HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

HBSE 11th Class Political Science न्यायपालिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौन से हैं? निम्नलिखित में जो बेमेल हो उसे छाँटें।
(क) सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जाती है।
(ख) न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।
(ग) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
(घ) न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद का दखल नहीं है।।
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीके निम्नलिखित हैं
(क) सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जाती है।
(ख) न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जा सकता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता के महत्त्वपूर्ण तरीके हैं। लंबी कार्यावधि उसकी स्वतंत्रता में सहायक है।
(ग) प्रश्न के अन्तर्गत दिए गए बिंदुओं में से (ग) बेमेल है जो निम्नलिखित है-उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
(घ) न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद का कोई दखल नहीं है। इस प्रकार न्यायपालिका को व्यवस्थापिका से स्वतंत्र रखा गया है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 2.
क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वतंत्र न्यायपालिका का होना बहुत आवश्यक है। भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संविधान में अनेक प्रावधान दिए गए हैं। परंतु उसका यह अर्थ नहीं है कि वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है। हमने संविधान में सरकार के तीनों अंगों में सन्तुलन एवं नियंत्रण स्थापित किया है।

हमने संविधान में न्यायपालिका को भी विधायिका प्रति उत्तरदायी बनाया है। यदि न्यायपालिका अपनी सीमा से बाहर जाकर कोई कार्य करती है तो विधायिका के विधि अथवा संविधान में संशोधन करके न्यायपालिका के कार्य को निरस्त कर सकती है। अतः न्यायपालिका की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि यह बिना किसी राजनीति, आर्थिक, सामाजिक हस्तक्षेप के प्रत्येक विवाद पर निष्पक्ष एवं स्वतंत्र होकर अपना निर्णय देने का कार्य करे।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के विभिन्न प्रावधान कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने तथा उसे विधानपालिका व कार्यपालिका के प्रभाव से मुक्त रखने के लिए निम्नलिखित प्रावधानों की व्यवस्था की गई है

1. कार्य-अवधि की सुरक्षा- संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को ‘पद की सुरक्षा’ (Security) प्रदान की गई है। सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बने रहते हैं। उस अवधि के समाप्त होने से पहले इन्हें केवल अयोग्य तथा दुराचार आदि के आधार पर केवल महाभियोग की विधि द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है।

2. पर्याप्त वेतन-न्यायाधीशों को स्वतंत्र बनाने के लिए भारतीय संविधान में उनके लिए पर्याप्त वेतन तथा भत्ते की व्यवस्था की गई है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 2,80,000 रुपए तथा अन्य न्यायाधीशों को 2,50,000 रुपए मासिक वेतन मिलता है। इस प्रकार उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को 2,50,000 रुपए मासिक तथा अन्य न्यायाधीशों को 2,25,000 रुपए मासिक वेतन मिलता है। यह राशि इतनी पर्याप्त है जिससे कि वे अपने खर्च को ठीक प्रकार से चला सकते हैं। न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते भारत की संचित निधि (Consolidated Fund of India) में से दिए जाते हैं। उनमें केवल उस समय कमी की जा सकती है जब राष्ट्रपति देश में वित्तीय संकट (Financial Emergency) की घोषणा कर दे।

3. उच्च योग्यताएँ न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि केवल योग्य तथा कानुन को ठीक प्रकार से जानने वाले व्यक्ति ही न्यायाधीशों के पद पर नियुक्त होंगे। हमारे संविधान में भी सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के … न्यायाधीशों के पद पर नियुक्त होने के लिए निश्चित योग्यताएँ निर्धारित की गई हैं।

4. शपथ ग्रहण-संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि अपने पद को ग्रहण करते समय न्यायाधीशों को एक शपथ लेनी पड़ती है कि वे बिना किसी दबाव या ‘पक्षपात’ या ‘द्वेष’ के न्याय करेंगे तथा देश के संविधान’ तथा ‘कानून’ का पालन करेंगे। इस व्यवस्था में उनसे यह आशा की जाती है कि वे न्याय करते समय किसी प्रकार का भेदभाव नहीं बरतेंगे और निष्पक्ष होकर कार्य करेंगे।

