Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Important Questions Chapter 13 जीव और समष्टियाँ Important Questions and Answers.
Haryana Board 12th Class Biology Important Questions Chapter 13 जीव और समष्टियाँ
वस्तुनिष्ठ प्रश्न-
1. ठंडी जलवायु वाले स्तनधारियों के कान व पाद प्रायः छोटे होते हैं ताकि उष्मा की हानि कम से कम होती है, यह किसका नियम है?
(अ) ऐलन का नियम
(ब) बेलन का नियम
(स) हेलन का नियम
(द) डेलन का नियम
उत्तर:
(अ) ऐलन का नियम
2. तुंगता बीमारी का लक्षण है-
(अ) मिचली आना
(ब) थकान आना
(स) हृदय स्पंदन में वृद्धि
(द) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(द) उपरोक्त सभी
3. समष्टि का दूसरा विशिष्ट गुण है-
(अ) लिंग अनुपात
(ब) जन्म दर
(स) मृत्यु दर
(द) यूरीथर्मल
उत्तर:
(अ) लिंग अनुपात
4. ध्रुवीय समुद्रों में सील जैसे जलीय स्तनधारियों में उनकी त्वचा के नीचे वसा (तिमिवसा/बलबर) की मोटी परत होती है। इसका क्या कार्य है?
(अ) उष्माशोषी
(ब) उष्मारोध (इंसुलेटर)
(स) अस्टिवेशन
(द) डॉरमेसी
उत्तर:
(ब) उष्मारोध (इंसुलेटर)
5. नागफनी (ओपंशिया) का कौनसा भाग प्रकाश संश्लेषण का प्रकार्य करता है?
(अ) चपटा तना
(ब) पत्ती
(स) पुष्प
(द) कांटों द्वारा
उत्तर:
(अ) चपटा तना
6. डायापॉज (Diapause) की परिघटना सम्बन्धित है-
(अ) निम्न ताप के प्रति अनुकूलन
(ब) उच्च ताप के प्रति अनुकूलन
(स) विषम ताप के प्रति अनुकूलन
(द) रंग प्रतिरूप
उत्तर:
(अ) निम्न ताप के प्रति अनुकूलन
7. ‘स्पर्धी” अपवर्जन नियम (Competitive exclusion principle) को देने वाले थे-
(अ) प्रो. रामदेव मिश्र
(स) ऐलन
(ब) गॉसे
(द) स्वामीनाथन
उत्तर:
(ब) गॉसे
8. चारघातांकी वृद्धि के अन्तर्गत जब ग्राफ बनाया जाता है तो यह किस प्रकार का बनता है?
(अ) S-आकार का
(ब) J-आकार का
(स) L-आकार का
(द) M-आकार का
उत्तर:
(ब) J-आकार का
9. शीतनिष्क्रियता (hibernation) ग्रीष्मनिष्क्रियता (aestivation) व उपरति (diapause) किससे सम्बन्धित है?
(अ) प्रवास करने से
(ब) समष्टि से
(स) अनुकूलन से
(द) नियमन से
उत्तर:
(स) अनुकूलन से
10. पृथ्वी की सतह के स्वरूप और व्यवहार से सम्बन्धित कारक कहलाता है-
(अ) मृदीय
(ब) स्थलाकृतिक
(स) जलवायवीय
(द) जैविक
उत्तर:
(ब) स्थलाकृतिक
11. निम्न तापक्रम पर पौधे मर जाते हैं क्योंकि-
(अ) धानीयुक्त जीवद्रव्य (Vacuolated Protoplasm) से जल निकल जाता है और पौधे सूख जाते हैं
(ब) बर्फ के यांत्रिक दबाव (Mechanical Pressure) के कारण कोशिकाएँ फट जाती हैं
(स) कोशिकीय प्रोटीनों का अवक्षेपण हो जाता है
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी
12. पादप वृद्धि के लिए सबसे उपयुक्त है-
(अ) बलुई मृदा
(ब) दोमट मृदा
(स) मृण्मय मृदा
(द) बजरी
उत्तर:
(ब) दोमट मृदा
13. निम्नलिखित में से कौनसा कारक प्रथमतः किसी स्थान की वनस्पति को निर्धारित करता है?
(अ) जलवायवीय
(ब) स्थलाकृतिक
(स) जैविक
(द) मृदीय
उत्तर:
(अ) जलवायवीय
14. समष्टि घनत्व बढ़ता है-
(अ) तीव्र मृत्युदर से
(ब) स्वदेश त्याग से
(स) देशान्तरवास
(द) उपरोक्त किसी से नहीं
उत्तर:
(स) देशान्तरवास
15. जलीय तल में सबसे नीचे का स्तर है-
(अ) एपिलिम्निओन (Epilimnion)
(ब) थर्मोक्लीन (Thermocline)
(स) हाइपोलिम्निओन (Hypolimnion)
(द) मीजोलिम्निओन (Mesolimnion)
उत्तर:
(स) हाइपोलिम्निओन (Hypolimnion)
16. प्राणी जो तापक्रम की वृहद परास को सहन कर सकते हैं, कहते हैं-
(अ) यूरीथर्मल (Eurythermal)
(ब) स्टीनोथर्मल (Stenothermal)
(स) पेरीथर्मल (Perithermal)
(द) उपरोक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(अ) यूरीथर्मल (Eurythermal)
17. निम्न में से एक्टोथर्मिक प्राणी होते हैं-
(अ) शीतरूधिरधारी प्राणी (Poikilothermic animals)
(ब) गर्मरुधिर प्राणी (Homeothermic animals)
(स) विषमजातीय प्राणी (Heterothermic animals)
(द) (ब) व (स) दोनों
उत्तर:
(अ) शीतरूधिरधारी प्राणी (Poikilothermic animals)
18. भू-आकृतिक या स्थलाकृतिक (topographic) कारक है-
(अ) ऊँचाई, वर्षा व वायु की आर्द्रता
(ब) ढलानों की प्रवणता, वर्षा व ऊँचाई
(स) वर्षा, प्रकाश व वायुमण्डल का तापक्रम
(द) ढलानों की प्रवणता, ऊँचाई व घाटियाँ
उत्तर:
(द) ढलानों की प्रवणता, ऊँचाई व घाटियाँ
19. जैविक कारक के अन्तर्गत विभिन्न जातियों के मध्य वह सहयोग जिसमें एक को लाभ परन्तु हानि दोनों में से किसी को नहीं होगी-
(अ) प्राक्-सहयोग
(ब) सहोपकारिता
(स) सहभोजिता
(द) परजीविता
उत्तर:
(ब) सहोपकारिता
20. परजीविता और परभक्षण में होता है-
(अ) दोनों जातियों को लाभ
(ब) दोनों जातियों को हानि
(स) एक जाति को लाभ व दूसरी जाति को हानि
(द) उपरोक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(स) एक जाति को लाभ व दूसरी जाति को हानि
21. जैविक कारक में जब दोनों सहयोगी जातियाँ लाभान्वित होती हैं तो इस प्रकार के सम्बन्ध को कहते हैं-
(अ) प्राक्-सहयोग
(ब) सहोपकारिता
(स) सहयोजिता
(द) परजीविता
उत्तर:
(ब) सहोपकारिता
22. मृदा में उपस्थित अपक्षयित होते कार्बनिक पदार्थों को कहते हैं-
(अ) ह्यूमस
(ब) ह्यूमिक-सम्मिश्र
(स) डफ
(द) करकट
उत्तर:
(अ) ह्यूमस
23. अजैविक कारकों के प्रति अनुक्रियाओं के अन्तर्गत नियमन (regulate) करने वाले प्राणी हैं-
(अ) सभी पक्षी
(ब) स्तनधारी
(स) कुछ निम्न कशेरुकी (Vertebrates) व कुछ अकशेरूकी जातियाँ
(द) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(द) उपरोक्त सभी
24. राजस्थान के केवलादेव राप्र्रीय उद्यान में प्रवासी पक्षी कहाँ से आते हैं?
(अ) आस्ट्रेलिया
(ब) नाइजीरिया
(स) साइबेरिया
(द) इथोपिया
उत्तर:
(स) साइबेरिया
25. मरूद्भिदी प्रवृत्तियाँ तथा सजीवप्रजकता किन पादपों में पाई जाती है?
(अ) मरूद्भिदों में
(ब) अम्लोद्भिदों में
(स) लवणमृदोद्भिदों में
(द) दरारोद्धिभों में
उत्तर:
(स) लवणमृदोद्भिदों में
26. एक जीव वैज्ञानिक ने खलिहान में चूहों की समष्टि का अध्ययन किया। उसने पाया कि औसत जन्म दर 250 है, औसत मृत्यु दर 240 है, अप्रवासन दर 20 है और उत्प्रवासन दर 30 है। समएि की शुद्ध वृद्धि कितनी है ?
(अ) 10
(ब) 15
(स) 05
(द) शून्य
उत्तर:
(द) शून्य
27. यदि ‘+’ चिह्न को लाभदायी परस्पर क्रिया के लिए,’-‘ चिन्द को हानिकारक के लिए और ‘O’ चिह्न को उदासीन परस्पर क्रिया के लिए दिया जाता है, तो ‘+’ ‘-‘ द्वारा प्रदर्शित समष्टि परस्पर क्रिया किसे संदर्भित करती है?
(अ) सहयोजिता
(ब) परजीविता
(स) सहपरोपकारिता
(द) अंतरजातीय परजीविता
उत्तर:
(ब) परजीविता
28. ऑफ्रिस (Ophrys) नामक भूमध्य सागरीय मेडिटेरिनियन आर्मिड की एक जाति परागण कराने के लिए किसका सहारा लेती है-
(अ) लैंगिक कपट
(ब) अलैंगिक कपट
(स) कायिक कपट
(द) असूत्री कपट
उत्तर:
(अ) लैंगिक कपट
29. किसके पुष्प के साथ मक्षिका कूट मैथुन (Pseudo Copulates) करती है?
(अ) ऑंक्रिस आर्मिड
(ब) सरसों
(स) एल्थेरोजिया
(द) अंजीर
उत्तर:
(अ) ऑंक्रिस आर्मिड
30. आमडा (Calotropis) में पाये जाने वाला विषैला पदार्थ होता है-
(अ) ग्लाइकोसाइड
(ब) निकोटीन
(स) कैफीन
(द) क्वीनीन
उत्तर:
(अ) ग्लाइकोसाइड
31. नीचे दिये जा रहे चित्र में जीवधारियों की अजैविक कारकों के प्रति अनुक्रिया का एक आरेखीय निरूपण दिया गया है। इसमें रेखायें (i), (ii) तथा (iii) क्रमशः किनके प्रतिदर्श हैं-
(i) | (ii) | (iii) |
(अ) नियामक | आंशिक नियामक | संरूपक |
(ब) आंशिक नियामक | नियामक | संरूपक |
(स) नियामक | संरूपक | आंशिक नियामक |
(द) संरूपक | नियामक | आंशिक नियामक |
उत्तर:
(स) नियामक | संरूपक | आंशिक नियामक |
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
सहोपकारिता व सहभोजिता में अंतर बताइये।
उत्तर:
सहोपकारिता में संपर्क में रहने वाले जीवों को आपस में लाभ होता है जबकि सहभोजिता में केवल एक जीव को ही लाभ तथा दूसरे को न लाभ न हानि होती है।
प्रश्न 2.
ऐलन का नियम क्या बताता है?
उत्तर:
ठंडी जलवायु वाले स्तनधारियों के कान व पाद प्रायः छोटे होते हैं ताकि ऊष्मा की हानि कम से कम होती है।
प्रश्न 3.
छोटे आकार के गुंजन पक्षियों के लिये ध्रुवीय प्रदेश एक उपयुक्त आवास क्यों नहीं है?
उत्तर:
गुंजन पक्षी ध्रुवीय प्रदेश की सर्दी को सहन नहीं कर पाने के कारण यह आवास इनके उपयुक्त नहीं होता है।
प्रश्न 4.
प्रकृति में परभक्षण द्वारा निभायी जाने वाली कोई दो महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ बताइये।
उत्तर:
परभक्षण द्वारा भक्षों की संख्या को नियंत्रित करना तथा खाद्य श्रृंखला का क्रियान्वयन करना है।
प्रश्न 5.
किसी जीव के पारिस्थितिक निकेत का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जैवीय पर्यावरण में प्राणी का स्थान तथा पारितंत्र में इसकी भूमिका को पारिस्थितिकी निकेत कहते हैं।
प्रश्न 6.
कीट पीड़कों (pest/ insect) के प्रबंध के लिये जैव- नियंत्रण विधि के पीछे क्या पारिस्थितिक सिद्धांत है ?
उत्तर:
कीट पीड़कों को उनके शिकारियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।
प्रश्न 7.
शरीर की ऊष्मा हानि को कम करने के अनुकूलन का उदाहरण दें।
उत्तर:
ध्रुवीय समुद्रों में सील जैसे जलीय स्तनधारियों में उनकी त्वचा के नीचे बसा की मोटी परत होती है जो ऊष्मारोधी (insulator) का कार्य करती है व शरीर की ऊष्मा हानि को कम करती है।
प्रश्न 8.
प्राणियों में प्रवास क्रिया का उदाहरण दीजिये, यह क्यों होता है?
उत्तर:
प्रत्येक शीत ऋतु में साइबेरिया व अन्य अधिक ठण्डे उत्तरी क्षेत्रों से आने वाले प्रवासी पक्षियों का तांता राजस्थान स्थित केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान, भरतपुर में लगा रहता है। अनुकूलता आते ही ये पक्षी वापस लौट जाते हैं। प्रतिकूलता से बचने के लिये ये पक्षी वहाँ से यहाँ आते हैं। इसे प्रवास करना कहते हैं।
b
प्रश्न 9.
पृथुलवणी व तनुलवणी क्या होते हैं?
उत्तर:
जो जीव लवणता की व्यापक परास के प्रति सहनशील होते हैं, उन्हें पृथुलवणी (Eurohaline) तथा कम परास में रहने वालों को तनुलवणी ( Stenohaline) कहते हैं।
प्रश्न 10.
अनुकूलनों का विकास किस प्रकार हुआ ?
उत्तर:
एक लम्बे समय में प्राकृतिक वरण द्वारा अपने आवास में उत्तरजीविता (survival) व जनन को इष्टतम बनाने के लिये जीव ने अनुकूलनों का विकास किया है।
प्रश्न 11.
तुंगता बीमारी का समाधान हमारा शरीर किस प्रकार करता है?
उत्तर:
यह बीमारी उच्च तुंगता वाले स्थानों पर होती है। हमारा शरीर कम O2 उपलब्ध होने की क्षतिपूर्ति लाल रुधिर कोशिका का उत्पादन बढ़ाकर, हीमोग्लोबिन की बंधनकारी क्षमता पटाकर और श्वसन दर बढ़ाकर करता है।
प्रश्न 12.
किन स्थानों के व्यक्तियों में लाल रुधिर कोशिकाओं की संख्या व कुल हीमोग्लोबिन की मात्रा अधिक होती है?
उत्तर:
जो व्यक्ति उच्च तुंगता वाले स्थलों पर रहते हैं उनके अन्दर लाल रुधिर कोशिकाओं की संख्या व कुल हीमोग्लोबिन की मात्रा मैदानी क्षेत्रों वाले व्यक्तियों से अधिक होती है।
प्रश्न 13.
आयु पिरैमिड क्या दर्शाता है?
उत्तर:
पिरैमिड का आकार समष्टि की स्थिति को प्रतिबिंबित करता है क्या यह बढ़ रहा है, स्थिर है या घट रहा है?
प्रश्न 14.
समष्टि साइज का मापन किस विधि से अधिक उपयुक्त है?
उत्तर:
समष्टि साइज के माप के लिये प्रतिशत आवरण अथवा जीव भार (Biomass) अधिक उपयुक्त है।
प्रश्न 15.
आप्रवासन ( immigration) से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
किसी जाति के व्यष्टियों की वह संख्या है जो दी गई समय अवधि के दौरान आवास में कहीं और से आये हैं।
प्रश्न 16.
उत्प्रवासन (emigration) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
समष्टि के व्यष्टियों की वह संख्या है जो दी गई समयावधि के दौरान आवास छोड़कर कहीं और चले गये हैं।
प्रश्न 17.
यदि समय पर समष्टि घनत्व N है तो समय + पर इसका घनत्व क्या होगा?
उत्तर:
Nt+1 = N1 + [(B + 1) (D +E)]
B + 1 = जन्म लेने वालों की संख्या जमा आप्रवासियों की संख्या ।
D + E – मरने वाले की संख्या जमा उत्प्रवासियों की संख्या ।
प्रश्न 18.
डार्विन योग्यता किसे कहते हैं?
उत्तर:
समष्टियाँ जिस आवास में रहती हैं, उसमें अपनी जनन योग्यता को डार्विन योग्यता कहते हैं।
प्रश्न 19.
कुछ जीव अपने जीवन काल में केवल एक बार प्रजनन करते हैं, इसके दो उदाहरण दीजिये।
उत्तर:
प्रशांत महासागरीय सामन मछली (Salmon Fish) तथा बाँस (Bamboo)।
प्रश्न 20.
