HBSE 12th Class Sanskrit व्याकरणम् संस्कृतसाहित्यस्य-इतिहासः

Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions व्याकरणम् Sanskrit Sahitya Itihas संस्कृतसाहित्यस्य-इतिहासः Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sanskrit व्याकरणम् संस्कृतसाहित्यस्य-इतिहासः

1. महर्षि वाल्मीकि (रामायणम्)
रामायण के लेखक महर्षि वाल्मीकि संस्कृत साहित्य के आदि कवि हैं और उनका ‘रामायण’ महाकाव्य आदि काव्य माना जाता है। रामायण के रचयिता वाल्मीकि ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। वाल्मीकि के इस प्रथम अलंकृत काव्य ने परवर्ती समस्त भारतीय कवियों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया है। रामायण एक ऐसा महाकाव्य है जिस पर भारत की साहित्यिक परम्परा को गर्व होना उचित ही है। रामायण ने भारतीय जनता पर अत्यधिक प्रभाव डाला है। रामायण के जीवन आदर्श और शिक्षाएँ भारतीय समाज में गहराई से व्याप्त हैं।

कला, साहित्य और दैनिक व्यवहार के सम्बन्ध में वाल्मीकि ऋषि का यह महाकाव्य आदि स्रोत का कार्य करता है। रामायण को हम इतिहास काव्य कह सकते हैं। राम के कार्य, सीता के कार्य, सीता का पतिव्रत धर्म, हनुमान के आश्चर्यजनक कार्य एवं अलौकिक शक्ति से सम्पन्न राक्षसों ने समस्त भारतीय जनता को प्रभावित किया है। नाटककार और कवि बहुधा अपने कथानकों के लिए रामायण का आश्रय लेते हैं। अनेक कवियों ने वाल्मीकि से आकृष्ट होकर उनकी शैली का भी अनुकरण किया है। कविकुलगुरू महाकवि कालिदास अपने ‘रघुवंश काव्य’ में वाल्मीकि को अपना गुरु स्वीकार करते हैं।

वाल्मीकि के सम्बन्ध में एक कथा प्रसिद्ध है। एक बार वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वहीं पर क्रौंच और क्रौंची ‘पक्षी का कामातुर जोड़ा विहार कर रहा था। इसी बीच एक व्याध आया और उसने अपने बाण से क्रौंच को मार डाला। क्रौंची पृथ्वी पर छटपटाते हुए अपने सहचर को देखकर करुण क्रन्दन करने लगी। यह दृश्य देखकर वाल्मीकि का हृदय करुणा और शोक से भर गया और उनके मुख से अनायास निम्न पद्य (श्लोक) निकल पड़ा

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती: समाः।
यत् कौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

वाल्मीकि को अपने इस वचन में एक विशेष संगीत और लय का आभास हुआ। वे बार-बार इस पद्य को दोहराने लगे। बाद में इसी पद्य के अनुष्टुप् छन्द के आधार पर उन्होंने रामायण की रचना की। वाल्मीकि का शोक श्लोक बन गया। यह छन्द लौकिक संस्कृत का एक प्रसिद्ध छन्द बना और अनुष्टुप् अथवा श्लोक छन्द के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

रामायण का रचनाकाल 500 वर्ष ई० पू० माना जाता है। यह ग्रन्थ बाल काण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्य काण्ड, किष्किन्धा काण्ड, सुन्दर काण्ड, युद्ध काण्ड और उत्तर काण्ड इन सात काण्डों में विभक्त है। इनमें चौबीस हज़ार श्लोक • हैं कवि ने राम की कथा को आधार बनाकर आदर्श पुत्र, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श पत्नी और आदर्श सेवक का चरित्र प्रस्तुत किया है। वास्तव में वाल्मीकि रामायण के विषय में यह कथन पूर्ण सत्य है

यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्चे महीतले।
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति॥

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2. महर्षि वेदव्यास (महाभारतम्)
महषि वेदव्यास ‘महाभारत’ ग्रन्थ के प्रणेता हैं। परम्परा के अनुसार पाराशर और मत्स्यगन्धा के पुत्र कृष्णद्वैपायन व्यास महर्षि वेदव्यास के नाम से जाने जाते हैं। यह महर्षि व्यास पराशर्य, वेदव्यास, कृष्णद्वैपायन, सत्यवती सुत इत्यादि नामों से प्रसिद्ध हैं। उनके पिता महर्षि पाराशर और माता सरस्वती नाम की परम विदुषी देवी थी। यह वेदव्यास महाभारत के युद्धकाल में विद्यमान थे, ऐसा महाभारत के अध्ययन से ज्ञात होता है जैसा कि कहा गया है

तपसा ब्रह्मचर्येण यस्य वेदं सनातन्।
इतिहासमिमं चक्रे पुण्यं सत्यवती सुतः॥

महाभारत के आरंभ में ही यह संकेत मिलता है कि आदि महाभारत में 8800 श्लोक थे, वास्तव में यही वेदव्यास की कृति थी, जिसमें मूल रूप से कौरवों और पाण्डवों के युद्ध का वर्णन था, जो कि ‘जय’ के नाम से प्रसिद्ध था। उनके शिष्य वैशम्पायन ने जब इसे अर्जुन के प्रपौत्र राजा जनमेजय को उनके नाम यज्ञ के अवसर पर सुनाया तो इसमें 24 हज़ार श्लोक थे और इसका नाम ‘भारत’ था। तदनन्तर तब सौति ने इसे नैमिषारण्य में ऋषियों को सुनाया तो इसमें लगभग अस्सी हज़ार श्लोक थे और इसका नाम ‘महाभारत’ हो गया। इसके बाद हरिवंश पुराण भी इसमें मिला दिया गया और इस प्रकार इसकी श्लोक संख्या एक लाख हो गई। महाभारत में यह घोषणा गर्व पूर्वक की गई है

‘धर्म चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्॥

भारतीय चिन्तन पद्धति का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ ‘भगवगद्गीता’ महाभारत का ही एक अंश है। महाभारत में 18 पर्व हैं। यह पद्यबद्ध रचना है, किन्तु गद्य का भी कहीं-कहीं प्रयोग हुआ है। इसमें भारत के आदर्शों की अमूल्य निधि संचित है।

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3. भास एव उनकी रचनाएँ
महान् नाटककार भास का नाम कालिदास आदि अनेक कवियों ने अपनी रचनाओं में बड़े आदर के साथ लिया है। ऐसी प्रशस्तियों से जहाँ भास कि विद्वत्ता और उनकी नाट्यप्रवीणता को गौरव प्राप्त होता है, वहीं यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि भास कालिदास के पूर्ववर्ती कवि हैं। विद्वानों ने भास का स्थितिकाल ईसापूर्व चतुर्थ या पंचम शताब्दी स्वीकार किया है। 1909 ई० में पं० टी० गणपति शास्त्री ने भास द्वारा रचित 13 नाटकों की खोज की थी, जिन्हें गणपति शास्त्री ने ही 1918 ई० में त्रिवेन्द्रम् से पहली बार प्रकाशित करवाया था।

