HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 8 सामाजिक आंदोलन

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 8 सामाजिक आंदोलन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 8 सामाजिक आंदोलन

HBSE 12th Class Sociology सामाजिक आंदोलन Textbook Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
एक ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहाँ कोई सामाजिक आंदोलन न हुआ हो, चर्चा करें। ऐसे समाज की कल्पना आप कैसे करते हैं, इसका भी आप वर्णन कर सकते हैं।
उत्तर:
इस प्रश्न का उत्तर विद्यार्थी अपने अध्यापक की सहायता से स्वयं दें।

प्रश्न 2.
निम्न पर लघु टिप्पणी लिखें (i) महिलाओं के आंदोलन (i) जनजातीय आंदोलन
अथवा
जनजातीय आंदोलनों की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
अथवा
महिला आंदोलन पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
(i) महिलाओं के आंदोलन-प्राचीन समय से ही महिलाओं से संबंधित बहुत सी कुरीतियां भारतीय समाज में व्यापत थीं। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में राष्ट्रीय तथा स्थानीय स्तर के कई महिला संगठन सामने आए। विमेंस इंडिया एसोसिएशन 1971 आल-इंडिया विमेंस 1926, नेशनल कांऊसिल फॉर विमेंन इन इंडिया इत्यादि कई प्रमुख महिला संगठन थे। इनमें से कईयों की शुरुआत सीमित कार्यक्षेत्र में हुई परंतु इनका कार्यक्षेत्र समय के साथ साथ विस्तृत हो गया।

उदाहरण के लिए ए० आई० डब्ल्यू० सी० का कहना था कि महिला कल्याण तथा राजनीति का आपस में कोई संबंध नहीं है। कुछ सालों के बाद उसके अध्यक्ष ने कहा था कि, “क्या भारतीय पुरुष तथा स्त्री स्वतंत्र हो सकते हैं यदि भारत गुलाम रहे ? हम अपनी राष्ट्रीय स्वतंत्रता, जोकि सभी महान् सुधारों का आधार है के बारे में चुप कैसे रह सकते हैं ?” यह तर्क दिया जा सकता हैं कि सक्रियता का यह काल सामाजिक आंदोलन नहीं था। इसका विरोध भी किया जा सकता था।

आम तौर पर यह माना जाता है कि केवल मध्य वर्ग की पढ़ी-लिखी स्त्रियां ही सामाजिक आंदोलन में भाग लेती हैं। संघर्ष का एक भाग स्त्रियों के भाग लेने के अविश्वसनीय इतिहास को याद करता रहा है। अंग्रेजों के राज्य में कबाइली तथा ग्रामीण क्षेत्रों में शुरू होने वाले संघर्षों तथा क्रांतियों में महिलाओं ने मर्दो के साथ भाग लिया। उदाहरण के लिए बंगाल में विभागा आंदोलन, निज़ाम के पूर्वशासन का तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष तथा महाराष्ट्र में वरली जनजाति के बंधुआ दासत्व के विरुद्ध क्रांति।

एक मुद्दा जो साधारणतया उठाया जाता है कि अगर स्वतंत्रता से पहले महिला आंदोलन चल रहे थे तो स्वतंत्रता के बाद उसका क्या हुआ। इसके पक्ष में यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लेने वाली बहुत सी महिलाएँ राष्ट्र निर्माण के कार्यों में लग गईं। परंतु कई लोग विभाजन के आघात को इस आंदोलन के रुकने के लिए उत्तरदायी मानते हैं। 1970 के दशक के मध्य में भारत में महिला आंदोलन दोबारा चले। कुछ लोग इसे भारतीय महिला आंदोलन का दूसरा दौर कहते हैं।

चाहे बहुत सी समस्याएँ उसी प्रकार बनी रहीं परंतु फिर भी विचारधाराओं तथा संगठनात्मक राजनीति में कई परिवर्तन आए। स्वायत्त महिला आंदोलन कहे जाने वाले आंदोलन बढ़ गए। स्वायत्त का अर्थ उन महिला संगठनों से है जिनके संबंध राजनीतिक दलों से थे। यह स्वायत्तशासी अथवा राजनीतिक दलों से स्वतंत्र थी। यह महसूस किया गया कि राजनीतिक दलों की प्रवृत्ति महिलाओं के मुद्दों को अलग-अलग रखने की है।