ऐसे कोई दो उदाहरण दीजिये जो कुछ छोटी साइज की संतति बहुत बड़ी संख्या में उत्पन्न करती है।
उत्तर:
ऑयस्टर (Oysters) और पैलेजीक मछलियाँ ( Pelagic Fishes)।
प्रश्न 21.
कोई दो उदाहरण बताइये जिसमें बड़ी साइज की संतति कम संख्या में उत्पन्न करती है ।
उत्तर:
पक्षी और स्तनधारी ।
प्रश्न 22.
परजीविता व परभक्षण में किसको लाभ व हानि होती है?
उत्तर:
परजीवी व परभक्षी को लाभ होता है तथा परपोषी व शिकार को हानि होती है।
प्रश्न 23.
परभक्षी किस प्रकार महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर:
ये शिकार समष्टि को नियंत्रण में रखते हैं। यदि परभक्षी नहीं होते तो शिकार जातियों का समष्टि घनत्व बहुत ज्यादा हो जाता और परितंत्र में अस्थिरता आ जाती।
प्रश्न 24.
मैंग्रोव (Mangrove) वनस्पति क्या है?
उत्तर:
उष्ण व उपोष्ण कटिबन्धों के समुद्रतटों पर मैंग्रोव वन पाये जाते हैं। इनकी मूलों को न्यूमेटोफोर कहते हैं तथा इनमें सजीव प्रजक बीजांकुरण पाया जाता है। जैसे- राइजोफोरा ।
प्रश्न 25.
मरुस्थलीय पौधों में वाष्पोत्सर्जन को कम करने हेतु पाये जाने वाले कोई चार अनुकूलन लिखिए।
उत्तर:
चार अनुकूलन निम्न हैं-
- पर्ण तथा स्तम्भ की अधिचर्म मोटी क्यूटिकल युक्त होती है।
- रन्ध्र (Stomata) गहरे गर्त में अर्थात् गर्ती रन्ध्र होते हैं, जैसे- कनेर ।
- पत्तियाँ कांटों में रूपान्तरित हो जाती हैं।
- तने व पत्तियों में मोम के समान आवरण पाया जाता है जो वाष्पोत्सर्जन की दर को कम करता है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
किसी कार्यिकीय अनुकूलन को उदाहरण सहित समझाइये |
उत्तर:
कुछ जीवों के अनुकूलन कार्यिकीय होते हैं जिसकी वजह से वे दबावपूर्ण परिस्थितियों के प्रति शीघ्र अनुक्रिया करते हैं। यदि हमें कभी उच्च तुंगता वाले क्षेत्र में जाने का मौका मिले (3,500 मी. से अधिक, मनाली के पास रोहतांग दर्रा, तिब्बत में मानसरोवर) तो वहाँ ‘तुंगता बीमारी’ का अवश्य अनुभव होता है। इस ‘बीमारी’ के लक्षण हैं- मिचली, थकान और हृदय स्पंदन में वृद्धि ।
इसका कारण यह है कि उच्च तुंगता वाले क्षेत्र में वायुमंडलीय दाब कम होता है इसलिए शरीर को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलती। लेकिन धीरे-धीरे पर्यानुकूलित (एक्लेमिटाइज्ड) हो जाते हैं और फिर हमें तुंगता बीमारी का अनुभव नहीं होता। इस समस्या का समाधान हमारा शरीर स्वयं करता है।
हमारा शरीर कम ऑक्सीजन उपलब्ध होने की क्षतिपूर्ति लाल रुधिर कोशिका का उत्पादन बढ़ाकर, हीमोग्लोबिन की बंधनकारी क्षमता घटाकर और श्वसन दर बढ़ाकर करता है। हिमालय के ऊँचे क्षेत्रों में अनेक जनजातियाँ रहती हैं जिसमें मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों की तुलना में सामान्यतया लाल रुधिर कोशिकाओं की संख्या (या कुल हीमोग्लोबिन) ज्यादा होती है।
प्रश्न 2.
जलवायु तथा मौसम में भेद कीजिये ।
उत्तर:
किसी क्षेत्र विशेष की जलवायु से तात्पर्य उस क्षेत्र के जलवायवीय कारकों (प्रकाश, तापमान, वर्षण, पवन, वायुमण्डलीय गैसें, आर्द्रता आदि) की मात्रा के वर्षभर के औसत से होता है। जब इन्हीं कारकों की मात्रा का निर्धारण अल्पावधि के लिये नियत जगह पर किया जाये तो मौसम कहलाता है। इस प्रकार मौसम में साप्ताहिक, दैनिक परिवर्तन होते हैं, जबकि जलवायु का निर्धारण दीर्घकालिक ऋतुओं और वर्षों के आधार पर होता है।
प्रश्न 3.
सजीव प्रजकता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अधिकांश लवणोद्भिद् में सजीवप्रजक बीजांकुरण पाया जाता है। इसमें बीज का अंकुरण फल के भीतर मातृ पौधे पर ही हो जाता है, इसे ही सजीवप्रजकता कहते हैं। मैंग्रोव वनस्पति में इस प्रकार का बीजांकुरण पाया जाता है। इनके बीजों में विश्रामी अवस्था नहीं होती है। जैसे ही फल का भार बढ़ता है तो वह टूटकर नीचे दलदली भूमि पर गिरता है तथा इससे नये पौधे का विकास हो जाता है।
प्रश्न 4.
आतपोद्भिद तथा छायोद्भिद में अन्तर लिखिये ।
उत्तर:
आतपोद्भिद और छायोद्भिद पादपों में अन्तर-
आतपोद्भिद (Heliophytes) | छायोद्भिद (Sciophytes) |
1. जड़ें विकसित, संख्या में अधिक तथा पूर्ण शाखित होती हैं। | जड़ें छोटी, संख्या में कम और अल्प शाखित होती हैं। |
2. तना सुदृढ़ तथा जाइलम पूर्ण विकसित होता है। | तना पतला, दुर्बल तथा जाइलम अल्प विकसित होता है। |
3. पत्तियाँ छोटी, हल्की हरी तथा मोटी होती हैं। | पत्तियाँ बड़ी, गहरी हरी तथा पतली होती हैं। |
4. पर्णरंध्रों (Stomata) की संख्या अधिक होती है। पर्णरंध्र निचली सतह पर ऊपरी सतह की अपेक्षा अधिक होते हैं। | पर्णरंध्रों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है तथा दोनों सतहों पर समान रूप से वितरित होते हैं। |
5. पर्णमध्योतक (Mesophyll tissue) में खंभ ऊतक (Palisade tissue) अधिक विकसित तथा अन्तराकोशिकीय अवकाश काफी छोटे होते हैं। | पर्णमध्योतक में स्पंजी ऊतक (Spongy tissue) अधिक विकसित तथा अन्तराकोशिकीय अवकाश (Inter-cellular space) अपेक्षाकृत अधिक होते हैं। |
6. यांत्रिक ऊतक (Mechanical tissues) पूर्ण विकसित होते हैं। | यांत्रिकी ऊतक अल्प विकसित या अनुपस्थित होते हैं। |
7. पुष्प एवं फल उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। | पुष्प एवं फल उत्पन्न करने की क्षमता अपेक्षाकृत बहुत कम होती है। |
8. खनिज लवणों की मात्रा अधिक होती है। इस कारण कोशिकाओं का परासरण दाब अधिक होता है। | खनिज लवणों की मात्रा कम होती है। कोशिकाओं का परासरण दाब कम होता है। |
प्रश्न 5.
ह्यूमस के प्रकार और निर्माण को समझाइये।
उत्तर:
मृदा के मृत अपघटित कार्बनिक अवशेषों को ह्यूमस कहते हैं। यह मृदा की उर्वरकता के लिये अति आवश्यक है। यह मुख्य रूप से पौधों तथा जन्तुओं के अवशेषों तथा उनके उत्सर्जी पदार्थों के अपघटन से बनता है। केंचुए ह्यूमस निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। मृत कार्बनिक पदार्थों का अपघटन मृदा सूक्ष्म जीवों, जैसे- जीवाणुओं, कवकों आदि द्वारा होता है। ह्यूमस निर्माण प्रक्रिया को ह्यूमीफिकेशन (Humification) कहते हैं तथा ह्यूमस का खनिज लवणों में परिवर्तन खनिजीकरण (Mineralization) कहलाता है।
ह्यूमस दो प्रकार के होते हैं-
- मोर ह्यूमस (Mor Humus) – यह ह्यूमस अपरिपक्व अवस्था में होता है। इसमें खनिज लवण अपेक्षाकृत कम होते हैं। मृदा में केंचुओं का अभाव होता है। इसकी pH 3.8 4.0 होती है। अपघटन धीरे-धीरे होता है।
- मल ह्यूमस (Mull Humus) – यह परिपक्व ह्यूमस होता है। इसमें केंचुओं की बाहुल्यता होती है। मृदा की pH 5.0 होती है। अपघटन तेजी से होता है।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित पर टिप्पणियाँ लिखिये-
(i) वसन्तीकरण
(ii) दीप्तिकालिकता ।
उत्तर:
(i) वसन्तीकरण (Vernalization) – कुछ पौधों में पुष्पीकरण न्यूनताप मिलने पर होता है। बीज पर न्यून तापक्रम प्रयोग द्वारा पुष्पीकरण शीघ्र प्राप्त करने की क्रिया को वसन्तीकरण कहते हैं । इसके लिये ऑक्सीजन की उपस्थिति आवश्यक होती है। वसन्तीकरण में वर्नेलिन (Vernalin) नामक पदार्थ बनता है जो फ्लोरीजन (Florigen ) या जिबरेलिन में परिवर्तित हो जाता है तथा यह पुष्पीकरण को समय से पूर्व प्रारम्भ करने के लिए उत्तरदायी होता है।
(ii) दीप्तिकालिकता (Photoperiodism)- पौधों के पुष्पीकरण तथा फलन क्रियाओं पर दैनिक प्रकाश की अवधि का प्रभाव पड़ता है, इसे दीप्तिकालिकता कहते हैं। दैनिक प्रकाश अवधि के प्रभाव के अनुसार पुष्पी पादपों को तीन वर्गों में बांटा गया है-
- दीर्घ – प्रकाशीय (दीप्तिकाली) पौधे
- अल्प- प्रकाशीय (दीप्तिकाली) पौधे
- प्रकाश या दिवस निरपेक्ष पौधे ।
तापमान दीप्तिकालिकता को सबसे अधिक प्रभावित करता है। इसके अलावा पौधे की आयु और उसका प्रकार (श्यान या ऊर्ध्ववर्ती) भी दीप्तिकालिकता को प्रभावित करते हैं।
प्रश्न 7.
शुष्कतारोधी पादपों में पाये जाने वाले चार आकारिकी व शरीर क्रियात्मक अनुकूलन बताइये ।
उत्तर:
आकारिकी अनुकूलन-
- मूलतंत्र सुविकसित, शाखित, गहरा तथा प्रसारित मूल रोम व मूल गोप पूर्ण विकसित होते हैं।
- तना चपटा व मांसल हो जाता है तथा पर्ण व स्तम्भ दोनों का कार्य करता है, जिसे पर्णाभ स्तम्भ कहते हैं, जैसे-नागफनी, कोकोलाबा ।
- पत्तियाँ बहुकोशिकीय रोमों से ढँकी होती हैं जिससे वाष्पोत्सर्जन कम होता है, जिसे रोम पर्ण पादप (Trichophyllous Plants) कहते हैं, जैसे- केलोट्रापिस ।
- इनमें हाइड्रोकेसी या आर्द्रता स्फुटन का लक्षण पाया जाता है।
शारीरिकीय अनुकूलन-
- पर्ण तथा स्तम्भ की अधिचर्म मोटी क्यूटिकल युक्त होती है।
- रंध्र गहरे गर्त में अर्थात् गर्ती रंध्र होते हैं, जैसे- कनेर ।
- यांत्रिक व संवहन ऊतक सुविकसित होती है।
- अधिचर्म तथा अधश्चर्म में क्यूटीन, लिग्निन, सूबेरिन का निक्षेपण होता है।
प्रश्न 8.
पहाड़ियों के तीव्र ढलानों पर वनस्पति क्यों नहीं पायी जाती है? कारण सहित समझाइये |
उत्तर:
ढलान प्रवणता जितनी अधिक होगी वर्षाजल उतने ही वेग से नीचे की ओर प्रवाहित होगा। यह ढलानों की मृदा के गुणों को बदलता है। तीव्र ढलानों पर भूमि को जल अवशोषित करने का अवसर नहीं मिल पाता है, अतः अधिक ढलान वाले भागों पर कम वनस्पति, कम प्रवणता के ढलानों पर अपेक्षाकृत सघन वनस्पति पायी जाती है। अधिक प्रवणता वाले ढलानों पर वर्षा व वायु द्वारा होने वाला मृदा अपरदन भी अधिक होता है और ऐसे ढलानों पर पादप नहीं पाये जाते हैं।
प्रश्न 9.
पारिस्थितिकी में वनस्पति को ताप आधारित संवर्गों में वगीकृत किया गया है। इन संवर्गों के नाम दीजिये तथा प्रत्येक की ताप स्थिति व वनस्पति प्रकार का वर्णन कीजिये ।
उत्तर:
संवर्गों के नाम-
- उच्चतापी – ये वे पौधे हैं, जिन्हें वृद्धि व विकास के लिए निरन्तर उच्च तापक्रम चाहिए। उदाहरण- मरुस्थल, घास वन आदि ।
- मध्यतापी – पौधे निम्न तापक्रम को कुछ समय सह सकते हैं। उच्च एवं न्यून तापक्रम एकान्तर क्रम में पाया जाता है। उदाहरण- उष्णकटिबन्ध वन ।
- निम्नतापी- इनमें न्यून तापक्रम पर वृद्धि एवं विकास होता है। उदाहरण- शीतोष्ण वन ।
- अतिनिम्नतापी या हैकिस्टोथर्म- ये अधिकांशत: न्यून तापक्रम पर वृद्धि एवं विकास करते हैं, अल्पाइन वनस्पति ।
प्रश्न 10.
पर्यावरण से क्या तात्पर्य है? इनके विभिन्न कारकों के शीर्षक लिखिये ।
उत्तर:
पर्यावरण से तात्पर्य है ‘चारों ओर से घेरे हुये। पर्यावरण अनेक कारकों का मिला-जुला एक जटिल सम्मिश्र है जो जीव को चारों ओर से घेरे हुए है। कोई पदार्थ या परिस्थिति या बाहरी बल जो जीव के जीवन को किसी भी प्रकार से प्रभावित करे, वह पर्यावरण कारक होता है। इन्हें पर्यावरण कारक या पारिस्थितिकी कारक कहते हैं। ये कारक जैविक या अजैविक हो सकते हैं। अजैविक व जैविक कारकों का जटिल सम्मिश्र ही जीव का पर्यावरण बनता है। पर्यावरणी कारकों को निम्न चार वर्गों में वगीकृत किया गया है-
1. जलवायवी या वायुव कारक – इसमें
(अ) प्रकाश,
(ब) तापमान,
(स) वर्षा,
(द) पवन,
(य) वायुमण्डलीय आर्द्रता तथा
(र) वायुमण्डलीय गैसें होती हैं।
2. भू-आकृतिक या स्थलाकृतिक कारक – यह कारक पृथ्वी के भौतिक भूगोल से सम्बन्धित है। इसमें
(अ) ऊँचाई,
(ब) पर्वत श्रृंखलाओं की दिशा व घाटियां तथा
(स) ढलानों की प्रवणता आती है।
3. मृदीय कारक – इसमें मृदा का संगठन व उसके गुण आते हैं।
4. जैविक कारक विभिन्न प्रकार के जीवों की अन्तर्क्रियाएँ।
प्रश्न 11.
जलवायवीय कारकों के अन्तर्गत पवन से होने वाले पादप प्रभाव को समझाइए ।
उत्तर:
बहती वायु को पवन कहते हैं। पवन का पौधों पर प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों प्रकार का प्रभाव होता है। पवन की गति पादपों की आकृति, वाष्पोत्सर्जन, आन्तरिक संरचना, परागण, प्रजनन, फल एवं बीजों के प्रकीर्णन इत्यादि पर प्रभाव डालती है। यही नहीं, पवन का तापमान, वर्षण व वायुदाब पर भी प्रभाव पड़ता है। पवन के कारण पौधों में अनेक कार्यिकी एवं आन्तरिक संरचना में परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं।
समुद्रतट व ऊँचे पर्वतों के पादपों में तेज हवाओं के एक दिशा में गति के कारण स्थायी वक्रता उत्पन्न हो जाती है तथा इन पौधों की शाखाएँ भी एक ही ओर से निकलती हैं। शुष्क वायु के प्रभाव से पौधों में निर्जलीकरण हो जाता है तथा उनकी स्फीति कम हो जाती है। फलस्वरूप पौधे वामन या बौने रह जाते हैं। समुद्रतटों तथा ऊँचे पर्वतों की वनस्पति प्रायः बौनी होती है।
प्रश्न 12.