भास के नाटकों की अपनी कुछ मूलभूत विशेषताएँ हैं। भास की भाषा सरल तथा सुबोध है, इनके नाटकों के संवाद सशक्त तथा प्रभावपूर्ण हैं । इनकी भाषा में ओज, प्रसाद तथा माधुर्य तीनों गुणों का समावेश है। भास के लिए भाव संप्रेषण ही एकमात्र महत्त्वपूर्ण है, अत: उनकी भाषा सहजगम्य है और अनावश्यक रूप से किसी भी प्रकार से बोझिल नहीं है। इनके सभी नाटक प्राचीन काल से ही नाट्यमञ्चों पर बड़े प्रभावपूर्ण ढंग से अभिनय किए जाते रहे हैं- यह अभिनेयता इनके नाटकों की अद्वितीय विशेषता है। इनके नाटकों का मुख्य रस वीर है जो श्रृंगार आदि दूसरे रसों से सम्मिश्रित है। प्रकृति के कोमल रूप का इन्होंने बड़ा ही स्वाभाविक चित्रण अपने नाटकों में किया है। इनकी सभी तेरह रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है

भास के नाटकों का संक्षिप्त परिचय

1. दूतवाक्यम्-एक एकांकी नाटक है, जिसमें महाभारत के युद्ध से पूर्व श्री कृष्ण का पांडवों की ओर से सन्धि प्रस्ताव लेकर दुर्योधन की सभा में दूत के रूप में जाने का वर्णन है।
2. मध्यमव्यायोगः- इसमें भीमसेन द्वारा राक्षस से एक ब्राह्मण के बिचले (मध्यम) पुत्र की रक्षा का वर्णन है। एकांकी है।
3. दूतघटोत्कचम्- इसमें अभिमन्यु की मृत्यु के पश्चात् श्री कृष्ण घटोत्कच को दूत बनाकर धृतराष्ट्र के पास भेजते हैं। परन्तु दुर्योधन द्वारा उसका अपमान होता है। यह इतिवृत्त कवि कल्पना पर आश्रित एकांकी है।
4. कर्णभारम्-यह एकांकी नाटक है, जिसमें कर्ण का ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र को कवच और कुण्डल देने का वर्णन
5. उरुभंगम्-इस एकांकी में भीम तथा दुर्योधन के गदा युद्ध का और अन्त में भीम द्वारा दुर्योधन की जंघा को भंग करके मारने का वर्णन है।
6. पञ्चरात्रम्-इसमें 3 अंक हैं। इसमें कवि ने महाभारत की कथा का कल्पित रूप दे दिया है। यज्ञ की समाप्ति पर द्रोणाचार्य से दक्षिणा रूप में यह मांगा कि पांडवों को आधा राज्य पाँच रात में मिल जाए तो मैं आधा राज्य दे दूंगा। ऐसा दुर्योधन के मान लेने पर द्रोण के प्रयत्न से विराट नगर में पांडवों का पता चल गया और उन्हें आधा राज्य दे दिया गया।
7. बालचरितम्-इसमें 5 अंक हैं। इसमें श्रीकृष्ण के जन्म से कंस वध तक की कथा का वर्णन है।
8. प्रतिमानटकम्-इसमें 7 अंक हैं। इसमें राम के वनवास गमन से लेकर रावण वध तक की कथा का वर्णन है। इधर अपने ननिहाल से अयोध्या लौटने पर भरत को नगर के बाहर देवकुल में दशरथ की प्रतिमा देख कर उनकी मृत्यु का अनुमान हो जाता है। इसी प्रतिमा की घटना के कारण इस नाटक का नाम प्रतिमानाटकम् पड़ा है।
9. अभिषेकनाटकम्- इसमें 6 अंक हैं। इसमें किष्किन्धा, सुन्दरकांड तथा युद्धकांड की कथा के उपरान्त राम के राज्याभिषेक का वर्णन किया गया है।
10. प्रतिज्ञायौगन्धरायणम-इसमें 4 अंक हैं। इसमें कौशाम्बी की राजा उदयन का वर्णन है, जो अवन्तिराज महासेन द्वारा छल से कैद कर लिया जाता है। फिर उसकी कन्या वासवदत्ता को वीणा की शिक्षा देते समय उससे प्रेम हो जाता है। अपने मन्त्री यौगन्धरायण की सहायता से उदयन वासवदत्ता को लेकर उज्जयिनी को भाग निकलता है।
11. स्वप्नवासवदत्तम्-इसमें 6 अंक हैं। यह प्रतिज्ञायौगन्धरायण की कथा का उत्तरार्द्ध है। यौगन्धरायण की नीति के फलस्वरूप वासवदत्ता के अग्नि में भस्म हो जाने की अफवाह फैला कर उदयन के मगधराज दर्शक की बहन पद्मावती से विवाह तथा अपहत राज्य के पुनर्मिलन का वर्णन है। पद्मावती के घर में सोया हुआ उदयन स्वप्न में वासवदत्ता को देखता है। अन्त में, वह स्वप्न यथार्थ हो जाता है। इसी घटना पर इसका नाम स्वप्नवासवदत्तम् पड़ा है।
12. अविमारकम्- इसमें 6 अंक हैं। इसमें राजकुमार अविमारक का कुन्तिभोज की पुत्री कुरंगी के साथ प्रणयविवाह का वर्णन है।
13. चारुदत्तम्-इसमें केवल 4 अंक हैं। इसमें निर्धन किन्तु उदारचेता ब्राह्मण चारुदत्त और वसन्त सेना नाम की वेश्या के प्रणय सम्बन्ध का वर्णन हैं। यह नाटक अपूर्ण प्रतीत होता है।इन 13 नाटकों के अतिरिक्त कुछ विद्वान् वीणावासवदत्ता तथा यज्ञललम् को भी भासकृत मानते हैं। परन्तु इसके लिए कोई पुष्टप्रमाण नहीं हैं।
सम्भव है भासरचित अन्य नाटक भी हों, क्योंकि सुभाषित ग्रंथों में भास के नाम से कई ऐसे पद्य मिलते हैं, जो इन 13 नाटकों में नहीं पाए जाते। जनश्रुति के अनुसार भास ने 30 से अधिक ग्रंथ लिखे थे।

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4. अश्वघोष के काव्य
अश्वघोष संस्कृत महाकाव्य परम्परा में कालिदास के पूर्ववर्ती कवि हैं। अश्वघोष का स्थिति काल ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है। ये राजा कनिष्क के गुरु और उनके आश्रित कवि थे। अश्वघोष का समग्र साहित्य प्रायः बौद्ध धर्म की दार्शनिक मान्यताओं को केन्द्र में रख कर रचा गया है। जिनका प्रमुख उद्देश्य बुद्ध धर्म का प्रचार प्रसार ही अधिक प्रतीत होता है।

अश्वघोष की सात प्रामाणिक कृतियों में ‘बुद्धचरितम्’ तथा ‘सौन्दरनन्दम्’ दो महाकाव्य हैं।

1. बुद्धचरितम्-चीनी और तिब्बती अनुवाद के साथ बुद्धचरितम् में 28 सर्ग मिलते हैं। संस्कृत में केवल 17 सर्ग ही उपलब्ध हैं। अब शेष सर्गों का संस्कृत में अनुवाद भी महन्त श्री रामचन्द्र दास द्वारा किया हुआ मिलता है। इस महाकाव्य में गौतम बुद्ध की जीवन गाथा चित्रित है। प्रथम पाँच सर्गों में बुद्ध के जन्म से लेकर निष्क्रमण तक की कथा है। छठे सातवें सर्ग में कुमार गौतम का तपोवन में परवेश, अन्तःपुर में विलाप, कुमार की खोज, कुमार का मगध गमन तथा बुद्धत्व की प्राप्ति का वर्णन करते हुए बुद्ध के शिष्यों, उपदेशों, सिद्धान्तों तथा निर्वाण प्राप्ति का वर्णन किया गया है। इसका मुख्य रस शान्त है। परन्तु प्रसंग के अनुसार श्रृंगार और वीर रस का प्रयोग भी हुआ है। वैराग्य प्रधान होने पर भी बुद्धिचरितम् में सांसारिक और मनोहारी चित्र उपलब्ध हो जाते हैं। यह एक सफल महाकाव्य है।

2. सौन्दरनन्दम्-अश्वघोष का यह दूसरा महाकाव्य है। इसका कथानक बुद्धचरितम् से मिलता-जुलता है, किन्तु कविता की दृष्टि से यह अधिक प्रौढ़ है। इसमें गौतम के सौतेले भाई नन्द के संन्यास का वर्णन है। वह अपनी पत्नी सुन्दरी से अत्यन्त प्रेम करता है और उसी में डूबा रहता है। बुद्ध की प्रेरणा से नन्द संन्यासी हो जाता है। इन दोनों के नाम पर ही इसका नाम ‘सौन्दरानन्दम्’ रखा गया है।
‘सौन्दरनन्दम्’ में 18 सर्ग हैं। इसका मुख्य रस शान्त है। करुण, शृंगार और वीर इसके सहयोगी रस हैं। नाटक का नायक छन्द है। धर्म, अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से मोक्ष की प्राप्ति ही लक्ष्य है। अश्वघोष की भाषा सुबोध है। कवि में इसमें हृदयहारी स्वभाविक उपमाओं का प्रयोग किया है। अनुष्टुप् उनका प्रिय छन्द है।

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5. महाकवि कालिदास एवं उनकी रचनाएँ
कविकुलशिरोमणि, कविताकामिनी के विलास, उपमासम्राट् दीपशिखा कालिदास आदि विरुदों से विभूषित महाकवि कालिदास भारतवर्ष के ही नहीं समस्त विश्व के अनन्य कवि हैं। ये महाराज विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि कालिदास का समय ईसापूर्व प्रथम शताब्दी है। संस्कृतसाहित्य में कालिदास की सात रचनाएं प्रामाणिक मानी गई हैं।

इनमें रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् – दो महाकाव्य, मेघदूतम् तथा ऋतुसंहारम् – दो खण्डकाव्य तथा मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीयम् तथा अभिज्ञानशाकुन्तलम् – तीन नाटक हैं। काव्यकला एवं नाट्यकला की दृष्टि से कालिदास का कोई सानी नहीं है। नवरस वर्णन में कालिदास सर्वोपरि हैं। ‘उपमा अलंकार’ की सटीकता में वर्णन के कारण ही कालिदास के विषय में ‘उपमा कालिदासस्य’ कहा गया है तथा ‘दीपशिखा’ की उपाधि से अलंकृत किया गया है। यही नहीं इनकी रचनाओं में वैदर्भी रीति की विशिष्टता, माधुर्यगुण का सतत प्रवाह तथा सरसता ही इन्हें आज तक सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में प्रतिष्ठित किए हुए हैं।

रचनाओं का संक्षिप्त परिचय
1. रघुवंशम् – 19 सर्गीय रघुवंश कालिदास की अनन्यतम कृति है। इसमें रघुवंशीय दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम और कुश तक के राजाओं का विस्तृतरूपेण चित्रण तथा अन्य राजाओं का संक्षिप्त विवरण बड़े ही परिपक्व एवं प्रभावरूपेण किया गया है। जहां दिलीप की नन्दिनी सेवा, रघु की दिग्विजय, अज एवं इन्दुमती का विवाह, इन्दुमति की मृत्यु पर अज विलाप, राम का वनवास, लंका विजय, सीता का परित्याग, लव-कुश का अश्वमेधिक घोड़े को रोकना तथा अन्तिम सर्ग में राजा अग्निवर्ण का विलासमय चित्रण उनकी सूक्ष्मपर्यवेक्षण शक्ति का परिचय देता है।

2. कुमारसम्भवम्-17 सर्गीय कुमारसम्भव शिव-पार्वती के विवाह, कार्तिकेय के जन्म तथा तारकासुर के वध की कथा को लेकर लिखित सुप्रसिद्ध महाकाव्य है। कुछ आलोचक केवल आठ सर्गों को ही कालिदास लिखित मानते हैं लेकिन अन्यों के अनुसार सम्पूर्ण रचना कालिदास विरचित है। इस ग्रन्थ में हिमालय का चित्रण, पार्वती की तपस्या, शिव के द्वारा पार्वती के प्रेम की परीक्षा, उमा के सौन्दर्य का वर्णन, रतिविलाप आदि का चित्रण कालिदास की परिपक्व लेखनशैली को घोषित करता है। अन्त में कार्तिकेय के द्वारा तारकासुर के वध के चित्रण में वीर रस का सुन्दर परिपाक द्रष्टव्य है।

3. ऋतुसंहारम्-महाकवि कालिदास का ऋतुसंसार संस्कृत के गीतिकाव्यों में विशिष्टता लिए हुए हैं। जिसमें ऋतुओं के परिवर्तन के साथ-साथ मानव जीवन में बदलने वाले स्वभाव, वेशभूषा, एवं प्राकृतिक परिवेश का अवतरण द्रष्टव्य है। इसमें छः सर्ग तथा 144 पद्य हैं जिनमें ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर तथा वसन्त के क्रम से छ: ऋतुओं का वर्णन छः सर्गों में किया गया है।

4. मेघदूतम्-मेघदूत न केवल कालिदास का महान् गीतिकाव्य है, अपितु सम्पूर्ण संस्कृतसाहित्य का एक उज्ज्वल रत्न है। सम्पूर्ण मेघदूत दो भागों में विभक्त है-पूर्वमेघ तथा उत्तरमेघ जिनमें कुल 121 पद्य हैं। इस गीतिकाव्य में मन्दाक्रान्ता छन्द में एक यक्ष की विरहव्यथा का मार्मिक चित्रण किया गया है। पूर्वमेघ में कवि ने यक्ष द्वारा मेघ को अलकापुरी तक पहुंचाने के मार्ग का उल्लेख करते हुए उस मार्ग में आने वाले प्रमुख नगरों, पर्वतों, नदियों तथा वनों का भी सुन्दर चित्रण किया है। उत्तरमेघ में अलकापुरी का वर्णन, उसमें यक्षिणी के घर की पहचान तथा घर में विरहव्यथा से पीड़ित अपनी प्रेयसी की विरह पीड़ा का मार्मिक वर्णन द्रष्टव्य है।

5. मालविकाग्निमित्रम्-पांच अंकों में लिखित महाकवि कालिदास की प्रारम्भिक कृति ‘मालविकाग्निमित्र’ में विदिशा के राजा अग्निमित्र तथा मालवा के राजकुमार की बहन मालविका की प्रणयकथा का वर्णन है। मालविकाग्निमित्र कवि की आरम्भिक रचना होने पर भी नाटकीय नियमों की दृष्टि से इसके कथा निर्वाह, घटनाक्रम, पात्रयोजना आदि सभी में नाटककार के असाधारण कौशल की छाप है।

6. विक्रमोर्वशीयम्-नाटक रचनाक्रम की दृष्टि से कालिदास की द्वितीय कृति ‘विक्रमोर्वशीयम्’ एक उपरूपक है; जिसमें राजा पुरुरवा तथा उर्वशी नामक अप्सरा की प्रणयकथा वर्णित है। इस नाटक में कवि की प्रतिभा अपेक्षाकृत अधिक जागृत एवं प्रस्फुटित है।

7. अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास का अन्तिम तथा सर्वोत्कृष्ट नाटक ‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम्’ सात अंकों में विभक्त है; जिसमें राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला की प्रणय कथा वर्णित है। यह नाटक संस्कृत का सर्वोपरि लोकप्रिय नाटक है। जिसमें कालिदास की कथानकीय मौलिकता, चरित्रचित्रण की सजीवता, रसों की परिपक्वता, संवादों की सुष्ठु योजना, प्रकृतिचित्रण की मर्मज्ञता तथा भाषा-शैली की विशिष्टता आदि स्वयं में अनुपम हैं। इन्हीं गुणों के कारण कहा गया है

“काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला”

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6. नाटककार भवभूति एवं उनकी रचनाएँ

संस्कृत के नाटककारों में भवभूति को कालिदास जैसा गौरव प्राप्त है। भवभूति पद्मपुर के निवासी थे तथा उदुम्बरकुल के ब्राह्मण थे। इनके पितामह का नाम भट्टगोपाल था, जो स्वयं एक महाकवि थे। इनके पिता का नाम नीलकण्ठ तथा माता का नाम जतुकर्णी था। भवभूति का दूसरा नाम ‘श्रीकण्ठ’ था। भवभूति शिव के उपासक थे, इनके गुरु का नाम ज्ञाननिधि था। भवभूति का स्थितकाल कतिपय पुष्ट प्रमाणों के आधार पर 700 ई० के आसपास माना जाता है।

रचनाएँ-भवभूति की तीन रचनाएं (नाटक) उपर. ध होती हैं
1. मालतीमाधवम् 2. महावीरचरितम् तथा 3. उत्तररामचरितम्।
1. मालतीमाधवम्-यह 10 अंकों का नाटक है। इसमें नाटक की नायिका मालती तथा नायक माधव के प्रेम और विवाह की कल्पित कथा चित्रित है। यह एक शृंगार प्रधान रचना है। मालतीमाधव में पाठकों की उत्सुकता जगाए रखने के पूरी चेष्टा की गई है, जिसमें भवभूति सफल हुए हैं। रोचक कथानक यथार्थ चित्रण तथा प्रभावपूर्ण भाषा के कारण यह नाटक प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। पाँचवें अंक में शमशान का वर्णन तथा नौवें अंक में वन का वर्णन दर्शनीय है। पत्नी के आदर्श सम्बन्ध का वर्णन भी अद्वितीय है। काव्य की दृष्टि से मालतीमाधव एक उत्कृष्ट कही जा सकती है।

2. महावीरचरितम्- यह सात अंकों का नाटक है। इसमें राम के विवाह से लेकर राम के राज्याभिषेक की कथा को नाटकीय रूप दिया गया है। कवि ने रामायण की कथा को रोचक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है और उसे अधिकाधिक नाटकीय बनाने के लिए कथा में स्वेच्छा से परिवर्तन भी किया गया है। नाटकीय तत्त्वों के अभाव तथा लम्बे संवादों के कारण यह नाटक सामाजिकों की ओर आकृष्ट नहीं कर सका। महावीरचरितम् में मुख्य रूप से वीररस का परिपाक हुआ है।

3. उत्तररामचरितम् – उत्तररामचरित भवभूति का अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ नाटक है। यह कृति भवभूति के जीवन के प्रौढ़ अनुभवों की देन है। कवि के अन्य दोनों नाटकों की अपेक्षा उत्तररामचरित की कथावस्तु तथा नाटकीय कौशल अधिक प्रौढ़ हैं। भवभूति की अत्यधिक भावुकता ने इस ‘उत्तररामचरितम्’ को नाटक के स्थान पर गीति नाट्य बना दिया है। इसमें कुल सात अंक हैं। राम के उत्तरकालीन जीवन की कथा पर जितने भी ग्रन्थ लिखे गए हैं, उनमें उत्तररामचरित जैसी प्रसिद्धि किसी भी ग्रन्थ को नहीं मिल पाई।।

यद्यपि उत्तररामचरित का मूल आधार वाल्मीकि रामायण है परन्तु भवभूति ने इसमें अनेक मौलिक परिवर्तन किए हैं। उत्तररामचरित का प्रमुख रस करुण है। करुण रस की अभिव्यंजना में भवभूति इतने सिद्धहस्त हैं कि मनुष्य तो क्या निर्जीव पत्थर भी रो पड़ते हैं। भवभूति की स्थापना है कि एक करुण रस ही है, अन्य शृंगार आदि तो उसी के निमित्त

व्याकरणम् रूप है-‘एको रसः करुण एवं निमित्तभेदात्’ । ‘उत्तररामचरितम्’ के तीसरे अंक में करुण रस की जो अजस्र धारा बही है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। करुण रस की इस अद्भुत अभिव्यंजना के कारण ही ये उक्तियाँ प्रसिद्ध हो गई है

‘कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते’
उत्तरे रामचरिते भवभूतिः विशिष्यते।

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7. श्रीमद्भगवद्गीता
‘कर्मगौरवम्’ यह पाठ ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के दूसरे एवं तीसरे अध्याय से संकलित है। श्रीमद्भगवद्गीता विश्व का सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। ‘गीता’ महाभारत के ‘भीष्म पर्व’ से उद्धृत है। इसमें 18 अध्याय हैं, 700 श्लोक हैं। तथा 18 प्रकार के योग का वर्णन है। समस्त योगों में कर्मयोग श्रेष्ठ है। मनुष्य कर्म करने के लिए संसार में आया है। किन्तु निष्काम कर्म करना ही मनुष्य को बन्धन से मुक्त करता है। सभी प्रकार की कामनाओं और फल की इच्छा से रहित कर्म ही निष्काम कर्म कहलाता है। इसी को ‘अनासक्ति’ कहा गया है। प्राणिमात्र का अधिकार केवल कर्म करने में निहित है, फल में नहीं। गीता के दूसरे-तीसरे अध्याय में इसी कर्मयोग की विस्तृत चर्चा है।

श्रीकृष्ण ने गीता में, अर्जुन को इसी निष्काम कर्मयोग की शिक्षा प्रदान की है। श्रीकृष्ण ने युद्ध क्षेत्र में, विषाद में पड़े हुए अर्जुन को स्व-क्षत्रियोचित कर्तव्य का उपदेश देकर धर्मयुद्ध के लिए उद्यत किया था। अर्जुन के माध्यम से मानवपात्र को निष्काम कर्म का उपदेश दिया गया है। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ यह गीता का सन्देश है।

8. पं० अम्बिकादत्त व्यास (शिवराजविजयः )
पं० अम्बिकादत्तं व्यास (1858-1900 ईस्वी) आधुनिक युग के संस्कृत लेखकों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। हिन्दी और संस्कृत में इनकी लगभग 75 रचनाएं मिलती हैं। इन सभी में ‘शिवराजविजयः’ नामक ऐतिहासिक उपन्यास इनकी श्रेष्ठतम रचना है। यह उपन्यास 1901 ईस्वी में प्रकाशित हुआ था।

