HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 2 पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 2 पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 2 पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन

प्रश्न 1.
एक आवृतबीजी पुष्प के उन अंगों के नाम बताएँ जहाँ नर एवं मादा युग्मकोद्भिद का विकास होता है।
उत्तर:
नर युग्मकोद्भिद का विकास पुंकेसर के परागकोश में, परागकण (pollen grain) के रूप में होता है तथा मादा युग्मकोद्भिद अण्डाशय में बीजाण्ड के अन्दर का विकास स्त्रीकेसर (Pistil ) के भ्रूणकोश (embryo sac) के रूप में होता है।

प्रश्न 2.
लघुबीजाणुधानी तथा गुरुबीजाणुधानी के बीच अंतर स्पष्ट करें? इन घटनाओं के दौरान किस प्रकार का कोशिका विभाजन सम्पन्न होता है? इन दोनों घटनाओं के अंत में बनने वाली संरचनाओं के नाम बताएँ ?
उत्तर:
आवृतबीजी पादपों में लघुबीजाणुधानी का तात्पर्य पराग पुट (pollen sac) से तथा गुरुबीजाणुधानी का अर्थ बीजाण्ड (ovule) से होता है। इन दोनों में लघुबीजाणुजनन (microsporogenesis) तथा बीजाणुजनन (megasporogenesis) की घटनाएँ होती हैं व इनके अन्तर को बताया जा रहा है। इन दोनों में अर्धसूत्री विभाजन होता है।

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लघुबीजाणुजनन (Microsporogenesis):
इसमें परागकोशों में परागपुट के विकास के समय लघुबीजाणु –
1. मातृ कोशिका बनती हैं जिनमें अर्धसूत्री विभाजन होने से लघुबीजाणु या परागकण (pollen grain ) बनते हैं।
2. परागपुट में अनेक लघुबीजाणु मातृ कोशिकायें बनती हैं। प्रत्येक कोशिका में अर्धसूत्री विभाजन होकर चार लघुबीजाणु बनते हैं। इस प्रकार इनकी संख्या अधिक होती है।
3. इसके सभी लघुबीजाणु कार्यशील होते हैं।

गुरुबीजाणुजनन (Megasporogenesis):
1. इस प्रक्रिया के दौरान बीजाण्ड में गुरुबीजाणु मातृ कोशिका में अर्धसूत्री विभाजन होकर चार गुरुबीजाणु बनते हैं।
2. एक बीजाण्ड में केवल एक ही गुरुबीजाणु मातृ कोशिका होती है जिसमें अर्धसूत्री विभाजन होने से केवल चार ही गुरुबीजाणु बनते हैं।
3. इसमें तीन निष्क्रिय होते हैं तथा केवल एक कार्यशील होता है। कार्यशील गुरुबीजाणु बीजाण्डद्वार से दूरस्थ वाला होता है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दावलियों को सही विकासीय क्रम में व्यवस्थित करें- परागकण, बीजाणुजन ऊतक, लघुबीजाणु चतुष्क, परागमातृ कोशिका, नर युग्मक।
उत्तर:
उपर्युक्त शब्दावलियों का विकासीय क्रमानुसार सही क्रम निम्न प्रकार से है- बीजाणुजन ऊतक, पराग मातृ कोशिका, लघुबीजाणु चतुष्क, परागकण, नर युग्मक।

