Class 12

HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 9 भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास

Haryana State Board HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 9 भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Geography Important Questions Chapter 9 भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर को चुनिए

1. भारत के आर्थिक विकास के लिए सबसे पहले योजना किसने बनाई?
(A) जवाहरलाल नेहरू ने
(B) एम०एन० राय ने
(C) एम० विश्वेश्वरैया ने
(D) श्री मन्नारायण अग्रवाल ने
उत्तर:
(C) एम० विश्वेश्वरैया ने

2. गाँधीवादी योजना किसने बनाई?
(A) जवाहरलाल नेहरू ने
(B) एम०एन० राय ने
(C) एम० विश्वेश्वरैया ने
(D) श्री मन्नारायण अग्रवाल ने
उत्तर:
(D) श्री मन्नारायण अग्रवाल ने

3. एम० विश्वेश्वरैया ने दसवर्षीय योजना प्रकाशित की थी-
(A) सन् 1936 में
(B) सन् 1944 में
(C) सन् 1951 में
(D) सन् 1956 में
उत्तर:
(A) सन् 1936 में

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4. योजना आयोग की स्थापना हुई
(A) सन् 1936 में
(B) सन् 1944 में
(C) सन् 1950 में
(D) सन् 1956 में
उत्तर:
(C) सन् 1950 में

5. पहली पंचवर्षीय योजना कब शुरू की गई?
(A) सन् 1936 में
(B) सन् 1944 में
(C) सन् 1951 में
(D) सन् 1956 में
उत्तर:
(C) सन् 1951 में

6. योजना आयोग का गठन किसकी अध्यक्षता में हुआ?
(A) जवाहरलाल नेहरू की
(B) एम०एन० राय की
(C) एम० विश्वेश्वरैया की
(D) श्री मन्नारायण अग्रवाल की
उत्तर:
(A) जवाहरलाल नेहरू की

7. पहली पंचवर्षीय योजना में किसे प्राथमिकता दी गई?
(A) उद्योग को
(B) कृषि को
(C) गरीबी हटाने को
(D) रोजगार को
उत्तर:
(B) कृषि को

8. गरीबी हटाना किस योजना का मुख्य उद्देश्य था?
(A) दूसरी
(B) चौथी
(C) पाँचवीं
(D) छठी
उत्तर:
(C) पाँचवीं

9. गहन कृषि विकास कार्यक्रम किस योजना के दौरान लागू किया गया?
(A) दूसरी
(B) तीसरी
(C) चौथी
(D) पाँचवीं
उत्तर:
(B) तीसरी

10. जवाहर रोजगार योजना किस पंचवर्षीय योजना में शुरू की गई?
(A) पाँचवीं
(B) छठी
(C) सातवीं
(D) आठवीं
उत्तर:
(C) सातवीं

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11. उदारीकरण की नीति के बाद किस योजना का प्रारंभ हुआ?
(A) पाँचवीं
(B) छठी
(C) सातवीं
(D) आठवीं
उत्तर:
(D) आठवीं

12. औद्योगीकरण के विकास पर किस योजना में विशेष ध्यान दिया गया?
(A) पहली
(B) दूसरी
(C) तीसरी
(D) चौथी
उत्तर:
(B) दूसरी

13. किस पंचवर्षीय योजना के बाद पहली बार वार्षिक योजनाएँ बनाई गईं?
(A) पहली
(B) दूसरी
(C) तीसरी
(D) चौथी
उत्तर:
(C) तीसरी

14. इंदिरा गाँधी नहर का निर्माण कितने चरणों में पूरा हुआ?
(A) 3
(B) 4
(C) 2
(D) 6
उत्तर:
(C) 2

15. भरमौर क्षेत्र की प्रमुख नदी कौन-सी है?
(A) गंगा
(B) यमुना
(C) रावी
(D) ताप्ती
उत्तर:
(C) रावी

16. गद्दी जनजाति किस प्रदेश के भरमौर क्षेत्र में पाई जाती है?
(A) मणिपुर के
(B) ओडिशा के
(C) हिमाचल प्रदेश के
(D) अरुणाचल प्रदेश के
उत्तर:
(C) हिमाचल प्रदेश के

17. ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का समय क्या था?
(A) 1998-2002
(B) 2002-2007
(C) 2007-2012
(D) 2012-2017
उत्तर:
(B) 2002-2007

