Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी Textbook Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
प्रश्न 1.
मूल के रूपान्तरण से आप क्या समझते हैं ? निम्नलिखित में किस प्रकार का रूपान्तरण पाया जाता है ?
(अ) बरगद,
(ब) शलजम,
(स) मैंग्रोव वृक्ष।
उत्तर:
मूल के रूपान्तरण (Modifications of roots) – जड़ों का प्रमुख कार्य पौधों को भूमि में स्थिर रखना तथा जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण करना है। किन्तु कुछ विशेष कार्यों को पूर्ण करने के लिए, जैसे- भोजन संचय, प्रजनन आदि के लिए जड़ों में परिवर्तन हो जाते हैं इसे रूपान्तरण कहते हैं।
(अ) बरगद ( Banyan Tree) – बरगद की शाखाओं से कुछ जड़ें निकलकर जमीन में धँस जाती हैं इन्हें स्तम्भ मूल (prop roots) कहते हैं। ये मोटी व काष्ठीय होकर पौधों को अतिरिक्त सहारा प्रदान करती हैं तथा जल एवं खनिजों का अवशोषण करती हैं।
(ब) शलजम (Turnip ) – शलजम की मूसला जड़ें भोजन संचय करके कुम्भरूपी हो जाती हैं। इन्हें कुम्भरूपी जड़ें (napiform roots) कहते हैं।
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(स) मैंग्रोव वृक्ष (Mangrove Tree) – ये लवणोद्भिद पौधे होते हैं और दलदलीय भूमि में उगते हैं । ऐसी भूमि में ऑक्सीजन की कमी होती है। अतः श्वसन हेतु इन पौधों की कुछ जड़ें वायवीय हो जाती हैं जिन पर श्वसन छिद्र पाये जाते हैं। ये श्वसन में सहायक होती हैं इन्हें श्वसनमूल (pneumatophores) कहते हैं। जैसे— राइजोफोरा (Rhizophora ) ।
प्रश्न 2.
बाह्य लक्षणों के आधार पर निम्नलिखित कथनों की पुष्टि कीजिए-
(i) पौधों के सभी भूमिगत भाग सदैव मूल नहीं होते।
(ii) फूल एक रूपान्तरित प्ररोह है।
उत्तर:
(i) पौधों के सभी भूमिगत भाग सदैव मूल नहीं होते। जड़ भ्रूण के मूलांकर ( radical) से विकसित धनात्मक गुरुत्वानुवर्ती संरचना होती है। इस पर पर्व तथा पर्व सन्धियों, कलिकाएँ तथा पत्ती सदृश संरचनाएँ नहीं होती हैं। पौधों की कुछ संरचनाएँ भूमिगत हो जाती हैं किन्तु ये तनों से समानता प्रदर्शित करती हैं जड़ों से नहीं ।
जैसे – आलू का कन्द (tuber), अदरक का प्रकन्द ( rhizome), अरबी का घनकन्द (corm) आदि रूपान्तरित तने होते हैं। इन पर पर्व तथा पर्व सन्धियाँ, कक्षस्य एवं अमस्थ कलिकाएँ तथा शल्क पत्र ( scale leaves) पाये जाते हैं। अतः स्पष्ट है कि सभी भूमिगत संरचनाएँ जड़ें नहीं होती हैं।
(ii) फूल एक रूपान्तरित प्ररोह है (Flower is a modified shoot ) – अनेक तथ्यों से प्रमाणित किया जा सकता है कि पुष्प एक रूपान्तरित प्ररोह है। ये तथ्य निम्न प्रकार हैं-
1. पुष्प प्ररोह के समान कक्षस्थ या शीर्षस्थ कलिका से विकसित होते हैं।
A. पैसीफ्लोरा का पुर्वगबर B. कैपेरिसका आयांगधर C. गाइनैन्ट्रॉप्सिस के पुंमगधर तथा जायांगधर
D. गुलाब के पुष्प का अंकुरण कायिक प्ररोह विकसित करता हुआ।
2. पुष्प का पुष्पासन कभी-कभी वृद्धि करके दूसरा प्ररोह बनाता है जिस पर पत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, जैसे- गुलाब ।
3. कभी-कभी पुष्पासन पर पर्व स्पष्ट दिखाई देते हैं, जैसे-हुरहुर (कैपेरिस पैसीफ्लोरा) । ये दलधर, पुमंगधर, जायांगधर आदि कहलाते हैं।
4. गुलाब में बाह्य दल कभी-कभी पत्ती सदृश रचना बनाते हैं।
5. पीओनिया के पौधे में कायिक तथा पुष्पी पत्रकों में होने वाले परिवर्तन को स्पष्ट देखा जा सकता है।
6. वॉटरलिली (निम्फिया) परिवर्तन की अवस्थाएं प्रदर्शित करता है। यह क्रिया बाह्य दलों के बीच तथा दलों व पुंकेसरों के बीच होती है।
7. डिजेनेरिया में पुंकेसर पत्तियों की भाँति फैले होते हैं।
प्रश्न 3.
एक पिच्छाकार संयुक्त पत्ती हस्ताकार संयुक्त पत्ती से किस प्रकार भिन्न है ?
उत्तर:
पिच्छाकार संयुक्त पत्ती तथा हस्ताकार संयुक्त पत्ती में अन्तर (Differences between Pinnately Compound and Palmately Compound leaf)
पिच्छाकार संयुक्त पती | हस्ताकार संयुक्त पत्ती |
(i) यह पंख सदृश रचना (feather like structure) बनाती है। | यह फैली हुई हथेली जैसी ( palm like ) रचना बनाती है। |
(ii)अक्ष (axis) लम्बा होता है। | अक्ष (axis) हासित (Reduced ) होता है। |
(iii)पत्रक (leaflets) दो पंक्तियों में निकलते हैं। | पत्रक (leaflets) झुण्डों में निकलते हैं। |
(iv) दीर्घाकार अक्ष पर विकसित होने वाले पत्रक (leaflet) या तो वृन्त निरन्तर क्रम में होते हैं या इसकी एक शाखा होते हैं। | पत्रक वृन्त के सिरे पर लगे होते हैं। पत्रक (leaflet) तथा वृन्त (petiole ) की सिरे पर सन्धि होती है। |
(v) पत्रक (leaflets) अक्ष पर कोई जोड़ या सन्धि नहीं होती। | पलक अक्ष पर सन्धि होती है। |
(vi) रेकिस (rachis) की संरचना के आधार पर ये एकपिच्छकी (uripinnate), द्विपिच्छकी (biptnnate), त्रिपिच्छकी (tripinnate) या बहपिच्छकी (polypinnate) होती हैं। | पर्णकों की संख्या के आधार पर ये समपर्णी, द्विपर्णी, त्रिपर्णी या बहुपर्णी होती हैं। |
प्रश्न 4.