ऑर्किड में पाये जाने वाले लैंगिक कपट (Sexual Deceit) को समझाइये।
अथवा
मेडिटेरेनियन ऑर्किड पुष्प की एक पंखुड़ी का आकार, रंग तथा चिह्नों का मादा भक्षिका से मिलता-जुलता होने का क्या कारण है ? समझाइए ।
उत्तर:
ऑर्किड पुष्प प्रतिरूपों में आश्चर्यचकित करने वाली विविधता पाई जाती है। इनके पुष्पों में पुष्पीय संरचना परागणकारी कीट भ्रमरों व गुंज मक्षिकाओं (Bees and Bumblebees) को आकर्षित करने के लिये ही विकसित हुए हैं ताकि इसके द्वारा निश्चित रूप से परागण हो सके । यद्यपि यह प्रवृत्ति सभी ऑर्किड पुष्पों में नहीं पायी जाती है। परन्तु ऑफिस (Ophrys) नामक भूमध्य सागरीय मेडिटेरिनियन ऑर्किड मक्षिका (Boc) की एक जाति परागण कराने के लिए लैंगिक कपट (Sexual Doceit) का सहारा लेता है।
इस पुष्प की एक पंखुड़ी (petal) साइज, रंग और चिन्हों में मादा मक्षिका (Bee) से मिलती-जुलती होती है। नर मक्षिका इसे मादा समझकर इसकी ओर आकर्षित होती है तथा पुष्प के साथ कूट मैथुन (Pseudo copulates ) करती है। इस क्रिया के दौरान इस पर पुष्प से पराग झड़कर उस पर गिर जाते हैं।
जब यही मक्षिका अन्य पुष्प से कूट मैथुन करती है तो इसके शरीर पर लगे परागकण उस पुष्प पर गिर जाते हैं जिससे पुष्प को परागित करती है। परन्तु विकास के दौरान यदि किसी भी कारण से मादा मक्षिका का रंग-प्रतिरूप (Colour-pattern) जरा सा भी बदल जाता है तो परागण की सफलता कम रहेगी अतः इस कारण से ऑर्किड पुष्प अपनी पंखुड़ी को मादा मक्षिका के सदृश बनाए रखते हैं ।
प्रश्न 13.
बताइये कि दी गई अवधि के दौरान दिये गये आवास में समष्टि का घनत्व किन मूलभूत प्रक्रमों (Processes) में घटता-बढ़ता है?
उत्तर:
जन्मदर तथा आप्रवासन समष्टि घनत्व को बढ़ाते हैं तो मृत्युदर व उत्प्रवासन इसे घटाते हैं। इन प्रक्रमों को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा रहा है-
- जन्मदर (Natality )-जन्मदर से तात्पर्य समष्टि में जन्मी उस संख्या से है जो दी गई अवधि के दौरान आरंभिक घनत्व में जुड़ती है।
- मृत्युदर (Mortality )-यह दी गई अवधि समष्टि में होने वाली मृत्यु की संख्या है।
- आप्रवासन (Immigration )-उसी जाति के व्यष्टियों की वह संख्या है जो दी गई समय अवधि के दौरान आवास में कहीं और आए हैं।
- उत्प्रवासन (Emigration )-समष्टि के व्यष्टियों की वह संख्या है जो दी गई समयावधि के दौरान आवास छोड़कर कहीं और चले गए हैं।
प्रश्न 14.
समष्टि पारस्परिक क्रियाओं को संक्षेप में बताइये ।
उत्तर:
समष्टि पारस्परिक क्रियाएँ (Population Interactions)
पृथ्वी के किसी भी आवास पर किसी एक ही जाति का वास नहीं होता। विभिन्न प्रकार की जातियाँ एक दूसर पर निर्भर होती हैं। पौधे भले ही अपना भोजन स्वयं बनाते हैं परन्तु वे अकेले जीवित नंहीं रह सकते। जैसे मृदा के कार्बनिक पदार्थ को तोड़ने और अकार्बनिक पोषकों को इसके अवशोषण के लिये लौटने के लिये मृदा के सूक्ष्मजीवों की आवश्यकता पड़ती है।
इसके अतिरिक्त प्राणी एजेन्ट (agent) पादप परागण की व्यवस्था बनाते हैं। अतः कोई भी जीव पृथक् नहीं रहता जब वे साथ रहते हैं तो उनमें पारस्परिक क्रियायें होती हैं। अंतराजातीय (interspecific) पारस्परिक क्रियायें (दो भिन्न जातियों की समष्टियों के बीच) एक जाति या दोनों जातियों के लिये हितकारी, हानिकारक या उदासीन (न हानिकारक न लाभदायक) हो सकती हैं।
लाभदायक पारस्परिक क्रियाओं के लिये ‘ + ‘ चिन्ह तथा हानिकारक के लिये ‘-‘ चिन्ह तथा उदासीन के लिये ‘ 0 ‘ चिन्ह का उपयोग करते हैं। अंतराजातीय पारस्परिक क्रियाओं को निम्न सारणी में दर्शाया जा रहा है-
सारणी-समष्टियों की पारस्परिक क्रिया
जाति ‘अ’ | जाति ‘ब’ | पारस्परिक क्रिया का नाम |
+ | + | सहोपकारिता (Mutualism) |
– | – | स्पर्धा (Competition) |
+ | – | परभक्षण (Predation) |
+ | – | परजीविता (Parasitism) |
+ | 0 | सहभोजिता (Commensalism) |
– | 0 | अंतराजातीय परजीविता (Amensalism) |
सहोपकारिता में दोनों जातियों को लाभ होता है और स्पर्धा में दोनों को हानि होती है। परजीविता और परभक्षण दोनों में केवल एक जाति को लाभ होता है (क्रमशः परजीवी और परभक्षी को) और पारस्परिक क्रिया दूसरी जाति (क्रमशः परपोषी और शिकार) के लिये हानिकारक है।
वह पारस्परिक क्रिया जिसमें एक जाति को लाभ होता है और दूसरी को न लाभ व न हानि होती है, उसे सहभोजिता कहते हैं। दूसरी ओर, अंतरजातीय परजीविता में एक जाति को हानि होती है जबकि दूसरी जाति अप्रभावित रहती है।
(क) परभक्षण (Predation) – यदि किसी समुदाय में पौधों को खाने वाले प्राणी न हों तो स्वपोषी जीवों द्वारा स्थिर की गई संपूर्ण ऊर्जा व्यर्थ होगी। प्राणियों के द्वारा पौधे खाये जाते हैं तथा ऊर्जा को उच्चतर पोषी स्तरों में स्थानांतरित करते हैं। परभक्षण वे होते हैं जो अन्य जीवों का भक्षण या खाते हैं। यद्यपि पौधों को खाने वाले जीवों को शाकाहारी कहते हैं परंतु सामान्य पारिस्थितिक संदर्भ में वे भी परभक्षी जैसे होते हैं।
परभक्षी पोषी स्तर तक ऊर्जा स्थानांतरण के लिये संनाल (Conduits) का कार्य करने के अतिरिक्त वे शिकार समष्टि को नियंत्रित रखते हैं। यदि प्रकृति में परभक्षी नहीं होते तो शिकार जातियों का समष्टि घनत्व बहुत अधिक हो जाता और परितंत्र में अस्थिरता आ जाती। जब भी किसी भौगोलिक क्षेत्र में कुछ विदेशज जातियाँ लाई जाती हैं तो वे आक्रामक होकर तेजी से फैलने लगती हैं क्योंकि उन स्थानों पर उसके प्राकृतिक परभक्षी नहीं होते हैं।
सन् 1920 के आरंभ में आस्ट्रेलिया में लाई गई नागफनी ने वहाँ लाखों हेक्टेयर भूमि में तेजी से फैलकर तबाही मचा दी। अंत में नागफनी को खाने वाले परभक्षी (एक प्रकार का शलभ) को लाकर आक्रामक नागफनी को नियंत्रित किया जा सका। परभक्षी, स्पर्धी शिकार जातियों के बीच स्पर्धा की तीव्रता कम करके किसी समुदाय में जातियों की विविधता (diversity) बनाए रखने में भी सहायता करता है।
उदाहरणार्थ, अमेरिकी प्रशांत तट की चट्टानी अंतराज्वारीय (intertidal) समुदायों में पाइसैस्टर तारामीन एक महत्त्वपूर्ण परभक्षी है। प्रयोग में जब एक बंद अंतराज्वारीय क्षेत्र से सभी तारामीन को हटा दिया गया तो अंतराजातीय स्पर्धा के कारण एक वर्ष में ही अकशेरुकियों की 10 से अधिक जातियाँ विलुप्त हो गईं।
यदि परभक्षी ज्यादा ही दक्ष है तो वह अपने शिकार का अतिदोहन करता है जिससे शिकार विलुप्त हो जायेगा परंतु जब शिकार का अभाव हो जायेगा तो परभक्षी भी शिकार न मिलने के कारण विलुप्त हो जायेगा। प्रकृति में शिकारी जातियों ने परभक्षण के प्रभाव को कम करने के लिये विभिन्न रक्षा विधियाँ विकसित कर ली हैं। कीटों और मेढ़कों की कुछ जातियों ने परभक्षी से बचने के लिये गुप्त रूप से रंगीन (छद्मावरण) हो जाती हैं, जिससे परभक्षी उन्हें पहचान नहीं पाता।
कुछ शिकार जातियाँ विषैली होती हैं, इसके कारण परभक्षी उनका भक्षण नहीं करते। मॉनार्क तितली के शरीर में विशेष रसायन होने के कारण स्वाद में खराब होती है, इस कारण परभक्षी उन्हें नहीं खाते हैं। यह तितली इस रसायन को अपनी इल्ली अवस्था में विषैली खरपतवार खाकर प्राप्त करती है।
पौधों के लिये शाकाहारी प्राणी परभक्षी होते हैं। लगभग 25% कीट पादपभक्षी (phytophagous) होते हैं अर्थात् वे पादप रस या पादपों के अन्य भाग खाते हैं। पादपों के लिये परभक्षी से बचने के लिये एक समस्या है क्योंकि वे प्राणियों की जैसे भाग नहीं सकते। इस कारण पौधों ने शाकाहारियों से बचने के लिये आकारिकीय और रासायनिक रक्षाविधियाँ विकसित कर ली हैं।
आकारिकीय रक्षाविधियों का उदाहरण एकेशिया (Acacia) व कैक्टस (Cactus) में कांटे हैं। रासायनिक रक्षाविधियों में अनेक पादप ऐसे रसायन उत्पन्न कर एकत्रित कर लेते हैं जो कि शाकाहारी द्वारा खाये जाने पर, उन्हें बीमार कर देते हैं, पाचन का संदमन करते हैं, उनके जनन को भंग कर देते हैं या मार देते हैं।
प्रायः खाली खेतों में आकड़ा या मदार (Calotropis) की खरपतवार उगी रहती है, उसे कोई भी पशु नहीं खाता है क्योंकि इस पौधे में विषैला ग्लाइकोसाइड (glycoside) उत्पन्न होता है। विविध प्रकार के पौधों से अनेक प्रकार के व्यापारिक स्तर पर रासायनिक पदार्थ जैसे-निकोटीन, कैफीन, क्वीनीन, स्ट्रिकनीन, अफीम इत्यादि प्राप्त करते हैं। इन रसायनों के कारण पशु इन्हें नहीं खाते हैं तथा पौधे शाकाहारी प्राणियों से अपनी रक्षा करते हैं।
(ख) स्पर्धा (Competition)-डार्विन ने प्रकृति में जीवनसंघर्ष और योग्यतम की उत्तरजीविता के विषय में बताते हुये कहा कि जैव-विकास में अंतरजातीय स्पर्धा (interspecific competition) एक शक्तिशाली कारक है। वस्तुतः स्पर्धा प्रायः तब होती है जब निकट रूप से संबंधित जातियाँ उन्हीं संसाधनों के लिये स्पर्धा करती हैं जो सीमित हैं।
किन्तु यह सत्य नहीं है कि एक ही जाति के जीव आपस में प्रतिस्पर्धा रखें। डार्विन के अनुसार भोजन व स्थान के लिये विभिन्न समष्टियों के जीव भी स्पर्धा रख सकते हैं। उदाहरणार्थ, दक्षिण़ी अमेरिका की कुछ उथली (कम गहरी) झीलों में आगुंतक फ्लेमिंगो और वहीं क्री रहने वाली मछलियां दोनों ही झील में मिलने वाले प्राणिप्लवक (Zooplankton) के लिये प्रतिस्पर्धा करते हैं।
स्थान व खाद्य सामग्री पर्याप्त होने पर भी यह देखा गया है कि स्पर्धा में एक समष्टि के प्राणी बाधित हो जाते हैं क्योंकि दूसरी समष्टि के जीव अधिक आक्रामक होते हैं जिससे वे पहली जाति के जीवों को उपलब्ध स्थान व भोजन का उपयोग नहीं करने देते हैं। प्रकृति में यह देखा गया है कि एक जाति की योग्यता अधिक बढ़ने पर वह दूसरी जाति के जीवों को कम कर सकती है परन्तु उन्हें विलुप्त नहीं कर पाती।
यद्यपि प्रकृति में ऐसे उदाहरण हैं कि योग्य जाति दूसरी जाति को समाप्त कर देती है। गैलापेगो द्वीप में एबिंगडन (Abingdon) कहुए अधिक संख्या में पाये जाते थे परंतु जब बकरियाँ पहुँचीं तो उन्होंने अधिक चरने के कारण सारे पौधे समाप्त कर दिये जिससे 10 साल में ही कछुए समाप्त हो गये।
प्रतिस्पर्धा का एक अन्य प्रमाण स्पर्धी मोचन (competitive release) है। यदि एक योग्य जाति है जिसने अपने से कम योग्य जाति को स्थान विशेष में सीमित कर रखा है व किसी भी कारण से यदि योग्य जाति नष्ट हो जाती है व उस स्थान से प्रवास कर जाती है तो दूसरी जाति स्पर्धा के अभाव में उस पूरे क्षेत्र में फैल कर समष्टि घनत्व बढ़ा सकती है।
गॉसे (Gause) का स्पर्धी अपवर्जन नियम (Competitive exclusion principle) यह बताता है कि एक ही प्रकार के संसाधनों के लिये स्पर्धा करने वाली दो निकटतम संबंधित जातियाँ लंबे समय तक साथ-साथ नहीं रह सकतीं और स्पर्धी रूप से कमजोर जाति बाद में समाप्त हो जाती है। गॉसे का यह नियम केवल तब ही लागू होगा जब स्थान या भोजन सीमाकारी (limiting) हो जायेंगे अन्यथा स्पर्धा
का यह नियम लागू नहीं होगा। आधुनिक अध्ययन से यह भी ज्ञात हुआ है कि जब दो जातियाँ स्पर्धा करती हैं तब एक विलुप्त नहीं होती वरन् यह इस प्रकार के अनुकूलन विकसित कर लेती है जिससे दोनों का एक साथ अस्तित्व बना रहता है। इस प्रकार की क्रियाविधि को ‘संसाधन विभाजन’ कहते हैं।
यदि दो जातियां एक ही संसाधन के लिये स्पर्धा करती हैं तो वे आहार के लिये भिन्न समय या भिन्न चारण प्रतिरूप चुनकर स्पर्धा से बच सकती हैं। मैक आर्थर (Mac Arthur) ने बताया कि एक ही पेड़ पर रह रही फुदकी (Warblers) की पांच जातियां स्पर्धा से बचने में सफल रहीं और पेड़ की शाखाओं और वितान पर कीट शिकार के लिये तलाशने की अपनी चारण गतिविधियों में व्यावहारिक भिन्नताओं के कारण साथ-साथ रह सकीं।
(ग) परजीविता (Parasitism) – परजीविता में रहने व भोजन की मुफ्त व्यवस्था होती है। एक जीव दूसरे जीव पर भोजन या आश्रय के लिये उस पर निर्भर होता है। जो जीव दूसरे जीव पर निर्भर होता है उसे परजीवी (parasite) तथा जिसके ऊपर यह आश्रित होता है उसे परपोषी (host) कहते हैं। इसमें परजीवी को तो लाभ होता है परन्तु परपोषी का शोषण होता है।
परजीविता पादपों से लेकर उच्च कोटि के कशेरुकियों तक पाई जाती है। ऐसे परजीवी जो एक निश्चित परपोषी के साथ ही रहते हैं, यदि उनको अपना निश्चित परपोषी उपलब्ध नहीं होता है तो उनकी मृत्यु हो जाती है, ऐसे परजीवियों को अविकल्पी परजीवी (obligate parasite) कहते हैं।
परजीविता में परजीवियों ने विशेष अनुकूलन विकसित किये हैं, जैसे-आसंजी अंगों या चूषकांगों (haustoria) की उपस्थिति, पाचन तंत्र का लोप तथा उच्च जनन क्षमता आदि। परजीवियों का जीवन चक्र प्रायः जटिल होता है। जिसमें एक या दो मध्यस्थ पोषक अथवा रोगवाहक होते हैं।
