Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 17 श्वसन और गैसों का विनिमय Important Questions and Answers.
Haryana Board 11th Class Biology Important Questions Chapter 17 श्वसन और गैसों का विनिमय
(A) वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)
1. सामान्य मनुष्य में विश्राम अवस्था में ज्वारीय आपतन होता है-
(A) 0.5 लीटर
(B) 2.5 लीटर
(C) 1.2 लीटर
(D) 4.9 लीटर।
उत्तर:
(A) 0.5 लीटर
2. फेफड़े की कोशिकाओं में कूपिका से रुचिर में O2 अभिगमन के लिए उत्तरदायी है-
(A) सक्रिय अभिगमन
(B) निस्यन्दन
(C) सुगमीकृत विसरण
(D) निष्क्रिय विसरण।
उत्तर:
(D) निष्क्रिय विसरण।
3. मस्तिष्क में उपस्थित श्वसन केन्द्र किस परिवर्तन के प्रति अनुक्रिया दर्शाति
(A) रुधिर में O2 सान्द्रण
(B) रुधिर में CO2 सान्द्रण
(C) माइटोकॉण्ड्रिया में ग्लूकोस
(D) माइटोकॉण्ड्रिया में वसा ।
उत्तर:
(D) माइटोकॉण्ड्रिया में वसा ।
4. श्वसन सतह में से गैसों का अभिगमन होता है-
(A) विसरण द्वारा
(B) सक्रिय श्वसन द्वारा
(C) संचालन द्वारा
(D) सुगमीकृत विसरण द्वारा।
उत्तर:
(B) सक्रिय श्वसन द्वारा
5. कौन-सी रचना फुफ्फुस के विभाजन का अन्तिम भाग है तथा गैसीय विनिमय का स्थान है-
(A) ट्रेकिओल
(B) वायु कोष्ठिका
(C) श्वसनिकाएँ
(D) श्वसन श्वसनिकाएँ।
उत्तर:
(A) ट्रेकिओल
6. कार्बन डाइ ऑक्साइड का परिवहन होता है-
(A) हीमोग्लोबिन द्वारा
(B) प्लाज्मा द्वारा
(C) लाल रक्त कणिकाओं द्वारा
(D) इन सभी के द्वारा।
उत्तर:
(B) प्लाज्मा द्वारा
7. दौड़ने पर श्वसन दर बढ़ जाती है क्योंकि रक्त में-
(A) लैक्टिक अम्ल की मात्रा कम होती है
(B) CO2 की सान्द्रता अधिक होती है।
(C) CO2 की सान्द्रता कम होती है
(D) CO2 व लैक्टिक अम्ल की सान्द्रता कम होती है।
उत्तर:
(C) CO2 की सान्द्रता कम होती है
8. उनकों में ऑक्सीहीमोग्लोविन से O2 का विघटन होने का कारण है-
(A) O2 की कम सान्द्रता
(B) CO2 की कम सान्द्रता
(C) O2 की अधिक सान्द्रता
(D) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(D) इनमें से कोई नहीं।
9. एक बार साँस लेने में वायु की जो मात्रा बाहर निकाली जाती है या भीतर ली जाती है कहलाती है-
(A) प्रवाही आयतन
(B) अवशेषी आयतन
(C) सजीव आयतन
(D) निःश्वसन एवं प्रश्वसन
उत्तर:
(C) सजीव आयतन
10. अन्तःश्वसन के समय डायाफ्राम हो जाता है-
(A) संकुचित
(B) प्रसारित
(C) विश्रामावस्था में
(D) कोई परिवर्तन नहीं
उत्तर:
(B) प्रसारित
11. फेफड़ों में श्वासनली (Trachea ) की शाखा का अन्तिम भाग तथा गैसीय विनिमय का स्थान है-
(A) श्वसनियाँ
(B) श्वसनिकाएँ
(C) वायु-कूपिकाएँ
(D) वायुकोष
उत्तर:
(A) श्वसनियाँ
12. रुचिर में फेफड़ों तक CO2 का संवहन मुख्यतः होता है-.
(A) कार्बोनिक अम्ल तथा कार्बोमिनोहीमोग्लोबिन के रूप में
(B) प्लाज्मा में घुली अवस्था में
(C) केवल कार्बोनिल अम्ल के रूप में
(D) केवल हीमोग्लोबिन से मिलकर।
उत्तर:
(D) केवल हीमोग्लोबिन से मिलकर।
13. कोष्ठकीय वायु की तुलना में वायुमंडलीय वायु का PCO2 व PO2 होगा –
(A) कम PO2 उच्च PCO2
(C) उच्च PO2 उच्च PPCO2
(B) उच्च PO2 कम PCO2
(D) कम PO2कम PCO2
उत्तर:
(B) उच्च PO2 कम PCO2
14. निम्न में से किसका मान सबसे कम होता है ?
(A) प्रवाही आयतन
(B) सजीव क्षमता
(C) अन्त: श्वसनी व्युत्क्रम आयतन
(D) बाह्य श्वसनी व्युत्क्रम आयतन ।
उत्तर:
(C) अन्त: श्वसनी व्युत्क्रम आयतन
15. फेफड़े के कोष्ठकों में गैसीय विनिमय किसके द्वारा होता है ?
(A) चेष्टा संवहन
(B) परासरण
(C) साधारण विसरण
(D) निष्चेष्ट संवहन।
उत्तर:
(B) परासरण
16. हीमोग्लोबिन द्वारा वहन ऑक्सीजन का निर्धारण किसके द्वारा होता है-
(A) pH
(B) ऑक्सीजन का आंशिक दाब
(C) CO2 का आंशिक दाब
(D) इनमें से सभी।
उत्तर:
(B) ऑक्सीजन का आंशिक दाब
17. उनकों में हीमोग्लोबिन का विघटन किस कारण होता है-
(A) उच्च PO2
(B) कम PO2
(C) समान PO 2
(D) PO2 के विपरीत।
उत्तर:
(B) कम PO2
18. क्रेन्स चक्र के अन्त में प्राप्त ATP की संख्या होती है- (RPMT)
(A) 2 ATP
(B) 4 ATP
(C) 36 ATP
(D) 38 ATP.
उत्तर:
(C) 36 ATP
19. वायवीय श्वसन में ग्लूकोज के अणु से ATP के कितने अणु प्राप्त होते है- (UP CPMT)
(A) 12
(B) 18
(C) 30
(D) 38.
उत्तर:
(B) 18
20. एक हीमोग्लोबिन कितने ऑक्सीजन अणुओं का वहन करता है- (UP CPMT)
(A) 4
(B) 2
(C) 6
(D) 8.
उत्तर:
(B) 2
21. वायवीय श्वसन सम्बन्धित है- (RPMT)
(A) माइटोकॉण्ड्रिया से
(B) प्लाज्मा झिल्ली से
(C) गॉल्जी काय से
(D) अन्तः प्रद्रव्यी जालिका से
उत्तर:
(C) गॉल्जी काय से
22. मेढ़क में सुप्तावस्था के समय श्वसन होता है- (RPMT)
(A) त्वचा द्वारा
(B) फेफड़ों द्वारा
(C) मुखीय फैरिंक्स द्वारा
(D) फैरिंक्स द्वारा ।
उत्तर:
(D) फैरिंक्स द्वारा ।
23. रुधिर द्वारा CO2 किस रूप में पायी जाती है- (RPMTS UPCPMT)
(A) Hb CO2
(B) Na HCO3
(C) कार्बोनिक अम्ल
(D) Hb CO2 कार्बोनिक अम्ल
उत्तर:
(A) Hb CO2
24. श्वसन केन्द्र उपस्थित होते हैं- (RPMT)
(A) सेरीबेलम में
(B) सेरीब्रम में
(C) मैड्यूला ऑब्लांगेटा में
(D) हाइपोथैलेमस में ।
उत्तर:
(A) सेरीबेलम में
25. बुक लेग्स श्वसन अंग हैं- (RPMT)
(A) प्रोटोजो अन्स में
(C) आर्थ्रोपोड में
(B) निडेरिया में
(D) ऐम्फीबियन में।
उत्तर:
(A) प्रोटोजो अन्स में
26. जब तापमान कम होता है तब ऑक्सी-Hb वक्र हो जाएगा- (UP CPMT)
(A) अधिक झुका
(B) सीधा
(C) पैराबोला
(D) ये सब ।
उत्तर:
(B) सीधा
27. ऑक्सीजन विघटन वक्र होता है- (RPMT)
(A) सिग्मॉइड
(B) पैराबोलिक
(C) हाइपरबोलिक
(D) सीधी रेखा ।
उत्तर:
(A) सिग्मॉइड
28. फेफड़ों का प्रवाही आयतन होता है- (CBSE)
(A) 500 मिली
(B) 1000 मिली
(C) 1500 मिली
(D) 2000 मिली ।
उत्तर:
(D) 2000 मिली ।
29. ऑक्सीजन विघटन वक्र होता है-
(A) सिग्मॉइड
(B) पैराबोलिक
(C) हाइपरबोलिक
(D) सीधी रेखा
उत्तर:
(C) हाइपरबोलिक
30. फेफड़ों का प्रवाही आयतन होती है-
(A) 500MI
(C) 1500mL
(B) 100mL
(D) 2000mL
उत्तर:
(A) 500MI
31. ऊतकों द्वारा ग्रहण किए जाने के पश्चात् भी मनुष्य के रुधिर में ऑक्सीजन का एक बड़ा अनुपात अप्रयुक्त रह जाता है।
(A) रुधिर के PCO2 को 75 mm Hg तक बढ़ा देती है
(B) ऑक्सी- हीमोग्लोबिन संतृप्तता को 96% पर बनाए रखने के लिए पर्याप्त होती है
(C) उपकला ऊतकों में अधिक ऑक्सीजन मुक्त करने में सहायता करती है
(D) पेशीय व्यायाम के दौरान एक रिजर्व की भाँति कार्य करती है।
उत्तर:
(B) ऑक्सी- हीमोग्लोबिन संतृप्तता को 96% पर बनाए रखने के लिए पर्याप्त होती है
32. निःश्वसन के दौरान डायाफ्राम हो जाता है- (RPMT)
(A) सामान्य
(B) चपटा
(C) गुम्बदाकार
(D) तिरछा
उत्तर:
(C) गुम्बदाकार
33. इलेक्ट्रॉन परिवहन श्रृंखला में इलेक्ट्रॉन का अन्तिम ग्राही होता है-
(A) जल
(C) राइटोक्रोम-a
(B) साइट्रोक्रोम-a-3
(D) ऑक्सीजन
उत्तर:
(D) ऑक्सीजन
34. CO2 परिवहन में भाग लेने वाला एन्जाइम कार्बनिक एनहाइड्रेस पाया जाता है-
(A) WBCs में
(B) लिम्फोसाइट्स में
(C) RBCS में
(D) मोनोसाइट्स में।
उत्तर:
(B) लिम्फोसाइट्स में
35. मनुष्यों में श्वसन के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से सत्य कथन है-
(A) सिगरेट के पीने से श्वसनी शोथ (inflamation of bronchi) उत्पन्न हो सकता है।
(B) मस्तिष्क के पोन्स भाग में स्थित न्यूमोटॉक्सिक केन्द्र से उत्पन्न तंत्रिकीय संकेत अन्तःश्वसन की अवधि को बढ़ा सकते हैं
(C) पत्थर तोड़ने एवं घिसने के उद्योग में कार्यरत मजदूर फुफ्सीय रेशीमयता (lung fibrosis) नामक रोग से पीड़ित हो सकते हैं।
(D) CO2 का लगभग 90% भाग हीमोग्लोबिन द्वारा कार्बमीनो- हीमोग्लोबिन के रूप में ले जाया जाता है।
उत्तर:
(A) सिगरेट के पीने से श्वसनी शोथ (inflamation of bronchi) उत्पन्न हो सकता है।
36. चित्र में मानव श्वसन तंत्र का एक आरेखी दृश्य दर्शाया गया है जिसमें चार नामांकन A, B, C और D दिए गए हैं। अंग की सही पहचान के साथ-साथ उसके प्रमुख कार्य और / अथवा विशिष्टता के विकल्प चुनिए । (NEET UG)
उत्तर:
(D)
(B) अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)
प्रश्न 1.
फेफड़ों में ऐसी कौन-सी रचनाएँ हैं जो श्वसन केन्द्र को नियन्त्रित करती हैं ?