विभिन्न प्रकार के पर्णविन्यासों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विभिन्न प्रकार के पर्णविन्यास (Different types of Phyllotaxy ) – पतियों का तने तथा इसकी शाखाओं पर लगे होने का क्रम पूर्ण विन्यास (phyllotaxy) कहलाता है। पर्वसन्धियों (nodes) पर पत्तियों की संख्या एक, दो या अधिक हो सकती है। पर्णविन्यास निम्नलिखित प्रकार का होता है-
1. एकान्तर पर्ण विन्यास (Alternate Phyllotaxy ) – इसमें एक पवसान्ध (node) से कवल एक पत निकलती है। दूसरी निकटस्थ पर्व सन्धि से निकलने वाली पत्ती पहली के विपरीत दिशा में तथा एकान्तर होती हैं। जैसे-गुड़हल, सरसों आदि ।
2. अभिमुख वर्ण विन्यास (Opposite Phyllotaxy)- इसमें प्रत्येक पर्वसन्धि से दो पत्तियाँ निकलती हैं तथा दोनों की दिशाएँ विपरीत होती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं-
(अ) अध्यारोपित अभिमुख ( Superposed opposite)- इसमें पहली पर्वसन्धि ( node) के समान ही ऊपर वाली पर्व सन्धियों (nodes) की पत्तियों ऊर्ध्वाधर क्रम में होती हैं, जैसे- अमरूद ।
(ख) क्रासित अभिमुख (Decussate opposite)- इसमें पहली पर्व सन्धि की पत्तियों से क्रास बनाती हुई अगली पर्व सन्धि की दोनों पत्तियाँ होती हैं, जैसे – आक।
3. चक्रिक पर्ण विन्यास (Whorled Phyllotaxy)- इसमें एक पर्व सन्धि पर तीन या इससे अधिक पत्तियाँ निकलकर एक चक्र जैसी रचना बनाती हैं। जैसे-कनेर, एल्स्टोनिया आदि ।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित की परिभाषा लिखिए-
(अ) पुष्पदल विन्यास,
(ब) बीजाण्डासन,
(स) त्रिज्या सममिति
(द) एक व्यास सममिति,
(य) ऊर्ध्ववर्ती
(र) परिजायांगी पुष्प,
(ल) दललग्न पुंकेसर ।
उत्तर:
(अ) पुष्पदल विन्यास (Aestivation ) – कलिका अवस्था में बाह्य दलों (sepals) तथा दलों (petals) की परस्पर सापेक्ष व्यवस्थ गव्य दल विन्यास , वैक्सा लरी (vaxillary) (aestivation) कहलाती है। इसके विभिन्न प्रकार हो सकते हैं, जैसे-कोरस्पर्शी (valvate), कोरछादी (imbicate), व्यावर्तित (twisted), आदि।
(ब) बीजाण्डासन (Placentation ) – पुष्पी पादपों में बीजाण्ड (ovule) या बीजाण्डयुक्त मोटी परत का अण्डाशय (ovary) पर लगने का क्रम बीजाण्डन्यास (placentation) कहलाता है। यह विभिन्न प्रकार का होता है, जैसे– सीमान्त (marginal), स्तम्भीय (axil), भित्तीय (peraital), मुक्त स्तम्भीय (free central), धरातलीय (basal) आदि ।
(स) त्रिज्यासममित (Actinomorphic ) – जब एक पुष्प को केन्द्र से होते हुए किसी भी तल में दो से अधिक भागों में बराबर काटा जा सके तो पुष्प की ऐसी सममिति को त्रिज्या सममिति कहते हैं। जैसे- धतूरा, सरसों, मकोय आदि ।
(द) एकव्याससममिति (Zygomorphic ) – जब पुष्प को केन्द्र से केवल दो समान भागों में काटा जा सकता है तो इसे एक व्यास सममिति कहते हैं। जैसे – मटर, सेम आदि ।
(य) ऊर्ध्ववर्ती अण्डाशय (Superior ovary) – जब पुष्प के भाग, जैसे-दल (corolla), बाह्य दल (calyx), पुंकेसर (stemes) आदि अण्डाशय (ovary) के आधारीय भाग से निकलते हैं तो अण्डाशय को अधाजायांगी ( epigenous) कहते हैं। जैसे -सरसों ।
(र) परिजायांगी पुष्प (Perigynous flower) – जब पुष्पीय भाग अण्डाशय की आधी ऊँचाई से निकले प्रतीत होते हैं तो ऐसे पुष्प को परिजायांगी पुष्प (Perigynous flower) कहते हैं और ऐसे अण्डाशय को अर्ध- ऊर्ध्ववर्ती अण्डाशय कहते हैं।
(ल) दललग्न पुंकेसर (Epipetalous Stamens) – जब पुंकेसर (stamens) दलों (petals) से जुड़े रहते हैं, तो इन्हें दललग्न पुंकेसर कहते हैं।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित में अन्तर लिखिए-
(अ) असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी पुष्पक्रम,
(ख) झकड़ा जड़ (मूल) तथा अपस्थानिक मूल
(स) वियुक्ताण्डपी तथा युक्ताण्डपी अण्डाशय ।
उत्तर:
(अ) असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी पुष्पक्रम,
असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी पुष्पक्रम (Racemose and cymose inflorescence)-ऐसा पुष्पक्रम, जिसका मुख्य अक्ष पुष्प में समाप्त नहीं होता बल्कि वह निरन्तर बढ़ता रहता है और पार्श्व में पुष्पों को अग्राभिसारी (acropetal) अनुक्रम में बनाता रहता है। ससीमाक्षी पुष्पक्रम में मुख्य अक्ष की वृद्धि उसके शीर्ष पर पुष्प के बनने से रुक जाती है। पार्वीय अक्ष, जो शीर्षस्थ पुष्प के नीचे से निकलती है, भी पुष्प में अन्त हो जाती है, अत: उसकी वृद्धि भी सीमित हो जाती है। पुष्प तलाभिसारी (basipetal) अनुक्रम में लगते हैं।
(ख) झकड़ा तथा अपस्थानिक जड़ में अन्तर
(Differences between Fibrous and Adventitious roots)
झकड़ा जड़ (Fibrous roots )
एकबीजपत्री पौधों (monocotyledons) में मूसला जड़ (tap root) अल्पकालिक होती है, इसके स्थान पर तने के आधार से अनेक समान मोटाई के धागे जैसे सदृश जड़ें निकल आती हैं इन्हें झकड़ा जड़ कहते हैं। जैसे-मक्का, गेहूँ आदि में।
अपस्थानिक जड़ (Adventitious roots )
मूलांकुर (radicle) को छोड़कर पौधे के अन्य भागों से निकलने वाली जड़ों को अपस्थानिक जड़ें (adventitious roots) कहते हैं। ये जड़ें अवशोषण के अतिरिक्त, सहारा देना, संचयन करना, श्वसन में भाग लेना, प्रजनन में भाग लेना आदि विशिष्ट कार्य करती हैं। जैसे- बरगद, राइजोफोरा, शकरकन्द आदि में।
(स) वियुक्ताण्डपी तथा युक्ताण्डपी अण्डाशय में अन्तर
(Differences between Apocarpous and Syncarpous Ovary)
वियुक्ताण्डपी अण्डाशय (Apocarpous Ovary) | संयुक्ताण्डपी अण्डाशय (Syncarpous Ovary) |
1. इसमें बहुअण्डपी जायांग के सभी अण्डाशय पृथक्-पृथक् होते हैं। | बहु अण्डपी जायांग के सभी अण्डाशय (ovary) परस्पर जुड़े रहते हैं। अण्डाशय एककोष्ठीय या बहुकोष्ठीय होते हैं। |
2. अण्डाशय (ovary) एकक्रोष्ठीय होते हैं। | बीजाण्डन्यास (placentation ), भित्तीय, स्तम्भीय, मुक्त अक्षीय आधारीय या शीर्षस्थ होता है। |
3. बीजाण्डन्यास (placentation), सीमान्त, परिधीय या आधारीय या शीर्षस्थ होता है। | ये सरल फलों का निर्माण करते हैं। |
4.ये पुंज फलों (composite fruits) का निर्माण करते हैं। उदाहरण – शरीफा, मदार, कमल, स्ट्राबेरी आदि । | उदाहरण – खीरा, टमाटर, बैंगन, नीबू आदि । |
प्रश्न 7.