संगठनात्मक परिवर्तन के अतिरिक्त कई और मुद्दों पर भी ध्यान दिया गया। उदाहरण के लिए महिलाओं के विरुदध हिंसा के बारे में वर्षों से कई अभियान चलाए गए हैं। आपने देखा होगा कि स्कूल के प्रर्थाना पत्र पर माता पिता दोनों के नाम होते हैं, यह आंदोलन के कारण ही हुआ है। इसी तरह महिलाओं के आंदोलन के कारण बहुत से महत्त्वपूर्ण कानूनी परिवर्तन हुए हैं। भूमि के स्वामित्व, रोज़गार के मुद्दों की लड़ाई, यौन उत्पीड़न तथा दहेज के विरुद्ध अधिकारों की माँग के साथ लड़ी गई हैं।

(ii) जनजातीय आंदोलन-देश भर में फैले अलग-अलग जनजातीय समूहों के मुद्दे समान हो सकते हैं परंतु उनके अंतर भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं। जनजातीय आंदोलन मुख्यता मध्य भारत की जनजातीय बैल्ट में ही बने रहे जैसे कि छोटा नागपुर व संथाल परगना में स्थित संथाल, हो, ओरांव व मुंडा। नया गठित झारखंड राज्य भी इन्ही से बना है।

सन् 2000 में झारखंड राज्य को दक्षिण बिहार से काटकर बनाया गया था। इस राज्य की स्थापना के पीछे एक सदी से अधिक का विरोध है। बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के विरुद्ध एक बड़े विद्रोह का नेतृत्व किया था। उसके बाद वह इस आंदोलन का मुख्य प्रतीक बन गया। उसकी कहानियाँ तथा गीत पूरे झारखंड में पाए जाते हैं। ईसाई मिशनरियों ने इनके क्षेत्र में साक्षरता का प्रसार किया तथा साक्षर आदिवासियों ने अपने इतिहास बारे शोध करना शुरू किया। उन्होंने जनजातीय प्रथाओं के बारे में जानकारी एकत्र करके लिखी। इससे उन्हें संगठित चेतना तथा साझी पहचान मिली।

पढ़े-लिखे आदिवासियों को सरकारी नौकरियाँ प्राप्त हुईं जिससे एक मध्यवर्गीय आदिवासी बुद्धिजीवी वर्ग सामने आया। इसने अलग राज्य की माँग उठायी तथा इसका भारत और विदेशों में प्रचार किया। दक्षिण बिहार के आदिवासी इलाकों में प्रवासी व्यापारी तथा महाजन (दिक्कु) आकर बस गए तथा उन्होंने मूल निवासियों की संपदा पर अधिकार कर लिया।

मूल आदिवासी दिक्कुओं से घृणा करते थे। इन खनिज संपन्न क्षेत्रों में उद्योगों से मिलने वाले अधिकतर लाभ दिक्कु प्राप्त कर लेते थे। आदिवासियों ने इसे अलग-थलग करने की प्रक्रिया तथा अन्याय के बोध को समझा तथा झारखंड की सांझी पहचान बनाने के लिए सामूहिक कार्यवाही शुरू की। इस कारण ही अतः पृथक् राज्य का निर्माण हुआ।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 8 सामाजिक आंदोलन

प्रश्न 3.
भारत में पुराने तथा नए सामाजिक आंदोलनों में स्पष्ट भेद करना कठिन है। क्यों?
उत्तर:
भारत में कृषकों, महिलाओं, दलितों, जनजातीय तथा और सभी प्रकार के सामाजिक आंदोलन हुए हैं। क्या इन आंदोलनों को नए सामाजिक आंदोलन कहा जा सकता है? गेल ऑमवेट ने अपनी पुस्तक रीइन्वेंटिंग रिवोल्यूशन में कहा है कि सामाजिक असमानता तथा संसाधनों के बारे में असमान वितरण के बारे में चिंताएँ इन आंदोलनों के आवश्यक तत्त्व थे।

कृषक आंदोलनों ने अपने उत्पाद के अधिक मूल्य तथा कृषि से संबंधित सब्सिडी हटाए जाने के विरुद्ध लोगों को गतिशील किया था। दलित आंदोलन में मजदूरों ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि उच्च जातियों के ज़मींदार तथा महाजन उनका शोषण न कर सकें। महिलाओं के आंदोलनों ने लिंग भेद के मुद्दे पर दफतरों तथा परिवार के अंदर जैसे अलग-अलग दायरों में कार्य किया है।

इसके साथ ही यह नए सामाजिक आंदोलन आर्थिक असमानता के पुराने मुद्दों के बारे में नहीं हैं तथा न ही यह वर्ग के आधार पर संगठित हैं। इनके आवश्यक तत्त्व हैं पहचान की राजनीति, सांस्कृतिक चिंताएँ तथा इच्छाएँ। हम इनकी उत्पत्ति को वर्ग आधारित असमानता में नहीं ढूँढ़ सकते। आमतौर पर यह सामाजिक आंदोलन वर्ग की सीमाओं के आर-पार से भागीदारों को एक जुट करते हैं।

