Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता Important Questions and Answers.
Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता
अति लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
धर्मनिरपेक्षता का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
धर्म-निरपेक्ष शब्द अंग्रेज़ी भाषा के सेक्युलर (Secular) शब्द का हिन्दी पर्याय है। सेक्युलर शब्द लेटिन भाषा के सरकुलम (Surculum) शब्द से बना है। लेटिन भाषा से उदित इस शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘साँसारिक’ अर्थात् राजनीतिक गतिविधियों को केवल लौकिक क्षेत्र तक सीमित रखना है।
प्रश्न 2.
धर्मनिरपेक्ष राज्य की कोई एक परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
श्री वैंकटरमन के अनुसार, “एक धर्मनिरपेक्ष राज्य न तो धार्मिक, न ही अधार्मिक और न ही धर्म विरोधी होता है। वह धार्मिक कार्यों तथा सिद्धान्तों से पूर्णतः अलग है और इस प्रकार धार्मिक विषयों में पूर्ण रूप से निष्पक्ष रहता है।”
प्रश्न 3.
धर्मनिरपेक्षता के नकारात्मक रूप से क्या तात्पर्य है? ।
उत्तर:
नकारात्मक धर्मनिरपेक्षता के अन्तर्गत राज्य धार्मिक विषयों में पूर्ण तटस्थता की नीति पर चलता है। वह किसी विशेष धर्म को नहीं अपनाता और न ही धर्म-प्रचार के कार्यों तथा धार्मिक संस्थाओं के विकास सम्बन्धी विषयों में भाग लेता। राज्य की नीतियों का निर्माण या कार्यान्वयन भी धार्मिक आधार पर नहीं किया जाता और न ही सार्वजनिक पदों का आधार धर्म होता है।
प्रश्न 4.
धर्मनिरपेक्षता के सकारात्मक रूप से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता के अन्तर्गत राज्य समस्त नागरिकों को धार्मिक विश्वास की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी संस्थाएँ स्थापित करने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। सभी धर्मावलम्बियों को सार्वजनिक पदों की प्राप्ति हेतु समान अवसर प्रदान करता है।
प्रश्न 5.
धर्मनिरपेक्ष राज्य की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होता।
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य, राज्य के सभी धर्मों का बराबर सम्मान करता है।
प्रश्न 6.
धर्मनिरपेक्ष राज्य सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु किस प्रकार माना जाता है?
उत्तर:
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य जहाँ प्रत्येक धर्म के अनुयायी को स्वतन्त्रता प्रदान करता है, वहाँ यह भी स्पष्ट करता है कि प्रत्येक धर्म के अनुयायी द्वारा यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि एकमात्र हमारा धर्म ही सत्य का प्रतिपादन करता है, क्योंकि सभी धर्म आधारभूत रूप में एक ही हैं। इसलिए हमें सभी धर्मों का बराबर सम्मान करना चाहिए।
प्रश्न 7.
आधुनिक समय में हमारे लिए पथ-निरपेक्ष राज्य कैसे सहायक है? कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:
- प्रत्येक देश में पाए जाने वाले अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा प्रदान करने में धर्म-निरपेक्ष राज्य सहायक सिद्ध होता है।
- एक धर्म-निरपेक्ष राज्य में साम्प्रदायिकता की समस्या को नियन्त्रित करना भी आसान हो जाता है, क्योंकि धर्म-निरपेक्ष राज्य सभी धर्मों के लोगों में एकरसता एवं सद्भाव की भावना को जागृत करता है।
प्रश्न 8.
धर्मनिरपेक्षता की अमेरिकी संकल्पना में राज्यसत्ता एवं धर्म की स्थिति क्या है?
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता की अमेरिकी संकल्पना में राज्यसत्ता एवं धर्म दोनों के क्षेत्र एवं सीमाएँ अलग-अलग हैं, जिसके अनुसार, राज्यसत्ता धर्म के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करेगी और धर्म राज्यसत्ता के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इस प्रकार अमेरिकी या यूरोपीय मॉडल धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानता है और इसे राज्यसत्ता की नीति या कानून का विषय नहीं मानता।
प्रश्न 9.
धर्मनिरपेक्षता की भारतीय संकल्पना में राज्यसत्ता एवं धर्म की स्थिति क्या है?
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता की भारतीय संकल्पना ने धार्मिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक अत्यन्त परिष्कृत नीति अपनाई है, जिसके अनुसार वह अमेरिकन या यूरोपीय मॉडल में धर्म से विलग भी हो सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है। वास्तव में भारतीय धर्मनिरपेक्षता का ऐसा चरित्र समाज में शान्ति, स्वतन्त्रता एवं समानता के मूल्यों को बढ़ावा देन की ही एक रणनीति का एक भाग है।
प्रश्न 10.
भारत में धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
- भारत में किसी धर्म को राज-धर्म की संज्ञा नहीं दी गई है।
- धर्मनिरपेक्षता भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का मूल सिद्धान्त बन गई है।
प्रश्न 11.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द कब जोड़ा गया?
उत्तर:
संविधान के 42वें संशोधन के द्वारा 1976 ई० में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को जोड़कर यह पूर्णतः स्पष्ट किया गया है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।
प्रश्न 12.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता के समक्ष उत्पन्न किन्हीं दो चुनौतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
- भारतीय समाज में उत्पन्न साम्प्रदायिकता ने भारतीय धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौती प्रस्तुत की है।
- संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों से युक्त राजनीतिक दलों एवं राजनीतिज्ञों ने भी लोगों में धार्मिक कट्टरता पैदा करके भारत के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे के समक्ष चुनौती उत्पन्न की है।
प्रश्न 13.
धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने और कब किया था?
उत्तर:
धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जॉर्ज जैकब होलियॉक ने सन् 1846 में किया था।
प्रश्न 14.
भारतीय संविधान सभा में धर्मनिरपेक्षता पर अपने विचार प्रकट करने वाले किन्हीं दो प्रमुख व्यक्तियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान सभा में प्रो० के०टी० शाह एवं श्री एल०एन० मिश्र ने धर्मनिरपेक्षता पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति बड़े प्रभावी रूप से की थी।
प्रश्न 15.
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के विपक्ष या आलोचना में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का आधार भौतिकवादी होने के कारण उसका नैतिक एवं अध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में मत-पंथ या धर्म की पूरी तरह उपेक्षा किए जाने से धार्मिक एकता का अभाव हो जाता है जिससे राष्ट्र की एकता’ पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
प्रश्न 16.