उदाहरणस्वरूप मानव यकृत पर्णाभ (liver fluke) अपने जीवन चक्र को पूर्ण करने के लिये दो मध्यस्थ पोषकों जैसेघोंघा और मछली पर निर्भर करता है। मलेरिया परजीवी को दूसरे परपोषियों पर फैलने के लिये रोगवाहक (मच्छर) की आवश्यकता पड़ती है। अधिकांश परजीवी, परपोषी को हानि पहुँचाते हैं, परपोषी की उत्तरजीविता, वृद्धि और जनन को कम कर सकते हैं तथा उसके समष्टि घनत्व को घटा सकते हैं।
परजीवी परपोषी को कमजोर बनाकर, उसे परभक्षण के लिये अधिक सुरक्षित बना देते हैं। परजीवी दो प्रकार के होते हैं-बाह्य परजीवी (Ecto-parasite) तथा अन्तः परजीवी (Endo-parasite)। वे परपोषी जो अपना पोषण परपोषी की बाहरी सतह से प्राप्त करते हैं, उन्हें बाह्य परजीवी कहते हैं, उदाहरण-जूँ मानव पर, कुत्तों पर चिंचिड़ियाँ (Tricks) तथा प्राणियों में कई मछलियों पर कोपीपॉड्स (copepods) इनके शरीर पर निवास करते हैं।
अमरबेल या आकाश बेल (Cuscuta) एक स्तम्भ परजीवी है जिसमें पत्तियों व पर्णहरित (chlorophyll) का अभाव होता है। इसमें केवल पीले रंग का दुर्बल तना होता है। इसके तने से अनेक चूषकांग (haustoria) निकलकर, परपोषी के अंदर घुसकर उसके संवहन ऊतक (जाइलम व फ्लोयम) से अपना संबंध स्थापित कर लेते हैं।
ये पूर्णतः तैयार भोजन अपने परपोषी से प्राप्त करते हैं। अंतःपरजीवी (endoparasite) वे हैं जो परपोषी के शरीर में भिन्न स्थलों जैसे यकृत, वृक्क, फुफ्फुस, लाल रुधिर कोशिका आदि में रहते हैं। पक्षियों में अंड परजीविता (egg or brood parasitism) का अच्छा उदाहरण है जिसमें परजीवी पक्षी अपने अंडे परपोषी के घोंसले में देता है और परपोषी को उन अंडों को सेने (incubate) देता है।
आगे जाकर परजीवी पक्षी के अंडे साइज और रंगों में परपोषी के अंडों की भांति विकसित हो जाते हैं। इससे परपोषी इन अंडों को अपना समझकर बाहर नहीं निकालता। कोयल में भी अंड परजीविता पाई जाती है।
(घ) सहभोजिता (Commensalism) – इस प्रक्रिया में एक जाति को लाभ और दूसरी जाति को न तो लाभ होता है व न हानि होती है। उदाहरणार्थ, ऑर्किड (Orchid) आम की शाखा पर अधिपाद्प (epiphyte) के रूप में उगता है, ठीक इसी प्रकार व्हेल (whale) की पीठ पर बार्नेकल (Barnacle) निवास करता है। इस संबंध में ऑर्किड व बार्नेकल को तो लाभ होता है परंतु आम व क्लेल को न तो इनसे लाभ व न हानि होती है।
इसी प्रकार अन्य उदाहरणों में पक्षी बगुला और चरने वाले पशु आपस में साहचर्य में रहते हैं जो कि सहभोजिता का एक अच्छा उदाहरण है। खेत में पशु चरते रहते हैं और उनके पास ही बगुला भोजन प्राप्त करता रहता है। वस्तुत: खेत में पशु चरते हुये वनस्पति को हिलाते रहते हैं जिससे कीट बाहर निकलते रहते हैं तथा बगुला उन कीटों को खा जाता है।
सहभोजिता का एक अन्य उदाहरण समुद्री ऐनीमोन (Sea anemons) की दंशन स्पर्शक (stinging tantacles) का है। इन समुद्री ऐनीमोन के बीच रहने वाली क्लाउन मछली को परभक्षियों से दंशक स्पर्शक द्वारा सुरक्षा मिल जाती है क्योंकि परभक्षी इन दंशन स्पर्शकों से दूर रहते हैं यद्यपि समुद्री ऐनीमोन को क्लाउन मछली से कोई लाभ नहीं मिलता है।
(ङ) सहोपकारिता (Mutualism)-इस प्रक्रिया में दोनों जीवों को लाभ होता है। इसे प्रकाश-संश्लेषी शैवाल या सायनोबैक्टीरिया व लाइकेन के मध्य देखा जा सकता है। यहां शैवाल प्रकाश-संश्लेषण के द्वारा अपने तथा कवक सहभागी के लिये खाद्य पदार्थों का निर्माण करता है।
इसके बदले में कवक अपने तथा शैवाल सहभागी के लिये वर्षा का जल, नमी आदि एकत्र करके उसका जीवन आसान बनाता है। इसमें कवक व शैवाल दोनों को लाभ होता है। इसी प्रकार का संबंध कवकों और उच्च कोटि के पादपों की जड़ों के बीच कवकमूल (Mycorrhiza) संबंध होता है।
कवक, मृदा से आवश्यक पोषक तत्वों के अवशोषण में पादपों की सहायता करते हैं जबकि बदले में पादप, कवकों को ऊर्जा-उत्पादी कार्बोहाइड्रेट देते हैं। विकास की दृष्टि से सहोपकारिता के अच्छे उदाहरण पादपप्राणी संबंध में मिलते हैं। पादपों को अपने पुष्प परागित करने और बीजों के प्रकीर्णन के लिये प्राणियों की सहायता जरूरी है।
अनेक जंतु एवं पक्षी फलों व बीजों को खाकर अन्य स्थानों पर अपना मल विसर्जित करते हैं। इनके मल के साथ फलों के बीज भी बाहर आ जाते हैं, जिससे बीजों के प्रकीर्णन में सहायता मिलती है। विभिन्न पादपों में कुछ प्राणियों जैसे मधुमक्खी तथा तितलियों व अन्य पक्षियों की अहम भूमिका होती है।
ये पुष्पों पर मकरन्द प्राप्त करने के लिये जाते हैं तथा इसके बदले में परागकणों को एक पुष्प से अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर स्थानान्तरित करके परागण क्रिया संपन्न कराते हैं। इस प्रकार पादप- प्राणी पारस्परिक क्रिया में सहोपकारिता होती है या यों कहा जा सकता है कि पुष्य व इसके परागणकारी जातियों के विकास एक-दूसरे से मजबूती से जुड़े हुए हैं।
अंजीर के वृक्षों की अनेक जातियों में बर्र की परागणकारी जातियों के बीच अगाढ़ संबंध है। अंजीर की जाति केवल इसके ‘साथी’ बर्र की जाति से ही परागित हो सकती है, यह किसी बर्र की दूसरी जाति से परागित नहीं हो सकती। मादा बर्र फल को केवल अंड निक्षेपण (ovipositor) के लिये ही उपयोग में नहीं लेती, बल्कि फल के अंदर वृद्धि कर रहे बीजों के डिंबकों (larvae) के पोषण के लिये उपयोग करती है।
अंडे देने के लिये उपयुक्त स्थान की तलाश करते हुए बर्र अंजीर पुष्पक्रम को परागित करती है। इसके बदले में अंजीर अपने कुछ परिवर्धनशील बीज, परिवर्धनशील बर्र के डिंबकों को आहार के रूप में देती है। अ पुष्प प्रतिरूपों में अ श चर्य चकि त करने वाली विविधता पाई जाती है।
इनके पुष्पों में पुष्पीय संरचना परागणकारी कीट भ्रमरों व गुंज मक्षिकाओं (Bees and Bumblebees) को आकर्षित करने के लिये ही विकसित हुए हैं ताकि इसके द्वारा निश्चित रूप से परागण हो सके। यद्यपि यह प्रवृत्ति सभी ऑर्किड पुष्पों में नहीं पायी जाती है परन्तु ऑफ्रिस (Ophrys) नामक भूमध्यसागरीय मेडिटेरिनियन ऑर्किड की एक जाति परागण कराने के लिए लैंगिक कपट (Sexual deceit) का सहारा लेती है।
इस पुष्प की एक पंखुड़ी (petal) साइज, रंग और चिन्हों में मादा मक्षिका (Bee) से मिलती-जुलती होती है। नर मक्षिका इसे मादा समझकर इसकी ओर आकर्षित होती है तथा पुष्प के साथ कूट मैथुन (Pseudo copulates) करती है। इस क्रिया के दौरान इस पर पुष्प से पराग झड़कर उस पर गिर जाते हैं।
जब यही मक्षिका अन्य पुष्प से कूट मैथुन करती है तो इसके शरीर पर लगे परागकण उस पुष्प पर गिर जाते हैं जिससे पुष्प को परागित करती है। परन्तु विकास के दौरान यदि किसी भी कारण से मादा मक्षिका का रंग-प तिरूप (Colourpattern) जरा-सा भी बदल जाता है तो परागण की सफलता कम रहेगी अतः इस कारण से ऑर्किड पुष्प अपनी पंखुड़ी को मादा मक्षिका के सदृश बनाए रखते हैं
प्रश्न 15.
जीवोम से क्या समझते हैं? ये विभिन्न प्रकार के क्यों होते हैं? पाये जाने वाले जीवोम को सचित्र बताइये ।
उत्तर:
विश्व के मुख्य पादप समुदायों को जीवोम (Biomes ) कहते हैं । जीवोम में विभिन्नता तापक्रम, वर्षण व विभिन्न ऋतुओं के कारण होती है। प्रत्येक जीवोम के अंदर ही क्षेत्रीय और स्थलीय विभिन्नताओं के कारण आवास में व्यापक विभिन्नता होती है। भारत के प्रमुख जीवोम निम्न प्रकार से हैं-
- मरुथल जीवोम (Desert Biome )
- घास स्थल जीवोम (Grassland Biome)
- उष्णकटिबंध वन जीवोम (Tropical Forest Biome)
- शीतोष्ण वन जीवोम (Temperate Forest Biome)
- शंकुधारी वन जीवोम (Coniferous Forest Biome)
- उत्तरी ध्रुवीय और अल्पाइन टुंड्रा जीवोम (Arctic and Alpine Tundra Biome)
प्रश्न 16.
जैविक अनुक्रिया के अन्तर्गत नियमन करने (Regulate) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
कुछ जीव समस्थापन (Homeostasis) कार्यिकीय साधनों द्वारा बनाए रखते हैं जिसके कारण शरीर का तापमान, परासरणी सांद्रता इत्यादि स्थिर रहती है। सभी पक्षी और स्तनधारी तथा बहुत कम निम्न कशेरुकी (Lower vertebrates ) व अकशेरुकी ( invertebrates ) जातियाँ वास्तव में ताप व परासरण नियमन (Thermoregulation and Osmoregulation) बनाए रखने में सक्षम होते हैं।
विकासवादी जीव वैज्ञानिकों का यह विश्वास है कि स्तनधारियों की सफलता का मुख्य कारण यही है कि वे अपने शरीर का तापमान स्थिर बनाये रखने में सक्षम होते हैं, भले वे अंटार्कटिका में रहें या सहारा के मरुस्थल में । प्रायः स्तनधारी अपने शरीर के तापमान का नियमन उसी प्रकार करते हैं जैसे मानव करते हैं। हम शरीर का तापमान 37°C स्थिर रखते हैं।
गर्मियों के समय में जब बाहर का तापमान शरीर से अधिक हो जाता है तब हमें अधिक पसीना आता है। यह पसीना वाष्प बनकर उड़ता है उससे शरीर के तापमान का नियमन हो जाता है। सर्दियों में पर्यावरण में जब तापक्रम कम हो जाता है तब हम काँपने लगते हैं। काँपने से जो व्यायाम होता है उससे ऊष्मा पैदा होकर शरीर के ताप का नियमन होता है । परन्तु पादपों में नियमन करने का कोई तरीका नहीं होता है।
प्रश्न 17.
संरूपण रखना भी जैविक अनुक्रिया का तरीका है, इसे स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर:
लगभग 99% प्राणी व सभी पौधे स्थिर आंतरिक पर्यावरण बनाये रखने में सक्षम नहीं होते हैं। उनके शरीर का तापमान पर्यावरण तापमान के अनुसार बदलता रहता है। जलीय प्राणियों में तो शरीर के द्रव की परासरण सांद्रता बाहरी जल की परासरण सांद्रता के अनुसार बदलती रहती है। ये प्राणी और पौधे संरूपी (Conform ) कहलाते हैं।
संरूपी या संरूपण जैविक अनुक्रिया की विधि है। अनेक जीवों के लिये ताप नियमन ( Thermoregulation) ऊर्जा की दृष्टि से महँगा है। यह तर्क मंजोरु ( Shrews ) व गुंजन पक्षी (Humming Birds) जैसे छोटे प्राणियों के विषय में सही है। ताप हानि या ताप लाभ पृष्ठीय क्षेत्रफल ( Surface Area) का प्रकार्य है।
चूंकि छोटे प्राणियों का पृष्ठीय क्षेत्रफल उनके आयतन की अपेक्षा ज्यादा होता है, इसलिए जब बाहर ठंड होती है तो उनके शरीर की ऊष्मा बहुत तेजी से कम होती है। ऐसी स्थिति में उन्हें उपापचय (Metabolism) द्वारा शरीर की ऊष्मा पैदा करने के लिए अधिक ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है।
यह मुख्य कारण है कि बहुत छोटे प्राणी बिरले ही ध्रुवीय क्षेत्रों में पाये जाते हैं। विकास के दौरान कुछ जातियों में नियमन करने की क्षमता उत्पन्न हो गई है ( केवल सीमित परास वाले पर्यावरण परिस्थितियों में ) । यदि पर्यावरण परास ज्यादा होता है तो वे केवल संरूपण (Conform ) करते हैं।
प्रश्न 18.
जीवों में प्रवास करने (Migration) को समझाइये।
उत्तर:
जीव दबावपूर्ण आवास से अस्थायी रूप से अधिक अनुकूल क्षेत्र में चला जाए और जब दबावभरी अवधि बीत जाये तो वापस लौट आए। मानव सादृश्य में, यह नीति ऐसी है जैसे गरमी की अवधि में व्यक्ति दिल्ली से शिमला चला जाए। अनेक प्राणी, विशेषत: पक्षी, शीतऋतु के दौरान लंबी दूरी का प्रवास करके अधिक अतिथि अनुकूली क्षेत्रों में चले जाते हैं।
प्रत्येक शीतकाल में राजस्थान स्थित प्रसिद्ध केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (भरतपुर) साइबेरिया और अन्य अत्यधिक ठंडे उत्तरी क्षेत्रों से आने वाले प्रवासी पक्षियों को अतिथि के रूप में स्वागत करता है। इस प्रकार जीवों के एक स्थान से अन्य स्थान पर जाने की प्रक्रिया को प्रवास करना कहते हैं।
प्रश्न 19
गाँसे (Gauses) के स्पर्धी अपवर्जन नियम (Competitive Exclusion Principle) को उदाहरण सहित समझाइये।
उत्तर:
गाँसे ‘स्पर्धी अपवर्जन नियम’ यह बतलाता है कि एक ही तरह के संसाधनों के लिए स्पर्धा करने वाली दो निकटतम से संबंधित जातियाँ अनंतकाल तक साथ-साथ नहीं रह सकतीं और स्पर्धी रूप से घटिया जाति अंततः विलुप्त कर दी जाती है। ऐसा तभी होगा जब संसाधन सीमाकारी होंगे अन्यथा नहीं।
अधिक वर्तमान अध्ययन स्पर्धा के ऐसे घोर सामान्यीकरण की पुष्टि नहीं करते। वे प्रकृति में अंतरजातीय स्पर्धा होने को नकारते तो नहीं पर वे इस ओर ध्यान दिलाते हैं स्पर्धा का सामना करने वाली जातियाँ ऐसी क्रियाविधि विकसित कर सकती हैं जो बहिष्कार की बजाय सह अस्तित्व को बढ़ावा दे। ऐसी क्रियाविधि ‘संसाधन विभाजन है।
अगर दो जातियाँ एक ही संसाधन के लिए स्पर्धा करती हैं तो उदाहरण के लिए वे आहार के लिए भिन्न समय अथवा भिन्न चारण प्रतिरूप चुनकर स्पर्धा से बच सकती हैं। मैकआर्थर ने दिखाया कि एक ही पेड़ पर रह रहीं फुदकी (वार्बलर) की पाँच निकटत: संबंधित जातियाँ स्पर्धा से बचने में सफल रहीं और पेड़ की शाखाओं और वितान पर कीट शिकार के लिए तलाशने की अपनी चारण गतिविधियों में व्यावहारिक भिन्नताओं के कारण साथ- साथ रह सकीं।
प्रश्न 20.
