Class 12

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 2 प्रशिक्षण विधियाँ

Haryana State Board HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 2 प्रशिक्षण विधियाँ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Physical Education Solutions Chapter 2 प्रशिक्षण विधियाँ

HBSE 12th Class Physical Education प्रशिक्षण विधियाँ Textbook Questions and Answers

दीर्घ-उत्तरात्मक प्रश्न [Long Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
आइसोमीट्रिक, आइसोटोनिक एवं आइसोकाइनेटिक व्यायामों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
1. आइसोमीट्रिक व्यायाम (Isometric Exercises):
ये वे व्यायाम होते हैं जिनमें खिलाड़ी द्वारा किया गया व्यायाम या कार्य नजर नहीं आता। ऐसे व्यायाम में तनाव की अधिकता तथा तापमान में वृद्धि की संभावना रहती है। हमारे अत्यधिक बल लगाने पर भी वस्तु अपने स्थान से नहीं हिलती। उदाहरणार्थ, एक ट्रक को धकेलने के लिए एक व्यक्ति बल लगाता है, परंतु वह अत्यधिक भारी होने के कारण अपनी जगह से नहीं हिलता, परंतु तनाव बना रहता है जिससे हमारी ऊर्जा का व्यय होता है। कई बार हमारे शरीर का तापमान भी बढ़ जाता है। ऐसे व्यायाम करने से माँसपेशियों की लंबाई तथा मोटाई बढ़ जाती है। कुछ आइसोमीट्रिक व्यायाम निम्नलिखित हैं-
(1) बंद दरवाजों को धकेलना
(2) पीठ से दीवार को दबाना
(3) पैरलल बार को पुश करना
(4) दीवार या जमीन पर उँगली, कोहनी या कंधा दबाना
(5) कुर्सी को दोनों हाथों से अंदर की ओर दबाना
(6) घुटने मोड़ना
(7) डैस्क को हाथ, उँगली, पैर या पंजे से दबाना आदि।

2. आइसोटोनिक व्यायाम (Isotonic Exercises):
ऐसे व्यायामों में खिलाड़ी की गतिविधियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। इन व्यायामों का उद्देश्य माँसपेशियों की कार्यक्षमता में वृद्धि करना होता है। इनसे माँसपेशियों में लचक आती है। इन अभ्यासों को समशक्ति जोर भी कहते हैं। कुछ आइसोटोनिक व्यायाम हैं-
(1) हल्के भार के व्यायाम करना
(2) हल्का बोझ उठाना
(3) झूला झूलना
(4) बाल्टी उठाना आदि।

3. आइसोकाइनेटिक व्यायाम (Isokinetic Exercises):
ये व्यायाम आइसोमीट्रिक एवं आइसोटोनिक व्यायामों का मिश्रण हैं। इनमें मध्यम रूप में भार रहता है ताकि माँसपेशियाँ ‘Bulk’ और ‘Tone’ दोनों रूप में वृद्धि कर सके। ये अत्यंत आधुनिक व्यायाम हैं जिनमें पहले दोनों प्रकार के व्यायामों का लाभ मिल जाता है। इनसे हम अपने शरीर को गर्मा भी सकते हैं। इनके उदाहरण हमें दैनिक जीवन में भी देखने को मिल सकते हैं; जैसे-
(1) बर्फ पर स्केटिंग करना
(2) भार ढोना
(3) चिन-अप
(4) भारी रोलर धकेलना
(5) रस्सी पर चलना।

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प्रश्न 2.
सहनशीलता के विकास (Endurance Development) की विधियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
सहनशीलता को किस प्रकार बढ़ाया जा सकता है? इसकी प्रशिक्षण विधियों का ब्यौरा दें।
उत्तर:
व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिए सहनशीलता का विकास होना बहुत आवश्यक है। सहनशीलता के विकास में अनेक प्रशिक्षण विधियाँ महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। अतः इन विधियों का विवरण इस प्रकार है-
1. निरंतर प्रशिक्षण विधि (Continuous Training Method):
निरंतर प्रशिक्षण विधि सहनशीलता को बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है.। इस तरीके में व्यायाम लंबी अवधि तक बिना रुके अर्थात् निरंतर किया जाता है। इस तरीके में सघनता बहुत कम होती है क्योंकि व्यायाम लंबी अवधि तक किया जाता है। क्रॉस-कंट्री दौड़ इस प्रकार के व्यायाम का सबसे अच्छा उदाहरण है। इस तरह के व्यायाम में हृदय की धड़कन की दर लगभग 140 से 160 प्रति मिनट होती है। व्यायाम करने की अवधि कम-से-कम 30 मिनट होनी आवश्यक है। इस विधि से हृदय तथा फेफड़ों की कार्यकुशलता में वृद्धि हो जाती है। इससे इच्छा-शक्ति दृढ़ हो जाती है तथा थकावट की दशा में लगातार काम करने से व्यक्ति दृढ़-निश्चयी बन जाता है। इससे व्यक्ति में आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन व आत्म-विश्वास बढ़ने लगता है।

2. अंतराल प्रशिक्षण विधि (Interval Training Method):
प्रसिद्ध एथलेटिक्स कोच बिकिला (Bikila) ने सन् 1920 में अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत की। उन्होंने इसे टेरेस ट्रेनिंग का नाम दिया। वास्तव में यह विधि प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति, फिर प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति के सिद्धांत पर आधारित है। इस विधि का प्रयोग गति तथा सहनशीलता के विकास के लिए होता है। शिक्षित खिलाड़ी के लिए यह अति सुदृढ़ तथा प्रभावशाली प्रशिक्षण विधि है, परंतु इस विधि को अनुचित ढंग से अपनाने से उकताहट के कारण शारीरिक एवं मानसिक थकावट उत्पन्न होती है।

3. फार्टलेक प्रशिक्षण विधि (Fartlek Training Method):
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि क्रॉस-कंट्री दौड़ पर आधारित है तथा दौड़ के साथ-साथ कई अन्य व्यायाम भी इसमें शामिल हैं। यह प्रशिक्षण खिलाड़ी की आयु, क्षमता आदि देखकर दिया जाता है। इस प्रशिक्षण विधि में कदमों के फासले या दूरी और तीव्रता आदि में फेर-बदल करके दौड़ का कार्यक्रम बनता है। भागते-भागते जमीन से कोई वस्तु उठाना, भागते-भागते आधी बैठक लगाना, एक टाँग से दौड़ना, दोनों पैरों से कूद लगाना, हाथ ऊपर करके भागना आदि इसके उदाहरण हैं। खिलाड़ी अपनी इच्छानुसार गति तथा अन्य व्यायामों में फेर-बदल कर सकता है। इस विधि से थकान का अनुभव नहीं होता। इसमें समय पर विशेष बल दिया जाता है। खिलाड़ी में अधिक शक्ति अथवा क्षमता बनाई जाती है।
इस प्रकार उपर्युक्त विधियों की सहायता से सहनशीलता को बढ़ाया जा सकता है।

प्रश्न 3.
गति को प्रशिक्षण विधि में कैसे विकसित किया जाता है?
अथवा
गति की प्रशिक्षण विधि का वर्णन कीजिए।
अथवा
गति के विकास की विभिन्न विधियों का वर्णन कीजिए। अथवा
गति के विकास के लिए त्वरण दौड़ों का वर्णन कीजिए।
अथवा
त्वरण दौड़ों तथा पेस दौड़ों पर नोट लिखें।
उत्तर:
गति वह योग्यता या क्षमता है जिसके द्वारा एक ही प्रकार की गतिविधि को बार-बार तीव्र गति से किया जाता है। वास्तव में, किसी क्रिया को अधिक-से-अधिक तेज़ गति के साथ करने की योग्यता को गति कहा जाता है। अधिकतर खेलों में गति का प्रयोग किया जाता है। गति के विकास की विभिन्न विधियाँ निम्नलिखित हैं
1. त्वरण दौड़ें (Acceleration Races):
सामान्यतया गति के विकास के लिए त्वरण दौड़ें अपनाई जाती हैं, विशेष रूप से स्थिर अवस्था से अधिकतम गति प्राप्त करने के लिए इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी इवेन्ट की तकनीक शुरू में ही सीख लें। इस प्रकार की दौड़ों के लिए एथलीट या खिलाड़ी को एक विशेष दूरी की दौड़ लगानी होती है। वह स्टार्टिंग लाइन से स्टार्ट लेता है और जितनी जल्दी सम्भव हो सके, उतनी जल्दी अधिकतम गति प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसी गति से निश्चित की हुई दूरी को पार करता है।

त्वरण दौड़ें बार-बार दौड़ी जाती हैं। इन दौड़ों के बीच में मध्यस्थ/अंतराल का समय काफी होता है। स्प्रिट लगाने वाले प्रायः स्थिर अवस्था के बाद से लेकर अधिकतम गति 6 सेकिण्ड में प्राप्त कर लेते हैं। इसका मतलब है कि स्टार्ट लेने से लेकर त्वरित करने तथा अधिकतम गति को बनाए रखने में 50 से 60 मी० की दूरी की आवश्यकता होती है। ऐसा प्रायः देखा गया है कि बहुत अच्छे खिलाड़ी/एथलीट केवल 20 मी० तक अपनी अधिकतम गति को बनाए रख सकते हैं। इन दौड़ों की संख्या खिलाड़ी/एथलीट की आयु, उसके अनुभव व उसकी क्षमता के अनुसार निश्चित की जा सकती है। यह संख्या 6 से 12 हो सकती है। त्वरण दौड़ में कम-से-कम दूरी 20 से 40 मीटर होती है। इन दौड़ों से पहले उचित गर्माना बहुत आवश्यक होता है। प्रत्येक त्वरण दौड़ के बाद उचित मध्यस्थ/अंतराल भी होना चाहिए, ताकि खिलाड़ी/एथलीट अगली दौड़ बिना किसी थकावट के लगा सके।

2. पेस दौड़ें (Pace Races):
पेस दौड़ों का अर्थ है-एक दौड़ की पूरी दूरी को एक निश्चित गति से दौड़ना। इन दौड़ों में एक खिलाड़ी/एथलीट दौड़ को समरूप या समान रूप से दौड़ता है। सामान्यतया 800 मी० व इससे अधिक दूरी की दौड़ें पेस दौड़ों में शामिल होती हैं। वास्तव में, एक एथलीट लगभग 300 मी० की दूरी पूरी गति से दौड़ सकता है। इसलिए मध्यम व लम्बी दौड़ों में; जैसे 800 मी० व इससे अधिक दूरी की दौड़ों में उसे अपनी गति में कमी करके अपनी ऊर्जा को संरक्षित रखना जरूरी है। उदाहरण के लिए, यदि एक 800 मी० की दौड़ लगाने वाला एथलीट है और उसका समय 1 मिनट 40 सेकिण्ड है, तो उसे पहली 400 मी० दौड़ 49 सेकिण्ड में तथा 400 मी० दौड़ 51 सेकिण्ड में लगानी चाहिए। यह प्रक्रिया ही पेस दौड़ कहलाती है। पेस दौड़ों की दोहराई खिलाड़ी की योग्यता के अनुसार निश्चित की जा सकती हैं।

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प्रश्न 4.
निरंतर प्रशिक्षण विधि क्या है? खिलाड़ियों में सहनशीलता के विकास में इस विधि का क्या योगदान है?
अथवा
निरंतर प्रशिक्षण विधि (Continuous Training Method) क्या है? इस विधि के लाभों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
निरंतर प्रशिक्षण विधि (Continuous Training Method):
निरंतर प्रशिक्षण विधि सहनशीलता को बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है। यह ऐसी विधि है जिसमें व्यायाम लंबी अवधि तक बिना रुके अर्थात् निरंतर किए जाते हैं। इस तरीके में सघनता बहुत कम होती है क्योंकि व्यायाम लंबी अवधि तक किया जाता है। क्रॉस-कंट्री दौड़ इस प्रकार के व्यायाम का सबसे अच्छा उदाहरण है। इस तरह के व्यायाम में हृदय की धड़कन की दर लगभग 140 से 160 प्रति मिनट होती है। व्यायाम करने की अवधि कम-से-कम 30 मिनट होनी आवश्यक है। एथलीट या खिलाड़ी की सहनशीलता की योग्यता के अनुसार व्यायाम करने की अवधि में बढ़ोतरी की जा सकती है।

निरंतर प्रशिक्षण विधि के लाभ (Advantages of Continuous Training Method): निरंतर प्रशिक्षण विधि के लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) इस व्यायाम से माँसपेशियों तथा जिगर में ग्लाइकोजिन बढ़ जाता है।
(2) इससे हृदय तथा फेफड़ों की कार्यकुशलता में वृद्धि हो जाती है।
(3) इससे इच्छा-शक्ति दृढ़ हो जाती है तथा थकावट की दशा में लगातार काम करने से व्यक्ति दृढ़-निश्चयी बन जाता है।
(4) अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए व्यायाम की सघनता को बढ़ाया जा सकता है।
(5) इससे व्यक्ति में आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन व आत्म-विश्वास बढ़ने लगता है।

प्रश्न 5.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
अथवा
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि क्या है? खिलाड़ियों में सहनशीलता के विकास में इस विधि का क्या योगदान है?
अथवा
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि से आप क्या समझते हैं? इस विधि के लाभों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि (Fartlek Training Method):
फार्टलेक (Fartlek) स्वीडन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है-‘Speed Play’ अर्थात् ‘गति से खेलना’ इस प्रकार का प्रशिक्षण खिलाड़ी खेल के मैदान या जिम्नेजियम में नहीं करता। यह प्रशिक्षण घास के मैदान, पहाड़ों, रेतीली ज़मीन, जंगल आदि में लिया जाता है। इस प्रशिक्षण में शारीरिक शक्ति और सहनशीलता बढ़ाने के लिए दौड़ने के अतिरिक्त प्राकृतिक साधनों की सहायता से व्यायाम किए जाते हैं; जैसे पेड़ पर चढ़ना, नदी को पार करना, पहाड़ों पर चढ़ना व उतरना आदि। खिलाड़ियों में सहनशीलता के विकास में इस प्रशिक्षण विधि का विशेष योगदान है। इस प्रशिक्षण विधि का मुख्य लाभ खिलाड़ी को यह मिलता है कि वह रोज़ाना एक ही प्रकार के व्यायाम खेल के मैदान तथा जिम्नेजियम में करते-करते बोरियत अनुभव करता है, उससे उसे निजात मिलती है। वह इस परिवर्तित प्रशिक्षण के ढंग से उत्साहित होता है।

फार्टलेक प्रशिक्षण विधि में खिलाड़ी एक निश्चित दूरी तक दौड़ने का कार्यक्रम बनाते हैं। दूरी तय करने का समय निश्चित किया जाता है लेकिन पग के फासले तथा उनकी तीव्रता में फेर-बदल पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। दौड़ समाप्त करने का फैसला खिलाड़ी के स्तर को देखकर किया जाता है। प्रशिक्षण प्राप्तकर्ता धीमी गति से दौड़ प्रारम्भ करता है तथा उसको पगों में फेर-बदल करने की छूट होती है। इस दौड़ में केवल निश्चित समय में दौड़ समाप्त करने तथा मध्य में तीव्र गति की दौड़-दौड़ने पर जोर दिया जाता है। इस दौड़ के साथ प्रशिक्षक विभिन्न किस्म के व्यायाम जोड़ सकता है; जैसे एक टाँग पर छलाँग लगानी, दोनों पाँवों से छलाँग लगानी तथा दोहरी छलाँग आदि । व्यायाम का चयन खिलाड़ी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। फार्टलेक प्रशिक्षण विधि को गति का खेल (Speed Play) भी कहा जाता है।

फार्टलेक प्रशिक्षण विधि के लाभ (Advantages of Fartlek Training Method): फार्टलेक प्रशिक्षण विधि के लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) खिलाड़ी अपनी इच्छानुसार गति तथा अन्य व्यायामों में फेर-बदल कर सकता है।
(2) इससे थकान का अनुभव नहीं होता।
(3) इसमें समय पर विशेष बल दिया जाता है।
(4) इससे चहुंमुखी विकास होता है।
(5) शरीर प्रत्येक कठोर व्यायाम अथवा प्रतियोगिता में भाग लेने के योग्य हो जाता है।
(6) इससे आत्म-विश्वास बढ़ता है।
(7) इससे नए अनुभव प्राप्त होते हैं और रचनात्मकता बढ़ती है।

निष्कर्ष (Conclusion):
इस प्रशिक्षण विधि के निष्कर्ष में यह कहा जाता है कि यह ऐसी ज़मीन पर करवाया जाता है जो कि प्रतियोगिता में प्रयुक्त किए जाने वाले ट्रैक (दौड़ पथ) से कोई सम्बन्ध न होने के कारण कोई लाभ नहीं होता। वास्तव में, जो व्यक्ति असमतल धरातल पर प्रशिक्षण करते हैं, वे बनाए गए बढ़िया ट्रैक पर सुगमतापूर्वक भाग ले सकते हैं। ऐसे खिलाड़ी बढ़िया प्रदर्शन कर सकते हैं। इससे खिलाड़ियों की शारीरिक क्षमता तथा सहनशीलता में वृद्धि होती है। यह प्रशिक्षण विधि सभी किस्मों के खेलकूद की गतिविधियों के लिए शक्ति तथा सहनशीलता बढ़ाने का एक बढ़िया साधन है।

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प्रश्न 6.
मध्यांतर/अंतराल विधि की सविस्तार व्याख्या कीजिए।
अथवा
अंतराल प्रशिक्षण विधि क्या है? खिलाड़ियों में सहनशीलता के विकास में इस विधि का प्रयोग कैसे किया जाता है?
अथवा
अंतराल प्रशिक्षण विधि (Interval Training Method) क्या है? इस विधि के लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
अंतराल प्रशिक्षण विधि (Interval Training Method):
प्रसिद्ध एथलेटिक्स कोच बिकिला (Bikila) ने सन् 1920 में अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत की। उन्होंने इसे टेरेस ट्रेनिंग (Terrace Training) का नाम दिया। वास्तव में यह विधि प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति, फिर प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति के सिद्धांत पर आधारित है। अंतराल प्रशिक्षण के समय खिलाड़ी को हर बार तेज गति के कार्य करने के बाद पुनः शक्ति प्राप्त करने हेतु समय प्रदान किया जाता है। खिलाड़ी की क्षमता के अनुसार पुनः शक्ति प्राप्त करने के समय को व्यवस्थित किया जा सकता है। पुनः शक्ति प्राप्ति का समय कम करके या बढ़ाकर भार को घटाया या बढ़ाया जा सकता है।

अतः पूरी गति से एक चक्कर ट्रैक का लगाकर दूसरा चक्कर धीरे-धीरे दौड़कर फिर एक गति पूर्ण, फिर धीरे-धीरे दौड़कर चक्र पूरा करने को अंतराल प्रशिक्षण कहते हैं। इसे तेज और धीरे दौड़ना भी कहते हैं। इस प्रशिक्षण में पाँच बातों का ध्यान रखना चाहिए-
(1) दूरी
(2) अंतराल
(3) दौड़ों के बीच आराम का समय
(4) तेज दौड़ों का समय
(5) आराम।
इस विधि का प्रयोग गति तथा सहनशीलता के विकास के लिए होता है। खिलाड़ी के लिए यह अति सुदृढ़ तथा प्रभावशाली प्रशिक्षण विधि है, परंतु इस विधि को अनुचित ढंग से अपनाने से उकताहट के कारण शारीरिक एवं मानसिक थकावट उत्पन्न होती है।

अंतराल प्रशिक्षण विधि के लाभ (Advantages of Interval Training Method):
इस प्रशिक्षण विधि के मुख्य लाभ निम्नलिखित प्रकार से हैं-
(1) अंतराल प्रशिक्षण विधि व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुसार बिना टीम के दबाव के चलाई जाने वाली व्यक्तिगत विधि है।
(2) इस प्रशिक्षण विधि में आवश्यक आराम के क्षणों में कमी करके शक्ति, क्षमता एवं धैर्य से विकास किया जा सकता है।
(3) इस प्रशिक्षण विधि से खिलाड़ी अपनी प्रगति का स्वयं अनुमान लगा सकता है।
(4) इस प्रशिक्षण विधि में नाड़ी की धड़कन को स्थिर बनाकर शीघ्र एकात्मक क्षमता को विकसित किया जा सकता है।
(5) इस प्रशिक्षण विधि के द्वारा थकावट के पश्चात् शीघ्र विश्राम पाने की क्षमता में वृद्धि की जा सकती है। .

प्रश्न 7.
गर्माने से आपका क्या अभिप्राय है? इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा
वार्मिंग-अप से क्या अभिप्राय है? खिलाड़ियों के लिए इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
गर्माने का अर्थ (Meaning of Warming-up):
किसी कार्य को सुचारु रूप से करने के लिए मांसपेशियों को उसके अनुरूप तैयार करना पड़ता है। इसे माँसपेशियों का गर्माना कहते हैं। अतः गर्माने का अर्थ है-शरीर को प्रतियोगिता अथवा कार्य के लिए उचित व्यवस्था में लाना। इससे अच्छे परिणाम निकलते हैं तथा शरीर को कोई आघात नहीं पहुँचता।

शरीर को गर्माने का महत्त्व (Importance of Warming-up): शरीर को गर्माने से हमारे शरीर पर अनेक लाभदायक प्रभाव पड़ते हैं-
(1) शरीर को गर्माने से श्वसन प्रक्रिया में आवश्यकतानुसार सुधार हो जाता है।
(2) शरीर को गर्माने से शरीर का तापमान बढ़ जाता है।
(3) खेल-प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को गर्माना बहुत आवश्यक है। यदि शरीर को बिना गर्माए प्रतियोगिता में भाग लिया जाए तो खेल में चोट लगने की संभावना अधिक रहती है। अच्छी तरह शरीर को गर्माने से खिलाड़ी को अच्छा प्रदर्शन करने की प्रेरणा मिलती है और इससे शरीर में अधिक कार्य करने की क्षमता आ जाती है।
(4) रक्त संचार आवश्यकतानुसार बढ़ता है तथा अतिरिक्त कार्यभार के अनुरूप हो जाता है।
(5) शरीर व मांसपेशियों में तालमेल व सामंजस्य बनाए रखने के लिए शरीर को गर्माना आवश्यक है। इससे माँसपेशियाँ अनुकूल हो जाती हैं।
(6) इसके द्वारा शरीर के विभिन्न भागों व इन्द्रियों में आपसी तालमेल बढ़ जाता है।
(7) इससे फेफड़ों की साँस खींचने व छोड़ने की प्रक्रिया का विकास होता है।
(8) खेल प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को गर्म करने से खिलाड़ी का अपने खेल मुकाबले के प्रति मानसिक तनाव कम हो जाता है जिससे उसका प्रदर्शन बढ़ जाता है।
(9) शरीर को गर्माने से पाचन क्रिया में सुधार होता है। शरीर को गर्माने से एक ओर तो भूख अधिक लगती है और दूसरी ओर भोजन अति शीघ्र पच जाता है।
(10) गर्माने से खिलाड़ी शारीरिक-मानसिक रूप से तैयार हो जाता है। शरीर को गर्माने से उसका भय खत्म हो जाता है और खेल खेलने के लिए उसमें आत्म-विश्वास या हौसला उत्पन्न हो जाता है।
(11) कसरत से मानवीय शरीर में लाल रक्ताणुओं और हीमोग्लोबिन की मात्रा में वृद्धि होती है। इनके बढ़ने से शरीर तंदुरुस्त और चुस्त रहता है। तंदुरुस्त और चुस्त शरीर खिलाड़ी की कुशलता में वृद्धि करता है।
(12) शरीर की अंदरुनी तोड़-फोड़ मानवीय शरीर को कमज़ोर और सुस्त बनाती है। इससे उसकी कार्यक्षमता में कमी आ जाती है। खेल से पहले गर्माना शरीर की अंदरुनी तोड़-फोड़ को ठीक करता है जिससे खिलाड़ी की कुशलता बढ़ती है।

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प्रश्न 8.
शरीर को गर्माने की विभिन्न क्रियाओं व विधियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
गर्माने (वार्मिंग-अप) की विभिन्न व्यायाम क्रियाओं का ब्यौरा दें।
उत्तर:
किसी कार्य को सुचारु रूप से करने के लिए माँसपेशियों को उसके अनुरूप तैयार करना गर्माना कहलाता है। यदि शरीर को. बिना गर्माए कठोर व्यायाम किया जाए तो माँसपेशियों को चोट पहुँच सकती है या उनमें कोई विकार उत्पन्न हो सकता है।

गर्माने की क्रियाएँ/गतिविधियाँ (Exercises of Warming-up):
शरीर और माँसपेशियों को गर्माने के लिए निम्नलिखित क्रियाएँ/गतिविधियाँ सरल से कठिन के सिद्धांत पर आधारित हैं-
1. धीमी गति से दौड़ना या जॉगिंग (Running at Slow Speed or Jogging):
प्रत्येक खिलाड़ी को अपनी क्षमता और स्तर के अनुसार धीमी गति से दौड़ना चाहिए। निम्न स्तर के खिलाड़ी को दो-तीन चक्कर लगाने चाहिएँ। स्तर में वृद्धि के साथ चक्करों की संख्या में भी वृद्धि होनी चाहिए।

2. आसान व्यायाम (Simple Exercises):
धीमी गति से दौड़ने के पश्चात् खिलाड़ी को आसान व्यायाम करने चाहिएँ। ये व्यायाम हाथ, पैर, कंधे, कमर से संबंधित होने चाहिएँ। व्यायाम सरल से जटिल के अनुसार करने चाहिएँ।

3. स्ट्राइडिंग (Striding):
इस व्यायाम में खिलाड़ी को अपनी पूरी गति से दौड़ना चाहिए। इसमें लंबे तथा ऊँचे कदम लेने चाहिएँ। इस प्रकार का व्यायाम लगभग 60 से 80 मी० तक दौड़कर करना चाहिए तथा वापसी पर चलकर आना चाहिए। यह क्रिया 4 से 6 बार दोहरानी चाहिए। दौड़ते समय कदम लंबे, शरीर आगे की ओर तथा घुटने ऊपर उठाकर दौड़ना चाहिए।

4. खिंचाव वाले व्यायाम (Pulling Exercises): स्ट्राइडिंग के बाद शरीर के विभिन्न अंगों के व्यायाम करने चाहिएँ। इनमें मुड़ना, झुकना, खिंचाव तथा झटके वाले व्यायाम भी शामिल हैं।

5. विंड स्प्रिंट्स (Wind Sprints):
ये व्यायाम हवा के झोंकों की भांति रुक-रुककर 20-25 मीटर तीव्र गति से दौड़कर करने चाहिएँ। इनकी पुनरावृत्ति 4-6 बार होनी चाहिए। इसमें यह अनिवार्य है कि सदैव स्पाईक्स पहनकर ही चक्कर लगाने चाहिएँ न कि कपड़ों के जूते पहनकर।

उपर्युक्त पाँचों व्यायाम करने के बाद खिलाड़ी, धावक तथा एथलीट को 5-7 मिनट तक कार्यरत व्यायाम करना चाहिए। ये सब व्यायाम प्रतियोगिता की अंतिम पुकार से पूर्व कर लेने चाहिएँ। प्रतियोगिता में शांत मन से भाग लेना चाहिए और प्रतियोगिता के स्थान पर समय से पहुँच जाना चाहिए।

गर्माने की विधियाँ (Methods of Warming-up):
शरीर को गर्माने के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जा सकता है-
1. वातानुकूलित स्थान पर शरीर को गर्माना (Warming-up of the Body in Air Conditioned Place):
जहाँ सारा साल बर्फ पड़ती है या मौसम खराब रहता है, वहाँ गर्माने के वैज्ञानिक साधन अपनाए जाते हैं, यथा खिलाड़ी या एथलीट गर्माने के लिए आवश्यकतानुसार कमरे में जाकर शरीर को गर्मा लेते हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के यंत्र भी कार्य में लाए जाते हैं।

2. मालिश द्वारा शरीर को गर्माना (Warming-up of the Body through Massage):
मालिश द्वारा शरीर को गर्माने की विधि बहुत पुरानी है। इस विधि से शरीर की मांसपेशियों को गर्माने से वे अर्ध-तनाव की स्थिति में आ जाती हैं जिससे कार्य तत्परता के साथ किया जाता है। इस विधि में एक बड़ी कठिनाई यह है कि मालिश या तो स्वयं खिलाड़ी को करनी चाहिए अथवा उसके किसी साथी को। हर समय मालिश वाले साथी का साथ संभव नहीं है।

3. गर्म पानी से गर्माना (Warming-up through Hot Water): गर्म पानी से नहाकर भी शरीर को गर्माया जा सकता है।

4. चाय व कॉफी आदि का सेवन (Drinking Tea & Coffee etc.):
कुछ लोगों का विचार है कि प्रतियोगिता से पूर्व चाय अथवा कॉफी पीने से भी शरीर को गर्माया जा सकता है, पर यह विधि वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं मानी जाती।

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प्रश्न 9.
शरीर को गर्माने के मुख्य सिद्धांत कौन-कौन-से हैं? वर्णन करें।
अथवा
गर्माने के मार्गदर्शक नियमों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शरीर को गर्माने के मुख्य सिद्धांत अथवा नियम निम्नलिखित हैं-
1. स्वास्थ्य (Health):
खिलाड़ी या एथलीट को गरम होने से पहले अपने स्वास्थ्य को ध्यान में रखना चाहिए। उसको अपने स्वास्थ्य के अनुसार ही व्यायाम करना चाहिए। अगर किसी कमजोर स्वास्थ्य वाले खिलाड़ी के शरीर को गर्माने के लिए कोई कठिन व्यायाम दे दिया जाए तो उससे शरीर को अच्छी तरह गर्माने की बजाय शरीर की अलग-अलग प्रणालियों में दोष उत्पन्न हो जाएंगे।

2. जलवायु संबंधी सिद्धांत (Principle Related to Climate):
किसी भी खिलाड़ी को गरम या ठंडे मौसम या मैदानी और पहाड़ी जलवायु को देखकर गर्माने वाले व्यायाम करने चाहिएँ।

3. क्रमानुसार (Systematic):
किसी भी खिलाड़ी को गर्माने वाले व्यायाम क्रमानुसार ही करने चाहिएँ। ये व्यायाम इस ढंग से करने चाहिएँ ताकि उस खिलाड़ी के शरीर के सारे अंगों का तापमान और खून की गति ठीक ढंग से काम करे।

4. शरीर के सारे अंगों से संबंधित व्यायाम (Exercises Pertaining to All Parts of Body):
किसी भी खिलाड़ी को गर्माने वाले व्यायाम इस तरीके से करने चाहिएँ कि खिलाड़ी के शरीर के सारे अंग गरम हो जाएँ। किसी भी खेल में भाग लेने से पहले शरीर के सभी अंगों को गर्माना बहुत जरूरी है।

5. व्यक्ति की क्षमता और प्रशिक्षण (Capacity and Training of Individual):
किसी भी खिलाड़ी को गर्माने से पहले यह देखना चाहिए कि उसका प्रशिक्षण किस अवस्था में चल रहा है और उसका अपना लक्ष्य क्या है? उसकी उद्देश्य अवस्था किस प्रकार की है? उसके प्रशिक्षण का कार्यक्रम कैसा चल रहा है? इन सभी बातों को ध्यान में रखकर ही उसको गर्माने वाले व्यायाम करने चाहिएँ।

6. प्रतियोगिता और काम करने की तीव्रता के अनुसार (According to Competition and Intensity of Work):
खेल प्रतियोगिता को ध्यान में रखकर ही हमें खिलाड़ी को गर्माने वाले व्यायाम करवाने चाहिएँ और यह भी देखना चाहिए कि कितने समय पहले गर्माना चाहिए, ताकि खिलाड़ी अपने खेल का बढ़िया प्रदर्शन कर सके।

7. आसान से जटिल का सिद्धांत (Principle of Simple to Complex):
खिलाड़ी को खेल में भाग लेने से पहले शरीर को इस तरीके से गर्माना चाहिए कि शरीर पर अधिक दबाव न पड़े, क्योंकि यदि आरंभ में ही अभ्यास में कठिनाई दे दी जाए तो माँसपेशियों में कई प्रकार के दोष उत्पन्न हो सकते हैं। इसी कारण हमें गर्माने के आसान से जटिल वाले सिद्धांत को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए।

8. ऊँचाई, आयु, भार और शरीर संरचना (Height, Age, Weight and Body Structure):
खिलाड़ी को गर्माने से पहले उसकी ऊँचाई, उसका भार, आयु और शरीर संरचना आदि देख लेनी चाहिए। छोटी उम्र के खिलाड़ी को वे व्यायाम नहीं दिए जा सकते जो 20-25 वर्ष के खिलाड़ी को दिए जाते हैं। इसी तरह एक महिला खिलाड़ी को वे व्यायाम नहीं दिए जाते जो एक पुरुष को दिए जाते हैं, क्योंकि दोनों की कार्यक्षमता एवं शरीर संरचना में अंतर होता है।

9. अन्य सिद्धांत (Other Principles):
शरीर को गर्माने के लिए खिंचाव या आसान वाले व्यायाम भी किए जाने चाहिएँ। गर्माने की क्रिया खेल के अनुसार होनी चाहिए। हमें शरीर को उतना ही गर्माना चाहिए, जिससे हमारे शरीर का तापमान खेल के अनुसार हो सके अर्थात् गर्माना उतना ही होना चाहिए जिससे हमें थकावट का अनुभव न हो। हमें गर्माने की प्रक्रिया में खेल संबंधी सभी व्यायामों को शामिल करना चाहिए।

प्रश्न 10.
गर्माने के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन कीजिए।
अथवा
शरीर को गर्माने से हमारे शरीर पर क्या-क्या लाभदायक प्रभाव पड़ते हैं? वर्णन करें।
अथवा
गर्माने (वार्मिंग-अप) के शरीर क्रियात्मक तथा मनोवैज्ञानिक प्रभावों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
गर्माने के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
(क) शरीरक्रियात्मक प्रभाव (Physiological Effects)
(ख) मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological Effects)।

(क) शरीर क्रियात्मक प्रभाव (Physiological Effects):
गर्माने के शारीरिक क्रिया संबंधी प्रभाव निम्नलिखित हैं-
1.शरीर के तापमान में वृद्धि (Increase in Body Temperature):
गर्माने से माँसपेशियाँ गति में आ जाती हैं जिससे शरीर का तापमान बढ़ जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि खेल में अच्छे प्रदर्शन के लिए पहले गर्माना लाभदायक होता है।

2. लाल रक्ताणुओं में वृद्धि (Increase in the Red Blood Corpuscles):
कसरत से मानवीय शरीर में लाल रक्ताणुओं और हीमोग्लोबिन की मात्रा में वृद्धि होती है। इनके बढ़ने से शरीर तंदुरुस्त और चुस्त रहता है। तंदुरुस्त और चुस्त शरीर खिलाड़ी की कुशलता में वृद्धि करता है।

3. श्वास क्रिया में वृद्धि (Increase in the Respiration Process):
गर्माने से फेफड़ों से साँस लेने और बाहर निकालने की क्रिया में वृद्धि होती है। फेफड़े शुद्ध हवा अंदर रखकर गंदी वायु को शरीर से बाहर निकालते रहते हैं। जिस कारण शरीर से कई हानिकारक पदार्थ या गैस बाहर निकल जाती हैं। श्वास क्रिया में वृद्धि खिलाड़ी की निपुणता में वृद्धि करता है।

4. प्रतिक्रिया समय में वृद्धि (Increase in Reaction Time):
गर्माने से खिलाड़ी का मानसिक और मांसपेशियों का तालमेल बढ़ जाता है। इस तालमेल के बढ़ने से प्रतिक्रिया का समय बढ़ जाता है, जो कि खिलाड़ी के लिए खेल में अच्छा प्रदर्शन दिखाने के लिए आवश्यक होता है। तेज दौड़ में यह अत्यंत आवश्यक है।

5. माँसपेशियों का सिकुड़ना और आराम की अवस्था में वृद्धि (Increase in the Speed of Contraction and Relaxation of Muscles):
गर्माने से शरीर की सभी प्रणालियाँ प्रभावित होती हैं परंतु सबसे अधिक प्रभाव माँसपेशियों पर पड़ता है। रक्त सारे शरीर में जल्दी से पहुँचता है। जिस कारण माँसपेशियाँ जल्दी सिकुड़ती हैं और विश्राम की अवस्था में आ जाती हैं।

(ख) मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological Effects):
गर्माने से मानवीय शरीर पर निम्नलिखित मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ते हैं-
1. मानसिक तैयारी (Psycho Preparation):
खेलों में मानसिक तैयारी सबसे अधिक योगदान देती है। गर्माना एक प्रकार से खेल में भाग लेने की मानसिक तैयारी है। जो खिलाड़ी गर्माने के बिना क्रियाओं में भाग लेता है वह एकाग्र मन से नहीं खेल पाता, जिससे उसकी मेहनत सफल नहीं होती।

2. भीड़ के डर का प्रभाव (Effect of Crowd Fear):
भीड़ का डर एक मनोवैज्ञानिक डर है। यह डर प्रत्येक खिलाड़ी में खेल में भाग लेने से पहले होता है। परंतु कई लोगों में यह अधिक और कई लोगों में यह कम होता है। जब खिलाड़ी क्रिया में भाग लेने के लिए भीड़ के सामने गर्माना शुरू करता है तो उसका काफी डर दूर हो जाता है। वह मानसिक रूप से तैयार होना शुरू हो जाता है। यह तैयारी उसके प्रदर्शन में वृद्धि करती है।

3. हृदय-क्षमता में वृद्धि (Increase in Cardiac Efficiency):
गर्माना शरीर की सभी प्रणालियों को ठीक ढंग से काम करने के योग्य कर देता है। हृदय-क्षमता गर्माने से काफी प्रभावित होती है। गर्माने के बाद हृदय में रक्त की मात्रा अधिक होती है और इस क्रिया से दिल की माँसपेशियाँ अधिक ताकतवर बनती हैं। इससे हृदय की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 2 प्रशिक्षण विधियाँ

प्रश्न 11.
लिम्बरिंग डाउन से आप क्या समझते हैं? खिलाड़ियों के लिए लिम्बरिंग डाउन के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
अथवा
कूलिंग डाउन से आप क्या समझते हैं ? खिलाड़ियों के लिए कूलिंग डाउन क्यों आवश्यक है ? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लिम्बरिंग डाउन का अर्थ (Meaning of Limbering Down):
लिम्बरिंग या कूलिंग डाउन से तात्पर्य शरीर को व्यायामों द्वारा आराम की हालत में वापस लाना है। मुकाबले के दौरान शरीर का तापमान बढ़ जाता है। तापमान को सामान्य अवस्था में लाने के लिए धीरे-धीरे दौड़कर या चलकर ट्रैक का चक्कर लगाना चाहिए। इस तरह मुकाबले के दौरान बढ़ा हुआ तापमान सामान्य अवस्था में आ जाता है। शरीर को धीरे-धीरे ठंडा करने से थकावट जल्दी दूर होती है और माँसपेशियों की मालिश भी हो जाती है। उचित ढंग से कूलिंग डाउन करने के लिए हमें कम-से-कम 5 से 10 मिनट तक जॉगिंग या वॉकिंग करनी चाहिए। इसके बाद स्थिर खिंचाव वाले व्यायाम भी लगभग 5 से 10 मिनट तक करने चाहिएँ।

लिम्बरिंग डाउन का महत्त्व या आवश्यकता (Importance or Need of Limbering Down):
किसी प्रतियोगिता या प्रशिक्षण से पूर्व जिस.प्रकार शरीर को गर्माना आवश्यक होता है उसी प्रकार प्रतियोगिता या प्रशिक्षण के बाद कूलिंग डाउन भी उतना ही आवश्यक होता है। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कूलिंग डाउन एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्रिया है जिसकी खिलाड़ी प्रायः उपेक्षा करते हैं। वास्तव में कूलिंग डाउन को खेल क्रिया या प्रशिक्षण के बाद कम नहीं आँकना चाहिए, क्योंकि खेल प्रतिस्पर्धा प्रतियोगिता के दौरान खिलाड़ियों की खर्च की गई शक्ति या ऊर्जा वापिस आती है अर्थात् इससे खिलाड़ी अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त करता है। संक्षेप में, खिलाड़ियों के लिए इसकी आवश्यकता या महत्ता निम्नलिखित है…
(1) काफी तीव्र गति एवं जटिल प्रशिक्षण या प्रतियोगिता के दौरान शरीर का तापमान लगभग 160° फॉरेनहाइट या इससे कुछ अधिक हो जाता है। उचित कूलिंग डाउन शरीर के बढ़े तापमान को कम करने में सहायता करती है। इसलिए खिलाड़ियों के लिए इसकी अति आवश्यकता है।

(2) जब भी कोई खिलाड़ी किसी प्रतियोगिता में भाग लेता है या नियमित अभ्यास करता है तो उसके शरीर में व्यर्थ के पदार्थः जैसे लैक्टिक एसिड, यूरिक एसिड, फॉस्फेट व कार्बन-डाइऑक्साइड आदि का जमाव हो जाता है। शरीर में इनके अधिक जमाव से माँसपेशियाँ भली-भाँति कार्य नहीं कर सकतीं। कूलिंग डाउन से इन पदार्थों का उचित निष्कासन हो जाता है।

(3) मुकाबले में भाग लेने से शरीर की काफी ताकत खर्च होती है। शरीर थकावट और सुस्ती महसूस करता है। कार्बोहाइड्रेट्स का बहुत अधिक हिस्सा खर्च हो जाता है। कूलिंग डाउन से शरीर की ताकत की पूर्ति की जा सकती है।

(4) कूलिंग डाउन करने से दिमागी तनाव में कमी आ जाती है। खेल के दौरान तनाव होना स्वाभाविक होता है। इसके साथ-साथ गर्माने से अर्ध-तनाव की दशा में आने वाली माँसपेशियाँ भी तनाव-रहित हो जाती हैं। इस प्रकार कूलिंग – डाउन से दिमाग व माँसपेशियों के तनाव में कमी आती है।

(5) खेल के दौरान शरीर में सामान्य अवस्था की अपेक्षा ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। कूलिंग डाउन से ऑक्सीजन की पूर्ति हो जाती है।

(6) वार्मिंग अप के दौरान रक्त में एड्रिनलिन नामक हॉर्मोन का स्तर बढ़ जाता है, जिससे रक्त के बहाव की गति तेज हो जाती ..है, लेकिन कूलिंग डाउन से रक्त में एड्रिनलिन का स्तर कम हो जाता है, जिससे रक्त का बहाव भी सामान्य हो जाता है।

(7) खिलाड़ियों के लिए कूलिंग डाउन करना अति आवश्यक है। खेल प्रतियोगिता या वार्मिंग अप के दौरान माँसपेशियाँ अकड़ जाती है। कूलिंग डाउन करने से माँसपेशियाँ कठोर (Stiff) नहीं रहतीं, बल्कि ढीली (Relax) या शिथिल हो जाती हैं।

प्रश्न 12.
ठण्डा करना (Cooling Down) क्या है? इसके शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर:
ठण्डा करने का अर्थ (Meaning of Cooling Down):
ठण्डा करने (Cooling Down) से तात्पर्य शरीर को व्यायामों द्वारा आराम की हालत में वापस लाना है। मुकाबले के दौरान शरीर का तापमान बढ़ जाता है। तापमान को अपनी वास्तविकता में लाने के लिए धीरे-धीरे दौड़कर या चलकर ट्रैक का चक्कर लगाना चाहिए। इस तरह मुकाबले के दौरान बढ़ा हुआ तापमान सामान्य अवस्था में आ जाता है।

कूलिंग/लिम्बरिंग या ठण्डा करने से शरीर पर पड़ने वाले लाभदायक प्रभाव (Advantageous Effects of Cooling Down on Body):
ठण्डा करने से शरीर पर पड़ने वाले लाभदायक प्रभाव निम्नलिखित हैं-
1. माँसपेशियों के लचीलेपन में वृद्धि (Increase in Flexibility in Muscles):
जब खिलाड़ी खेलों में भाग लेता है तो उसकी माँसपेशियों में तनाव बना होता है। तनाव बढ़ने से माँसपेशियों में खिंचाव पैदा होता है। शरीर को व्यायाम द्वारा ठण्डा करने से तनाव एवं खिंचाव दूर होता है। इस प्रकार माँसपेशियों में लचीलापन आ जाता है।

2. हृदय-गति और शरीर के तापमान का साधारण अवस्था में आना (To Normalise the Heart Beating Rate and Body Temperature):
मुकाबले के दौरान खिलाड़ी के हृदय की धड़कन और शरीर का तापमान बहुत बढ़ जाता है। शरीर को व्यायामों द्वारा ठण्डा करने से शरीर का तापमान और दिल की धड़कन सामान्य हो जाती है।

3. भिन्न-भिन्न शारीरिक प्रणालियों का साधारण कार्यक्रम (Normal Function of Different Body System):
कसरतों के दौरान शरीर की भिन्न-भिन्न प्रणालियाँ तेजी से काम करती हैं जिससे शरीर में अतिरिक्त पदार्थ पैदा हो जाते हैं। शरीर में तनाव और थकावट के चिह्न पैदा हो जाते हैं और शरीर सुस्त हो जाता है। अलग-अलग प्रणालियों को अपने सही स्थान पर लाने के लिए कसरतों द्वारा ठण्डा करने से तनाव और थकावट दूर होती है, और शरीर फिर चुस्ती में आ जाता है।

4. मानसिक तनाव में कमी (Decrease in Mental Tension):
कसरतों के दौरान सभी प्रणालियाँ साधारण अवस्था से अधिक कार्य कर रही होती हैं। जिस कारण शरीर में मानसिक तनाव बढ़ा होता है। कसरतों से शरीर को ठण्डा करने से सारी प्रणालियाँ अपनी पहली अवस्था में आ जाती हैं जिससे मानसिक तनाव समाप्त हो जाता है।

5. खर्च की गई ताकत की पूर्ति (Regaining of Spending Energy):
मुकाबले में भाग लेने से शरीर की काफी ताकत खर्च होती है। शरीर थकावट और सुस्ती महसूस करता है, क्योंकि क्रिया द्वारा ऑक्सीजन काफी मात्रा में खर्च हो जाती है। कार्बोहाइड्रेट्स का बहुत अधिक हिस्सा खर्च हो जाता है। क्रिया के बाद लंबे-लंबे साँस लेकर ऑक्सीजन की मात्रा को बढ़ाना जरूरी है। संतुलित भोजन खाने से शरीर की ताकत की पूर्ति की जा सकती है।

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प्रश्न 13.
खिलाड़ियों के लिए गर्माना क्यों आवश्यक है? विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
खिलाड़ियों के लिए गर्माना बहुत आवश्यक है, क्योंकि इससे खिलाड़ियों को निम्नलिखित फायदे होते हैं-
(1) खेल से पूर्व शरीर को गर्माने से माँसपेशियाँ अर्ध-तनाव की स्थिति में आ जाती हैं, जिससे प्रतियोगिता के दौरान शरीर को आघात पहुँचने की संभावना कम हो जाती है।
(2) बढ़िया स्तर के प्रदर्शन के लिए माँसपेशियों को गर्माना आवश्यक होता है, क्योंकि गर्माने से माँसपेशियों की कार्यक्षमता बढ़ती है।
(3) अच्छी तरह शरीर को गर्माने से खिलाड़ी को अच्छा प्रदर्शन करने की प्रेरणा मिलती है और इससे शरीर में अधिक कार्य करने की क्षमता आ जाती है।
(4) रक्त संचार आवश्यकतानुसार बढ़ता है तथा अतिरिक्त कार्यभार के अनुरूप हो जाता है।
(5) शरीर व माँसपेशियों में तालमेल व सामंजस्य बनाए रखने के लिए शरीर को गर्माना आवश्यक है। इससे माँसपेशियाँ अनुकूल हो जाती हैं।
(6) इसके द्वारा शरीर के विभिन्न भागों व इन्द्रियों में आपसी तालमेल बढ़ जाता है।
(7) इससे फेफड़ों की साँस खींचने व छोड़ने की प्रक्रिया का विकास होता है।
(8) खेल प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को गर्म करने से खिलाड़ी का अपने खेल मुकाबले के प्रति मानसिक तनाव कम हो जाता है जिससे उसका प्रदर्शन बढ़ जाता है।
(9) शरीर को गर्माने से पाचन क्रिया में सुधार होता है। शरीर को गर्माने से एक ओर तो भूख अधिक लगती है और दूसरी ओर भोजन अति शीघ्र पच जाता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न [Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
प्रशिक्षण के अर्थ व अवधारणा का संक्षिप्त रूप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वास्तव में प्रशिक्षण’ शब्द कोई नया शब्द नहीं है। लोग इस शब्द को प्राचीन समय से प्रयोग कर रहे हैं। प्रशिक्षण का अर्थ किसी कार्य की तैयारी की प्रक्रिया से है। यहाँ हमारा मुख्य कार्य खेलकूद के लिए शारीरिक पुष्टि एवं सुयोग्यता प्रदान करना है। इसी कारण यह शब्द खेलकूद के क्षेत्र में अधिक प्रयोग किया जाता है। प्रशिक्षण’ की धारणा और खिलाड़ी की तैयारी’ आपस में मिलती-जुलती हैं लेकिन फिर भी ये एक-दूसरे की पूरक नहीं हैं। तैयारी एक जटिल प्रक्रिया है। यह खिलाड़ी के विकास को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है तथा काफी हद तक सफलता के लिए एकाग्रता को बढ़ाती है। इस कठिन प्रक्रिया में, खेल प्रशिक्षण, खेल प्रतियोगिताएँ (तैयारी के रूप में) और पौष्टिक व संतुलित आहार आदि शामिल किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, अनेक व्यायामों सहित यह एक सुव्यवस्थित एवं योजनापूर्ण तैयारी होती है। शारीरिक व्यायाम, जिसका प्रशिक्षण में प्रयोग किया जाता है, का खिलाड़ी के शारीरिक विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इसका अर्थ यह है कि शारीरिक व्यायाम या प्रशिक्षण खिलाड़ी का शारीरिक विकास करता है।

प्रश्न 2.
मानव की जिंदगी में खेल व मनोरंजन क्यों महत्त्वपूर्ण हैं? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
खेल व मनोरंजन की आवश्यकता तथा महत्त्व का वर्णन कीजिए।
अथवा
मनोरंजन पर एक संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
खेल व मनोरंजन ऐसी प्रक्रियाएँ हैं जो विश्व के प्रत्येक स्थान पर अनुभव की जाती हैं। बिना खेल व मनोरंजन के व्यक्ति का जीवन नीरस व निरर्थक है। स्वस्थ व नीरोग रहने हेतु खेल व मनोरंजन आवश्यक होते हैं। ये वे गतिविधियाँ हैं जिनमें भाग लेकर व्यक्ति आनंद की अनुभूति करता है और अपने जीवन को खुशियों से भरपूर व तरोताजा करने की कोशिश करता है। खेल गतिविधियों में हम अपनी अतिरिक्त शक्ति व समय का उचित प्रयोग करते हैं और मनोरंजन के माध्यम से हम गतिविधियों द्वारा खोई हुई ऊर्जा या शक्ति पुनः प्राप्त कर आनंद की अनुभूति करते हैं। एडवर्ड्स के शब्दों में, “मनोरंजन वह गतिविधि है जिसमें कोई कर्ता स्वेच्छा से शामिल होता है तथा जो दैनिक जीवन में मानसिक-शारीरिक दबाव बनाने वाली अन्य गतिविधियों से अलग होती है। इस गतिविधि का प्रभाव मन अथवा शरीरको तरोताजा करने वाला होता है।”खेल व मनोरंजन के बिना जिंदगी नीरस हो जाती है और व्यक्ति गलत गतिविधियों की ओर आकर्षित हो जाता है। खेल व मनोरंजन गतिविधियों में भाग लेकर हम अपने अतिरिक्त समय का उचित प्रयोग करते हैं और जीवन को सार्थक व सफल बनाने हेतु प्रयास करते हैं। इसलिए हमारी जिंदगी में खेल और मनोरंजन बहुत महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक हैं।

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प्रश्न 3.
खेल प्रशिक्षण की अवधारणा का संक्षेप में उल्लेख करें।
अथवा
खेल प्रशिक्षण को परिभाषित करें और इसके संप्रत्यय का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मार्टिन के अनुसार खेल प्रशिक्षण लक्ष्य की प्राप्ति हेतु एक नियोजित व नियंत्रित प्रक्रिया है जिसमें प्रशिक्षक (कोच) द्वारा प्रशिक्षार्थी को खेलकूद के जटिल प्रदर्शनों व व्यवहार में निहित परिवर्तनों को संचालित करने के बारे में जानकारी दी जाती है। सामान्य शब्दों में, खेल प्रशिक्षण के द्वारा एक सामान्य व्यक्ति को उत्कृष्ट व श्रेष्ठ खिलाड़ी में परिवर्तित किया जा सकता है परिवर्तन की इसी प्रक्रिया को खेल प्रशिक्षण कहा जाता है। खेल प्रशिक्षण की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
1. डॉ० हरदयाल सिंह के अनुसार, “खेल प्रशिक्षण अध्ययन से संबंधित प्रक्रिया है जो वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है जिसका मुख्य उद्देश्य खेल मुकाबलों में उच्चतम प्रदर्शन करने के लिए खिलाड़ियों को तैयार करना है।”
2. हरे के अनुसार, “खेल प्रशिक्षण खेलकूद विकास की ऐसी प्रक्रिया है जो वैज्ञानिक सिद्धांतों पर संचालित की जाती है जिनके माध्यम से मानसिक-शारीरिक दक्षता, क्षमता व प्रेरणा के योजनाबद्ध विकास से खिलाड़ियों को उत्कृष्ट व स्थापित कीर्तिमान तोड़ने वाले खेल प्रदर्शन में सहायता मिलती है।”

प्रश्न 4.
आइसोमीट्रिक व्यायाम क्या होते हैं? उदाहरण दीजिए।
अथवा
आइसोमीट्रिक व्यायामों के बारे में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम वे व्यायाम होते हैं जिनमें खिलाड़ी द्वारा किया गया व्यायाम या कार्य नजर नहीं आता। ऐसे व्यायाम में तनाव की अधिकता तथा तापमान में वृद्धि की संभावना रहती है। हमारे अत्यधिक बल लगाने पर भी वस्तु अपने स्थान से नहीं हिलती। उदाहरणार्थ, एक ट्रक को धकेलने के लिए एक व्यक्ति बल लगाता है, परंतु वह अत्यधिक भारी होने के कारण अपनी जगह से नहीं हिलता, परंतु तनाव बना रहता है जिससे हमारी ऊर्जा का व्यय होता है। कई बार हमारे शरीर का तापमान भी बढ़ जाता है। ऐसे व्यायाम करने से माँसपेशियों की लंबाई तथा मोटाई बढ़ जाती है। आइसोमीट्रिक व्यायाम के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-
(1) बंद दरवाजों को धकेलना
(2) पीठ से दीवार को दबाना
(3) पैरलल बार को पुश करना
(4) दीवार या जमीन पर उँगली, कोहनी या कंधा दबाना
(5) कुर्सी को दोनों हाथों से अंदर की ओर दबाना
(6) घुटने मोड़ना
(7) डैस्क को हाथ, उँगली, पैर या पंजे से दबाना आदि।

प्रश्न 5.
आइसोकाइनेटिक व्यायाम से आप क्या समझते हैं? यह अधिक प्रचलित क्यों है?
अथवा
आइसोकाइनेटिक व्यायाम क्या हैं? उदाहरण दें।
उत्तर:
आइसोकाइनेटिक व्यायाम आइसोमीट्रिक एवं आइसोटोनिक व्यायामों का मिश्रण हैं। इनमें मध्यम रूप में भार रहता है ताकि माँसपेशियाँ ‘Bulk’ और ‘Tone’ दोनों रूप में वृद्धि कर सकें। ये अत्यंत आधुनिक व्यायाम हैं जिनमें पहले दोनों प्रकार के व्यायामों का लाभ मिल जाता है। इनसे हम अपने शरीर को गर्मा भी सकते हैं। इनके उदाहरण हमें दैनिक जीवन में भी देखने को मिल सकते हैं; जैसे (1) बर्फ पर स्केटिंग करना
(2) भार ढोना
(3) चिन-अप
(4) भारी रोलर धकेलना
(5) रस्सी पर चलना आदि।
आइसोकाइनेटिक व्यायाम अधिक प्रचलित हैं, क्योंकि ये आधुनिक समय के व्यायाम हैं। आजकल विकसित देश इन व्यायामों का अधिक-से-अधिक प्रयोग कर रहे हैं, क्योंकि इन व्यायामों के उदाहरण हमारे दैनिक जीवन में भी मिल जाते हैं।

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प्रश्न 6.
आइसोटोनिक व आइसोमीट्रिक व्यायामों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आइसोटोनिक व आइसोमीट्रिक व्यायामों में अन्तर इस प्रकार हैं-

आइसोटोनिक व्यायामआइसोमीट्रिक व्यायाम
1. आइसोटोनिक व्यायाम वे होते हैं जिनमें किसी खिलाड़ी की गतिविधियाँ प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती हैं।1. आइसोमीट्रिक व्यायाम वे होते हैं जिनमें किसी खिलाड़ी की गतिविधियाँ प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देती।
2. इस प्रकार के व्यायामों में माँसपेशियों की लम्बाई घटती-बढ़ती हुई दिखाई देती है।2. इस प्रकार के व्यायामों में माँसपेशियों की लम्बाई में कोई परिवर्तन नहीं होता।
3. इस प्रकार के व्यायामों को कहीं पर भी किया जा सकता है और इनमें बहुत-ही कम उपकरणों की आवश्यकता होती है।3. इस प्रकार के व्यायामों को उपकरणों के साथ और बिना उपकरणों के भी किया जा सकता है।
4. उदाहरण
(i) किसी बॉल को फेंकना,
(ii) दौड़ना-भागना,
(iii) भार उठाना आदि।
4. उदाहरण
(i) पक्की दीवार को धकेलने की कोशिश करना,
(ii) पीठ से दीवार को दबाना,
(iii) पैरलल बार को पुश करना आदि।

प्रश्न 7.
निरंतर प्रशिक्षण विधि पर संक्षेप में एक नोट लिखें।
उत्तर:
निरंतर प्रशिक्षण विधि सहनशीलता को बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है। इस तरीके में व्यायाम लंबी अवधि तक बिना रुके अर्थात् निरंतर किया जाता है। इस तरीके में सघनता बहुत कम होती है क्योंकि व्यायाम लंबी अवधि तक किया जाता है। क्रॉस-कंट्री दौड़ इस प्रकार के व्यायाम का सबसे अच्छा उदाहरण है। इस तरह के व्यायाम में हृदय की धड़कन की दर लगभग 140 से 160 प्रति मिनट होती है। व्यायाम करने की अवधि कम-से-कम 30 मिनट होनी आवश्यक है। एथलीट या खिलाड़ी की सहनशीलता की योग्यता के अनुसार व्यायाम करने की अवधि में बढ़ोतरी की जा सकती है। इस विधि से हृदय तथा फेफड़ों की कार्यकुशलता में वृद्धि हो जाती है। इससे इच्छा-शक्ति दृढ़ हो जाती है तथा थकावट की दशा में लगातार काम करने से व्यक्ति दृढ़-निश्चयी बन जाता है। इससे व्यक्ति में आत्म-संयम, आत्म-अनुशासन व आत्म-विश्वास बढ़ने लगता है।

प्रश्न 8.
अंतराल प्रशिक्षण विधि के लाभदायक प्रभाव बताएँ।
उत्तर:
अंतराल प्रशिक्षण विधि के लाभदायक प्रभाव निम्नलिखित हैं-
(1) अंतराल प्रशिक्षण विधि व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुसार बिना टीम के दबाव के चलाई जाने वाली व्यक्तिगत विधि है।
(2) इस प्रशिक्षण विधि से खिलाड़ी अपनी प्रगति का स्वयं अनुमान लगा सकता है।
(3) इस प्रशिक्षण विधि में नाड़ी की धड़कन को स्थिर बनाकर शीघ्र एकात्मक क्षमता को विकसित किया जा सकता है।
(4) इस प्रशिक्षण विधि के द्वारा थकावट के पश्चात् शीघ्र विश्राम पाने की क्षमता में वृद्धि की जा सकती है।
(5) इस प्रशिक्षण विधि में आवश्यक आराम के क्षणों में कमी करके शक्ति, क्षमता एवं धैर्य से विकास किया जा सकता है।

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प्रश्न 9.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि के लाभों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि के लाभ निम्नलिखित हैं
(1) खिलाड़ी अपनी इच्छानुसार गति तथा अन्य व्यायामों में फेर-बदल कर सकता है।
(2) इससे थकान का अनुभव नहीं होता।
(3) इसमें समय पर विशेष बल दिया जाता है।
(4) खिलाड़ी में अधिक शक्ति अथवा क्षमता बनाई जाती है।
(5) इससे चहुंमुखी विकास होता है।
(6) शरीर प्रत्येक कठोर व्यायाम अथवा प्रतियोगिता में भाग लेने के योग्य हो जाता है।

प्रश्न 10.
शरीर को गर्माने के क्या-क्या फायदे हैं?
अथवा
शरीर को गर्माना क्यों आवश्यक है? व्याख्या कीजिए।
अथवा
माँसपेशियों को गर्माने की आवश्यकता क्यों होती है?
अथवा
खेलने से पूर्व शरीर को गर्माना क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
खेल से पूर्व शरीर को गर्माने से माँसपेशियाँ अर्ध-तनाव की स्थिति में आ जाती हैं, जिससे प्रतियोगिता के दौरान शरीर को आघात पहुँचने की संभावना कम हो जाती है इसलिए शरीर को गर्माना आवश्यक है। शरीर को गर्माने के निम्नलिखित फायदे होते हैं-
(1) बढ़िया स्तर के प्रदर्शन के लिए माँसपेशियों को गर्माना आवश्यक होता है, क्योंकि गर्माने से माँसपेशियों की कार्यक्षमता बढ़ती है।
(2) शरीर से मानसिक तनाव व दबाव कम होता है।
(3) माँसपेशियों में लचक आ जाती है और उनके फैलने व सिकुड़ने की ताकत बढ़ती है।
(4) शरीर का मन एवं माँसपेशियों के साथ तालमेल बना रहता है।
(5) शरीर में किसी भी प्रकार की चोट लगने का भय नहीं रहता। मन और शरीर कठोर कार्य करने में सक्षम हो जाते हैं और दोनों में संतुलन बना रहता है।
(6) इससे शारीरिक तथा मानसिक तैयारी होती है।

प्रश्न 11.
गर्माने की प्रमुख किस्में कौन-सी हैं? अथवा गर्माने के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
गर्माना दो प्रकार का होता है
1. मनोवैज्ञानिक या मानसिक गर्माना-खेल मुकाबले से पहले खिलाड़ी को मनोवैज्ञानिक रूप से मुकाबले के लिए तैयार करना मनोवैज्ञानिक गर्माना कहलाता है। इसमें विभिन्न मनोवैज्ञानिक विधियों द्वारा खिलाड़ी की मानसिक तैयारी हो जाती है।

2. शारीरिक गर्माना-शारीरिक गर्माने में शारीरिक माँसपेशियों को मुकाबले में पड़ने वाले दबाव के लिए तैयार किया जाता है। शारीरिक गर्माना निम्नलिखित दो विधियों द्वारा किया जाता है
(1) सकर्मक या सक्रिय गर्माना-सकर्मक गर्माना में शारीरिक कसरतों और मुकाबलों की तैयारी की जाती है। इसे मुख्यतः दो भागों में बाँटा जाता है-
(i) सामान्य गर्माना-सामान्य गर्माने से हमारा उद्देश्य उन क्रियाओं को करने से है जो सभी खेलों के लिए लगभग एक जैसी हो सकती हैं; जैसे धीमी गति से दौड़ना, हाथ-पैर घुमाना, खिंचाव वाली क्रियाएँ करना। ये क्रियाएँ किसी भी खेल को शुरू करने से पहले की जाती हैं।
(ii) विशेष गर्माना-विशेष गर्माना उस समय शुरू किया जाता है जब सामान्य गर्माना समाप्त कर लिया जाता है। इसका उद्देश्य खिलाड़ी को उस खेल के लिए शारीरिक रूप से तैयार करना होता है जो अभी खेली जानी होती है। इस प्रकार के विशेष गर्माने में शरीर के उन अंगों और मांसपेशियों को लेना चाहिए जिनका प्रयोग विशेष प्रकार के प्रशिक्षण और मुकाबले की स्थितियों में विशेष रूप से होता है।

(2) अकर्मक या निष्क्रिय गर्माना-अकर्मक गर्माना में खिलाड़ी द्वारा कोई शारीरिक कसरत नहीं की जाती। इसमें खिलाड़ी
बैठकर ही अपने शरीर को गर्म कर मुकाबले के लिए तैयार करता है; जैसे
(i) दवाइयों द्वारा गर्माना
(ii) मालिश द्वारा गर्माना,
(iii) गर्म पानी से नहाकर गर्माना
(iv) अल्ट्रा किरणों द्वारा गर्माना आदि।

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प्रश्न 12.
गर्माना और अनुकूलन में क्या अंतर है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
गर्माना और अनुकूलन देखने में एक-जैसी क्रियाएँ लगती हैं। इसलिए इन दोनों में कोई अंतर नहीं लगता, लेकिन ऐसा नहीं है। इन दोनों में बहुत अंतर है; जैसे-

गर्माना (Warming-up)अनुकूलन (Conditioning)
1. गर्माना में किसी क्रिया को करने से उसकी इंद्रियाँ अभ्यस्त नहीं होती।1. अनुकूलन में किसी क्रिया को लगातार करने से उसकी इंद्रियाँ अभ्यस्त हो जाती हैं।
2. गर्माना एक अल्पकालिक क्रिया है अर्थात् इसमें क्रिया थोड़े समय के लिए होती है।2. अनुकूलन एक दीर्घकालिक क्रिया है अर्थात् इसमें क्रिया लंबे समय के लिए होती है।
3. इसमें क्रिया प्रत्येक व्यायाम से पहले करते हैं।3. इसमें क्रिया खेलने के कार्यक्रम को शुरू करवाने से पहले करवाई जाती है।

प्रश्न 13.
गर्माने से शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गर्माने से शरीर पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं-
(1) शरीर के विभिन्न अंगों व इंद्रियों में आपसी तालमेल बढ़ जाता है।
(2) श्वास प्रक्रिया संस्थान में आवश्यकतानुसार सुधार आ जाता है।
(3) हृदय अधिक कार्य करने की क्षमता में आ जाता है।
(4) रक्त संचार बढ़कर अतिरिक्त कार्य के अनुरूप हो जाता है।
(5) माँसपेशियाँ अर्ध-तनाव स्थिति में आकर अनुकूल हो जाती हैं।
(6) रक्त में लैक्टिक अम्ल का जमाव कम हो जाता है।
(7) कार्यकुशलता में सुधार आता है तथा कार्य विशेष के लिए ऑक्सीजन की कम आवश्यकता पड़ती है।

प्रश्न 14.
शरीर ठण्डा करने के लाभों का वर्णन कीजिए। अथवा प्रतियोगिता के बाद कूलिंग डाउन के लाभ या महत्त्व बताएँ।
उत्तर:
शरीर ठण्डा करने या प्रतियोगिता के बाद कूलिंग डाउन के लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) शरीर ठण्डा करने से शारीरिक प्रणालियाँ सामान्य रूप से कार्य करने के योग्य हो जाती हैं।
(2) शरीर का तापमान सामान्य हो जाता है।
(3) हृदय की धड़कन भी सामान्य हो जाती है।
(4) दिमागी या मानसिक तनाव कम हो जाता है।
(5) मुकाबला करने का भय समाप्त हो जाता है।
(6) माँसपेशियों में लचीलापन आ जाता है।
(7) रक्त संचार प्रवाह ठीक रहता है।
(8) शरीर की थकावट सामान्य हो जाती है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 2 प्रशिक्षण विधियाँ

प्रश्न 15.
अनुकूलन का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है?
अथवा
अनुकूलन का शारीरिक अंगों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
अनुकूलन का शारीरिक अंगों अथवा शरीर पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है-
(1) इससे रक्त-संचार ठीक ढंग से होता है। इससे शरीर में अतिरिक्त कार्य करने की शक्ति में वृद्धि होती है।
(2) माँसपेशियाँ अर्द्ध-खिंचाव की हालत में रहने लगती हैं जिससे माँसपेशियों में अनुकूलन हो जाता है।
(3) इससे शरीर के विभिन्न अंगों और इन्द्रियों में तालमेल बढ़ता है।
(4) अनुकूलन से हृदय की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।
(5) श्वास प्रक्रिया में आवश्यकतानुसार सुधार आता है। इससे श्वास क्रिया नियमित होती है।

प्रश्न 16.
त्वरण दौड़ों की गति के विकास में क्या भूमिका है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सामान्यतया गति के विकास के लिए त्वरण दौड़ें अपनाई जाती हैं, विशेष रूप से स्थिर अवस्था से अधिकतम गति प्राप्त करने के लिए इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी इवेन्ट की तकनीक शुरू में ही सीख लें। इस प्रकार की दौड़ों के लिए एथलीट या खिलाड़ी को एक विशेष दूरी की दौड़ लगानी होती है। वह स्टाटिंग लाइन से स्टार्ट लेता है और जितनी जल्दी सम्भव हो सके, उतनी जल्दी अधिकतम गति प्राप्त करने का प्रयास करता है और उसी गति से निश्चित की हुई दूरी को पार करता है।

त्वरण दौड़ें बार-बार दौड़ी जाती हैं। इन दौड़ों के बीच में मध्यस्थ/अंतराल का समय काफी होता है। स्प्रिंट लगाने वाले प्रायः स्थिर अवस्था के बाद से लेकर अधिकतम गति 6 सेकिण्ड में प्राप्त कर लेते हैं। इसका मतलब है कि स्टार्ट लेने से लेकर त्वरित करने तथा अधिकतम गति को बनाए रखने में 50 से 60 मी० की दूरी की आवश्यकता होती है। ऐसा प्रायः देखा गया है कि बहुत अच्छे खिलाड़ी/एथलीट केवल 20 मी० तक अपनी अधिकतम गति को बनाए रख सकते हैं। इन दौड़ों की संख्या खिलाड़ी/एथलीट की आयु, उसके अनुभव व उसकी क्षमता के अनुसार निश्चित की जा सकती है। यह संख्या 6 से 12 हो सकती है। त्वरण दौड़ में कम-से-कम दूरी 20 से 40 मीटर होती है। इन दौड़ों से पहले उचित गर्माना बहुत आवश्यक होता है। प्रत्येक त्वरण दौड़ के बाद उचित मध्यस्थ/अंतराल भी होना चाहिए, ताकि खिलाड़ी/एथलीट अगली दौड़ बिना किसी थकावट के लगा सके।

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न [Very Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
प्रशिक्षण का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:प्रशिक्षण का अर्थ किसी कार्य की तैयारी की प्रक्रिया से है। ‘प्रशिक्षण’ की धारणा और खिलाड़ी की तैयारी’ आपस में मिलती-जुलती हैं लेकिन फिर भी ये एक-दूसरे की पूरक नहीं हैं । तैयारी एक जटिल प्रक्रिया है। यह खिलाड़ी के विकास को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। सामान्यतया प्रशिक्षण खेलों में प्रदर्शन की बढ़ोतरी के लिए किए जाने वाले शारीरिक व्यायामों से संबंधित होता है।

प्रश्न 2.
प्रशिक्षण के मुख्य सिद्धांतों का उल्लेख करें।
उत्तर:
(1) निरंतरता का सिद्धांत
(2) विशिष्टता का सिद्धांत
(3) व्यक्तिगत भेद का सिद्धांत
(4) अतिभार का सिद्धांत
(5) सामान्य व विशिष्ट तैयारी का सिद्धांत आदि।

प्रश्न 3.
प्रशिक्षण के कोई दो उद्देश्य लिखें।
उत्तर:
(1) उत्तम स्वास्थ्य का विकास करना
(2) व्यक्तिगत, मानसिक तथा भावात्मक विकास करना।

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प्रश्न 4.
डॉ० हदयाल सिंह के अनुसार खेल प्रशिक्षण को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
डॉ० हरदयाल सिंह के अनुसार, “खेल प्रशिक्षण अध्ययन से संबंधित प्रक्रिया है जो वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है जिसका मुख्य उद्देश्य खेल मुकाबलों में उच्चतम प्रदर्शन करने के लिए खिलाड़ियों को तैयार करना हैं।”

प्रश्न 5.
प्रशिक्षण की विधियों को सूचीबद्ध करें।
उत्तर:
(1) निरंतर प्रशिक्षण विधि
(2) अंतराल प्रशिक्षण विधि
(3) फार्टलेक प्रशिक्षण विधि
(4) सर्किट प्रशिक्षण विधि
(5) भार प्रशिक्षण विधि आदि।

प्रश्न 6.
गर्माना क्या है?
अथवा
शरीर को गर्माने (Warming-up) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
किसी कार्य को सुचारु रूप से करने के लिए माँसपेशियों को उसके अनुरूप तैयार करना पड़ता है। इसे माँसपेशियों का गर्माना कहते हैं। इससे अच्छे परिणाम निकलते हैं तथा शरीर को कोई आघात नहीं पहुँचता। यदि शरीर को बिना गर्माए कठोर व्यायाम किया जाए तो माँसपेशियों को कई बार चोट पहुँच सकती है अथवा कोई विकार उत्पन्न हो सकता है। अत: गर्माना वह क्रिया है जिसको मुकाबले के तनाव में दबे हुए और मुकाबले की माँग को पूरा करने के लिए खेल मुकाबले में भाग लेने वालों को शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक ढंग से तैयार किया जाता है।

प्रश्न 7.
गर्माना अभ्यास आप कैसे करेंगे?
उत्तर:
आरंभ में धीमी गति से दौड़ना चाहिए। धीमी गति से दौड़ने के बाद आसान व्यायाम करने चाहिएँ। इन व्यायामों को करते समय किसी प्रकार के झटके का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इसके बाद खिंचाव वाले व्यायाम और विंड स्प्रिंट्स आदि क्रियाएँ करनी चाहिए।

प्रश्न 8.
गर्माना किस प्रकार ठण्डा होने से भिन्न है?
उत्तर:
(1) गर्माने से शरीर का तापमान बढ़ जाता है जबकि ठण्डा होने से शरीर का तापमान कम हो जाता है।
(2) गर्माने से हृदय की धड़कन बढ़ती है जबकि ठण्डा होने से हृदय की धड़कन सामान्य हो जाती है।

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प्रश्न 9.
मनोवैज्ञानिक गर्माना क्या है?
अथवा
मानसिक गर्माना क्या है?
अथवा
मनोवैज्ञानिक गर्माना कैसे किया जाता है?
उत्तर:
खेल मुकाबले से पहले खिलाड़ी को मनोवैज्ञानिक या मानसिक रूप से मुकाबले के लिए तैयार करना मनोवैज्ञानिक या मानसिक गर्माना कहलाता है। भिन्न-भिन्न विधियाँ; जैसे कोच द्वारा खिलाड़ी को प्रेरित करना, उसके व्यवहार को संतुलन में लाना तथा फीडबैक द्वारा खिलाड़ी की मानसिक या मनोवैज्ञानिक तैयारी हो जाती है। उसके मन से मुकाबले का डर निकाल देना मनोवैज्ञानिक उत्साह भरने के लिए आवश्यक होता है।

प्रश्न 10.
शारीरिक गर्माना क्या होता है? अथवा शारीरिक गर्माना कैसे किया जाता है?
उत्तर:
शारीरिक गर्माने में मुकाबले के लिए शारीरिक माँसपेशियों को मुकाबले में पड़ने वाले दवाब के लिए तैयार किया जाता है। शारीरिक गर्माना निम्नलिखित दो विधियों द्वारा किया जाता है
1. सकर्मक या सक्रिय गर्माना-सकर्मक गर्माना में शारीरिक कसरतों और मुकाबलों की तैयारी की जाती है।
2. अकर्मक या निष्क्रिय गर्माना-अकर्मक गर्माना में खिलाड़ी द्वारा कोई शारीरिक कसरत नहीं की जाती। इसमें खिलाड़ी बैठकर ही अपने शरीर को गर्म कर मुकाबले के लिए तैयार करता है।

प्रश्न 11.
स्ट्राइडिंग (Striding) क्या है?
उत्तर:
स्ट्राइडिंग व्यायाम में खिलाड़ी को अपनी पूरी गति से दौड़ना चाहिए। इसमें लंबे तथा ऊँचे कदम लेने चाहिएँ। इस प्रकार का व्यायाम लगभग 60 से 80 मी० तक दौड़कर करना चाहिए तथा वापसी पर चलकर आना चाहिए। यह क्रिया 4 से 6 बार दोहरानी चाहिए। दौड़ते समय कदम लंबे, शरीर आगे की ओर तथा घुटने ऊपर उठाकर दौड़ना चाहिए।

प्रश्न 12.
विंड स्प्रिंट्स (Wind Sprints) से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
विंड स्प्रिंट्स का अर्थ है-हवा की गति के समान दौड़ना। विंड स्प्रिंट्स लगाते समय हवा की गति के समान अर्थात् पूरी क्षमता से 20-25 मीटर तक दौड़ना चाहिए। यह क्रिया चार से छः बार तक की जानी चाहिए। यह क्रिया हमेशा कीलदार जूते पहनकर की जानी चाहिए।

प्रश्न 13.
सामान्य गर्माने से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘सामान्य शरीर गर्माने से हमारा उद्देश्य उन क्रियाओं को करने से है जो सभी खेलों के लिए लगभग एक जैसी हो सकती हैं; जैसे धीमी गति से दौड़ना, हाथ-पैर घुमाना, खिंचाव वाली क्रियाएँ करना। ये क्रियाएँ किसी भी खेल को शुरू करने से पहले की जाती हैं। ये खिलाड़ी को शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करती हैं।

प्रश्न 14.
विशेष गर्माने से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
विशेष गर्माना उस समय शुरू किया जाता है जब सामान्य गर्माना समाप्त कर लिया जाता है। इसका उद्देश्य खिलाड़ी को उस खेल के लिए शारीरिक रूप से तैयार करना होता है जो अभी खेली जानी होती है। इस प्रकार के विशेष गर्माने में शरीर के उन अंगों और माँसपेशियों को लेना चाहिए जिनका प्रयोग विशेष प्रकार के प्रशिक्षण और मुकाबले की स्थितियों में विशेष रूप से होता है। यदि खिलाड़ी अपनी गति में सुधार लाने का लक्ष्य रखता है तो उसे विशेष क्रियाओं के द्वारा शरीर में धीरे-धीरे प्रचण्डता लानी होगी। ये क्रियाएँ साधारण गर्माना से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हें मालिश, गर्म पानी अथवा भाप से नहाने से अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है।

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प्रश्न 15.
सामान्य तथा विशेष गर्माने में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
सामान्य गर्माने संबंधी क्रियाएँ सभी प्रकार के खेलों हेतु एक-सम्मान होती हैं। ये खिलाड़ी को शारीरिक-मानसिक रूप से तैयार करती हैं, जबकि विशेष गर्माने संबंधी क्रियाएँ सभी प्रकार के खेलों हेतु भिन्न-भिन्न होती हैं। इनका उद्देश्य खिलाड़ी को उस खेल के लिए शारीरिक रूप से तैयार करना होता है जो अभी-अभी खेला जाना हो।

प्रश्न 16.
शरीर को ठण्डा करना क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
शरीर को ठण्डा करना निम्नलिखित कारणों से आवश्यक है
(1) रक्त संचार की प्रक्रिया सामान्य करना
(2) माँसपेशियों की मालिश करना
(3) माँसपेशियों में लचीलापन आ जाना
(4) मानसिक तनाव दूर होना।

प्रश्न 17.
लिम्बरिंग या कूलिंग डाउन क्या है?
अथवा
शरीर को ठण्डा करने से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
लिम्बरिंग डाउन या ठण्डा करने से तात्पर्य शरीर को व्यायामों द्वारा आराम की हालत में वापस लाना है। मुकाबले के दौरान शरीर का तापमान बढ़ जाता है। तापमान को अपनी वास्तविकता में लाने के लिए धीरे-धीरे दौड़कर या चलकर ट्रैक का चक्कर लगाना चाहिए। इस तरह मुकाबले के दौरान बढ़ा हुआ तापमान साधारण अवस्था में आ जाता है। शरीर को धीरे-धीरे ठण्डा करने से थकावट जल्दी दूर होती है और माँसपेशियों की मालिश भी हो जाती है।

प्रश्न 18.
अनुकूलन (Conditioning) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
जब किसी कार्य या व्यायाम को निरंतर करने से इंद्रियाँ उसकी अभ्यस्त हो जाती हैं और वह कार्य अधिक ध्यान दिए बिना या बिना ध्यान दिए अपने-आप ही होता जाता है, इस अवस्था को अनुकूलन कहते हैं। उदाहरणस्वरूप जब एक टाइपिस्ट अपनी कला में निपुण हो जाता है तो बिना की-बोर्ड देखे ही टाइप करता रहता है। इसे अनुकूलन का नाम दिया जाता है।

प्रश्न 19.
आइसोमीट्रिक व्यायाम किसे कहते हैं? उदाहरण दें।
अथवा
आइसोमीट्रिक कसरतों से क्या भाव है? इनके उदाहरण लिखें।
अथवा
आइसोमीट्रिक व्यायामों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम वे व्यायाम होते हैं जिनमें खिलाड़ी द्वारा किया गया व्यायाम या कार्य नजर नहीं आता। ऐसे व्यायाम में तनाव की अधिकता तथा तापमान में वृद्धि की संभावना रहती है। हमारे द्वारा अत्यधिक बल लगाने पर भी वस्तु अपने स्थान से नहीं हिलती।
उदाहरण:
(1) बंद दरवाजों को धकेलना
(2) पीठ से दीवार को दबाना
(3) पैरलल बार को पुश करना आदि।

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प्रश्न 20.
आइसोटोनिक व्यायाम क्या होते हैं? उदाहरण दें।
अथवा
आइसोटोनिक कसरतों से क्या अभिप्राय है? इनके उदाहरण लिखें।
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायामों में खिलाड़ी की गतिविधियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। इन व्यायामों का उद्देश्य माँसपेशियों की कार्यक्षमता में वृद्धि करना होता है। इनसे माँसपेशियों तथा जोड़ों में लचक आती है। इन कसरतों को समशक्ति जोर भी कहते हैं। शरीर को गर्माने के लिए इन व्यायामों का विशेष महत्त्व होता है।
उदाहरण:
(1) हल्के भार के व्यायाम करना
(2) हल्का बोझ उठाना
(3) झूला झूलना आदि।

प्रश्न 21.
आइसोटोनिक व्यायाम कितने प्रकार के होते हैं? नाम बताएँ।
अथवा
कंसैंट्रिक अभ्यास एक्सैंट्रिक अभ्यास से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम या अभ्यास दो प्रकार के होते हैं
1. कंसैंट्रिक व्यायाम-कंसैंट्रिक व्यायाम वे व्यायाम होते हैं जिनसे माँसपेशियाँ खिंचाव के कारण सिकुड़कर छोटी हो जाती हैं। ऐसा प्रायः हल्के-फुल्के एवं तीव्र गति के व्यायामों में होता है।
2. एक्सैंट्रिक व्यायाम-कठोर तथा नियंत्रित क्रियाओं जैसे कि कार या स्कूटर चलाना आदि में आपसी विरोधाभास माँसपेशियों में परिवर्तन के साथ-साथ तनाव बढ़ाता है उसे एक्सैंट्रिक व्यायाम कहते हैं।

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प्रश्न 22.
सर्किट प्रशिक्षण और अन्तराल प्रशिक्षण में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
सर्किट प्रशिक्षण अनुकूलन का ही भाग माना जाता है। यह ऐसी प्रणाली है जिसमें खिलाड़ी एक के बाद दूसरी क्रिया करते हैं। इनके बीच आराम किया जा सकता है परन्तु अन्तराल प्रशिक्षण विधि में किसी एक व्यायाम को बार-बार किया जाता है परन्तु गति में अन्तर पाया जा सकता है।

प्रश्न 23.
क्या गर्माना लचीलेपन को बढ़ाता है?
उत्तर:
हाँ, गर्माना लचीलेपन को बढ़ाता है। शरीर को अच्छे से गर्माने से शरीर में लचकता बढ़ती है। यदि कोई खिलाड़ी प्रतियोगिता से पूर्व अपने शरीर को अच्छे से न गर्माए तो इससे उसके शरीर में लचक कम होती है, जिस कारण वह खेल में अच्छे परिणाम देने में असफल हो सकता है। विश्राम या आराम की स्थिति में हम अपने अंगों को अधिक नहीं मोड़ पाते, लेकिन गर्माने के बाद हम अपने अंगों को अधिक मोड़ पाते हैं, क्योंकि गर्माने से शरीर में लचकता बढ़ जाती है। अतः स्पष्ट है कि गर्माना लचीलेपन को बढ़ाता है।

प्रश्न 24.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि क्या है? उदाहरण दें।
अथवा
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि क्रॉस-कंट्री दौड़ पर आधारित है तथा दौड़ के साथ-साथ कई अन्य व्यायाम भी इसमें शामिल हैं। यह प्रशिक्षण खिलाड़ी की आयु, क्षमता आदि देखकर दिया जाता है। इस विधि में कदमों के फासले या दूरी और तीव्रता आदि में फेर-बदल करके दौड़ का कार्यक्रम बनता है। भागते-भागते जमीन से कोई वस्तु उठाना, भागते-भागते आधी बैठक लगाना, एक टाँग से दौड़ना, दोनों पैरों से कूद लगाना, हाथ ऊपर करके भागना आदि इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 25.
पेस दौड़ के बारे में आप क्या जानते हैं?
अथवा
पेस दौड़ों पर नोट लिखें।
अथवा
गति को विकसित करने में पेस दौड़ों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पेस दौड़ों का अर्थ है-एक दौड़ की पूरी दूरी को एक निश्चित गति से दौड़ना। इन दौड़ों में एक खिलाड़ी/एथलीट दौड़ को समरूप या समान रूप से दौड़ता है। सामान्यतया 800 मी० व इससे अधिक दूरी की दौड़ें पेस दौड़ों में शामिल होती हैं। वास्तव में, एक एथलीट लगभग 300 मी० की दूरी पूरी गति से दौड़ सकता है। इसलिए मध्यम व लम्बी दौड़ों में; जैसे 800 मी० व इससे अधिक दूरी की दौड़ों में उसे अपनी गति में कमी करके अपनी ऊर्जा को संरक्षित रखना जरूरी है। उदाहरण के लिए, यदि एक 800 मी० की दौड़ लगाने वाला एथलीट है और उसका समय 1 मिनट 40 सेकिण्ड है, तो उसे पहली 400 मी० दौड़ 49 सेकिण्ड में तथा 400 मी० दौड़ 51 सेकिण्ड में लगानी चाहिए। यह प्रक्रिया ही पेस दौड़ कहलाती है। पेस दौड़ों की दोहराई खिलाड़ी की योग्यता के अनुसार निश्चित की जा सकती हैं।