आधुनिक समय में धर्मनिरपेक्ष राज्य की आवश्यकता के पक्ष में कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:
(1) एक धर्मनिरपेक्ष राज्य धर्म को राजनीतिक जीवन से पृथक् करके उसे व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित रखता है जिसके फलस्वरूप राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में अनेक कुरीतियों पर स्वतः ही अंकुश लग जाता है।
(2) एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में सभी मत-पंथो के श्रेष्ठ नैतिक आदर्शों को पूर्णतः सम्मान मिलता है जिसके फलस्वरूप नागरिकों का नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास विशेष सामाजिक वातावरण का निर्माण होता है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का स्वरूप या व्यवहार विभिन्न धर्मों या धार्मिक समुदायों के सन्दर्भ में कैसा होना चाहिए? संक्षेप में लिखिए।
अथवा
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में राजसत्ता एवं धर्म के मध्य सम्बन्धों के स्वरूप का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वास्तव में धर्मनिरपेक्ष होने के लिए राज्यसत्ता को न केवल धर्मतान्त्रिक होने से इन्कार करना होगा, बल्कि उसे किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से भी परहेज करना होगा। धर्म और राज्यसत्ता के बीच सम्बन्ध विच्छेद धर्मनिरपेक्ष राज्यसत्ता के लिए जरूरी है, मगर केवल यही पर्याप्त नहीं है।
धर्मनिरपेक्ष राज्य को ऐसे सिद्धान्तों और लक्ष्यों के लिए अवश्य प्रतिबद्ध होना चाहिए जो अंशतः ही सही और गैर-धार्मिक स्रोतों से निकलते हों। ऐसे लक्ष्यों में शान्ति, धार्मिक स्वतन्त्रता, धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्जना से आजादी और साथ ही अन्तर-धार्मिक व अन्तः धार्मिक समानता शामिल रहनी चाहिए। अतः इन लक्ष्यों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य को संगठित धर्म और इसकी संस्थाओं से कुछ मूल्यों के लिए अवश्य ही पृथक् रहना चाहिए।
प्रश्न 2.
धर्मनिरपेक्ष राज्य की पश्चिमी या यूरोपीय संकल्पना को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। अथवा धर्म एवं राज्यसत्ता के सम्बन्ध में यूरोपीय मॉडल की अवधारणा को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी संकल्पना (अमेरिकी मॉडल) राज्यसत्ता और धर्म दोनों के क्षेत्र एवं सीमाएँ अलग-अलग मानती है और इस तरह दोनों के सम्बन्ध विच्छेद को पास्परिक निषेध के रूप में समझा जाता है। राज्यसत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी और इसी प्रकार धर्म राज्यसत्ता के मामलों से हस्तक्षेप नहीं करेगा। राज्यसत्ता की कोई नीति पूर्णतः धार्मिक तर्क के आधार पर नहीं बन सकती और कोई धार्मिक वर्गीकरण किसी सार्वजनिक नीति की बुनियाद नहीं बन सकता। अगर ऐसा हुआ तो वह राज्यसत्ता के मामले में धर्म की अवैध घुसपैठ मानी जाएगी।
इस प्रकार यूरोपीय मॉडल धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानता है और इसे राज्यसत्ता की नीति या कानून का विषय नहीं मानता। इस पश्चिमी संकल्पना में राज्य न तो किसी धार्मिक संस्था की सहायता करेगा और न ही किसी धार्मिक संस्था द्वारा संचालित शिक्षण संस्था की वित्तीय सहायता करेगा। जब तक धार्मिक समुदायों की गतिविधियाँ देश के कानून द्वारा निर्मित व्यापक सीमा के अन्दर होती हैं, वह इन गतिविधियों में व्यवधान नहीं पैदा कर सकता। जैसे कोई विशेष धर्म अपने मुख्य सदस्यों को मन्दिर के गर्भगृह में जाने से रोकता है, तो राज्य के पास मामले को बने रहने देने के लिए अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।
प्रश्न 3.
धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी भारतीय अवधारणा को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। अथवा भारतीय धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी दृष्टिकोण पश्चिमी दृष्टिकोण से कैसे भिन्न है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता केवल धर्म और राज्य के बीच सम्बन्ध विच्छेद पर ही बल नहीं देती है, बल्कि अन्तर-धार्मिक समानता भारतीय संकल्पना के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त अन्तःधार्मिक वर्चस्व पर भी अपना बराबर ध्यान केन्द्रित किया है।
इसने हिन्दुओं के अन्दर दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न और भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अन्दर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किए जा सकने वाले खतरों का समान रूप से विरोध किया है। इसके अतिरिक्त भारतीय धर्मनिरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक स्वतन्त्रता से ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक स्वतन्त्रता से भी है।
इसके अन्तर्गत हर आदमी को अपनी पसन्द का धर्म मानने का अधिकार तो है ही, इसके साथ-साथ धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी अपनी स्वयं की संस्कृति और शैक्षणिक संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार दिया गया है। इस प्रकार भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्पित धर्म-सुधार की गुंजाइश भी है। जैसे भारतीय संविधान ने जहाँ छुआछूत पर प्रतिबन्ध लगाया है, वहाँ बाल-विवाह उन्मूलन एवं अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म के द्वारा लगाए गए निषेध को समाप्त करने हेतु कई कानून बनाए गए हैं।
इस प्रकार भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने धार्मिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक अत्यन्त परिष्कृत नीति अपनाई है जिनके अनुरूप वह अमेरिकन या यूरोपीय मॉडल में धर्म से विलग भी हो सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है। वास्तव में भारतीय धर्मनिरपेक्षता का ऐसा चरित्र समाज में शान्ति, स्वतन्त्रता एवं समानता के मूल्यों को बढ़ावा देने की ही रणनीति का एक भाग है।
प्रश्न 4.
धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी नकारात्मक एवं स्वीकारात्मक दृष्टिकोण से आप क्या समझते हैं? अथवा धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी नकारात्मक एवं स्वीकारात्मक दृष्टिकोण में क्या अन्तर है?
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी नकारात्मक रूप से राज्य धार्मिक मामलों में पूर्ण तटस्थता की नीति पर चलता है। वह किसी धर्म-विशेष को नहीं अपनाता और किसी धर्म-विशेष के उत्थान या उसे निरुत्साहित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाता। वह धर्म-प्रचार के कार्यों या धार्मिक संस्थाओं के विकास सम्बन्धी मामलों में भाग नहीं लेता। राज्य की नीतियों का निर्माण या कार्यान्वयन धार्मिक आधार पर नहीं किया जाता। राज्य किसी धर्म के विकास हेतु कोई कर नहीं लगाता। सार्वजनिक सेवाओं व पदों पर नियुक्तियों में धर्म के आधार पर राज्य कोई भेदभाव नहीं करता।
स्वीकारात्मक रूप में राज्य सब नागरिकों को धार्मिक विश्वास की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी संस्थाएँ स्थापित करने की स्वतन्त्रता देता है। सभी धर्मावलम्बियों को सार्वजनिक पदों की प्राप्ति हेतु समान अवसर देता है। राजकीय अनुदान देने में सभी धर्मावलम्बियों द्वारा स्थापित संस्थाओं के साथ समान नीति बरतता है।
इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता के स्वीकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों पक्षों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य अधार्मिक या धर्म-विहीन नहीं है, बल्कि वह सब धर्मों की शिक्षाओं का सम्मान करता है, परन्तु राजनीतिक कार्य-कलापों में ऐसा कुछ नहीं करता जिससे किसी धर्म-विशेष के मानने वालों का अहित हो और किसी अन्य धर्म के मानने वालों का हित हो।
प्रश्न 5.
