Author name: Bhagya

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions व्याकरणम् Pathit Avbodhanam पठित-अवबोधनम् Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

(क) श्लोकस्य हिन्दीभाषायां व्याख्या

अधोलिखितश्लोकस्य हिन्दीभाषायां व्याख्या कार्या

1. अधोलिखितश्लोकस्य हिन्दीभाषया सरलार्थं कार्यम्
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥

प्रसंग-प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शाश्वती द्वितीयो भागः’ के ‘कर्मगौरवम्’ नामक पाठ से लिया गया है। यह श्लोक महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ‘श्रीमदभगवद्गीता’ से संकलित है। इसमें कर्म के गौरव को प्रतिपादित किया गया है।

सरलार्थ-हे अर्जुन! बुद्धियुक्त अर्थात् समत्व बुद्धि को प्राप्त मनुष्य, इस संसार में पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कार्यों में आसक्ति को छोड़ देता है। इसलिए तू समत्व योग के लिए प्रयत्न कर । कर्मों में कुशलता का नाम ही योग (अनासक्तिनिष्काम योग) है।

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2. तं भूपतिर्भासुरहेमराशिं लब्धं कुबेरादभियास्यमानात्।
दिदेश कौत्साय समस्तमेव पादं सुमेरोरिव वज्रभिन्नम्॥

व्याख्या-प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘रघुकौत्ससंवाद:’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘रघुवंशमहाकाव्यम्’ के पञ्चम सर्ग से सम्पादित किया गया है। प्रस्तुत श्लोक में वर्णन किया गया है कि कुबेर ने राजा रघु के आक्रमण के भय से उसके खजाने को सुवर्ण मुद्राओं से भर दिया।

राजा रघु ने आक्रमण किए जाने वाले कुबेर से प्राप्त, वज्र के द्वारा टुकड़े किए गए सुमेरु पर्वत के चतुर्थ भाग के समान प्रतीत हो रही, उन चमकती हुई समस्त सुवर्ण मुद्राओं को कौत्स के लिए दे दिया।

भावार्थ यह है कि कुबेर ने रघु के आक्रमण के भय से उसके खजाने को सुवर्ण मुद्राओं से भर दिया। वे सुवर्ण मुद्राएँ परिमाण में इतनी अधिक थी कि ऐसा लगता था मानो सुमेरु पर्वत को ही वज्र से काटकर उसका चौथा हिस्सा खजाने में रख दिया। महाराज रघु ने कुबेर से प्राप्त हुई सभी सुवर्ण मुद्राएँ याचक कौत्स को प्रदान कर दी अर्थात् चौदह करोड़ ही न देकर पूरा खजाना ही कौत्स को सौंप दिया।

3. तथेति तस्यावितथं प्रतीतः प्रत्यग्रहीत्सङ्गममग्रजन्मा।
गामात्तसारां रघुरप्यवेक्ष्य निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुबेरात्॥

व्याख्या- प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘रघुकौत्ससंवादः’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘रघुवंशमहाकाव्यम्’ के पञ्चम सर्ग से सम्पादित किया गया है। प्रस्तुत श्लोक में वर्णन किया गया है कि राजा रघु ने कौत्स की याचना को पूर्ण करने के लिए धन के स्वामी कुबेर पर आक्रमण कर उसका धन हरण कर लेने की इच्छा की।

ब्राह्मण कौत्स ने प्रसन्न होकर उस राजा रघु के सत्यवचन / प्रतिज्ञा को ‘ठीक है’ यह कहकर स्वीकार किया। रघु ने भी पृथिवी को प्राप्तधन वाली देखकर कुबेर से धन छीन लेने की इच्छा की।

भावार्थ यह है कि याचक कौत्स और दाता रघु दोनों को परस्पर विश्वास है। कौत्स ने रघु के वचनों को सत्य प्रतिज्ञा के रूप में ग्रहण किया। रघु ने कौत्स की याचना के पूर्ण करने हेतु धन के स्वामी कुबेर पर आक्रमण कर उसका धन हरण कर लेने की इच्छा की।

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4. निर्बन्धसञ्जातरुषार्थकार्यमचिन्तयित्वा गुरुणाहमुक्तः।
वित्तस्य विद्यापरिसंख्यया मे कोटीश्चतस्रो दश चाहरेति॥

व्याख्या-प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘रघुकौत्ससंवादः’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘रघुवंशमहाकाव्यम्’ के पञ्चम सर्ग से सम्पादित किया गया है। प्रस्तुत श्लोक में ऋषि वरतन्तु ने शिष्य कौत्स को चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ गुरुदक्षिणा में समर्पित करने का आदेश दिया है।

कौत्स महाराज रघु से शेष वृत्तान्त निवेदन करते हुए कहता है-“मेरे बार-बार प्रार्थना (जिद्द) करने से क्रोधित हुए गुरु जी ने मेरी निर्धनता का विचार किए बिना मुझे कहा कि चौदह विद्याओं की संख्या के अनुसार तुम चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ ले आओ।”

भावार्थ यह है कि गुरुदेव वरतन्तु को न धन का लोभ था, न विद्या का अभिमान। परन्तु शिष्य कौत्स की बार-बार जिद्द ने उन्हें क्रोधित कर दिया और उन्होंने कौत्स को पढ़ाई गई चौदह विद्याओं के प्रतिफल में चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ गुरुदक्षिणा में समर्पित करने का आदेश दे दिया।

5. अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः॥

प्रसंगः-प्रस्तुत मन्त्र हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘विद्ययाऽ-मृतमश्नुते’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ ‘ईशोपनिषद्’ से संकलित है। इस मन्त्र में बताया गया है कि केवल अविद्या = भौतिक विद्या अथवा केवल विद्या = अध्यात्म विद्या में लगे रहना अन्धकार में पड़े रहने के समान है।

व्याख्या-जो लोग केवल अविद्या अर्थात् भौतिक साधनों की प्राप्ति कराने वाले ज्ञान की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं। परन्तु उनसे भी अधिक घोर अन्धकारमय जीवन उन लोगों का होता है, जो केवल विद्या अर्थात् अध्यात्म ज्ञान प्राप्त करने में ही लगे रहते हैं।

अविद्या और विद्या वेद के विशिष्ट शब्द हैं। ‘अविद्या’ से तात्पर्य है शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायता करने वाला ज्ञान। ‘विद्या’ का अर्थ है, आत्मा के रहस्य को प्रकट करने वाला अध्यात्म ज्ञान। वेद मन्त्र का तात्पर्य है कि यदि व्यक्ति केवल भौतिक साधनों को जुटाने का ज्ञान ही प्राप्त करता है और ‘आत्मा’ के स्वरूपज्ञान को भूल जाता है तो बहुत बड़ा अज्ञान है, उसका जीवन अन्धकारमय है। परन्तु जो व्यक्ति केवल अध्यात्म ज्ञान में ही मस्त रहता है, उसकी दुर्दशा तो भौतिक ज्ञान वाले से भी अधिक दयनीय होती है। क्योंकि भौतिक साधनों के अभाव में शरीर की रक्षा भी कठिन हो जाएगी। अतः वेदमन्त्र का स्पष्ट संकेत है कि भौतिक ज्ञान तथा अध्यात्म ज्ञान से युक्त सन्तुलित जीवन ही सफल और आनन्दित जीवन है।

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6. स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः।
विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्॥

प्रसंग-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संगृहीत है। इस पद्य के रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं। इस पद्य में मौन का महत्त्व बताया गया है।
व्याख्या-विधाता ने स्वतन्त्र, अद्वितीय गुण वाला, अज्ञान को ढकने वाला मौन नामक गुण बनाया है। विशेष रूप से विद्वानों की सभा में तो यह मौन मूों का आभूषण बन जाता है।

“एक चुप सो सुख’ हिन्दी की इस कहावत का मूल भाव इस पद्य में है। यह मौन अद्वितीय विशेषताओं वाला है। यह अज्ञान को ढक देता है। विद्वानों की सभा में यदि कोई मूर्ख मनुष्य बैठा हो और वह वहाँ बैठकर चुप रहे तब यह मौन उस मूर्ख का आभूषण बन जाता है और दूसरे लोग इस चुप रहने वाले मूर्ख को विद्वान् ही समझते हैं।

7. विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्यु तीा विद्ययाऽमृतमश्नुते॥

प्रसंग-प्रस्तुत मन्त्र हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘विद्ययाऽमृतमश्नुते’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ ‘ईशोपनिषद्’ से संकलित है। इस मन्त्र में अध्यात्मज्ञान तथा व्यावहारिक ज्ञान द्वारा सन्तुलित जीवन यापन करने का आदेश दिया है।

व्याख्या-जो मनुष्य विद्या अर्थात् अध्यात्मज्ञान तथा अविद्या अर्थात् अध्यात्म ज्ञान से भिन्न सभी प्रकार का व्यावहारिक ज्ञान, दोनों को एक साथ जानता है। वह व्यावहारिक ज्ञान द्वारा मृत्यु को पारकर अध्यात्म ज्ञान द्वारा जन्ममृत्यु के दुःख से रहित अमरत्व को प्राप्त करता है।

‘विद्या’ और ‘अविद्या’-ये दोनों शब्द विशिष्ट वैदिक प्रयोग हैं। ‘विद्या’ शब्द का प्रयोग यहाँ ‘अध्यात्म ज्ञान’ के अर्थ में हुआ है। इस जड़-चेतन जगत् में सर्वत्र व्याप्त परमात्मा तथा शरीर में व्याप्त जीवात्मा के ज्ञान को अध्यात्म ज्ञान कहा जाता है। यह मोक्षदायी यथार्थ ज्ञान ही ‘विद्या’ है। इससे भिन्न सभी प्रकार के ज्ञान को ‘अविद्या’ नाम दिया गया है।

अध्यात्म ज्ञान से भिन्न सृष्टिविज्ञान, यज्ञविज्ञान, भौतिकविज्ञान, आयुर्विज्ञान, गणितविज्ञान, अर्थशास्त्र, प्रौद्योगिकी, सूचनातन्त्र आदि सभी प्रकार का ज्ञान ‘अविद्या’ शब्द में समाहित हो जाता है। यह अध्यात्मेतर ज्ञान मनुष्य को मृत्यु दुःख से छुड़वाता है और इसी अध्यात्म ज्ञान द्वारा मनुष्य फिर अमरत्व अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। इस प्रकार यह दोनों प्रकार का ज्ञान ही मनुष्य के लिए आवश्यक है, तभी वह इहलोक तथा परलोक दोनों को सिद्ध कर सकता है।

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8. तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं निःशेषविश्राणितकोषजातम्।
उपात्तविद्यो गुरुदक्षिणार्थी कौत्सः प्रपेदे वरतन्तुशिष्यः॥

प्रसंग-प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘रघुकौत्ससंवादः’ नामक पाठ से लिया गया है। यह श्लोक महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘रघुवंशमहाकाव्यम्’ के पञ्चम सर्ग से सम्पादित किया गया है। यह श्लोक ऋषि वरतन्तु के शिष्य कौत्स तथा महाराजा रघु के बीच हुए संवाद का अंश है।

व्याख्या-‘विश्वजित्’ नामक यज्ञ में अपनी सम्पूर्ण धनराशि दान कर चुके उस राजा रघु के पास वरतन्तु ऋषि का विद्यासम्पन्न शिष्य कौत्स गुरुदक्षिणा देने की इच्छा से धनयाचना करने के लिए पहुँचा।।

प्राचीन काल में राजा लोग ‘विश्वजित्’ यज्ञ करते थे। राजा रघु ने भी यह यज्ञ किया और अपना सम्पूर्ण खजाना (राजकोष-धनधान्य) दान कर दिया। तभी वरतन्तु का शिष्य कौत्स भी राजा के पास इस आशा में पहुँचा कि वह अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में देने के लिए चौदह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ राजा रघु से माँग लेगा।

9. न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥

प्रसंग-प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘कर्मगौरवम्’ नामक पाठ से लिया गया है। यह श्लोक महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ से संकलित है। इसमें कर्म के गौरव को प्रतिपादित किया गया है।

व्याख्या-हे अर्जुन ! कोई भी पुरुष कभी भी थोड़ी देर के लिए भी, बिना कर्म किए नहीं रहता है। नि:संदेह सब लोग प्रकृति से उत्पन्न हुए (स्वभाव अनुसार) गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करते हैं।

कर्म करना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। जब मनुष्य शरीर से कर्म नहीं करता, निठल्ला पड़ा रहता है, तब भी वह मन से तो कार्य करता ही है। अतः पूर्ण चेतना से निष्काम कर्म ही करना चाहिए। निठल्ले कभी नहीं रहना चाहिए।

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(ख) गद्यांशस्य हिन्दीभाषायां व्याख्या
अधोलिखित गद्यांशस्य हिन्दीभाषायां व्याख्या कार्या

1. राजवचनमनुगच्छति जनो भयात्।उपदिश्यमानमपि ते न शृणवन्ति।
अवधीरयन्तः खेदयन्ति हितोपदेशदायिनो गुरून्।

व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शाश्वती’ द्वितीयो भागः’ के शुकनासो पदेश: नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट की प्रसिद्ध रचना ‘कादम्बरी’ से सम्पादित है। प्रस्तुत अंश में मन्त्री शुकनास युवराज चन्द्रापीड को उपदेश करते हुए कहते हैं कि- हे राजकुमार चन्द्रापीड, लोग प्रायः भय के कारण राजा के वचनों का ही अनुसरण करते हैं। उपदेश देते हुए (विद्वान्) को भी वे सुनते नहीं हैं। हितकारी उपदेश करने वाले गुरुओं का तिरस्कार करते हुए उन्हें खिन्न कर देते हैं।

2. यौवनारम्भे च प्रायः शास्त्रजलप्रक्षालन-निर्मलापि
कालुष्यमुपयाति बुद्धिः। नाशयति च पुरुषमत्यासङ्गो विषयेषु।

व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक शाश्वती द्वितीयो भाग का ‘शुकनासो पदेशः’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट की सुप्रसिद्ध रचना ‘कादम्बरी’ से सम्पादित है। प्रस्तुत अंश में मन्त्री शुकनास युवराज चन्द्रापीड को उपदेश देते हुए कहते हैं कि-युवावस्था के आरम्भ में मनुष्य की बुद्धि शास्त्ररूपी जल में घुलने के कारण स्वच्छ होती हुई भी प्रायः दोषपूर्ण हो जाती है और विषयों में अति आसक्ति मनुष्य का विनाश कर देती है।

3. तदतिकुटिलचेष्टादारुणे राज्यतन्त्रे, अस्मिन् महामोहकारिणि च यौवने कुमार। तथा प्रयतेथाः यथा नोपहस्यसे जनैः, न निन्द्यसे साधुभिः, न धिविक्रयसे गुरुभिः, नोपालभ्यसे सुहृद्भिः, न वञ्च्यसे धूतैः।

व्याख्या-प्रस्तुत पाठ्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘शुकनाशोपदेशः’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट की प्रसिद्ध रचना ‘कादम्बरी’ से सम्पादित है। प्रस्तुत अंश में मन्त्री शुकनास युवराज चन्द्रापीड को उपदेश करते हुए कहते हैं कि हे राजकमार चन्द्रापीड ! इसीलिए अत्यन्त कुटिल चेष्टाओं से युक्त इस कठोर राज्यतन्त्र में और इस महामूर्छा पैदा करने वाली युवावस्था में तुम वैसा प्रयत्न करना जिससे तुम जनता की हँसी के पात्र न बनो। सज्जन तुम्हारी निन्दा न करें। गुरु लोग तुम्हें धिक्कार न कहें। मित्र लोग तुम्हें उपालम्भ (लाम्भा, उलाहना) न दें। धूर्त तुम्हें ठग न सकें। अर्थात् तुम राजसुख में डूब कर अपने कर्तव्य से कभी विमुख मत होना।

4. अपरे तु स्वार्थनिपादनपरैः दोषानपि गुणपक्षमध्यारोपयद्भिः प्रतारणकुशलैयूं तैः प्रतार्यमाणा वित्तमदमत्तचित्ता सर्वजनोपहास्यतामुपयान्ति। न मानयन्ति मान्यान्, जरावैक्लव्यप्रलपितमिति पश्यन्ति वृद्धोपदेशम्।

व्याख्या-प्रस्तुत पाठ्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘शुकनाशोपदेशः’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट की प्रसिद्ध रचना ‘कादम्बरी’ से सम्पादित है। प्रस्तुत अंश में मन्त्री शुकनास युवराज चन्द्रापीड को उपदेश करते हुए कहते हैं कि हे राजकमार चन्द्रापीड ! कुछ राजा लोग तो स्वार्थ सिद्ध करने में तत्पर, दोषों में गुणों को आरोपित करने वाले, ठग-विद्या में अतिनिपुण, धूर्तबुद्धि लोगों के द्वारा ठगे जाते हुए धन के मद से उन्मत्त चित्त वाले होकर सब लोगों की हँसी के पात्र बनते हैं। वे मानवीय लोगों का सम्मान नहीं करते। वृद्धों के उपदेश को, यह मानकर देखते हैं कि यह तो उनका बुढ़ापे में बड़बड़ाना है।
भाव यह है कि राजा को अपने विवेक से ही प्रजा के हित में कार्य करने चाहिए तथा स्वार्थी मन्त्रियों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए।

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5. गर्भेश्वरत्वमभिनवयौवनत्वम् अप्रतिमरूपत्वममानुषंशक्तित्वञ्चेति महतीयं खल्वनर्थपरम्परा। यौवनारम्भे घ प्रायः शास्त्रजलप्रक्षालननिर्मलापि कालुष्यमुपयाति बुद्धिः। नाशयति च पुरुषमत्यासङ्गो विषयेषु।

व्याख्या-प्रस्तुत पाठ्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘शुकनाशोपदेशः’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट की प्रसिद्ध रचना ‘कादम्बरी’ से सम्पादित है। प्रस्तुत अंश में मन्त्री शुकनास युवराज चन्द्रापीड को उपदेश करते हुए अनर्थ के चार कारणों की ओर ध्यान दिला रहे हैं। मन्त्री शुकनास कहते हैं कि अनर्थ की परम्परा के चार कारण हैं
(i) जन्म से ही प्रभुता
(ii) नया यौवन
(iii) अति सुन्दर रूप
(iv) अमानुषी शक्ति।
इन चारों में से मनुष्य का विनाश करने के लिए कोई एक कारण भी पर्याप्त होता है। जिसके जीवन में ये चारों ही कारण उपस्थित हों, उसके बिनाश को कौन रोक सकता है ? इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को घोर अनर्थ से बचने के लिए उक्त चारों वस्तुएँ पाकर से कभी अहंकार नहीं करना चाहिए। युवावस्था के प्रारम्भ में मनुष्य की बुद्धि शास्त्ररूपी जल से धुलने के कारण स्वच्छ होती हुई भी प्राय: दोषपूर्ण हो जाती है। और विषयों में अति आसक्ति मनुष्य का विनाश कर देती है।

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6. एवं समतिक्रामत्सु दिवसेषु राजा चन्द्रापीडस्य यौवराज्याभिषेकं चिकीर्षुः प्रतीहारानुपकरण सम्भारसंग्रहार्थमादिदेश। समुपस्थितयौवराज्याभिषेकं च तं कदाचिद् दर्शनार्थमागतमारूढविनयमपि विनीततरमिच्छन् कर्तुं शुकनासः सविस्तरमुवाच।

प्रसंग-प्रस्तुत पाठ्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘शुकनाशोपदेशः’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट की प्रसिद्ध रचना ‘कादम्बरी’ से सम्पादित है। इस पाठ में राजा तारापीड का अनुभवी मन्त्री राजकुमार चन्द्रापीड को राज्याभिषेक से पूर्व हितैषी भाव से उपदेश देते हैं। वे उसे युवावस्था में रूप, यौवन, प्रभुता तथा ऐश्वर्य से उत्पन्न होने वाले स्वाभाविक दोषों के विषय में सावधान कर देना अपना कर्तव्य समझते हैं।

व्याख्या-इस प्रकार कुछ दिन बीत जाने पर राजा तारापीड ने राजकुमार चन्द्रापीड को राजतिलक करने की इच्छा से द्वारपालों को आवश्यक सामग्री-समूह के संग्रह करने के लिए आदेश दिया। जिसके राजतिलक समय निकट ही आ चुका था, जो कदाचित् मन्त्री शुकनास का दर्शन करने के लिए आया था-ऐसे उस विनयसम्पन्न (विशेष नीति से युक्त) राजकुमार चन्द्रापीड को और भी अधिक विनयवान् बनाने की इच्छा वाले शुकनास ने विस्तारपूर्वक कहा।

7 भवादृशा एव भवन्ति भाजनान्युपदेशानाम्। अपगतमले हि मनसि विशन्ति सुखेनोपदेशगुणाः। हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गुरूपदेशः गुरूपदेशश्च नाम अखिलमलप्रक्षालनक्षमम् अजलं स्नानम्। विशेषेण तु राज्ञाम्। विरला हि तेषामुपदेष्टारः।

प्रसंग-प्रस्तुत पाठ्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘शुकनाशोपदेशः’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट की प्रसिद्ध रचना ‘कादम्बरी’ से सम्पादित है। इस पाठ में राजा तारापीड का अनुभवी मन्त्री राजकुमार चन्द्रापीड को राज्याभिषेक से पूर्व हितैषी भाव से उपदेश देते हैं। वे उसे युवावस्था में रूप, यौवन, प्रभुता तथा ऐश्वर्य से उत्पन्न होने वाले स्वाभाविक दोषों के विषय में सावधान कर देना अपना कर्तव्य समझते हैं।

व्याख्या-मन्त्री शुकनास राजकुमार चन्द्रापीड से कहते हैं-हे बेटा, चन्द्रापीड! आप जैसे व्यक्ति ही उपदेशों के पात्र होते हैं। निर्दोष मन में ही उपदेश के गुण सुखपूर्वक प्रवेश करते हैं। गुरु का उपदेश अत्यन्त मलिन दोषसमूह को भी दूर कर देता है। गुरु का उपदेश सम्पूर्ण मलों को धोने में समर्थ जलरहित स्नान है। (अर्थात् जैसे पानी से स्नान करने पर बाहर के सब मैल धुल जाते हैं, वैसे ही गुरु के उपदेश से सब आन्तरिक दोष दूर हो जाते हैं।) ये उपदेश राजाओं के लिए तो विशेष रूप से लाभकारी होते है; क्योंकि उन्हें उपदेश देने वाले बहुत कम लोग होते हैं।

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8. आलोकयतु तावत् कल्याणाभिनिवेशी लक्ष्मीमेव प्रथमम्। न ह्येवं-विधमपरिचितमिह जगति किञ्चिदस्ति यथेयमनार्या। लब्धापि खलु दुःखेन परिपाल्यते। परिपालितापि प्रपलायते। न परिचयं रक्षति। नाभिजनमीक्षते। न रूपमालोकयते। न कुलक्रममनुवर्तते। न शीलं पश्यति। न वैदग्ध्यं गणयति। न श्रुतमाकर्णयति। न धर्ममनुरुध्यते। न त्यागमाद्रियते।

प्रसंग-प्रस्तुत पाठ्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘शुकनाशोपदेशः’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट की प्रसिद्ध रचना ‘कादम्बरी’ से सम्पादित है। इस पाठ में राजा तारापीड का अनुभवी मन्त्री राजकुमार चन्द्रापीड को राज्याभिषेक से पूर्व हितैषी भाव से उपदेश देते हैं। वे उसे युवावस्था में रूप, यौवन, प्रभुता तथा ऐश्वर्य से उत्पन्न होने वाले स्वाभाविक दोषों के विषय में सावधान कर देना अपना कर्तव्य समझते हैं।

व्याख्या-हे चन्द्रापीड ! तुम कल्याण (मंगल) के लिए प्रयत्नशील हो, इसलिए पहले लक्ष्मी को ही विचार कर देखो। इस जैसी अपरिचित इस संसार में अन्य कोई वस्तु नहीं जैसी यह अनार्या लक्ष्मी है। इस लक्ष्मी को प्राप्त कर लेने पर भी, इसका महाकष्ट से पालन (रक्षण) करना पड़ता है और यह लक्ष्मी न परिचय की परवाह करती है, न कुलीन की ओर देखती है, न सौन्दर्य (रूप) को देखती है, न कुल-परम्परा का अनुगमन करती है। न सच्चरित्र को देखती है, न कुशलता (पाण्डित्य) की परवाह करती है। न शास्त्रज्ञान को सुनती है, न धर्म से रोकी जाती है, न त्याग (दान) को आदर देती है।

9. जनकः अये, शिष्टानध्याय इत्यस्खलितं खेलतां वटूनां कोलाहलः।
कौसल्याः सुलभसौख्यमिदानी बालत्वं भवति।
अहो, एतेषां मध्ये क एष रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने
शीतलयति ?

प्रसंग-प्रस्तुत अंश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘बालकौतुकम्’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ संस्कृत के महान् नाटककार भवभूति के प्रसिद्ध नाटक ‘उत्तररामचरितम्’ के चतुर्थ अंक से सम्पादित किया गया है।

व्याख्या-वाल्मीकि आश्रम में अतिथि के रूप में, राजा जनक, महारानी कौशल्या तथा वशिष्ठ की पत्नी अरुन्धति आए हैं। वे आश्रम में बालकों के क्रीड़ा कौतूहल को देख रहे हैं। उन बालकों में सीता का पुत्र लव भी है, जिसका उन्हें पता नहीं है। यह अंश उनके वार्तालाप का ही है।

जनक कौशल्या से कहते हैं-अरे, बड़े लोगों के आने पर पढ़ाई में अवकाश होने के कारण, बेरोकटोक खेलते हुए छात्र-ब्रह्मचारियों का यह शोर है अर्थात् छुट्टी होने के कारण, सभी ब्रह्मचारी अनियन्त्रित होकर खेल रहे हैं।

कौसल्या जनकसे कहती हैं-इस बचपन में सुख सुलभ होता है अर्थात् बाल्यकाल में क्रीड़ा आदि सामान्य साधनों से ही सुख मिल जाता है। ओह, इन बालकों के बीच में यह कौन बालक, रामचन्द्र के समान सुन्दर और कोमल अंगों से हमारी आँखों को ठण्डा कर रहा है अर्थात् बाल्यावस्था में जैसा सुन्दर और कोमल रामभद्र था, वैसी ही आकृति वाला यह कौन बालक हमें आनन्द दे रहा है ?

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10. लवः (प्रविश्य, स्वगतम्) अविज्ञातवय:-क्रमौचित्यात् पूज्यानपि सतः कथमभिवादयिष्ये ? (विचिन्त्य) अयं पुनरविरुद्धप्रकार इति वृद्धेभ्यः श्रूयते। (सविनयमुपसृत्य) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्यायः।

प्रसंग-प्रस्तुत अंश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘बालकौतुकम्’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ संस्कृत के महान् नाटककार भवभूति के प्रसिद्ध नाटक ‘उत्तररामचरितम्’ के चतुर्थ अंक से सम्पादित किया गया है।

व्याख्या-वाल्मीकि आश्रम में अतिथि के रूप में, राजा जनक, महारानी कौशल्या तथा वशिष्ठ की पत्नी अरुन्धति आए हैं। वे आश्रम में बालकों के क्रीड़ा कौतूहल को देख रहे हैं। उन बालकों में सीता का पुत्र लव भी है, जिसका उन्हें पता नहीं है। यह अंश उनके वार्तालाप का ही है।

लव प्रवेश करके अपने मन में ही कहता है-आयु क्रम अर्थात् आयु में छोटे-बड़े का क्रम और उचितता का ज्ञान न होने से, पूजनीय होते हुए भी इनको मैं कैसे प्रणाम करूँ अर्थात् इनमें कौन वयोवृद्ध है और किसे प्रथम प्रणाम करना चाहिए ? यह मैं नहीं जानता, तो इन्हें कैसे प्रणाम करूँ? (सोच विचारकर) यह प्रणाम की विरोधहीन पद्धति है। ऐसा गुरुजनों से सुना जाता है। विनयपूर्वक राजा जनक तथा महारानी कौशल्या के पास जाकर कहता है कि यह आपको ‘लव’ का औचित्य क्रम के अनुसार प्रणाम है।

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(ग) पद्यांशं/पठित्वा-आधारितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि

अधोलिखितश्लोकं पठित्वा एतदाधारितानाम् प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतपूर्णवाक्येन लिखत
1. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः|
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।
प्रश्ना:
(क) शतं समाः कथं जिजीविषेत् ?
(ख) अस्ति’ इति पदस्य कः पदपरिचयः ?
उत्तराणि
(क) शतं समाः कर्माणि कुर्वन् एव जिजी विषेत।
(ख) ‘अस्ति’ इतिपदस्य पद परिचयः-अस्धातु लटलकार प्रथमपुरुष एकवचने।

2. अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः।
प्रश्ना:
(क) के अन्धन्तमः प्रविशन्ति ?
(ख) ‘विद्यायाम्’ इति पदे कः शब्दः का विभक्तिश्च ?
उत्तराणि
(क) येऽविद्यामुपासते ते अन्धन्तमः प्रविशन्ति।।
(ख) ‘विद्यायाम्’ इति पदे – ‘विद्या’ शब्दः, ‘सप्तमी’ विभक्तिश्च ।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

3. विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम्।।
प्रश्नाः
(क) महात्मनाम् प्रकृतिसिद्धं किं भवति ?
(ख) ‘यशसि’ इति पदे का विभक्तिः कः शब्दश्च ?
उत्तराणि
(क) विपदि धैर्यम् महात्मनाम् प्रकृतिसिद्धं भवति ।
(ख) ‘यशसि’ इति पदे – ‘यशस्’ शब्दः, ‘सप्तमी’ विभक्तिश्च ।

4. स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः।
विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्॥
प्रश्नाः
(क) अपण्डितानां विभूषणं किम् ?
(ख) ‘विधात्रा’ – इति पदे कः शब्दः का विभक्तिश्च ?
उत्तराणि
(क) अपण्डितानां विभूषणं मौनम् ।
(ख) ‘विधात्रा’ – इति पदे – ‘विधातृ’ शब्दः, ‘तृतीया’ विभक्तिश्च ।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

5. ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।
(क) जगत्सर्वं कीदृशम् अस्ति?
(ख) सर्वम्’ इति पदे कः शब्दः का विभक्तिश्च ?
उत्तराणि:
(क) जगत्सर्वम् ईशावास्यम् अस्ति।
(ख) ‘सर्वम्’ – सर्व शब्दः प्रथमा विभक्तिश्च।

6. तदन्यतस्तावदनन्यकार्यो गुर्वर्थमाहर्तुमहं यतिस्ये।
स्वस्त्यस्तु ते निर्गलिताम्बुग) शरद्घनं नादति चातकोऽपि।
(क) चातकोऽपि कं न याचते ?
(ख) अहम्’ इति पदे का विभक्तिः किं वचनञ्च ?
उत्तराणि
(क) चातकोऽपि शरद्घनं न याचते।
(ख) ‘अहम्’ – प्रथमा विभक्तिः एकवचनञ्च।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

7. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।
(क) शतं समाः कथं जिजीविषेत् ?
(ख) त्वयि’ पदे कः शब्दः का विभक्तिश्च ?
उत्तराणि
(क) शतं समाः कर्माणि कुर्वन् एव जिजीविषेत् ।
(ख) ‘त्वयि’ – युष्मद् शब्दः सप्तमी विभक्तिश्च। ।

8. बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
(क) बुद्धियुक्तः के जहाति?
(ख) तस्मात्’ इति पदे कः शब्दः का विभक्तिश्च?
उत्तराणि
(क) बुद्धियुक्तः सुकृतदुष्कृते जहाति।
(ख) ‘तस्मात्’ – तद् शब्द: पञ्चमी विभक्तिश्च।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

9. पापान्निवारयति योजयते हिताय गुह्यं निगृहति गुणान् प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः॥
(क) सन्मित्रं कस्मात् निवारयति ?
(ख) कः गुणान् प्रकटीकरोति ?
उत्तराणि
(क) सन्मित्रं पापात् निवारयति।
(ख) सन्मित्रं गुणान् प्रकटीकरोति ।

10. केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं द्वारा न चन्द्रोण्वलाः
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृता मूर्धजाः।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥
(क) पुरुषं का एका समलङ्करोति ?
(ख) कीदृशं भूषणं न क्षीयते ?
उत्तराणि
(क) एका संस्कृता वाणी पुरुषं समलङ्करोति ।
(ख) वाग्भूषणं न क्षीयते।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

11. सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥
(क) परमापदां पदं कः ?
(ख) सम्पदः कं वृणते ?
उत्तराणि
(क) परमापदां पदम् अविवेकः ।
(ख) सम्पदः विमृश्यकारिणं वृणते।

12. कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।
(क) जनकादयः केन सिद्धिम् आस्थिता ?
(ख) संपश्यन् किम् कर्तुम् अर्हसि ?
उत्तराणि
(क) जनकादयः कर्मणा सिद्धिम् आस्थिताः ।
(ख) लोसंग्रहं पश्यन् कर्म कर्तुम् अर्हसि।

(घ) पठित गद्यांश पर आधारित प्रश्नोत्तर
अधोलिखित गद्यांशं पठित्वा एतदाधारितानाम् प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतपूर्णवाक्येन लिखत

1. कदाचित् कदाचित्त्वयं क्रूरः ‘किन्तुः’मुखस्य कवलमप्याच्छिनत्ति।स्वल्पदिनानामेव वर्तास्ति।आयुर्वेदमार्तण्डस्य श्रीमतः स्वामिमहाभगस्य औषधिं निषेव्य अधुनैवाहं नीरोगोऽभवम्।
प्रश्ना:
(क) ‘किन्तुः’ कं आच्छिनत्ति ?
(ख) कस्य औषधि निषेव्य अधुनैवाह नीरोगोऽभवम् ?
उत्तराणि:
(क) ‘किन्तुः’ मुखस्य कवलमपि आच्छिन्नत्ति।
(ख) श्रीमतः स्वामिमहाभागस्य औषधिं निषेव्य अघुनैवाहं निरोगोऽभवत्।

2. अहं देशसेवां कर्तुं गृहान बहिरभवम्। मया निश्चितमासीत् ‘एतावन्ति दिनानि स्वोदरसेवायै क्लिष्टोऽभवम्। इदानीं कियन्तं कालं देशसेवायामपि लक्ष्यं ददामि।
प्रश्ना:
(क) किमर्थं बहिरभवम् ?
(ख) किमर्थं क्लिष्टोऽभवम् ?
उत्तराणि
(क) देशसेवां कर्तुं बहिरभवम्।
(ख) स्वोदरसेवायै क्लिष्टोऽभवम्।

3. मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः । पशुहत्या तु तेषाम् आक्रीडनम्। केवलं विक्लान्तचित्तविनोदाय महारण्यम् उपगम्य ते यथेच्छं निर्दयं च पशुघातं कुर्वन्ति।
प्रश्ना:
(क) हिंसावृत्तिः कीदृशी ?
(ख) तेषाम् आक्रीडनं का ?
उत्तराणि
(क) हिंसावृत्तिः निरवधिः।
(ख) तेषाम् आक्रीडनं पशुहत्या।

4. एवं चतुर्णां परस्परं विवादो लग्नः। ततो ब्राह्मणो राजसमीपमागत्य चतुर्णां विवादवृत्तान्तमकथयत्। राजापि तच्छ्रुत्वा तस्मै ब्राह्मणाय चत्वार्यपि रत्नानि ददौ।
प्रश्नाः
(क) केषां विवादो लग्न: ?
(ख) रत्नानि कः ददौ ?
उत्तराणि
(क) चतुर्णां विवादो लग्नः।
(ख) रत्नानि राजा ददौ।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

5. अस्माभिः पर्वताः शंकवः कृताः। एतेषां सप्तद्वीपानां प्रत्येकमावेष्टनरूपाः सप्तसमुद्राः।
(क) सप्तसमुद्राः केषाम् आवेष्टनरूपाः सन्ति ?
(ख) ‘अस्माभिः’ इति पदे कः शब्दः का विभक्तिश्च ?
उत्तराणि
(क) सप्तसमुद्राः सप्तद्वीपानाम् आवेष्टनरूपाः सन्ति।
(ख) ‘अस्माभिः’ – अस्मद् शब्दः तृतीया विभक्तिश्च ।

6. इत्येवं विचार्य सर्वस्वदक्षिणं यज्ञं कर्तुमुपक्रान्तवान्। ततः शिल्पिभिरतीव मनोहरो मण्डपः कारितः। सर्वापि यज्ञसामग्री समहता। देवमुनिगन्धर्वयक्षसिद्धादयश्च समाहूताः।
(क) यज्ञे के के समाहूताः ?
(ख) सर्वा इति पदे कः शब्दः का विभक्तिश्च ?
उत्तराणि
(क) यज्ञे देवमुनिगन्धर्वयक्षसिद्धादयश्च समाहूताः ।
(ख) सर्वा – सर्व शब्दः प्रथमा विभक्तिश्च ।

7. श्रीनायारस्य दायित्वग्रहणस्य एकमासाभ्यन्तरे बहुदिनेभ्यः स्थगितानां विविधसमस्यानामपि समाधानं जातम्। स्वकार्यं त्यक्त्वा अपरस्य सहकारस्तस्य परमधर्मः।
(क) श्रीनायारस्य परमधर्मः कः आसीत् ?
(ख) ‘तस्य’ इति पदे का विभक्तिः किं वचनञ्च ?
उत्तराणि
(क) श्रीनायारस्य परमधर्मः अपरस्य सहकारः आसीत् ।
(ख) ‘तस्य’ – षष्ठी विभक्तिः एकवचनञ्च ।

8. मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः। पशुहत्या तु तेषाम् आक्रीडनम्। केवलं विक्लान्तचित्तविनोदाय महारण्यम् उपगम्य ते यथेच्छं निर्दयं च पशुघातं कुर्वन्ति।
(क) पशुहत्या केषाम् आक्रीडनम्?
(ख) ‘ते’ इति पदे का विभक्तिः किं वचनञ्च ?
उत्तराणि
(क) पशुहत्या मनुष्याणाम् आक्रीडनम्।
(ख) ‘ते’ – प्रथमा विभक्तिः बहुवचनञ्च ।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

9. श्रीनायारस्य दायित्वग्रहणस्य एकमासाभ्यन्तरे बहुदिनेभ्यः स्थगितानां विविध-समस्यानामपि समाधानं जातम्। स्वकार्यं त्यक्त्वा अपरस्य सहकारस्तस्य परमधर्मः।
(क) अयं गद्यांशः कस्मात् पाठात् सङ्कलितः ?
(ख) श्रीनायारस्य परमधर्मः कः?
उत्तराणि
(क) अयं गद्यांशः दीनबन्धुः श्रीनायारः’ इति पाठात् सङ्कलितः ।
(ख) श्रीनायारस्य परमधर्मः अपरस्य सहकारः।

10. मासोऽयमाषाढः, अस्ति च सायं समयः, अस्तं जिगमिषुर्भगवान् भास्करः सिन्दूर-द्रव-स्नातानामिव वरुणदिगवलम्बिनामरुण-वारिवाहानामभ्यन्तरं प्रविष्टः।
(क) अयं गद्यांशः कस्मात् पाठात् संकलितः ?
(ख) सायं समये भगवान् भास्करः कुत्र जिगमिषुः भवति?
उत्तराणि
(क) अयं गद्यांश: ‘कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्’ इति पाठात् संकलितः?
(ख) सायं समये भगवान् भास्करः कुत्र जिगमिषुः भवति?