उत्तर:
फेफड़ों में श्वसन केन्द्र को नियन्त्रित करने हेतु विशेष प्रकार के स्फीति प्राही (Inflation receptors) तथा अपस्फीति ग्राही (Deflation receptors) पाये जाते हैं।
प्रश्न 2.
गैसीय विनिमय एवं गैसों के परिवहन को संयुक्त रूप से क्या कहते हैं ?
उत्तर:
गैसीय विनिमय एवं गैसों के परिवहन को संयुक्त रूप से बाह्य श्वसन (External respiration) कहते हैं।
प्रश्न 3.
कोशिका में सम्पन्न होने वाली ऐसी कौन-सी क्रिया है, जिसके द्वारा कार्बन डाई ऑक्साइड का निर्माण होता है ?
उत्तर:
कोशिका में सम्पन्न होने वाली क्रिया कोशिकीय श्वसन (cellular respiration) में CO2 का निर्माण होता है।
प्रश्न 4.
ज्वारीय आयतन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
सामान्य अवस्था में प्राणी के फेफड़ों में वायु के जिस आयतन का आवागमन होता है, उसे ज्वारीय आयतन (Tidal volume) कहते हैं।
प्रश्न 5.
अन्तःश्वसन संचयी आयतन से क्या समझते हैं ?
उत्तर:
पेशीय प्रयास बढ़ाने से अन्तःश्वसन के समय वायु के अतिरिक्त आयतन को ग्रहण किया जा सकता है। इस आयतन को अन्तःश्वसन संचयी आयतन (Inspiratory Reserve Volume) कहते हैं।
प्रश्न 6.
बहिःश्वसन संचयी आयतन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
अतिरिक्त पेशीय प्रयास में बहिःश्वसन के समय वायु के अतिरिक्त आयतन को फेफड़ों से बाहर निकाला जा सकता है। इसे बहिःश्वसन आयतन (Expiratory Reserve Volume) कहते हैं।
प्रश्न 7.
कशेरुकी प्राणियों में ऑक्सीजन का अधिकतम संवहन रुधिर में किस रूप में होता है ?
उत्तर:
कशेरुकी प्राणियों के रुधिर में लाल रुधिराणुओं (R.B.C.) में उपस्थित हीमोग्लोबिन के साथ एक अस्थायी यौगिक ऑक्सीहीमोग्लोबिन [Hb (O2)4] के रूप में ऑक्सीजन का अधिकतम संवहन होता है।
प्रश्न 8.
फेफड़ों की जैव क्षमता से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
फेफड़ों की जैव क्षमता वायु का वह आयतन है जो सबसे गहरे निश्वास के बाद और सबसे शक्तिशाली उच्छ्वास द्वारा बाहर निकलता है। मनुष्य में इसका औसत आयतन 4,600 ml होता है।
प्रश्न 9.
बाह्य श्वसन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
कोशिकाओं द्वारा पर्यावरण से ऑक्सीजन ग्रहण करना और कार्बन डाइ-ऑक्साइड बाहर निकालना बाह्य श्वसन कहलाता है।
प्रश्न 10.
गैस विनिमय की प्रमुख सतह क्या है ?
उत्तर:
वायु कूपिकाएँ ।
प्रश्न 11.
रुधिर द्वारा परिवर्तित ऑक्सीजन का कितने प्रतिशत भाग हीमोग्लोबिन के साथ संयुक्त होता है?
उत्तर:
97%
प्रश्न 12.
हीमोग्लोबिन के साथ O2 की बंधुता किस पर निर्भर करती है ?
उत्तर:
pH – तापमान एवं डाइफॉस्फोग्लिसरेट पर ।
प्रश्न 13.
स्पाइरीमीटर क्या है ?
उत्तर:
फेफड़ों के व्यावहारिक कार्यों को निर्धारित करने के लिए उनके आयतन तथा क्षमताएँ जिस उपकरण से मापी जाती हैं, उन्हें स्पाइरोमीटर (Spirometer) कहते हैं।
प्रश्न 14.
ज्वारीय उच्छ्वसन की माप क्या होगी ?
उत्तर:
500 मिली ।
प्रश्न 15
निश्वसन आरक्षित आयतन क्या है ?
उत्तर:
सामान्य निश्वसन के बाद अधिकतम निश्वसित की जा सकने वाली वायु का आयतन निश्वसन आरक्षित आयतन होता है। इसका माप लगभग 300 मिली होता है।
प्रश्न 16.
उच्छ्वसन आरक्षित आयतन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
सामान्य उच्छ्वसन के पश्चात् बलपूर्वक अधिकतम उच्छ्वसित की गई वायु का आयतन उच्छ्वसन आरक्षित आयतन (Expiratory Reserve Volume) कहलाता है। इसका माप 1100 मिली होता है।
प्रश्न 17.
अवशिष्ट आयतन किसे कहते हैं ?-
उत्तर:
बलपूर्वक अधिकतम उच्छ्वसित की गयी वायु के पश्चात् भी फेफड़ों में जो वायु बची रहती है उसे अवशिष्ट आयतन ( Residual Volume) कहते हैं। इसकी माप 1200 मिली होती है।
प्रश्न 18.
निश्वसन क्षमता किसे कहते हैं ?
उत्तर:
वायु की उस अधिकतम मात्रा को जो एक निश्वसन में ग्रहण की जा सकती है, निश्वसन क्षमता कहते हैं। इसका योग TV (ज्वारीय आयतन) + IRV (निश्वसित आरक्षित आयतन) के बराबर होता है।
प्रश्न 19.
कार्यात्मक अवशिष्ट क्षमता किसे कहते हैं ?
उत्तर:
सामान्य उच्छ्वसन के पश्चात् जो वायु की मात्रा फेफड़ों में शेष बचती है उसे कार्यात्मक अवशिष्ट क्षमता कहते हैं। इसका मान ERV (उच्छ्वसन आरक्षित आयतन) + RV ( अवशिष्ट आयतन) के बराबर होता है।
प्रश्न 20.
अधर श्वसन केन्द्र कहाँ स्थित होता है ?
उत्तर:
मैड्यूला (Medulla) में।
प्रश्न 21.
PCO2 PO2, TV शब्दों का विस्तार कीजिए।
उत्तर:
PCO2 = कार्बन डाई ऑक्साइड का आंशिक दाब
PO2 = ऑक्सीजन का आंशिक दाब
TV = Tidal Volume (ज्वारीय आयतन) ।
प्रश्न 22.
बोहर का प्रभाव किसे कहते हैं ?
उत्तर:
उच्च PCO2 की उपस्थिति में ऑक्सीहीमोग्लोबिन के विघटन को ‘बोहर का प्रभाव’ कहते हैं।
प्रश्न 23.
फेफड़े की कुल सामर्थ्य कितनी होती है ?
उत्तर:
फेफड़े की कुल सामर्थ्य 5000 6000 mm होती हैं।
प्रश्न 24.
हैल्डेन प्रभाव क्या होता है ?
उत्तर:
जैसे-जैसे रुधिर का pH मान कम होता जाता है, रुधिर से वायु कूपिकाओं में अधिक CO2 मुक्त होती है और अधिक ऑक्सीहीमोग्लोबिन बनती है। ऊतकों में यह क्रिया विपरीत दिशा में होती है। इसे ‘हैल्डेन प्रभाव’ कहते हैं।
(C) लघूत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)
प्रश्न 1.
श्वसन किसे कहते हैं ? श्वसन और श्वासोच्छ्वास में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
श्वसन (Respiration ) – ऑक्सीजन का शरीर में प्रवेश करना; कार्बन डाइ ऑक्साइड (CO2) का शरीर से बाहर निकलना तथा वे सभी रासायनिक अभिक्रियाएँ जिनके फलस्वरूप ऊर्जा उत्पन्न होती है, श्वसन कहलाता है।
श्वसन तथा श्वासोच्छ्वास में अन्तर –
श्वसन (Respiration) | श्वासोच्छ्वास (Breathing) |
1. यह एक अपचयी क्रिया है जिसमें कोशिकाओं के अन्दर भोज्य पदार्थों का ऑक्सीकरण होता है | 1. यह एक यान्त्रिक क्रिया है जिसमें वातावरण की शुद्ध वायु श्वसनांगों तक पहुँचाई जाती है। और CO2 तथा जल वाष्प बाहर निष्कासित की जाती है। |
2. इसमें ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से CO2 तथा जल बनते हैं और ऊर्जा ऊष्मा के रूप में विमुक्त होती है। यह ATP में संचित हो जाती है और कोशिकीय उपापचय में काम आती है। | 2. इसमें श्वसन के बाद उत्पन्न CO2 व जलवाष्प आदि श्वसनांगों से वातावरण में बाहर चली जाती है। |
3. इसके चार चरण हैं- (i) बाह्य श्वसन (ii) गैसीय संवहन (iii) अन्तःश्वसन (iv) कोशिकीय श्वसन । | 3. इसकी केवल दो ही अवस्थाएँ हैं- (i) निश्वसन तथा (ii) निःश्वसन । अतः यह केवल बाह्य कोशिकीय प्रक्रिया है। |
4. यह भौतिक एवं रासायनिक क्रियाओं का एक सम्मिलित रूप है। | 4. यह केवल एक भौतिक क्रिया मात्र है । |
प्रश्न 2.
श्वसन में कितने चरण होते हैं ? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
श्वसन के चरण (Steps of Respiration) श्वसन में निम्नलिखित चरण सम्मिलित है –
- श्वसन का फुफ्फुसी संवातन जिससे वायुमंडलीय वायु अन्दर खींची जाती है और CO2 से भरपूर कूपिका की वायु को बाहर मुक्त किया जाता है।
- कूपिका झिल्ली के आर-पार गैसों (O2 व CO2) का विसरण ।
- रुधिर द्वारा गैसों का परिवहन।
- रुधिर और ऊतकों के बीच O2और CO2का विसरण
- उपापचयी क्रियाओं के लिए कोशिकाओं द्वारा O2 का उपयोग और उसके फलस्वरूप CO2 का उत्पन्न होना ।
प्रश्न 3.
गैसीय परिवहन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
गैसीय परिवहन (Transportation of gases) – फेफड़ों से ऑक्सीजन का रुधिर केशिकाओं द्वारा ऊतकों तक पहुँचने तथा ऊतकों से CO2 का रुधिर केशिकाओं के द्वारा फेफड़ों में छोड़ने की क्रिया को गैसीय परिवहन कहते हैं। इस परिवहन में लाल रुधिर कणिकाओं में उपस्थित श्वसन वर्णक के रूप में हीमोग्लोबिन का विशेष योगदान रहता है।
गैसीय परिवहन दो पदों में होता हैं –
(1) ऑक्सीजन का परिवहन फेफड़ों की कूपिकाओं में आयी हुई CO2 को हीमोग्लोबिन अवशोषित करके अस्थायी यौगिक ऑक्सीहीमोग्लोबिन में परिवर्तित हो जाता है। रुधिर परिवहन के साथ यह ऊतकों में पहुँचकर ऑक्सीजन को मुक्त करके पुनः हीमोग्लोबिन में बदल जाता है।
(ऑक्सीहीमोग्लोबिन) इस प्रकार फेफड़ों से ऑक्सीजन ऊतकों में पहुँच जाती है। ऑक्सीजन का कुछ भाग रुधिर प्लाज्मा में घुलकर ऊतक कोशिकाओं तक पहुँच जाता है।
(2) कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन कोशिकीय श्वसन के पश्चात् CO2 तथा जल के अणुओं का निर्माण होता है। कोशिकाओं में मुक्त हुई CO2 धीरे-धीरे ऊतकीय द्रव के माध्यम से विसरित होकर केशिकाओं में निम्नोक्त रूपों में पहुंचती है, जहाँ से वह रुधिर परिवहन के साथ फेफड़ों में जाती है-
- कार्बनिक अम्ल (H2CO3) के रूप में,
- बाइकार्बोनेट के रूप में,
- कार्बन एमीनो यौगिक के रूप में।
उपर्युक्त अस्थायी पदार्थों से फेफड़ों के समीप CO2 मुक्त होकर कोशिकाओं तथा फेफड़ों की पतली भित्तियों से विसरित होकर फेफड़ों में पहुँचती है, जहाँ से CO2 निःश्वसन द्वारा वातावरण में मुक्त हो जाती है।
प्रश्न 4.
