Author name: Bhagya

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 5 आँकड़ो का प्रबंधन Ex 5.1

Haryana State Board HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 5 आँकड़ो का प्रबंधन Ex 5.1 Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 8th Class Maths Solutions Chapter 5 आँकड़ो का प्रबंधन Ex 5.1

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से किन आँकड़ों को दर्शाने के लिए आप एक आयत चित्र का प्रयोग करेंगे?
(a) एक डाकिये के थैले में विभिन्न क्षेत्रों के पत्रों की संख्या।
(b) किसी खेलकूद प्रतियोगिता में प्रत्याशियों की ऊँचाइयाँ।
(c) 5 कम्पनियों द्वारा निर्मित कैसेटों की संख्या।
(d) किसी स्टेशन पर प्रातः 7 बजे से सायं 7 बजे तक रेलगाड़ियों से जाने वाले यात्रियों की संख्या। (प्रत्येक के लिए कारण भी दीजिए।)
हल :
(a) विभिन्न क्षेत्रों के पत्रों की संख्या को हम आँकड़ों द्वारा आयत चित्र में नहीं दर्शा सकते हैं।
(b) किसी खेलकुद प्रतियोगिता में प्रत्याशियों की ऊँचाइयों के आँकड़ों को वर्ग-अन्तराल से विभाजित किया जा सकता है । अतः इस आँकड़े को दर्शाने के लिए एक आयत चित्र का प्रयोग कर सकते है।
(c) कैसेटों की संख्या के आँकड़ों को वर्ग-अन्तराल में विभाजित नहीं किया जा सकता है । अतः इसे हम आयत चित्र में नहीं दर्शा सकते हैं।
(d) यात्रियों की संख्या आयत चित्र द्वारा दर्शाई जा सकती है, क्योंकि इन आँकड़ों को वर्ग-अन्तराल में विभाजित किया जा सकता है।

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प्रश्न 2.
किसी विभागीय स्टोर पर खरीदारी करने आये व्यक्तियों को इस प्रकार अंकित किया जाता हैपुरुष (M), महिला (W), लड़का (B) या लड़की (G)।
निम्नलिखित सूची उन खरीदारों को दर्शाती है, जो प्रातःकाल पहले घंटे में आये हैं-
W W W G B W W M G G M M W W W W
G B M W B G G M W W M M W W W M
W B W G M W W W W G W M M W W M W G
W M G W M M B G G W.
मिलान चिन्हों का प्रयोग करते हुए एक बारम्बारता बंटन सारणी बनाइए, इसे प्रदर्शित करने के लिए एक दण्ड आलेख खींचिये ।
हल :
बारम्बारता सारणी निम्नांकित प्रकार की होगी-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 5 आँकड़ो का प्रबंधन Ex 5.1 -1

दण्ड आलेख:
x अक्ष पर खरीदने वाले (M, W, B,G) तथा Y अक्ष पर खरीदने वालों की संख्या दर्शायी गई है ।

प्रश्न 3.
किसी फैक्ट्री के 30 श्रमिकों की साप्ताहिक मजदूरी (रुपयों में) निम्नलिखित हैं-
830,835, 890, 810,835, 836, 869,845, 898, 890,
820,860, 832,833,855,845,804,808, 812, 840,
885,835,835,836,878,840,868,890,806,840.
मिलान चिह्नों (टैली चिह्न) का प्रयोग करते हुए अन्तरालों 800 – 810, 810 – 820 इत्यादि वाली एक बारम्बारता सारिणी बनाइए।
हल :
बारम्बारता सारणी निम्नांकित प्रकार है –

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प्रश्न 4.
प्रश्न 3 में दिये आंकड़ों से प्राप्त सारणी के लिए एक आयत चित्र बनाइए और निम्नलिखत प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
(i) किस समूह में श्रमिकों की संख्या सबसे अधिक है?
(ii) कितने श्रमिक 850 रुपये या उससे अधिक अर्जित करते हैं?
(iii) कितने श्रमिक 850 रूपये से कम अर्जित करते है ?

हल :
आयत चित्र में X-अक्ष पर मजदूरी तथा Y-अक्ष – पर मजदूरों की संख्या को दर्शाया गया है –

(i) समूह 830-840 में श्रमिकों की सबसे अधिक संख्या है।
(ii) 10 श्रमिक 850 रुपये या उससे अधिक अर्जित करते हैं
∵ 1 + 3 + 1 + 1 + 4 = 10

(iii) 850 रुपये से कम अर्जित करने वाले श्रमिकों की संख्या 20 है।
∵ 5 + 9 + 1 + 2 + 3 = 20

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प्रश्न 5.
अवकाश के दिनों में एक विशिष्ट कक्षा के विद्यार्थियों द्वारा प्रतिदिन टेलीविजन (टी. वी.) देखने के समय (घंटों में) दिए हुए आलेख में दर्शाये गये हैं।
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
(i) अधिकतम विद्यार्थियों ने कितने घंटों तक टी.वी. देखा ?
(ii) 4 घंटों से कम समय तक कितने विद्यार्थियों ने टी.वी. देखा ?
(iii) कितने विद्यार्थियों ने टी.वी. देखने में 5 घंटे अधिक का समय व्यतीत किया ?

हल :
(i) अधिकतम 32 विद्यार्थियों ने 4-5 घंटे टी. वी. देखा ।
(ii) 4 घंटे से कम समय तक टी. वी. देखने वाले विद्यार्थियों की संख्या 34 है।
∵ (22 + 8 + 4 = 34)
(ii) 14 विद्यार्थियों ने टी. वी. देखने में 5 घंटों से अधिक का समय व्यतीत किया ।
∵ (8 + 6 = 14)

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HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.2

Haryana State Board HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.2 Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.2

प्रश्न 1.
निम्नलिखित चतुर्भुजों की रचना कीजिए-
हल :
(i) चतुर्भुज LIFT, जिसमें-
LI= 4 cm
IF= 3 cm
TL = 2.5 cm
LF = 4.5 cm
IT=4 cm
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.2 - 1
रचना:
कच्चे चित्र को देखकर हमें सर्वप्रथम ALIT की रचना करेंगे, क्योंकि इस त्रिभुज की तीनों भुजाएँ दी हुई हैं।
(i) सर्वप्रथम LI = 4cm की रेखा खींची । फिर L को केन्द्र मानकर TL = 2.5 cm त्रिज्या से तथा I को केन्द्र मानकर IT = 4 cm त्रिज्या से दो चाप लगाये, जो एक-दूसरे को T बिन्दु पर काटते हैं । T ! को L तथा I से मिलाया ।
(ii) अब L को केन्द्र मानकर CEX LF 24.5cm. तथा I को केन्द्र मानकर IF = 3 cm. त्रिज्याएँ । लेकर क्रमश: दो चाप लगाए, । 4ch जो एक-दूसरे को F पर काटते है ।।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.2 - 2
(iii) F को T तथा I से मिलाया। अत: LIFT अभीष्ट चतुर्भुज है ।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.2

(ii) चतुर्भुज GOLD, जिसमें
OL = 7.5 cm
GL = 6 cm
GD = 6 cm
LD = 5 cm
OD = 10 cm है।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.2 - 3
रचना-
कच्चे चित्र को देखकर पहले हम GOLD की रचना करेंगे, क्योंकि इस त्रिभुज की तीनों भुजाएँ दी है।
(i) सर्वप्रथम, OL = 7.5 cm की रेखा खीर्ची ।
(ii) L को केन्द्र मानकर 5 cm (LD) की त्रिज्या से तथा O को केन्द्र मानकर 10 cm (OD) की त्रिज्या से क्रमश: दो चाप लगाये, जो एक-दूसरे को D बिन्दु पर काटते है।
(iii) L को D से तथा O को D से मिलाया ।
(iv) L को केन्द्र मानकर 6 cm की त्रिज्या से तथा D को केन्द्र मानकर 6 cm की त्रिज्या से O क्रमशः दो चाप लगाये, जो एक-दूसरे को G बिन्दु पर काटते है।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.2 - 4
(v) G को O तथा D से मिलाया । इस प्रकार GOLD अभीष्ट चतुर्भुज हुआ ।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.2

(iii) समलम्ब BEND, जिसमें-
BN = 5.6 cm,
DE = 6.5 cm
रचना-
(i) सर्वप्रथम रेखा DE = 6.5 cm खींची ।
(ii) DE का लम्बसमद्वि-भाजक XY खींचा, जो DE को O पर काटता है ।
(iii) O से ON = \(\frac { 5.6 }{ 2 }\) = 2.8 cm. का चाप लेकर OX पर तथा OB = 2.8 cm. का चाप OY पर लगाया।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.2 - 5
(iv) BE, EN, ND और DB को मिलाया ।
अत: BEND अभीष्ट समचतुर्भुज हुआ ।

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HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1

Haryana State Board HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1 Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1

प्रश्न 1.
निम्नलिखित चतुर्भुजों की रचना कीजिए-
(i) चतुर्भुज ABCD, जिसमें
AB = 4.5 cm
BC = 5.5 cm
CD = 4 cm
AD = 6 cm
AC = 7 cm
हल :
(i) रचना – (i) सर्वप्रथम AC = 7 cm खींचा।
(ii) A को केन्द्र मानकर 4.5 cm (AB) त्रिज्या लेकर एक चाप खींचा।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1 - 1
(iii) C को केन्द्र मानकर 5.5 cm (BC) त्रिज्या लेकर एक चाप खींचा, जो पहले चाप को B पर प्रतिच्छेद करता है।
(iv) A को केन्द्र मानकर 6 cm (AD) त्रिज्या लेकर एक चाप खींचा और C को केन्द्र मानकर 4 cm (CD) त्रिज्या लेकर एक अन्य चाप लगाया। दोनों चाप बिन्दु D पर प्रतिच्छेद करते हैं ।
अब: AB, EC, AD तथा CD को मिलाया ।
ABCD अभीष्ट चतुर्भुज है।

नोट: कोई भी पक्की (Final) रचना करने से पूर्व छात्र प्रश्न में दी गई मापों से कच्चा चित्र बनायें, जिसमें उन्हें पक्की रचना करने में असुविधा नहीं होगी ।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1

(ii) चतुर्भुज JUMP जिसमें –
JU = 3.5 cm
UM = 4 cm
MP = 5 cm
PJ = 4.5 cm
PU = 6.5 cm
हल :
(ii) चतुर्भुज JUMP की रचना निम्नांकित है-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1 - 2
(i) सर्वप्रथम PU = 6.5 cm खींचा ।
(ii) P को केन्द्र मानकर 5 cm (PM) त्रिज्या लेकर एक चाप लगाया । U को केन्द्र मानकर 4 cm (MU) त्रिज्या से दूसरा चाप लगाया, जो पहले चाप को M पर काटता है।
(iii) P को केन्द्र मानकर 4.5cm (PJ) त्रिज्या से चाप लगाया तथा U को केन्द्र मानकर 3.5cm (JU) त्रिज्या लेकर दूसरा चाप लगाया, जो पहले चाप को J पर काटता है।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1 - 3
(iv) फिर, P को M से, M को U से, P को J से तथा U को J से मिलाया
JUMP अभीष्ट ननुर्भज हुआ।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1

(iii) समान्तर चतुर्भुज MORE, जिसमें –
OR = 6 cm
EO = 7.5 cm
MO = 7.5 cm
हल :
(iii) समान्तर चतुर्भुज MORE की रचना निम्नांकित है-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1 - 4
समान्तर चतुर्भुज की सम्मुख भुजाएँ समान होती हैं।
अतः MO = 7.5 cm
तथा MO = FR = 7.5 cm
तथा OR = ME = 6 cm
(i) सर्वप्रथम EO = 7.5 cin की रेखा खींची ।
(ii) 0 को केन्द्र मानकर 6 cm (OR) त्रिज्या लेकर एक चाप लगाया तथा E को केन्द्र मानकर 7.5 cm (ER) त्रिज्या लेकर दूसरा चाप लगाया, जो पहले चाप को R पर काटता है।
(iii) 0 को केन्द्र मानकर 7.5 cm (MO) त्रिज्या लेकर एक चाप लगाया तथा E को केन्द्र / मानकर 6cm (EM) त्रिज्या लेकर दूसरा चाप लगाया, जो पहले चाप को M पर काटता है।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1 - 5
(iv)0 को M से, E को M से,०को R से तथा E को R से मिलाया।
अत: MORE अभीष्ट समान्तर चतुर्भुज हुआ है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1

(iv) समचतुर्भुज BEST, जिसमें –
BE = 4.5 cm
ET = 6 cm
हल :
(iv) समचतुर्भुज BEST की रचना-
समचतुर्भुज की चारों भुजाएँ समान होती हैं ।
अत: BE = ES = ST = TB = 4.5 cm
(i) सर्वप्रथम TE = 6 cm की रेखा खींची।।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1 - 6
(ii) T तथा E को 4.5 cm क्रमशः केन्द्र मानकर ES = TS = 4.5 cm त्रिज्या B के दो चाप लगाए, जो एक दूसरे को पर काटते हैं ।
(iii) पुनःT तथा E को क्रमशः केन्द्र मानकर 4.5 cm त्रिज्या लेकर दूसरी ओर दो चाप लगाए जो आपस में B पर काटते हैं।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.1 - 7
(iv) अब E को S तथा B से और T को S तथा B से मिलाया ।
अतः, BEST अभीष्ट समचतुर्भुज है।

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HBSE 12th Class Hindi अपठित बोध अपठित गद्यांश

Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Hindi Apathit Bodh Apathit Gadyansh अपठित गद्यांश Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Hindi अपठित बोध अपठित गद्यांश

अपठित गद्यांश

निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए

[1] हमारी संस्कृति में नारी की बड़ी महत्ता रही है। हमारी संस्कृति मातृसत्ता की रही है। हमारे यहाँ ज्ञान और विवेक की अधिष्ठात्री सरस्वती, शक्ति की अधिष्ठात्री दुर्गा और ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री लक्ष्मी मानी गई हैं। स्त्री को इन तीनों रूप में रखकर भारतीय मनीषियों ने पूरी संस्कृति को बाँध दिया है।
प्रश्न-
(i) प्रस्तुत अवतरण का सार लिखिए।
(ii) प्रस्तुत अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए।
(iii) भारतीय संस्कृति में नारी की क्या स्थिति रही है ?
(iv) भारतीय चिंतकों ने नारी को किन-किन रूपों में माना है ?
उत्तर:
(i) भारतीय संस्कृति में नारी का बहुत महत्त्व है। सरस्वती को ज्ञान और विवेक की दुर्गा को शक्ति की और लक्ष्मी को ऐश्वर्य की देवी माना गया है। भारतीय विद्वानों ने संपूर्ण संस्कृति को इन तीनों रूपों में संगठित कर दिया है।
(ii) शीर्षक-नारी का महत्त्व।
(iii) भारतीय संस्कृति में नारी को अत्यंत आदर की दृष्टि से देखा जाता है। उसकी माता और देवी के रूप में पूजा की जाती है।
(iv) भारतीय चिंतकों ने नारी को सरस्वती, दुर्गा और लक्ष्मी के रूप में माना है।

[2] भारत एक विशाल देश है। यहाँ पर धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर चलकर ही एकता बनाए रखी जा सकती है। यदि प्रशासन अपने नागरिकों को समभाव से नहीं देखता, उनमें भेदभाव करता है, तो साम्प्रदायिक द्वेष बढ़ेगा ही। तुष्टिकरण की नीति राष्ट्र के लिए घातक है। साम्प्रदायिकता बहुसंख्यक वर्ग की हो अथवा अल्पसंख्यक वर्ग की, दोनों से कठोरतापूर्वक निपटा जाना चाहिए। कुछ लोग बहुसंख्यक समाज की साम्प्रदायिकता को तो कुचलने की बात करते हैं परंतु अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता को साम्प्रदायिकता ही नहीं मानते। इस प्रकार का दृष्टिकोण राष्ट्र-निर्माण में सहायक नहीं हो सकता। धर्मनिरपेक्षता को सुदृढ़ करने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि धर्म और राजनीति को अलग किया जाए। भारत का अधिकतर मतदाता अशिक्षित है जो धार्मिक अपील में बहकर ही प्रायः मतदान करता है। यह स्वस्थ राजनीति का लक्षण नहीं है।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ii) भारत में किस प्रकार के सिद्धांत पर चलकर एकता बनाए रखी जा सकती है ?
(iii) साम्प्रदायिकता से क्यों कठोरतापूर्वक निपटा जाना चाहिए ?
(iv) धर्मनिरपेक्षता को सुदृढ़ करने के लिए क्या करना होगा ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-धर्म और राजनीति।
(ii) भारतवर्ष में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर चलकर ही एकता बनाए रखी जा सकती है।
(iii) साम्प्रदायिकता की भावना से देश कमज़ोर होता है, इसलिए इससे कठोरता से निपटा जाना चाहिए।
(iv) धर्मनिरपेक्षता को सुदृढ़ करने के लिए धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए।

HBSE 12th Class Hindi अपठित बोध अपठित गद्यांश

[3] लोगों ने धर्म को धोखे की दुकान बना रखा है। वे उसकी आड़ में स्वार्थ सिद्ध करते हैं। बात यह है कि लोग धर्म को छोड़कर सम्प्रदाय के जाल में फंस रहे हैं। सम्प्रदाय बाह्य कृत्यों पर जोर देते हैं। वे चिह्नों को अपनाकर धर्म के सार तत्त्व को मसल देते हैं। धर्म मनुष्य को अंतर्मुखी बनाता है। उसके हृदय के किवाड़ों को खोलता है, उसकी आत्मा को विशाल, मन को उदार तथा चरित्र को उन्नत बनाता है। सम्प्रदाय संकीर्णता सिखाते हैं, जाति-पाँति, रूप-रंग तथा ऊँच-नीच के भेदभावों से ऊपर नहीं उठने देते।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) लोगों ने धर्म को क्या बना रखा है ?
(iii) धर्म किसके किवाड़ों को खोलता है ?
(iv) सम्प्रदाय क्या सिखाता है ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-धर्म और सम्प्रदाय।
(ii) लोगों ने धर्म को धोखे की दुकान बना रखा है क्योंकि उसकी आड़ में वे अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं।
(iii) धर्म हृदय के किवाड़ों को खोलता है।
(iv) सम्प्रदाय ऊँच-नीच, जाति-पाँति का भेदभाव सिखाता है।

[4] जो शिव की सेवा करना चाहता है, उसे पहले उसकी संतानों की और इस संसार के सारे जीवों की सेवा करनी चाहिए। शास्त्रों ने कहा है कि जो भगवान के सेवकों की सहायता करते हैं, वे भगवान के सबसे बड़े सेवक हैं। निःस्वार्थता ही धर्म की कसौटी है जिसमें निःस्वार्थता की मात्रा अधिक है, वह अधिक आध्यात्मिकता-संपन्न है और शिव के अधिक निकट है। यदि कोई स्वार्थी है तो उसने फिर चाहे सारे मंदिरों के ही दर्शन क्यों न किए हों, सारे तीर्थों में ही क्यों न घूमा हो, अपने को चीते के समान क्यों न रंग डाला हो, फिर भी वह शिव से बहुत दूर है। जो शिव को दीन-हीन में, दुर्बल में और रोगी में देखता है, वही वास्तव में शिव की उपासना करता है और जो शिव को केवल मूर्ति में देखता है, उसकी उपासना तो केवल प्रारंभिक है।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) शिव को मूर्ति में देखने वाले कैसे उपासक होते हैं ?
(ii) शिव की सेवा करने वाले को क्या करना चाहिए ?
(iv) भगवान का सबसे बड़ा सेवक कौन है ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-शिव का सच्चा सेवक।
(ii) शिव को मूर्ति में देखने वाले केवल आरंभिक शिव-उपासक होते हैं।
(iii) शिव की सेवा करने वाले को पहले शिव की संतानों की सेवा करनी चाहिए।
(iv) भगवान के सेवकों की सहायता करने वाला भगवान का सबसे बड़ा सेवक होता है।

[5] आतंकवाद मस्तिष्क का फितूर है जिसकी चपेट में कोई भी विवेकहीन व्यक्ति आ सकता है। इसको दूर करना एक माह या एक साल का काम नहीं है। निरंतर कोशिशों से ही इसे मिटाया जा सकता है। इसके लिए सबसे बड़ी आवश्यकता राष्ट्रीय एकता की है। समस्त व्यक्तिगत, जातिगत, धर्मगत, नीतिगत स्वार्थों को त्यागकर राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को सुदृढ़ बनाने में प्रत्येक व्यक्ति को रचनात्मक सहयोग देना होगा।
प्रश्न-
(i) प्रस्तुत अवतरण का सार लिखिए।
(ii) प्रस्तुत अवतरण का उचित शीर्षक लिखिए।
(iii) आतंकवाद का शिकार आसानी से कौन हो जाता है?
(iv) आतंकवाद को समाप्त कैसे किया जा सकता है?
उत्तर:
(i) आतंकवाद मानव-मस्तिष्क का जुनून है। कोई भी विवेकहीन व्यक्ति इसकी पकड़ में आ जाता है। आतंकवाद को मिटाने के लिए निरंतर प्रयास करने होंगे। सभी व्यक्तियों को अपनी जातिगत, धार्मिक एवं नीतिगत स्वार्थों को छोड़कर राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में सहयोग देना होगा।
(ii) आतंकवाद और राष्ट्रीय एकता।
(iii) कोई भी विवेकहीन व्यक्ति आसानी से इसका शिकार हो जाता है।
(iv) आतंकवाद को समाप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जातिगत, धर्मगत और नीतिगत स्वार्थों का त्याग करना होगा और राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को सुदृढ़ बनाने में अपना सहयोग देना होगा।

HBSE 12th Class Hindi अपठित बोध अपठित गद्यांश

[6] स्वतंत्र भारत का संपूर्ण दायित्व आज विद्यार्थियों के ही ऊपर है क्योंकि आज जो विद्यार्थी हैं, वे ही कल स्वतंत्र भारत के नागरिक होंगे। भारत की उन्नति और उसका उत्थान उन्हीं की उन्नति और उत्थान पर निर्भर करता है। अतः विद्यार्थियों को चाहिए कि वे अपने भावी जीवन का निर्माण बड़ी सतर्कता और सावधानी के साथ करें। उन्हें प्रत्येक क्षण अपने राष्ट्र, अपने समाज, अपने धर्म, अपनी संस्कृति को अपनी आँखों के सामने रखना चाहिए ताकि उनके जीवन से राष्ट्र को कुछ बल प्राप्त हो सके। जो विद्यार्थी राष्ट्रीय दृष्टिकोण से अपने जीवन का निर्माण नहीं करते, वे राष्ट्र और समाज के लिए भारस्वरूप हैं।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) कैसे विद्यार्थी राष्ट्र और समाज के लिए भारस्वरूप हैं ?
(iii) स्वतंत्र भारत का दायित्व किस पर है ?
(iv) विद्यार्थियों को भारत की उन्नति के लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-राष्ट्र-निर्माण में विद्यार्थियों की भूमिका।
(ii) जो विद्यार्थी राष्ट्रीय दृष्टिकोण से अपने जीवन का निर्माण नहीं करते, वे राष्ट्र और समाज के लिए भारस्वरूप हैं।
(iii) स्वतंत्र भारत का दायित्व विद्यार्थियों पर है।
(iv) विद्यार्थियों को भारत की उन्नति के लिए अपने भावी जीवन का निर्माण बड़ी सावधानी एवं सतर्कता से करना चाहिए।

[7] राष्ट्र के पुनर्निर्माण का कार्य युवकों द्वारा ही संभव है। राष्ट्रीय एकता और अखंडता को चुनौती देने वाली शक्तियों का सामना करने के लिए युवकों का पहला कर्तव्य है कि शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक दृष्टि से मज़बूत बनें। स्वामी विवेकानंद सौ-दो सौ कर्तव्यनिष्ठ युवकों के सहारे पूरे विश्व को बदलने का स्वप्न देखते रहे। युवक नशों के शिकार न हों, वे संयम और सदाचार को अपनाएँ तथा स्वास्थ्य का ध्यान रखें तो देश के काम आ सकते हैं। मानसिक रूप से यदि वे तेज़ हैं, समस्याओं को समझते हैं, उन पर विचार करते हैं तो वे अवसरवादी नेताओं, राष्ट्र विरोधी तत्त्वों की चालों को समझ सकेंगे। स्वस्थ लोकमत का निर्माण कर पाएँगे। भावात्मक अथवा आत्मिक दृष्टि से यदि वे उदार हैं, सर्वधर्म समभाव के आदर्श से प्रेरित हैं, मानव मात्र की एकता के समर्थक हैं और भारतमाता से प्यार करते हैं तो वे राष्ट्र की एकता और अखंडता में साधक हो सकते हैं। पश्चिम की भौतिकवादी-भोगवादी सभ्यता का विरोध युवकों को करना चाहिए।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) राष्ट्र का पुनर्निर्माण किनके द्वारा संभव है ?
(iii) युवकों का पहला कर्तव्य क्या होना चाहिए ?
(iv) युवकों में किन-किन गुणों का समावेश होना चाहिए ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-राष्ट्र का पुनर्निर्माण एवं युवक।
(ii) राष्ट्र के पुनर्निर्माण का कार्य युवकों द्वारा ही संभव है।
(iii) युवकों का पहला कर्तव्य है कि वे शारीरिक, मानसिक और आत्मिक दृष्टि से अपने आपको मज़बूत बनाएँ।
(iv) युवकों में नशे की आदत नहीं होनी चाहिए। वे संयमशील, उदार, विचारवान तथा देशप्रेमी होने चाहिएँ।

HBSE 12th Class Hindi अपठित बोध अपठित गद्यांश

[8] एक पत्रकार के लिए निष्पक्ष होना बहुत जरूरी है। उसकी निष्पक्षता से ही उसके समाचार संगठन की साख बनती है। यह साख तभी बनती है जब समाचार संगठन बिना किसी का पक्ष लिए सच्चाई सामने लाते हैं। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। इसकी राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में अहम भूमिका है। लेकिन निष्पक्षता का अर्थ तटस्थता नहीं है। इसलिए पत्रकारिता सही
और गलत, अन्याय और न्याय जैसे मसलों के बीच तटस्थ नहीं हो सकती, बल्कि यह निष्पक्ष होते हुए भी सही और न्याय के साथ होती है।
प्रश्न-
(i) प्रस्तुत अवतरण का सार लिखिए।
(ii) प्रस्तुत अवतरण का उचित शीर्षक लिखिए।
(iii) निष्पक्षता से क्या तात्पर्य है?
(iv) पत्रकारिता की उपयोगिता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(i) एक पत्रकार को सदैव निष्पक्ष रहकर सच्चाई को सामने लाना चाहिए तभी उसके समाचार संगठन की साख बनती है। पत्रकारिता राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में अहम भूमिका निभाती है। एक पत्रकार को तटस्थता छोड़कर सही और न्याय का साथ देना चाहिए।
(ii) पत्रकार की निष्पक्षता।
(iii) निष्पक्षता से तात्पर्य है कि बिना किसी का पक्ष लिए सच्चाई को सामने लाना।
(iv) पत्रकारिता का लोकतंत्र से सीधा संबंध है। यह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में यह सदैव सही और न्याय के साथ होती है।

[9] देशभक्त अपनी मातृभूमि को सच्चे हृदय से प्रेम करता है। यदि एक ओर उसे अपने अतीत के गौरव का गर्व है, तो दूसरी ओर वह अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहता है। वह सदैव समाज में क्रांति चाहता है किंतु वह क्रांति न विशृंखला कही जा सकती है और न नागरिकता के प्रतिकूल। समाज में प्रचलित रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों तथा उन परंपराओं एवं परिपाटियों के विरुद्ध वह क्रांति करता है, जो देश की उन्नति के पथ की बाधाएँ हैं। लोगों में एकता, प्रेम और सहानुभूति उत्पन्न करना, उनमें राष्ट्रीय, सामाजिक एवं नैतिक चेतना जागृत करना, उन्हें कर्तव्यपरायणता और अध्यवसायी बने रहने के लिए प्रोत्साहित करना ही देशभक्ति है।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) सच्चा देशभक्त कौन है ?
(iii) देश की उन्नति के लिए क्या बाधक है ?
(iv) सच्ची देशभक्ति क्या है ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-सच्चा देशभक्त।
(ii) जो व्यक्ति अपनी मातृभूमि को सच्चे हृदय से प्रेम करता है वही सच्चा देशभक्त होता है।
(iii) अंध-विश्वास, रूढ़िगत परंपराएँ एवं परिपाटियाँ देश की उन्नति में बाधक हैं।
(iv) लोगों में एकता, प्रेम, जागृति, सहानुभूति उत्पन्न करना तथा लोगों को उनके कर्तव्य के प्रति प्रोत्साहित करना सच्ची देशभक्ति है।

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[10] मनुष्य की मानसिक शक्ति उसकी इच्छाशक्ति पर निर्भर होती है। जिस मनुष्य की इच्छाशक्ति जितनी बलवती होगी, उसका मन उतना ही दृढ़ और संकल्पवान होगा। इसी इच्छाशक्ति के द्वारा मनुष्य वह दैवी शक्ति प्राप्त कर लेता है, जिसके आगे करोड़ों व्यक्ति नतमस्तक होते हैं। प्रबल इच्छाशक्ति के द्वारा मानव एक बार मृत्यु के क्षणों को भी टाल सकता है। विघ्न-बाधाएँ, मार्ग की रुकावटें सभी के मार्ग में व्यवधान बनकर आती हैं, चाहे वह साधारण व्यक्ति हो या महान। अंतर केवल इतना है कि साधारण मनुष्य का मन विपत्तियों को देखकर जल्दी हार मान लेता है जबकि महान एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने मानसिक बल के आधार पर उन पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। विषम परिस्थितियाँ और उन पर दृढ़तापूर्वक विजय-प्राप्ति ही मनुष्य को महान बनाती हैं।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) मनुष्य दैवी शक्ति कैसे प्राप्त कर सकता है ?
(iii) मन की दृढ़ता तथा संकल्पशक्ति किस पर निर्भर करती है ?
(iv) जीवन में आने वाली बाधाओं पर कौन और कैसे विजय प्राप्त कर लेते हैं ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-दृढ़ इच्छाशक्ति।
(ii) बलवान इच्छाशक्ति से मानव दैवी शक्ति प्राप्त कर सकता है।
(iii) मन की दृढ़ता तथा संकल्पशक्ति उसकी इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है।
(iv) जीवन में आने वाली बाधाओं पर प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने मानसिक बल के द्वारा विजय प्राप्त कर सकता है।

[11] लोकतंत्र की सफलता का एक मापदंड यह भी है कि हर नागरिक को न्याय मिले और उसके साथ समता का व्यवहार हो। जिस व्यवस्था में मनुष्य की गरिमा खंडित होती हो, मानवीय अधिकारों का हनन होता हो, उसे लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता।

लोकतंत्र वही सफल है, जहाँ सबको न्याय पाने का अधिकार है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। जहाँ मनुष्य के साथ उसकी जाति, लिंग, रंग अथवा आर्थिक दशा के आधार पर भेदभाव किया जाता हो, वहाँ लोकतंत्र असफल है। जहाँ मनुष्य को मनुष्य के नाते विकास के साधन प्राप्त न हों, वहाँ लोकतंत्र असफल है। शिक्षित व्यक्ति ही ऐसे अधिकारों के प्रति जागरूक होता है और उनकी माँग कर सकता है। शिक्षित व्यक्ति न्याय पाने के लिए संघर्ष करने में अधिक सक्षम होता है।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) लोकतंत्र की सफलता का एक मापदंड बताइए।
(iii) असफल लोकतंत्र की क्या पहचान है ?
(iv) व्यक्ति का शिक्षित होना क्यों ज़रूरी है ?
उत्तर:
(i) शीर्षक लोकतंत्र।
(ii) लोकतंत्र की सफलता का मापदंड यह है कि वहाँ प्रत्येक नागरिक को न्याय मिले व सबके साथ समानता का व्यवहार हो।
(iii) जहाँ व्यक्ति के अधिकारों का हनन हो, उसके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाए, मनुष्य को विकास के साधन उपलब्ध न हों, वही असफल लोकतंत्र की मुख्य पहचान है।
(iv) व्यक्ति का शिक्षित होना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि शिक्षित व्यक्ति ही न्याय पाने के लिए संघर्ष करने में अधिक सक्षम हो सकता है।

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[12] भाषणकर्ता के गुणों में तीन गुण श्रेष्ठ माने जाते हैं सादगी, असलियत और जोश। यदि भाषणकर्ता बनावटी भाषा में बनावटी बातें करता है, तो श्रोता तत्काल ताड़ जाते हैं। इस प्रकार के भाषणकर्ता का प्रभाव समाप्त होने में देर नहीं लगती। यदि वक्ता में उत्साह की कमी हो तो भी उसका भाषण निष्प्राण हो जाता है। उत्साह से ही किसी भी भाषण में प्राणों का संचार होता है। भाषण को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए उसमें उतार-चढ़ाव, तथ्य और आँकड़ों का समावेश आवश्यक है। अतः उपर्युक्त तीनों गुणों का समावेश एक अच्छे भाषणकर्ता के लक्षण हैं तथा इनके बिना कोई भी भाषणकर्ता श्रोताओं पर अपना प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकता।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) भाषणकर्ता के प्रमुख गुण कौन-से हैं ?
(iii) श्रोता किसे तत्काल ताड़ जाते हैं ?
(iv) कैसे भाषण का प्रभाव देर तक नहीं रहता ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-भाषणकर्ता के गुण।
(ii) सादगी, असलियत और जोश भाषणकर्ता के तीन श्रेष्ठ गुण हैं।
(iii) भाषणकर्ता की बनावटी भाषा में बनावटी बातों को श्रोता तत्काल ताड़ जाते हैं।
(iv) बनावटी भाषा में असत्य पर आधारित भाषण का प्रभाव देर तक नहीं रहता।

[13] सुव्यवस्थित समाज का अनुसरण करना अनुशासन कहलाता है। व्यक्ति के जीवन में अनुशासन का बहुत महत्त्व है। अनुशासन के बिना मनुष्य अपने चरित्र का निर्माण नहीं कर सकता। अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए भी मनुष्य का अनुशासनबद्ध होना अत्यंत आवश्यक है। विद्यार्थी जीवन मनुष्य के भावी जीवन की आधारशिला होती है। अतः विद्यार्थियों के लिए अनुशासन में रहकर जीवन-यापन करना आवश्यक है।
प्रश्न-
(i) प्रस्तुत अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए।
(ii) अनुशासन किसे कहा जाता है ?
(ii) मनुष्य किसके बिना अपने चरित्र का निर्माण नहीं कर सकता ?
(iv) विद्यार्थी जीवन किसकी आधारशिला है ?
उत्तर:
(i) शीर्षक अनुशासन।
(ii) सुव्यवस्थित समाज का अनुसरण करना अनुशासन कहलाता है।
(iii) अनुशासन के बिना मनुष्य अपने चरित्र का निर्माण नहीं कर सकता।
(iv) विद्यार्थी जीवन मनुष्य के भावी जीवन की आधारशिला है।

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[14] मैंने देखा कि बेडौल अक्षर होना अधूरी शिक्षा की निशानी है। अतः मैंने पीछे से अपना खत सुधारने की कोशिश भी की परंतु पक्के घड़े पर कहीं मिट्टी चढ़ सकती है ? जवानी में जिस बात की अवहेलना मैंने की, उसे मैं फिर आज तक न सुधार सका। अतः हरेक नवयुवक मेरे इस उदाहरण को देखकर चेते और समझे कि सुलेख शिक्षा का एक आवश्यक अंग है। सुलेख के लिए चित्रकला आवश्यक है। मेरी तो यह राय बनी है कि बालकों को आलेखन कला पहले सिखानी चाहिए। जिस प्रकार पक्षियों और वस्तुओं आदि को देखकर बालक याद रखता है और उन्हें आसानी से पहचान लेता है, उसी प्रकार अक्षरों को भी पहचानने लगता है और जब आलेखन या चित्रकला सीखकर चित्र इत्यादि निकालना सीख जाता है, तब यदि अक्षर लिखना सीखे तो उसके अक्षर छापे की तरह हो जाएँ।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) गांधी जी की दृष्टि में सुलेख के लिए क्या आवश्यक है ?
(iii) बेडौल अक्षर किसकी निशानी हैं ?
(iv) ‘पक्के घड़े पर मिट्टी न चढ़ने’ का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(i) शीर्षक-सुलेख और शिक्षा।
(ii) गांधी जी की दृष्टि में सुलेख के लिए चित्रकला आवश्यक है।
(iii) बेडौल अक्षर अधूरी शिक्षा की निशानी हैं।
(iv) ‘पक्के घड़े पर मिट्टी न चढ़ने’ का भाव यह है कि परिपक्व होने पर व्यक्ति की आदतों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।

[15] वर्तमान शिक्षा-प्रणाली ने भारतवासियों को कहीं का न छोड़ा। पिता अपने पुत्र को विद्यालय इसलिए भेजता है कि वह शिक्षित होकर सभ्य बने किंतु वह बनता है-पढ़ा-लिखा बेकार। इतना ही नहीं, वह भ्रष्ट होकर समय खराब करता है। किसान का पुत्र शिक्षित होकर कृषि से नाता तोड़ लेता है। बढ़ई का पुत्र स्कूल में पढ़कर बढ़ईगिरि को भूल जाता है। कर्मकांडी पंडित का पुत्र विश्वविद्यालयी शिक्षा प्राप्त करके अपने पिता को ही पाखंडी की उपाधि देने लगता है। देश में शिक्षित बेरोज़गारों की संख्या सुरसा के मुँह की भाँति फैल रही है। नैतिक भावना से विहीन शिक्षा विद्यार्थियों में श्रद्धा और आस्था के भाव उत्पन्न नहीं कर पाती। वर्तमान युग में छात्रों की उच्छंखलता और अराजकता की स्थिति नैतिकता रूपी बीज से उत्पन्न वृक्ष के कटु और शुष्क फल हैं।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) पिता पुत्र को विद्यालय किस उद्देश्य से भेजता है ?
(ii) किसान का बेटा शिक्षित होकर क्या करता है ?
(iv) वर्तमान युग में छात्रों की कैसी स्थिति है ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-वर्तमान दूषित शिक्षा-प्रणाली।
(ii) पिता पुत्र को विद्यालय में पढ़-लिखकर सभ्य बनने के लिए भेजता है।
(iii) किसान का बेटा शिक्षित होकर कृषि से नाता तोड़ लेता है।
(iv) वर्तमान युग में छात्र नैतिक शिक्षा के अभाव में उच्छृखलता की स्थिति में पहुंच गए हैं।

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[16] विश्व के किसी कोने में घटित घटना का प्रभाव तत्काल अन्य देशों पर पड़ता है, आज सभी देश एक-दूसरे के सहयोग पर निर्भर हैं। यदि विकसित राष्ट्रों के पास ज्ञान, विज्ञान और तकनीक है तो विकासशील और अविकसित राष्ट्रों के पास कच्चा माल और सस्ता श्रम। आज सभी विकासात्मक कार्यों और समस्याओं की व्याख्या विश्व स्तर पर होती है, इसलिए विश्व-बन्धुत्व की भावना को बढ़ावा मिल रहा है।
प्रश्न-
(i) प्रस्तुत अवतरण का सार लिखिए।
(ii) प्रस्तुत अवतरण का उचित शीर्षक लिखिए।
(ii) विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में क्या अंतर है?
(iv) संसार में भाईचारे की भावना क्यों बढ़ रही है?
उत्तर:
(i) सभी राष्ट्र परस्पर सहयोगी हैं क्योंकि किसी के पास ज्ञान, विज्ञान और तकनीक है तो किसी के पास कच्चा माल और सस्ता श्रम है। सभी राष्ट्रों की समस्याओं और विकासात्मक कार्यों का विश्व स्तर पर प्रभाव पड़ता है।
(ii) विश्व-बन्धुत्व।
(iii) विकसित राष्ट्रों के पास ज्ञान, विज्ञान और तकनीक है और विकासशील राष्ट्रों के पास कच्चा माल और सस्ता श्रम है।
(iv) आजकल सभी विकासात्मक कार्यों और समस्याओं की व्याख्या विश्व स्तर पर होती है इसलिए भाईचारे की भावना बढ़ रही है।

[17] आज के प्रगतिशील संसार में मनुष्य, समाज और राष्ट्र के अस्तित्व का विकास करने वाली जो वस्तुएँ-सुविधाएँ उपलब्ध हैं वे सभी विज्ञान की ही देन हैं। यह विज्ञान की ही देन है कि आज सारा संसार सिमट आया है। कोई देश, समाज अब एक-दूसरे से बहुत दूर नहीं रह गया है। रेल, मोटर तथा वायुयान जैसे अनेक साधन उपलब्ध हैं जिनसे हम कम समय में बहुत दूर की यात्रा सुविधापूर्वक कर सकते हैं।
प्रश्न-
(i) प्रस्तुत अवतरण का सार लिखिए।
(ii) प्रस्तुत अवतरण का उचित शीर्षक लिखिए।
(iii) संसार के सिमटने से क्या तात्पर्य है?
(iv) यातायात के साधनों से क्या लाभ हुआ है?
उत्तर:
(i) आधुनिक युग में उपलब्ध सभी सुख-सुविधाएँ विज्ञान की देन हैं। सारा संसार छोटा हो गया है। यातायात के विकसित साधनों द्वारा कम समय में बहुत दूर की यात्रा की जा सकती है।
(ii) विज्ञान का सुख।
(iii) आज घर बैठे ही सारे संसार की खबरों का मिनटों में पता लगाया जा सकता है। विज्ञान की उन्नति से सारा संसार सिमट गया है।
(iv) यातायात के साधनों से कम समय में बहुत दूर की यात्रा आसानी से की जा सकती है।

[18] जल जीवन का आधार है। मनुष्य बिना भोजन के कुछ दिन, बिना जल के कुछ घंटे तथा बिना वायु के कुछ मिनटों तक ही जीवित रह सकता है। मनुष्य के जीवन में जल का विशेष महत्त्व है। जल की उपयोगिता अनेक हैं-घरेलू कामों, सिंचाई और औद्योगिक कामों में इसकी विशेष भूमिका रहती है। जल प्रदूषित न हो-इसके प्रति हम सभी को कठोरता से सचेत और जागरूक रहना चाहिए।
प्रश्न-
(i) प्रस्तुत अवतरण का सार लिखिए।
(ii) प्रस्तुत अवतरण का उचित शीर्षक लिखिए।
(iii) जीवन में जल का क्या महत्त्व है?
(iv) जल के प्रति हमें सचेत रहना क्यों जरूरी है?
उत्तर:
(i) मानव-जीवन में जल का बहुत महत्त्व है। जल के बिना मनुष्य का जीवन असम्भव है। जल का प्रयोग घरेलू कामों के अतिरिक्त सिंचाई और औद्योगिक कार्यों में भी किया जाता है। अतः हमें जल को प्रदूषित होने से बचाना चाहिए।
(ii) शीर्षक-जल ही जीवन है।
(iii) जल हमारे घरेलू कार्यों के अलावा कृषि, उद्योग-धंधों एवं जैविक क्रियाओं में भी महत्त्वपूर्ण सहयोग देता है। अतः जीवन में जल का अत्यंत महत्त्व है।
(iv) जल के प्रति हमें सचेत रहना इसलिए अनिवार्य है क्योंकि जल का प्रयोग हमारे दैनिक कार्यों के अतिरिक्त सिंचाई और औद्योगिक कार्यों में भी किया जाता है।

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[19] विद्यार्थियों में अनेक बुराइयाँ कुसंगति के प्रभाव से ही उत्पन्न होती हैं। विद्यार्थी पहले पढ़ाई में खूब रुचि लेता था किंतु अब वह सिनेमा देखने में मस्त रहता है, निश्चित ही यह कुसंगति का प्रभाव है। शुरू में उसे कोई विद्यार्थी सिनेमा दिखाना प्रारंभ करता है, बाद में उसे सिनेमा देखने की आदत पड़ जाती है। यही हालत धूम्रपान करने वालों की होती है। जब उन्हें धूम्रपान करने की आदत पड़ जाती है तो छूटने का नाम तक नहीं लेती। प्रारंभ में कुछ लोग शौकिया तौर पर बीड़ी-सिगरेट पीना आरंभ कर देते हैं। अंत में उसके आदी बन जाते हैं और लाख यत्न करने पर भी उससे पीछा नहीं छुड़ा पाते। इसलिए तो पं० रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। वह न केवल मान-मर्यादा का विनाश करता है बल्कि सात्विक चित्तवृत्ति को भी नष्ट कर देता है। जो भी कभी कुसंग के चक्र में फँसा है, नष्ट हुए बिना नहीं रहा। कुमार्गगामी दूसरे को अपने जैसा बना लेता है।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) विद्यार्थी जीवन में बुराइयाँ उत्पन्न होने का प्रमुख कारण क्या हो सकता है ?
(iii) कुसंग के ज्वर से क्या-क्या नष्ट हो जाता है ?
(iv) “कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है।” ये शब्द किसके द्वारा कहे गए हैं ?
उत्तर:
(i) शीर्षक कुसंगति का प्रभाव।
(ii) कुसंगति के कारण विद्यार्थियों में अनेक बुराइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
(iii) कुसंग का ज्वर मान-मर्यादा एवं सात्विक चित्तवृत्ति को नष्ट कर देता है।
(iv) ये शब्द पं० रामचंद्र शुक्ल ने कहे हैं।

[20] संसार में धर्म की दुहाई सभी देते हैं। पर कितने लोग ऐसे हैं, जो धर्म के वास्तविक स्वरूप को पहचानते हैं। धर्म कोई बुरी चीज नहीं है। धर्म एक ऐसी विशेषता है, जो मनुष्य को पशुओं से भिन्न करती है। अन्यथा मनुष्य और पशु में अन्तर ही क्या है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। त्याग और कर्तव्यपरायणता में ही धर्म का वास्तविक रूप निहित है। त्याग एक से लेकर प्राणि-मात्र के लिए भी हो सकता है। इसी से भेद की सारी दीवारें चकनाचूर हो जाती हैं।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) धर्म की क्या विशेषता है?
(iii) धर्म का वास्तविक स्वरूप किसमें निहित है ?
(iv) भेद की सारी दीवारें कब ध्वस्त हो जाती हैं ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-धर्म का महत्त्व।
(ii) धर्म ही मनुष्य को पशुओं से अलग करता है।
(iii) त्याग और कर्तव्यपरायणता में धर्म का वास्तविक स्वरूप निहित है।
(iv) त्याग से भेद की सारी दीवारें ध्वस्त हो जाती हैं।

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[21] नारी नर की शक्ति है। वह माता, बहन, पत्नी और पुत्री आदि रूपों में पुरुष में कर्त्तव्य की भावना सदा जगाती रहती है। वह ममतामयी है। अतः पुष्प के समान कोमल है किन्तु चोट खाकर जब वह अत्याचार के लिए सन्नद्ध हो जाती है, तो वज्र से भी ज्यादा कठोर हो जाती है। तब वह न माता रहती है, न प्रिया, उसका एक ही रूप होता है और वह है दुर्गा का। वास्तव में नारी सृष्टि का ही रूप है, जिसमें सभी शक्तियाँ समाहित हैं।
प्रश्न-
(i) प्रस्तुत अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए।
(ii) नारी को फूल-सी कोमल क्यों कहा गया है?
(iii) नारी दुर्गा का रूप कब बन जाती है?
(iv) नारी किन-किन रूपों में कर्तव्य की भावना जगाती है ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-नारी की शक्ति।
(ii) नारी ममता की भावना से भरी हुई है, इसलिए उसे फूल-सी कोमल कहा गया है।
(iii) जब नारी के आत्म-सम्मान पर आघात होता है या उस पर अत्याचार होता है तो वह दुर्गा का रूप धारण कर लेती है।
(iv) नारी माता, बहिन, पत्नी आदि रूपों में कर्तव्य की भावना जगाती है।

[22] मनोरंजन का मानव जीवन में विशेष महत्त्व है। दिन भर की दिनचर्या से थका-मांदा मनुष्य रात को आराम का साधन खोजता है। यह साधन है-मनोरंजन। मनोरंजन मानव-जीवन में संजीवनी-बूटी का काम करता है। यही आज के मानव के थके हारे शरीर को आराम सुविधा प्रदान करता है। यदि आज के मानव के पास मनोरंजन के साधन न होते तो उसका जीवन नीरस बनकर रह जाता। यह नीरसता मानव जीवन को चक्की की तरह पीस डालती और मानव संघर्ष तथा परिश्रम करने के योग्य भी नहीं रहता।
प्रश्न-
(i) प्रस्तुत अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए।
(ii) मनोरंजन क्या है?
(iii) यदि मनुष्य के पास मनोरंजन के साधन न होते तो उसका जीवन कैसा होता?
(iv) नीरस मानव जीवन की सबसे बड़ी हानि क्या होती है?
उत्तर:
(i) शीर्षक-मनोरंजन।
(ii) काम करने के पश्चात् जब मनुष्य दिनभर थका-मांदा रात को आराम के साधन खोजता है, उसे मनोरंजन कहते हैं।
(ii) यदि मनुष्य के पास मनोरंजन के साधन नहीं होते तो उसका जीवन नीरस बनकर रह जाता।
(iv) नीरसता मानव-जीवन को चक्की की भाँति पीस डालती है और वह संघर्ष तथा परिश्रम करने के योग्य नहीं रहता।

[23] आधुनिक मानव-समाज में एक ओर विज्ञान को भी चकित कर देने वाली उपलब्धियों से निरंतर सभ्यता का विकास हो रहा है तो दूसरी ओर मानव-मूल्यों का ह्रास होने की समस्या उत्तरोतर गूढ़ होती जा रही है। अनेक सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का शिकार आज का मनुष्य विवेक और ईमानदारी को त्यागकर भौतिक स्तर से ऊँचा उठने का प्रयत्न कर रहा है। वह सफलता पाने की लालसा में उचित और अनुचित की चिंता नहीं करता। उसे तो बस साध्य के पाने की प्रबल इच्छा रहती है। ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए भयंकर अपराध करने में भी संकोच नहीं करता। वह इनके नित नए-नए रूपों की खोज करने में अपनी बुद्धि का अपव्यय कर रहा है। आज हमारे सामने यह प्रमुख समस्या है कि इस अपराध-वृद्धि पर किस प्रकार रोक लगाई जाए। सदाचार, कर्तव्यपरायणता, त्याग आदि नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देकर समाज के सुख की कामना करना स्वप्न मात्र है।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) आज के मानव की प्रबल इच्छा क्या है ?
(iii) आधुनिक समाज में कौन-सी समस्या बढ़ रही है ?
(iv) आज के मानव की समस्याओं का क्या कारण है ?
उत्तर:
(i) शीर्षक-आधुनिक सभ्यता।
(ii) आज के मानव की प्रबल इच्छा साध्य प्राप्त करने की है।
(iii) आधुनिक समाज में मानव-मूल्यों का हास होने की समस्या निरंतर बढ़ रही है।
(iv) विवेक और ईमानदारी को त्यागकर भौतिक स्तर को ऊँचा उठाने की कामना ही मानव की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं का कारण है।

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[24] विज्ञान ने मनुष्य को अधिक बुद्धिमान बना दिया है। अब वह अपने समय का हर क्षण पूरी तरह भोग लेना चाहता है। विज्ञान ने मनुष्य को बतलाया कि असली सुख तो सुविधाओं को जुटाने में है और सुविधाएँ पैसे से इकट्ठी की जा सकती हैं। पैसा कमाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। आज का मनुष्य आत्मकेंद्रित, सुखलिप्सू, सुविधाभोगी और आलसी हो गया है। विज्ञान ने उसे निकम्मा बना दिया। अब गृहिणी के पास करने के लिए कोई काम नहीं बचा। जब विज्ञान ने अपेक्षाकृत कम प्रगति की थी, तब लोग प्रायः सरल जीवन व्यतीत करते थे। वे अधिक भावनासंपन्न थे। लोग परोपकार, सेवा, संयम, त्याग आदि गुणों का सम्मान करते थे परंतु अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि जीवन-संगीत विज्ञान की आँच में सूख गया है।
प्रश्न-
(i) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
(ii) आज का मनुष्य कैसा बन गया है ?
(iii) विज्ञान ने मनुष्य को किस प्रकार बुद्धिमान बनाया है ?
(iv) विज्ञान की आँच में जीवन-संगीत क्यों सूख गया है ?
उत्तर-
(i) शीर्षक-विज्ञान और मानव-जीवन।
(ii) आज का मनुष्य आलसी, आत्मकेंद्रित और सुविधाभोगी बन गया है।
(iii) विज्ञान ने मनुष्य को बताया है कि असली सुख तो सुविधाओं को जुटाने में है और सुविधाएँ पैसे से प्राप्त की जा सकती हैं।
(iv) वैज्ञानिक उन्नति के कारण मानव-जीवन में से सेवा, त्याग, परोपकार आदि की भावना समाप्त हो गई है। इसलिए ऐसा लगता है कि विज्ञान की आँच में जीवन-संगीत सूख गया है।

[25] श्रीराम, श्रीकृष्ण, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोबिन्द सिंह आदि जितने भी महापुरुष हुए हैं उनको सुयोग्य तथा वीर बनाने का श्रेय किनको है ? उनकी माताओं को। अमर रहने वाली संतान माताओं के शुभ संस्कारों द्वारा ही बनती हैं। आज सब यह चाहते हैं कि दोनों स्त्री-पुरुष कमाएँ। घर में नौकर-चाकर हों। बच्चों के लिए आया हो, परंतु इससे संतान को श्रेष्ठ बनाने के लिए जितना समय माँ को देना चाहिए, वह नहीं दे सकेगी। स्त्री का सर्वोत्तम कार्य-क्षेत्र तो घर ही है। भारत का कल्याण तभी हो सकता है जबकि नर-नारी निज कर्त्तव्य का पालन करते हुए अपनी भारतीय सभ्यता, मान, मर्यादा तथा संस्कृति की रक्षा के लिए अग्रसर हों। स्त्री ऊँची से ऊँची शिक्षा प्राप्त करे। इसमें कोई बुराई नहीं, पर अपने असली उद्देश्य से विचलित न हो।
प्रश्न-
(i) महापुरुषों को सुयोग्य तथा वीर बनाने का श्रेय किनको है ?
(ii) स्त्री का सर्वोत्तम कार्य-क्षेत्र कौन-सा है ?
(iii) भारत का कल्याण कैसे हो सकता है ?
(iv) नारी का असली उद्देश्य क्या है ?
उत्तर:
(i) महापुरुषों को सुयोग्य तथा वीर बनाने का श्रेय उनकी माताओं को है।
(ii) स्त्री का सर्वोत्तम कार्य-क्षेत्र उनका घर ही है।
(iii) भारत का कल्याण तभी हो सकता है जबकि नर-नारी अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए अपनी भारतीय सभ्यता, मान, मर्यादा तथा संस्कृति की रक्षा के लिए अग्रसर हों।
(iv) नारी का असली उद्देश्य यह है कि वह ऊँची-से-ऊँची शिक्षा प्राप्त करके अपने कर्त्तव्य का पालन करें।

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HBSE 12th Class Hindi Vyakaran अलंकार

Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Hindi Vyakaran Alankar अलंकार Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Hindi Vyakaran अलंकार

अलंकार

प्रश्न 1.
अलंकार किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अलंकार शब्द का अर्थ है-आभूषण या गहना। जिस प्रकार स्त्री के सौंदर्य-वृद्धि में आभूषण सहायक होते हैं, उसी प्रकार काव्य में प्रयुक्त होने वाले अलंकार शब्दों एवं अर्थों में चमत्कार उत्पन्न करके काव्य-सौंदर्य में वृद्धि करते हैं; जैसे-
“खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा।
किसलय का आँचल डोल रहा।”
साहित्य में अलंकारों का विशेष महत्त्व है। अलंकार प्रयोग से कविता सज-धजकर सुंदर लगती है। अलंकारों का प्रयोग गद्य और पद्य दोनों में होता है। अलंकारों का प्रयोग सहज एवं स्वाभाविक रूप में होना चाहिए। अलंकारों को जान-बूझकर लादना नहीं चाहिए।

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प्रश्न 2.
अलंकार के कितने भेद होते हैं ? सबका एक-एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
साहित्य में शब्द और अर्थ दोनों का महत्त्व होता है। कहीं शब्द-प्रयोग से तो कहीं अर्थ-प्रयोग के चमत्कार से और कहीं-कहीं दोनों के एक साथ प्रयोग से काव्य-सौंदर्य में वृद्धि होती है। इस आधार पर अलंकार के तीन भेद माने जाते हैं-
1. शब्दालंकार,
2. अर्थालंकार,
3. उभयालंकार।

1. शब्दालंकार-जहाँ शब्दों के प्रयोग से काव्य-सौंदर्य में वृद्धि होती है, वहाँ शब्दालंकार होता है; जैसे.
“चारु चंद्र की चंचल किरणें,
खेल रही हैं जल-थल में।”

2. अर्थालंकार-जहाँ शब्दों के अर्थों के कारण काव्य में चमत्कार एवं सौंदर्य उत्पन्न हो, वहाँ अर्थालंकार होता है; जैसे
“चरण-कमल बंदौं हरि राई।”

3. उभयालंकार-जिन अलंकारों का चमत्कार शब्द और अर्थ दोनों पर आश्रित होता है, उन्हें उभयालंकार कहते हैं; जैसे
“नर की अरु नल-नीर की, गति एकै कर जोइ।
जेतौ नीचौ है चले, तेतौ ऊँचौ होइ ॥”

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प्रमुख अलंकार-

1. अनुप्रास

प्रश्न 3.
अनुप्रास अलंकार किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जहाँ व्यंजनों की बार-बार आवृत्ति के कारण चमत्कार उत्पन्न हो, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है; यथा-
(क) मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत बुलाए।
यहाँ ‘मुदित’, ‘महीपति’ तथा ‘मंदिर’ शब्दों में ‘म’ व्यंजन की और ‘सेवक’, ‘सचिव’ तथा ‘सुमंत’ शब्दों में ‘स’ व्यंजन की आवृत्ति है। अतः यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

(ख) भगवान भक्तों की भूरि भीति भगाइए।

यहाँ ‘भगवान’, ‘भक्तों’, ‘भूरि’, ‘भीति’ तथा ‘भगाइए’ में ‘भ’ व्यंजन की आवृत्ति के कारण चमत्कार उत्पन्न हुआ है।
(ग) कल कानन कुंडल मोरपखा उर पै बिराजति है।

(घ) जौं खग हौं तो बसेरो करौं मिलि-
कालिंदी कूल कदंब की डारनि।

यहाँ दोनों उदाहरणों में ‘क’ वर्ण की आवृत्ति होने के कारण शब्द-सौंदर्य में वृद्धि हुई, अतः यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
(ङ) “कंकन किंकन नूपुर धुनि सुनि।
कहत लखन सन राम हृदय गुनि ॥”
यहाँ ‘क’ तथा ‘न’ वर्गों की आवृत्ति के कारण शब्द-सौंदर्य में वृद्धि हुई है, अतः अनुप्रास अलंकार है।

(च) तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
इसमें ‘त’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।

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2. यमक

प्रश्न 4.
यमक अलंकार किसे कहते हैं ? उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर:
जहाँ किसी शब्द या शब्दांश का एक से अधिक बार भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग हो, वहाँ यमक अलंकार होता है; जैसे
(क) कनक कनक तैं सौ गुनी, मादकता अधिकाइ।
उहिं खायें बौरातु है, इहिं पाएँ बौराई ॥
इस दोहे में ‘कनक’ शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है। एक ‘कनक’ का अर्थ है-सोना और दूसरे ‘कनक’ का अर्थ है-धतूरा। एक ही शब्द का भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग होने के कारण यहाँ यमक अलंकार है।

(ख) माला फेरत युग गया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ॥
इस दोहे में ‘फेर’ और ‘मनका’ शब्दों का भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है। ‘फेर’ का पहला अर्थ है-माला फेरना और दूसरा अर्थ है-भ्रम। इसी प्रकार से ‘मनका’ का अर्थ है-हृदय और माला का दाना। अतः यमक अलंकार का सुंदर प्रयोग है।

(ग) काली घटा का घमंड घटा।
यहाँ ‘घटा’ शब्द की आवृत्ति भिन्न-भिन्न अर्थ में हुई है।
घटा = वर्षा काल में आकाश में उमड़ने वाली मेघमाला
घटा = कम हआ।

(घ) कहैं कवि बेनी बेनी व्याल की चुराई लीनी।
इस पंक्ति में ‘बेनी’ शब्द का भिन्न-भिन्न अर्थों में आवृत्तिपूर्वक प्रयोग हुआ है। प्रथम ‘बेनी’ शब्द कवि का नाम है और दूसरा ‘बेनी’ (बेणी) चोटी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

(ङ) गुनी गुनी सब कहे, निगुनी गुनी न होतु।
सुन्यो कहुँ तरु अरक तें, अरक समानु उदोतु ॥
‘अरक’ शब्द यहाँ भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। एक बार अरक के पौधे के रूप में तथा दूसरी बार सूर्य के अर्थ के रूप में प्रयुक्त हुआ है, अतः यहाँ यमक अलंकार सिद्ध होता है।

(च) ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी,
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती है।
यहाँ ‘मंदर’ शब्द के दो अर्थ हैं। पहला अर्थ है-भवन तथा दूसरा अर्थ है-पर्वत, इसलिए यहाँ यमक अलंकार है।

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3. श्लेष

प्रश्न 5.
श्लेष अलंकार का लक्षण लिखकर उसके उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
जहाँ एक शब्द के एक ही बार प्रयुक्त होने पर दो अर्थ निकलें, उसे श्लेष अलंकार कहते हैं; जैसे-
1. नर की अरु नल-नीर की, गति एकै कर जोय।
जेते नीचो है चले, तेतो ऊँचो होय ॥
मनुष्य और नल के पानी की समान ही स्थिति है, जितने नीचे होकर चलेंगे, उतने ही ऊँचे होंगे। अंतिम पंक्ति में बताया गया सिद्धांत नर और नल-नीर दोनों पर समान रूप से लागू होता है, अतः यहाँ श्लेष अलंकार है।

2. मधुवन की छाती को देखो,
सूखी कितनी इसकी कलियाँ।
यहाँ ‘कलियाँ’ शब्द का प्रयोग एक बार हुआ है किंतु इसमें अर्थ की भिन्नता है।
(क) खिलने से पूर्व फूल की दशा।
(ख) यौवन पूर्व की अवस्था।

3. रहिमन जो गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय ॥
इस दोहे में ‘बारे’ और ‘बढ़े’ शब्दों में श्लेष अलंकार है।

4. उपमा

प्रश्न 6.
उपमा अलंकार की परिभाषा देते हुए उसके दो उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
जहाँ किसी वस्तु, पदार्थ या व्यक्ति के गुण, रूप, दशा आदि का उत्कर्ष बताने के लिए किसी लोक-प्रचलित या लोक-प्रसिद्ध व्यक्ति से तुलना की जाती है, वहाँ उपमा अलंकार होता है।
1. ‘उसका हृदय नवनीत सा कोमल है।’
इस वाक्य में ‘हृदय’ उपमेय ‘नवनीत’ उपमान, ‘कोमल’ साधारण धर्म तथा ‘सा’ उपमावाचक शब्द है।

2. लघु तरण हंसिनी-सी सुंदर,
तिर रही खोल पालों के पर ॥
यहाँ छोटी नौका की तुलना हंसिनी के साथ की गई है। अतः ‘तरण’ उपमेय, ‘हंसिनी’ उपमान, ‘सुंदर’ गुण और ‘सी’ उपमावाचक शब्द चारों अंग हैं।

3. हाय फूल-सी कोमल बच्ची।
हुई राख की थी ढेरी ॥
यहाँ ‘फूल’ उपमान, ‘बच्ची’ उपमेय और ‘कोमल’ साधारण धर्म है। ‘सी’ उपमावाचक शब्द है, अतः यहाँ पूर्णोपमा अलंकार है।

4. यह देखिए, अरविंद से शिशुवृंद कैसे सो रहे।
इस पंक्ति में ‘अरविंद से शिशुवृंद’ में साधारण धर्म नहीं है, इसलिए यहाँ लुप्तोपमा अलंकार है।

5. नदियाँ जिनकी यशधारा-सी
बहती हैं अब भी निशि-वासर ॥
यहाँ ‘नदियाँ’ उपमेय, ‘यशधारा’ उपमान, ‘बहना’ साधारण धर्म और ‘सी’ उपमावाचक शब्द है, अतः यहाँ उपमा अलंकार है।

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5. रूपक

प्रश्न 7.
रूपक अलंकार किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जहाँ अत्यंत समानता दिखाने के लिए उपमेय और उपमान में अभेद बताया जाता है, वहाँ रूपक अलंकार होता है; जैसे-
1. चरण कमल बंदौं हरि राई।
उपर्युक्त पंक्ति में ‘चरण’ और ‘कमल’ में अभेद बताया गया है, अतः यहाँ रूपक अलंकार का प्रयोग है।

2. मैया मैं तो चंद-खिलौना लैहों।
यहाँ भी ‘चंद’ और ‘खिलौना’ में अभेद की स्थापना की गई है।

3. बीती विभावरी जाग री।
अंबर पनघट में डुबो रही।
तारा-घट ऊषा नागरी।
इन पंक्तियों में नागरी में ऊषा का, अंबर में पनघट का और तारों में घट का आरोप हुआ है, अतः रूपक अलंकार है।

4. मेखलाकार पर्वत अपार,
अपने सहस्र दृग सुमन फाड़,
अवलोक रहा था बार-बार,
नीचे जल में निज महाकार।
यहाँ दृग (आँखों) उपमेय पर फूल उपमान का आरोप है, अतः यहाँ रूपक अलंकार है।

प्रश्न 8.
उपमा और रूपक अलंकार का अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
उपमा अलंकार में उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है जबकि ‘रूपक’ में उपमेय में उपमान का आरोप करके दोनों में अभेद स्थापित किया जाता है।
उदाहरण-
पीपर पात सरिस मनं डोला (उपमा)
यहाँ ‘मन’ उपमेय तथा ‘पीपर पात’ उपमान में समानता बताई गई है। अतः उपमा अलंकार है।

उदाहरण-
चरण कमल बंदौं हरि राई।” (रूपक)
यहाँ उपमेय ‘चरण’ में उपमान ‘कमल’ का आरोप है। अतः यहाँ रूपक अलंकार है।

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6. उत्प्रेक्षा

प्रश्न 9.
उत्प्रेक्षा अलंकार किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जहाँ समानता के कारण उपमेय में उपमान की संभावना या कल्पना की जाती है; जैसे-
1. सोहत ओ पीतु पटु, स्याम सलौनै गात।
मनौ नीलमणि सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात ॥
यहाँ श्रीकृष्ण के साँवले रूप तथा उनके पीले वस्त्रों में प्रातःकालीन सूर्य की धूप से सुशोभित नीलमणि पर्वत की संभावना होने के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है।

2. उस काल मारे क्रोध के, तनु काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से, सोता हुआ सागर जगा ॥
यहाँ क्रोध से काँपता हुआ अर्जुन का शरीर उपमेय है तथा इसमें सोए हुए सागर को जगाने की संभावना की गई है।

3. लंबा होता ताड़ का वृक्ष जाता।
मानो नभ छूना चाहता वह तुरंत ही ॥
यहाँ आँसुओं से पूर्ण उत्तरा के नेत्र उपमेय है जिनमें कमल की पंखुड़ियों पर पड़े हुए ओस के कणों की कल्पना की गई है, अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।

7. मानवीकरण

प्रश्न 10.
मानवीकरण अलंकार की सोदाहरण परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
जहाँ जड़ प्रकृति पर मानवीय भावनाओं तथा क्रियाओं का आरोप हो, वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है; जैसे-
“लो यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल रस गागरी।”
यहाँ लतिका में मानवीय क्रियाओं का आरोप है, अतः लतिका में मानवीय अलंकार सिद्ध है। मानवीकरण अलंकार के कुछ। अन्य उदाहरण हैं

(i) दिवावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही
संध्या सुंदरी परी-सी धीरे-धीरे,

(ii) “मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।”

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8. अतिशयोक्ति

प्रश्न 11.
अतिशयोक्ति अलंकार किसे कहते हैं ? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जहाँ किसी वस्तु का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाए, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है; जैसे-
1. हनुमान की पूँछ में, लग न पाई आग।
लंका सिगरी जल गई, गए निसाचर भाग ॥
हनुमान की पूँछ में अभी आग लगी भी नहीं थी कि सारी लंका जल गई और सारे राक्षस वहाँ से भाग गए। यहाँ हनुमान की वीरता का वर्णन लोक-सीमा से भी अधिक बढ़कर है, अतः यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग है।

2. आगे नदिया बड़ी अपार, घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार ॥
यहाँ सोचने की क्रिया की पूर्ति होने से पहले ही घोड़े का नदी के पार पहुँचना लोक-सीमा का अतिक्रमण है, अतः अतिशयोक्ति अलंकार है।

3. देख लो साकेत नगरी है यही।
स्वर्ग से मिलने गगन को जा रही ॥
यहाँ कवि ने साकेत नगरी की सुख-सुविधाओं का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है, अतः यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।

4. वह शर इधर गांडीव गुण से भिन्न जैसे ही हुआ।
धड़ से जयद्रथ का उधर सिर छिन्न वैसे ही हुआ।
यहाँ कारण और कार्य के बीच के अंतर को मिटा देने के कारण अतिशयोक्ति अलंकार है। अर्जुन के धनुष से बाण छूटते ही जयद्रथ का सिर धड़ से अलग हो गया। ऐसा होना असंभव है।

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9. अन्योक्ति

प्रश्न 12.
अन्योक्ति अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित दीजिए।
उत्तर:
जहाँ उपमान (अप्रस्तुत) के वर्णन के माध्यम से उपमेय (प्रस्तुत) का वर्णन किया जाए, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-
1. जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सु बीति बहार।
अब अलि रही गुलाब में, अपत कँटीली डार ॥
यहाँ अलि के माध्यम से एक ऐसे गुणी की ओर संकेत किया गया है, जिसका आश्रयदाता पत्रहीन शाखा (धनहीन) गुलाब जैसा रह गया हो।

2. नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं विकासु इहिं काल।
अली कली ही सौं बंध्यौ, आनें कौन हवाल ॥
प्रस्तुत दोहे में अप्रस्तुत अर्थ कली और भ्रमर के वर्णन से प्रस्तुत अर्थ राजा जयसिंह और उनकी नवोढ़ा रानी की प्रतीति कराई गई है, अतः यह अन्योक्ति अलंकार का सुंदर उदाहरण है।

10. पुनरुक्ति प्रकाश

प्रश्न 13.
पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित दीजिए।
उत्तर:
जब कवि एक शब्द की आवृत्ति काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने के लिए करता है, तो वहाँ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार होता है।

पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार के उदाहरण-
1. “किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत।”
2. “कवि-करि प्रतिपद प्रतिमनि वसुधा कमल बैठकी साजती।”
3. झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर!
राग अमर! अंबर में भर निज रोर!
4. ‘हौले हौले जाती मुझे बाँध निज माया से’।

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अभ्यासार्थ कुछ महत्त्वपूर्ण उदाहरण-

1. शब्द के अंकुर फूटे।
उत्तर:
रूपक

2. मृदु मंद-मंद मंथर मंथर, लघु तरणि हंस-सी सुंदर।
प्रतिघट-कटक कटीले कोते कोटि-कोटि।
उत्तर:
अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश

3. हँसते हैं छोटे पौधे लघुभार।
उत्तर:
मानवीकरण

4. नृत्य करने लगी डालियाँ।
उत्तर:
मानवीकरण

5. रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरें, मोती मानुस चून ॥
उत्तर:
श्लेष

6. तारों की सी छाँह साँवली।
उत्तर:
रूपक

7. वह इष्ट देव के मंदिर की पूजा-सी,
वह दीप शिखा-सी शांत भाव में लीन
वह टूटे तरन की छूटी लता-सी दीन,
दलित भारत की विधवा है।
उत्तर:
उपमा

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8. सोहत ओढ़े पीत पट स्याम सलोने गात।
मनौ नीलमणि शैल पर आतप पर्यो प्रभात ॥
उत्तर:
उत्प्रेक्षा

9. राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस।
बरषत बारिद बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास ॥
उत्तर:
अनुप्रास

10. पच्छी परछीने ऐसे परे परछीने वीर,
तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के।
उत्तर:
अनुप्रास और यमक

11. बढ़त-बढ़त संपति-सलिल, मन सरोज बढ़ जाई।
घटत-घटत सु न फिरि घटे, बरु समूल कुम्हिलाई ॥
उत्तर:
रूपक

12. चारु कपोल लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए।
लट-लटकनि मनु मत्त मधुपगन, मादक मधुहिं पिए ॥
उत्तर:
उत्प्रेक्षा, अनुप्रास एवं रूपक

13. कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिल काल बस निज कुल घालकु।
भानु बंस-राकेस-कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू ॥
उत्तर:
अनुप्रास

14. यों तो ताशों के महलों सी मिट्टी की वैभव बस्ती क्या?
भू काँप उठे तो ढह जाए, बाढ़ आ जाए, बह जाए ॥
उत्तर:
उपमा

15. या अनुराग चित की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यौं-ज्यौं बूडै स्याम रंग, त्यौं-त्यौं उज्जलु होइ ॥
उत्तर:
श्लेष

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16. मेरे अंतर में आते हो देव, निरंतर,
कर जाते हो व्यथा भार लघु,
बार-बार कर कंज बढ़ाकर।
उत्तर:
रूपक एवं यमक

17. भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उत्तर:
अनुप्रास
यमक

18. पी तुम्हारी मुख बात तरंग
आज बौरे भौंरे सहकार।
उत्तर:
यमक

19. माला फेरत युग गया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर।
उत्तर:
यमक

20. मुदित महीपति मंदिर आए।
सेवक सचिव सुमंत बुलाए ।
उत्तर:
अनुप्रास

21. कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए।
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ॥
उत्तर:
उत्प्रेक्षा

22. ऊँचा कर सिर, ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल।
उत्तर:
अनुप्रास

23. थर-थर काँपहिं नर-नारी।
उत्तर:
पुनरुक्ति प्रकाश

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24. सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार ॥
उत्तर:
यमक

25. रघुपति राघव राजा राम।
उत्तर:
अनुप्रास

26. तात तासु तुम्ह प्रान अधारा।
उत्तर:
अनुप्रास

27. मैया मैं तो चंद-खिलौना लैहों।
उत्तर:
रूपक

28. यह तेरी रण-तरी।
उत्तर:
रूपक

29. भव-सागर तरने को नाव बनाए।
उत्तर:
रूपक

30. संसार की समरस्थली में धीरता धारण करो।
उत्तर:
अनुप्रास

31. जेहि विधि तबहिं ताहि लइ आवा।
उत्तर:
अनुप्रास

32. बार-बार गर्जन,
वर्षण है मूसलाधार।
उत्तर:
पुनरुक्ति प्रकाश

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33. भजन कह्यो तातें, भज्यों ने एकहुँ बार।
दूर भजन जाते कयो, सो तू भज्यो गँवार ॥
उत्तर:
यमक

34. महा महा जोधा संघारे।
उत्तर:
पुनरुक्ति प्रकाश

35. ऐ जीवन के पारावार।
उत्तर:
उपमा।

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HBSE 9th Class Hindi रचना निबंध-लेखन

Haryana State Board HBSE 9th Class Hindi Solutions Hindi Rachana Nibanbh-Lekhan निबंध-लेखन Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 9th Class Hindi Rachana निबंध-लेखन

निबंध-लेखन

निबंध-लेखन की पद्धति

गद्य अच्छे लेखकों की कसौटी है परंतु निबंध गद्य की कसौटी है। इसका कारण यह है कि निबंध में विचारों और भावों की श्रृंखला होनी चाहिए। निबंध का प्रत्येक वाक्य विषय-वस्तु से संबद्ध हो, यह भी ज़रूरी है। अस्तु निबंध लिखना एक कला है। निबंध-लेखक किसी दिए हुए विषय पर अपने विचारों को सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करता है।

(क) विषय का चयन:
प्रश्न-पत्र में निबंध-लेखन के लिए अनेक विषय होते हैं। अतः सबसे पहली समस्या यह उत्पन्न होती है कि कौन-सा विषय चुना जाए और कौन-सा छोड़ा जाए। हमें केवल वही विषय चुनना चाहिए जिसके बारे में हमें पूरा ज्ञान हो। यदि हम एक बार विषय चुनकर लिखना आरंभ कर दें और फिर उसे काटकर नया विषय चुनेंगे तो इससे दो हानियाँ होंगी। पहली बात तो यह कि हमारा समय नष्ट होगा, दूसरा, हमारे आत्मविश्वास को भी ठेस पहुँचेगी। अतः निबंध का श्रीगणेश करने से पूर्व हमें उसी विषय का चयन करना चाहिए जिसके बारे में हमें पूर्ण जानकारी हो।

(ख) निबंध की रूपरेखा:
प्रायः हम विषय-चयन के पश्चात निबंध लिखना आरंभ कर देते हैं, यह पद्धति सही नहीं है। हमें चुने गए विषय के बारे में दो-चार मिनट सोचकर उसकी अस्थाई रूपरेखा बना लेनी चाहिए। उदाहरण के रूप में, हम ‘आदर्श विद्यार्थी’ का निबंध लेते हैं तो इसके बारे में निम्नोक्त विचार दिए जा सकते हैं-
‘विद्यार्थी’ शब्द का अर्थ क्या है, विद्यार्थी जीवन का महत्त्व क्या है अथवा प्राचीन काल में विद्यार्थी जीवन क्या था ? विद्यार्थी के क्या-क्या गुण होने चाहिएँ ? विद्यार्थी और अनुशासन अथवा विद्यार्थी के जीवन में सादे जीवन और उच्च विचारों का क्या महत्त्व है ? तत्पश्चात, विद्यार्थी के जीवन में परिश्रम, संयम और खेल-कूद का क्या स्थान है ? इन सभी प्रश्नों को पूर्वापर क्रम से रखने पर ही हम ‘आदर्श विद्यार्थी’ विषय के प्रति न्याय कर सकेंगे।

(ग) निबंध का श्रीगणेश:
अगर हम निबंध का आरंभ सुचारु ढंग से करेंगे तो परीक्षक पर हमारा प्रभाव अनुकूल रहेगा। अंग्रेज़ी में कहा भी गया है-Well begun is half done. भूमिका बाँधकर हमें सीधा मूल विषय पर आना चाहिए। इस प्रकार, निबंध का आरंभ आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक हो जाएगा।

(घ) निबंध का मध्य भाग:
निबंध के मध्य भाग में संबंधित विषय का सांगोपांग विवेचन होना चाहिए। विषय का प्रतिपादन करते समय सर्वाधिक सावधानी की आवश्यकता है। स्थान और सीमा को ध्यान में रखकर ही विषय का प्रतिपादन हो तो अच्छी बात है। मूल विषय से कभी भी भटकना नहीं चाहिए। विषय से मिलती-जुलती बातों अथवा तथ्यों का प्रयोग उसे अधिक स्पष्ट करता है परंतु यह भी ध्यान में रहे कि विषय का मध्य भाग न अधिक लंबा हो और न ही अधिक छोटा।

(ङ) निबंध का अंतिम भाग:
निबंध के आरंभ की तरह उसका अंत भी महत्त्वपूर्ण होता है। निबंध के अंक तो निबंध के अंत में ही दिए जाते हैं क्योंकि परीक्षक अंतिम भाग को ध्यान से पढ़ता है इसलिए निबंध का अंतिम भाग यदि प्रभावपूर्ण नहीं होगा तो अच्छे अंकों की आशा नहीं की जा सकती।

(च) शुद्ध भाषा का प्रयोग:
भाषा की शुद्धता का निबंध में विशेष महत्त्व है। अशद्धियों के अंक अवश्य कटते हैं। परीक्षक अशुद्धियों पर लाल स्याही के निशान लगाता चलता है। निबंध का मूल्यांकन करते समय इन अशुद्धियों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है। जितनी अधिक अशुद्धियाँ होती हैं, उतने ही अंक कट जाते हैं। फिर अशुद्धियाँ परीक्षक पर बुरा प्रभाव डालती हैं। अतः निबंध लिखने के बाद उसे एक बार पुनः पढ़ लेना चाहिए।

संक्षेप में निबंध-लेखन के समय हमें निम्नोक्त बातों का ध्यान रखना चाहिए-
(i) विचारों में सुसम्बद्धता एवं एकसूत्रता हो,
(ii) एक ही शब्द का बार-बार प्रयोग न करें,
(iii) विराम-चिह्नों का सही एवं उचित प्रयोग होना चाहिए,
(iv) एक ही भाव या विचार की आवृत्ति नहीं होनी चाहिए,
(v) वाक्य छोटे-छोटे और सरल हों,
(vi) कठिन और संस्कृतनिष्ठ शब्दों का अधिक प्रयोग न करें,
(vii) अलंकृत भाषा का यथासंभव प्रयोग न हो,
(viii) नए विचार के लिए नए पैरे का प्रयोग करें,
(ix) यथासंभव उपशीर्षकों का प्रयोग करें, लेकिन ये सर्वथा उचित होने चाहिएँ।

HBSE 9th Class Hindi रचना निबंध-लेखन

1. मेरे सपनों का भारत

भूमिका: भारत एक महान् देश है। इसकी संस्कृति सबसे प्राचीन है। राजा दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। संसार में मेरे देश का बड़ा गौरव है।

1. भौगोलिक स्थिति व जनसंख्या:
भारत एक विशाल देश है। जनसंख्या की दृष्टि से यह विश्व भर में दूसरे स्थान पर है। इसकी वर्तमान जनसंख्या सवा सौ करोड़ से भी अधिक है। भारत के उत्तर में हिमालय, दक्षिण में लंका और हिंद महासागर हैं। इसमें अनेक प्रकार के पर्वत, नदियाँ और मरुस्थल हैं। भौगोलिक दृष्टि से यहाँ अनेक विविधताएँ हैं।

2. सांस्कृतिक एकता:
भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों और संप्रदायों के लोग रहते हैं, किंतु फिर भी यहाँ सांस्कृतिक एकता विद्यमान है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारा देश एक है। यहाँ अनेक महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। हरिद्वार, काशी, कुरुक्षेत्र, मथुरा, गया, जगन्नाथपुरी, द्वारिका आदि यहाँ के प्रसिद्ध तीर्थ हैं। शिमला, मसूरी, नैनीताल, मनाली, दार्जिलिंग आदि सुंदर पर्वतीय स्थान हैं। मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई आदि यहाँ के प्रमुख औद्योगिक केंद्र हैं। नई दिल्ली हमारे देश की राजधानी है।।

3. कृषि-प्रधान:
भारत कृषि-प्रधान देश है। भारत में लगभग छह लाख गाँव बसते हैं। इसकी लगभग अस्सी प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है। यहाँ गेहूँ, मक्का, बाजरा, ज्वार, चना, धान, गन्ना आदि की फसलें होती हैं। अन्न की दृष्टि से अब हम आत्म-निर्भर हैं।

4. उन्नतिशील:
भारतवर्ष कई सदियों की गुलामी झेलने के बाद सन् 1947 में स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता मिलने के तुरंत पश्चात् ही यहाँ बहुमुखी उन्नति के लिए प्रयत्न आरंभ हो गए थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यहाँ अनेक प्रकार के कारखाने लगाए गए जिनमें आशातीत उन्नति हुई है। यहाँ अनेक प्रकार की योजनाएँ आरंभ हुईं। पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत हर क्षेत्र में भरपूर उन्नति हुई। जिन वस्तुओं को हम विदेशों से मँगवाते थे, आज उन्हीं देशों को अनेक वस्तुएँ बनाकर भेजी जा रही हैं। विज्ञान के क्षेत्र में यहाँ बहुत उन्नति हुई है। परमाणु और उपग्रह के क्षेत्र में भी हम किसी से पीछे नहीं हैं।

5. भारत के महापुरुष:
भारत महापुरुषों की जन्म-स्थली है। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक आदि महापुरुष इसी देश में हुए हैं। महाराणा प्रताप, शिवाजी और गुरु गोबिंद सिंह जी इसी देश की शोभा थे। दयानंद, विवेकानंद, रामतीर्थ, तिलक, गांधी, सुभाष, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह आदि इसी धरती का श्रृंगार थे। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसीदास, सूरदास, कबीर आदि की वाणी यहीं गूंजती रही। भारत ने ही वेदों के ज्ञान से संसार को मानवता का रास्ता दिखाया।

6. महान्-प्रजातंत्र:
आज भारत में प्रजातंत्र है। यह एक धर्म-निरपेक्ष देश है। भारत संसार का सबसे बड़ा प्रजातंत्र गणराज्य है। हमारा अपना संविधान है। संविधान में प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार दिए गए हैं। भारतवासी सदा से शांतिप्रिय रहे हैं, किंतु यदि कोई हमें डराने या धमकाने का प्रयत्न करे तो यहाँ के रणबांकुरे उसके दाँत खट्टे कर डालते हैं।

निष्कर्ष:
तिरंगा हमारे देश का राष्ट्रीय ध्वज है। यहाँ प्रकृति की विशेष छटा देखने को मिलती है। यहाँ हर दो मास बाद ऋतु बदलती रहती है। कविवर जयशंकर प्रसाद ने ठीक ही लिखा है-“अरुण यह मधुमय देश हमारा।”

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2. हमारा विद्यालय

भूमिका:
विद्यालय वह मंदिर है जहाँ विद्या बाँटी जाती है। हमारे विद्यालय का नाम राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, करनाल है। यह रेलवे रोड पर स्थित है। इसमें छठी कक्षा से लेकर बारहवीं कक्षा तक शिक्षा दी जाती है। इसमें लगभग बारह सौ विद्यार्थी हैं। हमारे विद्यालय में लड़के-लड़कियाँ साथ-साथ पढ़ते हैं। यह नगर का सबसे बड़ा विद्यालय है।

1. विद्यालय की स्थिति:
हमारे विद्यालय का संपूर्ण भवन नव-निर्मित है। इसमें सभी आधुनिक साधन हैं। इसमें विभिन्न खेलों के क्रीड़ा-स्थल हैं जिसमें हम नित्य-प्रति खेलते हैं। इसमें एक वाटिका भी है जिसमें अनेक प्रकार के फूल खिले रहते हैं। विद्यालय का भवन पूर्णतः हवादार है।

हमारे विद्यालय के भवन में तीस श्रेणी-कक्ष हैं। सभी कमरों में बिजली के पंखे लगे हुए हैं। इनके अतिरिक्त एक सभा भवन भी है। शनिवार को ‘बाल सभा’ एवं अन्य उत्सव इसी सभा भवन में होते हैं। महीने में एक बार फिल्म भी दिखाई जाती है। प्रधानाचार्य महोदय का कमरा, कार्यालय एवं स्टाफ रूम सभी सुसज्जित हैं।

2. अध्यापक गण:
हमारे विद्यालय में 45 अध्यापक/अध्यापिकाएँ हैं। सभी अध्यापक बहुत योग्य हैं। वे हमें अत्यंत परिश्रमं और लगन से पढ़ाते हैं। यही कारण है कि हमारे विद्यालय की वार्षिक परीक्षा का परिणाम प्रत्येक वर्ष अति उत्तम रहता है। पिछले वर्ष हमारे विद्यालय की आठवीं कक्षा का विद्यार्थी राजकुमार राज्य-भर में प्रथम रहा है। इसके साथ-साथ दसवीं तथा बारहवीं कक्षाओं के परीक्षा परिणाम भी प्रतिवर्ष बहुत अच्छे रहते हैं। बारहवीं कक्षा की कुमारी नीलम राज्य भर में प्रथम रही थी।

3. अन्य प्रमुख विशेषताएँ:
हमारे विद्यालय की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें किसी भी छात्र को शारीरिक दंड नहीं दिया जाता। अध्यापक बड़े प्यार से पढ़ाते हैं। हमारे विद्यालय में शिक्षा के साथ-साथ खेलों की ओर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। गत वर्ष हमारी हॉकी टीम जिले में प्रथम रही थी। नैतिक शिक्षा पर विशेष बल दिया जाता है। हमारे विद्यालय में हर वर्ष पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन भी किया जाता है। इस समारोह में विभिन्न गतिविधियों में योग्यता प्राप्त विद्यार्थियों को पुरस्कार दिए जाते हैं तथा प्रधानाचार्य द्वारा वार्षिक रिपोर्ट पढ़ी जाती है। मुझे अपने विद्यालय से बड़ा प्यार है। यह वह मंदिर है, जहाँ हमें शिक्षा दी जाती है और जीवन का निर्माण किया जाता है।

4. हमारे प्रधानाचार्य:
हमारे विद्यालय के प्रधानाचार्य का नाम डॉ० विश्वराय सेन हैं। वे बड़े ही योग्य एवं दूरदर्शी हैं। वे स्वयं विद्यालय के परिसर की देखभाल करते हैं। वे ग्यारहवीं तथा बारहवीं कक्षाओं के विद्यार्थियों को स्वयं अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं। एक योग्य अध्यापक होने के कारण सभी अध्यापक-अध्यापिकाएँ उनका बड़ा आदर करते हैं। नगर भर में हमारा विद्यालय एक महान् शिक्षा केंद्र के रूप में प्रसिद्ध है।

उपसंहार:
वैसे तो हमारे नगर में 20 से अधिक विद्यालय हैं। वे भवन की दृष्टि से भव्य हो सकते हैं। उनमें छात्रों की संख्या अधिक हो सकती है, किंतु हमारा विद्यालय एक आदर्श विद्यालय है। यहाँ विद्यार्थी को व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के पूर्ण अवसर प्रदान किए जाते हैं। यहाँ का वातावरण सुखद, शांत और शिक्षाप्रद है। मुझे अपने विद्यालय पर गर्व है।

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3. मेरे जीवन का लक्ष्य

भमिका:
मानघ का प्रत्येक कार्य उद्देश्यपूर्ण होता है। एक मुर्ख व्यक्ति भी बिना उद्देश्य के काम नहीं करता। अतः प्रत्येक व्यक्ति कोई-न-कोई लक्ष्य सामने रखकर काम करता है। हमारा जीवन एक यात्रा के समान है। यदि यात्री को मालूम हो कि उसे कहाँ जाना है, तो वह उस लक्ष्य की ओर बढ़ना शुरू कर देता है। परंतु अगर उसे अपने गंतव्य का ज्ञान नहीं है तो उसकी यात्रा निरर्थक बन जाती है। इसी प्रकार से अगर एक विद्यार्थी को यह पता हो कि उसे क्या बनना है तो वह उसी दिशा में प्रयत्न करता है और सफलता भी प्राप्त करता है। इसके विपरीत, उद्देश्यहीन जीवन उसे कहीं नहीं ले जाता।

1. बाल्यावस्था की समस्या:
जब बालक आरंभ में विद्यालय में प्रवेश करता है तो उसके सामने अनेक लक्ष्य होते हैं। वह जैसे-जैसे लोगों के संपर्क में आता है, वैसे-वैसे प्रभाव उस पर पड़ते हैं। कभी तो वह सोचता है कि वह अध्यापक बने या डॉक्टर अथवा इंजीनियर बने तो कभी वह सैनिक बनकर देश की सेवा करना चाहता है। माँ-बाप भी बार-बार कहते रहते हैं कि वे अपने बच्चे को यह बनाएँगे या वह बनाएँगे, लेकिन निर्णय तो विद्यार्थी को स्वयं लेना होता है। अतः माँ-बाप के द्वारा कोई भी लक्ष्य बच्चे पर थोपा नहीं जाना चाहिए। विद्यार्थीकाल मानव के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह मानव-जीवन की आधार-शिला है। अगर विद्यार्थी इस काल में अपने लिए सही लक्ष्य निर्धारित कर लेता है, तो वह अपने जीवन को सुखी बनाता है और अपने देश तथा समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होता है।

2. डॉक्टर बनने का उद्देश्य:
हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथ भी घोषणा करते हैं कि दो व्यक्तियों का समाज पर अत्यधिक उपकार है-पहला है शिक्षक, जो विद्यार्थियों के जीवन में अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करके ज्ञान का दीपक जलाता है और दूसरा है डॉक्टर अथवा वैद्य, जो रोगी का उपचार करके उसे नया जीवन देता है। अतः शिक्षा देना और रोगियों का उपचार करना दोनों ही पावन कर्म हैं और मैंने इनमें से एक पावन कार्य को जीवन का लक्ष्य चुना है। हमारे देश में जो लोग डॉक्टरी की परीक्षा पास करते हैं, वे या तो बड़े-बड़े नगरों में अपने क्लीनिक स्थापित करके धन बटोरना शुरू कर देते हैं या फिर विदेशों की ओर भागते हैं। मैं समझता हूँ कि यह मातृ-भूमि के प्रति अन्याय तथा अपने देश और उसके प्रति विश्वासघात है।

3. डॉक्टर का महत्त्व:
मैं चाहता हूँ कि मैं शहर से दूर गाँव में जाकर अपना एक छोटा-सा अस्पताल स्थापित करूँ ताकि गाँव के लोगों को रोगों से मुक्त होने की सुविधा प्राप्त हो। मैं रोगियों से उतनी ही फीस लूँगा, जिससे कि अस्पताल का काम सुचारू रूप से चल सके। गरीब और अभावग्रस्त रोगियों का मैं मुफ्त इलाज करूँगा। मैं स्वयं एक गाँव का निवासी हूँ। मैंने अनेक बार गाँव के रोगियों को दवाई और इलाज के अभाव में मरते देखा है। अतः मैं चाहता हूँ कि डॉक्टरी द्वारा गाँव के उन लोगों की सेवा की जा सके जो न तो बड़े डॉक्टरों की मोटी फीस दे सकते हैं और न ही मरीज को बड़े-बड़े नगरों में ले जा सकते हैं। इसलिए मैं सोचता हूँ कि ग्रामीण क्षेत्र में डॉक्टरों की अधिकाधिक आवश्यकता है। मैं जानता हूँ कि एक अच्छा और सफल डॉक्टर बनना आसान नहीं है। यह बहुत ही कठिन कार्य है। डॉक्टर के हृदय में मरीजों के प्रति दया, सहानुभूति और करुणा की भावना का होना नितांत आवश्यक है। मैंने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अभी से प्रयत्न शुरू कर दिए हैं।

मेरे माता-पिता का विश्वास भी मुझे प्राप्त है। वे भी यही चाहते हैं कि मैं डॉक्टर बनूँ। वस्तुतः मैं सही अर्थों में डॉक्टर बनकर उन डॉक्टरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूँ जो मरीजों से रुपया कमाने के लिए इस व्यवसाय को अपनाए हुए हैं। मैं आशा करता हूँ कि डाक्टर बन कर मैं अपने देश और समाज की सच्ची सेवा कर सकूँगा। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह मेरी इस मनोकामना को पूर्ण करे।

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4. मेरा हरियाणा
अथवा
मेरा राज्य

देसाँ माँ देस हरियाणा।
जित दूध दही का खाणा ॥

भूमिका:
हरियाणा भारतवर्ष का एक प्रमुख राज्य है। हरियाणा की भूमि वीरों की जननी है। सिकंदर से लेकर तैमूर और बाबर जैसे लगभग दो हजार आक्रमणकारियों का मुकाबला इसी धरती के वीरों ने किया। पानीपत की तीन महान् लड़ाइयाँ इसी राज्य की छाती पर लड़ी गईं थीं। शत्रु के खून से नहाई हुई यह धरती स्वभाव से ही वीरता और बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती है।

1. ‘हरियाणा’ नाम की उत्पत्ति:
‘हरियाणा’ नाम की उत्पत्ति के बारे में कई विचारधाराएँ हैं। कई विद्वान इस शब्द के दो पदों का अर्थ ‘हरि’ = ‘कृष्ण’, ‘आणा’ = ‘पधारना’ लगाकर भगवान् श्रीकृष्ण के आगमन के साथ जोड़ते हैं। कई इसे ‘हर’ शंकर का प्रदेश = हर का प्रदेश अर्थात् हरयाणा कहते हैं। कुरुक्षेत्र में भगवान् श्रीकृष्ण का यान अर्थात् रथ चल रहा था, अतः इसे हरियाणा कहते हैं। .

2. हरियाणा की भौगोलिक स्थिति और निर्माण:
हरियाणा प्रांत सरस्वती नदी के पावन तट पर बसा है। इसके पूर्व में भारत की राजधानी नई दिल्ली है। दक्षिण में राजस्थान, उत्तर में हिमाचल प्रदेश और पश्चिम में पंजाब स्थित है। यद्यपि हरियाणा प्रांत अति प्राचीन है, परंतु यह 1 नवंबर, 1966 को अस्तित्व में आया। यहाँ की जनसंख्या 2.54 करोड़ के लगभग है। हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़ है। इसमें 90 विधानसभा, 10 लोकसभा क्षेत्र तथा 22 जिले हैं। इस प्रदेश की भाषा हिंदी है।

3. कृषि-प्रधान प्रदेश:
हरियाणा एक कृषि-प्रधान प्रदेश है। यहाँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। यहाँ गेहूँ, चना, मोठ, चावल, मूंग, कपास, सरसों, गन्ना आदि फसलें उगाई जाती हैं। यहाँ की गेहूँ एवं चावल की मंडियाँ केवल भारत में ही नहीं अपितु एशिया-भर में प्रसिद्ध हैं। करनाल में स्थित ‘राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान’ विश्व-भर में प्रसिद्ध है।

4. औद्योगिक केंद्र:
उद्योगों के क्षेत्र में भी हरियाणा सबसे आगे है। सूरजपुर में सीमेंट का उद्योग है। पिंजौर में ‘हिंदुस्तान मशीन टूल्ज’ का बहुत बड़ा कारखाना है। फरीदाबाद में विभिन्न प्रकार के कारखाने हैं। सोनीपत की एटलस साइकिल की फैक्टरी विश्व-भर में प्रसिद्ध है। यमुनानगर में पेपर मिल एवं बर्तनों के कारखाने हैं। पानीपत और करनाल चीनी मिलों के लिए प्रसिद्ध हैं। करनाल में जूतों की कम्पनी विश्व-भर में प्रसिद्ध है।

5. हरियाणा के दर्शनीय धार्मिक स्थान:
हरियाणा में अनेक दर्शनीय एवं धार्मिक स्थल हैं जिनमें से कुरुक्षेत्र, करनाल, पिहोवा, नारनौल, भिवानी आदि दर्शनीय स्थल हैं और सोहना का गर्म पानी का स्रोत, बड़खल झील, कुरुक्षेत्र का बिरला मंदिर आदि प्रमुख हैं।

6. साहित्य एवं संस्कृति का केंद्र:
संस्कृत के महाकवि बाणभट्ट एवं पं० छज्जूराम शास्त्री का जन्म इसी पवित्र धरती पर हुआ। हिंदी क्षेत्र के पं० माधव मिश्र और बालमुकुन्द का जन्म भी इसी पवित्र धरती पर हुआ। संतों में कबीर, निश्चलदास तथा गरीबदास का जन्म भी इसी पवित्र धरती पर हुआ। हरियाणा पर्व-प्रधान प्रदेश है। यहाँ प्रसिद्ध त्योहारों के अतिरिक्त तीज, करवाचौथ, मकर संक्रांति, शिवरात्रि, गूगा नवमी, गोपाष्टमी आदि प्रमुख त्योहार मनाए जाते हैं।

निष्कर्ष:
सार रूप में कहा जा सकता है कि हरियाणा एक नवगठित प्रदेश है, किंतु फिर भी इसने विभिन्न क्षेत्रों में अद्भुत उन्नति की है। हमें हरियाणा निवासी होने का गर्व है। कुछ ही समय में हरियाणा एक आदर्श राज्य के रूप में उभरकर संसार के सामने आएगा। अतः हमें हरियाणा से घनिष्ठ प्रेम है।

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5. स्वतंत्रता दिवस

आजादी आ, तुझसे आज दो-दो बातें कर लें।
जो मिटे तेरी डगर में, आज उनको याद कर लें।

भूमिका:
भारतवर्ष सदियों तक विदेशी शासकों के अधीन रहा है। यहाँ की जनता ने एक लम्बे संघर्ष के पश्चात् 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त की थी। इस स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए लाखों लोगों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया। 15 अगस्त को यह राष्ट्रीय पर्व बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है।

1. स्वतंत्रता का इतिहास:
भारत की स्वतंत्रता का इतिहास बड़ा अनोखा है। अंग्रेज़ भारत में व्यापार करने की इच्छा से आए थे, पर भारत की आंतरिक फूट और कलह से लाभ उठाकर देश के शासक बन बैठे। भारतवासियों ने स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अनेक प्रयत्न किए। अनेक नेताओं और क्रांतिकारियों ने देश की आजादी के लिए अपना बलिदान दिया। अंत में 15 अगस्त, 1947 को देश का विभाजन करके इसे स्वतंत्रता दे दी गई।

2. पराधीनता का अनुभव:
पराधीनता की पीड़ा को पशु-पक्षी भी जानते हैं। पराधीनता के चंगुल में फंसे हुए पशु-पक्षी भी जंजीर, पिंजरा आदि तोड़कर भागना चाहते हैं। यही दशा उन देशों की होती है जो दासता की बेड़ियों में जकड़े हुए होते हैं।

3. स्वतंत्रता दिवस मनाने की विधि:
स्वतंत्रता दिवस का पूरे राष्ट्र के लिए विशेष महत्त्व है। यह पर्व हमारे मन में प्रसन्नता की लहर उत्पन्न कर देता है। इस पर्व को मनाने के लिए भारतीय जनमानस उत्साहपूर्वक अनेक प्रकार के आयोजन करते हैं; जैसे नाटक, संगीत, नृत्य, भाषण आदि। मकानों, सार्वजनिक कार्यालयों, सरकारी भवनों, दुकानों पर तिरंगे फहराए जाते हैं। इस राष्ट्रीय पर्व का महत्त्व भारत के ग्राम, नगर आदि सभी के लिए एक समान है। 15 अगस्त की प्रभात वेला में दिल्ली में प्रधानमंत्री लालकिले में भाषण देकर देश की दशा पर विचार करते हैं और भारत की स्वतंत्रता के लिए प्राणों की आहुति देने वालों को श्रद्धांजलि भेंट करते हैं।

4. राष्ट्रीय पर्व:
अनेक उत्सवों के साथ आकाशवाणी एवं टेलीविज़न से भी कुछ कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। यह राष्ट्रीय त्योहार एवं राजकीय त्योहार न होकर घर-घर की खुशी का त्योहार हो जाता है। स्वतंत्रता दिवस हमारे देश का सर्वोच्च पर्व है। जैसे देश-भर में दीपावली और दशहरा मनाया जाता है उसी प्रकार इस राष्ट्रीय पर्व को भी देश-भर की जनता बड़े उत्साह और खुशी से मनाती है। ऐसे पर्यों के अवसर पर विभिन्न प्रकार के आयोजन करने से देश की जनता में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न होती है तथा अपने देश की स्वतंत्रता की रक्षा के प्रति जागरूकता आती है।

उपसंहार:
इस पर्व को मनाने से देश की भावी पीढ़ियों के हृदय में देश-भक्ति के बीज अंकुरित होते हैं। यह हमारे जीवन व इतिहास के परिवर्तन का दिन है। भारत के सौभाग्य का दिवस है। यह दिवस इस बात का प्रतीक है कि सब भारतवासियों को एकजुट होकर अपने देश की रक्षा के लिए तैयार रहना है। हमारी स्वतंत्रता ही हमारे अस्तित्व का आधार है। अतः हमें इसे मिलजुल कर प्रेमपूर्वक मनाना चाहिए।

6. राष्ट्रीय एकता

है एक ही देश, एक ही है लक्ष्य हमारा; है एक ध्वज, एक ही संगीत हमारा।
हम एक-सी ही राह, हैं सभी मिलकर बनाते; हम एक हैं सब एकता का नाद गुंजाते ॥

भूमिका:
एक परिवार से लेकर पूरे राष्ट्र और विश्व तक के जीवन में एकता का बहुत महत्त्व है। भारतवर्ष कई राज्यों की इकाइयों का संघ है। इसमें अनेक भाषा बोलने वाले, अनेक धर्मों को मानने वाले और अनेक विचारधाराओं के लोग रहते हैं। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय एकता का महत्त्व और भी बढ़ जाता है, किंतु भारतवर्ष की परंपराएँ और संस्कृति एक है। हमारा संविधान एक है। पूर्ण राष्ट्र माला के विभिन्न फूलों की भांति एकता के सूत्र में बँधा हुआ है। भारत कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक है।

1. राष्ट्रीय एकता का महत्त्व:
एकता का मानव-जीवन में बहुत महत्त्व है। एकता के अभाव में मानव-जीवन बिखर जाता है। उसकी उन्नति के सारे मार्ग बंद हो जाते हैं। यही स्थिति एक राष्ट्र की भी होती है। जब तक संपूर्ण राष्ट्र एक है तब तक कोई भी विदेशी शक्ति देश की ओर आँख उठाकर नहीं देख सकती, परंतु जब देश में कलह या एकता का अभाव दृष्टिगोचर होने लगे, तो देश पतन के गर्त में चला जाता है। पृथ्वीराज तथा जयचंद का उदाहरण द्रष्टव्य है। उनकी आपसी फूट के कारण ही मुहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण करने का साहस हुआ। रावण और विभीषण की आपसी फूट के कारण ही सोने की लंका जलकर राख हो गई। राजपूतों की परस्पर शत्रुता के कारण ही भारत में मुगलों के पाँव जम गए।

2. एकता के मार्ग में बाधाएँ:
भारत की राष्ट्रीय एकता में आज अनेक बाधाएँ उत्पन्न हो गई हैं, लेकिन सबसे बड़ी बाधा तो भाषा की भिन्नता है। भाषा की विभिन्नता के कारण एक ही देश के लोग एक-दूसरे के लिए अजनबी बन जाते हैं। भाषा को लेकर आए दिन दंगे होते हैं। राष्ट्रीय एकता के मार्ग में दूसरी बड़ी बाधा है-सांप्रदायिकता की। हर दिन विभिन्न संप्रदायों के लोगों में झगड़े होते रहते हैं। तीसरी बाधा है-प्रांतीयता और चौथी बाधा है-जातीयता की। इन सब कारणों ने भारत की राष्ट्रीय एकता को कमजोर बना दिया है।

3. राष्ट्रीय एकता के उपाय:
इन बाधाओं को दूर करके राष्ट्रीय एकता को पहले की अपेक्षा मजबूत बनाया जा सकता है। देश के स्वतंत्र होने के पश्चात् उन सब बाधाओं को दूर करने के प्रयास किए गए हैं, जो राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधा पहुँचा रही हैं। इसमें संदेह नहीं कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् प्रांतीयता, सांप्रदायिकता और जातीयता में वृद्धि हुई है। अतः हमें फिर से उन समस्याओं का समाधान करना होगा, जो हमारी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक सिद्ध हो रही हैं।

4. राष्ट्रीय एकता की रक्षा:
देश के हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह राष्ट्रीय एकता को स्थिर रखने के लिए तन-मन और धन से कार्य करे। उसे उन भावनाओं और विचारों से दूर रहना चाहिए जो राष्ट्रीय एकता को हानि पहुँचाते हैं। उसे किसी लालच में आकर अपने देश की एकता को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। यदि राष्ट्र में रहने वाले हम सभी नागरिक एकता के सूत्र में बँधकर रहेंगे तभी सरक्षित रह सकेंगे।

उपसंहार:
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जैसे माला में पिरोए हुए हर मोती का महत्त्व तब तक ही होता है जब तक वह माला में रहता है। माला के टूट जाने पर मोती बिखर जाते हैं और उनका कोई महत्त्व नहीं रहता। इसी प्रकार हर नागरिक या राज्य का महत्त्व राष्ट्र के साथ जुड़कर रहने में ही है। यदि हम एक हैं तो सुरक्षित हैं, अन्यथा कोई भी शत्रु हमें गुलाम बना सकता है।

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7. स्वदेश प्रेम

भूमिका:
देश-प्रेम वास्तव में महान् एवं पवित्र भावना है। यह वह पवित्र गंगा है जिसमें गोता लगाने से हमारा तन ही नहीं, अपितु मन भी पवित्र हो जाता है। जिस देश की धरती की धूल में लोट-लोट कर हम बड़े हुए हैं उस देश की धरती से, वहाँ के कण-कण से प्रेम होना चाहिए। वास्तव में देखा जाए तो देश-प्रेम ही सबसे बड़ा प्रेम है।

1. देश-प्रेम का अर्थ:
देश-प्रेम का अर्थ है-देश से प्यार अर्थात् देश की धरती पर विद्यमान पहाड़, नदियाँ, जंगल, पशु-पक्षी, वस्तुएँ तथा मनुष्य सभी से प्रेम ही देश-प्रेम कहलाता है। इतना ही नहीं, देश की सभ्यता और संस्कृति के प्रति प्रेम भी देश-प्रेम ही होता है।

2. देश-प्रेम एक स्वाभाविक गुण:
देश-प्रेम मानव का एक स्वाभाविक गुण है। यह गुण तो पक्षियों और पशुओं में भी मिलता है। पक्षी सारा दिन दाने-दाने की तलाश में न जाने कहाँ-कहाँ घूमता है परंतु सायंकाल अपने नीड़ में ही पहुँचता है। उसे भी मातृ-भूमि । से प्रेम होता है।

3. देश-प्रेम क्यों?:
देश की उन्नति के लिए स्वदेश प्रेम परमावश्यक है। जिस देश के निवासी अपने देश के हित में अपना हित, अपने देश के कष्ट में अपना कष्ट तथा अपने देश की समृद्धि में अपनी समृद्धि नहीं समझते हैं। वे देश और राष्ट्र कभी उन्नति नहीं कर सकते। जापान, जर्मनी इत्यादि इसीलिए प्रगतिशील राष्ट्र माने जाते हैं क्योंकि वे प्रत्येक कार्य राष्ट्र के हित में करते हैं।

4. भारतीयों के देश-प्रेम के कुछ उदाहरण:
भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं रही जो अपने देश को अपने जीवन से भी बढ़कर समझते थे। सर्वप्रथम जब लक्ष्मण ने श्रीराम को सोने की लंका में रहने के लिए कहा तो श्रीराम ने उत्तर देते हुए कहा था कि यह तो केवल सोने की लंका है। मुझे तो मेरी जन्म-भूमि स्वर्ग से भी अधिक अच्छी लगती है।

चंद्रगुप्त के नेतृत्व में सभी राजाओं ने मिलकर सिकंदर के विश्व-विजय के स्वप्न को चूर-चूर कर दिया था। इस प्रयत्न के पीछे उनका देश-प्रेम और देश-भक्ति ही कार्यरत थी। मुगल शासनकाल में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल और गोबिंद सिंह अत्याचारी शासन के विरुद्ध लड़ते रहे। अंग्रेज़ों के शासनकाल में स्वाधीनता-संग्राम के वीरों ने देश-भक्ति के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। भारतीय वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, लाला लाजपतराय, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, महात्मा गांधी, पं० जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाषचंद्र बोस आदि वीरों ने देश के लिए तन-मन-धन न्योछावर कर दिया।

5. देश-प्रेम का संकुचित अर्थ:
आज देश का अर्थ कुछ संकुचित होता जा रहा है। कुछ लोग अपने प्रदेश, अपने धर्म और अपनी भाषा तक ही सीमित रहते हैं। वे संपूर्ण देश से प्रेम नहीं करते। अपने ही देशवासियों को अछूत और पतित कहकर उनके प्रति घृणा व्यक्त करते हैं। यह देश-भक्ति नहीं है। उन्हें याद रखना होगा कि भारत कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक देश है। नेहरू जी का कथन है, “यदि भारत ही न रहा तो हममें से कौन जीवित रह सकता है और यदि भारत जीवित रहता है तो हममें से कौन मर सकता है।”

उपसंहार:
देश के प्रति अपने कर्तव्य का भली-भांति पालन करना ही देश के प्रति निष्ठा और देश-भक्ति है। यदि हर नागरिक अपने कर्तव्य का पालन करे तो यही उनका सच्चा देश-प्रेम या सच्ची देश-भक्ति होगी। इसी भाव को एक कवि ने निम्नलिखित पंक्तियों में व्यक्त किया है-
जिस व्यक्ति के जीवन में सदाचार नहीं,
निर्धन के लिए दिल में भरा प्यार नहीं,
आता ही नहीं देश पे मरना जिसको,
उस नीच को जीने का भी अधिकार नहीं।

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8. विज्ञान के लाभ तथा हानियाँ
अथवा
विज्ञान-वरदान या अभिशाप

भूमिका:
आज का युग विज्ञान का युग है। गत एक शताब्दी से विज्ञान एक से बढ़कर एक खोजें करता रहा है। जो बातें कभी कल्पना में सोची जाती थीं विज्ञान ने उन्हें साक्षात् कर दिखाया है। मानव चाँद पर पहुँच गया और इससे भी दूर के ग्रहों पर पहुँचने की तैयारी कर रहा है। विज्ञान के सहयोग से मानव-हृदय तक परिवर्तित होने लगा है।

1. आधुनिक आविष्कार:
परमाणु शक्ति एवं विद्युत के अनुसंधान ने मानव को उन्नति के शिखर पर पहुंचा दिया है। तेज चलने वाले वाहन, समुद्र के वक्ष स्थल को रौंदने वाले जहाज और असीम आसमान में वायु की गति से भी तेज चलने वाले विमान, नक्षत्र लोक तक पहुँचाने वाले रॉकेट प्रकृति पर मानव की विजय के उज्ज्वल उदाहरण हैं। आज तार, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा, ग्रामोफोन आदि ने मानव जीवन में अनेक सुख प्रदान किए हैं।

2. समय व दूरी पर नियंत्रण:
विज्ञान ने मानव को अनेक लाभ पहुँचाए हैं जिनको देखकर कहा जा सकता है कि विज्ञान मनुष्य के लिए एक वरदान है। विज्ञान के कारण मनुष्य ने समय और दूरी पर नियंत्रण कर लिया है। लम्बी यात्रा बस, रेलगाड़ी, हवाई जहाज़ आदि द्वारा कुछ घंटों में पूरी की जा सकती है। मित्रों व संबंधियों तक तार व टेलीफोन द्वारा कुछ ही क्षणों में अपना संदेश भेज सकते हैं।

3. विद्युत एवं पानी:
विद्युत के आविष्कार से हमारी महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ पूरी हो गई हैं। देश में अनेक कारखाने चलाए जाते हैं। विद्युत का प्रयोग हम घरेलू जीवन में भी करते हैं। बटन दबाते ही पंखा चलने लगता है और बल्ब जगमगा उठते हैं। इसी प्रकार से वैज्ञानिक यंत्रों (बिजली) द्वारा हमें पीने के लिए स्वच्छ पानी मिलता है।

4. स्वास्थ्य एवं कृषि के क्षेत्र में उन्नति:
एक्सरे यंत्र के द्वारा शरीर के भीतरी भाग का चित्र लिया जा सकता है। इसकी सहायता से सैकड़ों रोगों की चिकित्सा की जाती है। प्लेग, चेचक, हैज़ा आदि बीमारियों का उपचार विज्ञान की खोजों से ही सम्भव हुआ है। कृषि के क्षेत्र में विज्ञान ने बहुत उन्नति की है। पुराने हल तथा बैल को त्यागकर आज का किसान ट्रैक्टर से खेती करता है। वह नलकूप, पंप आदि से खेती की सिंचाई करता है।

5. परमाणु शक्ति:
परमाणु शक्ति के आविष्कार ने मानव-जाति को आश्चर्यचकित कर दिया है। परमाणु शक्ति से बड़े-बड़े उद्योग चलाए जाते हैं। परमाणु विस्फोट से पर्वतों को तोड़कर सड़कें बनाई जा सकती हैं तथा नहरें खोदी जा सकती हैं। इस प्रकार उपर्युक्त विज्ञान के लाभों को देखते हुए कहा जा सकता है कि विज्ञान मानव जीवन के लिए वरदान है।

6. विज्ञान की हानियाँ:
विज्ञान से जहाँ मानव को इतने लाभ हुए हैं वहाँ अनेक हानियाँ भी हुई हैं। विज्ञान के विनाशक यंत्रों ने मानव की नींद छीन ली है, उसका सुख-चैन समाप्त कर दिया है। विज्ञान ने मानव को अपने यंत्रों का दास बना दिया है। उसके भाग्य में बेकारी लिख दी है। आज का मानव बाह्य रूप या भौतिक रूप से संपन्न एवं समृद्ध होने पर भी हृदय में अशांति लिए हुए भटक रहा है। उसके पास आध्यात्मिक ज्ञान नहीं रहा। वह आज श्रद्धा व सहानुभूति को भूलकर तर्क-वितर्क की छाया में जी रहा है। वह ईश्वर से विमुख होकर विज्ञान के सहारे जीवित है। अतः आज मानव के जीवन में शांति का अभाव होता जा रहा है।

उपसंहार:
सार रूप में कहा जा सकता है कि विज्ञान अपने-आप में न अच्छा है न बुरा है। वह तो मानव के हाथ में एक शक्ति है। इस शक्ति का प्रयोग हम अच्छे या बुरे रूप में कर सकते हैं। विज्ञान के सदुपयोग से इस संसार को उपवन तथा दुरुपयोग से उजाड़ बनाया जा सकता है।

9. सिनेमा के लाभ तथा हानियाँ

भूमिका:
सिनेमा या चलचित्र आधुनिक युग का एक जन-प्रिय आविष्कार है। ध्वनि और चित्र का अद्भुत संगम है। इसे मनोरंजन का सस्ता एवं शक्तिशाली साधन कहा जा सकता है। यह जन-जन की इच्छा का साकार रूप है। सिनेमा के विकास का हमारे जीवन के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि सभी पक्षों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।

1. आविष्कार:
अमेरिका के प्रसिद्ध वैज्ञानिक एडीसन ने सर्वप्रथम सिनेमा का आविष्कार किया। अमेरिका के पश्चात् इसका इंग्लैण्ड और फ्रांस में प्रचार हुआ। आज संसार के सभी देशों में इसका चलन है। भारत में पहले-पहल मूक चित्र होते थे। भारत का पहला बोलने वाला चलचित्र ‘आलमआरा’ था। हिंदी में सिनेमा को चलचित्र कहते हैं। सिनेमा विज्ञान की अनुपम देन है। इसके अनेक लाभ हैं।

2. ज्ञान एवं शिक्षा का प्रसार:
सिनेमा से हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है। वे स्थान जो हम कभी देखने की कल्पना भी नहीं कर सकते वे सिनेमा के द्वारा बड़ी आसानी से देखे जा सकते हैं। अनेक राजनीतिक एवं ऐतिहासिक भवन, नगर, बाग-बगीचे आदि हमें सिनेमा द्वारा देखने को मिलते हैं। सिनेमा जहाँ मनोरंजन का प्रमुख साधन है वहाँ सिनेमा द्वारा शिक्षा का प्रसार भी हुआ है। आज भूगोल, इतिहास, विज्ञान आदि विषयों को भी सिनेमा द्वारा समझाया व सिखाया जाता है।

3. मनोरंजन का साधन:
सिनेमा मनोरंजन का प्रमुख साधन है। आजकल सिनेमा बड़े-बड़े नगरों तक ही सीमित नहीं रहे अपितु छोटे-छोटे कस्बों में भी अनेक सिनेमाघर बन गए हैं। बड़े-बड़े शहरों में सिनेमा घरों की संख्या अधिक हो गई है। बड़े-से-बड़े व्यक्ति से लेकर छोटे-से-छोटे व्यक्तिं तक मनोरंजन के लिए सिनेमा देखते हैं।

4. समाज सुधार:
सिनेमा जहाँ मनोरंजन का उत्तम साधन है वहाँ समाज सुधार का भी श्रेष्ठ साधन सिद्ध हुआ है। समाज में स्वस्थ सहिष्णुता, नैतिकता एवं चरित्र की पवित्रता की स्थापना किस प्रकार की जाए, इस उद्देश्य से हमारे यहाँ अनेक फिल्मों का निर्माण हो चुका है; जैसे पुकार, भगत सिंह, अछूत कन्या, छत्रपति शिवाजी, जागृति, पैगाम, भाभी, धूल का फूल, सुजाता, तपस्या, स्वामी आदि। ये चलचित्र सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं को लेकर निर्मित हुए हैं।

5. व्यापार में वृद्धि:
सिनेमा व्यापार के प्रचार का भी साधन है। सिनेमा व्यापार की बहुत सारी वस्तुओं के प्रचार का प्रमुख साधन है। दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं आदि का प्रचार चलचित्रों द्वारा ही होता है। सिनेमा अपने-आप में भी बहुत बड़ा व्यापार बन गया है। सिनेमा द्वारा हमें विदेशों के विषय में जानकारी बड़ी आसानी से प्राप्त हो जाती है। सिनेमा द्वारा विदेशियों के रहन-सहन, पहनावा, ज्ञान, शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता आदि का पता चल सकता है।

6. हानियाँ:
सिनेमा देखने से जहाँ अनेक लाभ होते हैं वहाँ कुछ हानियाँ भी होती हैं। गंदे व अश्लील चित्र व दृश्य देखने से लोगों के विशेषकर बच्चों और युवकों एवं युवतियों के चरित्र पर बुरा असर पड़ता है। अनेक प्रकार के फैशन के दृश्य देखकर लड़के-लड़कियाँ अपने देश की परंपरा और सभ्यता को भूलकर विदेशी सभ्यता और संस्कृति की ओर उन्मुख हो रहे हैं। सिनेमा के अनेक दृश्यों में बैंक लूटना, स्मगलिंग, शराब पीना आदि दिखाया जाता है जिनका दर्शकों के मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

उपसंहार:
कहने का अभिप्राय यह है कि सिनेमा से जहाँ अनेक लाभ हैं वहाँ अनेक हानियाँ भी उभरकर सामने आई हैं। सरकार द्वारा यद्यपि सिनेमा सैंसर होकर आते हैं, किंतु फिर भी उनमें गंदे दृश्य, भद्दे संवाद और अश्लील गाने रह जाते हैं। यह सब निर्माता और निर्देशक पर निर्भर करता है।

10. खेलों का जीवन में महत्त्व

नियम से व्यायाम को नित कीजिए।
दीर्घ जीवन का सुधा रस पीजिए ॥

भूमिका:
जीवन में स्वास्थ्य का सबसे अधिक महत्त्व होता है। स्वस्थ मानव ही धरती पर विद्यमान् सुखों को भोग सकता है। विजय उसके चरण चूमती है। स्वस्थ व्यक्ति ही साहस एवं धैर्य से पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकता है। यह स्वस्थ जीवन प्राप्त होता है खेलों से। नियम से खेलने वाले व्यक्ति में आत्म-विश्वास और कार्य करने की शक्ति विद्यमान रहती है।

1. खेलों के प्रकार:
हमारे देश में खेलों के अंतर्गत फुटबाल, हॉकी, वालीबाल, क्रिकेट, कबड्डी, कुश्ती, खो-खो, पोलो, तैराकी, घुड़सवारी, लम्बी कूद और हर प्रकार की दौड़ें आती हैं। इनके द्वारा शारीरिक एवं मानसिक शक्ति में वृद्धि के साथ-साथ मनोरंजन भी होता है। वास्तव में, देखा जाए तो खेल-कूद और व्यायाम हमारी शक्ति के स्रोत हैं। जो इन स्रोतों के अनुयायी रहते हैं, वे सदैव शक्तिशाली, चुस्त और आरोग्य रहते हैं। आलस्य उनसे कोसों दूर रहता है। खेलों से शरीर में रक्त की गति तीव्र रहती है, जिससे पाचन-शक्ति ठीक रहती है। संपूर्ण शरीर सुडौल और सुदृढ़ हो जाता है। पुढे शक्तिशाली हो जाते हैं, नेत्रों की ज्योति बढ़ जाती है। मन उल्लास से भरा रहता है।

2. खेलों द्वारा चरित्र निर्माण:
खेलों द्वारा न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को लाभ प्राप्त होता है, अपितु मानसिक स्वास्थ्य को भी लाभ होता है। खेलों द्वारा हमारे बौद्धिक विकास में भी सहायता मिलती है। इसके साथ-साथ खेलों द्वारा हमारे चरित्र का निर्माण होता है। इनके द्वारा हमारे मन से कुत्सित विचार या भावनाएँ स्वतः ही दूर हो जाती हैं। खेलों द्वारा आपसी सहयोग की भावना उत्पन्न होती है। खिलाड़ी में आत्म-संयम, आत्म-विश्वास, दृढ़ निश्चय, हानि को सहन करने की क्षमता तथा विजयी होने का निश्चय आदि अनेक गुण उत्पन्न होते हैं जिनसे उसके उत्तम चरित्र का परिचय प्राप्त होता है।

3. राष्ट्र के महान् खिलाड़ी पुरुष:
हमारे देश के महान् पुरुष सदैव अच्छे खिलाड़ी रहे हैं। यहाँ ऐसे वीरों की अनेक गाथाएँ प्रचलित हैं। धनुर्धारी राम, हनुमान, परशुराम, भीम, अर्जुन, अभिमन्यु और श्रीकृष्ण का नाम सुनकर किसकी भुजाएँ न फड़क उठेगी ? उन्होंने व्यायाम, ब्रह्मचर्य और शक्ति-पूजा से ही अचल कीर्ति प्राप्त की है। पृथ्वीराज चौहान के शब्द-भेदी बाण, अकबर बादशाह की घुड़सवारी और स्वामी रामतीर्थ की तैराकी तथा व्यायाम की प्रवृत्ति से कौन परिचित नहीं ? स्वामी दयानंद सरस्वती में शक्ति और स्वास्थ्य का चरमोत्कर्ष हुआ था। राष्ट्रपिता गांधी जी को भ्रमण में तथा जवाहरलाल नेहरू की तैरने में रुचि थी।

4. खेलों से प्राप्त शिक्षाएँ:
खेलों से हमें अनेक शिक्षाएँ प्राप्त होती हैं। खेल संघर्ष द्वारा विजय प्राप्त करने की भावना पैदा करते हैं। खेल हँसते-हँसते अनेक कठिनाइयों का सामना करना सिखाते हैं। खेल के मैदान में खिलाड़ी में अनुशासन में रहने की भावना उत्पन्न होती है। एक-दूसरे को सहयोग देने और भाई-चारे की भावना भी खेलों से मिलती है।

उपसंहार:
संक्षेप में कहा जा सकता है कि खेल-कूद मानव-जीवन का अभिन्न अंग है। जो लोग खेलों के महत्त्व को नहीं समझते, वे जीवन के महान् सुख से वंचित रह जाते हैं। विद्यार्थियों को खेलों में अवश्य भाग लेना चाहिए, क्योंकि खेलों में भाग लेने से उनका शारीरिक और मानसिक विकास होगा तथा चरित्र का निर्माण भी होगा। मनुष्य को दीर्घ आयु के लिए व्यायाम या खेलों का अनुसरण अवश्य करना चाहिए।

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11. समय का सदुपयोग

भूमिका:
समय अमूल्य धन है। कुछ लोग चरित्र को सबसे बड़ा धन मानते हैं। महाकवि तुलसीदास ने संतोष को सबसे बड़ा धन माना है। अंग्रेज़ी की एक कहावत में कहा गया है ‘टाईम इज़ मनी’ अर्थात् समय ही धन है। इसी प्रकार यदि पूछा जाए कि सबसे बड़ी हानि क्या है तो उत्तर होगा कि समय व्यर्थ गंवा देना ही सबसे बड़ी हानि है। मानव जीवन का एक-एक क्षण महत्त्वपूर्ण है। बीता समय कभी लौटकर नहीं आता। किसी कवि ने ठीक ही कहा है
“उद्योगी को कहाँ नहीं सु-समय मिल जाता।
समय नष्ट कर नहीं सौख्य कोई भी पाता ॥”

1. समय का सदुपयोग:
धन से हर वस्तु खरीदी जा सकती है, परंतु समय नहीं खरीदा जा सकता। समय का सदुपयोग करने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने दैनिक कार्यों की समुचित रूप-रेखा बना ले तथा उसके अनुसार ही अपने कर्म करे। काम करते समय एक मूल मंत्र हमें सदा याद रखना चाहिए कि आज का काम कल पर नहीं छोड़ना चाहिए।

2. छात्रों द्वारा समय का उचित प्रयोग:
विद्यार्थी जीवन का मानव जीवन में बहुत महत्त्व होता है। विद्यार्थी जीवन में किया गया कार्य जीवन में सदा काम आता है। एक आदर्श छात्र कभी भी अपने समय को व्यर्थ नहीं गंवाता। वह प्रतिदिन अपना काम निरंतर करता रहता है। वह अध्यापकों द्वारा दिए गए गृह कार्य को समय पर कर लेता है।

3. समय का सही उपयोग:
समय का उचित प्रयोग करने के लिए बालक को बाल्यावस्था से ही ऐसी आदतें डालनी चाहिएँ, जिससे वह निश्चित समय के अनुसार प्रत्येक कार्य को करे। उसका दैनिक कार्य अनेक भागों में विभाजित होना चाहिए। निश्चित समय पर स्कूल जाना, पढ़ना, खेलना, सैर करना, भोजन करना, सोना आदि समय के अनुसार होना चाहिए। अतः अच्छे गुण एवं संस्कारों के लिए स्वयं समय का सदुपयोग करना चाहिए, क्योंकि संसार में जितने भी महापुरुष एवं मेधावी हुए हैं, उन्होंने समय का सदुपयोग बुद्धिमत्तापूर्वक किया। नेपोलियन तथा पण्डित नेहरू इसका दृष्टांत हैं।

4. समय को खोना अपूर्णीय हानि:
आदि गुरु शंकराचार्य ने कहा है कि समय को व्यर्थ खोना एक ऐसी हानि होती है जो कभी पूर्ण नहीं होती। बुरे कार्यों में, निद्रा, लड़ाई-झगड़ों में समय की बरबादी करना, मूर्खता की पहचान है। ‘समय काटे नहीं कटता’, ‘कोई काम ही नहीं है करने के लिए’ आदि सोचना मन की मूर्खता ही है। खाली रहना विवेकहीनता दर्शाता है।

5. समय सत्य-पथ-प्रदर्शक:
समय सत्य का मार्ग बताने वाला है। समय की पाबंदी सुशीलता का चिहन है। कल का काम आज निपटाना यशस्वी बनने का साधन है। समय का उचित प्रयोग समय की बचत है, सफलता की कुंजी है। जो लोग समय का सही उपयोग करते हैं वे जीवन में सफल होते हैं। इसीलिए कहा भी गया है-
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥

उपसंहार:
सार रूप में कहा जा सकता है कि समय अमूल्य धन है। समय से एक क्षण देरी से गाड़ी छूट जाती है। किसान द्वारा बोया गया अन्न समय पर ही उगता है। समय चूक जाने पर वह कितनी मेहनत करे अन्न नहीं उगेगा। अतः हर काम समय पर करना चाहिए।

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12. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी
अथवा
मेरा प्रिय नेता

भूमिका:
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी का स्थान सभी महान् नेताओं में सबसे ऊँचा है। उन्होंने सत्य और अहिंसा के बल पर अंग्रेजों जैसी ताकत को भारत को स्वतंत्र करने के लिए विवश कर दिया था। विश्व के इतिहास में उनका नाम सदा आदर से लिया जाएगा। गांधी जी मानवता के उपासक थे।

1. जन्म:
गांधी जी का जन्म गुजरात के काठियावाड़ के पोरबंदर नामक स्थान पर 2 अक्तूबर, 1869 को हुआ था। यह दिन भारतवर्ष के लिए ही नहीं, अपितु समस्त संसार के लिए शुभ माना जाता है। गांधी जी का पूरा नाम मोहनदास कर्मचंद गांधी था। उनके पिता राजकोट राज्य के दीवान थे। उनकी माता श्रीमती पुतलीबाई धार्मिक विचारों वाली साध्वी नारी थीं।

2. शिक्षा:
गांधी जी की शिक्षा पोरबंदर में आरंभ हुई। वे कक्षा के साधारण विद्यार्थी थे। वे अपने सहपाठियों से बहुत कम बातचीत करते थे। पढ़ाई में वे मध्यम छात्र थे। वे अपने अध्यापकों का आदर करते थे। दसवीं की परीक्षा उन्होंने स्थानीय स्कूल से ही प्राप्त की। तेरह वर्ष की आयु में ही उनका विवाह कस्तूरबा बाई से कर दिया गया।

3. माता को दिए गए तीन वचन:
जब महात्मा गांधी वकालत की शिक्षा ग्रहण करने के लिए इंग्लैंड गए तब वे एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे। इंग्लैण्ड जाने से पहले उन्होंने अपनी माता को तीन वचन दिए। उन्होंने माँस न खाने, शराब न पीने और पराई स्त्री को बुरी नजर से न देखने इन तीनों वचनों का पालन भली-भाँति किया। गांधी जी वहाँ से एक अच्छे वकील बनकर लौटे।

4. वकालत की शुरूआत:
गांधी जी ने मुम्बई आकर वकालत का कार्य आरंभ किया। किसी विशेष मुकद्दमे की पैरवी करने के लिए वे दक्षिणी अफ्रीका गए। वहाँ भारतीयों के साथ अंग्रेजों का दुर्व्यवहार देखकर उनमें राष्ट्रीय भाव जागृत हुआ। सन् 1915 में जब वे दक्षिणी अफ्रीका से भारत वापस आए तो उस समय अंग्रेजों का दमन-चक्र जोरों पर था। उस समय भारत में रौलेट एक्ट जैसे काले कानून लागू थे। सन् 1919 की जलियाँवाला बाग की नरसंहारी दुर्घटना ने मानवता को नतमस्तक कर दिया था। उस समय अखिल भारतीय काँग्रेस केवल पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय लोगों की एक संस्था थी। देश की बागडोर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के हाथ में थी। उस समय काँग्रेस की स्थिति इतनी अच्छी न थी। वह दो दलों-नरम दल और गरम दल में विभक्त थी। सन् 1920 में महात्मा गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात करके भारतीय राजनीति को एक नया मोड़ दिया।

5. भारत छोड़ो आन्दोलन:
सन् 1942 में महात्मा गांधी जी ने संसार की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का बिगुल बजा दिया। उनका कहना था कि “यह हमारी आखिरी लड़ाई है।” वे अपने साथियों के साथ जेल गए। इस प्रकार उन्होंने 15 अगस्त, 1947 के पावन दिन, भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलवाई। इस अवसर पर भारत का बँटवारा हो गया। भारत और पाकिस्तान दो अलग देश बन गए।

6. निधन:
अत्यंत दुःख के साथ कहा जा सकता है कि अहिंसा का पुजारी स्वयं हिंसा का शिकार हो गया। 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे ने उन्हें गोली मार दी।

निष्कर्ष:
सार रूप में कहा जा सकता है कि अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी जी का नाम इतिहास में सदैव स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। अमन के पुजारियों में उनका नाम सम्मान सहित लिया जाता है। भारत की आने वाली पीढ़ियों को उनके जीवन से शिक्षा लेकर भारत की सेवा करनी चाहिए।

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13. यदि मैं प्रधानमंत्री होता ?

