HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचणर

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचणर Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Important Questions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचणर

(A) वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

1. हृदय में संकुचन प्रारम्भ होता है-
(A) दायें अलिन्द से
(B) दायें निलय से
(C) बायें अलिन्द से
(D) बायें निलय से।
उत्तर:
(A) दायें अलिन्द से

2. निलय संकुचन किसके नियंत्रण में होता है ?
(A) SAN
(B) AVN
(C) पुरकिन्जे तन्तु
(D) पैपिलरी पेशियाँ।
उत्तर:
(A) SAN

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3. निलयों का संकुचन केन्द्र होता है-
(A) AVN
(B) SAN
(C) AVB
(D) पुरकिन्जे तन्तु ।
उत्तर:
(A) AVN

4. मनुष्य के हृदय के स्पन्दन का प्रकार होता है-
(A) न्यूरोजेनिक
(B) मायोजेनिक
(C) न्यूरोमायोजनिक
(D) इनमें से कोई नहीं ।
उत्तर:
(B) मायोजेनिक

5. हृदय में शिरा अलिन्द पर्व उपस्थित होता है-
(A) दायें निलय में
(B) बायें निलय में
(C) दायें अलिन्द में
(D) बायें अलिन्द में।
उत्तर:
(C) दायें अलिन्द में

6. हृदय स्पन्दन का नियमन निर्भर करता है-
(A) रुधिर में O2 की अधिकता पर
(B) गति निर्धारक की उपस्थिति पर
(C) थाइरॉक्सिन की उपस्थिति पर
(D) रुधिर की मात्रा पर ।
उत्तर:
(B) गति निर्धारक की उपस्थिति पर

7. मनुष्य के हृदय में स्पन्दन को प्रारम्भ करने वाली रचना है-
(A) SAN
(C) AVB
(B) AVN
(D) कैरोटिड लेखिन्थ
उत्तर:
(A) SAN

8. हृदय स्पन्दन में ‘डब’ की ध्वनि तब होती है, जब-
(A) त्रिवलनी कपाट खुलता है
(B) मिट्रिल कपाट बन्द होता है।
(C) मिट्रिल कपाट खुलता है।
(D) महाधमनी के अर्द्धचन्द्राकार कपाट बन्द होते हैं।
उत्तर:
(D) महाधमनी के अर्द्धचन्द्राकार कपाट बन्द होते हैं।

9. रुधिर का थक्का जमाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं-
(A) न्यूट्रोफिल
(C) थ्रोम्बोसाइट
(B) इथ्रोसाइट
(D) मोनोसाइट्स ।
उत्तर:
(C) थ्रोम्बोसाइट

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10. अनुशिथिलन के समय-
(A) रुधिर हृदय से निकलता है
(B) रुधिर हृदय में आता है।
(C) रुधिर निलय से निकलता है
(D) रुधिर फेफड़ों में आता है ।
उत्तर:
(B) रुधिर हृदय में आता है।

11. गति निर्धारक का कार्य है-
(A) हृद् स्पन्दन की दर को बढ़ाना
(B) हद् स्पन्दन की दर को घटाना
(C) हृद् स्पन्दन को प्रारम्भ करना
(D) हृदय को रक्त की सप्लाई का नियंत्रण ।
उत्तर:
(C) हृद् स्पन्दन को प्रारम्भ करना

12. हृदय का गति प्रेरक होता है-
(A) A.V. node
(B) S.A. node
(C) A.V पट
(D) हृदय रज्जु ।
उत्तर:
(B) S.A. node

13. हृदय में गति निर्धारक कहलाता है-
(A) अलिन्द निलय नोड
(B) पेपिलरी पेशियाँ
(C) पुरकिन्जे तन्तु
(D) शिरा अलिन्द नोड ।
उत्तर:
(D) शिरा अलिन्द नोड ।

14. गति प्रेरक हृदय में कहाँ स्थित होता है ?
(A) बायें अलिन्द में पल्मोनरी शिरा के छिद्र के पास
(B) बायें अलिन्द में यूस्टेकियन कपाट के पास
(C) अन्तरालिन्द पट्टी के पास
(D) अन्तर – निलय पट्टी के पास ।
उत्तर:
(B) बायें अलिन्द में यूस्टेकियन कपाट के पास

15. Rh फैक्टर की खोज की थी-
(A) कार्ल लैण्डस्टीनर ने
(B) विलियम हार्वे ने
(C) लैण्डस्टीनर एवं बीनर ने
(D) मैलपीबी ने।
उत्तर:
(C) लैण्डस्टीनर एवं बीनर ने

16. प्रथम हृदय ध्वनि है-
(A) निलय संकुचन के प्रारम्भ में विकसित ‘लब’ ध्वनि
(B) निलय संकुचन के प्रारम्भ में विकसित ‘डब’ ध्वनि
(C) संकुचन के अन्त में विकसित ‘लब’ ध्वनि
(D) संकुचन के अन्त में विकसित ‘डब’ ध्वनि ।
उत्तर:
(A) निलय संकुचन के प्रारम्भ में विकसित ‘लब’ ध्वनि

17. रक्त स्कंदन में सहायक है-
(A) Cat++
(B) Mg++
(C) K++
(D) Na++
उत्तर:
(A) Cat++

18. श्वेत रक्ताणुओं का कार्य है-
(A) ऑक्सीजन का संवहन करना
(B) CO2 का संवहन करना
(C) पोषक पदार्थों का संवहन करना
(D) शरीर की रोगाणुओं से सुरक्षा करना ।
उत्तर:
(D) शरीर की रोगाणुओं से सुरक्षा करना ।

19. लसीका (lymph) में होता है-
(A) RBC अधिक तथा WBC अनुपस्थित
(B) RBC अनुपस्थित तथा WBC अधिक
(C) RBC अनुपस्थित तथा WBC कम
(D) RBC अनुपस्थित तथा WBC अनुपस्थित ।
उत्तर:
(C) RBC अनुपस्थित तथा WBC कम

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20. किस रुधिर वर्ग में प्रतिरक्षी (एन्टीबॉडी) अनुपस्थित होते हैं ?
(A) रुधिर वर्ग A में
(B) रुधिर वर्ग B में
(C) रुधिर वर्ग AB में
(D) रुधिर वर्ग O में ।
उत्तर:
(C) रुधिर वर्ग AB में

21. वह रोग जो रुधिर में हीमोग्लोबिन की मात्रा में कमी होने के कारण होता है, क्या कहलाता है ? (RPMT)
(A) प्लूरिसी
(B) एम्फीसीमा
(C) रक्ताल्पता
(D) न्यूमोनिया ।
उत्तर:
(C) रक्ताल्पता

22. रुधिर में ऑक्सीजन का परिवहन होता है- (RPMT)
(A) ल्यूकोसाइट द्वारा
(B) थ्रोम्बोसाइट द्वारा
(C) प्लाज्मा द्वारा
(D) इरिथ्रोसाइट द्वारा।
उत्तर:
(D) इरिथ्रोसाइट द्वारा।

23. सभी स्तानियों की इरिथ्रोसाइट केन्द्रक विहीन होती है, इसको छोड़कर- (RPMT)
(A) मनुष्य
(B) बन्दर
(C) हाथी
(D) ऊंट ।
उत्तर:
(D) ऊंट ।

24. इरिथ्रोसाइट का निर्माण होता है- (RPMT)
(A) थाइमस में
(B) यकृत में
(C) अस्थिमज्जा में
(D) प्लीहा में।
उत्तर:
(C) अस्थिमज्जा में

25. हद् स्पंदन के लिए आवेग उत्पन्न होता है- (RPMT)
(A) हेन्सन नोड से
(B) साइनो अलिन्द नोड से
(C) रेनवियर, नोड
(D) अलिन्द निलय नोड ।
उत्तर:
(D) अलिन्द निलय नोड ।

26. रुधिर वर्ग A वाला मनुष्य रुधिर प्राप्त कर सकता है- (RPMT)
(A) AB से
(B) A और O से
(C) A और AB से
(D) AB और O रुधिर वर्ग से
उत्तर:
(B) A और O से

27. निम्न में से किस सरीसृप में चार वेश्मी हृदय पाया जाता है ? (RPMT 2001)
(A) छिपकली
(B) सर्प
(C) बिच्छू
(D) मगरमच्छ ।
उत्तर:
(D) मगरमच्छ ।

28. रुधिर का थक्का जमने के प्रारम्भ में आवश्यक है- (RPMT)
(A) हिपेरिन
(C) थ्रोम्बोप्लास्टिन व Ca++
(B) सीरोटोनिन
(D) फाइब्रिनोजन व प्रोथ्रोम्बिन ।
उत्तर:
(C) थ्रोम्बोप्लास्टिन व Ca++

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29. रुधिर द्वारा CO2 किस रूप में ले जायी जाती है ? (RPMT)
(A) HbCO2
(B) NaHCO3
(C) कार्बोनिक अम्ल
(D) HbCO2 कार्बोनिक अम्ल ।
उत्तर:
(C) कार्बोनिक अम्ल

30. रुधिर का थक्का बनते समय प्रयुक्त होता है- (UPCPMT)
(A) CO
(B) Ca2+
(C) Na+
(D) CI
उत्तर:
(B) Ca2+

31. यकृत से हृदय की ओर जाने रुचिर में अधिकता होती है- (UPCPMT)
(A) पित्त की
(B) यूरिया की
(C) अमोनिया की
(D) ऑक्सीजन की ।
उत्तर:
(B) यूरिया की

32. निम्न में से किस जोड़े को डॉक्टर एक से अधिक बच्चे की सलाह नहीं देगा ? (RPMT)
(A) Rh + नर व Rh मादा
(B) Rh नर व Rh+ मादा
(C) Rh + नर व Rh+ मादा
(D) Rh नर व Rh मादा ।
उत्तर:
(A) Rh + नर व Rh मादा

33. रीनल पोर्टल सिस्टम पाया जाता है- (CBSE PMT)
(A) सभी कशेरुकियों में
(B) सभी कॉडेंट्स में
(C) स्तनियों में अनुपस्थित
(D) सभी स्वनियों में ।
उत्तर:
(C) स्तनियों में अनुपस्थित

34. हमारे शरीर में प्रतिरक्षी हैं, जटिल- (UPCPMT)
(A) लाइपोप्रोटीन
(B) स्टीरॉइड
(C) प्रोस्टाग्लान्डिन्स
(D) ग्लाइको प्रोटीन्स |
उत्तर:
(D) ग्लाइको प्रोटीन्स |

35. परिसंचरण तन्त्र में अधिकतम सतही क्षेत्र देखा जाता है- (UPCPMT)
(A) हृदय में
(B) केशिकाओं में
(C) धमनिकाओं में
(D) शिराओं में।
उत्तर:
(B) केशिकाओं में

36. Rh कारक उपस्थित होता है- (RPMT)
(A) सभी कशेरुकियों में
(B) सभी स्तनियों में
(C) सभी सरीसृपों में
(D) मनुष्य तथा रीसस बन्दर में।
उत्तर:
(D) मनुष्य तथा रीसस बन्दर में।

(B) अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions )

प्रश्न 1.
मनुष्य का हृदय किस प्रकार का होता है ?
उत्तर:
मनुष्य का हृदय मायोजेनिक (Myogenic) होता है।

प्रश्न 2.
हृदय मायोजेनिक क्यों कहलाता है ?
उत्तर:
हृदय स्पंदन का आवेग हृदयी पेशियों से प्रारम्भ होने के कारण मायोजेनिक (पेशीचालित ) कहलाता है।

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प्रश्न 3.
कण्डरीय रज्जु (कॉर्डी टेन्डिनी) कहाँ स्थित होते हैं ?
उत्तर:
कण्डरीय रज्जु निलयों में स्थित होते हैं। इनका एक सिरा निलय की भित्ति से तथा दूसरा सिरा अलिन्द-निलय कपाटों से जुड़ा रहता है।

प्रश्न 4.
महाधमनी चाप (कैरोटिको सिस्टेमिक आर्च) कहाँ से प्रारम्भ होती है ?
उत्तर:
महाधमनी चाप बायें निलय से प्रारम्भ होती है।

प्रश्न 5.
त्रिवलनी कपाट कहाँ स्थित होता है ?
उत्तर:
त्रिवलनी कपाट (Tricuspid valve) दाहिने अलिन्द-निलय छिद्र पर स्थित होता है।

प्रश्न 6.
द्विवलनी कपाट कहाँ स्थित होता है ?
उत्तर:
द्विवलनी कपाट (Bicuspid valve) बायें अलिन्द्र-निलय छिद्र पर स्थित होता है।

प्रश्न 7.
मिट्रिल कपाट कहाँ स्थित होता है ?
उत्तर:
द्विवलनी कपाट को ही मिट्रिल कपाट कहते हैं । यह बायें अलिन्द निलय के मध्य छिद्र पर स्थित होता है ।

प्रश्न 8.
अर्द्धचन्द्राकार कपाट रुधिर प्रवाह को किस ओर होने देते हैं ?
उत्तर:
अर्द्धचन्द्राकार कपाट रुधिर का प्रवाह निलयों से चापों में होने देते हैं किन्तु विपरीत दिशा में नहीं ।

प्रश्न 9
पल्मोनरी शिरा में किस प्रकार का रुधिर प्रवाहित होता है ?
उत्तर:
पल्मोनरी शिरा में ऑक्सीजन युक्त शुद्ध रुधिर प्रवाहित होता है।

प्रश्न 10.
हृदय के किस भाग में शुद्ध तथा किस भाग में अशुद्ध रुधिर पाया जाता है ?
उत्तर:
हृदय के बायें भाग में शुद्ध रुधिर तथा दाहिने भाग में अशुद्ध रुधिर पाया जाता है।

प्रश्न 11.
गति प्रेरक हृदय में कहाँ स्थित होते हैं ?
उत्तर:
गति प्रेरक (Pace maker) दाहिने अलिन्द में यूस्टेकियन कपाट के पास स्थित होते हैं ।

प्रश्न 12.
हृदय में उपस्थित गति प्रेरकों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • शिरा – अलिन्द घुण्डी (S.A. Node)
  • अलिन्द – निलय घुण्डी (A. V. Node) |

प्रश्न 13.
हृदय स्पन्दन का नियन्त्रण किसके द्वारा होता है ?
उत्तर:
हृदय स्पंदन का नियंत्रण गति प्रेरक (या निर्धारक पेसमेकर – S. A. Node व A.V. Node) द्वारा होता है।

प्रश्न 14.
हृदय स्पन्दन का प्रारम्भ किस रचना के द्वारा होता है ? उत्तर – हृदय स्पन्दन का प्रारम्भ S.A. Node द्वारा होता है। प्रश्न 15 सिस्टोलिक ध्वनि (लब Lubb) कब उत्पन्न होती है ?
उत्तर:
सिस्टोलिक ध्वनि (लब) हृदय की पहली ध्वनि है, जो निलयों के प्रकुंचन का प्रारम्भ होते समय द्विवलनी तथा त्रिवलनी कपाटों के बन्द होने के कारण उत्पन्न होती है।

प्रश्न 16.
डायस्टोलिक ध्वनि (डब Dub) कब उत्पन्न होती है ?
उत्तर:
डायस्टोलिक ध्वनि (डब) हृदय की दूसरी ध्वनि है जो निलयों के अनुशिथिलन प्रारम्भ होने पर अर्द्धचन्द्राकार कपाटों के बन्द होने के कारण उत्पन्न होती है।

प्रश्न 17.
सिस्टोल और डायस्टोल में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
सिस्टोल (प्रकुंचन या संकुचन ) में रुधिर को हृदय से धमनियों में भेजा जाता है, जबकि डायस्टोल (अनुशिथिलन) के समय रुधिर हृदय में भर जाता है।

प्रश्न 18.
सिस्टोल और डायस्टोल किसे कहते हैं ?
उत्तर:
हृदय के संकुचन को सिस्टोल ( systole ) तथा हृदय के अनुशिथिलन को डायस्टोल ( diastole ) कहते हैं।

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प्रश्न 19.
रुधिर स्कंदन के लिए आवश्यक प्रोटीन कौन-सी है ?
उत्तर:
रुधिर स्कंदन के लिए आवश्यक प्रोटीन प्रोथ्रोम्बिन है।

प्रश्न 20.
रुधिर का थक्का (स्कंदन) बनाने में भाग लेने वाली प्रोटीन का नाम बताइए।
उत्तर:
फाइब्रिनोजन ।

प्रश्न 21.
थ्रोम्बोसाइट का प्रमुख कार्य क्या है ?
उत्तर:
थ्रोम्बोसाइट रुधिर स्कंदन में भाग लेते हैं।

प्रश्न 22.
लिम्फोसाइट्स का कार्य बताइए ।
उत्तर:
लिम्फोसाइट्स प्रतिरक्षी (एन्टीबॉडीस) का निर्माण करती हैं।

प्रश्न 23.
रुधिर वर्गों के वर्गीकरण का आधार क्या है ?
उत्तर:
RBC की सतह पर उपस्थित प्रतिजन (antigen ) तथा प्लाज्मा में उपस्थित प्रतिरक्षी (antibody) रुधिर वर्गों के वर्गीकरण का आधार है।

प्रश्न 24.
यदि शिरा- अलिन्द नोड निष्क्रिय हो जाये तो इसका जन्तु पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
दय के दाहिने अलिन्द में स्थित शिरा- अलिन्द नोड हृदय की गति पर नियन्त्रण रखती है। इसके निष्क्रिय हो जाने पर हृदय के विभिन्न भागों का नियमित संकुचन नहीं हो पायेगा और हृदय की रुधिर पम्पिंग क्रिया ठीक से नहीं हो सकेगी।

प्रश्न 25.
यदि हृदय के विभिन्न छिद्रों पर स्थित कपाट नष्ट कर दिये जायें तो इसका तन्तु पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
उत्तर:
हृदय के विभिन्न छिद्रों पर स्थित कपाट हृदय द्वारा पम्प किये गये रुधिर को वापस नहीं लौटने देते हैं। इससे रुधिर निश्चित दिशा में आगे की ओर प्रवाहित होता है। यदि ये कपाट नष्ट कर दिये जायें तो प्रत्येक छिद्र से होकर रुधिर हृदय में वापस लौटने लगेगा और रुधिर प्रवाह अनियमित हो जायेगा ।

प्रश्न 26.
यदि फुफ्फुसीय चाप के भीतर अर्द्धचन्द्राकार कपाट उल्टी दिशा में विकसित हों तो ये रक्त परिसंचरण को किस प्रकार प्रभावित करेंगे ?
उत्तर:
यदि अर्द्धचन्द्राकार कपाट फुफ्फुसीय चाप के भीतर उल्टी दिशा में विकसित हों तो रुधिर हृदय से फेफड़ों में जाने के बजाय उल्टा फेफड़ों से दायें निलय में लौटना प्रारम्भ हो जायेगा।

प्रश्न 27.
प्रतिजन (Antigens ) क्या हैं ?
उत्तर:
मनुष्य की लाल रुधिर कणिकाओं (RBCs) में विशेष प्रकार के प्रोटीन एग्लूटीनोजन पाये जाते हैं। जो प्रतिजन (A या B) कहलाते हैं।

प्रश्न 28.
प्रतिरक्षी (एण्टीबॉडीज) कहाँ पायी जाती हैं ?
उत्तर:
प्रतिरक्षी प्लाज्मा में पायी जाती हैं।

प्रश्न 29.
सार्वत्रिक रक्तदाता व सार्वत्रिक रक्त ग्रहीता किस रुधिर वर्ग के मनुष्य होते हैं ?
उत्तर:
‘O’ रुधिर वर्ग वाला मनुष्य सार्वत्रिक रक्तदाता तथा ‘AB’ रुधिर वर्ग वाला मनुष्य सार्वत्रिक रक्त ग्रहीता होता है।

प्रश्न 30.
Rh धनात्मक (Rh+) तथा Rh ऋणात्मक (Rh) किसे कहते हैं ?
उत्तर:
मनुष्य जिनका रक्त Rh सीरम से गुच्छित होता है उसे Rh+ (धनात्मक ) तथा जिनका Rh सीरम से गुच्छित नहीं होता है उसे Rh (ऋणात्मक) कहते हैं।

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प्रश्न 31.
मानव शरीर में रक्त व लसीका की मात्रा कितनी होती है ?
उत्तर:
मनुष्य के शरीर में रुधिर की मात्रा लगभग 5 से 6 लीटर तथा लसिका की मात्रा लगभग 2 लीटर होती है।

(C) लघुत्तरात्मक प्रश्न ( Short Answer Type Questions )

प्रश्न 1.
प्लाज्मा क्या है ? इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्लाज्मा (Plasma) – पाठ्य पुस्तक के अभ्यास प्रश्नोत्तर के प्रश्न 1 के उत्तर में खण्ड (क) प्लाज्मा देखिए।

प्रश्न 2.
लाल रुधिर कणिकाओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए ।
उत्तर:
लाल रुधिर कणिकाएँ (RBCs) – पाठ्य पुस्तक के अभ्यास प्रश्न 1 के उत्तर में खण्ड (ख) के अन्तर्गत बिन्दु (1) लाल रुधिर कणिकाएँ या एथ्रोसाइट्स देखिए ।

प्रश्न 3.
श्वेत रक्त कणिकाओं की संरचना व कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
श्वेत रक्त कणिकाएँ (WBC) – पाठ्य पुस्तक के अभ्यास प्रश्न 1 के उत्तर में खण्ड (ख) के अन्तर्गत बिन्दु (2) श्वेत रुधिर कणिकाएँ देखिए ।

प्रश्न 4.
मनुष्य में पाए जाने वाले रक्त समूहों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य के रुधिर (रक्त) समूह (Blood Groups of Man)
लाल रक्ताणुओं की सतह पर पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के प्रतिजन ( या एन्टीजन) के आधार पर रक्त समूह दो प्रकार के होते हैं, जिन्हें ABO तंत्र तथा Rh तंत्र कहते हैं।
(i) ABO तंत्र (समूह) इस तंत्र में दो प्रकार के एन्टीजन होते हैं। इनकी खोज लैण्डस्टीनर ने की थी। एन्टीजन A तथा एन्टीजन B लाल रक्ताणुओं की सतह पर पाये जाते हैं। प्लाज्मा में दो प्रकार की एण्टीबॉडी या प्रतिरक्षी पायी जाती हैं- एण्टीबॉडी ‘a’ तथा एण्टीबॉडी ‘b’ एण्टीजन तथा एण्टीबॉडी की उपस्थिति के आधार पर रक्त समूह चार प्रकार के होते हैं- A, B, AB तथा O ।

  • रुधिर वर्ग A (Blood group A ) इसकी लाल रक्त कणिकाओं (RBC) में एण्टीजन A (Antigen A) होता है।
  • रुधिर वर्ग B (Blood group B) इसकी लाल कणिकाओं में एण्टीजन B (Antigen B) होता है।
  • रुधिर वर्ग AB (Blood group- AB ) – इसकी लाल रक्त कणिकाओं में एण्टीजन A तथा B दोनों होते हैं।
  • रुधिर वर्ग O (Blood group-O) – इसकी लाल रक्त कणिकाओं में कोई भी एण्टीजन नहीं होता है।

रक्त समूह तथा रक्त दाता सुयोग्यता

रुधिर वर्ग (Blood group) प्रतिजन या एण्टीजन (Antigen) (लाल रक्त कणिकाओं में)\ प्रतिरक्षी या एण्टीबॉधच Antl-bodies) (पाउना में) रक्त द्वाता समूह
A केत्रवल A केवल b A, O
B वेन्वल B वेद्यल a B,O
AB Aतथा B दोनों कोई भी नहीं AB A,B,O
O कोई भी नहीं a तथा b O

उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट है कि रुधिर वर्ग (रक्त समूह) O एक सर्वदाता है जो सभी वर्गों को रक्त प्रदान कर सकता है। रुधिर वर्ग AB सर्वग्राही है जो सभी प्रकार के रक्त वर्गों से रक्त ले सकता है।

(ii) Rh तन्त्र-यह रक्त तन्त्र रक्ताणु की सतह पर Rh एण्टीजन की उपस्थिति एवं अनुपस्थिति पर आधारित है। इसकी खोज लैण्डस्टीनर एवं बीनट ने की थी। जिन व्यक्तियों के रक्ताणुओं पर Rh एण्टीजन पाया जाता है उन्हें Rh धनात्मक तथा जिनमें नहीं पाया जाता है उन्हें Rh ऋणात्मक कहते हैं ।

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प्रश्न 5
Rh समूह (तंत्र) क्या है ? एरीथ्रोब्लास्टोसिस रोग होने का क्या कारण है ?
उत्तर:
Rh समूह (Rh Group ) – एक अन्य प्रतिजन / एण्टीजन Rh होता है जो लगभग 80% मनुष्यों में पाया जाता है। यह Rh एन्टीजन रीसस बन्दर में पाए जाने वाले एन्टीजन के समान होता है। ऐसे व्यक्ति को जिसमें Rh एन्टीजन होता है, उसे Rh सहित (Rh + ve) और जिसमें यह नहीं होता है, उसे Rh हीन (Rh ve) कहते हैं। यदि Rh ve व्यक्ति के रक्त को Rh+ve के साथ मिलाया जाता है तो व्यक्तियों में Rh प्रतिजन Rh-ve के विरुद्ध विशेष प्रतिरक्षी बन जाती हैं।

अतः रक्त आदान-प्रदान करने से पूर्व Rh समूह को मिलाना आवश्यक होता है। एक विशेष प्रकार की Rh अयोग्यता एक गर्भवती (Rh-ve) माता एवं उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण के Rh + ve के बीच पाई जाती है। अपरा (Placenta ) या आंवला द्वारा पृथक रहने के कारण भ्रूण का Rh एण्टीजन सगर्भता में माता के Rh – ve को प्रभावित नहीं कर पाता। किन्तु फिर भी पहले प्रसव के समय माता के Rh 1- ve रक्त से शिशु के Rh + ve रक्त के सम्पर्क में आने की सम्भावना रहती है।

ऐसी दशा में माता के रक्त में Rh प्रतिरक्षी बनना प्रारम्भ हो जाता है ये प्रतिरोध में एण्टीबॉडीज बनाना प्रारम्भ कर देती हैं। यदि परवर्ती गर्भावस्था होती है तो रक्त से (Rh – ve) भ्रूण के रक्त ( Rh + ve) में Rh प्रतिरक्षी का रिसाव हो सकता है और इससे भ्रूण की लाल रुधिर कणिकाएँ (RBCs) नष्ट हो सकती हैं। यह भ्रूण के लिए जानलेवा हो सकती हैं या इससे रक्ताल्पता (एनीमिया) और पीलिया हो सकता है। ऐसी दशा को एरिथ्रोब्लास्टोसिस फिटैलिस (गर्भ रक्ताणु कोरकता) कहते हैं। इस स्थिति से बचने के लिए माता को प्रसव के तुरन्त बाद Rh प्रतिरक्षी का उपयोग करना चाहिए।

प्रश्न 6.
खुले रूचिर परिसंचरण तन्त्र से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
खुला रुधिर परिसंचरण तन्त्र (Open Blood Vascular System)
इस प्रकार के परिसंचरण तन्त्र में हृदय द्वारा धमनियों में रुधिर पम्प किया जाता है। ये धमनियाँ बड़ी गुहाओं या रुधिर कोटरों या अवकाशों में खुलती हैं। ये कोटर सामूहिक रूप से रुधिर गुहा कहलाते हैं। इन कोटरों में रुधिर अन्तराली तरल में मिल जाता है और ऊतकों के मध्य निम्न दाब पर बहता है एवं धीरे-धीरे खुले सिरे वाली शिराओं में प्रवेश करता है।

यहाँ से यह हृदय में लौटा दिया जाता है। इस प्रकार रुधिर वाहिकाओं से बाहर आ जाता 1 है 1 अतः यह खुला तन्त्र कहलाता है क्योंकि तन्त्र में रुधिर वाहिकाओं में बन्द नहीं रहता । इस तन्त्र में रुधिर प्रवाह धीमा रहता है क्योंकि खुले अवकाश होने के कारण हृदय तेजी से रुधिर को प्रवाहित करने के लिए अधिक दाब उत्पन्न नहीं कर सकता अतः वितरण पर भी समुचित नियन्त्रण नहीं रहता। इस प्रकार का रुधिर परिसंचरण तन्त्र आर्थ्रोपोडा तथा मोलस्क वर्ग के जन्तुओं में पाया जाता है ।

प्रश्न 7.
बन्द प्रकार के रुधिर परिसंचरण से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
बन्द प्रकार का रुधिर परिसंचरण तन्त्र (Closed Blood Vascular System)
इस प्रकार के रुधिर परिसंचरण तन्त्र में हृदय रुधिर को उच्च दाब पर धमनियों में पम्प करता है। धमनियां रुधिर केशिकाओं में विभक्त रहती हैं। रुधिर एवं अन्तराली तरल के मध्य पदार्थों का अभिगमन कोशिकाओं की भित्ति से होता है। अब रुधिर शिराओं द्वारा हृदय में लौटता है।

इस प्रकार रुधिर पूरी तरह रुधिर वाहिकाओं में ही बहता है न कि ऊतकों के मध्य । अतः इस प्रकार के रुधिर तन्त्र को बन्द प्रकार का तन्त्र कहते हैं। इस तन्त्र में वितरण का नियमन सम्भव होता है। इस प्रकार का रुधिर परिसंचरण तन्त्र अनेक अकशेरुकी (जैसे-सिफेलोपोडा, ऐनेलिडा आदि) के साथ-साथ मनुष्य एवं सभी कशेरुकियों में पाया जाता है।

प्रश्न 8.
श्वेताणुओं का वर्गीकरण कीजिए। केवल नाम लिखिए।
उत्तर:
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचणर 1

प्रश्न 9.
रुधिर एवं लसिका में समानताएँ बताइये । उत्तर- रुधिर एवं लसिका में समानताएँ-

  1. दोनों में श्वेत रुधिर कणिकाएँ पायी जाती हैं।
  2. दोनों में ग्लूकोज, अमीनो अम्ल, विटामिन्स, लवण, हॉर्मोन्स, यूरिया समान मात्रा में पाये जाते हैं।
  3. लसिका में रुधिर के समान फाइब्रिनोजन होता है और रुधिर के समान थक्का बना सकता है।
  4. इसमें रुधिर के समान एण्टीबॉडी एवं एण्टीटॉक्सिन भी होते हैं।
  5. लसिका रुधिर की भाँति पोषक तत्वों को ऊतकों तक पहुँचाता है। और उनसे CO, एवं अन्य उत्सर्जी पदार्थ एकत्रित करता है।

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प्रश्न 10.
सिस्टोल और डायस्टोल से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
पम्पिंग केन्द्र के रूप में हृदय आजीवन नियमित समयान्तरों पर बिना थके अपनी पेशियों द्वारा संकुचित होकर रुधिर को धमनियों में भेजता या पम्प करता रहता है। हृदय के इस नियमित एवं क्रमिक ( rhythmic) संकुचन को हृदय की धड़कन या स्पन्दन (beating of the heart) कहते हैं। प्रत्येक स्पन्दन में दो प्रावस्थाएँ होती हैं-

  1. प्रकुंचन ( systole),
  2. प्रसारण ( diastole ) ।

1. प्रकुंचन या सिस्टोल (Systole ) – स्पन्दन की इस प्रावस्था (Stage) में हृदय का संकुचन होने से इसका आयतन कम हो जाता है, जिससे हृदय का रुधिर तीव्र वेग के साथ धमनियों (arteries) में पम्प हो जाता है, जो इसे शरीर के विभिन्न अंगों में ले जाती हैं।

2. अनुशिथिलन या डायस्टोल (Diastole ) – स्पन्दन की इस प्रावस्था में हृदय पेशियों के अनुशिथिलन के परिणामस्वरूप हृदय का आयतन बढ़ जाता है, जिससे शरीर के विभिन्न अंगों से रुधिर को वापस लाने वाली शिराएँ (veins) अपना रुधिर हृदय में भर देती हैं।

प्रश्न 11.
शिरा अलिन्द नोड (SAN) तथा अलिन्द-निलय नोड (AVN) में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिरा अलिन्द नोड तथा अलिन्द-निलय नोड में अन्तर

शिरा-अलिन्द नोड (Sinu Auricular Node) अलिन्द-निलय नोड (Atrio Ventricular Node)
1. इसे SA नोड कहते हैं। 1. इसे AV नोड कहते हैं।
2. यह दायें अलिन्द की दीवार पर स्थित होती है। 2. यह इन्टरऑरिकुलर सेप्टम के पिछले सिरे पर निलय के पास स्थित होता है।
3. यह हृदय की धड़कन को आरम्भ करता है। इसे गति चालक कहते हैं। 3. यह हृदय के आवेग की तरंगों को ग्रहण करके हिस बण्डल के पेशी तन्तुओं में संचालन करता है।
4. इसमें पुरकिन्जे तन्तु एवं हिस बण्डल नहीं होते हैं। 4. इसमें पुरकिन्जे तन्तु तथा हिस बण्डल होते हैं।

प्रश्न 12.
रुधिर के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रुधिर के कार्य (Functions of Blood)

  1. आहार नाल में पचे हुए और अवशोषित किए गए पोषक पदार्थों को शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचाना।
  2. श्वसनांगों से ऑक्सीजन को लेकर शरीर की विभिन्न कोशिकाओं में पहुँचाना।
  3. कोशिकीय श्वसन क्रिया में उत्पन्न CO2 को श्वसनांगों में छोड़ना ।
  4. अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल आदि हानिकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगों (वृक्कों) तक पहुँचाना।
  5. हॉर्मोन्स, एन्जाइम्स एवं एन्टीबॉडीज का स्थानान्तरण करना ।
  6. हानिकारक जीवाणुओं, विषाणुओं व रोगाणुओं आदि का भक्षण करके शरीर की रोगों से सुरक्षा प्रदान करना।
  7. शरीर के सभी भागों में तापमान का नियंत्रण करना और उसे एक-सा बनाए रखना ।
  8. चोट लगने पर रुधिर बहकर बाहर जाने से रोकने के लिए थक्का जमाने का कार्य करना ।
  9. आवश्यक पदार्थ पहुँचाकर आहत भागों में घावों को भरने में सहायता प्रदान करना ।
  10. मृत व टूटी-फूटी कोशिकाओं को यकृत एवं प्लीहा में ले जाकर नष्ट करना ।
  11. शरीर के विभिन्न अंगों के बीच समन्वय स्थापित करना और शरीर के अन्तः वातावरण का नियंत्रण करना ।
  12. एन्टीजन के कारण आनुवंशिक स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाना ।

