राजनीतिक सिद्धांत सामान्यीकरण (Generalization) पर आधारित है, अतः यह वैज्ञानिक होता है। इसी सामान्यीकरण के आधार पर वह राजनीति विज्ञान को तथा राजनीतिक व्यवहार को भी एक विज्ञान बनाने का प्रयास करता है। वह उसके लिए नए-नए क्षेत्र ढूंढता है और नई परिस्थितियों में समस्याओं के निदान के लिए नए-नए सिद्धांतों का निर्माण करता है।

ये सिद्धांत न केवल तत्कालीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं बल्कि भविष्य की परिस्थितियों का भी आंकलन करते हैं। वे कुछ सीमा तक भविष्यवाणी भी कर सकते हैं। इस प्रकार देश व समाज के हितों को ध्यान में रखकर भविष्य की योजना बनाना संभव होता है।

2. वास्तविकता को समझने का साधन (Source to Know the Truth):
राजनीतिक सिद्धांत हमें राजनीतिक वास्तविकताओं मझने में सहायता प्रदान करता है। सिद्धांतशास्त्री सिद्धांत का निर्माण करने से पहले समाज में विद्यमान सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों का तथा समाज की इच्छाओं, आकांक्षाओं व प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है तथा उन्हें उजागर करता है।

वह अध्ययन तथ्यों तथा घटनाओं का विश्लेषण करके समाज में प्रचलित कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों को उजागर करता है। वास्तविकता को जानने के पश्चात ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। अतः यह हमें शक की स्थिति से बाहर निकाल देता है।

3. अवधारणा के निर्माण की प्रक्रिया संभव (Process of the Concept of Construction Possible):
राजनीतिक सिद्धांत विभिन्न विचारों का संग्रह है। यह किसी राजनीतिक घटना को लेकर उस पर विभिन्न विचारों को इकट्ठा करता है तथा उनका विश्लेषण करता है। जब कोई निष्कर्ष निकल आता है तो उसकी तुलना की जाती है। उन विचारों की परख की जाती है तथा अंत में एक धारणा बना ली जाती है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है जो नए संकलित तथ्यों को पुनः नए सिद्धांत में बदल देती है।

4. समस्याओं के समाधान में सहायक (Useful in Solving Problems):
राजनीतिक सिद्धांत का प्रयोग शांति, विकास, अभाव तथा अन्य सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं के लिए भी किया जाता है। राष्ट्रवाद, प्रभुसत्ता, जातिवाद तथा युद्ध जैसी गंभीर समस्याओं को सिद्धांत के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है। सिद्धांत समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रशस्त करते हैं और निदानों (Solutions) को बल प्रदान करते हैं। बिना सिद्धांत के जटिल समस्याओं को सुलझाना संभव नहीं होता।

5. सरकार (शासन) को औचित्य प्रदान करता है (Provides legitimacy to the Government):
कोई भी सरकार (शासन) केवल दमन तथा आतंक के आधार पर अधिक समय तक नहीं चल सकती। उसका ‘वैधीकरण’ आवश्यक होता है। जनता के मन में यह विश्वास बिठाना आवश्यक होता है कि अमुक व्यक्ति अथवा दल को देश पर शासन करने का कानूनी अधिकार प्राप्त है। जब भी कोई शासक शासन पर अधिकार करता है और शासन के स्वरूप को बदलता है तब वह उसके औचित्य को सिद्ध करने के लिए किसी सिद्धांत का सहारा लेता है।

हिटलर तथा मुसोलिनी जैसे व्यक्तियों ने भी अपनी तानाशाही स्थापित करने के लिए क्रमशः नाजीवाद (Nazism) तथा फासीवाद (Fascism) जैसी विचारधाराओं का सहारा लिया। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद तथा विशिष्ट वर्गीय शासन की स्थापना के लिए भी सिद्धांत ही औचित्य प्रदान करते हैं। अपनी विचारधाराओं का जनता में प्रचार करके वे जनता का समर्थन प्राप्त करने तथा लोगों का विश्वास जीतने में सफल होते हैं। इससे उनका वैधीकरण हो जाता है।

6. अनुगामियों का मार्गदर्शन (Guidance to Followers):
सिद्धांतशास्त्री विभिन्न सिद्धांतों का निर्माण करके अपने अनुगामियों तथा समर्थकों व शिष्यों का मार्गदर्शन करते हैं तथा उनमें आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न करते हैं। हिन्दू चिंतन की लंबी परंपरा में अनेक ऋषियों ने अपने संपूर्ण जीवन को लगाकर विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे सार्वकालिक सिद्धांतों की रचना की जो हजारों वर्षों के पश्चात भी उनके अनुयायियों तथा समर्थकों का मार्गदर्शन कर रहे हैं और वे बड़े आत्मविश्वास के साथ इन सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं।

मार्क्स (Marx) तथा एंगेल्स (Engles) ने जिस साम्यवादी विचारधारा का प्रतिपादन किया और जिस सिद्धांत की रचना की उसने उनके समर्थकों में बहुत विश्वास उत्पन्न किया था।