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प्रश्न 4.
एक प्ररूपी आवृतबीजी बीजाण्ड के भागों का विवरण दिखाते हुए एक स्पष्ट एवं साफ-सुथरा नामांकित चित्र बनाएँ।
उत्तर:
बीजाण्ड की संरचना इसके अनुदैर्घ्य काट के अध्ययन से अधिक स्पष्ट हो जाती है। बीजाण्ड एक गोलाकार संरचना होती है जो कि बीजाण्डासन (Placenta ) के साथ बीजाण्ड वृन्त (Funicle) द्वारा जुड़ी रहती है। बीजाण्डकाय का वह स्थान जहाँ पर बीजाण्ड वृन्त जुड़ा रहता है, नाभिक (Hilum) कहलाता है। सामान्यतः पाया जाने वाला प्रतीप (Anatropous) बीजाण्ड में बीजाण्ड वृन्त, नाभिका से ऊपर बीजाण्ड की काय (Body) के साथ चलकर एक कटक (Ridge) बनाता है जिसे रैफी (Raphe) कहते हैं। बीजाण्ड की काय का आधार जहाँ से अध्यावरण निकलते हैं, निभाग (chalaza ) कहलाता है। बीजाण्ड का मुख्य शरीर एक बीजाण्डकाय ( Nucellus) का बना होता है, जिसमें एक भ्रूण कोश (Embryo sac ) रहता है। बीजाण्डकाय जहाँ से अध्यावरण निकलते हैं, निभाग (chalaza) कहलाता है। बीजाण्ड का मुख्य शरीर एक बीजाण्डकाय ( Nucellus ) का बना होता है, जिसमें एक भ्रूण कोश (Embryo sac ) रहता है।

बीजाण्डकाय प्रायः एक या दो आवरणों से घिरा रहता है जिन्हें अध्यावरण कहते हैं । बाहरी आवरण को बाह्य अध्यावरण (outer integument) तथा अन्दर वाले आवरण को अन्त: अध्यावरण (inner integument) कहते हैं। बीजाण्ड पर अध्यावरणों की संख्या दो होने पर द्विअध्यावरणी (bitegmic) तथा एक होने पर एकअध्यावरणी ( unitegmic) बीजाण्ड कहते हैं। कुछ बीजाण्डों में अध्यावरण अनुपस्थित होता है, तब बीजाण्ड को अध्यावरण रहित (ategmic) कहते हैं । अध्यावरण बीजाण्डकाय को चारों ओर से घेरे रहते हैं और सिर्फ एक संकरा द्वार बनाते हैं, जिसे बीजाण्डद्वार ( Micropyle) कहते हैं। बीजाण्ड का बीजाण्डद्वार पराग नलिका को बीजाण्ड में प्रवेश देता है।

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बीजाण्डकाय में बीजाण्डद्वार के समीप भ्रूणकोश (embryo sac ) पाया जाता है। भ्रूणकोश में सात कोशिकायें उपस्थित होती हैं। बीजाण्डद्वार की ओर स्थित तीन कोशिकायें अण्ड उपकरण या अण्ड समुच्चय (egg apparatus) बनाती हैं। अण्ड उपकरण में स्थित बीच की कोशिका बड़ी व नाशपाती आकार की अण्डकोशिका (egg cell) होती है व शेष दो पार्श्व स्थित कोशिकायें सहायक कोशिकायें (synergids) होती हैं। निभाग की ओर स्थित तीन कोशिकायें प्रतिमुखी कोशिकायें (antipodal cells) होती हैं। भ्रूणकोश के मध्य केन्द्रीय कोशिका (central cell) उपस्थित होती है, जिसमें दो अगुणित ध्रुवीय केन्द्रक (polar nuclei) उपस्थित होते हैं । ध्रुवीय केन्द्रक बाद में संयुक्त होकर द्विगुणित (2n) द्वितीयक केन्द्रक (secondary nucleus ) बनाते हैं।

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प्रश्न 5.
आप मादा युग्मकोद्भिद के एकबीजाणुज विकास से क्या समझते हैं?
उत्तर:
बीजाण्ड में जब गुरुबीजाणुजनन की क्रिया होती है। अर्थात् जब गुरुबीजाणुमातृकोशिका का अर्धसूत्री विभाजन होता है तो उससे चार गुरुबीजाणु कोशिकाएँ बनती हैं, इनमें से ऊपर की तीन गुरुबीजाणु कोशिकाएँ नष्ट हो जाती हैं तथा शेष एक सबसे नीचे का गुरुबीजाणु कार्यशील रहता है। यही कार्यशील गुरुबीजाणु मादा युग्मकोद्भिद (भ्रूणकोश) का विकास करता है। इस प्रकार एक अकेले गुरुबीजाणु से भ्रूणकोश के बनने की विधि को एकबीजाणुज (monosporic) विकास कहते हैं।