धर्मनिरपेक्षता की कोई चार परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
1. स्मिथ (Smith) के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष राज्य वह राज्य है जिसमें व्यक्तिगत अथवा सामूहिक धार्मिक स्वतन्त्रता होती है, जो व्यक्ति के साथ धर्म के विषयों में बिना किसी भेदभाव के नागरिक जैसा व्यवहार रखता है, जो सवैधानिक रूप से किसी को अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म से सम्बन्धित नहीं होता तथा न ही किसी धर्म में हस्तक्षेप अथवा उसे बढ़ाने का प्रयत्न करता है।”
2. श्री वेंकटरमन (Venkataraman) ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की परिभाषा देते हुए लिखा है, “एक धर्मनिरपेक्ष राज्य न तो धार्मिक, न ही अधार्मिक और न ही धर्म विरोधी होता है, वह धार्मिक कार्यों तथा सिद्धान्तों से पूर्णतः अलग है और इस प्रकार धार्मिक विषयों में पूर्ण रूप से निष्पक्ष रहता है।”
3. डॉ० बी०आर० अम्बेडकर (Dr. B.R. Ambedkar) के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष राज्य का अभिप्राय यह नहीं है कि लोगों की धार्मिक भावनाओं का ख्याल नहीं किया जाएगा। इसका अर्थ सिर्फ यह होगा कि संसद को जनता पर किसी विशेष धर्म को लादने की शक्ति नहीं होगी। संविधान द्वारा सिर्फ यही नियन्त्रण लगाया जाएगा।”
4. डॉ० के०आर० बम्बवाल (Dr. K.R. Bombwall) के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष प्रबन्ध में राज्य न धार्मिक होता है, न अधार्मिक और न ही धर्म के विरुद्ध होता है, अपितु धार्मिक विश्वासों और गतिविधियों से पूरी तरह अलग होता है और इस तरह धार्मिक मामलों में निष्पक्ष होता है।”
अतः उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य उस राज्य को कहते हैं जो किसी धर्म-विशेष पर आधारित न हो। ऐसे राज्य में सरकार के द्वारा सभी धर्मों को समान समझा जाता है और किसी एक धर्म को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता। कानून की दृष्टि से सभी नागरिक समान माने जाते हैं और धर्म के आधार पर नागरिकों में किसी प्रकार जाता। धर्मनिरपेक्ष राज्य में सभी धर्मों को मानने तथा उसका प्रचार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है।
प्रश्न 6.
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की कोई चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होता।
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है।
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य, राज्य के सभी धर्मों का बराबर सम्मान करता है।
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म के आधार पर किसी प्रकार के भेदभाव की मनाही होती है।
धर्मनिरपेक्षता के अर्थ, विशेषताओं पर प्रकाश डालने के बाद यहाँ पर यह स्पष्ट करना भी उपयुक्त होगा कि धर्मनिरपेक्षता का भारतीय स्वरूप होता है।
प्रश्न 7.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। अथवा क्या भारत सच्चे अर्थों में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार, ‘धर्मनिरपेक्ष’ (Secular) व्यक्ति वह है जो “केवल दुनियावी या लौकिक मामलों से सम्बन्ध रखता है, धार्मिक मामलों से नहीं”। साम्यवादी देशों में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ ‘धर्म-विरोधी प्रवृत्ति’ से लिया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में धर्म एवं राज्य दोनों को अलग-अलग रखने की नीति अपनाई गई है, जिसके अनुसार, राज्य धर्म के क्षेत्र में न हस्तक्षेप करेगा और न ही किसी तरह का सहयोग करेगा।
अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने एक निर्णय में कहा था, “हम लोग धर्म के विरुद्ध नहीं हैं, परन्तु राजकोष का पैसा धार्मिक प्रचार हेतु व्यय नहीं किया जा सकता।” भारतीय संविधान की विभिन्न व्यवस्थाओं से पता चलता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप के निम्नलिखित पहल हैं
(1) भारतीय संविधान ने भारत में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की व्यवस्था की है।
(2) राज्य व्यक्ति के धार्मिक विश्वास एवं क्रिया-कलापों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा, क्योंकि भारत में धर्म को एक व्यक्तिगत मामला माना गया है।
(3) भारतीय संविधान धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव की मनाही करता है, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद-14 ‘विधि के समक्ष समानता’ का अधिकार प्रदान करता है।
(4) संविधान के अध्याय तीन में अनुच्छेद-25 से 28 तक सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान किया गया है।
(5) भारत में किसी धर्म-विशेष को राज-धर्म की संज्ञा नहीं दी गई है।
(6) भारत में धार्मिक स्वतन्त्रताएँ असीमित नहीं हैं। राज्य द्वारा उन पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त व्यवस्थाएँ भारत में सच्चे धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करती हैं। इस तरह भारतीय राज्य न तो धार्मिक है, न अधार्मिक और न ही धर्म-विरोधी, किन्तु यह धार्मिक संकीर्णताओं तथा वृत्तियों से दूर है और धार्मिक मामलों में तटस्थ है।
प्रश्न 8.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता के समक्ष उत्पन्न किन्हीं चार प्रमुख चुनौतियों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय समाज में उत्पन्न कुछ विकृतियों ने भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के समक्ष कुछ चुनौतियाँ प्रस्तुत की हैं। ऐसी चुनौतियों को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं
(1) भारतीय समाज में उत्पन्न साम्प्रदायिकता ने भारतीय धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के समक्ष एक कड़ी चुनौती प्रस्तुत की है।
(2) हिन्दू एवं मुस्लिम धर्मों में धार्मिक कट्टरता की भावना एवं उन्माद ने भी भारतीय धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को हानि पहुँचाई है।
(3) भारत के साधु-सन्तों, मुल्ला, मौलवियों, इमामों द्वारा अपने धर्म के लोगों में धार्मिक उन्माद फैलाने की नीति ने भारतीय धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ठेस पहुंचाई है।
(4) संकीर्ण स्वार्थों से युक्त राजनीतिक दलों एवं राजनीतिज्ञों ने भी लोगों में धार्मिक कट्टरता पैदा करके भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को ठेस पहुँचाई है।
प्रश्न 9.
क्या भारतीय संविधान में किए गए प्रावधान सच्चे अर्थों में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाते हैं?