प्रश्न 26.
त्वरण दौड़ें क्या हैं?
उत्तर:
त्वरण दौड़ों से त्वरण योग्यता में वृद्धि हो जाती है। त्वरण योग्यता विस्फोटक शक्ति, तकनीक तथा लचक पर निर्भर करती है। इस योग्यता में वृद्धि करने के लिए छोटी दौड़ों का उपयोग किया जा सकता है। प्रायः तेज धावक अपनी अधिकतम गति स्थिर अवस्था के बाद से 6 सेकिण्ड में प्राप्त कर लेते हैं। युवा धावक अपनी त्वरण योग्यता में त्वरण दौड़ों के द्वारा वृद्धि कर सकते हैं। त्वरण दौड़ों की संख्या, एथलीट की आयु व उसके अनुभव के अनुसार निश्चित की जा सकती है।

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प्रश्न 27.
अंतराल प्रशिक्षण विधि की कोई दो विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
(1) इसमें धावक के लिए दूरी निश्चित की जाती है।
(2) बीच में दो या तीन मिनट का समय पुनः शक्ति प्राप्त करने के लिए निश्चित कर दिया जाता है।

प्रश्न 28.
सहनशीलता के विकास की विभिन्न विधियों के नाम बताएँ।
उत्तर:
(1) निरंतर प्रशिक्षण विधि (Continuous Training Method)
(2) अंतराल प्रशिक्षण विधि (Interval Training Method)
(3) फार्टलेक प्रशिक्षण विधि (Fartlek Training Method)।

प्रश्न 29.
क्या कूलिंग डाउन से मानसिक तनाव कम होता है?
उत्तर:
हाँ, कूलिंग डाउन से मानसिक तनाव कम होता है। खेल मुकाबले के दौरान सभी शारीरिक प्रणालियाँ सामान्य अवस्था से अधिक कार्य कर रही होती हैं, जिस कारण मानसिक तनाव बढ़ जाता है। कूलिंग डाउन से सभी प्रणालियाँ अपनी पहले वाली अवस्था में आ जाती हैं, जिससे मानसिक तनाव कम व दूर होता है।

HBSE 12th Class Physical Education प्रशिक्षण विधियाँ Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न [Objective Type Questions]

भाग-1: एक शब्द/वाक्य में उत्तर दें-

प्रश्न 1.
हमारा शरीर किसकी तरह है?
उत्तर:
हमारा शरीर एक मशीन की तरह है।

प्रश्न 2.
शरीर गर्माना कितने प्रकार का होता है?
उत्तर:
शरीर गर्माना दो प्रकार का होता है-
(1) सकर्मक गर्माना
(2) अकर्मक गर्माना।

प्रश्न 3.
शरीर को गर्माने से किसमें फैलाव आता है?
उत्तर:
शरीर को गर्माने से माँसपेशियों में फैलाव आता है।

प्रश्न 4.
आइसोकाइनेटिक व्यायाम का जन्मदाता कौन है?
उत्तर:
आइसोकाइनेटिक व्यायाम का जन्मदाता पेरिन है।

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प्रश्न 5.
लगातार कार्य करते रहने से शरीर में अभ्यस्तता आ जाती है, उसे क्या कहते हैं?
उत्तर:
लगातार कार्य करते रहने से शरीर में अभ्यस्तता आ जाती है, उसे अनुकूलन कहते हैं।

प्रश्न 6.
गर्माने में किन अंगों का व्यायाम करना चाहिए?
उत्तर:
गर्माने में शरीर के लगभग सभी अंगों का व्यायाम करना चाहिए।

प्रश्न 7.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि सर्वप्रथम किस देश ने अपनाई?
उत्तर:
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि सर्वप्रथम स्वीडन ने अपनाई।

प्रश्न 8.
वे व्यायाम, जिनमें खिलाड़ी की गतिविधियाँ या कार्य स्पष्ट दिखाई दें, उन्हें क्या कहते हैं?
अथवा
किस प्रकार के व्यायामों में गतियाँ प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती हैं?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम।

प्रश्न 9.
ऐसे व्यायाम जिनमें खिलाड़ी की प्रत्यक्ष क्रिया दिखाई नहीं देती, उन्हें क्या कहते हैं?
अथवा
किस प्रकार के व्यायाम में गतियाँ प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देती हैं?
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम।

प्रश्न 10.
त्वरण दौड़ में कम-से-कम कितनी दूरी होती है?
उत्तर:
त्वरण दौड़ में लगभग 20 से 40 मीटर दूरी होती है।

प्रश्न 11.
तैयारी किस प्रकार की प्रक्रिया है?
उत्तर:
तैयारी एक जटिल प्रक्रिया है।

प्रश्न 12.
शरीर को गर्माने के दो उदाहरण दें।
उत्तर:
(i) जॉगिंग
(ii) विंड स्प्रिंट्स।

प्रश्न 13.
सर्वप्रथम अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत किस देश में हुई?
उत्तर:
सर्वप्रथम अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत फिनलैंड में हुई।

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प्रश्न 14.
अंतराल प्रशिक्षण विधि किस सिद्धांत पर आधारित है?
उत्तर:
अंतराल प्रशिक्षण विधि प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति, फिर प्रयास व पुनः शक्ति प्राप्ति के सिद्धांत पर आधारित है।

प्रश्न 15.
क्या गर्माने से माँसपेशियों में तालमेल बढ़ जाता है?
अथवा
क्या गर्माना माँसपेशियों की गति को बढ़ाता है?
उत्तर:
हाँ, गर्माना माँसपेशियों की गति को बढ़ाता है, क्योंकि इससे माँसपेशियों में तालमेल व सामंजस्य बढ़ जाता है।

प्रश्न 16.
क्या आर्द्रता प्रतिदिन के अभ्यास को प्रभावित करती है?
उत्तर:
हाँ, आर्द्रता प्रतिदिन के अभ्यास को प्रभावित करती है।

प्रश्न 17.
क्या गर्माना शक्ति या ऊर्जा को बढ़ाता है?
उत्तर:
गर्माना शक्ति या ऊर्जा को बढ़ाता है, क्योंकि इससे माँसपेशियों में संकुचन और प्रसार की शक्ति बढ़ जाती है।

प्रश्न 18.
बिकिला कौन था?
उत्तर:
बिकिला फिनलैंड के एथलेटिक्स कोच थे। इन्होंने हमें सन् 1920 में अंतराल प्रशिक्षण विधि से परिचित करवाया।

प्रश्न 19.
क्या गर्माना प्रदर्शन का स्तर कम करता है?
उत्तर:
नही, गर्माना प्रदर्शन का स्तर कम नहीं करता, बल्कि बढ़ाता है।

प्रश्न 20.
अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत कब और किसने की?
उत्तर:
अंतराल प्रशिक्षण विधि की शुरुआत सन् 1920 में बिकिला ने की।

प्रश्न 21.
क्या लिम्बरिंग डाउन से माँसपेशियों से तनाव दूर होता है?
उत्तर:
हाँ, लिम्बरिंग डाउन से माँसपेशियों से तनाव दूर होता है।

प्रश्न 22.
पेरीन द्वारा किस प्रकार के व्यायामों को विकसित किया गया?
उत्तर:
पेरीन द्वारा आइसोकाइनेटिक व्यायामों को विकसित किया गया।

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प्रश्न 23.
किसी प्रतियोगिता या प्रशिक्षण से पहले नियमित रूप से कौन-सी क्रिया करनी चाहिए?
उत्तर:
प्रतियोगिता या प्रशिक्षण से पहले नियमित रूप से वार्मिंग-अप क्रिया करनी चाहिए।

प्रश्न 24.
किसी प्रतियोगिता या प्रशिक्षण के बाद नियमित रूप से कौन-सी क्रिया करनी चाहिए?
अथवा
शारीरिक क्रियाओं अथवा खेल खेलने के बाद शरीर को सामान्य अवस्था में लाने की प्रक्रिया का क्या नाम है?
अथवा
शारीरिक क्रियाकलाप या खेल खेलने के बाद शरीर को सामान्य अवस्था में लाने की प्रक्रिया का क्या नाम है?
अथवा
कौन-सी क्रिया में शरीर का तापमान सामान्य हो जाता है?
उत्तर:
लिम्बरिंग या कूलिंग डाउन।

प्रश्न 25.
अंतराल प्रशिक्षण को अन्य किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
अंतराल प्रशिक्षण को टेरेस प्रशिक्षण के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 26.
निरंतर प्रशिक्षण विधि में हृदय की धड़कन की दर कितनी होती है?
उत्तर:
निरंतर प्रशिक्षण विधि में हृदय की धड़कन की दर 140 से 160 प्रति मिनट होती है।

प्रश्न 27.
किस प्रशिक्षण विधि में माँसपेशियों तथा यकृत में ग्लाइकोजेन बढ़ जाता है?
उत्तर:
निरंतर प्रशिक्षण विधि में माँसपेशियों तथा यकृत में ग्लाइकोजेन बढ़ जाता है।

प्रश्न 28.
आइसोटोनिक व्यायाम का कोई एक लाभ बताएँ।
उत्तर:
माँसपेशियों की कार्यक्षमता में वृद्धि होना।

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प्रश्न 29.
आइसोमीट्रिक व्यायाम सर्वप्रथम कब और किसने आरंभ की?
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम सर्वप्रथम सन् 1953 में हैटिंजर ने आरंभ की।

प्रश्न 30.
आइसोमीट्रिक व्यायाम का कोई एक लाभ बताएँ।
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम में कम समय लगता है अर्थात् इसमें समय की बचत होती है।

प्रश्न 31.
आइसोटोनिक व्यायाम कब और किसने आरंभ की?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम सन् 1954 में डी लून ने आरंभ की।

प्रश्न 32.
आइसोकाइनेटिक व्यायाम कब आरंभ हुई?
उत्तर:
आइसोकाइनेटिक व्यायाम सन् 1968 में आरंभ हुई।

प्रश्न 33.
शरीर को कब गर्माना चाहिए?
उत्तर:
शरीर को खेल प्रतियोगिता से पूर्व गर्माना चाहिए।

प्रश्न 34.
‘फार्टलेक’ किस भाषा का शब्द है?
उत्तर:
‘फार्टलेक’ स्वीडिश भाषा का शब्द है।

प्रश्न 35.
गर्माने का कोई एक सिद्धांत बताएँ।
उत्तर:
सरल से जटिल का सिद्धांत।

प्रश्न 36.
‘पीठ से दीवार को दबाना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम का।

प्रश्न 37.
आइसोटोनिक व्यायाम कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम दो प्रकार के होते हैं।

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प्रश्न 38.
“जिम्नास्टिक क्रियाएँ’ किस व्यायाम की उदाहरण हैं?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम की।

प्रश्न 39.
बलिस्टिक विधि किसके सुधार की विधि है?
उत्तर:
लचीलापन।

प्रश्न 40.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि में हृदय-गति क्या रहती है?
उत्तर:
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि में हृदय-गति 140-180 के बीच प्रति मिनट रहती है।

प्रश्न 41.
फार्टलेक प्रशिक्षण विधि को ‘स्पीड प्ले’ किसने कहा?
उत्तर:
सन् 1930 में स्वीडन के गोस्ट होल्मर ने।

प्रश्न 42.
‘झूला झूलना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
उत्तर:
आइसोटोनिक व्यायाम का।

प्रश्न 43.
‘भारी रोलर धकेलना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
उत्तर:
आइसोकाइनेटिक व्यायाम का।

प्रश्न 44.
‘बर्फ पर स्केटिंग करना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
उत्तर:
आइसोकाइनेटिक व्यायाम का।

प्रश्न 45.
‘बंद दरवाजे को धकेलना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम का।

प्रश्न 46.
‘कूदना, दौड़ना व हल्का भार उठाना’ किस व्यायाम के उदाहरण हैं?
उत्तर;’
आइसोटोनिक व्यायाम के।

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प्रश्न 47.
‘डैस्क या मेज आदि को हाथ, कोहनी या पैर से दबाना’ किस व्यायाम के उदाहरण हैं?
उत्तर:
आइसोमीट्रिक व्यायाम के।

भाग-II : सही विकल्प का चयन करें-

1. प्रशिक्षण का अर्थ है
(A) किसी कार्य की तैयारी की प्रक्रिया
(B) किसी कार्य को करने के बारे में जानकारी
(C) किसी कार्य की रूपरेखा
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(A) किसी कार्य की तैयारी की प्रक्रिया

2. तैयारी किस प्रकार की प्रक्रिया है?
(A) जटिल
(B) मिश्रित
(C) आसान
(D) तीव्र
उत्तर:
(A) जटिल

3. गर्माने की कितनी किस्में होती हैं?
(A) सात
(B) पाँच
(C) तीन
(D) दो
उत्तर:
(D) दो

4. शारीरिक अभ्यास में लाभ शामिल है
(A) मनोवैज्ञानिक तंदुरुस्ती
(B) दीर्घ आयु को बढ़ाना
(C) कुछ बीमारियों में कमी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

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5. ताकत, गति तथा सहनशीलता को प्रायः बढ़ाया जा सकता है
(A) दवाइयों के सेवन द्वारा
(B) खेलों में भाग लेकर
(C) व्यायाम द्वारा
(D) (B) व (C) दोनों
उत्तर:
(D) (B) व (C) दोनों

6. धीमी गति से दौड़ना किस व्यायाम का उदाहरण है?
(A) आइसोकाइनेटिक व्यायाम
(B) एरोबिक
(C) आइसोटोनिक व्यायाम
(D) आइसोमीट्रिक व्यायाम
उत्तर:
(B) एरोबिक

7. अकर्मक गर्माना किस प्रकार किया जाता है?
(A) दवाइयों तथा मालिश द्वारा
(B) गर्म पानी से नहाकर
(C) अल्ट्रा किरणों द्वारा
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. किस खिंचाव के कारण माँसपेशी छोटी हो जाती है?
(A) आइसोमीट्रिक
(B) आइसोकाइनेटिक
(C) कंसैंट्रिक
(D) एक्सैंट्रिक
उत्तर:
(C) कंसैंट्रिक

9. निम्नलिखित में से कौन-सी क्रिया आइसोटोनिक व्यायाम की उदाहरण है?
(A) किसी के आने के लिए दरवाजा खोलना
(B) खिड़की को खींचना व खोलना
(C) झूला-झूलना
(D) भारी रोलर धकेलना
उत्तर:
(C) झूला-झूलना

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10. निम्नलिखित में से खेल प्रशिक्षण के उद्देश्यों में शामिल है
(A) उत्तम स्वास्थ्य का विकास
(B) व्यक्तिगत व भावात्मक विकास
(C) खेल संबंधी विकास
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

11. गर्माना कार्य करता है
(A) दिल की गति को कम करना
(B) शरीर व माँसपेशियों के तापमान को बढ़ाना
(C) फेफड़ों का आयतन बढ़ाना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) शरीर व माँसपेशियों के तापमान को बढ़ाना

12. अभ्यासकर्ता व खिलाड़ियों को वार्मिंग-अप व कलिंग डाउन मदद करती है
(A) शरीर व दिमाग को आराम देने में
(B) बीमारी से बचाने में
(C) चोट से बचाना तथा कार्य करने के कौशल में वृद्धि
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) चोट से बचाना तथा कार्य करने के कौशल में वृद्धि

3. खिलाड़ी का सर्वांगीण शारीरिक अनुकूलन करने के लिए क्या आवश्यक है?
(A) अच्छा पारिवारिक माहौल
(B) अच्छा संतुलित आहार
(C) खेल प्रशिक्षण.
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) खेल प्रशिक्षण

14. खेलों से पूर्व शरीर को भली-भाँति तैयार करना क्या कहलाता है?
(A) गर्माना
(B) अनुकूलन
(C) ठण्डा करना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) गर्माना

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15. “गर्माना रक्त के तापमान को बढ़ाता है जिसके फलस्वरूप माँसपेशियाँ प्रदर्शन को बढ़ाती हैं।” यह कथन किसका है?
(A) डेवरिस का
(B) हिल का
(C) डेविड लैम्ब का
(D) थॉम्पसन का
उत्तर:
(A) डेवरिस का

16. खेल प्रशिक्षण के सिद्धांत हैं
(A) निरंतरता का सिद्धांत
(B) विशिष्टता का सिद्धांत
(C) अतिभार का सिद्धांत
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

17. गर्माने के मनोवैज्ञानिक प्रभावों में से निम्नलिखित में से कौन-सा नहीं है?
(A) श्वसन क्रिया में वृद्धि
(B) मानसिक तैयारी
(C) भीड़ के डर का प्रभाव
(D) हृदय-योग्यता में वृद्धि
उत्तर:
(A) श्वसन क्रिया में वृद्धि

18. गर्माने में कितनी व्यायाम या कसरतें हो सकती हैं?
(A) 10 से 20 तक
(B) 10 से 15 तक
(C) 8 से 10 तक
(D) 5 से 10 तक
उत्तर:
(B) 10 से 15 तक

19. एक ऐसी क्रिया जो किसी प्रशिक्षण कार्यक्रम या खेल प्रतियोगिता के तुरंत बाद की जाती है, वह क्या कहलाती है?
(A) गर्माना
(B) अनुकूलन
(C) ठण्डा करना या कूलिंग डाउन
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) ठण्डा करना या कूलिंग डाउन

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20. अंतराल प्रशिक्षण विधि किस देश की देन है?
(A) कनाडा की
(B) इंग्लैंड की
(C) फिनलैंड की
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) फिनलैंड की।

21. विंड स्प्रिंट्स उदाहरण है
(A) लिम्बरिंग डाउन
(B) गर्माना
(C) ठण्डा करना
(D) अनुकूलन
उत्तर:
(B) गर्माना

22. स्थिर शक्ति के विकास के लिए आइसोमीट्रिक विधि के प्रथम समर्थक थे-
(A) गुनलैच
(B) जे० जे० पेरिन
(C) बूनर
(D) हैटिंजर और मूलर
उत्तर:
(D) हैटिंजर और मूलर

23. निम्नलिखित में से कौन-सी क्रिया आइसोमीट्रिक व्यायाम की उदाहरण है?
(A) कुर्सी को दोनों हाथों से अंदर की ओर दबाना
(B) झूला झूलना
(C) बाल्टी उठाना
(D) भारी रोलर को धकेलना
उत्तर:
(A) कुर्सी को दोनों हाथों से अंदर की ओर दबाना

24. निम्नलिखित में से कौन-सी क्रिया आइसोकाइनेटिक व्यायाम की उदाहरण है?
(A) घुटने मोड़ना
(B) बर्फ पर स्केटिंग करना
(C) हल्का बोझ उठाना
(D) बंद दरवाजे को धकेलना
उत्तर:
(B) बर्फ पर स्केटिंग करना

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25. लिम्बरिंग डाउन या शरीर को ठण्डा करने का शरीर पर क्या प्रभाव होता है?
(A) रक्त दबाव में कमी
(B) रक्त-प्रवाह की दर में कमी
(C) शरीर के तापमान में कमी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

26. शरीर को धीरे-धीरे ठण्डा करने से क्या होता है?
(A) नींद आती है
(B) थकान होती है
(C) शरीर सुस्त हो जाता है
(D) थकावट दूर हो जाती है
उत्तर:
(D) थकावट दूर हो जाती है

27. लगातार कार्य करते रहने से शरीर में जो अभ्यस्तता आ जाती है, उसे क्या कहते हैं?
(A) अनुकूलन
(B) गर्माना
(C) ठण्डा करना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) अनुकूलन

28. प्रशिक्षण का उद्देश्य है
(A) उत्तम स्वास्थ्य का निर्माण करना
(B) मानसिक विकास करना
(C) व्यक्तिगत विकास करना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

29. आइसोकाइनेटिक व्यायामों को किसने विकसित किया?
(A) टोनो ने
(B) बिकिला ने
(C) पेरीन ने
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) पेरीन ने

30. फार्टलेक प्रशिक्षण विधि सर्वप्रथम किस देश ने अपनाई?
(A) स्वीडन ने
(B) हॉलैंड ने
(C) बेल्जियम ने
(D) पोलैंड ने
उत्तर:
(A) स्वीडन ने

31. फार्टलेक प्रशिक्षण विधि सुधारता है
(A) क्षमता
(B) गति
(C) शक्ति
(D) लचीलापन
उत्तर:
(B) गति

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32. गर्माना करता है
(A) हृदय गति में कमी
(B) शरीर व मांसपेशियों के तापमान में वृद्धि
(C) फेफड़ों के साइज में वृद्धि
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) शरीर व मांसपेशियों के तापमान में वृद्धि

33. ऐसे व्यायाम जिनमें खिलाड़ी की प्रत्यक्ष क्रिया दिखाई नहीं देती, उन्हें क्या कहते हैं?
(A) आइसोमीट्रिक व्यायाम
(B) आइसोकाइनेटिक व्यायाम
(C) आइसोटोनिक व्यायाम
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) आइसोमीट्रिक व्यायाम

34. वे व्यायाम जिनमें खिलाड़ी की गतिविधियाँ या कार्य स्पष्ट दिखाई दें, उन्हें क्या कहते हैं?
(A) आइसोमीट्रिक व्यायाम
(B) आइसोकाइनेटिक व्यायाम
(C) आइसोटोनिक व्यायाम
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) आइसोटोनिक व्यायाम

35. बोझा उठाकर खड़े रहना ……………….. व्यायाम का उदाहरण है।
(A) आइसोटोनिक
(B) आइसोमीट्रिक
(C) आइसोकाइनेटिक
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) आइसोमीट्रिक

36. आइसोटोनिक व्यायाम का उदाहरण है
(A) हल्का बोझ उठाना
(B) हल्का व्यायाम करना
(C) कलाई घुमाना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

37. आइसोमीट्रिक तथा आइसोटोनिक व्यायामों के मिश्रण को क्या कहते हैं?
(A) आइसोकाइनेटिक व्यायाम
(B) अनएरोबिक व्यायाम
(C) एरोबिक क्रिया
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) आइसोकाइनेटिक व्यायाम

38. ‘पीठ से दीवार को धक्का देना’ किस व्यायाम का उदाहरण है?
(A) आइसोकाइनेटिक व्यायाम का
(B) आइसोटोनिक व्यायाम का
(C) एरोबिक क्रिया का
(D) आइसोमीट्रिक व्यायाम का
उत्तर:
(D) आइसोमीट्रिक व्यायाम का

39. किस वर्ष में पेरीन ने आइसोकाइनेटिक व्यायामों को विकसित किया था?
(A) 1964 में
(B) 1968 में
(C) 1972 में
(D) 1976 में
उत्तर:
(B) 1968 में

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40. परिधि प्रशिक्षण विधि का प्रतिपादन किसने किया था?
(A) बील्स
(B) क्लेयर
(C) मॉर्गन व स्टेनले
(D) मॉर्गन व एडमसन
उत्तर:
(D) मॉर्गन व एडमसन

41. खिंचाव जिसमें विभिन्न तनाव से भार उठाने से खिंचाव के कारण मांसपेशियाँ छोटी होने लगती हैं, को कहते हैं
(A) कॉनसेन्ट्रिक खिंचाव
(B) आइसोमीट्रिक खिंचाव
(C) आइसोटोनिक खिंचाव
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) कॉनसेन्ट्रिक खिंचाव

42. खिंचाव जिसमें तनाव का विकास होता है परन्तु मांसपेशियों की लम्बाई में कोई बदलाव नहीं आता, कहलाता है
(A) इसेंट्रिक खिंचाव
(B) आइसोटोनिक खिंचाव
(C) आइसोमीट्रिक खिंचाव
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) इसेंट्रिक खिंचाव

भाग-III: रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. सावधान की स्थिति में खड़े रहना ……………….. व्यायाम का उदाहरण है।
2. ‘स्ट्राइडिंग’ ……………… का उदाहरण है।
3. अनुकूलन एक ………………… प्रक्रिया है।
4. धीमी गति से दौड़ना .. ………………. का उदाहरण है।
5. ‘बोझा उठाकर खड़े करना’ ………………… व्यायाम का उदाहरण है।
6. फार्टलेक प्रशिक्षण विधि एक प्रकार की ………………… दौड़ पर आधारित है।
7. विंड स्प्रिंट्स ……………….. का उदाहरण है।
8. तैयारी ………………. प्रक्रिया है।
9. एक्सैंट्रिक अभ्यास ………………… व्यायाम का उदाहरण है।
10. ठण्डा करने (Cooling Down) से शरीर का तापमान ………………… हो जाता है।
11. बिना भार वाली बैंच प्रेस अभ्यास करना ……………. संकुचन का एक उदाहरण है।
12. ……………… व्यायाम में माँसपेशियों में संकुचन होता है।
उत्तर:
1. आइसोमीट्रिक
2. गर्माने
3. अभ्यस्त होने की
4. गर्माने
5. आइसोमीट्रिक
6. क्रॉस-कंट्री
7. गर्माने
8. जटिल
9. आइसोटोनिक
10. सामान्य
11. कंसैंटिक
12. आइसोटोनिक।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 2 प्रशिक्षण विधियाँ

प्रशिक्षण विधियाँ Summary

प्रशिक्षण विधियाँ परिचय

वास्तव में प्रशिक्षण’ शब्द कोई नया शब्द नहीं है। व्यक्ति इस शब्द को प्राचीन समय से प्रयोग कर रहे हैं। प्रशिक्षण का अर्थ किसी कार्य की तैयारी की प्रक्रिया से है। इसी कारण यह शब्द खेलकूद के क्षेत्र में अधिक प्रयोग किया जाता है। ‘प्रशिक्षण’ की धारणा और खिलाड़ी की तैयारी’ आपस में मिलती-जुलती हैं लेकिन फिर भी ये एक-दूसरे की पूरक नहीं हैं। तैयारी एक कठिन प्रक्रिया है। यह खिलाड़ी के विकास को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है तथा काफी हद तक सफलता के लिए एकाग्रता को बढ़ाती है। इस कठिन प्रक्रिया में, खेल प्रशिक्षण, खेल प्रतियोगिताएँ (तैयारी के रूप में) और संतुलित आहार आदि शामिल किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, अनेक व्यायामों सहित यह एक सुव्यवस्थित एवं योजनापूर्ण तैयारी होती है। इसलिए खेल प्रशिक्षण को एक विशेष प्रक्रिया समझा जाना चाहिए जो खिलाड़ी का सर्वांगीण शारीरिक अनुकूलन करती है तथा जिसका लक्ष्य खेलकूद में खिलाड़ी के प्रदर्शन के लिए तैयारी करना होता है।

खेल प्रशिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जो सामान्यतया लंबी अवधि के लिए प्रयोग की जाती है। यदि हम प्रतियोगिताओं में अच्छे परिणाम प्राप्त करना चाहते हैं तो खेल प्रशिक्षण, वैज्ञानिक आधारों या सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए। यदि ऐसा संभव नहीं होता तो खेल प्रशिक्षण सफल अभ्यास के परिणामस्वरूप मिले अच्छे परिणामों पर आधारित होना चाहिए। प्रशिक्षण की विभिन्न विधियाँ होती हैं जिनकी सहायता से गति, शक्ति, सहनशीलता आदि को बढ़ाया जा सकता है। शक्ति का विकास करने के उत्तम तरीके या विधियाँ-आइसोमीट्रिक, आइसोटोनिक और आइसोकाइनेटिक आदि व्यायाम हैं । सहनशीलता का विकास करने की विधियाँ हैं-निरंतर विधि, अंतराल विधि और फार्टलेक विधि। त्वरण एवं पेस दौड़ें (Acceleration and Pace Races) गति के विकास में सहायक होती हैं।

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HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

Haryana State Board HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

HBSE 12th Class Physical Education शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष Textbook Questions and Answers

दीर्घ-उत्तरात्मक प्रश्न [Long Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
समाजशास्त्र से आप क्या समझते हैं? शारीरिक शिक्षा व खेलों में इसके महत्त्व का उल्लेख करें।
अथवा
समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिए।शारीरिक शिक्षा एवं खेलों में समाजशास्त्र की महत्ता पर प्रकाश डालिए।
अथवा
समाजशास्त्र का अर्थ स्पष्ट कीजिए। शारीरिक शिक्षा एवं खेलकूद के क्षेत्र में इसके महत्त्व का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण समाज में रहता है, क्योंकि मनुष्य के दिमाग में समाज की कल्पना बहुत पहले से ही रही होगी, इसलिए समाजशास्त्र की कल्पना और रचना भी बहुत पहले ही हो चुकी होगी, परंतु एक सामाजिक विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र की उत्पत्ति 1838 ई० में ऑगस्ट कॉम्टे (Auguste Comte) के द्वारा की गई। इसी कारण ऑगस्ट कॉम्टे को ‘समाजशास्त्र का पिता’ कहा जाता है। आज समाजशास्त्र को एक नया विकासशील सामाजिक विज्ञान माना जाता है। मिचेल (Mitchell) ने, “समाजशास्त्र को चिंतनशील जगत् का बच्चा माना है।” इसके बाद सामाजिक संबंधों का व्यवस्थित अध्ययन करने वाले विज्ञान को समाजशास्त्र के नाम से ही संबोधित किया जाने लगा।

समाजशास्त्र का शाब्दिक अर्थ (Literal Meaning of Sociology):
‘समाजशास्त्र’ शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘Sociology’ शब्द का हिंदी रूपांतरण है। ‘Sociology’ शब्द लैटिन भाषा के ‘Socius’ और ग्रीक (Greek) भाषा के ‘Logos’ शब्दों से मिलकर बना है। इन दोनों का अर्थ क्रमशः समाज व विज्ञान या शास्त्र है अर्थात् समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है । ‘Socius’ और ‘Logos’ दो भाषाओं के शब्द होने के कारण ही संभवतः प्रो० बीरस्टीड ने समाजशास्त्र को दो भाषाओं की अवैध संतान माना होगा।

समाजशास्त्र की परिभाषाएँ (Definitions of Sociology):
1. विद्वानों ने समाजशास्त्र की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं1. आई० एफ० वार्ड (I. F. Ward) के अनुसार, “समाजशास्त्र, समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।”
2. मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक संबंधों के विषय में है, संबंधों के इसी जाल को हम समाज कहते हैं।”
3. गिलिन व गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार, “व्यक्तियों के एक-दूसरे के संपर्क में आने के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली अंतःक्रियाओं के अध्ययन को ही समाजशास्त्र कहा जा सकता है।” 4. गिन्सबर्ग (Ginesbarg) ने कहा है, “समाजशास्त्र मानवीय अंतःक्रियाओं तथा अंतर्संबंधों, उनके कारणों और परिणामों का अध्ययन है।”
5. जॉनसन (Johnson) का कथन है, “समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का विज्ञान है-सामाजिक समूह सामाजिक अंतःक्रियाओं की ही एक व्यवस्था है।”
6. मैक्स वेबर (Max Weber) के शब्दों में, “समाजशास्त्र वह विज्ञान है जो सामाजिक क्रियाओं का व्याख्यात्मक बोध करवाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि ‘समाजशास्त्र’ एक ऐसा विषय है जो समाज का वैज्ञानिक अध्ययन या चिंतन करता है। यह समाज में मानवीय व्यवहार का भी चिंतन करता है।

शारीरिक शिक्षा एवं खेलों में समाजशास्त्र की महत्ता (Importance of Sociology in Physical Education and Sports):
खेल समाज का दर्पण कहलाती हैं। वर्तमान समय में किसी देश या राष्ट्र की सर्वोच्चता उसके द्वारा ओलंपिक तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों में जीते गए पदकों में झलकती है। इसी कारण भारत सहित प्रत्येक देश अधिकतम संख्या में पदक जीतने की होड़ में शामिल हैं। समाजशास्त्र की शारीरिक शिक्षा तथा खेलों में महत्ता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) समाजशास्त्र शारीरिक शिक्षा तथा खेलों का वैज्ञानिक अध्ययन करने में सहायक है। चूँकि समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है और शारीरिक शिक्षा और खेल समाज के अभिन्न अंग हैं, इसलिए दोनों एक-दूसरे से संबंधित हैं। इसलिए हम समाजशास्त्र में अपनाए गए वैज्ञानिक साधनों तथा ढंगों की सहायता इनको समझने हेतु ले सकते हैं।

(2) यह शारीरिक शिक्षा तथा खेलों को समाज की एक महत्त्वपूर्ण संस्था के रूप में अध्ययन करने में सहायता करता है। आधुनिक समय में खेलें संस्थागत बन गई हैं जो समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

(3) यह शारीरिक शिक्षा तथा खेलों द्वारा समाज को दी गई नई दिशा के योगदान को समझने में हमारी सहायता करता है। चूंकि यह समाज की समझ तथा नियोजन से संबंधित है।

(4) यह व्यक्ति की महिमा तथा गरिमा से संबंधित है और शारीरिक शिक्षा तथा खेल व्यक्ति की महिमा तथा गरिमा में वृद्धि करने के यंत्र हैं।

(5) यह शारीरिक शिक्षा तथा खेलों द्वारा बच्चों की समस्याओं तथा खिलाड़ियों की अनियमितताओं को दूर करने में सहायता करता है।

(6) समाजशास्त्र मानवता या समाज की सांस्कृतिक विरासत के अध्ययन को समझने में मदद करता है।

(7) शारीरिक शिक्षा तथा खेल समाजशास्त्र से बहुत-से शिक्षाप्रद साधन तथा ढंग ग्रहण करती हैं ताकि उनका प्रयोग समाज के हित के लिए किया जाए।

(8) यह सामूहिक मनोबल तथा सामूहिक एकता को बढ़ाने में सहायक होता है जिससे खेलों में मदद मिलती है।

(9) यह सामाजिक गुणों; जैसे ईमानदारी, आत्म-संयम, सहनशीलता, सद्भाव आदि को विकसित करने में सहायक होता है। इन गुणों का खेल के क्षेत्र में विशेष महत्त्व है।

(10) यह उचित मार्गदर्शन प्रदान करने में भी हमारी मदद करता है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 2.
सामाजीकरण क्या है? शारीरिक शिक्षा की सामाजीकरण की प्रक्रिया में क्या उपयोगिता है?
अथवा
सामाजीकरण को परिभाषित करें। शारीरिक शिक्षा व खेलों में सामाजीकरण के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
सामाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Socialization):
सामाजीकरण एक ऐसी धारणा है जिससे व्यक्ति अपने समुदाय या वर्ण का सदस्य बनकर उसकी परंपराओं व कर्तव्यों का पालन करता है। वह स्वयं को सामाजिक वातावरण के अनुरूप ढालना सीखता है। सामाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को स्वीकार करता है और उनसे अनुकूलन करना भी सीखता है। विभिन्न विद्वानों ने सामाजीकरण की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं

1.गिलिन व गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार, “सामाजीकरण से हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह में एक क्रियाशील सदस्य बनता है, समूह की कार्य-विधियों से समन्वय स्थापित करता है, इसकी परंपराओं का ध्यान रखता है और सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन करके अपने साथियों के प्रति सहनशक्ति की भावना को विकसित करता है।”

2. प्रो० ए० डब्ल्यू० ग्रीन (Prof. A. W. Green) के अनुसार, “सामाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सांस्कृतिक विशेषताओं और आत्म-व्यक्तित्व को प्राप्त करता है।”

3. जॉनसन (Johnson) के अनुसार, “सामाजीकरण एक प्रकार की शिक्षा है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने के योग्य बना देती है।”

4. अरस्तू (Aristotle) के अनुसार, “सामाजीकरण संस्कृति के बचाव के लिए सामाजिक मूल्यों को प्राप्त करने की प्रक्रिया है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सामाजीकरण की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण तीन पक्षों पर आधारित है-
(1) जीव रचना (Organism),
(2) व्यक्ति (Human Being),
(3) समाज (Society)।

शारीरिक शिक्षा व खेलों में सामाजीकरण का महत्त्व (Importance of Socialization in Physical Education and Sports):
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, क्योंकि वह जीवन-भर अपने ही जैसे आचार-विचार रखने वाले जीवों के बीच रहता है। सामाजीकरण की सहायता से मनुष्य अपनी पशु-प्रवृत्ति से ऊपर उठकर सभ्य मनुष्य का स्थान ग्रहण करता है। शिक्षा द्वारा उसके व्यक्तित्व में संतुलन स्थापित हो जाता है। सामाजीकरण के माध्यम से वह अपने निजी हितों को समाज के हितों के लिए न्योछावर करने को तत्पर हो जाता है। उसमें समाज के प्रति उत्तरदायित्व की भावना विकसित हो जाती है और वह समाज का सक्रिय सदस्य बन जाता है।

शारीरिक शिक्षा सामाजीकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। विद्यार्थी खेल के मैदान में अपनी टीम के हितों को सम्मुख रखकर खेल के नियमों का भली-भाँति पालन करते हुए खेलते हैं। वे पूरी लगन से खेलते हुए अपनी टीम को विजय-प्राप्ति के लिए पूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं। वे हार-जीत को एक-समान समझने के योग्य हो जाते हैं और उनमें सहनशीलता व धैर्यता का गुण विकसित हो जाता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक पीढ़ी आगामी पीढ़ियों के लिए खेल-संबंधी कुछ नियम व परंपराएँ छोड़ जाती है, जो विद्यार्थियों को शारीरिक शिक्षा के माध्यम से परिचित करवाई जाती हैं।

ज़िला, राज्य, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिताओं में समाज की विभिन्न श्रेणियों से आकर खिलाड़ी भाग लेते हैं। इन अवसरों पर उन्हें परस्पर मिलकर रहने, इकट्ठे भोजन करने तथा विचारों का आदान-प्रदान करने का अवसर प्राप्त होता है। वे यह बात भूल जाते हैं कि उनका संबंध किस समाज या राष्ट्र से है। खिलाड़ियों के लिए प्रतियोगिता के समय खेल-भावना कायम रखना आवश्यक होता है। खिलाड़ी एक ऐसी भावना से ओत-प्रोत हो जाते हैं जो उन्हें सामाजीकरण एवं मानवता के उच्च शिखरों तक ले जाती है। शारीरिक शिक्षा अनेक सामाजिक गुणों; जैसे आत्म-विश्वास, आत्म-अभिव्यक्ति, आत्म-संयम, भावनाओं पर नियंत्रण, नेतृत्व की भावना, चरित्र-निर्माण, सहयोग की भावना व बंधुत्व आदि का विकास करने में उपयोगी होती है। अतः शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के सामाजीकरण में उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 3.
शारीरिक शिक्षा अथवा खेल व स्पर्धा किस तरह से सामाजिक मूल्यों को बढ़ावा देते हैं? वर्णन करें।
अथवा
उन सामाजिक गुणों का वर्णन करें, जिन्हें शारीरिक शिक्षा के माध्यम से उन्नत किया जा सकता है।
अथवा
शारीरिक शिक्षा, सामाजिक मूल्यों को किस प्रकार बढ़ाती है?
अथवा
“सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, सहनशीलता और धैर्यता शारीरिक शिक्षा के सकारात्मक/धनात्मक प्रभाव हैं।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
अथवा
शारीरिक शिक्षा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, सहनशीलता, सहयोग व धैर्यता बढ़ाने में किस प्रकार आवश्यक है? वर्णन करें।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा का सामाजीकरण में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है। खिलाड़ी खेल के दौरान खेल के नियमों का पालन करता है, खेल में टीम के बाकी सदस्यों को सहयोग देता है और जीत-हार को बराबर समझकर अच्छे खेल का प्रदर्शन करता है। इससे उसमें समाज के आवश्यक गुण विकसित होते हैं। शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य खिलाड़ी या व्यक्ति में ऐसे सामाजिक मूल्यों को विकसित करना है जिससे समाज में रहते हुए वह सफलता से जीवनयापन करते हुए जीवन का पूरा आनंद उठा सके। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से निम्नलिखित सामाजिक गुणों या मूल्यों को उन्नत या प्रोत्साहित किया जा सकता है

1. व्यवहार में परिवर्तन (Change in Behaviour):
खेल या शारीरिक शिक्षा मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन लाती है। खेल मनुष्य की बुरी प्रवृत्तियों को बाहर निकालकर उसमें सहयोग, अनुशासन, नियमों का पालन करना और बड़ों का कहना मानना आदि जैसे गुण विकसित करते हैं। खेलों द्वारा व्यवहार में आए परिवर्तन जीवन के साथ-साथ चलते हैं।

2. त्याग की भावना (Feeling of Sacrifice):
शारीरिक शिक्षा से त्याग की भावना पैदा होती है। खेलों में कई तरह की मुश्किलें आती हैं। खिलाड़ी अपनी मुश्किलों को भूलकर टीम की खातिर बड़े-से-बड़ा त्याग करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस तरह खिलाड़ी में त्याग की भावना पैदा होने के कारण वह समाज के दूसरे सदस्यों के प्रति हमदर्दी का व्यवहार रखता है।

3. तालमेल की भावना (Feeling of Co-ordination):
शारीरिक शिक्षा व खेलों से खिलाड़ी एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं। जब खिलाड़ी अपने राज्य या दूसरे राज्यों में खेलने के लिए जाते हैं तो वे आपसी मेल-मिलाप और अच्छे संबंध बनाकर, उनकी भाषा और संस्कृति को जानते हैं। इस तरह खिलाड़ियों में तालमेल की भावना जागरूक होती है।

4.सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार में वृद्धि (Increase in Sympathize Behaviour):
खेल के दौरान यदि कोई खिलाड़ी घायल हो जाता है तो दूसरे सभी खिलाड़ी उसके प्रति हमदर्दी की भावना रखते हैं। ऐसा हॉकी अथवा क्रिकेट खेलते समय देखा भी जा सकता है। जब भी किसी खिलाड़ी को चोट लगती है तो सभी खिलाड़ी हमदर्दी प्रकट करते हुए उसकी सहायता के लिए दौड़ते हैं । यह गुण व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। .

5.सहनशीलताव धैर्यता में वृद्धि (Increase in Tolerance and Patience):
मानव के समुचित विकास के लिए सहनशीलता व धैर्यता अत्यन्त आवश्यक मानी जाती है। जिस व्यक्ति में सहनशीलता व धैर्यता होती है वह स्वयं को समाज में भली-भाँति समायोजित कर सकता है। शारीरिक शिक्षा अनेक ऐसे अवसर प्रदान करती है जिससे उसमें इन गुणों को बढ़ाया जा सकता है।

6. अनुशासन की भावना (Feeling of Discipline):
अनुशासन को शारीरिक शिक्षा की रीढ़ की हड्डी कहा जा सकता है। अनुशासन की सीख द्वारा शारीरिक शिक्षा न केवल व्यक्ति के विकास में सहायक है, बल्कि यह समाज को अनुशासित नागरिक प्रदान करने में भी सक्षम है।

7. सहयोग की भावना (Feeling of Co-operation):
समाज में रहकर हमें एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य करना पड़ता है। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से सहयोग की भावना में वृद्धि होती है। सामूहिक खेलों या गतिविधियों से व्यक्तियों या खिलाड़ियों में सहयोग की भावना बढ़ती है। यदि कोई खिलाड़ी अपने सहयोगी खिलाड़ियों से सहयोग नहीं करेगा तो उसका नुकसान न केवल उसको होगा बल्कि पूरी टीम को होगा। शारीरिक शिक्षा इस भावना को सुदृढ़ करने में सहायक होती है।

8. चरित्र-निर्माण में सहायक (Helpful in Character Formation):
शारीरिक शिक्षा चरित्र-निर्माण में भी सहायक है। यह व्यक्ति में अनेक नैतिक, मूल्य-बोधक, सामाजिक गुणों को बढ़ाने में सहायक होती है। यह व्यक्ति को अच्छा चरित्रवान नागरिक बनाने में सहायक होती है।

9.सामूहिक उत्तरदायित्व (Collective Responsibility):
शारीरिक शिक्षा खिलाड़ी में सामूहिक उत्तरदायित्व जैसे गुण पैदा करती है। खेलों में बहुत-सी ऐसी क्रियाएँ हैं जिनमें खिलाड़ी एक-जुट होकर इन क्रियाओं को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 4.
विभिन्न सामाजिक संस्थाओं का व्यक्ति व समूह व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है? पुष्टि कीजिए।
अथवा
सामाजिक मूल्यों को विकसित करने वाली विभिन्न सामाजिक संस्थाओं की भूमिका का वर्णन करें।
अथवा
व्यक्तिगत व समूह व्यवहार को सामाजिक संस्थाएँ किस प्रकार प्रभावित करती हैं? वर्णन कीजिए।
अथवा
उन सामाजिक संस्थाओं का वर्णन करें जिनमें हम सामाजिक मूल्यों को विकसित कर सकते हैं।
उत्तर:
विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के व्यक्ति एवं समूह व्यवहार पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं
1. परिवार (Family):
परिवार सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है। बच्चा इसी संस्था में जन्म लेता है और इसी में पलता है। परिवार में बच्चा अपने माता-पिता तथा भाई-बहनों से सामाजीकरण का प्रथम पाठ पढ़ता है। परिवार में माता-पिता और दूसरे सदस्यों के आपसी संबंध, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ, पारिवारिक मूल्य और परंपराएँ बच्चों के व्यवहार पर गहरा प्रभाव डालती हैं। इसलिए कहते हैं कि परिवार में अच्छे वातावरण का होना बहुत आवश्यक है। अगर परिवार में सदस्यों के आपसी संबंध ठीक न हों, तनाव बना रहता हो तथा सभी सदस्यों की प्राथमिक जरूरतें पूरी न होती हों तो बच्चे बुरी आदतों के शिकार हो सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि परिवार में माता-पिता अच्छे वातावरण का निर्माण करें जिससे बच्चे में अच्छे गुणों व आदतों का विकास हो सके।

परिवार एक ऐसी संस्था है जो अपने सदस्यों को विशेषकर बच्चों को समाज के रहन-सहन एवं खाने-पीने के ढंग सिखाती है। यह वह स्थान है जहाँ पर बच्चा अपने आने वाले जीवन के लिए स्वयं को तैयार करता है। इसीलिए कहा जाता है कि बच्चों को बनाने या बिगाड़ने में माता-पिता का काफी हाथ होता है। अगर परिवार को व्यक्तित्व निखारने की संस्था कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। आमतौर पर यह देखने में आया है कि जिस परिवार की रुचि संगीत कला, नृत्य-कला, खेलकूद या किसी और विशेष क्षेत्र में होती है, उस परिवार के बच्चे की रुचि प्राकृतिक रूप से उसी क्षेत्र में हो जाती है। अगर परिवार की रुचि खेलकूद के क्षेत्र में या किसी विशेष खेल में है तो उस परिवार में बढ़िया खिलाड़ी पैदा होना या उस खेल के प्रति दिलचस्पी रखना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। इस प्रकार परिवार व्यक्तिगत व समूह व्यवहार को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

2. धार्मिक संस्थाएँ (Religious Institutions):
आज से कुछ समय पहले विद्यालयों में अधिक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थीं। बहुत-से लोग धार्मिक संस्थाओं में ही विद्या प्राप्त करते थे। चाहे वह विद्या आगे बढ़ने में इतनी सहायक नहीं होती थी परंतु मनुष्य में सकारात्मक सोच लाने के लिए काफी थी। परंतु आज के युग में स्कूल तथा कॉलेज खुलने से विद्या का स्वरूप ही बदल गया है। चाहे अब विद्या धार्मिक संस्थानों में नहीं दी जाती, पर फिर भी धार्मिक संस्थाएँ व्यक्ति के जीवन पर बहुत प्रभाव डालती हैं। धार्मिक संस्थानों में जाकर व्यक्ति कई अच्छे नैतिक गुण सीखता है। धार्मिक संस्थाओं में महापुरुषों की कहानियाँ सुनने के कारण वे अपने-आपको उन जैसा बनाने की कोशिश करते हैं।

धार्मिक संस्थाओं का मानवीय व्यवहार पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ये संस्थाएँ प्रत्येक धर्म का सम्मान करना, प्रत्येक धर्म के अच्छे गुणों को अपनाना, प्रत्येक मनुष्य से अच्छा व्यवहार करना, भगवान की रज़ा में रहना, सत्य बोलना, चोरी न करना, बड़ों का आदर करना, महिलाओं का सम्मान करना, हक की कमाई में विश्वास करना और जरूरतमंदों व गरीबों की सहायता करना आदि अच्छी आदतें सिखाती हैं।

3.शैक्षिक संस्थाएँ (Educational Institutions):
संस्था के रूप में शैक्षिक संस्थाएँ बच्चे के सामाजीकरण पर प्रभाव डालती हैं। इन संस्थाओं का बच्चों या मनुष्य के व्यवहार पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। अगर बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़ता है तो उसका प्रभाव अच्छा पड़ता है। स्कूल का अनुशासन, स्वच्छ वातावरण तथा अच्छे अध्यापकों का बच्चे पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आज के युग में प्रत्येक माता-पिता हर स्थिति में अपने बच्चे को अच्छी-से-अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते हैं। इस तरह शैक्षिक संस्थाओं का बच्चों या छात्रों के विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि शैक्षिक संस्थाओं का वातावरण अच्छा है तो उनमें अच्छे गुण विकसित होंगे और यदि इन संस्थाओं का वातावरण अच्छा न हो, तो वे अच्छे गुणों से वंचित रह जाएँगे।

4.समुदाय या समूह (Society or Group):
बच्चा परिवार के बाद समुदाय या समूह के संपर्क में आता है। समुदाय या समूह में जिस तरह का वातावरण और परंपराएँ होंगी, बच्चे का ध्यान उस तरफ ही हो जाता है। अगर समुदाय में खेलों का वातावरण होगा तो बच्चा जरूर खेलों में रुचि लेने लगेगा। इस तरह कई खेल समुदाय से जुड़े हुए हैं; जैसे कि बंगाली फुटबॉल और पंजाबी हॉकी खेलना अधिक पसंद करता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि हर अच्छी-बुरी चीज़ का व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है। अगर वह अच्छे समुदाय में रह रहा है तो उस पर अच्छा असर पड़ता है। अगर वह बुरे समुदाय में रह रहा है तो उस पर बुरा असर पड़ेगा। इस तरह समुदाय या समूह व्यक्ति व समूह व्यवहार पर गहरी छाप छोड़ता है।

5. राष्ट्र (Nation):
हम लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्ष देश के निवासी हैं। इसलिए हमारी हर संस्था लोकतांत्रिक है। इसका हमारे व्यक्तित्व व समूह व्यवहार पर गहरा प्रभाव है। हमारे देश में हर प्रकार की आज़ादी है। कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को अपना सकता है। जिस तरह का काम करना चाहता है, कर सकता है। उसको कोई नहीं रोक सकता। केवल परिवार, शैक्षिक संस्थाएँ, समुदाय और धार्मिक संस्थाएँ ही व्यक्ति व समूह व्यवहार पर असर नहीं डालतीं बल्कि राष्ट्र का भी उन पर गहरा असर पड़ता है।

जिस देश में जिस प्रकार की सरकार और उसकी सोच होगी, उसी प्रकार देश के समूचे लोगों पर उसका प्रभाव होगा। अगर देश लोकतांत्रिक है, तो वहाँ के लोग स्वतंत्र निर्णय लेने वाले, प्रत्येक धर्म को मानने वाले, मिल-जुलकर रहने वाले तथा प्रत्येक जाति, रंग, धर्म का सम्मान करने वाले होंगे। परंतु जहाँ पर तानाशाही सरकार होती है, वहाँ के लोगों की सोच संकीर्ण होती है। इसीलिए जिस प्रकार का राष्ट्र होता है, उसी प्रकार का ही लोगों का रहन-सहन और सोच-शक्ति होती है । अतः राष्ट्र का व्यक्तियों के व्यवहार पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सामाजिक संगठनों का व्यक्तिगत तथा सामूहिक व्यवहार पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

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प्रश्न 5.
संस्कृति को परिभाषित करें। खेलकूद व स्पर्धाओं द्वारा सांस्कृतिक विरासत को विभिन्न देशों ने कैसे बनाए रखा?
अथवा
संस्कृति किसे कहते हैं? विभिन्न देशों ने खेल व स्पर्धाओं में सांस्कृतिक विरासत कैसे प्राप्त की?
अथवा
सांस्कृतिक विरासत को खेल व स्पोर्ट्स द्वारा बताइए।
उत्तर:
संस्कृति का अर्थ व परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Culture):
मनुष्य जहाँ प्राकृतिक वातावरण में अनेक सुविधाओं का उपभोग करता है तो दूसरी ओर उसे अनेक असुविधाओं या बाधाओं का सामना भी करना पड़ता है। आदिकाल से अब तक इन बाधाओं के समाधानों के अनेक उपाय भी खोजे गए हैं। इन खोजे गए उपायों को मनुष्य ने भावी पीढ़ी को भी हस्तांतरित किया। प्रत्येक पीढ़ी ने अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान व कला का और अधिक विकास किया है और नवीन ज्ञान व अनुभवों का भी अर्जन किया है। इस प्रकार के ज्ञान व अनुभव के अंतर्गत प्रथाएँ, विचार व मूल्य आते हैं, इन्हीं के संग्रह को संस्कृति कहा जाता है। अत: संस्कृति एक विशाल शब्द है जो किसी भी देश के समाज, संप्रदाय, धर्म को दर्शाती है। संस्कृति किसी भी देश की कला की छवि, ज्ञान, भाव, विचार, शक्ति तथा सामाजिक योग्यता को उभारती है। विद्वानों ने संस्कृति को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है
1. रॉबर्ट बीरस्टीड (Robert Bierstedt) के अनुसार, “संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है जिसमें वे सभी वस्तुएँ शामिल हैं जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं।”
2. टेलर (Taylor) के अनुसार, “संस्कृति में वे सभी जटिलताएँ जैसे कि ज्ञान, विश्वास कला, कानून तथा वे सभी योग्यताएँ पाई जाती हैं जो व्यक्ति को समाज में रहने के लिए आवश्यक होती हैं।”
3. मैथ्यू (Mathew) का कहना है, “किसी भी देश की समृद्धि का गवाह उसकी संस्कृति है।”
4. मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के शब्दों में, “संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनंद में पाए जाने वाले रहन-सहन और विचार के ढंगों में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।”

खेलवस्पर्धाओं द्वारा सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritage Through Games and Sports):
हमारे जीवन में खेलकूद का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि पृथ्वी पर मानव-जीवन।शारीरिक गतिविधियों का दूसरा नाम ही खेलकूद है। ये गतिविधियाँ ही मानव-जीवन की आधार हैं। जब से मनुष्य ने इस पृथ्वी पर जन्म लिया है तभी से वह विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ करता आया है। प्राचीन युग में हमारे पूर्वजों की अनेक गतिविधियाँ आत्मरक्षा के लिए होती थीं, जिनमें भागना, शिकार करना, भाले का प्रयोग करना, तीर चलाना आदि प्रमुख थीं। संस्कृति किसी भी देश की विरासत हो सकती है। सभी देश अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने का प्रयत्न करते हैं क्योंकि संस्कृति विरासत हर देश का गर्व होती है। खेलों को भी संस्कृति माना जाता है तथा कुछ देशों ने तो खेलों को अपनी सांस्कृतिक विरासत माना है।

सांस्कृतिक विरासत का अर्थ उचित परिवर्तनों के साथ मूल्यों, परंपराओं और प्रथाओं आदि का भूत से वर्तमान तक तथा वर्तमान से भविष्य में स्थानांतरण करना है। सांस्कृतिक विरासत प्रत्येक राष्ट्र का गौरव है। कुछ राष्ट्र शारीरिक गतिविधियों या क्रीड़ाओं को संस्कृति का रूप मानते हैं और कुछ सांस्कृतिक विरासत के रूप में देखते हैं। हमारे पूर्वज इन क्रियाओं में अपने बच्चों को निपुण बनाना अपना धर्म समझते थे और इन्हें जीवन का अभिन्न अंग मानते थे। इस प्रकार के प्रयास के कारण हमारे पूर्वज जो क्रियाएँ करते थे वे आधुनिक युग में किसी-न-किसी रूप में अभी भी प्रचलित हैं। विभिन्न देशों ने खेल व स्पर्धाओं में सांस्कृतिक विरासत को निम्नलिखित प्रकार से प्राप्त किया है

1. ग्रीस/यूनान (Greece):
यूनानी सभ्यता सबसे पुरानी सभ्यता है। यूनान के लोग खेल-प्रेमी थे। उनकी खेलों में विशेष रुचि थी। खेलकूद को सर्वप्रथम मान्यता और प्राथमिकता इसी देश ने प्रदान की। उन्होंने खेलों के महत्त्व को समझा और इन्हें प्रोत्साहित किया। प्राचीन व आधुनिक ओलंपिक खेलों की शुरुआत भी इसी देश से हुई। यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने कहा था, “शरीर के लिए जिम्नास्टिक तथा आत्मा के लिए संगीत का विशेष महत्त्व है।”

2. रोम (Rome):
रोम के लोग कुशल योद्धा तथा खेल-प्रेमी थे। वे तलवार चलाना, दौड़ना, कुश्ती लड़ना, कूदना आदि गतिविधियों में विशेष रुचि लेते थे। लेकिन धीरे-धीरे रोम से खेल गतिविधियों का पतन होने लगा। ये गतिविधियाँ आनंद व मस्ती हेतु खेली जाने लगीं। लेकिन वर्तमान में रोम में खेलकूद गतिविधियों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है।

3. इंग्लैंड (England):
इंग्लैंड को आधुनिक बॉलगेम्स का जन्मदाता कहा जाता है । इंग्लैंड की संस्कृति ने हमें बहुत-सी खेल स्पर्धाएँ दी हैं जो वर्तमान में काफी लोकप्रिय हैं; जैसे फुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट, कुश्ती आदि।

4. अमेरिका (America): अमेरिका ने विश्व को विभिन्न खेलों से परिचित करवाया है। अमेरिका ने ही हमें बेसबॉल और वॉलीबॉल जैसी खेलों का ज्ञान दिया।

5. भारत (India):
खेलकूद की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है। प्राचीनकाल में शिष्य अपने गुरुओं से धार्मिक ग्रंथों तथा दर्शनशास्त्र का अध्ययन करने के अतिरिक्त युद्ध एवं खेल कौशल में भी प्रशिक्षण प्राप्त करते थे। इनमें मुख्य रूप से तीरंदाजी, घुड़सवारी, भाला फेंकना, तलवार चलाना, मल्लयुद्ध आदि क्रियाएँ सम्मिलित थीं। भगवान श्रीकृष्ण, कर्ण, अर्जुन आदि धनुर्विद्या में कुशल थे। भीम एक महान् पहलवान था। दुर्योधन मल्लयुद्ध में कुशल था। इसी प्रकार चौपड़, शतरंज, खो-खो, कुश्ती और कबड्डी आदि खेलों का उल्लेख भी भारतीय इतिहास में मिलता है। आधुनिक भारत में भी खेलों की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। क्रिकेट यहाँ बहुत लोकप्रिय खेल बन गया है।

6. अन्य देश (Other Countries):
खेल जगत् में जर्मनी का भी विशेष योगदान है। जर्मनी ने हमें आधुनिक जिम्नास्टिक खेल सिखाए हैं। इसी प्रकार स्वीडन तथा डेनमार्क ने जिम्नास्टिक के साथ संगीत पद्धति द्वारा चिकित्सा प्रणाली विकसित की। चीन ने हमें डाइविंग तथा जापान ने जूडो व ताइक्वांडो जैसी खेलों से परिचित करवाया।

निष्कर्ष (Conclusion):
यूनान (Greece) ने खेलों के महत्त्व को समझते हुए खेलकूद को शिक्षा के रूप में सबसे पहले मान्यता प्रदान की और बच्चों को इनके प्रति उत्साहित किया। सभी खेलें हमें अपने पूर्वजों से ही प्राप्त हुई हैं और हमारी संस्कृति पर प्रकाश डालती हैं। खेल जगत् की नई-नई खेलों ने हमारे जीवन को प्रभावित किया। इनमें निरन्तर परिवर्तन और सुधार होता रहा है। वर्तमान युग में ये खेलें वैज्ञानिक ढंग से खेली और सिखाई जा रही हैं । इन खेलों को आधुनिक स्वरूप धारण करने के लिए एक लम्बे समय की लम्बी यात्रा तय करनी पड़ी है।

हमारे खेल जगत् की गतिविधियाँ थोड़े समय की पैदाइश नहीं हैं अपितु इन्हें यह रूप धारण करने के लिए मीलों लम्बा रास्ता तय करना पड़ा है। ये खेलें एक लम्बे समय के संघर्ष की देन हैं और हमें पूर्वजों से विरासत के रूप में प्राप्त हुई हैं। ये खेल हमारे समाज का न केवल सांस्कृतिक अंग हैं, अपितु प्रतिष्ठा का प्रतीक भी बन चुके हैं। खेलें एक प्रकार से हमारी सांस्कृतिक धरोहर या बपौती हैं।

प्रश्न 6.
शारीरिक शिक्षा से आप क्या समझते हैं? इसके लक्ष्यों एवं उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए।
अथवा
शारीरिक शिक्षा को परिभाषित कीजिए। इसके लक्ष्यों का वर्णन कीजिए।
अथवा
शारीरिक शिक्षा का अर्थ तथा परिभाषा लिखें। इसके उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Physical Education):
शारीरिक शिक्षा, शिक्षा का वह अभिन्न अंग है, जो खेलकूद तथा अन्य शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से व्यक्ति में एक चुनी हुई दिशा में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है। इससे केवल बुद्धि तथा शरीर का ही विकास नहीं होता, बल्कि यह व्यक्ति के स्वभाव, चरित्र एवं आदतों के निर्माण में भी सहायक होती है अर्थात् शारीरिक शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के संपूर्ण (शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक आदि) व्यक्तित्व का विकास होता है। शारीरिक शिक्षा ऐसी शिक्षा है जो वैयक्तिक जीवन को समृद्ध बनाने में प्रेरक सिद्ध होती है। शारीरिक शिक्षा, शारीरिक विकास के साथ शुरू होती है और मानव-जीवन को पूर्णता की ओर ले जाती है, जिसके परिणामस्वरूप वह एक हृष्ट-पुष्ट और मजबूत शरीर, अच्छा स्वास्थ्य, मानसिक, सामाजिक एवं भावनात्मक संतुलन रखने वाला व्यक्ति बन जाता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी प्रकार की चुनौतियों अथवा परेशानियों से प्रभावी तरीके से लड़ने में सक्षम होता है। शारीरिक शिक्षा के विषय में विभिन्न शारीरिक शिक्षाशास्त्रियों के विचार निम्नलिखित हैं
1.सी० सी० कोवेल (C.C.Cowell) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा व्यक्ति-विशेष के सामाजिक व्यवहार में वह परिवर्तन है जो बड़ी माँसपेशियों तथा उनसे संबंधित गतिविधियों की प्रेरणा से उपजता है।”
2.जे० बी० नैश (J. B. Nash) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा, शिक्षा के संपूर्ण क्षेत्र का वह भाग है जो बड़ी माँसपेशियों से होने वाली क्रियाओं तथा उनसे संबंधित प्रतिक्रियाओं से संबंध रखता है।”
3. ए० आर० वेमैन (A. R: Wayman) के मतानुसार, “शारीरिक शिक्षा, शिक्षा का वह भाग है जिसका संबंध शारीरिक गतिविधियों द्वारा व्यक्ति के संपूर्ण विकास एवं प्रशिक्षण से है।”
4. आर० कैसिडी (R. Cassidy) के अनुसार, “शारीरिक क्रियाओं पर केंद्रित अनुभवों द्वारा जो परिवर्तन मानव में आते हैं, वे ही शारीरिक शिक्षा कहलाते हैं।”
5. जे० एफ० विलियम्स (J. F. Williams) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा मनुष्य की उन शारीरिक क्रियाओं को कहते हैं, जो किसी विशेष लक्ष्य को लेकर चुनी और कराई गई हों।”
6. सी० एल० ब्राउनवेल (C. L. Brownwell) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा उन परिपूर्ण एवं संतुलित अनुभवों का जोड़ है जो व्यक्ति को बहु-पेशीय प्रक्रियाओं में भाग लेने से प्राप्त होते हैं तथा उसकी अभिवृद्धि और विकास को चरम-सीमा तक बढ़ाते हैं।”
7. निक्सन व कोजन (Nixon and Cozan) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा, शिक्षा की पूर्ण क्रियाओं का वह भाग है जिसका संबंधशक्तिशाली माँसपेशियों की क्रियाओं और उनसे संबंधित क्रियाओं तथा उनके द्वारा व्यक्ति में होने वाले परिवर्तनों से है।”
8. डी०ऑबरटियूफर (D.Oberteuffer) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा उन अनुभवों का जोड़ है जो व्यक्ति की शारीरिक गतिविधियों से प्राप्त हुई है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि शारीरिक शिक्षा, शिक्षा का वह महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी पहलू है जिसमें शारीरिक गतिविधियों या व्यायामों द्वारा व्यक्ति के विकास के प्रत्येक पक्ष प्रभावित होते हैं। यह व्यक्ति के व्यवहार और दृष्टिकोण में आवश्यक परिवर्तन करती है। इसका उद्देश्य न केवल व्यक्ति का शारीरिक विकास है, बल्कि यह मानसिक विकास, सामाजिक विकास, भावनात्मक विकास, बौद्धिक विकास, आध्यात्मिक विकास एवं नैतिक विकास में भी सहायक होती है अर्थात् यह व्यक्ति का संपूर्ण या सर्वांगीण विकास करती है।

शारीरिक शिक्षा के लक्ष्य (Aims of Physical Education):
शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य विद्यार्थी को इस प्रकार तैयार करना है कि वह एक सफल एवं स्वस्थ नागरिक बनकर अपने परिवार, समाज व राष्ट्र की समस्याओं का समाधान करने की क्षमता या योग्यता उत्पन्न कर सके और समाज का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनकर सफलता से जीवनयापन करते हुए जीवन का पूरा आनंद उठा सके। विभिन्न विद्वानों के अनुसार शारीरिक शिक्षा के लक्ष्य निम्नलिखित हैं

1.जे० एफ० विलियम्स (J. F. Williams) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य एक प्रकार का कुशल नेतृत्व तथा पर्याप्त समय प्रदान करना है, जिससे व्यक्तियों या संगठनों को इसमें भाग लेने के लिए पूरे-पूरे अवसर मिल सकें, जो शारीरिक रूप से आनंददायक, मानसिक दृष्टि से चुस्त तथा सामाजिक रूप से निपुण हों।”

2.जे० आर० शर्मन (J. R. Sherman) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य है कि व्यक्ति के अनुभव को इस हद तक प्रभावित करे कि वह अपनी क्षमता से समाज में अच्छे से रह सके, अपनी जरूरतों को बढ़ा सके, उन्नति कर सके तथा अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए सक्षम हो सके।”

3. केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय (Central Ministry of Education) के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा को प्रत्येक बच्चे को शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक रूप से स्वस्थ बनाना चाहिए और उसमें ऐसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक गुणों का विकास करना चाहिए ताकि वह दूसरों के साथ प्रसन्नता व खुशी से रह सके और एक अच्छा नागरिक बन सके।”

दिए गए तथ्यों या परिभाषाओं का अध्ययन करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। इसके लक्ष्य पर प्रकाश डालते हुए जे०एफ० विलियम्स (J.F. Williams) ने भी कहा है कि “शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है।”

शारीरिक शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Physical Education)-शारीरिक शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं
1. शारीरिक विकास (Physical Development):
शारीरिक शिक्षा संबंधी क्रियाएँ शारीरिक विकास का माध्यम हैं। शारीरिक क्रियाएँ माँसपेशियों को मजबूत करने, रक्त का बहाव ठीक रखने, पाचन-शक्ति में बढ़ोतरी करने और श्वसन क्रिया को ठीक रखने में सहायक होती हैं । शारीरिक क्रियाएँ न केवल भिन्न-भिन्न प्रणालियों को स्वस्थ और ठीक रखती हैं, बल्कि उनके आकार, शक्ल
और कुशलता में भी बढ़ोतरी करती हैं। शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को शारीरिक तौर पर स्वस्थ बनाना और उसके व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू को निखारना है।

2. गतिज विकास (Motor Development):
शारीरिक शिक्षा संबंधी क्रियाएँ शरीर में ज्यादा-से-ज्यादा तालमेल बनाती हैं। अगर शारीरिक शिक्षा में उछलना, दौड़ना, फेंकना आदि क्रियाएँ न हों तो कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं किया जा सकता। मानवीय शरीर में सही गतिज विकास तभी हो सकता है जब नाड़ी प्रणाली और माँसपेशीय प्रणाली का संबंध ठीक रहे। इससे कम थकावट और अधिक-से-अधिक कुशलता प्राप्त करने में सहायता मिलती है।

3. भावनात्मक विकास (Emotional Development):
शारीरिक शिक्षा कई प्रकार के ऐसे अवसर पैदा करती है, जिनसे शरीर का भावनात्मक या संवेगात्मक विकास होता है । खेल में बार-बार जीतना या हारना दोनों हालातों में भावनात्मक पहलू प्रभावित होते हैं। इससे खिलाड़ियों में भावनात्मक स्थिरता उत्पन्न होती है। इसलिए उन पर जीत-हार का बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता। शारीरिक शिक्षा खिलाड़ियों को अपनी भावनाओं पर काबू रखना सिखाती है।

4. सामाजिक व नैतिक विकास (Social and Moral Development):
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में मिल-जुलकर रहना पड़ता है। शारीरिक शिक्षा कई प्रकार के ऐसे अवसर प्रदान करती है, जिससे खिलाड़ियों के सामाजिक व नैतिक विकास हेतु सहायता मिलती है; जैसे उनका एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहना, एक-दूसरे का सम्मान करना, दूसरों की आज्ञा का पालन करना, नियमों का पालन करना, सहयोग देना, एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना आदि।

5. मानसिक विकास (Mental Development):
शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक विकास भी होता है। जब बालक या खिलाड़ी शारीरिक क्रियाओं में भाग लेता है तो इनसे उसके शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक विकास में भी बढ़ोतरी होती है।

6. सांस्कृतिक विकास (Cultural Development):
शारीरिक शिक्षा संबंधी खेल और क्रियाकलापों के दौरान विभिन्न संस्कृतियों के व्यक्ति आपस में मिलते हैं और एक-दूसरे के बारे में जानते हैं व उनके रीति-रिवाजों, परंपराओं और जीवन-शैली के बारे में परिचित होते हैं, जिससे सांस्कृतिक विकास को बढ़ावा मिलता है।

निष्कर्ष (Conclusion):
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि शारीरिक शिक्षा के उद्देश्यों का क्षेत्र बहुत विशाल है। शारीरिक शिक्षा को व्यक्ति का विकास सामाजिक, भावनात्मक, शारीरिक तथा अन्य कई दृष्टिकोणों से करना होता है ताकि वह एक अच्छा नागरिक बन सके। एक अच्छा नागरिक बनने के लिए टीम भावना, सहयोग, दायित्व का एहसास और अनुशासन आदि गुणों की आवश्यकता होती है। शारीरिक शिक्षा, एक सामान्य शिक्षा के रूप में शारीरिक शिक्षा के उद्देश्यों को पूरा करने में सहायक होती है। यह व्यक्ति में आंतरिक कुशलताओं का विकास करती है और उसमें अनेक प्रकार के छुपे हुए गुणों को बाहर निकालती है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 7.
आधुनिक युग में शारीरिक शिक्षा के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
अथवा
दैनिक जीवन में शारीरिक शिक्षा की महत्ता तथा उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
आज का युग एक मशीनी व वैज्ञानिक युग है, जिसमें मनुष्य स्वयं मशीन बनकर रह गया है। इसकी शारीरिक शक्ति खतरे में पड़ गई है। मनुष्य पर मानसिक तनाव और कई प्रकार की बीमारियों का संक्रमण बढ़ रहा है। आज के मनुष्य को योजनाबद्ध खेलों और शारीरिक शिक्षा की बहुत आवश्यकता है। शारीरिक शिक्षा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए रूसो ने कहा-“शारीरिक शिक्षा शरीर का एक मजबूत ढाँचा है जो मस्तिष्क के कार्य को निश्चित तथा आसान करता है।”
1. शारीरिक शिक्षा स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है (Physical Education is useful for Health):
अच्छा स्वास्थ्य अच्छी जलवायु की उपज नहीं, बल्कि यह अनावश्यक चिंताओं से मुक्ति और रोग-रहित जीवन है। आवश्यक डॉक्टरी सहायता भी स्वास्थ्य को अच्छा रखने के लिए जरूरी है। बहुत ज्यादा कसरत करना, परन्तु आवश्यक खुराक न खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। जो व्यक्ति खेलों में भाग लेते हैं, उनका स्वास्थ्य ठीक रहता है। खेलों में भाग लेने से शरीर की सारी शारीरिक प्रणालियाँ सही ढंग से काम करने लग जाती हैं। ये प्रणालियाँ शरीर में हुई थोड़ी-सी कमी या बढ़ोतरी को भी सहन कर लेती हैं। इसलिए जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति खेलों में अवश्य भाग ले।

2. शारीरिक शिक्षा हानिकारक मनोवैज्ञानिक व्याधियों को कम करती है (Physical Education decreases harmful Psychological Disorders):
आधुनिक संसार में व्यक्ति का ज्यादा काम दिमागी हो गया है; जैसे प्रोफैसर, वैज्ञानिक, गणित-शास्त्री, दार्शनिक आदि सारे व्यक्ति मानसिक कामों से जुड़े हुए हैं। मानसिक काम से हमारे स्नायु संस्थान (Nervous System) पर दबाव बढ़ता है। इस दबाव को कम करने के लिए काम में परिवर्तन आवश्यक है। यह परिवर्तन मानसिक शांति पैदा करता है। जे०बी० नैश का कहना है कि “जब कोई विचार दिमाग में आ जाता है तो हालात बदलने पर भी दिमाग में चक्कर लगाता रहता है।”

3. शारीरिक शिक्षा भीड़-भाड़ वाले जीवन के दुष्प्रभाव को कम करती है (Physical Education decreases the side effects of Congested Life):
आजकल शहरों में जनसंख्या निरंतर बढ़ रही है जिसके कारण शहरों में कई समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। शहरों में कारों, बसों, गाड़ियों, मोटरों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। मोटर-गाड़ियों और फैक्टरियों का धुआँ निरंतर पर्यावरण को प्रदूषित करता है। अत: शारीरिक शिक्षा से लोगों की स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है। विभिन्न क्षेत्रों में शारीरिक शिक्षा संबंधी खेल क्लब बनाकर लोगों को अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

4. आधुनिक शिक्षा को पूर्ण करने के लिए शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता (Physical Education Necessities for Supplements the Modern Education):
पुराने समय में शिक्षा का प्रसार बहुत कम था। पिता पुत्र को पढ़ा देता था या ऋषि-मुनि पढ़ा देते थे। परन्तु आजकल प्रत्येक व्यक्ति के पढ़े-लिखे होने की आवश्यकता है। बच्चा भिन्न-भिन्न क्रियाओं में भाग लेकर अपनी वृद्धि और विकास करता है। इसलिए खेलें बच्चों के लिए बहुत आवश्यक हैं। शारीरिक शिक्षा केवल शरीर के निर्माण तक ही सीमित नहीं है। वास्तव में, यह बच्चों का मानसिक, भावात्मक और सामाजिक विकास भी करती है।

5. शारीरिक शिक्षा और सामाजिक एकता (Physical Education and Social Cohesion):
सामाजिक जीवन में कई तरह की भिन्नताएँ होती हैं; जैसे अलग भाषा, अलग संस्कृति, रंग-रूप, अमीरी-गरीबी आदि । इन भिन्नताओं के बावजूद मनुष्य को सामाजिक इकाई में रहना पड़ता है। शारीरिक शिक्षा भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों को एक स्थान पर इकट्ठा करती है। उनमें एकता व एकबद्धता लाती है। खेल में धर्म, जाति, श्रेणी, वर्ग या क्षेत्र आदि के आधार पर किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं किया जाता।

6.शारीरिक शिक्षावसाम्प्रदायिकता (Physical Education and Communalism):
शारीरिक शिक्षा जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, रंग-रूप, धर्म, वर्ग, समुदाय के भेदभाव को स्वीकार नहीं करती। साम्प्रदायिकता हमारे देश के लिए बहुत घातक है। शारीरिक शिक्षा इस खतरे को राष्ट्र हित की ओर अग्रसर कर देती है। खिलाड़ी सभी बंधनों को तोड़कर एक राष्ट्रीय टीम में भाग लेकर अपने देश का नाम ऊँचा करते हैं। खिलाड़ी किसी प्रकार के देश-विरोधी दंगों में नहीं पड़ते । अतःशारीरिक शिक्षा लोगों में साम्प्रदायिकता की भावना को खत्म करके राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि करती है।

7. शारीरिक शिक्षा मनोरंजन प्रदान करती है (Physical Education provides the Recreation):
मनोरंजन जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। मनोरंजन व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक खुशी प्रदान करता है। इसमें व्यक्ति निजी प्रसन्नता और संतुष्टि के कारण अपनी इच्छा से भाग लेता है। शारीरिक शिक्षा मनुष्य को कई प्रकार की क्रियाएँ प्रदान करती हैं जिससे उसको मनोरंजन प्राप्त होता है।

8.शारीरिक शिक्षा व प्रान्तवाद (Physical Education and Provincialism):
शारीरिक शिक्षा में प्रान्तवाद या क्षेत्रवाद का कोई स्थान नहीं है। जब कोई खिलाड़ी शारीरिक क्रियाएँ करता है तो उस समय उसमें प्रान्तवाद की कोई भावना नहीं होती कि वह अमुक प्रान्त का निवासी है। उसको केवल मानव-कल्याण का लक्ष्य ही दिखाई देता है। विभिन्न प्रान्तों या राज्यों के खिलाड़ी खेलते समय आपस में सहयोग करते हुए एक-दूसरे की भावनाओं का सत्कार करते हैं, जिससे उनमें राष्ट्रीय एकता की वृद्धि होती है। राष्ट्रीय एकता समृद्ध होती है और देश शक्तिशाली बनता है।

9. शारीरिक शिक्षा सुस्त जीवन के बुरे प्रभावों को कम करती है (Physical Education corrects the harmful effects of Lazy Life):
आज का युग मशीनी है। दिनों का काम कुछ घण्टों में हो जाता है जिसके कारण मनुष्य के पास काफी समय बच जाता है। ऐसी हालत में लोगों को दौड़ने-भागने के मौके देकर उनका स्वास्थ्य ठीक रखा जा सकता है। जब तक व्यक्ति योजनाबद्ध तरीके से खेलों और शारीरिक क्रियाओं में भाग नहीं लेगा, तब तक वह अपने स्वास्थ्य को अधिक दिन तक तंदुरुस्त नहीं रख पाएगा। अतः शारीरिक शिक्षा जीवन के बुरे प्रभावों को कम करती है।

10. शारीरिक शिक्षा व भाषावाद (Physical Education and Linguism):
भारतवर्ष में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। देश में कई राज्यों में भाषा के लिए झगड़े हो रहे हैं। कहीं पर हिन्दी, कहीं तमिल भाषा का झगड़ा तो कहीं पर बंगला, पंजाबी एवं ओड़िया
भाषाओं के नाम पर झगड़ा उत्पन्न हुआ है। एक स्थान की भाषा दूसरे स्थान पर समझने में कठिनाई आती है परन्तु शारीरिक शिक्षा भाषावाद को स्वीकार नहीं करती। अच्छा खिलाड़ी चाहे वह पंजाबी बोलता हो या तमिल सभी को अपना साथी मानता है और सभी भाषाओं का सम्मान करता है। सभी खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम के रूप में मैदान में आते हैं। आपसी सहयोग से अपने देश की मान-मर्यादा को बढ़ाने का प्रयास करते हैं। इस तरह शारीरिक शिक्षा भाषाओं के झगड़े को समाप्त करके राष्ट्रीय एकता में वृद्धि करने का प्रयास करती है।

प्रश्न 8.
नेतृत्व को परिभाषित कीजिए।शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में एक नेता के गुणों का वर्णन कीजिए।
अथवा
नेतृत्व क्या है? शारीरिक शिक्षा में एक नेता के गुणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
नेतृत्व का अर्थ व परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Leadership):
मानव में नेतृत्व की भावना आरंभ से ही होती है। किसी भी समाज की वृद्धि या विकास उसके नेतृत्व की विशेषता पर निर्भर करती है। नेतृत्व व्यक्ति का वह गुण है जिससे वह दूसरे व्यक्तियों के जीवन के विभिन्न पक्षों में मार्गदर्शन करता है। नेतृत्व को विद्वानों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-
1. मॉण्टगुमरी (Montgomery) के अनुसार, “किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए व्यक्तियों को इकट्ठा करने की इच्छा व योग्यता को ही नेतृत्व कहा जाता है।”
2. ला-पियरे व फा!वर्थ (La-Pierre and Farmowerth) के अनुसार, “नेतृत्व एक ऐसा व्यवहार है जो लोगों के व्यवहार पर अधिक प्रभाव डालता है, न कि लोगों के व्यवहार का प्रभाव उनके नेता पर।”
3. पी० एम० जोसेफ (P. M. Joseph) के अनुसार, “नेतृत्व वह गुण है जो व्यक्ति को कुछ वांछित काम करने के लिए, मार्गदर्शन करने के लिए पहला कदम उठाने के योग्य बनाता है।”

एक अच्छे नेतां के गुण (Qualities of aGood Leader):
प्रत्येक समाज या राज्य के लिए अच्छे नेता की बहुत आवश्यकता होती है क्योंकि वह समाज और राज्य को एक नई दिशा देता है। नेता में एक खास किस्म के गुण होते हैं जिनके कारण वह सभी को एकत्रित कर काम करने के लिए प्रेरित करता है। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में अच्छे नेता का होना बहुत आवश्यक है क्योंकि शारीरिक क्रियाएँ किसी योग्य नेता के बिना संभव नहीं हैं। किसी नेता में निम्नलिखित गुण या विशेषताएँ होना आवश्यक हैं तभी वह कुशलता से व्यक्तियों या खिलाड़ियों को प्रेरित कर सकता है
1. ईमानदारी एवं कर्मठता (Honesty and Energetic): शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में ईमानदारी एवं कर्मठता एक नेता के महत्त्वपूर्ण गुण हैं । ये उसके व्यक्तित्व में निखार और सम्मान में वृद्धि करते हैं।
2. वफादारी एवं नैतिकता (Loyality and Morality): शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में वफादारी एवं नैतिकता एक नेता के महत्त्वपूर्ण गुण हैं । उसे अपने शिष्यों या अनुयायियों (Followers) के प्रति वफादार होना चाहिए और विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों में भी उसे अपनी नैतिकता का त्याग नहीं करना चाहिए।
3. सामाजिक समायोजन (Social Adjustment): एक अच्छे नेता में अनेक सामाजिक गुणों; जैसे सहनशीलता, धैर्यता, सहयोग, सहानुभूति व भाईचारा आदि का समावेश होना चाहिए।
4. बच्चों के प्रति स्नेह की भावना (Affection Feeling for Children): नेतृत्व करने वाले में बच्चों के प्रति स्नेह की भावना होनी चाहिए। उसकी यह भावना बच्चों को अत्यधिक प्रभावित करती है।
5. तर्कशील एवं निर्णय-क्षमता (Logical and Decision-Ability): उसमें समस्याओं पर तर्कशील ढंग से विचार-विमर्श करने की योग्यता होनी चाहिए। वह एक अच्छा निर्णयकर्ता भी होना चाहिए। उसमें उपयुक्त व अनायास ही निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए।
6. शारीरिक कौशल (Physical Skill): उसका स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए। वह शारीरिक रूप से कुशल एवं मजबूत होना चाहिए, ताकि बच्चे उससे प्रेरित हो सकें।
7. बुद्धिमान एवं न्यायसंगत (Intelligent and Fairness): एक अच्छे नेता में बुद्धिमता एवं न्यायसंगतता होनी चाहिए। एक बुद्धिमान नेता ही विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों का समाधान ढूँढने की योग्यता रखता है। एक अच्छे नेता को न्यायसंगत भी होना चाहिए ताकि वह निष्पक्ष भाव से सभी को प्रभावित कर सके।
8. शिक्षण कौशल (Teaching Skill): नेतृत्व करने वाले को विभिन्न शिक्षण कौशलों का गहरा ज्ञान होना चाहिए। उसे
कुशल होना चाहिए।
9. सृजनात्मकता (Creativity): एक अच्छे नेता में सृजनात्मकता या रचनात्मकता की योग्यता होनी चाहिए, ताकि वह नई तकनीकों या कौशलों का प्रतिपादन कर सके।
10. समर्पण व संकल्प की भावना (Spirit of Dedication and Determination): उसमें समर्पण व संकल्प की भावना होना बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसे विपरीत-से-विपरीत परिस्थिति में भी दृढ़-संकल्पी या दृढ़-निश्चयी होना चाहिए। उसे अपने व्यवसाय के प्रति समर्पित भी होना चाहिए।
11. अनुसंधान में रुचि (Interest in Research): एक अच्छे नेता की अनुसंधानों में विशेष रुचि होनी चाहिए।
12. आदर भावना (Respect Spirit): उसमें दूसरों के प्रति आदर-सम्मान की भावना होनी चाहिए। यदि वह दूसरों का आदर नहीं करेगा, तो उसको भी दूसरों से सम्मान नहीं मिलेगा।
13. पेशेवर गुण (Professional Qualities): एक अच्छे नेता में अपने व्यवसाय से संबंधित सभी गुण होने चाहिएँ।
14. भावनात्मक संतुलन (Emotional Balance): नेतृत्व करने वाले में भावनात्मक संतुलन का होना बहुत आवश्यक है। उसका अपनी भावनाओं पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए।
15. तकनीकी रूप से कुशल (Technically Skilled): उसे तकनीकी रूप से कुशल या निपुण होना चाहिए।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 9.
नेतृत्व (Leadership) क्या है? इसके महत्त्व का विस्तार से वर्णन करें।
अथवा
शारीरिक शिक्षा में नेतृत्व प्रशिक्षण की उपयोगिता पर विस्तार से प्रकाश डालें।
उत्तर:
नेतृत्व का अर्थ (Meaning of Leadership)-मानव में नेतृत्व की भावना आरंभ से ही होती है। किसी भी समाज की वृद्धि व विकास उसके नेतृत्व की विशेषता पर निर्भर करते हैं। नेतृत्व व्यक्ति का वह गुण है जिससे वह दूसरे व्यक्तियों के जीवन के विभिन्न पक्षों में मार्गदर्शन करता है।

नेतृत्व का महत्त्व (Importance of Leadership):
नेतृत्व की भावना को बढ़ावा देना शारीरिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है, क्योंकि इस प्रकार की भावना से मानव के व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास होता है। क्षेत्र चाहे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक अथवा शारीरिक शिक्षा का हो या अन्य, हर क्षेत्र में नेता की आवश्यकता पड़ती है। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है, जिससे उसकी शारीरिक शक्ति, सोचने की शक्ति, व्यक्तित्व में निखार और कई प्रकार के सामाजिक गुणों का विकास होता है। मानव में शारीरिक क्षमता बढ़ने के कारण निडरता आती है जो नेतृत्व का एक विशेष गुण माना जाता है। इसी प्रकार खेलों के क्षेत्र में हम दूसरों के साथ सहयोग के माध्यम से लक्ष्य प्राप्त करना सीख जाते हैं। व्यक्तिगत एवं सामूहिक खेलों में व्यक्ति को अच्छे नेता के सभी गुणों को ग्रहण करने का अवसर मिलता है।