श्वसन किसे कहते हैं ? बाह्य एवं आनरिक श्वसन को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
श्वसन (Respiration) श्वसन उन भौतिक एवं रासायनिक क्रियाओं का सम्मिलित रूप है, जिसके अन्तर्गत बाह्य वायुमण्डल की ऑक्सीजन शरीर के अन्दर कोशिकाओं तक पहुँचती है और उन सजीव कोशिकाओं में उपस्थित संचित खाद्य का क्रमिक ऑक्सीकरण होता है तथा ऊर्जा (Energy) मुक्त होती है। यह ऊर्जा विभिन्न दैहिक कार्यों में उपयोग की जाती है। इस क्रिया में उत्पन्न हुई CO2 शरीर से बाहर निकाल दी जाती है।
श्वसन के दो चरण –
- बाह्य श्वसन तथा
- आन्तरिक श्वसन होते
1. बाह्य श्वसन (External Respiration ) – यह वह भौतिक क्रिया होती है जिसके द्वारा कोई जन्तु अपने आवासी पर्यावरण से ऑक्सीजन (O2) को निरन्तर एवं नियमित रूप से प्राप्त करता है तथा साथ ही कार्बन डाइ-ऑक्साइड (CO2) का निष्कासन करता है। इसे साँस लेना ( breathing) कहते हैं। संक्षेप में फेफड़ों के अन्दर वायु की O2 एवं रुधिर की CO2 के विनिमय को बाह्य श्वसन कहते हैं।
2. आन्तरिक श्वसन (Internal Respiration) – इसके अन्तर्गत वे सभी रासायनिक क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं, जिनके द्वारा कोशिकाओं में उपस्थित खाद्य पदार्थों का ऑक्सीजन की उपस्थिति में ऑक्सीकरण होता है और ऊर्जा मुक्त होती है। इसे कोशिकीय या ऊतकीय श्वसन (Cellular or Tissue Respiration) भी कहते हैं।
प्रश्न 5.
ऑक्सीजनित रक्त (Oxygenated blood) ऊतकों से गुजर रहा हो तथा इसकी ऑक्सीजन का आंशिक दाब अचानक पारे के 40 मिमी से 10 मिमी तक कम हो जाये, तो हीमोग्लोबिन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
ऊतकों में ऑक्सीजन का आंशिक दाब कम रहता है, तभी ऑक्सीहीमोग्लोबिन टूटकर ऑक्सीजन विमुक्त करता है जो ऊतक की कोशिकाओं में विसरित हो जाती है।
Hb(O2)4 → НЫ + 4O2
प्रश्नानुसार, ऊतकों में ऑक्सीजन का आंशिक दाब 40 मिमी से 10 मिमी पारे के स्तम्भ तक कम हो जाता है। यह लगभग सम्पूर्ण ऑक्सीहीमोग्लोबिन के हीमोग्लोबिन तथा ऑक्सीजन में टूट जाने की सम्भावना है।
प्रश्न 6.
आंशिक दाब किसे कहते हैं ?
उत्तर:
अणुओं का वह दाब जो उन्हें उच्च सान्द्रण से निम्न सान्द्रण वाले स्थान पर प्रतिगमन हेतु आवश्यक होता है, आंशिक दाब कहलाता है। वायु या जल में ऑक्सीजन अणु का आंशिक दाब कोशिकाओं की तुलना में अधिक होता है अतः ऑक्सीजन कोशिकाओं में प्रवेश कर जाती है और कोशिकाओं के अन्दर कार्बन डाइ ऑक्साइड का आंशिक दाब अधिक होने से यह बाहर चली जाती है।
प्रश्न 7.
निश्वसन की क्रिया-विधि समझाइए ।
उत्तर:
निश्वसन (Inspiration)
श्वसन क्रिया में निश्वसन वह प्रक्रिया है जो डायाफ्राम एवं बाह्य अन्तरापर्शुक पेशियों (external intercostal muscles) के संकुचन से प्रारम्भ होती है। जब डायाफ्राम संकुचित होता है तो चपटा हो जाता है इसके साथ-साथ उदर की ओर नीचे आ जाता है। परिणामस्वरूप वक्ष गुहा का आयतन बढ़ जाता है। बाह्य अन्तरापर्शुक पेशियाँ भी साथ-साथ संकुचित होने लगता हैं।
अन्तरापर्शुक पेशियों के संकुचन से पसलियाँ ऊपर एवं बाहर की ओर – खींची जाती हैं जिससे वक्ष गुहा का आयतन बढ़ जाता है। अतः वक्ष गुहा एवं फेफड़ों में वायु दाब वायुमण्डल दाब से कम हो जाता है । फलस्वरूप दाब कम होने से अवशोषण बल उत्पन्न होता है और वायुमण्डल की वायु श्वसन पथ से होती हुई फेफड़ों में पहुँचती है। दा के इस अन्तर के कारण वायुमण्डल से वायु श्वसन मार्ग से होती हुई वायु कूपिकाओं में तेजी से तब तक भरती है जब तक कि कूपिकाओं का दाब वायुमण्डल के दाब के बराबर न हो जाये। वायुमार्ग इस प्रकार होता है –
नासा → द्वार → नासा गुहा → आन्तरिक नासा छिद्र → प्रसनी → घांटी → श्वसन नली → श्वसनियाँ → श्वसनिकाएँ → वायुकूपिका वाहिनी → वायु कूपिका कोष → वायु कूपिकाएँ ।
(D) निबन्धात्मक प्रश्न (Long Answer Type Questions)
प्रश्न 1.
वायवीय तथा अवायवीय श्वसन से आप क्या समझते हैं ? इनके उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
अवायवीय या अनॉक्सी श्वसन (Anaerobic respiration):
ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में खाद्य पदार्थों के विषटन को अवायवीय श्वसन (anaerobic respiration) कहते हैं। इस प्रक्रिया में ग्लूकोज का अपूर्ण विघटन होता है। जिसके फलस्वरूप CO2 एथिल ऐल्काहॉल या लैक्टिक अम्ल तथा कुछ ऊर्जा मुक्त होती है। यह ऊर्जा ग्लूकोज अणु में संचित ऊर्जा का केवल 5% है।
अवायवीय श्वसन (anaerobic respiration) प्राणियों के भीतरी ऊ्तकों में होता है। इस प्रक्रिया को आंत्र के परजीवी जैसे—फीताकृमि, गोलकृमि, हकवर्म तथा यक्त कुमियों में देखा जा सकता है।
अवायवीय श्वसन (anaerobic respiration) के समय पेशियों में लैक्टिक अम्ल (lactic acid) बनता है। पेशियों (muscles) में एकत्रित होकर यह पेशी श्रांति (muscle fatigue) उत्पन्न करता है। बाद में यह धीरे-धीरे यकृत कोशकाओं तथा छद्पेशियों (cardiac muscles) द्वारा पूर्ण रूप से ऑक्सीकृत (oxidise) हो जाता है। लाल रुधिराणुओं में माइटोकॉण्ड्रिया नहीं होते, अतः इनमें भी केवंल अवायवीय शवसन होता है।
वायवीय श्वसन में गैसीय विनिमय (Gaseous Exchange in Aerobic Respiration)
सभी वायवीय जीव श्वसन के लिए विसरण द्वारा पर्यावरण से ऑक्सीजन प्राप्त करते हैं और CO2 बाहर निकालते हैं। वायु में 21% तथा जल में 0.7% ऑक्सीजन होती है। अतः स्थलीय जीवों को जलीय जीवों की तुलना में अधिक अंक्सीजन उपलब्ध होती है।
जीवों में यह विनिमय (exchange) दो प्रकार से होता है –
1. प्रत्यक्ष गैसीय विनिमय (Direct gaseous exchange)-इसमें जीवों के शरीर की कोशिकाओं तथा जलीय माध्यम मेंCO2 व CO2 का सीधा विनिमय होता है। इनमें गैसों के परिवहन के लिए रुधिर जैसा कोई परिवहन माध्यम नहीं होता। यह विनिमय एक कोशिकीय जीवों, जैसे-प्रोटोजोआ, स्पंजों तथा सीलेन्ट्रेट्स में होता है।
2. अप्रत्यक्ष गैसीय विनिमय (Indirect gaseous exchange)-अधिकांश बहुकोशीय जन्तुओं में दैठिक कोशिकाओं का बाहा पर्यावरण से सीधा सम्पर्क नहीं होता है। इनमें विशेष श्वसनांग पाए जाते हैं। अतः इनमें दो स्तर पर गैसीय विनिमय होता है-
(i) बाह्य श्वसन (External respiration) – इसमें गैसीय आदान-प्रदान बाह्म पर्यावरण (जल या वायु) तथा रुधर के बीच होता है। यह क्रिया शरीर की सतह पर, श्वसन सतह पर तथा श्वसन अंगो, में होती है। इसमें साँस लेना भी सम्मिलित है। यह केवल भौतिक प्रक्रिया है।
(ii) आंतरिक श्वसन (Internal respiration) – इसमें CO2 तथा CO2 का विनिमय रुधिर तथा ऊतक कोशिकाओं के बीच होता है। यह क्रिया कोशिकीय स्तर पर होती है। इसे ऊतकीय श्वसन भी कहते हैं। इसमें गैस विनिमय तथा भोजन का ऑक्सीकरण (oxidation) व ऊर्जा की मुक्ति भी शामिल है। अतः यह भौतिक रासायनिक क्रिया है।
जन्तुओं के विभिन्न समूहों में गैसों के विनिमय के लिए श्वसन संरचनाएँ (Respiratory Structure for the Exchange of Gases in Different Groups of Animals) –
जन्तु समूह (Animal Group) | श्वसन संरचना (Respiratory structure) |
1. प्रोटोजोआ (उदाहरण – अमीबा, पैरामीशियम आदि) | जीवद्रव्य कला (Plasma membrane) |
2. पॉरीफेरा (उदाहरण-साइकन) | कोशिकाओं की जीवद्रव्य कला (plasma membrane of cells) |
3. निडेरिया (उदाहरण हाइड्रा) | शरीर सतह (Body surface) |
4. प्लेटीहेल्मिन्थीज (a) मुक्तजीवी (उदाहरण – प्लेनेरिया)(b) परजीवी (उदाहरण फीताकृमि) | शरीर सतह (Body surface) गैसीय विनिमय नहीं (अनॉक्सी श्वसन) |
5. निमेटोडा (a) मुक्तजीवी (उदाहरण – रेब्डीटिस) (b) परजीवी (उदाहरण – ऐस्केरिस) | शरीर सतह (Body surface) गैसीय विनिमय नहीं (अनॉक्सी श्वसन) |
6. ऐनेलिडा (उदाहरण केंचुआ) | त्वचा (skin) |
7. ऑथ्रोपोडा (a) झींगा मछली, क्रेफिश (b) कीट, सेन्टीपोड्स, मिलीपीड्स, खटमल (c) बिच्छू, मकड़ी (d) किंग केंकड़ा ( लिमूलस) | क्लोम (gills) ट्रेकिया (trachea ) बुक लंग्स (book lungs) बुक लंग्स (book lungs) |
8. मौलस्का (a) यूनियो (सीप) (b) पाइला (घोंघा) | क्लोम (gills) एक क्लोम तथा एक पल्मोनरी कोष्ठ (lung) |
9. इकाइनोडर्मेटा (उदाहरण – तारा मछली) | नाल पाद (tube feet) |
10. हेमीकॉर्डेटा (उदाहरण – बैलेनोग्लॉसस) | ग्रसनी भित्ति (pharyngeal wall) |
11. कॉर्बेट (a) यूरोकॉर्डेटा (उदाहरण – हर्डमानिया) (b) सिफेलोकॉर्डेटा (उदाहरण – बैंकियोस्टोमा) (c) बर्टीब्रेटा | ग्रसनी भित्ति (pharyngeal wall) प्रसनी भिति (pharyngeal wall) |
(i) साइक्लोस्टोम, मछलियाँ (ii) ऐम्फीबिया (iii) रेप्टीलिया, एवीज, स्तनधारी | क्लोम (gills) त्वचा, मुखप्रसनी अस्तर, फेफड़े फेफड़े (lungs) |
प्रश्न 2.