अथवा
क्या भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है? क्यों? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
क्या धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए उचित है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
निःसन्देह भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। भारतीय संविधान में किए गए विभिन्न प्रावधान भी भारत को सच्चे रूप में धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान करते हैं। भारतीय संविधान द्वारा धर्मनिरपेक्षता को सैद्धान्तिक स्वरूप प्रदान करना एक तरह से अपरिहार्यता भी थी, क्योंकि भारत की स्वाधीनता के समय भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों एवं सम्प्रदायों के लोग रहते थे और उन्हें एकता के सूत्र में पिरोने के लिए धर्मनिरपेक्षता की नीति सर्वाधिक उपयुक्त लगती थी।
इसीलिए हमने भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी प्रावधान करके यह सुनिश्चित कर दिया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा। यद्यपि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में हमने ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को 42वें संशोधन द्वारा सन् 1976 में जोड़कर स्पष्ट कर दिया कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का मूल आधार है। भारतीय संविधान में किए गए निम्नलिखित प्रावधान भारत के लिए पथ-निरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षता की औचित्यतता को सिद्ध करते हैं
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग करना।
- भारतीय संविधान द्वारा साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली को समाप्त करना।
- संविधान द्वारा नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता एक मौलिक अधिकार के रूप में प्रदान करना।
- भारत राज का अपना कोई राजधर्म न होना आदि।
अतः उपर्युक्त धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी प्रावधान जहाँ भारत को सच्चे अर्थों में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में स्थापित करते हैं वहाँ भारत में विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच एकता और समन्वय की स्थापना में भी सहायक हैं।
निबंधात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
धर्मनिरपेक्षता का क्या अभिप्राय है? आधुनिक समय में हमें धर्मनिरपेक्ष राज्य की क्या आवश्यकता है? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी यूरोपीय एवं भारतीय मॉडल को स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि आधुनिक युग में हमें धर्मनिरपेक्ष राज्य की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:
धर्म या पथ-निरपेक्ष शब्द अंग्रेजी भाषा के सेक्युलर (Secular) शब्द का हिन्दी पर्याय है। सेक्युलर शब्द लेटिन भाषा के सरकुलम (Surculam) शब्द से बना है। लेटिन भाषा से उदित इस शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘सांसारिक’ है अर्थात् राजनीतिक गतिविधियों को केवल लौकिक क्षेत्र तक सीमित रखना है। सेक्युलर (Secular) शब्द के प्रथम प्रयोगकर्ता जॉर्ज जैकब हॉलीओक ने स्पष्ट किया है कि, “धर्मनिरपेक्षता का अर्थ, इस विश्व या मानव जीवन से सम्बन्धित दृष्टिकोण, जो धार्मिक या द्वैतवादी विचारों से बंधा हुआ न हो।”
एनसाइकलोपीडिया आफ ब्रिटेनिका के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष शब्द का तात्पर्य है-गैर-आध्या वस्त जो धार्मिक तथा आध्यात्मिक तथ्यों की विरोधी तथा उनसे असम्बद्ध होने के कारण स्वयं में पहचान योग्य है, आध्यात्मिक तत्त्वों के विपरीत सांसारिक है।” अतः धर्मनिरपेक्षता को सर्वप्रथम एवं सर्वप्रमुख रूप से ऐसा सिद्धान्त समझा जाना चाहिए जो अन्तर-धार्मिक वर्चस्व का विरोध करता है। यद्यपि यह धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के महत्त्वपूर्ण पहलुओं में से केवल एक है। धर्मनिरपेक्षता का इतना ही महत्त्वपूर्ण दूसरा पहलू अन्तःधार्मिक वर्चस्व यानि धर्म के अन्दर छुपे वर्चस्व का विरोध करना है।
इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा नियामक सिद्धान्त है जो धर्मनिरपेक्ष समाज अर्थात् अन्तर-धार्मिक तथा अन्तःधार्मिक दोनों तरह के वर्चस्वों से रहित समाज बनाना चाहता है। यदि इसी बात को सकारात्मक रूप से कहें तो यह धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देता है।
परन्तु यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को अपनाने वाले किसी राज्य को धर्म और धार्मिक समुदाय से कैसे सम्बन्ध रखने चाहिएँ। इसके साथ-साथ किसी समाज में धार्मिक टकरावों को रोकने एवं धार्मिक समानता को प्रोत्साहित करने के लिए राजसत्ता एवं धर्म के बीच कैसे सम्बन्ध स्थापित होने चाहिएँ? यह जानना भी दिलचस्प होगा।
यहाँ यह स्पष्ट है कि वास्तव में धर्मनिरपेक्ष होने के लिए राज्यसत्ता को न केवल धर्मतान्त्रिक होने से इन्कार करना होगा, बल्कि उसे किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से भी परहेज करना होगा। धर्म और राज्यसत्ता के बीच सम्बन्ध विच्छेद धर्मनिरपेक्ष राज्यसत्ता के लिए जरूरी है, मगर केवल यही पर्याप्त नहीं है।
धर्मनिरपेक्ष राज्य को ऐसे सिद्धान्तों और लक्ष्यों के लिए अवश्य प्रतिबद्ध होना चाहिए जो अंशतः ही सही और गैर-धार्मिक स्रोतों से निकलते हों। ऐसे लक्ष्यों में शान्ति, धार्मिक स्वतन्त्रता, धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्जना से आजादी और साथ ही अन्तर-धार्मिक व अन्तःधार्मिक समानता शामिल रहनी चाहिए।
अतः इन लक्ष्यों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य को संगठित धर्म और इसकी संस्थाओं से कुछ मूल्यों के लिए अवश्य ही पृथक् रहना चाहिए, परन्तु यहाँ यह भी प्रश्न पैदा होता है कि राज्यसत्ता व धर्म के मध्य पृथक्कता कैसी होनी चाहिए? इस सम्बन्ध में धर्म-निरपेक्षता सम्बन्धी निम्नलिखित दो प्रकार की संकल्पनाएँ मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं
- धर्मनिरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल,
- धर्मनिरपेक्षता का भारतीय मॉडल।
1. धर्मनिरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी संकल्पना (अमेरिकी मॉडल) राज्यसत्ता और धर्म दोनों के क्षेत्र एवं सीमाएँ अलग-अलग मानती है और इस तरह दोनों के सम्बन्ध विच्छेद को पास्परिक निषेध के रूप में समझा जाता है। राज्यसत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी और इसी प्रकार धर्म राज्यसत्ता के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। राज्यसत्ता की कोई नीति पूर्णतः धार्मिक तर्क के आधार पर नहीं बन सकती और कोई धार्मिक वर्गीकरण किसी सार्वजनिक नीति की बुनियाद नहीं बन सकता। अगर ऐसा हुआ तो वह राज्यसत्ता के मामले में धर्म की अवैध घुसपैठ मानी जाएगी।
इस प्रकार यूरोपीय मॉडल धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानता है और इसे राज्यसत्ता की नीति या कानून का विषय नहीं मानता। इस पश्चिमी संकल्पना में राज्य न तो किसी धार्मिक संस्था की सहायता करेगा और न ही किसी धार्मिक संस्था द्वारा संचालित शिक्षण संस्था की वित्तीय सहायता करेगा। जब तक धार्मिक समुदायों की गतिविधियाँ देश के कानून द्वारा निर्मित व्यापक सीमा के अन्दर होती हैं, वह इन गतिविधियों में व्यवधान नहीं पैदा कर सकता। जैसे कोई विशेष धर्म अपने मुख्य सदस्यों को मन्दिर के गर्भगृह में जाने से रोकता है, तो राज्य के पास मामले को बने रहने देने के लिए अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।
2. धर्मनिरपेक्षता का भारतीय मॉडल भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता केवल धर्म और राज्य के बीच सम्बन्ध विच्छेद पर ही बल नहीं देती है, बल्कि अन्तर-धार्मिक समानता भारतीय संकल्पना के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त अन्तःधार्मिक वर्चस्व पर भी अपना बराबर ध्यान केन्द्रित किया है।
इसने हिन्दुओं के अन्दर दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न और भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अन्दर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किए जा सकने वाले खतरों का समान रूप से विरोध किया है। इसके अतिरिक्त भारतीय धर्मनिरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक स्वतन्त्रता से ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक स्वतन्त्रता से भी है।
इसके अन्तर्गत हर आदमी को अपनी पसंद का धर्म मानने का अधिकार तो है ही, इसके साथ-साथ धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी अपनी स्वयं की संस्कृति और शैक्षणिक संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार दिया गया है। इस प्रकार भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्पित धर्म-सुधार की गुंजाइश भी है। जैसे भारतीय संविधान ने जहाँ छुआछूत पर प्रतिबन्ध लगाया है, वहाँ बाल-विवाह उन्मूलन एवं अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म के द्वारा लगाए गए निषेध को समाप्त करने हेतु कई कानून बनाए गए हैं।
इस प्रकार भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने धार्मिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक अत्यन्त परिष्कृत नीति अपनाई है जिनके अनुरूप वह अमेरिकन या यूरोपीय मॉडल में धर्म से विलग भी हो सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है। वास्तव में भारतीय धर्मनिरपेक्ष समाज में शान्ति, स्वतन्त्रता एवं समानता के मूल्यों को बढ़ावा देने की ही रणनीति का एक भाग है।,
अतः उपर्युक्त धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी अमेरिकन मॉडल एवं भारतीय मॉडल के विवेचन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के दो रूप होते हैं-(i) निषेधात्मक तथा (i) स्वीकारात्मक। नकारात्मक रूप से राज्य धार्मिक मामलों में पूर्ण तटस्थता की नीति पर चलता है। वह किसी धर्म-विशेष को नहीं अपनाता और किसी धर्म-विशेष के उत्थान या उसे निरुत्साहित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाता। वह धर्म-प्रचार के कार्यों या धार्मिक संस्थाओं के विकास सम्बन्धी मामलों में भाग नहीं लेता। राज्य की नीतियों का निर्माण या कार्यान्वयन धार्मिक आधार पर नहीं किया जाता।
राज्य किसी धर्म के विकास हेतु कोई कर नहीं लगाता। सार्वजनिक सेवाओं व पदों पर नियुक्तियों में धर्म के आधार पर राज्य भेदभाव नहीं करता। स्वीकारात्मक रूप में राज्य सब नागरिकों को धार्मिक विश्वास की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी संस्थाएँ स्थापित करने की स्वतन्त्रता देता है। सभी धर्मावलम्बियों को सार्वजनिक पदों की प्राप्ति हेतु समान अवसर देता है। राजकीय अनुदान देने में सभी धर्मावलम्बियों द्वारा स्थापित संस्थाओं के साथ समान नीति बरतता है।
इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता के स्वीकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों पक्षों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य अधार्मिक या धर्म-विहीन नहीं है, बल्कि वह सब धर्मों की शिक्षाओं का सम्मान करता है, परन्तु राजनीतिक कार्य-कलापों में ऐसा कुछ नहीं करता जिससे किसी धर्म-विशेष के मानने वालों का अहित हो और किसी अन्य धर्म के मानने वालों का हित हो। इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता के उपर्युक्त अर्थ को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं को निम्नलिखित रूप में विवेचित किया जा सकता है
1. स्मिथ (Smith) के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष राज्य वह राज्य है जिसमें व्यक्तिगत अथवा सामूहिक धार्मिक स्वतन्त्रता होती है, जो व्यक्ति के साथ धर्म के विषयों में बिना किसी भेदभाव के नागरिक जैसा व्यवहार रखता है, जो सवैधानिक रूप से किसी को अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म से सम्बन्धित नहीं होता तथा न ही किसी धर्म में हस्तक्षेप अथवा उसे बढ़ाने का प्रयत्न करत
2. श्री वैंकटरामन (Venkataraman) ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की परिभाषा देते हुए लिखा है, “एक धर्मनिरपेक्ष राज्य न तो धार्मिक, न ही अधार्मिक और न ही धर्म विरोधी होता है, वह धार्मिक कार्यों तथा सिद्धान्तों से पूर्णतः अलग है और इस प्रकार धार्मिक विषयों में पूर्ण रूप से निष्पक्ष रहता है।”
3. डॉ० के०आर० बम्बवाल (Dr. K.R. Bombwall) के अनुसार, “धर्मनिरपेक्ष प्रबंध में.राज्य न धार्मिक होता है, न अधार्मिक और न ही धर्म के विरुद्ध होता है, अपितु धार्मिक विश्वासों और गतिविधियों से पूरी तरह अलग होता है और इस तरह धार्मिक मामलों में निष्पक्ष होता है।” रिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य उस राज्य को कहते हैं जो किसी धर्म-विशेष पर आधारित न हो।
ऐसे राज्य में सरकार के द्वारा सभी धर्मों को समान समझा जाता है और किसी एक धर्म को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता। कानून की दृष्टि से सभी नागरिक समान माने जाते हैं और धर्म के आधार पर नागरिकों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता। धर्मनिरपेक्ष राज्य में सभी धर्मों को मानने तथा उसका प्रचार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। इस प्रकार संक्षेप में धर्मनिरपेक्ष राज्य की मुख्य विशेषताओं को संक्षेप में निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होता,
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है,
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य, राज्य के सभी धर्मों का बराबर सम्मान करता है,
- एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म के आधार पर किसी प्रकार के भेदभाव की मनाही होती है।
आधुनिक समय में हमें धर्मनिरपेक्ष राज्य की क्या आवश्यकता है? वर्तमान युग में प्रायः सभी लोकतान्त्रिक देशों में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा बहुत ही लोकप्रिय एवं राज्य की एक आवश्यक विशेषता बन गई है। इसलिए यहाँ हम आधुनिक समय में एक धर्म-निरपेक्ष राज्य की आवश्यकता के कुछ कारणों का संक्षिप्त उल्लेख कर रहे हैं
(1) वर्तमान युग लोकतान्त्रिक युग है और धर्मनिरपेक्षता लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मजबूत आधार प्रदान करती है, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा लोकतंत्र के लिए अपरिहार्य स्वतन्त्रता की शर्त के रूप में धार्मिक स्वतन्त्रता पर बल देकर लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने में मुख्यतः सहयोग देती है।
(2) वर्तमान में समूचा विश्व भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण की प्रक्रिया में से गुजर रहा है, जिसमें विश्व का स्वरूप एक ग्राम विश्व के रूप में उभर रहा है। विश्व के लोगों द्वारा ज्ञान, विज्ञान एवं तकनीकी आदान-प्रदान के अतिरिक्त निवेश एवं व्यापार सम्बन्धी प्रक्रियाओं के चलते अब एक क्षेत्र में एक धर्म को मानने वाले ही नहीं, बल्कि विभिन्न धर्मों को मानने वाले व्यक्ति होंगे।