प्रश्न 6.
एक स्पष्ट एवं साफ-सुथरे चित्र के द्वारा परिपक्व मादा युग्मकोद्भिद के 7-कोशीय, 8-न्यूक्लियेट ( केन्द्रक) प्रकृति की व्याख्या करें।
उत्तर:
सक्रिय गुरुबीजाणु अगुणित तथा मादा युग्मकोद्भिद की प्रथम कोशिका होती है अर्थात् सक्रिय गुरुबीजाणु से ही मादा युग्मकोद्भिद का निर्माण होता है। इसी कोशिका को भ्रूणकोश मातृ कोशिका भी कहते हैं। सक्रिय गुरुबीजाणु आकार में बढ़ता है जिससे इसमें छोटी-छोटी रिक्तिकायें प्रकट हो जाती हैं। गुरुबीजाणु के केन्द्रक में तीन समसूत्री विभाजन होने से आठ केन्द्रक बनते हैं।

प्रथम विभाजन से बने दो केन्द्रों में से एक-एक केन्द्रक विपरीत ध्रुवों (बीजाण्डद्वार तथा निभाग की ओर) पर स्थित हो जाते हैं। प्रत्येक केन्द्रक पुनः दो बार विभाजित होकर चार-चार केन्द्रक बनाते हैं, अर्थात् कुल आठ केन्द्रक हो जाते हैं। धीरे-धीरे गुरुबीजाणु आकृति में बढ़कर एक थैले के समान हो जाता है, जिसे भ्रूणकोश (Embryo-sac) कहते हैं। इसमें प्रत्येक ध्रुव पर चार-चार केन्द्रक होते हैं।
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दोनों ध्रुवों से एक-एक केन्द्रक कोशिका के केन्द्र की ओर आने लगते हैं, इन केन्द्रकों को ध्रुवीय केन्द्रक (Polar nuclei) कहते हैं । ये दोनों केन्द्रक कोशिका के मध्य में आकर संयुक्त होकर द्विगुणित द्वितीयक केन्द्रक (Secondary nucleus) बनाते हैं। अब दोनों ध्रुवों पर शेष रहे तीन-तीन केन्द्रक अपने चारों ओर कोशिका द्रव्य एकत्रित करके कोशिकाओं का निर्माण करते हैं। बीजाण्डद्वार की ओर स्थित कोशिकाएँ अण्ड समुच्चय या अण्ड उपकरण (Egg Apparatus) का निर्माण करती हैं ।

अण्ड समुच्चय में एक अण्ड कोशिका तथा शेष दो सहायक कोशिकाएँ (Synergids) होती हैं। दूसरे ध्रुव अर्थात् निभाग की ओर वाली तीनों कोशिकाएँ प्रतिमुखी कोशिकाएँ (Antipodal cells) बनाती हैं। इस प्रकार एक गुरुबीजाणु मादा युग्मकोद्भिद (Female gametophyte ) या भ्रूणकोश (Embryo- sac) का निर्माण करता है। अधिकांश आवृतबीजी पादपों में भ्रूणकोश का विकास इसी प्रकार का होता है।