विभिन्न जीवधारियों में श्वसन अंगों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
श्वसन अंग (Respiratory Organ):
विभिन्न जीवधारियों में गैसीय विनिमय के लिए विभिन्न प्रकार के श्वसन अंग पाए जाते हैं। प्रोटोजोआ, पॉरीफेरा एवं नीडेरिया संघ के प्राणियों में विशिष्ट श्वसन अंग नहीं होते हैं, इनमें गैसों का विनिमय प्राणी के शरीर की सामान्य सतह से विसरण (diffusion) द्वारा होता है। मेढ़क में भी त्वचा (skin) द्वारा विसरण हो सकता है। केंदुआ, फीताकृमि, गोलकृमि आदि। जन्तुओं में गैसों का विसरण (diffusion) नम त्वचा (Moist skin) द्वारा होता है।
संष आध्रोपोड़ा के प्राणियों में गैसों के विनिमय के लिए ब्जोम (gills), द्रेंकिया या श्वसनी (trachea) या बुक लंग्स (book lungs) पाए जाते हैं। अधिकाश जलीय कशेरुकियों (vertebrates) में गैसों का विनिमय क्लोमों (gills) द्वारा होता है। क्लोम्स में जल संवहनी तंत्र होता है तथा इनमें रुधिर संवहन (blood vasculation) भी अधिक होता है जिससे जल में घुली हुई ऑक्सीजन O2 रुधिर द्वारा अवशोषित कर ली जाती है और CO2 जल में छोड़ दी जाती है, इसे जलीय श्वसन कहते हैं। स्थलीय प्राणियों में गैसों का विनिमय फेफड़ों (lungs) द्वारा होता है जिसमें ऑक्सीजन वायुमण्डल से पहुण की जाती है इसलिए इसे वायवीय श्वसन (aerobic respiration) भी कहते हैं। बैसे-उभयचर (amphibians), सरीसुप (reptiles), पक्षी एवं स्तनधारी (Mammals)।
(1) शरीर की सामान्य स्ता द्वारा श्वसन (Respiration through General Body Sufrace)-प्रोटोजोआ, पॉरीफेरा, सीलेन्द्रेटा संघ के प्राणी तथा जल व नमीयुक्त वावावरण में रहने वाले अनेक प्राणियों में शरीर की सामान्य सतह ह्वारा ही श्वसन छोता है। प्रोटोजोआ, पॉरीफेरा व सीलेन्ट्रेटा (नीडेरिया) संघ के प्राणियों में विशिष्ट श्वसन अंग नहीं छोते और न ही गैसीय संवहान के लिए परिसंचरण तन्त्र होता है। ऐसी स्थिति में शरीर की सामान्य नम सतह ही गैस विनिमय का कार्य करती है परन्तु केंचुए (carthworm) व मेंडक (frog) की त्वचा पर नमी के साथ-साथ रक्त परिवहन भी होता है जो गैसों के विनिमय को आसान बनाता है।
(2) क्लोम छ्वारा श्वसन (Respiration Through Gills)-कुछ आश्रोंपोडा, मोलस्का व सभी मछलियों में क्लोम (gills) मुख्य श्वसन अंग होते हैं। क्लोम (gills) जलीय प्राणियों के प्रमुख श्वसन अंग है। क्लोम में अनेक सूक्ष्म तन्तु पाये जाते हैं जिन्हें गिल तन्तु (gill filaments) कहते हैं। ये पतली व अत्यधिक संवहुनीय उपकला द्वारा ढके होते हैं।
जब जल इन गिल तन्तुओं से निकलता है तो सान्द्रता भिम्नता के कारण जल में घुलित ऑक्सीजन रक्त में चली जाती है और रक्त से कार्बन डाईऑक्साइड CO2 जल में बाहर आं जाती है और सामान्य विसरण क्रिया द्वारा गैसो का आदान-प्रदान हो जाता है। गिल्स में जल व रक परिवहन की दिशा एक- दूसरे के विपरीत होती है, जिससे एक प्रातिारा तन्त्र का निर्माण होता है जो गैसों के विनिमय को और आसान बना देता है।
(3) ट्रेजिया या प्वास नली द्वारा ए्क्तन (Respiration Through Trachea)-हीमोग्लोबिन (haemoglobin) के अभाव के कारण कीटों का रुधि ऑक्सीजन के वाहक के र्रूप में कार्य नहीं करता। इसलिए क्तकों और शरीर के विभिन्न भागों में ऑक्सीजन पहुँचाने के लिए इनमें श्वास नलियाँ (ट्रिकिया trachea) जाल के रूप में फैली रहती हैं। शरीर के पार्श्व भागों में स्थित 10 जोड़ी दरार जैसे श्वास रन्यों (Spiracles) द्वारा बाहर की वायु इन श्वासनलियों में प्रवेश करती है। श्वास रन्ध्र छोटे वेश्म (atrium) में खुलते हैं।
श्वास रन्त्रों (spiracles) पर रोम जैसे शूक (bristles) होते हैं जो वायु को छानकर धूल आदि के कणों को वेश्म (atrium) में प्रवेश करने से रोकते हैं। प्रत्येक रन्ध्र पर इसे खोलने और बंद करने एवं जल की हानि को रोकने के लिए कपाट (valve) मी होता है। कीटों के प्रत्येक उदर खंड में अनेक पेशियाँ होती हैं।
इन पेशियों के बार-बार संकुचन और अनुशिधिलन से कीटों का उदर नियमित समयान्तरों पर फूलता व पिचकता रहता है। उदर भाग के फूलने पर बाहर की वायु श्वास रन्द्रों से होकर शवास नलियों में प्रवेश कर जाती है। इस प्रक्रिया को अन्तीश्वसन या नि:स्वसन (inspiration) कहते हैं। इसके विपरीत, शरीर के पिचकने पर वायु बाहर निकलती है। इस प्रक्रिया को निश्वसन या उच्छूवास (expiration) कहते हैं।
गैसीय विनिमय (Gaseous exchange)-श्वास नलिकाओं की भित्ति से होकर ऑक्सीजन विसरण द्वारा ऊतकों में पहुँचती है। कीटों (insects) की विश्राम अवस्था में श्वास नलिकाओं में अन्दर आई ऑक्सीजन धीरे-षीरे ऊतक द्रव्य में घुलकर शरीर के ऊतकों में पहुँचती है और कीट की सक्रिय अवस्था में ऊतक द्रव्य निकलकर ऊतक कोशिकाओं में चला जाता है तथा ऑक्सीजन ऊतकों में सीधी पहुँच जाती है। ऊतकों के अन्दर ऑक्सीकरण क्रिया में मुक्त हुई CO2 श्वासनलिका में आ जाती है और फिर श्वास नलियों के श्वासरन्द्रों (spiracles) तथा अध्यावरण (integument) द्वारा विसरित होकर बाहर निकलती रहती है।
(4) फेफ्छे (Lungs) – उभयचरों, सरीसुप, पथी तथा स्तनधारियों (mammals) में श्वसन फेफड़ों (lungs) द्वारा होता है। इस अध्याय में फेफड़ों द्वारा श्वसन क्रिया का विस्तु वर्णन किया गया है।
प्रश्न 3.
मनुष्य के श्वसन तंत्र का वर्णन कीजिए।
उत्तर;
मनुष्य का श्वसन-तंत्र (Respiratory System of Man)
मनुष्य के मुख्य श्वसनांग फेफड़े (Lungs) हैं और शेष सहायक अंग हैं। इस प्रकार मनुष्य के श्वसनांगों में नासिका, नासामार्ग, म्रसनी, स्वरयन्त, श्वासनाल या वायुनाल, श्वासनली तथा फेफड़े सम्मिलित हैं।
(1) नासा तथा नासामार्ग (Nose \& Nasal Passages) – मनुष्य का श्वसन तंत्र नासिका से प्रारम्भ होता है। यह दो बाह्य नासारन्ध्रों (nostril) द्वारा नीचे मुख की ओर खुलती है। ये दोनों नासारन्त्र दाहिने तथा बायें दो पथक् नासा वेश्मों (nasal fossa) में खुलते हैं। नासा वेश्म श्लेष्म द्वारा नम तथा रोमयुक्त (hairy) होते हैं जिससे धूल के कण, जीवाणु तथा अन्य पदार्थ फेफड़ों (lungs) में जाने से रुक जाते हैं।
नासा वेश्मों में वायु शुद्ध, नम तथा शरीर के ताप के अनुकूल हो जाती है। नासावेश्म (nasal fossa) दायें तथा बायें नासामार्गों में खुलते हैं। ये नासा पह्ट (nasal septum) द्वारा एक-दूसरे से पृथक् रहते हैं। दोनों ओर के नासा मार्ग अन्न:नासारन्रों (internal nares) द्वारा कण्ठ द्वार के समीप नासा वसनी (nasopharynx) में खुलते हैं।
प्रत्येक नासामार्ग तीन भागों में विभेदित होता है –
(1) प्रकोष्ठ या प्रश्राण या वेछ्ट्यूल (Vestibule)-यह नासिका का सबसे निचला उभरा हुआ भाग होता है। इसके दोनों ओर दो अण्डाकार बाहा नासा छिद्र होते हैं, यह भाग त्वचीय होता है। इसकी आन्तरिक सतह पर तैल प्रन्थि (sebacious glands) व स्वेद मन्थियाँ (sweat glands) होती हैं। इस पर कड़े व संवेदी रोम (sensory hair) होते हैं।
(2) घ्राण धाग या आल्फैक्ट्री धाग (Olfactory region)-यह नासागुछा का मध्य भांग है। इसकी श्लेष्य उपकला (mucous membrane) में घ्राण कोशिकाएँ होती हैं। अतः यह भाग घ्राण अंग (olfactory organ) कहलाता है।
(3) श्वसन भाग (Respiratory Region) -यह नासिका गुहा का निचला भाग है। नासिका गुहा की पार्श्व दीवार से तीन सर्पिल या टरबाइनल अस्थियाँ (turbinal bones) नासा गुहा में उभरी रहती हैं। ये स्रॉल के समान घुमावदार तथा वलित (folded) होती हैं। इन वलनों पर श्लेष्म उपकला (Mucus membrane) का महीन आवरण होता है, इनकी कोशिकाएँ रोमयुक्त (ciliated) होती हैं और म्यूकस का स्राव करती हैं। जो नासिका गुरा को नम बनाए रखता है।
इन अस्थियों के वलनों (folds) के बीच सँकरे व घुमावदार पथ बन जाते हैं। इन्हें शंखिकाएँ या मिएटाई (conchae or meati) कहाते हैं। इनके तीन समूहों को ऊपर से नीचे की ओर क्रमशः ऊर्ष्ववर्ती (superior), मध्यवर्ती (middle) तथा अधोवर्ती (inferior) शंखिकाएँ कहते हैं।
नासिका के कार्य-यद्यपि हम नासिका तथा मुख दोनों से ही साँस ले सकते हैं, किन्तु नासिका द्वारा साँस लेने से निम्नलिखित लाभ हैं-
- टरबाइनल अस्थियों द्वारा नासामागों को घुमावदार बनाने से इनका भीतरी क्षेत्रफल काफी अधिक बढ़ जाता है। इन लम्बे नासामागों से होकर गुजरते समय बाहरी गर्म वायु का ताप शरीर ताप के बराबर हो जाता है ।
- नासामार्ग फिल्टर की भाँति कार्य करते हैं क्योंकि ये धूल के कणों एवं सूक्ष्म जीवों को अन्दर आने वाली वायु में से अलग करते हैं जो म्यूकस अर्थात् श्लेष्म से उलझकर नासामार्गों में ही रह जाते हैं।
- म्यूकोसा नासाकक्षों को नम रखती है जिससे फेफड़ों में पहुँचने वाली वायु नम हो जाती है।
- श्नीडेरियन कला (Schreiderian membrane) घ्राण संवेदी होती है।