11. तस्मै राज्ञे व्याया) रत्नचतुष्टयं दास्यामि। एतेषां महात्म्यम्-एक रत्तं यद्वस्तु स्मर्यते तद्ददाति। द्वितीयरत्नेन भोजनादिकममृततुल्यमुत्पद्यते। तृतीयरत्नाच्चतुरङ्गबलं भवति। चतुर्थादत्लादिव्याभरणानि जायन्ते।
(क) अयं गद्यांशः कस्मात् पाठात् संकलित:?
(ख) चतुर्थाद् रत्नात् कानि जायन्ते ?
उत्तराणि
(क) अयं गद्यांश: ‘विक्रमस्यौदार्यम्’ इति पाठात् संकलितः।
(ख) चतुर्थाद् रत्नात् दिव्याभरणानि जायन्ते। …

12. अहो असारोऽयं संसारः, कदा कस्य किं भविष्यतीति न ज्ञायते। यच्चोपार्जितानां वित्तं तदपि दानभोगैर्विना सफलं न भवति।
(क) अयं संसारः कीदृशः ?
(ख) दानभोगैर्विना किं सफलं न भवति ?
उत्तराणि
(क) अयं संसारः असारः।
(ख) दानभोगै विना उपार्जितानां वित्तं सफलं न भवति।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

(ङ) सूक्तीनां हिन्दीभाषायां व्याख्या

1. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः।
(मनुष्य इस संसार में कर्तव्य कर्म करता हुआ ही सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करे) एवं त्वमि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे। (मनुष्य में कर्मों का लेप नहीं होता है, इसे छोड़कर कोई दूसरा रास्ता नहीं है।)

प्रसंग:-प्रस्तुत मन्त्रांश ‘ईशावास्योपनिषद्’ से संगृहीत ‘विद्ययाऽमृतमश्नुते’ पाठ के दूसरे मन्त्र से लिया गया है। इसमें बताया गया है कि निष्काम कर्म बन्धन का कारण नहीं होते।

भावार्थ:-मन्त्रांश का अर्थ है-‘मनुष्य में कर्मों का लेप नहीं होता है’, इसे छोड़कर कोई दूसरा रास्ता नहीं है। वे कौन से कर्म हैं, उन कर्मों की क्या विधि है, जिनसे कर्म मनुष्य के बन्धन का कारण नहीं बनते। पूरे मन्त्र में इस भाव . को अच्छी प्रकार स्पष्ट किया गया है। मन्त्र में कहा गया है कि मनुष्य अपनी पूर्ण इच्छाशक्ति से जीवन भर कर्म करे, निठल्ला-कर्महीन-अकर्मण्य बिल्कुल न रहे, पुरुषार्थी बने। जिन पदार्थों को पाने के लिए हम कर्म करते हैं, उनका वास्तविक स्वामी सर्वव्यापक ईश्वर है। वही प्रतिक्षण हमारे अच्छे बुरे कर्मों को देखता हैं। अतः यदि मनुष्य पदार्थों के ग्रहण में त्याग भाव रखते हुए, ईश्वर को सर्वव्यापक समझते हुए कर्तव्य भाव से (अनासक्त भाव से) कर्म करता है तो ऐसे निष्काम कर्म मनुष्य को सांसारिक बन्धन में नहीं डालते अपितु उसे जीवन्मुक्त बना देते हैं।

2. अविद्यया मृत्युं तीा विद्ययाऽमृतमश्नुते।
प्रसंग:-प्रस्तुत मन्त्रांश ‘ईशोवास्य-उपनिषद्’ से संकलित ‘विद्ययाऽमृतमश्नुते’ नामक पाठ में संगृहीत मन्त्र से उद्धृत है। इस मन्त्रांश में व्यावहारिक ज्ञान द्वारा मृत्यु को जीतकर अध्यात्म ज्ञान द्वारा अमरत्व प्राप्ति का रहस्य उद्घाटित किया गया है।

भावार्थ:-‘विद्या’ और ‘अविद्या’-ये दोनों शब्द विशिष्ट वैदिक प्रयोग हैं। ‘विद्या’ शब्द का प्रयोग यहाँ ‘अध्यात्म ज्ञान’ के अर्थ में हुआ है। इस जड़-चेतन जगत् में सर्वत्र व्याप्त परमात्मा तथा शरीर में व्याप्त जीवात्मा के ज्ञान को अध्यात्म ज्ञान कहा जाता है। यह मोक्षदायी यथार्थ ज्ञान ही ‘विद्या’ है। इससे भिन्न सभी प्रकार के ज्ञान को ‘अविद्या’ नाम दिया गया है। अध्यात्म ज्ञान से भिन्न सृष्टिविज्ञान, यज्ञविज्ञान, भौतिकविज्ञान, आयुर्विज्ञान, गणितविज्ञान, अर्थशास्त्र, प्रौद्योगिकी, सूचनातन्त्र आदि सभी प्रकार का ज्ञान ‘अविद्या’ शब्द में समाहित हो जाता है। यह अध्यात्मेतर ज्ञान मनुष्य को मृत्यु दुःख से छुड़वाता है और इसी अध्यात्म ज्ञान द्वारा मनुष्य फिर अमरत्व अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, जन्ममरण के चक्र से छूट जाता है। इस प्रकार यह दोनों प्रकार का ज्ञान ही मनुष्य के लिए आवश्यक है, तभी वह इहलोक तथा परलोक दोनों को सिद्ध कर सकता है।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

3 कोटीश्चतस्त्रो दश चाहर।
प्रसंग:-प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ से ‘रघुकौत्ससंवादः’ नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ कविकुलशिरोमणि महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘रघुवंशमहाकाव्यम्’ के पञ्चम सर्ग में से सम्पादित किया गया है। इसमें महर्षि वरतन्तु के शिष्य कौत्स का गुरुदक्षिणा के लिए आग्रह, बार-बार के आग्रह से क्रोधित ऋषि द्वारा पढ़ाई गई चौदह विद्याओं की संख्या के अनुरूप चौदह करोड़ मुद्राएँ देने का आदेश, सर्वस्वदान कर चुके राजा रघु से कौत्स की धनयाचना ‘रघु के द्वार से’ याचक खाली हाथ लौट गया-इस अपकीर्ति के भय से रघु का कुबेर पर आक्रमण का विचार तथा भयभीत कुबेर द्वारा रघु के खजाने में धन वर्षा करने को संवाद रूप में वर्णित किया गया है।

भावार्थ:-महर्षि वरतन्तु मन्त्रद्रष्टा ऋषि थे। न उनमें विद्या का अभिमान था, न गुरुदक्षिणा में धन का लोभ । कौत्स नामक एक शिष्य ने ऋषि से चौदह विद्याएँ अत्यन्त भक्ति भाव से ग्रहण की। विद्याप्राप्ति के पश्चात् कौत्स ने गुरुदक्षिणा स्वीकार करने का आग्रह किया। ऋषि ने कौत्स के भक्तिभाव को ही गुरुदक्षिणा मान लिया। परन्तु कौत्स गुरुदक्षिणा देने के लिए जिद्द करता रहता रहा और इस जिद्द से रुष्ट होकर कवि ने उसे पढ़ाई गई एक विद्या के लिए एक करोड़ सुवर्णमुद्राओं के हिसाब से चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ भेंट करने का आदेश दे दिया-‘कोटीश्चतस्रो दश चाहर’।

4.
(i) मा भूत्परीवादनवावतारः।
(किसी निन्दा का नया प्रादुर्भाव न हो जाए।)
(ii) द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढुमर्हन्।
(हे पूजनीय ! दो-तीन तक आप मेरे पास ठहर जाएँ।)
(iii) निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुबेरात्।
(रघु ने कुबेर से धन ग्रहण करने की इच्छा की।)
(iv) दिदेश कौत्साय समस्तमेव।
(रघु ने कुबेर से प्राप्त सारा धन कौत्स के लिए दे दिया।)
उत्तरम्:
(i), (ii), (iii) तथा (iv) के लिए संयुक्त भावार्थ

भावार्थ:-महर्षि वरतन्तु का शिष्य कौत्स राजा रघु के पास गुरुदक्षिणार्थ धन याचना के लिए आता है। रघु विश्वजित् यज्ञ में सर्वस्व दान कर चुके हैं, अत: वे सुवर्णपात्र के स्थान पर मिट्टी के पात्र में जल आदि लेकर कौत्स का स्वागत करते हैं। कौत्स मिट्टी का पात्र देखकर अपने मनोरथ की पूर्ति में हताश हो जाता है और वापस लौटने लगता है। राजा रघु खाली हाथ लौटते हुए कौत्स को रोकते हैं क्योंकि सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश मृत्यु से बढ़कर होता है अत: उन्हें भय यह है कि कहीं प्रजा में यह निन्दा न फैल जाए कि कोई याचक रघु के पास आया था और खाली हाथ लौट गया था। वे कौत्स से उसका मनोरथ पूछते हैं।

कौत्स सारा वृत्तान्त सुनाते हुए कहता है कि गुरु के आदेश के अनुसार चौदह करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ गुरुदक्षिणा में भेंट करनी हैं। रघु कौत्स से दो-तीन के लिए आदरणीय अतिथि के रूप में ठहरने का अग्रह करते हैं, जिससे उचित धन का प्रबन्ध किया जा सके। कौत्स राजा की प्रतिज्ञा को सत्य मानकर ठहर जाता है। रघु भी उसकी याचना पूर्ति के लिए धन के स्वामी कुबेर पर आक्रमण, का विचार करते हैं। कुबेर रघु के पराक्रम से भयभीत होकर रघु के खजाने में सुवर्ण वृष्टि कर देते हैं। उदार रघु यह सारा धन कौत्स को दे देते हैं, परन्तु निर्लोभी कौत्स उनमें से केवल 14 करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ लेकर लौट जाता है।

दाता सम्पूर्ण धनराशि देकर अपनी उदारता प्रकट करते हैं और याचक आवश्यकता से अधिक एक कौड़ी भी ग्रहण न करके उत्तम याचक का आदर्श उपस्थित करते हैं। इस प्रकार दोनों ही यशस्वी हो जाते हैं।

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5. सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः।
प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्ति ‘बालकौतुकम्’ पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम में ‘लव’ के साथ ब्रह्मचारी-सहपाठी खेल रहे हैं। इसी समय कुछ बटुगण आकर, लव को आश्रम के निकट अश्वमेध घोड़े की सूचना देते हैं। यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा रक्षकों से घिरा हुआ है। लव उस अश्वमेध यज्ञ के महत्त्व को अपने मन में विचार करता हुआ कहता है

भावार्थ:-यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है । यह क्षत्रियों की शक्ति का सूचक होता है। क्षत्रिय राजा, अपने बलवान् शत्रु राजा पर अपनी विजय की धाक जमाने के लिए इसे छोड़ता है। वास्तव में यह घोड़ा सभी शत्रुओं पर प्रभाव डालने वाले उत्कर्ष श्रेष्ठपन का सूचक होता है।

6. सुलभं सौख्यम् इदानीं बालत्वं भवति।
प्रसंग:-प्रस्तुत पंक्ति ‘बालकौतुकम्’ पाठ से उद्धृत है। वाल्मीकि आश्रम में अतिथि के रूप में जनक, कौशल्या और अरुन्धती आए हुए हैं। उनके आने से आश्रम में अवकाश कर दिया गया है और सभी छात्रगण खेलते हुए शोर मचा रहे हैं। इस शोर को सुनकर, कौशल्या जनक को बता रही हैं

भावार्थ:-बाल्यकाल में सुख के साधन सुलभ होते हैं। बच्चों को मजा लेने के लिए किसी खिलौने आदि की आवश्यकता नहीं होती। वे तो साधारण से खेल-कूद और हँसी-मजाक द्वारा ही सुख प्राप्त कर लेते हैं। सुख प्राप्ति के लिए उन्हें बड़े बहुमूल्य क्रीडा-साधनों की आवश्यकता नहीं होती। ये ब्रह्मचारी अपने बचपन का आनन्द ले रहे हैं।

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7. योगः कर्मसु कौशलम्
भावार्थ:- यह सूक्ति कर्मगौरवम्’ पाठ से ली गई है। गीता की इस सूक्ति में कहा गया है कि जो कार्य लोकहित की दृष्टि से किया जाता है तथा पूरी निष्ठा से किया जाता है, वही सही कर्म है, यही कर्मों की कुशलता है तथा यही योग है। प्रत्येक कार्य को अनासक्तेिभावना से तथा पूरी तत्परता से करना ही योग है।

8. विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्।
(समाज में मौन मूरों का आभूषण बन जाता है)
भावार्थ:-प्रस्तुत पंक्ति कवि भर्तृहरि द्वारा रचित ‘नीतिशतकम्’ से ली गई है। इसमें मौन के महत्त्व के बारे में बताया गया है लोग प्रायः आवश्यक्ता से अधिक बोलकर न केवल गंभीर से गंभीर बात का महत्त्व कम कर देते हैं अपितु कई बार तो उपहास का पात्र भी बन जाते हैं। हिन्दी में एक कहावत प्रसिद्ध है। ‘एक चुप सौ सुख’ ये कहावत

भी मौन के महत्त्व को दर्शाती है। विद्वानों की सभा में यदि कोई मूर्ख बैठा हो और कुछ भी न बोले तो लोग उसे विद्वान् ही समझते हैं। इस तरह से उस मूर्ख का मौन रहना उसका आभूषण बन जाता है। परन्तु जैसे ही वह मूर्ख अपना मौन तोड़कर कुछ बात कहेगा तो उसकी मूर्खता उजागर हो जाएगी। इसीलिए तो मौन को मूों का आभूषण कहा गया है।

9. हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गुरूपदेशः।
भावार्थ:–प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में शुकनास युवराज चन्द्रापीड को गुरु के उपदेश का महत्त्व समझा रहे हैं। मन्त्री शुकनास कहते हैं कि गुरु का उपदेश मनुष्य के जीवन में बहुत अधिक उपयोगी तथा हितकारी होता है। मनुष्य में यदि अत्यधिक गहरे दोषों का समूह हो तो गुरु का उपदेश उन गहरे से गहरे दोषों को भी दूर कर देता है और उन दोषों के स्थान पर अति उत्तम गुण प्रवेश कर जाते हैं। मनुष्य का जीवन उज्वल हो जाता है। सब जगह ऐसे व्यक्ति का यश फैलता है, इसीलिए गुरु का उपदेश प्रत्येक मनुष्य के लिए परम कल्याणकारी तथा आवश्यक है।

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10. सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
अथवा
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥

प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भारवि हैं। कवि ने इस श्लोक में सोच-विचार कर ही कार्य करने के लिए प्रेरित किया है।

भावार्थ:-मनुष्यों को अचानक ही (बिना सोचे-विचारे) कोई कार्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवेकहीनता घोर विपत्तियों का स्थान होती है। सम्पत्तियाँ गुणों की लोभी होती हैं; अतः सोच-विचार कर कार्य करने वाले मनुष्य को वे स्वयं ही चुन लेती है।

‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए’ हिन्दी की इस कहावत का मूल भाव इस सूक्ति में है। मनुष्य को सोचविचार कर ही प्रत्येक कार्य करना चाहिए। बिना सोचे-समझे कार्य करने से घोर विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। मनुष्य सम्पत्ति पाने के लिए कार्य करता है, सम्पत्तियाँ गुणों के पीछे चलती हैं । गुणवान् मनुष्य विवेकपूर्वक कार्य करता है और सम्पत्तियाँ भी ऐसे विचारशील मनुष्य के पास स्वयं दौड़कर चली आती हैं।

11. ‘पश्येह मधुकरीणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये’
(देखो, इस संसार में मधुमक्खियों के एकत्रित शहद को दूसरे लोग चुरा कर ले जाते हैं।

व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति ‘विक्रमस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से उधत है। यह पाठ ‘सिंहासनद्वात्रिशशिंका’ नामक कथासंग्रह से संकलित है। इस पाठ में राजा विक्रम की उदारता को दर्शाया गया है। राजा विक्रम की मान्यता है कि व्यक्ति के पास जो भी धन होता है, यदि उसकी सच्चे अर्थों में रक्षा करनी हो तो उसका एक ही उपाय है कि परोपकार के कार्यों के लिए उस धन का त्याग अर्थात् दान कर देना चाहिए। क्योंकि संसार में देखा जाता है कि जो लोग धन को केवल इकट्ठा ही करते हैं उसका दान या भोग नहीं करते उनका धन या तो तिजौरियों में ही नष्ट हो जाता है, या उसे चोर आदि चुरा ले जाते हैं। मधुमक्खियाँ अपने छत्तों में शहद इकट्ठा करती हैं, न वे किसी को देती हैं और न स्वयं ही उसका भोग करती हैं। इस शहद को पाने के लिए दूसरे लोग आकर मक्खियों को उड़ा देते हैं और सारा शहद चुरा कर ले जाते हैं। अतः सञ्चित धन का सदुपयोग उस धन का परोपकार के कार्यों में खर्च कर देना ही है।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

12. तटाकोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्।।
उत्तरम्

प्रसंग:-प्रस्तुत पंक्ति विक्रमस्यौदार्यम् नामक पाठ से ली गई है। यह कथा किसी अज्ञात लेखक द्वारा रचित ‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’ कथा संग्रह से संकलित है। प्रस्तुत अंश में धन के दान को ही धन का सच्चा संरक्षण कहा गया है।

व्याख्या-मनुष्य जो भी धन अपने परिश्रम से इकट्ठा करता है। उसका संरक्षण खजाना भरकर नहीं हो सकता। अपितु असहायों की सहायता के लिए उस धन को दान कर देना ही उसकी सच्ची रक्षा है। तालाब में जल भरा होता है यदि वह जल तालाब में ही पड़ा रहे और किसी के काम न आएँ तो वह जल व्यर्थ है अपितु तालाब में ही पड़ेपड़े वह जल दुर्गन्धयुक्त हो जाता है, इसीलिए तालाब के जल को बाहर निकाल दिया जाता है, नया जल आ जाता है और उसका पानी उपयोगी बना रहता है। इसी प्रकार धन का दान करना ही धन का सच्चा उपयोग है।

13. षड्विधं प्रीतिलक्षणम्।
उत्तरम्:
प्रसंगः-प्रस्तुत पङ्क्ति ‘विक्रमस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से ली गई है। यह कथा किसी अज्ञात लेखक द्वारा रचित ‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’ कथासंग्रह से संकलित है। प्रस्तुत अंश में समुद्र ने ब्राह्मण को मित्रता का लक्षण बताया है।
व्याख्या-सच्ची मित्रता की पहचान के छह सूत्र हैं
1. मित्र मित्र को धन आदि प्रदान करता है।
2. मित्र मित्र से धन आदि स्वीकार करता है।
3. अपनी गोपनीय (छिपाने योग्य) बात मित्र को बताता है।
4. मित्र की गोपनीय बात उससे पूछता है।
5. मित्र के साथ बैठकर भोजन करता है।
6. मित्र को भोजन खिलाता है।
जिन दो मित्रों के बीच उक्त छ: प्रकार के आचरण बिना किसी औपचारिकता के सम्पन्न होते हैं उन्हीं में सच्ची मित्रता समझनी चाहिए।

14. दूरस्थितानां मैत्री नश्यति समीपस्थानां च वर्धते इति न वाच्यम्।
(दूर रहने वालों की मित्रता नष्ट हो जाती है और पास रहने वालों की मित्रता बढ़ती है- यह करना उचित नहीं)
‘यो यस्य मित्रं नहि तस्य दूरम्’
(जो जिसका मित्र होता है, वह दूर होकर भी दूर नहीं होता)
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति ‘विक्रमस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से उदधृत है। यह पाठ ‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’ नामक कथासंग्रह से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में बताया गया है स्थान सम्बन्धी दूरी मित्रता में बाधक नहीं होती। जो जिसका मित्र होता है, वह दूर होकर भी दूर नहीं होता।

मित्रता के इस रहस्य को हम सरलता से अनुभव कर सकते हैं। बरसात के दिनों में बादल आकाश में गरजते हैं और उसके गर्जन को सुनकर धरती पर बादल के मित्र मोर खुशी से नाचने लगते हैं। इसी प्रकार आकाश में सूर्य उदित होता है। उसके उदय होते ही उसके मित्र कमल सरोवरों में खिल उठते हैं। अतः यह कहना उचित नहीं कि दूर रहने वालों की मित्रता नष्ट हो जाती है और समीप रहने वालों की मित्रता बढ़ती है।

15. ‘अद्यैव परोपकारविचाराणाम् इतिश्रीरभूत्’
(आज ही परोपकार के विचारों की इतिश्री हो गई)

व्याख्या–प्रस्तुत पंक्ति ‘किन्तोः कुटिलता’ नामक पाठ से ली गई है। इस पाठ में लेखक श्री भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने नित्य-प्रति के जीवन में ‘किन्तु’ की कुटिलता पर कठोर व्यंग्य किया है।

एक बार लेखक देशसेवा करने के विचार से घर बाहर चला गया और उसने दृढ़ निश्चय किया कि अपना पेट पालने की स्वार्थवृत्ति से ऊपर उठकर आज से यह जीवन देशसेवा में अर्पित कर दूंगा परन्तु मार्ग में उसके बचपन के अध्यापक मिल गये और उन्होंने लेखक से कहा कि देशसेवा का विचार तो उत्तम है किन्तु अपने घर-परिवार पर भी ध्यान देना चाहिए जिनके भरण-पोषण का भार तुम पर है और इस प्रकार ‘किन्तु’ ने बीच में टपक कर लेखक के परोपकार के विचार की इतिश्री कर दी।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

16. ‘शूरं कृतज्ञं दृढ़साहसं च लक्ष्मी: स्वयं वाञ्छति वासहेतोः
(शूरवीर, कृतज्ञ और दृढ़ साहस रखने वाले मनुष्यों के पास स्वयं ही स्थायी रूप से रहने के लिए आ जाती है)

व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति ‘विक्रमस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ ‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’ नामक कथा संग्रह से संकलित है। इस पाठ में पुत्तलिका के माध्यम से राजा विक्रम की उदारता और शूरवीरता का वर्णन है।

प्रस्तुत अंश में बताया गया है कि लक्ष्मी कभी भी कृतघ्न, कमज़ोर, कायर या ढुलमुल नीति वाले लोगों के पास नहीं रहती अपितु जो लोग शूरवीर, साहसी दृढनिश्चयी तथा कृतज्ञ होते हैं उन्हीं के पास रहती है। उनके पास रहती ही नहीं है अपितु स्वयं उनके पास रहने के लिए खिंची चली जाती है क्योंकि लक्ष्मी शूरवीरता, साहस, दृढ़निश्चय तथा कृतज्ञता को पसन्द करती है और कायर-डरपोक लोगों से घृणा करती है।

17. ‘श्वापदानां हिंसाकर्म किल जठरानलनिवार्णमात्रप्रयोजकम्’
(पशुओं का हिंसाकर्म केवल अपना पेट भरने के लिए होता है)
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति ‘उद्भिज्जपरिषद्’ नामक पाठ से ली गई है। इस पाठ में लेखक पं० हृषीकेश भट्टाचार्य ने मनुष्यों की हिंसक प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है।

सिंह आदि कुछ पशु भी हिंसक होते हैं, परन्तु उनकी हिंसा उनकी पेट पूर्ति तक सीमित रहती है, भूख मिटाने का साधन मात्र है, यही उनकी हिंसा की सीमा है। परन्तु मनुष्यों की हिंसा तो उनके मनोविनोद का साधन है और इस मनोविनोद का कोई अन्त नहीं। अतः वनस्पति सभा के सभापति अवश्त्थ देव (बड़ का वृक्ष) के मल में हिंसा की दृष्टि मनुष्य इस सृष्टि में पशुओं से भी निकृष्ट है। लेखक का तात्पर्य इस निरर्थक पशुहिंसा को रोकने के लिए युवा पीढ़ी को प्रेरित करना है।

18. कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्
उत्तरम्
(कार्य सिद्ध करूँगा या शरीर त्याग दूंगा) प्रस्तुति सूक्ति पं० अम्बिकादत्त व्यास द्वारा रचित ‘शिवराजविजयम्’ नामक संस्कृत के उपन्यास से ली गई है। जिसमें शिवाजी का एक गुप्तचर भारी आंधी-बरसात होने पर शिवाजी के पास पहुँचने के लिए प्रस्तुत सूक्ति द्वारा अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा प्रकट करता है।

भावार्थ-संसार में बिना दृढ़ संकल्प लिए कोई महान् कार्य नहीं किया जा सकता। संकल्प में ही वह शक्ति है, जिसके बल पर एक सैनिक मौत को गले लगा लेता है, साधारण मनुष्य भी तूफान से टक्कर ले लेता है। बिना दृढ़ संकल्प लिए सफलता के ऊँचे आकाश में उन्मुक्त उड़ान नहीं भरी जा सकती। संकल्प ने ही मनुष्य को चाँद पर पहुँचा दिया है। मनुष्य का संकल्प जितना प्रबल होता है, उसकी बुद्धि उतनी ही तीव्रता से काम करने लगती है। प्रभु भी दृढ़ संकल्पी के ही सहायी होते हैं।

शिवाजी के गुप्तचर का भी दृढ़ संकल्प है-‘कार्य की सिद्धि या मौत’। वह इन दोनों में से केवल एक को चुनता है। उसे न आँधी की परवाह है, न तूफानी बरसात की। वह आकाश में चमकती हुई बिजली के प्रकाश में ही अपना रास्ता ढूँढता हुआ घोड़े पर सवार होकर ऊबड़-खाबड़ रास्तों से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ा जा रहा है। एक सच्चे वीर की यही पहचान है। इस दृढ़ संकल्प ने ही शिवाजी के गुप्तचर को उसके लक्ष्य तक पहुंचा दिया था।

19. उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
उत्तरम्:
(अर्जित धन की रक्षा उस धन के त्याग से ही होती है)

प्रस्तुत पंक्ति ‘विक्रमस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ ‘सिंहासनद्वात्रिशशिंका’ नामक कथासंग्रह से संकलित है। इस पाठ में राजा विक्रम की उदारता को दर्शाया गया है। राजा विक्रम की मान्यता है कि व्यक्ति के पास जो भी धन होता है, यदि उसकी सच्चे अर्थों में रक्षा करनी हो तो उसका एक ही उपाय है कि परोपकार के कार्यों के लिए उस धन का त्याग अर्थात् दान कर देना चाहिए। क्योंकि परोपकार के कार्यों में जब धन को खर्च कर दिया जाता है तो उससे मनुष्य का यश चारों ओर फैलता है और जिसका यश होता है संसार में वस्तुतः वही मनुष्य युग-युगों तक जीवित रहता है। भामाशाह ने राष्ट्रहित के लिए महाराणा प्रताप को अपना सारा धन दान में दिया था, आज भी लोग धनी और परोपकारी व्यक्ति को ‘भामाशाह’ कहकर पुकारते हैं। सूक्ति का भाव यही है कि धन का वास्तविक उपयोग धन का परोपकार के लिए दान कर देना ही है।

20. ‘उपभोक्तृणामपि अभियोगो नास्ति विभागस्य विपक्षे।
प्रसंगः-प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘दीनबन्धुः श्रीनायार:’ नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ उड़िया के प्रख्यात साहित्यकार श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा द्वारा रचित ‘पाषाणीकन्या’ नामक कथासंग्रह के संस्कृत अनुवाद से संकलित है। यह संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है।

भावार्थ:-प्रस्तुत पंक्ति में दीनबन्धु श्रीनायार की सत्यनिष्ठा एवं कर्तव्यनिष्ठा के फलस्वरूप खाद्य-आपूर्ति विभाग के विरोध में उपभोक्ताओं की ओर से किसी प्रकार के अभियोग न होने का उल्लेख किया गया है।

श्रीनायार एक सत्यनिष्ठ तथा मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी थे। उड़ीसा सरकार के खाद्यआपूर्ति विभाग के सचिव पद को सम्भालते ही इस विभाग का कायाकल्प हो गया। खाद्यान्न में मिलावट या हेरा-फेरी नाममात्र रह गई, अत: श्रीनायार के कार्यकाल में उपभोक्ताओं को विभाग पर किसी प्रकार का अभियोग चलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। श्रीनायार के आने से विभाग की न केवल सक्रियता बढ़ी अपितु ईमानदारी से काम करने का भी वातावरण बना। परिणामतः उपभोक्ता विभाग की कार्यप्रणाली से सन्तुष्ट हुए और कोर्ट-कचहरी के विवादों से विभाग मुक्त हो गया। इस पंक्ति से श्रीनायार की कर्तव्यनिष्ठ एवं ईमानदारी का संकेत मिलता है।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

21. सर्वे अथूलहृदयैः सौप्रस्थानिकी ज्ञापितवन्तः।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती द्वितीयो भागः’ के ‘दीनबन्धुःश्रीनायार:’ नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ उड़िया के प्रख्यात साहित्यकार श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा द्वारा रचित ‘पाषाणीकन्या’ नामक कथासंग्रह के संस्कृत अनुवाद से संकलित है। यह संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है।

भावार्थ:–‘सभी ने आँसु भरे हृदय से श्रीनायार को विदाई दी’ प्रस्तुतपंक्ति का सम्बन्ध श्रीनायार के जीवन के उस क्षण से है, जब केरल राज्य में श्रीनायार द्वारा स्थापित अनाथ आश्रम की संचालिका सुश्री मेरी ने श्रीनायार को एक पत्र लिखा कि अब उनका अन्तिम समय आ चुका है और उन्हें स्वयं यह आश्रम सँभाल लेना चाहिए।

एक दिन श्रीनायार अपने कार्यालय में बैठे एक पत्र पढ़ रहे थे, उनकी आँखों से अश्रुधारा बह रह थी, जिससे पत्र भी भीग चुका था। उसी क्षण श्रीनायार के क्लर्क श्रीदास का प्रवेश हुआ और उन्होंने श्रीदास को कहा कि अब उनका छुट्टी लेकर चले जाने का समय आ गया है। यदि मुझसे कोई रूखा व्यवहार किसी के साथ अनजाने में हुआ हो तो उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ। श्रीनायार का व्यवहार विभाग के सभी सहकर्मियों के साथ पूर्णतया मानवीय, मित्रतापूर्ण तथा अत्यन्त मधुर था। विभाग के सभी लोग श्रीनायार के स्वभाव और व्यवहार से सन्तुष्ट थे। आज जब श्रीनायार केरल वापस जाने लगे तो सहकर्मियों के हृदय को चोट पहुँची और न चाहते हुए भी उन्हें भीगी पलकों से विदाई की।

इस पंक्ति से विभाग के लोगों का श्रीनायार के प्रति सच्चा आदर-भाव तथा श्रीनायार की सद्-व्यवहारशीलता प्रकट होती है।

22. त्वया निर्मितोऽयं क्षुद्रोऽनाथाश्रमोऽधुना महाद्रुमेण परिणतः।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती द्वितीयो भागः’ के ‘दीनबन्धुःश्रीनायारः’ नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ उड़िया के प्रख्यात साहित्यकार श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा द्वारा रचित ‘पाषाणीकन्या’ नामक कथासंग्रह के संस्कृत अनुवाद से संकलित है। यह संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है।

भावार्थः-प्रस्तुत पंक्ति सुश्री मेरी के उस पत्र की है, जो श्रीनायार के केरल वापस चले जाने के बाद उनके क्लर्क श्रीदास ने खोलकर पढ़ा था।
श्रीनायार ने एक अनाथ आश्रम की स्थापना केरल राज्य में की थी। जिसका संचालन सुश्री मेरी किया करती थी। मेरी अब मृत्यु के निकट थी, अतः उसने श्रीनायार को

स्वयं यह अनाथ आश्रम सँभालने तथा अन्तिम क्षणों में श्रीनायार के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की थी। मेरी ने इस पत्र में यह भी बताया था कि यह आश्रम कभी बहुत छोटे रूप में था परन्तु आज यह बहुत बड़े वृक्ष का रूप धारण कर चुका है। अब इसमें सौ से भी अधिक अनाथ शिशु पल रहे हैं। श्रीनायार इसी आश्रम के संचालन के लिए अपने वेतन का आधे से भी अधिक भाग प्रतिमास की एक तारीख को ही मनीआर्डर द्वारा सुश्री मेरी के पास भेज दिया करते थे। इस घटना से श्रीनायार का दीनों के प्रति सच्चा दया-भाव प्रकट होता है। इसीलिए पाठ का नाम भी ‘दीनबन्धु श्रीनायार’ उचित ही दिया गया है।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

23. मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः। (मनुष्यों की हिंसावृत्ति की कोई सीमा नहीं) मानवा नाम सृष्टि धारायु निकृष्ट धारासु निकृष्टतम सृष्टिः
(इस सृष्टि मानव नामक दृष्टि सबसे निकट हैं)
उत्तरम्:
प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘उद्भिज्ज-परिषद्’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ पण्डित हृषीकेश भट्टाचार्य के निबन्धसंग्रह ‘प्रबन्ध-मञ्जरी’ से संकलित है। इस निबन्ध में वृक्षों की सभा के सभापति पीपल ने मनुष्य की हिंसक प्रवृत्ति के प्रति तीखा व्यंग्य-प्रहार किया गया है।

भावार्थ: – हिंसा के दो प्रमुख रूप हैं-
(1) स्वाभाविक भूख की शान्ति के लिए हिंसा
(2) मन बहलाने के लिए हिंसा। मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है।

परन्तु सिंह-व्याघ्र आदि पशुओं का स्वाभाविक भोजन मांस ही है। अतः ऐसे पशुओं को न चाहते हुए भी केवल पेट की भूख शान्त करने हेतु पशुवध करना पड़ता है। परन्तु इन पशुओं की यह विशेषता भी है कि भूख शान्त होने पर पास खड़े हुए हिरण आदि का भी ये वध नहीं करते। पशुओं का पशुवध भूख शान्ति तक ही सीमित होता है। परन्तु मनुष्य की पशुहिंसा असीम है। क्योंकि वह तो अपने बेचैन मन की प्रसन्नता के लिए ही पशुवध करता है। ‘मानव’ नामक सृष्टिः को सबसे निकृष्ट कहा गया है।

(च) कथनानि आश्रित्य प्रश्ननिर्माणम्

1. रेखाङ्कितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः दृश्यते ?
(ख) कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
उत्तराणि:
(क) केन दूरमतिक्रान्तः स चपलः दृश्यते।
(ख) किं ज्यायो हि अकर्मणः।।

2. रेखाङ्कितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) विस्फारितशरासनाः आयुधीयश्रेणयः कुमारं तर्जयन्ति।
(ख) कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
उत्तराणि:
(क) विस्फारितशरासनाः आयुधीय श्रेणयः कं तर्जयन्ति?
(ख) केन हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।

3. रेखाङ्कितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क)अश्वमेध इति नाम क्षत्रियाणां महान् उत्कर्षनिकषः।
(ख)बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
उत्तराणि:
(क) अश्वमेध इति नाम केषां महान उत्कर्षनिकषः?
(ख) बुद्धियुक्तो जहातीह के सुकृतदुष्कृते?

4. रेखाङ्कितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क)निपुणं निरुध्यमाण: लवः मुखचन्द्रेण सीतया संवदत्येव ।
(ख)नाशयति च पुरुषस्यासङ्गो विषयेषु
उत्तराणि:
(क) निपुणं निरुध्यमाणः लव: मुखचन्द्रेण कया संवदत्येव ?
(ख) नाशयति च पुरुषस्यासङ्गो केषु ?

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

5. रेखांकितपद्माधृत्य प्रश्ननिर्माण कुरुत
(क) शब्दैः प्रतीयते यद् गृहे चौरः अस्ति।
(ख) पशुहत्या तु तेषाम् आक्रीडनम्।
उत्तराणि:
(क) कैः प्रतीयते यद् गृहे चौरः अस्ति?
(ख) का तु तेषाम् आक्रीडनम्?

6. रेखांकितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) स्वर्गभूमिं कुर्शीति वदन्ति।
(ख) असौ शिववीरचरः निजकार्यात् न विरमति।
उत्तराणि:
(क) कां कुर्शीति वदन्ति?
(ख) असौ शिववीरचरः कस्मात् न विरमति?

7. रेखांकितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) पृथिव्याः सप्तभेदाः।
(ख) दिदेश कौत्साय समस्तमेव।
उत्तराणि:
(क) कस्याः सप्तभेदाः?
(ख) दिदेश कस्मै समस्तमेव?

8. रेखांकितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क)निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कुबेरात्
(ख) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः।
उत्तराणि:
(क) निष्क्रष्टुमर्थं चकमे कस्मात्
(ख) कथं दूरमतिक्रान्तः?

9. रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) दीर्घग्रीवः स भवति।
(ख) लोक स्तदनुवर्तते।
उत्तराणि:
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) कीदृशः स भवति?
(ख) कः तदनुवर्तते?

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

10. रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) प्राज्ञः खलु कुमारः।।
(ख) कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
उत्तराणि:
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) कः खलु कुमारः?
(ख) किं ज्यायो ह्यकर्मणः?

11. रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) जीवने नियतं कर्म कुरु।
(ख) लवः मुखचन्द्रेण सीतया संवदत्येव।
उत्तराणि:
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) जीवने नियतं किं कुरु?
(ख) लव: मुखचन्द्रेण कया संवदत्येव?

12. रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) उत्पथैः मम मनः पारिप्लवं धावति।
(ख) रामभद्रस्य एष दारकः अस्माकं लोचने शीतलयति।
उत्तराणि:
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) उत्पथैः कस्य मनः पारिप्लवं धावति ?
(ख) कस्य एष दारक: अस्माकं लोचने शीतलयति ?

13. रेखाङ्कितपदानि आधृत्य-प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) विस्फारितशरासनाः आयुधीयश्रेणयः कुमारं तर्जयन्ति।
(ख) योगः कर्मसु कौशलम्।
उत्तराणि:
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) विस्फारितशरासनाः आयुधीयश्रेणयः कं तर्जयन्ति ?
(ख) कः कर्मसु कौशलम् ?

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् पठित-अवबोधनम्

14. रेखाङ्कितपदानि आधृत्य-प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) अश्वमेध इति नाम क्षत्रियाणाम् महान् उत्कर्षनिकषः।
(ख) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः दृश्यते।
उत्तराणि:
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) अश्वमेधः इति नाम केषां महान् उत्कर्षनिकषः ?
(ख) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः सः कीदृशः दृश्यते ?

15. रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) तस्याः दार्शनिकैः सप्तधा विभागः कृतः।
(ख) अयं सादी न स्वकार्याद् विरमति।
उत्तराणि:
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) तस्याः कैः सप्तधा विभागः कृतः?
(ख) अयं सादी न कस्माद् विरमति?

16. रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) सः धनं धनादेशेन प्रेषयति स्म।
(ख) मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः ।
उत्तराणि:
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) सः धनं केन प्रेषयति स्म?
(ख) केषां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः?

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HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions

Haryana State Board HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions and Answers.

Haryana Board 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 119)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित संख्याओं में से प्रत्येक के घन के इकाई का अंक ज्ञात कीजिए
(i) 3331
(ii) 8888
(iii) 149
(iv) 1005
(v) 1024
(vi) 77
(vii) 5022
(viii) 53
हल:
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions 1

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 119)

प्रश्न 1.
निम्न प्रतिरूप का प्रयोग करते हुए, निम्नलिखित संख्याओं को विषम संख्याओं के योग के रूप में व्यक्त कीजिए
(a) 63
(b) 83
(c) 73
हल:
प्रतिरूप-
1 = 1 = 13
3 + 5 = 8 = 23
7 + 9 + 11 = 27 = 33
13 + 15 + 17 + 19 = 64 = 43
21 + 23 + 25 + 27 + 29 = 125 = 53
हल:
दिए गए प्रतिरूप का प्रयोग करके पर,
(a) 63 = 31 + 33 + 35 + 37 + 39 + 41 = 216
(b) 83 = 57 + 59 + 61 + 63 + 65 + 67+ 69 + 71 = 512
(c) 73 = 43 + 45 + 47 + 49 + 51 + 53 + 55 = 343

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions

प्रश्न 2.
निम्नलिखित प्रतिरूप को देखिए
23 – 13 = 1 + 2 × 1 × 3
33 – 23 = 1 + 3 × 2 × 3
43 – 33 = 1 + 4 × 3 × 3
उपरोक्त प्रतिरूप का प्रयोग करते हुए निम्नलिखित के मान ज्ञात कीजिए
(i) 73 – 63
(ii) 123 – 113
(iii) 203 – 193
(iv) 513 – 503
हल:
दिए गए प्रतिरूप का प्रयोग करके
(i) 73 – 63 = 1 + 7 × 6 × 3 = 1 + 126 = 127
(ii) 123 – 113 = 1 + 12 × 11 × 3 = 1 + 396 = 397.
(iii) 203 – 193 = 1 + 20 × 19 × 3 = 1 + 1140 = 1141
(iv) 513 – 503 = 1 + 51 × 50 × 3 = 1 + 7650 = 7651

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 120)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौनसी संख्याएँ पूर्ण घन हैं?
(i) 400
(ii) 3375
(iii) 8000
(iv) 15625
(v) 9000
(vi) 6859
(vii) 2025
(viii) 10648
हल:
(i) 400 का अभाज्य गुणनखंड करने पर
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions 2
400 = \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × 2 × 5 × 5
चूँकि अभाज्य गुणनखंडों के त्रिक बनाने पर 2 × 5 × 5 शेष बचते हैं।
अतः 400 एक पूर्ण घन संख्या नहीं है।

(ii) 3375
3375 का अभाज्य गुणनखंड करने पर
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions 3
3375 = \(\underline{3 \times 3 \times 3}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 3375 के अभाज्य गुणनखंडों के त्रिक बनाने पर कोई भी गुणनखण्ड नहीं बचता है।
अतः 3375 एक पूर्ण घन संख्या नहीं है।

(iii) 8000
8000 का अभाज्य गुणनखंड करने पर-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions 4
8000 = \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 8000 के अभाज्य गुणनखंडों के त्रिक बनाने पर कोई भी गुणनखण्ड नहीं बचता है।
अतः 8000 एक पूर्ण घन संख्या नहीं है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions

(iv) 15625
15625 का अभाज्य गुणनखंड करने पर-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions 5
15625 = \(\underline{5 \times 5 \times 5}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 15625 के अभाज्य गुणनखंडों के त्रिक बनाने पर कोई भी गुणनखण्ड नहीं बचता है।
अतः 15625 एक पूर्ण घन संख्या नहीं है।

(v) 9000
9000 का अभाज्य गुणनखंड करने पर-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions 6
9000 = \(\underline{5 \times 5 \times 5}\) × 3 × 3 × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 9000 के अभाज्य गुणनखंडों के त्रिक बनाने पर 3 × 5 शेष बचते है।
अतः 9000 एक पूर्ण घन संख्या नहीं है।

(vi) 6859
6859 का अभाज्य गुणनखंड करने पर-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions 7
6859 = \(\underline{19 \times 19 \times 19}\)
चूँकि 6859 के अभाज्य गुणनखंडों के त्रिक बनाने पर कोई भी गुणनखण्ड नहीं बचता है।
अतः 6859 एक पूर्ण घन संख्या है।

(vii) 2025
2025 का अभाज्य गुणनखंड करने पर-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions 8
2025 = \(\underline{3 \times 3 \times 3}\) × 3 × 5 × 5
चूँकि 2025 के अभाज्य गुणनखंडों के त्रिक बनाने पर कोई भी गुणनखण्ड नहीं बचता है।
अतः 2025 एक पूर्ण घन संख्या है।

(vii) 10648
10648 का अभाज्य गुणनखंड करने पर-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions 9
10648 = \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × \(\underline{11 \times 11 \times 11}\)
चूँकि गुणनखंडों के त्रिक बनाने पर कोई भी गुणनखण्ड नहीं बचता है।
अतः 10648 एक पूर्ण घन संख्या है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions

(सोचिए, चर्चा कीजिए और लिखिए – पृष्ठ 121)

प्रश्न 1.
जाँच कीजिए कि निम्नलिखित में से कौनसी संख्याएँ पूर्ण घन हैं-
(i) 2700
(ii) 16000
(iii) 64000
(iv) 900
(v) 125000
(vi) 36000
(vii) 21600
(viii) 10000
(ix) 27000000
(x) 1000
इन पूर्ण घनों में आप क्या प्रतिरूप देखते हैं?
हल:
(i) 2700 के अभाज्य गुणनखण्ड करने पर-
2700 = 2 × 2 × \(\underline{3 \times 3 \times 3}\) × 5 × 5
चूँकि अभाज्य गुणनखंडों के त्रिक बनाने पर 2 × 2 × 5 × 5 शेष बचते है।
अतः 2700 एक पूर्ण घन संख्या नहीं है।

(ii) 16000 के अभाज्य गुणनखण्ड करने पर-
16000 = 2 × 2 × 2 × 2 × 10 × 10 × 10
= 2 × 2 × 2 × 2 × 2 × 2 × 2 × 5 × 5 × 5
= 2 × \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 16000 के अभाज्य गुणनखंडों के त्रिक बनाने पर 2 × 2 × 5 × 5 शेष बचते है।
अतः 16000 एक पूर्ण घन संख्या नहीं है।

(iii) 64000 के अभाज्य गुणनखण्ड करने पर-
64000 = 2 × 2 × 2 × 2 × 2 × 2 × 2 × 2 × 2 × 5 × 5 × 5
= \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) ×\(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 64000 के अभाज्य गुणनखंडों त्रिक बनाने पर कोई भी गुणनखण्ड नहीं बचता है।
अतः 64000 एक पूर्ण घन संख्या है।

(iv) 900 के अभाज्य गुणनखण्ड करने पर-
900 = 9 × 100 = 3 × 3 × 10 × 10
= 3 × 3 × 2 × 5 × 2 × 5
= 2 × 2 × 3 × 3 × 5 × 5
चूँकि 900 के अभाज्य गुणनखंडों कोई त्रिक नहीं बचता है।
अतः 900 एक पूर्ण घन संख्या नहीं है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions

(v) 125000 के अभाज्य गुणनखण्ड करने पर-
125000 = 125 × 1000
= \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 125000 के अभाज्य गुणनखंडों त्रिक बनाने पर कोई भी गुणनखण्ड नहीं बचता है।
अतः 125000 एक पूर्ण घन संख्या है।

(vi) 36000 के अभाज्य गुणनखण्ड करने पर-
36000 = 36 × 1000
= 6 × 6 × 10 × 10 × 10
= 2 × 3 × 2 × 3 × 2 × 5 × 2 × 5 × 2 × 5
= \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × 2 × 2 × 3 × 3 × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 125000 के अभाज्य गुणनखंडों त्रिक बनाने पर 2 × 2 × 3 × 3 शेष बचते है।
अतः 125000 एक पूर्ण घन संख्या नहीं है।

(vii) 21600 के अभाज्य गुणनखण्ड करने पर-
21600 = 216 × 100 = 6 × 6 × 6 × 10 × 10
= 2 × 3 × 2 × 3 × 2 × 3 × 2 × 5 × 2 × 5
= \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × 2 × 2 × \(\underline{3 \times 3 \times 3}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 21600 के अभाज्य गुणनखंडों त्रिक बनाने पर 2 × 2 × 3 × 3 शेष बचते है।
अतः 21600 एक पूर्ण घन संख्या नहीं है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions

(viii) 10000 के अभाज्य गुणनखण्ड करने पर-
10000 = 10 × 10 × 10 × 10
= 2 × 5 × 2 × 5 × 2 × 5 × 2 × 5
= \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × 2 × 2 × \(\underline{3 \times 3 \times 3}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 10000 के अभाज्य गुणनखंडों त्रिक बनाने पर 2 × 2 × 3 × 3 शेष बचते है।
अतः 10000 एक पूर्ण घन संख्या नहीं है।

(ix) 27000000 के अभाज्य गुणनखण्ड करने पर-
27000000 = 27 × 10 × 10 × 10 × 10 × 10 × 10
= 3 × 3 × 3 × 2 × 5 × 2 × 5 × 2 × 5 × 2 × 5 × 2 × 5 × 2 × 5
= \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × \(\underline{3 \times 3 \times 3}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 27000000 के अभाज्य गुणनखंडों पूर्ण त्रिक बन पर जाते है।
अतः 27000000 एक पूर्ण घन संख्या है।

(x) 1000 के अभाज्य गुणनखण्ड करने पर-
1000 = 10 × 10 × 10
= 2 × 5 × 2 × 5 × 2 × 5
= \(\underline{2 \times 2 \times 2}\) × \(\underline{5 \times 5 \times 5}\)
चूँकि 1000 के अभाज्य गुणनखंडों पूर्ण त्रिक बन पर जाते है।
अतः 1000 एक पूर्ण घन संख्या है।

उपर्युक्त पूर्ण घन संख्याओं 64000, 125000, 27000000 तथा 1000 में हमें यह प्रतिरूप देखने को मिलता है कि इनके अन्त में तीन अथवा छः शून्य हैं। अत: 64,125, 27 तथा 1 भी पूर्ण घन संख्याएँ है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions

(सोचिए, चर्चा कीजिए और लिखिए – पृष्ठ 123)

प्रश्न 1.
बताइए कि सत्य है या असत्य-किसी पूर्णांक m के लिए m2 < m3 होता है। क्यों?
हल:
माना m = 2 या 3 लेने पर
जब m = 2:
m2 = 2 × 2 = 4 और m3 = 22 = 2 × 2 × 2 = 8
स्पष्ट है, 4 < 8 अर्थात् m2 < m3

जब m = 3:
m2 = 32 = 3 × 3 = 9 और m3 = 33 = 3 × 3 × 3 = 27
9 < 27, अर्थात् m2 < m3

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 7 घन और घनमूल Intext Questions

m माना 1 लेने पर
m2 = 12 = 1 × 1 = 1 और m3 = 13 = 1 × 1 × 1 = 1
तो m2 = m3
अतः, हम कह सकते हैं कि धन पूर्णांक (प्राकृत संख्या) के लिए m > 1, m2 < m3 सत्य है।
अब, माना m = – 1, -2 लेने पर

जब m = -1:
m2 = (-1)2 = – 1 × – 1 = 1
और m3 = (-1)3 = – 1 × – 1 × – 1 = – 1
स्पष्ट है, 1 > – 1, अर्थात् m2 > m3

जब m = – 2:
m2 = (-2)2 = – 2 × – 2 = 4 और
m3 = (-2)3 = – 2 × – 2 × – 2 = – 8
4 > -8, अर्थात् m2 > m3

अतः हम कह सकते हैं कि किसी ऋण पूर्णांक m के लिए m2 < m3 असत्य है।

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HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions

Haryana State Board HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions and Answers.

Haryana Board 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions

प्रश्न 1.
एक प्राथमिक विद्यालय में अभिभावकों से पूछा गया कि वे अपने बच्चों के गृहकार्य में सहायता करने के लिए प्रतिदिन कितने घंटे व्यतीत करते हैं। 90 अभिभावकों ने \(\frac{1}{2}\) घंटे से 1\(\frac{1}{2}\) घंटे तक सहायता की। जितने समय के लिए अभिभावकों ने अपने बच्चों की सहायता करना बताया उसके अनुसार अभिभावकों का वितरण संलग्न आकृति में दिखाया गया है जो इस प्रकार है 20% ने प्रतिदिन 1\(\frac{1}{2}\) घंटे से अधिक सहायता की, 30% ने \(\frac{1}{2}\) घंटे से 1\(\frac{1}{2}\) घंटे तक सहायता की, 50% ने बिल्कुल सहायता नहीं की।

इसके आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए
(i) कितने अभिभावकों का सर्वे किया गया?
(ii) कितने अभिभावकों ने कहा कि उन्होंने सहायता नहीं की?
(iii) कितने अभिभावकों ने कहा कि उन्होंने 1\(\frac{1}{2}\) घंटे से अधिक सहायता की?
हल:
(i) माना कि सर्वे किए गए अभिभावकों की संख्या = x
∴ \(\frac{1}{2}\) घंटे से 1\(\frac{1}{2}\) घण्टे तक सहायता करने वाले अभिभावकों की संख्या = कुल अभिभावकों का 30%
= x का 30%
= \(\frac{x × 30}{100}\) = \(\frac{3x}{10}\) ……….(i)

परन्तु \(\frac{1}{2}\) घंटे से 1\(\frac{1}{2}\) घण्टे तक सहायता करने वाले अभिभावकों की संख्या = 90 (दिया है) ….(ii)
अत:
\(\frac{3x}{10}\) = 90

x = \(\frac{90 \times 10}{3}\) = 300
अत: 300 अभिभावकों का सर्वे किया गया।

(ii) 50% ने बिल्कुल सहायता नहीं की
अतः बिल्कुल सहायता न करने वाले अभिभावकों की संख्या
= 300 × 50% = 150

(iii) 1\(\frac{1}{2}\) घण्टे से अधिक सहायता करने वाले अभिभावकों की संख्या
= कुल संख्या का 20 प्रतिशत
= 300 x 20 = 60

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 129-130)

प्रश्न 1.
एक दुकान 20% बट्टा देती है। निम्नलिखित में से प्रत्येक का विक्रय मूल्य क्या होगा?
(a) ₹120 अंकित मूल्य वाली एक पोशाक।
(b) ₹750 अंकित मूल्य वाले एक जोड़ी जूते।
(c) ₹ 250 अंकित मूल्य वाला एक थैला।
हल :
(a) दिया है- अंकित मूल्य = ₹ 120 बट्टा = 20%
बट्टा = ₹ 120 का 20%
= ₹120 × \(\frac{20}{100}\)
= ₹ 24

विक्रय मूल्य = अंकित मूल्य – बट्टा
= ₹(120 – 24)
= ₹96

अत: एक पोशाक का विक्रय मूल्य = ₹96

(b) दिया हैअंकित मूल्य = ₹750 बट्टा = 20%
बट्टा = ₹750 का 20%
= ₹120 × \(\frac{750 × 20 }{100}\)
= ₹ 150

विक्रय मूल्य = अंकित मूल्य – बट्टा
= ₹ (750 – 150)
= ₹ 600

अतः एक जोड़ी जूते का विक्रय मूल्य = ₹600

(c) दिया है-
अंकित मूल्य = ₹250 बट्टा = 20% बट्टा = ₹ 250 का 20%
= ₹ 250 का 20%
= ₹250 × \(\frac{250 × 20 }{100}\)
= ₹ 50

विक्रय मूल्य = अंकित मूल्य – बट्टा
= ₹(250-50)
= ₹200
अतः एक थैला का विक्रय मूल्य = 200

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions

प्रश्न 2.
₹ 15000 अंकित मूल्य वाली एक मेज ₹14400 में उपलब्ध है। बट्टा और बट्टा प्रतिशत ज्ञात कीजिए।
हल :
दिया अंकित मूल्य = ₹ 15000
विक्रय मूल्य = ₹ 14400
बट्टा = ₹(15000 – 14400)
= ₹600
बट्टा प्रतिशत = = \(\frac{600}{15000}\) × 100
= 4%

प्रश्न 3.
एक अलमारी 5% बट्टे पर ₹ 5225 में बेची जाती है। अलमारी का अंकित मूल्य ज्ञात कीजिए।
हल :
माना अलमारी का मूल्य = ₹ 100
बट्टा = अंकित मूल्य का 5%
= 100 रुपए का 5% = = ₹ 5
विक्रय मूल्य = अंकित मूल्य – बट्टा
=₹ (100 – 5)
= ₹ 95
जब विक्रय मूल्य 95 रुपए तो अंकित मूल्य = ₹ 100
जब विक्रय मूल्य 1 रुपया तो अंकित मूल्य = latex]\frac{100}{95}[/latex]

जब विक्रय मूल्य 5225 तो अंकित मूल्य
= ₹ (\(\frac{100}{95}\) × 5225 )
= ₹5500
अत: अलमारी का अंकित मूल्य = ₹5500

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 131)

प्रश्न 1.
यदि लाभ की दर 5% है तो निम्नलिखित का विक्रय मूल्य ज्ञात कीजिए
(a) 700 रुपए की एक साइकिल जिस पर ऊपरी खर्च 50 रुपए है।
हल:
(a) साइकिल का क्रय मूल्य = ₹700 रुपए
ऊपरी खर्च = ₹50 रुपए
∴ कुल क्रय मूल्य = ₹(700 + 50) = ₹ 750
लाभ = 5%
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions -2.1
= ₹ \(\left(\frac{100+5}{100} \times 750\right)\)
= ₹ \(\left(\frac{105}{100} \times 750\right)\)
= ₹ 787.50 रुपए

(b) 1150 रुपए में खरीदा गया एक घास काटने का यंत्र जिस पर 50 रुपए परिवहन व्यय के रूप में खर्च किए गए हैं।
हल:
घास काटने के यंत्र का क्रय मूल्य
= ₹ 1150
ऊपरी खर्च = ₹ 50
∴ कुल क्रय मूल्य = ₹ (1150 + 50)
= ₹ 1200
लाभ = 5%
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions -2.2
= ₹ \(\left(\frac{100+5}{100} \times 1200\right)\)
= ₹ (105 × 12)
= ₹ 1260

(c) 560 रुपए में खरीदा गया एक पंखा जिस पर 40 रुपए मरम्मत के लिए खर्च किए गए हैं।
हल:
पंखे का क्रय मूल्य = ₹ 560
ऊपरी खर्च = ₹ 40
∴ कुल क्रय मूल्य = ₹ (560 + 40) रुपए = ₹ 600
लाभ = 5%
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions -2.3
= ₹ \(\left(\frac{100+5}{100} \times 600\right)\)
= ₹ (105 × 6)
= ₹ 630

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 132)

प्रश्न 1.
एक दुकानदार ने दो टेलीविजन सेट 10,000 रुपए प्रति सेट की दर से खरीदे। उसने एक को 10% हानि से और दूसरे को 10% लाभ से बेच दिया। ज्ञात कीजिए कि कुल मिलाकर उसे इस सौदे में लाभ हुआ अथवा हानि।
हल:
पहले टेलीविजन सेट के लिए
क्रय मूल्य = ₹ 10,000
और हानि = 10%
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions -3.1
= ₹ \(\left(\frac{100-10}{100} \times 10000\right)\)
= ₹ (90 × 100)
= ₹ 9000

दूसरे टेलीविजन सेट के लिए
क्रय मूल्य = ₹ 10000
और लाभ = 10%
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions -3.3
= ₹ \(\left(\frac{100+10}{100} \times 10000\right)\)
= ₹ (110 × 100)
= ₹ 11000

दो टेलीविजन सेट के लिए कुल क्रय मूल्य = ₹ 20000
और कुल विक्रय मूल्य = ₹ (11000 + 9000)
= ₹ 20000
क्योंकि विक्रय मूल्य = क्रय मूल्य
अतः, उसे न लाभ हुआ न ही हानि।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions

सोचिए, चर्चा कीजिए और लिखिए (पृष्ठ 133)

प्रश्न 1.
किसी संख्या को दुगुना करने पर उस संख्या में 100% वृद्धि होती है। यदि हम उस संख्या को आधा कर दें तो कितना प्रतिशत ह्रास होगा?
हल:
माना संख्या x, तो इसका आधा = \(\frac{x}{2}\)
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions -4

प्रश्न 2.
2400 रुपए की तुलना में 2000 रुपए कितना प्रतिशत कम है? क्या यह प्रतिशत उतना ही है, जितना 2000 रुपए की तुलना में 2400 रुपए अधिक है?
हल:
पहली स्थिति में :
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions -5
नहीं, यह समान नहीं है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 135)

प्रश्न 1.
5% वार्षिक दर से 15,000 रुपए का 2 वर्ष के अंत में ब्याज और भुगतान की जाने वाली कुल राशि ज्ञात कीजिए।
हल:
दिया है, P= 15000 रुपए, R = 5% प्रति वर्ष और T = 2 वर्ष
माना I ब्याज और A मिश्रधन है तो
I = \(\frac{P×R×T}{100}\)
अतः I = \(\frac{15000×5×2}{100}\)
= ₹ (150 × 10
= ₹ 1500
A = P + I
अतः A = ₹ (15000 + 1500)
= ₹ 16500

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 138)

प्रश्न 1.
8,000 रुपए का 2 वर्ष के लिए 5% वार्षिक दर से चक्रवृद्धि ब्याज ज्ञात कीजिए यदि ब्याज वार्षिक संयोजित होता है।
हल:
दिया है, P = 8000 रुपए, R = 5% प्रति वर्ष और n= 2 वर्ष
∴ 2 वर्ष बाद मिश्रधन (A) = \(\mathrm{P}\left(1+\frac{\mathrm{R}}{100}\right)^{n}\)
= ₹ \(\left[8000 \times\left(1+\frac{5}{100}\right)^{2}\right]\)
= ₹ \(\left(8000 \times \frac{21}{20} \times \frac{21}{20}\right)\)
= ₹ (20 × 21 × 21)
= ₹ 8820

और चक्रवृद्धि ब्याज = A – P
= ₹ (8820 – 8000)
= ₹ 820

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 139)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में ब्याज संयोजन के लिए समय अवधि और दर ज्ञात कीजिए
1. 1\(\frac{1}{2}\) वर्ष के लिए 8% वार्षिक दर पर उधार ली गई एक राशि पर ब्याज अर्धवार्षिक संयोजित किया जाता है।
2. 2 वर्ष के लिए 4% वार्षिक दर पर उधार ली गई एक राशि पर ब्याज अर्धवार्षिक संयोजित किया जाता है।
हल:
दिया है-
ब्याज की दर = 8% प्रति वर्ष
= \(\frac{8}{2}\)% = 4% प्रति अर्ध वार्षिक
समय = 1\(\frac{1}{2}\) वर्ष = 3 आधे वर्ष

2.
दिया है,
ब्याज की दर = 4% प्रति वर्ष
= \(\frac{4}{2}\)% = 2% प्रति अर्ध वार्षिक
समय = 2 वर्ष = 4 आधे वर्ष

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions

(सोचिए, चर्चा कीजिए और लिखिए – पृष्ठ 139)

प्रश्न 1.
एक राशि 16% वार्षिक दर पर 1 वर्ष के लिए उधार ली जाती है। यदि ब्याज प्रत्येक तीन महीने बाद संयोजित किया जाता है, तो 1 वर्ष में कितनी बार ब्याज देय होगा?
हल:
दिया हैब्याज की दर = 16% प्रति वर्ष
= \(\frac{16}{4}\) % प्रति तिमाही
= 4% प्रति तिमाही ।
समय = 1 वर्ष = 4 तिमाही
अतः, ब्याज एक वर्ष में 4 बार 4% की दर से देय होगा।

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 140)

प्रश्न:
निम्नलिखित के लिए भुगतान की जाने वाली राशि ज्ञात कीजिए
1. ₹ 2400 पर 5% वार्षिक दर से ब्याज वार्षिक संयोजन करते हुए 2 वर्ष के अंत में।
2. ₹ 1800 पर 8% वार्षिक दर से ब्याज तिमाही संयोजन करते हुए 1 वर्ष के अंत में।
हल:
1. दिया है, P = ₹ 2400, R= 5% प्रति वर्ष
और n = 2 वर्ष
∴ 2 वर्ष बाद मिश्रधन = \(\mathrm{P}\left(1+\frac{\mathrm{R}}{100}\right)^{n}\)
= ₹ \(\left[2400 \times\left(1+\frac{5}{100}\right)^{2}\right]\)
= ₹ \(\left(2400 \times \frac{21}{20} \times \frac{21}{20}\right)\)
= ₹ (6 × 21 × 21)
= ₹ 2646

2.
दिया है, मूलधन = ₹ 1800
दर = 8% वार्षिक = 2% प्रति तिमाही
समय = 1 वर्ष = 4 तिमाही
∴ मिश्रधन = [1800 ×
= ₹ \(\left[1800 \times\left(1+\frac{2}{100}\right)^{4}\right]\)
= ₹ \(\left(1800 \times \frac{51}{50} \times \frac{51}{50} \times \frac{51}{50} \times \frac{51}{50}\right)\)
= ₹ \(\frac{121773618}{62500}\)
= ₹ 1948.38

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 8 राशियों की तुलना Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 142)

प्रश्न 1.
₹ 10,500 मूल्य की एक मशीन का 5% की दर से अवमूल्यन होता है। एक वर्ष पश्चात् इसका मूल्य ज्ञात कीजिए।
हल:
यहाँ, P = ₹ 10500, अवमूल्यन = 5% वार्षिक, n= 1 वर्ष
1 वर्ष बाद घटा मूल्य = 10500 ×
= ₹ \(\left[10500 \times\left(1-\frac{5}{100}\right)^{1}\right]\)
= ₹ \(\left(10500 \times \frac{95}{100} \right)\)
= ₹ 9975

प्रश्न 2.
एक शहर की वर्तमान जनसंख्या 12 लाख है। यदि वृद्धि की दर 4% है तो 2 वर्ष पश्चात् शहर की जनसंख्या ज्ञात कीजिए।
हल:
माना 2 वर्ष पश्चात् जनसंख्या P, है।
तो, P2 = ₹ \(\left[P \times\left(1+\frac{4}{100}\right)^{2}\right]\)
= \(\left[P \times\left(\frac{104}{100}\right)^{2}\right]\)
= 1200000 × \(\frac{26}{25} \times \frac{26}{25}\)
= 1920 × 676
= 1297920
अतः, 2 वर्ष बाद जनसंख्या = 1297920

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HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

HBSE 12th Class Sanskrit सूक्तिसुधा Textbook Questions and Answers

1. संस्कृतभाषया प्रश्नोत्तराणि लिखत
(क) सर्वत्र कीदृशं नीरम् अस्ति ?
(ख) मरालस्य मानसं कं विना न रमते।
(ग) विद्वान् कम् अपेक्षते ?
(घ) सत्कविः कौ द्वौ अपेक्षते ?
(ङ) यः यस्य प्रियः सः तस्य कृते किं भवति ?
(च) सहसा किं न विदधीत ?
(छ) विधात्रा किं विनिर्मितम् ?
(ज) अपण्डितानां विभूषणं किम् ?
(झ) महात्मनां प्रकृतिसिद्धं किं भवति ?
(ब) पापात् कः निवारयति ?
(ट) सन्तः कान् पर्वतीकुर्वन्ति ?
(ठ) कीदृशं भूषणं न क्षीयते ?.
(ड) कूपखननं कदा न उचितम् ?
उत्तरम्:
(क) सर्वत्र नीरजराजितं नीरम् अस्ति।
(ख) मरालस्य मानसं मानसं विना न रमते।
(ग) विद्वान् दैष्टिकतां पौरुषं च अपेक्षते।
(घ) सत्कविः शब्दार्थों द्वौ अपेक्षते।
(ङ) यः यस्य प्रियः सः तस्य कृते प्रियः भवति।
(च) सहसा क्रियां न विदधीत।
(छ) विधात्रा अज्ञानस्य आच्छादनं मौनं विनिर्मितम्।
(ज) अपण्डितानां विभूषणं मौनम्।
(झ) विपदि धैयम्, अभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता, यशसि अभिरुचिः श्रुतौ व्यसनं च महात्मनां प्रकृतिसिद्धं भवति।
(ञ) पापात् सन्मित्रं निवारयति।
(ट) सन्तः परगुणपरमाणून पर्वतीकुर्वन्ति ?
(ठ) वाग्-भूषणं न क्षीयते ?
(ड) कूपखननं प्रोद्दीप्ते भवने न उचितम् ?

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

2. अधोलिखितपद्यांशानां सप्रसङ्ग हिन्दीभाषया व्याख्या विधेया
(क) वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः।
(ख) क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्।
(ग) प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः।
उत्तरम्:
व्याख्या के लिए श्लोक संख्या 6, 11 तथा 12 के प्रसंग तथा भावार्थ का उपयोग करें।

3. रिक्तस्थानपूर्तिः क्रमशः करणीया
(क) सत्कविरिव विद्वान् शब्दार्थों …………….. अपेक्षते।
(ख) सन्तः …………….. प्रवदन्ति ।
उत्तरम्:
(क) सत्कविरिव विद्वान् शब्दार्थों द्वयम् अपेक्षते।
(ख) सन्तः सन्मित्रलक्षणं प्रवदन्ति।

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4. निम्नलिखितश्लोकयोः अन्वयं लिखत
यथा-यद्यपि नीरज-राजितं नीरं सर्वत्र अस्ति।
(परं) मरालस्य मानसं मानसं विना न रमते।
(क) नीरक्षीरविवेके …………..।
(ख) विपदि धैर्यमथाभ्युदये …………..
उत्तरम्:
दूसरे तथा सातवें श्लोक का अन्वय देखें।

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5. निम्नलिखितशब्दानाम् अर्थ लिखित्वा वाक्यप्रयोगं कुरुत
नीरजम्, रसालः, पौरुषः, विमृश्यकारिणः, जरा।
उत्तरम:
(क) नीरजम् = कमलम् (कमल)-सरसि नीरजं शोभते।
(ख) रसालः = आम्रवृक्षः (आम का वृक्ष)-प्राङ्गणे रसालः शोभते।
(ग) पौरुषः = पुरुषार्थः (परिश्रम, कर्म)-सदा पौरुषः कर्तव्यः।
(घ) विमृश्यकारिणः = विचिन्त्यकारिणः (विचार कर कार्य करने वाले)विमश्यकारिणः कदापि पश्चात्तापं न प्राप्नुवन्ति।
(ङ) जरा = वृद्धत्वम् (बुढ़ापा)-यावत् जरा न आयाति तावत् आत्महितं कुरु ।

6. निम्नलिखितशब्दानां सार्थकं मेलनं क्रियताम्
(क) मरालस्य (i) आश्रयते
(ख) अवलम्बते (ii) ब्रह्मणा
(ग) अधुना (iii) विशदीकृत्य
(घ) विधात्रा (iv) हंसस्य
(ङ) पर्वतीकृत्य (v) साम्प्रतम्
(च) नीरजम् (vi) आम्रः
(छ) रसालः (vii) विभूतयः
(ज) सम्पदः (viii) कमलम्
(झ) यशसि (ix) कीर्ती
उत्तरम्:
(क) मरालस्य (iv) हंसस्य
(ख) अवलम्बते (i) आश्रयते
(ग) अधुना (v) साम्प्रतम्
(घ) विधात्रा (ii) ब्रह्मणा
(ङ) पर्वतीकृत्य (iii) विशदीकृत्य
(च) नीरजम् (viii) कमलम्
(छ) रसालः (vi) आम्रः
(ज) सम्पदः (vii) विभूतयः
(झ) यशसि (ix) कीर्ती

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7. अधोलिखितशब्दानां पाठात् विलोमपदं चित्वा लिखत
(क) मूर्खः ………………….
(ख) अप्रियः ………………….
(ग) पुण्यात् ………………….
(घ) यौवनम् ………………….
(ङ) उपेक्षते ………………….
उत्तरम्:
(क) मूर्खः – विद्वान्
(ख) अप्रियः – प्रियः
(ग) पुण्यात् – पापात्
(घ) यौवनम् – जरा
(ङ) उपेक्षते – अपेक्षते

8. सन्धिच्छेदः क्रियताम्
उत्तरसहितम्:
(क) नालम्बते = न + आलम्बते
(ख) विश्वस्मिन्नधुनान्यः = विश्वस्मिन् + अधुना + अन्यः
(ग) कोऽपि = कः + अपि
(घ) चाभिरुचिर्व्यसनं = च + अभिरुचिः + व्यसनम्
(ङ) चन्द्रोज्ज्वलाः = चन्द्र + उज्ज्वला:

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9. (अ) अधोलिखितशब्दानां समासविग्रहः कार्य:
यथा-नीरज-राजितम् = नीरजैः राजितम्।
उत्तरसहितम्:
(क) अलिमालः = अलीनां माला यस्मिन् सः (बहुव्रीहिः)
(ख) वाक्पटुता = वाचि पटुता (सप्तमी-तत्पुरुषः)
(ग) चन्द्रोज्ज्वला: = चन्द्रः इव उज्ज्वलः यः, ते (बहुव्रीहिः)
(घ) अप्रतिहता = न प्रतिहता (अव्ययीभावः)
(ङ) वाग्भूषणम् = वाग् एव आभूषणम् (कर्मधारयः)
(आ) अधोलिखित-विग्रहपदानां समस्तपदानि रचयत
यथा-कुलस्य व्रतं ………. -कुलव्रतम् ।
उत्तरसहितम्:
(क) वनस्य अन्तरे -वनान्तरे (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ख) गुणानां लुब्धाः -गुणलुब्धाः (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ग) प्रकृत्या सिद्धम् -प्रकृतिसिद्धम् (तृतीया-तत्पुरुषः)
(घ) उपकारस्य श्रेणिभिः -उपकारश्रेणिभिः (षष्ठी-तत्पुरुषः)
(ङ) आत्मनः श्रेयसि -आत्मश्रेयसिः (सप्तमी-तत्पुरुषः)

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10. अधोलिखितशब्देषु प्रकृतिप्रत्ययानां विभागः करणीयम्
यथा-राजितम् – राज् + क्त
उत्तरसहितम्:
(क) दैष्टिकताम् – दैष्टिक + तल्
(ख) कुर्वाणः – √कृ + शानच् (आत्मनेपदे)
(ग) पटुता – पटु + तल्
(घ) सिद्धम् – √सिध् + क्त
(ङ) विमृश्य – वि √मृश् + ल्यप्

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11. अधोलिखितश्लोकेषु छन्दो निर्दिश्यताम्
यथा-अस्ति यद्यपि …………… ॥ अनुष्टुप् छन्दः।
उत्तरसहितम्
(क) तावत् कोकिल …………… समुल्लसति ॥ – आर्या-छन्दः।
(ख) स्वायत्तमेकान्त ………………. मौनमपण्डितानाम्॥ – उपजाति-छन्दः।
(ग) विपदिधैर्यमथा …………. महात्मनाम्॥ द्रुतविलम्बित-छन्दः।
(घ) पापान्निवारयति ………………….. प्रवदन्ति सन्तः॥ – वसन्ततिलका-छन्दः।
(ङ) केयूराणि न …………… भूषणम्॥ शार्दूलविक्रीडित-छन्दः।

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12. अधोलिखितपंक्तिषु कोऽलङ्कारः ? लिख्यताम्
उत्तरसहितम्
(क) शब्दार्थौ सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते। – ‘उपमा’ – अलङ्कारः।
(ख) वाग्भूषणं भूषणम्। ‘रूपक’ – अलङ्कारः।
(ग) निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः। ‘अनुप्रास’ – अलङ्कारः।
(घ) रमते न मरालस्य मानसं मानसं विना। “यमक’ – अलङ्कारः।
(ङ) यावन्मिलंदलिमालः कोऽपि रसालः समुल्लसति। – ‘अनुप्रास’ – अलङ्कारः।

योग्यताविस्तारः

(अ) समानार्थकश्लोकाः-
1. हंसः श्वेतो बकः श्वेतः को भेदो बकहंसयोः।
नीरक्षीरविवेके तु हंसो हंसो बको बकः॥

2. महाजनस्य संसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।
पद्मपत्रस्थितं वारि धत्ते मुक्ताफलश्रियम्।

3. आत्मार्थे जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः।
परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति॥

4. अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि तं नरं न रञ्जयति॥

5. यावत्स्वस्थो हयं देहो यावन्मृत्यश्च दूरतः।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते किं करिष्यति॥

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

(ब) छन्दसां लक्षणोदाहरणानि
1. शार्दूलविक्रीडितम्
लक्षणम्-“सूर्याश्वैर्मसजास्तताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम्’।
उदाहरणम्
(i) केयूराणि न भूषयन्ति….. ।
(ii) यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहम्……।

2. अनुष्टुप् छन्दः
लक्षणम् – “श्लोके षष्ठं गुरुज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम्।
द्विःचतुष्पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥”
उदाहरणम्
अस्ति यद्यपि सर्वत्र नीरं नीरजमण्डितम्……।

3. वसन्ततिलका
लक्षणम्–“उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः।”
उदाहरणम्
पापान्निवारयति योजयते हिताय।

4. उपजातिः-इन्द्रवज्रा उपेन्द्रवज्रा इति वृत्तयोः संयोगेन उपजाति: वृत्तं भवति।
लक्षणम् – “स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः।
उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ॥”
उदाहरणम्
स्वायत्तमेकान्तगुणं ………….

5. मालिनी
लक्षणम्-“ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः।”
उदाहरणम्
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा…।

6. आर्या
लक्षणम्-“यस्याः प्रथमे पादे द्वादशमात्रास्तथा तृतीयेऽपि।
अष्टादश द्वितीये चतुर्थके पञ्चदश साऽऽर्या॥”
उदाहरणम्:
(i) नीरक्षीर विवेक …..।
(ii) तावत् कोकिल …..।

आर्याच्छन्दसि विशिष्टः लयः गेयता च भवति।
तदनुसारेण आर्यायाः गानस्य अभ्यास: कार्यः।

(स) अधोलिखितानां हिन्दीभाषायाः आभाणकानां समानार्थकाः संस्कृत
पक्तयः अन्वेष्टव्या:
1. आग लगने पर कुआँ खोदना
2. सबसे भली चुप ।
3. दूध का दूध पानी का पानी
उत्तरम:
1. प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः।
2. विभूषणं मौनमपण्डितानाम् (मौनं सर्वार्थसाधनम्)।
3. नीरक्षीरविवेके हंसालस्यं त्वमेव तनुषे चेत्।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

HBSE 9th Class Sanskrit सूक्तिसुधा Important Questions and Answers

I. पुस्तकानुसारं समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत
(i) सर्वत्र कीदृशं नीरम् अस्ति ?
(A) मलिनम्
(B) अपगतमलिनम्
(C) नीरजराजितम्
(D) कमलभूषितम्।
उत्तराणि:
(A) नीरजराजितम्

(ii) मरालस्य मानसं कं विना न रमते।
(A) मनः
(B) मानसम्
(C) सरोवरम्
(D) पुण्यतालम्।
उत्तराणि:
(B) मानसम्

(iii) कीदृशं भूषणं न क्षीयते ?
(A) स्वर्णभूषणम्
(B) ताम्रभूषणम्
(C) रजतभूषणम्
(D) वाग्भूषणम्।
उत्तराणि:
(D) वाग्भूषणम्

(iv) पापात् कः निवारयति ?
(A) सन्त्रिमम्
(B) कुमित्रम्
(C) राजपुरुषः
(D) महाबलिः
उत्तराणि:
(A) सन्मित्रम्

(v) सत्कविः कौ द्वौ अपेक्षते ?
(A) शब्दौ
(B) अर्थों
(C) शब्दार्थों
(D) स्वरव्यञ्जने
उत्तराणि:
(C) शब्दार्थों

(vi) सहसा किं न विदधीत ?
(A) भोजनम्
(B) पठनम्
(C) क्रियाम्
(D) शय्याम्।
उत्तराणि:
(C) क्रियाम्

(vii) अपण्डितानां विभूषणं किम् ?
(A) धनम्
(B) मौनम्
(C) कलङ्कः
(D) दोषः।
उत्तराणि:
(B) मौनम्

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत
(i) विद्वान् दैष्टिकतां पौरुषं च अपेक्षते।
(A) कान्
(B) कः
(C) कस्य
(D) केषाम्।
उत्तराणि:
(A) कान्

(ii) सम्पदः विमृश्यकारिणं स्वयं वृणुते।।
(A) केषाम्
(B) कस्याम्
(C) कस्यै
(D) कम्।
उत्तराणि:
(D) कम्

(iii) विपदि धैर्य महात्मनां प्रकृतिसिद्धम्।।
(A) कः
(B) केषाम्
(C) कम्
(D) काम्।
उत्तराणि:
(B) केषाम्

(iv) केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषम्।
(A) कानि
(B) किम्
(C) कः
(D) कम्
उत्तराणि:
(A) कानि

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

सूक्तिसुधा पाठ्यांशः

1. अस्ति यद्यपि सर्वत्र नीरं नीरज-राजितम्।
रमते न मरालस्य मानसं मानसं विना॥ 1 ॥ (पण्डितराजजगन्नाथः)

अन्वयः-यद्यपि सर्वत्र नीरज-राजितं नीरम् अस्ति, (परन्तु) मरालस्य मानसं मानसं विना न रमते।

प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य पण्डितराज जगन्नाथ द्वारा रचित तथा ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ में संकलित है, जिसमें हंस के बहाने से यह बताया गया है कि ऊँची सोच के लोगों (सज्जनों) का मन तुच्छ वस्तुओं में आनन्दित नहीं होता।

सरलार्थः-यद्यपि सभी जगह कमलों से सुशोभित जल (सरोवर) होते हैं, परन्तु हंस का मन मानसरोवर के बिना कहीं नहीं रमता।

भावार्थ:-सरोवरों में जल भी होता है और कमलपुष्प भी। परन्तु उन सरोवरों का जल बरसात में गन्दा हो जाता है, जबकि मानसरोवर का जल सदा ही निर्मल-स्वच्छ रहता है। अतः हंस मानसरोवर में ही क्रीड़ा करना चाहता है, साधारण सरोवरों में नहीं। यह अन्योक्ति है। जिसके द्वारा कवि यह कहना चाहता है कि ऊँची सोच के लोग तुच्छ वस्तुओं में आनन्दित नहीं होते। विशेष:-इस पद्य में ‘अनुष्टुप्’ छन्द है। ‘अन्योक्ति’ तथा ‘यमक’ अलंकार हैं।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
नीरम् =जलम् (सरः); जल (सरोवर)। मरालस्य = हंसस्य; हंस का। नीरजराजितम् = कमलशोभितम, कमलों से सुशोभित । मानसम् = मनः मानसरोवरं वा; मन/ मानसरोवर । रमते = प्रसीदति; आनन्दित होता है।

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2. नीरक्षीरविवेके हंसालस्य त्वमेव तनुषे चेत्।
विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः ॥2॥ (पण्डितराजजगन्नाथः)

अन्वयः-(हे) हंस! चेत् त्वम् एव नीरक्षीरविवेके आलस्यं तनुषे (तर्हि) विश्वस्मिन् अधुना अन्यः कः कुलव्रतं पालयिष्यति।

प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ में संकलित है जिसके रचयिता पण्डितराज जगन्नाथ हैं। इस अन्योक्ति में हंस के माध्यम से यह बताया गया है कि यदि विद्वान् लोग ही अपने कर्तव्य का पालन नहीं करेंगे तो कौन करेगा ?

सरलार्थ:-हे हंस! यदि दूध का दूध और पानी का पानी करने में तुम ही आलसी हो जाओगे तो संसार में अब दूसरा कौन है, जो कुल-परम्परा का पालन करेगा ? अर्थात् कोई नहीं।

भावार्थ:-हंस के बारे में यह प्रसिद्ध है कि वह पानी मिले हुए दूध में से केवल दूध को ही पीता है और पानी छोड़ देता है। हंस को विद्वान् का प्रतीक माना गया है क्योंकि वह भी दूध का दूध और पानी का पानी करने में समर्थ होता है अर्थात् कर्तव्य-अकर्तव्य और सत्य-असत्य का निर्णय विद्वान् ही कर सकता है। यदि विद्वान् भी लोभ के वशीभूत होकर विवेकहीन आचरण करने लगेंगे तो संसार का मार्गदर्शन कौन करेगा ?

विशेषः-‘इस पद्य में ‘आर्या’ छन्द है तथा ‘अन्योक्ति’ अलंकार है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च नीरक्षीरविवेके = दूध का दूध पानी का पानी करने में। हंसालस्यम् = हंस + आलस्यम्। तनुषे = विस्तृत कर रहे हो, विस्तारयसि, तिन् + आत्मनेपदे लट् मध्यमपुरुषः, एकवचनम्। विश्वस्मिन्नधुनान्यः = विश्वस्मिन् + अधुना + अन्यः ।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

3. तावत् कोकिल विरसान् यापय दिवसान् वनान्तरे निवसन्।
यावन्मिलदलिमालः कोऽपि रसालः समुल्लसति ॥ 3 ॥ (पण्डितराजजगन्नाथः)

अन्वयः-हे कोकिल वनान्तरे निवसन् तावत् विरसान् दिवसान् यापय यावत् कोऽपि मिलदलिमालः रसालः समुल्लसति।

प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से लिया गया है इस पद्य के रचयिता पण्डितराज जगन्नाथ हैं। इस अन्योक्ति में कोयल के माध्यम से उचित अवसर की प्रतीक्षा करने के लिए कहा गया है।

सरलार्थ:-हे कोयल ! इस वन में निवास करते हुए तब तक रसहीन रूखे सूखे दिन व्यतीत करो। जब तक कोई आम का वृक्ष, जिस पर झुण्ड बने हुए भौरों का समूह मँडराता हुआ हो, (आम्रमंजरी से) सुशोभित होता है।

भावार्थ:-कोयल की मधुर कूक सुनने के लिए सभी के कान आतुर रहते हैं, परन्तु कोयल हर समय नहीं कूकती। वसन्त ऋतु आती है, आम के पौधे सुगन्धित आम्र-मंजरी से झूम उठते हैं। उनकी सुगन्ध से आकृष्ट होकर भौरों का समूह गुंजार करता है। कोयल कूक उठती है। यह कोयल के जीवन की स्वाभाविक घटना है, परन्तु कवि का उद्देश्य इस प्रकृति वर्णन से नहीं है, अपितु इस वर्णन के बहाने कवि कहना चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति में कोई न कोई स्वाभाविक गुण होता है। परन्तु उस गुण के प्रकट होने, फलने-फूलने के लिए उचित वातावरण की आवश्यकता होती है, जिसकी प्रतीक्षा मनुष्य को बड़े धैर्य के साथ करनी चाहिए। जैसे आम के पौधे पर बेर आने की प्रतीक्षा कोयल किया करती है और बसन्त ऋतु के आने पर जब आम का वृक्ष आम्र-मंजरी से महक उठता है तो कोयल भी अपने स्वाभाविक कूह-कूह के स्वर से सारे वातावरण को मदमस्त कर देती है।

विशेषः-प्रस्तुत पद्य में ‘आर्या’ छन्द है। अन्योक्ति’ तथा ‘अनुप्रास’ अलंकार हैं।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च विरसान् = रसरहित (शुष्क); रसरहितान्। यापय = व्यतीत करो; व्यतीतं कुरु। निवसन् = निवास करते हुए; वासं कुर्वन् नि = √वस् + शतृ। मिलदलिमालः (मिलत् + अलिमालः) = झुण्ड बनाते हुए भ्रमरों का समूह, जिस वृक्ष पर है, ऐसा वृक्ष (‘रसालः’ पद का विशेषण)। रसालः = आम का वृक्ष; आम्रपादपः। समुल्लसति = सुशोभित होता है, सुशोभते, (सम् + उत् + √लस् + लट्लकार, प्रथमपुरुष, एकवचन)।

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4. नालम्बते दैष्टिकतां न निषीदति पौरुषे।
शब्दार्थों सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते॥ 4 ॥ (माघः-शिशुपालवधम्)

अन्वयः-विद्वान् दैष्टिकतां न आलम्बते न पौरुषे (अपितु) सत्कविः इव शब्दार्थों द्वयम् अपेक्षते।

प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संग्रहीत है। जिसके रचयिता महाकवि माघ हैं। प्रस्तुत श्लोक में कवि ने भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का समान रूप से आश्रय लेने की बात कही है।

सरलार्थ:-विद्वान् मनुष्य न तो भाग्य का ही सहारा लेता है और न पुरुषार्थ के भरोसे ही रहता है। वह तो दोनों का आश्रय लेता है, जिस प्रकार कोई श्रेष्ठ कवि शब्द और अर्थ दोनों का आश्रय लेकर सुन्दर कविता रचता है।

भावार्थ:-अकेले शब्द अथवा अकेले अर्थ को ध्यान में रखकर कभी भी सुन्दर कविता रची नहीं जा सकती। श्रेष्ठ कविता वही होती है जिसमें शब्द और अर्थ दोनों का सामञ्जस्य हो, कोमल अर्थ के लिए कोमल शब्दों का प्रयोग तथा कठोर अर्थ को प्रकट करने के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग ही श्रेष्ठ कवि की पहचान है। इसी प्रकार भाग्य और पुरुषार्थ दोनों के सुन्दर सामञ्जस्य से ही जीवन सुन्दर बनता है। इसीलिए विद्वान् लोग अकेले भाग्य या अकेले पुरुषार्थ के भरोसे अपना जीवन नहीं चलाते। .

विशेषः-प्रस्तुत पद्य में ‘अनुष्टुप्’ छन्द है तथा ‘उपमा’ अलंकार है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च दैष्टिकताम् = भाग्यत्व को; भाग्यत्वम्, निषीदति = आश्रय लेता है; अवलम्बते, पौरुषे = पुरुषार्थ/कर्म में; पुरुषार्थे। सत्कविरिव (सत्कविः + इव) = श्रेष्ठकवि की भाँति। अपेक्षते = अपेक्षा करता है, आश्रम लेता है; आश्रयते।

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5. न किञ्चिदपि कुर्वाणः सौख्यैर्दुःखान्यपोहति।
तत्तस्य किमपि द्रव्यं यो हि यस्य प्रियो जनः॥ 5 ॥ (भवभूतिः)

अन्वयः- यः हि यस्य प्रियः जनः, तत् तस्य किमपि द्रव्यम् (सः) किञ्चित् अपि न कुर्वाणः (उपस्थितिमात्रेण) सौख्यैः दुःखानि अपोहति।

प्रसंगः-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से उद्धृत है, जिसके रचयिता महाकवि भवभूति हैं। इस पद्य में प्रियजन की उपस्थितिमात्र को दुःख दूर करने वाला बताया गया है।

सरलार्थ:-जो जिसका प्रियजन होता है, वह उसके लिए कोई (बहुमूल्य) वस्तु होता है। वह कुछ भी न करता . हुआ (अपनी उपस्थितिमात्र से) सुखों के द्वारा दुःखों को दूर कर देता है। भावार्थ:-प्रियजन बहुमूल्य वस्तु के समान होता है, जो अपनी उपस्थितिमात्र से ही दुःखों को दूर कर देता है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च कुर्वाणः = करते हुए; कुर्वन् (√कृ + शानच्) । सौख्यैः = सुखों के द्वारा; सुखपूर्वकैः । अपोहति = दूर करता है; दूरीकरोति।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

6. सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥ 6 ॥ (भारविः-किरातार्जुनीयम्)

अन्वयः-सहसा क्रियां न विदधीत, (यतः) अविवेकः परमापदां पदं (भवति)। सम्पदः गुणलुब्धाः (भवन्ति, अतः) स्वयमेव हि विमृश्यकारिणं वृणते।

प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से उद्धृत है। इसके रचयिता महाकवि भारवि हैं। कवि ने इस श्लोक में सोच-विचार कर ही कार्य करने के लिए प्रेरित किया है।

सरलार्थः-मनुष्यों को अचानक ही (बिना सोचे-विचारे) कोई कार्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवेकहीनता घोर विपत्तियों का स्थान होती है। सम्पत्तियाँ गुणों की लोभी होती हैं; अतः सोच-विचार कर कार्य करने वाले मनुष्य को वे स्वयं ही चुन लेती है।

भावार्थ:-‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए’ हिन्दी की इस कहावत का मूल भाव इस सूक्ति में है। मनुष्य को सोच-विचार कर ही प्रत्येक कार्य करना चाहिए। बिना सोचे-समझे कार्य करने से घोर विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। मनुष्य सम्पत्ति पाने के लिए कार्य करता है, सम्पत्तियाँ गुणों के पीछे चलती हैं । गुणवान् मनुष्य विवेकपूर्वक कार्य करता है और सम्पत्तियाँ भी ऐसे विचारशील मनुष्य के पास स्वयं दौड़कर चली आती हैं। विशेष:-इस पद्य में ‘आर्या’ छन्द है तथा ‘अर्थान्तरन्यास’ अलंकार है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
विदधीत = करो ; कुर्वीत, (वि उपसर्ग + √डुधाञ् (धा) विधिलिङ् प्रथम पुरुष एकवचन)। वृणते = वरण करती है ; वरणं कुर्वन्ति। विमृश्यकारिणम् = विचार कर कार्य करने वाले को ; विचिन्त्यकारिणम्।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

7. स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः।।
विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्॥7॥ (भर्तृहरिः नीतिशतकम्)

अन्वयः विधात्रा स्वायत्तम्, एकान्तगुणम्, अज्ञतायाः छादनं मौनं विनिर्मितम्। विशेषतः सर्वविदां समाजे (एतत् मौनम्) अपण्डितानां विभूषणम् (अस्ति)।

प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संगृहीत है। इस पद्य के रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं। इस पद्य में मौन का महत्त्व बताया गया है।

सरलार्थ:-विधाता ने स्वतन्त्र, अद्वितीय गुण वाला, अज्ञान को ढकने वाला मौन नामक गुण बनाया है। विशेष रूप से विद्वानों की सभा में तो यह मौन मूल् का आभूषण बन जाता है।

भावार्थ:-‘एक चुप सो सुख’ हिन्दी की इस कहावत का मूल भाव इस पद्य में है। यह मौन अद्वितीय विशेषताओं वाला है। यह अज्ञान को ढक देता है। विद्वानों की सभा में यदि कोई मूर्ख मनुष्य बैठा हो और वह वहाँ बैठकर चुप रहे तब यह मौन उस मूर्ख का आभूषण बन जाता है और दूसरे लोग इस चुप रहने वाले मूर्ख को विद्वान् ही समझते हैं। विशेष:-इस पद्य में उपजाति छन्द है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च स्वायत्तम् = स्वयं के अधीन ; निजाधीनम्। विधात्रा = ब्रह्मा के द्वारा ; ब्रह्मणा। छादनम् = आवरण ; आवरणम्। सर्वविदाम् = सर्वज्ञानाम् ; सर्वज्ञों के।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

8. विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धिमिदं हि महात्मनाम्॥ 8 ॥ (भर्तृहरिः-नीतिशतकम्)

अन्वयः-विपदि धैर्यम्, अथ अभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता, युधि विक्रमः, यशसि च अभिरुचिः, श्रुतौ व्यसनम्, इदं हि महात्मनां प्रकृतिसिद्धम्।

प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संगृहीत है। इस पद्य के रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं। इस पद्य में महापुरुषों के स्वाभाविक गुणों की चर्चा की गई है। –

सरलार्थः-विपत्ति के समय धीरता, अधिक समृद्धि होने पर क्षमा (सहनशीलता) सभा में बोलने की चतुराई, संग्राम में पराक्रम, यश प्राप्त करने में इच्छा एवं वेदादिशास्त्रों में आसक्ति-ये सभी गुण महापुरुषों में स्वभाव से ही होते हैं।

भावार्थ:-महापुरुषों के ये स्वाभाविक गुण हैं कि वे विपत्ति में व्याकुल नहीं होने, उन्नति होने पर भी सब को क्षमा करते हैं, सभा में अपनी वचन-कुशलता से सबको मोहित कर लेते हैं, युद्ध में डर कर नहीं भागते, यश के लिए प्रयत्नशील रहते हैं तथा ज्ञान अर्जित करने में निरन्तर प्रवृत्त रहते हैं। विशेष:-इस पद्य में द्रुतविलम्बित छन्द है।।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च अभ्युदये = उन्नति में ; उन्नतौ (अभि + उदये, यण् सन्धि)। सदसि = सभा में ; सभायाम् (सदस् शब्द नपुंसकलिंग सप्तमी विभक्ति एकवचन)। वाक्पटुता = वाणी में कुशलता ; वाचि पटुता, युधि = युद्ध में ; युद्धे।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

9. पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्यं निगृहति गुणान् प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः॥ १ ॥ (भर्तृहरिः-नीतिशतकम्)

अन्वयः-पापात् निवारयति, हिताय योजयते, गुह्यं निगृहति, गुणान् प्रकटीकरोति, आपद्गतं च न जहाति, काले ददाति। सन्तः इदं सन्मित्रलक्षणं प्रवदन्ति।

प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संगृहीत है। इस पद्य के रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं। इस . पद्य में श्रेष्ठ मित्र के लक्षण बताए गए हैं।

सरलार्थः-जो पाप करने से मित्र को रोकता है, हितकर्म (अच्छे काम) में लगाता है, मित्र की गुप्त बात को छिपाता है, उसके गुणों को प्रकट कर देता है, आपत्ति में पड़े हुए को भी नहीं छोड़ता, समय पड़ने पर (धन आदि से) सहायता प्रदान करता है। सज्जन लोग इसे ही अच्छे मित्र का लक्षण बतलाते हैं।

भावार्थ:-सुमित्र वही है जो मित्र को हानिकारक कर्म से हटाकर कल्याण मार्ग में लगाए, उसके दोषों को छिपाकर गुणों को प्रकाशित करे, विपत्ति में भी उसका साथ न छोड़े तथा यथाशक्ति धनादि से उसकी सहायता करे।

विशेषः- इस पद्य में वसन्ततिलका छन्द है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च निवारयति = रोकता है। गुह्यम् = गुप्त बात। योजयते = लगाता है। आपद्गतम् = आपत्ति में पड़ा हुआ। जहाति = छोड़ता है; त्यजति। काले = समय पड़ने पर। निगृहति = छिपाता, आच्छादयति। प्रवदन्ति = कहते हैं।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

10. मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं,
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः॥ 10 ॥ (भर्तृहरिः-नीतिशतकम्)

अन्वयः-मनसि वचसि काये पूण्यपीयूषपूर्णाः, उपकारश्रेणिभिः त्रिभुवनं प्रीणयन्तः परगुण-परमाणून् पर्वतीकृत्य निजहदि विकसन्तः कियन्तः सन्तः सन्ति ?

प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संगृहीत है। इस पद्य के रचयिता महाकवि भर्तृहरि हैं। इस पद्य में बताया गया है कि दूसरों के छोटे से गुण को अपने हृदय में ग्रहण करके उसका बहुत अधिक विस्तार करने वाले लोग बहुत कम होते है।

सरलार्थ:-जिनके मन, वाणी और शरीर में पुण्य रूपी अमृत भरा हो, जो अपने उपकारों से तीनों लोकों को प्रसन्न करते हों और दूसरों के परमाणु-समान अति सूक्ष्म गुणों को सदा पर्वत के समान बहुत बढ़ा-चढ़ा कर अपने हृदय में उनका विकास करते हों, ऐसे सज्जन इस संसार में कितने हैं अर्थात् ऐसे लोग विरले ही होते हैं।

भावार्थ:-सत्पुरुष अपने तन, मन और वचन से सदा परोपकार में लगे रहते हैं। वे दूसरे मनुष्यों के छोटे से छोटे गुण को भी अपने हृदय में धारण कर उसे पर्वत के समान अति विस्तृत रूप देकर बड़े सन्तुष्ट रहते हैं। ऐसे पुरुषरत्न धरती पर विरले ही होते हैं। विशेषः-इस पद्य में ‘मालिनी’ छन्द है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च वचसि = वाणी में ; वाचि (वचस्-सप्तमी विभक्ति एकवचन)। प्रीणयन्तः = प्रसन्न करते हुए ; प्रसन्नं कुर्वन्तः। परगुणपरमाणून् = दूसरों के अति सूक्ष्मगुणों को ; अन्येषाम् अतिसूक्ष्मान् गुणान्। पर्वतीकृत्य = बढ़ा-चढ़ा कर ; विशालतां नीत्वा। हृदि = हृदय में ; हृदये (हृत् शब्द सप्तमी विभक्ति एकवचन)। विकसन्तः = खिलते हुए ; विकासं कुर्वन्तः। सन्तः = सज्जन ; विकासं कुर्वन्तः (‘सत्’ शब्द प्रथमा विभक्ति बहुवचन)।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

11. केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः,
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृता मूर्धजाः।
वाण्येका समलड्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते,
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥ 11 ॥ (भर्तृहरिः नीतिशतकम्)

अन्वयः-पुरुषं केयूराणि न भूषयन्ति । न चन्द्रोज्ज्वला: हाराः (भूषयन्ति)। न स्नानम्, न विलेपनम्, न कुसुमम्, न अलंकृताः मूर्धजा: भूषयन्ति । एका वाणी या संस्कृता धार्यते (सा एव) पुरुषं समलकरोति। भूषणानि खलु सततं क्षीयन्ते, वाग्भूषणं भूषणम्।

प्रसंगः-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से संगृहीत है। इस पद्य के रचयिता कवि भर्तृहरि हैं। इस पद्य में सभ्यता पूर्ण वाणी को मनुष्य का सबसे बड़ा आभूषण बताया गया है।

सरलार्थः-मनुष्य को बाजू-बन्ध सुशोभित नहीं करते हैं। चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार भी सुशोभित नहीं करते। न स्नान करने से, न चन्दन आदि का लेप करने से, न पुष्पमाला धारण करने से और न ही सिर के सजे-धजे बालों से मनुष्य शोभायमान होता है। एक वाणी ही, जो संस्कारपूर्वक (सभ्यतापूर्ण ढंग से) धारण की गई हो, मनुष्य को सुशोभित करती है। संसार के अन्य सभी आभूषण समय के प्रवाह से नष्ट हो जाते हैं, केवल वाणी का आभूषण ही सच्चा आभूषण है, जो सदा बना रहता है।

भावार्थः-शरीर के बाह्य आभूषण मनुष्य की थोड़ी देर के लिए ही शोभा बन पाते हैं। बाद में ये आभूषण नष्ट हो जाते हैं। परन्तु शिष्टाचार पूर्ण सुसंस्कृत वाणी सदैव मनुष्य की शोभा बढ़ाती रहती है, इसीलिए वाणी को ही सच्चा आभूषण कहा गया है। विशेषः-‘इस पद्य में ‘शार्दूलविक्रीडित’ छन्द है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
केयूराणि = बाजूबन्ध, भुजबन्ध ; विशिष्टाभूषणानि। मूर्धजाः = सिर के बाल ; केशाः । क्षीयन्ते = नष्ट हो जाते हैं ; विनश्यन्ते। संस्कृता = शुद्ध, परिष्कृत, संस्कारयुक्त, शिष्टाचारपूर्ण।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

12. यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा,
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्,
प्रोद्दीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥ 12॥ (भर्तृहरिः)

अन्वयः-यावत् इदं कलेवरगृहं स्वस्थम्, यावत् च जरा दूरे (तिष्ठति), यावत् च इन्द्रियशक्तिः अप्रतिहता (अस्ति), यावत् आयुषः, क्षयः न (अस्ति), तावत् विदुषा आत्मश्रेयसि महान् प्रयत्नः कार्यः। प्रोद्दीप्ते च भवने कूपखननं प्रति उद्यमः कीदृशः।

प्रसंग:-प्रस्तुत पद्य ‘सूक्ति-सुधा’ नामक पाठ से उद्धृत है। इस पद्य के रचयिता भर्तृहरि हैं। इस पद्य में बताया गया है कि आत्मकल्याण के लिए युवा अवस्था में ही प्रयत्नशील होना चाहिए तथा विपत्ति के आने से पहले ही उसका उपाय खोज लेना चाहिए।

सरलार्थ:-जब तक मनुष्य का यह शरीर रूपी घर स्वस्थ है, जब तक बुढ़ापा इससे दूर है, जब तक इन्द्रियों की शक्तिपूर्ण रूप से बनी हुई है, जब तक आयु क्षीण नहीं हुई है-उससे पूर्व ही विद्वान् मनुष्य को आत्मकल्याण के लिए महान् प्रयास करना चाहिए। घर में आग लग जाने पर कुआँ खोदने के परिश्रम का क्या लाभ है ?

भावार्थ:-कवि भर्तृहरि के कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य को आत्मकल्याण के लिए युवा अवस्था में ही प्रयत्न करना चाहिए। बुढ़ापा आने पर तो शरीर ही साथ नहीं देता, उसकी सारी शक्ति क्षीण हो जाती है। फिर अध्यात्मसाधना नहीं हो सकती। जो लोग बुढ़ापा आने पर प्रभु भजन का प्रयास करते हैं, वे तो मानो ऐसे प्रयास में लगे हैं जैसे घर में आग लग जाने पर कोई मूर्ख मनुष्य पानी के लिए कुआँ खोदने का प्रयास करता है। विशेष:-इस पद्य में ‘शार्दूलविक्रीडित’ छन्द है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च कलेवरगृहम् = शरीर ; शरीरम् एव गृहम् (कर्मधारय समास)। जरा = बुढ़ापा ; वृद्धत्वम्। प्रोद्दीप्ते = जलने पर ; प्रज्ज्वलिते। उद्यमः = मेहनत ; परिश्रम।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

सूक्तिसुधा (सुन्दर वचन रूपी अमृत) Summary in Hindi

सूक्तिसुधा पाठ परिचय

संस्कृत साहित्य में सूक्तियों एवं सदुपदेशों का समृद्ध भण्डार है। इनमें भारतीय संस्कृति एवं जीवन के उदात्त मूल्यों का सन्देश प्राप्त होता है। अभ्युदय, सौख्य, शान्ति, समरसता, सामञ्जस्य आदि विषयों के अचूक मोती इनमें पिरोए गए हैं। सूक्ति का अर्थ है सुन्दर वचन, सुधा का अर्थ है अमृत, ‘सूक्तिसुधा’ का अर्थ है ‘सुन्दर वचन रूपी अमृत’। इस पाठ में पण्डितराज जगन्नाथ, महाकवि माघ, भारवि, प्रसिद्ध नाटककार भवभूति तथा महाकवि भर्तृहरि की सूक्तियाँ संकलित हैं। ये सूक्तियाँ आज भी हमारे जीवन के लिए बहुमूल्य, उपयोगी एवं पथप्रदर्शक हैं। विभिन्न विषयों से सम्बद्ध सूक्तियाँ निश्चित रूप से छात्रों का मार्गदर्शन करेंगी।

सूक्तिसुधा पाठस्य सारः

‘सूक्तिसुधा’ पाठ में संस्कृत साहित्य की सूक्तियाँ संकलित की गई हैं। जीवनप्रद सुभाषितों का जैसा समृद्ध भण्डार संस्कृत वाङ्मय में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इस पाठ में पण्डितराज जगन्नाथ, माघ, भारवि, भवभूति तथा भर्तृहरि की सूक्तियाँ संगृहीत की गई हैं। ये सूक्तियाँ आज भी हमारे जीवन के लिए बहुमूल्य, प्रेरणाप्रद, उपयोगी तथा मार्गदर्शक हैं।

प्रथम पद्य में महाकवि पण्डितराज जगन्नाथ ने हंस के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि ऊँची सोच के लोगों (सज्जनों) का मन तुच्छ वस्तुओं में नहीं लगता, जैसे हंस सामान्य सरोवरों को छोड़कर मानस सरोवरों में ही आनन्दित रहता है।

द्वितीय श्लोक में महाकवि पण्डितराज जगन्नाथ ने हंस के माध्यम से यह बताया है कि विद्वान् लोगों को अपनी विवेकशक्ति का उपयोग अवश्य करना चाहिए क्योंकि वे ही समाज के पथप्रदर्शक होते हैं।

तृतीय पद्य में कोयल के माध्यम से महाकवि पण्डितराज जगन्नाथ ने यह बताने का प्रयास किया है कि व्यक्ति को अपने स्वाभाविक गुणों के विकास के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करनी चाहिए। जैसे कोयल मधुर कूहकूह के लिए आम्रवृक्षों पर बोर आने की प्रतीक्षा करती है।
चतुर्थ श्लोक में महाकवि माघ ने जीवन में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का सामञ्जस्य करके जीवन को आनन्दमय बनाने का सन्देश दिया है। जैसे श्रेष्ठकवि शब्द और अर्थ दोनों के सुन्दर सामञ्जस्य से श्रेष्ठ कविता का सृजन करता

पञ्चम श्लोक में महाकवि भवभूति ने प्रियजन को ऐसी अमूल्य वस्तु बताया है जो कुछ न करते हुए भी मनुष्य को सुखों से भर देता है और दुःखों को दूर करता है।
छठे श्लोक में महाकवि भारवि ने प्रत्येक कार्य को सोच-विचार कर करने के लिए प्रेरित किया है और अविवेकपूर्ण कार्य की विपत्तियों का घर बताया है।

‘सूक्तिसुधा’ पाठ के अन्तिम छः श्लोक महाकवि भर्तृहरि के गीतिकाव्यों से संगृहीत हैं। एक श्लोक में मौन का महत्त्व समझाते हुए मौन को अज्ञानता का ढकने वाला तथा मूर्यों का आभूषण कहा गया है। एक श्लोक में विपत्ति में धैर्य, समृद्धि में सहनशीलता, सभा में वाक्चातुर्य, युद्ध में पराक्रम, यश अर्जित करने में तत्परता, शास्त्र-ज्ञान

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 6 सूक्तिसुधा

अर्जित करने की आदत को महापुरुषों का स्वाभाविक गुण बताया है। . अन्य श्लोक में सच्चे मित्र की पहचान के छ: सूत्र बताए हैं। पाप से रोकना, हित में लगाना, गुप्त बात को छिपाना, गुणों को प्रकट करना, विपत्ति में साथ न छोड़ना, समय पर धन आदि से सहायता करना-ये श्रेष्ठ मित्र के छह लक्षण हैं।
एक सुभाषित में भर्तृहरि ने बताया है कि संसार में उन लोगों की संख्या बहुत कम होती है, जो दूसरों के गुणों को अपने अन्दर ग्रहण करते हैं और उस गुण का विस्तार करते हैं।

एक सुभाषित में शिष्टाचारपूर्ण सुसंस्कृत वाणी को मनुष्य का सच्चा और सदा रहने वाला आभूषण बताया है, क्योंकि शेष सभी आभूषण तो समय के प्रवाह के साथ अपनी चमक खो देते हैं और नष्ट हो जाते हैं।

अन्तिम सुभाषित में भर्तृहरि ने इस बात पर बल दिया है, की मनुष्य को आत्मकल्याण के लिए प्रयत्न युवावस्था में स्वस्थ रहते हुए ही कर लेना चाहिए। बुढ़ापे में आत्मकल्याण का प्रयत्न घर में आग लगने पर कुआँ खोदने जैसा निरर्थक है।

इस प्रकार ये सूक्तियाँ जीवन के लिए उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण हैं। इनके अनुसार आचरण करने से हमारा जीवन सफल एवं सुन्दर बन सकता है।

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HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

HBSE 12th Class Sanskrit शुकनासोपदेशः Textbook Questions and Answers

1. संस्कृतेन उत्तरं दीयताम्
(क) लक्ष्मीमदः कीदृशः ?
(ख) चन्द्रापीडं कः उपदिशति ?
(ग) अनर्थपरम्परायाः किं कारणम् ?
(घ) कीदृशे मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति ?
(ङ) लब्धापि दुःखेन का परिपाल्यते ?
(च) केषाम् उपदेष्टारः विरलाः सन्ति ?
(छ) लक्ष्म्या परिगृहीताः राजानः कीदृशाः भवन्ति ?
(ज) वृद्धोपदेशं ते राजानः किमिति पश्यन्ति ?
उत्तरम्:
(क) लक्ष्मीमदः अपरिणामोपशमः दारुणः अस्ति।
(ख) चन्द्रापीडं मन्त्री शुकनासः उपदिशति ?
(ग) अनर्थपरम्परायाः कारणानि-गर्भेश्वरत्वम्, अभिनवयौवनत्वम्, अप्रतिम-रूपत्वम्, अमानुषशक्तित्वं चेति।
(घ) अपगतमले मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति।
(ङ) लब्धापि दुःखेन लक्ष्मीः परिपाल्यते।
(च) राज्ञाम् उपदेष्टारः विरलाः सन्ति ?
(छ) लक्ष्म्या परिगृहीताः राजानः विक्लवाः भवन्ति ?
(ज) वृद्धोपदेशं ते राजानः जरावैक्लव्यप्रलपितम् इति पश्यन्ति ?

