Haryana State Board HBSE 11th Class Biology Solutions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण Textbook Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 11th Class Biology Solutions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण
प्रश्न 1.
रक्त के संगठित पदार्थों के अवयवों का वर्णन करें तथा प्रत्येक अवयव के एक प्रमुख कार्य के बारे में लिखें। रक्त के संगठित पदार्थों के अवयव
उत्तर:
रक्त एक तरल संयोजी ऊतक (fluid connective tissue) है। यह हल्के या गहरे लाल रंग का अपारदर्शी, गाढ़ा, क्षारीय व नमकीन होता है। इसमें द्रव्य आधात्री (मैट्रिक्स), प्लाज्मा (Plasma) तथा अन्य संगठित रचनाएँ पाई जाती हैं, संरचना के आधार पर रक्त को दो भागों में विभक्त किया गया है-
(क) प्लाज्मा (Plasma) प्लाज्मा हल्के पीले रंग का गाढ़ा तरल पदार्थ होता है, जो रक्त के आयतन का लगभग 55 – 60% भाग होता है। इसमें 90-92% जल तथा 6-8% प्रोटीन पदार्थ होते हैं। फाइब्रिनोजन (Fibrinogen) ग्लोबुलिन (Globulin) तथा एल्यूमिन (Albumin) प्लाज्मा में उपस्थित मुख्य प्रोटीन हैं।
फाइब्रिनोजन की आवश्यकता रक्त का थक्का बनाने या स्कंदन में होती है। ग्लोबुलिन का उपयोग शरीर में प्रतिरक्षा तंत्र तथा एल्बूमिन का उपयोग परासरणी संतुलन के लिए होता है। प्लाज्मा में अनेक खनिज आयन जैसे – Na+ Ca++ Mg++ HCO3 CI आदि भी पाये जाते हैं। शरीर में संक्रमण की अवस्था में होने के कारण ग्लूकोज, अमीनो अम्ल तथा लिपिड भी प्लाज्मा में पाये जाते हैं। रुधिर का थक्का बनाने या स्कंदन के अनेक कारक प्रद्रव्य के साथ निष्क्रिय दशा में रहते हैं । बिना थक्का स्कंदन कारकों के प्लाज्मा को सीरम कहते हैं।
(ख) संग्रहित पदार्थ – रुधिर कणिकाएँ या रक्ताणु (Blood Corpuscles) लाल रुधिर कणिकाएँ (RBCs), श्वेत रुधिर कणिकाएँ (WBCs) तथा रुधिर पट्टिकाणु (प्लेटलेट्स) को संयुक्त रूप से संगठित पदार्थ कहते हैं। ये रक्त का लगभग 45% भाग बनाते हैं।
(1) लाल रुधिर कणिकाएँ (Red Blood Corpuscles) या इरिथ्रोसाइट्स (Erythrocytes) या लाल रक्ताणु (RBCs) – ये अन्य सभी कोशिकाओं से संख्या में अधिक होती हैं। एक स्वस्थ मनुष्य के रक्त में कणिकाएँ लगभग 50 से 55 लाख प्रति घन मिमी होती हैं। वयस्क अवस्था में ये कणिकाएँ लाल अस्थि मज्जा में बनती हैं।
इनमें केन्द्रक नहीं होता है। इनकी आकृति उभयावतल (biconcave) होती है। इनका लाल रंग एक लौह युक्त जटिल प्रोटी हीमोग्लोबिन (haemoglobin) की उपस्थिति के कारण होता है। एक स्वस्थ मनुष्य में प्रति 100 ml रक्त में 12-16 ग्राम हीमोग्लोबिन पाया जाता है। लाल रक्त कणिकाएँ (R.B.C.) फेफड़ों से ऊतकों तक ऑक्सीजन परिवहन का कार्य करती हैं। R. B. C. की औसत आयु 120 दिन होती है । इसके बाद इनका विनाश प्लीहा (spleen) में होता है, जिसे लाल रक्त कणिकाओं का कब्रिस्तान कहते हैं
(2) श्वेत रुधिर कणिकाएँ (White Blood Corpuscles) या ल्यूकोसाइट्स (Leucocytes) या श्वेत रक्ताणु (WBCs) – ये अनियमिताकार, केन्द्रक युक्त, रंगहीन व अमीबीय कोशिकाएँ होती हैं। इनको हीमोग्लोबिन के अभाव के कारण तथा रंगहीन होने से श्वेत रुधिर कणिकाएँ (WBCs) कहते हैं। इनमें केन्द्रक उपस्थित होता है तथा इनकी संख्या लाल कणिकाओं की अपेक्षा कम औसतन 6000-8000 प्रति घन मिमी रक्त होती है। सामान्यतः ये कम समय तक जीवित रहती हैं। इनका जीवन काल 47 दिनों का होता है। इनको दो मुख्य श्रेणियों में बाँटा गया है-
(अ) कणिकामय श्वेत रुधिराणु (Granulocytes)
(ब) कणिका रहित श्वेत रुधिराणु (Agranulocytes) ।
(अ) कणिकामय श्वेत रुधिराणु (प्रेन्यूलोसाइट्स) (Granulocytes) – केन्द्रक संरचना के आधार पर ये तीन प्रकार की होती हैं-
(i) न्यूट्रोफिल्स (Neutrophils) – इनका केन्द्रक 2 से 5 भागों में बँटा होता है। ये परस्पर सूत्र के द्वारा जुड़े रहते हैं। इनकी संख्या W. B.C. में सबसे अधिक (लगभग 60-65%) होती है। इनका प्रमुख कार्य रोगाणुओं को नष्ट करना है। अतः ये भक्षकाणु का कार्य करते हैं।
(ii) इओसिनोफिल्स (Eosinophils) – इनका केन्द्रक दो स्पष्ट पिण्डों में बँटा होता है। ये दोनों पिण्ड परस्पर तन्तु द्वारा जुड़े होते हैं। ये श्वेताणुओं का 2.5% भाग बनाती है। ये एलर्जी (allergy), परजीवी संक्रमण से प्रतिरक्षण (immunity) एवं अति संवेदनशीलता का महत्वपूर्ण कार्य करती हैं।
(iii) बेसोफिल्स (Basophils) – इनका केन्द्रक बड़ा तथा 2-3 पिण्डों में बँटा होता है। ये संख्या में सबसे कम (लगभग 0.5-1%) होते हैं । ये हिस्टामिन, हिपैरिन और सिरोटोनिन आदि का स्राव करती हैं तथा शोथकारी क्रियाओं में सम्मिलित होती हैं।
(ब) कणिका रहित श्वेत रुधिराणु (एप्रेन्यूलोसाइट्स) (Agranulocytes) – इनका कोशिकाद्रव्य कणिकारहित होता है तथा केन्द्रक अपेक्षाकृत बड़ा व घोड़े की नाल के आकार का होता है। ये दो प्रकार की होती हैं-
(i) लिम्फोसाइट्स (Lymphocytes) – ये कुल श्वेताणुओं की संख्या का लगभग 20-25% भाग बनाती हैं। ये छोटे आकार के श्वेत रक्ताणु हैं। इनका मुख्य कार्य प्रतिरक्षी या एन्टीबॉडीज (antibodies) का निर्माण करके शरीर की सुरक्षा करना है। ये दो प्रकार की होती हैं – बी. और टी. ।
(ii) मोनोसाइट्स (Monocytes) – ये बड़े आकार की श्वेत रक्ताणु हैं। ये शरीर में आये हुए हानिकारक जीवाणुओं एवं रोगाणुओं का तेजी से भक्षण करके शरीर की सुरक्षा करती हैं।
(3) पट्टिकाणु या रुधिर प्लेटलैट्स (Blood Platelets) – इन रक्ताणुओं को थ्रोम्बोसाइट्स (thrombocytes) भी कहते हैं। ये अस्थि मज्जा की विशेष कोशिका मैगाकिरियो साइट के टुकड़ों में विखण्डन से बनती हैं। रक्त में इनकी संख्या 1.5 से 3.5 लाख प्रति घन मिमी होती है। ये कई प्रकार के पदार्थों का स्राव करती हैं, जो आहत भाग से बहते हुए रुधिर का थक्का स्कंदन जमाने का कार्य करते हैं। थक्का जमने से उस स्थान से रुधिर का बहना बंद हो जाता है। इनका जीवनकाल 8-10 दिन होता है।
प्रश्न 2.
प्लाज्मा (Plasma) प्रोटीन का क्या महत्व है ?
उत्तर:
प्लाज्मा प्रोटीन का महत्व (Importance of Plasma Protein)
रुधिर प्लाज्मा में लगभग 7-8% प्लाज्मा प्रोटीन उपस्थित होती है। इसमें एल्बूमिन्स (albumins), ग्लोबुलिन (globulin ), प्रोथ्रोम्बिन (prothrombin) तथा फाइब्रिनोजन (fibrinogen) मुख्य रूप से होती हैं। इनका निर्माण यकृत में होता है। रुधिर प्रोटीन्स गोलाकार और घुलनशील होती हैं। ये कोलॉयड्स के रूप में पाई जाती हैं-
इन प्रोटीनों का महत्व निम्न प्रकार है-
1. ये रुधिर प्लाज्मा को गाढ़ा करती है तथा रुधिर के परासरणी दाब का नियंत्रण करती हैं।
2. प्रोथ्रोम्बन तथा फाइब्रिनोजन प्रोटीन रुधिर का थक्का / स्कंदन जमाने में भाग लेती हैं।
3. ऐल्बुमिन्स प्लाज्मा प्रोटीन का लगभग 55% भाग होती है। ये प्लाज्मा के परासरणी दाब को बनाये रखने तथा अन्य पदार्थों के संवहन में सहायक होती है।
4. ग्लोबुलिन परासरणी दाब बनाये रखती है और विभिन्न पदार्थों के संवहन का कार्य करती है।
5. ग्लोबुलिन्स प्रतिरक्षी संक्रमण से शरीर को सुरक्षित रखती है। इसलिए इनको प्रतिरक्षी प्रोटीन्स भी कहते हैं।
6. प्रोटीन शरीर के ताप का नियमन में भी सहायक होती है तथा रुधिर के pH मान को बनाये रखती है।
7. कुछ प्रोटीन्स एन्जाइम्स की भाँति कार्य करती हैं।
प्रश्न 3.
स्तम्भ I का स्तम्भ II से मिलान कीजिए-
स्तम्भ । | सम्भ II |
(i) इयोसिनोफिल्स | (क) रक्त जमाव (स्कंदन) |
(ii) लाल रुधिर कणिकाएँ | (ख) सर्व आदाता |
(iii) AB रक्त समूह | (ग) संक्रमण प्रतिरोधन |
(iv) पहिकाणु प्लेटलैट्स | (घ) हदय संकुचन |
उत्तर:
स्तम्भ । | स्तक्म II |
(i) इयोसिनोफिल्स | (ग) संक्रमण प्रतिरोधन |
(ii) लाल रुधिर कणिकाएँ | (ङ) गैस परिवहन (अभिगमन) |
(iii) AB रक्त समूह | (ख) सर्व आदाता |
(iv) पहिकाणु प्लेटलैट्स | (क) रक्त जमाव (स्कंदन) |
प्रश्न 4.
रक्त को एक संयोजी ऊतक क्यों मानते हैं ?
उत्तर:
रक्त : एक संयोजी ऊतक (Blood: A Connective Tissue)
रक्त एवं लसीका तरल संयोजी ऊतक कहलाते हैं। इनका पूरे शरीर में परिसंचरण होता रहता है। रक्त को इसलिए तरल संयोजी ऊतक माना जाता है, क्योंकि-
1. इसमें आधारभूत पदार्थ – मैट्रिक्स तरल प्लाज्मा होता है ।
2. प्लाज्मा में तन्तु मौजूद नहीं होते हैं।
3. प्लाज्मा में रुधिर कणिकाएँ (blood carpuscles) पाई जाती हैं।
4. रुधिर कणिकाएँ प्लाज्मा का स्रावण नहीं करती हैं।
प्रश्न 5.
लसीका और रुधिर में अन्तर बताइए।
उत्तर:
लसीका और रुधिर में अन्तर
लसीका (Lymph) | रुधिर (Blood) |
1. यह रंगहीन होता है। | 1. सामान्यत: यह लाल रंग का होता है। |
2. इसमें लाल रुधर कणिकाएँ नहीं होती हैं। | 2. इसमें लाल रुधिर कणिकाएँ होती हैं। |
3. इसमें श्वेत रुधिर कणिकाएँ अधिक होती हैं। | 3. इसमें श्वेत रुधिर कणिकाएँ कम होती हैं। |
4. इसमें प्रोटीन की मात्रा कम होती है। | 4. इसमें प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है। |
5. इसमें पोषक पदार्थ तथा ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है। | 5. इसमें पोषक पदार्थ तथा ऑक्सीजन की मात्रा अधिक होती है। |
6. लसीका छना हुआ रुधिर है। | 6. रुधिर सामान्य तरल संयोजी ऊतक है। |
7. CO2 व उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा बहुत अधिक होती है। | 7. CO2 व उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा बहुत कम होती है। |
प्रश्न 6.
दोहरे परिसंचरण से क्या तात्पर्य है? इसकी क्या महत्ता है ?
उत्तर:
दोहरा रक्त परिसंचरण (Double Blood Circulation)
स्तनियों का हृदय स्पष्टतः दो अलिन्दों तथा दो निलयों में विभाजित होता है इसलिए इनके हृदय में परिसंचरण के समय शुद्ध एवं अशुद्ध रक्त एक-दूसरे पूर्णतः पृथक् रहता है- स्तनियों में शुद्ध रक्त ग्रीवा – दैहिक ताप (कैरोटिको सिस्टोमिक महाधमनी चाप) द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों को वितरित किया जाता है।
फिर इन अंगों से अशुद्ध रक्त को अग्र एवं पश्च महाशिराओं द्वारा हृदय के दाहिने अलिन्द में पहुँचा दिया जाता है। फिर यह रक्त दाहिने निलय एवं फुफ्फुसीय चाप (पल्मोनरी चाप ) द्वारा फेफड़ों में शुद्धीकरण हेतु भेजा जाता है। गैसीय विनिमय के बाद शुद्ध रक्त को फुफ्फुसीय शिराओं (पल्मोनरी शिराओं) द्वारा बायें अलिन्द में लाया जाता है तथा बायें निलय के माध्यम से इसे ग्रीवा – दैहिक चाप में प्रवाहित कर दिया जाता है। इस प्रकार एक पूर्ण परिसंचरण पथ में रक्त हृदय में दो बार गुजरता है।
परिसंचरण की ऐसी अवस्था को दोहरा परिसंचरण (double circulation) कहते हैं । विभिन्न शारीरिक अंगों एवं हृदय के बीच परिसंचरण को दैहिक परिसंचरण (systemic circulation) कहते हैं, जबकि हृदय एवं फेफड़ों के बीच होने वाले परिसंचरण को फुफ्फुसीय परिसंचरण (pulmonary circulation) कहते हैं।
दोहरे रक्त परिसंचरण का महत्व (Significance of Double Blood Circulation)
समस्त स्तनियों की धमनियों में प्रवाहित होने वाला रुधिर शिराओं में प्रवाहित होने वाले रुधिर से सदैव पृथक् रहता है। ऐसा निलय के पूर्ण विभाजन के कारण सम्भव होता है। इस व्यवस्था दो प्रमुख लाभ हैं-
(1) शुद्ध (oxygenated) तथा अशुद्ध ( deoxygenated) रुधिर कभी आपस में मिश्रित ( mixed ) नहीं हो पाते हैं।
(2) इस व्यवस्था के रहते हुए हृदय की प्राकुंचन ( Systole ) प्रावस्था में धमनियों द्वारा विभिन्न अंगों तक शुद्ध रुधिर का वितरण तथा प्रसारण ( diastole ) प्रावस्था में शरीर के विभिन्न अंगों से शिराओं द्वारा हृदय तक अशुद्ध रुधिर का पहुँचना सुगमतापूर्वक सम्भव हो जाता है।
प्रश्न 7.
भेद स्पष्ट कीजिए-
(क) रक्त एवं लसीका
(ग) प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन
(ख) खुला व बंद परिसंचरण तंत्र
(घ) P तरंग एवं T तरंग।
उत्तर:
(क) रक्त एवं लसीका में भेद
नोट- अभ्यास प्रश्न 5 का उत्तर देखिये ।
(ख) खुला व बंद परिसंचरण तंत्र में भेद
खुला परिसंचरण तंत्र (Open Círculatory System) | बंद परिसंचरण तंत्र (Closed Circulatory System) |
1.इस तन्त्र में हृदय द्वारा धमनियों में रक्त पंप किया जाता है जो बड़ी गुहाओं या रुधर कोटरों में खुलती हैं। | 1. इस तन्त्र में हृदय रुधिर को उच्च दाब पर धमनियों में पम्प करता है, जो रुधि केशिकाओं में विभाजित होती हैं। |
2. रुधिर ऊतकों के मध्य निम्न दाब पर बहता है तथा धीर-धीरे खुले सिरों वाली शिराओं में प्रवेश करता है। | 2. रुधिर एवं अन्तराली तरल के मध्य पदार्थों का अभिगमन कोशिका भित्तियों द्वारा होता है। |
3. रुधिर वाहिकाओं में बंद नहीं रहता, वाहिकाओं से बाहर आ जाता है। | 3. रुधिर पूरी तरह वाहिकाओं के अन्दर बन्द रहता है। |
4. शरीर के विभिन्न अंग रुधि के सीधे संपर्क में रहते हैं। | 4. शरीर के अंग रुधिर के सीधे संपर्क में नहीं रहते हैं। |
5. रुधिर प्रवाह की गति बहुत धीमी होती है। | 5. रुधिर उच्च दबाव व तेज गति से प्रवाहित होता है। |
6. यह कम प्रभावी होता है। | 6. यह अधिक प्रभावी होता है। |
उदाहरण-कॉकरोच आदि कीटों में व मॉलस्कस में खुला परिसंचरण तंत्र पाया जाता है। | उदाहरण-मनुष्य आदि स्तनियों, पक्षियों व केंचुए में बंद परिसंचरण तंत्र पाया जाता है। |
(ग) प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन में भेद
प्रकुंचन (Systole) | अनुशिथिलन (Diastole) |
1. इसमें हृदय पेशियों में क्रमिक संकुचन (contraction) होता है। | इसमें हृदय पेशियों में क्रमिक अनुशिथिलन (relaxation) होता है। |
2. प्रकुंचन के परिणामस्वरूप रुधिर हुदय से बाहर पंप हो जाता है। | अनुशिधिलन के परिणामस्वरूप हृदय कक्ष अपने वास्तविक आकार में आ जाते हैं और इनमें पुन: रुधिर भरने लगता है। |
(घ) P तरंग तथा T तरंग में भेद
P तरंग (P-wave) | T तरंग (T-wave) |
1. अलिन्द (auricle) के उद्दीपन/विध्रुवण $P$ तरंग के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिससे दोनों अलिन्दों में संकुचन होता है। | निलय (ventricle) की उत्तेजना से सामान्य स्थिति में वापस आने की स्थिति को T तरंग से प्रस्तुत करते हैं। |
2. यह शिरा अलिन्द गाँठ (S.A. node) के कारण होती है। | T तरंग का अन्त प्रकुंचन अवस्था के समापन का प्रतीक है। |
प्रश्न 8.
कशेरुकियों के हृदयों में विकासीय परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कशेरुकियों के हृदयों में विकासीय परिवर्तन (Evolutionary Changes in the Hearts of Vertebrates)
कशेरुकी जन्तुओं के हृदय का निर्माण भ्रूण के मध्य स्तर मीसोडर्म (mesoderm) से होता है। भ्रूणावस्था में आद्यांत्र (आरकेन्ट्रॉन – archenteron) के नीचे आधारीय आंत्र योजनी (मीसेन्ट्री – mesentry) में दो अनुदैर्ध्य अन्तःस्तरी नलिकाएँ (endothelial canals) आपस में मिलकर हृदय बनाती हैं। हृदय एक पेशीय थैली जैसी रचना होती है। यह शरीर से रुधिर एकत्र करके धमनियों (arteries) द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पम्प करता है। कशेरुकी जन्तुओं में हृदय चार प्रकार के होते हैं-
(1) एककोष्ठीय हृदय (Single Chambered Heart) – एक कोष्ठीय सरलतम हृदय सिफेलोकॉर्डेटा (cephalochor – dates ) जन्तुओं में पाया जाता है। प्रसनी (pharynx) के नीचे स्थित अधरीय एओर्टा ( Aorta ) पेशीय होकर रुधिर को पम्प करने का कार्य करता है। इसे एककोष्ठीय हृदय कहा जाता है।
(2) द्विकोष्ठीय हृदय (Two Chambered Heart ) – ऐसा हृदय मछलियों में पाया जाता है। वह अनॉक्सीजनित रुधिर को क्लोमों (gills) में पम्प कर देता है : क्लोमों या गलफड़ों से यह रुधिर ऑक्सीजनित होकर शरीर में वितरित हो जाता है। इसमें धमनी काण्ड तथा शिराकोटर सहायक कोष्ठ तथा अलिन्द (auricle) एवं निलय (ventricle) वास्तविक कोष्ठ होते हैं। ऐसा हृदय शिरीय हृदय (venous heart) कहलाता है।
(3) तीन कोष्ठीय हृदय ( Three Chambered Heart) – जल-स्थलचर प्राणियों ( amphibians) या उभयचरों में तीन कोष्ठीय हृदय पाया जाता है इसमें दो अलिन्द और एक निलय होता है। शिरा कोटर (sinus venosus) दाहिने अलिन्द के पृष्ठ तल पर खुलता है। बाएँ अलिन्द में शुद्ध तथा दाहिने अलिन्द में अशुद्ध रुधिर रहता है । निलय पेशीय होता है। उभयचरों में धमनी काण्ड द्वारा मिश्रित रुधिर शरीर के विभिन्न अंगों में वितरित होता है। पल्मोनरी धमनी अशुद्ध रुधिर को फेफड़ों में पहुँचाती है। इसमें रुधिर परिसंचरण एक परिपथीय होता है।
(4) चार कोष्ठीय हृदय (Four Chambered Heart ) – अधिकांश सरीसृपों (reptiles) में दो अलिन्द और दो अपूर्ण रूप से विभाजित निलय होते हैं। मगरमच्छ के हृदय में दो अलिन्द एवं दो निलय होते हैं। पक्षियों एवं स्तनधारी प्राणियों में दो अलिन्द एवं दो निलय होते हैं। बाएँ अलिन्द एवं बाएँ निलय में ऑक्सीजनित शुद्ध रुधिर भरा रहता है।
इसे दैहिक चाप ( systemic arch) द्वारा शरीर में पम्प कर दिया जाता है। दायें अलिन्द में शरीर के विभिन्न भागों से अनॉक्सीजनित अशुद्ध रुधिर एकत्र होकर आता है, जिसे दाएँ निलय के द्वारा शुद्ध होने के लिए फेफड़ों में भेज दिया जाता है। इस प्रकार हृदय का बायाँ भाग पल्मोनरी हृदय (pulmonary heart) एवं दायाँ भाग सिस्टेमिक हृदय (systemic heart) कहलाता है। इन प्राणियों में दोहरा रुधिर परिसंचरण (double blood circulation) होता है। इनमें रुधिर के मिश्रित होने की सम्भावना नहीं होती है।
प्रश्न 9.
हम अपने हृदय को पेशीजनक (मायोजेनिक ) क्यों कहते हैं ?
उत्तर:
मनुष्य का हृदय पेशीजनक (मायोजेनिक ) होता है हृदय की भित्ति हृदयी पेशियों (cardiac muscles) से बनी होती है। ये पेशियाँ रचना में रेखित पेशियों ( striped muscles) के समान होती हैं किन्तु इनका कार्य अरेखित पेशियों (unstriped muscles) के समान अनैच्छिक होता है। हृदयी पेशियाँ मनुष्य की इच्छा से स्वतन्त्र, बिना थके, बिना रुके, एक निश्चित दर (मनुष्य में 72 – 80 बार प्रति मिनट) और एक निश्चित लय (rhythm ) के साथ जीवन भर संकुचित और अनुशिथिलित होती रहती हैं।
प्रत्येक हृदय स्पंदन में संकुचन की प्रेरणा, प्रेरणा संवहनीय पेशी तन्तुओं – शिरा अलिन्द घुण्डी (Sino-atrial node -S.A. node) से प्रारम्भ होती है। S. A node से संकुचन प्रेरणा स्वतः उत्प्रेरण द्वारा उत्पन्न होकर अलिन्द निलन्द घुण्डी (auriculoventricular node = A. V. node) तथा हिस के पूल (Bundle of His) से होते हुए पुरकिंजे तन्तुओं (Purkinje fibres ) द्वारा अलिन्द और निलयों में फैल जाती है।
हृदय पेशियों में संकुचन के लिए तंत्रिकीय प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती है। पेशियों में संकुचन पेशियों के कारण होते हैं अर्थात् संकुचनं पेशीजनक मायोजेनिक (myogenic) होते हैं। यदि हृदय को आने वाली तन्त्रिकाओं को काट दिया जाये तो भी हृदय अपनी निश्चित गति से धड़कता रहता है। तंत्रिकीय प्रेरणाएँ हृदय की गति की दर को प्रभावित करती हैं। हृदय पेशियों के तन्तुओं में ऊर्जा उत्पादन के लिए पर्याप्त संख्या में माइटोकॉण्ड्रिया उपस्थित होते हैं।
प्रश्न 10.
शिरा अलिन्द पर्व (कोटरालिन्द गाँठ SAN) को हृदय का गति प्रेरक (पेस मेकर) क्यों कहा जाता है ?
उत्तर:
शिरा अलिन्द पर्व ( कोटरालिन्द गाँठ SAN) – दाहिने अलिन्द की भित्ति में अग्रमहाशिरा खुलने के छिद्र के पास एक संकुचन केन्द्र होता है। जिसे शिरा अलिन्द घुण्डी (Sino auricular node SAN) कहते हैं। यह घुण्डी हृदय की गति पर नियंत्रण रखती है। अतः इसे गति प्रेरक (पेस मेकर Pace maker) भी कहते हैं। इससे स्पंदन संकुचन प्रेरणा स्वतः उत्पन्न होती हैं।
इसके तन्तुओं में 55 से 60 मिली वोल्ट का विश्राम विभव (resting potential) होता है, जबकि हृदय पेशियों में यह 85 से 95 मिली वोल्ट और हृदय में फैले विशिष्ट चालक तन्तुओं में 90 से 100 मिली वोल्ट होता है। S.A. Node में Na आयनों के लीक होने से हृदय स्पंदन प्रारम्भ होता है। S.A. Node की लयबद्ध उत्तेजना 72 स्पंदन प्रति मिनट की एक सामान्य विराम दर आजीवन चलती रहती है।
प्रश्न 11.
अलिन्द निलय गाँठ ( AVN ) तथा अलिन्द निलय बंडल (AVB) का हृदय के कार्य में क्या महत्व है ?
उत्तर:
अलिन्द निलय गांठ ( Auriculo – Ventricular Node AVN ) शिरा अलिन्द पर्व के तन्तु अन्त में अपने चारों ओर के अलिन्द पेशी तन्तुओं के साथ मिलकर शिरा अलिन्द पर्व (SAN) तथा अलिन्द निलय गाँठ ( AVN ) के मध्य एक अन्तरापर्वीय पथ का निर्माण करते हैं। अलिन्द निलय गाँठ (AVN) अन्तरालिन्द पट के दायें भाग में हृद कोटर (coronary sinus) के छिद्र के समीप होती है।
यह दूसरा पेस मेकर होता है। अलिन्द निलय गांठ के पेशी तन्तु अलिन्द निलय बण्डल (Auriculo – Ventricular Bundle; AVB) या हिस के पूल ( bundle of His) से मिलकर निलय के दायें बायें बँट जाते हैं। इनसे रकिन्जे तन्तुओं (Purkinje fibres ) का निर्माण होता है। शिरा अलिन्द पर्व (SAN) में उत्पन्न संकुचन एवं अनुशिथिलन के उद्दीपन अलिन्द निलय गाँठ ( AVN ) एवं अलिन्द निलय बण्डल (AVB) या हिस के से होते हुए निलय में स्थित पुरकिन्जे तन्तुओं में पहुँचते हैं। इसके परिणामस्वरूप हृदय के अलिन्द (auricle) तथा निलय ( ventricle) में क्रमश: संकुचन एवं अनुशिथिलन होता रहता है। हृदय शरीर के विभिन्न भागों से रुधिर को एकत्र करके पुनः पम्प करता रहता है।
प्रश्न 12.
हद् चक्र तथा हृद् निकास को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
हृद् चक्र (Cardiac cycle ) – एक हृदय स्पन्दन के प्रारम्भ से दूसरे स्पन्दन के प्रारम्भ होने के बीच के घटना क्रम को हद् चक्र कहते हैं। इस क्रिया में दोनों अलिन्दों तथा दोनों निलयों का प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन सम्मिलित होता है। हृदय स्पन्दन एक मिनट में 72 बार होता है अर्थात् एक मिनट में कई बार हृद् चक्र होता है। अतः एक हृद् चक्र का समय 0.8 सेकण्ड होता है। हृद् निकास (Cardiac output ) – प्रत्येक हृद् चक्र में हृदय का निलय 70 मिली रक्त पम्प करता है।
इसे प्रवाह आयतन (Strock Volume) कहते । प्रवाह आयतन को हृदय दर से गुणा करने पर जो मात्रा आती है, उसे हृद् निकास कहते हैं। हृद् निकास हृदय दर x प्रवाह आयतन इस प्रकार हृद् निकास प्रत्येक निलय द्वारा रक्त की मात्रा प्रति मिनट बाहर निकालने की क्षमता है, जो एक स्वस्थ व्यक्ति में लगभग 5 हजार मिली या 5 लीटर होती है। खिलाड़ियों / धावकों का हृद् निकास सामान्य मनुष्य से अधिक होता है।
प्रश्न 13.
हृदय ध्वनियों की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर:
हृदय ध्वनियाँ (Heart Sounds ) – स्टैथोस्कोप ( Stathoscope) नामक यंत्र को हृदय के ऊपर लगाकर सुनने पर हृदय की ध्वनियाँ एक निश्चित क्रम में सुनाई देती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं-
1. लब (Lubb) – यह हृदय की पहली ध्वनि होती है जो दोनों निलयों के संकुचन का प्रारम्भ होते समय द्विवलनी तथा त्रिवलनी (bicuspid & tricuspid) कपाटों के बन्द होने के कारण उत्पन्न होती है। इसे सिस्टोलिक ध्वनि (systolic sound) भी कहते हैं ।
2. डब (Dup) – यह हृदय की दूसरी ध्वनि होती है जो निलयों के अनुशिथिलन प्रारम्भ होने पर अर्द्धचन्द्राकार कपाटों के बन्द होने के कारण उत्पन्न होती है। यह अपेक्षाकृत हल्की ध्वनि होती है। इसे डायस्टोलिक ध्वनि ( diastolic sound) भी कहते हैं ।
प्रश्न 14.
एक मानक ईसीजी को दर्शाइए तथा उसके विभिन्न खण्डों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर:
विद्युत हृद् लेखन (इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफ) (Electrocardiography) – विद्युत हृद् लेख (इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफ – ECG) हृदय के हृदयी चक्र की विद्युत क्रियाकलापों का आरेखीय प्रस्तुतीकरण है। ECG के लिए प्रयोग किये जाने वाले उपकरण को विद्युत हद लेखी (electrocardiography) कहते हैं। इसमें कुछ विद्युत छड़ें होती हैं। हृद् चक्र में चालक तंत्र के तन्तुओं के विधुवण तथा पुनः धुवण के कारण बनी रेखा के विक्षेपों को PQ, R, S T अक्षरों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
इन अक्षरों के बीच के भाग को मध्यावकाश (intervals) कहते हैं। ECG एक लहरदार ग्राफ के रूप में होता है। इसमें एक सीधी रेखा से तीन स्थानों पर लहरें उठी दिखाई देती हैं। P लहर QRS समिश्र तथा T लहर के रूप में होती हैं। P लहर ऊपर की ओर उठी हुई एक छोटी-सी लहर होती है। यह 0.1 सेकण्ड के अलिन्दीय संकुचन की सूचक होती है। इसके समाप्त होने के 0.1 सेकण्ड बाद QRS समिश्र की लहर प्रारम्भ होती है। ये एक दूसरी से जुड़ी हुई तीन पतली किन्तु नुकीली लहरें होती हैं।
इनमें नीचे की ओर उठी हुई छोटी-सी Q लहर इससे ऊपर की ओर उठी हुई R लहर तथा इससे जुड़ी नीचे की ओर उठी छोटी-सी 5 लहर होती है। QRS समिश्र 0.3 सेकण्ड के निलयी संकुचन के प्रारम्भ का सूचन होता है। इसके बाद निलयी संकुचन की अन्तिम प्रावस्था और इनके क्रमिक प्रसारण के प्रारम्भ की सूचक T लहर होती है। ECG के प्रदर्शित तरंगों (लहरों) तथा उनके मध्यावकाशों के स्वरूप का अध्ययन करके डॉक्टर हृद्-स्पन्दन की अनियमितताओं का पता लगाते हैं।