शिवराजविजय शिवाजी और औरंगज़ेब की प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना पर आधारित उपन्यास है। शिवाजी इस उपन्यास के नायक हैं, जो भारतीय आदर्शों, संस्कृति, सभ्यता और मातृशक्ति के रक्षक के रूप में चित्रित किए गए हैं। शिवाजी और उनके सैनिकों की दृढ़ प्रतिज्ञा है-‘कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्’-कार्य सिद्ध करूंगा या देह का त्याग कर दूंगा।

गद्य काव्य की दृष्टि से शिवराजविजय एक उत्कृष्ट रचना है। इनकी भाषा की एक विशेषता है कि इनकी भाषा सदा भावों के अनुसार प्रयुक्त होती है। सरस प्रसंगों में ललित पदावली और वैदर्भी शैली का प्रयोग हुआ है। करुणा भरे प्रसंगों में प्रत्येक शब्द आंसुओं से भीगा हुआ मिलता है। वीर रस के प्रसंग में भाषा ओजस्विनी हो जाती है और पाठक की भुजाएं फड़कने लगती हैं। रस और अलंकारों का सुन्दर सामंजस्य है। सभी वर्णन स्वाभाविकता से ओत-प्रोत हैं। बाण और दण्डी के गद्य की सभी विशेषताएं व्यास जी के गद्य में मिलती हैं।

‘शिवराजविजयः’ उपन्यास में तीन विराम हैं तथा प्रत्येक विराम में चार निःश्वास हैं। कुल 12 निःश्वास हैं। प्रस्तुत पाठ ‘कार्यं वा साधयेयम्, देहं वा पातयेयम्’ इसी ऐतिहासिक उपन्यास के प्रथम विराम के चतुर्थ नि:श्वास से संकलित है। इस अंश में शिवाजी का एक विश्वासपात्र एवं कर्मठ गुप्तचर ‘कार्य वा साधयेयम्, देहं वा पातेययम्’ वाक्य द्वारा अपना दृढ़ संकल्प प्रकट करता है, जिसका तात्पर्य है-‘कार्य सिद्ध करूंगा या देह का त्याग कर दूंगा।’

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9. भारवि का ‘किरातार्जुनीयम्’
अलंकृत शैली तथा अर्थगौरव से परिपूर्ण कविता करने वाले भारवि ने अपनी प्रतिभा, कला और विद्वत्ता के कारण कालिदास के परवर्ती कवियों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त का है। इनका स्थितिकाल कतिपय पुष्ट प्रमाणों के आधार पर 600 ईस्वी के आसपास माना जाता है। भारवि की एकमात्ररचना है-‘किरातार्जुनीयम्’ इस अकेले महाकाव्य ने भारवि को काव्य जगत् में अमर कर दिया है।

‘किरातार्जुनीयम्’ की कथा का आधार महाभारत का वन पर्व है। महाकाव्य के सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त 18 सर्गों वाले इस महाकाव्य में ‘इन्द्रकील पर्वत और दिव्य अस्त्र प्राप्त करने के लिए तपस्या करने वाले अर्जुन और किरात वेषधारी भगवान् शंकर का युद्ध’ वर्णित हुआ है।

‘किरातार्जुनीयम्’ का मुख्य रस वीर है तथा शृंगार, शान्त आदि सहायक रस हैं। भारवि का भाषा पर अपूर्व अधिकार है। अलंकृत शैली के कारण भावबोध कुछ जटिल हो गया है। इन्हें काव्यपरम्परा में अलंकृत शैली का जनक माना जाता है। थोड़े शब्दों में अधिक गहरी और महत्त्वपूर्ण बात कहना इनकी विशेषता है। इसीलिए ‘भारवेरर्थगौरवम्’ के रूप में भारवि प्रसिद्ध हो गए हैं। संस्कृत के महाकाव्यों की बृहत्-त्रयी (किरातार्जुनीयम्, शिशपालवधम्, नैषधीयचरितम्) में ‘किरातार्जुनीयम्’ को विशेष स्थान प्राप्त है। इसके सुभाषित बहुत ही सारगर्भित हैं।।

10. माघ का काव्य ‘शिशुपालवधम्’
अलंकृत शैली में काव्य रचनाकारों में विशेष ख्याति प्राप्त है इनका स्थिति काल 650 ईस्वी के आसपास माना जाता है। इनकी एकमात्र रचना शिशुपालवधम् है। इसकी गणना संस्कृत की बृहत्-त्रयी (किरातार्जुनीयम्, शिशुपालवधम्, नैषधीय (चरितम्) में की जाती है।

‘शिशुपालवधम्’ महाकाव्य में 20 सर्ग और 650 श्लोक हैं। इस काव्य में श्रीकृष्ण द्वारा सुदर्शन चक्र चलाकर शिशुपाल के वध का वर्णन चित्रित किया गया है। माघ ने इस काव्य की रचना पूर्णतया भारवि के किरातार्जुनीयम् की शैली पर की है। इसमें वीर रस की प्रधानता है।

कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। अलंकारों की भरमार है। कालिदास का उत्कर्ष उपमा अलंकार के प्रयोग में, भारवि का उत्कर्ष अर्थ के गौरव में और श्री हर्ष का उत्कर्ष पदलालित्य में स्वीकार किया गया है परन्तु माघ का उत्कर्ष इन तीनों ही गुणों में स्वीकार किया जाता है। इसीलिए यह सुभाषित प्रसिद्ध हो गया
उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थ गौरवम्। नैषधे पदलालित्यम् माघे सन्ति त्रयो गुणाः॥

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11. श्री हर्ष का काव्य ‘नैषधीयचरितम्’
श्री हर्ष कान्यकुब्ज के राजा विजय चन्द्र (1169-1195 ई०) सभापण्डित थे। नैषधीयचरितम् इनका प्रसिद्ध महाकाव्य है। अलंकृत शैली के इस महाकाव्य को संस्कृत महाकाव्य की बृहत्-त्रयी (किरातार्जुनीयम्, शिशुपालवधम्, नैषधीयचरितम्) में सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। महाभारत के प्रसिद्ध नल उपाख्यान को आधार बनाकर 22 सर्गों वाले इस महाकाव्य की रचना हुई है। छोटे से कथानक को श्रीहर्ष ने अपनी अद्भुत कल्पना शक्ति और प्रतिभा से इतना विस्तार दिया है। इस महाकाव्य का नायक नल और नायिका दमयन्ती है। शब्दों के सुन्दर विन्यास, भावों के समुचित निर्वाह, कल्पना की ऊंची उड़ान तथा प्रकृति के सजीव चित्रण की दृष्टि से यह महाकाव्य अद्वितीय है इनकी कविता में स्वभाविक माधुर्य है। शब्द और अर्थ की नवीनता है-नैषधीयचरितम् अपने पदलालित्य के लिए प्रसिद्ध है। इसका मुख्य रस शृंगार है तथा करुण आदि अन्य रस सहायक हैं। श्री हर्ष की कविता में अलंकारों की भरमार है और छन्द प्रयोग की कुशलता प्रशंसनीय है।

12. भर्तृहरि की गीति काव्य ‘नीतिशतकम्’
भर्तृहरि को परम्परा के अनुसार विक्रमादित्य का बड़ा भाई मानती है इनकी मृत्यु 650 ईस्वी में हुई थी इनके तीन गीतिकाव्य-1. शृंगारशतकम्, 2. नीतिशतकम्, 3. वैराग्यशतकम् प्रसिद्ध हैं। इनके अतिरिक्त इनका एक व्याकरण ग्रन्थ ‘वाक्यपदीयम्’ के नाम से उपलब्ध है विद्वान् लोग भर्तृहरि का समय छठी शताब्दी का उत्तरार्ध मानते हैं।

नीतिशतकम्, शृंगारशतकम् और वैराग्यशतकम् प्रत्येक में लगभग 100 श्लोकों का संग्रह है। प्रत्येक पद्य स्वतन्त्र मुक्तक है अर्थात् प्रत्येक पद्य में अपने विषय की बात पूर्ण हो जाती है। इन शतकों में भर्तृहरि ने अपने जीवन के अनुभव अति सरल भाषा में भर दिए हैं। अधिकांश श्लोक सुभाषित एवं सूक्ति का रूप धारण कर गए हैं। ___ नीतिशतक में लौकिक व्यवहार के लिए उपयोगी उत्तम उपदेश प्रदान किए गए हैं इसमें वीरता, विद्या, साहस, मैत्री, विद्वान्, सज्जन, दुर्जन, सत्संगति, धन की महिमा, मूों की नीचता, स्वाभिमान, राजनीति, भाग्य एवम् पुरुषार्थ आदि अनेक विषयों का काव्यमयी भाषा में सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। भर्तृहरि ने इनकी रचना में सरस सुबोध भाषा के साथसाथ गेय छन्दों का प्रयोग किया है। इनकी कविता पाठक के हृदय पर अनायास ही गहरा प्रभाव छोड़ती है। निश्चय ही कवि ने नीतिशतक के पद्यों में गागर में सागर भर दिया है।

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13. दण्डी का गद्य काव्य ‘दशकुमारचरितम्’
दण्डी के पिता वीरदत्त संस्कृत के महाकवि भारवि के छोटे पुत्र थे। दण्डी की माता का नाम गौरी था। इनका स्थिति काल ईसा की छठी शताब्दी माना जाता है। परम्परा के अनुसार दण्डी की तीन रचनाएं मानी जाती हैं-1. दशकुमारचरितम्, 2. काव्यादर्शः, 3. अवन्तिसुन्दरी कथा।

‘दशकुमारचरितम्’ दण्डी का प्रसिद्ध गद्य काव्य है। इसमें दशकुमारों के विचित्र चरित्र का विस्मयकारी चित्रण है। इसका कथानक घटना प्रधान है। कथानकों की सभी घटनाएं रोमांचक तथा पाठकों के हृदय में आकर्षण पैदा करने वाली हैं। इसकी विषय-वस्तु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। दण्डी ने अपनी रचना को यथार्थवादी बनाया है। इसमें निम्न कोटि का जीवन जीने वाले तथा साहसिक कार्य करने वाले जादूगर, धूर्त, तपस्वी, राजा, राजकुमारियां, चोर, वेश्याएं, प्रेमी-प्रेमिका आदि के रोचक वर्णन हैं। ब्राह्मणों, व्यापारियों एवं साधुओं पर तीखे व्यंग्य कसे गए हैं। वर्णन में हास्य विनोद की पुट है। दण्डी अपने पदलालित्य के कारण प्रसिद्ध हैं। अनुप्रास और यमक का प्रभावशाली प्रयोग इनकी रचना में हुआ है।

14. बाणभट्ट के गद्य काव्य
कवि सम्राट् बाण भट्ट महाराजा हर्षवर्धन के राजपण्डित थे। हर्षवर्धन के राज्यभिषेक 606 ईस्वी में हुआ था और उनकी मृत्यु 648 ईस्वी में हुई थी। इसीलिए बाण का स्थितिकाल ईसा की सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है। बाण भट्ट की दो गद्य कृतियां प्रसिद्ध हैं-1. हर्षचरितम्, 2. कादम्बरी। हर्षचरितम्- यह बाण भट्ट की प्रथम रचना है। इसमें हर्ष का प्रामाणिक इतिहास सुरक्षित है। इसीलिए इसे आख्यायिका कहा जाता है। इसमें आठ उच्छ्वास हैं। आरम्भ के अढ़ाई उच्छ्वासों में बाण ने अपने वंश का तथा अपना वृत्तान्त दिया है। शेष उच्छ्वासों में हर्षवर्धन, प्रभाकरवर्धन तथा राज्यश्री-इन तीनों भाई-बहनों का सम्पूर्ण जीवन वृत्तान्त वर्णित है। संस्कृत साहित्य में ऐतिहासिक विषय को आधार बनाकर काव्य लिखने का शुभारम्भ बाण के हर्षचरितम् से ही हुआ है। हर्षचरितम् में बाणभट्ट की शैली, चरित चित्रण, वर्णन चातुरी, अत्यन्त उत्कृष्ट है। सती होने के लिए उद्यत यशोवती की मानसिक दशा का चित्रण बड़ा ही करुणामय है। यद्यपि हर्षचरितम् बाण की अधूरी रचना है फिर भी काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से साहित्य में इसका विशिष्ट स्थान है।

कादम्बरी-कादम्बरी बाण की दूसरी प्रसिद्ध और प्रामाणिक रचना है। ‘शुकनासोपदेशः’ कादम्बरी का ही छोटा सा अंश है। बाण की असमय में मृत्यु हो जाने के कारण इसकी कथा को बाण के विद्वान् पुत्र भूषण भट्ट ने उत्तरार्ध के रूप में पूरा किया। इस प्रकार कादम्बरी का पूर्वार्ध ही बाण की मौलिक रचना है। इसकी कथा पूर्णतया काल्पनिक है। इसके घटनाक्रम में एक व्यक्ति के तीन-तीन जन्म का वृत्तान्त है।

कादम्बरी की कथा चन्द्रापीड़ और पुण्डरीक के तीन जन्मों से सम्बन्धित है। इसका कथानक अत्यन्त जटिल है, परन्तु इसके वर्णन इतने सजीव हैं कि पाठक को कथा प्रवाह के शिथिल होने का आभास ही नहीं हो पाता और वह वर्णन के आनन्द में ही डूब जाता है। कादम्बरी का रसपान करने वाले को भोजन भी अच्छा नहीं लगता। कहा भी है
‘कादम्बरी रसज्ञानाम् आहारोऽपि न रोचते’। ‘कादम्बरी’ में वर्णित राजतिलक से पूर्व राजकुमार चन्द्रापीड़ को मन्त्री शुकनास का सारगर्भित उपदेश बेजोड़ है। मन्त्री शुकनास का यह उपदेश ही शुकनासोपदेश के नाम से जाना जाता है। कादम्बरी में बाणभट्ट ने प्रसंग के अनुसार दीर्घ समासवाली, अल्पसमास वाली तथा समास रहित विविध शैलियों का प्रयोग किया है। बाण का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। वर्णन की दृष्टि से बाण ने संसार के सभी विषयों का स्पर्श किया है। इसीलिए बाण के सम्बन्ध में यह उक्ति प्रसिद्ध हो गई है

‘बाणोच्छिष्टं जगत् सर्वम्’।।

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15. ईशोपनिषद्
अथवा
ईशावास्योपनिषद्
“सम्पूर्ण विश्व में ज्ञान का आदिस्रोत ‘वेद’ ही हैं”-ऐसा विद्वानों का मत है। वेदों का सार उपनिषदों में निहित है। उपनिषदों को ‘ब्रह्मविद्या’, ‘ज्ञानकाण्ड’ अथवा ‘वेदान्त’ नाम से भी जाना जाता है। ‘उप’ तथा ‘नि’ उपसर्ग पूर्वक