5. न्यायाधीशों की नियुक्ति इसलिए हमारे देश में सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति यद्यपि राष्ट्रपति करता है तो भी इस कार्य में वह मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों से परामर्श लेता है। ऐसी स्थिति में दलीय आधार पर न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं होती। उस पर किसी अधिकारी का दबाव नहीं रहता और वह अपने कर्त्तव्य का उचित रूप से पालन करने में समर्थ होता है।

6. वकालत पर प्रतिबन्ध-न्यायाधीशों की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए यह व्यवस्था की गई है कि सेवा-निवृत्त होने के पश्चात् सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश देश के किसी भी न्यायालय में वकालत नहीं कर सकते और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश केवल सर्वोच्च न्यायालय या अन्य उच्च न्यायालयों (उस उच्च न्यायालय को छोड़कर जिसमें उसने न्यायाधीश के पद पर काम किया है।) में ही वकालत कर सकते हैं।

प्रश्न 4.
नीचे दी गई समाचार-रिपोर्ट पढ़ें और उनमें निम्नलिखित पहलुओं की पहचान करें।
(क) मामला किस बारे में है?
(ख) इस मामले में लाभार्थी कौन है?
(ग) इस मामले में फरियादी कौन है?
(घ) सोचकर बताएँ कि कंपनी की तरफ से कौन-कौन से तर्क दिए जाएँगे?
(ङ) किसानों की तरफ से कौन-से तर्क दिए जाएँगे?

सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से दहानु के किसानों को 300 करोड़ रुपए देने को कहा-निजी कारपोरेट ब्यूरो, 24 मार्च 2005 मुंबई – सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस एनर्जी से मुंबई के बाहरी इलाके दहानु में चीकू फल उगाने वाले किसानों को 300 करोड़ रुपए देने के लिए कहा है। चीकू उत्पादक किसानों ने अदालत में रिलायंस के ताप-ऊर्जा संयंत्र से होने वाले प्रदूषण के विरुद्ध अर्जी दी थी।

अदालत ने इसी मामले में अपना फैसला सुनाया है। दहानु मुंबई से 150 कि०मी० दूर है। एक दशक पहले तक इस इलाके की अर्थ व्यवस्था खेती और बागवानी के बूते आत्मनिर्भर थी और दहानु की प्रसिद्धि यहाँ के मछली-पालन तथा जंगलों के कारण थी। सन् 1989 में इस इलाके में ताप-ऊर्जा संयंत्र चालू हुआ और इसी के साथ शुरू हुई इस इलाके की बर्बादी। अगले साल इस उपजाऊ क्षेत्र की फसल पहली दफा मारी गई।

कभी महाराष्ट्र के लिए फलों का टोकरा रहे दहानु की अब 70 प्रतिशत फसल समाप्त हो चुकी है। मछली पालन बंद हो गया है और जंगल विरल होने लगे हैं। किसानों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाली राख भूमिगत जल में प्रवेश कर जाती है और पूरा पारिस्थितिकी-तंत्र प्रदूषित हो जाता है। दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को प्रदूषण नियंत्रण की इकाई स्थापित करने का आदेश दिया था ताकि सल्फर का उत्सर्जन कम हो सके।

सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्राधिकरण के आदेश के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। इसके बावजूद सन् 2002 तक प्रदूषण नियंत्रण का संयंत्र स्थापित नहीं हुआ। सन् 2003 में रिलायंस ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को हासिल किया और सन् 2004 में उसने प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र लगाने की योजना के बारे में एक खाका प्रस्तुत किया। प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र चूँकि अब भी स्थापित नहीं हुआ था इसलिए दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने रिलायंस से 300 करोड़ रुपए की बैंक-गारंटी देने को कहा।
उत्तर:
उपर्युक्त रिपोर्ट पढ़ने के पश्चात् ज्ञात होता है कि-
(क) यह रिलायंस ताप-ऊर्जा संयंत्र द्वारा उत्पन्न प्रदूषण से सम्बन्धित मामला है,
(ख) इस मामले में किसान लाभार्थी है,
(ग) इस मामले में किसान ही फरयादी है,
(घ) इस विवाद पर कंपनी की तरफ से उक्त क्षेत्र में ताप-ऊर्जा संयंत्र से होने वाले लाभों का तर्क दिया जाएगा,
(ङ) जबकि किसानों की ओर से यह तर्क दिया जाएगा कि इस ताप-ऊर्जा संयंत्र से न केवल चीकू की फसल खराब हुई अपितु मत्स्य पालन का धंधा भी चौपट हो गया जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र के लोग भी बेरोजगार हो गए।