भूमिका:
यदि मैं भी कल्पना करने लगूं कि काश! मैं देश का प्रधानमंत्री बन जाऊँ तो इसमें गलत ही क्या है। वास्तविक जीवन में न सही कल्पना में तो मैं प्रधानमंत्री बन ही सकता हूँ। ऐसा कुछ नहीं जो मानव इस संसार में रहता हुआ प्राप्त न कर सके। सिर्फ इन्सान के इरादे पक्के, गहरी लगन और संघर्ष करने की ललक होनी चाहिए। इसीलिए मैं भी सोचता हूँ कि मैं प्रधानमंत्री बन जाऊँ।

1. शांति स्थापना का प्रयास:
यदि मैं प्रधानमंत्री बन जाऊँ तो राज्य के शासकीय कार्यों में जरा भी ढील न देता। मैं सदैव देश के भले की ही बात कहता। मैं व्यापक दृष्टिकोण को अपनाकर भारत में शांति-स्थापना के साथ-साथ विश्व-भर में शांति-स्थापना का प्रयास करता। लालबहादुर शास्त्री की भांति बहादुरी से देश की रक्षा करते हुए शत्रुओं के दांत खट्टे कर देता। श्रीमती इंदिरा गांधी की भांति देश की स्थिति मजबूत करके संपूर्ण विश्व में उसकी प्रतिष्ठा को बढ़ाने का प्रयास करता। अटल बिहारी वाजपेयी की भांति अपनी विदेश नीति से संसार के अन्य देशों व राष्ट्रों से मित्रता बनाने का सफल प्रयास करता।

2. आर्थिक विकास पर बल:
आज देश जिन समस्याओं से घिरा हुआ है, उनके घेरे को तोड़कर देश को समस्याओं से मुक्त राष्ट्र का रूप प्रदान करने की कोशिश करता। यदि मैं प्रधानमंत्री बन जाऊँ तो सबसे पहले देश को आर्थिक दृष्टि से मजबूत करूँगा ताकि हमें आर्थिक सहायता के लिए दूसरे देश के सामने हाथ न फैलाने पड़ें। मैं देश की गरीबी को दूर करने का पूरा प्रयास करता।

3. प्राकृतिक संपदा की रक्षा:
प्रधानमंत्री का पद संभालने पर मैं देश की प्राकृतिक संपदा की सुरक्षा की ओर ध्यान दूंगा, क्योंकि किसी भी राष्ट्र के विकास का मुख्य आधार वहाँ की प्राकृतिक संपदा होती है। मैं नदियों के जल का सही प्रयोग करके जहाँ एक ओर विद्युत् उत्पन्न करने की योजनाएँ लागू करूँगा वहाँ नदियों के पानी से अपने देश की धरती को सींचूँगा जिससे उस पर अधिक फसलें उगाई जा सकें और पीने का पानी उपलब्ध हो सके।

4. सीमा सुरक्षा पर बल:
प्रधानमंत्री होने के नाते देश की सीमाओं की सुरक्षा को मजबूत करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। मैं अपने देश की सेना को मजबूत बनाने के लिए आधुनिकतम हथियार उपलब्ध करवाता। सेना के जवानों का वेतन बढ़ा देता। उनके परिवारजनों के कल्याण की योजनाएँ लागू करता। देश के लिए शहीद होने वाले वीर सैनिकों को राष्ट्रीय सम्मान दिलवाता। अपने देश के सवा सौ करोड़ लोगों के ढाई सौ करोड़ हाथों की सहायता से पाकिस्तान को मुँह तोड़ जवाब देता।

5. भ्रष्टाचार उन्मूलन पर बल:
देश की अन्य बड़ी समस्या जो देश को भीतर-ही-भीतर खाए जा रही है, वह है भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार ने जहाँ देश को कमजोर किया है वहीं हमारे देश की शाखा को विश्व की मार्किट में भी धक्का लगा है। मैं भ्रष्टाचार की समस्या को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रयास करता। भ्रष्टाचारी लोगों से निपटने के लिए कड़ी कानून व्यवस्था की जाती। कानून को तोड़ने वाले लोगों से सख्ती से निपटा जाता, तभी देश से भ्रष्टाचार का बोलबाला समाप्त किया जा सकता।

6. जनसंख्या पर नियंत्रण:
भारतवर्ष में विभिन्न समस्याओं को जन्म देने वाली प्रमुख समस्या है-जनसंख्या की वृद्धि । जनसंख्या की वृद्धि के कारण रोटी, कपड़ा, मकान, बेरोज़गारी, भुखमरी आदि अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गईं हैं। आर्थिक योजनाओं के सफल न होने का कारण भी यह जनसंख्या वृद्धि है। यदि मैं प्रधानमंत्री बन जाऊँ तो सबसे पहले जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए परिवार कल्याण योजनाओं को सख्ती से लागू करूँगा।

निष्कर्ष:
अंत में मैं कहना चाहूँगा कि ये सब कार्य मैं देशवासियों की सहायता द्वारा या उनके सहयोग से करता, अकेला प्रधानमंत्री कुछ नहीं कर सकता। यदि मैं प्रधानमंत्री होता तो मैं देश की जनता के सहयोग से भारत को उसके विश्व शिरोमणि के पद पर आसीन करवा देता।

14. विद्यार्थी और अनुशासन

भूमिका:
किसी भी भवन की मज़बूती उसकी नींव पर निर्भर करती है। यदि नींव मज़बूत है तो उस पर बना भवन भी सुदृढ़ होगा और लंबे काल तक टिका रहेगा। इसी प्रकार से राष्ट्र की सुदृढ़ता उसके युवकों पर निर्भर करती है। यदि हमारे देश के युवक अनुशासित एवं सुशिक्षित होंगे तो देश का भविष्य सुरक्षित होगा, विद्यार्थी अनुशासित नहीं होंगे तो कभी भी हमारे देश पर विपत्ति के बादल मंडरा सकते हैं।

अनुशासन का अर्थ:
अनुशासन’ शब्द का अर्थ है-शासन के पीछे-पीछे चलना। शासन का अर्थ है-सुव्यवस्था अर्थात् समाज को सुचारु रूप से चलाने के नियमों का पालन करना। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन अनिवार्य है। परिवार हो या समाज, सर्वत्र अनुशासन का पालन करने से मानव जीवन समृद्ध होता है। अनुशासन के अनेक लाभ हैं। इसका पालन करने से आलस्य और कायरता दूर भागते हैं। मनुष्य अपने कर्तव्य का सही पालन करता है। व्यक्ति में सच्चाई और ईमानदारी जैसे सद्गुण विकसित होते

विद्यार्थी और अनुशासन:
विद्यार्थी जीवन में अनुशासन नितांत आवश्यक है। विद्यार्थी एक नन्ही कोंपल के समान होता है। उसे जो भी रूप दिया जाए, वह उसे ग्रहण करता है। उसका मन शीघ्र प्रभावित होता है। अतः बाल्यावस्था से ही विद्यार्थी को अनुशासन की शिक्षा दी जानी चाहिए। हम इस बात का ध्यान रखें कि बालक-बालिकाएँ अपना-अपना काम नियमित रूप से करें। इस दिशा में माता-पिता का दायित्व और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। बच्चे की शिक्षा का प्रथम विद्यालय उसका घर ही है। यदि माता-पिता स्वयं अनुशासित हैं तो बालक भी अनुशासन की भावना ग्रहण करेगा। .

प्राचीनकाल में विद्यार्थी जीवन:
प्राचीन भारत में विद्यार्थी गुरुकुलों में शिक्षा ग्रहण करने जाते थे। 25 वर्ष तक विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करते थे और यह काल शिक्षा ग्रहण करने में व्यतीत करते थे। उन दिनों गुरुकुलों का वातावरण बहुत ही पावन और अनुशासित होता था। प्रत्येक विद्यार्थी अपने गुरुजनों का सम्मान करता था। शिक्षा के साथ-साथ उसे गुरुकुल के सारे काम भी करने पड़ते थे। छोटे-बड़े या अमीर-गरीब सभी एक ही गुरु के चरणों में विद्या ग्रहण करते थे। श्रीकृष्ण और सुदामा ने इकट्ठे संदीपन ऋषि के आश्रम में अनुशासनबद्ध होकर शिक्षा ग्रहण की।।

वर्तमान स्थिति:
आज हमारे देश के विद्यार्थियों में अनुशासन का अभाव है। वे न तो माता-पिता का कहना मानते हैं और न ही गुरुजनों का। प्रतिदिन स्कूलों और कॉलेजों में हड़तालें होती रहती हैं। इस प्रकार के समाचार पढ़ने को मिलते रहते हैं कि विद्यार्थियों ने बस जला डाली या पथराव किया। पुलिस और विद्यार्थियों की मुठभेड़ तो होती ही रहती है। राजनीतिक दल भी समय-समय पर अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए विद्यार्थियों को भड़काते रहते हैं। विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता के अनेक दुष्परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं। ये विद्यार्थी परीक्षाओं में नकल करते हैं, शिक्षकों को धमकाते हैं और विश्वविद्यालयों के वातावरण को दूषित करते रहते हैं। अनेक विद्यार्थी हिंसात्मक कार्रवाई में भी भाग लेने लगे हैं। इससे राज्य की सुख-शांति में बाधा उत्पन्न होती है। निश्चय ही, आज विद्यार्थियों में अनुशासन की कमी आ चुकी है।

अनुशासनहीनता के कारण:
आज की शिक्षण संस्थाओं का प्रबंध भी विद्यार्थियों को अनुशासनहीन बनाता है। वे विद्यालय के अधिकारियों और शिक्षकों की आज्ञा का उल्लंघन करते हैं। ऐसा भी देखने में आया है कि स्कूलों में छात्र-छात्राओं की भीड़ लगी रहती है। भवन छोटे होते हैं और शिक्षकों की संख्या कम। कॉलेजों में तो एक-एक कक्षा में सौ-सौ विद्यार्थी होते हैं। ऐसी अवस्था में क्या तो शिक्षक पढ़ाएगा और क्या विद्यार्थी पढ़ेंगे। कॉलेजों में छात्रों के दैनिक कार्यों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। रचनात्मक कार्यों के अभाव में छात्र का ध्यान व्यर्थ की बातों की ओर जाता है। यदि प्रतिदिन विद्यार्थी के अध्ययन-अध्यापन की ओर ध्यान दिया जाए तो निश्चित रूप से वह अपना काम अनुशासनपूर्वक करेगा।

नैतिक शिक्षा की आवश्यकता:
छात्रों में अनुशासन की भावना स्थापित करने के लिए यह ज़रूरी है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में नैतिक और चारित्रिक शिक्षा के लिए कुछ स्थान हो। इससे विद्यार्थी को अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों का भी ज्ञान होगा। दूसरी बात यह है कि विद्यार्थियों के शारीरिक विकास की ओर उचित ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके लिए शिक्षण के साथ-साथ खेल-कूद को भी अनिवार्य घोषित किया जाना चाहिए। इसी प्रकार से एन०सी०सी० और एन०एस०एस० जैसे रचनात्मक कार्यों पर अधिक बल दिया जाना चाहिए।

उपसंहार:
वर्तमान शिक्षण-पद्धति में परिवर्तन करके महापुरुषों की जीवनियों से भी छात्र-छात्राओं को अवगत कराया जाना चाहिए। यथासंभव व्यावसायिक शिक्षा की ओर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि स्कूल से निकलते ही विद्यार्थी अपने व्यवसाय का शीघ्र चयन करें। प्रतिमाह मासिक परीक्षा अवश्य होनी चाहिए। इस कार्यक्रम को सुचारु ढंग से चलाने के लिए त्रैमासिक और अर्द्धवार्षिक परीक्षाएँ भी आयोजित की जाएँ। सबसे बढ़कर विभिन्न राजनीतिक दलों को शैक्षणिक संस्थाओं में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। सरकार भी यह बात पूरी तरह से जान ले कि छात्रों में अनुशासन स्थापित किए बिना देश सुदृढ़ नहीं हो सकता।

15. प्रदूषण की समस्या

भूमिका:
वर्तमान युग में विश्व के सामने अनेक समस्याएँ चुनौती बनी हुई हैं। प्रदूषण की समस्या उनमें से एक प्रमुख समस्या है। प्रदूषण के कारण आज मानव का जीवन खतरे में पड़ गया है। यह समस्या विज्ञान की देन है। यह महा उद्योगों की समृद्धि का बोनस है। यह मानव को मौत के मुँह में धकेलने की अनाचारी चेष्टा है। यह बीमारियों को निमंत्रण है। यह प्राणिमात्र के अमंगल की अप्रत्यक्ष कामना है।

1. प्रदूषण का अर्थ:
प्रदूषण का अर्थ है-पर्यावरण में असंतुलन आना। हवा, जल, मिट्टी, पौधे, वृक्ष और पशु मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं और पारस्परिक संतुलन रखने के लिए दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह प्रतिक्रिया विज्ञान संबंधी संतुलन कहलाती है। कभी-कभी कुछ कारणवश परिवर्तन आ जाता है। यदि इस परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रकृति के साथ सामंजस्य न किया जाए तो इससे ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है कि मानव-जीवन खतरे में पड़ जाता है। यह असंतुलन ही प्रदूषण का जन्मदाता है।

2. प्रदूषण का मानव:
जीवन पर प्रभाव पर्यावरण-प्रदूषण का मानव-जीवन पर अत्यंत विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। वायुमण्डल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा में 16 प्रतिशत की वृद्धि हो गई है। यदि इसकी वृद्धि इसी प्रकार होती रही तो नगरों में रहने वाले लोग श्वास-रोग और नेत्र रोग के शिकार हो जाएँगे। कारखानों में जलाए जाने वाले ईंधन से जो धुआँ और गैस निकलती है उनसे खाँसी और फेफड़ों संबंधी रोग हो जाते हैं। इतना ही नहीं, दूषित पर्यावरण से कैंसर जैसे रोग भी फैलते हैं।

3. जल-प्रदूषण:
वायु-प्रदूषण के अतिरिक्त जल-प्रदूषण भी मानव-जीवन के लिए हानिकारक है। घरेलू गंदा पानी, नालियों में प्रवाहित मल तथा कारखानों से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थ नदियों और समुद्रों में प्रवाहित कर दिए जाते हैं। इससे पानी जहरीला बन जाता है। पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है जिससे जल-प्राणी के जीवन को खतरा बढ़ जाता है।

4. रासायनिक पदार्थों द्वारा प्रदूषण:
रासायनिक पदार्थों के अनियमित प्रयोग द्वारा भी पर्यावरण प्रदूषित होता है। प्रायः किसान लोग पैदावार की बढ़ोत्तरी के लिए रसायनों और कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग करते हैं, जिनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।

5. ध्वनि-प्रदूषण:
वायु एवं जल-प्रदूषण की भाँति ध्वनि-प्रदूषण भी मानव-जीवन के लिए हानिकारक है। वर्तमान यांत्रिक युग में ध्वनि-प्रदूषण भी एक समस्या बनी हुई है। तीव्र ध्वनि का प्रभाव हमारी श्वसन-प्रक्रिया पर पड़ता है। इससे पाचन-क्रिया भी प्रभावित होती है। इसका सीधा प्रभाव अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र से नियन्त्रित होने वाले अवयवों पर पड़ता है, जिससे उनमें तनाव बढ़ जाता है और नेत्र-ज्योति मंद पड़ जाती है।

6. प्रदूषण की रोकथाम के उपाय:
वन प्रदूषण की रोकथाम में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। वे वायुमंडल में गैसों के अनुपात को समान रखते हैं। बाढ़, भू-स्खलन, भू-क्षरण, रेगिस्तानों के विस्तार, जल-स्रोतों के सूखने तथा वायु-प्रदूषण के रूप में होने वाली तबाही से भी जन-जन की रक्षा करते हैं। इसलिए उनकी रक्षा करना मानव का परम धर्म है। सत्ता का कानून, अनुसंधान संस्थाओं के अनुसंधान, औद्योगिक संस्थाओं के अथक प्रयास और इस समस्या के प्रति जन-जन की जागरूकता ही प्रदूषण की समस्या को दूर कर सकती है। ये समन्वित प्रयास ही इस अदृश्य शत्रु का संहार कर सकेंगे।

निष्कर्ष:
सार रूप में कहा जा सकता है कि शुद्ध जल, शुद्ध वायु, स्वच्छ भोजन तथा शांत वातावरण मानव-जीवन की सुरक्षा के लिए आवश्यक तत्त्व हैं। प्रदूषण एक गम्भीर समस्या है। हमें इसका मुकाबला हिम्मत से करना होगा। इस समस्या को समाप्त करके ही हम प्राणिमात्र के दीर्घ जीवन की कामना कर सकते हैं।

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16. बढ़ती हुई महँगाई

भूमिका:
आज संसार के सामने अनेक समस्याएँ हैं। महँगाई उनमें से एक प्रमुख समस्या है। महँगाई के कारण आज समाज के निम्न वर्ग तथा मध्य वर्ग की दशा अत्यंत शोचनीय होती जा रही है। हर वस्तु की कीमत आकाश को छू रही है। सरकार महँगाई को रोकने के लिए अनेक घोषणाएँ कर चुकी है। किंतु वह इसे रोकने में पूर्णतः असफल रही है। महँगाई का बुरा प्रभाव बच्चे से लेकर बूढ़े व्यक्ति तक पर पड़ रहा है। महँगाई के अनेक कारण हैं।

1. जनसंख्या में वृद्धि:
महँगाई का प्रमुख कारण है-जनसंख्या में निरंतर वृद्धि । जनसंख्या में वृद्धि के कारण लोगों के खाने-पीने की वस्तुएँ कम पड़ जाती हैं, जबकि खरीदने वाले अधिक होते हैं। इसलिए उनकी कीमतों में वृद्धि आती है। यही दशा आवास और अन्य वस्तुओं की भी है।

2. उत्पादन में कमी:
भारत एक कृषि-प्रधान देश है। यहाँ की कृषि वर्षा पर निर्भर करती है। यदि समय पर वर्षा नहीं होती तो सूखा पड़ जाने के कारण कृषि के उत्पादन में कमी आ जाती है, जिससे कारखानों में कच्चा माल नहीं पहुंच पाता। इस प्रकार कारखानों में भी उत्पादन कम हो जाएगा। फलस्वरूप वस्तुओं की कीमतें बढ़ने लगेंगी।

3. भ्रष्ट वितरण प्रणाली:
देश में अच्छी वितरण-प्रणाली न होने के कारण भी महँगाई बढ़ती है। कुछ लोग आवश्यकता से अधिक सामान खरीद लेते हैं, जबकि दूसरों के पास अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भी वस्तुएँ नहीं होतीं। इस प्रकार दोषपूर्ण वितरण प्रणाली के कारण भी महँगाई में वृद्धि हुई है। यदि वस्तुओं की खरीद और वितरण विभाग के कर्मचारी ईमानदारी से काम करें तो कुछ सीमा तक इस समस्या को कम किया जा सकता है।

4. जमाखोरी:
उपज जब मंडियों में आती है, तब अमीर व्यापारी अत्यधिक मात्रा में अनाज एवं अन्य वस्तुएँ खरीदकर अपने गोदाम भर लेता है और इस प्रकार बाजार में वस्तुओं की कमी हो जाती है। व्यापारी अपने गोदामों की वस्तुएँ तभी निकालता है जब उसे कई गुना अधिक कीमत प्राप्त होती है।

5. युद्ध के कारण:
युद्धों के कारण भी महँगाई बढ़ती है। उदाहरणार्थ, भारत को निरंतर कई युद्धों का सामना करना पड़ा इसलिए यहाँ महँगाई भी निरंतर बढ़ी है। विशेषकर बांग्लादेश को आजाद करवाने के संघर्ष का देश को भारी मूल्य चुकाना पड़ा। आज भी पाकिस्तानी उग्रवादियों की घुसपैठ के कारण हमारी सरकार पर आर्थिक बोझ निरंतर बढ़ता जा रहा है।

6. महँगाई के दुष्परिणाम:
कहा जा चुका है कि महँगाई का प्रभाव समाज के प्रत्येक वर्ग पर पड़ता है। लोगों को जीवन-निर्वाह करना कठिन हो जाता है। लोगों का जीवन-स्तर गिर जाता है। बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते। देश में विकास की योजनाओं में बाधा पड़ती है। आर्थिक विकास की गति कम होने के कारण समाज में जमाखोरी और भ्रष्टाचार का बोलबाला हो जाता है।

उपसंहार:
महँगाई की समस्या संपूर्ण विश्व के लिए एक गम्भीर समस्या है। इससे समाज का हर वर्ग प्रभावित होता है। हम महँगाई पर काबू पाकर ही अपना और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित कर सकते हैं। सरकार को चाहिए कि वह भ्रष्टाचार और जमाखोरी के विरुद्ध कड़े कदम उठाए और ऐसे कार्यों में लगे लोगों को कड़ी सजा दे।

17. जनसंख्या वृद्धि-एक समस्या

भूमिका:
बढ़ती हुई जनसंख्या केवल भारत की ही नहीं, अपितु संसार की समस्या बन चुकी है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह एक बहुत बड़ी समस्या है। देश की समृद्धि के लिए सरकार द्वारा किए गए विकास के कार्यों में बाधा का प्रमुख कारण बढ़ती हुई जनसंख्या ही है। इसलिए भारत सरकार ने इसकी रोकथाम के लिए ‘परिवार नियोजन’ की योजना बनाई है, जिसमें सरकार को काफी हद तक सफलता भी मिली है।

1. प्राचीन परिस्थिति:
वेदों में दस पुत्रों की कामना की गई है। सावित्री ने यमराज से अपने लिए सौ भाइयों तथा सौ पुत्रों का वर माँगा था। कौरव सौ भाई थे। यह उस समय का वर्णन है जब जनसंख्या इतनी कम थी कि समाज की सुरक्षा और समृद्धि के लिए मानव-शक्ति की बहुत जरूरत थी।

2. वर्तमान स्थिति:
आज की स्थिति इसके विपरीत हो गई है। सन् 1981 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 78.5 करोड़ थी, किंतु आज यह निरंतर बढ़ती जा रही है। आजादी मिलने के पश्चात् हर मास भारत में दस लाख की आबादी बढ़ती रही है। वर्तमान में भारत की जनसंख्या सवा सौ करोड़ से भी अधिक हो चुकी है। इस स्थिति में भोजन, कपड़ा और आवास का तो अभाव हो ही गया है, इसके अतिरिक्त और भी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं।

3. जनसंख्या वृद्धि के प्रभाव:
वस्तुतः देश की जनसंख्या ही उसकी शक्ति का आधार होती है। परंतु जब यह अनियंत्रित गति से बढ़ेगी तो निश्चित ही यह देश के लिए बोझ सिद्ध होगी। निश्चित सीमा से अधिक आबादी किसी देश के लिए गौरव की बात कदापि नहीं कही जा सकती। ऐसी दशा में तो जनसंख्या एक अभिशाप ही कही जाएगी। भारत इस समय की आबादी की दृष्टि से दुनिया का दूसरा बड़ा देश है।

4. जनसंख्या वृद्धि के कारण:
हमारे देश में अनेक कारणों से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। शिक्षा के अभाव में भी संतान उत्पत्ति में वृद्धि होती है। अनपढ़ लोग बच्चों को भगवान की देन मानते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ लोग पुत्र प्राप्त करने के लालच में संतान उत्पन्न करते रहते हैं। मजदूर वर्ग की धारणा है कि जितने अधिक हाथ होंगे उतनी मजदूरी अधिक मिलेगी।

5. जनसंख्या वृद्धि कम करने के उपाय:
भारत सरकार ने जनसंख्या की बढ़ोतरी को कम करने के लिए कई कदम उठाए हैं। सरकार ने विवाह की आयु निश्चित कर दी है। कम उम्र में विवाह करना गैर-कानूनी समझा जाता है। सरकार ने जनसंख्या की वृद्धि को कम करने के लिए परिवार कल्याण पर भी बल दिया है। इसके अतिरिक्त सरकार अनेक प्रकार से जनता में जागृति उत्पन्न करने का भी प्रयत्न कर रही है।

6. परिवार कल्याण का महत्त्व:
परिवार कल्याण से मनुष्य को अनेक लाभ होंगे। ‘छोटा परिवार’ निःसन्देह ‘सुखी परिवार’ होता है। परिवार में अधिक संतान होने से बच्चों के पालन-पोषण व शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबंध नहीं हो पाता। बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं, जिससे उन्हें अनेक प्रकार के रोग आ घेरते हैं। अधिक संतान होने से माँ का स्वास्थ्य खराब हो जाता है।

उपसंहार:
सार रूप में कहा जा सकता है कि जनसंख्या की अनियन्त्रित वृद्धि से देश के विकास में बाधा पड़ेगी और अनेक समस्याएँ उत्पन्न होंगी। इसके समाधान का प्रमुख साधन परिवार कल्याण ही है। हमें जनता में परिवार कल्याण के प्रति जागृति लानी होगी। हमें केवल सरकार के भरोसे नहीं रहना होगा। इस कार्य में हर नागरिक का सहयोग प्राप्त करना होगा। तभी हम इस गम्भीर समस्या का हल ढूँढ सकेंगे।

18. गणतंत्र दिवस
अथवा
हमारा राष्ट्रीय पर्व

प्रजातंत्र के दीप जले हैं, आज नई तरुणाई ले।
भारतमाता की जय बोले, देश नई अंगड़ाई ले ॥

भूमिका:
किसी भी देश के जीवन में राष्ट्रीय त्योहारों का बहुत महत्त्व होता है। हमारे राष्ट्रीय त्योहारों में ‘स्वतंत्रता-दिवस’ और ‘गणतंत्र-दिवस’ प्रमुख हैं। 15 अगस्त हमारा स्वतंत्रता दिवस होता है, क्योंकि 15 अगस्त, 1947 को हमारे देश को कई सदियों के बाद स्वतंत्रता मिली थी। 26 जनवरी को हमारे ‘गणतंत्र-दिवस’ का राष्ट्रीय पर्व होता है। इस शुभ (26 जनवरी, 1950) दिन को हमारा देश पूर्ण गणतंत्र राष्ट्र घोषित हुआ था।

1. गणतंत्र दिवस का पूर्व इतिहास:
गणतंत्र दिवस के पीछे एक इतिहास है। 31 दिसम्बर, 1929 को रावी नदी के किनारे लाहौर में काँग्रेस का अधिवेशन हुआ था जिसकी अध्यक्षता पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने की थी। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि “काँग्रेस का ध्येय पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति है।” 26 जनवरी को तिरंगे की शपथ लेकर लाखों लोगों ने प्रतिज्ञा की कि हमारा लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करना है और इसकी प्राप्ति के लिए हम अपना बलिदान भी दे देंगे।

2. संविधान लागू करना:
26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू किया गया। इसी दिन भारत को गणतंत्र राज्य की मान्यता मिली। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को देश का प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया।

3. गणतंत्र दिवस मनाए जाने की विधि:
भारतीय इतिहास में गणतंत्र-दिवस का बहुत महत्त्व है। इस शुभ दिन को देश-भर में बड़े उत्साह और उमंग से मनाया जाता है। इस दिन लोगों में उत्साह और प्रेरणा जागृत करने के लिए विभिन्न राज्यों में सरकार की ओर से आनंदवर्द्धक कार्यक्रम रखे जाते हैं। प्रातः राष्ट्रीय ध्वज फहराने के साथ-साथ सैनिक परेड, युद्ध-सामग्री का प्रदर्शन, स्कूल तथा कॉलेज के छात्र-छात्राओं के कार्यक्रम, विभिन्न प्रान्तों के पहनावे आदि का रूप प्रदर्शित किया जाता है। संपूर्ण देश एक अतीव उत्साह-उमंग में डूब जाता है।

4. राष्ट्रीय पर्व:
गणतंत्र-दिवस हमारा राष्ट्रीय पर्व है। वैसे तो प्रत्येक नगर, गाँव इस पर्व को बहुत उत्साहपूर्वक मनाता है, लेकिन देश की राजधानी दिल्ली का आलम कुछ और ही होता है। दिल्ली में राष्ट्रपति की राजकीय सवारी निकलती है। विजय चौक पर राष्ट्रपति जल, थल एवं वायु सेना की सलामी लेते हैं। वायुयान आकाश में तथा तोपें धरती पर भारत के राष्ट्रपति का अभिवादन करती हैं। तीनों सेनाओं की टुकड़ियाँ मार्च करती हुईं लालकिले तक पहुँचती हैं। विभिन्न प्रकार की झाँकियाँ 26 जनवरी की शोभा यात्रा में चार चाँद लगा देती हैं। अपने-अपने प्रान्तों की वेश-भूषा से लोक-नर्तक नृत्य-प्रदर्शन से अपनी प्रान्तीय संस्कृति का परिचय देते हैं।

उपसंहार:
सार रूप में कहा जा सकता है कि 26 जनवरी का राष्ट्रीय उत्सव भारतीय नागरिकों के मन में एक अनोखा उत्साह और आत्मचिन्तन की भावना भरने वाला उत्सव है। इस पर्व में हर भारतीय नागरिक को बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए। इस दिन भारतवासियों को यह विचार करना चाहिए कि हमने क्या खोया और क्या पाया ? हमें अपने द्वारा निश्चित की गई योजनाओं में कहाँ तक सफलता मिली है। जो लक्ष्य हमने निर्धारित किए थे, उन्हें प्राप्त करने में हम कहाँ तक सफल हुए हैं। इस प्रकार हमें इस शुभ अवसर पर आत्म-संकल्प करते हुए आगे बढ़ने का निश्चय दोहराना चाहिए।

19. ऋतुराज बसंत

देखा मधुर बसंत सुहाई, पवन चले सुखदाई।
डाली-डाली डोल रही है, कली-कली विकसाई।
चहक उठे पंछी पेड़ों पर, अरुण धूप है छाई।
अहा शीत है भागा घर को, मीठी मधु ऋतु आई।

भूमिका:
भारतवर्ष ऋतुओं का देश है। संसार के सभी देशों से भारत में अधिक ऋतुएँ आती हैं। संसार में ऐसा कोई भी देश नहीं जहाँ वर्ष में छह ऋतुएँ आती हों, ये ऋतुएँ अपने-अपने समय पर आकर अपना रंग दिखा जाती हैं। हर ऋतु अपने समय पर आकर यहाँ की जनता के मन में नए सिरे से उत्साह और काम करने की प्रेरणा भर जाती है। यहाँ के लोग भी ऋतुओं के अनुसार अपने कार्यक्रम निश्चित करते हैं। बसंत ऋतु सभी ऋतुओं में श्रेष्ठ एवं प्रिय ऋतु मानी जाती है। इसके आगमन पर चारों ओर प्रसन्नता छा जाती है। इसलिए इसे ऋतुराज बसंत कहते हैं।

1. बसंत का आगमन:
बसंत ऋतु के आगमन पर चारों ओर खुशियों की लहर छा जाती है। इस समय सर्दी का अंत और गर्मी का आरंभ हो रहा होता है। इस मौसम में सर्दी से कोई ठिठुरता नहीं और गर्मी किसी का बदन नहीं जलाती। हर एक व्यक्ति बाहर घूमने-फिरने की इच्छुक होता है। यही इस ऋतु की विशेषता है।

2. प्राकृतिक सौंदर्य:
सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों आदि में नवजीवन का संचार हो जाता है। वृक्ष नए-नए पत्तों से लद जाते हैं। फूलों का सौंदर्य तथा हरियाली की छटा मन को मुग्ध कर देती है। आम के वृक्षों पर बौर आ जाता है तथा कोयल भी मधुर स्वर में कुहू कुहू करती है। इस सुगन्धित वातावरण में सैर करने से बीमारियाँ भी कोसों दूर भाग जाती हैं। ठण्डी-ठण्डी बसंती पवन मनुष्य की आयु और बल में वृद्धि कर देती है।

3. बसंत ऋतु का आनंद:
बसंत ऋतु में अपूर्व चैतन्य होता है। प्रकृति की अनोखी छटा प्रायः मानव के मन पर बड़ा प्रभाव डालती है। सरसों अपना पीला दुपट्टा ओढ़े प्रकृति-प्रेमियों का स्वागत करती है। पक्षी मधुर कलरव के संगीत की साधना करते प्रतीत होते हैं। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी इस ऋतु में हर्षोल्लास में उछलते-कूदते और नाचते हैं। इसीलिए कहते हैं कि बसंत ऋतु सब ऋतुओं का राजा है।

4. उत्सव:
बसंत ऋतु के आते ही विभिन्न उत्सव मनाने का सिलसिला आरंभ हो जाता है। बसंत ऋतु में होली का त्योहार प्रमुख रूप से मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग नाच-गाकर अपने मन की प्रसन्नता प्रकट करते हैं। इसी ऋतु में बसंत पंचमी का उत्सव भी बड़े चाव से मनाया जाता है। बसंत ऋतु में कवियों की भावना-शक्ति भी उत्तेजक हो उठती है। बंगाल में सरस्वती का पूजन किया जाता है। उत्तरी भारत में नवरात्रों का उत्सव भी इसी समय मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग शक्ति की देवी दुर्गा की पूजा करते हैं।

उपसंहार:
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि बसंत ऋतु प्रसन्नता और खुशियों की ऋतु है। मानव-जीवन पर इस ऋतु का विभिन्न प्रकार से प्रभाव पड़ता है। इस ऋतु में प्रातःकाल में भ्रमण करने से मनुष्यों का शारीरिक एवं मानसिक विकास होता है। व्यायाम के लिए भी यह ऋतु अत्यंत उपयोगी है। इस ऋतु में सबसे अधिक त्योहार मनाए जाते हैं जिनसे हमें अनेक शिक्षाएँ एवं प्रेरणाएँ मिलती हैं। अतः इसे ऋतुओं का राजा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

20. नर हो न निराश करो मन को

भूमिका:
‘नर’ शब्द का सामान्य अर्थ पुरुष होता है। वस्तुतः नर और पुरुष एक शब्द के व्यंजन हैं। पुरुष का अर्थ भी नर है और नर का अर्थ पुरुष, किंतु ‘नर’ शब्द पर यदि गंभीरता या सूक्ष्मता से सोचा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि ‘नर’ शब्द के लाक्षणिक या व्यंजक प्रयोग से पुरुष की विशिष्टता को व्यक्त किया जाता है। पुरुष के पुरुषत्व तथा श्रेष्ठ वीरत्व. के भाव को अभिव्यक्त करने के लिए ‘नर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। इन अभिव्यंजित तथ्यों के प्रकाश में जब हम इस शीर्षक पंक्ति, ‘नर हो, न निराश करो मन को’ के अर्थ और भाव-विस्तार का विवेचन करते हैं तो मानव-जीवन के अनेक पक्ष स्वतः उजागर होने लगते हैं। मनुष्य के पौरुषत्व और पुरुषार्थ की महिमा जगमगा उठती है।

1. छोटी-सी असफलता से निराश न होना:
इस पंक्ति को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई हमें चुनौती भरे शब्दों में या ललकार भरी ध्वनि में कह रहा हो-वाह ! कैसे पुरुष हो तुम ! या अच्छे नर हो। तुम सांसारिक जीवन की छोटी-छोटी कठिनाइयों से ही घबरा उठते हो क्योंकि अभी तक तुमने जीवन की बाधाओं का सामना करना सीखा ही नहीं है। यों चिल्लाने लगे या घबराकर बोलने लगे कि जैसे आसमान टूट पड़ेगा अथवा जमीन फट जाएगी। तुम पुरुष हो और वीरता तुम्हारे पास है। एक बार की असफलता से इतनी निराशा। उठो! और निराशा त्यागकर परिस्थितियों का डटकर सामना करो। हमें एक छोटी-सी चींटी से सबक सीखना चाहिए। जब वह चावल का दाना या कोई और वस्तु अपने मुँह में लेकर अपने बिल की ओर जा रही होती है तो उसका मार्ग रोककर देखो या उसके मुँह का दाना या भोजन छीन कर देखो, वह किस प्रकार छटपटाती है और बार-बार उस दाने को प्राप्त करने का प्रयास करती है। वह तब तक निरंतर संघर्ष करती रहेगी, जब तक दाना प्राप्त करके अपने बिल तक नहीं पहुँच जाती। एक ओर मनुष्य है जो थोड़ी-सी या छोटी-सी असफलता पर निराश होकर बैठ जाता है।

2. प्रकृति से प्रेरणा:
‘नर’ अर्थात बुद्धि और बल से परिपूर्ण मनुष्य, प्राणियों में श्रेष्ठ कहलाने वाला है। वह यदि जीवन में आने वाले संघर्ष या कठिनाइयों से मुँह फेरकर और निराश होकर बैठ जाए तो उसकी श्रेष्ठता के कोई मायने नहीं रह जाएँगे। उसे प्रकृति के हर छोटे-बड़े प्राणी से प्रेरणा लेनी चाहिए। यदि वह संघर्ष करना छोड़ देगा और निराश होकर बैठ जाएगा तो संसार में उसका विकास कैसे होगा? हर प्रकार की उन्नति के मार्ग ही बंद हो जाएँगे। इसलिए मनुष्य को अपने नरत्व को सिद्ध करना होगा। उसे निराशा त्याग कर अपने हृदय में उत्साह और साहस भरकर जीवन-पथ को प्रशस्त करना होगा। यदि निराशा ही जीवन का तथ्य होती तो अब तक संसार में जो विकास हुआ है वह कभी संभव न हो पाता।

नरता का पहला लक्षण ही आगे बढ़ना है, संघर्ष करते रहना है। नदियों की बहती धारा की भाँति मनुष्य का भी यही लक्ष्य होना चाहिए। जिस प्रकार धारा सागर में मिलकर ही विश्राम लेती है, उसी प्रकार नर को भी लक्ष्य प्राप्ति के पश्चात ही दम लेना चाहिए। चट्टान भी धारा के मार्ग में आकर उसका रास्ता रोकने का प्रयास करती है। क्या कभी उस धारा को चट्टान रोक सकी? क्योंकि अपने प्रबल प्रवाह से वह चट्टान को किनारे लगाकर अपना रास्ता स्वयं बना लेती है। वह इस कार्य के लिए किसी से सहायता नहीं माँगा करती। झाड़-झंखाड़ों के रोके भी वह कभी नहीं रुकती। बहुत बड़ी चट्टान के मार्ग में आ जाने पर भले ही धारा

थोड़ी देर के लिए रुकी हुई-सी प्रतीत होती है, किंतु वह कुछ ही क्षणों में अपना दूसरा मार्ग खोज लेती है और फिर उसी प्रवाह से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने लगती है। नर (पुरुष) की भी जीवन-पद्धति या कार्यशैली ऐसी ही होनी चाहिए। नर को भी समस्याओं के आने पर अपनी योजना बनाकर उनका सामना करना चाहिए और उन पर सफलता प्राप्त करनी चाहिए। तभी वह नर कहलाने योग्य बन सकता है। समस्याएँ सामने आने पर माथे पर हाथ रखकर तथा निराश होकर बैठ जाने से उसके जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं होती। वह तभी नर कहलाएगा जब वह समस्याओं पर पैर रखकर आगे बढ़ जाएगा। इसे ही सच्चे अर्थों में जीवन कहते हैं तथा यही नर के नरत्व को व्यक्त करता है।

3. निरंतर संघर्ष करना जीवन है:
नर होकर निराश बैठना, यह उसके लिए शोभनीय नहीं है। निराश होकर बैठ जाने और हिम्मत हार जाने वाले मनुष्य की स्थिति वैसी ही होगी जैसी मणि-विहीन सर्प की होती है। मणि ही सर्प की चमक का कारण होती है। उसी प्रकार हिम्मत एवं उत्साह ही मानव-जीवन को सार्थकता प्रदान करने वाले तत्व हैं। जब मनुष्य उनको त्यागकर बैठ जाता है तब वह ‘नर’ कहलाने का अधिकार भी खो बैठता है। ऐसा होना उसके लिए नरता से पतित होने, अपने आपको कहीं का भी नहीं रहने देने के समान होता है। इसलिए कहा गया है कि नर होकर मन को निराश न करो। मनुष्य को किसी भी स्थिति में निराश नहीं होना चाहिए।

निराशा जीवन में अंधकार भर देती है। इससे मनुष्य को कोई मार्ग नहीं सूझ सकता। इसके विपरीत, निराशा को त्यागकर आशावान और आस्थावान होकर जब मनुष्य समस्याओं से जूझता है तो उसका मार्ग स्वतः ही प्रकाशित हो उठता है और वह आगे बढ़ता हुआ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाता है। संघर्ष और प्रयास में जो आनंद अनुभव होता है वह अमृत के समान होता है। संघर्ष को त्यागकर यदि हम निराशा का दामन पकड़ लेंगे तो उस अमृत के आनंद से भी हाथ धो बैठेंगे। अतः स्पष्ट है नर की नरता निराशा को त्यागकर संघर्ष करने में ही दिखाई देती है। इस पंक्ति का प्रमुख लक्ष्य ही निरंतर संघर्ष करना, गतिशील बने रहना, उत्साह और आनंद का संदेश देना है। इन्हीं से नर की नरता सार्थक होती है।

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21. विजयदशमी या दशहरा

भूमिका:
हमारा भारतवर्ष त्योहारों का देश है। यहाँ प्रत्येक बात में धर्म किसी-न-किसी रूप में समाहित है। वैसे तो भारत में पर्यों की संख्या सैकड़ों में है, परंतु इनमें से चार-रक्षा बंधन, दशहरा, दीपावली तथा होली-बहुत बड़े तथा मुख्य पर्व हैं। दशहरा भारत के मुख्य पर्यों में से एक है। इस दिन भगवान् राम ने रावण पर विजय पाई थी। यह अच्छाई की बुराई पर विजय थी। यह त्योहार समस्त भारत में आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन बड़े उत्साह से मनाया जाता है।

1. ऐतिहासिक आधार:
मर्यादा पुरुषोत्तम राम की जीवन-कथा को सभी भारतीय भली-भांति जानते हैं। अवध के राजा दशरथ की पत्नी कैकेयी की हठ पर राम, लक्ष्मण और सीता को वन में जाना पड़ा। वहाँ रावण ने धोखे से सीता को उठा लिया। भगवान् राम ने हनुमान और सुग्रीव की वानर सेना को साथ लेकर रावण की लंका पर आक्रमण किया और विजय पाई, इसीलिए यह त्योहार विजयदशमी के नाम से प्रख्यात है।

2. उत्सव मनाने की विधि;
विजयदशमी के त्योहार को भारतीय बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। कुछ दिन पूर्व से ही नगरों व गाँवों में रामलीला आरंभ हो जाती है तथा नगर के प्रमुख बाजारों में रामचंद्र जी के जीवन को चित्रित करने वाली सुंदर झाँकियाँ निकाली जाती हैं। विजयदशमी को प्रातःकाल से ही बाजारों को विशेष रूप से सजाया जाता है। उस दिन दूर-दूर के गाँवों से भी लोग नगरों में दशहरा देखने आते हैं। दुकानें सजाई जाती हैं। घरों में स्वादिष्ट भोजन बनाए जाते हैं। इस दिन रावण, कुम्भकरण, मेघनाथ के कागज़ों और बाँसों द्वारा बने हुए बड़े-बड़े पुतलों को आग लगाते हैं। इसी दृश्य को देखने के लिए वहाँ लाखों की संख्या में लोग जमा होते हैं। पुतलों में पटाखे भरे होते हैं। आग लगते ही वे बजने लगते हैं।

3. कुल्लू का दशहरा:
कुल्लू का दशहरा विशेष रूप से प्रसिद्ध है। यहाँ एक सप्ताह पूर्व से ही दशहरे की तैयारियाँ आरंभ हो जाती हैं। नर और नारियाँ तुरहियाँ, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बाँसुरी और घन्टियों के तुमुल नाद के मध्य नाच करते हुए कन्धों पर देवगण को उठाकर नगर की परिक्रमा करते हुए कुल्लू नगर के देवता रघुनाथ जी की वन्दना से दशहरे का पर्व आरंभ करते हैं और अन्तिम दिन दोपहर बाद समस्त देवगण रघुनाथ जी के चारों ओर जोशपूर्ण परिक्रमा करते हैं। तत्पश्चात् युद्ध में बाजों के साथ लंका पर चढ़ाई की जाती है और ब्यास नदी के किनारे काँटों के ढेर की लंका जलाकर नष्ट कर दी जाती है।

4. शिक्षा:
हर त्योहार से कोई-न-कोई शिक्षा अवश्य मिलती है। दशहरे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि चाहे कोई कितना विद्वान् क्यों न हो अगर उसमें अहंकार आ गया तो उसके सभी गुण फीके पड़ जाते हैं। रावण जैसे विद्वान् लोग भी मर्यादा रहित बन जाते हैं। उनका अंत भी बुरा ही होता है। अतः स्पष्ट है कि हमें कभी घमण्डी नहीं बनना चाहिए और सच्चाई के मार्ग पर चलते हुए कठिनाइयों से घबराना नहीं चाहिए। उपसंहार-दशहरा पर्व हमें बुराई को त्यागकर पुण्य-कार्य करने की प्रेरणा देता है। कवि का कथन है-
पाप तिमिर सब मिट जाता है,
सत्य का होता जब भी प्रकाश।
सुसंदेश दशहरा पर्व का
अन्यायी का होता है नाश ॥

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22. दीपावली

भूमिका:
भारत त्योहारों का देश है। प्रत्येक ऋतु में किसी-न-किसी त्योहार को मनाया जाता है। भारत में फसलों के पकने पर भी त्योहार मनाए जाते हैं। महापुरुषों के जन्मदिन को भी त्योहारों की भांति बड़े उत्साह से मनाया जाता है। भारत के मुख्य त्योहारों-रक्षा बंधन, दशहरा, दीपावली और होली आदि में दीपावली सर्वाधिक प्रसिद्ध त्योहार है। इसे बड़े जोश एवं उत्साह के साथ मनाया जाता है। दीपावली का अर्थ है-‘दीपों की पंक्ति’ । यह त्योहार कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। अमावस्या की रात बिल्कुल अंधेरी होती है किंतु भारतीय घर-घर में दीप जलाकर उसे पूर्णिमा से भी अधिक उजियाली बना देते हैं। इस त्योहार का बड़ा महत्त्व है।

1. ऐतिहासिक आधार:
इस त्योहार का ऐतिहासिक आधार अति महत्त्वपूर्ण एवं धार्मिक है। इस दिन भगवान् राम लंका-विजय करके अपना वनवास समाप्त करके लक्ष्मण और सीता सहित जब अयोध्या आए तो नगरवासियों ने अति हर्षित होकर उनके स्वागत के लिए रात्रि को नगर में दीपमाला करके अपने आनंद और प्रसन्नता को प्रकट किया। दीपावली का त्योहार आर्यसमाजी, जैनी और सिक्ख लोग भी विभिन्न रूपों में बड़े उत्साह से मनाते हैं। इसी दिन आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने महासमाधि ली थी और इसी दिन जैन धर्म के तीर्थंकर महावीर स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया था। इसी प्रकार सिक्ख अपने छठे गुरु की याद में इस त्योहार को मनाते हैं जिन्होंने इसी दिन बंदी गृह से मुक्ति प्राप्त की थी।

2. दीपावली पर्व की तैयारी:
इस पर्व की तैयारी घरों की सफाई से आरंभ होती है जो कि लोग एक-आध मास पूर्व आरंभ कर देते हैं। लोग शरद् ऋतु के आरंभ में घरों की लिपाई-पुताई करवाते हैं और कमरों को चित्रों से अलंकृत करते हैं। इससे मक्खी मच्छर दूर हो जाते हैं। इससे कुछ दिन पूर्व अहोई माता का पूजन किया जाता है। धन त्रयोदशी के दिन लोग पुराने बर्तन बेचते हैं और नए खरीदते हैं। चतुर्दशी को लोग घरों का कूड़ा-करकट बाहर निकालते हैं। लोग कार्तिक मास की अमावस्या को दीपमाला करते हैं।

3. मनाने की विधि:
इस दिन कई लोग अपने इष्ट सम्बन्धियों में मिठाइयाँ बाँटते हैं। बच्चे नए-नए वस्त्र पहनकर बाजार जाते हैं। रात को पटाखे तथा आतिशबाजी चलाते हैं। बहुत-से लोग रात को लक्ष्मी पूजा करते हैं। कई लोगों का विचार है कि इस रात लक्ष्मी अपने श्रद्धालुओं के घर जाती है। इसलिए प्रायः लोग अपने घर के द्वार उस रात बंद नहीं करते ताकि लक्ष्मी लौट न जाए। व्यापारी लोग वर्षभर के खातों की पड़ताल करते हैं और नई बहियाँ लगाते हैं।

4. कुप्रथा:
दीपावली के दिन जहाँ लोग शुभ कार्य एवं पूजन करते हैं वहाँ कुछ लोग जुआ भी खेलते हैं। जुआ खेलने वाले लोगों का विश्वास है कि यदि इस दिन जुए में जीत गए तो फिर वर्ष भर जीतते रहेंगे तथा लक्ष्मी की उन पर कृपा बनी रहेगी। कहीं-कहीं पटाखों को लापरवाही से बजाते समय बच्चों के हाथ-पाँव भी जल जाते हैं और कहीं-कहीं पटाखों के कारण आग लगने की दुर्घटना भी होती है। अतः इस पावन पर्व को हमें सदा सावधानी से. मनाना चाहिए।

उपसंहार:
दीपावली का त्योहार मानव जाति के लिए शुभ काम करने की प्रेरणा देने वाला है। जैसे दीपक जल कर अंधकार को समाप्त करके प्रकाश फैला देता है, वैसे ही दीपावली भी अज्ञानता के अंधकार को हटाकर ज्ञान का प्रकाश हमारे मन में भर . देती है। देश और जाति की समृद्धि का प्रतीक यह त्योहार अत्यंत पावन और मनोरम है।

23. होली अथवा रंगों का त्योहार

भूमिका:
भारत त्योहारों और पर्वो का देश है। यहाँ हर वर्ष अनेक त्योहार मनाए जाते हैं। रक्षाबंधन, दीपावली, दशहरा, होली आदि यहाँ के सुप्रसिद्ध त्योहार हैं। अन्य पर्यों की भांति होली भी भारत का प्रमुख पर्व है। यह भारतीय जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। यह त्योहार फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। यह त्योहार समाज की एकता, मेल-जोल और प्रेम भावना का प्रतीक माना जाता है।

1. इतिहास:
होली के त्योहार का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। इसका संबंध राजा हिरण्यकश्यप से है। हिरण्यकश्यप निर्दयी और नास्तिक राजा था। वह अपने-आपको भगवान मानता था तथा चाहता था कि प्रजा उसे परमात्मा से भी बढ़कर समझे तथा उसकी पूजा करे। उसके पुत्र एवं ईश्वर-भक्त प्रह्लाद ने उसका विरोध किया। इस पर क्रोधित होकर उसने उसे मार डालने का प्रयास किया। हिरण्यकश्यप की एक बहन होलिका थी। उसे वरदान था कि अग्नि उसके शरीर को जला नहीं सकती। लकड़ियों के एक ढेर पर होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर बैठ गई और फिर लकड़ी के ढेर को आग लगा दी गई। होलिका जलकर राख हो गई पर प्रह्लाद ज्यों-का-त्यों बैठा रहा। इसलिए लोग इस घटना को याद करके होली मनाते हैं।

2. कृषि का पर्व:
होली का त्योहार मनाने का एक और कारण भी है। हमारा देश कृषि प्रधान देश है। फरवरी और मार्च के महीने में गेहूँ और चने के दाने अधपके हो जाते हैं। इनको देखकर किसान खुशी से झूम उठता है। अग्नि देवता को प्रसन्न करने के लिए वह गेहूँ के बालों की अग्नि में आहुति देता है।

3. रंग का त्योहार:
होली को रंगों का त्योहार भी कहा जाता है, क्योंकि इस दिन लोग रंग, गुलाल, अबीर आदि से त्योहार मनाते हैं। लोग एक-दूसरे पर रंग डालते हैं तथा एक-दूसरे के चेहरे पर गुलाल लगाते हैं। इस अवसर पर लोगों के चेहरे एवं वस्त्र रंग-बिरंगे हो जाते हैं। चारों ओर मस्ती का वातावरण छा जाता है। वास्तव में यह त्योहार कई दिन पूर्व ही आरंभ हो जाता है।

यह त्योहार परस्पर भाई-चारे और प्रेम-भाव का त्योहार है। इस अवसर पर कई लोग रात को लकड़ियाँ जलाकर होली की पूजा करते हैं। उसके बाद गाना बजाना करते हैं। कविवर मैथिलीशरण गुप्त का कथन है-
काली-काली कोयल बोली होली, होली, होली,
फूटा यौवन फाड़ प्रकृति की पीली-पीली चोली।

4. कुप्रथा:
इस शुभ त्योहार पर कुछ लोग एक-दूसरे पर मिट्टी, कीचड़, पानी आदि फेंकते हैं। यह उचित काम नहीं है। इससे किसी भी पर्व का महत्त्व कम हो जाता है। ऐसा करने से कभी-कभी लड़ाई-झगड़े तक हो जाते हैं तथा वैर भावना जन्म ले लेती है। कुछ लोग इस अवसर पर शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं। इन सब बुराइयों के कारण ऐसे शुभ त्योहार अपने सच्चे महत्त्व एवं अर्थ को खो बैठते हैं। अतः यह आवश्यक है कि हम इस त्योहार को उचित ढंग से मनाएँ तथा हमें उसके महत्त्व को समझने का प्रयास करना चाहिए।

उपसंहार:
सार रूप में कहा जा सकता है कि होली एक आनंदमय एवं मस्ती भरा त्योहार है। यह प्रकृति एवं कृषि का त्योहार है। हमें इसकी पवित्रता एवं महत्त्व को समझना चाहिए तथा उनकी रक्षा करनी चाहिए। इस पर्व पर गोष्ठियों का आयोजन करके हमें समाज में एकता और प्रेम को बढ़ाना चाहिए।

24. रक्षा-बंधन

भूमिका:
रक्षा-बंधन भारत का पवित्र एवं प्रमुख त्योहार है। यह भारतीय लोक जीवन की सुंदर परंपरा है। यह पर्व श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। प्राचीन आश्रमों में स्वाध्याय के लिए यज्ञ और ऋषियों के लिए तर्पण कर्म करने के कारण इसका ‘उपाकर्म’ नाम पड़ा। यज्ञ के उपरान्त ‘रक्षा-सूत्र’ बाँधने की प्रथा के कारण इसका नाम ‘रक्षा-बंधन’ लोक-प्रचलित हो गया। संस्कृत शब्द रक्षा का हिंदी रूप ही ‘राखी’ है इसलिए कुछ लोग इसे राखी का त्योहार भी कहते हैं।

1. इतिहास:
रक्षा-बंधन’ पर्व के रूप में कब आरंभ हुआ इस संबंध में कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। कहा जाता है कि एक बार देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध हुआ था। युद्ध में देवताओं का पक्ष कमजोर पड़ता जा रहा था। तब इन्द्र की पत्नी ने अपने पति की मंगल कामना हेतु उन्हें राखी बाँधकर युद्ध में भेजा था। राखी के प्रभाव से युद्ध में इन्द्र की विजय हुई। तब से राखी के त्योहार के महत्त्व को स्वीकार किया जाने लगा।

मुसलमानों के शासनकाल में यवन सुंदर कन्याओं को उठा लेते थे। इस विपत्ति से बचने के लिए कन्याएँ बलवान राजा को एक धागा भेजकर अपना भाई बना लेती थीं। इस प्रकार से वे अपनी मान-मर्यादा की रक्षा करती थीं। मेवाड़ की रानी कर्मवती ने भी हुमायूँ को ऐसे ही राखी भेजकर भाई बनाया था।

2. मनाने की विधि:
आज बहन या धर्म-बहन अपने भाई के माथे पर तिलक लगाकर उसके हाथ पर राखी बाँधती है। भाई बहन से राखी बँधवाकर उसकी रक्षा का भार अपने ऊपर ले लेता है। कुछ लोग इस अवसर पर पूजा-अर्चना भी करते हैं। इस अवसर पर भाई अपनी बहन को स्नेह के रूप में वस्त्र और धन भी देता है।

3. प्रेम का प्रतीक:
रक्षा-बंधन वस्तुतः भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है। यह सामाजिक कल्याण का सूत्र एवं बहन के निश्छल, सरल और पवित्र स्नेह का प्रतीक है
“कच्चे धागों में बहनों का प्यार है।
देखो, राखी का आया त्योहार है ॥”
बहन के अतिरिक्त ब्राह्मण अपने यजमानों को राखी बाँधते हैं। ब्राह्मण अपने यजमान को आशीर्वाद भी देता है। बदले में यजमान ब्राह्मण को दक्षिणा देता है।

4. धार्मिक महत्त्व:
धार्मिक क्षेत्र में रक्षा-बंधन का महत्त्व कई प्रकार से माना जाता है। इसी पवित्र दिन भगवान् विष्णु को वामन अवतार के रूप में दानव राजा बलि को तीन पग भूमि माँगने पर सारा राज्य दान करना पड़ा। इस महान् त्याग की स्मृति बनकर यह शुभ त्योहार आता है। दान-पुण्य के कारण ब्राह्मणों के लिए यह त्योहार और भी महत्त्वपूर्ण बन जाता है। .

उपसंहार:
रक्षा-बंधन’ पर्व की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि कुछ भी रही हो किंतु आज यह त्योहार भाई-बहन के पवित्र त्योहार के रूप में मनाया जाता है। इस त्योहार से हमें समाज कल्याण एवं समाज-रक्षा की प्रेरणा मिलती है। हमें न केवल अपनी बहन की रक्षा करनी चाहिए अपितु समाज के हर कमजोर व्यक्ति की रक्षा करना हमारा कर्त्तव्य बनता है।

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25. परिश्रम का महत्त्व

भूमिका:
मानव जीवन में परिश्रम का विशेष महत्त्व है। मानव तो क्या, प्रत्येक प्राणी के लिए परिश्रम का महत्त्व है। चींटी का छोटा-सा जीवन भी परिश्रम से पूर्ण है। मानव परिश्रम द्वारा अपने जीवन की प्रत्येक समस्या को सुलझा सकता है। यदि वह चाहे तो पर्वतों को काटकर सड़क निकाल सकता है, नदियों पर पुल बाँध सकता है, काँटेदार मार्गों को सुगम बना सकता है और समुद्रों की छाती को चीरकर आगे बढ़ सकता है। ऐसा कौन-सा कार्य है जो परिश्रम से न हो सके। नेपोलियन ने भी अपनी डायरी में लिखा था-‘असंभव’ जैसा कोई शब्द नहीं है। कर्मवीर तथा दृढ़-प्रतिज्ञ महापुरुषों के लिए संसार का कोई भी कार्य कठिन नहीं होता।

1. भाग्य का सहारा:
कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भाग्य पर निर्भर रहकर श्रम को छोड़ देते हैं। वे भाग्य का सहारा लेते हैं परंतु भाग्य जीवन में आलस्य को जन्म देता है और यह आलस्य जीवन को अभिशापमय बना देता है। आलसी व्यक्ति दूसरों पर निर्भर रहता है। ऐसा व्यक्ति हर काम को भाग्य के भरोसे छोड़ देता है। हमारा देश इसी भाग्य पर निर्भर रहकर सदियों तक गुलामी को भोगता रहा। हमारे अंदर हीनता की भावना घर कर गई लेकिन जब हमने परिश्रम के महत्त्व को समझा तब हमने स्वतंत्रता की ज्योति जलाई और पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ डाला। संस्कृत के कवि भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है-
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः देवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति।
दैवं निहत्य करु पौरुषमात्माशक्तया, यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः॥

अर्थात् उद्यमी पुरुष को लक्ष्मी प्राप्त होती है। ‘ईश्वर देगा’ ऐसा कायर आदमी कहते हैं। दैव अर्थात् भाग्य को छोड़कर मनुष्य को यथाशक्ति पुरुषार्थ करना चाहिए। यदि परिश्रम करने पर भी कार्य सिद्ध न हों तो सोचना चाहिए कि इसमें हमारी क्या कमी रह गई है।

केवल ईश्वर की इच्छा और भाग्य के सहारे पर चलना कायरता है। यह अकर्मण्यता है। मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयं है। अंग्रेज़ी में भी कहावत है-“God helps those who help themselves” अर्थात् ईश्वर भी उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं। कायर और आलसी व्यक्ति से तो ईश्वर भी घबराता है। कहा भी गया है-‘दैव-दैव आलसी पुकारा’ । संस्कृत की ही उक्ति है-‘श्रमेव जयते’ अर्थात् परिश्रम की ही विजय होती है। वस्तुतः मानव प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। वह स्वयं ईश्वर का प्रतिरूप है। संस्कृत का एक श्लोक है-
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥ इसका अर्थ यह है कि उद्यम से ही मनुष्य के कार्य सिद्ध होते हैं, केवल इच्छा से नहीं। जिस प्रकार सोए हुए शेर के मुँह में मृग स्वयं नहीं प्रवेश करते, उसी प्रकार से मनुष्य को भी कर्म द्वारा सफलता मिलती है। कर्म से मानव अपना भाग्य स्वयं बनाता है। एक कर्मशील मानव जीवन की सभी बाधाओं और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर लेता है।

2. परिश्रम के लाभ:
परिश्रम से मनुष्य का हृदय गंगाजल के समान पावन हो जाता है। परिश्रम से मन की सभी वासनाएँ और दूषित भावनाएँ बाहर निकल जाती हैं। परिश्रमी व्यक्ति के पास बेकार की बातों के लिए समय नहीं होता। कहा भी गया है”खाली मस्तिष्क शैतान का घर है।” यही नहीं, परिश्रम से आदमी का शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है। उसके शरीर को रोग नहीं सताते। परिश्रम से यश और धन दोनों प्राप्त होते हैं। ऐसे लोग भी देखे गए हैं जो भाग्य के भरोसे न रहकर थोड़े-से धन से काम शुरू करते हैं- और देखते-ही-देखते धनवान बन जाते हैं। परिश्रमी व्यक्ति को जीवित रहते हुए भी यश मिलता है और मरने के उपरांत भी। वस्तुतः परिश्रम द्वारा ही मानव अपने को, अपने समाज को और अपने राष्ट्र को ऊँचा उठा सकता है। जिस राष्ट्र के नागरिक परिश्रमशील हैं, वह निश्चय ही उन्नति के शिखर को स्पर्श करता है लेकिन जिस राष्ट्र के नागरिक आलसी और भाग्यवादी हैं, वह शीघ्र ही गुलाम हो जाता है।

3. महापुरुषों के उदाहरण:
हमारे सामने ऐसे अनेक महापुरुषों के उदाहरण हैं जिन्होंने परिश्रम द्वारा अपना ही नहीं अपितु अपने राष्ट्र का नाम भी उज्ज्वल किया है। अब्राहिम लिंकन का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था लेकिन निरंतर कर्म करते हुए वे झोंपड़ी से निकलकर अमेरिका के राष्ट्रपति भवन तक पहुँचे। भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री, भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, महामना मदन मोहन मालवीय, नेता जी सुभाषचंद्र बोस आदि महापुरुष इस बात के साक्षी हैं कि परिश्रम से ही व्यक्ति महान बनता है।

उपसंहार:
यदि हम चाहते हैं कि अपने देश की, अपनी जाति की और अपनी स्वयं की उन्नति करें तो यह आवश्यक है कि हम भाग्य का सहारा छोड़कर परिश्रमी बनें। आज देश के युवाओं में जो बेरोज़गारी और आलस्य व्याप्त है, उसका भी एक ही इलाज है-परिश्रम। संस्कृत में भी ठीक कहा गया है-
श्रमेण विना न किमपि साध्यं ।

26. साहित्य और समाज

भूमिका:
आज अधिकांश विद्वान साहित्य और समाज में गहन संबंध मानते हैं। उनका मत है कि साहित्य और समाज का अविच्छिन्न संबंध है। ये दोनों एक-दूसरे पर आश्रित रहते हैं। समाज यदि शरीर है तो साहित्य उसकी आत्मा है। साहित्य मानव के मस्तिष्क की देन है। मानव भी तो सामाजिक प्राणी है। समाज के बिना तो वह अधूरा है। उसका पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा आदि सब कुछ समाज में ही होता है। वह समाज में रहता हुआ ही विभिन्न अनुभूतियाँ अर्जित करता है। अतः उसमें एक नैसर्गिक इच्छा होती है कि वह अपनी भावनाओं को संसार के समक्ष अभिव्यक्त करे। उसकी यह लालसा ही साहित्य को जन्म देती है।

1. साहित्य की परिभाषा एवं अर्थ:
संस्कृत में साहित्य शब्द की परिभाषा इस प्रकार की गई है-‘हितेन सहितं साहित्यं’ अथवा ‘सहितस्य भावः साहित्यं । इसके अनुसार साहित्य का अर्थ है-जिसमें हित की भावना हो अर्थात साहित्य समाज के कल्याण या हित के लिए रचा जाता है। अपने हित-अहित का ज्ञान तो पशु को भी होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है, ‘हित अनहित पशु पक्षिहुँ जाना’, फिर मनुष्य तो बुद्धिजीवी प्राणी है। उसे तो अपने हित की हमेशा चिंता रहती है। मनुष्य की भाँति ही साहित्य संपूर्ण समाज की चिंता करता है किंतु मनुष्य और साहित्य के हित-चिंतन में पर्याप्त अंतर है। मनुष्य का हित-चिंतन ‘स्व’ पर आधारित है परंतु साहित्य का हित-चिंतन विश्व-कल्याण की भावना पर आधारित है। साहित्य की परिभाषा देते हुए डॉ० महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा है, “ज्ञान की संचित राशि का नाम साहित्य है।” डॉ० श्यामसुंदर दास का कहना है-सामाजिक मस्तिष्क अपने पोषण के लिए जो भाव सामग्री निकालकर समाज को सौंपता है, उसके संचित भंडार का नाम साहित्य है। मनुष्य की सामाजिक स्थिति के विकास में साहित्य का प्रधान योग रहता है।

2. साहित्य समाज का दर्पण:
साहित्य को सामग्री प्रदान करने वाला तो सामाजिक जीवन ही है। समाज का वातावरण भी साहित्य को प्रभावित करता है। एक साहित्यकार अपने जीवन के चारों ओर के वातावरण, वस्तुओं, घटनाओं आदि को देखता है। उनमें से कुछ उसे प्रभावित करती हैं। साहित्यकार इन बातों को अपने अंतर्मन में संजो लेता है। वे अनुभूतियाँ कवि की निजी अनुभूतियाँ बन जाती हैं। बाद में कवि उन्हीं अनुभूतियों को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करता है। प्रसिद्ध पाश्चात्य आलोचक टी०एस० इलियट का तो यहाँ तक कहना है, “कवि और उसकी रचना एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। कवि कुछ देता है तो कुछ लेता भी है। कवि जो कुछ लिखता है, वह समाज से लेता है और समाज को वापिस सौंप देता है। समाज के जीवन को उत्साहित करने वाला साहित्य ही सत्साहित्य कहा जाता है।”

3. समाज का साहित्य पर प्रभाव:
सुप्रसिद्ध अंग्रेज़ विद्वान मैथ्यू आर्नोल्ड ने साहित्य को जीवन और समाज का दर्पण कहा है। वस्तुतः साहित्यकार जिस युग या परिवेश में रहता है, उसकी उपलब्धियाँ, चेतनाएँ, स्थितियाँ और समस्याएँ उसके मन-मस्तिष्क को सदैव प्रभावित किए रहती हैं। साहित्य उन्हीं प्रभावों का कलात्मक रूप है। कवि या लेखक अपने युग और उसकी परिस्थितियों का चितेरा होता है। समाज से उसे जैसी सामग्री मिलती है, उसका वह अपने दृष्टिकोण से उपयोग करता है। कवि उस बात को कहता है जिसको सब लोग अनुभव तो करते हैं लेकिन कह नहीं सकते। कवि समाज के दुःख-दर्द और उसकी समस्याओं को सशक्त एवं सजीव रूप में प्रस्तुत करता है।

साहित्य तत्कालीन वातावरण और परिस्थितियों का सच्चा चित्र अथवा प्रतिबिंब प्रस्तुत करता है। समाज के रीति-रिवाजों, आस्था और विश्वास तथा सांस्कृतिक परंपराओं का साहित्य में पर्याप्त वर्णन मिलता है। यदि हम हिंदी साहित्य के इतिहास का सिंहावलोकन करें तो पाएँगे कि आदिकाल में युद्धों का वातावरण था। भक्तिकाल में भक्ति संबंधी धारा प्रवाहित हुई और रीतिकाल में शृंगार रस की प्रधानता थी।

4. साहित्य का समाज पर प्रभाव:
साहित्य समाज का दर्पण है। यह साहित्य के विषय में अधूरा सत्य है। जिस प्रकार साहित्य पर समाज के भावों एवं वातावरण का प्रभाव पड़ता है, उसी प्रकार समाज भी साहित्य द्वारा प्रसारित भावों से प्रभावित होता है। चूंकि कवि और लेखक समाज के प्रतिनिधि होते हैं, अतः वे समाज को नए भाव और नए विचार प्रदान करते हैं। समाज पर जब-जब संकट के बादल छाए हैं, तब-तब साहित्यकारों ने लोगों को प्रेरणा देकर उन्हें कर्तव्यनिष्ठ बनाया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब समाज की नाव डगमगाने लगी, तब-तब साहित्यकारों ने उसे संभाला और साहित्य-सजन द्वारा समाज को नई गति तथा नया आलोक प्रदान किया। उदाहरणार्थ, प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों ने भारत के किसानों के प्रति सहानुभूति जागृत करने में बहुत योगदान दिया है।

उपसंहार:
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि साहित्य और समाज में भिन्नता होते हुए भी एकता है। साहित्यकार समाज को उसका उचित श्रेय प्रदान करता है। एक के कमज़ोर होते ही दूसरे का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। वस्तुतः ये दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। साहित्य का लक्ष्य समाज के दोषों को दूर कर उसे संस्कारित करके पूर्ण बनाना है। अतः समाज के संपर्क में विकसित होने वाले साहित्य का ही अधिक महत्त्व होता है। जो साहित्य समाज से अलग रहकर फलता-फूलता है, उसका कोई महत्त्व नहीं होता। ऐसा साहित्य कुछ समय पश्चात समाप्त हो जाता है। लोक-चेतना के समीप रहने से ही साहित्य में सजीवता, स्फूर्ति एवं गतिशीलता का समावेश हो सकता है। अतः यह स्वतः सिद्ध है कि साहित्य समाज की प्रतिध्वनि होता है क्योंकि किसी देश के साहित्य को पढ़कर वहाँ की संस्कृति, विचारधारा, विश्वास, आचार-विचार, सभ्यता आदि का परिचय मिल सकता है। अतः साहित्य और समाज का परस्पर अत्यंत गहन संबंध है। साहित्य समाज का दर्पण होते हुए भी उसका पथ-प्रदर्शक होता है।

27. समाचार-पत्रों के लाभ तथा हानियाँ

भूमिका:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। विज्ञान ने यदि मनुष्य को अपना दास बनाया है तो सारी वसुधा को एक कुटुम्ब भी बना दिया है। समाचार-पत्रों के द्वारा मनुष्य समस्त वसुधा की जानकारी प्राप्त करता है। समाचार-पत्र ज्ञान-वर्द्धन का सबसे सस्ता, सरल और प्रमुख साधन है। भारत जैसे विशाल देश में विचारों के आदान-प्रदान के लिए समाचार-पत्र विशेष भूमिका निभाते हैं। समाचार-पत्र देश की रीढ़ की हड्डी होते हैं। किसी भी देश को कमजोर एवं शक्तिशाली बनाने में समाचार-पत्रों की विशेष भूमिका होती है। वर्तमान युग में समाचार-पत्र प्रजातंत्र का आधार-स्तम्भ हैं, उसके जागरूक प्रहरी हैं। समाचार-पत्र जनजीवन की गतिविधियों का दर्पण हैं। भारत में सर्वप्रथम 1780 में कलकत्ता में एक पत्र प्रकाशित हुआ। उसके पश्चात् राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ-साथ भारत में पत्रकारिता का भी प्रचार होता गया।

1. समाचार-पत्र के लाभ:
मानवीय कौतूहल एवं जिज्ञासा को शांत करने में समाचार-पत्र विशेष भूमिका निभाते हैं। देश-विदेश की घटनाओं की जानकारी प्राप्त करके मानव आत्म-तुष्टि अनुभव करता है। शासकीय, व्यापारिक एवं खेलकूद के समाचार भी मनुष्य समाचार-पत्रों से प्राप्त करता है। समाचार-पत्रों से ही मनुष्य सरकारी आज्ञा, निर्देश और सूचनाओं को जानता है। सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा सिने-संसार की गतिविधियों की जानकारी भी मानव को समाचार-पत्रों से ही मिलती है।

2. व्यापार वृद्धि में योगदान:
आधुनिक युग में व्यापारिक उन्नति भी समाचार-पत्रों पर ही निर्भर है। व्यापार मंडियों के भाव, शेयरों आदि के उतार-चढ़ाव की जानकारी भी मनुष्य को समाचार-पत्रों से मिलती है। समाचार-पत्र लाखों, करोड़ों के हाथों में पहुँचते हैं और वस्तु के विक्रय में सहायता करते हैं।

3. नौकरी प्राप्त करने में समाचार:
पत्रों की भूमिका-नौकरी के लिए कहाँ-कहाँ स्थान खाली हैं, इसकी जानकारी भी समाचार-पत्र ही देते हैं। इस प्रकार समाचार-पत्र के विज्ञापन बेरोजगार युवाओं को उनके भविष्य की जानकारी करवाते हैं। इसके साथ ही यह लाखों हॉकरों को रोजी-रोटी देते हैं। कहानियाँ, चुटकुले, लेख, व्यंग्य आदि छापकर यह मनुष्य के मनोरंजन का साधन भी बनता है। इसके अतिरिक्त समाचार-पत्र सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक अंधविश्वासों को दूर करने में भी विशेष भूमिका निभाते हैं।

4. समाचार-पत्र की हानियाँ:
संसार में लाभ-हानि का चोली-दामन का संबंध है। समाचार-पत्रों से जहाँ लाभ हैं, वहाँ कुछ हानियाँ भी हैं। पीत-पत्रकारिता, मन गढ़न्त और झूठे समाचार, किसी राजनीतिक दल की गलत विचारधारा का प्रचार और अन्धानुकरण आदि देश को विनाश की ओर ले जाते हैं। अश्लील विज्ञापन बच्चों पर बुरा प्रभाव डालते हैं।

उपसंहार:
समाचार-पत्र का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के समक्ष सत्य घटनाओं को व्यक्त करना होना चाहिए। विशिष्ट ज्ञानवर्द्धक सामग्री प्रस्तुत करना ही इसका उद्देश्य होना चाहिए। इसे पढ़ने से मनुष्य के संकीर्ण विचार दूर होकर उसे उदार बनाते हैं। सभी देशों की घटनाएँ पढ़ने से मानव में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना जागृत होती है। समाचार-पत्र समाज में जागृति लाने, युवकों को देश-भक्ति और बलिदान की प्रेरणा देने एवम् समाज में नारी की स्थिति को सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

HBSE 9th Class Hindi रचना निबंध-लेखन

28. आदर्श अध्यापक

भूमिका:
मानव-जीवन एक यात्रा के समान है। यदि यात्री को यह ज्ञात हो कि उसे कहाँ जाना है तो वह अपनी दिशा की ओर अग्रसर होना शुरू हो जाता है किंतु यदि उसे अपने गंतव्य का ज्ञान नहीं होता तो उसकी यात्रा निरर्थक हो जाती है। इसी प्रकार, यदि एक विद्यार्थी को ज्ञान हो कि उसे क्या करना है तो वह उसी दिशा में प्रयत्न करना आरंभ कर देगा और सफलता भी प्राप्त करेगा। इसके विपरीत, उद्देश्यहीन अध्ययन उसे कहीं नहीं ले जाता।

1. जीवन लक्ष्य का चुनाव अनिवार्य:
ऊपर बताया गया है कि जीवन एक यात्रा के समान है। मैं भी जीवन रूपी चौराहे पर खड़ा हूँ। यहाँ से कई मार्ग अलग-अलग दिशाओं को जा रहे हैं। मेरे समक्ष अनेक सपने हैं और लोगों के अनेक सुझाव भी हैं। कोई कहता है कि अध्यापक का कार्य सर्वोत्तम है क्योंकि अध्यापक राष्ट्र-निर्माता है। कोई कहता है कि सेना में भर्ती होकर देश की सेवा करो। कोई कहता है, नहीं, इंजीनियर बनो, इसी में तुम्हारी भलाई है। कभी-कभी मन में यह भी आता है कि एक सफल व्यापारी बनूँ। फिर सोचता हूँ कि व्यापार में ईमानदारी नहीं। मेरे कुछ साथी भी हैं, वे भी अपने मन में कुछ सपने पाल रहे हैं। कोई डॉक्टर बनकर अधिकाधिक रुपया कमाना चाहता है तो कोई उद्योगपति बनना चाहता है। कुछ ऐसे भी हैं जो राजनीति में प्रवेश करके सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं। कोई अभिनेता बनना चाहता है तो कोई लेखक बनकर यश प्राप्त करना चाहता है।

2. मेरा जीवन लक्ष्य अध्यापक बनना:
जीवन में लक्ष्य का चुनाव अपनी इच्छाओं एवं अपने साधनों के अनुरूप करना चाहिए। ध्येय चुनते समय स्वार्थ और परमार्थ में समन्वय रखना चाहिए। अपनी रुचि एवं प्रवृत्ति को भी सामने रखना चाहिए। दूसरों का अंधानुकरण करना उपयुक्त नहीं। मेरे जीवन का भी एक लक्ष्य है। मैं एक आदर्श शिक्षक बनना चाहता हूँ। भले ही लोग इसे एक सामान्य लक्ष्य कहें परंतु मेरे लिए यह एक महान लक्ष्य है जिसकी पूर्ति के लिए मैं भगवान से नित्य प्रार्थना करता हूँ। अध्यापक बनकर भारत का भार उठाने वाले भावी नागरिक तैयार करना मेरी महत्वाकांक्षा है।

3. अध्यापन एक महान कार्य:
आज की शिक्षण व्यवस्था और शिक्षकों को देखकर मेरा मन निराश हो जाता है। आज शिक्षक शिक्षा का सच्चा मूल्य नहीं समझते। वे शिक्षा को एक व्यवसाय समझने लग गए हैं। धन कमाना ही उनके जीवन का उद्देश्य रह गया है। बड़े-बड़े पूँजीपति पब्लिक स्कूलों में इसलिए धन लगा रहे हैं ताकि रुपया कमा सकें। वे यह भूल गए हैं कि अध्यापन पावन एवं महान कार्य है। शिक्षक ही राष्ट्र की भावी उन्नति का जीवन बनाते, सुधारते और सँवारते हैं। इस संसार से अज्ञान का अंधकार दूर करके ज्ञान का दीपक जलाते हैं। छात्र-छात्राओं को नाना प्रकार की विद्याएँ देकर उन्हें विद्वान एवं योग्य नागरिक बनाते हैं। शिक्षक ही निःस्वार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा कर सकते हैं। थोड़े धन से संतुष्ट रहकर वे आने वाली पीढ़ी को तैयार करते हैं और उनमें उत्तम गुणों का विकास करते हैं। आज हमारे देश में जो भ्रष्टाचार एवं मूल्यों की गिरावट आ चुकी है, उसके लिए बहुत कुछ हमारे शिक्षक तथा शिक्षा-व्यवस्था दोषी है।

4. आदर्श अध्यापक सच्चा सेवक:
प्राचीन काल में हमारे गुरुकुलों में सच्चे अर्थों में शिक्षा दी जाती थी। प्रत्येक विद्यार्थी के लिए गुरुकुल में रहना अनिवार्य होता था। शिक्षक भी गुरुकुल में ही रहता था। उसका समूचा जीवन अपने विद्यार्थियों के लिए होता था। यही कारण था कि बड़े-बड़े राजा भी अपने पुत्रों को वहाँ पर शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजते थे। शिक्षक अपने जीवन के अनुभवों द्वारा विद्यार्थियों को ज्ञान देता था। आदर्श शिक्षक समाज का सच्चा सेवक होता है। उसके सामने राष्ट्र-सेवा का आदर्श होता है। मैं ऐसा ही शिक्षक बनकर विद्यार्थियों को स्वावलंबन, सेवा, सादगी, स्वाभिमान, अनुशासन और प्रामाणिकता का पाठ पढ़ाऊँगा।

5. विद्यार्थियों की शिक्षा में रुचि उत्पन्न करना शिक्षक का कर्तव्य:
आज का विद्यार्थी विद्या को बोझ समझकर उससे दूर भागता है। परिणामस्वरूप, ग्रामीण क्षेत्र के स्कूलों में विद्यार्थी स्कूल जाना बंद कर देते हैं और उनकी शिक्षा अधूरी रह जाती है। मैं विद्यार्थियों में शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न करूँगा और यह प्रयास करूँगा कि जो विद्यार्थी स्कूल में आ गया है, वह स्कूल छोड़कर न जाए और अपनी शिक्षा को पूरा करे। छात्रों में अकसर अनुशासनहीनता देखी जा सकती है। उधर कुछ विद्यार्थी राजनीति में भाग लेकर अपनी शिक्षा को बीच में ही छोड़ देते हैं। इसके लिए अध्यापक ही दोषी हैं। यदि अध्यापक सही ढंग से पढ़ाएँ तो विद्यार्थी का मन अन्यत्र कहीं नहीं लगेगा। मैं इस बात का प्रयत्न करूँगा कि विद्यार्थी अपना मन पढ़ाई में लगाएँ और एक अनुशासनबद्ध व्यक्ति की तरह जीवनयापन करें।

उपसंहार:
मैं अपनी कक्षा को परिवार के समान समशृंगा। अनुशासन का पूरा ध्यान रखूगा। पढ़ाई में कमज़ोर छात्रों का विशेष ध्यान रखूगा। उनको अतिरिक्त समय देकर भी पढ़ाऊँगा। मैं मनोविज्ञान के आधार पर अध्यापन करूँगा ताकि विद्यार्थियों की कमज़ोरी का सही कारण जान सकूँ। होनहार छात्रों को भी मैं विशेष रूप से प्रोत्साहित करूँगा ताकि वे आगे चलकर जीवन में विशेष उपलब्धि प्राप्त कर सकें। शिक्षा और खेलकूद का उचित समन्वय स्थापित करूँगा। अभिनय, वाद-विवाद, सामान्य ज्ञान तथा निबंध प्रतियोगिता में भाग लेने की प्रेरणा अपने विद्यार्थियों को दूंगा। मैं स्वयं सादा.रहूँगा और अपनी सादगी, सरलता, विनम्रता तथा सहृदयता से विद्यार्थियों को भी प्रभावित करूँगा। सक्षेप में, मैं एक आदर्श अध्यापक बनने का प्रयास करूँगा क्योंकि एक आदर्श एवं चरित्रवान अध्यापक ही विद्यार्थियों को सही दिशा दे सकता है। ईश्वर करे मेरा उद्देश्य पूर्ण हो और मैं अपने देश की सेवा करूँ।

29. वर्तमान शिक्षा प्रणाली

भूमिका:
भारत की वर्तमान शिक्षा-प्रणाली परतंत्रता काल की शिक्षा प्रणाली है। यह ब्रिटिश शासन की देन है। इस प्रणाली के जन्मदाता लॉर्ड मैकाले थे। उन्होंने कहा था-“मुझे पूरा विश्वास है कि इस शिक्षा-प्रणाली से भारत में एक ऐसा शिक्षित वर्ग पैदा होगा जो रक्त और रंग से ही भारतीय होगा परंतु रुचि, विचार, वाणी और मन-मस्तिष्क से अंग्रेज़।” यह शिक्षा-प्रणाली आज भी सफेद कालरों वाले बाबू और लिपिक ही पैदा कर रही है। इस शिक्षा-प्रणाली के कारण विद्यार्थियों की मानसिक, शारीरिक और आत्मिक शक्तियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता।

1. प्राचीन भारत में शिक्षा का महत्त्व:
भारत में प्राचीनकाल से ही शिक्षा का महत्त्व रहा है, बल्कि हम यह कह सकते हैं कि सभ्यता, संस्कृति तथा शिक्षा का उदय सबसे पहले भारत में ही हुआ। प्राचीन काल में शिक्षा के केंद्र गुरुकुल, नगरों के कोलाहल और शोरगुल से दूर वन-प्रदेशों में होते थे। महान ऋषि-मुनि इन गुरुकुलों का संचालन करते थे। प्रायः विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विज्ञान, चिकित्सा, नीति, युद्ध-कला तथा धर्म-शास्त्रों की शिक्षा गुरु चरणों में बैठकर प्राप्त करते थे। तक्षशिला, नालंदा, वाराणसी और मिथिला आदि में इसी प्रकार के विश्वविद्यालय थे। यहाँ विदेशी भी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे। फिर आया मध्य युग और भारत को लंबे काल तक परतंत्रता भोगनी पड़ी। मुसलमानों के शासनकाल में अरबी-फारसी की शिक्षा का प्रसार हुआ। 18-19वीं शताब्दी तक आते-आते शिक्षा केवल अमीरों और सामंतों तक सिमटकर रह गई। स्त्री शिक्षा तो लगभग समाप्त ही हो गई।

2. नवीन शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता:
15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। हमारे कर्णधारों का ध्यान नई शिक्षा-प्रणाली की ओर गया क्योंकि ब्रिटिश शिक्षा-प्रणाली हमारी आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने तो यहाँ तक कहा था, “शिक्षा से मेरा मतलब है, बच्चे या मनुष्य की तमाम शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्तियों का सर्वांगीण विकास।” अतः शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन लाने के लिए शिक्षा-शास्त्रियों ने अनेक समितियों का गठन किया। केंद्रीय विकास समिति की वयस्क शिक्षा कमेटी ने एक विशाल योजना बनाई जो तीन वर्ष के अंदर पचास प्रतिशत शिक्षा का प्रसार कर देना चाहती थी। सैकेंडरी शिक्षा की योजना का भी निर्माण हुआ। विश्वविद्यालयों के माध्यम से भी इस समस्या को सुलझाने के प्रयास चलते रहे। फिर सन् 1948 में ‘बेसिक शिक्षा समिति’ का गठन हुआ जिसका उद्देश्य पूरे भारत में बेसिक शिक्षा का व्यापक प्रसार करना था। अखिल भारतीय शिक्षा समिति की सिफारिश पर 6 वर्ष से 11 वर्ष की आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए बेसिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया।

3. कोठारी आयोग की स्थापना:
1964-66 के वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन लाने के लिए सरकार ने कोठारी आयोग की स्थापना की। इस आयोग ने बड़ी सूझ-बूझ से राष्ट्रीय स्तर पर एक नई शिक्षा-प्रणाली-10 + 2 + 3 को लागू करने की सिफारिश की। वस्तुतः यह 15 वर्षीय नया पाठ्यक्रम है। लंबे काल तक इस नई पद्धति पर चर्चा-परिचर्चा चलती रही। अंततः देश के विभिन्न राज्यों में इस प्रणाली को लागू किया गया। इस प्रणाली में 10 वर्ष तक दसवीं कक्षा तक हाई स्कूलों में सामान्य शिक्षा होगी। इसमें सभी छात्र-छात्राएँ एक जैसे विषय पढ़ेंगे। इस पाठ्यक्रम में दो भाषाएँ, गणित, विज्ञान एवं सामाजिक अध्ययन पाँच विषय रखे गए हैं। इसके अतिरिक्त, किसी एक क्राफ्ट तथा शारीरिक शिक्षा का भी ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक छात्र के लिए अनिवार्य होगा। 10 वर्ष की हाई स्कूली शिक्षा के पश्चात विद्यार्थी अलग-अलग विषयों का अध्ययन करेगा। वह चाहे तो विज्ञान (मेडिकल या नॉन मेडिकल) ले सकता है, वह चाहे तो कॉमर्स और औद्योगिक कार्यों से संबंधित क्राफ्ट भी ले सकता है। उद्योग से संबंधित पाठ्यक्रम में विद्यार्थी चालीस से भी अधिक क्राफ्टों में रुचि के अनुसार प्रशिक्षण ले सकता है। ऐसा प्रशिक्षण प्राप्त विद्यार्थी देश के असंख्य लघु उद्योगों में काम कर सकता है।

4. नवीन शिक्षा नीति के लाभ:
वस्तुतः नवीन शिक्षा-प्रणाली रोज़गार को सामने रखकर बनाई गई है। प्रायः देखने में आता है कि अयोग्य विद्यार्थी महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश ले लेते हैं लेकिन पढ़ने में उनकी रुचि नहीं होती। वे शिक्षण संस्थानों में अनुशासनहीनता और अराजकता उत्पन्न करने लगते हैं। नई शिक्षा नीति का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ऐसे विद्यार्थी 10 +2 तक ही रह जाएंगे और उनको महाविद्यालयों में प्रवेश ही नहीं मिलेगा। केवल योग्य विद्यार्थी ही कॉलेजों में प्रवेश ले सकेंगे। 10 + 2 करने के पश्चात अधिकांश विद्यार्थी विभिन्न डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेकर रोज़गार प्राप्त कर सकेंगे लेकिन इस नवीन शिक्षा-पद्धति को सफल बनाने के लिए यह भी आवश्यक है कि स्थान-स्थान पर डिप्लोमा पाठ्यक्रम भी आरंभ किए जाएँ ताकि 10 + 2 करने के पश्चात विद्यार्थी कॉलेजों की ओर न भागें।

उपसंहार:
इससे शिक्षित बेरोज़गारों में कमी आएगी और शिक्षित लोगों का समाज में मान-सम्मान होगा। यह नवीन शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास में सहायक होगी और भविष्य के निर्माण के लिए उपयुक्त होगी। इस प्रणाली को सफल बनाने का भार हमारे शिक्षकों पर भी है। सरकार इस ओर भी ध्यान रखे कि केवल योग्य विद्यार्थी ही आगे चलकर शिक्षक बनें क्योंकि योग्य शिक्षक ही उत्तम शिक्षा दे सकते हैं। नई शिक्षा नीति में इसी बात पर बल दिया गया है कि सुयोग्य शिक्षक ही शिक्षा जगत में प्रवेश करें। साथ ही, इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि इस शिक्षा नीति के फलस्वरूप विद्यार्थियों को रोज़गार के अधिकाधिक अवसर मिल सकें।

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30. पुस्तकालय का महत्त्व

भूमिका:
पुस्तकालय ‘पुस्तक + आलय’ के योग से बना है। इसका अर्थ है पुस्तकों का घर । यदि पुस्तकालय का अर्थ पुस्तकों का घर मानें तो प्रकाशकों का गोदाम, पुस्तकों की दुकान या पुस्तकों का निर्माण करने का स्थान भी पुस्तकालय कहा जा सकता है, परंतु ऐसा नहीं है। पुस्तकालय का सही अर्थ है-वह भवन, जहाँ अध्ययन के लिए पुस्तकें रखी गई हों या वह भवन, स्थान जहाँ से सर्वसाधारण को पढ़ने के लिए पुस्तकें मिलती हों। . पुस्तकालय ज्ञान का आगार होता है। यह ज्ञान-अर्जन के साथ-साथ मनोरंजन का स्वस्थ साधन है। इसे हम व्यक्ति की जिज्ञासा की शांति का स्थान तथा मानसिक विकास का साधन कह सकते हैं। पुस्तकालय शिक्षा, ज्ञान एवं विद्या का प्रचार-प्रसार करने का सबल साधन है। पुस्तकालय एक मंदिर की भाँति से होता है जहाँ उच्चकोटि के संत-महापुरुषों के अनुभवों को सुरक्षित रखा जाता है। एडीसन के अनुसार, “पुस्तकें महती प्रतिभाओं के द्वारा मानव-जाति के लिए छोड़ी गई पैतृक संपत्ति हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी को सौंपी जाने के लिए हैं, मानों वे अभी अजन्मे व्यक्तियों के लिए दिए गए ज्ञान का उपहार हों।” अतः पुस्तकालय संचित ज्ञान को सरल ढंग से प्राप्त करने में सबकी सहायता करता है।

ज्ञान प्राप्त करने का साधन-पुस्तकालय ज्ञान प्राप्त करने में अत्यधिक सहायता करता है। ज्ञान-प्राप्ति के प्रमुख दो साधन हैं-(1) विद्यालय और (2) पुस्तकालय। विद्यालय में अध्यापकों के मुख से सुनकर विद्या प्राप्त की जाती है और पुस्तकालयों में अध्ययन और चिंतन के द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाता है। विद्यालय स्तर पर विद्यार्थी में एकाग्रता का अभाव संभव हो सकता है, परंतु पुस्तकालय में प्रत्येक व्यक्ति श्रद्धा एवं एकाग्रता से ही ज्ञान प्राप्त करता है। पुस्तकालयों को दो भागों में बाँटा जा सकता है(1) वाचनालय तथा (2) पुस्तकालय।

वाचनालयों में विभिन्न प्रदेशों से प्रकाशित दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन किया जाता है। पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की पुस्तकों का भंडार होता है। प्राचीन, दुर्लभ पुस्तकों को पढ़ने का अवसर प्राप्त होता है।
पुस्तकालय के प्रकार-पुस्तकालय चार प्रकार के होते हैं-
1. निजी पुस्तकालय: इसमें व्यक्ति अपनी पसंद की अथवा विशेष प्रकार की पुस्तकें रखता है। इसका उपयोग सीमित होता है।
2. विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय स्तर का पुस्तकालय: इस पुस्तकालय का प्रयोग उसके विद्यार्थी एवं अध्यापक करते हैं। विश्वविद्यालय स्तर के पुस्तकालय में अनेक प्रकाशित व अप्रकाशित शोध होते हैं। नवीन ज्ञान का विशाल भंडार भी इसे कह सकते हैं। यहाँ विभिन्न विषयों की पुस्तकों का प्रबंध रहता है।
3. संस्थागत पुस्तकालय: बड़ी कंपनियाँ, उद्योग, बैंक, क्लब, सरकारी कार्यालय अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार अनेक प्रकार की पुस्तकों को इस पुस्तकालय में रखते हैं।
4. सार्वजनिक पुस्तकालय: इन पुस्तकालयों में जाकर कोई भी व्यक्ति ज्ञान का विस्तार और मनोरंजन कर सकता है।
हमारे देश में पुस्तकालयों की परंपरा बहुत पुरानी है। नालंदा, तक्षशिला और वल्लभी पुस्तकालय विश्व में प्रसिद्ध थे। स्वतंत्र भारत में पुस्तकालयों का पुनः विकास आरंभ हुआ।

उपसंहार:
पुस्तकालय विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के लिए उपयोगी हैं। पुस्तकालय में सभी विषयों पर अलग-अलग पुस्तकें उपलब्ध होती हैं। अतः बिना धन खर्च किए विद्यार्थी और अध्यापक विषय की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। पुस्तकालय का वातावरण विद्यार्थी को पढ़ने में भरपूर योगदान देता है। पुस्तकालय में ज्ञान के साथ-साथ मनोरंजन की पुस्तकें भी होती हैं। पुस्तकों का अध्ययन करने से समय का सदुपयोग तो होता ही है, साथ-साथ ज्ञान में वृद्धि भी होती है। पुस्तकालय हमें अज्ञान के अंधेरे से निकालता है। हमारे देश में पुस्तकालयों का पूर्ण विकास नहीं हुआ है। अतः सरकार को पुस्तकालयों की उपयोगिता को समझकर इस ओर ध्यान देना चाहिए।

31. विद्यार्थी और फैशन

भूमिका:
शब्दकोश में फैशन का अर्थ है ढंग या शैली परंतु लोकव्यवहार में फैशन से अभिप्राय है-परिधान-शैली अर्थात् वस्त्र पहनने की कला। व्यक्ति अपने आपको आकर्षक दिखाने के लिए फैशन करता है। गोरा या काला, दुर्बल या मोटा, नवयुवक या प्रौढ़ सभी व्यक्ति अपने-अपने ढंग से वस्त्र पहनते हैं। व्यक्ति अपने शरीर की बनावट, रंग-रूप और आयु के अनुसार फैशन करता है। यहाँ तक फैशन के विषय में कोई विशेष विवाद नहीं है। विद्यार्थी हो या अध्यापक, लड़का हो या लड़की, पुरुष हो या स्त्री सभी को फैशन करने का जन्मसिद्ध अधिकार है।

1. फैशन पर विवाद:
फैशन के विषय पर विवाद तब उठता है, जब हम उसका गूढ़ अर्थ लेते हैं बनाव-सिंगार। फैशन के इस गूढ़ अर्थ से अर्थात् बनाव-सिंगार से दूल्हा-दुल्हन का तो संबंध हो सकता है किंतु छात्र और छात्राओं का फैशन से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। छात्र और छात्राएँ अभी विद्यार्थी हैं और विद्यार्थी शब्द का अर्थ है विद्या चाहने वाले। यदि विद्या चाहने वाले विद्यार्थी विद्या के स्थान पर फैशन को चाहने लगेंगे तो वे अपने लक्ष्य से बहुत दूर हट जाएँगे। इस स्थिति में तो वही बात होगी, ‘आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास।’ इस प्रकार, फैशन में सीमा पार करने पर विद्यार्थी से विद्या रूठ जाएगी।

2. प्राचीनकाल में विद्यार्थियों में फैशन की भावना:
प्राचीन काल में विद्यार्थियों में बनावटी बनाव-सिंगार की इच्छा इतनी प्रबल नहीं थी जितनी आज के युग के विद्यार्थियों में विद्यमान है। प्राचीन काल में विद्यार्थी ‘सादा जीवन उच्च विचार’ में विश्वास करते थे। उनमें फैशन की अपेक्षा विद्या को चाहने की तीव्र इच्छा थी। आज के छात्र-छात्राओं में फैशनेबल दिखने की इच्छा अधिक तीव्र है। अधिकांश छात्र गली-मुहल्ले में जिस प्रकार का फैशन देखते हैं, वैसे ही वस्त्रों की मांग वे अपने माता-पिता से करते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि वे अपने रहन-सहन से स्वयं को औरों की तुलना में धनी दिखाना चाहते हैं जबकि वास्तव में वे नहीं होते। धनी दिखाने के साथ-साथ आज का विद्यार्थी अपने आपको दूसरों से अधिक सुंदर दिखाना चाहता है जो वास्तव में वह नहीं है। इस प्रकार, बनाव-सिंगार में वे अपना इतना समय व्यर्थ करते हैं कि दूसरे महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए उनके पास न तो समय ही रहता है, न रुचि, न धन और न ही सामर्थ्य । ऐसी स्थिति में कौन उन्हें बुद्धिमान कहेगा और कौन उन्हें समझाए कि यह धन का अपव्यय तो है ही, साथ ही, समय की बरबादी भी है।

3. सौंदर्य के लिए धन की आवश्यकता:
जब विद्यार्थियों में सुंदर दिखने की भावना प्रबल होती है तो उनमें विलासिता भी बढ़ती है। विलासमय जीवन में धन की अति आवश्यकता होती है। जब विद्यार्थियों को विलासी जीवन बिताने के लिए धन सरलता से नहीं मिलता तो वे झूठ और छल का सहारा लेते हैं। यहाँ तक की चोरी की नौबत आ जाती है। तत्पश्चात, जुआ आदि व्यसन भी उनसे दूर नहीं रहते। इस प्रकार, विद्यार्थी की मौलिकता समाप्त हो जाती है और वह कृत्रिमता के वातावरण में जीने लगता है। ऐसे में सिनेमा के अभिनेता उसके आदर्श बनकर रह जाते हैं तथा गुरुजनों एवं परिवार से उनका संबंध टूट जाता है। विद्यालय की अपेक्षा फिल्मों में उनकी रुचि अधिक हो जाती है तथा वे अपने मार्ग से भटक जाते हैं। फैशन के पीछे भागने वाले विद्यार्थी कभी भी अपने जीवन में सफल नहीं होते। अतः आगे चलकर उनको निश्चय ही पछताना पड़ता है।

4. सिनेमा का कुप्रभाव:
आज सिनेमा हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग बन चुका है। विशेषकर, छात्र-छात्राएँ फिल्मों से अत्यधिक प्रभावित हो रहे हैं। अमीर परिवार तो फिल्मी ढंग के वस्त्र पहन सकते हैं और अपने बच्चों को भी फैशनेबल वस्त्र पहना सकते हैं लेकिन गरीब आदमी के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं है। फिर देखा-देखी विद्यार्थियों में फैशन की होड़ बढ़ती जा रही है। टी०वी० की संस्कृति ने हमारे जीवन के लिए अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं। फैशनपरस्ती इन्हीं फिल्मों की ही देन है।