2. प्यसनी (Pharynx) – मुखगुहा पीछे की ओर एक कीपाकार गुहा में खुलती है जिसे म्रसनी (Pharynx) कहते हैं। यह लगभग 12.5 सेमी लम्बी नली है जो तीन भागों में बँटी होती है-
(1) नासोफैरिंक्स (Nasopharynx) – यह तालू (Palate) के ऊपर का चौड़ा और कोमल भाग है। इसमें एक जोड़ी अंतः नासाछिद्र तथा एक जोड़ी यूस्टेकियन नलिका के छिद्र खुलते हैं। अंतः नासाछिद्र का श्वसन से तथा यूस्टेकियन छिद्र का कर्ण गुहा से सम्बन्ध होता है।
(2) ओरोफरिक्स (Oropharynx)-यह कोमल तालू के नीचे स्थित होता है। यह भोजन के संवहन में सहायता करता है।
(3) कंठ व्रसनी या लेरिंगोफैरिंक्स (Laryngopharynx) – यह कोमल तालू के नीचे तथा कंठ या लैरिंक्स के पीछे स्थित होता है।
इस भाग में दो छिद्र खुलते हैं –
- भोजन नलिका द्वार अर्थात् ग्रसिका (gullet) जो म्रास नली में खुलता है।
- श्वास नली का द्वार या घाँटी द्वार (glottis), जो श्वसन नली में खुलता है। घाँटी द्वार पर घाँटी ढक्कन या एपिग्लॉटिस नाम का एक पतला-सा पर्दा लटका रहता है।
कार्य (Functions)-भोजन तथा वायु क्रमशः मसनी में से होकर भोजन नली और श्वास नली में पहुँचते हैं। श्वास लेते समय घांटी ढक्कन घाँटी द्वार से हट जाता है परन्तु भोजन निगलते समय कोमल तालू ऊपर उठ जाता है तथा घांटी ढक्कन घटी द्वार को ढक लेता है जिससे भोजन कंठ में नहीं जा पाता है। जब कभी भोजन के कण श्वासनली में चले जाते हैं तो तीव्र खांसी होती है।
(3) वायुनाल (Wind pipe)-वायुनाल म्रीवा से होकर वक्ष गुहा (thoracic cavity) में प्रवेश करती है। वायु नाल मास नली के अधर वल पर स्थित होती है। वायु नाल दो भागों में विभेदित होती है। ऊपरी वेश्मवत् कंठ या स्वरयंत्न (larynx) – यह घांटी द्वार के ठीक पीछे स्थित होता है। निचला लम्बा भाग श्वास नाल या श्वास नली (trachea) कहलाता है। स्वरयंत्र (Larynx) में वाक्रज्जु उपस्थित होते हैं। जब वायु स्वर यंत्र से बाहर निकलती है तब वाक्रज्जुओं में कम्पन होता है जिससे ध्वनि उत्पन्न होती है।
(4) श्वास नली (Trachea) -श्वास नली कंठ से जुड़ी पतली भित्ती की अर्द्ध पारदर्शक लम्बी नली होती है जो वक्ष गुहा में पहुँचकर दाहिनी तथा बायीं शाखाओं में विभाजित हो जाती है। इन शाखाओं को ए्वसनियाँ (Bronchi) कहते हैं। ये अपनी-अपनी ओर के फेफड़े में प्रवेश कर जाती हैं, श्वास नली तथा श्वसनियों की भित्ति में अनेक C के आकार के अपूर्ण व लचीले उपास्थीय छल्ले (Cartilagenous rings) होते हैं, जो इनकी भित्ति को चिपकने से रोकते हैं और सदैव खुला रखते हैं ताकि इनमें वायु स्वतन्त्रतापूर्वक आवागमन कर सके। प्रत्येक श्वसनी छोटी-छोटी नलिकाओं में निरन्तर विभाजित होती हुई थैलीवत् सूक्ष्म रचना में समाप्त हो जाती है जिन्हें कूपिका या वायुकोष्ठ (alveoli) कहते हैं।
लैरिंक्स या कंठ तथा ध्वनि उत्पादक यंत्र (Larynx and Sound Production System)
इसे स्वर यन्न कण्ठ (Larynx) भी कहते हैं। यह ट्रेकिया अथवा श्वसन नाल के अम्र भाग पर स्थित होता है। मनुष्य का स्वरयन्त 9 उपास्थियों से बना होता है। ये उपास्थियाँ परस्पर स्नायुओं/लिगामेन्ट्स द्वारा संलग्न रहती है। उपास्थियाँ इकहरी व जोड़ीदार होती हैं।
इकहरी = एकल (unpaired) उपास्वियाँ-इनकी संख्या तीन होती हैं-
(i) बायरोंड्ड उपास्थि (Thyroid cartilage)- सबसे बड़ी काँचाभ उपास्थि (hyaline cartilage) है। लैरिंक्स या स्वरयन्त्र का अधर-पार्ण भाग बनाती हैं। पुरुष की थायरॉइड उपास्थि सामने से फूली हुई होती है तथा त्रिकोणाकार आकृति समान दिखाई देती है। इस उभरे हुए भाग को टेंटुआ या एडम्स एक (Adam’s apple) कहते हैं। स्रियों में इसका आकार छोटा होता है। अप्रभाग में थायरॉइड उपास्थि थाइरोहाइऔइड स्नायु (Thyrohyoid ligament) छारा जीभ के आधार भाग पर स्थित आइऔइड अस्थि (hyoid bone) से संलग्न रहती है।
(ii) एविम्लोडिस (Epiglottis)-पतली पर्ण समान ढक्कन रूपी होती है और लचीली उपास्थि की बनी होती है। यह थायरॉइड उपास्थि के अप्र सिरे व हाइऔइड अस्थि से स्नायुओं द्वारा संलग्न रहती है। यह उपास्थि ढक्कन समान ग्लॉटिस/घांटी द्वार को भोजन को निगलते समय ढकने में सहायक होती है। इस कारण से घांटीढापन कहते हैं।
(iii) किकिकोड्ड उपास्थि (Cricoid Carlilage)-सैरिंक्स का आधार भाग बनाती है। थाइॉॉडड के नीचे मुद्राकार उपास्थि जो पूर्ण छल्ले या वलय के रूप में होती है। यह काचाभ उपास्थि (hyline cartilage) होती है। इस उपास्थि का पृष्ठ/पीठ की ओर वाला भाग अधिक चौड़ा तथा अधर भाग या सामने वाला भाग संकरा होतां है। युग्मित उपास्थियाँ (Paired cartilages)
1. ऐरिटिनोइड उपास्थि (Arytenoid cartilage)-काँचाभ उपास्थियाँ (hyaline cartilages) होती हैं। दोनों उपास्थियाँ आकार में छोटी व पिरामिड समान होती हैं। ये दोनों लैरिंक्स के पृष्ठ तल पर क्रिकॉइड उपास्थि के चौड़े भाग के ऊपर लगी होती हैं। इन दोनों के पार्श्व किनारे थायरॉइड उपास्थि के पृष्ठ पार्श्व किनारों से सम्पर्क में रहते हैं।
2. कोर्नीक्युलेट उपास्थि (Carniculate cartilage)-ये दोनों उपास्थियाँ घुण्डी समान होती हैं। ऐरिटिनॉइड उपास्थियों के अप्र सिरों पर लगी होती हैं।
3. क्यूनीफोर्म उपास्थि (Cuneiform Cartilage)-ये दोनों उपास्थियाँ लम्बी व संकरी होती हैं। ये कोर्नीक्युलेट उपास्थियों के ऊपर स्थित होती हैं।
वाक् रु् या स्वर स्तु या वोकलकोईस (Vocal cords)-संख्या दो जोड़ी होते हैं। ये कण्ठकोष/लैरिंजिअ चैम्बर की गुहा में थायरॉइड्ड व ऐरिटिनॉइड्स उपास्थियों के बीच अनुप्रस्थ रूप में फैले होते हैं। एक जोड़ी मिथ्या/कूट स्वर रज्जु व एक जोड़ी सत्य स्वर रज्जु होती हैं।
(1) कृट/मिध्या स्वर रत्डु (False Vocal Cords)-एक जोड़ी कुछ मोटे व कम लचीले स्वर रज्जु लैरिन्जियल कोष/चैम्बर के ऊपरी भाग में थायरॉइड व एरिटिनॉइड्ड उपास्थियों के बीच फैले होते हैं। ये स्वर-खज्जु ध्वनि उत्पादन में भाग नहीं लेते हैं। ये सत्य या यथार्थ स्वर-रज्जुओं को नम बनाए रखने व सहारा देने में सहायक होते हैं।
(2) सख्य/यधार्ध स्वर स्सा (True Vocal Cords)-ये एक जोड़ी अपेक्षाकृत पतले, अधिक लचीले एवं सफेद से होते हैं तथा लैरेन्जियल कोष के निचले भाग में, क्ट स्वर रज्जुओं में नीचे स्थित होते हैं। ये दोनों थाइॉॉड्ड व ऐरेटाइड्ड उपास्थियों के बीच फैले रहते हैं। इन दोनों सत्य रजुओं के बीच में अवकाश
को रीमा ग्लोटीडस कहते हैं। फेफड़ों से बाहर निकलने वाली वायु जष सत्य स्वर रज्जुओं के बीच स्थित अवकाश से होकर गुजरती है तब इन रज्जुओं में कम्पन्न होता है जिससे ध्वनि उत्पादन होता है। घनि उतपादन (Sound Production)-जब लैरिंक्स की आंतरिक पेशियों के संकुचन से ऐरिटिनाइड उपास्थियों की स्थिति परिवर्तित हो जाती है तो दोनों सत्य स्वर रज्जु भी पास आ जाते हैं।
इन रज्जुओं के बीच उपस्थित बड़ा अवकाश संकरा व दरार रूपी हो जाता हैं जब निश्वास के दौरान वायु फेफड़ों से मुक्त होकर संकरे दरार रूपी अवकाश से गुजरती है तब सत्य स्वर रज्जुओं में कम्पन होता है एवं ध्वनि उत्पन्न होती है। स्वर रज्जुओं की लम्बाई में होने वाला परिवर्तन जिसके कारण इनमें शिथिलता या तनाव आता है, ध्वनि के स्वर स्तर या पिच को निर्षारित करता है।
मनुष्य के लैरिंक्स द्वारा ध्वनि उत्पादन में मसनी, मुखगुहा, नासामार्ग रचनाएँ प्रतिध्वनि उत्पन्न करते हैं। लड़कों में लैरिक्स का विकास लड़कियों की अपेक्षा अधिक होता है, फलस्वरूप यौवनारम्प अवस्था में लड़कों की आवाज भारी तथा लड़कियों की आवाज पतली होती है।
(5) फेकड़े (Lungs)-मनुष्य में दो बड़े शंक्वाकार फेफड़े प्रमुख श्वसनांग होते हैं जो क्यय के पार्श्व में स्थित होते हैं, फेफड़े़ गुलाबी रंग के, कोमल और संजी होते हैं तथा अपनी-अपनी ओर की प्लूरल गुहाओं में घिरे रहते हैं। ये डायाफ्राम के ऊपर स्थित रहते हैं। दोनों फेफड़ों का निचला चोड़ा अवतल भाग डायाफ्राम के उभरे हुए भाग पर चिपका रहता है।
प्रत्येक फेफड़ा चारों ओर से एक पतली और दोहरी झिल्ली के आवरण परल कला (pleural membrane) से घिरा रहता है। प्लूरल कला की दोनों झिल्लियों के बीच फ्लूरल द्रव (plural fluid) भरा रहता है। जो फेफड़ों को रगड़ से बचाता व इनको सुरक्षा प्रदान करता है। दाहिना फेफड़ा तीन पिण्डों (lobules) में तथा बायाँ फेरड़ा दो पिण्डों में बंटा रहता है।
फेफड़ों में महीन नलिकाओं का जाल फैला रहता है जिसे ए्वसनीय वक्ष (respiratory tree) कहते हैं। श्वसनी की छोटी शाखाओं को ए्वसनिका (bronchial) कहते हैं। यह श्वसनिका क्रमशः छोटी-छोटी अनेक कृषिका नलिकाओं में विभाजित हो जाती है। ये फिर वायुकोष्ठ में खुलती हैं। प्रत्येक कोष्ठ दो या अधिक वायुकोष्ठकों या कुपिकाओं (alveoli) में बंटा रहता है। कूपिकाओं में रुधिर केशिकाओं का जाल फैला रहता है। गैसों का विनिमय कूपिकाओं की वायु तथा रुधिर कोशिकाओं के मध्य होता है।
प्रश्न 4.
मनुष्य के ध्वनि उत्पादक अंगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लैरिंक्स या कंठ तथा ध्वनि उत्पादक यंत्र (Larynx and Sound Production System)
इसे स्वर यन्न कण्ठ (Larynx) भी कहते हैं। यह ट्रेकिया अथवा श्वसन नाल के अम्र भाग पर स्थित होता है। मनुष्य का स्वरयन्त 9 उपास्थियों से बना होता है। ये उपास्थियाँ परस्पर स्नायुओं/लिगामेन्ट्स द्वारा संलग्न रहती है। उपास्थियाँ इकहरी व जोड़ीदार होती हैं।
इकहरी = एकल (unpaired) उपास्वियाँ-इनकी संख्या तीन होती हैं –
(i) बायरोंड्ड उपास्थि (Thyroid cartilage)- सबसे बड़ी काँचाभ उपास्थि (hyaline cartilage) है। लैरिंक्स या स्वरयन्त्र का अधर-पार्ण भाग बनाती हैं। पुरुष की थायरॉइड उपास्थि सामने से फूली हुई होती है तथा त्रिकोणाकार आकृति समान दिखाई देती है। इस उभरे हुए भाग को टेंटुआ या एडम्स एक (Adam’s apple) कहते हैं। स्रियों में इसका आकार छोटा होता है। अप्रभाग में थायरॉइड उपास्थि थाइरोहाइऔइड स्नायु (Thyrohyoid ligament) छारा जीभ के आधार भाग पर स्थित आइऔइड अस्थि (hyoid bone) से संलग्न रहती है।
(ii) एविम्लोडिस (Epiglottis)-पतली पर्ण समान ढक्कन रूपी होती है और लचीली उपास्थि की बनी होती है। यह थायरॉइड उपास्थि के अप्र सिरे व हाइऔइड अस्थि से स्नायुओं द्वारा संलग्न रहती है। यह उपास्थि ढक्कन समान ग्लॉटिस/घांटी द्वार को भोजन को निगलते समय ढकने में सहायक होती है। इस कारण से घांटीढापन कहते हैं।
(iii) किकिकोड्ड उपास्थि (Cricoid Carlilage)-सैरिंक्स का आधार भाग बनाती है। थाइॉॉडड के नीचे मुद्राकार उपास्थि जो पूर्ण छल्ले या वलय के रूप में होती है। यह काचाभ उपास्थि (hyline cartilage) होती है। इस उपास्थि का पृष्ठ/पीठ की ओर वाला भाग अधिक चौड़ा तथा अधर भाग या सामने वाला भाग संकरा होतां है।
युग्मित उपास्थियाँ (Paired cartilages) –
1. ऐरिटिनोइड उपास्थि (Arytenoid cartilage)-काँचाभ उपास्थियाँ (hyaline cartilages) होती हैं। दोनों उपास्थियाँ आकार में छोटी व पिरामिड समान होती हैं। ये दोनों लैरिंक्स के पृष्ठ तल पर क्रिकॉइड उपास्थि के चौड़े भाग के ऊपर लगी होती हैं। इन दोनों के पार्श्व किनारे थायरॉइड उपास्थि के पृष्ठ पार्श्व किनारों से सम्पर्क में रहते हैं।
2. कोर्नीक्युलेट उपास्थि (Carniculate cartilage)-ये दोनों उपास्थियाँ घुण्डी समान होती हैं। ऐरिटिनॉइड उपास्थियों के अप्र सिरों पर लगी होती हैं।
3. क्यूनीफोर्म उपास्थि (Cuneiform Cartilage)-ये दोनों उपास्थियाँ लम्बी व संकरी होती हैं। ये कोर्नीक्युलेट उपास्थियों के ऊपर स्थित होती हैं। वाक् रु् या स्वर स्तु या वोकलकोईस (Vocal cords)-संख्या दो जोड़ी होते हैं। ये कण्ठकोष/लैरिंजिअ चैम्बर की गुहा में थायरॉइड्ड व ऐरिटिनॉइड्स उपास्थियों के बीच अनुप्रस्थ रूप में फैले होते हैं। एक जोड़ी मिथ्या/कूट स्वर रज्जु व एक जोड़ी सत्य स्वर रज्जु होती हैं।
(1) कृट/मिध्या स्वर रत्डु (False Vocal Cords)-एक जोड़ी कुछ मोटे व कम लचीले स्वर रज्जु लैरिन्जियल कोष/चैम्बर के ऊपरी भाग में थायरॉइड व एरिटिनॉइड्ड उपास्थियों के बीच फैले होते हैं। ये स्वर-खज्जु ध्वनि उत्पादन में भाग नहीं लेते हैं। ये सत्य या यथार्थ स्वर-रज्जुओं को नम बनाए रखने व सहारा देने में सहायक होते हैं।
(2) सख्य/यधार्ध स्वर स्सा (True Vocal Cords)-ये एक जोड़ी अपेक्षाकृत पतले, अधिक लचीले एवं सफेद से होते हैं तथा लैरेन्जियल कोष के निचले भाग में, क्ट स्वर रज्जुओं में नीचे स्थित होते हैं। ये दोनों थाइॉॉड्ड व ऐरेटाइड्ड उपास्थियों के बीच फैले रहते हैं।
इन दोनों सत्य रजुओं के बीच में अवकाश –
को रीमा ग्लोटीडस कहते हैं। फेफड़ों से बाहर निकलने वाली वायु जष सत्य स्वर रज्जुओं के बीच स्थित अवकाश से होकर गुजरती है तब इन रज्जुओं में कम्पन्न होता है जिससे ध्वनि उत्पादन होता है। घनि उतपादन (Sound Production)-जब लैरिंक्स की आंतरिक पेशियों के संकुचन से ऐरिटिनाइड उपास्थियों की स्थिति परिवर्तित हो जाती है तो दोनों सत्य स्वर रज्जु भी पास आ जाते हैं।
इन रज्जुओं के बीच उपस्थित बड़ा अवकाश संकरा व दरार रूपी हो जाता हैं जब निश्वास के दौरान वायु फेफड़ों से मुक्त होकर संकरे दरार रूपी अवकाश से गुजरती है तब सत्य स्वर रज्जुओं में कम्पन होता है एवं ध्वनि उत्पन्न होती है। स्वर रज्जुओं की लम्बाई में होने वाला परिवर्तन जिसके कारण इनमें शिथिलता या तनाव आता है, ध्वनि के स्वर स्तर या पिच को निर्षारित करता है। मनुष्य के लैरिंक्स द्वारा ध्वनि उत्पादन में मसनी, मुखगुहा, नासामार्ग रचनाएँ प्रतिध्वनि उत्पन्न करते हैं। लड़कों में लैरिक्स का विकास लड़कियों की अपेक्षा अधिक होता है, फलस्वरूप यौवनारम्प अवस्था में लड़कों की आवाज भारी तथा लड़कियों की आवाज पतली होती है।
(3) फेकड़े (Lungs)-मनुष्य में दो बड़े शंक्वाकार फेफड़े प्रमुख श्वसनांग होते हैं जो क्यय के पार्श्व में स्थित होते हैं, फेफड़े़ गुलाबी रंग के, कोमल और संजी होते हैं तथा अपनी-अपनी ओर की प्लूरल गुहाओं में घिरे रहते हैं। ये डायाफ्राम के ऊपर स्थित रहते हैं। दोनों फेफड़ों का निचला चोड़ा अवतल भाग डायाफ्राम के उभरे हुए भाग पर चिपका रहता है। प्रत्येक फेफड़ा चारों ओर से एक पतली और दोहरी झिल्ली के आवरण परल कला (pleural membrane) से घिरा रहता है।
प्लूरल कला की दोनों झिल्लियों के बीच फ्लूरल द्रव (plural fluid) भरा रहता है। जो फेफड़ों को रगड़ से बचाता व इनको सुरक्षा प्रदान करता है। दाहिना फेफड़ा तीन पिण्डों (lobules) में तथा बायाँ फेरड़ा दो पिण्डों में बंटा रहता है। फेफड़ों में महीन नलिकाओं का जाल फैला रहता है जिसे ए्वसनीय वक्ष (respiratory tree) कहते हैं।
श्वसनी की छोटी शाखाओं को ए्वसनिका (bronchial) कहते हैं। यह श्वसनिका क्रमशः छोटी-छोटी अनेक कृषिका नलिकाओं में विभाजित हो जाती है। ये फिर वायुकोष्ठ में खुलती हैं। प्रत्येक कोष्ठ दो या अधिक वायुकोष्ठकों या कुपिकाओं (alveoli) में बंटा रहता है। कूपिकाओं में रुधिर केशिकाओं का जाल फैला रहता है। गैसों का विनिमय कूपिकाओं की वायु तथा रुधिर कोशिकाओं के मध्य होता है।
प्रश्न 5.
फेफड़े की आन्तरिक संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर;
फेफड़े की आन्तरिक संरचना (Internal Structure of Lung)
मनुष्य में एक जोड़ी फेफड़े होते हैं। प्रत्येक फेफड़ा प्लूरल कला के आन्तरिक स्तर द्वारा ढका होता है। श्वास नली वक्ष भाग में पहुँचकर दो शाखाओं में बँट जाती है, प्रत्येक शाखा श्वसनिका या बोंकस (bronchus) कहलाती है। प्रत्येक ब्रोंकस अपने ओर के पिंडों की संख्या के अनुसार पिण्डकीय श्वसनियों (lobular bronchi) में विभाजित हो जाता है। ये दोनों ओर की पिम्डकीय श्वसनियाँ पुनः विभाजित छोकर तृतीयक श्वसनियाँ (bronchi) बनाती हैं। प्रत्येक खण्डीय श्वसनिका पुनः शाखित होकर अन्तः फुफ्फुसीय श्वसनियाँ (intrapulmonary bronchi) बनाती हैं।
ट्रेकिया बोंकाई, पिण्डकीय श्वसनियों, खण्डीय श्वसनियों व अन्तरा फुफ्फुसीय श्वसनियों में उपास्थि के बने ‘ C ‘ आकार के छल्ले पाए जाते हैं। जिससे ये पिचकती नहीं हैं। इनसे आगे की नलिकाओं में ये छल्ले अनुपस्थित होते हैं। प्रत्येक अन्तः फुफ्फुसीय श्वसनियाँ अनेक छल्ले रहित श्वसनिकाओं अथवा बोन्कियोल्स (bronchioles) में बँटती हैं।
ये ब्रोन्कियोल्स अन्तस्थ श्वसनिकाओं (terminal bronchioles) में बँटती है तथा प्रत्येक अन्तस्थ श्वसनिका अनेक श्वसन श्वसनिकाओं अथवा श्वसनीय बोन्कियोल्स में विभाजित हो जाती है। प्रत्येक श्वसनीय ब्रोन्कियोल्स 2.11 कूपिका नलिका अथवा एल्वियोलर नलिकाओं (alveolar ducts) में बँटा हाता है तथा प्रत्येक एल्वियोलर नलिका भी अनेक सूक्ष्म नलिकाओं में बँटी होती है जिन्हें आलिन्द या एट्रियम (atrium) कहते हैं। प्रत्येक एट्रियम वायुकोष या एल्वियोलर सैक (alveolar sac) में खुलता है।
एल्वियोलर सैक को इस्पष्डीबुलम भी कह्ने हैं तथा प्रत्येक वायुकोष में दो या अधिक कूपिकाएँ (alveoli) पायी जाती हैं। ये कूपिकाएँ ही फेफड़ीं की सबसे छोटी संरचनात्मक व क्रियात्मक इकाई (Structural and functional units) होती है । ये शल्की उपकला स्तर की बनी होती है तथा इनके चारों ओर रक्त केशिकाओं का सघन जाल होता है। कपिकाओं में फफ््फसीय धमनी ‘अशुद्ध’ (विऑक्सीजनित) रक्त लाती है व फुफ्फुसीय शिरा ‘शुद्ध’ (ऑक्सीजनित) रक्त को बाहर ले जाती है।
बाह्य नासाछ्छिद्र से अन्तस्थ श्वसनिकाओं तक का भाग चालन भाग कहलाता है। यह वायुमण्डल से वायु को कूपिकाओं तक भेजने का कार्य करता है। इसके लिए यह वायु को बाह्म कणों से मुक्त करता है, श्लेष्मा द्वारा आद्र बनाता है तथा बाह्य वायु के ताप को शरीर के तापक्रम के बराबर कर देता है।
जबकि कूपिकाएँ व उनकी नलिकाएँ श्वसन तन्न्र का श्वसन या विनिमय भाग बनाता है जो रक्त बाहा वायुमण्डल के बीच गैसों का विनिमय करता है और अश्वसनीय सतह (वास्तविक विसरण स्थल) को बनाता है। ब्रोंकस से कूपिका तक अनेक संरचनाएँ व उनकी शाखाएँ वृक्ष की भाँति संरचना बनाती हैं। अतः इसे श्वसन वृष्ष (bronchial Tree) कहते हैं।
मनुष्य के दोनों फेफड़ों में लगभग 60 करोड़ कूपिकाएँ पायी जाती हैं जिनका क्षेत्रफल लगभग 100 वर्ग मीटर होता है। श्वसन, श्वसनिकाएँ, वायु कूपिकाएँ, वायु कूपिका वाहिनी, एट्रियम मिलकर श्वसन इकाई बनाते हैं। कूपिका की अन्तः व बाद्य सतह पर श्लेष्मा का पतला स्तर पाया जाता है। कूपिका की उपकला भी बहुत पतली होती है। कूपिका की सतह श्वसनीय सतह कहलाती है। इसका व्यास लगभग 0.2 मिमी होता है।
प्रश्न 6.