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प्रश्न 7.
उन्मील परागणी पुष्पों से क्या तात्पर्य है? क्या अनुन्मीलिय पुष्पों में परपरागण सम्पन्न होता है? अपने उत्तर की सतर्क व्याख्या करें।
उत्तर:
वायोला (पानसी), ओक्जेलीस तथा कोमेलीना (कनकौआ) दो प्रकार के पुष्प पैदा करते हैं-उन्मीलपरागणी पुष्प (Chasmogamous flower); ये अन्य प्रजाति के पुष्पों के समान ही होते हैं, इनके परागकोश एवं वर्तिकाग्र अनावृत होते हैं तथा अनुन्मील्य परागणी पुष्प (Cleistogamous flower) कभी भी अनावृत नहीं होते हैं। इस प्रकार के पुष्पों में, परागकोश एवं वर्तिकाग्र एक-दूसरे के बिल्कुल नजदीक स्थित होते हैं । जब पुष्प कलिका में परागकोश स्फुटित होते हैं तब परागकण वर्तिकाग्र के सम्पर्क में आकर परागण को प्रभावित करते हैं । अतः अनुन्मील्य परागणी पुष्प सदैव स्वयुग्मक (autogamy) होते हैं ( चित्र 2.13 )। उन्मीलपरागणी पुष्प अन्य पौधों के पुष्पों की भाँति अनावृत होने से इनमें पर- परागण की सम्भावना रहती है।
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प्रश्न 8.
पुष्पों द्वारा स्व- परागण रोकने के लिये विकसित की गई दो कार्यनीति का विवरण दें।
उत्तर:
कुछ पौधों के पुष्पों में दोनों लिंग अर्थात् पुंकेसर व जायांग स्थित होने के बावजूद भी इस प्रकार की कार्यनीति होती है जिसके कारण उनमें स्वपरागण नहीं हो पाता है। यहाँ इस प्रकार की दो कार्यनीति का विवरण दिया जा रहा है –

1. एकलिंगता (Unisexuality or Dicliny ) – कुछ पौधों में पुष्प एकलिंगी होते हैं । ऐसे पुष्पों में या तो पुंकेसर या जायांग होता है। जिन पुष्पों में केवल पुंकेसर होते हैं उन्हें पुंकेसरी ( Staminate) और जिन पुष्पों में केवल अण्डप ( जायांग) ही मिलते हैं उन्हें स्त्रीकेसरी (Pistillate) कहते हैं, उदाहरण- पपीता

2. स्वबंध्यता (Self-sterility ) – कुछ पौधों में एक पुष्प का परागकण उसी पुष्प की वर्तिकाग्र पर पहुँचने पर भी अंकुरित नहीं होता है। इस प्रकार के परागण में अण्डप भी उद्दीप्त नहीं होता है। इस दशा को स्वबंध्यता कहते हैं, उदाहरण – राखीबेल (Passiflora ), अंगूर (Vitis) एवं सेब (Malus)। स्वबंध्यता एक पैतृक गुण है। ऐसा माना जाता है कि जब स्वपरागण होता है तो वर्तिका तथा वर्तिकाग्र की कोशिकाओं से कुछ ऐसे रासायनिक यौगिक स्रावित होते हैं जिसके फलस्वरूप परागण निष्फल हो जाता है।

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इन रासायनिक प्रक्रियाओं के कारण निम्नलिखित प्रभाव हो सकते हैं –

  • परागकोश से परागनली निकलते ही नष्ट हो जाती है।
  • परागकण से निकली परागनली बहुत ही मंद वृद्धि करती है और पर-परागण द्वारा आए हुए परागकण की परागनली बीजाण्ड में पहले पहुँच जाती है।
  • वर्तिका में बढ़ती हुई परागनली वापस ऊपर की ओर मुड़ जाती है।
  • वर्तिका और वर्तिकाग्र मुर्झा कर नष्ट हो जाते हैं। ये सभी प्रभाव स्व- परागण को रोकते हैं। इस कारण ऐसे पुष्पों में सदैव पर- परागण होता है। आर्किड, माल्वा और चाय की जातियों में स्वबंध्यता मिलती है।

प्रश्न 9.
स्व-अयोग्यता क्या है ? स्व – अयोग्यता वाली प्रजातियों में स्व- परागण प्रक्रिया बीज की रचना तक क्यों नहीं पहुंच पाती है?
उत्तर:
प्रकृति में कुछ पौधों में दूसरे पादपों से प्राप्त परागकणों के द्वारा ही निषेचन की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। इनका बीजाण्ड स्वयं के परागकणों के द्वारा निषेचित नहीं होता है। प्रकृति में इसके लिये पुष्पों के अनेक प्रकार के अनुकूलन लक्षण जैसे एकलिंगता ( unisexuality), भिन्नकाल पक्वन (dichogamy) तथा हरकोगेमी (herkogamy) इत्यादि के रूप में प्रदान किये हैं। इन अनुकूलन विशेषताओं के कारण पौधों में स्वपरागण की प्रक्रिया नहीं हो पाती है।