5. फैशन के दुष्परिणाम:
आज विद्यार्थियों में फैशन की बढ़ती हुई प्रवृत्ति न केवल उनके माता-पिता के लिए भी बल्कि समाज के लिए भी घातक सिद्ध हो रही है। निम्न मध्यवर्गीय परिवार अपने बच्चों की मांगों की पूर्ति नहीं कर पाते। जिसके फलस्वरूप उनके बेटे-बेटियाँ घर में असहज वातावरण उत्पन्न कर देते हैं। फैशन के पीछे भागने वाले विद्यार्थी सिनेमा हालों में जाकर अशोभनीय व्यवहार करते हैं, गली-मोहल्लों में हल्ला मचाते हैं और हिंसात्मक गतिविधियों में भाग लेते हैं। फैशनपरस्ती विद्यार्थी जीवन के विकास में निश्चय से एक बाधा का काम करती है। जो विद्यार्थी केवल फैशनपरस्ती के पीछे भागते हैं, वे अपनी पढ़ाई की ओर ध्यान नहीं दे पाते। इस प्रकार ऐसे विद्यार्थी अपने माता-पिता की आशाओं पर पानी फेर देते हैं।

उपसंहार:
सार रूप में यह कहा जा सकता है कि फैशन विद्यार्थियों के लिए उचित नहीं है। विद्यार्थियों का आदर्श सादा जीवन एवं उच्च विचार ही होना चाहिए। फैशन के चक्कर में पड़कर विद्यार्थी को अपना जीवन नष्ट नहीं करना चाहिए। उसका लक्ष्य तो उचित शिक्षा प्राप्त करके अपने भावी जीवन का निर्माण ही होना चाहिए। जो विद्यार्थी फैशन की ओर ध्यान न देकर पढ़ाई की ओर ध्यान देते हैं, वे निश्चय से अपने जीवन में सफल होते हैं। केवल फैशन के पीछे भागने वाले अंततः पछताते रह जाते हैं।

32. व्यायाम के लाभ

भूमिका:
एक स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन का पूर्ण आनंद ले सकता है। अगर आदमी का शरीर स्वस्थ नहीं है तो जीवन की सभी प्रकार की सुविधाएँ उसके लिए व्यर्थ हैं। कालिदास ने भी अपने महाकाव्य ‘कुमारसंभव’ में कहा है
“शरीरमाचं खलु धर्म साधनं” अर्थात् शरीर ही धर्म का मुख्य साधन है। स्वास्थ्य ही जीवन है और अस्वास्थ्य मृत्यु है। अस्वस्थ व्यक्ति का किसी भी कार्य में मन नहीं लगता। बढ़िया-से-बढ़िया भोजन भी उसे विष के समान लगता है। यही नहीं, उसमें किसी भी काम को करने की क्षमता भी नहीं होती। यद्यपि स्वास्थ्य के लिए पौष्टिक और सात्विक भोजन की आवश्यकता होती है तथापि स्वास्थ्य-रक्षा के लिए व्यायाम की सर्वाधिक आवश्यकता है। व्यायाम से बढ़कर और कोई अच्छी औषधि नहीं है।

1. व्यायाम की आवश्यकता:
मानव-शरीर पाँच तत्त्वों से बना है। यही पाँच तत्त्व मानव-शरीर के लिए आवश्यक हैं। जब इनमें से किसी तत्त्व की कमी होती है तो शरीर अस्वस्थ हो जाता है। अतः शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए व्यायाम नितांत आवश्यक है। अंग्रेज़ी की उक्ति भी है-‘A sound mind dwells in sound body’ अर्थात् स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। अगर व्यक्ति प्रतिदिन व्यायाम करता रहता है तो उसका शरीर निरोग रहता है। जो लोग व्यायाम नहीं करते, उनका पेट बढ़ जाता है अथवा गैस की समस्या उत्पन्न हो जाती है या रक्तचाप में विकार आ जाता है।

2. व्यायाम के लाभ:
इसमें कोई संदेह नहीं कि व्यायाम स्वास्थ्य-रक्षा का साधन है परंतु व्यायाम नियमित रूप से करना चाहिए। जो लोग कुछ देर व्यायाम करके पुनः त्याग देते हैं, उनको लाभ की अपेक्षा हानि ही होती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि व्यायाम आयु और शक्ति के सामर्थ्य के अनुसार ही करना चाहिए।

व्यायाम से शरीर बलिष्ठ और सुडौल होता है। शारीरिक शक्ति बढ़ती है। शरीर में चुस्ती और फुर्ती आती है। व्यायाम करने वाले व्यक्ति का उत्साह बढ़ता है। यही नहीं, वह उद्यमी भी होता है। प्रतिदिन व्यायाम करने से खूब भूख लगती है और पाचन-शक्ति भी बढ़ती है। शरीर में रक्त का संचरण सही होता है। शरीर की मांसपेशियाँ और हड्डियाँ भी मज़बूत बनती हैं। इसके विपरीत, जो लोग व्यायाम नहीं करते, उनका शरीर रोगी हो जाता है। वे अकसर डॉक्टरों और हकीमों के यहाँ चक्कर लगाते रहते हैं। ऐसे विद्यार्थियों का पढ़ाई में मन भी नहीं लगता। व्यायाम न करने वालों का शरीर दुबला-पतला रहता है।

3. व्यायाम के प्रकार:
व्यायाम के अनेक प्रकार हैं। कुछ लोग व्यायाम का अर्थ दंड-बैठक लगाना ही लेते हैं परंतु शारीरिक व्यायाम में वे सभी क्रियाएँ आ जाती हैं जिनसे शरीर के अंग पुष्ट होते हैं। प्रातःकाल में खुली हवा में दौड़ लगाना या सैर करना भी व्यायाम है। इसी प्रकार से कुछ लोग घोड़े पर सवार होकर खुली हवा में सपाटे भरना पसंद करते हैं। कुछ लोग नदी में तैरते हैं। कुछ लोगों का दावा है कि नदी में तैरना अच्छा व्यायाम है। इसी प्रकार से अखाड़े में कुश्ती करना या मुग्दर घुमाना भी व्यायाम है। आज बड़े-बड़े नगरों में व्यायाम करने के लिए जिम खुल गए हैं। यहाँ पर युवक-युवतियाँ विभिन्न प्रकार के शारीरिक अभ्यास करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी तरह-तरह के खेल-कूद होते रहते हैं। इन सबका एक ही उद्देश्य है-शरीर को स्वस्थ रखना।

4. व्यायाम और खेल-कूद:
व्यायाम का सबसे अच्छा साधन खेल-कूद है। फुटबाल, वॉलीबाल, बास्केटबाल, खो-खो, कबड्डी, क्रिकेट, बैडमिंटन, जिमनास्टिक आदि असंख्य ऐसे खेल हैं जो व्यायाम के सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। जो व्यक्ति नियमित रूप में किसी-न-किसी खेल में भाग लेता है, उसका शरीर भी स्वस्थ रहता है। इसीलिए तो स्कूलों और कॉलेजों में खेल-कूद की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है।

5. व्यायाम और योगाभ्यास:
व्यायाम का एक अन्य अच्छा और सस्ता साधन है-योगाभ्यास। इसमें कोई अधिक खर्च नहीं आता। घर में किसी स्थान पर पाँच-सात आसन अगर नियमित रूप से किए जाएँ तो शरीर काफी स्वस्थ रहता है। उदाहरण के रूप में, प्राणायाम, पद्मासन, सर्वांगासन, गोमुखासन, शवासन, सूर्य नमस्कार आदि कुछ ऐसे आसन हैं जिनके द्वारा शरीर को स्वस्थ रखा जा सकता है परंतु इन आसनों को किसी शिक्षक से सीखने के बाद ही करना चाहिए, तभी लाभ होगा, नहीं तो हानि भी हो सकती है। व्यायाम का सर्वाधिक अनुकूल समय प्रातःकाल है। इस समय वायु शुद्ध और स्वच्छ होती है। व्यायाम करने के बाद पौष्टिक और सात्विक भोजन करना चाहिए। बूढ़ों और रोगियों के लिए प्रातः और सायं का भ्रमण ही उचित है।

उपसंहार:
स्वास्थ्य ही मनुष्य का सच्चा धन है। अतः उसे बनाए रखने के लिए प्रतिदिन व्यायाम करना आवश्यक है परंतु अधिक व्यायाम करने से लाभ की अपेक्षा हानि होती है। अतः उचित मात्रा में ही व्यायाम करना चाहिए लेकिन इतना निश्चित है कि व्यायाम मानव के मस्तिष्क एवं शरीर के लिए अत्यधिक लाभकारी है।

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33. भ्रष्टाचार-कारण व निवारण
अथवा
भ्रष्टाचार के बढ़ते चरण

भूमिका:
किसी भी देश के विकास के मार्ग में उस देश की विभिन्न समस्याएँ बहुत बड़ी बाधा हैं। इन समस्याओं में प्रमुख समस्या है-भ्रष्टाचार की समस्या। जिस समाज व राष्ट्र को भ्रष्टाचार का कीड़ा ग्रसने लगता है, उसका भविष्य फिर निश्चित रूप से अंधकारमय बन जाता है। भारतवर्ष का यह दुर्भाग्य है कि उस पर यह समस्या पूर्ण रूप से छाई हुई है। यदि समय रहते इसका समाधान न ढूँढा गया तो इसके भयंकर परिणाम सामने आएँगे।

1. भ्रष्टाचार का अर्थ:
भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है-आचार से भ्रष्ट या अलग होना। अतः कहा जा सकता है कि समाज स्वीकृत आचार-सहिंता की अवहेलना करके दूसरों को कष्ट पहुँचाकर निजी स्वार्थों अथवा इच्छाओं की पूर्ति करना ही भ्रष्टाचार है। दूसरे शब्दों में, भ्रष्टाचार वह निंदनीय आचरण है, जिसके वशीभूत होकर मनुष्य अपने कर्तव्य को भूलकर अनुचित रूप से लाभ प्राप्त करने का प्रयास करता है। भाई-भतीजावाद, बेरोज़गारी, गरीबी आदि इसके दुष्परिणाम हैं जो हमारे राष्ट्र को भोगने पड़ रहे हैं।

2. भ्रष्टाचार के मूल कारण:
प्रत्येक विकराल समस्या के पीछे कोई-न-कोई कारण अवश्य रहता है। इसी प्रकार, भ्रष्टाचार के विकास के पीछे भी विभिन्न कारण हैं। वस्तुतः सुख एवं ऐश्वर्य के पनपने के साथ-साथ भ्रष्टाचार का जन्म हुआ। भ्रष्टाचार के मूल में मनुष्य का कुंठित अहंभाव, स्वार्थपरता, भौतिकता के प्रति आकर्षण, अर्थ एवं काम की प्राप्ति की लिप्सा छिपी हुई है। मनुष्य की अंतहीन इच्छाएँ भी भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण है। इसके अतिरिक्त, अपनों का पक्ष लेना भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण है। कवि हर्ष ने अपनी रचना ‘नैषधचरितं’ में लिखा है कि अपने प्रियजनों के लिए पक्षपात होता ही है। यही पक्षपात भ्रष्टाचार का मूल कारण है।

3. भ्रष्टाचार की व्यापकता एवं प्रभाव:
भ्रष्टाचार का प्रभाव एवं क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। आज ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहाँ भ्रष्टाचार ने अपनी जड़ें न फैला रखी हों। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र यहाँ तक कि अंतर्राष्ट्रीय जगत इसकी गिरफ्त में आए हुए हैं। यह घट-घट, कण-कण में राम की भाँति समाया हुआ है। ऐसा लगता है कि संसार का कोई कार्य इसके बिना पूरा नहीं होता। राजनीतिक क्षेत्र तो भ्रष्टाचार का घर ही बन चुका है। आज विधायक हो या सांसद बाज़ार में रखी वस्तुओं की तरह बिक रहे हैं। भ्रष्टाचार के बल पर सरकारें बनाई और गिराई जाती हैं।

धार्मिक स्थलों पर जाकर देखा जा सकता है कि धर्मात्मा कहलाने वाले लोग ही भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकियाँ लगा रहे हैं। आर्थिक क्षेत्र में तो भ्रष्टाचार ने कमाल ही कर दिखाया है। करोड़ों की रिश्वत लेने वाला व्यक्ति सीना तानकर चलता है। अरबों रुपयों का घोटाला करने वाला नेता जनता में सम्माननीय बना रहता है। चुरहट कांड, बोफोर्स कांड, मंदिर कांड, मंडल कांड, चारा कांड आदि सब भ्रष्टाचार के ही भाई-बंधु हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार अपने जौहर दिखा रहा है। योग्य छात्र उच्च कक्षाओं में प्रवेश नहीं पा सकते किंतु अयोग्य छात्र भ्रष्टाचार का सहारा लेकर कहीं-से-कहीं जा पहुँचते हैं और योग्य विद्यार्थी हाथ मलता रह जाता है।

4. भ्रष्टाचार के निवारण के उपाय:
भ्रष्टाचार को रोकना अत्यंत कठिन कार्य है क्योंकि जो-जो कदम इसे रोकने के लिए उठाए जाते हैं, वे कुछ दूर चलकर डगमगाने लगते हैं और भ्रष्टाचार की लपेट में आ जाते हैं। यह संक्रामक रोग की भाँति है। यह व्यक्ति से आरंभ होकर पूर्ण समाज को ग्रस लेता है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए समाज में पुनः नैतिक मूल्यों की स्थापना करनी होगी। जब तक हमारे जीवन में नैतिकता का समावेश नहीं होगा, तब तक हमारा भौतिकवादी दृष्टिकोण नहीं बदल सकता। नैतिकता के अभाव में सारी बातें कोरी कल्पना ही बनकर रह जाएँगी। इसलिए हमें प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में नैतिकता के प्रति श्रद्धा एवं सम्मान उत्पन्न करना होगा।

समाज में फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए ईमानदारी से काम करने वाले लोगों को प्रोत्साहन देना चाहिए ताकि उन्हें देखकर दूसरे उनका अनुकरण करने लगे और ईमानदारी के प्रति लोगों के मन में आस्था उत्पन्न हो। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कठोर दंड की व्यवस्था की जानी चाहिए। आज दंड व्यवस्था इस तरह कमज़ोर है कि यदि कोई व्यक्ति रिश्वत लेता हुआ पकड़ा जाए तो रिश्वत देकर बच निकलता है। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।

उपसंहार:
भ्रष्टाचार को समाप्त करना केवल सरकार का ही कर्तव्य नहीं है। यह प्रत्येक व्यक्ति, समाज और संस्था का भी कर्तव्य है। आज हम सबको मिलकर भ्रष्टाचार को समाप्त करने का प्रयास करना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को केवल अपने स्वार्थो तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए अपितु ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ के सिद्धांत को अपनाकर चलना चाहिए, तभी हम भ्रष्टाचार को समाप्त कर सकेंगे। यह बात दो टूक कही जा सकती है कि भ्रष्टाचार के दानव को नष्ट किए बिना हमारा राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि आज भ्रष्टाचार के कारण अमीर और अमीर होता जा रहा है और गरीब और गरीब होता जा रहा है। यह आर्थिक विषय कभी भी देश की स्वतंत्रता के लिए खतरा बन सकती है।

34. दहेज-प्रथा-एक अभिशाप

भूमिका:
भारतीय समाज में अनेक कुप्रथाएँ फैली हुई हैं। दहेज प्रथा, सती प्रथा, बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं ने आज संसार के उन्नत देशों के सामने भारत का सिर झुका दिया है। दहेज प्रथा भारतीय समाज की एक प्रमुख कुरीति है। वैसे तो विवाह के अवसर पर दहेज लेने तथा देने की प्रथा हमारे समाज में सदियों से चली आ रही है परंतु इसका जो आदर्श रूप हमारे प्राचीन समाज में प्रचलित था, वह न जाने कब और कहाँ लुप्त हो गया। प्राचीनकाल में दहेज माता-पिता के प्रेम का प्रतीक था, जिसे वे कन्या के विवाह के अवसर पर उपहार के रूप में देते थे परंतु अब यह प्रथा एक सामाजिक अभिशाप का रूप धारण कर चुकी है।

1. ‘दहेज’ शब्द का अर्थ:
‘दहेज’ शब्द अरबी के शब्द ‘जहेज’ से रूपांतरित होकर बना है, जिसका अर्थ है-‘सौगात’। यह प्रथा भारतीय समाज में कब शुरू हुई, यह कहना तो कठिन है। वेदों में भी इस प्रथा का परिचय मिलता है। दहेज प्रथा हमारे देश में प्राचीनकाल से चली आ रही है। वैदिक काल में माता-पिता कन्या के विवाह के पश्चात उसको अपनी गृहस्थी बसाने के लिए कुछ वस्तुएँ दिया करते थे; जैसे चूल्हा, कुछ बर्तन, चारपाई, गाय, चावल तथा कुछ घरेलू वस्तुएँ। यह माता-पिता की ओर से एक प्रकार का उपहार होता था परंतु वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष के सामने अपनी कोई माँग नहीं रखते थे।

2. नारी का सम्मान:
प्राचीन भारतीय समाज में नारी का स्थान बहुत ऊँचा था। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात जहाँ नारी की पूजा की जाती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। परिवार में स्त्री को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। कोई भी धार्मिक कार्य स्त्री के बिना पूरा नहीं हो सकता था। उसे अपनी योग्यतानुसार वर चुनने का भी अधिकार प्राप्त था। शकुंतला, मैत्रेयी, सीता, अनुसूइया आदि इसके उदाहरण हैं परंतु देश के गुलाम होने के साथ-साथ स्त्री की स्वतंत्रता भी खत्म हो गई। उससे शिक्षा का अधिकार भी छीन लिया गया। वह केवल विलासिता की वस्तु बनकर रह गई।

3. प्रदर्शन की भावना:
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद देश में दहेज-प्रथा को बढ़ावा मिला है। आज समाज में प्रदर्शन की भावना बढ़ती जा रही है। अमीर लोग बेटी के विवाह में बढ़-चढ़ कर दहेज देते हैं परंतु गरीब लोग ज़्यादा दहेज न दे सकने के कारण अपनी बेटी के लिए अच्छा वर नहीं खरीद पाते। आजकल वर पक्ष के लोग भी बढ़-चढ़कर दहेज माँगते हैं। काले धन के प्रसार से भी दहेज-प्रथा को बढ़ावा मिला है। यद्यपि आजकल स्त्रियाँ अपने पैरों पर खड़ी होकर पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर काम कर रही हैं तथापि आजकल माँ-बाप लड़की के जन्म पर दुःख मनाते हैं। सामर्थ्य से अधिक दहेज देने के बाद भी माता-पिता निश्चित नहीं हो पाते कि ससुराल में उनकी बेटी का स्वागत होगा या नहीं ?

4. एक सामाजिक बुराई:
दहेज-प्रथा भारतीय समाज के लिए कलंक है। यह एक ऐसी सामाजिक बुराई है जो भारतीय समाज को खोखला करती जा रही है। यह प्रथा परिवार की आर्थिक दशा को दीमक की तरह खाए जा रही है। प्रायः माता-पिता विवाह के समय दूसरों से ऋण लेकर अपनी शक्ति से अधिक दहेज देते हैं। फिर भी न जाने कितनी युवतियाँ दहेज की बलिवेदी पर चढ़ जाती हैं। दहेज रूपी दैत्य के आतंक के कारण न जाने कितनी युवतियाँ कुँवारी रह जाती हैं। अनमेल-विवाह, असफल प्रेम-विवाह तथा विवाह से पूर्व चारित्रिक पतन इसी प्रथा के दुष्परिणाम हैं।

5. दहेज:
प्रथा उन्मूलन विधेयक-दहेज-प्रथा को समाप्त करने के लिए सन 1961 में कानून बनाया गया। इसके अनुसार, वर पक्ष के लोग दो हज़ार रुपए से अधिक का दहेज नहीं ले सकते। इस कानून में दहेज लेने वालों के लिए दंड की व्यवस्था भी की गई थी। सन 1975 में इस कानून को और अधिक कठोर बनाया गया। सन 1976 में एक और कानून बनाया गया जिसके अनुसार किसी भी सरकारी कर्मचारी के दहेज लेने पर उसके विरुद्ध कार्रवाई की जाएगी परंतु जनता के सक्रिय सहयोग के अभाव में ये सब कानून केवल कानून की पुस्तकों तक ही सीमित रह गए।

6. युवा वर्ग में जागृति:
दहेज-प्रथा के उन्मूलन के लिए देश में युवा वर्ग की जागृति अति आवश्यक है। शिक्षित युवक-युवतियों को यह दृढ़ प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि न हम दहेज लेंगे और न हम दहेज देंगे। दहेज-विरोधी कानून का सख्ती से पालन करवाया जाए तथा दहेज लेने वालों को कड़े-से-कड़ा दंड दिया जाए। माता-पिता को भी कन्या की शिक्षा पर अधिक ध्यान देना चाहिए ताकि वह आत्मनिर्भर हो सके। कन्या के आत्मनिर्भर होने पर उसे ससुराल में सम्मान की दृष्टि से देखा जाएगा। अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया जाए, इससे योग्य वर मिलने में कठिनाई नहीं होगी।

उपसंहार:
माता-पिता की सुख-शांति पर वज्रपात करने वाला, बालिकाओं के सुख पर तुषारापात करने वाला, आए दिन वधू हत्याओं तथा आत्मदाहों को प्रोत्साहन देने वाला, घोड़े-बैलों की तरह क्रय-विक्रय का यह व्यवसाय निश्चय ही आज भारत के सामने एक राष्ट्रीय समस्या के रूप में मुँह खोले खड़ा है। यदि शिक्षित युवक-युवतियाँ रूढ़िवादी मनोवृत्ति वाले माता-पिता की अवहेलना करके सरकार को सहयोग दें तो भारतीय संस्कृति पर लगा हुआ यह कलंक निश्चय ही धुल जाएगा।

HBSE 9th Class Hindi रचना निबंध-लेखन

35. मेरा प्रिय कवि
अथवा
महाकवि तुलसीदास

भूमिका:
साहित्य समाज का दर्पण है और लेखक युगद्रष्टा होता है। वह अपने आस-पास की परिस्थितियों से प्रेरित होकर साहित्य की रचना करता है। महाकवि ही श्रेष्ठ साहित्य की रचना कर सकते हैं। श्रेष्ठ साहित्य के तीन उद्देश्य होते हैं-सत्यं, शिवं एवं सुंदरं। भक्ति काल के महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ऐसे ही युग प्रवर्तक एवं समन्वयवादी कवि थे जिन्होंने अपने साहित्य द्वारा समाज में आदर्शों की स्थापना की और हिंदू धर्म तथा जाति का उद्धार किया। मेरे प्रिय कवि महाकवि एवं रामभक्त तुलसीदास ही हैं। भारत में महात्मा बुद्ध के पश्चात यदि कोई दूसरा समन्वयकारी एवं युगद्रष्टा व्यक्ति हुआ है तो वह महाकवि तुलसीदास ही हैं। आज बड़े-बड़े राजाओं का साम्राज्य नष्ट हो चुका है लेकिन उस महाकवि का साम्राज्य आज भी विद्यमान है।

1. जन्म एवं काल:
तुलसीदास का जन्म संवत 1554 में श्रावण सप्तमी के दिन बांदा जिले के राजापुर ग्राम में हुआ। इनके पिता का नाम आत्माराम दूबे और माता का नाम हुलसी था। अभुक्त मूल नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण माता-पिता ने इनको त्याग दिया और पालन-पोषण के लिए एक दासी को दे दिया। तत्पश्चात, इनकी भेंट स्वामी नरहरिदास से हुई। वे इन्हें अयोध्या ले गए और उन्होंने इनका नाम ‘रामबोला’ रखा। बालक तुलसीदास दीक्षित होकर विद्याध्ययन करने लगे। काशी में 15 वर्षों तक रहकर इन्होंने वेदों आदि का समुचित अध्ययन किया। गोस्वामी की पत्नी का नाम रत्नावली था।

2. प्रमुख रचनाएँ:
गोस्वामी द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 37 मानी गई है लेकिन नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित ‘तुलसी ग्रंथावली’ के अनुसार इनके बारह ग्रंथ ही प्रामाणिक हैं। ये हैं-रामचरितमानस, विनय पत्रिका, दोहावली, गीतावली, कवितावली, रामाज्ञा प्रश्न, बरवै रामायण, रामलला नहछू, कृष्ण गीतावली, वैराग्य संदीपनी, पार्वती मंगल, जानकी मंगल। गोस्वामी जी की कीर्ति का आधार स्तंभ तो ‘रामचरितमानस’ ही है। इस महाकाव्य का आधार ‘वाल्मीकि रामायण’ है।

3. विषय की व्यापकता एवं प्रबंध योजना:
तुलसीदास ने व्यापक काव्य-विषय ग्रहण किए हैं। कृष्णभक्त कवियों के समान उन्होंने जीवन के किसी अंग विशेष का वर्णन न करके उसके समग्र रूप को ग्रहण किया। उनकी रचनाओं में शृंगार, शांत, वीर आदि सभी रसों का परिपाक है। उनके द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ में धर्म, संस्कृति तथा काव्य सभी का आश्चर्यजनक समन्वय है। उनके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता प्रबंध योजना है। उनकी लगभग सभी रचनाओं में कथासूत्र पाए जाते हैं। ‘रामचरितमानस’ की प्रबंध-पटुता तो सर्वश्रेष्ठ है। चार-चार वक्ताओं द्वारा वर्णित होने पर भी उसमें कहीं पर भी अस्पष्टता नहीं आने पाई। समूची कथा मार्मिक प्रसंगों से भरी पड़ी है। कथानक, वस्तु-वर्णन, व्यापार-वर्णन, भाव प्रवणता और संवाद सभी में पूरा संतुलन है। राम-सीता का परस्पर प्रथम दर्शन, राम वन-गमन, दशरथ की मृत्यु, भरत का पश्चाताप, सीता हरण, लक्ष्मण मूर्छा आदि अनेक ऐसे मार्मिक स्थल हैं जिनके कारण ‘रामचरितमानस’ की प्रबंध योजना काफी प्रभावोत्पादक बन पड़ी है।

4. महान समन्वयवादी चिंतक:
गोस्वामी तुलसीदास एक महान समन्वयवादी चिंतक भी थे। उन्होंने दर्शनशास्त्र के शुष्क एवं नीरस सिद्धांतों को भावमय बना दिया। उनके काव्य की महान उपलब्धि उनकी समन्वय भावना है। उन्होंने समाज में व्याप्त विषमता को मिटाकर उसमें एकरूपता उत्पन्न करने का प्रयास किया। धर्म, समाज, राजनीति, साहित्य प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने समन्वयवादी प्रवृत्ति को अपनाया। डॉ० हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने उनके बारे में उचित ही कहा है-“तुलसी का सारा काव्य समन्वय की विराट् चेष्टा है। रामचरितमानस शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है।”

5. सच्चे रामभक्त:
तुलसीदास राम काव्यधारा के प्रधान कवि हैं। वस्तुतः उनकी रचनाओं के कारण ही राम काव्यधारा श्रेष्ठ काव्यधारा मानी जाती है। वे कवि होने के साथ-साथ सच्चे रामभक्त भी थे। उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की भक्ति की स्थापना की। वे अपने आपको दीन और राम को दयालु, स्वयं को भिखारी और भगवान को दानी घोषित करते हैं। तुलसी की भक्ति के कारण ही आज ‘रामचरितमानस’ प्रत्येक हिंदू घर में उपलब्ध है और स्थान-स्थान पर रामायण का पाठ होता है।

6. कला-पक्ष:
तुलसी के काव्य का आंतरिक पक्ष जितना उज्ज्वल है, उसका बाह्य पक्ष भी उतना ही श्रेष्ठ है। भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था। उन्होंने अपने समय में प्रचलित अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं में काव्य रचनाएँ लिखीं। ‘रामचरितमानस’ में यदि अवधी का सुंदर प्रयोग है तो विनय पत्रिका में साहित्यिक ब्रज भाषा का। कहीं-कहीं अरबी और फारसी शब्दों का भी सुंदर मिश्रण है। इनकी भाषा सरल, सहज और प्रवाहमयी है। कुछ स्थानों पर प्रचलित लोकोक्तियों और मुहावरों का भी सुंदर प्रयोग है। पदों की दृष्टि से तुलसी का क्षेत्र व्यापक है। ‘रामचरितमानस’ में अगर दोहा-चौपाई का प्रयोग है तो ‘कवितावली’ में छंदों की भरमार है। कवित्त, सवैया, दोहा, गीति आदि छंदों का सुंदर प्रयोग है। तुलसी के काव्य में अलंकारों का प्रयोग भी पर्याप्त मात्रा में है परंतु यह अलंकार प्रयोग पूर्णतया स्वाभाविक रूप में हुआ है।

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36. वर्षा ऋतु

देखो नभ में बादल छाए, दिन में हो गई रात।
आई है बरसात सुहानी आई है बरसात ॥

भूमिका:
भारतवर्ष ऋतुओं का देश है। इसमें छह ऋतुएँ प्रतिवर्ष समय पर आती हैं। प्रत्येक दो मास के बाद यहाँ नई ऋतु का आगमन होता है। गर्मी के बाद वर्षा शुरू हो जाती है। जब हम तेज़ गर्मी से झुलस जाते हैं तो वर्षा ऋतु आकर हमें राहत पहँचाती है। यह सावन और भादों के महीने में आती है। वर्षा ऋतु हमारे देश की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ऋतु है। कारण यह है कि हमारा देश कृषि प्रधान देश है और कृषि का संबंध वर्षा से है। हमारे देश का विकास वर्षा पर ही निर्भर करता है। यदि वर्षा अच्छी होती है तो किसानों के खलिहान अनाज से भर जाते हैं और देश में समृद्धि व्याप्त हो जाती है।

1. ऋतुओं की रानी:
वसंत को यदि ‘ऋतुराज’ कहा जाता है तो वर्षा ‘ऋतुओं की रानी’ है। राजा और रानी का यह जोड़ा अत्यंत सुंदर एवं मनमोहक है। जेठ और आषाढ़ की लू से जब जन-जीवन तो क्या, वनस्पति भी झुलस रही होती है तो ऐसे ही समय पर आकर ऋतुओं की रानी हर प्रकार के जीव-जंतुओं तथा वनस्पतियों को राहत पहुँचाती है। वर्षा के आगमन से चारों ओर हरियाली छा जाती है तथा जन-जीवन प्रसन्नता से झूम उठता है। वर्षा को देखकर किसान का सीना चौड़ा हो जाता है और वह खेत जोतने की तैयारी करने लगता है।

2. किसानों के लिए वरदान:
भारत में मई और जून की कड़कती गर्मी के बाद जुलाई और अगस्त में वर्षा का आगमन होता है। वर्षा का स्वागत किसान नाच-गाकर करता है, स्त्रियाँ झूला झूलती हैं तथा बच्चे नंग-धडंग होकर वर्षा में गलियों में घूमते हैं। चारों ओर हरियाली छा जाती है। जल ग्रहण कर पौधे और वृक्ष प्रसन्नता से झूम उठते हैं। ताल-तलैया पानी से भर जाते हैं। जगह-जगह मेंढकों के तराने शुरू हो जाते हैं। नदी-नालों में बरसात का पानी भर जाने से नव-यौवन का संचार हो जाता है। समय पर यदि अच्छी वर्षा हो जाए तो देश में अन्न का संकट टल जाता है। किसान के लिए अच्छी वर्षा वरदान सिद्ध होती है।

3. वर्षा से उत्पन्न कष्ट:
वर्षा ऋतु जहाँ प्राणी मात्र के लिए वरदान सिद्ध होती है, वहाँ वर्षा के कारण मनुष्यों को कुछ हानियाँ अथवा कष्ट भी उठाने पड़ते हैं। कई बार वर्षा के कारण नदियों में बाढ़ आ जाती है। अधिक वर्षा के कारण आस-पास के गाँवों तथा नगरों में बाढ़ का पानी भर जाता है। जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। गलियों में पानी भर जाता है। यातायात ठप्प हो जाता है। व्यापार में रुकावट आ जाती है। अधिक वर्षा के कारण फसलों को भी हानि पहुँचती है। चारों ओर पानी भर जाने के कारण मच्छर उत्पन्न हो जाते हैं और गंदगी के कारण अनेक रोग फैल जाते हैं।

4. वर्षा ऋतु में प्रकृति की शोभा:
वर्षा ऋतु में प्रकृति की शोभा देखने योग्य होती है। आकाश में छाए हुए बादल देखकर मोर नाच उठते हैं। बादलों की गर्जन और उनमें चमकती बिजली की प्राकृतिक छवि मन को मोह लेती है। वर्षा के कारण सब जगह पानी-ही-पानी दिखाई देता है। नदियाँ और नाले उमड़ने लगते हैं। वर्षा ऋतु में बादलों से भरे आकाश में सात रंगों का इंद्रधनुष देखकर चित्त प्रसन्न हो उठता है। पोखरों तथा तालाबों में मेंढक टर्राते हैं, मोर नाचते हैं और सभी पशु-पक्षी प्रसन्न दिखाई देते हैं। असंख्य कवियों ने वर्षा ऋतु का सुंदर वर्णन किया है। वर्षाकाल में काले-काले बादल उमड़कर जीव-जंतुओं को सुख प्रदान करते हैं। कविवर पंत ने एक स्थल पर लिखा है-
झम-झम-झम-झम मेघ बरसते हैं सावन के,
छम-छम-छम-छम गिरती बूंदें तरुओं से छन के।
चम-चम बिजली चमक रही रे उर में घन के,
थम-थम दिन के तम में सपने जगते मन के।

उपसंहार:
सार रूप में कहा जा सकता है कि वर्षा ऋतु का भारतवर्ष में अत्यंत महत्त्व है। भारतवर्ष में कृषि का सारा काम वर्षा पर निर्भर करता है। अच्छी वर्षा से किसान को अत्यंत लाभ होता है। देश के नागरिकों के लिए खाद्यान्न तथा अन्य फसलें अच्छी होती हैं तथा देश में समृद्धि होती है। दूसरी ओर गर्मी से छुटकारा मिलता है तथा चारों ओर हरियाली छा जाती है। हाँ, कभी-कभी अधिक वर्षा के कारण मनुष्य को अनेक हानियाँ भी उठानी पड़ती हैं, फिर भी वर्षा ऋतु का सर्वत्र स्वागत ही होता है। वर्षा ऋतु में अनेक त्योहार मनाए जाते हैं। तीज इस ऋतु का प्रसिद्ध त्योहार है। इस अवसर पर युवतियाँ एवं स्त्रियाँ गीत गाती हैं तथा झूले झूलती हैं। वर्षा ऋतु भारत की समृद्धि का प्रतीक है।

37. आदर्श विद्यार्थी

भूमिका:
विद्यार्थी काल मानव के भावी जीवन की आधारशिला है। यदि यह आधारशिला मज़बूत है तो उसका जीवन निरंतर विकास करेगा, नहीं तो आने वाले कल की बाधाओं के सामने वह टूट जाएगा। यदि छात्र ने विद्यार्थी जीवन में परिश्रम, अनुशासन, संयम और नियम का अच्छी प्रकार से पालन किया है तो उसका भावी जीवन सुखद होगा। सभ्य नागरिक के लिए जिन गुणों का होना ज़रूरी है, वे गुण तो बाल्यकाल में विद्यार्थी के रूप में ही ग्रहण किए जाते हैं। जिस विद्यार्थी ने मन लगाकर विद्या का अध्ययन किया है; माता-पिता और गुरुजनों की विनम्रतापूर्वक सेवा की है; वह अवश्य ही एक सफल नागरिक बनेगा।

1. विद्यार्थी शब्द का अर्थ:
‘विद्यार्थी’ संस्कृत भाषा का शब्द है। यह दो शब्दों के मेल से बना है-‘विद्या’ और ‘अर्थी’ । इसका अर्थ है-विद्या चाहने वाला। विद्यार्थी विद्या प्राप्त करने के लिए ही विद्यालय में जाता है और विद्या से प्रेम करता है। वस्तुतः ‘विद्यार्थी’ शब्द में ही आदर्श विद्यार्थी के सभी गुण निवास करते हैं। अतः जिसके जीवन का लक्ष्य विद्या-प्राप्ति है, जो विद्या का अनुरागी है और जो निरंतर विद्यार्जन में ही अपना समय व्यतीत करता है, वही आदर्श विद्यार्थी है।

2. प्राचीनकाल में विद्यार्थी जीवन:
हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव-जीवन को चार आश्रमों में बाँटा है। वे चार आश्रम हैं-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, संन्यास और वानप्रस्थ । ब्रह्मचर्य आश्रम ही विद्यार्थी जीवन है। उस काल में विद्याध्ययन के लिए बालक घर-परिवार से दूर आश्रम में जाते थे। आश्रम में तपस्या, ब्रह्मचर्य, अनुशासन और गुरु-सेवा करते हुए वे विद्या प्राप्त करते थे। स्वयं भगवान कृष्ण सुदामा के साथ संदीपन ऋषि के आश्रम में विद्या प्राप्त करने गए। विद्यार्थी काल में जो लोग एकाग्र मन से विद्या का अध्ययन करते रहे हैं, वही आगे चलकर महान बने हैं। अर्जुन, अभिमन्यु, एकलव्य, श्रीकृष्ण आदि के अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं।

3. आदर्श विद्यार्थी के गुण:
संसार में गुणों से ही मनुष्य की पूजा होती है। संस्कृत में कहा भी गया है-“गुणैः हि सर्वत्र पदं निधीयते” अर्थात् गुणों द्वारा ही मनुष्य सर्वत्र ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकता है। विद्यार्जन में ही सारे गुण निवास करते हैं। विद्यार्थी का जीवन साधना की अवस्था है। इस काल में वह ऐसे गुणों को ग्रहण कर सकता है जो आने वाले काल में न केवल उसके लिए अपितु समूचे समाज के लिए उपयोगी हों। गुरुजनों से ज्ञान प्राप्त करने के लिए विनम्रता परम आवश्यक है। यदि विद्यार्थी उदंड और उपद्रवी अथवा कटुभाषी है तो वह कभी भी आदर्श विद्यार्थी नहीं बन सकता। विद्या का लक्ष्य विनय की प्राप्ति है-विद्या ददाति विनयं। एक अच्छे गुरु से विद्या प्राप्त करने के तीन उपाय हैं-नम्रता, जिज्ञासा और सेवा। अतः एक सच्चे विद्यार्थी को विनम्र होना चाहिए।

अनुशासन का भी विद्यार्थी जीवन में उतना ही महत्त्व है, जितना कि विनम्रता का। जो विद्यार्थी अनुशासनप्रिय हैं, वे ही मेधावी छात्र बनते हैं लेकिन जो विद्यार्थी अनुशासनहीन होते हैं, वे अपने देश, अपनी जाति और अपने माता-पिता का अहित करते हैं। अनुशासन का पालन करने से ही विद्यार्थी का सही अर्थों में बौद्धिक विकास होता है। .

4. सादा जीवन और उच्च विचार;
आदर्श विद्यार्थी का मूल मंत्र है-सादा जीवन और उच्च विचार। जो बालक विद्यार्थी काल में सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं, उनका मन विद्या में लगा रहता है लेकिन आजकल पश्चिमी सभ्यता के दुष्प्रभाव के कारण विद्यार्थी फैशनपरस्ती के शिकार बन रहे हैं। माता-पिता भी इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। सादगी के साथ ही उच्च विचार जुड़े हुए हैं। जिस विद्यार्थी का ध्यान बाहरी दिखावे की ओर रहेगा, वह अपने अंदर उच्च विचारों का विकास कैसे कर पाएगा ? इसके साथ-साथ विद्यार्थी को सदाचार और स्वावलंबन का भी पालन करना चाहिए।

5. संयम और परिश्रम:
एक आदर्श विद्यार्थी के लिए संयम और परिश्रम दोनों ही आवश्यक हैं। विद्यार्थी जीवन संयमित और नियमित होना चाहिए। जीवन में उचित रीति का पालन करने वाले विद्यार्थी कभी असफल नहीं होते। एक आदर्श विद्यार्थी को अपनी इंद्रियों और मन पर पूर्ण संयम रखना चाहिए। समय पर सोना, समय पर उठना, समय पर भोजन करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और निरंतर परिश्रम करना एक अच्छे विद्यार्थी के गुण हैं। संयम-नियम का पालन करने से ही विद्यार्थी का मन अध्ययन में लगता है। परिश्रम के बिना विद्या नहीं आती। संस्कृत में कहा भी गया है-
सुखार्थी वा त्यजेत् विद्याम, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखं ।
सुखार्थिनः कुतो विद्या, विद्यार्थिनः कुतः सुखं ॥

6. विद्यार्थी और खेल-कूद:
आज के विद्यार्थी के लिए खेल-कूद में भाग लेना भी अनिवार्य है। इससे शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहते हैं। जो विद्यार्थी खेल-कूद में भाग न लेकर केवल किताबी कीड़े बने रहते हैं, वे शीघ्र ही रोगी बन जाते हैं। खेल-कूद में भाग लेने से विद्यार्थी संयम और परिश्रम के नियमों को भी सीखता है। आज के स्कूलों और कॉलेजों में खेलों के लिए समुचित व्यवस्था है। अतः विद्यार्थियों को विद्याध्ययन के साथ-साथ खेलों में भी भाग लेना चाहिए।

उपसंहार:
इस प्रकार से आज का विद्यार्थी यदि देश का सुयोग्य नागरिक बनना चाहता है, अपना विकास करना चाहता है, अपने माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्य का उचित निर्वाह करना चाहता है तो उसे वे सब गुण अपनाने होंगे जो उसके विकास के लिए आवश्यक हैं।

38. कुसंगति के दुष्परिणाम

भूमिका:
कुसंगति का शाब्दिक अर्थ है-बुरी संगति। अच्छे व्यक्तियों की संगति से बुद्धि की जड़ता दूर होती है, वाणी तथा आचरण में सच्चाई आती है, पापों का नाश होता है और चित्त निर्मल होता है लेकिन कुसंगति मनुष्य में बुराइयों को उत्पन्न करती है। यह मनुष्य को कुमार्ग पर ले जाती है। जो कुछ भी सत्संगति के विपरीत है, वह कुसंगति सिखलाती है। एक कवि ने कहा भी है-
काजल की कोठरी में कैसे हु सयानो जाय,
एक लीक काजल की लागि हैं, पै लागि हैं।
यह कभी नहीं हो सकता कि परिस्थितियों का प्रभाव हम पर न पड़े। दुष्ट और दुराचारी व्यक्ति के साथ रहने से सज्जन व्यक्ति का चित्त भी दूषित हो जाता है।

1. कुसंगति के दुष्परिणाम:
कुसंगति का बड़ा प्रभाव पड़ता है। एक कहावत है-अच्छाई चले एक कोस, बुराई चले दस कोस। अच्छी बातें सीखने में समय लगता है। जो जैसे व्यक्तियों के साथ बैठेगा, वह वैसा ही बन जाएगा। बुरे लोगों के साथ उठने-बैठने से अच्छे लोग भी बुरे बन जाते हैं। यदि हमें किसी व्यक्ति के चरित्र का पता लगाना हो तो पहले हम उसके साथियों से बातचीत करते हैं। उनके आचरण और व्यवहार से ही उस व्यक्ति के चरित्र का सही ज्ञान हो जाता है।

कुसंगति की अनेक हानियाँ हैं । दोष और गुण सभी संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। मनुष्य में जितना दुराचार, पापाचार, दुष्चरित्रता और दुर्व्यसन होते हैं, वे सभी कुसंगति के फलस्वरूप होते हैं। श्रेष्ठ विद्यार्थियों को कुसंगति के प्रभाव से बिगड़ते हुए देखा जा सकता है। जो विद्यार्थी कभी कक्षा में प्रथम आते थे, वही नीच लोगों की संगति पाकर बरबाद हो जाते हैं। कुसंगति के कारण बड़े-बड़े घराने नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। बुद्धिमान-से-बुद्धिमान व्यक्ति पर भी कुसंगति का प्रभाव पड़ता है।
कवि रहीम ने भी एक स्थल पर लिखा है
बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोच ।
महिमा घटी समुद्र की, रावन बस्यौ पड़ोस ॥

2. सज्जन और दुर्जन का संग:
सज्जन और दुर्जन का संग हमेशा अनुचित है बल्कि यह विषमता को ही जन्म देता है। बुरा व्यक्ति तो बुराई छोड़ नहीं सकता, अच्छा व्यक्ति ज़रूर बुराई ग्रहण कर लेता है। अन्यत्र रहीम कवि लिखते हैं
कह रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥
अर्थात बेरी और केले की संगति कैसे निभ सकती है ? बेरी तो अपनी मस्ती में झूमती है लेकिन केले के पौधे के अंग कट जाते हैं। बेरी में काँटे होते हैं और केले के पौधे में कोमलता। अतः दुर्जन व्यक्ति का साथ सज्जन के लिए हानिकारक ही होता है।

3. कुसंगति से बचने के उपाय:
हम अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हैं तो हमें दुर्जनों की संगति छोड़कर सत्संगति करनी होगी। सत्संगति का अर्थ है-श्रेष्ठ पुरुषों की संगति। मनुष्य जब अपने से अधिक बुद्धिमान, विद्वान और गुणवान लोगों के संपर्क में आता है तो उसमें अच्छे गुणों का उदय होता है। उसके दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं। सत्संगति से मनुष्य की बुराइयाँ दूर होती हैं और मन पावन हो जाता है। कबीरदास ने भी लिखा है
कबीरा संगति साधु की, हरे और की व्याधि ।
संगति बुरी असाधु की, आठों पहर उपाधि ॥

4. सत्संगति के प्रकार:
सत्संगति दो प्रकार से हो सकती है। पहले तो आदमी श्रेष्ठ, सज्जन और गुणवान व्यक्तियों के साथ रहकर उनसे शिक्षा ग्रहण करे। दूसरे प्रकार का सत्संग हमें श्रेष्ठ पुस्तकों के अध्ययन से प्राप्त होता है। सत्संगति से मनुष्यों की ज्ञान-वृद्धि होती है। संस्कृत में भी कहा गया है- सत्संगति : कथय किं न करोति पुंसाम्। रहीम ने पुनः एक स्थान पर कहा है
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग ॥
अर्थात यदि आदमी उत्तम स्वभाव का हो तो कुसंगति उस पर प्रभाव नहीं डाल सकती। यद्यपि चंदन के पेड़ के चारों ओर साँप लिपटे रहते हैं तथापि उसमें विष व्याप्त नहीं होता। उपसंहार-महाकवि सूरदास ने भी कुसंगति से बचने की प्रेरणा देते हुए कहा है-
तज मन हरि-विमुखनि को संग।
जाकै संग कुबुधि उपजति है, परत भजन में भंग ॥
बुरा व्यक्ति विद्वान होकर भी उसी प्रकार दुःखदायी है, जिस प्रकार मणिधारी साँप। मनुष्य बुरी संगति से ही बुरी आदतें सीखता है। विद्यार्थियों को तो बुरी संगति से विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए। सिगरेट-बीड़ी, शराब, जुआ आदि बुरी आदतें व्यक्ति कुसंगति से ही सीखता है। अस्तु, कुसंगति से बचने में ही मनुष्य की भलाई है।

HBSE 9th Class Hindi रचना निबंध-लेखन

39. फुटबॉल मैच
अथवा
मेरा प्रिय खेल

भूमिका:
शिक्षा में खेलों का विशेष महत्त्व है। विद्यार्थियों के लिए पढ़ाई तथा खेल बराबर की महत्ता रखते हैं। खेल शिक्षा का एक आवश्यक अंग है। खेल के बिना शिक्षा कभी पूर्ण नहीं हो सकती। खेलों से जहाँ एक ओर शारीरिक शक्ति की वृद्धि होती है, वहाँ दूसरी ओर मानसिक शक्ति का भी विकास होता है। इससे विद्यार्थियों में संकल्प की दृढ़ता, संगठन की क्षमता तथा अनुशासनप्रियता बढ़ती है। खेलों के प्रचार तथा खेलों के प्रति छात्रों को जागृत करने के लिए मैचों का आयोजन किया जाता है। प्रतिवर्ष विभिन्न स्कूलों के बीच प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है जिनमें फुटबॉल, कबड्डी, क्रिकेट आदि के मैच होते हैं। विद्यार्थी अपनी-अपनी रुचि के अनुसार इन खेलों में भाग लेते हैं। विजेता टीम को पारितोषिक के रूप में ट्रॉफी दी जाती है। अन्य अच्छे खिलाड़ियों को भी पुरस्कार दिए जाते हैं।

1. अंतर्विद्यालय खेल प्रतियोगिता का आयोजन:
पिछले सप्ताह अंतर्विद्यालय खेल प्रतियोगिता (इंटर-स्कूल टूर्नामेंट) के अंतर्गत हमारे स्कूल का मैच राजकीय उच्च विद्यालय, पानीपत के साथ हुआ। यह एक फुटबॉल मैच था। यह मैच हमारे स्कूल के मैदान में खेला जाना तय हुआ। मैच रविवार को 5 बजे होना था। हमारे स्कूल के सभी खिलाड़ी 4 बजे स्कूल में इकट्ठे हो गए। क्रीड़ाध्यक्ष ने 15-20 मिनट तक खेल के विषय में कुछ आवश्यक निर्देश दिए। इसके बाद सभी खिलाड़ी स्कूल के गणवेश में सुसज्जित होकर चल पड़े। उनमें उत्साह एवं उल्लास था। सभी खिलाड़ी खेलने के लिए पूर्ण रूप से तैयार थे। दर्शक भी इस मैच को देखने के लिए मैदान में इकट्ठे होने लगे थे।

साढ़े चार बजे ही दोनों पक्षों के खिलाड़ी मैदान में पहुँच गए। हमारे स्कूल के खिलाड़ियों ने सफेद रंग के तथा विपक्षी टीम के खिलाड़ियों ने नीले रंग के कपड़े पहने हुए थे। सभी खिलाड़ी चुस्त दिखाई दे रहे थे। मैदान के चारों ओर दर्शकों की भीड़ लगी हुई थी। अतिथियों के लिए एक ओर कुर्सियाँ लगाई गई थीं। सामने ही मेज़ों पर पुरस्कार सजाकर रखे गए थे। ठीक पौने पाँच बजे रेफरी ने सीटी बजाई। दोनों टीमों के कप्तान टॉस के लिए रेफरी के पास आ गए। टॉस हमारे स्कूल के पक्ष में रही। इसके पश्चात दोनों टीमों के खिलाड़ी यथास्थान खड़े हो गए।

2. मैच का आरंभ:
ठीक पाँच बजे रेफरी ने सीटी बजाई तथा मैच शुरू हो गया। खेल के मैदान के चारों ओर रंग-बिरंगी झंडियाँ लगाई गई थीं। दृश्य बहुत ही मनोहर था। पुरस्कार वितरण के लिए मुख्यमंत्री को आमंत्रित किया गया था। अन्य अतिथियों के साथ वे भी मैच का आनंद ले रहे थे। मैच पूरे उत्साह एवं जोश के साथ प्रारंभ हो गया। दोनों ही टीमें बराबर दिख रही थीं। पहले आधे घंटे तक किसी भी ओर से गोल नहीं हआ। कभी गेंद इस ओर तो कभी उस ओर चली जाती थी। एक बार तो गेंद विपक्षियों के गोल में घुसते-घुसते रह गई। कुछ लोग विपक्षियों को प्रोत्साहित करने के लिए हूटिंग कर रहे थे। चारों ओर ‘वेल प्लेड’ की आवाजें आ रही थीं। हमारा गोलकीपर बड़ा ही फुर्तीला था, इसलिए विपक्षियों को गोल करने में कठिनाई अनुभव हो रही थी।

खेल धीरे-धीरे अधिक रोमांचकारी होता जा रहा था। हमारी टीम ने विपक्षी टीम को दबाना शुरू कर दिया था और मौका पाकर हमारी टीम ने गेंद को ऐसा फेंका कि गेंद विपक्षी गोलकीपर के पैरों के बीच से निकलती हुई गोल में जा पहुँची। उसी समय रेफरी ने सीटी बजा दी। हमारे विद्यालय के छात्रों तथा दर्शकों ने तालियाँ बजाईं परंतु विपक्षी टीम हतोत्साहित नहीं हुई। विपक्षी टीम के समर्थकों ने खिलाड़ियों के नाम लेकर उन्हें प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया। दोनों टीमें जी-जान से खेल रही थीं। कुछ समय पश्चात खेल का आधा समय हो गया। रेफरी की सीटी के साथ मैच को रोक दिया गया। खिलाड़ी विश्राम के लिए चल पड़े। सभी खिलाड़ियों को जलपान करवाया गया तथा खाने के लिए संतरे दिए गए।

3. पानीपत टीम की पराजय:
दस मिनट के पश्चात फिर से सीटी बजी तथा सभी खिलाड़ी अपने-अपने स्थान पर पहुंच गए। खेल फिर से शुरू हुआ। विपक्षी टीम पूरी शक्ति लगाकर खेल रही थी परंतु गोल कर पाने में असमर्थ रही। कभी गेंद इधर आ जाती, कभी उधर चली जाती। उतने में ही हमारी टीम के एक खिलाड़ी ने गेंद को ऐसी हिट लगाई कि वह विपक्षी टीम के गोल के ठीक सामने जा गिरी और जैसे ही गेंद उछली, दूसरे खिलाड़ी ने उसको ऐसा हेड दिया कि गेंद सीधे गोल में थी। चारों ओर तालियों की गड़गड़ाहट थी। हमारी प्रसन्नता का ठिकाना न था। मैच समाप्त होने में अभी पाँच मिनट शेष थे। विपक्षी टीम की हिम्मत अब टूट चुकी थी। वे कुछ नहीं कर पा रहे थे। अंत में रेफरी ने एक लंबी सीटी बजाई और मैच समाप्त हो गया। अधिकांश दर्शक जा चुके थे परंतु हमारे स्कूल के खिलाड़ी अब वहाँ इकट्ठे हो रहे थे जहाँ पुरस्कार वितरण होना था।

उपसंहार:
पुरस्कार वितरण से पूर्व मुख्यमंत्री महोदय ने खेलों के महत्त्व पर प्रकाश डाला तथा खेलों की उपयोगिता बताई। अंत में उन्होंने टूर्नामेंट के अधिकारियों को धन्यवाद देते हुए हमारे कप्तान को ट्रॉफी प्रदान की। हमारे गोलकीपर को ईनाम दिया गया। सभी खिलाड़ियों ने हर्ष से करतल ध्वनि की। प्रधानाध्यापक जी ने मैच जीतने की खुशी में अगले दिन की छुट्टी कर दी। लगभग सात बजे हम अपने-अपने घर लौटे। फुटबाल का यह मैच मेरे जीवन की चिरस्मरणीय घटना रहेगी। आज भी जब कभी फुटबाल के खेल की चर्चा होती है तो इस मैच का दृश्य मेरी आँखों के सामने घूम जाता है।

40. दूरदर्शन के लाभ और हानियाँ

भूमिका:
‘दूरदर्शन’ शब्द दो शब्दों से बना है-‘दूर’ और ‘दर्शन’ अर्थात दूर स्थित वस्तु या दृश्य को घर बैठे हुए देखना। यह शब्द अंग्रेज़ी के Television का पर्यायवाची है। आधुनिक जीवन में दूरदर्शन महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर चुका है। आज प्रत्येक मध्यवर्गीय परिवार में टी०वी० अवश्य मिलता है। जो स्थान पहले रेडियो का था, वही आज दूरदर्शन का है। यह निश्चय ही विज्ञान का अद्भुत चमत्कार है। कुछ विद्वानों का मत है कि महाभारत काल में दूरदर्शन का प्रयोग होता था। ऐसा कहा जाता है कि संजय ने घर बैठे राजा धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध का आँखों देखा वर्णन किया था।

1. दूरदर्शन का आविष्कार:
सर्वप्रथम मारकोनी नाम के वैज्ञानिक ने रेडियो का आविष्कार किया। इससे देश-विदेश के कार्यक्रम सुनने को मिल जाते थे लेकिन दूरदर्शन पर हम प्रसारण केंद्र से बोलने वाले के चित्र को भी देख सकते हैं। एक प्रकार से दूरदर्शन रेडियो का ही परिवर्तित रूप है। वर्ष 1926 में स्कॉटलैंड के वैज्ञानिक जे०एल० ब्रेयर्ड ने टेलीविज़न का आविष्कार किया। सर्वप्रथम बी०बी०सी० लंदन से दूरदर्शन के कार्यक्रम प्रसारित होने लगे। भारत में 5 सितंबर, 1959 को दिल्ली में प्रथम दूरदर्शन केंद्र की स्थापना हुई। तत्पश्चात, लखनऊ, कोलकाता, चेन्नई, मुंबई आदि प्रमुख नगरों में दूरदर्शन केंद्रों की स्थापना हुई।

2. मनोरंजन एवं लोक:
शिक्षा का लोकप्रिय साधन-आधुनिक युग में दूरदर्शन मनोरंजन का प्रसिद्ध साधन बन गया है। जैसे ही रात होती है, लोगों के घरों में टेलीविज़न चलने लगते हैं। सारा दिन कठोर परिश्रम करने के बाद व्यक्ति अपने बच्चों सहित घर के सुखद वातावरण में मनोरंजन का आनंद लेता है। आजकल टेलीविज़न पर अनेक प्रकार के कार्यक्रम और समाचार नियमित रूप से आने लगे हैं। प्रतिदिन कोई-न-कोई सीरियल आता ही रहता है। इसी प्रकार से प्रातः और सायं दोनों समय हिंदी तथा अंग्रेज़ी में बारी-बारी से समाचार भी दिए जाते हैं।

दूरदर्शन जन-शिक्षा के प्रसार का लोकप्रिय साधन है। आजकल दूरदर्शन पर कृषि, विज्ञान, उद्योग, शिक्षा आदि सभी विषयों से संबंधित कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं। प्रतिदिन कृषि से संबंधित कार्यक्रम दिखाया जाता है। इससे खेती के साधनों में काफी सुधार हुआ है। इस कार्य के लिए ‘साइट’ का पूरा उपयोग किया जा रहा है। इसके द्वारा कृषि तथा ज्ञान-विज्ञान, समाज-शिक्षा तथा परिवार कल्याण के कार्यक्रम देहात में भी पहुंचाए जा रहे हैं।

3. दूरदर्शन के लाभ:
दूरदर्शन के कार्यक्रमों का दर्शकों पर अमिट प्रभाव पड़ रहा है। सामाजिक बुराइयों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों तथा सड़ी-गली परंपराओं को दूर करने के लिए दूरदर्शन का उचित प्रयोग किया जा रहा है। इससे अन्य देशों की जानकारी भी दर्शकों को दी जाती है। इस प्रकार के अनेक कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं जो राष्ट्रीय एकता की भावना को सुदृढ़ करते हैं। अनेक प्रकार के तकनीकी प्रशिक्षणों का परिचय भी इसके द्वारा दिया जा रहा है।

4. विद्यार्थियों के लिए उपयोग:
देश के युवा वर्ग, विशेषकर, विद्यार्थियों के लिए दूरदर्शन के अनेक उपयोग किए जा रहे हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रतिदिन दोपहर को शिक्षा संबंधी कुछ कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। इनमें विज्ञान, अर्थशास्त्र, जीव-विज्ञान, भौतिकी, कंप्यूटर आदि अनेक विषयों के बारे में जानकारी दी जाती है। इससे विद्यार्थियों को काफी लाभ हुआ है। इसी प्रकार से भूगोल, इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि पर भी कुछ कार्यक्रम दिए जा रहे हैं। पुनः इसी समय ‘घर-बाहर’ शीर्षक के अंतर्गत महिलाओं के लिए भी कार्यक्रम दिए जा रहे हैं। उदाहरण के रूप में, खाना पकाने की विभिन्न पद्धतियाँ, सिलाई, कढ़ाई, चित्रकारी आदि विषयों से महिला वर्ग को भी काफी लाभ पहुंच रहा है।

5. विभिन्न कार्यक्रम:
दूरदर्शन द्वारा प्रसारित नाटक, नृत्य, संगीत कला आदि कार्यक्रम दर्शकों को रुचि संपन्न बनाते हैं। क्रिकेट, हॉकी, टेनिस, फुटबाल, वॉलीबाल, बास्केटबाल आदि मैचों का सीधा प्रसारण दर्शकों में खेलों के प्रति रुचि उत्पन्न करता है। ‘युवा-मंच’ कार्यक्रम के अंतर्गत भाषण और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। प्रश्न-मंच के अंतर्गत पूछे गए प्रश्न दर्शकों के ज्ञान में वृद्धि करते हैं। इसी प्रकार से चित्रहार और चलचित्र हमें शिक्षित करने के साथ-साथ हमारा मनोरंजन भी करते हैं।

पिछले दो-तीन वर्षों में प्रसारित किए गए सीरियल काफी लोकप्रिय हुए हैं। उदाहरण के रूप में, ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ द्वारा हमें प्राचीन धर्म तथा संस्कृति की जानकारी दी गई है। इसके अतिरिक्त, अनेक नाटक तथा शिक्षा प्रद कार्यक्रम तथा बच्चों के मनोरंजक कार्टून आदि ऐसे कार्यक्रम हैं जिन्होंने लोगों को भरपूर मनोरंजन दिया है और शिक्षित भी किया है। दूरदर्शन विज्ञापन का श्रेष्ठ साधन है। प्रत्येक कार्यक्रम के साथ कुछ-न-कुछ विज्ञापन अवश्य जुड़े रहते हैं।

उपसंहार:
दूरदर्शन की कुछ हानियाँ भी हैं। विद्यार्थी अपना अधिकतर समय टी०वी० के कार्यक्रम देखने में बरबाद कर देते हैं। इससे उनकी पढ़ाई की हानि होती है। दूरदर्शन के कारण लोगों में आपस में मिलना-जुलना कम हो गया है। लोग घंटों टी०वी० के सामने बैठे रहते हैं। इससे आँखों की रोशनी पर भी काफी दुष्प्रभाव पड़ता है। विशेषकर, रंगीन टी०वी० महँगा होने के साथ-साथ आँखों के लिए अधिक हानिकारक है किंतु फिर भी दूरदर्शन के उपयोग अधिक हैं और हानियाँ नगण्य । यदि हम इसका सही प्रयोग करें तो यह हमारे लिए अत्यधिक लाभकारी है।

41. हॉकी मैच

भूमिका:
अंग्रेज़ी की एक कहावत है “A sound mind lives in a sound body.” अर्थात स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। जब तक मानव का तन स्वस्थ नहीं है, तब तक मानव का मन भी स्वस्थ नहीं रह सकता। अतः खेल चाहे कोई भी हो, हमारे शरीर को शक्ति देता है, मन को गति देता है और बुद्धि को तेज करता है। यह भी कहा गया है “The War of Water Loo Was Won in the Playground.” अर्थात नेपोलियन ने वाटर लू का जो युद्ध जीता था, उसका अनुभव उसने खेल के मैदान से प्राप्त किया था। समूह में खेले गए खेलों से अपनत्व की भावना और मिलजुल कर काम करने की भावना बढ़ती है। इसके अतिरिक्त, कुछ खेल तो ऐसे होते हैं जो खिलाड़ी के तन-मन में प्राण फूंक देते हैं, दर्शकों के हृदय की धड़कनों को स्पंदित करते हैं। हॉकी, फुटबाल, क्रिकेट आदि इसी प्रकार के खेल हैं। ये खेल हमारे शरीर को स्फूर्ति, ताज़गी और चुस्ती प्रदान करते हैं। आज के भोले-भाले बच्चों को ही कल के सफल नागरिक बनना है।

1. हॉकी:
एक प्रिय खेल हॉकी मेरा प्रिय खेल है। प्रत्येक गाँव, नगर, स्कूल, कॉलेज आदि में यह खेल खेला जाता है। यह एक ऐसा खेल है जिसमें दर्शकों को दम साधकर बैठना पड़ता है। इसमें तो किसी भी क्षण कुछ भी हो सकता है। हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। अनेक वर्षों तक भारत हॉकी में विश्व-विजेता रहा है। यहाँ मैं उस हॉकी मैच का वर्णन करने जा रहा हूँ जो गत वर्ष हमारे नगर में हुआ था। इस बार कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र के हॉकी टूर्नामेंट का फाइनल मैच राजकीय महाविद्यालय करनाल तथा डी०ए०वी० महाविद्यालय, सोनीपत के बीच हुआ। खेल के लिए कर्ण स्टेडियम निश्चित किया गया। दोनों ही टीमें उच्च स्तर की थीं। इस मैच की घोषणा दो सप्ताह पहले ही कर दी गई। इसलिए इस मैच की सभी क्षेत्रों और गाँवों में चर्चा होने लगी। बच्चे, बूढ़े सभी इस मैच को देखने की लालसा लिए हुए थे। मैच दोपहर 12 बजे आरंभ किया गया।

2. खेल का आरंभ:
लगभग साढ़े ग्यारह बजे दर्शकों का आगमन शुरू हो गया। विशेष अतिथि के रूप में पुलिस अधीक्षक को आमंत्रित किया गया था। पौने बारह बजे वे भी आ पहुँचे। उस समय तक दोनों टीमें भी मैदान में पहुँच गई थीं। राजकीय महाविद्यालय, करनाल के खिलाड़ी सफेद वर्दी तथा उनकी विरोधी टीम के खिलाड़ी नीली वर्दी पहने थे। खिलाड़ियों की कमीजों के पीछे उनके नंबर लिखे हुए थे। ठीक बारह बजे रेफरी ने सीटी बजाई तथा दोनों टीमों के कप्तान रेफरी के सामने उपस्थित हुए। टॉस हुआ। करनाल की टीम ने टॉस जीता। तब दोनों टीमों ने अपना-अपना स्थान ले लिया। रेफरी की दूसरी सीटी बजते ही दोनों टीमों की अग्रिम पंक्ति के खिलाड़ी आगे आए तथा तीन बार हॉकी का स्पर्श करके खेल आरंभ कर दिया गया। खेल शुरू होने के 20 मिनट बाद तक कोई भी टीम गोल नहीं कर सकी। स्टेडियम में करनाल के विद्यार्थी अधिक थे। वे ऊँची आवाज़ में करनाल के खिलाड़ियों को प्रोत्साहित कर रहे थे। सोनीपत के खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने वाले भी पर्याप्त थे। इसी बीच सोनीपत के राजेश नामक खिलाड़ी ने बाईं ओर से एक लंबी हिट मारकर गेंद को गोल के अंदर पहुंचा दिया। सोनीपत के खिलाड़ियों के समर्थकों ने तालियाँ बजानी शुरू कर दी।

3. मध्यांतर की घोषणा:
करनाल के खिलाड़ी कुछ हतोत्साहित हो गए परंतु शीघ्र ही उन्होंने स्थिति को समझा तथा सक्रिय होकर खेलना शुरू कर दिया। वे जल्दी-से-जल्दी गोल करके अपनी टीम को बराबरी की स्थिति में लाना चाहते थे। इस कारण खिलाड़ियों में जोश आ गया। करनाल के खिलाड़ियों ने एक बार फिर गोल करने का प्रयत्न किया परंतु सोनीपत के गोलकीपर की कुशलता के आगे उनकी एक न चली। उसी समय एक लंबी सीटी बजी और रेफरी ने मध्यांतर की घोषणा कर दी।

सोनीपत के विद्यार्थियों ने राजेश को कंधों पर उठा लिया। सभी खिलाड़ी उसे शाबाशी देने लगे। उधर करनाल के कॉलेज के खेलाध्यक्ष अपने खिलाड़ियों को ढाढस बँधा रहे थे तथा कुछ नई तकनीक समझा रहे थे। फिर उनके हॉकी कोच ने कहा, “घबराने की कोई बात नहीं, इस बार हिम्मत करोगे तो एक की क्या बात, दो गोल कर दोगे।” इसके पश्चात सभी खिलाड़ियों को अल्पाहार दिया गया। एक लंबी सीटी के बाद खेल फिर आरंभ हो गया। इस बार करनाल के खिलाड़ी आक्रामक थे तथा सोनीपत के खिलाड़ियों ने बचाव की नीति अपनाई। सोनीपत की टीम का गोलकीपर इतना कुशल था कि गेंद आने से पहले ही गेंद की स्थिति को भाँप लेता था तथा उधर पहुँचकर, लेटकर अथवा उछलकर गेंद को पकड़ लेता था।

4. करनाल के खिलाड़ियों की विजय:
खेल समाप्त होने में अभी दस मिनट बाकी थे। करनाल के खिलाड़ी जी-जान से गेंद को गोल में पहुँचाने की कोशिश में थे। इसी बीच करनाल के खिलाड़ी मनोज ने ‘डी’ से गेंद को ऐसी हिट मारी कि गेंद गोलकीपर को चकमा देकर सीधे गोल में पहुंच गई। अब करनाल के खिलाड़ियों का उत्साह और भी बढ़ गया। सोनीपत की टीम ने भी आक्रामक रुख अपनाया तथा वे गेंद को गोल में पहुँचाने का भरसक प्रयत्न करने लगे। इसी समय करनाल के खिलाड़ी दीपक ने गेंद को सहसा हिट लगाया कि गेंद एक बार फिर से गोल में थी। अब करनाल के खिलाड़ियों की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। खेल का पलड़ा पलट गया अर्थात रेफरी ने एक लंबी सीटी बजाकर खेल समाप्ति की घोषणा कर दी।

उपसंहार:
अब सोनीपत के खिलाड़ी बहुत थके हुए तथा हतोत्साहित दिखाई दे रहे थे। करनाल के खिलाड़ियों के आनंद की सीमा नहीं थी। उन्होंने अपने साथियों को कंधों पर उठा लिया। वे नारेबाजी करने लगे। इसके बाद मुख्य अतिथि ने खेलों के मध्य खेल-भावना को बनाए रखने की आवश्यकता पर भाषण देते हुए करनाल के राजकीय महाविद्यालय की टीम के कप्तान को चैंपियन ट्रॉफी प्रदान की। डी०ए०वी० महाविद्यालय सोनीपत को भी ‘रनर्स कप’ की ट्रॉफी प्रदान की गई।

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42. सदाचार का महत्त्व

भूमिका:
प्रत्येक मानव की यह इच्छा होती है कि समाज में उसका आदर-सम्मान हो। वस्तुतः आदर एवं सम्मान के बिना मनुष्य का अस्तित्व प्रकाश में नहीं आता। इसके लिए मानव अनेक साधनों का आश्रय लेता है। कोई धन के बल पर तो कोई सत्ता के बल पर प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता है। इसी प्रकार से कोई विद्या का आश्रय लेता है तो कोई अपनी शक्ति का। कोई समाज-सेवा द्वारा तो कोई चरित्र के बल पर नाम कमाना चाहता है। इन सब साधनों में से सच्चरित्रता ही जीवन के समस्त गुणों, ऐश्वर्यों एवं समृद्धियों की आधारशिला है। यदि हम चरित्रवान हैं तो सभी हमारा आदर-सम्मान करते हैं। परंतु चरित्रहीन व्यक्ति समाज में निंदा और तिरस्कार का पात्र बनता है। वह समाज के लिए एक अभिशाप है। दुश्चरित्र व्यक्ति का जीवन अंधकारमय होता है, जबकि सच्चरित्र व्यक्ति ज्ञान एवं प्रकाश के उज्ज्वल वातावरण में विचरण करता है। प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त ने उचित ही कहा है-
“खलों का कहीं भी नहीं स्वर्ग है भलों के लिये तो यही स्वर्ग है।
सुनो स्वर्ग क्या है ? सदाचार है। मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है।।”

1. सदाचार एवं चरित्र का महत्त्व:
अंग्रेजी की एक कहावत का भाव इस प्रकार है-यदि मनुष्य का धन नष्ट हुआ तो उसका कुछ भी नष्ट नहीं हुआ, यदि उसका स्वास्थ्य नष्ट हुआ तो कुछ नष्ट हुआ, परंतु यदि उसका चरित्र नष्ट हुआ तो उसका सब कुछ नष्ट हो गया। यह कहावत सच्चरित्रता के महत्त्व को दर्शाती है। सच्चरित्र बनने के लिए मनुष्य को सशिक्षा, सत्संगति और स्व + अनुभव की आवश्यकता होती है। परंतु यह जरूरी नहीं है। अनेक बार अशिक्षित व्यक्ति भी सत्संगति के कारण अच्छे चरित्र के देखे गए हैं। फिर भी बुद्धि का परिष्कार और विकास शिक्षा के बिना नहीं हो सकता। अच्छी शिक्षा के साथ-साथ सत्संगति भी अनिवार्य गुण है। संस्कृत में कहा भी गया है-
“संसर्ग जाः दोषगणाः भवन्ति।”

अर्थात् दोष और गुण संसर्ग से ही उत्पन्न होते हैं। मानव जिस प्रकार के लोगों के साथ रहेगा, उनकी विचारधारा, व्यसन या आदतें उसे अवश्य प्रभावित करेंगी। सत्संगति नीच व्यक्ति को भी उत्तम बना देती है। कीड़ा भी फूलों की संगति पाकर सज्जनों के सिर की शोभा बनता है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है
“सठ सुधरहिं सत्संगति पाइ। पारस परस कुधांतु सुहाई।।”

2. स्वानुभव और चरित्र:
स्वानुभव भी मानव को चरित्रवान् बनाने में काफी सहायक होता है। जब बच्चा एक बार आग को छूकर अँगुली जला बैठता है तो दुबारा अग्नि से सावधान रहता है। दुष्कर्म करने वाला व्यक्ति जब दुष्ट कर्मों के परिणामों को जान लेता है तो वह दुबारा दुष्कर्म नहीं करता। व्यक्ति अपने अनुभव से यह जान लेता है कि अमुक काम करने से उसे यह फल भोगना पड़ा। यह बात बुरी है, उससे जीवन को हानि होती है अथवा झूठ बोलने से व्यक्ति को हानि होती है, लोगों में अपमान होता है तो वह झूठ बोलना छोड़ देता है। इस प्रकार व्यक्तिगत अनुभव भी मनुष्य को सच्चरित्रता की ओर ले जाते हैं। सच्चरित्रता लाने के लिए हमें अपने पूर्वजों के चरित्रों को पढ़ना चाहिए और उनका अनुसरण करना चाहिए।

3. विद्यार्थी जीवन और सच्चरित्रता:
विद्यार्थी जीवन सच्चरित्रता के विकास के लिए सर्वाधिक उचित समय है। युवाकाल में विद्यार्थी का मन काफी कोमल होता है। उसे जैसा चाहो वैसा बनाया जा सकता है। विद्यार्थी जीवन उस साधनावस्था का समय है जिसमें बालक अपने जीवनोपयोगी अनंत गुणों का संचय करता है। वह इस काल में अपने मन और मस्तिष्क का परिष्कार कर सकता है। इसी काल में संयम और नियमों का पालन करना सीखता है। समय पर सोना, समय पर उठना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, नियमित रूप से अध्ययन करना, सज्जनों की संगति करना आदि विद्यार्थी को चरित्रवान बनाते हैं।

सच्चरित्रता से मानव अनेक प्रकार से लाभान्वित होता है। सच्चरित्रता किसी विशेष प्रवृत्ति की बोधक भी नहीं है। अनेक गुण जैसे-सत्य भाषण, उदारता, सहृदयता, विनम्रता, दयालुता, सुशीलता, सहानुभूतिपरता आदि समन्वित रूप से सच्चरित्रता कहलाते हैं। जो व्यक्ति चरित्रवान है, वह समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है, उसे समाज में आदर और सम्मान मिलता है, इस लोक में उसकी कीर्ति फैलती है तथा मर कर भी उसका नाम अमर हो जाता है। सच्चरित्र व्यक्ति की उच्च भावनाएँ तथा दृढ़ संकल्प हमेशा संसार में विचरण करते रहते हैं। सच्चरित्रता से व्यक्ति में शूरवीरता, धीरता, निर्भयता आदि गुण स्वतः आ जाते हैं, परंतु सदाचार एवं सच्चरित्रता के अभाव में मानव कदम-कदम पर ठोकरें खाता है, अपमानित होता है और पशु-तुल्य जीवन व्यतीत करता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम की सच्चरित्रता किसी से भी छिपी नहीं है। भारत के लाखों-करोड़ों नर-नारी उनके सच्चरित्र का अनुसरण करके अपने जीवन को पावन करते हैं। शिवाजी और महाराणा प्रताप की चारित्रिक विशेषताएँ आज भी भारतीय जन-साधारण का मार्ग-दर्शन करती हैं। इसी प्रकार से आधुनिक काल में लोकमान्य तिलक, मदन मोहन मालवीय, महात्मा गाँधी, सुभाषचंद्र बोस आदि महान् विभूतियाँ भारतीयों के लिए अनुकरणीय हैं। इन महान् आत्माओं ने भारत माता की परतंत्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न करने में अपने जीवन का बलिदान दिया। निश्चय ही सदाचार मानव को महान् बनाता है, एक साधारण व्यक्ति को भी युग-पुरुष बनाता है और उसे यश प्रदान करता है। संस्कृत में एक श्लोक है-
आचाराल्लभते आयुः आचारादीप्सिताः प्रजाः।
आचाराल्लभते ख्याति, आचाराल्लभते धनम्।।

4. सदाचार के लाभ:
चरित्रवान बनना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। चरित्रता से मानव अपना कल्याण तो करता ही है, समाज का हित भी करता है। इससे वह सुख और समृद्धि को प्राप्त करता है। सच्चरित्रता से हम आज देश की असंख्य समस्याओं का हल निकाल सकते हैं। जिस राष्ट्र के नागरिकों का चरित्र भ्रष्ट है, वह राष्ट्र कदापि विकास नहीं कर सकता। हमारे देश में फैली हुई गरीबी की जड़ भ्रष्टाचार एवं चरित्रहीनता है। प्रमुख आलोचक एवं साहित्यकार डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में-“चरित्र बल हमारी प्रध न समस्या है। हमारे महान् नेता महात्मा गाँधी ने कूटनीतिक चातुर्य को बड़ा नहीं समझा, बुद्धि-विकास को बड़ा नहीं माना, चरित्र बल को ही महत्त्व दिया। आज हमें सबसे अधिक इसी बात को सोचना है। यह चरित्र-बल भी केवल एक व्यक्ति का नहीं, समूचे देश का होना चाहिए।”

उपसंहार:
अतः आज हमारा प्रमुख कर्त्तव्य यही है कि हम चरित्रवान् बनें। विशेषकर, छात्र-छात्राओं को तो इस दिशा में भागीरथ प्रयत्न करने चाहिएँ, क्योंकि उन्हीं पर हमारे देश का भविष्य निर्भर है।

43. भारतीय समाज में नारी का स्थान

भूमिका:
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ अर्थात जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। यहाँ स्त्रियों की पूजा का अर्थ है-स्त्रियों के मान-मर्यादा की रक्षा अथवा उनके अधिकारों की समुचित रक्षा । यह पंक्ति इस बात को भी सिद्ध करती है कि प्राचीन भारत में नारी-जाति का स्थान गौरवपूर्ण था। उस समय नारी को गृह-लक्ष्मी और गृह-देवी के रूप में जाना जाता था। उन्हें पुरुषों के समान शिक्षा मिलती थी और पुरुषों के समान ही उनको अधिकार प्राप्त थे। प्रत्येक परिवार में नारी को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। जीवन के बड़े-से-बड़े धार्मिक काम में भी नारी को पुरुष के बराबर स्थान दिया जाता था।

1. प्राचीन काल में नारी:
हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि प्राचीन काल में नारी तथा पुरुष के अधिकार और कर्तव्य बराबर थे। कैकेयी ने बड़ी कुशलता से युद्ध में फंसे हुए अपने पति राजा दशरथ के रथ को निकाला था। इसी प्रकार से द्रोपदी निरंतर अपने पतियों को विद्वतापूर्ण परामर्श देती थी। द्रोपदी स्वयंवर भी यह सिद्ध करता है कि उस काल में स्त्रियों को अपना पति वरण करने की भी स्वतंत्रता थी। मैत्रेयी, शकुंतला, सीता, अनुसूइया, दमयंती, सावित्री आदि असंख्य नारियाँ इस तथ्य को सिद्ध करती हैं कि प्राचीन भारत में नारियों को उचित सम्मान प्राप्त था।

2. मध्यकाल में नारी:
समय के परिवर्तन के साथ-साथ सभी कुछ बदलता है। परतंत्रता के युग के आरंभ के साथ-साथ नारी-परतंत्रता का भी युग आरंभ हुआ। स्त्रियों का प्रेम और बलिदान ही उनके लिए विष बन गया। समाज के ही ठेकेदारों ने नारी का बराबरी का दर्जा समाप्त कर दिया। अतः उसका पद गौण बन गया। उसे पर्दे में कैद रखा जाने लगा। उसका शिक्षा का अधिकार भी उससे छीन लिया गया। अब नारी का क्षेत्र घर की चारदीवारी तक ही सीमित हो गया। इस परिवर्तन के पीछे तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ थीं। वस्तुतः उस समय की विदेशी सरकार की पक्षपातपूर्ण नीति के कारण हिंदुओं की बहु-बेटियों की इज़्ज़त सुरक्षित नहीं थी। अतः अनमेल विवाह, बाल-विवाह तथा सती-प्रथा जैसी बुराइयाँ पनपने लगीं।

3. वर्तमान स्थिति:
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद नारी जाति को ऊँचा उठाने का भरसक प्रयास हुआ है। संविधान द्वारा उसे पुरुष के बराबर का दर्जा दिया गया है। प्रत्येक लड़की को अपने पिता की संपत्ति से बराबर का हिस्सा पाने की व्यवस्था है। आज स्त्रियाँ स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त कर रही हैं और प्रत्येक व्यवसाय में पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर काम कर रही हैं। राजनीति में भी स्त्रियाँ खुलकर भाग लेने लगी हैं। सरकार की ओर से इस बात का भरसक प्रयास किया जा रहा है कि नारी को समाज में उचित सम्मान मिले।

4. आधुनिक नारी की समस्याएँ:
नारी के उत्थान के नारे तो बहुत लगाए जा रहे हैं लेकिन नारी का स्थान कितना ऊँचा उठा है, यह आज के समाचार-पत्रों से ज्ञात हो जाता है। आज भी कन्या को ‘पराया धन’ की संज्ञा दी जाती है। दहेज प्रथा के कारण न जाने कितनी नारियाँ जीवित ही आग की भेंट कर दी जाती हैं। लोगों की मानसिकता में कोई विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं देता। बड़े-बड़े नगरों से निकलकर अगर बाहर गाँवों में झाँका जाए तो ज्ञात होगा कि वहाँ नारी की स्वतंत्रता नाम मात्र की है। आज भी लोग अपनी लड़कियों को शिक्षित करने से डरते हैं। कुछ लोग तो लड़की को बचपन से ही बोझ मानते हैं। घर में लड़का पैदा हो तो खुशियाँ मनाई जाती हैं परंतु लड़की पैदा होते ही घर में निराशा का वातावरण छा जाता है।

5. सुधार के प्रयत्न:
आजकल नारी वर्ग के उत्थान के प्रयास भी चल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कुछ वर्ष पहले अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष मनाया गया था। भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने स्त्रियों के उत्थान के लिए अनेक कदम उठाए थे। सबसे पहली बात तो यह है कि लड़कियों को समुचित शिक्षा दी जानी चाहिए। नारियाँ शिक्षित होंगी तो वे अपने अधिकारों के प्रति सजग रहेंगी। इससे उनको आर्थिक स्वतंत्रता मिलने में भी आसानी होगी। अगर स्त्रियाँ अपने पैरों पर खड़ी हों तो वे मज़बूती से उपर्युक्त समस्याओं का सामना कर सकती हैं। अनमेल विवाह एवं बाल-विवाह भी आज नहीं के बराबर हैं।

उपसंहार:
प्रसन्नता की बात है कि हमारी वर्तमान सरकार इस दिशा में काफी प्रयत्नशील है। काम और वेतन की समानता के संबंध में हमारे संविधान में स्पष्ट निर्देश हैं। धीरे-धीरे स्त्रियाँ पर्दे की कैद से बाहर निकल रही हैं। स्कूलों, कॉलेजों, हस्पतालों, बैंकों तथा अन्य कार्यालयों में स्त्रियाँ काम करने लगी हैं। इस संबंध में पुरुषों को भी उदार दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। किसी कवि ने कहा है-
नारी निंदक निपट अनारी, ते जन ताड़न के अधिकारी।

सबसे बड़ी बात यह है कि उनके लिए उपयोगी साहित्य तैयार किया जाए ताकि नारी को समाज में वही सम्मान मिले जो प्राचीन काल में सीता, अनुसूइया, सावित्री आदि स्त्रियों को प्राप्त था। तभी हमारा देश विकास कर सकता है।

44. शिक्षा में खेल-कूद का महत्त्व

संकेत : खेल-कूद का महत्त्व, शिक्षा व खेल-एक-दूसरे के पूरक, खेलों के प्रकार, लाभ, सर्वांगीण विकास। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ने कहा है-
“स्वस्थ शरीर वाला व्यक्ति ही भली प्रकार अपने
मस्तिष्क का विकास कर सकता है।”

शिक्षा का अभिप्राय केवल पुस्तकों का ज्ञान अर्जित करना ही नहीं, अपितु शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के मानसिक विकास के साथ-साथ उसके शारीरिक विकास की ओर भी ध्यान देना है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए खेल-कूद का महत्त्व किसी से कम नहीं। यदि शिक्षा से बुद्धि का विकास होता है तो खेलों से शरीर का। ईश्वर ने मनुष्य को शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक-तीन शक्तियाँ प्रदान की हैं। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए इन तीनों का संतुलित रूप से विकास होना आवश्यक है।

शिक्षा तथा खेल एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अपंग है। शिक्षा यदि परिश्रम लगन, संयम, धैर्य तथा भाईचारे का उपदेश देती है तो खेल के मैदान में विद्यार्थी इन गुणों को वास्तविक रूप में अपनाता है। जैसे कहा भी गया है-‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है।’

यदि व्यक्ति का शरीर ही स्वस्थ नहीं है तो संसार के सभी सुख तथा भोग-विलास बेकार हैं। एक स्वस्थ शरीर ही सभी सखों का भोग कर सकता है। रोगी व्यक्ति सदा उदास तथा अशांत रहता है। उसे कोई भी कार्य करने में आनंद प्राप्त नहीं होता है। स्वस्थ व्यक्ति सभी कार्य प्रसन्नचित्त होकर करता है। इस प्रकार स्वस्थ शरीर एक नियामत है।

खेलना बच्चों के स्वभाव में होता है। आज की शिक्षा प्रणाली में इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि बच्चों को पुस्तकों की अपेक्षा खेलों के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करवाई जाएँ। आज शिक्षा-विदों ने खेलों को शिक्षा का विषय बना दिया है, ताकि विद्यार्थी खेल-खेल में ही जीवन के सभी मूल्यों को सीख जाएं और अपने जीवन में अपनाएँ।

अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के खेलों का सहारा लिया जा सकता है। दौड़ना, कूदना, कबड्डी, टेनिस, हॉकी, फुटबॉल, क्रिकेट, जिमनास्टिक, योगाभ्यास आदि से उत्तम व्यायाम होता है। इनमें से कुछ आउटडोर होते हैं और कुछ इंडोर। आउटडोर खेल खुले मैदान में खेले जाते हैं। इंडोर खेलों को घर के अंदर भी खेला जा सकता है। इनमें कैरम, शतरंज, टेबलटेनिस आदि हैं। न केवल अपने देश में, बल्कि विदेशों में भी खेलों का आयोजन होता रहता है। खेलों से न केवल खिलाड़ियों का अपितु देखने वालों का भी भरपूर मनोरंजन होता है। आज रेडियो तथा टी०वी० आदि माध्यमों के विकास से हम आँखों देखा हाल अथवा सीधा प्रसारण देख सकते हैं तथा उभरते खिलाड़ी प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।

आज के युग में खेल न केवल मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि इनका सामाजिक तथा राष्ट्रीय महत्त्व भी है। इनमें स्वास्थ्य प्राप्ति के साथ-साथ मनोरंजन भी होता है। इनसे छात्रों में अनुशासन की भावना आती है। खेल के मैदान में छात्रों को नियमों में बंधकर खेलना पड़ता है, जिससे आपसी सहयोग और मेल-जोल की भावना का भी विकास होता है। खेल-कूद मनुष्य में साहस और उत्साह की भावना पैदा करते हैं। विजय तथा पराजय दोनों स्थितियों को खिलाड़ी प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करता है। खेल-कूद से शरीर में स्फूर्ति आती है, बुद्धि का विकास होता है तथा रक्त संचार बढ़ता है। खेलों में भाग लेने से आपसी मन-मुटाव समाप्त हो जाता है तथा खेल भावना का विकास होना है। जीविका-अर्जन में भी खेलों का बहुत महत्त्व है।

आज खेलों में ऊँचा स्थान प्राप्त खिलाड़ी संपन्न व्यक्तियों में गिने जाते हैं। किसी भी खेल में मान्यता प्राप्त खिलाड़ी को ऊँचे पद पर आसीन कर दिया जाता है तथा उसे सभी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं। खेल राष्ट्रीय एकता की भावना को भी विकसित करते हैं। राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलने वाले खिलाड़ी अपना तथा अपने देश का नाम रोशन करते हैं।

भारत जैसे विकासशील देश के लिए आवश्यकता है कि प्रत्येक युवक-युवती खेलों में भाग ले तथा श्रेष्ठता प्राप्त करने का प्रयास करे। आज का युग प्रतियोगिता का युग है और इसी दौड़ में किताबी कीड़ा बनना पर्याप्त नहीं, बल्कि स्वस्थ, सफल तथा उन्नत व्यक्ति बनने के लिए आवश्यक है मानसिक, शारीरिक तथा आत्मिक विकास ।

HBSE 9th Class Hindi रचना निबंध-लेखन

45. बेरोज़गारी की समस्या
अथवा
बेकारी की समस्या

भूमिका:
आज भारत के सम्मुख अनेक समस्याएँ हैं; जैसे महँगाई, बेरोज़गारी, आतंकवाद आदि। इन सब में बेरोज़गारी की समस्या प्रमुख है। बेरोज़गारी की समस्या ने परिवारों की आर्थिक दशा को खोखला कर दिया है। आज हम स्वतंत्र अवश्य हैं परंतु हम अभी आर्थिक दृष्टि से समृद्ध नहीं हुए हैं। चारों ओर चोरी-डकैती, छीना-झपटी, लूटमार और कत्ल के समाचार सुनाई पड़ते हैं। आज देश में जगह-जगह पर उपद्रव एवं हड़तालें हो रही हैं। मनुष्य के जीवन से आनंद और उल्लास न जाने कहाँ चले गए हैं। प्रत्येक मानव को अपनी तथा अपने परिवार की रोटियों की चिंता है चाहे उनका उपार्जन सदाचार से हो या दुराचार से। निरक्षर तो फिर भी अपना पेट भर लेते हैं परंतु साक्षर वर्ग की आज बुरी हालत है।

बेकारी का चरमोत्कर्ष तो उस समय दिखाई दिया, जब रुड़की विश्वविद्यालय में पूर्ण प्रशिक्षित इंजीनियरों को उपाधि देने हेतु 1967 के दीक्षांत समारोह में भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जैसे ही भाषण देने के लिए खड़ी हुईं, उसी समय लगभग एक हज़ार इंजीनियरों ने खड़े होकर एक स्वर में कहा, ‘हमें भाषण नहीं, नौकरी चाहिए।’ प्रधानमंत्री के पास उस समय कोई उत्तर न था।
हमारे देश में बेकारी के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. जनसंख्या में वृद्धि:
हमारे देश में जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वर्ष भर में जितने व्यक्तियों को रोजगार मिलता है, उससे कई गुणा अधिक बेकारों की संख्या बढ़ जाती है। अनेक अप्राकृतिक उपायों के बावज़द भी जनसंख्या बढ़ती ही जा रही है। जनसंख्या की वृद्धि के फलस्वरूप ही बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है।

2. अधूरी शिक्षा प्रणाली:
हमारी शिक्षा प्रणाली अधूरी एवं दोषपूर्ण है। परतंत्र भारत में अंग्रेज़ों ने ऐसी शिक्षा-पद्धति केवल क्लर्कों को पैदा करने के लिए ही लागू की थी परंतु अब स्वतंत्र भारत में समयानुसार समस्याएँ भी बदल गई हैं। एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “प्रतिवर्ष नौ लाख पढ़े-लिखे लोग नौकरी के लिए तैयार हो जाते हैं जबकि हमारे पास नौकरियाँ शतांश के लिए भी नहीं हैं। हमें बी०ए० नहीं चाहिएँ, वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञ चाहिएँ।” उनका यह कथन हमारी शिक्षा-प्रणाली की ओर संकेत करता है।

3. उद्योग:
धंधों की अवनति-प्राचीन काल में हमारे देश के प्रत्येक घर में कोई-न-कोई उद्योग-धंधा चलता था। कहीं चरखा काता जाता था, कहीं खिलौने बनते थे तो कहीं गुड़। इन्हीं उद्योग-धंधों से लोग रोजी-रोटी कमाते थे परंतु अंग्रेज़ों ने अपने स्वार्थ के लिए इन्हें नष्ट कर दिया जिससे लोगों में आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई। इसीलिए पढ़े-लिखे लोग भूखों मरना पसंद करते हैं परंतु वे मजदूरी करना पसंद नहीं करते। वे सोचते हैं कि दुनिया कहेगी कि पढ़-लिखकर मजदूरी कर रहा है। यही मिथ्या स्वाभिमान मनुष्य को कुछ करने नहीं देता। पढ़ाई-लिखाई ने मजदूरी करने को मना तो नहीं किया है।

4. सामाजिक तथा धार्मिक मनोवृत्ति:
हमारे समाज की धार्मिक तथा सामाजिक मनोवृत्ति भी बेकारी को बढ़ावा देती है। वर्तमान युग में साधु-संन्यासियों को भिक्षा देना पुण्य समझा जाता है। दानियों की उदारता देखकर बहुत से स्वस्थ व्यक्ति भी भिक्षावृत्ति पर उतर आते हैं। इस प्रकार, बेकारों की संख्या बढ़ती जा रही है।

5. सरकारी विभागों में छंटनी:
हमारे यहाँ सामाजिक नियम कुछ ऐसे हैं कि वर्ण-व्यवस्था के अनुसार विशेष-विशेष वर्गों के लिए विशेष-विशेष कार्य हैं। सरकारी विभागों में भी वर्ण-व्यवस्था के अनुसार काम दिए जाते हैं। यदि उन्हें काम मिले तो करें अन्यथा हाथ-पर-हाथ धरकर बैठे रहें। इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था से भी बेरोज़गारी को बढ़ावा मिलता है। बेकारी के कारण युवा-आक्रोश और असंतोष ने समाज में अव्यवस्था एवं अराजकता उत्पन्न कर दी है।

निम्नलिखित उपायों द्वारा बेकारी दूर की जा सकती है-
6. जनसंख्या वृद्धि पर रोक और शिक्षा:
देश में जनसंख्या वृद्धि को रोककर बेकारी की समस्या को काफी सीमा तक हल किया जा सकता है। बढ़ती हुई आबादी को रोकने के लिए विवाह की आयु का नियम कठोरता से लागू करना चाहिए। साथ ही, . हमें शिक्षा-पद्धति में सुधार लाना होगा। शिक्षा को व्यावहारिक बनाना होगा। विद्यार्थियों में आरंभ से ही स्वावलंबन की भावना पैदा करनी होगी।

7. उद्योग एवं कृषि का विकास:
सरकार को कुटीर उद्योगों तथा घरेलू दस्तकारी को प्रोत्साहन देना चाहिए; जैसे सूत कातना, कागज़ बनाना, शहद तैयार करना आदि। उद्योग-धंधों एवं धन की उचित व्यवस्था न होने के कारण गाँव के बड़े-बड़े कारीगर भी बेकार हैं। भारतीय किसान कृषि के लिए वर्षा पर आश्रित रहता है। अतः उसे अपने खाली समय में कुटीर उद्योग चलाने चाहिएँ। इससे उसकी तथा देश की आर्थिक दशा सुदृढ़ होगी। आजकल हज़ारों ग्रामीण शहरों में आकर बसते जा रहे हैं, इससे बेकारी की समस्या बढ़ती जा रही है। – उपसंहार केंद्र तथा राज्य सरकारें इस दिशा में व्यापक पग उठा रही हैं। चाहे हमारी सरकार बेकारी पर काबू पाने में अभी सफल नहीं हो सकी है परंतु ऐसा विश्वास किया जाता है कि आने वाली पीढ़ियों के लिए रोज़गार के साधन जुटाकर बेकारी की समस्या को सुलझाने के लिए सरकार विस्तृत पग उठाएगी। अब वह दिन दूर नहीं, जब देश के प्रत्येक नागरिक को काम मिलेगा और देश का भविष्य उज्ज्वल होगा।

46. मद्य-निषेध

भूमिका:
संघर्ष मानव जीवन का दूसरा नाम है। इसी संघर्ष में से गुज़रकर मानव कुंदन के समान शुद्ध और पावन बन जाता है लेकिन जिन लोगों का हृदय कमज़ोर होता है अथवा जिनका निश्चय सुदृढ़ नहीं होता है, वे संघर्ष के सामने घुटने टेक देते हैं। वे अपनी असफलता से मुँह छिपाने के लिए नशे की शरण लेते हैं। कहने को तो वे कह देते हैं कि हम गम गलत करने के लिए शराब पीते हैं।

इससे हमारे मन को राहत मिलती है। दुःखों और चिंताओं से कुछ समय के लिए मुक्ति मिलती है लेकिन क्या सचमुच नशा करने से आदमी दुखों से मुक्त हो सकता है ? यदि ऐसा होता तो संसार में संभवतः कोई भी दुखी और चिंताग्रस्त नहीं होता।

1. सवृत्तियाँ बनाम दुष्प्रवृत्तियाँ:
मानव जीवन यद्यपि निर्मल है, उसमें सात्विकता, सज्जनता, उदारता और चरित्र का उत्कर्ष है। वह स्वयं का ही नहीं अपितु अपने संपर्क में आने वालों का भी उद्धार कर सकता है। इसके विपरीत, तामसी वृत्तियाँ मनुष्य को पतनोन्मुख करती हैं, उसका ह्रास करती हैं। एक पतनोन्मुखी व्यक्ति मानव समाज और राष्ट्र के लिए भी घातक होता है। इसीलिए तो समाज-सुधारक और धार्मिक नेता समय-समय पर दुष्प्रवृत्तियों की निंदा करते हैं और उनसे बचने की प्रेरणा देते हैं। वस्तुतः मदिरापान तथा नशा सब बुराइयों की जड़ है। कबीर ने भी एक स्थल पर कहा है-
“ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होइ।
सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदा सोई॥”

2. मदिरापान बुराइयों की जड़:
एक विद्वान ने सत्य ही कहा है कि मदिरापान सभी बुराइयों की जड़ है। यह मनुष्य को असंतुलित बनाती है। उसमें तामसी वृत्तियों को उत्पन्न करती है। शराबी व्यक्ति से किसी भी समाज-विरोधी बुराई की अपेक्षा की जा सकती है। इसलिए हमारे शास्त्रों में मदिरापान को पाप समझा गया है। यह कोई सामान्य पाप नहीं अपितु सभी पापों का मूल है। एक लेखक ने ठीक ही कहा है-बाढ़ ने भी इतने मनुष्यों को नहीं डुबोया, जितनों को शराब ने।

आरंभ में व्यक्ति शौकिया तौर पर नशा करता है। मित्र लोग मुफ्त में शराब पिलाते हैं। अथवा कुछ लोग यह बहाना करेंगे कि वे तो औषधि के रूप में शराब पी रहे हैं परंतु धीरे-धीरे उन्हें शराब पीने की लत पड़ जाती है। एक बार शराब पीने की आदत पड़ जाए तो फिर छूटती नहीं। शराबी व्यक्ति विवेकशून्य होकर अनुचित, असंगत और अनर्गल प्रलाप करने लगता है। उसकी चेष्टाओं में अश्लीलता का समावेश हो जाता है। वह अपनी समूची शिक्षा, सभ्यता, संस्कार और सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करके अनुचित व्यवहार करने लगता है। गाली-गलौच और मारपीट तो उसके लिए सामान्य-सी बात हो जाती है।

3. मदिरापान पारिवारिक बरबादी का कारण:
यूँ तो अल्प मात्रा में नशा औषधि का भी काम करता है। डॉक्टर और वैद्य भी इसकी सलाह देते हैं लेकिन अति तो प्रत्येक वस्तु की बुरी है-‘अति सर्वत्र वर्जयेत्।’ अति से यही शराब विष बन जाती है। नशे के चक्कर में बड़े-बड़े घरानों को उजड़ते हुए देखा गया है। जिस पैसे को खून और पसीना एक करके मनुष्य प्रातः से सायं तक कमाता है और जिसके आने की प्रतीक्षा में बच्चे और पत्नी घर पर बैठे होते हैं, वह उस पैसे की शराब पीकर लड़खड़ाता हुआ घर आता है। पड़ोसी उसे देखकर हँसते हैं, मोहल्ले वाले उसकी निंदा करते हैं लेकिन बेचारी पत्नी आह भरकर रह जाती है। उसे तो एक ही डर है-शराबी पति आकर उसे और उसके बच्चों को पीटेगा। वह बेचारी दिल पर पत्थर रखे सारा जीवन काट देती है।

4. विषैली शराब के दुष्परिणाम:
विषैली शराब के दुष्परिणाम तो प्रतिदिन समाचार-पत्रों में छपते रहते हैं। आर्थिक संकट की स्थिति में शराबी घटिया शराब पीने लगता है। उधर शराब बेचने वाले अधिक आय के चक्कर में शराब में मिलावट कर देते हैं। इस प्रकार की विषैली शराब हज़ारों की जान ले चुकी है परंतु यह प्रक्रिया समाप्त नहीं होती। पुलिस और सरकार के नाक के नीचे यह धंधा चल रहा है। लोग पी रहे हैं, मर रहे हैं। समाचार-पत्र छाप रहे हैं, सब कुछ हो रहा है। सिनेमा तक में इस समस्या को बार-बार उछाला गया है लेकिन सरकार है कि उसके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। कारण यह है कि विषैली शराब बेचने वालों को राजनीतिज्ञों का संरक्षण प्राप्त है।

5. नशाबंदी कानून के लाभ:
पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण ने शराब सेवन को बढ़ावा दिया है। शराब पश्चिमी राष्ट्रों के लोगों के लिए अनुकूल है क्योंकि वहाँ सरदी अधिक पड़ती है। भारत एक कृषि-प्रधान देश है। शराब यहाँ के वातावरण के सर्वथा प्रतिकूल है। स्वतंत्रता-पूर्व काल में मदिरालयों के सामने धरने दिए जाते थे। गांधी जी ने इसके विरुद्ध ज़ोरदार अभियान भी आरंभ किया। अतः नशे की हानियों को सामने रखकर भारत सरकार ने देश के समुचित उन्नयन के लिए नशाबंदी कानून बनाया। इस कानून के अनुसार केवल कुछ लाइसेंस प्राप्त व्यक्ति ही नशीली वस्तुओं, विशेषकर, शराब को बेच सकते थे। इन लाइसेंस प्राप्त व्यक्तियों के अतिरिक्त और कोई शराब नहीं बेच सकता। मद्य-निषेध के लिए समय-समय पर अनेक प्रयास हुए हैं।

उपसंहार:
देश में पूर्ण नशाबंदी से अनेक लाभ हो सकते हैं। हमारे बड़े-बड़े नेता चारित्रिक पतन के लिए बार-बार चीखते और चिल्लाते हैं। नशाबंदी लागू करने से उन्हें फिर नहीं रोना पड़ेगा। देश स्वयं सुधरेगा। हज़ारों घर उजड़ने से बच जाएँगे। देश सामूहिक शक्ति प्राप्त करेगा। विलासिता के स्थान पर कर्मण्यता और अध्यवसाय बढ़ेगा। उदासी और अकर्मण्यता दूर हो जाएँगे। लोग चरित्रवान और बलवान बनेंगे। तामसी वृत्ति समाप्त होकर सात्विकी वृत्ति बढ़ेगी। धर्म और कर्तव्य की भावना विकसित होगी।

47. प्राकृतिक प्रकोप : सुनामी लहरें

प्रकृति का मनोरम रूप जहाँ मनुष्य के विकास के लिए सदा सहायक है, वहाँ भयंकर रूप उसके विनाश का कारण भी बनता रहा है। मानव जहाँ आदिकाल से प्रकृति की गोद में खेलकूद कर बड़ा होता है, वही गोद कभी-कभी उसको निगल भी जाती है। अतिवृष्टि (अत्यधिक वर्षा), बाढ़, भूकंप, समुद्री तूफान, आँधी आदि प्राकृतिक प्रकोप के विभिन्न रूप हैं। 26 दिसंबर, 2004 को समुद्र में उठी भयंकर लहरें भी विनाशकारी प्राकृतिक प्रकोप था।

महाविनाशकारी ‘सुनामी’ की उत्पत्ति भी वास्तव में समुद्रतल में भूकंप आने से होती है। समुद्र के भीतर भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट या भू-स्खलन के कारण यदि बड़े स्तर पर पृथ्वी की सतहें (प्लेटें) खिसकती हैं तो इससे सतह पर 50 से 100 फुट ऊँची लहरें, 800 कि०मी० प्रति घण्टे की तीव्र गति से तटों की ओर दौड़ने लग जाती हैं। पूर्णिमा की रात्रि को तो ये लहरें और भी भयंकर रूप धारण कर लेती हैं। 26 दिसंबर को भूकंप के कारण उठी इन लहरों ने भयंकर रूप धारण करके लाखों लोगों की जाने ले ली और अरबों की सम्पत्ति को नष्ट कर डाला। आज भी उस दृश्य के विषय में सोचकर दिल दहल जाता है।

वस्तुतः ‘सुनामी’ शब्द जापानी भाषा का है। जहाँ अत्यधिक भूकंप आने के कारण वहाँ के लोगों को बार-बार प्रकृति के इस प्रकोप का सामना करना पड़ता है। हिंद महासागर के तल में आए भूकंप के कारण ही 26 दिसंबर को समुद्र में भयंकर सुनामी लहरें उत्पन्न हुई थीं। इस सुनामी तूफान ने चार अरब वर्ष पुरानी पृथ्वी में ऐसी हलचल मचा दी कि इंडोनेशिया, मालद्वीप, श्रीलंका, मलेशिया, अंडमान, निकोबार, तमिलनाडु, आंध्र-प्रदेश, केरल आदि सारे तटीय क्षेत्रों पर तबाही का नग्न तांडव हुआ। मछलियाँ पकड़कर आजीविका कमाने वाले कई हजार मछुआरे इस भयंकर सुनामी लहरों की चपेट में आकर जीवन से हाथ धो बैठे।

अंडमान-निकोबार द्वीप समूहों में स्थित वायु-सेना के अड्डे को भी भयंकर क्षति पहुंची तथा सौ से अधिक वायु-सेना के जवान, अधिकारी वर्ग और उनके परिजन काल के ग्रास बन गए। नौ-सेना के जलयान बँधी हुई रस्सियों के टूट जाने के कारण बच तो गए, किंतु चार नागरिक जहाज क्षतिग्रस्त हो गए। पोर्ट ब्लेयर हवाई पट्टी को क्षति पहुँची। उसकी पाँच हजार फीट की पट्टी सुरक्षित होने से राहत पहुंचाने वाले 14 विमान उतारे गए। इस संकट के समय में भारतीय विमानों को श्रीलंका और मालदीव के लोगों की सहायता के लिए भेजा गया। कई मीटर ऊँची सुनामी लहरों ने निकोबार में ए०टी०सी० टावर को भी ध्वस्त कर डाला था, किंतु तत्काल सचल ए०टी०सी० टावर की व्यवस्था कर ली गई थी।

यदि पुराने इतिहास पर दृष्टि डालकर देखा जाए तो पता चलेगा कि यह समुद्री तूफान व बाढ़ कोई नई घटना नहीं है। प्राचीन इराक में आज से लगभग छह हजार वर्ष पूर्व आए समुद्री तूफान और बाढ़ से हुई तबाही के प्रमाण मिलते हैं। बाइबल और कुरान शरीफ में भी विनाशकारी तूफानों का वर्णन मिलता है। ‘श्रीमद्भागवद्पुराण’ में भी प्रलय का उल्लेख मिलता है। उसमें बताया गया है कि जब प्रलय से सृष्टि का विनाश हो रहा था तब मनु भगवान् ने एक नौका पर सवार होकर सभी प्राणियों के एक-एक जोड़े को बचा लिया था।

भले ही यह वर्णन कथा के रूप में कहा गया है, किंतु इससे यह सिद्ध होता है कि समुद्र में तूफान आदिकाल से आते रहे हैं जिनका सामना मनुष्य करता आया है। इतना ही नहीं, भूकंप और समुद्री तूफानों ने पृथ्वी पर अनेक परिवर्तन भी कर दिए हैं। इन्हीं ने नए द्वीपों व टापुओं की रचना भी की है। भारत में प्राचीन द्वारिका समुद्र में डूब गई थी। इसके आज भी प्रमाण मिलते हैं। इसी प्रकार वैज्ञानिक विश्व के अन्य स्थानों की परिवर्तित स्थिति का कारण समुद्री तूफानों व भूकंपों को मानते हैं।

यू०एस० जियोलॉजिकल सर्वे के विशेषज्ञ केन हडनर के अनुसार सुमात्रा द्वीप से 250 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में समुद्र-तल के नीचे आए, इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 9 के लगभग थी। यह भूकंप इतना शक्तिशाली था कि इसने कई छोटे-बड़े द्वीपों को 20-20 मीटर तक अपने स्थान से हिलाकर रख दिया। विद्वानों का यह भी मत है कि यदि भारत अथवा एशिया के क्षेत्र में कहीं भी महासागर की तलहटी में होने वाली भूगर्भीय हलचलों के आकलन की चेतावनी प्रणाली विकसित होती तो इस त्रासदी से होने वाली जान-माल की क्षति को कम किया जा सकता था।

यह बात भी सही है कि प्राकृतिक प्रकोपों को रोक पाना मनुष्य व उसके साधनों के वश में नहीं है, फिर भी यथासंभव सूचना देकर बचने की कुछ व्यवस्था की जा सकती है। 26 दिसंबर, 2004 को सुनामी समुद्री भूकंप भारतीयों के लिए एक नया अनुभव है। भारतीय मौसम विभाग के सामने अन्य महासागरों में उठी सुनामी लहरों से हुई जान-माल की हानि के उदाहरण थे। किंतु भारतीय मौसम विभाग समुद्री भूकंप की सूचना होते हुए भी यह कल्पना तक नहीं कर सका कि सुनामी तरंगों से भारतीय तटीय क्षेत्र की दशा कैसी हो सकती है।

भारत में सुनामी तूफान से हुए विनाश को देखकर विश्वभर के लोगों के हृदय दहल उठे थे। अतः उस समय हम सबका कर्तव्य है कि हम तन, मन और धन से ध्वस्त लोगों के परिवार के साथ खड़े होकर उनकी सहायता करें। इसमें संदेह नहीं कि विश्व के अनेक देशों व संस्थाओं ने सुनामी से पीड़ित लोगों की धन से सहायता की है, किंतु इससे उनके अपनों के जाने का गम तो दूर नहीं किया जा सकता। हमें उनके प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए और उनका धैर्य बँधाना चाहिए।

HBSE 9th Class Hindi रचना निबंध-लेखन

48. राष्ट्रभाषा की समस्या
अथवा
राष्ट्रभाषा हिंदी

भूमिका:
‘राष्ट्र’ शब्द का प्रयोग किसी देश तथा वहाँ बसने वाले लोगों के लिए किया जाता है। प्रत्येक राष्ट्र का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है। उसमें विभिन्न जातियों एवं धर्मों के लोग रहते हैं। विभिन्न स्थानों अथवा प्रांतों में रहने वाले लोगों की भाषा भी अलग-अलग होती है। इस भिन्नता के साथ-साथ उनमें एकता भी बनी रहती है। पूरे राष्ट्र के शासन का एक केंद्र होता है।

अतः राष्ट्र की एकता को और दृढ़ बनाने के लिए एक ऐसी भाषा की आवश्यकता होती है, जिसका प्रयोग संपूर्ण राष्ट्र में महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए किया जाता है। ऐसी व्यापक भाषा ही राष्ट्रभाषा कहलाती है। भारतवर्ष में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। भारतवर्ष को यदि भाषाओं का अजायबघर भी कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी लेकिन एक संपर्क भाषा के बिना आज पूरे राष्ट्र का काम नहीं चल सकता।

1. अंग्रेज़ी-हिंदी का विवाद:
सन 1947 में भारतवर्ष को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। जब तक भारत में अंग्रेज़ शासक रहे, तब तक अंग्रेज़ी का बोलबाला था किंतु अंग्रेज़ों के जाने के बाद यह असंभव था कि देश के सारे कार्य अंग्रेज़ी में हों। जब देश के संविधान का निर्माण किया गया तो यह प्रश्न भी उपस्थित हुआ कि राष्ट्र की भाषा कौन-सी होगी ? क्योंकि राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र के स्वतंत्र अस्तित्व की पहचान नहीं होगी। कुछ लोग अंग्रेज़ी भाषा को ही राष्ट्रभाषा बनाए रखने के पक्ष में थे परंतु अंग्रेज़ी को राष्ट्रभाषा इसलिए घोषित नहीं किया जा सकता था क्योंकि देश में बहुत कम लोग ऐसे थे जो अंग्रेज़ी बोल सकते थे। दूसरे, उनकी भाषा को यहाँ बनाए रखने का तात्पर्य यह था कि हम किसी-न-किसी रूप में उनकी दासता में फंसे रहें।

2. राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी:
हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का प्रमुख तर्क यह है कि हिंदी एक भारतीय भाषा है। दूसरे, जितनी संख्या यहाँ हिंदी बोलने वाले लोगों की थीं, उतनी किसी अन्य प्रांतीय भाषा बोलने वालों की नहीं। तीसरे, हिंदी समझना बहुत आसान है। देश के प्रत्येक अंचल में हिंदी सरलता से समझी जाती है, भले ही इसे बोल न सकें। चौथी बात यह है कि हिंदी भाषा अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में सरल है, इसमें शब्दों का प्रयोग तर्कपूर्ण है। यह भाषा दो-तीन महीनों के अल्प समय में ही सीखी जा सकती है। इन सभी विशेषताओं के कारण भारतीय संविधान सभा ने यह निश्चय किया कि हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा तथा देवनागरी लिपि को राष्ट्रलिपि बनाया जाए।

3. हिंदी के विकास के प्रयत्न:
हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के बाद उसका एकदम प्रयोग करना कठिन था। अतः राजकीय कर्मचारियों को यह सुविधा दी गई थी कि सन 1965 तक केंद्रीय शासन का कार्य व्यावहारिक रूप से अंग्रेज़ी में चलता रहे और पंद्रह वर्षों में हिंदी को पूर्ण समृद्धिशाली बनाने के लिए प्रयत्न किए जाएँ। इस बीच सरकारी कर्मचारी भी हिंदी सीख लें। कर्मचारियों को हिंदी पढ़ने की विशेष सुविधाएँ दी गईं। शिक्षा में हिंदी को अनिवार्य विषय बना दिया गया। शिक्षा मंत्रालय की ओर से हिंदी के पारिभाषिक शब्द-निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ तथा इसी प्रकार की अन्य सुविधाएँ हिंदी को दी गईं ताकि हिंदी, अंग्रेज़ी का स्थान पूर्ण रूप से ग्रहण कर ले। अनेक भाषा-विशेषज्ञों की राय में यदि भारतीय भाषाओं की लिपि को देवनागरी स्वीकार कर लिया जाए तो राष्ट्रीय भावात्मक एकता स्थापित करने में सुविधा होगी। सभी भारतीय एक-दूसरे की भाषा में रचे हुए साहित्य का रसास्वादन कर सकेंगे।

4. हिंदी का विरोध:
आज जहाँ शासन और जनता हिंदी को आगे बढ़ाने और उसका विकास करने के लिए प्रयत्नशील हैं वहाँ ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो उसको टाँग पकड़कर पीछे घसीटने का प्रयत्न कर रहे हैं। इन लोगों में कुछ ऐसे भी हैं जो हिंदी को संविधान के अनुसार सरकारी भाषा बनाने से तो सहमत हैं किंतु उसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहते। कुछ ऐसे भी हैं जो उर्दू का निर्मूल पक्ष में समर्थन करके राज्य-कार्य में विघ्न डालते रहते हैं। धीरे-धीरे पंजाब, बंगाल और चेन्नई के निवासी भी प्रांतीयता की संकीर्णता में फँसकर अपनी-अपनी भाषाओं की मांग कर रहे हैं परंतु हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसके द्वारा संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।

5. हिंदी राष्ट्रभाषा बनने में समर्थ:
निःसंदेह हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसमें राष्ट्रभाषा बनने की पूर्ण क्षमता है। इसका समृद्ध साहित्य और इसके प्रतिभा संपन्न साहित्यकार इसे समूचे देश की संपर्क भाषा का दर्जा देते हैं किंतु आज हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हिंदी का प्रचार-प्रसार कैसे किया जाए ? सर्वप्रथम तो हिंदी भाषा को रोज़गार से जोड़ा जाए। हिंदी सीखने वालों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाए। सरकारी कार्यालयों तथा न्यायालयों में केवल हिंदी भाषा का ही प्रयोग होना चाहिए। अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी का अधिकाधिक प्रचार होना चाहिए। वहाँ हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशकों एवं संपादकों को और आर्थिक अनुदान दिया जाए।

उपसंहार:
आज हिंदी के प्रचार-प्रसार में कुछ बाधाएँ अवश्य हैं किंतु दूसरी ओर केंद्रीय सरकार, राज्य सरकारें एवं जनता सभी एकजुट होकर हिंदी के विकास के लिए प्रयत्नशील हैं। सरकार द्वारा अनेक योजनाएँ बनाई गई हैं। उत्तर भारत में अधिकांश राज्यों में सरकारी कामकाज हिंदी में किया जा रहा है। राष्ट्रीयकृत बैंकों ने भी हिंदी में कार्य करना आरंभ कर दिया है। विभिन्न संस्थाओं एवं अकादमियों द्वारा हिंदी लेखकों की श्रेष्ठ पुस्तकों को पुरस्कृत किया जा रहा है। दूरदर्शन और आकाशवाणी द्वारा भी इस दिशा में काफी प्रयास किए जा रहे हैं।

49. परोपकार

भूमिका:
‘परोपकार शब्द दो शब्दों के मेल से बना है-‘पर’ + ‘उपकार’ । इसका अर्थ है-दूसरों की भलाई। अन्य शब्दों में, हम कह सकते हैं कि अपने स्वार्थ का त्याग करके दूसरों को अपना भाग दे देना अथवा अपनी भलाई को छोड़कर दूसरों की भलाई करना ही परोपकार कहलाता है।

कवि वेदव्यास ने 18 पुराणों की रचना की है परंतु उनका सार केवल यही है कि पुण्य के लिए परोपकार किया जाता है और पाप के लिए परपीड़न। गोस्वामी तुलसीदास ने भी इस संदर्भ में लिखा है-
पर हित सरिस धरम नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
अर्थात परोपकार के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है। जब व्यक्ति ‘स्व’ की सीमा से बाहर निकलकर ‘पर’ के बारे में सोचता है, तब समझिए कि उसमें परोपकार की भावना उत्पन्न होती है।

1. प्रकृति और परोपकार:
प्रकृति दूसरों के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देती है। पृथ्वी अपने प्राणों का रस निचोड़कर हमारा पेट भरती है। भर्तृहरि ने एक श्लोक में सही कहा है-
पिबन्ति नद्यः स्वमेव नाम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
खादन्ति शस्यं न खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभूतयः ॥
नदियाँ स्वयं जल नहीं पीतीं और वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते, न ही बादल फसलें खाते हैं। इसी प्रकार से सज्जनों का जन्म तो परोपकार के लिए होता है। माता के समान मानी जाने वाली गौ अनादि काल से अपने दुग्ध का दान दूसरों के लिए करती आई है। बाल-वृद्ध सबको ‘समानरूपेण मातृवत्’ पालने वाला यह पशु कितना सम्मान का पात्र बना हुआ है। इसलिए सभी पशुओं में इसका पद सम्मानित है। इसके दूध की एक-एक बूंद दूसरों के निमित्त है, स्वयं के लिए कुछ भी नहीं । निश्चय से यह पशु परोपकारी है।

2. परोपकार एक सात्विक गुण:
दूसरों का हित करना एक सात्विक गुण है। यह गुण ही वस्तुओं को अमरता प्रदान करता है। प्रकृति का जो भी पदार्थ अपने में यह गुण ला सका अर्थात दूसरों के निमित्त अपने को गला सका, वह अमर पद को पा गया। इसके विपरीत जो पदार्थ अपने ही संग्रह में लीन रहा, वह आया और गया, जन्मा और मरा। आज उसका नाम मात्र भी अवशिष्ट नहीं रहा। सूर्य, चंद्र, अग्नि, वायु, इंद्र आदि प्राकृतिक पदार्थ देव-पद के अधिकारी तभी बन पाए, जब इनका एक-एक अंश दूसरों के निमित्त कार्यरूप में आने लगा। इनका सर्वस्व संसार भर के लिए ही काम आया, अपने लिए नहीं।

3. परोपकारी महापुरुष:
प्रकृति के इन देवों की भाँति मानव जाति में भी अनेक देव अवतरित हुए जिनका सर्वस्व दूसरों को अर्पण रहा। अपने तुच्छ स्वार्थ की अवहेलना कर वे अपना सुख, ऐश्वर्य, वैभव सब दूसरे के सुख के लिए अर्पण कर अमर पद को प्राप्त कर गए। उन्होंने सुख-दुःख की तनिक भी परवाह नहीं की। वे किसी के दुःख को सहन नहीं कर सकते थे। पर वेदना उनके लिए सर्वथा असंभव थी। सांसारिक विषमता उन्हें छू तक न सकी थी। अपना बलिदान दूसरों के निमित्त दे देना उन्हें सर्वथा रुचिकर था। यहाँ तक कि अपने शरीर तक की बलि देने वाले हमारे महापुरुष अपने नाम को सदा के लिए अमर कर गए। इस नश्वर संसार में वे कभी नष्ट नहीं हो सकते। राजा शिवि, ऋषि दधीचि , राजा कर्ण आदि अनेक महापुरुष हमारी इस भारत-भूमि पर हुए हैं जिन्होंने परोपकार के लिए अपने-आपको भी बलिदान कर दिया। हमारी संस्कृति तो मानवमात्र की कल्याण-भावना से युक्त है। हमारा आदर्श है ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय।’ हमारे शास्त्रों का एक ही लक्ष्य था-‘वसुधैव कुटुम्बक’ अर्थात यह पूरा संसार ही मेरा परिवार है। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनि सभी की मंगलकामना का उपदेश देते रहे। यही तो है परोपकार का सार तत्त्व।।

4. मानवता का उद्देश्य:
मनुष्य के जीवन की सार्थकता यही है कि वह अपने कल्याण के साथ दूसरों का भी कल्याण करे। उसका कर्तव्य है कि वह स्वयं उठे और दूसरों को भी उठाए । दुखी और दीन की पुकार को सुने, अशक्त और असहाय पर दया करे और भूखों को भोजन दे। मनुष्य के पास यदि धन है तो दुर्बलों की रक्षा करे। ऐसा करके ही वह सच्चा मनुष्य कहलाने का अधिकारी है अन्यथा कुत्ता भी जहाँ-तहाँ मुँह मारकर अपना पेट भर लेता है।

उपसंहार:
निश्चय से यह संसार नश्वर है। यहाँ कोई वस्तु चिरस्थाई नहीं है। जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है लेकिन जो व्यक्ति परोपकार करता है; दूसरों के लिए त्याग करता है; उसी का नाम अमर होता है और उसी को आने वाली पीढ़ियाँ याद करती हैं। अस्तु, इस क्षणभंगुर और नश्वर संसार में परोपकार की भावना से ही मानव जाति की सार्थकता को सिद्ध किया जा सकता है। परोपकार ही मानव को स्थिरता, अमरता और चिरस्थायित्व प्रदान करता है। श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने ठीक ही कहा है
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ॥

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50. किसी भारतीय ऐतिहासिक दर्शनीय स्थान की सैर
(ताजमहल या आगरा)

भूमिका:
देशाटन या पर्यटन के अनेक लाभ हैं। इससे मानव का ज्ञान बढ़ता है और वह अपने आस-पास के वातावरण से परिचित होता है। मनुष्य भ्रमण द्वारा विभिन्न वस्तुओं, स्थानों, जीव-जंतुओं और भवनों को प्रत्यक्ष देखकर अपने अनुभव में वृद्धि करता है। विदेशों में तो पर्यटन एक उद्योग के रूप में विकसित हो चुका है। हमारे देश में भी पर्यटन मंत्रालय की स्थापना हो चुकी है जो कि सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है। भारत में प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में विदेशों से यात्री आते हैं और भारत के दर्शनीय स्थलों को देखकर प्रसन्न होते हैं। वे भारतवासियों के रहन-सहन, रीति-रिवाज तथा सभ्यता-संस्कृति का भी ज्ञान प्राप्त करते हैं।

1. सुंदर भारत:
भारत एक विशाल देश है। यहाँ प्रकृति का अक्षय भंडार है। संसार में हिमालय क्षेत्र ही एक ऐसा देश है जहाँ बारह महीने ठंड रहती है। यहाँ ऐसे भी स्थान हैं, जहाँ वर्ष के आधे भाग में सरदी और आधे भाग में गर्मी रहती है। पुनः यहाँ पर्वतीय क्षेत्र के साथ-साथ रेगिस्तान अथवा सामुद्रिक क्षेत्र भी हैं। इसी प्रकार से अजंता-अलोरा की गुफाएँ, कोलकाता के अजायबघर, खजुराहो के मंदिर, जयपुर का किला, दिल्ली का कुतुबमीनार, लालकिला और जामा मस्ज़िद तथा आगरा का ताजमहल सभी कुछ दर्शनीय हैं।

2. यात्रा की योजना:
पिछले वर्ष हमारे विद्यालय के विद्यार्थियों में इच्छा उत्पन्न हुई कि किसी दर्शनीय स्थल की यात्रा की जाए। कोई शिमला जाना चाहता था तो कोई जयपुर । किसी ने विचार रखा कि कन्याकुमारी तक की लंबी यात्रा की जाए। अंततः सभी ने मिलकर कक्षा के अध्यापक के समक्ष अपनी इच्छा व्यक्त की। पुनः मुख्याध्यापक की सलाह पर यही निर्णय हुआ कि आगरा की यात्रा की जाए और संसार के महान सुंदर भवन ताजमहल को अपनी आँखों से देखा जाए। हम अपने नगर कुरुक्षेत्र से बस द्वारा दिल्ली पहुंचे। वहाँ से रेलगाड़ी द्वारा हम आगरा पहुंचे। संसार के इस सातवें अजूबे को देखकर हम भौचक्के रह गए।

3. ताजमहल का निर्माण:
ताजमहल की गणना संसार के सात आश्चर्यों में की जाती है। यमुना नदी के किनारे पर स्थित यह एक सुंदर स्मारक है। इसे मुगल सम्राट शाहजहाँ ने अपनी प्रेयसी मुमताज़ की स्मृति में बनवाया था। शाहजहाँ मुमताज़ से अत्यधिक प्रेम करता था। एक बार मुमताज़ बहुत बीमार पड़ गई। उसके जीवन का दीपक बुझने वाला था। वह कृष्ण पक्ष की रात थी। सम्राट के हृदय का चाँद हमेशा के लिए बुझने जा रहा था। देखते-देखते मुमताज़ की आँखें हमेशा के लिए बंद हो गईं। शाहजहाँ अपनी पत्नी की याद में व्याकुल था। वह उसकी याद को हमेशा के लिए अपने मन में बसा लेना चाहता था। अतः उसने मुमताज़ की स्मृति में ताजमहल बनवाया। समूचा भवन श्वेत संगमरमर से बना हुआ है। इस भवन को बनाने में बीस वर्ष लगे थे।

4. ताजमहल का वर्णन:
हम सब अपने शिक्षक के साथ प्रवेश द्वार से अंदर आए। ताजमहल के चारों ओर सुंदर उद्यान हैं। प्रवेश द्वार लाल पत्थरों से बना हुआ है। इन पत्थरों पर कुरान की आयतें खुदी हुई हैं। सामने पानी के उछलते हुए फव्वारे बहुत ही सुंदर दृश्य प्रस्तुत करते हैं। चारों ओर मखमली घास उगी हुई है। सरू के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष भी सुंदर लगते हैं। घास का मैदान पार करके हम मुख्य भवन के पास पहुँचे। सामने संगमरमर के चबूतरे पर ताजमहल बना हुआ है। चबूतरे के चारों कोनों में श्वेत संगमरमर की ऊँची मीनारें हैं। मुख्य भवन के मध्य में एक बड़ा-सा हॉल है। इस हॉल के मध्य भाग में मुमताज़ महल और उसके प्रेमी (पति) शाहजहाँ की साथ-साथ कनें हैं। ये कबें भी संगमरमर की बनी हुई हैं।

5. चाँदनी रात में ताजमहल:
ताजमहल को देखने का आनंद तो चाँदनी रात में है। अगले दिन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा थी। अतः हमने अपने शिक्षक को रुकने का आग्रह किया। वे हमारी बात मान गए। हम रात को 10 बजे धर्मशाला से चलकर ताजमहल पहुँचे। क्या सुंदर दृश्य था! लगता था मानो समूचे भवन पर कूची फेरी गई हो। काफी पर्यटक इस समय पहुँचे हुए थे। ऐसा लग रहा था मानो सारा भवन सफेद मखमल की चादर ओढ़कर सो रहा हो।

उपसंहार:
ताजमहल साहित्यकारों की प्रेरणा का स्रोत रहा है। असंख्य कवियों, कलाकारों और चित्रकारों ने इसे देखकर अपनी रचनाएँ लिखीं परंतु मुझे उस रात को ताजमहल देखकर कविवर सुमित्रानंदन पंत की निम्नोक्त पंक्तियाँ याद आ गईं जिनमें कवि ने यह बताने का प्रयास किया है कि ताजमहल मृत्यु की पूजा है जबकि लाखों, करोड़ों लोग भूख और बेरोज़गारी से व्याकुल हैं
हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन ? जब विषण्ण निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन ! स्फटिक सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभन! नग्न, क्षुधातुर, वास विहीन रहें जीवित जन!