उदाहरण के लिए महिलाओं के आंदोलन में ग्रामीण, नगरीय, गरीब, कृषक, पढ़ी-लिखी, अनपढ़ महिलाओं ने भाग लिया है। अलग राज्य की माँग करने वाले क्षेत्रीय आंदोलन लोगों के ऐसे अलग समूहों को अपने साथ मिलाते हैं जो एक ही जाति से संबंध नहीं रखते। सामाजिक आंदोलन में सामाजिक असमानता के प्रश्न, दूसरे समान रूप में महत्त्वपूर्ण मुद्दों को शामिल किया जा सकता है।

प्रश्न 4.
पर्यावरणीय आंदोलन प्रायः आर्थिक एवं पहचान के मुद्दों को भी साथ लेकर चलते हैं। विवेचना कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक समय में सबसे अधिक जोर विकास तथा प्रगति पर दिया गया है। सदियों से ही संसाधनों का अनियंत्रित प्रयोग हो रहा है जिससे प्राकृतिक संसाधनों का अत्याधिक शोषण हो रहा है तथा यह ही चिंता का एक विषय बना हुआ है। विकास के इस प्रतिरूप की आलोचना का एक और कारण यह भी है कि यह मानता है कि विकास का सभी लोगों को समान लाभ प्राप्त होगा।

परंतु बड़े बाँध लोगों को उनके घरों तथा जीवन जीने के स्रोतों से दूर कर देते हैं तथा उद्योग किसानों को उनके घरों तथा खेतों से। औद्योगिक प्रदूषण की तो एक अलग ही कहानी है। यहाँ हम पारिस्थितिकीय आंदोलन से जुड़े विभिन्न मुद्दों का पता करने के लिए उसका केवल एक उदाहरण ले रहे है।

रामचंद्र गुहा की पुस्तक अनक्वाइट वुड्स में लिखा है कि गाँव के लोग अपने गाँवों के नज़दीक के ओक तथा रोहो डेंड्रोन के जंगलों को कटने से बचाने के लिए इक्ट्ठे होकर आगे आए। जब जंगल के ठेकेदार पेड़ों को काटने के लिए आए वो गाँवों के लोग, विशेषतया महिलाएँ, पेड़ों से चिपक गए ताकि वे पेड़ न काट सकें।

यहाँ पर गाँव के लोगों के जीवन जीने के साधन दाँव पर थे। सभी लोग जंगलों पर लकड़ी, चारा तथा और दैनिक ज़रूरतों के लिए निर्भर थे। इस संघर्ष के कारण गाँव वाले सरकार की जंगलों से राजस्व कमाने की इच्छा के आगे खड़े हो गए। यहां पर जीवन जीने की अर्थव्यवस्था मुनाफा कमाने की अर्थव्यवस्था के सामने आ खड़ी हुई।

सामाजिक असमानता के इस मुद्दे के साथ चिपको आंदोलन के रूप में पारिस्थितिकीय सुरक्षा का मुद्दा भी जुड़ गया। जंगलों को काटना प्रकृति का विनाश था जिसके परिणामस्वरूप गाँव में बाढ़ आयी तथा भूस्खलन हुए। गाँव के लोगों के लिए यह लाल तथा हरे मुद्दे अंतः संबंधित थे।

उनकी जीविका जंगलों पर निर्भर थी तथा वे जंगलों का सभी को लाभ देने वाली संपदा के रूप में आदर करते थे। इसके साथ ही चिपको आंदोलन ने दूर मैदानी क्षेत्रों के सरकारी दफतरों में बैठे अफसरों के प्रति अपना रोष तथा चिंताएँ प्रकट की। इस प्रकार चिपको आंदोलन के मुख्य आधार अर्थव्यवस्था, पारिस्थितिकीय तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व की चिताएँ थीं।

प्रश्न 5.
कृषक एवं नव किसान आंदोलनों के मध्य अंतर बताइए।
उत्तर:
कृषक आंदोलनों में जो मुद्दे उठे वह थे ज़मींदारी का उन्मूलन, भू-सुधार, किसानों का शोषण बंद करना, हदबंदी कानून इत्यादि तथा यह आंदोलन स्वतंत्रता से पहले चले थे। पंरतु नव किसान आंदोलन स्वतंत्रता के बाद चले थे तथा इनके मुख्य मुद्दे थे अपने उत्पादों का अधिक मूल्य प्राप्त करना, किसानों को मिलने वाली सब्सिडियां खत्म न होने देना, किसानों की खुशहाली तथा उनके कर्जे माफ करना। इस प्रकार कृषक तथा नव किसान आंदोलनों में उनकी प्रकृति के कारण अंतर पाया जाता है।