निम्नलिखित के चिह्नित चित्र बनाओ।
(अ) चने के बीज, तथा
(ब) मक्का के बीज की अनुदैर्ध्य काट।
उत्तर:
(अ) चने के बीज, तथा
(ब) मक्का के बीज की अनुदैर्ध्य काट।
प्रश्न 8.
उचित उदाहरणों सहित तने के रूपान्तरणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
तने के रूपान्तरण (Modification of Stems) – तने का प्रमुख कार्य पत्तियों, पुष्पों, कलिकाओं तथा फलों को धारण करना, जल, खनिज लवणों व कार्बनिक भोज्य पदार्थों का परिवहन करना है। कुछ कोमल तने प्रकाश संश्लेषण का भी कार्य करते हैं।
कभी-कभी विभिन्न पौधों में तने विशिष्ट कार्यों के लिए रूपान्तरित हो जाते हैं। सामान्यतया तनों में भोजन संचय, कायिक प्रजनन, आरोहण, सुरक्षा या बहुवर्षीयता प्राप्त करने के लिए रूपान्तरण होता है।
i. भूमिगत रूपान्तरित तने (Under ground modified stems)
ये निम्न प्रकार के होते हैं-
1. तना कन्द (Stem tuber )
2. शल्क कन्द (Bulbs )
3. प्रकन्द (Rhizome )
4. घनकन्द (Carm)
ii. अर्द्ध-वायवीय रूपान्तरित तने (Modified Subaerial Stems)
कुछ पौधों के तने मुलायम तथा कमजोर होते हैं। ये पृथ्वी की सतह के ऊपर या आंशिक रूप से मिट्टी के नीचे रेंगकर वृद्धि करते हैं। ये तने कायिक प्रजनन में भाग लेते हैं। इनकी पर्वसन्धियों (nodes) से अपस्थानिक (adventitious) जड़ें निकलकर मिट्टी में धँस जाती हैं। पर्व के कट जाने पर पर्व सन्धियुक्त भाग नये पौधे को जन्म देता है। ये निम्न प्रकार के होते हैं-
1. उपरिभूस्तारी ( Runner )
2. भूस्तारी (Stolon)
वायवीय रूपान्तरित तने (Modified Aerial Stem )
कुछ वायवीय तने या इनके कुछ भाग विभिन्न कार्यों के लिए रूपान्तरित हो जाते हैं। रुपान्तरण इतना अधिक होता है कि इन्हें तने के रूप में पहचानना कठिन होता है। इनकी स्थिति एवं उत्पत्ति के आधार पर ही इनकी पहचान होती है।
1. पर्णाभ स्तम्भ और पर्णाभ पर्व (Phylloclade and cladode ) – मरुस्थली क्षेत्रों में उगने वाले पौधों में जल हानि को कम करने हेतु पत्तियाँ प्रायः कंटकों (thorns) में रूपान्तरित हो जाती हैं। पौधे का तना चपटा, हरा एवं मांसल हो जाता है, ताकि पौधे के लिए खाद्य पदार्थों का निर्माण होता रहे। तने पर प्रायः मोटी उपचर्म (cuticle) होती
है जो वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल हानि को कम करती है। पत्तियों के जैसा कार्य करने के कारण ये रूपान्तरित तने पर्णाभ स्तम्भ (phylloclade) कहलाते हैं। प्रत्येक पर्णाभ में पर्व तथा पर्वसन्धियाँ पायी जाती हैं। प्रत्येक पर्व से पत्तियाँ निकलती हैं जो शीघ्रपाती (deciduous ) होती हैं या काँटों में बदल जाती हैं।
पत्तियों के कक्ष से पुष्प निकलते हैं। उदाहरण-नागफनी (Opuntia), तथा अन्य कैक्टस (Cactus ), कुछ यूफोर्निया (Euphorbia) वंश के पौधे, कोकोलोबा (Cocoloba), कैजुराइना ( Casurina) म्यूलेनबैकिया (Mulenbachia), एसपैरेगस आदि ।
पर्णाभ पर्व (Cladodes) केवल एक ही पर्व वाले पर्णाभ स्तम्भ होते हैं। इनके कार्य भी पर्णाभ स्तम्भ के समान होते हैं। जैसे- सतावर (Asparagus) में ये सुई के आकार के होते हैं। रस्कस ( Ruscus) में पर्णाभ-पर्व दो (cladode) पर्वो जितने लम्बे होते हैं।
2. स्तम्भ प्रतान (Stem tendrils) – प्रतान लम्बी, पतली धागे के समान रचनाएँ हैं। तने के रूपान्तरण से बनने वाले प्रतान स्तम्भ प्रतान कहलाते हैं। ये आधार पर मोटे तथा शीर्ष की ओर उत्तरोत्तर पतले होते जाते हैं। इन पर पर्व एवं पर्व सन्धियाँ हो सकती हैं। कभी-कभी पुष्प भी उत्पन्न होते हैं।
ये सामान्यतः कक्षस्थ कलिका से और कभी-कभी अप्रस्थ कलिका से बनते हैं, जैसे-झुमकलता (Passiflora) में कक्षस्थ कलिका से, किन्तु अंगूर (Vitis sp.) में अग्रस्थ कलिका से कद्दू कुल (Family-cucurbitaceae) के सदस्यों में प्रतान अतिरिक्त कक्षस्थ कलिकाओं के रूपान्तरण से बनते हैं। एन्टीगोनोन (Antigonon) में पुष्पावली वृन्त तथा स्माइलैक्स ( Smilex) में पर्णशीर्ष प्रतान में रूपान्तरित होते हैं। प्रतान दुर्बल पौधों को सहारा देकर ऊपर चढ़ने में सहायता करते हैं।
3. स्तम्भ कंटक (Stem thorns)
4. पत्रप्रकलिकाएँ (Bulbils)
प्रश्न 9.
फैबेसी तथा सोलेनेसी कुल के एक-एक पुष्प को उदाहरण के रूप में लिखिए तथा उनका अर्द्ध तकनीकी विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
कुल कैनेती (Family Fabaceac)
फैबेसी कुल को पहले पेपिलियानेटी (papilionatoe) कहा जाता है। यह लेग्युमिनोसी (leguminosae) कुल का उपकुल है। यह विश्वव्यापी (cosmopolitan) कुल है,।
कायिक अभिलघ-
स्वभाव (Habit) : इस कुल में शाक, झाड़ी तथा वृक्ष (herb, shrub climbers and tree) सभी प्रकार के पौषे सम्मिलित हैं।
मूल (Root) : मूसला शाखित (Tap branched) : मूल गुलिकाओं (Root nodules) युक्त।
तना (Stem) : सीधा (erect), वल्लरी (सेम), आरोही, शाकीय अथवा काष्ठीय।
पत्तियँ (Leaves) : सरल, अथवा संयुक्त पिच्छकार (pinnatly compound), एकान्तर, पर्णाधार पस्विनस (pulvinus), अनुपर्णयुक्त (stipulate), सवृन्त या अवृन्त, जालिकावत् शिराविन्यास।
पुर्यीय लक्षण (Floral Characters)-
पुष्पक्नम (Inflorescence) – असीमाक्ष (racemose) या एकल कक्षस्थ (solitary axillary) अथवा समीमाक्ष गुच्छ (Cymose Cluster)।
पुप्य (Flower) – संपुष्पवृन्त (pedicellate), पूर्ण (Complete), सहपत्रयुक्त (bracteate), द्विलिंगी (Hermpahrodite), एकव्याससममित (zygomorphic), जायांगधार (hypogynous), पेषिलियोनेसियस (Papillionaceous) पुष्प।
बाद्धरंगुण (Calyx) -5 बाक्रदल (Sepals), संयुक्त (Gamosepalous), कोरस्पर्शी (Valvate), अथवा कोरछादी (Imbricate) बाह्य दल विन्यास, घण्टाकार (Bell-shaped), रोमिल (Hairy)।
दलयुज्ञ (Corolla) -5 दल (Petals), पृथक्दली (Polypetalous), अवरोडी कोरछादी (Descending imbricate), या ध्वजक विन्यास (Vexillary aestivation)। अनियमित (Irregular), पेपिलियोनेसियस दलचक्र (Papillionaceous petals), बाक्ष दीर्ष दल ध्वज (Standard), दो पार्श्वीय दल (Petals), पंख (Wings) तथा दो नीचे से जुड़कर नोतल (keel) कहलाते हैं जो कि नौकाकार (boat shaped) होता है।
पुमंग (Androecium) -10 पुंकेसर (Stamens), द्रिसंघी (Diadelphous), 1 + 9, नौ जुड़कर अण्डाशय (ovary) के चारों ओर नलिका बनाते हैं। परागकोश द्विकोष्ठी (Bilobed), आधारलग्न (Basifixed), अन्तर्मुखी (introse)।
जयां (Gynoecium) – एकाण्डपी (Monocarpellary), एककोष्ठी (Unilocular), अण्डाशय ऊर्ष्ववर्ती (Superior Ovary), बीजाण्डन्यास सीमान्त (marginal placentation), वर्तिका वक्रित (curved), वर्तिकाम्म रोमिल (hairy stigma) एवं समुंड (Copitate)।
फल (Fruit) – प्रायः लेग्यूम (pod or legume) एवं लोमेन्टम।
बीज (Seed) – अशूणपोषी (non-endospermic)।
पुपसूत्र – Br% K(5)C1+(2) A1+(9)G1
आर्थिक महृत्व
1. घोजन
(i) चना, अरहर, सेम, मूँग, सोयाबीन आदि दाल के रूपों में खाये जाते हैं। ये प्रोटीन के अच्छ सोत हैं।
(ii) सोयाबीन, मूंगफली आदि से खाद्य तेल प्राप्त होता है।
2. चारा-सीस्रवनिया द्राइफोलियम, मुरेला आदि पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग किया जाते हैं।
3. इमारती लकड़ी-शीशम से इमारती लकड़ी प्राप्त होती है।
4. उद्योग-इंडिगोफोरा से नील, सनई से पटसन प्राप्त होता है।
5. और्थि-ग्लाइसीराइजा से मुलैठी प्राप्त होती है।
6. सजाक्टी पौधे-ल्यूपिन, स्वीट पी सजावटी पौधे हैं।
कुल सोलेनेसी (Family Solanaceae)- यह एक बड़ा कुल है। इसे प्रायः आलू कुल भी कहते हैं। यह उष्णकटिबन्यीय उपोष्ण तथा शीतोष्ण प्रदेशों में पाये जाते हैं।
कायिक अभिल्किण (Vegative characters)
स्वभाव (Habit)- इस कुल के पौधे प्रायः शाक, झाड़ियाँ तथा छोटे वृक्ष होते हैं।
तना (Stem)-प्रायः ऊर्ष्व (erect), शाखित (Branched), रोमीय या कंटकीय, वायवीय, ठोस या खोखला, भूमिगत (जैसे आलू), शाकीय या काष्ठीय (herbaceous or woody) होता है।
पत्तियाँ (Leaves)-एकान्तर (alternate), सरल (simple), अनुनुपर्णी (exstipulate), कुछ सदस्यों में पुष्पक्रम के भाग में अभिमुख, एकशिरीय जालिकावत शिराविन्यास, टमाटर में पत्तियाँ पिच्छाकर संयुक्त (Pinnatly compound) ।
पुप्य (flower) – सहपत्री (Bracteate) अथवा असदपत्री (ebracteate) सहपत्रिका अनुपस्थित, पूर्ण, द्विलिंगी (bisexual), पंचतयी (pentamerous) सवृंत (Redicelate), त्रिज्यासममित (actinomarphic) परन्तु अण्डप की तिरछी स्थिति के कारण एकव्याससममित (zygomorphic), चक्रीय (Cyclic), जायांगधर (hypogenous) ।
बाइ दलभुं (Calyx) -5 बाह्मदल (sepals), संयुक्त बाहादली (gamosepalous), कोरस्पर्शी (valvate) अथवा कोरछादी (imbricate), हर, चिरस्थाई (persistent), प्रत्येक बाझदल मध्य में फूला हुआ। रसभरी में ये बड़े होकर पूरे फल को गुब्बारे सदृश्य रचना से ढके रहते हैं ।
दल्युंच (Corolla)-5 दल (Petals), संयुक्त दली (gamopetabous), अत्यधिक लम्बे, घण्टाकार (bell shaped), चकाकार, नलीकार, कोरस्पर्शी बिन्यास (valvale aestivatioin), सफेद या रंगीन।
पुमंग (Androecium) – 5 पुंकेसर (stamens) पृथक् पुंकेसरी, दलो के विपरीत पुंतन्तु लम्बे एवं दलपुंज नोलका के आधार फ्र दललग्न, परागकोष लम्ब, अधन्द्ध (basifixed), द्विपालिक (Bilobed), अन्तर्मुखी (introse)।
जायां (Gynoecium) – द्विअण्डपी (Bicarpellary), युक्ताअण्डषी (Syncarpous), ऊर्ष्षवर्ती (superior), द्विकोष्ठी (bilocular), बीज्राण्डासन फुला हुआ व तिरछा (Swollen placenta obliquely placed) अण्डाशय आभासी पट होने के कारण चतुकोष्ठी (tetralocular), अथवा बहुकोष्ठी (polypocular)। हर कोष्ठक में कई बीजाण्छ संम्भीय (axile) बीजाप्डन्यास, वर्तिका लम्बी, वर्तिकाम्र द्विपालित (Stigma bilobed) ।
पल (Fruit) – सरल, शुष्क सम्मुट (capsule), पटर्भंजक सुटन (dehiscence septifragal)।
बीज (Seed) – भ्रूणपोषी (endospermic) ।
परागण (Pollination) – इस कुल के अधिकतर पादपों में परपरागण कीटों के माध्यम से होता है किन्तु आलू में स्वपरागण पाया जाता है।
पुंय सूत्र (Floral Formula) –
आर्थिक महत्व (Economic Importance)
1. थोजन-आलू, बैंगन, टमाटर, मिर्च, आदि सब्चियों व सलाद के कम आते हैं। रसभरी, फल के रूप में काम आता है। मिर्च मसाले के रूप में प्रयोग होता है।
2. उडोग-तम्बाकू की पत्तियों का प्रयोग तम्बाकू उद्योग में बीड़ी, सिगरेट आदि बनाने में किया जाता है।
3. औषधियाँ-एट्रोपा बैलाडोना, विधानिया, हायोसाइमस, निकोटिआना आदि से विभिन्न प्रकार की औरधियाँ प्राप्त की जाती हैं।
4. सआक्टी पौधे-हेनबेन, पिटूनिया तथा रात की रानी के पौधे उद्यानों में सजावट के लिए लगाये जाते हैं।
प्रश्न 10.
पुष्पी पादपों में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के बीजाण्डन्यासों का वर्णन कीजिए।
उत्तर;
जयांग (Gynoecium) – यह पुष्प का अन्तिम तथा सबसे भीतरी चक्र है। यह पुष्प के मादा जननांगों को प्रदर्शित करता है। जायांग में कई अण्डप (carpel) या गुरुबीजाणुपर्ण हो सकते हैं। प्रत्येक जायांग के तीन भाग होते है-
(2) अण्डाशय (Ovary) – यह जायांग का सबसे निचला एवं फूला हुआ भाग होता है। इसमें बीजाण्ड (ovule) पाये जाते हैं।
2. वर्का (Style)-यह अण्डाशय के ऊपर का नलिकाकार भाग होता है।
3. वर्तिकाम्र (Stigma) – यह वर्तिका का दूरस्थ गाँठनुमा भाग है, जो परागकणों (pollen grain) को ग्रहण करता है।
जब जायांग में केवल एक अण्डप होता है तब इसे एकाण्डपी (monocarpellary), और जब इसमें कई अण्डप होते हैं तो इसे बहु अण्डपी (multicarpellary) कहते हैं।
बहुअण्डपी अण्डाशय में जब सभी अण्डप एक-दूसरे से पृथक् रहते हैं तो इस अवस्था को वियुक्ताण्डपी (apocarpous) कहते है। जैसे-गुलाब, चम्पा आदि। जब सभी अण्डप पूर्ण या आंशिक रूप से परस्पर जुड़ जाते हैं तो ऐसे जायांग का युक्ताण्डपी (syncarpous) कहते हैं।
बीजण्डन्यास (Placentation) – अण्डाशय का वह भाग जिससे बीजाण्ड जुड़े रहते हैं, बीजाण्डासन (placenta) कहलाता है। यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है क्योंकि बीजाण्ड को सभी पोषक पदार्थ इसी के द्वारा प्राप्त होते हैं। अण्डाशय के भीतर बीजाण्डासन पर बीजाण्ड के लगने के ढंग को बीजाण्डन्यास कहते हैं।
बीजणण्डन्यास निम्न प्रकार के होते हैं-
1. सीमान्त बीजायुन्यास (Marginal placentation)- इस प्रकार के बीबाण्डन्यास में अण्डाशय एकाण्डपी (monocarpellary) व एककोष्ठी होता है तथा बीजाण्डासन (placenta) अण्ड़प के दोनों उपांतों (margin) के जोड़ से विकसित्त होता है, जसे फैबेसी कुल के सदस्यों में।
2. स्तम्भकीय बीजणुन्यास (Axile placentation) – इस प्रकार के बीजाण्डन्यास में अण्डपों की संख्या एक से अधिक होती है, जो संयुक्त अण्डाशय बनाते हैं। अण्डाशय में कोष्ठकों की संख्या प्रायः अप्डपों के बराबर होती है। इसमें बीजाण्ड (ovules) अण्डपों के संगामी उपान्तों पर विकसित होते हैं जो अण्डाशय की केम्द्रीय अक्ष पर मिलते हैं। जैसे-नींचू, धतूरा, गुड़ुल।
3. क्त्तीय बीघाणुड्यास (Parietal placentation)-यह बहुअण्डमी, एककोष्ठी अण्डाशय (monothecaus) में पाया जाता है। इसमें जिस स्थान पर अण्डपों के उपान्त मिलते हैं, वह्हाँ प्लेसेन्टा विकसित हो जाता है। बीजाण्ड अण्डाशय की भीतरी सतह पर लगे रहते हैं। जैसे-सरसों मूली, पपीत्ता आदि में।
4. मुक्त स्सम्भीय बीजाण्डन्यास (Free central placentation) – जब अण्डाशय में पट (septa) शीष्य समाप्त हो जाते हैं तो बीजाण्डासन अण्डाशय के केन्त्रीय स्तम्व (central axis) पर विकसित होता है। इसे मुक्त अक्षीय बीजाण्डन्यास कहते हैं। इसमें अण्डाशय एककोष्ठी होता है। जैसे – स्टीलेरिया (Stellaria), प्रिमिरोज आदि।
5. आधारी बीआण्डन्यास (Basal placentation)-इसमें अण्डाशय एककोष्ठी होता है तथा बीजाण्डासन सीधे पुष्पासन (thalamus) पर विकसित होता है। इस प्रकार के बीजाण्डन्यास में बीञाण्ड की संख्या प्रायः एक होती है। जैसे-कम्पोजिटी (Compositae) कुल के सदस्यों में।
6. परिभ्तिीय बीตाणुन्यास (Superficial placentation) – स्तम्भीय बीजाप्डन्यास की पाँति इस्त प्रकार के बीजाण्डन्यास में भी अप्डाशय बहुकोष्ठी होता है। परन्तु बीजाण्डासन पटों की पूरी आन्तरिक सतह पर उत्पन्न होता है। जैसे-अल लिली (Waterlily) में।
प्रश्न 11.
पुष्प क्या है ? एक प्ररूपी एन्जियोस्पर्म पुष्प के विभिन्न भागों का वर्णन कीजिए
उत्तर:
पुष्प (Flower) – पुष्प आवृतबीजी पौधों (angiosperms) की जनन संरचना है। लैंगिक जनन से सम्बन्धित सभी प्रक्रियाएँ पुष्प में ही होती हैं। अतः पुष्प की अनुपस्थिति में भ्रूण, फल एवं बीज का विकास असम्भव है। आकारिकी की दृष्टि से पुष्प एक रूपान्तरित प्ररोह है जिसमें पर्व एवं पर्व सन्धियाँ संहत रूप से व्यवस्थित होती हैं तथा पर्वसन्धियों पर बन्ध्य एवं उर्वर उपांग उपस्थित होते हैं, जिन्हें पुष्पी पत्र कहते हैं। पुष्प विभिन्न आकार, आकृति एवं रंग के होते हैं। एक प्रारूपी पुष्प के निम्नलिखित भाग होते हैं-
(i) पुष्पवृन्त,
(ii) पुष्पासन,
(iii) बाह्यदल पुंज,
(iv) दलपुंज,
(v) पुमंग तथा
(vi) जायांग ।
(i) पुष्पवृन्त (Pedicel) – पुष्पक्रम में पुष्प जिस पुष्प जिस संरचना द्वारा जुड़ा होता है उसे वृन्त (pedicel) कहते हैं। ऐसे पुष्प जिनमें वृन्त होते हैं सवंत (pedicelate) कहलाते हैं तथा वृन्त रहित पुष्प के अवृन्त (Sessile ) कहते हैं।
(ii) पुष्पासन (Thalamus) – यह पुष्प वृन्त के ऊपर का तस्तरीनुमा (disc like ) चौड़ा भाग होता है जिस पर पुष्प के प्रमुख भाग बाह्यदल पुंज (calyx), दल पुंज, पुमंग तथा जायांग ( gynoecium) व्यवस्थित होते हैं।
(ii) बाह्य दलपुंज (Calyx) – यह पुष्पी पत्रों का सबसे बाहरी चक्र है। बाह्य दलपुंज (calyx) अनेक बाह्य दलों (Sepals) से बना होता है। सामान्यतया ये पत्ती से मिलती-जुलती हरी संरचनाएँ होती हैं। कुछ पौधों में ये रंगीन भी हो जाते हैं। इनका प्रमुख कार्य कलिका अवस्था में प्रकाश संश्लेषण करना तथा पुष्पी अंगों की रक्षा करना है। चिरलग्न (persistant) बाह्यदल फलों के प्रकीर्णन में भी सहायक होते हैं।
(iv) दलपुंज (Corolla) – यह पुष्पी पत्रों का दूसरा चक्र है तथा बाह्य दलों के ठीक अन्दर की ओर स्थित होता है। यह अनेक दल पत्रों (petals) का बना होता है। दल पत्र सामान्यतया बड़े एवं आकर्षक रंगों के होते हैं। इनका प्रमुख कार्य परागणकारी कीट व पक्षियों को पुष्प की ओर आकर्षित करना है।
वायु परागित पुष्पों में दल पत्र प्रायः छोटे एवं अनाकर्षक होते हैं। बाह्य दलपुंज तथा दलपुंज सामूहिक रूप से परिदलपुंज (perianth) कहलाते हैं। द्विबीजपत्रियों में ये बाह्यदलों तथा दलों में विभेदित होते हैं किन्तु एकबीजपत्रियों में बाह्यदलों एवं दलों में विभेद नहीं किया जा सकता है।
(v) पुमंग (Anchroecium) – यह पुष्प का नर जननांग (male reproductive part) है जो एक या अनेक पुंकेसरों (stamens) का बना होता है। अलग-अलग जातियों में पुंकेसरों की संख्या निश्चित या अनिश्चित होती है। प्रत्येक पुंकेसर के तीन भाग होते हैं—पुंतन्तु, परागकोष तथा तन्तु को परागकोष को जोड़ने वाला योजि (connective) परागकण (pollen sac or anther) में पराग मातृ कोशिकाओं (pollen mothen cells) से परागकणों (pollen grains) का निर्माण होता है।
(vi) जायांग (Gynoecium) – यह पुष्प का स्त्री जननांग (female reproductive part) है जो एक या अनेक अण्डपों (carpels) का बना होता है। प्रायः पुष्प के सभी अण्डप मिलकर एक संयुक्त अण्डाशय (compound ovary) बनाते हैं तब इसे संयुक्तांडपी (syncarpous) कहते हैं। कुछ पादप वंशों में है यद्यपि प्रत्येक पुष्प में अनेक अण्डप होते हैं परन्तु प्रत्येक अण्डप एक पृथक् अण्डाशय (ovary) बनाता है इसे वियुक्ताण्डपी दशा ( appoacarpus condition) दशा कहते हैं। प्रत्येक अण्डप के तीन भाग होते हैं-आधरीय गोल भाग, अण्डाशय (ovary), अण्डाशय के ऊपर का नलिकाकार भाग वर्तिका ( style) तथा वर्तिका के ऊपर का गाँठ जैसा भाग वर्तिकाम (stigma ) । अण्डाशय के अन्दर बीजाण्ड (ovule) पाये जाते हैं।
प्रश्न 12.