परन्तु इन सभी कारणों से बढ़कर स्व-अयोग्यता या स्व-अनिषेच्यता (self-incompatibility) एक ऐसा कारण है, जिनके द्वारा प्राकृतिक रूप से पर-परागण या पर-प्रजनन की प्रक्रिया को प्रोत्साहन प्राप्त होता है। स्व- अनिषेच्यता से हमारा तात्पर्य एक ही पौधे से उत्पन्न कार्यशील नर एवं मादा युग्मकों के आपस में संयोजित होने की विफलता एवं बीज निर्माण का नहीं हो पाना है । अन्य शब्दों में, किसी पुष्प में स्वपरागण एवं निषेचन की क्रिया का बाधित होना स्व – अयोग्यता या स्व-अनिषेच्यता कहलाता है। आकारिकी रूप से स्व-अनिषेच्यता दो प्रकार की होती है –

(i) विषमरूपी (Heteromorphic ) – जब एक ही प्रजाति में दो या तीन प्रकार की वर्तिकाओं के आकारिकीय रूप से विभेदित पौधे पाये जाते हैं तो इस प्रकार के आकारिकीय रूप से भिन्न एक ही प्रजाति के पादप स्व-अनिषेच्यता प्रदर्शित करते हैं। यह स्थिति प्रिमरोज (Primrose) के पौधों में पाई जाती है। इसका मुख्य कारण पुष्पों में विषमवर्तिकाग्रता (Heterostyly) होती है। इस पादप प्रजाति में दो प्रकार के पुष्प पाये जाते हैं –
(अ) पिन – आइड पुष्प (Pin-eyed flower) – इन पुष्पों में वर्तिका लम्बी एवं पुंकेसर छोटे होते हैं। अतः एक ही पुष्प के परागकण इसकी वर्तिका पर नहीं पहुंच पाते हैं।
(ब) श्रम – आइड पुष्प ( Thrum-eyed flowers) – इन पुष्पों में पुंकेसर एवं परागकण बड़े तथा वर्तिकाग्र वर्तिका छोटे होते हैं।

(ii) (Homomorphic incompatibility ) – इस प्रकार की स्वनिषेचन विफलता या अनिषेच्यता एक ही प्रजाति के एवं आकारिकी रूप से समान पौधों के बी पाई जाती है।

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प्रश्न 10.
बैगिंग (बोरावस्त्रावरण) या थैली लगाना तकनीक क्या है? पादप जनन कार्यक्रम में यह कैसे उपयोगी है?
उत्तर:
बैगिंग (Bagging) या थैली लगाने की तकनीकी का उपयोग संकरण प्रयोग में करते हैं। यदि कोई पुष्प द्विलिंगी है तो उपयोग संकरण प्रयोग में करते हैं। यदि कोई पुष्प द्विलिंगी है तो सर्वप्रथम पुंकेसरों को अपरिपक्व अवस्था में ही चिमटी की सहायता से हटा देते हैं, इस क्रिया को विपुंसन (emasculation) कहते हैं।

इन विपुंसित पुष्पों को उपयुक्त आकार की थैली से ढक देते हैं (बटर पेपर के पतले कागज से बनी ) जिससे इस पुष्प के वर्तिकाग्र को अवांछित परागों से बचाया जा सके। इस क्रिया को ही बैगिंग (या बोरावस्त्रावरण) कहते हैं। जब बैगिंग पुष्प का वर्तिकाग्र सुग्राह्यता को प्राप्त करता है, तब नर पौधे से संग्रहित परागकोश के परागकण को उस पर छिड़क देते हैं तथा पुन: उसे उस थैली से ढक देते हैं व उसे फल बनने तक छोड़ दिया जाता है।