श्वासोच्छ्वास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
फुफ्फसीय संवातन (Pulmonary Ventilation)-वायुमण्डल से फेफड़ों के अन्दर वायु खींचना फुफ्फुसीय संवातन (Ventilation) या साँस लेना (breathing) कहलाता है। इसमें O2 का फेफड़ों में प्रवेश तथा CO2 का फेफड़ों से निष्कासन होता है। यह एक भौतिक क्रिया है, इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-अन्तः श्वास तथा निश्वास। फेफड़ों में पेशियाँ अनुपस्थित होती हैं।
अतः इनमें स्वतः प्रसारित होने या संकुचन की क्षमता नहीं होती है। फेफड़ों में संकुचन या शिथिलन वक्ष गुहा (thoracic cavity) के आयतन के घटने व बढ़ने के फलस्वरूप होता है। इस क्रिया में वक्षीय बॉक्स या केज सहायता करता है। यह शरीर के वक्ष भाग में उपस्थित होता है। इसका पृष्ठ भाग कशेरुक दण्ड का व अधर भाग उरोस्थि (sternum) का बना होता है।
दोनों पार्श्व सतहें पसलियों की बनी होती हैं। इसका अप्र भाग मीवा व पश्चभाग डायक्राम (diaphragm) का बना होता है। डायफ्राम एक मोटा व अत्यधिक पेशीय पर्दा है जो वक्ष गुढ्र को उदर गुहाँ से अलग करता है। इसमें अरीय पेशियाँ पायी जाती हैं जिनके संकुचन से यह चपटा व शिथिलन से गुम्बद के आकार का हो जाता है। यह श्वसन के साथ-साथ मल-मु्र त्यागने एवं प्रसव में भी सह़ायक होता है।
मनुष्य में 12 जोड़ी पसलियाँ पायी जाती हैं। दो क्रमागत पसलियों के बीच एक जोड़ी अन्तरापर्शुक (intercostal muscles) के समूह पाए जाते हैं। जिन्हें बाद्य इन्टर कॉस्टल पेशी (External intercostal muscle = EICM) तथा अन्तः इन्टर कॉस्टल पेशी (internal intercostal muscle : IICM) कहते हैं।
इन्हीं के संकुचन एवं शिथिलन से पसलियाँ गति करती हैं। संवातन में 75 प्रतिशत भूमिका ड्डायाफ्राम व अरीय पेशियों की तथा 25 प्रतिशत भूमिका पसलियों की इन्टरकॉस्टल पेशियों की होती है। वक्षीय पिंजड़ा (thoracic cage or box) एक वायु अवरुद्ध (air tight) कोष्ठ है। इसके आयतन में कमी या वृद्धि से ही वक्ष गुहा एवं फेकड़ों के आयतन में कमी या वृद्धि होती है।
यदि डायफ्राम या श्वसन बॉक्स को पंक्चर कर दिया जाए तो वक्ष गुहा फेफड़ों पर दाब नहीं बना पाती है और साँस लेना अवरुद्ध हो जाएगा और कुछ समय में व्यक्ति की मृत्यु हो जाएगी। श्वास खींचना या अन्तः श्वसन (Inspiration) – ऑक्सीजन युक्त वायु (oxygenated air) का फेफड़ों में प्रवेश करना अन्तः श्वसन कहलाता है। यह तभी सम्भव होता है जब फेफड्रों की वाय का दाब वायमण्डलीय दाब से कम हो। इसमें निम्नलिखित क्रियाएँ होती हैं-
- सर्वप्रथम डायफ्राम की अरीय पेशियाँ (radial Muscle) संकुचित होती हैं जिससे डायाफ्राम चपटा हो जाता है।
- अब बादा इण्टर-कॉस्टल पेशी (बाद्य अंतरापर्शुक पेशियों) में संकुचन होता है चिससे पसलियाँ बाहर की ओर व स्टरनम ऊपर की ओर उठ जाता है।
- इन दोनों क्रियाओं के फलस्वसूप वक्ष गुहा का आयतन बढ़ता है तथा फेफड़े फूल जाते हैं। फेफड़ों पर दाब कम हो जासा है तथा
फेफड़ों के अन्दर का वायु दाब भी इस समय बाह्य वायुमण्डलीय दाब से 1-3 mm hg कम हो जाता है, जिससे वायु बाहर से फेफड़ों में प्रवेश कर जाती है। इसका मार्ग निम्न प्रकार होता है-
बाह्म नासा छिद्र → नासा मार्ग → अन्तः नासा छिद्र → मसनी → घाँटी द्वार → श्वासनली → श्वसनियाँ श्वसनिकाएँ → वायु कूपिका वाहिनी → वायु कूपिका कोश → वायु कूपिकाएँ।
- फेफड़ों में वायु का प्रवेश करना ही अन्तः श्वसन कहलाता है।
- अन्तःशवन एक सक्रिय क्रिया (active process) है, जिसमें ऊर्जा का व्यय होता है।
श्वास बाहर निकालना या नि:श्वसन (Expiration) – फेफड़ों से CO2 युक्त वायु का शरीर से बाहर निकालना निश्वसन कहलाता है। यह तभी सम्भव है जब फुफ्फुसीय दाब वायुमण्डलीय दाब से अधिक होता है।
(i) बाह्य इन्टर कॉस्टल पेशियों का शिथिलन होता है। जिससे पसलियाँ व स्टरनम पुनः अपनी पूर्व स्थिति में आ जाते हैं।
(ii) अब डायाक्राम की अरीय पेशियों में शिथिलन होता है और ये गुम्बद के आकार का हो जाता है।
(iii) इन दोनों क्रियाओं के फलम्बरूप वक्ष गुहा का आयतन कम हो जाता है और फेफढ़ों पर दाब बढ़ु जाता है। जिससे फेफड़ों से वायु बाहु निकल जाती है, इस समय फेफड़ों का वायु दाब बाहरी वायुमण्डलीय दाब से लगभग 1-3 mm Hg अधिक होता है।
(iv) इस प्रकार वायु का फेफड़़ों से बाहर निकलना ही निःशवसन कहलाता है।
(v) यह एक निक्किय (passive process) है, सामान्य शांत निश्वास या उच्छवसन में किसी पेशी का संकुचन नहीं छोता है। अन्तः श्वास के बाद पेशियों का शिथिलन होता है, जिससे पसलियाँ, स्र्रम एवं डायाफ्राम अपनी सामान्य अवस्था में आ जाते हैं। व्यायाम के समय यह क्रिया सक्रिय (active) हो जाती है। मनुष्य की सामान्य श्वासोच्छवास दर (Breathing rate) 12 से 16 प्रति मिनट होती है, लेकिन क्यायाम एवं घबराहट के समय श्वसन दर बढ़ जाती है।
इस समय डायाफ्राम की पेशियों एवं बाह्य इंटर कॉस्टल पेशियों के संकुचन की दर 4.5 गुना बढ़ जाती है, जिससे वक्ष गुहा के आयतन में भी सामान्य स्थिति में 15-20 प्रतिशत अधिक वृद्धि होती है। इससे श्वसन क्षमता बढ़ जाती है और कोशिकाओं, उत्तकों व पेशियों को पर्याप्त औक्सीजन मिल पाती है। दो प्रकार के
श्वासोच्छवास (Two Types of Breathing) –
(i) उदरीय श्वासोच्छवास (Abdominal breathing)-यछ्ष शांत श्वासोच्छवास है, जो मुख्यतः डायाफ्राम की गतियों द्वारा संचालित छोता है। निश्वास के दौरान डायाफ्राम के चपटा होने से उदर गुछ्षा में स्थित अंगों पर दबाव पड़ता है। इस कारण उदरीय अंग उदर की दीवार पर दाब डालते हैं जिससे उदर फूलता है। निश्वास में उदर पुनः सामान्य हो जाता है। इसमें वक्ष का फूलना व पिचकना अत्यधिक कम होता है।
(ii) चेस्ट श्वासोच्छवास (Forced breathing)-इस गहरी श्वासोच्छवास भी कहते हैं। इसमें वक्षीय गति उदरीय गति से अधिक होती है इसीलिए इसे वक्षीय श्वासोच्छवास कहते हैं। अन्त: अन्तरापर्शुक पेशियों का संकुचन अधिक होता है फलस्वस्लप पसलियाँ एवं स्रर्नम अन्दर की ओर खींचकर वक्षीय बॉक्स का आयतन अत्यधिक कम कर देते हैं। इसमें उदरीय पेशियों का संकुचन भी होता है जिससे उदर अंगों पर दाब पड़ता है और ये उदर अंग डायाफ्राम को वक्ष गुहां की ओर अधिक दबाते हैं।
इन सभी क्रियाओं के फलस्वरूप फेफड़े सामान्य से अधिक दाते हैं तथा सामान्य से अधिक वायु फेफड़ों से निकल जाती है। अन्तःश्वास के दौरान ही बाह्य अन्तरापर्शुक पेशियों का संकुचन भी पूर्ण एवं प्रभावी होता है साथ ही डायाक्राम का संकुचन भी सामान्य से अधिक होता है। इस कारण वक्ष गुहा का आयतन सामान्य से अधिक 15-20 प्रतिशत से अधिक हो जाता है। इस गहरी अन्तः श्वास के दोरान फेफड़ों में सामाम्य से अधिक वाय भरती है। इस प्रकार का श्वासोच्छवास व्यायाम, घबराहटट तथा थकान के दौरान होता है।
अन्त शसन तथा निएकतन में अत्तार –
अन्तः श्वसन या निश्वसन (Inspiration) | निःश्वसन (Expiration) |
वायुमण्डलीय वायु फेफड़ों में प्रवेश करती है। | फेफड़ों में भरी वायु फेफड़ों से बाहर निकलती है। |
निश्वसन के समय फेफड़ों में वायुदाब कम होता है। | निःश्वसन में फेफड़ों में वायुदाब अधिक होता है। |
डायाफ्राम की अरीय पेशियाँ सिकुड़ती हैं जिससे डायाफ्राम चपटा हो जाता है। | डायाफ्राम की अरीय पेशियाँ शिथिल हो जाती हैं जिससे डायाफ्राम गुम्बद के समान हो जाता है। |
बाह्य इंटर कॉस्टल पेशियों और आन्तर इंटरकॉस्टल पेशियों के कार्टिलेजिनस भाग सिकुड़ते हैं जिससे वक्ष कंडी बाहर खिंच जाती हैं। | अन्तः इंटर कॉस्टल पेशियों के सिकुड़ने और बाह्य इंटरकास्टल पेशियों के शिथिलन से वक्ष कंडी अन्दर खिंच जाती है। |
प्लूरल गुहाओं का आयतन बढ़ जाता है। | प्लूरल गुहाओं का आयतन कम हो जाता है। |
प्रश्न 7.
मनुष्य में गैसीय विनिमय का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
फेफड़ों में गैसों का विनिमय (Exchange of Gases in Lungs)-मनुष्य के फेफड़ों में लगभग 30 करोड़ वायु कोष्ठ या कूपिकाएँ (alveoli) होती हैं। कूपिकाओं की दीवारें बहुत पतली और शल्की एपिथीलियम की बनी होती हैं। ये दीवारें ऑक्सीजन O2 तथा CO2 दोनों के लिए पारगम्य होती हैं। इनमें रुधिर कोशिकाओं का घना जाल बिछा रहता है। श्वास नाल (trachea), श्वसनी (bronchus), श्वसनिका (bronchiole) तथा कूपिका नलिकाओं (alveolar duct) आदि में रुधिर कोशिकाओं का जाल फैला हुआ नहीं होता है।
अतः कूपिकाओं को छोड़कर अन्य श्वसन भागों में गैसीय विनिमय नहीं होता है। सामान्यतः प्रहण की गई 500 ml प्रवाही वायु में से लगभग 350 ml. वायु कूपिकाओं में पहुँचती है, शेष श्वास मार्ग में ही रह जाती हैं। वायु कोष्ठों या कूपिकाओं की दीवार तथा रुधिर कोशिकाओं की दीवार मिलकर श्वसन कला (respiratory membrane) बनाती हैं। इसमें ऑक्सीजन O2 तथा कार्बन डाई क्साइड CO2 का विनिमय आसानी से हो जाता है। गैसीय विनिमय सामान्य विसरण क्रिया द्वारा होता है। इसमें गैसें उच्च आंशिक दाब से कम आंशिक दाब की ओर विसरित होती हैं।
वायु कोष्ठों में O2 का आंशिक दाब PO 100-104 mmHg और CO2 का आंशिक दाब PCO2 40 mmHg होता है। फेफड़ों की रुधिर केशिकाओं में आए अशुद्ध रुधर में O2 का आंशिक दाब 40 mm Hg और CO2 का आंशिक दाब 45-46 mm Hg होता है। वायु प्रकोष्ठ का कूपिकाओं में आई हुई वायु में ऑक्सीजन की मात्रा अधिक होती है।
यह ऑक्सीजन कूपिकाओं की भीतरी नम दीवारों में उपस्थित श्लेष्म में घुलकर विसरण द्वारा पल्मोनरी केशिकाओं में पहुँच जाती है। इसके बदले में रुधिर केशिकाओं में उपस्थित CO2 कूपिकाओं की वायु में विसरित हो जाती है। इस प्रकार कूपिकाओं से रधधर केशिकाओं में रधिर ऑक्सीजन युक्त होता है। फेफड़ों से निष्कासित वायु में O2 लगभग 15.7% और CO2 लगभग 3.6 % होती है।
प्रश्न 8.