18. बारहवीं पंचवर्षीय योजना का समय क्या था?
(A) 2007-2012
(B) 2012-2017
(C) 2013-2016
(D) 2009-2014
उत्तर:
(B) 2012-2017

19. विकास एक ……………… संकल्पना है।
(A) द्वि-आयामी
(B) त्रि-आयामी
(C) बहु-आयामी
(D) एक-आयामी
उत्तर:
(C) बहु-आयामी

20. राष्ट्रीय समिति का गठन किया गया
(A) वर्ष 1938 में
(B) वर्ष 1940 में
(C) वर्ष 1950 में
(D) वर्ष 1952 में
उत्तर:
(A) वर्ष 1938 में

21. …………….. राष्ट्रीय नियोजन समिति के अध्यक्ष थे
(A) सरदार पटेल
(B) सरदार मनमोहन सिंह
(C) सरदार मोंटेक सिंह
(D) पं० जवाहरलाल नेहरू
उत्तर:
(D) पं० जवाहरलाल नेहरू

22. बॉम्बे योजना का गठन किया गया
(A) वर्ष 1944 में
(B) वर्ष 1942 में
(C) वर्ष 1945 में
(D) वर्ष 1950 में
उत्तर:
(A) वर्ष 1944 में

23. 2017 तक कितनी पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी हो चुकी थीं?
(A) 11
(B) 8
(C) 9
(D) 12
उत्तर:
(D) 12

24. भारत में योजना आयोग का गठन किस वर्ष में हुआ?
(A) वर्ष 1950 में
(B) वर्ष 1951 में
(C) वर्ष 1952 में
(D) वर्ष 1953 में
उत्तर:
(A) वर्ष 1950 में

25. भारत में पहली योजना कब लागू हुई?
(A) वर्ष 1951 में
(B) वर्ष 1952 में
(C) वर्ष 1953 में
(D) वर्ष 1954 में
उत्तर:
(A) वर्ष 1951 में

26. नवगठित नीति आयोग का गठन हुआ
(A) सन् 2015 में
(B) सन् 2014 में
(C) सन् 2013 में
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) सन् 2015 में

27. नियोजन सर्वप्रथम किस देश में अपनाया गया?
(A) जापान में
(B) अमेरिका में
(C) भारत में
(D) सोवियत रूस में
उत्तर:
(D) सोवियत रूस में

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28. योजनाबद्ध विकास की प्रेरणा भारत को मिली-
(A) ब्रिटेन से
(B) अमेरिका से
(C) चीन से
(D) सोवियत रूस से
उत्तर:
(D) सोवियत रूस से

29. विकास का उद्देश्य है-
(A) प्रकृति का दोहन
(B) रोजगार देना
(C) जीवन-स्तर को ऊँचा उठाना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

30. सोवियत रूस में कौन-सा विकास का मॉडल अपनाया गया था?
(A) कल्याणकारी मॉडल
(B) समाजवादी मॉडल
(C) मिश्रित मॉडल
(D) पूँजीवादी मॉडल

(B) समाजवादी मॉडल

31. भारत में विकास का कौन-सा मॉडल अपनाया गया है?
(A) समाजवादी मॉडल
(B) मिश्रित मॉडल
(C) पूँजीवादी मॉडल
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) मिश्रित मॉडल

32. जनता योजना के जनक थे
(A) मोंटेक सिंह
(B) एम०एन० राय
(C) लास्की
(D) ल्युसियन पाई
उत्तर:
(A) मोंटेक सिंह

33. बंबई प्लॉन को टाटा-बिरला ने कब बनाया?
(A) सन् 1936 में
(B) सन् 1940 में
(C) सन् 1943 में
(D) सन् 1944 में
उत्तर:
(C) सन् 1943 में

34. वह संकल्पना जिसमें वर्तमान और भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रावधान हो, कहलाती है-
(A) विकास
(B) नियोजन
(C) सतत विकास
(D) विकास नियोजन
उत्तर:
(C) सतत विकास

B. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक शब्द में दीजिए

प्रश्न 1.
गाँधीवादी योजना किसने बनाई?
उत्तर:
श्री मन्नारायण अग्रवाल ने।

प्रश्न 2.
उदारीकरण की नीति के बाद किस पंचवर्षीय योजना का प्रारंभ हुआ?
उत्तर:
आठवीं पंचवर्षीय योजना का।

प्रश्न 3.
औद्योगीकरण के विकास पर किस पंचवर्षीय योजना में विशेष ध्यान दिया गया?
उत्तर:
दूसरी पंचवर्षीय योजना।

प्रश्न 4.
अब तक कितनी पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं?
उत्तर:
12।

प्रश्न 5.
किस पंचवर्षीय योजना के बाद पहली बार वार्षिक योजनाएँ बनाई गईं?
उत्तर:
तीसरी।

प्रश्न 6.
भारत में किस तरह की अर्थव्यवस्था अपनाई गई है?
उत्तर:
मिश्रित अर्थव्यवस्था।

प्रश्न 7.
अमेरिका की टेनेसी वैली अथॉर्टी के अनुसार भारत में कौन-सी परियोजना बनाई गई?
उत्तर:
दामोदर नदी घाटी परियोजना।

प्रश्न 8.
वह संकल्पना जिसमें वर्तमान और भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रावधान हो, क्या कहलाती है?
उत्तर:
सतत विकास।

प्रश्न 9.
जन योजना के प्रस्तुतकर्ता कौन थे?
उत्तर:
एम०एन० राय।

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प्रश्न 10.
योजना आयोग की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
सन् 1950 में।

प्रश्न 11.
दसवीं पंचवर्षीय योजना कब शुरू की गई?
उत्तर:
सन् 2002 में।

प्रश्न 12.
योजना आयोग का गठन किसकी अध्यक्षता में हुआ?
उत्तर:
जवाहरलाल नेहरू की।

प्रश्न 13.
भरमौर जन-जातीय क्षेत्र किस राज्य में स्थित है?
उत्तर:
हिमाचल प्रदेश में।

प्रश्न 14.
पहली पंचवर्षीय योजना में किसे प्राथमिकता दी गई?
उत्तर:
कृषि को।

प्रश्न 15.
जवाहर रोजगार योजना किस पंचवर्षीय योजना में शुरू की गई?
उत्तर:
सातवीं पंचवर्षीय योजना में।

प्रश्न 16.
निजी क्षेत्र की भूमिका को किस पंचवर्षीय योजना में बढ़ावा दिया गया?
उत्तर:
दसवीं पंचवर्षीय योजना में।

प्रश्न 17.
सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरुआत कब हुई?
उत्तर:
सन् 1952 में।

प्रश्न 18.
सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरुआत किस पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत की गई?
उत्तर:
प्रथम पंचवर्षीय योजना के।

प्रश्न 19.
भारत में पंचवर्षीय योजना अथवा नियोजन की शुरुआत कब हुई?
अथवा
पहली पंचवर्षीय योजना कब शुरू की गई?
उत्तर:
1 अप्रैल, 1951 में।

प्रश्न 20.
नियोजन के दो आयाम कौन-कौन से हैं?
उत्तर:

  1. खंडीय नियोजन
  2. प्रादेशिक क्षेत्रीय नियोजन।

प्रश्न 21.
‘निर्धनता का उन्मूलन’ और ‘आर्थिक आत्मनिर्भरता’ किस पंचवर्षीय योजना के उद्देश्य थे?
उत्तर:
पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के।

प्रश्न 22.
पर्वतीय क्षेत्रों के लिए उपयुक्त किसी एक उद्योग का नाम लिखें।
उत्तर:
हथकरघा उद्योग।

प्रश्न 23.
भारत में पर्वतीय क्षेत्र का कितना विस्तार है?
उत्तर:
लगभग 17%।

प्रश्न 24.
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का शुभारंभ कब हुआ?
उत्तर:
2 फरवरी, 2006 को।

प्रश्न 25.
जनजातीय विकास कार्यक्रम का कोई एक उद्देश्य बताएँ।
उत्तर:
जनजातीय जीवन की गुणवत्ता में आवश्यक सुधार करना।

प्रश्न 26.
‘सतत् विकास’ शब्द का प्रथम बार कब और कहाँ प्रयोग हुआ था?
उत्तर:
सन् 1987 में ब्रटलैंड कमीशन रिपोर्ट में।

प्रश्न 27.
सतत् विकास की आवश्यकता का उद्देश्य किस योजना में रखा गया?
उत्तर:
नौवीं पंचवर्षीय योजना में।

प्रश्न 28.
‘द पापुलेशन बम’ पुस्तक किसने लिखी?
उत्तर:
एहरलिच ने।

प्रश्न 29.
‘द लिमिट टू ग्रोथ’ पुस्तक किसने लिखी?
उत्तर:
मीडोस और अन्य ने।

प्रश्न 30.
अन्नपूर्णा योजना कब शुरू की गई?
उत्तर:
1 अप्रैल, 2001 को।

प्रश्न 31.
काम के बदले अनाज योजना कब शुरू की गई?
उत्तर:
14 नवम्बर, 2004 को।

प्रश्न 32.
महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम/मनरेगा कब शुरू हुआ?
उत्तर:
2 फरवरी, 2006 को आंध्र प्रदेश से।

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प्रश्न 33.
निम्नलिखित का पूरा नाम लिखें ITDP, IRDP, NITI, MFDA, SFDA.
उत्तर:

  1. ITDP : Integrated Tribal Development Programme
  2. IRDP : Integrated Rural Development Programme
  3. NITI : National Institute for Transforming India
  4. MFDA : Marginal Farmers Development Agency
  5. SFDA : Small Farmers Development Agency

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के किन्हीं छः राज्यों के नाम बताइए जहाँ जनजातियों की संख्या राष्ट्रीय औसत से अधिक है?
उत्तर:

  1. मणिपुर
  2. त्रिपुरा
  3. असम
  4. ओडिशा
  5. छत्तीसगढ़
  6. झारखण्ड
  7. सिक्किम।

प्रश्न 2.
पर्वतीय क्षेत्रों के विकास कार्यक्रमों में किन क्षेत्रों पर अधिक जोर दिया जाता है?
उत्तर:
पर्वतीय क्षेत्रों के विकास कार्यक्रमों में बागवानी, पशुपालन, मुर्गी पालन, मधुमक्खी पालन, वानिकी और ग्रामीण उद्योग आदि पर अधिक जोर दिया जाता है।

प्रश्न 3.
स्वतंत्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था किस प्रकार की थी?
उत्तर:
स्वतंत्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था को गरीबी ने घेर रखा था और भारत विश्व के निम्नतम आय स्तर और प्रति व्यक्ति निम्नतम उपभोग करने वाले राज्यों में से एक था।

प्रश्न 4.
प्रथम पंचवर्षीय योजना का क्या लक्ष्य था?
उत्तर:
प्रथम पंचवर्षीय योजना का लक्ष्य विकास के लिए घरेलू बचत में वृद्धि के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को औपनिवेशिक शासन के स्वरूप से पुनर्जीवित करना था।

प्रश्न 5.
खंडीय नियोजन से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
खंडीय नियोजन से अभिप्राय है अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों; जैसे कृषि, सिंचाई, विनिर्माण, ऊर्जा, परिवहन और संचार सेवाओं के विकास के लिए कार्यक्रम बनाना और उनको लागू करना।

प्रश्न 6.
क्षेत्रीय नियोजन से आप क्या समझते हैं?
अथवा
प्रादेशिक नियोजन से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
कोई भी देश सभी क्षेत्रों में समान रूप से विकसित नहीं हुआ है। अतः विकास के इस असमान प्रतिरूप में प्रादेशिक असंतुलन को कम करने के लिए योजना बनाना प्रादेशिक नियोजन कहलाता है। इस प्रकार के नियोजन को क्षेत्रीय नियोजन भी कहा जाता है।

प्रश्न 7.
भारत में नियोजन का कार्य किसे सौंपा गया है?
उत्तर:
भारत में पहले नियोजन का कार्य योजना आयोग’ करता था परंतु सन् 2016 में भारत सरकार ने नीति आयोग का गठन किया और इसी आयोग को नियोजन का कार्य सौंपा गया है।

प्रश्न 8.
नीति आयोग का गठन कब हुआ? इसका अध्यक्ष कौन होता है?
उत्तर:
केंद्र सरकार ने सन् 2015 में योजना आयोग की जगह नीति आयोग का गठन किया। देश का प्रधानमंत्री इसका अध्यक्ष होता है।

प्रश्न 9.
प्रादेशिक असंतुलन से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्रादेशिक असंतुलन से तात्पर्य प्रादेशिक स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में प्राप्त विकास की विषमताओं से है। प्रादेशिक स्तर पर देश में कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जो विकासात्मक कार्यों में आगे हैं और कुछ बहुत पीछे हैं।

प्रश्न 10.
भारत में नियोजन का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
भारत में नियोजन का मुख्य उद्देश्य राजनीतिक स्वतंत्रता को आर्थिक आधार प्रदान करना है। इसका लक्ष्य सामाजिक एवं आर्थिक विकास है।

प्रश्न 11.
विकास का क्या अर्थ है?
उत्तर:
विकास को आधुनिकीकरण का सूचक माना जाता है। विकास ऐसी प्रक्रिया है जो ऐसी संरचनाओं या संस्थाओं का निर्माण करती है, जो समाज की समस्याओं का समाधान निकालने में समर्थ हो।

प्रश्न 12.
विकास का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
विकास का मुख्य उद्देश्य लोगों के रहन-सहन के स्तर का विकास करना है। इसका तात्पर्य यह है कि लोगों के जीवन का स्तर न केवल ऊँचा हो, बल्कि उन्हें वे सुविधाएँ भी मिलनी चाहिएँ, जिन्हें वे प्राप्त
करके अपने जीवन में सुखी व सम्पन्न बन सकें।

प्रश्न 13.
बॉम्बे योजना क्या थी?
उत्तर:
सन् 1944 में आठ प्रमुख उद्योगपतियों ने एक योजना तैयार की जो बॉम्बे योजना (Bombay Plan) के नाम से जानी जाती है। इसमें कहा गया कि आर्थिक विकास के लिए सरकार को बड़े उद्योगों में अधिक पूँजी लगानी चाहिए; जैसे बीमा व्यवस्था, बीमा कंपनियाँ आदि।

प्रश्न 14.
योजना आयोग का गठन करने का उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् देश का सामाजिक-आर्थिक विकास तेज और सुनियोजित ढंग से करने के लिए योजना आयोग का गठन किया गया था।

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प्रश्न 15.
नियोजन के क्या लक्ष्य हैं?
उत्तर:
नियोजन के मुख्य लक्ष्य निम्नलिखित हैं-

  1. आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।
  2. आर्थिक असमानता या विषमता कम करना।
  3. लोगों के जीवन स्तर में सुधार करना।

प्रश्न 16.
लक्ष्य क्षेत्र नियोजन क्या है?
उत्तर:
आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असंतलन को रोकने व क्षेत्रीय आर्थिक और सामाजिक विषमताओं की प्रबलता को काबू में रखने के क्रम में योजना आयोग ने लक्ष्य-क्षेत्र तथा लक्ष्य-समूह योजना उपागमों को प्रस्तुत किया है। लक्ष्य क्षेत्र कार्यक्रमों में कमान नियंत्रित क्षेत्र विकास कार्यक्रम, सूखाग्रस्त क्षेत्र विकास कार्यक्रम, पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम है।

प्रश्न 17.
गरीबी क्या है? इसके प्रकार बताएँ।
उत्तर:
गरीबी से अभिप्राय विकास की कमी, अल्प विकास और पिछड़ेपन से है। प्रतिदिन 2300 कैलोरी से कम वाले व्यक्ति को गरीब माना जाता है। प्रकार-

  1. निरपेक्ष गरीबी
  2. सापेक्ष गरीबी।

प्रश्न 18.
भारत में गरीबी उन्मूलन रोजगार किन्हीं छः कार्यक्रमों के नाम लिखें।
उत्तर:

  1. स्वरोजगार हेतु ग्रामीण युवक कार्यक्रम (ट्राइसेस)।
  2. जवाहर रोजगार योजना (JRY)
  3. प्रधानमंत्री आवास योजना (PAY)
  4. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी कार्यक्रम (मनरेगा)
  5. संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (SGRY)
  6. राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम।

प्रश्न 19.
गहन कृषीय विकास कार्यक्रम कब लागू किया गया?
उत्तर:
सन् 1966 से सन् 1969 के बीच तीन वार्षिक योजनाएँ चलाई गई थीं। इन वार्षिक योजनाओं में ही गहन कृषीय विकास कार्यक्रम चलाया गया था।

प्रश्न 20.
नियोजन किसे कहते हैं?
उत्तर:
किसी देश के भविष्य की समस्याओं का समाधान करने के लिए बनाए गए कार्यक्रमों और प्राथमिकताओं के क्रम को विकसित करने की प्रक्रिया को नियोजन कहा जाता है। ये समस्याएँ मुख्य रूप से आर्थिक और सामाजिक ही होती हैं जो समय के साथ-साथ बदलती रहती हैं।।

प्रश्न 21.
किसी देश के विकास के लिए नियोजन क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
नियोजन के बिना कोई भी देश अपनी अर्थव्यवस्था का विकास नहीं कर सकता। वर्तमान युग नियोजन का युग है और नियोजन ही विकास का मूल मंत्र है। किसी देश को गरीबी, भूख, निरक्षरता और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का समाधान करना है तो उसे नियोजन का सहारा लेना पड़ेगा।

प्रश्न 22.
उन क्षेत्रों के नाम बताइए जहाँ जन-जातीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम शुरू किए गए थे।
उत्तर:
जन जातीय विकास कार्यक्रम मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, झारखंड और राजस्थान; जैसे राज्यों के ऐसे क्षेत्रों में आरंभ किए गए थे जहाँ की जनसंख्या 50 प्रतिशत या इससे अधिक जन-जातीय है।

प्रश्न 23.
जन-जातीय विकास कार्यक्रम के प्रमुख उद्देश्य क्या थे?
उत्तर:

  1. जन-जातीय और अन्य लोगों के विकास के स्तरों के अंतर को कम करना।
  2. जन-जातीय लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाना।

प्रश्न 24.
भारत की आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) का संक्षिप्त उल्लेख करें।
उत्तर:
राष्ट्रीय विकास परिषद् द्वारा 29 मार्च, 1992 को स्वीकृति मिलने के पश्चात् आठवीं पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 1992 से लागू की गई। इस योजना में गरीबी को दूर करने तथा ग्रामीण विकास पर विशेष बल दिया गया था। इस योजना पर कुल परिव्यय ₹ 4,95,670 करोड़ था। योजना अवधि के दौरान सकल घरेलू उत्पादन 6.7 प्रतिशत की दर से बढ़ा, जबकि लक्ष्य 5.6 प्रतिशत का था।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
टिकाऊ विकास की संकल्पना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
टिकाऊ विकास का अर्थ है, वंचित लोगों की बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी हों और सभी लोगों को बेहतर जीवन बिताने का मौका मिल सके तथा पारितंत्र को कम-से-कम हानि पहुँचे। इस संकल्पना के अनुसार, मनुष्य की वर्तमान और भावी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्यावरण की क्षमता का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए। संसाधनों का उनकी पुनर्भरण की क्षमता के अनुसार उपयोग होना चाहिए ताकि उनकी निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके। टिकाऊ विकास में समान हित की भावना जगा पाने की हमारी क्षमता परिलक्षित होनी चाहिए ताकि आय का न्यायपूर्ण वितरण तथा शक्ति और सुविधाओं का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित हो सके।

प्रश्न 2.
भारत में टिकाऊ विकास या सतत् विकास की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:
1960 के दशक के अंत में पश्चिम के विकसित राष्ट्रों में तीव्र औद्योगीकरण के पर्यावरण पर अवांछित परिणाम सामने आने लगे थे। इससे चिंतित लोगों की पर्यावरण संबंधी सामान्य जागरूकता भी बढ़ने लगी। सन् 1968 में प्रकाशित एहरलिच (Ehrlich) की पुस्तक द पापुलेशन बम और सन् 1972 में प्रकाशित भीडोस (Meadows) व अन्यों द्वारा लिखित पुस्तक द लिमिट टू ग्रोथ ने पर्यावरण निम्नीकरण पर लोगों व विशेष रूप से पर्यावरणविदों की चिंता को बढ़ा दिया। इस समस्त घटनाक्रम के संदर्भ में विकास के एक नए मॉडल का विकास हुआ जिसे सतत् पोषणीय विकास कहा गया।

पर्यावरणीय मुद्दों पर विश्व समुदाय की बढ़ती चिंता को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने नार्वे के प्रधानमंत्री हरलेम ब्रटलैंड की अध्यक्षता में पर्यावरण और विकास पर विश्व आयोग का गठन किया। सन् 1987 में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट ‘आवर कॉमन फ्यूचर’ के नाम से प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट को ब्रटलैंड रिपोर्ट भी कहते हैं। इसके अनुसार, “सतत् पोषणीय विकास वह विकास है ज भावी पीढ़ियों को अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की योग्यता के साथ समझौता किए बिना ही वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करें।” समय के साथ यह परिभाषा भी अपर्याप्त मानी जाने लगी, क्योंकि यह वर्तमान तथा भावी दोनों पीढ़ियों की आवश्यकताओं को परिभाषित नहीं करती। सन् 1987 के बाद एक और बेहतर तथा अधिक सार्थक परिभाषा सामने आई। श्री कुमार चट्टोपाध्याय के अनुसार, “सतत पोषणीय विकास पारिस्थितिक तंत्र की पोषण क्षमता के अंदर रहकर मानव-जीवन के स्तर को ऊँचा करना है।”