51. सांप्रदायिक एकता

भूमिका:
जिस समय भारत में सांप्रदायिक एकता थी, उस समय भारत का विश्व पर शक्ति में, शिक्षा में और शांति में एकछत्र आधिपत्य था। विश्व हमारी ओर आदर की दृष्टि से देखता था। हम विश्व के आदिगुरु समझे जाते थे। भारतीय जीवन के आदर्शों से विश्व के लोग शिक्षा ग्रहण करते थे। संपूर्ण राष्ट्र एकता के सूत्र में बँधा हुआ था। भारत विश्व में सर्वोत्तम राष्ट्र समझा जाता था। वेदों में भी भारतवासियों को एकता का संदेश देते हुए कहा गया है-तुम सब मिलकर चलो, संगठित हो जाओ, एक साथ मिलकर बोलो। तुम्हारे मन समान विचार वाले हों। जैसे देवता मिलजुल कर विचार प्रकट करते हैं, उसी प्रकार तुम भी मिलजुल कर रहो।

1. पराधीनता का समय:
परंतु जब से हमारी एकता अनेकता में छिन्न-भिन्न हो गई, तब से हमें ऐसे दुर्दिन देखने पड़े जिनकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हमें पराधीन होना पड़ा। हमें अपने धर्म एवं संस्कृति पर कुठाराघात सहन करना पड़ा। फलस्वरूप. हमारा राष्ट छिन्न-भिन्न हो गया। हमारी सत्रबद्ध सामहिक शक्ति हमेशा के लिए समाप्त हो गई। हम अनेक वर्षों के लिए गुलामी की जंजीरों में बाँध दिए गए। उन जंजीरों से मुक्त होने की कल्पना भी संदिग्ध प्रतीत होने लगी थी। अनेक बलिदानों के पश्चात बहुत कठिनाई से हमें यह आज़ादी मिली है। सहस्रों वर्षों की परतंत्रता के बाद बड़े भाग्य से हमें ये दिन देखने को मिले हैं। इस आत्म-गौरव को प्राप्त करने के लिए हमें कितना मूल्य चुकाना पड़ा, कितनी यातनाएँ सहन करनी पड़ी। हमारी सभ्यता एवं संस्कृति को कितने भयानक थपेड़े सहन करने पड़े और फिर भी हमारी संस्कृति साँस लेती रही। सैकड़ों वर्षों की अनंत साधनाओं के बाद हमें जो अमूल्य स्वतंत्रता मिली है, हम उसे बरबाद करने में लगे हुए हैं। पारस्परिक फूट के कारण हम अपने राष्ट्र को विनाश की ओर ले जा रहे हैं।

2. राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा;
आज भारतवर्ष स्वतंत्र है। यहाँ हमारा अपना शासन है किंतु फिर भी सांप्रदायिक एकता अथवा राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ आ खड़ी हुई हैं। धर्म, जाति और प्रांत के नाम पर स्थान-स्थान पर लोग आपस में लड़-झगड़ रहे हैं। आज हमारे समाज में कुछ ऐसी जहरीली हवा चल रही है कि सब अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। अपने स्वार्थ में डूबे लोग यह भी नहीं सोचते कि जिसके कारण हमें यह जीवन प्राप्त हुआ है, वह ही नहीं रहेगा अथवा खतरे में पड़ जाएगा तो न हमारी भाषा,बचेगी और न हमारा धर्म तथा न जाति। प्रांतीयता के भाव का यह विष अब शनैः-शनैः फैलता जा रहा है। प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने ही प्रांत के विषय में सोचता है। बंगाली बंगाल की, मद्रासी मद्रास की, गुजराती गुजरात की तथा पंजाबी पंजाब की उन्नति चाहता है। किसी को भी न तो समूचे राष्ट्र का ध्यान है और न ही कोई अपना दायित्व समझना चाहता है।

3. भाषागत विभिन्नताएँ:
हमारे देश में भिन्न-भिन्न भाषाएँ हैं। प्रत्येक प्रांत का निवासी अपने प्रांत की भाषा को प्रमुखता देता है। दक्षिणी भारत के कुछ स्थानों पर राष्ट्रगीत इसलिए नहीं गाया जाता क्योंकि वह हिंदी में है। कोई गीता के श्लोकों और रामायण की चौपाइयों को इसलिए मिटा रहा है क्योंकि वे हिंदी में या हिंदी वर्णमाला में हैं। स्वार्थ भावना में इतनी वृद्धि हो चुकी है कि स्वार्थी नागरिक केवल अपने तक ही सोचता है, अपना कल्याण और अपनी उन्नति ही उसका ध्येय है। न उसे देश की चिंता है, न राष्ट्र की। विभिन्न भाषाओं के साथ-साथ भारत में विभिन्न धर्मों के लोगों का वास है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्यं है। भारत सरकार किसी भी धर्म को आश्रय नहीं देती परंतु हर धर्म का आदर करती है। लोग केवल अपने-अपने धर्म से प्रेम करते हैं, राष्ट्र से नहीं। धार्मिक संकीर्णता के कारण जहाँ-तहाँ दंगे होते हैं।

4. प्रांतीयता का विष:
पराधीन भारत में सर्वत्र सांप्रदायिक सद्भावना अथवा एकता थी। सभी संप्रदायों के लोगों ने सच्चे मन से, एक-दूसरे के साथ बिना किसी भेदभाव के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और निःस्वार्थ भाव से महान बलिदान देकर भारत को स्वतंत्र करवाया था। उस समय प्रत्येक भारतीय के मुख पर केवल एक ही नारा रहता था-‘हिंदुस्तान हमारा है’ किंतु आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं। हम आज नारा लगाते हैं-“पंजाब हमारा है, असम हमारा है।” प्रत्येक व्यक्ति पहले अपनी बात सोचता है फिर प्रदेश की तथा बाद में देश की। यह सोच देश की एकता के लिए घातक है। देश में सांप्रदायिक सद्भावना और राष्ट्रीय एकता के लिए समय-समय पर अनेक उपाय किए गए हैं। अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने इसके लिए अपने जीवन का त्याग किया है। महात्मा गांधी ने अपना पूर्ण जीवन ही सांप्रदायिक सद्भावना और एकता के लिए न्योछावर कर दिया है। हमारे संतों ने सदा परस्पर मिलकर रहने का उपदेश दिया है। पंडित जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री आदि नेताओं ने सदैव राष्ट्रीय एकता को दृढ़ बनाने के प्रयास किए।

उपसंहार:
प्रत्येक नागरिक का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह सांप्रदायिक सद्भावना को बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास करे। सांप्रदायिक सद्भावना ही किसी राष्ट्र की एकता एवं मज़बूती का आधार होती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति का परम कर्तव्य है कि वह संकीर्ण भावनाओं को त्यागकर समूचे समाज अथवा राष्ट्र के लिए सोचे, मनन करे और उसकी समृद्धि के लिए प्रयास करे। यदि समय रहते इस दिशा में उचित कदम नहीं उठाया गया तो सांप्रदायिक भावना के कारण समाज बिखर जाएगा और राष्ट्र की एकता टूट जाएगी। सशक्त एवं सुदृढ़ राष्ट्र के लिए सांप्रदायिक एकता और सद्भावना का होना नितांत आवश्यक है।

52. यदि मैं शिक्षामंत्री बन जाऊँ ?

भूमिका:
‘शिक्षा’ अत्यंत छोटा-सा शब्द है किंतु दिखने में यह जितना छोटा लगता है, इसका अर्थ उतना ही व्यापक है। यह वास्तव में प्रकाश का स्तंभ है। वास्तव में, शिक्षा ही मानव को अपनी अच्छाई या बुराई को समझने के योग्य बनाती है। शिक्षित होकर ही व्यक्ति सही मार्ग पर चलकर विकास को प्राप्त होता है। शिक्षा ही अज्ञान को नष्ट करके ज्ञान का प्रकाश फैलाती है।

अतः शिक्षा मानव जीवन का मूल आधार है। उसके अभाव में मानव, मानव कहलाने योग्य नहीं बन सकता। अतः यह आधारशिला जितनी मज़बूत होगी, उतना ही मानव जाति का विकास होगा।

1. वर्तमान शिक्षा प्रणाली:
आज की शिक्षा प्रणाली का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो हमारे सामने उसकी अनेक कमियाँ आएँगी। आज की शिक्षा-प्रणाली दोषपूर्ण है। भारत की आधुनिक शिक्षा-प्रणाली पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली से प्रभावित है। भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली का आरंभ लॉर्ड मैकाले ने किया था। उसका प्रमुख लक्ष्य भारतीयों को अधिक-से-अधिक क्लर्क बनाना था, न कि भारतवासियों का सर्वांगीण विकास करना। आज भारत के स्वतंत्र होने के इतने वर्षों के बाद भी वही शिक्षा-प्रणाली चली आ रही है। इस शिक्षा प्रणाली के द्वारा शिक्षा ग्रहण करने से विद्यार्थी का न तो मानसिक विकास होता है और न ही नैतिक। यह शिक्षा हमारी धार्मिक परंपराओं के भी अनुकूल प्रतीत नहीं होती। यह मात्र किताबी कीड़े उत्पन्न करती है। छात्र वर्ष भर तोते की भाँति किताबें रटते रहते हैं और परीक्षा में तीन घंटे में उस रटे हुए विषय को उगल देते हैं। वे परीक्षा में पास होकर डिग्री प्राप्त करके रोज़गार कार्यालय में नाम दर्ज करवाकर रोज़गार प्राप्त करने की प्रतीक्षा करते रहते हैं।

2. शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन:
यदि मैं शिक्षामंत्री होता तो शिक्षा के द्वारा ऐसा खिलवाड़ न करता। यद्यपि कहाँ मैं और कहाँ शिक्षा-मंत्री का पद । यह तो वही बात हुई कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली ? फिर भाग्य पर भरोसा तो करना ही चाहिए। इसलिए भाग्य के भरोसे रहते हुए मैं अभी से यह विचार करने लगा हूँ कि यदि मैं शिक्षा मंत्री बन जाऊँ तो क्या-क्या काम करूँगा? यदि मैं शिक्षामंत्री बन जाऊँ तो सर्वप्रथम शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन करूँगा। मैं शिक्षा-प्रणाली में ऐसे परिवर्तन करने का प्रयास करूँगा कि शिक्षा सैद्धांतिक कम और व्यावहारिक अधिक हो। इसलिए मैं शिक्षा को व्यवसाय से जोड़ने का आदेश देता ताकि विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने पर भी सरकारी नौकरियों के लिए रिश्वत के रूप में अपना शोषण न करवाना पड़े।

शिक्षामंत्री बनने पर मैं प्राथमिक शिक्षा सबके लिए अनिवार्य करने के साथ-साथ प्रत्येक विद्यार्थी के लिए व्यावसायिक शिक्षा की सुविधा उपलब्ध करवाने का प्रयास करता। तकनीकी सुविधाओं को अधिक चुस्त-दुरुस्त बनाता। ऐसी संस्थाओं की संख्या भी बढ़ाता ताकि अधिक छात्र-छात्राएँ तकनीकी शिक्षा प्राप्त करके अपना जीवन सरलता से व्यतीत कर सकें। शिक्षामंत्री बन जाने पर दूसरा प्रमुख कार्य होता है योग्य अध्यापकों को नौकरी प्रदान करना। परिश्रमी, योग्य और कर्तव्यनिष्ठ अध्यापक ही अच्छी शिक्षा प्रदान कर सकते हैं। मैं शिक्षकों के वेतनों में वृद्धि का प्रावधान भी करता ताकि वे समाज में सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकें और उन्हें ट्यूशन आदि के पीछे न भागना पड़े। जो अध्यापक अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते उनके विरुद्ध तुरंत कड़ी कार्रवाई करने की योजना भी बनाता।

3. समान पाठ्यक्रम पर बल:
यदि मैं शिक्षामंत्री बन जाऊँ तो मेरा तीसरा प्रमुख कार्य होगा-समान पाठ्यक्रम लागू करना। मैं सारे देश में समान पाठ्यक्रम की योजना लागू करता ताकि सारे देश में शिक्षा का स्तर एक समान बन सके। त्रिभाषा सूत्रों को भी अनिवार्य रूप से लागू करता ताकि लोग मातृभाषा के साथ राष्ट्रभाषा हिंदी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं का भी अध्ययन कर सकते। मैं यह बात भली-भाँति समझता हूँ कि शिक्षा एवं पाठ्यक्रम की समानता से देश की एकता मज़बूत होगी। यदि मुझे शिक्षामंत्री बनने का अवसर मिल जाए तो मेरी यह भी योजना होगी कि मैं छात्र-छात्राओं के व्यक्तित्व के विकास के लिए पाठ्यपुस्तकों के अध्ययन के साथ-साथ अन्य गतिविधियों में भाग लेना अनिवार्य बनाऊँ और इन गतिविधियों की परीक्षा भी हो जिससे विद्यार्थी उनमें पूर्ण मन से भाग लेना आरंभ कर दें। पुस्तकों का बोझ कम करके छात्र-छात्राओं को अपनी रुचि के खेलों में भाग लेने के अवसर भी प्राप्त हों।।

4. राजनीति मुक्त शिक्षा:
आज हमारे देश में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में राजनीति अपनी जड़ें जमा चुकी है। शिक्षा भी इस रोग से नहीं बच सकी। विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय राजनीति के अखाड़े बन चुके हैं। यदि मैं शिक्षामंत्री बन जाऊँ तो मैं शिक्षा के इन मंदिरों को राजनीति से अलग रखने का हर संभव प्रयास करूँगा जिससे विद्या के इन मंदिरों में विद्यार्थी सुचारु रूप से शिक्षा ग्रहण कर सकें और छात्र-छात्राएँ अपनी रुचि के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर सकें। मैं तो चाहता हूँ कि वार्षिक परीक्षा के साथ-साथ आंतरिक मूल्यांकन भी होना चाहिए। परीक्षा में लघूत्तरात्मक और निबंधात्मक प्रश्नों के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ प्रश्न भी पूछे जाने चाहिएँ। परीक्षा केवल लिखित नहीं अपितु मौखिक भी होनी चाहिए। शारीरिक स्वास्थ्य भी परीक्षा का भाग होना चाहिए ताकि विद्यार्थी अपने शारीरिक स्वास्थ्य की ओर भी ध्यान देने लगे।

उपसंहार:
अंत में मैं यह कहना चाहूँगा कि आज की शिक्षा दिनों-दिन महँगी होती जा रही है। इस संबंध में मुंशी प्रेमचंद ने भी कहा था, “खर्चीली शिक्षा कभी चरित्रवान व्यक्ति पैदा नहीं कर सकती।” अतः मेरी यह कोशिश रहेगी कि शिक्षा को इतना सस्ता बना दूं कि हर सामान्य व्यक्ति के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकें। इससे शिक्षा का प्रचार-प्रसार अधिक-से-अधिक लोगों तक हो सकेगा और हम शत-प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने में भी सफल हो सकेंगे।

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53. मेरी प्रिय पुस्तक-रामचरितमानस

भूमिका:
मेरी प्रिय पुस्तक ‘रामचरितमानस’ है। इसके कवि लोकनायक महाकवि तुलसीदास हैं। शायद ही कोई हिंदू घर ऐसा हो, जिसमें रामचरितमानस की एक प्रति न हो। बड़े-बड़े महलों से लेकर झोंपड़ी तक में रहने वाले निर्धन भी इस महाकाव्य के प्रति आदर और श्रद्धा रखते हैं। रामचरितमानस का गंभीर अध्ययन करके व्यक्ति एक श्रेष्ठ नागरिक बन सकता है। यह महान ग्रंथ हमें सही अर्थों में मानव बनाता है। यह एक ऐसा रसायन है जिसका सेवन करने से मनुष्य सभी मानसिक और शारीरिक रोगों से मुक्त हो सकता है। यह व्यापक जीवानुभूति का काव्य है। तुलसीदास जी ने जहाँ एक ओर इसमें वैभवशाली रघुवंश का वर्णन किया है, वहाँ दूसरी ओर मुनियों के शांत आश्रम और उनके संयम तथा धर्माचरण का भी वर्णन किया है। इसमें कुल सात कांड हैं। इसका मूल आधार ‘वाल्मीकि रामायण’ है।

1. तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन:
तुलसीदास के रामराज के वर्णन में उच्च आदर्शों का वर्णन है तो कलिकाल के वर्णन में तत्कालीन मर्यादाविहीन सामाजिक स्थिति का भी। उन्होंने विश्वामित्र, वशिष्ठ जैसे विद्वान, सदाचारी और तपस्वी गुरुओं के वर्णन के साथ-साथ गाने-बजाने वाले और दूसरों का धन हरने वाले पंडितों का भी वर्णन किया है। उन्होंने सौभाग्यशाली पतिव्रता स्त्रियों के साज-शृंगार के साथ-साथ विधवाओं की दुर्दशा का भी वर्णन किया है। इसी प्रकार, उन्होंने धन लोभी गुरु, गुरु अपमान-रत शिष्य, उदर-पूर्ति की साधिका विद्या, निम्न जातियों के ज्ञानी बनने के ढोंग और ब्राह्मणों के आचरण का भी स्वाभाविक चित्रण किया है। उन्होंने अकाल और अन्नाभाव का जो वर्णन किया है, वह आज भी कितना स्वाभाविक है। रामायण में जहाँ राम, सीता और भरत जैसे आदर्श पात्र हैं, वहाँ रावण, शूर्पनखा, खर-दूषण जैसे पतित पात्र भी हैं। इस प्रकार, हम देखते हैं कि तुलसीदास जी ने जीवन और जगत के प्रत्येक वर्ग का स्वाभाविक वर्णन किया है। रामचरितमानस में लोकमंगल की भावना और उच्च आदर्शों की परिकल्पना की गई है। तुलसीदास जी एक ओर मोह-माया से ऊपर और रामभक्ति में रत हैं तो दूसरी ओर दूसरों के दुःख से दुखी और लोकमंगल के आकांक्षी भी हैं। उन्होंने रामचरितमानस के प्रारंभ में ही अपना उद्देश्य लोकहित घोषित करते हुए लिखा है
कीरति भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कर हित होई।।

2. लोक-कल्याण की भावना:
लोक-कल्याण की भावना ही इस ग्रंथ का प्रेरणास्रोत है। राम उस वंश में पैदा हुए जो पूर्ण मर्यादित, धर्मशील, सत्प्रतिज्ञ, बल-विद्या संपन्न और वैभवशाली है। जब विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के लिए राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को माँगते हैं तो राजा दशरथ उन्हें महर्षि विश्वामित्र के साथ भेज देते हैं। राम-वनवास के समय तो जैसे उनकी सत्यनिष्ठा निखर उठती है। यद्यपि वात्सल्य भाव से उनका मन द्रवित हो उठा तथापि राम को वनवास देने और भरत को राजा बनाने के निश्चय पर वे अटल रहे। राम का अवतार मर्यादा की स्थापना के लिए हुआ है। वे अंत तक मर्यादा की स्थापना में लगे रहे। उन्होंने धर्माचरण की रक्षा की। रामचरितमानस में राम जैसे आज्ञापालक पुत्र, राजा दशरथ जैसे दृढ़प्रतिज्ञ एवं सत्यनिष्ठ पिता, सीता जैसी सती और पतिपरायणा पत्नी, भरत और लक्ष्मण जैसे आज्ञाकारी एवं निष्ठावान भाई का बड़ा ही सुंदर चित्रण किया गया है। मर्यादाविहीन एवं पाप-परायण समाज के सामने श्रद्धा-भक्ति पूरित काव्य की रचना करके महाकवि तुलसीदास ने समाज को पतन के गर्त में गिरने से बचाया।

3. रामकथा के चार वक्ता:
रामकथा के चार वक्ता याज्ञवल्क्य, शंकर, काकभुशुंडि तथा स्वयं कवि (तुलसीदास) हैं और क्रमशः भारद्वाज, पार्वती, गरुड़ तथा पाठक चार ही श्रोता हैं। याज्ञवल्क्य प्रयाग में, शंकर कैलाश पर्वत पर तथा काकभुशुंडि नीलगिरि पर रहते हैं। ये तीनों भारत के उत्तर, दक्षिण और मध्य भाग हैं। इस कथा में मानो संपूर्ण राष्ट्र की भौगोलिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कथा को ही गूंथ दिया गया है। राम ने अयोध्या से रामेश्वरम तक की पद-यात्रा की। उन्होंने वन्य जातियों का संगठन कर आततायियों का दमन किया। अंत में रावण जैसे निशाचर को मारकर चारों ओर सुव्यवस्था की स्थापना की। इसमें भारत की एकता, शांति और व्यवस्था की भावना का ही समावेश था।

4. समन्वयवादी महाकाव्य:
इस काव्य में अपूर्व समन्वय दिखाई पड़ता है। निर्गुण और सगुण तथा ज्ञान और भक्ति के विरोध में बड़ा विवेकपूर्ण सामंजस्य स्थापित किया गया है। उत्तर कांड में जहाँ ब्रह्मज्ञान को कष्टसाध्य और अनेक विघ्नों से युक्त बताया गया है, वहीं भक्ति को मणिदीप कहा गया है। शैवों और वैष्णवों के विरोध को शांत करने के लिए राम को शिवभक्त बताया गया है।

उपसंहार:
रामचरितमानस में रामभक्ति की ऐसी पावन गंगा बहाई गई है, जिसमें नहाकर कोई भी व्यक्ति शांति और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसलिए रामचरितमानस मेरी सबसे प्रिय पुस्तक है। हिंदी साहित्य में यही एकमात्र रचना है जिस पर सर्वाधिक टीकाएँ लिखी गई हैं। इसका हिंदू धर्म में वही स्थान है जो ईसाई धर्म में बाइबल का और मुस्लिम धर्म में कुरान शरीफ का है लेकिन यह केवल धार्मिक पुस्तक ही नहीं, हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य भी है।

54. युवा शक्ति और समाज-निर्माण

भूमिका:
यौवन काल में व्यक्ति के अंदर शक्ति का अथाह सागर ठाठे मारता है। इस काल में व्यक्ति में अनेक इच्छाएँ और अभिलाषाएँ तरंगित होती रहती हैं। इसलिए नवयुवकों की शक्ति पर किसी प्रकार का अंकुश लगाना अत्यधिक कठिन होता है। युवा शक्ति असीम शक्ति का भंडार है। यौवन काल में युवकों में दुर्दमनीय शक्ति होती है। यदि युवकों की शक्ति को सही दिशा न दी जाए तो वह समाज और राष्ट्र के लिए घातक भी सिद्ध हो सकती है। अतः यह आवश्यक है कि युवकों को समाज कल्याण के कार्यों में लगाया जाए और उनकी असीम शक्ति को एक नई दिशा दी जाए।

1. शक्ति का भंडार युवा शक्ति:
विद्यार्थी समाज को बदलना चाहता है। उसके अंदर रचनात्मक कार्यों की असीम शक्ति है। वह सभी सपनों को सच्चाई में बदल सकता है। युवा शक्ति राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी है। वह देश की संपत्ति है। इतिहास साक्षी है कि संसार में जहाँ कहीं भी क्रांति हुई है, युवा शक्ति ने उसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज का विद्यार्थी ही कल का नेता है तथा आगे चलकर उसे ही देश का नेतृत्व करना है।

2. रूढ़ियों और कुरीतियों के उन्मूलन में युवकों का योगदान:
आज विज्ञान की उन्नति ने मानव को चाँद पर पहुँचा दिया है, फिर भी हमारा भारतीय समाज कुरीतियों और रूढ़ियों से ग्रसित है। दहेज प्रथा, छुआछूत, जाति प्रथा, वर्ग भेद, वर्ण व्यवस्था, सती प्रथा, बाल-विवाह आदि जैसी अनेक कुरीतियाँ हमारे समाज के लिए कलंक बन गई हैं। इसी प्रकार के अनेक अंधविश्वास हमारे समाज की जड़ों को खोखला कर रहे हैं। इसी कारण, भारत आज इतने वर्षों की स्वतंत्रता के बाद भी पिछड़ा हुआ है। यदि युवा वर्ग समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग करे तो एक स्वस्थ एवं उन्नतशील समाज का निर्माण हो सकता है।

3. आर्थिक क्षेत्र में युवकों का योगदान:
भारत की अधिकतर जनसंख्या गाँवों में रहती है। गाँवों की जनता बहुत पिछड़ी हुई है। आज कोई भी सरकारी कर्मचारी अथवा शिक्षक गाँवों में जाकर काम नहीं करना चाहता। गाँव के लोग खेती के आधुनिक साधन न जानने के कारण उनका प्रयोग नहीं कर सकते। उनका आर्थिक स्तर भी बहुत गिरा हुआ है। अन्न उपजाने वाले किसान को दो वक्त की रोटी मिलनी भी मुश्किल हो जाती है। इसके विपरीत, नगरों में पूँजी कुछ लोगों के हाथों में जमा हो रही है। गरीब और गरीब होता जा रहा है तथा अमीर और अमीर । इसका परिणाम यह हुआ कि देश में गरीबी, भुखमरी तथा बेरोज़गारी फैली हुई है। नवयुवक इस दिशा में काफी योगदान दे सकते हैं। वे गाँवों में जाकर वहाँ के लोगों को शिक्षित कर सकते हैं और खेती के नए-नए तरीकों से उन्हें परिचित करा सकते हैं। इस प्रकार, किसान अपने अनाज की उपज़ भी बढ़ा सकता है।

4. सांस्कृतिक संकट और युवा वर्ग:
आज देश में सांस्कृतिक संकट आ चुका है। हमारा युवा वर्ग पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण कर रहा है। हमारे उपयोगी मूल्य लुप्त हो रहे हैं। हमारी राष्ट्रीय एकता भी खतरे में पड़ गई है। विदेशी शक्तियाँ हमें नष्ट करने पर तुली हुई हैं। उग्रवाद अनेक रूपों में उभरकर हमारे सामने आ रहा है। ऐसी स्थिति में युवा वर्ग का दायित्व और भी बढ़ जाता है। यह सभी को विदित है कि पाश्चात्य जीवन-शैली ने भारतीय समाज के लिए संकट उत्पन्न कर दिया है। हमारा युवा वर्ग बिना सोचे-समझे विदेशी खान-पान और पहनावे की ओर आकृष्ट हो रहा है। यह न केवल समाज के लिए अपितु राष्ट्र के लिए भी घातक है। हमारा युवा वर्ग ही ऐसी स्थिति में भारतीय संस्कृति और उसकी धरोहर की रक्षा कर सकता है। विशेषकर, दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों के दुष्परिणाम सभी के सामने उजागर हैं।

5. राष्ट्रीय सेवा योजना:
समाज-सेवा एवं निर्माण के लिए स्कूलों एवं कॉलेजों में राष्ट्रीय सेवा योजना के यूनिटों की स्थापना की गई है। ये यूनिट समाज के पिछड़े वर्गों और गाँवों में अनेक प्रकार के रचनात्मक कार्य कर रही हैं। विशेषकर, अवकाश के दिनों में युवक-युवतियाँ गाँवों में जाकर शिविर लगाते हैं। गाँवों में जाकर अनपढ़ों को पढ़ाना, स्वास्थ्य, सफाई और कृषि की जानकारी देना, गाँवों की गलियाँ पक्की बनाना आदि अनेक समाज-कल्याण के काम युवक कर रहे हैं। इसी प्रकार से प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में भी युवकों का सहयोग सराहनीय है लेकिन इस दिशा में अभी और बहुत कुछ करना है।

एन०सी०सी० एक अन्य समाज कल्याण का कार्यक्रम है। यदि हम युवक-युवतियों को समाज कल्याण के कामों में लगाना चाहते हैं तो राष्ट्रीय सेवा योजना, एन०सी०सी० आदि के कार्यक्रमों में युवकों को अधिकाधिक भाग लेना होगा। देश के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक विकास के लिए देश की युवा शक्ति का सहयोग नितांत आवश्यक है। विशेषकर, आतंकवाद हमारे देश में उग्र रूप धारण कर चुका है। विदेशी शक्तियाँ हमें हर प्रकार से कमज़ोर करना चाहती हैं। 13 दिसंबर, 2001 को भारतीय संसद पर उग्रवादियों का आक्रमण उनके इसी लक्ष्य को सिद्ध करता है। इसी प्रकार, देश के अन्य भागों में भी उग्रवादियों की गतिविधियाँ बढ़ती जा रही हैं।

उपसंहार:
युवा शक्ति देश की अमूल्य निधि है, उसकी शक्ति असीम है। देश के नेताओं, विशेषकर, वर्तमान सरकार को इस शक्ति का सोच-समझकर प्रयोग करना होगा। हमारी समायोजना ऐसी होनी चाहिए कि देश के निर्माण और कल्याण के कामों में धुवक-युवतियों को भाग लेने का समुचित मौका मिले। युवकों को भी चाहिए कि वे अपने दायित्वों को समझें और योजनाबद्ध तरीके से स्वस्थ समाज का निर्माण करने में सरकार की सहायता करें।

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55. है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है

भूमिका-प्रस्तुत पंक्ति कविवर बच्चन की एक प्रसिद्ध कविता का अंश है। कवि यहाँ स्पष्ट करना चाहता है कि भले ही चारों ओर दुःख, निराशा और अवसाद का वातावरण छाया हुआ हो लेकिन ऐसी स्थिति में भी मानव का कर्तव्य है कि वह निरंतर संघर्ष करे तथा निराशा और दुःख को आशा तथा सुख में परिवर्तित कर दे।

1. प्रकृति का नियम:
प्रकृति का नियम है कि कृष्ण पक्ष के बाद शुक्ल पक्ष आता है। जेठ-वैशाख में भयंकर लू चलती है। चारों ओर तपती हुई धूप और उड़ती हुई धूल मनुष्य के लिए कष्टों और पीड़ाओं को उत्पन्न करती है, फिर आते हैं सावन के काले बादल। मूसलाधार वर्षा समाप्त होते ही शीत अपना प्रकोप फैलाना शुरू कर देती है। पुनः पतझड़ और अंततः वसंत का आगमन होता है। प्रकृति की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। इसी प्रकार से मानव जीवन में आशा-निराशा और सुख-दुःख का क्रम भी चलता रहता है।

2. जीवन रुकना नहीं चलने का नाम है:
डॉ० बच्चन की पद्य-पंक्ति है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है’ मनुष्य में आशा की किरण उत्पन्न करती है। सर्वप्रथम हम विद्यार्थी जीवन को लेते हैं। जो विद्यार्थी परीक्षा में असफल हो जाते हैं, वे निराश होकर बैठ जाते हैं। वे समझते हैं कि जीवन में सब कुछ समाप्त हो गया है; अब तो अंधकार रूपी निराशा ही चारों ओर है। वे यह नहीं सोचते कि रात के बाद ही प्रभात होती है। अगर एक बार परीक्षा में असफल हो गए तो इससे जीवन तो समाप्त नहीं हो जाता। पुनः परीक्षा तो दे सकते हैं। इस बात की मनाही तो नहीं है कि जो अनुत्तीर्ण है वह पुनः परीक्षा नहीं दे सकता। ऐसे विद्यार्थी को पुनः परिश्रम करना चाहिए-परीक्षा देनी चाहिए। उसे सफलता अवश्य मिलेगी।

विद्या चाहने वाले को हमेशा आशावादी बने रहना चाहिए। असफलता जीवन की प्रथम सीढ़ी है। आशा का सहारा लेकर ही मनुष्य को मुसीबतों का सामना करना चाहिए। जीवन रुकने का नहीं, चलने का नाम है। पगडंडी भी मानव को यही उपदेश देती है। यह कहीं भी नहीं रुकती। कोई सड़क या रास्ता ले लो, वह निरंतर चलता जाता है। नदी भी यही कहती है। पर्वतों से फूटकर बहती है; पत्थरों, पहाड़ों और जंगलों को पार करती हुई। वह सागर की ओर दौड़ती चलती है। अंततः वह अपना लक्ष्य प्राप्त करती है। एक कवि ने सही कहा है-
चलता चल रे साथी चलता चल
एक अन्य कविता में कविवर बच्चन ने इसी से मिलते-जुलते भाव प्रकट किए हैं-
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
वृक्ष हों भले खड़े, हों घने, हों बड़े,
एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!

3. प्रयत्न और परिश्रम की महिमा:
अंधेरी रात अर्थात् असफलता के बाद सफलता के लिए पुनः प्रयास आवश्यक है। प्रयत्न और परिश्रम की बड़ी महिमा है। परिश्रम के द्वारा हम पुनः अपना खोया हुआ मान-सम्मान अर्जित कर सकते हैं। परिश्रम के बल पर एक साधारण व्यक्ति भी असाधारण बन जाता है। अब्राहिम लिंकन, नेपोलियन बोनापार्ट, लालबहादुर शास्त्री, डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन आदि ऐसे अनेक महान पुरुष हुए हैं जिन्होंने परिश्रम द्वारा महान कार्य कर दिखाए।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का उदाहरण भी हमारे सामने है जिन्होंने एक लँगोटी पहनकर अपनी लगन और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर अंग्रेज़ों को भारत से बाहर निकाल दिया। हमारे सामने एक और उदाहरण चाणक्य का है। नंद की सभा में चाणक्य ने प्रतिज्ञा की-“जब तक मैं नंद वंश का उन्मूलन नहीं कर लूँगा, तब तक अपनी चोटी को गाँठ नहीं लगाऊँगा।” इसी चाणक्य ने संपूर्ण नंद वंश को जड़ से उखाड़कर ही साँस ली और चंद्रगुप्त जैसे धीर, वीर और स्वाभिमानी को भारत का सम्राट् बनाया।

उपसंहार:
निश्चय से, इस संसार में जीना आग पर चलने के समान है। जिस प्रकार आग पर चलने के लिए धैर्य और साहस की आवश्यकता है, उसी प्रकार से जीवन में संघर्षों का सामना करने के लिए भी साहस चाहिए। संघर्षों से जूझने वाले का जीवन ही सार्थक है। कविवर गिरिजाकुमार माथुर भी लिखते हैं-
दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं
देह सुखी हो पर मन के दुःख का अंत नहीं
दुःख है न चाँद खिला शरद्-रात आने पर
क्या हुआ जो खिला फूल रस वसंत जाने पर
जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य का वरण।
अस्तु, असफलता और पराजय जीवन के साथ-साथ हैं। यही अंधकार है जो मन रूपी सूर्य को ढक लेता है। अतः निराशा रूपी अंधकार में आशा रूपी दीपक जलाना अनिवार्य है। संघर्षों के बाद प्राप्त सफलता का अपना ही आनंद है।

56. ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’

भूमिका:
21वीं सदी में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारे की अनुगूंज चारों ओर सुनाई पड़ने लगी। इस नारे की क्या आवश्यकता है जब भारतवर्ष में प्राचीनकाल से नारी की स्तुति ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ कहकर की जाती रही है। यहाँ तक कि असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए भी देवताओं को नारी की शरण में जाना पड़ा था। देवी दुर्गा ने राक्षसों का संहार किया था।

विद्या की देवी सरस्वती, धन की देवी महालक्ष्मी और दुष्टों का नाश करने वाली महाकाली की आराधना आज भी की जाती है। इतना ही नहीं, आधुनिक काल में आजादी की लड़ाई में महिलाओं ने पर्दा प्रथा को त्यागकर देश को स्वतंत्रता दिलवाने में बढ़-चढ़कर भाग लिया। कविवर पंत ने नारी को ‘देवी माँ’, ‘सहचरी’, ‘सखी’, ‘प्राण’ तक कहकर सम्बोधित किया है। आज नारी चपरासी से लेकर प्रधानमंत्री के पद तक विराजमान है। पुलिस, सुरक्षा बल व सेना तक में भी उच्च पदों पर नियुक्त है। कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जहाँ उसने अपनी प्रबल कर्मठता का परिचय नहीं दिया। वह हर पद पर पुरुषों से अधिक ईमानदारी से काम करती है, यह सत्य भी किसी से छिपा नहीं है। वह माँ बनकर सृष्टि की रचना करने जैसा पवित्र काम करती है। पत्नी और बहन बनकर अपने सामाजिक दायित्व को निभाती है। आज अपने महान सहयोग से देश के विकास में बराबर की सहभागी बन गई है। फिर उसे हीन-भाव से क्यों देखा जाता है। वे कौन-से कारण हैं जिनके रहते बेटी को गर्भ में ही मार दिया जाता है। आज इन कारणों पर विचार करने की आवश्यकता है।

1. चुनौतीपूर्ण परवरिश:
यदि ध्यान से देखा जाए तो आजकल माता-पिता के लिए बेटी की परवरिश करना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है, क्योंकि यौन अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही है। माता-पिता की सोच बनती जा रही है कि यदि हम बेटी की इज्जत की रक्षा न कर पाए तो बेटी को जन्म देने का क्या फायदा होगा। माता-पिता की यही सोच कन्या भ्रूण हत्या का प्रमुख कारण है। इसके साथ-साथ दहेज प्रथा के कारण भी लोग बेटी को आर्थिक बोझ समझते हैं। बेटी का बाप बनना अच्छा नहीं समझा जाता है। बेटे वंश चलाते हैं, बेटी नहीं। आज यौन-अपराध व बलात्कार की घटनाएँ भी बढ़ती जा रही हैं।

इसके अतिरिक्त बेटी को पराया धन कहकर उसकी तौहीन की जाती है। इन सभी कारणों से बेटी को जन्म से पहले ही मार दिया जाता है। यदि समस्या की गहराई में झांका जाए तो इसमें बेटी कहाँ दोषी है ? दोषी तो समाज या उसकी संकीर्ण सोच है। आज बेटियों की कमी के कारण अनेक नई-नई समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। स्त्री-पुरुष संख्या का संतुलन बिगड़ रहा है। यदि बेटियाँ नहीं होंगी तो बहुएँ कहाँ से आएंगी। आज आवश्यकता है, बेटियों को बेटों के समान समझने की। उन्हें जीवन में आगे बढ़ने के अवसर प्रदान करने की। समाज के अपराध बोध को दूर करने की। दहेज जैसी कुप्रथा को समाप्त किया जाना चाहिए। कन्या भ्रूण हत्या अपनी कब्र खोदने के समान है।
‘इनकी आहों को रोक न पाएंगे हम
अपने किए पर पछताएंगे हम।’

2. बेटी की सुरक्षा के लिए प्रयत्न:
इस दिशा में सरकार ने अब अनेक कदम उठाएँ हैं ताकि बेटियों को बचाया जा सके और जिन कारणों से बेटियों को बोझ समझकर जन्म से पहले ही मार दिया जाता है, उन्हें दूर किया जा सके। कन्या भ्रूण हत्या पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। सरकार की इन योजनाओं में ‘बेटी धन’ योजना प्रमुख है। इसमें बेटी की शिक्षा व विवाह में आर्थिक सहायता की जाती है।

3. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा:
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारे के दूसरे भाग ‘बेटी पढ़ाओ’ पर भी विचार करना जरूरी है। ‘बेटी पढ़ाओ’ का सम्बन्ध नारी-शिक्षा से है। नारी हो या पुरुष शिक्षा सबके लिए अनिवार्य है किन्तु बेटी-जीवन के सम्बन्ध में शिक्षा का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि यदि बेटी शिक्षित होकर स्वावलम्बी बन जाती है तो वह माता-पिता पर बोझ न बनकर उनका बेटों के समान सहारा बन सकती है। बेटी बड़ी होकर देश की भावी पीढ़ी को योग्य बनाने के कार्य में उचित मार्ग-दर्शन कर सकती है।

बच्चे सबसे अधिक माताओं के सम्पर्क में रहते हैं। माता के व्यवहार का प्रभाव बच्चों के मन पर सबसे अधिक पड़ता है। ऐसी स्थिति में बेटियों का पढ़ना अति-आवश्यक है। आज की शिक्षित बेटी कल की शिक्षित माँ होगी जो देश और समाज के उत्थान में सहायक बन सकती है। इसीलिए बेटियों का सुशिक्षित होना अनिवार्य है। शिक्षित व्यक्ति ही अपना हित-अहित, लाभ-हानि भली-भाँति समझ सकता है। शिक्षित बेटियाँ ही अपने विकसित मन-मस्तिष्क से घर की व्यवस्था सुचारु रूप से चला सकती हैं तथा घर-परिवार के लिए आर्थिक उपार्जन भी कर सकती हैं। बेटियाँ पढ़-लिखकर योग्य बनकर आधुनिक देश-काल के अनुरूप उचित धारणाओं, संस्कारों और प्रथाओं का विकास करके कुप्रथाओं व कुरीतियों को मिटाकर एक स्वस्थ एवं उन्नत समाज का निर्माण कर सकती हैं। बेटी पढ़ाओ की दिशा में आज समाज, देश व सरकार प्रयत्नशील हैं।

उपसंहार:
आज बेटी बचाने की आवश्यकता के साथ-साथ बेटियों को शिक्षित, विवेकी, आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी बनाने की भी आवश्यकता है। इसी से बेटियों व नारियों संबंधी अनेक समस्याओं का समाधान सम्भव है। तभी, वे बराबरी और सम्मान के साथ जीवन व्यतीत कर सकेंगी। तंब बेटी बचाओ जैसे नारों की आवश्यकता नहीं रहेगी।

HBSE 9th Class Hindi रचना निबंध-लेखन

57. भूकंप : एक प्राकृतिक आपदा

भूमिका:
मानव आदि युग से प्रकृति के साहचर्य में रहता आया है। प्रकृति के प्रांगण में मानव को कभी माँ की गोद का सुख मिलता है तो कभी वही प्रकृति उसके जीवन में संकट बनकर भी आती है। बसंत की सुहावनी हवा के स्पर्श से जहाँ मानव पुलकित हो उठता है तो वहीं उसे ग्रीष्म ऋतु की जला देने वाली गर्म हवाओं का सामना भी करना पड़ता है। इसी प्रकार मनुष्य को तेज आँधियों, अतिवृष्टि, बाढ़, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाओं का सामना भी करना पड़ता है।

1. भूकंप का अर्थ:
‘भूकंप’ का अर्थ है भू का काँप उठना अर्थात् पृथ्वी का डांवाडोल होकर अपनी धुरी से हिलकर और फटकर अपने ऊपर विद्यमान जड़ और चेतन प्रत्येक प्राणी और पदार्थ को विनाश की चपेट में ले लेना तथा सर्वनाश का दृश्य उपस्थित कर देना। जापान में तो अकसर भूकंप आते रहते हैं जिनसे विनाश के दृश्य उपस्थित होते हैं। यही कारण है कि वहाँ लकड़ी के घर बनाए जाते हैं। भारतवर्ष में भी भूकंप के कारण अनेक बार विनाश के दृश्य उपस्थित हुए हैं। पूर्वजों की जुबानी सुना है कि भारत के कोटा नामक (पश्चिम सीमा प्रांत, अब पाकिस्तान में स्थित एक नगर) स्थान पर विनाशकारी भूकंप आया। यह भूकंप इतनी तीव्र गति से आया था कि नगर तथा आस-पास के क्षेत्रों के हजारों घर-परिवारों का नाम तक भी बाकी नहीं रहा था।

2. भूकंप से ग्रस्त क्षेत्र:
विगत वर्षों में गढ़वाल, महाराष्ट्र और गुजरात के कुछ क्षेत्रों में विनाशकारी भूकंप आया था जिससे वहाँ का जन-जीवन तहस-नहस हो गया था। पहले गढ़वाल के क्षेत्र में भूकंप के तेज झटके महसूस किए गए थे। वह एक पहाड़ी क्षेत्र है, जहाँ भूकंप के झटकों के कारण पहाड़ियाँ खिसक गई थीं, उन पर बने मकान भी नष्ट हो गए थे। हजारों लोगों की जानें गई . थीं। वहाँ की विनाशलीला से विश्व भर के लोगों के दिल दहल उठे थे। उस विनाशलीला को देखकर मन में विचार उठते हैं कि प्रकृति की लीला भी कितनी अजीब है। वह मनुष्य को बच्चों की भाँति अपनी गोद में खिलाती हुई एकाएक पूतना का रूप धारण कर लेती है। वह मनुष्य के घरों को बच्चों के द्वारा कच्ची मिट्टी के बनाए गए घरौंदों की भाँति तोड़कर बिखेर देती है और मनुष्यों को मिट्टी के खिलौनों की भाँति कुचल डालती है। गढ़वाल के क्षेत्र में भूकंप के कारण वहाँ का जन-जीवन बिखर गया था। कुछ समय के लिए तो वहाँ का क्षेत्र भारतवर्ष के अन्य क्षेत्रों से कट-सा गया था।

3. भूकंप का तांडव नाच:
इसी प्रकार महाराष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में आए भूकंप के समाचार मिले। यह भूकंप इतना भयंकर और विशाल था कि धरती में जगह-जगह दरारें पड़ गईं। हजारों लोगों की जानें चली गईं। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। सरकार की ओर से पहुंचाई जाने वाली सहायता के अतिरिक्त अनेक सामाजिक संस्थाओं और विश्व के अनेक देशों ने भी संकट की इस घड़ी में वहाँ के लोगों की हर प्रकार से सहायता की, किंतु उनके अपनों के जाने के दुःख को कम न कर सके।

धीरे-धीरे समय बीतता गया और समय ने वहाँ के लोगों के घाव भर दिए। वहाँ का जीवन सामान्य हुआ ही था कि 26 जनवरी, 2003 को प्रातः आठ बजे गुजरात में विनाशकारी भूकंप ने फिर विनाश का तांडव नृत्य कर डाला। वहाँ रहने वाले लाखों लोग भवनों के मलबे के नीचे दब गए थे। मकानों के मलबे के नीचे दबे हुए लोगों को निकालने का काम कई दिनों तक चलता रहा। कई लोग तो 36 घंटों के बाद भी जीवित निकाले गए थे। वहाँ भूकंप के झटके कई दिनों तक अनुभव किए गए थे। इस प्राकृतिक प्रकोप की घटना से विश्वभर के लोगों के दिल दहल उठे थे। कई दिनों तक चारों ओर रुदन की आवाजें सुनाई देती रहीं। अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं के सदस्य अपने साधनों के अनुरूप समान रूप से सहानुभूति और सहृदयता दिखा रहे थे तथा पीड़ितों को राहत पहुंचा रहे थे। यह भूकंप कितना भयानक था इसका अनुमान वहाँ पर हुए विनाशं से लगाया जा सकता है। वहाँ के लोगों ने बहुत हिम्मत से काम लिया और अपना कारोबार फिर जमाने में जुट गए।

लोग अभी प्रकृति की भयंकर आपदा से उभर ही रहे थे कि 8 अक्तूबर, 2005 को कश्मीर और उससे लगते पाकिस्तान के क्षेत्र में भयंकर भूकंप आया। संपूर्ण क्षेत्र की धरती काँप उठी थी। पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण पहाड़ों पर बसे हुए गाँव-के-गाँव तहस-नहस हो गए। साथ ही ठंड सर्दी के प्रकोप ने वहाँ के लोगों को ओर भी मुसीबत में डाल दिया। कड़कती सर्दी में वहाँ के लोगों को खुले मैदानों में रहना पड़ा। सरकार ने हैलीकाप्टरों व अन्य साधनों से वहाँ के लोगों की सहायता के लिए सामान पहुँचाया। भारतीय क्षेत्र की अपेक्षा पाकिस्तान क्षेत्र में अत्यधिक हानि हुई। लाखों लोगों को जान से हाथ धोने पड़े। प्राणियों को जन्म देने वाली और उनकी सुरक्षा करने वाली प्रकृति माँ ही उनकी जान की दुश्मन बन गई थी। 25 अप्रैल, 2015 को नेपाल में आए भूकंप ने हजारों लोगों की जाने ले ली और अनेक लोगों को बेघर कर दिया। देखते-ही-देखते नेपाल की खूबसूरत राजधानी काठमांडू तहस-नहस हो गई।

प्राकृतिक प्रकोप के कारण पीड़ित मानवता के प्रति हमें सच्ची सहानुभूति रखनी चाहिए और सच्चे मन से हमें उनकी सहायता करनी चाहिए। जिनके प्रियजन चले गए, हमें उनके प्रति सद्व्यवहार एवं सहानुभूति दिखाते हुए उनके दुःख को कम करना चाहिए। उनके साथ खड़े होकर उन्हें धैर्य बँधाना चाहिए। यही उनके लिए सबसे बड़ी सहायता होगी।

उपसंहार:
कितनी अजीब है यह प्रकृति और कैसे अनोखे हैं उसके नियम, यह समझ पाना बहुत कठिन कार्य है। भूकंप के दृश्यों को देखकर आज भी एक सनसनी-सी उत्पन्न हो जाती है। किन्तु प्रकृति की अजीब-अजीब गतिविधियों के साथ-साथ मानव की हिम्मत और साहस की भी प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जा सकता कि वह प्रत्येक प्राकृतिक आपदा का सदा ही साहसपूर्वक मुकाबला. करता आया है।

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HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 5 योग का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व

Haryana State Board HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 5 योग का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 9th Class Physical Education Solutions Chapter 5 योग का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व

HBSE 9th Class Physical Education योग का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व Textbook Questions and Answers

दीर्घ-उत्तरात्मक प्रश्न [Long Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
“योग भारत की एक विरासत है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
योग का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि भारत का इतिहास। इस बारे में अभी तक ठीक तरह पता नहीं लग सका है कि योग की उत्पत्ति कब हुई? लेकिन प्राम.?णक रूप से यह कहा जा सकता है कि योग का इतिहास भारत के इतिहास जितना ही पुराना है अर्थात् योग भारत की ही देन या विरासत है। इसलिए हमें योग की उत्पत्ति के बारे में जानने के लिए भारतीय इतिहास के कालों को जानना होगा, जिनसे स्पष्ट हो जाएगा कि योग भारत की एक विरासत है। भारतीय इतिहास के विभिन्न कालों का उल्लेख निम्नलिखित है

1. पूर्व वैदिक काल (Pre-Vedic Period):
हड़प्पा सभ्यता के दो प्रसिद्ध नगरों-हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों व प्रतिमाओं से पता चलता है कि उस काल के दौरान भी योग किसी-न-किसी रूप में प्रचलित था।

2. वैदिक काल (Vedic Period):
वैदिक काल में रचित वेद ‘ऋग्वेद’ में लिखित ‘युनजते’ शब्द से यह अर्थ स्पष्ट होता है कि लोग इंद्रियों को नियंत्रित करने के लिए योग क्रियाएँ किया करते थे। हालांकि वैदिक ग्रंथों में ‘योग’ और ‘योगी’ शब्दों का स्पष्ट रूप से प्रयोग नहीं किया गया है।

3. उपनिषद् काल (Upnishad Period):
योग की उत्पत्ति का वास्तविक आधार उपनिषदों में पाया जाता है। उपनिषद् काल में रचित कठोपनिषद्’ में योग’ शब्द का प्रयोग तकनीकी रूप से किया गया है। उपनिषदों में यौगिक क्रियाओं का भी वर्णन किया गया है।

4. काव्य काल (Epic Period):
काव्य काल में रचित महाकाव्यों में योग के विभिन्न रूपों या शाखाओं के नामों का उल्लेख किया गया है। महाकाव्यों; जैसे ‘रामायण’ व ‘महाभारत’ में यौगिक क्रियाओं के रूपों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। रामायण के समय योग प्रक्रिया काफी प्रसिद्ध थी। भगवद्गीता’ में भी योग के तीन प्रकारों का वर्णन है।

5. सूत्र काल (Sutra Period):
योग का पितामह महर्षि पतंजलि को माना जाता है, जिन्होंने योग पर आधारित प्रथम पुस्तक ‘योगसूत्र’ की रचना की। उन्होंने इस पुस्तक में योग के अंगों का व्यापक वर्णन किया है।

6. मध्यकाल (Medieval Period):
इस काल में दो संप्रदाय; जैसे नाथ और संत काफी प्रसिद्ध थे जिनमें यौगिक क्रियाएँ काफी प्रचलित थीं। नाथ हठ योग का और संत विभिन्न यौगिक क्रियाओं का अभ्यास करते थे। इस प्रकार इन संप्रदायों या पंथों में योग काफी प्रसिद्ध था।

7.आधुनिक या वर्तमान काल (Modern or Present Period):
इस काल में स्वामी विवेकानंद, स्वामी योगेन्द्र, श्री अरबिन्दो और स्वामी रामदेव आदि ने योग के ज्ञान को न केवल भारत में बल्कि भारत से बाहर भी फैलाने का प्रयास किया है। स्वामी रामदेव जी आज भी योग को सारे विश्व में लोकप्रिय बनाने हेतु निरंतर प्रयास कर रहे हैं।

निष्कर्ष (Conclusion):
उपर्युक्त वर्णित कालों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि योग भारतीय विरासत है। योग की उत्पत्ति भारत में ही हुई। आज योग विश्व के विभिन्न देशों में फैल रहा है। इसी फैलाव के कारण 21 जून, 2015 को पहला अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया।

HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 5 योग का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व

प्रश्न 2.
योग के बारे में आप क्या जानते हैं? इसका क्या उद्देश्य है?
अथवा
योग का अर्थ, परिभाषा तथा उद्देश्य पर प्रकाश डालें।
अथवा
योग क्या है? इसकी परिभाषाएँ बताइए।
उत्तर:
योग का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Yoga):
‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की मूल धातु ‘युज’ से हुई है जिसका अर्थ है-जोड़ या एक होना। जोड़ या एक होने का अर्थ है-व्यक्ति की आत्मा को ब्रह्मांड या परमात्मा की चेतना या सार्वभौमिक आत्मा के साथ जोड़ना। महर्षि पतंजलि (योग के पितामह) के अनुसार, ‘युज’ धातु का अर्थ है-ध्यान-केंद्रण या मनःस्थिति को स्थिर करना और आत्मा का परमात्मा से ऐक्य । साधारण शब्दों में, योग व्यक्ति की आत्मा का परमात्मा से मिलन का नाम है। योग का अभ्यास मन को परमात्मा पर केंद्रित करता है। यह व्यक्ति के गुणों व शक्तियों का आपस में मिलना है।

1. कठोपनिषद् (Kathopnishad):
के अनुसार, “जब हमारी ज्ञानेंद्रियाँ स्थिर अवस्था में होती हैं, जब मस्तिष्क स्थिर अवस्था में होता है, जब बुद्धि भटकती नहीं, तब बुद्धिमान कहते हैं कि इस अवस्था में पहुँचने वाले व्यक्ति ने सर्वोत्तम अवस्था वाले चरण को प्राप्त कर लिया है। ज्ञानेंद्रियों व मस्तिष्क के इस स्थायी नियंत्रण को ‘योग’ की परिभाषा दी गई है। वह जो इसे प्राप्त कर लेता है, वह भ्रम से मुक्त हो जाता है।”

2. महर्षि पतंजलि (Maharshi Patanjali):
के अनुसार, “योग: चित्तवृति निरोधः” अर्थात् “मनोवृत्ति के विरोध का नाम ही योग है।”

3. श्री याज्ञवल्क्य (Shri Yagyavalkya):
के अनुसार, “जीवात्मा से परमात्मा के मिलन को योग कहते हैं।”

4. महर्षि वेदव्यास (Maharshi Vedvyas):
के अनुसार, “योग समाधि है।”

5. डॉ० संपूर्णानंद (Dr. Sampurnanand):
के अनुसार, “योग आध्यात्मिक कामधेन है।”

6. श्रीमद्भगवद् गीता (Shrimad Bhagvad Gita):
के अनुसार, “बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।” अर्थात् समबुद्धि युक्त मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे और बुरे कार्यों से अपने को मुक्त कर लेता है। अत: योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य-कौशल यही है।

7. भगवान श्रीकृष्ण (Lord Shri Krishna):
ने कहा-“योग कर्मसु कौशलम्।” अर्थात् कर्म को कुशलतापूर्वक करना ही योग है।

8. स्वामी कृपालु जी (Swami Kripaluji):
के अनुसार, “हर कार्य को बेहतर कलात्मक ढंग से करना ही योग है।”

इस प्रकार योग आत्मा एवं परमात्मा का संयोजन है। योग का अभ्यास मन को परमात्मा पर केंद्रित करता है और संपूर्ण शांति प्रदान करता है। योग हमें उन कष्टों का इलाज करने की सीख देता है जिनको भुगतने की जरूरत नहीं है और उन कष्टों का इलाज करता है जिनको ठीक नहीं किया जा सकता। बी०के०एस० आयंगर (B.K.S. Iyengar): के अनुसार, “योग वह प्रकाश है जो एक बार जला दिया जाए तो कभी कम नहीं होता। जितना अच्छा आप अभ्यास करेंगे, लौ उतनी ही उज्ज्वल होगी।”

योग का उद्देश्य (Objective of Yoga):
योग का उद्देश्य जीवात्मा का परमात्मा से मिलाप करवाना है। इसका मुख्य उद्देश्य शरीर को नीरोग, फुर्तीला, जोशीला, लचकदार और विशिष्ट क्षमताओं या शक्तियों का विकास करके मन को जीतना है। यह ईश्वर के सम्मुख संपूर्ण समर्पण हेतु मन को तैयार करता है। योग व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति वैज्ञानिक ढंगों से करता है।

HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 5 योग का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व

प्रश्न 3.
अष्टांग योग क्या है? अष्टांग योग के विभिन्न अंगों या अवस्थाओं का वर्णन करें।
अथवा
महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग के कौन-कौन से आठ अंग बताए हैं? उनके बारे में संक्षेप में लिखें। अथवा अष्टांग योग के आठ अंगों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
अष्टांग योग का अर्थ (Meaning of Asthang Yoga):
महर्षि पतंजलि ने ‘योग-सूत्र’ में जिन आठ अंगों का उल्लेख किया है, उन्हें ही अष्टांग योग कहा जाता है। अष्टांग योग का अर्थ है-योग के आठ पथ या अंग। वास्तव में योग के आठ पथ योग की आठ अवस्थाएँ (Stages) होती हैं जिनका पालन करते हुए व्यक्ति की आत्मा या जीवात्मा का परमात्मा से मिलन हो सकता है। अष्टांग योग का अनुष्ठान करने से अशुद्धि का नाश होता है, जिससे ज्ञान का प्रकाश चमकता है और विवेक (ख्याति) की प्राप्ति होती है।

अष्टांग योग के अंग (Components of Asthang Yoga): महर्षि पतंजलि ने इसकी आठ अवस्थाएँ (अंग) बताई हैं; जैसे.
1. यम (Yama, Forbearance):
यम योग की वह अवस्था है जिसमें सामाजिक व नैतिक गुणों के पालन से इंद्रियों व मन को आत्म-केंद्रित किया जाता है। यह अनुशासन का वह साधन है जो प्रत्येक व्यक्ति के मन से संबंध रखता है। इसका अभ्यास करने से व्यक्ति अहिंसा, सच्चाई, चोरी न करना, पवित्रता तथा त्याग करना सीखता है।

2. नियम (Niyama, Observance):
नियम से अभिप्राय व्यक्ति द्वारा समाज स्वीकृत नियमों के अनुसार ही आचरण करना है। जो व्यक्ति नियमों के विरुद्ध आचरण करता है, समाज उसे सम्मान नहीं देता। इसके विपरीत जो व्यक्ति समाज द्वारा स्वीकृत नियमों के अनुसार आचरण करता है, समाज उसको सम्मान देता है। नियम के पाँच भाग होते हैं-शौच या शुद्धि (Purity), संतोष (Contentment), तप (Endurance), स्व-अध्याय (Self-Study) और ईश्वर प्राणीधान (Worship with Complete Faith)। इन पर अमल करके व्यक्ति परमात्मा को पा लेता है और आचारिक रूप से शक्तिशाली बनता है। .

3. आसन (Asana, Posture):
जिस अवस्था में शरीर ठीक से बैठ सके, वह आसन है। आसन का अर्थ है-बैठना। योग की सिद्धि के लिए उचित आसन में बैठना बहुत आवश्यक है। महर्षि पतंजलि के अनुसार, “स्थिर सुख आसनम्।” अर्थात् जिस रीति से हम स्थिरतापूर्वक, बिना हिले-डुले और सुख के साथ बैठ सकें, वह आसन है। ठीक मुद्रा में रहने से मन शांत रहता है।

4. प्राणायाम (Pranayama, Control of Breath):
प्राणायाम में दो शब्द हैं-प्राण व आयाम । प्राण का अर्थ है- श्वास और आयाम का अर्थ है-नियंत्रण व नियमन। इस प्रकार जिसके द्वारा श्वास के नियमन व नियंत्रण का अभ्यास किया जाता है, उसे प्राणायाम कहते हैं अर्थात् साँस को अंदर ले जाने व बाहर निकालने पर उचित नियंत्रण रखना ही प्राणायाम है। इसके तीन भाग हैं
(1) पूरक (Inhalation),
(2) रेचक (Exhalation) और
(3) कुंभक (Holding of Breath)।

5. प्रत्याहार (Pratyahara, Restraint of the Senses):
अष्टांग योग प्रत्याहार से अभिप्राय ज्ञानेंद्रियों व मन को अपने नियंत्रण में रखने से है। साधारण शब्दों में, प्रत्याहार का अर्थ मन व इन्द्रियों को उनकी संबंधित क्रियाओं से हटकर परमात्मा की ओर लगाना है। प्रत्याहार द्वारा हम अपनी पाँचों ज्ञानेंद्रियों (देखना, सुनना, सूंघना, छूना और स्वाद) को नियंत्रित कर लेते हैं।

6. धारणा (Dharna, Steadying of the mind):
अपने मन के निश्चल भाव को धारणा कहते हैं। अष्टांग योग में धारणा’ का बहुत महत्त्व है। धारणा का अर्थ मन को किसी इच्छित विषय में लगाना है। धारणा की स्थिति में हमारा मस्तिष्क बिल्कुल शांत होता है। इस प्रकार की प्रक्रिया से व्यक्ति में एक महान् शक्ति उत्पन्न हो जाती है, साथ ही उसके मन की इच्छा भी पूरी हो जाती है।

7. ध्यान (Dhyana, Contemplation):
धारणा से आगे आने वाली और ऊपरी स्थिति को ध्यान कहते हैं । जब मन पूरी तरह से नियंत्रण में हो जाता है तो ध्यान लगना आरंभ हो जाता है अर्थात् मस्तिष्क की पूर्ण एकाग्रता ही ध्यान कहलाती है। .

8. समाधि (Samadhi, Trance):
समाधि योग की सर्वोत्तम अवस्था है। यह सांसारिक दुःख-सुख से ऊपर की अवस्था है। समाधि योग की वह अवस्था है जिसमें साधक को स्वयं का भाव नहीं रहता। वह पूर्ण रूप से अचेत अवस्था में होता है। इस अवस्था में वह उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है जहाँ आत्मा व परमात्मा का मिलन होता है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि काफी लम्बे समय तक समाधि में बैठते थे। इस विधि द्वारा हम दिमाग पर पूरी तरह अपना नियंत्रण कर सकते हैं।

प्रश्न 4.
योग स्वास्थ्य का साधन है, इस विषय में अपने विचार प्रकट करें। अथवा “योगाभ्यास तंदुरुस्ती का साधन है।” इस कथन पर अपने विचार प्रकट करें। अथवा योगासन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
योग स्वास्थ्य या तंदुरुस्ती का साधन है। इसका उद्देश्य है कि व्यक्ति को शारीरिक तौर पर तंदुरुस्त, मानसिक स्तर पर दृढ़ और चेतन, आचार-विचार में अनुशासित करना है। इसकी मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) योगाभ्यास करने वाले व्यक्ति की मानसिक जटिलताएँ मिट जाती हैं। वह मानसिक तौर से संतुष्ट और शक्तिशाली हो जाता है।
(2) शरीर के आंतरिक अंगों की सफाई के लिए योगाभ्यास में खास क्रिया विधि अपनाई जाती है। धौती क्रिया से जिगर, बस्ती क्रिया से आंतड़ियों व नेती क्रिया से पेट की सफाई की जाती है।

(3) योग द्वारा कई बीमारियों का इलाज किया जा सकता है; जैसे चक्रासन द्वारा हर्निया रोग, शलभासन द्वारा मधुमेह का रोग दूर किए जाते हैं। योगाभ्यास द्वारा रक्त के उच्च दबाव (High Blood Pressure) तथा दमा (Asthma) जैसे रोग ठीक हो जाते हैं।

(4) योगाभ्यास द्वारा शारीरिक विकृतियों अर्थात् आसन को ठीक किया जा सकता है; जैसे रीढ़ की हड्डी का कूबड़, घुटनों का आपस में टकराना, टेढ़ी गर्दन, चपटे पैर आदि विकृतियों को दूर करने में योगासन लाभदायक हैं।

(5) योगासनों द्वारा मनुष्य को अपने संवेगों और अन्य अनुचित इच्छाओं पर नियंत्रण पाने की शक्ति मिलती है।

(6) योगाभ्यास द्वारा शारीरिक अंगों में लचक आती है; जैसे धनुरासन तथा हलासन रीढ़ की हड्डी में लचक बढ़ाते हैं।

(7) योग का शारीरिक संस्थानों की कार्यक्षमता पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। यह इनकी कार्यक्षमता को सुचारु करता है।

(8) योगाभ्यास करने से बुद्धि तीव्र होती है। शीर्षासन करने से दिमाग तेज़ और स्मरण-शक्ति बढ़ती है।

(9) योगासन करने से शरीर में चुस्ती और ताजगी पैदा होती है।

(10) योगासन मन को प्रसन्नता प्रदान करता है। मन सन्तुलित रहता है। जहां भोजन शरीर का आहार है, वहीं प्रसन्नता मन का आहार है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए दोनों की आवश्यकता होती है।

(11) योगाभ्यास द्वारा शरीर ताल में आ जाता है और योगाभ्यास करने वाले व्यक्ति की कार्यक्षमता बढ़ जाती है।

(12) योगाभ्यास करने वाला व्यक्ति देर तक कार्य करते रहने तक भी थकावट अनुभव नहीं करता। वह अधिक कार्य कर सकता है और अपने लिए अच्छे आहार के बढ़िया साधन प्राप्त कर सकता है। अत: योग शारीरिक तथा मानसिक थकावट दूर करने में सहायक होता है। अतः योग शारीरिक तथा मानसिक थकावट दूर करने में सहायक होता है।

प्रश्न 5.
योग क्या है? योग के प्रमुख सिद्धांत कौन-कौन से हैं?
अथवा
योगासन करते समय किन-किन मुख्य बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
अथवा
योगासन करते समय कौन-कौन सी सावधानियाँ बरतनी चाहिएँ?
उत्तर:
योग का अर्थ (Meaning of Yoga):
योग एक विभिन्न प्रकार के शारीरिक व्यायामों व आसनों का संग्रह है। यह ऐसी विधा है जिससे मनुष्य को अपने अंदर छिपी हुई शक्तियों को बढ़ाने का अवसर मिलता है। योग धर्म, दर्शन, शारीरिक सभ्यता और मनोविज्ञान का समूह है।

योगासन के सिद्धांत/सावधानियाँ (Principles/Precautious of Yoga): योगासन या योगाभ्यास करते समय अग्रलिखित सिद्धांतों अथवा बातों को ध्या

(1) योगासन का अभ्यास प्रात:काल करना चाहिए।
(2) योगासन एकाग्र मन से करना चाहिए, इससे अधिक लाभ होता है।
(3) योगासन का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए।
(4) योगासन करते समय शरीर पर कम-से-कम कपड़े होने चाहिएँ, परन्तु सर्दियों में उचित कपड़े पहनने चाहिएँ।
(5) योगासन खाली पेट करना चाहिए। योगासन करने के दो घण्टे पश्चात् भोजन करना चाहिए।
(6) योगासन प्रतिदिन करना चाहिए।
(7) योगासनों का अभ्यास प्रत्येक आयु में कर सकते हैं, परन्तु अभ्यास करने से पहले किसी अनुभवी व्यक्ति से जानकारी ले लेनी चाहिए।
(8) यदि शरीर अस्वस्थ या बीमार है तो आसन न करें।
(9) प्रत्येक आसन निश्चित समयानुसार करें।
(10) योग आसन करने वाला स्थान साफ-सुथरा और हवादार होना चाहिए।
(11) योग आसन किसी दरी अथवा चटाई पर किए जाएँ। दरी अथवा चटाई समतल स्थान पर बिछी होनी चाहिए।
(12) योगाभ्यास शौच क्रिया के पश्चात् व सुबह खाना खाने से पहले करना चाहिए।
(13) प्रत्येक अभ्यास के पश्चात् विश्राम का अंतर होना चाहिए। विश्राम करने के लिए शवासन करना चाहिए।
(14) प्रत्येक आसन करते समय फेफड़ों के अंदर भरी हुई हवा बाहर निकाल दें। इससे आसन करने में सरलता होगी।
(15) योग करते समय जब भी थकावट हो तो शवासन या मकरासन कर लेना चाहिए।
(16) योग आसन अपनी शक्ति के अनुसार ही करना चाहिए।
(17) योग अभ्यास से पूरा लाभ उठाने के लिए शरीर को पौष्टिक व संतुलित आहार देना बहुत जरूरी है।
(18) आसन करते समय श्वास या साँस हमेशा नाक द्वारा ही लें।
(19) हवा बाहर निकालने (Exhale) के उपरांत श्वास क्रिया रोकने का अभ्यास किया जाए।
(20) एक आसन करने के पश्चात् दूसरा आसन उस आसन के विपरीत किया जाए; जैसे धनुरासन के पश्चात् पश्चिमोत्तानासन करें। इस प्रकार शारीरिक ढाँचा ठीक रहेगा।

प्रश्न 6.
दैनिक जीवन में योग के महत्त्व का विस्तारपूर्वक वर्णन करें। अथवा आधुनिक संदर्भ में योग की महत्ता या उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
आधुनिक संदर्भ में योग के महत्त्व या उपयोगिता का वर्णन निम्नलिखित है
(1) हमारा मन चंचल और अस्थिर होता है। योग मन के विकारों को दूर कर उसे शांत करता है। योग का सतत् अभ्यास करके और लोभ एवं मोह को त्याग कर मन को शांत एवं निर्विकार बनाया जा सकता है।

(2) कर्म स्वयं में एक योग है। कर्त्तव्य से विमुख न होना ही कर्म योग है। पूरी एकाग्रता एवं निष्ठा के साथ कर्म करना ही योग का उद्देश्य है। अत: योग से कर्म करने की शक्ति मिलती है।

(3) हमारी वाणी से जो विचार निकलते हैं, वे मन एवं मस्तिष्क की उपज होते हैं। यदि मन में कलुष भरा है तो हमारे विचार भी कलुषित होंगे। जंब हम योग से मन को नियंत्रित कर लेते हैं तो हमारे विचार सकारात्मक रूप में हमारी वाणी से प्रवाहित होने लगते हैं। योग से नकारात्मक विचार सकारात्मक प्रवृत्ति में बदल जाते हैं।

(4) योग शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं में एकीकरण करने में सहायक होता है।

(5) योग में सर्वस्व कल्याण हित है। यह धर्म-मजहब से परे की विधा है।
(6) योग से शरीर की आंतरिक शुद्धता बढ़ती है।

(7) योग हमें उन कष्टों का इलाज करने की सीख देता है जिनको सहन करने की जरूरत नहीं है और उन कष्टों का इलाज करता है जिनको ठीक नहीं किया जा सकता।

(8) योग हमारे जीवन का आधार है। यह हमारी अंतर चेतना जगाकर विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की हिम्मत देता है। यह हमारी जीवन-शैली में बदलाव करने में सहायक है।

(9) योग धर्म, जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, ऊँच-नीच तथा अमीर-गरीब आदि से परे है। किसी के साथ किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं करता।

(10) योग स्वस्थ रहने की कला है। आज सभी का मूल फिट रहना है और यही चाह सभी को योग के प्रति आकर्षित करती है, क्योंकि योग हमारी फिटनेस में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

(11) योग मन एवं शरीर में सामंजस्य स्थापित करता है अर्थात् यह शरीर एवं मस्तिष्क के ऐक्य का विज्ञान है।
(12) योग से शरीर में रक्त का संचार तीव्र होता है। इससे शरीर का रक्तचाप व तापमान सामान्य रहता है।
(13) योग मोटापे को नियन्त्रित करने में मदद करता है।
(14) योग से शारीरिक मुद्रा (Posture) में सुधार होता है।
(15) योग से मानसिक तनाव व चिंता दूर होती है। इससे मनो-भौतिक विकारों में सुधार होता है।
(16) योग रोगों की रोकथाम व बचाव में सहायता करता है।
(17) यह शारीरिक संस्थानों की कार्यक्षमता को सुचारु रखने में सहायक होता है।
(18) योग आत्म-विश्वास बढ़ाने तथा मनोबल निर्माण में सहायता करता है।

HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 5 योग का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व

प्रश्न 7.
वज्रासन की विधि तथा इसके लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
वज्रासन (Vajrasana):
‘वज्र’ शब्द का अर्थ है-दृढ़ एवं कठोर । वज्र के साथ आसन जुड़ने से ‘वज्रासन’ बनता है। इस आसन में पैर की दोनों जंघाओं को ‘वज्र’ के समान दृढ़ करके बैठा जाता हैं । वज्रासन हमेशा बैठकर किया जाता है। स्वच्छं कम्बल या दरी पर बैठकर इस आसन का अभ्यास करें।

विधि (Procedure):
समतल भूमि पर जंघाओं तथा पिंडलियों को परस्पर मिलाकर और पीछे की ओर मोड़कर बैठें। पाँवों के दोनों तलवे आपस में सटाकर रखें। बाईं तथा दाईं हथेलियों को। बाएँ-दाएँ पाँवों के घुटनों पर रखें। कमर, ग्रीवा एवं सिर बिल्कुल सीधे रखें। घुटने मिले हुए हों और, हाथों को घुटनों पर रखें। धीरे-धीरे शरीर को ढीला छोड़े। श्वसन क्रिया करते रहें। वज्रासन को जितना। संभव हो, उतनी देर करें। विशेष रूप से भोजन के तुरंत बाद पाचन क्रिया को बढ़ाने के लिए कम-से-कम 5 मिनट के लिए इस आसन का अभ्यास जरूर करें।
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लाभ (Benefits): वज्रासन करने के लाभ निम्नलिखित हैं
(1) वज्रासन ध्यान केन्द्रित करने वाला आसन है। इससे मन की चंचलता दूर होती है तथा वज्रासन चित्त एकाग्र हो जाता है।
(2) इस आसन को नियमित रूप से करने से जाँघों की माँसपेशियाँ कठोर एवं मजबूत होती हैं।
(3) यह एक ऐसा आसन है जिसे भोजन के बाद किया जाता है। इसे करने से अपच, अम्लपित्त, गैस, कब्ज आदि रोग दूर हो जाते हैं।
(4) इससे पाचन-शक्ति में वृद्धि होती है।
(5) यह मन को एकाग्र करने में सहायक होता है।
(6) इसे करने से रक्त प्रवाह ठीक रहता है।
(7) इस आसन को नियमित रूप से करने से आसन संबंधी विकार दूर हो जाते हैं।
(8) इसे करने से स्मरण-शक्ति बढ़ जाती है।
(9) इसे करने से मोटापा कम होता है।
(10) इसे करने से मेरुदण्ड शक्तिशाली व सुदृढ़ हो जाता है।

प्रश्न 8.
ताड़ासन क्या है? इसकी विधि तथा इसके लाभों का उल्लेख करें।
उत्तर:
ताड़ासन (Tadasana):
ताड़ासन में खड़े होने की स्थिति में धड़ को ऊपर की ओर किया जाता है। इस आसन में शरीर की स्थिति ताड़ के वृक्ष जैसी प्रतीत होती है, इसीलिए इसे ताड़ासन कहा जाता है। यह ऐसा आसन है जो न केवल बड़ी माँसपेशियों को ही बल्कि सूक्ष्म-से-सूक्ष्म माँसपेशियों को भी काफी हद तक लचीला बनाता है। ताड़ासन को विभिन्न नामों से जाना जाता है।

विधि (Procedure):
सबसे पहले आप समतल जमीन पर सीधे खड़े हो जाएँ। फिर अपने दोनों पैरों को मिला लें। आपका शरीर स्थिर रहना चाहिए। आपके दोनों पैरों पर शरीर का वजन बराबर होना चाहिए। अब धीरे-धीरे हाथों को कन्धों के समानांतर लाएँ। दोनों हाथों को ऊपर उठाकर अंगुलियों को सीधे ऊपर की ओर रखें। अब साँस भरते हुए अपने हाथों को ऊपर की ओर खींचें और पंजों

Meaning, Definition and Values of Yoga के बल अधिक-से-अधिक ऊपर उठने का प्रयास करें। इस दौरान आपकी गर्दन सीधी होनी चाहिए। इस अवस्था को कुछ देर के लिए बनाए रखें और श्वसन क्रिया करते रहें। फिर साँस छोड़ते हुए धीरे-धीरे अपने हाथों और शरीर को पहले वाली अवस्था में ले आएँ। इस क्रिया को इसी क्रम में कम-से-कम 7-8 बार दोहराएँ।

लाभ (Benefits)-ताड़ासन करने से होने वाले लाभ निम्नलिखित हैं
(1) ताड़ासन पैरों की समस्याओं को दूर करता है। यह पैरों को मजबूती प्रदान करता है।
(2) इससे एकाग्रता में वृद्धि होती है।
(3) यह पाचन क्रिया को ठीक करता है।
(4) इससे शरीर स्वस्थ, लचीला और सुडौल बनता है।
(5) इससे कमर पतली और लचीली बनती है।
(6) यह पेट के भारीपन को कम करके चर्बी घटाने में सहायक होता है। इससे मोटापा कम होता है।
(7) इसे करने से नाड़ियों एवं माँसपेशियों का दर्द कम होता है। यह आसन नाड़ियों के साथ-साथ माँसपेशियों को मजबूत एवं सबल बनाता है।
(8) यह आसन बवासीर के रोगियों के लिए लाभदायक है।
(9) यह उच्च रक्त-चाप को नियंत्रित करने में सहायक होता है। ताड़ासन
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प्रश्न 9.
निम्नलिखित आसनों पर संक्षिप्त नोट लिखें
(क) चक्रासन
(ख) भुजंगासन
(ग) शीर्षासन
(घ) हलासन
(ङ) धनुरासन।
उत्तर:
(क) चक्रासन (Chakrasana):
कमर के बल ज़मीन पर लेट जाएँ।दोनों टाँगों को पूरी तरह फैलाकर पैरों को थोड़ा-सा खोलें। फिर दोनों कोहनियों को सिर के दोनों ओर ज़मीन पर जमाएँ। इस अवस्था में हाथों की हथेलियाँ धरती से लगनी चाहिएँ। फिर धीरे-धीरे कमर को ऊपर की ओर उठाते हुए शरीर को गोल करें, परन्तु पैर धरती से ही लगे रहने चाहिएँ। कुछ समय तक इस अवस्था में रहें।
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लाभ (Benefits):
(1) इससे शरीर में लचक पैदा होती है।
(2) इस आसन से पेट की चर्बी कम होती है।
(3) इससे रीढ़ की हड्डी लचकदार बनती है।
(4) इस आसन द्वारा घुटने, हाथ, पैर, कन्धे और बाजू की माँसपेशियाँ चक्रासन मज़बूत हो जाती हैं।
(5) इससे पेट की बहुत-सी बीमारियाँ दूर होती हैं।

(ख) भुजंगासन (Bhujangasana):
पेट के बल लेट जाएँ और दोनों पैरों को आपस में मिलाकर पूरी तरह धरती से लगाएँ। अपने पैरों की उंगलियों से लेकर नाभि तक का शरीर धरती से लगाएँ। हाथों को कन्धों के सामने धरती से लगाकर धड़ के ऊपरी भाग को पूरी तरह ऊपर की ओर उठाएँ। इस प्रकार कमर का ऊपरी भाग फनियर साँप जैसा बन जाएगा।
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लाभ (Benefits):
(1) यह आसन रीढ़ की हड्डी को लचीला और छाती को चौड़ा बनाता है। भुजंगासन
(2) यह आसन गर्दन, कन्धों, छाती और सिर को अधिक क्रियाशील बनाता है।
(3) यह रक्त-संचार को तेज़ करता है।
(4) यह मोटापे को कम करता है।
(5) इससे शरीर में शक्ति और स्फूर्ति का संचार होता है।
(6) इस आसन से जिगर के रोग दूर होते हैं।

(ग) शीर्षासन (Shirshasana)-
घुटने के बल बैठकर दोनों हाथों की अंगुलियाँ ठीक ढंग से बाँध लें और आसन पर रखें। सिर का आगे वाला भाग ज़मीन पर इस प्रकार रखें कि दोनों हाथ सिर के पीछे हों। टाँगों को धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठाएँ। पहले एक टाँग को सीधा करें, फिर दूसरी को सीधा करने के पश्चात् शरीर को सीधा करें। सारा वज़न सिर और भुजाओं पर रहे।
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लाभ (Benefits):
(1) शीर्षासन से मोटापा कम होता है।
(2) यह आसन भूख बढ़ाता है और जिगर ठीक प्रकार से कार्य करता है।
(3) इस आसन से स्मरण-शक्ति बढ़ती है।
(4) इससे पेट ठीक रहता है। शीर्षासन

(घ) हलासन (Halasana):
इस आसन में सबसे पहले अपने पैर फैलाकर पीठ के बल ज़मीन परं लेट जाओ। हाथों की हथेलियों को बगल में जमाएँ। कमर के निचले भाग को ज़मीन से धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठाएँ और इतना ऊपर ले जाएँ कि दोनों पैरों के अंगूठे सिर के पीछे ज़मीन पर लग जाएँ।
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लाभ (Benefits):
(1) इससे आँखों की रोशनी बढ़ती है।
(2) इस आसन से मोटापा दूर होता है।
(3) यह आसन रक्त संचार को समान करता है।
(4) इस आसन से रीढ़ की हड्डी लचीली होती है। हलासन
(5) यह आसन शरीर को तन्दुरुस्त बनाता है।

(ङ) धनुरासन (Dhanurasana):
इस आसन का आकार धनुष जैसा होता है। इस आसन में सबसे पहले पेट के बल लेट जाएँ। अपने दोनों हाथों के साथ दोनों पैरों की पिण्डलियों को पकड़ें। छाती और पेट के ऊपरी भाग को खींचें। हर्निया के रोगी को यह आसन नहीं करना चाहिए।
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लाभ (Benefits):
(1) यह आसन रीढ़ की हड्डी में लचीलापन लाता है।
(2) यह आसन मूत्र में शर्करा रोग को रोकता है।
(3) इस आसन द्वारा पेट अथवा कमर के आस-पास आया धनुरासन मोटापा दूर होता है।
(4) इस आसन द्वारा कब्ज़ और पेट संबंधी बीमारियाँ दूर होती हैं।
(5) यह आसन पीठ दर्द और कमर दर्द को दूर करता है।
(6) यह आसन करने से बाजुओं और टांगों की माँसपेशियाँ शक्तिशाली बनती हैं।
(7) इससे श्वासनली और फेफड़ों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।
(8) यह आसन पेट, आंतड़ियों और जनन के रोगों को दूर करता है।

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प्रश्न 10.
पद्मासन की विधि तथा इसके लाभों का वर्णन करें।
उत्तर:
पद्मासन (Padamasana):
पद्मासन का विशेष महत्त्व है क्योंकि अधिकांश आसन सर्वप्रथम पद्मासन लगाने के बाद ही किए जाते हैं। पद्मासन में पालथी लगाकर बैठा जाता है। किसी साफ-सुथरे कम्बल या दरी पर बैठकर इसका अभ्यास किया जाता है। इस आसन में शरीर की आकृति बहुत हद तक कमल के फूल जैसी हो जाती है। इस कारण इसको ‘Lotus Pose’ भी कहा जाता है।

विधि (Procedure):
समतल स्थान पर चटाई या कम्बल बिछाकर चौकड़ी लगाकर बैठे। बाएँ पाँव की एडी को दाईं जाँघ पर और दाएँ पाँव की एडी को बाईं जाँघ पर रखें। पाँव के तलवे ऊपर की ओर होने चाहिएँ। सामने देखते हुए कमर के ऊपरी भाग को सीधा रखें। दोनों हाथों को ज्ञान-मुद्रा की स्थिति में रखें। रीढ़ की हड्डी को सीधा रखें। धीरे-धीरे श्वसन क्रिया करें। 1 से 10 मिनट तक शांत-भाव से इसी मुद्रा में रहने का अभ्यास करें।

लाभ (Benefits)”
पद्मासन के लाभ निम्नलिखित हैं
(1) यह आसन करने से मन की एकाग्रता बढ़ती है।
(2) इसे करने से घुटनों के जोड़ों का दर्द दूर होता हैं।
(3) इसे करने से पेट सम्बन्धी बीमारियाँ दूर होती है और पाचन-शक्ति में वृद्धि होती है।
(4) इसे करने से माँसपेशियाँ मजबूत होती हैं। पद्मासन
(5) इसे नियमित रूप से करने से रीढ़ की हड्डी मजबूत एवं लचीली बनती है।
(6) यह आसन करने से स्मरण-शक्ति, विचार-शक्ति व तर्क-शक्ति बढ़ती है।
(7) इसके नियमित अभ्यास से चित्त में स्थिरता आती है और वीर्य में वृद्धि होती है।
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प्रश्न 11.
सर्वांगासन की विधि तथा इसके लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सर्वांगासन (Sarvangasana):
सर्वांगासन में कंधों के बल शरीर को खड़ा किया जाता है। किसी साफ-सुथरे कम्बल या दरी पर पीठ के बल लेट जाएँ। हथेलियों को नीचे की ओर करके शरीर से सटाए रखें।
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विधि (Procedure):
समतल ज़मीन पर शांत-भाव से पीठ के बल सीधे लेटकर पाँव आपस में मिला लें। धीरे-धीरे पाँवों को ऊपर ले जाते हुए शरीर को भी ऊपर उठाएँ। पाँव इस तरह ऊपर उठाएँ कि टाँगें और नितम्ब कमर के साथ 90 डिग्री का कोण बनाएँ। कुछ देर तक इसी स्थिति में ठहरने के बाद धीरे-धीरे शरीर को नीचे लाकर वापिस सामान्य स्थिति में आ जाएँ। 1 से 5 मिनट तक इस आसन का अभ्यास करें।

लाभ (Benefits):
सर्वांगासन करने के लाभ निम्नलिखित हैं
(1) यह आसन दमा के रोगियों के लिए दवा का कार्य करता है।
(2) इसे करने से शरीर में रक्त का प्रवाह तेज हो जाता है।
(3) कब्ज, गैस तथा पेट के अन्य रोग भी इस आसन से ठीक हो जाते हैं।
(4) यह आसन भूख में वृद्धि करता है।
(5) इसे करने से पेट की माँसपेशियाँ मजबूत बनती हैं। सर्वांगासन
(6) यह आसन पाचन-शक्ति में वृद्धि करता है।

प्रश्न 12.
शलभासन क्या है? इसकी विधि तथा इससे होने वाले लाभ बताएँ।
उत्तर:
शलभासन (Shalabhasana):
संस्कृत भाषा में ‘शलभ’ टिड्डी नामक कीट को कहते हैं। जिस प्रकार टिड्डी का पिछला भाग ऊपर की ओर उठा रहता है, उसी प्रकार नाभि से निचला भाग ऊपर की ओर उठा होने के कारण इसे शलभासन कहते हैं।
HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 1 स्वास्थ्य शिक्षा का अर्थ एवं महत्त्व 8

विधि (Procedure):
सबसे पहले पेट के बल ज़मीन पर लेट जाएँ। अपनी हथेलियों को जाँघों के नीचे रखें। अब गहरा श्वास भरकर ठुड्डी, हाथ एवं शलभासन छाती पर शरीर का भार संभालते हुए दोनों पैरों को धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठाएँ। पैर मिले हुए और घुटने सीधे रखें। श्वास छोड़ते हुए धीरे-धीरे पूर्व स्थिति में आ जाएँ। इस तरह से आप यह क्रिया 3 से 5 बार दोहराएँ।

लाभ (Benefits):
शलभासन के लाभ निम्नलिखित हैं
(1) इस आसन से रक्त-संचार की क्रिया तेज होती है।
(2) इससे रीढ़ की हड्डी में लचीलापन आता है।
(3) इससे पेट के कई रोग; जैसे गैस बनना, भूख न लगना और अपच या बदहजमी आदि दूर हो जाते हैं। इससे कमर-दर्द भी दूर होता है।
(4) इससे आँखों की रोशनी बढ़ती है।
(5) इससे रीढ़ की हड्डी मजबूत होती है।
(6) इससे शरीर का संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है।

प्रश्न 13.
प्राणायाम से क्या अभिप्राय है? इसकी उपयोगिता या महत्ता पर प्रकाश डालिए। अथवा ‘प्राणायाम’ की परिभाषा देते हुए इसके महत्त्व का वर्णन कीजिए। अथवा प्राणायाम का अर्थ व परिभाषा लिखें। वर्तमान में इसकी आवश्यकता पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
प्राणायाम का अर्थ (Meaning of Pranayama):
प्राणायाम में दो शब्द हैं-प्राण व आयाम। प्राण का अर्थ हैश्वास और आयाम का अर्थ है-नियंत्रण व नियमन। इस प्रकार जिसके द्वारा श्वास के नियमन व नियंत्रण का अभ्यास किया जाता है, उसे प्राणायाम कहते हैं। अर्थात् साँस को अंदर ले जाने व बाहर निकालने पर उचित नियंत्रण रखना ही प्राणायाम है। महर्षि पतंजलि के अनुसार, “श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति को रोकना ही प्राणायाम है।”

प्राणायाम की आवश्यकता एवं महत्त्व (Need and Importance of Pranayama):
वर्तमान समय में श्री श्री रविशंकर ने जीवन जीने की जो शैली सुझाई है, वह प्राणायाम पर आधारित है। आधुनिक जीवन में प्राणायाम की आवश्यकता एवं महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाती है

(1) प्राणायाम से शरीर का रक्तचाप व तापमान सामान्य रहता है।
(2) इससे शरीर की आंतरिक शुद्धता बढ़ती है।
(3) इससे मन की चंचलता दूर होती है।
(4) इससे सामान्य स्वास्थ्य व शारीरिक कार्य-कुशलता का विकास होता है।
(5) इससे मानसिक तनाव व चिंता दूर होती है।
(6) इससे हमारी श्वसन प्रक्रिया में सुधार होता है।
(7) इससे आँखों व चेहरे में चमक आती है और आवाज़ मधुर हो जाती है।
(8) इससे आध्यात्मिक व मानसिक विकास में मदद मिलती है।
(9) इससे कार्य करने की शक्ति में वृद्धि होती है।
(10) इससे फेफड़ों का आकार बढ़ता है और श्वास की बीमारियों तथा गले, मस्तिष्क की बीमारियों से छुटकारा मिलता है।
(11) इससे इच्छा शक्ति व स्मरण-शक्ति बढ़ती है।
(12) इससे श्वास-संस्थान मज़बूत होता है।
(13) प्राणायाम करने से पेट तथा छाती की मांसपेशियाँ मज़बूत बनती हैं।
(14) श्वास ठीक ढंग से आने के कारण शरीर को ऑक्सीजन अधिक मात्रा में मिलने लगती है और ऑक्सीजन बढ़ने से रक्त साफ होता है।
(15) इससे रक्त के तेज़ दबाव से नाड़ी संस्थान की शक्ति में वृद्धि होती है।

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प्रश्न 14.
प्राणायाम करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? एक योगसाधक के लिए आवश्यक निर्देश बताएँ।
उत्तर:
ध्यान रखने योग्य बातें (Things to keep in Mind): प्राणायाम करते समय निम्नलिखि बातों का ध्यान रखना चाहिए
(1) प्राणायाम धीरे-धीरे करना चाहिए।
(2) प्राणायाम का अभ्यास प्रात:काल करना अधिक लाभदायक होता है।
(3) प्राणायाम शुरू करने से पहले अपने योग शिक्षक की सलाह अवश्य लेनी चाहिए।
(4) प्राणायाम करते समय श्वास क्रिया नाक से करनी चाहिए।
(5) प्राणायाम करते समय किसी भी तरह का तनाव नहीं होना चाहिए।
(6) प्राणायाम के समय श्वसन क्रिया करते समय श्वसन की आवाज जोर से नहीं करनी चाहिए। श्वास की क्रिया लयात्मक व स्थिर होनी चाहिए।
(7) यदि आप बहुत थके हुए हो तो प्राणायाम नहीं करना चाहिए।
(8) प्राणायाम के बाद किसी भी तरह का जोरदार अभ्यास नहीं करना चाहिए।
(9) प्राणायाम को जल्दबाजी में नहीं करना चाहिए।
(10) प्राणायाम हमेशा खुले वातावरण में करना अधिक लाभदायक होता है या एक अच्छे हवादार कमरे में करना चाहिए जिसमें आदि न लगा हो।

एक योगसाधक के लिए आवश्यक निर्देश (Important Instructions of a Yoga Instructor) एक योगसाधक के लिए आवश्यक निर्देश निम्नलिखित हैं
(1) प्राणायाम शुरू करने से पहले योगसाधक को अपनी आंत को साफ कर देना चाहिए।
(2) स्वच्छ एवं हवादार कमरे में प्राणायाम का अभ्यास करें। यदि आप किसी शोरगुल वातावरण में अभ्यास करते हैं तो आपका मन विचलित हो सकता है।
(3) प्राणायाम करने से पहले 2 या 3 घंटे तक कुछ भी न खाएँ।
(4) प्राणायाम का अभ्यास एक ही समय में करना चाहिए अर्थात् प्राणायाम में नियमितता होनी चाहिए।
(5) प्राणायाम करने के लिए आप पदमासन, वज्रासन, सिद्धासन व सुखासन में बैठ सकते हैं।
(6) प्राणायाम करते समय अपनी पीठ बिल्कुल सीधी रखनी चाहिए।
(7) टी०बी० व उच्च रक्तचाप के मरीजों को प्राणायाम नहीं करना चाहिए।
(8) प्राणायाम के लिए सभी बुनियादी दिशा-निर्देशों का पालन करना चाहिए।
(9) प्राणायाम करते समय अपने जीवन की चिंताओं व तनाव आदि को भूल जाएँ और अपनी साँस पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करें।
(10) यदि आपको श्वास से संबंधित कोई बीमारी हो तो अपने चिकित्सक की सलाह या परामर्श से प्राणायाम का अभ्यास करें।

लघूत्तरात्मक प्रश्न [Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
योग के इतिहास पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
योग का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि भारत का इतिहास। इस बारे में अभी तक ठीक तरह पता नहीं लग सका कि योग कब शुरू हुआ? परंतु योग भारत की ही देन या विरासत है। भारत में योग लगभग तीन हजार ईसा पूर्व पहले शुरू हुआ। हजारों वर्ष पहले हिमालय में कांति सरोवर झील के किनारे पर आदि योगी ने अपने योग सम्बन्धी ज्ञान को पौराणिक सात ऋषियों को प्रदान किया। इन ऋषियों ने योग का विश्व के विभिन्न भागों में प्रचार किया। परन्तु व्यापक स्तर पर योग को सिन्धु घाटी सभ्यता के एक अमिट सांस्कृतिक परिणाम के रूप में समझा जाता है। महर्षि पतंजलि द्वारा योग पर प्रथम पुस्तक ‘योग-सूत्र’ लिखी गई, जिसमें उन्होंने योग की अवस्थाओं एवं प्रकारों का विस्तृत उल्लेख किया है। हिंदू धर्म के ग्रंथ ‘उपनिषद्’ में योग के सिद्धांतों या नियमों का वर्णन किया गया है। महर्षि पतंजलि के बाद अनेक योग गुरुओं एवं ऋषियों ने इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आधुनिक काल में महर्षि पतंजलि को योग का आदि गुरु माना जाता है। भारत के मध्यकालीन युग में कई योगियों ने योग के बारे में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। इसने मानवता के भौतिक और आध्यात्मिक विकास में अहम् भूमिका निभाई है।
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प्रश्न 2.
योग करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? अथवा योगासन करते समय ध्यान में रखी जाने वाली मुख्य बातें बताएँ।
उत्तर:
योगासन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए
(1) योगासन का अभ्यास प्रातः करना चाहिए। योग करते समय हमेशा नाक से साँस लेनी चाहिए।
(2) योगासन, शान्त जगह पर और खुली हवा में करना चाहिए।
(3) योगासन एकाग्र मन से करना चाहिए। इससे अधिक लाभ होता है।
(4) योगासन करते समय शरीर पर कम-से-कम कपड़े होने चाहिएँ, परन्तु सर्दियों में उचित कपड़े पहनने चाहिएँ।
(5) योगासनों का अभ्यास प्रत्येक आयु में कर सकते हैं, परन्तु अभ्यास करने से पहले किसी अनुभवी व्यक्ति से जानकारी ले लेनी चाहिए।
(6) योगासन खाली पेट करना चाहिए। इसके करने के दो घण्टे पश्चात् भोजन करना चाहिए।
(7) योगासन किसी दरी या चटाई पर किए जाएँ। दरी या चटाई किसी समतल जगह पर बिछी होनी चाहिए।

प्रश्न 3.
योग के लाभों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। अथवा योग अभ्यास का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है?
अथवा
योग आसन के मुख्य लाभ लिखें।
उत्तर:
योग धर्म-मजहब से परे की विधा है। जिस तरह से सूर्य अपनी रोशनी करने में किसी भी प्रकार का कोई भेद नहीं करता, उसी प्रकार से योग करके कोई भी इसका लाभ प्राप्त कर सकता है। दुनिया के हर इंसान को योग के लाभ समभाव से प्राप्त होते हैं; जैसे
(1) योग मस्तिष्क को शांत करने का अभ्यास है अर्थात् इससे मानसिक शान्ति प्राप्त होती है।
(2) योग से बीमारियों से छुटकारा मिलता है और हमारे स्वास्थ्य में सुधार होता है।
(3) योग एक साधना है जिससे न सिर्फ शरीर बल्कि मन भी स्वस्थ रहता है।
(4) योग आसन से मानसिक तनाव को भी दूर किया जा सकता है।
(5) योग आसन से सकारात्मक प्रवृत्ति में वृद्धि होती है।
(6) योग आसन तन-मन, चित्त-वृत्ति और स्वास्थ्य-सोच को विकार मुक्त करता है।
(7) योग आसन से आत्मिक सुख एवं शान्ति प्राप्त होती है।
(8) योग आसन से कर्म करने की शक्ति विकसित होती है।

प्रश्न 4.
नियम के भागों को सूचीबद्ध करें।
उत्तर:
नियम के भाग निम्नलिखित हैं
1. शौच-शौच का अर्थ है-शुद्धता। हमें हमेशा अपना शरीर आंतरिक व बाहरी रूप से साफ व स्वस्थ रखना चाहिए।
2. संतोष-संतोष का अर्थ है-संतुष्टि। हमें उसी में संतुष्ट रहना चाहिए जो परमात्मा ने हमें दिया है।
3. तप-हमें प्रत्येक स्थिति में एक-सा व्यवहार करना चाहिए। जीवन में आने वाली मुश्किलों व परिस्थितियों को धैर्यपूर्वक सहन करना तथा लक्ष्य-प्राप्ति की ओर निरंतर आगे बढ़ते रहना तप कहलाता है।
4. स्वाध्याय-ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों, गीता व अन्य महान् पुस्तकों का निष्ठा भाव से अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है।
5. ईश्वर प्राणीधान-ईश्वर प्राणीधान नियम की महत्त्वपूर्ण अवस्था है। ईश्वर को अपने सभी कर्मों को अर्पित करना ईश्वर प्राणीधान कहलाता है।

प्रश्न 5.
यम क्या है? यम के भागों को सूचीबद्ध करें।
उत्तर:
यम-यम योग की वह अवस्था है जिसमें सामाजिक व नैतिक गुणों के पालन से इंद्रियों व मन को आत्म-केंद्रित किया जाता है। यह अनुशासन का वह साधन है जो प्रत्येक व्यक्ति के मन से संबंध रखता है। इसका अभ्यास करने से व्यक्ति अहिंसा, सच्चाई, चोरी न करना, पवित्रता तथा त्याग करना सीखता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार यम पाँच होते हैं

1. सत्य-सत्य से अभिप्राय मन की शुद्धता या सच बोलने से है। हमें हमेशा अपने विचार, शब्द, मन और कर्म से सत्यवादी होना चाहिए।
2. अहिंसा-मन, वचन व कर्म आदि से किसी को भी शारीरिक-मानसिक स्तर पर कोई हानि या आघात न पहुँचाना अहिंसा कहलाता है। हमें हमेशा हिंसात्मक और नकारात्मक भावनाओं से दूर रहना चाहिए।

प्रश्न 2.
योग करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? अथवा योगासन करते समय ध्यान में रखी जाने वाली मुख्य बातें बताएँ। उत्तर-योगासन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए
(1) योगासन का अभ्यास प्रातः करना चाहिए। योग करते समय हमेशा नाक से साँस लेनी चाहिए।
(2) योगासन, शान्त जगह पर और खुली हवा में करना चाहिए।
(3) योगासन एकाग्र मन से करना चाहिए। इससे अधिक लाभ होता है।
(4) योगासन करते समय शरीर पर कम-से-कम कपड़े होने चाहिएँ, परन्तु सर्दियों में उचित कपड़े पहनने चाहिएँ।
(5) योगासनों का अभ्यास प्रत्येक आयु में कर सकते हैं, परन्तु अभ्यास करने से पहले किसी अनुभवी व्यक्ति से जानकारी ले लेनी चाहिए।
(6) योगासन खाली पेट करना चाहिए। इसके करने के दो घण्टे पश्चात् भोजन करना चाहिए।
(7) योगासन किसी दरी या चटाई पर किए जाएँ। दरी या चटाई किसी समतल जगह पर बिछी होनी चाहिए।

HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 5 योग का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व

प्रश्न 3.
योग के लाभों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
योग अभ्यास का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है?
अथवा
योग आसन के मुख्य लाभ लिखें।
उत्तर:
योग धर्म-मजहब से परे की विधा है। जिस तरह से सूर्य अपनी रोशनी करने में किसी भी प्रकार का कोई भेद नहीं करता, उसी प्रकार से योग करके कोई भी इसका लाभ प्राप्त कर सकता है। दुनिया के हर इंसान को योग के लाभ समभाव से प्राप्त होते हैं; जैसे

(1) योग मस्तिष्क को शांत करने का अभ्यास है अर्थात् इससे मानसिक शान्ति प्राप्त होती है।
(2) योग से बीमारियों से छुटकारा मिलता है और हमारे स्वास्थ्य में सुधार होता है।
(3) योग एक साधना है जिससे न सिर्फ शरीर बल्कि मन भी स्वस्थ रहता है।
(4) योग आसन से मानसिक तनाव को भी दूर किया जा सकता है।
(5) योग आसन से सकारात्मक प्रवृत्ति में वृद्धि होती है।
(6) योग आसन तन-मन, चित्त-वृत्ति और स्वास्थ्य-सोच को विकार मुक्त करता है।
(7) योग आसन से आत्मिक सुख एवं शान्ति प्राप्त होती है।
(8) योग आसन से कर्म करने की शक्ति विकसित होती है।

प्रश्न 4.
नियम के भागों को सूचीबद्ध करें। उत्तर-नियम के भाग निम्नलिखित हैं

1. शौच-शौच का अर्थ है-शुद्धता। हमें हमेशा अपना शरीर आंतरिक व बाहरी रूप से साफ व स्वस्थ रखना चाहिए।
2. संतोष-संतोष का अर्थ है-संतुष्टि। हमें उसी में संतुष्ट रहना चाहिए जो परमात्मा ने हमें दिया है।
3. तप-हमें प्रत्येक स्थिति में एक-सा व्यवहार करना चाहिए। जीवन में आने वाली मुश्किलों व परिस्थितियों को धैर्यपूर्वक सहन करना तथा लक्ष्य-प्राप्ति की ओर निरंतर आगे बढ़ते रहना तप कहलाता है।
4. स्वाध्याय-ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों, गीता व अन्य महान् पुस्तकों का निष्ठा भाव से अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है।
5. ईश्वर प्राणीधान-ईश्वर प्राणीधान नियम की महत्त्वपूर्ण अवस्था है। ईश्वर को अपने सभी कर्मों को अर्पित करना ईश्वर प्राणीधान कहलाता है।

प्रश्न 5.
यम क्या है? यम के भागों को सूचीबद्ध करें।
उत्तर:
यम-यम योग की वह अवस्था है जिसमें सामाजिक व नैतिक गुणों के पालन से इंद्रियों व मन को आत्म-केंद्रित किया जाता है। यह अनुशासन का वह साधन है जो प्रत्येक व्यक्ति के मन से संबंध रखता है। इसका अभ्यास करने से व्यक्ति अहिंसा, सच्चाई, चोरी न करना, पवित्रता तथा त्याग करना सीखता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार यम पाँच होते हैं

1. सत्य-सत्य से अभिप्राय मन की शुद्धता या सच बोलने से है। हमें हमेशा अपने विचार, शब्द, मन और कर्म से सत्यवादी होना चाहिए।
2. अहिंसा-मन, वचन व कर्म आदि से किसी को भी शारीरिक-मानसिक स्तर पर कोई हानि या आघात न पहुँचाना अहिंसा कहलाता है। हमें हमेशा हिंसात्मक और नकारात्मक भावनाओं से दूर रहना चाहिए।
3. अस्तेय-मन, वचन व कर्म से दूसरों की कोई वस्तु या चीज न चाहना या चुराना अस्तेय कहलाता है।
4. अपरिग्रह-इंद्रियों को प्रसन्न रखने वाले साधनों तथा धन-संपत्ति का अनावश्यक संग्रह न करना, कम आवश्यकताओं व इच्छाओं के साथ जीवन व्यतीत करना, अपरिग्रह कहलाता है। हमें कभी भी न तो गलत तरीकों से धन कमाना चाहिए और न ही एकत्रित करना चाहिए।
5. ब्रह्मचर्य-यौन संबंधों में नियंत्रण, चारित्रिक संयम ब्रह्मचर्य है। इसके अंतर्गत हमें कामवासना का पूर्णतः त्याग करना पड़ता है।