सहोपकारिता के अन्तर्गत पुष्पीय पादपों में पुष्प व इसके परागणकारी जातियों के विकास एक-दूसरे से मजबूती से जुड़े होते हैं, इस कथन की पुष्टि अंजीर (Fig) पादप से कीजिए ।
उत्तर:
अंजीर के पेड़ों की अनेक जातियों में बर्र की परागणकारी जातियों के बीच मजबूत संबंध है। इसका अर्थ यह है कि कोई दी गई अंजीर जाति केवल इसके ‘साथी’ बर्र की जाति से ही परागित हो सकती है, बर्र की दूसरी जाति से नहीं। मादा बर्र फल को न केवल अंडनिक्षेपण (अंडे देने) के लिए काम में लेती है; बल्कि फल के भीतर ही वृद्धि कर रहे बीजों को डिंबकों (लार्वी) के पोषण के लिए प्रयोग करती है। अंडे देने के लिए उपयुक्त स्थल की तलाश करते हुए बर्र अंजीर पुष्पक्रम (इनफ्लोरेसेंस) को परागित करती है। इसके बदले में अंजीर अपने कुछ परिवर्धनशील बीज, परिवर्धनशील बर्र के डिंबकों को आहार के रूप में देती है।
प्रश्न 21.
सहभोजिता एवं सहपरोपकारिता में अन्तर स्पष्ट कीजिए । प्रत्येक का उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
सहभोजिता (Commensalism) – इस साहचर्य में दोनों में से केवल एक को लाभ होता है लेकिन हानि किसी को नहीं होती है। अधिपादप तथा कंठलताएँ इसका उपयुक्त उदाहरण हैं। अधिपादप स्वपोषी होते हुए भी अन्य पौधों पर उगते हैं। ये वेलामेन (Velamen) मूल द्वारा आर्द्रता को ग्रहण करते हैं तथा प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन बनाते हैं।
उदा – वैन्डा तथा आर्किड्स । हरित शैवाल बेसीक्लेडिया (Basicladia) अलवणीय जल में पाये जाने वाले कछुए के कवच पर उगता है, यह अधिजन्तु का उदाहरण है। कंठलताएँ काष्ठीय आरोही पौधे हैं जो पृथ्वी पर उगकर अन्य पेड़ों का सहारा लेकर ऊपर चढ़ते हैं तथा उनके शीर्ष भागों पर फैल जाते हैं ताकि उन्हें उचित प्रकाश प्राप्त हो।
उदाहरण- टीनोस्पोरा, बिग्नोनिया, बोगेनविलिया आदि । सहोपकारिता (Mutualism) – इसमें दोनों जातियों को लाभ पहुँचता है तथा जीवनयापन हेतु दोनों का साथ आवश्यक है। उदाहरण-शैक, सहजीवी नाइट्रोजन स्थिर कारक, कवकमूल साहचर्य आदि । कुछ उच्च श्रेणी के पौधों की मूलों व कवक में साहचर्य होता है, इसे कवकमूल साहचर्य कहते हैं।
उदाहरण-पाइनस, ओक, हिकरी, बीच आदि। इनमें कवक जल व खनिज लवणों का अवशोषण कर पौधे को उपलब्ध करवाता है तथा मूल कवक को भोजन प्रदान करते हैं। इस प्रकार के पौधों की मूल में मूलरोमों का अभाव होता है ।
प्रश्न 22.
रेगिस्तानी पौधों की पत्तियों में पाये जाने वाले चार अनुकूलन लिखिए।
उत्तर:
- रंध्र (stomata) गहरे गर्त में व्यवस्थित होते हैं, ताकि वाष्पोत्सर्जन (transpiration) द्वारा जल की न्यूनतम हानि हो।
- प्रकाश संश्लेषी (सी ए एम) मार्ग भी विशेष प्रकार के होते हैं जिसके कारण वे अपने रंध्र दिन के समय में बन्द रख सकते हैं।
- कुछ पौधों जैसे-नागफनी, कैक्टस आदि में पत्तियाँ नहीं होतीं बल्कि वे काँटे के रूप में रूपान्तरित हो जाती हैं और प्रकाश संश्लेषण का प्रकार्य चपटे तनों द्वारा होता है।
प्रश्न 23.
जीवाणु, कवक और निम्न पादप प्रतिकूल परिस्थितियों में कैसे जीवित रहते हैं? समझाइए ।
उत्तर:
जीवाणुओं, कवकों और निम्न पादपों में विभिन्न प्रकार के मोटी भित्ति वाले बीजाणु बन जाते हैं, जिससे उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित बचे रहने में सहायता मिलती है। उपयुक्त पर्यावरण उपलब्ध होने पर ये अंकुरित हो जाते हैं।
प्रश्न 24.
जहाँ पशु चरते हैं, उसके पास ही बगुले भोजन प्राप्ति के लिए रहते हैं । इस पारस्परिक क्रिया को क्या कहते हैं? स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर:
पक्षी बगुला और चारण पशु निकट साहचर्य में रहते हैं। यह सहभोजिता (Commensalism) का अच्छा उदाहरण है। इसका कारण यह है कि जब पशु चलते हैं तो उनके खुरों से जमीन से पौधों के हिलने से कीड़े बाहर निकलते हैं। बगुले उन कीटों को आसानी से पकड़कर खा लेते हैं।
प्रश्न 25.
परभक्षण तथा परजीविता में अन्तर स्पष्ट कीजिए । उत्तर- परभक्षण व परजीविता दोनों ऋणात्मक पारस्परिक सम्बन्ध हैं क्योंकि इन दोनों परस्पर सम्बन्धों में एक जाति को लाभ होता है तो दूसरी जाति को हानि होती है। परभक्षण प्रक्रिया में एक जीव दूसरे जीव को खाता है, जैसे बाघ हिरण को खाता है, जन्तु पौधों को खाते हैं। यहाँ बाघ शिकारी है व हिरण शिकार है।
परभक्षित जीव शिकार समष्टि को नियंत्रित करते हैं। परजीविता में छोटे आकार की जाति (परजीवी) बड़ी जातियों ( पोषक) के अन्दर या उन पर जीवित रहते हैं जिससे कि वह भोजन और आश्रय ग्रहण करते हैं। परजीवी पोषक के शारीरिक द्रव्य से भोजन लेते हैं। परजीवी, परभक्षक की तरह पोषक जातियों की संख्या को सीमित करते हैं।
परजीवी पोषक विशिष्ट होते हैं, उनके पास परभक्षियों की जैसे कोई विकल्प नहीं होता। परजीवी आकार में छोटे होते हैं और इनमें परभक्षक की तुलना में उच्च जैविक/ प्रजनन सामर्थ्य होता है। परजीवियों में प्रकीर्णन के लिए विशिष्ट संरचनाओं की आवश्यकता पोषक तक पहुँचने और उन पर आक्रमण करने के लिए होती है। परभक्षक चलनशील होते हैं और शिकार को पकड़ने के लिए समर्थ होते हैं।
प्रश्न 26.
किसी आवास में समष्टि के घनत्व के घटने-बढ़ने के चार मूलभूत प्रक्रमों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समष्टि के घनत्व के घटने-बढ़ने के चार मूलभूत प्रक्रम निम्न प्रकार से हैं-
- जन्मदर – जन्म दर से तात्पर्य समष्टि में जन्मी उस संख्या से है जो दी गई अवधि के दौरान आरम्भिक घनत्व में जुड़ती है।
- मृत्युदर – यह दी गई अवधि समष्टि में होने वाली मौतों की संख्या है।
- आप्रवासन – उसी जाति के व्यष्टियों की वह संख्या है जो दी गई समय अवधि के दौरान आवास में कहीं और से आये हैं।
- उत्प्रवासन – समष्टि के व्यष्टियों की वह संख्या है जो दी गई समयावधि के दौरान आवास छोड़कर कहीं और चले गये हैं।
निबन्धात्मक प्रश्न-
प्रश्न 1.
निम्नलिखित पर टिप्पणियाँ लिखिए-
(क) परभक्षण
(ख) स्पर्धा
(ग) मृदा ।
उत्तर:
(क) परभक्षण (Predation) – यदि किसी समुदाय में पौधों को खाने वाले प्राणी न हों तो स्वपोषी जीवों द्वारा स्थिर की गई संपूर्ण ऊर्जा व्यर्थ होगी। प्राणियों के द्वारा पौधे खाये जाते हैं तथा ऊर्जा को उच्चतर पोषी स्तरों में स्थानांतरित करते हैं। परभक्षण वे होते हैं जो अन्य जीवों का भक्षण या खाते हैं।
यद्यपि पौधों को खाने वाले जीवों को शाकाहारी कहते हैं परंतु सामान्य पारिस्थितिक संदर्भ में वे भी परभक्षी जैसे होते हैं। परभक्षी पोषी स्तर तक ऊर्जा स्थानांतरण के लिये संनाल (Conduits) का कार्य करने के अतिरिक्त वे शिकार समष्टि को नियंत्रित रखते हैं। यदि प्रकृति में परभक्षी नहीं होते तो शिकार जातियों का समष्टि घनत्व बहुत अधिक हो जाता और परितंत्र में अस्थिरता आ जाती।
जब भी किसी भौगोलिक क्षेत्र में कुछ विदेशज जातियाँ लाई जाती हैं तो वे आक्रामक होकर तेजी से फैलने लगती हैं क्योंकि उन स्थानों पर उसके प्राकृतिक परभक्षी नहीं होते हैं। सन् 1920 के आरंभ में आस्ट्रेलिया में लाई गई नागफनी ने वहाँ लाखों हेक्टेयर भूमि में तेजी से फैलकर तबाही मचा दी।
अंत में नागफनी को खाने वाले परभक्षी (एक प्रकार का शलभ) को लाकर आक्रामक नागफनी को नियंत्रित किया जा सका। परभक्षी, स्पर्धी शिकार जातियों के बीच स्पर्धा की तीव्रता कम करके किसी समुदाय में जातियों की विविधता (diversity) बनाए रखने में भी सहायता करता है।
उदाहरणार्थ, अमेरिकी प्रशांत तट की चट्टानी अंतराज्वारीय (intertidal) समुदायों में पाइसैस्टर तारामीन एक महत्त्वपूर्ण परभक्षी है। प्रयोग में जब एक बंद अंतराज्वारीय क्षेत्र से सभी तारामीन को हटा दिया गया तो अंतराजातीय स्पर्धा के कारण एक वर्ष में ही अकशेरुकियों की 10 से अधिक जातियाँ विलुप्त हो गईं।
यदि परभक्षी ज्यादा ही दक्ष है तो वह अपने शिकार का अतिदोहन करता है जिससे शिकार विलुप्त हो जायेगा परंतु जब शिकार का अभाव हो जायेगा तो परभक्षी भी शिकार न मिलने के कारण विलुप्त हो जायेगा। प्रकृति में शिकारी जातियों ने परभक्षण के प्रभाव को कम करने के लिये विभिन्न रक्षा विधियाँ विकसित कर ली हैं।
कीटों और मेढ़कों की कुछ जातियों ने परभक्षी से बचने के लिये गुप्त रूप से रंगीन (छद्मावरण) हो जाती हैं, जिससे परभक्षी उन्हें पहचान नहीं पाता। कुछ शिकार जातियाँ विषैली होती हैं, इसके कारण परभक्षी उनका भक्षण नहीं करते। मॉनार्क तितली के शरीर में विशेष रसायन होने के कारण स्वाद में खराब होती है, इस कारण परभक्षी उन्हें नहीं खाते हैं।
यह तितली इस रसायन को अपनी इल्ली अवस्था में विषैली खरपतवार खाकर प्राप्त करती है। पौधों के लिये शाकाहारी प्राणी परभक्षी होते हैं। लगभग 25% कीट पादपभक्षी (phytophagous) होते हैं अर्थात् वे पादप रस या पादपों के अन्य भाग खाते हैं। पादपों के लिये परभक्षी से बचने के लिये एक समस्या है क्योंकि वे प्राणियों की जैसे भाग नहीं सकते। इस कारण पौधों ने शाकाहारियों से बचने के लिये आकारिकीय और रासायनिक रक्षाविधियाँ विकसित कर ली हैं।
आकारिकीय रक्षाविधियों का उदाहरण एकेशिया (Acacia) व कैक्टस (Cactus) में कांटे हैं। रासायनिक रक्षाविधियों में अनेक पादप ऐसे रसायन उत्पन्न कर एकत्रित कर लेते हैं जो कि शाकाहारी द्वारा खाये जाने पर, उन्हें बीमार कर देते हैं, पाचन का संदमन करते हैं, उनके जनन को भंग कर देते हैं या मार देते हैं।
प्रायः खाली खेतों में आकड़ा या मदार (Calotropis) की खरपतवार उगी रहती है, उसे कोई भी पशु नहीं खाता है क्योंकि इस पौधे में विषैला ग्लाइकोसाइड (glycoside) उत्पन्न होता है। विविध प्रकार के पौधों से अनेक प्रकार के व्यापारिक स्तर पर रासायनिक पदार्थ जैसे-निकोटीन, कैफीन, क्वीनीन, स्ट्रिकनीन, अफीम इत्यादि प्राप्त करते हैं। इन रसायनों के कारण पशु इन्हें नहीं खाते हैं तथा पौधे शाकाहारी प्राणियों से अपनी रक्षा करते हैं।
(ख) स्पर्धा (Competition)-डार्विन ने प्रकृति में जीवनसंघर्ष और योग्यतम की उत्तरजीविता के विषय में बताते हुये कहा कि जैव-विकास में अंतरजातीय स्पर्धा (interspecific competition) एक शक्तिशाली कारक है। वस्तुतः स्पर्धा प्रायः तब होती है जब निकट रूप से संबंधित जातियाँ उन्हीं संसाधनों के लिये स्पर्धा करती हैं जो सीमित हैं।
किन्तु यह सत्य नहीं है कि एक ही जाति के जीव आपस में प्रतिस्पर्धा रखें। डार्विन के अनुसार भोजन व स्थान के लिये विभिन्न समष्टियों के जीव भी स्पर्धा रख सकते हैं। उदाहरणार्थ, दक्षिण़ी अमेरिका की कुछ उथली (कम गहरी) झीलों में आगुंतक फ्लेमिंगो और वहीं क्री रहने वाली मछलियां दोनों ही झील में मिलने वाले प्राणिप्लवक (Zooplankton) के लिये प्रतिस्पर्धा करते हैं।
स्थान व खाद्य सामग्री पर्याप्त होने पर भी यह देखा गया है कि स्पर्धा में एक समष्टि के प्राणी बाधित हो जाते हैं क्योंकि दूसरी समष्टि के जीव अधिक आक्रामक होते हैं जिससे वे पहली जाति के जीवों को उपलब्ध स्थान व भोजन का उपयोग नहीं करने देते हैं। प्रकृति में यह देखा गया है कि एक जाति की योग्यता अधिक बढ़ने पर वह दूसरी जाति के जीवों को कम कर सकती है परन्तु उन्हें विलुप्त नहीं कर पाती।
यद्यपि प्रकृति में ऐसे उदाहरण हैं कि योग्य जाति दूसरी जाति को समाप्त कर देती है। गैलापेगो द्वीप में एबिंगडन (Abingdon) कहुए अधिक संख्या में पाये जाते थे परंतु जब बकरियाँ पहुँचीं तो उन्होंने अधिक चरने के कारण सारे पौधे समाप्त कर दिये जिससे 10 साल में ही कछुए समाप्त हो गये। प्रतिस्पर्धा का एक अन्य प्रमाण स्पर्धी मोचन (competitive release) है।
यदि एक योग्य जाति है जिसने अपने से कम योग्य जाति को स्थान विशेष में सीमित कर रखा है व किसी भी कारण से यदि योग्य जाति नष्ट हो जाती है व उस स्थान से प्रवास कर जाती है तो दूसरी जाति स्पर्धा के अभाव में उस पूरे क्षेत्र में फैल कर समष्टि घनत्व बढ़ा सकती है। गॉसे (Gause) का स्पर्धी अपवर्जन नियम (Competitive exclusion principle) यह बताता है कि एक ही प्रकार के संसाधनों के लिये