7. सिद्धांत राजनीतिक आंदोलन के प्रेरणा स्रोत बनते हैं (Theories become inspiration behind many Political Movements):
सिद्धांत राजनीतिक आंदोलनों को प्रभावित करते हैं। लेनिन (Lenin) जो राजनीतिक आंदोलन के लिए सिद्धांत के महत्व को समझते थे, ने सन् 1902 में कहा था, “एक विकसित या प्रगतिशील सिद्धांत के बिना कोई दल किसी संघर्ष का नेतृत्व नहीं कर सकता।” लेनिन (Lenin) ने यह बात बार-बार कही, “क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना क्रांतिकारी आंदोलन संभव नहीं है।”

भारत में गांधी जी द्वारा चलाए गए राष्ट्रीय आंदोलन के पीछे देशवासियों का समर्थन उस विचारधारा के कारण था जो .. सत्य तथा अहिंसा के आधार पर आधारित था। इस प्रकार प्लेटो, अरस्तू, चाणक्य, लॉक, माण्टेस्क्यू, गांधी, मार्क्स तथा एगेल्स जैसे . विचारकों की कृतियों में उस समय की परिस्थितियों के संबंध में जो प्रश्न उन्होंने उठाए, उनका आज भी महत्व है। 20वीं शताब्दी में इस कार्य के लिए ग्राहम वालास, लास्की, मैकाइवर, चार्ल्स मैरियम, रॉबर्ट डहल, डेविड ईस्टन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

8. सामाजिक परिवर्तन को समझने में सहायक (Helpful in understanding the Social Change):
मानव समाज एक गतिशील संस्था है जिसमें दिन-प्रतिदिन परिवर्तन होते रहते हैं। ये परिवर्तन समाज के राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक जीवन पर कुछ न कुछ प्रभाव डालते हैं। ऐसे परिवर्तनों के विभिन्न पक्षों तथा उनके द्वारा उत्पन्न हुए प्रभावों को समझने के लिए राजनीतिक सिद्धांत सहायक सिद्ध होता है।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिन देशों में स्थापित सामाजिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध क्रांतियां हुईं अथवा विद्रोह हुए उनका मुख्य कारण यह था कि स्थापित सामाजिक व्यवस्थाएं (Established Social Order) नई उत्पन्न परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थीं। फ्रांस की सन् 1789 की क्रांति का उदाहरण हमारे सामने है।

कार्ल मार्क्स ने राजनीतिक सिद्धांत को एक विचारधारा (Ideology) का ही रूप माना है और उसका विचार था कि जब नई सामाजिक व्यवस्था (वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज) की स्थापना हो जाएगी तो फिर सिद्धांतीकरण की आवश्यकता नहीं रहेगी। मार्क्स ने एक विशेष विचारधारा और कार्यक्रम के आधार पर वर्गविहीन और राज्यविहीन समाज की कल्पना की थी।

उसका यह विचार ठीक नहीं है कि ऐसा समाज स्थापित हो जाने के पश्चात सिद्धांतीकरण (Theorising) की आवश्यकता नहीं रहेगी। वास्तव में, सभ्यता के निरंतर हो रहे विकास के कारण जैसे-जैसे मानव-समाज का अधिक विकास होगा वैसे-वैसे सामाजिक परिवर्तन को समझने तथा उसकी व्याख्या करने के लिए राजनीतिक सिद्धांत की आवश्यकता महसूस होगी।

9. स्पष्टता प्राप्त करना (Acquiring Clarity):
राजनीतिक सिद्धांत वैचारिक तथा विश्लेषणात्मक स्पष्टता (Conceptual and Analytical) प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण सहायता करते हैं। राजनीतिक विचारों का यह कर्त्तव्य है कि लोकतंत्र, कानून, स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय आदि मूल्यों की रक्षा करें। इसके लिए राजनीतिक सिद्धांत का ज्ञान होना अति आवश्यक है क्योंकि इससे हमें इन राजनीतिक अवधारणाओं का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त होता है। ये स्पष्टतया विश्लेषणात्मक अध्ययन से प्राप्त होती हैं।

10. राजनीतिक सिद्धांत की राजनीतिज्ञों, नागरिकों तथा प्रशासकों के लिए उपयोगिता (Utility of Political Theory for Politicians, Citizens and Administrators) राजनीतिक सिद्धांत के द्वारा वास्तविक राजनीति के अनेक स्वरूपों का शीघ्र ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिस कारण वे अपने सही निर्णय ले सकते हैं।

डॉ० श्यामलाल वर्मा ने लिखा है, “उनका यह कहना केवल ढोंग या अहंकार है कि उन्हें राज सिद्धांत की कोई आवश्यकता नहीं है या उसके बिना ही अपना कार्य कुशलतापूर्वक कर रहे हैं अथवा कर सकते हैं। वास्तविक बात यह है कि ऐसा करते हुए भी वे किसी न किसी प्रकार के राज-सिद्धांत को काम में लेते हैं।” इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजनीतिक विज्ञान के सम्पूर्ण ढांचे का भविष्य राजनीतिक सिद्धांत के निर्माण पर ही निर्भर करता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. निम्नलिखित में से किस विद्वान को प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक कहा जाता है ?
(A) प्लेटो
(B) सुकरात
(C) अरस्तू
(D) कार्ल मार्क्स
उत्तर:
(C) अरस्तू

