Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions व्याकरणम् pratyay prakaran प्रत्यय प्रकरण Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 11th Class Sanskrit व्याकरणम् प्रत्यय प्रकरण
प्रत्यय
प्रत्यय सदा धातु अथवा शब्द के अन्त में जोड़े जाते हैं। सुप् प्रत्यय शब्द के अन्त में जोड़े जाते हैं। इनसे संज्ञा, सर्वनाम तथा विशेषण बनते हैं। तिङ् लगाने से क्रिया पद बनते हैं। इन प्रत्ययों के अतिरिक्त संस्कृत में अन्य तीन प्रकार के प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है-
- कृदन्त प्रत्यय,
- तद्धित प्रत्यय,
- स्त्री प्रत्यय।
1. कृदन्त प्रत्यय जो प्रत्यय धातुओं (क्रिया शब्दों) के अन्त में लगाए जाते हैं, वे ‘कृत्’ प्रत्यय कहलाते हैं। इन प्रत्ययों के जुड़ने के बाद जो शब्द बनते हैं, उन्हें ‘कृदन्त’ कहते हैं।
जैसे-पठित्वा – पठ् + क्त्वा ।
पठितुम् – पठ् + तुमुन्
पठितः – पठ् + क्त
पठितव्यः – पठ् + तव्यत्
संस्कृत में अनेक प्रत्यय हैं, लेकिन यहाँ कुछ मुख्य प्रत्ययों का उल्लेख किया जा रहा है (क्त्वा, ल्यप्, तुमुन, क्त, क्तवतु, तव्यत्, अनीयर)
क्त्वा प्रत्यय
क्त्वा का अर्थ है-‘करके’ । क्त्वा में ‘क’ का लोप हो जाता है तथा ‘त्वा’ शेष रह जाता है; जैसे गम् + क्त्वा = गत्वा धातु से पहले उपसर्ग नहीं होता तभी ‘क्त्वा’ प्रत्यय लगता है।
घातु | अर्थ | प्रत्ययान्त शब्द | धातु | अर्थ | प्रत्ययान्त शब्द |
पठ् | पढ़ना | पठित्वा | कथू | कहना | कथयित्वा |
चल् | चलना | चलित्वा | गण् | गिनना | गणयित्वा |
हस् | हंसना | हसित्वा | चुर् | चुराना | चोरयित्वा |
रक्ष् | रक्षा करना | रक्षित्वा | सेव् | सेवा करना | सेवित्वा |
रच् | रचना करना | रचयित्वा | पा | पीना | पीत्वा |
भक्ष् | खाना | भक्षयित्वा | ज्ञा | जानना | ज्ञात्या |
दा | देना | दत्वा | छिद् | काटना | छित्वा |
ल्यप् प्रत्यय
किसी भी धातु के आरम्भ में उपसर्ग आ जाने पर धातु के अन्त में लगने वाले “क्त्वा” प्रत्यय के स्थान पर “ल्यप्” हो जाता है। “ल्यपू” का “य” शेष रहता है।
जैसे- विजित्य = वि + जि + क्त्वा – ल्यप्
विक्रीय = वि + क्री + क्त्वा – ल्यप् “ल्यप्”
प्रत्यय लगे शब्द का अर्थ भी ‘करके’ होता है।
उपसर्ग | + | धातु | ल्यपू प्रत्यय युक्त शब्द | अर्थ |
प्र. | + | ह | प्रहृत्य | प्रहार करके |
सम् | + | है | संहृत्य | संहार करके |
परि | + | ह | परिहत्य | हर कर |
वि | + | ज्ञा | विज्ञाय | जानकर |
आ | + | दा | आदाय | लेकर |
प्र | + | नश | प्रणश्य | बष्ट करके |
तुमुन् प्रत्यय (निमित्तार्थक)
जब एक क्रिया किसी दूसरी क्रिया की पूर्ति के लिए की जाती है, तो उसे ‘निमित्तार्थक क्रिया’ कहते हैं। इस निमित्तार्थक पूर्व क्रिया में धातु के अन्त में ‘तुमुन् प्रत्यय’ जोड़ देते हैं। इसका ‘तुम्’ शेष रह जाता है। इस प्रत्यय से बने शब्द का अर्थ ‘के लिए’ होता है। “तुमुन्” प्रत्ययान्त शब्द “अव्यय” बन जाते हैं। अतः इनके रूप सदा एक जैसे ही रहते हैं। इनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता है। इनके उदाहरण नीचे दिए गए हैं
धातु | प्रत्ययान्त शब्द | धातु | प्रत्ययान्त शब्द |
अर्च् | अर्चयितुम | नश् | नष्टुम् |
कुज् | करजयितुम | भ्रम् | भ्रमितुम् |
भू | भवितुम् | तुष् | तोष्टुम् |
पठ् | पठितुम् | चुर | चोरयितुम् |
स्था | स्थातुम् | कथ् | कथायितुम् |
गम् | गन्तुम | भक्ष् | भक्षयितुमू |
भूतकालिक प्रत्यय ‘क्त’ और ‘क्तवतु’
‘क्त’ प्रत्यय-यह प्रत्यय भूतकालिक है। इसका प्रयोग विशेषण तथा भूतकालिक क्रिया बनाने के लिए होता है। विशेष रूप से वाक्य में कर्म के लिङ्ग, वचन के अनुसार इसका प्रयोग सकर्मक धातुओं से कर्मवाच्य में होता है। इसका “त” शेष रह जाता है। कर्ता तृतीया विभक्ति और कर्म प्रथमा विभक्ति में होता है।
जैसे- गम् + क्तः = गतः श्रु + क्तः = श्रुतः
वाक्य प्रयोग– छात्रेण लेख लिखितः। बालेन पाठ पठितः।
इन वाक्यों में कर्म के अनुसार क्रियाओं का प्रयोग हुआ है तथा कर्ता और कर्म को प्रथमा विभक्ति में प्रयोग किया गया है। ‘क्तवतु’ प्रत्यय-इस प्रत्यय का प्रयोग भी भूतकाल में होता है। क्तवतु’ में ‘क्’ तथा ‘उ’ का लोप हो जाता है तथा ‘त्वत्’ शेष रह जाता है। इस प्रत्यय का प्रयोग कर्तृवाच्य में होता है; जैसे
- सः पुस्तकं पठितवान् (उसने पुस्तक पढ़ी)
- सः पत्रम् लिखितवान् (उसने पत्र लिखा)
धातु | क्त (त) | क्तवतु (त्वत्) | धातु | क्त (त) | क्तवतु (त्वत्) |
पठ् | पठितः | पठितवान् | जितः | जितः | जितवान् |
चल | चलितः | चलितवान् | नीतः | नीतः | नीतवान् |
हस | हसितः | हसितवान् | भीतः | भीतः | भीतवान् |
रक्ष | रक्षितः | रक्षितवान् | शयितः | शयितः | शयितवान् |
रच् | रचितः | रचितवान् | भूतः | भूतः | भूतवान् |
भक्ष् | भक्षितः | भक्षितवान् | श्रुतः | श्रुतः | श्रुतवान् |
शतृ तथा शानच् प्रत्यय ये दोनों प्रत्यय वर्तमान काल के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। ये ‘हुए’ (करता हुआ / करती हुई) अर्थ को प्रकट करते हैं। जिस प्रकार अंग्रेजी भाषा में किसी क्रिया का Present Participle रूप बनाने के लिए. क्रिया के मूल रूप के आगे (ing) लगाया जाता है, उसी प्रकार संस्कृत में उसी भाव को प्रकट करने के लिए शतृ या शानच् प्रत्यय जोड़े जाते हैं। दोनों प्रत्ययों में अन्तर यही है कि परस्मैपदी धातुओं के साथ शतृ प्रत्यय तथा आत्मनेपदी धातुओं के साथ शानच् प्रत्यय जोड़ा जाता है। शतृ में से ‘अत्’ तथा शानच् में से ‘आन’ शेष रहता है। भ्वादिगण, दिवादिगण, तुदादिगण तथा चुरादि गण की धातुओं में ‘आन’ से पूर्व ‘म्’ जुड़कर ‘मान’ हो जाता है।
शतृ प्रत्यय के उदाहरण- खेलता हुआ लड़का = क्रीडन् बालकः (पु०)
शानच् प्रत्यय के उदाहरण लभ् + शानच् = लभमान, वृत् + शानच् = वर्तमान, शी + शानच् = शयान आदि।
नीचे कुछ मुख्य-मुख्य धातुओं के साथ शतृ प्रत्यय लगाकर पुंल्लिङ्ग में रूप दिए जा रहे हैं
1. भ्वादिगण
भू + शतृ = भू + अत् = भवत्
पठ् + शतृ = पठत्
जि + शतृ = जयत्
नी + शतृ = नयत्
भवन्
स्था + शतृ = तिष्ठत्
हस् + शतृ = हसत्
घ्रा + शतृ = जिघ्रत्
भवन्तौ भवन्तः
पा + शतृ = पिवत्
नम् + शतृ = नमत्
ह + शतृ = हरत्
2. अदादिगण
अद् + शतृ = अदत्
दुह् + शतृ = दुहत्
स्तु + शतृ = स्तुवत्
अस् + शतृ = सत्
हन् + शतृ धनत्
शास् + शतृ = शासत्
इण् (इ)+ शतृ = यत्
विद् + शतृ = विदत्
रुद् + शतृ = रुदत्
3. जुहोत्यादिगण
हु + शतृ = जुहत् जुहत् जुहतौ जुहतः
(इन धातुओं के शतृ प्रत्ययान्त शब्द के रूप बनाते हुए न नहीं लगता)
भी + शतृ = बिभ्यत्
दा + शतृ = ददत्
भृ + शतृ = विभ्रत्
शानच् प्रत्यय
1. भ्वादिगण
सेव् + शानच् = सेवमानः भाष् + शानच् = भाषमाणः
लभ् + शानच् = लभमानः’ वृत् + शानच् = वर्तमानः
ईक्ष् + शानच् = ईक्षमाणः वृध् + शानच् = . वर्धमानः
2. दिवादिगण
मन् + शानच् = मन्यमानः
खिद् + शानच् खिद्यमानः
जन् + शानच् = जायमानः
युध् + शानच् युध्यमानः
विद् + शानच् = विद्यमानः
युज् + शानच् = युज्यमानः
3. तुदादिगण
मुच् + शानच् = मुञ्चमानः
आ + द्रु = आद्रियमाणः
मृ + शानच् = म्रियमाणः
विद् + शानच् = विन्दमानः
सिच् + शानच् = सिंचमानः
तुद् + शानच् = तुदमानः
तव्यत् और अनीयर् प्रत्यय
तव्यत्’ प्रत्यय का प्रयोग ‘चाहिए’ अर्थ में होता है। तव्यत् के ‘त’ का लोप होकर “तव्य” शेष रहता है। इसका प्रयोग कर्मवाच्य या भाववाच्य में होता है।
अनीयर् प्रत्यय-‘अनीयर’ प्रत्यय का प्रयोग ‘योग्य’ अर्थ में होता है। ‘अनीयर’ के ‘र’ का लोप होकर ‘अनीय शेष रह जाता है। इसका प्रयोग कर्मवाच्य या भाववाच्य में होता है।
वाक्य में प्रयोग
- यह आश्रम का मृग है, इसे नहीं मारना चाहिए, नहीं मारना चाहिए। (आश्रम मृगोऽयं न हन्तव्यो न हन्तव्यः)
- घर में आये हुए शत्रु का सम्मान नहीं करना चाहिए। (गृहमागतोऽपि शत्रु न सम्मानीयः)
प्रमुख धातुओं के तव्यत् तथा अनीयर् प्रत्ययों के रूप दिए जा रहे हैं
धातु | अर्थ | तव्यत् प्रत्ययान्त पुल्लिङ्ग शब्द | अनीयर् प्रत्ययान्त पुंल्लिङ्ग शब्द |
अर्च् | पूजा करना | अर्चितव्यः | अर्चनीयः |
कूज | कूजना | कूजितव्यः | कूजनीयः |
भू | होना | भवितव्यः | भवनीयः |
पठ् | पढ़ना | पठितव्यः | पठनीयः |
क्तिन्-प्रत्यय
सभी धातुओं से भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए क्तिन् प्रत्यय जोड़ा जाता है। क्तिन् का ‘ति’ शेष रह जाता है और इससे बनने वाला शब्द स्त्रीलिङ्ग होता है। इस प्रत्यय के जुड़ने से धातु में प्रायः वहीं परिवर्तन होते हैं, जो क्त प्रत्यय जुड़ने से होते हैं, अतः क्तिन् प्रत्ययान्त रूप क्त के समान ही बनेंगे। इनके रूप ह्रस्व इकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के समान होंगे। अब कुछ धातुओं के क्तिन् प्रत्ययान्त रूप दिए जाते हैं
अर्च् + क्तिन् = अर्चितिः
अधि ✓ इ + क्तिन् = भूतिः
अस् (भू) + क्तिन् = भूतिः
कृ + क्तिन् = कृतिः
आप् + क्तिन् = आप्तिः
इष् + क्तिन् = इष्टि:
क्री + क्तिन् = क्रीति:
कृ + क्तिन् = कीर्णि:
ण्वुल तृच प्रत्यय
धातु से विशेषण अर्थात् ‘उस क्रिया को करने वाला’ अर्थ को प्रकट करने के लिए ण्वुल् और तृच् प्रत्यय जोड़े जाते हैं (ण्वुल्तृचौ, 3.1.133)। ण्वुल का वु शेष रहता है और उसके भी (युवोरनाकौ) सूत्र के नियमानुसार अक हो जाता है। तृच का तृ शेष रहता है। ण्वुल् में से ण और ल् की इत् संज्ञा होकर लोप होता है, इसलिए ण्वुल् (अक) परे होने पर
(क) धातु के अन्त में विद्यमान इ, उ, ऋ को वृद्धि, ऐ और आर् हो जाते हैं।
(ख) धातु की उपधा के अ को दीर्घ हो जाता है।
(ग) आकारान्त धातुओं के पश्चात् युक्
(य) जुड़ जाता है।
तृच् होने पर प्रायः सभी कार्य तुमुन् के समान होते हैं।
ण्वुल (अक) और तृच् (त) प्रत्यय जुड़ने पर विशेषण शब्द बनते हैं, अतः उनके रूप विशेष्य के अनुसार पुंल्लिङ्ग, नपुंसकलिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग तीनों में बनेंगे। ण्वुल् (अक) प्रत्यय होने पर पुंल्लिङ्ग में बालक के समान, नपुंसकलिङ्ग में फल के समान और स्त्रीलिङ्ग में बालिका के समान रूप होंगे; जैसे पाठकः, पाठकम्, पाठिका इत्यादि। तृच् (त) प्रत्यय होने पर कर्तृ शब्द के समान
पुंल्लिंग में-कर्त्ता | कर्त्तारौ | कर्त्तारः |
नपुंसकलिड्ग में-कर्त्र | कर्त्तृणी | कर्त्त्धि |
स्त्रीलिफ्ग में-कर्त्री | कर्त्यौ | कर्त्र्य: |
अब नीचे कुछ ण्वुल और तृच प्रत्ययान्त रूप पुंल्लिङ्ग प्रथमा एकवचन में दिए जाते हैं-
णुलुल् प्रत्ययान्त | तृच् प्रत्ययान्त |
अद् (खाना) आदकः | (अत्त) अत्ता |
अधि ✓ इ (पढ़ना) अध्ययकः | (अध्येत्) अध्येता |
अधि ✓ इ + णिच् अध्यापकः | (अध्यापयित्) अध्यापयिता |
अर्च् (पूजा करना) अर्चक: | (अर्चयित्र) अर्चयिता |
उत् ✓ पद् (उत्पन्न करना) उत्पादकः | (उत्पादयित) उत्पादयिता |
ल्युट् प्रत्यय
धातुओं से भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए कुछ प्रत्यय किए जाते हैं। उनमें क्तिन, क्त, ल्युट्, घञ् आदि हैं। यहाँ तो केवल ल्युट और क्तिन् प्रत्ययों का ही प्रयोग दिया जा रहा है। व्याकरण में आता हैं कि (नपुंसके भवे क्तः 3.3.114) नपुंसकलिङ्ग में भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए क्त (त) प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे-गतम् = जाना, ज्ञातम् = ज्ञान, रुदितम् = रोना, हसितम् = हँसी आदि। इससे आगे ही कहा गया है। (ल्युट् च, 3.3.115) नपुंसकलिङ्ग में भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए ल्युट् प्रत्यय का भी प्रयोग किया जाता है। ल्युट का यु शेष रहता है। (युवोरनाको, 7.1.12-यु को अन और वु को अक आदेश होता है) यु को अन आदेश हो जाता है।
- आकारान्त और हलन्त धातुओं के साथ सन्धि होकर अन जुड़ जाता है। यथा स्थानम्, यानम्, पनम्, पचनम्, गमनम्, पाचनम्, सेवनम्, पठनम् आदि।
- स्वरान्त धातुओं के साथ अन जुड़ने पर इ, उ, ऋ को गुण हो जाता है और अयादि सन्धि होने पर रूप बनता है। यथा चयनम्, जयनम्, पवनम्, हरणम् आदि।