प्रश्न 6.
योग का आध्यात्मिक विकास (Spiritual Development): में क्या महत्त्व है? अथवा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में योग की महत्ता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
योग का अर्थ है-व्यक्ति की आत्मा को परमात्मा की चेतना या सार्वभौमिक आत्मा के साथ जोड़ना। योग तन, मन और आत्मा को एक साथ लाने का कार्य करता है। योग का अभ्यास मन को परमात्मा पर केंद्रित करता है और आत्मिक शांति प्रदान करता है। इसके द्वारा ईश्वर या परमात्मा को प्राप्त करने की दिशा में प्रयास किया जाता है। योग को नियमित रूप से करने से व्यक्ति को अपने मन पर नियंत्रण प्राप्त करने की योग्यता या क्षमता प्राप्त होती है। मन की शुद्धता एवं स्वच्छता से उसे परमात्मा की ओर लगाया जा सकता है। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जैसे आग में तपाते-तपाते लोहा आग जैसा ही हो जाता है, वैसे ही निरंतर योग का अभ्यास करने से योगी स्वयं को भूलकर परमात्मा में लीन हो जाता है। उसको परमात्मा के अलावा कुछ भी याद नहीं रहता। इस प्रकार योग आध्यात्मिक विकास में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। आध्यात्मिक विकास हेतु व्यक्ति को योग के साथ-साथ पद्मासन व सिद्धासन आदि भी करने चाहिएँ।

प्रश्न 7.
हमारे जीवन के लिए योग क्यों आवश्यक हैं?
उत्तर:
योग उन्नति का द्योतक है। यह चाहे शारीरिक उन्नति हो या आध्यात्मिक। अध्यात्म की मान्यताओं की बात करें तो यह कहा जाता है कि संसार पाँच महाभूतों/तत्त्वों; जैसे पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु के मिश्रण या संयोग से बना है। हमारा शरीर भी पाँच महाभूतों के संयोग से बना है। अत: योग विकास का मूल मंत्र है जिससे हमारे अंतस्थ की उन्नति संभव है। योग से मन की एकाग्रता को बढ़ाया जाता है। योग हमारे भीतर की चेतना को जगाकर हमें ऊर्जावान एवं हृष्ट-पुष्ट बनाता है। योग मन को मौन करने की प्रक्रिया है। जब यह संभव हो जाता है, तब हमारा मूल प्राकृतिक स्वरूप सामने आता है। अतः आज हमारे जीवन के लिए योग बहुत आवश्यक है।

प्रश्न 8.
सूर्य नमस्कार क्या है?
उत्तर:
‘सूर्य’ से अभिप्राय है-‘सूरज’ और ‘नमस्कार’ से अभिप्राय है-‘प्रणाम करना’। इससे अभिप्राय है कि क्रिया करते हुए सूरज को प्रणाम करना। यह एक आसन नहीं है बल्कि कई आसनों का मेल है तथा शरीर और मन को स्वस्थ रखने का उत्तम तरीका है। प्रतिदिन सूर्य को नमस्कार करने से व्यक्ति में बल और बुद्धि का विकास होता है और इसके साथ व्यक्ति की उम्र भी बढ़ती है। सूर्य उदय के समय सूर्य नमस्कार करना अति उत्तम होता है, क्योंकि यह समय पूर्ण रूप से शांतिमय होता है। …

प्रश्न 9.
योग के रक्षात्मक एवं चिकित्सीय प्रभावों का वर्णन करें।
अथवा
योग के बचावात्मक व उपचारात्मक प्रभावों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
योग एंक शारीरिक व्यायाम ही नहीं, बल्कि जीवन का दर्शनशास्त्र भी है। यह वह क्रिया है जो शारीरिक क्रियाओं तथा . आध्यात्मिक क्रियाओं में संतुलन बनाए रखती है। वर्तमान भौतिक समाज आध्यात्मिक शून्यता के बिना रह रहा है, जहाँ योग सहायता कर सकता है। आधुनिक समय में योग के निम्नलिखित उपचार तथा रोकथाम संबंधी प्रभाव पड़ते हैं

(1) योग पेट तथा पाचन तंत्र की अनेक बीमारियों की रोकथाम में सहायता करता है।
(2) योग क्रियाओं के द्वारा कफ़, वात व पित्त का संतुलन बना रहता है।
(3) यौगिक क्रियाएँ शारीरिक अंगों को शुद्ध करती हैं तथा साधक के स्वास्थ्य में सुधार लाती हैं।
(4) योग के माध्यम से मानसिक शांति व स्व-नियंत्रण उत्पन्न होता है। योग से मानसिक शांति तथा संतुलन बनाए रखा जा सकता है।
(5) योग अनेक मुद्रा-विकृतियों को ठीक करने में सहायता करता है।
(6) नियमित व निरंतर यौगिक क्रियाएँ, मस्तिष्क के उच्चतर केंद्रों को उद्दीप्त करती हैं, जो विभिन्न प्रकार के विकारों की रोकथाम करते हैं।

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प्रश्न 10.
प्राणायाम करने की विधि का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राणायाम श्वास पर नियंत्रण करने की एक विधि है। प्राणायाम की तीन अवस्थाएँ होती हैं-
(1) पूरक (श्वास को अंदर खींचना),
(2) रेचक (श्वास को बाहर निकालना),
(3) कुंभक (श्वास को कुछ देर अंदर रोकना)।

प्राणायाम में श्वास अंदर की ओर खींचकर रोक लिया जाता है और कुछ समय रोकने के पश्चात् फिर श्वास बाहर निकाला जाता है। इस तरह श्वास को धीरे-धीरे नियंत्रित करने का समय बढ़ा लिया जाता है। अपनी बाईं नाक को बंद करके दाईं नाक द्वारा श्वास खींचें और थोड़े समय तक रोक कर छोडें। इसके पश्चात् दाईं नाक बंद करके बाईं नाक द्वारा पूरा श्वास बाहर निकाल दें। अब फिर दाईं नाक को बंद करके बाईं नाक द्वारा श्वास खींचें और थोड़े समय तक रोक कर छोडें। इसके पश्चात् दाईं नाक बंद करके पूरा श्वास बाहर निकाल दें। इस प्रकार इस प्रक्रिया को कई बार दोहराना चाहिए।

प्रश्न 11.
प्राणायाम की महत्ता पर टिप्पणी कीजिए।
अथवा
प्राणायाम की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में श्री श्री रविशंकर जी ने जीवन जीने की जो शैली सुझाई है, वह प्राणायाम पर आधारित है। आधुनिक जीवन में प्राणायाम की आवश्यकता एवं महत्त्व निम्मलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाती है
(1) प्राणायाम से शरीर का रक्तचाप व तापमान सामान्य रहता है।
(2) इससे रक्त के तेज़ दबाव से नाड़ी संस्थान की शक्ति में वृद्धि होती है।
(3) इससे मानसिक तनाव व चिंता दूर होती है। इससे आध्यात्मिक व मानसिक विकास में मदद मिलती है।
(4) इससे आँखों व चेहरे में चमक आती है और आवाज़ मधुर हो जाती है।
(5) इससे फेफड़ों का आकार बढ़ता है और श्वास की बीमारियों तथा गले, मस्तिष्क की बीमारियों से छुटकारा मिलता है।
(6) इससे इच्छा-शक्ति व स्मरण-शक्ति बढ़ती है।
(7) प्राणायाम करने से पेट तथा छाती की मांसपेशियाँ मज़बूत बनती हैं।

प्रश्न 12.
योग और प्राणायाम में अंतर स्पष्ट कीजिए। उत्तर-योग और प्राणायाम में निम्नलिखित अंतर हैं
(1) योग एक व्यापक विधा है जबकि प्राणायाम योग का ही एक अंग है।
(2) योग केवल शारीरिक व्यायामों व आसनों की एक प्रणाली ही नहीं, बल्कि यह संपूर्ण और भरपूर जीवन जीने की कला भी है। यह शरीर और मन का मिलन है। प्राणायाम श्वास लेने व छोड़ने की विभिन्न विधियों का संग्रह है।
(3) नियमित योग करने से विभिन्न प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं तथा शरीर में रक्त प्रवाह उचित रहता है। नियमित प्राणायाम से शरीर की विभिन्न कोशिकाओं को ऊर्जा मिलती है। प्राणायाम दमा, सर्दी-जुकाम, गले के रोगों आदि को दूर करने में विशेष रूप से लाभदायक है।

प्रश्न 13.
शवासन करने की विधि बताइए।
उत्तर:
शवासन में शव + आसन शब्दों का मेल है। शव का अर्थ है-मृत शरीर और आसन का अर्थ है-मुद्रा। अतः इस आसन में शरीर मृत शरीर जैसा लगता है, इसलिए इसको शवासन कहा जाता है।
सबसे पहले फर्श पर पीठ के बल सीधे लेट जाएँ। हाथों को आराम की अवस्था में शरीर से कुछ दूरी पर रखें। हथेलियाँ ऊपर की ओर रखें। पैरों के बीच 1 या 2 फुट दूरी रखें। आँखें धीरे-धीरे बंद करें और लयात्मक व यौगिक श्वसन क्रिया करें। श्वसन और आत्मा पर ध्यान केंद्रित करें। इस आसन का अभ्यास प्रत्येक आसन के शुरू में एवं अंत में करना बहुत लाभदायक होता है।
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शवासन

प्रश्न 14.
पश्चिमोत्तानासन की विधि तथा इसके लाभ बताइए।
उत्तर:
विधि-सर्वप्रथम, हम दोनों पैरों को आगे की ओर खींचेंगे, जबकि हम फर्श पर बैठे होंगे। तत्पश्चात् पैरों के दोनों अंगूठों को हाथों से पकड़ते हुए धीरे-धीरे श्वास को छोड़ेंगे तथा मस्तक को घुटनों के साथ लगाने का प्रयास करेंगे। फिर, धीरे-धीरे साँस लेते हुए और सिर को ऊपर उठाते हुए, हम पहले वाली स्थिति में लौट आएंगे। पश्चिमोत्तानासन
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लाभ – (1) यह आसन जाँघों को सशक्त बनाता है।
(2) इससे रीढ़ की हड्डी में लचक आती है।
(3) इससे मोटापा घटता है।

प्रश्न 15.
अष्टांग योग में ध्यान का क्या महत्त्व है?
अथवा
ध्यान के हमारे लिए क्या-क्या लाभ हैं? उत्तर-ध्यान के हमारे लिए लाभ या महत्त्व निम्नलिखित हैं
(1) ध्यान हमारे भीतर की शुद्धता के ऊपर पड़े क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, कुंठा आदि के आवरणों को हटाकर हमें सकारात्मक बनाता है।
(2) ध्यान से हमें शान्ति एवं प्रसन्नता की प्राप्ति होती है।
(3) ध्यान सर्वस्व प्रेम की भावना एवं सृजन शक्ति को जगाता है।
(14) ध्यान से मन शान्त एवं शुद्ध होता है।

प्रश्न 16.
खिलाड़ियों के लिए योग किस प्रकार लाभदायक है? एक खिलाड़ी की योग किस प्रकार सहायता करता है?
उत्तर:
खिलाड़ियों के लिए योग निम्नलिखित प्रकार से लाभदायक है
(1) योग खिलाड़ियों को स्वस्थ एवं चुस्त रखने में सहायक होता है।
(2) योग से उनके शरीर में लचीलापन आ जाता है।
(3) योग से उनकी क्षमता एवं शक्ति में वृद्धि होती है।
(4) योग उनके मानसिक तनाव को भी कम करने में सहायक होता है।
(5) योग उनके मन की एकाग्रता को बढ़ाता है। इसके फलस्वरूप वह अपने संवेगों को नियंत्रण में रख सकते हैं।

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न [Very Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
योग क्या है? अथवा योग से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की मूल धातु ‘युज’ से हुई है जिसका अर्थ है-जोड़ या एक होना। जोड़ या एक होने का अर्थ है-व्यक्ति की आत्मा को ब्रह्मांड या परमात्मा की चेतना या सार्वभौमिक आत्मा के साथ जोड़ना। महर्षि पतंजलि (योग के पितामह) के अनुसार, ‘युज’ धातु का अर्थ है-ध्यान-केंद्रण या मनःस्थिति को स्थिर करना और आत्मा का परमात्मा से ऐक्य । साधारण शब्दों में, योग व्यक्ति की आत्मा का परमात्मा से मिलन का नाम है।

प्रश्न 2.
योग को परिभाषित कीजिए।
अथवा
‘श्रीमद्वद् गीता’ में भगवान् श्रीकृष्ण ने योग के बारे में क्या कहा है? उत्तर-योग छिपी हुई शक्तियों का विकास करता है। यह धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान तथा शारीरिक सभ्यता का समूह है।
1. श्रीमद्भगवद्गीता’ में भगवान् श्रीकृष्ण ने योग के बारे में कहा है, “योगकर्मसुकौशलम्” अर्थात् कर्म को कुशलतापूर्वक करना ही योग है।
2. महर्षि पतंजलि ने योग के संबंध में कहा-“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” अर्थात् चित्तवृत्तियों को रोकने का नाम योग है।

प्रश्न 3.
योग का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
योग का उद्देश्य आत्मा का परमात्मा से मिलाप करवाना है। इसका मुख्य उद्देश्य शरीर को नीरोग, फुर्तीला रखना और छिपी हुई शक्तियों का विकास करके, मन को जीतना है। यह शरीर, मन तथा आत्मा की आवश्यकताएँ पूर्ण करने का एक अच्छा साधन है।

प्रश्न 4.
योग के कोई दो सिद्धांत लिखें।
उत्तर:
(1) योगासन एकाग्र मन से करना चाहिए, इससे अधिक लाभ होता है।
(2) योगासन का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए।

प्रश्न 5.
योग के प्रमुख प्रकारों का नामोल्लेख कीजिए। अथवा योग को किस प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है?
उत्तर
भारतीय दर्शन शास्त्रों में 40 प्रकार के योगों का उल्लेख है। श्रीमद्भगवद् गीता में 18 प्रकार के योगों का वर्णन किया गया है। योग के इन विभिन्न प्रकारों में से प्रमुख प्रकार हैं
(1) कर्म योग,
(2) राज योग,
(3) ज्ञान योग,
(4) ध्यान योग
(5) सांख्य योग,
(6) हठ योग,
(7) कुंडलिनी योग,
(8) समाधि योग,
(9) नित्य योग,
(10) भक्ति योग,
(11) नाद योग,
(12) अष्टांग योग,
(13) बुद्धि योग,
(14) मन्त्र योग आदि।

प्रश्न 6.
योग को पूर्ण तंदुरुस्ती का साधन क्यों माना जाता है?
उत्तर:
योगाभ्यास को पूर्ण तंदुरुस्ती का साधन माना जाता है, क्योंकि इस अभ्यास द्वारा जहाँ शारीरिक शक्ति या ऊर्जा पैदा होती है, वहीं मानसिक शक्ति का भी विकास होता है। इस अभ्यास द्वारा शरीर की आंतरिक सफाई और शुद्धि की जा सकती है। व्यक्ति मानसिक तौर पर संतुष्ट, संयमी और त्यागी हो जाता है जिस कारण वह सांसारिक उलझनों से बचा रहता है।

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प्रश्न 7.
योग के कोई दो लाभ लिखें।
उत्तर:
(1) मानसिक व आत्मिक शांति व प्रसन्नता प्राप्त होना,
(2) शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य हेतु लाभदायक।

प्रश्न 8.
विद्यार्थियों के लिए योग व प्राणायाम क्यों आवश्यक हैं?
उत्तर:
योग चित्तवृत्तियों को रोकने का नाम है और प्राणायाम श्वास पर नियंत्रण व नियमन करने की प्रक्रिया है। विद्यार्थी जीवन में मन चंचल होता है और उन्हें ज्ञान अर्जित करने हेतु स्मरण शक्ति की विशेष आवश्यकता होती है। योग व प्राणायाम से मन को एकाग्र करके स्मरण-शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। साथ ही उनका शारीरिक और मानसिक विकास किया जा सकता है।

प्रश्न 9.
योगासन करते समय श्वास क्रिया किस प्रकार करनी चाहिए?
उत्तर:
योगासन करते समय श्वास नाक द्वारा लें। आसन आरंभ करते समय फेफड़ों की अंदरुनी सारी हवा बाहर निकाल दें, इससे आसन आरंभ करने में सरलता होगी। हवा बाहर निकालने के उपरांत श्वास क्रिया रोकने का अभ्यास अवश्य करना चाहिए।

प्रश्न 10.
प्राणायाम से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्राणायाम में दो शब्द हैं-प्राण व आयाम। प्राण का अर्थ है-श्वास और आयाम का अर्थ है-नियंत्रण व नियमन । इस प्रकार जिसके द्वारा श्वास के नियंत्रण व नियमन का अभ्यास किया जाता है, उसे प्राणायाम कहते हैं अर्थात् साँस को अंदर ले जाने व बाहर निकालने पर उचित नियंत्रण रखना ही प्राणायाम है।

प्रश्न 11.
ध्यानात्मक आसन से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
ध्यानात्मक आसन वे आसन होते हैं जिनको करने से व्यक्ति की ध्यान करने की क्षमता विकसित होती है अर्थात् ध्यान करने की शक्ति बढ़ती है। इस प्रकार के आसन बहुत ही सावधानीपूर्वक करने चाहिएँ। इनको शांत एवं स्वच्छ वातावरण में स्थिर होकर ही करना चाहिए।

प्रश्न 12.
अष्टांग योग का क्या अर्थ है? अथवा अष्टांग योग से क्या भाव है?
उत्तर:
महर्षि पतंजलि ने ‘योग-सूत्र’ में जिन आठ अंगों का उल्लेख किया है, उन्हें ही अष्टांग योग कहा जाता है। अष्टांग योग का अर्थ है-योग के आठ पथ या अंग। वास्तव में योग के आठ पथ योग की आठ अवस्थाएँ (Stages) होती हैं जिनका पालन करते हुए व्यक्ति की आत्मा या जीवात्मा का परमात्मा से मिलन हो सकता है। अष्टांग योग का अनुष्ठान करने से अशुद्धि का नाश होता है, जिससे ज्ञान का प्रकाश चमकता है और विवेक (ख्याति) की प्राप्ति होती है। .

प्रश्न 13.
आरामदायक या विश्रामात्मक आसन से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
आरामदायक आसन वे आसन हैं जो कि शरीर को पूरी तरह आराम की स्थिति में लाकर शरीर के सभी अंग दिमाग और मन को शांत करते हैं। विश्रामात्मक आसन करने से शारीरिक एवं मानसिक थकावट दूर होती है और शरीर को पूर्ण विश्राम मिलता है।

प्रश्न 14.
अष्टांग योग में आसन का क्या भाव है?
अथवा
आसन का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जिस अवस्था में शरीर ठीक से बैठ सके, वह आसन है।आसन का अर्थ है-बैठना। योग की सिद्धि के लिए उचित आसन में बैठना बहुत आवश्यक है। महर्षि पतंजलि के अनुसार, “स्थिर सुख आसनम्।” अर्थात् जिस रीति से हम स्थिरतापूर्वक, बिना हिले-डुले और सुख के साथ बैठ सकें, वह आसन है। ठीक मुद्रा में रहने से मन शांत रहता है। आसन करने से शरीर और दिमाग दोनों चुस्त रहते हैं।

प्रश्न 15.
अष्टांग योग में नियम का क्या भाव है?
उत्तर:
अष्टांग योग में नियम से अभिप्राय व्यक्ति द्वारा समाज स्वीकृत नियमों के अनुसार ही आचरण करना है। जो व्यक्ति नियमों के विरुद्ध आचरण करता है, समाज उसे सम्मान नहीं देता। इसके विपरीत जो व्यक्ति समाज द्वारा स्वीकृत नियमों के अनुसार आचरण करता. है, समाज उसको सम्मान देता है। नियम के पाँच भाग होते हैं। इन पर अमल करके व्यक्ति परमात्मा को पा लेता है।

प्रश्न 16.
अष्टांग योग में प्रत्याहार से क्या भाव है?
उत्तर:
अष्टांग योग प्रत्याहार से अभिप्राय ज्ञानेंद्रियों व मन को अपने नियंत्रण में रखने से है। साधारण शब्दों में, प्रत्याहार का अर्थ है-मन व इन्द्रियों को उनकी संबंधित क्रियाओं से हटकर परमात्मा की ओर लगाना है।

प्रश्न 17.
अष्टांग योग में समाधि से क्या भाव है?
उत्तर:
समाधि योग की वह अवस्था है जिसमें साधक को स्वयं का भाव नहीं रहता। वह पूर्ण रूप से अचेत अवस्था में होता है। इस अवस्था में वह उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है जहाँ आत्मा व परमात्मा का मिलन होता है।

प्रश्न 18.
अष्टांग योग में यम से क्या भाव है?
उत्तर:
यम योग की वह अवस्था है जिसमें सामाजिक व नैतिक गुणों के पालन से इंद्रियों व मन को आत्म-केंद्रित किया जाता है। यह अनुशासन का वह साधन है जो प्रत्येक व्यक्ति के मन से संबंध रखता है। इसका अभ्यास करने से व्यक्ति अहिंसा, सच्चाई, चोरी न करना, पवित्रता तथा त्याग करना सीखता है।

प्रश्न 19.
प्राणायाम के शारीरिक मूल्य क्या हैं?
उत्तर:
प्राणायाम के मुख्य शारीरिक मूल्य हैं-प्राणायाम करने से शारीरिक कार्यकुशलता का विकास होता है। इससे मोटापा नियंत्रित होता है। इससे आँखों व चेहरे पर चमक आती है और शारीरिक मुद्रा (Posture) सही रहती है। .

प्रश्न 20.
आसन कितनी देर तक करने चाहिएँ?
उत्तर:
एक आसन की पूर्ण स्थिति दो मिनट से पाँच मिनट तक बनाकर रखनी चाहिए। आरंभ में आसन शारीरिक क्षमता के अनुसार किए जा सकते हैं। प्रत्येक आसन के पश्चात् और कुल आसन करने के पश्चात् विश्राम का अंतर अवश्य लेना चाहिए।

प्रश्न 21.
पी०टी० (P.T.) का क्या अर्थ है?
उत्तर:
पी०टी० (PT.) को अंग्रेजी में ‘Physical Theraphy’ या ‘Physical Training’ अर्थात् शारीरिक चिकित्सा या परीक्षण कहते हैं। शारीरिक चिकित्सा या परीक्षण संबंधित कसरतें समूह या व्यक्तिगत दोनों रूपों में की जाती हैं। इस प्रकार की कसरतों में किसी भी प्रकार के सामान या उपकरण की आवश्यकता नहीं होती।

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प्रश्न 22.
किन-किन परिस्थितियों में आसन करना वर्जित है?
उत्तर:
निम्नलिखित परिस्थितियों में आसन करना वर्जित है
(1) गर्भावस्था में आसन नहीं करना चाहिए।
(2) बीमारी व कमजोरी में आसन नहीं करना चाहिए।
(3) हृदय रोगियों व उच्च रक्तचाप वाले व्यक्तियों को आसन नहीं करना चाहिए।

प्रश्न 23.
प्राणायाम के आधार या चरण बताएँ। अथवा प्राणायाम की अवस्थाओं के नाम बताएँ।
उत्तर:
प्राणायाम के आधार या चरण निम्नलिखित हैं
(1) पूरक: श्वास को अंदर खींचने की प्रक्रिया को पूरक (Inhalation) कहते हैं।
(2) रेचक: श्वास को बाहर निकालने की क्रिया को रेचक (Exhalation) कहते हैं।
(3) कुंभक: श्वास को अंदर खींचकर कुछ समय तक अंदर ही रोकने की क्रिया को कुंभक (Holding of Breath) कहते हैं।

प्रश्न 24.
पद्मासन के कोई दो लाभ बताएँ।
उत्तर:
(1) इससे मन की एकाग्रता बढ़ती है।
(2) इसे करने से घुटनों के जोड़ों का दर्द दूर होता है।

प्रश्न 25.
शलभासन के कोई दो लाभ बताएँ।
उत्तर:
(1) शलभासन से रक्त-संचार क्रिया सही रहती है।
(2) इससे रीढ़ की हड्डी में लचक आती है।

प्रश्न 26.
चक्रासन के कोई दो लाभ बताएँ।
उत्तर:
(1) इससे पेट की चर्बी कम होती है।
(2) इससे पेट की बीमारियाँ दूर होती हैं।

प्रश्न 27.
शवासन के कोई दो लाभ बताएँ।
उत्तर:
(1) शवासन से रक्तचाप ठीक रहता है,
(2) इससे तनाव, निराशा व थकान दूर होती है।

प्रश्न 28.
ताड़ासन के कोई दो लाभ बताइए।
उत्तर:
(1) ताड़ासन से शरीर का मोटापा कम होता है,
(2) इससे कब्ज दूर होती है।

प्रश्न 29.
सर्वांगासन के कोई दो लाभ बताइए।
उत्तर:
(1) सर्वांगासन से कब्ज दूर होती है,
(2) इससे भूख बढ़ती है और पाचन क्रिया ठीक रहती है।

प्रश्न 30.
धनुरासन के कोई दो लाभ बताएँ।
उत्तर:
(1) यह कब्ज, अपच, और जिगर की गड़बड़ी को दूर करने में लाभकारी होता है,
(2) इससे रीढ़ की हड्डी को मजबूती मिलती है।

प्रश्न 31.
शीर्षासन के कोई दो लाभ बताइए।
उत्तर:
(1) शीर्षासन से मोटापा कम होता है,
(2) इससे स्मरण-शक्ति बढ़ती है।

प्रश्न 32.
मयूरासन के कोई दो लाभ बताएँ।
उत्तर:
(1) यह कब्ज एवं अपच को दूर करता है,
(2) यह आँखों के दोषों को दूर करने में उपयोगी होता है।

प्रश्न 33.
सिद्धासन के कोई दो लाभ बताएँ।
उत्तर:
(1) इससे मन एकाग्र रहता है,
(2) यह मानसिक तनाव को दूर करता है।

प्रश्न 34.
मत्स्यासन के कोई दो लाभ लिखें।
उत्तर:
(1) इससे माँसपेशियों में लचकता बढ़ती है,
(2) इससे पीठ की मांसपेशियाँ मजबूत होती हैं।

प्रश्न 35.
भुजंगासन के कोई दो लाभ लिखें।
उत्तर:
(1) यह रीढ़ की हड्डी में लचक बढ़ाता है
(2) यह रक्त संचार को तेज करता है।

प्रश्न 36.
मोटापे को कम करने के किन्हीं चार आसनों के नाम बताइए।
उत्तर:
(1) त्रिकोणासन,
(2) पद्मासन,
(3) भुजंगासन,
(4) पश्चिमोत्तानासन।

HBSE 9th Class Physical Education योग का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न [Objective Type Questions)

प्रश्न 1.
‘योग’ शब्द की उत्पत्ति किस भाषा से हुई?
उत्तर:
‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई।

प्रश्न 2.
महर्षि पतंजलि के अनुसार योग क्या है?
उत्तर:
महर्षि पतंजलि के अनुसार-“मनोवृत्ति के विरोध का नाम योग है।”

प्रश्न 3.
भारत में योग का इतिहास कितना पुराना है?
उत्तर:
भारत में योग का इतिहास लगभग 3000 ईसा पूर्व पुराना है।

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प्रश्न 4.
प्रसिद्ध योगी पतंजलि ने योग की कितनी अवस्थाओं का वर्णन किया है?
उत्तर:
प्रसिद्ध योगी पतंजलि ने योग की आठ अवस्थाओं का वर्णन किया है।

प्रश्न 5.
किस आसन से स्मरण शक्ति बढ़ती है?
अथवा
बुद्धि और याददाश्त किस आसन से बढ़ते हैं?
उत्तर:
स्मरण शक्ति या बुद्धि और याददाश्त शीर्षासन से बढ़ते हैं।

प्रश्न 6.
अष्टांग योग की रचना किसके द्वारा की गई?
उत्तर:
अष्टांग योग की रचना महर्षि पतंजलि द्वारा की गई।

प्रश्न 7.
अष्टांगयोग में यम के अभ्यास द्वारा व्यक्ति क्या सीखता है?
उत्तर:
यम का अभ्यास व्यक्ति को अहिंसा, सच्चाई, चोरी न करना, पवित्रता और त्याग करना सीखाता है।

प्रश्न 8.
अपनी इंद्रियों को नियंत्रण में रखने को क्या कहते हैं?
उत्तर:
अपनी इंद्रियों को नियंत्रण में रखने को प्रत्याहार कहते हैं।

प्रश्न 9.
श्वास पर नियंत्रण रखने की प्रक्रिया को क्या कहते हैं?
उत्तर:
श्वास पर नियंत्रण रखने की प्रक्रिया को प्राणायाम कहते हैं।

प्रश्न 10.
“योग कर्मसु कौशलम्।” योग की यह परिभाषा किसने दी?
उत्तर:
योग की यह परिभाषा भगवान् श्रीकृष्ण ने दी।

प्रश्न 11.
“योग समाधि है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन महर्षि वेदव्यास का है।

प्रश्न 12.
योग आत्मा किसे कहा जाता है?
उत्तर:
योग आत्मा प्राणायाम को कहा जाता है।

प्रश्न 13.
आसन कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर;
आसन तीन प्रकार के होते हैं
(1) ध्यानात्मक आसन,
(2) विश्रामात्मक आसन,
(3) संवर्धनात्मक आसन।

प्रश्न 14.
रेचक किसे कहते हैं?
उत्तर:
श्वास को बाहर निकालने की क्रिया को रेचक कहते हैं।

प्रश्न 15.
पूरक किसे कहते हैं?
उत्तर:
श्वास को अंदर खींचने की क्रिया को पूरक कहते हैं।

प्रश्न 16.
कुम्भक किसे कहते हैं?
उत्तर:
श्वास को अंदर खींचकर कुछ समय तक अंदर ही रोकने की क्रिया को कुम्भक कहते हैं। \

प्रश्न 17.
‘वज्रासन’ कब करना चाहिए?
उत्तर:
वज्रासन भोजन करने के बाद करना चाहिए।

प्रश्न 18.
योग का जन्मदाता किस देश को माना जाता है?
उत्तर:
योग का जन्मदाता भारत को माना जाता है।

प्रश्न 19.
प्राणायाम में कितनी अवस्थाएँ होती हैं? उत्तर-प्राणायाम में तीन अवस्थाएँ होती हैं।

प्रश्न 20.
अभ्यास करते समय श्वास किससे लेना चाहिए?
उत्तर:
अभ्यास करते समय श्वास नाक से लेना चाहिए।

प्रश्न 21.
मधुमेह रोग को ठीक करने वाले किन्हीं दो आसनों के नाम बताइए।
उत्तर;
(1) शलभासन,
(2) वज्रासन।

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प्रश्न 22.
किस आसन से बुढ़ापा दूर होता है?
उत्तर:
चक्रासन आसन से बुढ़ापा दूर होता है।

प्रश्न 23.
एक आसन करने के पश्चात् दूसरा कौन-सा आसन करना चाहिए? उत्तर-एक आसन करने के पश्चात् दूसरा आसन पहले आसन के विपरीत करना चाहिए; जैसे धनुरासन के बाद पश्चिमोत्तानासन करना।

प्रश्न 24.
योग किसकी प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है?
उत्तर:
योग स्व-विश्वास और आंतरिक शांति की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है।

प्रश्न 25.
किन्हीं चार आसनों के नाम लिखें।
उत्तर:
(1) हलासन,
(2) धनुरासन,
(3) भुजंगासन,
(4) ताड़ासन।

प्रश्न 26.
यौगिक व्यायाम में किस प्रकार के कपड़े पहनने चाहिएँ?
उत्तर:
यौगिक व्यायाम करते समय हल्के कपड़े पहनने चाहिएँ।

प्रश्न 27.
भुजंगासन में शरीर की स्थिति कैसी होती है?
उत्तर:
भुजंगासन में शरीर की स्थिति फनियर सर्प के आकार जैसी होती है।

प्रश्न 28.
कौन-सा आसन करने से मधुमेह रोग नहीं होता?
उत्तर:
शलभासन करने से मधुमेह रोग नहीं होता।

प्रश्न 29.
आसन करने वाली जगह कैसी होनी चाहिए?
उत्तर:
आसन करने वाली जगह साफ-सुथरी और हवादार होनी चाहिए।

प्रश्न 30.
योग के आदि गुरु कौन हैं?
उत्तर:
योग के आदि गुरु महर्षि पतंजलि हैं।

प्रश्न 31.
योग अभ्यास करने से शरीर में कौन-सी शक्तियाँ आती हैं?
उत्तर;
योग अभ्यास करने से शरीर में एकाग्रता, सहनशीलता, सहजता, संयमता, त्याग और अहिंसा जैसी शक्तियों का विकास होता है। .

प्रश्न 32.
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस प्रतिवर्ष कब मनाया जाता है?
उत्तर:
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस प्रतिवर्ष 21 जून को मनाया जाता है।

प्रश्न 33.
पद्मासन में कैसे बैठा जाता है?
उत्तर:
पद्मासन में टाँगों की चौकड़ी लगाकर बैठा जाता है।

प्रश्न 34.
ताड़ासन में शरीर की स्थिति कैसी होनी चाहिए?
उत्तर;
ताड़ासन में शरीर की स्थिति ताड़ के वृक्ष जैसी होनी चाहिए।

प्रश्न 35.
शीर्षासन में शरीर की स्थिति कैसी होती है?
उत्तर:
शीर्षासन में सिर नीचे और पैर ऊपर की ओर होते हैं।

प्रश्न 36.
शवासन में शरीर की स्थिति कैसी होती है?
उत्तर:
शवासन में पीठ के बल सीधा लेटकर शरीर को पूरी तरह ढीला छोड़ा जाता है।

प्रश्न 37.
पेट के बल किए जाने वाले आसन का नाम बताइए।
उत्तर:
धनुरासन पेट के बल किए जाने वाले आसन है।

प्रश्न 38.
क्या योग एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है?
उत्तर:
हाँ, योग एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने का कार्य होता है।

प्रश्न 39.
सांसारिक चिन्ताओं से छुटकारा पाने के उत्तम साधन कौन-से हैं?
उत्तर:
सांसारिक चिन्ताओं से छुटकारा पाने के उत्तम साधन योग एवं ध्यान हैं।

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प्रश्न 40.
भारतीय व्यायाम की प्राचीन विधा कौन-सी है?
उत्तर:
भारतीय व्यायाम की प्राचीन विधा योग आसन है।

प्रश्न 41.
योग व्यक्ति को किस प्रकार का बनाता है?
उत्तर:
योग व्यक्ति को शक्तिशाली, नीरोग और बुद्धिमान बनाता है।

प्रश्न 42.
योग किन मानसिक व्यधाओं या रोगों का इलाज है?
उत्तर :
योग तनाव, चिन्ताओं और परेशानियों का इलाज है।

प्रश्न 43.
योग आसन कब नहीं करना चाहिए?
उत्तर:
किसी बीमारी की स्थिति में योग आसन नहीं करना चाहिए।

प्रश्न 44.
कब्ज दूर करने में कौन-से आसन अधिक लाभदायक हैं? \
उत्तर:
(1) गरुड़ासन,
(2) चक्रासन,
(3) ताड़ासन,
(4) सर्वांगासन।

प्रश्न 45.
शवासन कब करना चाहिए?
उत्तर:
प्रत्येक आसन करने के उपरान्त शरीर को ढीला करने के लिए शवासन करना चाहिए।

प्रश्न 46.
प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस कब मनाया गया?
उत्तर:
21 जून, 2015 को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया।

प्रश्न 47.
पेट की बीमारियाँ दूर करने में सहायक कोई दो आसन बताएँ।
उत्तर :
(1) चक्रासन,
(2) हलासन।।

प्रश्न 48.
हमारे ऋषि मुनि किन क्रियाओं द्वारा शारीरिक शिक्षा का उपयोग करते थे?
उत्तर:
योग क्रियाओं द्वारा।

प्रश्न 49.
21 जून, 2019 को कौन-सा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया?
उत्तर:
21 जून, 2019 को पाँचवाँ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया।

प्रश्न 50.
योग के विभिन्न पहलू बताएँ।
उत्तर:
(1) आसन,
(2) प्राणायाम,
(3) प्राण।

प्रश्न 51.
‘प्राणायाम’ किस भाषा का शब्द है?
उत्तर:
‘प्राणायाम’ संस्कृत भाषा का शब्द है।

प्रश्न 52.
राज योग, अष्टांग योग, कर्म योग क्या हैं?

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उत्तर:
राज योग, अष्टांग योग, कर्म योग, योग के प्रकार हैं।

प्रश्न 53.
‘योग-सूत्र’ पुस्तक किसने लिखी?
उत्तर:
‘योग-सूत्र’ पुस्तक महर्षि पतंजलि ने लिखी।

प्रश्न 54.
योग किन शक्तियों का विकास करता है?
उत्तर:
योग व्यक्तियों में मौजूद आंतरिक शक्तियों का विकास करता है।

प्रश्न 55.
योग किसका मिश्रण है?
उत्तर:
योग धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान और शारीरिक सभ्यता का मिश्रण है।

प्रश्न 56.
योग से किस पर नियंत्रण होता है? .
उत्तर:
योग से मनो-भौतिक विकारों पर नियंत्रण होता है।

बहुविकल्पीय प्रश्न [Multiple Choice Questions]

प्रश्न 1.
‘युज’ का क्या अर्थ है?
(A) जुड़ना
(B) एक होना
(C) मिलन अथवा संयोग
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 2.
“मनोवृत्ति के विरोध का नाम ही योग है।” यह परिभाषा दी
(A) महर्षि पतंजलि ने
(B) महर्षि वेदव्यास ने
(C) भगवान् श्रीकृष्ण ने
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) महर्षि पतंजलि ने

प्रश्न 3.
प्रसिद्ध योगी पतंजलि ने योग की कितनी अवस्थाओं का वर्णन किया है?
(A) पाँच
(B) आठ
(C) सात
(D) चार
उत्तर:
(B) आठ

प्रश्न 4.
योग आत्मा कहा जाता है-
(A) आसन को
(B) प्राणायाम को
(C) प्राण को
(D) व्यायाम को
उत्तर :
(B) प्राणायाम को

प्रश्न 5.
श्वास को अंदर खींचने की क्रिया को कहते हैं
(A) पूरक
(B) कुंभक
(C) रेचक
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) पूरक

प्रश्न 6.
श्वास को अंदर खींचने के कुछ समय पश्चात् श्वास को अंदर ही रोकने की क्रिया को कहते हैं
(A) पूरक
(B) कुंभक
(C) रेचक
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) कुंभक

प्रश्न 7.
श्वास को बाहर निकालने की क्रिया को कहते हैं.
(A) पूरक
(B) कुंभक
(C) रेचक
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) रेचक

प्रश्न 8.
“योग समाधि है।” यह कथन है
(A) महर्षि वेदव्यास का
(B) महर्षि पतंजलि का
(C) भगवान् श्रीकृष्ण का
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) महर्षि वेदव्यास का

प्रश्न 9.
“योग आध्यात्मिक कामधेनु है।” योग की यह परिभाषा किसने दी?
(A) ,भगवान श्रीकृष्ण ने
(B) महर्षि पतंजलि ने
(C) महर्षि वेदव्यास ने
(D) डॉ० संपूर्णानंद ने
उत्तर:
(D) डॉ० संपूर्णानंद ने
(B) श्वास प्रणाली से

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प्रश्न 10.
योग से कब्ज दूर होती है। इसका संबंध किस प्रणाली से है?
(A) रक्त संचार प्रणाली से
(C) माँसपेशी प्रणाली से
(D) पाचन प्रणाली से
उत्तर:
(D) पाचन प्रणाली से

प्रश्न 11.
“योग मस्तिष्क को शांत करने का अभ्यास है।” यह किसने कहा?
(A) महर्षि वेदव्यास ने
(B) महर्षि पतंजलि ने
(C) भगवान श्रीकृष्ण ने .
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) महर्षि पतंजलि ने

प्रश्न 12.
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस प्रतिवर्ष मनाया जाता है
(A) 22 दिसम्बर को
(B) 21 जून को
(C) 30 जनवरी को
(D) 8 नवम्बर को
उत्तर:
(B) 21 जून को

प्रश्न 13.
प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया
(A) 21 जून, 2014 को
(B) 21 जून, 2013 को
(C) 21 जून, 2015 को
(D) 21 जून, 2016 को
उत्तर:
(C) 21 जून, 2015 को

प्रश्न 14.
“श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति को रोकना ही प्राणायाम है।” प्राणायाम की यह परिभाषा किसने दी?
(A) महर्षि वेदव्यास ने
(B) महर्षि पतंजलि ने
(C) भगवान श्रीकृष्ण ने
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) महर्षि पतंजलि ने 15. 21 जून, 2018 में कौन-सा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया था?
(A) पहला
(B) दूसरा
(C) तीसरा
(D) चौथा
उत्तर:
(D) चौथा

प्रश्न 16.
निम्नलिखित में से अष्टांग योग का अंग है
(A) यम
(B) नियम
(C) प्राणायाम
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

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प्रश्न 17.
योग के आदि गुरु हैं
(A) महर्षि वेदव्यास
(B) महर्षि पतंजलि
(C) डॉ० संपूर्णानंद
(D) स्वामी रामदेव
उत्तर:
(B) महर्षि पतंजलि 18. 21 जून, 2020 में कौन-सा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाएगा?
(A) चौथा
(B) पाँचवाँ
(C) छठा
(D) सातवाँ
उत्तर:
(C) छठा

योग का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व Summary

योग का अर्थ, परिभाषा एवं महत्त्व परिचय

योग का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि भारत का इतिहास। इस बारे में अभी तक ठीक तरह से पता नहीं लग सका कि योग कब शुरू हुआ? परंतु योग भारत की ही देन है। सिंधु घाटी में मोहनजोदड़ो की खुदाई से पता चलता है कि 3000 ईसा पूर्व में इस घाटी के लोग योग का अभ्यास करते थे। महर्षि पतंजलि द्वारा योग पर प्रथम पुस्तक ‘योग-सूत्र’ लिखी गई, जिसमें उन्होंने योग की अवस्थाओं एवं प्रकारों का विस्तृत उल्लेख किया है। हिंदू धर्म के ग्रंथ ‘उपनिषद्’ में योग के सिद्धांतों या नियमों का वर्णन किया गया है। भारत के मध्यकालीन युग में कई योगियों ने योग के बारे में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।

हमारे जीवन में शारीरिक तंदुरुस्ती का अपना विशेष महत्त्व है। शरीर को स्वस्थ एवं नीरोग रखने में योग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। योग एक ऐसी विधा है, जो शरीर तथा दिमाग पर नियंत्रण रखती है। वास्तव में योग शब्द संस्कृत भाषा के ‘युज’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है-जोड़ या मेल । योग वह क्रिया है जिसमें जीवात्मा का परमात्मा से मेल होता है। भारतीय संस्कृति, साहित्य तथा हस्तलिपि के अनुसार, योग जीवन के दर्शनशास्त्र के बहुत नजदीक है। बी०के०एस० आयंगर के अनुसार, “योग वह प्रकाश है जो एक बार जला दिया जाए तो कभी कम नहीं होता। जितना अच्छा आप अभ्यास करेंगे, लौ उतनी ही उज्ज्वल होगी।”

योग का उद्देश्य जीवात्मा का परमात्मा से मिलाप करवाना है। इसका मुख्य उद्देश्य शरीर को नीरोग, फुर्तीला, जोशीला, लचकदार और विशिष्ट क्षमताओं या शक्तियों का विकास करके मन को जीतना है। यह ईश्वर के सम्मुख संपूर्ण समर्पण हेतु मन को तैयार करता है।

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HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 व्यक्ति एवं समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा का योगदान

Haryana State Board HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 व्यक्ति एवं समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा का योगदान Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 व्यक्ति एवं समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा का योगदान

HBSE 9th Class Physical Education व्यक्ति एवं समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा का योगदान Textbook Questions and Answers

दीर्घ-उत्तरात्मक प्रश्न [Long Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
व्यक्ति और समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा क्या भूमिका निभाती है? वर्णन करें। अथवा
व्यक्ति एवं समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा किस प्रकार से अपना योगदान प्रदान करती है?
अथवा
शारीरिक शिक्षा व्यक्ति एवं समाज के विकास को किस प्रकार से प्रभावित करती है?
अथवा
शारीरिक शिक्षा से व्यक्ति में कौन-कौन से गुण विकसित होते हैं? वर्णन करें।
उत्तर:
आदिकाल से मनुष्य ने खेलों को अपने जीवन का सहारा बनाया है। आदिमानव ने तीरंदाजी तथा नेज़ाबाजी के साथ शिकार करके अपनी भूख की पूर्ति की है अर्थात् अपना पेट भरा है। खेलें न केवल दिल बहलाने का साधन हैं, अपितु आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक हृष्टता-पुष्टता, जोश, जज्बात और शक्ति के दिखावे के लिए खेली गईं। आजकल शारीरिक शिक्षा पर काफी बल दिया जाता है। शारीरिक शिक्षा विभिन्न व्यक्तिगत एवं सामाजिक गुणों का विकास करती है जिससे व्यक्ति एवं समाज का विकास संभव होता है

1. अनुशासन की भावना (Spirit of Discipline):
आदिकाल की खेलों और आधुनिक खेलों में चाहे अन्तर है, परंतु इन खेलों के पीछे एक भावना है। प्राचीनकाल के व्यक्ति ने इनको दूसरों पर शासन और हुकूमत करने आदि के लिए प्रयोग किया, परन्तु आज के व्यक्ति ने खेलों के नियमों की पालना करते हुए अनुशासन में रहकर इनसे जीवन की खुशी प्राप्त की।

2. अच्छे नागरिक की भावना (Spirit of Good Citizen):
पुरातन समय की क्रियाएँ; जैसे नेज़ा फेंकना, भागना और मुक्केबाजी चाहे लड़ाई की तैयारी के लिए मानी जाती थीं परंतु शारीरिक शिक्षा के अंतर्गत आधुनिक खेलें व्यक्ति में अनेक अच्छे गुणों का विकास करती हैं जिससे वह देश का अच्छा नागरिक बनकर देश की उन्नति में अपना योगदान देता है।

3. व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality):
शारीरिक शिक्षा से व्यक्ति में सहनशीलता और मेल-जोल की रुचि बढ़ती है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है और वह समाज में अपना स्थान बनाता है। इससे दोनों का विकास होता है।

4. शारीरिक विकास (Physical Development):
शारीरिक शिक्षा में विभिन्न खेलों से शारीरिक विकास होता है। इससे . शरीर में ऑक्सीजन की खपत की मात्रा बढ़ती है और शरीर में से व्यर्थ पदार्थ और जहरीले कीटाणु बाहर निकलते हैं। शरीर में पौष्टिक आहार पचाने की शक्ति बढ़ती है। इस प्रकार शरीर नीरोग, स्वस्थ, शक्तिशाली और फुर्तीला रहता है।

5. सहयोग की भावना (Spirit of Co-operation):
शारीरिक शिक्षा प्रत्येक खिलाड़ी को प्रत्येक छोटे-बड़े खिलाड़ी के साथ मिल-जुलकर खेलना सिखाती है। वह अपने विचारों को दूसरों पर ज़बरदस्ती नहीं थोपता, बल्कि विचार-विमर्श द्वारा मैच के दौरान साझी विचारधारा बनाता है। इस प्रकार उसमें सहयोग की भावना पैदा होती है जिससे समाज उन्नति की ओर अग्रसर होता है।

6. चरित्र का विकास (Development of Character):
शारीरिक शिक्षा ऐसी क्रिया है, जिसमें खिलाड़ी अपनी प्रत्येक छोटी-से-छोटी हरकत द्वारा विभिन्न लोगों; जैसे अध्यापक, खेल के समय देखने वाले दर्शक, विरोधी और साथी खिलाड़ियों के मन पर अपना प्रभाव डालता है। इस प्रकार खिलाड़ी का आचरण उभरकर सामने आता है। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा व्यक्ति में अनेक चारित्रिक गुणों का विकास करती है।

7.आज्ञा का पालन (Obedience):
शारीरिक शिक्षा के कारण ही खेलों में भाग लेने वाला व्यक्ति प्रत्येक बड़े-छोटे खिलाड़ी की आज्ञा का पालन करता है। खेल एक ऐसी क्रिया है जिसमें रैफ़री की आज्ञा और नियमों का पालन करना बड़ा आवश्यक है। इस प्रकार खिलाड़ी आज्ञा का पालन करने वाला बन जाता है।

8. सहनशीलता (Tolerance):
खेलों में भाग लेने वाला दूसरों के विचारों का आदर करता है और खेल में रोक-टोक नहीं करता, अपितु सहनशीलतापूर्वक दूसरों के विचारों का आदर करता है। वह जीतने पर अपना आपा नहीं गंवाता और हार जाने पर निराश नहीं होता। इस प्रकार इसमें इतनी सहनशीलता आ जाती है कि हार-जीत का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता।

9. खाली समय का उचित प्रयोग (Proper Use of Leisure Time):
यदि बेकार समय का प्रयोग सही ढंग से न किया जाए तो मनुष्य दिमागी बुराइयों में फंस जाता है। इसलिए शारीरिक शिक्षा के अंतर्गत खेलों में भाग लेने वाला व्यक्ति अपने अतिरिक्त समय का प्रयोग खेलों में भाग लेकर करता है। इस प्रकार वह अपने अतिरिक्त समय में बुरी आदतों और विचारों से दूर रहता है। इस प्रकार वह अपने जीवन को सुखमय बनाता है और समाज का जिम्मेदार नागरिक बनता है।

10. अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहन (Promotion of International Co-operation):
ऐसे समय भी आते हैं, जब खिलाड़ियों को भिन्न-भिन्न देशों और अनेक खिलाड़ियों से मिलने का अवसर मिलता है। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा के कारण एक-दूसरे के मेल-जोल से अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहन मिलता है।

11. जातीय भेदभाव का अंत (End of Racial Difference):
शारीरिक शिक्षा जातीय भेदभाव का अंत करके राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा करती है। खेल एक ऐसी क्रिया है, जिसमें बिना धर्म, मज़हब और श्रेणी के आधार पर भाग लिया जाता है।

12. परिवार एवं समाज का स्वास्थ्य (Family and Social Health):
परिवार एवं समाज के स्वास्थ्य में भी शारीरिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। शारीरिक शिक्षा मनुष्य को न केवल अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने की कुशलता प्रदान करती है, अपितु यह उसे अपने परिवार एवं समाज के स्वास्थ्य को ठीक रखने में भी सहायता करती है। इस तरह से शारीरिक शिक्षा के द्वारा मनुष्य स्वयं अपने समाज के स्वास्थ्य की देखभाल भली-भाँति कर सकता है।

13. जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक (Helpful in Achieving Aim of Life):
शारीरिक शिक्षा अपने कार्यक्रमों द्वारा मनुष्य को अपने जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के मौके प्रदान करती है। यदि मनुष्य को अपने लक्ष्य का ज्ञान हो तो शारीरिक शिक्षा उसे ऐसे मौके प्रदान करती है जिनकी मदद से वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है।

14. मुकाबले की भावना (Spirit of Competition):
शारीरिक शिक्षा में खेली जाने वाली खेलें व्यक्ति के भीतर मुकाबले की भावना उत्पन्न करती हैं। प्रत्येक खिलाड़ी अपने विरोधी खिलाड़ी से बढ़िया खेलने का प्रयास करता है। मुकाबले की यह भावना खिलाड़ी को हमेशा विकास की मंजिल की ओर ले जाती है और वह निरंतर आगे बढ़ता जाता है। व्यक्ति के आगे बढ़ने से समाज पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।

15. आत्म-अभिव्यक्ति (Self-expression):
शारीरिक शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-अभिव्यक्ति का अवसर देती है। खेल का मैदान आत्म-अभिव्यक्ति का गुण सिखाने का प्रारम्भिक स्कूल है, क्योंकि खेल का मैदान ही एक ऐसा साधन है, जहाँ खिलाड़ी खुलकर अपने गुणों, कला और निपुणता को दर्शकों के समक्ष उजागर कर सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion): शारीरिक शिक्षा समाजीकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। व्यक्ति किसी भी खेल में खेल के नियमों का पालन करते हुए तथा अपनी टीम के हित को सामने रखते हुए भाग लेता है। वह अपनी टीम को पूरा सहयोग देता है। वह हार-जीत को समान समझता है। उसमें अनेक सामाजिक गुण; जैसे सहनशीलता, धैर्यता, अनुशासन, सहयोग आदि विकसित होते हैं। इस प्रकार. शारीरिक शिक्षा व्यक्ति व समाज के विकास में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 व्यक्ति एवं समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा का योगदान

प्रश्न 2.
शारीरिक शिक्षा समूचे व्यक्तित्व का विकास करती है स्पष्ट कीजिए।
अथवा
शारीरिक शिक्षा पूर्ण व्यक्तित्व के विकास में सबसे आवश्यक है। विस्तारपूर्वक लिखें।
अथवा
“शारीरिक शिक्षा संपूर्ण व्यक्त्वि की शिक्षा होती है।” इस कथन पर विचार करें। यह कहाँ तक तर्क-संगत है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास को अपना उद्देश्य बनाती है। शारीरिक क्रियाओं द्वारा व्यक्ति में त्याग, निष्पक्षता, मित्रता की भावना, सहयोग, स्व-नियंत्रण, आत्म-विश्वास और आज्ञा की पालना करने जैसे गुणों का विकास होता है। शारीरिक शिक्षा द्वारा सहयोग करने की भावना में वृद्धि होती है। परिणामस्वरूप यह स्वस्थ समाज की स्थापना होती है। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि शारीरिक शिक्षा मनुष्य के संपूर्ण विकास में सहायक होती है। यह बात निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट होती है..

1. नेतृत्व का विकास (Development of Leadership):
शारीरिक शिक्षा में नेतृत्व करने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं; जैसे क्रिकेट टीम में टीम का कैप्टन, निष्पक्षता, सूझबूझ और भावपूर्ण ढंग से खेल की रणनीति तैयार करता है। जब किसी खेल के नेता को खेल से पहले शरीर गर्माने के लिए नियुक्त किया जाता है, तब भी नेतृत्व की शिक्षा दी जाती है। कई बार प्रतिस्पर्धाओं का आयोजन करना भी नेतृत्व के विकास में सहायता करता है।

2. अनुशासन का विकास (Development of Discipline):
शारीरिक शिक्षा हमें अनुशासन का अमूल्य गुण भी सिखाती है। हमें अनुशासन में रहते हुए और खेल के नियमों का पालन करते हुए खेलना पड़ता है। इस प्रकार खेल अनुशासन के महत्त्व में वृद्धि करते हैं। यह भी एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक गुण है। खेल में अयोग्य करार दिए जाने के डर से खिलाड़ी अनुशासन भंग नहीं करते। वे अनुशासन में रहकर ही खेलते हैं।

3. सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार का विकास (Development of Sympathetic Attitude):
खेल के दौरान यदि कोई खिलाड़ी घायल हो जाता है तो दूसरे सभी खिलाड़ी उसके प्रति हमदर्दी की भावना रखते हैं। ऐसा हॉकी अथवा क्रिकेट खेलते समय देखा भी जा सकता है। यह गुण व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

4. राष्ट्रीय एकता का विकास (Development of National Integration):
शारीरिक शिक्षा एक ऐसा माध्यम है, जिससे राष्ट्रीय एकता में वृद्धि की जा सकती है। खेलें खिलाड़ियों में सांप्रदायिकता, असमानता, प्रांतवाद और भाषावाद जैसे अवगुणों को दूर करती है। इसमें नागरिकों को ऐसे अनेक अवसर मिलते हैं, जब उनमें सहनशीलता, सामाजिकता, बड़ों का सत्कार, देश-भक्ति और राष्ट्रीय आचरण जैसे गुण विकसित होते हैं । ये गुण व्यक्ति में राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देते हैं और उसके व्यक्तित्व को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

5. व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality):
मीड के अनुसार खेलें बच्चों के आत्म-विकास में बहुत सहायता करती हैं। बचपन में बच्चा कम आयु वाले बच्चों के साथ खेलता है परंतु जब वह बड़ा हो जाता है तो क्रिकेट, फुटबॉल अथवा वॉलीबॉल आदि खेलता है। ये खेलें व्यक्तित्व का विकास करती हैं। इनके द्वारा बच्चे के भीतरी गुण बाहर आते हैं । जब बच्चे मिलजुल कर खेलते हैं तो उनमें सहयोग का गुण विकसित हो जाता है।

6. शारीरिक विकास (Physical Development):
शारीरिक शिक्षा संबंधी क्रियाएँ शारीरिक विकास का माध्यम हैं। शारीरिक क्रियाएँ माँसपेशियों को मजबूत, रक्त का बहाव ठीक रखने, पाचन शक्ति में बढ़ोत्तरी और श्वसन क्रिया को ठीक रखने में सहायक हैं। शारीरिक क्रियाएँ न केवल भिन्न-भिन्न प्रणालियों को स्वस्थ और ठीक रखती हैं, बल्कि उनके आकार, शक्ल और कुशलता में भी बढ़ोत्तरी करती हैं।

7. उच्च नैतिकता की शिक्षा (Lesson of High Morality):
शारीरिक शिक्षा व्यक्ति में खेल भावना (Sportsman Spirit) उत्पन्न करती है। यह इस बात में भी सहायता करती है कि खिलाड़ी का स्तर नैतिक दृष्टि से ऊँचा रहे तथा वह पूरी ईमानदारी और मेहनत के साथ अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर होता रहे।

8. भावनात्मक संतुलन (Emotional Balance):
भावनात्मक संतुलन भी व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शारीरिक शिक्षा अनेक प्रकार से भावनात्मक संतुलन बनाए रखती है। बच्चे को बताया जाता है कि वह विजय प्राप्त करने के बाद आवश्यकता से अधिक प्रसन्न न हो और हार के गम को भी सहज भाव से ले। इस तरह भावनात्मक संतुलन एक अच्छे व्यक्तित्व के लिए अत्यावश्यक है।
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9. सामाजिक विकास (Social Development):
शारीरिक शिक्षा समूचे व्यक्तित्व का विकास इस दृष्टि से भी करती है कि व्यक्ति में अनेक प्रकार के सामाजिक गुण आ जाते हैं। उदाहरणतया सहयोग, टीम भावना, उत्तरदायित्व की भावना और नेतृत्व जैसे गुण भी बच्चे में खेलों द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। ये गुण बड़ा होने पर अधिक विकसित हो जाते हैं। फलस्वरूप बच्चा एक अच्छा नागरिक बनता है।

10. खाली समय का उचित उपयोग (Proper Use of Leisure Time):
शारीरिक शिक्षा व्यक्ति को उसका अतिरिक्त समय . सही ढंग से व्यतीत करना सिखाती है। यह आदत एक बार घर कर जाने से जीवन भर उसके साथ रहती है। यह आदत व्यक्ति को नियमित सामाजिक प्राणी बनाती है।

निष्कर्ष (Conclusion): संक्षेप में हम कह सकते हैं कि शारीरिक शिक्षा बच्चों में न केवल भीतरी गुणों को ही व्यक्त करती है, अपितु यह उनके व्यक्तित्व के विकास में भी सहायक होती है। यह बच्चे में कई प्रकार के सामाजिक गुण पैदा करती है और उसमें भावनात्मक संतुलन बनाए रखती है। यही कारण है कि शारीरिक शिक्षा सामाजिक-वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 3.
शारीरिक शिक्षा किस प्रकार व्यक्ति के अंदर छिपे हुए गुणों को बाहर निकालकर उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करने में सहायता करती है? वर्णन करें।
अथवा
शारीरिक शिक्षा व्यक्ति की आत्म अनुभूति के विकास में किस प्रकार से अपना योगदान देने में सहायक होती है? .
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के अंदर छिपे हुए गुणों (Latent Qualities) को बाहर निकाल कर उसके व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करने में सहायता करती है। यह मनुष्य में आत्म-अनुभूति का गुण उत्पन्न करके उसे आधुनिक युग की जरूरतों के अनुसार ढालने की योग्यता प्रदान करती है। शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के अंदर निम्नलिखित गुणों का विकास करती है

1. स्वास्थ्य संबंधी ज्ञान (Knowledge Related to Health):
शारीरिक शिक्षा मनुष्य को स्वास्थ्य संबंधी नियमों का ज्ञान देती है। इससे हमें रोगों संबंधी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इसके अलावा शारीरिक शिक्षा हमें संतुलित एवं पौष्टिक भोजन संबंधी जानकारी देती है। स्वास्थ्य संबंधी नियमों का पालन करके हम अपने-आपको रोगों से बचा सकते हैं और स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

2. मानसिक स्फूर्ति या चुस्ती (Mental Alertness or Agility):
शारीरिक शिक्षा मनुष्य के मन को चुस्त एवं दुरुस्त बनाती है। शारीरिक शिक्षा मनुष्य को उचित समय पर फौरन निर्णय लेने के काबिल बनाती है। इसके परिणामस्वरूप मनुष्य यह विचार कर सकता है कि वह अपनी कार्य-कुशलता और कार्यक्षमता में किस प्रकार वृद्धि करे। एक चुस्त एवं फुर्तीले मन वाला व्यक्ति ही अपने जीवन में कामयाब हो सकता है।

3. संवेगों एवं भावनाओं को नियंत्रित करना (Control Over Emotions and Feelings):
शारीरिक शिक्षा मनुष्य को अपने संवेगों एवं भावनाओं को काबू करना सिखाती है। मनुष्य अपनी समस्याओं को हंसी-खुशी सुलझा लेता है। वह शोक, घृणा, उन्माद, उल्लास, खुशी आदि को अधिक महत्त्व नहीं देता। उसके लिए सफलता या असफलता का कोई महत्त्व नहीं होता। वह असफल होने पर साहस नहीं त्यागता और अपने कार्य में लगा रहता है। इस प्रकार वह अपना कीमती समय एवं शक्ति को अवांछनीय कार्यों में व्यर्थ नहीं गंवाता और अपने समय का सदुपयोग करता है।

4. आदर्श नागरिकता का निर्माण (Formation of Ideal Citizenship):
शारीरिक शिक्षा मनुष्यों में ऐसे गुण उत्पन्न करती है जिनकी मदद से वे आदर्श खिलाड़ी एवं आदर्श दर्शक बन सकते हैं। शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हुए खिलाड़ियों में अनेक ऐसे गुण पैदा हो जाते हैं जो भविष्य में उन्हें आदर्श नागरिक बनने में मदद देते हैं।

5. प्रभावशाली वक्ता (Effective Orator or Speaker):
शारीरिक शिक्षा मनुष्य का शारीरिक विकास करके उसमें पढ़ने-लिखने की क्षमता का भी विकास करती है। स्वस्थ मनुष्य प्रत्येक वस्तु में रुचि लेता है और उसे अपने ढंग से देखता है। इससे पढ़ने-लिखने की कुशलता में बढ़ोतरी होती है। दूसरे, स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति ही एक अच्छा वक्ता हो सकता है। शारीरिक शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करती है जिससे वह दूसरे लोगों को प्रभावित कर सकता है। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करके उसे एक अच्छा वक्ता बनने के मौके प्रदान करती है।

6. सौंदर्य और कला प्रेमी (Beauty and Art Loving)शारीरिक शिक्षा मनुष्य में सौंदर्य तथा कला के प्रति प्रेम की भावना को जगाती है। आमतौर पर देखने में आता है कि जब कोई खिलाड़ी उत्कृष्ठ खेल प्रदर्शन करता है तो लोग उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहते। एक सुंदर और सुडौल शरीर प्रत्येक व्यक्ति को अच्छा लगता है। प्रत्येक मनुष्य अपने शरीर को अधिक-से-अधिक सुंदर एवं सुडौल बनाने का प्रयत्न करता है।

7. खाली समय का सदुपयोग (Proper Use of Leisure Time):
शारीरिक शिक्षा मनुष्य को अपने खाली समय का सदुपयोग करना सिखाती है। आधुनिक मशीनी युग में मशीनों की सहायता से दिनों का काम घंटों में तथा घंटों का काम मिनटों में हो जाता है। इस प्रकार दिनभर का काम पूरा करने के पश्चात् मनुष्य के पास पर्याप्त समय शेष बच जाता है। खाली समय को बिताना उसके लिए एक समस्या बन जाता है। शारीरिक शिक्षा उनकी इस समस्या का समाधान करने में मदद करती है।

HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 व्यक्ति एवं समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा का योगदान

प्रश्न 4.
नेतृत्व को परिभाषित कीजिए। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में एक नेता के गुणों का वर्णन कीजिए। अथवा नेतृत्व क्या है? शारीरिक शिक्षा में एक नेता के गुणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
नेतृत्व का अर्थ व परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Leadership):
मानव में नेतृत्व की भावना आरंभ से ही होती है। किसी भी समाज की वृद्धि या विकास उसके नेतृत्व की विशेषता पर निर्भर करती है। नेतृत्व व्यक्ति का वह गुण है जिससे वह दूसरे व्यक्तियों के जीवन के विभिन्न पक्षों में मार्गदर्शन करता है। नेतृत्व को विद्वानों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है

1. मॉण्टगुमरी (Montgomery):
के अनुसार, “किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए व्यक्तियों को इकट्ठा करने की इच्छा व योग्यता को ही नेतृत्व कहा जाता है।”

2. ला-पियरे वफावर्थ (La-Pierre and Farnowerth):
के अनुसार, “नेतृत्व एक ऐसा व्यवहार है जो लोगों के व्यवहार पर अधिक प्रभाव डालता है, न कि लोगों के व्यवहार का प्रभाव उनके नेता पर।”

3. पी० एम० जोसेफ (P. M. Joseph):
के अनुसार, “नेतृत्व वह गुण है जो व्यक्ति को कुछ वांछित काम करने के लिए, मार्गदर्शन करने के लिए पहला कदम उठाने के योग्य बनाता है।” .

एक अच्छे नेता के गुण (Qualities of aGood Leader):
प्रत्येक समाज या राज्य के लिए अच्छे नेता की बहुत आवश्यकता होती है क्योंकि वह समाज और राज्य को एक नई दिशा देता है। नेता में एक खास किस्म के गुण होते हैं जिनके कारण वह सभी को एकत्रित कर काम करने के लिए प्रेरित करता है। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में अच्छे नेता का होना बहुत आवश्यक है क्योंकि शारीरिक क्रियाएँ किसी योग्य नेता के बिना संभव नहीं हैं। किसी नेता में निम्नलिखित गुण या विशेषताएँ होमा आवश्यक है।

1. ईमानदारी एवं कर्मठता (Honesty and Energetic):
शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में ईमानदारी एवं कर्मठता एक नेता के महत्त्वपूर्ण गुण हैं। ये उसके व्यक्तित्व में निखार और सम्मान में वृद्धि करते हैं।

2. वफादारी एवं नैतिकता (Loyality and Morality):
शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में वफादारी एवं नैतिकता एक नेता के महत्त्वपूर्ण गुण हैं। उसे अपने शिष्यों या अनुयायियों (Followers) के प्रति वफादार होना चाहिए और विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों में भी उसे अपनी नैतिकता का त्याग नहीं करना चाहिए।

3. सामाजिक समायोजन (Social Adjustment):
एक अच्छे नेता में अनेक सामाजिक गुणों; जैसे सहनशीलता, धैर्यता, सहयोग, सहानुभूति व भाईचारा आदि का समावेश होना चाहिए।

4. बच्चों के प्रति स्नेह की भावना (Affection Feeling towards Children):
नेतृत्व करने वाले में बच्चों के प्रति स्नेह की भावना होनी चाहिए। उसकी यह भावना बच्चों को अत्यधिक प्रभावित करती है।

5. तर्कशील एवं निर्णय-क्षमता (Logical and Decision-Ability):
उसमें समस्याओं पर तर्कशील ढंग से विचार-विमर्श करने की योग्यता होनी चाहिए। वह एक अच्छा निर्णयकर्ता भी होना चाहिए। उसमें उपयुक्त व अनायास ही निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए।

6. शारीरिक कौशल (Physical Skill):
उसका स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए। वह शारीरिक रूप से कुशल एवं मजबूत होना चाहिए, ताकि बच्चे उससे प्रेरित हो सकें।

7. बुद्धिमान एवं न्यायसंगत (Intelligent and Fairness):
एक अच्छे नेता में बुद्धिमता एवं न्यायसंगतता होनी चाहिए। एक बुद्धिमान नेता ही विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों का समाधान ढूँढने की योग्यता रखता है। एक अच्छे नेता को न्यायसंगत भी होना । चाहिए ताकि वह निष्पक्ष भाव से सभी को प्रभावित कर सके।

8. शिक्षण कौशल (Teaching Skill):
नेतृत्व करने वाले को विभिन्न शिक्षण कौशलों का गहरा ज्ञान होना चाहिए। उसे विभिन्न शिक्षण पद्धतियों में कुशल एवं निपुण होना चाहिए। इसके साथ-साथ उसे शारीरिक संकेतों व हाव-भावों को व्यक्त करने में भी कुशल होना चाहिए।

9. सृजनात्मकता (Creativity):
एक अच्छे नेता में सृजनात्मकता या रचनात्मकता की योग्यता होनी चाहिए ताकि वह नई तकनीकों या कौशलों का प्रतिपादन कर सके।

10. समर्पण व संकल्प की भावना (Spirit of Dedication and Determination):
उसमें समर्पण व संकल्प की भावना होना बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसे विपरीत-से-विपरीत परिस्थिति में भी दृढ़-संकल्पी या दृढ़-निश्चयी होना चाहिए। उसे अपने व्यवसाय के प्रति समर्पित भी होना चाहिए।

11. अनुसंधान में रुचि (Interest in Research):
एक अच्छे नेता की अनुसंधानों में विशेष रुचि होनी चाहिए।

12. आदर भावना (Respect Spirit):
उसमें दूसरों के प्रति आदर-सम्मान की भावना होनी चाहिए। यदि वह दूसरों का आदर नहीं करेगा, तो उसको भी दूसरों से सम्मान नहीं मिलेगा।

13. पेशेवर गुण (Professional Qualities):
एक अच्छे नेता में अपने व्यवसाय से संबंधित सभी गुण होने चाहिएँ।

14. भावनात्मक संतुलन (Emotional Balance):
नेतृत्व करने वाले में भावनात्मक संतुलन का होना बहुत आवश्यक है। उसका अपनी भावनाओं पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए।

15. तकनीकी रूप से कुशल (Technically Skilled):
उसे तकनीकी रूप से कुशल या निपुण होना चाहिए।

HBSE 9th Class Physical Education Solutions Chapter 4 व्यक्ति एवं समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा का योगदान

प्रश्न 5.
नेतृत्व (Leadership) क्या है? इसके महत्त्व का विस्तार से वर्णन करें।
अथवा
शारीरिक शिक्षा में नेतृत्व प्रशिक्षण की उपयोगिता पर विस्तार से प्रकाश डालें।
उत्तर:
नेतृत्व का अर्थ (Meaning of Leadership):
मानव में नेतृत्व की भावना आरंभ से ही होती है। किसी भी समाज की वृद्धि व विकास उसके नेतृत्व की विशेषता पर निर्भर करते हैं। नेतृत्व व्यक्ति का वह गुण है जिससे वह दूसरे व्यक्तियों के जीवन के विभिन्न पक्षों में मार्गदर्शन करता है।

नेतृत्व का महत्त्व (Importance of Leadership):
नेतृत्व की भावना को बढ़ावा देना शारीरिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है, क्योंकि इस प्रकार की भावना से मानव के व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास होता है। क्षेत्र चाहे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक अथवा शारीरिक शिक्षा का हो या अन्य, हर क्षेत्र में नेता की आवश्यकता पड़ती है। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है, जिससे उसकी शारीरिक शक्ति, सोचने की शक्ति, व्यक्तित्व में निखार और कई प्रकार के सामाजिक गुणों का विकास होता है। मानव में शारीरिक क्षमता बढ़ने के कारण निडरता आती है जो नेतृत्व का एक विशेष गुण माना जाता है। इसी प्रकार खेलों के क्षेत्र में हम दूसरों के साथ सहयोग के माध्यम से लक्ष्य प्राप्त करना सीख जाते हैं। व्यक्तिगत एवं सामूहिक खेलों में व्यक्ति को अच्छे नेता के सभी गुणों को ग्रहण करने का अवसर मिलता है।
अध्यापक शारीरिक शिक्षा के माध्यम से नेतृत्व की भावना व शारीरिक शिक्षा का विस्तार करने तथा प्रशिक्षण देने में अपने शिष्यों को कई अवसर प्रदान कर सकता है। कक्षा, शिविरों में और शारीरिक शिक्षा कार्यक्रमों के आयोजन के अन्य अवसरों पर ध्यान देने से अच्छे परिणाम सामने आ सकते हैं। इस क्षेत्र के कुछ उचित अवसर इस प्रकार हैं

(1) खेल मैदान की तैयारी और खेल सामग्री की देखभाल की समितियों के सदस्य बनाना।
(2) सामूहिक व्यायाम का नेता बमाना।
(3) खेल-खिलाने तथा अन्य अवसरों पर अधिकारी बनाना।
(4) विद्यालय की टीम का कप्तान बनाना।
(5) कक्षा का मॉनीटर अथवा टोली का नेता बनाना।
(6) छोटे-छोटे खेलों को सुचारु रूप से चलाने के अवसर प्रदान करना।
(7) विद्यालय की विभिन्न समितियों के सदस्य नियुक्त करना।

प्राचीनकाल में बच्चों तथा व्यक्तियों को मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, शारीरिक तथा नैतिक विशेषताओं तथा आवश्यकताओं का ज्ञान नहीं था। आज के वैज्ञानिक युग में पूर्ण व्यावसायिक योग्यता के बिना काम नहीं चल सकता, क्योंकि नेताओं की योग्यता पर ही किसी व्यवसाय की उन्नति निर्भर करती है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शारीरिक शिक्षा के क्षेत्रों में कई प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए गए हैं; जैसे ग्वालियर, चेन्नई, पटियाला, चंडीगढ़, लखनऊ, हैदराबाद, मुंबई, अमरावती और कुरुक्षेत्र आदि। इन केंद्रों में शारीरिक शिक्षा के अध्यापकों को इस क्षेत्र के नेताओं के रूप में प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि वे शारीरिक शिक्षा की ज्ञान रूपी ज्योति को अधिक-से-अधिक

फैला सकें और अपने नेतृत्व के अधीन अधिक-से-अधिक विद्यार्थियों में नेतृत्व के गुणों को विकसित कर सकें। विद्यार्थी देश का भविष्य होते हैं और एक कुशल व आदर्श अध्यापक ही शारीरिक शिक्षा के द्वारा अच्छे समाज व राष्ट्र के निर्माण में सहायक हो सकता है। शारीरिक शिक्षा का क्षेत्र और मैदान नेतृत्व के गुण को उभारने में कितना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है यह प्रस्तुत कथन से सिद्ध होता है”The battle of Waterloo was won in the play fields of Eton.” अर्थात् वाटरलू का प्रसिद्ध युद्ध, ईटन के खेल के मैदान में जीता गया। यह युद्ध अच्छे नेतृत्व के कारण जीता गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि नेतृत्व का हमारे जीवन में विशेष महत्त्व है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न [Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
समाज (Society) से आपका क्या अभिप्राय है?
अथवा
समाज की अवधारणा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
व्यावहारिक रूप से समाज (Society) शब्द का प्रयोग मानव समूह के लिए किया जाता है परन्तु वास्तविक रूप से समाज मानव समूह के अंतर्गत व्यक्तियों के संबंधों की व्यवस्था का नाम है। समाज स्वयं में एक संघ है जो सामाजिक व औपचारिक संबंधों का जाल है। मानव बुद्धिजीवी है इसलिए हमें सामाजिक प्राणी कहा जाता है। परिवार सामाजिक जीवन की सबसे छोटी एवं महत्त्वपूर्ण इकाई है। परिवार,के बाद दूसरी महत्त्वपूर्ण इकाई विद्यालय है। विद्यालय बच्चों को देश-विदेश के इतिहास, भाषा, विज्ञान, गणित, कला एवं भूगोल की जानकारी प्रदान करते हैं।

कॉलेज, विश्वविद्यालय और अन्य संस्थान व्यक्ति को मुख्य विषयों के बारे में जानकारी देते हैं। ‘परिवार और शिक्षण संस्थाओं के बाद व्यक्ति के लिए उसका पड़ोस और आस-पास का क्षेत्र आता है। पड़ोस अलग-अलग जातीय समुदाय से संबंधित हो सकते हैं। परन्तु पड़ोस में रहने वाले सभी व्यक्तियों का कल्याण इस बात में है कि वे मिल-जुल कर शान्ति से रहें, पड़ोस में आमोद-प्रमोद का स्वच्छ वातावरण बनाएँ और एक-दूसरे के दुःख-दर्द में शामिल हों। जैसे-जैसे पारिवारिक पड़ोस में वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे सामाजिक क्षेत्र का दायरा बढ़ता जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि समाज की धारणा व्यापक एवं विस्तृत है।

प्रश्न 2.
शारीरिक शिक्षा किस प्रकार सामाजिक मूल्यों को बढ़ाती है?
अथवा
शारीरिक शिक्षा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, सहनशीलता, सहयोग व धैर्यता बढ़ाने में किस प्रकार सहायक होती है?
अथवा
शारीरिक शिक्षा से मनुष्य में कौन-कौन-से सामाजिक गुण विकसित होते हैं?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा सामाजिक मूल्यों को निम्नलिखित प्रकार से बढ़ाती है

1. सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार;
खेल के दौरान यदि कोई खिलाड़ी घायल हो जाता है तो दूसरे सभी खिलाड़ी उसके प्रति हमदर्दी की भावना रखते हैं। ऐसा हॉकी अथवा क्रिकेट खेलते समय देखा भी जा सकता है। जब भी किसी खिलाड़ी को चोट लगती है तो सभी खिलाड़ी हमदर्दी प्रकट करते हुए उसकी सहायता के लिए दौड़ते हैं। यह गुण व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

2. सहनशीलता व धैर्यता:
मानव के समुचित विकास के लिए सहनशीलता व धैर्यता अत्यन्त आवश्यक मानी जाती है। जिस व्यक्ति में सहनशीलता व धैर्यता होती है वह स्वयं को समाज में भली-भाँति समायोजित कर सकता है। शारीरिक शिक्षा अनेक ऐसे अवसर प्रदान करती है जिससे उसमें इन गुणों को बढ़ाया जा सकता है।

3. सहयोग की भावना:
समाज में रहकर हमें एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य करना पड़ता है। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से सहयोग की भावना में वृद्धि होती है। सामूहिक खेलों या गतिविधियों से व्यक्तियों या खिलाड़ियों में सहयोग की भावना बढ़ती है। यदि कोई खिलाड़ी अपने खिलाड़ियों से सहयोग नहीं करेगा तो उसका नुकसान न केवल उसको होगा बल्कि उसकी टीम को भी होगा। शारीरिक शिक्षा इस भावना को सुदृढ़ करने में सहायक होती है।

4. अनुशासन की भावना:
अनुशासन को शारीरिक शिक्षा की रीढ़ की हड्डी कहा जा सकता है। अनुशासन की सीख द्वारा शारीरिक शिक्षा न केवल व्यक्ति के विकास में सहायक है, बल्कि यह समाज को अनुशासित नागरिक प्रदान करने में भी सक्षम है।

प्रश्न 3.
नेतृत्व (Leadership) से आप क्या समझते हैं? कोई दो परिभाषाएँ बताएँ।
अथवा
नेतृत्व की अवधारणा से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मानव में नेतृत्व की भावना आरंभ से ही होती है। किसी भी समाज की वृद्धि या विकास उसके नेतृत्व की विशेषता पर निर्भर करती है। नेतृत्व व्यक्ति का वह गुण है जिससे वह दूसरे व्यक्तियों के जीवन के विभिन्न पक्षों में मार्गदर्शन करता है।
1. मॉण्टगुमरी के अनुसार, “किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए व्यक्तियों को इकट्ठा करने की इच्छा तथा योग्यता को ही नेतृत्व कहा जाता है।”
2. ला-पियरे व फा!वर्थ के अनुसार, “नेतृत्व एक ऐसा व्यवहार है जो लोगों के व्यवहार पर अधिक प्रभाव डालता है न कि लोगों के व्यवहार का प्रभाव उनके नेता पर।”

प्रश्न 4.
हमें एक नेता की आवश्यकता क्यों होती है?
अथवा
एक नेता के मुख्य कार्य बताइए।
अथवा
एक अच्छे नेता के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रत्येक समाज या देश के लिए एक अच्छा नेता बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि वह समाज और देश को एक नई दिशा देता है। नेता जनता का प्रतिनिधि होता है। वह जनता की समस्याओं को सरकार या प्रशासन के सामने प्रस्तुत करता है। वह सरकार या प्रशासन को लोगों की आवश्यकताओं व समस्याओं से अवगत करवाता है। वह लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रयास करता है। एक नेता के माध्यम से ही जनता अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एवं समस्याओं के निवारण हेतु प्रयास करती है। इसलिए हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एवं समस्याओं के निवारण हेतु एक नेता की आवश्यकता होती है।

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प्रश्न 5.
एक अच्छे नेता में कौन-कौन से गुण होने चाहिएँ?
उत्तर:
नेता में एक खास किस्म के गुण होते हैं जिनके कारण वह सभी को एकत्रित कर काम करने के लिए प्रेरित करता है। एक अच्छे नेता में निम्नलिखित गुण होने चाहिएँ-
(1) एक अच्छे नेता में पेशेवर प्रवृत्तियों का होना अति आवश्यक है। अच्छी पेशेवर प्रवृत्तियों का होना न केवल नेता के लिए आवश्यक है बल्कि समाज के लिए भी अति-आवश्यक है।
(2) एक अच्छे नेता की सोच सकारात्मक होनी चाहिए, ताकि बच्चे और समाज उससे प्रभावित हो सकें।
(3) उसमें ईमानदारी, निष्ठा, समय-पालना, न्याय-संगतता एवं विनम्रता आदि गुण होने चाहिएँ।
(4) उसके लोगों के साथ अच्छे संबंध होने चाहिएँ।
(5) उसमें भावनात्मक संतुलन एवं सामाजिक समायोजन की भावना होनी चाहिए।
(6) उसे खुशमिजाज तथा कर्मठ होना चाहिए।
(7) उसमें बच्चों के प्रति स्नेह और बड़ों के प्रति आदर-सम्मान की भावना होनी चाहिए।
(8) उसका स्वास्थ्य भी अच्छा होना चाहिए, क्योंकि अच्छा स्वास्थ्य अच्छी आदतें विकसित करने में सहायक होता है।
(9) उसका मानसिक दृष्टिकोण सकारात्मक एवं उच्च-स्तर का होना चाहिए।

प्रश्न 6.
शारीरिक शिक्षा में नेतृत्व के अवसर कब-कब प्राप्त होते हैं? वर्णन करें।
अथवा
शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में नेतृत्व का गुण कैसे विकसित किया जा सकता है? ।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम में कभी-कभी ऐसे अवसर आते हैं, जहाँ विद्यार्थी को नेतृत्व की जरूरत होती है। विद्यार्थी को नेतृत्व करने के अवसर निम्नलिखित क्षेत्रों में दिए जा सकते हैं
(1) विद्यार्थियों द्वारा शारीरिक शिक्षा में प्रशिक्षण क्रियाओं या अभ्यास क्रियाओं का नेतृत्व करना।
(2) समूह खेलों का आयोजन करवाकर नेतृत्व का गुण विकसित करना।
(3) खेल मैदान की तैयारी और खेल सामग्री की देखभाल की समितियों के सदस्य बनाना।
(4) सामूहिक व्यायाम का नेता बनाना।
(5) खेल-खिलाने तथा अन्य अवसरों पर अधिकारी बनाना।
(6) विद्यालय की टीम का कप्तान बनाना।
(7) कक्षा का मॉनीटर बनाना।
(8) छोटे-छोटे खेलों को सुचारु रूप से चलाने के अवसर प्रदान करना।
(9) विद्यालय की विभिन्न समितियों के सदस्य नियुक्त करना।

इस तरह अध्यापक विद्यार्थियों में नेतृत्व का गुण विकसित करने में सहायता करता है। इससे विद्यार्थी नेता में स्वाभिमान की भावना पैदा होती है। विद्यार्थी देश का भविष्य होते हैं। एक आदर्श अध्यापक ही शारीरिक शिक्षा के द्वारा अच्छे समाज व राष्ट्र के निर्माण में सहायक हो सकता है।

प्रश्न 7.
नेतृत्व अथवा नेता के विभिन्न प्रकार कौन-कौन से हैं? उत्तर-नेतृत्व/नेता के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं
1. संस्थागत नेता:
इस प्रकार के नेता संस्थाओं के मुखिया होते हैं। स्कूल, कॉलेज, परिवार, फैक्टरी या दफ्तर आदि को मुखिया की आज्ञा का पालन करना पड़ता है।

2. प्रभुता:
संपन्न या तानाशाही नेता-इस प्रकार का नेतृत्व एकाधिकारवाद पर आधारित होता है। इस प्रकार का नेता अपने आदेशों का पालन शक्ति से करवाता है और यहाँ तक कि समूह का प्रयोग भी अपने हित के लिए करता है। यह नेता नियम और आदेशों को समूह में लागू करने का अकेला अधिकारी होता है। स्टालिन, नेपोलियन और हिटलर इस प्रकार के नेता के उदाहरण हैं।

3. आदर्शवादी या प्रेरणात्मक नेता:
इस प्रकार का नेता समूह पर अपना प्रभाव तर्क-शक्ति से डालता है और समूह अपने नेता के आदेशों का पालन अक्षरक्षः (ज्यों-का-त्यों) करता है। समूह के मन में अपने नेता के प्रति सम्मान होता है। नेता समूह या लोगों की भावनाओं का आदर करता है। महात्मा गाँधी, अब्राहम लिंकन, जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री इस तरह के नेता थे।

4. विशेषज्ञ नेता:
समूह में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको किसी विशेष क्षेत्र में कुशलता हासिल होती है और वे अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं। ये नेता अपनी कुशल सेवाओं को समूह की बेहतरी के लिए इस्तेमाल करते हैं और समूह इन कुशल सेवाओं से लाभान्वित होता है। इस तरह के नेता अपने विशेष क्षेत्र; जैसे डॉक्टरी, प्रशिक्षण, इंजीनियरिंग तथा कला-कौशल के विशेषज्ञ होते हैं।

प्रश्न 8.
शारीरिक शिक्षा या खेलकूद का व्यक्ति के व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ता है?
अथवा
व्यक्ति के विकास में शारीरिक शिक्षा का क्या योगदान है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा या खेलकूद का लक्ष्य मानव के व्यक्तित्व का विकास इस प्रकार करना है कि वह जीवन की जटिलताओं के उतार-चढ़ाव को सहन कर सके तथा समाज का सम्मानित नागरिक बन सके। व्यक्ति का व्यक्तित्व तीन पक्षों पर आधारित है
(1) मानसिक पक्ष,
(2) शारीरिक पक्ष,
(3) सामाजिक पक्ष।

इन तीनों पक्षों के विकास से ही अच्छे नागरिक का निर्माण होता है। शारीरिक शिक्षा या खेलकूद के माध्यम से शारीरिक व्यक्तित्व निखरता है, इस बात को सभी मानते हैं। शारीरिक व्यक्तित्व का अर्थ है-अच्छा स्वास्थ्य व स्वस्थ दिमाग। अतः शारीरिक व्यक्तित्व के निखरने पर मानसिक पक्ष पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार मनुष्य अच्छे-बुरे को समझने की क्षमता रखने लगता है। यही क्षमता उसके सामाजिक व्यक्तित्व का निर्माण करती है। अतः प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से खेलकूद व्यक्ति के व्यक्तित्व पर अमिट प्रभाव डालते हैं जो उसके भावी जीवन का आधार बनते हैं।

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प्रश्न 9.
दर्शक कैसे अच्छे खिलाड़ी बन सकते हैं?
उत्तर:
दर्शन को अच्छा खिलाड़ी बनने के लिए निम्नलिखित गुण अपनाने आवश्यक हैं
(1) यदि रैफरी अथवा अंपायर उनकी इच्छानुसार निर्णय न दे तो वह अपना रोष प्रकट करने के लिए अनुचित ढंग न प्रयोग करें।
(2) वे अपने साथी दर्शकों के साथ इस कारण ही न लड़ाई-झगड़ा करें, क्योंकि वे विरोधी टीम के पक्ष में हैं।
(3) वे बढ़िया खेल को उत्साहित करने में किसी प्रकार का व्यवधान न डालें।
(4) वे जिस टीम के पक्ष में हैं, यदि वह मैच हार रही है तो दुर्व्यवहार का प्रदर्शन न करें और न ही खेल के मैदान में पत्थर, कंकर, बोतलें अथवा कूड़ा-कर्कट फेंककर खेल में रुकावट डालें।

प्रश्न 10.
आदिकाल में खेलों को मनुष्य ने अपने जीवन का सहारा क्यों बनाया?
उत्तर:
आदिकाल में मनुष्य भागना, कूदना और उछलना जैसी क्रियाएँ करता था। ये मौलिक क्रियाएँ आधुनिक खेलों की आधार हैं। आदिकाल में मनुष्य ये क्रियाएँ अपने जीवन निर्वाह के लिए शिकार करने और निजी सुरक्षा के लिए करता था। मनुष्य की आवश्यकता ने नेज़ा मारने का अभ्यास, तीरंदाजी और पत्थर मारने जैसी खेलों को जन्म दिया। ये आदिकालीन खेलें जहाँ मनुष्य के जीवन निर्वाह के लिए जरूरी थीं, वहीं उनको आत्मिक प्रसन्नता भी देती थीं।

प्रश्न 11.
मानव का विकास समाज से संभव है। व्याख्या करें। अथवा मनुष्य और समाज का परस्पर क्या संबंध है?
उत्तर:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। आधुनिक युग में मानव-संबंधों की आवश्यकता पहले से अधिक अनुभव की जाने लगी है। कोई भी व्यक्ति अपने-आप में पूर्ण नहीं है। किसी-न-किसी कार्य के लिए उसे दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। इन्हीं जरूरतों के कारण समाज में अनेक संगठनों की स्थापना की गई है। समाज द्वारा ही मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। अतः मनुष्य समाज पर आश्रित रहता है तथा इसके द्वारा ही उसका विकास संभव है।

प्रश्न 12.
शारीरिक शिक्षा हानिकारक मानसिक प्रभावों को किस प्रकार कम करती है? अथवा शारीरिक शिक्षा मनोवैज्ञानिक व्याधियों को कम करती है, कैसे?
उत्तर:
आधुनिक युग में व्यक्ति का अधिकतर काम मानसिक हो गया है। उदाहरण के रूप में, प्रोफेसर, वैज्ञानिक, दार्शनिक, गणित-शास्त्री आदि सभी बुद्धिजीवी मानसिक कार्य अधिक करते हैं। मानसिक कार्यों से हमारे नाड़ी तंत्र (Nervous System) पर दबाव पड़ता है। इस दबाव को कम करने या समाप्त करने के लिए हमें अपने काम में परिवर्तन लाने की जरूरत है। यह परिवर्तन मानसिक सुख पैदा करता है। सबसे लाभदायक परिवर्तन शारीरिक व्यायाम है। जे०बी० नैश का कहना है कि जब कोई विचार उसके दिमाग में आता है तो परिस्थिति बदल जाने पर भी वह विचार उसके दिमाग में चक्कर काटने लगता है तो इससे पीछा छुड़वाने के लिए अपने आपको दूसरे कामों में लगा लेता हूँ ताकि उसका दिमाग तसेताजा हो सके। इसलिए सभी लोगों को मानसिक उलझनों से छुटकारा पाने के लिए खेलों में भाग लेना चाहिए, क्योंकि खेलें मानसिक तनाव को दूर करती हैं। इस प्रकार हानिकारक प्रभावों को कम करने में शारीरिक शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

प्रश्न 13.
शारीरिक शिक्षा किस प्रकार रोगों की रोकथाम में सहायता करती है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा निम्नलिखित प्रकार से रोगों की रोकथाम में सहायता करती है
(1) शारीरिक शिक्षा व्यक्ति को शारीरिक रूप से मजबूत बनाने में सहायता करती है और मजबूत एवं सुडौल शरीर किसी भी प्रकार की बीमारी से लड़ सकता है।

(2) शारीरिक शिक्षा व्यक्तियों व छात्रों को शारीरिक संस्थानों का ज्ञान प्रदान करती है। शारीरिक संस्थानों की जानकारी होने से वे अपने शरीर एवं स्वास्थ्य के प्रति सक्षम रहते हैं।

(3) शारीरिक शिक्षा अच्छी आदतों को विकसित करने में सहायता करती है; जैसे हर रोज दाँतों पर ब्रश करना, भोजन करने से पहले हाथ साफ करना, सुबह-शाम सैर करना आदि।

(4) शारीरिक शिक्षा पौष्टिक एवं संतुलित आहार के महत्त्व के बारे में जानकारी देती है। पौष्टिक एवं संतुलित आहार करने से हमारे शरीर की कार्यक्षमता और रोग निवारक क्षमता बढ़ती है।

(5) शारीरिक क्रियाएँ माँसपेशियों को मजबूत, रक्त के प्रवाह को ठीक और पाचन शक्ति में बढ़ोत्तरी करने में सहायक होती हैं।

(6) शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को शारीरिक रूप से स्वस्थ बनाना है। इसलिए यह व्यक्तियों को अनेक रोगों के लक्षण, कारण एवं नियंत्रण के उपायों से अवगत करवाती है।

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न [Very Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
समाज क्या है?
उत्तर:
व्यावहारिक रूप से समाज (Society):
शब्द का प्रयोग मानव समूह के लिए किया जाता है परन्तु वास्तविक रूप से समाज मानव समूह के अंतर्गत व्यक्तियों के संबंधों की व्यवस्था का नाम है। समाज स्वयं में एक संघ है जो सामाजिक व औपचारिक संबंधों का जाल है।

प्रश्न 2.
समाज की कोई दो परिभाषाएँ दीजिए। अथवा समाज को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
1. राइट के अनुसार, “समाज व्यक्तियों का एक समूह ही नहीं है, बल्कि यह समूह के व्यक्तियों के बीच पाए जाने वाले संबंधों की व्यवस्था है।”
2. गिडिंग्स के अनुसार, “समाज स्वयं वह संगठन व औपचारिक संबंधों का योग है जिसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति परस्पर बंधे रहते हैं।”

प्रश्न 3.
क्या मध्यकाल में खेलें केवल मन बहलाने के लिए ही खेली जाती थीं?
उत्तर:
मध्यकाल में खेलें मन बहलाने का साधन थीं परंतु यह हृष्टता-पुष्टता, जोश, ज़ज्बात और शक्ति के दिखावे के लिए भी खेली जाती थीं। खेलों का प्रचलन शक्तिशाली और जोशीले सैनिक तैयार करना भी था। रोमवासियों ने खेलों के हिंसक रूप को भी अपनाया हुआ था। यूनानवासियों ने खेलों को आपसी प्यार और मित्रता में वृद्धि करने के लिए खेला।

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प्रश्न 4.
शारीरिक शिक्षा परिवार व समाज के स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करती है?
उत्तर:
परिवार एवं समाज के स्वास्थ्य में शारीरिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। शारीरिक शिक्षा मनुष्य को न केवल अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने की कुशलता प्रदान करती है, अपितु यह उसे अपने परिवार एवं समाज के स्वास्थ्य को भी ठीक रखने में सहायता करती है। इस तरह से शारीरिक शिक्षा के द्वारा मनुष्य स्वयं अपने परिवार एवं अपने समाज के स्वास्थ्य की देखभाल भली-भाँति कर सकता है।

प्रश्न 5.
एक अच्छा खिलाड़ी सफलता के लिए क्या-क्या करता है?
उत्तर:
एक अच्छा खिलाड़ी सफलता के लिए कठोर परिश्रम का सहारा लेता है। वह सफलता के लिए अयोग्य तरीकों का प्रयोग नहीं करता, अपितु देश की आन और खेल की मर्यादा के लिए दूसरों को परिश्रम करने और साफ-सुथरा खेल खेलने के लिए प्रेरित करता है। वह विरोधी खिलाड़ियों को भी अपने साथी समझता है।

प्रश्न 6.
खेलें खिलाड़ी में कौन-कौन से गुण पैदा करती हैं?
उत्तर:
खेलें खिलाड़ी को आज्ञा पालन करने वाला, समय का सदुपयोग करने वाला, दूसरों के विचारों का सम्मान करने वाला, सहनशील, स्वस्थ और फुर्तीला खिलाड़ी बना देती हैं। खेलों के द्वारा खिलाड़ियों में दूसरों के साथ मिलकर रहना, उनको अपने बराबर समझना जैसे सामाजिक गुण आ जाते हैं। खिलाड़ी सत्य बोलने वाले, चरित्रवान, नैतिक मूल्यों का पालन करने वाले बन जाते हैं।

प्रश्न 7.
खेलों में भाग लेने से शरीर नीरोगी कैसे होता है?
उत्तर:
खेलों में भाग लेने से शरीर के निरंतर गतिशील रहने से अधिक भूख लगती है और शरीर में नया खून, शक्ति और तंदुरुस्ती पैदा होती है।

प्रश्न 8.
शारीरिक शिक्षा किन नैतिक गुणों का विकास करती है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा व्यक्ति में ईमानदारी, वफादारी, सच बोलना, दूसरों की सहायता करना, आत्म-त्याग आदि नैतिक गुणों . का विकास करती है। .

प्रश्न 9.
नेता का प्रमुख गुण क्या होना चाहिए? ‘
उत्तर:
सर्वप्रथम तो एक नेता को अच्छा नागरिक होना चाहिए, फिर एक अच्छा वक्ता व प्रशिक्षक तथा उसके बाद एक विशेषज्ञ होना चाहिए। उसे ईमानदार, समय का पाबंद और कर्मठ होना चाहिए।

प्रश्न 10.
मॉण्टगुमरी के अनुसार नेतृत्व को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
मॉण्टगुमरी के अनुसार, “किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए व्यक्तियों को इकट्ठा करने की इच्छा व योग्यता को ही नेतृत्व कहा जाता है।” ..

प्रश्न 11.
समूह क्या है?
उत्तर:
समूह एक ऐसी सामाजिक अवस्था है जिसमें सभी इकट्ठे होकर कार्य करते हैं और अपने-अपने विचारों या भावनाओं को संतुष्ट करते हैं। इसके द्वारा एकीकरण, मित्रता, सहयोग व सहकारिता के विचारों को बढ़ावा मिलता है। समूह में समान उद्देश्य की पूर्ति हेतु इकट्ठे होकर कार्य किया जाता है।

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प्रश्न 12.
प्राथमिक समूह किसे कहते हैं?
उत्तर:
प्राथमिक समूह वह पारिवारिक समूह है जिसमें भावनात्मक संबंध, घनिष्ठता एवं प्रेम-भाव प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसमें सशक्त समाजीकरण, अच्छे चरित्र तथा आचरण का विकास होता है। इस समूह के सदस्य एक-दूसरे से अपनी गतिविधियों व संस्कृति संबंधी वार्तालाप करते हैं।

प्रश्न 13.
द्वितीयक समूह किसे कहते हैं?
उत्तर:
द्वितीयक समूह प्राथमिक समूह से अधिक विस्तृत होता है। यह एक ऐसा समूह है जिसमें अप्रत्यक्ष, प्रभावरहित, औपचारिक संबंध होते हैं । इस समूह में सम्मिलित सदस्यों में कोई भावनात्मक संबंध नहीं होता। ऐसे समूहों में स्वार्थ प्रवृत्तियाँ अधिक पाई जाती हैं।

प्रश्न 14.
आदर्शवादी या प्रेरणात्मक नेता किसे कहा जाता है?
उत्तर:
इस प्रकार का नेता समूह पर अपना प्रभाव तर्क-शक्ति से डालता है और समूह अपने नेता के आदेशों का पालन अक्षरक्षः (ज्यों-का-त्यों) करता है। समूह के मन में अपने नेता के प्रति सम्मान होता है। नेता समूह या लोगों की भावनाओं का आदर करता है। महात्मा गाँधी, अब्राहम लिंकन, जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री इस तरह के नेता थे।

HBSE 9th Class Physical Education व्यक्ति एवं समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा का योगदान Important Questions and Answers

वस्तनिष्ठ प्रश्न [Objective Type Questions]

प्रश्न 1.
व्यक्ति के विकास में शारीरिक शिक्षा का कोई एक योगदान बताएँ।
उत्तर:
अच्छी आदतों का विकास करना।

प्रश्न 2.
समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा का कोई एक योगदान बताएँ।
उत्तर:
सामाजीकरण में सहायक सामाजिक गुणों; जैसे सहयोग, बंधुत्व व अच्छे नागरिक की भावना का विकास करना।

प्रश्न 3.
शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के शरीर को कैसा बनाती है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के शरीर को मजबूत एवं तंदुरुस्त बनाती है।

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प्रश्न 4.
एक अच्छे नेता का कोई एक गुण बताएँ।
उत्तर:
एक अच्छा नेता ईमानदार होता है।

प्रश्न 5.
खेल के मैदान में खिलाड़ी का व्यवहार कैसा होना चाहिए?
उत्तर:
खेल के मैदान में खिलाड़ी का व्यवहार शांत एवं धैर्यपूर्ण होना चाहिए।

प्रश्न 6.
एक नेता कैसा होना चाहिए?
उत्तर-एक
नेता ईमानदार, कर्मठ तथा अच्छा वक्ता होना चाहिए।

प्रश्न 7.
एक योग्य व्यक्ति में नेतृत्व के अलावा कौन-कौन से आवश्यक गुण होते हैं?
उत्तर:
एक योग्य व्यक्ति में नेतृत्व के अलावा ईमानदारी, सहनशीलता, सहयोग की भावना, आज्ञा पालन की भावना और नैतिक गुण होते हैं।

प्रश्न 8.
शारीरिक शिक्षा द्वारा विकसित कोई एक सामाजिक मूल्य बताएँ।
उत्तर:
सामाजिक सहयोग की भावना विकसित होना।

प्रश्न 9.
समूह कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर;
समूह दो प्रकार के होते हैं।

प्रश्न 10.
किस प्रकार के समूह में भावनात्मक संबंध पाया जाता है?
उत्तर:
प्राथमिक समूह में भावनात्मक संबंध पाया जाता है।

प्रश्न 11.
आदिकाल में मनुष्य किस प्रकार की खेलें खेलता था?
उत्तर:
तीरंदाजी, नेज़ाबाजी और पत्थरों को फेंकना।

प्रश्न 12.
प्राचीनकाल में मनुष्य के लिए खेलों का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
जीवन-निर्वाह और शिकार खेलने के लिए युक्ति सीखना।

प्रश्न 13.
समाज किसका जाल है?
उत्तर:
समाज सामाजिक संबंधों का जाल है।

प्रश्न 14.
“नेतृत्व एक ऐसा व्यवहार है जो लोगों के व्यवहार पर अधिक प्रभाव डालता है, न कि लोगों के व्यवहार का प्रभाव उनके नेता पर।” यह परिभाषा किसने दी? . .
उत्तर:
यह परिभाषा ला-पियरे व फा!वर्थ ने दी।

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प्रश्न 15.
“मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
अरस्तू का।

बहुविकल्पीय प्रश्न [Multiple Choice Questions]

प्रश्न 1.
“समाज के बिना मानव पशु है या देवता।” यह कथन है
(A) मैजिनी का
(B) क्लेयर का
(C) अरस्तू का
(D) मजूमदार का
उत्तर:
(C) अरस्तू का

प्रश्न 2.
“बच्चा नागरिकता का प्रथम पाठ माता के चुंबन और पिता के दुलार से सीखता है।” यह कथन किसका है?
(A) क्लेयर का
(B) मैजिनी का
(C) मजूमदार का
(D) ईलियट और मैरिल का
उत्तर:
(B) मैजिनी का

प्रश्न 3.
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के अनुसार एक अच्छे नागरिक में अच्छे समाज के निर्माण के लिए गुण होने चाहिएँ
(A) सत्य
(B) अहिंसा
(C) निर्भीकता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 4.
अरस्तू के अनुसार एक अच्छे नागरिक के गुण होते हैं
(A) शारीरिक सौंदर्य
(B) तीव्र बुद्धि व ज्ञान
(C) शुद्ध आचरण व व्यवहार
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 5.
आदिकाल में मनुष्य के पसंदीदा खेल थे-
(A) तीरंदाजी
(B) नेज़ा मारने का अभ्यास
(C) पत्थर फेंकना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 6.
शारीरिक शिक्षा समाज के विकास में योगदान देती है
(A) जातीय भेदभाव का अंत करना
(B) सहयोग की भावना का विकास करना
(C) आदर्श नागरिकों का निर्माण करना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

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प्रश्न 7.
खिलाड़ी का व्यवहार होना चाहिए.
(A) धैयपूर्ण
(B) सहनशील
(C) शांत
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 8.
खिलाड़ी का चयन किस आधार पर किया जाता है?
(A) सामाजिक आधार पर
(B) आर्थिक आधार पर
(C) खेल कला एवं योग्यता के आधार पर
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) खेल कला एवं योग्यता के आधार पर

प्रश्न 9.
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शारीरिक शिक्षा बढ़ावा देती है’
(A) मित्रता को
(B) सद्भावना को
(C) अंतर्राष्ट्रीय शांति को
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 10.
“हमें खेल जीतने के लिए नहीं, बल्कि अच्छा प्रदर्शन करने के लिए खेलना चाहिए।” यह कथन है
(A) अरस्तू का .
(B) बैरन-डी-कोबर्टिन का
(C) प्लेटो का
(D) सुकरात का
उत्तर:
(B) बैरन-डी-कोबर्टिन का

प्रश्न 11.
“समाज स्वयं वह संगठन व औपचारिक संबंधों का योग है जिसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति परस्पर बंधे रहते हैं।” यह कथन है
(A) अरस्तू का
(B) सुकरात का
(C) प्लेटो का
(D) गिडिंग्स का
उत्तर:
(D) गिडिंग्स का

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प्रश्न 12.
“मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।” यह कथन है
(A) अरस्तू का
(B) सुकरात का.
(C) प्लेटो का
(D) गिडिंग्स का
उत्तर:
(A) अरस्तू का

व्यक्ति एवं समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा का योगदान Summary

व्यक्ति एवं समाज के विकास में शारीरिक शिक्षा का योगदान परिचय

शारीरिक शिक्षा (Physical Education):
शारीरिक शिक्षा द्वारा केवल बुद्धि तथा शरीर का ही विकास नहीं होता, बल्कि इससे व्यक्ति के स्वभाव, चरित्र एवं आदतों के निर्माण में भी सहायता मिलती है। अत: शारीरिक शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के संपूर्ण (शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक) व्यक्तित्व का विकास होता है। मॉण्टेग्यू (Montague) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा न तो मस्तिष्क का और न ही शरीर का प्रशिक्षण करती है, बल्कि यह सम्पूर्ण व्यक्ति का प्रशिक्षण करती है।”

समाज (Society):
व्यावहारिक रूप से समाज (Society) शब्द का प्रयोग मानव समूह के लिए किया जाता है परन्तु वास्तविक रूप से समाज मानव समूह के अंतर्गत व्यक्तियों के संबंधों की व्यवस्था का नाम है। समाज स्वयं में एक संघ है जो सामाजिक व औपचारिक संबंधों का जाल है। राइट (Wright) के अनुसार, “समाज व्यक्तियों का एक समूह ही नहीं है, बल्कि यह समूह के व्यक्तियों के बीच पाए जाने वाले संबंधों की व्यवस्था है।”

नेतृत्व (Leadership):
मानव में नेतृत्व की भावना आरंभ से ही होती है। किसी भी समाज की वृद्धि या विकास उसके नेतृत्व की विशेषता पर निर्भर करती है। नेतृत्व व्यक्ति का वह गुण है जिससे वह दूसरे व्यक्तियों के जीवन के विभिन्न पक्षों में मार्गदर्शन करता है। मॉण्टगुमरी (Montgomery) के अनुसार, “किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए व्यक्तियों को इकट्ठा करने की इच्छा व योग्यता को ही नेतृत्व कहा जाता है।”

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HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 2 प्रशिक्षण विधियाँ

Haryana State Board HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 2 प्रशिक्षण विधियाँ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Physical Education Solutions Chapter 2 प्रशिक्षण विधियाँ

HBSE 12th Class Physical Education प्रशिक्षण विधियाँ Textbook Questions and Answers

दीर्घ-उत्तरात्मक प्रश्न [Long Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
आइसोमीट्रिक, आइसोटोनिक एवं आइसोकाइनेटिक व्यायामों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
1. आइसोमीट्रिक व्यायाम (Isometric Exercises):
ये वे व्यायाम होते हैं जिनमें खिलाड़ी द्वारा किया गया व्यायाम या कार्य नजर नहीं आता। ऐसे व्यायाम में तनाव की अधिकता तथा तापमान में वृद्धि की संभावना रहती है। हमारे अत्यधिक बल लगाने पर भी वस्तु अपने स्थान से नहीं हिलती। उदाहरणार्थ, एक ट्रक को धकेलने के लिए एक व्यक्ति बल लगाता है, परंतु वह अत्यधिक भारी होने के कारण अपनी जगह से नहीं हिलता, परंतु तनाव बना रहता है जिससे हमारी ऊर्जा का व्यय होता है। कई बार हमारे शरीर का तापमान भी बढ़ जाता है। ऐसे व्यायाम करने से माँसपेशियों की लंबाई तथा मोटाई बढ़ जाती है। कुछ आइसोमीट्रिक व्यायाम निम्नलिखित हैं-
(1) बंद दरवाजों को धकेलना
(2) पीठ से दीवार को दबाना
(3) पैरलल बार को पुश करना
(4) दीवार या जमीन पर उँगली, कोहनी या कंधा दबाना
(5) कुर्सी को दोनों हाथों से अंदर की ओर दबाना
(6) घुटने मोड़ना
(7) डैस्क को हाथ, उँगली, पैर या पंजे से दबाना आदि।

2. आइसोटोनिक व्यायाम (Isotonic Exercises):
ऐसे व्यायामों में खिलाड़ी की गतिविधियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। इन व्यायामों का उद्देश्य माँसपेशियों की कार्यक्षमता में वृद्धि करना होता है। इनसे माँसपेशियों में लचक आती है। इन अभ्यासों को समशक्ति जोर भी कहते हैं। कुछ आइसोटोनिक व्यायाम हैं-
(1) हल्के भार के व्यायाम करना
(2) हल्का बोझ उठाना
(3) झूला झूलना
(4) बाल्टी उठाना आदि।

3. आइसोकाइनेटिक व्यायाम (Isokinetic Exercises):
ये व्यायाम आइसोमीट्रिक एवं आइसोटोनिक व्यायामों का मिश्रण हैं। इनमें मध्यम रूप में भार रहता है ताकि माँसपेशियाँ ‘Bulk’ और ‘Tone’ दोनों रूप में वृद्धि कर सके। ये अत्यंत आधुनिक व्यायाम हैं जिनमें पहले दोनों प्रकार के व्यायामों का लाभ मिल जाता है। इनसे हम अपने शरीर को गर्मा भी सकते हैं। इनके उदाहरण हमें दैनिक जीवन में भी देखने को मिल सकते हैं; जैसे-
(1) बर्फ पर स्केटिंग करना
(2) भार ढोना
(3) चिन-अप
(4) भारी रोलर धकेलना
(5) रस्सी पर चलना।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 2 प्रशिक्षण विधियाँ

प्रश्न 2.
सहनशीलता के विकास (Endurance Development) की विधियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
सहनशीलता को किस प्रकार बढ़ाया जा सकता है? इसकी प्रशिक्षण विधियों का ब्यौरा दें।
उत्तर:
व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिए सहनशीलता का विकास होना बहुत आवश्यक है। सहनशीलता के विकास में अनेक प्रशिक्षण विधियाँ महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। अतः इन विधियों का विवरण इस प्रकार है-
1. निरंतर प्रशिक्षण विधि (Continuous Training Method):
निरंतर प्रशिक्षण विधि सहनशीलता को बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है.। इस तरीके में व्यायाम लंबी अवधि तक बिना रुके अर्थात् निरंतर किया जाता है। इस तरीके में सघनता बहुत कम होती है क्योंकि व्यायाम लंबी अवधि तक किया जाता है। क्रॉस-कंट्री दौड़ इस प्रकार के व्यायाम का सबसे अच्छा उदाहरण है। इस तरह के व्यायाम में हृदय की धड़कन की दर लगभग 140 से 160 प्रति मिनट होती है। व्यायाम करने की अवधि कम-से-कम 30 मिनट होनी आवश्यक है। इस विधि से हृदय तथा फेफड़ों की कार्यकुशलता में वृद्धि हो जाती है। इससे इच्छा-शक्ति दृढ़ हो जाती है तथा थकावट की दशा में लगातार काम करने से व्यक्ति दृढ़-निश्चयी बन जाता है। इससे व्यक्ति में आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन व आत्म-विश्वास बढ़ने लगता है।

2. अंतराल प्रशिक्षण विधि (Interval Training Method):
प्रसिद्ध एथलेटिक्स कोच बिकिला (Bikila) ने सन् 1920 में अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत की। उन्होंने इसे टेरेस ट्रेनिंग का नाम दिया। वास्तव में यह विधि प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति, फिर प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति के सिद्धांत पर आधारित है। इस विधि का प्रयोग गति तथा सहनशीलता के विकास के लिए होता है। शिक्षित खिलाड़ी के लिए यह अति सुदृढ़ तथा प्रभावशाली प्रशिक्षण विधि है, परंतु इस विधि को अनुचित ढंग से अपनाने से उकताहट के कारण शारीरिक एवं मानसिक थकावट उत्पन्न होती है।

3. फार्टलेक प्रशिक्षण विधि (Fartlek Training Method):
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि क्रॉस-कंट्री दौड़ पर आधारित है तथा दौड़ के साथ-साथ कई अन्य व्यायाम भी इसमें शामिल हैं। यह प्रशिक्षण खिलाड़ी की आयु, क्षमता आदि देखकर दिया जाता है। इस प्रशिक्षण विधि में कदमों के फासले या दूरी और तीव्रता आदि में फेर-बदल करके दौड़ का कार्यक्रम बनता है। भागते-भागते जमीन से कोई वस्तु उठाना, भागते-भागते आधी बैठक लगाना, एक टाँग से दौड़ना, दोनों पैरों से कूद लगाना, हाथ ऊपर करके भागना आदि इसके उदाहरण हैं। खिलाड़ी अपनी इच्छानुसार गति तथा अन्य व्यायामों में फेर-बदल कर सकता है। इस विधि से थकान का अनुभव नहीं होता। इसमें समय पर विशेष बल दिया जाता है। खिलाड़ी में अधिक शक्ति अथवा क्षमता बनाई जाती है।
इस प्रकार उपर्युक्त विधियों की सहायता से सहनशीलता को बढ़ाया जा सकता है।

प्रश्न 3.
गति को प्रशिक्षण विधि में कैसे विकसित किया जाता है?
अथवा
गति की प्रशिक्षण विधि का वर्णन कीजिए।
अथवा
गति के विकास की विभिन्न विधियों का वर्णन कीजिए। अथवा
गति के विकास के लिए त्वरण दौड़ों का वर्णन कीजिए।
अथवा
त्वरण दौड़ों तथा पेस दौड़ों पर नोट लिखें।
उत्तर:
गति वह योग्यता या क्षमता है जिसके द्वारा एक ही प्रकार की गतिविधि को बार-बार तीव्र गति से किया जाता है। वास्तव में, किसी क्रिया को अधिक-से-अधिक तेज़ गति के साथ करने की योग्यता को गति कहा जाता है। अधिकतर खेलों में गति का प्रयोग किया जाता है। गति के विकास की विभिन्न विधियाँ निम्नलिखित हैं
1. त्वरण दौड़ें (Acceleration Races):
सामान्यतया गति के विकास के लिए त्वरण दौड़ें अपनाई जाती हैं, विशेष रूप से स्थिर अवस्था से अधिकतम गति प्राप्त करने के लिए इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी इवेन्ट की तकनीक शुरू में ही सीख लें। इस प्रकार की दौड़ों के लिए एथलीट या खिलाड़ी को एक विशेष दूरी की दौड़ लगानी होती है। वह स्टार्टिंग लाइन से स्टार्ट लेता है और जितनी जल्दी सम्भव हो सके, उतनी जल्दी अधिकतम गति प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसी गति से निश्चित की हुई दूरी को पार करता है।

त्वरण दौड़ें बार-बार दौड़ी जाती हैं। इन दौड़ों के बीच में मध्यस्थ/अंतराल का समय काफी होता है। स्प्रिट लगाने वाले प्रायः स्थिर अवस्था के बाद से लेकर अधिकतम गति 6 सेकिण्ड में प्राप्त कर लेते हैं। इसका मतलब है कि स्टार्ट लेने से लेकर त्वरित करने तथा अधिकतम गति को बनाए रखने में 50 से 60 मी० की दूरी की आवश्यकता होती है। ऐसा प्रायः देखा गया है कि बहुत अच्छे खिलाड़ी/एथलीट केवल 20 मी० तक अपनी अधिकतम गति को बनाए रख सकते हैं। इन दौड़ों की संख्या खिलाड़ी/एथलीट की आयु, उसके अनुभव व उसकी क्षमता के अनुसार निश्चित की जा सकती है। यह संख्या 6 से 12 हो सकती है। त्वरण दौड़ में कम-से-कम दूरी 20 से 40 मीटर होती है। इन दौड़ों से पहले उचित गर्माना बहुत आवश्यक होता है। प्रत्येक त्वरण दौड़ के बाद उचित मध्यस्थ/अंतराल भी होना चाहिए, ताकि खिलाड़ी/एथलीट अगली दौड़ बिना किसी थकावट के लगा सके।

2. पेस दौड़ें (Pace Races):
पेस दौड़ों का अर्थ है-एक दौड़ की पूरी दूरी को एक निश्चित गति से दौड़ना। इन दौड़ों में एक खिलाड़ी/एथलीट दौड़ को समरूप या समान रूप से दौड़ता है। सामान्यतया 800 मी० व इससे अधिक दूरी की दौड़ें पेस दौड़ों में शामिल होती हैं। वास्तव में, एक एथलीट लगभग 300 मी० की दूरी पूरी गति से दौड़ सकता है। इसलिए मध्यम व लम्बी दौड़ों में; जैसे 800 मी० व इससे अधिक दूरी की दौड़ों में उसे अपनी गति में कमी करके अपनी ऊर्जा को संरक्षित रखना जरूरी है। उदाहरण के लिए, यदि एक 800 मी० की दौड़ लगाने वाला एथलीट है और उसका समय 1 मिनट 40 सेकिण्ड है, तो उसे पहली 400 मी० दौड़ 49 सेकिण्ड में तथा 400 मी० दौड़ 51 सेकिण्ड में लगानी चाहिए। यह प्रक्रिया ही पेस दौड़ कहलाती है। पेस दौड़ों की दोहराई खिलाड़ी की योग्यता के अनुसार निश्चित की जा सकती हैं।

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प्रश्न 4.
निरंतर प्रशिक्षण विधि क्या है? खिलाड़ियों में सहनशीलता के विकास में इस विधि का क्या योगदान है?
अथवा
निरंतर प्रशिक्षण विधि (Continuous Training Method) क्या है? इस विधि के लाभों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
निरंतर प्रशिक्षण विधि (Continuous Training Method):
निरंतर प्रशिक्षण विधि सहनशीलता को बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है। यह ऐसी विधि है जिसमें व्यायाम लंबी अवधि तक बिना रुके अर्थात् निरंतर किए जाते हैं। इस तरीके में सघनता बहुत कम होती है क्योंकि व्यायाम लंबी अवधि तक किया जाता है। क्रॉस-कंट्री दौड़ इस प्रकार के व्यायाम का सबसे अच्छा उदाहरण है। इस तरह के व्यायाम में हृदय की धड़कन की दर लगभग 140 से 160 प्रति मिनट होती है। व्यायाम करने की अवधि कम-से-कम 30 मिनट होनी आवश्यक है। एथलीट या खिलाड़ी की सहनशीलता की योग्यता के अनुसार व्यायाम करने की अवधि में बढ़ोतरी की जा सकती है।

निरंतर प्रशिक्षण विधि के लाभ (Advantages of Continuous Training Method): निरंतर प्रशिक्षण विधि के लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) इस व्यायाम से माँसपेशियों तथा जिगर में ग्लाइकोजिन बढ़ जाता है।
(2) इससे हृदय तथा फेफड़ों की कार्यकुशलता में वृद्धि हो जाती है।
(3) इससे इच्छा-शक्ति दृढ़ हो जाती है तथा थकावट की दशा में लगातार काम करने से व्यक्ति दृढ़-निश्चयी बन जाता है।
(4) अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए व्यायाम की सघनता को बढ़ाया जा सकता है।
(5) इससे व्यक्ति में आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन व आत्म-विश्वास बढ़ने लगता है।

प्रश्न 5.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
अथवा
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि क्या है? खिलाड़ियों में सहनशीलता के विकास में इस विधि का क्या योगदान है?
अथवा
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि से आप क्या समझते हैं? इस विधि के लाभों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि (Fartlek Training Method):
फार्टलेक (Fartlek) स्वीडन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है-‘Speed Play’ अर्थात् ‘गति से खेलना’ इस प्रकार का प्रशिक्षण खिलाड़ी खेल के मैदान या जिम्नेजियम में नहीं करता। यह प्रशिक्षण घास के मैदान, पहाड़ों, रेतीली ज़मीन, जंगल आदि में लिया जाता है। इस प्रशिक्षण में शारीरिक शक्ति और सहनशीलता बढ़ाने के लिए दौड़ने के अतिरिक्त प्राकृतिक साधनों की सहायता से व्यायाम किए जाते हैं; जैसे पेड़ पर चढ़ना, नदी को पार करना, पहाड़ों पर चढ़ना व उतरना आदि। खिलाड़ियों में सहनशीलता के विकास में इस प्रशिक्षण विधि का विशेष योगदान है। इस प्रशिक्षण विधि का मुख्य लाभ खिलाड़ी को यह मिलता है कि वह रोज़ाना एक ही प्रकार के व्यायाम खेल के मैदान तथा जिम्नेजियम में करते-करते बोरियत अनुभव करता है, उससे उसे निजात मिलती है। वह इस परिवर्तित प्रशिक्षण के ढंग से उत्साहित होता है।

फार्टलेक प्रशिक्षण विधि में खिलाड़ी एक निश्चित दूरी तक दौड़ने का कार्यक्रम बनाते हैं। दूरी तय करने का समय निश्चित किया जाता है लेकिन पग के फासले तथा उनकी तीव्रता में फेर-बदल पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। दौड़ समाप्त करने का फैसला खिलाड़ी के स्तर को देखकर किया जाता है। प्रशिक्षण प्राप्तकर्ता धीमी गति से दौड़ प्रारम्भ करता है तथा उसको पगों में फेर-बदल करने की छूट होती है। इस दौड़ में केवल निश्चित समय में दौड़ समाप्त करने तथा मध्य में तीव्र गति की दौड़-दौड़ने पर जोर दिया जाता है। इस दौड़ के साथ प्रशिक्षक विभिन्न किस्म के व्यायाम जोड़ सकता है; जैसे एक टाँग पर छलाँग लगानी, दोनों पाँवों से छलाँग लगानी तथा दोहरी छलाँग आदि । व्यायाम का चयन खिलाड़ी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। फार्टलेक प्रशिक्षण विधि को गति का खेल (Speed Play) भी कहा जाता है।

फार्टलेक प्रशिक्षण विधि के लाभ (Advantages of Fartlek Training Method): फार्टलेक प्रशिक्षण विधि के लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) खिलाड़ी अपनी इच्छानुसार गति तथा अन्य व्यायामों में फेर-बदल कर सकता है।
(2) इससे थकान का अनुभव नहीं होता।
(3) इसमें समय पर विशेष बल दिया जाता है।
(4) इससे चहुंमुखी विकास होता है।
(5) शरीर प्रत्येक कठोर व्यायाम अथवा प्रतियोगिता में भाग लेने के योग्य हो जाता है।
(6) इससे आत्म-विश्वास बढ़ता है।
(7) इससे नए अनुभव प्राप्त होते हैं और रचनात्मकता बढ़ती है।

निष्कर्ष (Conclusion):
इस प्रशिक्षण विधि के निष्कर्ष में यह कहा जाता है कि यह ऐसी ज़मीन पर करवाया जाता है जो कि प्रतियोगिता में प्रयुक्त किए जाने वाले ट्रैक (दौड़ पथ) से कोई सम्बन्ध न होने के कारण कोई लाभ नहीं होता। वास्तव में, जो व्यक्ति असमतल धरातल पर प्रशिक्षण करते हैं, वे बनाए गए बढ़िया ट्रैक पर सुगमतापूर्वक भाग ले सकते हैं। ऐसे खिलाड़ी बढ़िया प्रदर्शन कर सकते हैं। इससे खिलाड़ियों की शारीरिक क्षमता तथा सहनशीलता में वृद्धि होती है। यह प्रशिक्षण विधि सभी किस्मों के खेलकूद की गतिविधियों के लिए शक्ति तथा सहनशीलता बढ़ाने का एक बढ़िया साधन है।

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प्रश्न 6.
मध्यांतर/अंतराल विधि की सविस्तार व्याख्या कीजिए।
अथवा
अंतराल प्रशिक्षण विधि क्या है? खिलाड़ियों में सहनशीलता के विकास में इस विधि का प्रयोग कैसे किया जाता है?
अथवा
अंतराल प्रशिक्षण विधि (Interval Training Method) क्या है? इस विधि के लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
अंतराल प्रशिक्षण विधि (Interval Training Method):
प्रसिद्ध एथलेटिक्स कोच बिकिला (Bikila) ने सन् 1920 में अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत की। उन्होंने इसे टेरेस ट्रेनिंग (Terrace Training) का नाम दिया। वास्तव में यह विधि प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति, फिर प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति के सिद्धांत पर आधारित है। अंतराल प्रशिक्षण के समय खिलाड़ी को हर बार तेज गति के कार्य करने के बाद पुनः शक्ति प्राप्त करने हेतु समय प्रदान किया जाता है। खिलाड़ी की क्षमता के अनुसार पुनः शक्ति प्राप्त करने के समय को व्यवस्थित किया जा सकता है। पुनः शक्ति प्राप्ति का समय कम करके या बढ़ाकर भार को घटाया या बढ़ाया जा सकता है।

अतः पूरी गति से एक चक्कर ट्रैक का लगाकर दूसरा चक्कर धीरे-धीरे दौड़कर फिर एक गति पूर्ण, फिर धीरे-धीरे दौड़कर चक्र पूरा करने को अंतराल प्रशिक्षण कहते हैं। इसे तेज और धीरे दौड़ना भी कहते हैं। इस प्रशिक्षण में पाँच बातों का ध्यान रखना चाहिए-
(1) दूरी
(2) अंतराल
(3) दौड़ों के बीच आराम का समय
(4) तेज दौड़ों का समय
(5) आराम।
इस विधि का प्रयोग गति तथा सहनशीलता के विकास के लिए होता है। खिलाड़ी के लिए यह अति सुदृढ़ तथा प्रभावशाली प्रशिक्षण विधि है, परंतु इस विधि को अनुचित ढंग से अपनाने से उकताहट के कारण शारीरिक एवं मानसिक थकावट उत्पन्न होती है।

अंतराल प्रशिक्षण विधि के लाभ (Advantages of Interval Training Method):
इस प्रशिक्षण विधि के मुख्य लाभ निम्नलिखित प्रकार से हैं-
(1) अंतराल प्रशिक्षण विधि व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुसार बिना टीम के दबाव के चलाई जाने वाली व्यक्तिगत विधि है।
(2) इस प्रशिक्षण विधि में आवश्यक आराम के क्षणों में कमी करके शक्ति, क्षमता एवं धैर्य से विकास किया जा सकता है।
(3) इस प्रशिक्षण विधि से खिलाड़ी अपनी प्रगति का स्वयं अनुमान लगा सकता है।
(4) इस प्रशिक्षण विधि में नाड़ी की धड़कन को स्थिर बनाकर शीघ्र एकात्मक क्षमता को विकसित किया जा सकता है।
(5) इस प्रशिक्षण विधि के द्वारा थकावट के पश्चात् शीघ्र विश्राम पाने की क्षमता में वृद्धि की जा सकती है। .