स्पर्धा करने वाली दो निकटतम संबंधित जातियाँ लंबे समय तक साथ-साथ नहीं रह सकतीं और स्पर्धी रूप से कमजोर जाति बाद में समाप्त हो जाती है। गॉसे का यह नियम केवल तब ही लागू होगा जब स्थान या भोजन सीमाकारी (limiting) हो जायेंगे अन्यथा स्पर्धा का यह नियम लागू नहीं होगा।
आधुनिक अध्ययन से यह भी ज्ञात हुआ है कि जब दो जातियाँ स्पर्धा करती हैं तब एक विलुप्त नहीं होती वरन् यह इस प्रकार के अनुकूलन विकसित कर लेती है जिससे दोनों का एक साथ अस्तित्व बना रहता है। इस प्रकार की क्रियाविधि को ‘संसाधन विभाजन’ कहते हैं। यदि दो जातियां एक ही संसाधन के लिये स्पर्धा करती हैं तो वे आहार के लिये भिन्न समय या भिन्न चारण प्रतिरूप चुनकर स्पर्धा से बच सकती हैं।
मैक आर्थर (Mac Arthur) ने बताया कि एक ही पेड़ पर रह रही फुदकी (Warblers) की पांच जातियां स्पर्धा से बचने में सफल रहीं और पेड़ की शाखाओं और वितान पर कीट शिकार के लिये तलाशने की अपनी चारण गतिविधियों में व्यावहारिक भिन्नताओं के कारण साथ-साथ रह सकीं।
मृदा (Soil)-भूमि की ऊपरी उपजाऊ सतह को मृदा कहते हैं। पौधों तथा जंतुओं के लिए मृदा प्राकृतिक आवास होता है। जीवधारियों को मृदा से जल एवं खनिज लवण प्राप्त होते हैं। विभिन्न स्थानों की मृदा की प्रकृति और गुण में भिन्नता होती है। मृदा का निर्माण कठोर चट्टानों के अपक्षय (weathering) के कारण होता है। यह अपक्षय प्रक्रिया भौतिक, रासायनिक व जैविक प्रकार की होती है।
इन अपक्षयित पदार्थों से मृदा का निर्माण होता है जिसे मृदाजनन (Pedogenesis) कहते हैं। इन कणों में अनेक जीवधारी व पादपों के भाग (पत्तियां, जड़ें, भूमिगत भाग इत्यादि) मृत्यु के पश्चात् कार्बनिक पदार्थों में रूपातंरित होकर मिल जाते हैं जिससे वास्तविक मृदा या उर्वर मृदा का निर्माण होता है। निर्माण के आधार पर मृदा दो प्रकार की होती-
(i) अवशिष्ट मृदा (Residual soil) – जिन चट्टानों के अपक्षय से मृदा कण बनते हैं, यदि वह मृदा उसी स्थान पर रहती है तो उसे अवशिष्ट मृदा कहते हैं।
(ii) वाहित मृदा (Transported soil) – निर्माण स्थल से जब मृदा किन्हीं कारकों द्वारा अन्य स्थानों पर पहुंच जाती है तो उसे वाहित मृदा कहते हैं। हवा द्वारा लायी गयी मृदा इओलियन मृदा (Eolian soil), गुरुत्व द्वारा लायी गई मृदा कोल्युवियल मृदा (Colluvial soil), जल द्वारा बहाकर लायी गई मृदा को एल्युवियल मृदा (Alluvial soil) तथा ग्लेशियरों के पिघलने से लायी गयी मृदा ग्लेसियल मृदा (Glacial soil) कहते हैं।
मृदा का अध्ययन विज्ञान की जिस शाखा में किया जाता है उसे मृदा विज्ञान (Pedology) कहते हैं। मृदा के तीन संस्तर (horizon) होते हैं-
- शीर्ष मृदा (Top soil or ‘A’-horizon)-यह मृदा की सबसे ऊपरी परत है जिसमें बालू (sand) और ह्यूमस (humus) होता है। पौधों की जड़ें प्राय: इसी संस्तर में रहती हैं।
- उपमृदा (Subsoil or ‘B’-horizon)-शीर्ष मृदा के नीचे वाले स्तर को उपमृदा कहते हैं, इसमें चिकनी मिट्टी होती है। वर्षा का जल रिसकर इस स्तर में एकत्रित होता रहता है। इसमें ह्यूमस व वायु की मात्रा कम होती है तथा इस संस्तरण में जीव भी नहीं पाये जाते हैं।
- ‘C’ संस्तर (C’-horizon) – यह संस्तर ‘B’ के नीचे होता है। इसमें अपूर्ण क्षरित चट्टानें होती हैं तथा ह्यूमस एवं सूक्ष्मजीवों का अभाव होता है। इस संस्तर के नीचे बिना अपक्षयित मातृ चट्टानें होती हैं।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित को समझाइये-
(क) समतापीय प्राणियों में उच्चताप के प्रति होने वाली अनुक्रियायें ।
(ख) चारघातांकी वृद्धि को सचित्र बताइये ।
उत्तर:
(क) समजात प्राणियों में उच्च ताप के प्रति होने वाली अनुक्रियाएँ – समतापीय प्राणियों में उच्च ताप के प्रति होने वाली अनुक्रियाएँ ( responses ) निम्न प्रकार से होती हैं-
(1) कम उपत्वचीय वसा (Less subcutaneous fat) – वे प्राणी जो प्रायः अधिक ताप वाले क्षेत्रों में रहते हैं, उनमें त्वचा में संचित वसा की मात्रा कम होती है। इसी कारण रेगिस्तानी प्राणियों में वसा कूबड़ (hump) में उपस्थित होती है।
(2) लोमचर्म का झुकना (Lowerdown of pelage) – उत्थापक पेशी के शिथिलन के कारण, लोमचर्म पुनः सामान्य हो जाता है जिससे रोम के मध्य कोई वायु नहीं रहती है। इस कारण ऊष्मा का ह्रास विकिरणों के रूप में हो जाता है परन्तु ताप के और अधिक बढ़ जाने के कारण ऊष्मा का ह्रास विकिरणों के रूप में नहीं होता है बल्कि त्वचा अवरोधक का कार्य करती है।
(3) पृष्ठीय रक्तवाहिनियों का प्रसारित होना (Dialation of superficial blood vessels) – पृष्ठीय रक्तवाहिनियों के प्रसारित होने से रक्त समूह के निकट आ जाता है, जिससे वातावरण में ऊष्मा का ह्रास हो जाता है, सेतु वाहिनियाँ संकुचित हो जाती हैं, जिससे कुल रक्त का आयतन बढ़ जाता है। इस कारण भी सतह पर रक्त का प्रभाव बढ़ जाता है।
(4) पसीने का स्राव ( Secretion of Sweat ) – शरीर का ताप बढ़ने के साथ ही स्वेद ग्रंथियों द्वारा पसीने का स्राव होता है, जिसके वाष्पीकरण से शरीर का तापमान कम हो जाता है। वाष्पीकरण की दर प्रवाहित वायु के द्वारा भी प्रभावित होती है। इस क्रिया में ऊष्मा का ह्रास फेफड़ों से वाष्पीकरण द्वारा होता है, साथ ही रक्त के फुफ्फुसीय कोशिकाओं (pulmonary capillary) में प्रवाहित होने के कारण, ऊष्मा का कुछ ह्रास रक्त के द्वारा भी होता है।
(5) उपापचय का मंद होना (Fall of metabolism) – तापमान अधिक होने से प्राणियों में उपापचय दर कम हो जाती है व कम ऊष्मा का उत्पादन होता है। अतः ये प्राणी कम सक्रिय रहते हैं। स्तनधारियों में ताप का नियमन हाइपोथेलेमस द्वारा होता है। इसके अतिरिक्त इन प्राणियों में लम्बे कान होते हैं, जो एक रेडियेटर का कार्य करते हैं व ये रात्रिचर आवास के होते हैं।
(ख) चरघातांकी वृद्धि (Exponential growth) को सचित्र बताइये –
समष्टि में व्यष्टियों की संख्या का बढ़ना समष्टि वृद्धि (Population growth) कहलाता है। वैसे किसी भी जाति के लिये समष्टि का आकार स्थितिक (static) नहीं होता है। यह समय-समय पर बदलता रहता है जो विभिन्न कारकों जैसे आहार उपलब्घता, परभक्षण दाब और मौसमी परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
यदि उपरोक्त दशाएँ अनुकूल होती हैं तो समष्टि की वृद्धि होती है परंतु प्रतिकूल दराओं के होने पर समध्टि की हानि होती है। किसी आवास में समष्टि का घनत्व चार मूलभूत प्रक्रमों में घटता व बढ़ता है। इन चारों में से जन्म दर व आप्रवासन (migration) समष्टि घनत्व को बढ़ाते है अरकि मृत्युदर तथा उत्प्रवासन (Emigration) इसे घटाते हैं।
(i) जन्म दर (Natality) समस्त जीव प्रजनन क्रिया द्वारा अपनी संतति में वृद्धि करके समष्टि में वृद्धि करते हैं अतः एक निश्चित अवधि में किसी समष्टि द्वारा उत्पन्न नये जोवों की औसत संख्या को उस समष्टि की जन्म दर कहते हैं।
(ii) मृत्यु दर (Death rate or Mortality)—समष्टि में सभी जीव एक निश्चित समय उपरांत मरते हैं अतः एक निश्चित अव्वि में समष्टि में मरने वाले जीवों की संख्या को मृत्यु दर कहते हैं। इससे समष्टि में कमी आती है।
(iii) आप्रवासन या अन्तःप्रवास (Immigration)- किसी स्थान पर एक जाति के जीवों का आगमन अन्तःप्रवास कहलाता है। इस प्रकार के प्रवास में किसी क्षेत्र में अंदर की ओर केवल एक तरफ गति होती है। इस प्रक्रिया फलस्वरूप आये हुये जीव वापस न तो लौटते हैं व न ही इरादा रखते हैं।
(iv) उत्प्रवासन या बहि:प्रवास (Emigration)-इस प्रक्रिया में जीवों का गमन आवास को छोड़कर अन्य स्थान की ओर होता है या एक देश से दूसरे देश की ओर होता है। अतः एक क्षेत्र से जाति के निकास को उत्प्रवासन कहते हैं। यह निकास स्थायी होता है क्योंकि ये जीव वापस पूर्व स्थान की और नहीं लौटते हैं।
इसलिये यदि समय t पर समष्टि धनत्व N है तो समय t+I पर इसका घनत्व
Nt+I = N1 + [(B+I) -(D+E)]
N1 = एक समय पर समष्टि घनत्व, B = जन्म दर (Birth rate), I = आप्रवासन (Immigration), D = मृत्यु दर (Death rate), E = उत्त्रवासन (Emigration) है।
उपरोक्त समीकरण को देखने पर हम यह कह सकते है कि यदि जन्मदर व आप्रवासन अधिक हो रहा है तब समष्टि घनत्व बढ़ जायेगा परंतु मृत्युदर व उत्त्रवासन अधिक होने पर समष्टि घनत्व घट जायेगा। सामान्यतः समष्टि घनत्व को जन्म दर व मृत्यु दर ही प्रभावित करते हैं। उत्प्रवासन व आप्रवासन इसे कम प्रभावित करते हैं परंत ऐसे समय में जब कहीं नया आवास बना हो तब वहाँ का समष्टि घनत्व जन्म दर से न बढ़कर बल्कि आप्रवासन से बढ़ेगा।
वृद्धि मॉडल (Growth Model)-वृद्धि मॉडल के दो प्रारूप होते हैं-चरघातांकी वृद्धि तथा संभार तंत्र वृद्धि।
(अ) चरघातांकी वृद्धि (Exponential growth)-किसी भी समष्टि की निरंतर वृद्धि के लिये पर्याप्त संसाधन (आहार और स्थान) उपलब्ध होना आवश्यक है। यदि यह दोनों उपलब्ध हैं तब समष्टि की वृद्धि अबाधित रूप से चलती रहेगी। इसे डार्विन ने अपने प्राकृतिक वरण के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुये बताया था। ऐसी स्थिति में समष्टि चरघातांकी या ज्यामितीय (geometrical) शैली में वृद्धि करती है। यदि समष्टि घनत्व N में प्रति व्यक्ति जन्म दर को b से व प्रति व्यक्ति मृत्यु दर को d से दर्शाएं तब दिये गये समय t में वृद्धि की कमी या अधिकता को निम्न समीकरण द्वारा दर्शा सकते हैं-
r = प्राकृतिक वृद्धि की इंट्रीन्जिक दर (intrinsic rate of natural increase) कहते हैं।
N = समष्टि का आकार
r का मान अलग-अलग समष्टियों के लिये अलग-अलग होता है, जैसे नार्वे चूहे के लिये r 0.015, आटा भृंग (floor betel) के लिये 0.12 तथा मानव आबादी के लिये 0.0205 होता है (1981 की गणना के अनुसार)। उपरोक्त दी गई समीकरण समष्टि के चरघातांकी था ज्यामितीय वृद्धि को बताता है।
और जबN को समय के संदर्भ में आरेखित करते हैं तो इससेJ-आकार का वक्र बनता है। अतः हम चरघातांकी समीकरण समाकलीय रूप से निम्न प्रकार से बता सकते हैं-
Nt = Noert
Nt = समय t में समष्टि घनत्व
No = समय शून्य में समष्टि घनत्व
r = प्राकृतिक वृद्धि की इंट्रीन्जिक दर (आंतरिक दर)
e = प्राकृतिक लघुगणकों (logarithms) का आधार (2.71828)
असीमित संसाधन परिस्थितियों में चरघातांकी रूप से वृद्धि करने वाली कोई भी जाति कुछ ही समय में विशाल समष्टि घनत्वों तक पहुंच सकती है। डार्विन ने बताया कि हाथी जैसा धीमे बढ़ने वाला प्राणी, किसी प्रकार की रोक न होने पर विशाल संख्या तक पहुँच सकता है।
(ब) संभार तंत्र (Logistic growth)-प्रकृति में किसी भी समष्टि के पास इतने असीमित संसाधन नहीं होते जिससे कि चरघातांकी वृद्धि होती रहे। इसके कारण सीमित संसाधनों के लिये व्यष्टियों में प्रतिस्पर्धा होती है। प्रतिस्पर्धा के कारण अन्त में ‘योग्यतम’ व्यष्टि जीवित रह पाती है और जनन करती रहती है। इस प्रकार के वृद्धि प्रारूप में समष्टि की सजीव संख्या में प्रारम्भ में तो धीरे-धीरे वृद्धि होती है, इसे पश्चता प्रावस्था (Lag Phase) कहते हैं।
परन्तु इसके पश्चात् वृद्धि की दर तेजी से बढ़ती है। समष्टि की तेजी से वृद्धि होने पर वातावरणीय प्रतिरोध बढ़ जाने के कारण एक संतुलन स्तर या स्थिर अवस्था (Stationary Phase) स्थापित हो जाती है। यदि इस प्रकार की वृद्धि प्रदर्शित कर रही समष्टि एवं समय के मध्य एक आरेख बनाया जावे तो एक S – आकार का वक्र बनता है। इस वक्र को सिग्माइड वक्र (Sigmoid curve) कहते हैं। इस प्रकार की समष्टि वृद्धि विर्हुस्ट-पर्ल लॉजिस्टिक वृद्धि (Verhulst-Pearl logistic growth) कहलाती है। इसे निम्न समीकरण द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है-
अधिकतर प्राणियों की समष्टियों में वृद्धि हेतु संसाधन सीमित होते हैं और धीरे-धीरे और अधिक सीमित होते जायेंगे। इस कारण से लॉजिस्टिक वृद्धि मॉडल को अधिक यथार्थपूर्ण माना जाता है।
प्रश्न 3.