मनुष्य के रुधिर द्वारा O2 तथा CO2 का परिवहन किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
कोशिकीय श्वसन (Cellular Respiration) अथवा रुधिर एवं ऊतकों के बीच ऑक्सीजन का विसरण ऑक्सीजन युक्त रुधिर पल्मोनरी शिरा द्वारा सर्वप्रथम हृदय में, तत्पश्चात् रुधिर परिसंचरण द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँचता है। उन स्थानों पर जहाँ O2 की सान्द्रता कम तथा CO2 की सान्द्रता अधिक होती है, ऑक्सीहीमोग्लोबिन पुनः हीमोग्लोबिन और ऑक्सीजन में टूट जाता है-
Hb (O2)4 → Hb + 4O2
मुक्त हुई ऑक्सीजन रुधिर केशिकाओं की दीवारों से विसरित होकर ऊतक द्रव या लसीका में पहुँचती है और वहाँ से विसरित होकर अंगों की ऊतक कोशिकाओं में प्रवेश करती है। कोशिकाओं के अन्दर ऑक्सीजन की सहायता से भोज्य पदार्थों (ग्लूकोज) का ऑक्सीकरण होता है। परिणामस्वरूप क्रिया के अन्त में CO2 जल एवं ऊर्जा मुक्त होती है। यह CO2 पुनः फेफड़ों में पहुँचायी जाती है।C6H12O6 + 6O2 6CO2 + 6H2O + 673 कि. कैलोरी (ऊर्जा)
17.5.5 CO2 का रुधिर द्वारा परिवहन (Transport of CO2 by Blood):
ऊतकों में संचित खाद्य पदार्थों के ऑक्सीकरण से उत्पन्न CO2 विसरण द्वारा रुधिर केशिकाओं में चली जाती है। रुधिर केशिकाओं द्वारा इसका परिवहन श्वसनांगों तक निम्नलिखित प्रकार से होता है –
(1) कार्बोनिक अम्ल के रूप में (In the form of carbonic acid) CO2 जल में अधिक घुलनशील होती है। इसका 5-10% भाग प्लाज्मा के जल के साथ मिलकर कार्बोनिक अम्ल (H, CO) बनाता है। CO2 + HCO2O → H2CO3
समस्त CO2 का लगभग 10% भाग रुधिर में H2CO2 के रूप में रहता है और शेष भाग शीघ्र ही हाइड्रोजन तथा बाइकार्बोनेट के आयनों में टूट जाता है –
H2CO3 → HCO–3 + H+
(2) बाइकार्बोनेट के रूप में (In the form of Bicarbonate) – लगभग 70-75% CO2 बाइकार्बोनेट के रूप में रुधिर प्लाज्मा के सोडियम आयन (Nat) तथा लाल कणिकाओं के पोटैशियम आयन (K+) से मिलकर सोडियम तथा पोटैशियम के बाइकार्बोनेट बनाते हैं-
HCO3 + Na+ → NaHCO3 (सोडियम बाइकार्बोनेट)
HCO3 + K+ → KHCO3 (पोटैशियम बाइकार्बोनेट)
(3) कार्बोक्सी हीमोग्लोबिन के रूप में (In the form of Carboxyhaemoglobin ) – लगभग 10% CO2 लाल रुधिर कणिकाओं के हीमोग्लोबिन से मिलकर अस्थायी यौगिक कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन बनाता है –
Hb + 4CO2 → Hb (CO2)4
(4) कार्बन एमीनो यौगिक के रूप में (In the form of carbon amino compound) – लगभग 10% CO2 रुधिर प्लाज्मा की प्रोटीन से संयोग करके कार्बन एमीनो यौगिक बनाती है – प्लाज्मा प्रोटीन + CO2 कार्बन एमीनो यौगिक (अस्थायी)
कार्बोनिक अम्ल सोडियम व पोटैशियम के बाइकार्बोनेट, कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन तथा कार्बन एमीनो यौगिक आदि पदार्थों से युक्त रुधिर अशुद्ध होता है। यह अशुद्ध रुधिर केशिकाओं से शिराओं द्वारा हृदय में और फिर हृदय में फुफ्फुस धमनी द्वारा श्वसनांगों (फेफड़ों) में शुद्ध होने के लिए जाता है और रुधिर में से CO2 श्वसनांगों से मुक्त होकर बाहर निकल जाती है।
(5) अस्थायी पदार्थों से CO2 का मुक्त होना (Release of CO2 from unstable substances ) – फेफड़ों के समीप रुधिर केशिकाओं में ऑक्सीहीमोग्लोबिन की मात्रा अधिक होती है। यह अधिक अम्लीय होता है। ऑक्सीहीमोग्लोबिन के अम्लीय स्वभाव से सभी अस्थायी यौगिक टूट जाते हैं। और CO2 मुक्त करते हैं-
2NaHCO3 → Na2CO3 + H2O + CO2
2KHCO3 → K2CO3 + H2O + CO2
H2CO3 → H3O + CO3
Hb (CO2) 4 → Hb + 4CO2
इस प्रकार मुक्त हुई CO2 रुधिर केशिकाओं तथा फेफड़ों की पतली भित्तियों से विसरित होकर फेफड़ों में पहुँचती है जहाँ से CO2 को निःश्वसन की क्रिया द्वारा वातावरण में छोड़ दिया जाता है। क्लोराइड शिफ्ट (Chloride Shift ) प्लाज्मा एवं RBC के बीच CT तथा HCO3 आयतन के पारस्परिक आदान-प्रदान को क्लोराइड शिफ्ट या हेम्बर्गर परिघटना ( Hamburger’s Phenomenon) कहते हैं।
(i) प्लाज्मा प्रोटीन्स के साथ मिलकर अस्थाई कार्बएमीन यौगिक के रूप में लगभग 10 प्रतिशत CO2 कार्य ऐमीनों यौगिक बनाती है। आक्सीकरण द्वारा एमीनो अम्ल दो समूह अमीनो मुप (-NH2) तथा कार्बोक्सिलिक ग्रुप ( – COOH) में टूट जाते हैं। ऐमीनो ग्रुप CO2 के साथ मिलकर कार्य ऐमीनो यौगिक बनाता है।
CO2 + NH2 → NHCOOH
CO2 की कुछ मात्रा रुधिर के प्रोटीन्स के साथ रासायनिक यौगिक बनाती है, जैसे CO2 हीमोग्लोबिन के साथ कार्बोक्सिल हीमोग्लोबिन बनाती है –
Hb NH2 + CO2– → Hb NHCOOH
(ii) लाल रुधिर कणिकाओं में बाइकार्बोनिट्स के रूप में लगभग 80-85 प्रतिशत CO2 सोडियम व पोटेशियम के साथ मिलकर बाइकार्बोनेट बनाती Na2CO3 + H2O + CO2 → NaHCO3 हेल्डेन प्रभाव (Haldane Effect)- कूपिकीय रुधिर में O2 एवं Hb के जुड़ने से अधिकाधिक CO2 का रुधिर से निष्कासन होता है। इस प्रभाव को हेल्डेन प्रभाव (Haldane effect) कहते हैं। हेल्डेन प्रभाव का मुख्य कारण H. Hb एवं O2 के संयोजन से बने ऑक्सीहीमोग्लोबिन HbO, तथा H+ आयन्स हैं। जैसे ही RBC में ये H+ आयन्स मुक्त होते हैं RBC से क्लोराइड आयन्स (CIT) प्लाज्मा में तथा प्लाज्मा से HCO2 आयन्स RBC में आ जाते हैं। H+ तथा HCO2 आयम्स परस्पर मिलकर कार्बनिक अम्ल (H2 CO2) का निर्माण करते हैं जो बाद में जल व CO2 में वियोजित हो जाता है।
प्रश्न 9.
मानव में श्वसन सम्बन्धी व्याधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
श्वसन सक्बन्धी रोग (Respiratory Disorders):
श्वसन सम्बन्धी प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं-
(1) दमा (Asthma) – यह एक एलर्जी रोग है। यह मुख्यतः परागकण, धूल पदार्थ, धुआँ, धुम्रपान आदि के कारण ठोता है। इस रोंग में साँस लेने में कठिनाई होने लगती है। इस रोग का प्रमुख लक्षण है-निरन्तर खाँसी आना। दमा के रोगियों को दरंरे पड़ने की भी शिकायत रहती है। अधिक संकुचन के कारण श्वसनियों का संकरा हो जाना, इसमें अधिक इलेष्मा बनना तथा कभी-कभी सूजन आ जाना। वह सब श्वास लेने में कठिनाई उत्पन्न करते हैं। इसके रोगियों के लिए अवि आवश्यक है, एलर्जी उस्न करने वाले कारकों से दूर रहना। इसके साथ-साथ एण्टीबायोटिक औषधि भी ली जाती है।
(2) श्वसनी शोथ या बोकाईहित (Bronchitis) – इस रोग में श्वसनी की आन्तरिक सतह पर सूञन आ जती है। इससे रोगी को लगातार खाँसी होती रहती है। इससे श्वास लेने में कठिनाई छोती है और खाँसी के साथ छल्का-पीला कफ आवा है। इस रोग का प्रमुख कारण सिगरेट आदि का धुग्रपान है। धुमपान के कारण श्लेष्मा अधिक बनता है और श्वसनी में सूजन आ जाती है। इससे सीलिया भी नष्ट हो जाती हैं। इस रोग से बच्चने का उपाय है-धूग्रपान से दूर रहना।
(3) वात स्यीति या एक्काइसिया (Emphysea) – पढ रोग लगात्तार धूम्रपान के कारण होता है। धूस्तपान से फेकड़ों में उक्तेजना उत्पन्न होने लगती है जिसके कारण कूपिकाएँ नष्ट होने लगती हैं और वायु स्थान फैलकर बड़े हो जाते हैं। इससे श्वसन सतह का क्षेत्रफल घटकर कम हो जाता है। केकड़े की प्रत्यास्थता भी कम हो जाती है और उच्छृषसन बहुत कठिन हो जाता है। इस रोग के कारण श्वसनिकाएँ सँकरी हो जाती हैं और अत्यधिक कफ के कारण श्वास लेने में कठिनाई होने लगती है। धूम्रपान से बचकर ही इस रोग से बचा जा सकता है।
(4) सिलिकोसिस एवं एन्सेसेसिस (Silicosis and Asbestosis) – इस रोग का प्रमुख कारण वायु प्रद्षण है। वे श्रमिक जो खानों या कारखानों में काम करते हैं, उनमें यह रोग होने की सम्भावना अधिक छोती है। श्वास के साथ इन पदार्थों के कणों का केकड़ों में जाना इस रोग का प्रमुख कारण है। ये कण फेफड़ों के उपरी भाग में फाइबोसिस तथा सूञन पैदा करते हैं। ये असाध्य रोग हैं।
(5) न्यूमोनिया (Pneumonia)-यह फेफड़ों का संक्रमण है जो स्ट्प्टोकोकस न्यूमोनी नामक जीवाणु के कारण होता है। संक्रमण से कूपिकाएँ मृत केशिकाओं एवं तरल से भर जाती हैं। इनमें सूचन आ जाती है जिससे श्वास लेने में कठिनाई होने लगती है।
(6) डिस्पनोइया (Dyspnoea) इसमें व्यक्ति बैचेनी का अनुभव करता है और श्वसन गत्ति बढ़ जाती है। यह प्राय: अत्यधिक व्यायाम, अकस्मात तेज दौड़ने या उर जाने की स्थिति में होता है।