आज के वैज्ञानिक युग में पूर्ण व्यावसायिक योग्यता के बिना काम नहीं चल सकता, क्योंकि नेताओं की योग्यता पर ही किसी व्यवसाय की उन्नति निर्भर करती है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शारीरिक शिक्षा के क्षेत्रों में कई प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए गए हैं; जैसे ग्वालियर, चेन्नई, पटियाला, चंडीगढ़, लखनऊ, हैदराबाद, मुंबई, अमरावती और कुरुक्षेत्र आदि। इन केंद्रों में शारीरिक शिक्षा के अध्यापकों को इस क्षेत्र के नेताओं के रूप में प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि वे शारीरिक शिक्षा की ज्ञान रूपी ज्योति को अधिक-से-अधिक फैला सकें और अपने नेतृत्व के अधीन अधिक-से-अधिक विद्यार्थियों में नेतृत्व के गुणों को विकसित कर सकें। विद्यार्थी देश का भविष्य होते हैं और एक कुशल व आदर्श अध्यापक ही शारीरिक शिक्षा के द्वारा अच्छे समाज व राष्ट्र के निर्माण में सहायक हो सकता है। शारीरिक शिक्षा का क्षेत्र और मैदान नेतृत्व के गुण को उभारने में कितना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है। यह प्रस्तुत कथन से सिद्ध होता है”वाटरलू का प्रसिद्ध युद्ध, ईटन के खेल के मैदान में जीता गया।” यह युद्ध अच्छे नेतृत्व के कारण जीता गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि नेतृत्व का हमारे जीवन में विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 10.
समूह की गतिशीलता से क्या अभिप्राय है? इसको समझने के महत्त्वपूर्ण बिंदुओं का वर्णन करें।
अथवा
समूह गत्यात्मक के बारे में आप क्या जानते हैं? विस्तार से समझाइए।
उत्तर:
समूह की गतिशीलता का अर्थ (Meaning of Group Dynamics):
समूह की गतिशीलता (गत्यात्मक) का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1924 में मैक्सवर्थीमर (Max Wertheimer) ने किया। डायनैमिक’ शब्द ग्रीक भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है’शक्ति’। इस प्रकार समूह की गतिशीलता का अर्थ उन शक्तियों या गतिविधियों से होता है जो एक समूह के अंदर कार्य करती हैं।

हम इस तथ्य को जानते हैं कि शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है। किसी व्यक्ति के व्यवहार में यह वांछनीय परिवर्तन लाती है। जब एक बच्चे का विद्यालय में प्रवेश होता है, तो वह विद्यालय तथा अपनी कक्षा के वातावरण को समझने की कोशिश करता है। वह दूसरे बच्चों से मिलने की इच्छा करता है। वह अपने अध्यापकों से भी प्रशंसा चाहता है ताकि दूसरे बच्चे उसके बारे में अच्छा दृष्टिकोण या विचार रख सकें। इस प्रकार उसका व्यवहार लगातार प्रभावित होता रहता है। विशेष रूप से वह अपने समूह के सदस्यों द्वारा प्रभावित होता है। अत: वे शक्तियाँ या गतिविधियाँ जो विद्यालय के वातावरण से उसको प्रभावित करती हैं, उसके उचित व्यवहार के प्रतिरूप के विकास में सहायक होती हैं, समूह गत्यात्मकता की प्रक्रिया कहलाती है।

समूह की गतिशीलता को समझने के महत्त्वपूर्ण बिंदु (Important Points to Understand Group Dynamics):
एक समूह की गतिशीलता को समझने के महत्त्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं
(1) एक व्यक्ति की प्रवृत्ति सदा उन समूहों के द्वारा प्रभावित होती है, जिनका वह सदस्य होता है। यदि कोई अध्यापक, किसी

बच्चे की प्रवृत्ति में परिवर्तन चाहता है तो उसे, उसके समूह की विशेषताओं में परिवर्तन लाना होगा।
(2) समूहों में कुछ बाधाओं के कारण सीखने में रुकावट आ जाती है। यदि अध्यापक शिक्षण और सीखने को प्रभावी बनाना चाहता है तो उसे इन बाधाओं को हटाना होगा।
(3) सामाजिक क्रियाओं के प्रदर्शन में व्यक्तिगत प्रशिक्षण की अपेक्षा समूह के रूप में प्रशिक्षण अधिक अच्छा होता है।
(4) एक कक्षा में विद्यार्थियों के बीच प्रतिक्रियाओं को सामाजिक कारकों के द्वारा किसी एक सीमा तक जाना जा सकता है।
उदाहरण के लिए, विद्यार्थियों के आपसी लगाव वाले समूह में एक विद्यार्थी, जो अपने समूह के विचार से अपना अलग विचार रखता है, प्रायः उस समूह से उसका बहिष्कार कर दिया जाता है अर्थात् समूह उसे अस्वीकार कर देता है। लेकिन
विद्यार्थियों के एक व्यापक समूह में, वह विद्यार्थी, जिसके अलग विचार हैं, समूह का ध्यान अधिक आकर्षित करेगा।
(5) समूह का वातावरण व सामूहिक जीवन की प्रणाली की क्रिया समूह के सदस्यों के व्यक्तित्व को प्रभावित करती है।
(6) कक्षा के व्यवहार के कुछ प्रतिरूप, तनाव व दबाव को कम कर देते हैं।
(7) विद्यार्थी का विश्वास और उसकी क्रियाएँ कक्षा के छोटे समूहों द्वारा प्रभावित होती हैं।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 11.
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक के व्यक्तिगत गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक के व्यक्तिगत गुण निम्नलिखित हैं
1. व्यक्तित्व (Personality):
अच्छा व्यक्तित्व शारीरिक शिक्षा के अध्यापक का सबसे बड़ा गुण है, क्योंकि व्यक्तित्व बहुत सारे गुणों का समूह है। एक अच्छे व्यक्तित्व वाले अध्यापक में अच्छे गुण; जैसे कि सहनशीलता, पक्का इरादा, अच्छा चरित्र, सच्चाई, समझदारी, ईमानदारी, मेल-मिलाप की भावना, निष्पक्षता, धैर्य, विश्वास आदि होने चाहिएँ।

2. चरित्र (Character):
शारीरिक शिक्षा का अध्यापक एक अच्छे चरित्र वाला व्यक्ति होना चाहिए, क्योंकि उसका सीधा संबंध विद्यार्थियों से होता है। अगर उसके अपने चरित्र में कमियाँ होंगी तो वह कभी भी विद्यार्थियों के चरित्र को ऊँचा नहीं उठा पाएगा।

3. नेतृत्व के गुण (Qualities of Leadership):
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक में एक अच्छे नेता के गुण होने चाहिएँ क्योंकि उसने ही विद्यार्थियों से शारीरिक क्रियाएँ करवानी होती हैं और उनसे क्रियाएँ करवाने के लिए सहयोग लेना होता है। यह तभी संभव है जब शारीरिक शिक्षा का अध्यापक अच्छे नेतृत्व वाले गुण अपनाए।

4. दृढ़ इच्छा-शक्ति (Strong Will Power):
शारीरिक शिक्षा का अध्यापक दृढ़ इच्छा-शक्ति या पक्के इरादे वाला होना चाहिए। वह विद्यार्थियों में दृढ़ इच्छा-शक्ति की भावना पैदा करके उन्हें मुश्किल-से-मुश्किल प्रतियोगिताओं में भी जीत प्राप्त करने के लिए प्रेरित करे।

5. अनुशासन (Discipline):
अनुशासन एक बहुत महत्त्वपूर्ण गुण है और इसकी जीवन के हर क्षेत्र में जरूरत है। शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य भी बच्चों में अनुशासन की भावना पैदा करना है। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक बच्चों में निडरता, आत्मनिर्भरता, दुःख में धीरज रखना जैसे गुण पैदा करता है। इसलिए जरूरी है कि शारीरिक शिक्षा का अध्यापक खुद अनुशासन में रहकर बच्चों में अनुशासन की आदतों का विकास करे ताकि बच्चे एक अच्छे समाज की नींव रख सकें।

6. आत्म-विश्वास (Self-confidence):
किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए आत्म-विश्वास का होना बहुत आवश्यक है। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक बच्चों में आत्म-विश्वास की भावना पैदा करके उन्हें निडर, बलवान और हर दुःख में धीरज रखने वाले गुण पैदा कर सकता है।

7. सहयोग (Co-operation):
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक का सबसे बड़ा गुण सहयोग की भावना है। शारीरिक शिक्षा के अध्यापक का संबंध केवल बच्चों तक ही सीमित नहीं है बल्कि मुख्याध्यापक, बच्चों के माता-पिता और समाज से भी है।

8. सहनशीलता (Tolerance):
शारीरिक शिक्षा का अध्यापक बच्चों से अलग-अलग क्रियाएँ करवाता है। इन क्रियाओं में बच्चे बहुत सारी गलतियाँ करते हैं। उस वक्त शारीरिक शिक्षा के अध्यापक को धैर्य से उनकी गलतियाँ दूर करनी चाहिएँ। यह तभी हो सकता है अगर शारीरिक शिक्षा का अध्यापक सहनशीलता जैसे गुण का धनी हो।

9. त्याग की भावना (Spirit of Sacrifice):
शारीरिक शिक्षा के अध्यापक में त्याग की भावना का होना बहुत जरूरी है। त्याग की भावना से ही अध्यापक बच्चों को प्राथमिक प्रशिक्षण अच्छी तरह देकर उन्हें अच्छे खिलाड़ी बना सकता है।

10. न्यायसंगत (Fairness):
शारीरिक शिक्षा का अध्यापक न्यायसंगत या न्यायप्रिय होना चाहिए, क्योंकि अध्यापक को न केवल शारीरिक क्रियाएँ ही करवानी होती हैं बल्कि अलग-अलग टीमों में खिलाड़ियों का चुनाव करने जैसे निर्णय भी लेने होते हैं। न्यायप्रिय और निष्पक्ष रहने वाला अध्यापक ही बच्चों से सम्मान प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 12.
“शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण का विकास होता है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
अथवा
राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ाने में शारीरिक शिक्षा की भूमिका का वर्णन कीजिए।
अथवा
राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने में शारीरिक शिक्षा का क्या योगदान है? वर्णन करें।
उत्तर:
भारत एक विशाल देश है। इसमें अलग-अलग धर्मों के लोग रहते हैं। लोगों का रहन-सहन और रीति-रिवाज अलग-अलग हैं। उनकी भाषा और पहनावा भी अलग-अलग है। इतना कुछ भिन्न-भिन्न होते हुए राष्ट्रीय एकता को विकसित करना एक बड़ी समस्या है। देखने वाली बात यह है कि वह कौन-सी शक्ति है जो इतना कुछ भिन्न-भिन्न होते हुए भी लोगों को इकट्ठा रहने के लिए प्रेरित करती है। यह शक्ति राष्ट्रीय एकता की शक्ति है। राष्ट्रीय एकता के बिना कोई भी देश उन्नति नहीं कर सकता।

शारीरिक शिक्षा एक ऐसा साधन है जिससे राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलता है। यूनान में ओलम्पिक खेलें शुरू कराने का अर्थ भी राष्ट्रीय एकता को ही बढ़ाना था। खेलों द्वारा मनुष्य एक-दूसरे के सम्पर्क में आता है। खेलों द्वारा लोगों को एक-दूसरे की भाषा, रहन-सहन, विचारों का आदान-प्रदान और एक-दूसरे की समस्या को समझने का अवसर मिलता है। खेलें एकता और सद्भावना जैसे गुणों को विकसित करके राष्ट्र की कई समस्याओं को सुलझाने में सहायता करती हैं।

इस उद्देश्य को लेकर ही अलग-अलग तरह के खेल मुकाबले अलग-अलग प्रान्तों में आयोजित किए जाते हैं, जिन्हें राष्ट्रीय खेलों के नाम से जाना जाता है। इस तरह के खेल मुकाबले अलग-अलग प्रान्तों के खिलाड़ियों को एक मंच पर इकट्ठा करते हैं, ताकि हर खिलाड़ी एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ सके। इस तरह के प्रयत्न वास्तव में राष्ट्रीय एकता लाने में सहायक होते हैं। शारीरिक शिक्षा द्वारा निम्नलिखित ढंगों से राष्ट्रीय एकता को बढ़ाया जा सकता है

1.शारीरिक शिक्षा और भाषावाद (Physical Education and Linguism):
भारत एक विशाल देश है। इसमें अलग-अलग धर्मों के लोग रहते हैं। उनका अलग-अलग पहनावा, विचारधारा और भाषाएँ हैं परन्तु फिर भी भारत एक है। शारीरिक शिक्षा इन सभी भिन्नताओं के बावजूद राष्ट्रीय एकता में अपना योगदान देती है।

2. अनुशासन और सहनशीलता (Discipline and Toleration):
शारीरिक शिक्षा अनुशासन और सहनशीलता जैसे गुणों को उभारती है। खेलें अनुशासन के बिना नहीं खेली जा सकतीं। इनकी पालना करते हुए ही मनुष्य साधारण ज़िन्दगी में अनुशासन में रहना सीख जाता है। खेलों में सहनशीलता का बहुत महत्त्व है। जिन देशों के लोगों में अनुशासन और सहनशीलता जैसे गुण विकसित हो जाते हैं वे देश सदैव उन्नति की राह पर चलते रहते हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए इन गुणों का होना अति आवश्यक है।

3. राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान (Solution of National Problems):
खेलें राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान करने में सबसे अधिक योगदान देती हैं। खेलों द्वारा खिलाड़ी एक-दूसरे के सम्पर्क में आ जाते हैं। उन्हें एक-दूसरे की भाषा, संस्कृति, पहनावा आदि समझने में मदद मिलती है। खिलाड़ी एक-दूसरे के दोस्त बन जाते हैं जिससे कई प्रकार की समस्याएं हल हो जाती हैं। इसलिए प्रत्येक देश को चाहिए कि वह अलग-अलग खेलों को उत्साहित करे ताकि खेलों द्वारा राष्ट्रीय समस्याएं सुलझाई जा सकें।

4. शारीरिक शिक्षा और राष्ट्रीय आचरण (Physical Education and National Character):
जिस देश और राष्ट्र में आचरण की कमी आ जाती है वह देश और राष्ट्र कभी भी उन्नति नहीं कर सकते। शारीरिक शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा राष्ट्रीय आचरण बनाया जा सकता है। खेल मनुष्य में अच्छे गुण (सहनशीलता, सहयोग, अनुशासन, बड़ों की आज्ञा का पालन करना, समय का महत्त्व जानना, जीवन के उतार-चढ़ाव में हिम्मत न हारना आदि) पैदा करके राष्ट्रीय आचरण में वृद्धि करते हैं।

5.शारीरिक शिक्षा और साम्प्रदायिकता (Physical Education and Communalism):
शारीरिक शिक्षा और साम्प्रदायिकता का आपस में कोई मेल नहीं है । खेलें किसी नस्ल, रंग, धर्म, जात-पात को नहीं मानतीं । खिलाड़ी सभी बन्धनों को तोड़कर एक राष्ट्रीय टीम में भाग लेकर अपने देश का नाम ऊँचा करते हैं। खेलों में साम्प्रदायिकता की कोई जगह नहीं है।

6. शारीरिक शिक्षा और असमानता (Physical Education and Inequality):
शारीरिक शिक्षा का कोई भी कार्यक्रम असमानता पर आधारित नहीं है। खेलों में सभी खिलाड़ी चाहे वे अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा हो, सभी एक-समान होते हैं। खेल जीतने के लिए सभी खिलाड़ी योगदान देते हैं।

7. शारीरिक शिक्षा और खाली समय (Physical Education and Leisure Time):
कहावत है कि खाली समय झगड़े की जड़ है। खाली समय में लोग बुरी आदतों के शिकार हो जाते हैं जिससे कई समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं । शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के खाली समय को व्यतीत करने का साधन है। व्यक्ति छोटी-छोटी खेलों में भाग लेकर अपने अन्दर की अतिरिक्त शक्ति को प्रयोग में लाकर तन्दुरुस्त जीवन व्यतीत कर सकता है। इस प्रकार खेलों में खाली समय का उचित प्रयोग हो जाता है।

8. शारीरिक शिक्षा और व्यक्तित्व (Physical Education and Personality):
शारीरिक शिक्षा मनुष्य के पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करती है। इस प्रकार वह अपने जीवन की उलझी हुई समस्याओं को सुलझाने के योग्य हो जाता है। इस प्रकार अच्छे आचरण एवं व्यक्तित्व वाला व्यक्ति समाज का अच्छा नागरिक बनकर खुशी भरा जीवन व्यतीत करने के योग्य हो जाता है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

लघूत्तरात्मक प्रश्न [Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
शारीरिक शिक्षा में सामाजिकता का महत्त्व बताइए।
अथवा
शारीरिक शिक्षा किस प्रकार सामाजीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करती है?
अथवा
सामाजीकरण में शारीरिक शिक्षा की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, क्योंकि वह जीवन-भर अपने ही जैसे आचार-विचार रखने वाले जीवों के बीच रहता है।सामाजीकरण की सहायता से मनुष्य अपनी पशु-प्रवृत्ति से ऊपर उठकर सभ्य मनुष्य का स्थान ग्रहण करता है। सामाजीकरण के माध्यम से वह अपने निजी हितों को समाज के हितों के लिए न्योछावर करने को तत्पर हो जाता है। उसमें समाज के प्रति उत्तरदायित्व की भावना विकसित हो जाती है और वह समाज का सक्रिय सदस्य बन जाता है।

शारीरिक शिक्षा सामाजीकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। विद्यार्थी खेल के मैदान में अपनी टीम के हितों को सम्मुख रखकर खेल के नियमों का भली-भाँति पालन करते हुए खेलते हैं। वे पूरी लगन से खेलते हुए अपनी टीम को विजय-प्राप्ति के लिए पूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं। उनमें सहनशीलता व धैर्यता का गुण विकसित होता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक पीढ़ी आगामी पीढ़ियों के लिए खेल-संबंधी कुछ नियम व परंपराएँ छोड़ जाती है, जो विद्यार्थियों को शारीरिक शिक्षा के माध्यम से परिचित करवाई जाती हैं। .. खिलाड़ियों के लिए प्रतियोगिता के समय खेल-भावना कायम रखना आवश्यक होता है। खिलाड़ी एक ऐसी भावना से ओत-प्रोत हो जाते हैं जो उन्हें सामाजीकरण एवं मानवता के उच्च शिखरों तक ले जाती है। शारीरिक शिक्षा अनेक सामाजिक गुणों; जैसे आत्म-विश्वास, आत्म-अभिव्यक्ति, आत्म-संयम, भावनाओं पर नियंत्रण, नेतृत्व की भावना, चरित्र-निर्माण, सहयोग की भावना व बंधुत्व आदि का विकास करने में उपयोगी होती है। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के सामाजीकरण में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र के महत्त्व का वर्णन करें।
अथवा
शारीरिक शिक्षा में समाजशास्त्र के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
समाजशास्त्र शारीरिक शिक्षा तथा खेलों का वैज्ञानिक अध्ययन करने में सहायक है। चूँकि समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है और शारीरिक शिक्षा और खेलें समाज के अभिन्न अंग हैं, इसलिए दोनों एक-दूसरे से संबंधित हैं। इसलिए हम समाजशास्त्र में अपनाए गए वैज्ञानिक साधनों तथा ढंगों की सहायता इनको समझने हेतु ले सकते हैं। आधुनिक समय में खेलें संस्थागत बन गई हैं जो समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। समाजशास्त्र शारीरिक शिक्षा तथा खेलों द्वारा समाज को दी गई नई दिशा के योगदान को समझने में हमारी सहायता करता है। यह समाज की समझ तथा नियोजन से संबंधित है, इसलिए यह शारीरिक शिक्षा तथा खेलों की समझ तथा नियोजन के रूप में सहायता करता है। यह व्यक्ति की महिमा तथा गरिमा में वृद्धि करने में सहायक है। यह शारीरिक शिक्षा तथा खेलों द्वारा बच्चों की समस्याओं तथा खिलाड़ियों की अनियमितताओं को दूर करने में भी सहायता करता है। यह मानवता या समाज की सांस्कृतिक विरासत के अध्ययन में भी हमारी सहायता करता है। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा में समाजशास्त्र विशेष योगदान देता है।

प्रश्न 3.
शारीरिक शिक्षा, शिक्षा का अभिन्न अंग है-इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर:
आज से कुछ ही दशक पूर्व शिक्षा का लक्ष्य केवल मानसिक विकास माना जाता था और इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए केवल किताबी ज्ञान पर ही बल दिया जाता था। लेकिन आधुनिक युग में यह अनुभव होने लगा कि मानसिक व शारीरिक विकास एक-दूसरे से किसी भी प्रकार अलग नहीं हैं । जहाँ मानसिक ज्ञान से बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य इस ज्ञान का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में करके सुखी जीवन के लिए साधन जुटाने में सक्षम हो पाता है, वहीं शारीरिक शिक्षा उसे अतिरिक्त समय को बिताने की विधियाँ, अच्छा स्वास्थ्य रखने का रहस्य तथा चरित्र-निर्माण के गुणों की जानकारी प्रदान करती है। शारीरिक शिक्षा स्वास्थ्य में सुधार लाकर कार्य-कुशलता को बढ़ाने में सहायता करती है और शिक्षा मानसिक विकास के उद्देश्यों की पूर्ति करने में विशेष भूमिका निभाती है।अतः आज के समय में शारीरिक शिक्षा (Physical Education) शिक्षा का अभिन्न अंग है जिससे व्यक्ति के जीवन का प्रत्येक पक्ष प्रभावित होता है।

प्रश्न 4.
व्यक्ति के व्यवहार पर सामाजिक संस्थाओं के प्रभावों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति के व्यवहार पर सामाजिक संस्थाओं के निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं
1. परिवार-परिवार एक ऐसी संस्था है जो अपने सदस्यों को विशेषकर बच्चों को समाज के रहन-सहन एवं खाने-पीने के ढंग सिखाती है। यह वह स्थान है जहाँ पर बच्चा अपने आने वाले जीवन के लिए स्वयं को तैयार करता है। इसलिए कहा जाता है कि बच्चों को बनाने या बिगाड़ने में माता-पिता का काफी हाथ होता है। अगर परिवार को व्यक्तित्व निखारने की संस्था कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। अतः परिवार व्यक्तिगत व्यवहार को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

2. धार्मिक संस्थाएँ-आज के युग में स्कूल तथा कॉलेज खुलने से विद्या का स्वरूप ही बदल गया है। चाहे अब शैक्षिक विद्या धार्मिक संस्थानों में नहीं दी जाती, पर फिर भी धार्मिक संस्थाएँ व्यक्ति के जीवन पर बहुत प्रभाव डालती हैं। धार्मिक संस्थानों में जाकर व्यक्ति कई अच्छे नैतिक गुण सीखता है।

3. शैक्षिक संस्थाएँ-संस्था के रूप में शैक्षिक संस्थाएँ व्यक्ति के सामाजीकरण पर प्रभाव डालती हैं। इन संस्थाओं का व्यक्ति के व्यवहार पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। अगर बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़ता है तो उसका प्रभाव अच्छा पड़ता है। स्कूल का अनुशासन, स्वच्छ वातावरण तथा अच्छे अध्यापकों का बच्चे पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि इन संस्थाओं का वातावरण अच्छा न हो, तो वे अच्छे गुणों से वंचित रह जाएँगे।

4. समुदाय या समूह-सभी अच्छी-बुरी चीज़ों का व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है। अगर वह अच्छे समुदाय में रह रहा है तो उस पर अच्छा असर पड़ता है। अगर वह बुरे समुदाय में रह रहा है तो उस पर बुरा असर पड़ेगा। इस तरह समुदाय या समूह व्यक्ति के व्यवहार पर गहरी छाप छोड़ता है।

5. राष्ट्र-हम लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्ष देश के निवासी हैं । इसलिए हमारी हर संस्था लोकतांत्रिक है। इसका हमारे व्यक्तित्व व्यवहार पर गहरा प्रभाव है। हमारे देश में हर प्रकार की आजादी है। कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को अपना सकता है। जिस तरह का काम करना चाहता है, कर सकता है। उसको कोई नहीं रोक सकता। केवल परिवार, शैक्षिक संस्थाएँ, समुदाय और धार्मिक संस्थाएँ ही व्यक्ति के व्यवहार पर असर नहीं डालतीं, बल्कि राष्ट्र का भी उस पर गहरा असर पड़ता है।

प्रश्न 5.
शारीरिक शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु एक शिक्षक क्या भूमिका निभा सकता है?
उत्तर:
वर्तमान में स्कूल ही एकमात्र ऐसी प्राथमिक संस्था है, जहाँ शारीरिक शिक्षा प्रदान की जाती है। विद्यार्थी स्कूलों में स्वास्थ्य संबंधी ज्ञान शिक्षकों से सीखते हैं। मुख्याध्यापक व शिक्षक-वर्ग विद्यार्थियों के लिए शारीरिक शिक्षा का कार्यक्रम बनाकर उन्हें शिक्षा देते हैं जिनसे विद्यार्थी यह जान पाते हैं कि किन तरीकों और साधनों से वे अपने शारीरिक संस्थानों व स्वास्थ्य को सुचारु व अच्छा बनाए रख सकते हैं। शिक्षकों द्वारा ही उनमें अपने शरीर व स्वास्थ्य के प्रति एक स्वस्थ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है और उनको अच्छे स्वास्थ्य हेतु प्रेरित किया जा सकता है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 6.
खेलकूद द्वारा राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा कैसे मिलता है? अथवा शारीरिक शिक्षा का राष्ट्र के उत्थान में क्या योगदान है?
उत्तर:
खेल एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति या खिलाड़ी एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं। खेल के मैदान में मित्रता पनपती है तथा कई बार गहरे रिश्ते तक स्थापित हो जाते हैं । खेलों में एक-दूसरे के साथ मिलकर चलने में ही सफलता प्राप्त होती है। जब एक टीम राष्ट्र के लिए खेलती है तो उसमें एक प्रांत या जाति के लोग नहीं होते। सभी खिलाड़ी एक परिवार के सदस्यों की भाँति खेलते हैं। इनमें कोई जाति-पाति, रंग-भेद नहीं होता। सभी खिलाड़ी पूर्ण शक्ति लगाकर देश की जीत में बराबर के हिस्सेदार होते हैं । अतः खेलों के प्रसार से आपसी सद्भावना एवं एकता को बढ़ावा मिलता है तथा देश की अनेक समस्याओं का समाधान हो जाता है। राजनीतिक भावना से खेल खेलना विश्व-बंधुत्व को समाप्त करना है। रूस द्वारा ओलंपिक खेलों का आयोजन करने पर अमेरिका द्वारा उसका बहिष्कार किया जाना इसका एक उदाहरण है। इसी प्रकार अमेरिका द्वारा आयोजित खेलों में रूस तथा उसके सहयोगी देशों का भाग न लेना ओलंपिक खेलों के मूल आधार को ठेस पहुंचाता है । ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए कड़े कदम उठाना हम सबके लिए अति-आवश्यक है।

प्रश्न 7.
खेलकूद द्वारा संस्कृति का विकास कैसे संभव है?
अथवा
क्या खेलकूद मनुष्य की सांस्कृतिक विरासत हैं? स्पष्ट करें। अथवा
“खेलकूद, मनुष्य की एक सांस्कृतिक विरासत है।” इस कथन पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
अथवा
मानव की सांस्कृतिक विरासत के रूप में खेलकूद’ पर एक लेख लिखें।
उत्तर:
संस्कृति मनुष्य की सबसे बड़ी धरोहर है। यह संस्कृति ही है जो मनुष्य को पशुओं से पृथक् करती है। संस्कृति व्यक्ति के समूह में रहन-सहन के ढंग, जीवन-विधि, विचारधारा आदि से संबंधित मानी जाती है। जीवन में खेलकूद का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना कि पृथ्वी पर मानव-जीवन। खेलकूद शारीरिक गतिविधियों का दूसरा रूप है। जब से मनुष्य ने धरती पर जन्म लिया है, वह किसी-न-किसी प्रकार की गतिविधियाँ करता ही आया है। प्राचीनकाल में शिकार खेलना, भाले का प्रयोग करना, तीर चलाना, शिकार के पीछे भागना आदि एक प्रकार से खेल ही थे। धीरे-धीरे इन क्रियाओं में बढ़ोतरी हुई तथा नाच-गाना आदि सम्मिलित होने लगा। खेलों के प्रति इसी रुझान से यूनान में ओलंपिक खेलों का जन्म हुआ।

सांस्कृतिक विरासत का अर्थ उचित परिवर्तनों के साथ मूल्यों, परंपराओं और प्रथाओं आदि का भूत से वर्तमान तक तथा वर्तमान से भविष्य में स्थानांतरण करना है। सांस्कृतिक विरासत प्रत्येक राष्ट्र का गर्व है। कुछ राष्ट्र शारीरिक गतिविधियों या क्रीड़ाओं को संस्कृति का रूप मानते हैं और कुछ सांस्कृतिक विरासत के रूप में देखते हैं। हमारे पूर्वज इन क्रियाओं में अपने बच्चों को निपुण बनाना अपना धर्म समझते थे और इन्हें जीवन का अभिन्न अंग मानते थे। इस प्रकार के प्रयास के कारण हमारे पूर्वज जो क्रियाएँ करते थे वे आधुनिक युग में किसी-न-किसी रूप में अभी भी प्रचलित हैं।

प्रश्न 8.
समूह की गतिशीलता की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
अथवा
समूह की गत्यात्मकता (Group Dynamic) पर संक्षिप्त चर्चा करें।
उत्तर:
समूह की गतिशीलता (गत्यात्मकता) का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1924 में मैक्सवर्थीमर (Max Wertheimer) ने किया। डायनैमिक (Dynamic) शब्द ग्रीक भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है-शक्ति । इस प्रकार समूह की गतिशीलता/गत्यात्मकता का अर्थ उन शक्तियों या गतिविधियों से होता है जो एक समूह के अंदर कार्य करती हैं।

हम इस तथ्य को जानते हैं कि शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है। किसी व्यक्ति के व्यवहार में यह वांछनीय परिवर्तन लाती है। जब एक बच्चे का विद्यालय में प्रवेश होता है, तो वह विद्यालय तथा अपनी कक्षा के वातावरण को समझने की कोशिश करता है। वह दूसरे बच्चों से मिलने की इच्छा करता है, और उनमें से कुछ एक की तरह व्यवहार करने की भी इच्छा करता है। वह अपने अध्यापकों से भी प्रशंसा चाहता है ताकि दूसरे बच्चे उसके बारे में अच्छा दृष्टिकोण या विचार रख सकें। इस प्रकार उसका व्यवहार लगातार प्रभावित होता रहता है। विशेष रूप से वह अपने समूह के सदस्यों द्वारा प्रभावित होता है। वे शक्तियाँ, जो विद्यालय के वातावरण में उसको प्रभावित करती हैं, उसके उचित व्यवहार के प्रतिरूप के विकास के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती हैं।

प्रश्न 9.
मानव का विकास समाज से संभव है। व्याख्या करें।
अथवा
मनुष्य और समाज का परस्पर क्या संबंध है?
उत्तर:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। आधुनिक युग में मानव-संबंधों की आवश्यकता पहले से अधिक अनुभव की जाने लगी है। कोई भी व्यक्ति अपने-आप में पूर्ण नहीं है। किसी-न-किसी कार्य के लिए उसे दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। इन्हीं जरूरतों के कारण समाज में अनेक संगठनों की स्थापना की गई है। समाज द्वारा ही मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। अतः मनुष्य समाज पर आश्रित रहता है तथा इसके द्वारा ही उसका विकास संभव है।

प्रश्न 10.
स्कूल या शैक्षिक संस्थाओं का सामाजीकरण में क्या योगदान है?
उत्तर:
स्कूल या शैक्षिक संस्थाएँ बच्चे के सामाजीकरण पर प्रभाव डालती हैं। इन संस्थाओं का बच्चों के व्यवहार पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। अगर बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़ता है तो उसका प्रभाव अच्छा पड़ता है। इसके विपरीत यदि बच्चा ऐसे स्कूल में पढे जहाँ पढ़ाई पर अधिक ध्यान न दिया जाए तो उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। स्कूल के अनुशासन, स्वच्छ वातावरण और अच्छे शिक्षकों का बच्चे पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आज के भौतिक एवं वैज्ञानिक युग में प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चे को हर स्थिति में अच्छी-से-अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते हैं ताकि वह अच्छी शिक्षा प्राप्त कर अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सके। इस प्रकार स्कूल या शैक्षिक संस्थाओं का सामाजीकरण में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

प्रश्न 11.
शारीरिक शिक्षा में नेतृत्व के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा में निम्नलिखित दो प्रकार का नेतृत्व होता है
1.अध्यापक का नेतृत्व-शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापक का नेतृत्व बहुत ही आवश्यक है। शारीरिक शिक्षा का अध्यापक या शिक्षक कुशल होना चाहिए तभी वह शिक्षण संस्थान के लिए व विद्यार्थियों के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है। भारतवर्ष में शारीरिक शिक्षा के बहुत से संस्थान हैं। इसलिए शारीरिक शिक्षा के अध्यापक को अब अपना नेतृत्व ठीक ढंग से करना पड़ेगा, अन्यथा विद्यार्थियों पर इसका नकारात्मक प्रभाव हो सकता है। उनको अब अधिक कार्य करना पड़ेगा तथा सुनियोजित ढंग से शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम चलाने होंगे। तभी वे शारीरिक शिक्षा के अच्छे नेता सिद्ध हो सकते हैं। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में एक शिक्षक के नेतृत्व का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि वह विद्यार्थियों के काफी समीप होता है। उसके व्यक्तित्व व गुणों का प्रभाव अवश्य ही विद्यार्थियों पर पड़ता है।

2. विद्यार्थी का नेतृत्व-कॉलेज के स्तर पर शारीरिक शिक्षा ऐच्छिक विषय के रूप में शुरू होने से विद्यार्थी के नेतृत्व को बढ़ावा मिल गया है। खेलकूद एवं शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थी को बहुत-से कार्य करने पड़ते हैं। उन्हें कई बार अपने शारीरिक शिक्षक की सहायता भी करनी पड़ती है। वास्तव में, प्रशिक्षण या प्रतियोगिताओं के दौरान ऐसे विद्यार्थियों की बहुत आवश्यकता होती है। पिकनिक पर जाते हुए, लंबी दूरी की दौड़ों में और कॉलेजों तथा महाविद्यालयों में अनुशासन ठीक रखने के लिए उनकी काफी हद तक जिम्मेदारी होती है। इसके अतिरिक्त खेलों के समय जब अभ्यास किया जाता है या किसी प्रतियोगिता के लिए टीम बाहर जाती है तो उस समय भी विद्यार्थियों के नेतृत्व की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 12.
विद्यार्थी नेता को कैसे चुना जाता है?
अथवा
विद्यार्थी नेता को किन-किन ढंगों या तरीकों से चुना जा सकता है?
उत्तर:
विद्यार्थी नेता को निम्नलिखित ढंग अपनाकर चुना जा सकता है
1. मनोनीत करना-इस ढंग के अनुसार विद्यार्थी अपना नेता स्वयं नहीं चुनते, क्योंकि छोटी कक्षा के बच्चे अपना नेता चुनने में असमर्थ होते हैं। इसीलिए अध्यापक सब विद्यार्थियों के गुणों को ध्यान में रखकर उस विद्यार्थी को नेता बनाते हैं, जिसमें नेतृत्व वाले गुण होते हैं।

2. चुनाव करवाना-यह ढंग आमतौर पर बड़े विद्यार्थियों में अपनाया जाता है, क्योंकि यह उस स्थिति में होता है जिसमें वे अपना बुरा-भला खुद समझ सकते हैं। इस तरह सभी विद्यार्थी अपनी जिम्मेवारी समझकर अपना नेता चुनते हैं। यह ठीक है कि इस तरीके में बहुत मुश्किलें आती हैं । विद्यार्थी अलग-अलग दलों में बँट जाते हैं जोकि बाद में झगड़े का रूप धारण कर लेते हैं। परंतु योग्य अध्यापक के नेतृत्व में ये झगड़े जल्दी सुलझाए जा सकते हैं।

3. लॉटरी द्वारा-इसके अनुसार नेता की चुनाव प्रक्रिया लॉटरी निकालकर की जाती है। इसका उपयोग उस समय किया जाता है जब कक्षा में सारे विद्यार्थी एक ही प्रकार के गुण आदि रखते हों। इसमें किस्मत का बहुत हाथ होता है। इसमें नुकसान भी हो सकता है। कभी-कभी तो पर्ची या लॉटरी ऐसे विद्यार्थी की निकल जाती है, जिसमें नेतृत्व के गुण नहीं होते। इससे सारी कक्षा को नुकसान उठाना पड़ता है।

4. बारी-बारी लीडर बनना-इसका उपयोग उस समय किया जाता है जब सारे विद्यार्थी नेतृत्व की योग्यता रखते हों। इसमें प्रत्येक विद्यार्थी को बारी-बारी से मॉनीटर या अगवाई का मौका दिया जाता है। इसमें सबसे बड़ा नुकसान यह है कि प्रत्येक विद्यार्थी अपने तरीके से कक्षा का प्रबंध आदि करता है, जिससे कक्षा में अनुशासन की कमी आ जाती है।

5. योग्यतानुसार चयन-इसके अनुसार कक्षा में सबसे अधिक योग्यता रखने वाले विद्यार्थी को ही नेता बनाया जाता है। कई खेलों में तो यह तरीका बहुत महत्त्वपूर्ण है; जैसे जिम्नास्टिक, तैराकी आदि में। इस तरह विद्यार्थी जरूरत पड़ने पर अपना योगदान दे सकते हैं।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 13.
सामाजिक मूल्यों को विकसित करने में शारीरिक शिक्षा की भूमिका का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा का सामाजीकरण में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है। शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य खिलाड़ी या व्यक्ति में ऐसे सामाजिक मूल्यों को विकसित करना है जिससे समाज में रहते हुए वह सफलता से जीवनयापन करते हुए जीवन का पूरा आनंद उठा सके। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से निम्नलिखित सामाजिक गुणों या मूल्यों को विकसित किया जा सकता है
(1) खेल या शारीरिक शिक्षा मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन लाती है।
(2) शारीरिक शिक्षा से त्याग की भावना पैदा होती है।
(3) शारीरिक शिक्षा व खेलों से खिलाड़ियों में तालमेल की भावना जागरूक होती है।
(4) मानव के समुचित विकास के लिए सहनशीलता व धैर्यता अत्यन्त आवश्यक है। जिस व्यक्ति में सहनशीलता व धैर्यता होती है वह स्वयं को समाज में भली-भाँति समायोजित कर सकता है। शारीरिक शिक्षा अनेक ऐसे अवसर प्रदान करती है जिससे उसमें इन गुणों को बढ़ाया जा सकता है।
(5) समाज में रहकर हमें एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य करना पड़ता है। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से सहयोग की भावना में वृद्धि होती है।
(6) शारीरिक शिक्षा खिलाड़ी में सामूहिक उत्तरदायित्व जैसे गुण पैदा करती है। खेलों में बहुत-सी ऐसी क्रियाएँ हैं जिनमें खिलाड़ी एक-जुट होकर इन क्रियाओं को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं।

प्रश्न 14.
परिवार, व्यक्ति के व्यवहार पर किस प्रकार प्रभाव डालता है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परिवार सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है। बच्चा इसी संस्था में जन्म लेता है और इसी में पलता है। परिवार में बच्चा अपने माता-पिता तथा भाई-बहनों से सामाजीकरण का प्रथम पाठ पढ़ता है। परिवार में माता-पिता और दूसरे सदस्यों के आपसी संबंध, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ, पारिवारिक मूल्य और परंपराएँ बच्चों के व्यवहार पर गहरा प्रभाव डालती हैं। इसलिए कहते हैं कि परिवार में अच्छे वातावरण का होना बहुत आवश्यक है। अगर परिवार में सदस्यों के आपसी संबंध ठीक न हों, तनाव बना रहता हो तथा सभी सदस्यों की प्राथमिक जरूरतें पूरी न होती हों तो बच्चे बुरी आदतों के शिकार हो सकते हैं । इसलिए जरूरी है कि परिवार में माता-पिता अच्छे वातावरण का निर्माण करें जिससे बच्चे या व्यक्ति में अच्छे गुणों व आदतों का विकास हो सके।

अगर परिवार को व्यक्तित्व निखारने की संस्था कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा। आमतौर पर यह देखने में आया है कि जिस परिवार की रुचि संगीत कला, नृत्य-कला, खेलकूद या किसी और विशेष क्षेत्र में होती है, उस परिवार के बच्चे की रुचि प्राकृतिक रूप से उसी क्षेत्र में हो जाती है। अगर परिवार की रुचि खेलकूद के क्षेत्र में या किसी विशेष खेल में है तो उस परिवार में बढ़िया खिलाड़ी पैदा होना या उस खेल के प्रति दिलचस्पी रखना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। इस प्रकार परिवार व्यक्तिगत व समूह व्यवहार को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

प्रश्न 15.
ग्रीस में खेल के ऐतिहासिक विकास का उल्लेख करें।
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा का जन्मदाता यूनान/ग्रीस को माना जाता है। ग्रीस में सैनिकों को शारीरिक दृष्टि से मजबूत करने हेतु प्रशिक्षण दिया जाता था। धीरे-धीरे कुछ नियम बनते गए, जिससे ये शारीरिक प्रशिक्षण खेलकूद या शारीरिक शिक्षा में परिवर्तित होते गए। ग्रीस के लोगों को खेलों में विशेष रुचि थी। उन्होंने ही ओलंपिक खेल विश्व को प्रदान किए।आज ओलंपिक खेलों की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई है कि प्रत्येक देश इनमें भाग लेने और अच्छे-से-अच्छा प्रदर्शन करने के लिए प्रयास करता है, ताकि वह विश्व पर अपना प्रभाव छोड़ सके। वे खेलों की उपयोगिता को अच्छे से जानते थे। इसी कारण ग्रीस में खेलकूद को शिक्षा का अभिन्न अंग समझा जाता था। खेलों की दृष्टि से यूनानी सभ्यता को खेलों का स्वर्ण काल कहा जा सकता है। प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो के अनुसार, “शरीर के लिए जिम्नास्टिक और आत्मा के लिए संगीत का विशेष महत्त्व है।”

प्रश्न 16.
भारत में खेलों के ऐतिहासिक विकास का उल्लेख करें।
उत्तर:
खेलकूद की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है। प्राचीनकाल में शिष्य अपने गुरुओं से धार्मिक ग्रंथों तथा दर्शनशास्त्र का अध्ययन करने के अतिरिक्त युद्ध एवं खेल कौशल में भी प्रशिक्षण प्राप्त करते थे। इनमें मुख्य रूप से तीरंदाजी, घुड़सवारी, भाला फेंकना, तलवार चलाना, मल्लयुद्ध आदि क्रियाएँ सम्मिलित थीं। भगवान श्रीकृष्ण, कर्ण, अर्जुन आदि धनुर्विद्या में प्रसिद्ध थे। भीम एक महान् पहलवान था। दुर्योधन मल्लयुद्ध में कुशल था। इसी प्रकार चौपड़, शतरंज, खो-खो, कुश्ती और कबड्डी आदि खेलों का उल्लेख भी भारतीय इतिहास में मिलता है। आधुनिक भारत में क्रिकेट बहुत लोकप्रिय खेल बन गई है। आज लगभग सभी आधुनिक खलों में भारत का विशेष योगदान है। संक्षेप में भारत में खेलों का इतिहास बहुत पुराना और विकसित है।।

प्रश्न 17.
नेतृत्व के विभिन्न प्रकार कौन-कौन-से हैं?
अथवा
नेता के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नेतृत्व/नेता के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं
1.संस्थागत नेता-इस प्रकार के नेता संस्थाओं के मुखिया होते हैं। स्कूल, कॉलेज, परिवार, फैक्टरी या दफ्तर आदि को मुखिया की आज्ञा का पालन करना पड़ता है।
2. प्रभुता-संपन्न या तानाशाही नेता-इस प्रकार का नेतृत्व एकाधिकारवाद पर आधारित होता है। इस प्रकार का नेता अपने आदेशों का पालन शक्ति से करवाता है और यहाँ तक कि समूह का प्रयोग भी अपने हित के लिए करता है। यह नेता नियम और आदेशों को समूह में लागू करने का अकेला अधिकारी होता है। स्टालिन, नेपोलियन और हिटलर इस प्रकार के नेता के उदाहरण हैं।
3. आदर्शवादी या प्रेरणात्मक नेता-इस प्रकार का नेता समूह पर अपना प्रभाव तर्क-शक्ति से डालता है और समूह अपने नेता के आदेशों का पालन अक्षरक्षः (ज्यों-का-त्यों) करता है। समूह के मन में अपने नेता के प्रति सम्मान होता है। नेता समूह या लोगों की भावनाओं का आदर करता है। महात्मा गाँधी, अब्राहम लिंकन, जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री इस तरह के नेता थे।
4. विशेषज्ञ नेता-समूह में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको किसी विशेष क्षेत्र में कुशलता हासिल होती है और वे अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं। ये नेता अपनी कुशल सेवाओं को समूह की बेहतरी के लिए इस्तेमाल करते हैं और समूह इन कुशल सेवाओं से लाभान्वित होता है। इस तरह के नेता अपने विशेष क्षेत्र; जैसे डॉक्टरी, प्रशिक्षण, इंजीनियरिंग तथा कला-कौशल के विशेषज्ञ होते हैं।

प्रश्न 18.
एक अच्छे नेता में कौन-कौन से गुण होने चाहिएँ? अथवा
उत्तर:
एक अच्छे नेता में निम्नलिखित गुण होने चाहिएँ
(1) एक अच्छे नेता में पेशेवर प्रवृत्तियों का होना अति आवश्यक है। अच्छी पेशेवर प्रवृत्तियों का होना न केवल नेता के लिए आवश्यक है बल्कि समाज के लिए भी अति-आवश्यक है।
(2) एक अच्छे नेता की सोच सकारात्मक होनी चाहिए, ताकि बच्चे और समाज उससे प्रभावित हो सकें।
(3) उसमें ईमानदारी, निष्ठा, समय-पालना, न्याय-संगतता एवं विनम्रता आदि गुण होने चाहिएँ।
(4) उसके लोगों के साथ अच्छे संबंध होने चाहिएं।
(5) उसमें भावनात्मक संतुलन एवं सामाजिक समायोजन की भावना होनी चाहिए।
(6) उसे खुशमिजाज तथा कर्मठ होना चाहिए।
(7) उसमें बच्चों के प्रति स्नेह और बड़ों के प्रति आदर-सम्मान की भावना होनी चाहिए।
(8) उसका स्वास्थ्य भी अच्छा होना चाहिए, क्योंकि अच्छा स्वास्थ्य अच्छी आदतें विकसित करने में सहायक होता है।
(9) उसका मानसिक दृष्टिकोण सकारात्मक एवं उच्च-स्तर का होना चाहिए।

प्रश्न 19.
खेल व स्पर्धा कैसे व्यक्ति व समूह व्यवहार को प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
खेलों में भाग लेने से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है। उसमें नेतृत्व, आत्म-अभिव्यक्ति, सहयोग, अनुशासन, धैर्य आदि अनेक गुण विकसित हो जाते हैं । जीवन की चिंताओं से मुक्ति पाने हेतु भी खेल व स्पर्धा बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। ये खिलाड़ियों के मनोभावों, रिवाजों, संस्कृतियों व व्यवहार को समझने हेतु अवसर प्रदान करते हैं। अतः इनके कारण व्यक्ति व समूह व्यवहार काफी प्रभावित होता है। व्यक्ति एवं समूह का व्यवहार सकारात्मक एवं विस्तृत होता है और उनमें अनेक नैतिक एवं सामाजिक गुणों का विकास होता है। ये गुण जीवन में सफल एवं उपलब्धि प्राप्त करने हेतु आवश्यक होते हैं।

प्रश्न 20.
खेल व स्पर्धा से सामाजीकरण को कैसे सुधारा या बढ़ाया जा सकता है?
उत्तर:
खेल व स्पर्धा का संबंध व्यक्ति से होता है। अतः ये प्रत्येक व्यक्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । ये स्वतंत्र व्यवहार का विकास करने में सहायक होते हैं। ये हमें समाज की चिंताओं से भी स्वतंत्र करते हैं। इनके द्वारा हम कोई भी प्रशासनिक, नैतिक एवं सामाजिक गुण विकसित कर सकते हैं अर्थात् संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास खेल व स्पर्धा से संभव है। इनके माध्यम से समाज के प्रति सकारात्मक व सामाजिक दृष्टिकोण को बढ़ावा मिलता है। इस तरह खेल व स्पर्धा से सामाजीकरण को सुधारा जा सकता है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

प्रश्न 21.
शारीरिक शिक्षा, स्वस्थ जीवन व्यतीत करने में कैसे सहायता करती है?
उत्तर:
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज के साथ रहना पड़ता है। यदि व्यक्ति को सफल जीवन व्यतीत करना है तो उसे स्वयं को पूर्ण रूप से स्वस्थ रखना होगा। इस कार्य में शारीरिक शिक्षा उसको महत्त्वपूर्ण सहायता प्रदान करती है। शारीरिक शिक्षा व्यक्ति के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करती है और उन्हें विकसित करने में सहायक होती है। शारीरिक शिक्षा कई ऐसे अवसर प्रदान करती है जिससे व्यक्ति में अनेक सामाजिक एवं नैतिक गुणों का विकास होता है। इसके माध्यम से वह अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहता है, एक-दूसरे को सहायता करता है, दूसरों की भावनाओं की कदर करता है और मनोविकारों व बुरी आदतों से दूर रहता है। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा, स्वस्थ जीवन व्यतीत करने में सहायता करती है।

प्रश्न 22.
शारीरिक शिक्षा खाली समय का सदुपयोग करना कैसे सिखाती है ?
उत्तर:
किसी ने ठीक ही कहा है कि “खाली दिमाग शैतान का घर होता है।” (An idle brain is a devil’s workshop.) यह आमतौर पर देखा जाता है कि खाली या बेकार व्यक्ति को हमेशा शरारतें ही सूझती हैं। कभी-कभी तो वह इस प्रकार के अनैतिक कार्य करने लग जाता है, जिनको सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं समझा जा सकता। खाली या बेकार समय का सदुपयोग न करके उसका दिमाग बुराइयों में फंस जाता है। शारीरिक शिक्षा में अनेक शारीरिक क्रियाएँ शामिल होती हैं। इन क्रियाओं में भाग लेकर हम अपने समय का सदुपयोग कर सकते है। अतः शारीरिक शिक्षा व्यक्ति को खाली समय का सदुपयोग करना सिखाती है।

खाली समय का प्रयोग यदि खेल के मैदान में खेलें खेलकर किया जाए तो व्यक्ति के हाथ से कुछ नहीं जाता, बल्कि वह कुछ प्राप्त ही करता है। खेल का मैदान जहाँ खाली समय का सदुपयोग करने का उत्तम साधन है, वहीं व्यक्ति की अच्छी सेहत बनाए रखने का भी उत्तम साधन है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति को एक अच्छे नागरिक के गुण भी सिखा देता है।

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न [Very Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
सोशिओलॉजी (Sociology) शब्द का शाब्दिक अर्थ बताएँ।
अथवा
समाजशास्त्र का अर्थ स्पष्ट करें।
अथवा
‘सोशिओलॉजी’ शब्द लैटिन भाषा के किस शब्द से लिया गया है?
उत्तर:
सोशिओलॉजी (Sociology) शब्द लैटिन भाषा के ‘Socios’ और ग्रीक भाषा के ‘Logos’ शब्द से मिलकर बना है। ‘Socios’ का अर्थ-समाज और ‘Logos’ का अर्थ-शास्त्र या विज्ञान है। अतः समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिए।
अथवा
समाजशास्त्र की कोई दो परिभाषा लिखें।
उत्तर:
1. आई०एफ० वार्ड के अनुसार, “समाजशास्त्र, समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।”
2. गिलिन व गिलिन के कथनानुसार, “व्यक्तियों के एक-दूसरे के संपर्क में आने के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली अंतःक्रियाओं के अध्ययन को ही समाजशास्त्र कहा जाता है।”

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प्रश्न 3.
सामाजीकरण (Socialization) का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे व्यक्ति अपने समुदाय या वर्ग का सक्रिय सदस्य बनकर उसकी परंपराओं या कर्तव्यों का पालन करता है | स्वयं को सामाजिक वातावरण के अनुरूप ढालना सीखता है । यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा वह सांस्कृतिक और व्यक्तिगत विशेषताओं को प्राप्त कर लेता है।

प्रश्न 4.
सामाजीकरण को परिभाषित कीजिए।
अथवा
सामाजीकरण की कोई दो परिभाषा लिखें।
उत्तर:
1, जॉनसन के अनुसार, “सामाजीकरण एक प्रकार की शिक्षा है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने के योग्य बना देती है।”
2. अरस्तू के अनुसार, “सामाजीकरण संस्कृति के बचाव के लिए सामाजिक मूल्यों को प्राप्त करने की प्रक्रिया है।”

प्रश्न 5.
देश में स्थापित उन प्रमुख केंद्रों के नाम लिखिए जो नेतृत्व प्रशिक्षण प्रदान करते हैं।
अथवा
भारत में नेतृत्व प्रशिक्षण संस्थानों के नाम बताइए।
उत्तर:
(1) Y.M.C.A., चेन्नई,
(2) L.N.C.P.E., ग्वालियर,
(3) गवर्नमैंट कॉलेज फिज़िकल एज्यूकेशन, पटियाला,
(4) नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पो, पटियाला।
इसके अतिरिक्त अनेक प्रशिक्षण कॉलेज तथा विभाग देश के विभिन्न भागों; जैसे अमृतसर, चंडीगढ़, कोलकाता, नागपुर, दिल्ली, अमरावती, कुरुक्षेत्र आदि में कार्यरत हैं।

प्रश्न 6.
समाजशास्त्र किस प्रकार अनुशासन बनाने में सहायता करता है?
उत्तर:
समाजशास्त्र समग्र समाज का अध्ययन है। इसके अंतर्गत सामाजिक संबंधों के संपूर्ण क्षेत्र का अध्ययन आ जाता है। इसके अध्ययन द्वारा सामाजिक जीवन में आने वाली बाधाओं को भली-भांति समझा जाता है और उनको दूर करने का व्यावहारिक प्रयास किया जाता है, ताकि व्यक्ति के व्यक्तित्व का समुचित एवं सर्वांगीण विकास हो सके। जब समाज में व्यक्ति को उचित एवं अनुकूल वातावरण मिलेगा तो वे निश्चित रूप में अपने-आपको अनुशासित एवं संगठित करने का प्रयास करेंगे। इस प्रकार समाजशास्त्र अनुशासन बनाने में सहायता करता है।

प्रश्न 7.
सामाजिक संस्था से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सामाजिक संस्थाएँ वे संस्थाएँ होती हैं जो व्यक्ति में सामाजिक गुणों के विकास में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं और उसे सामाजीकरण का ज्ञान प्रदान करती हैं।

प्रश्न 8.
शारीरिक शिक्षा से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा, शिक्षा का वह अभिन्न अंग है, जो खेलकूद तथा अन्य शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से, व्यक्तियों में एक चुनी हुई दिशा में, परिवर्तन लाने का प्रयास करता है। इससे केवल बुद्धि तथा शरीर का ही विकास नहीं होता, बल्कि यह व्यक्ति के स्वभाव, चरित्र एवं आदतों के निर्माण में भी सहायक होती है। अतः शारीरिक शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के संपूर्ण (शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक) व्यक्तित्व का विकास होता है।

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प्रश्न 9.
शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य क्या है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य विद्यार्थी को इस प्रकार तैयार करना है कि वह एक सफल एवं स्वस्थ नागरिक बनकर अपने परिवार, समाज व राष्ट्र की समस्याओं का समाधान करने की क्षमता या योग्यता उत्पन्न कर सके और समाज का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनकर सफलता से जीवनयापन करते हुए जीवन का पूरा आनंद उठा सके।

प्रश्न 10.
शारीरिक शिक्षा में ग्रीस को महत्त्वपूर्ण स्थान क्यों दिया जाता है?
उत्तर:
ग्रीस को शारीरिक शिक्षा का जन्मदाता माना जाता है। ग्रीस ने ही सर्वप्रथम शिक्षा में इस विषय को स्थान दिया है। ग्रीस के लोगों ने ही विश्व को खेलों का ज्ञान प्रदान किया। आज विश्व जो ओलंपिक खेल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित करता है, वह ग्रीस की देन है। ग्रीसवासियों की खेलों में विशेष रुचि के कारण ही खेलों को शिक्षा में शामिल किया गया। इसी कारण शारीरिक शिक्षा में ग्रीस को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।

प्रश्न 11.
सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritage) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सांस्कृतिक विरासत का अर्थ उचित परिवर्तनों के साथ मूल्यों, परंपराओं और प्रथाओं आदि का भूत से वर्तमान तक तथा वर्तमान से भविष्य में स्थानांतरण करना है। सांस्कृतिक विरासत प्रत्येक राष्ट्र का गर्व है। कुछ राष्ट्र शारीरिक गतिविधियों या क्रीड़ाओं को संस्कृति का रूप मानते हैं और कुछ सांस्कृतिक विरासत के रूप में देखते हैं। हमारे पूर्वज इन क्रियाओं में अपने बच्चों को निपुण बनाना अपना धर्म समझते थे और इन्हें जीवन का अभिन्न अंग मानते थे। इस प्रकार के प्रयास के कारण हमारे पूर्वज जो क्रियाएँ करते थे वे आधुनिक युग में किसी-न-किसी रूप में अभी भी प्रचलित हैं।

प्रश्न 12.
खेल व स्पर्धाओं में भाग लेने से नेतृत्व के गुणों का विकास कैसे होता है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में नेतृत्व करने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। जब कोई खिलाड़ी या व्यक्ति किसी शारीरिक गतिविधि या खेल व स्पर्धा में भाग लेता है तो वह किसी प्रशिक्षक के नेतृत्व में खेल संबंधी नियम प्राप्त करता है। वह प्रशिक्षक से गतिविधि व स्पर्धा संबंधी सभी आवश्यक निर्देश प्राप्त करता है। इससे उसमें नेतृत्व के गुण विकसित होते हैं। कई बार प्रतियोगिताओं का प्रतिनिधित्व करना भी नेतृत्व के गुणों के विकास में सहायक होता है।

प्रश्न 13.
संस्कृति (Culture) किसे कहते हैं? अथवा संस्कृति को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
प्रत्येक पीढ़ी ने अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान व कला का अधिक-से-अधिक विकास किया है और नवीन ज्ञान व अनुभवों का भी अर्जन किया है। इस प्रकार के ज्ञान व अनुभव के अंतर्गत प्रथाएँ, विचार व मूल्य आते हैं, इन्हीं के संग्रह को संस्कृति कहा जाता है। रॉबर्ट बीरस्टीड के अनुसार, “संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है जिसमें वे सभी वस्तुएँ शामिल हैं जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं।”

प्रश्न 14.
शारीरिक शिक्षा के मूलभूत सिद्धांत बताएँ।
उत्तर:
(1) समाजशास्त्रीय/सामाजिक सिद्धांत (Sociological Principles)।
(2) मनोवैज्ञानिक सिद्धांत (Psychological Principles)।
(3) जैविक सिद्धांत (Biological Principles)।

प्रश्न 15.
समूह निर्माण के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:
(1) सामूहिक जीवन व वातावरण के विकास हेतु।
(2) व्यक्तिगत प्रशिक्षण की अपेक्षा सामूहिक गतिविधियों के माध्यम से बाधाओं को दूर करने हेतु।

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प्रश्न 16.
शारीरिक शिक्षा के द्वारा प्राप्त किए जाने वाले सामाजिक मूल्य बताइए।
उत्तर:
(1) नेतृत्व की भावना,
(2) अनुशासन की भावना,
(3) धैर्यता,
(4) सहनशीलता,
(5) त्याग की भावना,
(6) सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार,
(7) आत्म-विश्वास की भावना,
(8) सामूहिक एकता,
(9) सहयोग की भावना,
(10) खेल-भावना।

प्रश्न 17.
समूह क्या है?
अथवा
समूह (Group) को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
समूह एक ऐसी सामाजिक अवस्था है जिसमें सभी इकट्ठे होकर कार्य करते हैं और अपने-अपने विचारों या भावनाओं को संतुष्ट करते हैं। इसके द्वारा एकीकरण, मित्रता, सहयोग व सहकारिता के विचारों को बढ़ावा मिलता है। समूह में समान उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इकट्ठे होकर कार्य किया जाता है।

प्रश्न 18.
प्राथमिक समूह से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
प्राथमिक समूह वह पारिवारिक समूह है जिसमें भावनात्मक संबंध, घनिष्ठता, प्रेम-भाव प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसमें सशक्त सामाजीकरण, अच्छे चरित्र तथा आचरण का विकास होता है। इस समूह के सदस्य एक-दूसरे से अपनी गतिविधियों व संस्कृति संबंधी वार्तालाप करते हैं।

प्रश्न 19.
द्वितीयक समूह से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
द्वितीयक समूह प्राथमिक समूह से अधिक विस्तृत होता है। यह एक ऐसा समूह है जिसमें अप्रत्यक्ष, प्रभावरहित, औपचारिक संबंध होते हैं। इस समूह में सम्मिलित सदस्यों में कोई भावनात्मक संबंध नहीं होता। ऐसे समूहों में स्वार्थ-प्रवृत्तियाँ अधिक पाई जाती हैं।

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प्रश्न 20.
शारीरिक शिक्षा साम्प्रदायिकता को कैसे रोकने में सहायक होती है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, रंग-रूप, धर्म, वर्ग, समुदाय के भेदभाव को स्वीकार नहीं करती।साम्प्रदायिकता हमारे देश के लिए बहुत घातक है। शारीरिक शिक्षा इस खतरे को समाप्त कर राष्ट्र हित की ओर अग्रसर कर देती है। खिलाड़ी सभी बंधनों को तोड़कर एक राष्ट्रीय टीम में भाग लेकर अपने देश का नाम ऊँचा करते हैं। किसी प्रकार के देश विरोधी दंगों में नहीं पड़ते। शारीरिक शिक्षा लोगों में साम्प्रदायिकता की भावना को खत्म करके राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि करती है।

प्रश्न 21.
शारीरिक शिक्षा समूह के आपसी लगाव व एकता में कैसे सहायता करती है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा समूह के आपसी लगाव और एकता को बढ़ाने में मदद करती है। यदि एक टीम में आपसी संबंध या लगाव हो और एकता न हो तो उस टीम का खेल स्तर अच्छा होने पर भी, उसका जीतना मुश्किल होता है । शारीरिक शिक्षा से सामाजिक गुणों का विकास होता है और यही सामाजिक गुण आपसी संबंधों और एकता को बढ़ावा देते हैं।

प्रश्न 22.
शारीरिक शिक्षा प्रान्तवाद या क्षेत्रवाद को कैसे रोकने में सहायक होती है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा में प्रान्तवाद या क्षेत्रवाद का कोई स्थान नहीं है। जब कोई खिलाड़ी शारीरिक क्रियाएँ करता या कोई खेल खेलता है तो उस समय उसमें क्षेत्रवाद की कोई भावना नहीं होती। विभिन्न प्रान्तों या राज्यों के खिलाड़ी खेलते समय आपस में सहयोग करते हुए एक-दूसरे की भावनाओं का सत्कार करते हैं, जिससे उनमें राष्ट्रीय एकता की वृद्धि होती है। राष्ट्रीय एकता समृद्ध होती है और देश शक्तिशाली बनता है।

प्रश्न 23.
नेतृत्व (Leadership) से आप क्या समझते हैं?
अथवा
नेतृत्व की कोई दो परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
मानव में नेतृत्व की भावना आरंभ से ही होती है। किसी भी समाज की वृद्धि या विकास उसके नेतृत्व की विशेषता पर निर्भर करती है। नेतृत्व व्यक्ति का वह गुण है जिससे वह दूसरे व्यक्तियों के जीवन के विभिन्न पक्षों में मार्गदर्शन करता है।
1. मॉण्टगुमरी के अनुसार, “किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए व्यक्तियों को इकट्ठा करने की इच्छा तथा योग्यता को ही नेतृत्व कहा जाता है।”
2. ला-पियरे व फा!वर्थ के अनुसार, “नेतृत्व एक ऐसा व्यवहार है जो लोगों के व्यवहार पर अधिक प्रभाव डालता है, न कि लोगों के व्यवहार का प्रभाव उनके नेता पर।” ।

प्रश्न 24.
हमें एक नेता की आवश्यकता क्यों होती है?
उत्तर:
नेता जनता का प्रतिनिधि होता है। वह सरकार या प्रशासन को लोगों की आवश्यकताओं व समस्याओं से अवगत करवाता है। वह लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रयास करता है। एक नेता के माध्यम से ही जनता अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एवं समस्याओं के निवारण हेतु प्रयास करती है। इसलिए हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एवं समस्याओं के निवारण हेतु एक नेता की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 25.
सुनागरिक बनाने में शारीरिक शिक्षा का क्या योगदान है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा मनुष्य के शरीर, मन और बुद्धि तीनों का एक-साथ विकास करती है जो व्यक्ति के सुनागरिक बनने के लिए आवश्यक हैं। यह स्वाभाविक है कि शरीर के विकास के साथ-साथ मानसिक या बौद्धिक विकास भी होता है। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से श्रेष्ठ विचारों की पूर्ति होती है। इसलिए शारीरिक शिक्षा एक अच्छे नागरिक के गुणों का विकास करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। मॉण्टेग्यू के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा न तो मस्तिष्क का और न ही शरीर का प्रशिक्षण करती है, बल्कि यह संपूर्ण . व्यक्ति का प्रशिक्षण करती है।”

प्रश्न 26.
एक अच्छे नेता का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
प्रत्येक समाज या देश के लिए एक अच्छा नेता बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि वह समाज और देश को एक नई दिशा देता है। अच्छे नेता में एक खास किस्म के गुण होते हैं जिनके कारण वह सभी को एकत्रित कर काम करने के लिए प्रेरित करता है। वह प्रशासन को लोगों की आवश्यकताओं से अवगत करवाता है।

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HBSE 12th Class Physical Education शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रकार के प्रश्न] [Objective Type Questions]

भाग-I: एक शब्द/वाक्य में उत्तर दें-

प्रश्न 1.
समाज क्या है?
उत्तर:
समाज सामाजिक संबंधों का एक जाल है।

प्रश्न 2.
मनुष्य को कैसा प्राणी कहा गया है?
अथवा
मनुष्य कैसा प्राणी है?
उत्तर:
मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा गया है।

प्रश्न 3.
‘समाजशास्त्र’ किस भाषा का शब्द है?
उत्तर:
‘समाजशास्त्र’ लैटिन भाषा का शब्द है।

प्रश्न 4.
‘समाजशास्त्र, समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है।’ यह किसका कथन है?
उत्तर;
आई० एफ० वार्ड का।

प्रश्न 5.
जॉनसन द्वारा दी गई समाजशास्त्र की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
जॉनसन के अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का विज्ञान है-सामाजिक समूह सामाजिक अंतःक्रियाओं की ही एक व्यवस्था है।”

प्रश्न 6.
“समाजशास्त्र का अतीत अत्यधिक लंबा है लेकिन इतिहास उतना ही छोटा है।” यह कथन किसने कहा?
उत्तर:
यह कथन रॉबर्ट बीरस्टीड ने कहा।

प्रश्न 7.
समाजशास्त्र का पिता या जनक किसे कहा जाता है?
उत्तर:
समाजशास्त्र का पिता या जनक ऑगस्ट कॉम्टे को कहा जाता है।

प्रश्न 8.
बच्चा सामाजीकरण का प्रथम पाठ कहाँ से सीखता है?
उत्तर:
बच्चा सामाजीकरण का प्रथम पाठ परिवार से सीखता है।

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प्रश्न 9.
‘डायनैमिक’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किसने किया था?
उत्तर:
‘डायनैमिक’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग मैक्स वर्थीमर ने किया था।

प्रश्न 10.
डायनैमिक (Dynamic) शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर:
डायनैमिक (Dynamic) शब्द ग्रीक भाषा से लिया गया है।

प्रश्न 11.
क्या समाजशास्त्र अच्छे खिलाड़ी बनाने में सहायक है?
उत्तर:
हाँ, समाजशास्त्र अच्छे खिलाड़ी बनाने में सहायक है।

प्रश्न 12.
किस देश को बॉल गेम्स का जन्मदाता कहा जाता है?
उत्तर:
इंग्लैंड को बॉल गेम्स का जन्मदाता कहा जाता है।

प्रश्न 13.
बेसबॉल और वॉलीबॉल का प्रारंभ किस देश से हुआ?
उत्तर:
बेसबॉल और वॉलीबॉल का प्रारंभ अमेरिका से हुआ।

प्रश्न 14.
शारीरिक शिक्षा एवं खेलकूद से किस प्रकार के मूल्यों का विकास होता है?
उत्तर:
शारीरिक शिक्षा एवं खेलकूद से सामाजिक व नैतिक मूल्यों का विकास होता है।

प्रश्न 15.
कोई चार सामाजिक मूल्य बताइए।
उत्तर:
(1) धैर्य,
(2) सहयोग की भावना,
(3) बंधुत्व,
(4) सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार।

प्रश्न 16.
“मजबूत शारीरिक नींव के बिना कोई राष्ट्र महान् नहीं बन सकता।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन डॉ० राधाकृष्णन का है।

प्रश्न 17.
“शरीर के लिए जिम्नास्टिक तथा आत्मा के लिए संगीत का विशेष महत्त्व है।” यह कथन किसने कहा?
उत्तर:
यह कथन प्लेटो ने कहा।

प्रश्न 18.
मनुष्य में पाई जाने वाली मूल प्रवृत्तियाँ कौन-कौन-सी हैं?
उत्तर:
(1) शिशु रक्षा,
(2) आत्म प्रदर्शन,
(3) सामूहिकता।

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प्रश्न 19.
समूह की सबसे छोटी इकाई कौन-सी है?
उत्तर:
समूह की सबसे छोटी इकाई परिवार है।

प्रश्न 20.
“समाज के बिना मनुष्य पशु है या देवता।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन अरस्तू का है।

प्रश्न 21.
एक राष्ट्र कैसी संस्था है?
उत्तर:
सामाजिक संस्था।

प्रश्न 22.
उन शक्तियों को क्या कहते हैं जो एक समूह के अंदर कार्य करती हैं?
उत्तर:
समूह की गतिशीलता।

प्रश्न 23.
परिवार कैसी संस्था है?
उत्तर:
सामाजिक संस्था

प्रश्न 24.
नेता का प्रमुख गुण क्या होना चाहिए?
उत्तर:
नेता का प्रमुख गुण ईमानदारी एवं कर्मठता होना चाहिए।

प्रश्न 25.
समूह कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
समूह दो प्रकार के होते हैं।

प्रश्न 26.
सन् 1961 में राष्ट्रीय खेल संस्था कहाँ स्थापित की गई?
उत्तर:
सन् 1961 में राष्ट्रीय खेल संस्था पटियाला में स्थापित की गई।

प्रश्न 27.
Y.M.C.A. की स्थापना किसने और कहाँ की थी?
उत्तर:
Y.M.C.A. की स्थापना शारीरिक शिक्षा के भारतीय प्रचारक श्री एच०सी० बँक ने चेन्नई में की थी।

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प्रश्न 28.
सामाजिक संगठनों का आधार क्या है?
उत्तर:
सामाजिक संगठनों का आधार परिवार है।

प्रश्न 29.
“समाजशास्त्र को चिंतनशील जगत् का बच्चा माना जाता है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन मिचेल का है।

प्रश्न 30.
व्यक्ति का व्यक्तित्व किन पक्षों पर आधारित है?
उत्तर:
(1) शारीरिक पक्ष,
(2) मानसिक पक्ष,
(3) सामाजिक पक्ष।

प्रश्न 31.
किस देश ने जिम्नास्टिक पर बल दिया था?
उत्तर:
जर्मनी ने जिम्नास्टिक पर बल दिया था।

प्रश्न 32.
Y.M.C.A. कहाँ पर स्थित है?
उत्तर:
चेन्नई में।

प्रश्न 33.
Y.M.C.A. का पूरा नाम लिखें।
उत्तर:
Young Men’s Christian Association.

प्रश्न 34.
खेलों द्वारा किस विशाल भावना का विकास होता है?
उत्तर:
खेलों द्वारा विश्व-शक्ति एवं बंधुत्व की भावना का विकास होता है।

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प्रश्न 35.
विद्यालय कैसी संस्था है?
उत्तर:
सामाजिक संगठन।

प्रश्न 36.
व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक कौन-कौन-से हैं?
उत्तर:
(1) परिवार,
(2) समाज,
(3) मित्र-मण्डली,
(4) सामाजिक वातावरण।

प्रश्न 37.
घर, परिवार, विद्यालय व महाविद्यालय किस प्रकार के संगठन हैं?
उत्तर:
घर, परिवार, विद्यालय व महाविद्यालय सामाजिक संगठन हैं।

प्रश्न 38.
खेलों द्वारा विकसित होने वाले कोई दो गुण लिखें।
उत्तर:
(1) आत्म-विश्वास,
(2) धैर्यता।

प्रश्न 39.
परिवार किसके सिद्धान्त पर आधारित है?
उत्तर:
परिवार सामाजीकरण (Socilaization) के सिद्धान्त पर आधारित है।

प्रश्न 40.
वे गुण क्या हैं जो खेलकूद द्वारा प्राप्त किए जाते हैं?
उत्तर:
सामाजिक एवं नैतिक गुण। ।

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भाग-II: सही विकल्प का चयन करें

1. ‘समाजशास्त्र’ किस भाषा का शब्द है?
(A) फ्रैंच भाषा का
(B) अंग्रेजी भाषा का
(C) लैटिन भाषा का
(D) जर्मन भाषा का
उत्तर:
(C) लैटिन भाषा का

2. “समाजशास्त्र का अतीत अत्यधिक लंबा है लेकिन इतिहास उतना ही छोटा है।” यह कथन किसने कहा?
(A) मैकाइवर ने
(B) रॉबर्ट बीरस्टीड ने
(C) मिचेल ने
(D) ऑगस्ट कॉम्टे ने
उत्तर:
(B) रॉबर्ट बीरस्टीड ने

3. “समाजशास्त्र समाज का वैज्ञानिक अध्ययन अथवा समाज दृष्टि का विज्ञान है” यह कथन है
(A) डेविड पोर्ट का
(B) स्टालिन का
(C) मैक्स वेबर का
(D) आई० एफ० वार्ड का
उत्तर:
(D) आई० एफ० वार्ड का

4. समाजशास्त्र का पिता किसे कहा जाता है?
(A) मिचेल को
(B) ऑगस्ट कॉम्टे को
(C) मैकाइवर व पेज को
(D) रॉबर्ट बीरस्टीड को
उत्तर:
(B) ऑगस्ट कॉम्टे को

5. खेलों द्वारा किस विशाल भावना का विकास होता है?
(A) राष्ट्रीय भावना का
(B) स्थानीय भावना का
(C) अंतर्राष्ट्रीय भावना का
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) अंतर्राष्ट्रीय भावना का

6. जिम्नास्टिक के साथ संगीत पद्धति द्वारा चिकित्सा प्रणाली का जन्म किस देश में हुआ?
(A) स्वीडन और डेनमार्क में
(B) यूनान में
(C) इंग्लैंड में
(D) अमेरिका में
उत्तर:
(A) स्वीडन और डेनमार्क में

7. अमेरिका ने हमें किन खेलों का ज्ञान दिया?
(A) बास्केटबॉल का
(B) बेसबॉल का
(C) वॉलीबॉल का
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

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8. व्यक्ति का व्यक्तित्व किन पक्षों पर आधारित है?
(A) शारीरिक पक्ष पर
(B) मानसिक पक्ष पर
(C) सामाजिक पक्ष पर
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

9. रूस द्वारा ओलंपिक खेलों के आयोजन के समय किस देश ने बहिष्कार किया था?
(A) जापान ने
(B) अमेरिका तथा उसके सहयोगी राष्ट्रों ने
(C) स्वीडन ने
(D) हॉलैंड ने
उत्तर:
(B) अमेरिका तथा उसके सहयोगी राष्ट्रों ने

10. उन शक्तियों को क्या कहते हैं जो एक समूह के अंदर कार्य करती हैं?
(A) सामूहिकता
(B) समूह
(C) समूह की गतिशीलता
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) समूह की गतिशीलता

11. समूह के कितने प्रकार होते हैं?
(A) चार
(B) दो
(C) तीन
(D) पाँच
उत्तर:(B) दो

12. “समाजशास्त्र सामाजिक समूहों का विज्ञान है-सामाजिक समूह सामाजिक अंतःक्रियाओं की ही एक व्यवस्था है।” यह कथन किसने कहा?
(A) जॉनसन ने
(B) फा!वर्थ ने
(C) ला-पियरे ने
(D) मॉण्टगुमरी ने
उत्तर:
(A) जॉनसन ने

13. ‘समाजशास्त्र’ की उत्पत्ति ऑगस्ट कॉम्टे द्वारा की गई
(A) वर्ष 1838 में
(B) वर्ष 1850 में
(C) वर्ष 1938 में
(D) वर्ष 1950 में
उत्तर:(A) वर्ष 1838 में

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14. सामाजीकरण की प्रक्रिया में निम्नलिखित पक्ष सम्मिलित होते हैं
(A) जीव रचना
(B) समाज
(C) व्यक्ति
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

15. समाजशास्त्र का अर्थ है
(A) व्यक्ति का अध्ययन
(B) समाज का वैज्ञानिक अध्ययन
(C) समाज का आर्थिक अध्ययन
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) समाज का वैज्ञानिक अध्ययन

16. बॉलगेम्स का जन्मदाता किसे कहा जाता है?
(A) स्वीडन को
(B) इंग्लैंड को
(C) डेनमार्क को
(D) अमेरिका को
उत्तर:
(B) इंग्लैंड को

17. बच्चा सामाजीकरण का प्रथम पाठ कहाँ से सीखता है?
(A) विद्यालय से
(B) महाविद्यालय से
(C) मठ से
(D) परिवार से
उत्तर:
(D) परिवार से

18. सामाजीकरण का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है
(A) आध्यात्मिक शिक्षा
(B) शारीरिक शिक्षा
(C) मनोवैज्ञानिक शिक्षा
(D) यौन शिक्षा
उत्तर:
(B) शारीरिक शिक्षा

19. ‘डाइनैमिक्स’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया
(A) चार्ल्स कूले ने
(B) बरदँड रसल ने
(C) मैक्स वर्थीमर ने
(D) जॉनसन ने
उत्तर:
(C) मैक्स वर्थीमर ने

20. ‘डाइनैमिक्स’ (Dynamic) शब्द किस भाषा से लिया गया है?
(A) ग्रीक भाषा से
(B) जर्मन भाषा से
(C) फ्रैंच भाषा से
(D) अंग्रेजी भाषा से
उत्तर:
(A) ग्रीक भाषा से

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

21. ‘डाइनैमिक्स’ शब्द से आप क्या समझते हैं?
(A) ऊर्जा
(B) परिवर्तन
(C) शक्ति
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) शक्ति

22. सन् 1961 में राष्ट्रीय खेल संस्था कहाँ स्थापित की गई?
(A) पटियाला में
(B) ग्वालियर में
(C) चेन्नई में
(D) दिल्ली में
उत्तर:
(A) पटियाला में

23. “समाजशास्त्र को चिंतनशील जगत् का बच्चा माना जाता है।” यह कथन है-
(A) मैकाइवर का
(B) मिचेल का
(C) जॉनसन का
(D) रॉबर्ट बीरस्टीड का
उत्तर:
(B) मिचेल का

24. मनुष्य में पाई जाने वाली मूल प्रवृत्तियाँ हैं
(A) शिशु रक्षा
(B) आत्म प्रदर्शन
(C) सामूहिकता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

25. सामाजिक संबंधों का जाल क्या कहलाता है?
(A) समाज
(B) परिवार
(C) समुदाय
(D) समूह
उत्तर:
(A) समाज

26. “समाज के बिना मनुष्य पशु है या देवता।” ये शब्द किसके हैं?
(A) अरस्तू
(B) रोजर
(C) थॉमस
(D) वुड्स
उत्तर:
(A) अरस्तू

27. Y.M.C.A. कहाँ पर स्थित है?
(A) कोलकाता में
(B) चेन्नई में
(C) नई दिल्ली में
(D) चण्डीगढ़ में
उत्तर:
(B) चेन्नई में

28. सामाजिक संगठन है
(A) परिवार
(B) धार्मिक व शैक्षणिक संस्थाएँ
(C) राष्ट्र
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 5 शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष

29. घर, परिवार, विद्यालय व महाविद्यालय किस प्रकार के संगठन हैं?
(A) आर्थिक संगठन
(B) सामाजिक संगठन
(C) राजनैतिक संगठन
(D) भावनात्मक संगठन
उत्तर:
(B) सामाजिक संगठन

30. स्कूल/विद्यालय कैसी संस्था है?
(A) व्यक्तिगत
(B) राजनीति
(C) सामाजिक
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) सामाजिक

भाग-III: रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. ……………….. के अनुसार समाजशास्त्र को चिंतनशील जगत् का बच्चा माना जाता है।
2. समाजशास्त्र का पिता या जनक ……………….. को माना जाता है।
3. “शारीरिक शिक्षा शरीर का एक मजबूत ढाँचा है जो मस्तिष्क के कार्य को निश्चित तथा आसान करता है।” यह कथन ………………. ने कहा।
4. Y.M.C.A. की स्थापना ……………….. ने की।
5. “शरीर के लिए जिम्नास्टिक तथा आत्मा के लिए संगीत का विशेष महत्त्व है।” यह कथन ……………….. ने कहा।
6. समूह की सबसे छोटी इकाई ……….
7. “किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए व्यक्तियों को इकट्ठा करने की इच्छा तथा योग्यता को ही नेतृत्व कहा जाता है।” यह कथन
……………….. ने कहा।
8. सामाजिक संबंधों का व्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप से अध्ययन करने वाले विज्ञान को ……………….. कहते हैं।
9. मनुष्य एक ……………….. प्राणी है।
10. सामाजीकरण का महत्त्वपूर्ण साधन ……………….. है।
11. सामाजिक संगठनों का आधार ………………… है।
12. खेलों के मूल उद्देश्यों ने रोमवासियों की ……………….. गतिविधियों को बढ़ावा दिया है।
उत्तर:
1. मिचेल
2. ऑगस्ट कॉम्टे
3. रूसो
4. श्री एच०सी० बॅक
5. प्लेटो
6. दंपति
7. मॉण्टगुमरी
8. समाजशास्त्र
9. सामाजिक
10. शारीरिक शिक्षा
11. परिवार
12. खेल।

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शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष Summary

शारीरिक शिक्षा के सामाजिक पक्ष परिचय

प्राचीनकाल में विचारों के आदान-प्रदान का सर्वव्यापी माध्यम शारीरिक गतिविधियाँ व शारीरिक अंगों का हाव-भाव होता था। आदि-मानव शारीरिक गतिविधियों के माध्यम से ही अपने बच्चों को शारीरिक शिक्षा देते थे, क्योंकि प्राचीनकाल में शारीरिक शिक्षा लोगों के जीवित रहने के लिए आवश्यक मानी जाती थी। शारीरिक शिक्षा पर सबसे अधिक बल यूनान ने दिया। सुकरात, अरस्तू व प्लेटो जैसे महान् दार्शनिकों का विचार था कि शारीरिक प्रशिक्षण युवाओं के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। शारीरिक शिक्षा एक ऐसी शिक्षा है जो वैयक्तिक जीवन को समृद्ध बनाने में प्रेरक व सहायक सिद्ध होती है। यह शारीरिक विकास के साथ शुरू होती है और मानव-जीवन को पूर्णता की ओर ले जाती है, जिसके परिणामस्वरूप वह एक हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ, मानसिक, सामाजिक एवं भावनात्मक संतुलन रखने वाला व्यक्ति बन जाता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी प्रकार की चुनौतियों अथवा मुश्किलों से प्रभावी तरीके से लड़ने में सक्षम होता है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यह जन्म से मृत्यु तक अपने ही जैसे आचार-विचार रखने वाले जीवों के बीच रहता है। सामाजीकरण की सहायता से वह अपनी पशु-प्रवृत्ति से ऊपर उठकर सभ्य मनुष्य का स्थान ग्रहण करता है। अतः सामाजीकरण वह प्रक्रिया है जिससे व्यक्ति अपने समुदाय का सक्रिय सदस्य बनकर उसकी परंपराओं का पालन करता है एवं स्वयं को सामाजिक वातावरण के अनुरूप ढालना सीखता है।

शारीरिक शिक्षा सामाजीकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। विद्यार्थी खेल के मैदान में अपनी टीम के हितों को सम्मुख रखकर खेल के नियमों का भली-भाँति पालन करते हुए खेलने की कोशिश करता है। वह पूरी लगन से खेलता हुआ अपनी टीम को विजय-प्राप्ति के लिए पूर्ण सहयोग प्रदान करता है। वह हार-जीत को एक-समान समझने के योग्य हो जाता है और उसमें सहनशीलता व धैर्यता का गुण विकसित होता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक पीढ़ी आगामी पीढ़ियों के लिए खेल संबंधी कुछ नियम व परंपराएँ छोड़ जाती है, जो विद्यार्थियों को शारीरिक शिक्षा के माध्यम से परिचित करवाई जाती हैं। इस प्रकार शारीरिक शिक्षा व खेलें व्यक्ति के सामाजीकरण में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

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HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल

Haryana State Board HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल

HBSE 12th Class Physical Education एथलेटिक देखभाल Textbook Questions and Answers

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न [Long Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
एथलेटिक देखभाल से क्या अभिप्राय है? इसके मुख्य क्षेत्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एथलेटिक देखभाल का अर्थ (Meaning ofAthletic Care):
मानव जीवन अनेक मुश्किलों से भरा हुआ है और शारीरिक गतिविधियों में भाग लेना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आसान नहीं है। शारीरिक गतिविधियों में अनेक चोटें या दुर्घटनाएँ होने की संभावना निरंतर बनी रहती है। यदि उचित देखभाल, सुरक्षा व सावधानी अपनाई जाए तो इनसे बचा जा सकता है। सावधानी हमेशा दवाइयों या औषधियों से बेहतर होती है। इसलिए सावधानी के तरीके खेलों में प्रयोग किए जाते हैं।

एथलेटिक देखभाल हमें यह जानकारी देती है कि कैसे खेल समस्याओं या चोटों को कम किया जाए, कैसे खेल के स्तर को सुधारा जाए। यदि खिलाड़ी की देखभाल पर ध्यान न दिया जाए तो खिलाड़ी का खेल-जीवन या कैरियर समाप्त हो सकता है। इसलिए हर खिलाड़ी के लिए एथलेटिक देखभाल एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।