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

2. विशेषणानि विशेष्यैः सह योजयत
विशेषणम् – विशेष्यम्
(क) समतिक्रामत्सु – ते
(ख) अधीतशास्त्रस्य – विद्वांसम्
(ग) दारुणो – दिवसेषु
(घ) गहनं तमः – दोषजातम्
(ङ) अतिमलिनम् – लक्ष्मीमदः
(च) सचेतसम् – यौवनप्रभवम्
उत्तरम्:
(क) समतिक्रामत्सु – दिवसेषु
(ख) अधीतशास्त्रस्य – ते
(ग) दारुणो – लक्ष्मीमदः
(घ) गहनं तमः – यौवनप्रभवम्
(ङ) अतिमलिनम् – दोषजातम्
(च) सचेतसम् – विद्वांसम्

3. अधोलिखितपदानि स्वरचित-संस्कृत-वाक्येषु प्रयुग्ध्वम्
संग्रहार्थम्, समुपस्थितम्, विनयम्, परिणमयति, शृण्वन्ति, स्पृशति।
उत्तरम्:
(वाक्यप्रयोगः)
(क) संग्रहार्थम्-सद्गुणानां संग्रहणार्थं सदा यत्नः करणीयः।
(ख) समुपस्थितम्-राजा समुपस्थितं सेवकं शस्त्रम् आनेतुम् आदिशत्।
(ग) विनयम्-विद्या विनयं ददाति।
(घ) परिणमयति-लक्ष्मीमदः सज्जनम् अपि दुष्टभावेषु परिणमयति।
(ङ) शृण्वन्ति-अहंकारिणः राजानः गुरूपदेशान् न शृण्वन्ति।
(च) स्पृशति-लक्ष्मी: गुणवन्तं न स्पृशति।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

4. अधोलिखितानां पदानां सन्धिच्छेदं कुरुत
उत्तरसहितम्:
(क) एवातिगहनम् = एव + अतिगहनम्
(ख) गर्भेश्वरत्वम् = गर्भ + ईश्वरत्वम्
(ग) गुरूपदेशः = गुरु + उपदेशः
(घ) ह्येवम् = हि + एवम्
(ङ) नाभिजनम् = न + अभिजनम्
(च) नोपसर्पति = न + उपसर्पति

5. प्रकृति-प्रत्ययविभागः क्रियताम्
उत्तरसहितम्
HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः img-2

6. समासविग्रहं कुरुत
उत्तरसहितम्:
(क) अमानुषशक्तित्वम् – न मानुषशक्तित्वम् (नञ्-तत्पुरुषः)
(ख) अत्यासाः अतिशयेन आसङ्गः (उपपद-तत्पुरुषः)
(ग) अनार्या न आर्या (नञ्-तत्पुरुषः)
(घ) स्वार्थनिष्पादनपरैः – स्वार्थस्य निष्पादने परैः (तत्परैः) तत्पुरुषः
(ङ) अहर्निशम् – निशायां निशायाम् (अव्ययीभावः)
(च) वृद्धोपदेशम् – वृद्धानाम् उपदेशम् (षष्ठी-तत्पुरुषः)

7. रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) लक्ष्मी : …………………. न रक्षति।
(ख) ………………. दुःस्वप्नमिव न स्मरति।
(ग) सरस्वतीपरिगृहीतं ……………….
(घ) उपदिश्यमानमपि ………………… न शृण्वन्ति।
(ङ) अवधीरयन्तः ………………….. हितोपदेशदायिनो गुरून्।
(च) तथा प्रयतेथाः ……………… नोपहस्यसे जनैः।
(छ) चन्द्रापीड: प्रीतहृदयो ………………… आजगाम।
उत्तरम्:
(क) परिचयम्
(ख) दातारम्
(ग) नालिङ्गति
(घ) राजानः
(ङ) खेदयन्ति
(च) यथा
(छ) स्वभवनम्।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

8. सप्रसङ्गं हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या
(क) गर्भेश्वरत्वभिनवयौवनत्वमप्रतिमरूपत्वममानुषशक्तित्वञ्चेति महतीयं खल्वनर्थपरम्परा।
(ख) हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गुरूपदेशः ।
(ग) विद्वांसमपि सचेतसमपि, महासत्त्वमपि, अभिजातमपि, धीरमपि, प्रयत्नवन्तमपि पुरुषं दुर्विनीता खलीकरोति
लक्ष्मीरिति। उत्तरम् -(व्याख्या)
(क) गर्भेश्वरत्वभिनवयौवनत्वमप्रतिमरूपत्वममानुषशक्तित्वज्येति महतीयं खल्वनर्थपरम्परा।

व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में मन्त्री शुकनास युवराज चन्द्रापीड को उपदेश करते हुए अनर्थ के चार कारणों की ओर ध्यान दिला रहे हैं। मन्त्री शुकनास कहते हैं कि अनर्थ की परम्परा के चार कारण हैं… (i) जन्म से ही प्रभुता
(ii) नया यौवन
(iii) अति सुन्दर रूप
(iv) अमानुषी शक्ति।

इन चारों में से मनुष्य का विनाश करने के लिए कोई एक कारण भी पर्याप्त होता है। जिसके जीवन में ये चारों ही कारण उपस्थित हों, उसके विनाश को कौन रोक सकता है ? इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को घोर अनर्थ से बचने के लिए उक्त चारों वस्तुएँ पाकर भी कभी अहंकार नहीं करना चाहिए।

(ख) हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गुरूपदेशः।
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में शुकनास युवराज चन्द्रापीड को गुरु के उपदेश का महत्त्व समझा रहे हैं । मन्त्री शुकनास कहते हैं कि गुरु का उपदेश मनुष्य के जीवन में बहुत अधिक उपयोगी तथा हितकारी होता है। मनुष्य में यदि अत्यधिक गहरे दोषों का समूह हो तो गुरु का उपदेश उन गहरे से गहरे दोषों को भी दूर कर देता है और उन दोषों के स्थान पर अति उत्तम गुण प्रवेश कर जाते हैं। मनुष्य का जीवन उज्ज्वल हो जाता है। सब जगह ऐसे व्यक्ति का यश फैलता है, इसीलिए गुरु का उपदेश प्रत्येक मनुष्य के लिए परम कल्याणकारी तथा आवश्यक है।

(ग) विद्वांसमपि सचेतसमपि, महासत्त्वमपि, अभिजातमपि, धीरमपि, प्रयत्न-वन्तमपि पुरुषं दुर्विनीता खलीकरोति लक्ष्मीरिति।
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में मन्त्री शुकनास लक्ष्मी अर्थात् धन के गुणों पर प्रकाश डाल रहे हैं।

मन्त्री शुकनास कहते हैं कि लक्ष्मी इतनी शक्तिशाली होती है कि अत्यन्त जागरूक रहने वाले विद्वान्, महान् बलशाली, उच्चकुल में उत्पन्न, धैर्यशील तथा अत्यन्त परिश्रमी मनुष्य को भी यह लक्ष्मी दुष्ट आचरण वाला बना देती है। शुकनास के कहने का तात्पर्य है कि जिस मनुष्य के पास धन होता है, वह धन के अहंकार में कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक को खो बैठता है और कुमार्गगामी हो जाता है।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

योग्यताविस्तारः
‘उप’ उपसर्गपूर्वकात् अतिसर्जनार्थकात् ‘दिश्’ धातोः ‘घञ्’ प्रत्यये उपदेशशब्दः निष्पद्यते। समुचितकार्येषु मित्रं, बन्धु, आश्रितजनं, विद्यार्थिनं वा सन्मार्गे प्रवर्तयितुं केनचित् हितचिन्तकेन सुहृद्वरेण ज्ञानिना वा दीयमानः परामर्शः मार्गनिर्देशः हितवचनं वा ‘उपदेश’ इति उच्यते। संस्कृतवाङ्मये लोकप्रबोधकानि सदाचारप्रतिपादकानि च सूत्राणि नानाग्रन्थेषु, काव्येषु सुभाषितेषु च समुपलभ्यन्ते। तानि उपदेशसूत्राणि बालकान्, युवकान्, प्रौढान्, वृद्धान विविधेषु क्षेत्रेषु कार्याणि कुर्वतः च अधिकृत्य सामान्येन प्रकारेण प्रणीतानि सन्ति।

अत्र उद्धृते भागे शुकनासोपदेशाख्ये राजकुमारं चन्द्रापीडं प्रति शुकनासस्य उपदेशः संगृहीतः। तथाहि-ऐश्वर्य, यौवनं, सौन्दर्य, शक्तिश्चेति प्रत्येकं अनर्थकारणमिति मत्त्वा चन्द्रापीडम् उपदेष्टुं प्रक्रान्तः शुकनासः । यद्यपि चन्द्रापीडः विनीतः गृहीतविद्यश्च तथापि ऐश्वर्यादिभिः अस्य मनः खलीकृतं न भवेत् इति धिया शुकनासः चन्द्रापीडम् उपदिशति। अत: उपदेशोऽयं न केवलं चन्द्रापीडं प्रति अपितु तन्माध्यमेन सर्वेषां जनानां कृतेऽपि।

पञ्चतन्त्रेऽपि यत्र-तत्र ईदृश एव हृदयङ्गमः उपदेशः प्राप्यते। यौवनादिकारणैः सम्भाव्यमानमनर्थं पञ्चतन्त्रम् एवमुल्लिखति

यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम्॥

महाभारतस्य उद्योगपर्वणः भागे विदुरनीतौ अपि एवमभिहितमस्ति
अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति
प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च॥
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
न क्रोधिनोऽर्थो न नृशंसमित्रं
क्रूरस्य न स्त्री सुखिनो न विद्या।
न कामिनो ह्रीरलसस्य न श्रीः
सर्वं तु न स्यादनवस्थितस्य॥

अन्यत्रापि हितोपदेश-नीतिशतकादौ च एवमुपदिष्टम् अस्ति। तत्र-तत्रापि योग्यता विस्तरार्थमवश्यं पठनीयम्।
1. बाणभट्टस्य रीतिः पाञ्चाली रीतिरिति कथ्यते । तस्याः लक्षणम् “शब्दार्थयोः समो गुम्फः पाञ्चालीरीतिरिष्यते।”
2. बाणभट्टस्य गद्ये या लयात्मकता वर्तते, पाठपुरस्सरं तस्याः सन्धानं कार्यम्।

बाणविषयकसूक्तयः प्रशस्तयश्च
1. बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम्।

2. केवलोऽपि स्फुरन् बाणः करोति विमदान् कवीन्।
किं पुनः क्लृप्तसन्धानः पुलिन्दकृतसन्निधिः॥ (धनपालः-तिलकमञ्जरी)

3. सुबन्धुर्बाणभट्टश्च कविराज इतित्रयः।
वक्रोक्तिमार्गनिपुणाश्चतुर्थो विद्यते न वा॥ (मङ्खक:-श्रीकण्ठचरितम्)

4. श्लेषे केचन शब्दगुम्फविषये केचिद्रसे चापरेऽ
लड़कारे कतिचित्सदर्थविषये चान्ये कथावर्णने।
आः सर्वत्र गभीरधीरकविताविन्ध्याटवी चातुरी
सञ्चारी कविकुम्भिकुम्भभिदुरां बाणस्तु पञ्चाननः॥ (चन्द्रदेवः-शार्ङ्गधरपद्धतिः)

5. शब्दार्थयोः समो गुम्फः पाञ्चालीरीतिरिष्यते।
शीलाभारिकावाचि बाणोत्तिषु च सा यदि॥ (राजशेखर-कल्हण-सूक्तिमुक्तावली)

6. रुचिरस्वरवर्णपदा रसभावती जगन्मनो हरति।
सा किं तरुणी ? नहि नहि वाणी बाणस्य मधुरशीलस्य॥ (धर्मदासः-विदग्धमुखमण्डनम्)

7. बाणः कवीनामिह चक्रवर्ती चकास्ति यस्योज्ज्वलवर्णशोभम्।
एकातपत्रं भुवि पुण्यभूमिवंशाश्रयं हर्षचरित्रमेव॥ (सोड्ढलः)

8. हृदि लग्नेन बाणेन यन्मन्दोऽपि पदक्रमः।
भवेत्कविकुरगणां चापलं तत्र कारणम्॥ (त्रिलोचनः-शार्ङ्गधरपद्धतिः)

9. यस्याश्चौरश्चिकुरनिकरः कर्णपूरो मयूरो
भासो हासः कविकुलगुरुः कालिदासो विलासः।
हर्षो हर्षो हृदयवसतिः पञ्चबाणस्तु बाणः
केषां नैषा कथय कविताकामिनी कौतुकाय॥(जयदेवः-प्रसन्नराघवः)

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

HBSE 9th Class Sanskrit शुकनासोपदेशः Important Questions and Answers

I. पुस्तकानुसारं समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत
(i) लक्ष्मीमदः कीदृशः ?
(A) उपशमः
(B) अपरिणामः
(C) अपरिणामोपशमः
(D) सुखावहः।
उत्तराणि:
(B) अपरिणामोपशमः

(ii) चन्द्रापीडं कः उपदिशति?
(A) शुकनासः
(B) शुकः
(C) तारापीडः
(D) बृहस्पतिः।
उत्तराणि:
(A) शुकनासः

(iii) कीदृशे मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति।
(A) मलिने
(B) अपगतमले
(C) छलयुक्ते
(D) छलान्विते।
उत्तराणि:
(B) अपंगतमले

(iv) लब्धापि दुःखेन का परिपाल्यते?
(A) लक्ष्मीः
(B) विद्या
(C) गौः
(D) स्त्री।
उत्तराणि:
(A) लक्ष्मी

(v) केषाम् उपदेष्टारः विरलाः सन्ति ?
(A) गुरूणाम्
(B) शठानाम्
(C) राज्ञाम्
(D) अल्पज्ञानाम्।
उत्तराणि:
(C) राज्ञाम्

(vi) लक्ष्म्या परिगृहीताः राजानः कीदृशाः भवन्ति?
(A) प्रसन्नाः
(B) विक्लवाः
(C) सुप्ताः
(D) यशस्विनः।
उत्तराणि:
(B) विक्लवाः।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

II. रेखाकितपदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत
(i) लक्ष्मीः लब्धाऽपि खलु दुःखेन परिपाल्यते।
(A) कथम्
(B) काः
(C) कः
(D) किम्।

(ii) अधीतसर्वशास्त्रस्य नाल्पमपि उपदेष्टव्यम् अस्ति।
(A) कम्
(B) कस्मात्
(C) कस्य
(D) कः।
(B) कस्मै

(iii) अपरिणामोपशमः लक्ष्मीमदः।
(A) कीदृशः
(B) किम्
(C) काः
(D) कस्मैः

(iv) लक्ष्मीः शूरं कण्टकमिव परिहरति।
(A) कः
(C) कस्य
(D) कम्।

(v) राजानः कुप्यन्ति हितवादिने
(A) कस्य
(B) कस्मै
(C) कस्मात्
(D) केषाम्।
उत्तराणि
(A) कथम्
(C) कस्य
(A) कीदृशः
(D) कम्
(B) कस्मै।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

शुकनासोपदेशः पाठ्यांशः
1. एवं समतिक्रामत्सु दिवसेषु राजा चन्द्रापीडस्य यौवराज्याभिषेकं चिकीर्षुः प्रतीहारानुपकरण सम्भारसंग्रहार्थमादिदेश। समुपस्थितयौवराज्याभिषेकं च तं कदाचिद् दर्शनार्थमागतमारूढविनयमपि विनीततरमिच्छन् कर्तुं शुकनासः सविस्तरमुवाच
HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः img-1
“तात! चन्द्रापीड! विदितवेदितव्यस्याधीतसर्वशास्त्रस्य ते नाल्पमप्युपदेष्टव्यमस्ति। केवलं च निसर्गत एवातिगहनं तमो यौवनप्रभवम्। अपरिणामोपशमो दारुणो लक्ष्मीमदः। अप्रबोधा घोरा च राज्यसुखसन्निपातनिद्रा भवति, इत्यतः विस्तरेणाभिधीयसे।”

प्रसंग:-प्रस्तुत पाठ्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘शुकनाशोपदेशः’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट की प्रसिद्ध रचना ‘कादम्बरी’ से सम्पादित है। इस पाठ में राजा तारापीड का अनुभवी मन्त्री राजकुमार चन्द्रापीड को राज्याभिषेक से पूर्व हितैषी भाव से उपदेश देते हैं। वे उसे युवावस्था में रूप, यौवन, प्रभुता तथा ऐश्वर्य से उत्पन्न होने वाले स्वाभाविक दोषों के विषय में सावधान कर देना अपना कर्तव्य समझते हैं।

हिन्दी-अनुवादः
इस प्रकार कुछ दिन बीत जाने पर राजा तारापीड ने राजकुमार चन्द्रापीड को राजतिलक करने की इच्छा से द्वारपालों को आवश्यक सामग्री-समूह के संग्रह करने के लिए आदेश दिया। जिसके राजतिलक समय निकट ही आ चुका था, जो कदाचित् मन्त्री शुकनास का दर्शन करने के लिए आया था-ऐसे उस विनयसम्पन्न (विशेष नीति से युक्त) राजकुमार चन्द्रापीड को और भी अधिक विनयवान् बनाने की इच्छा वाले शुकनास ने विस्तारपूर्वक कहा-हे बेटा, चन्द्रापीड! जो कुछ विषय जानना चाहिए, वह सब तुम जानते हो। तुम वेदादि सब शास्त्रों को पढ़े हुए हो, इसलिए तुम्हें थोड़ी भी उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है। केवल यही कहना है कि जवानी में स्वभाव से ही जो अन्धकार पैदा होता है, वह अन्धकार अत्यन्त घना (घोर) होकर रहता है। धनसम्पत्ति का (नशा) मद ऐसा भयानक होता है कि वह आयु के परिणाम अर्थात् वृद्धावस्था में भी शान्त नहीं होता। राज्यसुख रूपी सन्निपात ज्वर से उत्पन्न निद्रा इतनी गहरी होती है कि प्रबोध (जागरण) ही नहीं हो पाता-इसीलिए तुम्हें विस्तारपूर्वक कहा जा रहा है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
चिकीर्षुः = करने की इच्छावाला, कर्तुमिच्छु:, √कृ + सन् + उ, प्रथमा विभक्ति एकवचन। विनयम् आरुढः = विशिष्ट नय (नीति) से सम्पन्न, विशेष रूप से नीतिमान् । प्रतीहारान् = द्वारपालों को। उपकरणसम्भारसंग्रहार्थम् = आवश्यक सामग्री-समूह के संग्रह के लिए, उपक्रियन्ते एभिः इति उपकरणानि, उपकरणानाम् सम्भारः = उपकरणसम्भारः (षष्ठी-तत्पुरुष) उपकरणसम्भारस्य संग्रहार्थम्। उप + कृ + ल्युट् = उपकरणम्, सम्भारः = सम् + √भृ + घञ्। अधीतसर्वशास्त्रस्य = जिसने सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लिया है। अधीतं सर्वं शास्त्रं येन सः, तस्य (बहुब्रीहि समास)। निसर्गतः= स्वाभाविक रूप से। यौवनप्रभवम् = युवावस्था के कारण उत्पन्न। यौवनेन प्रभवम् (तृतीयातत्पुरुष)। अपरिणामोपशमः = वृद्धावस्था में भी न शान्त होने वाला। परिणामे उपशम: परिणामोपशमः । न परिणामोपशम: अपरिणामोपशमः (नञ् तत्पुरुष)। विदितवेदितव्यस्य = जिसने ज्ञातव्य को जान लिया है। विदितं वेदितव्यं येन असौ विदितवेदितव्यः तस्य (बहुव्रीहि), √विद् + क्त = विदितम्, √विद् + तव्यत् = वेदितव्यम्।

2. गर्भेश्वरत्वमभिनवयौवनत्वम्, अप्रतिमरूपत्वममानुषशक्तित्वञ्चेति महतीयं खल्लवनर्थ-परम्परा। यौवनारम्भे च प्रायः शास्त्रजलप्रक्षालन-निर्मलापि कालुष्यमुपयाति बुद्धिः। नाशयति च पुरुषमत्यासगो विषयेषु। भवादृशा एव भवन्ति भाजनान्युपदेशानाम्। अपगतमले हि मनसि विशन्ति सुखेनोपदेशगुणाः। हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गुरूपदेशः गुरूपदेशश्च नाम अखिलमलप्रक्षालनक्षमम् अजलं स्नानम्। विशेषेण तु राज्ञाम्। विरला हि तेषामुपदेष्टारः। राजवचनमनुगच्छति जनो भयात्। उपदिश्यमानमपि ते न शृण्वन्ति।अवधीरयन्तः खेदयन्ति हितोपदेशदायिनो गुरून्।

हिन्दी-अनुवादः
जन्म से ही अधिकार सम्पन्नता, नया यौवन, अनुपम सौन्दर्य और अमानुषी शक्ति का होना-यह महान् अनर्थ की परम्परा (शंखला) है। युवावस्था के प्रारम्भ में मनुष्य की बुद्धि शास्त्ररूपी जल से धुलने के कारण स्वच्छ होती हुई भी प्रायः दोषपूर्ण हो जाती है। और विषयों में अति आसक्ति मनुष्य का विनाश कर देती है।
आप जैसे व्यक्ति ही उपदेशों के पात्र होते हैं। निर्दोष मन में ही उपदेश के गुण सुखपूर्वक प्रवेश करते हैं। गुरु का उपदेश अत्यन्त मलिन दोषसमूह को भी दूर कर देता है। गुरु का उपदेश सम्पूर्ण मलों को धोने में समर्थ जलरहित स्नान है। (अर्थात् जैसे पानी से स्नान करने पर बाहर के सब मैल धुल जाते हैं, वैसे ही गुरु के उपदेश से सब आन्तरिक दोष दूर हो जाते हैं।) ये उपदेश राजाओं के लिए तो विशेष रूप से लाभकारी होते है; क्योंकि उन्हें उपदेश देने वाले बहुत कम लोग होते हैं। लोग प्राय: भय के कारण राजा के वचनों का ही अनुकरण करते हैं। उपदेश देते हुए (विद्वान्) को भी वे सुनते नहीं हैं। वे हितकारी उपदेश करने वाले गुरुओं का तिरस्कार करते हुए उन्हें खिन्न कर देते हैं।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
गर्भेश्वरत्वम् = जन्म से प्राप्त प्रभुत्व। गर्भतः एव ईश्वरः = गर्भेश्वरः तस्य भावः गर्भेश्वरत्वम्। भवादृशाः = आप जैसे ही, भवत् + दृश् + क्विप्, प्रथमा विभक्ति । शास्त्रजलप्रक्षा-लननिर्मला = शास्त्ररूपी जल द्वारा धोने से निर्मल। शास्त्रमेव जलं शास्त्रजलम्, तेन प्रक्षालनेन निर्मला। अपगतमले = दोषरहित होने पर, अपगतः मलः यस्मात् तत् अपगतमलम् तस्मिन् अपगतमले (पञ्चमी तत्पुरुष)। उपदेष्टारः = उपदेश देने वाले, उप + दिश् + तृच् प्रथमा विभक्ति बहुवचन। अवधीरयन्तः =तिरस्कृत करते हुए, अव + धीर + णिच् + शतृ प्रथमा विभक्ति बहुवचन।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

3. आलोकयतु तावत् कल्याणाभिनिवेशी लक्ष्मीमेव प्रथमम्। न ह्येवं-विधमपरिचितमिह जगति किञ्चिदस्ति यथेयमनार्या। लब्धापि खलु दुःखेन परिपाल्यते। परिपालितापि प्रपलायते। न परिचयं रक्षति । नाभिजनमीक्षते। न रूपमालोकयते। न कुलक्रममनुवर्तते। न शीलं पश्यति। न वैदग्ध्यं गणयति। न श्रुतमाकर्णयति। न धर्ममनुरुध्यते। न त्यागमाद्रियते।न विशेषज्ञतां विचारयति। नाचारं पालयति। न सत्यमवबुध्यते। पश्यत एव नश्यति। सरस्वतीपरिगृहीतं नालिगति जनम्। गणवन्तं न स्पशति। सुजनं न पश्यति। शूरं कण्टकमिव परिहरति। दातारं दुःस्वप्नमिव न स्मरति। विनीतं नोपसर्पति। तृष्णां संवर्धयति। लघिमानमापादयति। एवंविधयापि चानया कथमपि दैववशेन परिगृहीताः विक्लवाः भवन्ति राजानः, सर्वाविनयाधिष्ठानतां च गच्छन्ति।

हिन्दी-अनुवादः
हे चन्द्रापीड ! तुम कल्याण (मंगल) के लिए प्रयत्नशील हो, इसलिए पहले लक्ष्मी को ही विचार कर देखो। इस जैसी अपरिचित इस संसार में अन्य कोई वस्तु नहीं जैसी यह अनार्या लक्ष्मी है। इस लक्ष्मी को प्राप्त कर लेने पर भी, इसका महाकष्ट से पालन (रक्षण) करना पड़ता है और यह लक्ष्मी न परिचय की परवाह करती है, न कुलीन की ओर देखती है, न सौन्दर्य (रूप) को देखती है, न कुल-परम्परा का अनुगमन करती है। न सच्चरित्र को देखती है, न कुशलता (पाण्डित्य) की परवाह करती है। न शास्त्रज्ञान को सुनती है, न धर्म से रोकी जाती है, न त्याग (दान) को आदर देती है। न विशेष ज्ञान का विचार करती है। न सदाचार का पालन करती है। न सत्य को जानती है। यह देखते ही देखते नष्ट हो जाती है। सरस्वती से युक्त (विद्यावान्, विद्वान्) मनुष्य को यह ईर्ष्यावश ही मानो आलिंगन (स्वीकार) नहीं करती है। शौर्य आदि गुणों वाले व्यक्ति का स्पर्श नहीं करती है। सज्जन की ओर यह देखती भी नहीं है। शूरवीर को काँटे के समान छोड़ देती है। दानी का, दुःस्वप्न के समान स्मरण भी नहीं करती है। विनम्र व्यक्ति के पास फटकती भी नहीं है। यह तृष्णा (= लालसा) को बढ़ाती है। मनुष्य को छोटा (तुच्छ) बना देती है। ऐसी दुराचारिणी इस लक्ष्मी द्वारा जैसे-तैसे भाग्य के कारण, पकड़े गए (जकड़े गए) राजा लोग, अत्यन्त व्याकुल बने रहते हैं और सब प्रकार के दुराचारों (दुष्कृत्यों) के निवास स्थान को प्राप्त कर लेते हैं।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्य
कल्याणाभिनिवेशी = मङ्गल के अभिलाषी, कल्याणे अभिनिवेष्टुं शीलं यस्य सः (बहुब्रीहि)। परिपाल्यते = रखी जा सकती है, परि + /पाल् + कर्मणि यक् + लट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन। प्रपलायते = भाग जाती है। वैदग्धयम् = पाण्डित्य को, विदग्धस्य भावो वैदग्ध्यम्, विदग्ध + ष्यञ्। अनुरुध्यते = अनुरोध करती है, अनु + /रुध् + लट्, प्रथम पुरुष एकवचन। अवबुध्यते = जानी जाती है, पहचानी जाती है। नोपसर्पति = समीप नहीं जाती, पार्वे न गच्छति।

संवर्धयति = बढ़ाती है। लघिमानमापादयति = निम्नता प्रदान करती है, लघिमानम् = लघोर्भावः लघिमा (लघु + इमनिच्) तम् आपादयति = आ + Vपद् + णिच् + लट् प्रथम पुरुष एकवचन। विक्लवाः = विह्वल-विकल। सर्वाविनयाधिष्ठानताम् = सभी प्रकार के अविनयों (दुष्कृत्यों, दुष्ट आचरणों) के निवास स्थान को सर्वेषाम् अविनयानाम् अधिष्ठानताम् (षष्ठी-तत्पुरुष)।

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4. अपरे तु स्वार्थनिष्पादनपरैः दोषानपि गुणपक्षमध्यारोपयद्भिः प्रतारणकुशलैधूर्तेः प्रतार्यमाणा वित्तमदमत्तचित्ता सर्वजनोपहास्यतामुपयान्ति। न मानयन्ति मान्यान्, जरावैक्लव्यप्रलपितमिति पश्यन्ति वृद्धोपदेशम्। कुप्यन्ति हितवादिने। सर्वथा तमभिनन्दन्ति, तं संवर्धयन्ति, तस्य वचनं शृण्वन्ति, तं बहु मन्यन्ते योऽहर्निशम् अनवरतं विगतान्यकर्तव्यः स्तौति, यो वा माहात्म्यमुद्भावयति। 

हिन्दी-अनुवादः
कुछ राजा लोग तो स्वार्थ सिद्ध करने में तत्पर, दोषों में गुणों को आरोपित करने वाले, ठग-विद्या में अतिनिपुण, धूर्तबुद्धि लोगों के द्वारा ठगे जाते हुए धन के मद से उन्मत्त चित्त वाले होकर सब लोगों की हँसी के पात्र बनते हैं। वे मानवीय लोगों का सम्मान नहीं करते। वृद्धों के उपदेश को, यह मानकर देखते हैं कि यह तो उनका बुढ़ापे में बड़बड़ाना है। हितकारी वचन बोलने वाले पर क्रोध करते हैं। सभी प्रकार से उसका वे अभिनन्दन करते हैं, उसे ही सहायता करके बढ़ाते हैं; उसका ही वचन (कहना) सुनते हैं, उसी का बहुत आदर करते हैं, जो दिन-रात निरन्तर अन्य सब काम छोड़कर, उनकी प्रशंसा करता है अथवा, जो उनकी महिमा को प्रकट करता है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
अध्यारोपयद्भिः = आरोपित करने वाले। प्रतारणकुशलैः = ठगने में कुशल-निपुण, प्रतारणासु कुशलाः प्रतारणकुशलाः तैः, सप्तमी तत्पुरुष। प्रतार्यमाणाः = ठगे गए, प्र + √तु + कर्मणि यक् + शानच् + प्रथमा विभक्ति एकवचन। जरावैक्लव्यप्रलपितम् = वृद्धावस्था की विकलता से निरर्थक वचन के रूप में, जरसः वैक्लव्यं = जरावैक्लव्यम् (षष्ठी तत्पुरुष) तेन प्रलपितम्। विगतान्यकर्तव्यः = अन्य सब कर्तव्य कर्मों को छोड़कर। विगतम् अन्यकर्तव्यं यस्य सः (बहुव्रीहि)। अहर्निशम् = दिन-रात । उद्भावयति = प्रकट करता है। उद् + √भू + णिच् + लट्, प्रथम पुरुष एकवचन।

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5. तदतिकुटिलचेष्टादारुणे राज्यतन्त्रे, अस्मिन् महामोहकारिणि च यौवने कुमार! तथा प्रयतेथाः यथा नोपहस्यसे जनैः, न निन्द्यसे साधुभिः, न धिक्क्रियसे गुरुभिः, नोपालभ्यसे सुहृद्भिः, न वञ्च्यसे धूर्तेः, न विडम्ब्यसे लक्ष्या, नाक्षिप्यसे विषयैः, नापहयिसे सुखेन।

हिन्दी-अनुवादः
हे राजकमार चन्द्रापीड ! इसीलिए अत्यन्त कुटिल चेष्टाओं से युक्त इस कठोर राज्यतन्त्र में और इस महामूर्छा पैदा करने वाली युवावस्था में तुम वैसा प्रयत्न करना जिससे तुम जनता की हँसी के पात्र न बनो। सज्जन तुम्हारी निन्दा न करें। गुरु लोग तुम्हें धिक्कार न कहें। मित्र लोग तुम्हें उपालम्भ (लाम्भा, उलाहना) न दें। धूर्त तुम्हें ठग न सकें। लक्ष्मी तुम्हारे साथ धोखा न कर सके। विषयों से तुम आक्षिप्त न हो जाओ अर्थात् तुम विषयासक्त न बन सको। सुख तुम्हारा अपहरण न कर ले अर्थात् तुम राजसुख में डूब कर कर्तव्य से विमुख न हो जाओ।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
महामोहकारिणि = अत्यन्त मोह रूप अज्ञान अन्धकार को पैदा करने वाले, ‘यौवने’ पद का विशेषण। प्रयतेथाः = प्रयत्न कीजिए। प्र + √यत् + विधिलिङ् मध्यमपुरुष एकवचन। विडम्ब्यसे = धोखे में न डाले जा सको। उपालभ्यसे = उपालम्भ / उलाहना न दिए जा सको। उप + आ + √लभ् (कर्मवाच्य) + लट्, मध्यमपुरुष, एकवचन। नोपहस्यसे जनैः = लोगों के द्वारा उपहास के पात्र न बनो, उप + √हिस् + यक् + लट्, मध्यम पुरुष एकवचन, यहाँ ‘उपहस्यसे’ क्रिया में कर्मणि यक् प्रत्यय हुआ है। अतः ‘जनाः’ कर्ता के अनुक्त होने से अनुक्त कर्ता ‘कर्तृकर्मणोस्तृतीया’ से तृतीया विभक्ति हो गई है।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

6. इदमेव च पुनः पुनरभिधीयसे-विद्वांसमपि सचेतसमपि, महासत्त्वमपि, अभिजातमपि, धीरमपि, प्रयत्लवन्तमपि पुरुषं दुर्विनीता खलीकरोति लक्ष्मीरित्येता-वदभिधायोपशशाम। चन्द्रापीडस्ताभिरुपदेशवाग्भिः प्रक्षालित इव, उन्मीलित इव, स्वच्छीकृत इव, पवित्रीकृत इव, उद्भासित इव, प्रीतहृदयो स्वभवनमाजगाम।

हिन्दी-अनुवादः
यही उपदेश बार-बार दोहराया (कहा) जाता है कि विद्वान् को भी, ज्ञानवान् को भी, महाबलवान् को भी, कुलीन को भी, धैर्यवान् को भी और पुरुषार्थी मनुष्य को भी यह दुराचारिणी लक्ष्मी दुष्ट बना देती है। इतना कहकर वे (मन्त्री शुकनास) शान्त (चुप) हो गए।

राजकुमार चन्द्रापीड इन उपदेश वचनों के कारण मानो पूर्णतया धुला हुआ-सा, मानो नींद से खुली हुई आँखों वालासा, मानों स्वच्छ किया हुआ-सा, मानो पवित्र किया हुआ-सा, मानो चमकाया हुआ-सा तथा प्रसन्नहृदय होकर अपने भवन की ओर आ गया।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
अभिजातम् = कुलीन को, अभि + √जन् + क्त, द्वितीया विभक्ति, एकवचन। प्रशस्तं जातं यस्य स अभिजातः तम् अभिजातम्, (बहुव्रीहि समास)। अभिधीयसे = हा जा रहा है। अभि + √धा + यक् + लट्, मध्यमपुरुष एकवचन। खलीकरोति = दुष्ट बना देती है। न खलम् अखलम्, अखलं खलं करोति इति, खल + च्चि + √कृ + लट्, प्रथमपुरुष एकवचन। उपशशाम = चुप हो गए, उप + √शम् + लिट्, प्रथमपुरुष एकवचन। प्रक्षालित इव = पूर्णतया धोए हुए। प्र + √क्षाल् + क्त्, प्रथमपुरुष एकवचन। आजगाम = आ गया। आ + / गम् + लिट्, प्रथमपुरुष एकवचन।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 5 शुकनासोपदेशः

शुकनासोपदेशः (शुकनास का उपदेश) Summary in Hindi

शुकनासोपदेशः पाठ परिचय

महाकवि बाणभट्ट संस्कृत के सर्वाधिक प्रतिभाशाली गद्यकार हैं। इन्होंने कान्यकुब्ज (कन्नौज) के राजा हर्षवर्धन के जीवन पर ‘हर्षचरितम्’ लिखा है। हर्षवर्द्धन का राज्यकाल 606 ई० से 648 ई० तक रहा। अतः बाणभट्ट का भी यही समय होना चाहिए। इनकी दो रचनाएँ सुप्रसिद्ध हैं-हर्षचरितम् और कादम्बरी।

‘हर्षचरितम्’ बाणभट्ट की प्रथम गद्य कृति है। स्वयं बाणभट्ट ने इसे आख्यायिका कहा है। ‘हर्षचरितम्’ में एक ऐतिहासिक तथ्य को अलंकृत शैली में बाण ने प्रस्तुत किया है। हर्ष के समकालीन युग की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के अध्ययन के लिए ‘हर्षचरितम्’ से उत्तम अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। कादम्बरी संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट गद्य काव्य है। यह ‘कथा’ श्रेणी का काव्य है। चन्द्रापीड-कादम्बरी तथा पुण्डरीकमहाश्वेता के प्रणय का चित्रण करने वाली कथा ‘कादम्बरी’ के दो भाग हैं। पूर्वार्ध तथा उत्तरार्ध इसका कथानक जटिल होते हुए भी मनोरम है। इसमें कथा का प्रारम्भ राजा शूद्रक के वर्णन से होता है। शूद्रक के यहाँ चाण्डालकन्या वैशम्पायन नामक शुक को लेकर पहुंचती है। शुक सभा में आत्म-वृत्तान्त सुनाता है। इस ग्रन्थ में तीन-तीन जन्मों की घटनाएँ गुम्फित हैं।

कादम्बरी संस्कृत साहित्य का सर्वोत्तम उपन्यास है। यद्यपि इसका कथानक जटिल है। परन्तु इसके वर्णन इतने सजीव हैं कि पाठक को कथाप्रवाह के विच्छेद का आभास ही नहीं हो पाता और वह वह उन वर्णनों में ही आनन्दित होने लगता है। यह काव्य रसिकों को मस्त कर देने वाली मदिरा के समान है। इसका रसास्वादन करने वालों को भोजन भी अच्छा नहीं लगता

‘कादम्बरी रसज्ञानामाहारोऽपि न रोचते’।

शुकनासोपदेशः पाठस्य सारः
महाकवि बाणभट्ट संस्कृत साहित्य के सर्वाधिक समर्थ गद्यकार हैं। कादम्बरी उनका प्रसिद्ध गद्यकाव्य है। ‘शुकनासोपदेशः’ यह पाठ कादम्बरी से ही लिया गया है। इस अंश का नायक राजकुमार चन्द्रापीड है। जो शूरवीर तथा विनयशील है। चन्द्रापीड के पिता तारापीड युवराज चन्द्रापीड का राजतिलक कर देना चाहते हैं। सेवकों को आवश्यक सामग्री इकट्ठी करने का आदेश दे दिया गया है। राजा तारापीड का एक अनुभवी मन्त्री शुकनास है। राजतिलक से पहले युवराज चन्द्रापीड मन्त्री शुकनास का दर्शन करने के लिए जाता है। शुकनास स्नेह भाव से उसे समय के अनुकूल उपदेश करते हैं। उसी उपदेश का संक्षेप प्रस्तुत पाठ में है।

मन्त्री शुकनास चन्द्रापीड को उपदेश करते हुए कहते हैं-“पुत्र चन्द्रापीड ! यद्यपि तुम सभी जानने योग्य बातें जानते हो, तुमने सभी शास्त्रों को पढ़ा है। तुम्हें किसी उपदेश की आवश्यकता नहीं। लेकिन युवा अवस्था में स्वभाव से ही जवानी के कारण अज्ञान बढ़ जाता है। धन का नशा बुढ़ापा आने पर भी शान्त नहीं होता। राज्य सुख ऐसे ज्वर के समान होता है, जिसकी नींद खुलने में नहीं आती। जीवन में चार वस्तुएँ अनर्थ करने वाली होती हैं
(i) जन्म से ही प्रभुता होना
(ii) नया यौवन
(iii) अति सुन्दर रूप
(iv) अमानुषी शक्ति

जवानी में शास्त्र के जल से पवित्र हुई बुद्धि भी दोषपूर्ण हो जाती है। मनुष्य विषयों में फँस जाता है और उसका नाश हो जाता है। तुम्हारे जैसे कुछ विरले लोग होते हैं, जो उपदेश के अधिकारी होते हैं। तुम्हारा मन पवित्र है इसलिए

आसानी से उपदेश ग्रहण कर सकते हो। गुरु के उपदेश में बहुत गुण होते हैं। राजाओं को तो उपदेश की और भी आवश्यकता होती है। परन्तु राजा को उपदेश देने वाले भी विरले होते हैं और गुरु का उपदेश सुनने वाले राजा भी विरले होते हैं। प्रायः राजा लोग गुरु के उपदेश का तिरस्कार ही करते हैं।

अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य को सबसे पहले लक्ष्मी के विषय में विचार करना चाहिए यह लक्ष्मी बड़ी अनर्थकारी होती है। बड़ी कठिनता से धन इकट्ठा होता है और इसकी सँभाल के लिए भी दुःख उठाना पड़ता है। लक्ष्मी चंचल है। यह किसी के पास स्थायी रूप में नहीं ठहरती। यह मनुष्य के परिचय, उच्च कुल, सुन्दर रूप, सदाचार, चतुराई, विद्या, धर्म आदि श्रेष्ठ गुणों की ओर कोई ध्यान नहीं देती। राजा लोग इस लक्ष्मी के कारण ही व्याकुल रहते हैं और सभी प्रकार के दुर्गुणों और दुर्व्यसनों का शिकार हो जाते हैं।

कुछ स्वार्थी लोग ऐसे भी होते हैं जो राजा के दोषों को गुण बताया करते हैं, ऐसे धूर्त लोग धन के नशे में चूर राजा को धोखा दिया करते हैं और ऐसे राजा सारी जनता के उपहास का पात्र बन जाते हैं। ऐसे घमंडी राजा वृद्धों के उपदेशों को बुढ़ापे की बड़बड़ाहट कहते हैं। उन्हें हितचिन्तकों की पहचान नहीं होती, अत: उन पर क्रोध करते हैं। चापलूसों को अपने अंग-संग रखते हैं। हे राजकुमार ! इसीलिए भयंकर मोह को पैदा करने वाली इस युवावस्था में कुटिल राजतन्त्र की बागडोर सँभालकर तुम ऐसा आचरण करना कि लोग तुम्हारी हँसी न उड़ाएँ, सज्जन निन्दा न करें, गुरु तुम्हें धिक्कार न दे, धूर्त लोग तुम्हें ठग न सकें, लक्ष्मी का मद तुम्हें डावाँडोल न कर दे, विषयसुख तुम्हारे जीवन को नरक न बना दें।”

मन्त्री शुकनास के इस उपदेश को सुनकर चन्द्रापीड का चित्त धुल-सा गया था। उसकी आँखें ज्ञान के प्रकाश से खुल गई थी। उसका हृदय पवित्रता के प्रकाश से भर गया था। इस सारगर्भित उपदेश को पाकर चन्द्रापीड अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होकर राजभवन की ओर लौट गया। शुकनास का यह उपदेश जवानी की दहलीज़ पर पाँव रखने वाले हर नवयुवक के लिए ग्रहण करने योग्य है।

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HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

Haryana State Board HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions and Answers.

Haryana Board 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 96)

प्रश्न 1.
दी गई संख्याओं के बीच की पूर्ण वर्ग संख्याएँ ज्ञात कीजिए-
(i) 30 और 40
(ii) 50 और 60
हल:
5 × 5 = 25, 6 × 6 = 36, 7 × 7 = 49 और 8 × 8 = 64
∴ 30 और 40 के बीच की पूर्ण संख्या 36 है।

(ii) 50 और 60 के बीच की पूर्ण वर्ग संख्या नहीं है।

पृष्ठ 97

प्रश्न 1.
क्या हम कह सकते हैं कि निम्न संख्याएँ पूर्ण वर्ग संख्याएँ हैं? हम कैसे जानते हैं?
(i) 1057
(ii) 23453
(iii) 7928
(iv) 222222
(v) 1069
(vi) 2061
पाँच ऐसी संख्याएँ लिखिए जिनके इकाई स्थान को देखकर आप बता सकें कि ये संख्याएँ वर्ग संख्याएँ नहीं हैं।

(i) 1057 – चूँकि इकाई स्थान का अंक 0, 1, 4, 5, 6 या 9 नहीं है। अतः यह पूर्ण वर्ग संख्या नहीं है।

(ii) 23453 – चूँकिे इकाई स्थान पर 0, 1, 4, 5, 6 या 9 नहीं है। अतः यह पूर्ण वर्ग संख्या नहीं है।

(iii) 7928 – चूँकि इकाई स्थान पर 0, 1, 4, 5, 6 या 9 नहीं है। अतः यह पूर्ण वर्ग संख्या नहीं हो सकती है।

(iv) 222222 – चूँकि इकाई के स्थान पर 0, 1, 4, 5, 6 या 9 नहीं है। अतः यह पूर्ण वर्ग संख्या नहीं हो सकती है।

(v) 1069 – चूँकि इकाई स्थान पर 9 है। अतः यह पूर्ण वर्ग संख्या हो सकती है और नहीं भी हो सकती है।
अब
322 = 32 × 32 = 1024
और 332 = 33 × 33 = 1089
अतः 1069 एक पूर्ण वर्ग संख्या नहीं है।

(vi) 2061 – इकाई के स्थान पर 1 है। अतः यह संख्या पूर्ण वर्ग संख्या भी हो सकती है और नहीं भी हो सकती है।
लेकिन 452 = 45 × 45 = 2025
और 462 = 46 × 46 = 2116
अतः 2061 एक पूर्ण वर्ग संख्या नहीं है।

पाँच संख्याएँ जिनके इकाई स्थान को देखकर हम पता कर सकते हैं कि ये वर्ग संख्याएँ नहीं हैं, वे हैं 22, 33, 47, 58 और 68.

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

प्रश्न 2.
पाँच ऐसी संख्याएँ लिखिए जिनके इकाई स्थान को देखकर आप नहीं बता सकते कि वे वर्ग संख्याएँ हैं या नहीं?
हल:
ऐसी पाँच संख्याएँ जिनके इकाई स्थान को देखकर हम नहीं बता सकते कि ये वर्ग संख्याएँ हैं या नहीं, वे हैं-
1000, 1001, 2004, 30015, 74566

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 97)

प्रश्न 1.
1232,772,822, 1612, 1092 में से कौनसी संख्या अंक 1 पर समाप्त होगी?
हल:
यदि संख्या के इकाई संख्याएँ का अंक 1 और 9 है, तो इनके वर्ग 1 पर समाप्त होते हैं। अतः संख्याएँ 1612 और 1092 के अंक एक पर समाप्त होंगे।

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 98)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौनसी संख्याओं के इकाई स्थान पर 6 अंक होगा
(i) 192
(ii) 242
(iii) 262
(iv) 362
(v) 342
हल:
जिस संख्या का इकाई अंक 4 या 6 होता है, उस संख्या के वर्ग इकाई स्थान पर 6 अंक होता है।
अतः 24, 26, 36, तथा 34 के इकाई स्थान पर 6 आएगा।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 98)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित संख्याओं के वर्ग करने पर उनके इकाई स्थान पर क्या होगा?
(i) 1234
(ii) 26387
(iii) 52698
(iv) 99880
(v) 21222
(vi) 9106
हल:

क्र.सं.संख्यावर्ग करने पर उनके इकाई स्थान परसंकेत
(i)123464 × 4 = 16
(ii)2638797 × 7 = 49
(iii)5269848 × 8 = 64
(iv)9988000 × 0 = 0
(v)2122242 × 2 = 4
(vi)910666 × 6 = 36

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 98)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से किन संख्याओं के वर्ग विषम संख्या/सम संख्या होंगे? क्यों?
(i) 727
(ii) 158
(iii) 269
(iv) 1980
हल:
(i) 727 एक विषम संख्या है, इसलिए इसका वर्ग भी विषम संख्या होगी।
(ii) 158 एक सम संख्या है। इसलिए इसका वर्ग भी सम संख्या होगी।
(iii) 269 एक विषम संख्या है। इसलिए इसका वर्ग भी विषम संख्या होगी।
(iv) 1980 एक सम संख्या है। इसलिए इसका वर्ग भी सम संख्या होगी।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित संख्याओं के वर्ग में शून्यों की संख्या क्या होगी?
(i) 60
(ii) 400
हल:
(i) 60 दो शून्य
(ii) 400 चार शून्य

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 100)

प्रश्न 1.
92 और 102 के बीच कितनी प्राकृत संख्याएँ हैं?
112 और 122 के बीच भी प्राकृत संख्याओं की संख्या बताइए।
हल:
92 और 102 के बीच प्राकृत संख्याएँ 2n होंगी, जबकि n = 9 होगा।
अतः 2 × 9 = 18 प्राकृत संख्याएँ हैं।

इसी प्रकार 112 और 122 के बीच 2 × 11 = 22 प्राकृत संख्याएँ हैं।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित संख्याओं के यग्मों के बीच की संख्या बताइए जो वर्ग संख्याएँ नहीं हैं।
(i) 1002 और 1012
(ii) 902 और 912
(iii) 10002 और 10012
हल:
(i) 1002 और 1012 के बीच 2n = 2 × 100 = 200 संख्याएँ हैं, जो वर्ग संख्याएँ नहीं हैं।

(ii) 902 और 912के बीच 2n = 2 × 90 = 180 संख्याएँ हैं, जो वर्ग संख्याएँ नहीं हैं।

(iii) 10002 और 10012 के बीच 2n = 2 × 1000 = 2000 संख्याएँ हैं, जो वर्ग संख्याएँ नहीं हैं।

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 101)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित संख्याओं में प्रत्येक पूर्ण वर्ग संख्याएँ हैं अथवा नहीं?
(i) 121
(ii) 55
(iii) 81
(iv) 49
(v) 69
हल:
(i) 121
पहली n विषम प्राकृत संख्याओं का योग n2 होता है, चूंकि उक्त संख्याओं में से 1,3,5,7,9,……… को क्रम से घटाते हैं।
121 – 1 = 120, 120 – 3 = 117, 117 – 5 = 112, 112 – 7 = 105, 105 – 93 = 96, 96 – 11 = 85, 85 – 13 = 72, 72 – 15 = 57, 57 – 17 = 40, 40 –19 = 21, 21 – 21 = 0
अर्थात् यहाँ 121 = 1 + 3 + 5 + 7 + 9 + 11 + 13 + 15 + 17 + 19 + 21
अतः 121 एक पूर्ण वर्ग संख्या है।

(ii) 55
55 – 1 = 54, 54 – 3 = 51, 51 – 5 = 46, 46 – 7 = 39, 39 – 9 = 30, 30 – 11 = 19, 19 – 13 = 6, 6 – 6, 6 – 15 = -9
∵ 55 से 1 प्रारम्भ होने वाली विषम संख्याओं का योग नहीं है।
∴ 55 एक पूर्ण वर्ग संख्या नहीं है।।

(iii) 81
81 – 1 = 80, 80 – 3 = 77, 77 – 5 = 72, 72 – 7 = 65, 65 – 9 = 56, 56 – 11 = 45, 45 – 13 = 32, 32 – 15 = 17, 17 – 17 = 0
अर्थात् यहाँ 81 = 1+ 3 +5 +7+9+ 11+ 13 + 15 + 17
∴ 81 एक पूर्ण वर्ग संख्या है।

(iv) 49
49 – 1 = 48, 48 – 3 = 45, 45 – 5 = 40, 40 – 7 = 33, 33 – 9 = 24, 24 – 11 = 13, 13 – 13 = 0
अर्थात् यहाँ 49 = 1 + 3 + 5 + 7 + 9 + 11 + 13
∴ 49 एक पूर्ण वर्ग संख्या है।

(v) 69
69 – 1 = 68, 68 – 3 = 65, 65 – 5 = 60, 60 – 7 = 53, 53 – 9 = 44, 44 – 11 = 33, 33 – 13 = 20, 20 – 17 = 3, 3 – 1
∵ 69 से 1 प्रारम्भ होने वाली विषम संख्याओं का योग नहीं है।
∴ 69 एक पूर्ण वर्ग संख्या नहीं है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 101)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित संख्याओं को दो क्रमागत पूर्णांकों के योग के रूप में लिखिए
(i) 212
(ii) 132
(iii) 112
(iv) 192
हल:
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions 1

प्रश्न 2.
क्या आप सोचते हैं कि इसका विलोम सत्य है अर्थात् क्या दो क्रमागत धनात्मक पूर्णांकों का योग एक पूर्ण वर्ग होता है? अपने उत्तर के पक्ष में एक उदाहरण दीजिए।
हल:
दो क्रमागत धनात्मक पूर्णांकों का योग सदैव एक पूर्ण वर्ग नहीं होता है।
उदाहरण: 10 + 11 = 21
यहाँ 10 + 11 क्रमागत धनात्मक पूर्णांक हैं, परन्तु इनका योग पूर्ण वर्ग संख्याएँ नहीं है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 102)

प्रश्न 1.
निम्न प्रतिरूप का उपयोग करते हुए नीचे दी गई संख्याओं की वर्ग संख्याएँ लिखिए
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions 2
(i) 1111112
(ii) 11111112
हल:
(i) 1111112 = 1 2 3 4 5 6 5 4 3 2 1
(ii) 11111112 = 1 2 3 4 5 6 7 6 5 4 3 2 1

प्रश्न 2.
दिए गए प्रतिरूप का उपयोग करते हुए क्या आप निम्नलिखित संख्याओं का वर्ग ज्ञात कर सकते हैं?
(i) 66666672
(ii) 666666672
प्रतिरूप-
72 = 49
672 = 4489
6672 = 444889
66672 = 44448889
666672 = 4444488889
6666672 = 444444888889
हल:
(i) 66666672 = 44444448888889
(ii) 666666672 = 4444444488888889

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 104)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित संख्याओं के वर्ग ज्ञात कीजिए जिनके इकाई अंक 5 हैं
(i) 15
(ii) 95
(iii) 105
(iv) 205
हल:
(i) 152 = (1 × 2) सौकाई + 25
= 200 + 25 = 225

(ii) 95
952 = (9 × 10) सौकाई + 25
= 9000 + 25 = 9025

(iii) 105
1052 = (10 × 11) सौकाई + 25.
= 11000 + 25 = 11025

(iv) 205
2052 = (20 × 21) सौकाई + 25
= 42000 + 25 = 42025

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 106)

प्रश्न 1.
(i) 112 = 121, 121 का वर्गमल क्या है?
(ii) 142 = 196, 196 का वर्गमूल क्या है?
हल:
(i) 121 का वर्गमूल 11 है।
(ii) 196 का वर्गमूल 14 है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

(सोचिए, चर्चा कीजिए और लिखिए – पृष्ठ 106)

प्रश्न 1.
(-1)2 = 1. क्या 1 का वर्गमूल है -1?
हल:
1 का वर्गमूल -1 तथा 1 होते है।
अत: 1 का वर्गमूल -1 भी होगा।

प्रश्न 2.
(-2)2 = 4, क्या 4 का वर्गमूल है -2?
हल:
4 का वर्गमूल -2 भी है।

प्रश्न 3.
(-9)2 = 81. क्या 81 का वर्गमूल है – 9?
हल:
81 का वर्गमूल -9 भी है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 107)

प्रश्न 1.
से प्रारम्भ होने वाली विषम संख्याओं को बारबार घटाने पर प्राप्त निम्नलिखित संख्याएँ पूर्ण वर्ग हैं या नहीं? यदि यह संख्या पूर्ण वर्ग है तो इसके वर्गमूल ज्ञात कीजिए।
(i) 121
(ii) 55
(iii) 36
(iv) 49
(v) 90
हल:
(i) पूर्ण वर्ग की जाँच करने के लिए 121 में से हम क्रमशः 1 से प्रारम्भ होने वाली विषम संख्याओं को घटाने पर,
121 – 1 = 120
120 – 3 = 117
117 – 5 = 112
112 – 7 = 105
105 – 9 = 96
95 – 11 = 85
85 – 13 = 72
72 – 15 = 57
57 – 17 = 40
40 – 19 = 21
21 – 21 = 0
संख्या 1 से क्रमागत विषम संख्याओं को 121 में से 11 वाँ पद घटाने पर 0 प्राप्त होता है। अत: \(\sqrt{121}\) = 11.

(ii) पूर्ण वर्ग की जाँच करने के लिए 55 में से हम क्रमशः 1 से प्रारम्भ होने वाली विषम संख्याओं को घटाने पर,
55 – 1 = 54
54 – 3 = 51
51 – 5 = 46
46 – 7 = 39
39 – 9 = 30
30 – 11 = 19
19 – 13 = 6,
6 – 15 = -9
∵ 55 को संख्या 1 से क्रमागत विषम संख्याओं से पूर्णत: नहीं हटाया जा सकता है।
∴ 55 एक पूर्ण वर्ग नहीं है।।

(iii) पूर्ण वर्ग की जाँच करने के लिए 36 में से हम क्रमशः 1 से प्रारम्भ होने वाली विषम संख्याओं को घटाएँगे,
36 – 1 = 35
35 – 3 = 32
32 – 5 = 27
27 – 7 = 20
20 – 9 = 11
11 – 11 = 0
अत: 36 पूर्ण वर्ग है और \(\sqrt{36}\) = 6.

(iv) पूर्ण वर्ग की जाँच करने के लिए 49 में से हम क्रमशः 1 से प्रारम्भ होने वाली विषम संख्याओं को घटाएँगे,
49 – 1 = 48
48 – 3 = 45
45 – 5 = 40
40 – 7 = 33
33 – 9 = 24
24 – 11 = 13
13 – 13 = 0
अत: 36 पूर्ण वर्ग है और \(\sqrt{49}\) = 7.

(v) पूर्ण वर्ग की जाँच करने के लिए 90 में से हम क्रमशः 1 से प्रारम्भ होने वाली विषम संख्याओं को घटाएँगे,
90 – 1 = 89
89 – 3 = 86
86 – 5 = 81
81 – 7 = 74
74 – 9 = 65
65 – 11 = 54
54 – 13 = 41
41 – 15 = 26
26 – 17 = 9
9 – 19 = -10
∴ 90 एक पूर्ण वर्ग नहीं है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

(सोचिए, चर्चा कीजिए और लिखिए – पृष्ठ 111)

प्रश्न 1.
क्या हम कह सकते हैं कि एक पूर्ण वर्ग संख्या में यदि n अंक है तो उसके वर्गमूल में \(\frac{n}{2}\), अंक होंगे। यदि n सम है या \(\frac{(n + 1)}{2}\) होंगे यदि n विषम है?
हल:
हाँ, हम कह सकते हैं कि यदि एक पूर्ण वर्ग संख्या में n अंक है, तो इसके वर्गमूल में यदि n अंक है, तो उसके वर्गमूल में
(i) \(\frac{n}{2}\) अंक होंगे, यदि n सम है तथा
(ii) \(\frac{(n + 1)}{2}\) अंक होंगे, यदि n विषम है।
उदाहरण-
(i) सम संख्या \(\sqrt{16}\) = 4, \(\sqrt{2500}\) = 50 आदि
(ii) सम संख्या \(\sqrt{9}\) = 3, \(\sqrt{100}\) = 10 आदि

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 112)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित संख्याओं के वर्गमूल में अंकों की संख्या को गणना के बिना ज्ञात कीजिए
(i) 25600
(ii) 100000000
(iii) 36864
हल:
(i) ∵ 25600 में 5 अंक हैं, अतः \(\sqrt{25600}\) में = \(\frac{(n+1)}{2}\) = \(\frac{(5+1)}{2}\) = 3 अंक होंगे।

(ii) ∵ 100000000 में 9 अंक हैं, अतः \(\sqrt{100000000}\) में = \(\frac{(n+1)}{2}\) = \(\frac{(9+1)}{2}\) = 5 अंक होंगे।

(iii) ∵ 36864 में 5 अंक हैं, अतः \(\sqrt{36864}\) में = \(\frac{(5+1)}{2}\) = 3 अंक होंगे।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 6 वर्ग और वर्गमूल Intext Questions

(प्रयास कीजिए – पृष्ठ 115)

प्रश्न 1.
निम्नलिखित संख्याओं के निकटतम पूर्ण संख्याओं का अनुमान लगाइए
(i) \(\sqrt {80}\)
(ii) \(\sqrt {1000}\)
(iii) \(\sqrt {350}\)
(iv) \(\sqrt {500}\)
हल:
(i) ∵ \(\sqrt {64}\) < \(\sqrt {80}\) < \(\sqrt {81}\)
⇒ 8 < \(\sqrt {80}\) < 9
∵ 81, 64 की अपेक्षा 80 के अधिक नजदीक है।
\(\sqrt {80}\) की निकटतम पूर्ण संख्या 9 है।

(ii) \(\sqrt {1000}\)
∵ \(\sqrt {961}\) < \(\sqrt {1000}\) < \(\sqrt {1024}\)
⇒ 31 < \(\sqrt {1000}\) < 32
∵ 1024, 961 की अपेक्षा 1000 के अधिक नजदीक है।
∴ \(\sqrt {1000}\) की निकटतम पूर्ण संख्या 32 है।

(iii) \(\sqrt {350}\)
∵ \(\sqrt {961}\) < \(\sqrt {350}\) < \(\sqrt {1024}\)
⇒ 18 < \(\sqrt {350}\) < 19
∵ 361, 324 की अपेक्षा 350 के अधिक नजदीक है।
∴ \(\sqrt {350}\) की निकटतम पूर्ण संख्या 19 है।

(iv) \(\sqrt {500}\)
∵ \(\sqrt {484}\) < \(\sqrt {500}\) < \(\sqrt {529}\)
⇒ 22 < \(\sqrt {500}\) < 23
∵ 484, 529 की अपेक्षा 500 के अधिक नजदीक है।
∴ \(\sqrt {500}\) की निकटतम पूर्ण संख्या 22 है।

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HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम् Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

HBSE 12th Class Sanskrit कर्मगौरवम् Textbook Questions and Answers

1. संस्कृतभाषया उत्तरत
(क) अयं पाठः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलित: ?
(ख) अकर्मणः किं ज्यायः ?
(ग) जनकादयः केन सिद्धिम् आस्थिताः ?
(घ) लोकः कम् अनुवर्तते ?
(ङ) बुद्धियुक्तः अस्मिन् संसारे के जहाति ?
(च) केषाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्यं न प्राप्नोति ?
उत्तरम्:
(क) भगवद्गीता’ ग्रन्थात् सङ्कलितः।
(ख) अकर्मणः कर्म ज्यायः।
(ग) जनकादयः कर्मणा एव सिद्धिम् आस्थिताः ।
(घ) यद् यद् आचरति श्रेष्ठ: लोकः तत् अनुवर्तते।
(ङ) बुद्धियुक्तः अस्मिन् संसारे सुकृतदुष्कृते जहाति।
(च) कर्मणाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्यं न प्राप्नोति।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

2. नियतं कुरु कर्म त्वं …. प्रसिद्ध्येदकर्मणः अस्य श्लोकस्य आशयं हिन्दीभाषया स्पष्टीकुरुत।
उत्तरम्:
द्वितीय श्लोक के सरलार्थ एवं भावार्थ का उपयोग करें।

3. ‘यद्यदाचरति ……. लोकस्तदनुवर्तते’ अस्य श्लोकस्य अन्वयं लिखत।
उत्तरम्:
सप्तम श्लोक का अन्वय देखें।

4. अधोलिखितानां शब्दानां विलोमान् पाठात् चित्वा लिखतयथा
वशः – अवशः
उत्तरसहितम्
(क) बुद्धिहीनः – बुद्धियुक्तः
(ख) दुष्कृतम् – सुकृतम्
(ग) अकौशलम् – कौशलम्
(घ) न्यूनः – ज्यायः
(ङ) कर्मणः – अकर्मणः
(च) दुर्गुणैः — गुणैः
(छ) कदाचित् – सततम्
(ज) निकृष्टः – श्रेष्ठः

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

5. अधोलिखितेषु पदेषु सन्धिच्छेदं कुरुत
जहातीह, ह्यकर्मणः, शरीरयात्रापि, पुरुषोऽश्नुते, तिष्ठत्यकर्मकृत्, प्रकृतिजैर्गुणैः, कर्मणैव, लोकस्तदनुवर्तते, जनयेदज्ञानाम्
(क) जहातीह = जहाति + इह
(ख) ह्यकर्मणः = हि + अकर्मणः
(ग) शरीरयात्रापि = शरीरयात्रा + अपि
(घ) पुरुषोऽश्नुते = पुरुषः + अश्नुते
(ङ) तिष्ठत्यकर्मकृत् = तिष्ठति + अकर्मकृत्
(च) प्रकृतिजैर्गुणैः = प्रकृतिजैः + गुणैः
(छ) कर्मणैव = कर्मणा + एव
(ज) लोकस्तदनुवर्तते = लोकः + तत् + अनुवर्तते
(झ) जनयेदज्ञानाम् = जनयेत् + अज्ञानाम्

6. अधोलिखितक्रियापदानां लकारपुरुषवचननिर्देशं कुरुत
जहाति, युज्यस्व, कुरु, अश्नुते, समधिगच्छति, तिष्ठति, आप्नोति, अनुवर्तते, जनयेत्, जोषयेत्। उत्तरम्
(i) जहाति – (√हा) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।
(ii) युज्यस्व – (√युज्) लोट्लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन।
(iii) कुरु – (√कृ) लोट्लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन।
(iv) अश्नुते – (√अश्) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।
(v) समधिगच्छति (सम् + अधि√गम्) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।
(vi) तिष्ठति – (√स्था) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।
(vii) आप्नोति – (√आप) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।
(viii) अनुवर्तते – (अनु √वृत्) लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।
(ix) जनयेत् – (√जन्) विधिलिङ्, प्रथम पुरुष, एकवचन।
(x) जोषयेत् । – (√जुष्) विधिलिङ् , प्रथम पुरुष, एकवचन।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

7. अधोलिखतवाक्येषु रेखाङ्कितपदानां विभक्तीनां निर्देशं कुरुत
(क) योगः कर्मसु कौशलम्।
(ख) जीवने नियतं कर्म कुरु।
(ग) कर्मणा एव जनकादयः संसिद्धिम् आस्थिताः ।
(घ) अकर्मणः कर्म ज्यायः ।
(ङ) कर्मणाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्यं न अश्नुते ।
उत्तरम्:
(क) कर्मसु – कर्मन्, षष्ठी-विभक्तिः , एकवचनम्।
(ख) कर्म – कर्मन्, द्वितीया-विभक्तिः, एकवचनम्।
(ग) कर्मणा – कर्मन्, तृतीया-विभक्तिः , एकवचनम्।
(घ) अकर्मणः – अकर्मन्, पञ्चमी-विभक्तिः , एकवचनम्।
(ङ) कर्मणाम् – कर्मन्, षष्ठी-विभक्तिः, एकवचनम्।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

8. प्रदत्तमञ्जूषायाः समुचितपदानां चयनं कृत्वा अधोदत्तशब्दानां प्रत्येकपदस्य त्रीणि समानार्थकपदानि लिखन्तु
अनारतम्, मनीषा, गात्रम्, दुष्कर्म, प्राज्ञः, कलुषम्, शेमुषी, अविरतम्, कोविदः, कायः, मतिः, पातकम् , देहः, मनीषी, अश्रान्तम्।
उत्तरसहितम्

(क) विद्वान्प्राज्ञ:कोविद:मनीषी
(ख) शरीरम्गात्रम्काय:देह:
(ग) बुद्धि:मनीषाशेमुषीमति:
(घ) सततम्अनारतम्अविरतम्अश्रान्तम्
(ङ) दुष्कृतम्दुष्कर्मकलुषम्पातकम्

9. कर्म आश्रित्य संस्कभाषायां पञ्च वाक्यानि लिखत
उत्तरम्
(i) अकर्मणः कर्म ज्यायः भवति।
(ii) अकर्मणः शरीरयात्रा अपि न सम्भवति।
(iii) अतः असक्तः सततं कर्तव्यं कर्म समाचरेत।
(iv) जनकादयः कर्मणा एव संसिद्धिम् आस्थिताः।
(v) योगः कर्मसु कौशलम्।

10. पाठे प्रयुक्तस्य छन्दसः नाम लिखत
उत्तरम्
‘अनुष्टुप्’ छन्दः।

11. जनः कीदृशैः गुणैः कार्यं करोति ? अधोलिखितं श्लोकमाधृत्य लिखत
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
उत्तरम्
जनः प्रकृतिजैः गुणैः कार्यं करोति। अतः कश्चित् अपि क्षणमपि अकर्मकृत् न तिष्ठति।

योग्यताविस्तारः

अधोलिखितानां सूक्तीनामध्ययनं कृत्वा प्रस्तुतपाठेन भावसाम्यम् अवधत्त
(1) गच्छन् पिपीलको याति योजनानां शतान्यपि।
अगच्छन्वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति॥

(2) उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रवशन्ति मुखे मृगाः॥ पज्चतन्त्रम् / मित्रसम्प्राप्ति: – 129

(3) कर्मणा जायते सर्वं, कर्मैव गतिसाधनम्।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन, साध कर्म समाचरेत्॥ विष्णुपुराण:- 1/18/32

(4) चरन्वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदम्बरम्।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन्॥ ऐतरेयब्राहमणम् – 33.3.5

(5) जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।।
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च॥ चाणक्यनीति: – 12/22

(6) दुष्कराण्यपि कार्याणि, सिध्यन्ति प्रोद्यमेन वै।
शिलापि तनुतां याति, प्रपातेनार्णसो मुहुः॥ बुद्धचरितम् – 26/63

(7) कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति, न कर्म लिप्यते नरे॥ यजुर्वेद: 40 / 27

अधोनिर्मिततालिकां दृष्ट्वा समस्तपदैः सह विग्रहान् मेलयत
HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम् img-2
विग्रहा: – उत्तरम्
(1) बुद्ध्या युक्त: (तृतीया तत्पुरुष) – बुद्धियुक्तः
(2) न वशः (नज्ञ् तत्पुरुष समास) – अवशः
(3) बुद्धै: भेदम् (षष्ठी तत्पुरुष समास) – बुद्धिभेदम्
(4) सर्वाणि कर्माणि (कर्मधारय समास) – सर्वकर्माणि
(5) कर्मणि रतः (सप्तमी तत्पुरुष समास) – कर्मरतः
(6) (अ) न कर्मण: (नज् तत्पुरुष) – अकर्मण:
(ब) न आरम्भात् (नज् तत्पुरुष) – अनारमभात्
(7) कर्मफलस्य हेतु: (षष्ठी तत्पुरुष समास) – कर्मफलहेतु:
(8) शरीरस्य यात्रा (षष्ठी तत्पुरुष समास) – शरीरयात्रा
(9) लोकाय संग्रहम् (चतुर्थी तत्पुरुष समास) – लोकसंग्रहम्
(10) (अ) न सक्तः (नञ् तत्पुरुष) – असक्तः
(ब) न ज्ञानानाम् (नञ् तत्पुरुष) – अज्ञानानाम्
(11) न चरन् (नञ् तत्पुरुष) – अचरन्
(12) कर्मसु सङ्गिनाम् (सप्तमी तत्पुरुष) – कर्मसङ्गिनाम्
(13) सुकृतं दृष्कृतं च (द्वन्द्व समास) – सुकृतदुष्कृते।

अधोलिखितादर्शवाक्यानि सम्बद्धसंस्थाभिः योजयत
आदर्शवाक्यम् – संस्था
(क) सत्यमेव जयते – राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्
(ख) विद्ययाऽमृतमश्नुते – भारतसर्वकारः
(ग) असतो मा सद्गमय – कतिपयविद्यालयेषु
(घ) सा विद्या या विमुक्तये – केन्द्रीयमाध्यमिक शिक्षा परिषद्
(ङ) योगः कर्मसु कौशलम् – राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद्
(च) गुरुः गुरुतमो धामः – भारतीय प्रशासनिक सेवा अकादमी, मसूरी
(छ) तत्त्वं पूषन्नपावृणु – डाकतारविभागः
(ज) अहर्निशं सेवामहे – केन्द्रीय विद्यालय संगठन
(झ) श्रम एव जयते – भारतस्य सर्वोच्च न्यायालयः
(ञ) यतो धर्मस्ततो जयः

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श्रममन्त्रालयः

श्रीमद्भगवद्गीता श्रीमद्भगवद्गीता महाभारतस्य भीष्मपर्वणि विद्यते । अत्र सप्तशतश्लोकाः अष्टादशाध्यायेषु उपनिबद्धाः सन्ति। युद्धभूमौ विषादग्रस्तार्जुनाय निष्कामकर्मणः उपदेशं प्रयच्छता भगवता श्रीकृष्णेन अत्र ज्ञान-भक्ति-कर्मणां समन्वयः प्रस्तुतः। ।

पूर्ववर्तिनो अनेके मनीषिण: जीवने उदात्तगुणानां विकासार्थं गीताशास्त्रेण प्रेरणां प्राप्तवन्तः । तेषु विद्वत्सु लोकमान्यतिलक: महर्षि अरविन्दः, महात्मागान्धी, विनोबाभावे इत्यादयः प्रमुखाः सन्ति। एतैः विद्धद्भिः गीताशास्त्रस्य स्वभावाभिव्यक्तिस्वरूपाः व्याख्या: विलिखिताः। गीताशास्त्रस्य ज्ञान-भक्ति-कर्मयोगान् स्वजीवने अवतारयन्तः उन्नतादर्शान् उदात्तजीवनमूल्यान् एते मनीषिणः चरितार्थयन्ति स्म।

श्रीमद्भगवद्गीतायाः केचन अन्येऽपि श्लोका उद्धरणीयाः। तद्यथा
अनाश्रित्य कर्मफलं कार्यं कर्म करोतिः यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥ 6.1
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ 2.38
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥ 4.22
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।। 6.29
अनेकैः कविभिः गीतायाः महत्त्वं प्रतिपादितम्। तन्महत्त्वं यत्र-तत्र अध्येतव्यम्। उदाहरणार्थम्
मलनिर्मोचनं पुंसां जलस्नानं दिने दिने।
सकृद्गीताम्भसि स्नानं संसारमलनाशनम्॥
अधोलिखितानां पदानामाशयोऽन्वेष्टव्यः
लोकसंग्रहम्, नैष्कर्म्यम्, प्रकृतिजः, सन्न्यसनम्

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

HBSE 9th Class Sanskrit कर्मगौरवम् Important Questions and Answers

I. समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत
(i) अकर्मणः किं ज्यायः
(A) कर्म
(B) विकर्म
(C) सत्कर्म
(D) कुकर्म।
उत्तराणि
(A) कर्म

(ii) जनकादयः केन सिद्धिम् आस्थिताः?
(A) अकर्मणा
(B) विकर्मणा
(C) कर्मणा
(D) सत्कर्मणा।
उत्तराणि
(C) कर्मणा

(iii) बुद्धियुक्तः अस्मिन् संसारे के जहाति?
(A) सुकृते
(B) दुष्कृते
(C) अकर्मणी
(D) सुकृतदुष्कृते।
उत्तराणि
(D) सुकृतदुष्कृते

(iv) केषाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्यं न प्राप्नोति?
(A) निष्कर्मताम्
(B) कर्मणाम
(C) निष्कर्मणाम्
(D) स्वार्थकर्मणाम्।
उत्तराणि
(B) कर्मणाम्

(v) कैः गुणैः सर्वः अवशः कर्म कार्यते?
(A) प्रकृतिजैः
(B) पूर्वसञ्चितैः
(C) प्रारब्धैः
(D) सुसंस्कारैः।
उत्तराणि
(A) प्रकृतिजैः

II. रेखाकितपदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत
(i) अस्माकम् कर्मणि अधिकारः वर्तते।
(A) केषाम्
(B) कस्य
(C) कस्मिन्
(D) कस्याः ।
उत्तराणि:
(C) कस्मिन

(ii) अकर्मणः कर्म ज्यायः।
(A) केषाम्
(B) कस्मात्
(C) कुत्र
(D) केन।
उत्तराणि:
(B) कस्मात्

(iii) जनकादयः कर्मणा एव सिद्धिम् आस्थिताः।
(A) केन
(B) कस्मात्
(C) कस्यै
(D) कस्मै।
उत्तराणि:
(A) केन

(iv) योगः कर्मसु कौशलम्।
(A) कः
(B) किम्
(C) केषु
(D) कम्।
उत्तराणि:
(C) केषु

(v) जीवने नियतं कर्म कुरु।
(A) कीदृशम्
(B) किम्
(C) कुत्र
(D) कुतः।
उत्तराणि:
(A) कीदृशम्।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

कर्मगौरवम् पाठ्यांशः
1. बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥1॥

अन्वयः – बुद्धियुक्तः सुकृतदुष्कृते उभे इह जहाति, तस्मात् योगाय युज्यस्व, कर्मसु कौशलं योगः।

सरलार्थ: – हे अर्जुन ! बुद्धियुक्त अर्थात् समत्व बुद्धि को प्राप्त मनुष्य, इस संसार में पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों में आसक्ति को छोड़ देता है। इसलिए तू समत्व योग के लिए प्रयत्न कर। कर्मों में कुशलता का नाम ही योग (अनासक्ति-निष्काम योग) है।

भावार्थ: – जिसे अनासक्ति योग की बुद्धि प्राप्त हो गई, वह पुण्य के बाधक दुष्कृत और सुकृत इन दोनों को छोड़ देता है। शास्त्रीय गुत्थी को सुलझाने का नाम योग नहीं है, किन्तु जीवन में लोकहित के लिए, कौन-सा कर्म त्याज्य है, तथा कौन-सा स्वीकार्य है-इस धर्म के तत्त्व निरूपण में कुशलता का नाम ही योग है। यह बुद्धियोग अनासक्ति के बिना प्राप्त नहीं हो सकता।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च बुद्धियुक्तः = समत्वबुद्धि से युक्त पुरुष। सुकृत-दुष्कृते = पुण्य और पाप। उभे = दोनों को। इह = इस लोक में। जहाति = छोड़ देता है, अर्थात् उनमें लिप्त नहीं होता। हा + लट्, प्रथम पुरुष एकवचन। तस्मात् = इसलिए। योगाय = समत्वबुद्धि योग के लिए। युज्यस्व = प्रयत्न कर। युज् (आत्मनेपद) + लोट्, मध्यम पुरुष, एकवचन । कर्मसु = कर्मो में। कौशलम् = चतुरता है, अर्थात् कर्मबन्धन से छूटने का मार्ग है।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

2. नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥2॥

अन्वयः-त्वं नियतं कर्म कुरु; हि अकर्मणः कर्म ज्यायः। अकर्मणः ते शरीरयात्रा अपि च न प्रसिद्ध्येत्।

सरलार्थ: – हे अर्जुन ! तुम अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार क्षत्रियोचित कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। बिना कर्म किए हुए तुम्हारे लिए, शरीर निर्वाह (लौकिक-व्यवहार) भी सिद्ध नहीं होगा।

भावार्थ: – भाव यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। शस्त्र छोड़कर, निठल्ला होकर बैठने से काम नहीं चलेगा। तुम्हारे लिए युद्ध करना ही श्रेष्ठ है। .
शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च नियतम् = निश्चित, क्षत्रिय के लिए उचित। कुरु = करो, कृ + लोट, मध्यम पुरुष, एकवचन। ज्यायः = प्रशस्य + ईयसुन्, नपुं०; प्रथमा एकवचन = श्रेष्ठ। हि अकर्मणः = क्योंकि कर्म न करने से। शरीरयात्रा अपि = लौकिक व्यवहार भी, शरीर निर्वाह भी। प्रसिद्ध्येदकर्मणः = प्रसिद्ध्येत् + अकर्मणः, कर्म न करने से सिद्ध नहीं होगा।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

3. न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥3॥

अन्वयः-पुरुषः, न कर्मणाम् अनारम्भात् नैष्कर्म्यम् अश्नुते, न च संन्यसनात् एव सिद्धिम् समधिगच्छति।

सरलार्थः- मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त करता है, और न कर्मों को त्यागने मात्र से ही भगवत् साक्षात्कार रूप सफलता को प्राप्त करता है।

भावार्थ:-भाव यह है कि कर्मों का बिल्कुल ही न करना अथवा मध्य में ही छोड़ देना, दोनों ही स्थितियाँ उचित नहीं हैं; अपितु कर्तव्य कर्म अनासक्ति भाव से अवश्य करना चाहिए।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च अनारम्भात् = आरम्भ किए बिना, आरम्भ न करने से। नैष्कर्म्यम् = निष्कर्मता को।अश्नुते = प्राप्त करता है। अश् + लट्, प्रथम पुरुष, एकवचन । संन्यसनात् = छोड़ देने से। सिद्धिम् = सफलता को। समधिगच्छति = प्राप्त करता है। सम् + अधि + गम् + लट्, प्रथम पुरुष, एकवचन।।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

4. न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ 4 ॥

अन्वयः-हि कश्चित् जातु क्षणम् अपि अकर्मकृत् न तिष्ठति, हि सर्वः प्रकृतिजैः गुणैः अवशः कर्म कार्यते।

सरलार्थ:-हे अर्जुन ! कोई भी पुरुष कभी भी थोड़ी देर के लिए भी, बिना कर्म किए नहीं रहता है। निःसंदेह सब लोग प्रकृति से उत्पन्न हुए (स्वभाव अनुसार) गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करते हैं।

भावार्थ:-कर्म करना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। जब मनुष्य शरीर से कर्म नहीं करता, निठल्ला पड़ा रहता है, तब भी वह मन से तो कार्य करता ही है। अत: पूर्ण चेतना से निष्काम कर्म ही करना चाहिए। निठल्ले कभी नहीं रहना चाहिए।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
हि = क्योंकि, निःसन्देह, निश्चय से। कश्चित् = कोई भी। जातु = कभी भी। क्षणम् = थोड़ी देर के लिए। अकर्मकृत् = बिना कर्म किए। सर्वः = सब लोग। अवशः = पराधीन होकर । कार्यते = करते हैं-कराया जाता है।

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5. तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥5॥

अन्वयः-तस्मात् असक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर, हि असक्तः पुरुषः कर्म आचरन् परम् आप्नोति।

सरलार्थ:-इसलिए, हे अर्जुन ! तुम अनासक्त होकर निरन्तर अपने कर्तव्य कर्म का अच्छी प्रकार भली-भाँति आचरण करो। क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ, परमात्मा को प्राप्त करता है।

भावार्थ:-निष्काम कर्मयोग ही परमात्मा की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
असक्तः = अनासक्त होकर, न सक्तः। सङ्ग् + क्त, न सक्तः असक्त । नञ् तत्पुरुष । सततम् = निरन्तर, लगातार। कार्यम् = कर्तव्य, स्वधर्म रूप। समाचर = भली-भाँति करो। सम् + आ + /चर्, लोट् मध्यम-पुरुष, एकवचन।

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6. कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोक सङ्ग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥6॥

अन्वयः-जनक-आदयः कर्मणा एव संसिद्धिम् आस्थिताः, हि लोकसङ्ग्रहम् संपश्यन् अपि कर्तुम् एव अर्हसि।

सरलार्थः-राजा जनक आदि राजर्षि भी (अनासक्त होकर) कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। निश्चय ही तुम भी लोक कल्याण को देखते हुए ही कर्म करने के योग्य हो।

भावार्थ:-जैसे जनक आदि ने अनासक्ति भाव से अपने कर्तव्यों का पालन किया, ऐसे ही तुम्हें भी आचरण करना चाहिए । इससे तुम्हें सफलता प्राप्त होगी।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
संसिद्धिम् = परम सफलता को। आस्थिताः = प्राप्त हुए थे। आ + स्था + क्त पुंल्लिंग प्रथमा, बहुवचन। लोकसङ्ग्रहम् = लोक कल्याण को। अर्हसि = योग्य हो। अर्ह + लट् प्रथम पुरुष, एकवचन।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

7. यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥7॥

अन्वयः-श्रेष्ठ: यत् आचरति, इतरः जनः तत् तत् एव (आचरति), सः यत् प्रमाणं कुरुते, लोकः तत् अनुवर्तते।

सरलार्थ:-श्रेष्ठ व्यक्ति जो जो आचरण करता है। दूसरा व्यक्ति भी उस-उस ही कर्म को करता है, अर्थात् वैसा ही अनुसरण दूसरे लोग भी करते हैं। वह व्यक्ति, जो कुछ प्रमाण कर देता है लोग भी उसके अनुसार आचरण करते हैं।

भावार्थ:-भाव यह है कि प्रजाजन, श्रेष्ठ व्यक्तियों के आचरण को आदर्श मानकर, उसके अनुसार ही व्यवहार करते हैं। अत: तुम्हें भी श्रेष्ठ लोगों के आचरण का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च यत् यत् = जो जो कर्म। यत् शब्द नपुं० द्वितीया, एकवचन। आचरति = आचरण करता है। आ + √चर् + लट् प्रथम पुरुष, एकवचन। प्रमाणम् = प्रमाण को, आदर्श को। इतरः = अन्य लोग, सब लोग । अनुवर्तते = अनुसरण करता है। अनु + √वृत् + लट् प्रथम पुरुष + एकवचन।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

8. न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥8॥

अन्वयः-विद्वान् कर्मसङगिनाम् अज्ञानां बुद्धिभेदं न जनयेत्, (किन्तु) युक्तः सर्वकर्माणि समाचरन् जोषयेत्।

सरलार्थ:-विद्वान् मनुष्य को चाहिए कि वह कर्म में आसक्ति रखने वाले अज्ञानी मनुष्यों में, कर्मों के प्रति अश्रद्धा . उत्पन्न न करे किन्तु स्वयं धर्मरूप कर्म में स्थित होकर सब कर्तव्य कर्मों का पालन भली-भाँति करता हुआ, दूसरों से भी वैसा ही कराए।

भावार्थ:-भाव यह है कि मनुष्य को, कर्तव्य कर्म करके समाज के प्रति एक उदाहरण बनना चाहिए। वह स्वयं भी विधिपूर्वक कर्तव्य कर्म करे तथा दूसरों को भी वैसे ही कर्म में प्रवृत्त करे।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
बुद्धिभेदम् = कर्तव्यबोध में अश्रद्धा। विद्वान् = ज्ञानवान् पुरुष। कर्मसङ्गिनाम् = कर्म में आसक्त लोगों के। अज्ञानाम् = अज्ञानियों के। युक्तः = अपने कर्तव्य कर्म में स्थित, निष्काम कर्म में लगा हुआ। समाचरन् = भली-भाँति आचरण करता हुआ। जोषयेत् = कराए, करवाना चाहिए, लगाना चाहिए। /जुष् + णिच् + विधिलिङ् प्रथम पुरुष, एकवचन।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 4 कर्मगौरवम्

कर्मगौरवम् (कर्म का महत्व) Summary in Hindi

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कर्मगौरवम् पाठ परिचय

‘कर्मयोगः’ यह पाठ ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के दूसरे एवं तीसरे अध्याय से संकलित है। श्रीमद्भगवद्गीता विश्व का सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। ‘गीता’ महाभारत के ‘भीष्मपर्व’ से उद्धृत है। इसमें 18 अध्याय हैं, 700 श्लोक हैं। तथा 18 प्रकार के योग का वर्णन है। समस्त योगों में कर्मयोग श्रेष्ठ है। मनुष्य कर्म करने के लिए संसार में आया है। किन्तु निष्काम कर्म करना ही मनुष्य को बन्धन से मुक्त करता है। सभी प्रकार की कामनाओं और फल की इच्छा से रहित कर्म ही निष्काम कर्म कहलाता है। इसी को ‘अनासक्ति’ कहा गया है। प्राणिमात्र का अधिकार केवल कर्म करने में निहित है, फल में नहीं। गीता के दूसरे-तीसरे अध्याय में इसी कर्मयोग की विस्तृत चर्चा है। .

श्रीकृष्ण ने गीता में, अर्जुन को इसी निष्काम कर्मयोग की शिक्षा प्रदान की है। श्रीकृष्ण ने युद्धक्षेत्र में, विषाद में पड़े हुए अर्जुन को स्व-क्षत्रियोचित कर्तव्य का उपदेश देकर धर्मयुद्ध के लिए उद्यत किया था। अर्जुन के माध्यम से मानवमात्र को निष्काम कर्म का उपदेश दिया गया है।

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ यह गीता का संदेश है।

कर्मगौरवम् पाठस्य सारः
श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म का रहस्य समझाते हुए कहते हैं कि कर्म करने तक ही मनुष्य का अधिकार है अर्थात् कर्म को करने-न करने या उलट करने की स्वतन्त्रता है। फल पाने में ऐसी स्वतन्त्रता नहीं क्योंकि शुभ-अशुभ जैसा भी कर्म किया है, उसका फल तो ईश्वरीय व्यवस्था के अधीन होकर अवश्य ही भोगना पड़ता है। कर्तव्य बुद्धि से आसक्ति रहित होकर कर्म में कुशलता प्राप्त करने का नाम ही निष्काम कर्मयोग है।

जो जीवन में शास्त्र-प्रोक्त कर्म हैं, उन्हें छोड़ना नहीं हैं, क्योंकि कर्म करना, न कर्म करने की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है। बिना कर्म किए तो शरीर यात्रा भी नहीं हो सकती।

मनुष्य प्रकृति के अधीन है, अत: वह कर्म किए बिना क्षणभर भी नहीं रह सकता। अनासक्ति भावना से कर्म करने वाला पुरुष ही भगवान् को प्राप्त करता है।

जनक आदि महापुरुष इस कर्तव्य-कर्म करने से ही जीवन में सफलता को प्राप्त हुए हैं। हे अर्जुन! तुम्हें भी उन्हीं के समान, कर्तव्य कर्म निभाना चाहिए और अन्यायियों से युद्ध करना चाहिए। क्योंकि जैसे आचरण श्रेष्ठ लोग करते हैं, वैसे ही आचरण उन्हें देखकर सामान्य लोग भी करते हैं।

अत: पाप-पुण्य की चिन्ता किए बिना कर्म में आसक्त लोगों का तुम्हें आचरण नहीं करना चाहिए। हे अर्जुन ! फलासक्ति छोड़कर नि:संग भाव से तुम्हें सर्वहित कार्य में लगना चाहिए।

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HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 3 बालकौतुकम्

Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 3 बालकौतुकम् Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 3 बालकौतुकम्

HBSE 12th Class Sanskrit बालकौतुकम् Textbook Questions and Answers

1. संस्कृतभाषया उत्तराणि लिखत
(क) ‘उत्तररामचरितम्’ इति नाटकस्य रचयिता कः ?
(ख) नेपथ्ये कोलाहलं श्रुत्वा जनक: किं कथयति ?
(ग) लवः कौशल्यां रामभद्रं च कथमनुसरति ?
(घ) बटवः अश्वं कथं वर्णयन्ति ?
(ङ) लवः कथं जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्वः?
(च) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतरा आयुधश्रेण्यः किं न सहन्ते ?
उत्तरम्:
(क) भवभूति: ‘उत्तररामचरितम्’ इति नाटकस्य रचयिता।
(ख) नेपथ्ये कोलाहलं श्रुत्वा जनकः कथयति-“शिष्टानध्यायः इति क्रीडतां वटूनां कोलाहलः”।
(ग) लवः कौशल्यां रामभद्रं च देहबन्धनेन स्वरेण च अनुसरति।
(घ) बटवः अश्वं भूतविशेषं वर्णयन्ति।
(ङ) लवः अश्वमेध-काण्डेन जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्वः ।
(च) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतराः आयुधश्रेण्यः दृप्तां वाचं न सहन्ते।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 3 बालकौतुकम्

2. रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) अश्वमेध इति नाम क्षत्रियाणां महान् उत्कर्षनिकषः।
(ख) हे बटवः! लोष्ठैः अभिघ्नन्तः उपनयत एनम् अश्वम्।
(ग) रामभद्रस्य एषः दारकः अस्माकं लोचने शीतलयति।
(घ) उत्पथैः मम मनः पारिप्लवं धावति।
(ङ) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपल: दृश्यते ।
(च) विस्फारितशरासनाः आयुधश्रेण्यः कुमारं तर्जयन्ति।
(छ) निपुणं निरूप्यमाणः लवः मुखचन्द्रेण सीतया संवदत्येव ।
उत्तरम्:
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) अश्वमेध इति नाम केषां महान् उत्कर्ष-निकषः ?
(ख) हे बटवः ! कथं अभिघ्नन्त: उपनयत एनम् अश्वम् ?
(ग) रामभद्रस्य एष दारकः अस्माकं किं शीतलयति ?
(घ) उत्पथैः कस्य मनः पारिप्लवं धावति ?
(ङ) अतिजवेन दूरम् अतिक्रान्तः सः कथं दृश्यते ?
(च) विस्फारित-शरासनाः आयुधश्रेण्यः कं तर्जयन्ति ?
(छ) निपुणं निरुप्यमाणः लवः मुखचन्द्रेण कया संवदति एव ?

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 3 बालकौतुकम्

3. सप्रसङ्ग-व्याख्यां कुरुत
(क) सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः।
(ख) किं व्याख्यानैव्रजति स पुनर्दूरमेह्यहि याम।
(ग) सुलभसौख्यमिदानी बालत्वं भवति
(घ) झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोरमृताञ्जनम् ?
उत्तरम्:
(क) सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः।
प्रसंग:-प्रस्तुत पंक्ति ‘लवकौतुकम्’ पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम में ‘लव’ के साथ ब्रह्मचारी-सहपाठी खेल रहे हैं। इसी समय कुछ बटुगण आकर, लव को आश्रम के निकट अश्वमेध घोड़े की सूचना देते हैं। यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा रक्षकों से घिरा हुआ है। लव उस अश्वमेध यज्ञ के महत्त्व को अपने मन में विचार करता हुआ कहता है

व्याख्या-यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है । यह क्षत्रियों की शक्ति का सूचक होता है। क्षत्रिय राजा, अपने बलवान् शत्रु राजा पर अपनी विजय की धाक जमाने के लिए इसे छोड़ता है। वास्तव में यह घोड़ा सभी शत्रुओं पर प्रभाव डालने वाले उत्कर्ष श्रेष्ठपन का सूचक होता है।

(ख) किं व्याख्यानैव्रजति स पुन(रमेयेहि यामः।
प्रसंग:-प्रस्तुत पंक्ति ‘लवकौतुकम्’ पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम के निकट राम के अश्वमेध का घोड़ा घूमते-घूमते आ गया है। वहाँ खेलते हुए ब्रह्मचारी उस विशेष प्राणी को देखकर भागते हुए आश्रम में आते हैं और ‘लव’ के सामने उसका वर्णन करते हैं

व्याख्या-यह प्राणिविशेष लम्बी पूँछ को बारबार हिला रहा है। घास खाता है, लीद करता है, लम्बी गर्दन है, चार खुरों वाला है। अधिक कहने का समय नहीं है, यह जन्तु तेजी से आश्रम से दूर भागा जा रहा है, चलो आओ हम भी उसे देखते हैं। भाव यह है कि उसे बताने की अपेक्षा उसे देखना अधिक आनन्ददायक होगा।

(ग) सुलभं सौख्यम् इदानीं बालत्वं भवति।
प्रसंग:-प्रस्तुत पंक्ति लवकौतुकम्’ पाठ से उद्धृत है। वाल्मीकि आश्रम में अतिथि के रूप में जनक, कौशल्या और अरुन्धती आए हुए हैं। उनके आने से आश्रम में अवकाश कर दिया गया है और सभी छात्रगण खेलते हुए शोर मचा रहे हैं। इस शोर को सुनकर, कौशल्या जनक को बता रही हैं

व्याख्या-बाल्यकाल में सुख के साधन सुलभ होते हैं। बच्चों को मजा लेने के लिए किसी खिलौने आदि की आवश्यकता नहीं होती। वे तो साधारण से खेल-कूद और हँसी-मजाक द्वारा ही सुख प्राप्त कर लेते हैं। सुख प्राप्ति के लिए उन्हें बड़े बहुमूल्य क्रीडा-साधनों की आवश्यकता नहीं होती। ये ब्रह्मचारी अपने बचपन का आनन्द ले रहे हैं।

(घ) झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दृशोः अमृताञ्जनम्।
प्रसंग:-प्रस्तुत पंक्ति ‘लवकौतुकम्’ पाठ से संकलित है। वाल्मीकि आश्रम में, राम के पुत्र ‘लव’ को देखकर, अरुन्धती (वशिष्ठ की पत्नी) अत्यन्त प्रभावित है। वह उसके रूप सौन्दर्य को देखकर, राम के बचपन को स्मरण करती हुई जनक तथा कौशल्या से कहती है

व्याख्या-यह बालक मेरे हृदय में अत्यन्त स्नेहभाव पैदा कर रहा है। इसे देखकर मुझे ऐसा लग रहा है, जैसे कि बचपन के राम को देख रही हूँ। यह प्रिय बालक देखने पर मुझे इतना आकृष्ट कर रहा है, मानो मेरी आँखों में अमृत का अंजन लगा दिया है। इसे देखकर मुझे अत्यन्त तृप्ति मिल रही है।

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4. अधोलिखितानि कथनानि कः कं कथयति ?
उत्तरसहितम्

कथनानिकःकं प्रति
(क) अस्ति ते माता ? स्मरसि वा तातम् ?कौसल्यालवम्
(ख) दिष्ट्या न केवलम् उत्सड्ग: मनोरथोऽपि मे पूरितः ।अरुन्धतीलवम्
(ग) वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते।जनक:कौशल्याम्
(घ) सोऽयमधुनाइस्माभि: स्वयं प्रत्यक्षीकृतः।बटल:लवम्
(ङ) इतोडन्यतो भूत्वा प्रेक्षामहे तावत् पलायमानं दीर्घायुषम्।कौशल्याअरुन्तीम्
(च) धिक् चपल ! किमुक्तवानसि ?राजपुरुष:लवम्

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5. अधोलिखितवाक्यानां रिक्तस्थानपूर्ति निर्देशानुसारं कुरुत
(क) क एषः ……. रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैरिकोऽस्माकं लोचने ……. । (क्रियापदेन)
(ख) एष …………. मे सम्मोहनस्थिरमपि मनः हरति। (कर्तृपदेन)
(ग) …………….! इतोऽपि तावदेहि ! (सम्बोधनेन)
(घ) ‘अश्वोऽश्व’ ………… नाम पशुसमाम्नाये सामामिके च पठ्यते। (अव्ययेन)
(ङ) युष्माभिरपि तत्काण्डं ….. ……………….. एव हि। (कृदन्तपदेन)
(च) एष वो लवस्य …………….. प्रणामपर्यायः । (करणपदेन)
उत्तरम्:
(क) क एषः अनुसरति रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने शीतलयति।
(ख) एष बलवान् मे सम्मोहनस्थिरमपि मनः हरति।
(ग) जात! इतोऽपि तावदेहि !
(घ) ‘अश्वोऽश्व’ इति नाम पशुसमाम्नाये साङ्ग्रामिके च पठ्यते।
(ङ) युष्माभिरपि तत्काण्डं पठितम् एव हि।
(च) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्यायः ।

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6. अधः समस्तपदानां विग्रहाः दत्ताः। उदाहरणमनुसृत्य समस्तपदानि रचयत, समासनामापि च लिखतउदाहरणम्-पशूनां समाम्नायः, तस्मिन् पशुसमाम्नाये- षष्ठीतत्पुरुषः. उत्तरसहितम्:

(क) विनयेन शिशिर:विनयशिशिर:तृतीयातत्युरुष:
(ख) अयस्कान्तस्य (धातो:) शकल:अयस्कान्तशकलःषष्ठीतत्पुरुष:
(ग) दीर्घा ग्रीवा यस्य स:दीर्घग्रीव:बहुव्रीहि:
(घ) मुखम् एव पुण्डरीकम्मुखपुण्डरीकम्कर्मधारयः
(ङ) पुण्य: चासौ अनुभाव:पुण्यानुभाव:कर्मधारय:
(च) न स्खलितम्असखलितम्नअ्तत्पुरुष:

7. अधोलिखित पारिभाषिक शब्दानां समुचितार्थेन मेलनं कुरुत
(क) नेपथ्ये (क) प्रकटरूप में
(ख) आत्मगतम् (ख) देखकर
(ग) प्रकाशम् (ग) पर्दे के पीछे
(घ) निरूप्य (घ) अपने मन में
(ङ) उत्सङ्गे गृहीत्वा (ङ) प्रवेश करे
(च) प्रविश्य (च) अपने मन में
(छ) सगर्वम् (छ) गोद में बिठा कर
(ज) स्वगतम् (ज) गर्व के साथ
उत्तरम्:
(क) नेपथ्ये – पर्दे के पीछ
(ख) आत्मगतम् – अपने मन में
(ग) प्रकाशम् – प्रकट रूप में
(घ) निरूप्य – देखकर
(ङ) उत्सङ्गे गृहीत्वा – गोद में बिठा कर
(च) प्रविश्य – प्रवेश करके
(छ) सगर्वम् – गर्व के साथ
(ज) स्वगतम् – अपने मन में

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8. पाठमाश्रित्य हिन्दीभाषया लवस्य चारित्रिकवैशिष्ट्यं लिखत
उत्तरम्-(बालक लव का चरित्र चित्रण)
लव महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में पालित-पोषित, राजा राम द्वारा निर्वासित भगवती सीता के जुड़वा पुत्रों में से एक है। वह आकृति में बिल्कुल राम जैसा है, उसकी आँखों में राम की आँखों जैसी चमक है। यही कारण है कि जब महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में राजर्षि जनक, कौशल्या और अरुन्धती अतिथि के रूप में पधारते हैं; तब खेलते हुए बालकों के बीच कौशल्या बालक लव को देखकर राम के बचपन की याद में खो जाती है। तीनों की बातचीत से पता लगता है कि लव का मुख सीता के मुखचन्द्र की भाँति है। उसका मांसल और तेजस्वी शरीर राम के तुल्य है। उसका स्वर बिल्कुल राम से मिलता-जुलता है।

लव शिष्टाचार में कुशल है। वह गुरुजनों का आदर करना जानता है और जनक आदि के आश्रम में पधारने पर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम करता है। लव ने महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा प्राप्त की है। इसीलिए जब चन्द्रकेतु द्वारा रक्षित राजा राम का अश्वमेधीय अश्व आश्रम में प्रवेश करता है; तब लव इस घोड़े को देखते ही पहचान जाता है कि यह अश्वमेधीय अश्व है, क्योंकि उसने युद्धशास्त्र तथा पशु-समाम्नाय में इस अश्व के बारे में पढ़ा हुआ है।

लव स्वभाव से वीर है, उसका स्वाभिमान क्षत्रियोचित है। इसीलिए अश्व के रक्षक सैनिकों के द्वारा जब अश्व के सम्बन्ध में गर्वपूर्ण शब्दावली का प्रयोग किया जाता है; तब वह उन सैनिकों को ललकारता है और अपने साथी बालकों को आदेश करता है कि पत्थर मार मारकर इस घोड़े को पकड़ लो, यह भी हमारे हिरणों के बीच रहकर घास चर लिया करेगा। इतना ही नहीं वह विजयपताका को छीनने की घोषणा करता है। अन्य बालक युद्ध के लिए चमकते हुए अस्त्रों को देखकर आश्रम में भाग जाना चाहते हैं परन्तु लव उनका सामना करने के लिए धनुष पर बाण चढ़ा लेता है।

इस प्रकार लव राम और सीता की आकृति से मेल रखता हुआ, गंभीर स्वर वाला, शिष्टाचार में निपुण, वीर, .. स्वाभिमानी, और तेजस्वी बालक है।

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9. अधोलिखितेषु श्लोकेषु छन्दोनिर्देशः क्रियताम्
(क) महिम्नामेतस्मिन् विनयशिशिरो मौग्ध्यमसृणो।
(ख) वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावमिस्मन्नभिव्यज्यते।
(ग) पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च धूनोत्यजस्रम्।
उत्तरम्:
(क) शिखरिणी छन्दः।
(ख) शार्दूलविक्रीडितम् छन्दः ।
(ग) मन्दाक्रान्ता छन्दः।

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10. पाठमाश्रित्य उत्प्रेक्षालड्कारस्य उपमालकारस्य च उदाहरणं लिखत
उत्तरम्:
(क) उत्प्रेक्षालकारस्य उदाहरणम्
वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते,
संवृत्तिः प्रतिबिम्बितेव निखिला सैवाकृतिः सा द्युतिः।
(ख) उपमालकारस्य उदाहरणम्
मनो मे संमोहस्थिरमपि हरत्येष बलवान्,
अयोधातुर्यद्वत्परिलघुरयस्कान्तशकलः॥

योग्यताविस्तारः

(क) भवभूतिः संस्कृतसाहित्यस्य प्रमुखो महाकविरासीत्।
“कविर्वाक्पतिराज श्रीभवभूत्यादिसेवितः।
जितो ययौ यशोवर्मा तद्गुणस्तुतिवन्दिताम्॥”
इति कल्हणरचितराज-तरङ्गिणीस्थश्लोकेन परिज्ञायते यदयम् अष्टमशताब्द्यां वर्तमानस्य कान्यकुब्जेश्वरस्य यशोवर्मणः समसामयिक आसीत्।

अनेन महाकविना त्रीणि नाटकानि रचितानि
मालतीमाधवम्, महावीरचरितम् उत्तररामचरितं च।
उत्तररामचरितं भवभूतेः सर्वोत्कृष्टा रचनास्तीति विद्वत्समुदाये इयमुक्तिः प्रसिद्धा वर्तते –
“उत्तरे रामचरिते भवभूतिविशिष्यते।”

अस्य नाटकस्य कथावस्तु रामयाणाधारितमस्ति। अत्र श्रीरामस्य राज्याभिषेकानन्तरमुत्तरं चरितं वर्णितम्, पूर्वचरितन्तु भवभूतिविरचिते महावीरचरिते प्रतिपादितम्। अत एव उत्तरं रामस्य चरितं यस्मिन् तत् उत्तररामचरितम्। अथवा उत्तरम् = उत्कृष्टं रामस्य चरितं यस्मिन् तत् उत्तररामचरितम् इति नाटकस्य नामकरणं समीचीनं वर्तते। सीतापरित्यागेनात्र रामस्योत्कृष्टराज्यधर्मपालनव्रतत्वं सूच्यते।

यद्यपि भवभूतिः करुणरसस्याभिव्यक्तये सविशेष प्रशस्यते, परन्तु प्रस्तुते नाट्यांशे वात्सल्यस्य भावः मर्मस्पृशं प्रकटितः । तथैव हास्यरसस्यापि रुचिरा अभिव्यक्तिरत्र सञ्जाता।

(ख) अश्वमेधः-अश्वमेधयज्ञः प्राचीनकाले राज्यविस्ताराय राष्ट्र-समृद्धये च करणीयः यज्ञः आसीत्। अस्मिन् यज्ञे राज्ञां बलस्य पराक्रमस्य च परीक्षा भवति स्म। यज्ञकर्ता नृपः स्वराष्ट्रियप्रतीकमश्वं च सैन्यबलैः सह भूमण्डल-भ्रमणाय प्रेषयति स्म। यो नृपः स्वराज्ये समागतमश्वं निर्बाधं गन्तु प्रादिशत, स यज्ञकर्ड राज्ञे करदेयतां स्वीकरोति स्म। यः तमश्वमरुणत् स आश्वमेधिक-नृपस्याधीनतां नाङ्गीकरोति स्म। तदा उभयोर्बलयोर्मध्ये युद्धं भवति स्म तत्रैव च नृपाणां पराक्रमः परीक्ष्यते स्म। शतपथब्राह्मणे ‘अश्वः’ इति पदं राष्ट्रार्थे प्रयुक्तम् ‘राष्ट्रं वै अश्वः ‘ इति.

(ग) ‘बालकौतुकम्’ इतिपाठस्य साभिनयं नाट्यप्रयोगं कुरुत।

(घ) गुरुकुलपरम्परायां बालकानां कृते गुरून् प्रति अभिवानदस्य कीदृशः शिष्टाचारः अत्र चित्रितः इति निरूप्यताम्। तथैव गुरवः कथम् आशीर्वचांसि अयच्छन्, इत्यपि ज्ञेयम्।

(ङ) वार्तालापार्थं संस्कृतभाषायाः सुचारुप्रयोगस्य उदाहरणानि पाठात् अन्वेष्टव्यानि।

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HBSE 9th Class Sanskrit बालकौतुकम् Important Questions and Answers

I. समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत
(i) ‘उत्तररामचरितम्’ इति नाटकस्य रचयिता कः ?
(A) भासः
(B) कालिदासः
(C) भवभूतिः
(D) अश्वघोषः।
उत्तराणि:
(B) कालिदासः

(ii) बटवः अश्वं कथं वर्णयन्ति ?
(A) भूतविशेषम्
(B) भूतम्
(C) राजाश्वम्
(D) विशेषम्।
उत्तराणि:
(A) भूतविशेषम्

(iii) लवः कथं जानाति यत् अयम् आश्वमेधिकः अश्वः ?
(A) उत्तरकाण्डेन
(B) युद्धकाण्डेन
(C) पूर्वकाण्डेन
(D) अश्वमेधकाण्डेन।
उत्तराणि:
(D) अश्वमेधकाण्डेन

(iv) राजपुरुषस्य तीक्ष्णतरा आयुधश्रेण्यः कीदृशीं वाचं न सहन्ते ?
(A) दृप्ताम्
(B) सुप्ताम्
(C) मधुराम्
(D) असत्ययुक्ताम्।
उत्तराणि:
(A) दृप्ताम्।

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II. रेखाकितपदम् आधृत्य-प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत
(i) अश्वमेध इति नाम क्षत्रियाणां महान् उत्कर्षनिकषः।
(A) कः
(B) केषाम्
(C) कस्मै
(D) कस्मात्।
उत्तराणि:
(B) केषाम्

(ii) हे बटवः ! लोष्ठैः अभिजन्तः उपनयत एनम् अश्वम्।
(A) काः
(B) कस्मात्
(C) कुत्र
(D) कैः।
उत्तराणि:
(D) कैः

(iii) रामभद्रस्य एषः दारकः अस्माकं लोचने शीतलयति।
(A) के
(B) कैः
(C) कस्मिन्
(D) कथम्।
उत्तराणि:
(A) के

(iv) उत्पथैः मम मनः पारिप्लवं धावति।
(A) कस्य
(B) कस्मै
(C) कस्याम्
(D) किम्।
उत्तराणि:
(A) कस्य

(v) अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः दृश्यते।
(A) केन
(B) कम्
(C) कः
(D) काः
उत्तराणि:
(C) कः

(vi) विस्फारितशरासनाः आयुधश्रेण्यः कुमारं तर्जयन्ति।
(A) किम्
(B) कथम्
(C) केन
(D) कम्।
उत्तराणि:
(D) कम्

(vii) निपुणं निरूप्यमाणः लवः मुखचन्द्रेण सीतया संवदत्येव।
(A) कस्मात्
(B) कस्याः
(C) कया
(D) कस्याम्।
उत्तराणि:
(C) कया।

बालकौतुकम्पा ठ्यांशः
1. (नेपथ्ये कलकलः । सर्वे आकर्णयन्ति)
जनकः अये, शिष्टानध्याय इत्यस्खलितं खेलतां वटूनां कोलाहलः।
कौसल्याः सुलभसौख्यमिदानीं बालत्वं भवति।
अहो, एतेषां मध्ये क एष रामभद्रस्य मुग्धललितैरङ्गैर्दारकोऽस्माकं लोचने शीतलयति ?
अरुन्धती
कुवलयदल-स्निग्धश्यामः शिखण्डक-मण्डनो,
वटुपरिषदं पुण्यश्रीकः श्रियैव सभाजयन्।
पुनरपि शिशुभूतो वत्सः स मे रघुनन्दनो,
झटिति कुरुते दृष्टः कोऽयं दशोरमृताञ्जनम्॥1॥

अन्वयः-कुवलयदल-स्निग्धश्यामः शिखण्डक-मण्डनः, पुण्यश्रीकः श्रिया वटुपरिषदं सभाजयन् एव, पुनः शिशुः भूत्वा स मे वत्सः रघुनन्दन इव कः अयम् दृष्टः झटिति दृशोः अमृत-अञ्जनं कुरुते ?

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 3 बालकौतुकम्

जनकः (चिरं निर्वर्ण्य) भोः किमप्येतत् !
महिम्नामेतस्मिन् विनयशिशिरो मौग्ध्यमसृणो,
विदग्धैर्निर्ग्राह्यो न पुनरविदग्धैरतिशयः।
मनो मे संमोहस्थिरमपि हरत्येष बलवान्,
अयोधातुर्यद्वत्परिलघुरयस्कान्तशकलः ॥ 2 ॥

अन्वयः-एतस्मिन्, विनय-शिशिरः, मौग्ध्यमसृणः, महिम्नाम् अतिशयः, विदग्धै : निर्ग्राह्यः, अविदग्धैः न, (निर्ग्राह्यः) बलवान् एषः, संमोह-स्थिरम् अपि मे मनः हरति। यद्वत् परिलघुः अयस्कान्तशकल: अयोधातुः (हरति)।

लवः (प्रविश्य, स्वगतम्) अविज्ञातवय:-क्रमौचित्यात् पूज्यानपि सतः कथमभिवादयिष्ये ? (विचिन्त्य) अयं पुनरविरुद्धप्रकार इति वृद्धेभ्यः श्रूयते। (सविनयमुपसृत्य) एष वो लवस्य शिरसा प्रणामपर्यायः।

हिन्दी-अनुवादः

प्रसंगः- वाल्मीकि आश्रम में अतिथि के रूप में, राजा जनक, महारानी कौशल्या तथा वशिष्ठ की पत्नी अरुन्धति आए हैं। वे आश्रम में बालकों के क्रीड़ा कौतूहल को देख रहे हैं। उन बालकों में सीता का पुत्र लव भी है, जिसका उन्हें पता नहीं है। उनके वार्तालाप से पाठ का प्रारम्भ है (नेपथ्य में कोलाहल होता है। सब सुनते हैं।)

जनक – अरे, बड़े लोगों के आने पर पढ़ाई में अवकाश होने के कारण, बेरोकटोक खेलते हुए छात्रब्रह्मचारियों का यह शोर है अर्थात् छुट्टी होने के कारण, सभी ब्रह्मचारी अनियन्त्रित होकर खेल रहे

कौसल्या – इस बचपन में सुख सुलभ होता है अर्थात् बाल्यकाल में क्रीड़ा आदि सामान्य साधनों से ही सुख मिल जाता है। ओह, इन बालकों के बीच में यह कौन बालक, रामचन्द्र के समान सुन्दर और कोमल अंगों से हमारी आँखों को ठण्डा कर रहा है अर्थात् बाल्यावस्था में जैसा सुन्दर और कोमल रामभद्र था, वैसी ही आकृति वाला यह कौन बालक हमें आनन्द दे रहा है ?

अरुन्धती – नीलकमल के समान कोमल (चिकना) तथा श्याम रंग वाला, घुघराले बालों से अलंकृत, अलौकिक (पुण्य) शोभायुक्त, अपने शरीर की कान्ति से ही, ब्रह्मचारियों के समूह को अलंकृत करने वाला, यह कौन है ? जो कि देखने पर फिर से वह शिशु रूपधारी राम की भाँति मेरी आँखों में झट से अमृतयुक्त काजल का लेप-सा कर रहा है ? भाव यह है कि इस बालक को देखने से मैं प्रिय शिशु राम को ही फिर से बालक के रूप में देख रही हूँ॥1॥

जनक – (बहुत देर तक देखकर) ओह, यह क्या (अपूर्व-सा अनुभव) है ? इस बालक में, विनय के कारण शीतलता तथा भोले स्वभाव के कारण कोमलता विद्यमान है। यह अतिशय महिमावाला है और यह विवेकियों (सूक्ष्मबुद्धि मनुष्यों) के द्वारा ही ग्राह्य है, स्थूलबुद्धि अविवेकियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। यह बलवान् बालक, जैसे चुम्बक का छोटा-सा टुकड़ा लोहे को अपनी ओर खींच लेता है, वैसे ही मेरे सीता निर्वासन के कारण शोकाघात से संज्ञा-शून्य जड़ (स्थिर) हृदय को अपनी ओर खींच रहा है। भाव यह है कि यह इतना प्रभावशाली बालक कौन है ॥ 2 ॥

लव – (प्रवेश करके, अपने मन में ही) आयु क्रम (आयु में छोटे-बड़े का क्रम) और उचितता का ज्ञान न होने से, पूजनीय होते हुए भी इनको मैं कैसे प्रणाम करूँ अर्थात् इनमें कौन वयोवृद्ध है और किसे प्रथम प्रणाम करना चाहिए ? यह मैं नहीं जानता (तो इन्हें कैसे प्रणाम करूँ) ? (सोच विचारकर) यह प्रणाम की विरोधहीन पद्धति है। ऐसा गुरुजनों से सुना जाता है। (विनयपूर्वक पास जाकर) यह आपको ‘लव’ का औचित्य क्रम के अनुसार प्रणाम है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
शिष्टानध्यायः = शिष्टेषु (आप्तेषु) अनध्यायः । बड़े लोगों के आने पर अध्ययन से अवकाश। अस्खलितम् = अनियन्त्रितम्; बेरोकटोक। सुलभ-सौख्यम् = सुलभं सौख्यम् अस्मिन् । इसमें (बाल्यकाल में) सुख सुलभ होता है। मुग्ध-ललितैः = सुन्दर और कोमल। कुवलयदल-स्निग्ध-श्यामः = नील कमल के पत्र के समान कोमल और श्याम। कुवलय-दलम् इव स्निग्धः श्यामः च । शिखण्डक-मण्डनः = काकपक्ष-शोभितः । घुघराले बालों से अलंकृत । पुण्यश्रीकः = पुण्य-अलौकिक शोभा वाला। पुण्या श्रीः यस्य सः। दृशोः = आँखों के अथवा आँखों में। अमृताञ्जनम् = अमृतमयकाजल। विनय-शिशिरः = विनयेन शिशिरः शीतल:- विनय के कारण शीतल। विनय के कारण क्रोध न आने से स्वभाव में शीतलता रहती है। महिम्नाम् अतिशयः का विशेषण है (अत्यधिक महिमा वाला)। मौग्ध्य-मसृणः = मौग्ध्येन-मधुर स्वभाव (अथवा भोलेपन) के कारण मसृणः-कोमल। मुग्ध + ण्यत्। विदग्धैः = सूक्ष्मबुद्धि विद्वानों; विवेकियों द्वारा। सम्मोह-स्थिरम् = सम्मोहेन- शोकाघातेन स्थिरम्-जडीभूतम्-सीता निर्वासन के कारण शोक के प्रहार से संज्ञाशून्य-सा, जड़। अयस्कान्तशकलः = अयस्कान्तधातो:- चुम्बकस्य, शकल:-अवयवः (खण्डः) चुम्बक का छोटा-सा टुकड़ा। अविज्ञातवयः-क्रम-औचित्यात् = आयु में छोटे-बड़े के क्रम की उचितता का ज्ञान न होने से। अविज्ञातं वयः क्रमौचित्यम् तस्मात्। अवस्था, ज्येष्ठता एवं औचित्य का क्रमज्ञान न होने से। प्रणामपर्यायः = औचित्यक्रम के अनुसार प्रणाम। अविरुद्धप्रकारः = निर्विरोध पद्धति।

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2. अरुन्धतीजनको : कल्याणिन् ! आयुष्मान् भूयाः।
कौसल्या : जात ! चिरं जीव।
अरुन्धती : एहि वत्स ! (लवमुत्सङ्गे गृहीत्वा आत्मगतं दिष्ट्या न केवलमुत्सङ्गश्चिरान्मनोरथोऽपि मे पूरितः)
कौसल्या : जात ! इतोऽपि तावदेहि । (उत्सङ्गे गृहीत्वा) अहो, न केवलं मांसलोज्ज्वलेन देहबन्धनेन, कलहंसघोषघर्घ-रानुनादिना स्वरेण च रामभद्रमनुसरति। जात ! पश्यामि ते मुखपुण्डरीकम्। (चिबुकमुन्नमय्य, निरूप्य, सवाष्पाकूतम्) राजर्षे ! किं न पश्यसि ? निपुणं निरूप्यमाणो वत्साया मे वध्वा मुखचन्द्रेणापि संव-दत्येव।

हिन्दी-अनुवादः
अरुन्धती और जनक-हे कल्याण सम्पन्न ! चिरंजीव होओ। कौशल्या-बेटा ! दीर्घजीवी बनो। अरुन्धती-आओ बेटा । (लव को गोद में लेकर अपने मन में, सौभाग्य से केवल मेरी गोद ही नहीं अपितु मेरा बहुत दिनों का मनोरथ भी पूरा हो गया।) ।

कौशल्या-बेटा, इधर (मेरी गोद में) भी आओ। (गोद में लेकर) ओह, यह केवल बलिष्ठ और तेजस्वी शरीर के गठन से ही नहीं, अपितु मधुर कण्ठ वाले हंस के स्वर का अनुसरण करने वाले स्वर से भी ‘रामभद्र ‘ का अनुसरण कर रहा है। बेटा ! ज़रा तुम्हारा मुख कमल तो देखू ? (ठोड़ी को ऊपर उठाकर, देखकर, आँसुओं सहित अभिप्रायपूर्वक देखकर) हे राजर्षे जनक ! क्या आप नहीं देखते कि ध्यान से देखने पर इस बालक का मुख मेरी प्रिय वधू सीता के मुख-चन्द्र से भी मिल रहा है?