प्रश्न 5.
नीचे की समाचार-रिपोर्ट पढ़ें और चिह्नित करें कि रिपोर्ट में किस-किस स्तर की सरकार सक्रिय दिखाई देती है।
(क) सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की निशानदेही करें।
(ख) कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज की कौन-सी बातें आप इसमें पहचान सकते हैं?
(ग) इस प्रकरण से संबद्ध नीतिगत मुद्दे, कानून बनाने से संबंधित बातें, क्रियान्वयन तथा कानून की व्याख्या से जुड़ी बातों की पहचान करें।
सीएनजी – मुद्दे पर केंद्र और दिल्ली सरकार एक साथ स्टाफ रिपोर्टर, द हिंदू, सितंबर 23, 2001 राजधानी के सभी गैर-सीएनजी व्यावसायिक वाहनों को यातायात से बाहर करने के लिए केंद्र और दिल्ली सरकार संयुक्त रूप से सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेंगे।

दोनों सरकारों में इस बात की सहमति हई है। दिल्ली और केंद्र की सरकार ने परी परिवहन व्यवस्था को एकल ईंधन प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरे ईंधन-प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला किया है क्योंकि एकल ईंधन प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है।

राजधानी के निजी वाहन धारकों ने सीएनजी के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने का भी फैसला किया गया है। दोनों सरकारें राजधानी में 0.05 प्रतिशत निम्न सल्फर डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में दबाव डालेंगी। इसके अतिरिक्त अदालत से कहा जाएगा कि जो व्यावसायिक वाहन यूरो-दो मानक को पूरा करते हैं उन्हें महानगर में चलने की अनुमति दी जाए। हालाँकि केंद्र और दिल्ली सरकार अलग-अलग हलफनामा दायर करेंगे लेकिन इनमें समान बिंदुओं को उठाया जाएगा। केंद्र सरकार सीएनजी के मसले पर दिल्ली सरकार के पक्ष को अपना समर्थन देगी।

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री श्री राम नाईक के बीच हुई बैठक में ये फैसले लिए गए। श्रीमती शीला दीक्षित ने कहा कि केंद्र सरकार अदालत से विनती करेगी कि डॉ० आरए मशेलकर की अगुआई में गठित उच्चस्तरीय समिति को ध्यान में रखते हुए अदालत बसों को सीएनजी में बदलने की आखिरी तारीख आगे बढ़ा दे क्योंकि 10,000 बसों को निर्धारित समय में सीएनजी में बदल पाना असंभव है। डॉ० मशेलकर की अध्यक्षता में गठित समिति पूरे देश के ऑटो ईंधन नीति का सुझाव देगी। उम्मीद है कि यह समिति छः माह में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।

मुख्यमंत्री ने कहा कि अदालत के निर्देशों पर अमल करने के लिए समय की जरूरत है। इस मसले पर समग्र दृष्टि अपनाने की बात कहते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताया- ‘सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या, सीएनजी की आपूर्ति करने वाले स्टेशनों पर लगी लंबी कतार की समाप्ति, दिल्ली के लिए पर्याप्त मात्रा में सीएनजी ईंधन जुटाने तथा अदालत के निर्देशों को अमल में लाने के तरीके और साधनों पर एक साथ ध्यान दिया जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने – सीएनजी के अतिरिक्त किसी अन्य ईंधन से महानगर में बसों को चलाने की अपनी मनाही में छूट देने से इन्कार कर दिया था लेकिन अदालत का कहना था कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए भी सिर्फ सीएनजी इस्तेमाल किया जाए, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डाला।