एथलेटिक देखभाल के क्षेत्र (Scope of Athletic Care):
एथलेटिक देखभाल के क्षेत्र निम्नलिखित हैं-
1. खेल चोटें (Sports Injuries):
प्रतिदिन प्रत्येक आयु के खिलाड़ी शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक तैयारी करते हैं, ताकि वे अपने खेल में अच्छी कुशलता दिखा सकें। खेलों में प्रायः चोटें लगती रहती हैं। कुछ चोटें सामान्य होती हैं तथा कुछ चोटें घातक होती हैं। साधारणतया चोटें उन खिलाड़ियों को लगती हैं जो परिपक्व नहीं होते। उनमें खेलों में आने वाले उतार-चढ़ाव की परिपक्वता नहीं होती और कई बार मैदान का स्तर भी उच्च-कोटि का नहीं होता जिसके कारण मोच, खिंचाव और फ्रैक्चर जैसी चोटें लग जाती हैं। इन चोटों से बचने के लिए एथलेटिक देखभाल जरूरी है। खिलाड़ी हर समय शारीरिक रूप से स्वस्थ रहे, इसके लिए हमेशा फिजियोथेरेपिस्ट उनके साथ रहते हैं। वे खिलाड़ियों को चोट लगने पर उपयुक्त सलाह तथा दवाई देते हैं ताकि खिलाड़ी स्वस्थ रहें।

2. पोषण (Nutrition):
उचित एवं पौष्टिक आहार से हमारा शरीर स्वस्थ रहता है। इससे न केवल खेलकूद के क्षेत्र में, बल्कि दैनिक जीवन में भी हमारी कार्यकुशलता एवं कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। उचित व पौष्टिक आहार से हमारा तात्पर्य उन पोषक तत्त्वों; जैसे वसा, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, खनिज-लवणों, विटामिनों एवं वसा आदि से है जो आहार में उचित मात्रा में उपस्थित होते हैं तथा शरीर का संतुलित विकास करते हैं। आजकल मोटापा एक गंभीर समस्या की भाँति फैल रहा है, जिसको उचित एवं पौष्टिक आहार लेने से तथा उचित व्यायाम करने से नियंत्रित किया जा सकता है। अगर खिलाड़ी को उपयुक्त और पौष्टिक आहार दिया जाए तो खेलों में उसके प्रदर्शन में अच्छा सुधार होगा।

3. प्रशिक्षण विधियाँ (Training Methods):
खिलाड़ियों की देखभाल में जिस प्रकार खेल चोटों से बचना और संतुलित व पौष्टिक आहार लेने का महत्त्व है उतना ही महत्त्व प्रशिक्षण विधियों का है। प्रशिक्षण की विभिन्न विधियाँ; जैसे निरंतर प्रशिक्षण विधि, अंतराल प्रशिक्षण विधि, वजन प्रशिक्षण विधि, सर्किट प्रशिक्षण विधि तथा फार्टलेक प्रशिक्षण विधि बहुत उपयोगी हैं, अगर इनको सही तरीके तथा उपयुक्त समय पर किया जाए तो इनसे खिलाड़ी शारीरिक रूप से तंदुरुस्त रहता है। अतः विभिन्न प्रशिक्षण विधियाँ एथलेटिक देखभाल में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल

प्रश्न 2.
प्राथमिक सहायता या चिकित्सा की आवश्यकता तथा महत्ता पर प्रकाश डालिए।
अथवा
प्राथमिक चिकित्सा क्या है? इसकी आवश्यकता व उपयोगिता का वर्णन करें।
अथवा
प्राथमिक सहायता क्या होती है? इसकी हमें क्यों आवश्यकता पड़ती है?
उत्तर:
प्राथमिक सहायता का अर्थ (Meaning of First Aid):
वह सहायता जो किसी रोगी या जख्मी व्यक्ति को घटना स्थल पर डॉक्टर के आने से पहले नियमानुसार दी जाए, उसे प्राथमिक सहायता कहते हैं। किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को वही प्राथमिक सहायता दे सकता है जिसे प्राथमिक सहायता का पूरा ज्ञान हो। परन्तु कई बार ऐसी परिस्थितियाँ भी आ जाती है कि किसी अनजान व्यक्ति को भी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की प्राथमिक सहायता करनी पड़ सकती है। प्राथमिक सहायता प्रदान करने वाला व्यक्ति जख्मी व्यक्ति को तुरंत नजदीक के किसी डॉक्टर या अस्पताल में पहुचाएँ, ताकि जख्मी का तुरंत इलाज करवाया जा सकें।

प्राथमिक सहायता की आवश्यकता (Need of FirstAid):
आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अचानक दुर्घटनाएं होती रहती हैं। साधारणतया घरों, स्कूलों, कॉलेजों, दफ्तरों तथा खेल के मैदानों में दुर्घटनाएँ देखने में आती हैं। मोटरसाइकिलों, बसों, कारों, ट्रकों आदि में टक्कर होने से व्यक्ति घायल हो जाते हैं। मशीनों की बढ़ रही भरमार और जनसंख्या में हो रही निरंतर वृद्धि ने भी दुर्घटनाओं को ओर अधिक बढ़ा दिया है। प्रत्येक समय प्रत्येक स्थान पर डॉक्टरी सहायता मिलना कठिन होता है।

इसलिए ऐसे संकट का मुकाबला करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्राथमिक सहायता का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। यदि घायल अथवा रोगी व्यक्ति को तुरन्त प्राथमिक सहायता मिल जाए तो उसका जीवन बचाया जा सकता है। कुछ चोटें तो इस प्रकार की हैं, जो खेल के मैदान में लगती रहती हैं, जिनको मौके पर प्राथमिक सहायता देना बहुत आवश्यक है। यह तभी सम्भव है, यदि हमें प्राथमिक सहायता सम्बन्धी उचित जानकारी हो। इस प्रकार रोगी की स्थिति बिगड़ने से बचाने और उसके जीवन की रक्षा के लिए प्राथमिक सहायता की बहुत आवश्यकता होती है। इसलिए प्राथमिक सहायता की आज के समय में बहुत आवश्यकता हो गई है। प्रत्येक नागरिक को इसका ज्ञान होना चाहिए।

प्राथमिक सहायता की महत्ता (Importance of First Aid):
प्राथमिक सहायता रोगी के लिए वरदान की भाँति होती है और प्राथमिक सहायक भगवान की ओर से भेजा गया दूत माना जाता है। आज के समय में कोई किसी के दुःख-दर्द की परवाह नहीं करता। एक प्राथमिक सहायक ही है जो दूसरों के दर्द को समझने और उनके दुःख में शामिल होने की भावना रखता है। आज प्राथमिक सहायता की महत्ता बहुत बढ़ गई है; जैसे
(1) प्राथमिक सहायता द्वारा किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की बहुमूल्य जान बच जाती है।
(2) प्राथमिक सहायता देने वाले व्यक्ति में दूसरों के प्रति स्नेह और दया की भावना और तीव्र हो जाती है।
(3) प्राथमिक सहायता प्राथमिक सहायक को समाज में सम्मान दिलाती है।
(4) प्राथमिक सहायता लोगों को दूसरों के काम आने की आदत सिखाती है जिससे मानसिक संतुष्टि मिलती है।
(5) प्राथमिक सहायता देने वाला व्यक्ति डॉक्टर के कार्य को सरल कर देता है।
(6) प्राथमिक सहायता द्वारा लोगों के आपसी रिश्तों में सहयोग की भावना बढ़ती है।

प्रश्न 3.
प्राथमिक सहायता के नियमों या सिद्धांतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राथमिक सहायता आज की तेज़ रफ्तार जिंदगी में बहुत महत्त्व रखती है। इसकी जानकारी बहुत आवश्यक है। प्राथमिक सहायता के नियम निम्नलिखित हैं
(1) रोगी अथवा घायल को विश्राम की स्थिति में रखना।
(2) घाव से बह रहे रक्त को बंद करना।
(3) घायल की सबसे जरूरी चोट की ओर अधिक ध्यान देगा।
(4) दुर्घटना के समय जिस प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो तुरंत उपलब्ध करवाना।
(5) घायल की स्थिति को खराब होने से बचाना।
(6) घायल की अंत तक सहायता करना।
(7) घायल के नजदीक भीड़ एकत्रित न होने देना।
(8) घायल को हौसला देना। (9) घायल को सदमे से बचाकर रखना।
(10) प्राथमिक सहायता देते समय संकोच न करना।
(11) घायल को सहायता देते समय सहानुभूति और विनम्रता वाला व्यवहार करना।
(12) प्राथमिक सहायता देने के बाद शीघ्र ही किसी अच्छे डॉक्टर के पास पहुँचाने का प्रबंध करना।
(13) यदि घायल व्यक्ति की साँस नहीं चल रही हो तो उसे कृत्रिम श्वास (Artificial Respiration) देना चाहिए।
(14) रोगी को आराम से लेटे रहना देना चाहिए, जिससे उसकी तकलीफ़ ज़्यादा न बढ़ सके।
(15) यदि यह पता लगे कि रोगी ने जहर पी लिया है तो उसे उल्टी करवानी चाहिए।
(16) यदि घायल व्यक्ति को साँप या ज़हरीले कीट ने काट लिया हो तो काटे हुए स्थान को ऊपर की तरफ से कसकर बाँध देना चाहिए ताकि ज़हर सारे शरीर में न फैले।
(17) यदि घायल व्यक्ति पानी में डूब गया है तो उसे बाहर निकालकर सबसे पहले उसे पेट के बल लिटाकर पानी निकालना चाहिए तथा उसे कम्बल आदि में लपेटकर रखना चाहिए।

प्रश्न 4.
प्राथमिक सहायता का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा एक अच्छे प्राथमिक चिकित्सक या उपचारक (First Aider) के गुणों का वर्णन करें।
अथवा
प्राथमिक चिकित्सा देने वाले व्यक्ति में कौन-कौन-से गुण होने चाहिएँ?
उत्तर:
घायल या मरीज को तत्काल दी जाने वाली सहायता प्राथमिक सहायता कहलाती है। घायल व्यक्ति को गंभीर स्थिति में जाने से रोकने के लिए और उसका जीवन बचाने के लिए प्राथमिक सहायता देना बहुत आवश्यक है। यह तभी हो सकता है यदि प्राथमिक उपचारक बुद्धिमान और होशियार हो और प्राथमिक सहायता के नियमों से परिचित हो। प्राथमिक सहायता देने वाले व्यक्ति में निम्नलिखित गुण होने चाहिएँ
(1) प्राथमिक उपचारक चुस्त और बुद्धिमान होना चाहिए, ताकि घायल के साथ घटी हुई घटना के बारे में समझ सके।
(2) प्राथमिक उपचारक निपुण एवं सूझवान होना चाहिए, ताकि प्राप्त साधनों के साथ ही घायल को बचा सके।
(3) वह बड़ा फुर्तीला होना चाहिए, ताकि घायल व्यक्ति को शीघ्र संभाल सके।
(4) प्राथमिक उपचारक योजनाबद्ध व्यवहार कुशल होना चाहिए, जिससे वह घटना संबंधी जानकारी जल्द-से-जल्द प्राप्त करते हुए रोगी का विश्वास प्राप्त कर सके।
(5) उसमें सहानुभूति की भावना होनी चाहिए, ताकि वह घायल को आराम और हौसला दे सके।
(6) प्राथमिक उपचारक सहनशील, लगन और त्याग की भावना वाला होना चाहिए।
(7) प्राथमिक उपचारक अपने काम में स्पष्ट होना चाहिए, ताकि लोग उसकी सहायता के लिए स्वयं सहयोग करें।
(8) वह स्पष्ट निर्णय वाला होना चाहिए, ताकि वह निर्णय कर सके कि कौन-सी चोट का पहले इलाज करना है।
(9) प्राथमिक उपचारक दृढ़ इरादे वाला व्यक्ति होना चाहिए, ताकि वह असफलता में भी सफलता को ढूँढ सके।
(10) उसका व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए, ताकि घायल को ज़ख्मों से आराम मिल सके।
(11) प्राथमिक उपचारक दूसरों के प्रति विनम्रता वाला और मीठा बोलने वाला होना चाहिए।
(12) प्राथमिक उपचारक स्वस्थ और मजबूत दिल वाला होना चाहिए, ताकि मौजूदा स्थिति पर नियंत्रण पा सके।

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प्रश्न 5.
प्राथमिक सहायता क्या है? एक प्राथमिक सहायक के कर्त्तव्यों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राथमिक सहायता का अर्थ (Meaning of First Aid):
किसी रोग के होने या चोट लगने पर किसी प्रशिक्षित या अप्रशिक्षित व्यक्ति द्वारा जो तुरंत सीमित उपचार किया जाता है, उसे प्राथमिक चिकित्सा या सहायता (First Aid) कहते हैं। यह अप्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा कम-से-कम साधनों में किया गया सरल व तत्काल उपचार है। कभी-कभी यह जीवन रक्षक भी सिद्ध होता है। अत: प्राथमिक सहायता का तात्पर्य उस सहायता से है जो कि रोगी अथवा जख्मी को चोट लगने पर अथवा किसी अन्य दुर्घटना के तुरंत बाद डॉक्टर के आने से पूर्व दी जाती है।

प्राथमिक सहायक के कर्त्तव्य (Duties of First Aider):
्राथमिक सहायक के प्रमुख कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं
(1) प्राथमिक सहायक को आवश्यकतानुसार घायल का रोगनिदान करना चाहिए।
(2) उसको इस बात पर विचार करना चाहिए कि घायल को कितनी, कैसी और कहाँ तक सहायता दी जाए।
(3) प्राथमिक सहायक को रोगी या घायल को अस्पताल ले जाने के लिए उचित सहायता का उपयोग करना चाहिए।
(4) उसको घायल की पूरी देखभाल की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।
(5) प्राथमिक सहायक को घायल के शरीरगत चिह्नों; जैसे सूजन, कुरूपता आदि को अपनी ज्ञानेंद्रियों से पहचानना चाहिए और उचित सहायता देनी चाहिए।
(6) क्या हुआ, इसके बारे में समझने के लिए प्राथमिक सहायक को स्थिति का जल्दी व शांति से मूल्यांकन करना चाहिए। यदि आप स्थिति को सुरक्षित करने में असमर्थ हैं, तो आपातकालीन सहायता के लिए संपर्क करें।
(7) प्राथमिक सहायक को स्वास्थ्य संबंधी नियमों का पालन करना चाहिए, ताकि संक्रमण से बचा जा सके।
(8) प्राथमिक सहायक को सर्वप्रथम स्वयं को खतरे से सुरक्षित रखना चाहिए। कभी भी जोखिम में कार्य नहीं करना चाहिए।
(9) प्राथमिक सहायक को प्राथमिक सहायता देते समय विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। उसे मुश्किल-से-मुश्किल परिस्थितियों का सामना बड़ी हिम्मत के साथ करना चाहिए। यदि प्राथमिक सहायक ही हिम्मत हार जाए तो जख्मी या रोगी की हालत और भी बिगड़ सकती है। उसे जख्मी की हालत देखकर कभी भी घबराना नहीं चाहिए।
(10) प्राथमिक सहायक को कभी भी अपने आप को डॉक्टर नहीं समझना चाहिए अपितु उसे जख्मी या रोगी को डॉक्टर के आने या डॉक्टर तक पहुँचने से पहले अपेक्षित प्राथमिक सहायता प्रदान करनी चाहिए।

प्रश्न 6.
रगड़/खरोंच क्या है? इसके कारण, बचाव के उपाय तथा इलाज लिखें।
अथवा
खरोंच के कारण, लक्षण एवं उपचार के उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रगड़ (Abrasion):
रगड़ त्वचा की चोट है। प्रायः रगड़ एक मामूली चोट होती है लेकिन कभी-कभी यह गंभीर भी साबित हो जाती है। अगर रगड़ का चोटग्रस्त क्षेत्र विस्तृत हो जाए और उसमें बाहरी कीटाणु हमला कर दें तो यह भयानक हो जाती है।
कारण (Causes):
रगड़ आने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
(1) कठोर धरातल पर गिर पड़ना।
(2) कपड़ों में रगड़ पैदा करने वाले तंतुओं के कारण।
(3) जूतों का पैरों में सही प्रकार से फिट न आना।।
(4) हैलमेट और कंधों के पैडों का असुविधाजनक होना।

लक्षण (Symptoms):
रगड़ के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) त्वचा पर रगड़ दिखाई देती है और वहाँ पर जलन महसूस होती है।
(2) रगड़ वाले स्थान से खून बहने लगता है।
(3) सत्काल दर्द शुरू हो जाता है जो पल-भर के लिए होता है।

बचाव के उपाय (Measures of Prevention):
रगड़ से बचाव के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) सुरक्षात्मक कपड़े पहनने चाहिएँ, इनमें पूरी बाजू वाले कपड़े, बड़ी-बड़ी जुराबें, घुटनों व कुहनी के पैड शामिल हैं।
(2) खेल उपकरण अच्छी गुणवत्ता वाले होने चाहिएँ और प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को गर्मा लेना चाहिए।
(3) फिट जूते पहनने चाहिएँ।
(4) ऊबड़-खाबड़ खेल के मैदान से बचना चाहिए।

इलाज (Treatment):
रगड़ के इलाज या उपचार के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाने चाहिएँ
(1) चोटग्रस्त स्थान को ऊँचा रखना चाहिए।
(2) चोटग्रस्त स्थान को जितनी जल्दी हो सके गर्म पानी व नीम के साबुन से धोना चाहिए।
(3) यदि रगड़ अधिक हो तो उस स्थान पर पट्टी करवानी चाहिए। पट्टी खींचकर नहीं बाँधनी चाहिए।
(4) चोटग्रस्त स्थान को प्रत्येक दिन गर्म पानी से साफ करना चाहिए।
(5) चोट के तुरंत बाद एंटी-टैटनस का टीका अवश्य लगवाना चाहिए।
(6) दिन के समय चोट पर पट्टी बाँधनी चाहिए और रात को चोट खुली रखनी चाहिए।
(7) चोट लगने के बाद, तुरंत नहीं खेलना चाहिए। अगर खिलाड़ी खेलता है तो उसे दोबारा उसी जगह पर चोट लग सकती है जो खतरनाक सिद्ध हो सकती है।

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प्रश्न 7.
मोच (Sprain) क्या है? इसके कारण एवं उपचार के उपायों का वर्णन करें।
अथवा
मोच कितने प्रकार की होती है? इसके लक्षण व इलाज के बारे में बताएँ।
अथवा
मोच किसे कहते हैं? इसके लिए प्राथमिक सहायता क्या हो सकती है?
अथवा
मोच के कारणों, लक्षणों व बचाव एवं उपचार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मोच (Sprain):
किसी जोड़ के अस्थि-बंधक तन्तु (Ligaments) के फट जाने को मोच आना कहते हैं अर्थात् जोड़ के आसपास के जोड़-बंधनों तथा तन्तु वर्ग (Tissues) फट जाने या खिंच जाने को मोच कहते हैं। सामान्यतया घुटनों तथा गुटों में ज्यादा मोच आती है। इसकी प्राथमिक चिकित्सा जल्दी शुरू कर देनी चाहिए।

प्रकार (Types):
मोच तीन प्रकार की होती है जो निम्नलिखित है-
1. नर्म मोच (Mold or Minor Sprain): इसमें जोड़-बंधनों (Ligaments) पर खिंचाव आता है। जोड़ में हिल-जुल करने पर दर्द अनुभव होता है। इस हालत में कमजोरी तथा दर्द महसूस होता है।
2. मध्यम मोच (Medicate or Moderate Sprain): इसमें जोड़-बंधन काफी मात्रा में टूट जाते हैं । इस हालत में सूजन तथा दर्द बढ़ जाता है।
3. पूर्ण मोच (Complete or Several Sprain): इसमें जोड़ की हिल-जुल शक्ति समाप्त हो जाती है। जोड़-बंधन पूरी तरह टूट जाते हैं। इस हालत में दर्द असहनीय हो जाता है।

कारण (Causes):
मोच आने के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
(1) खेलते समय सड़क पर पड़े पत्थरों पर पैर आने से मोच आ जाती है।
(2) किसी गीली अथवा चिकनी जगह पर; जैसे ओस वाली घास, खड़े पानी में पैर रखने से मोच आ जाती है।
(3) खेल के मैदान में यदि किसी गड्ढे में पैर आ जाए तो यह मोच का कारण बन जाता है।
(4) अनजान खिलाड़ी यदि गलत तरीके से खेले तो भी मोच आ जाती है।
(5) अखाड़ों की गुड़ाई ठीक तरह न होने के कारण भी मोच आ जाती है।
(6) असावधानी से खेलने पर भी मोच आ जाती है।

लक्षण (Symptoms): मोच के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) सूजन वाले स्थान पर दर्द शुरू हो जाता है।
(2) थोड़ी देर बाद जोड़ के मोच वाले स्थान पर सूजन आने लगती है।
(3) सुजन वाले भाग में कार्य की क्षमता कम हो जाती है।
(4) सख्त मोच की हालत में जोड़ के ऊपर की चमड़ी का रंग नीला हो जाता है।

बचाव (Prevention): खेलों में मोच से बचाव के उपाय निम्नलिखित हैं-
(1) पूर्ण रूप से शरीर के सभी जोड़ों को गर्मा लेना चाहिए।
(2) खेल उपकरण अच्छी गुणवत्ता के होने चाहिएँ।
(3) मैदान समतल व साफ होना चाहिए।
(4) सुरक्षात्मक कपड़े, जूते व उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

उपचार/इलाज (Treatment): मोच के उपचार हेतु निम्नलिखित प्राथमिक सहायता की जा सकती है
(1) मोच वाली जगह को हिलाना नहीं चाहिए। आरामदायक स्थिति में रखना चाहिए।
(2) मोच वाले स्थान पर पानी की पट्टी रखनी चाहिए तथा मालिश करनी चाहिए।
(3) यदि मोच टखने पर हो तो आठ के आकार की पट्टी बाँध देनी चाहिए। प्रत्येक मोच वाले स्थान पर पट्टी बाँध देनी चाहिए।
(4) मोच वाले स्थान पर भार नहीं डालना चाहिए बल्कि मदद के लिए कोई सहारा लेना चाहिए।
(5) हड्डी टूटने के शक को दूर करने के लिए एक्सरा करवा लेना चाहिए।
(6) मोच वाले स्थान का हमेशा ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि उसी स्थान पर बार-बार मोच आने का डर रहता है।

प्रश्न 8.
माँसपेशियों या पट्ठों का तनाव क्या होता है? यह किस कारण होता है?
अथवा
खिंचाव से क्या अभिप्राय है? इसके कारणों, लक्षणों व बचाव एवं उपचार का वर्णन कीजिए।
अथवा
माँसपेशियों के तनाव से आपका क्या अभिप्राय है? इसके चिह्न तथा इलाज के बारे में लिखें।
उत्तर:
माँसपेशियों का तनाव/खिंचाव (Pull in Muscles/Strain):
खिंचाव माँसपेशी की चोट है। खेलते समय कई बार खिलाड़ियों की मांसपेशियों में खिंचाव आ जाता है जिसके कारण खिलाड़ी अपना खेल जारी नहीं रख सकता। कई बार तो माँसपेशियाँ फट भी जाती हैं, जिसके कारण काफी दर्द महसूस होता है। प्रायः खिंचाव वाले हिस्से में सूजन आ जाती है। खिंचाव का मुख्य कारण खिलाड़ी का खेल के मैदान में अच्छी तरह गर्म न होना है। इसे पट्ठों का खिंच जाना भी कहते हैं।

कारण (Causes):
खिंचाव आने के निम्नलिखित कारण हैं
(1) शरीरं के सभी अंगों का आपसी तालमेल ठीक न होना।
(2) अधिक शारीरिक थकान।
(3) पट्ठों को तेज़ हरकत में लाना।
(4) शरीर में से पसीने द्वारा पानी का बाहर निकलना।
(5) खिलाड़ी द्वारा शरीर को बिना गर्म किए खेल में हिस्सा लेना।
(6) खेल का समान ठीक न होना।
(7) खेल का मैदान अधिक सख्त या नरम होना।
(8) माँसपेशियों तथा रक्त केशिकाओं का टूट जाना।

चिह्न/लक्षण (Symptoms):
माँसपेशियों या पट्ठों में खिंचाव आने के लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) खिंचाव वाले स्थान पर बहुत तेज दर्द होता है।
(2) खिंचाव वाले स्थान पर माँसपेशियाँ फूल जाती हैं, जिसके कारण दर्द अधिक होता है।
(3) शरीर के खिंचाव वाले अंग को हिलाने से भी दर्द होता है।
(4) चोट वाला स्थान नरम हो जाता है।
(5) खिंचाव वाले स्थान पर गड्डा-सा दिखता है।

बचाव (Prevention):
खेल में खिंचाव से बचने के लिए निम्नलिखित उपायों का प्रयोग करना चाहिए
(1) गीले व चिकने ग्राऊंड, ओस वाली घास पर कभी नहीं खेलना चाहिए।
(2) ऊँची तथा लंबी छलाँग हेतु बने अखाड़ों की जमीन सख्त नहीं होनी चाहिए।
(3) खेलने से पहले कुछ हल्का व्यायाम करके शरीर को अच्छी तरह गर्म करना चाहिए। इससे खेलने के लिए शरीर तैयार हो जाता है।
(4) चोटों से बचने के लिए प्रत्येक खिलाड़ी को आवश्यक शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।
(5) खिलाड़ी को सुरक्षात्मक कपड़े, जूते व उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

उपचार/इलाज (Treatment):
खिंचाव के उपचार के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) खिंचाव वाली जगह पर पट्टी बाँधनी चाहिए।
(2) खिंचाव वाले स्थान पर ठंडे पानी अथवा बर्फ की मालिश करनी चाहिए।
(3) ‘माँसपेशियों में खिंचाव आ जाने के कारण खिलाड़ी को आराम करना चाहिए।
(4) खिंचाव वाले स्थान पर 24 घंटे बाद सेक देनी चाहिए।
(5) चोटग्रस्त क्षेत्र को आराम देने तथा सूजन कम करने के लिए मालिश करनी चाहिए।

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प्रश्न 9.
जोड़ उतरना क्या है? इसके कारण, लक्षण तथा इलाज बताएँ।
अथवा
जोड़ उतरने के कारण, चिह्न तथा उपचार के उपायों का वर्णन करें।
अथवा
जोड़ों के विस्थापन (Dislocation) से आप क्या समझते हैं? इनके प्रकारों, कारणों, लक्षणों तथा बचाव व उपचार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जोड़ उतरना या जोड़ों का विस्थापन (Dislocation):
एक या अधिक हड्डियों के जोड़ पर से हट जाने को जोड़ उतरना कहते हैं। कुछ ऐसी खेलें होती हैं जिनमें जोड़ों की मज़बूती अधिक होनी चाहिए; जैसे जिम्नास्टिक, फुटबॉल, हॉकी, कबड्डी आदि। इन खेलों में हड्डी का उतरना स्वाभाविक है। प्रायः कंधे, कूल्हे तथा कलाई आदि की हड्डी उतरती है।

प्रकार (Types):
जोड़ों का विस्थापन मुख्यतः तीन प्रकार का होता है
(1) कूल्हे का विस्थापन।
(2) कन्धे का विस्थापन।
(3) निचले जबड़े का विस्थापन।

कारण (Causes):
जोड़ उतरने के निम्नलिखित कारण हैं
(1) खेल मैदान का ऊँचा-नीचा होना अथवा अधिक सख्त या नरम होना।
(2) खेल सामान का शारीरिक शक्ति से भारी होना।
(3) खेल से पहले शरीर को हल्के व्यायामों द्वारा गर्म न करना।
(4) खिलाड़ी का अचानक गिरने से हड्डी का हिल जाना।

लक्षण या चिह्न (Symptoms):
जोड़ उतरने के निम्नलिखित लक्षण हैं
(1) जोड़ों में तेज़ दर्द होती है तथा सूजन आ जाती है।
(2) जोड़ों का रूप बदल जाता है।
(3) जोड़ में खिंचाव-सा महसूस होता है।
(4) जोड़ में गति बन्द हो जाती है। थोड़ी-सी गति से दर्द होता है।
(5) उतरे हुए स्थान से हड्डी बाहर की ओर उभरी हुई नज़र आता है।

बचाव (Prevention):
इससे बचाव के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) असमतल मैदान या जगह पर संभलकर चलना चाहिए।
(2) गीली या फिसलने वाली जगह पर कभी नहीं खेलना चाहिए।
(3) खेलने से पूर्व शरीर को गर्मा लेना चाहिए।
(4) प्रतियोगिता के दौरान सतर्क व सावधान रहना चाहिए।

उपचार/इलाज (Treatment):
जोड़ उतरने का इलाज निम्नलिखित है
(1) घायल को आरामदायक स्थिति में रखना चाहिए।
(2) घायल अंग को गद्दियों या तकियों से सहारा देकर स्थिर रखें। हड्डी पर प्लास्टिक वाली पट्टी बाँधनी चाहिए।
(3) उतरे जोड़ को चढ़ाने का प्रयास कुशल प्राथमिक सहायक को सावधानी से करना चाहिए।
(4) जोड़ पर बर्फ या ठण्डे पानी की पट्टी बाँधनी चाहिए।
(5) घायल को प्राथमिक सहायता के बाद तुरंत अस्पताल या डॉक्टर के पास ले जाएँ।
(6) चोट वाले स्थान पर भार नहीं पड़ना चाहिए।
(7) चोट वाले स्थान पर शलिंग (Sling) डाल देनी चाहिए, ताकि हड्डी न हिले।

प्रश्न 10.
फ्रैक्चर (Fracture) की कितनी किस्में होती हैं? सबसे खतरनाक कौन-सा फ्रैक्चर है?
अथवा
फ्रैक्चर क्या है? फ्रैक्चर या टूट कितने प्रकार की होती है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
फ्रैक्चर का अर्थ (Meaning of Fracture):
किसी हड्डी का टूटना, फिसलना अथवा दरार पड़ जाना टूट (Fracture) कहलाता है। हड्डी पर जब दुःखदायी स्थिति में दबाव पड़ता है तो हड्डी से सम्बन्धित माँसपेशियाँ उस दबाव को सहन नहीं कर सकतीं, जिस कारण हड्डी फिसल अथवा टूट जाती है। अतः फ्रैक्चर का अर्थ है-हड्डी का टूटना या दरार पड़ जाना।

हड्डी टूटने या प्रैक्चर के प्रकार (Types of Fracture):
हड्डी टूटने या फ्रैक्चर के प्रकार निम्नलिखित हैं
1. साधारण या बंद फ्रैक्चर (Simple or Closed Fracture): जब हड्डी टूट जाए, परन्तु घाव न दिखाई दे, तो वह बंद टूट होता है।

2. जटिल फ्रैक्चर (Complicated Fracture):
इस फ्रैक्चर से कई बार हड्डी की टूट के साथ जोड़ भी हिल जाते हैं। कई बार हड्डी टूटकर शरीर के किसी नाजुक अंग को नुकसान पहुँचा देती है; जैसे रीढ़ की हड्डी की टूट मेरुरज्जु को, सिर की हड्डी की टूट दिमाग को और पसलियों की हड्डियों की टूट दिल, फेफड़े और जिगर को नुकसान पहुँचाती है। ऐसी स्थिति में टूट काफी जटिल टूट बन जाती है।

3. विशेष या खुली टूट या फ्रैक्चर (Compound or Open Fracture): जब हड्डी त्वचा को काटकर बाहर दिखाई दे तो वह खुली टूट होती है। इस स्थिति में बाहर से मिट्टी के रोगाणुओं को शरीर के अंदर जाने का रास्ता मिल जाता है।

4. बहुसंघीय या बहुखंड टूट या फ्रैक्चर (Comminuted or Multiple Fracture): जब हड्डी कई भागों से टूट जाए तो इसे बहुसंघीय या बहुखंड टूट कहा जाता है।

5. चपटा या संशोधित टूट या फ्रैक्चर (Impacted Fracture): जब टूटी हड्डियों के सिरे एक-दूसरे में घुस जाते हैं तो वह चपटी टूट कहलाती है।

6. कच्चा फ्रैक्चर (Green-stick Fracture): यह छोटे बच्चों में होता है क्योंकि छोटी आयु के बच्चों की हड्डियाँ बहुत नाजुक होती हैं जो शीघ्र मुड़ जाती हैं। यही कच्चा फ्रैक्चर होता है।

7. दबी हुई टूट या फ्रैक्चर (Depressed Fracture): सामान्यतया यह टूट सिर की हड्डियों में होती है। जब खोपड़ी के ऊपरी भाग या आस-पास से हड्डी टूट जाने पर अंदर फंस जाती है तो ऐसी टूट दबी हुई टूट कहलाती है।

सबसे अधिक खतरनाक टूट या फ्रैक्चर जटिल फ्रैक्चर होता है क्योंकि इसमें हड्डी टूटकर किसी नाजुक अंग को नुकसान पहुँचाती है। इस फ्रैक्चर में घायल की स्थिति बहुत नाजुक हो जाती है उसे तुरंत डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए।

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प्रश्न 11.
हड्डी टूटने (Fracture) के कारण, लक्षण, बचाव तथा इलाज या उपचार के बारे में लिखें।
अथवा
अस्थि-भंग (Fracture) कितने प्रकार के होते हैं? इनके कारणों, लक्षणों तथा बचाव व उपचार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अस्थि-भंग (Fracture) मुख्यतः सात प्रकार के होते हैं। फ्रैक्चर के कारण (Causes of Fracture):
हड्डी टूटने या फ्रैक्चर के कारण निम्नलिखित हैं
(1) हड्डी पर कोई भारी सामान गिरना।
(2) खेल का मैदान ऊँचा-नीचा होना अथवा असमतल होना।
(3) खेल सामान का शारीरिक शक्ति से भारी होना।
(4) खिलाड़ी के अचानक गिरने से हड्डी का हिल जाना।
(5) माँसपेशियों में कम शक्ति के कारण अकसर हड्डियाँ टूटना।
(6) किसी भी दशा में गिरने से सम्बन्धित जोड़ के पास की मांसपेशियों का सन्तुलन ठीक न होना।

लक्षण (Symptoms):
हड्डी टूटने के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) टूटी हुई हड्डी वाले स्थान पर दर्द होता है। ।
(2) टूटी हुई हड्डी वाले स्थान पर सूजन आ जाती है।
(3) टूटी हुई हड्डी के स्थान वाले अंग कुरूप हो जाते हैं।
(4) टूट वाले स्थान में ताकत नहीं रहती।
(5) हाथ लगाकर हड्डी की टूट की जाँच की जा सकती है।

बचाव के उपाय (Measures of Prevention):
अस्थि-भंग (फ्रैक्चर) से बचाव के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) असमतल मैदान पर ठीक से चलना चाहिए।
(2) ‘फिसलने वाले स्थान पर सावधानी से चलना चाहिए।
(3) कभी भी अधिक भावुक होकर नहीं खेलना चाहिए।
(4) खेल-भावना तथा धैर्य के साथ खेलना चाहिए।

उपचार/इलाज (Treatment):
फ्रैक्चर के इलाज या उपचार के उपाय निम्नलिखित हैं-
(1) टूट वाले स्थान को हिलाना-जुलाना नहीं चाहिए।
(2) टूट के उपचार को करने से पहले रक्तस्राव एवं अन्य तीव्र घावों का उपचार करना चाहिए।
(3) टूटी हड्डी को पट्टियों व कमठियों के द्वारा स्थिर कर देना चाहिए।
(4) टूटी हड्डी पर पट्टियाँ पर्याप्त रूप से कसी होनी चाहिए। पट्टियाँ इतनी न कसी हो कि रक्त संचार में बाधा पैदा हो जाए।
(5) कमठियाँ इतनी लम्बी होनी चाहिएँ कि वे टूटी हड्डी का एक ऊपरी तथा एक निचला जोड़ स्थिर कर दें।
(6) घायल की पट्टियों को इस प्रकार से सही स्थिति में लाए कि उसको कोई तकलीफ न हो।
(7) घायल व्यक्ति को कम्बल या किसी कपड़े के द्वारा गर्म करना चाहिए, ताकि उसे कोई सदमा न पहुँचे।
(8) प्राथमिक सहायता या उपचार देने के बाद घायल व्यक्ति को अस्पताल पहुँचा देना चाहिए, ताकि उसका उचित उपचार किया जा सके।

प्रश्न 12.
भीतरी घाव या कंट्यूशन से क्या अभिप्राय है? इसके लक्षण तथा बचाव व उपचार के उपाय लिखें।
उत्तर:
भीतरी घाव या कंट्यूशन (Contusion):
भीतरी घाव को अंदरुनी चोट भी कहते हैं। यह माँसपेशी की चोट होती है। एक प्रत्यक्ष मुक्का या कोई खेल उपकरण शरीर को लग जाए तो कंट्यूशन का कारण बन सकता है। मुक्केबाजी, कबड्डी और कुश्ती आदि में कंट्यूशन होना स्वाभाविक है। कंट्यूशन में माँसपेशियों में रक्त कोशिकाएँ टूट जाती हैं और कभी-कभी माँसपेशियों से रक्त भी बहने लगता है। भीतरी घाव या कंट्यूशन की जगह पर अकड़न और सूजन आ जाना स्वाभाविक है। कई बार माँसपेशियाँ भी काम करना बंद कर देती हैं। कभी-कभी गंभीर दशा में माँसपेशियाँ पूर्णतया निष्क्रिय हो जाती हैं। कंट्यूशन से शरीर के अनेक अंगों; जैसे रक्त कोशिकाओं, माँसपेशियों, नाड़ियों तथा ऊतकों आदि को नुकसान पहुँचता है।

लक्षण (Symptoms):
भीतरी घाव के लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) अंगों में सूजन आ जाना।
(2) अंगों में पीड़ा होना।
(3) शरीर को दबाने पर अकड़न का अनुभव होना।
(4) चमड़ी का रंग बदलना।
(5) शरीर के अंगों का शिथिल पड़ जाना।

बचाव व उपचार (Prevention and Treatment):
भीतरी घाव के बचाव व उपचार के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) पी०आर०आई०सी०ई० (P.R.I.C.E.) प्रयोग के प्राथमिक सहायता निर्देशों का पालन करना चाहिए।
(2) चोटग्रस्त अंग पर पट्टी लपेट देनी चाहिए।
(3) प्रतिदिन 3-4 बार चोटग्रस्त अंग पर लगभग 10 मिनट तक बर्फ की मालिश करनी चाहिए।
(4) अगर 48 घंटे के बाद यह ठीक होने लगे तो बर्फ की बजाए गर्म पट्टी से सेकना चाहिए।
(5) गर्म लैंप, गर्म जुराबें तथा पैड का प्रयोग करना चाहिए।
(6) हृदय की ओर थपथपाना चाहिए।
(7) सुरक्षात्मक उपकरणों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

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प्रश्न 13.
खेल के मैदान में किन-किन सावधानियों पर ध्यान देना चाहिए?
अथवा
खेल चोटों से बचने के लिए किन-किन बातों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए?
अथवा
हम खेल में आने वाली चोटों से कैसे बच सकते हैं? वर्णन करें।
उत्तर:
आजकल खेल के मैदान में जितना महत्त्वपूर्ण खेलना है, उतना ही महत्त्वपूर्ण है अपने-आपको चोटों से बचाना। खेल के मैदान में चोटों से बचाव हेतु निम्नलिखित सावधानियों/बातों पर ध्यान देना चाहिए
1. बचाव संबंधी सूचनाएँ (Instructions as Regards Protection):
खिलाड़ियों, प्रबंधकों तथा दर्शकों को बचाव के तरीकों के बारे में अच्छी तरह सूचनाएँ दी जानी चाहिएँ। ये सूचनाएँ लिखित रूप में भी भेजी जा सकती हैं और खेल शुरू होने से पहले मौखिक रूप से भी बतानी चाहिएँ। खिलाड़ियों को खेल खेलने के सही ढंग का पूरा-पूरा ज्ञान होना चाहिए। उनको यह भी अच्छी तरह बताना चाहिए कि कबड्डी में कैंची से, फुटबॉल में पाँव पर पाँव रख देने से और बॉक्सिंग में मुँह पर पड़ने वाले मुक्के से स्वयं को कैसे बचाना है। इसी तरह कुश्ती में खुद दाव लगाने तथा विरोधी दाव से बचने की पूरी-पूरी जानकारी होनी चाहिए। ऊँची और लंबी छलाँग लगाने में भी इस बात का पता होना चाहिए कि छलाँग लगाने के बाद धरती पर कैसे गिरना है।

2. खेल के मैदान की योजनाबंदी और प्रबंध (Planning and Management of Play Grounds):
खुली जगह में अलग-अलग खेलों के मैदान की योजनाबंदी करते समय भी खिलाड़ियों और दर्शकों के बचाव पर उचित ध्यान देना चाहिए। मैदान इस ढंग से बनाने चाहिएँ कि एक खेल का सामान दूसरे खेल के मैदान में न जाए। इसके लिए मैदानों के बीच तथा आस-पास काफी खुली जगह छोड़ी जानी चाहिए। मैदानों के लिए बाड़ या दीवार भी मैदान की सीमा रेखा से काफी दूर होनी चाहिएँ, ताकि तेज़ दौड़ने वाले खिलाड़ियों को बाड़ या दीवार से टकराकर चोट आदि न लग सके। खेल के मैदान में जाने के लिए एक रास्ता भी होना चाहिए, जिससे गुज़रते हुए व्यक्ति को चोट न लगे। मैदान को समय के अनुसार पानी देकर और फिर जरूरत के अनुसार रोलर फिराकर समतल रखा जाना चाहिए। मैदान में गड्डे और कंकर-पत्थर भी नहीं होने चाहिएँ । छलाँग वाले अखाड़ों को अच्छी तरह खोदना चाहिए। इस तरह मैदान की ठीक देखभाल करने से खिलाड़ियों को खतरनाक चोटों से बचाया जा सकता है।

3.सामान (Equipments):
खेल का सामान बढ़िया किस्म का ही खरीदना चाहिए। घटिया किस्म के सामान से खिलाड़ियों और दर्शकों को चोटें लगने का भय रहता है। बैट, पोल वॉल्ट के पोल, नेज़े, डिस्कस, हैमर, हर्डल, छलाँगों के स्टैंड और जिम्नास्टिक्स का सामान आदि सभी अच्छी किस्म के होने चाहिएँ। सामान को इस्तेमाल से पहले अच्छी तरह परखना चाहिए। नीकैप, थिनगार्ड, दस्ताने, बूट और जुराबें, लैग-गार्ड आदि निजी सामान खिलाड़ी के शरीर की रक्षा करते हैं। जिम्नास्टिक्स और कुश्ती के लिए बढ़िया किस्म के गद्दों का प्रबंध भी खिलाड़ियों के लिए होना चाहिए।

4. दर्शकों के लिए उचित प्रबंध (Fair Arrangement of Spectators):
मैच के समय दर्शकों के बैठने या खड़े होने का उचित प्रबंध किया जाना चाहिए। खेल के मैदान से बाहर कुछ दूरी पर किसी-न-किसी प्रकार की बनावटी हदबंदी बना लेनी चाहिए, ताकि दर्शक खिलाड़ियों से काफी दूर-दूर ही रहें। मैदान की हदबंदी के निकट साइकिल या स्कूटर आदि को खड़े करने की आज्ञा नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इनसे खिलाड़ियों को चोट लगने का डर रहता है।

5. खेल की निगरानी (Inspection of Sports):
खेलों के कोच, अध्यापक, रैफरी और अम्पायर भी योग्यता प्राप्त और अनुभवशील होने चाहिएँ, क्योंकि मैच में कमज़ोर रैफरियों या अम्पायरों से खेल काबू में नहीं रहते। कई बार हॉकी या फुटबॉल के मैच में लड़ाई हो जाती है, जिनमें खिलाड़ियों को चोटें भी लग जाती हैं। इसलिए रैफरी को चाहिए कि खिलाड़ियों से नियमों की पालना करवाकर उनका बचाव करे।

6. खिलाड़ियों को प्रशिक्षण (Training of Sportsmen):
खिलाड़ियों को अधिकतर खेल को खेल की दृष्टि से खेलने’ का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए न कि बदले की भावना से खेलने का। कमज़ोर टीमों को हँसते हुए हार स्वीकार करने का प्रशिक्षण मिलना चाहिए। खिलाड़ियों को बचाव वाली ड्रैस के बारे में भी जानकारी दी जानी चाहिए।

7.खेलने से पहले गर्म होना (Warming up before Playing):
खेलने से पहले हल्की कसरत करने से शरीर गर्म होकर चुस्त हो जाता है। इससे शरीर की सोई हुई शक्ति जाग पड़ती है। इस तरह शरीर का चोटों से बचाव हो जाता है। गर्म हुए शरीर की माँसपेशियों के फटने या खिंच जाने का कोई डर नहीं रहता।

8. डॉक्टरी परीक्षा (Medical Examination):
बहुत सख्त, तेज़ी से थका देने वाली और खतरनाक खेलों में भाग लेने वाले सारे खिलाड़ियों और एथलीटों की डॉक्टरी परीक्षा खेल आरंभ होने से पहले आवश्यक रूप से की जानी चाहिए। जिन खिलाड़ियों और एथलीटों को दिल की बीमारियाँ, खून का अधिक दबाव और हर्निया आदि बीमारियाँ हों, उन्हें इन खेलों के मुकाबले में भाग लेने की आज्ञा नहीं दी जानी चाहिए।

प्रश्न 14.
टखने की मोच के चिह्न, बचाव के उपाय तथा उपचार के बारे में लिखें।
अथवा
टखने की मोच (Sprain of Ankles) के कारण, लक्षण तथा रोकथाम व इलाज के बारे में लिखें।
उत्तर:
टखने की मोच के कारण (Causes of Sprain of Ankles):
टखने में मोच आने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं
(1) पाँव का अचानक फिसल जाना।
(2) चलते अथवा दौड़ते हुए अचानक पाँव का किसी गड्ढे में आना।
(3) खेल से पहले शरीर को अच्छी प्रकार से गर्म न करना।
(4) ‘खेल का मैदान समतल न होना।
(5) टखनों के जोड़ों के तंतुओं का मजबूत न होना।
(6) फुटबॉल को किक मारते हुए पाँव के पंजे का जोर से जमीन अथवा विरोधी खिलाड़ी के जूते से टकराना।

चिह्न/लक्षण (Symptoms):
टखने की मोच के लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) मोच वाले स्थान पर दर्द होता है।
(2) मोच वाले स्थान पर सूजन आ जाती है।
(3) दर्द बढ़ जाता है तथा जोड़ों में काम करने की शक्ति कम हो जाती है।
(4) गंभीर मोच की स्थिति में ऊपरी चमड़ी का रंग नीला हो जाता है।

रोकथाम/बचाव के उपाय (Measures of Prevention):
इसकी रोकथाम या बचाव के उपाय निम्नलिखित हैं
(1) खेलने से पहले शरीर को अच्छी प्रकार गर्म कर लेना चाहिए।
(2) खेल का मैदान समतल होना चाहिए तथा खेल आरंभ करने से पहले मैदान से कंकड़, पत्थर आदि उठाकर बाहर फेंक देने चाहिएँ।
(3) खेल का सही प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात् ही खेलों में भाग लेना चाहिए।

उपचार/इलाज (Treatment):
टखने की मोच का इलाज निम्नलिखित अनुसार करना चाहिए
(1) पाँव के व्यायाम करने चाहिएँ।
(2) पहले 24 अथवा 48 घंटे तक गीले कपड़े की पट्टी रखनी चाहिए।
(3) मोच वाले स्थान पर आठ के आकार की पट्टी बाँधनी चाहिए।
(4) पैर के नीचे कोई वस्तु रखनी चाहिए ताकि बाहरी भाग ऊपर की ओर उठ सके।
(5) जिस व्यक्ति को मोच आई हो, उसके जूते उतार देने चाहिएँ।
(6) मोच को आरामदायक स्थिति में रखना चाहिए।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल

लघूत्तरात्मक प्रश्न [Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
एथलेटिक देखभाल से आप क्या समझते हैं?
अथवा
एथलेटिक केयर का अर्थ व संप्रत्यय बताइए। अथवा
एथलेटिक केयर का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एथलेटिक का अर्थ है-सभी प्रकार की खेलें तथा स्पोर्ट्स। एथलेटिक्स खेलों के प्रतिस्पर्धात्मक मुकाबलों में उन क्रियाओं (गतिविधियों) का प्रभुत्व रहता है जिनमें कुशल तथा योग्य खिलाड़ी भाग लेते हैं। एथलेटिक्स के विभिन्न क्षेत्र होते हैं, उदाहरणस्वरूप शिक्षण संस्थाएँ; जैसे स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय जहाँ पर युवा वर्ग एथलेटिक्स गतिविधियों में भाग लेते हैं। प्रत्येक खेल तथा स्पोर्ट्स की राष्ट्रीय फेडरेशन राष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स मुकाबले करवाती हैं और अंतर्राष्ट्रीय संघ या इकाई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स मुकाबले करवाती हैं। जब कोई युवा एथलेटिक्स खेलों (प्रतिस्पर्धात्मक मुकाबलों) में भाग लेता है तो उसे एक अंतर्राष्ट्रीय पदक जीतने के लिए कई वर्षों तक कड़े परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। जैसे-जैसे प्रशिक्षण के भार की मात्रा तथा तीव्रता बढ़ती जाती है तो वैसे ही एथलीट के घायल होने का भय अधिक बढ़ जाता है।

एथलेटिक देखभाल या केयर हमें यह जानकारी देती है कि कैसे खेल समस्याओं या चोटों को कम किया जाए, कैसे खेल के स्तर को सुधारा जाए। यदि खिलाड़ी की देखभाल पर ध्यान न दिया जाए तो खिलाड़ी का खेल-जीवन या कैरियर समाप्त हो जाता है। इसलिए हर खिलाड़ी के लिए एथलेटिक देखभाल बहुत महत्त्वपूर्ण पहलू है।

प्रश्न 2.
आजकल प्राथमिक सहायता की पहले से अधिक आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:
आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अचानक दुर्घटनाएं होती रहती हैं । साधारणतया घरों, स्कूलों, कॉलेजों, दफ्तरों तथा खेल के मैदानों में दुर्घटनाएँ देखने में आती हैं। मोटरसाइकिलों, बसों, कारों, ट्रकों आदि में टक्कर होने से व्यक्ति घायल हो जाते हैं। मशीनों की बढ़ रही भरमार और जनसंख्या में हो रही निरंतर वृद्धि ने भी दुर्घटनाओं को ओर अधिक बढ़ा दिया है। प्रत्येक समय प्रत्येक स्थान पर डॉक्टरी सहायता मिलना कठिन होता है। इसलिए ऐसे संकट का मुकाबला करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति.को प्राथमिक सहायता का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। यदि घायल अथवा रोगी व्यक्ति को तुरन्त प्राथमिक सहायता मिल जाए तो उसका जीवन बचाया जा सकता है। कुछ चोटें तो इस प्रकार की हैं, जो खेल के मैदान में बहुत लगती रहती हैं, जिनको मौके पर प्राथमिक सहायता देना बहुत आवश्यक है। यह तभी सम्भव है, यदि हमें प्राथमिक सहायता सम्बन्धी उचित जानकारी हो। इस प्रकार रोगी की स्थिति बिगड़ने से बचाने और उसके जीवन की रक्षा के लिए प्राथमिक सहायता की बहुत आवश्यकता होती है। इसलिए प्राथमिक सहायता की आज के समय में बहुत आवश्यकता हो गई है। प्रत्येक नागरिक को इसका ज्ञान होना चाहिए।

प्रश्न 3.
प्राथमिक सहायक को किन तीन मुख्य बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
उत्तर:
प्राथमिक सहायता देने की विधि रोगी की स्थिति के अनुसार देनी चाहिए, जिसके लिए तीन बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है
1. चोट की स्थिति-ध्यान रखा जाए कि चोट से शरीर का कौन-सा अंग और कौन-सी प्रणाली प्रभावित हुई है। उसके अनुसार उपचार विधि अपनाई जाए।
2. चोट का ज़ोर-जहाँ चोट का अधिक ज़ोर हो, पहले उसको संभालने का प्रयत्न किया जाए।
3. प्राथमिक सहायता की विधि-जिस प्रकार की चोट लगी हो, उपचार विधि उसी के अनुसार अपनाई जाए। मौके पर उपलब्ध साधनों के अनुसार प्राथमिक सहायता देने की विधि अपनाई जानी चाहिए।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 4 एथलेटिक देखभाल

प्रश्न 4.
प्राथमिक सहायक या चिकित्सक के कर्तव्यों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्राथमिक सहायक या चिकित्सक के प्रमुख कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं
(1) प्राथमिक सहायक या चिकित्सक को आवश्यकतानुसार घायल को रोगनिदान करना चाहिए।
(2) उसको इस बात पर विचार करना चाहिए कि घायल को कितनी, कैसी और कहाँ तक सहायता दी जाए।
(3) प्राथमिक चिकित्सक को रोगी या घायल को अस्पताल ले जाने के लिए योग्य सहायता का उपयोग करना चाहिए।
(4) उसको घायल की पूरी देखभाल की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।
(5) घायल के शरीरगत चिह्नों; जैसे सूजन, कुरूपता आदि को प्राथमिक चिकित्सक को अपनी ज्ञानेंद्रियों से पहचानकर उचित सहायता देनी चाहिए।

प्रश्न 5. खेलों में चोटों के प्राथमिक उपचार का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
अथवा
खेलों में चोट लगने पर क्या उपचार करना चाहिए?
उत्तर:
खेलों में चोट लगने पर निम्नलिखित उपचार करने चाहिएँ
(1) खेलों में चोट लगने पर सबसे पहले बर्फ की मालिश करनी चाहिए। बर्फ सूजन और रक्त के बहाव को रोकती है।
(2) दबाव का प्रयोग करके भी सूजन को घटाया जा सकता है। बर्फ की मालिश के बाद पट्टी को उस स्थान पर इस प्रकार बाँधना चाहिए कि जिससे रक्त का प्रवाह भी न रुके तथा न ही इतनी ढीली होनी चाहिए जिससे कि दोबारा सूजन हो जाए।
(3) खेलों में चोट लगने पर यह जरूरी है कि आराम किया जाए। जब भी शरीर के किसी हिस्से पर चोट लगती है तो चोट वाले स्थान पर दर्द, सूजन जैसे चिह्न बन जाते हैं। इससे छुटकारा पाने के लिए आराम करना जरूरी है।
(4) चोट लगने पर उस स्थान का उसी के अनुसार इलाज करना चाहिए। यदि शरीर के निचली तरफ चोट लगी है तो उसे दर्द और सूजन से बचाने के लिए आराम और सोते समय चोट लगने वाला हिस्सा ऊँचा रखना चाहिए। यदि चोट शरीर के ऊपरी हिस्से में लगी है तो दर्द और सूजन से बचने के लिए ऊपरी हिस्सा थोड़ा ऊँचा कर देना चाहिए। इससे चोट वाले स्थान को आराम मिलता है।

प्रश्न 6.
खेल में खिंचाव से कैसे बचा जा सकता है?
अथवा
खिंचाव से बचाव की विधियाँ बताइए।
उत्तर:
खिंचाव मांसपेशी की चोट है। खेलते समय कई बार खिलाड़ियों की माँसपेशियों में खिंचाव आ जाता है। कई बार तों माँसपेशियाँ फट भी जाती हैं, जिसके कारण काफी दर्द होता है। प्रायः खिंचाव वाले हिस्से में सूजन आ जाती है।
खेल में खिंचाव से बचने के लिए निम्नलिखित उपायों का प्रयोग करना चाहिए
(1) गीले व चिकने ग्राऊंड, ओस वाली घास पर कभी नहीं खेलना चाहिए।
(2) खेलने से पहले कुछ हल्का व्यायाम करके शरीर को अच्छी तरह गर्म करना चाहिए। इससे खेलने के लिए शरीर तैयार हो जाता है।
(3) चोटों से बचने के लिए प्रत्येक खिलाड़ी को आवश्यक शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।
(4) खिलाड़ी को सुरक्षात्मक कपड़े, जूते व उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 7.
रगड़ लगने पर क्या इलाज किया जाना चाहिए?
अथवा
रगड़ की प्राथमिक चिकित्सा का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रगड़ लगने पर इसके इलाज के लिए निम्नलिखित तरीके अपनाने चाहिएँ
(1) चोटग्रस्त स्थान को जितनी जल्दी हो सके गर्म पानी व नीम के साबुन से धोना चाहिए।
(2) यदि रगड़ अधिक हो तो उस स्थान पर पट्टी करवानी चाहिए। पट्टी खींचकर नहीं बाँधनी चाहिए।
(3) चोट के तुरंत बाद एंटी-टैटनस का टीका अवश्य लगवाना चाहिए।
(4) दिन के समय चोट पर पट्टी बाँधनी चाहिए और रात को चोट खुली रखनी चाहिए।
(5) चोट लगने के बाद, तुरंत नहीं खेलना चाहिए। अगर खिलाड़ी खेलता है तो दोबारा उसी जगह पर चोट लग सकती है जो खतरनाक सिद्ध हो सकती है।

प्रश्न 8.
मोच कितने प्रकार की होती है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मोच तीन प्रकार की होती है जो निम्नलिखित है-
1. नर्म मोच-इसमें जोड़-बंधनों (Ligaments) पर खिंचाव आता है। जोड़ में हिल-जुल करने पर दर्द अनुभव होता है। इस हालत में कमजोरी तथा दर्द महसूस होता है।
2. मध्यम मोच-इसमें जोड़-बंधन काफी मात्रा में टूट जाते हैं। इस हालत में सूजन तथा दर्द बढ़ जाता है।
3. पूर्ण मोच-इसमें जोड़ की हिल-जुल शक्ति समाप्त हो जाती है। जोड़-बंधन पूरी तरह टूट जाते हैं। इस हालत में दर्द असहनीय हो जाता है।

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प्रश्न 9.
मोच (Sprain) क्या है? इसके बचाव की विधियाँ बताएँ।
अथवा
खेल में मोच से कैसे बचा जा सकता है?
उत्तर:
मोच-मोच लिगामेंट्स की चोट होती है। सामान्यतया मोच कोहनी के जोड़ या टखने के जोड़ पर अधिक आती है। किसी जोड़ के संधिस्थल के फट जाने को मोच आना कहते हैं।
बचाव की विधियाँ-मोच से बचाव की विधियाँ निम्नलिखित हैं
(1) पूर्ण रूप से शरीर के सभी जोड़ों को गर्मा लेना चाहिए।
(2) खेल उपकरण अच्छी गुणवत्ता के होने चाहिएँ।
(3) मैदान समतल व साफ होना चाहिए।
(4) थकावट के समय खेल रोक देना चाहिए।
(5) सुरक्षात्मक कपड़े, जूते व उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 10.
खेल की चोटों को कम करने के आधारभूत चरण क्या हैं?
अथवा
क्या खेलों की चोटों में बचाव के पक्ष, उपचार से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर:
खेल की चोटों को कम करने के आधारभूत चरण निम्नलिखित हैं
(1) प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को गर्माना।
(2) सुरक्षात्मक उपकरण का प्रयोग खेल की आवश्यकता के अनुसार करना।
(3) तैयारी के समय उचित अनुकूलन बनाए रखना।
(4) प्रतियोगिता के दौरान सतर्क व सावधान रहना।
(5) सुरक्षात्मक कपड़ों व जूतों का प्रयोग करना।
इस प्रकार उपर्युक्त विवरण के आधार पर खेलों की चोटों में बचाव के पक्ष, उपचार से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि हमेशा सावधानी सभी औषधियों या दवाइयों से बेहतर होती है।

प्रश्न 11.
खेलों में लगने वाली चोटों से बचाव के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
खेलों में लगने वाली चोटों से बचाव के महत्त्व निम्नलिखित प्रकार से हैं
(1) खिलाड़ी बिना किसी तकलीफ के खेलों में अच्छा प्रदर्शन कर सकता है।
(2) खेलों का संचालन अच्छा होता है।
(3) खिलाड़ी का शरीर स्वस्थ व संतुलित रहता है।
(4) अधिक समय तक खिलाड़ी अपने खेल में अच्छा प्रदर्शन कर सकता है।
(5) खिलाड़ी अपनी पूर्ण शक्ति या ऊर्जा से खेल जारी रख सकता है।

प्रश्न 12.
टखने की मोच (Sprain of Ankles) के कारण लिखें।
उत्तर:
टखने में मोच आने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं
(1) पाँव का अचानक फिसल जाना।
(2) चलते अथवा दौड़ते हुए अचानक पाँव का किसी गड्ढे में आना।
(3) खेल से पहले शरीर को अच्छी प्रकार से गर्म न करना।
(4) खेल का मैदान समतल न होना।
(5) टखनों के जोड़ों के तंतुओं का मजबूत न होना।
(6) फुटबॉल को किक मारते हुए पाँव के पंजे का जोर से जमीन अथवा विरोधी खिलाड़ी के जूते से टकराना।

प्रश्न 13.
घावों के प्राथमिक उपचार पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर:
घावों के प्राथमिक उपचार हेतु निम्नलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं
(1) सबसे पहले रोगी को अनुकूल आसन में बैठाए।
(2) रक्त बहते हुए अंग को थोड़ा ऊपर उठाकर रखें।
(3) घाव में यदि कोई बाहरी चीज दिखाई पड़े जो आसानी से हटाई जाए तो साफ पट्टी से हटा दीजिए।
(4) घाव को जहाँ तक हो सके खुला रखे अर्थात् कपड़े आदि से न ढके।
(5) घाव पर मरहम पट्टी लगाएँ और घायल अंग को स्थिर रखें। ।
(6) घाव पर पट्टी इस प्रकार से बाँधनी चाहिए जिससे बहता रक्त रुक सके।
(7) घायल के घाव को आयोडीन टिंक्चर या स्प्रिट से भली भाँति धो देना चाहिए।
(8) घायल को प्राथमिक उपचार के बाद तुरंत डॉक्टर के पास ले जाए।

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प्रश्न 14.
जोड़ या हड्डी के उतर जाने (Dislocation) की प्राथमिक सहायता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जोड़ या हड्डी के उतर जाने की प्राथमिक सहायता निम्नलिखित प्रकार से करनी चाहिए
(1) घायल को आरामदायक या सुखद स्थिति में रखना चाहिए।
(2) घायल अंग को गद्दियों या तकियों से सहारा देकर स्थिर रखें।
(3) उतरे जोड़ को चढ़ाने का प्रयास कुशल प्राथमिक सहायक को सावधानी से करना चाहिए।
(4) यदि दर्द अधिक हो तो गर्म पानी की टकोर करनी चाहिए।
(5) जोड़ पर बर्फ या ठण्डे पानी की पट्टी बाँधनी चाहिए।
(6) घायल को प्राथमिक सहायता के बाद तुरंत अस्पताल या डॉक्टर के पास ले जाएँ।

प्रश्न 15.
जोड़ों के विस्थापन से क्या तात्पर्य है? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
हड्डी का अपने जोड़ वाले स्थान से हट जाना या खिसक जाना, जोड़ का विस्थापन कहलाता है। कुछ ऐसे खेल होते हैं जिनमें हड्डी का उतरना स्वाभाविक है। प्रायः कंधे, कूल्हे तथा कलाई आदि की हड्डी उतरती है। जोड़ों के विस्थापन निम्नलिखित प्रकार के होते हैं
1. निचले जबड़े का विस्थापन-सामान्यतया इस प्रकार का विस्थापन तब होता है, जब ठोडी किसी वस्तु से टकरा जाए। अधिक मुँह खोलने से भी निचले जबड़े का विस्थापन हो सकता है।
2. कन्धे के जोड़ का विस्थापन-कन्धे के जोड़ का विस्थापन अचानक झटके या कठोर सतह पर गिरने से हो सकता है। इस चोट में मांसल की हड्डी (Humerous) का सिरा सॉकेट से बाहर आ जाता है।
3. कूल्हे के जोड़ का विस्थापन-अनायास ही अधिक शक्ति लगाने से कूल्हे के जोड़ का विस्थापन हो सकता है। इस चोट में फीमर का ऊपरी सिरा सॉकेट से बाहर आ जाता है।

प्रश्न 16.
हड्डी टूटने या अस्थि-भंग (Fracture) के प्राथमिक उपचार या सहायता पर प्रकाश डालिए।
अथवा
टूटी हड्डी के उपचार हेतु किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए?
उत्तर:
टूटी हड्डी के प्राथमिक उपचार के लिए निम्नलिखित उपायों या नियमों को अपनाना चाहिए
(1) टूटी हड्डी का उसी स्थान पर प्राथमिक उपचार करना चाहिए।
(2) टूट के उपचार को करने से पहले रक्तस्राव एवं अन्य तीव्र घावों का उपचार करना चाहिए।
(3) टूटी हड्डी को पट्टियों व कमठियों के द्वारा स्थिर कर देना चाहिए।
(4) टूटी हड्डी पर पट्टियाँ पर्याप्त रूप से कसी होनी चाहिए। पट्टियाँ इतनी न कसी हो कि रक्त संचार में बाधा पैदा हो जाए।
(5) कमठियाँ इतनी लम्बी होनी चाहिएँ कि वे टूटी हड्डी का एक ऊपरी तथा एक निचला जोड़ स्थिर कर दें।
(6) घायल की पट्टियों को इस प्रकार से सही स्थिति में लाए कि उसको कोई तकलीफ न हो।
(7) घायल व्यक्ति को कंबल या किसी कपड़े के द्वारा गर्म करना चाहिए ताकि उसे कोई सदमा न पहुंचे।
(8) प्राथमिक सहायता या उपचार देने के बाद घायल व्यक्ति को अस्पताल पहुँचा देना चाहिए, ताकि उसका उचित उपचार किया जा सके।

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प्रश्न 17.
खेल चोटें क्या हैं? ये कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर:
खेल चोटें-प्रतिदिन प्रत्येक आयु के खिलाड़ी शारीरिक, मानसिक तथा भावात्मक तैयारी करते हैं, ताकि वे अपने खेल में अच्छी कुशलता दिखा सकें। खेलों में प्रायः चोटें लगती रहती हैं। साधारणतया चोटें उन खिलाड़ियों को लगती हैं जो परिपक्व नहीं होते। उनमें खेलों में आने वाले उतार-चढ़ाव की परिपक्वता नहीं होती और कई बार मैदान का स्तर भी उच्च-कोटि का नहीं होता जिसके कारण चोटें लग जाती हैं। ऐसी चोटों को खेल-चोटें कहा जाता है।

प्रकार-खेल चोटें मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं-
(1) मुलायम या कोमल ऊतकों की चोटें
(2) अस्थियों की चोटें
(3) जोड़ों की चोटें।

प्रश्न 18.
खेलों में चोट लगने के कोई चार कारण बताइए।
अथवा
खेल में चोटें कैसे लगती हैं?
उत्तर:
खेल के मैदान में खेलते समय चोट लगने के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं
(1) खेलों का घटिया सामान तथा घटिया निगरानी
(2) ऊँचे-नीचे या असमतल खेल के मैदान
(3) बचाव संबंधी उचित सामान की कमी
(4) खिलाड़ियों द्वारा लापरवाही तथा बदले की भावना से खेलना।

प्रश्न 19.
खिंचाव के प्रकार व प्रबन्ध का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
खिंचाव के प्रकार-
(1) सामान्य खिंचाव
(2) मध्यम खिंचाव
(3) गंभीर खिंचाव।

खिंचाव के प्रबन्ध-खिंचाव के प्रबन्ध इस प्रकार हैं-
(1) जिस जगह चोट लगी हो, उसे आरामदायक स्थिति में रखना चाहिए
(2) खिंचाव वाले स्थान पर ठण्डे पानी या बर्फ की मालिश करनी चाहिए। बर्फ का प्रयोग सीधे न करके किसी कपड़े में लपेटकर करना चाहिए
(3) पूर्ण रूप से आराम करना चाहिए
(4) चोट-ग्रस्त अंग को थोड़ा ऊपर रखना चाहिए
(5) अधिक दर्द होने की स्थिति में डॉक्टर की सलाहनुसार उचित दवा लेनी चाहिए।

प्रश्न 20.
चोटों के उपचार के लिए पी०आर०आई०सी०ई० (P.R.I.C.E.) प्रक्रिया का पालन क्यों करना चाहिए? स्पष्ट करें।
उत्तर:
1. सुरक्षा (Protection-P): इसका उद्देश्य घायल व्यक्ति को आगे लगने वाली चोट से सुरक्षा करना है तथा दूसरे एथलीटों और जोखिमों से दूर रखना है।
2. विश्राम (Rest-R): घायल अंग को स्थिरता प्राप्त कराने के यंत्र से स्थिर रखना चाहिए। व्यायाम में वापसी धीमी और क्रमिक होनी चाहिए, यदि घायल व्यक्ति प्रभावित क्षेत्र को बिना किसी दर्द के हिलाने की क्षमता रखता है।
3. बर्फ (Ice-I): खून के बहाव और तरल पदार्थ के नुकसान के कारण होने वाली सूजन और दर्द को चोट लगने के 72 घंटों के बाद बर्फ लगाकर कम किया जा सकता है।
4. संपीड़न (Compression-C): यह प्रारंभिक खून के बहाव को नियंत्रित करने में सहायता करता है और अवशिष्ट सूजन को कम करता है। संपीड़न साधारणतया लोचदार लपेटों के रूप में आता है।
5. ऊँचाई (Elevation-E): घायल अंग की ऊँचाई का दिल के स्तर से ऊपर होना ऊतक में खून के प्रारंभिक बहाव को कम करने में सहायता करता है, जब यह बर्फ और संपीड़न के साथ संयोजन में प्रयोग किया जाता है।

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अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न [Very Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
पराथमिक सहायता (First Aid) से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
प्राथमिक सहायता का तात्पर्य उस सहायता से है जो कि रोगी अथवा जख्मी को चोट लगने पर अथवा किसी अन्य दुर्घटना के तुरंत बाद डॉक्टर के आने से पूर्व दी जाती है। इसको प्राथमिक चिकित्सा भी कहा जाता है।

प्रश्न 2.
प्राथमिक सहायता के उपकरण (First Aid Equipments) कैसे होने चाहिएँ?
उत्तर:
प्राथमिक सहायता के बॉक्स में जो उपकरण या सामग्री हो वह काम के अनुकूल होनी चाहिए। उसका आधार स्वास्थ्य के नियमों तथा समय की आवश्यकतानुसार ही होना चाहिए। प्राथमिक सहायता के बॉक्स में सभी आवश्यक उपकरण होने चाहिएँ।

प्रश्न 3.
प्राथमिक सहायता बॉक्स में कौन-कौन-से उपकरण या चीजें होनी चाहिएँ?
उत्तर:
(1) मिली-जुली चिपकने वाली पट्टियाँ,
(2) पतला कागज,
(3) आवश्यक दवाइयाँ,
(4) रूई का बंडल,
(5) कैंची,
(6) सेफ्टी पिन,
(7) तैयार की हुई आकार के अनुसार कीटाणुरहित पट्टियाँ,
(8) कमठियों का एक सैट,
(9) चिपकने वाली पलस्तर,
(10) मरहम पट्टियाँ,
(11) डैटॉल आदि।

प्रश्न 4.
प्राथमिक सहायक के कोई दो गुण बताएँ।
उत्तर:
(1) प्राथमिक सहायक में उचित निर्णय लेने का साहस होना चाहिए।
(2) उसमें सेवा भावना और सहानुभूति की भावना होनी चाहिए।

प्रश्न 5.
प्राथमिक सहायक किसे कहा जाता है?
उत्तर:
यद्यपि प्रारंभ में प्राथमिक सहायक’ की भूमिका के बारे में कोई वर्णन नहीं मिलता, परन्तु सन् 1994 के बाद प्राथमिक सहायक’ शब्द का प्रयोग शुरू हुआ। जिस व्यक्ति ने किसी आधिकारिक संस्था से प्राथमिक सहायता की शिक्षा प्राप्त की हो, उसे प्राथमिक सहायक कहा जाता है।

प्रश्न 6.
प्राथमिक सहायता के क्या उद्देश्य हैं?
उत्तर:
(1) रोगी की जिंदगी बचाना,
(2) रोगी की हालत को बिगड़ने से रोकना,
(3) रोगी की हालत को सुधारना,
(4) रोगी को समीप के अस्पताल में पहुँचाना या डॉक्टर के पास लेकर जाना।

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प्रश्न 7.
खिंचाव से क्या अभिप्राय है?
अथवा
माँसपेशियों या पट्ठों का तनाव क्या है?
उत्तर:
खिंचाव या तनाव माँसपेशी की चोट है। खेलते समय कई बार खिलाड़ियों की माँसपेशियों या पट्ठों में खिंचाव आ जाता है जिसके कारण खिलाड़ी अपना खेल जारी नहीं रख सकता। कई बार तो माँसपेशियाँ फट भी जाती हैं, जिसके कारण काफी दर्द महसूस होता है। प्रायः खिंचाव वाले हिस्से में सूजन आ जाती है। खिंचाव का मुख्य कारण खिलाड़ी का खेल के मैदान में अच्छी तरह गर्म न होना है। इसे पट्ठों का खिंच जाना भी कहते हैं।

प्रश्न 8.
मोच से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
किसी जोड़ के अस्थि-बंधक तन्तु (Ligaments) के फट जाने को मोच आना कहते हैं अर्थात् जोड़ के आसपास के जोड़-बंधनों तथा तन्तु वर्ग (Tissues) फट जाने या खिंच जाने को मोच कहते हैं । सामान्यत: घुटनों, रीढ़ की हड्डी तथा गुटों में ज्यादा मोच आती है।

प्रश्न 9.
चोटों की देखरेख में पी०आर०आई०सी०ई० (P.R.I.C.E.) का क्या अर्थ है?
उत्तर:
चोटों की देखरेख में पी०आर०आई०सी०ई० (P.R.I.C.E.) का अर्थ है-P = Protection (सुरक्षा/बचाव), R=Rest (विश्राम), I = Ice (बर्फ),C=Compression (दबाना), E= Elevation (ऊँचा रखना)।अत: पी० आर०आई०सी०ई० का अर्थ है-सुरक्षा/बचाव करना, विश्राम करना, बर्फ लगाना, दबाना व ऊँचा रखना।

प्रश्न 10.
रगड़ या छिलना से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
रगड़ त्वचा की चोट है। खेलते समय त्वचा पर ऐसी चोटें लग जाती हैं। प्रायः रगड़ एक मामूली चोट होती है, लेकिन कभी-कभी यह गंभीर भी साबित हो जाती है। अगर रगड़ का चोटग्रस्त भाग अधिक घातक हो जाए और उसमें बाहरी कीटाणु हमला कर दें तो यह भयानक हो जाती है।

प्रश्न 11. रगड़ के क्या कारण हैं?
उत्तर:
(1) कठोर धरातल पर गिर पड़ना
(2) कपड़ों में रगड़ पैदा करने वाले तंतुओं के कारण
(3) जूतों का पैरों में सही प्रकार से फिट न आना
(4) हैलमेट और कंधों के पैडों का असुविधाजनक होना।

प्रश्न 12. घाव कितने प्रकार के होते हैं?
अथवा
जख्मों की कितनी किस्में होती हैं?
उत्तर:
घाव या जख्म चार प्रकार के होते हैं
(1) कट जाने से घाव
(2) फटा हुआ घाव
(3) छिपा हुआ घाव
(4) कुचला हुआ घाव।

प्रश्न 13.
जोड़ उतर जाने (Dislocation) से क्या अभिप्राय है? अथवा जोड़ उतरना क्या है?
उत्तर:
हड्डी का अपने जोड़ वाले स्थान से हट जाना या खिसक जाना, जोड़ उतरना कहलाता है। कुछ ऐसे खेल होते हैं जिनमें हड्डी का उतरना स्वाभाविक है। प्रायः कंधे, कूल्हे तथा कलाई आदि की हड्डी उतरती है।

प्रश्न 14.
अल्प चोटें (Minor Injuries) क्या होती हैं?
उत्तर:
अल्प चोटें वे चोटें होती हैं जिन्हें प्राथमिक चिकित्सा सहायता द्वारा कम समय में ठीक किया जा सकता है। ऐसी चोटें खेलों में खिलाड़ियों को अकसर लगती रहती हैं। ये अधिक घातक तो नहीं होतीं, पर समय पर प्राथमिक चिकित्सा न लिए जाने के कारण घातक सिद्ध हो सकती हैं।

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प्रश्न 15.
गंभीर चोटें (Serious Injuries) क्या होती हैं?
उत्तर:
गंभीर चोटें वे चोटें होती हैं जिसके कारण खिलाड़ी या व्यक्ति अपनी पूरी क्षमता को खेल या कार्य में प्रयोग करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसी चोटों में तुरंत डॉक्टरी जाँच की आवश्यकता होती है। कई बार ऐसी चोटें लगने से खिलाड़ियों का जीवन खतरे में पड़ जाता है।

प्रश्न 16.
जटिल फ्रैक्चर क्या होता है? गुंझलदार टूट (Complicated Fracture) क्या है?
उत्तर:
जटिल फ्रैक्चर से कई बार हड्डी की टूट के साथ जोड़ भी हिल जाते हैं। कई बार हड्डी टूटकर शरीर के किसी नाजुक अंग को नुकसान पहुँचा देती है; जैसे रीढ़ की हड्डी की टूट मेरुरज्जु को, सिर की हड्डी की टूट दिमाग को और पसलियों की हड्डियों की टूट दिल, फेफड़े और जिगर को नुकसान पहुँचाती हैं। ऐसी स्थिति में टूट काफी जटिल टूट बन जाती है।

प्रश्न 17.
हड्डी टूटने के दो लक्षण बताएँ। अथवा शरीर के भाग में फ्रैक्चर होने के किन्हीं दो सामान्य लक्षणों का उल्लेख करें।
उत्तर:
(1) टूटी हुई हड्डी वाले स्थान पर दर्द होता है
(2) टूटी हुई हड्डी वाले स्थान पर सूजन आ जाती है।

प्रश्न 18.
एथलेटिक देखभाल के विभिन्न कारकों या तत्त्वों के नाम बताएँ।
उत्तर:
(1) सुरक्षात्मक कपड़े व जूते
(2) सुरक्षात्मक उपकरण
(3) संतुलित आहार
(4) वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षण
(5) सामान्य सजगता
(6) वातावरण
(7) गर्माना व ठंडा करना आदि।

प्रश्न 19.
खेलों के सामान्य चोटों के नाम बताइए।
अथवा
खेलों में लगने वाली चार चोटों के नाम लिखिए।
अथवा
उत्तर:
(1) मोच (Sprain)
(2) खिंचाव (Strain)
(3) हड्डी का उतर जाना (Dislocation)
(4) हड्डी का टूटना (Fracture)
(5) भीतरी घाव (Contusion)
(6) रगड़ (Abrasion)।

प्रश्न 20.
कंट्यूशन या भीतरी घाव से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
कंट्यूशन माँसपेशी की चोट होती है। यदि एक प्रत्यक्ष मुक्का या कोई खेल उपकरण शरीर को लग जाए तो कंट्यूशन का कारण बन सकता है। मुक्केबाजी, कबड्डी और कुश्ती आदि में कंट्यूशन होना स्वाभाविक है। कंट्यूशन में माँसपेशियों में रक्त कोशिकाएँ टूट जाती हैं और कभी-कभी मांसपेशियों से रक्त भी बहने लगता है।

प्रश्न 21.
भीतरी घाव की रोकथाम के कोई दो उपाय बताएँ।
उत्तर:
(1) सुरक्षात्मक उपकरणों; जैसे दस्ताने, हैलमेट आदि का प्रयोग करके इससे बचा जा सकता है।
(2) अभ्यास या प्रतियोगिता में भाग लेने से पूर्व शरीर को गर्माकर इससे बचा जा सकता है।

प्रश्न 22.
नील (Bruise) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
ऊपरी त्वचा पर कोई निशान या चिह्न न पड़ने के कारण यह चोट स्पष्टतया दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन आंतरिक ऊतक नष्ट हो जाते हैं। इस चोट से प्रभावित स्थान नीला पड़ जाता है अर्थात् त्वचा के नीचे रक्त फैल जाता है।

प्रश्न 23.
नील के क्या कारण हैं?
उत्तर:
(1) अभ्यास व प्रतियोगिता से पूर्व खिलाड़ियों द्वारा शरीर को न गर्माना
(2) खेल मैदान का समतल न होना
(3) खेलों में अच्छी गुणवत्ता के उपकरणों का प्रयोग न करना
(4) थकावट की स्थिति में खेल को जारी रखना।

प्रश्न 24.
खेलों में चोटें कितने प्रकार की होती हैं? उनके नाम लिखिए।
उत्तर:
खेलों में चोटें दो प्रकार की होती हैं-
(1). कोमल ऊतकों की चोटें
(2) कठोर ऊतकों की चोटें।

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प्रश्न 25.
नील से बचाव के कोई दो उपाय बताएँ।
उत्तर:
(1) अभ्यास, प्रशिक्षण व प्रतियोगिता के दौरान खिलाड़ियों को सतर्क व सावधान रहना चाहिए।
(2) सुरक्षात्मक कपड़ों, जूतों व उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

प्रश्न 26.
जोड़ उतरने के कोई दो लक्षण बताएँ।
उत्तर:
(1) जोड़ों में तेज़ दर्द होती है तथा सूजन आ जाती है
(2) जोड़ में गति बन्द हो जाती है। थोड़ी-सी गति से दर्द होती है।

प्रश्न 27.
जोड़ उतरने के कोई दो कारण बताएँ।
उत्तर:(1) खेल मैदान का ऊँचा नीचा होना अथवा अधिक सख्त या नरम होना।
(2) अचानक गिरने से हड्डी का हिल जाना।

प्रश्न 28.
मोच के लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) सूजन वाले स्थान पर दर्द शुरू हो जाता है।
(2) थोड़ी देर बाद जोड़ के मोच वाले स्थान पर सूजन आने लगती है।
(3) सूजन वाले भाग में कार्य की क्षमता कम हो जाती है।

प्रश्न 29.
जोड़ों का विस्थापन (Dislocation) कितने प्रकार का होता है?
उत्तर:
जोड़ों का विस्थापन मुख्यतः तीन प्रकार का होता है-
(1) कूल्हे का विस्थापन,
(2) कन्धे का विस्थापन,
(3) निचले जबड़े का विस्थापन।

प्रश्न 30.
दबा हुआ फ्रैक्चर (Depressed Fracture) क्या होता है?
उत्तर:
सामान्यतया यह फ्रैक्चर सिर की हड्डियों में होता है। जब खोपड़ी के ऊपरी भाग या आस-पास से हड्डी टूट जाने पर अंदर फंस जाती है तो ऐसा फ्रैक्चर दबा हुआ फ्रैक्चर कहलाता है।

प्रश्न 31.
अस्थि-भंग के क्या कारण हैं? अथवा हड्डी टूटने के मुख्य कारण बताएँ।
उत्तर:
(1) यदि कोई भार तेजी से आकर हड्डी में लगे तो हड्डी अपने स्थान से खिसक जाती है
(2) खेल मैदान का ऊँचा-नीचा होना अथवा असमतल होना
(3) खेल सामान का शारीरिक शक्ति से भारी होना।

प्रश्न 32.
कन्धे के जोड़ का विस्थापन किसे कहते हैं ?
उत्तर:
कन्धे के जोड़ का विस्थापन एक ऐसी चोट है जिसमें आपकी ऊपरी बाजू की हड्डी कप के आकार की सॉकेट (Cup-shaped Socket) से निकलती है जो आपके कन्धे के जोड़ का हिस्सा है। कन्धे का जोड़ शरीर का ऐसा जोड़ है जो विस्थापन के लिए अति संवेदनशील होता है।

प्रश्न 33.
फ्रैक्चर का क्या अर्थ है? अथवा हड्डी का टूटना क्या है?
उत्तर:
किसी हड्डी का टूटना, फिसलना अथवा दरार पड़ जाना टूट (Fracture) कहलाता है। हड्डी पर जब दुःखदायी स्थिति में दबाव पड़ता है तो हड्डी से सम्बन्धित माँसपेशियाँ उस दबाव को सहन नहीं कर सकतीं, जिस कारण हड्डी फिसल अथवा टूट जाती है। अतः फ्रैक्चर का अर्थ है-हड्डी का टूटना या दरार पड़ जाना।

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प्रश्न 34.
बहुसंघीय फ्रैक्चर या बहुखंडीय अस्थि-भंग (Comminuted or Multiple Fracture) क्या होता है?
उत्तर:
जब हड्डी कई भागों से टूट जाए तो इसे बहुसंघीय या बहुखंड फ्रैक्चर कहा जाता है।

प्रश्न 35.
पच्चड़ी अस्थि-भंग किसे कहते हैं?
उत्तर:
पच्चड़ी अस्थि-भंग (Impacted Fracture) को अन्य नामों से भी जाना जाता है; जैसे बहुसंघीय अस्थि-भंग, बहुखंड अस्थि-भंग, चपटा अस्थि-भंग आदि। जब किसी घायल व्यक्ति के टूटे अस्थि-भंगों (Fractures) के सिरे एक-दूसरे में घुस जाते हैं तो उसे पच्चड़ी अस्थि-भंग कहा जाता है।

प्रश्न 36.
कच्चा फ्रैक्चर (Greenstick Fracture) क्या होता है?
उत्तर:
यह छोटे बच्चों में होता है क्योंकि छोटी आयु के बच्चों की हड्डियाँ बहुत नाजुक होती हैं जो शीघ्र मुड़ जाती हैं। यही कच्चा फ्रैक्चर होता है।

HBSE 12th Class Physical Education एथलेटिक देखभाल Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रकार के प्रश्न [Objective Type Questions]

भाग-I : एक शब्द/वाक्य में उत्तर दें-

प्रश्न 1.
लिगामेंट्स की चोट कौन-सी होती है?
उत्तर:
लिगामेंट्स की चोट मोच होती है।

प्रश्न 2.
चोट के तुरंत बाद खिलाड़ी को कौन-सा टीका लगवाना चाहिए?
उत्तर:
चोट के तुरंत बाद खिलाड़ी को एंटी-टैटनस का टीका लगवाना चाहिए।

प्रश्न 3.
कंट्यूशन का प्राथमिक उपचार क्या है?
उत्तर:
पी०आर०आई०सी०ई० (P.R.I.C.E.) का पालन करना।

प्रश्न 4.
किस दुर्घटना में सेक (हीट) थेरेपी का बहुत महत्त्व है?
उत्तर:
भीतरी चोट लगने पर।

प्रश्न 5.
हड्डी की टूट का सही इलाज करवाने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर:
हड्डी की टूट का सही इलाज करवाने के लिए टूट वाली हड्डी का एक्सरा करवाना चाहिए।

प्रश्न 6.
कंट्यूशन किस अंग की चोट है?
उत्तर:
कंट्यूशन माँसपेशियों की चोट है।

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प्रश्न 7.
खिलाड़ी को प्रशिक्षण व प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को क्या करना चाहिए?
उत्तर:
खिलाड़ी को प्रशिक्षण व प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को भली-भाँति गर्मा लेना चाहिए।

प्रश्न 8.
मुक्केबाजी में प्रायः कैसी चोट लगती है?
उत्तर:
मुक्केबाजी में प्रायः कंट्यूशन या भीतरी घाव नामक चोट लगती है।

प्रश्न 9.
खिंचाव कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:
खिंचाव तीन प्रकार की होती है-
(1) सामान्य खिंचाव
(2) मध्यम खिंचाव
(3) गंभीर खिंचाव।

प्रश्न 10.
कच्ची अस्थि-भंग प्रायः किन्हें होता है?
उत्तर:
कच्ची अस्थि-भंग प्रायः बच्चों को होता है।

प्रश्न 11.
खिंचाव किस अंग की चोट है?
उत्तर:
खिंचाव माँसपेशियों की चोट है।

प्रश्न 12.
किस प्रकार की मोच में दर्द असहनीय होता है?
उत्तर:
पूर्ण मोच में दर्द असहनीय होता है।