2. राजनीति की प्रकृति संबंधी यूनानी दृष्टिकोण की विशेषता निम्न में से नहीं है
(A) राज्य एक नैतिक संस्था है
(B) राज्य एवं समाज में अंतर नहीं
(C) राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है।
(D) नगर-राज्यों से संबंधित अध्ययन पर बल
उत्तर:
(C) राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है

3. निम्नलिखित में से राजनीति संबंधी परंपरागत दृष्टिकोण के समर्थक हैं
(A) प्लेटो
(B) हॉब्स
(C) रूसो
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

4. राजनीति संबंधी परंपरावादी दृष्टिकोण की विशेषता निम्नलिखित में से है
(A) दार्शनिक एवं विचारात्मक पद्धति में विश्वास
(B) नैतिकवाद एवं अध्यात्मवाद में विश्वास
(C) राजनीति शास्त्र को विज्ञान के रूप में स्वीकार करना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. राजनीति संबंधी आधुनिक दृष्टिकोण की विशेषता निम्नलिखित में से नहीं है
(A) राजनीति शक्ति का अध्ययन है
(B) राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है
(C) राजनीति केवल राज्य एवं सरकार का अध्ययन
(D) राजनीति समूची राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण है मात्र है
उत्तर:
(C) राजनीति केवल राज्य एवं सरकार का अध्ययन

6. मात्र है “राजनीति शास्त्र शासन के तत्त्वों का अनुसंधान उसी प्रकार करता है जैसे अर्थशास्त्र संपत्ति का जीवशास्त्र जीवन का, बीजगणित अंकों का तथा ज्यामिति-शास्त्र स्थान तथा ऊंचाई का करता है।” यह कथन निम्नलिखित में से किस विद्वान का है?
(A) गार्नर
(B) लाई एक्टन
(C) गैटेल
(D) सीले
उत्तर:
(D) सीले

7. निम्नलिखित में से परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत का लक्षण है
(A) यह मुख्यतः वर्णनात्मक अध्ययन है
(B) यह मुख्यतः आदर्शात्मक अध्ययन है
(C) यह मुख्यतः कानूनी, औपचारिक एवं संस्थागत अध्ययन है
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. निम्नलिखित में से आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत का लक्षण नहीं है
(A) विश्लेषणात्मक अध्ययन
(B) आनुभाविक अध्ययन
(C) अनौपचारिक कारकों का अध्ययन
(D) वर्णनात्मक अध्ययन पर बल
उत्तर:
(D) वर्णनात्मक अध्ययन पर बल

9. राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में निम्नलिखित में से सम्मिलित है
(A) शक्ति का अध्ययन
(B) राज्य एवं सरकार का अध्ययन
(C) मानव व्यवहार का अध्ययन
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

10. राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में निम्नलिखित में से सम्मिलित नहीं है
(A) राज्य एवं व्यक्तियों के संबंधों का अध्ययन
(B) नारीवाद का अध्ययन
(C) विदेशी संविधानों का अध्ययन
(D) अंतर्राष्ट्रीय संबंधों एवं संगठनों का अध्ययन
उत्तर:
(C) विदेशी संविधानों का अध्ययन

11. राजनीतिक सिद्धांत का महत्त्व निम्न में से है
(A) यह राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने में सहायक है
(B) यह सामाजिक परिवर्तन को समझने में सहायक है
(C) यह सरकार को औचित्यपूर्णता प्रदान करने में सहायक है
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. ‘पॉलिटिक्स’ नामक ग्रंथ के रचयिता कौन हैं?
उत्तर:
अरस्तू।

2. “राजनीति शास्त्र का प्रारंभ तथा अंत राज्य के साथ होता है।” यह कथन किस विद्वान का है?
उत्तर:
गार्नर का।

3. राजनीति शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के किस शब्द से हुई है?
उत्तर:
पोलिस (Polis) शब्द से।

4. थ्योरी (Theory) शब्द की उत्पत्ति थ्योरिया (Theoria) शब्द से हुई है। यह शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर:
ग्रीक भाषा से।

5. “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव समाज अपनी समस्याओं का समाधान करता है।” यह कथन किसने कहा?
उत्तर:
हरबर्ट जे० स्पाइरो ने।

रिक्त स्थान भरें

1. “राजनीतिक सिद्धांत एक प्रकार का जाल है जिससे संसार को पकड़ा जा सकता है, ताकि उसे समझा जा सके। यह एक अनुभवपूरक व्यवस्था के प्रारूप की अपने मन की आँख पर बताई गई रचना है।” यह कथन ………… विद्वान का है।
उत्तर:
कार्ल पॉपर

2. “समस्त राजनीति स्वभाव से शक्ति-संघर्ष है।” यह कथन ……………. ने कहा।
उत्तर:
केटलिन

3. “राजनीति का संबंध मूल्यों के अधिकारिक आबंटन से है।” यह कथन ……………. ने कहा।
उत्तर:
डेविड ईस्टन।

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