- धातुओं की उपधा में इ, उ, ऋ को गुण हो जाता है। यथा-वेदनम्, दोहनम्, नर्तनम् आदि।
- ल्युट् प्रत्यय वाले शब्द सदा नपुंसकलिङ्ग में होते हैं। इनके रूप फल के समान बनते हैं।
भू + ल्युट् = भवनम्
पच् + ल्युट् = पचनम्
दृश् + ल्युट् = दर्शनम्
पठ् + ल्युट् = पठनम्
गम् + ल्युट् = गमनम्
स्था + ल्युट् = स्थानम्
2. तद्धित प्रत्यय संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया-विशेषण तथा अव्यय में प्रत्यय लगाकर जो नये शब्द बनते हैं, वे तद्धित प्रत्ययान्त शब्द कहलाते हैं तथा उन प्रत्ययों को तद्धित प्रत्यय कहते हैं। तद्धित प्रत्यय लगने पर नये शब्दों के अर्थ भी मूल शब्दों से भिन्न हो जाते हैं।
जैसे-शक्तिवाला. – शक्ति + मतुप् = शक्तिमान्
शिव की सन्तान – शिव + अण् = शैवः
त्व, तल्, मतुप, ठक्
त्व प्रत्यय
शब्द के अन्त में “व” जुड़ जाने पर वह शब्द नपुंसकलिङ्ग रूप में प्रयुक्त होता है। भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए ‘त्व’ प्रत्यय लगाया जाता है; जैसे
शब्द | प्रत्यय | प्रत्ययान्त शब्द |
पशु | त्व | पशुत्वम् |
महत् | त्व | महत्वम् |
नारी | त्व | नारीत्वम् |
तल् प्रत्यय
स्त्रीलिङ्ग में भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए ‘तल’ प्रत्यय भी लगाया जाता है। तल के स्थान पर ‘ता’ हो जाता है; जैसे
शब्द | प्रत्यय | प्रत्ययान्त शब्द |
शत्तु | तल् | शत्तुता |
मधुर | तल् | प्रियता |
मधुर | तल् | मधुरता |
मतुप् प्रत्यय
इस प्रत्यय का प्रयोग “वाला” अर्थ प्रकट करने के लिए किया जाता है। प्रत्यय का केवल ‘मत्’ ही शेष रह जाता है। यह अधिकतर इकारान्त, ईकारान्त और उकारान्त इत्यादि शब्दों में जुड़ता है।
इकारान्त शब्द
अग्नि + मतुप् = अग्निमत् (अग्निमान्, पुरुष)
शक्ति + मतुप् = शक्तिमत् (शक्तिवाला, शक्तिमान्, पुरुष)
ईकारान्त शब्द
धी + मतुप् = धीमत् (बुद्धिमान्, धीमान् पुरुष)
श्री + मतुप् = श्रीमत् (श्रीमान्, पुरुष)
उकारान्त शब्द
भानु + मतुप = भानुमत् (चमकने वाला, भानुमान्, पुरुष)
अंशु + मतुप् = अंशुमत् (सूय) अंशुमान, पुरुष)
ऊकारान्त शब्द
वधू + मतुप् = वधूमत् (वधू युक्त) वधूमान् पुरुष, (पुँल्लिंग)
ओकारान्त शब्द
गो + मतुप् = गोमत् (गौओं वाला) गोमानु, पुरुष, (पुँल्लिंग)
हलन्त शब्द
घनुष् + मतुप् = धनुष्मत् (धनुर्धारी) धनुष्मान् पुरुष, (पुंल्लिड्ग)
गुरुत् + मतुप् = गुरुत्मत् (गुरुड़) गुरुत्मान् पुरुष, (पुंल्लिड्ग)
ठक् प्रत्यय
शब्द में ठक् के स्थान पर “अक्” जुड़ जाता है। ठक् प्रत्यय का प्रयोग भाववाचक संज्ञा के अर्थ के रूप में होता है। ठक् प्रत्ययान्त शब्दों के रूप निम्नलिखित हैं
धर्म + ठक् = धार्मिक (धर्म करने वाला) शब्द
शब्द | प्रत्यय | प्रत्ययान्त शब्द | अर्थ |
समाज | ठक् | सामाजिकः | समाज की रक्षा करने वाला |
अधर्म | ठक् | अधार्मिकः | धर्म न करने वाला |
दुर्दुर | ठक् | दाटुरिकः | दर्दुर करने वाला |
न्याय | ठक् | नैयायिकः | न्याय पढ़ने या जानने वाला |