प्रश्न 13.
इलाज से अच्छा क्या होता है?
उत्तर:
इलाज से अच्छा परहेज होता है।

प्रश्न 14.
टूटी हड्डी को हिलने से बचाने के लिए किस चीज़ का सहारा देना चाहिए?
उत्तर:
टूटी हड्डी को हिलने से बचाने के लिए पट्टियाँ और बाँस की फट्टियों का सहारा देना चाहिए।

प्रश्न 15.
कंट्यूशन में शीत दबाव दिन में कितनी बार करना चाहिए?
उत्तर:
कंट्यूशन में शीत दबाव दिन में 5 या 6 बार करना चाहिए।

प्रश्न 16.
किस प्रकार की टूट (Fracture) अधिक खतरनाक होती है?
उत्तर:
जटिल टूट अधिक खतरनाक होती है।

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प्रश्न 17.
ऑस्टिओपोरोसिस (Oesteoporosis) के कारण किस प्रकार की चोट लग सकती है?
उत्तर:
फ्रैक्चर या हड्डी टूटना।

प्रश्न 18.
पट्टों (माँसपेशियों) में खिंचाव आने का कोई एक कारण बताएँ।
उत्तर:माँसपेशियों को अधिक तेज हरकत में लाना।

प्रश्न 19.
खेल चोटों से बचाव हेतु किस प्रकार का मैदान होना चाहिए?
उत्तर:
खेल चोटों से बचाव हेतु समतल व साफ-सुथरा मैदान होना चाहिए।

प्रश्न 20.
रगड़/खरोंच किस अंग की चोट है?
उत्तर:
रगड़/खरोंच त्वचा की चोट है।

प्रश्न 21.
प्राथमिक सहायता में ABC का पूरा नाम लिखें।
उत्तर:
A= Airways,
B = Breathing,
C = Compression

प्रश्न 22.
खेलों में दौड़ने, कूदने और फेंकने को क्या कहते हैं?
उत्तर:
खेलों में दौड़ने, कूदने और फेंकने को एथलेटिक्स कहते हैं।

प्रश्न 23.
हड्डी टूटने (Fracture) के कितने प्रकार हैं?
उत्तर:
हड्डी टूटने (Fracture) के सात प्रकार हैं।

प्रश्न 24.
कंट्यूशन चोट लगने पर शरीर को क्या नुकसान होता है?
उत्तर:
कंट्यूशन चोट से शरीर के अनेक अंगों या भागों; जैसे रक्त कणों, माँसपेशियों, नाड़ियों तथा ऊतकों को नुकसान होता है।

प्रश्न 25.
मोच से बचाव का कोई एक उपाय बताएँ।
उत्तर:
मोच से बचाव हेतु शरीर को पूर्णतया विशेष रूप से गर्मा लेना चाहिए।

प्रश्न 26.
सामान्य खेल चोटों के कोई दो उदाहरण दें।
उत्तर:
(1) नील पड़ना
(2) रगड़।

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प्रश्न 27.
डॉक्टर के पहुंचने से पूर्व घायल व्यक्ति को कौन-सी सहायता दी जाती है?
अथवा
घायल या मरीज को तुरंत दी जाने वाली सहायता क्या कहलाती है?
उत्तर:
प्राथमिक सहायता या चिकित्सा।।

प्रश्न 28.
किस प्रकार के अस्थि-भंग में एक अस्थि दो या दो से अधिक टुकड़ों में टूट जाती है?
उत्तर:
बहुखंडीय टूट या फ्रैक्चर में एक अस्थि दो या दो से अधिक टुकड़ों में टूट जाती है।

प्रश्न 29.
किन खेलों में कंट्यूशन का खतरा अधिक होता है?
उत्तर:
सीधे संपर्क वाले खेलों में कंट्यूशन का खतरा अधिक होता है।

प्रश्न 30.
जोड़ उतरने का कोई एक चिह्न या लक्षण बताएँ।
उत्तर:
चोट वाले स्थान पर सूजन आ जाना।

प्रश्न 31.
सामान्यतया किन अंगों को ज्यादा मोच आती है?
उत्तर:
घुटनों तथा टखनों को।

प्रश्न 32.
मोच आने पर उस स्थान को कितने समय बाद गर्म करना (सेकना) चाहिए?
उत्तर:
मोच आने पर उस स्थान को 48 घंटे बाद गर्म करना (सेकना) चाहिए।

प्रश्न 33.
अस्थियों की चोटों (Bone Injuries) के कोई दो उदाहरण दें।
उत्तर:
(1) साधारण अस्थि -भंग (Simple Fracture)
(2) जटिल अस्थि -भंग (Complicated Fracture)।

प्रश्न 34.
जोड़ों की चोटों के कोई दो उदाहरण दें।
उत्तर:
(1) कूल्हे के जोड़ का विस्थापन,
(2) कंधे के जोड़ का विस्थापन।

प्रश्न 35.
किन खेलों में कंट्यूशन का खतरा अधिक होता है?
उत्तर:
सीधे संपर्क वाले खेलों; जैसे मुक्केबाजी में कंट्यूशन का खतरा अधिक होता है।

भाग-II: सही विकल्प का चयन करें

1. एथलेटिक का अर्थ है
(A) खेलकूद संबंधी
(B) मनोरंजन संबंधी
(C) पोषण संबंधी
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) खेलकूद संबंधी

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2. एथलेटिक देखभाल के मुख्य क्षेत्र कौन-कौन-से हैं?
(A) खेल चोटें
(B) पोषण
(C) प्रशिक्षण विधियाँ
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

3. क्या खिंचाव की स्थिति में मालिश करनी चाहिए?
(A) नहीं
(B) हाँ
(C) कभी-कभी
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) नहीं

4. किसी जोड़ के संधि-स्थल के फट जाने या लिगामेंट के टूटने को क्या कहते हैं?
(A) खिंचाव
(B) कंट्यूशन
(C) मोच
(D) रगड़
उत्तर:
(C) मोच

5. कंट्यूशन किसकी चोट है?
(A) हड्डी की
(B) दिमाग की
(C) जोड़ की
(D) माँसपेशी की
उत्तर:
(D) माँसपेशी की

6. मोच आने पर क्या इलाज अपनाना चाहिए?
(A) ठंडे पानी से धोना चाहिए
(B) बर्फ लगाना चाहिए
(C) पट्टी बाँधनी चाहिए
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

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7. खिंचाव किसकी चोट है?
(A) माँसपेशी की
(B) त्वचा की
(C) मुलायम ऊतकों की
(D) जोड़ों की
उत्तर:
(A) माँसपेशी की

8. खिंचाव वाले स्थान पर कितने घंटे बाद सेक देनी चाहिए?
(A) 24 घंटे बाद
(B) 36 घंटे बाद
(C) 48 घंटे बाद
(D) 2 घंटे बाद
उत्तर:
(C) 48 घंटे बाद

9. खिलाड़ी को खिंचाव आने पर क्या इलाज करवाना चाहिए?
(A) चोटग्रस्त अंग पर पट्टी बाँधनी चाहिए
(B) सूजन कम करने के लिए मालिश करनी चाहिए
(C) सामान्य क्रिया धीरे-धीरे जारी रखनी चाहिए
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

10. पी० आर० आई० सी० ई० (P.R.I.C.E.) का क्या अर्थ है?
(A) सुरक्षा, बर्फ, विश्राम, दबाना और ऊँचा उठाना
(B) दबाना, ऊँचा रखना, विश्राम, बर्फ और सुरक्षा
(C) सुरक्षा, विश्राम, बर्फ, दबाना और ऊँचा रखना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) सुरक्षा, विश्राम, बर्फ, दबाना और ऊँचा रखना

11. प्रत्यक्ष मुक्का या कोई खेल उपकरण शरीर में लग जाने से कौन-सी चोट लगती है?
(A) भीतरी घाव (कंट्यूशन)
(B) खिंचाव
(C) मोच
(D) रगड़
उत्तर:
(A) भीतरी घाव (कंट्यूशन)

12. किस दुर्घटना में सेक (हीट) थेरेपी का बहुत महत्त्व है?
(A) भीतरी चोट लगने पर
(B) करंट लगने पर
(C) बेहोश होने पर
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) भीतरी चोट लगने पर

13. खिंचाव आ जाने के कारण कई बार मांसपेशियाँ ………………… जाती हैं।
(A) फट
(B) सिकुड़
(C) फैल
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) फट

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14. निम्नलिखित में से कौन-सा मोच का लक्षण नहीं है?
(A) जोड़ में दर्द होना
(B) माँसपेशियाँ फूल जाना
(C) चलने-फिरने में तकलीफ होना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) माँसपेशियाँ फूल जाना।

15. सामान्य खेल चोटें कितने प्रकार की होती हैं?
(A) दो
(B) तीन
(C) चार
(D) पाँच
उत्तर:
(B) तीन

16. खेल चोटों के प्रकार हैं
(A) मुलायम ऊतकों की चोटें
(B) अस्थियों की चोटें
(C) जोड़ों की चोटें
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

17. कंट्यूशन, खिंचाव, मोच, रगड़ या खरोंच किस प्रकार की चोटें हैं?
(A) अस्थियों की चोटें
(B) मुलायम ऊतकों की चोटें
(C) जोड़ों की चोटें
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) मुलायम ऊतकों की चोटें

18. निम्नलिखित में से कौन-सा रगड़ का कारण नहीं है?
(A) कठोर धरातल पर गिर पड़ना
(B) खिलाड़ी द्वारा शरीर को बिना गर्म किए खेल में हिस्सा लेना
(C) जूतों का पैरों में सही प्रकार से फिट न आना
(D) हैलमेट और कंधों के पैडों का असुविधाजनक होना
उत्तर:
(B) खिलाड़ी द्वारा शरीर को बिना गर्म किए खेल में हिस्सा लेना

19. ऑस्टियोपोरोसिस के कारण किस प्रकार की चोट लग सकती है?
(A) खिंचाव
(B) मोच
(C) रगड़
(D) अस्थि-भंग
उत्तर:
(D) अस्थि-भंग

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20. वह कौन-सा अस्थि-भंग है जिसमें टूटी हुई अस्थि आन्तरिक अंग या अंगों को भी हानि पहुँचा देती है?
(A) पच्चड़ी अस्थि-भंग
(B) साधारण अस्थि -भंग
(C) जटिल अस्थि-भंग
(D) कच्ची अस्थि-भंग
उत्तर:(C) जटिल अस्थि-भंग

21. निम्नलिखित में से किसे मुलायम ऊतकों की चोटों में शामिल किया जाता है?
(A) कंट्यूशन
(B) मोच
(C) रगड़
(D) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी

भाग-III: रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. खिंचाव वाले अंग को ………………… स्थिति में रखना चाहिए।
2. चोट लगने के बाद तुरंत ………………… का टीका लगवाना चाहिए।
3. कंट्यूशन से पीड़ित अंग को ………………… तक दबाना चाहिए।
4. खिंचाव आ जाने के कारण कई बार माँसपेशियाँ ………………… जाती हैं।
5. मोच ………………….. प्रकार की होती है।।
6. सुरक्षात्मक उपकरण का प्रयोग ……… की आवश्यकता के अनुसार करना चाहिए।
7. अभ्यास व प्रतियोगिता से पूर्व खिलाड़ी को अपने शरीर को ………………… लेना चाहिए।
8. मोच. ……………….. की चोट होती है।
9. रगड़ या छिलना ………………… की चोट है।
10. थकावट की स्थिति में खिलाड़ी को खेल ………………… रखना चाहिए।
11. घायल या मरीज को तत्काल दी जाने वाली सहायता ………………… कहलाती है।
12. खेल चोटें मुख्यतः …………….. प्रकार की होती है।
उत्तर:
1. आरामदायक
2. एंटी-टैटनस,
3. 72 घंटे
4. फट
5. तीन
6. खेल
7. गर्मा
8. लिगामेंट
9. त्वचा
10. जारी नहीं
11. प्राथमिक सहायता
12. तीन।

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एथलेटिक देखभाल Summary

एथलेटिक देखभाल परिचय

एथलेटिक देखभाल या केयर (Athletic Care):
एथलेटिक का अर्थ है– सभी प्रकार की खेलें तथा स्पोर्ट्स। एथलेटिक्स खेलों के प्रतिस्पर्धात्मक मुकाबलों में उन क्रियाओं (गतिविधियों) का प्रभुत्व रहता है जिनमें कुशल तथा योग्य खिलाड़ी भाग लेते हैं। एथलेटिक्स के विभिन्न क्षेत्र होते हैं, उदाहरणस्वरूप शिक्षण संस्थाएँ; जैसे स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय जहाँ पर युवा वर्ग एथलेटिक्स गतिविधियों में भाग लेते हैं। प्रत्येक खेल तथा स्पोर्ट्स की राष्ट्रीय फेडरेशन राष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स मुकाबले करवाती हैं और अंतर्राष्ट्रीय संघ या इकाई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एथलेटिक्स मुकाबले करवाती हैं। जब कोई युवा एथलेटिक्स खेलों (प्रतिस्पर्धात्मक मुकाबलों) में भाग लेता है तो उसे एक अंतर्राष्ट्रीय पदक जीतने के लिए कई वर्षों तक कड़े परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। जैसे-जैसे प्रशिक्षण के.भार की मात्रा तथा तीव्रता बढ़ती जाती है तो वैसे ही एथलीट के घायल होने का भय अधिक बढ़ जाता है।

एथलेटिक देखभाल हमें यह जानकारी देती है कि कैसे खेल समस्याओं या चोटों को कम किया जाए, कैसे खेल के स्तर को सुधारा जाए। यदि खिलाड़ी की देखभाल पर ध्यान न दिया जाए तो खिलाड़ी का खेल-जीवन या कैरियर समाप्त हो जाता है। इसलिए हर खिलाड़ी के लिए एथलेटिक देखभाल बहुत महत्त्वपूर्ण पहलू है।

प्राथमिक सहायता (First Aid):
आज की तेज रफ्तार ज़िंदगी में अचानक दुर्घटनाएं होती रहती हैं। साधारणतया घरों, स्कूलों, कॉलेजों, दफ्तरों तथा खेल के मैदानों में दुर्घटनाएँ देखने में आती हैं। मोटरसाइकिलों, बसों, कारों, ट्रकों आदि में टक्कर होने से व्यक्ति घायल हो जाते हैं। मशीनों की बढ़ रही भरमार और जनसंख्या में हो रही निरंतर वृद्धि ने भी दुर्घटनाओं को ओर अधिक बढ़ा दिया है। प्रत्येक समय प्रत्येक स्थान पर डॉक्टरी सहायता मिलना कठिन होता है। इसलिए ऐसे संकट का मुकाबला करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्राथमिक सहायता का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। आज प्राथमिक सहायता की महत्ता बहुत बढ़ गई है। प्राथमिक सहायता रोगी के लिए वरदान की भाँति होती है और प्राथमिक सहायक भगवान की ओर से भेजा दूत माना जाता है। आज के समय में कोई किसी के दुःख-दर्द की परवाह नहीं करता। एक प्राथमिक सहायक ही है जो दूसरों के दर्द को समझने और उनके दुःख में शामिल होने की भावना रखता है।

खेलों में लगने वाली सामान्य चोटें (Some Common Injuries in Sports):
(1) भीतरी घाव या कंट्यूशन
(2) मोच
(3) खिंचाव
(4) रगड़
(5) हड्डी टूटना
(6) जोड़ उतरना।

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HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

Haryana State Board HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

HBSE 12th Class Physical Education पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा Textbook Questions and Answers

दीर्घ-उत्तरात्मक प्रश्न [Long Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
परिवार का अर्थ एवं परिभाषा लिखें। इसके प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
परिचय (Introduction):
परिवार की उत्पत्ति कब हुई? इस संदर्भ में कोई निश्चित समय अथवा काल नहीं बताया जा सकता, पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे आवश्यकताओं की बढ़ोतरी हुई, वैसे-वैसे परिवार का विकास हुआ। परिवार की उत्पत्ति के विषय में अरस्तू जैसे विद्वान् ने कहा था कि, “परिवार का जन्म अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु हुआ है।” परिवार को अंग्रेजी भाषा में ‘Family’ कहते हैं, जो रोमन भाषा के ‘Famulus’ से बना है। लैटिन भाषा में परिवार को फेमिलिआ (Familia) कहा जाता है, जिसका अर्थ है-माता-पिता, बच्चे, श्रमिक और गुलाम।

परिवार की परिभाषाएँ (Definitions of Family):
परिवार के संबंध में कुछ धारणाएँ इस प्रकार हैं-
(1) परिवार दो व्यक्तियों (स्त्री व पुरुष) का प्रेम स्वरूप बंधन है जो एक साथ सहवास, सहयोग की भावना पर आधारित है तथा प्रजनन की क्रिया को जन्म देता है,
(2) परिवार दो व्यक्तियों का ऐसा स्वरूप है जिससे सामाजिक प्रेरणाओं को रचनात्मक रूप देने का प्रयास किया जाता है। भिन्न-भिन्न समाजशास्त्रियों ने परिवार के बारे में अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं, जो निम्नलिखित हैं
1. क्लेयर (Clare) का कथन है, “परिवार से अभिप्राय उन संबंधों से है जो माता-पिता और बच्चों में मौजूद होते हैं।”
2. बैलार्ड (Ballard) के अनुसार, “परिवार एक मौलिक सामाजिक संस्था है, जिससे अन्य सभी संस्थाओं का विकास होता है।”
3. मजूमदार (Majumdar) के अनुसार, “परिवार व्यक्तियों का एक समूह है जो एक ही छत के नीचे रहते हैं जो क्षेत्र, रुचि, आपसी बंधन और सूझ-बूझ के अनुसार स्नेह और खून के रिश्ते में बंधे होते हैं।”
4. बर्गेस और लॉक (Burgess and Lock) के अनुसार , “परिवार ऐसे व्यक्तियों का एक समूह है जो विवाह, खून या अपनाए गए रिश्तों या सम्बन्धों में बंधकर एक घर का निर्माण करता है। पति-पत्नी, माता-पिता, बेटा-बेटी, बहन-भाई आदि से सम्बन्धित सामाजिक बन्धनों से उनके आपसी सम्बन्ध बनते हैं और इस प्रकार से वे साधारण सभ्यता का निर्माण और उसको कायम रखते हैं।”

ऊपर दिए गए वर्णन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परिवार एक आन्तरिक क्रियाशील व्यक्तियों का समूह है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का निश्चित कर्त्तव्य और निश्चित स्थान होता है। यह समूह अच्छी तरह संगठित होता है और इसकी अपनी पहचान होती है। मित्रता, प्यार, सहयोग और हमदर्दी परिवार के आधार हैं। परिवार सभी सामाजिक गठनों का आधार है। परिवार बच्चों की शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

परिवार के प्रकार (Types of Family):
परिवार समाज की एक मौलिक, सार्वभौमिक संस्था है। परिवार सभी स्तरों के समाज में किसी-न-किसी रूप में सदैव विद्यमान रहा है। विद्वानों ने परिवार के स्वरूपों का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया है; जैसे निवास-स्थान, सत्ता, वंश, विवाह, सदस्यों की संख्या के आधार पर आदि।

सदस्यों की संख्या के आधार पर निम्नलिखित प्रकार के परिवार पाए जाते हैं
1. एकल या मूल परिवार (Single Family)
2. संयुक्त परिवार (Joint Family)
1. एकल या मूल परिवार (Single Family):
केंद्रीय परिवार को प्राथमिक, व्यक्तिगत, केंद्रीय, मूल अथवा नाभिक परिवार भी कहते हैं। यह परिवार का सबसे छोटा और आधारभूत स्वरूप है जिसमें सदस्यों की संख्या बहुत कम होती है। आमतौर पर पति-पत्नी तथा उसके अविवाहित बच्चे ही इस परिवार के सदस्य होते हैं। ऐसे परिवार में सदस्य भावात्मक आधार पर एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं। परिवार का आकार सीमित होने के कारण इसका बच्चों के जीवन पर काफी रचनात्मक प्रभाव पड़ता है।

2. संयुक्त परिवार (Joint Family):
संयुक्त परिवार में दो या दो से अधिक पीढ़ियों के सदस्य; जैसे पति-पत्नी, उनके बच्चे, दादा-दादी, चाचा-चाची, चचेरे भाई, बच्चों की पत्नियाँ आदि. एक साथ एक घर में निवास करते हैं। उनकी संपत्ति साँझी होती है। वे एक ही चूल्हे पर भोजन बनाते हैं, सामूहिक धार्मिक कार्यों का निर्वाह करते हैं और परस्पर किसी-न-किसी नातेदारी व्यवस्था से जुड़े होते हैं। संयुक्त परिवार के सदस्य परस्पर अधिकारों व कर्तव्यों को निभाते हैं।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

प्रश्न 2.
परिवार का अर्थ बताते हुए इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
परिवार का अर्थ (Meaning of Family):
परिवार एक सामाजिक संगठन है जिसके अंतर्गत पति-पत्नी एवं उनके बच्चे तथा अन्य सदस्य आ जाते हैं जो उत्तरदायित्व व स्नेह की भावना से परस्पर बंधे रहते हैं।

परिवार की मुख्य विशेषताएँ (Main Features of Family):
परिवार की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. सामाजिक आधार (Social Basis):
परिवार के नियम सामाजिक नियंत्रण करने में सहायक होते हैं। परिवार में रहकर सदस्य सहनशीलता, सहयोग, सद्व्यवहार, रीति-रिवाज़ और धर्म जैसे नियमों का पालन करते हैं। परिवार सामाजिक नियमों का पालन करने में बहुत बड़ा योगदान देता है।

2. भावनात्मक आधार (Emotional Basis):
परिवार के सभी सदस्य भावनात्मक आधार पर एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। पति-पत्नी का प्यार, बच्चों तथा बहन-भाइयों का प्यार विशेष महत्त्व रखता है। इसी कारण परिवार के सभी सदस्य प्यार की माला में पिरोए होते हैं।

3. आर्थिक आधार (Economical Basis):
परिवार में कमाने वाले सदस्य बाकी सदस्यों; जैसे बच्चे, बूढे, स्त्रियों आदि के पालन-पोषण की व्यवस्था करते हैं। वह परिवार के सदस्यों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इस प्रकार परिवार के सभी सदस्य अधिकार और कर्तव्यों से बंधे होते हैं।

4. जिम्मेवारी या उत्तरदायित्व (Responsibility):
परिवार में रहते हुए प्रत्येक सदस्य अपनी जिम्मेवारी या उत्तरदायित्व को पूरा करता है। इनमें किसी सदस्य का निजी स्वार्थ नहीं होता। परिवार में आई प्रत्येक कठिनाई का सामना वे सामूहिक रूप से करते हैं।

5. सर्वव्यापकता (Universality): परिवार का अस्तित्व प्राचीनकाल से सर्वव्यापक है। इसी कारण परिवार को सर्वव्यापक सामाजिक संगठन कहा जाता है।

6. स्थायी लैंगिक संबंध (Permanent Sexual Relation):
स्त्री-पुरुष के स्थायी लैंगिक संबंध समाज द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं। इसी कारण ही उनकी संतान वैध और सामाजिक रूप से परिवार की सदस्य होती है। संबंधों के स्थायी होने से बच्चों का पालन-पोषण ठीक प्रकार से होता है।

7.खून का रिश्ता (Blood Relation):
परिवार की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इसके सदस्यों का आपस में खून का रिश्ता होता है। इसी नाते सभी सदस्य परिवार में आई मुश्किल को सामूहिक रूप से हल करने की कोशिश करते हैं। परिवार में सदस्यों का ऐसा रिश्ता उनमें विश्वास व निःस्वार्थ की भावना पैदा करता है।

प्रश्न 3.
परिवार के कार्यों और उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
अथवा
परिवार के प्राथमिक या आधारभूत कार्य कौन-कौन से हैं? विस्तारपूर्वक लिखें।
अथवा
परिवार के मूल मौलिक तथा गौण कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मानव-जीवन में परिवार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। परिवार मानव की आज तक सेवा करता रहा है और कर रहा है जो किसी अन्य संस्था या समिति द्वारा संभव नहीं है। परिवार समाज की एक स्थायी व मौलिक सामाजिक संस्था है। अतः इसके कार्यों अथवा कर्तव्यों को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा जा सकता है-
(क) मौलिक या आधारभूत कार्य (Basic Functions)
(ख) द्वितीयक या गौण कार्य (Secondary Functions)

(क) मौलिक या आधारभूत कार्य (Basic Functions):
मौलिक कार्यों को प्राथमिक या आधारभूत कार्य भी कहते हैं। ये सार्वभौमिक होते हैं।
1. बच्चे का पालन-पोषण (Infant Rearing):
बच्चों के माता-पिता का उनके पालन-पोषण में बहुत बड़ा योगदान होता है। बच्चे को दूसरे लोगों की बजाय अपने माता-पिता का साथ ज्यादा मिलता है क्योंकि बच्चे के ऊपर माता-पिता का काफ़ी लम्बे समय तक गहरा प्रभाव रहता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, बच्चे में जीवन के बहुमूल्य पाँच सालों में अच्छे गुणों को प्राप्त करने की आध्यात्मिक शक्ति होती है। दूसरे लोगों का प्रभाव बच्चे पर इस अवस्था के बाद में ही होता है।

2. प्रजनन क्रिया (Birth Process):
प्रजनन क्रिया परिवार का एक महत्त्वपूर्ण बुनियादी कार्य है। इस सम्बन्ध में वुड्सवर्थ का विचार है, “यह एक प्राणी का बुनियादी कार्य है जो परिवार करता है। यह कार्य किसी भी व्यक्ति या समाज के लिए आवश्यक है।”

3. परिवार के सदस्यों की सुरक्षा (Security of Family Members):
परिवार का बुनियादी कार्य केवल संतान पैदा करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि परिवार के सदस्यों की सुरक्षा अच्छे ढंग से करना भी उसका कार्य है। माता-पिता की देखभाल में रहकर बच्चा अपने व्यक्तित्व को निखार सकता है।

4. रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था करना (To Manage the Basic Necessities):
रोटी, कपड़ा और मकान जीवन की मुख्य जरूरतें हैं। इनकी व्यवस्था करना परिवार का बुनियादी कार्य है। परिवार के सदस्यों की शारीरिक शिक्षा और उसके लिए स्थान की व्यवस्था भी परिवार ही करता है।

5. बच्चे की देखभाल (Care of Child):
बच्चे की देखभाल और संतुलित विकास में माता-पिता का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। परिवार में रहते हुए बच्चे पर परिवार और परिवार के सदस्यों के व्यवहार का असर पड़ना भी स्वाभाविक होता है। माता-पिता से मेल-मिलाप, हमदर्दी और प्यार आदि मिलने से उसमें आत्म-सम्मान बढ़ता है। यह गुण बच्चे को जिंदगी में सफल बनाने में मदद करते हैं। बच्चे देश या परिवार के भविष्य की आशा की किरण होते हैं। इस कारण माता-पिता को बच्चों की देखभाल अच्छी तरह से करनी चाहिए।

6. परिवार के स्वास्थ्य का ध्यान रखना (To Take Care of Family Health):
परिवार का सबसे मुख्य कर्त्तव्य परिवार के सदस्यों की सेहत का ध्यान रखना है। बच्चे की साफ-सफाई की तरफ ध्यान देना भी परिवार की मुख्य जिम्मेदारी होती है। उसको संतुलित खुराक, आवश्यक वस्त्र, आराम, नींद, खेल, कसरत और डॉक्टरी सहायता की व्यवस्था करना परिवार का मुख्य कर्तव्य है।

7. शिक्षा की व्यवस्था करना (Arrangement of Education):
परिवार बच्चों के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था करता है। वह बच्चों की शिक्षा संबंधी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

(ख) द्वितीयक या गौण कार्य (Secondary Functions):
इन कार्यों को अधिक प्राथमिकता नहीं दी जाती, इसलिए इन्हें द्वितीयक या गौण कार्य कहा जाता है। समाज विशेष के अनुसार, इन कार्यों में परिवर्तन होता रहता है।
1. आमोद-प्रमोद संबंधी कार्य (Recreative Functions)-परिवार पारिवारिक सदस्यों के मनोरंजन या आमोद-प्रमोद हेतु भी कार्य करता है। इससे वे संतुष्टि व राहत महसूस करते हैं।

2. मनोवैज्ञानिक कार्य (Psychological Functions)-परिवार सदस्यों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करने का कार्य करता है। परिवार में सदस्यों का परस्पर प्रेम, सहानुभूति, त्याग, धैर्य आदि भावनाएँ देखने को मिलती हैं। परिवार में सदस्यों के संबंध पूर्ण व घुले-मिले होते हैं। इसलिए सदस्य सुख-दुःख आदि में एक-दूसरे को सहयोग देते हैं।

3. व्यक्तित्व का विकास (Personality Development)-एक बच्चे का शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास करने का अवसर प्रदान करना परिवार का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। परिवार का मुख्य उद्देश्य बच्चे का बहुमुखी विकास करना है। इसलिए बच्चे के व्यक्तित्व के विकास में माता-पिता को बहुत अधिक ध्यान देना चाहिए।

4. सामाजिक कार्य (Social Work):
परिवार के प्रमुख सामाजिक कार्य निम्नलिखित हैं-
(1) स्थिति प्रदान करना-सबसे पहले परिवार में ही व्यक्ति को उसकी प्रथम स्थिति प्राप्त होती है। पैदा होते ही वह एक पुत्र, भाई आदि की स्थिति प्राप्त कर लेता है। स्थिति के अनुसार ही व्यक्ति की भूमिका होती है। अतः हम कह सकते हैं कि परिवार ही सबसे पहले व्यक्ति की स्थिति और भूमिका निश्चित करता है।

(2) सामाजिक नियंत्रण-परिवार अपने सदस्यों के व्यवहार पर नियंत्रण रखकर सामाजिक नियंत्रण में भी सहायक होता है। परिवार ही सबसे पहले व्यक्ति को सामाजिक व्यवहार के स्वीकृत मानदंडों के अनुरूप व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है।

(3) मानवीय अनुभवों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचाना-आज तक के मानवीय अनुभवों को परिवार बच्चों को कुछ ही वर्षों में सिखा देता है। इस प्रकार ये अनुभव पीढ़ी-दर-पीढ़ी अविराम गति से पहुँचते रहते हैं।

(4) मानवता का विकास-परिवार के सदस्य तीव्र भावात्मक संबंधों में बँधे होने के कारण सदैव एक-दूसरे के लिए त्याग तथा बलिदान हेतु तत्पर रहते हैं । पारस्परिक सहयोग, त्याग, बलिदान, प्रेम, स्नेह आदि के गुणों का विकास करके परिवार अपने सदस्यों में मानवता का विकास करता है।

5. आर्थिक कार्य (Economical Functions)-
परिवार के आर्थिक कार्य निम्नलिखित हैं-
(1) उत्तराधिकार का नियमन-प्रत्येक समाज में संपत्ति एवं पदों की पुरानी पीढ़ी में हस्तांतरण की व्यवस्था पाई जाती है। यह कार्य परिवार के द्वारा ही किया जाता है। पितृ-सत्तात्मक परिवार में उत्तराधिकार पिता से पुत्र को तथा मातृ-सत्तात्मक परिवार में माता से पुत्री या मामा से भाँजे को मिलता है। इस प्रकार परिवार संपत्ति एवं पद के उत्तराधिकार संबंधी कार्यों की देख-रेख करता है। परिवार द्वारा यह निश्चित होता है कि संपत्ति का उत्तराधिकारी कौन-कौन होगा।

(2) श्रम-विभाजन-श्रम-विभाजन परिवार से आरंभ होता है। परिवार में श्रम-विभाजन उसके सदस्यों की स्थिति, आयु, कार्य-शक्ति एवं कुशलता के अनुसार ही होता है। परिवार में महिलाओं, बच्चों, पुरुषों, बूढ़ों आदि में श्रम-विभाजन होता है; जैसे महिलाएँ गृह-कार्य करती हैं, पुरुष शक्ति या परिश्रम संबंधी बाहरी कार्य तथा बच्चे छोटा-मोटा घरेलू कार्य करते हैं। परिवार के सदस्यों में श्रम-विभाजन आर्थिक सहयोग का महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।

(3) आय तथा संपत्ति का प्रबंध-परिवार अपने सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन (आय) का प्रबंध करता है। परिवार की आय से ही उसकी गरीबी या अमीरी का आकलन किया जाता है। परिवार का मुखिया, आय को कैसे खर्च करना है, तय करता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक परिवार के पास अपनी चल तथा अचल संपत्ति; जैसे जमीन, सोना, गहने, नकद, पशु, दुकान आदि होती है। उसकी देखभाल एवं सुरक्षा परिवार के द्वारा की जाती है।

6. राजनीतिक कार्य (Political Funcitons):
राज्य के अनुसार, आदर्श नागरिक बनाने का सर्वप्रथम कार्य परिवार में ही होता है। परिवार ही परिवार के सदस्यों को देश व राज्य की राजनीतिक गतिविधियों से अवगत करवाता है। कन्फ्यूशियस के अनुसार, “मनुष्य सर्वप्रथम परिवार का तथा उसके बाद उस राज्य का सदस्य होता है जो परिवार के स्वरूप के अनुरूप ही निर्मित होता है।”

7. सांस्कृतिक व धार्मिक कार्य (Cultural and Religious Functions):
बच्चे को समाज की सांस्कृतिक परंपराओं को सौंपने में परिवार महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। परिवार अपने सदस्यों को अपने कार्य के अनुसार पूजा-पाठ, आराधना, इबादत, भक्ति आदि धार्मिक कार्यों के लिए तैयार करता है जिससे धर्म का महत्त्व बना रहता है। परिवार सदस्यों में परिश्रम, ईमानदारी, सहयोग, सहानुभूति, सच बोलना आदि गुण विकसित करने में सहायक होता है।

परिवार की उपयोगिता (Utility of Family);
परिवार को बच्चे का पालना कहा जाता है । यह बच्चे और अन्य सदस्यों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। बच्चों व अन्य सदस्यों को पालने में परिवार की उपयोगिता या भूमिका निम्नलिखित है-
(1) परिवार बच्चों व अन्य सदस्यों के लिए संतुलित भोजन, समयानुसार वस्त्र, आवास एवं चिकित्सा सुविधा आदि का प्रबंध करता है।
(2) परिवार में बच्चों के धार्मिक एवं आध्यात्मिक विकास की ओर ध्यान दिया जाता है।
(3) परिवार को सामाजिक गुणों का पालना कहा जाता है। परिवार बच्चे के सामाजिक विकास में सहायक होता है।
(4) परिवार बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए अवसर जुटाता है।
(5) परिवार बच्चों के मूल्यपरक अर्थात् नैतिक गुणों के विकास में सहायक होता है। परिवार उनमें परिश्रम, ईमानदारी, सहयोग एवं सहानुभूति आदि गुणों को विकसित करता है। इनके अतिरिक्त बच्चा परिवार के संरक्षण में रहकर चिंताओं एवं मानसिक तनाव से मुक्त रहता है, उसमें इंसानियत या मानवता जागृत होती है, आत्मविश्वास जागृत होता है, सहनशीलता की भावना उत्पन्न होती है। बच्चा अपने परिवार से दूसरे परिवारों के साथ ‘सहकारिता की भावना व घर के कार्य में सहयोग का पाठ पढ़ता है। अंत में, हम कह सकते हैं कि परिवार अनेक नैतिक व सामाजिक गुणों का पालना है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

प्रश्न 4.
“परिवार एक सामाजिक संस्था के रूप में उपयोगी है।” वर्णन करें।
अथवा
क्या परिवार एक समाजिक संस्था के रूप में कार्य करता है? इस विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन करें।
उत्तर:
परिवार एक सामाजिक संस्था है जो सामाजिक संस्था के रूप में कार्य करता है। सामाजिक क्षेत्र में परिवार की उपयोगिता निम्नलिखित कार्यों से सिद्ध होती है- .
1. रहन-सहन के गुणों का विकास करना (To Develop the Qualities of Living):
परिवार एक ऐसी संस्था है जो अपने सदस्यों को विशेषकर बच्चों को समाज में रहन-सहन, खाने-पीने और बोलने आदि के ढंग सिखाता है। परिवार ही ऐसा स्थान है जहाँ पर बच्चे अपने भविष्य के लिए स्वयं को तैयार करते हैं और स्वयं में सामाजिकता के गुणों को विकसित करके अपने रहन-सहन के गुणों को विकसित करते हैं।

2. व्यक्तित्व निखारने वाली संस्था (Organisation of Personality Development);
परिवार को यदि व्यक्तित्व निखारने वाली संस्था कहा जाए तो कोई गलत बात नहीं होगी। परिवार में रहकर बच्चे अपने व्यक्तित्व को निखार सकते हैं।

3. परिवार एक मौलिक इकाई के रूप में (Family as Basic Unit):
परिवार एक मौलिक इकाई है। परिवार में रहकर सदस्यों के सम्बन्धों की रचना होती है। सभी सदस्य एक-दूसरे के इशारों पर चलते हैं। सामाजिक रीति-रिवाजों की रक्षा करना और सदस्यों के किसी भी तरह के व्यवहार पर काबू रखना परिवार का ही फर्ज है।

4. बच्चे पैदा करना (To Give Birth to Infant):
इस सम्बन्ध में वुडवर्थ का मानना है कि यह एक प्राणी का बुनियादी कर्तव्य है जिसे परिवार करता रहता है। इस तरह का कार्य किसी भी व्यक्ति या समाज के लिए आवश्यक है।

5. बच्चों का पालन-पोषण करना (Infant Rearing):
परिवार का बुनियादी कार्य केवल बच्चे पैदा करना ही नहीं बल्कि बच्चे का पालन-पोषण माता-पिता की तरफ से सबसे अच्छे ढंग से किया जा सकता है। माता-पिता की देखरेख में रहकर ही बच्चा अपने व्यक्तित्व का अच्छी तरह से विकास कर सकता है।

6. पारिवारिक सभ्याचार पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचाने वाली संस्था (Organisation of Spread Family Culture Step-wise-step):
हमारे बजुर्गों के पास अनुभव होता है। माता-पिता अपने बजुर्गों से जो ज्ञान प्राप्त करते हैं उसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी बांटने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार पारिवारिक सभ्याचार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने वाली संस्था के रूप में कार्य करता है।

7. मनोवैज्ञानिक कार्यों का केन्द्र बिन्दु (Central Point of Psychological Functions):
परिवार मनोवैज्ञानिक कार्यों का केन्द्र है। परिवार अपने सदस्यों के आपसी प्यार और सद्भावना का संचार करता है। कोई भी व्यक्ति परिवार में रहकर हमदर्दी, त्याग और प्रेम आदि मनोवैज्ञानिक गुणों को प्राप्त करता है। आदर्श रूप में परिवार एक प्रभावशाली मनोविज्ञान का आधार स्तम्भ है। यहां रहकर एक व्यक्ति को दुनिया की चिन्ताओं से मुक्ति मिल जाती है।

8. मनोरंजन का केन्द्र (Centre of Entertainment):
कामकाज से थका हुआ व्यक्ति परिवार में आकर बच्चों के साथ अपना मन बहला लेता है। बच्चों के साथ खेलकर तथा उनकी मधुर और तोतली आवाज सुनकर व्यक्ति की सारे दिन की थकावट दूर हो जाती है तथा वह अपनी सभी चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है।

9. आर्थिक कार्यों का केन्द्र (Centre of Economic Functions):
परिवार हमेशा से ही आर्थिक कार्यों का केन्द्र-बिन्दु रहा है। वस्तुओं को बनाना और उन्हें ज़रूरत के अनुसार बांटना ही परिवार का मुख्य कार्य है। परिवार में सदस्यों को अपने काम की जानकारी होती है। इसीलिए कहा जाता है कि परिवार अपने कार्य स्वयं ही निश्चित करता है। परिवार ही यह फैसला लेता है कि उसकी धन-दौलत तथा सम्पत्ति का मालिक कौन होगा और कौन-कौन इस सम्पत्ति का हिस्सेदार होगा।

प्रश्न 5.
किशोरावस्था को परिभाषित करें। इस अवस्था में कौन-कौन-से परिवर्तन होते हैं? वर्णन करें।
अथवा
“किशोरावस्था परिवर्तन का काल है।” इस कथन को विस्तारपूर्वक स्पष्ट करें।
अथवा
किशोरावस्था का क्या अर्थ है? किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर:
किशोरावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Adolescence):
किशोरावस्था अंग्रेज़ी शब्द ‘Adolescence’ का हिंदी रूपांतरण है। ‘Adolescence’ लैटिन भाषा के शब्द ‘Adolesceker’ (एडोलेसेकर) से बना है जिसका अर्थ है-परिपक्वता की ओर अग्रसर होना। किशोरावस्था एक ऐसी अवस्था है जिसमें बालक बाल्यावस्था का त्याग करता है। यह अवस्था बाल्यावस्था के बाद और युवावस्था से पहले की अवस्था है। यह अवस्था लगभग 12 से 18 वर्ष के बीच की होती है।
1. स्टेनले हाल (Stanley Hall) के अनुसार, “किशोरावस्था तीव्र दबाव एवं तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।”
2. जरसील्ड (Jersield) के अनुसार, “किशोरावस्था वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर बढ़ता है।”
3. सैडलर (Sadler) के मतानुसार, “किशोरावस्था एक ऐसी अवस्था होती है जिसमें बच्चा अपने-आप ही प्रत्येक कार्य करने की कोशिश करता है।”

किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तन (Changes of Adolescence):
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि इस अवस्था में किशोरों में अनेक शारीरिक-मानसिक परिवर्तन होते हैं जिस कारण वे चिंतित एवं बेचैन होते हैं। अनेक परिवर्तन होने के कारण इस अवस्था को परिवर्तन का काल कहा जाता है। इस अवस्था में होने वाले मुख्य परिवर्तन निम्नलिखित हैं

1.शारीरिक परिवर्तन (Physical Changes):
किशोरावस्था में किशोरों में दो प्रकार के शारीरिक परिवर्तन होते हैं-आंतरिक एवं बाहरी। किशोरों की ऊँचाई में तेजी से परिवर्तन होते हैं। भार में भी पर्याप्त वृद्धि होती है। किशोरों की आवाज में बहुत परिवर्तन होता है। लड़कों की आवाज में भारीपन तथा लड़कियों की आवाज कोमल व सुरीली हो जाती है।

2. मानसिक परिवर्तन (Mental Changes):
किशोरावस्था में किशोरों में अनेक बौद्धिक या मानसिक परिवर्तन होते हैं। उनमें स्मरण-शक्ति एवं कल्पना-शक्ति विकसित हो जाती है। किशोरों में तर्क एवं विचार-शक्ति का तीव्र विकास होने लगता है। उनमें किसी वस्तु या विषय के प्रति ध्यान केंद्रित करने की शक्ति विकसित हो जाती है। उनमें प्रदर्शन व मुकाबले की भावना का भी विकास होता है।

3. सामाजिक परिवर्तन (Social Changes):
इस अवस्था में किशोरों में सामाजिक भावना का विकास तीव्र गति से होता है। वे किसी-न-किसी सामाजिक संस्था का सदस्य बनने में रुचि लेने लगते हैं। उनमें सद्भाव, सहयोग, प्रेम, वफादारी, मित्रता तथा सहानुभूति आदि गुणों के लक्षण अधिक विकसित होने लगते हैं। वे खेलकूद व क्रियाशील कार्यों में भी अधिक रुचि लेने लगते हैं। .

4. संवेगात्मक परिवर्तन (Emotional Changes):
इस अवस्था में किशोरों में जिज्ञासा-प्रवृत्ति तीव्र हो जाती है। उनमें काल्पनिकता एवं भावुकता का पूर्ण विकास हो जाता है। उनमें विद्रोह की भावना तीव्र हो जाती है। वे स्वाभिमानी हो जाते हैं। उनमें आत्म-सम्मान की भावना का पूरी तरह विकास होने लगता है। वे विभिन्न प्रकार की प्रतियोगी परीक्षाओं या क्रियाकलापों में भाग लेने के लिए तैयार रहते हैं। उनमें संवेगात्मक तनाव तीव्र हो जाता है। उनमें उपेक्षा के भावों के कारण विद्रोह व अपराध करने की प्रवृत्तियाँ भी अधिक विकसित होने लगती हैं । इस अवस्था में उनका अपने संवेगों पर नियंत्रण नहीं रहता। वे छोटी-छोटी बातों से भी अपना संवेगात्मक या भावनात्मक संतुलन खो देते हैं।

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प्रश्न 6.
किशोरावस्था क्या है? इसकी समस्याओं या कठिनाइयों का विस्तारपूर्वक वर्णन करें।
अथवा
किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक-मानसिक परिवर्तनों के कारण किशोरों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है? वर्णन करें।
अथवा
किशोरावस्था एक गंभीर, तनावपूर्ण तथा समीक्षात्मक अवस्था है-स्पष्ट करें।
अथवा
“किशोरावस्था तीव्र दबाव एवं तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।” इस कथन को स्पष्ट करें।
उत्तर:
किशोरावस्था काअर्थ (Meaning of Adolescence):
किशोरावस्था एक गंभीर, तनावपूर्ण तथा समीक्षात्मक अवस्था है। इस अवस्था में शारीरिक वृद्धि और विकास तीव्र गति से होता है। इस अवस्था के आरंभ होते ही शरीर में अनेक अंतर आ जाते हैं। इसी कारण इस अवस्था को तनावपूर्ण व विरोध करने की अवस्था कहा जाता है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक स्टेनले हाल का कथन है, “किशोरावस्था तीव्र दबाव एवं तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।”

किशोरावस्था की समस्याएँ या कठिनाइयाँ (Problems or Difficulties of Adolescence);
किशोरावस्था में शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और व्यवहार में बहुत जल्दी परिवर्तन आते हैं। इस कारण किशोरों को कई प्रकार की कठिनाइयों या समस्याओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि उनको बचपन की आदतों को छोड़कर किशोरावस्था की आदतों में ढलना पड़ता है। इसी कारण किशोरावस्था में माता-पिता और अध्यापकों का दायित्व और भी बढ़ जाता है। इस अवस्था में किशोरों को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है

1. शारीरिक समस्याएँ (Physical Problems):
किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तन स्पष्ट नज़र आते हैं। कुछ शारीरिक परिवर्तनों के कारण उनमें बेचैनी होती है, क्योंकि उनको इन बातों की पूर्ण

2. मानसिक समस्याएँ (Mental Problems):
किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ अनेक मानसिक परिवर्तन भी होते हैं। इन परिवर्तनों के कारण कई प्रकार की मानसिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं; जैसे तनाव, चिंता, बेचैनी, खिंचाव आदि।मानसिक तनाव के कारण वे किसी दूसरे से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते।

3. आत्म-चेतना में वृद्धि (Increase in Self-consciousness):
बचपन में आत्म-चेतना कम होती है। जैसे ही बच्चा किशोरावस्था में कदम रखता है, उसकी चेतना में एकदम परिवर्तन आता है। वह लोगों को बताना चाहता है कि वह अब बच्चा नहीं रहा, बल्कि हर बात को भली-भाँति समझने लगा है। इस अवस्था में लड़के-लड़कियाँ कुछ बनने के लिए तत्पर रहते हैं। कई बार इस आत्म-चेतना के कारण वे गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं।

4. भावनात्मक या संवेगात्मक समस्याएँ (Emotional Problems):
किशोरावस्था में किशोरों का भावनात्मक होना एक साधारण बात है, क्योंकि इस अवस्था में उनमें संवेगात्मकता चरम-सीमा पर होती है। इसका मुख्य कारण उसकी शारीरिक और लिंग ग्रंथियों में जरूरत से अधिक वृद्धि है। किशोरावस्था में प्यार और नफरत दोनों बहुत ताकतवर होते हैं । इस अवस्था में उनका अपने संवेगों पर नियंत्रण नहीं रहता। वे छोटी-छोटी बातों से भी अपना भावात्मक संतुलन खो देते हैं।

5. व्यवसाय और विषयों की समस्याएँ (Problems of Career and Subjects):
किशोरावस्था में व्यवसाय और विषयों का चुनाव एक आम समस्या है। इस अवस्था में बच्चा स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए तैयार होता है। विषयों का चुनाव और व्यवसाय के चुनाव पर उसका आने वाला भविष्य निर्भर करता है। उसके भविष्य की उज्ज्वलता अथवा अंधकारमयता उसके चुनाव पर निर्भर करती है।

6. चिड़चिड़ेपन में वृद्धि (Increase in Irritation):
किशोरावस्था में किशोर स्वतंत्र होना चाहते हैं ताकि वे अपना फैसला स्वयं कर सकें, परंतु माता-पिता उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं। उनमें भावुकता बहुत अधिक होती है। इसी कारण माता-पिता उनकी प्रत्येक क्रिया पर नज़र रखते हैं ताकि वे भटक न जाएँ। परंतु बच्चे इन बातों से चिड़चिड़े हो जाते हैं और माता-पिता से सवाल-जवाब करने शुरू कर देते हैं। कई बार तो लड़ाई-झगड़े तक की नौबत आ जाती है।

7. बौद्धिक चेतना संबंधी समस्याएँ (Problems of Intellectual Consciousness):
किशोरावस्था में बौद्धिक चेतना अपनी चरम-सीमा पर होती है। उसकी बात को समझने की शक्ति तेज हो जाती है। वह माता-पिता से कई ऐसे सवाल करता है कि माता-पिता चकित रह जाते हैं । वह हर बात की छानबीन करना चाहता है। उनके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करना चाहता है। वह सदैव इसी ताक में रहता है कि वह किसी समूह अथवा अपनी मित्र-मंडली में बौद्धिक चेतना का प्रदर्शन करके अपने सम्मान में वृद्धि कर सके। बौद्धिक चेतना में वृद्धि होने के कारण किशोर स्वयं को दूसरों से अधिक बुद्धिमान एवं चालाक समझने लगते हैं। उन्हें स्वयं पर इतना अधिक विश्वास होता है कि वे दूसरों को मूर्ख समझने लगते हैं।

8. यौन संबंधी समस्याएँ (Sexual Problems): इस अवस्था में यौन संबंधी समस्याओं का होना भी एक आम बात है।

9. स्थिरता की कमी (Lack of Stability):
किशोरावस्था में किशोरों में स्थिरता की कमी होती है अर्थात् उनका व्यवहार स्थिर नहीं रहता। इसी कारण वे दूसरों के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते। स्थिरता की कमी के कारण किशोरों का व्यवहार आक्रामक हो जाता है। वे घर व बाहर पूर्ण रूप से स्वतंत्रता चाहते हैं।

10. नशीली दवाइयों का सेवन (Use of Drug Abuses):
किशोरावस्था में सिगरेट, शराब, नशीली दवाइयों आदि का सेवन सामान्य बात हो गई है। किशोर इस अवस्था में अपनी पढ़ाई की तरफ कम ध्यान देता है। वह नशीली दवाइयों का सेवन अपने दोस्तों के साथ बिना उसकी हानि जाने शुरू कर देता है जो कि उसके जीवन के लिए बहुत घातक सिद्ध होता है।

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प्रश्न 7.
हमें किशोरावस्था की समस्याओं का समाधान प्रबंध किस प्रकार करना चाहिए?
अथवा
किशोरों की समस्याओं को अध्यापकों व संरक्षकों या अभिभावकों को कैसे हल करना चाहिए?
अथवा
किशोरों को तनाव व चिंता से कैसे बचाया जा सकता है? वर्णन करें।
उत्तर:
किशोरावस्था में बच्चों को शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और अन्य कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यद्यपि इनका हल इतना आसान नहीं है, परंतु असंभव भी नहीं है। किशोरावस्था की समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न प्रत्येक वर्ग के सदस्यों को करना चाहिए ताकि बच्चों का पूर्ण विकास हो सके। अध्यापकों व अभिभावकों द्वारा किशोरावस्था की समस्याओं को निम्नलिखित तथ्यों के अंतर्गत सुलझाया जा सकता है

1. व्यक्तित्व को समझना (Recognition of Individuals):
किशोरावस्था में किशोर अपना निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं । वे समाज में अपनी अलग पहचान बनाना चाहते हैं। परंतु कई बार माता-पिता उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं। माता-पिता को किशोरों की सलाह को चाहे वह गलत हो अथवा ठीक हो उसे तुरंत नकारना नहीं चाहिए। यदि माता-पिता उनके विचारों की उपेक्षा करेंगे तो उनमें हीनता की भावना आ जाएगी और वे भविष्य में कोई भी निर्णय लेने में असमर्थता महसूस करेंगे।

2. मनोविज्ञान की शिक्षा (Education of Psychology):
अध्यापकों व अभिभावकों को मनोविज्ञान की मौलिक जानकारी होनी चाहिए। किशोरों को मनोविज्ञान के संबंध में संपूर्ण जानकारी देनी चाहिए, ताकि वे अपनी समस्याओं को दूर करने में समर्थ हो सकें।

3. वृद्धि और विकास के बारे में पूर्ण जानकारी (ProperKnowledge of Growth and Development):
किशोरावस्था में लड़के और लड़कियों में वृद्धि और विकास अलग-अलग चरणों में होता है। लड़कियाँ लड़कों से जल्दी वयस्क हो जाती हैं और जल्दी परिपक्वता में आ जाती हैं। माता-पिता और अध्यापकों को वृद्धि और विकास के अलग-अलग चरणों की पूरी जानकारी होनी चाहिए। किशोरों को वृद्धि और विकास के दौरान संतुलित भोजन, आराम, अच्छा वातावरण, मानसिक आजादी देना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। इन बातों से बच्चों में अच्छे गुण विकसित किए जा सकते हैं जो परिवार और समाज के लिए लाभदायक होते हैं।

4.धार्मिक शिक्षा (Religious Education):
किशोरावस्था में आ रहे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक परिवर्तनों से किशोर अनभिज्ञ होते हैं। ये परिवर्तन उनके मन में हलचल पैदा कर देते हैं। इसलिए माता-पिता को उनकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिए और अच्छा चरित्र-निर्माण करने के लिए उनको धार्मिक शिक्षा देनी चाहिए। माता-पिता को अपने बच्चों को मंदिर, गुरुद्वारे, मस्जिद और चर्च आदि में लेकर जाना चाहिए ताकि वे गुरु, संतों, पीर पैगंबरों आदि की गाथाएँ सुनकर अपने अंदर अच्छे गुण विकसित कर सकें। इस प्रकार उनके सामाजिक व्यवहार में भी परिवर्तन आएगा।

5. किशोरों के प्रति उचित व्यवहार (Proper Behaviour with Adolescence):
किशोरों के साथ उचित व्यवहार करना अति-आवश्यक है। यह आयु तनाव और खिंचाव वाली होती है। शरीर में आए परिवर्तनों के कारण बच्चे भावुक होते हैं। माता-पिता, बड़े भाई-बहन और समाज के सदस्यों को उनके साथ उचित व्यवहार करना चाहिए। उनकी आदतों, रुचियों और जरूरतों को अनदेखा नहीं करना चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार बच्चे के चहुँमुखी विकास पर प्रभाव डालता है।

6. व्यावसायिक मार्गदर्शन (Vocational Guidance):
अध्यापकों को चाहिए कि वे किशोरों को व्यावसायिक शिक्षा संबंधी आवश्यक निर्देश दें। ये निर्देश उनकी आयु, वृद्धि एवं रुचि के अनुसार होने चाहिएँ। माता-पिता को उनका उचित व्यावसायिक मार्गदर्शन करना चाहिए अर्थात् निस व्यवसाय या कोर्स में उनकी रुचि है, उसमें माता-पिता को पूरा सहयोग करना चाहिए।

7.संवेगों का प्रशिक्षण और संतुष्टि (Training and Satisfaction of Emotions):
किशोरावस्था में संवेगों में परिपक्वता न होने के कारण व्यवहार में उतार-चढ़ाव बहुत जल्दी आता है। माता-पिता के लिए संवेगों के बारे में जानकारी प्राप्त करना अति-आवश्यक है। अगर बच्चा भावुक होकर अपने उद्देश्यों से भटक जाता है तो वह जीवन के हर पहलू में पिछड़ जाता है। अगर उसकी भावनाओं को उचित मोड़ दिया जाए तो वह एक अच्छा नागरिक बन सकता है। संवेगों में परिवर्तन प्रेरणा द्वारा ही लाया जा सकता है।

8. माता-पिता का संबंध और सहयोग (Relationship and Co-operation of Parents):
किशोरावस्था में किशोर प्रत्येक बात को बारीकी से सोचता है और उसकी छानबीन करता है। माता-पिता के आपसी अच्छे संबंध उस पर गहरा प्रभाव डालते हैं। उसका बहिर्मुखी और अंतर्मुखी होना माता-पिता के संबंधों पर निर्भर करता है। माता-पिता का सहयोग बच्चों के लिए वरदान साबित होता है। इस अवस्था में स्कूल, कॉलेज और अन्य कई प्रकार की समस्याएँ माता-पिता के सहयोग से जल्दी निपटाई जा सकती हैं। माता-पिता की तरफ से दिया गया अच्छा वातावरण बच्चे को तनावमुक्त बनाता है।
अंत में हम यह कह सकते हैं कि किशोरावस्था दबाव, संघर्ष, संवेगात्मक तूफान की अवस्था होती है। इस अवस्था में बालकों की आवश्यकताओं और समस्याओं की ओर उचित ध्यान देना चाहिए।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

प्रश्न 8.
शादी तथा पितृत्व (Marriage and Parenthood) के लिए की जाने वाली तैयारी के आधारों का वर्णन करें।
अथवा
विवाह तथा पारिवारिक जीवन के लिए की जाने वाली आधारभूत तैयारियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
वैवाहिक तथा पारिवारिक जीवन की तैयारी का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विवाह से परिवार की नींव बनती है और यहीं से पारिवारिक जीवन प्रारंभ होता है। उस जीवन को सुखद बनाने के लिए प्रारंभिक तैयारी तथा देखभाल की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि पारिवारिक जीवन सुखद बनाने पर भी व्यक्ति का जीवन अनेक समस्याओं से घिरा रहता है, जिनका समाधान करने से ही वैवाहिक और पारिवारिक जीवन भली-भाँति आगे बढ़ सकता है। अतः विवाह और पारिवारिक जीवन की तैयारी के मुख्य आधार या विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. आर्थिक आधार (Economic Basis):
आर्थिक आधार विवाह तथा पारिवारिक जीवन की तैयारी के लिए प्रमुख आधार है। इससे अभिप्राय यह है कि इस क्षेत्र में प्रवेश करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक रूप से पूर्णतया आत्मनिर्भर होना चाहिए। उसके पास आजीविका कमाने के पर्याप्त साधन होने चाहिएँ। आधुनिक युग में संयुक्त परिवार प्रणाली के विघटन से इस आधार के महत्त्व में और भी वृद्धि हो गई है।

2. सहयोग की भावना (Spirit of Co-operation):
पारिवारिक जीवन देखने में जितना आकर्षक एवं सुखद होता है, वास्तव में वैसा नहीं है। पारिवारिक जीवन का बोझ उठाने के लिए व्यक्ति को मानसिक और मनोवैज्ञानिक रूप से पूर्णतया तैयार होना चाहिए। मानसिक रूप से कमजोर तथा मनोवैज्ञानिक रूप से अशिक्षित व्यक्ति को पारिवारिक जीवन में अनेक प्रकार की जटिलताओं या समस्याओं का समाधान करना पड़ता है। इस प्रकार की समस्याओं का समाधान व्यक्ति अकेला नहीं कर सकता। इसलिए उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, हम यह भी कह सकते हैं कि सुखद विवाहित जीवन के लिए सहयोग की भावना एक महत्त्वपूर्ण आधार है।

3. आवास का आधार (Basis of Dwelling):
एक अनुचित स्थान पर इकट्ठे रहने के कारण अनेक समस्याएँ एवं झगड़े पैदा होने का भय रहता है। अतः परिवार की प्रसन्नता, सुख और शान्ति के लिए पृथक् आवास की व्यवस्था होना परमावश्यक है। वर्तमान युग में पृथक् रहने की प्रवृत्ति के कारण आवास की समस्या और भी गंभीर रूप धारण कर रही है। आवास स्वच्छ वातावरण के आस-पास होना चाहिए। अच्छे व स्वच्छ वातावरण का पारिवारिक सदस्यों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है और विवाहित जीवन संतुलित रहता है।

4. नियोजित परिवार (Planned Family):
एक नियोजित परिवार की नींव और उससे प्राप्त होने वाले लाभों की इच्छा, पारिवारिक जीवन को प्रभावित करने वाला महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण है। परिवार नियोजन के महत्त्व को आज प्रत्येक व्यक्ति समझने लगा है। परिवार के सभी सदस्यों की आर्थिक, सामाजिक और मानसिक प्रगति अथवा सुख, नियोजित परिवार पर निर्भर करता है। इन्हें प्राप्त करने के लिए नियोजित परिवार तथा परिवार कल्याण को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए।

5. चिकित्सा परीक्षण (Medical Check-up):
विवाहित जीवन और पारिवारिक जीवन में प्रवेश हेतु दंपतियों को अपने स्वास्थ्य का पूर्ण रूप से चिकित्सा परीक्षण (Medical Check-up) करा लेना चाहिए। इस प्रकार के निरीक्षण से शारीरिक विकारों का पता चल जाता है और उनकी रोकथाम की जा सकती है। सत्य तो यह है कि इस प्रकार का चिकित्सा परीक्षण सुखी जीवन तथा भविष्य में होने वाली संतान के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध हो सकता है।

प्रश्न 9.
शिशु या बालक की देखभाल व विकास में माता-पिता की किस प्रकार की भूमिका होनी चाहिए?
अथवा
माता-पिता का शिशु की देखभाल में क्या योगदान होता है?
उत्तर:
शिशु के पालन-पोषण में माता-पिता की विशेष भूमिका होती है। जीवों में मानव ही एक ऐसा जीव है जिसमें बच्चों को काफी लंबे समय तक अपने माता-पिता के संरक्षण में रहना पड़ता है। इससे माता-पिता के व्यवहार का उन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। शिशु के जीवन के प्रारंभिक पाँच वर्ष बहुत ही लचीले होते हैं। इस अवस्था में उसमें बातों को ग्रहण करने की अत्यधिक क्षमता होती है। वैसे तो बच्चों के संपर्क अथवा जीवन में आने वाले सभी व्यक्तियों का उन पर प्रभाव पड़ता है; जैसे दादा-दादी, भाई-बहन, पड़ोसी, अध्यापक, मित्र-मण्डली और समाज के अन्य वर्गों के लोग, किंतु उनकी देखभाल और उनके सम्पूर्ण विकास में माता-पिता का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है।
1. घर का वातावरण (Atmosphere of House):
बच्चों पर घर के वातावरण की सबसे अधिक छाप होती है। इस अवस्था में ग्रहण की गई अच्छी बातें अथवा आदतें उनका जीवन-भर साथ देती हैं। माता-पिता के आपसी संबंध, उनका व्यवहार, स्थिति, उनका आर्थिक एवं सामाजिक स्तर और उनकी रुचियाँ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों के व्यक्तित्व अथवा व्यवहार को प्रभावित करती हैं।

2. माता-पिता का स्नेह (Parents Affection):
माता-पिता के आपसी संबंध अच्छे होने का बच्चों के मन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। बच्चे को माता-पिता से मिलने वाला स्नेह उसके जीवन की अनेक समस्याओं अथवा जटिलताओं को सुलझाने में सहायक सिद्ध होता है। माता-पिता से उचित स्नेह, सहानुभूति और सहयोग इत्यादि मिलने से उसका आत्म-सम्मान और आत्म-गौरव बढ़ता है।

3. मार्गदर्शन (Guidance):
माता-पिता का कर्त्तव्य बच्चों को केवल स्नेह देना ही नहीं, बल्कि उनके व्यवहार के उचित विकास के लिए मार्गदर्शन करना भी है। यदि माता-पिता अपने बच्चों का सही मार्गदर्शन नहीं करते तो वे अपने रास्ते से भटक जाते हैं, जिससे उन्हें असफलता एवं निराशा का मुँह देखना पड़ता है। इसलिए माता-पिता का यह कर्त्तव्य है कि वे अपने बच्चों का मार्गदर्शन करके उन्हें भटकने से बचाएँ।

4. शैक्षिक सुविधाएँ (Educational Facilities):
माता-पिता को अपने बच्चों को सभी प्रकार की अच्छी शैक्षिक सुविधाएँ देने का प्रयास करना चाहिए। अच्छी शिक्षा से बच्चों की वृद्धि तथा विकास पर ही प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि उनका भविष्य भी उज्ज्वल होता है। कई माता-पिता समय के अभाव या निरक्षरता के कारण बच्चों की शिक्षा की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देते जिससे उनके बच्चों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वे अन्य बच्चों की तुलना में पिछड़ जाते हैं। माता-पिता को अपने बच्चों की शिक्षा के उत्तरदायित्व से पीछे नहीं हटना चाहिए।

5. शारीरिक समस्याएँ (Physical Problems):
किशोरावस्था में बच्चों में शारीरिक परिवर्तन आने के कारण उनमें काम-चेतना काफी प्रबल हो जाती है जिससे उनके सामने अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। माता-पिता अपने बच्चों की शारीरिक समस्याओं को अच्छी प्रकार समझकर उनका उचित समाधान करने के लिए प्रयास कर सकते हैं। वे बच्चों के सर्वांगीण विकास में अच्छी भूमिका निभा सकते हैं।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

प्रश्न 10.
एक अच्छे नागरिक के तौर पर व्यक्ति की क्या भूमिका होनी चाहिए?
अथवा
‘नागरिक’ को परिभाषित कीजिए। एक अच्छे नागरिक में कौन-कौन-से गुण होने चाहिएँ?

के बिना नहीं रह सकता और समाज में रहकर ही वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा करता है। समाज का निर्माण भी नागरिकों से ही संभव है।
1.अरस्तू (Aristotle) नागरिक की परिभाषा देते हुए लिखते हैं, “जिस व्यक्ति विशेष के पास राज्य की समीक्षा अथवा न्याय
2. श्रीनिवास शास्त्री (Sriniwas Shastari) के अनुसार, “नागरिक वही है जो राज्य का सदस्य है और समाज की भलाई के लिए बनाए गए नियमों का पालन करता है। राष्ट्र का निर्माण नागरिकों के द्वारा होता है और समाज का निर्माण व्यक्ति के द्वारा होता है।”

एक अच्छे नागरिक के गुण व भूमिका (Qualities and Role of aGood Citizen):
प्रत्येक बच्चे को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वह समाज एवं राष्ट्र के प्रति अपना विशेष कर्त्तव्य समझ सके और उसके विकास में अपना योगदान दे सके। उसमें वे सभी गुण होने चाहिएँ, जो न केवल उसके लिए अपितु समाज व देश के लिए भी लाभदायक हों। एक अच्छे नागरिक में निम्नलिखित गुण होने चाहिएँ
(1) प्रत्येक नागरिक में ईमानदारी, सहयोग, सहनशीलता आदि गुणों का होना अनिवार्य है। ये गुण सामाजिक कर्तव्यों को निभाने में सहायक होते हैं।
(2) नागरिक का चरित्र उच्चकोटि का होना चाहिए। उसे सादे जीवन के निर्वाह में विश्वास रखना चाहिए।
(3) प्रत्येक नागरिक में देशभक्ति की भावना होनी चाहिए। उसे अपनी रुचियों की अपेक्षा देश की रुचियों को प्राथमिकता देनी चाहिए। उसे अपने देश को ही सबसे ऊपर समझना चाहिए।
(4) उसे खेलकूद के नियमों का पालन करना चाहिए। यह नियम भी एक अच्छा नागरिक बनाने में सहायक होता है।
कोई भी व्यक्ति तब तक अपने राष्ट्र के प्रति वफादार नहीं हो सकता, जब तक वह स्वयं अपने माता-पिता, परिवार, समाज आदि के प्रति वफादार नहीं है। जब तक हम एक अच्छे पड़ोसी की भाँति नहीं रहेंगे, तब तक हम शांति से नहीं रह सकते।
(6) प्रजातांत्रिक देश में नागरिक को जाति, रंग, भाषा या धर्म में भेदभाव नहीं करना चाहिए। यदि प्रत्येक नागरिक अनुशासित होगा तो देश अनुशासित होगा।
(7) उसे समाज में भाईचारे, सहयोग, बंधुत्व की भावनाओं का विकास करने में अपना योगदान देना चाहिए।
एक अच्छे नागरिक के गुणों को महात्मा गाँधी ने इस प्रकार से व्यक्त किया-“एक अच्छे नागरिक में सत्य, अहिंसा एवं निर्भीकता के गुण होने चाहिएँ ताकि वह उच्च एवं अच्छे समाज की स्थापना कर सके।”

लघूत्तरात्मक प्रश्न [Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
गर्भधारण और जन्म से पूर्व सावधानियों का वर्णन करें।
अथवा
गर्भ में तथा बच्चा पैदा होने से पहले की देखभाल का वर्णन करें।
उत्तर:
गर्भ में तथा बच्चा पैदा होने से पहले की देखभाल माँ या गर्भवती महिला पर निर्भर करती है। गर्भावस्था के दौरान गर्भवती महिला ‘कुछ सावधानियाँ बरतकर न सिर्फ अपने होने वाले शिशु को स्वस्थ पैदा कर सकती है, बल्कि वह स्वयं को भी स्वस्थ रख सकती है। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि गर्भकाल में प्रकट होने वाले अनेक विकार और व्याधि मानसिक कारणों से होते हैं। इसलिए गर्भवती महिला को अपनी मानसिक स्थिति ठीक रखनी चाहिए। गर्भवती को अपने भोजन में सभी आवश्यक एवं पौष्टिक तत्त्वों को शामिल करना चाहिए। हरी सब्जियों और मौसम के अनुसार ताजे फल भी बहुत आवश्यक होते हैं, क्योंकि इनसे माँ और बच्चे को शरीर के जरूरी खनिज लवण और विटामिन्स प्राप्त होते हैं।

परिवार को भी गर्भवती महिला के भोजन की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए, क्योंकि बच्चा अपनी वृद्धि एवं विकास के लिए माँ के शरीर से भोजन प्राप्त करता है। अपने भोजन के प्रति माँ (गर्भवती) को विशेष सावधानी रखनी चाहिए। उसे अपने भोजन में उन्हीं भोजन अवयवों का चयन करना चाहिए जिनसे गर्भ में पल रहे बच्चे के स्वास्थ्य पर अनुकूल असर हो। गर्भवती महिला को किसी बीमारी के कारण औषधियों या दवाइयों के सेवन में भी विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। गर्भवती महिला को विशेषज्ञ की सलाह लेकर ही औषधियों या दवाइयों का सेवन करना चाहिए। गर्भावस्था के आखिरी दिनों में मधुमेह और थाइराइड के लिए ली जाने वाली औषधियों से बचना चाहिए क्योंकि इन औषधियों का शिशु के स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए माँ को अपने गर्भावस्था के दौरान सभी आवश्यक सावधानियों का विशेष ध्यान रखना चाहिए, ताकि उसका बच्चा सुंदर एवं स्वस्थ पैदा हो सके और उसका स्वयं का स्वास्थ्य भी ठीक रहे।

प्रश्न 2.
परिवार कितने प्रकार के होते हैं? वर्णन करें।
अथवा
व्यक्तिगत परिवार तथा संयुक्त परिवार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
परिवार मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-
1. व्यक्तिगत या एकल परिवार-व्यक्तिगत या एकल परिवार को प्राथमिक, मूल अथवा नाभिक परिवार भी कहते हैं। यह परिवार का सबसे छोटा और आधारभूत स्वरूप है जिसमें सदस्यों की संख्या बहुत कम होती है। आमतौर पर पति-पत्नी तथा उसके अविवाहित बच्चे ही इस परिवार के सदस्य होते हैं। ऐसे परिवार में सदस्य भावात्मक आधार पर एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं। परिवार का आकार सीमित होने के कारण इसका बच्चों के जीवन पर काफी रचनात्मक प्रभाव पड़ता है।

2. संयुक्त परिवार-संयुक्त परिवार में तीन या तीन से अधिक पीढ़ियों के सदस्य; जैसे पति-पत्नी, उनके बच्चे, दादा-दादी, चाचा-चाची, चचेरे भाई, बच्चों की पत्नियाँ आदि साथ-साथ एक घर में निवास करते हैं, उनकी संपत्ति सांझी होती है। संयुक्त परिवार के सदस्य परस्पर अधिकारों व कर्तव्यों को निभाते हैं।

प्रश्न 3.
बच्चों को पालने में परिवार की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
बच्चों व अन्य सदस्यों को पालने में परिवार की भूमिका निम्नलिखित है
(1) परिवार बच्चों व अन्य सदस्यों के लिए संतुलित भोजन, समयानुसार वस्त्र, आवास एवं चिकित्सा सुविधा आदि का प्रबंध करता है।
(2) परिवार में बच्चों के धार्मिक एवं आध्यात्मिक विकास की ओर ध्यान दिया जाता है।
(3) परिवार को सामाजिक गुणों का पालना कहा जाता है। परिवार बच्चे के सामाजिक विकास में सहायक होता है।
(4) परिवार बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए अवसर जुटाता है।
(5) परिवार बच्चों के मूल्यपरक अर्थात् नैतिक गुणों के विकास में सहायक होता है। परिवार उनमें परिश्रम, ईमानदारी, सहयोग एवं सहानुभूति आदि गुणों को विकसित करता है।

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प्रश्न 4.
परिवार के आधारभूत या बुनियादी कार्य कौन-कौन-से हैं?
अथवा
परिवार के कोई चार प्राथमिक या मूल कार्य बताएँ।
उत्तर:
परिवार के आधारभूत या बुनियादी कार्य निम्नलिखित हैं
(1) बच्चों के माता-पिता का उनके पालन-पोषण में बहुत बड़ा योगदान होता है। बच्चे को दूसरे लोगों की बजाय अपने माता-पिता का साथ ज्यादा मिलता है क्योंकि बच्चे के ऊपर माता-पिता का काफ़ी लम्बे समय तक गहरा प्रभाव रहता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चे में जीवन के बहुमूल्य पाँच सालों में अच्छे गुणों को प्राप्त करने की आध्यात्मिक शक्ति होती है। दूसरे लोगों का प्रभाव बच्चे पर इस अवस्था के बाद में ही होता है।
(2) परिवार बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करता है। वह बच्चों की शिक्षा संबंधी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करना है।
(3) परिवार का बुनियादी कार्य केवल संतान पैदा करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि परिवार के सदस्यों की सुरक्षा अच्छे ढंग से करना भी उसका कार्य है। माता-पिता की देखभाल में रहकर बच्चा अपने व्यक्तित्व को निखार सकता है।
(4) रोटी, कपड़ा और मकान जीवन की मुख्य जरूरतें हैं। इनकी व्यवस्था करना परिवार का बुनियादी कार्य है।

प्रश्न 5.
परिवार के मुख्य तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
परिवार के मुख्य तत्त्व निम्नलिखित हैं
1. लैंगिक संबंध-परिवार का मुख्य तत्त्व लैंगिक संबंध होता है। यह संबंध स्थायी होता है।
2. समान अधिकार-निवास स्थान पर हर सदस्य का समान अधिकार होना चाहिए।
3. सामूहिक दायित्व-परिवार के प्रत्येक सदस्य का घर के किसी भी काम के प्रति सामूहिक दायित्व होता है। प्रत्येक सदस्य की आवश्यकता मिल-जुलकर पूरी की जाए तो परिवार का हर सदस्य कुछ-न-कुछ सहयोग ज़रूर देगा।
4. वंशावली-राज्य और समाज वंशावली को मान्यता देता है और भविष्य में कोई भी परिवार वंश के नाम से ही जाना जाएगा।

प्रश्न 6.
परिवार के प्रमुख सामाजिक कार्य लिखिए।
उत्तर:
परिवार के प्रमुख सामाजिक कार्य निम्नलिखित हैं
1. स्थिति प्रदान करना-सबसे पहले परिवार में ही व्यक्ति को उसकी प्रथम स्थिति प्राप्त होती है। पैदा होते ही वह एक पुत्र, भाई आदि की स्थिति प्राप्त कर लेता है। स्थिति के अनुसार ही व्यक्ति की भूमिका होती है। अतः हम कह सकते हैं कि परिवार ही सबसे पहले व्यक्ति की स्थिति और भूमिका निश्चित करता है।

2. सामाजिक नियंत्रण-परिवार अपने सदस्यों के व्यवहार पर नियंत्रण रखकर सामाजिक नियंत्रण में भी सहायक होता है। परिवार ही सबसे पहले व्यक्ति को सामाजिक व्यवहार के स्वीकृत मानदंडों के अनुरूप व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है।

3. मानवीय अनुभवों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचाना-आज तक के मानवीय अनुभवों को परिवार बच्चों को कुछ ही वर्षों में सिखा देता है। इस प्रकार ये अनुभव पीढ़ी-दर-पीढ़ी अविराम गति से पहुँचते रहते हैं।

4. मानवता का विकास-परिवार के सदस्य तीव्र भावात्मक संबंधों में बँधे होने के कारण सदैव एक-दूसरे के लिए त्याग तथा बलिदान हेतु तत्पर रहते हैं। पारस्परिक सहयोग, त्याग, बलिदान, प्रेम, स्नेह आदि के गुणों का विकास करके परिवार अपने सदस्यों में मानवता का विकास करता है।

प्रश्न 7.
परिवार के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
परिवार की उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
परिवार को बच्चे का पालना कहा जाता है। यह बच्चे और अन्य सदस्यों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। हमारे जीवन में परिवार का बहुत महत्त्व है। इसके महत्त्व को निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट किया जा सकता है
(1) परिवार की वजह से हम बहुत-सी परेशानियों से दूर रहते हैं, क्योंकि पारिवारिक सदस्य एक-दूसरे की हर तरह की सहायता करते हैं।
(2) परिवार से ही हमें जीवन जीने का मकसद मिलता है और हम अपने परिवार के साथ खुश रहकर जीवन का निर्वाह करते हैं।
(3) परिवार से ही हमारा समाज आगे बढ़ता है और समाज का निर्माण होता है।
(4) परिवार ही हमें सामाजिकता सिखाता है और हमारी सभी मूल जरूरतों को पूरा करता है।
(5) परिवार ही पारिवारिक सदस्यों में नैतिक गुणों का विकास करता है। (6) परिवार से ही हमें आत्म-रक्षा, संस्कृति व भाषा का ज्ञान प्राप्त होता है।

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प्रश्न 8.
“किशोरावस्था एक समस्या की उम्र है।” स्पष्ट करें।
अथवा
“किशोरावस्था एक गंभीर अवस्था है।” स्पष्ट करें।
अथवा
किशोरावस्था में किशोरों को किन-किन प्रमुख समस्याओं का सामना करना पड़ता है?
उत्तर:
किशोरावस्था एक गंभीर एवं समस्या की उम्र (अवस्था) है। इसमें किशोरों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस उम्र में किशोरों को निम्नलिखित प्रमुख समस्याओं का सामना करना पड़ता है
(1) किशोरावस्था में अनेक शारीरिक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों के कारण किशोरों को चिंता एवं बेचैनी होती है।
(2) इस अवस्था में किशोर दूसरों के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते। वे अनेक मानसिक तनावों से प्रभावित होते हैं।
(3) इस अवस्था में किशोरों को अपने व्यवसाय या विषय का चयन करने में भी समस्या आती है।
(4) किशोरावस्था में भावुकता बहुत होती है। इसी कारण माता-पिता उनकी प्रत्येक क्रिया पर नज़र रखते हैं ताकि वे भटक न जाएँ। परन्तु बच्चे इन बातों से चिड़चिड़े हो जाते हैं और माता-पिता से सवाल-जवाब करने शुरू कर देते हैं। कई बार तो लड़ाई-झगड़े तक की नौबत आ जाती है।

प्रश्न 9.
किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
अथवा
किशोरावस्था की कोई चार विशेषताएँ या लक्षण लिखें।
उत्तर:
किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ या लक्षण निम्नलिखित हैं
(1) बाहरी व आंतरिक शारीरिक भागों का विकास,
(2) मानसिक या बौद्धिक चेतना का विकास,
(3) सामाजिक चेतना में वृद्धि,
(4) भावी जीवन की योजनाएँ बनाने में रुचि,
(5) स्मरण शक्ति व कल्पना-शक्ति का तीव्र विकास,
(6) सामाजिक वातावरण के प्रति जागरूकता,
(7) विपरीत लिंग से संबंधित चर्चा एवं साहित्य में अधिक रुचि।

प्रश्न 10.
किशोरावस्था को परिवर्तन की अवस्था क्यों कहा जाता है?
अथवा
किशोरावस्था तनाव एवं खिंचाव की अवस्था है। स्पष्ट करें।
उत्तर:
किशोरावस्था तनाव एवं खिंचाव तथा परिवर्तन की अवस्था है। इसमें किशोरों में वृद्धि की गति तीव्र होती है। उनके बाहरी व आंतरिक अंगों का विकास तीव्र गति से होना आरंभ हो जाता है। लड़कियों की आवाज कोमल व मधुर तथा लड़कों की आवाज भारी हो जाती है । इस अवस्था में लड़कों को दाढ़ी-मूंछ आ जाती है। किशोरों में शारीरिक परिवर्तन के साथ मानसिक परिवर्तन भी तीव्र गति से होते हैं। इसी कारण इस अवस्था को परिवर्तन की अवस्था भी कहा जाता है । इस अवस्था में उनमें मानसिक तनाव, खिंचाव व चिंता आदि बढ़ने लगती है । वे दूसरों के साथ समायोजन नहीं कर पाते । स्वयं को ही अधिक महत्ता देने लगते हैं। जिस कारण उनको अनेक मानसिक तनावों का सामना करना पड़ता है । इस प्रकार किशोरावस्था तनाव एवं खिंचाव तथा परिवर्तन की अवस्था है।

प्रश्न 11.
किशोर आयु के बालक/बालिकाओं के तनाव व खिंचाव को किस प्रकार दूर करेंगे?
अथवा
किशोरावस्था की समस्याओं के निवारण का संक्षेप में उल्लेख करें।
अथवा
किशोरों की समस्याओं को अध्यापक को कैसे दूर करना चाहिए?
अथवा
माता-पिता को किशोरों की समस्याओं का निपटारा कैसे करना चाहिए?
अथवा
किशोरावस्था की समस्याएँ आप कैसे नियंत्रित करेंगे?
उत्तर:
किशोरावस्था की समस्याओं को समझना तथा उनकी संतुष्टि का प्रयास करना अति आवश्यक है। माता-पिता और अध्यापक को किशोरों के प्रति अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए। इसके लिए निम्नलिखित सुझाव लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं-
(1) किशोरों को लिंग संबंधी शिक्षा देना,
(2) किशोरों को मनोविज्ञान के संबंध में पूर्ण जानकारी देना,
(3) उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता देना,
(4) उनकी भावनाओं का आदर करना,
(5) घर-परिवार का वातावरण उचित बनाना,
(6) व्यावसायिक पथ-प्रदर्शन करना,
(7) नैतिक व मूल्य-बोध की शिक्षा देना,
(8) सहसंबंध एवं सहयोग की भावना रखना,
(9) उचित व्यवहार करना,
(10) उनकी विभिन्न आवश्यकताओं व इच्छाओं की पूर्ति करना,
(11) संवेगों का प्रशिक्षण तथा संवेगात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करना आदि।

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प्रश्न 12.
किशोरों की शिक्षा-व्यवस्था करते समय किन-किन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए?
उत्तर:
किशोरों की शिक्षा-व्यवस्था करते समय निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देना चाहिए
(1) किशोरावस्था को परिवर्तन की अवस्था कहा जाता है। इसमें किशोरों में अनेक परिवर्तन होते हैं। माता-पिता एवं अध्यापकों द्वारा उन्हें उचित दिशा का बोध कराने का दायित्व निभाया जाना चाहिए।
(2) इस अवस्था में उनमें किसी विषय से संबंधित जानकारी प्राप्त करने की उत्तेजना होती है। इसलिए माता-पिता व अध्यापकों के द्वारा उन्हें ऐसे विषय दिए जाने चाहिएँ जिनसे उनकी जिज्ञासा की पूर्ति हो और उनकी स्मरण शक्ति का विकास हो।
(3) किशोरों के संतुलित विकास के लिए, खेलकूद व व्यायाम आदि पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
(4) उनके मानसिक या बौद्धिक विकास हेतु उनकी बुद्धि, स्मरण-शक्ति, तर्क-शक्ति, चिंतन-शक्ति, कल्पना-शक्ति आदि का विकास उनकी रुचि, इच्छा, क्षमता एवं योग्यता के अनुसार किया जाना चाहिए।
(5) उन्हें शुद्ध पढ़ने, बोलने और लिखने का अभ्यास करवाना चाहिए, क्योंकि इस अवस्था में स्मरण शक्ति काफी विकसित होती है।
(6) विषयों को पढ़ाते समय उनकी रुचि एवं इच्छाओं पर अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए। इस अवस्था में इनमें स्वतंत्र पठन करने की रुचि भी विकसित हो जाती है। इसलिए अध्यापकों को उनकी इस रुचि को अधिक-से-अधिक प्रोत्साहित करना चाहिए।

प्रश्न 13.
एक अच्छे नागरिक के कोई चार गुण बताएँ। अथवा एक नागरिक में कौन-कौन-से गुण होने चाहिएँ?
उत्तर:
एक अच्छे नागरिक में निम्नलिखित गुण होने चाहिएँ
(1) प्रत्येक नागरिक में ईमानदारी, सहयोग, सहनशीलता आदि गुणों का होना अनिवार्य है। ये गुण सामाजिक कर्तव्यों को निभाने में सहायक होते हैं।
(2) नागरिक का चरित्र उच्चकोटि का होना चाहिए। उसे सादे जीवन के निर्वाह में विश्वास रखना चाहिए।
(3) प्रत्येक नागरिक में देशभक्ति की भावना होनी चाहिए। उसे अपनी रुचियों की अपेक्षा देश की रुचियों को प्राथमिकता देनी चाहिए। उसे अपने देश को ही सबसे ऊपर समझना चाहिए।
(4) उसे समाज में भाईचारे, सहयोग, बंधुत्व की भावनाओं का विकास करने में अपना योगदान देना चाहिए।

प्रश्न 14.
बच्चे के सामाजिक विकास में परिवार की क्या भूमिका होनी चाहिए?
अथवा
बालक के सामाजिक विकास में माता-पिता का क्या योगदान होता है?
उत्तर:
बच्चे का पालन-पोषण परिवार में होता है। माता-पिता उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। वे उसके लिए भोजन, कपड़े व सुरक्षा आदि की व्यवस्था करते हैं। वे उसके मनोरंजन, खेलकूद व सामाजिक विकास संबंधी सभी जरूरतों को भी पूरा करते हैं। वे लड़का-लड़की दोनों के साथ समान व्यवहार करते हैं। वे परिवार में ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं जिसमें बच्चों का सर्वांगीण विकास हो। वे बच्चों की इच्छाओं की पूर्ति के प्रति सजग रहते हैं। अतः परिवार या माता-पिता का बच्चे के सामाजिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