सामाजिक आंदोलन HBSE 12th Class Sociology Notes

→ आज के समय में सभी व्यक्तियों को सामान्य जीवन जीने के लिए कुछ अधिकार प्राप्त हैं। परंतु कम लोगों को ही यह पता है कि यह अधिकार लंबे संघर्ष तथा किसी न किसी सामाजिक आंदोलन के कारण लोगों को प्राप्त हुआ है।

→ सामाजिक आंदोलन न केवल समाज को बदलते हैं बल्कि यह अन्य सामाजिक आंदोलनों को भी प्रेरणा देते हैं। सामाजिक आंदोलन में एक लंबे समय तक निरंतर सामूहिक गतिविधियों की आवश्यकता होती है तथा मुख्यतः यह किसी जनहित मामले में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से उत्पन्न होते हैं। उदाहरण के लिए राजा राम मोहनराय ने सती प्रथा के विरुद्ध लंबे समय तक आंदोलन चलाया तथा सती प्रथा को गैर-कानूनी घोषित करवा कर ही दम लिया।

→ सामाजिक आंदोलनों के कई प्रकार होते हैं जैसे कि सुधारवादी, प्रतिदानात्मक तथा क्रांतिकारी। सुधारवादी आंदोलन समाज में सुधार लाना चाहते हैं। प्रतिदानात्मक आंदोलन अपने व्यक्तिगत सदस्यों में व्यक्तिगत चेतना तथा गतिविधियों में परिवर्तन लाना चाहते हैं। क्रांतिकारी आंदोलन सामाजिक संबंधों के आमूल रूपांतरण का प्रयास करते हैं।

→ हमारे देश में समय-समय पर बहुत से आंदोलन चले। किसान आंदोलन वैसे तो 10वीं शताब्दी में शुरू हुए परंतु आज तक यह चल रहे हैं। इनका मुख्य उद्देश्य किसानों तथा कृषकों की स्थिति में सुधार लाना तथा उनकी माँगें सरकार के सामने उठा कर उन्हें सरकार द्वारा मनवाना होता है।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 8 सामाजिक आंदोलन

→ कामगारों का आंदोलन कारखानों, फैक्टरियों में कार्य कर रहे मजदूरों की माँगों के लिए आवाज़ उठाना था ताकि उनकी निम्न स्थिति में कुछ सुधार किया जा सके।

→ इसी प्रकार दलित आंदोलन तथा पिछड़े वर्ग एवं जातियों के आंदोलन भी चले। इनका भी मुख्य उद्देश्य दलितों तथा पिछड़े वर्गों की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाना तथा उन्हें समाज में ऊँचा स्थान दिलाना था।

→ दक्षिण बिहार को काटकर नवंबर 2000 में झारखंड राज्य का निर्माण किया गया था। इस राज्य का निर्माण लंबे समय तक चले जनजातीय आंदोलन का परिणाम था। इसी प्रकार पूर्वोत्तर राज्यों में जनजातीय आंदोलन चले तथा इनका मुख्य मुद्दा था जनजातीय लोगों का वन-भूमि से विस्थापन।

→ हमारे समाज में प्राचीन समय से ही महिलाओं से संबंधित बहुत सी कुरीतियां व्याप्त थीं। इन सब कुरीतियों को दूर करने के लिए तथा समाज में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए समय-समय पर महिला आंदोलन चले।

इस प्रकार अगर हम अपने देश के इतिहास की तरफ देखें तो हमें पता चलता है कि समय-समय पर देश में अलग-अलग प्रकार के सामाजिक आंदोलन चले ताकि देश के दबे, कुचले तथा निम्न वर्गों की स्थिति को ऊपर उठाया जा सके।

→ सार्वभौमिक वयस्क-प्रत्येक वयस्क के वोट देने के अधिकार को सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार कहते हैं।

→ प्रतिरोधी आंदोलन-सामाजिक आंदोलन के विरोध में तथा यथास्थिति बना कर रखने के लिए चलाए गए आंदोलन।

→ प्रतिदानात्मक सामाजिक आंदोलन-वह सामाजिक आंदोलन जिनका उद्देश्य अपने व्यक्तिगत सदस्यों की व्यक्तिगत चेतना तथा गतिविधियों में परिवर्तन लाना होता है।

→ सुधारवादी आंदोलन-वह आंदोलन जो परंपरागत मान्यताओं में सुधार लाने के लिए चलाए गए थे।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *