Class 11

HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 6 पुष्पी पादपों का शारीर

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 6 पुष्पी पादपों का शारीर Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 6 पुष्पी पादपों का शारीर

प्रश्न 1.
विभिन्न प्रकार के मेरिस्टेम की स्थिति तथा कार्य बताइए।
उत्तर:
विभज्योतक या मेरिस्टेम (Meristems) :
विभज्योतक अथवा मेरिस्टेम (Meristems)-प्रूणावस्थां में पौधे की सभी कोशिकाओं में विभाजन की क्षमता होती है, लेकिन वृद्धि की विभिन्न अवस्थाओं में विभाजन शीलता का लक्षण केवल कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रह जाता है। पौधे में उपस्थित ऐसे श्रूणीय क्षेत्र (emtryonal zone) जिनकी कोशिकाओं में विभाजन की अपार क्षमता होती है विभुज्योतक अथवा में मेरिस्टेम क्षेत्र कहलाते हैं अतः मेरिस्टेम एक ऐसा स्थानीयत (localized) क्षेत्र है जिसकी कोशिकाएँ सक्रिय रुप से विभाजित होती हैं। पौधों में कुछ ऐसे चिरस्थाई प्रूणीय क्षेत्र होते हैं जिनकी कोशिकाएँ लगभग अनिश्चित समय तक विभाजित होती हैं तथा नए ऊतक एवं अंग बनाती हैं।

प्रश्न 2.
कार्क कैम्बियम ऊतकों से बनता है जो कार्क बनाते हैं। क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कार्क कैम्बियम (Cork Cambium) तने के आन्तरिक भागों में द्वितीयक संवहन ऊतकों के निरन्तर जुड़ते रहने से वल्कुट (Cortex) में खिंचाव आता है। बाह्य भाग के ऊतकों की एक परत विभेदित होकर विभज्योतकी (meristematic) हो जाती है इसे फैलोजन या कार्क कैम्बियम (phellogen or cork cambium) कहते हैं।

फैलोजन पूर्ण रूप से द्वितीयक विभज्योतक है। यह प्रायः कार्टेक्स की बाह्य परत से उत्पन्न होता है। कभी-कभी यह बाह्य त्वचा (जैसे- कनेर), अधस्त्वचा (जैसे-नाशपाती) कार्टेक्स की आन्तरिक परत परिरम्भ (pericycle) या फ्लोएम मुदूतक (जैसे- अंगूर) आदि से भी विकसित होता है।

फैलोजन मातृ कोशिकाएँ एक या अधिक बार विभाजित होकर विभज्योतकी कोशिकाएँ बनाती हैं। कार्क कोशिकाएँ सुबेरिनमय (suberinized) होने के कारण मृत हो जाती हैं। इनमें अन्तरा कोशिकीय अवस्था (Intercellular space) अनुपस्थित होते हैं अतः ये सघन होती हैं। ये कोशिकाएँ जल के लिए अपारगम्य होती हैं तथा इनमें वायु भरी होती है। कार्क पौधे को यांत्रिक शक्ति प्रदान करती है।

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प्रश्न 3.
चित्रों की सहायता से काष्ठीय एन्जियोस्पर्म के तने में द्वितीयक वृद्धि के प्रक्रम का वर्णन कीजिए। इसकी क्या सार्थकता है ?
उत्तर:
द्वितीयक वृद्धि (Secondary growth ) – शीर्षस्थ विभज्योतक (apical meristem) की कोशिकाओं में विभाजन, विभेदन तथा परिवर्धन के फलस्वरूप प्राथमिक ऊतक (primary tissues) बनते हैं। इस प्रकार पौधे की लम्बाई में वृद्धि होती है, इसे प्राथमिक वृद्धि (primary growth) कहते हैं। द्विबीजपत्री (dicotyledons) तथा अनावृतबीजी ( gymnosperns) के काष्ठीय पौधों में पार्श्व विभज्योतक के कारण जड़ तथा तने की मोटाई में वृद्धि होती है।

इसे द्वितीयक वृद्धि कहते हैं अर्थात् पार्श्व विभज्योतकों द्वारा द्वितीयक ऊतकों का निर्माण द्वितीयक वृद्धि कहलाता है। द्विबीजपत्री तनों में दो प्रकार के द्वितीयक ऊतक विकसित होते हैं। ये द्वितीयक संवहन ऊतक तथा द्वितीयक भरण ऊतक (ground tissue) हैं।

द्वितीयक संवहन ऊतक संवहन ऐधा (vascular camsium) द्वारा तथा द्वितीयक भरण ऊतक फैलोजन या कॉर्क ऐधा से निर्मित होता है। काष्ठीय एन्जियोस्पर्म (द्विबीजपत्री) के तने में द्वितीयक वृद्धि (secondary growth in wood Angiosperm (dicot) stem) कृपया।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में विभेद कीजिए-
(अ) ट्रैकीड तथा वाहिका
(ब) पैरन्काइमा तथा कॉलेन्काइमा
(स) रसदारु तथा अन्तः काष्ट
(द) खुला तथा बंद संवहन बण्डल ।
उत्तर:
(अ) ट्रैकीड तथा वाहिका में अन्तर (Differences between tracheld and vessel)

वाहिनिकाएँ (Trachelds )वाहिकाएँ (Vessels)
1. ये लम्बी, अपेक्षाकृत संकरी तथा लिग्निनयुक्त (lignified ) कोशिकाएँ हैं जो दोनों सिरों पर संकरी तथा नुकीली होती हैं।ये लम्बी, अपेक्षाकृत चौड़ी तथा लिग्निनयुक्त कोशिकाएँ होती हैं। कोशिकाओं के चौड़े सिरे पूर्णतया या आंशिक रूप से जुड़े होने से ये नलिकाकार रचना बनाती हैं।
2. ये कोशिकाएँ सिरों से सिरों पर अन्य वाहिनिकाओं के साथ चिपकी रहती हैं।अनेक कोशिकाएँ सिरों पर जुड़कर एक सतत् रचना बनाती हैं। ये कोशिकाएँ अलग-अलग नहीं की जा सकती हैं।
3. दो संलग्न वाहिनिकाओं के सन्धितल पर गर्तमय (pitted) भित्तियाँ होती । इन गर्तों से ही जल आदि का संवहन होता है।वाहिकाओं के मध्य अनुप्रस्थ भित्तियाँ नहीं होती हैं। अतः संवहन एक सिरे से दूसरे सिरे तक बिना किसी अवरोध के होता है।
4. ये ट्रेकियोफाइटा के सभी सदस्यों में उपस्थित होती है।ये केवल आवृतबीजी पौधों (कुछ जिम्नोस्पर्म) में पायी जाती हैं।

(ब) पैरन्काइमा तथा कॉलेन्काइमा में अन्तर (Differences between parenchyma and collenchyma

मृदूतक या पैरन्काइमा (Parenchyma)स्थूल कोण ऊतक या कॉलेन्काइमा (Collenchyma)
1. यह एक सरल ऊतक है जिसकी कोशिकाएँ स्थाई तथा जीवित होती हैं।यह भी एक सरल ऊतक है, जिसकी कोशिकाएँ स्थाई तथा जीवित होती हैं।
2. ये सभी पादप अंगों में पाये जाते हैं।द्विबीजपत्रियों (dicotyledons) के वायवीय भागों में होते हैं।
3. ये प्राथमिक या द्वितीयक दोनों ही प्रकार के ऊतक होते हैं।ये प्राथमिक ऊतक हैं।
4. इसकी कोशिकाएँ गोल, अण्डाकार, बहुभुजी एवं समव्यासी होती हैं।कोशिकाएँ बेलनाकार, बहुभुजी तथा प्रायः लम्बी होती हैं।
5. कोशिका भित्ति पतली होती है।कोशिका भित्ति मोटी होती है।
6. स्थूलन यदि है तो समरूपी होता है।स्थूलन अनियमिताकार होता है।
7. ये कोमल ऊतक को तनन शक्ति प्रदान करते हैं।ये कोमल रचनाओं को लचीलापन तथा यांत्रिक शक्ति प्रदान करते हैं।
8. कोशिकाओं में क्लोरोप्लास्ट होने पर भोजन निर्माण करती है तथा स्टार्च, वसा व प्रोटीन संचित होते हैं।कभी-कभी क्लोरोप्लास्ट पाया जाता है।

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(स) रसदारु तथा अन्तःकाष्ठ में अन्तर (Differences between Sap wood and Heart wood)-

रसदारु या रसकाष्ठ (Sap wood)अन्तःकाष्ठ (Heart wood)
1. यह पुराने तनों में जाइलम का बाहरी भाग है जो हल्के रंग का होता है।यह पुराने तनों में द्वितीयक जाइलम के अन्दर या केन्द्र का भाग है। यह गहरे भूरे रंग का होता है।
2. यह द्वितीयक जाइलम का सक्रिय भाग है।यह द्वितीयक जाइलम का अक्रिय भाग है।
3. इसमें जीवित मृदूतक होते हैं।इसमें मृदूतक नष्ट प्रायः हो चुके होते हैं।
4. इनमें टायलोसिस (Tylosis) का अभाव होता है।इनमें टायलोसिस उपस्थित होते हैं।
5. रस काष्ठ की वाहिकाओं की गुहाएँ अवरुद्ध नहीं होती हैं। ये जल एवं खनिज पदार्थों का संवहन करती है।अन्तःकाष्ठ की वाहिकाओं का मार्ग अवरुद्ध हो जाने के कारण ये जल तथा खनिज लवणों का संवहन नहीं कर सकती।
6. ये संवहन एवं संचयन में भाग लेते हैं।ये पौधों को यांत्रिक शक्ति प्रदान करते हैं।

(द) खुला तथा बन्द संवहन बण्डल में अन्तर (Differences between open and closed vascular bundes

खुले संवहन बण्डलबंद संवहन बण्डल
1. ये द्विबीजपत्री तनों (dicot stems) में पाये जाते हैं।ये एकबीजपत्री तनों (monocot stems) में पाये जाते हैं।
2. इसमें संवहन बण्डल के जाइलम तथा फ्लोएम के बीच अन्तरालीय ऐधा (intra-fascicular cambium) पायी जाती है।इनमें इस प्रकार की विभज्योतक पट्टी नहीं पायी जाती है।
3. जाइलम तथा फ्लोएम प्रत्यक्ष सम्पर्क में नहीं होते हैं।जाइलम तथा फ्लोएम प्रत्यक्ष सम्पर्क में होते हैं।
4. संवहन बण्डल संयुक्त, बहि-फ्लोएमी या उभय फ्लोएमी होते हैं।संवहन बण्डल संयुक्त, बहिफ्लोएमी होते हैं।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में शारीर के आधार पर अन्तर कीजिए-
(अ) एकबीजपत्री मूल तथा द्विबीजपत्री मूल
(ब) एकबीजपत्री तना तथा द्विबीजपत्री तना
उत्तर:
(अ) एकबीजपत्री मूल तथा द्विबीजपत्री मूल में अन्तर (Differences between Monocot root and Dicot root) –

जकक (Tissue)एकबीजफत्री मूल (Monocot root)द्विधीजषत्री मूल (Dicot root)
1. वल्कुट (Cortex)यह स्तर अपेक्षाकृत चौड़ा होता है।यह स्तर अपेक्षाकृत अधिक चौड़ा होता है।
2. अन्तस्त्वचा (Endodermis)इस भाग की कोशिकाएँ स्थूलित भित्तियों वाली होती है, अतः इनमें मार्ग कोशिकाएँ (passage cells) अधिक स्पष्ट होती हैं।कोशिकाओं की भित्तियाँ पतली होती हैं केवल अरीय भित्तियों पर कैस्पेरियन पट्टियाँ (casparian strips) होती हैं अतः मार्ग कोशिकाएँ स्पष्ट नहीं होती हैं।
3. परिरम्भ (Pericycle)परिरम्भ से पार्श्व मूलों का निर्माण होता है।पार्श्व मूलों के अतिरिक्त ऐधा, (cambium) तथा कार्क ऐधा (cork cambium) निर्माण में सहायता मिलती है।
4. संवहन पूल (Vascular bundle)(a) प्राय: 6 से अधिक होते हैं।

(b) जाइलम वाहिकाएँ गोलाकार या अण्डाकार तथा बड़ी गुहा वाली होती है।

(c) ऐधा का निर्माण नहीं होता है।

(a) संवहन पूल प्रायः 2-6 तक होते हैं।

(b) जाइलम वाहिकाएँ बहुभुजी (polygonal) तथा अपेक्षाकृत छोटी गुहा वाली होती हैं।

(c) द्वितीय वृद्धि के समय ऐधा (cambium) का निर्माण होता है।

5. मज्जा (Pith)सुविकसित होता है।अल्पविकसित या अविकसित होता है।

(ब) एकबीजपत्री तने तथा द्विबीजपत्री तने में अन्तर (Differences between Monocot stem and Dicot stem) –

जकक (Tissue)एकबीजपत्री तना (Monocot stem)द्विजीजपप्री तना (Dicot stem)
1. बाह्य त्वचा (Epidermis)1. बाह्य त्वचा पर प्रायः रोम नहीं पाये जाते हैं।1. बाह्य त्वचा प्रायः रोमयुक्त होती है।
2. अधस्तचा (Hypodermis)2. यह दृढ़ोतकी (sclerenchymatous) होती है। कोशिकाएँ मृत व कोशिकाभित्ति लिग्निन युक्त होती हैं।2. यह स्थूलकोण ऊतकी (collenchyma- tous) होती है।
3. वल्कुट (Cortex)3. इनमें वल्कुट अविभेदित होता है।3. कोशिकाएँ जीवित तथा कोशिका भित्ति पर पैक्टिन, सेल्युलोस या हेमी सैल्युलोस के स्थानीय स्थूलन होते हैं। वल्कुट पैरन्काइमा की कुछ परतों का बना होता है।
4. अन्तस्तचा (Endodermis)4. यह अनुपस्थित होती है।4. एक कोशिकीय मोटी परत होती है जिसकी कोशिकाओं में स्टार्च कण मिलते हैं।
5. परिक्म (Pericycle)5. प्राय: अनुपस्यत होती है।5. उपस्थित होती हैं जिसमें मृदूतक या कभी-कभी दृढ़ोतक के समूह (patches) मिलते हैं।
6. संबहन पूल (Vascular bundles)6. (a) भरण उतक में बिखरे रणते हैं।
(b) सदैव बन्द या अवर्षी होते है।(c) प्रत्येक पूल के चारों और दछ़ोतकी पूलाच्छद (bundle sheath) होती है। 0.0(d) जाइल वाहिताएँ ‘V’ या ‘Y’ आकार में विन्यासित जिता 1(e) फ्लोपम ‘V’ आकार के जाइलम के मध्य स्थित होता

(f) फ्लोएम में मदूतक (panenchyma) का अभाव होता है।

6. (a) एक या अधिक वलयों में विन्यासित होते हैं।
(b) सदेव खुले या वर्धी (open or closed) होते हैं।(c) पूलाच्छद (bundlesheath) का अभाव होता है।(d) वाहिकाएँ अरीय पंक्तियों में विन्यासित होती हैं।(e) फ्लोएम जाइलम के बाहर अथवा दोनों ओर होता है।

(f) फ्लोएम में मृदूतक (Parenchyma) होता है।

7. मज्ञा रश्म (Medullary rays)7. मज्ञा रंश्म नतीं पायी जाती है।7. मज्जारशिम (pith rays) पायी जाती है।
8. मज्चा (Pith)8. स्पष्ट नहीं होती पिर भी केन्न्र में कमी-कभी कोशिकाएँ विघटित होकर मज्ता गुती बनाती है।8. स्पष्ट होती है, कभी-कभी कोशिकाएँ विघटित होकर
9. दितीयक वृद्धि9. कैबियम अनुपस्तित होने के कारण सामान्य सित्तियक वृद्धि नतीं होती है। परतु कुछ पौर्धों (हैस- हैसीना) में अपसामान्य जितीयक वृधि (anamalous secondary growth) होती ।9. कैम्बियम की उपस्थिति के कारण द्वितीयक वृद्धि होती है। अपसामान्य वृद्धि (ananalous growth) भी पायी जाती है।

प्रश्न 6.
आप एक शैशव तने की अनुप्रस्थ-काट का सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन कीजिए। आप कैसे पता करेंगे कि यह एकबीजपत्री तना अथवा द्विबीजपत्री तना है ? इसके कारण बताइए।
उत्तर:
शैशव तने (Young stem) की अनुप्रस्थ काट (transverse section) का सूक्ष्मदर्शी द्वारा अवलोकन करके निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर एकबीजपत्री अथवा द्विबीजपत्री तने की पहचान की जा सकती है-
(क) तने के शारीरिकी लक्षण ( Anatomical characters of stem)
(i) बाह्य त्वचा (epidermis) पर उपचर्म ( cuticle), रन्ध्र (stomata) तथा बहुकोशिकीय रोम (multicellular hair) उपस्थित होते हैं।
(ii) अधस्त्वचा (hypodermis ) उपस्थित होती है।
(iii) अन्तस्त्वचा (endodermis ) प्रायः अनुपस्थित या अल्पविकसित होती है।
(iv) परिरम्भ (pericycle) प्राय: बहुस्तरीय होती है।
(v) संवहन पूल (vascular bundle ), संयुक्त ( conjoint), बहिफ्लोएमी ( collateral) या उभयफ्लोएमी (bicollateral) होते है।
(vi) जाइलम आदिदारु (endarch) होता है।

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(ख) एकबीजपत्री तने के शारीरिक लक्षण (Anatomical characters of monocot stem)
(i) बाह्य त्वचा पर रोम अनुपस्थित होते हैं।
(ii) अधस्त्वचा दृढ़ोतकी (sclerenchymatous) होती है ।
(iii) भरण उनक (ground tissue) बल्बुर (cortex), अन्तस्त्वचा (endodermis ), परिरम्भ (pericycle) तथा मज्जा (Pith) में विभेदित नहीं होता
(iv) संवहन पूल (vascular bundles ) भरण ऊतक में बिखरे रहते हैं।
(v) संवहन पूल संयुक्त (conjoint), बहिफ्लोएमी (colletral) तथा बन्द (closed) होते हैं।
(vi) संवहन पूल के चारों ओर दृढ़ोतकी पूलाच्छद (sclerenchymatous bundle sheath) पायी जाती है।
(vii) जाइलम वाहिकाएँ (xylem vessels) ‘V’ या ‘Y’ के आकार में व्यवस्थित रहती है।

(ग) द्विबीजपत्री तने के शारीरिकी लक्षण (Anatomical Characters of Dicot Stem )
(i) बाह्य त्वचा पर बहुकोशिकीय रोम उपस्थित होते हैं।
(ii) अधस्त्वचा स्थूलकोणीय (collenchymatous) होती है।
(iii) भरण ऊतक, वल्कुट, अन्तस्त्वचा, मज्जा तथा मज्या किरणों (medullary rays) में विभेदित होता है।
(iv) संवहन पूल एक था दो बलयों में व्यवस्थित होते हैं।
(v) संवहन पूल, संयुक्त महिफ्लोएमी या उभय फ्लोएमी तथा खुले होते हैं।
(vi) जाइलम वाहिकाएँ रेखीय क्रम में व्यवस्थित होती हैं।

प्रश्न 7.
सूक्ष्मदर्शी द्वारा किसी पौधे के
भाग की अनुप्रस्थ काट में निम्नलिखित शारीरिक रचनाएँ दिखाती है-
(अ) संवहन बण्डल संयुक्त फैले हुए तथा उसके चारों ओर स्खलेरन्काइमी आचार हैं।
(ब) फ्लोएम पैरन्काइमा नहीं है।
आप कैसे पहचानोगे कि यह किसका है ?
उत्तर:
एकबीजपत्री तने की शारीरिक रचना में संवहन बण्डल (vascular bundles ) भरण उनक (ground tissue) में बिखरे रहते हैं। इसमें संवहन बण्डल (vascular bundles ) संयुक्त तथा अवर्थी (Open) या बन्द प्रकार के होते हैं संवहन बण्डल के चारों ओर स्क्लेरन्काइमी बण्डल आच्छद (sclerenchymatous bundle sheath) पायी जाती है। फ्लोएम में फ्लोएम पैरन्काइमा (Phloem parenchyma) का अभाव होता है।
अतः सूक्ष्मदर्शी में दर्शाया गया पौधे का भाग एक बीजपत्री तना है।

प्रश्न 8.
जाइलम तथा फ्लोएम को जटिल उतक क्यों कहते हैं ?
उत्तर:
मटिल उनक (Complex Tissue) ये ऊतक एक से अधिक प्रकार की कोशिकाओं से मिलकर बनते हैं सब कोशिकाएँ मिलकर एक इकाई के रूप में संगठित होकर कार्य करती है। जाइलम तथा फ्लोएम ऐसे ही उनक हैं। जाइलम का निर्माण जाइलम वाहिनिकाओं (xylem trachcids) जाइलम वाहिकाओं (xylem vessels), जाइलम मृदूतक (xylem parenchyma) तथा जाइलम तन्तुओं (xylem fibres) से होता है।

इन्हें इलम तत्व कहते हैं। ये सब मिलकर जल व खनिजों का संवहन करते हैं। फ्लोएम का निर्माण चालनी नलिकाओं (sieve tubes), सहकोशिकाओं (companian cells) फ्लोएम मृदूतक (phloem parenchyma) तथा फ्लोएम तन्तुओं (phloem fibres) का बना होता है इन्हें फ्लोएम तत्व कहते हैं ये सब मिलकर खाद्य पदार्थों का संवहन करते हैं।

प्रश्न 9.
रन्ध्री तंत्र क्या है ? रम्र की रचना का वर्णन कीजिए और इसका चिन्हित चित्र बनाइए।
उत्तर:
ऊतक तन्त्र (Tissue System)
उच्च श्रेणी के पादपों में विभिन्न जैविक क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिए एक या एक से अधिक प्रकार के ऊतक (tissues) मिलक्रर कार्य करते हैं। ऊतकों के ऐसे समूह जो किसी निश्चित कार्य का सम्पादन करने के लिए एक इकाई (unit) के रुप में कार्य करते हैं, ऊतक तन्त्र (tissue system) बनाते हैं। किसी ऊतक तन्त्र का निर्माण करने वाले सभी ऊतक संरचना में भिन्न हो सकते हैं, परन्तु उनकी उत्पत्ति एवं कार्य प्राय: समान होते हैं।
पौधों में पाए जाने वाले ऊतक तन्त्र मुख्यत: तीन प्रकार के होते हैं-
1. बाह्य त्वचीय ऊतक तन्त्र (Epidernal tissue system)
2. भरण अथवा भौतिक ऊतक तन्त्र (Ground or physical tissue system)
3. संवहनी ऊतक तन्त्र (vascular tissue system)

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प्रश्न 10.
पुष्पी पादपों में तीन मूलभूत ऊतक तंत्र बताइए। प्रत्येक तंत्र के उतक बताइए।
उत्तर:
पुष्पी पादपों के मूलभूत उसक तंत्र (Fundamental tissue systems of flowering plants) पुष्पी पादपों में अग्रलिखित तीन उनक तंत्र पाए जाते है-
1.बीय उनक तंत्र (Epidermal tissue system) यह शीर्षस्थ विभज्योतक (apical meristem) की त्वचाजन (dermatogen) से विकसित होता है। इसकी कोशिकाएँ मुदूतकी (parenchymatous) होती है। इसके अन्तर्गत बाह्य त्वचा या मूलीय त्वचा आती है। अधियमय कोशिकाएँ (epidermal cells) बहुभुजी अथवा अनियमित होती है अनुप्रस्थ काट (transverse section) में ये कोशिकाएं ढोलकाकार (barrel shaped) दिखाई देती हैं।

बा त्वचीय कोशिकाएँ बाहर की ओर उपचर्म (cuticle) द्वारा आवरित होती हैं। बाह्य त्वचीय कोशिकाओं के बीच-बीच में रन्य (stomata) उपस्थित होते हैं। प्रत्येक रन्ध्र दो रक्षक कोशिकाओं तथा कई सहायक कोशिकाओं (guard cells) का बना उपकरण होता है जिसे रन्ध्री तंत्र (stomatal apparatus) कहते हैं। बाह्यत्वचा (epidermis) पर बहुकोशिकीय रोम या ट्राइकोम्स (trichomes) होते हैं जड़ों में बाह्य त्वचा को मूलीय त्वचा (Epiblema) कहते हैं। इस पर उपचर्म तथा रन्धों का अभाव होता है।

2. चरण तक तंत्र (Ground tissue system) यह शीर्षस्य विभज्योतक (apical meristem) के बकुटजन या पेरीक्लेम (periblem) से या कुछ भाग प्लीरोम (plerome) से विकसित होता है। भरण ऊतक तंत्र (ground tissue system) की कोशिकाएँ मृदूतकी (Parenchymatous) स्कूलकोण उनकी (Collenchymatous) तथा दुयोतकी (sclerenchymatous) होती हैं।

भरण उनक तंत्र (ground tissue system) को निम्नलिखित क्षेत्रों में बाँटा जा सकता (क) बाकुट (Cortex) – यह मुख्यतयाः मृदूतकी (parenchymatous) कोशिकाओं से बना भाग है जिसे अधस्त्वचा (Hypodermis), सामान्य कार्टेक्स (General cortex) तथा अन्तरत्वचा (endodermis) में विभेदित किया जा सकता है।

अवस्त्वचा (hypodermis) तने में पाया जाता है। एकबीजपत्री तने में यह दृढ़ोतक ऊतक (Sclerenchyma) का तथा द्विबीजपत्री तने में यह स्थूलकोण ऊतक (collenchyma) का बना होता है। जड़ों एवं पक्षियों में अधस्त्वचा का अभाव होता है। कार्टेक्स का सबसे भीतरी स्तर अन्तरत्वचा (endodermis ) कहलाता है।

द्विबीज पत्री तनों में यह कम विकसित तथा एकबीजपत्री तनों में यह अनुपस्थित होता है। जड़ों में अन्तस्त्वचा स्पष्ट होती है। इनमें जाइलम के सम्मुख स्थित मार्ग कोशिकाओं (passage cells) को छोड़कर शेष कोशिकाओं में अपारगम्य कैस्पेरियन पट्टियाँ (casparian strips) पायी जाती है। (ख) परिरम्य (Pericycle) – यह मृदूतकी तथा दोतकी कोशिकाओं का बना होता है। तनों में यह बहुस्तरीय तथा जड़ों में केवल एक स्तरीय होता है। जड़ों में यह पार्श्व जड़ों का निर्माण करता है।

(ग) मज्जा (Pith) – जड़ों तथा तनों का केन्द्रीय भाग मज्जा (pith) कहलाता है। यह मुदूतकी कोशिकाओं (parenchymatous cells) का बना होता है। कभी-कभी ये कोशिकाएँ स्कूलित हो जाती हैं तथा कभी-कभी विघटित होकर केन्द्रीय गुड़ा बनाती है। मज्जा कोशिकाएँ भोजन संचय का कार्य करती हैं।

(घ) मज्जा रश्मियाँ (Medullary rays ) – ये प्रायः द्विबीजपत्री तनों में पायी जाती हैं तथा मृदूतकी कोशिकाओं (Parenchymatous cells) की बनी होती हैं। ये संवहन बण्डलों (vascular bundies) के बीच-बीच में मज्जा से लेकर अन्तस्त्वंचा (endodermis) तक फैली होती है। इनका कार्य जल एवं भोज्य पदार्थों का वितरण करना है।

3. संवहन उनक तंत्र (Vascular tissue system ) इसका निर्माण शीर्षस्य विभज्योतक (apical meristem) के रम्भजन या एलीरोम (plerome) भाग से होता है। संवहन ऊतक मुख्य रूप से जाइलम तथा फ्लोएम का बना होता है ये दोनों उत्तक संवहन पूल (Vascular bundle) में व्यवस्थित रहते हैं। संवहन पूल तीन प्रकार के होते हैं-
(a) संयुक्त (Conjoint) एक ही पूल में जाइलम तथा फ्लोएम उपस्थित।
(b) अरीप (Radial ) जाइलम तथा फ्लोएम एक-दूसरे के एकान्नार पर स्थित होते हैं।
(c) संकेन्द्री (Concentric ) जाइलम तथा फ्लोएम का एक ही केन्द्र-बिन्दु होता है।
संयुक्त संवहन पूल तनों में, अरीय संवहन पूल जड़ों में तथा संकेन्द्री संवहन पूल (concentric vascular bundle) कुछ एकबीजपत्री तनों में पाए जाते हैं। वर्षी या खुले संयुक्त संवहन पूल में जाइलम तथा फ्लोएम के मध्य विभज्योतकी कैम्बियम कोशिकाएँ (meristematic cambial cells) उपस्थित होती हैं।

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प्रश्न 11.
पादप शरीर का अध्ययन हमारे लिए कैसे उपयोगी है ?
उत्तर:
पादप शरीर के अध्ययन के द्वारा हम पौधे के शरीर की आन्तरिक संरचना का पता लगा सकते हैं पौधों में पाए जाने वाले विभिन्न उनकों, कोशिकाओं एवं इनसे स्त्रावित विभिन्न पदार्थों का ज्ञान होता है। ऊतकों की संरचना, कोशिकाओं की संरचना तथा इनसे स्वावित पदार्थों के प्रकार द्वारा विभिन्न पौधों की पहचान करके इनका उचित वर्गीकरण किया जा सकता है।

पौधों के शारीरिकी के अध्ययन से पौधों की उम्र का पता लगाया जा सकता है जिसे डेन्ड्रोलॉजी (dendrochronology) कहते हैं पौधों का विभिन्न मानव रोगों के उपचार के लिए प्रयोग किया जाता है। औषधियों का निर्माण पौधों के विभिन्न भागों को पहचान कर ही किया जाता है। पौधों के विभिन्न रोगों की जांच इनकी शारीरिकी के अध्ययन द्वारा सम्भव हो सकी है।

प्रश्न 12.
परिचर्म क्या है ? द्विबीजपत्रीतने में परिचर्य कैसे बनता है ?
उत्तर:
परिचर्य (Periderm) कार्क एषा (cork cambium) की जीवित मृदूतकी कोशिकाओं से परिचर्म (periderm) विकसित होता है। कार्क ऐधा या कागजन (cork cambium or phellogen) की कोशिकाएं विभाजित होकर परिधि की ओर सुबेरिन युक्त (suberinized) कोशिकाएँ बनाती हैं जिसे कार्क स्तर या फेलम (cork or phellem) कहते हैं। कार्क एवा भीतर या केन्द्र की ओर मुदूतकीय कोशिकाएँ बनाती है जिसे द्वितीय वस्कुट (secondary cortex) या फेलोडर्म (phelloderm) कहते हैं फेलम (कार्क), कार्क एवा तथा द्वितीयक कार्टेक्स को सामूहिक रूप से पेरीडर्स (periderm) कहते हैं।

प्रश्न 13.
पृष्ठावर पत्ती की भीतरी संरचना का वर्णन चिन्हित चित्रों की सहायता से कीजिए।
उत्तर:
प्क्षघारी या सितियत्री प्जी की आजरिक संरक्ना (Internal Structure of Dorsiventral or Dicot Leaf)
इस प्रकार की पत्तियों में दो स्पष्ट सतें पायी जाती हैं ऐसा इ्ककी पौधे के अक्ष पर व्यवस्थां के कारण होता है। ऐसी पत्ती का ऊपरी भाग निचले भाग की तुलना में अधिक प्रकाश प्राप्त करता है।,

प्रकाश की असमान प्राप्ति के कारण इसकी आन्तरिक संरचना पर भी प्रभाव पड़ता है। इसलिए पर्णमध्योतक (mesophyll) दो प्रकार के ऊत्कों से बना होता है बाए क्ररी त्वचा के समीप खम्प ऊ्तक (palisade) और निचली बाह़ा त्वचा के पास स्पंजी मृदूतक (spongy parenchyma) का बना होता है।

एक प्रारपिक स्विबीजपत्री पत्ती की काट का सूक्षदर्शीय अध्ययन करने पर निम्न रचनाएँ दिखाई देती हैं-
1. घाल्यय (वचा (Epidermis) – यह पत्ती की ऊमरी तथा निचली सतह बनाती है। ऊपरी बाझात्वचा सतत होती है और मोटी उपत्वचीय परत क्यूटिकल से उकी होती है। यह एक स्तरीय परत होती है जिसकी कोशिकाओं में पर्णहरित (chloroplasts) तथा रन्द्रों (stomata) का अभाव होता है। निचली बाह्य त्वचा भी एक कोशिका मोटी परत होती है जो पतली उपत्वचा से छकी होती है। इसकी कोशिकाओं में पर्णहरीम (chlorophyli) का अभाव होता है किन्तु इसके बीच-बीच में रन्त्र उपस्थित होते हैं। मरुद्विदी पतियों की निचली बाह्ब त्वचा में गढ़ढों में घंसे हुए रन्ष्र (sunken stomata) पाए जाते हैं।

2. पर्णमध्योत्तक (Mesophyl) – यह ऊपरी बाद्ध त्वचा से लेकर निचली बाहा त्वचा तक फैला रहता है। द्विबीजपत्री पत्तियों में पर्णमघ्योतक दो प्रकार के ऊतकों का बना होता है-
(i) खाम्ष ऊरक (Pallisade Tissue) – ऊपरी बाहा त्वचा के ठीक नीचे खम्भ ऊतक की 2-3 परतें पायी जाती हैं। ये कोशिकाएँ लम्बी होती है। इनमें परिधीय क्लोरोप्लास्ट की अधिकता के कारण ये कोशिकाएँ हरी होती हैं।
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(ii) स्पंजी पैरन्काइमा (Spongy parenchyma)-पर्णमघ्योतक (mesophyll) का शेष भाग स्पंजी पैरन्काइमा का बना होता है। ये कोशिकाएँ छोटी तथा विभिन्न आकार वाली होती है। इन कोशिकाओं में भी क्लोरोप्लास्ट उपस्थित होते हैं। इन कोशिकाओं के बीच बड़े-बड़े वायु अवकाश (air spaces) उपस्थित होते हैं। ये उपरन्त्री कोष्ठ (Sub-stomatal chambers) कहलाते हैं।

3. संबहन पूल (Vascular bundles) – प्रत्येक संवहुन पूल संयुक्त (conjont) बहिपोषवाही (collateral) तथा अवर्धी (closed) होता है। यह सभी ओर से मृदूतकीय पूलाच्छद (parenchymatous bundle sheath) से घिरा होता है। मध्य शिरा में स्थित संवहुन पूल (vascular bundles) सबसे बड़ा होता है। इसका पूलाच्छद (bundle sheath) भी विस्तुत होता है। यह ऊपर की ओर, ऊपरी बाझ़ त्वचा तक तथा नीचे की ओर, निचली बाह्य त्वचा पर मृदूतक के रुप में फैला होता है।

अन्य सभी संवहन पूल छोटे होते हैं किन्तु संरचना में सभी मध्य शिरीय पूल के समान होते हैं। संवहन पूलों (V.B.) का अभाव पत्तियों के आधार से शीर्ष की ओर उत्तरोत्तर कम होता जाता है तथा इसमें स्थित तत्वों की संख्या भी कम होती जाती है। प्रत्येक संवहन पूल (V. B.) अथवा शिरा में ऊपरी बाह्य त्वा की ओर जाइलम तथा निचली बाल त्वचा की ओर फ्लोएम स्थित होता है। अनुदारू (Metaxylem) निचली बाहा त्वचा की ओर तथा आदिदारू (protoxylem) ऊपरी बाह्य त्वचा की ओर स्थित होता है।

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प्रश्न 14
कोशिकाओं की रचना तथा स्थिति उन्हें किस प्रकार विशिष्ट कार्य करने में सहायता करती है ?
उत्तर:
कोशिकाएँ (Epidermal Cells) त्वक् या त्वचा कोशिकाएँ सम्पूर्ण पादपकाय पर एक माझ रक्षात्मक आवरण बनाती है। प्रायः एक कोशिका मोटा त्वक् आवरण पाया जाता है किन्तु कुछ मरुद्भिदों (xerophytes) में वह एक से अधिक कोशिका मोटा स्तर होता है।

अनुप्रस्थ काट में देखने पर ये कोशिकाएँ ढोलक के आकार की दिखाई देती हैं बाहर से देखने पर ये अनिमित आकार की फर्श के टाइल्स की तरह अथवा बहुभुजी (polygonal) दिखाई देती हैं ये कोशिकाएं एक-दूसरे से सटकर एक अखण्ड सतह बनाती हैं ये कोशिकाएँ मृदूतकीय कोशिकाओं के रूपांतरण से बनती हैं।

इन कोशिकाओं में कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) अपेक्षाकृत कम होता है तथा प्रत्येक कोशिका में एक बड़ी रिक्तिका (vacuole) होती है। पौधों के वायवीय भागों की त्व कोशिकाएँ उपवर्ग (Cuticle) द्वारा आवरित होती है परन्तु मूलीय त्वचा (epiblema) की कोशिकाओं पर उपचर्म (cuticle) नहीं पायी जाती है। कोमल तनों, पत्ती आदि की त्वचीय कोशिकाओं में जगह-जगह रन्ध्र पाये जाते हैं रन्ध वाक्पोत्सर्जन तथा गैसों का आदान-प्रदान करते हैं।

जड़ों की त्वचीय कोशिकाओं से एक कोशिकीय मूल रोम बनते हैं। ये मृदा से जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण करते हैं। तने तथा पत्तियों की त्वक् कोशिकाओं से बहुकोशिकीय रोम बनते हैं ये रोम तने एवं पत्ती की सतह से वाष्पोत्सर्जन को कम करते हैं। मरुदभिदी पादपों में रन्धों (stomata) के चारों ओर रोम पाये जाते हैं जो वह कोशिकाओं के रूपांतरण से बनते हैं। ये वापोत्सर्जन को कम करते हैं। त्वक् कोशिकाएँ, परजीवियों, रोगाणुओं तथा अन्य वातावरणीय कारकों से पौधे की रक्षा करती हैं।

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HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी

प्रश्न 1.
मूल के रूपान्तरण से आप क्या समझते हैं ? निम्नलिखित में किस प्रकार का रूपान्तरण पाया जाता है ?
(अ) बरगद,
(ब) शलजम,
(स) मैंग्रोव वृक्ष।
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उत्तर:
मूल के रूपान्तरण (Modifications of roots) – जड़ों का प्रमुख कार्य पौधों को भूमि में स्थिर रखना तथा जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण करना है। किन्तु कुछ विशेष कार्यों को पूर्ण करने के लिए, जैसे- भोजन संचय, प्रजनन आदि के लिए जड़ों में परिवर्तन हो जाते हैं इसे रूपान्तरण कहते हैं।

(अ) बरगद ( Banyan Tree) – बरगद की शाखाओं से कुछ जड़ें निकलकर जमीन में धँस जाती हैं इन्हें स्तम्भ मूल (prop roots) कहते हैं। ये मोटी व काष्ठीय होकर पौधों को अतिरिक्त सहारा प्रदान करती हैं तथा जल एवं खनिजों का अवशोषण करती हैं।

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(ब) शलजम (Turnip ) – शलजम की मूसला जड़ें भोजन संचय करके कुम्भरूपी हो जाती हैं। इन्हें कुम्भरूपी जड़ें (napiform roots) कहते हैं।
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(स) मैंग्रोव वृक्ष (Mangrove Tree) – ये लवणोद्भिद पौधे होते हैं और दलदलीय भूमि में उगते हैं । ऐसी भूमि में ऑक्सीजन की कमी होती है। अतः श्वसन हेतु इन पौधों की कुछ जड़ें वायवीय हो जाती हैं जिन पर श्वसन छिद्र पाये जाते हैं। ये श्वसन में सहायक होती हैं इन्हें श्वसनमूल (pneumatophores) कहते हैं। जैसे— राइजोफोरा (Rhizophora ) ।

प्रश्न 2.
बाह्य लक्षणों के आधार पर निम्नलिखित कथनों की पुष्टि कीजिए-
(i) पौधों के सभी भूमिगत भाग सदैव मूल नहीं होते।
(ii) फूल एक रूपान्तरित प्ररोह है।
उत्तर:
(i) पौधों के सभी भूमिगत भाग सदैव मूल नहीं होते। जड़ भ्रूण के मूलांकर ( radical) से विकसित धनात्मक गुरुत्वानुवर्ती संरचना होती है। इस पर पर्व तथा पर्व सन्धियों, कलिकाएँ तथा पत्ती सदृश संरचनाएँ नहीं होती हैं। पौधों की कुछ संरचनाएँ भूमिगत हो जाती हैं किन्तु ये तनों से समानता प्रदर्शित करती हैं जड़ों से नहीं ।

जैसे – आलू का कन्द (tuber), अदरक का प्रकन्द ( rhizome), अरबी का घनकन्द (corm) आदि रूपान्तरित तने होते हैं। इन पर पर्व तथा पर्व सन्धियाँ, कक्षस्य एवं अमस्थ कलिकाएँ तथा शल्क पत्र ( scale leaves) पाये जाते हैं। अतः स्पष्ट है कि सभी भूमिगत संरचनाएँ जड़ें नहीं होती हैं।
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(ii) फूल एक रूपान्तरित प्ररोह है (Flower is a modified shoot ) – अनेक तथ्यों से प्रमाणित किया जा सकता है कि पुष्प एक रूपान्तरित प्ररोह है। ये तथ्य निम्न प्रकार हैं-
1. पुष्प प्ररोह के समान कक्षस्थ या शीर्षस्थ कलिका से विकसित होते हैं।
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A. पैसीफ्लोरा का पुर्वगबर B. कैपेरिसका आयांगधर C. गाइनैन्ट्रॉप्सिस के पुंमगधर तथा जायांगधर
D. गुलाब के पुष्प का अंकुरण कायिक प्ररोह विकसित करता हुआ।

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2. पुष्प का पुष्पासन कभी-कभी वृद्धि करके दूसरा प्ररोह बनाता है जिस पर पत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, जैसे- गुलाब ।
3. कभी-कभी पुष्पासन पर पर्व स्पष्ट दिखाई देते हैं, जैसे-हुरहुर (कैपेरिस पैसीफ्लोरा) । ये दलधर, पुमंगधर, जायांगधर आदि कहलाते हैं।
4. गुलाब में बाह्य दल कभी-कभी पत्ती सदृश रचना बनाते हैं।
5. पीओनिया के पौधे में कायिक तथा पुष्पी पत्रकों में होने वाले परिवर्तन को स्पष्ट देखा जा सकता है।
6. वॉटरलिली (निम्फिया) परिवर्तन की अवस्थाएं प्रदर्शित करता है। यह क्रिया बाह्य दलों के बीच तथा दलों व पुंकेसरों के बीच होती है।
7. डिजेनेरिया में पुंकेसर पत्तियों की भाँति फैले होते हैं।
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प्रश्न 3.
एक पिच्छाकार संयुक्त पत्ती हस्ताकार संयुक्त पत्ती से किस प्रकार भिन्न है ?
उत्तर:
पिच्छाकार संयुक्त पत्ती तथा हस्ताकार संयुक्त पत्ती में अन्तर (Differences between Pinnately Compound and Palmately Compound leaf)

पिच्छाकार संयुक्त पतीहस्ताकार संयुक्त पत्ती
(i) यह पंख सदृश रचना (feather like structure) बनाती है।यह फैली हुई हथेली जैसी ( palm like ) रचना बनाती है।
(ii)अक्ष (axis) लम्बा होता है।अक्ष (axis) हासित (Reduced ) होता है।
(iii)पत्रक (leaflets) दो पंक्तियों में निकलते हैं।पत्रक (leaflets) झुण्डों में निकलते हैं।
(iv) दीर्घाकार अक्ष पर विकसित होने वाले पत्रक (leaflet) या तो वृन्त निरन्तर क्रम में होते हैं या इसकी एक शाखा होते हैं।पत्रक वृन्त के सिरे पर लगे होते हैं। पत्रक (leaflet) तथा वृन्त (petiole ) की सिरे पर सन्धि होती है।
(v) पत्रक (leaflets) अक्ष पर कोई जोड़ या सन्धि नहीं होती।पलक अक्ष पर सन्धि होती है।
(vi) रेकिस (rachis) की संरचना के आधार पर ये एकपिच्छकी (uripinnate), द्विपिच्छकी (biptnnate), त्रिपिच्छकी (tripinnate) या बहपिच्छकी (polypinnate) होती हैं।पर्णकों की संख्या के आधार पर ये समपर्णी, द्विपर्णी, त्रिपर्णी या बहुपर्णी होती हैं।

प्रश्न 4.
विभिन्न प्रकार के पर्णविन्यासों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विभिन्न प्रकार के पर्णविन्यास (Different types of Phyllotaxy ) – पतियों का तने तथा इसकी शाखाओं पर लगे होने का क्रम पूर्ण विन्यास (phyllotaxy) कहलाता है। पर्वसन्धियों (nodes) पर पत्तियों की संख्या एक, दो या अधिक हो सकती है। पर्णविन्यास निम्नलिखित प्रकार का होता है-
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1. एकान्तर पर्ण विन्यास (Alternate Phyllotaxy ) – इसमें एक पवसान्ध (node) से कवल एक पत निकलती है। दूसरी निकटस्थ पर्व सन्धि से निकलने वाली पत्ती पहली के विपरीत दिशा में तथा एकान्तर होती हैं। जैसे-गुड़हल, सरसों आदि ।
2. अभिमुख वर्ण विन्यास (Opposite Phyllotaxy)- इसमें प्रत्येक पर्वसन्धि से दो पत्तियाँ निकलती हैं तथा दोनों की दिशाएँ विपरीत होती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं-
(अ) अध्यारोपित अभिमुख ( Superposed opposite)- इसमें पहली पर्वसन्धि ( node) के समान ही ऊपर वाली पर्व सन्धियों (nodes) की पत्तियों ऊर्ध्वाधर क्रम में होती हैं, जैसे- अमरूद ।

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(ख) क्रासित अभिमुख (Decussate opposite)- इसमें पहली पर्व सन्धि की पत्तियों से क्रास बनाती हुई अगली पर्व सन्धि की दोनों पत्तियाँ होती हैं, जैसे – आक।

3. चक्रिक पर्ण विन्यास (Whorled Phyllotaxy)- इसमें एक पर्व सन्धि पर तीन या इससे अधिक पत्तियाँ निकलकर एक चक्र जैसी रचना बनाती हैं। जैसे-कनेर, एल्स्टोनिया आदि ।
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प्रश्न 5.
निम्नलिखित की परिभाषा लिखिए-
(अ) पुष्पदल विन्यास,
(ब) बीजाण्डासन,
(स) त्रिज्या सममिति
(द) एक व्यास सममिति,
(य) ऊर्ध्ववर्ती
(र) परिजायांगी पुष्प,
(ल) दललग्न पुंकेसर ।
उत्तर:
(अ) पुष्पदल विन्यास (Aestivation ) – कलिका अवस्था में बाह्य दलों (sepals) तथा दलों (petals) की परस्पर सापेक्ष व्यवस्थ गव्य दल विन्यास , वैक्सा लरी (vaxillary) (aestivation) कहलाती है। इसके विभिन्न प्रकार हो सकते हैं, जैसे-कोरस्पर्शी (valvate), कोरछादी (imbicate), व्यावर्तित (twisted), आदि।
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(ब) बीजाण्डासन (Placentation ) – पुष्पी पादपों में बीजाण्ड (ovule) या बीजाण्डयुक्त मोटी परत का अण्डाशय (ovary) पर लगने का क्रम बीजाण्डन्यास (placentation) कहलाता है। यह विभिन्न प्रकार का होता है, जैसे– सीमान्त (marginal), स्तम्भीय (axil), भित्तीय (peraital), मुक्त स्तम्भीय (free central), धरातलीय (basal) आदि ।

(स) त्रिज्यासममित (Actinomorphic ) – जब एक पुष्प को केन्द्र से होते हुए किसी भी तल में दो से अधिक भागों में बराबर काटा जा सके तो पुष्प की ऐसी सममिति को त्रिज्या सममिति कहते हैं। जैसे- धतूरा, सरसों, मकोय आदि ।

(द) एकव्याससममिति (Zygomorphic ) – जब पुष्प को केन्द्र से केवल दो समान भागों में काटा जा सकता है तो इसे एक व्यास सममिति कहते हैं। जैसे – मटर, सेम आदि ।

(य) ऊर्ध्ववर्ती अण्डाशय (Superior ovary) – जब पुष्प के भाग, जैसे-दल (corolla), बाह्य दल (calyx), पुंकेसर (stemes) आदि अण्डाशय (ovary) के आधारीय भाग से निकलते हैं तो अण्डाशय को अधाजायांगी ( epigenous) कहते हैं। जैसे -सरसों ।

(र) परिजायांगी पुष्प (Perigynous flower) – जब पुष्पीय भाग अण्डाशय की आधी ऊँचाई से निकले प्रतीत होते हैं तो ऐसे पुष्प को परिजायांगी पुष्प (Perigynous flower) कहते हैं और ऐसे अण्डाशय को अर्ध- ऊर्ध्ववर्ती अण्डाशय कहते हैं।

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(ल) दललग्न पुंकेसर (Epipetalous Stamens) – जब पुंकेसर (stamens) दलों (petals) से जुड़े रहते हैं, तो इन्हें दललग्न पुंकेसर कहते हैं।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में अन्तर लिखिए-
(अ) असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी पुष्पक्रम,
(ख) झकड़ा जड़ (मूल) तथा अपस्थानिक मूल
(स) वियुक्ताण्डपी तथा युक्ताण्डपी अण्डाशय ।
उत्तर:
(अ) असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी पुष्पक्रम,
असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी पुष्पक्रम (Racemose and cymose inflorescence)-ऐसा पुष्पक्रम, जिसका मुख्य अक्ष पुष्प में समाप्त नहीं होता बल्कि वह निरन्तर बढ़ता रहता है और पार्श्व में पुष्पों को अग्राभिसारी (acropetal) अनुक्रम में बनाता रहता है। ससीमाक्षी पुष्पक्रम में मुख्य अक्ष की वृद्धि उसके शीर्ष पर पुष्प के बनने से रुक जाती है। पार्वीय अक्ष, जो शीर्षस्थ पुष्प के नीचे से निकलती है, भी पुष्प में अन्त हो जाती है, अत: उसकी वृद्धि भी सीमित हो जाती है। पुष्प तलाभिसारी (basipetal) अनुक्रम में लगते हैं।

(ख) झकड़ा तथा अपस्थानिक जड़ में अन्तर
(Differences between Fibrous and Adventitious roots)

झकड़ा जड़ (Fibrous roots )
एकबीजपत्री पौधों (monocotyledons) में मूसला जड़ (tap root) अल्पकालिक होती है, इसके स्थान पर तने के आधार से अनेक समान मोटाई के धागे जैसे सदृश जड़ें निकल आती हैं इन्हें झकड़ा जड़ कहते हैं। जैसे-मक्का, गेहूँ आदि में।

अपस्थानिक जड़ (Adventitious roots )
मूलांकुर (radicle) को छोड़कर पौधे के अन्य भागों से निकलने वाली जड़ों को अपस्थानिक जड़ें (adventitious roots) कहते हैं। ये जड़ें अवशोषण के अतिरिक्त, सहारा देना, संचयन करना, श्वसन में भाग लेना, प्रजनन में भाग लेना आदि विशिष्ट कार्य करती हैं। जैसे- बरगद, राइजोफोरा, शकरकन्द आदि में।

(स) वियुक्ताण्डपी तथा युक्ताण्डपी अण्डाशय में अन्तर
(Differences between Apocarpous and Syncarpous Ovary)

वियुक्ताण्डपी अण्डाशय (Apocarpous Ovary)संयुक्ताण्डपी अण्डाशय (Syncarpous Ovary)
1. इसमें बहुअण्डपी जायांग के सभी अण्डाशय पृथक्-पृथक् होते हैं।बहु अण्डपी जायांग के सभी अण्डाशय (ovary) परस्पर जुड़े रहते हैं। अण्डाशय एककोष्ठीय या बहुकोष्ठीय होते हैं।
2. अण्डाशय (ovary) एकक्रोष्ठीय होते हैं।बीजाण्डन्यास (placentation ), भित्तीय, स्तम्भीय, मुक्त अक्षीय आधारीय या शीर्षस्थ होता है।
3. बीजाण्डन्यास (placentation), सीमान्त, परिधीय या आधारीय या शीर्षस्थ होता है।ये सरल फलों का निर्माण करते हैं।
4.ये पुंज फलों (composite fruits) का निर्माण करते हैं। उदाहरण – शरीफा, मदार, कमल, स्ट्राबेरी आदि ।उदाहरण – खीरा, टमाटर, बैंगन, नीबू आदि ।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित के चिह्नित चित्र बनाओ।
(अ) चने के बीज, तथा
(ब) मक्का के बीज की अनुदैर्ध्य काट।
उत्तर:
(अ) चने के बीज, तथा
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(ब) मक्का के बीज की अनुदैर्ध्य काट।
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प्रश्न 8.
उचित उदाहरणों सहित तने के रूपान्तरणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
तने के रूपान्तरण (Modification of Stems) – तने का प्रमुख कार्य पत्तियों, पुष्पों, कलिकाओं तथा फलों को धारण करना, जल, खनिज लवणों व कार्बनिक भोज्य पदार्थों का परिवहन करना है। कुछ कोमल तने प्रकाश संश्लेषण का भी कार्य करते हैं।

कभी-कभी विभिन्न पौधों में तने विशिष्ट कार्यों के लिए रूपान्तरित हो जाते हैं। सामान्यतया तनों में भोजन संचय, कायिक प्रजनन, आरोहण, सुरक्षा या बहुवर्षीयता प्राप्त करने के लिए रूपान्तरण होता है।
i. भूमिगत रूपान्तरित तने (Under ground modified stems)
ये निम्न प्रकार के होते हैं-
1. तना कन्द (Stem tuber )
2. शल्क कन्द (Bulbs )
3. प्रकन्द (Rhizome )
4. घनकन्द (Carm)

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ii. अर्द्ध-वायवीय रूपान्तरित तने (Modified Subaerial Stems)
कुछ पौधों के तने मुलायम तथा कमजोर होते हैं। ये पृथ्वी की सतह के ऊपर या आंशिक रूप से मिट्टी के नीचे रेंगकर वृद्धि करते हैं। ये तने कायिक प्रजनन में भाग लेते हैं। इनकी पर्वसन्धियों (nodes) से अपस्थानिक (adventitious) जड़ें निकलकर मिट्टी में धँस जाती हैं। पर्व के कट जाने पर पर्व सन्धियुक्त भाग नये पौधे को जन्म देता है। ये निम्न प्रकार के होते हैं-
1. उपरिभूस्तारी ( Runner )
2. भूस्तारी (Stolon)

वायवीय रूपान्तरित तने (Modified Aerial Stem )
कुछ वायवीय तने या इनके कुछ भाग विभिन्न कार्यों के लिए रूपान्तरित हो जाते हैं। रुपान्तरण इतना अधिक होता है कि इन्हें तने के रूप में पहचानना कठिन होता है। इनकी स्थिति एवं उत्पत्ति के आधार पर ही इनकी पहचान होती है।

1. पर्णाभ स्तम्भ और पर्णाभ पर्व (Phylloclade and cladode ) – मरुस्थली क्षेत्रों में उगने वाले पौधों में जल हानि को कम करने हेतु पत्तियाँ प्रायः कंटकों (thorns) में रूपान्तरित हो जाती हैं। पौधे का तना चपटा, हरा एवं मांसल हो जाता है, ताकि पौधे के लिए खाद्य पदार्थों का निर्माण होता रहे। तने पर प्रायः मोटी उपचर्म (cuticle) होती

है जो वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल हानि को कम करती है। पत्तियों के जैसा कार्य करने के कारण ये रूपान्तरित तने पर्णाभ स्तम्भ (phylloclade) कहलाते हैं। प्रत्येक पर्णाभ में पर्व तथा पर्वसन्धियाँ पायी जाती हैं। प्रत्येक पर्व से पत्तियाँ निकलती हैं जो शीघ्रपाती (deciduous ) होती हैं या काँटों में बदल जाती हैं।

पत्तियों के कक्ष से पुष्प निकलते हैं। उदाहरण-नागफनी (Opuntia), तथा अन्य कैक्टस (Cactus ), कुछ यूफोर्निया (Euphorbia) वंश के पौधे, कोकोलोबा (Cocoloba), कैजुराइना ( Casurina) म्यूलेनबैकिया (Mulenbachia), एसपैरेगस आदि ।
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पर्णाभ पर्व (Cladodes) केवल एक ही पर्व वाले पर्णाभ स्तम्भ होते हैं। इनके कार्य भी पर्णाभ स्तम्भ के समान होते हैं। जैसे- सतावर (Asparagus) में ये सुई के आकार के होते हैं। रस्कस ( Ruscus) में पर्णाभ-पर्व दो (cladode) पर्वो जितने लम्बे होते हैं।

2. स्तम्भ प्रतान (Stem tendrils) – प्रतान लम्बी, पतली धागे के समान रचनाएँ हैं। तने के रूपान्तरण से बनने वाले प्रतान स्तम्भ प्रतान कहलाते हैं। ये आधार पर मोटे तथा शीर्ष की ओर उत्तरोत्तर पतले होते जाते हैं। इन पर पर्व एवं पर्व सन्धियाँ हो सकती हैं। कभी-कभी पुष्प भी उत्पन्न होते हैं।

ये सामान्यतः कक्षस्थ कलिका से और कभी-कभी अप्रस्थ कलिका से बनते हैं, जैसे-झुमकलता (Passiflora) में कक्षस्थ कलिका से, किन्तु अंगूर (Vitis sp.) में अग्रस्थ कलिका से कद्दू कुल (Family-cucurbitaceae) के सदस्यों में प्रतान अतिरिक्त कक्षस्थ कलिकाओं के रूपान्तरण से बनते हैं। एन्टीगोनोन (Antigonon) में पुष्पावली वृन्त तथा स्माइलैक्स ( Smilex) में पर्णशीर्ष प्रतान में रूपान्तरित होते हैं। प्रतान दुर्बल पौधों को सहारा देकर ऊपर चढ़ने में सहायता करते हैं।

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3. स्तम्भ कंटक (Stem thorns)

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4. पत्रप्रकलिकाएँ (Bulbils)
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प्रश्न 9.
फैबेसी तथा सोलेनेसी कुल के एक-एक पुष्प को उदाहरण के रूप में लिखिए तथा उनका अर्द्ध तकनीकी विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
कुल कैनेती (Family Fabaceac)
फैबेसी कुल को पहले पेपिलियानेटी (papilionatoe) कहा जाता है। यह लेग्युमिनोसी (leguminosae) कुल का उपकुल है। यह विश्वव्यापी (cosmopolitan) कुल है,।

कायिक अभिलघ-
स्वभाव (Habit) : इस कुल में शाक, झाड़ी तथा वृक्ष (herb, shrub climbers and tree) सभी प्रकार के पौषे सम्मिलित हैं।
मूल (Root) : मूसला शाखित (Tap branched) : मूल गुलिकाओं (Root nodules) युक्त।
तना (Stem) : सीधा (erect), वल्लरी (सेम), आरोही, शाकीय अथवा काष्ठीय।
पत्तियँ (Leaves) : सरल, अथवा संयुक्त पिच्छकार (pinnatly compound), एकान्तर, पर्णाधार पस्विनस (pulvinus), अनुपर्णयुक्त (stipulate), सवृन्त या अवृन्त, जालिकावत् शिराविन्यास।

पुर्यीय लक्षण (Floral Characters)-
पुष्पक्नम (Inflorescence) – असीमाक्ष (racemose) या एकल कक्षस्थ (solitary axillary) अथवा समीमाक्ष गुच्छ (Cymose Cluster)।
पुप्य (Flower) – संपुष्पवृन्त (pedicellate), पूर्ण (Complete), सहपत्रयुक्त (bracteate), द्विलिंगी (Hermpahrodite), एकव्याससममित (zygomorphic), जायांगधार (hypogynous), पेषिलियोनेसियस (Papillionaceous) पुष्प।

बाद्धरंगुण (Calyx) -5 बाक्रदल (Sepals), संयुक्त (Gamosepalous), कोरस्पर्शी (Valvate), अथवा कोरछादी (Imbricate) बाह्य दल विन्यास, घण्टाकार (Bell-shaped), रोमिल (Hairy)।
दलयुज्ञ (Corolla) -5 दल (Petals), पृथक्दली (Polypetalous), अवरोडी कोरछादी (Descending imbricate), या ध्वजक विन्यास (Vexillary aestivation)। अनियमित (Irregular), पेपिलियोनेसियस दलचक्र (Papillionaceous petals), बाक्ष दीर्ष दल ध्वज (Standard), दो पार्श्वीय दल (Petals), पंख (Wings) तथा दो नीचे से जुड़कर नोतल (keel) कहलाते हैं जो कि नौकाकार (boat shaped) होता है।

पुमंग (Androecium) -10 पुंकेसर (Stamens), द्रिसंघी (Diadelphous), 1 + 9, नौ जुड़कर अण्डाशय (ovary) के चारों ओर नलिका बनाते हैं। परागकोश द्विकोष्ठी (Bilobed), आधारलग्न (Basifixed), अन्तर्मुखी (introse)।
जयां (Gynoecium) – एकाण्डपी (Monocarpellary), एककोष्ठी (Unilocular), अण्डाशय ऊर्ष्ववर्ती (Superior Ovary), बीजाण्डन्यास सीमान्त (marginal placentation), वर्तिका वक्रित (curved), वर्तिकाम्म रोमिल (hairy stigma) एवं समुंड (Copitate)।
फल (Fruit) – प्रायः लेग्यूम (pod or legume) एवं लोमेन्टम।

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बीज (Seed) – अशूणपोषी (non-endospermic)।
पुपसूत्र – Br% K(5)C1+(2) A1+(9)G1

आर्थिक महृत्व
1. घोजन
(i) चना, अरहर, सेम, मूँग, सोयाबीन आदि दाल के रूपों में खाये जाते हैं। ये प्रोटीन के अच्छ सोत हैं।
(ii) सोयाबीन, मूंगफली आदि से खाद्य तेल प्राप्त होता है।
2. चारा-सीस्रवनिया द्राइफोलियम, मुरेला आदि पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग किया जाते हैं।
3. इमारती लकड़ी-शीशम से इमारती लकड़ी प्राप्त होती है।
4. उद्योग-इंडिगोफोरा से नील, सनई से पटसन प्राप्त होता है।
5. और्थि-ग्लाइसीराइजा से मुलैठी प्राप्त होती है।
6. सजाक्टी पौधे-ल्यूपिन, स्वीट पी सजावटी पौधे हैं।

कुल सोलेनेसी (Family Solanaceae)- यह एक बड़ा कुल है। इसे प्रायः आलू कुल भी कहते हैं। यह उष्णकटिबन्यीय उपोष्ण तथा शीतोष्ण प्रदेशों में पाये जाते हैं।

कायिक अभिल्किण (Vegative characters)
स्वभाव (Habit)- इस कुल के पौधे प्रायः शाक, झाड़ियाँ तथा छोटे वृक्ष होते हैं।
तना (Stem)-प्रायः ऊर्ष्व (erect), शाखित (Branched), रोमीय या कंटकीय, वायवीय, ठोस या खोखला, भूमिगत (जैसे आलू), शाकीय या काष्ठीय (herbaceous or woody) होता है।
पत्तियाँ (Leaves)-एकान्तर (alternate), सरल (simple), अनुनुपर्णी (exstipulate), कुछ सदस्यों में पुष्पक्रम के भाग में अभिमुख, एकशिरीय जालिकावत शिराविन्यास, टमाटर में पत्तियाँ पिच्छाकर संयुक्त (Pinnatly compound) ।
पुप्य (flower) – सहपत्री (Bracteate) अथवा असदपत्री (ebracteate) सहपत्रिका अनुपस्थित, पूर्ण, द्विलिंगी (bisexual), पंचतयी (pentamerous) सवृंत (Redicelate), त्रिज्यासममित (actinomarphic) परन्तु अण्डप की तिरछी स्थिति के कारण एकव्याससममित (zygomorphic), चक्रीय (Cyclic), जायांगधर (hypogenous) ।
बाइ दलभुं (Calyx) -5 बाह्मदल (sepals), संयुक्त बाहादली (gamosepalous), कोरस्पर्शी (valvate) अथवा कोरछादी (imbricate), हर, चिरस्थाई (persistent), प्रत्येक बाझदल मध्य में फूला हुआ। रसभरी में ये बड़े होकर पूरे फल को गुब्बारे सदृश्य रचना से ढके रहते हैं ।
दल्युंच (Corolla)-5 दल (Petals), संयुक्त दली (gamopetabous), अत्यधिक लम्बे, घण्टाकार (bell shaped), चकाकार, नलीकार, कोरस्पर्शी बिन्यास (valvale aestivatioin), सफेद या रंगीन।
HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी 2
पुमंग (Androecium) – 5 पुंकेसर (stamens) पृथक् पुंकेसरी, दलो के विपरीत पुंतन्तु लम्बे एवं दलपुंज नोलका के आधार फ्र दललग्न, परागकोष लम्ब, अधन्द्ध (basifixed), द्विपालिक (Bilobed), अन्तर्मुखी (introse)।
जायां (Gynoecium) – द्विअण्डपी (Bicarpellary), युक्ताअण्डषी (Syncarpous), ऊर्ष्षवर्ती (superior), द्विकोष्ठी (bilocular), बीज्राण्डासन फुला हुआ व तिरछा (Swollen placenta obliquely placed) अण्डाशय आभासी पट होने के कारण चतुकोष्ठी (tetralocular), अथवा बहुकोष्ठी (polypocular)। हर कोष्ठक में कई बीजाण्छ संम्भीय (axile) बीजाप्डन्यास, वर्तिका लम्बी, वर्तिकाम्र द्विपालित (Stigma bilobed) ।
पल (Fruit) – सरल, शुष्क सम्मुट (capsule), पटर्भंजक सुटन (dehiscence septifragal)।
बीज (Seed) – भ्रूणपोषी (endospermic) ।
परागण (Pollination) – इस कुल के अधिकतर पादपों में परपरागण कीटों के माध्यम से होता है किन्तु आलू में स्वपरागण पाया जाता है।
पुंय सूत्र (Floral Formula) –
HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी 3

आर्थिक महत्व (Economic Importance)
1. थोजन-आलू, बैंगन, टमाटर, मिर्च, आदि सब्चियों व सलाद के कम आते हैं। रसभरी, फल के रूप में काम आता है। मिर्च मसाले के रूप में प्रयोग होता है।
2. उडोग-तम्बाकू की पत्तियों का प्रयोग तम्बाकू उद्योग में बीड़ी, सिगरेट आदि बनाने में किया जाता है।
3. औषधियाँ-एट्रोपा बैलाडोना, विधानिया, हायोसाइमस, निकोटिआना आदि से विभिन्न प्रकार की औरधियाँ प्राप्त की जाती हैं।
4. सआक्टी पौधे-हेनबेन, पिटूनिया तथा रात की रानी के पौधे उद्यानों में सजावट के लिए लगाये जाते हैं।

प्रश्न 10.
पुष्पी पादपों में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के बीजाण्डन्यासों का वर्णन कीजिए।
उत्तर;
जयांग (Gynoecium) – यह पुष्प का अन्तिम तथा सबसे भीतरी चक्र है। यह पुष्प के मादा जननांगों को प्रदर्शित करता है। जायांग में कई अण्डप (carpel) या गुरुबीजाणुपर्ण हो सकते हैं। प्रत्येक जायांग के तीन भाग होते है-
(2) अण्डाशय (Ovary) – यह जायांग का सबसे निचला एवं फूला हुआ भाग होता है। इसमें बीजाण्ड (ovule) पाये जाते हैं।
2. वर्का (Style)-यह अण्डाशय के ऊपर का नलिकाकार भाग होता है।

3. वर्तिकाम्र (Stigma) – यह वर्तिका का दूरस्थ गाँठनुमा भाग है, जो परागकणों (pollen grain) को ग्रहण करता है।
जब जायांग में केवल एक अण्डप होता है तब इसे एकाण्डपी (monocarpellary), और जब इसमें कई अण्डप होते हैं तो इसे बहु अण्डपी (multicarpellary) कहते हैं।

बहुअण्डपी अण्डाशय में जब सभी अण्डप एक-दूसरे से पृथक् रहते हैं तो इस अवस्था को वियुक्ताण्डपी (apocarpous) कहते है। जैसे-गुलाब, चम्पा आदि। जब सभी अण्डप पूर्ण या आंशिक रूप से परस्पर जुड़ जाते हैं तो ऐसे जायांग का युक्ताण्डपी (syncarpous) कहते हैं।

बीजण्डन्यास (Placentation) – अण्डाशय का वह भाग जिससे बीजाण्ड जुड़े रहते हैं, बीजाण्डासन (placenta) कहलाता है। यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है क्योंकि बीजाण्ड को सभी पोषक पदार्थ इसी के द्वारा प्राप्त होते हैं। अण्डाशय के भीतर बीजाण्डासन पर बीजाण्ड के लगने के ढंग को बीजाण्डन्यास कहते हैं।

HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी 1

बीजणण्डन्यास निम्न प्रकार के होते हैं-
1. सीमान्त बीजायुन्यास (Marginal placentation)- इस प्रकार के बीबाण्डन्यास में अण्डाशय एकाण्डपी (monocarpellary) व एककोष्ठी होता है तथा बीजाण्डासन (placenta) अण्ड़प के दोनों उपांतों (margin) के जोड़ से विकसित्त होता है, जसे फैबेसी कुल के सदस्यों में।

2. स्तम्भकीय बीजणुन्यास (Axile placentation) – इस प्रकार के बीजाण्डन्यास में अण्डपों की संख्या एक से अधिक होती है, जो संयुक्त अण्डाशय बनाते हैं। अण्डाशय में कोष्ठकों की संख्या प्रायः अप्डपों के बराबर होती है। इसमें बीजाण्ड (ovules) अण्डपों के संगामी उपान्तों पर विकसित होते हैं जो अण्डाशय की केम्द्रीय अक्ष पर मिलते हैं। जैसे-नींचू, धतूरा, गुड़ुल।

3. क्त्तीय बीघाणुड्यास (Parietal placentation)-यह बहुअण्डमी, एककोष्ठी अण्डाशय (monothecaus) में पाया जाता है। इसमें जिस स्थान पर अण्डपों के उपान्त मिलते हैं, वह्हाँ प्लेसेन्टा विकसित हो जाता है। बीजाण्ड अण्डाशय की भीतरी सतह पर लगे रहते हैं। जैसे-सरसों मूली, पपीत्ता आदि में।

4. मुक्त स्सम्भीय बीजाण्डन्यास (Free central placentation) – जब अण्डाशय में पट (septa) शीष्य समाप्त हो जाते हैं तो बीजाण्डासन अण्डाशय के केन्त्रीय स्तम्व (central axis) पर विकसित होता है। इसे मुक्त अक्षीय बीजाण्डन्यास कहते हैं। इसमें अण्डाशय एककोष्ठी होता है। जैसे – स्टीलेरिया (Stellaria), प्रिमिरोज आदि।

5. आधारी बीआण्डन्यास (Basal placentation)-इसमें अण्डाशय एककोष्ठी होता है तथा बीजाण्डासन सीधे पुष्पासन (thalamus) पर विकसित होता है। इस प्रकार के बीजाण्डन्यास में बीञाण्ड की संख्या प्रायः एक होती है। जैसे-कम्पोजिटी (Compositae) कुल के सदस्यों में।

6. परिभ्तिीय बीตाणुन्यास (Superficial placentation) – स्तम्भीय बीजाप्डन्यास की पाँति इस्त प्रकार के बीजाण्डन्यास में भी अप्डाशय बहुकोष्ठी होता है। परन्तु बीजाण्डासन पटों की पूरी आन्तरिक सतह पर उत्पन्न होता है। जैसे-अल लिली (Waterlily) में।

HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी 2

प्रश्न 11.
पुष्प क्या है ? एक प्ररूपी एन्जियोस्पर्म पुष्प के विभिन्न भागों का वर्णन कीजिए
उत्तर:
पुष्प (Flower) – पुष्प आवृतबीजी पौधों (angiosperms) की जनन संरचना है। लैंगिक जनन से सम्बन्धित सभी प्रक्रियाएँ पुष्प में ही होती हैं। अतः पुष्प की अनुपस्थिति में भ्रूण, फल एवं बीज का विकास असम्भव है। आकारिकी की दृष्टि से पुष्प एक रूपान्तरित प्ररोह है जिसमें पर्व एवं पर्व सन्धियाँ संहत रूप से व्यवस्थित होती हैं तथा पर्वसन्धियों पर बन्ध्य एवं उर्वर उपांग उपस्थित होते हैं, जिन्हें पुष्पी पत्र कहते हैं। पुष्प विभिन्न आकार, आकृति एवं रंग के होते हैं। एक प्रारूपी पुष्प के निम्नलिखित भाग होते हैं-
(i) पुष्पवृन्त,
(ii) पुष्पासन,
(iii) बाह्यदल पुंज,
(iv) दलपुंज,
(v) पुमंग तथा
(vi) जायांग ।

HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी

(i) पुष्पवृन्त (Pedicel) – पुष्पक्रम में पुष्प जिस पुष्प जिस संरचना द्वारा जुड़ा होता है उसे वृन्त (pedicel) कहते हैं। ऐसे पुष्प जिनमें वृन्त होते हैं सवंत (pedicelate) कहलाते हैं तथा वृन्त रहित पुष्प के अवृन्त (Sessile ) कहते हैं।
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(ii) पुष्पासन (Thalamus) – यह पुष्प वृन्त के ऊपर का तस्तरीनुमा (disc like ) चौड़ा भाग होता है जिस पर पुष्प के प्रमुख भाग बाह्यदल पुंज (calyx), दल पुंज, पुमंग तथा जायांग ( gynoecium) व्यवस्थित होते हैं।

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(ii) बाह्य दलपुंज (Calyx) – यह पुष्पी पत्रों का सबसे बाहरी चक्र है। बाह्य दलपुंज (calyx) अनेक बाह्य दलों (Sepals) से बना होता है। सामान्यतया ये पत्ती से मिलती-जुलती हरी संरचनाएँ होती हैं। कुछ पौधों में ये रंगीन भी हो जाते हैं। इनका प्रमुख कार्य कलिका अवस्था में प्रकाश संश्लेषण करना तथा पुष्पी अंगों की रक्षा करना है। चिरलग्न (persistant) बाह्यदल फलों के प्रकीर्णन में भी सहायक होते हैं।

(iv) दलपुंज (Corolla) – यह पुष्पी पत्रों का दूसरा चक्र है तथा बाह्य दलों के ठीक अन्दर की ओर स्थित होता है। यह अनेक दल पत्रों (petals) का बना होता है। दल पत्र सामान्यतया बड़े एवं आकर्षक रंगों के होते हैं। इनका प्रमुख कार्य परागणकारी कीट व पक्षियों को पुष्प की ओर आकर्षित करना है।

वायु परागित पुष्पों में दल पत्र प्रायः छोटे एवं अनाकर्षक होते हैं। बाह्य दलपुंज तथा दलपुंज सामूहिक रूप से परिदलपुंज (perianth) कहलाते हैं। द्विबीजपत्रियों में ये बाह्यदलों तथा दलों में विभेदित होते हैं किन्तु एकबीजपत्रियों में बाह्यदलों एवं दलों में विभेद नहीं किया जा सकता है।

(v) पुमंग (Anchroecium) – यह पुष्प का नर जननांग (male reproductive part) है जो एक या अनेक पुंकेसरों (stamens) का बना होता है। अलग-अलग जातियों में पुंकेसरों की संख्या निश्चित या अनिश्चित होती है। प्रत्येक पुंकेसर के तीन भाग होते हैं—पुंतन्तु, परागकोष तथा तन्तु को परागकोष को जोड़ने वाला योजि (connective) परागकण (pollen sac or anther) में पराग मातृ कोशिकाओं (pollen mothen cells) से परागकणों (pollen grains) का निर्माण होता है।

(vi) जायांग (Gynoecium) – यह पुष्प का स्त्री जननांग (female reproductive part) है जो एक या अनेक अण्डपों (carpels) का बना होता है। प्रायः पुष्प के सभी अण्डप मिलकर एक संयुक्त अण्डाशय (compound ovary) बनाते हैं तब इसे संयुक्तांडपी (syncarpous) कहते हैं। कुछ पादप वंशों में है यद्यपि प्रत्येक पुष्प में अनेक अण्डप होते हैं परन्तु प्रत्येक अण्डप एक पृथक् अण्डाशय (ovary) बनाता है इसे वियुक्ताण्डपी दशा ( appoacarpus condition) दशा कहते हैं। प्रत्येक अण्डप के तीन भाग होते हैं-आधरीय गोल भाग, अण्डाशय (ovary), अण्डाशय के ऊपर का नलिकाकार भाग वर्तिका ( style) तथा वर्तिका के ऊपर का गाँठ जैसा भाग वर्तिकाम (stigma ) । अण्डाशय के अन्दर बीजाण्ड (ovule) पाये जाते हैं।

प्रश्न 12.
पत्तियों के विभिन्न रूपान्तरण पौधे की कैसे सहायता करते हैं ?
उत्तर:
पत्तियों के रूपान्तरण (Modifications of leaves)
पत्ती के रूपान्तरण (Modifications of Leaf)-कई पौधों में पर्ण, विशेष कार्यों के लिए विभिन्न रूपों में रूपान्तरित हो जाती हैं। कुछ पौधोंमें पर्ण के कोई भाग जैसे पर्णवृन्त (petiole), अनुपर्ण (stipules) या पर्णफलक (lamina) विशेष कार्य के लिए रूपान्तरित हो जाता है। जबकि कुख अन्य पौधों में सम्पूर्ण पर्ण ही रूपान्तरित हो जाती है। पर्ण के रूपान्तरण निम्नवत हैं-
1. पर्णप्रतान (Leaf Tendril) – कुछ पौधों में पर्ण या पर्ण का कोई भाग पतली हरी धागे के समान कुण्डलित संरचनाओं में रूपान्तरित हो जाता है जिन्हें प्रतान (tendrils) कहते हैं। प्रतान (tendial), दुबले तने वाला आरोही पौधों (climabers) में मिलता है। यह किसी वस्तु या आधार के सम्पर्क में आते ही उसके चारों ओर लिपट जाता है व पौधों के आधार के सहारे ऊपर चढ़ने में सहायता देता है। जंगली मटर में सम्पूर्ण पर्ण ही प्रतान में रूपान्तरित हो जाता है।

2. पर्णक प्रतान (Leaflet Tendril) – संयुक्त पर्ण के अन्त में एक या एक से अधिक पर्णक पतले धागे के रूप में बदल जाते हैं जिन्हें पर्णक प्रतान कहते हैं। उदाहरण-मटर।

3. अंकुश (Hooks) – आरोही पौधे में अंकुश भी आरोहण अंग होते हैं। बिगोनिआ में संयुक्त पर्ण ऊपर के तीन पर्णक नुकीले दृढ़ वक्रित अंकुशों में रूपान्तरित हो जाते हैं। यह अंकुश आस-पास उगे हुए वृक्षों के तने की छाल में अटक जाते हैं व पौधे के आरोहण में सहायक होते हैं।
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4. पर्ण शूल (Leaf Spine) – कुष्छ पौधों में पर्ण या पर्ण का कोई भाग शूल में रूपान्तरित हो जाता है। शूल एक दृढ़ नुकीली कठोर संरचना होती है जो पौधों की रक्षा का साधन है। बारबेरी (Barberis) में सम्पूर्ण पर्ण एक शूल में रूपान्तरित हो जाता है और इसके कक्ष में पाई जाने वाली कलिका के सामान्य पर्ण परिखर्चित होते हैं। उदाइरण-वारणाठा (एलो), सत्थानाशी (अर्जीमोन), ख्रजू।
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5. शत्कर्ण (Scalp Leaf)-कुछ पौधों में पत्ती, पतली शुष्क, कागज या झिल्ली के समान हो जाती हैं। यह प्रायः हरी नहीं होती है। इसे शल्क पर्ण कहते हैं। भूमिगत स्तम्प जैसे कि प्रकन्द (rhizome), घनकन्द (corm) और शल्ककन्द्द (bulb) आदि में शस्की पर्ण होते है। इन स्तम्मों में इनका मुख कार्य कक्षस्थ कलिका को संरक्षित रखना है। शल्ककन्द जैसे कि प्याज में अधिकांश भाग शल्की गूद्रेदार सफेद पर्णों का बना होता है। यह शल्क पर्ण भोजन का संपहुण का कार्य करते हैं व इसे भोजन के रूप में प्रयोग करते हैं।

6. पर्णाथ-वन्त (Phyllode) – यह पर्णषृन्त का रूपान्तर है। कछ पौधों जैसे कि आस्ट्रेलियन अकेसिया में पिच्छाकार संयुक्त पर्ण (pinnately compound leaf) होता है जो तरुणावस्था में ही झड़ जाता है और पर्णवृन्त चपटा, फेला हुआ पत्ती के समान हो जाता है जो सयुक्त पर्णफलक की अनुपस्थिति में सामान्य पर्ण का कार्य करता है।

7. गूदेदार पर्ण (Fleshy Leaves) – इसमें पर्ण भोजन व जल का संप् करने के लिए रूपानरित हो जासी हैं और यह पर्ण खाने के काम आती है। उदाहरण-गवारपाठा, प्याज व लहसुन।
HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी 38. घटपद्बय (Nepenthes) – घटपादप या निपेन्बिस मे कीटों को पकड़ने के लिए घड़े के आकार की एक संरचना होती है जो पर्ण का रूपान्तरण होती है। ये पौधे नाइट्रोञन की पूर्रि कीटों से करते हैं। इस घट के मुख के ऊपर एक ढक्कन होता है जो पर्ण शिखाम्र (leaf apex) का रूपान्तरण होता है। घट को सीधी स्थिति में रखने वाला प्रतानी वृन्त (tendrilar Petiole), पर्णपृन्त का रूपान्तर होता है जो पानी के समान चपटे, चौड़े फैले हुए हरे पर्णाधार से जुड़ा होता है। यह पर्णाधार (leaf base) प्रकाश-संश्लेषण के अन्य कार्यों को करता है।

9. यूट्रीपुलेरिया या ब्लेडरष्ट (Utricularia)-एक अन्य जलीय कीटाहारी पौधे, यूट्रीकुलेरिया में भी कीट पकड़ने के लिए पर्णफलक विशेष प्रकार की थैली (Bladder) में रूपान्तरित हो जाता है।
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प्रश्न 13.
पुष्पक्रम की परिभाषा दीजिए। पुष्पी पादपों में विभिन्न प्रकार के पुष्यक्रमों के आधारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पुष्य क्रम (Inflorescence)-
पौधे में पुप्पीय अक्ष (floral axis) पर पुप्यों के लगने की व्यवस्था को पुण्यक्रम कहते हैं। जिस पुष्प अक्ष पर पुष्पक्रम बनता है उसे पुष्प वृन्त (receptacle) कहते हैं। पुष्ष्रों का निर्माण अक्ष की कक्षस्थ कलिका (axillary bud) से होता है। जब पुष्प शाखा पर अकेला होता है तब इसे एकल (solitary) पुष्प कहते हैं। ये पुष्प एकल शीर्षस्थ (solitary traminal) या एकल कक्षस्थ (solitary axillary) हो सकते हैं। एक ही स्थान से अनेक पुष्षों के निकलने को पुष्पक्रम (Inflorescence) कढ़ा जता है।
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पुषक्कम के प्रकार (Types of Inflorescence) – पुष्पक्रम मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-
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(अ) असीमाक्षी पुष्पक्रम,
(ब) समीमाक्षी पुष्पक्रम।
(अ) असीमाक्षी पुक्षम (Racemose Inflorescence) – इसमें पुष्प अक्ष की लम्बाई निरन्तर वृद्धिशील होती है और इस पर पुष्व अप्रभिसारी क्रम (acropetal succession) में लगे होते हैं। इसमें नीचे के पुष्प बड़े तथा ऊपरी पुष्प छोटे हो जाते हैं। यह पुष्प क्रम निम्नलिखित प्रकार का होता है-
(i) असीमाक्ष (Raceme)- इसमें मुख्य पुष्पी अक्ष पर सवृन्त (pediclate) तथा सहपत्री या असहपत्री पुष्प लगे होते हैं। जैसे-सरसों, मूली लार्कस्पर आदि।

(ii) स्थाईद्क (Spike) – इसमें पुष्पी अक्ष पर अवुन्त (sessile) पुष्प लगे होते हैं।। औसे-चिरचिटा (Achyranthus), चौलाई (Amaranthus) आदि।

(iii) मंजरी (Catkin) – इसमें पुष्प अक्ष लम्बा एवं कमजोर होता है।इस पर एकलिंगी तथा दलविहीन पुष्प लगते हैं। उसे-शहतूत (Manis alba) सेलिक्स (Salix) आदि।
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(iv) स्पाइकलेट (Spikelet)- ये वास्तव में छोटे स्पाइक होते हैं। इनमें प्रायः एक से तीन पुष्प लगे होते हैं। आधारी भाग पर पुष्प तुषनिपप्रों (glumes) से घिरे रहते हैं। जैसे-गेहूँ, जौ, जई आदि में। कहलाता है। पुष्प अक्ष पर नीचे की ओर मादा पुष्व, मध्य में बन्द्य पुष्प तथा ऊपर की ओर नर पुष्प लगे होते हैं। पुष्प एक रंगीन निपत्र (spathe) से ढके होते हैं। जैसे-केला, ताड़, अरकी आदि में।

(vi) समशिख (Corymb)- इसमें पुष्प अक्ष छोटा छोता है। नीचे स्थित पुष्ओों के पुष्प वृन्त लम्बे तथा ऊपरी पुष्षों के पुष्व वृन्त क्रमशः छोटे होते हैं जिससे एक छान जैसी रचना बनती है। इसमें सभी पुष्प लगभग समान ऊँचाई पर होते हैं। जैसे-केण्डीटफ्ट (Iberis amara), कैसिया आदि में।
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(vii) पुष्फ छ्र (Umbel)-इसमें पुष्पी अक्ष बहुत छोटी होती हैं और सभी पुष्प एक ही स्थान से निकले प्रतीत होते हैं। ये एक्र छाते जैसी रचना बनाते हैं। इसमें परिधि की ओर बड़े तथा केन्द्र की ओर के पुष्प छोटे होते हैं। औैसे-धनियाँ, सौंफ, जीरा, पूनस आदि में।

(viii) मुण्डक (Capitulum)-इसमें पुष्पी अक्ष चौड़ा होकर एक आसन बनाता है। आसन पर दो प्रकार के पुष्मक (Florets) उत्पम्न होते हैं। परिधि की ओर रश्चि पुष्य (ray florets) तथा केन्द्र की ओर बिम्ब पुक्यक (disc florets)। यद्यपि सम्पूर्ण पुष्ष एक ही पुष्प जैसे दिखाई देता है। जैसे – गैदा, सूरजमुखी डहेलिया, जीनिया आदि में।

(ब) ससीमाक्षी पुष्पक्रम (Cymose inflorescence) – इस प्रकार के पुष्पक्रम
में मुख्य अक्ष पर शीर्षस्थ कलिका बनने के कारण इसकी वृद्धि रुक जाती है तथा पार्श्वीय अक्ष जो शीर्षस्थ पुष्प के नीचे से निकलती है। वह भी पुष्प में समाप्त हो जाती है। इस प्रकार पार्श्वीय अक्ष की वृद्धि भी सीमित हो जाती है। पुष्षों की व्यवस्था तलाभिसारी क्रम (basipetal succession) में होती है। इस क्रम में पुराने पुष्प शीर्ष की ओर तथा नये पुष्प नीचे के ओर होते हैं। ससीमाथी पुष्पक्रम निम्न प्रकार के होते हैं-
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प्रश्न 14.
ऐसे फूल का सूत्र लिखिए जो त्रिज्या सममित, उभयलिंगी, अधोजायी, 5 संयुक्त बाहादली 5 मुक्त दली पुंकेसरी, द्वियुक्ताण्डपी तथा ऊर्ध्ववर्ती अण्डाशय हो ।
उत्तर:
उपरोक्त विशेषताएँ सोलेनेसी कुल के पुष्प की है। इसका पुष्पीय सूत्र निम्नवत् है-

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प्रश्न 15.
पुष्पासन पर स्थिति के अनुसार लगे पुष्पी भागों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पुष्पासन पर पुष्पपत्रों की स्थिति के आधार पर, विशेषतः अण्डपों की स्थिति के आधार पर पुष्प निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं-
1. अधोजाप या जायांगधर (Hypogynous) – जब पुंकेसर (stamens), दल (petals) तथा बाह्य दल (sepals) पुष्पासन पर जायांग (gynoecium) के नीचे लगे होते हैं तो पुष्प जायांगधर कहलाता है। इस स्थिति में पुष्प का अण्डाशय ऊर्ध्ववर्ती (superior) होता है तथा पुष्प के अन्य भाग अघोस्थिति में (inferior) होते हैं। जैसे- गुलाब, बैंगन आदि ।
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2. परिजायांगी (Perigynous) – जब पुष्पासन पर जायांग तथा अन्य पुष्पीय अंग लगभग समान ऊँचाई पर स्थित होते हैं तो पुष्प परिजायांगी कहलाता है। इसमें अण्डाशय आधा ऊर्ध्ववर्ती या आधा अधोवर्ती होता है। ये पुष्प डिस्क, कप या फ्लास्क के आकार के हो सकते हैं; जैसे- गुलाब, आडू आदि में।

3. जायांगोपरिक या उपरिजाय (Epigynous) – जब पुष्पासन के किनारे वृद्धि करके अण्डाशय को घेर लेते हैं और अण्डाशय से संलग्न हो जाते हैं। अन्य पुष्पीय भाग अण्डाशय के ऊपर स्थित होते हैं। इसे जायांगोपरिक पुष्प कहते हैं; जैसे- अनार, अमरूद आदि ।

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HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 4 प्राणि जगत

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 4 प्राणि जगत Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 4 प्राणि जगत

प्रश्न 1.
यदि मूलभूत लक्षण ज्ञात न हों तो प्राणियों के वर्गीकरण में आप क्या परेशानियाँ महसूस करेंगे ?
उत्तर:
प्राणियों के मूलभूत लक्षणों के आधार पर ही उनकी पहचान व वर्गीकरण किया जाता है। यदि मूलभूत लक्षण ज्ञात न हों तो उनकी नये सिरे से पुनः जाँच की जायेगी तभी उनको वर्गीकृत किया जा सकेगा। इन्हीं लक्षणों के आधार पर वह किसी अन्य जीव से समानता व भिन्नता प्रदर्शित करते हैं।

प्रश्न 2.
यदि आपको एक नमूना (स्पेसीमेन) दे दिया जाय तो वर्गीकरण हेतु आप क्या कदम अपनाएँगे ?
उत्तर:
वर्गीकरण हेतु किसी नमूने (स्पेसीमेन) के लक्षणों का अध्ययन किया जाता है। वर्गीकरण हेतु कई आधार बनाये गये हैं। जैसे जीव एक कोशिकीय है या बहुकोशिकीय, कोशिका का प्रकार कैसा है ? शरीर, सममिति, देहगुहा, खंडीभव, शरीर योजना आदि। इन सबकी जानकारी के बाद नमूने की वर्गीकरण की स्थिति स्वयं स्पष्ट हो जायेगी।

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प्रश्न 3.
देहगुहा एवं प्रगुहा का अध्ययन प्राणियों के वर्गीकरण में किस प्रकार सहायक होता है ?
उत्तर:
प्रगुहा या सीलोम (Coelom) – शरीर भित्ति तथा आहार नाल के बीच में पाई जाने वाली गुहा को प्रगुहा या देहगुहा कहते हैं । इस गुहा की उपस्थिति या अनुपस्थिति वर्गीकरण का महत्वपूर्ण आधार है। इस गुहा का निर्माण भ्रूण ( embryo) के मीसोडर्म से होता है तथा इसी से यह गुहा स्तरित होती है। आद्य (primitive) जन्तुओं में इसका पूर्णतः अभाव होता है तथा पूर्ण विकसित जन्तुओं में देहगुहा भी पूर्ण विकसित होती है। लीच के जन्तु देहगुहा विकास की अन्ध विकासीय अवस्था प्रदर्शित करते हैं। देहगुहा शरीर को लचीलापन प्रदान करती है। देहगुहा की उपस्थिति या अनुपस्थिति के आधार पर बहुकोशिकीय जन्तुओं को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है –

(1) अगुहीय या ऐसीलोमेट (Acoelomates) – इन जन्तुओं में शरीर गुहा नहीं पायी जाती है। अतः ये ‘अगुहीय’ कहलाते हैं, जैसे- प्लेटीहेल्मिथीज।

(2) कूटगुहिक या स्यूडोसीलोमेट (Pseudocoelomates) – कुछ प्राणियों में यह गुहा मीसोडर्म से आच्छादित नहीं होती, बल्कि भ्रूण की ब्लास्टोसील से विकसित होती है तथा त्वचा के बीच बिखरी हुई थैली के रूप में पायी जाती है, उन्हें कूटगुहिक कहते हैं, जैसे-ऐस्केल्मिथीज।

(3) प्रगुहीय या सीलोमेट (Coelomates) – जिन प्राणियों में वास्तविक देहगुहा (प्रगुहा या सीलोम) उपस्थित होती है और मीसोडर्म से आच्छादित होती है, उन्हें प्रगुहीय कहते हैं, जैसे-ऐनेलिडा, मोलस्का, आर्थ्रोपोडा, इकाइनोडमेंटा, हेमीकॉर्डेटा तथा कॉडेंटा संघ के प्राणी।

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प्रश्न 4.
अन्तःकोशिकीय एवं बाह्यकोशिकीय पाचन में विभेद करें।
उत्तर:
अन्तः कोशिकीय एवं बाह्य कोशिकीय पाचन में अन्तर (Differences between intracellular and extra- cellular digestion)

अन्तःकोशिकीय पाचन (Intracellular Digestion):
1. प्रोटोजोआ एवं पोरीफेरा संघ के प्राणियों में अन्तः कोशिकीय पाचन होता है। कोशिका के अन्दर होने वाला पाचन अन्तःकोशिकीय पाचन कहलाता है। लाइसोसोम के एंजाइम भोजन के पाचन में मदद करते हैं। पाचन के बाद खाद्य पदार्थ कोशिका द्रव में विसरित हो जाते हैं।
2. अपच खाद्य कोशिका से बाहर निकाल दिए जाते हैं। पचे खाद्यों का कोशिका में ही स्वांगीकरण हो जाता है।

बाह्यकोशिकीय पाचन (Extracellular Digestion):
1. ऐस्केल्मिथीज, ऐनेलिडा मोलस्का, आर्थ्रोपोडा, हेमीकॉर्डेटा, कॉर्डेटा संघ के प्राणियों में बाह्य कोशिकीय पाचन होता है।
2. इसमें भोजन का पाचन कोशिकाओं से बाहर आहार नाल में होता है तथा पचे हुए भोजन का अवशोषण कोशिकाओं द्वारा होता है अर्थात् एन्जाइम कोशिका से बाहर अपना कार्य करते हैं।

प्रश्न 5.
प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष परिवर्धन में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष परिवर्धन में अन्तर (Differences between Direct Development and Indirect Development)
प्रत्यक्ष परिवर्धन (Direct Development):
1. प्रत्यक्ष परिवर्धन में निषेचित अण्डे से निकला हुआ शिशु अपने जनकों जैसा होता है।
2. इसमें लार्वा अवस्था नहीं पायी जाती है।
उदाहरण-केंचुआ, जोंक, तितली आदि।

अप्रत्यक्ष परिवर्धन (Indirect Development):
1.अप्रत्यक्ष परिवर्धन में निषेचित अण्डे से निकला हुआ शिशु अपने जनकों से पूर्णतः भिन्न होता है।
2. वयस्क बनने से पूर्व लार्वा अवस्था पायी जाती है। लार्वा वयस्क से पूर्णतः
भिन्न होता है ।
उदाहरण-फीताकृमि (टेपवर्म) मेंढक आदि।

प्रश्न 6.
परजीवी प्लेटिहेल्पिन्थीज के विशेष लक्षण बताएँ।
उत्तर:
परजीवी प्लेटिहोल्मिन्थीज में जीव का शरीर परजीवी जीवन के लिए पूर्णत: अनुकूलित होता है ।

  • इनमें स्वयं का पाचन तन्त्र नहीं होता तथा यह अपनी देहभित्ति के द्वारा पोषक के शरीर से भोजन का अवशोषण करते हैं ।
  • इनके शरीर में प्रजनन इकाइयों की एक श्रृंखला होती है जो बड़ी संख्या में निषेचित अण्डे पैदा कर सकती है। यह पोषक के शरीर से बाहर आ जाते हैं तथा अगले पोषक के शरीर में संदूषित खाद्य या जल के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं।
  • इनमें अवायवीय श्वसन की क्षमता होती है।
  • पुनर्जनन (regeneration) की क्षमता पायी जाती है।
  • टेपकर्म में पोषक के शरीर से चिपकने हेतु चूषक पाये जाते हैं।
  • शरीर लम्बा व चपटा व परजीवी जीवन के अनुकूलित होता है।

प्रश्न 7.
आर्थोपोडा प्राणी समूह का सबसे बड़ा वर्ग है इस कथन के प्रमुख कारण बताइए ।
उत्तर:
आर्थोपोडा (Arthropoda) प्राणी जगत का सबसे बड़ा संघ है। इसके सदस्य सभी प्रकार के आवासों— जल, स्थल, वायु, मृदा के नीचे, वृक्षों आदि सभी स्थानों पर पाये जाते हैं।

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आर्थोपोड्स की सफलता के कारण निम्नलिखित हैं –
1. शरीर पर क्यूटिकल के बने बाह्य कंकाल की उपस्थिति हल्का, दृढ़ पदार्थ है जो प्रोटीन व पॉलीसेकेराइड काइटिन (chitin) का बना होता है। खनिज कैल्शियम फास्फेट व कार्बोनेट का जमाव इसे और कड़ा बना देता है। इसे अनेक अंगों को आकार देने हेतु प्रयोग किया जा सकता है। यह पानी के लिए अपारगम्य है अतः इसका बना खोल जीव के शरीर को सूखने से बचाता है। इसी की उपस्थिति के कारण आर्थोपोड्स भूमि के सभी पर्यावरणों में रहने में सक्षम हुए हैं। वह सूखे रेगिस्तान से लेकर समुद्री पर्यावासों में रह सकते हैं।

1. कीट अपने काइटिन के बने पंखों के कारण उड़ने में सक्षम हुए। अतः इन्होंने जल, भूमि व वायु तीनों तरह के आवासों पर आधिपत्य जमा लिया। मुखांग विविध रूप से अनुकूलित होते हैं।

2. भूमि पर रहने वाले सभी आर्थोपोड्स में आन्तरिक निषेचन (internal fertilization) होता है। अतः निषेचित अण्डे के प्रतिकूल पर्यावरण के कारण नष्ट होने की सम्भावना हो जाती है।

3. जटिल आँख (compound eye), संवाद हेतु फेरोमोन का प्रयोग, अनेक संवेदांगों की उपस्थिति ने भी इनकी प्रगति में साथ दिया।

प्रश्न 8.
जल संवहन-तन्त्र किस संघ के मुख्य लक्षण हैं ?
(अ) पोरीफेरा
(ब) टीनोफोरा
(स) एकाइनोडर्मेटा
(द) कॉर्बेटा।
उत्तर:
जल- संवहन तन्त्र एकाइनोडर्मेटा संघ का प्रमुख लक्षण है।

प्रश्न 9.
सभी कशेरुकी (वर्टिब्रेट्स), रज्जुकी (कॉडेंट्स) हैं लेकिन सभी रज्जुकी कशेरुकी नहीं है। इस कथन को सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
सभी कशेरुकी (वर्टिब्रेट्स) रज्जुकी (कॉडेंट्स) हैं, क्योंकि इनमें कॉडेंट्स के समान निम्नलिखित तीन मुख्य लक्षण पाये जाते हैं-
1. सभी कॉडेंट्स प्राणियों के जीवन की किसी न किसी अवस्था में छड़नुमा, लचीली पृष्ठरज्जु (notochord ) पायी जाती है।
2. सभी कॉडेंट्स के शरीर की मध्य पृष्ठ रेखा पर पृष्ठीय नाल तन्त्रिका रज्जु, पृष्ठरज्जु के ऊपर स्थित होती है।
3. जीवन की किसी न किसी अवस्था में प्रसनीय क्लोम दरारें (pharyngeal gills clifts), पायी जाती हैं। सभी रज्जुकी कशेरुकी नहीं होते कुछ कार्डेट्स में नोटोकार्ड, कशेरुक दण्ड में रूपान्तरित नहीं होता है। अतः वह कार्डेट तो हुए लेकिन कशेरुकी नहीं अर्थात् कशेरुकियों (वर्टीब्रेट्स) में कशेरुक दण्ड ( vertebral column) पूर्ण विकसित होता है, जबकि प्रोटोकॉर्डेटा तथा ऐम्मेथा (protochordata and agnatha) के प्राणियों में कशेरुक दण्ड अनुपस्थित या अविकसित होता है। कशेरुक दण्ड का निर्माण पृष्ठरज्जु (नोटोकॉर्ड) से होता है।

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प्रश्न 10.
मछलियों में वायु आशय (एयर ब्लैडर) की उपस्थिति का क्या महत्व है ?
उत्तर:
मछलियों में वायु आशय (Air bladder) का महत्व – वायु आशय अस्थिल मछलियों (bony fishes) में पाया जाता है। यह ग्रासनली (oesophagus) की पृष्ठभित्ति से एक अपवर्ध ( outgrowth) के रूप में निकला रहता है। वायु आशय की भित्ति गैस स्त्रावित करके या गैस को अवशोषित करके हाइड्रोस्टेटिक अंग (hydrostatic organ) का कार्य करती है। इससे मछलियों का सन्तुलन बना रहता है। वायु आशय के प्रभाव से मछलियाँ जल में निरन्तर बिना प्रयास के भी तैरती रहती हैं और डूबने से बची रहती हैं। कुछ मछलियों में वायु आशय श्वसन में भी सहायक होते हैं।

प्रश्न 11.
पक्षियों में उड़ने हेतु क्या-क्या रूपान्तरण हैं ?
उत्तर:
पक्षियों में उड़ने के लिए रूपान्तरण-पक्षियों में वायवीय जीवन के लिए निम्नलिखित विशेष अनुकूलन पाये जाते हैं-
1. अग्रपाद पंखों (wings) में रूपान्तरित होते हैं।
2. शरीर धारारेखीय (streamlined) होता है।
3. शरीर को हल्का बनाने हेतु अस्थियाँ खोखली होती हैं। शरीर में वजन कम करने हेतु निम्नलिखित अनुकूलन भी होते हैं –
(a) मूत्राशय नहीं पाया जाता हैं।
(b) सिर्फ एक अण्डाशय पाया जाता है।
(c) शरीर परों से ढका रहता है जिनके बीच हवा भरी रहती है।
(d) सीने की पेशियाँ अत्यधिक विकसित होती हैं।
(e) हवा में दूर से ही भोजन की तलाश हेतु दृष्टि संवेदन अधिक विकसित होता है।

प्रश्न 12.
अण्डजनक तथा जरायुज द्वारा उत्पन्न अण्डे या बच्चे संख्या में बराबर होते हैं। यदि हाँ तो क्यों ? यदि नहीं तो क्यों ?
उत्तर:
अण्डजनक अधिक संख्या में अण्डे देते हैं। जरायुज अर्थात् शिशु को जन्म देने वाले प्राणियों में जन्म दिए जाने वाले शिशुओं की संख्या सीमित होती है। इसके कारण निम्नलिखित हैं-
अण्डे छोटे होते हैं। अण्डों में परिवर्धन प्रमुखतः जन्तु के शरीर के बाहर सम्पन्न होता है। अतः छोटे अण्डे बड़ी संख्या में दे दिए जाते हैं। शिशु को जन्म देने वाले जन्तुओं में शिशु का विकास शरीर के अन्दर सम्पन्न होता है। युग्मनज (zygote) से भ्रूण व शिशु बनने तक उसका आकार काफी बड़ा हो जाता है अतः केवल कुछ ही शिशु शरीर के अन्दर विकसित हो सकते हैं।

यह सभी पोषण भी प्रारम्भिक अवस्था में माँ के शरीर से ही प्राप्त करते हैं अतः माँ के शरीर से बहुत बड़ी संख्या में होने वाले शिशुओं को पोषण शरीर के अन्दर नहीं प्राप्त कराया जा सकता। चूँकि अण्डे शरीर से बाहर परिवर्धित होते हैं अतः उनके परभक्षियों द्वारा खाये जाने की सम्भावना या प्रतिकूल वातावरण मे नष्ट होने की सम्भावना भी अधिक होती है। अतः इस कमी को पूर्ण करने हेतु अधिक संख्या में पैदा होते हैं। अण्डे देने वाले अनेक जन्तुओं में निषेचन भी बाह्य होता है। इस हेतु बड़ी संख्या में अण्डे देना आवश्यक होता है ताकि निषेचन की सम्भावना को बढ़ाया जा सके।

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प्रश्न 13.
निम्नलिखित में से शारीरिक खण्डीभवन किसमें पहले देखा गया ?
(अ) प्लेटिहेल्मिन्यीज
(ब) एस्केलमिंन्थीज
(स) ऐनेलिड
(द) आर्थोपोडा।
उत्तर:
(स) शारीरिक खण्डीभवन सबसे पहले ऐनेलिडा (Annelida) में देखा गया।

प्रश्न 14.
निम्नलिखित का मिलान कीजिये-

(i) प्रच्छद(अ) टीनोफोरा
(ii) पार्श्वपाद(ब) मोलस्का
(iii) शल्क(स) पोरीफेरा
(iv) कंकत पट्टिका (काम्बप्लेट)(द) रेप्टीलिया
(v) रेडूला(ई) ऐनेलिडा
(vi) बाल(फ) साइक्लोस्टोमेटा एवं कॉण्ड्रिक्थीज
(vii) कीप कोशिका (कोएनोसाइट)(ग) मैमेलिया
(viii) क्लोम छिद्र(घ) आस्टिक्थीज

उत्तर:

(i) प्रच्छद(घ) आस्टिक्थीज
(ii) पार्श्वपाद(ई) ऐनेलिडा
(iii) शल्क(द) रेप्टीलिया
(iv) कंकत पट्टिका (काम्बप्लेट)(अ) टीनोफोरा
(v) रेडूला(ब) मोलस्का
(vi) बाल(ग) मैमेलिया
(vii) कीप कोशिका (कोएनोसाइट)(स) पोरीफेरा
(viii) क्लोम छिद्र(फ) साइक्लोस्टोमेटा एवं कॉण्ड्रिक्थीज

प्रश्न 15.
मनुष्यों पर पाये जाने वाले कुछ परजीवियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
मनुष्यों पर पाये जाने वाले कुछ परजीवी-

संघपरजीवी का नाम
1. आन्तरिक परजीवी:टेपवर्म (टीनिया सोलियम), लिवर फ्लूक, ब्लड फ्लूक, गोलकृमि (ऐस्केरिस), पिनवर्म (एन्टीरोबियस )।
2. बाहा परजीवीजूँ, प्यूबिक माइट्स।

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HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 22 रासायनिक समन्वय तथा एकीकरण

प्रश्न 1.
निम्नलिखित की परिभाषा लिखिये-
(अ) बहिःस्रावी ग्रन्थियाँ,
(ब) अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ
(स) हॉर्मोन ।
उत्तर:
(अ) बहिःस्रावी ग्रन्थियाँ (Exocrine Glands).
इन प्रन्थियों में सँकरी नलिकाएँ या वाहिकाएँ (ducts) होती हैं, जिनके द्वारा इनमें बनने वाला स्रावित पदार्थ शरीर के किसी निश्चित अंग या शरीर की सतह पर पहुँचाये जाते हैं। ऐसी मन्थियों को बहिःस्त्रावी ग्रन्थियाँ या नलिकायुक्त या प्रणाल ग्रन्थियाँ कहते हैं। उदाहरण – स्तनियों में स्वेदग्रन्थियाँ, तैलप्रन्थियाँ, लार ग्रन्थियाँ, अश्रुग्रन्थियाँ, दुग्ध प्रन्थियाँ आदि।

(ब) अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands)
इन प्रन्थियों में स्रावित पदार्थ के परिवहन के लिए नलिकाओं या वाहिकाओं (ducts) का अभाव होता है। अतः इनके द्वारा स्रावित पदार्थ ऊतक द्रव्य के माध्यम से सीधे रुधिर में मुक्त होकर शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँच जाता है। नलिका न होने के कारण इन प्रन्थियों को नलिका विहीन या अप्रणाल ग्रन्थियाँ (Ductless glands) भी कहते हैं। इन प्रन्थियों के स्रावों को हॉर्मोन्स (Hormones) कहते हैं। ऐसी ग्रन्थियों में रुधिर वाहिनियाँ अपेक्षाकृत अधिक होती हैं। उदाहरण – पीयूष ग्रन्थि, थायरॉइड ग्रन्थि, अधिवृक्क ग्रन्थि आदि ।

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(स) हॉर्मोन (Hormone)
ये अन्तःस्रावी ग्रन्थियों में बनने वाले ऐसे सक्रिय तथा कार्यकारी जटिल कार्बनिक पदार्थ हैं, जो रुधिर द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचकर विशेष अंगों की कोशिकाओं की कार्यिकी को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार ये रासायनिक उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। रासायनिक दृष्टि से ये स्टीरॉइड्स या प्रोटीन या प्रोटीन से व्युत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 2.
हमारे शरीर में पाई जाने वाली अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की स्थिति चित्र बनाकर प्रदर्शित कीजिए।
उत्तर:
देखिए चित्र 22.1
22.1. आंतरिक समन्वय तन्त्र : अन्त:स्रावी तन्त्र (Internal Coordination System : Endocrine System)
हमारे शरीर के आन्तरिक समन्वय के लिए निम्न प्रकार की ग्रन्थियाँ सम्मिलित होती हैं, जो मिलकर अंतः स्रावी तन्त्र बनाती हैं-
(i) बहि:स्रावी ग्रन्थियाँ (Exocrine glands)
(ii) अन्तस्तावी प्रन्थियाँ (Endocrine glands)
(iii) मिश्रित प्रन्थियाँ (Mixed glands)
(1) बहि: खावी ग्रन्थियाँ (Exocrine Glands)-इन ग्रन्थियों में सँकरी नलिकाएँ या वाहिकाएँ (ducts) होती हैं, जिनके द्वारा इनमें बनने वाले स्रावित पदार्थ शरीर के किसी निश्चित अंग या शरीर की सतह पर पहुँचाये जाते हैं। ऐसी प्रन्थियों को बहि:स्रावी प्रन्थियाँ या नलिकायुक्त या प्रणाल प्रन्थियाँ कहते हैं। उदाहरण-स्तनियों में स्वेदग्रन्थियाँ, तैलग्रन्थियाँ, लार प्रन्थियाँ, अश्रुप्रन्थियाँ, दुग्ध प्रन्थियाँ आदि।

(2) अन्त:स्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands) -इन प्रन्थियों में स्नावित पदार्थ के परिवहन के लिए नलिकाओं या वाहिकाओं (ducts) का अभाव होता है। अतः इनके द्वारा स्रावित पदार्थ ऊतक द्रव्य के माध्यम से सीधे रुधिर में मुक्त होकर शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँच जाता है। नलिका न होने के कारण इन प्रन्थियों को नलिका विहीन या अप्रणाल प्रन्थियाँ (Ductless glands) भी कहते हैं। इन प्रन्थियों के स्रावों को होंरोन्स (Hormones) कहते हैं। ऐसी प्रन्थियों में रधिर वाहिनियाँ अपेक्षाकृत अधिक होती हैं। उदाहरण-पीयूष ग्रन्थि, थायरॉइड ग्रन्थि, अधिवृक्क प्रन्थि आदि।

(3) मिश्रित ग्रन्धियाँ-ये ग्रन्थियाँ वाहिकायुक्त होती हैं, परन्तु इसमें बहि.स्तावी तथा अन्तःस्तावी दोनों ही प्रकार के ऊतक या कोशिकाएँ होती हैं। उदाहरण-अग्नाशय (Pancreas) तथा जनद (gonads)
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प्रश्न 3.
निम्नलिखित द्वारा स्त्रावित हॉर्मोन का नाम लिखिए।
(अ) हाइपोथैलेमस,
(ब) पीयूष ग्रन्थि,
(स) थायरॉइड
(द) पैराथायरॉइड,
(स) अधिवृक्क ग्रन्थि
(र) अग्न्याशय
(ल) वृषण,
(व) अंडाशय,
(श) थायमस,
(स) एट्रियम
(घ) वृक्क
(ह) जठर- आंत्रीय पथ।
उत्तर:

ग्रन्थि का नाम (Glands)स्रावित हॉर्मोन का नाम (Secreted Hormone)
(अ) हाइपोथैलेमस Hypothalamusतंत्रिहॉर्मोन (न्यूरोहॉर्मोन)
(ब) पीयूष ग्रन्थि Pituitary glandसोमेटोट्रोपिन या वृद्धि हॉर्मोन GH गोनेडोट्रोपिन, प्रोलैक्टिन (PRL) ऑक्सीटोसिन, पुटिका प्रेरक हॉर्मोन (FSH) थाइरोट्रॉपिक हॉर्मोन (T.S.H.) वेसोप्रेसिन ल्यूटीनाइजिंग हॉर्मोन (L.H.) आदि।
(स) थायरॉइड Thyroidटेट्राआयडोथाइरोनीन (T4) (थायरॉक्सिन), ट्राई आयडोथायरोनीन (T3)
(द) पैराथायरॉइड Parathyroidपैराथार्मोन
(य) अधिवृक्क ग्रन्थि Adrenal glandएड्रीनेलिन, कोर्टीकोस्टीरोन्स, ऐल्डेस्टीरोन, ऐन्ड्रोजेन्स, एस्ट्रोजेन्स
(र) अग्न्याशय Pancreasइन्सुलिन, ग्लूकेगोन (लैंगरहेन्स द्वीपिकाएँ)
(ल) वृषण (Testes), टेस्टोस्टीरॉन, ऐण्डोस्टीरॉनऐस्ट्रोजेन, प्रोजेस्ट्रॉन, रिलैक्सिन
(व) अण्डाशय (Ovary)ऐस्ट्रोजेन, प्रोजेस्ट्रॉन, रिलैक्सिन
(श) थाइमस (Thymus)थाइमोसिन
(स) एर्टियस (Atrius)एट्रियल नेट्रियुरेटिक कारक (ANF)
(ष) वृक्क (Kidney)इरिथ्रोपोइटिंन
(ह) जठर-आंत्रीय पथ (Gastric intestine path)गैस्ट्रिन, सीक्रेटिन, कोलीसिस्टोकाइनिन, जठर अवरोधी पेप्टाइड

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प्रश्न 4.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए- हॉर्मोन
(अ) हाइपोथैलेमिक हॉर्मोन
(ब) थायरोट्रॉफिन (टी. एच. एस)
(स) कॉर्टिकोट्रॉफिन (ए. सी. टी. एच)
(द) गोनेडोट्रॉपिन (एल. एच. एफ. एस. एच)
(य) मेलानोट्रॉफिन (एम. एस. एच)

लक्ष्य ग्रन्थि
………….
………….
………….
………….
………….

उत्तर:
लक्ष्य ग्रन्थि
(अ) हाइपोथैलेमस
(ब) थायरॉइड ग्रन्थि
(द) वृषण अथवा अण्डाशय
(स) अधिवृक्क वल्कुट
(य) मिलैनोसाइट्स (त्वचा की रंग कोशिकाएँ)

प्रश्न 5.
निम्नलिखित हॉर्मोन के कार्यों के बारे में टिप्पणी लिखिए-
(अ) पैराथायरॉइड हॉर्मोन (पी. टी. एच),
(ब) थायरॉइड हॉर्मोन
(द) एंड्रोजन
(स) थाइमोसिन
(य) एस्ट्रोजन
(र) इन्सुलिन एवं ग्लूकेगॉन

हॉर्मोन (Hormone)हॉर्मोन का जैविक कार्य (Biotic Functions of Hormone)
(अ) पैराथायरॉइड हॉम्मोन (P.T.Y) (Parathyroid Hormone)पेशियों की क्रियाशीलता का नियमन करना, रुधि में Ca एवं PO4 आयनों की संख्या का नियमन करना, अस्थियों की वृद्धि तथा दाँतों का निर्माण करना।
(ब) थायरॉइड हॉर्मोन (Thyro Hormone)आधारी उपापचय दर (B. M. R.) का नियंत्रण करना, ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाना, शरीर के ताप को नियंत्रित करना, तंत्रिका तंत्र के कार्य को बढ़ाना, प्रोटीन संश्लेषण, O2 एवं ग्लूकोज की खपत बढ़ाना।
(द) धाइमोसिन (Thymosin)शरीर में प्रतिरक्षी पदार्थों (एण्टीबॉडीज) का संश्लेषण एवं नियमन करना T लिम्फोसाइट्स का प्रचुरोद्भवन एवं विभेदीकरण द्वारा शरीर की सुरक्षा करना।
(स) एण्ड्रोजन (Androgens)पुरुष में सहायक जनन म्न्थियों के विकास को प्रेरित करना, (दाढ़ी-मूँछों का उगना, आवाज भारी होना, अस्थियों का सुद्ढ होना, पेशियों और शरीर का सुडौल होना, कन्धों का फैलना आदि)।
(य) ऐस्ट्रोजन (Estrogens)स्त्रियों में यौवनारंभ करना, मासिक स्राव प्रारंभ करना, स्तनों, दुग्ध प्रन्थियों एवं यौनांगों का विकास करना आदि।
(र) (i) इन्तुलिन (Insulin)

(ii) ग्लूकेगोन (Glucagon)

इन्सुलिन आवश्यकता से अधिक शर्करा को ग्लाइकोजन में बदलता है (ग्लाइकोजिनेसिस क्रिया)। रक्त में ग्लूकोज की मात्रा कम होने पर ग्लूकागोन संचित ग्लाइकोजन को ग्लूकोज (शर्करा) में बदल देता है। (ग्लाइकोजेनोलिसिस) क्रिया)।

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित के उदाहरण दीजिए-
(अ) हाइपर ग्लाइसीमिक हॉर्मोन एवं हाइपोग्लाइसीमिक हॉर्मोन
(ब) हाइपर कैल्सीमिक हॉर्मोन
(स) गोनेडोट्रॉपिक हॉर्मोन
(द) प्रोजेस्टेरॉनल हॉर्मोन
(य) रक्त दाब निम्नकारी हॉर्मोन
(र) एन्ड्रोजन एवं एस्ट्रोजन ।
उत्तर:

हॉर्मोन का नामउदाहरण
(अ) हाइपरग्लाइसीमिक हॉर्मोन हाइपोग्लाइसीमिक हॉर्मोनग्लूकागॉन एवं ग्लूकोकॉर्टिकोएड्स, इन्सुलिन एवं ग्लूकॉकोकॉर्टिकोएड्स
(ब) हाइपर कैल्सीमिक. हॉर्मोनपैराथार्मोन
(स) गोनेडोट्रापिक हॉर्मोनल्यूटीनाइजिंग हॉर्मोन (L.H), पुटिका प्रेरक हॉर्मोन (F.S.H)
(द) प्रोजेस्टेरॉनल हॉर्मोनप्रोजेस्टोरॉन, हॉर्मोन्स
(य) रक्त दाब निम्नकारी हॉर्मोंपेप्टाइड हॉर्मोन (ANF)
(र) एन्ड्रोजेनटेस्टोस्टेरॉन हॉर्मोन एस्ट्रोन,

प्रश्न 7.
निम्नलिखित विकार किस हॉर्मोन की कमी के कारण होते हैं-
(अ) डायबिटीज
(ब) गाइटर
(स) क्रेटीनिज्म ।
उत्तर:
(अ) डायबिटीज (Diabetes ) – यह विकार इन्सुलिन हॉर्मोन के अल्प या न्यून स्रावण के कारण उत्पन्न होता है ।
(ब) गाइटर (Goitre) – यह विकार आयोडीन की कमी से कम मात्रा में थाइरॉक्सिन हॉमोन स्त्रावण के कारण उत्पन्न होता है ।
(स) क्रेटीनिज्म (Cretinism ) – इस विकार को जड़वामनता भी कहते हैं। यह थाइरॉक्सिन हॉर्मोन की कमी से हो जाता है। इससे बच्चे बौने रह जाते हैं।

प्रश्न 8.
एफ. एस. एच. की कार्य विधि का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एफ. एस. एच. की कार्य-विधि (Mechanism of FSH)
FSH अर्थात् पुटिका प्रेरक हॉर्मोन पुरुषों के वृषणों (testes) की शुक्रजनन नलिकाओं की वृद्धि तथा शुक्राणुजनन को प्रेरित करता है। स्त्रियों में यह अण्डाशय की ग्रैफियन पुटिकाओं की वृद्धि और विकास तथा अण्डजनन को प्रेरित करता है । यह स्त्रियों में एस्ट्रोजेन के स्त्रावण को प्रेरित करता है ।

ऋणात्मक पुनर्निवेशन नियंत्रण में यह प्रमुख हॉर्मोन पुरुषों में प्रमुख हॉर्मोन टेस्टोस्टेरॉन FSH के स्रावण का तथा स्त्रियों में यह प्रमुख हॉर्मोन एस्ट्रोजेन FSH के स्रावण का अवरोध करते हैं। स्त्रियों में 40 वर्ष की आयु के पश्चात् अण्डाशयों पर FSH का प्रभाव बहुत कम हो जाता है। अतः मासिक स्राव, अण्डजनन एवं मादा हॉर्मोन का स्त्रावण आदि समाप्त होने लगते हैं और 48 वर्ष की आयु में रजोनिवृत्ति हो जाती है ।

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प्रश्न 9.
निम्नलिखित के जोड़े बनाइए-

स्तंभ – Iस्तंभ- II
(i) टी.(अ) हाइपोथैलेमस
(ii) पी टी एच(ब) थायरॉइड
(iii) गोनेडोट्रापिक रिलीजिंग हॉर्मोन(स) पीयूष ग्रन्थि
(iv) ल्यूटिनाइजिंग हॉर्मोन(द) पैराथायरॉइड

उत्तर:

स्तंभ – Iस्तंभ – II
(i) टी.(ब) थायरॉइड
(ii) पी टी एच(द) पैराथायरॉइड
(iii) गोनेडोट्रापिक रिलीजिंग हॉर्मोन(अ) हाइपोथैलेमस
(iv) ल्यूटिनाइजिंग हॉर्मोन(स) पीयूष ग्रन्थि

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HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय

प्रश्न 1.
निम्नलिखित संरचनाओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए-
(अ) मस्तिष्क,
(ब) नेत्र,
(स) कर्ण।
उत्तर:
(अ) मानव मस्तिष्क की संरचना (Structure of Human Brain)
HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 21 तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय 1
मानव मस्तिष्क खोपड़ी (skull) के अन्दर कपाल गुहा (cranial cavity) नामक दृढ़ बक्सा सुरक्षित रहता है। यह मस्तिष्क आवरण (कपालीय मेनिजेज- meninges) नामक एक दोहरी झिल्ली से ढंका रहता है। इनमें सबसे बाहर की मोटी तथा दृढ़ झिल्ली को ड्यूरामेटर (duramater), भीतर की पतली झिल्ली को पाइयामेटर (piamater) कहते हैं। इन दोनों झिल्लियों के बीच में तरल प्रमस्तिष्क मेरुद्रव्य ( cerebrospinal fluid) भरा रहता है। यह मस्तिष्क को नम रखता है और इसकी बाहरी आघातों से सुरक्षा करता है तथा रुधिर व मस्तिष्क के बीच उपापचयी पदार्थों का आदान-प्रदान करने में सहायता देता है ।

मस्तिष्क के भाग (Parts of the Brain)
मानव मस्तिष्क के तीन प्रमुख भाग होते हैं-
(1) अम-मस्तिष्क,
(2) मध्य-मस्तिष्क,
(3) पश्च- मस्तिष्क ।

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(1) अप्र मस्तिष्क (Fore Brain) अग्र मस्तिष्क के दो प्रमुख भाग होते हैं-
(i) प्रमस्तिष्क (Cerebrum) एवं
(ii) अप्रमस्तिष्क पश्च या डाइएनसैफेलोन ( Diencephalon)।

(i) प्रमस्तिष्क या सेरीब्रम ( Cerebrum) – यह सर्वाधिक विकसित एवं पूरे मस्तिष्क का लगभग 80% भाग होता है। यह दाहिने एवं बायें प्रमस्तिष्क गोलाद्धों (cerebral hemispheres) का बना होता है। दोनों गोलार्द्ध तन्त्रिका तन्तुओं की एक पट्टी द्वारा एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं, जिसे कॉर्पस कैलोसम (Corpus callosum) कहते हैं। प्रत्येक प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध तीन गहरी दरारों द्वारा चार पालियों में बँटा रहता है-
(a) अग्रललाट या फ्रण्टल पालि (Frontal Lobe ) – यह आगे की ओर तथा सबसे बड़ी होती है ।
(b) भित्तीय या पैराइटल पालि (Parietal Lobe ) – यह फ्रण्टल पालि के पीछे स्थित होती है ।
(c) शंख या टेम्पोरल पालि (Temporal Lobe ) – यह पैराइटल पालि के नीचे तथा सामने की ओर होती है।
(d) अनुकपाल या ऑक्सीपीटल पालि (Occipital Lobe ) – यह अपेक्षाकृत छोटी या सबसे पीछे स्थित होती है।

(ii) अग्रमस्तिष्क पश्च या डाइऐनसेफेलॉन (Diencephalon ) – यह मस्तिष्क का पिछला भाग है जो प्रमस्तिष्क (cerebrum) तथा मध्य मस्तिष्क (midbrain) के बीच स्थित होता है। इसमें पायी जाने वाली गुहा डायोसील (diocoel) या तृतीय निलय कहलाती है। इसके तीन भाग होते हैं-
(a) अधिचेतक या एपीथैलेमस (Epithalamus) – यह तृतीय गुहा की छत बनाता है। इसमें एक रक्तक जालक (choroid plexus ) होता है। इसके मध्य रेखा में एक छोटे से वृन्त पर पीनियल ग्रन्थि ( pineal gland) होती है।

(b) चेतक या थैलेमस (Thalamus) – यह डाइऐनसेफेलॉन की पार्श्व दीवारों का ऊपरी भाग बनाता है। यह अण्डाकार एवं दो मोटे पिण्डकों के रूप में होता है।

(c) अधश्चेतक या हाइपोथैलेमस (Hypothalamus ) – यह डाइऐनेसेफेलॉन की पार्श्व दीवारों का निचला भाग तथा डायोसील का फर्श बनाता है। इसमें तन्त्रिका कोशिकाओं के लगभग एक दर्जन बड़े-बड़े केन्द्रक होते हैं। इसमें एक दृक् काएज्या (optic chiasma) होता है।

(2) मध्य मस्तिष्क (Mid brain or Mesencephalon )
यह मस्तिष्क का अपेक्षाकृत छोटा भाग है जो डाइएनसेफेलॉन के पीछे, प्रमस्तिष्क के नीचे तथा पश्च-मस्तिष्क के ऊपर स्थित होता है। इसकी गुहा अत्यधिक सँकरी होती है, जिसे आइटर (iter) अथवा सिल्वियस की एक्वीडक्ट (aqueduct or sylvius) कहते हैं। मध्य मस्तिष्क को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(a) प्रमस्तिष्क वृन्तक या सेरिब्रल पिंडकल या क्रूरा सेरिब्राइ (Cerebral Peduncles or Crura Cerebri)- ये अधर सतह पर माइलिनेटेड (myelinated) तन्त्रिका तन्तुओं से बने डण्ठलनुमा वृन्त हैं। ये प्रमस्तिष्क (cerebrum) को पश्चमस्तिष्क तथा मेरुरज्जु (spinal cord) से जोड़ते हैं।

(b) पिण्ड चतुष्टि या कॉर्पोरा क्वाड्रीजेमिना (Corpora Quadrigemina) – ऐक्वीडक्ट (aqueduct) के पीछे कुछ भाग धूसर पदार्थ के चार गोल से उभारों का बना होता है। प्रत्येक उभार को कोलिकुलस (Colliculus) कहते हैं तथा चारों उभारों को सम्मिलित रूप से कॉर्पोरा क्वाड्रीजेमिना या पिण्ड चतुष्टि (corpora quadrigemina) कहते हैं ।

(iii) पश्च मस्तिष्क – ( Hind brain) – इसमें निम्नलिखित भाग होते हैं-
(a) अनुमस्तिष्क या सेरीबेलम (Cerebellum ) – यह मस्तिष्क का दूसरा सबसे बड़ा भाग है। यह प्रमस्तिष्क गोलाद्धों के पश्च भाग के नीचे एवं मेडुला (Medulla) व पोन्स वेरोलाई (pons varolli) के पश्च भाग पर स्थित होता है ।
(b) पोन्स वेरोलाई (Pons Varolli) – यह मेडुला के ठीक ऊपर स्थित होता है ।
(c) मेडुला ऑब्लांगेटा (Medulla Oblongata) – यह मस्तिष्क का सबसे अन्तिम व निचला भाग बनाता है। इसकी गुहा को चतुर्थ निलय कहते हैं। यह आगे मेरुरज्जु के रूप में कपालगुहा से बाहर निकलता है। इसकी पृष्ठ भित्ति में पश्च रक्त जालक स्थित होता है।

(ब) नेत्र की संरचना (Structure of Eye)
नासिका के ऊपरी भाग में प्रत्येक पार्श्व में एक-एक नेत्र स्थित होता है। प्रत्येक नेत्र करोटि के नेत्र कोटर में स्थित होता है। यह ऊपरी तथा निचली दो रोमयुक्त गतिशील पलकों (eyelids) से सुरक्षित रहता है। नेत्र गोलक का बाहरी पारदर्शक भाग कॉर्निया (cornea ) कहलाता है। ऊपरी तथा निचली पलकों की भीतरी त्वचा उलटकर एक पारदर्शक झिल्ली के रूप में कॉर्निया (cornea ) से समेकित होकर इसी के ऊपर फैली रहती है, इसे कंजक्टिवा (conjuctiva) कहते हैं।

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नेत्र गोलक की संरचना – कॉर्निया को छोड़कर शेष नेत्र गोलक की दीवार में तीन स्तर होते हैं-
(1) श्वेत पटल या स्केलरा या स्क्लेरोटिक (Sclerotic ) – यह सबसे बाहरी स्तर होता है। नेत्र गोलक (eye ball) का बाहरी उभरा हुआ पारदर्शक भाग कॉर्निया कहलाता है। यह दृढ़ तन्तुमय संयोजी ऊतकों का बना होता है। यह नेत्र गोलक का आकार बनाये रखता है।

(2) रक्तक पटल या कोरॉयड (Choroid) – यह कोमल संयोजी ऊतकों का बना नेत्र गोलक का मध्य स्तर है। इसकी कोशिकाओं में रंग कणिकाएँ होती हैं। इनके कारण ही आँखों में रंग दिखायी देता है। इस स्तर में रक्त केशिकाओं का सघन जाल पाया जाता है। नेत्र के अगले भाग में यह निम्नलिखित रचनाएँ बनाता है-

(अ) उपतारा या आइरिस (Iris ) – कॉर्निया के आधार पर यह भीतर की ओर गोल रंगीन पर्दा बनाता है जिसे उपतारा या आइरिस (iris) कहते हैं। आइरिस के बीचोंबीच में एक छिद्र होता है, इसको पुतली या तारा (pupil) कहते हैं। आइरिस पर अरेखित अरीय प्रसारी पेशियाँ फैली रहती हैं जिसके संकुचन से पुतली का व्यास बढ़ता है तथा वर्तुल स्फिंक्टर पेशियाँ संकुचन द्वारा पुतली के व्यास को कम करती हैं।

(ब) सिलियरी काय (Ciliary body) रक्तक पटल के आइरिस का भीतरी भाग कुछ मोटा होता है। यह सिलियरी बॉडी कहलाता है। सिलियरी काय संकुचनशील होता है। इससे अनेक महीन एवं लचीले निलम्बन रज्जु निकलते हैं, जो लेन्स (lens) से संलग्न रहते हैं।

(3) मूर्तिपटल या दृष्टिपटल या रेटिना (Retina) – यह नेत्र गोलक का सबसे भीतरी स्तर होता है। यह पतला कोमल संवेदी स्तर होता है। इसमें तन्त्रिका सूत्र, संयोजी ऊतक व वर्णक कोशिकाएँ पायी जाती हैं। दृष्टिपटल में दो स्तर होते हैं-
(अ) वर्णकी स्तर (Pigment layer) – यह स्तर चपटी एवं कणिका युक्त एपीथिलियमी कोशिकाओं का एकाकी स्तर होता है।

(ब) तन्त्रिका संवेदी स्तर (Neuro sensory layer ) यह वर्णकी स्तर के ठीक नीचे स्थित होता है जो कि दृष्टि शलाका ( rods) तथा दृष्टि शंकु (cones) से बनी होती है। दृष्टि शलाका लम्बी कोशिकाएं होती हैं जो अन्धकार तथा प्रकाश में भेद करती हैं तथा दृष्टि शंकु छोटी तथा मोटी कोशिकाएँ होती हैं, जिनके द्वारा रंगों की पहचान होती है। ये द्विध्रुवीय (bipolar) तन्त्रिका कोशिकाओं से जुड़े रहते हैं।

द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिकाओं के तन्त्रिकाक्ष (axons) लम्बे होते हैं, जो आपस में मिलकर दृष्टि तन्त्रिका (optic nerve) बनाते हैं, जो दृष्टि छिद्र से निकलकर मस्तिष्क को जाती है। दृष्टि तन्त्रिका के बाहर निकलने वाले स्थान पर प्रतिबिम्ब नहीं बनता है, इसे अन्य विन्दु (blind spot) कहते हैं। इससे थोड़ा ऊपर पीत बिन्दु (yellow spot) होता है। जहाँ वस्तु का प्रतिबिम्ब सबसे स्पष्ट बनता है।

इस बिन्दु का रंग पीला-सा होता है। पीत बिन्दु को मैक्यूला ल्यूटिया (macula lutea) भी कहते हैं। इसके केन्द्र में एक गर्त होता है, जिसे फोविया सेन्ट्रेलिस (fovea centralis) कहते हैं। लेन्स (Lens) – उपतारा (pupil) के पीछे नेत्रगोलक (eye ball) की गुहा में एक बड़ा रंगहीन, पारदर्शक एवं उपयोतल (Biconvex) लेन्स होता है। लेन्स नेत्र गोलक की गुहा को दो भागों में विभक्त करता है।
(i) जलीय वेश्म या ऐक्वस चैम्बर (Aqueous chamber तेजो जल या ऐक्वस ह्यमर (aqueous humour) कहते हैं। लेन्स (lens) तथा कॉर्निया के बीच स्वच्छ पारदर्शक जल सदृश द्रव भरा रहता है। इसे

(ii) काचाच द्रव्ये वेश्म या विट्रिस चैम्बर (Vitreous chamber) लेन्स (lens) तथा रेटिना (retina) के बीच गाढ़ा पारदर्शक जैली सदृश द्रव्य भरा रहता है जिसे काचाम द्रव्य ( vitreous humour) कहते हैं। ये दोनों ही द्रव नेत्र गुहा में निश्चित दबाव बनाये रखते हैं, जिससे दृष्टिपटल (retina) तथा अन्य नेत्र पटल अपने यथास्थान बने रहते हैं।

(स) कर्ण की संरचना (Structure of Ear)
मनुष्य में कान सुनने की क्रिया के साथ-साथ सन्तुलन बनाये रखने का भी कार्य करते हैं। मनुष्य के सिर पर दोनों ओर पार्श्व में एक जोड़ी कान होते हैं। मनुष्य के कर्ण में तीन भाग होते हैं –
(1) बाह्य कर्ण (external ear),
(2) मध्य कर्ण (middle ear) तथा
(3) आन्तरिक कर्ण (internal ear)।

(1) बाह्य कर्ण (External Ear) – बाह्य कर्ण के दो भाग होते हैं-
(i) कर्ण पल्लव या पिन्ना (pinna) तथा
(ii) बाह्य कर्ण कुहर (external auditory meatus)।
कर्ण पल्लव या पिन्ना सबसे बाहरी भाग होता है जो लचीले उपास्थि (cartilage) ऊतकों का बना होता है। यह बाह्य ध्वनि तरंगों को एकत्रित करके बाह्य कर्ण कुहर में भेजने का कार्य करता है।
बाह्य कर्ण कुहर 2-5 से 30 सेमी लम्बा होता है। इसे भीतरी सिरे पर एक मजबूत झिल्ली होती है जिसे कर्ण पटह (Tympanic membrane) कहते हैं। बाह्य कर्ण कुहर ध्वनि तरंगों को कर्ण पटह तक पहुंचाने का कार्य करता है।

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(2) मध्य कर्ण (Middle Ear ) – यह कर्ण पटह ( tympanic membrane) से लगा हुआ छोटा-सा कक्ष होता है। इसको कर्ण पटह गुहा ( tympanic cavity) भी कहते हैं। कर्ण पटह गुहा एक नलिका द्वारा मुख मसनी में खुलती है जिससे कर्ण पटह के बाहर तथा भीतर समान वायुदाब बनाये रखा जाता है।

मध्य कर्ण की गुहा दो छोटे-छोटे छिद्रों द्वारा आन्तरिक कर्ण की गुहा से भी सम्बन्धित रहती हैं। ऊपर की ओर स्थित छिद्र अण्डाकार गवाक्ष या फेनेस्ट्रा ओवेलिस (fenestra ovalis) तथा नीचे वाला छिद्र वर्तुल गवाक्ष या फेनेस्ट्रा रोटण्डस (fenestra rotundus) कहलाते हैं। मध्य कर्ण में तीन छोटी-छोटी अस्थियाँ भी पायी जाती हैं। बाहर से भीतर की ओर इन्हें क्रमशः मैलियस (malleus), इनकस (incus) तथा स्टैपीज (stapes) कहते हैं।

(3) अन्त:कर्ण (Internal Ear ) यह कान का सबसे भीतरी हिस्सा होता है तथा इसे भी दो भागों में बाँटा जा सकता है-
(i) अस्थिल गहन (bony labyrinth) तथा
(ii) कला गहन (membranous labyrinth) ।

(i) अस्थिल गहन (Bony labyrinth) – यह सम्पूर्ण कला गहन को घेरे रहता है। कला गहन (membranous labyrinth) तथा अस्थिल गहन (bony labyrinth) के बीच संकरी गुहा होती है जिसमें परिलसिका (perilymph) भरा रहता है। यह भाग मध्य कर्ण गुहा से सम्बन्धित रहता है।

(ii) कला गहन (Membranous labyrinth ) – यह कोमल अर्द्ध-पारदर्शी झिल्ली की बनी रचना होती है। इसमें दो थैली जैसे वेश्म होते हैं। जिन्हें युटीकुलस (utriculus) एवं सैक्युलस (sacculus) कहते हैं। दोनों वेश्म एक महीन नलिका द्वारा आपस में सम्बन्धित रहते हैं। इसे सैक्यूलो युटीकुलर नलिका (sacculoutricular tubule) कहते हैं। युट्रीकुलस में तीन अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएँ होती हैं।

इन्हें अग्र अर्थवृत्ताकार नलिका ( anterior semicircular tubule), पश्च अर्धवृत्ताकार नलिका (posterior semicircular tubule) तथा बाह्य अर्धवृत्ताकार नलिका (external semicircular tubule) कहते हैं। अग्र तथा पश्च नलिकाएँ एक ही स्थान से निकलती हैं तथा कुछ दूरी तक जुड़ी रहती हैं। इस स्थान को क्रस कम्यून (cruss commune) कहते हैं।

ये अपने दूरस्थ सिरे से फूली रहती हैं। फूला हुआ भाग तुम्बिका या एम्पुला (ampulla) कहलाता है। सैक्स (sacculus) का पिछला सिरा लम्बा एवं स्प्रिंग की तरह कुण्डलित होता है। इसको कॉक्लियर नलिका (cochlear duct) कहते हैं। यह नलिका अपने चारों ओर के अस्थिकोष से इस प्रकार जुड़ी रहती हैं कि अस्थिकोष की गुहा दो भागों में बँट जाती है –
(a) कॉक्लिया नलिका के ऊपर का कक्ष स्केला वेस्टीबलाई (scala vestibuli) तथा

(b) कॉक्लिया नलिका के नीचे का कक्ष मध्य कर्ण सोपान या स्केला टिम्पेनाई (scala tympani) अथवा टिम्पेनिक नली कहलाता है। दोनों के मध्य की गुहा स्केला मीडिया (scala media) कहलाती है।
केला वेस्टीबलाई तथा स्केला टिम्पेनाई में पेरीलिम्फ (perilymph) भरा रहता है, जबकि स्केला मीडिया में एण्डोलिम्फ (endolymph) भरा होता है। स्केला मीडिया तथा स्केला वेस्टीबलाई के मध्य रीसर्नस कला ( reissner’s membrane) तथा स्केला मीडिया तथा स्केला टिम्पेनाई के मध्य बेसीलर कला (basilar membrane) उपस्थित होती है।

बेसीलर कला की मध्य रेखा पर लम्बे संवेदी आयाम उभार के रूप में फैले रहते हैं। इन उभारों को कॉर्टी के अंग ( organ of corti) कहते हैं। इन्हीं पर संवेदी रोम युक्त संवेदी कोशिकाएँ पायी जाती हैं। इन कोशिकाओं के आधार भाग से तन्त्रिका तन्तु निकलकर श्रवण तन्त्रिका की कॉक्लियर शाखा बनाते हैं।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित की तुलना कीजिए-
(अ) केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र और परिधीय तन्त्रिका तन्त्र
(ब) स्थिर विभव और सक्रिय विभव
(स) कोरॉइड और रेटिना ।
उत्तर:
(अ) केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र और परिधीय तंत्रिका तन्त्र में अन्तर

केन्मीय तनिका तन्त्र (Central Nervous System)परिधीय त्विक्रिका तन्त (Peripheral Nervous System)
1. इसके अन्तर्गत मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु (सुषुम्ना) सम्मिलित हैं।1. इसके अन्तर्गत कपालीय तन्त्रिकाएँ तथा मेरु तन्त्रिकाएँ सम्मिलित हैं। यह तन्त्र शरीर के विभिन्न अंगों को केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र से जोड़ता है।
2. समूचा केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र मसित्क आवरण (मेनिन्तिज) से घिरा रहता है।2. परिधीय तन्त्रिका तन्त्र का निर्माण करने वाली तन्त्रिकाएँ तत्तिकाच्छद (न्यूरीलेमा) से घिरी रहती हैं।
3. इसमें संवेदी एवं चालक तन्त्रिका कोशिकाओं के अतिरिक्त संयोजक तन्त्रिका कोशिकाएँ भी होती हैं, जो संवेदी एवं चालक तन्त्रिकाओं के बीच आवेगों का संचर्रण करती हैं। यह विभिन्न क्रियाओं एवं प्रतिक्रियाओं का नियन्त्रण तथा नियमन करता है।3. इसकी संवेदी तन्त्रिकाएँ संवेदांगों से उद्दीपनों को आवेगों के रूप में केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र में लाते हैं और चालक तन्त्रिकाओं के द्वारा चालक प्रेरणाओं को क्रियात्मक ऊतकों (पेशियों) या ग्रन्थियों में पहुँचाते हैं।

(ब) स्थिर विभव और सक्रिय विभव में अन्तर

स्थिर जिभव (Resting Potential)सक्रिय विभव (Action Potential)
1. स्थिर विभव में ऐक्सोलेमा या न्यूरीलेमा की बाहरी सतह पर धनात्मक (+ ve) और भीतरी सतह पर ॠणात्मक (-ve) आवेश (-70 mV) होता है ।1. सक्रिय विभव में न्यूरीलेमा की बाहरी सतह पर त्राणात्मक (- ve) और भीतरी सतह पर धनात्मक (+ ve) आवेश स्थापित हो जाता है। यह स्थिति भीतरी सतह पर +35 mV विद्युत आवेश स्थापित होने तक रहती है।
2. ऐक्सोलेमा या न्यूरीलेमा Na+के लिए बहुत कम तथाK+के लिए बहुत अधिक पारगम्य होती है।2. सक्रिय विभव की स्थिति में ऐक्सोलेमा या न्यूरीलेमा Na+के लिए बहुत अधिक पारगम्य तथा K+के लिए लगभग अपारगम्य होती है।
3. स्थिर विभव स्थिति में सोडियम पोटैशियम पम्प की क्रियाशीलता के कारण स्थिर कला विभव बना रहता है।3. सक्रिय विभव की स्थिति में सोडियम-पोटैशियम पम्प अपना कार्य नहीं करता है। इसलिए Na+अधिक मात्रा में एक्सोप्लाज्म में पहुँचकर सक्रिय विभव को स्थापित करते हैं।
4. स्थिर विभव के समय तन्त्रिकाएँ उद्दीपन या प्रेरणाओं का प्रसारण नहीं करती है।4. सक्रिय विभव के समय तन्त्रिकाएँ उद्दीपनों या प्रेरणाओं का प्रसारण करती हैं।

(स) कोरॉइड और रेटिना ।

कोरोड़ड (Choroid)रेटिना (Retina)
1. यह नेत्र गोलक की मध्यवर्ती पर्त होती है।1. यह नेत्र गोलक की भीवरी पर्त होती है।
2. यह कोमल संयोजी ऊतक की बनी होती है। इसमें रुधिर केशिकाओं का घना जाल व वर्णक-युक्त शाखान्वित केशिकाएँ होती हैं। यह श्वेत पटल और मूर्ति पटल (रेटिना) के सम्पर्क में रहती है।2. यह पतला व कोमल स्तर होता है। यह तन्त्रिका संवेदी स्तर तथा वर्णक-स्तर की बनी होती है। वर्णक स्तर कोरॉइड स्तर के सम्पर्क में रहती है एवं तन्त्रिका संवेदी स्तर तीन पर्तों से बना होता है।
3. कोरॉइड स्तर श्वेत पटल से पृथक् होकर मुद्राकार उपतारा (आइरिस) बनाती है। उपतारा की वर्तुल तथा अरीय पेशियों के कारण इसकी पुत्तली (तारा) का व्यास घटता-बढ़ता रहता है। उपतारा कैमरे के डायाफ्राम के समान कार्य करता है।3. रेटिना में दो प्रकार की प्रकाशम्राही कोशिकाएँ होती हैं। दृष्टि शलाकाएँ (rods) प्रकाश व अन्धकार का एवं दृष्टि शंकु (cones) रंगों का ज्ञान कराते हैं।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित प्रतक्रियाओं का वर्णन कीजिए-
(अ) तत्रिका तन्तु की झिल्ली का ध्रुवीकरण
(ब) तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का विधुवीकरण
(स) तन्त्रिका तन्तु के समान्तर आवेगों का संचरण
(द) रासायनिक सिनैप्स द्वारा तन्त्रिका आवेगों का संवहन।
उत्तर:
(अ) तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का ध्रुवीकरण –
तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का ध्रुवीकरण (Polarisation of the Nerve fibre Membrane)
तन्त्रिका तन्तु के ऐक्सोप्लाज्म में सोडियम आयन (Na+) की संख्या काफी कम किन्तु ऊतक तरल में लगभग बारह गुना अधिक होती है। ऐक्सोप्लाज्म में पोटेशियम आयन (K+) की संख्या ऊतक तरल की तुलना में लगभग 30 गुना अधिक होती है। विसरण अनुपात के अनुसार Na+ की ऊतक तरल से ऐक्सोप्लाज्य में एवं K+ के ऐक्सोप्लाज्म से ऊतक तरल में विसरित होने की प्रवृत्ति होती है।

किन्तु तंत्रिकाच्छद (neurilemma) Na+ के लिए कम तथा K+ के लिए अधिक पारगम्य होती है। विश्राम अवस्था में ऐक्सोप्लाज्म में -ve आयनों और ऊतक तरल में +ve आयनों का आधिक्य रहता है। तन्त्रिकाच्छद की बाहरी सतह पर +ve आयनों और भीतरी सतह पर ve आयनों का जमाव रहता है।

तन्त्रिकाच्छद की बाहरी सतह पर + ve और भीतरी सतह पर 70 mV (मिली वोल्ट) का – ve आवेश रहता है। इस स्थिति में तन्त्रिकाच्छद विद्युत आवेशी या ध्रुवण अवस्था में बनी रहती है। तन्त्रिकाच्छद के इधर-उधर विद्युतावेशी अन्तर के कारण तन्त्रिकाच्छद में बहुत-सी विभव ऊर्जा संचित रहती है। यही ऊर्जा विश्राम कला विभव या सुप्त कला विभव (resting membrane potential) कहलाती है। इसी ऊर्जा का उपयोग प्रेरणा संचारण में होता है।

(ब) तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का विधुवीकरण
तन्त्रिका तन्तु की झिल्ली का विधुवीकरण (Depolarisation of the Nerve fibre Membrane)
जब तन्त्रिका तन्तु उद्दीपित होता है तो तन्त्रिकाच्छद (न्यूरीलेमा) की पारगम्यता परिवर्तित हो जाती है। यह सोडियम आयन (Na+) के लिए अधिक पारगम्य एवं पोटैशियम आयन (K+) के लिए अपारगम्य हो जाती है। इसलिए तन्त्रिका तन्तु विश्राम कला विभव (resting membrane potential) की ऊर्जा का प्रेरणा संचरण के लिए उपयोग करने में सक्षम होते हैं।

तन्त्रिका तन्तु के उद्दीपित होने पर इसके विश्राम कला विभव की ऊर्जा एक विद्युत प्रेरणा के रूप में तन्तु के क्रियात्मक कला विभव (action membrane potential) या प्रेरण क्षमता में परिवर्तित हो जाती है। यह विद्युत प्रेरणा तन्त्रिकीय प्रेरणा होती है। सोडियम आयन (Na+) ऐक्सोप्लाज्म में द्रुत गति से प्रवेश करने लगते हैं, इसके परिणामस्वरूप तन्त्रिका तन्तु का विधुवीकरण होने लगता है। विध्रुवीकरण के कारण तन्त्रिकाच्छद की भीतरी सतह पर +ve और बाहरी सतह पर – ve विद्युत आवेश स्थापित हो जाता है। यह स्थिति विश्राम अवस्था के विपरीत होती है।

(स) तन्त्रिका तन्तु के समान्तर आवेगों का संचरण
तत्त्रिका तन्तु के समान्तर आवेगों का संचरण (Conduction of Nerve Impulse along a Nerve Fibre) तन्चिकाष (एक्सोन) पर तन्त्रिका आवेग की उत्पत्ति एवं उसका संचरण इस प्रकार से होता है कि जब किसी स्थान पर तन्त्रिका आवेग की उत्पत्ति होती है उत्पत्ति स्थल ‘A’ पर स्थित तन्त्रिकाच्छद झिल्ली Na+ के लिए अधिक पारगम्य हो जाती है जिसके फलस्वरूप Na+ तीव्र गति से अन्दर की ओर आने लगते हैं और तन्त्रिकाच्छद की बाहरी सतह पर – ve आवेश तथा भीतरी सतह पर + ve आवेश स्थापित हो जाता है। ”

आवेग स्थल पर विध्रुवीकरण हो जाता है जिसे क्रियात्मक विभव (action potential) कहते हैं। क्रियात्मक विभव तत्रिकीय प्रेरणा के रूप में स्थापित हो जाता है। तन्त्रिकाक्ष या एक्सोन (जो तन्त्रिकाच्छद या न्यूरोलेमा से आस्तरित होता है) से कुछ आगे ‘B’ स्थल पर झिल्ली की बाहरी संतह पर + ve और भीतरी सतह पर – ve आवेश होता है। परिणामस्वरूप तन्त्रिका आवेग ‘A’ स्थल से ‘B’ स्थल की ओर आवेग विभव का संचरण होता है। अतः स्थल ‘A’ पर आवेग क्रियात्मक विभव उत्पन्न होता है।

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तन्त्रिकाक्ष (एक्सोन) की लम्बाई के समान्तर क्रम की पुनरावृत्ति होती है और आवेग का संचरण होता है। उद्दीपन द्वारा प्रेरित Na+ के लिए बढ़ी हुई पारगम्यता क्षणिक होती है। उसके तत्काल बाद K+ के प्रति पारगम्यता बढ़ जाती है। कुछ ही क्षणों के भीतर K+ तन्त्रिकाच्छद के बाहर की ओर परासरित होते हैं और उद्दीपन के स्थान पर विश्राम विभव का पुनः संपह करता है तथा तन्तु आगे के उद्दीपनों के संचरण के लिए फिर तैयार हो जाता है।

(द) रासायनिक सिनैप्स द्वारा तन्त्रिका आवेगों का संवहन।
रासायनिक सिनैप्स द्वारा तन्त्रिका आवेगों का संवहन (Transmission of a Nerve lmpulse across a Chemical Synapse) तन्त्रिका तन्त्र एक अविच्छिन्न संचार तन्त्र (contineous transmission system) होता है। इसकी अरबों पृथक् न्यूरॉंस के प्रत्येक न्यूरॉन का ऐक्सॉन स्वतन्त्र सिरे पर अनेक नन्हींनन्हीं शाखाओं में बंटा होता है जो समीपवर्ती न्यूरॉन्स के साइटोन और डेन्र्राइद्र व प्रन्थियों पर फैली रहती हैं। इन शाखाओं के सिरों पर सिनेष्टिक घुण्डियाँ होती हैं।

इनके और इनसे सम्बन्धित रचनाओं के मध्य तरल पदार्थ से भरा सिनैप्टिक विद्दर (synaptic buttons) होता है। इस प्रकार के अनेक स्थान होते हैं जिन्हें युग्मानुब्यन या सिनैप्सिस (synapses) कहते हैं। तत्रिका आवेग का प्रसारण एक तन्निका से दूसरी तन्रिका में युम्मान्यन्यन द्वारा होता है जो एक रासायनिक प्रक्रिया है।

सिनेप्टिक घुण्डी के नीचे सिनेप्टिक थैलियों में रासायनिक संचारी पदार्थ ऐसीटिलकोलीन (acetylcholine) भरा रहता है, जो प्रेरणा को सिनेप्टिक विदर के पार ले जाता है। जैसे ही प्रेरणा ऐक्सॉन से होकर सिनेप्टिक घुण्डी में पहुँचती है, Ca+ आयन ऊतक द्रव्य से घुण्डी में प्रसारित होते हैं, जिनके प्रभाव से ऐसीटिलकोलीन मुक्त होकर पश्च सिनेप्टिक न्यूरॉन की कला की पारगम्यता को प्रभावित करके प्रेरणा का पुनः विद्युत सम्प्रेषण प्रेरित करता है। इसके बाद सिनेप्टिक विदर में उपस्थित एन्जाइम ऐसीटिलकोलीन का विघटन कर देता है। इसलिए प्रेरणा का संचारण एक दिशात्मक होता है ।

(ऐक्सान → नन्हीं शाखाएँ → टीलोडेन्ड्रिया → सिनैप्टिक घुण्डी → युग्मानुबन्धन (सिनैप्सिस) → डेन्ड्राइट → दूसरा न्यूरॉन) ।
अधिकांश तन्त्रिका कोशिकाएँ (न्यूरॉन्स) संवेदी और चालक होती हैं। संवेदी तन्त्रिकाएँ प्रेरणाओं को संवेदी अंगों से केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र में ले जाती हैं और चालक तन्त्रिकाएँ प्रेरणाओं को केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र से प्रतिक्रिया करने वाले क्रियात्मक अंगों में पहुँचाती हैं जो उद्दीपनों के अनुसार शरीर की प्रतिक्रियाओं को सम्पादित करते हैं ।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित का नामांकित चित्र बनाइए-
(क) न्यूरॉन,
(ब) मस्तिष्क
(स) नेत्र
(द) कर्ण
उत्तर:
(अ) न्यूरॉन की संरचना
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(ब) मस्तिष्क की संरचना
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(स) नेत्र की संरचना
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(द) कर्ण की संरचना
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प्रश्न 5.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-
(अ) तत्रिकीय समन्वयन,
(ब) अग्र मस्तिष्क
(स) मध्य मस्तिष्क
(द) पश्च मस्तिष्क,
(च) रेटिना,
(च) कर्ण अस्थिकाएँ
(र) कॉक्लिया
(ल) आर्गन ऑफ कॉटर्टाई,
(च) सिनैप्स।
उत्तर:
(अ) तत्रिकीय समन्वयन (Nervous Co-ordination)
हमारे शरीर की विभिन्न क्रियाओं का नियन्त्रण एवं समन्वयन सूचना प्रसारण तन्त्र (Communication system) द्वारा किया जाता है। इसके अन्तर्गत दो तन्त्र आते हैं-
(i) तन्त्रिका तन्त्र (nervous system) तथा
(ii) अन्तखावी तब (endocrine system) ।
तन्त्रिका तन्त्र का निर्माण तन्त्रिका कोशिकाओं से होता है, जो हमारे शरीर के विभिन्न भागों में महीन धागे के समान फैली रहती हैं। ये वातावरण की सूचनाओं को संवेदांगों से प्राप्त करके प्रेरणाओं या विद्युत आवेशों के रूप में इनका द्रुत गति से प्रसारण करती हैं और पेशियों व मन्थियों की क्रियाओं को प्रभावित करके शरीर के विभिन्न भागों के मध्य कार्यात्मक समन्वय स्थापित करती हैं। इस प्रकार ये वातावरणीय दशाओं के अनुसार शरीर की शीघ्रातिशीघ्र घटित होने वाली प्रतिक्रियाओं का संचालन करती है।

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(ब) अग्र मस्तिष्क (Fore Brain)
उत्तर:
मानव मस्तिष्क की संरचना के अन्तर्गत बिन्दु (1) अग्र मस्तिष्क (Fore brain) देखिये ।
(स) मध्य मस्तिष्क (Mid Brain)
उत्तर:
मानव मस्तिष्क की संरचना के अन्तर्गत बिन्दु (2) मध्य मस्तिष्क (mid brain) देखिये ।

(द) पश्च मस्तिष्क (Hind Brain)
उत्तर:
मानव मस्तिष्क की संरचना के अन्तर्गत बिन्दु (3) पश्च मस्तिष्क (Hind brain) देखिए ।

(घ) रेटिना (Retina) की संरचना
दृष्टि पटल (रेटिना) नेत्र गोलक (eye ball) का सबसे भीतरी स्तर है यह पतला, कोमल संवेदी स्तर होता है। यह कॉर्निया (cornea) को छोड़कर शेष नेत्र गोलक के तीन-चौथाई भाग में फैला रहता है। दृष्टि पटल दो प्रमुख स्तरों का बना होता है-

(1) रंगा या वर्णकी स्तर (Pigment layer) – यह रक्तपटल से चिपका एक कोशिकीय स्तर होता है जो सिलीयरी काय एवं आइरिस (iris) की भीतरी सतह पर भी फैला रहता है लेकिन सिलीयरी काय वाले भाग में रंगा कण नहीं पाये जाते हैं।

(2) तन्त्रिका संवेदी स्तर (Neuro sensory layer) वर्णकी स्तर के ठीक नीचे भीतर की ओर मोटा और जटिल तन्त्रिका संवेदी स्तर होता है। यह केवल सीलियरी काय तक फैला रहता है। इस भाग में तन्त्रिका एवं संवेदी कोशिकाओं के तीन स्तर होते हैं-
(A) दळू शलाका एवं शंकु स्तर (Layer of Rods and Cones) – इस स्तर में लम्बी-लम्बी रूपान्तरित तन्त्रिका संवेदी कोशिकाएँ होती हैं। ये वर्णक युक्त कोशिकाएँ होती हैं। इसमें दो प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती हैं-
(i) दृष्टि शलाकाएँ (Rods) – ये पतली, लम्बी तथा बेलनाकार कोशाएँ होती हैं। ये संख्या में अधिक होती हैं। इनकी लम्बाई शंकु कोशिकाओं (cones) से अधिक होती हैं। इनमें रोडझेप्सिन नामक वर्णक उपस्थित होता है। दृष्टि शलाकाएँ प्रकाश तथा अन्धकार का ज्ञान कराती हैं।

(ii) दृष्टि शंकु ( Cones) – ये छोटी मोटी तथा मुग्दराकार कोशिकाएँ होती हैं। इनके सिरे नुकीले नहीं होते हैं। ये संख्या में अपेक्षाकृत कम होती हैं। इनमें आइडोप्सिन (iodopsin) वर्णक उपस्थित होता है। ये तीव्र प्रकाश में वस्तुओं तथा विभिन्न रंगों का ज्ञान कराती हैं।
दृष्टि शलाकाओं तथा शंकुओं के भीतरी सिरों से निकले हुए पतले तन्त्रिका सूत्रों से द्विध्रुवीय (bipolar) तन्त्रिका कोशिकाओं के डेण्ड्राइट्स प्रवर्गों के साथ युग्मानुबन्धनों द्वारा सम्बन्धित रहते हैं।

(B) द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिका परत (Bipolar neuronic layer) – इस स्तर में अनेक द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिकाएँ होती हैं। इनके डेण्ड्राइट्स दृष्टि शलाकाओं तथा दृष्टि शंकुओं के एक्सॉन के साथ युग्मानुबन्धन बनाते हैं। इस स्तर की तन्त्रिकाएँ गुच्छकीय स्तर की कोशिकाओं से जुड़कर युग्मानुवन्धन (synaps बनाते हैं।

(C) गुच्छकीय स्तर (Ganglionic layer) – इस स्तर में बड़े आकार की द्विध्रुवीय कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें गुच्छकीय कोशिकाएँ (ganglionic cells) भी कहते हैं। इन कोशिकाओं के तन्त्रिकाक्ष (axon) लम्बे होते हैं जो परस्पर मिलकर दृष्टि तन्त्रिका बनाते हैं।

(य) कर्ण अस्थिकाएँ (Ear ossicles)
मध्य कर्ण में तीन छोटी-छोटी अस्थियाँ पायी जाती हैं। बाहर से भीतर की ओर इन्हें क्रमश: मैलियस (melleus), इनकस (incus) तथा स्टैपीज (stapes) कहते हैं। ये तीनों अस्थिकाएँ चल सन्धियों द्वारा आपस में जुड़ी रहती हैं।
1. मैलियस (Malleus) – यह अस्थि हथौड़ीनुमा होता है। इसा बाहरी सँकरा सिरा कर्णपटह ( tympanum) से तथा भीतरी चौड़ा सिरा इनकस से जुड़ा रहता है।

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2. इनकस (Incus) – यह अस्थि निहाई के आकार की होती है। इसका बाहरी चौड़ा सिरा मैलियस से तथा भीतरी पतला सिरा स्टैपीज से जुड़ा होता है।

3. स्टैपीज ( Stapes) – यह अस्थि घोड़े की जीन की रकाब (stirrup ) के आकार की होती है तथा इसके बीच में एक बड़ा छिद्र होता है। यह एक ओर इनकस से तथा दूसरी ओर अण्डाकार गवाक्ष (फेनेस्ट्रा ओवेलिस) पर मढ़ी झिल्ली से जुड़ी रहती है। ये तीनों कर्ण अस्थियाँ लचीले स्नानुयों द्वारा कर्ण गुहा में सधी रहती हैं। ये अस्थियाँ बाहर की ध्वनि तरंगों को कर्णपटह से ग्रहण करके अण्डाकार गवाक्ष द्वारा अन्त:कर्ण में पहुँचाती हैं।

(र) कॉक्लिया (Cochlea)
मनुष्य के अन्तः कर्ण का कलागहन (membranous labyrinth) में दो भाग होते हैं-
(i) यूट्रीकुलस (utriculus),
(ii) सैक्यूलस (sacculus ) सैक्यूलस से स्प्रिंग जैसी कुण्डलित रचना कॉक्लिया (cochlea) निकलती है। यह नलिकाकार होती है और इसमें 22 कुण्डल होते हैं। इसके चारों ओर अस्थिल कॉक्लिया का आवरण होता है। कॉक्लिया की नलिका अस्थिल लैबिरिन्थ की भित्ति से जुड़ी रहती है जिससे अस्थिल लैबिरिन्थ की गुहा दो वेश्मों में विभाजित हो जाती है। पृष्ठ वेश्म को स्कैला वेस्टीबुली (scala vestibuli) तथा अधर वेश्म को स्कैला टिम्पैनाई (scala tympani) कहते हैं। इन दोनों वेश्मों के बीच कॉक्लिया का वेश्म स्कैला मीडिया (scala media ) होता है।

(ल) आर्गन ऑफ कॉर्टाई (Organ of Corti)
कॉक्लिया नलिका की आधारीय झिल्ली (basilar membrane) पर कॉर्टाई का अंग (organ of corti) स्थित होता है। इसमें पायी जाने वाली रोम कोशिकाएँ श्रवणमाही के रूप से कार्य करती हैं। रोम कोशिकाएँ आर्गन आफ कॉर्टाई की आन्तरिक सतह पर श्रृंखला में पायी जाती हैं।

रोम कोशिकाओं का आधारीय भाग अभिवाही तन्त्रिका तन्तु के निकट सम्पर्क में होता है (प्रत्येक रोम कोशिका के ऊपरी भाग से कई स्टीरियोसीलिया (stereocillia) नामक प्रवर्ध निकलते हैं। रोम कोशिकाओं की श्रृंखला के ऊपर पतली लचीली टेक्टोरियल झिल्ली (tectorial membrane) स्थित होती हैं। अभिवाही या संवेदी कोशिकाओं से निकले तन्त्रिका तन्तु मिलकर श्रवण तन्त्रिका (auditory nerve) बनाते हैं। कॉर्टाई के अंग ध्वनि के उद्दीपनों को ग्रहण करते हैं।

(घ) सिनैप्स (Synapse)
प्रत्येक तन्त्रिका कोशिका (न्यूरॉन) का तन्त्रिकाक्ष (एक्सोन) अपने सिरे पर टीलोडेन्ड्रिया (telodendria) या एक्सोन अन्तस्थ (axon terminals) नामक शाखाओं में विभक्त हो जाता है। प्रत्येक शाखा का अन्तिम सिरा घुण्डीवत् होता है, जिसे सिनैप्टिक घुण्डी (synaptic button) कहते हैं। ये घुण्डियाँ समीपवर्ती तन्त्रिका कोशिका (न्यूरॉन) के वृक्षिकान्त (डेन्ड्राइट्स – dendrites ) के साथ सन्धि बनाती हैं। इन सन्धियों को युग्मानुबन्ध या सिनैप्स (synapse) कहते हैं ।

सिनैप्स पर सूचना लाने वाली तन्त्रिका कोशिका को पूर्व सिनैप्टिक (pre-synaptic) तथा सूचना ले जाने वाली तन्त्रिका कोशिका को पश्चसिनैप्टिक ( post synaptic) कहते हैं। इनके बीच किसी प्रकार का सम्पर्क नहीं होता है। दोनों के बीच में लगभग 20-40 me का दरारनुमा सिनैप्टिक विदर (synaptic cleft or fissure) होता है, जिसमें ऊतक तरल भरा होता है। सिनैटिटक विदर से उद्दीपन या प्रेरणाओं का संवहन तन्त्रिका संचारी पदार्थ ऐसीटिलकोलीन (acetylcholine) द्वारा किया जाता है।

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए-
(अ) सिनैप्टिक संचरण की क्रियाविधि
(ब) देखने की प्रक्रिया
(स) श्रवण की प्रक्रिया ।
उत्तर:
(अ) सिनैप्टिक संचरण की क्रियाविधि (Mechanism of Synaptic Transmission)
दो तन्त्रिका कोशिकाओं (neurons) के सन्धि स्थलों को युग्मानुबन्ध या सिनैप्स कहते हैं। इसका निर्माण पूर्व सिनैप्टिक एवं पश्व सिनैप्टिक तन्त्रिका तन्तुओं से होता है। सिनैप्स में पूर्व सिनैप्टिक तन्त्रिका के तन्त्रिकाक्ष (एक्सोन) के अन्तिम सिरे पर स्थित सिनैप्टिक घुण्डी तथा पश्च सिनैप्टिक तन्त्रिका कोशिका के वृक्षिकान्त (डेन्ड्राइट्स) के बीच सन्धि होती है।

दोनों के बीच सिनैप्टिक विदर (synaptic cleft) होता है। इसमें उद्दीपन विद्युत तरंग के रूप में प्रसारित नहीं हो पाता है। सिनैप्टिक घुण्डियों में सिनैप्टिक पुटिकाएँ (synaptic vessicle) होती हैं, जो तन्त्रिका संचारी पदार्थ (neurotransmitters) से भरी होती हैं। उद्दीपन या प्रेरणा के क्रियात्मक विभव के कारण Ca2+ ऊतक तरल से सिनैप्टिक घुण्डियों में प्रवेश करते हैं तब सिनैप्टिक घुण्डियों से तन्त्रिका संचारी पदार्थ अविमुक्त होता है।

यह पदार्थ पश्च सिनैप्टिक तन्त्रिका के वृक्षिकान्त (डेन्ड्राइट) पर क्रियात्मक विभव को स्थापित करता है, जिसमें लगभग 0.5 मिली सेकण्ड का समय लगता है। क्रियात्मक विभव के स्थापित हो जाने के बाद एन्जाइम द्वारा तन्त्रिका संचारी पदार्थ का विघटन हो जाता है, जिससे अन्य प्रेरणा को प्रसारित किया जा सके। सिनैप्टिक घुण्डियों से प्रायः ऐसीटिलकोलीन नामक तन्त्रिका पदार्थ मुक्त होता है।

इसका विघटन ऐसीटिलकोलीनेस्टीरेज एन्जाइम द्वारा होता है। एपीनेफ्रीन, डोपामीन, हिस्टैमिन, सोमैटोस्टेनिन आदि पदार्थ अन्य तन्त्रिका संचारी पदार्थ हैं। ग्लाइसीन एवं गामा-ऐमीनो ब्यूटाइरिक अम्ल (GABA) आदि तन्त्रिका संचारी पदार्थ प्रेरणाओं के प्रसारण को अवरुद्ध कर देते हैं।

(ब) देखने की प्रक्रिया
प्रकाश संवेदांग-नेत्र (Photoreceptor-Eye)
स्तनियों में एक जोड़ी नेत्र सिर पर पृष्ठ पाश्र्व में स्थित होते हैं। ये गोलाकार व कुछ-कुछ गेंद सरीखे होते हैं। ये खोपड़ी के मध्य भाग में अस्थिल गड्ढों में स्थित होते हैं। इन गड्छें को नेत्र कोटर (orbits) कहते हैं। आँख का लगभग 4/5 भाग नेत्र मोटर में धँसा रहता है। नेत्र गोलक के इस उभरे हुए भाग को कार्निया (cornea) कहते हैं। प्रत्येक भाग के साथ पलकें तथा कुछ म्रन्थियाँ भी होती हैं।

1. नेत्र पलकें (Eye lids) – दोनों नेत्रों पर त्वचा के वलन से बनी दो गतिशील पलके (eyelids) पायी जाती हैं जो नेत्र गोलक को सुरक्षा प्रदान करती हैं। जिनके किनारे पर लम्बे रोम उपस्थित होते हैं, जिन्हें बरौनियाँ (eye lashes) कहते हैं। ये धूल व मिट्टी के कणों को नेत्र में जाने से रोकती हैं। इनके अतिरिक्त नेत्र गोलक के अन्दर की ओर एक पेशीविहीन पलक और पायी जाती है जिसे निमेषक पटल या निक्टेटिंग झिल्ली (nictitating membrane) कहते हैं। खरगोश में यह समय-समय पर कॉनिर्या पर फैलकर उसे साफ करने का कार्य करती है। मनुष्य में यह एक अवशेषी अंग (vestigeal organ) के रूप में पायी जाती है। इसे प्लीका सेमीन्यूलेरिस (Plica seminularis) भी कहते हैं।

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2. नेत्र ग्रन्थियाँ (Eye Glands) – स्तनधारियों के नेत्रों में निम्नलिखित नेत्र प्रन्थियाँ पायी जाती हैं-
(i) माइबोमियन ग्रन्बियाँ (Meibomian glands) – ये सिबेसियस ग्रन्थियों का रूपान्तरण होती हैं जो कि पलकों के किनारों पर समकोण पर लगी होती हैं। इनका स्वाव कॉर्निया को नम तथा चिकना बनाता है तथा आँसुओं को सीधे गाल पर गिरने से रोकता है।

(ii) जाइस की ग्रन्थियाँ (Zeis’s glands) – ये रूपान्तरित सिबेसियस (तेल) ग्रन्थियाँ होती हैं जो बरौनियों की पुटिकाओं में पायी जाती हैं। ये कोर्निया को चिकना बनाती हैं।

(iii) हारडिरियन ग्रन्थियाँ (Harderian glands) – ये ग्रन्थियाँ मानव में अनुपस्थित होती हैं परन्तु क्छेल, चूहों व छछुन्दरों में पायी जाती हैं। ये निमेषक झिल्ली को चिकना व नम बनाती हैं।

(iv) अश्रुप्रन्थियाँ (Lachrymal glands)-ये आँख के बाहरी कोण पर स्थित होती है और जल सदृश द्रव स्रावित करती हैं। गैस, धुआँ धूल या तिनका आदि आँख में गिर जाने पर अथवा बहुत भावुक हो उठने पर इन ग्रन्थियों के स्राव से आँखें गीली हो जाती हैं जिन्हें अश्रु कहते हैं। ऊपरी पलक के झपकने से ये स्राव पूरी आँख में फैल जाता है और धूल आदि कण घुल जाते हैं। जन्म के लगभग चार माह बाद मानव शिशु में अश्रु ग्रन्थियाँ सक्रिय होती हैं।

3. नेत्र कोटर की पेशियाँ (Eye Muscles) – नेत्र कोटर में नेत्र गोलक को इधर-उधर घुमाने के लिये छ: नेत्र पेशी समूह पाये जाते हैं जिनमें चार रेक्टस पेशियाँ व दो तिरछी (oblique) पेशियाँ होती हैं।

बाह्य या पार्श्व रैक्टस पेशी (External or lateral rectus muscle)-ये नेत्र गोलक को नेत्र कोटर से बाहर की ओर लाती हैं।
अन्त या मध्य रैक्टस पेशी (Internal or medial rectus muscle)-ये नेत्र गोलक को अन्दर की ओर ले जाती हैं।
उत्तर रेक्टस पेशी (Superior Rectus Muscle)-ये नेत्र गोलक को ऊपर की ओर गति कराती हैं।
अघो रेक्टस पेशी (Inferior Rectus Muscle)-ये नेत्र गोलक को नीचे की ओर गति कराती हैं।
उत्तर तिखछी पेशी (Superior oblique muscle) – ये नेत्र गोलक को नीचे की ओर व बाहर की तरफ खींचती हैं।
अधो तिरछी पेशी (Inferior oblique muscle)-ये नेत्र गोलक को ऊपर की ओर व बाहर की तरफ खींचती हैं।

इन सभी पेशियों की लम्बाई स्थिर होती है। यदि कोई पेशी छोटी या बड़ी हो जाये तो नेत्र गोलक की स्थिति बिगड़ जाती है और वह एक ओर झुका हुआ सा दिखाई देता है, इससे भेगापन (Squint or strabismus) उत्पन्न हो जाता है।

4. कंजैक्टिवा (Conjuctiva)-नेत्र की दोनों पलकों की आन्तरिक अधिचर्म अन्दर की ओर कॉर्निया पर फैलकर एक पतले व पारदर्शी स्तर का निर्माण करती है। यह कंजैक्टिवा कहलाती है। यह अधिचर्म शरीर की सबसे पतली अधिचर्म होती है। यह पारदर्शी होती है।
नेत्रगोलक की आन्तरिक संरचना (Internal structure of Eye ball)-कॉर्निया को छोड़कर शेष नेत्र गोलक की दीवार में तीन स्तर होते हैं-
(1) श्वेत पटल या स्केलरा या स्क्लेरोटिक (Sclerotic) – यह सबसे बाहरी स्तर होता है। नेत्र गोलक (Eye ball) का बाहरी उभरा हुआ पारदर्शक भाग कर्निया कहलाता है। यह दृढ़ तन्तुमय संयोजी ऊतकों का बना होता है। यह नेत्र गोलक का आकार बनाये रखता है।

(2) रक्तक पटल या कोरॉयड (Choroid) – यह कोमल संयोजी ऊतकों का बना नेत्र गोलक का मध्य स्तर है। इसकी कोशिकाओं में रंग कणिकाएँ होती हैं, इनके कारण ही आँखों में रंग दिखायी देता है। इस स्तर में रक्त केशिकाओं का सघन जाल पाया जाता है। नेत्र के अगले भाग में यह निम्नलिखित रचनाएँ बनाता है-

(अ) उपतारा या आइरिस (Iris) – कॉर्निया के आधार पर यह भीतर की ओर गोल रंगीन पर्दा बनाता है जिसे उपतारा या आइरिस (Iris) कहते हैं। आइरिस के बीचोंबीच में एक छिद्र होता है, इसको पुतली या तारा (Pupil) कहते हैं। आइरिस पर अरेखित अरीय प्रसारी पेशियाँ फैली रहती हैं जिसके संकुचन आइरिस के बीचोबीच में एक छिद्र होता है, इसको पुतली या तारा (Pupil) कहते हैं। आइरस से पुतली का व्यास बढ़ता है तथा वर्तुल स्फिंक्टर पेशियाँ संकुचन द्वारा पुतली के व्यास को कम करती हैं।

(ब) सिलियरी काय (Ciliary body)-रक्तक पटल के आइरिस का भीतरी भाग कुछ मोटा होता है। यह सिलियरी बाँडी कहलाता है। सिलियरी काय संकुचनशील होता है। इससे अनेक महीन एवं लचीले निलम्बन रज्जु निकलते हैं, जो लेन्स (lens) से संलग्न रहते हैं।

(3) मूर्तिपटल या दृष्टिपटल या रेटिना (Retina) – यह नेत्र गोलक का सबसे भीतरी स्तर होता है। यह पतला कोमल संवेदी स्तर होता है। इसमें तन्त्रिका सूत्र, संयोजी ऊरक व वर्णक कोशिकाएँ पायी जाती हैं। दृष्टिपटल में दो स्तर होते हैं-
(अ) वर्णकी स्तर (Pigment layer) – यह स्तर चपटी एवं कणिका युक्त एपीथिलियमी कोशिकाओं का एकाकी स्तर होता है।

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(ब) तत्रिका संवेदी स्तर (Neuro Sensory layer) – यह वर्णकी स्तर के ठीक नीचे स्थित होता है जो कि दृष्टि शलाका (rods) तथा दृष्टि शंकु (cones) से बनी होती है। दृष्टि शलाका लम्बी कोशिकाएँ होती हैं जो अन्धकार तथा प्रकाश में भेद करती हैं तथा दृष्टि शंकु छोटी तथा मोटी कोशिकाएँ होती हैं, जिनके द्वारा रंगों की पहचान होती है।

ये द्विध्रुवीय (bipolar) तन्त्रिका कोशिकाओं से जुड़े रहते हैं। द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिकाओं के तन्तिकाधा (axons) लम्बे होते हैं, जो आपस में मिलकर दृष्टि तन्निका (optic nerve) बनाते हैं, जो दृष्टि छिद्र से निकलकर मस्तिष्क को जाती है। दुष्टि तन्त्रिका के बाहर निकलने वाले स्थान पर प्रतिबिम्ब नहीं बनता है, इसे अन्ब बिंदु (blind spot) कहते हैं।

इससे थोड़ा ऊपर पीत बिन्दु (yellow spot) होता है। जहाँ वस्तु का प्रतिबिम्ब सबसे स्पष्ट बनता है। इस बिन्दु का रंग पीला-सा होता है। पीत बिन्दु को मैक्यूला ल्यूटिया (Macula lutea) भी कहते हैं। इसके केन्द्र में एक गर्त होता है जिसे फोविया सेट्ट्रिलिस (Fovea centralis) कहते हैं। लेन्स (Lens)-उपतारा (pupil) के पीछे नेत्रगोलक (eye ball) की गुहा में एक बड़ा रंगहीन, पारदर्शक एवं उषयोतल (biconvex) लेन्स होता है। लेन्स नेत्र गोलक की गुहा को दो भागों में विभक्त करता है-
(i) जलीय वेश्म या ऐक्वस चैब्बर (Aquous chamber) – लेन्स (lens) तथा कॉरिंया के बीच स्वच्छ पारदर्शक जल सदृश द्रव भरा रहता है। इसे तेजो जल या ऐक्वस हुमार (aquous humor) कहते हैं।

(ii) काचाभ द्रव्य वेश्म या विट्रिस चैब्बर (Vitreous chamber)-लेन्स (lens) तथा रेटिना (retina) के बीच गाढ़ा पारदर्शक जैली सदृश द्रव्य भरा रहता है जिसे काचाभ द्रव्य (vitreous humor) कह़ते हैं। ये दोनों ही द्रव नेत्र गुद्धा में निश्चित दबाव बनाये रखते हैं जिससे दृष्टिपटल (retina) तथा अन्य नेत्र पटल अपने यथास्थान बने रहते हैं। रेटिना (Retina) की संरचना है।

(स) श्रवण की प्रक्रिया-
श्रवण की प्रक्रिया (Process of Hearing)
सुनने का प्रमुख कार्य कोर्टाई के अंग करते हैं। वायु में फैली ध्वनि की तरंगें कर्ण पल्लवों से टकराकर कर्ण कुहर में होती हुई कर्णफट्ट (Tympanum) से टकराकर इसमें क्पन उत्पन्न कर देती हैं। ये ही कम्पनसे टकराकर इसमें कम्पन उत्पन्न कर देती हैं। ये ही कम्पन क्रमशः तीनों कर्ण अस्थियों से होता हुआ अण्धकर गबाश (फेनेस्र्र ओवेलिस) पर मढ़ी झिल्ली में पहुँचता है। कर्ण अस्थियों की विशिष्ट स्थिति के कारण कर्णपटह से फेनेस्ट्रा ओवेलिस तक पहुँचते-पहुँचते कम्पन तरंगें कम विस्तृत किन्तु अधिक प्रबल हो जाती हैं।

फेनेस्ट्रा ओवेलिस की झिल्ली में कम्पन से कॉंक्सियर नलिका के पृष्ठ तल पर स्थित संकल वेस्टीदुलाई में भरा पेरीलिम्फ कम्पित होने लगता है। कम्पन की ये तरंगें जब रीसन्न्स कला एवं स्कैला मीडिया के एण्डोलिम्क के माध्यम से कौक्सिया के सिरे पर छिद्र छेलीकोट्रीमा से होती हुई स्कैला टिम्पैनाई के पैरीलिम्फ के माध्यम से बेसीलर कल में पहुँचती हैं तो कॉर्टी के अंग में भी कम्पन होता है।

यहाँ पर कॉर्टी के अंग की संवेदी कोशिकाओं के रोम टेक्टोरल कला से टकराते हैं, जिससे श्रवण संवेदना की प्रेणा स्थापित हो जाती है। कॉक्सियर तत्रिका इसी प्रेरणा को श्रवण तन्रिका में और फिर श्रवण तन्त्रिका इसे मस्तिक्क में पहुँचाती है, जिससे हमें ध्वनि सुनने का ज्ञान होता है। ध्वनि की तीव्रता संवेदी रोमों के कम्पन की तीव्रता से ज्ञात होती है।

संवेदी रोमों के किस भाग में कम्पन हो रहा है, इसके द्वारा आवाज को पहचाना जाता है। मस्तिष से अनुकूल प्रतिक्रिया की प्रेरणा उपयुक्त प्रभावी अंगों को भेज दी जाती है। कांक्लिया में उत्पन्न तरंगें स्कैला टियैनाई के पैरीलिम्फ में होती हुई फेनेस्ट्रा रोटेड्डस पर मढ़ी झिल्ली पर पुुँचकर समाप्त हो जाती है। कुछ घ्वनि तरंगें छोटे-से छिद्य छेलीकोट्रीमा से निकलते समय भी समाप्त हो जाती हैं। सुनने की क्रिया को संक्षेप में निम्न रेखाचित्र द्वारा दिखाया जा सकता है-

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प्रश्न 7.
(अ) आप किस प्रकार किसी वस्तु के रंग का पता लगाते हैं ?
(ब) हमारे शरीर का कौन-सा भाग शरीर का सन्तुलन बनाये रखने में मदद करता है ?
(स) नेत्र किस प्रकार रेटिना पर पड़ने वाले प्रकाश का नियमन करते हैं ?
उत्तर:
(अ) नेत्रगोलक की रेटिना तन्त्रिका संवेदी (neuro-sensory ) होती है। इसमें दृष्टि शलाकाएँ तथा दृष्टि शंकु उपस्थित होते हैं। शंकुओं में आयोडोप्सिन नामक वर्णक उपस्थित होता है। तीव्र प्रकाश में शंकु तीन प्रारम्भिक रंगों को ग्रहण करता है, ये रंग हैं-लाल, हरा एवं नीला इन्हीं तीन प्रकार के शंकुओं के विभिन्न मात्राओं में उद्दीपनों के मिश्रणों से प्रारम्भिक रंगों के विभिन्न मिश्रणों, सफेद, नारंगी, पीले, बैंगनी आदि का हमें ज्ञान हो जाता है।

(ब) शरीर का सन्तुलन बनाये रखने में कलागहन के अंग यूट्रीकुलस, सेक्यूलस तथा तीनों अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएँ सहायक होती हैं। सन्तुलन संवेदना दो प्रकार की होती हैं-
(i) स्थैतिक (Static)
(ii) गतिक (Dynamic) ।

(i) स्वैतिक सन्तुलन – इसका सम्बन्ध गुरुत्व के विचार से स्थिर स्थिति में शरीर की मुख्यतः सिर की स्थिति के परिवर्तन से होता है। यूटीकुलस के श्रवणकूट सिर की स्थिति में होने वाले परिवर्तनों का ज्ञान करते हैं। जब शरीर या सिर झुकता, मुड़ता या उल्टा हो जाता है तो यूटीकुलस के श्रवणकूट के संवेदी रोम ऑटोकोनिया द्वारा संवेदित हो जाते हैं। श्रवण तन्त्रिका के तन्तु इस संवेदना को मस्तिष्क में पहुँचाते हैं। फिर मस्तिष्क चालक तन्त्रिका तन्तुओं द्वारा उपयुक्त प्रतिक्रिया की प्रेरणा शरीर की कंकाल पेशियों को भेजता है। ये पेशियाँ संकुचित होकर शारीरिक सन्तुलन स्थापित करती हैं।

(ii) गतिक सन्तुलन इसका सम्बन्ध गति एवं गमन के समय शरीर का सन्तुलन बनाये रखने से है। यह कार्य अर्द्धवृत्ताकार नलिकाओं की ऐम्पुला के श्रवणकूटों द्वारा किया जाता है। गति के समय इन नलिकाओं के एण्डोलिम्फ में लहरें उत्पन्न होती हैं जिनसे प्रभावित होकर ऐम्पला की कुपुला संवेदी कोशिकाओं में उत्तेजना उत्पन्न कर देती हैं। यही उत्तेजना श्रवण तन्त्रिकाओं द्वारा जब मस्तिष्क में पहुँचती हैं तो वहाँ से टाँगों की पेशियों को ऐसी प्रतिक्रिया की प्रेरणा मिलती है जिससे गति के समय शरीर का सन्तुलन बना रहे या बिगड़ने पर पुनः सन्तुलित हो जाए।

(स) रेटिना (Retina) पर पड़ने वाले प्रकाश की मात्रा का नियमन उपतारा (आइरिस) द्वारा किया जाता है । आइरिस एक मुद्राकार, चपटा एवं मिलैनिन वर्णकयुक्त डायाफ्राम के रूप में होता है। आइरिस के बीच में स्थित छिद्र को तारा या पुतली (Pupil) कहते हैं। उपतारा बाहर से पीला तथा पुतली काली दिखाई देती है। उपतारा की चौड़ाई में अनेक अरीय प्रसरी पेशियाँ (radial dilatory muscles) फैली रहती हैं, जिनके संकुचन से पुतली (तारा) का व्यास बढ़ जाता है।

इसी प्रकार पुतली के चारों ओर उपतारा में किनारे पर वर्तुल संकुचन पेशियाँ (circular sphincter muscles) फैली होती हैं, जिनके संकुचन से पुतली का व्यास बढ़ जाता है। इस प्रकार उपतारा (आइरिस) के सिकुड़ने व फैलने से पुतली आवश्यकतानुसार बड़ी या छोटी हो जाती है। इस प्रकार ये पेशियाँ क्रमशः मन्द या तीव्र प्रकाश में संकुचित होकर रेटिना पर पड़ने वाले प्रकाश की मात्रा का नियमन करती हैं।

प्रश्न 8.
(अ) सक्रिय विभव उत्पन्न करने में Na+ की भूमिका का वर्णन कीजिए।
(ब) सिनैप्स पर न्यूरोट्रान्समीटर मुक्त करने में Ca+ की भूमिका का वर्णन कीजिए।
(स) रेटिना पर प्रकाश द्वारा आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।
(द) अन्त:कर्ण में ध्वनि द्वारा तन्त्रिका आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
(अ) सक्रिय विभव उत्पन्न करने में Na+ की भूमिका
उद्दीपन या संवेदना उत्पन्न होने पर तन्त्रिकाच्छद (neurolema) की Na+ के लिए पारगम्यता बढ़ जाने से Na+ ऊतक तरल से एक्सोप्लाज्म (exoplasm) में तीव्रता से पहुँचने लगते हैं। इससे तन्त्रिका तन्तु (nerve fibre) का विधुवीकरण (depolarisation) हो जाता है और तन्त्रिका तन्तु का विश्राम कला विभव (resting membrane potential) क्रियात्मक कला विभव (action membrane potential ) में परिवर्तित होकर प्रेरणा प्रसारण में सहायता करता है।

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(ब) सिनैप्स पर न्यूरोट्रान्समीटर मुक्त करने में Ca++ की भूमिका जब कोई तन्त्रिकीय प्रेरणा क्रियात्मक विभव के रूप में सिनैप्टिक घुण्डी पर पहुँचती है तो Ca++ ऊतक तरल से सिनेप्टिक घुण्डी में प्रविष्ट हो जाते हैं। इनके प्रभाव से सिनैप्टिक घुण्डी की सिनैप्टिक आशय (synaptic vesicles) इसकी कला (झिल्ली) से जुड़ जाती है। इससे सिनैप्टिक आशयों से तन्त्रिका संचारी पदार्थ- न्यूरोट्रान्समीटर मुक्त होकर सिनैप्टिक विदर ( Synaptic cleft) के ऊतक तरल में पहुँच जाता है एवं पश्चसिनैप्टिक तन्त्रिका के वृक्षिकान्त (डेन्ड्राइट्स) पर रासायनिक उद्दीपन द्वारा क्रियात्मक विभव स्थापित हो जाता है।

(स) रेटिना पर प्रकाश द्वारा आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।
स्तनियों में एक जोड़ी नेत्र सिर पर पृष्ठ पार्श्व में स्थित होते हैं। ये गोलाकार व कुछककुछ गेंद सरीखे होते हैं। ये खोपड़ी के मध्य भाग में अस्थिल गड्ढों में स्थित होते हैं। इन गहों को नेत्र कोटर (orbits) कहते हैं। आँख का लगभग 4 / 5 भाग नेत्र मोटर में धँसा रहता है। नेत्र गोलक के इस उभरे हुए भाग को कार्निया (cornea) कहते हैं। प्रत्येक भाग के साथ पलकें तथा कुछ म्रन्थियाँ भी होती हैं।

1. नेत्र पलकें (Eye lids)-दोनों नेत्रों पर त्वचा के वलन से बनी दो गतिशील पलकें (eyelids) पायी जाती हैं जो नेत्र गोलक को सुरक्षा प्रदान करती हैं। जिनके किनारे पर लम्बे रोम उपस्थित होते हैं, जिन्हें बरौनियाँ (eye lashes) कहते हैं। ये धूल व मिट्टी के क्षों को नेत्र में जाने से रोकती हैं। इनके अतिरिक्त नेत्र गोलक के अन्दर की ओर एक पेशीविहीन पलक और पायी जाती है जिसे निमेषक पटल या निक्टेटिंग झिल्ली (nictitating membrane) कहते हैं। खरगोश में यह समय-समय पर कॉनिर्या पर फैलकर उसे साफ करने का कार्य करती है। मनुष्य में यह एक अवशेषी अंग (vestigeal organ) के रूप में पायी जाती है। इसे प्लीका सेमीन्यूलेरिस (Plica seminularis) भी कहते हैं।

2. नेत्र श्रन्थियाँ (Eye Glands)- स्तनधारियों के नेत्रों में निम्नलिखित नेत्र प्रन्थियाँ पायी जाती हैं-
(i) माइबोमियन प्रच्थियाँ (Meibomian glands)-ये सिबेसियस म्रन्थियों का रूपान्तरण होती हैं जो कि पलकों के किनारों पर समकोण पर लगी होती हैं। इनका स्नाव कॉर्निया को नम तथा चिकना बनाता है तथा आँसुओं को सीधे गाल पर गिरने से रोकता है

(ii) जाइस की ग्रन्थियाँ (Zeis’s glands)-ये रूपान्तरित सिबेसियस (तेल) प्रन्थियाँ होती हैं जो बरोनियों की पुटिकाओं में पायी जाती हैं। ये कोर्निया को चिकना बनाती हैं।

(iii) हारडिरियन ग्रन्थियाँ (Harderian glands) – ये प्रन्थियाँ मानव में अनुपस्थित होती हैं परन्तु क्छेल, चूहों व छछुन्दरों में पायी जाती हैं। ये निमेषक झिल्ली को चिकना व नम बनाती हैं।

(iv) अश्रुप्र्थियाँ (Lachrymal glands)-ये आँख के बाहरी कोण पर स्थित होती है और जल सदृश द्रव स्रावित करती हैं। गेस, धुओं धूल या तिनका आदि आँख में गिर जाने पर अथवा बहुत भावुक हो उठने पर इन ग्रन्थियों के स्राव से आँखें गीली हो जाती हैं जिन्हें अश्रु कहते हैं। ऊपरी पलक के झपकने से ये स्राव पूरी आँख में फैल जाता है और धूल आदि कण घुल जाते हैं। जन्म के लगभग चार माह बाद मानव शिशु में अश्रु ग्रन्थियाँ सक्रिय होती हैं।

3. नेत्र कोटर की पेशियाँ (Eye Muscles) – नेत्र कोटर में नेत्र गोलक को इधर-उधर घुमाने के लिये छ: नेत्र पेशी समूह पाये जाते हैं जिनमें चार रेक्टस पेशियाँ व दो तिरछी (oblique) पेशियाँ होती हैं।

बाहाँ या पार्श्व रैक्टस पेशी (External or lateral rectus muscle)-ये नेत्र गोलक को नेत्र कोटर से बाहर की ओर लाती हैं।
अन्त या मध्य रैक्टस पेशी (Internal or medial rectus muscle)-ये नेत्र गोलक को अन्दर की ओर ले जाती हैं।
उत्तर रेक्टस पेशी (Superior Rectus Muscle)-ये नेत्र गोलक को ऊपर की ओर गति कराती हैं।
अघो रेक्टस पेशी (Inferior Rectus Muscle)-ये नेत्र गोलक को नीचे की ओर गति कराती हैं।
उत्तर तिसछी पेशी (Superior oblique muscle)- ये नेत्र गोलक को नीचे की ओर व बाहर की तरफ खींचती हैं।
अधो तिरछी पेशी (Inferior oblique muscle)-ये नेत्र गोलक को ऊपर की ओर व बाहर की तरफ खींचती हैं।

इन सभी पेशियों की लम्बाई स्थिर होती है। यदि कोई पेशी छोटी या बड़ी हो जाये तो नेत्र गोलक की स्थिति बिगड़ जाती है और वह एक ओर झुका हुआ सा दिखाई देता है, इससे थेंगापन (Squint or strabismus) उत्पन्न हो जाता है।

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4. कंजैक्टिवा (Conjuctiva) – नेत्र की दोनों पलकों की आन्तरिक अधिचर्म अन्दर की ओर कॉर्निया पर फैलकर एक पतले व पारदर्शी स्तर का निर्माण 4. कजजक्टवा (Conjuctiva)- नेत्र की दोनों पलकों की आन्तरिक अधिचर्म अन्दर की है। यह कजैक्टिवा कहलाती है। यह अधिचर्म शरीर की सबसे पतली अधिचर्म होती है। यह पारदर्शी होती है। नेत्रगोलक की आन्तरिक संरचना (Internal structure of Eye ball)-कॉर्निया को छोड़कर शेष नेत्र गोलक की दीवार में तीन स्तर होते हैं-
(1) श्वेत पटल या स्केलरा या स्क्लेरोटिक (Sclerotic) – यह सबसे बाहरी स्तर होता है। नेत्र गोलक (Eye ball) का बाहरी उभरा हुआ पारदर्शक

(2) रक्तक पटल या कोरॉयड (Choroid) – यह कोमल संयोजी ऊतकों का बना नेत्र गोलक का मध्य स्तर है। इसकी कोशिकाओं में रंग कणिकाएँ होती हैं, इनके कारण ही आँखों में रंग दिखायी देता है। इस स्तर में रक्त केशिकाओं का सघन जाल पाया जाता है। नेत्र के अगले भाग में यह निम्नलिखित रचनाएँ बनाता है-

(अ) उपतारा या आइरिस (Iris) – कॉर्निया के आधार पर यह भीतर की ओर गोल रंगीन पर्दा बनाता है जिसे उपतारा या आइरिस (Iris) कहते हैं। आइरिस के बीचोंबीच में एक छिद्र होता है, इसको पुतली या तारा (Pupil) कहते हैं। आइरिस पर अरेखित अरीय प्रसारी पेशियाँ फैली रहती हैं जिसके संकुचन से पुतली का व्यास बढ़ता है तथा वर्तुल स्फिंक्टर पेशियाँ संकुचन द्वारा पुतली के व्यास को कम करती हैं।

(ब) सिलियरी काय (Ciliary body)-रक्तक पटल के आइरिस का भीतरी भाग कुछ मोटा होता है। यह सिलियरी बॉंडी कहलाता है। सिलियरी काय संकुचनशील होता है। इससे अनेक महीन एवं लचीले निलम्बन रज्जु निकलते हैं, जो लेन्स (lens) से संलग्न रहते हैं।

(द) अन्त:कर्ण में ध्वनि द्वारा तन्त्रिका आवेग उत्पन्न होने की क्रियाविधि
श्रवण संतुलन अंग-कर्ण (Statoaucaustic organ-Ear)
मनुष्य में कान सुनने की क्रिया के साथ-साथ सन्तुलन बनाये रखने का भी कार्य करते हैं। मनुष्य के सिर पर दोनों ओर पार्श्व में एक जोड़ी कान होते हैं। मनुष्य के कर्ण में/तीन भाग होते हैं-
(1) बाह्य कर्ण (External ear),
(2) मध्य कर्ण (Middle ear) तथा
(3) आन्तरिक कर्ण (Internal ear)।
(i) कर्ण पल्लव या पिन्ना (Pinna) तथा
(ii) बाहा कर्ण कुहर (External auditory meatus)

कर्ण पल्लव या पिन्ना सबसे बाहरी भाग होता है जो लचीले उपास्थि (cartilage) ऊतकों का बना होता है। यह बाह्य ध्वनि तरंगों को एकत्रित करके बाह्य कर्ण कुछर में भेजने का कार्य करता है। बाह्य कर्ण कुछर 2.5 से 3.0 सेमी लम्बा होता है। इसे भीतरी सिरे पर एक मजबूत झिल्ली होती है जिसे कर्ण पटह (Tympanic membrane) कहते हैं। बाहू कर्ण कुहर ध्वनि तरंगों को कर्ण पटह तक पहुँचाने का कार्य करता

(2) मध्य कर्ण (Middle Ear)-यह कर्ण पटह (tym-panic membrane) से लगा हुआ छोटा-सा कक्ष होता है। इसको कर्ण पटह गुहा (tympanic cavity) भी कहते हैं। कर्ण पटह गुहा एक नलिका द्वारा मुख म्नसनी में खुलती है जिससे कर्ण पटह के बाहर तथा भीतर समान वायुदाब बनाये रखा जाता है।

मध्य कर्ण की गुहा दो छोटे-छोटे छिद्रों द्वारा आन्तरिक कर्ण की गुहा से भी सम्बन्धित रहती है। ऊपर की ओर स्थित छिद्र अण्डाकार गवाश्ष या फेनेस्ट्रा मध्य कर्ण में तीन छोटी-छोटी अस्थियाँ भी पायी जाती हैं। बाहर से भीवर की ओर इन्हें क्रमशः मैलियस (Malleus), इनकस (Incus) तथा स्टैपीज (Stapes) कहते हैं।

(3) अन्तकर्ण (Internal Ear) – यह कान का सबसे भीतरी हिस्सा होता है तथा इसे भी दो भागों में बाँटा जा सकवा है-
(i) अस्थिल गहन (Bony Labyrinth) तथा
(ii) क्ला गंत्न (Membranous Labyrinth)।

(i) अस्थिल गहन (Bony labyrinth)-यह सम्पूर्ण कला गहन को घेरे रहता है । कला गंक्न (Membranous labyrinth) तथा अस्थिल गहन (Bony labyrinth) के बीच संकरी गुहा होती है जिसमें परिलसिका (Perilymph) भरा रहता है। यह भाग मध्य कर्ण गुहा से सम्बन्धित रहता है।

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(ii) काला गहन (Membranous labyrinth)-यह कोमल अर्द्ध-पारदर्शी झिल्ली की बनी रचना होती है। इसमें दो थैली जैसे वेश्म होते हैं, जिन्हें युट्रीफुलस (Utriculus) एवं सैक्युलस (Sacculus) कहते हैं। दोनों वेश्म एक मही़ीन नलिका द्वारा आपस में सम्बन्धित रहते हैं। इसे सैक्यूलो युट्रीकुलर नलिका

प्रश्न 9.
निम्नलिखित के बीच अन्तर बताइए-
(अ) आच्छादित और अनाच्छादित तन्त्रिका तन्तु डुमाक्ष और तन्त्रिकाक्ष शलाका और शंकु थैलेमस और हाइपोथैलेमस प्रमस्तिष्क और अनुमस्तिष्क ।
उत्तर:
(अ) आच्छादित और अनाच्छादित तन्त्रिका तन्तु में अन्तर

आण्यान्त त्विका तुज (Myelinated Neuron)अनांयादित तन्रिका तन्तु (Non-myelinated Neuron)
1. न्यूरोलीमा और तन्त्रिकाष्ष के मध्य प्रोटीन युक्त लिपिड पदार्थ मार्यिन्न (myelin) पाया जाता है।1. इसमें न्यूरोलीम और तन्त्रिकाष्ष के मध्य मायलिन का अभाव होता है।
2. ये तन्तु मस्तिष्क एवं मेरुज् का श्वेत द्रव्य (white matter) बनाते हैं।2. ये तन्तु केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र का धूसर द्रव्य (gray matter) बनाते हैं।
3. इन तन्तुओं में प्रेरणाओं का प्रसारण तेज गति से होता है।3. इन तन्तुओं में प्रेरणाओं का प्रसारण धीमी गति से होता है।
4. ये तन्त्रिका तन्तु अधिकांशतः केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र तथा परिषीय तन्त्रिका तन्त का निर्माण करते हैं।4. ये तन्त्रिका तन्तु स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र का निर्माणा करते हैं।

(ब) द्रुमाक्ष और तन्त्रिकाक्ष में अन्तर

छुमांक्ष या दुमाश्म (वृद्धाश) (Dendrites)त्नित्रिकाष्ष अक्षात्तु या एक्सॉन (Axon)
1. ये प्रायः छोटे, संख्या में एक या अधिक, आधारीय भाग पर मोटे तथा सिरों पर क्रमशः पतले होते हैं।1. यह सदैव एक बहुत लम्बा, लगभग समान मोटाई का एवं बेलनाकार प्रवर्ध होता है।
2. ये कोशिकाकाय (cyton) के पास ही अत्यधिक शाखान्वित होकर झाड़ी जैसा हो जाता है ।2. यह अन्तिम सिरे पर ही शाखित होता है। इसकी शाखाओं को टीलोडेन्र्रिया कहते हैं जिनके सिरों पर सिनैष्टिक घुण्डियाँ होती हैं।
3. इनमें कोशिका अंगक तथा निसल्स के कण होते हैं।3. इनमें कोशिका अंगक तो होते हैं, किन्तु निस्स के कण नहीं होते हैं।
4. ये प्रेरणाओं को प्रहण करके कोशिकाकाय की ओर लाते हैं। इनको अभिजती प्रवर्ष कहते हैं।4. ये प्रेरणाओं को कोशिकाकाय से अन्य तन्त्रिका कोशिकाओं या अपवाहक अंग तक पहुँचाते हैं, जिन्हें अपवांदी प्रवर्ध कहते हैं।

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(स) शलाका और शंकु में अन्तर

शंजाकाएँ (Rods)शंकु (Cones)
1. दृष्टि शलाकाएँ प्रकाश एवं अन्धकार के उद्दीपनों को प्रहण करती हैं।1. दृष्टि शंकु रंगों के उद्दीपनों को प्रद्दण करते हैं। ये तीन प्राथमिक रंगो-लाल, हरा व नीले रंग को पहचानते हैं।
2. ये मन्द प्रकाश में सक्रिय हो जाती हैं।2. ये तीव्र प्रकाश में ही सक्रिय होते हैं।
3. इनमें दृष्टि पर्पल वर्णक रोडोप्सिन होता है।3. इनमें आयोडोष्सिन वर्णक होता है।
4. ये बेलनाकार होती है।4. ये मुग्दराकार होती हैं।
5. इनकी कमी से रतौंधी रोग हो जाता है।5. इनकी कमी से वर्णान्धता हो जाती है।

(द) थैलेमस और हाइपोथैलेमस में अन्तर

धैलेमस (Thalamus)हाइपोथैलेमस (Hypothalamus)
1. यह प्रमस्तिष्क से घिरा रहता है।1. यह धैतेमस के आधार पर स्थित होता है।
2. इसमें डाइएनसिफैलॉन की पार्श्व भित्ति के ऊपरी भाग आते हैं। यह धूसर द्रव्य से निर्मित मोटे पिण्डों के रूप में होता है।2. इसमें ग्रासकिकेलॉन की पार्श्व भित्ति का अधर भाग आता है।
3. इसमें तन्त्रिका कोशिकाओं के छोटे-छोटे समूह (घैलमी केन्यक) होते हैं।3. इसमें तन्त्रिका कोशिकाओं के लगभग एक दर्जन बड़े-बड़े केन्द्रक होते हैं। यह चार मुख्य भागों में विभाजित रहता है।
4. यह ताप, पीड़ा, स्पर्श, कम्पन, श्रवण, दृष्टि आदि संवेदी सूचनाओं के पुन: प्रसारण केन्द्र का कार्य करता है।4. यह भूख, प्यास, तप्ति, निद्रा, क्रोध, उत्साह, भोग-विलास आदि अनुभूतियों का नियमन करता है।

(य) प्रमस्तिष्क और अनुमस्तिष्क में अन्तर

प्रमसित्रिक्ज (Cerebrum)अनुमस्तिष्क (Cerebellum)
1. यह अग्र मस्तिष्क का प्रमुख भाग है।1. यह पश्च मस्तिष्क का प्रमुख भाग है।
2. इसमें दाहिने और बाएँ दो प्रमस्तिष्क गोलाईद्ध होते हैं, जो परस्पर कार्पस कैलोसम से जुड़े रहते हैं।2. इसमें दो दाहिने और बाएँ अनुमस्तिष्क गोलाई होते हैं, जो परस्पर वर्मिस द्वारा जुड़े रहते हैं।
3. प्रमस्तिष्क गोलार्ध की गुहा को पार्श्व वैन्ट्रिकाल कहते हैं।3. अनुमस्तिष्क ठोस होता है।
4. यह बुद्धि, इच्छाशक्ति, ऐच्छिक क्रियाओं, ज्ञान, स्तृति, वाणी, चिन्तन आदि 98% मानसिक क्रियाओं का केन्द्र है।4. यह शरीर की भंगिमा (पोश्चर) तथा संतुलन बनाये रखने का कार्य करता है तथा पेशीय क्रियाओं का समन्वयन करता है।
5. यह ऐच्छिक एवं अनैच्छिक दोनों क्रियाओं को नियन्त्रित करता है।5. इसका नियन्त्रण अनैच्छिक होता है।

प्रश्न 10.
(अ) कर्ण का कौन-सा भाग ध्वनि की पिच का निर्धारण करता है ?
(ब) मानव मस्तिष्क का सर्वाधिक विकसित भाग कौन-सा है ?
(स) केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र का कौन-सा भाग मास्टर क्लॉक की तरह कार्य करता है ?
उत्तर:
(अ) कर्ण की कॉक्लिया में स्थित कॉर्टाई के अंग की संवेदनामाही कोशिकाएँ ध्वनि की पिच का निर्धारण करती हैं तथा उद्दीपनों को लेकर श्रवण तन्त्रिका में पहुँचाती हैं।
(ख) मानव मस्तिष्क का सर्वाधिक विकसित भाग प्रमस्तिष्क (cerebrum) है। यह मस्तिष्क का लगभग 2/3 भाग बनाता।
(स) केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र का मस्तिष्क (brain) मास्टर क्लॉक की तरह कार्य करता है।

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प्रश्न 11.
कशेरुकी के नेत्र का वह भाग जहाँ से दृक् तन्त्रिका रेटिना से बाहर निकलती है, क्या कहलाता है ?
(अ) फोबिया
(ब) आइरिस,
(स) अन्य बिन्दु
(द) आष्टिक चाएज्या (चाक्षुस कामा) ।
उत्तर:
(स) अन्ध बिन्दु (blind spot) कहलाता है।

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में भेद स्पष्ट कीजिए-
(अ) संवेदी तन्त्रिका एवं प्रेरकं तन्त्रिका
(ब) आच्छादित एवं अनाच्छादित तन्त्रिका तन्तु में आवेग संचरण
(स) एक्विस ह्यूमर (नेत्रोद) एवं विट्रियस ह्यूमर (काचाभ द्रव)
(द) अन्यबिन्दु एवं पीत बिन्दु
(च) कपालीय तन्त्रिकाएँ एवं मेरु तन्त्रिकाएँ
उत्तर:
(अ) संवेदी तन्त्रिका एवं प्रेरक तन्त्रिका में भेद

संवेदी तन्तिका (Sensory Nerve)प्रेरक तन्त्रिका (Motor Nerve)
1. ये तन्त्रिकाएँ एक ध्रुवीय होती हैं।1. ये तन्त्रिकाएँ बहुधुवीय होती हैं।
2. इनको अभिवाही तन्त्रिका कहते हैं।2. इनको अपवाही तत्रिका कहते हैं।.
3. ये संवेदांगों से प्रेरणाओं को मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु तक पहुँचाती हैं।3. ये मस्तिष्क व मेरुरज्जु से प्रतिक्रियाओं को अपवाहक अंगों (पेशियों व प्रन्थियों आदि) को पहुँचाती हैं।

(ब) आच्छादित एवं अनाच्छादित तन्त्रिका तन्तु में आवेग संचरण में भेद (अन्तर)

आच्छादित तन्निका तन्नु में आवेग संचरण (Nerve impulse in myelinated Nerve fibres)अनव्धादित तन्रिका तन्तु में आवेग संचरण (Nerve impulse in Non-myelinated nerve fibres)
1. इन तन्तुओं में उच्छलन प्रेरणा-प्रसारण पाया जाता है। इनमें प्रेरणा सम्प्रेषण रेन्बेयर के नोड पर होता है।1. इन तन्तुओं में प्रेरणा-प्रसारण स्वतः संचारी विद्युत तरंग के रूप में बिन्दु-दर-बिन्दु संप्रेषित होने से होता है।
2. इनमें अनाच्छादित तन्त्रिका तन्तुओं की अपेक्षा प्रेरणा संचरण लगभग 10 गुना तेज गति से होता है।2. इनमें आच्छादित तन्त्रिका तन्तुओं की अपेक्षा प्रेरण मन्द गति से होता है।
3. इसमें कम ऊर्चा व्यय होती है।3. इसमें अधिक ऊर्जा व्यय होती है।

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(स) एक्वियस हामर (नेत्रोद) एवं विट्रियस ह्यूमर (काचाभ द्रव)

एकिष्यस्त छुमर (नेत्रोद) (Aqueous humour)विट्रियस द्वामर (काचा- द्रव) (Vitreous humour)
1. नेत्रोद लेन्स तथा कॉर्निया के मध्य ज्रीय वेश्म (एक्षिय्स चैप्कर) में पाया जाने वाला क्षारीय एवं जलीय तरल होता है।1. यह लेन्स एवं रेटिना के मध्य काचाभ द्रव्य वेश्म (विट्रियस चैम्बर) में पाया जाने वाला जैली सदृश पारदर्शी लसदार तरल होता है।
2. नेत्रोद ऊतक तरल जैसा होता है। यह लेन्स को पोषक पदार्थ तथा O2 आदि प्रदान करता है और उत्सर्जी पदार्थों को बाहर निकालने में सहायक होता है।2. काचाभ द्रव में जल, लवण विट्रीनम्यूको प्रोटीन एवं हायलूरोनिक अम्ल होता है, जिसमें बारीक कोलैजन तन्तुओं का जाल फैला रहता है।
3. यह नेत्र लेन्स पर दबाव बनाये रखता है।3. यह नेत्र गोलक की आकृति एवं दबाव को बनाये रखता है।
4. नेत्रोद प्रकाश किरणों का अपवर्तन करता है।4. काचाभ द्रव प्रकाश किरणों को रेटिना पर केन्द्रित करता है।

(द) अन्य बिन्दु एवं पीत बिन्दु में भेद (अन्तर)

अन्ध बिन्दु (Blind Spot)पीत बिन्दु (Yellow Spot)
1. अन्ध बिन्दु पर दृष्टि शलाकाएँ तथा शंकु नहीं होते हैं।1. पीत बिन्दु पर केवल दृष्टि शंकु होते हैं, शलाकाएँ एवं अन्य कोशिकाएँ नहीं होती हैं।
2. इसमें कोई वर्णक नहीं होता है।2. शंकुओं में पीला रंगा वर्णक पाया जाता है।
3. अन्ध बिन्दु स्थल से दृष्टि तन्त्रिका निकलती हैं। अतः इस स्थान पर प्रतिबिम्ब नहीं बनता है।3. पीत बिन्दु नेत्र गोलक की मध्य अनुलम्ब अक्ष पर स्थित होता है। इस स्थान पर सर्वाधिक स्पष्ट प्रतिबिम्ब बनता है।
4. यह प्रकाश के प्रति असंवेदनशील होता है।4. यह प्रकाश के प्रति संवेदनशील होता है।
5. इसके पास तन्निका एवं रुधिर वाहिनियाँ उपस्थित होती हैं।5. इसके पास तन्त्रिका व रुधिर वाहिनियाँ नहीं होती हैं।

(य) कपालीय तन्त्रिकाओं एवं मेरु तन्त्रिकाओं में भेद

कपालीय तन्रिकाएँ (Cranial Nerves)मेरु तन्तिकाएँ (Spinal Nerves)
1. ये मस्तिष्क के विभिन्न भागों से बाहर निकलती हैं।1. ये मेरुजज्जु से बाहर निकलती हैं।
2. मनुष्य में इन तन्त्रिकाओं की संख्या 12 जोड़ी होती है।2. मनुष्य में इन तन्त्रिकाओं की संख्या 31 जोड़ी होती है।
3. ये तीन प्रकार की होती हैं-संवेदी, प्रेरक और मिश्रित। II, II तथा VIII संवेदी कपालीय तन्त्रिका होती हैं। III, IV तथा VI कपालीय तन्त्रिका प्रेरक होती हैं। V, VII, IX, X तथा XI व XIIवीं मिश्रित कपालीय तन्त्रिका होती हैं।3. ये तन्त्रिकाएँ पृष्ठ संवेदी एवं अधर प्रेरक मूल से निकलती हैं। प्रत्येक मेरु तन्त्रिका तीन शाखाओं में विभक्त हो जाती है-पृष्ठ शाखा, अधर शाखा एवं योजि तत्त्रिका। पृष्ठ शाखा संवेदी, अधरशाखा प्रेरक एवं योजि तन्त्रिका मिश्रित होती है।

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HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 20 गमन एवं संचलन

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 20 गमन एवं संचलन Textbook Exercise Questions and Answers.

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प्रश्न 1.
कंकाल पेशी के एक सार्कोमियर का चित्र बनाइए और विभिन्न भागों को चिह्नित कीजिए ।
उत्तर:
रंग के आधार पर पेशी तन्तु दो प्रकार के होते हैं-
(1) श्वेत पेशी तनु (White Muscle Fibres) – इनमें मायोग्लोबिन (myoglobin) अनुपस्थित होता है जो कि पेशियों को लाक्षणिक लाल रंग प्रदान करता है। इन तन्तुओं में माइटोकॉष्ड्रिया (mitochondria) की संख्या कम होती है। इनमें तीव्र संकुचन पाया जाता है जिससे ऑक्सीजन की आवश्यकता बढ़ जाती है और ऑक्सीजन की कमी होने पर इनमें अवायवीय श्वसन होता है जिसके फलस्वरूप लैक्टिक अम्ल बनता है। पेशियों में लैक्टिक अम्ल के संचयन के कारण ही थकान (fatigue) उत्पन्न होती है। उदाहरण-नेत्र गोलक की पेशियाँ।

(2) लाल पेशी तन्तु (Red Muscle Fibre) – ये पेशी तन्तु मायोग्लोबिन की उपस्थिति के कारण लाल रंग के दिखाई देते हैं। इसमें माइटोकॉण्ड्रिया की संख्या अधिक होती है। लाल पेशी तन्तुओं में धीमी गति से संकुचन होते हैं। इन पेशियों में वायवीय श्वसन होता है जिसके कारण इनमें लैक्टिक अम्ल (lactic acid) का संचय नहीं होता है। इसलिए इन पेशी तन्तुओं में थकान नहीं होती है। इन पेशी तन्नुओं में ऑक्सीजन संग्रहित रहती है। इसीलिए अवायवीय श्वसन नहीं होता है।

लाल पेशीय तन्तु (Red muscle fibres)श्वेत पेशीय तन्तु (White muscle fibres)
1. ये पतले, गहरे, लाल रंग के होते हैं।1. ये मोटे, चौड़े व हल्के रंग के होते हैं।
2. इनमें मायोग्लोबिन अधिक मात्रा में उपस्थित होता है।2. इनमें मायोग्लोबिन कम मात्रा में पाया जाता है।
3. इनमें माइटोकॉण्डिया अधिक संख्या में होते हैं।3. इनमें ‘माइटोकॉष्ड्रिया’ कम संख्या में होते हैं।
4. इनमें ऑक्सीश्वसन द्वारा ऊर्जा प्राप्त होती है।4. इनमें अनॉक्सीश्वसन द्वारा ऊर्जा प्राप्त होती है।
5. इनमें सार्कोप्लाज्मिक जालिका कम होती है।5. इनमें सार्कोप्लाज्मिक जालिका अधिक होती है।
6. इनमें रुधिर केशिकाएँ अपेक्षाकृत अधिक संख्या में होती हैं।6. इनमें रुधि केशिकाएँ अपेक्षाकृत कम संख्या में होती हैं।
7. इन पेशी तन्तुओं में थकावट नहीं होती है।7. ये पेशी तन्तु शीघ्र ही थक जाते हैं।
8. ये लम्बे समय के लिए धीमा रुका हुआ संकुचन करते हैं।8. ये कम समय के लिए तेज व भारी संकुचन करते हैं।
9. ये धीरे से संकुचित होते हैं एवं धीरे से मूच्छित हो जाते हैं।9. ये लेक्टिक अम्ल के कारण शीघ्य ही संकुचित हो जाते हैं एवं शीघ्र ही मूर्चित हो जाते हैं।
10. इनमें लेक्टिक अम्ल नहीं जमता है।10. इनमें लेक्टिक अम्ल जम जाता है।

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प्रश्न 2.
पेशी संकुचन के सप तन्तु सिद्धान्त को परिभाषित कीजिए।
अथवा
कंकाल (रेखित) पेशी के संकुचन की कार्यविधि समझाइए ।
उत्तर:
पेशी संकुचन की क्रियाविधि को समझाने के लिए हक्सले ( Huxley, 1965) ने सर्पी तन्तु सिद्धान्त (sliding filament theory ) प्रस्तुत किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार, पेशीय रेशों का संकुचन पतले तन्तुओं (एक्टिन तन्तुओं) के मोटे तन्तुओं (माइसिन तन्तुओं) के ऊपर विसर्पण (खिसकने) से होता है। रेखित (कंकाल ) पेशी के संकुचन की कार्यविधि (Contraction Mechanism of Striated Muscle) रेखित पेशियाँ तन्त्रिकीय उत्तेजन पर संकुचित होती हैं।

पेशियों में जाने वाले तन्त्रिका तन्तु अपने सिरों पर ऐसिटिलकोलीन (Acetylcholine) नामक पदार्थ स्त्रावित करके संकुचन की प्रेरणाओं को पेशियों में पहुँचाते हैं। प्रत्येक पेशी तन्तु के अन्दर इन प्रेरणाओं को तन्तुओं तक प्रसारित करने का काम सारको प्लाज्मिक जा करता है। हक्सले के पेशी संकुचन सप सिद्धान्त के अनुसार, पेशी संकुचन के समय ‘A’ पट्टियों की लम्बाई तो यथावत् बनी रहती है किन्तु इसके दोनों ओर की ‘T’ पट्टियों के अर्द्धशों की एक्टिन छड़ें मायोसिन छड़ों के कंटकों पर शीघ्रतापूर्वक बनते-बिगड़ते आड़े रासायनिक सेतु बन्धनों की सहायता से साकोंमियर के मध्य की ओर खिसककर ‘M’ रेखा तक पहुँच जाते हैं या इनके सिरे एक-दूसरे पर चढ़ जाते हैं। इस प्रकार पेशीय खण्डों या साकोंमियर्स के छोटे हो जाने से पेशी तन्तु सिकुड़ते हैं।

प्रेरणास्थान से प्रारम्भ होकर पेशी तन्तु में दोनों ओर संकुचन की लहर सी दौड़ जाती है, किन्तु संकुचन एक ही दिशा की ओर होता है, जिस ओर सम्बन्धित पेशी किसी अचल अस्थि से लगी होती है। अधिकतम संकुचन में दोनों ओर की ‘Z’ रेखाएँ ‘A’ पट्टियों की मायोसिन छड़ों को छूने लगती हैं, अर्थात् ‘T’ पट्टियाँ और ‘H’ क्षेत्र अन्तर्धान हो जाते हैं और पेशी तन्तु की लम्बाई घटकर 2/3 रह जाती है। शिथिलन (Relaxation) में एक्टिन तथा मायोसिन छड़ों को जोड़ने वाले सेतु बन्य सब खुल जाते हैं।

अतः प्रत्येक पेशीखण्ड (साकमियर) की सब एक्टिन छड़ें वापस अपनी सामान्य स्थिति में आ जाती हैं और पेशी संकुचन समाप्त हो जाता है। कार्यविधि के लिए ऊर्जा की आपूर्ति पेशी संकुचन के लिए ऊर्जा की आपूर्ति ATP द्वारा होती है। ATP प्राप्ति का स्त्रोत ग्लाइकोजन है। इसके अपचय (या विघटन) के फलस्वरूप ATP का निर्माण होता है। पेशी संकुचन के समय ATP के जल अपघटन से ऊर्जा की प्राप्ति होती है।

पेशियों में क्रिएटिन फॉस्फेट नामक एक उच्च ऊर्जा यौगिक उपस्थित होता है। यह भी ATP निर्माण में प्रयुक्त होता है। विश्रामावस्था में ATP द्वारा फिर से क्रिएटिन फॉस्फेट बन जाता है। इस प्रकार पेशी में क्रिएटिन फॉस्फेट का भण्डार बना रहता है, जो आवश्यकता पड़ने पर ATP प्रदान कर सकता है।

प्रश्न 3.
पेशी संकुचन के प्रमुख चरणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पेशी संकुचन के प्रमुख चरण (Main Steps of Muscle Contraction)
पेशी संकुचन की क्रियाविधि को सपतन्तु या छड़ विसर्पण सिद्धान्त द्वारा अच्छी तरह समझाया जा सकता है, जिसके अनुसार पेशीय रेशों का संकुचन पतले तन्तुओं के मोटे तन्तुओं के ऊपर सरकने या विसर्पण से होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार पेशी संकुचन चार चरणों में पूरा होता है-
(1) उत्तेजन (Excitation) – यह पेशी संकुचन का प्रथम चरण है। उत्तेजन में तन्त्रिका आवेग के कारण तत्रिकाक्ष के सिरों द्वारा ऐसीटिलकोलीन (एक तन्त्रिका प्रेषी रसायन), तन्त्रिका पेशी सन्धि पर मुक्त होता है। यह ऐसीटिलकोलीन पेशी प्लाज्मा की Na+ के प्रति पारगम्यता को बढ़ावा देता है जिसके फलस्वरूप प्लाज्मा झिल्ली की आन्तरिक सतह पर धनात्मक विभव उत्पन्न हो जाता है। यह विभव पूरी प्लाज्मा झिल्ली पर फैलकर सक्रिय विभव उत्पन्न कर देता है और पेशी कोशिका उत्तेजित हो जाती है।

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(2) उत्तेजन-संकुचन युग्म (Excitation Contraction Coupling) इस चरण में सक्रिय विभव पेशी कोशिका में संकुचन प्रेरित करता है। यह विभव पेशी प्रद्रव्य में तीव्रता से फैलता है और Ca++ मुक्त होकर ट्रोपोनिन-सी से जुड़ जाते हैं और ट्रोपोनिन अणु के संरूपण में परिवर्तन हो जाते हैं। इन परिवर्तनों के कारण एक्टिन के सक्रिय स्थल पर उपस्थित ट्रोपोमायोसिन एवं ट्रोपोनिन दोनों वहाँ से पृथक् हो जाते हैं। मुक्त सक्रिय स्थल पर तुरन्त मायोसिन तन्तु के अनुप्रस्थ सेतु इनसे जुड़ जाते हैं और संकुचन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

(3) संकुचन (Contraction ) – एक्टिन तन्तु के सक्रिय स्थल से जुड़ने से पूर्व सेतु का सिरा एक ATP से जुड़ जाता है। मायोसिन के सिरे के ATPase एन्जाइम द्वारा ATP ADP तथा Pi में टूट जाते हैं किन्तु मायोसिन के सिर पर ही लगे रहते हैं। इसके उपरान्त मायोसिन का सिर एक्टिन तन्तु के सक्रिय स्थल से जुड़ जाता है। इस बन्धन के कारण मायोसिन के सिर में संरूपण परिवर्तन होते हैं और इसमें झुकाव उत्पन्न हो जाता है जिसके फलस्वरूप एक्टिन तन्तु सार्कोॉमियर के केन्द्र की ओर खींचा जाता है।

इसके लिए ATP के विदलन से प्राप्त ऊर्जा काम आती है और सिर के झुकाव के कारण इससे जुड़ा ADP तथा Pi भी मुक्त हो जाते हैं। इसके मुक्त होते ही नया ATP अणु सिर से जुड़ जाता है। ATP के जुड़ते ही सिर एक्टिन से पृथक् हो जाता है। पुनः ATP का विदलन होता है। मायोसिन सिर नये सक्रिय स्थल पर जुड़ता है तथा पुनः यही क्रिया दोहराई जाती है जिससे एक्टिन तन्तुक खिसकते हैं और संकुचन हो जाता है।

(4) शिथिलन (Relaxation) पेशी उत्तेजन समाप्त होते ही Ca++ पेशी प्रद्रव्यी जालिका में चले जाते हैं। जिससे ट्रोपोनिन सी Ca++ से मुक्त हो जाती है और एक्टिन तन्तुक के सक्रिय स्थल अवरुद्ध हो जाते हैं। पेशी तन्तु अपनी सामान्य स्थिति में आ जाते हैं तथा पेशीय शिथिलन हो जाता है।

प्रश्न 4.
‘सही’ या ‘गलत’ लिखिए-
(क) एक्टिन पतले तन्तु में स्थित होता है।
(ख) रेखित पेशी रेशे का H क्षेत्र मोटे और पतले दोनों तन्तुओं को प्रदर्शित करता है।
(ग) मानव कंकाल में 206 अस्थियाँ होती हैं।
(घ) मनुष्य में 11 जोड़ी पसलियाँ होती हैं।
(च) उरोस्थि शरीर के अधर भाग में स्थित होती हैं।
उत्तर;
(क) सही
(ख) गलत
(ग) सही
(घ) गलत
(ङ) सही।

प्रश्न 5.
निम्न में अन्तर बताइए-
(क) एक्टिन और मायोसिन
(ख) लाल और श्वेत पेशियाँ
(ग) अंस और श्रोणि मेखला ।
उत्तर:
(क) एक्टिन और मायोसिन में अन्तर

एक्टिन (Actin)मायोसिन (Myosin)
1. एक्टिन तन्तु ‘ P ‘ ‘बैण्ड में पाये जाते हैं और ‘A’ बैण्ड में भी उभरे रहते हैं।1. मायोसिन तन्तु केवल ‘ A ‘ बैण्ड में पाये जाते हैं।
2. ये मायोसिन तन्तुओं से पतले होते हैं और इनकी संख्या कम होती है।2. ये तन्तु एक्टिन की अपेक्षा मोटे होते हैं और इनकी संख्या अधिक होती है।
3. प्रत्येक मायोफाइब्रिल में लगभग 300 एक्टिन तन्तु होते हैं।3. प्रत्येक मायोफाइबिल में लगभग 1500 मायोसिन तन्तु होते हैं।
4. एक्टिन तन्तुओं का एक सिरा ‘ Z ‘ क्षेत्र में धँसा होता है व दूसरा सिरा मुक्त होता है।4. मायोसिन तन्तुओं के अन्तिम सिरे मुक्त होते हैं।
5. इनकी सतह लगभग सपाट होती है।5. इनकी सतह केन्द्रीय ‘ M ‘ धारा को छोड़कर अन्य में उभार रखती है।
6. एक्टिन अणु गोलाकार होते हैं।6. मायोसिन अणु घुण्डीनुमा एवं तन्तुमय होते हैं।
7. इसका अणुभार लगभग 42,000 डाल्टन होता है।7. इनका अणुभार लगभग 4,80,000 डाल्टन होता है।
8. पेशी संकुचन के समय एक्टिन तन्तु मायोसिन तन्तुओं पर फिसलते हैं।8. पेशी संकुचन के समय मायोसिन तन्तु स्थिर बना रहता है।
9. सेत बन्यन (cross bridge) अनुपस्थित होता है।9. सेतु बन्यन (cross bridge) उपस्थित होते हैं।

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(ख) लाल और श्वेत पेशियों में अन्तर

लाल पेशीय तन्तु (Red muscle fibres)श्वेत पेशीय तन्तु (White muscle fibres)
1. ये पतले, गहर, लाल रंग के होते हैं।1. ये मोटे, चौड़े व हल्के रंग के होते हैं।
2. इनमें मायोग्लोधिन अधिक मात्रा में उपस्थित होता है।2. इनमें मायोग्लोजिन कम मात्रा में पाया जाता है।
3. इनमें माइटोकॉण्ड्रिया अधिक संख्या में होते हैं।3. इनमें ‘माइटोकॉष्ड्रिया’ कम संख्या में होते हैं।
4. इनमें ऑक्सीश्वसन द्वारा ऊर्जा प्राप्त होती है।4. इनमें अनॉक्सीश्वसन द्वारा ऊर्जा प्राप्त होती है।
5. इनमें सार्कोप्लाज्यिक जासिका कम होती है।5. इनमें सार्कोप्लाजिक्यिक जालिका अधिक होती है।
6. इनमें रुधिर केशिकाएँ अपेक्षाकृत अधिक संख्या में होती हैं।6. इनमें रुधिर केशिकाएँ अपेक्षाकृत कम संख्या में होती हैं।
7. इन पेशी तन्तुओं में थकावट नहीं होती है।7. ये पेशी तन्तु शीघ्र ही थक जाते हैं।
8. ये लम्बे समय के लिए धीमा रुका हुआ संकुचन करते हैं।8. ये कम समय के लिए तेज व भारी संकुचन करते हैं।
9. ये धीरे से संकुचित होते हैं एवं धीरे से मूच्चित हो जाते हैं।9. ये लेक्टिक अम्ल के कारण शीष्र ही संकुचित हो जाते हैं एवं शीघ्र ही मूच्चित हो जाते हैं।
10. इनमें लेक्टिक अम्ल नहीं जमता है।10. इनमें लेक्टिक अम्ल जम जाता है।

(ग) अंसमेखला तथा श्रोणि मेखला में अन्तर

अंसमेखला (Pectoral girdle)श्रोणि मेखला (Pelvic girdle)
1. यह कंधे के क्षेत्र में होती है।1. यह कूल्हे के क्षेत्र में होती है।
2. इसके दो पृथक अर्द्धांश होते हैं।2. इसके दो समेकित अर्द्धांश होते हैं।
3. इसके प्रत्येक अर्द्धाश में स्कैपुला एवं क्सैविकल अस्थियाँ होती हैं।3. इसके प्रत्येक अर्द्धांश में इलियम, इश्चियम और प्यूविस अस्थियाँ होती हैं।
4. चपटे स्कैपुला में ग्लीनॉइड गुहा होती है। इसमें अग्रपाद की ब्यूमरस अस्थि का शीर्ष धँसा होता है।4. उपर्युक्त अस्थियों के सन्धि तल पर ऐसीटाबुलम गुहा होती है। इसमें पश्चपाद की फीमर अस्थि का शीर्ष धँसा रहता है।
5. प्रत्येक क्लैविकल को सामान्यत: जहुक (कॉलर बोन) कहते हैं।5. श्रोणि मेखला के दोनों अर्द्धांश मिलकर प्यूबिक सिम्फाइसिस बनाते हैं।

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प्रश्न 6
स्तम्भ 1 का स्तम्भ II से मिलान कीजिए-

स्तम्भ Iस्तस्भ II
(i) चिकनी पेशी(क) मायोग्लोबिन
(ii) ट्रोपोमायोसिन(ख) पतले तन्तु
(iii) लाल पेशी(ग) सीवन
(iv) कपाल(घ) अनैच्चिक

उत्तर:
स्तम्भ I एवं स्तम्भ II का मिलान निम्न प्रकार है-

स्तम्भ Iस्तम्भ II
(i) चिकनी पेशी(घ) अनैच्छिक
(ii) ट्रोपोमायोसिन(ख) पतले तन्तु
(iii) लाल पेशी(क) मायोग्लोबिन
(iv) कपाल(ग) सीवन

प्रश्न 7.
मानव शरीर की कोशिकाओं द्वारा प्रदर्शित विभिन्न गतियाँ कौन-सी हैं ?
उत्तर:
मानव शरीर की कोशिकाओं की विभिन्न गतियाँ
मानव शरीर की कोशिकाओं की गतियाँ निम्नलिखित तीन प्रकार की होती हैं-
(1) अमीबीय गति (Amoeboid movement ) – मानव शरीर में मिलने वाली श्वेत रुधिराणु (WBCs) एवं महाभक्षकाणु (macrophages) रुधिर में अमीबीय गति प्रदर्शित करती हैं। यह क्रिया जीवद्रव्य की प्रवाही गति द्वारा कूटपाद बनाकर की जाती है।

(2) पक्ष्माभी गति (Ciliary movement) मानव में शुक्रवाहिनियों, अण्डवाहिनियों, श्वास नाल में पक्ष्माभ उपस्थित होते हैं। इनकी गति से शुक्रवाहिनियों में शुक्राणु एवं अण्डवाहिनियों में अण्डाणु का परिवहन होता है। श्वास नाल में पक्ष्माभ ( cilia) श्लेष्मा (mucus) को बाहर की ओर कर देते हैं, जिससे धूल कणों व बाह्य पदार्थों को हटाने में सहायता मिलती है।

(3) पेशीय गति (Muscular movement ) – हमारे अग्र एवं पश्च पादों, जबड़ों, जीभ, नेत्र पेशियों, आहारनाल, हृदय आदि में पेशीय गति होती है। पेशीय गति में कंकाल, पेशियाँ तथा तन्त्रिकाएँ भाग लेती हैं।

  • नेत्रगोलक (Eye ball) – नेत्रकोटर में नेत्रगोलक अरेखित पेशियों द्वारा गति करता है। उपतारा (आइरिस) तथा रोमाभिकाय (सीलियरी बॉडी) पेशियाँ नेत्र में जाने वाले प्रकाश की मात्रा का नियमन करती हैं।
  • हृदय की हदपेशियाँ (Cardiac muscles) – रुधिर वाहिनियों की अरेखित पेशियाँ रुधिर परिसंचरण में सहायक होती हैं।
  • आहारनाल की पेशियों में क्रमाकुंचन गतियों के कारण भोजन आगे की ओर खिसकता है एवं भोजन की लुग्दी ( chyme) बनती है।
  • डायाफ्राम एवं पसलियों के बीच स्थित अरेखित पेशियों के संकुचन और अनुशिथिलन के द्वारा श्वास क्रिया सम्पन्न होती है।
  • कंकालीय पेशियाँ अस्थियों से जुड़ी होती हैं ये प्रचलन एवं अंगों की गति से सीधे ही सम्बन्धित होती हैं। प्रचलन एवं गति इन कंकाल पेशियों या रेखित पेशियों के संकुचन एवं अनुशिथिलन के कारण होती हैं।

प्रश्न 8.
आप किस प्रकार से एक कंकाल पेशी और हद पेशी में विभेद करेंगे ?
उत्तर:
कंकाल पेशी और हृद् पेशी में अन्तर

कंकाल पेशी/रेखित पेशियाँ (Skeletal or striped muscles)हद्द् पेशियाँ (Cardiac muscles)
1. ये पेशियाँ ऐच्छिक होती हैं।1. ये पेशियाँ अनैच्छिक होती हैं।
2. इसकी कोशिकाएँ अशाखित एवं बेलनाकार होती हैं।2. इसके पेशी तन्तु शाखित होते हैं और शाखाएँ आपस में एक-दूसरे से मिलकर जाल बनाती हैं।
3. पेशी तन्तु चारों ओर से पेशी चोल (sarcolemma) नामक झिल्ली से स्तरित होता है।3. पेशीचोल (sarcolemma) स्पष्ट नहीं होता है।
4. प्रत्येक पेशी तन्तु में अनेक केन्द्रक स्थित होते हैं।4 प्रत्येक पेशी तन्तु में प्रायः एक केन्द्रक होता है।
5. इनमें गहरी व हल्की पट्टियाँ एकान्तर क्रम में व्यवस्थित होती हैं।5. इनमें अनुप्रस्थ पट्टियाँ होती हैं।
6. ये अस्थियों से जुड़ी रहती हैं, अतः इन्हें कंकाल पेशी कहते हैं।6. ये केवल हृदय की भित्तियों में मिलती हैं।
7. ये जन्तु की इच्छा से सिकुड़ती व फैलती हैं, अतः ये ऐच्छिक होती हैं।7. ये निश्चित क्रम में स्वतः फैलती एवं सिकुड़ती हैं और इच्छा पर निर्भर नहीं करतीं, अतः अनैच्छिक होती हैं।
8. क्रियाशीलता रहने पर इनमें थकान का अनुभव होता है, अतः आराम आवश्यक है।8. ये जीवनपर्यन्त निरन्तर कार्य करती हैं, फिर भी थकान का अनुभव नही होता है।

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प्रश्न 9.
निम्नलिखित जोड़ों के प्रकार बताइए-
(क) एटलस / अक्ष (एक्सिस)
(ख) अंगूठे के कार्पल / मेटाकार्पल
(ग) फैलेंजेज के बीच
(घ) फीमर / ऐसीटाबुलम
(च) कपालीय अस्थियों के बीच
(छ) श्रोणिमेखला की प्यूबिक अस्थियों के बीच ।
उत्तर:
(क) उपास्थीय जोड़ (सन्धि)
(ख) सैडल जोड़ (सन्धि)
(ग) कब्जेदार सन्धि
(घ) कंदुक खल्लिका सन्धि
(च) अचल सन्धि
(छ) अपूर्ण सन्धि ।

प्रश्न 10.
रिक्त स्थानों को उचित शब्दों से भरिए-
(क) कुछ स्तनधारियों में (कुछ को छोड़कर) …………………… प्रीवा कशेरुक होते हैं।
(ख) प्रत्येक मानव पाद में फैलेंजेज की संख्या ………………………… है।
(ग) मायोफाइब्रिल के पतले तन्तुओं में 2 ‘F’ एक्टिन और दो अन्य दूसरे प्रोटीन, जैसे …………………… और …………… होते हैं।
(घ) पेशी रेशे में कैल्सियम ………………….. में भण्डारित रहता है।
(च) ………………… और …………………. पसलियों की जोड़ियों को प्लावी पसलियाँ कहते हैं।
(छ) मनुष्य का कपाल ……………………… अस्थियों का बना होता है।
उत्तर:
उपर्युक्त रिक्त स्थानों में निम्नलिखित शब्द भरे जायेंगे-
(क) सात,
(ख) चौदह, होती
(ग) ट्रोपोनिन, ट्रोपोमायोसिन,
(घ) सार्कोप्लाज्मिक जालक
(च) 11वीं, 12वीं
(छ) आठ ।

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HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

प्रश्न 1.
गुच्छीय निस्यंद दर ( GFR) को परिभाषित कीजिए ।
उत्तर:
गुच्छीय निस्यंद दर (Glomerular Filtration Rate) – वृक्कों द्वारा प्रति मिनट निस्यंदित (filtrate) की गई मात्रा गुच्छीय निस्यंदन दर (GFR ) कहलाती है, एक स्वस्थ व्यक्ति में यह दर 125 मिली प्रति मिनट अर्थात् 180 लीटर प्रतिदिन है। निस्यंद बोमेन संपुट में स्थित केशिका गुच्छ (glomerulus) में होता है।

प्रश्न 2.
गुच्छीय निस्वंद दर ( GFR ) की स्वनियमन क्रिया विधि को समझाइए ।
उत्तर:
गुच्छीय निस्यंद दर की स्वनियमन क्रिया विधि (Autoregulatory Machanism of GFR)
गुच्छीय निस्यंद दर (GFR ) का नियमन गुच्छीय आसन्न उपकरण द्वारा एक अति सूक्ष्म क्रिया-विधि द्वारा सम्पन्न की जाती है। यह विशेष संवेदी उपकरण अभिवाही (afferent) तथा अपवाही (efferent ) धमनिकाओं के सम्पर्क स्थल पर दूरस्थ संवलित (कुण्डलित) नलिका की केशिकाओं के रूपान्तरण से बनाता है।

HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 19 उत्सर्जी उत्पाद एवं उनका निष्कासन

गुच्छीय निस्यंद दर में गिरावट इन आसन्न गुच्छ केशिकाओं (Juxta glomerular apparatus ) को रेनिन (rennin) हॉर्मोन के स्रावण से सक्रिय करती है, जो वृक्कीय रुधिर का प्रवाह बढ़ाकर गुच्छीय निस्यंद दर ( GFR ) को पुनः सामान्य कर देती है। जक्सटा ग्लोमेरुलर उपकरण से स्रावित हॉर्मोन केशिका गुच्छ (ग्लोमेरुलस) में रुधिर की आपूर्ति और परानिस्यंदन की दर को शरीर की आवश्यकतानुसार घटाती बढ़ाती रहती है, अर्थात् इनका पुनर्निवेशन नियन्त्रण ( feed back control) करती है। इसे स्वनियमन क्रिया कहते हैं ।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित कथनों को सही अथवा गलत में चिन्हित कीजिए-
(अ) मूत्रण प्रतिवर्ती क्रिया द्वारा होता है।
(ब) ए. डी. एच. मूत्र को अल्पपरासरणी बनाते हुए जल के निष्कासन में सहायक होता है।
(स) बोमेन संपुट में रक्त प्लाज्मा से प्रोटीन रहित तरल निस्यंदित होता है।
(द) हेनले लूप मूत्र के सान्द्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(य) समीपस्थ संवलित नलिका (PCT) में ग्लूकोस सक्रिय रूप से पुनः अवशोषित होता है।
उत्तर:
(अ) सही
(ब) गलत
(स) सही
(द) सही
(य) सही।

प्रश्न 4.
प्रतिधारा क्रिया – विधि का संक्षेप में वर्णन कीजिए ।
उत्तर:
प्रतिधारा क्रिया-विधि ( Counter Current System) – जब किसी कारणवश शरीर में जल की कमी हो जाती है, तो वृक्क अधिक गाढ़े (सान्द्र) और कम मात्रा में मूत्र का उत्सर्जन करते हैं और शरीर से जल हानि को रोकते हैं। ऐसे मूत्र में जल की मात्रा बहुत कम और उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा बहुत अधिक होती है। ऐसा मूत्र रक्त की अपेक्षा 4-5 गुना अधिक गाढ़ा हो सकता है।

इसकी परासरणीयता 1200 से 1400 मिली ऑस्मोल प्रति लीटर हो सकती है। मूत्र के सान्द्रण की प्रक्रिया में जक्सटामेड्यूलरी वृक्क नलिकाओं (juxta medullary nephrons) की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वृक्क में उपस्थित वृक्क नलिकाओं में अधिकांश का हेनले लूप छोटा होता है किन्तु इनमें से लगभग 30% नलिकाओं का हेनले लूप अपेक्षाकृत अधिक लम्बा और वृक्क की पेल्विस तक फैला होता है।

मूत्र के सान्द्रण की प्रक्रिया वेसोप्रेसिन या ADH के नियंत्रण में तथा पिरैमिड्स के ऊतक द्रव्य में वल्कुट (cortex) भाग से पेल्विस तक क्रमिक उच्च परासरणीयता बनाए रखने पर निर्भर करती है। वृक्कों के वल्कुट (cortex) भाग में ऊतक तरल की परासरणीयता 300 मिली ऑस्मोल  लीटर जल होती है। मध्यांश (medulla) भाग के पिरेमिड्स में यह परासरणीयता क्रमशः बढ़कर पेल्विस तक 1200 से 1400 मिली ऑस्मोल/लीटर जल हो जाती है।

ऊतक द्रव की परासरणीयता (प्रवणता ) ‘सोडियम क्लोराइड तथा यूरिया के कारण बनती है। सोडियम एवं क्लोराइड आयन्स (Na+, CIT) का परिवहन हेनले लूप की आरोही भुजा द्वारा होता है जिसका हेनले लूप की अवरोही भुजा के साथ विनिमय किया जाता है। सोडियम क्लोराइड (NaCl) ऊतक द्रव्य को वासा रेक्टा (vasa recta ) की आरोही भुजा द्वारा लौटा दिया जाता है।

इसी प्रकार यूरिया की कुछ मात्रा हेनले लूप के पतले आरोही भाग में विसरण द्वारा प्रविष्ट होती है, जो संग्रह नलिका द्वारा उत्तक द्रव्य को पुनः लौटा दी जाती है। हेनले लूप तथा वासा रेक्टा द्वारा इन पदार्थों के परिवहन को प्रतिधारा क्रिया द्वारा सुगम बनाया जाता है जिसे प्रतिधारा क्रियाविधि कहते हैं।

इससे मध्यांश के ऊतक द्रव्य की प्रवणता बनी रहती है। यह प्रवणता संग्रह नलिका द्वारा जल के सहज अवशोषण में सहयोग करती है और निस्यंद का सान्द्रण करती है। हमारे वृक्क प्रारंभिक निस्यंद की अपेक्षा लगभग 4 गुना अधिक सान्द्र मूत्र विसर्जित करते हैं । यह निश्चय ही जल की हानि को रोकने की मुख्य क्रिया-विधि है ।
img 1

प्रश्न 5.
उत्सर्जन में यकृत, फुफ्फुस तथा त्वचा का महत्त्व बताइए ।
उत्तर:
वृक्कों (गुर्दों) के अतिरिक्त यकृत, फुफ्फुस (फेफड़े), और त्वचा भी उत्सर्जी अपशिष्टों को बाहर निकालने में सहायता करते हैं। ये सहायक उत्सर्जी अंगों की भाँति कार्य करते हैं ।
(1) यकृत (Liver) – यकृत अमोनिया को यूरिया में परिवर्तित कर देता है जो रुधिर में मिलकर वृक्क नलिकाओं में छनकर मूत्र के साथ शरीर के बाहर निकल जाता है। इसके अतिरिक्त यकृत कोलेस्ट्रॉल एवं हीमोग्लोबिन के अपघटन से बने पदार्थ विलिरुबिन व बिलिवर्डिन आदि तथा कुछ औषधियों के अपघटित पदार्थों को अन्ततः मल के साथ बाहर निकालने में सहायक है।

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(2) फुफ्फुस (फेफड़े Lungs) – ये श्वासोच्छ्वास के साथ प्रतिदिन भारी मात्रा में CO2 (18L/day) और कुछ मात्रा में जलवाष्प को उत्सर्जन करते हैं। (3) त्वचा (Skin) – त्वचा में उपस्थित स्वेद ग्रन्थियाँ तथा तैल ग्रन्थियाँ भी स्राव द्वारा कुछ पदार्थों का निष्कासन करती हैं। त्वचा से पसीने के साथ लवण (नमक) तथा कुछ मात्रा में यूरिया व लैक्टिक अम्ल आदि भी शरीर से बाहर निकल जाते हैं। तैल ग्रन्थियाँ के सीबम द्वारा कुछ स्टेरॉल, हाइड्रोकार्बन एवं मोम, वसा अम्ल व कोलेस्टॉल जैसे पदार्थों को शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। ये स्राव त्वचा को सुरक्षात्मक तैलीय कवच प्रदान करते हैं।

प्रश्न 6.
मूत्रण की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मूत्रण (Micturition)
वृक्कों द्वारा निर्मित मूत्र अन्त में मूत्राशय (Urinary bladder) में आकर एकत्र होता रहता है। सामान्यतः मूत्रमार्ग एवं अन्तःसूत्रीय एवं बाह्यमूत्रीय संकोचक पेशियों के संकुचन के कारण बन्द रहता है। केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र द्वारा ऐच्छिक संकेत दिये जाने तक मूत्राशय में मूत्र संचित रहता है। मूत्राशय में मूत्र भर जाने पर उसके फैलने के फलस्वरूप यह संकेत उत्पन्न होता है।

मूत्राशय भित्ति से इन आवेगों को केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में भेजा जाता है। केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र से मूत्राशय की चिकनी या अरेखित पेशियों के संकुचन तथा मूत्राशयी अवरोधनी पेशियों के शिथिलन हेतु एक प्रेरक संदेश जाता है, जिससे मूत्र का उत्सर्जन होता है। मूत्र विसर्जन की यह क्रिया मूत्रण कहलाती है। इसे संपन्न करने वाली तंत्रिका क्रिया – विधि मूत्रण प्रतिवर्त कहलाती है। मूत्रण वास्तव में अनैच्छिक एवं ऐच्छिक प्रतिक्रियाओं के सहप्रभाव से होता है। ऐच्छिक नियंत्रण के कारण हम इच्छानुसार मूत्र का त्याग करते हैं ।

प्रश्न 7.
स्तंभ I के बिन्दुओं का स्तंभ II से मिलान कीजिए।

स्तम्भ 1स्ताम्भ II
(i) अमोनियोत्सर्जन(अ) पक्षी
(ii) बोमेन सम्पुट(ब) जल का पुनः अवशोषण
(iii) मूत्रण(स) अस्थिल मछलियाँ
(iv) यूरिक अम्ल उत्सर्जन(द) मूत्राशय

उत्तर:

स्तम्भ 1स्तम्भ II
(i) अमोनियोत्सर्जन(स) अस्थिल मछलियाँ
(ii) बोमेन सम्पुट(य) वृक्क नलिका
(iii) मूत्रण(द) मूत्राशय
(iv) यूरिक अम्ल उत्सर्जन(अ) पक्षी

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प्रश्न 8.
परासरण नियमन का अर्थ बताइए ।
उत्तर:
परासरण नियमन (Osmoregulation)
हॉर्मोन्स की सहायता से रुधिर तथा ऊतक द्रव्य (tissue fluid) में जल एवं लवणों की उपयुक्त मात्रा बनाए रखकर वृक्क रुधिर दाब और ऊतक द्रव्यों की परासरणीयता का नियंत्रण करते हैं। इसे परासरण नियमन या परासरण नियंत्रण कहते हैं। वृक्क शरीर से हानिकारक पदार्थों को मूत्र के रूप में निरन्तर बाहर निकालते रहते हैं। इसके अलावा ऊतक द्रव्य में लवणों एवं जल की मात्रा का नियंत्रण भी करते हैं। शरीर में जल की मात्रा बढ़ जाने पर शरीर के ऊतक द्रव्य की परासरणीयता कम हो जाती है तथा मूत्र पतला (तनु) हो जाता है और उसकी मात्रा बढ़ जाती है।

शरीर में जल की कमी होने पर अर्थात् शरीर में ऊतक द्रव्य की परासरणीयता बढ़ जाने पर मूत्र गाढ़ा (सान्द्र) हो जाता है और उसकी मात्रा कम हो जाती है। मूत्र की मात्रा का नियंत्रण मुख्यतः ऐल्डोस्टेरॉन तथा एण्टीडाइयूरेटिक ( ADH) हॉर्मोन द्वारा होता है। ऐल्डोस्टेरॉन सोडियम (Nat) के पुनरावशोषण को बढ़ाता है, जिससे अन्त:वातावरण में Na+ की उपयुक्त मात्रा बनी रहे। एण्टीडाइयूरेटिक ( ADH) या वेसोप्रेसिन हॉर्मोन मूत्र के पतलेपन (तनुकरण) या गाढ़ापन (सान्द्रण) का प्रमुख नियंत्रक होता है। परासरण नियमन प्रक्रिया द्वारा जीव के शरीर में परासरणीयता को नियंत्रित रखा जाता है।

प्रश्न 9.
स्थलीय प्राणी सामान्यतया यूरिया उत्सर्जी या यूरिक अम्ल उत्सर्जी होते हैं तथा अमोनिया उत्सर्जी नहीं होते हैं क्यों ?
उत्तर:
प्राणियों के शरीर में प्रोटीन के पाचन के परिणामस्वरूप अमीनो अम्ल बनते हैं। वे आवश्यकता से अधिक अमीन अम्लों का विअमोनीकरण (deamination) करते हैं। इससे कीटो समूह एवं अमीनो समूह से अमोनिया प्राप्त होती है। कीटो समूह का उपयोग अपचय (catabolism) के अन्तर्गत ऊर्जा उत्पादन में हो जाता है।

जलीय प्राणी अमोनिया को जल में उत्सर्जित कर देते हैं जो जल में घुलनशील एवं विषैली होती है। इनको अमोनिया उत्सर्जित करने के लिए अधिक जल की आवश्यकता होती है। इसीलिए अमोनिया जलीय प्राणियों का प्रमुख उत्सर्जी पदार्थ है। अमोनिया उत्सर्जी स्थलीय प्राणियों में अमोनिया को यकृत द्वारा यूरिया में परिवर्तित कर दिया जाता है।

यूरिया जल में घुलनशील और अमोनिया की अपेक्षा बहुत कम विषाक्त या हानिकारक होता है। अतः अधिकांश स्थलीय प्राणी यूरिया उत्सर्जी होते हैं। उदाहरणार्थ अनेक उभयचर (एम्फीबियन्स) तथा स्तनधारी प्राणी । शुष्क परिस्थितियों में रहने वाले प्राणी, जैसे- सरीसृप तथा पक्षी वर्ग के सदस्यों में जल की कमी बनी रहती है। जल का संचय करने के लिए ये प्राणी यूरिया को यूरिक अम्ल के रूप में उत्सर्जित करते हैं। यूरिक अम्ल जल में घुलनशील होता है और यह विषैला नहीं होता है। इसे मल के साथ त्याग दिया जाता है। सरीसृप, पक्षी व कीट आदि यूरिक अम्ल उत्सर्जी (यूरिकोटेलिक; uricotelic) प्राणी होते हैं ।

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प्रश्न 10.
वृक्क के कार्य में जक्स्टा गुच्छ उपकरण (JGA) का क्या महत्व है ?
उत्तर:
वृक्क के कार्य में जक्स्टा गुच्छ उपकरण का महत्व (Importance of Juxta Glomerular Apparatus in Kidney Function)
जक्स्टा गुच्छ उपकरण (JGA) की उत्सर्जन में जटिल नियमनकारी भूमिका है। JGA की विशिष्ट कोशिकाएँ केशिका गुच्छ (ग्लोमेरुलस) निस्यंदन का स्वनियमन स्वयं वृक्क द्वारा उत्पन्न दाबक क्रिया-विधि की उपस्थिति के कारण होती है। गुच्छीय रक्त प्रवाह गुच्छीय रक्त दाब GFR में गिरावट से JGA कोशिकाएँ सक्रिय होकर रेनिन (rennin) को मुक्त करती हैं।

रेनिन रक्त में उपस्थित एन्जिओटेन्सिनोजन को एन्जियोटेन्सिन – I और बाद में एन्जियोटेन्सिन- II में बदलता है । एन्जियोटेन्सिन- II एक प्रभावकारी वाहिका संकीर्णन (वेसोकन्सट्रिक्टर) का कार्य करता है, जो गुच्छीय रुधिर दाब तथा GFR को बढ़ा देता है। एन्जियोटेन्सिन-II अधिवृक्क वल्कुट ( adrenal cortex) को एल्डोस्टीरोन (aldosteron) हॉर्मोन स्रावण के लिए प्रेरित करता है। एल्डोस्टीनरोन के कारण नलिका के दूरस्थ भाग में Na+ तथा जल का पुनरावशोषण होता है। इससे भी रक्त दाब तथा GFR में वृद्धि होती है। यह जटिल प्रक्रिया रेनिन एन्जियोटेन्सिन क्रियाविधि (renninangiotensin mechanism) कहलाती है।

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प्रश्न 11.
निम्न के नाम का उल्लेख कीजिए-
(अ) एक कशेरुकी जिसमें ज्वाला कोशिकाओं द्वारा उत्सर्जन होता है।
(ब) मनुष्य के वृक्क के वल्कुट के भाग जो मध्यांश के पिरामिड के बीच धँसे रहते हैं।
(स) हेनले लूप के समानान्तर उपस्थित केशिका का लूप।
उत्तर:
(अ) एम्फिऑक्सस में ज्वाला कोशिकाएँ पाई जाती हैं।
(ब) वृक्क के में बर्टिनी के वृक्क स्तम्भ धँसे रहते हैं।
(स) वासा – रेक्टा हेनले लूप के समानान्तर होती है ।

प्रश्न 12.
रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-
(अ) हेनले लूप की आरोही भुजा जल के लिए ……………….. जबकि अवरोही भुजा इसके लिए …………………… है।
(ब) वृक्क नलिका के दूरस्थ भाग द्वारा जल का पुनरावशोषण …………………… हॉर्मोन द्वारा होता है।
(स) अपोहन द्रव में ……………….. पदार्थ के अलावा रक्त प्लाज्मा के अन्य सभी पदार्थ उपस्थित होते हैं।
(द) एक स्वस्थ वयस्क मनुष्य द्वारा औसतन …………………. माम यूरिया का प्रतिदिन उत्सर्जन होता है।
उत्तर:
उपर्युक्त स्थानों में निम्नलिखित शब्द भरे जायेंगे-
(अ) अपारगम्य, पारगम्य
(स) नाइट्रोजनी अपशिष्ट
(ब) ADH या वैसोप्रेसिन
(द) 25-30

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HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण

प्रश्न 1.
रक्त के संगठित पदार्थों के अवयवों का वर्णन करें तथा प्रत्येक अवयव के एक प्रमुख कार्य के बारे में लिखें। रक्त के संगठित पदार्थों के अवयव
उत्तर:
रक्त एक तरल संयोजी ऊतक (fluid connective tissue) है। यह हल्के या गहरे लाल रंग का अपारदर्शी, गाढ़ा, क्षारीय व नमकीन होता है। इसमें द्रव्य आधात्री (मैट्रिक्स), प्लाज्मा (Plasma) तथा अन्य संगठित रचनाएँ पाई जाती हैं, संरचना के आधार पर रक्त को दो भागों में विभक्त किया गया है-
(क) प्लाज्मा (Plasma) प्लाज्मा हल्के पीले रंग का गाढ़ा तरल पदार्थ होता है, जो रक्त के आयतन का लगभग 55 – 60% भाग होता है। इसमें 90-92% जल तथा 6-8% प्रोटीन पदार्थ होते हैं। फाइब्रिनोजन (Fibrinogen) ग्लोबुलिन (Globulin) तथा एल्यूमिन (Albumin) प्लाज्मा में उपस्थित मुख्य प्रोटीन हैं।

फाइब्रिनोजन की आवश्यकता रक्त का थक्का बनाने या स्कंदन में होती है। ग्लोबुलिन का उपयोग शरीर में प्रतिरक्षा तंत्र तथा एल्बूमिन का उपयोग परासरणी संतुलन के लिए होता है। प्लाज्मा में अनेक खनिज आयन जैसे – Na+ Ca++ Mg++ HCO3 CI आदि भी पाये जाते हैं। शरीर में संक्रमण की अवस्था में होने के कारण ग्लूकोज, अमीनो अम्ल तथा लिपिड भी प्लाज्मा में पाये जाते हैं। रुधिर का थक्का बनाने या स्कंदन के अनेक कारक प्रद्रव्य के साथ निष्क्रिय दशा में रहते हैं । बिना थक्का  स्कंदन कारकों के प्लाज्मा को सीरम कहते हैं।

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(ख) संग्रहित पदार्थ – रुधिर कणिकाएँ या रक्ताणु (Blood Corpuscles) लाल रुधिर कणिकाएँ (RBCs), श्वेत रुधिर कणिकाएँ (WBCs) तथा रुधिर पट्टिकाणु (प्लेटलेट्स) को संयुक्त रूप से संगठित पदार्थ कहते हैं। ये रक्त का लगभग 45% भाग बनाते हैं।

(1) लाल रुधिर कणिकाएँ (Red Blood Corpuscles) या इरिथ्रोसाइट्स (Erythrocytes) या लाल रक्ताणु (RBCs) – ये अन्य सभी कोशिकाओं से संख्या में अधिक होती हैं। एक स्वस्थ मनुष्य के रक्त में कणिकाएँ लगभग 50 से 55 लाख प्रति घन मिमी होती हैं। वयस्क अवस्था में ये कणिकाएँ लाल अस्थि मज्जा में बनती हैं।

इनमें केन्द्रक नहीं होता है। इनकी आकृति उभयावतल (biconcave) होती है। इनका लाल रंग एक लौह युक्त जटिल प्रोटी हीमोग्लोबिन (haemoglobin) की उपस्थिति के कारण होता है। एक स्वस्थ मनुष्य में प्रति 100 ml रक्त में 12-16 ग्राम हीमोग्लोबिन पाया जाता है। लाल रक्त कणिकाएँ (R.B.C.) फेफड़ों से ऊतकों तक ऑक्सीजन परिवहन का कार्य करती हैं। R. B. C. की औसत आयु 120 दिन होती है । इसके बाद इनका विनाश प्लीहा (spleen) में होता है, जिसे लाल रक्त कणिकाओं का कब्रिस्तान कहते हैं

(2) श्वेत रुधिर कणिकाएँ (White Blood Corpuscles) या ल्यूकोसाइट्स (Leucocytes) या श्वेत रक्ताणु (WBCs) – ये अनियमिताकार, केन्द्रक युक्त, रंगहीन व अमीबीय कोशिकाएँ होती हैं। इनको हीमोग्लोबिन के अभाव के कारण तथा रंगहीन होने से श्वेत रुधिर कणिकाएँ (WBCs) कहते हैं। इनमें केन्द्रक उपस्थित होता है तथा इनकी संख्या लाल कणिकाओं की अपेक्षा कम औसतन 6000-8000 प्रति घन मिमी रक्त होती है। सामान्यतः ये कम समय तक जीवित रहती हैं। इनका जीवन काल 47 दिनों का होता है। इनको दो मुख्य श्रेणियों में बाँटा गया है-
(अ) कणिकामय श्वेत रुधिराणु (Granulocytes)
(ब) कणिका रहित श्वेत रुधिराणु (Agranulocytes) ।
(अ) कणिकामय श्वेत रुधिराणु (प्रेन्यूलोसाइट्स) (Granulocytes) – केन्द्रक संरचना के आधार पर ये तीन प्रकार की होती हैं-
(i) न्यूट्रोफिल्स (Neutrophils) – इनका केन्द्रक 2 से 5 भागों में बँटा होता है। ये परस्पर सूत्र के द्वारा जुड़े रहते हैं। इनकी संख्या W. B.C. में सबसे अधिक (लगभग 60-65%) होती है। इनका प्रमुख कार्य रोगाणुओं को नष्ट करना है। अतः ये भक्षकाणु का कार्य करते हैं।

(ii) इओसिनोफिल्स (Eosinophils) – इनका केन्द्रक दो स्पष्ट पिण्डों में बँटा होता है। ये दोनों पिण्ड परस्पर तन्तु द्वारा जुड़े होते हैं। ये श्वेताणुओं का 2.5% भाग बनाती है। ये एलर्जी (allergy), परजीवी संक्रमण से प्रतिरक्षण (immunity) एवं अति संवेदनशीलता का महत्वपूर्ण कार्य करती हैं।

(iii) बेसोफिल्स (Basophils) – इनका केन्द्रक बड़ा तथा 2-3 पिण्डों में बँटा होता है। ये संख्या में सबसे कम (लगभग 0.5-1%) होते हैं । ये हिस्टामिन, हिपैरिन और सिरोटोनिन आदि का स्राव करती हैं तथा शोथकारी क्रियाओं में सम्मिलित होती हैं।

(ब) कणिका रहित श्वेत रुधिराणु (एप्रेन्यूलोसाइट्स) (Agranulocytes) – इनका कोशिकाद्रव्य कणिकारहित होता है तथा केन्द्रक अपेक्षाकृत बड़ा व घोड़े की नाल के आकार का होता है। ये दो प्रकार की होती हैं-

(i) लिम्फोसाइट्स (Lymphocytes) – ये कुल श्वेताणुओं की संख्या का लगभग 20-25% भाग बनाती हैं। ये छोटे आकार के श्वेत रक्ताणु हैं। इनका मुख्य कार्य प्रतिरक्षी या एन्टीबॉडीज (antibodies) का निर्माण करके शरीर की सुरक्षा करना है। ये दो प्रकार की होती हैं – बी. और टी. ।

(ii) मोनोसाइट्स (Monocytes) – ये बड़े आकार की श्वेत रक्ताणु हैं। ये शरीर में आये हुए हानिकारक जीवाणुओं एवं रोगाणुओं का तेजी से भक्षण करके शरीर की सुरक्षा करती हैं।

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(3) पट्टिकाणु या रुधिर प्लेटलैट्स (Blood Platelets) – इन रक्ताणुओं को थ्रोम्बोसाइट्स (thrombocytes) भी कहते हैं। ये अस्थि मज्जा की विशेष कोशिका मैगाकिरियो साइट के टुकड़ों में विखण्डन से बनती हैं। रक्त में इनकी संख्या 1.5 से 3.5 लाख प्रति घन मिमी होती है। ये कई प्रकार के पदार्थों का स्राव करती हैं, जो आहत भाग से बहते हुए रुधिर का थक्का स्कंदन जमाने का कार्य करते हैं। थक्का जमने से उस स्थान से रुधिर का बहना बंद हो जाता है। इनका जीवनकाल 8-10 दिन होता है।

प्रश्न 2.
प्लाज्मा (Plasma) प्रोटीन का क्या महत्व है ?
उत्तर:
प्लाज्मा प्रोटीन का महत्व (Importance of Plasma Protein)
रुधिर प्लाज्मा में लगभग 7-8% प्लाज्मा प्रोटीन उपस्थित होती है। इसमें एल्बूमिन्स (albumins), ग्लोबुलिन (globulin ), प्रोथ्रोम्बिन (prothrombin) तथा फाइब्रिनोजन (fibrinogen) मुख्य रूप से होती हैं। इनका निर्माण यकृत में होता है। रुधिर प्रोटीन्स गोलाकार और घुलनशील होती हैं। ये कोलॉयड्स के रूप में पाई जाती हैं-
इन प्रोटीनों का महत्व निम्न प्रकार है-
1. ये रुधिर प्लाज्मा को गाढ़ा करती है तथा रुधिर के परासरणी दाब का नियंत्रण करती हैं।
2. प्रोथ्रोम्बन तथा फाइब्रिनोजन प्रोटीन रुधिर का थक्का / स्कंदन जमाने में भाग लेती हैं।
3. ऐल्बुमिन्स प्लाज्मा प्रोटीन का लगभग 55% भाग होती है। ये प्लाज्मा के परासरणी दाब को बनाये रखने तथा अन्य पदार्थों के संवहन में सहायक होती है।
4. ग्लोबुलिन परासरणी दाब बनाये रखती है और विभिन्न पदार्थों के संवहन का कार्य करती है।
5. ग्लोबुलिन्स प्रतिरक्षी संक्रमण से शरीर को सुरक्षित रखती है। इसलिए इनको प्रतिरक्षी प्रोटीन्स भी कहते हैं।
6. प्रोटीन शरीर के ताप का नियमन में भी सहायक होती है तथा रुधिर के pH मान को बनाये रखती है।
7. कुछ प्रोटीन्स एन्जाइम्स की भाँति कार्य करती हैं।

प्रश्न 3.
स्तम्भ I का स्तम्भ II से मिलान कीजिए-

स्तम्भ ।सम्भ II
(i) इयोसिनोफिल्स(क) रक्त जमाव (स्कंदन)
(ii) लाल रुधिर कणिकाएँ(ख) सर्व आदाता
(iii) AB रक्त समूह(ग) संक्रमण प्रतिरोधन
(iv) पहिकाणु प्लेटलैट्स(घ) हदय संकुचन

उत्तर:

स्तम्भ ।स्तक्म II
(i) इयोसिनोफिल्स(ग) संक्रमण प्रतिरोधन
(ii) लाल रुधिर कणिकाएँ(ङ) गैस परिवहन (अभिगमन)
(iii) AB रक्त समूह(ख) सर्व आदाता
(iv) पहिकाणु प्लेटलैट्स(क) रक्त जमाव (स्कंदन)

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प्रश्न 4.
रक्त को एक संयोजी ऊतक क्यों मानते हैं ?
उत्तर:
रक्त : एक संयोजी ऊतक (Blood: A Connective Tissue)
रक्त एवं लसीका तरल संयोजी ऊतक कहलाते हैं। इनका पूरे शरीर में परिसंचरण होता रहता है। रक्त को इसलिए तरल संयोजी ऊतक माना जाता है, क्योंकि-
1. इसमें आधारभूत पदार्थ – मैट्रिक्स तरल प्लाज्मा होता है ।
2. प्लाज्मा में तन्तु मौजूद नहीं होते हैं।
3. प्लाज्मा में रुधिर कणिकाएँ (blood carpuscles) पाई जाती हैं।
4. रुधिर कणिकाएँ प्लाज्मा का स्रावण नहीं करती हैं।

प्रश्न 5.
लसीका और रुधिर में अन्तर बताइए।
उत्तर:
लसीका और रुधिर में अन्तर

लसीका (Lymph)रुधिर (Blood)
1. यह रंगहीन होता है।1. सामान्यत: यह लाल रंग का होता है।
2. इसमें लाल रुधर कणिकाएँ नहीं होती हैं।2. इसमें लाल रुधिर कणिकाएँ होती हैं।
3. इसमें श्वेत रुधिर कणिकाएँ अधिक होती हैं।3. इसमें श्वेत रुधिर कणिकाएँ कम होती हैं।
4. इसमें प्रोटीन की मात्रा कम होती है।4. इसमें प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है।
5. इसमें पोषक पदार्थ तथा ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है।5. इसमें पोषक पदार्थ तथा ऑक्सीजन की मात्रा अधिक होती है।
6. लसीका छना हुआ रुधिर है।6. रुधिर सामान्य तरल संयोजी ऊतक है।
7. CO2 व उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा बहुत अधिक होती है।7. CO2 व उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा बहुत कम होती है।

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प्रश्न 6.
दोहरे परिसंचरण से क्या तात्पर्य है? इसकी क्या महत्ता है ?
उत्तर:
दोहरा रक्त परिसंचरण (Double Blood Circulation)
स्तनियों का हृदय स्पष्टतः दो अलिन्दों तथा दो निलयों में विभाजित होता है इसलिए इनके हृदय में परिसंचरण के समय शुद्ध एवं अशुद्ध रक्त एक-दूसरे पूर्णतः पृथक् रहता है- स्तनियों में शुद्ध रक्त ग्रीवा – दैहिक ताप (कैरोटिको सिस्टोमिक महाधमनी चाप) द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों को वितरित किया जाता है।
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फिर इन अंगों से अशुद्ध रक्त को अग्र एवं पश्च महाशिराओं द्वारा हृदय के दाहिने अलिन्द में पहुँचा दिया जाता है। फिर यह रक्त दाहिने निलय एवं फुफ्फुसीय चाप (पल्मोनरी चाप ) द्वारा फेफड़ों में शुद्धीकरण हेतु भेजा जाता है। गैसीय विनिमय के बाद शुद्ध रक्त को फुफ्फुसीय शिराओं (पल्मोनरी शिराओं) द्वारा बायें अलिन्द में लाया जाता है तथा बायें निलय के माध्यम से इसे ग्रीवा – दैहिक चाप में प्रवाहित कर दिया जाता है। इस प्रकार एक पूर्ण परिसंचरण पथ में रक्त हृदय में दो बार गुजरता है।

परिसंचरण की ऐसी अवस्था को दोहरा परिसंचरण (double circulation) कहते हैं । विभिन्न शारीरिक अंगों एवं हृदय के बीच परिसंचरण को दैहिक परिसंचरण (systemic circulation) कहते हैं, जबकि हृदय एवं फेफड़ों के बीच होने वाले परिसंचरण को फुफ्फुसीय परिसंचरण (pulmonary circulation) कहते हैं।
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दोहरे रक्त परिसंचरण का महत्व (Significance of Double Blood Circulation)
समस्त स्तनियों की धमनियों में प्रवाहित होने वाला रुधिर शिराओं में प्रवाहित होने वाले रुधिर से सदैव पृथक् रहता है। ऐसा निलय के पूर्ण विभाजन के कारण सम्भव होता है। इस व्यवस्था दो प्रमुख लाभ हैं-
(1) शुद्ध (oxygenated) तथा अशुद्ध ( deoxygenated) रुधिर कभी आपस में मिश्रित ( mixed ) नहीं हो पाते हैं।
(2) इस व्यवस्था के रहते हुए हृदय की प्राकुंचन ( Systole ) प्रावस्था में धमनियों द्वारा विभिन्न अंगों तक शुद्ध रुधिर का वितरण तथा प्रसारण ( diastole ) प्रावस्था में शरीर के विभिन्न अंगों से शिराओं द्वारा हृदय तक अशुद्ध रुधिर का पहुँचना सुगमतापूर्वक सम्भव हो जाता है।

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प्रश्न 7.
भेद स्पष्ट कीजिए-
(क) रक्त एवं लसीका
(ग) प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन
(ख) खुला व बंद परिसंचरण तंत्र
(घ) P तरंग एवं T तरंग।
उत्तर:
(क) रक्त एवं लसीका में भेद
नोट- अभ्यास प्रश्न 5 का उत्तर देखिये ।

(ख) खुला व बंद परिसंचरण तंत्र में भेद

खुला परिसंचरण तंत्र (Open Círculatory System)बंद परिसंचरण तंत्र (Closed Circulatory System)
1.इस तन्त्र में हृदय द्वारा धमनियों में रक्त पंप किया जाता है जो बड़ी गुहाओं या रुधर कोटरों में खुलती हैं।1. इस तन्त्र में हृदय रुधिर को उच्च दाब पर धमनियों में पम्प करता है, जो रुधि केशिकाओं में विभाजित होती हैं।
2. रुधिर ऊतकों के मध्य निम्न दाब पर बहता है तथा धीर-धीरे खुले सिरों वाली शिराओं में प्रवेश करता है।2. रुधिर एवं अन्तराली तरल के मध्य पदार्थों का अभिगमन कोशिका भित्तियों द्वारा होता है।
3. रुधिर वाहिकाओं में बंद नहीं रहता, वाहिकाओं से बाहर आ जाता है।3. रुधिर पूरी तरह वाहिकाओं के अन्दर बन्द रहता है।
4. शरीर के विभिन्न अंग रुधि के सीधे संपर्क में रहते हैं।4. शरीर के अंग रुधिर के सीधे संपर्क में नहीं रहते हैं।
5. रुधिर प्रवाह की गति बहुत धीमी होती है।5. रुधिर उच्च दबाव व तेज गति से प्रवाहित होता है।
6. यह कम प्रभावी होता है।6. यह अधिक प्रभावी होता है।
उदाहरण-कॉकरोच आदि कीटों में व मॉलस्कस में खुला परिसंचरण तंत्र पाया जाता है।उदाहरण-मनुष्य आदि स्तनियों, पक्षियों व केंचुए में बंद परिसंचरण तंत्र पाया जाता है।

(ग) प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन में भेद

प्रकुंचन (Systole)अनुशिथिलन (Diastole)
1. इसमें हृदय पेशियों में क्रमिक संकुचन (contraction) होता है।इसमें हृदय पेशियों में क्रमिक अनुशिथिलन (relaxation) होता है।
2. प्रकुंचन के परिणामस्वरूप रुधिर हुदय से बाहर पंप हो जाता है।अनुशिधिलन के परिणामस्वरूप हृदय कक्ष अपने वास्तविक आकार में आ जाते हैं और इनमें पुन: रुधिर भरने लगता है।

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(घ) P तरंग तथा T तरंग में भेद

P तरंग (P-wave)T तरंग (T-wave)
1. अलिन्द (auricle) के उद्दीपन/विध्रुवण $P$ तरंग के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिससे दोनों अलिन्दों में संकुचन होता है।निलय (ventricle) की उत्तेजना से सामान्य स्थिति में वापस आने की स्थिति को T तरंग से प्रस्तुत करते हैं।
2. यह शिरा अलिन्द गाँठ (S.A. node) के कारण होती है।T तरंग का अन्त प्रकुंचन अवस्था के समापन का प्रतीक है।

प्रश्न 8.
कशेरुकियों के हृदयों में विकासीय परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कशेरुकियों के हृदयों में विकासीय परिवर्तन (Evolutionary Changes in the Hearts of Vertebrates)
कशेरुकी जन्तुओं के हृदय का निर्माण भ्रूण के मध्य स्तर मीसोडर्म (mesoderm) से होता है। भ्रूणावस्था में आद्यांत्र (आरकेन्ट्रॉन – archenteron) के नीचे आधारीय आंत्र योजनी (मीसेन्ट्री – mesentry) में दो अनुदैर्ध्य अन्तःस्तरी नलिकाएँ (endothelial canals) आपस में मिलकर हृदय बनाती हैं। हृदय एक पेशीय थैली जैसी रचना होती है। यह शरीर से रुधिर एकत्र करके धमनियों (arteries) द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पम्प करता है। कशेरुकी जन्तुओं में हृदय चार प्रकार के होते हैं-
(1) एककोष्ठीय हृदय (Single Chambered Heart) – एक कोष्ठीय सरलतम हृदय सिफेलोकॉर्डेटा (cephalochor – dates ) जन्तुओं में पाया जाता है। प्रसनी (pharynx) के नीचे स्थित अधरीय एओर्टा ( Aorta ) पेशीय होकर रुधिर को पम्प करने का कार्य करता है। इसे एककोष्ठीय हृदय कहा जाता है।

(2) द्विकोष्ठीय हृदय (Two Chambered Heart ) – ऐसा हृदय मछलियों में पाया जाता है। वह अनॉक्सीजनित रुधिर को क्लोमों (gills) में पम्प कर देता है : क्लोमों या गलफड़ों से यह रुधिर ऑक्सीजनित होकर शरीर में वितरित हो जाता है। इसमें धमनी काण्ड तथा शिराकोटर सहायक कोष्ठ तथा अलिन्द (auricle) एवं निलय (ventricle) वास्तविक कोष्ठ होते हैं। ऐसा हृदय शिरीय हृदय (venous heart) कहलाता है।

(3) तीन कोष्ठीय हृदय ( Three Chambered Heart) – जल-स्थलचर प्राणियों ( amphibians) या उभयचरों में तीन कोष्ठीय हृदय पाया जाता है इसमें दो अलिन्द और एक निलय होता है। शिरा कोटर (sinus venosus) दाहिने अलिन्द के पृष्ठ तल पर खुलता है। बाएँ अलिन्द में शुद्ध तथा दाहिने अलिन्द में अशुद्ध रुधिर रहता है । निलय पेशीय होता है। उभयचरों में धमनी काण्ड द्वारा मिश्रित रुधिर शरीर के विभिन्न अंगों में वितरित होता है। पल्मोनरी धमनी अशुद्ध रुधिर को फेफड़ों में पहुँचाती है। इसमें रुधिर परिसंचरण एक परिपथीय होता है।

(4) चार कोष्ठीय हृदय (Four Chambered Heart ) – अधिकांश सरीसृपों (reptiles) में दो अलिन्द और दो अपूर्ण रूप से विभाजित निलय होते हैं। मगरमच्छ के हृदय में दो अलिन्द एवं दो निलय होते हैं। पक्षियों एवं स्तनधारी प्राणियों में दो अलिन्द एवं दो निलय होते हैं। बाएँ अलिन्द एवं बाएँ निलय में ऑक्सीजनित शुद्ध रुधिर भरा रहता है।

इसे दैहिक चाप ( systemic arch) द्वारा शरीर में पम्प कर दिया जाता है। दायें अलिन्द में शरीर के विभिन्न भागों से अनॉक्सीजनित अशुद्ध रुधिर एकत्र होकर आता है, जिसे दाएँ निलय के द्वारा शुद्ध होने के लिए फेफड़ों में भेज दिया जाता है। इस प्रकार हृदय का बायाँ भाग पल्मोनरी हृदय (pulmonary heart) एवं दायाँ भाग सिस्टेमिक हृदय (systemic heart) कहलाता है। इन प्राणियों में दोहरा रुधिर परिसंचरण (double blood circulation) होता है। इनमें रुधिर के मिश्रित होने की सम्भावना नहीं होती है।
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प्रश्न 9.
हम अपने हृदय को पेशीजनक (मायोजेनिक ) क्यों कहते हैं ?
उत्तर:
मनुष्य का हृदय पेशीजनक (मायोजेनिक ) होता है हृदय की भित्ति हृदयी पेशियों (cardiac muscles) से बनी होती है। ये पेशियाँ रचना में रेखित पेशियों ( striped muscles) के समान होती हैं किन्तु इनका कार्य अरेखित पेशियों (unstriped muscles) के समान अनैच्छिक होता है। हृदयी पेशियाँ मनुष्य की इच्छा से स्वतन्त्र, बिना थके, बिना रुके, एक निश्चित दर (मनुष्य में 72 – 80 बार प्रति मिनट) और एक निश्चित लय (rhythm ) के साथ जीवन भर संकुचित और अनुशिथिलित होती रहती हैं।

प्रत्येक हृदय स्पंदन में संकुचन की प्रेरणा, प्रेरणा संवहनीय पेशी तन्तुओं – शिरा अलिन्द घुण्डी (Sino-atrial node -S.A. node) से प्रारम्भ होती है। S. A node से संकुचन प्रेरणा स्वतः उत्प्रेरण द्वारा उत्पन्न होकर अलिन्द निलन्द घुण्डी (auriculoventricular node = A. V. node) तथा हिस के पूल (Bundle of His) से होते हुए पुरकिंजे तन्तुओं (Purkinje fibres ) द्वारा अलिन्द और निलयों में फैल जाती है।

हृदय पेशियों में संकुचन के लिए तंत्रिकीय प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती है। पेशियों में संकुचन पेशियों के कारण होते हैं अर्थात् संकुचनं पेशीजनक मायोजेनिक (myogenic) होते हैं। यदि हृदय को आने वाली तन्त्रिकाओं को काट दिया जाये तो भी हृदय अपनी निश्चित गति से धड़कता रहता है। तंत्रिकीय प्रेरणाएँ हृदय की गति की दर को प्रभावित करती हैं। हृदय पेशियों के तन्तुओं में ऊर्जा उत्पादन के लिए पर्याप्त संख्या में माइटोकॉण्ड्रिया उपस्थित होते हैं।

प्रश्न 10.
शिरा अलिन्द पर्व (कोटरालिन्द गाँठ SAN) को हृदय का गति प्रेरक (पेस मेकर) क्यों कहा जाता है ?
उत्तर:
शिरा अलिन्द पर्व ( कोटरालिन्द गाँठ SAN) – दाहिने अलिन्द की भित्ति में अग्रमहाशिरा खुलने के छिद्र के पास एक संकुचन केन्द्र होता है। जिसे शिरा अलिन्द घुण्डी (Sino auricular node SAN) कहते हैं। यह घुण्डी हृदय की गति पर नियंत्रण रखती है। अतः इसे गति प्रेरक (पेस मेकर Pace maker) भी कहते हैं। इससे स्पंदन संकुचन प्रेरणा स्वतः उत्पन्न होती हैं।

इसके तन्तुओं में 55 से 60 मिली वोल्ट का विश्राम विभव (resting potential) होता है, जबकि हृदय पेशियों में यह 85 से 95 मिली वोल्ट और हृदय में फैले विशिष्ट चालक तन्तुओं में 90 से 100 मिली वोल्ट होता है। S.A. Node में Na आयनों के लीक होने से हृदय स्पंदन प्रारम्भ होता है। S.A. Node की लयबद्ध उत्तेजना 72 स्पंदन प्रति मिनट की एक सामान्य विराम दर आजीवन चलती रहती है।

प्रश्न 11.
अलिन्द निलय गाँठ ( AVN ) तथा अलिन्द निलय बंडल (AVB) का हृदय के कार्य में क्या महत्व है ?
उत्तर:
अलिन्द निलय गांठ ( Auriculo – Ventricular Node AVN ) शिरा अलिन्द पर्व के तन्तु अन्त में अपने चारों ओर के अलिन्द पेशी तन्तुओं के साथ मिलकर शिरा अलिन्द पर्व (SAN) तथा अलिन्द निलय गाँठ ( AVN ) के मध्य एक अन्तरापर्वीय पथ का निर्माण करते हैं। अलिन्द निलय गाँठ (AVN) अन्तरालिन्द पट के दायें भाग में हृद कोटर (coronary sinus) के छिद्र के समीप होती है।

यह दूसरा पेस मेकर होता है। अलिन्द निलय गांठ के पेशी तन्तु अलिन्द निलय बण्डल (Auriculo – Ventricular Bundle; AVB) या हिस के पूल ( bundle of His) से मिलकर निलय के दायें बायें बँट जाते हैं। इनसे रकिन्जे तन्तुओं (Purkinje fibres ) का निर्माण होता है। शिरा अलिन्द पर्व (SAN) में उत्पन्न संकुचन एवं अनुशिथिलन के उद्दीपन अलिन्द निलय गाँठ ( AVN ) एवं अलिन्द निलय बण्डल (AVB) या हिस के से होते हुए निलय में स्थित पुरकिन्जे तन्तुओं में पहुँचते हैं। इसके परिणामस्वरूप हृदय के अलिन्द (auricle) तथा निलय ( ventricle) में क्रमश: संकुचन एवं अनुशिथिलन होता रहता है। हृदय शरीर के विभिन्न भागों से रुधिर को एकत्र करके पुनः पम्प करता रहता है।

प्रश्न 12.
हद् चक्र तथा हृद् निकास को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
हृद् चक्र (Cardiac cycle ) – एक हृदय स्पन्दन के प्रारम्भ से दूसरे स्पन्दन के प्रारम्भ होने के बीच के घटना क्रम को हद् चक्र कहते हैं। इस क्रिया में दोनों अलिन्दों तथा दोनों निलयों का प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन सम्मिलित होता है। हृदय स्पन्दन एक मिनट में 72 बार होता है अर्थात् एक मिनट में कई बार हृद् चक्र होता है। अतः एक हृद् चक्र का समय 0.8 सेकण्ड होता है। हृद् निकास (Cardiac output ) – प्रत्येक हृद् चक्र में हृदय का निलय 70 मिली रक्त पम्प करता है।

इसे प्रवाह आयतन (Strock Volume) कहते । प्रवाह आयतन को हृदय दर से गुणा करने पर जो मात्रा आती है, उसे हृद् निकास कहते हैं। हृद् निकास हृदय दर x प्रवाह आयतन इस प्रकार हृद् निकास प्रत्येक निलय द्वारा रक्त की मात्रा प्रति मिनट बाहर निकालने की क्षमता है, जो एक स्वस्थ व्यक्ति में लगभग 5 हजार मिली या 5 लीटर होती है। खिलाड़ियों / धावकों का हृद् निकास सामान्य मनुष्य से अधिक होता है।

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प्रश्न 13.
हृदय ध्वनियों की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर:
हृदय ध्वनियाँ (Heart Sounds ) – स्टैथोस्कोप ( Stathoscope) नामक यंत्र को हृदय के ऊपर लगाकर सुनने पर हृदय की ध्वनियाँ एक निश्चित क्रम में सुनाई देती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं-
1. लब (Lubb) – यह हृदय की पहली ध्वनि होती है जो दोनों निलयों के संकुचन का प्रारम्भ होते समय द्विवलनी तथा त्रिवलनी (bicuspid & tricuspid) कपाटों के बन्द होने के कारण उत्पन्न होती है। इसे सिस्टोलिक ध्वनि (systolic sound) भी कहते हैं ।

2. डब (Dup) – यह हृदय की दूसरी ध्वनि होती है जो निलयों के अनुशिथिलन प्रारम्भ होने पर अर्द्धचन्द्राकार कपाटों के बन्द होने के कारण उत्पन्न होती है। यह अपेक्षाकृत हल्की ध्वनि होती है। इसे डायस्टोलिक ध्वनि ( diastolic sound) भी कहते हैं ।

प्रश्न 14.
एक मानक ईसीजी को दर्शाइए तथा उसके विभिन्न खण्डों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर:
विद्युत हृद् लेखन (इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफ) (Electrocardiography) – विद्युत हृद् लेख (इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफ – ECG) हृदय के हृदयी चक्र की विद्युत क्रियाकलापों का आरेखीय प्रस्तुतीकरण है। ECG के लिए प्रयोग किये जाने वाले उपकरण को विद्युत हद लेखी (electrocardiography) कहते हैं। इसमें कुछ विद्युत छड़ें होती हैं। हृद् चक्र में चालक तंत्र के तन्तुओं के विधुवण तथा पुनः धुवण के कारण बनी रेखा के विक्षेपों को PQ, R, S T अक्षरों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।

इन अक्षरों के बीच के भाग को मध्यावकाश (intervals) कहते हैं। ECG एक लहरदार ग्राफ के रूप में होता है। इसमें एक सीधी रेखा से तीन स्थानों पर लहरें उठी दिखाई देती हैं। P लहर QRS समिश्र तथा T लहर के रूप में होती हैं। P लहर ऊपर की ओर उठी हुई एक छोटी-सी लहर होती है। यह 0.1 सेकण्ड के अलिन्दीय संकुचन की सूचक होती है। इसके समाप्त होने के 0.1 सेकण्ड बाद QRS समिश्र की लहर प्रारम्भ होती है। ये एक दूसरी से जुड़ी हुई तीन पतली किन्तु नुकीली लहरें होती हैं।

इनमें नीचे की ओर उठी हुई छोटी-सी Q लहर इससे ऊपर की ओर उठी हुई R लहर तथा इससे जुड़ी नीचे की ओर उठी छोटी-सी 5 लहर होती है। QRS समिश्र 0.3 सेकण्ड के निलयी संकुचन के प्रारम्भ का सूचन होता है। इसके बाद निलयी संकुचन की अन्तिम प्रावस्था और इनके क्रमिक प्रसारण के प्रारम्भ की सूचक T लहर होती है। ECG के प्रदर्शित तरंगों (लहरों) तथा उनके मध्यावकाशों के स्वरूप का अध्ययन करके डॉक्टर हृद्-स्पन्दन की अनियमितताओं का पता लगाते हैं।
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HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 17 श्वसन और गैसों का विनिमय

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 17 श्वसन और गैसों का विनिमय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 17 श्वसन और गैसों का विनिमय

प्रश्न 1.
जैव क्षमता की परिभाषा दें और इसका महत्व बताएँ ।
उत्तर:
जैव क्षमता (Vital Capacity; V. C.) – जैव क्षमता से तात्पर्य वायु की वह अधिकतम मात्रा (आयतन) है जो एक व्यक्ति बलपूर्वक अंतःश्वसन के बाद निःश्वासित कर सकता है। इसमें अन्तः श्वास आरक्षित वायु (Inspiratory Reserve Air Volume; IRV) प्रवाही वायु (Tidal Air Volume; TV) एवं निःश्वास आरक्षित वायु (Expiratory Reserve Volume; ERV) का योग सम्मिलित है।
VC = IRV + TV + ERV
या 3000 + 500 + 1100 = 4600 cc /ml
जैव क्षमता आयु, लिंग, ऊँचाई एवं व्यक्ति की क्रिया के आधार पर 3.4-4.8 लीटर होती है। जिस व्यक्ति की जैव क्षमता जितनी अधिक होती है उसे शरीर की जैविक क्रियाओं के लिए उतनी ही अधिक ऊर्जा प्राप्त होती है। खिलाड़ियों, पर्वतारोहियों, तैराक आदि की जैव क्षमता अधिक होती है। युवा व्यक्ति की जैव क्षमता प्रौढ़ व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक होती है। पुरुषों की जैव क्षमता स्त्रियों की अपेक्षा अधिक होती है। यह उनकी कार्य क्षमता को प्रभावित करती है ।

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प्रश्न 2.
सामान्य निःश्वसन के उपरांत फेफड़ों में शेष वायु के आयतन को बताएँ ।
उत्तर:
वायु की वह मात्रा जो सामान्य निःश्वसन (उच्छ्वास) के उपरांत फेफड़ों में शेष रह जाती है उसे क्रियाशील अवशेष सामर्थ्य ( Functional Residual Capacity : FRC) कहते हैं। इसमें निःश्वसन सुरक्षित आयतन (Expiratory Reserve Air Volume : ERV) तथा V अवशेष वायु आयतन ( Residual Air Volume : RV) सम्मिलित होते हैं। इसकी मात्रा सामान्यतः 2300 cc/ml होती है।
FRC = ERC + RV
= 1100+ 1200
= 2300 ml.

प्रश्न 3.
गैसों का विसरण केवल कूपकीय क्षेत्र में होता है, श्वसन तंत्र के किसी अन्य भाग में नहीं, क्यों ?
उत्तर:
गैसीय विनिमय (Gaseous Exchange)
मनुष्य के फेफड़ों में लगभग 30 करोड़ वायु कोष्ठ या कूपिकाएँ (alveoli) होती हैं। कूपिकाओं की दीवारें बहुत पतली और शल्की एपिथीलियम की बनी होती हैं। ये दीवारें ऑक्सीजन (O2) तथा (CO2) दोनों के लिए पारगम्य होती हैं। इनमें रुधिर कोशिकाओं का घना जाल बिछा रहता है। श्वास नाल (trachea ) श्वसनी (bronchus) श्वसनिका (bronchiole) तथा कूपिका नलिकाओं (alveolar duct ) आदि में रुधिर केशिकाओं का जाल फैला हुआ नहीं होता है।

अतः कूपिकाओं को छोड़कर अन्य श्वसन भागों में गैसीय विनिमय नहीं होता है। सामान्यतः महण की गई 500 ml प्रवाही वायु में से लगभग 350ml वायु कूपिकाओं में पहुँचती है, शेष श्वास मार्ग में ही रह जाती है वायु कोष्ठों या कूपिकाओं की दीवार तथा रुधिर कोशिकाओं की दीवार मिलकर श्वसन कला (Respiratory membrane) बनाती हैं।

इसमें ऑक्सीजन (O2) तथा कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का विनिमय आसानी से हो जाता है। गैसीय विनिमय सामान्य विसरण क्रिया द्वारा होता है। इसमें गैसें उच्च आंशिक दाब से कम आंशिक दाब की ओर विसरित होती हैं। वायु कोष्ठों में O2 का आंशिक दाब (PO2) 100 – 104 mm Hg और CO2 का आंशिक दाब (PCO2) 40mm Hg होता है। फेफड़ों की रुधिर केशिकाओं में आए अशुद्ध रुधिर में O2 का आंशिक दाब 40 mm Hg और CO2 का आंशिक दाब 45-46 mm Hg होता है।

वायु प्रकोष्ठ का कूपिकाओं में आई हुई वायु में ऑक्सीजन की मात्रा अधिक होती है। यह ऑक्सीजन कूपिकाओं की भीतरी नम दीवारों में उपस्थित श्लेष्म में घुलकर विसरण द्वारा पल्मोनरी केशिकाओं में पहुँच जाती है। इसके बदले में रुधिर केशिकाओं में उपस्थित CO2 कूपिकाओं की वायु में विसरित हो जाता है। इस प्रकार कूपिकाओं से रुधिर केशिकाओं में रुधिर ऑक्सीजन युक्त होता है। फेफड़ों से निष्कासित वायु में O2 लगभग 15.7% और CO2 लगभग 3.6% होती है।
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प्रश्न 4.
CO2 के परिवहन ( ट्रांसपोर्ट) की मुख्य क्रियाविधि क्या है ? व्याख्या करें।
उत्तर:
CO2 का रुधिर द्वारा परिवहन (Transport of CO2 by Blood)
ऊतकों में संचित खाद्य पदार्थों के ऑक्सीकरण से उत्पन्न CO2 विसरण द्वारा रुधिर केशिकाओं में चली जाती है। रुधिर केशिकाओं द्वारा इसका परिवहन श्वसनांगों तक निम्नलिखित प्रकार से होता है-
(1) कार्बोनिक अम्ल के रूप में -CO2 जल में अधिक घुलनशील होती है। इसका 5-10% भाग प्लाज्मा के जल के साथ मिलकर कार्बोनिक अम्ल (H2CO3) बनाता है।
CO2 + H2O → H2CO3
समस्त CO2 का लगभग 10% भाग रुधिर में H2 CO3 के रूप में रहता है और शेष भाग शीघ्र ही हाइड्रोजन तथा बाइकार्बोनेट के आयनों में टूट जाता है-
H2CO3 → H2CO3 + H+

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(2) बाइकार्बोनेट के रूप में – लगभग 70-75% CO2 बाइकार्बोनेट के रूप में रुधिर प्लाज्मा के सोडियम आयन (Na+) तथा लाल कणिकाओं के पोटैशियम आयन (K+) से मिलकर सोडियम तथा पोटैशियम के बाइकार्बोनेट बनाते हैं-

HCO3 + Na+ → NaHCO2 (सोडियम बाइकार्बोनेट)
HCO2 + K+ → KHCO3 (पोटैशियम बाइकार्बोनेट)

(3) कार्बोक्सीहोमोग्लोबिन के रूप में लगभग 10% CO2 लाल रुधिर कणिकाओं के हीमोग्लोबिन से मिलकर अस्थायी यौगिक कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन बनाता है-
Hb + 4CO2 → Hb (CO2)4

(4) कार्बन एमीनो यौगिक के रूप में लगभग 10% CO2 रुधिर प्लाज्मा की प्रोटीन से संयोग करके कार्बन एमीनो यौगिक बनाती है-
प्लाज्मा + प्रोटीन + CO2 कार्बन एमीनो यौगिक (अस्थायी) कार्बोनिक अम्ल सोडियम व पोटैशियम के बाइकार्बोनेट, कार्बोक्सी हीमोग्लोबिन तथा कार्बन एमीनो यौगिक आदि पदार्थों से युक्त रुधिर अशुद्ध होता है यह अशुद्ध रुधिर केशिकाओं से शिराओं द्वारा हृदय में और फिर हृदय में फुफ्फुस धमनी द्वारा श्वसनांगों (फेफड़ों) में शुद्ध होने के लिए जाता है और रुधिर में से CO2 श्वसनांगों से मुक्त होकर बाहर निकल जाती है।

(5) अस्थायी पदार्थों से CO2 का मुक्त होना-फेफड़ों के समीप रुधिर केशिकाओं में ऑक्सीहीमोग्लोबिन की मात्रा अधिक होती है। यह अधिक अम्लीय होता है। ऑक्सीहीमोग्लोबिन के अम्लीय स्वभाव से सभी अस्थायी यौगिक टूट जाते हैं और CO, मुक्त करते हैं-
2NaHCO2– 3 → Na2CO3 + H2O + CO2
2KHCO3 → K2CO3 + H2O + CO2
H2CO3 → H2O + CO2
Hb(CO2)4 → Hb + 4CO2
इस प्रकार मुक्त हुई CO2 रुधिर केशिकाओं तथा फेफड़ों की पतली भित्तियों से विसरित होकर फेफड़ों में पहुँचती है जहाँ से CO2 को निःश्वसन की क्रिया द्वारा वातावरण में छोड़ दिया जाता है।

प्रश्न 5.
कूपिका वायु की तुलना में वायुमंडलीय वायु में, O2 तथा, CO2 कितनी होगी, मिलान कीजिए ?
(i) pO2. न्यून, pCO2 उच्च
(ii) pO2 उच्च, p CO2 न्यून
(iii) pO2 उच्च, pCO2 उच्च
(iv)pO2 न्यून, pCO2 न्यून ।
उत्तर:
(ii) pO2 उच्च, pCO2 न्यून ।
[ वायुमण्डलीय वायु में ऑक्सीजन (O2) का आंशिक दाब 159 तथा CO2 का आंशिक दाब 0.3 होता है, जबकि कूपिका वायु में O2 का आंशिक दाब 104mmHg तथा CO2 का आंशिक दाब 40 mmHg होता है ।]

प्रश्न 6.
सामान्य स्थिति में अंतःश्वसन प्रक्रिया की व्याख्या करें।
उत्तर:
सामान्य श्वसन का श्वासोच्छ्वास (Breathing) एक अनैच्छिक क्रिया है। इसमें डायाफ्राम की भूमिका 75% तथा पसलियों की भूमिका 25% होती है। अंतःश्वसन या निश्क्सन (Inspiration) मनुष्य का डायाफ्राम वक्षीय गुहा के तल पर स्थित अरीय पेशियों (Radial muscles) के एक पतले स्तर का बना होता है। इसके उपांत पीछे की ओर तथा पार्श्व में लंबर कशेरुकाओं से तथा आगे की ओर स्टर्नम से जुड़े होते हैं। डायाफ्राम विश्राम की स्थिति में गुम्बद के समान (Dome-shaped) होता है।

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जब अरीय पेशियाँ सिकुड़ती हैं तो डायाफ्राम गुम्बद के समान न रहकर अन्दर की ओर या नीचे की ओर हटता हुआ चपटा हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वक्षीय गुहा का आयतन बढ़ जाता है। इसी समय बाह्य अन्तरापर्शक पेशियाँ सिकुड़ती हैं जिससे पसलियों पर बाहर तथा आगे की ओर खिंचाव पड़ता है और स्टर्नम भी ऊपर की ओर उठ जाता है।

इसके फलस्वरूप वक्षीय गुहा का आयतन पहले की अपेक्षा बढ़ जाता है। वक्षीय गुहा का आयतन बढ़ने के साथ ही फेंफड़ों का आयतन भी बढ़ने लगता है जिससे वे फूल जाते हैं। फेफड़ों के फूलने से उनके अन्दर वायु का दाब कम हो जाता । इस दाब को समान रखने के लिए वातावरण से वायु श्वसन पथ में होती हुई स्वतः फेफड़ों में प्रवेश कर जाती है। इस प्रकार वायु के अन्दर फेफड़ों में पहुँचने की प्रक्रिया को निश्वसन (Inspiration) कहते हैं।

प्रश्न 7.
श्वसन का नियमन कैसे होता है ?
उत्तर:
श्वसन का नियमन (Regulation of Respiration)
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मनुष्य में अपने शरीर के ऊतकों की माँग के अनुरूप श्वसन की लय को संतुलित और स्थिर बनाये रखने की एक महत्वपूर्ण क्षमता है। यह नियमन तंत्रिका तंत्र द्वारा सम्पन्न होता है। मस्तिष्क के मेड्यूला क्षेत्र में एक विशिष्ट श्वसन लय केन्द्र उपस्थित होता है, जो मुख्य रूप से श्वसन के नियमन के लिए उत्तरदायी होता है। मस्तिष्क के पॉन्स क्षेत्र में एक अन्य केन्द्र स्थित होता है जिसे श्वास प्रभावी (न्यूमोटोक्सिक – pneumotoxic) केन्द्र कहते हैं। यह श्वसन लय केन्द्र के कार्यों को संयत कर सकता है।

इस केन्द्र के तंत्रिका संकेत अंतःश्वसन की अवधि को कम कर सकते हैं। और इस प्रकार श्वसन दर को परिवर्तित कर सकते हैं। लयकेन्द्र के पास एक रसोसंवेदी (Chemosensitive) केन्द्र लयकेन्द्र के लिए अतिसंवेदी होता है, जो CO2 और हाइड्रोजन आयनों के लिए अति संवेदी होता है। इन पदार्थों की वृद्धि से यह केन्द्र सक्रिय होकर श्वसन प्रक्रिया में आवश्यक समायोजन करता है, जिससे ये पदार्थ निष्कासित किये जा सकें।

महाधमनी चाप (Aortic arch) और ग्रीवा धमनी (Carotid arch) से जुड़ी संवेदी संरचनाएँ भी CO2 और H+ सान्द्रता के परिवर्तन को पहचान सकते हैं तथा उपचारात्मक कार्यवाही हेतु लयकेन्द्र को संकेत दे सकते हैं। श्वसन लय के नियमन में ऑक्सीजन की भूमिका बहुत ही महत्वहीन है।

प्रश्न 8.
CO2 का ऑक्सीजन के परिवहन पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
pCO2 का ऑक्सीजन के परिवहन पर प्रभाव
गैसों के मिश्रण में किसी विशेष गैस की दाब में भागीदारी को आंशिक दाब कहते हैं और इसे ऑक्सीजन तथा कार्बन डाईऑक्साइड के लिए क्रमशः pO2 तथा CO2 द्वारा प्रदर्शित करते हैं। निम्नोक्त सारणी में प्रदर्शित आँकड़े स्पष्ट रूप से कूपिकाओं से रक्त और रक्त से ऊतकों में ऑक्सीजन के लिए सांद्रता प्रवणता का संकेत देते हैं। इसी प्रकार CO2 के लिए विपरीत दिशा में प्रवणता प्रदर्शित की गई है, अर्थात् ऊतकों से रक्त और रक्त से कूपिकाओं की ओर।

वातावरण की तुलना में विसरण में सम्मिलित विभिन्न भागों पर 9 तथा CO2 का आंशिक दबाव (mm Hg में)

प्वसनवायुमंडलीय वायुवायु कूपिकाअनॉक्सीकृत्त रक्तऑक्सीकृत रक्तउतक
O2159104409540
CO20.345454045

वायु कूपिकाओं से जो ऑक्सीकृत रक्त ऊतकों में पहुँचता है, उसमें आंशिक दाब PO2 95 mm Hg तथा PCO 40mm Hg होता है। ऊतकों में O2 तथा CO2 का आंशिक दाब क्रमश: 40mm Hg और 45 mm Hg होता है। ऊतक तथा रक्त केशिकाओं में पाई जाने वाली O2 और CO2 की सांद्रता प्रवणता या आंशिक दाब में अन्तर होने के कारण रक्त केशिकाओं से O2 ऊतकों में और CO2 ऊतकों से रक्त केशिकाओं में विसरित हो जाती हैं।

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प्रश्न 9.
पहाड़ पर चढ़ने वाले व्यक्ति की श्वसन प्रक्रिया में क्या प्रभाव पड़ता है ?
जाता है
उत्तर:
पहाड़ पर चढ़ने वाले व्यक्ति की श्वसन प्रक्रिया पर प्रभाव पहाड़ पर ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ वायु में ऑक्सीजन का आंशिक दाब कम होता जाता है। अतः मैदान की अपेक्षा ऊँचाई पर श्वासोच्छ्वास क्रिया (breathing process) अधिक तेज गति से होगी। इसके कारण निम्नलिखित हैं-
1. रक्त में घुली हुई ऑक्सीजन का आंशिक दाब कम हो जाता है। O2 रक्त में आसानी से विसरित हो जाती है। अतः शरीर में ऑक्सीजन का परिसंचरण कम हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप सिरदर्द एवं वमन (उल्टी) का आभास होता है।
2. अधिक ऊँचाई पर वायु में ऑक्सीजन की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है, अतः वायु से अधिक ऑक्सीजन प्राप्त करने के लिए श्वासोच्छ्वास प्रक्रिया की गति तीव्र हो जाती है।
3. कुछ दिनों तक ऊँचाई पर रहने से रक्त में RBC की संख्या बढ़ जाती है और श्वास प्रक्रिया सामान्य हो जाती है।

प्रश्न 10.
कीटों में श्वसन क्रिया विधि कैसी होती है ?
उत्तर:
कीटों में श्वसन क्रिया-विधि (Breathing in Insects)
हीमोग्लोबिन के अभाव के कारण कीटों का रुधिर ऑक्सीजन के वाहक के रूप में कार्य नहीं करता। इसलिए ऊतकों और शरीर के विभिन्न भागों में ऑक्सीजन पहुँचाने के लिए इनमें श्वास नलियाँ (ट्रेकिया (trachea) जाल के रूप में फैली रहती है। शरीर के पार्श्व भागों में स्थित 10 जोड़ी दरार जैसे श्वास रों (spiracles) द्वारा बाहर की वायु इन श्वास नलियों में प्रवेश करती है।

श्वास रन्ध्र छोटे वेश्म ( atrium) में खुलते हैं। श्वास रन्ध्रों पर रोम जैसे शूक (Bristles) होते हैं जो वायु को छानकर धूल आदि के कणों को वेश्म में प्रवेश करने से रोकते हैं। प्रत्येक रन्ध्र पर इसे खोलने और बंद करने एवं जल की हानि को रोकने के लिए कपाट भी होता है। कीटों के प्रत्येक उदर खंड में अनेक पेशियाँ होती हैं।

इन पेशियों के बार-बार संकुचन और अनुशिथिलन से कीटों का उदर नियमित समयान्तरों पर फूलता व पिचकता रहता है। उदर भाग के फूलने पर बाहर की वायु श्वास रन्ध्रों से होकर श्वास नलियों में प्रवेश कर जाती है। इस प्रक्रिया को अन्तःश्वसन या निःश्वसन (inspiration) कहते हैं। इसके विपरीत, शरीर के पिचकने पर वायु बाहर निकलती है। इस प्रक्रिया को निःश्वसन या उच्छ्वास (expiration) कहते हैं।

गैसीय विनिमय – श्वास नलिकाओं की भित्ति से होकर ऑक्सीजन विसरण द्वारा ऊतकों में पहुँचती है। कीटों की विश्राम अवस्था में श्वास नलिकाओं में अन्दर आई ऑक्सीजन धीरे-धीरे ऊतक द्रव्य में घुलकर शरीर के ऊतकों में पहुँचती है और कीट की सक्रिय अवस्था में ऊतक द्रव्य निकलकर ऊतक कोशिकाओं में चला जाता है तथा ऑक्सीजन ऊतकों में सीधी पहुँच जाती है। ऊतकों के अन्दर ऑक्सीकरण क्रिया में मुक्त हुई CO2 श्वासनलिका में आ जाती है और फिर श्वास नलियों के श्वासरन्धों तथा अध्यावरण द्वारा विसरित होकर बाहर निकलती रहती है।

प्रश्न 11.
ऑक्सीजन वियोजन वक्र की परिभाषा दें। क्या आप इसकी सिग्माध आकृति का कोई कारण बता सकते हैं ?
उत्तर:
ऑक्सीजन वियोजन वक्रं (Oxygen Dissociation Curve) हीमोग्लोबिन द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता ऑक्सीजन के आंशिक दाब (PO2) पर निर्भर करती है। हीमोग्लोबिन की वह प्रतिशत मात्रा जिसने ऑक्सीजन ग्रहण की है, इसकी प्रतिशत मात्रा कहलाती है। फेफड़ों से आने वाले शुद्ध रुधिर में O2 का आंशिक दाब PO2 लगभग 97mm Hg होता है और इस PO2 पर हीमोग्लोबिन की प्रतिशत संतृप्ति लगभग 98% होती है।

जबकि ऊतकों से वापस आने वाले अशुद्ध रुधिर में O2 का आंशिक दाब PO2 लगभग 40mm Hg होता है और इस PO2 पर हीमोग्लोबिन की प्रतिशत संतृप्ति लगभग 75% होती है। इस अवस्था में ऑक्सीजन के आंशिक दाब (PO) तथा हीमोग्लोबिन की प्रतिशत संतृप्ति के बीच खींचे गए प्राफीय वक्र को ऑक्सीजन वियोजन वक्र कहते हैं, जो सदैव सिग्माकार (sigmoid) आकृति का होता है। ऑक्सीजन वियोजन वक्र पर शरीर के ताप एवं रुधिर के pH का प्रभाव पड़ता है।

HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 17 श्वसन और गैसों का विनिमय

ताप बढ़ने या pH के कम होने पर यह वक्र दाहिनी ओर खिसकता है तथा ताप कम होने पर या PH के अधिक होने पर वक्रं बायीं ओर खिसकता है। रुधिर में CO2 की मात्रा बढ़ने या इसका pH घटने (H+ आयन की संख्या बढ़ने से ) पर O2 के प्रति हीमोग्लोबिन की आकर्षण क्षमता कम हो जाती है। इसे बोहरे का प्रभाव कहते हैं। यह क्रिया ऊतकों में होती है। इस प्रकार बोहर के प्रभाव का योगदान हीमोग्लोबिन को फेफड़ों से ऊतकों तक ऑक्सीजन के परिवहन को प्रोत्साहित करता है ।

फेफड़ों में हीमोग्लोबिन को O2 मिलते ही CO2 के प्रति इसका आकर्षण कम हो जाता है और कार्वामिनो हीमोग्लोबिन हीमोग्लोबिन और CO2 में विघटित हो जाता है। अम्लीय हीमोग्लोबिन H+ आयन मुक्त करता है। ये आयन बाइकार्बोनेट आयनों (HCO3) से मिलकर कार्बनिक अम्ल (H2 CO3) बनाते हैं जो शीघ्र ही जल (H2O) और CO2 में अपघटित हो जाता है। इसे हेल्डेन प्रभाव कहते हैं। हेल्डेन प्रभाव फेफड़ों में CO2 के निष्कासन को और ऊतकों से O2 के निष्कासन को प्रेरित करता है।
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प्रश्न 12.
क्या आपने अवकॉसीयता (हाइपोक्सिया) (न्यून ऑक्सीजन) के बारे में सुना है ? इस सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करें व साथियों के बीच चर्चा करें।
उत्तर:
अवकॉसीयता (Hypoxia)
अवकॉसीयता का सम्बन्ध शरीर की कोशिकाओं ऊतकों में ऑक्सीजन के आंशिक दाब में कमी से होता है। ऐसा ऑक्सीजन की कम आपूर्ति के कारण होता है। वायुमंडल में पहाड़ों पर 8000 फुट से अधिक ऊँचाई पर वायु में ऑक्सीजन का दाब कम हो जाता है। इसके कारण सिर दर्द, चक्कर आना, वमन, मानसिक थकान, श्वास लेने में कठिनाई जैसे लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। इसे कृत्रिम हाइपोक्सिया कहते हैं। यह रोग प्रायः पर्वतारोहियों को हो जाता है। शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी होने से रुधिर की ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता प्रभावित होती है। इसे एनीमिया हाइपोक्सिया कहते हैं ।

प्रश्न 13.
निम्न के बीच अन्तर कीजिए-
(क) IRV (आई. आर.वी.) और ERV (ई.आर.वी.)
(ग) जैव क्षमता और फेफड़ों की कुल धारिता
(ख) अन्तःश्वसन क्षमता (IC ) और निःश्वसन क्षमता (EC)
उत्तर:
(क) IRV (आई. आर.वी.) और ERV (ई.आर.वी.) में अन्तर

अन्त: श्वसन सुरछ्षित आयतन (Inspiratory Reserve Volume : IRV)नि:श्कसन सुरक्षित आयतान (Expiratory Reserve Volume : ERV)
प्रवाही वायु के अतिरिक्त जितनी वायु हम चेटा और अभ्यास से एक बार में अन्त:श्वासित कर सकते हैं, उसे अन्तःश्वसन सुरक्षित आयतन (IRV) कहते हैं। यह औसतन 2500 मिली से 3000 मिली होता है।प्रवाही वायु के अतिरिक्त वायु की वह अधिकतम मात्रा जिसे हम चेष्टा और अभ्यास से निःश्वासित कर सकते हैं, उसे नि:श्वसन सुरक्षित आयत्तन (ERV) कहते हैं। यह औसतन 1000 मिली से 1100 मिली होता है।

HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 17 श्वसन और गैसों का विनिमय

(ख) अन्तःश्वसन क्षमता (IC) और निःश्वसन क्षमता (EC) में अन्तर

अन्तः श्वसन क्षमता (Inspiratory Capacity : IC)नि:श्वसन क्षमता (Expiratory Capacity : EC)
प्रवाही वायु एवं अन्तःश्वसन सुरक्षित वायु के योग को फेफड़ों की अन्तश्वसन क्षमता कहते हैं। यह वायु की वह अधिकतम मात्रा है जिसे हम चेष्टा करके फेफडों में भरते हैं। यह औसतन 500+3000=3500 मिली होती है।सामान्य अन्त:श्वसन के पश्चात वायु की वह अधिकतम मात्रा जिसे एक व्यक्ति नि:श्वासित कर सकता है। इसमें प्रवाही वायु एवं सुरक्षित वायु आयतन सम्मिलित होते हैं। वह औसतन 500+1100=1600 मिली होती है।

(ग) जैव क्षमता तथा फेफड़ों की कुल धारिता में अन्तर

जैव क्षमता (Vital Capacity : VC)फेफड़ों की कुल धारिता (Total Lung Capacity : TLC)
अन्तःश्वसन सुरक्षित वायु आयतन (IRV) प्रवाही वायु (TV) तथा निश्वसन सुरक्षित वायु (ERV) की कुल मात्रा को जैव क्षमता कहते हैं। यह वायु की वह मात्रा है जिसे पूरी चेष्टा द्वारा फेफड़ों में भर कर पूर्ण चेष्टा के साथ फेफड़ों से बाहर निकाल सकते हैं। यह मात्रा औसतन 3000+500+1100 = 4600 मिली होती है।यह जैव क्षमता तथा अवशेष क्षमता (4600 मिली +1200 मिली) के योग के बराबर होती है। यह औसतन 5800 मिली होती है। यह वायु की मात्रा फेफड़ों में भरी जा सकती है।

प्रश्न 14.
ज्वारीय आयतन क्या है ? एक स्वस्थ मनुष्य के लिए एक घंटे के ज्वारीय आयतन (लगभग मात्रा) को आकलित करें।
उत्तर:
ज्वारीय (या प्रवाही) आयतन (Tidal Volume : TV) सामान्य दशा में स्वस्थ मनुष्य जो वायु का आयतन ग्रहण करता है और निष्कासित करता है, उसे ज्वारीय या प्रवाही आयतन कहते हैं। सामान्यतः इसकी मात्रा लगभग 500 मिली होती है। एक घंटे में ग्रहण की गई वायु का आयतन – सामान्यतः एक स्वस्थ व्यक्ति प्रति मिनट 12-16 बार श्वास लेता है और निष्कासित करता है तो एक घंटे में महण की गई ज्वारीय ( प्रवाही) वायु का आयतन
= श्वास दर x ज्वारीय वायु का आयतन x 60
= 12 × 500 × 60 = 360000 मिली प्रति घंटा
16 × 500 × 60 = 480000 मिली प्रति घंटा

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HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 16 पाचन एवं अवशोषण

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से सही उत्तर छाँटें-
(क) आमाशय में रस होता है-
(अ) पेप्सिन, लाइपेस और रेनिन
(स) ट्रिप्सिन, पेप्सिन और लाइपेस
(ब) ट्रिप्सिन, लाइपेस और रेनिन
(द) ट्रिप्सिन, पेप्सिन और रेनिन ।
उत्तर:
(अ) पेप्सिन, लाइपेस और रेनिन

(ख) सक्कस एंटेरिकस नाम दिया गया है-
(अ) क्षुद्रान्त्र (illum ) और बड़ी आँत के सन्धिस्थल के लिये –
(स) आहारनाल में सूजन के लिये
(ब) आन्त्रिक रस के लिये
(द) परिशेषिका (Appendix ) के लिये
उत्तर:
(ब) आन्त्रिक रस के लिए ।

प्रश्न 2.
स्तम्भ I का स्तम्भ II से मिलान कीजिए-

सुस्म Iस्तम्म II
बिलिरुबिन और बिलिवर्डिनपैरोटिड
मंड (स्टार्च) का जल-अपघटनपित
वसा का पाचनलाइपेस
लार मन्थिएमाइलेस

उत्तर:

सुस्म Iरुसम II
बिलिरुबिन और बिलिवर्डिनपित्त
मंड (स्टार्च) का जल-अपघटनएमाइलेज
वसा का पाचनलाइपेज
लार मन्थिपैरोटिड