इस विधि द्वारा एक प्रजनक अपनी वांछित परागकण को लाकर निषेचन क्रिया करवाता है। इसमें नर जनक के गुणों का ध्यान रहता है तथा उन गुणों को वह उस पौधे में समाहित करने में सक्षम होता है।

प्रश्न 11.
त्रि-संलयन क्या है? यह कहाँ और कैसे सम्पन्न होता है? त्रि-संलयन में सम्मिलित न्युक्लीआई का नाम बताएँ ।
उत्तर:
त्रि-संलयन में तीन अगुणित केन्द्रक का संलयन होता है। यह क्रिया भ्रूणकोश में होती है । इस क्रिया के दौरान दो ध्रुवीय केन्द्रक (ploar nuclei) सर्वप्रथम संयोजित होते हैं तथा फिर इनसे एक नर युग्मक संयोजित होकर त्रिगुणित ( 3N ) प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक (primary endosperm nucleus) बनाता है।
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प्रश्न 12.
एक निषेचित बीजाण्ड में, युग्मनज प्रसुप्ति के बारे में आप क्या सोचते हैं ?
उत्तर:
पुष्पीय पौधों में द्विनिषेचन की क्रिया होती है। जब एक नर – युग्मक अण्ड से संलयित होता है तो उससे द्विगुणित युग्मनज बनता है। युग्मनज विकसित होकर भ्रूण का निर्माण करता है, जो बीज में स्थित रहता है। भ्रूण भ्रूणकोश के बीजाण्डद्वारी सिरे पर विकसित होता है, जहाँ पर युग्मनज स्थित होता है। अधिकतर युग्मनज तब विभाजित होता है, जब कुछ निश्चित सीमा तक भ्रूणपोष (endosperm ) विकसित हो जाता है। यह एक प्रकार का अनुकूलन है ताकि विकासशील भ्रूण को सुनिश्चित पोषण प्राप्त हो सके। भ्रूणपोष का जैसे ही विकास हो जाता है, त्यों ही युग्मनज का विकास भ्रूण में होने लगता है।

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प्रश्न 13.
इनमें विभेद करें –
(क) बीजपत्राधार और बीजपत्रोपरिक
(ख) प्रांकुर चोल तथा मूलांकुर चोल
(ग) अध्यावरण तथा बीजचोल
(घ) परिभ्रूणपोष एवं फल भित्ति।
उत्तर:
(क) बीजपत्राधार और बीजपत्रो परिक (Hypocotyl and epicotyl ) – उदाहरणार्थ – एक प्ररूपी द्विबीजपत्री भ्रूण में एक भ्रूणीय अक्ष ( embryo axis) तथा दो बीजपत्र (cotyledon) होते हैं। बीजपत्र के स्तर से ऊपर भ्रूणीय अक्ष के भाग के बीजपत्रोपरिक (epicotyl ) तथा बीजपत्रों के स्तर से नीचे भ्रूणीय अक्ष के भाग को बीजपत्राधार (hypocotyl) कहते हैं। बीजपत्राधार से मूलांकुर या मूलशीर्ष (root tip ) व बीजपत्रोपरिक से प्रांकुर (plumule) या स्तम्भ शीर्ष (shoot tip ) बनती है।

(ख) प्रांकुर चोल तथा मूलांकुर चोल (coleoptile and coleorrhiza) – उदाहरणार्थ – एकबीजपत्रीय पादपों के बीजों में केवल एक बीजपत्र होता है। घास कुल में बीजपत्र को प्रशल्क (scutellum) कहते हैं, जो भ्रूणीय अक्ष के एक तरफ (पार्श्व की ओर ) स्थित होता है। इसके निचले सिरे पर भ्रूणीय अक्ष में एक मूल आवरण होता है जो बिना विभेदित पर्त से आवृत होता है, जिसे मूलांकुर (coleorrhiza) कहते हैं । स्कुलम या प्रशल्क के जुड़ाव के स्तर से ऊपर, भ्रूणीय अक्ष के भाग को बीजपत्रोपरिक (epicotyl) कहते हैं। बीजपत्रोपरिक में प्ररोह शीर्ष तथा कुछ आदिकालिक (primordia) पर्ण होते हैं, जो एक खोखली – पर्णीय संरचना को घेरते हैं, जिसे प्रांकुरचोल (coleoptile) कहते हैं।
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(ग) अध्यावरण तथा बीजचोल ( Integument and seed-coat) – एक बीजाण्ड के बाहरी संरक्षी आवरण को अध्यावरण कहते हैं। प्राय: बीजाण्ड पर एक या दो अध्यावरण होते हैं। एक बीज का ऊपरी संरक्षणी आवरण या पर्त बीजचोल होता है। बीजचोल दो परत का होता है।