ऐसी स्थिति में प्रत्येक देश में प्रत्येक धर्म को मानने वाले व्यक्ति को उसमें अपनी आस्था रखने, पूजा-अर्चना करने व प्रचार इत्यादि करने का अधिकार देना होगा। इसलिए ऐसी स्थिति में उस राज्य विशेष का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के अतिरिक्त कोई अन्य स्वरूप उसके लिए उचित नहीं हो सकता।
(3) आज प्रत्येक देश में धर्म एवं भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक वर्ग पाए जाते हैं। इसलिए इन अल्पसंख्यक वर्गों में सुरक्षा रने के लिए राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप सबसे अधिक कारगर सिद्ध होगा। जैसे कि भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा द्वारा यहाँ प्रत्येक वर्ग को अपने-अपने धर्म को मानने एवं उसका प्रचार इत्यादि करने का अधिकार दिया गया है। इसीलिए यहाँ बहुसंख्यक हिन्दुओं के आगे अन्य अल्पसंख्यक समुदाय; जैसे जैन, सिख, ईसाई एवं मुस्लिम इत्यादि अपने-आपको असुरक्षित महसूस नहीं करते हैं।
(4) किसी भी राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप उसके भिन्न-भिन्न धर्मों के साथ सम्बन्धित लोगों में पारस्परिक सहयोग एवं प्रेम की भावना को जन्म देने में बहुत सहायक होगा। आज प्रायः सभी राज्य बहुधर्मी स्वरूप के हैं। ऐसी स्थिति में राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप ही श्रेष्ठ होगा क्योंकि इससे राज्य में शान्ति, सद्भाव एवं कानून-व्यवस्था बनाए रखने में भी सहायता मिलेगी।
यहाँ पर, यह भी उल्लेखनीय है कि बहुधर्मी राज्यों में धर्मनिरपेक्षता का अभाव विभिन्न धर्मों के बीच श्रेष्ठता की जंग को जन्म दे सकते है, जिससे वह राज्य साम्प्रदायिकता की समस्या से ग्रस्त हो सकता है। अतः साम्प्रदायिकता की समस्या का एकमात्र निदान उस राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप ही हो सकता है।
(5) एक राज्य का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप राज्य की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में भी सहायक है। जैसे भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के कारण ही विभिन्न धर्मों की मान्यताओं एवं संस्कारों ने मिलकर भारतीय संस्कृति को विकसित स्वरूप प्रदान किया है। आज समूचे विश्व में ‘विभिन्नता में एकता’ के रूप में भारतीय संस्कृति की विशेष पहचान है।
अतः यह कहा जा सकता है कि एक राज्य की संस्कृति एवं सभ्यता के विकास में धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप बहुत सहायक होगा। इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विश्व में राज्यों का लोकतान्त्रिक स्वरूप एवं वैश्वीकरण की प्रक्रिया में धर्म-निरपेक्ष राज्य की अवधारणा की सर्वाधिक उपयुक्त व्यवस्था है।
प्रश्न 2.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि क्या धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए उचित है?
अथवा
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी किए गए प्रावधानों को स्पष्ट करते हुए यह भी बताएँ कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता के समक्ष कौन-कौन सी चुनौतियाँ हैं?
उत्तर:
ऑक्सफोर्ड शब्दकोष के अनुसार, ‘धर्मनिरपेक्ष’ (Secular) व्यक्ति वह है जो “केवल दुनियावी या लौकिक मामलों से सम्बन्ध रखता है, धार्मिक मामलों से नहीं”। (Concerned with the affairs of this world, worldly, not sacred.)। साम्यवादी देशों में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ ‘धर्म-विरोधी प्रवृत्ति’ से लिया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में धर्म एवं राज्य दोनों को अलग-अलग रखने की नीति अपनाई गई है, जिसके अनुसार, राज्य धर्म के क्षेत्र में न हस्तक्षेप करेगा और न ही किसी तरह का सहयोग करेगा।
अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने एक निर्णय में कहा था, “हम लोग धर्म के विरुद्ध नहीं हैं, परन्तु राजकोष का पैसा धार्मिक प्रचार हेतु व्यय नहीं किया जा सकता।” भारतीय संविधान की विभिन्न व्यवस्थाओं से पता चलता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप के निम्नलिखित पहलू हैं
(1) भारतीय संविधान ने भारत में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की व्यवस्था की है।
(2) राज्य व्यक्ति के धार्मिक विश्वास एवं क्रिया-कलापों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा, क्योंकि भारत में धर्म को एक व्यक्तिगत मामला माना गया है।
(3) भारतीय संविधान धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव की मनाही करता है, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद-14 ‘विधि के समक्ष समानता’ का अधिकार प्रदान करता है।
(4) संविधान के अध्याय तीन में अनुच्छेद-25 से 28 तक सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान किया गया है।
(5) भारत में किसी धर्म-विशेष को राज-धर्म की संज्ञा नहीं दी गई है।
(6) भारत में धार्मिक स्वतन्त्रताएँ असीमित नहीं हैं। राज्य द्वारा उन पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त व्यवस्थाएँ भारत में सच्चे धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करती हैं। इस तरह भारतीय राज्य न तो धार्मिक है, न अधार्मिक और न ही धर्म-विरोधी, किन्तु यह धार्मिक संकीर्णताओं तथा वृत्तियों से दूर है और धार्मिक मामलों में तटस्थ है। क्या धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए उचित है? (Is Secularism suitable for India?) उपर्युक्त धर्मनिरपेक्षता के भारतीय स्वरूप की विशेषताओं से यह बात स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है।
भारतीय संविधान में किए गए विभिन्न प्रावधान भी भारत को सच्चे रूप में धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान करते हैं। भारतीय संविधान द्वारा धर्मनिरपेक्षता को सैद्धान्तिक स्वरूप प्रदान करना एक तरह से अपरिहार्यता भी थी, क्योंकि भारत की स्वाधीनता के समय भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों एवं सम्प्रदायों के लोग रहते थे और उन्हें एकता के सूत्र में पिरोने के लिए धर्मनिरपेक्षता की नीति सर्वाधिक उपयुक्त लगती थी।
इसीलिए हमने भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता सम्बन्धी प्रावधान करके यह सुनिश्चित कर दिया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा। यद्यपि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में हमने ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को 42वें संशोधन द्वारा सन् 1976 में जोड़कर स्पष्ट कर दिया कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का मूल आधार है। भारतीय संविधान में किए गए निम्नलिखित प्रावधान भारत के लिए पंथ-निरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षता की औचित्यतता को सिद्ध करते हैं
1. संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का प्रयोग-संविधान के 42वें संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़कर भारत को स्पष्ट रूप से धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। भारत में चाहे किसी भी दल की सरकार हो, उसे धर्मनिरपेक्षता की नीति का ही अनुसरण करना पड़ेगा।
इसके अतिरिक्त प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि भारत में रहने वाले सभी लोगों के लिए न्याय (Justice), स्वतन्त्रता (Liberty) और समानता एवं भ्रातृत्व (Equality and Fraternity) को बढ़ावा देना ही संविधान का उद्देश्य है। इस प्रकार भारत का संविधान किसी एक धर्म अथवा वर्ग के विकास के लिए नहीं है।