प्रश्न 7.
गर्माने से आपका क्या अभिप्राय है? इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा
वार्मिंग-अप से क्या अभिप्राय है? खिलाड़ियों के लिए इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
गर्माने का अर्थ (Meaning of Warming-up):
किसी कार्य को सुचारु रूप से करने के लिए मांसपेशियों को उसके अनुरूप तैयार करना पड़ता है। इसे माँसपेशियों का गर्माना कहते हैं। अतः गर्माने का अर्थ है-शरीर को प्रतियोगिता अथवा कार्य के लिए उचित व्यवस्था में लाना। इससे अच्छे परिणाम निकलते हैं तथा शरीर को कोई आघात नहीं पहुँचता।

शरीर को गर्माने का महत्त्व (Importance of Warming-up): शरीर को गर्माने से हमारे शरीर पर अनेक लाभदायक प्रभाव पड़ते हैं-
(1) शरीर को गर्माने से श्वसन प्रक्रिया में आवश्यकतानुसार सुधार हो जाता है।
(2) शरीर को गर्माने से शरीर का तापमान बढ़ जाता है।
(3) खेल-प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को गर्माना बहुत आवश्यक है। यदि शरीर को बिना गर्माए प्रतियोगिता में भाग लिया जाए तो खेल में चोट लगने की संभावना अधिक रहती है। अच्छी तरह शरीर को गर्माने से खिलाड़ी को अच्छा प्रदर्शन करने की प्रेरणा मिलती है और इससे शरीर में अधिक कार्य करने की क्षमता आ जाती है।
(4) रक्त संचार आवश्यकतानुसार बढ़ता है तथा अतिरिक्त कार्यभार के अनुरूप हो जाता है।
(5) शरीर व मांसपेशियों में तालमेल व सामंजस्य बनाए रखने के लिए शरीर को गर्माना आवश्यक है। इससे माँसपेशियाँ अनुकूल हो जाती हैं।
(6) इसके द्वारा शरीर के विभिन्न भागों व इन्द्रियों में आपसी तालमेल बढ़ जाता है।
(7) इससे फेफड़ों की साँस खींचने व छोड़ने की प्रक्रिया का विकास होता है।
(8) खेल प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को गर्म करने से खिलाड़ी का अपने खेल मुकाबले के प्रति मानसिक तनाव कम हो जाता है जिससे उसका प्रदर्शन बढ़ जाता है।
(9) शरीर को गर्माने से पाचन क्रिया में सुधार होता है। शरीर को गर्माने से एक ओर तो भूख अधिक लगती है और दूसरी ओर भोजन अति शीघ्र पच जाता है।
(10) गर्माने से खिलाड़ी शारीरिक-मानसिक रूप से तैयार हो जाता है। शरीर को गर्माने से उसका भय खत्म हो जाता है और खेल खेलने के लिए उसमें आत्म-विश्वास या हौसला उत्पन्न हो जाता है।
(11) कसरत से मानवीय शरीर में लाल रक्ताणुओं और हीमोग्लोबिन की मात्रा में वृद्धि होती है। इनके बढ़ने से शरीर तंदुरुस्त और चुस्त रहता है। तंदुरुस्त और चुस्त शरीर खिलाड़ी की कुशलता में वृद्धि करता है।
(12) शरीर की अंदरुनी तोड़-फोड़ मानवीय शरीर को कमज़ोर और सुस्त बनाती है। इससे उसकी कार्यक्षमता में कमी आ जाती है। खेल से पहले गर्माना शरीर की अंदरुनी तोड़-फोड़ को ठीक करता है जिससे खिलाड़ी की कुशलता बढ़ती है।

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प्रश्न 8.
शरीर को गर्माने की विभिन्न क्रियाओं व विधियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
गर्माने (वार्मिंग-अप) की विभिन्न व्यायाम क्रियाओं का ब्यौरा दें।
उत्तर:
किसी कार्य को सुचारु रूप से करने के लिए माँसपेशियों को उसके अनुरूप तैयार करना गर्माना कहलाता है। यदि शरीर को. बिना गर्माए कठोर व्यायाम किया जाए तो माँसपेशियों को चोट पहुँच सकती है या उनमें कोई विकार उत्पन्न हो सकता है।

गर्माने की क्रियाएँ/गतिविधियाँ (Exercises of Warming-up):
शरीर और माँसपेशियों को गर्माने के लिए निम्नलिखित क्रियाएँ/गतिविधियाँ सरल से कठिन के सिद्धांत पर आधारित हैं-
1. धीमी गति से दौड़ना या जॉगिंग (Running at Slow Speed or Jogging):
प्रत्येक खिलाड़ी को अपनी क्षमता और स्तर के अनुसार धीमी गति से दौड़ना चाहिए। निम्न स्तर के खिलाड़ी को दो-तीन चक्कर लगाने चाहिएँ। स्तर में वृद्धि के साथ चक्करों की संख्या में भी वृद्धि होनी चाहिए।

2. आसान व्यायाम (Simple Exercises):
धीमी गति से दौड़ने के पश्चात् खिलाड़ी को आसान व्यायाम करने चाहिएँ। ये व्यायाम हाथ, पैर, कंधे, कमर से संबंधित होने चाहिएँ। व्यायाम सरल से जटिल के अनुसार करने चाहिएँ।

3. स्ट्राइडिंग (Striding):
इस व्यायाम में खिलाड़ी को अपनी पूरी गति से दौड़ना चाहिए। इसमें लंबे तथा ऊँचे कदम लेने चाहिएँ। इस प्रकार का व्यायाम लगभग 60 से 80 मी० तक दौड़कर करना चाहिए तथा वापसी पर चलकर आना चाहिए। यह क्रिया 4 से 6 बार दोहरानी चाहिए। दौड़ते समय कदम लंबे, शरीर आगे की ओर तथा घुटने ऊपर उठाकर दौड़ना चाहिए।

4. खिंचाव वाले व्यायाम (Pulling Exercises): स्ट्राइडिंग के बाद शरीर के विभिन्न अंगों के व्यायाम करने चाहिएँ। इनमें मुड़ना, झुकना, खिंचाव तथा झटके वाले व्यायाम भी शामिल हैं।

5. विंड स्प्रिंट्स (Wind Sprints):
ये व्यायाम हवा के झोंकों की भांति रुक-रुककर 20-25 मीटर तीव्र गति से दौड़कर करने चाहिएँ। इनकी पुनरावृत्ति 4-6 बार होनी चाहिए। इसमें यह अनिवार्य है कि सदैव स्पाईक्स पहनकर ही चक्कर लगाने चाहिएँ न कि कपड़ों के जूते पहनकर।

उपर्युक्त पाँचों व्यायाम करने के बाद खिलाड़ी, धावक तथा एथलीट को 5-7 मिनट तक कार्यरत व्यायाम करना चाहिए। ये सब व्यायाम प्रतियोगिता की अंतिम पुकार से पूर्व कर लेने चाहिएँ। प्रतियोगिता में शांत मन से भाग लेना चाहिए और प्रतियोगिता के स्थान पर समय से पहुँच जाना चाहिए।

गर्माने की विधियाँ (Methods of Warming-up):
शरीर को गर्माने के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जा सकता है-
1. वातानुकूलित स्थान पर शरीर को गर्माना (Warming-up of the Body in Air Conditioned Place):
जहाँ सारा साल बर्फ पड़ती है या मौसम खराब रहता है, वहाँ गर्माने के वैज्ञानिक साधन अपनाए जाते हैं, यथा खिलाड़ी या एथलीट गर्माने के लिए आवश्यकतानुसार कमरे में जाकर शरीर को गर्मा लेते हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के यंत्र भी कार्य में लाए जाते हैं।

2. मालिश द्वारा शरीर को गर्माना (Warming-up of the Body through Massage):
मालिश द्वारा शरीर को गर्माने की विधि बहुत पुरानी है। इस विधि से शरीर की मांसपेशियों को गर्माने से वे अर्ध-तनाव की स्थिति में आ जाती हैं जिससे कार्य तत्परता के साथ किया जाता है। इस विधि में एक बड़ी कठिनाई यह है कि मालिश या तो स्वयं खिलाड़ी को करनी चाहिए अथवा उसके किसी साथी को। हर समय मालिश वाले साथी का साथ संभव नहीं है।

3. गर्म पानी से गर्माना (Warming-up through Hot Water): गर्म पानी से नहाकर भी शरीर को गर्माया जा सकता है।

4. चाय व कॉफी आदि का सेवन (Drinking Tea & Coffee etc.):
कुछ लोगों का विचार है कि प्रतियोगिता से पूर्व चाय अथवा कॉफी पीने से भी शरीर को गर्माया जा सकता है, पर यह विधि वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं मानी जाती।

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प्रश्न 9.
शरीर को गर्माने के मुख्य सिद्धांत कौन-कौन-से हैं? वर्णन करें।
अथवा
गर्माने के मार्गदर्शक नियमों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शरीर को गर्माने के मुख्य सिद्धांत अथवा नियम निम्नलिखित हैं-
1. स्वास्थ्य (Health):
खिलाड़ी या एथलीट को गरम होने से पहले अपने स्वास्थ्य को ध्यान में रखना चाहिए। उसको अपने स्वास्थ्य के अनुसार ही व्यायाम करना चाहिए। अगर किसी कमजोर स्वास्थ्य वाले खिलाड़ी के शरीर को गर्माने के लिए कोई कठिन व्यायाम दे दिया जाए तो उससे शरीर को अच्छी तरह गर्माने की बजाय शरीर की अलग-अलग प्रणालियों में दोष उत्पन्न हो जाएंगे।

2. जलवायु संबंधी सिद्धांत (Principle Related to Climate):
किसी भी खिलाड़ी को गरम या ठंडे मौसम या मैदानी और पहाड़ी जलवायु को देखकर गर्माने वाले व्यायाम करने चाहिएँ।

3. क्रमानुसार (Systematic):
किसी भी खिलाड़ी को गर्माने वाले व्यायाम क्रमानुसार ही करने चाहिएँ। ये व्यायाम इस ढंग से करने चाहिएँ ताकि उस खिलाड़ी के शरीर के सारे अंगों का तापमान और खून की गति ठीक ढंग से काम करे।

4. शरीर के सारे अंगों से संबंधित व्यायाम (Exercises Pertaining to All Parts of Body):
किसी भी खिलाड़ी को गर्माने वाले व्यायाम इस तरीके से करने चाहिएँ कि खिलाड़ी के शरीर के सारे अंग गरम हो जाएँ। किसी भी खेल में भाग लेने से पहले शरीर के सभी अंगों को गर्माना बहुत जरूरी है।

5. व्यक्ति की क्षमता और प्रशिक्षण (Capacity and Training of Individual):
किसी भी खिलाड़ी को गर्माने से पहले यह देखना चाहिए कि उसका प्रशिक्षण किस अवस्था में चल रहा है और उसका अपना लक्ष्य क्या है? उसकी उद्देश्य अवस्था किस प्रकार की है? उसके प्रशिक्षण का कार्यक्रम कैसा चल रहा है? इन सभी बातों को ध्यान में रखकर ही उसको गर्माने वाले व्यायाम करने चाहिएँ।

6. प्रतियोगिता और काम करने की तीव्रता के अनुसार (According to Competition and Intensity of Work):
खेल प्रतियोगिता को ध्यान में रखकर ही हमें खिलाड़ी को गर्माने वाले व्यायाम करवाने चाहिएँ और यह भी देखना चाहिए कि कितने समय पहले गर्माना चाहिए, ताकि खिलाड़ी अपने खेल का बढ़िया प्रदर्शन कर सके।

7. आसान से जटिल का सिद्धांत (Principle of Simple to Complex):
खिलाड़ी को खेल में भाग लेने से पहले शरीर को इस तरीके से गर्माना चाहिए कि शरीर पर अधिक दबाव न पड़े, क्योंकि यदि आरंभ में ही अभ्यास में कठिनाई दे दी जाए तो माँसपेशियों में कई प्रकार के दोष उत्पन्न हो सकते हैं। इसी कारण हमें गर्माने के आसान से जटिल वाले सिद्धांत को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए।

8. ऊँचाई, आयु, भार और शरीर संरचना (Height, Age, Weight and Body Structure):
खिलाड़ी को गर्माने से पहले उसकी ऊँचाई, उसका भार, आयु और शरीर संरचना आदि देख लेनी चाहिए। छोटी उम्र के खिलाड़ी को वे व्यायाम नहीं दिए जा सकते जो 20-25 वर्ष के खिलाड़ी को दिए जाते हैं। इसी तरह एक महिला खिलाड़ी को वे व्यायाम नहीं दिए जाते जो एक पुरुष को दिए जाते हैं, क्योंकि दोनों की कार्यक्षमता एवं शरीर संरचना में अंतर होता है।

9. अन्य सिद्धांत (Other Principles):
शरीर को गर्माने के लिए खिंचाव या आसान वाले व्यायाम भी किए जाने चाहिएँ। गर्माने की क्रिया खेल के अनुसार होनी चाहिए। हमें शरीर को उतना ही गर्माना चाहिए, जिससे हमारे शरीर का तापमान खेल के अनुसार हो सके अर्थात् गर्माना उतना ही होना चाहिए जिससे हमें थकावट का अनुभव न हो। हमें गर्माने की प्रक्रिया में खेल संबंधी सभी व्यायामों को शामिल करना चाहिए।

प्रश्न 10.
गर्माने के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन कीजिए।
अथवा
शरीर को गर्माने से हमारे शरीर पर क्या-क्या लाभदायक प्रभाव पड़ते हैं? वर्णन करें।
अथवा
गर्माने (वार्मिंग-अप) के शरीर क्रियात्मक तथा मनोवैज्ञानिक प्रभावों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
गर्माने के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
(क) शरीरक्रियात्मक प्रभाव (Physiological Effects)
(ख) मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological Effects)।

(क) शरीर क्रियात्मक प्रभाव (Physiological Effects):
गर्माने के शारीरिक क्रिया संबंधी प्रभाव निम्नलिखित हैं-
1.शरीर के तापमान में वृद्धि (Increase in Body Temperature):
गर्माने से माँसपेशियाँ गति में आ जाती हैं जिससे शरीर का तापमान बढ़ जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि खेल में अच्छे प्रदर्शन के लिए पहले गर्माना लाभदायक होता है।

2. लाल रक्ताणुओं में वृद्धि (Increase in the Red Blood Corpuscles):
कसरत से मानवीय शरीर में लाल रक्ताणुओं और हीमोग्लोबिन की मात्रा में वृद्धि होती है। इनके बढ़ने से शरीर तंदुरुस्त और चुस्त रहता है। तंदुरुस्त और चुस्त शरीर खिलाड़ी की कुशलता में वृद्धि करता है।

3. श्वास क्रिया में वृद्धि (Increase in the Respiration Process):
गर्माने से फेफड़ों से साँस लेने और बाहर निकालने की क्रिया में वृद्धि होती है। फेफड़े शुद्ध हवा अंदर रखकर गंदी वायु को शरीर से बाहर निकालते रहते हैं। जिस कारण शरीर से कई हानिकारक पदार्थ या गैस बाहर निकल जाती हैं। श्वास क्रिया में वृद्धि खिलाड़ी की निपुणता में वृद्धि करता है।

4. प्रतिक्रिया समय में वृद्धि (Increase in Reaction Time):
गर्माने से खिलाड़ी का मानसिक और मांसपेशियों का तालमेल बढ़ जाता है। इस तालमेल के बढ़ने से प्रतिक्रिया का समय बढ़ जाता है, जो कि खिलाड़ी के लिए खेल में अच्छा प्रदर्शन दिखाने के लिए आवश्यक होता है। तेज दौड़ में यह अत्यंत आवश्यक है।

5. माँसपेशियों का सिकुड़ना और आराम की अवस्था में वृद्धि (Increase in the Speed of Contraction and Relaxation of Muscles):
गर्माने से शरीर की सभी प्रणालियाँ प्रभावित होती हैं परंतु सबसे अधिक प्रभाव माँसपेशियों पर पड़ता है। रक्त सारे शरीर में जल्दी से पहुँचता है। जिस कारण माँसपेशियाँ जल्दी सिकुड़ती हैं और विश्राम की अवस्था में आ जाती हैं।

(ख) मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological Effects):
गर्माने से मानवीय शरीर पर निम्नलिखित मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ते हैं-
1. मानसिक तैयारी (Psycho Preparation):
खेलों में मानसिक तैयारी सबसे अधिक योगदान देती है। गर्माना एक प्रकार से खेल में भाग लेने की मानसिक तैयारी है। जो खिलाड़ी गर्माने के बिना क्रियाओं में भाग लेता है वह एकाग्र मन से नहीं खेल पाता, जिससे उसकी मेहनत सफल नहीं होती।

2. भीड़ के डर का प्रभाव (Effect of Crowd Fear):
भीड़ का डर एक मनोवैज्ञानिक डर है। यह डर प्रत्येक खिलाड़ी में खेल में भाग लेने से पहले होता है। परंतु कई लोगों में यह अधिक और कई लोगों में यह कम होता है। जब खिलाड़ी क्रिया में भाग लेने के लिए भीड़ के सामने गर्माना शुरू करता है तो उसका काफी डर दूर हो जाता है। वह मानसिक रूप से तैयार होना शुरू हो जाता है। यह तैयारी उसके प्रदर्शन में वृद्धि करती है।

3. हृदय-क्षमता में वृद्धि (Increase in Cardiac Efficiency):
गर्माना शरीर की सभी प्रणालियों को ठीक ढंग से काम करने के योग्य कर देता है। हृदय-क्षमता गर्माने से काफी प्रभावित होती है। गर्माने के बाद हृदय में रक्त की मात्रा अधिक होती है और इस क्रिया से दिल की माँसपेशियाँ अधिक ताकतवर बनती हैं। इससे हृदय की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।

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प्रश्न 11.
लिम्बरिंग डाउन से आप क्या समझते हैं? खिलाड़ियों के लिए लिम्बरिंग डाउन के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
अथवा
कूलिंग डाउन से आप क्या समझते हैं ? खिलाड़ियों के लिए कूलिंग डाउन क्यों आवश्यक है ? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लिम्बरिंग डाउन का अर्थ (Meaning of Limbering Down):
लिम्बरिंग या कूलिंग डाउन से तात्पर्य शरीर को व्यायामों द्वारा आराम की हालत में वापस लाना है। मुकाबले के दौरान शरीर का तापमान बढ़ जाता है। तापमान को सामान्य अवस्था में लाने के लिए धीरे-धीरे दौड़कर या चलकर ट्रैक का चक्कर लगाना चाहिए। इस तरह मुकाबले के दौरान बढ़ा हुआ तापमान सामान्य अवस्था में आ जाता है। शरीर को धीरे-धीरे ठंडा करने से थकावट जल्दी दूर होती है और माँसपेशियों की मालिश भी हो जाती है। उचित ढंग से कूलिंग डाउन करने के लिए हमें कम-से-कम 5 से 10 मिनट तक जॉगिंग या वॉकिंग करनी चाहिए। इसके बाद स्थिर खिंचाव वाले व्यायाम भी लगभग 5 से 10 मिनट तक करने चाहिएँ।

लिम्बरिंग डाउन का महत्त्व या आवश्यकता (Importance or Need of Limbering Down):
किसी प्रतियोगिता या प्रशिक्षण से पूर्व जिस.प्रकार शरीर को गर्माना आवश्यक होता है उसी प्रकार प्रतियोगिता या प्रशिक्षण के बाद कूलिंग डाउन भी उतना ही आवश्यक होता है। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कूलिंग डाउन एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्रिया है जिसकी खिलाड़ी प्रायः उपेक्षा करते हैं। वास्तव में कूलिंग डाउन को खेल क्रिया या प्रशिक्षण के बाद कम नहीं आँकना चाहिए, क्योंकि खेल प्रतिस्पर्धा प्रतियोगिता के दौरान खिलाड़ियों की खर्च की गई शक्ति या ऊर्जा वापिस आती है अर्थात् इससे खिलाड़ी अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त करता है। संक्षेप में, खिलाड़ियों के लिए इसकी आवश्यकता या महत्ता निम्नलिखित है…
(1) काफी तीव्र गति एवं जटिल प्रशिक्षण या प्रतियोगिता के दौरान शरीर का तापमान लगभग 160° फॉरेनहाइट या इससे कुछ अधिक हो जाता है। उचित कूलिंग डाउन शरीर के बढ़े तापमान को कम करने में सहायता करती है। इसलिए खिलाड़ियों के लिए इसकी अति आवश्यकता है।

(2) जब भी कोई खिलाड़ी किसी प्रतियोगिता में भाग लेता है या नियमित अभ्यास करता है तो उसके शरीर में व्यर्थ के पदार्थः जैसे लैक्टिक एसिड, यूरिक एसिड, फॉस्फेट व कार्बन-डाइऑक्साइड आदि का जमाव हो जाता है। शरीर में इनके अधिक जमाव से माँसपेशियाँ भली-भाँति कार्य नहीं कर सकतीं। कूलिंग डाउन से इन पदार्थों का उचित निष्कासन हो जाता है।

(3) मुकाबले में भाग लेने से शरीर की काफी ताकत खर्च होती है। शरीर थकावट और सुस्ती महसूस करता है। कार्बोहाइड्रेट्स का बहुत अधिक हिस्सा खर्च हो जाता है। कूलिंग डाउन से शरीर की ताकत की पूर्ति की जा सकती है।

(4) कूलिंग डाउन करने से दिमागी तनाव में कमी आ जाती है। खेल के दौरान तनाव होना स्वाभाविक होता है। इसके साथ-साथ गर्माने से अर्ध-तनाव की दशा में आने वाली माँसपेशियाँ भी तनाव-रहित हो जाती हैं। इस प्रकार कूलिंग – डाउन से दिमाग व माँसपेशियों के तनाव में कमी आती है।

(5) खेल के दौरान शरीर में सामान्य अवस्था की अपेक्षा ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। कूलिंग डाउन से ऑक्सीजन की पूर्ति हो जाती है।

(6) वार्मिंग अप के दौरान रक्त में एड्रिनलिन नामक हॉर्मोन का स्तर बढ़ जाता है, जिससे रक्त के बहाव की गति तेज हो जाती ..है, लेकिन कूलिंग डाउन से रक्त में एड्रिनलिन का स्तर कम हो जाता है, जिससे रक्त का बहाव भी सामान्य हो जाता है।

(7) खिलाड़ियों के लिए कूलिंग डाउन करना अति आवश्यक है। खेल प्रतियोगिता या वार्मिंग अप के दौरान माँसपेशियाँ अकड़ जाती है। कूलिंग डाउन करने से माँसपेशियाँ कठोर (Stiff) नहीं रहतीं, बल्कि ढीली (Relax) या शिथिल हो जाती हैं।

प्रश्न 12.
ठण्डा करना (Cooling Down) क्या है? इसके शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर:
ठण्डा करने का अर्थ (Meaning of Cooling Down):
ठण्डा करने (Cooling Down) से तात्पर्य शरीर को व्यायामों द्वारा आराम की हालत में वापस लाना है। मुकाबले के दौरान शरीर का तापमान बढ़ जाता है। तापमान को अपनी वास्तविकता में लाने के लिए धीरे-धीरे दौड़कर या चलकर ट्रैक का चक्कर लगाना चाहिए। इस तरह मुकाबले के दौरान बढ़ा हुआ तापमान सामान्य अवस्था में आ जाता है।

कूलिंग/लिम्बरिंग या ठण्डा करने से शरीर पर पड़ने वाले लाभदायक प्रभाव (Advantageous Effects of Cooling Down on Body):
ठण्डा करने से शरीर पर पड़ने वाले लाभदायक प्रभाव निम्नलिखित हैं-
1. माँसपेशियों के लचीलेपन में वृद्धि (Increase in Flexibility in Muscles):
जब खिलाड़ी खेलों में भाग लेता है तो उसकी माँसपेशियों में तनाव बना होता है। तनाव बढ़ने से माँसपेशियों में खिंचाव पैदा होता है। शरीर को व्यायाम द्वारा ठण्डा करने से तनाव एवं खिंचाव दूर होता है। इस प्रकार माँसपेशियों में लचीलापन आ जाता है।

2. हृदय-गति और शरीर के तापमान का साधारण अवस्था में आना (To Normalise the Heart Beating Rate and Body Temperature):
मुकाबले के दौरान खिलाड़ी के हृदय की धड़कन और शरीर का तापमान बहुत बढ़ जाता है। शरीर को व्यायामों द्वारा ठण्डा करने से शरीर का तापमान और दिल की धड़कन सामान्य हो जाती है।

3. भिन्न-भिन्न शारीरिक प्रणालियों का साधारण कार्यक्रम (Normal Function of Different Body System):
कसरतों के दौरान शरीर की भिन्न-भिन्न प्रणालियाँ तेजी से काम करती हैं जिससे शरीर में अतिरिक्त पदार्थ पैदा हो जाते हैं। शरीर में तनाव और थकावट के चिह्न पैदा हो जाते हैं और शरीर सुस्त हो जाता है। अलग-अलग प्रणालियों को अपने सही स्थान पर लाने के लिए कसरतों द्वारा ठण्डा करने से तनाव और थकावट दूर होती है, और शरीर फिर चुस्ती में आ जाता है।

4. मानसिक तनाव में कमी (Decrease in Mental Tension):
कसरतों के दौरान सभी प्रणालियाँ साधारण अवस्था से अधिक कार्य कर रही होती हैं। जिस कारण शरीर में मानसिक तनाव बढ़ा होता है। कसरतों से शरीर को ठण्डा करने से सारी प्रणालियाँ अपनी पहली अवस्था में आ जाती हैं जिससे मानसिक तनाव समाप्त हो जाता है।

5. खर्च की गई ताकत की पूर्ति (Regaining of Spending Energy):
मुकाबले में भाग लेने से शरीर की काफी ताकत खर्च होती है। शरीर थकावट और सुस्ती महसूस करता है, क्योंकि क्रिया द्वारा ऑक्सीजन काफी मात्रा में खर्च हो जाती है। कार्बोहाइड्रेट्स का बहुत अधिक हिस्सा खर्च हो जाता है। क्रिया के बाद लंबे-लंबे साँस लेकर ऑक्सीजन की मात्रा को बढ़ाना जरूरी है। संतुलित भोजन खाने से शरीर की ताकत की पूर्ति की जा सकती है।

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प्रश्न 13.
खिलाड़ियों के लिए गर्माना क्यों आवश्यक है? विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
खिलाड़ियों के लिए गर्माना बहुत आवश्यक है, क्योंकि इससे खिलाड़ियों को निम्नलिखित फायदे होते हैं-
(1) खेल से पूर्व शरीर को गर्माने से माँसपेशियाँ अर्ध-तनाव की स्थिति में आ जाती हैं, जिससे प्रतियोगिता के दौरान शरीर को आघात पहुँचने की संभावना कम हो जाती है।
(2) बढ़िया स्तर के प्रदर्शन के लिए माँसपेशियों को गर्माना आवश्यक होता है, क्योंकि गर्माने से माँसपेशियों की कार्यक्षमता बढ़ती है।
(3) अच्छी तरह शरीर को गर्माने से खिलाड़ी को अच्छा प्रदर्शन करने की प्रेरणा मिलती है और इससे शरीर में अधिक कार्य करने की क्षमता आ जाती है।
(4) रक्त संचार आवश्यकतानुसार बढ़ता है तथा अतिरिक्त कार्यभार के अनुरूप हो जाता है।
(5) शरीर व माँसपेशियों में तालमेल व सामंजस्य बनाए रखने के लिए शरीर को गर्माना आवश्यक है। इससे माँसपेशियाँ अनुकूल हो जाती हैं।
(6) इसके द्वारा शरीर के विभिन्न भागों व इन्द्रियों में आपसी तालमेल बढ़ जाता है।
(7) इससे फेफड़ों की साँस खींचने व छोड़ने की प्रक्रिया का विकास होता है।
(8) खेल प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को गर्म करने से खिलाड़ी का अपने खेल मुकाबले के प्रति मानसिक तनाव कम हो जाता है जिससे उसका प्रदर्शन बढ़ जाता है।
(9) शरीर को गर्माने से पाचन क्रिया में सुधार होता है। शरीर को गर्माने से एक ओर तो भूख अधिक लगती है और दूसरी ओर भोजन अति शीघ्र पच जाता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न [Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
प्रशिक्षण के अर्थ व अवधारणा का संक्षिप्त रूप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वास्तव में प्रशिक्षण’ शब्द कोई नया शब्द नहीं है। लोग इस शब्द को प्राचीन समय से प्रयोग कर रहे हैं। प्रशिक्षण का अर्थ किसी कार्य की तैयारी की प्रक्रिया से है। यहाँ हमारा मुख्य कार्य खेलकूद के लिए शारीरिक पुष्टि एवं सुयोग्यता प्रदान करना है। इसी कारण यह शब्द खेलकूद के क्षेत्र में अधिक प्रयोग किया जाता है। प्रशिक्षण’ की धारणा और खिलाड़ी की तैयारी’ आपस में मिलती-जुलती हैं लेकिन फिर भी ये एक-दूसरे की पूरक नहीं हैं। तैयारी एक जटिल प्रक्रिया है। यह खिलाड़ी के विकास को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है तथा काफी हद तक सफलता के लिए एकाग्रता को बढ़ाती है। इस कठिन प्रक्रिया में, खेल प्रशिक्षण, खेल प्रतियोगिताएँ (तैयारी के रूप में) और पौष्टिक व संतुलित आहार आदि शामिल किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, अनेक व्यायामों सहित यह एक सुव्यवस्थित एवं योजनापूर्ण तैयारी होती है। शारीरिक व्यायाम, जिसका प्रशिक्षण में प्रयोग किया जाता है, का खिलाड़ी के शारीरिक विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इसका अर्थ यह है कि शारीरिक व्यायाम या प्रशिक्षण खिलाड़ी का शारीरिक विकास करता है।

प्रश्न 2.
मानव की जिंदगी में खेल व मनोरंजन क्यों महत्त्वपूर्ण हैं? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
खेल व मनोरंजन की आवश्यकता तथा महत्त्व का वर्णन कीजिए।
अथवा
मनोरंजन पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
खेल व मनोरंजन ऐसी प्रक्रियाएँ हैं जो विश्व के प्रत्येक स्थान पर अनुभव की जाती हैं। बिना खेल व मनोरंजन के व्यक्ति का जीवन नीरस व निरर्थक है। स्वस्थ व नीरोग रहने हेतु खेल व मनोरंजन आवश्यक होते हैं। ये वे गतिविधियाँ हैं जिनमें भाग लेकर व्यक्ति आनंद की अनुभूति करता है और अपने जीवन को खुशियों से भरपूर व तरोताजा करने की कोशिश करता है। खेल गतिविधियों में हम अपनी अतिरिक्त शक्ति व समय का उचित प्रयोग करते हैं और मनोरंजन के माध्यम से हम गतिविधियों द्वारा खोई हुई ऊर्जा या शक्ति पुनः प्राप्त कर आनंद की अनुभूति करते हैं। एडवर्ड्स के शब्दों में, “मनोरंजन वह गतिविधि है जिसमें कोई कर्ता स्वेच्छा से शामिल होता है तथा जो दैनिक जीवन में मानसिक-शारीरिक दबाव बनाने वाली अन्य गतिविधियों से अलग होती है। इस गतिविधि का प्रभाव मन अथवा शरीरको तरोताजा करने वाला होता है।”खेल व मनोरंजन के बिना जिंदगी नीरस हो जाती है और व्यक्ति गलत गतिविधियों की ओर आकर्षित हो जाता है। खेल व मनोरंजन गतिविधियों में भाग लेकर हम अपने अतिरिक्त समय का उचित प्रयोग करते हैं और जीवन को सार्थक व सफल बनाने हेतु प्रयास करते हैं। इसलिए हमारी जिंदगी में खेल और मनोरंजन बहुत महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक हैं।

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प्रश्न 3.
खेल प्रशिक्षण की अवधारणा का संक्षेप में उल्लेख करें।
अथवा
खेल प्रशिक्षण को परिभाषित करें और इसके संप्रत्यय का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मार्टिन के अनुसार खेल प्रशिक्षण लक्ष्य की प्राप्ति हेतु एक नियोजित व नियंत्रित प्रक्रिया है जिसमें प्रशिक्षक (कोच) द्वारा प्रशिक्षार्थी को खेलकूद के जटिल प्रदर्शनों व व्यवहार में निहित परिवर्तनों को संचालित करने के बारे में जानकारी दी जाती है। सामान्य शब्दों में, खेल प्रशिक्षण के द्वारा एक सामान्य व्यक्ति को उत्कृष्ट व श्रेष्ठ खिलाड़ी में परिवर्तित किया जा सकता है परिवर्तन की इसी प्रक्रिया को खेल प्रशिक्षण कहा जाता है। खेल प्रशिक्षण की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
1. डॉ० हरदयाल सिंह के अनुसार, “खेल प्रशिक्षण अध्ययन से संबंधित प्रक्रिया है जो वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है जिसका मुख्य उद्देश्य खेल मुकाबलों में उच्चतम प्रदर्शन करने के लिए खिलाड़ियों को तैयार करना है।”
2. हरे के अनुसार, “खेल प्रशिक्षण खेलकूद विकास की ऐसी प्रक्रिया है जो वैज्ञानिक सिद्धांतों पर संचालित की जाती है जिनके माध्यम से मानसिक-शारीरिक दक्षता, क्षमता व प्रेरणा के योजनाबद्ध विकास से खिलाड़ियों को उत्कृष्ट व स्थापित कीर्तिमान तोड़ने वाले खेल प्रदर्शन में सहायता मिलती है।”

प्रश्न 4.
आइसोमीट्रिक व्यायाम क्या होते हैं? उदाहरण दीजिए।
अथवा
आइसोमीट्रिक व्यायामों के बारे में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम वे व्यायाम होते हैं जिनमें खिलाड़ी द्वारा किया गया व्यायाम या कार्य नजर नहीं आता। ऐसे व्यायाम में तनाव की अधिकता तथा तापमान में वृद्धि की संभावना रहती है। हमारे अत्यधिक बल लगाने पर भी वस्तु अपने स्थान से नहीं हिलती। उदाहरणार्थ, एक ट्रक को धकेलने के लिए एक व्यक्ति बल लगाता है, परंतु वह अत्यधिक भारी होने के कारण अपनी जगह से नहीं हिलता, परंतु तनाव बना रहता है जिससे हमारी ऊर्जा का व्यय होता है। कई बार हमारे शरीर का तापमान भी बढ़ जाता है। ऐसे व्यायाम करने से माँसपेशियों की लंबाई तथा मोटाई बढ़ जाती है। आइसोमीट्रिक व्यायाम के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-
(1) बंद दरवाजों को धकेलना
(2) पीठ से दीवार को दबाना
(3) पैरलल बार को पुश करना
(4) दीवार या जमीन पर उँगली, कोहनी या कंधा दबाना
(5) कुर्सी को दोनों हाथों से अंदर की ओर दबाना
(6) घुटने मोड़ना
(7) डैस्क को हाथ, उँगली, पैर या पंजे से दबाना आदि।

प्रश्न 5.
आइसोकाइनेटिक व्यायाम से आप क्या समझते हैं? यह अधिक प्रचलित क्यों है?
अथवा
आइसोकाइनेटिक व्यायाम क्या हैं? उदाहरण दें।
उत्तर:
आइसोकाइनेटिक व्यायाम आइसोमीट्रिक एवं आइसोटोनिक व्यायामों का मिश्रण हैं। इनमें मध्यम रूप में भार रहता है ताकि माँसपेशियाँ ‘Bulk’ और ‘Tone’ दोनों रूप में वृद्धि कर सकें। ये अत्यंत आधुनिक व्यायाम हैं जिनमें पहले दोनों प्रकार के व्यायामों का लाभ मिल जाता है। इनसे हम अपने शरीर को गर्मा भी सकते हैं। इनके उदाहरण हमें दैनिक जीवन में भी देखने को मिल सकते हैं; जैसे (1) बर्फ पर स्केटिंग करना
(2) भार ढोना
(3) चिन-अप
(4) भारी रोलर धकेलना
(5) रस्सी पर चलना आदि।
आइसोकाइनेटिक व्यायाम अधिक प्रचलित हैं, क्योंकि ये आधुनिक समय के व्यायाम हैं। आजकल विकसित देश इन व्यायामों का अधिक-से-अधिक प्रयोग कर रहे हैं, क्योंकि इन व्यायामों के उदाहरण हमारे दैनिक जीवन में भी मिल जाते हैं।

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प्रश्न 6.
आइसोटोनिक व आइसोमीट्रिक व्यायामों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आइसोटोनिक व आइसोमीट्रिक व्यायामों में अन्तर इस प्रकार हैं-

आइसोटोनिक व्यायामआइसोमीट्रिक व्यायाम
1. आइसोटोनिक व्यायाम वे होते हैं जिनमें किसी खिलाड़ी की गतिविधियाँ प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती हैं।1. आइसोमीट्रिक व्यायाम वे होते हैं जिनमें किसी खिलाड़ी की गतिविधियाँ प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देती।
2. इस प्रकार के व्यायामों में माँसपेशियों की लम्बाई घटती-बढ़ती हुई दिखाई देती है।2. इस प्रकार के व्यायामों में माँसपेशियों की लम्बाई में कोई परिवर्तन नहीं होता।
3. इस प्रकार के व्यायामों को कहीं पर भी किया जा सकता है और इनमें बहुत-ही कम उपकरणों की आवश्यकता होती है।3. इस प्रकार के व्यायामों को उपकरणों के साथ और बिना उपकरणों के भी किया जा सकता है।
4. उदाहरण
(i) किसी बॉल को फेंकना,
(ii) दौड़ना-भागना,
(iii) भार उठाना आदि।
4. उदाहरण
(i) पक्की दीवार को धकेलने की कोशिश करना,
(ii) पीठ से दीवार को दबाना,
(iii) पैरलल बार को पुश करना आदि।

प्रश्न 7.
निरंतर प्रशिक्षण विधि पर संक्षेप में एक नोट लिखें।
उत्तर:
निरंतर प्रशिक्षण विधि सहनशीलता को बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है। इस तरीके में व्यायाम लंबी अवधि तक बिना रुके अर्थात् निरंतर किया जाता है। इस तरीके में सघनता बहुत कम होती है क्योंकि व्यायाम लंबी अवधि तक किया जाता है। क्रॉस-कंट्री दौड़ इस प्रकार के व्यायाम का सबसे अच्छा उदाहरण है। इस तरह के व्यायाम में हृदय की धड़कन की दर लगभग 140 से 160 प्रति मिनट होती है। व्यायाम करने की अवधि कम-से-कम 30 मिनट होनी आवश्यक है। एथलीट या खिलाड़ी की सहनशीलता की योग्यता के अनुसार व्यायाम करने की अवधि में बढ़ोतरी की जा सकती है। इस विधि से हृदय तथा फेफड़ों की कार्यकुशलता में वृद्धि हो जाती है। इससे इच्छा-शक्ति दृढ़ हो जाती है तथा थकावट की दशा में लगातार काम करने से व्यक्ति दृढ़-निश्चयी बन जाता है। इससे व्यक्ति में आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन व आत्म-विश्वास बढ़ने लगता है।

प्रश्न 8.
अंतराल प्रशिक्षण विधि के लाभदायक प्रभाव बताएँ।
उत्तर:
अंतराल प्रशिक्षण विधि के लाभदायक प्रभाव निम्नलिखित हैं-
(1) अंतराल प्रशिक्षण विधि व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुसार बिना टीम के दबाव के चलाई जाने वाली व्यक्तिगत विधि है।
(2) इस प्रशिक्षण विधि से खिलाड़ी अपनी प्रगति का स्वयं अनुमान लगा सकता है।
(3) इस प्रशिक्षण विधि में नाड़ी की धड़कन को स्थिर बनाकर शीघ्र एकात्मक क्षमता को विकसित किया जा सकता है।
(4) इस प्रशिक्षण विधि के द्वारा थकावट के पश्चात् शीघ्र विश्राम पाने की क्षमता में वृद्धि की जा सकती है।
(5) इस प्रशिक्षण विधि में आवश्यक आराम के क्षणों में कमी करके शक्ति, क्षमता एवं धैर्य से विकास किया जा सकता है।

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प्रश्न 9.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि के लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि के लाभ निम्नलिखित हैं
(1) खिलाड़ी अपनी इच्छानुसार गति तथा अन्य व्यायामों में फेर-बदल कर सकता है।
(2) इससे थकान का अनुभव नहीं होता।
(3) इसमें समय पर विशेष बल दिया जाता है।
(4) खिलाड़ी में अधिक शक्ति अथवा क्षमता बनाई जाती है।
(5) इससे चहुंमुखी विकास होता है।
(6) शरीर प्रत्येक कठोर व्यायाम अथवा प्रतियोगिता में भाग लेने के योग्य हो जाता है।

प्रश्न 10.
शरीर को गर्माने के क्या-क्या फायदे हैं?
अथवा
शरीर को गर्माना क्यों आवश्यक है? व्याख्या कीजिए।
अथवा
माँसपेशियों को गर्माने की आवश्यकता क्यों होती है?
अथवा
खेलने से पूर्व शरीर को गर्माना क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
खेल से पूर्व शरीर को गर्माने से माँसपेशियाँ अर्ध-तनाव की स्थिति में आ जाती हैं, जिससे प्रतियोगिता के दौरान शरीर को आघात पहुँचने की संभावना कम हो जाती है इसलिए शरीर को गर्माना आवश्यक है। शरीर को गर्माने के निम्नलिखित फायदे होते हैं-
(1) बढ़िया स्तर के प्रदर्शन के लिए माँसपेशियों को गर्माना आवश्यक होता है, क्योंकि गर्माने से माँसपेशियों की कार्यक्षमता बढ़ती है।
(2) शरीर से मानसिक तनाव व दबाव कम होता है।
(3) माँसपेशियों में लचक आ जाती है और उनके फैलने व सिकुड़ने की ताकत बढ़ती है।
(4) शरीर का मन एवं माँसपेशियों के साथ तालमेल बना रहता है।
(5) शरीर में किसी भी प्रकार की चोट लगने का भय नहीं रहता। मन और शरीर कठोर कार्य करने में सक्षम हो जाते हैं और दोनों में संतुलन बना रहता है।
(6) इससे शारीरिक तथा मानसिक तैयारी होती है।

प्रश्न 11.
गर्माने की प्रमुख किस्में कौन-सी हैं? अथवा गर्माने के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
गर्माना दो प्रकार का होता है
1. मनोवैज्ञानिक या मानसिक गर्माना-खेल मुकाबले से पहले खिलाड़ी को मनोवैज्ञानिक रूप से मुकाबले के लिए तैयार करना मनोवैज्ञानिक गर्माना कहलाता है। इसमें विभिन्न मनोवैज्ञानिक विधियों द्वारा खिलाड़ी की मानसिक तैयारी हो जाती है।

2. शारीरिक गर्माना-शारीरिक गर्माने में शारीरिक माँसपेशियों को मुकाबले में पड़ने वाले दबाव के लिए तैयार किया जाता है। शारीरिक गर्माना निम्नलिखित दो विधियों द्वारा किया जाता है
(1) सकर्मक या सक्रिय गर्माना-सकर्मक गर्माना में शारीरिक कसरतों और मुकाबलों की तैयारी की जाती है। इसे मुख्यतः दो भागों में बाँटा जाता है-
(i) सामान्य गर्माना-सामान्य गर्माने से हमारा उद्देश्य उन क्रियाओं को करने से है जो सभी खेलों के लिए लगभग एक जैसी हो सकती हैं; जैसे धीमी गति से दौड़ना, हाथ-पैर घुमाना, खिंचाव वाली क्रियाएँ करना। ये क्रियाएँ किसी भी खेल को शुरू करने से पहले की जाती हैं।
(ii) विशेष गर्माना-विशेष गर्माना उस समय शुरू किया जाता है जब सामान्य गर्माना समाप्त कर लिया जाता है। इसका उद्देश्य खिलाड़ी को उस खेल के लिए शारीरिक रूप से तैयार करना होता है जो अभी खेली जानी होती है। इस प्रकार के विशेष गर्माने में शरीर के उन अंगों और मांसपेशियों को लेना चाहिए जिनका प्रयोग विशेष प्रकार के प्रशिक्षण और मुकाबले की स्थितियों में विशेष रूप से होता है।

(2) अकर्मक या निष्क्रिय गर्माना-अकर्मक गर्माना में खिलाड़ी द्वारा कोई शारीरिक कसरत नहीं की जाती। इसमें खिलाड़ी
बैठकर ही अपने शरीर को गर्म कर मुकाबले के लिए तैयार करता है; जैसे
(i) दवाइयों द्वारा गर्माना
(ii) मालिश द्वारा गर्माना,
(iii) गर्म पानी से नहाकर गर्माना
(iv) अल्ट्रा किरणों द्वारा गर्माना आदि।

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प्रश्न 12.
गर्माना और अनुकूलन में क्या अंतर है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
गर्माना और अनुकूलन देखने में एक-जैसी क्रियाएँ लगती हैं। इसलिए इन दोनों में कोई अंतर नहीं लगता, लेकिन ऐसा नहीं है। इन दोनों में बहुत अंतर है; जैसे-

गर्माना (Warming-up)अनुकूलन (Conditioning)
1. गर्माना में किसी क्रिया को करने से उसकी इंद्रियाँ अभ्यस्त नहीं होती।1. अनुकूलन में किसी क्रिया को लगातार करने से उसकी इंद्रियाँ अभ्यस्त हो जाती हैं।
2. गर्माना एक अल्पकालिक क्रिया है अर्थात् इसमें क्रिया थोड़े समय के लिए होती है।2. अनुकूलन एक दीर्घकालिक क्रिया है अर्थात् इसमें क्रिया लंबे समय के लिए होती है।
3. इसमें क्रिया प्रत्येक व्यायाम से पहले करते हैं।3. इसमें क्रिया खेलने के कार्यक्रम को शुरू करवाने से पहले करवाई जाती है।

प्रश्न 13.
गर्माने से शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गर्माने से शरीर पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं-
(1) शरीर के विभिन्न अंगों व इंद्रियों में आपसी तालमेल बढ़ जाता है।
(2) श्वास प्रक्रिया संस्थान में आवश्यकतानुसार सुधार आ जाता है।
(3) हृदय अधिक कार्य करने की क्षमता में आ जाता है।
(4) रक्त संचार बढ़कर अतिरिक्त कार्य के अनुरूप हो जाता है।
(5) माँसपेशियाँ अर्ध-तनाव स्थिति में आकर अनुकूल हो जाती हैं।
(6) रक्त में लैक्टिक अम्ल का जमाव कम हो जाता है।
(7) कार्यकुशलता में सुधार आता है तथा कार्य विशेष के लिए ऑक्सीजन की कम आवश्यकता पड़ती है।

प्रश्न 14.
शरीर ठण्डा करने के लाभों का वर्णन कीजिए। अथवा प्रतियोगिता के बाद कूलिंग डाउन के लाभ या महत्त्व बताएँ।
उत्तर:
शरीर ठण्डा करने या प्रतियोगिता के बाद कूलिंग डाउन के लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) शरीर ठण्डा करने से शारीरिक प्रणालियाँ सामान्य रूप से कार्य करने के योग्य हो जाती हैं।
(2) शरीर का तापमान सामान्य हो जाता है।
(3) हृदय की धड़कन भी सामान्य हो जाती है।
(4) दिमागी या मानसिक तनाव कम हो जाता है।
(5) मुकाबला करने का भय समाप्त हो जाता है।
(6) माँसपेशियों में लचीलापन आ जाता है।
(7) रक्त संचार प्रवाह ठीक रहता है।
(8) शरीर की थकावट सामान्य हो जाती है।

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प्रश्न 15.
अनुकूलन का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है?
अथवा
अनुकूलन का शारीरिक अंगों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
अनुकूलन का शारीरिक अंगों अथवा शरीर पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है-
(1) इससे रक्त-संचार ठीक ढंग से होता है। इससे शरीर में अतिरिक्त कार्य करने की शक्ति में वृद्धि होती है।
(2) माँसपेशियाँ अर्द्ध-खिंचाव की हालत में रहने लगती हैं जिससे माँसपेशियों में अनुकूलन हो जाता है।
(3) इससे शरीर के विभिन्न अंगों और इन्द्रियों में तालमेल बढ़ता है।
(4) अनुकूलन से हृदय की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।
(5) श्वास प्रक्रिया में आवश्यकतानुसार सुधार आता है। इससे श्वास क्रिया नियमित होती है।

प्रश्न 16.
त्वरण दौड़ों की गति के विकास में क्या भूमिका है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सामान्यतया गति के विकास के लिए त्वरण दौड़ें अपनाई जाती हैं, विशेष रूप से स्थिर अवस्था से अधिकतम गति प्राप्त करने के लिए इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी इवेन्ट की तकनीक शुरू में ही सीख लें। इस प्रकार की दौड़ों के लिए एथलीट या खिलाड़ी को एक विशेष दूरी की दौड़ लगानी होती है। वह स्टाटिंग लाइन से स्टार्ट लेता है और जितनी जल्दी सम्भव हो सके, उतनी जल्दी अधिकतम गति प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसी गति से निश्चित की हुई दूरी को पार करता है।

त्वरण दौड़ें बार-बार दौड़ी जाती हैं। इन दौड़ों के बीच में मध्यस्थ/अंतराल का समय काफी होता है। स्प्रिंट लगाने वाले प्रायः स्थिर अवस्था के बाद से लेकर अधिकतम गति 6 सेकिण्ड में प्राप्त कर लेते हैं। इसका मतलब है कि स्टार्ट लेने से लेकर त्वरित करने तथा अधिकतम गति को बनाए रखने में 50 से 60 मी० की दूरी की आवश्यकता होती है। ऐसा प्रायः देखा गया है कि बहुत अच्छे खिलाड़ी/एथलीट केवल 20 मी० तक अपनी अधिकतम गति को बनाए रख सकते हैं। इन दौड़ों की संख्या खिलाड़ी/एथलीट की आयु, उसके अनुभव व उसकी क्षमता के अनुसार निश्चित की जा सकती है। यह संख्या 6 से 12 हो सकती है। त्वरण दौड़ में कम-से-कम दूरी 20 से 40 मीटर होती है। इन दौड़ों से पहले उचित गर्माना बहुत आवश्यक होता है। प्रत्येक त्वरण दौड़ के बाद उचित मध्यस्थ/अंतराल भी होना चाहिए, ताकि खिलाड़ी/एथलीट अगली दौड़ बिना किसी थकावट के लगा सके।

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न [Very Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
प्रशिक्षण का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:प्रशिक्षण का अर्थ किसी कार्य की तैयारी की प्रक्रिया से है। ‘प्रशिक्षण’ की धारणा और खिलाड़ी की तैयारी’ आपस में मिलती-जुलती हैं लेकिन फिर भी ये एक-दूसरे की पूरक नहीं हैं । तैयारी एक जटिल प्रक्रिया है। यह खिलाड़ी के विकास को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। सामान्यतया प्रशिक्षण खेलों में प्रदर्शन की बढ़ोतरी के लिए किए जाने वाले शारीरिक व्यायामों से संबंधित होता है।

प्रश्न 2.
प्रशिक्षण के मुख्य सिद्धांतों का उल्लेख करें।
उत्तर:
(1) निरंतरता का सिद्धांत
(2) विशिष्टता का सिद्धांत
(3) व्यक्तिगत भेद का सिद्धांत
(4) अतिभार का सिद्धांत
(5) सामान्य व विशिष्ट तैयारी का सिद्धांत आदि।

प्रश्न 3.
प्रशिक्षण के कोई दो उद्देश्य लिखें।
उत्तर:
(1) उत्तम स्वास्थ्य का विकास करना
(2) व्यक्तिगत, मानसिक तथा भावात्मक विकास करना।

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प्रश्न 4.
डॉ० हदयाल सिंह के अनुसार खेल प्रशिक्षण को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
डॉ० हरदयाल सिंह के अनुसार, “खेल प्रशिक्षण अध्ययन से संबंधित प्रक्रिया है जो वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है जिसका मुख्य उद्देश्य खेल मुकाबलों में उच्चतम प्रदर्शन करने के लिए खिलाड़ियों को तैयार करना हैं।”

प्रश्न 5.
प्रशिक्षण की विधियों को सूचीबद्ध करें।
उत्तर:
(1) निरंतर प्रशिक्षण विधि
(2) अंतराल प्रशिक्षण विधि
(3) फार्टलेक प्रशिक्षण विधि
(4) सर्किट प्रशिक्षण विधि
(5) भार प्रशिक्षण विधि आदि।

प्रश्न 6.
गर्माना क्या है?
अथवा
शरीर को गर्माने (Warming-up) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
किसी कार्य को सुचारु रूप से करने के लिए माँसपेशियों को उसके अनुरूप तैयार करना पड़ता है। इसे माँसपेशियों का गर्माना कहते हैं। इससे अच्छे परिणाम निकलते हैं तथा शरीर को कोई आघात नहीं पहुँचता। यदि शरीर को बिना गर्माए कठोर व्यायाम किया जाए तो माँसपेशियों को कई बार चोट पहुँच सकती है अथवा कोई विकार उत्पन्न हो सकता है। अत: गर्माना वह क्रिया है जिसको मुकाबले के तनाव में दबे हुए और मुकाबले की माँग को पूरा करने के लिए खेल मुकाबले में भाग लेने वालों को शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक ढंग से तैयार किया जाता है।

प्रश्न 7.
गर्माना अभ्यास आप कैसे करेंगे?
उत्तर:
आरंभ में धीमी गति से दौड़ना चाहिए। धीमी गति से दौड़ने के बाद आसान व्यायाम करने चाहिएँ। इन व्यायामों को करते समय किसी प्रकार के झटके का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इसके बाद खिंचाव वाले व्यायाम और विंड स्प्रिंट्स आदि क्रियाएँ करनी चाहिए।

प्रश्न 8.
गर्माना किस प्रकार ठण्डा होने से भिन्न है?
उत्तर:
(1) गर्माने से शरीर का तापमान बढ़ जाता है जबकि ठण्डा होने से शरीर का तापमान कम हो जाता है।
(2) गर्माने से हृदय की धड़कन बढ़ती है जबकि ठण्डा होने से हृदय की धड़कन सामान्य हो जाती है।

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प्रश्न 9.
मनोवैज्ञानिक गर्माना क्या है?
अथवा
मानसिक गर्माना क्या है?
अथवा
मनोवैज्ञानिक गर्माना कैसे किया जाता है?
उत्तर:
खेल मुकाबले से पहले खिलाड़ी को मनोवैज्ञानिक या मानसिक रूप से मुकाबले के लिए तैयार करना मनोवैज्ञानिक या मानसिक गर्माना कहलाता है। भिन्न-भिन्न विधियाँ; जैसे कोच द्वारा खिलाड़ी को प्रेरित करना, उसके व्यवहार को संतुलन में लाना तथा फीडबैक द्वारा खिलाड़ी की मानसिक या मनोवैज्ञानिक तैयारी हो जाती है। उसके मन से मुकाबले का डर निकाल देना मनोवैज्ञानिक उत्साह भरने के लिए आवश्यक होता है।

प्रश्न 10.
शारीरिक गर्माना क्या होता है? अथवा शारीरिक गर्माना कैसे किया जाता है?
उत्तर:
शारीरिक गर्माने में मुकाबले के लिए शारीरिक माँसपेशियों को मुकाबले में पड़ने वाले दवाब के लिए तैयार किया जाता है। शारीरिक गर्माना निम्नलिखित दो विधियों द्वारा किया जाता है
1. सकर्मक या सक्रिय गर्माना-सकर्मक गर्माना में शारीरिक कसरतों और मुकाबलों की तैयारी की जाती है।
2. अकर्मक या निष्क्रिय गर्माना-अकर्मक गर्माना में खिलाड़ी द्वारा कोई शारीरिक कसरत नहीं की जाती। इसमें खिलाड़ी बैठकर ही अपने शरीर को गर्म कर मुकाबले के लिए तैयार करता है।

प्रश्न 11.
स्ट्राइडिंग (Striding) क्या है?
उत्तर:
स्ट्राइडिंग व्यायाम में खिलाड़ी को अपनी पूरी गति से दौड़ना चाहिए। इसमें लंबे तथा ऊँचे कदम लेने चाहिएँ। इस प्रकार का व्यायाम लगभग 60 से 80 मी० तक दौड़कर करना चाहिए तथा वापसी पर चलकर आना चाहिए। यह क्रिया 4 से 6 बार दोहरानी चाहिए। दौड़ते समय कदम लंबे, शरीर आगे की ओर तथा घुटने ऊपर उठाकर दौड़ना चाहिए।

प्रश्न 12.
विंड स्प्रिंट्स (Wind Sprints) से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
विंड स्प्रिंट्स का अर्थ है-हवा की गति के समान दौड़ना। विंड स्प्रिंट्स लगाते समय हवा की गति के समान अर्थात् पूरी क्षमता से 20-25 मीटर तक दौड़ना चाहिए। यह क्रिया चार से छः बार तक की जानी चाहिए। यह क्रिया हमेशा कीलदार जूते पहनकर की जानी चाहिए।

प्रश्न 13.
सामान्य गर्माने से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘सामान्य शरीर गर्माने से हमारा उद्देश्य उन क्रियाओं को करने से है जो सभी खेलों के लिए लगभग एक जैसी हो सकती हैं; जैसे धीमी गति से दौड़ना, हाथ-पैर घुमाना, खिंचाव वाली क्रियाएँ करना। ये क्रियाएँ किसी भी खेल को शुरू करने से पहले की जाती हैं। ये खिलाड़ी को शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करती हैं।

प्रश्न 14.
विशेष गर्माने से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
विशेष गर्माना उस समय शुरू किया जाता है जब सामान्य गर्माना समाप्त कर लिया जाता है। इसका उद्देश्य खिलाड़ी को उस खेल के लिए शारीरिक रूप से तैयार करना होता है जो अभी खेली जानी होती है। इस प्रकार के विशेष गर्माने में शरीर के उन अंगों और माँसपेशियों को लेना चाहिए जिनका प्रयोग विशेष प्रकार के प्रशिक्षण और मुकाबले की स्थितियों में विशेष रूप से होता है। यदि खिलाड़ी अपनी गति में सुधार लाने का लक्ष्य रखता है तो उसे विशेष क्रियाओं के द्वारा शरीर में धीरे-धीरे प्रचण्डता लानी होगी। ये क्रियाएँ साधारण गर्माना से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हें मालिश, गर्म पानी अथवा भाप से नहाने से अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है।

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प्रश्न 15.
सामान्य तथा विशेष गर्माने में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
सामान्य गर्माने संबंधी क्रियाएँ सभी प्रकार के खेलों हेतु एक-सम्मान होती हैं। ये खिलाड़ी को शारीरिक-मानसिक रूप से तैयार करती हैं, जबकि विशेष गर्माने संबंधी क्रियाएँ सभी प्रकार के खेलों हेतु भिन्न-भिन्न होती हैं। इनका उद्देश्य खिलाड़ी को उस खेल के लिए शारीरिक रूप से तैयार करना होता है जो अभी-अभी खेला जाना हो।

प्रश्न 16.
शरीर को ठण्डा करना क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
शरीर को ठण्डा करना निम्नलिखित कारणों से आवश्यक है
(1) रक्त संचार की प्रक्रिया सामान्य करना
(2) माँसपेशियों की मालिश करना
(3) माँसपेशियों में लचीलापन आ जाना
(4) मानसिक तनाव दूर होना।

प्रश्न 17.
लिम्बरिंग या कूलिंग डाउन क्या है?
अथवा
शरीर को ठण्डा करने से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
लिम्बरिंग डाउन या ठण्डा करने से तात्पर्य शरीर को व्यायामों द्वारा आराम की हालत में वापस लाना है। मुकाबले के दौरान शरीर का तापमान बढ़ जाता है। तापमान को अपनी वास्तविकता में लाने के लिए धीरे-धीरे दौड़कर या चलकर ट्रैक का चक्कर लगाना चाहिए। इस तरह मुकाबले के दौरान बढ़ा हुआ तापमान साधारण अवस्था में आ जाता है। शरीर को धीरे-धीरे ठण्डा करने से थकावट जल्दी दूर होती है और माँसपेशियों की मालिश भी हो जाती है।

प्रश्न 18.
अनुकूलन (Conditioning) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
जब किसी कार्य या व्यायाम को निरंतर करने से इंद्रियाँ उसकी अभ्यस्त हो जाती हैं और वह कार्य अधिक ध्यान दिए बिना या बिना ध्यान दिए अपने-आप ही होता जाता है, इस अवस्था को अनुकूलन कहते हैं। उदाहरणस्वरूप जब एक टाइपिस्ट अपनी कला में निपुण हो जाता है तो बिना की-बोर्ड देखे ही टाइप करता रहता है। इसे अनुकूलन का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 19.
आइसोमीट्रिक व्यायाम किसे कहते हैं? उदाहरण दें।
अथवा
आइसोमीट्रिक कसरतों से क्या भाव है? इनके उदाहरण लिखें।
अथवा
आइसोमीट्रिक व्यायामों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम वे व्यायाम होते हैं जिनमें खिलाड़ी द्वारा किया गया व्यायाम या कार्य नजर नहीं आता। ऐसे व्यायाम में तनाव की अधिकता तथा तापमान में वृद्धि की संभावना रहती है। हमारे द्वारा अत्यधिक बल लगाने पर भी वस्तु अपने स्थान से नहीं हिलती।
उदाहरण:
(1) बंद दरवाजों को धकेलना
(2) पीठ से दीवार को दबाना
(3) पैरलल बार को पुश करना आदि।

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प्रश्न 20.
आइसोटोनिक व्यायाम क्या होते हैं? उदाहरण दें।
अथवा
आइसोटोनिक कसरतों से क्या अभिप्राय है? इनके उदाहरण लिखें।
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायामों में खिलाड़ी की गतिविधियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। इन व्यायामों का उद्देश्य माँसपेशियों की कार्यक्षमता में वृद्धि करना होता है। इनसे माँसपेशियों तथा जोड़ों में लचक आती है। इन कसरतों को समशक्ति जोर भी कहते हैं। शरीर को गर्माने के लिए इन व्यायामों का विशेष महत्त्व होता है।
उदाहरण:
(1) हल्के भार के व्यायाम करना
(2) हल्का बोझ उठाना
(3) झूला झूलना आदि।

प्रश्न 21.
आइसोटोनिक व्यायाम कितने प्रकार के होते हैं? नाम बताएँ।
अथवा
कंसैंट्रिक अभ्यास एक्सैंट्रिक अभ्यास से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम या अभ्यास दो प्रकार के होते हैं
1. कंसैंट्रिक व्यायाम-कंसैंट्रिक व्यायाम वे व्यायाम होते हैं जिनसे माँसपेशियाँ खिंचाव के कारण सिकुड़कर छोटी हो जाती हैं। ऐसा प्रायः हल्के-फुल्के एवं तीव्र गति के व्यायामों में होता है।
2. एक्सैंट्रिक व्यायाम-कठोर तथा नियंत्रित क्रियाओं जैसे कि कार या स्कूटर चलाना आदि में आपसी विरोधाभास माँसपेशियों में परिवर्तन के साथ-साथ तनाव बढ़ाता है उसे एक्सैंट्रिक व्यायाम कहते हैं।

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प्रश्न 22.
सर्किट प्रशिक्षण और अन्तराल प्रशिक्षण में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
सर्किट प्रशिक्षण अनुकूलन का ही भाग माना जाता है। यह ऐसी प्रणाली है जिसमें खिलाड़ी एक के बाद दूसरी क्रिया करते हैं। इनके बीच आराम किया जा सकता है परन्तु अन्तराल प्रशिक्षण विधि में किसी एक व्यायाम को बार-बार किया जाता है परन्तु गति में अन्तर पाया जा सकता है।

प्रश्न 23.
क्या गर्माना लचीलेपन को बढ़ाता है?
उत्तर:
हाँ, गर्माना लचीलेपन को बढ़ाता है। शरीर को अच्छे से गर्माने से शरीर में लचकता बढ़ती है। यदि कोई खिलाड़ी प्रतियोगिता से पूर्व अपने शरीर को अच्छे से न गर्माए तो इससे उसके शरीर में लचक कम होती है, जिस कारण वह खेल में अच्छे परिणाम देने में असफल हो सकता है। विश्राम या आराम की स्थिति में हम अपने अंगों को अधिक नहीं मोड़ पाते, लेकिन गर्माने के बाद हम अपने अंगों को अधिक मोड़ पाते हैं, क्योंकि गर्माने से शरीर में लचकता बढ़ जाती है। अतः स्पष्ट है कि गर्माना लचीलेपन को बढ़ाता है।

प्रश्न 24.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि क्या है? उदाहरण दें।
अथवा
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि क्रॉस-कंट्री दौड़ पर आधारित है तथा दौड़ के साथ-साथ कई अन्य व्यायाम भी इसमें शामिल हैं। यह प्रशिक्षण खिलाड़ी की आयु, क्षमता आदि देखकर दिया जाता है। इस विधि में कदमों के फासले या दूरी और तीव्रता आदि में फेर-बदल करके दौड़ का कार्यक्रम बनता है। भागते-भागते जमीन से कोई वस्तु उठाना, भागते-भागते आधी बैठक लगाना, एक टाँग से दौड़ना, दोनों पैरों से कूद लगाना, हाथ ऊपर करके भागना आदि इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 25.
पेस दौड़ के बारे में आप क्या जानते हैं?
अथवा
पेस दौड़ों पर नोट लिखें।
अथवा
गति को विकसित करने में पेस दौड़ों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पेस दौड़ों का अर्थ है-एक दौड़ की पूरी दूरी को एक निश्चित गति से दौड़ना। इन दौड़ों में एक खिलाड़ी/एथलीट दौड़ को समरूप या समान रूप से दौड़ता है। सामान्यतया 800 मी० व इससे अधिक दूरी की दौड़ें पेस दौड़ों में शामिल होती हैं। वास्तव में, एक एथलीट लगभग 300 मी० की दूरी पूरी गति से दौड़ सकता है। इसलिए मध्यम व लम्बी दौड़ों में; जैसे 800 मी० व इससे अधिक दूरी की दौड़ों में उसे अपनी गति में कमी करके अपनी ऊर्जा को संरक्षित रखना जरूरी है। उदाहरण के लिए, यदि एक 800 मी० की दौड़ लगाने वाला एथलीट है और उसका समय 1 मिनट 40 सेकिण्ड है, तो उसे पहली 400 मी० दौड़ 49 सेकिण्ड में तथा 400 मी० दौड़ 51 सेकिण्ड में लगानी चाहिए। यह प्रक्रिया ही पेस दौड़ कहलाती है। पेस दौड़ों की दोहराई खिलाड़ी की योग्यता के अनुसार निश्चित की जा सकती हैं।

प्रश्न 26.
त्वरण दौड़ें क्या हैं?
उत्तर:
त्वरण दौड़ों से त्वरण योग्यता में वृद्धि हो जाती है। त्वरण योग्यता विस्फोटक शक्ति, तकनीक तथा लचक पर निर्भर करती है। इस योग्यता में वृद्धि करने के लिए छोटी दौड़ों का उपयोग किया जा सकता है। प्रायः तेज धावक अपनी अधिकतम गति स्थिर अवस्था के बाद से 6 सेकिण्ड में प्राप्त कर लेते हैं। युवा धावक अपनी त्वरण योग्यता में त्वरण दौड़ों के द्वारा वृद्धि कर सकते हैं। त्वरण दौड़ों की संख्या, एथलीट की आयु व उसके अनुभव के अनुसार निश्चित की जा सकती है।

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प्रश्न 27.
अंतराल प्रशिक्षण विधि की कोई दो विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
(1) इसमें धावक के लिए दूरी निश्चित की जाती है।
(2) बीच में दो या तीन मिनट का समय पुनः शक्ति प्राप्त करने के लिए निश्चित कर दिया जाता है।

प्रश्न 28.
सहनशीलता के विकास की विभिन्न विधियों के नाम बताएँ।
उत्तर:
(1) निरंतर प्रशिक्षण विधि (Continuous Training Method)
(2) अंतराल प्रशिक्षण विधि (Interval Training Method)
(3) फार्टलेक प्रशिक्षण विधि (Fartlek Training Method)।

प्रश्न 29.
क्या कूलिंग डाउन से मानसिक तनाव कम होता है?
उत्तर:
हाँ, कूलिंग डाउन से मानसिक तनाव कम होता है। खेल मुकाबले के दौरान सभी शारीरिक प्रणालियाँ सामान्य अवस्था से अधिक कार्य कर रही होती हैं, जिस कारण मानसिक तनाव बढ़ जाता है। कूलिंग डाउन से सभी प्रणालियाँ अपनी पहले वाली अवस्था में आ जाती हैं, जिससे मानसिक तनाव कम व दूर होता है।

HBSE 12th Class Physical Education प्रशिक्षण विधियाँ Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न [Objective Type Questions]

भाग-1: एक शब्द/वाक्य में उत्तर दें-

प्रश्न 1.
हमारा शरीर किसकी तरह है?
उत्तर:
हमारा शरीर एक मशीन की तरह है।

प्रश्न 2.
शरीर गर्माना कितने प्रकार का होता है?
उत्तर:
शरीर गर्माना दो प्रकार का होता है-
(1) सकर्मक गर्माना
(2) अकर्मक गर्माना।

प्रश्न 3.
शरीर को गर्माने से किसमें फैलाव आता है?
उत्तर:
शरीर को गर्माने से माँसपेशियों में फैलाव आता है।

प्रश्न 4.
आइसोकाइनेटिक व्यायाम का जन्मदाता कौन है?
उत्तर:
आइसोकाइनेटिक व्यायाम का जन्मदाता पेरिन है।

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प्रश्न 5.
लगातार कार्य करते रहने से शरीर में अभ्यस्तता आ जाती है, उसे क्या कहते हैं?
उत्तर:
लगातार कार्य करते रहने से शरीर में अभ्यस्तता आ जाती है, उसे अनुकूलन कहते हैं।

प्रश्न 6.
गर्माने में किन अंगों का व्यायाम करना चाहिए?
उत्तर:
गर्माने में शरीर के लगभग सभी अंगों का व्यायाम करना चाहिए।

प्रश्न 7.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि सर्वप्रथम किस देश ने अपनाई?
उत्तर:
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि सर्वप्रथम स्वीडन ने अपनाई।

प्रश्न 8.
वे व्यायाम, जिनमें खिलाड़ी की गतिविधियाँ या कार्य स्पष्ट दिखाई दें, उन्हें क्या कहते हैं?
अथवा
किस प्रकार के व्यायामों में गतियाँ प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती हैं?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम।

प्रश्न 9.
ऐसे व्यायाम जिनमें खिलाड़ी की प्रत्यक्ष क्रिया दिखाई नहीं देती, उन्हें क्या कहते हैं?
अथवा
किस प्रकार के व्यायाम में गतियाँ प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देती हैं?
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम।

प्रश्न 10.
त्वरण दौड़ में कम-से-कम कितनी दूरी होती है?
उत्तर:
त्वरण दौड़ में लगभग 20 से 40 मीटर दूरी होती है।

प्रश्न 11.
तैयारी किस प्रकार की प्रक्रिया है?
उत्तर:
तैयारी एक जटिल प्रक्रिया है।

प्रश्न 12.
शरीर को गर्माने के दो उदाहरण दें।
उत्तर:
(i) जॉगिंग
(ii) विंड स्प्रिंट्स।

प्रश्न 13.
सर्वप्रथम अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत किस देश में हुई?
उत्तर:
सर्वप्रथम अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत फिनलैंड में हुई।

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प्रश्न 14.
अंतराल प्रशिक्षण विधि किस सिद्धांत पर आधारित है?
उत्तर:
अंतराल प्रशिक्षण विधि प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति, फिर प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति के सिद्धांत पर आधारित है।

प्रश्न 15.
क्या गर्माने से माँसपेशियों में तालमेल बढ़ जाता है?
अथवा
क्या गर्माना माँसपेशियों की गति को बढ़ाता है?
उत्तर:
हाँ, गर्माना माँसपेशियों की गति को बढ़ाता है, क्योंकि इससे माँसपेशियों में तालमेल व सामंजस्य बढ़ जाता है।

प्रश्न 16.
क्या आर्द्रता प्रतिदिन के अभ्यास को प्रभावित करती है?
उत्तर:
हाँ, आर्द्रता प्रतिदिन के अभ्यास को प्रभावित करती है।

प्रश्न 17.
क्या गर्माना शक्ति या ऊर्जा को बढ़ाता है?
उत्तर:
गर्माना शक्ति या ऊर्जा को बढ़ाता है, क्योंकि इससे माँसपेशियों में संकुचन और प्रसार की शक्ति बढ़ जाती है।

प्रश्न 18.
बिकिला कौन था?
उत्तर:
बिकिला फिनलैंड के एथलेटिक्स कोच थे। इन्होंने हमें सन् 1920 में अंतराल प्रशिक्षण विधि से परिचित करवाया।

प्रश्न 19.
क्या गर्माना प्रदर्शन का स्तर कम करता है?
उत्तर:
नही, गर्माना प्रदर्शन का स्तर कम नहीं करता, बल्कि बढ़ाता है।

प्रश्न 20.
अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत कब और किसने की?
उत्तर:
अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत सन् 1920 में बिकिला ने की।

प्रश्न 21.
क्या लिम्बरिंग डाउन से माँसपेशियों से तनाव दूर होता है?
उत्तर:
हाँ, लिम्बरिंग डाउन से माँसपेशियों से तनाव दूर होता है।

प्रश्न 22.
पेरीन द्वारा किस प्रकार के व्यायामों को विकसित किया गया?
उत्तर:
पेरीन द्वारा आइसोकाइनेटिक व्यायामों को विकसित किया गया।

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प्रश्न 23.
किसी प्रतियोगिता या प्रशिक्षण से पहले नियमित रूप से कौन-सी क्रिया करनी चाहिए?
उत्तर:
प्रतियोगिता या प्रशिक्षण से पहले नियमित रूप से वार्मिंग-अप क्रिया करनी चाहिए।

प्रश्न 24.
किसी प्रतियोगिता या प्रशिक्षण के बाद नियमित रूप से कौन-सी क्रिया करनी चाहिए?
अथवा
शारीरिक क्रियाओं अथवा खेल खेलने के बाद शरीर को सामान्य अवस्था में लाने की प्रक्रिया का क्या नाम है?
अथवा
शारीरिक क्रियाकलाप या खेल खेलने के बाद शरीर को सामान्य अवस्था में लाने की प्रक्रिया का क्या नाम है?
अथवा
कौन-सी क्रिया में शरीर का तापमान सामान्य हो जाता है?
उत्तर:
लिम्बरिंग या कूलिंग डाउन।

प्रश्न 25.
अंतराल प्रशिक्षण को अन्य किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
अंतराल प्रशिक्षण को टेरेस प्रशिक्षण के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 26.
निरंतर प्रशिक्षण विधि में हृदय की धड़कन की दर कितनी होती है?
उत्तर:
निरंतर प्रशिक्षण विधि में हृदय की धड़कन की दर 140 से 160 प्रति मिनट होती है।

प्रश्न 27.
किस प्रशिक्षण विधि में माँसपेशियों तथा यकृत में ग्लाइकोजेन बढ़ जाता है?
उत्तर:
निरंतर प्रशिक्षण विधि में माँसपेशियों तथा यकृत में ग्लाइकोजेन बढ़ जाता है।

प्रश्न 28.
आइसोटोनिक व्यायाम का कोई एक लाभ बताएँ।
उत्तर:
माँसपेशियों की कार्यक्षमता में वृद्धि होना।

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प्रश्न 29.
आइसोमीट्रिक व्यायाम सर्वप्रथम कब और किसने आरंभ की?
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम सर्वप्रथम सन् 1953 में हैटिंजर ने आरंभ की।

प्रश्न 30.
आइसोमीट्रिक व्यायाम का कोई एक लाभ बताएँ।
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम में कम समय लगता है अर्थात् इसमें समय की बचत होती है।

प्रश्न 31.
आइसोटोनिक व्यायाम कब और किसने आरंभ की?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम सन् 1954 में डी लून ने आरंभ की।

प्रश्न 32.
आइसोकाइनेटिक व्यायाम कब आरंभ हुई?
उत्तर:
आइसोकाइनेटिक व्यायाम सन् 1968 में आरंभ हुई।

प्रश्न 33.
शरीर को कब गर्माना चाहिए?
उत्तर:
शरीर को खेल प्रतियोगिता से पूर्व गर्माना चाहिए।

प्रश्न 34.
‘फार्टलेक’ किस भाषा का शब्द है?
उत्तर:
‘फार्टलेक’ स्वीडिश भाषा का शब्द है।

प्रश्न 35.
गर्माने का कोई एक सिद्धांत बताएँ।
उत्तर:
सरल से जटिल का सिद्धांत।

प्रश्न 36.
‘पीठ से दीवार को दबाना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम का।

प्रश्न 37.
आइसोटोनिक व्यायाम कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम दो प्रकार के होते हैं।

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प्रश्न 38.
“जिम्नास्टिक क्रियाएँ’ किस व्यायाम की उदाहरण हैं?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम की।

प्रश्न 39.
बलिस्टिक विधि किसके सुधार की विधि है?
उत्तर:
लचीलापन।

प्रश्न 40.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि में हृदय-गति क्या रहती है?
उत्तर:
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि में हृदय-गति 140-180 के बीच प्रति मिनट रहती है।

प्रश्न 41.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि को ‘स्पीड प्ले’ किसने कहा?
उत्तर:
सन् 1930 में स्वीडन के गोस्ट होल्मर ने।

प्रश्न 42.
‘झूला झूलना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम का।

प्रश्न 43.
‘भारी रोलर धकेलना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
उत्तर:
आइसोकाइनेटिक व्यायाम का।

प्रश्न 44.
‘बर्फ पर स्केटिंग करना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
उत्तर:
आइसोकाइनेटिक व्यायाम का।

प्रश्न 45.
‘बंद दरवाजे को धकेलना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम का।

प्रश्न 46.
‘कूदना, दौड़ना व हल्का भार उठाना’ किस व्यायाम के उदाहरण हैं?
उत्तर;’
आइसोटोनिक व्यायाम के।

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प्रश्न 47.
‘डैस्क या मेज आदि को हाथ, कोहनी या पैर से दबाना’ किस व्यायाम के उदाहरण हैं?
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम के।

भाग-II : सही विकल्प का चयन करें-

1. प्रशिक्षण का अर्थ है
(A) किसी कार्य की तैयारी की प्रक्रिया
(B) किसी कार्य को करने के बारे में जानकारी
(C) किसी कार्य की रूपरेखा
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(A) किसी कार्य की तैयारी की प्रक्रिया

2. तैयारी किस प्रकार की प्रक्रिया है?
(A) जटिल
(B) मिश्रित
(C) आसान
(D) तीव्र
उत्तर:
(A) जटिल

3. गर्माने की कितनी किस्में होती हैं?
(A) सात
(B) पाँच
(C) तीन
(D) दो
उत्तर:
(D) दो

4. शारीरिक अभ्यास में लाभ शामिल है
(A) मनोवैज्ञानिक तंदुरुस्ती
(B) दीर्घ आयु को बढ़ाना
(C) कुछ बीमारियों में कमी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

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5. ताकत, गति तथा सहनशीलता को प्रायः बढ़ाया जा सकता है
(A) दवाइयों के सेवन द्वारा
(B) खेलों में भाग लेकर
(C) व्यायाम द्वारा
(D) (B) व (C) दोनों
उत्तर:
(D) (B) व (C) दोनों

6. धीमी गति से दौड़ना किस व्यायाम का उदाहरण है?
(A) आइसोकाइनेटिक व्यायाम
(B) एरोबिक
(C) आइसोटोनिक व्यायाम
(D) आइसोमीट्रिक व्यायाम
उत्तर:
(B) एरोबिक

7. अकर्मक गर्माना किस प्रकार किया जाता है?
(A) दवाइयों तथा मालिश द्वारा
(B) गर्म पानी से नहाकर
(C) अल्ट्रा किरणों द्वारा
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. किस खिंचाव के कारण माँसपेशी छोटी हो जाती है?
(A) आइसोमीट्रिक
(B) आइसोकाइनेटिक
(C) कंसैंट्रिक
(D) एक्सैंट्रिक
उत्तर:
(C) कंसैंट्रिक

9. निम्नलिखित में से कौन-सी क्रिया आइसोटोनिक व्यायाम की उदाहरण है?
(A) किसी के आने के लिए दरवाजा खोलना
(B) खिड़की को खींचना व खोलना
(C) झूला-झूलना
(D) भारी रोलर धकेलना
उत्तर:
(C) झूला-झूलना

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10. निम्नलिखित में से खेल प्रशिक्षण के उद्देश्यों में शामिल है
(A) उत्तम स्वास्थ्य का विकास
(B) व्यक्तिगत व भावात्मक विकास
(C) खेल संबंधी विकास
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

11. गर्माना कार्य करता है
(A) दिल की गति को कम करना
(B) शरीर व माँसपेशियों के तापमान को बढ़ाना
(C) फेफड़ों का आयतन बढ़ाना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) शरीर व माँसपेशियों के तापमान को बढ़ाना

12. अभ्यासकर्ता व खिलाड़ियों को वार्मिंग-अप व कलिंग डाउन मदद करती है
(A) शरीर व दिमाग को आराम देने में
(B) बीमारी से बचाने में
(C) चोट से बचाना तथा कार्य करने के कौशल में वृद्धि
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) चोट से बचाना तथा कार्य करने के कौशल में वृद्धि

3. खिलाड़ी का सर्वांगीण शारीरिक अनुकूलन करने के लिए क्या आवश्यक है?
(A) अच्छा पारिवारिक माहौल
(B) अच्छा संतुलित आहार
(C) खेल प्रशिक्षण.
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) खेल प्रशिक्षण

14. खेलों से पूर्व शरीर को भली-भाँति तैयार करना क्या कहलाता है?
(A) गर्माना
(B) अनुकूलन
(C) ठण्डा करना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) गर्माना

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15. “गर्माना रक्त के तापमान को बढ़ाता है जिसके फलस्वरूप माँसपेशियाँ प्रदर्शन को बढ़ाती हैं।” यह कथन किसका है?
(A) डेवरिस का
(B) हिल का
(C) डेविड लैम्ब का
(D) थॉम्पसन का
उत्तर:
(A) डेवरिस का

16. खेल प्रशिक्षण के सिद्धांत हैं
(A) निरंतरता का सिद्धांत
(B) विशिष्टता का सिद्धांत
(C) अतिभार का सिद्धांत
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

17. गर्माने के मनोवैज्ञानिक प्रभावों में से निम्नलिखित में से कौन-सा नहीं है?
(A) श्वसन क्रिया में वृद्धि
(B) मानसिक तैयारी
(C) भीड़ के डर का प्रभाव
(D) हृदय-योग्यता में वृद्धि
उत्तर:
(A) श्वसन क्रिया में वृद्धि

18. गर्माने में कितनी व्यायाम या कसरतें हो सकती हैं?
(A) 10 से 20 तक
(B) 10 से 15 तक
(C) 8 से 10 तक
(D) 5 से 10 तक
उत्तर:
(B) 10 से 15 तक

19. एक ऐसी क्रिया जो किसी प्रशिक्षण कार्यक्रम या खेल प्रतियोगिता के तुरंत बाद की जाती है, वह क्या कहलाती है?
(A) गर्माना
(B) अनुकूलन
(C) ठण्डा करना या कूलिंग डाउन
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) ठण्डा करना या कूलिंग डाउन

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20. अंतराल प्रशिक्षण विधि किस देश की देन है?
(A) कनाडा की
(B) इंग्लैंड की
(C) फिनलैंड की
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) फिनलैंड की।

21. विंड स्प्रिंट्स उदाहरण है
(A) लिम्बरिंग डाउन
(B) गर्माना
(C) ठण्डा करना
(D) अनुकूलन
उत्तर:
(B) गर्माना

22. स्थिर शक्ति के विकास के लिए आइसोमीट्रिक विधि के प्रथम समर्थक थे-
(A) गुनलैच
(B) जे० जे० पेरिन
(C) बूनर
(D) हैटिंजर और मूलर
उत्तर:
(D) हैटिंजर और मूलर

23. निम्नलिखित में से कौन-सी क्रिया आइसोमीट्रिक व्यायाम की उदाहरण है?
(A) कुर्सी को दोनों हाथों से अंदर की ओर दबाना
(B) झूला झूलना
(C) बाल्टी उठाना
(D) भारी रोलर को धकेलना
उत्तर:
(A) कुर्सी को दोनों हाथों से अंदर की ओर दबाना

24. निम्नलिखित में से कौन-सी क्रिया आइसोकाइनेटिक व्यायाम की उदाहरण है?
(A) घुटने मोड़ना
(B) बर्फ पर स्केटिंग करना
(C) हल्का बोझ उठाना
(D) बंद दरवाजे को धकेलना
उत्तर:
(B) बर्फ पर स्केटिंग करना

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 2 प्रशिक्षण विधियाँ

25. लिम्बरिंग डाउन या शरीर को ठण्डा करने का शरीर पर क्या प्रभाव होता है?
(A) रक्त दबाव में कमी
(B) रक्त-प्रवाह की दर में कमी
(C) शरीर के तापमान में कमी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

26. शरीर को धीरे-धीरे ठण्डा करने से क्या होता है?
(A) नींद आती है
(B) थकान होती है
(C) शरीर सुस्त हो जाता है
(D) थकावट दूर हो जाती है
उत्तर:
(D) थकावट दूर हो जाती है

27. लगातार कार्य करते रहने से शरीर में जो अभ्यस्तता आ जाती है, उसे क्या कहते हैं?
(A) अनुकूलन
(B) गर्माना
(C) ठण्डा करना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) अनुकूलन

28. प्रशिक्षण का उद्देश्य है
(A) उत्तम स्वास्थ्य का निर्माण करना
(B) मानसिक विकास करना
(C) व्यक्तिगत विकास करना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

29. आइसोकाइनेटिक व्यायामों को किसने विकसित किया?
(A) टोनो ने
(B) बिकिला ने
(C) पेरीन ने
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) पेरीन ने

30. फार्टलेक प्रशिक्षण विधि सर्वप्रथम किस देश ने अपनाई?
(A) स्वीडन ने
(B) हॉलैंड ने
(C) बेल्जियम ने
(D) पोलैंड ने
उत्तर:
(A) स्वीडन ने

31. फार्टलेक प्रशिक्षण विधि सुधारता है
(A) क्षमता
(B) गति
(C) शक्ति
(D) लचीलापन
उत्तर:
(B) गति

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32. गर्माना करता है
(A) हृदय गति में कमी
(B) शरीर व मांसपेशियों के तापमान में वृद्धि
(C) फेफड़ों के साइज में वृद्धि
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) शरीर व मांसपेशियों के तापमान में वृद्धि

33. ऐसे व्यायाम जिनमें खिलाड़ी की प्रत्यक्ष क्रिया दिखाई नहीं देती, उन्हें क्या कहते हैं?
(A) आइसोमीट्रिक व्यायाम
(B) आइसोकाइनेटिक व्यायाम
(C) आइसोटोनिक व्यायाम
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) आइसोमीट्रिक व्यायाम

34. वे व्यायाम जिनमें खिलाड़ी की गतिविधियाँ या कार्य स्पष्ट दिखाई दें, उन्हें क्या कहते हैं?
(A) आइसोमीट्रिक व्यायाम
(B) आइसोकाइनेटिक व्यायाम
(C) आइसोटोनिक व्यायाम
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) आइसोटोनिक व्यायाम

35. बोझा उठाकर खड़े रहना ……………….. व्यायाम का उदाहरण है।
(A) आइसोटोनिक
(B) आइसोमीट्रिक
(C) आइसोकाइनेटिक
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) आइसोमीट्रिक

36. आइसोटोनिक व्यायाम का उदाहरण है
(A) हल्का बोझ उठाना
(B) हल्का व्यायाम करना
(C) कलाई घुमाना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

37. आइसोमीट्रिक तथा आइसोटोनिक व्यायामों के मिश्रण को क्या कहते हैं?
(A) आइसोकाइनेटिक व्यायाम
(B) अनएरोबिक व्यायाम
(C) एरोबिक क्रिया
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) आइसोकाइनेटिक व्यायाम

38. ‘पीठ से दीवार को धक्का देना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
(A) आइसोकाइनेटिक व्यायाम का
(B) आइसोटोनिक व्यायाम का
(C) एरोबिक क्रिया का
(D) आइसोमीट्रिक व्यायाम का
उत्तर:
(D) आइसोमीट्रिक व्यायाम का

39. किस वर्ष में पेरीन ने आइसोकाइनेटिक व्यायामों को विकसित किया था?
(A) 1964 में
(B) 1968 में
(C) 1972 में
(D) 1976 में
उत्तर:
(B) 1968 में

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40. परिधि प्रशिक्षण विधि का प्रतिपादन किसने किया था?
(A) बील्स
(B) क्लेयर
(C) मॉर्गन व स्टेनले
(D) मॉर्गन व एडमसन
उत्तर:
(D) मॉर्गन व एडमसन

41. खिंचाव जिसमें विभिन्न तनाव से भार उठाने से खिंचाव के कारण मांसपेशियाँ छोटी होने लगती हैं, को कहते हैं
(A) कॉनसेन्ट्रिक खिंचाव
(B) आइसोमीट्रिक खिंचाव
(C) आइसोटोनिक खिंचाव
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) कॉनसेन्ट्रिक खिंचाव

42. खिंचाव जिसमें तनाव का विकास होता है परन्तु मांसपेशियों की लम्बाई में कोई बदलाव नहीं आता, कहलाता है
(A) इसेंट्रिक खिंचाव
(B) आइसोटोनिक खिंचाव
(C) आइसोमीट्रिक खिंचाव
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) इसेंट्रिक खिंचाव

भाग-III: रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. सावधान की स्थिति में खड़े रहना ……………….. व्यायाम का उदाहरण है।
2. ‘स्ट्राइडिंग’ ……………… का उदाहरण है।
3. अनुकूलन एक ………………… प्रक्रिया है।
4. धीमी गति से दौड़ना .. ………………. का उदाहरण है।
5. ‘बोझा उठाकर खड़े करना’ ………………… व्यायाम का उदाहरण है।
6. फार्टलेक प्रशिक्षण विधि एक प्रकार की ………………… दौड़ पर आधारित है।
7. विंड स्प्रिंट्स ……………….. का उदाहरण है।
8. तैयारी ………………. प्रक्रिया है।
9. एक्सैंट्रिक अभ्यास ………………… व्यायाम का उदाहरण है।
10. ठण्डा करने (Cooling Down) से शरीर का तापमान ………………… हो जाता है।
11. बिना भार वाली बैंच प्रेस अभ्यास करना ……………. संकुचन का एक उदाहरण है।
12. ……………… व्यायाम में माँसपेशियों में संकुचन होता है।
उत्तर:
1. आइसोमीट्रिक
2. गर्माने
3. अभ्यस्त होने की
4. गर्माने
5. आइसोमीट्रिक
6. क्रॉस-कंट्री
7. गर्माने
8. जटिल
9. आइसोटोनिक
10. सामान्य
11. कंसैंटिक
12. आइसोटोनिक।

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प्रशिक्षण विधियाँ Summary

प्रशिक्षण विधियाँ परिचय

वास्तव में प्रशिक्षण’ शब्द कोई नया शब्द नहीं है। व्यक्ति इस शब्द को प्राचीन समय से प्रयोग कर रहे हैं। प्रशिक्षण का अर्थ किसी कार्य की तैयारी की प्रक्रिया से है। इसी कारण यह शब्द खेलकूद के क्षेत्र में अधिक प्रयोग किया जाता है। ‘प्रशिक्षण’ की धारणा और खिलाड़ी की तैयारी’ आपस में मिलती-जुलती हैं लेकिन फिर भी ये एक-दूसरे की पूरक नहीं हैं। तैयारी एक कठिन प्रक्रिया है। यह खिलाड़ी के विकास को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है तथा काफी हद तक सफलता के लिए एकाग्रता को बढ़ाती है। इस कठिन प्रक्रिया में, खेल प्रशिक्षण, खेल प्रतियोगिताएँ (तैयारी के रूप में) और संतुलित आहार आदि शामिल किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, अनेक व्यायामों सहित यह एक सुव्यवस्थित एवं योजनापूर्ण तैयारी होती है। इसलिए खेल प्रशिक्षण को एक विशेष प्रक्रिया समझा जाना चाहिए जो खिलाड़ी का सर्वांगीण शारीरिक अनुकूलन करती है तथा जिसका लक्ष्य खेलकूद में खिलाड़ी के प्रदर्शन के लिए तैयारी करना होता है।

खेल प्रशिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जो सामान्यतया लंबी अवधि के लिए प्रयोग की जाती है। यदि हम प्रतियोगिताओं में अच्छे परिणाम प्राप्त करना चाहते हैं तो खेल प्रशिक्षण, वैज्ञानिक आधारों या सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए। यदि ऐसा संभव नहीं होता तो खेल प्रशिक्षण सफल अभ्यास के परिणामस्वरूप मिले अच्छे परिणामों पर आधारित होना चाहिए। प्रशिक्षण की विभिन्न विधियाँ होती हैं जिनकी सहायता से गति, शक्ति, सहनशीलता आदि को बढ़ाया जा सकता है। शक्ति का विकास करने के उत्तम तरीके या विधियाँ-आइसोमीट्रिक, आइसोटोनिक और आइसोकाइनेटिक आदि व्यायाम हैं । सहनशीलता का विकास करने की विधियाँ हैं-निरंतर विधि, अंतराल विधि और फार्टलेक विधि। त्वरण एवं पेस दौड़ें (Acceleration and Pace Races) गति के विकास में सहायक होती हैं।

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HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

Haryana State Board HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

HBSE 12th Class Physical Education शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष Textbook Questions and Answers

दीर्घ-उत्तरात्मक प्रश्न [Long Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र से आप क्या समझते हैं? शारीरिक शिक्षा व खेलों में इसके महत्त्व का उल्लेख करें।
अथवा
समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिए।शारीरिक शिक्षा एवं खेलों में समाजशास्त्र की महत्ता पर प्रकाश डालिए।
अथवा
समाजशास्त्र का अर्थ स्पष्ट कीजिए। शारीरिक शिक्षा एवं खेलकूद के क्षेत्र में इसके महत्त्व का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण समाज में रहता है, क्योंकि मनुष्य के दिमाग में समाज की कल्पना बहुत पहले से ही रही होगी, इसलिए समाजशास्त्र की कल्पना और रचना भी बहुत पहले ही हो चुकी होगी, परंतु एक सामाजिक विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र की उत्पत्ति 1838 ई० में ऑगस्ट कॉम्टे (Auguste Comte) के द्वारा की गई। इसी कारण ऑगस्ट कॉम्टे को ‘समाजशास्त्र का पिता’ कहा जाता है। आज समाजशास्त्र को एक नया विकासशील सामाजिक विज्ञान माना जाता है। मिचेल (Mitchell) ने, “समाजशास्त्र को चिंतनशील जगत् का बच्चा माना है।” इसके बाद सामाजिक संबंधों का व्यवस्थित अध्ययन करने वाले विज्ञान को समाजशास्त्र के नाम से ही संबोधित किया जाने लगा।

समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ (Literal Meaning of Sociology):
‘समाजशास्त्र’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘Sociology’ शब्द का हिंदी रूपांतरण है। ‘Sociology’ शब्द लैटिन भाषा के ‘Socius’ और ग्रीक (Greek) भाषा के ‘Logos’ शब्दों से मिलकर बना है। इन दोनों का अर्थ क्रमशः समाज व विज्ञान या शास्त्र है अर्थात् समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है । ‘Socius’ और ‘Logos’ दो भाषाओं के शब्द होने के कारण ही संभवतः प्रो० बीरस्टीड ने समाजशास्त्र को दो भाषाओं की अवैध संतान माना होगा।

समाजशास्त्र की परिभाषाएँ (Definitions of Sociology):
1. विद्वानों ने समाजशास्त्र की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं1. आई० एफ० वार्ड (I. F. Ward) के अनुसार, “समाजशास्त्र, समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।”
2. मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक संबंधों के विषय में है, संबंधों के इसी जाल को हम समाज कहते हैं।”
3. गिलिन व गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार, “व्यक्तियों के एक-दूसरे के संपर्क में आने के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली अंतःक्रियाओं के अध्ययन को ही समाजशास्त्र कहा जा सकता है।” 4. गिन्सबर्ग (Ginesbarg) ने कहा है, “समाजशास्त्र मानवीय अंतःक्रियाओं तथा अंतर्संबंधों, उनके कारणों और परिणामों का अध्ययन है।”
5. जॉनसन (Johnson) का कथन है, “समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का विज्ञान है-सामाजिक समूह सामाजिक अंतःक्रियाओं की ही एक व्यवस्था है।”
6. मैक्स वेबर (Max Weber) के शब्दों में, “समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रियाओं का व्याख्यात्मक बोध करवाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि ‘समाजशास्त्र’ एक ऐसा विषय है जो समाज का वैज्ञानिक अध्ययन या चिंतन करता है। यह समाज में मानवीय व्यवहार का भी चिंतन करता है।

शारीरिक शिक्षा एवं खेलों में समाजशास्त्र की महत्ता (Importance of Sociology in Physical Education and Sports):
खेल समाज का दर्पण कहलाती हैं। वर्तमान समय में किसी देश या राष्ट्र की सर्वोच्चता उसके द्वारा ओलंपिक तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों में जीते गए पदकों में झलकती है। इसी कारण भारत सहित प्रत्येक देश अधिकतम संख्या में पदक जीतने की होड़ में शामिल हैं। समाजशास्त्र की शारीरिक शिक्षा तथा खेलों में महत्ता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) समाजशास्त्र शारीरिक शिक्षा तथा खेलों का वैज्ञानिक अध्ययन करने में सहायक है। चूँकि समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है और शारीरिक शिक्षा और खेल समाज के अभिन्न अंग हैं, इसलिए दोनों एक-दूसरे से संबंधित हैं। इसलिए हम समाजशास्त्र में अपनाए गए वैज्ञानिक साधनों तथा ढंगों की सहायता इनको समझने हेतु ले सकते हैं।

(2) यह शारीरिक शिक्षा तथा खेलों को समाज की एक महत्त्वपूर्ण संस्था के रूप में अध्ययन करने में सहायता करता है। आधुनिक समय में खेलें संस्थागत बन गई हैं जो समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

(3) यह शारीरिक शिक्षा तथा खेलों द्वारा समाज को दी गई नई दिशा के योगदान को समझने में हमारी सहायता करता है। चूंकि यह समाज की समझ तथा नियोजन से संबंधित है।

(4) यह व्यक्ति की महिमा तथा गरिमा से संबंधित है और शारीरिक शिक्षा तथा खेल व्यक्ति की महिमा तथा गरिमा में वृद्धि करने के यंत्र हैं।

(5) यह शारीरिक शिक्षा तथा खेलों द्वारा बच्चों की समस्याओं तथा खिलाड़ियों की अनियमितताओं को दूर करने में सहायता करता है।

(6) समाजशास्त्र मानवता या समाज की सांस्कृतिक विरासत के अध्ययन को समझने में मदद करता है।

(7) शारीरिक शिक्षा तथा खेल समाजशास्त्र से बहुत-से शिक्षाप्रद साधन तथा ढंग ग्रहण करती हैं ताकि उनका प्रयोग समाज के हित के लिए किया जाए।

(8) यह सामूहिक मनोबल तथा सामूहिक एकता को बढ़ाने में सहायक होता है जिससे खेलों में मदद मिलती है।

(9) यह सामाजिक गुणों; जैसे ईमानदारी, आत्म-संयम, सहनशीलता, सद्भाव आदि को विकसित करने में सहायक होता है। इन गुणों का खेल के क्षेत्र में विशेष महत्त्व है।

(10) यह उचित मार्गदर्शन प्रदान करने में भी हमारी मदद करता है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 2.
सामाजीकरण क्या है? शारीरिक शिक्षा की सामाजीकरण की प्रक्रिया में क्या उपयोगिता है?
अथवा
सामाजीकरण को परिभाषित करें। शारीरिक शिक्षा व खेलों में सामाजीकरण के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
सामाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Socialization):
सामाजीकरण एक ऐसी धारणा है जिससे व्यक्ति अपने समुदाय या वर्ण का सदस्य बनकर उसकी परंपराओं व कर्तव्यों का पालन करता है। वह स्वयं को सामाजिक वातावरण के अनुरूप ढालना सीखता है। सामाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को स्वीकार करता है और उनसे अनुकूलन करना भी सीखता है। विभिन्न विद्वानों ने सामाजीकरण की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं

1.गिलिन व गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार, “सामाजीकरण से हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह में एक क्रियाशील सदस्य बनता है, समूह की कार्य-विधियों से समन्वय स्थापित करता है, इसकी परंपराओं का ध्यान रखता है और सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन करके अपने साथियों के प्रति सहनशक्ति की भावना को विकसित करता है।”

2. प्रो० ए० डब्ल्यू० ग्रीन (Prof. A. W. Green) के अनुसार, “सामाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सांस्कृतिक विशेषताओं और आत्म-व्यक्तित्व को प्राप्त करता है।”

3. जॉनसन (Johnson) के अनुसार, “सामाजीकरण एक प्रकार की शिक्षा है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने के योग्य बना देती है।”

4. अरस्तू (Aristotle) के अनुसार, “सामाजीकरण संस्कृति के बचाव के लिए सामाजिक मूल्यों को प्राप्त करने की प्रक्रिया है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सामाजीकरण की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण तीन पक्षों पर आधारित है-
(1) जीव रचना (Organism),
(2) व्यक्ति (Human Being),
(3) समाज (Society)।

शारीरिक शिक्षा व खेलों में सामाजीकरण का महत्त्व (Importance of Socialization in Physical Education and Sports):
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, क्योंकि वह जीवन-भर अपने ही जैसे आचार-विचार रखने वाले जीवों के बीच रहता है। सामाजीकरण की सहायता से मनुष्य अपनी पशु-प्रवृत्ति से ऊपर उठकर सभ्य मनुष्य का स्थान ग्रहण करता है। शिक्षा द्वारा उसके व्यक्तित्व में संतुलन स्थापित हो जाता है। सामाजीकरण के माध्यम से वह अपने निजी हितों को समाज के हितों के लिए न्योछावर करने को तत्पर हो जाता है। उसमें समाज के प्रति उत्तरदायित्व की भावना विकसित हो जाती है और वह समाज का सक्रिय सदस्य बन जाता है।

शारीरिक शिक्षा सामाजीकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। विद्यार्थी खेल के मैदान में अपनी टीम के हितों को सम्मुख रखकर खेल के नियमों का भली-भाँति पालन करते हुए खेलते हैं। वे पूरी लगन से खेलते हुए अपनी टीम को विजय-प्राप्ति के लिए पूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं। वे हार-जीत को एक-समान समझने के योग्य हो जाते हैं और उनमें सहनशीलता व धैर्यता का गुण विकसित हो जाता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक पीढ़ी आगामी पीढ़ियों के लिए खेल-संबंधी कुछ नियम व परंपराएँ छोड़ जाती है, जो विद्यार्थियों को शारीरिक शिक्षा के माध्यम से परिचित करवाई जाती हैं।

ज़िला, राज्य, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिताओं में समाज की विभिन्न श्रेणियों से आकर खिलाड़ी भाग लेते हैं। इन अवसरों पर उन्हें परस्पर मिलकर रहने, इकट्ठे भोजन करने तथा विचारों का आदान-प्रदान करने का अवसर प्राप्त होता है। वे यह बात भूल जाते हैं कि उनका संबंध किस समाज या राष्ट्र से है। खिलाड़ियों के लिए प्रतियोगिता के समय खेल-भावना कायम रखना आवश्यक होता है। खिलाड़ी एक ऐसी भावना से ओत-प्रोत हो जाते हैं जो उन्हें सामाजीकरण एवं मानवता के उच्च शिखरों तक ले जाती है। शारीरिक शिक्षा अनेक सामाजिक गुणों; जैसे आत्म-विश्वास, आत्म-अभिव्यक्ति, आत्म-संयम, भावनाओं पर नियंत्रण, नेतृत्व की भावना, चरित्र-निर्माण, सहयोग की भावना व बंधुत्व आदि का विकास करने में उपयोगी होती है। अतः शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के सामाजीकरण में उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 3.
शारीरिक शिक्षा अथवा खेल व स्पर्धा किस तरह से सामाजिक मूल्यों को बढ़ावा देते हैं? वर्णन करें।
अथवा
उन सामाजिक गुणों का वर्णन करें, जिन्हें शारीरिक शिक्षा के माध्यम से उन्नत किया जा सकता है।
अथवा
शारीरिक शिक्षा, सामाजिक मूल्यों को किस प्रकार बढ़ाती है?
अथवा
“सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, सहनशीलता और धैर्यता शारीरिक शिक्षा के सकारात्मक/धनात्मक प्रभाव हैं।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
अथवा
शारीरिक शिक्षा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, सहनशीलता, सहयोग व धैर्यता बढ़ाने में किस प्रकार आवश्यक है? वर्णन करें।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा का सामाजीकरण में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है। खिलाड़ी खेल के दौरान खेल के नियमों का पालन करता है, खेल में टीम के बाकी सदस्यों को सहयोग देता है और जीत-हार को बराबर समझकर अच्छे खेल का प्रदर्शन करता है। इससे उसमें समाज के आवश्यक गुण विकसित होते हैं। शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य खिलाड़ी या व्यक्ति में ऐसे सामाजिक मूल्यों को विकसित करना है जिससे समाज में रहते हुए वह सफलता से जीवनयापन करते हुए जीवन का पूरा आनंद उठा सके। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से निम्नलिखित सामाजिक गुणों या मूल्यों को उन्नत या प्रोत्साहित किया जा सकता है

1. व्यवहार में परिवर्तन (Change in Behaviour):
खेल या शारीरिक शिक्षा मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन लाती है। खेल मनुष्य की बुरी प्रवृत्तियों को बाहर निकालकर उसमें सहयोग, अनुशासन, नियमों का पालन करना और बड़ों का कहना मानना आदि जैसे गुण विकसित करते हैं। खेलों द्वारा व्यवहार में आए परिवर्तन जीवन के साथ-साथ चलते हैं।

2. त्याग की भावना (Feeling of Sacrifice):
शारीरिक शिक्षा से त्याग की भावना पैदा होती है। खेलों में कई तरह की मुश्किलें आती हैं। खिलाड़ी अपनी मुश्किलों को भूलकर टीम की खातिर बड़े-से-बड़ा त्याग करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस तरह खिलाड़ी में त्याग की भावना पैदा होने के कारण वह समाज के दूसरे सदस्यों के प्रति हमदर्दी का व्यवहार रखता है।

3. तालमेल की भावना (Feeling of Co-ordination):
शारीरिक शिक्षा व खेलों से खिलाड़ी एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं। जब खिलाड़ी अपने राज्य या दूसरे राज्यों में खेलने के लिए जाते हैं तो वे आपसी मेल-मिलाप और अच्छे संबंध बनाकर, उनकी भाषा और संस्कृति को जानते हैं। इस तरह खिलाड़ियों में तालमेल की भावना जागरूक होती है।

4.सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार में वृद्धि (Increase in Sympathize Behaviour):
खेल के दौरान यदि कोई खिलाड़ी घायल हो जाता है तो दूसरे सभी खिलाड़ी उसके प्रति हमदर्दी की भावना रखते हैं। ऐसा हॉकी अथवा क्रिकेट खेलते समय देखा भी जा सकता है। जब भी किसी खिलाड़ी को चोट लगती है तो सभी खिलाड़ी हमदर्दी प्रकट करते हुए उसकी सहायता के लिए दौड़ते हैं । यह गुण व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। .