(घ) परिभ्रूणपोष एवं फल भित्ति (Perisperm and fruit wall) – बीजाण्ड के शरीर को बीजाण्डकाय (nucellus) कहते हैं, जो मृदूतक कोशिकाओं से बना होता है। निषेचन क्रिया के उपरान्त बीजाण्ड, बीज में परिवर्तित हो जाता है। बीजाण्ड से बीज बनने की प्रक्रिया के दौरान इसमें उपस्थित भ्रूणपोष का उपयोग भ्रूण पोषण के रूप में करता है। अतः परिपक्व बीज में भ्रूणपोष उपस्थित या अनुपस्थित हो सकता है। किन्तु कुछ बीजों में बीजाण्डकाय (nucellus ) का कुछ भाग शेष रह जाता है। इस बचे हुये बीजाण्डकाय के भाग को परिभ्रूणपोष कहते हैं, उदाहरण – काली मिर्च, चुकन्दर इत्यादि। निषेचन की क्रिया की उत्तेजना फलस्वरूप अंडाशय एक फल के रूप में विकसित हो जाता है। अंडाशय की भित्ति, फल के छिलके के रूप में विकसित हो जाती है, जिसे फल भित्ति कहते हैं।

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प्रश्न 14.
एक सेब को आभासी फल क्यों कहते हैं? पुष्प का कौनसा भाग फल की रचना करता है?
उत्तर:
फल का निर्माण अंडाशय (ovary) से होता है। निषेचन के फलस्वरूप जब फल विकसित होता रहता है तब पुष्प के अन्य भाग स्वत: ही झड़ते जाते हैं। सेब में फल का निर्माण पुष्पासन (thalamus) से होता है, अतः ऐसे फल जो अंडाशय से परिवर्धित न होकर पुष्प के अन्य भाग से विकसित होते हैं, उन्हें आभासी फल (false fruit) कहते हैं।

प्रश्न 15.
विपुंसन से क्या तात्पर्य है? एक पादप प्रजनक कब और क्यों इस तकनीक का प्रयोग करता है?
उत्तर:
जब कोई मादा जनक द्विलिंगी पुष्प धारण करता है तो इसमें से अपरिपक्व परागकोश को चिमटी की सहायता से निकाल देते हैं, इससे पुष्प में केवल मादा जनन अंग ही बचता है। पुष्प में से परागकोश को हटाने की प्रक्रिया को विपुंसन कहते हैं। पादप प्रजनक इस विधि का उपयोग संकरण क्रिया में करते हैं। संकरण विधि से उन्नत लक्षणों वाली फसल तैयार की जाती है। ऐसे संकरण प्रयोगों में नर पौधों का लक्षणों के आधार पर चयन करने के उपरान्त उसके परागकण संग्रहित करके मादा पुष्पों के वर्तिकाग्र फिर छिड़क दिये जाते हैं, जिससे उन्नत किस्म के बीज तैयार होते हैं। पादप प्रजनक इस विधि का उपयोग संकरण क्रिया में करते हैं। संकरण विधि से उन्नत लक्षणों वाली फसल तैयार की जाती है। ऐसे संकरण प्रयोगों में नर पौधों का लक्षणों के आधार पर चयन करने के उपरान्त उसके परागकण संग्रहित करके मादा पुष्पों के वर्तिकाग्र फिर छिड़क दिये जाते हैं, जिससे उन्नत किस्म के बीज तैयार होते हैं।