प्रश्न 13.
लसीका (ऊतक द्रव) की संरचना एवं कार्य लिखिए।
उत्तर:
लसीका ( ऊतक द्रव) की संरचना (Structure of Lymph) – लसीका रुधिर के समान ही एक प्रकार का रंगहीन तरल ऊतक है । इस तरल को अंतराली द्रव या ऊतक द्रव कहते हैं। इसमें प्लाज्मा एवं श्वेत रुधिर कणिकाएँ होती हैं। लिम्फोसाइट्स सबसे अधिक संख्या में होती हैं। इसमें लाल रुधिर कणिकाएँ नहीं होती हैं। लसीका में अघुलनशील प्रोटीन की मात्रा अधिक तथा घुलनशील प्रोटीन की मात्रा कम होती है। इसमें ऑक्सीजन तथा पोषक पदार्थ भी कम मात्रा में होते हैं किन्तु उत्सर्जी पदार्थ एवं CO2 की मात्रा अधिक होती है।

लसीका के कार्य (Functions of Lymph)

  1. लसीका, ऊतक द्रव से बड़े कोलॉयडी कणों एवं अन्य क्षतिग्रस्तं कोशिकाओं आदि के मलबे को निकालने के लिए वापस रुधिर परिसंचरण में डालता है।
  2. इसकी कोशिकाएँ जीवाणुओं को नष्ट करके टूट-फूट की मरम्मत करतीहैं ।
  3. क्षुद्रांत्र से वसाओं का अवशोषण लसीका कोशिकाओं ( लेक्टी अल्स) द्वारा किया जाता है।

(D) निबन्धात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

प्रश्न 1.
परिसंचरण तन्त्र क्या है ? इसकी विशेषताएँ एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परिसंचरण तन्त्र (Circulatory System)
जिस प्रकार हम बस या ट्रेन द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाते हैं, उसी प्रकार बहुकोशिकीय प्राणियों के शरीर में रुधिर भोज्य पदार्थों, ऑक्सीजन, हॉर्मोन्स, कार्बन डाइ ऑक्साइड तथा अन्य उत्सर्जी पदार्थों के लिए यातायात का कार्य करता है। इस कार्य के लिए शरीर में एक पाइप लाइन तन्त्र होता है। शरीर के इस पाइप तन्त्र में रुधिर के बहने की प्रक्रिया को रुधिर परिसंचरण (blood circulation) कहते हैं तथा इसमें भाग लेने वाले सम्बन्धित अंगों को सामूहिक रूप से रुधिर परिसंचरण तन्त्र (blood circulatory system) कहते हैं।

परिसंचरण तन्त्र की विशेषताएँ (Features of Circulatory System)
परिसंचरण तन्त्र में हृदय (heart) एक प्रमुख अंग होता है, जो रुधिर को पम्प करने का काम करता है। हृदय से रुधिर को शरीर के विभिन्न अंगों तक ले जाने वाली रुधिर वाहिनियों को धमनियाँ ( arteries) कहते हैं। आगे अंगों की ओर चलकर बड़ी धमनियाँ छोटी शाखाओं में विभाजित हो जाती हैं, जिन्हें धमनिकाएँ (arterioles) कहते हैं।

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धमनिकाएँ प्रत्येक अंग में पहुँचकर महीन नलिकाओं का जाल बनाती हैं, जिन्हें केशिकाएँ ( capillaries) कहते हैं। केशिकाओं से शिरिकायें (venules) और फिर शिरिकाओं से मिलकर शिराएँ (Veins) बनती हैं। शिराएँ रुधिर को विभिन्न अंगों से हृदय में वापस लाती हैं।

मनुष्य तथा अन्य स्तनियों में बन्द प्रकार का परिसंचरण तन्त्र ( close type circulatory system) पाया जाता है। जब रुधिर का परिसंचरण बन्द नलिकाओं (धमनियों, शिराओं व केशिकाओं) में होकर बहता है तो इसे ‘बन्द परिसंचरण’ कहते हैं। इसमें रुधिर कभी भी ऊतकों के सीधे सम्पर्क में नहीं आता है।

बन्द परिसंचरण तन्त्र में रुधिर का दाब (blood pressure) अधिक रहता है, जिससे रुधिर परिसंचरण की गति भी अधिक रहती है। मनुष्य के शरीर में सम्पूर्ण रुधिर का परिवहन एक मिनट में हो जाता है। इस प्रकार रुधिर पूरे शरीर में भ्रमण करके एक मिनट में हृदय में वापस आ जाता है।

परिसंचरण तन्त्र के कार्य (Functions of Circulatory System) हमारे शरीर में परिसंचरण तन्त्र के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. खाद्य पदार्थों का परिवहन (Transportation of nutrients) – परिसंचरण तन्त्र आहारनाल में पचे हुए खाद्य पदार्थों को शरीर की विभिन्न कोशिकाओं तक पहुँचाता है ।
  2. ऑक्सीजन का परिवहन (Transportation of Oxygen Gas) – यह तन्त्र ऑक्सीजन को फेफड़ों की वायु कूपिकाओं से ग्रहण करके शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पहुँचाता है ।
  3. कार्बन डाइ ऑक्साइड (CO2) का परिवहन (Transportation of CO2) – कोशिकीय श्वसन में उत्पन्न CO2 को फेफड़ों तक परिवहन का कार्य. परिसंचरण तन्त्र ही करता है ।
  4. उत्सर्जी पदार्थों का परिवहन (Transportation of Waste Products) – ऊतकों व कोशिकाओं में उपापचय (Metabolism) के फलस्वरूप बने उत्सर्जी या अपशिष्ट पदार्थों के परिसंचरण तन्त्र के द्वारा ही उत्सर्जी अंगों (वृक्कों) तक पहुँचाया जाता है।
  5. हॉर्मोन्स का परिवहन (Transportation of Hormones) – परिसंचरण तन्त्र हॉर्मोन्स को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुँचाता है।
  6. शरीर के तापमान का नियमन (Regulation of Body Temperature ) – परिसंचरण तन्त्र शरीर के तापमान को स्थिर बनाए रखने का महत्वपूर्ण कार्य करता है
  7. समस्थैतिकता बनाए रखना (Maintaining of Homeostasis) – परिसंचरण तन्त्र जल तथा हाइड्रोजन आयनों (H+ एवं रासायनिक पदार्थों के वितरण द्वारा शरीर के सभी भागों में आन्तरिक समस्थैतिकता को बनाए रखता है।-
  8. शरीर की रोगों से रक्षा करना (Protection of Diseases) – परिसंचरण तन्त्र शरीर के प्रतिरक्षी तन्त्र का भी कार्य करता है 1 यह शरीर में प्रवेश करने वाले रोगाणुओं से शरीर की रक्षा करता है।

प्रश्न 2.
मनुष्य के हृदय की बाह्य एवं आन्तरिक संरचना का वर्णन कीजिए ।
उत्तर:
हदय (Heart)
हृदय पम्पिंग स्टेशन की भाँति कार्य करने वाला व्यस्ततम अंग है। यह रुधिर को सम्पूर्ण शरीर में पम्प करता है।
मनुष्य के हृद्य की बाह्य रचना (External Structure of Human Heart)
हृदय वक्षगहा के मध्यावकाश में अधरतल की ओर दोनों फेफड़ों के मध्य कुछ बायीं ओर स्थित रहता है। यह सीलोमिक एपिथीलियम (coelomic epithelium) में बन्द रहता है। इसकी भीतरी झिल्ली जो हृदय से चिपकी रहती है एपीकार्डियम (epicardium) कहलाती है। इसकी बाहरी झिल्ली को हदयावरण या पेरीकार्डियम (pericardium) कहते हैं।

इन दोनों झिल्लियों के बीच की सँकरी गुहा को हददयावरणी गुहा (pericardial cavity) कहते हैं। इस गुहा में हुदयावरणी द्रव  (pericardial fluid) भरा रहता है। यह द्रव हृदय को नम बनाये रखता है तथा बाहरी आघातों से इसकी रक्षा करता है। इसे स्पन्दन में होने वाले घर्षण के दुष्मभाव से बचाता है तथा स्पन्दन में इसे सिकुड़ने तथा फैलने में सहयोग करता है।

हृदय की दीवोरें अनैच्छिक हृदयी पेशियों की बनी होती हैं। ये पेशियाँ स्वतः ही सिकुड़ती और फैलती हैं तथा कभी भी नहीं थकती हैं। हृदय की दीवार के बाहरी स्तर को एपीकार्डियम (Epicardium) तथा भीतरी स्तर को एण्डोकार्डियम (Endocardium) कहते हैं। इन दोनों के मध्य अनैच्छिक तथा कभी न थकने वाली स्तर को मायोकार्डियम (myocardium) कहते हैं जो हृदयी पेशियों की बनी होती है।
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मानव के हृदय की आन्तरिक संरचना (Internal Structure of Human Heart)
मानव के हदय में चार कक्ष होते हैं। दो ऊपरी कक्ष जो पतली भित्ति के होते हैं अलिन्द तथा दो निचले कक्ष निलय कहलाते हैं। अलिन्द (Auricles) – उदय में दो अलिन्द होते हैं जो एक खाँच द्वारा दाहिने अलिन्द (Right auricle) तथा बायें अलिन्द (Left auricle) में विभाजित होते हैं। इनमें दाहिना अलिन्द बायें अलिन्द से बड़ा होता है।

प्रत्येक अलिन्द पीछे की ओर एक मोटा उभार बनाता है जिसे अलिन्द परिशेषिका (auricular appendix) कहते हैं। यह अपनी ओर के निलय के कुछ भाग को ढके रहता है । सम्पूर्ण अलिन्द भाग चौड़ा किन्तु छोटा और गहरे रंग का होता है। इसकी दीवारें पतली होती हैं। निलय (Ventricles) – निलय भाग बड़ा, माँसल तथा हल्के रंग का होता है।

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हृदय में दो निलय होते हैं जो तिरछी अन्तरानिलय पह्टी (Inter ventricular septum) द्वारा दाहिने निलय (right ventricle) तथा बायें निलय (left ventricle) में विभाजित रहते हैं। इनमें बायाँ निलय दाहिने निलय से अधिक पेशीय होता है। अलिन्दों एवं निलयों को एक पतली हल्की दरार पृथक् करती है इसे कोरोनरी सल्कस (Caronary Sulcus) कहते हैं।

दायें एवं बायें निलय के मध्य अप्र तथा पश्च अन्तरनिलय सल्कस पाये जाते हैं। शरीर के विभिन्न भागों से रुधिर अलिन्दों में आता है। फेफड़ों से ऑक्सीजनित शुद्ध रक्त फुफ्फुस शिराओं द्वारा बायें अलिन्द में लाया जाता है। शरीर के सभी भागों से अनॉक्सीजनित अशुद्ध रुधिर ऊर्ध्व महाशिरा तथा निम्न महाशिरा द्वारा दायें अलिन्द में लाया जाता है।

हृदय के चारों कक्ष अन्दर के कपाटों (valves) एवं पटों (septa) द्वारा पृथक् रहते हैं। दायें एवं बायें अलिन्दों के मध्य अन्तर अलिन्द पट (inter auricular septum) होता है। इस पट पर एक अण्डाकार खाँच पायी जाती है। दोनों निलयों के मध्य अन्तरनिलय पट (interventricular septum) होता है। बायें अलिन्द एवं बायें निलय के मध्य द्विकपर्द या मिट्ल कपाट (bicuspid or mitra lvalve) पाया जाता है।

दायें अलिन्द एवं दायें निलय के मध्य उपस्थित कपाट को त्रिवलन (tricuspid) कपाट कहते हैं। फुप्फुसीय तथा महाधमनी काण्डों के अन्दर तीन-तीन अर्धचन्द्राकार कपाट (Semilunar valves) पाये जाते हैं जो रुधिर को वापस हद्य में जाने से रोकते हैं। महाशिराओं एवं फुफ्फुसीय शिराओं के हद्य में खुलने वाले छिद्रों पर पेशीय वलय पाये जाते हैं। ये वलय संकुचित होकर वापस शिराओं में जाने वाले रुधिर को रोकते हैं।
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प्रश्न 3.
हृदय चक्र किसे कहते हैं ? इसके विभिन्न घटकों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर:
हृदय की क्रियाविधि (Working of the Heart)
उत्पत्ति (Origin)-हृदय एक पेशीय पम्प है। हृदय अपनी पेशियों द्वारा नियमित (Regular) एवं क्रमबद्ध (rhythmic) रूप से संकुचित और अनुशिथिलिन होता रहता है। इसी को हुद्य की धड़कन या स्पन्दन (heart beat) कहते हैं। प्रत्येक धड़कन में हदय एक बार सिकुड़ता है और फिर सामान्य अवस्था में आ जाता है।

हदय की संकुचन प्रावस्था को प्रकुंचन या सिस्टोल (systole) तथा अनुशिथिलन की प्रावस्था को अनुशिथिलन या प्रसारण या डायस्टोल (diastole) कहते हैं। प्रकुंचन द्वारा रुधिर हृदय से धमनियों में होकर शरीर के विभिन्न अंगों में जाता है, जबकि प्रसारण के समय रुधिर शरीर के विभिन्न अंगों से शिराओं द्वारा हृदय में वापस आता है। हद्यय स्पन्दन की इस पुनरावृत्ति को ह्दय चक्र (cardiac cycle) कहते हैं। मनुष्य में स्पन्दन दर 72 प्रति मिनट है। एक हदय चक्र पूरा होने में लगा समय ह्द् चक्र कहलाता है।
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ह्दय चक्र (cardiac cycle)
हृदय के एक स्पन्दन प्रारम्भ होने से लेकर अगले स्नन्दन के प्रारम्भ होने तक हुदय के विभिन्न भागों में होने वाले परिवर्तनों के क्रम को हृदय चक्र कहते हैं। एक हृदय चक्र 0.8 सेकण्ड में पूरा होता है।
यह चक्र निम्न प्रावस्थाओं में पूरा होता है-
(1) अलिन्दों का अनुशिथिलन (Atrial Diastole)-इस प्रावस्था में अलिन्द एवं निलय अधिक समय तक विश्रान्त अवस्था में रहते हैं। अलिन्द लगभग 0.7 सेकण्ड विश्रान्त अवस्था में रहता है। इस समय फेफड़ों से शुद्ध रुधिर फुफ्पुसीय शिराओं द्वारा बायें अलिन्द में तथा शरीर के अन्य भागों से अशुद्ध रुधिर महाशिराओं द्वारा दायें अलिन्द में आता है।

अब द्विवलन एवं त्रिवलन कपाट अलिन्दों के भरने की प्रारम्भिक अवस्था में बन्द रहते हैं परन्तु जैसे-जैसे रुधिर इनमें भरता जाता है। दाब बढ़ने के कारण इनका दाब विश्रान्त निलयों के दाब से बढ़ जाता है तब दोनों कपाट खुल जाते हैं तथा अलिन्दों के संकुचन से पूर्व ही अधिकांश रुधिर निक्क्रिय प्रवाह द्वारा निलयों में भर जाता है।
HBSE 11th Class Biology Important Questions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचणर 5(2) अलिन्दों का प्रफुंचन (Atrial Systole)-जैसे ही अलिन्दों का अनुशिथिलन समाप्त होता है दोनों अलिन्द एक साथ संकुचित होते हैं। यह अवस्था निल़य प्रकुंचन कहलाती है जो लगभग 0.1 सेकण्ड तक रहती है। इस संकुचन के फलस्वरूप लगभग 25% ही रुधिर जो अलिन्दों में बचा रहता है, निलयों में आता है। इस प्रकार दोनों निलय रुधिर से पूर्णतया भर जाते हैं।

(3) निलयों का प्रकुंचन (Ventricular Systole) अलिन्दों का प्रकुंचन समाप्त होने के तुरन्त बाद निलय संकुचित होता है। यह 0.3 सेकण्ड की प्रावस्था निलय प्रकुंचन कहलाती है। संकुचन के कारण निलयों में दाब बढ़ता है। अत: रुधिर पुन: लौटकर अलिन्दों में प्रवाहित नहीं हो पाता है। निलयों में दाब महाधमनी एवं फुप्फुसीय काण्ड के दाब से अधिक होते ही इन दोनों के अर्धचन्द्राकार कपाट खुल जाते हैं और रुधिर दाब से इन वाहिकाओं में प्रवाहित हो जाता है। निलयों से अधिकांश रुधिर धमनियों में चला जाता है।

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(4) निलयों का अनुशिधिलन (Ventricular Diastole) प्रकुंचन के पश्चात् निलय विश्रान्त अवस्था में आ जाता है यह प्रावस्था अनुशिथिलन की होती है। इनसे दाब कम हो जाता है। अब रुधिर को विपरीत दिशा में प्रवाहित होने से रोकने के लिए अर्धचन्द्राकार कपाट तुरन्त बन्द हो जाते हैं। निलयों के संकुचन के समय से ही अलिन्दों में लगातार आ रहे रुधिर दाब धीरे-धीरे निलयों की तुलना में अधिक हो जाने से अलिन्द निलय कपाट खुल जाते हैं और निलयों में रुधिर भरने लगता है। यह निलयों की अनुशिथिलन प्रावस्था होती है जो 0.5 सेकण्ड तक रहती है।
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प्रश्न 4.
मनुष्य के हृदय की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए ।
उत्तर:
हृदय की क्रियाविधि (Working of the Heart)
उत्पत्ति (Origin)-हृदय एक पेशीय पम्प है। हृदय अपनी पेशियों द्वारा नियमित (Regular) एवं क्रमबद्ध (rhythmic) रूप से संकुचित और अनुशिथिलिन होता रहता है। इसी को हुद्य की धड़कन या स्पन्दन (heart beat) कहते हैं। प्रत्येक धड़कन में हदय एक बार सिकुड़ता है और फिर सामान्य अवस्था में आ जाता है।

हदय की संकुचन प्रावस्था को प्रकुंचन या सिस्टोल (systole) तथा अनुशिथिलन की प्रावस्था को अनुशिथिलन या प्रसारण या डायस्टोल (diastole) कहते हैं। प्रकुंचन द्वारा रुधिर हृदय से धमनियों में होकर शरीर के विभिन्न अंगों में जाता है, जबकि प्रसारण के समय रुधिर शरीर के विभिन्न अंगों से शिराओं द्वारा हृदय में वापस आता है। हद्यय स्पन्दन की इस पुनरावृत्ति को ह्दय चक्र (cardiac cycle) कहते हैं। मनुष्य में स्पन्दन दर 72 प्रति मिनट है। एक हदय चक्र पूरा होने में लगा समय ह्द् चक्र कहलाता है।
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ह्दय चक्र (cardiac cycle)
हृदय के एक स्पन्दन प्रारम्भ होने से लेकर अगले स्नन्दन के प्रारम्भ होने तक हुदय के विभिन्न भागों में होने वाले परिवर्तनों के क्रम को हृदय चक्र कहते हैं। एक हृदय चक्र 0.8 सेकण्ड में पूरा होता है।
यह चक्र निम्न प्रावस्थाओं में पूरा होता है-
(1) अलिन्दों का अनुशिथिलन (Atrial Diastole)-इस प्रावस्था में अलिन्द एवं निलय अधिक समय तक विश्रान्त अवस्था में रहते हैं। अलिन्द लगभग 0.7 सेकण्ड विश्रान्त अवस्था में रहता है। इस समय फेफड़ों से शुद्ध रुधिर फुफ्पुसीय शिराओं द्वारा बायें अलिन्द में तथा शरीर के अन्य भागों से अशुद्ध रुधिर महाशिराओं द्वारा दायें अलिन्द में आता है।

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अब द्विवलन एवं त्रिवलन कपाट अलिन्दों के भरने की प्रारम्भिक अवस्था में बन्द रहते हैं परन्तु जैसे-जैसे रुधिर इनमें भरता जाता है। दाब बढ़ने के कारण इनका दाब विश्रान्त निलयों के दाब से बढ़ जाता है तब दोनों कपाट खुल जाते हैं तथा अलिन्दों के संकुचन से पूर्व ही अधिकांश रुधिर निक्क्रिय प्रवाह द्वारा निलयों में भर जाता है।
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(2) अलिन्दों का प्रफुंचन (Atrial Systole)-जैसे ही अलिन्दों का अनुशिथिलन समाप्त होता है दोनों अलिन्द एक साथ संकुचित होते हैं। यह अवस्था निल़य प्रकुंचन कहलाती है जो लगभग 0.1 सेकण्ड तक रहती है। इस संकुचन के फलस्वरूप लगभग 25% ही रुधिर जो अलिन्दों में बचा रहता है, निलयों में आता है। इस प्रकार दोनों निलय रुधिर से पूर्णतया भर जाते हैं।

(3) निलयों का प्रकुंचन (Ventricular Systole) अलिन्दों का प्रकुंचन समाप्त होने के तुरन्त बाद निलय संकुचित होता है। यह 0.3 सेकण्ड की प्रावस्था निलय प्रकुंचन कहलाती है। संकुचन के कारण निलयों में दाब बढ़ता है। अत: रुधिर पुन: लौटकर अलिन्दों में प्रवाहित नहीं हो पाता है। निलयों में दाब महाधमनी एवं फुप्फुसीय काण्ड के दाब से अधिक होते ही इन दोनों के अर्धचन्द्राकार कपाट खुल जाते हैं और रुधिर दाब से इन वाहिकाओं में प्रवाहित हो जाता है। निलयों से अधिकांश रुधिर धमनियों में चला जाता है।

(4) निलयों का अनुशिधिलन (Ventricular Diastole) प्रकुंचन के पश्चात् निलय विश्रान्त अवस्था में आ जाता है यह प्रावस्था अनुशिथिलन की होती है। इनसे दाब कम हो जाता है। अब रुधिर को विपरीत दिशा में प्रवाहित होने से रोकने के लिए अर्धचन्द्राकार कपाट तुरन्त बन्द हो जाते हैं। निलयों के संकुचन के समय से ही अलिन्दों में लगातार आ रहे रुधिर दाब धीरे-धीरे निलयों की तुलना में अधिक हो जाने से अलिन्द निलय कपाट खुल जाते हैं और निलयों में रुधिर भरने लगता है। यह निलयों की अनुशिथिलन प्रावस्था होती है जो 0.5 सेकण्ड तक रहती है।
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प्रश्न 5.
रुधिर क्या है ? इसके संगठन का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रुधिर (Blood)
रुधिर एक तरल संयोजी ऊतक है, क्योंकि इसकी अधात्री (Matrix) प्लाख्या के रूप में एवं कोशिकाएँ RBCs, WBCs तथा बिम्बाणुओं के रूप में पायी जाती हैं। रुधिर हृदय एवं रुधिर वाहनियों के अन्दर पूरे शरीर में निरन्तर परिक्रमा करता है। इसकी मात्रा शरीर के कुल भार का 7-8% होती है तथा बाह्य कोशिका द्रव (ECF) का 30-35% होता है।

अतः 70 किलोमाम भार के मानव में 5-6 लीटर रुधिर होता है। सियों में रुधिर की मात्रा लगभग 4-5 लीटर होती है। रुधिर के अध्ययन को हीमेटोलॉजी (haematology) कहते हैं, सीरम का अध्ययन सीरोलॉजी (serology) तथा रुधि परिसंचरण का अध्ययन एन्तिओलॉजी (angiology) कहलाता है। रुधिर की उत्पत्ति शूण की मीसोडर्म से होता है।

(1) रंग (Colour) रुधिर के गुण (Properties of Blood)
चमकीला लाल (शुद्ध अवस्था में)
(2) स्वाद (Taste) लवणीय NaCl के कारण)
(3) श्यानता (Viscosity) 4.7 (आसुत जल से 5 गुना)
(4) स्पेशिफिक ग्रेविटी 1.04-1.07
(5) pH क्षारीय (7 \cdot 3-7 \cdot 5)
(6) स्कन्द समय (सामान्य) 3-4 मिनट
(7) अभिरंजन लिशमेन या राइट या मेथिलीन ब्लू

रुधिर का संगठन-रुधिर के दो मुख्य भाग होते हैं-

  1. प्लाज्मा (Blasma)
  2. रुधिराणु (Blood Corpuscles)

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प्रश्न 6.
रुधिर स्कन्दन की क्रियाविधि का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रुधिर सकन्दन (Blood Clotting)
रुधिर वाहनियों से बाहर वायु के सम्पर्क में आने पर रुधि शीघ्रता से तरल अवस्था से जैली के समान पदार्थ में बदल जाता है। रुधर का तरल से जैव पदार्थ में बदलने का गुण रंधिर स्कन्ब या रुधिर का थक्षा बनना कहलाता है। इसका स्षष्ट विवरण होवेल (Howell) ने दिया। थक्का क्षतिम्रस्त रुधिर वाहिनी से रुधिर में बहकर बाहर निकलने को रोकता है। थक्का बनने के बाद पीले से रंग का तरल शेष रह जाता है जिसे सीरम (serum) कहते हैं। सीरम में फाइब्रिनोजन नहीं होता इसलिए इसका थक्का नहीं बनता।

रुधिर स्कन्दन की क्रियाविधि (Mechanism of Blood Clotting) रक्त के जमने में होने वाली रासायनिक क्रियाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) पहुली अवस्था (Stage-1)-शरीर के किसी स्थान पर चोट लगते ही वहाँ की घायल कोशिकाएँ तथा रुधिर वाहिनियाँ फट जाती हैं, जिससे रुधिर बाहर निकलने लगता है। ऐसी दशा में उस स्थान की घायल कोशिकाएँ तथा रक्त की रुधिर पलेट्टेट्स वायु के सम्पर्क में आते ही टूट-टूट कर प्रोश्रोम्बोप्लास्टिन (prothromboplastin) नामक द्रव्य सावित करती हैं। प्रोथ्रोम्बोप्लास्टिन प्लाज्मा में उपस्थित कैल्सियम आयन Ca++ से मिलकर श्रोम्बोप्लास्टिन में परिवर्तित हो जाता है।

प्रोथ्रोम्बोप्लास्टिन + Ca++ → श्रोम्बोप्लास्टिन

रुधिर में फाइजिनेजन (Fibrinogen) तथा प्रोश्रोम्बिन (Prothrombin) माँमक दो प्रोटीन होते हैं, जिनका निर्माण यकृत में होता है। ये दोनों पदार्थ रुधिर को जमाने में सहायक होते हैं। प्रोथ्रोम्बिन रुधिर में सदैव निक्रिय अवस्था में रहता है। इसका कारण यह है कि रुधि में उपस्थित एक और पदार्थ एण्टीप्रोथ्रोम्बिन (या हिपेरिन) प्रोथ्रोम्बिन को निक्रिय बनाये रखता है। इसीलिए रुधि वाहिनियों में रुधिर जमता नहीं है।

(2) दूसरी अवस्था (Stage-II)-थ्रोम्बोप्लास्टिन के कैल्सियम आयन तथा ट्रिप्टेज एन्जाइम की सहायता से एण्टीप्रोथ्रोम्बिन के प्रभाव को नष्ट कर देता है। परिणामस्वरूप निक्किय प्रोथ्रोम्बिन सक्रिय थ्रोम्बिन में परिवर्तित हो जाता है।
निक्रिय प्रोथ्रोम्बिन → सक्रिय थ्रोम्बिन

(3) तीसरी अवस्था (Stage-III)-थ्रोम्बिन रुधिर में उपस्थित फाइब्चिनोजन नामक तरल प्रोटीन को ठोस रेशेदार फाइब्रिन (Fibrin) में बदल देता है।
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इस प्रकार बने फाइब्रिन के रेशे घायल स्थान के ऊपर जाल बना लेते हैं। इस जाल में अनेकों रुधिर कणिकाएँ उलझ जाती हैं और थक्का (Clot) का रूप ले लेता है, जिससे रुधिर का बहाव रुक जाता है। थक्के के सिकुड़ने पर हल्के पीले रंग का निकला तरल पदार्थ सीरम (Serum) होता है। अतः रक्त का जमना एक रासायनिक क्रिया है। कुछ लोगों में रुधिर का थक्का न जमने से रुधर का बहना बन्द नहीं होता है। अतः अधिक रुधिर बह जाने से मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। यह एक रोग है जिसे हीमोफीलिया (Haemophilia) कहते हैं। यह आनुवंशिक होता है।
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रक्त के थक्का बनने में निम्न कारकों की आवश्यकता होती है-

कारक I फाइब्रिनोजन (Fibrinogen)
कारक II उतक प्रोथ्रोम्बिन (Tissue prothrombin)
कारक III श्रोम्बोप्लास्टिन (Thromboplastin)
कारक IV कैल्शियम आयन (Calcium ion)
कारक V प्रोएक्सीलेरिन या लेबाइल कारक (Proaccylarin or stable Factor)
कारक VI एक्सिलरिन (Accylarin)
कारक VII प्रोकनवर्टिन या स्टेबल कारक (Proconvertin or stable Factor)
कारक VIII एन्टी हीमोफ्लिक ग्लोबिन (Antihaemophilic globin)
कारक IX क्रिस्मस कारक या श्रोम्बोप्लास्टिन अवयव (Crismas Factor)
कारक X स्टुअर्ट-पॉवर कारक (Stuart power Factor)
कारक XI प्लाज्मा थोम्बोप्लास्टिन एन्टीसीडेन्ट (Thromboplastin anticident)
कारक XII हेगमेन कारक या सम्पर्क कारक (Hagmen Factor)
कारक XIII फाइब्रिन स्थायीकारी कारक (Fibrin stablizing Factor)

रक्त जमने से जन्तु को लाथ-क्त जमने से जन्तु को निम्नलिखित लाभ है-

  • चोट या कटे स्थान से रक्त बहना बन्द हो जाता है जिससे रक्त व्यर्थ नहीं जाता है।
  • वायु से हानिकारक जीवाणुओं का प्रवेश थक्का बनने के कारण रुक जाता है जिससे शरीर की सुरक्षा होती है।
  • नष्ट कोशिकाएँ शरीर से बाहर निकल जाती हैं एवं उनके स्थान पर नयी कोशिकाओं का निर्माण हो जाता है।

प्रश्न 7.
रुधिर वर्ग से आप क्या समझते हैं ? समझाइए ।
उत्तर:
रुधिर वर्ग (Blood Groups)
अधिक रुधिर स्राव या किसी रोग विशेष के कारण यदि मनुष्य में रुधर की कमी हो जाती है तो उसके शरीर में पहुँचाने के लिए डॉक्टर रोगी के सम्बन्धी का रुधिर माँगते हैं। ऐसा करने से पहले वे रोगी के रुधिर तथा दाता के रुधर का मिलान करवाते हैं। यदि दोनों के रुधिर सुमेलित नहीं हैं तो दाता की RBCs रोगी के रुधिर में पहुँचते ही पुंजों में चिपकने लगते हैं। इसे रुधिराणुओं का आश्लेषण (agglutination) कहते हैं। इससे रोगी की मृत्यु हो जाती है।

सन् 1902 में कार्ल लैण्डस्टनीर (Karl Landsteiner) ने पता लगाया कि सभी मनुष्यों का रुधि समान नहीं होता। RBC तथा प्लाज्मा में कुछ विशेष प्रोटीन मिलते हैं जिनकी पारस्परिक क्रिया से रुधिर का आश्लेषण हो जाता है। इस खोज के लिए लैण्डस्टनीर को सन् 1930 में नोबेल पुरस्कार मिला। रुधिर के प्रतिजन एवं प्रतिरक्षी (Antigen and Antibodies of Blood) मनुष्य के रुधिर में दो प्रकार के प्रोटीन्स होते हैं-

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(A) प्रतिजन या एग्लूटिनाजन्स (Antigens or Agglutinogens) – ये विशेष ग्लाइको प्रोटीन्स हैं। ये RBCs की कोशिका कला पर होते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं – प्रतिजन A तथा प्रतिजन B RBC पर उपस्थित प्रतिजन के आधार पर लैण्डस्टीनर ने मानव रुधिर को चार समूहों में बाँटा –

  1. रुधिर वर्ग A (Blood group – A ) – इसकी लाल रक्त कणिकाओं (RBCs) में एण्टीजन A (Antigen A ) होता है।
  2. रुधिर वर्ग B (Blood group B) – इसकी लाल कणिकाओं में एण्टीजन B (Antigen B) होता है।
  3. रुधिर वर्ग AB – इसकी लाल रक्त कणिकाओं में एण्टीजन A तथा B दोनों होते हैं ।
  4. रुधिर वर्ग O – इसकी लाल रक्त कणिकाओं में कोई भी एण्टीजन नहीं होता है।

(B) प्रतिरक्षी या एग्लूटिनिन (Antibodies or Agglutinins) – ये रुधिर के प्लाज्मा में होते हैं। ये भी दो प्रकार के होते हैं – एन्टी-a तथा एन्टी-b मनुष्य की रुधिर कणिकाओं में जो प्रतिजन नहीं होते, उनके प्रति सीरम में स्वाभाविक प्रतिरक्षी पायी जाती है। उदाहरणार्थ A रुधिर वर्ग के मनुष्य की RBCs पर प्रतिजन B नहीं पाया जाता है।

अतः उसके रुधिर सीरम में प्रतिरक्षी b या a पायी जाती है। इसी प्रकार B रुधिर वर्ग के मनुष्य रुधिर कणिकाओं पर प्रतिजन A नहीं होता। इसके सीरम में प्रतिरक्षी a या b होती है। AB रुधिर वर्ग की रुधिर कणिकाओं पर दोनों प्रतिजन A तथा B होते हैं। इसके सीरम में कोई प्रतिरक्षी नहीं होती। 0 रुधिर वर्ग में कोई भी प्रतिजन नहीं होता तथा इनमें दोनों प्रकार की प्रतिरक्षी एन्टीं a तथा एन्टी b होती है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है किसी भी व्यक्ति का रुधिर किसी भी रोगी पर नहीं चढ़ाया जा सकता। इसके लिए पहले रुधिर की जाँच कराना आवश्यक होता है। रुधिर वर्ग A का व्यक्ति रुधिर वर्ग A तथा रुधिर वर्ग AB वाले व्यक्ति को रुधिर दे सकता है। रुधिर वर्ग B का व्यक्ति रुधिर वर्ग B तथा AB वाले व्यक्ति को रुधिर दे सकता है। रुधिर वर्ग AB का व्यक्ति केवल AB रुधिर वर्ग वाले व्यक्ति को रुधिर दे सकता है। परन्तु सबका रुधिर ले सकता है। रुधिर वर्ग O का व्यक्ति सभी रुधिर वर्गों को रुधिर दे सकता है किन्तु 0 वर्ग के व्यक्ति का ही रुधिर प्रहण कर सकता है।

रक्त समूह तथा रक्त दाता सुयोग्यता

रुधिर वर्ग (Blood group) प्रतिजन या एण्टीजन (Antigen) (लाल रक्त कणिकाओं में) प्रतिरक्षी या एण्टीबॉधच Antl-bodies) (पाउना में) रक्त द्वाता समूह
A केत्रवल A केवल b A, O
B वेन्वल B वेद्यल a B,O
AB A तथा  B  दोनों कोई भी नहीं AB A,B,O
O कोई भी नहीं a तथा b O

उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट है कि रुधिर वर्ग (रक्त समूह) O एक सर्वदाता है जो सभी वर्गों को रक्त प्रदान कर सकता है। रुधिर वर्ग AB सर्वपाही है जो सभी प्रकार के रक्त वर्गों से रक्त ले सकता है।

प्रश्न 8.
धमनी की आन्तरिक संरचना बताइए तथा धमनियाँ शिराओं से भिन्न हैं ?
उत्तर:
धमनियाँ (Arteries) – धमनियाँ हृदय द्वारा पम्प किए गए रुधिर को शरीर के विभिन्न अंगों एवं ऊतकों में पहुँचाती हैं। हृदय के प्रत्येक स्पन्दन के साथ हधिर पम्प होकर धमनियों में आ जाता है। हद्य में क्रमिक स्पन्दन के कारण रुधर रुक-रुक कर तथा दाब के साथ धमनियों में से होकर बहता है। इस दाब के पहन करने के लिए इनकी दीवार शिराओं की अपेक्षा अधिक मोटी एवं लचीली होती हैं तथा इनकी गुहा सँकरी होती है। इसी कारण रिक्त होने पर भी धमनियाँ पेचकती नहीं हैं। जैसे-जैसे ये हृदय से दूर जाती हैं।

ये पतली होती जाती हैं तथा इनकी दीवार में भी औतिकीय परिवर्तन होते जाते हैं। सामान्य रूप से धमनियाँ गुलाबी रंग की प्रतीत होती हैं और शिराओं की तुलना में ये शरीर में अधिक गहराई पर स्थित होती हैं। किन्तु कलाई, गर्दन आदि में ये त्वचा के साथ-साथ स्थित होती हैं। इन स्थानों पर इनमें स्पंदन का अनुभव किया जा सकता है। धमनिकाएँ (Arterioles)-विभिन्न अंगों में पहुँचकर प्रत्येक धमनी बारंबार विभाजन (6-8 बार) से पतली धमनियाँ बनाती हैं।

इन्हें धमनिकाएँ कहते हैं। डनकी दीवार मुख्य रूप से अरेखित पेशियों की बनी होती है। इनके एण्डोथीलियम स्तर की शल्की कोशिकाएँ अधिक चपटी होती हैं। प्रसारण (vasodilation) तथा संकुचन (vasoconstriction) की क्षमता के कारण धमनिकाएँ ऊतकों में रुधिर की आपूर्ति को आवश्यकतानुसार घटाने-बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान करती ०ै। इसलिए धमनिकाओं को स्टोप कोक्स ऑफ सर्कुलेशन कहते हैं।

कोशिकाएँ (Capillaries) – उतकों में प्रवेश करने पर प्रत्येक धमनिका 10-1000 महीन व छोटी-छोटी शाखाओं में विभाजित हो जाती हैं। इन शाखाओं को धमनी कोशिकाएँ कहते हैं। इनकी दीवारों में बाहा एवं मध्य स्तर का अभाव होता है। ये ऊतकों की सतह पर पायी जाती है और पदार्थों के विनिमय में सहायता करती है। इनकी भित्ति मात्र 0.3 मिमी मोटी होती है।

शिराएँ (Veins) – शिराएँ गहो लाल रंग की होती हैं। इनकी दीवार पतली तथा गुहा चौड़ी होती है। इसीलिए रिक्त होने पर ये पिचक जाती हैं। इनकी दीवार में पेशी व इलास्टिन तन्तु बहुत कम होते हैं। दीवार का बाह्य स्तर अन्य स्तरों की तुलना में अधिक विकसित होता है। शिराएँ उतकों से अशुद्ध रुधिर हुदय की ओर ले जाती हैं।

केवल पल्मोनरी शिरा में शुद्ध रक्त बहता है। शिराओं की प्रमुख विशेषता है। इनमें उपस्थित कपाट (valve) जो रुधिर का प्रवाह एकदिशीय बनाए रखते हैं। शिरिकाएँ (Venules) – धमनी केशिकाओं के अन्तिम सिरे बदलकर शिरा केशिकाएँ (venous capillaries) बनाते हैं। इनमें अशुद्ध रक्त होता है। ये शिरिकाएँ परस्पर जुड़कर शिरिकाएँ बनाती हैं। बहुत-सी शिरिकाएँ आपस में मिलकर शिरा (vein) बनाते हैं।

धमनी एवं शिरा में अन्तर (Difference between Arteries and Veins)

धमनी शिरा
ये रुधिर को हृदय से अंगों की ओर ले जाती हैं। ये अंगों, ऊतकों से रुधिर को हृदय की ओर ले जाती हैं।
इनकी दीवारें अत्यधिक मोटी, पेशीय व लचीली होती हैं। इनकी दीवार पतली व लोचदार होती है।
इनकी गुहा सँकरी होती है। इनकी गुहा अधिक चौड़ी होती है।
इनमें रुधिर अत्यधिक दाब और झटके के साथ बहता है। रुधिर के बहने की गति धीमी रहती हैं तथा दाब एक जैसा होता है।
ये प्राय: शरीर के अंगों में गहराई पर स्थित होती हैं। प्राय: अंगों में बाहर की ओर स्थित होती हैं।
इनमें कपाट (valve) नहीं होते हैं। इनमें कपाट पाए जाते हैं।
दीवारें अधिक मोटी होने के कारण रिक्त होने पर पिचकती नहीं हैं। दीवारें पतली होने के कारण रिक्त होने पर पिचक जाती हैं।
इनका रंग गुलाबी या चटक लाल होता है। ये गहरे लाल रंग या नीले बैंगनी रंग की होती हैं।
पल्मोनरी धमनी (Pulmonary artery) को छोड़कर सभी धमनियों में शुद्ध (ऑक्सीकृत) रुधिर बहता है। पल्मोनरी शिरा (Pulmonery vein) को छोड़कर सभी शिराओं में अशुद्ध (विऑक्सीकृत) रुधिर बहता है।
इनमें किसी भी समय शरीर में कुल रुधिर का लगभग 15% भाग भरा रहता है। इनमें किसी भी समय रुधि के कुल भार का लगभग 60-65% अंश भरा रहता है।

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प्रश्न 9.
यकृत निवाहिका तन्त्र का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यकृत निवाहिका तन्त्र (Hepatic Portal System)
जब किसी अंग से निकली शिरायें पश्च महाशिरा या ह्वदय के स्थान पर किसी अन्य अंग में जाकर खुलती हैं और केशिकाओं का जाल बनाती हैं तथा यहाँ पर शिराएँ पुनः संयुक्त हो पश्च महाशिरा में खुलती हैं तो ऐसे तन्त्र को निवाहिका तन्त्र (portal system) कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है-

  • यकृत निवाहिका तन्त्र
  • वृक्क निवाहिका तन्त्र (यह मनुष्य व अन्य स्तनधारियों में अनुपस्थित होता है) मनुष्य व अन्य सभी स्तनियों में केवल यकृत निवाहिका

तन्त्र पाया जाता है जो आहार नाल से प्रारम्भ होकर यकृत में समाप्त होता है। इसमें निम्नलिखित शिराएँ पायी जाती हैं-

  • प्लीहा शिरा (Splenic Vein)-प्लीहा से रुधिर एकत्रित करती है।
  • अधि आत्रयोजनी शिरा (Superior Mesenteric Vein) – यह क्षुद्रान्त, सीकम व आरोही कोलन से रुधिर एकत्रित करती है।
  • जठर शिरा (Gastric Vein) – यह आमाशय से रुधिर एकत्रित करती है।

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  • अग्याशयी शिरा (Pancreatic Vein) – अग्याशय से रुधिर एकत्रित करती है।
  • ग्रहणी शिरा (Duodenal Vein) – ग्रहणी से रुधि ग्रहण करती है।
  •  सिस्टिक शिरा (Cystic Vein)-पित्ताशय से रुधिर ग्रहण करती है।
  • अधो आन्न योजनी शिरा (Inferior Mesenteric Vein) – अवरोही कोलन, सिग्माइड कोलन तथा मलाशय से रुधिर ग्रहण करती है।

ये सभी शिराएँ आपस में संयुक्त होकर एक यकुत निवाहिका शिरा (Hepatic Portal Vein) बनाती हैं जो यकृत के बायें पिण्ड में खुलती है। यकृत में पहुँचकर यह पुन: केशिकाओं में शाखित हो जाती है। ये केशिकाएँ अब संयुक्त होकर यकृत शिराएँ बनाती हैं जो पश्च महा शिरा में खुलती हैं। यकृत निवाहिका तन्त्र का महत्त्व –

  • यह शरीर में शर्करा की मात्रा का नियमन करता है।
  • भोजन के साथ आए हानिकारक जीवाणुओं एवं रोगाणुओं को नष्ट करता है।
  • विषैले पदार्थों को निक्किय करता है।
  • एमीनो अम्लों में डिएमीनेशन से प्राप्त अमोनिया को यूरिया में बदल दिया जाता है।
  • रुधिर में शर्करा की कमी होने पर यह ग्लाकोनियोजिनैसिस को प्रेरित करता है।

नोट-स्तनधारियों (Mammals) में यकृत निवाहिका तन्त्र के अतिरिक्त हाइपोटोलेमस-हाइपोफाइसियल निवाहिका तन्त्र भी पाया जाता है। परन्तु इसका सम्बन्ध अन्त:स्रावी तन्त्र से होता है। कोरोनरी तन्त्र (Coronary System) – यह कोरोनरी धमनी व शिराओं का बना होता है। ये शिराएँ द्वदय की भित्ति से ‘अशुद्ध’ रुधिर एकत्रित करके कोरोनरी साइनस में डालती हैं।