पत्तियों के विभिन्न रूपान्तरण पौधे की कैसे सहायता करते हैं ?
उत्तर:
पत्तियों के रूपान्तरण (Modifications of leaves)
पत्ती के रूपान्तरण (Modifications of Leaf)-कई पौधों में पर्ण, विशेष कार्यों के लिए विभिन्न रूपों में रूपान्तरित हो जाती हैं। कुछ पौधोंमें पर्ण के कोई भाग जैसे पर्णवृन्त (petiole), अनुपर्ण (stipules) या पर्णफलक (lamina) विशेष कार्य के लिए रूपान्तरित हो जाता है। जबकि कुख अन्य पौधों में सम्पूर्ण पर्ण ही रूपान्तरित हो जाती है। पर्ण के रूपान्तरण निम्नवत हैं-
1. पर्णप्रतान (Leaf Tendril) – कुछ पौधों में पर्ण या पर्ण का कोई भाग पतली हरी धागे के समान कुण्डलित संरचनाओं में रूपान्तरित हो जाता है जिन्हें प्रतान (tendrils) कहते हैं। प्रतान (tendial), दुबले तने वाला आरोही पौधों (climabers) में मिलता है। यह किसी वस्तु या आधार के सम्पर्क में आते ही उसके चारों ओर लिपट जाता है व पौधों के आधार के सहारे ऊपर चढ़ने में सहायता देता है। जंगली मटर में सम्पूर्ण पर्ण ही प्रतान में रूपान्तरित हो जाता है।
2. पर्णक प्रतान (Leaflet Tendril) – संयुक्त पर्ण के अन्त में एक या एक से अधिक पर्णक पतले धागे के रूप में बदल जाते हैं जिन्हें पर्णक प्रतान कहते हैं। उदाहरण-मटर।
3. अंकुश (Hooks) – आरोही पौधे में अंकुश भी आरोहण अंग होते हैं। बिगोनिआ में संयुक्त पर्ण ऊपर के तीन पर्णक नुकीले दृढ़ वक्रित अंकुशों में रूपान्तरित हो जाते हैं। यह अंकुश आस-पास उगे हुए वृक्षों के तने की छाल में अटक जाते हैं व पौधे के आरोहण में सहायक होते हैं।
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4. पर्ण शूल (Leaf Spine) – कुष्छ पौधों में पर्ण या पर्ण का कोई भाग शूल में रूपान्तरित हो जाता है। शूल एक दृढ़ नुकीली कठोर संरचना होती है जो पौधों की रक्षा का साधन है। बारबेरी (Barberis) में सम्पूर्ण पर्ण एक शूल में रूपान्तरित हो जाता है और इसके कक्ष में पाई जाने वाली कलिका के सामान्य पर्ण परिखर्चित होते हैं। उदाइरण-वारणाठा (एलो), सत्थानाशी (अर्जीमोन), ख्रजू।
5. शत्कर्ण (Scalp Leaf)-कुछ पौधों में पत्ती, पतली शुष्क, कागज या झिल्ली के समान हो जाती हैं। यह प्रायः हरी नहीं होती है। इसे शल्क पर्ण कहते हैं। भूमिगत स्तम्प जैसे कि प्रकन्द (rhizome), घनकन्द (corm) और शल्ककन्द्द (bulb) आदि में शस्की पर्ण होते है। इन स्तम्मों में इनका मुख कार्य कक्षस्थ कलिका को संरक्षित रखना है। शल्ककन्द जैसे कि प्याज में अधिकांश भाग शल्की गूद्रेदार सफेद पर्णों का बना होता है। यह शल्क पर्ण भोजन का संपहुण का कार्य करते हैं व इसे भोजन के रूप में प्रयोग करते हैं।
6. पर्णाथ-वन्त (Phyllode) – यह पर्णषृन्त का रूपान्तर है। कछ पौधों जैसे कि आस्ट्रेलियन अकेसिया में पिच्छाकार संयुक्त पर्ण (pinnately compound leaf) होता है जो तरुणावस्था में ही झड़ जाता है और पर्णवृन्त चपटा, फेला हुआ पत्ती के समान हो जाता है जो सयुक्त पर्णफलक की अनुपस्थिति में सामान्य पर्ण का कार्य करता है।
7. गूदेदार पर्ण (Fleshy Leaves) – इसमें पर्ण भोजन व जल का संप् करने के लिए रूपानरित हो जासी हैं और यह पर्ण खाने के काम आती है। उदाहरण-गवारपाठा, प्याज व लहसुन।
8. घटपद्बय (Nepenthes) – घटपादप या निपेन्बिस मे कीटों को पकड़ने के लिए घड़े के आकार की एक संरचना होती है जो पर्ण का रूपान्तरण होती है। ये पौधे नाइट्रोञन की पूर्रि कीटों से करते हैं। इस घट के मुख के ऊपर एक ढक्कन होता है जो पर्ण शिखाम्र (leaf apex) का रूपान्तरण होता है। घट को सीधी स्थिति में रखने वाला प्रतानी वृन्त (tendrilar Petiole), पर्णपृन्त का रूपान्तर होता है जो पानी के समान चपटे, चौड़े फैले हुए हरे पर्णाधार से जुड़ा होता है। यह पर्णाधार (leaf base) प्रकाश-संश्लेषण के अन्य कार्यों को करता है।
9. यूट्रीपुलेरिया या ब्लेडरष्ट (Utricularia)-एक अन्य जलीय कीटाहारी पौधे, यूट्रीकुलेरिया में भी कीट पकड़ने के लिए पर्णफलक विशेष प्रकार की थैली (Bladder) में रूपान्तरित हो जाता है।
प्रश्न 13.