प्रश्न 16.
यदि कोई व्यक्ति वृद्धिकारकों का प्रयोग करते हुये अनिषेकजनन को प्रेरित करता है तो आप प्रेरित अनिषेकजनन के लिये कौनसा फल चुनते हैं और क्यों?
उत्तर:
कुछ पौधों में फल का निर्माण बिना निषेचन के होता है। ऐसे फलों को अनिषेकजनित फल (parthenocarpic fruit) कहते हैं, जैसे – केला। अनिषेकफलन को वृद्धि हार्मोन्स के प्रयोग से प्रेरित किया जा सकता है। इस प्रकार के फल बीजरहित होते हैं। प्रेरित अनिषेकजनन हेतु हम तरबूज का चयन करेंगे क्योंकि तरबूज के गूदे को खाते समय बीजों से परेशानी होती है। वर्तमान में बाजार में बिकने वाले अनेक बीजरहित फल प्रेरित अनिषेकजनन द्वारा तैयार किये गये हैं, जैसे- पपीता, खरबूजा, तरबूज आदि।

प्रश्न 17.
परागकण भित्ति रचना में टेपीटम की भूमिका की व्याख्या करें।
उत्तर:
एक लघुबीजाणु चार भित्ति परतों से आवरित होती है। सबसे बाहरी परत बाह्यत्वचा (epidermis ), उसके नीचे अंतस्थीसियम (endothecium) तथा फिर मध्य पर्तें (middle layer) व सबसे अन्दर की परत टेपीटम (tapetum) होती है। टेपीटम बीजाणुजन ऊतक (sporogenous tissue) को घेरे रहती है। टेपीटम की कोशिकाएँ सघन जीवद्रव्य से भरी रहती हैं व इनमें एक से अधिक केन्द्रक होते हैं। टेपीटम एक पोषक ऊतक है। यह विकास करते हुये बीजाणुओं को पोषण प्रदान करती है।

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प्रश्न 18.
असंगजनन क्या है और इसका क्या महत्त्व है?
उत्तर:
सामान्यतः बीज का निर्माण निषेचन क्रिया के उपरान्त होता है। किन्तु कुछ पुष्पी पादपों जैसे कि सूरजमुखी कुल (Asteraceal family) व घासों में बिना निषेचन के ही बीज उत्पन्न हो जाते हैं, इस प्रक्रिया को असंगजनन (Apomixis) कहते हैं। इस प्रकार असंगजनन अलैंगिक प्रजनन है। असंगजनीय बीजों के विकास के अनेक तरीके हैं। जैसे कुछ जातियों में द्विगुणित अंडकोशिका का निर्माण बिना अर्धसूत्री विभाजन के होता है, जो बिना निषेचन के ही भ्रूण में विकसित हो जाता है । नींबू वंश (Citrus ) तथा आम की किस्मों में कभी-कभी भ्रूणकोश के आस-पास की कुछ बीजाण्ड कायिक कोशिकाएँ विभाजित होकर भ्रूणकोश में प्रोद्बधी (Protude) होकर भ्रूण के रूप में विकसित होती हैं।

बहुत से हमारे खाद्य एवं शाक फसलों की संकर किस्मों को उगाया गया है। संकर किस्मों की खेती ने उत्पादकता को विस्मयकारी ढंग से बढ़ा दिया है। संकर बीजों की एक समस्या यह है कि उन्हें हर साल उगाया (पैदा किया) जाना चाहिए। यदि संकर किस्म का संगृहीत बीज को बुआई करके प्राप्त किया गया है तो उसकी पादप संतति पृथक्कृत होगी और वह संकर बीज की विशिष्टता को यथावत् नहीं रख पाएगा। यदि यह संकर (बीज) असंगजनन से तैयार की जाती है तो संकर संतति में कोई पृथक्करण की विशिष्टताएँ नहीं होंगी। इसके बाद किसान प्रतिवर्ष फसल दर फसल संकर बीजों का उपयोग जारी रख सकते हैं और उसे प्रतिवर्ष संकर बीजों को खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

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