2. पृथक तथा साम्प्रदायिक चुनाव-प्रणाली का अन्त स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में ब्रिटिश शासकों ने ‘फूट डालो और शासन करो’ (Divide and Rule) की नीति का अनुसरण करते हुए साम्प्रदायिक चुनाव-प्रणाली को लागू किया था, परन्तु भारत के नए संविधान द्वारा इस चुनाव-प्रणाली को समाप्त कर दिया गया और इसके स्थान पर संयुक्त चुनाव-प्रणाली (Joint Election) तथा वयस्क मताधिकार प्रणाली (Adult Franchise) की व्यवस्था की गई। देश के प्रत्येक नागरिक को, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो, एक निश्चित आयु तक पहुंचने पर मतदान करने तथा चुनाव लड़ने का अधिकार दिया गया है।
3. राज्य का कोई धर्म नहीं भारत में राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है। यद्यपि भारत का विभाजन मुख्य रूप से धर्म के आधार पर ही हुआ था, परन्तु स्वतन्त्र भारत का अपना कोई विशेष धर्म नहीं है। राज्य के कानूनों का निर्माण किसी धर्म के नियमों के आधार पर नहीं किया जाता और न ही राज्य किसी धर्म को कोई विशेष संरक्षण प्रदान करता है।
भारत में किसी भी धर्म का अनुयायी देश के बड़े-से-बड़े पद को ग्रहण कर सकता है। हमारे चार राष्ट्रपति मुसलमान (डॉ० जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद तथा डॉ० ए.पी. जे. अब्दुल कलाम) तथा एक राष्ट्रपति सिक्ख (श्री ज्ञानी जैल सिंह) थे। भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री डॉ० मनमोहन सिंह भी एक सिक्ख हैं। यह स्थिति हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान से सर्वथा भिन्न है।
पाकिस्तान में इस्लाम धर्म, राज्य-धर्म है और वहाँ पर देश के कानूनों तथा नीतियों का निर्माण इस धर्म के नियमों को ध्यान में रखकर ही किया जाता है। वहाँ पर उच्च पद केवल इस्लाम धर्म में विश्वास रखने वालों को ही प्राप्त हो सकते हैं।
4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार-नागरिकों के धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार को संविधान के द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक को किसी भी धर्म को मान प्रचार करने की स्वतन्त्रता दी गई है। धार्मिक स्वतन्त्रता का यह अधिकार केवल भारत के नागरिकों को ही नहीं, वरन भारत में रहने वाले विदेशियों को भी दिया गया है। संविधान सभी नागरिकों को अपने धर्म का प्रचार करने के लिए अपनी धार्मिक संस्थाएँ स्थापित करने का भी अधिकार देता है।
5. कानून के सामने समानता तथा सरकारी सेवाओं में समान अवसर-भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार देश के प्रत्येक नागरिक को कानून के सामने समानता प्रदान की गई है। इसका अर्थ यह है कि कानून की दृष्टि में सभी धर्म समान हैं और धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद-16 में यह कहा गया है कि सरकारी पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में नागरिकों में धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।
6. सरकारी शिक्षा-संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा की मनाही-भारतीय संविधान के अनुच्छेद-28 के अनुसार सरकारी शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा की मनाही की गई है। ऐसी शिक्षा संस्थाओं में किसी भी धर्म से सम्बन्धित शिक्षा नहीं दी जा सकती और न ही किसी धर्म का प्रचार किया जा सकता है। गैर-सरकारी शिक्षा संस्थाओं, जो सरकार से वित्तीय सहायता अथवा अनुदान लेती हैं, में धार्मिक शिक्षा दी तो जा सकती है, परन्तु उसे अनिवार्य नहीं किया जा सकता।
7. किसी धर्म के प्रचार के लिए कर नहीं लगाया जा सकता भारतीय संविधान के अनुच्छेद 27 के अनुसार किसी भी व्यक्ति के लिए विवश नहीं किया जा सकता जिससे प्राप्त आय किसी धर्म के प्रचार अथवा विकास के लिए खर्च की जानी हो।
8. छुआछूत की समाप्ति-संविधान के अनुसार छुआछूत का अन्त कर दिया है और किसी भी व्यक्ति के साथ अछूतों जैसा व्यवहार करना या उसे अछूत मानकर मन्दिरों, होटलों, तालाबों, स्नानगृहों तथा मनोरंजन के सार्वजनिक स्थानों पर जाने से रोकना कानूनी अपराध घोषित किया गया है। ये सभी बातें भारत के एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होने का स्पष्ट प्रमाण हैं।
कि भारतीय संविधान के द्वारा भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, फिर भी भारतीय राजनीति में धर्म की एक विशेष भूमिका है। वास्तव में, संविधान लागू होने के दिन से लेकर आज तक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना के मार्ग में अनेक बाधाएँ खड़ी हुई हैं। जातीय भेदभाव, धार्मिक विभिन्नता एवं क्षेत्रीय संकीर्ण भावनाओं के चलते भारत में सच्चे अर्थ में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना आज तक नहीं हो पाई है।
राजनीति ने हिन्दुओं और मुसलमानों को साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं में जकड़ लिया है। धार्मिक विभिन्नता ने समाज में अनेक प्रकार के तनाव उत्पन्न कर दिए हैं। साम्प्रदायिकता का बीज बोने में, सत्ता-प्राप्ति की होड़ में लगे राजनेताओं का भी बड़ा हाथ है। स्वाधीनता के बाद के चुनावों की राजनीति ने धर्म और सम्प्रदाय के नकारात्मक महत्त्व को उभारा है।
यदि हम यह कहें कि सम्प्रदाय आज राजनीतिक दलों के लिए वोट-बैंक बन गए हैं तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। धर्म और संप्रदाय का खुलेआम दुरुपयोग आज राजनीतिक शक्ति के रूप में किया जा रहा है। वास्तव में, संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ हेतु धर्म के प्रयोग ने राष्ट्रीय एकीकरण के लिए चुनौती को खड़ा कर दिया है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि भारतीय समाज में उत्पन्न कुछ विकृतियों ने भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के समक्ष कुछ चुनौतियाँ प्रस्तुत की हैं। ऐसी चुनौतियों को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं
- भारतीय समाज में उत्पन्न साम्प्रदायिकता ने भारतीय धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के समक्ष एक कड़ी चुनौती प्रस्तुत की है।
- हिन्दू एवं मुस्लिम धर्मों में धार्मिक कट्टरता की भावना एवं उन्माद ने भी भारतीय धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को हानि पहुंचाई है।
- भारत के साधु-सन्तों, मुल्ला, मौलवियों, इमामों द्वारा अपने धर्म के लोगों में धार्मिक उन्माद फैलाने की नीति ने भारतीय धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ठेस पहुँचाई है।
- संकीर्ण स्वार्थों से युक्त राजनीतिक दलों एवं राजनीतिज्ञों ने भी लोगों में धार्मिक कट्टरता पैदा करके भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को ठेस पहुँचाई है।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें
1. धर्म-निरपेक्षता के यूरोपीय मॉडल के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सी धारणा सही नहीं है? ‘
(A) धर्म व्यक्ति का निजी विषय है
(B) राजसत्ता और धर्म दोनों के क्षेत्र एवं सीमाएँ अलग-अलग हैं
(C) राज्य कानून के अधीन की गई गतिविधियों में व्यवधान पैदा नहीं करेगा
(D) राज्य धार्मिक शिक्षण संस्थाओं की वित्तीय सहायता करेगा
उत्तर:
(D) राज्य धार्मिक शिक्षण संस्थाओं की वित्तीय सहायता करेगा
2. धर्म-निरपेक्षता के भारतीय मॉडल के सन्दर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सत्य है?