पुष्पक्रम की परिभाषा दीजिए। पुष्पी पादपों में विभिन्न प्रकार के पुष्यक्रमों के आधारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पुष्य क्रम (Inflorescence)-
पौधे में पुप्पीय अक्ष (floral axis) पर पुप्यों के लगने की व्यवस्था को पुण्यक्रम कहते हैं। जिस पुष्प अक्ष पर पुष्पक्रम बनता है उसे पुष्प वृन्त (receptacle) कहते हैं। पुष्ष्रों का निर्माण अक्ष की कक्षस्थ कलिका (axillary bud) से होता है। जब पुष्प शाखा पर अकेला होता है तब इसे एकल (solitary) पुष्प कहते हैं। ये पुष्प एकल शीर्षस्थ (solitary traminal) या एकल कक्षस्थ (solitary axillary) हो सकते हैं। एक ही स्थान से अनेक पुष्षों के निकलने को पुष्पक्रम (Inflorescence) कढ़ा जता है।
पुषक्कम के प्रकार (Types of Inflorescence) – पुष्पक्रम मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-
(अ) असीमाक्षी पुष्पक्रम,
(ब) समीमाक्षी पुष्पक्रम।
(अ) असीमाक्षी पुक्षम (Racemose Inflorescence) – इसमें पुष्प अक्ष की लम्बाई निरन्तर वृद्धिशील होती है और इस पर पुष्व अप्रभिसारी क्रम (acropetal succession) में लगे होते हैं। इसमें नीचे के पुष्प बड़े तथा ऊपरी पुष्प छोटे हो जाते हैं। यह पुष्प क्रम निम्नलिखित प्रकार का होता है-
(i) असीमाक्ष (Raceme)- इसमें मुख्य पुष्पी अक्ष पर सवृन्त (pediclate) तथा सहपत्री या असहपत्री पुष्प लगे होते हैं। जैसे-सरसों, मूली लार्कस्पर आदि।
(ii) स्थाईद्क (Spike) – इसमें पुष्पी अक्ष पर अवुन्त (sessile) पुष्प लगे होते हैं।। औसे-चिरचिटा (Achyranthus), चौलाई (Amaranthus) आदि।
(iii) मंजरी (Catkin) – इसमें पुष्प अक्ष लम्बा एवं कमजोर होता है।इस पर एकलिंगी तथा दलविहीन पुष्प लगते हैं। उसे-शहतूत (Manis alba) सेलिक्स (Salix) आदि।
(iv) स्पाइकलेट (Spikelet)- ये वास्तव में छोटे स्पाइक होते हैं। इनमें प्रायः एक से तीन पुष्प लगे होते हैं। आधारी भाग पर पुष्प तुषनिपप्रों (glumes) से घिरे रहते हैं। जैसे-गेहूँ, जौ, जई आदि में। कहलाता है। पुष्प अक्ष पर नीचे की ओर मादा पुष्व, मध्य में बन्द्य पुष्प तथा ऊपर की ओर नर पुष्प लगे होते हैं। पुष्प एक रंगीन निपत्र (spathe) से ढके होते हैं। जैसे-केला, ताड़, अरकी आदि में।
(vi) समशिख (Corymb)- इसमें पुष्प अक्ष छोटा छोता है। नीचे स्थित पुष्ओों के पुष्प वृन्त लम्बे तथा ऊपरी पुष्षों के पुष्व वृन्त क्रमशः छोटे होते हैं जिससे एक छान जैसी रचना बनती है। इसमें सभी पुष्प लगभग समान ऊँचाई पर होते हैं। जैसे-केण्डीटफ्ट (Iberis amara), कैसिया आदि में।
(vii) पुष्फ छ्र (Umbel)-इसमें पुष्पी अक्ष बहुत छोटी होती हैं और सभी पुष्प एक ही स्थान से निकले प्रतीत होते हैं। ये एक्र छाते जैसी रचना बनाते हैं। इसमें परिधि की ओर बड़े तथा केन्द्र की ओर के पुष्प छोटे होते हैं। औैसे-धनियाँ, सौंफ, जीरा, पूनस आदि में।
(viii) मुण्डक (Capitulum)-इसमें पुष्पी अक्ष चौड़ा होकर एक आसन बनाता है। आसन पर दो प्रकार के पुष्मक (Florets) उत्पम्न होते हैं। परिधि की ओर रश्चि पुष्य (ray florets) तथा केन्द्र की ओर बिम्ब पुक्यक (disc florets)। यद्यपि सम्पूर्ण पुष्ष एक ही पुष्प जैसे दिखाई देता है। जैसे – गैदा, सूरजमुखी डहेलिया, जीनिया आदि में।
(ब) ससीमाक्षी पुष्पक्रम (Cymose inflorescence) – इस प्रकार के पुष्पक्रम
में मुख्य अक्ष पर शीर्षस्थ कलिका बनने के कारण इसकी वृद्धि रुक जाती है तथा पार्श्वीय अक्ष जो शीर्षस्थ पुष्प के नीचे से निकलती है। वह भी पुष्प में समाप्त हो जाती है। इस प्रकार पार्श्वीय अक्ष की वृद्धि भी सीमित हो जाती है। पुष्षों की व्यवस्था तलाभिसारी क्रम (basipetal succession) में होती है। इस क्रम में पुराने पुष्प शीर्ष की ओर तथा नये पुष्प नीचे के ओर होते हैं। ससीमाथी पुष्पक्रम निम्न प्रकार के होते हैं-
प्रश्न 14.
ऐसे फूल का सूत्र लिखिए जो त्रिज्या सममित, उभयलिंगी, अधोजायी, 5 संयुक्त बाहादली 5 मुक्त दली पुंकेसरी, द्वियुक्ताण्डपी तथा ऊर्ध्ववर्ती अण्डाशय हो ।
उत्तर:
उपरोक्त विशेषताएँ सोलेनेसी कुल के पुष्प की है। इसका पुष्पीय सूत्र निम्नवत् है-
प्रश्न 15.
पुष्पासन पर स्थिति के अनुसार लगे पुष्पी भागों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पुष्पासन पर पुष्पपत्रों की स्थिति के आधार पर, विशेषतः अण्डपों की स्थिति के आधार पर पुष्प निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं-
1. अधोजाप या जायांगधर (Hypogynous) – जब पुंकेसर (stamens), दल (petals) तथा बाह्य दल (sepals) पुष्पासन पर जायांग (gynoecium) के नीचे लगे होते हैं तो पुष्प जायांगधर कहलाता है। इस स्थिति में पुष्प का अण्डाशय ऊर्ध्ववर्ती (superior) होता है तथा पुष्प के अन्य भाग अघोस्थिति में (inferior) होते हैं। जैसे- गुलाब, बैंगन आदि ।
2. परिजायांगी (Perigynous) – जब पुष्पासन पर जायांग तथा अन्य पुष्पीय अंग लगभग समान ऊँचाई पर स्थित होते हैं तो पुष्प परिजायांगी कहलाता है। इसमें अण्डाशय आधा ऊर्ध्ववर्ती या आधा अधोवर्ती होता है। ये पुष्प डिस्क, कप या फ्लास्क के आकार के हो सकते हैं; जैसे- गुलाब, आडू आदि में।
3. जायांगोपरिक या उपरिजाय (Epigynous) – जब पुष्पासन के किनारे वृद्धि करके अण्डाशय को घेर लेते हैं और अण्डाशय से संलग्न हो जाते हैं। अन्य पुष्पीय भाग अण्डाशय के ऊपर स्थित होते हैं। इसे जायांगोपरिक पुष्प कहते हैं; जैसे- अनार, अमरूद आदि ।