पारिस्थितिकी के जैविक कारकों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर:
सजीवों के समस्त जैविक क्रियाओं तथा अन्योन्यक्रियाओं के प्रभाव को जैविक कारक कहते हैं। ओडम ने समस्त जैविक सम्बन्धों को धनात्मक तथा ऋणात्मक अन्योन्यक्रियाओं में बाँटा है।
I. धनात्मक अन्योन्यक्रियाएँ (Positive interactions ) – इस प्रकार की क्रियाओं में एक या दोनों जातियों को लाभ पहुँचता है। ये तीन प्रकार की होती हैं-
(अ) सहोपकारिता (Mutualism) – इसमें दोनों जातियों को लाभ पहुँचता है तथा जीवनयापन हेतु दोनों का साथ आवश्यक है। उदा. – शैक, सहजीवी नाइट्रोजन स्थिर कारक, कवकमूल साहचर्य आदि । कुछ उच्च श्रेणी के पौधों की मूलों व कवक में साहचर्य होता है, इसे कवकमूल साहचर्य कहते हैं। उदा. पाइनस, ओक, हिकरी, बीच · आदि। इनमें कवक जल व खनिज लवणों का अवशोषण कर पौधे को उपलब्ध करवाता है तथा मूल कवक को भोजन प्रदान करते हैं। इस प्रकार के पौधों की मूल में मूलरोमों का अभाव होता है।
(ब ) प्राक् सहयोगिता (Protocooperation)-इसमें दोनों समष्टियों को लाभ होता है परंतु जीवनयापन हेतु साथ रहना आवश्यक नहीं होता है। उदा. समुद्री एनिमोन तथा हर्मिट केंकड़े के बीच इसी प्रकार का सम्बन्ध होता है। समुद्री एनिमोन केंकड़े के कवच से चिपका रहता है जो इसे भोजन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है तथा समुद्री एनिमोन अपनी दंश कोशिकाओं के हर्मिट केंकड़े को शत्रुओं से सुरक्षा प्रदान करता है।
(स) सहभोजिता (Commensalism) – इस साहचर्य में दोनों में से केवल एक को लाभ होता है लेकिन हानि किसी को नहीं होती है। अधिपादप तथा कंठलताएँ इसका उपयुक्त उदाहरण हैं। अधिपादप स्वपोषी होते हुए भी अन्य पौधों पर उगते हैं। ये वेलामेन (Velamen) मूल द्वारा आर्द्रता को ग्रहण करते हैं तथा प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन बनाते हैं।
उदा.- वैन्डा तथा आर्किड्स । हरित शैवाल बेक्लेडिया (Basicladia) अलवणीय जल में पाये जाने वाले कछुए के कवच पर उगता है, यह अधिजन्तु का उदाहरण है। कंठलताएँ काष्ठीय आरोही पौधे हैं जो पृथ्वी पर उगकर अन्य पेड़ों का सहारा लेकर ऊपर चढ़ते हैं तथा उनके शीर्ष भागों पर फैल जाते हैं ताकि उन्हें उचित प्रकाश प्राप्त हो उदा. टीनोस्पोरा, बिग्नोनिया, बोगेनविलिया आदि ।
II. ऋणात्मक अन्योन्यक्रियाएँ (Negative interactions) – इस प्रकार का सहजीवन जिसमें एक या दोनों जीव को हानि पहुँचती है। इन्हें ऋणात्मक अन्योन्यक्रियाएँ या विरोध ( antagonism) कहते हैं। ऐसे सम्बन्धों को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है –
(अ) शोषण (Exploitation) – इसमें एक जीव अन्य जीव को आधार, आश्रय या भोजन हेतु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उपभोग करके हानि पहुँचाता है। भोजन के लिए शोषण दो प्रकार का होता है-
(i) परजीविता (Parasitism) – वे जीव जो भोजन के लिए अन्य जीव पर निर्भर रहते हैं, उन्हें परजीवी कहते हैं तथा जिससे भोजन प्राप्त करते हैं उसे परपोषी (host) कहते हैं। परजीवी, परपोषी से चूषकांग (haustoria) की सहायता से भोजन चूसते हैं।
परजीवी दो प्रकार के होते हैं- बाह्य परजीवी (Ectoparasite) – ऐसे परजीवी, परपोषी के बाहर रहते हैं किन्तु चूषकांगों को परपोषी की कोशिका में प्रवेश करा देते हैं। उदा. – अमरबेल, कसाईथा (Cassytha) आदि । ऐसे परजीवी जब परपोषी की मूलों से भोजन प्राप्त करते हैं तो मूल परजीवी कहलाते हैं।
ये आंशिक या पूर्ण मूल परजीवी हो सकते हैं, जैसे चंदन, शीशम, सीरस की जड़ों पर आंशिक परजीवी होता है। स्ट्राइगा घासों पर तथा ऑरोबैंकी, सोलेनेसी व क्रूसीफेरी कुल के पादपों की जड़ों पर पूर्ण मूल परजीवी होते हैं। वे परजीवी जो परपोषी के स्तम्भ से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, जैसे अमरबेल, बेर, आक आदि पर पूर्ण स्तम्भ परजीवी होता है ।
कसाई था नीम पर पूर्ण स्तम्भ परजीवी तथा लोरेन्थस व विस्कम क्रमशः बोसविलीया (Boswellia) व पाइनस पर आंशिक स्तम्भ परजीवी होता है। अन्त: परजीवी (Endoparasite ) – इसमें परजीवी, परपोषी की कोशिकाओं के अन्दर रहते हैं, जैसे विषाणु, जीवाणु, माइकोप्लाज्मा आदि।
(ii) परभक्षिता (Predation ) – कुछ जीव अन्य जीवों को भोजन के लिए उपयोग करते हैं। प्रायः परभक्षी जन्तु होते हैं जो शाकाहारी या मांसाहारी हो सकते हैं। कवक डेक्टिलेला तथा जुफेगस आदि कीटों, गोलकृमि आदि को खाते हैं। कुछ कीटभक्षी पादप जैसे नेपेन्थीज, ड्रोसेरा, यूट्रीकुलेरिया, डायोनिया आदि प्रायः नाइट्रोजन की कमी व जलाक्रांत मृदा में उगते हैं। ये पौधे अपने विशेष अंगों की सहायता से कीटों को खाते हैं।
(ब) प्रतिजीविता (Antibiosis ) – इसमें एक जीव द्वारा कुछ रासायनिक पदार्थों का स्रवण किया जाता है जिससे दूसरे जीव की वृद्धि पूर्ण या आंशिक रूप से अवरुद्ध हो जाती है या उसकी मृत्यु हो जाती है, इसे प्रतिजीविता कहते हैं। कुछ उच्च श्रेणी पादपों की जड़ों से ऐसे रसायनों का स्रवण होता है जिससे दूसरे जाति के पौधों के बीजों के अंकुरण संदमित हो जाते हैं, इसे एलीलोपैथी (allelopathy) कहते हैं। उदा.- एरिस्टिडा घास फीनोल जैसे पदार्थों का स्रवण कर नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु व शैवालों की वृद्धि को रोक देती है ।
(स) स्पर्धा (Competition ) – पर्यावरण की समान आवश्यकताओं को प्राप्त करने के लिए जीवों में स्पर्धा उत्पन्न होती है। यह स्पर्धा मुख्यतः जल, प्रकाश, पोषक तत्वों व आश्रय के लिए होती है। यह स्पर्धा जब एक ही जाति के पादपों के बीच होती है तो उसे अन्तरजातीय स्पर्धा कहते हैं। दो भिन्न जातियों के बीच होने वाली स्पर्धा को अन्तरजातीय स्पर्धा कहा जाता है।
प्रश्न 4.
तापमान पौधों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
सामान्यतः पौधे 0° से. से 52° से. तापमान परिसर में अपनी समस्त जैविक क्रियाओं को संचालित करते हैं किन्तु 20° से. से 30° से. का तापमान पादप वृद्धि हेतु अनुकूल होता है। तापमान पौधों को अग्र प्रकार से प्रभावित करता है-
1. उपापचयी क्रियाएँ (Metabolic activities) – जीवों की समस्त उपापचयी क्रियायें तापमान की एक निश्चित परास के अन्दर एन्जाइमों की सहायता से होती हैं। प्रत्येक 10° से. तापमान बढ़ने पर रासायनिक क्रिया दुगुनी हो जाती है। इसे Q10 या तापमान गुणांक कहते हैं। अधिक ताप पर एन्जाइम विकृत हो जाते हैं।
2. वाष्पोत्सर्जन (Transpiration)- अधिक तापमान पर वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है तथा कम तापमान पर वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।
3. अवशोषण (Absorption ) – स्थलीय पौधों में जड़ों द्वारा अवशोषण 20° से. से 30° से. के बीच सबसे अधिक होता है। 0° से. के आसपास अवशोषण प्रायः रुक जाता है। 0° से. पर जल बर्फ में बदल जाता है। इस प्रकार के आवास स्थल कार्यिकी शुष्क होते हैं।
4. प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis ) – प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया प्राय: 5° से. ताप पर आरम्भ हो जाती है किन्तु इस क्रिया के लिए अनुकूलतम तापमान 10° से. से 30° से. है। एक सीमा तक ताप वृद्धि के पश्चात् प्रकाश संश्लेषण क्रिया में भारी गिरावट आती है क्योंकि अधिक ताप पर प्रकाश संश्लेषणीय एन्जाइम्स विकृत हो जाते हैं।
5. श्वसन (Respiration ) – श्वसन क्रिया पर तापमान का प्रभाव 0° से. से 40° से. के मध्य होता है। जैसे-जैसे तापमान बढ़ता जाता है श्वसन दर कम हो जाती है। इसमें भी उच्च ताप पर श्वसनीय एन्जाइम नष्ट हो जाते हैं।
6. गति ( Movement ) – पौधों में तापानुचलनी (thermotactic) व तापानुकुंचनी ( thermonastic ) गतियाँ ताप के उद्दीपन के कारण होती हैं।
7. तापकालिता (Thermoperiodism ) – पौधों की कुछ कार्यिक क्रियायें तापमान के दैनिक चक्र द्वारा प्रभावित व नियंत्रित होती हैं। उदाहरण के लिए, टमाटर में पुष्पन तभी होता है जब तापमान परास (range) 18° से. से 26° से. के बीच की होती है। इस प्रकार के तापक्रम को तापकालिता कहते हैं।
8. बसन्तीकरण (Vernalisation)- कुछ पौधों में पुष्पों का निर्माण न्यून ताप पर होता है। बीज पर शीत या न्यून ताप का प्रयोग द्वारा पुष्पीकरण शीघ्र प्राप्त करने की क्रिया को बसन्तीकरण कहते हैं, किन्तु इसके लिए ऑक्सीजन की उपस्थिति आवश्यक है। वैज्ञानिकों के अनुसार बसन्तीकरण में वर्नेलिन नामक पदार्थ बनता है जो फ्लोरीजन (florigen ) या जिबरेलिन (gibberellin) में परिवर्तित हो जाता है। यह पुष्पीकरण को समय से पूर्व प्रारम्भ करने के लिए उत्तरदायी होता है।
9. पादप वृद्धि पर प्रभाव (Effect on plant growth) – अधिक व कम ताप दोनों ही पादप वृद्धि को अधिक प्रभावित करते हैं। न्यून या कम ताप से पौधों में तीन प्रकार की शीत क्षति (cold injury) हो सकती है-
- निर्जलीकरण (dessication),
- द्रुतशीतलन क्षति (chilling injury) तथा
- प्रशीतलन क्षति ( freezing injury)
प्राय: 40° से. ताप पर जीवद्रव्य न्यूनतम क्रिया करने लगता है तथा 90° से. पर निष्क्रिय या मृत हो जाता है। इसे ऊष्मा क्षति (heat injury) कहते हैं। अतः न्यून या उच्च तापक्रम पर पौधे या तो प्रसुप्त रहते हैं या फिर मृत हो जाते हैं। अनेक मरुस्थलीय पौधे आकारिकीय, शारीरिकीय व कार्यिकीय अनुकूलन उत्पन्न कर 66° से. ताप पर भी जीवित रहते हैं। इन पौधों को ऊष्मा प्रतिरोध (heat resistant) कहते हैं। यद्यपि हवा में सूखी यीस्ट कोशिकाएँ 114° से. तथा जीवाणु 120° से. से 130° से. तक कार्यशील बने रह सकते हैं। कुछ कवक तो 89° से. ताप पर भी जीवित रहते हैं।
10. वनस्पति के विस्तार पर प्रभाव (Effect on distribution of vegetation) – तापक्रम का वनस्पति के विस्तारण पर भी प्रभाव पड़ता है । ताप के आधार पर समस्त वनस्पति को उच्चतापी, मध्यतापी, निम्नतापी तथा अतिनिम्नतापी या हैकिस्टोथर्म में विभक्त किया गया है। भूमध्य रेखा से उत्तरी या दक्षिणी ध्रुवों की ओर जैसे-जैसे अक्षांश बढ़ते जाते हैं त्यों- त्यों तापमान कम होता जाता है। इसी प्रकार समुद्र से पहाड़ों की ओर ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान कम होता जाता है। दोनों ओर लगभग समान प्रकार की वनस्पति समूह मिलते हैं जैसे उष्णकटिबन्धीय वर्षा सदाबहार वन, उष्णकटिबन्धीय वन, शंकुधारी वन, अल्पाइन वनस्पति आदि ।
प्रश्न 5.
पौधों पर प्रकाश के प्रभाव बताइए।
उत्तर:
प्रकाश का मुख्य स्रोत सूर्य है। सूर्य विकिरण का केवल 390nm से 760nm तक का दृश्यमान वर्णक्रम ही दृश्य प्रकाश (visible light) कहलाता है तथा इसे ही प्रकाश संश्लेषी सक्रिय विकिरण (PAR) कहते हैं। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रकाश के नीले (430 से 470 nm) और लाल (650 से 760 nm ) भाग में अधिकतम होती है। प्रकाश की तीव्रता तथा अवधि का भी विशेष महत्त्व होता है। पादपों पर प्रकाश के निम्न प्रभाव होते हैं-
1. प्रकाश संश्लेषण पर प्रभाव (Effect on Photosynthesis) – पौधों में पर्णहरिम का निर्माण प्रकाश की उपस्थिति में होता है। प्रकाश संश्लेषण की प्रकाशीय क्रिया में प्रकाश का महत्त्वपूर्ण योगदान है। प्रकाशीय ऊर्जा के आधार पर ही फोटोफोस्फोराइलेशन क्रिया द्वारा ATP अणुओं का निर्माण होता है तथा जल का प्रकाश अपघटन द्वारा सह एन्जाइम NADPH बनता है। प्रकाश संश्लेषण की अप्रकाशी अभिक्रिया में CO2 के स्थिरीकरण हेतु NADPH, महत्त्वपूर्ण होते हैं।
2. वाष्पोत्सर्जन पर प्रभाव (Effect on transpiration) – पौधों में रंध्रों का खुलना व बन्द होना प्रकाश पर आधारित है। रंध्र के द्वारा गैसों तथा जलवाष्प का विनिमय होता है। तीव्र प्रकाश में पर्णरंध्र खुल जाते हैं तथा वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है। वाष्पोत्सर्जन की दर पर ही अवशोषण तथा रसारोहरण की दर निर्भर करती है।
3. श्वसन व पादप वृद्धि पर प्रभाव (Effect on respiration and plant growth) – अनेक पौधों में प्रकाश की तीव्रता में श्वसन दर बढ़ जाती है। श्वसन में वृद्धि प्रकाश के कोशिका झिल्ली का पारगम्यता तथा जीवद्रव्य की श्यानता ( viscocity) पर प्रभाव के फलस्वरूप होती है।
पौधों की अनेक क्रियायें जैसे बीजों का अंकुरण, नवोद्भिद की वृद्धि, कलियों का खिलना, प्ररोह की शीर्ष वृद्धि आदि क्रियायें प्रकाश द्वारा प्रभावित होती हैं। प्रकाश की अनुपस्थिति में नवोद्भिद पीला रहकर पाण्डुरित (etiolated) रह जाता है, इसे पाण्डुरिता (etiolation ) कहते हैं। पादप वृद्धि हार्मोन्स तथा फ्लोरीजन (पुष्पीय हार्मोन) के निर्माण में भी प्रकाश महत्त्वपूर्ण है।
4. पादप वितरण पर प्रकाश का प्रभाव (Effect of light on plant distribution ) – पौधों के वितरण तथा वनस्पति के स्तरीकरण में प्रकाश एक महत्त्वपूर्ण कारक है। जलीय तंत्र में भी पादप वितरण प्रकाश की उपस्थिति व तीव्रता से नियंत्रित होता है। फलस्वरूप जल में वनस्पति के भिन्न-भिन्न क्षेत्र (जैसे- वेलांचल, सरोवरी तथा गंभीर क्षेत्र) बन जाते हैं।
5. प्रकाश का पौधों की आन्तरिक रचना पर प्रभाव (Effect of light on internal structure of plants) प्रकाश के आधार पर पौधों की आन्तरिक संरचना में अन्तर आता है। द्विबीजपत्री पौधों की पृष्ठाधारी पत्तियों में पर्णमध्योतक का खम्भ ऊतक तथा स्पंजी मृदूतक में विभेदन दोनों सतह पर प्रकाश के असंगत वितरण के कारण होता है।
एकबीजपत्री पौधों की पत्तियों को दोनों पार्श्व सतह को बराबर सूर्य का प्रकाश प्राप्त होता है अतः उनके पर्णमध्योतक में इस प्रकार का विभेदन नहीं पाया जाता है। जलीय तंत्र में प्रकाश एक सीमाकारक है। इसमें प्रकाश की उपलब्धता अधिकांश जैविक क्रियाओं को नियंत्रित करती है।
झील, समुद्र तथा गहरे जलीय तंत्र में प्रकाश की उपलब्धता तथा इसकी मात्रा उत्पादक व उपभोक्ता जीवों के प्रकार व जीव संख्या को निर्धारित करती है। जैसे अधिकतर पादप्लवक ( phytoplankton ) जल की सतह पर रहते हैं जहाँ उन्हें प्रकाश प्राप्त होता है जबकि नितलस्थ (benthic ) जन्तु झील के तलछट पर या तलछट के भीतर रहते हैं।
प्रश्न 6.