श्री राम नाईक का कहना था कि केंद्र सरकार सल्फर की कम मात्रा वाले डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में अदालत से कहेगी, क्योंकि पूरी यातायात व्यवस्था को सीएनजी पर निर्भर करना खतरनाक हो सकता है। राजधानी में सीएनजी की आपूर्ति पाईपलाइन के जरिए होती है और इसमें किसी किस्म की बाधा आने पर पूरी सार्वजनिक यातायात प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाएगी।
उत्तर:
दी गई रिपोर्ट को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि उक्त समस्या पर केंद्र और राज्य स्तर की सरकारें सक्रिय दिखाई देती हैं केन्द्र सरकार और राज्य स्तर (दिल्ली) की सरकार अर्थात् दिल्ली की सरकारें सर्वोच्च न्यायालय को सीएनजी विवाद पर संयुक्त रूप से अपना पक्ष प्रस्तुत करने को सहमत हैं।

(क) प्रदूषण से बचने के लिए यह निश्चित किया गया कि राजधानी में सरकारी तथा निजी दोनों प्रकार की बसों में सीएनजी के प्रयोग से छूट देने पर रोक लगाई जाएगी, परंतु टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए न्यायालय ने कभी सीएनजी के लिए दबाव नहीं डाला।

(ख) राजधानी में प्रदूषण हटाने हेतु सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि केवल सीएनजी वाली बसें ही महानगर में चलाई जाएँ। साथ-ही-साथ यह भी किया गया कि निजी वाहनों के मालिक को सीएनजी के प्रयोग के लिए प्रेरित किया जाएगा। इसके अतिरिक्त केन्द्र सरकार तथा दिल्ली सरकार दोनों को अलग-अलग शपथ पत्र दाखिल करने को कहा गया।

(ग) प्रस्तुत रिपोर्ट में नीतिगत मुद्दा प्रदूषण हटाने से संबंधित है। सभी व्यावसायिक वाहन जो यूरो-2 मानक को पूरा करते हैं, उन्हें शहर में चलाने की अनुमति दी जाए। साथ ही सरकार यह भी चाहती थी कि समय-सीमा बढ़ाई जाए, क्योंकि 10,000 बसों को एक निश्चित अवधि में सीएनजी में परिवर्तित करना आसान काम नहीं है।

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथन इक्वाडोर के बारे में है। इस उदाहरण और भारत की न्यायपालिका के बीच आप क्या समानता अथवा असमानता पाते हैं? सामान्य कानूनों की कोई संहिता अथवा पहले सुनाया गया कोई न्यायिक फैसला मौजूद होता तो पत्रकार के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिलती। दुर्भाग्य से इक्वाडोर की अदालत इस रीति से काम नहीं करती। पिछले मामलों में उच्चतर अदालत के न्यायाधीशों ने जो फैसले दिए हैं उन्हें कोई न्यायाधीश उदाहरण के रूप में मानने के लिए बाध्य नहीं है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत इक्वाडोर (अथवा दक्षिण अमेरिका में किसी और देश) में जिस न्यायाधीश के सामने अपील की गई है उसे अपना फैसला और उसका का आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाकर कल उसी मामले में दूसरा फैसला दे सकता है और इसमें उसे यह बताने की जरूरत नहीं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
उत्तर:
उक्त उदाहरण और भारत की न्यायपालिका में बहुत असमानता है। भारत में न्यायिक निर्णय एक अभिलेख बन जाता है। सर्वोच्च न्यायालय अथवा प्रसिद्ध न्यायाधीशों के निर्णय दूसरे न्यायालयों में उदाहरण बन जाते हैं। भारत के न्यायाधीश संविधान के अनुसार अपने विवेक से, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होकर निर्णय देते हैं। आवश्यकता पड़ने पर कानून अथवा संविधान में संशोधन करते हैं। इक्वाडोर की अदालत में इस प्रकार से कार्य नहीं किया जाता। वहाँ की कार्य-प्रणाली भारत से बिल्कुल विपरीत है। वहाँ अदालत बिना कोई कारण बताए एक दिन एक तरह से तो दूसरे दिन दूसरी तरह से निर्णय देती है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित कथनों को पढ़िए और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल में लाए जाने वाले विभिन्न क्षेत्राधिकार मसलन – मूल, अपीली और परामर्शकारी – से इनका मिलान कीजिए।
(क) सरकार जानना चाहती थी कि क्या वह पाकिस्तान – अधिग्रहीत जम्मू-कश्मीर के निवासियों की नागरिकता के संबंध में कानून पारित कर सकती है।
(ख) कावेरी नदी के जल. विवाद के समाधान के लिए तमिलनाडु सरकार अदालत की शरण लेना चाहती है।
(ग) बांध स्थल से हटाए जाने के विरुद्ध लोगों द्वारा की गई अपील को अदालत ने ठुकरा दिया।
उत्तर:

कयन क्षेत्राधिकार
(क) सरकार जानना …………………. पारित कर सकती है? परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार
(ख) कावेरी नदी के जल वियाद …………………. लेना चाहती है। मूल क्षेत्राधिकार
(ग) बाँध स्थल से हटाए जाने के …………………. ठुकरा दिया। अपीलीय क्षेत्राधिकार

प्रश्न 8.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन न्याय पाने का अधिकार उसी व्यक्ति को होता है जिसके मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण होता है, परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 32 को बहुत व्यापक कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि न्यायिक प्रक्रिया लोकहित में सरल और सुलभ हो गई और दलित, निर्धन, पिछड़े, निरक्षर एवं अक्षम लोगों को शीघ्र न्याय मिलने लगा।

इस प्रकार न्यायिक सक्रियता का इतिहास जन-हित के लिए की गई मुकद्दमेबाजी से जुड़ा है। इस दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण शुरुआत 1978 ई० में विख्यात ठग चार्ल्स शोभराज के उच्चतम न्यायालय को लिखे उस पत्र से हुई जिसमें उसने यह शिकायत की थी कि उसे व उसके साथियों को जेल-खाने में भयंकर यन्त्रणा से गुजरना पड़ रहा है।

न्यायालय ने उस पत्र के आधार पर जेल-खानों की दशा की जाँच का आदेश दिया। बाद में सामाजिक न्यायिक संगठनों द्वारा उठाए गए मुद्दों को लेकर और भी बहुत-से मा की जाँच-पड़ताल की गई। उन दिनों उच्चतम न्यायालय के दो प्रमुख न्यायाधीशों (न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर और जस्टिस भगवती) ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि जन-हित के मामलों में यह नहीं देखा जाएगा कि दुःख या कष्ट सहने वाला व्यक्ति स्वयं न्यायालय के द्वार पर दस्तक देता है या उसकी ओर से कोई अन्य व्यक्ति या संगठन अदालत का दरवाजा खटखटा रहे हैं।

अभिप्राय यह है कि कोई भी जनहितैषी व्यक्ति या संस्था जन-हित के मामले को न्यायालय में उठा सकते हैं। गरीब, अनपढ़ और सताए गए लोगों की एवज में दूसरे व्यक्ति भी न्याय माँगने का अधिकार रखते हैं। इतना ही नहीं जागरूक नागरिकों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे देश के अभागे लोगों के मामलों को न्यायालय में उठाने के लिए तैयार हों। इससे गरीबों और आरक्षित लोगों को अपने अधिकारों को लागू करवाने के लिए न्यायालयों में पहुंच पाने के अवसर मिलेंगे। इस तरह जनहित याचिका की स्वीकृति है। न्याय व्यवस्था अधिक लोकतांत्रिक बनी और गरीबों के लिए न्याय प्राप्ति के द्वार खुले।

प्रश्न 9.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर:
न्यायपालिका की न्यायिक सक्रियता के कारण कार्यपालिका और न्यायपालिका में न केवल विरोध पनपा है बल्कि इसको लेकर कार्यपालिका और विधायिका में भय भी पैदा हुआ है। संविधान के अनुसार न्यायपालिका एवं विधायिका द्वारा निर्मित कानूनों का न्यायिक पुनर्वालोकन कर सकती है और यह देख सकता हैं कि विधायिका द्वारा निर्मित कानून संविधान के अनुकूल है या नहीं। कानून के संविधान के प्रतिकूल पाए जाने पर न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित कर सकती है।