प्रश्न 15.
किशोरावस्था की रुचियों का संक्षेप में उल्लेख करें।
उत्तर:
किशोरावस्था में किशोरों में अनेक रुचियों का तेजी से विकास होता है। इस अवस्था में लड़के सामूहिक खेल खेलने में रुचि रखते हैं; जैसे क्रिकेट, कबड्डी, हॉकी आदि। लड़कियाँ गीत, संगीत, नाटक, नृत्य आदि में रुचि रखती हैं। इनमें प्रदर्शन करने की भावना भी विकसित हो जाती है। लड़कियाँ शृंगार के सामान का अच्छी तरह से प्रयोग करने लगती हैं। वे विज्ञान, साहित्य, देश-प्रेम साहित्य, यौन साहित्य आदि को पढ़ने में रुचि रखते हैं। इनमें सिनेमा, टी०वी० देखने, फिल्मी गीत सुनने और घूमने-फिरने की आदत विकसित हो जाती है। वे सामाजिक कार्यों में भी रुचि लेने लगते हैं। लड़कियाँ अपनी सहेलियों से अपनी व्यक्तिगत समस्याओं से संबंधित वार्तालाप

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प्रश्न 16.
एक अच्छे नागरिक के कोई तीन वैधानिक कर्त्तव्य लिखें।
उत्तर:
एक अच्छे नागरिक के प्रमुख वैधानिक कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं-
1. कानून का पालन करना-इसके अन्तर्गत हमें कानून द्वारा दिए गए हर आदेशों का पालन करना चाहिए। कभी भी कानून के नियमों की उल्लंघना नहीं करनी चाहिए।
2. करों का भुगतान-हर नागरिक का यह परम कर्त्तव्य है कि वह अपने करों को पूरी ईमानदारी के साथ उसका भुगतान करे क्योंकि करों द्वारा इकट्ठी की गई राशि देश के विकास में खर्च की जाती है। सड़क बनाना, बिजली प्रदान करना तथा अन्य कई प्रकार की सुविधाएँ सरकार हमें इन्हीं करों के माध्यम से प्रदान करती है। इसलिए हर नागरिक को अपने करों का भुगतान करना चाहिए।
3. मत का उचित प्रयोग-मत ही आम नागरिक का एक ऐसा हथियार है जिसके द्वारा वह सरकार की काया पलट सकता है। हमें अपने मतों का प्रयोग अच्छी सरकार के चयन हेतु करना चाहिए। इसलिए मत का उचित प्रयोग हर नागरिक का परम कर्त्तव्य है।

प्रश्न 17.
एक अच्छे नागरिक के किन्हीं तीन नैतिक कर्तव्यों या उत्तरदायित्वों का वर्णन कीजिए। उत्तर:एक अच्छे नागरिक के तीन नैतिक कर्त्तव्य या उत्तरदायित्व निम्नलिखित प्रकार से हैं
1. परिवार के प्रति कर्त्तव्य-एक नागरिक का नैतिक तथा प्रमुख कर्त्तव्य उसके परिवार के प्रति है; जैसे कि शिशु पालन, बच्चों की देखभाल, शिक्षा प्रदान करना, सुरक्षा प्रदान करना, जीवन की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति इत्यादि। इन कर्तव्यों का पालन करके एक नागरिक देश को विकास की तरफ ले जा सकता है।

2. समाज के प्रति कर्त्तव्य-एक नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य समाज के प्रति बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसे अपने समाज के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करना चाहिए। उसे समाज के साथ सहयोग, सहनशीलता, सद्भावना, आज्ञा पालन, अनुशासन में रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।

3. मानवता के प्रति कर्त्तव्य-एक नागरिक को मानवता को ध्यान में रखकर अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। अपने फायदे के लिए मानव जाति को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए। अक्सर हम अपने निजी फायदों के लिए मानवता के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं। जैसे कि लगातार जंगलों को अपने निजी फायदे के लिए काटते जा रहे हैं जिससे वातावरण दूषित हो रहा है। दूषित वातावरण मानव जीवन के लिए हानिकारक है। इसलिए हमें मानवता के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना चा

प्रश्न 18.
परिवार के कोई तीन गौण या द्वितीयक कार्य बताएँ।
उत्तर:
इन कार्यों को अधिक प्राथमिकता नहीं दी जाती, इसलिए इन्हें द्वितीयक या गौण कार्य कहा जाता है। समाज विशेष के अनुसार इन कार्यों में परिवर्तन होता रहता है।
1. आमोद-प्रमोद संबंधी कार्य-परिवार पारिवारिक सदस्यों के मनोरंजन या आमोद-प्रमोद हेतु कार्य करता है। इससे वे संतुष्टि व राहत महसूस करते हैं।
2. मनोवैज्ञानिक कार्य-परिवार सदस्यों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करने का कार्य करता है। परिवार में सदस्यों का परस्पर प्रेम, सहानुभूति, त्याग, धैर्य आदि भावनाएँ देखने को मिलती हैं। परिवार में सदस्यों के संबंध पूर्ण व घुले-मिले होते हैं। इसलिए सदस्य सुख-दुःख आदि में एक-दूसरे को सहयोग देते हैं।
3. आर्थिक कार्य-परिवार अपने सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन (आय) का प्रबंध करता है। परिवार की आय से ही उसकी गरीबी या अमीरी का आकलन किया जाता है। परिवार का मुखिया, आय को कैसे खर्च करना है, तय करता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक परिवार के पास अपनी चल तथा अचल संपत्ति; जैसे जमीन, सोना, गहने, नकद, पशु, दुकान आदि होती है। उसकी देखभाल एवं सुरक्षा परिवार के द्वारा की जाती है।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

प्रश्न 19.
“विवाह से पूर्व बच्चों के पालन-पोषण एवं देखभाल की जानकारी अत्यन्त आवश्यक है।” संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रत्येक परिवार या माता-पिता की खुशी, इच्छा व भविष्य बच्चों के साथ जुड़ा होता है। शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ बच्चे ही देश के भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं। बच्चों के पालन-पोषण व देखभाल का मूल उत्तरदायित्व माता-पिता का होता है जो उसके शारीरिक, मानसिक, नैतिक व व्यावहारिक विकास में अपना योगदान देते हैं। अतः विवाह से पूर्व बच्चों के पालन-पोषण एवं देखभाल की जानकारी अत्यन्त आवश्यक है। यह कथन निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है
(1) बच्चों को पालना बहुत कठिन कार्य है। यदि पहले ही बच्चों के पालन-पोषण व देखभाल की पूर्ण जानकारी प्राप्त की जाए तो यह कार्य आसान हो जाता है।
(2) बच्चों की आवश्यकताओं व इच्छाओं का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। इससे बच्चों के स्वास्थ्य का शुरू से ही ध्यान रखा जा सकता है।
(3) विवाह से पूर्व बच्चों का मनोविज्ञान अच्छे से समझ सकते हैं। बाद में इसकी सहायता से उनके लिए ऐसा वातावरण प्रदान कर सकते हैं जिसमें रहकर वे प्रसन्नता व खुशी महसूस कर सकें।
(4) बच्चों के उचित विकास हेतु हमें वंश व वातावरण संबंधी विशेष जानकारी मिल सकती है। ये दोनों पक्ष बच्चों के पालन पोषण व विकास के लिए बहुत आवश्यक होते हैं।
(5) शुरू में छोटे बच्चों को कई टीके की बूस्टर या खुराक निश्चित समय पर दी जाती है। इनसे बच्चे रोगों से बचे रहते हैं। यदि बच्चों को लगने वाले टीकों की पूर्ण जानकारी पहले से ही हो तो यह बूस्टर या खुराक बच्चों को निश्चित समय पर दी जा सकती है। इसमें देरी होने से या न लगवाने से बच्चे के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है और उसकी रोग प्रतिरोधक शक्ति कम हो सकती है। इस प्रकार विवाह से पूर्व ही बच्चों के पालन-पोषण की पूर्ण जानकारी होने से हम बच्चे के सभी पक्षों व अवस्थाओं का उचित विकास कर सकते हैं।

प्रश्न 20.
किशोरों की ऊर्जा को उचित ढंग से प्रयोग करने में शारीरिक शिक्षा क्या भूमिका निभा सकती है ? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
किशोरावस्था को तनाव, खिंचाव व परिवर्तन की अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में किशोरों में अनेक शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक परिवर्तन होते हैं जिनके कारण किशोर बेचैन व चिंतित रहते हैं। उनमें तीव्र उत्साह एवं व्याकुलता की भावना प्रबल होती है। वे हर कार्य को जल्दी-से-जल्दी करने के लिए व्याकुल रहते हैं और किसी प्रकार का कोई नियम नहीं मानते। परन्तु शारीरिक शिक्षा किशोरों की ऊर्जा को उचित ढंग से प्रयोग करने में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है
(1) शारीरिक शिक्षा खेलकूद व व्यायाम क्रियाओं पर बल देती है। किशोर खेलकूद व व्यायाम क्रियाओं के माध्यम से स्वयं को समायोजित कर सकते हैं और अपनी ऊर्जा या शक्ति का सही दिशा में इस्तेमाल कर सकते हैं। इस कार्य में शारीरिक शिक्षा महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। अतः खेलों में किशोरों की ऊर्जा का उचित इस्तेमाल हो जाता है।

(2) शारीरिक शिक्षा संबंधी खेल गतिविधियाँ नियमों में बंधी होती हैं। जब किशोर इन खेल गतिविधियों में भाग लेते हैं तो उन्हें इन नियमों का पालन करना पड़ता है। अतः किशोरों में भी सामाजिक जीवन में नियमों का पालन करने की आदत विकसित हो सकती है। वे अपनी ऊर्जा को अच्छे कार्यों की ओर लगाते हैं।

(3) योग व ध्यान शारीरिक शिक्षा के महत्त्वपूर्ण विषय हैं। योग एवं ध्यान से किशोरों का मानसिक संतुलन स्थापित होता है। योग एवं ध्यान उन्हें अपने मन को नियंत्रित करना सिखाता है।

(4) शारीरिक शिक्षा स्वास्थ्य एवं भोजन संबंधी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती है। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से किशोरों को अपने शरीर को स्वस्थ एवं तंदुरुस्त रखने हेतु महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

(5) शारीरिक शिक्षा के माध्यम से अनेक नैतिक व सामाजिक गुणों को विकसित किया है; जैसे-
(i) सकारात्मक क्रियाओं को प्रोत्साहित करना,
(ii) नकारात्मक क्रियाओं के लिए दंड देना,
(ii) न्याय व समानता को प्रोत्साहित करना,
(iv) सहयोगियों व दूसरों का आदर-सम्मान करना आदि।

ये सभी गुण किशोरों को बहुत प्रभावित करते हैं। अतः उनमें अपनी ऊर्जा को सही दिशा में लगाने की प्रेरणा आती है।

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अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न [Very Short Answer Type Questions]

प्रश्न 1.
परिवार का शाब्दिक अर्थ क्या है? अथवा परिवार का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परिवार को अंग्रेज़ी भाषा में ‘Family’ कहते हैं। ‘Family’ शब्द लैटिन भाषा के ‘Famulus’ शब्द से निकला है। ‘Famulus’ शब्द का प्रयोग एक ऐसे समूह के लिए किया गया है जिसमें माता-पिता, बच्चे, नौकर एवं दास हों। परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो रक्त तथा वैवाहिक संबंध के कारण परस्पर जुड़े होते हैं।

प्रश्न 2.
परिवार की कोई दो परिभाषा लिखें। अथवा परिवार को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
1. मजूमदार के अनुसार, “परिवार व्यक्तियों का एक समूह है जो एक ही छत के नीचे रहते हैं जो क्षेत्र, रुचि, आपसी बंधन और सूझ-बूझ के अनुसार केंद्रीय और खून के रिश्ते में बंधे होते हैं।”
2. क्लेयर के अनुसार, “परिवार से अभिप्राय उन संबंधों से है जो माता-पिता और बच्चों में विद्यमान होते हैं।”

प्रश्न 3.
रिवार की उत्पत्ति के आधार कौन-कौन-से हैं?
उत्तर:
(1) स्त्री-पुरुष का आपसी प्रेम,
(2) संतान उत्पन्न करने की इच्छा,
(3) लंबी शैशवकाल की अवस्था,
(4) माता का बच्चे के लिए वात्सल्य,
(5) शिक्षा की व्यवस्था करना।

प्रश्न 4.
परिवार के उद्गम के बारे में अरस्तू के विचारों का उल्लेख करें।
उत्तर:
परिवार के उद्गम के बारे में अरस्तू ने कहा, “परिवार का जन्म अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु हुआ है।”

प्रश्न 5.
पारिवारिक जीवन के आधारों या आवश्यकताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विवाह से परिवार की नींव बनती है और यहीं से पारिवारिक जीवन की शुरुआत होती है। उस जीवन को सुखद बनाने के लिए प्रारंभिक तैयारी एवं देखभाल की आवश्यकता पड़ती है; जैसे आवास की व्यवस्था, नियोजित परिवार, चिकित्सा परीक्षण, सहयोग की भावना तथा आर्थिक स्थिति आदि। ये सभी पारिवारिक जीवन के मुख्य आधार या आवश्यकताएँ हैं।

प्रश्न 6.
परिवार बच्चे के सांस्कृतिक विकास में कैसे सहायक है?
उत्तर:
परिवार बच्चों को समाज की सांस्कृतिक परंपराओं को सौंपने का महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। जिस परिवार में माता-पिता बच्चों के प्रति अपना सहयोगपूर्ण व दोस्तानापूर्ण व्यवहार करते हैं, उस परिवार के बच्चों में अनेक सांस्कृतिक-सामाजिक गुणों का विकास होता है; जैसे सहानुभूति, स्नेह, अनुकरण की भावना, सद्भाव, शिष्यचार और सहिष्णुता आदि। ये गुण बच्चे के सांस्कृतिक विकास में सहायक हैं।

प्रश्न 7.
परिवार के कोई दो आध्यात्मिक कार्य लिखिए।
उत्तर:
(1) परिवार बच्चों को महापुरुषों की जीवनियों से परिचित करवाकर उनमें आध्यात्मिक गुण विकसित करता है।
(2) परिवार बच्चों को सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् जैसी बहुमूल्य भावना से परिचित करवाता है।

प्रश्न 8.
परिवार के कोई दो नागरिक कार्य लिखें।
उत्तर:
(1) परिवार बच्चों में अच्छे नागरिकों के गुण; जैसे सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, अनुशासन, सहानुभूति, सहयोग की भावना, आज्ञा पालन आदि से परिचित करवाता है।
(2) परिवार बच्चों में रहन-सहन, बोलचाल, बड़ों का आदर करना, अतिथि सत्कार करना आदि गुणों का विकास करता है।

प्रश्न 9.
किशोरावस्था से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
किशोरावस्था (Adolescence) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘Adolesceker’ से हुई है जिसका अर्थ हैपरिपक्वता की ओर अग्रसर होना। यह अवस्था बाल्यावस्था के बाद और युवावस्था से पहले की अवस्था है जिसमें किशोरों में अनेक शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं। प्राणी विज्ञान की दृष्टि से इस अवस्था को उत्पादन प्रक्रिया या प्रजनन की शुरुआत की अवस्था कहते हैं। आम भाषा में इसे परिवर्तन की अवस्था भी कहा जाता है।

प्रश्न 10.
किशोरावस्था की कोई दो परिभाषा लिखें। अथवा किशोरावस्था को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
1. स्टेनले हाल के अनुसार, “किशोरावस्था तीव्र दबाव एवं तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।”
2. जरसील्ड के अनुसार, “किशोरावस्था वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर बढ़ता है।”

प्रश्न 11.
किशोरों में कौन-कौन-से शारीरिक परिवर्तन होते हैं?
उत्तर:
किशोरावस्था में किशोरों में दो प्रकार के शारीरिक परिवर्तन होते हैं-आंतरिक एवं बाहरी । किशोरों की ऊँचाई में तेजी से परिवर्तन होते हैं। भार में भी पर्याप्त वृद्धि होती है। किशोरों की आवाज में बहुत परिवर्तन होता है। लड़कों की आवाज में भारीपन तथा लड़कियों की आवाज कोमल व सुरीली हो जाती है। इस अवस्था में हड्डियों का लचीलापन समाप्त होने लगता है।

प्रश्न 12.
किशोरों में कौन-कौन-से संवेगात्मक परिवर्तन आते हैं? ।
उत्तर:
किशोरावस्था में किशोरों में जिज्ञासा-प्रवृत्ति तीव्र हो जाती है। उनमें काल्पनिकता एवं भावुकता का पूर्ण विकास हो जाता है। उनमें विद्रोह की भावना तीव्र हो जाती है। वे छोटी-छोटी आवश्यकताओं की पूर्ति न होने के कारण माता-पिता से झगड़ पड़ते हैं। उनमें संवेगात्मक तनाव तीव्र हो जाता है। उनमें उपेक्षा के भावों के कारण विद्रोह व अपराध करने की प्रवृत्तियाँ भी अधिक विकसित होने लगती हैं। इस अवस्था में उनका अपने संवेगों पर नियंत्रण नहीं रहता। वे छोटी-छोटी बातों से भी अपना भावात्मक संतुलन खो देते हैं।

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प्रश्न 13.
किशोरावस्था की समस्याओं को सूचीबद्ध कीजिए।
अथवा
किशोरावस्था की कोई चार समस्याएँ बताएँ।
उत्तर:
(1) शारीरिक व मानसिक समस्याएँ,
(2) आक्रामक व्यवहार की समस्या,
(3) भावनात्मक समस्याएँ,
(4) व्यवसाय संबंधी समस्या,
(5) विषय चयन संबंधी समस्या,
(6) यौन संबंधी समस्याएँ,
(7) सामंजस्य व स्थिरता की कमी आदि।

प्रश्न 14.
वैवाहिक जीवन की तैयारी के बारे में लिखें।
उत्तर:
विवाह परिवार का आधार स्तंभ है। इससे पारिवारिक जीवन की शुरुआत होती है। वैवाहिक जीवन वास्तव में सुख-दुःख का मिश्रण है । विवाह के उपरांत पति-पत्नी को कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यदि बालिग लड़का-लड़की स्वयं को विवाह के लिए अच्छे से तैयार कर लें तो वैवाहिक जीवन में आने वाली कठिनाइयों का समाधान भी आसानी से किया जा सकता है। अतः वैवाहिक जीवन को आनन्दमयी एवं सुखमय बनाने के लिए विशेष तैयारी की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 15.
आप किशोरों को सफलता की ओर कैसे मार्गदर्शित कर सकते हैं?
उत्तर:
किशोरावस्था तनावपूर्ण एवं परिवर्तन की अवस्था होती है। इस अवस्था में किशोरों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यदि हमारे द्वारा उन्हें उचित प्रशिक्षण अर्थात् उनकी भावनाओं व विचारों का आदर किया जाए, व्यवसाय हेतु उनका उचित पथ प्रदर्शन किया जाए, उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाए तो वे सफलता की ओर अग्रसर हो सकते हैं।

प्रश्न 16.
किशोरावस्था के बालक/बालिकाओं की क्या आवश्यकताएँ हैं?
अथवा
किशोरों की मुख्य मांगों पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
किशोरावस्था के बालकों की आवश्यकताएँ (माँगें) हैं-
(1) स्वतंत्रता,
(2) आत्मनिर्भरता,
(3) व्यावसायिक चयन संबंधी स्वेच्छा,
(4) शैक्षिक सुविधाएँ,
(5) आर्थिक सुविधाएँ,
(6) माता-पिता का स्नेह,
(7) फैशनपरस्ती।

प्रश्न 17.
विवाह/शादी क्या है?
अथवा
विवाह को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
विवाह या शादी से परिवार की नींव बनती है और यहीं से पारिवारिक जीवन प्रारंभ होता है। यह एक ऐसी सामाजिक संरचना है जिसमें स्त्री-पुरुष कानूनी रूप से इकट्ठे रहते हैं और पारिवारिक जीवन की शुरुआत करते हैं।
1. होर्टन व हंट के अनुसार, “विवाह एक सामाजिक मान्यता है जिसके द्वारा दो या दो से अधिक परिवार के सदस्यों का संबंध स्थापित होता है।”
2. मैलिनोस्वास्की के अनुसार, “विवाह एक ऐसा समझौता है जिसमें बच्चों को पैदा करना और उनकी देखभाल करना है।” प

प्रश्न 18.
माता-पिता को अपने बच्चों से कैसा व्यवहार करना चाहिए?
उत्तर:
माता-पिता को अपने बच्चों से अच्छा व्यवहार करना चाहिए। बच्चों द्वारा गलती करने पर उन्हें प्यार से समझाना चाहिए। उनकी सभी मूल आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति करनी चाहिए। माता-पिता को उनके संवेगों को अच्छे से समझना चाहिए। बच्चों से माता-पिता का व्यवहार धैर्यमय एवं शांतिमय होना चाहिए।

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प्रश्न 19.
सफल विवाहित जीवन की क्या जरूरतें हैं?
उत्तर:
सफल विवाहित जीवन के लिए सबसे जरूरी बात दंपति में आपसी समझदारी होनी चाहिए। उन्हें एक-दूसरे पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए। उनमें एक-दूसरे के प्रति अपने उत्तरदायित्व का पूर्ण अहसास होना चाहिए। उनमें सहयोग की भावना भी होनी चाहिए। परिवार की सभी आवश्यक जरूरतें पूरी होनी चाहिएँ।

प्रश्न 20.
नागरिक को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
अरस्तू के अनुसार, “जिस व्यक्ति विशेष के पास राज्य की समीक्षा अथवा न्यास संबंधी प्रशासन में भाग लेने की शक्ति है, वही उस राज्य का नागरिक कहलाता है।”

प्रश्न 21.
महात्मा गाँधी जी के अनुसार एक अच्छे नागरिक में क्या गुण होने चाहिएँ? .
उत्तर:
एक अच्छे नागरिक में सत्य, अहिंसा एवं निर्भीकता के गुण होने चाहिएँ, ताकि वह एक उच्च एवं अच्छे समाज की स्थापना कर सके। उसमें सद्भावना, आपसी प्रेम, देश-भक्ति और साहस के गुण भी होने चाहिएँ।

प्रश्न 22.
समान अधिकार क्या होता है?
उत्तर:
प्रत्येक समाज या परिवार अपने नागरिकों या सदस्यों को कर्तव्यों के साथ-साथ कुछ अधिकार या सुविधाएँ भी प्रदान करता है। नागरिकों या सदस्यों का कर्त्तव्य होता है कि वे इन अधिकारों को समझने का प्रयास करें। परिवार का भी परम कर्त्तव्य है कि वह परिवार के प्रत्येक सदस्य को समान अधिकार प्रदान करे, जैसे निवास स्थान पर हर सदस्य का समान अधिकार होना चाहिए।

प्रश्न 23.
वंशावली (Geneology) से क्या भाव है?
उत्तर:
वंशावली जिसे पारिवारिक इतिहास भी कहा जाता है, में परिवारों का अध्ययन तथा वंश व इतिहास का पता लगाया जाता है। राज्य एवं समाज वंशावली को मान्यता देता है। भविष्य में कोई भी परिवार वंश के नाम से ही जाना जाता है।

प्रश्न 24.
संयुक्त जिम्मेदारी (Joint Responsibility) क्या होती है?
उत्तर:
संयुक्त जिम्मेदारी से अभिप्राय परिवार के प्रत्येक सदस्य का घर के किसी काम के प्रति सामूहिक दायित्व से होता है। परिवार के सभी सदस्यों में एक-दूसरे की आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संयुक्त जिम्मेदारी होनी चाहिए। सभी पारिवारिक सदस्यों को मिलजुल कर काम करना चाहिए और अपने-अपने दायित्व को निभाना चाहिए।

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प्रश्न 25.
किशोरावस्था के मानसिक विकास की कोई तीन विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
(1) स्मरण-शक्ति व कल्पना-शक्ति का तीव्र विकास,
(2) तर्क-शक्ति व चिंतन-शक्ति का विकास,
(3) प्रदर्शन या मुकाबले की भावना का विकास।

प्रश्न 26.
किशोरावस्था के सामाजिक विकास की कोई तीन विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
(1) रुचियों व अभिरुचियों की भावना,
(2) सामाजिक वातावरण के प्रति जागरूकता,
(3) विपरीत लिंग से संबंधित चर्चा एवं साहित्य में अधिक रुचि रखना।

प्रश्न 27.
परिवार के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परिवार मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं
1. व्यक्तिगत या एकल परिवार-व्यक्तिगत या एकल परिवार को प्राथमिक, मूल अथवा नाभिक परिवार भी कहते हैं। यह परिवार का सबसे छोटा और आधारभूत स्वरूप है जिसमें सदस्यों की संख्या बहुत कम होती है। आमतौर पर पति-पत्नी तथा उसके अविवाहित बच्चे ही इस परिवार के सदस्य होते हैं। ऐसे परिवार में सदस्य भावात्मक आधार पर एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं।

2. संयुक्त परिवार-संयुक्त परिवार में तीन या तीन से अधिक पीढ़ियों के सदस्य; जैसे पति-पत्नी, उनके बच्चे, दादा-दादी, चाचा-चाची, आदि साथ-साथ एक घर में निवास करते हैं, उनकी संपत्ति सांझी होती है। संयुक्त परिवार के सदस्य परस्पर अधिकारों व कर्तव्यों को निभाते हैं।

HBSE 12th Class Physical Education पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न [Objective Type Questions]

भाग-I: एक शब्द/वाक्य में उत्तर दें-

प्रश्न 1.
भारतीय साहित्य में बच्चे का प्रथम गुरु किसे माना गया है?
उत्तर:
भारतीय साहित्य में बच्चे का प्रथम गुरु माता को माना गया है।

प्रश्न 2.
नियोजित परिवार का क्या लाभ है?
उत्तर:
नियोजित परिवार में परिवार के सभी सदस्य आर्थिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से खुशहाल एवं प्रसन्न रहते हैं।

प्रश्न 3.
किस अवस्था को साज-श्रृंगार की आयु’ कहा जाता है?
उत्तर:
किशोरावस्था को ‘साज-शृंगार की आयु’ कहा जाता है।

प्रश्न 4.
क्लेयर के अनुसार परिवार क्या है?
उत्तर:
क्लेयर के अनुसार, “परिवार से अभिप्राय उन संबंधों से है जो माता-पिता और बच्चों में मौजूद होते हैं।”

प्रश्न 5.
परिवार क्या है?
उत्तर:
परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो रक्त तथा वैवाहिक संबंध के कारण परस्पर जुड़े होते हैं।

प्रश्न 6.
परिवार कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
परिवार मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं।

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प्रश्न 7.
परिवार क्या सिखाता है?
उत्तर:
परिवार सामाजिकता का पाठ सिखाता है।

प्रश्न 8.
एकल परिवार (Single Family) क्या है?
उत्तर:
वह परिवार जिसमें माता-पिता और उनके अविवाहित बच्चे रहते हों, एकल परिवार कहलाता है।

प्रश्न 9.
संयुक्त परिवार (Joint Family) क्या है?
उत्तर:
वह परिवार जिसमें दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची और उनके बच्चे एक साथ रहते हैं, संयुक्त परिवार कहलाता है।

प्रश्न 10.
शैशवकाल/बाल्यावस्था के बाद तथा युवावस्था से पहले की अवस्था क्या कहलाती है?
उत्तर:
किशोरावस्था।

प्रश्न 11.
लड़कों की किशोरावस्था कब-से-कब तक होती है?
उत्तर:
लड़कों की किशोरावस्था लगभग 13 वर्ष से 18 वर्ष तक होती है।

प्रश्न 12.
लड़कियों की किशोरावस्था कब-से-कब तक होती है?
उत्तर:
लड़कियों की किशोरावस्था लगभग 12 वर्ष से 16 वर्ष तक होती है।

प्रश्न 13.
तनावपूर्ण व परिवर्तन की अवस्था किसे कहा जाता है?
उत्तर:
तनावपूर्ण व परिवर्तन की अवस्था किशोरावस्था को कहा जाता है।

प्रश्न 14.
कौन-सा सामजिक संगठन बच्चों के मानसिक विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
परिवार बच्चों के मानसिक विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 15.
परिवार के दो कार्य बताएँ।
उत्तर:
(1) बच्चों का पालन-पोषण करना, (2) सुरक्षा प्रदान करना।

प्रश्न 16.
परिवार के कोई दो आमोद-प्रमोद संबंधी कार्य बताएँ।
उत्तर:
(1) पार्क आदि में घुमाने ले जाना,
(2) सिनेमा या सर्कस आदि दिखाने ले जाना।

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प्रश्न 17.
शिशु के जीवन के कौन-से वर्ष सबसे अधिक लचीले होते हैं?
उत्तर:
शिशु के जीवन के प्रारंभिक पाँच वर्ष सबसे अधिक लचीले होते हैं।

प्रश्न 18.
किशोरावस्था में लड़कों में होने वाले कोई दो शारीरिक परिवर्तन बताइए।
उत्तर:
(1) दाढ़ी-मूंछ आना,
(2) आवाज का भारी होना।

प्रश्न 19.
किस अवस्था में स्मरण व तर्क शक्ति अधिक विकसित होती है?
उत्तर:
किशोरावस्था में स्मरण व तर्क शक्ति अधिक विकसित होती है।

प्रश्न 20.
भारत में विवाह के लिए लड़के-लड़कियों की आयु क्या निर्धारित की गई है?
उत्तर:
भारत में विवाह के लिए लड़के की 21 वर्ष तथा लड़कियों की 18 वर्ष आयु निर्धारित की गई है।

प्रश्न 21.
जरसील्ड के अनुसार किशोरावस्था क्या है?
उत्तर:
जरसील्ड के अनुसार, “किशोरावस्था वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर बढ़ता है।”

प्रश्न 22.
किशोरावस्था का समय कैसा होता है?
उत्तर:
किशोरावस्था का समय तनावपूर्ण होता है।

प्रश्न 23.
गर्भावस्था में मदिरापान से होने वाली एक हानि बताइए।
उत्तर:
शारीरिक एवं मानसिक कमजोरी।

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प्रश्न 24.
एडोलसेकर का क्या अर्थ है?
उत्तर:
परिपक्वता की ओर अग्रसर होना।

प्रश्न 25.
बच्चे की प्रथम पाठशाला किसे कहते हैं?
उत्तर:
बच्चे की प्रथम पाठशाला परिवार को कहते हैं।

प्रश्न 26.
“शिशु का पालन-पोषण करो, बच्चों को सुरक्षा दो और वयस्क को स्वतंत्र कर दो।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन एडम स्मिथ का है।

प्रश्न 27.
12 से 18 वर्ष की अवस्था को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
12 से 18 वर्ष की अवस्था को किशोरावस्था कहा जाता है।

प्रश्न 28.
किस भाषा में परिवार को फैम्युलस (Famulus) कहा जाता है?
उत्तर:
रोमन भाषा में।

प्रश्न 29.
परिवार की कोई एक विशेषता लिखें।
उत्तर:
परिवार एक सर्वव्यापक सामाजिक संगठन होता है।

प्रश्न 30.
फेमिली (Family) शब्द की उत्पत्ति किस रोमन शब्द से हुई?
उत्तर:
फेमिली शब्द की उत्पत्ति ‘फैम्युलस’ शब्द से हुई।

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प्रश्न 31.
ग्रीक भाषा में परिवार को क्या कहते हैं?
उत्तर:
ग्रीक भाषा में परिवार को एकोनोमिया कहते हैं।

प्रश्न 32.
“किशोरावस्था तीव्र दबाव एवं तनाव, तूफान और विरोध की अवस्था है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन स्टेनले हाल का है।

प्रश्न 33.
कन्फ्यूशियस के अनुसार, मनुष्य राज्य के सदस्य से पहले किसका सदस्य है?
उत्तर:
कन्फ्यूशियस के अनुसार, मनुष्य राज्य के सदस्य से पहले परिवार का सदस्य है।

प्रश्न 34.
बच्चे का प्रथम गुरु कौन है?
उत्तर:
बच्चे का प्रथम गुरु माता है।

प्रश्न 35.
बच्चे की किस अवस्था में मानसिक विकास हेतु उचित परामर्श की आवश्यकता होती है?
उत्तर:
बच्चे की किशोरावस्था में मानसिक विकास हेतु उचित परामर्श की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 36.
बच्चों में विद्रोह एवं मुकाबले की भावना किस अवस्था में सर्वाधिक होती है?
उत्तर:
बच्चों में विद्रोह एवं मुकाबले की भावना किशोरावस्था में सर्वाधिक होती है।

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भाग-II : सही विकल्प का चयन करें

1. फेमिली (Family) शब्द की उत्पत्ति किस रोमन शब्द से हुई?
(A) फेमिलिआ
(B) फैम्युलस
(C) एकोनोमिया
(D) इको
उत्तर:
(B) फैम्युलस

2. ग्रीक भाषा में परिवार को क्या कहते हैं?
(A) फेमिलिआ
(B) फैम्युलस
(C) एकोनोमिया
(D) इको
उत्तर:
(C) एकोनोमिया

3. लैटिन भाषा में परिवार को क्या कहा जाता है?
(A) फेमिलिआ
(B) फैम्युलस
(C) एकोनोमिया
(D) इको
उत्तर:
(A) फेमिलिआ

4. भारत में विवाह के लिए लड़कियों की आयु निर्धारित की गई है
(A) 21 वर्ष
(B) 18 वर्ष
(C) 26 वर्ष
(D) 24 वर्ष
उत्तर:
(B) 18 वर्ष

5. “किशोरावस्था तीव्र दबाव एवं तनाव, तूफान और विरोध की अवस्था है।” यह कथन है
(A) रॉस का
(B) स्टेनले हाल का
(C) मैजिनी का
(D) एडम स्मिथ का
उत्तर:
(B) स्टेनले हाल का

6. ‘फैम्युलस’ शब्द का अर्थ है
(A) नौकर या दास
(B) माता-पिता
(C) श्रमिक
(D) बच्चे
उत्तर:
(A) नौकर या दास

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7. ‘फेमिलिआ’ शब्द का अर्थ है
(A) माता-पिता
(B) बच्चे
(C) श्रमिक और गुलाम
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के अनुसार, एक अच्छे नागरिक में अच्छे समाज के निर्माण के लिए गुण होने चाहिएँ
(A) सत्य
(B) अहिंसा
(C) निर्भीकता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

9. किस अवस्था को साज-श्रृंगार की अवस्था कहा जाता है?
(A) बाल्यावस्था
(B) शैशवावस्था
(C) किशोरावस्था
(D) युवावस्था
उत्तर:
(C) किशोरावस्था

10. कन्फ्यूशियस के अनुसार, “मनुष्य राज्य के सदस्य के पहले सदस्य है”-
(A) देश का
(B) समाज का
(C) गाँव का
(D) परिवार का
उत्तर:
(D) परिवार का

11. परिवार मार्ग प्रशस्त करता है
(A) उन्नति का
(B) समृद्धि का
(C) सामाजीकरण का
(D) परिवार का
उत्तर:
(C) सामाजीकरण का

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

12. “शिशु का पालन-पोषण करो, बच्चों को सुरक्षा दो और वयस्क को स्वतंत्र कर दो।” यह कथन है
(A) एडम स्मिथ का
(B) मैजिनी का
(C) रॉस का
(D) महात्मा गाँधी का
उत्तर:
(A) एडम स्मिथ का

13. पारिवारिक जीवन का आरंभ होता है
(A) जन्म से
(B) विवाह से
(C) पढ़ाई से
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) विवाह से

14. किशोरावस्था का अर्थ है
(A) परिपक्वता की ओर बढ़ना
(B) बाल्यावस्था से युवावस्था की ओर बढ़ना
(C) शिशु-अवस्था से बाल्यावस्था की ओर बढ़ना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) परिपक्वता की ओर बढ़ना

15. निम्नलिखित में से किसमें परिवार के सभी सदस्य आर्थिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से खुशहाल एवं सुखी रहते हैं?
(A) एकल परिवार में
(B) संयुक्त परिवार में
(C) नियोजित परिवार में
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) नियोजित परिवार में

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

16. जो संबंध माता-पिता और बच्चों में होता है, उसे कहते हैं-
(A) परिवार
(B) घर
(C) समाज
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) परिवार

17. परिवार की विशेषता है
(A) सार्वभौमिक
(B) स्थायी संस्था
(C) लैंगिक संबंध
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

18. विवाह की बुनियादी आवश्यकता है
(A) घर का प्रबंध
(B) बच्चों का पालन-पोषण
(C) प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

19. “बच्चा नागरिकता का प्रथम पाठ माता के चुम्बन और पिता के दुलार से सीखता है।” यह कथन है
(A) एडम स्मिथ का
(B) महात्मा गाँधी का
(C) मैजिनी का
(D) मॉण्टगुमरी का
उत्तर:
(C) मैजिनी का

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

20. निम्नलिखित में से परिवार का मूलभूत कार्य है
(A) बच्चों का पालन-पोषण करना
(B) उचित शिक्षा देना
(C) वस्त्र एवं आवास की व्यवस्था करना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

21. किशोरों की समस्याओं के निवारण हेतु उपाय है
(A) नैतिक एवं धार्मिक शिक्षा
(B) लिंग शिक्षा
(C) मनोविज्ञान एवं व्यावसायिक शिक्षा
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

22. “परिवार एक मौलिक सामाजिक संस्था है, जिससे अन्य सभी संस्थाओं का विकास होता है।” यह कथन है
(A) स्टेनले हाल का
(B) एडम स्मिथ का
(C) बैलार्ड का
(D) अरस्तू का
उत्तर:
(C) बैलार्ड का

23. बच्चे की किस अवस्था में मानसिक विकास हेतु उचित परामर्श की आवश्यकता होती है?
(A) शैशवावस्था में
(B) युवावस्था में
(C) किशोरावस्था में
(D) प्रौढ़ावस्था में
उत्तर:
(C) किशोरावस्था में

24. ‘Adolescence’ किस भाषा के शब्द से बना है?
(A) अंग्रेज़ी भाषा
(B) लैटिन भाषा
(C) फ्रैंच भाषा
(D) ग्रीक भाषा
उत्तर:
(B) लैटिन भाषा

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

25. उन व्यक्तियों का समूह, जो रक्त एवं वैवाहिक संबंधों के कारण परस्पर जुड़े होते हैं, क्या कहलाता है?
(A) जाति
(B) समाज
(C) समूह
(D) परिवार
उत्तर:
(D) परिवार

26. सामाजिक संगठनों का आधार है
(A) शादी
(B) परिवार
(C) समाज
(D) जाति
उत्तर:
(B) परिवार

27. भारतीय साहित्य में बच्चे का प्रथम गुरु किसे माना गया है?
(A) माता को
(B) पिता को
(C) शिक्षक को
(D) समाज को
उत्तर:
(A) माता को

28. अर्थशास्त्र का पिता किसे कहा जाता है?
(A) एडम स्मिथ को
(B) बील्स को
(C) मॉर्गन को
(D) कीट्स को
उत्तर:
(A) एडम स्मिथ को

29. “परिवार का जन्म अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु हुआ है।” यह कथन किसका है?
(A) स्टेनले हॉल का
(B) अरस्तू का
(C) बैलार्ड का
(D) क्लेयर का
उत्तर:
(B) अरस्तू का

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

30. किशोरावस्था ………… की ओर बढ़ने की अवस्था है।
(A) परिपक्वता
(B) अपरिपक्वता
(C) असमायोजन
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) परिपक्वता

भाग-III: रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. लड़कों में किशोरावस्था ………….. से …………… तक होती है।
2. भारत में विवाह के लिए लड़कियों की आयु ………….. वर्ष निर्धारित की गई है।
3. “परिवार का जन्म अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु हुआ है।” यह कथन ……………….. ने कहा।
4. …………….. के अनुसार सत्य, अहिंसा एवं निर्भीकता एक अच्छे नागरिक के गुण हैं।
5. परिवार मानवीय समाज की ……………….. इकाई है।
6. मैकाइवर के अनुसार परिवार ……………….. होना चाहिए।
7. परिवार की उत्पत्ति का आधार …………… है।
8. किशोरावस्था की मुख्य माँग ……………….. है।
9. शैशवकाल या बाल्यावस्था के बाद तथा युवावस्था से पहले की अवस्था को …… कहते हैं।
10. किशोरावस्था ……………….. की ओर बढ़ने की अवस्था है।
11. परिवार को सामाजिक गुणों का ……………… कहा जाता है।
12. अंग्रेज़ी में किशोरों को ………………. कहा जाता है।
उत्तर:
1. 13, 18,
2. 18,
3. अरस्तू,
4. महात्मा गाँधी,
5. मौलिक,
6. छोटा व स्थायी,
7. विवाह,
8. स्वतंत्रता व आत्मनिर्भरता,
9. किशोरावस्था,
10. परिपक्वता,
11. पालना,
12. टीनेजर्स (Teenagers)।

HBSE 12th Class Physical Education Solutions Chapter 6 पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा

पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा Summary

पारिवारिक जीवन संबंधी शिक्षा परिचय

परिवार (Family):
परिवार की उत्पत्ति कब हुई? इस संदर्भ में कोई निश्चित समय अथवा काल नहीं बताया जा सकता, पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे आवश्यकताओं की बढ़ोतरी हुई, वैसे-वैसे परिवार का विकास हुआ। परिवार की उत्पत्ति के विषय में अरस्तू जैसे विद्वान् ने कहा था कि परिवार का जन्म अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु हुआ है। परिवार एक ऐसा स्थायी संगठन है जिसके अंतर्गत पति-पत्नी एवं उनके बच्चे तथा अन्य सदस्य आ जाते हैं जो उत्तरदायित्व व स्नेह की भावना से परस्पर बंधे रहते हैं। बैलार्ड (Ballard) के अनुसार, “परिवार एक मौलिक सामाजिक संस्था है, जिससे अन्य सभी संस्थाओं का विकास होता है।”

मानव-जीवन में परिवार का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। परिवार मानव की आज तक सेवा करता रहा है और कर रहा है, जो किसी अन्य संस्था या समिति द्वारा संभव नहीं है। परिवार बच्चों व अन्य सदस्यों के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करता है; जैसे-
(1) पालन-पोषण करना
(2) आहार उपलब्ध करवाना
(3) सुरक्षा करना
(4) स्वास्थ्य का ध्यान रखना
(5) कपड़े एवं आवास की व्यवस्था करना
(6) आर्थिक व धार्मिक कार्यों की पूर्ति करना आदि।

किशोरावस्था (Adolescence):
किशोरावस्था में शारीरिक वृद्धि और विकास तीव्र गति से होता है। यह वह अवस्था है जो बाल्यावस्था के बाद तथा युवावस्था से पहले शुरू होती है। प्राणी विज्ञान की दृष्टि से इस अवस्था को उत्पादन प्रक्रिया अथवा प्रजनन की शुरुआत कहते हैं। साधारण भाषा में, किशोरावस्था को परिवर्तन की अवस्था भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें शारीरिक, मानसिक व संवेगात्मक परिवर्तन तीव्र गति से होते हैं। स्टेनले हाल (Stanley Hall) के अनुसार, “किशोरावस्था तीव्र दबाव एवं तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।”

विवाह तथा पारिवारिक जीवन के लिए तैयारी (Preparation for Marriage and Family Life):
विवाह से परिवार की नींव बनती है और यहीं से पारिवारिक जीवन की शुरुआत होती है। यह एक ऐसी सामाजिक संरचना है जिसमें स्त्री-पुरुष कानूनी रूप से इकट्ठे होते हैं और पारिवारिक जीवन की शुरुआत करते हैं। इस जीवन को सुखद बनाने के लिए प्रारंभिक तैयारियों तथा देखभाल की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि पारिवारिक जीवन सुखद लगने पर भी अनेक समस्याओं से घिरा रहता है जिनका समाधान करने से ही विवाहित और पारिवारिक जीवन भली-भाँति आगे बढ़ सकता है।

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HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरणम्

Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions व्याकरणम् Alankaar Prakaranam Sahitya Itihas अलंकार-प्रकरणम् Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरणम्

अलंकरोति इति अलङ्कारः-अलङ्कार वह है जो अलंकृत करता है, सजाता है। लोक में जिस प्रकार आभूषण आदि शारीरिक शोभा की वृद्धि में सहायक होते हैं, उसी प्रकार काव्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक आदि अलङ्कार काव्य की चारुता में अभिवृद्धि करते हैं। मुख्य रूप से अलङ्कार दो प्रकार के होते हैं|
(i) शब्दालङ्कार
(ii) अर्थालङ्कार
शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर माना गया है। काव्य-शरीर का अलङ्करण भी शब्द एवं अर्थ दोनों ही रूपों में होता है। जो अलङ्कार केवल शब्द द्वारा काव्य के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते हैं, वे शब्द पर आश्रित रहने के कारण शब्दालङ्कार कहे जाते हैं, जैसे-अनुप्रास, यमक आदि।

जो अलङ्कार अर्थ द्वारा काव्य के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते हैं, वे अर्थ पर आश्रित होने के कारण अर्थालङ्कार कहे जाते हैं, जैसे-उपमा, रूपक आदि।
कुछ अलङ्कार ऐसे भी होते हैं, जो शब्द और अर्थ दोनों पर आश्रित रहकर काव्य की शोभा बढ़ाते हैं, वे उभयालङ्कार कहे जाते हैं, जैसे-श्लेष।

1. अनुप्रासः अलङ्कारः
अनुप्रासः शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत्। -साहित्यदर्पण
स्वर की विषमता होने पर भी शब्दसाम्य (वर्ण या वर्णसमूह की आवृत्ति) को अनुप्रास अलङ्कार कहते हैं। अधोलिखित श्लोक में अनुप्रास अलङ्कार है
वहन्ति वर्षन्ति नदन्ति भान्ति,
ध्यायन्ति नृत्यन्ति समाश्वसन्ति।
नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः
प्रियाविहीनाः शिखिन: प्लवङ्गाः॥
-इस उदाहरण में व्, न्, त् तथा य् वर्णों की बार-बार आवृत्ति अलग-अलग स्वरों के साथ हुई है। जिससे कविता का सौन्दर्य बढ़ गया है, अतः इस श्लोक में अनुप्रास अलङ्कार है।
अन्य उदाहरण
हंसो यथा राजतपञ्जरस्थः
सिंहो यथा मन्दरकन्दरस्थः।
वीरो यथा गर्वित कुञ्जरस्थः
चन्द्रोपि बभ्राज तथाम्बरस्थः॥

यहाँ-थ, न्द, र-वर्णों की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
अन्य उदाहरण
ललित-लवङ्ग-लता-परिशीलन-कोमल-मलय-समीरे।
मधुकर-निकर-करम्बित-कोकिल-कूजित-कुञ्ज-कुटीरे॥
यहाँ-ल, क, र आदि अक्षरों की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरणम्

2. यमक-अलङ्कारः
सत्यर्थे पृथगायाः स्वरव्यञ्जनसंहतेः।
क्रमेण तेनैवावृत्तिर्यमकं विनिगद्यते॥ -साहित्यदर्पण 10.8
जब वर्णसमूह की उसी क्रम से पुनरावृत्ति की जाए, किन्तु आवृत्त वर्ण-समुदाय या तो भिन्नार्थक हो अथवा अंशतः या पूर्णतः निरर्थक हो, तो यमक अलङ्कार कहलाता है। उदाहरण- ।
प्रकृत्या हिमकोशाधो दूर-सूर्यश्च साम्प्रतम्।
यथार्थनामा सुव्यक्तं हिमवान् हिमवान् गिरिः।।
इस श्लोक में ‘हिमवान्’ शब्द की आवृत्ति हुई है और दोनों पद भिन्नार्थक हैं। अतः यहाँ पर प्रयुक्त अलङ्कार यमक है, जो श्लोक के सौन्दर्य की अभिवृद्धि में सहायक है। अन्य उदाहरण
नवपलाशपलाश वनं पुरः
स्फुट-पराग-परागत-पङ्कजम्।
मृदुलतान्त-लतान्तमलोकयत्
सः सुरभिं सुरभिं सुमनोभरैः॥
-यहाँ पलाश – पलाश तथा सुरभिं -सुरभिं दोनों पद सार्थक हैं और भिन्नार्थक हैं। पराग -पराग में दूसरा पद निरर्थक है, क्योंकि इसमें गत शब्द क ‘ग’ मिलाया गया है। लतान्त-लतान्त में पहला निरर्थक है तथा दूसरा सार्थक है; क्योंकि इसमें मृदुलता का ‘लता’ जोड़ लिया गया है। अत: यहाँ यमक अलंकार है।

अन्य उदाहरण
नगजा नगजा दयिता दयिता विगतं विगतं ललितं ललितम्।
प्रमदा प्रमदा महता महता मरणं मरणं समयात् समयात्॥
‘न गजा’ और ‘नगजा’ से अर्थ भिन्न हो जाता है। अतः यहाँ यमक अलंकार है।
अर्थालंकार

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरणम्

3. उपमा
दो वस्तुओं में भेद रहने पर भी, जब उनकी समानता (साधर्म्य) बताई जाए तब वह उपमा अलंकार होता है। जैसे-कमलमिव मुखं मनोज्ञम् ।
संस्कृत में लक्षण-
उपमा यत्र सादृश्यं लक्ष्मीरुल्लसति द्वयोः । अथवा
साम्यं वाच्यवैधर्म्य वाक्यैक्यमुपमा द्वयोः।
उदाहरण
कमलमिव मुखं मनोज्ञमेतत्।
यहाँ मुख की उपमा कमल से दी गई है।
उपमा अलङ्कार में चार उपादान होते हैं
1. उपमान (जिससे उपमा दी जाय), जैसे-कमलम्
2. उपमेय (जिसकी उपमा दी जाय), जैसे-मुखम्
3. समान धर्म जैसे मनोज्ञं (मनोज्ञता, सुन्दरत)
4. उपमानवाची शब्द जैसे इव (यथा, वत्, तुल्य, सम आदि)
जहाँ इन चारों का स्पष्ट उल्लेख हो वह पूर्णोपमा कहलाती है, जैसे उपर्युक्त उदाहरण में। जहाँ इनमें से कुछ लुप्त रहते हैं वह लुप्तोपमा कहलाती है। उपमा के भेद प्रभेद अनेक हैं।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरणम्

4. रूपकम्
संस्कृत में लक्षण
तद्रूपकमभेदो यः उपमानोपमेपयोः।
अत्यधिक समानता (सादृश्य) के कारण, जहाँ उपमेय को उपमान का रूप दे दिया जाए, अथवा उपमेय पर उपमान का आरोप कर दिया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है। जैसे-मुखं चन्द्रः । यहाँ मुख (उपमेय) पर चन्द्र (उपमान) का आरोप किया गया है अर्थात् दोनों को एक ही माना गया है। जैसे-तस्याः मुखं चन्द्र एव। उदाहरण
त्वयैव मातस्सुतशोकसागरः। यहाँ सुतशोक (उपमेय) और सागर (उपमान) में समानता है, इसलिए सुतशोक में सागर का आरोप हुआ है।

5. उत्प्रेक्षा
भवेत् सम्भावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना।
पर (उपमान) के द्वारा प्रकृत (उपमेय) की सम्भावना ही उत्प्रेक्षा अलङ्कार है।
उदाहरणम्
लिम्पतीव तमोऽङ्गानि वर्षतीवाञ्जनं नभः।
असत्पुरुषसेवेव दृष्टिविफलतां गता ।।
यहाँ अन्धकार का फैलना रूप उपमेय की लेपन आदि उपमान के रूप में सम्भावना की गई है। अतएव उत्प्रेक्षा अलंकार है।

उत्प्रेक्षावाचक शब्द हैं-मन्ये, शङ्के, ध्रुवम्, प्रायः, नूनम, इव आदि। इनमें इव का प्रयोग उपमा में भी होता है। अन्तर यह है कि इव शब्द जब उत्प्रेक्षा का वाचक होता है तब क्रिया के साथ प्रयुक्त होता है और जब उपमा का वाचक होता है तब संज्ञा के साथ।

मन्ये शङ्के ध्रुवं प्रायो नूनमित्येवमादयः।
उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्दैरिवशब्दोऽपि तादृशः।।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरणम्

6. श्लेषः अलङ्कारः
श्लिष्टैः पदैरनेकार्थाभिधाने श्लेष इष्यते।
श्लिष्ट पदों के द्वारा अनेक अर्थों की अभिव्यक्ति होने पर श्लेष अलङ्कार कहा जाता है।
उदाहरणम्
उच्चरद्भरि कीलालः शुशुभे वाहिनीपतिः।
जिसके शरीर से अधिक मात्रा में रक्त निकल रहा है, वह सेनापति शोभित हुआ। द्वितीय पक्ष में जिससे अधिक मात्रा में जल उछलता है, वह समुद्र शोभित हुआ। यहाँ कीलाल तथा वाहिनीपति शब्दों के दो-दो अर्थ होने के कारण श्लेष अलङ्कार है। (कीलाल = रुधिर/जल; वाहिनीपति = सेनापति/समुद्र)।

अन्य उदाहरण
प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ विफलत्वमेति बहुसाधनता।
अवलम्बनाय दिनभर्तुरभून्न पतिष्यतः करसहस्त्रमपि॥
पहला अर्थ-विधु (=चन्द्रमा) के प्रतिकूल होने पर सभी साधन विफल हो जाते हैं। गिरने (=अस्त होने) के समय सूर्य के हजार कर (=किरण ) भी सहारा देने के लिए पर्याप्त नहीं होते। (पूर्णिमा के दिन सूर्य के अस्त होने के समय चन्द्रमा सूर्य की विपरीत दिशा = पूर्व दिशा में उदित हुआ करता है।)

दूसरा अर्थ- विधि (=भाग्य) के प्रतिकूल होने पर सभी साधन विफल हो जाते हैं। गिरने (विपत्ति आने) के समय सूर्य के समान तेजस्वी मनुष्य के हजार हाथ भी सहारा देने के लिए पर्याप्त नहीं होते।

इस उदाहरण में ‘विधौ’ पद में श्लेष है। ‘विधि’ (=भाग्य) तथा ‘विधु’ (=चन्द्रमा) -इन दोनों शब्दों का सप्तमी विभक्ति एकवचन में ‘विधौ’ रूप बनता है; जिसके कारण एक ही श्लोक के दो अलग-अलग अर्थ हो गए। इसीलिए यहाँ श्लेष अलंकार है। __ श्लेष अर्थालंकार भी होता है। जब शब्द के परिवर्तन कर देने पर भी श्लेष बना रहता है तब वह श्लेष अर्थालंकार होता है; जैसे

स्तोकेनोन्नतिमायाति स्तोकेनायात्यधोगतिम्।
अहो सुसदृशी वृत्तिस्तुलाकोटेः खलस्य च॥

यहाँ ‘उन्नति’ शब्द का अर्थ है- ‘ऊपर उठना’ और ‘अभ्युदय’। ‘अधोगति’ शब्द का अर्थ है- ‘नीचे जाना’ और ‘अपकर्ष’। अतएव इन पदों में श्लेष है, इनके पर्यायवाची शब्द रख देने पर भी यहाँ श्लेष बना रहता है। अतएव यह श्लेष अर्थालंकार का उदाहरण है।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरणम्

7. अर्थान्तरन्यासः
संस्कृत में लक्षण
सामान्यं वा विशेषो वा यदन्येन समर्थ्यते।
यत्र सोऽर्थान्तरन्यासः विशेषस्तेन वा यदि॥

मुख्य अर्थ के समर्थन करने वाले दूसरे वाक्यार्थ (अर्थान्तर) का प्रतिपादन (न्यास) अर्थान्तरन्यास अलंकार कहलाता है। इसमें सामान्य कथन के द्वारा विशेष (प्रस्तुत) वस्तु का अथवा विशेष के द्वारा सामान्य वस्तु का समर्थन होता है ; जैसे-दुष्करं किं महात्मनाम्।
उदाहरण
हनूमानब्धिमतरद् दुष्करं किं महात्मनाम्। यहाँ हनूमानब्धिमतरत् (हनुमान जी ने समुद्र पार किया) मुख्य वाक्य है। इसका समर्थन अगले वाक्य द्वारा किया गया है। अतः यहाँ अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है। अन्य उदाहरण

पयः पानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम्।
उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये॥

8. अतिशयोक्तिः
संस्कृत में लक्षण
सिद्धेऽध्यवसायत्वेऽतिशयोक्तिर्निगद्यते।
अध्यवसाय के सिद्ध होने पर अतिशयोक्ति अंलकार होता है। अध्यवसाय का अर्थ है- उपमेय के निगरण (विलोप) के साथ उपमान के अभेद का आरोप। जैसे–चन्द्र शोभते कहने पर अर्थ लिया जाता है-मुखं शोभते। परन्तु यहाँ प्रथम प्रयोग में उपमेय भूत ‘मुख’ का निगरण पूर्वक उपमान (चन्द्र) में उसके अभेद का आरोप हुआ है। इसी प्रकार = ‘इहापि मुखं द्वितीयश्चन्द्रः’ यहाँ मुख को दूसरा चन्द्रमा कहना अतिशयोक्ति है।
उदाहरण
पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यात्
मुक्ताफलं वा स्फुट विद्रुमस्थम्।
ततोऽनुकुर्याद् विशदस्य तस्या।
स्ताग्रौष्ठपर्यस्तरुचः स्मितस्य॥

यहाँ शब्द के प्रवाल के साथ पुष्प की और विद्रुम के साथ मोती की असम्भाव्य सम्बन्ध की कल्पना की गई है। इसलिए यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।

HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरणम्

9. व्याजस्तुतिः
संस्कृत में लक्षण
व्याजस्तुतिर्मुखे निन्दा स्तुतिर्वा रूढिरन्यथा -काव्यप्रकाशः 112/168
प्रारंभ में निंदा अथवा स्तुति मालूम होती हो, परंतु उससे भिन्न (अर्थात् दीखने वाली निंदा का स्तुति में अथवा स्तुति का निंदा में) पर्यवसान होने पर व्याजस्तुति अलङ्कार होता है।
उदाहरण
व्याजस्तुतिस्तव पयोद !
मयोदितेयं यज्जीवनाय जगतस्तव जीवनानि
स्तोत्रं तु ते महदिदं घन ! धर्मराज !
साहाय्यमर्जयसि यत्पथिकान्निहत्य॥

10. अन्योक्तिः अलङ्कारः
असमानविशेषणमपि यत्र समानेतिवृत्तमुपमेयम्।
उक्तेन गम्यते परमुपमानेनेति साऽन्योक्तिः। – काव्यालङ्कारः

जहाँ कथित उपमान द्वारा ऐसे उपमेय की प्रतीति हो जो उपमान के विशेषणों के असमान होता हुआ भी समान इतिवृत्त वाला हो, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है। अन्योक्ति अलंकार का ही दूसरा नाम अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है।
उदाहरण
तावत् कोकिल विरसान् यापय
दिवसान् वनान्तरे निवसन्।
यावन्मिलदलिमालः
कोऽपि रसालः समुल्लसति॥ (रसगङ्गाधरः)

अर्थ-हे कोयल ! वन में रहते हुए अपने बुरे समय को तब तक किसी प्रकार बिता लो, जब तक कि कोई बौर (मंजरी) से लदा हुआ भौरों से सुशोभित आम का वृक्ष तुम्हें नहीं मिल जाता।

यहाँ कोयल उपमान है और कोई सज्जन उपमेय है। यद्यपि कोयल और सज्जन के विशेषणों में असमानता है। अतः यहाँ अन्योक्ति अलंकार है।

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HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् छन्द प्रकरणम्

Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions व्याकरणम् Chand Prakaranam Sahitya Itihas छन्द प्रकरणम् Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sanskrit व्याकरणम् छन्द प्रकरणम्

1. छन्दपरिचयः
छन्द श्लोक लिखते समय वर्णों की एक निश्चित व्यवस्था रखनी पड़ती है। यह व्यवस्था छन्द या वृत्त कहलाती है। वृत्त के भेद
प्रायः प्रत्येक श्लोक के चार भाग होते हैं, जो पाद या चरण कहलाते हैं। जिस वृत्त के चारों चरणों में बराबर अक्षर हो, वे समवृत्त कहलाते हैं। जिसके प्रथम और तृतीय तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण अक्षरों की दृष्टि से समान हों, वे अर्धसमवृत्त हैं। जिसके चारों चरणों में अक्षरों की संख्या समान न हो, वे विषमवृत्त कहे जाते हैं।

गुरु-लघु व्यवस्था
छन्द की व्यवस्था वर्णों पर आधारित रहती है-मुख्यतः स्वर वर्ण पर। ये वर्ण छन्द की दृष्टि से दो प्रकार के होते हैं-लघु एवं गुरु । सामान्यतः ह्रस्व स्वर लघु होता है और दीर्घ स्वर गुरु किंतु कुछ परिस्थितियों में ह्रस्व स्वर लघु न होकर गुरु माना जाता है।

छन्द में गुरु-लघु व्यवस्था का नियम इस प्रकार है
अनुस्वारयुक्त, दीर्घ, विसर्गयुक्त तथा संयुक्त वर्ण के पूर्व वाले वर्ण गुरु होते हैं। शेष सभी वर्ण लघु होते हैं। छंद के किसी पाद का अंतिम वर्ण लघु होने पर भी आवश्यकतानुसार गुरु मान लिया जाता है

सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत्।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा। -~छन्दोमञ्जरी 1.11

गुरु एवं लघु के लिए अधोलिखित चिह्न प्रयुक्त होते हैं
गुरु – 5
लघु – ।
लघु वर्ण अधोलिखित चार दशाओं में गुरु वर्ण मान लिया जाता है
s | s

1. अनुस्वार युक्त लघु वर्ण भी गुरु हो जाता है; जैसे- अंशतः ।
यहाँ ‘अ’ लघु होते हुए भी अनुस्वार युक्त ‘अं’ होने के कारण गुरु हो गया है।
s | s

2. विसर्ग युक्त लघु वर्ण भी गुरु हो जाता है; जैसे- अंशतः ।
यहाँ ‘त’ लघु होते हुए भी विसर्ग युक्त ‘तः’ होने के कारण गुरु हो गया है।
s s

3. संयुक्त वर्ण के पूर्व वाला वर्ण भी गुरु हो जाता है; जैसे- रक्तः ।
यहाँ ‘र’ लघु होते हुए भी संयोगपूर्व वाला ‘रक’ होने के कारण गुरु हो गया है।
| s | s s | | s | s s

4. छन्द के पादान्त में लघु वर्ण भी गुरु हो जाता है; जैसे- त्वमेव माता च पिता त्वमेव।
यहाँ पादान्त में ‘व’ लघु होते हुए भी छन्द की आवश्यकतानुसार गुरु हो गया है।
गण-व्यवस्था
तीन वर्षों का एक गण माना जाता है। गुरु-लघु के क्रम से गण आठ प्रकार के होते हैं
भ – गण s । ।
य – गण । s s
म – गण s s s
ज – गण । s ।
र – गण s । s
न – गण । । ।
स – गण । । s
त – गण s s |
भगण (s।।) आदि गुरु,
जगण (। s ।) मध्य गुरु तथा सगण (।। s ) अन्त गुरु होते हैं। यगण (। s s) आदि लघु,
रगण (s । s) मध्य लघु और तगण (s s |) अन्त लघु होते हैं।
मगण (s s s) में सभी वर्ण गुरु और नगण ( | | ) में सभी वर्ण लघु होते हैं।
आदिमध्यावसानेषु भजसा यान्ति गौरवम्।
यरता लाघवं यान्ति मनौ तु गुरुलाघवम्॥ -छन्दोमजरी
इन गणों को सरलता से याद रखने के लिए नीचे दिया गया गणसूत्र याद कर लेना चाहिए
| s s s | s | | | s
यमाताराजभानसलगा
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HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् छन्द प्रकरणम्

(क) वैदिक छन्द
वैदिक मन्त्रों में गेयता का समावेश करने के लिए जिन छन्दों का प्रयोग हुआ है; उनमें गायत्री, अनुष्टुप् और त्रिष्टुप् छन्द प्रमुख हैं।

1. गायत्री (आठ अक्षरों के तीन पादों वाला समवृत्त)
जिस छन्द में तीन चरण हों और प्रत्येक चरण में आठ अक्षर हों तथा जिनमें पाँचवाँ अक्षर लघु और छठा अक्षर गुरु हो, वह गायत्री छन्द कहलाता है। अधोलिखित मन्त्र में गायत्री छन्द है

पावका नः सरस्वती,
वाजेभिर्वाजिनीवती।
यज्ञं वष्टु धिया वसुः॥

2. अनुष्टुप् (आठ अक्षरों वाला समवृत्त)
जिस छंद में चार चरण हों और प्रत्येक चरण में आठ अक्षर हों, जिनमें पाँचवाँ अक्षर लघु तथा छठा अक्षर गुरु हो, सातवाँ अक्षर जिसके पहले और तीसरे चरण में गुरु हो, किन्तु दूसरे और चौथे चरण में लघु हो, वह अनुप् छन्द कहलाता है।
उदाहरण
त्र्यम्बकं यजामहे
सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्
मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥
छन्द की पूर्ति के लिए त्र्यम्बकं’ को ‘त्रियम्बकं’ पढ़ते हैं।

3. त्रिष्टुप् (ग्यारह अक्षरों वाला समवृत्त)
जिस छन्द में चार चरण हों और प्रत्येक चरण में ग्यारह अक्षर हों, वह त्रिष्टुप् छन्द कहलाता है।
प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम पाठ का निम्नलिखित मन्त्र त्रिष्टुप् छन्द में है
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया,
समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति,
अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥ -श्वेत०, उ० 2.4.6 तथा मुण्डक० ३.1.1
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रे
ऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः
परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥ -मुण्डक० 3.2.8
वैदिक-छन्दों को अधोलिखित तालिका द्वारा सरलता से समझा जा सकता है
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HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् छन्द प्रकरणम्

(ख) लौकिक छन्द
प्रस्तुत पुस्तक के अनेक पाठों में अनेक लौकिक छन्दों का संकलन है। अतः संकलित छन्दों के लक्षण एवं उदाहरण प्रस्तुत है

1. अनुष्टुप्
(आठ अक्षरों वाला समवृत्त)
संस्कृत में लक्षण एवं उदाहरण
श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम्।
द्विचतुष्पादयोह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥ -श्रुतबोध 10
अनुष्टुप् छन्द के चारों चरणों का पाँचवाँ वर्ण लघु, छठा वर्ण गुरु तथा प्रथम एवं तृतीय चरण का सातवाँ वर्ण गुरु और द्वितीय एवं चतुर्थ चरण का सातवाँ वर्ण लघु होता है।
प्रस्तुत पुस्तक का द्वितीय पाठ अनुष्टुप् छन्द में है
(i) यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
(ii) ययातेरिव शर्मिष्ठा भर्तुर्बहुमता भव।
सुतं त्वमपि सम्राजं सेव पुरूमवाप्नुहि ॥

2. इन्द्रवज्रा
(त त ज ग ग)
(ग्यारहवर्णों वाला समवृत्त)
संस्कृत में लक्षण एवं उदाहरण
स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः। -वृत्तरत्नाकर, 3/30
जिस छन्द के प्रत्येक पाद में दो तगण, एक जगण और दो गुरु वर्ण क्रम से हों, वह इन्द्रवज्रा छंद होता है ।
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उदाहरणम्- स्वर्गच्युतानामिह जीवलोके
चत्वारि चिह्नानि वसन्ति देहे।
दानप्रसङ्गो मधुरा च वाणी
देवार्चनं पण्डित-तर्पणञ्च॥

3. उपेन्द्रवज्रा
(ज त ज ग ग)
(ग्यारहवर्णों का समवृत्त)
संस्कृत में लक्षण एवं उदाहरण
उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ। -वृत्तरत्नाकर, 3/31
जिस छन्द के प्रत्येक पाद में क्रमश: एक जगण, एक तगण, एक जगण और दो गुरु वर्ण हों, वह उपेन्द्रवज्रा छंद होता है।
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उदाहरणम्- त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वेमव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥
(यहाँ प्रत्येक चरण का अन्तिम वर्ण लघु होते हुए भी छन्द की आवश्यकता के अनुसार गुरु मान लिया गया है।)

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4. उपजाति
(ग्यारह वर्गों का समवृत्त)
संस्कृत में लक्षण एवं उदाहरण
अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः।
इत्थं किलान्यास्वपि मिश्रितासु वदन्ति जातिष्विदमेव नाम ॥ -वृत्तरत्नाकर, 3/32
इसके प्रथम एवं तृतीय चरण उपेन्द्रवज्रा तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण इन्द्रवज्रा छन्द के अनुसार, है, जिससे यह उपजाति छन्द है।
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अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा ( इन्द्रवज्रा )
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हिमालयो नाम नगाधिराजः । (उपेन्द्रवज्रा)
पूर्वापरौ तोयनिधि वगाह्य (इन्द्रवज्रा)
स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः ॥ (उपेन्द्रवज्रा)

इसके प्रथम तथा तृतीय पाद इन्द्रवज्रा छन्द में हैं। द्वितीय तथा चतुर्थ पाद उपेन्द्रवज्रा छन्द में हैं। (इसीलिए पूरा श्लोक उपजाति छन्द वाला बन गया है।)

5. वंशस्थ
(ज, त, ज, र)
(प्रतिचरण बारह वर्णों का समवृत्त)
संस्कृत में लक्षण एवं उदाहरण
जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ। -वृत्तरत्नाकर 3.47
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमशः जगण, तगण, जगण एवं रगण हों, वह वंशस्थ छन्द कहलाता है।
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भवन्ति नम्रास्तरवो फलोद्गमैः
नवाम्बुभिर् दूरविलम्बिनो घनाः।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः
स्वभाव एवैष परोपकारिणाम्॥

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6. वसन्ततिलका
(चौदह अक्षरों वाला समवृत्त)
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमश: तगण, भगण, जगण एवं दो गुरु वर्ण हों तथा 14 अक्षर हों, वह वसन्ततिलका छन्द कहलाता है।
संस्कृत में लक्षण
ज्ञेया ( उक्ता) वसन्ततिलका तभजा जगौ गः
इस पुस्तक के एकादश पाठ का निम्नलिखित पद्य वसन्ततिलका छन्द में है
उदाहरण
पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्यान् निगृहति गुणान् प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः॥

7. मालिनी
(पन्द्रह अक्षरों वाला समवृत्त)
जिस छन्द के प्रत्येक चरण (पाद) में क्रमशः दो नगण, एक मगण तथा दो यगण हों और पन्द्रह अक्षर हों वह छन्द मालिनी कहलाता है। इसमें पहली यति (विराम) आठवें वर्ण के बाद और दूसरी यति पन्द्रहवें वर्ण के बाद होती है।
संस्कृत में लक्षण
नन मयययु तेयं मालिनी भोगिलोकैः।
उदाहरण
जयतु जयतु देशः सर्वतन्त्रस्स्वतन्त्रः
प्रतिदिनमिह वृद्धिं यातु देशस्य रागः।
व्रजतु पुनरयं नोदासतामन्ययदीयाम्॥
भवतु धन समृद्धिः सर्वतो भावसिद्धिः।

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8. शिखरिणी
(सत्रह अक्षरों वाला समवृत्त)
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमशः यगण, मगण, नगण, सगण, भगण तथा एक लघु और एक गुरु वर्ण हों और सत्रह अक्षर हों वह शिखरिणी छन्द कहलाता है। छठे और सत्रहवें वर्ण के बाद इसमें यति होती है।
संस्कृत में लक्षण
– रसैः रुद्रैश्छिन्ना यमनसभलागः शिखरिणी।
उदाहरण
अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनं कररुहै
रनाविद्धं रत्तं मधु नवमनास्वादितरसम्
अखण्डं पुण्यानां फलमिह च तद्रूपमनघम्
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः॥

9. शार्दूलविक्रीडितम्
(म, स, ज, स, त, त, ग)
(उन्नीस वर्गों वाला समवृत्त)
लक्षण-सूर्याश्वैर्यदि मः सजौ सततगाः शार्दूलविक्रीडितम्। -छन्दोमंजरी, 2/19
जिस छंद के प्रत्येक पाद में क्रमशः मगण, सगण, जगण, सगण, दो तगण एवं एक गुरु वर्ण हों, वह शार्दूलविक्रीडित छन्द कहलाता है। इसमें बारहवें वर्ण के बाद पहली यति और उन्नीसवें अक्षर के बाद दूसरा यति होती है।

प्रस्तुत पुस्तक के तृतीय पाठ का अधोलिखित श्लोक शार्दूलविक्रीडित छंद में है :
HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् छन्द प्रकरणम् img-8
यास्यत्यद्य शंकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया,
कण्ठः स्तम्भितवाष्पवृत्तिकलषश्चिन्ताजडं दर्शनम्
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्यौकसः,
पीड्यन्ते गृहिणः कथं न तनयाविश्लेषदुःखैर्नवैः॥

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10. मन्दाक्रान्ता
(म, भ, न, त, त, ग, ग)
(सत्रह अक्षरों वाला समवृत्त)
मगण, भगण, नगण, दो तगणों और दो गुरुओं से मन्दाक्रान्ता छंद होता है। इसमें चौथे अक्षर के बाद पहली यति, छठे अक्षर के बाद दूसरी यति तथा आठवें अक्षर के बाद तीसरी यति होती है।
संस्कृत में लक्षण एवं उदाहरण
मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैः मो भनौ तौ गयुग्यम्
उदाहरण
HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् छन्द प्रकरणम् img-9
‘पश्चात्पुच्छं वहति विपुलं तच्च धूनोत्यजत्रम्
दीर्घग्रीवः स भवति, खुरास्तस्य चत्वार एव।
शष्याण्यत्ति, प्रकिरति शकृत्-पिण्डकानाम्र-मात्रा।
किं व्याख्यानैव्रजति स पुन(रमेयेहि याम॥

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HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् संस्कृतसाहित्यस्य-इतिहासः

Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions व्याकरणम् Sanskrit Sahitya Itihas संस्कृतसाहित्यस्य-इतिहासः Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sanskrit व्याकरणम् संस्कृतसाहित्यस्य-इतिहासः

1. महर्षि वाल्मीकि (रामायणम्)
रामायण के लेखक महर्षि वाल्मीकि संस्कृत साहित्य के आदि कवि हैं और उनका ‘रामायण’ महाकाव्य आदि काव्य माना जाता है। रामायण के रचयिता वाल्मीकि ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। वाल्मीकि के इस प्रथम अलंकृत काव्य ने परवर्ती समस्त भारतीय कवियों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया है। रामायण एक ऐसा महाकाव्य है जिस पर भारत की साहित्यिक परम्परा को गर्व होना उचित ही है। रामायण ने भारतीय जनता पर अत्यधिक प्रभाव डाला है। रामायण के जीवन आदर्श और शिक्षाएँ भारतीय समाज में गहराई से व्याप्त हैं।

कला, साहित्य और दैनिक व्यवहार के सम्बन्ध में वाल्मीकि ऋषि का यह महाकाव्य आदि स्रोत का कार्य करता है। रामायण को हम इतिहास काव्य कह सकते हैं। राम के कार्य, सीता के कार्य, सीता का पतिव्रत धर्म, हनुमान के आश्चर्यजनक कार्य एवं अलौकिक शक्ति से सम्पन्न राक्षसों ने समस्त भारतीय जनता को प्रभावित किया है। नाटककार और कवि बहुधा अपने कथानकों के लिए रामायण का आश्रय लेते हैं। अनेक कवियों ने वाल्मीकि से आकृष्ट होकर उनकी शैली का भी अनुकरण किया है। कविकुलगुरू महाकवि कालिदास अपने ‘रघुवंश काव्य’ में वाल्मीकि को अपना गुरु स्वीकार करते हैं।

वाल्मीकि के सम्बन्ध में एक कथा प्रसिद्ध है। एक बार वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वहीं पर क्रौंच और क्रौंची ‘पक्षी का कामातुर जोड़ा विहार कर रहा था। इसी बीच एक व्याध आया और उसने अपने बाण से क्रौंच को मार डाला। क्रौंची पृथ्वी पर छटपटाते हुए अपने सहचर को देखकर करुण क्रन्दन करने लगी। यह दृश्य देखकर वाल्मीकि का हृदय करुणा और शोक से भर गया और उनके मुख से अनायास निम्न पद्य (श्लोक) निकल पड़ा

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती: समाः।
यत् कौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

वाल्मीकि को अपने इस वचन में एक विशेष संगीत और लय का आभास हुआ। वे बार-बार इस पद्य को दोहराने लगे। बाद में इसी पद्य के अनुष्टुप् छन्द के आधार पर उन्होंने रामायण की रचना की। वाल्मीकि का शोक श्लोक बन गया। यह छन्द लौकिक संस्कृत का एक प्रसिद्ध छन्द बना और अनुष्टुप् अथवा श्लोक छन्द के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

रामायण का रचनाकाल 500 वर्ष ई० पू० माना जाता है। यह ग्रन्थ बाल काण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्य काण्ड, किष्किन्धा काण्ड, सुन्दर काण्ड, युद्ध काण्ड और उत्तर काण्ड इन सात काण्डों में विभक्त है। इनमें चौबीस हज़ार श्लोक • हैं कवि ने राम की कथा को आधार बनाकर आदर्श पुत्र, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श पत्नी और आदर्श सेवक का चरित्र प्रस्तुत किया है। वास्तव में वाल्मीकि रामायण के विषय में यह कथन पूर्ण सत्य है

यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्चे महीतले।
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति॥

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2. महर्षि वेदव्यास (महाभारतम्)
महषि वेदव्यास ‘महाभारत’ ग्रन्थ के प्रणेता हैं। परम्परा के अनुसार पाराशर और मत्स्यगन्धा के पुत्र कृष्णद्वैपायन व्यास महर्षि वेदव्यास के नाम से जाने जाते हैं। यह महर्षि व्यास पराशर्य, वेदव्यास, कृष्णद्वैपायन, सत्यवती सुत इत्यादि नामों से प्रसिद्ध हैं। उनके पिता महर्षि पाराशर और माता सरस्वती नाम की परम विदुषी देवी थी। यह वेदव्यास महाभारत के युद्धकाल में विद्यमान थे, ऐसा महाभारत के अध्ययन से ज्ञात होता है जैसा कि कहा गया है

तपसा ब्रह्मचर्येण यस्य वेदं सनातन्।
इतिहासमिमं चक्रे पुण्यं सत्यवती सुतः॥

महाभारत के आरंभ में ही यह संकेत मिलता है कि आदि महाभारत में 8800 श्लोक थे, वास्तव में यही वेदव्यास की कृति थी, जिसमें मूल रूप से कौरवों और पाण्डवों के युद्ध का वर्णन था, जो कि ‘जय’ के नाम से प्रसिद्ध था। उनके शिष्य वैशम्पायन ने जब इसे अर्जुन के प्रपौत्र राजा जनमेजय को उनके नाम यज्ञ के अवसर पर सुनाया तो इसमें 24 हज़ार श्लोक थे और इसका नाम ‘भारत’ था। तदनन्तर तब सौति ने इसे नैमिषारण्य में ऋषियों को सुनाया तो इसमें लगभग अस्सी हज़ार श्लोक थे और इसका नाम ‘महाभारत’ हो गया। इसके बाद हरिवंश पुराण भी इसमें मिला दिया गया और इस प्रकार इसकी श्लोक संख्या एक लाख हो गई। महाभारत में यह घोषणा गर्व पूर्वक की गई है

‘धर्म चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्॥

भारतीय चिन्तन पद्धति का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ ‘भगवगद्गीता’ महाभारत का ही एक अंश है। महाभारत में 18 पर्व हैं। यह पद्यबद्ध रचना है, किन्तु गद्य का भी कहीं-कहीं प्रयोग हुआ है। इसमें भारत के आदर्शों की अमूल्य निधि संचित है।

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3. भास एव उनकी रचनाएँ
महान् नाटककार भास का नाम कालिदास आदि अनेक कवियों ने अपनी रचनाओं में बड़े आदर के साथ लिया है। ऐसी प्रशस्तियों से जहाँ भास कि विद्वत्ता और उनकी नाट्यप्रवीणता को गौरव प्राप्त होता है, वहीं यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि भास कालिदास के पूर्ववर्ती कवि हैं। विद्वानों ने भास का स्थितिकाल ईसापूर्व चतुर्थ या पंचम शताब्दी स्वीकार किया है। 1909 ई० में पं० टी० गणपति शास्त्री ने भास द्वारा रचित 13 नाटकों की खोज की थी, जिन्हें गणपति शास्त्री ने ही 1918 ई० में त्रिवेन्द्रम् से पहली बार प्रकाशित करवाया था।

भास के नाटकों की अपनी कुछ मूलभूत विशेषताएँ हैं। भास की भाषा सरल तथा सुबोध है, इनके नाटकों के संवाद सशक्त तथा प्रभावपूर्ण हैं । इनकी भाषा में ओज, प्रसाद तथा माधुर्य तीनों गुणों का समावेश है। भास के लिए भाव संप्रेषण ही एकमात्र महत्त्वपूर्ण है, अत: उनकी भाषा सहजगम्य है और अनावश्यक रूप से किसी भी प्रकार से बोझिल नहीं है। इनके सभी नाटक प्राचीन काल से ही नाट्यमञ्चों पर बड़े प्रभावपूर्ण ढंग से अभिनय किए जाते रहे हैं- यह अभिनेयता इनके नाटकों की अद्वितीय विशेषता है। इनके नाटकों का मुख्य रस वीर है जो श्रृंगार आदि दूसरे रसों से सम्मिश्रित है। प्रकृति के कोमल रूप का इन्होंने बड़ा ही स्वाभाविक चित्रण अपने नाटकों में किया है। इनकी सभी तेरह रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है

भास के नाटकों का संक्षिप्त परिचय

1. दूतवाक्यम्-एक एकांकी नाटक है, जिसमें महाभारत के युद्ध से पूर्व श्री कृष्ण का पांडवों की ओर से सन्धि प्रस्ताव लेकर दुर्योधन की सभा में दूत के रूप में जाने का वर्णन है।
2. मध्यमव्यायोगः- इसमें भीमसेन द्वारा राक्षस से एक ब्राह्मण के बिचले (मध्यम) पुत्र की रक्षा का वर्णन है। एकांकी है।
3. दूतघटोत्कचम्- इसमें अभिमन्यु की मृत्यु के पश्चात् श्री कृष्ण घटोत्कच को दूत बनाकर धृतराष्ट्र के पास भेजते हैं। परन्तु दुर्योधन द्वारा उसका अपमान होता है। यह इतिवृत्त कवि कल्पना पर आश्रित एकांकी है।
4. कर्णभारम्-यह एकांकी नाटक है, जिसमें कर्ण का ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र को कवच और कुण्डल देने का वर्णन
5. उरुभंगम्-इस एकांकी में भीम तथा दुर्योधन के गदा युद्ध का और अन्त में भीम द्वारा दुर्योधन की जंघा को भंग करके मारने का वर्णन है।
6. पञ्चरात्रम्-इसमें 3 अंक हैं। इसमें कवि ने महाभारत की कथा का कल्पित रूप दे दिया है। यज्ञ की समाप्ति पर द्रोणाचार्य से दक्षिणा रूप में यह मांगा कि पांडवों को आधा राज्य पाँच रात में मिल जाए तो मैं आधा राज्य दे दूंगा। ऐसा दुर्योधन के मान लेने पर द्रोण के प्रयत्न से विराट नगर में पांडवों का पता चल गया और उन्हें आधा राज्य दे दिया गया।
7. बालचरितम्-इसमें 5 अंक हैं। इसमें श्रीकृष्ण के जन्म से कंस वध तक की कथा का वर्णन है।
8. प्रतिमानटकम्-इसमें 7 अंक हैं। इसमें राम के वनवास गमन से लेकर रावण वध तक की कथा का वर्णन है। इधर अपने ननिहाल से अयोध्या लौटने पर भरत को नगर के बाहर देवकुल में दशरथ की प्रतिमा देख कर उनकी मृत्यु का अनुमान हो जाता है। इसी प्रतिमा की घटना के कारण इस नाटक का नाम प्रतिमानाटकम् पड़ा है।
9. अभिषेकनाटकम्- इसमें 6 अंक हैं। इसमें किष्किन्धा, सुन्दरकांड तथा युद्धकांड की कथा के उपरान्त राम के राज्याभिषेक का वर्णन किया गया है।
10. प्रतिज्ञायौगन्धरायणम-इसमें 4 अंक हैं। इसमें कौशाम्बी की राजा उदयन का वर्णन है, जो अवन्तिराज महासेन द्वारा छल से कैद कर लिया जाता है। फिर उसकी कन्या वासवदत्ता को वीणा की शिक्षा देते समय उससे प्रेम हो जाता है। अपने मन्त्री यौगन्धरायण की सहायता से उदयन वासवदत्ता को लेकर उज्जयिनी को भाग निकलता है।
11. स्वप्नवासवदत्तम्-इसमें 6 अंक हैं। यह प्रतिज्ञायौगन्धरायण की कथा का उत्तरार्द्ध है। यौगन्धरायण की नीति के फलस्वरूप वासवदत्ता के अग्नि में भस्म हो जाने की अफवाह फैला कर उदयन के मगधराज दर्शक की बहन पद्मावती से विवाह तथा अपहत राज्य के पुनर्मिलन का वर्णन है। पद्मावती के घर में सोया हुआ उदयन स्वप्न में वासवदत्ता को देखता है। अन्त में, वह स्वप्न यथार्थ हो जाता है। इसी घटना पर इसका नाम स्वप्नवासवदत्तम् पड़ा है।
12. अविमारकम्- इसमें 6 अंक हैं। इसमें राजकुमार अविमारक का कुन्तिभोज की पुत्री कुरंगी के साथ प्रणयविवाह का वर्णन है।
13. चारुदत्तम्-इसमें केवल 4 अंक हैं। इसमें निर्धन किन्तु उदारचेता ब्राह्मण चारुदत्त और वसन्त सेना नाम की वेश्या के प्रणय सम्बन्ध का वर्णन हैं। यह नाटक अपूर्ण प्रतीत होता है।इन 13 नाटकों के अतिरिक्त कुछ विद्वान् वीणावासवदत्ता तथा यज्ञललम् को भी भासकृत मानते हैं। परन्तु इसके लिए कोई पुष्टप्रमाण नहीं हैं।
सम्भव है भासरचित अन्य नाटक भी हों, क्योंकि सुभाषित ग्रंथों में भास के नाम से कई ऐसे पद्य मिलते हैं, जो इन 13 नाटकों में नहीं पाए जाते। जनश्रुति के अनुसार भास ने 30 से अधिक ग्रंथ लिखे थे।

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4. अश्वघोष के काव्य
अश्वघोष संस्कृत महाकाव्य परम्परा में कालिदास के पूर्ववर्ती कवि हैं। अश्वघोष का स्थिति काल ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है। ये राजा कनिष्क के गुरु और उनके आश्रित कवि थे। अश्वघोष का समग्र साहित्य प्रायः बौद्ध धर्म की दार्शनिक मान्यताओं को केन्द्र में रख कर रचा गया है। जिनका प्रमुख उद्देश्य बुद्ध धर्म का प्रचार प्रसार ही अधिक प्रतीत होता है।

अश्वघोष की सात प्रामाणिक कृतियों में ‘बुद्धचरितम्’ तथा ‘सौन्दरनन्दम्’ दो महाकाव्य हैं।