(A) पश्चिमी धर्म-निरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है
(B) अन्तः धार्मिक समानता की संकल्पना पर आधारित है
(C) अन्तः धार्मिक वर्चस्व पर भी ध्यान केन्द्रित करते हुए बहुसंख्यक वर्ग के खतरों का विरोध करता है
(D) उपर्युक्त सभी सत्य हैं
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी सत्य हैं
3. भारतीय धर्म-निरपेक्षता के नकारात्मक रूप का लक्षण निम्नलिखित में से नहीं है
(A) राज्य का धार्मिक मामलों में तटस्थता का दृष्टिकोण
(B) राज्य का कोई विशेष धर्म नहीं होता
(C) राज्य में नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन का आधार धर्म पर आधारित होता है।
(D) राज्य में नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन किसी विशेष धर्म पर आधारित नहीं होता है
उत्तर:
(C) राज्य में नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन का आधार धर्म पर आधारित होता है
4. एक धर्म-निरपेक्ष राज्य का लक्षण निम्नलिखित में से है
(A) राज्य का अपना कोई धर्म नहीं
(B) प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतन्त्रता
(C) राज्य द्वारा सभी धर्मों का बराबर सम्मान करना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी
5. भारतीय संविधान में धर्म-निरपेक्षता सम्बन्धी निम्नलिखित में से कौन-सा प्रावधान नहीं किया गया है?
(A) भारतीय संविधान की प्रस्तावना में
(B) धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग
(C) सभी नागरिकों को असीमित धार्मिक स्वतंत्रताएँ
(D) सभी नागरिकों को कानूनी एवं सीमित धार्मिक स्वतंत्रताएँ
उत्तर:
(C) सभी नागरिकों को असीमित धार्मिक स्वतंत्रताएँ
6. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्ष शब्द को कब और कौन-से संशोधन द्वारा जोड़ा गया?
(A) 1985 में 52वें संशोधन द्वारा
(B) 1976 में 42वें संशोधन द्वारा
(C) 1978 में 44वें संशोधन द्वारा
(D) 1994 में 74वें संशोधन द्वारा
उत्तर:
(B) 1976 में 42वें संशोधन द्वारा
7. भारतीय संविधान के सन्दर्भ में निम्नलिखित में से ठीक है-
(A) संयुक्त चुनाव प्रणाली की व्यवस्था को अपनाना
(B) वयस्क मताधिकार की प्रणाली को अपनाना
(C) धार्मिक स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी
8. भारतीय संविधान में छुआछूत की समाप्ति निम्नलिखित में से किस अनुच्छेद द्वारा की गई है?
(A) अनुच्छेद 17
(B) अनुच्छेद 27
(C) अनुच्छेद 37
(D) अनुच्छेद 57
उत्तर:
(A) अनुच्छेद 17
9. भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने एवं प्रचार करने की स्वतंत्रता निम्नलिखित में से किस अनुच्छेद में प्रदान की गई है?
(A) अनुच्छेद 14
(B) अनुच्छेद 16
(C) अनुच्छेद 25
(D) अनुच्छेद 26
उत्तर:
(C) अनुच्छेद 25
10. सरकारी पदों पर नियुक्ति के लिए धर्म के आधार पर भारतीय संविधान में भेदभाव की मनाही निम्नलिखित में से किस अनुच्छेद में की गई है?
(A) अनुच्छेद 16
(B) अनुच्छेद 17
(C) अनुच्छेद 27
(D) अनुच्छेद 28
उत्तर:
(A) अनुच्छेद 16
11. धार्मिक कार्य हेतु किए गए खर्च पर सरकार द्वारा कर में छूट देने सम्बन्धी प्रावधान संविधान के कौन-से अनुच्छेद में वर्णित किया गया है?
(A) अनुच्छेद 25
(B) अनुच्छेद 26
(C) अनुच्छेद 27
(D) अनुच्छेद 28
उत्तर:
(C) अनुच्छेद 27
12. भारतीय धर्म-निरपेक्षता के समक्ष चुनौती निम्नलिखित में से है
(A) साम्प्रदायिकता की प्रवृत्ति का बढ़ना
(B) धार्मिक कट्टरता की भावना में वृद्धि होना
(C) धार्मिक उन्माद फैलाने की प्रवृत्तियों का होना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी
निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में
1. सेकुलर (Secular) शब्द का प्रथम प्रयोगकर्ता का श्रेय किसे जाता है?
उत्तर:
जॉर्ज जैकब हॉलीओक को।
2. अंग्रेज़ी भाषा का सेक्युलर (secular) शब्द, सरकुलम (surculam) शब्द से बना है। यह शब्द किस भाषा का है?
उत्तर:
लैटिन भाषा का।
3. भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में सरकारी शिक्षण संस्थाओं में धर्म विशेष पर आधारित धार्मिक शिक्षा देने की मनाही की गई है?
उत्तर:
अनुच्छेद 28 में।
रिक्त स्थान भरें
1. धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम …………………. ने किया था।
उत्तर:
जॉर्ज जैकब
2. धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही भारतीय संविधान के ……………….. में की गई है।
उत्तर:
अनुच्छेद 14
3. धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग सन् …………………. में किया गया था।
उत्तर:
1846