स्थलाकृतिक कारक क्या होते हैं? पौधों को प्रभावित करने वाले स्थलाकृतिक कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भूमि या स्थल की आकृति जैसे तुंगता, घाटियाँ, पर्वतों की दिशायें आदि स्थलाकृतिक कारक होते हैं। अक्षांश, समुद्रतल से ऊँचाई या तुंगता ( altitude) भूमध्यरेखा से दूरी तथा ढाल एवं पर्वतों की. दिशा, घाटियाँ आदि का पौधों के प्रकार व उनके वितरण पर प्रभाव होता है। स्थलाकृतिक कारक मुख्यरूप से चार प्रकार के होते हैं-
1. तुंगता या ऊँचाई ( Altitude) – प्राय: किसी स्थान की समुद्रतल से ऊँचाई बढ़ने पर ताप कम हो जाता है। यह देखा गया है कि समुद्रतल से प्रत्येक 165 मीटर की ऊँचाई पर तापमान 1° से. गिर जाता है। इस प्रकार प्रत्येक 1000 मीटर की ऊँचाई पर लगभग 6-7° से. तक तापमान कम हो जाता है परन्तु वर्षा अधिक होती है।
प्रत्येक 1000 से 1500 मीटर की ऊँचाई पर वनस्पति में सुस्पष्ट परिवर्तन आते हैं। पश्चिमी हिमालय के ढलान के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्रथम 1200 मीटर की ऊँचाई पर मिश्रित पर्णपाती वन, 1200-3300 मीटर तक शंकुधारी वन तथा ऊँचाई के साथ-साथ रोडोडेन्ड्रोन पौधे पाये जाते हैं। 3600 मीटर पर वन समाप्त हो जाते हैं। 4200 मीटर की ऊँचाई पर अल्पाइन क्षेत्र होता है जिसके नीचे कुछ मॉस, शैक आदि पाये जाते हैं। सबसे अधिक ऊँचाई पर अल्पाइन किस्म की वनस्पतियाँ मिलती हैं तथा इससे भी अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्र वनस्पति रहित होते हैं।
2. ढाल (Slope) – पर्वतों पर ढाल होती है। वर्षा के समय इन ढलानों पर जल बहकर नीचे आ जाता है तथा मृदा में इसका रिसाव नहीं हो पाता है । फलस्वरूप इन ढलानों पर वनस्पति का पूर्ण अभाव रहता है या कुछ झाड़ीनुमा मरुद्भिद् वनस्पति मिलती है, जैसे अगेव, यूफोर्बिया आदि।
3. ढाल का अनावरण (Exposure of slope ) – पर्वतों के दक्षिण अभिमुखी ढालों पर उत्तर अभिमुख ढालों की अपेक्षा अधिक धूप तथा गर्मी पड़ती है। इसी कारण दक्षिणी ढलानों पर मरुद्भिद् वनस्पति तथा उत्तरी ढलानों पर वन तथा सतही वनस्पति अधिक संख्या में होती है।
4. पर्वतों की दिशा (Direction of mountains) – पर्वत दिशाओं का जलवायु तथा वनस्पति दोनों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। ये हवाओं को निश्चित दिशा में मोड़कर वात उत्पन्न करते हैं। दिशा के अनुसार पर्वतों को प्राप्त होने वाली प्रकाश की मात्रा, वायु तथा वायुमण्डलीय आर्द्रता में परिवर्तन आते हैं। ऊँचे पर्वतों से जैसे ही मानसूनी हवाएँ टकराती हैं, उससे वर्षा होती है।
यही कारण है कि बाहरी हिमालय सघन वनों से ढँका हुआ है ताकि यहाँ समोद्भिद् प्रकार की वनस्पति की बाहुल्यता होती है। मध्य व केन्द्रवर्ती हिमालय तुलनात्मक शुष्क है तथा यहाँ मरुद्भिद् प्रकार की वनस्पति मिलती है। यही कारण है कि ऊँची पर्वत श्रृंखलाओं को जलवायु अवरोध (climatic barriers) कहते हैं।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न-
1. निम्नलिखित में से कौन एक जीव संख्या का एक गुण नहीं है? (NEET-2020)
(अ) जन्म दर
(ब) मृत्यु दर
(स) जाति परस्पर क्रिया
(द) लिंग अनुपात
उत्तर:
(स) जाति परस्पर क्रिया
2. निम्नलिखित में से कौनसा पादप शलभ की एक जाति के साथ ऐसा निकट सम्बन्ध दर्शाता है, जिसमें कोई भी एक-दूसरे के बिना अपना जीवन चक्र पूरा नहीं कर सकता? (NEET-2018)
(अ) केला
(ब) भुक्का
(स) हाइड्रिला
(द) वायोला
उत्तर:
(ब) भुक्का
3. श्वसन मूल किससे होते हैं? (NEET-2018)
(अ) माँसाहारी पादपों में
(ब) स्वतंत्र-अल्पलावक जलोद्भिद् में
(स) लवणमृदोद्भिद् में
(द) जलमान जलोद्भिद् में
उत्तर:
(स) लवणमृदोद्भिद् में
4. निकेत क्या है? (NEET-2018)
(अ) तापमान का वह परास जो जीव को रहने के लिए चाहिए
(ब) वह भौतिक स्थान जहाँ एक जीवधारी रहता है
(स) जीव के पर्यावरण में सभी जैविक कारक
(द) एक जीव द्वारा निभाई गई कार्यात्मक भूमिका, जहाँ वह रहता है।
उत्तर:
(द) एक जीव द्वारा निभाई गई कार्यात्मक भूमिका, जहाँ वह रहता है।
5. निम्नलिखित में से चिकित्सा विज्ञान में प्रतिजैविक के उत्पादन के लिए समष्टि की कौनसी पारस्परिक क्रिया बहुदा प्रयोग की जाती है? (NEET-2018)
(अ) परजीविता
(ब) सहोपकारिता
(स) सहभोजिता
(द) अंतराजातीय परजीविता (एमेन्सेलिज्म)
उत्तर:
(द) अंतराजातीय परजीविता (एमेन्सेलिज्म)
6. कवकमूल किसके उदाहरण हैं? (NEET-2017)
(अ) कवकरोधन
(ब) अंतराजातीय परजीविता
(स) प्रतिजीविता
(द) सहपरोपकारिका
उत्तर:
(द) सहपरोपकारिका
7. लॉजिस्टिक वृद्धि (संभार तंत्र) में अनंतस्पर्शी कब प्रास होता है? जब- (NEET-2017)
(अ) ‘r’ की मान शून्य की तरफ अग्रसर होता है
(ब) K=N
(स) K>N
(द) K<N
उत्तर:
(ब) K=N
8. सुस्पष्ट उध्ध्वाधर स्तरों में व्यवस्थित पादपों की अपनी लम्बाई के अनुसार उपस्थिति सबसे अच्छी कहाँ देखी जा सकती है? (NEET-2017)
(अ) उष्णकटिबन्धीय सवाना
(स) घास भूमि
(ब) उष्णकटिबन्धीय वर्षा वन
(द) शीतोष्ण वन
उत्तर:
(ब) उष्णकटिबन्धीय वर्षा वन
9. स्पर्धी अपवर्जन के नियम का प्रतिपादन किसने किया था? (NEET II-2016)
(अ) मैक्आर्थर
(ब) वरहुल्स्ट और पर्ल
(स) सी. डार्बिन
(द) जी.एफ. गॉसे
उत्तर:
(द) जी.एफ. गॉसे
10. स्पर्धी अपवर्जन का गॉसे नियम कहता है कि- (NEET-2016)
(अ) कोई भी दो स्पीशीज एक ही निकेत में असीमित अवधि के लिए नहीं रह सकती क्योंकि सीमाकारी संसाधान समान ही होते हैं।
(ब) अपेक्षाकृत बड़े आकार के जीव स्पर्धा द्वारा छोटे जन्तुओं को बाहर निकाल देते हैं।
(स) अधिक संख्या में पाए जाने वाली स्पीशीज स्पर्धा द्वारा कम संख्या में पाये जाने वाली स्पेशीज को अपवर्जित कर देगी।
(द) समान संसाधनों के लिए स्पर्धा उस स्पीशीज को अपवर्जित कर देगी जो भिन्न प्रकार के भोजन पर भी जीवित रह सकती है।
उत्तर:
(अ) कोई भी दो स्पीशीज एक ही निकेत में असीमित अवधि के लिए नहीं रह सकती क्योंकि सीमाकारी संसाधान समान ही होते हैं।
11. निम्नलिखित में से किस पारस्परिक क्रिया में दो सभी प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं? (NEET-2015)
(अ) परभक्षण
(ब) परजीविता
(स) सहोपकारिता
(द) स्पर्धा
उत्तर:
(द) स्पर्धा
12. एक ही पर्यावरण में रह रही विभिन्न स्पीशीजों की व्यट्टियों का पारस्परिक सम्बन्ध और क्रियात्मक क्रिया करना है- (NEET-2015)
(अ) जीवीय समुदाय
(ब) पारितंत्र
(स) समष्टि
(द) पारिस्थितिक निकेत
उत्तर:
(अ) जीवीय समुदाय
13. जिस प्रकार एक व्यक्ति गर्मी के मौसम में गर्मी से बचने के लिए दिल्ली से शिमला जाता है उसी प्रकार साइबेरिया और अन्य अत्यधिक ठंडे उत्तरी प्रदेशों से हजारों प्रवासी पक्षी किस ओर जाते हैं? (NEET-2014)
(अ) पश्चिमी घाट
(ब) मेघालय
(स) कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान
(द) केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान
उत्तर:
(द) केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान
14. एक स्थानबद्ध समुद्री एनीमोन केकड़े के कवच के अस्तर पर चिपक गया। यह सम्बन्ध क्या कहलाता है? (NEET-2013)
(अ) बाह्य परजीविता
(ब) सहजीविता
(स) सहयोजिता
(द) ऐमेन्सेलिज्म
उत्तर:
(ब) सहजीविता
15. नीलहरित शैवाल (सायनोबैक्टिरिया) धान के खेतों के अलावा किसके कायिक भाग के अन्दर भी पाये जाते हैं? (NEET-2013)
(अ) पाइनस
(ब) सायकस
(स) इम्वीसीटम
(द) साइलोटम
उत्तर:
(ब) सायकस
16. अमरबेल (कस्कुटा) किस एक का उदाहरण है? (Mains-2012)
(अ) बाह्य परजीविता
(ब) प्रजनन परजीविता
(स) परभक्षण
(द) अन्तःपरजीविता
उत्तर:
(अ) बाह्य परजीविता
17. नीचे दिये जा रहे आयुपिरामिड में किस प्रकार की मानव समष्टि प्रदर्शित की गई है? [CBSE PMT (Pre)-2011, NEET-2011]
(अ) गायब होती समष्टि
(ब) स्थिर समष्टि
(स) घटती समष्टि
(द) बढ़ती समष्टि
उत्तर:
(स) घटती समष्टि
18. लघुगणक समष्टि वृद्धि (लॉजिस्टिक जनसंख्या वृद्धि) को किस समीकरण से अभिव्यक्त किया जाता है? [CBSE PMT (Mains)-2011, NEET-2011]
उत्तर:
19. चारघातांकी जनसंख्या वृद्धि का सूत्र कौनसा है? (NEET-2006, Kerala PMT-2010)
(अ) rN/dN = dt
(ब) dN/dt = rN
(स) dt/dN = rN
(द) dN/rN = dt
उत्तर:
(ब) dN/dt = rN
20. निश्चित वहन क्षमता के द्वारा सीमित जनसंख्या वाली लॉजिस्टिक वृद्धि का आकार किस अक्षर के समान होगा? (DUMET-2010)
(अ) J
(ब) L
(स) M
(द) S
उत्तर:
(द) S
21. निम्नलिखित में से किस एक में क्वेरकस की जातियाँ एक प्रभावी घटक होती हैं? (NEET-2008)
(अ) स्क्रब वन
(ब) उष्णकटिबंधीय वर्षा वन
(स) शीतोष्ण पर्णपाती वन
(द) ऐल्पाइन वन
उत्तर:
(स) शीतोष्ण पर्णपाती वन
22. किसी क्षेत्र में हाथियों की समष्टि की अधिक सघनता का नतीजा क्या हो सकता है? (NEET-2007)
(अ) एक-दूसरे का परभक्षण
(ब) सहोपकारिता
(स) अन्तरजातीय प्रतिस्पर्धा
(द) अन्तर्जातीय प्रतिस्पर्धा
उत्तर:
(अ) एक-दूसरे का परभक्षण
23. आयु संरचना का ज्यामितीय प्रदर्शन क्या दर्शाता है? (NEET-2007, CBSE PMT-2007)
(अ) जैविक समुदाय
(ब) जनसंख्या
(स) भूस्खलन
(द) परिस्थितिकी
उत्तर:
(ब) जनसंख्या
24. गर्तीय रंध्र (sunken stomata) पाये जाते हैं- (Orissa JEE 2006)
(अ) मरुद्भिदों में
(ब) जलोद्भिदों में
(स) समोद्भिदों में
(द) लवणोद्भिदों में
उत्तर:
(अ) मरुद्भिदों में
25. इ.पी. ओडम है- (HP PMT 2005)
(अ) ब्रायोलोजिस्ट
(ब) फिजियोलोजिस्ट
(स) इकोलोजिस्ट
(द) माइकोलोजिस्ट
उत्तर:
(स) इकोलोजिस्ट
26. छोटी मछली शार्क के निचले तल के पास चिपक जाती है और पोषण प्राप्त करती है, तो ऐसा संबंध कहलाता है- (BHU 2005)
(अ) सहजीविता
(ब) सहभोजिता
(स) परभक्षण
(द) परजीविता
उत्तर:
(ब) सहभोजिता
27. प्राणियों में शिकारियों से बचने की स्वाभाविक क्षमता होती है, गलत उदाहरण को चुनिये- (CBSE, 2005)
(अ) केमीलोन में रंग परिवर्तन
(ब) पफर मछली में हवा खींचकर बड़ा आकार
(स) सर्पों का विष
(द) माँस में मेलेनिन
उत्तर:
(स) सर्पों का विष
28. दो जातियाँ जिनमें दोनों साथी एक-दूसरे के लाभकारी होते हैं तो ऐसा संबंध कहलाता है- (HP PMT 2005)
(अ) परजीविता
(ब) सहजीविता
(स) सहभोजिता (Commensalism)
(द) परभक्षण (Predation)
उत्तर:
(ब) सहजीविता
29. निम्न में से कौनसा, वातावरण का भाग नहीं है- (MP PMT 2005)
(अ) प्रकाश
(ब) तापमान
(स) मृदीय कारक
(द) अवक्षेपण
उत्तर:
(स) मृदीय कारक
30. शब्द ‘पारिस्थितिकी’ किसने प्रस्तावित किया- (M.P. PMT, 2003; KCET 2004)
(अ) हेकल
(ब) ओडम
(स) रीटर
(द) डोबेनमायर
उत्तर:
(स) रीटर
31. सहभोजिता होती है- (MP PMT 2004)
(अ) जब दोनों सहभागी लाभान्वित होते हैं।
(ब) जब दोनों सहभागियों को हानि होती है।
(स) कमजोर लाभान्वित होते हैं अपेक्षाकृत शक्तिशाली हानिकारक होते हैं।
(द) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(स) कमजोर लाभान्वित होते हैं अपेक्षाकृत शक्तिशाली हानिकारक होते हैं।
32. चरने वाले जंतुओं से संभवतः क्या लाभ है- (BVP 2003)
(अ) वन्य जीवधारियों को हटाना
(ब) खरपतवारों का नाश करना
(स) वन्य पौधों को हटाना
(द) उनके उत्सर्जी पदार्थों का मृदा में मिलना
उत्तर:
(द) उनके उत्सर्जी पदार्थों का मृदा में मिलना
33. पौधों की वृद्धि के लिये ह्यूमस आवश्यक है क्योंकि- (BVP 2003)
(अ) यह आंशिक अपघटित होती है
(ब) यह पत्तियों से व्युत्पन्नित होती है
(स) इसमें पोषक तत्वों की अधिकता एवं जल धारण करने की क्षमता भी अधिक होती है
(द) यह मृत कार्बनिक पदार्थों की बनी होती है
उत्तर:
(स) इसमें पोषक तत्वों की अधिकता एवं जल धारण करने की क्षमता भी अधिक होती है
34. निम्न में से कौनसा सही चयनित युग्म है- (AIIMS 2003)
(अ) शार्क एवं सकर मछलियाँ-असहभोजिता (Amensalism)
(ब) शैवाल एवं कवक का लाइकेन्स से-सहोपकारिता (Mutualism)
(स) आर्किड्स का वृक्षों पर उगना-परपोषिता
(द) परपोषिता (डोडर) का दूसरे पुष्पीय पौधों पर उगनाअधिपादपता
उत्तर:
(ब) शैवाल एवं कवक का लाइकेन्स से-सहोपकारिता (Mutualism)
35. झील के सतही जल में किसकी अधिकता होती है- (AFMC 2003)
(अ) कार्बनिक पदार्थ
(ब) खनिजों
(स) अकार्बनिक पदार्थ
(द) प्रदूषकों
उत्तर:
(अ) कार्बनिक पदार्थ
36. अधिकतर ह्यूमस की मात्रा पायी जाती है- (CPMT 2003)
(अ) सबसे निचली परत में
(ब) ऊपरी परत में
(स) मध्य परत में
(द) सभी जगह समान
उत्तर:
(ब) ऊपरी परत में
37. जलधारण क्षमता अधिकतम होती है- (CMC Ludhiana 2003)
(अ) मृत्तिका (Clay) या चिकनी मिट्टी में
(ब) बालू में
(स) गाद (silt) में
(द) बजरी (gravel) में
उत्तर:
(अ) मृत्तिका (Clay) या चिकनी मिट्टी में
38. किसी समष्टि में अबाधिकजनन की क्षमता को क्या कहते हैं? (NEET-2002)
(अ) जैव विभव
(ब) उपजाऊता
(स) वहन क्षमता
(द) जन्म दर
उत्तर:
(अ) जैव विभव