1. बुद्धचरितम्-चीनी और तिब्बती अनुवाद के साथ बुद्धचरितम् में 28 सर्ग मिलते हैं। संस्कृत में केवल 17 सर्ग ही उपलब्ध हैं। अब शेष सर्गों का संस्कृत में अनुवाद भी महन्त श्री रामचन्द्र दास द्वारा किया हुआ मिलता है। इस महाकाव्य में गौतम बुद्ध की जीवन गाथा चित्रित है। प्रथम पाँच सर्गों में बुद्ध के जन्म से लेकर निष्क्रमण तक की कथा है। छठे सातवें सर्ग में कुमार गौतम का तपोवन में परवेश, अन्तःपुर में विलाप, कुमार की खोज, कुमार का मगध गमन तथा बुद्धत्व की प्राप्ति का वर्णन करते हुए बुद्ध के शिष्यों, उपदेशों, सिद्धान्तों तथा निर्वाण प्राप्ति का वर्णन किया गया है। इसका मुख्य रस शान्त है। परन्तु प्रसंग के अनुसार श्रृंगार और वीर रस का प्रयोग भी हुआ है। वैराग्य प्रधान होने पर भी बुद्धिचरितम् में सांसारिक और मनोहारी चित्र उपलब्ध हो जाते हैं। यह एक सफल महाकाव्य है।

2. सौन्दरनन्दम्-अश्वघोष का यह दूसरा महाकाव्य है। इसका कथानक बुद्धचरितम् से मिलता-जुलता है, किन्तु कविता की दृष्टि से यह अधिक प्रौढ़ है। इसमें गौतम के सौतेले भाई नन्द के संन्यास का वर्णन है। वह अपनी पत्नी सुन्दरी से अत्यन्त प्रेम करता है और उसी में डूबा रहता है। बुद्ध की प्रेरणा से नन्द संन्यासी हो जाता है। इन दोनों के नाम पर ही इसका नाम ‘सौन्दरानन्दम्’ रखा गया है।
‘सौन्दरनन्दम्’ में 18 सर्ग हैं। इसका मुख्य रस शान्त है। करुण, शृंगार और वीर इसके सहयोगी रस हैं। नाटक का नायक छन्द है। धर्म, अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से मोक्ष की प्राप्ति ही लक्ष्य है। अश्वघोष की भाषा सुबोध है। कवि में इसमें हृदयहारी स्वभाविक उपमाओं का प्रयोग किया है। अनुष्टुप् उनका प्रिय छन्द है।

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5. महाकवि कालिदास एवं उनकी रचनाएँ
कविकुलशिरोमणि, कविताकामिनी के विलास, उपमासम्राट् दीपशिखा कालिदास आदि विरुदों से विभूषित महाकवि कालिदास भारतवर्ष के ही नहीं समस्त विश्व के अनन्य कवि हैं। ये महाराज विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि कालिदास का समय ईसापूर्व प्रथम शताब्दी है। संस्कृतसाहित्य में कालिदास की सात रचनाएं प्रामाणिक मानी गई हैं।

इनमें रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् – दो महाकाव्य, मेघदूतम् तथा ऋतुसंहारम् – दो खण्डकाव्य तथा मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीयम् तथा अभिज्ञानशाकुन्तलम् – तीन नाटक हैं। काव्यकला एवं नाट्यकला की दृष्टि से कालिदास का कोई सानी नहीं है। नवरस वर्णन में कालिदास सर्वोपरि हैं। ‘उपमा अलंकार’ की सटीकता में वर्णन के कारण ही कालिदास के विषय में ‘उपमा कालिदासस्य’ कहा गया है तथा ‘दीपशिखा’ की उपाधि से अलंकृत किया गया है। यही नहीं इनकी रचनाओं में वैदर्भी रीति की विशिष्टता, माधुर्यगुण का सतत प्रवाह तथा सरसता ही इन्हें आज तक सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में प्रतिष्ठित किए हुए हैं।

रचनाओं का संक्षिप्त परिचय
1. रघुवंशम् – 19 सर्गीय रघुवंश कालिदास की अनन्यतम कृति है। इसमें रघुवंशीय दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम और कुश तक के राजाओं का विस्तृतरूपेण चित्रण तथा अन्य राजाओं का संक्षिप्त विवरण बड़े ही परिपक्व एवं प्रभावरूपेण किया गया है। जहां दिलीप की नन्दिनी सेवा, रघु की दिग्विजय, अज एवं इन्दुमती का विवाह, इन्दुमति की मृत्यु पर अज विलाप, राम का वनवास, लंका विजय, सीता का परित्याग, लव-कुश का अश्वमेधिक घोड़े को रोकना तथा अन्तिम सर्ग में राजा अग्निवर्ण का विलासमय चित्रण उनकी सूक्ष्मपर्यवेक्षण शक्ति का परिचय देता है।

2. कुमारसम्भवम्-17 सर्गीय कुमारसम्भव शिव-पार्वती के विवाह, कार्तिकेय के जन्म तथा तारकासुर के वध की कथा को लेकर लिखित सुप्रसिद्ध महाकाव्य है। कुछ आलोचक केवल आठ सर्गों को ही कालिदास लिखित मानते हैं लेकिन अन्यों के अनुसार सम्पूर्ण रचना कालिदास विरचित है। इस ग्रन्थ में हिमालय का चित्रण, पार्वती की तपस्या, शिव के द्वारा पार्वती के प्रेम की परीक्षा, उमा के सौन्दर्य का वर्णन, रतिविलाप आदि का चित्रण कालिदास की परिपक्व लेखनशैली को घोषित करता है। अन्त में कार्तिकेय के द्वारा तारकासुर के वध के चित्रण में वीर रस का सुन्दर परिपाक द्रष्टव्य है।

3. ऋतुसंहारम्-महाकवि कालिदास का ऋतुसंसार संस्कृत के गीतिकाव्यों में विशिष्टता लिए हुए हैं। जिसमें ऋतुओं के परिवर्तन के साथ-साथ मानव जीवन में बदलने वाले स्वभाव, वेशभूषा, एवं प्राकृतिक परिवेश का अवतरण द्रष्टव्य है। इसमें छः सर्ग तथा 144 पद्य हैं जिनमें ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर तथा वसन्त के क्रम से छ: ऋतुओं का वर्णन छः सर्गों में किया गया है।

4. मेघदूतम्-मेघदूत न केवल कालिदास का महान् गीतिकाव्य है, अपितु सम्पूर्ण संस्कृतसाहित्य का एक उज्ज्वल रत्न है। सम्पूर्ण मेघदूत दो भागों में विभक्त है-पूर्वमेघ तथा उत्तरमेघ जिनमें कुल 121 पद्य हैं। इस गीतिकाव्य में मन्दाक्रान्ता छन्द में एक यक्ष की विरहव्यथा का मार्मिक चित्रण किया गया है। पूर्वमेघ में कवि ने यक्ष द्वारा मेघ को अलकापुरी तक पहुंचाने के मार्ग का उल्लेख करते हुए उस मार्ग में आने वाले प्रमुख नगरों, पर्वतों, नदियों तथा वनों का भी सुन्दर चित्रण किया है। उत्तरमेघ में अलकापुरी का वर्णन, उसमें यक्षिणी के घर की पहचान तथा घर में विरहव्यथा से पीड़ित अपनी प्रेयसी की विरह पीड़ा का मार्मिक वर्णन द्रष्टव्य है।

5. मालविकाग्निमित्रम्-पांच अंकों में लिखित महाकवि कालिदास की प्रारम्भिक कृति ‘मालविकाग्निमित्र’ में विदिशा के राजा अग्निमित्र तथा मालवा के राजकुमार की बहन मालविका की प्रणयकथा का वर्णन है। मालविकाग्निमित्र कवि की आरम्भिक रचना होने पर भी नाटकीय नियमों की दृष्टि से इसके कथा निर्वाह, घटनाक्रम, पात्रयोजना आदि सभी में नाटककार के असाधारण कौशल की छाप है।

6. विक्रमोर्वशीयम्-नाटक रचनाक्रम की दृष्टि से कालिदास की द्वितीय कृति ‘विक्रमोर्वशीयम्’ एक उपरूपक है; जिसमें राजा पुरुरवा तथा उर्वशी नामक अप्सरा की प्रणयकथा वर्णित है। इस नाटक में कवि की प्रतिभा अपेक्षाकृत अधिक जागृत एवं प्रस्फुटित है।

7. अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास का अन्तिम तथा सर्वोत्कृष्ट नाटक ‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम्’ सात अंकों में विभक्त है; जिसमें राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला की प्रणय कथा वर्णित है। यह नाटक संस्कृत का सर्वोपरि लोकप्रिय नाटक है। जिसमें कालिदास की कथानकीय मौलिकता, चरित्रचित्रण की सजीवता, रसों की परिपक्वता, संवादों की सुष्ठु योजना, प्रकृतिचित्रण की मर्मज्ञता तथा भाषा-शैली की विशिष्टता आदि स्वयं में अनुपम हैं। इन्हीं गुणों के कारण कहा गया है

“काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला”

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6. नाटककार भवभूति एवं उनकी रचनाएँ

संस्कृत के नाटककारों में भवभूति को कालिदास जैसा गौरव प्राप्त है। भवभूति पद्मपुर के निवासी थे तथा उदुम्बरकुल के ब्राह्मण थे। इनके पितामह का नाम भट्टगोपाल था, जो स्वयं एक महाकवि थे। इनके पिता का नाम नीलकण्ठ तथा माता का नाम जतुकर्णी था। भवभूति का दूसरा नाम ‘श्रीकण्ठ’ था। भवभूति शिव के उपासक थे, इनके गुरु का नाम ज्ञाननिधि था। भवभूति का स्थितकाल कतिपय पुष्ट प्रमाणों के आधार पर 700 ई० के आसपास माना जाता है।

रचनाएँ-भवभूति की तीन रचनाएं (नाटक) उपर. ध होती हैं
1. मालतीमाधवम् 2. महावीरचरितम् तथा 3. उत्तररामचरितम्।
1. मालतीमाधवम्-यह 10 अंकों का नाटक है। इसमें नाटक की नायिका मालती तथा नायक माधव के प्रेम और विवाह की कल्पित कथा चित्रित है। यह एक शृंगार प्रधान रचना है। मालतीमाधव में पाठकों की उत्सुकता जगाए रखने के पूरी चेष्टा की गई है, जिसमें भवभूति सफल हुए हैं। रोचक कथानक यथार्थ चित्रण तथा प्रभावपूर्ण भाषा के कारण यह नाटक प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। पाँचवें अंक में शमशान का वर्णन तथा नौवें अंक में वन का वर्णन दर्शनीय है। पत्नी के आदर्श सम्बन्ध का वर्णन भी अद्वितीय है। काव्य की दृष्टि से मालतीमाधव एक उत्कृष्ट कही जा सकती है।

2. महावीरचरितम्- यह सात अंकों का नाटक है। इसमें राम के विवाह से लेकर राम के राज्याभिषेक की कथा को नाटकीय रूप दिया गया है। कवि ने रामायण की कथा को रोचक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है और उसे अधिकाधिक नाटकीय बनाने के लिए कथा में स्वेच्छा से परिवर्तन भी किया गया है। नाटकीय तत्त्वों के अभाव तथा लम्बे संवादों के कारण यह नाटक सामाजिकों की ओर आकृष्ट नहीं कर सका। महावीरचरितम् में मुख्य रूप से वीररस का परिपाक हुआ है।

3. उत्तररामचरितम् – उत्तररामचरित भवभूति का अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ नाटक है। यह कृति भवभूति के जीवन के प्रौढ़ अनुभवों की देन है। कवि के अन्य दोनों नाटकों की अपेक्षा उत्तररामचरित की कथावस्तु तथा नाटकीय कौशल अधिक प्रौढ़ हैं। भवभूति की अत्यधिक भावुकता ने इस ‘उत्तररामचरितम्’ को नाटक के स्थान पर गीति नाट्य बना दिया है। इसमें कुल सात अंक हैं। राम के उत्तरकालीन जीवन की कथा पर जितने भी ग्रन्थ लिखे गए हैं, उनमें उत्तररामचरित जैसी प्रसिद्धि किसी भी ग्रन्थ को नहीं मिल पाई।।

यद्यपि उत्तररामचरित का मूल आधार वाल्मीकि रामायण है परन्तु भवभूति ने इसमें अनेक मौलिक परिवर्तन किए हैं। उत्तररामचरित का प्रमुख रस करुण है। करुण रस की अभिव्यंजना में भवभूति इतने सिद्धहस्त हैं कि मनुष्य तो क्या निर्जीव पत्थर भी रो पड़ते हैं। भवभूति की स्थापना है कि एक करुण रस ही है, अन्य शृंगार आदि तो उसी के निमित्त

व्याकरणम् रूप है-‘एको रसः करुण एवं निमित्तभेदात्’ । ‘उत्तररामचरितम्’ के तीसरे अंक में करुण रस की जो अजस्र धारा बही है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। करुण रस की इस अद्भुत अभिव्यंजना के कारण ही ये उक्तियाँ प्रसिद्ध हो गई है

‘कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते’
उत्तरे रामचरिते भवभूतिः विशिष्यते।

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7. श्रीमद्भगवद्गीता
‘कर्मगौरवम्’ यह पाठ ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के दूसरे एवं तीसरे अध्याय से संकलित है। श्रीमद्भगवद्गीता विश्व का सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। ‘गीता’ महाभारत के ‘भीष्म पर्व’ से उद्धृत है। इसमें 18 अध्याय हैं, 700 श्लोक हैं। तथा 18 प्रकार के योग का वर्णन है। समस्त योगों में कर्मयोग श्रेष्ठ है। मनुष्य कर्म करने के लिए संसार में आया है। किन्तु निष्काम कर्म करना ही मनुष्य को बन्धन से मुक्त करता है। सभी प्रकार की कामनाओं और फल की इच्छा से रहित कर्म ही निष्काम कर्म कहलाता है। इसी को ‘अनासक्ति’ कहा गया है। प्राणिमात्र का अधिकार केवल कर्म करने में निहित है, फल में नहीं। गीता के दूसरे-तीसरे अध्याय में इसी कर्मयोग की विस्तृत चर्चा है।

श्रीकृष्ण ने गीता में, अर्जुन को इसी निष्काम कर्मयोग की शिक्षा प्रदान की है। श्रीकृष्ण ने युद्ध क्षेत्र में, विषाद में पड़े हुए अर्जुन को स्व-क्षत्रियोचित कर्तव्य का उपदेश देकर धर्मयुद्ध के लिए उद्यत किया था। अर्जुन के माध्यम से मानवपात्र को निष्काम कर्म का उपदेश दिया गया है। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ यह गीता का सन्देश है।

8. पं० अम्बिकादत्त व्यास (शिवराजविजयः )
पं० अम्बिकादत्तं व्यास (1858-1900 ईस्वी) आधुनिक युग के संस्कृत लेखकों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। हिन्दी और संस्कृत में इनकी लगभग 75 रचनाएं मिलती हैं। इन सभी में ‘शिवराजविजयः’ नामक ऐतिहासिक उपन्यास इनकी श्रेष्ठतम रचना है। यह उपन्यास 1901 ईस्वी में प्रकाशित हुआ था।

शिवराजविजय शिवाजी और औरंगज़ेब की प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना पर आधारित उपन्यास है। शिवाजी इस उपन्यास के नायक हैं, जो भारतीय आदर्शों, संस्कृति, सभ्यता और मातृशक्ति के रक्षक के रूप में चित्रित किए गए हैं। शिवाजी और उनके सैनिकों की दृढ़ प्रतिज्ञा है-‘कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्’-कार्य सिद्ध करूंगा या देह का त्याग कर दूंगा।

गद्य काव्य की दृष्टि से शिवराजविजय एक उत्कृष्ट रचना है। इनकी भाषा की एक विशेषता है कि इनकी भाषा सदा भावों के अनुसार प्रयुक्त होती है। सरस प्रसंगों में ललित पदावली और वैदर्भी शैली का प्रयोग हुआ है। करुणा भरे प्रसंगों में प्रत्येक शब्द आंसुओं से भीगा हुआ मिलता है। वीर रस के प्रसंग में भाषा ओजस्विनी हो जाती है और पाठक की भुजाएं फड़कने लगती हैं। रस और अलंकारों का सुन्दर सामंजस्य है। सभी वर्णन स्वाभाविकता से ओत-प्रोत हैं। बाण और दण्डी के गद्य की सभी विशेषताएं व्यास जी के गद्य में मिलती हैं।

‘शिवराजविजयः’ उपन्यास में तीन विराम हैं तथा प्रत्येक विराम में चार निःश्वास हैं। कुल 12 निःश्वास हैं। प्रस्तुत पाठ ‘कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्’ इसी ऐतिहासिक उपन्यास के प्रथम विराम के चतुर्थ नि:श्वास से संकलित है। इस अंश में शिवाजी का एक विश्वासपात्र एवं कर्मठ गुप्तचर ‘कार्य वा साधयेयम्, देहं वा पातेययम्’ वाक्य द्वारा अपना दृढ़ संकल्प प्रकट करता है, जिसका तात्पर्य है-‘कार्य सिद्ध करूंगा या देह का त्याग कर दूंगा।’

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9. भारवि का ‘किरातार्जुनीयम्’
अलंकृत शैली तथा अर्थगौरव से परिपूर्ण कविता करने वाले भारवि ने अपनी प्रतिभा, कला और विद्वत्ता के कारण कालिदास के परवर्ती कवियों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त का है। इनका स्थितिकाल कतिपय पुष्ट प्रमाणों के आधार पर 600 ईस्वी के आसपास माना जाता है। भारवि की एकमात्ररचना है-‘किरातार्जुनीयम्’ इस अकेले महाकाव्य ने भारवि को काव्य जगत् में अमर कर दिया है।

‘किरातार्जुनीयम्’ की कथा का आधार महाभारत का वन पर्व है। महाकाव्य के सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त 18 सर्गों वाले इस महाकाव्य में ‘इन्द्रकील पर्वत और दिव्य अस्त्र प्राप्त करने के लिए तपस्या करने वाले अर्जुन और किरात वेषधारी भगवान् शंकर का युद्ध’ वर्णित हुआ है।

‘किरातार्जुनीयम्’ का मुख्य रस वीर है तथा शृंगार, शान्त आदि सहायक रस हैं। भारवि का भाषा पर अपूर्व अधिकार है। अलंकृत शैली के कारण भावबोध कुछ जटिल हो गया है। इन्हें काव्यपरम्परा में अलंकृत शैली का जनक माना जाता है। थोड़े शब्दों में अधिक गहरी और महत्त्वपूर्ण बात कहना इनकी विशेषता है। इसीलिए ‘भारवेरर्थगौरवम्’ के रूप में भारवि प्रसिद्ध हो गए हैं। संस्कृत के महाकाव्यों की बृहत्-त्रयी (किरातार्जुनीयम्, शिशपालवधम्, नैषधीयचरितम्) में ‘किरातार्जुनीयम्’ को विशेष स्थान प्राप्त है। इसके सुभाषित बहुत ही सारगर्भित हैं।।

10. माघ का काव्य ‘शिशुपालवधम्’
अलंकृत शैली में काव्य रचनाकारों में विशेष ख्याति प्राप्त है इनका स्थिति काल 650 ईस्वी के आसपास माना जाता है। इनकी एकमात्र रचना शिशुपालवधम् है। इसकी गणना संस्कृत की बृहत्-त्रयी (किरातार्जुनीयम्, शिशुपालवधम्, नैषधीय (चरितम्) में की जाती है।

‘शिशुपालवधम्’ महाकाव्य में 20 सर्ग और 650 श्लोक हैं। इस काव्य में श्रीकृष्ण द्वारा सुदर्शन चक्र चलाकर शिशुपाल के वध का वर्णन चित्रित किया गया है। माघ ने इस काव्य की रचना पूर्णतया भारवि के किरातार्जुनीयम् की शैली पर की है। इसमें वीर रस की प्रधानता है।

कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। अलंकारों की भरमार है। कालिदास का उत्कर्ष उपमा अलंकार के प्रयोग में, भारवि का उत्कर्ष अर्थ के गौरव में और श्री हर्ष का उत्कर्ष पदलालित्य में स्वीकार किया गया है परन्तु माघ का उत्कर्ष इन तीनों ही गुणों में स्वीकार किया जाता है। इसीलिए यह सुभाषित प्रसिद्ध हो गया
उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थ गौरवम्। नैषधे पदलालित्यम् माघे सन्ति त्रयो गुणाः॥

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11. श्री हर्ष का काव्य ‘नैषधीयचरितम्’
श्री हर्ष कान्यकुब्ज के राजा विजय चन्द्र (1169-1195 ई०) सभापण्डित थे। नैषधीयचरितम् इनका प्रसिद्ध महाकाव्य है। अलंकृत शैली के इस महाकाव्य को संस्कृत महाकाव्य की बृहत्-त्रयी (किरातार्जुनीयम्, शिशुपालवधम्, नैषधीयचरितम्) में सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। महाभारत के प्रसिद्ध नल उपाख्यान को आधार बनाकर 22 सर्गों वाले इस महाकाव्य की रचना हुई है। छोटे से कथानक को श्रीहर्ष ने अपनी अद्भुत कल्पना शक्ति और प्रतिभा से इतना विस्तार दिया है। इस महाकाव्य का नायक नल और नायिका दमयन्ती है। शब्दों के सुन्दर विन्यास, भावों के समुचित निर्वाह, कल्पना की ऊंची उड़ान तथा प्रकृति के सजीव चित्रण की दृष्टि से यह महाकाव्य अद्वितीय है इनकी कविता में स्वभाविक माधुर्य है। शब्द और अर्थ की नवीनता है-नैषधीयचरितम् अपने पदलालित्य के लिए प्रसिद्ध है। इसका मुख्य रस शृंगार है तथा करुण आदि अन्य रस सहायक हैं। श्री हर्ष की कविता में अलंकारों की भरमार है और छन्द प्रयोग की कुशलता प्रशंसनीय है।

12. भर्तृहरि की गीति काव्य ‘नीतिशतकम्’
भर्तृहरि को परम्परा के अनुसार विक्रमादित्य का बड़ा भाई मानती है इनकी मृत्यु 650 ईस्वी में हुई थी इनके तीन गीतिकाव्य-1. शृंगारशतकम्, 2. नीतिशतकम्, 3. वैराग्यशतकम् प्रसिद्ध हैं। इनके अतिरिक्त इनका एक व्याकरण ग्रन्थ ‘वाक्यपदीयम्’ के नाम से उपलब्ध है विद्वान् लोग भर्तृहरि का समय छठी शताब्दी का उत्तरार्ध मानते हैं।

नीतिशतकम्, शृंगारशतकम् और वैराग्यशतकम् प्रत्येक में लगभग 100 श्लोकों का संग्रह है। प्रत्येक पद्य स्वतन्त्र मुक्तक है अर्थात् प्रत्येक पद्य में अपने विषय की बात पूर्ण हो जाती है। इन शतकों में भर्तृहरि ने अपने जीवन के अनुभव अति सरल भाषा में भर दिए हैं। अधिकांश श्लोक सुभाषित एवं सूक्ति का रूप धारण कर गए हैं। ___ नीतिशतक में लौकिक व्यवहार के लिए उपयोगी उत्तम उपदेश प्रदान किए गए हैं इसमें वीरता, विद्या, साहस, मैत्री, विद्वान्, सज्जन, दुर्जन, सत्संगति, धन की महिमा, मूों की नीचता, स्वाभिमान, राजनीति, भाग्य एवम् पुरुषार्थ आदि अनेक विषयों का काव्यमयी भाषा में सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। भर्तृहरि ने इनकी रचना में सरस सुबोध भाषा के साथसाथ गेय छन्दों का प्रयोग किया है। इनकी कविता पाठक के हृदय पर अनायास ही गहरा प्रभाव छोड़ती है। निश्चय ही कवि ने नीतिशतक के पद्यों में गागर में सागर भर दिया है।

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13. दण्डी का गद्य काव्य ‘दशकुमारचरितम्’
दण्डी के पिता वीरदत्त संस्कृत के महाकवि भारवि के छोटे पुत्र थे। दण्डी की माता का नाम गौरी था। इनका स्थिति काल ईसा की छठी शताब्दी माना जाता है। परम्परा के अनुसार दण्डी की तीन रचनाएं मानी जाती हैं-1. दशकुमारचरितम्, 2. काव्यादर्शः, 3. अवन्तिसुन्दरी कथा।

‘दशकुमारचरितम्’ दण्डी का प्रसिद्ध गद्य काव्य है। इसमें दशकुमारों के विचित्र चरित्र का विस्मयकारी चित्रण है। इसका कथानक घटना प्रधान है। कथानकों की सभी घटनाएं रोमांचक तथा पाठकों के हृदय में आकर्षण पैदा करने वाली हैं। इसकी विषय-वस्तु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। दण्डी ने अपनी रचना को यथार्थवादी बनाया है। इसमें निम्न कोटि का जीवन जीने वाले तथा साहसिक कार्य करने वाले जादूगर, धूर्त, तपस्वी, राजा, राजकुमारियां, चोर, वेश्याएं, प्रेमी-प्रेमिका आदि के रोचक वर्णन हैं। ब्राह्मणों, व्यापारियों एवं साधुओं पर तीखे व्यंग्य कसे गए हैं। वर्णन में हास्य विनोद की पुट है। दण्डी अपने पदलालित्य के कारण प्रसिद्ध हैं। अनुप्रास और यमक का प्रभावशाली प्रयोग इनकी रचना में हुआ है।

14. बाणभट्ट के गद्य काव्य
कवि सम्राट् बाण भट्ट महाराजा हर्षवर्धन के राजपण्डित थे। हर्षवर्धन के राज्यभिषेक 606 ईस्वी में हुआ था और उनकी मृत्यु 648 ईस्वी में हुई थी। इसीलिए बाण का स्थितिकाल ईसा की सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है। बाण भट्ट की दो गद्य कृतियां प्रसिद्ध हैं-1. हर्षचरितम्, 2. कादम्बरी। हर्षचरितम्- यह बाण भट्ट की प्रथम रचना है। इसमें हर्ष का प्रामाणिक इतिहास सुरक्षित है। इसीलिए इसे आख्यायिका कहा जाता है। इसमें आठ उच्छ्वास हैं। आरम्भ के अढ़ाई उच्छ्वासों में बाण ने अपने वंश का तथा अपना वृत्तान्त दिया है। शेष उच्छ्वासों में हर्षवर्धन, प्रभाकरवर्धन तथा राज्यश्री-इन तीनों भाई-बहनों का सम्पूर्ण जीवन वृत्तान्त वर्णित है। संस्कृत साहित्य में ऐतिहासिक विषय को आधार बनाकर काव्य लिखने का शुभारम्भ बाण के हर्षचरितम् से ही हुआ है। हर्षचरितम् में बाणभट्ट की शैली, चरित चित्रण, वर्णन चातुरी, अत्यन्त उत्कृष्ट है। सती होने के लिए उद्यत यशोवती की मानसिक दशा का चित्रण बड़ा ही करुणामय है। यद्यपि हर्षचरितम् बाण की अधूरी रचना है फिर भी काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से साहित्य में इसका विशिष्ट स्थान है।

कादम्बरी-कादम्बरी बाण की दूसरी प्रसिद्ध और प्रामाणिक रचना है। ‘शुकनासोपदेशः’ कादम्बरी का ही छोटा सा अंश है। बाण की असमय में मृत्यु हो जाने के कारण इसकी कथा को बाण के विद्वान् पुत्र भूषण भट्ट ने उत्तरार्ध के रूप में पूरा किया। इस प्रकार कादम्बरी का पूर्वार्ध ही बाण की मौलिक रचना है। इसकी कथा पूर्णतया काल्पनिक है। इसके घटनाक्रम में एक व्यक्ति के तीन-तीन जन्म का वृत्तान्त है।

कादम्बरी की कथा चन्द्रापीड़ और पुण्डरीक के तीन जन्मों से सम्बन्धित है। इसका कथानक अत्यन्त जटिल है, परन्तु इसके वर्णन इतने सजीव हैं कि पाठक को कथा प्रवाह के शिथिल होने का आभास ही नहीं हो पाता और वह वर्णन के आनन्द में ही डूब जाता है। कादम्बरी का रसपान करने वाले को भोजन भी अच्छा नहीं लगता। कहा भी है
‘कादम्बरी रसज्ञानाम् आहारोऽपि न रोचते’। ‘कादम्बरी’ में वर्णित राजतिलक से पूर्व राजकुमार चन्द्रापीड़ को मन्त्री शुकनास का सारगर्भित उपदेश बेजोड़ है। मन्त्री शुकनास का यह उपदेश ही शुकनासोपदेश के नाम से जाना जाता है। कादम्बरी में बाणभट्ट ने प्रसंग के अनुसार दीर्घ समासवाली, अल्पसमास वाली तथा समास रहित विविध शैलियों का प्रयोग किया है। बाण का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। वर्णन की दृष्टि से बाण ने संसार के सभी विषयों का स्पर्श किया है। इसीलिए बाण के सम्बन्ध में यह उक्ति प्रसिद्ध हो गई है

‘बाणोच्छिष्टं जगत् सर्वम्’।।

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15. ईशोपनिषद्
अथवा
ईशावास्योपनिषद्
“सम्पूर्ण विश्व में ज्ञान का आदिस्रोत ‘वेद’ ही हैं”-ऐसा विद्वानों का मत है। वेदों का सार उपनिषदों में निहित है। उपनिषदों को ‘ब्रह्मविद्या’, ‘ज्ञानकाण्ड’ अथवा ‘वेदान्त’ नाम से भी जाना जाता है। ‘उप’ तथा ‘नि’ उपसर्ग पूर्वक

सद् (षद्लु) धातु से ‘क्विप्’ प्रत्यय होकर ‘उपनिषद्’ शब्द निष्पन्न होता है-उप + नि + √भसद् + क्विप् > ० = उपनिषद। जिससे अज्ञान का नाश होता है, आत्मा का ज्ञान सिद्ध होता है, संसार चक्र का दुःख छूट जाता है; वह ज्ञानराशि ‘उपनिषद्’ कही जाती है। गुरु के समीप बैठकर अध्यात्मविद्या ग्रहण की जाती है-इस कारण भी

‘उपनिषद्’ शब्द सार्थक है। ‘उपनिषद्’ नाम से 200 से भी अधिक ग्रन्थ मिलते हैं। परन्तु प्रामाणिक दृष्टि से उन में 11 उपनिषद् ही महत्त्वपूर्ण हैं और इन्हीं पर आचार्य शङ्कर का भाष्य भी मिलता है। इनके नाम इस प्रकार हैं-1. ईशावास्य 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. मुण्डक, 6. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छान्दोग्य, 10. बृहदारण्यक तथा 11. श्वेताश्वतर।। . इनमें भी ‘ईशावास्य-उपनिषद्’ सबसे अधिक प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण है। [‘यजुर्वेद’ का अन्तिम चालीसवाँ अध्याय ही ‘ईशोपनिषद्’ के नाम से प्रसिद्ध है, इसमें कुल 17 मन्त्र हैं।] इस उपनिषद् में ‘समस्त जगत् ईश्वाराधीन है’-यह प्रतिपादित करके भगवद्-अर्पणबुद्धि से जगत् के पदार्थों का उपभोग करने का निर्देश किया गया है।

‘जगत्यां जगत्”ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है, सब जगत् अर्थात् गतिमय है’-उपनिषद् के इस सिद्धान्त की पुष्टि आधुनिक विज्ञान एवं आधुनिक खोज द्वारा भी होती है। निरन्तर परिवर्तन तथा निरन्तर गतिमयता ब्रह्माण्ड के समस्त सूर्य + चन्द्र + पृथ्वी आदि ग्रह-उपग्रहों का स्वभाव है। – इस उपनिषद् में ‘विद्या’ ‘अविद्या’ दो विशिष्ट वैदिक पदों का प्रयोग हुआ है। जो लोग ‘अविद्या’ शब्द द्वारा कहे जाने वाले यज्ञयाग, भौतिकशास्त्र आदि सांसारिक ज्ञान में दैनिक सुख-साधनों की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील रहते हैं; उनकी सांसारिक उन्नति तो बहुत होती है, परन्तु उनका अध्यात्म पक्ष निर्बल रह जाता है। जो लोग केवल अध्यात्म ज्ञान में ही लीन रहते हैं और भौतिक ज्ञान की साधन सामग्री की अवहेलना करते हैं, वे सांसारिक जीवन के निर्वाह तथा सांसारिक उन्नति में पिछड़ जाते हैं।

इसीलिए अविद्या अर्थात् भौतिकज्ञान द्वारा जीवन की सुख-साधन सामग्री अर्जित कर विद्या अर्थात् अध्यात्मज्ञान द्वारा जन्म-मरण के दुःख से रहित अमृतपद को प्राप्त करने का सारगर्भित उपदेश इस उपनिषद में दिया गया है-‘अविद्यया मृत्युं तीर्खा विद्ययाऽमृतमश्नुते’। श्रीमद् भगवद्गीता में ईशोपनिषद् के ही दार्शनिक विचारों का विस्तार से व्याख्यान किया गया है।

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16. दाराशिकोह (समुद्रसङ्गमः)
मुगलसम्राट् शाहजहाँ के विद्वान् पुत्र दाराशिकोह संस्कृत तथा अरबी भाषा के तत्कालीन विद्वानों में अग्रगण्य थे। ‘समुद्रसङ्गमः’ दाराशिकोह द्वारा रचित प्रसिद्ध है। इसी ग्रन्थ में ‘पृथिवी-निरूपणम्’ के अन्तर्गत उन्होंने पर्वतों, द्वीपों, समुद्रों आदि का विशिष्ट शैली में वर्णन किया है। उसी वर्णन के कुछ अंश यहाँ ‘भू-विभागाः’ पाठ में प्रस्तुत किए गए हैं।

दाराशिकोह मुगलसम्राट शाहजहाँ के सबसे बड़े पुत्र थे। उनका जीवनकाल 1615 ई० से 1659 ई० तक है। शाहजहाँ उनको राजपद देना चाहते थे पर उत्तराधिकार के संघर्ष में उनके भाई औरंगज़ेब ने निर्ममता से उनकी हत्या कर दी। दाराशिकोह ने अपने समय के श्रेष्ठ संस्कृत पण्डितों, ज्ञानियों और सूफी सन्तों की सत्संगति में वेदान्त और इस्लाम के दर्शन का गहन अध्ययन किया था। उन्होंने फ़ारसी और संस्कृत में इन दोनों दर्शनों की समान विचारधारा को लेकर विपुल साहित्य लिखा। फारसी में उनके ग्रन्थ हैं-सारीनतुल् औलिया, सकीनतुल् औलिया, हसनातुल् आरफीन (सूफी सन्तों की जीवनियाँ), तरीकतुल् हकीकत, रिसाल-ए-हकनुमा, आलमे नासूत, आलमे मलकूत (सूफी दर्शन के प्रतिपादक ग्रन्थ), सिर्र-ए-अकबर (उपनिषदों का अनुवाद)। श्रीमद्भगवद्गीता और योगवासिष्ठ का भी फ़ारसी भाषा में उन्होंने अनुवाद किया। ‘मज्म-उल्-बहरैन्’ फ़ारसी में उनकी अमरकृति है, जिसमें उन्होंने इस्लाम और वेदान्त की अवधारणाओं में मूलभूत समानताएँ बतलाई हैं। इसी ग्रन्थ को दाराशिकोह ने ‘समुद्रसङ्गमः’ नाम से संस्कृत में लिखा।

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17. चन्द्रशेखरदास वर्मा (पाषाणीकन्या)
श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा उड़िया भाषा के प्रख्यात साहित्यकार हैं। इनका जन्म 1945 ईस्वी में हुआ। इनके 12 कथासंग्रह, एक नाट्यसंग्रह तथा तीन समीक्षा-ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘पाषाणी-कन्या’ तथा ‘वोमा’ इनके प्रसिद्ध कथा संग्रह हैं। ‘पाषाणीकन्या’ कथासंग्रह का संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है। इसी कथासंग्रह से ‘दीनबन्धुः श्रीनायारः’ शीर्षक कथा पाठ्यांश के रूप में संकलित है।

इस कथा के नाटक श्रीनायार का पालन-पोषण एक अनाथाश्रम में हुआ है। श्रीनायार ने अपनी कर्मदक्षता, दाक्षिण्य और सेवामनोवृत्ति से समाज में आदर्श स्थापित किया है। वे प्रतिमास अपने वेतन का आधे से अधिक भाग केरल में स्थापित अनाथाश्रम को भेजते हैं। प्रस्तुत कथा में श्रीनायार का लोककल्याणकारी आदर्श चरित्र वर्णित है।

18. पं० हृषीकेश भट्टाचार्य (प्रबन्धमञ्जरी)
आधुनिक गद्य लेखकों में पण्डित हृषीकेश भट्टाचार्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनका समय 1850-1913 ई० है। ये ओरियण्टल कॉलेज, लाहौर में संस्कृत के प्राध्यापक थे। इन्होंने ‘विद्योदयम्’ नामक संस्कृत पत्रिका के माध्यम से 44 वर्ष तक निवन्ध-लेखन करके संस्कृत में निबन्ध-विधा को जन्म दिया है। श्री भट्टाचार्य द्वारा लिखित संस्कृत निबन्धों का एक संग्रह ‘प्रबन्धमञ्जरी’ के नाम से 1930 ई० में प्रकाशित हुआ। इसमें 11 निबन्ध संगृहीत हैं। इनमें से अधिकांश निबन्ध व्यङ्ग्य-प्रधान शैली में लिखे गए हैं। संस्कृत में व्यङ्ग्य-शैली का प्रादुर्भाव श्री भट्टाचार्य के इन निबन्धों से ही माना जाता है। इनका व्यंग्य अत्यन्त शिष्ट, परिष्कृत और प्रभावोत्पादक है। इनकी भाषा में सरलता, सरसता, मधुरता तथा सुबोधता है। इनकी भाषा में संस्कृत के महान् गद्यकार बाण की शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।

प्रस्तुत पाठ ‘उद्भिज्ज-परिषद्’ श्री भट्टाचार्य की इसी ‘प्रबन्ध-मञ्जरी’ से सम्पादित करके लिया गया है। उभिज्ज शब्द का अर्थ है-वृक्ष और परिषद् का अर्थ है-सभा। इस प्रकार ‘उदभिज्ज-परिषद्’ शब्द का अर्थ हुआ ‘वृक्षों की सभा।’ इस सभा के सभापति हैं अश्वत्थ-पीपल। सभापति अपने भाषण में मानवों पर बड़े ही व्यंग्यपूर्ण प्रहार करते हैं।

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19. पं० भट्ट मथुरानाथ शास्त्री (प्रबन्धपारिजातः)
प्रस्तुत पाठ ‘किन्तोः कुटिलता’ देवर्षि श्रीकलानाथ शास्त्री द्वारा सम्पादित पं० श्री भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के निबन्धसंग्रह ‘प्रबन्धपारिजातः’ से संकलित किया गया है। – पं० भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के पिता पं० भट्ट द्वारकानाथ जयपुर निवासी थे। पं० भट्ट मथुरानाथ का जन्म जयपुर में सन् 1889 ई० में हुआ और निधन भी 4 जून, 1964 ई० को जयपुर में ही हुआ।

श्री भट्ट की पूर्वज परम्परा अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न रही। इन्होंने महाराजा संस्कृत कॉलेज से साहित्याचार्य की उपाधि प्राप्त की और वहीं व्याख्याता बन गए। आप जयपुर से प्रकाशित ‘संस्कृतरत्नाकर’ पत्रिका के सम्पादक रहे। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री द्वारा प्रणीत संस्कृत की रचनाओं में ‘जयपुरवैभवम्’, ‘गोविन्दवैभवम्’, ‘संस्कृतगाथासप्तशती’ और ‘साहित्यवैभवम्’ विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने चालीस कथाएँ और सौ से भी अधिक निबन्ध संस्कृत में लिखे। इनकी ‘सुरभारती’, ‘सुजनदुर्जन-सन्दर्भः’ और ‘युद्धमुद्धतम्’ नामक पद्य रचनाएँ भी उल्लेखनीय हैं।

यहाँ संकलित पाठ में श्री भट्ट जी ने दिखाया है कि जब कभी किसी कथन के साथ ‘किन्तु’ लग जाता है, तब बहुधा वह पहले कथन के अच्छे भाव को समाप्त कर उसे दोषपूर्ण और सम्बोधित व्यक्ति के लिए दुःख पैदा करने वाला, उसके उत्साह का नाशक और शत्रुरूप बना देता है। ऐसे अवसर विरल होते हैं जहाँ ‘किन्तु’ सम्बोधित व्यक्ति के लिए सुखदायक सिद्ध होता है।

लेख की भाषा सरल व सुबोध है, अलंकारों और दीर्घ समासों आदि का प्रयोग नहीं किया गया है। भाव सुस्पष्ट और सामान्य जीवन में जनसाधारण द्वारा अनुभूत हैं।

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20. सिंहासनद्वात्रिंशिका
‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’ बत्तीस मनोरञ्जक कथाओं का संग्रह है। यह किसी अज्ञातकवि की रचना है। इसके केवल गद्यमय, केवल पद्यमय, गद्य-पद्यमय, ये तीन प्रकार के संस्करण मिलते हैं। इसमें बत्तीस पुत्तलिकाओं (पुतलियों) ने राजा विक्रमादित्य को बत्तीस कहानियाँ सुनाई हैं। अतः इस ग्रन्थ का समय राजा भोज (1018-1063) के अनन्तर ही माना जाता है। इसके रचयिता का नाम अज्ञात है।

एक टीले की खुदाई करने पर राजा भोज को एक सिंहासन मिलता है। वह सिंहासन राजा विक्रमादित्य का था। शुभ मुहूर्त में राजा भोज उस सिंहासन पर बैठना चाहता है तो सिंहासन पर बनी 32 पुत्तलिकाओं में से प्रत्येक पुत्तलिका राजा विक्रमादित्य के गुणों तथा पराक्रम की एक-एक कथा सुनाकर राजा को सिंहासन पर बैठने से पुन:पुनः रोकती है

और उड़ जाती है। प्रत्येक पुत्तलिका ने राजा से यही प्रश्न किया है-“क्या तुममें विक्रम जैसा गुण है? यदि है तो इस सिंहासन पर बैठ सकते हो अन्यथा नहीं।” ऐसा माना जाता है कि विक्रमादित्य को यह सिंहासन इन्द्र से प्राप्त हुआ था। उनके दिवंगत हो जाने पर यह सिंहासन भूमि में गाड़ दिया गया और 11वीं सदी में यह सिंहासन धारानरेश भोज को मिलता है, इसीलिए प्रत्येक कहानी में पुत्तलिका राजा भोज को सम्बोधित करके कहानी कहती है।

21. पण्डितराज जगन्नाथ
पंडितराज जगन्नाथ तैलंग ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम पेरुभट्ट और माता का नाम लक्ष्मीदेवी था। युवावस्था में वे दिल्ली गए और शाहजहाँ से उन्होंने पण्डितराज की उपाधि प्राप्त की। उनका स्थितिकाल 1650 – 1680 के लगभग माना जाता है। उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया था। वे काशी चले गए वहाँ उन्होंने ‘गंगालहरी’ की रचना की। उनके रचित ग्रन्थों में पीयूषलहरी’ अथवा ‘गंगालहरी’, ‘सुधालहरी’, ‘अमृतलहरी’, ‘करुणालहरी’, ‘लक्ष्मीलहरी’ यमुना वर्णन आदि प्रमुख हैं। रसगंगाधर पण्डित राज जगन्नाथ की सर्वश्रेष्ठ कृति है। अलंकार शास्त्र का यह परम प्रौढ़ ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त ‘भामिनी विलास’ मुक्तक गीतात्मक पद्यों का संग्र है।

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HBSE 12th Class Economics Important Questions Chapter 1 समष्टि अर्थशास्त्र : एक परिचय

Haryana State Board HBSE 12th Class Economics Important Questions Chapter 1 समष्टि अर्थशास्त्र : एक परिचय Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Economics Important Questions Chapter 1 समष्टि अर्थशास्त्र : एक परिचय

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही विकल्प चुनिए

1. माइक्रो (Micro) और मैक्रो (Macro) शब्दों की उत्पत्ति निम्नलिखित में से कौन-सी भाषा से हुई है?
(A) अंग्रेज़ी
(B) लैटिन
(C) यूनानी (ग्रीक)
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) यूनानी (ग्रीक)

2. व्यष्टि (Micro) और समष्टि (Macro) शब्दों का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया?
(A) मार्शल
(B) रोबिन्स
(C) रैगनर नर्कसे
(D) रैगनर फ्रिश
उत्तर:
(D) रैगनर फ्रिश

3. समष्टि (मैक्रो) अर्थशास्त्र का संबंध है-
(A) व्यक्तिगत इकाइयों से
(B) सामूहिक कार्यों से
(C) एक फर्म से
(D) एक उद्योग से
उत्तर:
(B) सामूहिक कार्यों से

HBSE 12th Class Economics Important Questions Chapter 1 समष्टि अर्थशास्त्र : एक परिचय

4. विश्वव्यापी महामंदी का काल बताइए
(A) 1929-30
(B) 1929-32
(C) 1929-33
(D) 1929-36
उत्तर:
(C) 1929-33

5. आय और रोजगार सिद्धांत निम्नलिखित में से कौन-से सिद्धांत की एक प्रमुख विशेषता है?
(A) व्यष्टि
(B) समष्टि
(C) (A) और (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) समष्टि

6. समष्टि अर्थशास्त्र तथा व्यष्टि अर्थशास्त्र में निम्नलिखित में से कौन-सा अंतर सही है?
(A) अध्ययन क्षेत्र में अंतर
(B) सामूहिकता में अंतर
(C) विभिन्न मान्यताओं में अंतर
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

7. विश्वमंदी का अध्ययन होता है-
(A) व्यष्टि अर्थशास्त्र में
(B) समष्टि अर्थशास्त्र में
(C) (A) और (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) समष्टि अर्थशास्त्र में

8. समष्टि अर्थशास्त्र का विकास एक अलग शाखा के रूप में कब हुआ?
(A) 1930 से 1940 के बीच में
(B) 1910 से 1920 के बीच में
(C) 1920 से 1930 के बीच में
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) 1930 से 1940 के बीच में

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9. साधनों के आबंटन का अध्ययन होता है-
(A) व्यष्टि अर्थशास्त्र में
(B) समष्टि अर्थशास्त्र में
(C) (A) और (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) व्यष्टि अर्थशास्त्र में

10. समष्टि अर्थशास्त्र अध्ययन करता है-
(A) संपूर्ण अर्थव्यवस्था का
(B) एक उद्योग का
(C) एक फर्म का
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) संपूर्ण अर्थव्यवस्था का

11. यदि समूचे चीनी उद्योग की जाँच की जाए, तो यह कौन-सा विश्लेषण कहलाएगा?
(A) व्यष्टिपरक
(B) समष्टिपरक
(C) (A) और (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) व्यष्टिपरक

12. आधुनिक समष्टि आर्थिक विश्लेषण का जनक किसे माना जाता है?
(A) डेविड रिकार्डो को
(B) डॉ० मार्शल को
(C) जॉन मेनार्ड केज़ को
(D) एडम स्मिथ को
उत्तर:
(C) जॉन मेनार्ड केज़ को

13. निम्नलिखित में से कौन-सा समष्टि तत्त्व नहीं है?
(A) रोज़गार का सिद्धांत
(B) माँग का सिद्धांत
(C) आय का सिद्धांत
(D) मौद्रिक नीति
उत्तर:
(B) माँग का सिद्धांत

14. राष्ट्रीय आय का अध्ययन होता है-
(A) समष्टि अर्थशास्त्र में
(B) व्यष्टि अर्थशास्त्र में
(C) (A) और (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) समष्टि अर्थशास्त्र में

15. उस अर्थशास्त्री का नाम बताइए जिसने सबसे पहले समष्टि अर्थशास्त्र की बुनियाद डाली।
(A) डेविड रिकार्डो
(B) डॉ० मार्शल
(C) जॉन मेनार्ड केज़
(D) एडम स्मिथ
उत्तर:
(D) एडम स्मिथ

16. समष्टि अर्थशास्त्र का मौलिक उद्देश्य यह जानना है कि-
(A) अर्थव्यवस्था में मंदी के क्या कारण हैं?
(B) अर्थव्यवस्था में धीमी संवृद्धि के क्या कारण हैं?
(C) कीमत स्तर में वृद्धि या बेरोज़गारी में वृद्धि के क्या कारण हैं?
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

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17. निम्नलिखित में से कौन-सा समष्टि तत्त्व नहीं है?
(A) समग्र माँग
(B) राष्ट्रीय आय
(C) व्यापार चक्र
(D) उपभोक्ता संतुलन
उत्तर:
(D) उपभोक्ता संतुलन

18. निम्नलिखित में से कौन-सा समष्टि चर है?
(A) रोजगार का सिद्धान्त
(B) कीमत लोच
(C) लगान का सिद्धान्त
(D) वस्तु की कीमत
उत्तर:
(A) रोजगार का सिद्धान्त

B. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

1. कीमत सिद्धांत ……………. अर्थशास्त्र की एक प्रमुख विशेषता है। (व्यष्टि/समष्टि)
उत्तर:
व्यष्टि

2. संपूर्ण अर्थव्यवस्था का अध्ययन ……………. अर्थशास्त्र करता है। (समष्टि/व्यष्टि)
उत्तर:
समष्टि

3. ……………… समष्टिगत तत्त्व है। (माँग की लोच/मुद्रास्फीति)
उत्तर:
मुद्रास्फीति

4. विश्व महामंदी का वर्ष …………….. था। (1929/1942)
उत्तर:
1929

5. आधुनिक अर्थशास्त्र के जनक ……………. है। (एडम स्मिथ जे०एम० केज)
उत्तर:
एडम स्मिथ

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6. राष्ट्रीय आय का अध्ययन करना ……………. अर्थशास्त्र की विशेषता है। (समष्टि/व्यष्टि)
उत्तर:
समष्टि

7. आधुनिक समष्टि आर्थिक विश्लेषण का जनक ………….. को माना जाता है। (जे०एम० केज/एडम स्मिथ)
उत्तर:
जे०एम० केज

C. बताइए कि निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत

  1. समष्टि अर्थशास्त्र का संबंध व्यक्तिगत इकाइयों से होता है।
  2. जो बात व्यष्टि अर्थशास्त्र के लिए सही है, वही बात समष्टि अर्थशास्त्र के लिए भी सही होती है।
  3. सभी प्रकार के आर्थिक समूहों और औसतों का अध्ययन समष्टि अर्थशास्त्र के अर्न्तगत किया जाता है।
  4. प्रो० केज़ के अनुसार समष्टि अर्थशास्त्र सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के कार्यकरण से संबंधित है।
  5. व्यष्टि अर्थशास्त्र और समष्टि अर्थशास्त्र में कोई संबंध नहीं पाया जाता है।
  6. भारतीय अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है।
  7. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का मुख्य उद्देश्य जन-कल्याण होता है।
  8. समष्टि अर्थशास्त्र और व्यष्टि अर्थशास्त्र परस्पर एक-दूसरे के विरोधी हैं।
  9. समष्टि अर्थशास्त्र का वैकल्पिक नाम आय एवं रोजगार का सिद्धांत है।
  10. कुल माँग एवं कुल पूर्ति व्यष्टि अर्थशास्त्र के उदाहरण हैं।
  11. समष्टि अर्थशास्त्र का सम्बन्ध व्यक्तिगत इकाइयों से होता है।
  12. समग्र माँग और समग्र पूर्ति समष्टि अर्थशास्त्र के मुख्य उपकरण हैं।
  13. सामान्य कीमत स्तर पर समष्टि अर्थशास्त्र एक आर्थिक अध्ययन है।
  14. प्रो० केज के अनुसार समष्टि अर्थशास्त्र सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के कार्यकरण से संबंधित है।

उत्तर:

  1. गलत
  2. गलत
  3. सही
  4. गलत
  5. गलत
  6. सही
  7. सही
  8. गलत
  9. सही
  10. गलत
  11. गलत
  12. सही
  13. सही
  14. गलत।

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समष्टि अर्थशास्त्र का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समष्टि अर्थशास्त्र आर्थिक सिद्धांत की वह शाखा है जिसके अंतर्गत संपूर्ण अर्थव्यवस्था का एक इकाई के रूप में अध्ययन किया जाता है। समष्टि अर्थशास्त्र में आर्थिक समाहारों (Aggregates); जैसे सकल घरेलू उत्पाद, सकल राष्ट्रीय उत्पाद, सामान्य कीमत स्तर, रोज़गार का स्तर, कुल बचत, कुल निवेश, कुल माँग, कुल पूर्ति आदि का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 2.
दो मुख्य विषय बताएँ जिनका अर्थशास्त्र में अध्ययन किया जाता है।
उत्तर:

  1. व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
  2. समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)।

प्रश्न 3.
व्यष्टि अर्थशास्त्र एवं समष्टि अर्थशास्त्र में कोई दो अंतर बताइए।
उत्तर:

  1. व्यष्टि अर्थशास्त्र के अंतर्गत व्यक्तिगत इकाइयों का अध्ययन किया जाता है जबकि समष्टि अर्थशास्त्र में आर्थिक समूहों का अध्ययन किया जाता है।
  2. व्यष्टि अर्थशास्त्र अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की मान्यता पर आधारित है जबकि समष्टि अर्थशास्त्र अर्थव्यवस्था में संसाधनों के अपूर्ण व अल्प रोज़गार पर आधारित है।

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प्रश्न 4.
आधनिक अर्थशास्त्र के जनक कौन हैं? उनके द्वारा लिखी गई सप्रसिद्ध पस्तक का नाम लिखें।
उत्तर:
एडम स्मिथ (Adam Smith) आधुनिक अर्थशास्त्र के जनक हैं। एडम स्मिथ द्वारा रचित सुप्रसिद्ध पुस्तक “An Enquiry into the Nature and Causes of the Wealth of Nations” है।

प्रश्न 5.
समष्टि अर्थशास्त्र पर जॉन मेनार्ड केञ्ज (Keynes) द्वारा लिखी गई पुस्तक का नाम बताइए। यह कौन-से वर्ष प्रकाशित हुई? .
उत्तर:
जॉन मेनार्ड केञ्ज की लिखी पुस्तक ‘रोज़गार, ब्याज और मुद्रा का सामान्य सिद्धांत’ (The General Theory of Employment, Interest and Money) है जो सन् 1936 ई० में प्रकाशित हुई।

प्रश्न 6.
भारत में बेरोज़गारी की समस्या का अध्ययन समष्टि आर्थिक अध्ययन क्यों कहलाता है?
उत्तर:
समष्टि अर्थशास्त्र संपूर्ण अर्थव्यवस्था के अध्ययन से संबंधित है। चूँकि बेरोज़गारी की समस्या का अध्ययन संपूर्ण अर्थव्यवस्था से संबंधित है, इसलिए बेरोजगारी की समस्या का अध्ययन समष्टि आर्थिक अध्ययन कहलाता है।

प्रश्न 7.
क्या एक फर्म के उत्पादन का स्तर समष्टि आर्थिक अध्ययन है? कारण दें।
उत्तर:
समष्टि आर्थिक सिद्धांत अर्थशास्त्र का वह भाग है जो अर्थव्यवस्था के कुल समूहों का अध्ययन करता है। इस दृष्टि . से एक फर्म के उत्पादन का स्तर समष्टि आर्थिक अध्ययन नहीं है।

प्रश्न 8.
सूती वस्त्र उद्योग का अध्ययन समष्टि आर्थिक अध्ययन है या व्यष्टि आर्थिक अध्ययन।
उत्तर:
सूती वस्त्र उद्योग समष्टि अर्थशास्त्र का अध्ययन नहीं बल्कि व्यष्टि अर्थशास्त्र के अध्ययन का विषय है। चूंकि यह अध्ययन किसी विशेष उद्योग से संबंधित है।

प्रश्न 9.
समष्टि अर्थशास्त्र में रोज़गार निर्धारण के किन तत्त्वों का अध्ययन किया जाता है?
उत्तर:
समष्टि अर्थशास्त्र में रोज़गार निर्धारण के कुल माँग, कुल पूर्ति, कुल उपभोग, कुल बचत, कुल निवेश आदि तत्त्वों का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 10.
समष्टि अर्थशास्त्र के महत्त्वपूर्ण विषय कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
आय तथा रोज़गार का निर्धारण, सामान्य कीमत स्तर, आर्थिक विकास की समस्या, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समष्टि आर्थिक अध्ययन के महत्त्वपूर्ण विषय हैं।

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प्रश्न 11.
सन् 1929-33 की महामंदी काल में क्या बातें देखने में आईं?
उत्तर:
महामंदी के संकट के समय विश्व में उत्पादन तो था परंतु वस्तुओं की माँग नहीं थी। इस महामंदी के दौरान विश्व को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा था। श्रमिकों में बेरोज़गारी बढ़ गई थी।

प्रश्न 12.
समष्टि अर्थशास्त्र की दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:

  1. समष्टि अर्थशास्त्र अपूर्ण रोज़गार व अल्प रोज़गार की स्थिति पर आधारित है।
  2. समष्टि अर्थशास्त्र सरकारी हस्तक्षेप द्वारा सार्वजनिक निवेश में वृद्धि के महत्त्व को प्रकट करता है, चूँकि निवेश में वृद्धि पर ही आय तथा रोज़गार निर्भर करता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समष्टि अर्थशास्त्र का प्रादुर्भाव कैसे हुआ?
अथवा
समष्टि अर्थशास्त्र का उद्भव कैसे हुआ?
अथवा
समष्टि अर्थशास्त्र की विचारधारा का विकास किस प्रकार हुआ? समझाइए।
उत्तर:
अर्थशास्त्र में काफी लंबे समय तक व्यष्टिगत आर्थिक सिद्धांतों का प्रचलन रहा और अर्थशास्त्रियों ने उन्हें मान्यता दी, परंतु 1929-33 की विश्वव्यापी मंदी के दौरान इन सिद्धांतों को सत्य नहीं पाया गया। इस अवधि के दौरान संसार के अनेक देशों में मंदी और बेरोज़गारी की समस्या का समाधान करने के लिए जे०एम०केञ्ज ने अपने सिद्धांत अपनी पुस्तक ‘The General Theory of Employment, Interest and Money’ में 1936 में प्रकाशित किए। इस पुस्तक ने आर्थिक जगत में नए विचारों का सूत्रपात किया। केज के विचारों से आर्थिक क्षेत्र में एक बड़ा परिवर्तन आया, जिसे ‘केजीयन क्रांति’ की संज्ञा दी गई। केजीयन क्रांति के बाद ही समष्टि स्तरीय आर्थिक चिंतन में अर्थशास्त्रियों की रुचि जागत हुई। उससे पहले के आर्थिक चिंतन में किसी प्रकार के आर्थिक संकट की संभावना को स्वीकार नहीं किया जाता था।

उस समय ऐसा माना जाता था कि बाज़ार व्यवस्था में ‘स्वचालित सामंजस्य’ की क्षमता होती है जो अर्थव्यवस्था को सदैव संतुलन में रखती है। उन लोगों की मान्यता थी कि किसी भी आर्थिक व्यवधान के समय सामंजस्य प्रक्रिया उस व्यवधान का अपने-आप समाधान कर देगी। परंतु 1929-33 की विश्वव्यापी महामंदी के दौरान इन सिद्धांतों के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ। समष्टि स्तरीय आर्थिक विश्लेषण का आरंभ इसी सिद्धांत से होता है। केज ने अपने सिद्धांत में संपूर्ण अर्थव्यवस्था से संबंधित समस्याओं का अध्ययन करने के लिए समष्टि अर्थशास्त्र की प्रणाली का उपयोग किया। मंदी, बेरोज़गारी, राष्ट्रीय आय व रोज़गार, सामान्य कीमत स्तर, सामान्य मज़दूरी स्तर आदि के अध्ययन के लिए समष्टि अर्थशास्त्र के अध्ययन को अपनाने पर जोर दिया। यह सिद्धांत मुख्य रूप से यह स्पष्ट करता है कि किसी देश में आय व रोजगार का निर्धारण किस प्रकार होता है।

प्रश्न 2.
समष्टि अर्थशास्त्र की सीमाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
समष्टि अर्थशास्त्र की सीमाएँ निम्नलिखित हैं-
(i) व्यक्ति की समस्याएँ समूह की समस्याओं से भिन्न होती हैं जबकि समष्टि अर्थशास्त्र में समूहों का अध्ययन होता है। समूह में परिवर्तन का प्रभाव व्यक्तिगत इकाइयों पर अलग-अलग पड़ सकता है। जिस प्रकार बढ़ती हुई कीमतों का प्रभाव समाज के धनी वर्ग पर कम और निर्धन वर्ग पर अधिक पड़ता है।

(ii) इसका एक प्रमुख दोष यह है कि सामान्य निष्कर्ष वैयक्तिक इकाइयों के लिए उपयुक्त नहीं होते। व्यक्ति के लिए अपनी आय से एक भाग बचाना अच्छी बात है, किंतु यदि सारा समाज ही धन बचाने में जुट जाए तो निश्चय ही अर्थव्यवस्था में मंदी आ जाएगी।

(iii) यदि जिन इकाइयों से मिलकर समूह बनता है, वे बदल जाती हैं, किंतु समूह अपरिवर्तित रहता है तो इसके परिणामस्वरूप अनेक भ्रमात्मक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

(iv) समष्टि अर्थशास्त्र समूहों की समरूपता की मान्यता पर आधारित है, लेकिन व्यवहार में हमें अधिकांश रूप से विभिन्न रूपों वाले समूह ही देखने को मिलते हैं।

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प्रश्न 3.
समष्टि अर्थशास्त्र के महत्त्व का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
समष्टि अर्थशास्त्र के महत्त्व निम्नलिखित हैं
1. संपूर्ण अर्थव्यवस्था के अध्ययन के लिए उपयुक्त-समष्टि अर्थशास्त्र बताता है कि संपूर्ण अर्थव्यवस्था एक इकाई के रूप में कैसे कार्य करती है और राष्ट्रीय आय व रोज़गार का स्तर कैसे निर्धारित होता है।

2. आर्थिक समस्याओं को हल करने व नीति-निर्धारण में सहायक-समष्टि अर्थशास्त्र अनेक आर्थिक समस्याओं; जैसे बेरोज़गारी, व्याप्त गरीबी, मंदी व तेजी, निम्न उत्पादन स्तर, व्यापार चक्र जैसी समस्याओं के मूल कारकों की पहचान कराने और उपयुक्त निदानकारी नीति बनाने में यह सहायता करता है।

3. आर्थिक विकास प्राप्त करने में सहायक प्रत्येक देश का उद्देश्य शीघ्र आर्थिक विकास करना है। समष्टि अर्थशास्त्र उन तत्त्वों का विवेचन करता है जो आर्थिक विकास संभव बनाते हैं। यह आर्थिक विकास की उच्चतम अवस्था प्राप्त करने और उसे बनाए रखने की विधि बताता है।

दीर्घ-उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समष्टि अर्थशास्त्र की परिभाषा दीजिए। इसके क्षेत्र का वर्णन करें।
उत्तर:
समष्टि अर्थशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषाएँ-समष्टि शब्द का अंग्रेज़ी रूपांतर मैक्रो (Macro) है जो ग्रीक (Greek) भाषा के ‘MAKROS’ से बना है, जिसका अर्थ होता है-बड़ा (Large)। समष्टि अर्थशास्त्र में संपूर्ण अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया जाता है। समष्टि अर्थशास्त्र आर्थिक सिद्धांत की वह शाखा है जो समग्र अर्थव्यवस्था का एक इकाई के रूप में अध्ययन करता है।
1. प्रो० बोल्डिंग के शब्दों में, “समष्टि अर्थशास्त्र व्यक्तिगत मात्राओं का अध्ययन नहीं करता बल्कि इन मात्राओं के समूहों का अध्ययन करता है; व्यक्तिगत आय का नहीं बल्कि राष्ट्रीय आय का; व्यक्तिगत कीमतों का नहीं बल्कि सामान्य कीमत स्तर का; व्यक्तिगत उत्पादन का नहीं अपितु राष्ट्रीय उत्पादन का अध्ययन करता है।”

2. शेपीरो के अनुसार, “समष्टि अर्थशास्त्र संपूर्ण अर्थव्यवस्था के कार्यकरण से संबंधित है।”
दूसरे शब्दों में, समष्टि अर्थशास्त्र में उन आर्थिक मुद्दों का अध्ययन होता है जिनका संबंध संपूर्ण अर्थव्यवस्था से होता है; जैसे समग्र माँग, समग्र पूर्ति, कुल रोज़गार, राष्ट्रीय आय, कीमत स्तर, कुल निवेश, कुल बचत आदि। उपमा के रूप में हम कह सकते हैं कि समष्टि अर्थशास्त्र आर्थिक वन का विश्लेषण करता है न कि वन के वृक्षों का।

समष्टि अर्थशास्त्र का क्षेत्र-समष्टि अर्थशास्त्र का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। समष्टि अर्थशास्त्र के क्षेत्र में निम्नलिखित विषयों का अध्ययन किया जाता है
1. राष्ट्रीय आय का सिद्धांत-समष्टि अर्थशास्त्र के अंतर्गत राष्ट्रीय आय का अर्थ, राष्ट्रीय आय संबंधी विभिन्न अवधारणाएँ, उसके विभिन्न तत्त्व, राष्ट्रीय आय के मापन की विधियाँ तथा सामाजिक लेखे (Social Accounting) आदि का अध्ययन किया जाता है।

2. रोज़गार का सिद्धांत-समष्टि अर्थशास्त्र में रोज़गार निर्धारण तथा बेरोज़गारी की समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। इसमें रोज़गार निर्धारण के विभिन्न कारकों; जैसे समस्त माँग, समस्त पूर्ति, कुल उपभोग, कुल बचत, कुल निवेश तथा कुल पूँजी-निर्माण आदि का अध्ययन किया जाता है।

3. मुद्रा का सिद्धांत मुद्रा की मात्रा का देश के उत्पादन, रोज़गार, आय, कीमत-स्तर आदि पर बहुत प्रभाव पड़ता है। अतः समष्टि अर्थशास्त्र में मुद्रा के कार्यों तथा मुद्रा पूर्ति से संबंधित सिद्धांतों, बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है।

4. सामान्य कीमत स्तर का सिद्धांत-समष्टि अर्थशास्त्र में सामान्य कीमत स्तर के निर्धारण तथा उसमें होने वाले परिवर्तन जैसे मुद्रास्फीति (Inflation) अर्थात कीमतों में होने वाली माँग जन्य तथा लागत जन्य वृद्धि एवं अवस्फीतिक (Deflation) अर्थात् कीमतों में होने वाली सामान्य कमी आदि समस्याओं का अध्ययन भी किया जाता है।

5. आर्थिक विकास का सिद्धांत-आर्थिक विकास के सिद्धांतों का अध्ययन समष्टि अर्थशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। इसमें किसी राष्ट्र के अल्पविकसित होने के कारणों, विकास करने की नीतियों एवं विधियों का अध्ययन किया जाता है।

6. व्यापार चक्र का सिद्धांत प्रत्येक अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास की गति में परिवर्तन आता रहता है। कभी तेजी (Boom) और कभी मंदी (Depression) की समस्या उत्पन्न हो जाती है। इन्हें व्यापार चक्र कहा जाता है। समष्टि अर्थशास्त्र व्यापार चक्र की समस्याओं का भी अध्ययन करता है।

7. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का सिद्धांत समष्टि अर्थशास्त्र में विभिन्न देशों के बीच में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का भी अध्ययन किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धांत; जैसे कोटा (Quota), टैरिफ (Tariff) तथा संरक्षण (Protection) आदि के अध्ययन का समष्टि अर्थशास्त्र में विशेष महत्त्व है।

HBSE 12th Class Economics Important Questions Chapter 1 समष्टि अर्थशास्त्र : एक परिचय

प्रश्न 2.
समष्टि अर्थशास्त्र के अलग अध्ययन की आवश्यकता क्यों है? समझाइए।
उत्तर:
निम्नलिखित कारणों से समष्टि अर्थशास्त्र के अलग अध्ययन की आवश्यकता है
1. व्यक्तिगत इकाइयाँ समूची अर्थव्यवस्था की दशा नहीं दर्शाती यद्यपि व्यष्टि अर्थशास्त्र व्यक्तिगत इकाइयों; जैसे एक उपभोक्ता, एक उत्पादक (एक फर्म) आदि के व्यवहार का विवेचन करता है परंतु व्यक्तिगत इकाइयाँ समूची अर्थव्यवस्था की दशा को प्रतिबिंबित नहीं करतीं।

2. आर्थिक विकास-वर्तमान युग में, संसार के प्रत्येक देश का उद्देश्य तीव्र आर्थिक विकास करना है। इसके लिए आर्थिक मुद्दों; जैसे राष्ट्रीय आय, सामान्य कीमत स्तर, गरीबी, कुल रोज़गार, मुद्रास्फीति, कुल व्यय, कुल बचत, कुल निवेश, अर्थव्यवस्था के संसाधनों का पूर्ण व सर्वोत्तम प्रयोग, आर्थिक नीतियों का निर्माण आदि के लिए समष्टि स्तर पर अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है।

3. समष्टि आर्थिक विरोधाभास समष्टि आर्थिक विरोधाभास (Macro Economic Paradox) से अभिप्राय उन निष्कर्षों से है जोकि व्यक्तिगत इकाई के लिए सही होते हैं, परंतु संपूर्ण अर्थव्यवस्था के स्तर पर सही होना आवश्यक नहीं है। विरोधाभास के कारण भी समष्टि आर्थिक सिद्धांत की अलग से अध्ययन की आवश्यकता है; जैसे
(i) बचत का विरोधाभास-बचत निःसंदेह व्यक्तियों के लिए लाभकारी है परंतु बचत समाज या अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक भी सिद्ध होती है। विशेष रूप से उस समय जब समग्र माँग में कमी होने के फलस्वरूप बेरोज़गारी और मंदी फैली हुई हो। अतः बचत एक व्यक्ति के लिए तो ठीक है, परन्तु संपूर्ण समाज के लिए ठीक नहीं है। इस कारण आर्थिक समूहों का समुच्चय स्तर पर अलग से विश्लेषण करना बहुत जरूरी हो जाता है।

(ii) मज़दूरी-रोज़गार विरोधाभास-परंपरावादी (Classical) अर्थशास्त्री मंदी व बेरोज़गारी दूर करने के लिए मज़दूरी-दर को घटाने की वकालत करते हैं जिसके फलस्वरूप व्यक्तिगत उद्योग काम पर अधिक श्रमिक लगाते हैं क्योंकि लागत कम होने से लाभ बढ़ जाता है। दूसरी ओर, अर्थव्यवस्था में सब जगह मज़दूरी घटने से वस्तुओं व सेवाओं की कुल माँग गिर जाती है जिससे श्रमिकों के लिए माँग भी गिर जाती है क्योंकि श्रमिकों की माँग उन वस्तुओं की माँग पर निर्भर करती है जिन्हें श्रमिक उत्पन्न करने में सहायक होते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि एक श्रमिक कम मजदूरी लेकर अपनी बेरोज़गारी की समस्या तो हल कर लेता है पर समष्टि (या अर्थव्यवस्था) स्तर पर यदि सब श्रमिक कम मजदूरी प्राप्त करते हैं, तो कुल रोज़गार में अंततः गिरावट आ जाती है। अतः आर्थिक समूहों का समष्टि स्तर पर अलग से अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है।

ये विरोधाभास ऐसे लगते हैं जैसे एक वृक्ष अपने पड़ोस की जलवायु नहीं बदल सकता, पर एक वन जलवायु बदल सकता है। इस दृष्टि से केज ने व्यष्टि सिद्धांत से हटकर समष्टि स्तर पर अलग से विवेचन करने की वकालत की है।

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HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् रचना निबंध-लेखनम्

Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions व्याकरणम् Rachana Nibandh Lekhan रचना निबंध-लेखनम् Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sanskrit व्याकरणम् रचना निबंध-लेखनम्

निबन्धलेखनम्

1. अनुशासनम्
नियमपालनम् आज्ञापालनं वा अनुशासनं भवति । अनुशासनं जीवने परमम् आवश्यकमस्ति । परिवारे, समाजे, राष्ट्र, अस्य आवश्यकता.वर्तते। अस्य पालनेन उन्नतिर्भवति। यत्र अनुशासनं न भवति, तत्र कार्येषु अवनतिः भवति। नियम-पालनस्य अभावे जीवनं दुष्करं भवेत् । यथा राजमार्गेषु यातायात-नियन्त्रणाय वामतः चलनमावश्यकं नियमं वर्तते । यदि अस्य पालनं न भवेत्, तदा अनेकाः दुर्घटनाः भविष्यन्ति। यदि सर्वे जनाः स्वच्छन्दाः स्युः तदा समाजस्य स्थितिः अस्तव्यस्ता स्यात्।
परिवारे एकः मुख्यः भवति। स एव परिवारे अनुशासनं रक्षति। केन किं कार्यं करणीयं इति परिवारे मुख्यः जनः एव निर्दिशति। यदि सर्वे सदस्याः अनुशासनं पालयन्ति तदा सर्वाणि कार्याणि सुचारुरूपेण सम्पन्नाः भवन्ति। अस्य अभावे अव्यवस्था भवति। सत्यं कथ्यते

सर्वे यत्र विनेतारः सर्वे पण्डितमानिनः। सर्वे महत्त्वमिच्छन्ति तत् कुलमवसीदति।

अद्य छात्रेषु अनुशासनस्य अभावः अस्ति। ते न गुरोराज्ञां पालयन्ति, न च पित्रोः आदेशं स्वीकुर्वन्ति। अनुशासनाभावे च प्रतिदिनं हट्टतालं कुर्वन्ति । अद्य सर्वत्रैव अनुशासनस्य अभावः एव दृश्यते । भारतीय-राजनीतौ, धार्मिक-सामाजिक- संस्थासु च न कोऽपि अनुशासनम् इच्छति। एवमेव वीथीनां नगरस्य च नियमाः भवन्ति, यथा-सार्वजनिकं स्थानं विकृतं न कुर्यात् अपशब्दं न वदेत्, इति नियमानां पालनेन सुविधा भवति, नियमानां भग्नेन च कलहाः जायन्ते। अतः अनुशासनस्य सर्वस्मिन् क्षेत्रे विशेषतः छात्र-जीवने महती आवश्यकता वर्तते।

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2. प्रातः काले भ्रमणम्
प्रात:काले सूर्योदयात् पूर्वं जागरणं प्राचीनकालतः एव स्वास्थ्यप्रदं मन्यते। प्रात:काले वातावरणं शान्तं शुद्धं स्वच्छं प्राणप्रदं शीतलम् ऊर्जाकरं च भवति। प्रात:कालस्य स्वच्छवायौ भ्रमणेन शरीरं रोगमुक्तं भवति। अथवा यैः रोगैः वयं ग्रसिता स्मः, तेभ्यः काचित् अपि रोगमुक्तता अवश्यम् अनुभूयते। बालः स्यात् वृद्धः वा, महिला स्यात् पुरुषः वा, प्रातः भ्रमणं सर्वेभ्यः संजीवनी इव जीवनकरं भवति । उत्तमस्वास्थ्याय दीर्घजीवनाय च प्रातःभ्रमणं सर्वथा सरल: सुविधाजनक: च उपायः अस्ति। अस्मिन् उपाये किमपि धनम् अपि च न व्ययीक्रियते।।

प्रातःकालः सर्वोत्तमः कालः भवति, यतः अस्मिन् काले वायुः शुद्धः, प्रदूषणरहितः, प्राकृतिकसौन्दर्येण परिपूरितः सूर्योदयस्य रक्ताभया मनोहारी शान्तिमयः च भवति। अस्मिन् काले भ्रमणात् बहवः लाभाः भवन्ति

प्रात:काले नियमित-भ्रमणेन शरीरं हष्टं पुष्टं बलिष्ठं च भवति । शरीरस्य स्थूलता क्षीयते। रोगाक्रमणशक्तिः वर्धते येन प्रायशः प्रथमं तु आक्रमन्ति एव न, यदि कदाचित् आक्रमन्ति अपि तर्हि तथा अनिष्टकराः न भवन्ति यथा तेभ्यः जनेभ्यः भवन्ति ये प्रातः भ्रमणं न कुर्वन्ति। श्वसनप्रक्रिया रक्तसञ्चार-प्रक्रिया च सन्तुलिता सशक्ता च भवतः । येन हृदयरोगः, रक्तचापः, स्नायुरोगः, मधुमेहः-इत्यादयः रोगाः प्रायशः न आक्रमन्ते। चिकित्सकाः अपि एतैः पीडितैः रुग्णान् प्रातः, भ्रमणाय उपदिशन्ति। प्रातः भ्रमणेन शरीरम् एव स्वस्थं न भवति मनः अपि स्वस्थं तिष्ठति। प्रातः भ्रमणेन मनुष्यस्य मानसिकक्षमता वर्धते अतएव सः अनावश्यकमानसिकद्वन्द्वेन मुक्तः तिष्ठति।
किमधिकं प्रातः भ्रमणं सर्वेभ्यः सर्वथा स्वास्थाकरं दीर्घायुष्यप्रदं च वर्तते। अतः प्रातः भ्रमणं सर्वैः नियमितरूपेण कर्तव्यम्।

3. समयस्य सदुपयोगः
मनुष्यजीवने समयस्य महत्त्वपूर्ण स्थानं वर्तते। गतः समयः पुनः न आगच्छति, अतः मनुष्यस्य एतत् कर्तव्यं भवति यत् प्राप्तस्य समयस्य सदुपयोगं कुर्यात्। यः जनः समयस्य सदुपयोगं न करोति तस्य जीवनं नश्यति। मानवस्य उन्नतौ समयस्य सदुपयोगितायाः महत्त्वपूर्ण योगदानं भवति। यतः समयः तु साक्षात् अवसरः एव भवति, यः अवसरं न गणयति, अवसरः अपि तं प्रमादिनं जनं दूरतः एव त्यजति । परिणामतः सः पश्चात्तापात् अन्यत् किमपि हस्तगतं न करोति। अतः समयस्य सदुपयोगः परमावश्यकः ।

समयः तु स्वगतिना गच्छति, न सः कस्मै अपि तिष्ठति अतः समयानुसारम् आवश्यकानि उचितानि कार्याणि अवश्यमेव सम्पादनीयानि। एष एव समयस्य सदुपयोगः कथ्यते।
छात्रजीवने एव यः मनुष्यः समयस्य महत्त्वं जानन् तदनुरूपं स्वकार्ययोजनां विधाय परिश्रमं करोति स एव सुखदम् उज्ज्वलं च भविष्यं निर्मातुं शक्नोति। छात्रजीवने यः जनः समयस्य सदुपयोगं न शिक्षते तस्य भाविजीवनम् अनेकविधं संकटमयम् अस्तव्यतं प्रायः च निष्फलम् एव जायते। अतः विपरीतं यः जनः समयस्य सदुपयोगं करोति तस्मै सर्वे उन्नतिमार्गाः निर्बाधाः भवन्ति, पदे पदे च विजयः सफलता वा तस्य चरणचुम्बनं करोति। वस्तुतः जीवने सफलतायाः कुञ्चिका समयस्य सदुपयोगिता एव अस्ति। समयस्य सदुपयोगेन कार्यक्षमता वर्धते, मानसिकद्वन्द्वं न जायते, जीवनं च स्वयमेव अनुशासनबद्धं भवति। अनेन प्रकारेण एव च मनुष्य यशस्वी सफलः च भवितुं शक्नोति। अतः छात्रजीवनतः एव समयस्य सदुपयोगस्य अभ्यासः करणीयः।

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4. अस्माकं/मम विद्यालयः
अस्मिन् देशे बहवः विद्यालयाः सन्ति। यत्र शिक्षकाः छात्रान् विद्यां पाठयन्ति स एव विद्यालयोऽस्ति। ‘विद्यायाः आलयः = विद्यालयः’ भवति। अस्माकं विद्यालयस्य नाम ‘राजकीय उच्चतर माध्यमिक: विद्यालयः’ कुरुक्षेत्रम् अस्ति। एतस्य भवनं विशालं सुन्दरं च अस्ति। एतस्मिन् च कुशलाः अध्यापकाः सन्ति। अस्माकं मुख्याध्यापकः सुयोग्यः प्रबन्धकः अस्ति। अध्यापकाः छात्राः च तं सम्मानयन्ति।
अस्माकं विद्यालये पुस्तकालयः अपि अस्ति। अर्धावकाशे वयं तत्र समाचारपत्राणि पठामः । अस्माकं विद्यालये एकः लघुः औषधालयः अस्ति। चिकित्सकः तत्र प्रतिदिनम् आगच्छति।।

अस्माकं विद्यालयस्य क्रीडाक्षेत्रं विशालम् अस्ति। तत्र सर्वतः रम्याः वृक्षाः सन्ति। सायंकाले वयं तत्र खेलामः। क्रीडाक्षेत्रे छात्राः विविधाः रोचकाः क्रीडाश्च कुर्वन्ति। अस्माकं विद्यालयस्य परीक्षाफलं सदैव श्लाघनीयं भवति । अयं विद्यालयः शतवर्षात् अधिकं देशवासिनां सेवां करोति। एनं विद्यालयं प्राप्य वयं धन्याः स्मः।

5. संस्कृतभाषायाः महत्त्वम्
संसारे अनेकाः भाषाः सन्ति । तासु भाषासु संस्कृतभाषा सर्वप्राचीना सर्वोत्तमा चास्ति । इयं भाषा ‘देववाणी’ अपि कथ्यते। इयमेव प्रायेण सर्वासां भाषाणां जननी अस्ति । भारतस्य सर्वाः एव भाषाः संस्कृतस्य कन्याः सन्ति। विशालम् अस्य साहित्यम्। वेदाः, गीता, रामायणं, महाभारतम् इत्यादयः ग्रन्थाः संस्कृतस्य गौरवं वर्धयन्ति। कालिदास-भास-भवभूति महाकविभिः रचितानि संस्कृतकाव्यानि समस्ते विश्वे सम्मानितानि सन्ति।

भारतीया संस्कृतिः संस्कृतभाषायामेव सुरक्षिता अस्ति। संस्कृतं तु अस्माकं संस्कृतेः आत्मा अस्ति। अस्माकं धर्मः, अस्माकम् इतिहासः, अस्माकं भूतं-भविष्यञ्च सर्वमपि संस्कृतेन सम्बद्धं वर्तते। अस्माकं सर्वाणि आदर्शवाक्यानि ‘सत्यमेव जयते’ अहिंसा परमो धर्मः, सर्वाणि संस्कृतभाषायामेव सन्ति । अस्यामेव भाषायां अस्माकं सर्वे संस्काराः सम्पन्नाः भवन्ति। – संस्कृतम् इति प्राचीना भाषा वर्तते । इयं च हिन्दी भाषायाः प्रमातामही अस्ति । संस्कृतम् इति शब्दस्य अर्थः परिष्कृतं

शुद्धम्, सम्यक् प्रकारेण कृतम् इति भवति। देववाणी, गीर्वाणवाणी, देवभाषा एते संस्कृतस्य पर्यायवाचिन: शब्दाः सन्ति। अस्माकं प्राचीनाः ऋषयः मुनयश्च अस्यामेव निजग्रन्थान् अलिखन्। वेदाः, उपनिषदः, स्मृतयः रामायणं, महाभारतं संस्कृतभाषायाम् एव सन्ति। गुप्त-साम्राज्य-काले संस्कृतं राज्यभाषा आसीत्। विदेशेषु अद्यापि संस्कृतस्य गौरवं वर्तते। संस्कृतस्य प्रचारेण एव हिन्दी-साहित्यस्य उत्तरोत्तरं वृद्धिः भवति।

इयं भाषा अतिमधुरा सरसा च अस्ति। प्राचीनकाले संस्कृतभाषा लोकव्यवहारस्य भाषा, आसीत्। जनाः संस्कृतभाषायामेव वार्तालापं कुर्वन्ति स्म। राजकार्याणि अपि संस्कृतभाषायामेव भवन्ति स्म । सम्प्रति अस्या भाषायाः उपेक्षा भवति। केचन जनाः इमां मृतभाषां कथयन्ति, तेषां विचारः अनुचितः । संस्कृतभाषा तु जीवन्तभाषा अस्ति। भारतीय भाषाणां समृद्धिः संस्कृतभाषां विना न भवितुं शक्नोति।

इयं वैज्ञानिकी समृद्धा च भाषा अस्ति । विशालः अस्य शब्दकोषः । एवं संस्कृतस्य धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्ट्या परमं महत्त्वमस्ति।

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6. दायजस्य कुप्रथा
‘दहेज’ इति हिन्दी-शब्दस्य दायजः इति संस्कृतरूपो वर्तते । भारते अस्य दायजस्य प्रथा प्राचीना अस्ति। एतस्य दायजस्य विशेषः सम्बन्धः कन्यादानात् वर्तते। प्राचीनकाले जनाः कन्यादानेन सह वराय रूप्यकाणि, आभूषणानि, अन्यानि च बहूनि वस्तूनि दक्षिणारूपेण यच्छन्ति स्म। तस्मिन् समये दायजस्य किमपि बन्धनं लोभो वा नासीत्। जनाः हर्षेण स्व आर्थिकस्थित्यनुसारं कन्यायै यच्छन्ति स्म । अस्य दायजस्य एतदपि लक्ष्यमासीत्, यत् कन्या स्व-श्वसुरालये किमपि कष्टं नानुभवेत् ।

परमद्य तु विवाहसमये एव वरपक्षकाः जनाः रूप्यकाणि वस्तूनि च याचन्ते। अद्य इयं प्रथा तिरस्करणीया संजाता। अद्यत्वे भारतीयसमाजे इयं कुप्रथा प्रतिदिनं वर्धते। इयं प्रथा अद्य हिन्दूनाम् समाजे कलंकरूपा वर्तते।

अस्मिन् युगे तु सर्वासु जातिषु इयं कुप्रथा प्रचलिता अस्ति । अद्य कन्यानाम् जनकाः अनया कुप्रथया भयभीताः त्रस्ताः च सन्ति । अस्याः कुप्रथायाः कारणात् नवोढा: करुणचीत्कारं कुर्वन्ति। अतः साम्प्रतम् इयं कुप्रथा भारतीयसमाजाय अभिशापः वर्तते।

अद्यत्वे यदि काचित् कन्या विवाह-समये दायजस्य पुष्कलां सामग्री न आनयति। तदा वरपक्षीयाः ताम् कन्याम् घृणादृष्ट्या तिरस्काररूपेण च पश्यन्ति । सा कन्या च विविधैः दण्डैः दण्ड्यते, दण्डम् असहमानाः कन्याः आत्महत्याम् कुर्वन्ति। अहो! धिक्इमाम् कुप्रथाम्। या समाजम् अवनतेः गर्ने प्रक्षिपति।

अद्य समाजस्य, युवकानां युवतीनाम् च सहयोगस्य आवश्यकता अस्ति। यदि अद्य युवकाः युवत्यश्च मिलित्वा प्रतिज्ञाम् कुर्युः यत् दायजं न याचितव्यम् न च गृहे नेतव्यम्; तदा एव एषा कुप्रथा विनष्टा भवेत्।

यावत्कालं समाजे जागृतिः नैव आगच्छति, तावत् अस्याः कुप्रथायाः समूलः विनाशः असंभवः वर्तते। अद्य इमाम् प्रथाम् समाजात् अपनेतुम् सहयोगस्य परमावश्यकता अस्ति।