जो दायें अलिंद में खुलता है। कोरोनरी साइनस जहाँ पर दायें अलिंद में खुलता है, वहाँ थीबिसियन कपाट पाए जाते हैं। इस मुख्य शिरा के अतिरिक्त अनेक शिराएँ स्वतन्त रूप से दाएँ अलिन्द में खुलती हैं। इन शिराओं को वीनी-कौर्डीस-मिनिमी (Venae-cardis-minimes) कहते हैं तथा इनके रन्ध्रों को थीबिसियन के रन्ध्र कहते हैं। कोरोनरी धमनियाँ हृदय को रुधिर भेजती हैं।

प्रश्न 10.
दोहरे रुधिर परिसंचरण तन्त्र का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
दोहरा रक्त परिसंचरण (Double Blood Circulation)
स्तनियों का हुदय स्पष्टत दो अलिन्दों तथा दो निलयों में विभाजित होता है इसलिए इनके हुदय में परिसंचरण के समय शुद्ध एवं अशुद्ध रक्त एक-दूसरे से पूर्णतः पृथक रहता है। स्तनियों में शुद्ध रक्त प्रीवा-दैहिक ताप (कैरोटिको-सिस्टोमिक महाधमनी चाप) द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों को वितरित किया जाता है।

फिर इन अंगों से अशुद्ध रक्त को अप्र एवं पश्च महाशिराओं द्वारा ध्दय के दाहिने अलिन्द में पहुँचा दिया जाता है। फिर यह रक्त दाहिने निलय एवं फुफ्फुसीय चाप (पल्मोनरी चाप) द्वारा फेफड़ों में शुद्धीकरण हेतु भेजा जाता है। गैसीय विनिमय के बाद शुद्ध रक्त को फुफ्फुसीय शिराओं (पर्मोनरी शिराओं) द्वारा बायें अलिन्द में लाया जाता है तथा बायें निलय के माध्यम से इसे ग्रीवा-दैहिक चाप में प्रवाहित कर दिया जाता है। इस प्रकार एक पूर्ण परिसंचरण पथ में रक्त हुदय में दो बार गुजरता है। परिसंचरण की ऐसी अवस्था को दोहरा परिसंचरण (Double circulation) कहते हैं।

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विभिन्न शारीरिक अंगों एवं हृदय के बीच परिसंचरण को दैहिक परिसंचरण (Systemic circulation) कहते हैं, जबकि हृदय एवं फेफड़ों के बीच होने वाले परिसचंरण को फुफ्फुसीय परिसंचरण (Pulmonary circulation) कहते हैं।
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प्रश्न 11.
मनुष्य के लसीका तन्त्र का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य का लसीका तन्त्र (Lymphatic System in Human)
मनुष्य का लसिका तन्त्र लसीका (lymph) लसीका वाहिनियों (lymph vessels) तथा लसीका पर्व (lymph nodes) से मिलकर बना होता है।
(1) लसीका (Lymph) – लसीका तन्त्र में लसिका प्रवाहित होता रहता है, रुधिर केशिकाओं से रक्त दाब से छन जाता है। यह छना हुआ द्रव लसीका (Lymph) – कहलाता है। यह रंगहीन, अल्प पारदर्शक, क्षारीय संवहन ऊतक है।

यह रक्त के प्लाज्म जैसा ही होता है, अन्तर केवल इतना होता है कि इसमें प्रोटीन, कैल्सियम तथा फॉस्फोरस रक्त प्लाज्मा से कम मात्रा में होते हैं, किन्तु उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा अधिक होती है। लसिका में थ्रोम्बोसाइद्स तथा लाल रुधिर कणिकाएँ (R.B.C.) नहीं होती हैं। इसमें लसीका कोशिकाएँ या लसिकाणु पायी जाती हैं तथा इसमें श्वेत रुधिर कणिकाएँ (W.B.C.) रुधिर की अपेक्षा अधिक होती हैं।

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(2) लसीका वाहिनियाँ (Lymph Vessels) – रुधिर के समान ही लसीका भी शरीर में प्रवाहित होता रहता है। शरीर में विभिन्न ऊतक लसीका में डूबे रहते हैं। गैसों तथा अन्य पदार्थों का विनिमय रक्त व कोशिकाओं के मध्य लसीका द्वारा होता है। लसीका वाहिनियाँ शिराओं के समान होती हैं, क्योंकि लसीका वाहिनियों में लसीका सदैव अंगों से हृदय की ओर प्रवाहित होता है।

शिराओं की अपेक्षा इनमें दाब कम होता है, लसीका का बहाव लसीका वाहिनियों की भित्ति एवं इधर-उधर उपस्थित पेशियों के संकुचन के कारण होता है। इस तन्त्र में अनेक छोटी-छोटी वाहिनियाँ होती हैं। इस तन्त्र की बड़ी वाहिनियाँ निम्नलिखित हैं-

(क) बायीं वक्षीय वाहिनी (Left Thoracic Duct) – यह सिर के दाहिने भाग ग्रीवा एवं वक्ष के अतिरिक्त पश्चपादों, श्रोणीय क्षेत्र, उदर एवं शरीर के अप्र एवं बायें भाग, सिर, गर्दन व अप्रपादों से लसिका को लाती है यह बायीं अधोजत्रुक (left subclavian) शिरा एवं अन्तः प्रीवा शिरा (internal jugular vein) से प्रारम्भ होकर वक्ष में खुलती है।
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(ख) दायीं लसीका वाहिनी (Right Lymphatic Duct) – यह प्रीवा में स्थित छोटी वाहिका है और शरीर के अप्र भाग तथा दायें सिर, गर्दन व अम्र पाद एवं वक्ष लसीका को एकत्रित करके लाती है। यह दायीं अधोजत्रुक शिरा (right subclavian vein) तथा दायीं आन्तरिक ग्रीवा शिरा (right jugular Vein) के सन्धि स्थल पर शिरा तन्त्र में खुलती है।

(3) लसीका पर्व सन्धियाँ (Lymph Nodes) – लसीका वाहिनियों में जगह-जगह लसीका गाँठें (nodes) स्थित होती हैं। इन गाँठों में लसीका केशिकाओं का जाल व लिम्फोसाइट कणिकाएँ स्थित होती हैं। लसीका गाँठें, सिर, गर्दन, बगलों व रागों (Groin) आदि में बड़ी रुधि वाहिनियों के समीप स्थित होती हैं। टॉन्सिल्स (tonsils) भी लसीका गाँठें ही हैं।

रुधिर में मिलने से पहले लसीका में से मृत कोशिकाओं तथा बाह्य कणों को हटाने का कार्य पर्व सन्धियाँ ही करती हैं। इनमें लसीकाणु का निर्माण भी होता है। ये प्रतिरक्षा का कार्य करते हैं।
लसीका तन्त्र के कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. लसीका रक्त व ऊतकों के मध्य मध्यस्थ का कार्य करता है। यह रक्त से पाचित भोज्य पदार्थों व ऑक्सीजन को लेकर ऊतकों को तथा ऊतकों से उत्सर्जी पदार्थों, हॉर्मोन्स आदि को लेकर रक्त में लाता है।
  2. लसीका तन्त्र अवशोषित पोषक पदार्थो, विशेष रूप से वसा (ग्लिसरॉल एवं वसा अम्लों) के परिवहन में सहायक है।
  3. आन्त्र में अवशोषित वसा आक्षीर वाहिकाओं (lecteals) के माध्यम से पहले लसिका तन्न्र में जाती है और वहाँ से शिरा तन्त्र में जाती है।
  4. लसीका में उपस्थित श्वेत रुधिर कणिकाएँ (W.B.C’s) रोगाणुओं का भक्षण करती हैं।
  5. लसीका अंगों व ग्राँठों में प्रतिरक्षी (एन्टीबॉडीज) बनते हैं जो प्रतिरक्षा तन्त्र का मुख्य भाग हैं और प्रतिरक्षण में भाग लेते हैं।

प्रश्न 12.
रुधिर एवं परिसंचरण सम्बन्धी रोगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रुधिर एवं परिसंचरण सम्बन्धी रोग (Disease Related to Blood and Circulatory System)
1. उच्च रक्त दाब (High Blood Pressure) या अति तनाव-उच्च रक्त दाब (High B.P.) वह अवस्था है जिसमें रक्तचाप सामान्य (120/80) से अधिक होता है। इस मापदंड में 120 mm Hg (मिमी में पारे का दबाव) को प्रकुंचन या पंपिंग दाब और 80 mm Hg को अनुशिथिलन दाब या विराम काल (सहज) रक्तदाब कहते हैं।

यदि किसी व्यक्ति का रक्तदाब बार-बार मापने पर भी 140 / 90 या इससे अधिक होता है तो वह अति तनाव प्रदर्शित करता है। उच्च रक्त चाप (High B.P.) हृदय की बीमारियों को जन्म देता है तथा अन्य महत्वपूर्ण अंगों, जैसे-मस्तिष्क तथा गुर्दे जैसे अंगों को प्रभावित करता है।

2. हद्-धमनी रोग (Cardiac-artery Disease : CAD) – हृद्-धमनी रोग को प्राय: एधिरोकाठिन्य (atherosclerosis) कहते हैं। इस रोग में हृदय पेशी के रक्त की आपूर्ति करने वाली वाहिनियाँ प्रभावित होती हैं। यह रोग धमनियों के अन्दर कैल्सियम, वसा तथा अन्य रेशीय ऊतकों के संचित होने से होता है। इससे धमनी की अवकाशिका सँकरी हो जाती है तथा कभी-कभी बंद भी हो सकती है। इसके कारण रुधिर प्रवाह धीमा हो जाता है या रुक जाता है।

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3. हृद् शूल (Angina-एन्जाइना)-इसे एन्जाइना पेक्टोरिस (angina Pectoris) भी कहते हैं। हृद पेशी में जब पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं पहुँचती है, तब सीने में दर्द (वक्ष पीड़ा) होता है, जो एन्जाइना (हद्शूल) की पहचान है। एन्जाइना र्री या पुरुष दोनों में, किसी भी आयु में हो सकता है, लेकिन मध्यावस्था तथा वृद्धावस्था में यह सामान्यतः होता है। यह अवस्था रक्त बहाव के प्रभावित होने से होती है।

4. हृद्पात (हार्ट फेल्योर; Heart Faliyor) – हृदयघात वह अवस्था है जिसमें हुदय शरीर के विभिन्न भागों को आवश्यकतानुसार पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पाता है। इसे कभी-कभी संकुलित हृद्घात भी कहते हैं। क्योंकि फेफड़ों का संकुचित हो जाना भी इस रोग का प्रमुख लक्षण है। हृद्पात ठीक हृद्घात की भाँति नहीं होता (जहाँ हृद्पात के हृदय की धड़कन बन्द हो जाती है) हृद्पात में हृदय पेशी को रक्त आपूर्ति अचानक अपर्याप्त हो जाने से यकायक क्षति पहुँचती है।

5. हुदय आघात (Heart Shock or Attack) – हृदय आघात (Heárt shock) के कई कारण होते हैं-इनमें से मुख्य कारण है-कोरोनरी धमनी में थक्का बन जाना या रुधर वाहिका में रुकावट आ जाना। यदि व्यक्ति अत्यधिक मोटा है, वह धूम्रपान करता है, उच्च रुधिर दाब, कम व्यायाम, रुधिर में कोलेस्ट्रॉल मात्रा बढ़ जाती है तो हृदय आघात का खतरा बढ़ जाता है।

6. रक्ताल्पता (Anaemia)-सामान्यतः RBC या हीमोग्लोबिन की कमी रक्ताल्पता या एनीमिया कहलाती है। यह विटामिनB12 फोलिक अम्ल, आयरन की कमी के कारण होता है।

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