सद् (षद्लु) धातु से ‘क्विप्’ प्रत्यय होकर ‘उपनिषद्’ शब्द निष्पन्न होता है-उप + नि + √भसद् + क्विप् > ० = उपनिषद। जिससे अज्ञान का नाश होता है, आत्मा का ज्ञान सिद्ध होता है, संसार चक्र का दुःख छूट जाता है; वह ज्ञानराशि ‘उपनिषद्’ कही जाती है। गुरु के समीप बैठकर अध्यात्मविद्या ग्रहण की जाती है-इस कारण भी

‘उपनिषद्’ शब्द सार्थक है। ‘उपनिषद्’ नाम से 200 से भी अधिक ग्रन्थ मिलते हैं। परन्तु प्रामाणिक दृष्टि से उन में 11 उपनिषद् ही महत्त्वपूर्ण हैं और इन्हीं पर आचार्य शङ्कर का भाष्य भी मिलता है। इनके नाम इस प्रकार हैं-1. ईशावास्य 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. मुण्डक, 6. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छान्दोग्य, 10. बृहदारण्यक तथा 11. श्वेताश्वतर।। . इनमें भी ‘ईशावास्य-उपनिषद्’ सबसे अधिक प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण है। [‘यजुर्वेद’ का अन्तिम चालीसवाँ अध्याय ही ‘ईशोपनिषद्’ के नाम से प्रसिद्ध है, इसमें कुल 17 मन्त्र हैं।] इस उपनिषद् में ‘समस्त जगत् ईश्वाराधीन है’-यह प्रतिपादित करके भगवद्-अर्पणबुद्धि से जगत् के पदार्थों का उपभोग करने का निर्देश किया गया है।

‘जगत्यां जगत्”ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है, सब जगत् अर्थात् गतिमय है’-उपनिषद् के इस सिद्धान्त की पुष्टि आधुनिक विज्ञान एवं आधुनिक खोज द्वारा भी होती है। निरन्तर परिवर्तन तथा निरन्तर गतिमयता ब्रह्माण्ड के समस्त सूर्य + चन्द्र + पृथ्वी आदि ग्रह-उपग्रहों का स्वभाव है। – इस उपनिषद् में ‘विद्या’ ‘अविद्या’ दो विशिष्ट वैदिक पदों का प्रयोग हुआ है। जो लोग ‘अविद्या’ शब्द द्वारा कहे जाने वाले यज्ञयाग, भौतिकशास्त्र आदि सांसारिक ज्ञान में दैनिक सुख-साधनों की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील रहते हैं; उनकी सांसारिक उन्नति तो बहुत होती है, परन्तु उनका अध्यात्म पक्ष निर्बल रह जाता है। जो लोग केवल अध्यात्म ज्ञान में ही लीन रहते हैं और भौतिक ज्ञान की साधन सामग्री की अवहेलना करते हैं, वे सांसारिक जीवन के निर्वाह तथा सांसारिक उन्नति में पिछड़ जाते हैं।

इसीलिए अविद्या अर्थात् भौतिकज्ञान द्वारा जीवन की सुख-साधन सामग्री अर्जित कर विद्या अर्थात् अध्यात्मज्ञान द्वारा जन्म-मरण के दुःख से रहित अमृतपद को प्राप्त करने का सारगर्भित उपदेश इस उपनिषद में दिया गया है-‘अविद्यया मृत्युं तीर्खा विद्ययाऽमृतमश्नुते’। श्रीमद् भगवद्गीता में ईशोपनिषद् के ही दार्शनिक विचारों का विस्तार से व्याख्यान किया गया है।

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16. दाराशिकोह (समुद्रसङ्गमः)
मुगलसम्राट् शाहजहाँ के विद्वान् पुत्र दाराशिकोह संस्कृत तथा अरबी भाषा के तत्कालीन विद्वानों में अग्रगण्य थे। ‘समुद्रसङ्गमः’ दाराशिकोह द्वारा रचित प्रसिद्ध है। इसी ग्रन्थ में ‘पृथिवी-निरूपणम्’ के अन्तर्गत उन्होंने पर्वतों, द्वीपों, समुद्रों आदि का विशिष्ट शैली में वर्णन किया है। उसी वर्णन के कुछ अंश यहाँ ‘भू-विभागाः’ पाठ में प्रस्तुत किए गए हैं।

दाराशिकोह मुगलसम्राट शाहजहाँ के सबसे बड़े पुत्र थे। उनका जीवनकाल 1615 ई० से 1659 ई० तक है। शाहजहाँ उनको राजपद देना चाहते थे पर उत्तराधिकार के संघर्ष में उनके भाई औरंगज़ेब ने निर्ममता से उनकी हत्या कर दी। दाराशिकोह ने अपने समय के श्रेष्ठ संस्कृत पण्डितों, ज्ञानियों और सूफी सन्तों की सत्संगति में वेदान्त और इस्लाम के दर्शन का गहन अध्ययन किया था। उन्होंने फ़ारसी और संस्कृत में इन दोनों दर्शनों की समान विचारधारा को लेकर विपुल साहित्य लिखा। फारसी में उनके ग्रन्थ हैं-सारीनतुल् औलिया, सकीनतुल् औलिया, हसनातुल् आरफीन (सूफी सन्तों की जीवनियाँ), तरीकतुल् हकीकत, रिसाल-ए-हकनुमा, आलमे नासूत, आलमे मलकूत (सूफी दर्शन के प्रतिपादक ग्रन्थ), सिर्र-ए-अकबर (उपनिषदों का अनुवाद)। श्रीमद्भगवद्गीता और योगवासिष्ठ का भी फ़ारसी भाषा में उन्होंने अनुवाद किया। ‘मज्म-उल्-बहरैन्’ फ़ारसी में उनकी अमरकृति है, जिसमें उन्होंने इस्लाम और वेदान्त की अवधारणाओं में मूलभूत समानताएँ बतलाई हैं। इसी ग्रन्थ को दाराशिकोह ने ‘समुद्रसङ्गमः’ नाम से संस्कृत में लिखा।

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17. चन्द्रशेखरदास वर्मा (पाषाणीकन्या)
श्री चन्द्रशेखरदास वर्मा उड़िया भाषा के प्रख्यात साहित्यकार हैं। इनका जन्म 1945 ईस्वी में हुआ। इनके 12 कथासंग्रह, एक नाट्यसंग्रह तथा तीन समीक्षा-ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘पाषाणी-कन्या’ तथा ‘वोमा’ इनके प्रसिद्ध कथा संग्रह हैं। ‘पाषाणीकन्या’ कथासंग्रह का संस्कृत अनुवाद डॉ० नारायण दाश ने किया है। इसी कथासंग्रह से ‘दीनबन्धुः श्रीनायारः’ शीर्षक कथा पाठ्यांश के रूप में संकलित है।

इस कथा के नाटक श्रीनायार का पालन-पोषण एक अनाथाश्रम में हुआ है। श्रीनायार ने अपनी कर्मदक्षता, दाक्षिण्य और सेवामनोवृत्ति से समाज में आदर्श स्थापित किया है। वे प्रतिमास अपने वेतन का आधे से अधिक भाग केरल में स्थापित अनाथाश्रम को भेजते हैं। प्रस्तुत कथा में श्रीनायार का लोककल्याणकारी आदर्श चरित्र वर्णित है।