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
कल्याणिन् = हे कल्याण वाले। भूयाः = होओ, बनो। जात = वत्स, बेटा। उत्सङ्गे = गोद में। दिष्ट्या = सौभाग्य से। पूरितः = पूरा हो गया। एहि = आओ। मांसल-उज्ज्वलेन = मांसलेन-बलवता, उज्ज्वलेन-तेजस्विना बलवान् और तेजस्वी। देहबन्धनेन = शरीर के गठन से। कलहंस-घोष-घर्घर-अनुनादिना = कलहंसस्य घोषस्य अनुनादिना-अनुकारिणा। मधुर कण्ठ वाले हंस के स्वर का अनुसरण करने वाले (स्वर से)। मुखपुण्डरीकम् = श्वेत कमल के समान मुख को।चिबुकम् = ठोड़ी को।उन्नमय्य = ऊपर उठाकर । सवाष्प-आकूतम् = आँसुओं के साथ अभिप्रायपूर्वक।निरूप्य = देखकर।निरूप्यमाण: = देखा गया। निपुणम् = ध्यान से। वध्वा = बहू सीता से। संवदति = मिलता है।

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3. जनकः पश्यामि, सखि ! पश्यामि (निरूप्य)
वत्सायाश्च रघूद्वहस्य च शिशावस्मिन्नभिव्यज्यते,
संवृत्तिः प्रतिबिम्बितेव निखिला सैवाकृतिः सा द्युतिः।
सा वाणी विनयः स एव सहजः पुण्यानुभावोऽप्यसौ
हा हा देवि किमुत्पथैर्मम मनः पारिप्लवं धावति॥3॥

अन्वयः-अस्मिन् शिशौ, वत्साया: रघूद्वहस्य च संवृत्तिः प्रतिबिम्बिता इव अभिव्यज्यते, सा एव निखिला आकृतिः, सा धुतिः, सा वाणी, स एव सहजः विनयः, (स एव) असौ पुण्यानुभावः अपि, हा हा देवि ! मम मनः पारिप्लवं (सत्) उत्पथैः किं धावति ?
कौसल्या – जात ! अस्ति ते माता ? स्मरसि वा तातम् ?
लवः – नहि।
कौसल्या – ततः कस्य त्वम् ?
लवः – भगवतः सुगृहीतनामधेयस्य वाल्मीकेः।
कौसल्या – अयि जात ! कथयितव्यं कथय।
लवः – एतावदेव जानामि। (प्रविश्य सम्भ्रान्ताः)

हिन्दी-अनुवादः
जनक- देख रहा हूँ सखि (कौशल्ये), देख रहा हूँ।
इस बालक में बेटी सीता एवं रघुकुल-श्रेष्ठ राम का (पवित्र) सम्बन्ध प्रतिबिम्बित हो रहा है, और वही सारी शक्ल, वही कान्ति, वही वाणी, वही स्वाभाविक विनम्रता तथा पवित्र प्रभाव भी ठीक वैसा ही है। हा हा देवि ! (इसको देखकर) मेरा मन, चंचल होकर उन्मार्गों से (उबड़खाबड़ रास्तों से) क्यों दौड़ रहा है ? (यह सीता और राम का ही पुत्र है, ऐसी कल्पना क्यों कर रहा है ?)

कौसल्या – वत्स ! क्या तुम्हारी माता है? क्या तुम अपने पिता को याद करते हो ?
लव – नहीं
कौसल्या – तब, तुम किसके (पुत्र) हो ?
लव – स्वनामधन्य भगवान् वाल्मीकिके।
कौशल्या – प्यारे पुत्र ! कहने योग्य बात कहो अर्थात् आजन्म ब्रह्मचारी भगवान् वाल्मीकि तुम्हारे पिता कैसे हो सकते हैं ?
लव – मैं तो इतना ही जानता हूँ। (प्रवेश करके, घबराए हुए ब्रह्मचारीगण)

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
वत्सायाः = बेटी सीता का। रघूद्वहस्य = रघुवंश को वहन करने वाले राम का। शिशौ अस्मिन् = इस बालक में। अभिव्यज्यते = प्रकट हो रही है। अभि + वि + √अ०्ज् + लट् (कर्मवाच्य) प्रथम पुरुष, एकवचन । संवृत्तिः = सम्पर्क: सम्बन्ध। सम् + √वृत् + क्तिन्। निखिला = सम्पूर्ण । आकृतिः = शक्ल, रूप। द्युतिः = कान्ति। सहजः = स्वाभाविक। पुण्य-अनुभावः = पवित्र प्रभाव (माहात्म्य) वाला। उत्पथैः = उन्मार्गों से । पारिप्लवम् = चंचलता युक्त। परि + √प्लु + अच् परिप्लवम् एव पारिप्लवम्। परिप्लव + स्वार्थिक अण् प्रत्यय। सुगृहीत-नामधेयः = स्वनामधन्य। सुगृहीतं नामधेयं यस्य सः । कथयितव्यम् = कहने योग्य को, √कथ् + णिच् + तव्यत्।

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4. बटवः कुमार ! कुमार! अश्वोऽश्व इति कोऽपि भूतविशेषो जनपदेष्व-नुश्रूयते, सोऽयमधुनाऽस्माभिः स्वयं प्रत्यक्षीकृतः।
लव: – ‘अश्वोऽश्व’ इति नाम पशुसमाम्नाये साङ्ग्रामिके च पठ्यते, तद् ब्रूत-कीदृशः ?
बटतः – अये, श्रूयताम्
‘पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च धूनोत्यजत्रम्
दीर्घग्रीवः स भवति, खुरास्तस्य चत्वार एव।
शष्याण्यत्ति, प्रकिरति शकृत्-पिण्डकानाम्र-मात्रान्।
किं व्याख्यानैव्रजति स पुनर्दूरमेयेहि याम॥
अन्वयः- पश्चात् विपुलं पुच्छं वहति, तत् च अजस्रं धूनोति। सः दीर्घग्रीवः भवति, तस्य खुराः चत्वारः एव। (सः) शष्पाणि अत्ति, आम्र-मात्रकान् शकृत्-पिण्डकान् प्रकिरति। किं व्याख्यानैः सः दूरं व्रजति। एहि एहि, याम। (इत्यजिने हस्तयोश्चाकर्षति)
लवः – (सकौतुकोपरोधविनयम्।) आर्याः ! पश्यत। एभिर्नीतोऽस्मि। (इति त्वरितं परिक्रामति।)

हिन्दी-अनुवादः
बटुगण (ब्रह्मचारी)-कुमार, कुमार, जनपदों में जो ‘घोड़ा-घोड़ा’ नामक कोई प्राणी विशेष सुना जाता है, अब हमने उसे स्वयं प्रत्यक्ष देख लिया है।
लव – ‘घोड़ा-घोड़ा’ यह पशु-शास्त्र तथा संग्राम शास्त्र में पढ़ा जाता है। तो बतलाओ-वह कैसा है ?
बटुगण – अरे, सुनिए!
उसकी पिछली ओर बहुत लम्बी पूँछ लटकती है और वह उसे निरन्तर हिलाता रहता है। उसकी गर्दन लम्बी और उसके खुर भी चार ही हैं। वह घास खाता है और आम्र-फलों जैसा, मलत्याग (लीद) करता है। अब अधिक वर्णन करने की आवश्यकता नहीं-वह घोड़ा दूर निकला जा रहा है। आओ, आओ। चलें ॥ 4 ॥
(ऐसा कहकर उस लव के हाथ और मृगचर्म पकड़कर खींचते हैं)
लव – (बटुकों के आग्रह और विनय के साथ) हे आर्य लोगो ! देखिए ! मैं इनके द्वारा ले जाया जा रहा हूँ। (ऐसा कहकर शीघ्रता से घूमता है)

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
भूतविशेषः = विशेष प्राणी। जनपदेषु = नगरों में। अनुसूयते = सुना जाता है। पशुसमाम्नाये = पशु-शास्त्र में पशुप्रतिपादित-शब्दकोश में। सम् + आ + √म्ना + घञ्। साङ्ग्रामिके = संग्रामशास्त्र में। युद्धशास्त्र धनुर्वेद में। अजस्त्रम् = निरन्तर । पुच्छम् = पूँछ । वहति = धारण करता है। विपुलम् = अत्यधिक। धूनोति = हिला रहा है। √धूञ् + लट् प्रथम पुरुष, एकवचन। दीर्घग्रीवः = लम्बी गर्दन वाला। दीर्घा ग्रीवा यस्य सः = बहुव्रीहि समास।शष्याणि = घास को। अत्ति = खाता है। √अद् + लट् + प्रथमा पुरुष, एकवचन। प्रकिरति = बिखेरता है। प्र + √कृ+ लट् (श विकरण) लट् । प्रथम पुरुष, एकवचन। शकृत् = लीद को, मल को। पिण्डकान् = समूहों को। आममात्रान् = आम्र-फल के आकार वाले, आम्रफलों जैसा। सकौतुक-उपरोध-विनयम् = कौतुकेन, उपरोधेन विनयेन च सहितम् । कौतूहल, आग्रह और विनय के साथ। याम = चलें। √या + लोट् – उत्तम पुरुष, बहुवचन। अजिने = मृगचर्म, द्वितीया द्विवचन। नीतः = ले जाया गया। त्वरितम् = शीघ्र।

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5. अरुन्धतीजनको : महत्कौतुकं वत्सस्य।
कौसल्या : अरण्यगर्भेरुपालापै!यं तोषिता वयं च। भगवति ! जानामि तं पश्यन्ती वञ्चितेव। तस्मादितोऽन्यतो भूत्वा प्रेक्षामहे तावत् पलायमानं दीर्घायुषम्।
अरुन्धती : अतिजवेन दूरमतिक्रान्तः स चपलः कथं दृश्यते ? (प्रविश्य)
बटव: : पश्यतु कुमारस्तावदाश्चर्यम्।
लवः : दृष्टमवगतं च। नूनमाश्वमेधिकोऽयमश्वः।
बटवः : कथं ज्ञायते ?
लवः : ननु मूर्खा: ! पठितमेव हि युष्माभिरिपि तत्काण्डम्। किं न पश्यथ ? प्रत्येकं शतसंख्याः कवचिनो दण्डिनो निषडगिणश्च रक्षितारः। यदि च विप्रत्ययस्तत्पृच्छत।

हिन्दी-अनुवादः
अरुन्धती और जनक : बालक को (घोड़ा देखने का) बड़ा कौतूहल है।
कौशल्या : वनवासी बालकों के रूप और बातचीत से आप और हम लोग बड़े सन्तुष्ट हुए हैं। भगवति अरुन्धती ! मुझे तो ऐसा लगता है कि, मानो मैं उसे देखती हुई ठगी-सी रह गई हूँ। इसलिए यहाँ से दूसरी ओर होकर, इस भागते हुए दीर्घायु बालक को देखें।
अरुन्धती : अत्यन्त वेग से दूर निकलने वाला वह चंचल (बालक) कैसे देखा जा सकता है ? (प्रवेश कर)
बटुगण : (आप) कुमार, इस आश्चर्य को देखें।
लव : देख लिया और समझ भी लिया। निश्चय ही यह ‘अश्वमेध’ यज्ञ का घोड़ा है।
बटुगण : कैसे जानते हो ?
लव : अरे मूर्यो ! तुम लोगों ने भी वह काण्ड’ (अश्वमेध-प्रतिपादक वेद का अध्याय) पढ़ा ही है। फिर क्या तुम सैंकड़ों की संख्या में कवचधारी दण्डधारी तथा तरकसधारी सैनिकों को नहीं देखते ? और यदि तुम्हें विश्वास नहीं होता, तो (इन अनुयायी रक्षकों से) पूछ लो।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
कौतुकम् = कौतूहल। अरण्यगर्भेरुपालापैः = अरण्यगर्भाणां-वनवासिनाम्-बालकानाम् उपालापैः । वनवासी बालकों की बातचीत से। तोषिताः = सन्तुष्ट हो गए। वञ्चिताः इव = मानो ठगी गई (हूँ)। अन्यतः भूत्वा = दूसरी ओर होकर (जाकर)। प्रेक्षामहे = देखते हैं, देखें। प्र + √ईक्ष् + लक्ष् + उत्तम पुरुष, बहुवचन । पलायमानम् = दौड़ते (भागते)
हुए को, परा + √अय् + लट् + शानच्। दीर्घायुषम् = दीर्घम् आयुः यस्य सः-दीर्घजीवी को। अतिजवेन = अत्यन्त वेग से। अवगतम् = समझ लिया। काण्डम् = अध्याय को। कवचिनः = कवच वाले। दण्डिनः = दण्ड (डंडे, लाठी) लिए हुए। निषङ्गिणः = तरकस लिए हुए. निषड्गाः सन्ति येषां ते। प्रथमा बहुवचन। विप्रत्ययः = अविश्वास, संदेह । वि + प्रति + √इण् + अच्।

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6. बटवः : भो भोः! किंप्रयोजनोऽयमश्वः परिवृतः पर्यटति ?
लवः : (सस्पृहमात्मगतम्) ‘अश्वमेध’ इति नाम विश्व-विजयिनां क्षत्रियाणामूर्जस्वल: सर्वक्षत्रपरिभावी महान् उत्कर्षनिकषः। (नेपथ्ये) योऽयमश्वः पताकेयमथवा वीरघोषणा। सप्तलोकैकवीरस्य दशकण्ठकुलद्विषः॥5॥
अन्वयः- यः अयं अश्वः, इयं पताका अथवा वीरघोषणा (अस्ति) (सः) सप्तलोक एकवीरस्य दशकण्ठकुलद्विषः (रामस्य) अस्ति।
लवः : (सगर्वम्) अहो ! सन्दीपनान्यक्षराणि।
बटवः : किमुच्यते ? प्राज्ञः खलु कुमारः।
लवः : भो भोः! तत्किमक्षत्रिया पृथिवी ? यदेवमुद्घोष्यते ?
(नेपथ्ये) रे, रे, महाराज प्रति कः क्षत्रियः ?

हिन्दी-अनुवादः
बटु-गण : अरे ! रक्षकों (सैनिकों) से घिरा हुआ यह घोडा, क्यों घूम रहा है ?
लवः : (अभिलाषापूर्वक, मन में) ‘अश्वमेध यज्ञ’ यह विश्व को जीतने वाले क्षत्रियों की शक्तिशाली तथा समस्त (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली श्रेष्ठता की कसौटी है।
(नेपथ्य में) यह जो घोड़ा (दिखाई दे रहा है) वह सातों लोकों में, एकमात्र वीर रावण के कुल के शत्रु, (भगवान् राम) की विश्व विजय-पताका है अथवा वीर घोषणा है ।। 5 ।
लवः : (गर्व के साथ) ओह, ये शब्द तो बहुत क्रोध पैदा करने वाले हैं।
बटुगण : क्या कह रहे हो (कि यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है) तब तो कुमार बहुत जानकार हैं।
(क्योंकि बिना पूछे ही समझ लिया था कि यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है।)
लव : अरे, अरे, सैनिको ! तो क्या पृथ्वी क्षत्रिय-शून्य है ? जो इस प्रकार घोषणा कर रहे हो ? (नेपथ्य में) अरे, रे, महाराज के सामने कौन क्षत्रिय है ? अर्थात् ऐसा कौन-सा क्षत्रिय है, जो कि भगवान् राम की तुलना में आ सकता है ?

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
परिवृतः = (रक्षकों से) घिरा हुआ। पर्यटति = घूम रहा है। उर्जस्वलः = शक्तिशाली, बलवान् । सर्वक्षत्रपरिभावी = सारे (शत्रु) राजाओं को पराजित करने वाली। उत्कर्ष-निकषः = श्रेष्ठता की कसौटी। सप्त-लोक-एकवीरस्य = सातों लोकों में एकमात्र वीर। दशकण्ठ-कुलद्विषः = रावण के कुल के शत्रु-दशकण्ठस्य कुलं द्वेष्टि इति तस्य। सन्दीपनानि = भड़काने वाले, क्रोध पैदा करने वाले। प्राज्ञः = बुद्धिमान, विज्ञ।

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7. लवः : धिग् जाल्मान्।
यदि नो सन्ति सन्त्येव केयमद्य विभीषिका।
किमुक्तैरेभिरधुना, तां पताकां हरामि वः॥6॥
अन्वयः – यदि (क्षत्रियाः) नो सन्ति, सन्ति एव, अद्य इयं विभीषिका का ? अधुना एभिः उक्तैः किम् ? (अहम्) वः तां पताकां हरामि॥ हे बटवः ! परिवृत्य लोष्ठैरभिजन्त उपनयतैनमश्वम्। एष रोहितानां मध्येचरो भवतु। (प्रविश्य सक्रोधः)
पुरुष: : धिक् चपल ! किमुक्तवानसि ? तीक्ष्णतरा ह्यायुधश्रेणयः शिशोरपि दृप्तां वाचं न सहन्ते। राजपुत्रश्चन्द्रकेतुर्दुर्दान्तः, सोऽप्यपूर्वारण्यदर्श-नाक्षिप्तहृदयो न यावदायाति, तावत् त्वरितमनेन तरुगहनेनापसर्पत।
बटव: : कुमार ! कृतं कृतमश्वेन। तर्जयन्ति विस्फारित-शरासनाः कुमारमायुधश्रेण्यः। दूरे चाश्रमपदम्। इतस्तदेहि। हरिणप्लुतैः पलायामहे।
लवः : किं नाम विस्फुरन्ति शस्त्राणि ? (इति धनुरारोपयति)

हिन्दी-अनुवादः
लवः : तुम, नीचों को धिक्कार है। यदि क्षत्रिय नहीं हैं, (ऐसा कहते हो तो) मैं कहता हूँ कि वे क्षत्रिय हैं ही। फिर यह व्यर्थ का भय क्यों दिखा रहे हो ? अब इन बातों को कहने से क्या लाभ ? मैं तुम्हारी उस पताका का हरण कर रहा हूँ (यदि तुममें शक्ति हो तो मुझे रोको) ॥6॥ अरे बटुको ! इस घोड़े को घेरकर ढेलों से मारते हुए (आश्रम में) ले आओ। यह घोड़ा भी मृगों के बीच विचरण करे। (मृगों के साथ ही यह भी घास खाया करे)।

पुरुष : चुप, चपल बालक ! क्या कह रहे हो ? “तीखे शस्त्र बच्चे की भी गर्वीली वाणी नहीं सहते। (अर्थात् हमारे शस्त्रधारी तुम्हारी कटु गर्वभरी वाणी नहीं सहन करते)। राजकुमार चन्द्रकेतु बड़े दुःसाहसी (दुर्दमनीय) हैं। वह परम रमणीय वन की शोभा देखने में उत्सुक (आकर्षित हुए), जब तक नहीं आते हैं, तब तक तुम इन सघन (घने) वृक्षों में छिपकर भाग जाओ।” बटुगण कुमार ! घोड़े को रहने दो। धनुष ताने हुए शस्त्रधारियों के समूह तुम्हें धमका रहे हैं और आश्रम यहाँ से दूर है। अतः आओ, हरिणों की भाँति कूद-कूद कर भाग चलें। लव

बटुगण : क्या (अश्व रक्षकों के) शस्त्र चमक रहे हैं ? (अपना धनुष चढ़ाता है)

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
जाल्मान् = नीचों को। विभीषिका = भय। वः = तुम्हारी। युष्माकम्-षष्ठी बहुवचनस्य विकल्पे शब्दः। परिवृत्य = . घेरकर। लोष्ठैः = ढेलों से। अभिनन्तः = मारते हुए। उपनयत= ले आओ। रोहितानाम् = हरिणों के। चपल = चंचल ! आयुध-श्रेण्यः = शस्त्र समूह। शस्त्रधारी लोग। दृप्ताम् = गर्वीली को, कटु। दुर्दान्तः = दुर्दमनीय। अपूर्व-अरण्यदर्शनआक्षिप्त-हृदयः = अपूर्वम् अरण्यस्य दर्शनेन आक्षिप्तं हृदयं यस्य सः। बहुब्रीहि समास। अपूर्व वन की शोभा देखने में संलग्न मन वाला। त्वरितम् = शीघ्र।अपसर्पत = भाग जाओ। अप + √सृप् + लोट् + मध्यम पुरुष, बहुवचन । कृतं कृतम् = रहने दो, बस करो। तर्जयन्ति = धमका रहे हैं, डाँट रहे हैं। विस्फारित शरासनाः = धनुषों को ताने हुए। विस्फारितानि शर-आसनानि यैः ते। बहुव्रीहि समास। इतः = यहाँ से। एहि = आओ। हरिणप्लुतैः = हरिणों सी छलांगों से। हरिणानां प्लुतैः इव। पलायामहे = (हम) भाग जाएँ। भाग चलें । परा (पला) + √अय् + लट् + उत्तम पुरुष, बहुवचन । विस्फुरन्ति = चमक रहे हैं। वि + √स्फुर् + लट् + प्रथम पुरुष, बहुवचन। आरोपयति = (धनुष) चढ़ाता है।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 3 बालकौतुकम्

बालकौतुकम् (बालकों की उत्सुकता) Summary in Hindi

बालकौतुकम् पाठ परिचय

प्रस्तुत नाट्यांश ‘बालकौतुकम्’ संस्कृत के महान् नाटककार भवभूति के प्रसिद्ध नाटक ‘उत्तररामचरितम्’ के चतुर्थ अंक से सम्पादित किया गया है।

संस्कृत के नाटककारों में भवभूति को कालिदास जैसा गौरव प्राप्त है। भवभूति पद्मपुर के निवासी थे तथा उदुम्बरकुल के ब्राह्मण थे। इनके पितामह का नाम भट्ट गोपाल था, जो स्वयं एक महाकवि थे। इनके पिता का नाम नीलकण्ठ तथा माता का नाम जतुकर्णी था। भवभूति का दूसरा नाम ‘श्रीकण्ठ’ था। भवभूति शिव के उपासक थे, इनके गुरु का नाम ज्ञाननिधि था। भवभूति का स्थितकाल कतिपय पुष्ट प्रमाणों के आधार पर 700 ई० के आस-पास माना जाता है।

रचनाएँ-भवभूति की तीन रचनाएँ (नाटक) उपलब्ध होती हैं
1. मालतीमाधवम्
2. महावीरचरितम् तथा
3. उत्तररामचरितम् ।

मालतीमाधवम्-यह 10 अंकों का नाटक है। इसमें नाटक की नायिका मालती तथा नायक माधव के प्रेम और विवाह की कल्पित कथा चित्रित है। यह एक शृंगार प्रधान रचना है। मालतीमाधव में पाठकों की उत्सुकता जगाए रखने के पूरी चेष्टा की गई है, जिसमें भवभूति सफल हुए हैं। रोचक कथानक यथार्थ चित्रण तथा प्रभावपूर्ण भाषा के कारण यह नाटक प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। पाँचवें अंक में शमशान का वर्णन तथा नौवें अंक में वन का वर्णन दर्शनीय है। पत्नी के आदर्श सम्बन्ध का वर्णन भी अद्वितीय है। काव्य की दृष्टि से मालतीमाधव एक उत्कृष्ट कृति कही जा सकती

महावीरचरितम्-यह सात अंकों का नाटक है। इसमें राम के विवाह से लेकर राम के राज्याभिषेक की कथा को नाटकीय रूप दिया गया है। कवि ने रामायण की कथा को रोचक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है और उसे अधिकाधिक नाटकीय बनाने के लिए कथा में स्वेच्छा से परिवर्तन भी किया गया है। नाटकीय तत्त्वों के अभाव तथा लम्बे संवादों के कारण यह नाटक सामाजिकों की ओर आकृष्ट नहीं कर सका। महावीरचरितम् में मुख्य रूप से वीररस का परिपाक हुआ है।

उत्तररामचरितम्-उत्तररामचरित भवभूति का अन्तिम और सवश्रेष्ठ नाटक है। यह कृति भवभूति के जीवन के प्रौढ़ अनुभवों की देन है। कवि के अन्य दोनों नाटकों की अपेक्षा उत्तररामचरित की कथावस्तु तथा नाटकीय कौशल अधिक प्रौढ़ हैं। भवभूति की अत्यधिक भावुकता ने इस ‘उत्तररामचरितम्’ को नाटक के स्थान पर गीति नाट्य बना दिया है। इसमें कुल सात अंक हैं। राम के उत्तरकालीन जीवन की कथा पर जितने भी ग्रन्थ लिखे गए हैं, उनमें उत्तररामचरित जैसी प्रसिद्धि किसी भी ग्रन्थ को नहीं मिल पाई।

यद्यपि उत्तररामचरित का मूल आधार वाल्मीकि रामायण है परन्तु भवभूति ने इसमें अनेक मौलिक परिवर्तन किए हैं। उत्तररामचरित का प्रमुख रस करुण है। करुण रस की अभिव्यंजना में भवभूति इतने सिद्धहस्त हैं कि मनुष्य तो क्या निर्जीव पत्थर भी रो पड़ते हैं। भवभूति की स्थापना है कि एक करुण रस ही है, अन्य शृंगार आदि तो उसी के निमित्त रूप है-‘एको रसः करुण एवं निमित्तभेदात्’। ‘उत्तररामचरितम्’ के तीसरे अंक में करुण रस की जो अजस्र धारा बही है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। करुण रस की इस अद्भुत अभिव्यजंना के कारण ही ये उक्तियाँ प्रसिद्ध हो गई है

‘कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते’
उत्तरे रामचरिते भवभूतिः विशिष्यते।

बालकौतुकम् पाठस्य सारः
‘लवकौतुकम्’ यह पाठ ‘भवभूति’ द्वारा रचित ‘उत्तररामचरितम्’ नाटक से लिया गया है। उत्तररामचरितम् के चौथे अंक से यह अंश उद्धृत है। भवभूति के तीनों नाटकों-‘मालतीमाधवम्’ ‘महावीरचरितम्’ तथा ‘उत्तररामचरितम्’ में उत्तररामचरित सर्वोत्कृष्ट रचना है। इसमें काव्य और नाट्य दोनों का संगम हुआ है। श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद का (उत्तरकाल का) चरित्र इसमें वर्णित है, अतः इसका नाम ‘उत्तररामचरितम्’ रखा गया है। यह नाटक करुणरस से ओतप्रोत है। इसमें कवि ने करुणरस से पत्थरों को भी रुला दिया है। श्रीराम के त्याग और वियोग से पूर्ण यह नाटक, नाट्यकला की चरमोत्कर्ष रचना है।

राजा बनने पर, श्रीराम ने सीता का वन में निर्वासन कर दिया। निर्वासिता सीता, महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रह रही है। वहीं पर ही उसके दो जुड़वाँ पुत्र लव-कुश उत्पन्न होते हैं। उनका पालन-पोषण भी आश्रम में ही हो रहा है। उन्हें शस्त्रों और शास्त्रों की विधिवत् शिक्षा दी जा रही है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा स्वयं रचित रामायण का सस्वर गान उन्हें सिखाया गया

एक बार वाल्मीकि आश्रम में, अतिथि के रूप में राजर्षि जनक, कौशल्या तथा अरुन्धती पधारते हैं। वहाँ खेलते हुए बालकों में उन्हें, एक बालक में राम और सीता की छाया दिखाई पड़ती है। वे बालक को गोद में बिठाकर अपने स्नेह को प्रकट करते हैं। इसी मध्य राजा राम का अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा आश्रम में प्रवेश कर जाता है, जिसकी रक्षा स्वयं चन्द्रकेतु (लक्ष्मण-पुत्र) कर रहे हैं। उस शहरी घोड़े को देखने की उत्सुकता आश्रम के बालकों में जागती है और वे उसे देखने के लिए अपने साथ लव को भी बुला लेते हैं। लव पहचान जाता है कि यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है। सामान्य अश्व नहीं है। घोड़े के रक्षक सैनिक घोषणा द्वारा सबको भयभीत कर रहे हैं कि यह राम का घोड़ा है, इसे पकड़ने का साहस मत करना। लव कुमार इस घोषणा को सुनकर, उस घोड़े को आश्रम में बाँधने का आदेश देते हैं। इस प्रसंग का अत्यन्त मार्मिक चित्रण पाठ में प्रस्तुत है।

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HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.5

Haryana State Board HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.5 Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.5

निम्नलिखित की रचना कीजिए-

प्रश्न 1.
एक वर्ग READ, जिसमें RE = 5.1 cm.
हल :
हम जानते हैं कि वर्ग की चारों भुजाएँ समान एवं प्रत्येक कोण 90° का होता है ।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.5 - 1
(i) सर्वप्रथम हमने RE = 5.1 cm की एक रेखा खींची।
(ii) बिन्दु E पर एक लम्ब | EX बनाया अर्थात् ∠REX =90° बनाया ।
(iii) बिन्दु E को केन्द्र मानकर EA = 5.1 cm की त्रिज्या लेकर एक चाप लगाया, जो EX को A पर काटता है ।
(iv) अब,A को केन्द्र मानकर 5.1 cm का चाप तथा R को केन्द्र मानकर 5.1 cm. का दूसरा चाप लगाया, जो एक दूसरे को D बिन्दु पर काटते है ।
(v) बिन्दु D को R तथा A से मिलाया ।
अतः, READ अभीष्ट वर्ग है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.5

प्रश्न 2.
एक समचतुर्भुज जिसके विकर्णों की लम्बाई 5.2 cm और 6.4 cm है।
हल :
हम जानते हैं कि एक-दूसरे को समकोण (90°) पर समद्विभाजित करते है।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.5 - 2
(i) सर्वप्रथम AC = 6.4 cm. खींची । फिर इस विकर्ण को लम्ब सम-द्विभाजित किया। जो AC को O पर काटता
(ii) O को केन्द्र मानकर \(\frac { 56 }{ 2 }\) = 2.6 cm दूरी लेकर समद्विभाजक के दोनों और चाप बिन्दु B तथा D पर काटे ।
(iii) अब, बिन्दुओं B और D को क्रमशः बिन्दुओं A तथा C से मिलाया ।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.5 - 3
इस प्रकार, ABCD अभीष्ट सम-चतुर्भुज हुआ।

प्रश्न 3.
एक आयत जिसकी आसन्न भुजाओं की – लम्बाई 5.0 cm तथा 4.0 cm है।
हल :
हम जानते हैं कि,
आयत के आमने-सामने की भुजाएँ समान एवं इसका प्रत्येक कोण समकोण (90°) होता है?
अत: AB = CD = 5 cm होता है।
BC = DA= 4 cm तथा ∠B = 90°
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.5 - 4
(i) सर्वप्रथम AB = 5cm रेखा खींची।
(ii) बिन्दु B पर 90° का कोण बनाती हुई BX रेखा खींची।
(iii) बिन्दु B से BC = 4cm का चाप काय ।
(iv) अब, बिन्दु से 5cm तथा बिन्दु A से ।
4 cm के दो चाप काटे, जो एक-दूसरे से बिन्दु D पर मिलते हैं। A 5om
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.5 - 5
(v) बिन्दु D को क्रमशः बिन्दु A तथा बिन्दु C से मिलाया।
अत: ABCD अभीष्ट आयत है ।

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प्रश्न 4.
एक समान्तर चतुर्भुज OKAY, जहाँ OR= 5.5cm तथा KA = 4.2 cm. हैं। क्या यह अद्वितीय है?
हल :
(i) सर्वप्रथम OK = 5.5cm की रेखा खीर्ची ।
(ii) बिन्दु K पर एक किरण KP खींची ।
(iii) किरण KP में से KA = 4.2 सेमी का एक चाप काटा ।
(iv) A को केन्द्र मानकर 5.5cm त्रिज्या का एक चाप लगाया ।
(v) पुनः O को केन्द्र मानकर 4.2 cm का एक चाप लगाया, जो पहले चाप को Y बिन्दु पर काटता है ।
(vi) Y को O तथा A से मिलाया ।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.5 - 6
अत: OKAY अभीष्ट समान्तर चतुर्भुज हुआ।

नोट : यह समान्तर चतुर्भुज अद्वितीय नहीं है क्योंकि किरण KP भिन्न-भिन्न कोणों पर खींची जा सकती है। अत: उन भुजाओं से अनेक समान्तर चतुर्भुज बन सकते है ।

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HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.4

Haryana State Board HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.4 Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.4

प्रश्न 1.
निम्नलिखित चतुर्भुजों की रचना कीजिए-
(i) चतुर्भुज DEAR, जिसमें
DE = 4 cm
EA = 5 cm
AR= 4.5cm
∠E = 60°
और ∠A = 90° हैं।

(ii) चतुर्भुज TRUE, जिसमें
TR = 3.5 cm
RU = 3 cm
UE = 4 cm
∠R = 75° और
∠U = 120° हैं।
हल :
(i) चतुर्भुज DEAR की रचना निम्नांकित है-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.4 - 1
सर्वप्रथम DE = 4 cm की रेखा खींची ।
(ii) ZDEX = 60° बनाया ।
(iii) E को केन्द्र मान कर EA = 5cm काटा ।
(iv) ∠EAY = 90° बनाया ।
(v) A को केन्द्र मानकर और AR = 4.5 cm की त्रिज्या लेकर कोण बनाने वाली रेखा में से एक चाप काटा जो AY को R पर काटता है।
(vi) RD को मिलाया।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.4 - 2
अत: DEAR एक अभीष्ट चतुर्भुज है।

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(ii) चतुर्भुज TRUE की रचना निम्नांकित है-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.4 - 3
(i) सर्वप्रथम TR = 3.5 cm को एक रेखा खींची ।
(ii) फिर ∠TRY = 75° बनाया।
(iii) R को केन्द्र मानकर RU = 3 cm त्रिज्या लेकर एक चाप लगया, जो कोण बनाने वाली रेखा को U पर काटता है।
(iv) अब U पर ∠RUX = 120° का कोण बनाया ।
(v) इस कोण बनाने वाली रेखा UX पर 4cm का चाप लगाया, जो E पर काटता है।
(vi) बिन्दु E को T से मिलाया ।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.4 - 4
अत: TRUE अभीष्ट चतुर्भुज हुआ।

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HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3

Haryana State Board HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3 Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3

प्रश्न 1.
निम्नलिखित चतुर्भुजों की रचना कीजिए
(i) चतुर्भुज MORE, जिसमें-
MO = 6 cm
OR = 4.5 cm
∠M = 105°
∠R = 105° हैं।

(ii) चतुर्भुज PLAN, जिसमें –
PL = 4 cm
LA = 6.5 cm
∠P = 90°
∠N = 85° है।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3

(iii) समान्तर चतुर्भुज HEAR, जिसमें-
HE = 5 cm
EA = 6 cm
∠R = 85° है।

(iv) आयत OKAY जिसमें,
OK = 7 cm
KA = 5cm है ।
हल :
(i) चतुर्भुज MORE की Eरचना निम्नांकित है-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3 - 1
(i) सर्वप्रथम MO = 6 cm खींची ।
(ii)0 पर, एक कोण ∠MOX =105° बनाया।
(iii) किरण Ox में से OR = 4.5 cm
(iv) R पर एक कोण ∠ORY = 105° बनाया ।
(v) M पर एक कोण∠OMZ = 60° बनाया तथा किरणें RY और MZ को बिन्दु E पर प्रतिब्छेद कराया।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3 - 2
नोट : प्रतिच्छेद बिन्दु से बढ़ी हई रेखाओं तथा चाप को मिटाना नहीं चाहिए ।
अत: MORE अभीष्ट चतुर्भुज है ।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3

(ii) चतुर्भुज PLAN की रचना निम्नांकित है-
रचना-
हम जानते हैं कि चतुर्भुज के पारों कोणों का योग 360° होता है।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3 - 3
अत: ∠P + ∠L + ∠A + ∠N = 360°
90° + ∠L + 110° + 85° = 360°
∠L = 360° – 285°
∠L = 75°

(i) सर्वप्रथम PL = 4 cm खींचा ।
(ii) बिन्दु L पर एक कोण ∠PLX = 75° बनाया ।
(iii) किरण LX में से AL = 6.5 cm काटा ।
(iv) A पर एक कोण ∠LAY = 110° बनाया ।
(v) P पर एक कोण ∠LPZ = 90° बनाया । किरणें AY तथा PZ बिन्दु N पर काटती है।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3 - 4
अत: PLAN एक अभीष्ट चतुर्भुज है ।

HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3

(iii) समान्तर चतुर्भुज HEAR की रचना निम्नांकित-
रचना-
हम जानते हैं किसमान्तर चतुर्भुज की सम्मुख भुजाएँ “Pass समान तथा सम्मुख कोण समान होते
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3 - 5
∠R = ∠E = 85°
∠H = ∠A = 95°

(i) सर्वप्रथम HE = 5cm खींची।
(ii) E पर एक कोण ∠HEX = 85° बनाया।
(iii) किरण EX में से EA = 6cm. काटा ।
(iv) A पर एक कोण ∠EAY = 95° बनाया ।
(v) बिन्दुम पर कोण ∠EHZ = 95° बनाया तथा AY और HZ बिन्दु R पर प्रतिच्छेद होती हैं।
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3 - 6
अत: HEAR एक अभीष्ट चतुर्भुज हुआ।

(iv) आयत OKAY की। रचना निम्नांकित है-
रचना-
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3 - 7
(i) सर्वप्रथम, हमने OK = 7 cm खींची ।
(ii) बिन्दु K, पर ∠OKA° =90° बनाया ।
(iii) बिन्दु K से लम्ब KA = 5cm काटा, जिसे A नाम दिया ।
(iv) आयत की आमने-सामने की भुजाएँ समान होती हैं।
अत: OK = AY = 7 cm तथा OY = KA = 5 cm.
HBSE 8th Class Maths Solutions Chapter 4 प्रायोगिक ज्यामिती Ex 4.3 - 8
अब बिन्दु A से 7 cm का तथा बिन्दु०से 5cm का चाप लगाये जो एक-दूसरे को Y पर काटते हैं। Y को A तथा O बिन्दुओं से मिलाया ।
अत: OKAY अभीष्ट आयत है।

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