5.सहनशीलताव धैर्यता में वृद्धि (Increase in Tolerance and Patience):
मानव के समुचित विकास के लिए सहनशीलता व धैर्यता अत्यन्त आवश्यक मानी जाती है। जिस व्यक्ति में सहनशीलता व धैर्यता होती है वह स्वयं को समाज में भली-भाँति समायोजित कर सकता है। शारीरिक शिक्षा अनेक ऐसे अवसर प्रदान करती है जिससे उसमें इन गुणों को बढ़ाया जा सकता है।

6. अनुशासन की भावना (Feeling of Discipline):
अनुशासन को शारीरिक शिक्षा की रीढ़ की हड्डी कहा जा सकता है। अनुशासन की सीख द्वारा शारीरिक शिक्षा न केवल व्यक्ति के विकास में सहायक है, बल्कि यह समाज को अनुशासित नागरिक प्रदान करने में भी सक्षम है।

7. सहयोग की भावना (Feeling of Co-operation):
समाज में रहकर हमें एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य करना पड़ता है। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से सहयोग की भावना में वृद्धि होती है। सामूहिक खेलों या गतिविधियों से व्यक्तियों या खिलाड़ियों में सहयोग की भावना बढ़ती है। यदि कोई खिलाड़ी अपने सहयोगी खिलाड़ियों से सहयोग नहीं करेगा तो उसका नुकसान न केवल उसको होगा बल्कि पूरी टीम को होगा। शारीरिक शिक्षा इस भावना को सुदृढ़ करने में सहायक होती है।

8. चरित्र-निर्माण में सहायक (Helpful in Character Formation):
शारीरिक शिक्षा चरित्र-निर्माण में भी सहायक है। यह व्यक्ति में अनेक नैतिक, मूल्य-बोधक, सामाजिक गुणों को बढ़ाने में सहायक होती है। यह व्यक्ति को अच्छा चरित्रवान नागरिक बनाने में सहायक होती है।

9.सामूहिक उत्तरदायित्व (Collective Responsibility):
शारीरिक शिक्षा खिलाड़ी में सामूहिक उत्तरदायित्व जैसे गुण पैदा करती है। खेलों में बहुत-सी ऐसी क्रियाएँ हैं जिनमें खिलाड़ी एक-जुट होकर इन क्रियाओं को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 4.
विभिन्न सामाजिक संस्थाओं का व्यक्ति व समूह व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है? पुष्टि कीजिए।
अथवा
सामाजिक मूल्यों को विकसित करने वाली विभिन्न सामाजिक संस्थाओं की भूमिका का वर्णन करें।
अथवा
व्यक्तिगत व समूह व्यवहार को सामाजिक संस्थाएँ किस प्रकार प्रभावित करती हैं? वर्णन कीजिए।
अथवा
उन सामाजिक संस्थाओं का वर्णन करें जिनमें हम सामाजिक मूल्यों को विकसित कर सकते हैं।
उत्तर:
विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के व्यक्ति एवं समूह व्यवहार पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं
1. परिवार (Family):
परिवार सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है। बच्चा इसी संस्था में जन्म लेता है और इसी में पलता है। परिवार में बच्चा अपने माता-पिता तथा भाई-बहनों से सामाजीकरण का प्रथम पाठ पढ़ता है। परिवार में माता-पिता और दूसरे सदस्यों के आपसी संबंध, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ, पारिवारिक मूल्य और परंपराएँ बच्चों के व्यवहार पर गहरा प्रभाव डालती हैं। इसलिए कहते हैं कि परिवार में अच्छे वातावरण का होना बहुत आवश्यक है। अगर परिवार में सदस्यों के आपसी संबंध ठीक न हों, तनाव बना रहता हो तथा सभी सदस्यों की प्राथमिक जरूरतें पूरी न होती हों तो बच्चे बुरी आदतों के शिकार हो सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि परिवार में माता-पिता अच्छे वातावरण का निर्माण करें जिससे बच्चे में अच्छे गुणों व आदतों का विकास हो सके।

परिवार एक ऐसी संस्था है जो अपने सदस्यों को विशेषकर बच्चों को समाज के रहन-सहन एवं खाने-पीने के ढंग सिखाती है। यह वह स्थान है जहाँ पर बच्चा अपने आने वाले जीवन के लिए स्वयं को तैयार करता है। इसीलिए कहा जाता है कि बच्चों को बनाने या बिगाड़ने में माता-पिता का काफी हाथ होता है। अगर परिवार को व्यक्तित्व निखारने की संस्था कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। आमतौर पर यह देखने में आया है कि जिस परिवार की रुचि संगीत कला, नृत्य-कला, खेलकूद या किसी और विशेष क्षेत्र में होती है, उस परिवार के बच्चे की रुचि प्राकृतिक रूप से उसी क्षेत्र में हो जाती है। अगर परिवार की रुचि खेलकूद के क्षेत्र में या किसी विशेष खेल में है तो उस परिवार में बढ़िया खिलाड़ी पैदा होना या उस खेल के प्रति दिलचस्पी रखना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। इस प्रकार परिवार व्यक्तिगत व समूह व्यवहार को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

2. धार्मिक संस्थाएँ (Religious Institutions):
आज से कुछ समय पहले विद्यालयों में अधिक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थीं। बहुत-से लोग धार्मिक संस्थाओं में ही विद्या प्राप्त करते थे। चाहे वह विद्या आगे बढ़ने में इतनी सहायक नहीं होती थी परंतु मनुष्य में सकारात्मक सोच लाने के लिए काफी थी। परंतु आज के युग में स्कूल तथा कॉलेज खुलने से विद्या का स्वरूप ही बदल गया है। चाहे अब विद्या धार्मिक संस्थानों में नहीं दी जाती, पर फिर भी धार्मिक संस्थाएँ व्यक्ति के जीवन पर बहुत प्रभाव डालती हैं। धार्मिक संस्थानों में जाकर व्यक्ति कई अच्छे नैतिक गुण सीखता है। धार्मिक संस्थाओं में महापुरुषों की कहानियाँ सुनने के कारण वे अपने-आपको उन जैसा बनाने की कोशिश करते हैं।

धार्मिक संस्थाओं का मानवीय व्यवहार पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ये संस्थाएँ प्रत्येक धर्म का सम्मान करना, प्रत्येक धर्म के अच्छे गुणों को अपनाना, प्रत्येक मनुष्य से अच्छा व्यवहार करना, भगवान की रज़ा में रहना, सत्य बोलना, चोरी न करना, बड़ों का आदर करना, महिलाओं का सम्मान करना, हक की कमाई में विश्वास करना और जरूरतमंदों व गरीबों की सहायता करना आदि अच्छी आदतें सिखाती हैं।

3.शैक्षिक संस्थाएँ (Educational Institutions):
संस्था के रूप में शैक्षिक संस्थाएँ बच्चे के सामाजीकरण पर प्रभाव डालती हैं। इन संस्थाओं का बच्चों या मनुष्य के व्यवहार पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। अगर बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़ता है तो उसका प्रभाव अच्छा पड़ता है। स्कूल का अनुशासन, स्वच्छ वातावरण तथा अच्छे अध्यापकों का बच्चे पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आज के युग में प्रत्येक माता-पिता हर स्थिति में अपने बच्चे को अच्छी-से-अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते हैं। इस तरह शैक्षिक संस्थाओं का बच्चों या छात्रों के विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि शैक्षिक संस्थाओं का वातावरण अच्छा है तो उनमें अच्छे गुण विकसित होंगे और यदि इन संस्थाओं का वातावरण अच्छा न हो, तो वे अच्छे गुणों से वंचित रह जाएँगे।

4.समुदाय या समूह (Society or Group):
बच्चा परिवार के बाद समुदाय या समूह के संपर्क में आता है। समुदाय या समूह में जिस तरह का वातावरण और परंपराएँ होंगी, बच्चे का ध्यान उस तरफ ही हो जाता है। अगर समुदाय में खेलों का वातावरण होगा तो बच्चा जरूर खेलों में रुचि लेने लगेगा। इस तरह कई खेल समुदाय से जुड़े हुए हैं; जैसे कि बंगाली फुटबॉल और पंजाबी हॉकी खेलना अधिक पसंद करता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि हर अच्छी-बुरी चीज़ का व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है। अगर वह अच्छे समुदाय में रह रहा है तो उस पर अच्छा असर पड़ता है। अगर वह बुरे समुदाय में रह रहा है तो उस पर बुरा असर पड़ेगा। इस तरह समुदाय या समूह व्यक्ति व समूह व्यवहार पर गहरी छाप छोड़ता है।

5. राष्ट्र (Nation):
हम लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्ष देश के निवासी हैं। इसलिए हमारी हर संस्था लोकतांत्रिक है। इसका हमारे व्यक्तित्व व समूह व्यवहार पर गहरा प्रभाव है। हमारे देश में हर प्रकार की आज़ादी है। कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को अपना सकता है। जिस तरह का काम करना चाहता है, कर सकता है। उसको कोई नहीं रोक सकता। केवल परिवार, शैक्षिक संस्थाएँ, समुदाय और धार्मिक संस्थाएँ ही व्यक्ति व समूह व्यवहार पर असर नहीं डालतीं बल्कि राष्ट्र का भी उन पर गहरा असर पड़ता है।

जिस देश में जिस प्रकार की सरकार और उसकी सोच होगी, उसी प्रकार देश के समूचे लोगों पर उसका प्रभाव होगा। अगर देश लोकतांत्रिक है, तो वहाँ के लोग स्वतंत्र निर्णय लेने वाले, प्रत्येक धर्म को मानने वाले, मिल-जुलकर रहने वाले तथा प्रत्येक जाति, रंग, धर्म का सम्मान करने वाले होंगे। परंतु जहाँ पर तानाशाही सरकार होती है, वहाँ के लोगों की सोच संकीर्ण होती है। इसीलिए जिस प्रकार का राष्ट्र होता है, उसी प्रकार का ही लोगों का रहन-सहन और सोच-शक्ति होती है । अतः राष्ट्र का व्यक्तियों के व्यवहार पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सामाजिक संगठनों का व्यक्तिगत तथा सामूहिक व्यवहार पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 5.
संस्कृति को परिभाषित करें। खेलकूद व स्पर्धाओं द्वारा सांस्कृतिक विरासत को विभिन्न देशों ने कैसे बनाए रखा?
अथवा
संस्कृति किसे कहते हैं? विभिन्न देशों ने खेल व स्पर्धाओं में सांस्कृतिक विरासत कैसे प्राप्त की?
अथवा
सांस्कृतिक विरासत को खेल व स्पोर्ट्स द्वारा बताइए।
उत्तर:
संस्कृति का अर्थ व परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Culture):
मनुष्य जहाँ प्राकृतिक वातावरण में अनेक सुविधाओं का उपभोग करता है तो दूसरी ओर उसे अनेक असुविधाओं या बाधाओं का सामना भी करना पड़ता है। आदिकाल से अब तक इन बाधाओं के समाधानों के अनेक उपाय भी खोजे गए हैं। इन खोजे गए उपायों को मनुष्य ने भावी पीढ़ी को भी हस्तांतरित किया। प्रत्येक पीढ़ी ने अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान व कला का और अधिक विकास किया है और नवीन ज्ञान व अनुभवों का भी अर्जन किया है। इस प्रकार के ज्ञान व अनुभव के अंतर्गत प्रथाएँ, विचार व मूल्य आते हैं, इन्हीं के संग्रह को संस्कृति कहा जाता है। अत: संस्कृति एक विशाल शब्द है जो किसी भी देश के समाज, संप्रदाय, धर्म को दर्शाती है। संस्कृति किसी भी देश की कला की छवि, ज्ञान, भाव, विचार, शक्ति तथा सामाजिक योग्यता को उभारती है। विद्वानों ने संस्कृति को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है
1. रॉबर्ट बीरस्टीड (Robert Bierstedt) के अनुसार, “संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है जिसमें वे सभी वस्तुएँ शामिल हैं जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं।”
2. टेलर (Taylor) के अनुसार, “संस्कृति में वे सभी जटिलताएँ जैसे कि ज्ञान, विश्वास कला, कानून तथा वे सभी योग्यताएँ पाई जाती हैं जो व्यक्ति को समाज में रहने के लिए आवश्यक होती हैं।”
3. मैथ्यू (Mathew) का कहना है, “किसी भी देश की समृद्धि का गवाह उसकी संस्कृति है।”
4. मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के शब्दों में, “संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनंद में पाए जाने वाले रहन-सहन और विचार के ढंगों में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।”

खेलवस्पर्धाओं द्वारा सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritage Through Games and Sports):
हमारे जीवन में खेलकूद का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि पृथ्वी पर मानव-जीवन।शारीरिक गतिविधियों का दूसरा नाम ही खेलकूद है। ये गतिविधियाँ ही मानव-जीवन की आधार हैं। जब से मनुष्य ने इस पृथ्वी पर जन्म लिया है तभी से वह विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ करता आया है। प्राचीन युग में हमारे पूर्वजों की अनेक गतिविधियाँ आत्मरक्षा के लिए होती थीं, जिनमें भागना, शिकार करना, भाले का प्रयोग करना, तीर चलाना आदि प्रमुख थीं। संस्कृति किसी भी देश की विरासत हो सकती है। सभी देश अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने का प्रयत्न करते हैं क्योंकि संस्कृति विरासत हर देश का गर्व होती है। खेलों को भी संस्कृति माना जाता है तथा कुछ देशों ने तो खेलों को अपनी सांस्कृतिक विरासत माना है।

सांस्कृतिक विरासत का अर्थ उचित परिवर्तनों के साथ मूल्यों, परंपराओं और प्रथाओं आदि का भूत से वर्तमान तक तथा वर्तमान से भविष्य में स्थानांतरण करना है। सांस्कृतिक विरासत प्रत्येक राष्ट्र का गौरव है। कुछ राष्ट्र शारीरिक गतिविधियों या क्रीड़ाओं को संस्कृति का रूप मानते हैं और कुछ सांस्कृतिक विरासत के रूप में देखते हैं। हमारे पूर्वज इन क्रियाओं में अपने बच्चों को निपुण बनाना अपना धर्म समझते थे और इन्हें जीवन का अभिन्न अंग मानते थे। इस प्रकार के प्रयास के कारण हमारे पूर्वज जो क्रियाएँ करते थे वे आधुनिक युग में किसी-न-किसी रूप में अभी भी प्रचलित हैं। विभिन्न देशों ने खेल व स्पर्धाओं में सांस्कृतिक विरासत को निम्नलिखित प्रकार से प्राप्त किया है

1. ग्रीस/यूनान (Greece):
यूनानी सभ्यता सबसे पुरानी सभ्यता है। यूनान के लोग खेल-प्रेमी थे। उनकी खेलों में विशेष रुचि थी। खेलकूद को सर्वप्रथम मान्यता और प्राथमिकता इसी देश ने प्रदान की। उन्होंने खेलों के महत्त्व को समझा और इन्हें प्रोत्साहित किया। प्राचीन व आधुनिक ओलंपिक खेलों की शुरुआत भी इसी देश से हुई। यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने कहा था, “शरीर के लिए जिम्नास्टिक तथा आत्मा के लिए संगीत का विशेष महत्त्व है।”

2. रोम (Rome):
रोम के लोग कुशल योद्धा तथा खेल-प्रेमी थे। वे तलवार चलाना, दौड़ना, कुश्ती लड़ना, कूदना आदि गतिविधियों में विशेष रुचि लेते थे। लेकिन धीरे-धीरे रोम से खेल गतिविधियों का पतन होने लगा। ये गतिविधियाँ आनंद व मस्ती हेतु खेली जाने लगीं। लेकिन वर्तमान में रोम में खेलकूद गतिविधियों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है।

3. इंग्लैंड (England):
इंग्लैंड को आधुनिक बॉलगेम्स का जन्मदाता कहा जाता है । इंग्लैंड की संस्कृति ने हमें बहुत-सी खेल स्पर्धाएँ दी हैं जो वर्तमान में काफी लोकप्रिय हैं; जैसे फुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट, कुश्ती आदि।

4. अमेरिका (America): अमेरिका ने विश्व को विभिन्न खेलों से परिचित करवाया है। अमेरिका ने ही हमें बेसबॉल और वॉलीबॉल जैसी खेलों का ज्ञान दिया।

5. भारत (India):
खेलकूद की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है। प्राचीनकाल में शिष्य अपने गुरुओं से धार्मिक ग्रंथों तथा दर्शनशास्त्र का अध्ययन करने के अतिरिक्त युद्ध एवं खेल कौशल में भी प्रशिक्षण प्राप्त करते थे। इनमें मुख्य रूप से तीरंदाजी, घुड़सवारी, भाला फेंकना, तलवार चलाना, मल्लयुद्ध आदि क्रियाएँ सम्मिलित थीं। भगवान श्रीकृष्ण, कर्ण, अर्जुन आदि धनुर्विद्या में कुशल थे। भीम एक महान् पहलवान था। दुर्योधन मल्लयुद्ध में कुशल था। इसी प्रकार चौपड़, शतरंज, खो-खो, कुश्ती और कबड्डी आदि खेलों का उल्लेख भी भारतीय इतिहास में मिलता है। आधुनिक भारत में भी खेलों की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। क्रिकेट यहाँ बहुत लोकप्रिय खेल बन गया है।

6. अन्य देश (Other Countries):
खेल जगत् में जर्मनी का भी विशेष योगदान है। जर्मनी ने हमें आधुनिक जिम्नास्टिक खेल सिखाए हैं। इसी प्रकार स्वीडन तथा डेनमार्क ने जिम्नास्टिक के साथ संगीत पद्धति द्वारा चिकित्सा प्रणाली विकसित की। चीन ने हमें डाइविंग तथा जापान ने जूडो व ताइक्वांडो जैसी खेलों से परिचित करवाया।

निष्कर्ष (Conclusion):
यूनान (Greece) ने खेलों के महत्त्व को समझते हुए खेलकूद को शिक्षा के रूप में सबसे पहले मान्यता प्रदान की और बच्चों को इनके प्रति उत्साहित किया। सभी खेलें हमें अपने पूर्वजों से ही प्राप्त हुई हैं और हमारी संस्कृति पर प्रकाश डालती हैं। खेल जगत् की नई-नई खेलों ने हमारे जीवन को प्रभावित किया। इनमें निरन्तर परिवर्तन और सुधार होता रहा है। वर्तमान युग में ये खेलें वैज्ञानिक ढंग से खेली और सिखाई जा रही हैं । इन खेलों को आधुनिक स्वरूप धारण करने के लिए एक लम्बे समय की लम्बी यात्रा तय करनी पड़ी है।

हमारे खेल जगत् की गतिविधियाँ थोड़े समय की पैदाइश नहीं हैं अपितु इन्हें यह रूप धारण करने के लिए मीलों लम्बा रास्ता तय करना पड़ा है। ये खेलें एक लम्बे समय के संघर्ष की देन हैं और हमें पूर्वजों से विरासत के रूप में प्राप्त हुई हैं। ये खेल हमारे समाज का न केवल सांस्कृतिक अंग हैं, अपितु प्रतिष्ठा का प्रतीक भी बन चुके हैं। खेलें एक प्रकार से हमारी सांस्कृतिक धरोहर या बपौती हैं।

प्रश्न 6.
शारीरिक शिक्षा से आप क्या समझते हैं? इसके लक्ष्यों एवं उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए।
अथवा
शारीरिक शिक्षा को परिभाषित कीजिए। इसके लक्ष्यों का वर्णन कीजिए।
अथवा
शारीरिक शिक्षा का अर्थ तथा परिभाषा लिखें। इसके उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Physical Education):
शारीरिक शिक्षा, शिक्षा का वह अभिन्न अंग है, जो खेलकूद तथा अन्य शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से व्यक्ति में एक चुनी हुई दिशा में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है। इससे केवल बुद्धि तथा शरीर का ही विकास नहीं होता, बल्कि यह व्यक्ति के स्वभाव, चरित्र एवं आदतों के निर्माण में भी सहायक होती है अर्थात् शारीरिक शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के संपूर्ण (शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक आदि) व्यक्तित्व का विकास होता है। शारीरिक शिक्षा ऐसी शिक्षा है जो वैयक्तिक जीवन को समृद्ध बनाने में प्रेरक सिद्ध होती है। शारीरिक शिक्षा, शारीरिक विकास के साथ शुरू होती है और मानव-जीवन को पूर्णता की ओर ले जाती है, जिसके परिणामस्वरूप वह एक हृष्ट-पुष्ट और मजबूत शरीर, अच्छा स्वास्थ्य, मानसिक, सामाजिक एवं भावनात्मक संतुलन रखने वाला व्यक्ति बन जाता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी प्रकार की चुनौतियों अथवा परेशानियों से प्रभावी तरीके से लड़ने में सक्षम होता है। शारीरिक शिक्षा के विषय में विभिन्न शारीरिक शिक्षाशास्त्रियों के विचार निम्नलिखित हैं
1.सी० सी० कोवेल (C.C.Cowell) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा व्यक्ति-विशेष के सामाजिक व्यवहार में वह परिवर्तन है जो बड़ी माँसपेशियों तथा उनसे संबंधित गतिविधियों की प्रेरणा से उपजता है।”
2.जे० बी० नैश (J. B. Nash) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा, शिक्षा के संपूर्ण क्षेत्र का वह भाग है जो बड़ी माँसपेशियों से होने वाली क्रियाओं तथा उनसे संबंधित प्रतिक्रियाओं से संबंध रखता है।”
3. ए० आर० वेमैन (A. R: Wayman) के मतानुसार, “शारीरिक शिक्षा, शिक्षा का वह भाग है जिसका संबंध शारीरिक गतिविधियों द्वारा व्यक्ति के संपूर्ण विकास एवं प्रशिक्षण से है।”
4. आर० कैसिडी (R. Cassidy) के अनुसार, “शारीरिक क्रियाओं पर केंद्रित अनुभवों द्वारा जो परिवर्तन मानव में आते हैं, वे ही शारीरिक शिक्षा कहलाते हैं।”
5. जे० एफ० विलियम्स (J. F. Williams) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा मनुष्य की उन शारीरिक क्रियाओं को कहते हैं, जो किसी विशेष लक्ष्य को लेकर चुनी और कराई गई हों।”
6. सी० एल० ब्राउनवेल (C. L. Brownwell) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा उन परिपूर्ण एवं संतुलित अनुभवों का जोड़ है जो व्यक्ति को बहु-पेशीय प्रक्रियाओं में भाग लेने से प्राप्त होते हैं तथा उसकी अभिवृद्धि और विकास को चरम-सीमा तक बढ़ाते हैं।”
7. निक्सन व कोजन (Nixon and Cozan) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा, शिक्षा की पूर्ण क्रियाओं का वह भाग है जिसका संबंधशक्तिशाली माँसपेशियों की क्रियाओं और उनसे संबंधित क्रियाओं तथा उनके द्वारा व्यक्ति में होने वाले परिवर्तनों से है।”
8. डी०ऑबरटियूफर (D.Oberteuffer) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा उन अनुभवों का जोड़ है जो व्यक्ति की शारीरिक गतिविधियों से प्राप्त हुई है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि शारीरिक शिक्षा, शिक्षा का वह महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी पहलू है जिसमें शारीरिक गतिविधियों या व्यायामों द्वारा व्यक्ति के विकास के प्रत्येक पक्ष प्रभावित होते हैं। यह व्यक्ति के व्यवहार और दृष्टिकोण में आवश्यक परिवर्तन करती है। इसका उद्देश्य न केवल व्यक्ति का शारीरिक विकास है, बल्कि यह मानसिक विकास, सामाजिक विकास, भावनात्मक विकास, बौद्धिक विकास, आध्यात्मिक विकास एवं नैतिक विकास में भी सहायक होती है अर्थात् यह व्यक्ति का संपूर्ण या सर्वांगीण विकास करती है।

शारीरिक शिक्षा के लक्ष्य (Aims of Physical Education):
शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य विद्यार्थी को इस प्रकार तैयार करना है कि वह एक सफल एवं स्वस्थ नागरिक बनकर अपने परिवार, समाज व राष्ट्र की समस्याओं का समाधान करने की क्षमता या योग्यता उत्पन्न कर सके और समाज का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनकर सफलता से जीवनयापन करते हुए जीवन का पूरा आनंद उठा सके। विभिन्न विद्वानों के अनुसार शारीरिक शिक्षा के लक्ष्य निम्नलिखित हैं

1.जे० एफ० विलियम्स (J. F. Williams) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य एक प्रकार का कुशल नेतृत्व तथा पर्याप्त समय प्रदान करना है, जिससे व्यक्तियों या संगठनों को इसमें भाग लेने के लिए पूरे-पूरे अवसर मिल सकें, जो शारीरिक रूप से आनंददायक, मानसिक दृष्टि से चुस्त तथा सामाजिक रूप से निपुण हों।”

2.जे० आर० शर्मन (J. R. Sherman) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य है कि व्यक्ति के अनुभव को इस हद तक प्रभावित करे कि वह अपनी क्षमता से समाज में अच्छे से रह सके, अपनी जरूरतों को बढ़ा सके, उन्नति कर सके तथा अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए सक्षम हो सके।”

3. केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय (Central Ministry of Education) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा को प्रत्येक बच्चे को शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक रूप से स्वस्थ बनाना चाहिए और उसमें ऐसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक गुणों का विकास करना चाहिए ताकि वह दूसरों के साथ प्रसन्नता व खुशी से रह सके और एक अच्छा नागरिक बन सके।”

दिए गए तथ्यों या परिभाषाओं का अध्ययन करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। इसके लक्ष्य पर प्रकाश डालते हुए जे०एफ० विलियम्स (J.F. Williams) ने भी कहा है कि “शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है।”

शारीरिक शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Physical Education)-शारीरिक शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं
1. शारीरिक विकास (Physical Development):
शारीरिक शिक्षा संबंधी क्रियाएँ शारीरिक विकास का माध्यम हैं। शारीरिक क्रियाएँ माँसपेशियों को मजबूत करने, रक्त का बहाव ठीक रखने, पाचन-शक्ति में बढ़ोतरी करने और श्वसन क्रिया को ठीक रखने में सहायक होती हैं । शारीरिक क्रियाएँ न केवल भिन्न-भिन्न प्रणालियों को स्वस्थ और ठीक रखती हैं, बल्कि उनके आकार, शक्ल
और कुशलता में भी बढ़ोतरी करती हैं। शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को शारीरिक तौर पर स्वस्थ बनाना और उसके व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू को निखारना है।

2. गतिज विकास (Motor Development):
शारीरिक शिक्षा संबंधी क्रियाएँ शरीर में ज्यादा-से-ज्यादा तालमेल बनाती हैं। अगर शारीरिक शिक्षा में उछलना, दौड़ना, फेंकना आदि क्रियाएँ न हों तो कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं किया जा सकता। मानवीय शरीर में सही गतिज विकास तभी हो सकता है जब नाड़ी प्रणाली और माँसपेशीय प्रणाली का संबंध ठीक रहे। इससे कम थकावट और अधिक-से-अधिक कुशलता प्राप्त करने में सहायता मिलती है।

3. भावनात्मक विकास (Emotional Development):
शारीरिक शिक्षा कई प्रकार के ऐसे अवसर पैदा करती है, जिनसे शरीर का भावनात्मक या संवेगात्मक विकास होता है । खेल में बार-बार जीतना या हारना दोनों हालातों में भावनात्मक पहलू प्रभावित होते हैं। इससे खिलाड़ियों में भावनात्मक स्थिरता उत्पन्न होती है। इसलिए उन पर जीत-हार का बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता। शारीरिक शिक्षा खिलाड़ियों को अपनी भावनाओं पर काबू रखना सिखाती है।

4. सामाजिक व नैतिक विकास (Social and Moral Development):
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में मिल-जुलकर रहना पड़ता है। शारीरिक शिक्षा कई प्रकार के ऐसे अवसर प्रदान करती है, जिससे खिलाड़ियों के सामाजिक व नैतिक विकास हेतु सहायता मिलती है; जैसे उनका एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहना, एक-दूसरे का सम्मान करना, दूसरों की आज्ञा का पालन करना, नियमों का पालन करना, सहयोग देना, एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना आदि।

5. मानसिक विकास (Mental Development):
शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक विकास भी होता है। जब बालक या खिलाड़ी शारीरिक क्रियाओं में भाग लेता है तो इनसे उसके शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक विकास में भी बढ़ोतरी होती है।

6. सांस्कृतिक विकास (Cultural Development):
शारीरिक शिक्षा संबंधी खेल और क्रियाकलापों के दौरान विभिन्न संस्कृतियों के व्यक्ति आपस में मिलते हैं और एक-दूसरे के बारे में जानते हैं व उनके रीति-रिवाजों, परंपराओं और जीवन-शैली के बारे में परिचित होते हैं, जिससे सांस्कृतिक विकास को बढ़ावा मिलता है।

निष्कर्ष (Conclusion):
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि शारीरिक शिक्षा के उद्देश्यों का क्षेत्र बहुत विशाल है। शारीरिक शिक्षा को व्यक्ति का विकास सामाजिक, भावनात्मक, शारीरिक तथा अन्य कई दृष्टिकोणों से करना होता है ताकि वह एक अच्छा नागरिक बन सके। एक अच्छा नागरिक बनने के लिए टीम भावना, सहयोग, दायित्व का एहसास और अनुशासन आदि गुणों की आवश्यकता होती है। शारीरिक शिक्षा, एक सामान्य शिक्षा के रूप में शारीरिक शिक्षा के उद्देश्यों को पूरा करने में सहायक होती है। यह व्यक्ति में आंतरिक कुशलताओं का विकास करती है और उसमें अनेक प्रकार के छुपे हुए गुणों को बाहर निकालती है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 7.
आधुनिक युग में शारीरिक शिक्षा के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
अथवा
दैनिक जीवन में शारीरिक शिक्षा की महत्ता तथा उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
आज का युग एक मशीनी व वैज्ञानिक युग है, जिसमें मनुष्य स्वयं मशीन बनकर रह गया है। इसकी शारीरिक शक्ति खतरे में पड़ गई है। मनुष्य पर मानसिक तनाव और कई प्रकार की बीमारियों का संक्रमण बढ़ रहा है। आज के मनुष्य को योजनाबद्ध खेलों और शारीरिक शिक्षा की बहुत आवश्यकता है। शारीरिक शिक्षा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए रूसो ने कहा-“शारीरिक शिक्षा शरीर का एक मजबूत ढाँचा है जो मस्तिष्क के कार्य को निश्चित तथा आसान करता है।”
1. शारीरिक शिक्षा स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है (Physical Education is useful for Health):
अच्छा स्वास्थ्य अच्छी जलवायु की उपज नहीं, बल्कि यह अनावश्यक चिंताओं से मुक्ति और रोग-रहित जीवन है। आवश्यक डॉक्टरी सहायता भी स्वास्थ्य को अच्छा रखने के लिए जरूरी है। बहुत ज्यादा कसरत करना, परन्तु आवश्यक खुराक न खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। जो व्यक्ति खेलों में भाग लेते हैं, उनका स्वास्थ्य ठीक रहता है। खेलों में भाग लेने से शरीर की सारी शारीरिक प्रणालियाँ सही ढंग से काम करने लग जाती हैं। ये प्रणालियाँ शरीर में हुई थोड़ी-सी कमी या बढ़ोतरी को भी सहन कर लेती हैं। इसलिए जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति खेलों में अवश्य भाग ले।

2. शारीरिक शिक्षा हानिकारक मनोवैज्ञानिक व्याधियों को कम करती है (Physical Education decreases harmful Psychological Disorders):
आधुनिक संसार में व्यक्ति का ज्यादा काम दिमागी हो गया है; जैसे प्रोफैसर, वैज्ञानिक, गणित-शास्त्री, दार्शनिक आदि सारे व्यक्ति मानसिक कामों से जुड़े हुए हैं। मानसिक काम से हमारे स्नायु संस्थान (Nervous System) पर दबाव बढ़ता है। इस दबाव को कम करने के लिए काम में परिवर्तन आवश्यक है। यह परिवर्तन मानसिक शांति पैदा करता है। जे०बी० नैश का कहना है कि “जब कोई विचार दिमाग में आ जाता है तो हालात बदलने पर भी दिमाग में चक्कर लगाता रहता है।”

3. शारीरिक शिक्षा भीड़-भाड़ वाले जीवन के दुष्प्रभाव को कम करती है (Physical Education decreases the side effects of Congested Life):
आजकल शहरों में जनसंख्या निरंतर बढ़ रही है जिसके कारण शहरों में कई समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। शहरों में कारों, बसों, गाड़ियों, मोटरों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। मोटर-गाड़ियों और फैक्टरियों का धुआँ निरंतर पर्यावरण को प्रदूषित करता है। अत: शारीरिक शिक्षा से लोगों की स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है। विभिन्न क्षेत्रों में शारीरिक शिक्षा संबंधी खेल क्लब बनाकर लोगों को अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

4. आधुनिक शिक्षा को पूर्ण करने के लिए शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता (Physical Education Necessities for Supplements the Modern Education):
पुराने समय में शिक्षा का प्रसार बहुत कम था। पिता पुत्र को पढ़ा देता था या ऋषि-मुनि पढ़ा देते थे। परन्तु आजकल प्रत्येक व्यक्ति के पढ़े-लिखे होने की आवश्यकता है। बच्चा भिन्न-भिन्न क्रियाओं में भाग लेकर अपनी वृद्धि और विकास करता है। इसलिए खेलें बच्चों के लिए बहुत आवश्यक हैं। शारीरिक शिक्षा केवल शरीर के निर्माण तक ही सीमित नहीं है। वास्तव में, यह बच्चों का मानसिक, भावात्मक और सामाजिक विकास भी करती है।

5. शारीरिक शिक्षा और सामाजिक एकता (Physical Education and Social Cohesion):
सामाजिक जीवन में कई तरह की भिन्नताएँ होती हैं; जैसे अलग भाषा, अलग संस्कृति, रंग-रूप, अमीरी-गरीबी आदि । इन भिन्नताओं के बावजूद मनुष्य को सामाजिक इकाई में रहना पड़ता है। शारीरिक शिक्षा भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों को एक स्थान पर इकट्ठा करती है। उनमें एकता व एकबद्धता लाती है। खेल में धर्म, जाति, श्रेणी, वर्ग या क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं किया जाता।

6.शारीरिक शिक्षावसाम्प्रदायिकता (Physical Education and Communalism):
शारीरिक शिक्षा जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, रंग-रूप, धर्म, वर्ग, समुदाय के भेदभाव को स्वीकार नहीं करती। साम्प्रदायिकता हमारे देश के लिए बहुत घातक है। शारीरिक शिक्षा इस खतरे को राष्ट्र हित की ओर अग्रसर कर देती है। खिलाड़ी सभी बंधनों को तोड़कर एक राष्ट्रीय टीम में भाग लेकर अपने देश का नाम ऊँचा करते हैं। खिलाड़ी किसी प्रकार के देश-विरोधी दंगों में नहीं पड़ते । अतःशारीरिक शिक्षा लोगों में साम्प्रदायिकता की भावना को खत्म करके राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि करती है।

7. शारीरिक शिक्षा मनोरंजन प्रदान करती है (Physical Education provides the Recreation):
मनोरंजन जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। मनोरंजन व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक खुशी प्रदान करता है। इसमें व्यक्ति निजी प्रसन्नता और संतुष्टि के कारण अपनी इच्छा से भाग लेता है। शारीरिक शिक्षा मनुष्य को कई प्रकार की क्रियाएँ प्रदान करती हैं जिससे उसको मनोरंजन प्राप्त होता है।

8.शारीरिक शिक्षा व प्रान्तवाद (Physical Education and Provincialism):
शारीरिक शिक्षा में प्रान्तवाद या क्षेत्रवाद का कोई स्थान नहीं है। जब कोई खिलाड़ी शारीरिक क्रियाएँ करता है तो उस समय उसमें प्रान्तवाद की कोई भावना नहीं होती कि वह अमुक प्रान्त का निवासी है। उसको केवल मानव-कल्याण का लक्ष्य ही दिखाई देता है। विभिन्न प्रान्तों या राज्यों के खिलाड़ी खेलते समय आपस में सहयोग करते हुए एक-दूसरे की भावनाओं का सत्कार करते हैं, जिससे उनमें राष्ट्रीय एकता की वृद्धि होती है। राष्ट्रीय एकता समृद्ध होती है और देश शक्तिशाली बनता है।

9. शारीरिक शिक्षा सुस्त जीवन के बुरे प्रभावों को कम करती है (Physical Education corrects the harmful effects of Lazy Life):
आज का युग मशीनी है। दिनों का काम कुछ घण्टों में हो जाता है जिसके कारण मनुष्य के पास काफी समय बच जाता है। ऐसी हालत में लोगों को दौड़ने-भागने के मौके देकर उनका स्वास्थ्य ठीक रखा जा सकता है। जब तक व्यक्ति योजनाबद्ध तरीके से खेलों और शारीरिक क्रियाओं में भाग नहीं लेगा, तब तक वह अपने स्वास्थ्य को अधिक दिन तक तंदुरुस्त नहीं रख पाएगा। अतः शारीरिक शिक्षा जीवन के बुरे प्रभावों को कम करती है।

10. शारीरिक शिक्षा व भाषावाद (Physical Education and Linguism):
भारतवर्ष में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। देश में कई राज्यों में भाषा के लिए झगड़े हो रहे हैं। कहीं पर हिन्दी, कहीं तमिल भाषा का झगड़ा तो कहीं पर बंगला, पंजाबी एवं ओड़िया
भाषाओं के नाम पर झगड़ा उत्पन्न हुआ है। एक स्थान की भाषा दूसरे स्थान पर समझने में कठिनाई आती है परन्तु शारीरिक शिक्षा भाषावाद को स्वीकार नहीं करती। अच्छा खिलाड़ी चाहे वह पंजाबी बोलता हो या तमिल सभी को अपना साथी मानता है और सभी भाषाओं का सम्मान करता है। सभी खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम के रूप में मैदान में आते हैं। आपसी सहयोग से अपने देश की मान-मर्यादा को बढ़ाने का प्रयास करते हैं। इस तरह शारीरिक शिक्षा भाषाओं के झगड़े को समाप्त करके राष्ट्रीय एकता में वृद्धि करने का प्रयास करती है।

प्रश्न 8.
नेतृत्व को परिभाषित कीजिए।शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में एक नेता के गुणों का वर्णन कीजिए।
अथवा
नेतृत्व क्या है? शारीरिक शिक्षा में एक नेता के गुणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
नेतृत्व का अर्थ व परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Leadership):
मानव में नेतृत्व की भावना आरंभ से ही होती है। किसी भी समाज की वृद्धि या विकास उसके नेतृत्व की विशेषता पर निर्भर करती है। नेतृत्व व्यक्ति का वह गुण है जिससे वह दूसरे व्यक्तियों के जीवन के विभिन्न पक्षों में मार्गदर्शन करता है। नेतृत्व को विद्वानों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-
1. मॉण्टगुमरी (Montgomery) के अनुसार, “किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए व्यक्तियों को इकट्ठा करने की इच्छा व योग्यता को ही नेतृत्व कहा जाता है।”
2. ला-पियरे व फा!वर्थ (La-Pierre and Farmowerth) के अनुसार, “नेतृत्व एक ऐसा व्यवहार है जो लोगों के व्यवहार पर अधिक प्रभाव डालता है, न कि लोगों के व्यवहार का प्रभाव उनके नेता पर।”
3. पी० एम० जोसेफ (P. M. Joseph) के अनुसार, “नेतृत्व वह गुण है जो व्यक्ति को कुछ वांछित काम करने के लिए, मार्गदर्शन करने के लिए पहला कदम उठाने के योग्य बनाता है।”

एक अच्छे नेतां के गुण (Qualities of aGood Leader):
प्रत्येक समाज या राज्य के लिए अच्छे नेता की बहुत आवश्यकता होती है क्योंकि वह समाज और राज्य को एक नई दिशा देता है। नेता में एक खास किस्म के गुण होते हैं जिनके कारण वह सभी को एकत्रित कर काम करने के लिए प्रेरित करता है। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में अच्छे नेता का होना बहुत आवश्यक है क्योंकि शारीरिक क्रियाएँ किसी योग्य नेता के बिना संभव नहीं हैं। किसी नेता में निम्नलिखित गुण या विशेषताएँ होना आवश्यक हैं तभी वह कुशलता से व्यक्तियों या खिलाड़ियों को प्रेरित कर सकता है
1. ईमानदारी एवं कर्मठता (Honesty and Energetic): शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में ईमानदारी एवं कर्मठता एक नेता के महत्त्वपूर्ण गुण हैं । ये उसके व्यक्तित्व में निखार और सम्मान में वृद्धि करते हैं।
2. वफादारी एवं नैतिकता (Loyality and Morality): शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में वफादारी एवं नैतिकता एक नेता के महत्त्वपूर्ण गुण हैं । उसे अपने शिष्यों या अनुयायियों (Followers) के प्रति वफादार होना चाहिए और विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों में भी उसे अपनी नैतिकता का त्याग नहीं करना चाहिए।
3. सामाजिक समायोजन (Social Adjustment): एक अच्छे नेता में अनेक सामाजिक गुणों; जैसे सहनशीलता, धैर्यता, सहयोग, सहानुभूति व भाईचारा आदि का समावेश होना चाहिए।
4. बच्चों के प्रति स्नेह की भावना (Affection Feeling for Children): नेतृत्व करने वाले में बच्चों के प्रति स्नेह की भावना होनी चाहिए। उसकी यह भावना बच्चों को अत्यधिक प्रभावित करती है।
5. तर्कशील एवं निर्णय-क्षमता (Logical and Decision-Ability): उसमें समस्याओं पर तर्कशील ढंग से विचार-विमर्श करने की योग्यता होनी चाहिए। वह एक अच्छा निर्णयकर्ता भी होना चाहिए। उसमें उपयुक्त व अनायास ही निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए।
6. शारीरिक कौशल (Physical Skill): उसका स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए। वह शारीरिक रूप से कुशल एवं मजबूत होना चाहिए, ताकि बच्चे उससे प्रेरित हो सकें।
7. बुद्धिमान एवं न्यायसंगत (Intelligent and Fairness): एक अच्छे नेता में बुद्धिमता एवं न्यायसंगतता होनी चाहिए। एक बुद्धिमान नेता ही विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों का समाधान ढूँढने की योग्यता रखता है। एक अच्छे नेता को न्यायसंगत भी होना चाहिए ताकि वह निष्पक्ष भाव से सभी को प्रभावित कर सके।
8. शिक्षण कौशल (Teaching Skill): नेतृत्व करने वाले को विभिन्न शिक्षण कौशलों का गहरा ज्ञान होना चाहिए। उसे
कुशल होना चाहिए।
9. सृजनात्मकता (Creativity): एक अच्छे नेता में सृजनात्मकता या रचनात्मकता की योग्यता होनी चाहिए, ताकि वह नई तकनीकों या कौशलों का प्रतिपादन कर सके।
10. समर्पण व संकल्प की भावना (Spirit of Dedication and Determination): उसमें समर्पण व संकल्प की भावना होना बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसे विपरीत-से-विपरीत परिस्थिति में भी दृढ़-संकल्पी या दृढ़-निश्चयी होना चाहिए। उसे अपने व्यवसाय के प्रति समर्पित भी होना चाहिए।
11. अनुसंधान में रुचि (Interest in Research): एक अच्छे नेता की अनुसंधानों में विशेष रुचि होनी चाहिए।
12. आदर भावना (Respect Spirit): उसमें दूसरों के प्रति आदर-सम्मान की भावना होनी चाहिए। यदि वह दूसरों का आदर नहीं करेगा, तो उसको भी दूसरों से सम्मान नहीं मिलेगा।
13. पेशेवर गुण (Professional Qualities): एक अच्छे नेता में अपने व्यवसाय से संबंधित सभी गुण होने चाहिएँ।
14. भावनात्मक संतुलन (Emotional Balance): नेतृत्व करने वाले में भावनात्मक संतुलन का होना बहुत आवश्यक है। उसका अपनी भावनाओं पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए।
15. तकनीकी रूप से कुशल (Technically Skilled): उसे तकनीकी रूप से कुशल या निपुण होना चाहिए।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 9.
नेतृत्व (Leadership) क्या है? इसके महत्त्व का विस्तार से वर्णन करें।
अथवा
शारीरिक शिक्षा में नेतृत्व प्रशिक्षण की उपयोगिता पर विस्तार से प्रकाश डालें।
उत्तर:
नेतृत्व का अर्थ (Meaning of Leadership)-मानव में नेतृत्व की भावना आरंभ से ही होती है। किसी भी समाज की वृद्धि व विकास उसके नेतृत्व की विशेषता पर निर्भर करते हैं। नेतृत्व व्यक्ति का वह गुण है जिससे वह दूसरे व्यक्तियों के जीवन के विभिन्न पक्षों में मार्गदर्शन करता है।

नेतृत्व का महत्त्व (Importance of Leadership):
नेतृत्व की भावना को बढ़ावा देना शारीरिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है, क्योंकि इस प्रकार की भावना से मानव के व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास होता है। क्षेत्र चाहे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक अथवा शारीरिक शिक्षा का हो या अन्य, हर क्षेत्र में नेता की आवश्यकता पड़ती है। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है, जिससे उसकी शारीरिक शक्ति, सोचने की शक्ति, व्यक्तित्व में निखार और कई प्रकार के सामाजिक गुणों का विकास होता है। मानव में शारीरिक क्षमता बढ़ने के कारण निडरता आती है जो नेतृत्व का एक विशेष गुण माना जाता है। इसी प्रकार खेलों के क्षेत्र में हम दूसरों के साथ सहयोग के माध्यम से लक्ष्य प्राप्त करना सीख जाते हैं। व्यक्तिगत एवं सामूहिक खेलों में व्यक्ति को अच्छे नेता के सभी गुणों को ग्रहण करने का अवसर मिलता है।

आज के वैज्ञानिक युग में पूर्ण व्यावसायिक योग्यता के बिना काम नहीं चल सकता, क्योंकि नेताओं की योग्यता पर ही किसी व्यवसाय की उन्नति निर्भर करती है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शारीरिक शिक्षा के क्षेत्रों में कई प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए गए हैं; जैसे ग्वालियर, चेन्नई, पटियाला, चंडीगढ़, लखनऊ, हैदराबाद, मुंबई, अमरावती और कुरुक्षेत्र आदि। इन केंद्रों में शारीरिक शिक्षा के अध्यापकों को इस क्षेत्र के नेताओं के रूप में प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि वे शारीरिक शिक्षा की ज्ञान रूपी ज्योति को अधिक-से-अधिक फैला सकें और अपने नेतृत्व के अधीन अधिक-से-अधिक विद्यार्थियों में नेतृत्व के गुणों को विकसित कर सकें। विद्यार्थी देश का भविष्य होते हैं और एक कुशल व आदर्श अध्यापक ही शारीरिक शिक्षा के द्वारा अच्छे समाज व राष्ट्र के निर्माण में सहायक हो सकता है। शारीरिक शिक्षा का क्षेत्र और मैदान नेतृत्व के गुण को उभारने में कितना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है। यह प्रस्तुत कथन से सिद्ध होता है”वाटरलू का प्रसिद्ध युद्ध, ईटन के खेल के मैदान में जीता गया।” यह युद्ध अच्छे नेतृत्व के कारण जीता गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि नेतृत्व का हमारे जीवन में विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 10.
समूह की गतिशीलता से क्या अभिप्राय है? इसको समझने के महत्त्वपूर्ण बिंदुओं का वर्णन करें।
अथवा
समूह गत्यात्मक के बारे में आप क्या जानते हैं? विस्तार से समझाइए।
उत्तर:
समूह की गतिशीलता का अर्थ (Meaning of Group Dynamics):
समूह की गतिशीलता (गत्यात्मक) का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1924 में मैक्सवर्थीमर (Max Wertheimer) ने किया। डायनैमिक’ शब्द ग्रीक भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है’शक्ति’। इस प्रकार समूह की गतिशीलता का अर्थ उन शक्तियों या गतिविधियों से होता है जो एक समूह के अंदर कार्य करती हैं।

हम इस तथ्य को जानते हैं कि शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है। किसी व्यक्ति के व्यवहार में यह वांछनीय परिवर्तन लाती है। जब एक बच्चे का विद्यालय में प्रवेश होता है, तो वह विद्यालय तथा अपनी कक्षा के वातावरण को समझने की कोशिश करता है। वह दूसरे बच्चों से मिलने की इच्छा करता है। वह अपने अध्यापकों से भी प्रशंसा चाहता है ताकि दूसरे बच्चे उसके बारे में अच्छा दृष्टिकोण या विचार रख सकें। इस प्रकार उसका व्यवहार लगातार प्रभावित होता रहता है। विशेष रूप से वह अपने समूह के सदस्यों द्वारा प्रभावित होता है। अत: वे शक्तियाँ या गतिविधियाँ जो विद्यालय के वातावरण से उसको प्रभावित करती हैं, उसके उचित व्यवहार के प्रतिरूप के विकास में सहायक होती हैं, समूह गत्यात्मकता की प्रक्रिया कहलाती है।

समूह की गतिशीलता को समझने के महत्त्वपूर्ण बिंदु (Important Points to Understand Group Dynamics):
एक समूह की गतिशीलता को समझने के महत्त्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं
(1) एक व्यक्ति की प्रवृत्ति सदा उन समूहों के द्वारा प्रभावित होती है, जिनका वह सदस्य होता है। यदि कोई अध्यापक, किसी

बच्चे की प्रवृत्ति में परिवर्तन चाहता है तो उसे, उसके समूह की विशेषताओं में परिवर्तन लाना होगा।
(2) समूहों में कुछ बाधाओं के कारण सीखने में रुकावट आ जाती है। यदि अध्यापक शिक्षण और सीखने को प्रभावी बनाना चाहता है तो उसे इन बाधाओं को हटाना होगा।
(3) सामाजिक क्रियाओं के प्रदर्शन में व्यक्तिगत प्रशिक्षण की अपेक्षा समूह के रूप में प्रशिक्षण अधिक अच्छा होता है।
(4) एक कक्षा में विद्यार्थियों के बीच प्रतिक्रियाओं को सामाजिक कारकों के द्वारा किसी एक सीमा तक जाना जा सकता है।
उदाहरण के लिए, विद्यार्थियों के आपसी लगाव वाले समूह में एक विद्यार्थी, जो अपने समूह के विचार से अपना अलग विचार रखता है, प्रायः उस समूह से उसका बहिष्कार कर दिया जाता है अर्थात् समूह उसे अस्वीकार कर देता है। लेकिन
विद्यार्थियों के एक व्यापक समूह में, वह विद्यार्थी, जिसके अलग विचार हैं, समूह का ध्यान अधिक आकर्षित करेगा।
(5) समूह का वातावरण व सामूहिक जीवन की प्रणाली की क्रिया समूह के सदस्यों के व्यक्तित्व को प्रभावित करती है।
(6) कक्षा के व्यवहार के कुछ प्रतिरूप, तनाव व दबाव को कम कर देते हैं।
(7) विद्यार्थी का विश्वास और उसकी क्रियाएँ कक्षा के छोटे समूहों द्वारा प्रभावित होती हैं।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 11.
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक के व्यक्तिगत गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक के व्यक्तिगत गुण निम्नलिखित हैं
1. व्यक्तित्व (Personality):
अच्छा व्यक्तित्व शारीरिक शिक्षा के अध्यापक का सबसे बड़ा गुण है, क्योंकि व्यक्तित्व बहुत सारे गुणों का समूह है। एक अच्छे व्यक्तित्व वाले अध्यापक में अच्छे गुण; जैसे कि सहनशीलता, पक्का इरादा, अच्छा चरित्र, सच्चाई, समझदारी, ईमानदारी, मेल-मिलाप की भावना, निष्पक्षता, धैर्य, विश्वास आदि होने चाहिएँ।

2. चरित्र (Character):
शारीरिक शिक्षा का अध्यापक एक अच्छे चरित्र वाला व्यक्ति होना चाहिए, क्योंकि उसका सीधा संबंध विद्यार्थियों से होता है। अगर उसके अपने चरित्र में कमियाँ होंगी तो वह कभी भी विद्यार्थियों के चरित्र को ऊँचा नहीं उठा पाएगा।

3. नेतृत्व के गुण (Qualities of Leadership):
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक में एक अच्छे नेता के गुण होने चाहिएँ क्योंकि उसने ही विद्यार्थियों से शारीरिक क्रियाएँ करवानी होती हैं और उनसे क्रियाएँ करवाने के लिए सहयोग लेना होता है। यह तभी संभव है जब शारीरिक शिक्षा का अध्यापक अच्छे नेतृत्व वाले गुण अपनाए।

4. दृढ़ इच्छा-शक्ति (Strong Will Power):
शारीरिक शिक्षा का अध्यापक दृढ़ इच्छा-शक्ति या पक्के इरादे वाला होना चाहिए। वह विद्यार्थियों में दृढ़ इच्छा-शक्ति की भावना पैदा करके उन्हें मुश्किल-से-मुश्किल प्रतियोगिताओं में भी जीत प्राप्त करने के लिए प्रेरित करे।

5. अनुशासन (Discipline):
अनुशासन एक बहुत महत्त्वपूर्ण गुण है और इसकी जीवन के हर क्षेत्र में जरूरत है। शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य भी बच्चों में अनुशासन की भावना पैदा करना है। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक बच्चों में निडरता, आत्मनिर्भरता, दुःख में धीरज रखना जैसे गुण पैदा करता है। इसलिए जरूरी है कि शारीरिक शिक्षा का अध्यापक खुद अनुशासन में रहकर बच्चों में अनुशासन की आदतों का विकास करे ताकि बच्चे एक अच्छे समाज की नींव रख सकें।

6. आत्म-विश्वास (Self-confidence):
किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए आत्म-विश्वास का होना बहुत आवश्यक है। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक बच्चों में आत्म-विश्वास की भावना पैदा करके उन्हें निडर, बलवान और हर दुःख में धीरज रखने वाले गुण पैदा कर सकता है।

7. सहयोग (Co-operation):
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक का सबसे बड़ा गुण सहयोग की भावना है। शारीरिक शिक्षा के अध्यापक का संबंध केवल बच्चों तक ही सीमित नहीं है बल्कि मुख्याध्यापक, बच्चों के माता-पिता और समाज से भी है।

8. सहनशीलता (Tolerance):
शारीरिक शिक्षा का अध्यापक बच्चों से अलग-अलग क्रियाएँ करवाता है। इन क्रियाओं में बच्चे बहुत सारी गलतियाँ करते हैं। उस वक्त शारीरिक शिक्षा के अध्यापक को धैर्य से उनकी गलतियाँ दूर करनी चाहिएँ। यह तभी हो सकता है अगर शारीरिक शिक्षा का अध्यापक सहनशीलता जैसे गुण का धनी हो।

9. त्याग की भावना (Spirit of Sacrifice):
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक में त्याग की भावना का होना बहुत जरूरी है। त्याग की भावना से ही अध्यापक बच्चों को प्राथमिक प्रशिक्षण अच्छी तरह देकर उन्हें अच्छे खिलाड़ी बना सकता है।

10. न्यायसंगत (Fairness):
शारीरिक शिक्षा का अध्यापक न्यायसंगत या न्यायप्रिय होना चाहिए, क्योंकि अध्यापक को न केवल शारीरिक क्रियाएँ ही करवानी होती हैं बल्कि अलग-अलग टीमों में खिलाड़ियों का चुनाव करने जैसे निर्णय भी लेने होते हैं। न्यायप्रिय और निष्पक्ष रहने वाला अध्यापक ही बच्चों से सम्मान प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 12.
“शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण का विकास होता है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ाने में शारीरिक शिक्षा की भूमिका का वर्णन कीजिए।
अथवा
राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने में शारीरिक शिक्षा का क्या योगदान है? वर्णन करें।
उत्तर:
भारत एक विशाल देश है। इसमें अलग-अलग धर्मों के लोग रहते हैं। लोगों का रहन-सहन और रीति-रिवाज अलग-अलग हैं। उनकी भाषा और पहनावा भी अलग-अलग है। इतना कुछ भिन्न-भिन्न होते हुए राष्ट्रीय एकता को विकसित करना एक बड़ी समस्या है। देखने वाली बात यह है कि वह कौन-सी शक्ति है जो इतना कुछ भिन्न-भिन्न होते हुए भी लोगों को इकट्ठा रहने के लिए प्रेरित करती है। यह शक्ति राष्ट्रीय एकता की शक्ति है। राष्ट्रीय एकता के बिना कोई भी देश उन्नति नहीं कर सकता।

शारीरिक शिक्षा एक ऐसा साधन है जिससे राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलता है। यूनान में ओलम्पिक खेलें शुरू कराने का अर्थ भी राष्ट्रीय एकता को ही बढ़ाना था। खेलों द्वारा मनुष्य एक-दूसरे के सम्पर्क में आता है। खेलों द्वारा लोगों को एक-दूसरे की भाषा, रहन-सहन, विचारों का आदान-प्रदान और एक-दूसरे की समस्या को समझने का अवसर मिलता है। खेलें एकता और सद्भावना जैसे गुणों को विकसित करके राष्ट्र की कई समस्याओं को सुलझाने में सहायता करती हैं।

इस उद्देश्य को लेकर ही अलग-अलग तरह के खेल मुकाबले अलग-अलग प्रान्तों में आयोजित किए जाते हैं, जिन्हें राष्ट्रीय खेलों के नाम से जाना जाता है। इस तरह के खेल मुकाबले अलग-अलग प्रान्तों के खिलाड़ियों को एक मंच पर इकट्ठा करते हैं, ताकि हर खिलाड़ी एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ सके। इस तरह के प्रयत्न वास्तव में राष्ट्रीय एकता लाने में सहायक होते हैं। शारीरिक शिक्षा द्वारा निम्नलिखित ढंगों से राष्ट्रीय एकता को बढ़ाया जा सकता है

1.शारीरिक शिक्षा और भाषावाद (Physical Education and Linguism):
भारत एक विशाल देश है। इसमें अलग-अलग धर्मों के लोग रहते हैं। उनका अलग-अलग पहनावा, विचारधारा और भाषाएँ हैं परन्तु फिर भी भारत एक है। शारीरिक शिक्षा इन सभी भिन्नताओं के बावजूद राष्ट्रीय एकता में अपना योगदान देती है।

2. अनुशासन और सहनशीलता (Discipline and Toleration):
शारीरिक शिक्षा अनुशासन और सहनशीलता जैसे गुणों को उभारती है। खेलें अनुशासन के बिना नहीं खेली जा सकतीं। इनकी पालना करते हुए ही मनुष्य साधारण ज़िन्दगी में अनुशासन में रहना सीख जाता है। खेलों में सहनशीलता का बहुत महत्त्व है। जिन देशों के लोगों में अनुशासन और सहनशीलता जैसे गुण विकसित हो जाते हैं वे देश सदैव उन्नति की राह पर चलते रहते हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए इन गुणों का होना अति आवश्यक है।

3. राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान (Solution of National Problems):
खेलें राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान करने में सबसे अधिक योगदान देती हैं। खेलों द्वारा खिलाड़ी एक-दूसरे के सम्पर्क में आ जाते हैं। उन्हें एक-दूसरे की भाषा, संस्कृति, पहनावा आदि समझने में मदद मिलती है। खिलाड़ी एक-दूसरे के दोस्त बन जाते हैं जिससे कई प्रकार की समस्याएं हल हो जाती हैं। इसलिए प्रत्येक देश को चाहिए कि वह अलग-अलग खेलों को उत्साहित करे ताकि खेलों द्वारा राष्ट्रीय समस्याएं सुलझाई जा सकें।

4. शारीरिक शिक्षा और राष्ट्रीय आचरण (Physical Education and National Character):
जिस देश और राष्ट्र में आचरण की कमी आ जाती है वह देश और राष्ट्र कभी भी उन्नति नहीं कर सकते। शारीरिक शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा राष्ट्रीय आचरण बनाया जा सकता है। खेल मनुष्य में अच्छे गुण (सहनशीलता, सहयोग, अनुशासन, बड़ों की आज्ञा का पालन करना, समय का महत्त्व जानना, जीवन के उतार-चढ़ाव में हिम्मत न हारना आदि) पैदा करके राष्ट्रीय आचरण में वृद्धि करते हैं।

5.शारीरिक शिक्षा और साम्प्रदायिकता (Physical Education and Communalism):
शारीरिक शिक्षा और साम्प्रदायिकता का आपस में कोई मेल नहीं है । खेलें किसी नस्ल, रंग, धर्म, जात-पात को नहीं मानतीं । खिलाड़ी सभी बन्धनों को तोड़कर एक राष्ट्रीय टीम में भाग लेकर अपने देश का नाम ऊँचा करते हैं। खेलों में साम्प्रदायिकता की कोई जगह नहीं है।

6. शारीरिक शिक्षा और असमानता (Physical Education and Inequality):
शारीरिक शिक्षा का कोई भी कार्यक्रम असमानता पर आधारित नहीं है। खेलों में सभी खिलाड़ी चाहे वे अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा हो, सभी एक-समान होते हैं। खेल जीतने के लिए सभी खिलाड़ी योगदान देते हैं।

7. शारीरिक शिक्षा और खाली समय (Physical Education and Leisure Time):
कहावत है कि खाली समय झगड़े की जड़ है। खाली समय में लोग बुरी आदतों के शिकार हो जाते हैं जिससे कई समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं । शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के खाली समय को व्यतीत करने का साधन है। व्यक्ति छोटी-छोटी खेलों में भाग लेकर अपने अन्दर की अतिरिक्त शक्ति को प्रयोग में लाकर तन्दुरुस्त जीवन व्यतीत कर सकता है। इस प्रकार खेलों में खाली समय का उचित प्रयोग हो जाता है।

8. शारीरिक शिक्षा और व्यक्तित्व (Physical Education and Personality):
शारीरिक शिक्षा मनुष्य के पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करती है। इस प्रकार वह अपने जीवन की उलझी हुई समस्याओं को सुलझाने के योग्य हो जाता है। इस प्रकार अच्छे आचरण एवं व्यक्तित्व वाला व्यक्ति समाज का अच्छा नागरिक बनकर खुशी भरा जीवन व्यतीत करने के योग्य हो जाता है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

लघूत्तरात्मक प्रश्न [Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
शारीरिक शिक्षा में सामाजिकता का महत्त्व बताइए।
अथवा
शारीरिक शिक्षा किस प्रकार सामाजीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करती है?
अथवा
सामाजीकरण में शारीरिक शिक्षा की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, क्योंकि वह जीवन-भर अपने ही जैसे आचार-विचार रखने वाले जीवों के बीच रहता है।सामाजीकरण की सहायता से मनुष्य अपनी पशु-प्रवृत्ति से ऊपर उठकर सभ्य मनुष्य का स्थान ग्रहण करता है। सामाजीकरण के माध्यम से वह अपने निजी हितों को समाज के हितों के लिए न्योछावर करने को तत्पर हो जाता है। उसमें समाज के प्रति उत्तरदायित्व की भावना विकसित हो जाती है और वह समाज का सक्रिय सदस्य बन जाता है।

शारीरिक शिक्षा सामाजीकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। विद्यार्थी खेल के मैदान में अपनी टीम के हितों को सम्मुख रखकर खेल के नियमों का भली-भाँति पालन करते हुए खेलते हैं। वे पूरी लगन से खेलते हुए अपनी टीम को विजय-प्राप्ति के लिए पूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं। उनमें सहनशीलता व धैर्यता का गुण विकसित होता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक पीढ़ी आगामी पीढ़ियों के लिए खेल-संबंधी कुछ नियम व परंपराएँ छोड़ जाती है, जो विद्यार्थियों को शारीरिक शिक्षा के माध्यम से परिचित करवाई जाती हैं। .. खिलाड़ियों के लिए प्रतियोगिता के समय खेल-भावना कायम रखना आवश्यक होता है। खिलाड़ी एक ऐसी भावना से ओत-प्रोत हो जाते हैं जो उन्हें सामाजीकरण एवं मानवता के उच्च शिखरों तक ले जाती है। शारीरिक शिक्षा अनेक सामाजिक गुणों; जैसे आत्म-विश्वास, आत्म-अभिव्यक्ति, आत्म-संयम, भावनाओं पर नियंत्रण, नेतृत्व की भावना, चरित्र-निर्माण, सहयोग की भावना व बंधुत्व आदि का विकास करने में उपयोगी होती है। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के सामाजीकरण में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र के महत्त्व का वर्णन करें।
अथवा
शारीरिक शिक्षा में समाजशास्त्र के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
समाजशास्त्र शारीरिक शिक्षा तथा खेलों का वैज्ञानिक अध्ययन करने में सहायक है। चूँकि समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है और शारीरिक शिक्षा और खेलें समाज के अभिन्न अंग हैं, इसलिए दोनों एक-दूसरे से संबंधित हैं। इसलिए हम समाजशास्त्र में अपनाए गए वैज्ञानिक साधनों तथा ढंगों की सहायता इनको समझने हेतु ले सकते हैं। आधुनिक समय में खेलें संस्थागत बन गई हैं जो समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। समाजशास्त्र शारीरिक शिक्षा तथा खेलों द्वारा समाज को दी गई नई दिशा के योगदान को समझने में हमारी सहायता करता है। यह समाज की समझ तथा नियोजन से संबंधित है, इसलिए यह शारीरिक शिक्षा तथा खेलों की समझ तथा नियोजन के रूप में सहायता करता है। यह व्यक्ति की महिमा तथा गरिमा में वृद्धि करने में सहायक है। यह शारीरिक शिक्षा तथा खेलों द्वारा बच्चों की समस्याओं तथा खिलाड़ियों की अनियमितताओं को दूर करने में भी सहायता करता है। यह मानवता या समाज की सांस्कृतिक विरासत के अध्ययन में भी हमारी सहायता करता है। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा में समाजशास्त्र विशेष योगदान देता है।

प्रश्न 3.
शारीरिक शिक्षा, शिक्षा का अभिन्न अंग है-इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर:
आज से कुछ ही दशक पूर्व शिक्षा का लक्ष्य केवल मानसिक विकास माना जाता था और इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए केवल किताबी ज्ञान पर ही बल दिया जाता था। लेकिन आधुनिक युग में यह अनुभव होने लगा कि मानसिक व शारीरिक विकास एक-दूसरे से किसी भी प्रकार अलग नहीं हैं । जहाँ मानसिक ज्ञान से बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य इस ज्ञान का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में करके सुखी जीवन के लिए साधन जुटाने में सक्षम हो पाता है, वहीं शारीरिक शिक्षा उसे अतिरिक्त समय को बिताने की विधियाँ, अच्छा स्वास्थ्य रखने का रहस्य तथा चरित्र-निर्माण के गुणों की जानकारी प्रदान करती है। शारीरिक शिक्षा स्वास्थ्य में सुधार लाकर कार्य-कुशलता को बढ़ाने में सहायता करती है और शिक्षा मानसिक विकास के उद्देश्यों की पूर्ति करने में विशेष भूमिका निभाती है।अतः आज के समय में शारीरिक शिक्षा (Physical Education) शिक्षा का अभिन्न अंग है जिससे व्यक्ति के जीवन का प्रत्येक पक्ष प्रभावित होता है।

प्रश्न 4.
व्यक्ति के व्यवहार पर सामाजिक संस्थाओं के प्रभावों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति के व्यवहार पर सामाजिक संस्थाओं के निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं
1. परिवार-परिवार एक ऐसी संस्था है जो अपने सदस्यों को विशेषकर बच्चों को समाज के रहन-सहन एवं खाने-पीने के ढंग सिखाती है। यह वह स्थान है जहाँ पर बच्चा अपने आने वाले जीवन के लिए स्वयं को तैयार करता है। इसलिए कहा जाता है कि बच्चों को बनाने या बिगाड़ने में माता-पिता का काफी हाथ होता है। अगर परिवार को व्यक्तित्व निखारने की संस्था कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। अतः परिवार व्यक्तिगत व्यवहार को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

2. धार्मिक संस्थाएँ-आज के युग में स्कूल तथा कॉलेज खुलने से विद्या का स्वरूप ही बदल गया है। चाहे अब शैक्षिक विद्या धार्मिक संस्थानों में नहीं दी जाती, पर फिर भी धार्मिक संस्थाएँ व्यक्ति के जीवन पर बहुत प्रभाव डालती हैं। धार्मिक संस्थानों में जाकर व्यक्ति कई अच्छे नैतिक गुण सीखता है।

3. शैक्षिक संस्थाएँ-संस्था के रूप में शैक्षिक संस्थाएँ व्यक्ति के सामाजीकरण पर प्रभाव डालती हैं। इन संस्थाओं का व्यक्ति के व्यवहार पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। अगर बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़ता है तो उसका प्रभाव अच्छा पड़ता है। स्कूल का अनुशासन, स्वच्छ वातावरण तथा अच्छे अध्यापकों का बच्चे पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि इन संस्थाओं का वातावरण अच्छा न हो, तो वे अच्छे गुणों से वंचित रह जाएँगे।

4. समुदाय या समूह-सभी अच्छी-बुरी चीज़ों का व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है। अगर वह अच्छे समुदाय में रह रहा है तो उस पर अच्छा असर पड़ता है। अगर वह बुरे समुदाय में रह रहा है तो उस पर बुरा असर पड़ेगा। इस तरह समुदाय या समूह व्यक्ति के व्यवहार पर गहरी छाप छोड़ता है।

5. राष्ट्र-हम लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्ष देश के निवासी हैं । इसलिए हमारी हर संस्था लोकतांत्रिक है। इसका हमारे व्यक्तित्व व्यवहार पर गहरा प्रभाव है। हमारे देश में हर प्रकार की आजादी है। कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को अपना सकता है। जिस तरह का काम करना चाहता है, कर सकता है। उसको कोई नहीं रोक सकता। केवल परिवार, शैक्षिक संस्थाएँ, समुदाय और धार्मिक संस्थाएँ ही व्यक्ति के व्यवहार पर असर नहीं डालतीं, बल्कि राष्ट्र का भी उस पर गहरा असर पड़ता है।

प्रश्न 5.
शारीरिक शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु एक शिक्षक क्या भूमिका निभा सकता है?
उत्तर:
वर्तमान में स्कूल ही एकमात्र ऐसी प्राथमिक संस्था है, जहाँ शारीरिक शिक्षा प्रदान की जाती है। विद्यार्थी स्कूलों में स्वास्थ्य संबंधी ज्ञान शिक्षकों से सीखते हैं। मुख्याध्यापक व शिक्षक-वर्ग विद्यार्थियों के लिए शारीरिक शिक्षा का कार्यक्रम बनाकर उन्हें शिक्षा देते हैं जिनसे विद्यार्थी यह जान पाते हैं कि किन तरीकों और साधनों से वे अपने शारीरिक संस्थानों व स्वास्थ्य को सुचारु व अच्छा बनाए रख सकते हैं। शिक्षकों द्वारा ही उनमें अपने शरीर व स्वास्थ्य के प्रति एक स्वस्थ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है और उनको अच्छे स्वास्थ्य हेतु प्रेरित किया जा सकता है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 6.
खेलकूद द्वारा राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा कैसे मिलता है? अथवा शारीरिक शिक्षा का राष्ट्र के उत्थान में क्या योगदान है?
उत्तर:
खेल एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति या खिलाड़ी एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं। खेल के मैदान में मित्रता पनपती है तथा कई बार गहरे रिश्ते तक स्थापित हो जाते हैं । खेलों में एक-दूसरे के साथ मिलकर चलने में ही सफलता प्राप्त होती है। जब एक टीम राष्ट्र के लिए खेलती है तो उसमें एक प्रांत या जाति के लोग नहीं होते। सभी खिलाड़ी एक परिवार के सदस्यों की भाँति खेलते हैं। इनमें कोई जाति-पाति, रंग-भेद नहीं होता। सभी खिलाड़ी पूर्ण शक्ति लगाकर देश की जीत में बराबर के हिस्सेदार होते हैं । अतः खेलों के प्रसार से आपसी सद्भावना एवं एकता को बढ़ावा मिलता है तथा देश की अनेक समस्याओं का समाधान हो जाता है। राजनीतिक भावना से खेल खेलना विश्व-बंधुत्व को समाप्त करना है। रूस द्वारा ओलंपिक खेलों का आयोजन करने पर अमेरिका द्वारा उसका बहिष्कार किया जाना इसका एक उदाहरण है। इसी प्रकार अमेरिका द्वारा आयोजित खेलों में रूस तथा उसके सहयोगी देशों का भाग न लेना ओलंपिक खेलों के मूल आधार को ठेस पहुंचाता है । ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए कड़े कदम उठाना हम सबके लिए अति-आवश्यक है।

प्रश्न 7.
खेलकूद द्वारा संस्कृति का विकास कैसे संभव है?
अथवा
क्या खेलकूद मनुष्य की सांस्कृतिक विरासत हैं? स्पष्ट करें। अथवा
“खेलकूद, मनुष्य की एक सांस्कृतिक विरासत है।” इस कथन पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
अथवा
मानव की सांस्कृतिक विरासत के रूप में खेलकूद’ पर एक लेख लिखें।
उत्तर:
संस्कृति मनुष्य की सबसे बड़ी धरोहर है। यह संस्कृति ही है जो मनुष्य को पशुओं से पृथक् करती है। संस्कृति व्यक्ति के समूह में रहन-सहन के ढंग, जीवन-विधि, विचारधारा आदि से संबंधित मानी जाती है। जीवन में खेलकूद का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना कि पृथ्वी पर मानव-जीवन। खेलकूद शारीरिक गतिविधियों का दूसरा रूप है। जब से मनुष्य ने धरती पर जन्म लिया है, वह किसी-न-किसी प्रकार की गतिविधियाँ करता ही आया है। प्राचीनकाल में शिकार खेलना, भाले का प्रयोग करना, तीर चलाना, शिकार के पीछे भागना आदि एक प्रकार से खेल ही थे। धीरे-धीरे इन क्रियाओं में बढ़ोतरी हुई तथा नाच-गाना आदि सम्मिलित होने लगा। खेलों के प्रति इसी रुझान से यूनान में ओलंपिक खेलों का जन्म हुआ।

सांस्कृतिक विरासत का अर्थ उचित परिवर्तनों के साथ मूल्यों, परंपराओं और प्रथाओं आदि का भूत से वर्तमान तक तथा वर्तमान से भविष्य में स्थानांतरण करना है। सांस्कृतिक विरासत प्रत्येक राष्ट्र का गर्व है। कुछ राष्ट्र शारीरिक गतिविधियों या क्रीड़ाओं को संस्कृति का रूप मानते हैं और कुछ सांस्कृतिक विरासत के रूप में देखते हैं। हमारे पूर्वज इन क्रियाओं में अपने बच्चों को निपुण बनाना अपना धर्म समझते थे और इन्हें जीवन का अभिन्न अंग मानते थे। इस प्रकार के प्रयास के कारण हमारे पूर्वज जो क्रियाएँ करते थे वे आधुनिक युग में किसी-न-किसी रूप में अभी भी प्रचलित हैं।

प्रश्न 8.
समूह की गतिशीलता की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
अथवा
समूह की गत्यात्मकता (Group Dynamic) पर संक्षिप्त चर्चा करें।
उत्तर:
समूह की गतिशीलता (गत्यात्मकता) का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1924 में मैक्सवर्थीमर (Max Wertheimer) ने किया। डायनैमिक (Dynamic) शब्द ग्रीक भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है-शक्ति । इस प्रकार समूह की गतिशीलता/गत्यात्मकता का अर्थ उन शक्तियों या गतिविधियों से होता है जो एक समूह के अंदर कार्य करती हैं।

हम इस तथ्य को जानते हैं कि शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है। किसी व्यक्ति के व्यवहार में यह वांछनीय परिवर्तन लाती है। जब एक बच्चे का विद्यालय में प्रवेश होता है, तो वह विद्यालय तथा अपनी कक्षा के वातावरण को समझने की कोशिश करता है। वह दूसरे बच्चों से मिलने की इच्छा करता है, और उनमें से कुछ एक की तरह व्यवहार करने की भी इच्छा करता है। वह अपने अध्यापकों से भी प्रशंसा चाहता है ताकि दूसरे बच्चे उसके बारे में अच्छा दृष्टिकोण या विचार रख सकें। इस प्रकार उसका व्यवहार लगातार प्रभावित होता रहता है। विशेष रूप से वह अपने समूह के सदस्यों द्वारा प्रभावित होता है। वे शक्तियाँ, जो विद्यालय के वातावरण में उसको प्रभावित करती हैं, उसके उचित व्यवहार के प्रतिरूप के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती हैं।

प्रश्न 9.
मानव का विकास समाज से संभव है। व्याख्या करें।
अथवा
मनुष्य और समाज का परस्पर क्या संबंध है?
उत्तर:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। आधुनिक युग में मानव-संबंधों की आवश्यकता पहले से अधिक अनुभव की जाने लगी है। कोई भी व्यक्ति अपने-आप में पूर्ण नहीं है। किसी-न-किसी कार्य के लिए उसे दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। इन्हीं जरूरतों के कारण समाज में अनेक संगठनों की स्थापना की गई है। समाज द्वारा ही मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। अतः मनुष्य समाज पर आश्रित रहता है तथा इसके द्वारा ही उसका विकास संभव है।

प्रश्न 10.
स्कूल या शैक्षिक संस्थाओं का सामाजीकरण में क्या योगदान है?
उत्तर:
स्कूल या शैक्षिक संस्थाएँ बच्चे के सामाजीकरण पर प्रभाव डालती हैं। इन संस्थाओं का बच्चों के व्यवहार पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। अगर बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़ता है तो उसका प्रभाव अच्छा पड़ता है। इसके विपरीत यदि बच्चा ऐसे स्कूल में पढे जहाँ पढ़ाई पर अधिक ध्यान न दिया जाए तो उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। स्कूल के अनुशासन, स्वच्छ वातावरण और अच्छे शिक्षकों का बच्चे पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आज के भौतिक एवं वैज्ञानिक युग में प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चे को हर स्थिति में अच्छी-से-अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते हैं ताकि वह अच्छी शिक्षा प्राप्त कर अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सके। इस प्रकार स्कूल या शैक्षिक संस्थाओं का सामाजीकरण में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

प्रश्न 11.
शारीरिक शिक्षा में नेतृत्व के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा में निम्नलिखित दो प्रकार का नेतृत्व होता है
1.अध्यापक का नेतृत्व-शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापक का नेतृत्व बहुत ही आवश्यक है। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक या शिक्षक कुशल होना चाहिए तभी वह शिक्षण संस्थान के लिए व विद्यार्थियों के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है। भारतवर्ष में शारीरिक शिक्षा के बहुत से संस्थान हैं। इसलिए शारीरिक शिक्षा के अध्यापक को अब अपना नेतृत्व ठीक ढंग से करना पड़ेगा, अन्यथा विद्यार्थियों पर इसका नकारात्मक प्रभाव हो सकता है। उनको अब अधिक कार्य करना पड़ेगा तथा सुनियोजित ढंग से शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम चलाने होंगे। तभी वे शारीरिक शिक्षा के अच्छे नेता सिद्ध हो सकते हैं। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में एक शिक्षक के नेतृत्व का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि वह विद्यार्थियों के काफी समीप होता है। उसके व्यक्तित्व व गुणों का प्रभाव अवश्य ही विद्यार्थियों पर पड़ता है।

2. विद्यार्थी का नेतृत्व-कॉलेज के स्तर पर शारीरिक शिक्षा ऐच्छिक विषय के रूप में शुरू होने से विद्यार्थी के नेतृत्व को बढ़ावा मिल गया है। खेलकूद एवं शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थी को बहुत-से कार्य करने पड़ते हैं। उन्हें कई बार अपने शारीरिक शिक्षक की सहायता भी करनी पड़ती है। वास्तव में, प्रशिक्षण या प्रतियोगिताओं के दौरान ऐसे विद्यार्थियों की बहुत आवश्यकता होती है। पिकनिक पर जाते हुए, लंबी दूरी की दौड़ों में और कॉलेजों तथा महाविद्यालयों में अनुशासन ठीक रखने के लिए उनकी काफी हद तक जिम्मेदारी होती है। इसके अतिरिक्त खेलों के समय जब अभ्यास किया जाता है या किसी प्रतियोगिता के लिए टीम बाहर जाती है तो उस समय भी विद्यार्थियों के नेतृत्व की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 12.
विद्यार्थी नेता को कैसे चुना जाता है?
अथवा
विद्यार्थी नेता को किन-किन ढंगों या तरीकों से चुना जा सकता है?
उत्तर:
विद्यार्थी नेता को निम्नलिखित ढंग अपनाकर चुना जा सकता है
1. मनोनीत करना-इस ढंग के अनुसार विद्यार्थी अपना नेता स्वयं नहीं चुनते, क्योंकि छोटी कक्षा के बच्चे अपना नेता चुनने में असमर्थ होते हैं। इसीलिए अध्यापक सब विद्यार्थियों के गुणों को ध्यान में रखकर उस विद्यार्थी को नेता बनाते हैं, जिसमें नेतृत्व वाले गुण होते हैं।

2. चुनाव करवाना-यह ढंग आमतौर पर बड़े विद्यार्थियों में अपनाया जाता है, क्योंकि यह उस स्थिति में होता है जिसमें वे अपना बुरा-भला खुद समझ सकते हैं। इस तरह सभी विद्यार्थी अपनी जिम्मेवारी समझकर अपना नेता चुनते हैं। यह ठीक है कि इस तरीके में बहुत मुश्किलें आती हैं । विद्यार्थी अलग-अलग दलों में बँट जाते हैं जोकि बाद में झगड़े का रूप धारण कर लेते हैं। परंतु योग्य अध्यापक के नेतृत्व में ये झगड़े जल्दी सुलझाए जा सकते हैं।

3. लॉटरी द्वारा-इसके अनुसार नेता की चुनाव प्रक्रिया लॉटरी निकालकर की जाती है। इसका उपयोग उस समय किया जाता है जब कक्षा में सारे विद्यार्थी एक ही प्रकार के गुण आदि रखते हों। इसमें किस्मत का बहुत हाथ होता है। इसमें नुकसान भी हो सकता है। कभी-कभी तो पर्ची या लॉटरी ऐसे विद्यार्थी की निकल जाती है, जिसमें नेतृत्व के गुण नहीं होते। इससे सारी कक्षा को नुकसान उठाना पड़ता है।

4. बारी-बारी लीडर बनना-इसका उपयोग उस समय किया जाता है जब सारे विद्यार्थी नेतृत्व की योग्यता रखते हों। इसमें प्रत्येक विद्यार्थी को बारी-बारी से मॉनीटर या अगवाई का मौका दिया जाता है। इसमें सबसे बड़ा नुकसान यह है कि प्रत्येक विद्यार्थी अपने तरीके से कक्षा का प्रबंध आदि करता है, जिससे कक्षा में अनुशासन की कमी आ जाती है।

5. योग्यतानुसार चयन-इसके अनुसार कक्षा में सबसे अधिक योग्यता रखने वाले विद्यार्थी को ही नेता बनाया जाता है। कई खेलों में तो यह तरीका बहुत महत्त्वपूर्ण है; जैसे जिम्नास्टिक, तैराकी आदि में। इस तरह विद्यार्थी जरूरत पड़ने पर अपना योगदान दे सकते हैं।

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प्रश्न 13.
सामाजिक मूल्यों को विकसित करने में शारीरिक शिक्षा की भूमिका का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा का सामाजीकरण में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है। शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य खिलाड़ी या व्यक्ति में ऐसे सामाजिक मूल्यों को विकसित करना है जिससे समाज में रहते हुए वह सफलता से जीवनयापन करते हुए जीवन का पूरा आनंद उठा सके। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से निम्नलिखित सामाजिक गुणों या मूल्यों को विकसित किया जा सकता है
(1) खेल या शारीरिक शिक्षा मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन लाती है।
(2) शारीरिक शिक्षा से त्याग की भावना पैदा होती है।
(3) शारीरिक शिक्षा व खेलों से खिलाड़ियों में तालमेल की भावना जागरूक होती है।
(4) मानव के समुचित विकास के लिए सहनशीलता व धैर्यता अत्यन्त आवश्यक है। जिस व्यक्ति में सहनशीलता व धैर्यता होती है वह स्वयं को समाज में भली-भाँति समायोजित कर सकता है। शारीरिक शिक्षा अनेक ऐसे अवसर प्रदान करती है जिससे उसमें इन गुणों को बढ़ाया जा सकता है।
(5) समाज में रहकर हमें एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य करना पड़ता है। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से सहयोग की भावना में वृद्धि होती है।
(6) शारीरिक शिक्षा खिलाड़ी में सामूहिक उत्तरदायित्व जैसे गुण पैदा करती है। खेलों में बहुत-सी ऐसी क्रियाएँ हैं जिनमें खिलाड़ी एक-जुट होकर इन क्रियाओं को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं।

प्रश्न 14.
परिवार, व्यक्ति के व्यवहार पर किस प्रकार प्रभाव डालता है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परिवार सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है। बच्चा इसी संस्था में जन्म लेता है और इसी में पलता है। परिवार में बच्चा अपने माता-पिता तथा भाई-बहनों से सामाजीकरण का प्रथम पाठ पढ़ता है। परिवार में माता-पिता और दूसरे सदस्यों के आपसी संबंध, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ, पारिवारिक मूल्य और परंपराएँ बच्चों के व्यवहार पर गहरा प्रभाव डालती हैं। इसलिए कहते हैं कि परिवार में अच्छे वातावरण का होना बहुत आवश्यक है। अगर परिवार में सदस्यों के आपसी संबंध ठीक न हों, तनाव बना रहता हो तथा सभी सदस्यों की प्राथमिक जरूरतें पूरी न होती हों तो बच्चे बुरी आदतों के शिकार हो सकते हैं । इसलिए जरूरी है कि परिवार में माता-पिता अच्छे वातावरण का निर्माण करें जिससे बच्चे या व्यक्ति में अच्छे गुणों व आदतों का विकास हो सके।

अगर परिवार को व्यक्तित्व निखारने की संस्था कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। आमतौर पर यह देखने में आया है कि जिस परिवार की रुचि संगीत कला, नृत्य-कला, खेलकूद या किसी और विशेष क्षेत्र में होती है, उस परिवार के बच्चे की रुचि प्राकृतिक रूप से उसी क्षेत्र में हो जाती है। अगर परिवार की रुचि खेलकूद के क्षेत्र में या किसी विशेष खेल में है तो उस परिवार में बढ़िया खिलाड़ी पैदा होना या उस खेल के प्रति दिलचस्पी रखना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। इस प्रकार परिवार व्यक्तिगत व समूह व्यवहार को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

प्रश्न 15.
ग्रीस में खेल के ऐतिहासिक विकास का उल्लेख करें।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा का जन्मदाता यूनान/ग्रीस को माना जाता है। ग्रीस में सैनिकों को शारीरिक दृष्टि से मजबूत करने हेतु प्रशिक्षण दिया जाता था। धीरे-धीरे कुछ नियम बनते गए, जिससे ये शारीरिक प्रशिक्षण खेलकूद या शारीरिक शिक्षा में परिवर्तित होते गए। ग्रीस के लोगों को खेलों में विशेष रुचि थी। उन्होंने ही ओलंपिक खेल विश्व को प्रदान किए।आज ओलंपिक खेलों की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई है कि प्रत्येक देश इनमें भाग लेने और अच्छे-से-अच्छा प्रदर्शन करने के लिए प्रयास करता है, ताकि वह विश्व पर अपना प्रभाव छोड़ सके। वे खेलों की उपयोगिता को अच्छे से जानते थे। इसी कारण ग्रीस में खेलकूद को शिक्षा का अभिन्न अंग समझा जाता था। खेलों की दृष्टि से यूनानी सभ्यता को खेलों का स्वर्ण काल कहा जा सकता है। प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो के अनुसार, “शरीर के लिए जिम्नास्टिक और आत्मा के लिए संगीत का विशेष महत्त्व है।”

प्रश्न 16.
भारत में खेलों के ऐतिहासिक विकास का उल्लेख करें।
उत्तर:
खेलकूद की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है। प्राचीनकाल में शिष्य अपने गुरुओं से धार्मिक ग्रंथों तथा दर्शनशास्त्र का अध्ययन करने के अतिरिक्त युद्ध एवं खेल कौशल में भी प्रशिक्षण प्राप्त करते थे। इनमें मुख्य रूप से तीरंदाजी, घुड़सवारी, भाला फेंकना, तलवार चलाना, मल्लयुद्ध आदि क्रियाएँ सम्मिलित थीं। भगवान श्रीकृष्ण, कर्ण, अर्जुन आदि धनुर्विद्या में प्रसिद्ध थे। भीम एक महान् पहलवान था। दुर्योधन मल्लयुद्ध में कुशल था। इसी प्रकार चौपड़, शतरंज, खो-खो, कुश्ती और कबड्डी आदि खेलों का उल्लेख भी भारतीय इतिहास में मिलता है। आधुनिक भारत में क्रिकेट बहुत लोकप्रिय खेल बन गई है। आज लगभग सभी आधुनिक खलों में भारत का विशेष योगदान है। संक्षेप में भारत में खेलों का इतिहास बहुत पुराना और विकसित है।।

प्रश्न 17.
नेतृत्व के विभिन्न प्रकार कौन-कौन-से हैं?
अथवा
नेता के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नेतृत्व/नेता के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं
1.संस्थागत नेता-इस प्रकार के नेता संस्थाओं के मुखिया होते हैं। स्कूल, कॉलेज, परिवार, फैक्टरी या दफ्तर आदि को मुखिया की आज्ञा का पालन करना पड़ता है।
2. प्रभुता-संपन्न या तानाशाही नेता-इस प्रकार का नेतृत्व एकाधिकारवाद पर आधारित होता है। इस प्रकार का नेता अपने आदेशों का पालन शक्ति से करवाता है और यहाँ तक कि समूह का प्रयोग भी अपने हित के लिए करता है। यह नेता नियम और आदेशों को समूह में लागू करने का अकेला अधिकारी होता है। स्टालिन, नेपोलियन और हिटलर इस प्रकार के नेता के उदाहरण हैं।
3. आदर्शवादी या प्रेरणात्मक नेता-इस प्रकार का नेता समूह पर अपना प्रभाव तर्क-शक्ति से डालता है और समूह अपने नेता के आदेशों का पालन अक्षरक्षः (ज्यों-का-त्यों) करता है। समूह के मन में अपने नेता के प्रति सम्मान होता है। नेता समूह या लोगों की भावनाओं का आदर करता है। महात्मा गाँधी, अब्राहम लिंकन, जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री इस तरह के नेता थे।
4. विशेषज्ञ नेता-समूह में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको किसी विशेष क्षेत्र में कुशलता हासिल होती है और वे अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं। ये नेता अपनी कुशल सेवाओं को समूह की बेहतरी के लिए इस्तेमाल करते हैं और समूह इन कुशल सेवाओं से लाभान्वित होता है। इस तरह के नेता अपने विशेष क्षेत्र; जैसे डॉक्टरी, प्रशिक्षण, इंजीनियरिंग तथा कला-कौशल के विशेषज्ञ होते हैं।

प्रश्न 18.
एक अच्छे नेता में कौन-कौन से गुण होने चाहिएँ? अथवा
उत्तर:
एक अच्छे नेता में निम्नलिखित गुण होने चाहिएँ
(1) एक अच्छे नेता में पेशेवर प्रवृत्तियों का होना अति आवश्यक है। अच्छी पेशेवर प्रवृत्तियों का होना न केवल नेता के लिए आवश्यक है बल्कि समाज के लिए भी अति-आवश्यक है।
(2) एक अच्छे नेता की सोच सकारात्मक होनी चाहिए, ताकि बच्चे और समाज उससे प्रभावित हो सकें।
(3) उसमें ईमानदारी, निष्ठा, समय-पालना, न्याय-संगतता एवं विनम्रता आदि गुण होने चाहिएँ।
(4) उसके लोगों के साथ अच्छे संबंध होने चाहिएं।
(5) उसमें भावनात्मक संतुलन एवं सामाजिक समायोजन की भावना होनी चाहिए।
(6) उसे खुशमिजाज तथा कर्मठ होना चाहिए।
(7) उसमें बच्चों के प्रति स्नेह और बड़ों के प्रति आदर-सम्मान की भावना होनी चाहिए।
(8) उसका स्वास्थ्य भी अच्छा होना चाहिए, क्योंकि अच्छा स्वास्थ्य अच्छी आदतें विकसित करने में सहायक होता है।
(9) उसका मानसिक दृष्टिकोण सकारात्मक एवं उच्च-स्तर का होना चाहिए।

प्रश्न 19.
खेल व स्पर्धा कैसे व्यक्ति व समूह व्यवहार को प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
खेलों में भाग लेने से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है। उसमें नेतृत्व, आत्म-अभिव्यक्ति, सहयोग, अनुशासन, धैर्य आदि अनेक गुण विकसित हो जाते हैं । जीवन की चिंताओं से मुक्ति पाने हेतु भी खेल व स्पर्धा बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। ये खिलाड़ियों के मनोभावों, रिवाजों, संस्कृतियों व व्यवहार को समझने हेतु अवसर प्रदान करते हैं। अतः इनके कारण व्यक्ति व समूह व्यवहार काफी प्रभावित होता है। व्यक्ति एवं समूह का व्यवहार सकारात्मक एवं विस्तृत होता है और उनमें अनेक नैतिक एवं सामाजिक गुणों का विकास होता है। ये गुण जीवन में सफल एवं उपलब्धि प्राप्त करने हेतु आवश्यक होते हैं।

प्रश्न 20.
खेल व स्पर्धा से सामाजीकरण को कैसे सुधारा या बढ़ाया जा सकता है?
उत्तर:
खेल व स्पर्धा का संबंध व्यक्ति से होता है। अतः ये प्रत्येक व्यक्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । ये स्वतंत्र व्यवहार का विकास करने में सहायक होते हैं। ये हमें समाज की चिंताओं से भी स्वतंत्र करते हैं। इनके द्वारा हम कोई भी प्रशासनिक, नैतिक एवं सामाजिक गुण विकसित कर सकते हैं अर्थात् संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास खेल व स्पर्धा से संभव है। इनके माध्यम से समाज के प्रति सकारात्मक व सामाजिक दृष्टिकोण को बढ़ावा मिलता है। इस तरह खेल व स्पर्धा से सामाजीकरण को सुधारा जा सकता है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 21.
शारीरिक शिक्षा, स्वस्थ जीवन व्यतीत करने में कैसे सहायता करती है?
उत्तर:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज के साथ रहना पड़ता है। यदि व्यक्ति को सफल जीवन व्यतीत करना है तो उसे स्वयं को पूर्ण रूप से स्वस्थ रखना होगा। इस कार्य में शारीरिक शिक्षा उसको महत्त्वपूर्ण सहायता प्रदान करती है। शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करती है और उन्हें विकसित करने में सहायक होती है। शारीरिक शिक्षा कई ऐसे अवसर प्रदान करती है जिससे व्यक्ति में अनेक सामाजिक एवं नैतिक गुणों का विकास होता है। इसके माध्यम से वह अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहता है, एक-दूसरे को सहायता करता है, दूसरों की भावनाओं की कदर करता है और मनोविकारों व बुरी आदतों से दूर रहता है। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा, स्वस्थ जीवन व्यतीत करने में सहायता करती है।

प्रश्न 22.
शारीरिक शिक्षा खाली समय का सदुपयोग करना कैसे सिखाती है ?
उत्तर:
किसी ने ठीक ही कहा है कि “खाली दिमाग शैतान का घर होता है।” (An idle brain is a devil’s workshop.) यह आमतौर पर देखा जाता है कि खाली या बेकार व्यक्ति को हमेशा शरारतें ही सूझती हैं। कभी-कभी तो वह इस प्रकार के अनैतिक कार्य करने लग जाता है, जिनको सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं समझा जा सकता। खाली या बेकार समय का सदुपयोग न करके उसका दिमाग बुराइयों में फंस जाता है। शारीरिक शिक्षा में अनेक शारीरिक क्रियाएँ शामिल होती हैं। इन क्रियाओं में भाग लेकर हम अपने समय का सदुपयोग कर सकते है। अतः शारीरिक शिक्षा व्यक्ति को खाली समय का सदुपयोग करना सिखाती है।

खाली समय का प्रयोग यदि खेल के मैदान में खेलें खेलकर किया जाए तो व्यक्ति के हाथ से कुछ नहीं जाता, बल्कि वह कुछ प्राप्त ही करता है। खेल का मैदान जहाँ खाली समय का सदुपयोग करने का उत्तम साधन है, वहीं व्यक्ति की अच्छी सेहत बनाए रखने का भी उत्तम साधन है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति को एक अच्छे नागरिक के गुण भी सिखा देता है।

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न [Very Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
सोशिओलॉजी (Sociology) शब्द का शाब्दिक अर्थ बताएँ।
अथवा
समाजशास्त्र का अर्थ स्पष्ट करें।
अथवा
‘सोशिओलॉजी’ शब्द लैटिन भाषा के किस शब्द से लिया गया है?
उत्तर:
सोशिओलॉजी (Sociology) शब्द लैटिन भाषा के ‘Socios’ और ग्रीक भाषा के ‘Logos’ शब्द से मिलकर बना है। ‘Socios’ का अर्थ-समाज और ‘Logos’ का अर्थ-शास्त्र या विज्ञान है। अतः समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिए।
अथवा
समाजशास्त्र की कोई दो परिभाषा लिखें।
उत्तर:
1. आई०एफ० वार्ड के अनुसार, “समाजशास्त्र, समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।”
2. गिलिन व गिलिन के कथनानुसार, “व्यक्तियों के एक-दूसरे के संपर्क में आने के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली अंतःक्रियाओं के अध्ययन को ही समाजशास्त्र कहा जाता है।”

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 3.
सामाजीकरण (Socialization) का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे व्यक्ति अपने समुदाय या वर्ग का सक्रिय सदस्य बनकर उसकी परंपराओं या कर्तव्यों का पालन करता है | स्वयं को सामाजिक वातावरण के अनुरूप ढालना सीखता है । यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा वह सांस्कृतिक और व्यक्तिगत विशेषताओं को प्राप्त कर लेता है।

प्रश्न 4.
सामाजीकरण को परिभाषित कीजिए।
अथवा
सामाजीकरण की कोई दो परिभाषा लिखें।
उत्तर:
1, जॉनसन के अनुसार, “सामाजीकरण एक प्रकार की शिक्षा है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने के योग्य बना देती है।”
2. अरस्तू के अनुसार, “सामाजीकरण संस्कृति के बचाव के लिए सामाजिक मूल्यों को प्राप्त करने की प्रक्रिया है।”

प्रश्न 5.
देश में स्थापित उन प्रमुख केंद्रों के नाम लिखिए जो नेतृत्व प्रशिक्षण प्रदान करते हैं।
अथवा
भारत में नेतृत्व प्रशिक्षण संस्थानों के नाम बताइए।
उत्तर:
(1) Y.M.C.A., चेन्नई,
(2) L.N.C.P.E., ग्वालियर,
(3) गवर्नमैंट कॉलेज फिज़िकल एज्यूकेशन, पटियाला,
(4) नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पो, पटियाला।
इसके अतिरिक्त अनेक प्रशिक्षण कॉलेज तथा विभाग देश के विभिन्न भागों; जैसे अमृतसर, चंडीगढ़, कोलकाता, नागपुर, दिल्ली, अमरावती, कुरुक्षेत्र आदि में कार्यरत हैं।

प्रश्न 6.
समाजशास्त्र किस प्रकार अनुशासन बनाने में सहायता करता है?
उत्तर:
समाजशास्त्र समग्र समाज का अध्ययन है। इसके अंतर्गत सामाजिक संबंधों के संपूर्ण क्षेत्र का अध्ययन आ जाता है। इसके अध्ययन द्वारा सामाजिक जीवन में आने वाली बाधाओं को भली-भांति समझा जाता है और उनको दूर करने का व्यावहारिक प्रयास किया जाता है, ताकि व्यक्ति के व्यक्तित्व का समुचित एवं सर्वांगीण विकास हो सके। जब समाज में व्यक्ति को उचित एवं अनुकूल वातावरण मिलेगा तो वे निश्चित रूप में अपने-आपको अनुशासित एवं संगठित करने का प्रयास करेंगे। इस प्रकार समाजशास्त्र अनुशासन बनाने में सहायता करता है।

प्रश्न 7.
सामाजिक संस्था से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सामाजिक संस्थाएँ वे संस्थाएँ होती हैं जो व्यक्ति में सामाजिक गुणों के विकास में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं और उसे सामाजीकरण का ज्ञान प्रदान करती हैं।

प्रश्न 8.
शारीरिक शिक्षा से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा, शिक्षा का वह अभिन्न अंग है, जो खेलकूद तथा अन्य शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से, व्यक्तियों में एक चुनी हुई दिशा में, परिवर्तन लाने का प्रयास करता है। इससे केवल बुद्धि तथा शरीर का ही विकास नहीं होता, बल्कि यह व्यक्ति के स्वभाव, चरित्र एवं आदतों के निर्माण में भी सहायक होती है। अतः शारीरिक शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के संपूर्ण (शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक) व्यक्तित्व का विकास होता है।

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प्रश्न 9.
शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य क्या है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य विद्यार्थी को इस प्रकार तैयार करना है कि वह एक सफल एवं स्वस्थ नागरिक बनकर अपने परिवार, समाज व राष्ट्र की समस्याओं का समाधान करने की क्षमता या योग्यता उत्पन्न कर सके और समाज का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनकर सफलता से जीवनयापन करते हुए जीवन का पूरा आनंद उठा सके।

प्रश्न 10.
शारीरिक शिक्षा में ग्रीस को महत्त्वपूर्ण स्थान क्यों दिया जाता है?
उत्तर:
ग्रीस को शारीरिक शिक्षा का जन्मदाता माना जाता है। ग्रीस ने ही सर्वप्रथम शिक्षा में इस विषय को स्थान दिया है। ग्रीस के लोगों ने ही विश्व को खेलों का ज्ञान प्रदान किया। आज विश्व जो ओलंपिक खेल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित करता है, वह ग्रीस की देन है। ग्रीसवासियों की खेलों में विशेष रुचि के कारण ही खेलों को शिक्षा में शामिल किया गया। इसी कारण शारीरिक शिक्षा में ग्रीस को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।

प्रश्न 11.
सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritage) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सांस्कृतिक विरासत का अर्थ उचित परिवर्तनों के साथ मूल्यों, परंपराओं और प्रथाओं आदि का भूत से वर्तमान तक तथा वर्तमान से भविष्य में स्थानांतरण करना है। सांस्कृतिक विरासत प्रत्येक राष्ट्र का गर्व है। कुछ राष्ट्र शारीरिक गतिविधियों या क्रीड़ाओं को संस्कृति का रूप मानते हैं और कुछ सांस्कृतिक विरासत के रूप में देखते हैं। हमारे पूर्वज इन क्रियाओं में अपने बच्चों को निपुण बनाना अपना धर्म समझते थे और इन्हें जीवन का अभिन्न अंग मानते थे। इस प्रकार के प्रयास के कारण हमारे पूर्वज जो क्रियाएँ करते थे वे आधुनिक युग में किसी-न-किसी रूप में अभी भी प्रचलित हैं।

प्रश्न 12.
खेल व स्पर्धाओं में भाग लेने से नेतृत्व के गुणों का विकास कैसे होता है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में नेतृत्व करने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। जब कोई खिलाड़ी या व्यक्ति किसी शारीरिक गतिविधि या खेल व स्पर्धा में भाग लेता है तो वह किसी प्रशिक्षक के नेतृत्व में खेल संबंधी नियम प्राप्त करता है। वह प्रशिक्षक से गतिविधि व स्पर्धा संबंधी सभी आवश्यक निर्देश प्राप्त करता है। इससे उसमें नेतृत्व के गुण विकसित होते हैं। कई बार प्रतियोगिताओं का प्रतिनिधित्व करना भी नेतृत्व के गुणों के विकास में सहायक होता है।

प्रश्न 13.
संस्कृति (Culture) किसे कहते हैं? अथवा संस्कृति को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
प्रत्येक पीढ़ी ने अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान व कला का अधिक-से-अधिक विकास किया है और नवीन ज्ञान व अनुभवों का भी अर्जन किया है। इस प्रकार के ज्ञान व अनुभव के अंतर्गत प्रथाएँ, विचार व मूल्य आते हैं, इन्हीं के संग्रह को संस्कृति कहा जाता है। रॉबर्ट बीरस्टीड के अनुसार, “संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है जिसमें वे सभी वस्तुएँ शामिल हैं जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं।”

प्रश्न 14.
शारीरिक शिक्षा के मूलभूत सिद्धांत बताएँ।
उत्तर:
(1) समाजशास्त्रीय/सामाजिक सिद्धांत (Sociological Principles)।
(2) मनोवैज्ञानिक सिद्धांत (Psychological Principles)।
(3) जैविक सिद्धांत (Biological Principles)।

प्रश्न 15.
समूह निर्माण के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:
(1) सामूहिक जीवन व वातावरण के विकास हेतु।
(2) व्यक्तिगत प्रशिक्षण की अपेक्षा सामूहिक गतिविधियों के माध्यम से बाधाओं को दूर करने हेतु।

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प्रश्न 16.
शारीरिक शिक्षा के द्वारा प्राप्त किए जाने वाले सामाजिक मूल्य बताइए।
उत्तर:
(1) नेतृत्व की भावना,
(2) अनुशासन की भावना,
(3) धैर्यता,
(4) सहनशीलता,
(5) त्याग की भावना,
(6) सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार,
(7) आत्म-विश्वास की भावना,
(8) सामूहिक एकता,
(9) सहयोग की भावना,
(10) खेल-भावना।

प्रश्न 17.
समूह क्या है?
अथवा
समूह (Group) को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
समूह एक ऐसी सामाजिक अवस्था है जिसमें सभी इकट्ठे होकर कार्य करते हैं और अपने-अपने विचारों या भावनाओं को संतुष्ट करते हैं। इसके द्वारा एकीकरण, मित्रता, सहयोग व सहकारिता के विचारों को बढ़ावा मिलता है। समूह में समान उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इकट्ठे होकर कार्य किया जाता है।

प्रश्न 18.
प्राथमिक समूह से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
प्राथमिक समूह वह पारिवारिक समूह है जिसमें भावनात्मक संबंध, घनिष्ठता, प्रेम-भाव प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसमें सशक्त सामाजीकरण, अच्छे चरित्र तथा आचरण का विकास होता है। इस समूह के सदस्य एक-दूसरे से अपनी गतिविधियों व संस्कृति संबंधी वार्तालाप करते हैं।

प्रश्न 19.
द्वितीयक समूह से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
द्वितीयक समूह प्राथमिक समूह से अधिक विस्तृत होता है। यह एक ऐसा समूह है जिसमें अप्रत्यक्ष, प्रभावरहित, औपचारिक संबंध होते हैं। इस समूह में सम्मिलित सदस्यों में कोई भावनात्मक संबंध नहीं होता। ऐसे समूहों में स्वार्थ-प्रवृत्तियाँ अधिक पाई जाती हैं।

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प्रश्न 20.
शारीरिक शिक्षा साम्प्रदायिकता को कैसे रोकने में सहायक होती है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, रंग-रूप, धर्म, वर्ग, समुदाय के भेदभाव को स्वीकार नहीं करती।साम्प्रदायिकता हमारे देश के लिए बहुत घातक है। शारीरिक शिक्षा इस खतरे को समाप्त कर राष्ट्र हित की ओर अग्रसर कर देती है। खिलाड़ी सभी बंधनों को तोड़कर एक राष्ट्रीय टीम में भाग लेकर अपने देश का नाम ऊँचा करते हैं। किसी प्रकार के देश विरोधी दंगों में नहीं पड़ते। शारीरिक शिक्षा लोगों में साम्प्रदायिकता की भावना को खत्म करके राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि करती है।

प्रश्न 21.
शारीरिक शिक्षा समूह के आपसी लगाव व एकता में कैसे सहायता करती है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा समूह के आपसी लगाव और एकता को बढ़ाने में मदद करती है। यदि एक टीम में आपसी संबंध या लगाव हो और एकता न हो तो उस टीम का खेल स्तर अच्छा होने पर भी, उसका जीतना मुश्किल होता है । शारीरिक शिक्षा से सामाजिक गुणों का विकास होता है और यही सामाजिक गुण आपसी संबंधों और एकता को बढ़ावा देते हैं।

प्रश्न 22.
शारीरिक शिक्षा प्रान्तवाद या क्षेत्रवाद को कैसे रोकने में सहायक होती है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा में प्रान्तवाद या क्षेत्रवाद का कोई स्थान नहीं है। जब कोई खिलाड़ी शारीरिक क्रियाएँ करता या कोई खेल खेलता है तो उस समय उसमें क्षेत्रवाद की कोई भावना नहीं होती। विभिन्न प्रान्तों या राज्यों के खिलाड़ी खेलते समय आपस में सहयोग करते हुए एक-दूसरे की भावनाओं का सत्कार करते हैं, जिससे उनमें राष्ट्रीय एकता की वृद्धि होती है। राष्ट्रीय एकता समृद्ध होती है और देश शक्तिशाली बनता है।

प्रश्न 23.
नेतृत्व (Leadership) से आप क्या समझते हैं?
अथवा
नेतृत्व की कोई दो परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
मानव में नेतृत्व की भावना आरंभ से ही होती है। किसी भी समाज की वृद्धि या विकास उसके नेतृत्व की विशेषता पर निर्भर करती है। नेतृत्व व्यक्ति का वह गुण है जिससे वह दूसरे व्यक्तियों के जीवन के विभिन्न पक्षों में मार्गदर्शन करता है।
1. मॉण्टगुमरी के अनुसार, “किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए व्यक्तियों को इकट्ठा करने की इच्छा तथा योग्यता को ही नेतृत्व कहा जाता है।”
2. ला-पियरे व फा!वर्थ के अनुसार, “नेतृत्व एक ऐसा व्यवहार है जो लोगों के व्यवहार पर अधिक प्रभाव डालता है, न कि लोगों के व्यवहार का प्रभाव उनके नेता पर।” ।

प्रश्न 24.
हमें एक नेता की आवश्यकता क्यों होती है?
उत्तर:
नेता जनता का प्रतिनिधि होता है। वह सरकार या प्रशासन को लोगों की आवश्यकताओं व समस्याओं से अवगत करवाता है। वह लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रयास करता है। एक नेता के माध्यम से ही जनता अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एवं समस्याओं के निवारण हेतु प्रयास करती है। इसलिए हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एवं समस्याओं के निवारण हेतु एक नेता की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 25.
सुनागरिक बनाने में शारीरिक शिक्षा का क्या योगदान है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा मनुष्य के शरीर, मन और बुद्धि तीनों का एक-साथ विकास करती है जो व्यक्ति के सुनागरिक बनने के लिए आवश्यक हैं। यह स्वाभाविक है कि शरीर के विकास के साथ-साथ मानसिक या बौद्धिक विकास भी होता है। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से श्रेष्ठ विचारों की पूर्ति होती है। इसलिए शारीरिक शिक्षा एक अच्छे नागरिक के गुणों का विकास करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। मॉण्टेग्यू के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा न तो मस्तिष्क का और न ही शरीर का प्रशिक्षण करती है, बल्कि यह संपूर्ण . व्यक्ति का प्रशिक्षण करती है।”

प्रश्न 26.
एक अच्छे नेता का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
प्रत्येक समाज या देश के लिए एक अच्छा नेता बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि वह समाज और देश को एक नई दिशा देता है। अच्छे नेता में एक खास किस्म के गुण होते हैं जिनके कारण वह सभी को एकत्रित कर काम करने के लिए प्रेरित करता है। वह प्रशासन को लोगों की आवश्यकताओं से अवगत करवाता है।

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HBSE 12th Class Physical Education शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रकार के प्रश्न] [Objective Type Questions]

भाग-I: एक शब्द/वाक्य में उत्तर दें-

प्रश्न 1.
समाज क्या है?
उत्तर:
समाज सामाजिक संबंधों का एक जाल है।

प्रश्न 2.
मनुष्य को कैसा प्राणी कहा गया है?
अथवा
मनुष्य कैसा प्राणी है?
उत्तर:
मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा गया है।

प्रश्न 3.
‘समाजशास्त्र’ किस भाषा का शब्द है?
उत्तर:
‘समाजशास्त्र’ लैटिन भाषा का शब्द है।

प्रश्न 4.
‘समाजशास्त्र, समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।’ यह किसका कथन है?
उत्तर;
आई० एफ० वार्ड का।

प्रश्न 5.
जॉनसन द्वारा दी गई समाजशास्त्र की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
जॉनसन के अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का विज्ञान है-सामाजिक समूह सामाजिक अंतःक्रियाओं की ही एक व्यवस्था है।”

प्रश्न 6.
“समाजशास्त्र का अतीत अत्यधिक लंबा है लेकिन इतिहास उतना ही छोटा है।” यह कथन किसने कहा?
उत्तर:
यह कथन रॉबर्ट बीरस्टीड ने कहा।

प्रश्न 7.
समाजशास्त्र का पिता या जनक किसे कहा जाता है?
उत्तर:
समाजशास्त्र का पिता या जनक ऑगस्ट कॉम्टे को कहा जाता है।

प्रश्न 8.
बच्चा सामाजीकरण का प्रथम पाठ कहाँ से सीखता है?
उत्तर:
बच्चा सामाजीकरण का प्रथम पाठ परिवार से सीखता है।

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प्रश्न 9.
‘डायनैमिक’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किसने किया था?
उत्तर:
‘डायनैमिक’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग मैक्स वर्थीमर ने किया था।

प्रश्न 10.
डायनैमिक (Dynamic) शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर:
डायनैमिक (Dynamic) शब्द ग्रीक भाषा से लिया गया है।

प्रश्न 11.
क्या समाजशास्त्र अच्छे खिलाड़ी बनाने में सहायक है?
उत्तर:
हाँ, समाजशास्त्र अच्छे खिलाड़ी बनाने में सहायक है।

प्रश्न 12.
किस देश को बॉल गेम्स का जन्मदाता कहा जाता है?
उत्तर:
इंग्लैंड को बॉल गेम्स का जन्मदाता कहा जाता है।

प्रश्न 13.
बेसबॉल और वॉलीबॉल का प्रारंभ किस देश से हुआ?
उत्तर:
बेसबॉल और वॉलीबॉल का प्रारंभ अमेरिका से हुआ।

प्रश्न 14.
शारीरिक शिक्षा एवं खेलकूद से किस प्रकार के मूल्यों का विकास होता है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा एवं खेलकूद से सामाजिक व नैतिक मूल्यों का विकास होता है।

प्रश्न 15.
कोई चार सामाजिक मूल्य बताइए।
उत्तर:
(1) धैर्य,
(2) सहयोग की भावना,
(3) बंधुत्व,
(4) सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार।

प्रश्न 16.
“मजबूत शारीरिक नींव के बिना कोई राष्ट्र महान् नहीं बन सकता।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन डॉ० राधाकृष्णन का है।

प्रश्न 17.
“शरीर के लिए जिम्नास्टिक तथा आत्मा के लिए संगीत का विशेष महत्त्व है।” यह कथन किसने कहा?
उत्तर:
यह कथन प्लेटो ने कहा।

प्रश्न 18.
मनुष्य में पाई जाने वाली मूल प्रवृत्तियाँ कौन-कौन-सी हैं?
उत्तर:
(1) शिशु रक्षा,
(2) आत्म प्रदर्शन,
(3) सामूहिकता।

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प्रश्न 19.
समूह की सबसे छोटी इकाई कौन-सी है?
उत्तर:
समूह की सबसे छोटी इकाई परिवार है।

प्रश्न 20.
“समाज के बिना मनुष्य पशु है या देवता।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन अरस्तू का है।

प्रश्न 21.
एक राष्ट्र कैसी संस्था है?
उत्तर:
सामाजिक संस्था।

प्रश्न 22.
उन शक्तियों को क्या कहते हैं जो एक समूह के अंदर कार्य करती हैं?
उत्तर:
समूह की गतिशीलता।

प्रश्न 23.
परिवार कैसी संस्था है?
उत्तर:
सामाजिक संस्था

प्रश्न 24.
नेता का प्रमुख गुण क्या होना चाहिए?
उत्तर:
नेता का प्रमुख गुण ईमानदारी एवं कर्मठता होना चाहिए।

प्रश्न 25.
समूह कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
समूह दो प्रकार के होते हैं।

प्रश्न 26.
सन् 1961 में राष्ट्रीय खेल संस्था कहाँ स्थापित की गई?
उत्तर:
सन् 1961 में राष्ट्रीय खेल संस्था पटियाला में स्थापित की गई।

प्रश्न 27.
Y.M.C.A. की स्थापना किसने और कहाँ की थी?
उत्तर:
Y.M.C.A. की स्थापना शारीरिक शिक्षा के भारतीय प्रचारक श्री एच०सी० बँक ने चेन्नई में की थी।

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प्रश्न 28.
सामाजिक संगठनों का आधार क्या है?
उत्तर:
सामाजिक संगठनों का आधार परिवार है।

प्रश्न 29.
“समाजशास्त्र को चिंतनशील जगत् का बच्चा माना जाता है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन मिचेल का है।

प्रश्न 30.
व्यक्ति का व्यक्तित्व किन पक्षों पर आधारित है?
उत्तर:
(1) शारीरिक पक्ष,
(2) मानसिक पक्ष,
(3) सामाजिक पक्ष।

प्रश्न 31.
किस देश ने जिम्नास्टिक पर बल दिया था?
उत्तर:
जर्मनी ने जिम्नास्टिक पर बल दिया था।

प्रश्न 32.
Y.M.C.A. कहाँ पर स्थित है?
उत्तर:
चेन्नई में।

प्रश्न 33.
Y.M.C.A. का पूरा नाम लिखें।
उत्तर:
Young Men’s Christian Association.