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7. पुस्तकालयः
पुस्तकानाम् आलयः इति पुस्तकालयः। सर्वेषां पठनाय यत्र पुस्तकानां संग्रहः क्रियते पुस्तकालयः कथ्यते। पुस्तकालयेन शिक्षायाः अत्यधिकम् प्रचारः भवति। सम्प्रति
स्थान-स्थाने जनतायाः राज्यस्य च पुस्तकालयाः स्थापिताः सन्ति । पुस्तकालये विभिन्नविषयाणां बहूनि पुस्तकानि भवन्ति। सर्वेषां पठने समानः अधिकारः भवति। स्वल्पेन व्ययेन छात्राः साधारणाः जनाः वा तत्र विविधविषयाणां ज्ञानं प्राप्तुं शक्नुवन्ति। पुस्तकालये दैनिक-पत्राणि, पाक्षिक-पत्राणि, मासिक-पत्राणि अपि च भवन्ति। ये जनाः तानि क्रेतुं न शक्नुवन्ति ते तत्र पठितुं शक्नुवन्ति। अद्य तु जनेषु शिक्षाप्रसाराय ग्रामेषु पुस्तकालयानाम् आवश्यकता वर्तते।

अस्माकं महाविद्यालयस्य पुस्तकालयः सुमहान् वर्तते। अत्र अनेकानि अनुपलब्धानि पुस्तकानि अपि विद्यन्ते। अस्माकं पुस्तकालये महती सुव्यवस्था अस्ति। तत्र शान्तेः वातावरणं पूर्णम् अनुशासनं च भवति। प्रातः निर्धारिते समये पुस्तकालयः

7. पुस्तकालय
पुस्तकानाम् उद्घाटितो भवति, निश्चिते सायं समये च तस्य पिधानम् भवति। एवं पुस्तकालयानां महती उपयोगिता वर्तते। वस्तुतः साम्प्रतिके युगे प्रत्येकं गृहे एक: लघुः पुस्तकालय: उपयोगी वर्तते ।

8. स्वतन्त्रतादिवसः
अद्य अगस्तमासस्य पञ्चदशतारिका अस्ति। अस्मिन् दिवसे एव भारतदेश: आंगलशासनात् स्वतन्त्रः अभवत्। अत एव एषः दिवसः भारतदेशे ‘स्वतन्त्रतादिवसः’ इति रूपेण सोल्लासं मान्यते। अस्मिन् दिवसे भारतीयाः राजनैतिकरूपेण स्वतन्त्रतां प्राप्नुवन्तः। एषा स्वतन्त्रता सरलतया न अलभत, अपितु असंख्याः देशभक्ताः आंगलशासकानां भीषणान् अत्याचारान् सहमानाः स्वबलिदानं कृत्वा एतां स्वतन्त्राताम् अलभन्त। असंख्यैः देशभक्तैः स्वतन्त्रतायै आंगल-कारागारेषु स्वयुवावस्थां जीर्णीकृतवन्तः । असंख्यैः देशभक्तैः स्वरक्तेन स्वतन्त्रतायज्ञं कृतवन्तः। ते आत्मानम् आहुतवन्तः। तदा वयं स्वतन्त्रताफलं प्राप्नुवन्तः।

अद्य वयं स्वतन्त्राः स्मः, परन्तु तां बिभीषिकां न जानीमः या अस्माकं पूर्वजैः अनुभूता। नैव च तां सवृत्तिं ध्यायामः, यया प्रेरिताः ते निःस्वार्थभावेन स्वप्राणदानं कृतवन्तः। अद्य नासौ महात्मा गांधी, नासौ सुभाषः, चन्द्रेशखरः, बिस्मिलः, वा दृश्यते येभ्यः भारतदेशः एव सर्वोपरि आसीत्। अद्य तु वयं सर्वथा स्वार्थलिप्ताः अभवाम, न कथमपि राष्ट्रहितं पश्यामः। अस्मभ्यं तु आत्महितम् एव सर्वोपरि अभवत्। देशः गच्छतु भ्राष्ट्र, कोऽपि राजनेता तस्य कृते चिन्तातुरः न दृश्यते। राजनेतृभ्यः राजनीतिः अपि व्यापारः अभवत्। लोकहितं तेषां वचनेषु एव दृष्टिगोचरं भवति, न वास्तविकव्यवहारे। भ्रष्टाचारः सर्वेषु विभागेषु व्याप्तः ।

तेषां कृते स्वतन्त्रतायाः अर्थः भ्रष्टाचारं कर्तुं स्वतन्त्रता एव प्रतीयते। परन्तु ते एतत् तथ्यं विस्मरन्ति यदि देशः एव स्वतन्त्रः न भविष्यति, देशः एव प्रतिवेशिराष्ट्रेभ्यः भौगोलिकरूपेण, आर्थिकरूपेण, राजनैतिकरूपेण च सुरक्षितः आत्मनिर्भरः च न भविष्यति तदा भ्रष्टाचाराय अपि अवकाशः न भविष्यति। अतः अस्माभिः स्वतन्त्रतादिवसे काँश्चन लोकाकर्षकान् समारोहान् एव न सम्पाद्य वस्तुतः प्रत्येकं भारतीये देशनिष्ठायाः देशभक्तेः देशपरायणतायाः भाव: यथा उद्दीप्तः स्यात् तथा आचरणीयम्; येन अस्माकं देशस्य स्वतन्त्रता शाश्वती भवेत्। जयतु भारतम्, जयतु भारतदेशः ।

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9. महात्मा गांधी (प्रियः राष्ट्रनेता)
‘महात्मा’, ‘बापू’ इति लोके प्रसिद्धस्य मोहनदासगान्धि महोदयस्य नाम कस्य न विदितम् ? स जगद्वन्दनीयेषु महापुरुषेषु सर्वश्रेष्ठः नेता आसीत्। चिरकालाद् दासत्वं गतस्य भारतस्य पुनरपि स्वतन्त्रतायाः नायक: अयमेवासीत्। अनेन सत्यस्य अहिंसायाश्च बलेन पराधीना भारतभूमिः स्वतन्त्रीकृतम।

अयं महापुरुषः 1869 तमे ख्रीष्टाब्दे गुजरातप्रान्तस्य पोरबन्दर-नामके नगरे वणिक्-वंशे अजायत। अस्य पिता कर्मचन्दगान्धी माता च पुतलीबाई आसीत्। जन्मजात-संस्कारैः प्रभावितः अयं बाल: बाल्यादेव सत्यवादी, ईश्वरभक्तश्चासीत्। अस्य विवाहः त्रयोदशवर्षे कस्तूरबा कन्यया सह संजातः । विवाहानन्तरं दशमकक्षा उत्तीर्य अयं बैरिस्ट्री शिक्षाग्रहणार्थं इंगलैंडदेशं गतः । तत्र सः स्वाध्यायं कुर्वन् ‘बाईबल’ धर्मपुस्तकं श्रीमद्भगवद्गीतां च अपि अधीतवान्। स्वदेशम् आगत्य अयं वाक्कीलकार्य (वकालत) प्रारभत । गान्धी एकदा अफ्रीकादेशं गतः। तत्र भारतीयानां दुर्दशा आसीत्। भारतीयानां ईदृशम् अपमानम् अवलोक्य तेन तत्प्रतिकारया नेटालप्रदेशे ‘इण्डियन कांग्रेस’ (भारतीय महासभा) नाम्नी संस्था संस्थापिता। अयं गान्धिनः राजनीतौ प्रथमः प्रवेशः आसीत्।।

अफ्रीकातः निवृत्य भारतीय-कांग्रेस-सभायां-सम्मिलितो भूत्वा गान्धी ‘असहयोग-आन्दोलनम्’ अचालयत् । एतस्मिन् विषये गान्धिनः ‘डांडी’ यात्रा इतिहासे सुप्रसिद्धा विद्यते। 1942 तमे संवत्सरे ‘भारत छोड़ो’ इति आन्दोलनं तेन चालितं, यत् कारणात् गान्धी आंग्लैः कारागारे पातितः। गांधिनः सत्याग्रहेण पराधीनं भारतं 1947 तमे संवत्सरे स्वतन्त्रम् अभवत्।

गान्धिनः सत्याग्रह-अहिंसाबलेन या स्वतन्त्रता अस्माभिः प्राप्ता, सा मानवेतिहासस्य अद्वितीया घटना वर्तते। राजनीतिककार्येभ्यः अतिरिक्तम्, अस्पृश्यता निवारणाय, हरिजनोद्धाराय, शिक्षाप्रसाराय, खादीग्रामोद्योगप्रवर्तनाय, वैदेशिकवस्तु परित्यागाय, सामाजिक कुरीतीनां निवारणाय या क्रान्तिः गान्धिना विहिता, सा विश्वेतिहासस्य पृष्ठेषु स्वर्णाक्षरेषु लिखितास्ति। स्वल्प-कायोऽपि दिव्यशक्तिसम्पन्नः नूतनयुप्रवर्तकश्च गान्धी आसीत्। अस्मिन् भयावहे परमाणु-युगे अपि तस्य शिक्षाः सत्याहिंसा-सिद्धान्ताश्च मानवमात्रस्य कल्याणं विधातुं समर्थाः सन्ति।

10. स्वामी विवेकानन्दः
भारतभूमिः ऋषिमहर्षीणां सन्तमहात्मनां देशभक्तानां वीराणां कलाविदां विदुषां च जन्मस्थली अस्ति। अस्याम् एव पुण्यभूमौ स्वामी विवेकानन्दः जन्म अलभत। एषः महापुरुषः रामकृष्णपरमहंसस्य सुयोग्यः शिष्यः आसीत्। विवेकानन्दस्य गृहनाम नरेन्द्रनाथदत्तः आसीत्। अस्य जन्म 12 जनवरी 1863 ख्रीष्टाब्दे कलकत्तानगरे अभवत् । अस्य पिता श्रीविश्वनाथदत्त: पाश्चात्य-सभ्यतायाः पोषकः आसीत्। सः च स्वपुत्रं नरेन्द्रम् अपि तादृशः एव भवितुम् इच्छति स्म। नरेन्द्रः जन्मना एव परममेधावी प्रतिभासम्पन्नः तार्किकः च आसीत्। बाल्यकाले एव अस्य पिता परलोकं गतवान्। पितुः मृत्योः पश्चात् नरेन्द्रः रामकृष्णपरमहंस्य शिष्यतां प्राप्तवान्। सद्यः एव गुरुमुखात् वेदान्तशिक्षां प्राप्य सः संन्यासदीक्षां गृहीतवान्। संन्यासी भूत्वा च स: ‘स्वामी विवेकानन्दः’ इति नाम्ना प्रसिद्धः अभवत्।

स्वामी विवेकानन्दः भारतीयसंस्कृतेः वेदान्तस्य च समर्थकः आसीत् । सः सम्पूर्णभारतदेशस्य पदयात्रां कृत्वा जनजागरणं कृतवान्। सः 1893 ख्रीष्टाब्दे अमेरिकादेशस्य शिकागो-नगरे विश्वधर्मपरिषद्-सम्मेलने भारतस्य प्रतिनिधित्वम् अकरोत् । तत्र सः ओजस्वि-भाषणम् अकरोत् स्ववक्तृतामाध्यमेन च सर्वान् मन्त्रामुग्धान् अकरोत् । स्वामी विवेकानन्दः वर्षत्रयं यावत् अमेरिकादेशे अवसत्, तत्र वेदान्तप्रचारं च अकरोत्। विवेकानन्दस्य दृढ़ विश्वासः आसीत्-“अध्यात्मविद्यां भारतीयदर्शनं च विना संसारः अनाथः इत्र अस्ति”। सः अमेरिकादेशात् भारतम् आगत्य रामकृष्णमिशनसंस्थायाः स्थापनाम् अकरोत् । 4 जुलाई 1902 ख्रीष्टाब्दे एषः सांस्कृतिक-गुरुः महासमाधौ लीनः अभवत् ।

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11. मम प्रियः कविः (कालिदासः)
संस्कृतसाहित्यस्य रचयितारः बहवः कवयः सन्ति। परं तेषु सर्वेषु कविषु कालिदासः मम प्रियः कविः अस्ति। एषः कविः न केवलं भारते एव प्रसिद्धः अस्ति, अपितु सर्वस्मिन् विश्व प्रसिद्धः अस्ति। आंग्लदेशवासिनः तु एनं भारतस्य शेक्सपीयर् इति कथयन्ति। जर्मनवासिनश्च कालिदासम् विश्वकविम् स्वीकुर्वन्ति।

एषः कविः कदा कुत्र च अजायत एतत् सम्यक् न ज्ञायते। परम् एतत् श्रूयते, यदयं महाराजस्य विक्रमादित्यस्य नवरत्नेषु सवश्रेष्ठः आसीत्। अस्य महाकवेः विषये एका जनश्रुतिः श्रूयते । यदयं प्रारम्भे महामूर्खः आसीत्। तस्य विवाहः छलेन विदुष्या राजकन्यया सह अभवत्। पश्चात् अयं कालिंदेवीं ध्यात्वा अपठत् पण्डितश्च अभवत्।

कालिदासः संस्कृत-भाषायाः भारतस्य कवीनां च गौरवमस्ति। अस्य वैशिष्ट्यम्, व्यक्तित्वं कवित्वं च नाटकेषु गीतिकाव्येषु, महाकाव्येषु च प्रस्फुटितम् । मम प्रियकवेः कालिदासस्य चत्वारि काव्यानि, त्रीणि नाटकानि च उपलभन्ते। नाटकेषु अभिज्ञानशाकुन्तलं अस्य कवेः सर्वोत्तमं नाटकम् अस्ति।

जर्मनकविः गेटेमहोदयः-अभिज्ञानशाकुन्तलं मुक्तकण्ठेन प्राशंसत। अस्य काव्येषु अलंकाराणाम् प्रयोगः बाहुल्येन दृश्यते । उपमालंकारः अस्य कवेः प्रियः अलंकारः वर्तते। अस्य विषये कथितमस्ति

“उपमा कालिदासस्य” कालिदासेन रचितानि काव्यानि, नाटकानि च पाठकानाम् चेतांसि हरन्ति, आनन्दयन्ति च। अतः संस्कृतसाहित्यस्य प्रसिद्धः अयं कविः मम प्रियः कविरस्ति।

12. मम प्रियं पुस्तकम् (रामायणम्)
संस्कृत-साहित्ये बहूनि पुस्तकानि सन्ति। परं तेषु सर्वेषु पुस्तकेषु ‘रामायणम्’ मम प्रियम् पुस्तकमस्ति। एकदा आदिकवि: वाल्मीकिः तमसा-नद्याम् स्नात्वा स्व-आश्रमम् आगच्छत्। सः मार्गे केनचित् व्याधेन क्रौञ्चयुगलात् एकम् पक्षिणम् बाणेन विद्धम् अपश्यत्। तदा तस्य आदिकवे: वाल्मीके: मुखात् अयं श्लोकः निस्सृत:

मा निषाद ! प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौञ्च-मिथुनाद् एकमवधी: काममोहितम्॥

अस्य श्लोकस्य निर्माणम् दृष्ट्वा कविः स्वयं चकितोऽभवत्। तदनन्तरं स: रामायणम् (रामचरितम्) लिखितवान्। तत् एव रामायणम् महाकाव्यम् मम प्रियं पुस्तकं वर्तते ।

इदं पुस्तकं संस्कृत-साहित्यस्य आदिकाव्यम् अस्ति। अस्य रचनाकालं पुरातत्व-गवेषकाः बौद्ध-कालादपि प्राचीनं मन्यन्ते। अस्य पुस्तकस्य कथानक: रामचरित्रम् अस्ति।

अस्मिन् महाकाव्ये रघुवंशीयस्य रामस्य जन्मनः आरभ्य निर्वाण-पर्यन्तं सम्पूर्णकथा विद्यते। रामायणे अतीव सरलसंस्कृतस्य प्रयोगः अस्ति। यः श्रोतृणाम् मनांसि हरति। अलंकार-शैली अपि अतीव रमणीया अस्ति ।

भगवतः श्री रामस्य कथा अस्मान् सर्वान् शिक्षयति
1. यत् जीवने रामादिवत् वर्तितब्बम, रावणादिवत्।
2. जीवने अन्यायस्य विरोध: कर्त्तव्यः।
3. संसारे जनाः रामवत् पितृभक्ताः, लक्ष्मणवत् भ्रातृभक्ताः, हनुमतः तुल्यं च स्वामी-भक्ताः भवेयः।
4. सर्वाः नार्यः सीसवत् पतिव्रताः धर्मपरायणाः भवन्तु।
5. यथा रामेण स्वधर्म-रक्षणार्थं रावण-कुम्भकर्ण-मेघनादादीनां वधः कृतः पत्नीरक्षाव्रतं च पालितम्, तथैव अस्माभिः स्वधर्मरक्षायै, स्व-भार्या-रक्षायै च शत्रवः हन्तव्याः धर्मस्य च स्थापना कर्तव्या।
वस्तुतः रामायणं न केवलं धार्मिकम् एव पुस्तकम्, अपितु भारतीय-सभ्यतायाः संस्कृतेश्च प्रतीकमपि अस्ति । अत एव रामायणस्य विषये संस्कृतस्य केनचित् कविना एतत् सत्यमेव लिखितमस्ति
मर्यादां सभ्यतां लोके शिक्षयत् संस्कृति तथा।
रामायणं महाकाव्यं शिवं सत्यं च सुन्दरम्॥
अथ च
यावत् स्थास्यन्ति गिरयः नधश्च महीलले।
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचलिष्यति ।

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13. स्वच्छतायाः महत्त्वम्
स्वच्छतायाः स्वास्थ्येन सह घनिष्ठः सम्बन्धः अस्ति-आरोग्यस्य मूलं स्वच्छता एव अस्ति। यत्र मलिनता राजते तत्र रोगाः अपि स्वयमेव आगच्छन्ति। स्वच्छतायाः क्षेत्रम् अतिविस्तृतम् अस्ति। सर्वप्रथमं शारीरिक-स्वच्छता अपेक्षिता भवति। प्रतिदिनं नियमपूर्वकं दन्तधावनम्, स्नानम्, स्वच्छवस्त्र-धारणम्, भोजनात, पूर्वं हस्तप्रक्षालनम् इत्यादीनी शारीरिक-स्वच्छतायाः अङ्गानि सन्ति। स्वच्छतया मनुष्यः सुरूपः भवति, सर्वे तेन सह स्थातुम् आलपितुं व्यवहर्तुं च इच्छन्ति।

दुर्गन्धियुक्तं मलिनमनुष्यं रोगकारणं मत्वा सर्वे तस्मात् दूरे एव तिष्ठन्ति। स्वच्छतया मानवतायाः विकासः भवति। यतः स्वच्छे सति कोऽपि जन: कमपि घृणां न करोति। माता अपि मलिनं. शिशुं कष्टेन स्पृशति, अतएव तं सर्वथा स्वच्छं कर्तुं यत्नशीला दृश्यते। स्वस्थ-शरीरे एव स्वस्थं मनः तिष्ठति। मलिनमनसि मलिनविचाराः एव उद्भवन्ति, मलिनविचारैः च मनुष्यः मलिनानि कर्माणि करोति। मलिनकर्माणं जनं च कोऽपि आदरेण न पश्यति।

अतः सर्वेषाम् आदरपात्रं मानसिकरूपेण च । स्वस्थः भवितुम् अपि शारीरिक-स्वच्छता आवश्यकी अस्ति। शारीरिक-स्वच्छतायाः अनन्तरं स्थानिक स्वच्छता अपि ध्यातव्या। स्थानिक-स्वच्छतायां प्रतिदिनं गृहस्य स्वच्छता तु…. आवश्यकी अस्ति एव, गृहस्य निकटस्थ-मार्गाः अपि च स्वच्छाः भवितव्याः । मल-मूत्रादिकं शौचालयेषु एव कर्तव्यम्। यदि इतस्ततः अवकरा: विकरिताः भवन्ति तर्हि वसतिषु मशक-मक्षिकादयः कीटा: जायन्ते सम्पूर्ण वातावरणं च दुर्गन्धेन

परिपूर्णं भवति। तेन च हैजा-मलेरिया-प्लेग-चेचक-प्रभृतयः संक्रामक रोगाः जायन्ते। केवलम् औषध-सेचनेन अथवा औषध-सेवनेन एव रोगाः विनष्टाः न भवन्ति अपितु रोगाणां मूलकारणस्य अस्वच्छतायाः निवारणम् अपि परमावश्यकम् अस्ति ।

अतः यदि वयम् इच्छामः यत् सर्वेषां प्रेमपात्राणि भवेम, आदरपात्राणि भवेम, शारीरिकरूपेण मानसिकरूपेण रोगरहिताः स्वस्थाः च भवेम, कोऽपि अस्मान् घृणया न व्यवहरेत् तर्हि अद्य एव स्वच्छतायाः महत्त्वं जानन्तः सर्वविध-स्वच्छाः भवितुं प्रयत्नं कुर्वेम।

14. महाविद्यालयस्य वार्षिकोत्सवः
मम महाविद्यलये अनेके उत्सवाः भवन्ति, परं तेषु वार्षिकोत्सवः सर्वाधिकः महत्त्वपूर्णः भवति। अयं पुरस्कारवितरणोत्सवः भवति। सम्पूर्णवर्षस्य गतिविधिः अस्मिन् उत्सवे प्रस्तूयते। पठने, क्रीडने, भाषणे, सांस्कृतिक-कार्यकलापे ये विशिष्टाः छात्राः भवन्ति, ते अस्मिन्नेव दिने पुरस्कार प्राप्नुवन्ति।

वार्षिक उत्सवः परमानन्दायकः भवति। छात्राः महाविद्यालस्य वार्षिकोत्सवस्य उत्सुकतया प्रतीक्षां कुर्वन्ति। अस्मिन् शुभदिने छात्राः उज्ज्वलानि वस्त्राणि धारयन्ति, प्रसन्नाश्च दृश्यन्ते।

अस्मांक महाविद्यालस्य वार्षिकत्सवः प्रतिवर्ष मार्चमासे भवति। एकः विशिष्टः महानुभावः अस्मिन् दिने आमन्त्र्यते। नगरस्य सुप्रतिष्ठिताः नागरिकाः अपि सम्मिलिताः भवन्ति। सम्पूर्णः मण्डपः सुसज्जितः भवति। विद्यार्थिषु अध्यापकेषु नवोत्साहः स्फूर्तिश्च भवति। अभ्यागतानां सम्मुखे विद्यालयस्य छात्राः मनोञ्जकं कार्यक्रम प्रस्तुवन्ति। आचार्यः महाविद्यालयस्य वार्षिकं प्रतिवेदनं (रिपोर्ट) पठति। मुख्यः अतिथिः सर्वमपि कार्यक्रमं दत्तावधानः पश्यति। मुख्यातिथि: विशिष्टेभ्यः छात्रेभ्यः अध्यापकेभ्यश्च पुरस्कारान् ददाति।।

अस्मिन् वर्षे अस्माकं महाविद्यालयस्य वार्षिकोत्सवे भारतस्य शिक्षामन्त्री आगच्छत्। तस्य अभिनन्दनम् अस्माकं छात्राः स्वागत-गीतेन अकुर्वन्। जनैः तस्य सम्मान करतल-ध्वनिना कृतम्। सः स्व-अध्यक्षीयभाषणे महाविद्यालयस्य अनुशासनस्य महतीं प्रशंसाम् अकरोत्। शिक्षा-महत्त्व-विषये च सारगर्भितं भाषणम् अयच्छत्। सः प्रसन्नो भूत्वा महाविद्यालयस्य विकासाय राजकोषतः पंचाशत्सहस्राणि रुप्यकाणि अपि अददात्।

अन्ते च आचार्यः सर्वेषां धन्यवादम् अकरोत्। ‘जनगणमन’ इति राष्ट्रीयगीतेन सह कार्यक्रमः समाप्तः अभवत्। सर्वे अभ्यागताः मुख्यातिथिना सह जलपानम् अकुर्वन्। एवं विद्यालयस्य वार्षिकोत्सवः निर्विघ्नं सम्पन्नः अभवत्।

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15. गणतन्त्र-दिवसः
गणतन्त्र-दिवस: भारतदेशस्य राष्ट्रीय पर्व अस्ति। एतत् पर्व प्रतिवर्ष जनवरीमासस्य 26 तारिकायां सोत्साहं मान्यते। 26 जनवरी 1950 ख्रीष्टाब्दः भारतीये इतिहासे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दिनम् अस्ति। अस्मिन् दिवसे स्वतन्त्र-भारतस्य प्रथम संविधानं प्रभावितम् अभवत्। अस्मिन् दिने एव भारतम् संप्रभुता-सम्पन्न-रज्यरूपेण प्रतिष्ठितम् अभवत्। ततः आरभ्य अस्मिन् एव उपलक्ष्ये प्रतिवर्षं सम्पूर्ण-भारतदेशे राष्ट्रियः अवकाशः भवति गणतन्त्रदिवसः च मान्यते। विद्यालयेषु महाविद्यालयेषु च प्रतियोगिताः समायोज्यन्ते। आधिकारिकरूपेण प्रतिनगरम् ध्वजारोहणं गणतन्त्रदिवस-समारोहाः च समायोजिताः भवन्ति। समारोहेषु भारतस्य स्वतन्त्रतायै सुरक्षायै च बलिदानिनां वीराणां श्रद्धापूर्वकं स्मरणं क्रियते।

अस्मिन् दिवसे भारत-देशस्य राजधान्यां रक्तदुर्गे गणतन्त्रदिवस-समारोहः भव्यरूपेरण समायोज्यते। राष्ट्रपतिः रक्तदुर्गात् राष्ट्राय सन्देशं ददाति। विभिन्नराज्यानां सांस्कृतिकं प्रदर्शन भवति। थलसेना-नौसेना-वायुसेनानां च भव्यगणवेषे शौर्यप्रदर्शनं भवति । युद्धेषु असाधारणसाहसाय वीरतायै च सैनिकेभ्यः पदकानि पुरस्काराणि च प्रदीयन्ते। विविधक्षेत्रेषु विशिष्टयोगदानाय कलाकारेभ्य: नागरिकेभ्यः अपि पदकानि पुरस्काराणि च प्रदीयन्ते। अद्भुत-साहस-प्रदर्शनाय प्रत्येक राज्यस्य बालक-बालिकाः पुरस्कृताः भवन्ति। सम्पूर्णदृश्यस्य प्रदर्शनस्य च प्रसारणं आकाशवाण्या दूरदर्शनेन च भवति। लक्षाधिकाः जनाः सम्पूर्णदृश्यस्य प्रदर्शनस्य च साक्षात् अवलोकनाय रक्तदुर्गं गच्छन्ति। अस्मिन् दिवसे सम्पूर्णदशस्य वातावरणम् अतीव उत्साहपूर्णं भवति।

16. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः
अद्यत्वे नारीणां दशा शोभना न वर्तते। तासाम् उपरि अनवरतं क्रियमाणैः अत्याचारैः समाचारपत्रपृष्ठानि प्रतिदिनं रञ्जितानि वर्तन्ते। तासाम् आदर: न क्रियते, अवहेलना क्रियते। कारणमस्ति यत् सर्वत्र राक्षसाः एव वसन्ति, न देवाः । देवाः तु नारीः पूजयन्ति आनन्देन वसन्ति च। कुत्र वसतिः आर्याणां कुत्र च अनार्याणां वसतिः अस्ति इत्यस्य निकषः तत्रत्यानां नारीणां दशा एव अस्ति। यत्र ताः पत्युः परिवारस्य च आदरं लभमाना आनन्दम् अनुभवन्ति तत्र वासः देवतानाम्, यत्र च वैपरीत्यं तत्र दैत्यानां वासः इति स्पष्टम्।।

नारी शरीरेण कोमला, स्वभावेन उदारा चरित्रेण च पुरुषापेक्षया अत्युदात्ता भवति। तस्याः सर्वं दिनं परिवारचिन्तया सेवया, शुश्रूषया च व्यत्येति। सा स्वयं क्षुधां पिपासां च सोदवा सर्वेषां क्षुधां पिपासां च शमयितुं यतते। परन्तु सा एतस्य प्रतिकारे सर्वस्य उपेक्षायाः एव पात्रं भवति। सभ्यसमाजे नारीणां दशा एतादृशी न भवति। सा तत्र साम्राज्ञी इव तिष्ठति। ‘न गृहं, गृहमित्याहुः गृहिणी गृहमित्युच्यते’ इत्यस्य भावः नार्याः गृहे उच्चस्थितिः स्यादिति। विद्वांसो हि देवाः । पुरुषाः विद्वांसः तदैव भवितुम् अर्हन्ति यदा तेषां माता, गृहिणी विदुषी च स्याताम्। विद्वांसः एव जानन्ति यत्कुले नार्याः प्रतिष्ठा अत्यपेक्षिता अस्ति। अतः मनुना सत्यमेव उक्तम्
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः”।

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HBSE 12th Class Economics Solutions Chapter 6 खुली अर्थव्यवस्था : समष्टि अर्थशास्त्र

Haryana State Board HBSE 12th Class Economics Solutions Chapter 6 खुली अर्थव्यवस्था : समष्टि अर्थशास्त्र Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Economics Solutions Chapter 6 खुली अर्थव्यवस्था : समष्टि अर्थशास्त्र

पाठयपुस्तक के प्रश्न

प्रश्न 1.
संतुलित व्यापार शेष और चालू खाता संतुलन में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
व्यापार शेष वस्तुओं के आयात व निर्यात का लेखा होता है अर्थात् व्यापार शेष में केवल दृश्य मदों को सम्मिलित किया जाता है। इसमें सेवाओं; जैसे कि जहाज़रानी, बीमा, बैंकिंग, ब्याज एवं लाभांश भुगतान और पर्यटकों द्वारा व्यय आदि को सम्मिलित नहीं किया जाता। चालू खाते में वस्तुओं और सेवाओं के आयात और निर्यात और एक-पक्षीय हस्तांतरणों का ब्यौरा रखा जाता है। व्यापार शेष के निर्धारण में केवल दृश्य मदों पर ही विचार किया जाता है जबकि भुगतान शेष के चालू खाते में निम्नलिखित मदों को सम्मिलित किया जाता है

  1. वस्तुओं का आयात-निर्यात (दृश्य मदें)
  2. सेवाओं का आयात-निर्यात (अदृश्य मदें)
  3. एक-पक्षीय हस्तांतरण।

इस प्रकार व्यापार शेष एक संकुचित अवधारणा है और भुगतान शेष के चालू खाते का एक भाग है।

प्रश्न 2.
आधिकारिक आरक्षित निधि का लेन-देन क्या है? अदायगी-संतुलन में इनके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आधिकारिक आरक्षित निधि (Official Reserve Transactions) के लेन-देन से अभिप्राय उन लेन-देनों से है जो विदेशी विनिमय बाज़ार में विदेशी मुद्रा के क्रय-विक्रय से संबंधित है। आधिकारिक आरक्षित निधि के लेन-देन भुगतान शेष की समस्या को हल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। घाटे की स्थिति में एक देश की सरकार विदेशी बाज़ार में विदेशी मुद्रा की बिक्री कर सकती है, जिसके फलस्वरूप विदेशी विनिमय की आरक्षित निधि कम हो जाएगी।

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प्रश्न 3.
मौद्रिक विनिमय दर और वास्तविक विनिमय दर में भेद कीजिए। यदि आपको घरेलू वस्तु अथवा विदेशी वस्तुओं के बीच किसी को खरीदने का निर्णय करना हो, तो कौन-सी दर अधिक प्रासंगिक होगी?
उत्तर:
मौद्रिक विनिमय दर से अभिप्राय देशी मुद्रा के रूप में विदेशी मुद्रा की एक इकाई की कीमत से है। इसके विपरीत, वास्तविक विनिमय दर देशी वस्तु के रूप में विदेशी वस्तुओं की सापेक्ष कीमत होती है। वास्तविक विनिमय दर मौद्रिक विनिमय दर के बराबर होती है, जोकि विदेशी कीमत स्तर में देशी कीमत स्तर से भाग देकर प्राप्त की जाती है। वास्तविक विनिमय दर से किसी देश की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का मूल्यांकन होता है। वास्तविक विनिमय दर को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-
वास्तविक विनिमय दर = \(\frac{e P_{f}}{P}\)
यहाँ,
P = देश का कीमत स्तर
Pf = विदेशी कीमत स्तर
e = मौद्रिक विनिमय दर इस प्रकार हम देखते हैं कि मौद्रिक विनिमय दर चालू कीमतों पर आधारित है, जबकि वास्तविक विनिमय दर स्थिर कीमतों पर आधारित है। यदि हमें घरेलू वस्तु अथवा विदेशी वस्तुओं के बीच किसी को खरीदने का निर्णय करना है तो वास्तविक विनिमय दर अधिक प्रासंगिक होगी।

प्रश्न 4.
यदि 1 रुपए की कीमत 1.25 येन है और जापान में कीमत स्तर 3 हो तथा भारत में 1.2 हो, तो भारत और जापान के बीच बास्तविक विनिमय दर की गणना कीजिए (जापानी वस्तु की कीमत भारतीय वस्तु के संदर्भ में)।
संकेत-रुपए में येन की कीमत के रूप में मौद्रिक विनिमय दर को पहले ज्ञात कीजिए।
हल:
वास्तविक विनिमय दर = \(\frac{e P_{f}}{P}\)
P= देश का कीमत स्तर = 1.2
Pf = विदेशी कीमत स्तर = 3
e = मौद्रिक विनिमय दर
= \(\frac { 1 }{ 1.25 }\)
= 0.8
वास्तविक विनिमय दर = \(\frac{0.8 \times 3}{1.2}\) = 2.4
= 2 उत्तर

प्रश्न 5.
स्वचालित युक्ति की व्याख्या कीजिए जिसके द्वारा स्वर्णमान के अंतर्गत अदायगी-संतुलन प्राप्त किया जाता था।
उत्तर:
स्वर्णमान के अंतर्गत सभी करेंसियाँ सोने के रूप में परिभाषित की जाती थीं। प्रत्येक देश एक निश्चित कीमत पर अपनी मुद्रा को मुफ़्त रूप से परिवर्तनीयता की गारंटी देने के लिए प्रतिबद्ध था। विनिमय दरों का निर्धारण सोने के रूप में उस मुद्रा के मूल्य द्वारा होता था जहाँ सोने की मुद्रा होती थी। दरों में एक ऊपरी सीमा और निचली सीमा के बीच उतार-चढ़ाव होता रहता था। अधिकृत समता को बनाए रखने के लिए प्रत्येक देश को सोने के पर्याप्त स्टॉक रखने की आवश्यकता होती थी। इस प्रकार स्वर्णमान के अंतर्गत अदायगी-संतुलन प्राप्त किया जाता था।

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प्रश्न 6.
नम्य विनिमय दर व्यवस्था में विनिमय दर का निर्धारण कैसे होता है?
उत्तर:
नम्य विनिमय दर व्यवस्था में विनिमय दर का निर्धारण विदेशी मुद्रा बाज़ार में होता है। विदेशी मुद्रा बाज़ार में संतुलन उस बिंदु पर निर्धारित होता है, जहाँ विदेशी मुद्रा का माँग वक्र और मुद्रा का पूर्ति वक्र एक-दूसरे को काटते हों। विदेशी मुद्रा का माँग वक्र ऊपर से नीचे दाईं ओर गिरता हुआ होता है जबकि विदेशी मुद्रा का पूर्ति वक्र नीचे से ऊपर दाईं ओर उठता हुआ होता है। संलग्न रेखाचित्र में विदेशी मुद्रा बाज़ार में संतुलन की स्थिति को दिखाया गया है।
HBSE 12th Class Economics Solutions Chapter 6 खुली अर्थव्यवस्था समष्टि अर्थशास्त्र 1
संलग्न रेखाचित्र में माँग वक्र और पूर्ति वक्र एक-दूसरे को E बिंदु पर काटते हैं जहाँ संतुलन विनिमय दर OP है और संतुलन विदेशी मुद्रा की मात्रा OQ है।

प्रश्न 7.
अवमूल्यन और मूल्यहास में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अवमूल्यन (मूल्यवृद्धि) और मूल्यह्रास दोनों का संबंध देशीय मुद्रा के मूल्य में वृद्धि या कमी से है, जिससे विदेशी मुद्रा प्रभावित होती है। अवमूल्यन के अंतर्गत घरेलू मुद्रा की इकाइयों में विदेशी मुद्रा की कीमत कम हो जाती है और मूल्यह्रास के अंतर्गत घरेलू मुद्रा की इकाइयों में विदेशी मुद्रा की कीमत में वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 8.
क्या केंद्रीय बैंक प्रबंधित तिरती व्यवस्था में हस्तक्षेप करेगा? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रबंधित तिरती व्यवस्था (Managed Floating System) से अभिप्राय ऐसी व्यवस्था से है जिसमें केंद्रीय बैंक बाज़ार की शक्तियों के द्वारा विनिमय दर के निर्धारण की अनुमति प्रदान करता है, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में केंद्रीय बैंक विनिमय दरको प्रभावित करने के लिए हस्तक्षेप करता है।

प्रश्न 9.
क्या देशी वस्तुओं की माँग और वस्तुओं की देशीय माँग की संकल्पनाएँ एक-समान हैं?
उत्तर:
नहीं, देशी वस्तुओं की माँग और वस्तुओं की देशीय माँग की संकल्पनाएँ एक-समान नहीं होती। देशी वस्तुओं की माँग (Demand for Domestic Goods) में निवल निर्यात सम्मिलित नहीं होता। जब आय में वृद्धि होती है तो खुली अर्थव्यवस्था में बढ़ी हुई आमदनी का बड़ा भाग आयातों पर व्यय होता है और एक छोटा भाग ही देशी वस्तुओं की माँग बढ़ाता है। इस प्रकार विकासशील अर्थव्यवस्था में वस्तुओं की देशीय माँग (Domestic Demand for Goods) देशी वस्तुओं की माँग से अधिक होगी।

HBSE 12th Class Economics Solutions Chapter 6 खुली अर्थव्यवस्था : समष्टि अर्थशास्त्र

प्रश्न 10.
जब M=60 + 0.06Y हो, तो आयात की सीमांत प्रवृत्ति क्या होगी? आयात की सीमांत प्रवृत्ति और समस्त माँग फलन में क्या संबंध है?
उत्तर
M = 60+ 0.06Y (दिया हुआ है)
M = \(\overline{\mathrm{M}}\) + mY
इस प्रकार, m = 0.06
यहाँ, m = आयात की सीमांत प्रवृत्ति
इसलिए आयात की सीमांत प्रवृत्ति = 0.06
आयात की सीमांत प्रवृत्ति और समस्त माँग फलन में धनात्मक संबंध होता है। आयात की सीमांत प्रवृत्ति बढ़ी हुई आय का वह भाग है जो आयात पर व्यय किया जाता है। यह आयात में परिवर्तन और आय में परिवर्तन का अनुपात है।
आयात की सीमांत प्रवृत्ति = \(\frac { ∆M }{ ∆Y }\)
आयात की माँग घरेलू आय और वास्तविक विनिमय दर पर निर्भर करती है। आय बढ़ने से माँग में वृद्धि होती है और बढ़ी हुई माँग का अधिकांश भाग आयातों के लिए होता है। फलस्वरूप आयात की सीमांत प्रवृत्ति में भी वृद्धि होती है।

प्रश्न 11.
खुली अर्थव्यवस्था के स्वायत्त व्यय (खर्च) गुणक बंद अर्थव्यवस्था के गुणक की तुलना में छोटा क्यों होता है?
उत्तर:
खुली अर्थव्यवस्था के स्वायत्त व्यय (खर्च) गुणक बंद अर्थव्यवस्था के स्वायत्त व्यय गुणक की तुलना में इसलिए छोटा होता है कि बंद अर्थव्यवस्था में व्यय गुणक केवल सीमांत उपभोग प्रवृत्ति (c) पर निर्भर करता है जबकि खुली अर्थव्यवस्था में गुणक सीमांत उपभोग प्रवृत्ति और आयात की सीमांत प्रवृत्ति (m) दोनों के योग पर निर्भर करता है।
इस प्रकार, खुली अर्थव्यवस्था गुणक = \(\frac { 1 }{ 1-c+m }\)
बंद अर्थव्यवस्था गुणक =\(\frac { 1 }{ 1-c }\)

प्रश्न 12.
पाठ में एकमुश्त कर की कल्पना के स्थान पर आनुपातिक कर T = tY के साथ खुली अर्थव्यवस्था गुणक की गणना कीजिए।
उत्तर:
एकमुश्त कर की स्थिति में खुली अर्थव्यवस्था गुणक = \(\frac { 1 }{ 1-c+m }\)
आनुपातिक कर की स्थिति में खुली अर्थव्यवस्था गुणक = \(\frac{1}{1-c(1-t)+m}\)

प्रश्न 13.
मान लीजिए C = 40 + 0.8Y D, T = 50, I = 60, G = 40, x = 90, M = 50 + 0.05Y (a) संतुलन आय ज्ञात कीजिए, (b) संतुलन आय पर निवल निर्यात संतुलन ज्ञात कीजिए, (c) संतुलन आय और निवल निर्यात संतुलन क्या होता है, जब सरकार के क्रय में 40 से 50 की वृद्धि होती है?
हल:
(a) संतुलन आय (Y) = \(\overline{\mathrm{C}}\) + c(Y – T) + I + G + X – M
= 40 + 0.8(Y – 50) + 60 + 40 + 90 – (50 + 0.05Y)
= 40 + 0.8Y – 40 + 60 + 40 + 90 – 50 – 0.05Y
= 0.75Y + 230 – 90
= 0.75Y + 140
Y – 0.75Y = 140
0.25Y = 140
Y = 560
इस प्रकार संतुलन आय = 560 उत्तर

(b) निवल निर्यात = X – M
= 90 – (50 + 0.05Y)
= 90 – (50 + 0.05 x 560)
= 90 – (50 + 28)
= 90 – 78
= 12 उत्तर

(c) सरकार के क्रय में वृद्धि (∆G) = 50 – 40
संतुलन आय में परिवर्तन =\(\frac{1}{1-c+m} \Delta \mathrm{G}\)
= \(\frac{1}{1-0.8+0.05}\) x 10
= \(\frac{1}{0.25}\) x 10 = 40
नई संतुलन आय = पुरानी संतुलन आय + परिवर्तन
= 560 + 40 = 600
निवल निर्यात में परिवर्तन = X1 – M1
= 90 – (50 + 0.05 x 600)
= 90 – 50 + 30
= 90 – 80
= 10 उत्तर

HBSE 12th Class Economics Solutions Chapter 6 खुली अर्थव्यवस्था : समष्टि अर्थशास्त्र

प्रश्न 14.
उपर्युक्त उदाहरण में यदि निर्यात में X = 100 का परिवर्तन हो, तो संतुलन आय और निवल निर्यात संतुलन में परिवर्तन ज्ञात कीजिए।
हल:
संतुलन आय में परिवर्तन (ΔY) = \(\frac{1}{1-c+m} \Delta \mathrm{X}\)
= \(\frac{1}{1-0.8+0.05}\) x 10
= \(\frac{1}{0.25}\) x 10
= 40
नई संतुलन आय = 560 + 40 = 600
निवल निर्यात में परिवर्तन = X1 – M1
= 100 – (50 + 0.05 x 600)
= 100 – (50 + 30)
= 100 – 80
= 20 उत्तर

प्रश्न 15.
व्याख्या कीजिए कि G – T = (Sg – I) – (X – M)।
उत्तर:
G – T = (Sg – I) – (X – M)
यहाँ, G = सरकारी व्यय
T = कर
G – T = निवल सरकारी व्यय
sg = सरकार की बचत
I = निवेश
Sg – I = निवल बचत
X = निर्यात
M = आयात
X – M = व्यापार शेष
दिए हुए समीकरण के अनुसार, निवल सरकारी व्यय निवल बचत और व्यापार शेष के योग के बराबर होता है। इसका अभिप्राय यह है कि निवल सरकारी व्यय की क्षतिपूर्ति सरकारी बचत और व्यापार घाटे से होती है।

प्रश्न 16.
यदि देश Bसे देश A में मुद्रास्फीति ऊँची हो और दोनों देशों में विनिमय दर स्थिर हो, तो दोनों देशों के व्यापार शेष का क्या होगा?
उत्तर:
यदि देश Bसे देश A में मुद्रास्फीति ऊँची है और दोनों देशों में विनिमय दर स्थिर है, तो देश A के व्यापार शेष में घाटा होगा जबकि देश Bका व्यापार शेष आधिक्य होगा। इसका कारण यह है कि मुद्रास्फीति के ऊँचे होने पर उस देश के आयात में वृद्धि होगी और निर्यात में कमी आएगी जिससे व्यापार शेष में घाटा होगा।

प्रश्न 17.
क्या चालू पूँजीगत घाटा खतरे का संकेत होगा? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
यदि चालू पूँजीगत घाटे के फलस्वरूप निवेश में वृद्धि और भविष्य के निर्गत में वृद्धि होती है तो यह खतरे का संकेत (Cause for alarm) नहीं है। यदि चालू पूँजीगत घाटे के फलस्वरूप निजी अथवा सरकारी उपभोग में वृद्धि होती है तो यह खतरे का संकेत है।

प्रश्न 18.
मान लीजिए C = 100 + 0.75YD, I = 500, G = 750, कर आय का 20 प्रतिशत है, X = 150, M = 100 + 0.2Y, तो संतुलन आय, बजट घाटा अथवा आधिक्य और व्यापार घाटा अथवा आधिक्य की गणना कीजिए।
हल:
C = 100 + 0.75YD
I = 500
G = 750
आनुपातिक कर (T) = 20%
X = 150
M = 100 + 0.2Y
(a) संतुलन आय (Y) = \(\overline{\mathrm{C}}\) + c(Y – T)Y + I + G + X – M
= 100 + 0.75 (1-0.2)Y + 500 + 750 + 150 – (100 + 0.2Y)
= 100 + 0.75 (0.8)Y+ 500 +750 + 150-100-0.2Y
= 100 + 0.6Y+ 1300-0.2Y
= 1,400 + 0.4Y
Y – 0.4Y = 1,400
0.6Y = 1,400
Y = 2,333
संतुलन आय = 2,333 उत्तर

(b) बजट घाटा = सरकारी व्यय (G) – कर (T)
= 750 – 20%Y
= 750 – \(\frac { 20 }{ 100 }\) x 2,333
= 750 – 467 = 283 उत्तर

(c) व्यापार घाटा = M – X
= 100+ 0.2Y – X
= 100 + 0.2 x 2,333 – 150
= 100 + 467 – 150
= 417 उत्तर

HBSE 12th Class Economics Solutions Chapter 6 खुली अर्थव्यवस्था : समष्टि अर्थशास्त्र

प्रश्न 19.
उन विनिमय दर व्यवस्थाओं की चर्चा कीजिए, जिन्हें कुछ देशों ने अपने बाह्य खाते में स्थायित्व लाने के लिए प्रयोग किया है।
उत्तर:
निम्नलिखित विनिमय दर व्यवस्थाओं को कई देशों ने अपने बाह्य खाते में स्थायित्व लाने के लिए प्रयोग किया है

स्वर्णमान-स्वर्णमान व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक देश की मुद्रा सोने के मूल्य से संचालित होती है। विनिमय दरों का निर्धारण सोने के रूप में उस मुद्रा के मूल्य के द्वारा होता था।
स्थिर विनिमय दर-स्थिर विनिमय दर व्यवस्था के अंतर्गत देश अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की अनुमति के बिना विनिमय दर में परिवर्तन नहीं कर सकता।
प्रबंधित तिरती कई देशों ने अपने केंद्रीय बैंकों को विनिमय दर नियंत्रित करने के लिए हस्तक्षेप करने की अनुमति दी है।
नम्य विनिमय दर-कई देशों ने स्वतंत्र कीमत प्रणाली का उपयोग किया है।

खुली अर्थव्यवस्था : समष्टि अर्थशास्त्र HBSE 12th Class Economics Notes

→ विनिमय दर-विनिमय दर से अभिप्राय अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाज़ार (अथवा अंतर्राष्ट्रीय विनिमय बाज़ार) में एक करेंसी की अन्य करेंसियों के रूप में कीमत से है। उदाहरण के लिए, यदि 1 अमेरिकी डॉलर को खरीदने के लिए 50 रु० देने पड़ते हैं तो दोनों करेंसियों की विनिमय दर = 50 : 1 होगी।

→ विनिमय दर की प्रणालियाँ-मोटे तौर पर विनिमय दर को निर्धारित करने की दो प्रणालियाँ हैं-6) स्थिर विनिमय दर प्रणाली और (ii) नम्य (लोचशील) विनिमय दर प्रणाली।

→ स्थिर विनिमय दर प्रणाली स्वर्ण विनिमय दर तथा विनिमय दर की समंजनीय सीमा प्रणाली स्थिर विनिमय दर प्रणाली के दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तित रूप हैं। विनिमय दर की समंजनीय सीमा प्रणाली (जिसे ब्रेटन वुडस प्रणाली भी कहते हैं। विनिमय में कछ सीमा तक समंजन की अनमति देती है. यह प्रणाली उतनी कठोर नहीं है जितनी स्वर्ण विनिमय दर प्रणाली।

→ नम्य विनिमय दर का निर्धारण-नम्य विनिमय दर का निर्धारण अंतर्राष्ट्रीय विनिमय बाज़ार में विभिन्न करेंसियों की माँग तथा पूर्ति की कीमतों द्वारा होता है।

→ संतुलित विनिमय दर-संतुलित विनिमय दर तब स्थापित होती है जब विदेशी विनिमय की पूर्ति = विदेशी विनिमय की माँग। विनिमय दर की मिश्रित प्रणालियाँ-विनिमय दर की मिश्रित प्रणालियाँ हैं-(i) विस्तृत सीमापट्टी, (ii) चलित सीमाबंध तथा (ii) प्रबंधित तरणशीलता। विनिमय दर की ये प्रणालियाँ, ‘स्थिर’ तथा ‘नम्य’ विनिमय दरों की दो चरम स्थितियों के बीच है।

→ विस्तृत सीमापट्टी प्रणाली-इस प्रणाली के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाज़ार में दो करेंसियों की ‘समता दर’ के बीच 10 प्रतिशत की कमी या वृद्धि करके अपने भुगतान शेष को ठीक करने की छूट होती है।

→ चलित (परिवर्तनशील) सीमाबंध-यह स्थिर (Fixed) विनिमय दर और नम्य (लचीली) (Flexible) विनिमय दर के बीच का एक समझौता (Compromise) है। इस प्रणाली में एक देश अपनी विनिमय दर घोषित कर उसमें 1 प्रतिशत तक उतार-चढ़ाव कर सकता है। प्रबंधित तरणशीलता-यह स्थिर विनिमय दर और लचीली (नम्य) विनिमय दर के प्रबंध की अंतिम संकर प्रजाति या मिश्रण है जो सरकार द्वारा प्रबंधित या नियंत्रित होती है। इसे प्रबंधित तरणशीलता कहते हैं, परंतु यह नियत दर समय-समय पर जरूरत के अनुसार मौद्रिक अधिकारी द्वारा संशोधित की जाती है।

→ हाज़िर (चालू) बाज़ार-हाज़िर बाज़ार वह बाज़ार है जिसमें विदेशी विनिमय का चालू क्रय-विक्रय होता है। इसमें तात्कालिक विनिमय दर का निर्धारण होता है।

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→ वायदा बाज़ार-वायदा बाज़ार का संबंध विदेशी विनिमय के ऐसे क्रय तथा विक्रय से है जिसमें लेन-देन के प्रपत्रों पर हस्ताक्षर तो आज किए जाते हैं, किंतु यह लेन-देन भविष्य में किसी दिन पूरा होता है। यह भविष्य की विनिमय दर को परिभाषित करता है।

→ भुगतान शेष भुगतान शेष एक देश तथा विश्व के बीच सभी आर्थिक सौदों का संक्षिप्त विवरण है।

→ व्यापार शेष व्यापार शेष दृश्य निर्यात और दृश्य आयात का अंतर है।

→ व्यापार शेष और भुगतान शेष में अंतर व्यापार शेष में केवल दृश्य मदों का रिकॉर्ड होता है। भुगतान शेष में दृश्य तथा अदृश्य मदों के अतिरिक्त पूँजी अंतरण का रिकॉर्ड भी पाया जाता है।

→ स्वप्रेरित तथा समायोजक मदें-स्वायत्त या स्वप्रेरित मदें उन सौदों से संबंधित होती हैं जिनका निर्धारण लाभ को ध्यान में रखकर किया जाता है। समायोजक मदों का निर्धारण लाभ को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता है। इन मदों का ध्येय भुगतान शेष की समानता को पुनः स्थापित करना है।

→ भुगतान शेष में असंतुलन यह असंतुलन बचत वाला भी और घाटे वाला भी हो सकता है।

→ भुगतान शेष में असंतुलन के कारण-(i) आर्थिक कारक, (ii) राजनीतिक कारक और (iii) सामाजिक कारक।

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HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 दीनबन्धुः श्रीनायारः

Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 दीनबन्धुः श्रीनायारः Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 दीनबन्धुः श्रीनायारः

HBSE 12th Class Sanskrit दीनबन्धुः श्रीनायारः Textbook Questions and Answers

1. संस्कृतभाषया उत्तराणि लिखत
(क) श्रीनायारः कुत्र गमनाय इच्छां न प्रकटितवान् ?
(ख) विभागस्य विपक्षे केषाम् अभियोगो नास्ति ?
(ग) श्रीनायारः स्ववेतनस्य अर्धाधिकं भागं कुत्र प्रेषयति स्म ?
(घ) श्रीनायारस्य नेत्रतीराद् विगलिता अश्रुधारा किम् अकरोत् ?
(ङ) बहुदिनेभ्यः स्थगितानां समस्यानां समाधानं कदा जातम् ?
(च) श्रीनायारस्य पार्वे पत्रं कया प्रेषितम् ?
(छ) आश्रमे के लालिताः पालिताश्च भवन्ति ?
(ज) पत्रलेखिका कस्य हस्तयोः अनाथाश्रमं समर्प्य सौप्रस्थानिकीमिच्छति ?
उत्तरम्:
(क) श्रीनायारः स्वराज्यं केरलं प्रति गमनाय इच्छां न प्रकटितवान् ?
(ख) विभागस्य विपक्षे उपभोक्तृणाम् अभियोगो नास्ति ?
(ग) श्रीनायार: स्ववेतनस्य अर्धाधिकं भागं केरलं प्रेषयति स्म ?
(घ) श्रीनायारस्य नेत्रतीराद् विगलिता अश्रुधारा पत्रस्य अर्धाधिकं भागम् आर्द्रम् अकरोत् ?
(ङ) श्रीनायारस्य दायित्वग्रहणस्य एकमासाभ्यन्तरे बहुदिनेभ्यः स्थगितानां समस्यानां समाधानं जातम् ?
(च) श्रीनायारस्य पार्वे पत्रं सुश्री ‘मेरी’ प्रेषितवती।
(छ) आश्रमे अनाथाः शिशवः लालिताः पालिताश्च भवन्ति ?
(ज) पत्रलेखिका श्रीनायारस्य हस्तयोः अनाथाश्रमं समर्प्य सौप्रस्थानिकीमिच्छति ?

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 दीनबन्धुः श्रीनायारः

2. सप्रसङ्गं हिन्दीभाषया व्याख्यां कुरुत
(क) उपभोक्तृणामपि अभियोगो नास्ति विभागस्य विपक्षे
(ख) सर्वे अश्रुलहृदयैः सौप्रस्थानिकी ज्ञापितवन्तः
(ग) त्वया निर्मितोऽयं क्षुद्रोऽनाथाश्रमोऽधुना महाद्रुमेण परिणतः ।
उत्तरम्:
(क) ‘उपभोक्तृणामपि अभियोगो नास्ति विभागस्य विपक्षे’।

प्रसंग:-प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती-द्वितीयो भागः’ के ‘दीनबन्धुःश्रीनायारः’ नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ उड़िया के प्रख्यात साहित्यकार श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा द्वारा रचित ‘पाषाणीकन्या’ नामक कथासंग्रह के संस्कृत अनुवाद से संकलित है। यह संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है।

व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति में दीनबन्धु श्रीनायार की सत्यनिष्ठा एवं कर्तव्यनिष्ठा के फलस्वरूप खाद्य-आपूर्ति विभाग के विरोध में उपभोक्ताओं की ओर से किसी प्रकार के अभियोग न होने का उल्लेख किया गया है।

श्रीनायार एक सत्यनिष्ठ तथा मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी थे। उड़ीसा सरकार के खाद्यआपूर्ति विभाग के सचिव पद को सम्भालते ही इस विभाग का कायाकल्प हो गया। खाद्यान्न में मिलावट या हेरा-फेरी नाममात्र रह गई, अतः श्रीनायार के कार्यकाल में उपभोक्ताओं को विभाग पर किसी प्रकार का अभियोग चलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। श्रीनायार के आने से विभाग की न केवल सक्रियता बढ़ी अपितु ईमानदारी से काम करने का भी वातावरण बना। परिणामतः उपभोक्ता विभाग की कार्यप्रणाली से सन्तुष्ट हुए और कोर्ट-कचहरी के विवादों से विभाग मुक्त हो गया।

इस पंक्ति से श्रीनायार की कर्तव्यनिष्ठ एवं ईमानदारी का संकेत मिलता है।

(ख) सर्वे अश्रुलहृदयैः सौप्रस्थानिकी ज्ञापितवन्तः।

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती द्वितीयो भागः’ के ‘दीनबन्धुःश्रीनायारः’ नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ उड़िया के प्रख्यात साहित्यकार श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा द्वारा रचित ‘पाषाणीकन्या’ नामक कथासंग्रह के संस्कृत अनुवाद से संकलित है। यह संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है।

व्याख्या-‘सभी ने आँसु भरे हृदय से श्रीनायार को विदाई दी’ प्रस्तुतपंक्ति का सम्बन्ध श्रीनायार के जीवन के उस क्षण से है, जब केरल राज्य में श्रीनायार द्वारा स्थापित अनाथ आश्रम की संचालिका सुश्री मेरी ने श्रीनायार को एक पत्र लिखा कि अब उनका अन्तिम समय आ चुका है और उन्हें स्वयं यह आश्रम सँभाल लेना चाहिए।

एक दिन श्रीनायार अपने कार्यालय में बैठे एक पत्र पढ़ रहे थे, उनकी आँखों से अश्रुधारा बह रह थी, जिससे पत्र भी भीग चुका था। उसी क्षण श्रीनायार के क्लर्क श्रीदास का प्रवेश हुआ और उन्होंने श्रीदास को कहा कि अब उनका छुट्टी लेकर चले जाने का समय आ गया है। यदि मुझसे कोई रूखा व्यवहार किसी के साथ अनजाने में हुआ हो तो उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ। श्रीनायार का व्यवहार विभाग के सभी सहकर्मियों के साथ पूर्णतया मानवीय, मित्रतापूर्ण तथा अत्यन्त मधुर था। विभाग के सभी लोग श्रीनायार के स्वभाव और व्यवहार से सन्तुष्ट थे। आज जब श्रीनायार केरल वापस जाने लगे,तो सहकर्मियों के हृदय को चोट पहुँची और न चाहते हुए भी उन्हें भीगी पलकों से विदाई की।

इस पंक्ति से विभाग के लोगों का श्रीनायार के प्रति सच्चा आदर-भाव तथा श्रीनायार की सद्-व्यवहारशीलता प्रकट होती है।

(ग) त्वया निर्मितोऽयं क्षुद्रोऽनाथाश्रमोऽधुना महाद्रुमेण परिणतः।

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शाश्वती द्वितीयो भागः’ के ‘दीनबन्धुःश्रीनायार:’ नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ उड़िया के प्रख्यात साहित्यकार श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा द्वारा रचित ‘पाषाणीकन्या’ नामक कथासंग्रह के संस्कृत अनुवाद से संकलित है। यह संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है।

व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति सुश्री मेरी के उस पत्र की है, जो श्रीनायार के केरल वापस चले जाने के बाद उनके क्लर्क श्रीदास ने खोलकर पढ़ा था।

श्रीनायार ने एक अनाथ आश्रम की स्थापना केरल राज्य में की थी। जिसका संचालन सुश्री मेरी किया करती थी। मेरी अब मृत्यु के निकट थी, अतः उसने श्रीनायार को स्वयं यह अनाथ आश्रम सँभालने तथा अन्तिम क्षणों में श्रीनायार के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की थी। मेरी ने इस पत्र में यह भी बताया था कि यह आश्रम कभी बहुत छोटे रूप में था परन्तु आज यह बहुत बड़े वृक्ष का रूप धारण कर चुका है। अब इसमें सौ से भी अधिक अनाथ शिशु पल रहे हैं। श्रीनायार इसी आश्रम के संचालन के लिए अपने वेतन का आधे से भी अधिक भाग प्रतिमास की एक तारीख को ही मनीआर्डर द्वारा सुश्री मेरी के पास भेज दिया करते थे। इस घटना से श्रीनायार का दीनों के प्रति सच्चा दया-भाव प्रकट होता है। इसीलिए पाठ का नाम भी ‘दीनबन्धु श्रीनायार’ उचित ही दिया गया है।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 दीनबन्धुः श्रीनायारः

3. अधः समस्तपदानां विग्रहाः दत्ताः तानाश्रित्य समस्तपदानि समासनामापि लिखत
(क) कालस्य खण्डः तस्मिन् = कालखण्डे।
षष्ठी-तत्पुरुषः
(ख) कर्मसु नैपुण्यम् = कर्मनैपुण्यम्।
सप्तमी-तत्पुरुषः
(ग) द्वि च त्रि च अनयोः समाहारः, तेषाम् = द्वित्राणाम्।
द्विगुः
(घ) दीर्घः अवकाशः, तम् = दीर्घावकाशम्।
कर्मधारयः
(ङ) धनाय आदेशः, तेन = धनादेशेन।
चतुर्थी-तत्पुरुषः
(च) जीवनस्य प्रदीपः = जीवनप्रदीपः।
षष्ठी-तत्पुरुषः

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 दीनबन्धुः श्रीनायारः

4. रेखाकितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(क) श्रीनायारः स्वल्पभाषी आसीत्।
(ख) वर्षत्रयस्य आकलनात् ज्ञायते यत् विभागस्य कार्यनैपुण्यं दशगुणैः वर्धितम्।
(ग) तस्य राज्येन सह कश्चित् सम्पर्क: नास्ति।
(घ) पत्रस्य अर्धाधिकं भागं अश्रुधारा आर्दीकरोति स्म।
(ङ) श्रीदासः तत्पत्रमुद्घाटितवान्।
(च) भगवान् त्वां दीर्घजीवनं कारयतु।
उत्तरम्:
(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) श्रीनायारः कीदृग्भाषी आसीत् ?
(ख) कस्य आकलनात् ज्ञायते यत् विभागस्य कार्यनैपुण्यं दशगुणैः वर्धितम् ?
(ग) तस्य केन सह कश्चित् सम्पर्कः नास्ति?
(घ) पत्रस्य अर्धाधिकं भागं का आर्दीकरोति स्म?
(ङ) कः तत्पत्रमुद्घाटितवान् ?
(च) भगवान् कं दीर्घजीवनं कारयतु ?

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 दीनबन्धुः श्रीनायारः

5. विपरीतार्थकपदानि मेलयत
(क) आगत्य (क) विस्मृतः
(ख) इच्छाम् (ख) गत्वा
(ग) स्वल्पभाषी (ग) न्यूनीभूतम्
(घ) प्रारभ्य (घ) पक्षे
(ङ) अधिकीभूतम् (ङ) बहुभाषी
(च) विपक्षे (च) समाप्य
(छ) स्मृतः (छ) लघुजीवनम्
(ज) दीर्घजीवनम् (ज) अनिच्छाम्
उत्तरम्:
विपरीतार्थकपदमेलनम्
(क) आगत्य – गत्वा
(ख) इच्छाम् – अनिच्छाम्
(ग) स्वल्पभाषी – बहुभाषी
(घ) प्रारभ्य – समाप्य
(ङ) अधिकीभूतम् – न्यूनीभूतम्
(च) विपक्षे – पक्षे
(छ) स्मृतः – विस्मृतः
(ज) दीर्घजीवनम् – लघुजीवनम्

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 दीनबन्धुः श्रीनायारः

6. अधोलिखितानां विशेष्यपदानां विशेषणपदानि पाठात् चित्वा लिखत
वार्तालापः, वर्षत्रयस्य, अश्रुधारा, समस्यानाम्, व्यवहारः, पत्रम्, शिशवः ।
उत्तरम्:

विशेषणपदम्विशेष्यपदम
सन्तुलित:वार्तालाप:
गतस्यवर्षत्र्यस्य
विगलिताअश्रुधारा
स्थगितानाम्समस्यानाम्
रूक्ष:व्यवहारः
पूर्वतनम्पत्रम्
शताधिका:शिशव:

7. अधोलिखितेषु पदेषु प्रकृतिप्रत्ययविभागं कुरुत
समाप्य, जातम्, त्यक्त्वा, धृत्वा, पठन्, संपोष्य।
उत्तरम्

प्रकृति:प्रत्यय:
(क) समाप्यसम् + √आप्ल्यप्
(ख) जातम्√जन्क्त
(ग) त्यक्त्वा√त्यज्क्त्वा
(घ) धृत्वा√धृक्त्वा
(ङ) पठन्√पठ्शतृ
(च) संपोष्यसम् + √पुष्ल्यप्

योग्यताविस्तारः

1. प्रस्तुतकथायाः मूललेखक: श्रीचन्द्रशेखरदासवर्मा ओडियासाहित्यक्षेत्रे लब्धप्रतिष्ठः कथाकारो वर्तते। अस्य जन्म 1945 तमे ईशवीयसंवत्सरे अभवत्। अस्य द्वादशकथाग्रन्थाः, एक: नाट्यसङ्ग्रहः त्रयः समीक्षा-ग्रन्थाश्च प्रकाशिताः सन्ति। पाषणीकन्या वोमा च श्रीवर्मणः प्रसिद्धौ कथासंग्रहौ स्तः । ‘दीनबन्धुः श्रीनायारः’ इति कथा पाषणीकन्या इति कथासंग्रहात् संकलिता।

2. भारतस्य प्रदेशा:-भारतवर्षे अष्टाविंशति-प्रदेशाः वर्तन्ते। षट् केन्द्रशासितप्रदेशाः सन्ति।

3. अत्रत्याः जनाः विविधभाषाभाषिणः सन्तिः । हिन्दीम् आङ्ग्लभाषां च अतिरिच्य मलयालम-तमिल-उडिया-बङ्गला गुजराती-मराठी-कोंकणी-कन्नड-असमिया-पञ्जाबी भाषाः अत्रत्याः जनाः वदन्ति।

4. पत्रलेखनं साहित्ये प्रसिद्धा विधा वर्तते प्रस्तुतपाठे समागतं पत्रम् अवलोक्य स्वकीयान् विचारान् लिखत।

HBSE 12th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 दीनबन्धुः श्रीनायारः

HBSE 9th Class Sanskrit दीनबन्धुः श्रीनायारः Important Questions and Answers

I. पुस्तकानुसारं समुचितम् उत्तरं चित्वा लिखत
(i) आश्रमे के लालिताः पालिताश्च भवन्ति ?
(A) वृद्धाः
(B) स्त्रियः
(C) शिशवः
(D) अनाथशिशवः।
उत्तराणि:
(D) अनाथशिशवः

(ii) पत्रलेखिका कस्य हस्तयोः अनाथाश्रमं समर्प्य सौप्रास्थानिकीमिच्छति ?
(A) पुत्रस्य
(B) श्रीदासस्य
(C) श्रीनायारस्य
(D) सर्वकारस्य।
उत्तराणि:
(C) श्रीनायारस्य

(iii) श्रीनायार: कुत्र गमनाय इच्छां न प्रकटितवान् ?
(A) दिल्लीम्
(B) केरलम्
(C) कोलकातानगरम्
(D) महाराष्ट्रम्।
उत्तराणि:
(B) केरलम्

(v) विभागस्य विपक्षे केषाम् अभियोगो नास्ति ?
(A) उपभोक्तृणाम्
(B) अधिकारिणाम्
(C) कर्मचारिणाम्
(D) मन्त्रिणाम्।
उत्तराणि:
(A) उपभोक्तृणाम्

(v) श्रीनायार: स्ववेतनस्य अर्धाधिकं भागं कुत्र प्रेषयति स्म ?
(A) कानपुरम्
(B) पूनानगरम्
(C) मद्रासम्
(D) केरलम्।
उत्तराणि:
(A) केरलम्।

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II. रेखाङ्कितपदम् आधृत्य प्रश्ननिर्माणाय समुचितं पदं चित्वा लिखत
(i) श्रीनायारः स्वल्पभाषी आसीत्।
(A) कः
(B) कीदृशः
(C) कथम्
(D) किया।
उत्तराणि
(B) कीदृशः

(ii) वर्षत्रयस्य आकलनात् ज्ञायते यत् विभागस्य कार्यनैपुण्यं दशगुणैः वर्धितम्।
(A) कस्य
(B) केन
(C) कति
(D) कस्मात्।
उत्तराणि
(A) कस्य

(iii) तस्य राज्येन सह कश्चित् सम्पर्क: नास्ति।
(A) काः
(B) केन
(C) कम्
(D) कस्मै।
उत्तराणि
(B) केन

(iv) पत्रस्य अर्धाधिकं भागम् अश्रुधारा आर्दीकरोति स्म।
(A) कया
(B) कान्
(C) कथम्
(D) का।
उत्तराणि
(D) का

(v) श्रीदासः तत्पत्रमुद्घाटितवान्।
(A) कः
(B) काभ्याम्
(C) कस्याः
(D) कस्याम्।
उत्तराणि
(A) कः

(vi) भगवान् त्वां दीर्घजीवनं कारयतु।
(A) कः
(B) कम्
(C) कस्याः
(D) कस्याम्।
उत्तराणि
(B) कम्।

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दीनबन्धुः श्रीनायारः पाठ्यांशः

1.श्रीनायारः केन्द्रसर्वकारतः स्थानान्तरणेन आगत्य ओडिशासर्वकारस्य अधीने प्रायः वर्षत्रयेभ्यः कार्यं करोति। तथाप्यस्मिन् वर्षत्रयात्मके कालखण्डे एकवारमपि स्वराज्यं केरलं प्रति गमनाय इच्छां न प्रकटितवान्। स स्वल्पभाषी, अतस्तस्य मनःकथा मनोव्यथा वा बोधगम्या नास्ति। सन्तुलितो वार्तालापः, साक्षात्समये आगमनम्, ततः सञ्चिकासु मनोनिवेशः, कार्य समाप्य स्वगृहं प्रत्यागमनञ्च तस्य वैशिष्ट्यमासीत्। तस्य कर्मनैपुण्यं दृष्ट्वा एव ओडिशासर्वकारस्तं स्थानान्तरणेन स्वीकृत्य खाद्यपूर्तिविभागे सचिवपदे नियुक्तवान्। गतस्य वर्षत्रयस्य आकलनात् ज्ञायते यद विभागस्य कार्यनैपुण्यं दशगुणैः वर्धितम्।खाद्ये अपमिश्रणं न्यूनीभूतम्। अत उपभोक्तृणामपि अभियोगो नास्ति विभागस्य विपक्षे मन्त्रिणां मध्येऽपि तस्य सुख्यातिः वर्तते

हिन्दी-अनुवादः श्रीनायार केन्द्र सरकार से स्थानान्तरित होकर उड़ीसा सरकार के अधीन प्रायः तीन वर्ष तक कार्य करता है। तो भी (उसने) इस तीन वर्ष के कालखण्ड में एक बार भी अपने राज्य केरल की ओर जाने की इच्छा प्रकट नहीं की। वह बहुत कम बोलने वाला है, इसीलिए उसके मन की बात या मन की पीड़ा नहीं जानी जा सकती है। सन्तुलित वार्तालाप, ठीक समय पर पहुँचना, फिर रजिस्टरों में मन लगाए रखना और कार्य समाप्त कर अपने घर वापिस लौटना उसकी विशेषता थी। उसकी कार्यनिपुणता देखकर ही उड़ीसा सरकार ने उसका स्थानान्तरण स्वीकार कर उसे खाद्य-आपूर्तिविभाग में सचिव पद पर नियुक्त कर दिया था। पिछले तीन वर्ष के आकलन से पता चलता है कि विभाग की कार्यनिपुणता दस गुणा बढ़ गई है। खाद्य सामग्री में मिलावट कम हो गई है। अत: उपभोक्ताओं का भी विभाग के विरोध में (कोई) अभियोग (मुकद्दमा) नहीं है। मन्त्रियों के बीच में भी उसकी अच्छी ख्याति है।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च
तथाप्यस्मिन् = तब भी इसमें। (तथापि + अस्मिन) बोधगम्या = बोध (ज्ञान) के द्वारा गम्य, जानने योग्य; बोधेन गम्या। मनोनिवेशः = दत्तचित्त होना ; मनसः निवेशः, षष्ठी तत्पुरुष समास । प्रत्यागमनम् = वापिस लौटना; प्रति + आङ् + √गम् + ल्युट्। कर्मनैपुण्यम् = कर्मों में निपुणता; कर्मसु नैपुण्यम्, सप्तमी तत्पुरुष। स्वीकृत्य = स्वीकार करके; स्वी + √कृ + ल्यप्। अपमिश्रणम् = मिलावट; अप + √मिश् + ल्युट् > अन । अनुमीयते = अनुमान किया जाता है; अनु + √मा + लट् प्रथम पुरुष एकवचन। न्यूनीभूतम् = कम हो गया; न्यून + च्वी + √भू + क्त। अभियोगः = मुकद्दमा।

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2. श्रीनायारस्य दायित्वग्रहणस्य एकमासाभ्यन्तरे बहुदिनेभ्यः स्थगितानां विविध समस्यानामपि समाधानं जातम्। स्वकार्यं त्यक्त्वा अपरस्य सहकारस्तस्य परमधर्मः। सः प्रतिमासं प्रथमदिवसे स्ववेतनस्य अर्धाधिकं भागं केरलं प्रेषयति स्म तेनानुमीयते तस्य राज्येन सह अस्ति कश्चित् सम्पर्कः। कानिचन मलयालमभाषायाः संवादपत्राणि अतिरिच्य कदापि तस्य नाम्ना किमपि पत्रमागतमिति कोऽपि कदापि न जानाति।

हिन्दी-अनुवादः श्रीनायार के दायित्व (पदभार) ग्रहण करने के एक महीने के अन्दर बहुत दिनों से स्थगित अनेक समस्याओं का भी समाधान हो गया। अपना कार्य छोड़कर दूसरों का सहयोग करना उसका परम धर्म है। वह प्रतिमास के पहले दिन अपने वेतन का आधे से अधिक भाग केरल भेज देता था। इसी से पता चलता है कि उसका राज्य के साथ कोई सम्पर्क है। कुछ मलियालम भाषा के संवाद पत्रों को छोड़कर कभी उसके नाम से कोई पत्र आया है, इसे कभी कोई नहीं जानता।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च सहकारः = सहायता। अर्धाधिकम् = आधे से अधिक। प्रतिमासम् = हर महीने; मासे मासे प्रतिमासम् (अव्ययीभाव समास)। अतिरिच्य = अतिरिक्त; अति + √रिच् + ल्यप्।
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3. एकस्मिन् दिने श्रीनायारः पत्रमेकं धृत्वा मस्तकमवनमय्य पठन् आसीत्। नेत्रतीराद् विगलिता अश्रुधारा आर्दीकरोति स्म पत्रस्य अर्धाधिकं भागम्। तदानीमेव तस्य कार्यालयलिपिकः श्रीदासः प्रविशति। श्रीनायारः तमुक्तवान्-“अधुना मम गमनसमयः समुपागत एव। मम दायित्वहस्तान्तरणपत्रकं सजीकुरु।अहमधुना द्वित्राणां दिवसानां सकारणावकाशं स्वीकरिष्यामि। पुनः तदनु स्वीकरिष्यामि दीर्घावकाशम्। यदि कस्मैचिद् अज्ञातेन मया रूक्षो व्यवहारः प्रदर्शितः स्यात्, तदर्थं ते मह्यमुदारचित्तेन क्षमा प्रदास्यन्ति इति सर्वेभ्यो निवेदयतु”। अनन्तरं सर्वे अश्रुलहृदयैः सौप्रस्थानिकी ज्ञापितवन्तः।

हिन्दी-अनुवादः एक दिन श्रीनायार एक पत्र (हाथ में) पकड़कर मस्तक झुकाकर पढ़ रहा था। आँख के किनारे से गिरी हुई आश्रुधारा ने पत्र का आधे से भी अधिक भाग गीला कर दिया था। तभी उसके कार्यालय का लिपिक (क्लर्क) श्रीदास प्रवेश करता है। श्रीनायार ने उससे कहा-“अब मेरे जाने का समय समीप आ गया है। मेरा दायित्व-हस्तान्तरण पत्र (किसी दूसरे

दीनबन्धुः श्रीनायारः को पदभार सौंपने का पत्र) तैयार करो। अब मैं दो-तीन दिन का सकारण-अवकाश लूँगा (स्वीकार करूँगा)। फिर उसके बाद लम्बी छुट्टी लूँगा। यदि किसी के लिए अनजाने में मुझसे रूखा व्यवहार किया गया हो, तो उसके लिए वे मुझे उदारभाव से क्षमा देंगे-ऐसा सबसे निवेदन करो।” इसके बाद सभी ने आँसू भरे हृदय से विदाई दी।

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च विगलिता = निकली हुई ; वि + √गिल् + क्त + टाप् + । अवनमय्य = झुकाकर ; अव + √नम् + ल्यप्। दायित्वहस्तान्तरणम् = दूसरे को प्रभार हस्तगत कराना। सज्जीकुरु = तैयार करो ; √सज्ज् + च्चि + √कृ + लोट् + मध्यम पुरुष एकवचन। सौप्रस्थानिकी = विदाई।

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4. तस्य गमनस्य दिवसत्रयात्परं कार्यालये पत्रमेकमागतम्। कौतूहलवशात् श्रीदासः तत्पत्रमुद्घाटितवान्। लेखिका आसीत् सुश्री मेरी यस्याः पार्वे सः प्रतिमासमर्धाधिकं धनं धनादेशेन प्रेषयति स्म। पत्रे एवं लिखितमासीत्….. श्रीनायार !

भगवान् यीशुस्तव मङ्गलं वितनोतु। मम पूर्वतनं पत्रं त्वया प्राप्तं स्यात्। तव समीपे इदं मम शेषपत्रम्। यतो हि मम जीवनप्रदीपो निर्वापितो भवितुमिच्छति। प्रायस्तवागमनसमये अहं न स्थास्यामि। पूर्वपत्रे अहमाश्रमस्य सर्वविधमायव्ययाकलनं प्रेषितवती। केवलं यीशोः समीपे गमनात्पूर्वं तव दर्शनमिच्छामि। प्रथमं त्वया निर्मितोऽनाथाश्रमोऽधुना महाद्रुमेण परिणतः। अधुनात्र शताधिका अनाथशिशवो लालिता: पालिताश्च भवन्ति। तव हस्तयोस्तव अनाथाश्रमं समर्प्य अहं सौप्रस्थानिकीमिच्छामि। अद्य समाजस्त्वत्तो बहु किमपि इच्छति यौ कौ वां तव पितरौ भवतां नाम, तौ धन्यवादाही। कदाचित्ताभ्यां त्वं विस्मृतः स्यात् त्वमवश्यमेतान् शिशून् संपोष्य उत्तममनुष्यान् कारयिष्यसीति मम कामना वर्तते। प्रभुः त्वत्त इमामेवाशां पोषयति। यो जन्म दत्तवान्, स जीवितुमधिकारमपि दत्तवान्। भगवान् त्वां दीर्घजीवनं कारयतु। इति ॥
तव शुभाकाक्षिणी
सुश्री: मेरी

हिन्दी अनुवादः
उनके जाने के तीन दिन के पश्चात् कार्यालय में एक पत्र आया। जिज्ञासावश श्रीदास ने वह पत्र खोला। लेखिका थी सुश्री मेरी, जिसके पास वह प्रतिमास आधे से अधिक धन मनीआर्डर द्वारा भेजता था। पत्र में लिखा था श्रीनायार!

भगवान् यीशु तुम्हारा मंगल करें। मेरा पहला पत्र तुम्हें मिला होगा। तुम्हारे पास यह मेरा शेष पत्र है। क्योंकि मेरा जीवन-दीप बुझ जाना चाहता है। शायद तुम्हारे आने तक मैं न रहूँ। पिछले पत्र में मैंने आश्रम का सारा आय-व्यय चिट्ठा भेज दिया था। केवल यीशु के पास जाने से पहले तुम्हारा दर्शन करना चाहती हूँ। पहले तुम्हारे द्वारा निर्मित अनाथ आश्रम अब बड़े भारी वृक्ष में बदल गया है। अब यहाँ सौ से भी अधिक अनाथ शिशु लालित और पालित हो रहे हैं। तुम्हारे हाथों में तुम्हारा अनाथ आश्रम सौंपकर अब विदाई चाहती हूँ। आज समाज तुम से बहुत कुछ चाहता है। जो कोई भी तुम्हारे माता-पिता हैं, वे धन्यवाद के पात्र हैं। किसी कारणवश उन्होंने तुम्हें भुला दिया होगा, तुम अवश्य ही इन शिशुओं को पाल-पोसकर उत्तम मनुष्य बनाओगे, यह मेरा कामना है। प्रभु तुमसे यही आशा रखते हैं। जिसने जन्म दिया है, उसी ने जीने का अधिकार भी दिया है। भगवान् तुम्हें दीर्घजीवी करें।
तुम्हारी शुभेच्छु,
सुश्री मेरी

शब्दार्थाः टिप्पण्यश्च धनादेशेन = मनिआर्डर से; धनाय आदेशः तेन (चतुर्थी-तत्पुरुष) वितनोतु = करे, विस्तार करे; वि + √तन् + लोट्, प्रथम पुरुष, एकवचन। पूर्वतनम् = पहला निर्वापितः = शान्त, बुझा हुआ; निर् + √वप् (णिच्) + क्त। परिणतः = परिवर्तित हो गया, बदल गया; परि + √निम् + क्त। आयव्ययाकलनम् = आय व्यय का विवरण। पितरौ = माता-पिता; माता च पिता च (द्वन्द्व समास)

दीनबन्धुः श्रीनायारः (दीनबन्धु श्रीनायार) Summary in Hindi

दीनबन्धुः श्रीनायारः पाठ परिचय

श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा उड़िया भाषा के प्रख्यात साहित्यकार हैं। इनका जन्म 1945 ईस्वी में हुआ। इनके 12 कथासंग्रह, एक नाट्यसंग्रह तथा तीन समीक्षा-ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘पाषणी-कन्या’ तथा ‘वोमा’ इनके प्रसिद्ध कथा संग्रह हैं। ‘पाषणीकन्या’ कथासंग्रह का संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है। इसी कथासंग्रह से ‘दीनबन्धुः श्रीनायारः’ शीर्षक कथा पाठ्यांश के रूप में संकलित है। – इस कथा के नाटक श्रीनायार का पालन-पोषण एक अनाथाश्रम में हुआ है। श्रीनायार ने अपनी कर्मदक्षता, दाक्षिण्य और सेवामनोवृत्ति से समाज में आदर्श स्थापित किया है। वे प्रतिमास अपने वेतन का आधे से अधिक भाग केरल में स्थापित अनाथाश्रम को भेजते हैं। प्रस्तुत कथा में श्रीनायार का लोककल्याणकारी आदर्श चरित्र वर्णित है।

दीनबन्धुः श्रीनायारः पाठस्य सारः

प्रस्तुत पाठ ‘दीनबन्धुःश्रीनायार:’ उड़िया भाषा के सुविख्यात साहित्यकार श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा द्वारा रचित ‘पाषाणीकन्या’ नामक कथा संग्रह से संकलित है। यह संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायणदास ने किया है। प्रस्तुत कथा के नायक श्रीनायार हैं। श्रीनायार स्वभाव से कर्मनिष्ठ, सत्यनिष्ठ, सेवानिष्ठ तथा परोपकारनिष्ठ महामानव हैं। श्रीनायार का पालनपोषण किसी अनाथ आश्रम में हुआ है। बड़े होकर श्रीनायार ने भी एक अनाथ आश्रम की स्थापना की है, जिसके खर्च में योगदान के लिए वे प्रतिमास अपने वेतन का आधे से भी अधिक भाग मनीआर्डर से भेज देते हैं। कथा का सारांश इस प्रकार है

श्रीनायार केन्द्र सरकार से स्थानान्तरित होकर उड़ीसा सरकार के अधीन कार्यरत हैं। श्रीनायार को कार्य करते हुए तीन वर्ष हो चुके हैं परन्तु इस बीच उन्होंने कभी भी अपने राज्य केरल जाने की इच्छा प्रकट नहीं की। वे उड़ीसा सरकार के खाद्य आपूर्ति विभाग में सचिव पद पर नियुक्त हैं। श्रीनायार की ईमानदारी और कर्मनिष्ठा से इस विभाग की कार्यनिपुणता दस गुणा बढ़ गई है। खाद्य सामग्री में मिलावट नाम मात्र रह गई है। उपभोक्ता पूरी तरह सन्तुष्ट हैं इसीलिए न्यायालय में विभाग के विरुद्ध कोई मुकद्दमा भी नहीं है। – श्रीनायार अपने अधीन कार्य करने वाले कर्मचारियों के साथ बड़े प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हैं। वे थोड़ा बोलते हैं और

अपने कार्य में लगे रहते हैं। हर महीने के पहले दिन वे अपने वेतन का आधे से अधिक भाग मनीआर्डर द्वारा भेज देते हैं। जिससे अनुमान होता है कि केरल के साथ इनका कोई संबंध है। कभी-कभी मलयालम भाषा में कोई पत्र आ जाता है। इस पत्र के अतिरिक्त कभी अन्य कोई पत्र श्रीनायार के पास नहीं आता। अचानक एक दिन विचित्र घटना घटती है कि श्रीनायार के हाथ में एक पत्र है। वे उसे पढ़ रहे हैं और उनकी आँखों से टपकते आँसुओं से पत्र भीगा जा रहा है। तभी एक क्लर्क श्रीदास का प्रवेश होता है। श्रीनायार उसे ‘दायित्व हस्तांतरण पत्र’ तैयार करने के लिए कहते हैं और उसे यह भी बताते हैं कि मेरे वापस लौट जाने का समय आ गया है। यदि किसी के साथ अनजाने में कोई दुर्व्यवहार हुआ हो तो मेरी ओर से क्षमायाचना कर लेना। इसके बाद विभाग के सभी कर्मचारियों ने श्रीनायार को भावभीनी विदाई दी।

श्रीनायार को केरल गए हुए तीन दिन बीत गए हैं। कार्यालय में एक पत्र आता है क्लर्क श्रीदास उत्सुकतावश पत्र खोलता है, जिसकी लेखिका सुश्री मेरी हैं। जिनके पास श्रीनायार प्रतिमास धनादेश भेजते थे। सुश्री मेरी ने पत्र में श्रीनायार को संबोधित करते हुए लिखा था कि उसका जीवनदीप बुझने वाला है। तुम्हारे द्वारा स्थापित अनाथ आश्रम अब बहुत बड़ा वृक्ष बन गया है, जिसमें सौ से अधिक अनाथ बच्चे पल रहे हैं। यह तुम्हारा आश्रम तुम्हारे हाथों में सौंप कर वह भगवान् यीशू की शरण में जाना चाहती है। इस कथा में श्रीनायार के सेवा भाव उदारता तथा कर्मनिष्ठा को बहुत ही सुन्दर शैली में चित्रित किया गया है।

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