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प्रश्न 3.
संकेष में उतर दें-
(क) अंकुर (Villi) छोटी आँत में होते हैं, आमाशय में क्यों नहीं ?
(ख) पेप्सिनोजेन अपने सक्रिय रूप में कैसे परिवर्तित होता है ?
(ग) आहारनाल की दीवार के मूल स्तर क्या हैं ?
(घ) वसा के पाचन में पिस कैसे मदद करता है ?
उत्तर:
(क) आँत की भीतरी सतह श्लेष्मिका (mucosa) में अनेक वलय (folds) तथा रसांकुर ( Villi) पाये जाते हैं। ये रचनाएँ अँगुली सदृश होती हैं। श्लेष्मिका की कोशिकाओं की सतह पर अनेक ब्रश सदृश सूक्ष्म रसांकुर (microvilli) होते हैं। इससे आँत की अवशोषण सतह में 600 गुना वृद्धि हो जाती है। वे पचे हुए भोजन का अवशोषण करते हैं। आमाशय (stomach) में भोजन का पूरा पाचन नहीं होता है। इसलिए आमाशय में रसांकुर तथा सूक्ष्म रसांकुर (villi & microvilli) नहीं पाये जाते हैं।
(ख) पेप्सिनोजन ( Pepsinogen) जठर रस (Gastric juice) के नमक के अम्ल (HCI) की उपस्थिति में सक्रिय पेप्सिन (pepsin) में बदल जाता है।
(ग) आहारनाल की दीवार में निम्नलिखित चार मूल स्तर होते हैं-
(i) लस्यस्तर या सीरोसा (serosa ),
(ii) पेशीस्तर या मसल लेयर (muscle layer),
(iii) अथः श्लेष्पिका या सबम्यूकोसा (submucosa),
(iv) श्लेष्पिका (mucosa)।
वसा के पाचन में पित्त के कार्बनिक लवण वसा का इमल्सीकण ( emulsification) करते हैं। इमल्सीकृत वसा ( emulsified) का पाचन लाइपेज एन्जाइम द्वारा आसानी से हो जाता है। लाइपेज इमल्सीकृत वसा को घुलनशील वसा अम्ल (fatty acid) तथा ग्लिसरॉल (glycerol) में बदल देता है ।
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प्रश्न 4.
प्रोटीन के पाचन में अग्न्याशयी रस की भूमिका स्पष्ट कीजिये ।
उत्तर:
प्रोटीन के पाचन में अग्न्याशयी रस की भूमिका (Role of Pancreatic Juice in Protein Digestion)
अग्न्याशयी रस (pencreatic juice) जल के समान पतला, रंगहीन और अत्यधिक क्षारीय (alkali) होता है। इसमें 96% जल तथा शेष भाग में लवण एवं पाचक एन्जाइम होते हैं। इसे पूर्णपाचक रस (complete digestive enzyme) कहते हैं, क्योंकि इसमें क्षारीय माध्यम में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, वसा को पचाने वाले एन्जाइम्स उपस्थित होते हैं।

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प्रोटीन पाचन एन्जाइम ट्रिप्सिन और काइमोट्रिप्सन (Protein digestive Engyme – Trypsin & Chymotrypsin)
दोनों एन्जाइम्स (enzyme) मिलकर आमाशय से आयी काइम (chyme) की शेष बची प्रोटीन और पेप्टोन्स (peptones) पर क्रिया करके उनको पॉलीपेप्टाइड्स तथा पेप्टोन्स में बदल देते हैं। ये दोनों एन्जाइम पहले निष्क्रिय ट्रिप्सीनोजन तथा काइमोट्रिप्सिनोजन के रूप में स्रावित होते हैं, किन्तु ग्रहणी में आरस का एन्टीरोकाइनेज ट्रिप्सिनोजन को सक्रिय ट्रिप्सिन (trypsin) में तथा ट्रिप्सिन काइमोट्रिप्सिनोजन (chymotrypsin) को सक्रिय काइमोट्रिप्सिन में परिवर्तित कर देता है ।
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प्रश्न 5.
आमाशय में प्रोटीन के पाचन की क्रिया का वर्णन कीजिये ।
उत्तर:
आमाशय में प्रोटीन का पाचन (Digestion of Protein in Stomach)
आमाशय की दीवार में स्थित जठर प्रन्थियों से जठर रस (gastric juice) स्त्रावित होता है। यह रस उच्च अम्लीय ( pH 1-0 से 3.5 ) होता है। इसमें 99% जल, 0.5% HCl तथा 0.4% पेप्सिनोजन (pepsinogen), प्रोरेनिन (prorennin) नामक प्रोएन्जाइम तथा गैस्ट्रिक लाइपेज (gastric lipase) नामक एन्जाइम होते हैं। प्रोएन्जाइम पेप्सिनोजन HCl के सम्पर्क में आने पर सक्रिय पेप्सिन एन्जाइम (pepsin enzyme) में परिवर्तित हो जाता है तथा प्रोरेनिन रेनिन में बदल जाता है। ये प्रोटीन (protein) तथा दूध की केसीन (प्रोटीन) का पाचन करते हैं ।
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प्रश्न 6.
मनुष्य का दन्त सूत्र बताइए।
उत्तर:
मनुष्य का दन्त सूत्र (Dental Formula of Man)
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i = कृन्तक दन्त (incisors), c = भेदक दन्त (canine)
pm = अग्र चवर्णक दन्त (premolars), m = चवर्णक दन्त (molars) ।

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प्रश्न 7.
पित्त रस में कोई पाचक एन्जाइम नहीं होते, फिर भी यह पाचन के लिये महत्वपूर्ण है, क्यों ?
उत्तर:
पित्तरस की पाचन में भूमिका (Role of Bile Juice in Digestion) – यकृत (liver) एक महत्वपूर्ण पाचक ग्रन्थि (digestive gland) है। इससे पित्त रस का स्त्रावण होता है। इसमें कोई एन्जाइम नहीं होते। यह हरे रंग का क्षारीय तरल होता है। इसमें पित्त लवण, पित रंग, कोलेस्ट्रॉल और लेसीथिन आदि उपस्थित होते हैं। यह आमाशय (stomach) से आई अम्लीय लुग्दी-काइम (chyme) को पतली क्षारीय काइल (chyle) में परिवर्तित करता है जिससे अग्न्याशयी एन्जाइम्स (pancreatic enzymes) इस पर क्रिया करके भोजन का पाचन कर सकें। यह वसा का इमल्सीकरण करता है। इमल्सीकृत वसा का लाइपेज एन्जाइम (lipase enzyme) द्वारा आसानी से पाचन हो जाता कार्बनिक लवण (पित्त लवण) वसा के पाचन में सहायता करते हैं।
पित्त (bile) हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करके भोजन को ग्रहणी में सड़ने से बचाता है ।

प्रश्न 8.
पाचन में काइमोट्रिप्सिन की भूमिका वर्णित कीजिये। जिस ग्रन्थि से यह स्रावित होता है, इसी श्रेणी के दो अन्य एन्जाइम कौन से हैं ?
उत्तर:
पाचन में काइमोट्रिप्सिन की भूमिका (Role of Chymotrypsin in Digestion)
काइमोट्रिप्सन (chymotrypsin) अग्न्याशय (pancreas) से स्त्रावित होने वाला प्रोटीन पाचक एन्जाइम है। यह निष्क्रिय अवस्था में काइमोट्रिप्सिनोजन (Chymotrypsinogen) के रूप में स्रावित होता है। यह आन्त्रीय रस में उपस्थित एन्टेरोकाइनेज (enterokinase) एन्जाइम की उपस्थिति में सक्रिय काइमोट्रिप्सिन (chymotripsin) में परिवर्तित हो जाता है।
यह प्रोटीन को पॉलीपेप्टाइड एवं पेप्टोन में बदल देता है।
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अग्न्याशय से अन्य स्त्रावित होने वाले प्रोटीन पाचक एन्जाइम निम्नलिखित हैं-
1. ट्रिप्सिनोजन (Trypsinogen),
2. कार्बोक्सीपेप्टिडेज (Carboxypeptidase) ।

प्रश्न 9.
पॉलीसेकेराइड और डाइसैकेराइड का पाचन कैसे होता है ?
उत्तर:
पॉलीसेकेराइड और डाइसैकेराइड का पाचन (Digestion of Polysaccharides & Disaccharides) कार्बोहाइड्रेट्स का पाचन मुखगुहा से ही प्रारम्भ हो जाता है। भोजन में लार (saliva) मिल जाती है। लार का pH मान 6-8 होता है । यह मुखगुहा आये भोजन को चिकना व निगलने योग्य बना देती है। लार में टायलिन (Ptyalin) नामक एन्जाइम होता है जो मण्ड या स्टार्च (पॉलीसेकेराइड) को माल्टोज (डाइसैकेराइड) में परिवर्तित कर देता है।
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आमाशय में कार्बोहाइड्रेट का पाचन नहीं होता है। अग्न्याशयिक रस (pancreatic juice) में एमाइलेज ( amylase) एन्जाइम होता है, जो स्टार्च (पॉलीसेकेराइड) को माल्टोज (डाइसैकेराइड) में परिवर्तित करता है।
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छोटी आँत में आत्रीय रस (intestinal juice) में उपस्थित कार्बोहाइड्रेट पाचक एन्जाइम निम्नवत् इसके पाचन में सहायक है-
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माल्टोज, लैक्टोज एवं सुक्रोज तीनों ही डाइसैकेराइड्स हैं।

प्रश्न 10.
यदि आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का स्त्राव नहीं होगा तो तब क्या होगा ?
उत्तर:
आमाशय की जठर ग्रन्थियों की आक्सिन्टिक कोशिकाओं (oxyntic cells) से हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) स्त्रावित होता है। यह आमाशय में भोजन को सड़ने से बचाता है और जठर मन्थियों से स्रावित निष्क्रिय एन्जाइम को सक्रिय बनाता है। भोजन के माध्यम को अम्लीय बनाता है। HCl के अभाव में निम्नलिखित क्रियाएँ होंगी-
1. भोजन का माध्यम अम्लीय न होने से जठर रस के एन्जाइम पेप्सिनोजन और प्रोरेनिन निष्क्रिय बने रहेंगे और प्रोटीन का पाचन नहीं हो सकेंगा।
2. भोजन में उपस्थित कैल्सियम युक्त कठोर भागों का पाचन नहीं हो सकेगा ।
3. टायलिन द्वारा कार्बोहाइड्रेट्स का पाचन होता रहेगा।
4. भोजन में उपस्थित न्यूक्लिक अम्लों का अपघटन नहीं होगा।

प्रश्न 11.
आपके द्वारा खाए गये मक्खन का पाचन और उसका शरीर में अवशोषण कैसे होता है ? विस्तार से वर्णन करें
उत्तर:
मक्खन इमल्सीकृत वसा (emulsified fat) है। इसका पाचन आमाशय (stomach) से शुरू हो जाता है। कुछ मात्रा में वसा का पाचन गैस्ट्रिक लाइपेज (gastric lipase) द्वारा वसीय अम्ल एवं ग्लिसरॉल में हो जाता है। ग्रहणी तथा आँत में लाइपेज एन्जाइम द्वारा वसा का पाचन होता है जिसके फलस्वरूप अन्ततः वसीय अम्ल और ग्लिसरॉल बनते हैं।
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इनका अवशोषण छोटी आँत में लसीका कोशिकाओं (lymph cells) द्वारा होता है। अवशोषित वसीय अम्ल, ग्लिसरॉल तथा फॉस्फेट मिलकर वसा बिन्दुक मिसेल (micelles) या काइलोमाइक्रोन्स (chylomicrons) का निर्माण करते हैं। लसीका वाहिनियों (lymph vessels) अन्ततः रुधिर वाहिनियों से मिल जाती हैं, जिससे मिसेल या काइलोमाइक्रोन्स रुधिर में पहुँच जाते हैं।

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प्रश्न 12.
आहारनाल के विभिन्न भागों में प्रोटीन के पाचन के मुख्य चरणों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आहारनाल के विभिन्न भागों में प्रोटीन का पाचन
(1) आमाशय में पाचन (Digestion in Stomach) – आमाशय के जठर रस (gastric juice) में प्रोटीन पाचक, एन्जाइम निष्क्रिय पेप्सिनोजन तथा प्रोरेनिन (pepsinogen and prorennin) होते हैं। ये हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) की उपस्थिति में सक्रिय पेप्सिन (pepsin) तथा रेनिन ( ranin) में बदल जाते हैं, पेप्सिन भोजन की प्रोटीन को अपघटित करके पेप्टोन्स एवं पॉलीपेप्टाइड्स (peptones and polypeptides) में बदल देता है।
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(2) ग्रहणी में पाचन (Digestion in Duodenum) – अग्न्याशयिक रस के निष्क्रिय ट्रिप्सिनोजन तथा काइमाट्रिप्सिनोजन (trypsinogen and chymotrypsinogen) आन्त्रीय रस में उपस्थित एण्टेरोकाइनेज ट्रिप्सिनोजन को सक्रिय ट्रिप्सिन (trypsin) में तथा ट्रिप्सिन काइमोट्रिप्सिनोजन को सक्रिय काइमोट्रिप्सिन में परिवर्तित कर देता है ।

(3) क्षुद्रान्त्र में पाचन (Digestion in small intestine ) – आन्त्रीय रस में इरेप्सिन (erepsin) एन्जाइम का समूह होता है। इसमें एमीनोपेप्टिडेज (aminopeptidase), डाइपेप्टिडेज ( dipeptidase) तथा ट्राइपेप्टिडेज (tripeptidase) होते हैं। ये तीनों ही एन्जाइम क्रमशः पॉलीपेप्टाइट्स, डाइपेप्टाइड्स तथा ट्राइपेप्टाइड्स को अमीनो अम्लों (amino acids) में परिवर्तित कर देते हैं।
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इस प्रकार प्रोटीन के पूर्ण पाचन हो जाने पर सरल घुलनशील अमीनो अम्ल ( amino acids) प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 13.
गर्तदन्ती (Thocodont) और द्विबारदन्ती (Diphyodont) शब्दों की व्याख्या कीजिये ।
उत्तर:
गर्लदन्ती (Thocodont) – ये दाँत अस्थियों के अन्दर गड्ढे में स्थित होते हैं। गड्ढे में दाँत घने तन्तुओं से बने परिदन्तीय स्नायु और मसूड़े (gum) द्वारा सधे रहते हैं। ऐसे दाँतों को गर्तदन्ती या थांकोडॉन्ट कहते हैं। द्विवारदन्ती (Diphyodont) – मनुष्य सहित अधिकांश स्तनियों में दाँत जीवन में दो बार निकलते हैं। पहली बार अस्थायी दूध के दाँत या क्षीर दन्तों (milk teeth) के रूप में निकलते हैं। इनके गिरने के बाद स्थायी दाँत (permanent teeth) निकलते हैं। इस प्रकार के दाँतों को द्विवारदन्ती या डाइफायोडॉन्ट कहते हैं।

प्रश्न 14.
विभिन्न प्रकार के दाँतों के नाम और एक वयस्क मनुष्य में दाँतों की संख्या बताइए।
उत्तर:
मनुष्य ‘में चार प्रकार के दाँत पाये जाते हैं।
(1) कृन्तक दन्त या छेदक दन्त (इनसाइजर्स – Incisors) – ये दाँत तेज धार वाले छैनी जैसे चौड़े होते हैं तथा भोजन को पकड़ने, काटने या कुतरने का कार्य करते हैं। प्रत्येक जबड़े में इनकी संख्या 4 होती है।
(2) भेदक या रदनक दन्त ( कैनाइन्स – Canines) – ये नुकीले होते हैं और भोजन को चीरने फाड़ने का कार्य करते हैं। प्रत्येक जबड़े में इनकी संख्या 2 होती है।
(3) अग्रचर्वणक दन्त (प्रीमोलर्स – Premolars) – ये किनारे पर चपटे, चौकोर व रेखादार होते हैं। इनका कार्य भोजन को कुचलना है। प्रत्येक जबड़े में इनकी संख्या 4 होती है।
(4) चर्वणक दन्त (मोलर्स – Molars) – इनके सिरे चौरस व तेज धार युक्त होते हैं। इनक मुख्य कार्य भोजन को पीसना ( grinding ) है । प्रत्येक जबड़े में इनकी संख्या 6 होती है।
इस प्रकार वयस्क मनुष्य में 8 कृन्तक, 4 भेदक, 8 अग्रचर्वणक एवं 12 चर्वणक दन्त होते हैं। वयस्क ( adult) मनुष्य का दन्त सूत्र निम्नवत् है-
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प्रश्न 15.
यकृत के क्या कार्य हैं ?
उत्तर:
यकृत के कार्य (Functions of Liver)
पाचन क्रिया में यकृत की भूमिका (Role of liver in the process of digestion)
यकृत एक महत्वपूर्ण पाचन ग्रन्थि ( digestive gland) है। यह अप्रवत् क्रिया में सहायक होती है-
(1) पित्त रस (Bile juice) का स्त्रावण करना – पित्त रस का स्त्रावण करना यकृत का प्रमुख कार्य है। यह हरे रंग का क्षारीय तरल (alkali fluid) होता है। इनमें पित्त लवण (bile salts), पित्त रंगा (bile pigments), कोलेस्टरॉल (cholesterol), लैसीथिन (lecithin) आदि पदार्थ होते हैं। यद्यपि इसमें पाचक एन्जाइम्स नहीं होते हैं, फिर भी यह वसा पाचन में महत्वपूर्ण भाग लेता है तथा इसका इमल्सीकरण (emulsification) करता है। यह भोजन को सड़ने से रोकता है और उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं (bacteria) को नष्ट करता है। क्षारीय होने के कारण यह भोजन के अम्लीय माध्यम को क्षारीय बनाता है तभी आन्त्र में काइम (chyme) पर अग्न्याशयिक रस (pancreatic juice) की प्रतिक्रियाएँ सम्भव हो पाती हैं। यह आहारनाल में क्रमाकुंचन गति को भी उद्दीप्त करता है।

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(2) ग्लाइकोजेनेसिस (Glycogenesis ) – आमाशय एवं आन्त्र में पचे भोज्य पदार्थों को यकृत निवाहिका शिरा (hepatic portal vein) यकृत में लाती हैं। यकृत कोशिकाएँ इससे आवश्यकता से अधिक शर्करा को अवशोषित करके उसे ग्लाइकोजन (glycogen) में बदलकर इसका संग्रह कर लेती है। इस क्रिया को ग्लाइकोजेनेसिस कहते हैं।

(3) ग्लोकोजिनोलिसिस (Glycogenolysis) – रुधिर में शर्करा की कमी पड़ जाने पर यकृत कोशिकाएँ संगृहीत ग्लाइकोजन (glycogen) को पुनः शर्करा में परिवर्तित करके रुधिर में मुक्त कर देती हैं। इस क्रिया को ग्लाइकोजिनोलिसिस (glycogenolysis) कहते हैं।

(4) ग्लूको नियोजेनिसिस (Gluconeogenesis ) – आवश्यकता पड़ने पर यकृत कोशिकाएँ अमीनो अम्लों, वसीय अम्लों तथा ग्लिसरॉल आदि अन्य पदार्थों से भी ग्लूकोज का संश्लेषण कर लेती हैं। इस क्रिया को ग्लूकोनियोजेनिसिस कहते हैं ।

(5) वसा (Fat) का संचय – यकृत कोशिकाएँ वसा के उपापचय (fat metabolism) में भी महत्वपूर्ण भाग लेती हैं और वसा का संचय भी करती हैं।

(6) एन्जाइम्स (Enzymes) का स्त्रावण करना-यकृत कोशिकाएँ प्रोटीन, वसा एवं कार्बोहाइड्रेट आदि के उपापचय हेतु कुछ एन्जाइम का स्राव भी करती हैं।

(7) विटामिन्स (Vitamins) का संचय – यकृत कोशिकाएँ विटामिन ‘ का संश्लेषण करके इसका तथा विटामिन ‘D’ व ‘B12‘ का संचय करती हैं।

यकृत के अन्य महत्वपूर्ण कार्य – इसके निम्नलिखित कार्य हैं-
(1) डीऐमीनेशन (Deamination ) – यकृत कोशिकाएँ आवश्यकता से अधिक अमीनो अम्लों (amino acid) को रुधिर से लेकर इन्हें पाइरुविक अम्ल (pyruvic acid) तथा अमोनिया में विखण्डित कर देती हैं। इस क्रिया को अमीनो अम्लों का डीऐमीनेशन (deamination) कहते हैं। पाइरुविक अम्ल का उपयोग ऊर्जा उत्पादन में या ग्लूकोनियोजेनिसिस के अन्तर्गत ग्लूकोज संश्लेषण में होता है।
(2) यूरिया का संश्लेषण (Synthesis of Urea ) – डीऐमीनेशन तथा प्रोटीन उपापचय में बनी अमोनिया को यकृत कोशिकाएँ CO2 को मिलाकर यूरिएज एन्जाइम की सहायता से यूरिया (urea) का संश्लेषण करती हैं। वृक्क इस यूरिया को रुधिर से ग्रहण करके मूत्र (urine ) के साथ इसका उत्सर्जन करते हैं। 2NH3 + CO2 → CO (NH2 ) 2 + H2 O

(3) उत्सर्जी पदार्थों का निष्कासन – कुछ उत्सर्जी पदार्थ पित्त (bile) में मिलकर महणी में पहुँचते हैं और फिर मल के साथ बाहर निकल जाते हैं।

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(4) विषाक्त पदार्थों का विषहरण (Detoxification) – आन्त्र में उपस्थित जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न विषैले पदार्थ यकृत निवाहिका शिरा द्वारा यकृत में पहुँचते हैं तो यकृत कोशिकाएँ इन्हें नष्ट या निष्क्रिय करके हानिरहित पदार्थ में परिवर्तित कर देती हैं।

(5) रुधिराणुओं का निर्माण एवं विखण्डन- भ्रूणावस्था में यकृत में लाल रुधिराणुओं (RBCs) का निर्माण होता है। किन्तु वयस्क अवस्था में यकृत की कुफ्फर कोशिकाएँ (Kuffer cells) निष्क्रिय एवं मृत लाल रुधिराणुओं को विखण्डित कर देती हैं जो पित्त (bile) के साथ ग्रहणी में पहुँचकर मल के साथ बाहर निकल जाती हैं।

(6) अकार्बनिक पदार्थों का संग्रहण – यकृत कोशिकाएँ लौह, ताँबा आदि अकार्बनिक पदार्थों का संग्रह करते हैं।

(7) रुधिर – प्रोटीन का संश्लेषण – यकृत कोशिकाएँ प्रोथॉम्बिन (Prothrombin) तथा फाइब्रिनोजन (Fibrinogen) नामक रुधिर प्रोटीन्स का संश्लेषण करती हैं, जो चोट लगने पर बहते रुधिर का थक्का (clot) जमाने का महत्वपूर्ण कार्य करती हैं।

(8) हिपैरिन (Heparin) का स्रावण – यकृत कोशिकाएँ हिपैरिन (heparin) का स्त्रावण करती हैं जो रुधिर वाहिनियों में रुधिर को जमने से रोकता है।

(9) जीवाणुओं का भक्षण-रुधिर में उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं को यकृत कोशिकाएँ भक्षण करके नष्ट कर देती हैं।

(10) लसिका उत्पादन एवं संचय – यकृत में लसिका (lymph) निर्माण होता है तथा इसमें उपस्थित रुधिर पात्र (blood sinosoids) रुधिर संचय का कार्य करते हैं।

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HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन

Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन

प्रश्न 1.
वद्धि विकेदन परिवर्षन निरिमेबन्न पुन्जिकेष्न सीमित वद्धि मेरिसेम तथा वदि दर की परिभापा लिखिए।
उत्तर:
निद्ध (Growth) – पौधों में उनकी उपापचयी क्रियाओं के परिणामस्वरूप होने वाले धनातक परिवर्तन हैं जिनमें पौधे के शुष्क भार एवं आमाप में बढ़ोत्तरी होती है। ये परिवर्तन अनुक्रमणीय होते हैं। इनें इदि (growth) कहते हैं। बढ़ोत्तरी होती है। ये परिवर्तन अनुक्रमणीय होते है। इहें शबि (growth) कहते हैं।

विशेक्ष (Differeatiation) – मूलशीर्ष या परोछरीर्ष (root apex or shoot apex) पर स्थित अमस्थ विभज्दोतक या एधा (cambium) कोशिकाओं से बनने वाली केशिकाएँ विधिन्न कायों के लिए विशिहीकृत्व हो बाती है। इस क्रिया को विषेक्न कहते हैं।

परिवर्षन (Development) – बीज के अंकुजण से लेकर मृत्प ठक होने वाले समस्त परिवर्वन बिसके फलस्वरूप पौछे के जटिल शरीर का गठन होता है, जिसमें पौषे के विभिन्न भाग जैसे-जड़, वना, पतिरों अदि बनवे है, परिखर्षन कहलाता है। परिवर्षन के दो समूह है-वृंदि तथा विषेदन।

निंकिष्द्न (Dedifferentiation) – कोशिकाओं में विभेदीकरण होने के पश्वात् कुछ स्वाई् कोशिकार्ष पुनः विभाजन योग्य हो जाती हैं, इस क्रिया को निधिमेद्न कहते हैं।

पुर्नांधिकेदन (Redifferentiation) – निर्विभेदित कोशिकाओं या ऊतको से बनी कोशिकाएँ अपनी विभाजन क्षमता पुनः खो देती हैं और विशिष कार्य करने के लिए रुपान्तरित हो जाती हैं। इस प्रक्रिया को पुनविभैद्न कहते हैं।

सींिि कद्धि (Determinating Growh) – यह पौधों में वृद्धि का खुला लूप होता है। यह पौषे के विभिन्न भागों में पायी जाती है। इसमें विभज्योतक से उत्पन्न कोशिकाएँ पादप शरीर का गठन करती है, उसे सीकित शब्बि कहते हैं।

मेंस्टेम (Meristem) – मूल तथा प्ररोह के शीर्ष पर स्थित कोशिकाओं के वे समूह जिनमें विभाबन करने की क्षमता होती है मेसिस्टेम कहलाते हैं। इनसे स्थाई, अन्त्रार्विट्ट हरा पार्श्व क्तकों (Permanent, intercallary and lateral tissucs) का निर्माण होता है।

वृद्धि दर (Growth rate) – प्रति इकाई समय में पौर्षो में हुई वृद्धि को उसकी दृद्धि दर कछते हैं। वृद्धि दर को गचितीय डंग से व्यक्त किया जाता है।

प्रश्न 2.
पुद्मित पौधों के जीवन में किसी एक प्राचालिक (Parameter) से ृद्धि को क्षणित नही किया जा सकता है क्यों ?
उत्तर:
वृद्धि के प्राचालिक (Parameter of Growth):
वृद्धि सभी पौरो की एक विशोषता है। पौर्षों में बृद्धि कोशिका विभाजन, कोशिका विवर्षन या दीर्षीकरण तथा कोशिका विभेदन के फलस्वरूप होती है। पौधे की प्राविभाजी कोशिकाओं (meristematic cells) में कोजिका विभाजन की धमता पायी जाती है। सामान्यतया कोशिका विभाजन जड़ तक्षा तने के शीर्ष (apex) पर होते हैं। इसके फलस्वरूप बड़ तथा तने की लम्बाई में वृद्धि होती है। एथा (cambium) वथा कार्क ए्या (cork cambium) के कारण तने और जड़ की मोटाई में वृद्धि होती है। इसे हिजीक्ड वब्षि (secondary growth) कहते हैं। कोशिकीय स्तर पर वृद्धि मुख्यतः जीक्दक्य मात्रा में वर्धन का परिजाम है।

जीवद्रव्य (protoplasm) की वृद्धि की माप कठिन कार्य है। वृद्धि दर का आकलन ताजे भाए में वृद्धि, शुर्क भार में वृद्धि, सम्बाई, मोटाई, क्षेत्रफल, आयतन तषा कोशिकाईं की संख्या के आधार पर किया जा सक्ता है। मक्का की मूल का अमस्य विभज्दोतकृ (apical meristem) प्रति हर्टे लगभग 17,500 कोशिकाओं का निर्माण करता है। तरबूज की केशिकाओं के आकार में लगभग 3,50,000 गुना वृद्धि हो सकती है। पराग नलिका (pollen tube) की लम्बाई में वृद्धि होने से यह वर्तिकाम (stigma), वर्तिका (style) से होती हुई अण्डाशय (ovary) में स्थित बीजाप्ड (ovule) तक प्रवेश करती है।

प्रश्न 3.
चिच्न का सीक्षिप्त वर्णन कीजिए –
(अ) अंकणणितीय वृद्धि
(घ) ज्वामितीय विद्धि
(स) सिम्माइड वृद्धि कात
(द) सन्पूर्ण एवं सापेबा शृद्धि दर
उत्तर:
वृद्धि दर एवं वृद्धिं वक्क (Growth Rate and Growth curve):
समय की प्रति इकाई के दौरान बढ़ी हुई वृद्धि को वृद्धि दर (growth rate) कहा जाता है। वृद्धि दर को विभिन्न रूपों में प्रदर्शित किया जाता है। जैसे-अंकगणितीय वृद्धि, ज्यामितीय वृद्धि, सिग्माइड वृद्धि तथा सम्पूर्ण एवं सापेक्ष वृद्धि दर।
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(अ) अकगणितीय वृद्धि (Arithmetic Growth):
यह वृद्धि का वह प्रकार है जिसमें आरम्भ से ही एक स्थिर दर से वृद्धि होती है। समसूत्री विभाजन (mitosis) के पश्चात् बनने वाली दो संतति कोशिकाओं में से केवल एक कोशिका निरन्तर विभाजित होती रहती है और दूसरी कोशिका विभेदित एवं परिपक्व होती रहती है। अंकगणितीय वृद्धि को हम निश्चित दर पर वृद्धि करती जड़ में देख सकते हैं। यह एक सरलतम अभिव्यक्ति होती है। यदि इस वृद्धि का प्राफ पर आकलन किया जाए तो हमें एक सीधी रेखा प्राप्त होती है। इस वृद्धि को हम गणितीय रूप से व्यक्त कर सकते हैं –
Lt = L0 + rt

(यहाँ Lt = समय t पर लम्बाई,
L0 = समय शून्य पर लम्बाई, r = वृद्धि दर)

उसमितीय वृद्धि (Geometrical Growth):
किसी एक कोशिका, पौधे के एक अंग अथवा पूर्ण पौधे की वृद्धि सदैव एकसमान नहीं होती है अर्थात् बदलती रहती है। प्रारम्भिक अवस्था में वृद्धि धीमी होती है जिसे प्रारम्भिक धीमा वृद्धि काल (initial lag phase) कहते हैं। इसके पश्चात् वद्धि तीव्रतम होकर उच्चतम बिन्दु पर पहुँच जाती है जिसे मध्य तीव्र वृद्धि काल (middle logarithmic phase) कहते हैं। इसके पश्चात् वृद्धि पुन: धीमी होती है और अन्त में स्थिर हो जाती है। इसे अन्तिम धीमा वृद्धि काल (last stationary phase) कहते हैं।

इसे सामूहिक रूप से ज्यामितीय वृद्धि (geometrical growth) कहते हैं। इसमें सूत्री विभाजन (mitosis) से बनी दोनों संतति कोशिकाओं में पुन: विभाजन होता है और इनसे बनी कोशिकाएँ मातृ कोशिकाओं का अनुसरण करती हैं। यद्यपि सीमित पोषण आपूर्ति के साथ वृद्धि दर धीमी होकर स्थिर हो जाती है। समय के प्रति वृद्धि दर को ग्राफ पर अंकित करने पर एक सिग्मॉइड वाक्ष (Sigmoid curve) प्राप्त होता है। यह ‘ $S$ ‘ की आकृति का होता है। ज्यामितीय वृद्धि को गणितीय रूप से निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं –
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wt = w0ert
जहाँ ( w1= अन्तिम आकार, भार, ऊँचाई, संख्या आदि, w0 = प्रारम्भिक आकार वृद्धि के प्रारम्भ में, r = वृद्धि दर, t = समय, e = स्वाभाविक लघुगणक का आधार)। r एक सापेक्ष वृद्धि दर है। यह पौधे द्वारा नई पादप साममी भी निर्माण क्षमता को मापने के लिए है, जिसे एक दक्षता सूछकांक (efficiency index) के रूप में सन्दर्भित किया जाता है, अतः w1 का अन्तिम आकार w0 के प्रारम्भिक आकार पर निर्भर करता है।

(स) सिगॉईड वृद्धि क्s (Sigmoid Growth Curve):
ज्यामितीय वृद्धि को तीन प्रावस्थाओं में बाँटा जा सकता है-
(i) प्रारम्मिक धीमा वृद्धि काल (initial lag phase),
(ii) मध्य तीव्र वृद्धि काल (middle lag phase),
(iii) अन्तिम धीमा वृद्धि काल (last stationary phase)।
यदि समय के सापेक्ष वृद्धि दर का प्राफ खीचा जाय तो ‘S’ की आकृति का वक्क प्राप्त होता है। इसे सिग्मॉइ (sigmoid curve) वक्र कहते हैं।
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एक सिग्मॉइड वक्र में निम्न चार चरण होते है –
(1) पश्चान्त प्रावस्था (Lag phase) – इस प्रावस्था में कोशिका में आन्तरिक परिवर्तन होते हैं, संचित खाद्य पदार्थ के काम आने से इसके शुष्क भार में कमी आती है और वृद्धि बहुत धीमी गति से होती है। इसे मंद वृद्धि काल कहते हैं।
(2) पश्च प्राबस्था (Log phase)- इस प्रावस्था में वृद्धि दर एक साथ तीव्र होती है। इसे ग्राफ में सीधी रेखा से दर्शाया गया है। इसे समग्र वृद्धि काल भी कहते हैं। इसे अधिकतम वृद्धि काल कहते हैं।
(3) घटती प्राकस्था (Decline phase) – इस प्रावस्था में वृद्धि दर क्रमशः कम होने लगती है। इसे न्यून वृद्धि काल कहते हैं।
(4) स्याई प्रावस्था (Steady phase)-इस प्रावस्था में कोशिका के पूर्ण परिपक्व हो जाने से वृद्धि लगभग स्थिर हो जाती है। इसे स्थिर वृद्धि काल कहते हैं।
(द) सम्पूर्ण एवं सापेक वृद्धि दर (Absolute and Relative Growth Rate)
(i) प्रति इकाई समय और मापन में कुल वृद्धि को सम्पूर्ण या परमवृद्धि दर (absolute growth rate) कहते हैं।
(ii) किसी दी गई प्रणाली की प्रति इकाई समय में वृद्धि को सामान्य आधार पर प्रदर्शित करना सापेक्ष वृद्दि दर (relative growth rate) कहलाता है। सम्मुख चित्र में दोनों पत्तियों ने एक निश्चित समय में अपने सम्पूर्ण क्षेत्रफल में समान वृद्धि की है, फिर भी A की सापेक्ष वृद्धि दर अधिक है।
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प्रश्न 4.
प्राकृतिक पाद्य वृद्धि नियामकों के पाँच पुख्य समूक्तों के बारे में लिखिए। इकके आविष्धार, कारिकी प्रभाव तथा कृषि/बागवानी में इनके प्रयोग के बोरे में लिखिए।
उत्तर:
पादप वद्धि नियामक (Plant Growth Regulators):
प्राकृतिक पादप वृद्धि नियामक विशेष प्रकार के कार्ििक यौगिक छोते हैं, जो मुख्य रूप से विकग्योतकों (Meristems) तथा विकासशील पतियों एवं प्रालो में उत्तन्न छोते हैं। इनकी अतिसूक्स माश्रा पौधों के विभिन्न भागों में पुँचकर उनकी विभिन्न उपापषयी क्रियाओं (metabolic processes) को प्रभावित एवं नियन्त्रि करती है। इन्ठं पादी जोंमोंस्स (plant hormones or phytohormones) मी कहोत हैं। अनेक कृत्रिम कार्षनिक योगिक भी पादप हॉर्मोंस्स की तरह कार्य करते हैं। वेन्ट (Went; 1928) के अनुसार वृध्धि नियामक पदार्थों के अभाव में वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव होता है।

पादप हॉर्मोंस्स को निम्नलिखित पाँच समूोों में बाँटा जा सकता है –
(1) ऑक्सिन्स (Auxins)
(2) जिबरेलिन्स (Gibberellins)
(3) साइटोकाइनिन्स (Cytokinins)
(4) ऐस्सिसिक अम्ल (Abscisic acid)
(5) एथिलीन (Ethylene)।

प्रश्न 5.
दीपिकालिता तथा वसंतीकरण क्या हैं ? इनके मंध्राप का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
दीप्तिकालिता (Photoperiodism):
पौधों के फलने-फूलने, वृद्धि, पुष्पन आदि पर प्रकाश की अवधि (Duration of light = photoperiod) का प्रभाव पड़ता है। पौधों द्वारा प्रकाश की अवधि तथा समय के प्रति अनुक्रिया को दीजिकालिता (photoperiodism) कहते हैं। दूसरे शब्दों में दिन व रात के परिवर्तनों के प्रति पौधों की कार्यात्मक अनुक्रियाएँ दीजिकालिता (photoperiodism) कहलाती हैं।

दीप्तिकालिता शब्द का प्रयोग गार्नर तथा एलाई्ड (Garner and Allard, 1920) ने किया। दीप्तिकालिता के आधार पर पौधों को निम्न तीन समूहों में बाँटा जा सकता है –
(i) अल्प प्रदीफिकाली पौधे (Short day plant = SDP)
(ii) दीर्घ प्रदीधिकाली पौधे (Long day plant = LDP)
(iii) दिकस निरपेक्ष पौधे (Day neutral plant = DNP)

अल्प प्रदीप्तिकाली पौधों को मिलने वाली प्रकाश अवधि को कम करके और दीर्ष प्रदीप्तिकाली पौधों को अतिरिक्त प्रकाश अवधि प्रदान करके शीष्ष पुष्पन कराया जा सकता है। कायिक शीर्षस्थ या कक्षस्य कलिका उपयुक्त प्रकाश अवधि प्राप्त होने पर ही पुष्प कलिका में रूपान्तरित होती है। यह परिवर्तन फ्लोरिजन हॉर्मोन (florigen hormone) के कारण होता है। दिन-रात्रि के अन्तराल के कारण संश्लेषित होता है।

वसन्तीकरण (Vernalization):
कम तापमान द्वारा पुष्पन को त्वरित (accelerate) करने की प्रक्रिया को वसन्तीकरण (vernalization) कहते हैं। इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम टी. की. लायसेन्को (T. D. Lysenko) ने 1928 में किया। कोआई (Chaurd; 1960) के अनुसार, “द्रुतशीतन उपचार (Chilling treatment) द्वारा पुष्पन की योग्यता के उपार्जन को वसन्तीकरण (vernalization) कहते हैं।”

गेहूँ की शीतकालीन प्रजाति को वसन्त ॠतु में बोने योग्य बनाने के लिए इसके भीगे बीजों को 10-12 दिन तक 3C ताप पर रखते हैं और इनें बसन्त ॠतु में बोये जाने वाले गेहूँ के साथ ही बोया व काटा जा सकता है। ऐसे पौधों में कायिक वृद्धि कम होती है। कम ताप उपचार से पौधों की कायिक अवधि कम हो जाती है। अनेक द्विवर्षी पौधों (Biennial plants) को कम तापक्रम में अनावृत कर दिये जाने से पौधों में दीप्तिकालिता के कारण पुष्पन की अनुक्रिया बढ़ जाती है। वसन्तीकरण (vernalization) के फलस्वरूप द्विवर्षी पौधों में प्रथम वृद्धि काल में ही पुष्पन किया जा सकता है। पौधों में शीत के प्रति प्रतिरोधकता बढ़ जाती है। वसन्तीकरण (vernalization) द्वारा पौधों को प्राकृतिक कुप्रभावों जैसे-पाला, कुहरा आदि से बचाया जा सकता है।

प्रश्न 6.
ऐब्सिसिक अम्ल को तनाव हॉर्मोंन कहते हैं, क्यों ?
उत्तर:
ऐब्सिसिक अम्ल (abscisic acid) पत्तियों की बाह्य त्वचा में स्थित रन्ध्रों के बन्द होने को प्रेरित करता है, जिससे वाष्पोत्सर्जन कम हो जाता है । यह पौधों को प्रतिकूल परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार के तनावों (stress) को सहन करने की क्षमता प्रदान करता है। इसलिये इसे तनाव हॉर्मोन (stress hormone) कहते हैं।

प्रश्न 7.
उच्च पादपों में वृद्धि एवं विभेदन खुला होता है। टिमपणी लिखिए।
उत्तर:
पौधों में वृद्धि एवं विभेदन उन्मुक्त होता है। विभज्योतकों (meristems) से निर्मित कोशिकाएँ या ऊतक परिपक्व होने पर विभिन्न रचनाएँ बनती हैं। कोशिका या ऊतक की परिपक्वता के समय अन्तिम संरचना कोशिका के आन्तरिक स्थान पर भी निर्भर करती हैं, जैसे-मूल शीर्ष पर स्थित विभज्योतक (apical meristem) से मूलगोप कोशिकाएँ (rootcap cells) परिधि की ओर मूलीय त्वचा (epiblema) के रूप में विभेदित होती हैं। इसी प्रकार कुछ कोशिकाएँ जाइलम, फ्लोएम, अन्तस्वचा (endodermis), परिरम्भ (pericycle), वल्कुट (cortex), पिथ (pith) आदि के रूप में विभेदित होती हैं। इस प्रकार विभज्योतक (meristem) की क्रियात्मकता से पौधे की विभिन्न कोशिकाओं, उतकों एवं अंगों का निर्माण होता है। इसे वृद्धि का खुला स्वरूप कहते हैं।

प्रश्न 8.
अल्प प्रदीप्तिकाली पौधे और दीर्घ प्रदीजिकाली पौधे किसी एक स्थान पर साथ-साथ फूलते हैं। विस्तित व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अल्प प्रदीजिकाली पौधों (SDP) में निर्णायक दीप्तिकाल प्रकाश की वह अवधि है जिस पर या इससे कम प्रकाश अवधि पर पौधे पुष्पन (flowering) करते हैं, परन्तु उससे अधिक प्रकाश अवधि में पौधा पुष्प उत्पन्न नहीं कर सकता। दीर्घ प्रदीप्तिकाली पौधों (LDP) में निर्णायक दीप्तिकाल प्रकाश (critical photoperiod) की वह अवधि है जिससे अधिक प्रकाश अवधि पर पौधे पुष्प उत्पन्न करते हैं, परन्तु उससे कम प्रकाश अवधि में पुष्पन नहीं करते। इससे स्पष्ट है कि SDP और LDP में विभेदन उनमें निर्णायक दीप्तिकाल से कम अवधि पर पुष्पन होना अथवा अधिक अवधि पर पुष्पन होने के आधार पर किया जाता है।

दो भिन्न जातियों के पौधे समान अवधि के प्रकाश में पुष्पन करते हैं, परन्तु इनमें से एक LDP तथा दूसरा SDP हो सकता है। उदाहरणतः औैन्थियम (Xanthium) का निर्णायक दीप्तिकाल \(15 \frac{1}{2}\) घण्टे, जबकि छायोसाइमस नाइणर (Hyoscyanus niger) का निर्णायक दीप्तिकाल 11 घण्टे है। दोनों पौधों को यदि 14 घण्टे प्रकाश अवधि दी जाय तो इन दोनों में पुष्मन हो सकता है। इस आधार पर जैन्थियम SDP है क्योंकि यह निर्णायक दीप्तिकाल से कम प्रकाशीय अवधि में पुष्पन करता है तथा हायोसाइमस LDP है, क्योंकि यह निर्णायक दीप्तिकाल से अधिक प्रकाश अवधि में पुष्पन करता है।

प्रश्न 9.
अगर आपको निम्नलिखित करने को का़ जाए तो एक पादप वृद्धि नियामक का नाम दीजिए-
(क) किसी टहनी में जड़ पैदा करने हेतु,
(ख) फल को जल्दी पकाने हेतु,
(ग) पतियों की जरावस्था को रोकने हेतु,
(घ) कक्षस्थ कलिकाओं में वृद्धि कराने हैंतु,
(ङ) एक रोजेट पौधे में ‘वोल्ट’ हेतु,
(च) पत्तियों के रन्ध्र को तुरन्त बन्द करने हेतु।
उत्तर:
(क) ऑक्सिन (Auxin)
(ख) एथिलीन (Ethylene)
(ग) सायटोकाइनिन (Cytokinin)
(घ) जिब्बरेलिन (Gibberellins)
(ङ) ऐब्सिसिक अम्ल (Abscisic Acid) ।

प्रश्न 10.
क्या एक पर्णकरित पद्पप दीजिकालिता के चक्क से अनुक्रिया कर सकता है ? यदि हौँ या नहीं तो क्यों ?
उत्तर:
पर्णहरित (chlorophyll) पादप दीप्तिकालिता (photoperiodism) के चक्र से अनुक्रिया नहीं करता क्योंकि दीप्तिकालिता के प्रति संवेदनशीलता पत्तियों द्वारा महण किये गये प्रकाश पर निर्भर करती है। पत्तियों में एक पुष्प प्रेरक पदार्थ उत्पन्न होता है। इसे फ्लोरिजन (florigen) कहते हैं। इसके अभाव में पुष्पन नहीं होता है।

प्रश्न 11.
क्या हो सकता है ? अगर –
(क) जीए, (GA3) को धान के नवेद्धिक्दों पर दिया जए।
(ख) विभाजित कोशिका विभेद्न करना बन्द कर दें।
(ग) एक सड़ा फल कच्चे फलों के साथ मिला दिया जाए।
(घ) अगर आप संवर्धन माध्यम में सायटोकीनिस मिलाना भूल जाएँ।
उत्तर:
(क) नवोद्भिद (seedlings) (GA3) के प्रभाव से अधिक लम्बे हो जाते हैं। पत्तियाँ पीली व लम्बी हो जाती हैं इसे बैकन रोग (फूलिश सीडलिंग) कहते हैं।
(ख) अविभेदित कोशिकाओं का समूह बन जायेगा।
(ग) सड़े फलों से एथिलीन गैस निकलती है जो अन्य कच्चे फलों को पकाने का कार्य करती है।
(घ) अविभेदित कैलस (callus) में प्ररोह तथा जड़ का विकास नहीं होगा।

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