18. पं० हृषीकेश भट्टाचार्य (प्रबन्धमञ्जरी)
आधुनिक गद्य लेखकों में पण्डित हृषीकेश भट्टाचार्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनका समय 1850-1913 ई० है। ये ओरियण्टल कॉलेज, लाहौर में संस्कृत के प्राध्यापक थे। इन्होंने ‘विद्योदयम्’ नामक संस्कृत पत्रिका के माध्यम से 44 वर्ष तक निवन्ध-लेखन करके संस्कृत में निबन्ध-विधा को जन्म दिया है। श्री भट्टाचार्य द्वारा लिखित संस्कृत निबन्धों का एक संग्रह ‘प्रबन्धमञ्जरी’ के नाम से 1930 ई० में प्रकाशित हुआ। इसमें 11 निबन्ध संगृहीत हैं। इनमें से अधिकांश निबन्ध व्यङ्ग्य-प्रधान शैली में लिखे गए हैं। संस्कृत में व्यङ्ग्य-शैली का प्रादुर्भाव श्री भट्टाचार्य के इन निबन्धों से ही माना जाता है। इनका व्यंग्य अत्यन्त शिष्ट, परिष्कृत और प्रभावोत्पादक है। इनकी भाषा में सरलता, सरसता, मधुरता तथा सुबोधता है। इनकी भाषा में संस्कृत के महान् गद्यकार बाण की शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।

प्रस्तुत पाठ ‘उद्भिज्ज-परिषद्’ श्री भट्टाचार्य की इसी ‘प्रबन्ध-मञ्जरी’ से सम्पादित करके लिया गया है। उभिज्ज शब्द का अर्थ है-वृक्ष और परिषद् का अर्थ है-सभा। इस प्रकार ‘उदभिज्ज-परिषद्’ शब्द का अर्थ हुआ ‘वृक्षों की सभा।’ इस सभा के सभापति हैं अश्वत्थ-पीपल। सभापति अपने भाषण में मानवों पर बड़े ही व्यंग्यपूर्ण प्रहार करते हैं।

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19. पं० भट्ट मथुरानाथ शास्त्री (प्रबन्धपारिजातः)
प्रस्तुत पाठ ‘किन्तोः कुटिलता’ देवर्षि श्रीकलानाथ शास्त्री द्वारा सम्पादित पं० श्री भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के निबन्धसंग्रह ‘प्रबन्धपारिजातः’ से संकलित किया गया है। – पं० भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के पिता पं० भट्ट द्वारकानाथ जयपुर निवासी थे। पं० भट्ट मथुरानाथ का जन्म जयपुर में सन् 1889 ई० में हुआ और निधन भी 4 जून, 1964 ई० को जयपुर में ही हुआ।

श्री भट्ट की पूर्वज परम्परा अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न रही। इन्होंने महाराजा संस्कृत कॉलेज से साहित्याचार्य की उपाधि प्राप्त की और वहीं व्याख्याता बन गए। आप जयपुर से प्रकाशित ‘संस्कृतरत्नाकर’ पत्रिका के सम्पादक रहे। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री द्वारा प्रणीत संस्कृत की रचनाओं में ‘जयपुरवैभवम्’, ‘गोविन्दवैभवम्’, ‘संस्कृतगाथासप्तशती’ और ‘साहित्यवैभवम्’ विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने चालीस कथाएँ और सौ से भी अधिक निबन्ध संस्कृत में लिखे। इनकी ‘सुरभारती’, ‘सुजनदुर्जन-सन्दर्भः’ और ‘युद्धमुद्धतम्’ नामक पद्य रचनाएँ भी उल्लेखनीय हैं।

यहाँ संकलित पाठ में श्री भट्ट जी ने दिखाया है कि जब कभी किसी कथन के साथ ‘किन्तु’ लग जाता है, तब बहुधा वह पहले कथन के अच्छे भाव को समाप्त कर उसे दोषपूर्ण और सम्बोधित व्यक्ति के लिए दुःख पैदा करने वाला, उसके उत्साह का नाशक और शत्रुरूप बना देता है। ऐसे अवसर विरल होते हैं जहाँ ‘किन्तु’ सम्बोधित व्यक्ति के लिए सुखदायक सिद्ध होता है।

लेख की भाषा सरल व सुबोध है, अलंकारों और दीर्घ समासों आदि का प्रयोग नहीं किया गया है। भाव सुस्पष्ट और सामान्य जीवन में जनसाधारण द्वारा अनुभूत हैं।

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20. सिंहासनद्वात्रिंशिका
‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’ बत्तीस मनोरञ्जक कथाओं का संग्रह है। यह किसी अज्ञातकवि की रचना है। इसके केवल गद्यमय, केवल पद्यमय, गद्य-पद्यमय, ये तीन प्रकार के संस्करण मिलते हैं। इसमें बत्तीस पुत्तलिकाओं (पुतलियों) ने राजा विक्रमादित्य को बत्तीस कहानियाँ सुनाई हैं। अतः इस ग्रन्थ का समय राजा भोज (1018-1063) के अनन्तर ही माना जाता है। इसके रचयिता का नाम अज्ञात है।

एक टीले की खुदाई करने पर राजा भोज को एक सिंहासन मिलता है। वह सिंहासन राजा विक्रमादित्य का था। शुभ मुहूर्त में राजा भोज उस सिंहासन पर बैठना चाहता है तो सिंहासन पर बनी 32 पुत्तलिकाओं में से प्रत्येक पुत्तलिका राजा विक्रमादित्य के गुणों तथा पराक्रम की एक-एक कथा सुनाकर राजा को सिंहासन पर बैठने से पुन:पुनः रोकती है

और उड़ जाती है। प्रत्येक पुत्तलिका ने राजा से यही प्रश्न किया है-“क्या तुममें विक्रम जैसा गुण है? यदि है तो इस सिंहासन पर बैठ सकते हो अन्यथा नहीं।” ऐसा माना जाता है कि विक्रमादित्य को यह सिंहासन इन्द्र से प्राप्त हुआ था। उनके दिवंगत हो जाने पर यह सिंहासन भूमि में गाड़ दिया गया और 11वीं सदी में यह सिंहासन धारानरेश भोज को मिलता है, इसीलिए प्रत्येक कहानी में पुत्तलिका राजा भोज को सम्बोधित करके कहानी कहती है।

21. पण्डितराज जगन्नाथ
पंडितराज जगन्नाथ तैलंग ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम पेरुभट्ट और माता का नाम लक्ष्मीदेवी था। युवावस्था में वे दिल्ली गए और शाहजहाँ से उन्होंने पण्डितराज की उपाधि प्राप्त की। उनका स्थितिकाल 1650 – 1680 के लगभग माना जाता है। उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया था। वे काशी चले गए वहाँ उन्होंने ‘गंगालहरी’ की रचना की। उनके रचित ग्रन्थों में पीयूषलहरी’ अथवा ‘गंगालहरी’, ‘सुधालहरी’, ‘अमृतलहरी’, ‘करुणालहरी’, ‘लक्ष्मीलहरी’ यमुना वर्णन आदि प्रमुख हैं। रसगंगाधर पण्डित राज जगन्नाथ की सर्वश्रेष्ठ कृति है। अलंकार शास्त्र का यह परम प्रौढ़ ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त ‘भामिनी विलास’ मुक्तक गीतात्मक पद्यों का संग्र है।

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