जैसे संसद द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्बन्धी राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन से सम्बन्धी संवैधानिक संशोधन को न्यायपालिका ने असंवैधानिक घोषित किया। ऐसी स्थिति में कार्यपालिका निश्चित रूप से असहज की स्थिति में भी आ गई और इसे सरकार ने बढ़ती न्यायिक सक्रियता की चिन्ता जाहिर की। अतः स्पष्ट है कि न्यायपालिका की ऐसी शक्ति से दोनों अंगों के बीच विरोध पनपा है। इसी प्रकार, अपने कर्तव्यों के निर्वहन में अपनी शक्तियों का अतिक्रमण करने वाली कार्यपालिका, न्यायपालिका द्वारा नियंत्रित की जा सकती है।

हाँ, दूसरी तरफ जब न्यायपालिका अपने सीमा क्षेत्र का अतिक्रमण करती है, तो विधायिका, विधि या संविधान में संशोधन करके न्यायपालिका के कार्य का परिसीमन कर सकती है। संविधान में तीनों अंगों में नियंत्रण एवं संतुलन कायम किया जाता है। अतः सरकार के तीनों अंगों को मिल-जुलकर कार्य करना चाहिए। जिससे टकराव की स्थिति पैदा ही न हो; जैसे दिल्ली – में सीएनजी बसों का चालन, वायु प्रदूषण, भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच, चुनाव सुधार जैसे मुद्दों पर।

प्रश्न 10.
न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से किस रूप में जुड़ी है? क्या इससे मौलिक अधिकारों के विषय-क्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है?
उत्तर:
न्यायिक सक्रियता ने मानवीय अधिकारों की रक्षा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। न्यायिक क्रियाशीलता के अभाव में गैर-कानूनी, नजरबन्दी, बच्चों के शोषण के मामले, स्रियों के शोषण के मामले, स्त्रियों के अनैतिक व्यापार के मामले आदि जनता के सामने नहीं आते। यद्यपि भारतीय संविधान में लोगों को अपने अधिकारों की रक्षा का अधिकार प्राप्त है। वे अधिकारों की अवहेलना की स्थिति में न्यायपालिका का दरवाजा खटखटा सकते हैं। परन्तु बहुत कम लोग ऐसा करते हैं।

क्योंकि उनके पास इतने साधन नहीं होते। धन के अभाव तथा जानकारी के अभाव में लोगों के अधिकारों का लगातार हनन होता रहता है। लेकिन न्यायिक क्रियाशीलता ने सार्वजनिक हित की मुकद्दमेबाजी को जन्म दिया है जिसके द्वारा आम जनता के अधिकारों या मानवाधिकारों की रक्षा होती है। इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मान्यता पर बल देता है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन का अर्थ केवल भौतिक अस्तित्व की सुरक्षा मात्र नहीं है बल्कि उसकी समस्त नैसर्गिक शक्तियाँ भी हैं। मानव प्रतिष्ठा के साथ-साथ जीवनयापन के अधिकार को इस मौलिक अधिकार के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है।

न्यायपालिका HBSE 11th Class Political Science Notes

→ भूमिका न्यायपालिका सरकार का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है। इसका मुख्य कार्य विधानमण्डल द्वारा बनाए गए कानूनों की व्याख्या करना तथा उन्हें तोड़ने वालों को दण्ड देना है।

→ एक राज्य में विधानमण्डल तथा कार्यपालिका की व्यवस्था चाहे कितनी भी अच्छी तथा श्रेष्ठ क्यों न हो, परन्तु यदि न्याय-व्यवस्था दोषपूर्ण है अर्थात् निष्पक्ष तथा स्वतंत्र नहीं है, तो नागरिकों का जीवन सुखी नहीं रह सकता।

→ न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती है और उन्हें सरकार के अत्याचारों से बचाती है। संघीय राज्यों में न्यायपालिका का महत्त्व और अधिक होता है, क्योंकि न्यायपालिका संविधान की रक्षा करती है और केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों के बीच उत्पन्न होने वाले झगड़ों का निपटारा करती है।

→ लॉर्ड ब्राईस (Lord Bryce) ने ठीक ही लिखा है, “किसी शासन की श्रेष्ठता जानने के लिए उसकी न्याय-व्यवस्था की कुशलता से बढ़कर और कोई अच्छी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और वस्तु का नागरिक की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना उसके इस ज्ञान से कि वह एक निश्चित, शीघ्र तथा निष्पक्ष न्याय व्यवस्था पर निर्भर करता है।”

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