प्रश्न 34.
खेलों द्वारा किस विशाल भावना का विकास होता है?
उत्तर:
खेलों द्वारा विश्व-शक्ति एवं बंधुत्व की भावना का विकास होता है।

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प्रश्न 35.
विद्यालय कैसी संस्था है?
उत्तर:
सामाजिक संगठन।

प्रश्न 36.
व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक कौन-कौन-से हैं?
उत्तर:
(1) परिवार,
(2) समाज,
(3) मित्र-मण्डली,
(4) सामाजिक वातावरण।

प्रश्न 37.
घर, परिवार, विद्यालय व महाविद्यालय किस प्रकार के संगठन हैं?
उत्तर:
घर, परिवार, विद्यालय व महाविद्यालय सामाजिक संगठन हैं।

प्रश्न 38.
खेलों द्वारा विकसित होने वाले कोई दो गुण लिखें।
उत्तर:
(1) आत्म-विश्वास,
(2) धैर्यता।

प्रश्न 39.
परिवार किसके सिद्धान्त पर आधारित है?
उत्तर:
परिवार सामाजीकरण (Socilaization) के सिद्धान्त पर आधारित है।

प्रश्न 40.
वे गुण क्या हैं जो खेलकूद द्वारा प्राप्त किए जाते हैं?
उत्तर:
सामाजिक एवं नैतिक गुण। ।

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भाग-II: सही विकल्प का चयन करें

1. ‘समाजशास्त्र’ किस भाषा का शब्द है?
(A) फ्रैंच भाषा का
(B) अंग्रेजी भाषा का
(C) लैटिन भाषा का
(D) जर्मन भाषा का
उत्तर:
(C) लैटिन भाषा का

2. “समाजशास्त्र का अतीत अत्यधिक लंबा है लेकिन इतिहास उतना ही छोटा है।” यह कथन किसने कहा?
(A) मैकाइवर ने
(B) रॉबर्ट बीरस्टीड ने
(C) मिचेल ने
(D) ऑगस्ट कॉम्टे ने
उत्तर:
(B) रॉबर्ट बीरस्टीड ने

3. “समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन अथवा समाज दृष्टि का विज्ञान है” यह कथन है
(A) डेविड पोर्ट का
(B) स्टालिन का
(C) मैक्स वेबर का
(D) आई० एफ० वार्ड का
उत्तर:
(D) आई० एफ० वार्ड का

4. समाजशास्त्र का पिता किसे कहा जाता है?
(A) मिचेल को
(B) ऑगस्ट कॉम्टे को
(C) मैकाइवर व पेज को
(D) रॉबर्ट बीरस्टीड को
उत्तर:
(B) ऑगस्ट कॉम्टे को

5. खेलों द्वारा किस विशाल भावना का विकास होता है?
(A) राष्ट्रीय भावना का
(B) स्थानीय भावना का
(C) अंतर्राष्ट्रीय भावना का
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) अंतर्राष्ट्रीय भावना का

6. जिम्नास्टिक के साथ संगीत पद्धति द्वारा चिकित्सा प्रणाली का जन्म किस देश में हुआ?
(A) स्वीडन और डेनमार्क में
(B) यूनान में
(C) इंग्लैंड में
(D) अमेरिका में
उत्तर:
(A) स्वीडन और डेनमार्क में

7. अमेरिका ने हमें किन खेलों का ज्ञान दिया?
(A) बास्केटबॉल का
(B) बेसबॉल का
(C) वॉलीबॉल का
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

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8. व्यक्ति का व्यक्तित्व किन पक्षों पर आधारित है?
(A) शारीरिक पक्ष पर
(B) मानसिक पक्ष पर
(C) सामाजिक पक्ष पर
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

9. रूस द्वारा ओलंपिक खेलों के आयोजन के समय किस देश ने बहिष्कार किया था?
(A) जापान ने
(B) अमेरिका तथा उसके सहयोगी राष्ट्रों ने
(C) स्वीडन ने
(D) हॉलैंड ने
उत्तर:
(B) अमेरिका तथा उसके सहयोगी राष्ट्रों ने

10. उन शक्तियों को क्या कहते हैं जो एक समूह के अंदर कार्य करती हैं?
(A) सामूहिकता
(B) समूह
(C) समूह की गतिशीलता
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) समूह की गतिशीलता

11. समूह के कितने प्रकार होते हैं?
(A) चार
(B) दो
(C) तीन
(D) पाँच
उत्तर:(B) दो

12. “समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का विज्ञान है-सामाजिक समूह सामाजिक अंतःक्रियाओं की ही एक व्यवस्था है।” यह कथन किसने कहा?
(A) जॉनसन ने
(B) फा!वर्थ ने
(C) ला-पियरे ने
(D) मॉण्टगुमरी ने
उत्तर:
(A) जॉनसन ने

13. ‘समाजशास्त्र’ की उत्पत्ति ऑगस्ट कॉम्टे द्वारा की गई
(A) वर्ष 1838 में
(B) वर्ष 1850 में
(C) वर्ष 1938 में
(D) वर्ष 1950 में
उत्तर:(A) वर्ष 1838 में

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14. सामाजीकरण की प्रक्रिया में निम्नलिखित पक्ष सम्मिलित होते हैं
(A) जीव रचना
(B) समाज
(C) व्यक्ति
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

15. समाजशास्त्र का अर्थ है
(A) व्यक्ति का अध्ययन
(B) समाज का वैज्ञानिक अध्ययन
(C) समाज का आर्थिक अध्ययन
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) समाज का वैज्ञानिक अध्ययन

16. बॉलगेम्स का जन्मदाता किसे कहा जाता है?
(A) स्वीडन को
(B) इंग्लैंड को
(C) डेनमार्क को
(D) अमेरिका को
उत्तर:
(B) इंग्लैंड को

17. बच्चा सामाजीकरण का प्रथम पाठ कहाँ से सीखता है?
(A) विद्यालय से
(B) महाविद्यालय से
(C) मठ से
(D) परिवार से
उत्तर:
(D) परिवार से

18. सामाजीकरण का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है
(A) आध्यात्मिक शिक्षा
(B) शारीरिक शिक्षा
(C) मनोवैज्ञानिक शिक्षा
(D) यौन शिक्षा
उत्तर:
(B) शारीरिक शिक्षा

19. ‘डाइनैमिक्स’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया
(A) चार्ल्स कूले ने
(B) बरदँड रसल ने
(C) मैक्स वर्थीमर ने
(D) जॉनसन ने
उत्तर:
(C) मैक्स वर्थीमर ने

20. ‘डाइनैमिक्स’ (Dynamic) शब्द किस भाषा से लिया गया है?
(A) ग्रीक भाषा से
(B) जर्मन भाषा से
(C) फ्रैंच भाषा से
(D) अंग्रेजी भाषा से
उत्तर:
(A) ग्रीक भाषा से

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21. ‘डाइनैमिक्स’ शब्द से आप क्या समझते हैं?
(A) ऊर्जा
(B) परिवर्तन
(C) शक्ति
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) शक्ति

22. सन् 1961 में राष्ट्रीय खेल संस्था कहाँ स्थापित की गई?
(A) पटियाला में
(B) ग्वालियर में
(C) चेन्नई में
(D) दिल्ली में
उत्तर:
(A) पटियाला में

23. “समाजशास्त्र को चिंतनशील जगत् का बच्चा माना जाता है।” यह कथन है-
(A) मैकाइवर का
(B) मिचेल का
(C) जॉनसन का
(D) रॉबर्ट बीरस्टीड का
उत्तर:
(B) मिचेल का

24. मनुष्य में पाई जाने वाली मूल प्रवृत्तियाँ हैं
(A) शिशु रक्षा
(B) आत्म प्रदर्शन
(C) सामूहिकता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

25. सामाजिक संबंधों का जाल क्या कहलाता है?
(A) समाज
(B) परिवार
(C) समुदाय
(D) समूह
उत्तर:
(A) समाज

26. “समाज के बिना मनुष्य पशु है या देवता।” ये शब्द किसके हैं?
(A) अरस्तू
(B) रोजर
(C) थॉमस
(D) वुड्स
उत्तर:
(A) अरस्तू

27. Y.M.C.A. कहाँ पर स्थित है?
(A) कोलकाता में
(B) चेन्नई में
(C) नई दिल्ली में
(D) चण्डीगढ़ में
उत्तर:
(B) चेन्नई में

28. सामाजिक संगठन है
(A) परिवार
(B) धार्मिक व शैक्षणिक संस्थाएँ
(C) राष्ट्र
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

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29. घर, परिवार, विद्यालय व महाविद्यालय किस प्रकार के संगठन हैं?
(A) आर्थिक संगठन
(B) सामाजिक संगठन
(C) राजनैतिक संगठन
(D) भावनात्मक संगठन
उत्तर:
(B) सामाजिक संगठन

30. स्कूल/विद्यालय कैसी संस्था है?
(A) व्यक्तिगत
(B) राजनीति
(C) सामाजिक
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) सामाजिक

भाग-III: रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. ……………….. के अनुसार समाजशास्त्र को चिंतनशील जगत् का बच्चा माना जाता है।
2. समाजशास्त्र का पिता या जनक ……………….. को माना जाता है।
3. “शारीरिक शिक्षा शरीर का एक मजबूत ढाँचा है जो मस्तिष्क के कार्य को निश्चित तथा आसान करता है।” यह कथन ………………. ने कहा।
4. Y.M.C.A. की स्थापना ……………….. ने की।
5. “शरीर के लिए जिम्नास्टिक तथा आत्मा के लिए संगीत का विशेष महत्त्व है।” यह कथन ……………….. ने कहा।
6. समूह की सबसे छोटी इकाई ……….
7. “किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए व्यक्तियों को इकट्ठा करने की इच्छा तथा योग्यता को ही नेतृत्व कहा जाता है।” यह कथन
……………….. ने कहा।
8. सामाजिक संबंधों का व्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप से अध्ययन करने वाले विज्ञान को ……………….. कहते हैं।
9. मनुष्य एक ……………….. प्राणी है।
10. सामाजीकरण का महत्त्वपूर्ण साधन ……………….. है।
11. सामाजिक संगठनों का आधार ………………… है।
12. खेलों के मूल उद्देश्यों ने रोमवासियों की ……………….. गतिविधियों को बढ़ावा दिया है।
उत्तर:
1. मिचेल
2. ऑगस्ट कॉम्टे
3. रूसो
4. श्री एच०सी० बॅक
5. प्लेटो
6. दंपति
7. मॉण्टगुमरी
8. समाजशास्त्र
9. सामाजिक
10. शारीरिक शिक्षा
11. परिवार
12. खेल।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष Summary

शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष परिचय

प्राचीनकाल में विचारों के आदान-प्रदान का सर्वव्यापी माध्यम शारीरिक गतिविधियाँ व शारीरिक अंगों का हाव-भाव होता था। आदि-मानव शारीरिक गतिविधियों के माध्यम से ही अपने बच्चों को शारीरिक शिक्षा देते थे, क्योंकि प्राचीनकाल में शारीरिक शिक्षा लोगों के जीवित रहने के लिए आवश्यक मानी जाती थी। शारीरिक शिक्षा पर सबसे अधिक बल यूनान ने दिया। सुकरात, अरस्तू व प्लेटो जैसे महान् दार्शनिकों का विचार था कि शारीरिक प्रशिक्षण युवाओं के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। शारीरिक शिक्षा एक ऐसी शिक्षा है जो वैयक्तिक जीवन को समृद्ध बनाने में प्रेरक व सहायक सिद्ध होती है। यह शारीरिक विकास के साथ शुरू होती है और मानव-जीवन को पूर्णता की ओर ले जाती है, जिसके परिणामस्वरूप वह एक हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ, मानसिक, सामाजिक एवं भावनात्मक संतुलन रखने वाला व्यक्ति बन जाता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी प्रकार की चुनौतियों अथवा मुश्किलों से प्रभावी तरीके से लड़ने में सक्षम होता है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यह जन्म से मृत्यु तक अपने ही जैसे आचार-विचार रखने वाले जीवों के बीच रहता है। सामाजीकरण की सहायता से वह अपनी पशु-प्रवृत्ति से ऊपर उठकर सभ्य मनुष्य का स्थान ग्रहण करता है। अतः सामाजीकरण वह प्रक्रिया है जिससे व्यक्ति अपने समुदाय का सक्रिय सदस्य बनकर उसकी परंपराओं का पालन करता है एवं स्वयं को सामाजिक वातावरण के अनुरूप ढालना सीखता है।

शारीरिक शिक्षा सामाजीकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। विद्यार्थी खेल के मैदान में अपनी टीम के हितों को सम्मुख रखकर खेल के नियमों का भली-भाँति पालन करते हुए खेलने की कोशिश करता है। वह पूरी लगन से खेलता हुआ अपनी टीम को विजय-प्राप्ति के लिए पूर्ण सहयोग प्रदान करता है। वह हार-जीत को एक-समान समझने के योग्य हो जाता है और उसमें सहनशीलता व धैर्यता का गुण विकसित होता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक पीढ़ी आगामी पीढ़ियों के लिए खेल संबंधी कुछ नियम व परंपराएँ छोड़ जाती है, जो विद्यार्थियों को शारीरिक शिक्षा के माध्यम से परिचित करवाई जाती हैं। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा व खेलें व्यक्ति के सामाजीकरण में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

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HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल

Haryana State Board HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल

HBSE 12th Class Physical Education एथलेटिक देखभाल Textbook Questions and Answers

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न [Long Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
एथलेटिक देखभाल से क्या अभिप्राय है? इसके मुख्य क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एथलेटिक देखभाल का अर्थ (Meaning ofAthletic Care):
मानव जीवन अनेक मुश्किलों से भरा हुआ है और शारीरिक गतिविधियों में भाग लेना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आसान नहीं है। शारीरिक गतिविधियों में अनेक चोटें या दुर्घटनाएँ होने की संभावना निरंतर बनी रहती है। यदि उचित देखभाल, सुरक्षा व सावधानी अपनाई जाए तो इनसे बचा जा सकता है। सावधानी हमेशा दवाइयों या औषधियों से बेहतर होती है। इसलिए सावधानी के तरीके खेलों में प्रयोग किए जाते हैं।

एथलेटिक देखभाल हमें यह जानकारी देती है कि कैसे खेल समस्याओं या चोटों को कम किया जाए, कैसे खेल के स्तर को सुधारा जाए। यदि खिलाड़ी की देखभाल पर ध्यान न दिया जाए तो खिलाड़ी का खेल-जीवन या कैरियर समाप्त हो सकता है। इसलिए हर खिलाड़ी के लिए एथलेटिक देखभाल एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।

एथलेटिक देखभाल के क्षेत्र (Scope of Athletic Care):
एथलेटिक देखभाल के क्षेत्र निम्नलिखित हैं-
1. खेल चोटें (Sports Injuries):
प्रतिदिन प्रत्येक आयु के खिलाड़ी शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक तैयारी करते हैं, ताकि वे अपने खेल में अच्छी कुशलता दिखा सकें। खेलों में प्रायः चोटें लगती रहती हैं। कुछ चोटें सामान्य होती हैं तथा कुछ चोटें घातक होती हैं। साधारणतया चोटें उन खिलाड़ियों को लगती हैं जो परिपक्व नहीं होते। उनमें खेलों में आने वाले उतार-चढ़ाव की परिपक्वता नहीं होती और कई बार मैदान का स्तर भी उच्च-कोटि का नहीं होता जिसके कारण मोच, खिंचाव और फ्रैक्चर जैसी चोटें लग जाती हैं। इन चोटों से बचने के लिए एथलेटिक देखभाल जरूरी है। खिलाड़ी हर समय शारीरिक रूप से स्वस्थ रहे, इसके लिए हमेशा फिजियोथेरेपिस्ट उनके साथ रहते हैं। वे खिलाड़ियों को चोट लगने पर उपयुक्त सलाह तथा दवाई देते हैं ताकि खिलाड़ी स्वस्थ रहें।

2. पोषण (Nutrition):
उचित एवं पौष्टिक आहार से हमारा शरीर स्वस्थ रहता है। इससे न केवल खेलकूद के क्षेत्र में, बल्कि दैनिक जीवन में भी हमारी कार्यकुशलता एवं कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। उचित व पौष्टिक आहार से हमारा तात्पर्य उन पोषक तत्त्वों; जैसे वसा, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, खनिज-लवणों, विटामिनों एवं वसा आदि से है जो आहार में उचित मात्रा में उपस्थित होते हैं तथा शरीर का संतुलित विकास करते हैं। आजकल मोटापा एक गंभीर समस्या की भाँति फैल रहा है, जिसको उचित एवं पौष्टिक आहार लेने से तथा उचित व्यायाम करने से नियंत्रित किया जा सकता है। अगर खिलाड़ी को उपयुक्त और पौष्टिक आहार दिया जाए तो खेलों में उसके प्रदर्शन में अच्छा सुधार होगा।

3. प्रशिक्षण विधियाँ (Training Methods):
खिलाड़ियों की देखभाल में जिस प्रकार खेल चोटों से बचना और संतुलित व पौष्टिक आहार लेने का महत्त्व है उतना ही महत्त्व प्रशिक्षण विधियों का है। प्रशिक्षण की विभिन्न विधियाँ; जैसे निरंतर प्रशिक्षण विधि, अंतराल प्रशिक्षण विधि, वजन प्रशिक्षण विधि, सर्किट प्रशिक्षण विधि तथा फार्टलेक प्रशिक्षण विधि बहुत उपयोगी हैं, अगर इनको सही तरीके तथा उपयुक्त समय पर किया जाए तो इनसे खिलाड़ी शारीरिक रूप से तंदुरुस्त रहता है। अतः विभिन्न प्रशिक्षण विधियाँ एथलेटिक देखभाल में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल

प्रश्न 2.
प्राथमिक सहायता या चिकित्सा की आवश्यकता तथा महत्ता पर प्रकाश डालिए।
अथवा
प्राथमिक चिकित्सा क्या है? इसकी आवश्यकता व उपयोगिता का वर्णन करें।
अथवा
प्राथमिक सहायता क्या होती है? इसकी हमें क्यों आवश्यकता पड़ती है?
उत्तर:
प्राथमिक सहायता का अर्थ (Meaning of First Aid):
वह सहायता जो किसी रोगी या जख्मी व्यक्ति को घटना स्थल पर डॉक्टर के आने से पहले नियमानुसार दी जाए, उसे प्राथमिक सहायता कहते हैं। किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को वही प्राथमिक सहायता दे सकता है जिसे प्राथमिक सहायता का पूरा ज्ञान हो। परन्तु कई बार ऐसी परिस्थितियाँ भी आ जाती है कि किसी अनजान व्यक्ति को भी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की प्राथमिक सहायता करनी पड़ सकती है। प्राथमिक सहायता प्रदान करने वाला व्यक्ति जख्मी व्यक्ति को तुरंत नजदीक के किसी डॉक्टर या अस्पताल में पहुचाएँ, ताकि जख्मी का तुरंत इलाज करवाया जा सकें।

प्राथमिक सहायता की आवश्यकता (Need of FirstAid):
आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अचानक दुर्घटनाएं होती रहती हैं। साधारणतया घरों, स्कूलों, कॉलेजों, दफ्तरों तथा खेल के मैदानों में दुर्घटनाएँ देखने में आती हैं। मोटरसाइकिलों, बसों, कारों, ट्रकों आदि में टक्कर होने से व्यक्ति घायल हो जाते हैं। मशीनों की बढ़ रही भरमार और जनसंख्या में हो रही निरंतर वृद्धि ने भी दुर्घटनाओं को ओर अधिक बढ़ा दिया है। प्रत्येक समय प्रत्येक स्थान पर डॉक्टरी सहायता मिलना कठिन होता है।

इसलिए ऐसे संकट का मुकाबला करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्राथमिक सहायता का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। यदि घायल अथवा रोगी व्यक्ति को तुरन्त प्राथमिक सहायता मिल जाए तो उसका जीवन बचाया जा सकता है। कुछ चोटें तो इस प्रकार की हैं, जो खेल के मैदान में लगती रहती हैं, जिनको मौके पर प्राथमिक सहायता देना बहुत आवश्यक है। यह तभी सम्भव है, यदि हमें प्राथमिक सहायता सम्बन्धी उचित जानकारी हो। इस प्रकार रोगी की स्थिति बिगड़ने से बचाने और उसके जीवन की रक्षा के लिए प्राथमिक सहायता की बहुत आवश्यकता होती है। इसलिए प्राथमिक सहायता की आज के समय में बहुत आवश्यकता हो गई है। प्रत्येक नागरिक को इसका ज्ञान होना चाहिए।

प्राथमिक सहायता की महत्ता (Importance of First Aid):
प्राथमिक सहायता रोगी के लिए वरदान की भाँति होती है और प्राथमिक सहायक भगवान की ओर से भेजा गया दूत माना जाता है। आज के समय में कोई किसी के दुःख-दर्द की परवाह नहीं करता। एक प्राथमिक सहायक ही है जो दूसरों के दर्द को समझने और उनके दुःख में शामिल होने की भावना रखता है। आज प्राथमिक सहायता की महत्ता बहुत बढ़ गई है; जैसे
(1) प्राथमिक सहायता द्वारा किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की बहुमूल्य जान बच जाती है।
(2) प्राथमिक सहायता देने वाले व्यक्ति में दूसरों के प्रति स्नेह और दया की भावना और तीव्र हो जाती है।
(3) प्राथमिक सहायता प्राथमिक सहायक को समाज में सम्मान दिलाती है।
(4) प्राथमिक सहायता लोगों को दूसरों के काम आने की आदत सिखाती है जिससे मानसिक संतुष्टि मिलती है।
(5) प्राथमिक सहायता देने वाला व्यक्ति डॉक्टर के कार्य को सरल कर देता है।
(6) प्राथमिक सहायता द्वारा लोगों के आपसी रिश्तों में सहयोग की भावना बढ़ती है।

प्रश्न 3.
प्राथमिक सहायता के नियमों या सिद्धांतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राथमिक सहायता आज की तेज़ रफ्तार जिंदगी में बहुत महत्त्व रखती है। इसकी जानकारी बहुत आवश्यक है। प्राथमिक सहायता के नियम निम्नलिखित हैं
(1) रोगी अथवा घायल को विश्राम की स्थिति में रखना।
(2) घाव से बह रहे रक्त को बंद करना।
(3) घायल की सबसे जरूरी चोट की ओर अधिक ध्यान देगा।
(4) दुर्घटना के समय जिस प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो तुरंत उपलब्ध करवाना।
(5) घायल की स्थिति को खराब होने से बचाना।
(6) घायल की अंत तक सहायता करना।
(7) घायल के नजदीक भीड़ एकत्रित न होने देना।
(8) घायल को हौसला देना। (9) घायल को सदमे से बचाकर रखना।
(10) प्राथमिक सहायता देते समय संकोच न करना।
(11) घायल को सहायता देते समय सहानुभूति और विनम्रता वाला व्यवहार करना।
(12) प्राथमिक सहायता देने के बाद शीघ्र ही किसी अच्छे डॉक्टर के पास पहुँचाने का प्रबंध करना।
(13) यदि घायल व्यक्ति की साँस नहीं चल रही हो तो उसे कृत्रिम श्वास (Artificial Respiration) देना चाहिए।
(14) रोगी को आराम से लेटे रहना देना चाहिए, जिससे उसकी तकलीफ़ ज़्यादा न बढ़ सके।
(15) यदि यह पता लगे कि रोगी ने जहर पी लिया है तो उसे उल्टी करवानी चाहिए।
(16) यदि घायल व्यक्ति को साँप या ज़हरीले कीट ने काट लिया हो तो काटे हुए स्थान को ऊपर की तरफ से कसकर बाँध देना चाहिए ताकि ज़हर सारे शरीर में न फैले।
(17) यदि घायल व्यक्ति पानी में डूब गया है तो उसे बाहर निकालकर सबसे पहले उसे पेट के बल लिटाकर पानी निकालना चाहिए तथा उसे कम्बल आदि में लपेटकर रखना चाहिए।

प्रश्न 4.
प्राथमिक सहायता का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा एक अच्छे प्राथमिक चिकित्सक या उपचारक (First Aider) के गुणों का वर्णन करें।
अथवा
प्राथमिक चिकित्सा देने वाले व्यक्ति में कौन-कौन-से गुण होने चाहिएँ?
उत्तर:
घायल या मरीज को तत्काल दी जाने वाली सहायता प्राथमिक सहायता कहलाती है। घायल व्यक्ति को गंभीर स्थिति में जाने से रोकने के लिए और उसका जीवन बचाने के लिए प्राथमिक सहायता देना बहुत आवश्यक है। यह तभी हो सकता है यदि प्राथमिक उपचारक बुद्धिमान और होशियार हो और प्राथमिक सहायता के नियमों से परिचित हो। प्राथमिक सहायता देने वाले व्यक्ति में निम्नलिखित गुण होने चाहिएँ
(1) प्राथमिक उपचारक चुस्त और बुद्धिमान होना चाहिए, ताकि घायल के साथ घटी हुई घटना के बारे में समझ सके।
(2) प्राथमिक उपचारक निपुण एवं सूझवान होना चाहिए, ताकि प्राप्त साधनों के साथ ही घायल को बचा सके।
(3) वह बड़ा फुर्तीला होना चाहिए, ताकि घायल व्यक्ति को शीघ्र संभाल सके।
(4) प्राथमिक उपचारक योजनाबद्ध व्यवहार कुशल होना चाहिए, जिससे वह घटना संबंधी जानकारी जल्द-से-जल्द प्राप्त करते हुए रोगी का विश्वास प्राप्त कर सके।
(5) उसमें सहानुभूति की भावना होनी चाहिए, ताकि वह घायल को आराम और हौसला दे सके।
(6) प्राथमिक उपचारक सहनशील, लगन और त्याग की भावना वाला होना चाहिए।
(7) प्राथमिक उपचारक अपने काम में स्पष्ट होना चाहिए, ताकि लोग उसकी सहायता के लिए स्वयं सहयोग करें।
(8) वह स्पष्ट निर्णय वाला होना चाहिए, ताकि वह निर्णय कर सके कि कौन-सी चोट का पहले इलाज करना है।
(9) प्राथमिक उपचारक दृढ़ इरादे वाला व्यक्ति होना चाहिए, ताकि वह असफलता में भी सफलता को ढूँढ सके।
(10) उसका व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए, ताकि घायल को ज़ख्मों से आराम मिल सके।
(11) प्राथमिक उपचारक दूसरों के प्रति विनम्रता वाला और मीठा बोलने वाला होना चाहिए।
(12) प्राथमिक उपचारक स्वस्थ और मजबूत दिल वाला होना चाहिए, ताकि मौजूदा स्थिति पर नियंत्रण पा सके।

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प्रश्न 5.
प्राथमिक सहायता क्या है? एक प्राथमिक सहायक के कर्त्तव्यों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राथमिक सहायता का अर्थ (Meaning of First Aid):
किसी रोग के होने या चोट लगने पर किसी प्रशिक्षित या अप्रशिक्षित व्यक्ति द्वारा जो तुरंत सीमित उपचार किया जाता है, उसे प्राथमिक चिकित्सा या सहायता (First Aid) कहते हैं। यह अप्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा कम-से-कम साधनों में किया गया सरल व तत्काल उपचार है। कभी-कभी यह जीवन रक्षक भी सिद्ध होता है। अत: प्राथमिक सहायता का तात्पर्य उस सहायता से है जो कि रोगी अथवा जख्मी को चोट लगने पर अथवा किसी अन्य दुर्घटना के तुरंत बाद डॉक्टर के आने से पूर्व दी जाती है।

प्राथमिक सहायक के कर्त्तव्य (Duties of First Aider):
्राथमिक सहायक के प्रमुख कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं
(1) प्राथमिक सहायक को आवश्यकतानुसार घायल का रोगनिदान करना चाहिए।
(2) उसको इस बात पर विचार करना चाहिए कि घायल को कितनी, कैसी और कहाँ तक सहायता दी जाए।
(3) प्राथमिक सहायक को रोगी या घायल को अस्पताल ले जाने के लिए उचित सहायता का उपयोग करना चाहिए।
(4) उसको घायल की पूरी देखभाल की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।
(5) प्राथमिक सहायक को घायल के शरीरगत चिह्नों; जैसे सूजन, कुरूपता आदि को अपनी ज्ञानेंद्रियों से पहचानना चाहिए और उचित सहायता देनी चाहिए।
(6) क्या हुआ, इसके बारे में समझने के लिए प्राथमिक सहायक को स्थिति का जल्दी व शांति से मूल्यांकन करना चाहिए। यदि आप स्थिति को सुरक्षित करने में असमर्थ हैं, तो आपातकालीन सहायता के लिए संपर्क करें।
(7) प्राथमिक सहायक को स्वास्थ्य संबंधी नियमों का पालन करना चाहिए, ताकि संक्रमण से बचा जा सके।
(8) प्राथमिक सहायक को सर्वप्रथम स्वयं को खतरे से सुरक्षित रखना चाहिए। कभी भी जोखिम में कार्य नहीं करना चाहिए।
(9) प्राथमिक सहायक को प्राथमिक सहायता देते समय विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। उसे मुश्किल-से-मुश्किल परिस्थितियों का सामना बड़ी हिम्मत के साथ करना चाहिए। यदि प्राथमिक सहायक ही हिम्मत हार जाए तो जख्मी या रोगी की हालत और भी बिगड़ सकती है। उसे जख्मी की हालत देखकर कभी भी घबराना नहीं चाहिए।
(10) प्राथमिक सहायक को कभी भी अपने आप को डॉक्टर नहीं समझना चाहिए अपितु उसे जख्मी या रोगी को डॉक्टर के आने या डॉक्टर तक पहुँचने से पहले अपेक्षित प्राथमिक सहायता प्रदान करनी चाहिए।

प्रश्न 6.
रगड़/खरोंच क्या है? इसके कारण, बचाव के उपाय तथा इलाज लिखें।
अथवा
खरोंच के कारण, लक्षण एवं उपचार के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रगड़ (Abrasion):
रगड़ त्वचा की चोट है। प्रायः रगड़ एक मामूली चोट होती है लेकिन कभी-कभी यह गंभीर भी साबित हो जाती है। अगर रगड़ का चोटग्रस्त क्षेत्र विस्तृत हो जाए और उसमें बाहरी कीटाणु हमला कर दें तो यह भयानक हो जाती है।
कारण (Causes):
रगड़ आने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) कठोर धरातल पर गिर पड़ना।
(2) कपड़ों में रगड़ पैदा करने वाले तंतुओं के कारण।
(3) जूतों का पैरों में सही प्रकार से फिट न आना।।
(4) हैलमेट और कंधों के पैडों का असुविधाजनक होना।

लक्षण (Symptoms):
रगड़ के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) त्वचा पर रगड़ दिखाई देती है और वहाँ पर जलन महसूस होती है।
(2) रगड़ वाले स्थान से खून बहने लगता है।
(3) सत्काल दर्द शुरू हो जाता है जो पल-भर के लिए होता है।

बचाव के उपाय (Measures of Prevention):
रगड़ से बचाव के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) सुरक्षात्मक कपड़े पहनने चाहिएँ, इनमें पूरी बाजू वाले कपड़े, बड़ी-बड़ी जुराबें, घुटनों व कुहनी के पैड शामिल हैं।
(2) खेल उपकरण अच्छी गुणवत्ता वाले होने चाहिएँ और प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को गर्मा लेना चाहिए।
(3) फिट जूते पहनने चाहिएँ।
(4) ऊबड़-खाबड़ खेल के मैदान से बचना चाहिए।

इलाज (Treatment):
रगड़ के इलाज या उपचार के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाने चाहिएँ
(1) चोटग्रस्त स्थान को ऊँचा रखना चाहिए।
(2) चोटग्रस्त स्थान को जितनी जल्दी हो सके गर्म पानी व नीम के साबुन से धोना चाहिए।
(3) यदि रगड़ अधिक हो तो उस स्थान पर पट्टी करवानी चाहिए। पट्टी खींचकर नहीं बाँधनी चाहिए।
(4) चोटग्रस्त स्थान को प्रत्येक दिन गर्म पानी से साफ करना चाहिए।
(5) चोट के तुरंत बाद एंटी-टैटनस का टीका अवश्य लगवाना चाहिए।
(6) दिन के समय चोट पर पट्टी बाँधनी चाहिए और रात को चोट खुली रखनी चाहिए।
(7) चोट लगने के बाद, तुरंत नहीं खेलना चाहिए। अगर खिलाड़ी खेलता है तो उसे दोबारा उसी जगह पर चोट लग सकती है जो खतरनाक सिद्ध हो सकती है।

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प्रश्न 7.
मोच (Sprain) क्या है? इसके कारण एवं उपचार के उपायों का वर्णन करें।
अथवा
मोच कितने प्रकार की होती है? इसके लक्षण व इलाज के बारे में बताएँ।
अथवा
मोच किसे कहते हैं? इसके लिए प्राथमिक सहायता क्या हो सकती है?
अथवा
मोच के कारणों, लक्षणों व बचाव एवं उपचार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मोच (Sprain):
किसी जोड़ के अस्थि-बंधक तन्तु (Ligaments) के फट जाने को मोच आना कहते हैं अर्थात् जोड़ के आसपास के जोड़-बंधनों तथा तन्तु वर्ग (Tissues) फट जाने या खिंच जाने को मोच कहते हैं। सामान्यतया घुटनों तथा गुटों में ज्यादा मोच आती है। इसकी प्राथमिक चिकित्सा जल्दी शुरू कर देनी चाहिए।

प्रकार (Types):
मोच तीन प्रकार की होती है जो निम्नलिखित है-
1. नर्म मोच (Mold or Minor Sprain): इसमें जोड़-बंधनों (Ligaments) पर खिंचाव आता है। जोड़ में हिल-जुल करने पर दर्द अनुभव होता है। इस हालत में कमजोरी तथा दर्द महसूस होता है।
2. मध्यम मोच (Medicate or Moderate Sprain): इसमें जोड़-बंधन काफी मात्रा में टूट जाते हैं । इस हालत में सूजन तथा दर्द बढ़ जाता है।
3. पूर्ण मोच (Complete or Several Sprain): इसमें जोड़ की हिल-जुल शक्ति समाप्त हो जाती है। जोड़-बंधन पूरी तरह टूट जाते हैं। इस हालत में दर्द असहनीय हो जाता है।

कारण (Causes):
मोच आने के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
(1) खेलते समय सड़क पर पड़े पत्थरों पर पैर आने से मोच आ जाती है।
(2) किसी गीली अथवा चिकनी जगह पर; जैसे ओस वाली घास, खड़े पानी में पैर रखने से मोच आ जाती है।
(3) खेल के मैदान में यदि किसी गड्ढे में पैर आ जाए तो यह मोच का कारण बन जाता है।
(4) अनजान खिलाड़ी यदि गलत तरीके से खेले तो भी मोच आ जाती है।
(5) अखाड़ों की गुड़ाई ठीक तरह न होने के कारण भी मोच आ जाती है।
(6) असावधानी से खेलने पर भी मोच आ जाती है।

लक्षण (Symptoms): मोच के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) सूजन वाले स्थान पर दर्द शुरू हो जाता है।
(2) थोड़ी देर बाद जोड़ के मोच वाले स्थान पर सूजन आने लगती है।
(3) सुजन वाले भाग में कार्य की क्षमता कम हो जाती है।
(4) सख्त मोच की हालत में जोड़ के ऊपर की चमड़ी का रंग नीला हो जाता है।

बचाव (Prevention): खेलों में मोच से बचाव के उपाय निम्नलिखित हैं-
(1) पूर्ण रूप से शरीर के सभी जोड़ों को गर्मा लेना चाहिए।
(2) खेल उपकरण अच्छी गुणवत्ता के होने चाहिएँ।
(3) मैदान समतल व साफ होना चाहिए।
(4) सुरक्षात्मक कपड़े, जूते व उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

उपचार/इलाज (Treatment): मोच के उपचार हेतु निम्नलिखित प्राथमिक सहायता की जा सकती है
(1) मोच वाली जगह को हिलाना नहीं चाहिए। आरामदायक स्थिति में रखना चाहिए।
(2) मोच वाले स्थान पर पानी की पट्टी रखनी चाहिए तथा मालिश करनी चाहिए।
(3) यदि मोच टखने पर हो तो आठ के आकार की पट्टी बाँध देनी चाहिए। प्रत्येक मोच वाले स्थान पर पट्टी बाँध देनी चाहिए।
(4) मोच वाले स्थान पर भार नहीं डालना चाहिए बल्कि मदद के लिए कोई सहारा लेना चाहिए।
(5) हड्डी टूटने के शक को दूर करने के लिए एक्सरा करवा लेना चाहिए।
(6) मोच वाले स्थान का हमेशा ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि उसी स्थान पर बार-बार मोच आने का डर रहता है।

प्रश्न 8.
माँसपेशियों या पट्ठों का तनाव क्या होता है? यह किस कारण होता है?
अथवा
खिंचाव से क्या अभिप्राय है? इसके कारणों, लक्षणों व बचाव एवं उपचार का वर्णन कीजिए।
अथवा
माँसपेशियों के तनाव से आपका क्या अभिप्राय है? इसके चिह्न तथा इलाज के बारे में लिखें।
उत्तर:
माँसपेशियों का तनाव/खिंचाव (Pull in Muscles/Strain):
खिंचाव माँसपेशी की चोट है। खेलते समय कई बार खिलाड़ियों की मांसपेशियों में खिंचाव आ जाता है जिसके कारण खिलाड़ी अपना खेल जारी नहीं रख सकता। कई बार तो माँसपेशियाँ फट भी जाती हैं, जिसके कारण काफी दर्द महसूस होता है। प्रायः खिंचाव वाले हिस्से में सूजन आ जाती है। खिंचाव का मुख्य कारण खिलाड़ी का खेल के मैदान में अच्छी तरह गर्म न होना है। इसे पट्ठों का खिंच जाना भी कहते हैं।

कारण (Causes):
खिंचाव आने के निम्नलिखित कारण हैं
(1) शरीरं के सभी अंगों का आपसी तालमेल ठीक न होना।
(2) अधिक शारीरिक थकान।
(3) पट्ठों को तेज़ हरकत में लाना।
(4) शरीर में से पसीने द्वारा पानी का बाहर निकलना।
(5) खिलाड़ी द्वारा शरीर को बिना गर्म किए खेल में हिस्सा लेना।
(6) खेल का समान ठीक न होना।
(7) खेल का मैदान अधिक सख्त या नरम होना।
(8) माँसपेशियों तथा रक्त केशिकाओं का टूट जाना।

चिह्न/लक्षण (Symptoms):
माँसपेशियों या पट्ठों में खिंचाव आने के लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) खिंचाव वाले स्थान पर बहुत तेज दर्द होता है।
(2) खिंचाव वाले स्थान पर माँसपेशियाँ फूल जाती हैं, जिसके कारण दर्द अधिक होता है।
(3) शरीर के खिंचाव वाले अंग को हिलाने से भी दर्द होता है।
(4) चोट वाला स्थान नरम हो जाता है।
(5) खिंचाव वाले स्थान पर गड्डा-सा दिखता है।

बचाव (Prevention):
खेल में खिंचाव से बचने के लिए निम्नलिखित उपायों का प्रयोग करना चाहिए
(1) गीले व चिकने ग्राऊंड, ओस वाली घास पर कभी नहीं खेलना चाहिए।
(2) ऊँची तथा लंबी छलाँग हेतु बने अखाड़ों की जमीन सख्त नहीं होनी चाहिए।
(3) खेलने से पहले कुछ हल्का व्यायाम करके शरीर को अच्छी तरह गर्म करना चाहिए। इससे खेलने के लिए शरीर तैयार हो जाता है।
(4) चोटों से बचने के लिए प्रत्येक खिलाड़ी को आवश्यक शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।
(5) खिलाड़ी को सुरक्षात्मक कपड़े, जूते व उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

उपचार/इलाज (Treatment):
खिंचाव के उपचार के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) खिंचाव वाली जगह पर पट्टी बाँधनी चाहिए।
(2) खिंचाव वाले स्थान पर ठंडे पानी अथवा बर्फ की मालिश करनी चाहिए।
(3) ‘माँसपेशियों में खिंचाव आ जाने के कारण खिलाड़ी को आराम करना चाहिए।
(4) खिंचाव वाले स्थान पर 24 घंटे बाद सेक देनी चाहिए।
(5) चोटग्रस्त क्षेत्र को आराम देने तथा सूजन कम करने के लिए मालिश करनी चाहिए।

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प्रश्न 9.
जोड़ उतरना क्या है? इसके कारण, लक्षण तथा इलाज बताएँ।
अथवा
जोड़ उतरने के कारण, चिह्न तथा उपचार के उपायों का वर्णन करें।
अथवा
जोड़ों के विस्थापन (Dislocation) से आप क्या समझते हैं? इनके प्रकारों, कारणों, लक्षणों तथा बचाव व उपचार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जोड़ उतरना या जोड़ों का विस्थापन (Dislocation):
एक या अधिक हड्डियों के जोड़ पर से हट जाने को जोड़ उतरना कहते हैं। कुछ ऐसी खेलें होती हैं जिनमें जोड़ों की मज़बूती अधिक होनी चाहिए; जैसे जिम्नास्टिक, फुटबॉल, हॉकी, कबड्डी आदि। इन खेलों में हड्डी का उतरना स्वाभाविक है। प्रायः कंधे, कूल्हे तथा कलाई आदि की हड्डी उतरती है।

प्रकार (Types):
जोड़ों का विस्थापन मुख्यतः तीन प्रकार का होता है
(1) कूल्हे का विस्थापन।
(2) कन्धे का विस्थापन।
(3) निचले जबड़े का विस्थापन।

कारण (Causes):
जोड़ उतरने के निम्नलिखित कारण हैं
(1) खेल मैदान का ऊँचा-नीचा होना अथवा अधिक सख्त या नरम होना।
(2) खेल सामान का शारीरिक शक्ति से भारी होना।
(3) खेल से पहले शरीर को हल्के व्यायामों द्वारा गर्म न करना।
(4) खिलाड़ी का अचानक गिरने से हड्डी का हिल जाना।

लक्षण या चिह्न (Symptoms):
जोड़ उतरने के निम्नलिखित लक्षण हैं
(1) जोड़ों में तेज़ दर्द होती है तथा सूजन आ जाती है।
(2) जोड़ों का रूप बदल जाता है।
(3) जोड़ में खिंचाव-सा महसूस होता है।
(4) जोड़ में गति बन्द हो जाती है। थोड़ी-सी गति से दर्द होता है।
(5) उतरे हुए स्थान से हड्डी बाहर की ओर उभरी हुई नज़र आता है।

बचाव (Prevention):
इससे बचाव के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) असमतल मैदान या जगह पर संभलकर चलना चाहिए।
(2) गीली या फिसलने वाली जगह पर कभी नहीं खेलना चाहिए।
(3) खेलने से पूर्व शरीर को गर्मा लेना चाहिए।
(4) प्रतियोगिता के दौरान सतर्क व सावधान रहना चाहिए।

उपचार/इलाज (Treatment):
जोड़ उतरने का इलाज निम्नलिखित है
(1) घायल को आरामदायक स्थिति में रखना चाहिए।
(2) घायल अंग को गद्दियों या तकियों से सहारा देकर स्थिर रखें। हड्डी पर प्लास्टिक वाली पट्टी बाँधनी चाहिए।
(3) उतरे जोड़ को चढ़ाने का प्रयास कुशल प्राथमिक सहायक को सावधानी से करना चाहिए।
(4) जोड़ पर बर्फ या ठण्डे पानी की पट्टी बाँधनी चाहिए।
(5) घायल को प्राथमिक सहायता के बाद तुरंत अस्पताल या डॉक्टर के पास ले जाएँ।
(6) चोट वाले स्थान पर भार नहीं पड़ना चाहिए।
(7) चोट वाले स्थान पर शलिंग (Sling) डाल देनी चाहिए, ताकि हड्डी न हिले।

प्रश्न 10.
फ्रैक्चर (Fracture) की कितनी किस्में होती हैं? सबसे खतरनाक कौन-सा फ्रैक्चर है?
अथवा
फ्रैक्चर क्या है? फ्रैक्चर या टूट कितने प्रकार की होती है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
फ्रैक्चर का अर्थ (Meaning of Fracture):
किसी हड्डी का टूटना, फिसलना अथवा दरार पड़ जाना टूट (Fracture) कहलाता है। हड्डी पर जब दुःखदायी स्थिति में दबाव पड़ता है तो हड्डी से सम्बन्धित माँसपेशियाँ उस दबाव को सहन नहीं कर सकतीं, जिस कारण हड्डी फिसल अथवा टूट जाती है। अतः फ्रैक्चर का अर्थ है-हड्डी का टूटना या दरार पड़ जाना।

हड्डी टूटने या प्रैक्चर के प्रकार (Types of Fracture):
हड्डी टूटने या फ्रैक्चर के प्रकार निम्नलिखित हैं
1. साधारण या बंद फ्रैक्चर (Simple or Closed Fracture): जब हड्डी टूट जाए, परन्तु घाव न दिखाई दे, तो वह बंद टूट होता है।

2. जटिल फ्रैक्चर (Complicated Fracture):
इस फ्रैक्चर से कई बार हड्डी की टूट के साथ जोड़ भी हिल जाते हैं। कई बार हड्डी टूटकर शरीर के किसी नाजुक अंग को नुकसान पहुँचा देती है; जैसे रीढ़ की हड्डी की टूट मेरुरज्जु को, सिर की हड्डी की टूट दिमाग को और पसलियों की हड्डियों की टूट दिल, फेफड़े और जिगर को नुकसान पहुँचाती है। ऐसी स्थिति में टूट काफी जटिल टूट बन जाती है।

3. विशेष या खुली टूट या फ्रैक्चर (Compound or Open Fracture): जब हड्डी त्वचा को काटकर बाहर दिखाई दे तो वह खुली टूट होती है। इस स्थिति में बाहर से मिट्टी के रोगाणुओं को शरीर के अंदर जाने का रास्ता मिल जाता है।

4. बहुसंघीय या बहुखंड टूट या फ्रैक्चर (Comminuted or Multiple Fracture): जब हड्डी कई भागों से टूट जाए तो इसे बहुसंघीय या बहुखंड टूट कहा जाता है।

5. चपटा या संशोधित टूट या फ्रैक्चर (Impacted Fracture): जब टूटी हड्डियों के सिरे एक-दूसरे में घुस जाते हैं तो वह चपटी टूट कहलाती है।

6. कच्चा फ्रैक्चर (Green-stick Fracture): यह छोटे बच्चों में होता है क्योंकि छोटी आयु के बच्चों की हड्डियाँ बहुत नाजुक होती हैं जो शीघ्र मुड़ जाती हैं। यही कच्चा फ्रैक्चर होता है।

7. दबी हुई टूट या फ्रैक्चर (Depressed Fracture): सामान्यतया यह टूट सिर की हड्डियों में होती है। जब खोपड़ी के ऊपरी भाग या आस-पास से हड्डी टूट जाने पर अंदर फंस जाती है तो ऐसी टूट दबी हुई टूट कहलाती है।

सबसे अधिक खतरनाक टूट या फ्रैक्चर जटिल फ्रैक्चर होता है क्योंकि इसमें हड्डी टूटकर किसी नाजुक अंग को नुकसान पहुँचाती है। इस फ्रैक्चर में घायल की स्थिति बहुत नाजुक हो जाती है उसे तुरंत डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए।

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प्रश्न 11.
हड्डी टूटने (Fracture) के कारण, लक्षण, बचाव तथा इलाज या उपचार के बारे में लिखें।
अथवा
अस्थि-भंग (Fracture) कितने प्रकार के होते हैं? इनके कारणों, लक्षणों तथा बचाव व उपचार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अस्थि-भंग (Fracture) मुख्यतः सात प्रकार के होते हैं। फ्रैक्चर के कारण (Causes of Fracture):
हड्डी टूटने या फ्रैक्चर के कारण निम्नलिखित हैं
(1) हड्डी पर कोई भारी सामान गिरना।
(2) खेल का मैदान ऊँचा-नीचा होना अथवा असमतल होना।
(3) खेल सामान का शारीरिक शक्ति से भारी होना।
(4) खिलाड़ी के अचानक गिरने से हड्डी का हिल जाना।
(5) माँसपेशियों में कम शक्ति के कारण अकसर हड्डियाँ टूटना।
(6) किसी भी दशा में गिरने से सम्बन्धित जोड़ के पास की मांसपेशियों का सन्तुलन ठीक न होना।

लक्षण (Symptoms):
हड्डी टूटने के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) टूटी हुई हड्डी वाले स्थान पर दर्द होता है। ।
(2) टूटी हुई हड्डी वाले स्थान पर सूजन आ जाती है।
(3) टूटी हुई हड्डी के स्थान वाले अंग कुरूप हो जाते हैं।
(4) टूट वाले स्थान में ताकत नहीं रहती।
(5) हाथ लगाकर हड्डी की टूट की जाँच की जा सकती है।

बचाव के उपाय (Measures of Prevention):
अस्थि-भंग (फ्रैक्चर) से बचाव के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) असमतल मैदान पर ठीक से चलना चाहिए।
(2) ‘फिसलने वाले स्थान पर सावधानी से चलना चाहिए।
(3) कभी भी अधिक भावुक होकर नहीं खेलना चाहिए।
(4) खेल-भावना तथा धैर्य के साथ खेलना चाहिए।

उपचार/इलाज (Treatment):
फ्रैक्चर के इलाज या उपचार के उपाय निम्नलिखित हैं-
(1) टूट वाले स्थान को हिलाना-जुलाना नहीं चाहिए।
(2) टूट के उपचार को करने से पहले रक्तस्राव एवं अन्य तीव्र घावों का उपचार करना चाहिए।
(3) टूटी हड्डी को पट्टियों व कमठियों के द्वारा स्थिर कर देना चाहिए।
(4) टूटी हड्डी पर पट्टियाँ पर्याप्त रूप से कसी होनी चाहिए। पट्टियाँ इतनी न कसी हो कि रक्त संचार में बाधा पैदा हो जाए।
(5) कमठियाँ इतनी लम्बी होनी चाहिएँ कि वे टूटी हड्डी का एक ऊपरी तथा एक निचला जोड़ स्थिर कर दें।
(6) घायल की पट्टियों को इस प्रकार से सही स्थिति में लाए कि उसको कोई तकलीफ न हो।
(7) घायल व्यक्ति को कम्बल या किसी कपड़े के द्वारा गर्म करना चाहिए, ताकि उसे कोई सदमा न पहुँचे।
(8) प्राथमिक सहायता या उपचार देने के बाद घायल व्यक्ति को अस्पताल पहुँचा देना चाहिए, ताकि उसका उचित उपचार किया जा सके।

प्रश्न 12.
भीतरी घाव या कंट्यूशन से क्या अभिप्राय है? इसके लक्षण तथा बचाव व उपचार के उपाय लिखें।
उत्तर:
भीतरी घाव या कंट्यूशन (Contusion):
भीतरी घाव को अंदरुनी चोट भी कहते हैं। यह माँसपेशी की चोट होती है। एक प्रत्यक्ष मुक्का या कोई खेल उपकरण शरीर को लग जाए तो कंट्यूशन का कारण बन सकता है। मुक्केबाजी, कबड्डी और कुश्ती आदि में कंट्यूशन होना स्वाभाविक है। कंट्यूशन में माँसपेशियों में रक्त कोशिकाएँ टूट जाती हैं और कभी-कभी माँसपेशियों से रक्त भी बहने लगता है। भीतरी घाव या कंट्यूशन की जगह पर अकड़न और सूजन आ जाना स्वाभाविक है। कई बार माँसपेशियाँ भी काम करना बंद कर देती हैं। कभी-कभी गंभीर दशा में माँसपेशियाँ पूर्णतया निष्क्रिय हो जाती हैं। कंट्यूशन से शरीर के अनेक अंगों; जैसे रक्त कोशिकाओं, माँसपेशियों, नाड़ियों तथा ऊतकों आदि को नुकसान पहुँचता है।

लक्षण (Symptoms):
भीतरी घाव के लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) अंगों में सूजन आ जाना।
(2) अंगों में पीड़ा होना।
(3) शरीर को दबाने पर अकड़न का अनुभव होना।
(4) चमड़ी का रंग बदलना।
(5) शरीर के अंगों का शिथिल पड़ जाना।

बचाव व उपचार (Prevention and Treatment):
भीतरी घाव के बचाव व उपचार के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) पी०आर०आई०सी०ई० (P.R.I.C.E.) प्रयोग के प्राथमिक सहायता निर्देशों का पालन करना चाहिए।
(2) चोटग्रस्त अंग पर पट्टी लपेट देनी चाहिए।
(3) प्रतिदिन 3-4 बार चोटग्रस्त अंग पर लगभग 10 मिनट तक बर्फ की मालिश करनी चाहिए।
(4) अगर 48 घंटे के बाद यह ठीक होने लगे तो बर्फ की बजाए गर्म पट्टी से सेकना चाहिए।
(5) गर्म लैंप, गर्म जुराबें तथा पैड का प्रयोग करना चाहिए।
(6) हृदय की ओर थपथपाना चाहिए।
(7) सुरक्षात्मक उपकरणों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

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प्रश्न 13.
खेल के मैदान में किन-किन सावधानियों पर ध्यान देना चाहिए?
अथवा
खेल चोटों से बचने के लिए किन-किन बातों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए?
अथवा
हम खेल में आने वाली चोटों से कैसे बच सकते हैं? वर्णन करें।
उत्तर:
आजकल खेल के मैदान में जितना महत्त्वपूर्ण खेलना है, उतना ही महत्त्वपूर्ण है अपने-आपको चोटों से बचाना। खेल के मैदान में चोटों से बचाव हेतु निम्नलिखित सावधानियों/बातों पर ध्यान देना चाहिए
1. बचाव संबंधी सूचनाएँ (Instructions as Regards Protection):
खिलाड़ियों, प्रबंधकों तथा दर्शकों को बचाव के तरीकों के बारे में अच्छी तरह सूचनाएँ दी जानी चाहिएँ। ये सूचनाएँ लिखित रूप में भी भेजी जा सकती हैं और खेल शुरू होने से पहले मौखिक रूप से भी बतानी चाहिएँ। खिलाड़ियों को खेल खेलने के सही ढंग का पूरा-पूरा ज्ञान होना चाहिए। उनको यह भी अच्छी तरह बताना चाहिए कि कबड्डी में कैंची से, फुटबॉल में पाँव पर पाँव रख देने से और बॉक्सिंग में मुँह पर पड़ने वाले मुक्के से स्वयं को कैसे बचाना है। इसी तरह कुश्ती में खुद दाव लगाने तथा विरोधी दाव से बचने की पूरी-पूरी जानकारी होनी चाहिए। ऊँची और लंबी छलाँग लगाने में भी इस बात का पता होना चाहिए कि छलाँग लगाने के बाद धरती पर कैसे गिरना है।

2. खेल के मैदान की योजनाबंदी और प्रबंध (Planning and Management of Play Grounds):
खुली जगह में अलग-अलग खेलों के मैदान की योजनाबंदी करते समय भी खिलाड़ियों और दर्शकों के बचाव पर उचित ध्यान देना चाहिए। मैदान इस ढंग से बनाने चाहिएँ कि एक खेल का सामान दूसरे खेल के मैदान में न जाए। इसके लिए मैदानों के बीच तथा आस-पास काफी खुली जगह छोड़ी जानी चाहिए। मैदानों के लिए बाड़ या दीवार भी मैदान की सीमा रेखा से काफी दूर होनी चाहिएँ, ताकि तेज़ दौड़ने वाले खिलाड़ियों को बाड़ या दीवार से टकराकर चोट आदि न लग सके। खेल के मैदान में जाने के लिए एक रास्ता भी होना चाहिए, जिससे गुज़रते हुए व्यक्ति को चोट न लगे। मैदान को समय के अनुसार पानी देकर और फिर जरूरत के अनुसार रोलर फिराकर समतल रखा जाना चाहिए। मैदान में गड्डे और कंकर-पत्थर भी नहीं होने चाहिएँ । छलाँग वाले अखाड़ों को अच्छी तरह खोदना चाहिए। इस तरह मैदान की ठीक देखभाल करने से खिलाड़ियों को खतरनाक चोटों से बचाया जा सकता है।

3.सामान (Equipments):
खेल का सामान बढ़िया किस्म का ही खरीदना चाहिए। घटिया किस्म के सामान से खिलाड़ियों और दर्शकों को चोटें लगने का भय रहता है। बैट, पोल वॉल्ट के पोल, नेज़े, डिस्कस, हैमर, हर्डल, छलाँगों के स्टैंड और जिम्नास्टिक्स का सामान आदि सभी अच्छी किस्म के होने चाहिएँ। सामान को इस्तेमाल से पहले अच्छी तरह परखना चाहिए। नीकैप, थिनगार्ड, दस्ताने, बूट और जुराबें, लैग-गार्ड आदि निजी सामान खिलाड़ी के शरीर की रक्षा करते हैं। जिम्नास्टिक्स और कुश्ती के लिए बढ़िया किस्म के गद्दों का प्रबंध भी खिलाड़ियों के लिए होना चाहिए।

4. दर्शकों के लिए उचित प्रबंध (Fair Arrangement of Spectators):
मैच के समय दर्शकों के बैठने या खड़े होने का उचित प्रबंध किया जाना चाहिए। खेल के मैदान से बाहर कुछ दूरी पर किसी-न-किसी प्रकार की बनावटी हदबंदी बना लेनी चाहिए, ताकि दर्शक खिलाड़ियों से काफी दूर-दूर ही रहें। मैदान की हदबंदी के निकट साइकिल या स्कूटर आदि को खड़े करने की आज्ञा नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इनसे खिलाड़ियों को चोट लगने का डर रहता है।

5. खेल की निगरानी (Inspection of Sports):
खेलों के कोच, अध्यापक, रैफरी और अम्पायर भी योग्यता प्राप्त और अनुभवशील होने चाहिएँ, क्योंकि मैच में कमज़ोर रैफरियों या अम्पायरों से खेल काबू में नहीं रहते। कई बार हॉकी या फुटबॉल के मैच में लड़ाई हो जाती है, जिनमें खिलाड़ियों को चोटें भी लग जाती हैं। इसलिए रैफरी को चाहिए कि खिलाड़ियों से नियमों की पालना करवाकर उनका बचाव करे।

6. खिलाड़ियों को प्रशिक्षण (Training of Sportsmen):
खिलाड़ियों को अधिकतर खेल को खेल की दृष्टि से खेलने’ का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए न कि बदले की भावना से खेलने का। कमज़ोर टीमों को हँसते हुए हार स्वीकार करने का प्रशिक्षण मिलना चाहिए। खिलाड़ियों को बचाव वाली ड्रैस के बारे में भी जानकारी दी जानी चाहिए।

7.खेलने से पहले गर्म होना (Warming up before Playing):
खेलने से पहले हल्की कसरत करने से शरीर गर्म होकर चुस्त हो जाता है। इससे शरीर की सोई हुई शक्ति जाग पड़ती है। इस तरह शरीर का चोटों से बचाव हो जाता है। गर्म हुए शरीर की माँसपेशियों के फटने या खिंच जाने का कोई डर नहीं रहता।

8. डॉक्टरी परीक्षा (Medical Examination):
बहुत सख्त, तेज़ी से थका देने वाली और खतरनाक खेलों में भाग लेने वाले सारे खिलाड़ियों और एथलीटों की डॉक्टरी परीक्षा खेल आरंभ होने से पहले आवश्यक रूप से की जानी चाहिए। जिन खिलाड़ियों और एथलीटों को दिल की बीमारियाँ, खून का अधिक दबाव और हर्निया आदि बीमारियाँ हों, उन्हें इन खेलों के मुकाबले में भाग लेने की आज्ञा नहीं दी जानी चाहिए।

प्रश्न 14.
टखने की मोच के चिह्न, बचाव के उपाय तथा उपचार के बारे में लिखें।
अथवा
टखने की मोच (Sprain of Ankles) के कारण, लक्षण तथा रोकथाम व इलाज के बारे में लिखें।
उत्तर:
टखने की मोच के कारण (Causes of Sprain of Ankles):
टखने में मोच आने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं
(1) पाँव का अचानक फिसल जाना।
(2) चलते अथवा दौड़ते हुए अचानक पाँव का किसी गड्ढे में आना।
(3) खेल से पहले शरीर को अच्छी प्रकार से गर्म न करना।
(4) ‘खेल का मैदान समतल न होना।
(5) टखनों के जोड़ों के तंतुओं का मजबूत न होना।
(6) फुटबॉल को किक मारते हुए पाँव के पंजे का जोर से जमीन अथवा विरोधी खिलाड़ी के जूते से टकराना।

चिह्न/लक्षण (Symptoms):
टखने की मोच के लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) मोच वाले स्थान पर दर्द होता है।
(2) मोच वाले स्थान पर सूजन आ जाती है।
(3) दर्द बढ़ जाता है तथा जोड़ों में काम करने की शक्ति कम हो जाती है।
(4) गंभीर मोच की स्थिति में ऊपरी चमड़ी का रंग नीला हो जाता है।

रोकथाम/बचाव के उपाय (Measures of Prevention):
इसकी रोकथाम या बचाव के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) खेलने से पहले शरीर को अच्छी प्रकार गर्म कर लेना चाहिए।
(2) खेल का मैदान समतल होना चाहिए तथा खेल आरंभ करने से पहले मैदान से कंकड़, पत्थर आदि उठाकर बाहर फेंक देने चाहिएँ।
(3) खेल का सही प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात् ही खेलों में भाग लेना चाहिए।

उपचार/इलाज (Treatment):
टखने की मोच का इलाज निम्नलिखित अनुसार करना चाहिए
(1) पाँव के व्यायाम करने चाहिएँ।
(2) पहले 24 अथवा 48 घंटे तक गीले कपड़े की पट्टी रखनी चाहिए।
(3) मोच वाले स्थान पर आठ के आकार की पट्टी बाँधनी चाहिए।
(4) पैर के नीचे कोई वस्तु रखनी चाहिए ताकि बाहरी भाग ऊपर की ओर उठ सके।
(5) जिस व्यक्ति को मोच आई हो, उसके जूते उतार देने चाहिएँ।
(6) मोच को आरामदायक स्थिति में रखना चाहिए।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल

लघूत्तरात्मक प्रश्न [Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
एथलेटिक देखभाल से आप क्या समझते हैं?
अथवा
एथलेटिक केयर का अर्थ व संप्रत्यय बताइए। अथवा
एथलेटिक केयर का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एथलेटिक का अर्थ है-सभी प्रकार की खेलें तथा स्पोर्ट्स। एथलेटिक्स खेलों के प्रतिस्पर्धात्मक मुकाबलों में उन क्रियाओं (गतिविधियों) का प्रभुत्व रहता है जिनमें कुशल तथा योग्य खिलाड़ी भाग लेते हैं। एथलेटिक्स के विभिन्न क्षेत्र होते हैं, उदाहरणस्वरूप शिक्षण संस्थाएँ; जैसे स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय जहाँ पर युवा वर्ग एथलेटिक्स गतिविधियों में भाग लेते हैं। प्रत्येक खेल तथा स्पोर्ट्स की राष्ट्रीय फेडरेशन राष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स मुकाबले करवाती हैं और अंतर्राष्ट्रीय संघ या इकाई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स मुकाबले करवाती हैं। जब कोई युवा एथलेटिक्स खेलों (प्रतिस्पर्धात्मक मुकाबलों) में भाग लेता है तो उसे एक अंतर्राष्ट्रीय पदक जीतने के लिए कई वर्षों तक कड़े परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। जैसे-जैसे प्रशिक्षण के भार की मात्रा तथा तीव्रता बढ़ती जाती है तो वैसे ही एथलीट के घायल होने का भय अधिक बढ़ जाता है।

एथलेटिक देखभाल या केयर हमें यह जानकारी देती है कि कैसे खेल समस्याओं या चोटों को कम किया जाए, कैसे खेल के स्तर को सुधारा जाए। यदि खिलाड़ी की देखभाल पर ध्यान न दिया जाए तो खिलाड़ी का खेल-जीवन या कैरियर समाप्त हो जाता है। इसलिए हर खिलाड़ी के लिए एथलेटिक देखभाल बहुत महत्त्वपूर्ण पहलू है।

प्रश्न 2.
आजकल प्राथमिक सहायता की पहले से अधिक आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:
आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अचानक दुर्घटनाएं होती रहती हैं । साधारणतया घरों, स्कूलों, कॉलेजों, दफ्तरों तथा खेल के मैदानों में दुर्घटनाएँ देखने में आती हैं। मोटरसाइकिलों, बसों, कारों, ट्रकों आदि में टक्कर होने से व्यक्ति घायल हो जाते हैं। मशीनों की बढ़ रही भरमार और जनसंख्या में हो रही निरंतर वृद्धि ने भी दुर्घटनाओं को ओर अधिक बढ़ा दिया है। प्रत्येक समय प्रत्येक स्थान पर डॉक्टरी सहायता मिलना कठिन होता है। इसलिए ऐसे संकट का मुकाबला करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति.को प्राथमिक सहायता का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। यदि घायल अथवा रोगी व्यक्ति को तुरन्त प्राथमिक सहायता मिल जाए तो उसका जीवन बचाया जा सकता है। कुछ चोटें तो इस प्रकार की हैं, जो खेल के मैदान में बहुत लगती रहती हैं, जिनको मौके पर प्राथमिक सहायता देना बहुत आवश्यक है। यह तभी सम्भव है, यदि हमें प्राथमिक सहायता सम्बन्धी उचित जानकारी हो। इस प्रकार रोगी की स्थिति बिगड़ने से बचाने और उसके जीवन की रक्षा के लिए प्राथमिक सहायता की बहुत आवश्यकता होती है। इसलिए प्राथमिक सहायता की आज के समय में बहुत आवश्यकता हो गई है। प्रत्येक नागरिक को इसका ज्ञान होना चाहिए।

प्रश्न 3.
प्राथमिक सहायक को किन तीन मुख्य बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
उत्तर:
प्राथमिक सहायता देने की विधि रोगी की स्थिति के अनुसार देनी चाहिए, जिसके लिए तीन बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है
1. चोट की स्थिति-ध्यान रखा जाए कि चोट से शरीर का कौन-सा अंग और कौन-सी प्रणाली प्रभावित हुई है। उसके अनुसार उपचार विधि अपनाई जाए।
2. चोट का ज़ोर-जहाँ चोट का अधिक ज़ोर हो, पहले उसको संभालने का प्रयत्न किया जाए।
3. प्राथमिक सहायता की विधि-जिस प्रकार की चोट लगी हो, उपचार विधि उसी के अनुसार अपनाई जाए। मौके पर उपलब्ध साधनों के अनुसार प्राथमिक सहायता देने की विधि अपनाई जानी चाहिए।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल

प्रश्न 4.
प्राथमिक सहायक या चिकित्सक के कर्तव्यों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्राथमिक सहायक या चिकित्सक के प्रमुख कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं
(1) प्राथमिक सहायक या चिकित्सक को आवश्यकतानुसार घायल को रोगनिदान करना चाहिए।
(2) उसको इस बात पर विचार करना चाहिए कि घायल को कितनी, कैसी और कहाँ तक सहायता दी जाए।
(3) प्राथमिक चिकित्सक को रोगी या घायल को अस्पताल ले जाने के लिए योग्य सहायता का उपयोग करना चाहिए।
(4) उसको घायल की पूरी देखभाल की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।
(5) घायल के शरीरगत चिह्नों; जैसे सूजन, कुरूपता आदि को प्राथमिक चिकित्सक को अपनी ज्ञानेंद्रियों से पहचानकर उचित सहायता देनी चाहिए।

प्रश्न 5. खेलों में चोटों के प्राथमिक उपचार का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
अथवा
खेलों में चोट लगने पर क्या उपचार करना चाहिए?
उत्तर:
खेलों में चोट लगने पर निम्नलिखित उपचार करने चाहिएँ
(1) खेलों में चोट लगने पर सबसे पहले बर्फ की मालिश करनी चाहिए। बर्फ सूजन और रक्त के बहाव को रोकती है।
(2) दबाव का प्रयोग करके भी सूजन को घटाया जा सकता है। बर्फ की मालिश के बाद पट्टी को उस स्थान पर इस प्रकार बाँधना चाहिए कि जिससे रक्त का प्रवाह भी न रुके तथा न ही इतनी ढीली होनी चाहिए जिससे कि दोबारा सूजन हो जाए।
(3) खेलों में चोट लगने पर यह जरूरी है कि आराम किया जाए। जब भी शरीर के किसी हिस्से पर चोट लगती है तो चोट वाले स्थान पर दर्द, सूजन जैसे चिह्न बन जाते हैं। इससे छुटकारा पाने के लिए आराम करना जरूरी है।
(4) चोट लगने पर उस स्थान का उसी के अनुसार इलाज करना चाहिए। यदि शरीर के निचली तरफ चोट लगी है तो उसे दर्द और सूजन से बचाने के लिए आराम और सोते समय चोट लगने वाला हिस्सा ऊँचा रखना चाहिए। यदि चोट शरीर के ऊपरी हिस्से में लगी है तो दर्द और सूजन से बचने के लिए ऊपरी हिस्सा थोड़ा ऊँचा कर देना चाहिए। इससे चोट वाले स्थान को आराम मिलता है।

प्रश्न 6.
खेल में खिंचाव से कैसे बचा जा सकता है?
अथवा
खिंचाव से बचाव की विधियाँ बताइए।
उत्तर:
खिंचाव मांसपेशी की चोट है। खेलते समय कई बार खिलाड़ियों की माँसपेशियों में खिंचाव आ जाता है। कई बार तों माँसपेशियाँ फट भी जाती हैं, जिसके कारण काफी दर्द होता है। प्रायः खिंचाव वाले हिस्से में सूजन आ जाती है।
खेल में खिंचाव से बचने के लिए निम्नलिखित उपायों का प्रयोग करना चाहिए
(1) गीले व चिकने ग्राऊंड, ओस वाली घास पर कभी नहीं खेलना चाहिए।
(2) खेलने से पहले कुछ हल्का व्यायाम करके शरीर को अच्छी तरह गर्म करना चाहिए। इससे खेलने के लिए शरीर तैयार हो जाता है।
(3) चोटों से बचने के लिए प्रत्येक खिलाड़ी को आवश्यक शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।
(4) खिलाड़ी को सुरक्षात्मक कपड़े, जूते व उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 7.
रगड़ लगने पर क्या इलाज किया जाना चाहिए?
अथवा
रगड़ की प्राथमिक चिकित्सा का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रगड़ लगने पर इसके इलाज के लिए निम्नलिखित तरीके अपनाने चाहिएँ
(1) चोटग्रस्त स्थान को जितनी जल्दी हो सके गर्म पानी व नीम के साबुन से धोना चाहिए।
(2) यदि रगड़ अधिक हो तो उस स्थान पर पट्टी करवानी चाहिए। पट्टी खींचकर नहीं बाँधनी चाहिए।
(3) चोट के तुरंत बाद एंटी-टैटनस का टीका अवश्य लगवाना चाहिए।
(4) दिन के समय चोट पर पट्टी बाँधनी चाहिए और रात को चोट खुली रखनी चाहिए।
(5) चोट लगने के बाद, तुरंत नहीं खेलना चाहिए। अगर खिलाड़ी खेलता है तो दोबारा उसी जगह पर चोट लग सकती है जो खतरनाक सिद्ध हो सकती है।

प्रश्न 8.
मोच कितने प्रकार की होती है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मोच तीन प्रकार की होती है जो निम्नलिखित है-
1. नर्म मोच-इसमें जोड़-बंधनों (Ligaments) पर खिंचाव आता है। जोड़ में हिल-जुल करने पर दर्द अनुभव होता है। इस हालत में कमजोरी तथा दर्द महसूस होता है।
2. मध्यम मोच-इसमें जोड़-बंधन काफी मात्रा में टूट जाते हैं। इस हालत में सूजन तथा दर्द बढ़ जाता है।
3. पूर्ण मोच-इसमें जोड़ की हिल-जुल शक्ति समाप्त हो जाती है। जोड़-बंधन पूरी तरह टूट जाते हैं। इस हालत में दर्द असहनीय हो जाता है।

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प्रश्न 9.
मोच (Sprain) क्या है? इसके बचाव की विधियाँ बताएँ।
अथवा
खेल में मोच से कैसे बचा जा सकता है?
उत्तर:
मोच-मोच लिगामेंट्स की चोट होती है। सामान्यतया मोच कोहनी के जोड़ या टखने के जोड़ पर अधिक आती है। किसी जोड़ के संधिस्थल के फट जाने को मोच आना कहते हैं।
बचाव की विधियाँ-मोच से बचाव की विधियाँ निम्नलिखित हैं
(1) पूर्ण रूप से शरीर के सभी जोड़ों को गर्मा लेना चाहिए।
(2) खेल उपकरण अच्छी गुणवत्ता के होने चाहिएँ।
(3) मैदान समतल व साफ होना चाहिए।
(4) थकावट के समय खेल रोक देना चाहिए।
(5) सुरक्षात्मक कपड़े, जूते व उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 10.
खेल की चोटों को कम करने के आधारभूत चरण क्या हैं?
अथवा
क्या खेलों की चोटों में बचाव के पक्ष, उपचार से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर:
खेल की चोटों को कम करने के आधारभूत चरण निम्नलिखित हैं
(1) प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को गर्माना।
(2) सुरक्षात्मक उपकरण का प्रयोग खेल की आवश्यकता के अनुसार करना।
(3) तैयारी के समय उचित अनुकूलन बनाए रखना।
(4) प्रतियोगिता के दौरान सतर्क व सावधान रहना।
(5) सुरक्षात्मक कपड़ों व जूतों का प्रयोग करना।
इस प्रकार उपर्युक्त विवरण के आधार पर खेलों की चोटों में बचाव के पक्ष, उपचार से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि हमेशा सावधानी सभी औषधियों या दवाइयों से बेहतर होती है।

प्रश्न 11.
खेलों में लगने वाली चोटों से बचाव के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
खेलों में लगने वाली चोटों से बचाव के महत्त्व निम्नलिखित प्रकार से हैं
(1) खिलाड़ी बिना किसी तकलीफ के खेलों में अच्छा प्रदर्शन कर सकता है।
(2) खेलों का संचालन अच्छा होता है।
(3) खिलाड़ी का शरीर स्वस्थ व संतुलित रहता है।
(4) अधिक समय तक खिलाड़ी अपने खेल में अच्छा प्रदर्शन कर सकता है।
(5) खिलाड़ी अपनी पूर्ण शक्ति या ऊर्जा से खेल जारी रख सकता है।

प्रश्न 12.
टखने की मोच (Sprain of Ankles) के कारण लिखें।
उत्तर:
टखने में मोच आने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं
(1) पाँव का अचानक फिसल जाना।
(2) चलते अथवा दौड़ते हुए अचानक पाँव का किसी गड्ढे में आना।
(3) खेल से पहले शरीर को अच्छी प्रकार से गर्म न करना।
(4) खेल का मैदान समतल न होना।
(5) टखनों के जोड़ों के तंतुओं का मजबूत न होना।
(6) फुटबॉल को किक मारते हुए पाँव के पंजे का जोर से जमीन अथवा विरोधी खिलाड़ी के जूते से टकराना।

प्रश्न 13.
घावों के प्राथमिक उपचार पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर:
घावों के प्राथमिक उपचार हेतु निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं
(1) सबसे पहले रोगी को अनुकूल आसन में बैठाए।
(2) रक्त बहते हुए अंग को थोड़ा ऊपर उठाकर रखें।
(3) घाव में यदि कोई बाहरी चीज दिखाई पड़े जो आसानी से हटाई जाए तो साफ पट्टी से हटा दीजिए।
(4) घाव को जहाँ तक हो सके खुला रखे अर्थात् कपड़े आदि से न ढके।
(5) घाव पर मरहम पट्टी लगाएँ और घायल अंग को स्थिर रखें। ।
(6) घाव पर पट्टी इस प्रकार से बाँधनी चाहिए जिससे बहता रक्त रुक सके।
(7) घायल के घाव को आयोडीन टिंक्चर या स्प्रिट से भली भाँति धो देना चाहिए।
(8) घायल को प्राथमिक उपचार के बाद तुरंत डॉक्टर के पास ले जाए।

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प्रश्न 14.
जोड़ या हड्डी के उतर जाने (Dislocation) की प्राथमिक सहायता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जोड़ या हड्डी के उतर जाने की प्राथमिक सहायता निम्नलिखित प्रकार से करनी चाहिए
(1) घायल को आरामदायक या सुखद स्थिति में रखना चाहिए।
(2) घायल अंग को गद्दियों या तकियों से सहारा देकर स्थिर रखें।
(3) उतरे जोड़ को चढ़ाने का प्रयास कुशल प्राथमिक सहायक को सावधानी से करना चाहिए।
(4) यदि दर्द अधिक हो तो गर्म पानी की टकोर करनी चाहिए।
(5) जोड़ पर बर्फ या ठण्डे पानी की पट्टी बाँधनी चाहिए।
(6) घायल को प्राथमिक सहायता के बाद तुरंत अस्पताल या डॉक्टर के पास ले जाएँ।

प्रश्न 15.
जोड़ों के विस्थापन से क्या तात्पर्य है? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
हड्डी का अपने जोड़ वाले स्थान से हट जाना या खिसक जाना, जोड़ का विस्थापन कहलाता है। कुछ ऐसे खेल होते हैं जिनमें हड्डी का उतरना स्वाभाविक है। प्रायः कंधे, कूल्हे तथा कलाई आदि की हड्डी उतरती है। जोड़ों के विस्थापन निम्नलिखित प्रकार के होते हैं
1. निचले जबड़े का विस्थापन-सामान्यतया इस प्रकार का विस्थापन तब होता है, जब ठोडी किसी वस्तु से टकरा जाए। अधिक मुँह खोलने से भी निचले जबड़े का विस्थापन हो सकता है।
2. कन्धे के जोड़ का विस्थापन-कन्धे के जोड़ का विस्थापन अचानक झटके या कठोर सतह पर गिरने से हो सकता है। इस चोट में मांसल की हड्डी (Humerous) का सिरा सॉकेट से बाहर आ जाता है।
3. कूल्हे के जोड़ का विस्थापन-अनायास ही अधिक शक्ति लगाने से कूल्हे के जोड़ का विस्थापन हो सकता है। इस चोट में फीमर का ऊपरी सिरा सॉकेट से बाहर आ जाता है।

प्रश्न 16.
हड्डी टूटने या अस्थि-भंग (Fracture) के प्राथमिक उपचार या सहायता पर प्रकाश डालिए।
अथवा
टूटी हड्डी के उपचार हेतु किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए?
उत्तर:
टूटी हड्डी के प्राथमिक उपचार के लिए निम्नलिखित उपायों या नियमों को अपनाना चाहिए
(1) टूटी हड्डी का उसी स्थान पर प्राथमिक उपचार करना चाहिए।
(2) टूट के उपचार को करने से पहले रक्तस्राव एवं अन्य तीव्र घावों का उपचार करना चाहिए।
(3) टूटी हड्डी को पट्टियों व कमठियों के द्वारा स्थिर कर देना चाहिए।
(4) टूटी हड्डी पर पट्टियाँ पर्याप्त रूप से कसी होनी चाहिए। पट्टियाँ इतनी न कसी हो कि रक्त संचार में बाधा पैदा हो जाए।
(5) कमठियाँ इतनी लम्बी होनी चाहिएँ कि वे टूटी हड्डी का एक ऊपरी तथा एक निचला जोड़ स्थिर कर दें।
(6) घायल की पट्टियों को इस प्रकार से सही स्थिति में लाए कि उसको कोई तकलीफ न हो।
(7) घायल व्यक्ति को कंबल या किसी कपड़े के द्वारा गर्म करना चाहिए ताकि उसे कोई सदमा न पहुंचे।
(8) प्राथमिक सहायता या उपचार देने के बाद घायल व्यक्ति को अस्पताल पहुँचा देना चाहिए, ताकि उसका उचित उपचार किया जा सके।

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प्रश्न 17.
खेल चोटें क्या हैं? ये कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर:
खेल चोटें-प्रतिदिन प्रत्येक आयु के खिलाड़ी शारीरिक, मानसिक तथा भावात्मक तैयारी करते हैं, ताकि वे अपने खेल में अच्छी कुशलता दिखा सकें। खेलों में प्रायः चोटें लगती रहती हैं। साधारणतया चोटें उन खिलाड़ियों को लगती हैं जो परिपक्व नहीं होते। उनमें खेलों में आने वाले उतार-चढ़ाव की परिपक्वता नहीं होती और कई बार मैदान का स्तर भी उच्च-कोटि का नहीं होता जिसके कारण चोटें लग जाती हैं। ऐसी चोटों को खेल-चोटें कहा जाता है।

प्रकार-खेल चोटें मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं-
(1) मुलायम या कोमल ऊतकों की चोटें
(2) अस्थियों की चोटें
(3) जोड़ों की चोटें।

प्रश्न 18.
खेलों में चोट लगने के कोई चार कारण बताइए।
अथवा
खेल में चोटें कैसे लगती हैं?
उत्तर:
खेल के मैदान में खेलते समय चोट लगने के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं
(1) खेलों का घटिया सामान तथा घटिया निगरानी
(2) ऊँचे-नीचे या असमतल खेल के मैदान
(3) बचाव संबंधी उचित सामान की कमी
(4) खिलाड़ियों द्वारा लापरवाही तथा बदले की भावना से खेलना।

प्रश्न 19.
खिंचाव के प्रकार व प्रबन्ध का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
खिंचाव के प्रकार-
(1) सामान्य खिंचाव
(2) मध्यम खिंचाव
(3) गंभीर खिंचाव।

खिंचाव के प्रबन्ध-खिंचाव के प्रबन्ध इस प्रकार हैं-
(1) जिस जगह चोट लगी हो, उसे आरामदायक स्थिति में रखना चाहिए
(2) खिंचाव वाले स्थान पर ठण्डे पानी या बर्फ की मालिश करनी चाहिए। बर्फ का प्रयोग सीधे न करके किसी कपड़े में लपेटकर करना चाहिए
(3) पूर्ण रूप से आराम करना चाहिए
(4) चोट-ग्रस्त अंग को थोड़ा ऊपर रखना चाहिए
(5) अधिक दर्द होने की स्थिति में डॉक्टर की सलाहनुसार उचित दवा लेनी चाहिए।

प्रश्न 20.
चोटों के उपचार के लिए पी०आर०आई०सी०ई० (P.R.I.C.E.) प्रक्रिया का पालन क्यों करना चाहिए? स्पष्ट करें।
उत्तर:
1. सुरक्षा (Protection-P): इसका उद्देश्य घायल व्यक्ति को आगे लगने वाली चोट से सुरक्षा करना है तथा दूसरे एथलीटों और जोखिमों से दूर रखना है।
2. विश्राम (Rest-R): घायल अंग को स्थिरता प्राप्त कराने के यंत्र से स्थिर रखना चाहिए। व्यायाम में वापसी धीमी और क्रमिक होनी चाहिए, यदि घायल व्यक्ति प्रभावित क्षेत्र को बिना किसी दर्द के हिलाने की क्षमता रखता है।
3. बर्फ (Ice-I): खून के बहाव और तरल पदार्थ के नुकसान के कारण होने वाली सूजन और दर्द को चोट लगने के 72 घंटों के बाद बर्फ लगाकर कम किया जा सकता है।
4. संपीड़न (Compression-C): यह प्रारंभिक खून के बहाव को नियंत्रित करने में सहायता करता है और अवशिष्ट सूजन को कम करता है। संपीड़न साधारणतया लोचदार लपेटों के रूप में आता है।
5. ऊँचाई (Elevation-E): घायल अंग की ऊँचाई का दिल के स्तर से ऊपर होना ऊतक में खून के प्रारंभिक बहाव को कम करने में सहायता करता है, जब यह बर्फ और संपीड़न के साथ संयोजन में प्रयोग किया जाता है।

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अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न [Very Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
पराथमिक सहायता (First Aid) से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
प्राथमिक सहायता का तात्पर्य उस सहायता से है जो कि रोगी अथवा जख्मी को चोट लगने पर अथवा किसी अन्य दुर्घटना के तुरंत बाद डॉक्टर के आने से पूर्व दी जाती है। इसको प्राथमिक चिकित्सा भी कहा जाता है।

प्रश्न 2.
प्राथमिक सहायता के उपकरण (First Aid Equipments) कैसे होने चाहिएँ?
उत्तर:
प्राथमिक सहायता के बॉक्स में जो उपकरण या सामग्री हो वह काम के अनुकूल होनी चाहिए। उसका आधार स्वास्थ्य के नियमों तथा समय की आवश्यकतानुसार ही होना चाहिए। प्राथमिक सहायता के बॉक्स में सभी आवश्यक उपकरण होने चाहिएँ।

प्रश्न 3.
प्राथमिक सहायता बॉक्स में कौन-कौन-से उपकरण या चीजें होनी चाहिएँ?
उत्तर:
(1) मिली-जुली चिपकने वाली पट्टियाँ,
(2) पतला कागज,
(3) आवश्यक दवाइयाँ,
(4) रूई का बंडल,
(5) कैंची,
(6) सेफ्टी पिन,
(7) तैयार की हुई आकार के अनुसार कीटाणुरहित पट्टियाँ,
(8) कमठियों का एक सैट,
(9) चिपकने वाली पलस्तर,
(10) मरहम पट्टियाँ,
(11) डैटॉल आदि।

प्रश्न 4.
प्राथमिक सहायक के कोई दो गुण बताएँ।
उत्तर:
(1) प्राथमिक सहायक में उचित निर्णय लेने का साहस होना चाहिए।
(2) उसमें सेवा भावना और सहानुभूति की भावना होनी चाहिए।

प्रश्न 5.
प्राथमिक सहायक किसे कहा जाता है?
उत्तर:
यद्यपि प्रारंभ में प्राथमिक सहायक’ की भूमिका के बारे में कोई वर्णन नहीं मिलता, परन्तु सन् 1994 के बाद प्राथमिक सहायक’ शब्द का प्रयोग शुरू हुआ। जिस व्यक्ति ने किसी आधिकारिक संस्था से प्राथमिक सहायता की शिक्षा प्राप्त की हो, उसे प्राथमिक सहायक कहा जाता है।

प्रश्न 6.
प्राथमिक सहायता के क्या उद्देश्य हैं?
उत्तर:
(1) रोगी की जिंदगी बचाना,
(2) रोगी की हालत को बिगड़ने से रोकना,
(3) रोगी की हालत को सुधारना,
(4) रोगी को समीप के अस्पताल में पहुँचाना या डॉक्टर के पास लेकर जाना।

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प्रश्न 7.
खिंचाव से क्या अभिप्राय है?
अथवा
माँसपेशियों या पट्ठों का तनाव क्या है?
उत्तर:
खिंचाव या तनाव माँसपेशी की चोट है। खेलते समय कई बार खिलाड़ियों की माँसपेशियों या पट्ठों में खिंचाव आ जाता है जिसके कारण खिलाड़ी अपना खेल जारी नहीं रख सकता। कई बार तो माँसपेशियाँ फट भी जाती हैं, जिसके कारण काफी दर्द महसूस होता है। प्रायः खिंचाव वाले हिस्से में सूजन आ जाती है। खिंचाव का मुख्य कारण खिलाड़ी का खेल के मैदान में अच्छी तरह गर्म न होना है। इसे पट्ठों का खिंच जाना भी कहते हैं।

प्रश्न 8.
मोच से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
किसी जोड़ के अस्थि-बंधक तन्तु (Ligaments) के फट जाने को मोच आना कहते हैं अर्थात् जोड़ के आसपास के जोड़-बंधनों तथा तन्तु वर्ग (Tissues) फट जाने या खिंच जाने को मोच कहते हैं । सामान्यत: घुटनों, रीढ़ की हड्डी तथा गुटों में ज्यादा मोच आती है।

प्रश्न 9.
चोटों की देखरेख में पी०आर०आई०सी०ई० (P.R.I.C.E.) का क्या अर्थ है?
उत्तर:
चोटों की देखरेख में पी०आर०आई०सी०ई० (P.R.I.C.E.) का अर्थ है-P = Protection (सुरक्षा/बचाव), R=Rest (विश्राम), I = Ice (बर्फ),C=Compression (दबाना), E= Elevation (ऊँचा रखना)।अत: पी० आर०आई०सी०ई० का अर्थ है-सुरक्षा/बचाव करना, विश्राम करना, बर्फ लगाना, दबाना व ऊँचा रखना।

प्रश्न 10.
रगड़ या छिलना से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
रगड़ त्वचा की चोट है। खेलते समय त्वचा पर ऐसी चोटें लग जाती हैं। प्रायः रगड़ एक मामूली चोट होती है, लेकिन कभी-कभी यह गंभीर भी साबित हो जाती है। अगर रगड़ का चोटग्रस्त भाग अधिक घातक हो जाए और उसमें बाहरी कीटाणु हमला कर दें तो यह भयानक हो जाती है।

प्रश्न 11. रगड़ के क्या कारण हैं?
उत्तर:
(1) कठोर धरातल पर गिर पड़ना
(2) कपड़ों में रगड़ पैदा करने वाले तंतुओं के कारण
(3) जूतों का पैरों में सही प्रकार से फिट न आना
(4) हैलमेट और कंधों के पैडों का असुविधाजनक होना।

प्रश्न 12. घाव कितने प्रकार के होते हैं?
अथवा
जख्मों की कितनी किस्में होती हैं?
उत्तर:
घाव या जख्म चार प्रकार के होते हैं
(1) कट जाने से घाव
(2) फटा हुआ घाव
(3) छिपा हुआ घाव
(4) कुचला हुआ घाव।

प्रश्न 13.
जोड़ उतर जाने (Dislocation) से क्या अभिप्राय है? अथवा जोड़ उतरना क्या है?
उत्तर:
हड्डी का अपने जोड़ वाले स्थान से हट जाना या खिसक जाना, जोड़ उतरना कहलाता है। कुछ ऐसे खेल होते हैं जिनमें हड्डी का उतरना स्वाभाविक है। प्रायः कंधे, कूल्हे तथा कलाई आदि की हड्डी उतरती है।

प्रश्न 14.
अल्प चोटें (Minor Injuries) क्या होती हैं?
उत्तर:
अल्प चोटें वे चोटें होती हैं जिन्हें प्राथमिक चिकित्सा सहायता द्वारा कम समय में ठीक किया जा सकता है। ऐसी चोटें खेलों में खिलाड़ियों को अकसर लगती रहती हैं। ये अधिक घातक तो नहीं होतीं, पर समय पर प्राथमिक चिकित्सा न लिए जाने के कारण घातक सिद्ध हो सकती हैं।

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प्रश्न 15.
गंभीर चोटें (Serious Injuries) क्या होती हैं?
उत्तर:
गंभीर चोटें वे चोटें होती हैं जिसके कारण खिलाड़ी या व्यक्ति अपनी पूरी क्षमता को खेल या कार्य में प्रयोग करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसी चोटों में तुरंत डॉक्टरी जाँच की आवश्यकता होती है। कई बार ऐसी चोटें लगने से खिलाड़ियों का जीवन खतरे में पड़ जाता है।

प्रश्न 16.
जटिल फ्रैक्चर क्या होता है? गुंझलदार टूट (Complicated Fracture) क्या है?
उत्तर:
जटिल फ्रैक्चर से कई बार हड्डी की टूट के साथ जोड़ भी हिल जाते हैं। कई बार हड्डी टूटकर शरीर के किसी नाजुक अंग को नुकसान पहुँचा देती है; जैसे रीढ़ की हड्डी की टूट मेरुरज्जु को, सिर की हड्डी की टूट दिमाग को और पसलियों की हड्डियों की टूट दिल, फेफड़े और जिगर को नुकसान पहुँचाती हैं। ऐसी स्थिति में टूट काफी जटिल टूट बन जाती है।

प्रश्न 17.
हड्डी टूटने के दो लक्षण बताएँ। अथवा शरीर के भाग में फ्रैक्चर होने के किन्हीं दो सामान्य लक्षणों का उल्लेख करें।
उत्तर:
(1) टूटी हुई हड्डी वाले स्थान पर दर्द होता है
(2) टूटी हुई हड्डी वाले स्थान पर सूजन आ जाती है।

प्रश्न 18.
एथलेटिक देखभाल के विभिन्न कारकों या तत्त्वों के नाम बताएँ।
उत्तर:
(1) सुरक्षात्मक कपड़े व जूते
(2) सुरक्षात्मक उपकरण
(3) संतुलित आहार
(4) वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षण
(5) सामान्य सजगता
(6) वातावरण
(7) गर्माना व ठंडा करना आदि।

प्रश्न 19.
खेलों के सामान्य चोटों के नाम बताइए।
अथवा
खेलों में लगने वाली चार चोटों के नाम लिखिए।
अथवा
उत्तर:
(1) मोच (Sprain)
(2) खिंचाव (Strain)
(3) हड्डी का उतर जाना (Dislocation)
(4) हड्डी का टूटना (Fracture)
(5) भीतरी घाव (Contusion)
(6) रगड़ (Abrasion)।

प्रश्न 20.
कंट्यूशन या भीतरी घाव से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
कंट्यूशन माँसपेशी की चोट होती है। यदि एक प्रत्यक्ष मुक्का या कोई खेल उपकरण शरीर को लग जाए तो कंट्यूशन का कारण बन सकता है। मुक्केबाजी, कबड्डी और कुश्ती आदि में कंट्यूशन होना स्वाभाविक है। कंट्यूशन में माँसपेशियों में रक्त कोशिकाएँ टूट जाती हैं और कभी-कभी मांसपेशियों से रक्त भी बहने लगता है।

प्रश्न 21.
भीतरी घाव की रोकथाम के कोई दो उपाय बताएँ।
उत्तर:
(1) सुरक्षात्मक उपकरणों; जैसे दस्ताने, हैलमेट आदि का प्रयोग करके इससे बचा जा सकता है।
(2) अभ्यास या प्रतियोगिता में भाग लेने से पूर्व शरीर को गर्माकर इससे बचा जा सकता है।

प्रश्न 22.
नील (Bruise) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
ऊपरी त्वचा पर कोई निशान या चिह्न न पड़ने के कारण यह चोट स्पष्टतया दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन आंतरिक ऊतक नष्ट हो जाते हैं। इस चोट से प्रभावित स्थान नीला पड़ जाता है अर्थात् त्वचा के नीचे रक्त फैल जाता है।

प्रश्न 23.
नील के क्या कारण हैं?
उत्तर:
(1) अभ्यास व प्रतियोगिता से पूर्व खिलाड़ियों द्वारा शरीर को न गर्माना
(2) खेल मैदान का समतल न होना
(3) खेलों में अच्छी गुणवत्ता के उपकरणों का प्रयोग न करना
(4) थकावट की स्थिति में खेल को जारी रखना।

प्रश्न 24.
खेलों में चोटें कितने प्रकार की होती हैं? उनके नाम लिखिए।
उत्तर:
खेलों में चोटें दो प्रकार की होती हैं-
(1). कोमल ऊतकों की चोटें
(2) कठोर ऊतकों की चोटें।

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प्रश्न 25.
नील से बचाव के कोई दो उपाय बताएँ।
उत्तर:
(1) अभ्यास, प्रशिक्षण व प्रतियोगिता के दौरान खिलाड़ियों को सतर्क व सावधान रहना चाहिए।
(2) सुरक्षात्मक कपड़ों, जूतों व उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 26.
जोड़ उतरने के कोई दो लक्षण बताएँ।
उत्तर:
(1) जोड़ों में तेज़ दर्द होती है तथा सूजन आ जाती है
(2) जोड़ में गति बन्द हो जाती है। थोड़ी-सी गति से दर्द होती है।

प्रश्न 27.
जोड़ उतरने के कोई दो कारण बताएँ।
उत्तर:(1) खेल मैदान का ऊँचा नीचा होना अथवा अधिक सख्त या नरम होना।
(2) अचानक गिरने से हड्डी का हिल जाना।

प्रश्न 28.
मोच के लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) सूजन वाले स्थान पर दर्द शुरू हो जाता है।
(2) थोड़ी देर बाद जोड़ के मोच वाले स्थान पर सूजन आने लगती है।
(3) सूजन वाले भाग में कार्य की क्षमता कम हो जाती है।

प्रश्न 29.
जोड़ों का विस्थापन (Dislocation) कितने प्रकार का होता है?
उत्तर:
जोड़ों का विस्थापन मुख्यतः तीन प्रकार का होता है-
(1) कूल्हे का विस्थापन,
(2) कन्धे का विस्थापन,
(3) निचले जबड़े का विस्थापन।

प्रश्न 30.
दबा हुआ फ्रैक्चर (Depressed Fracture) क्या होता है?
उत्तर:
सामान्यतया यह फ्रैक्चर सिर की हड्डियों में होता है। जब खोपड़ी के ऊपरी भाग या आस-पास से हड्डी टूट जाने पर अंदर फंस जाती है तो ऐसा फ्रैक्चर दबा हुआ फ्रैक्चर कहलाता है।

प्रश्न 31.
अस्थि-भंग के क्या कारण हैं? अथवा हड्डी टूटने के मुख्य कारण बताएँ।
उत्तर:
(1) यदि कोई भार तेजी से आकर हड्डी में लगे तो हड्डी अपने स्थान से खिसक जाती है
(2) खेल मैदान का ऊँचा-नीचा होना अथवा असमतल होना
(3) खेल सामान का शारीरिक शक्ति से भारी होना।

प्रश्न 32.
कन्धे के जोड़ का विस्थापन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
कन्धे के जोड़ का विस्थापन एक ऐसी चोट है जिसमें आपकी ऊपरी बाजू की हड्डी कप के आकार की सॉकेट (Cup-shaped Socket) से निकलती है जो आपके कन्धे के जोड़ का हिस्सा है। कन्धे का जोड़ शरीर का ऐसा जोड़ है जो विस्थापन के लिए अति संवेदनशील होता है।

प्रश्न 33.
फ्रैक्चर का क्या अर्थ है? अथवा हड्डी का टूटना क्या है?
उत्तर:
किसी हड्डी का टूटना, फिसलना अथवा दरार पड़ जाना टूट (Fracture) कहलाता है। हड्डी पर जब दुःखदायी स्थिति में दबाव पड़ता है तो हड्डी से सम्बन्धित माँसपेशियाँ उस दबाव को सहन नहीं कर सकतीं, जिस कारण हड्डी फिसल अथवा टूट जाती है। अतः फ्रैक्चर का अर्थ है-हड्डी का टूटना या दरार पड़ जाना।

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प्रश्न 34.
बहुसंघीय फ्रैक्चर या बहुखंडीय अस्थि-भंग (Comminuted or Multiple Fracture) क्या होता है?
उत्तर:
जब हड्डी कई भागों से टूट जाए तो इसे बहुसंघीय या बहुखंड फ्रैक्चर कहा जाता है।

प्रश्न 35.
पच्चड़ी अस्थि-भंग किसे कहते हैं?
उत्तर:
पच्चड़ी अस्थि-भंग (Impacted Fracture) को अन्य नामों से भी जाना जाता है; जैसे बहुसंघीय अस्थि-भंग, बहुखंड अस्थि-भंग, चपटा अस्थि-भंग आदि। जब किसी घायल व्यक्ति के टूटे अस्थि-भंगों (Fractures) के सिरे एक-दूसरे में घुस जाते हैं तो उसे पच्चड़ी अस्थि-भंग कहा जाता है।

प्रश्न 36.
कच्चा फ्रैक्चर (Greenstick Fracture) क्या होता है?
उत्तर:
यह छोटे बच्चों में होता है क्योंकि छोटी आयु के बच्चों की हड्डियाँ बहुत नाजुक होती हैं जो शीघ्र मुड़ जाती हैं। यही कच्चा फ्रैक्चर होता है।

HBSE 12th Class Physical Education एथलेटिक देखभाल Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रकार के प्रश्न [Objective Type Questions]

भाग-I : एक शब्द/वाक्य में उत्तर दें-

प्रश्न 1.
लिगामेंट्स की चोट कौन-सी होती है?
उत्तर:
लिगामेंट्स की चोट मोच होती है।

प्रश्न 2.
चोट के तुरंत बाद खिलाड़ी को कौन-सा टीका लगवाना चाहिए?
उत्तर:
चोट के तुरंत बाद खिलाड़ी को एंटी-टैटनस का टीका लगवाना चाहिए।

प्रश्न 3.
कंट्यूशन का प्राथमिक उपचार क्या है?
उत्तर:
पी०आर०आई०सी०ई० (P.R.I.C.E.) का पालन करना।

प्रश्न 4.
किस दुर्घटना में सेक (हीट) थेरेपी का बहुत महत्त्व है?
उत्तर:
भीतरी चोट लगने पर।

प्रश्न 5.
हड्डी की टूट का सही इलाज करवाने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर:
हड्डी की टूट का सही इलाज करवाने के लिए टूट वाली हड्डी का एक्सरा करवाना चाहिए।

प्रश्न 6.
कंट्यूशन किस अंग की चोट है?
उत्तर:
कंट्यूशन माँसपेशियों की चोट है।

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प्रश्न 7.
खिलाड़ी को प्रशिक्षण व प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को क्या करना चाहिए?
उत्तर:
खिलाड़ी को प्रशिक्षण व प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को भली-भाँति गर्मा लेना चाहिए।

प्रश्न 8.
मुक्केबाजी में प्रायः कैसी चोट लगती है?
उत्तर:
मुक्केबाजी में प्रायः कंट्यूशन या भीतरी घाव नामक चोट लगती है।

प्रश्न 9.
खिंचाव कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:
खिंचाव तीन प्रकार की होती है-
(1) सामान्य खिंचाव
(2) मध्यम खिंचाव
(3) गंभीर खिंचाव।

प्रश्न 10.
कच्ची अस्थि-भंग प्रायः किन्हें होता है?
उत्तर:
कच्ची अस्थि-भंग प्रायः बच्चों को होता है।

प्रश्न 11.
खिंचाव किस अंग की चोट है?
उत्तर:
खिंचाव माँसपेशियों की चोट है।

प्रश्न 12.
किस प्रकार की मोच में दर्द असहनीय होता है?
उत्तर:
पूर्ण मोच में दर्द असहनीय होता है।

प्रश्न 13.
इलाज से अच्छा क्या होता है?
उत्तर:
इलाज से अच्छा परहेज होता है।

प्रश्न 14.
टूटी हड्डी को हिलने से बचाने के लिए किस चीज़ का सहारा देना चाहिए?
उत्तर:
टूटी हड्डी को हिलने से बचाने के लिए पट्टियाँ और बाँस की फट्टियों का सहारा देना चाहिए।

प्रश्न 15.
कंट्यूशन में शीत दबाव दिन में कितनी बार करना चाहिए?
उत्तर:
कंट्यूशन में शीत दबाव दिन में 5 या 6 बार करना चाहिए।

प्रश्न 16.
किस प्रकार की टूट (Fracture) अधिक खतरनाक होती है?
उत्तर:
जटिल टूट अधिक खतरनाक होती है।

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प्रश्न 17.
ऑस्टिओपोरोसिस (Oesteoporosis) के कारण किस प्रकार की चोट लग सकती है?
उत्तर:
फ्रैक्चर या हड्डी टूटना।

प्रश्न 18.
पट्टों (माँसपेशियों) में खिंचाव आने का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर:माँसपेशियों को अधिक तेज हरकत में लाना।

प्रश्न 19.
खेल चोटों से बचाव हेतु किस प्रकार का मैदान होना चाहिए?
उत्तर:
खेल चोटों से बचाव हेतु समतल व साफ-सुथरा मैदान होना चाहिए।

प्रश्न 20.
रगड़/खरोंच किस अंग की चोट है?
उत्तर:
रगड़/खरोंच त्वचा की चोट है।

प्रश्न 21.
प्राथमिक सहायता में ABC का पूरा नाम लिखें।
उत्तर:
A= Airways,
B = Breathing,
C = Compression

प्रश्न 22.
खेलों में दौड़ने, कूदने और फेंकने को क्या कहते हैं?
उत्तर:
खेलों में दौड़ने, कूदने और फेंकने को एथलेटिक्स कहते हैं।

प्रश्न 23.
हड्डी टूटने (Fracture) के कितने प्रकार हैं?
उत्तर:
हड्डी टूटने (Fracture) के सात प्रकार हैं।

प्रश्न 24.
कंट्यूशन चोट लगने पर शरीर को क्या नुकसान होता है?
उत्तर:
कंट्यूशन चोट से शरीर के अनेक अंगों या भागों; जैसे रक्त कणों, माँसपेशियों, नाड़ियों तथा ऊतकों को नुकसान होता है।

प्रश्न 25.
मोच से बचाव का कोई एक उपाय बताएँ।
उत्तर:
मोच से बचाव हेतु शरीर को पूर्णतया विशेष रूप से गर्मा लेना चाहिए।

प्रश्न 26.
सामान्य खेल चोटों के कोई दो उदाहरण दें।
उत्तर:
(1) नील पड़ना
(2) रगड़।

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प्रश्न 27.
डॉक्टर के पहुंचने से पूर्व घायल व्यक्ति को कौन-सी सहायता दी जाती है?
अथवा
घायल या मरीज को तुरंत दी जाने वाली सहायता क्या कहलाती है?
उत्तर:
प्राथमिक सहायता या चिकित्सा।।

प्रश्न 28.
किस प्रकार के अस्थि-भंग में एक अस्थि दो या दो से अधिक टुकड़ों में टूट जाती है?
उत्तर:
बहुखंडीय टूट या फ्रैक्चर में एक अस्थि दो या दो से अधिक टुकड़ों में टूट जाती है।

प्रश्न 29.
किन खेलों में कंट्यूशन का खतरा अधिक होता है?
उत्तर:
सीधे संपर्क वाले खेलों में कंट्यूशन का खतरा अधिक होता है।

प्रश्न 30.
जोड़ उतरने का कोई एक चिह्न या लक्षण बताएँ।
उत्तर:
चोट वाले स्थान पर सूजन आ जाना।

प्रश्न 31.
सामान्यतया किन अंगों को ज्यादा मोच आती है?
उत्तर:
घुटनों तथा टखनों को।

प्रश्न 32.
मोच आने पर उस स्थान को कितने समय बाद गर्म करना (सेकना) चाहिए?
उत्तर:
मोच आने पर उस स्थान को 48 घंटे बाद गर्म करना (सेकना) चाहिए।

प्रश्न 33.
अस्थियों की चोटों (Bone Injuries) के कोई दो उदाहरण दें।
उत्तर:
(1) साधारण अस्थि -भंग (Simple Fracture)
(2) जटिल अस्थि -भंग (Complicated Fracture)।

प्रश्न 34.
जोड़ों की चोटों के कोई दो उदाहरण दें।
उत्तर:
(1) कूल्हे के जोड़ का विस्थापन,
(2) कंधे के जोड़ का विस्थापन।

प्रश्न 35.
किन खेलों में कंट्यूशन का खतरा अधिक होता है?
उत्तर:
सीधे संपर्क वाले खेलों; जैसे मुक्केबाजी में कंट्यूशन का खतरा अधिक होता है।

भाग-II: सही विकल्प का चयन करें

1. एथलेटिक का अर्थ है
(A) खेलकूद संबंधी
(B) मनोरंजन संबंधी
(C) पोषण संबंधी
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) खेलकूद संबंधी

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2. एथलेटिक देखभाल के मुख्य क्षेत्र कौन-कौन-से हैं?
(A) खेल चोटें
(B) पोषण
(C) प्रशिक्षण विधियाँ
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

3. क्या खिंचाव की स्थिति में मालिश करनी चाहिए?
(A) नहीं
(B) हाँ
(C) कभी-कभी
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) नहीं

4. किसी जोड़ के संधि-स्थल के फट जाने या लिगामेंट के टूटने को क्या कहते हैं?
(A) खिंचाव
(B) कंट्यूशन
(C) मोच
(D) रगड़
उत्तर:
(C) मोच

5. कंट्यूशन किसकी चोट है?
(A) हड्डी की
(B) दिमाग की
(C) जोड़ की
(D) माँसपेशी की
उत्तर:
(D) माँसपेशी की

6. मोच आने पर क्या इलाज अपनाना चाहिए?
(A) ठंडे पानी से धोना चाहिए
(B) बर्फ लगाना चाहिए
(C) पट्टी बाँधनी चाहिए
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

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7. खिंचाव किसकी चोट है?
(A) माँसपेशी की
(B) त्वचा की
(C) मुलायम ऊतकों की
(D) जोड़ों की
उत्तर:
(A) माँसपेशी की

8. खिंचाव वाले स्थान पर कितने घंटे बाद सेक देनी चाहिए?
(A) 24 घंटे बाद
(B) 36 घंटे बाद
(C) 48 घंटे बाद
(D) 2 घंटे बाद
उत्तर:
(C) 48 घंटे बाद

9. खिलाड़ी को खिंचाव आने पर क्या इलाज करवाना चाहिए?
(A) चोटग्रस्त अंग पर पट्टी बाँधनी चाहिए
(B) सूजन कम करने के लिए मालिश करनी चाहिए
(C) सामान्य क्रिया धीरे-धीरे जारी रखनी चाहिए
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

10. पी० आर० आई० सी० ई० (P.R.I.C.E.) का क्या अर्थ है?
(A) सुरक्षा, बर्फ, विश्राम, दबाना और ऊँचा उठाना
(B) दबाना, ऊँचा रखना, विश्राम, बर्फ और सुरक्षा
(C) सुरक्षा, विश्राम, बर्फ, दबाना और ऊँचा रखना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) सुरक्षा, विश्राम, बर्फ, दबाना और ऊँचा रखना

11. प्रत्यक्ष मुक्का या कोई खेल उपकरण शरीर में लग जाने से कौन-सी चोट लगती है?
(A) भीतरी घाव (कंट्यूशन)
(B) खिंचाव
(C) मोच
(D) रगड़
उत्तर:
(A) भीतरी घाव (कंट्यूशन)

12. किस दुर्घटना में सेक (हीट) थेरेपी का बहुत महत्त्व है?
(A) भीतरी चोट लगने पर
(B) करंट लगने पर
(C) बेहोश होने पर
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) भीतरी चोट लगने पर

13. खिंचाव आ जाने के कारण कई बार मांसपेशियाँ ………………… जाती हैं।
(A) फट
(B) सिकुड़
(C) फैल
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) फट

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14. निम्नलिखित में से कौन-सा मोच का लक्षण नहीं है?
(A) जोड़ में दर्द होना
(B) माँसपेशियाँ फूल जाना
(C) चलने-फिरने में तकलीफ होना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) माँसपेशियाँ फूल जाना।

15. सामान्य खेल चोटें कितने प्रकार की होती हैं?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) पाँच
उत्तर:
(B) तीन

16. खेल चोटों के प्रकार हैं
(A) मुलायम ऊतकों की चोटें
(B) अस्थियों की चोटें
(C) जोड़ों की चोटें
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

17. कंट्यूशन, खिंचाव, मोच, रगड़ या खरोंच किस प्रकार की चोटें हैं?
(A) अस्थियों की चोटें
(B) मुलायम ऊतकों की चोटें
(C) जोड़ों की चोटें
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) मुलायम ऊतकों की चोटें

18. निम्नलिखित में से कौन-सा रगड़ का कारण नहीं है?
(A) कठोर धरातल पर गिर पड़ना
(B) खिलाड़ी द्वारा शरीर को बिना गर्म किए खेल में हिस्सा लेना
(C) जूतों का पैरों में सही प्रकार से फिट न आना
(D) हैलमेट और कंधों के पैडों का असुविधाजनक होना
उत्तर:
(B) खिलाड़ी द्वारा शरीर को बिना गर्म किए खेल में हिस्सा लेना

19. ऑस्टियोपोरोसिस के कारण किस प्रकार की चोट लग सकती है?
(A) खिंचाव
(B) मोच
(C) रगड़
(D) अस्थि-भंग
उत्तर:
(D) अस्थि-भंग

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20. वह कौन-सा अस्थि-भंग है जिसमें टूटी हुई अस्थि आन्तरिक अंग या अंगों को भी हानि पहुँचा देती है?
(A) पच्चड़ी अस्थि-भंग
(B) साधारण अस्थि -भंग
(C) जटिल अस्थि-भंग
(D) कच्ची अस्थि-भंग
उत्तर:(C) जटिल अस्थि-भंग

21. निम्नलिखित में से किसे मुलायम ऊतकों की चोटों में शामिल किया जाता है?
(A) कंट्यूशन
(B) मोच
(C) रगड़
(D) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी

भाग-III: रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. खिंचाव वाले अंग को ………………… स्थिति में रखना चाहिए।
2. चोट लगने के बाद तुरंत ………………… का टीका लगवाना चाहिए।
3. कंट्यूशन से पीड़ित अंग को ………………… तक दबाना चाहिए।
4. खिंचाव आ जाने के कारण कई बार माँसपेशियाँ ………………… जाती हैं।
5. मोच ………………….. प्रकार की होती है।।
6. सुरक्षात्मक उपकरण का प्रयोग ……… की आवश्यकता के अनुसार करना चाहिए।
7. अभ्यास व प्रतियोगिता से पूर्व खिलाड़ी को अपने शरीर को ………………… लेना चाहिए।
8. मोच. ……………….. की चोट होती है।
9. रगड़ या छिलना ………………… की चोट है।
10. थकावट की स्थिति में खिलाड़ी को खेल ………………… रखना चाहिए।
11. घायल या मरीज को तत्काल दी जाने वाली सहायता ………………… कहलाती है।
12. खेल चोटें मुख्यतः …………….. प्रकार की होती है।
उत्तर:
1. आरामदायक
2. एंटी-टैटनस,
3. 72 घंटे
4. फट
5. तीन
6. खेल
7. गर्मा
8. लिगामेंट
9. त्वचा
10. जारी नहीं
11. प्राथमिक सहायता
12. तीन।

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एथलेटिक देखभाल Summary

एथलेटिक देखभाल परिचय

एथलेटिक देखभाल या केयर (Athletic Care):
एथलेटिक का अर्थ है– सभी प्रकार की खेलें तथा स्पोर्ट्स। एथलेटिक्स खेलों के प्रतिस्पर्धात्मक मुकाबलों में उन क्रियाओं (गतिविधियों) का प्रभुत्व रहता है जिनमें कुशल तथा योग्य खिलाड़ी भाग लेते हैं। एथलेटिक्स के विभिन्न क्षेत्र होते हैं, उदाहरणस्वरूप शिक्षण संस्थाएँ; जैसे स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय जहाँ पर युवा वर्ग एथलेटिक्स गतिविधियों में भाग लेते हैं। प्रत्येक खेल तथा स्पोर्ट्स की राष्ट्रीय फेडरेशन राष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स मुकाबले करवाती हैं और अंतर्राष्ट्रीय संघ या इकाई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स मुकाबले करवाती हैं। जब कोई युवा एथलेटिक्स खेलों (प्रतिस्पर्धात्मक मुकाबलों) में भाग लेता है तो उसे एक अंतर्राष्ट्रीय पदक जीतने के लिए कई वर्षों तक कड़े परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। जैसे-जैसे प्रशिक्षण के.भार की मात्रा तथा तीव्रता बढ़ती जाती है तो वैसे ही एथलीट के घायल होने का भय अधिक बढ़ जाता है।

एथलेटिक देखभाल हमें यह जानकारी देती है कि कैसे खेल समस्याओं या चोटों को कम किया जाए, कैसे खेल के स्तर को सुधारा जाए। यदि खिलाड़ी की देखभाल पर ध्यान न दिया जाए तो खिलाड़ी का खेल-जीवन या कैरियर समाप्त हो जाता है। इसलिए हर खिलाड़ी के लिए एथलेटिक देखभाल बहुत महत्त्वपूर्ण पहलू है।

प्राथमिक सहायता (First Aid):
आज की तेज रफ्तार ज़िंदगी में अचानक दुर्घटनाएं होती रहती हैं। साधारणतया घरों, स्कूलों, कॉलेजों, दफ्तरों तथा खेल के मैदानों में दुर्घटनाएँ देखने में आती हैं। मोटरसाइकिलों, बसों, कारों, ट्रकों आदि में टक्कर होने से व्यक्ति घायल हो जाते हैं। मशीनों की बढ़ रही भरमार और जनसंख्या में हो रही निरंतर वृद्धि ने भी दुर्घटनाओं को ओर अधिक बढ़ा दिया है। प्रत्येक समय प्रत्येक स्थान पर डॉक्टरी सहायता मिलना कठिन होता है। इसलिए ऐसे संकट का मुकाबला करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्राथमिक सहायता का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। आज प्राथमिक सहायता की महत्ता बहुत बढ़ गई है। प्राथमिक सहायता रोगी के लिए वरदान की भाँति होती है और प्राथमिक सहायक भगवान की ओर से भेजा दूत माना जाता है। आज के समय में कोई किसी के दुःख-दर्द की परवाह नहीं करता। एक प्राथमिक सहायक ही है जो दूसरों के दर्द को समझने और उनके दुःख में शामिल होने की भावना रखता है।

खेलों में लगने वाली सामान्य चोटें (Some Common Injuries in Sports):
(1) भीतरी घाव या कंट्यूशन
(2) मोच
(3) खिंचाव
(4) रगड़
(5) हड्डी टूटना
(6) जोड़ उतरना।

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