प्रश्न 3.
सतत् पोषणीय विकास के प्रमुख तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सतत पोषणीय विकास के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं-

  1. मानव व जीवन के अन्य सभी रूपों का जीवित रहना।
  2. सभी जीवों, मुख्यतः मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताओं का पूरा होना।
  3. जीवों की भौतिक उत्पादकता का अनुरक्षण।
  4. मनुष्य की आर्थिक क्षमता एवं विकास।
  5. पर्यावरण तथा पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण।
  6. सामाजिक न्याय और स्वावलंबन।
  7. आम लोगों की प्रतिभागिता।
  8. जनसंख्या की वृद्धि दर में स्थिरता।
  9. जीवन मूल्यों का पालन।

प्रश्न 4.
सन 1966-1969 के दौरान वार्षिक योजनाओं के विशिष्ट लक्षण कौन-कौन से थे?
अथवा
तीन वर्षीय योजनाओं (1966-1969) पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
सन् 1966-1969 के दौरान तीन वार्षिक योजनाएँ बनाई गई थीं। इन योजनाओं में पैकेज कार्यक्रमों को अपनाया गया था। पैकेज कार्यक्रमों के अंतर्गत सुनिश्चित वर्षा और सिंचाई वाले क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाले बीज, उर्वरक, कीटनाशक दवाइयाँ और ऋण की सुविधाएँ उपलब्ध करवाना था। इसे गहन कृषीय जिला कार्यक्रम के नाम से जाना जाता था। इससे खाद्यान्नों के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और देश में हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ। वर्ष 1968-1969 में औद्योगिक उत्पादों में भी वृद्धि होने लगी।

प्रश्न 5.
सखा संभावी क्षेत्र विकास कार्यक्रम के उद्देश्य लिखिए।
उत्तर:
सूखा संभावी क्षेत्र विकास कार्यक्रम के निम्नलिखित उद्देश्य थे-

  1. इस कार्यक्रम के उद्देश्य के अतंर्गत अभावग्रस्त लोगों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाना।
  2. सूखा संभावी क्षेत्र में जहाँ अपर्याप्त प्राकृतिक संसाधन हों, वहाँ के गाँवों की गरीबी कम करने के लिए उत्पादक परिसंपत्तियों का निर्माण करना।
  3. भूमि और मजदूर की उत्पादकता बढ़ाने के लिए विकासात्मक कार्य आरंभ करना।
  4. सूखा प्रवण क्षेत्र के समन्वित विकास पर बल देना।

प्रश्न 6.
जनजातीय विकास परियोजना का वर्णन करें।
उत्तर:
सन् 1974 में पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत जनजातीय उप-योजना प्रारम्भ हुई और हिमाचल प्रदेश में भरमौर को पाँच में से एक समन्वित जनजातीय विकास परियोजना का दर्जा मिला। इस योजना में परिवहन, संचार, कृषि और उससे संबंधित क्रियाओं को सामाजिक विकास, सामुदायिक सेवाओं के विकास को प्राथमिकता दी गई। इस उपयोजना के लागू होने से सामाजिक लाभ में साक्षरता दर में तेजी से वृद्धि, लिंग अनुपात में सुधार, बाल-विवाह में कमी आई है। जनजातीय क्षेत्रों में जलवायु कठोर होती है। संसाधनों की कमी रहती है। आर्थिक-सामाजिक विकास भी नहीं हो पाया है। इन क्षेत्रों का आर्थिक आधार मुख्य रूप से कृषि और उससे जुड़ी आर्थिक क्रियाएँ जैसे भेड़ व बकरी पालन शामिल है। इन क्षेत्रों में आज भी कृषि परम्परागत तकनीकों से की जाती है।

प्रश्न 7.
पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम पर संक्षिप्त नोट लिखें।
अथवा
पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम कहाँ-कहाँ पर आरंभ किए गए?
उत्तर:
पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में प्रारंभ किया गया। इसके अंतर्गत उत्तर प्रदेश के सभी पर्वतीय जिले, मिकिड़ व असम उत्तरी कछार की पहाड़ियाँ, पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग और तमिलनाडु के नीलगिरी को मिलाकर कुल 15 जिले शामिल हैं। पहाड़ी एवं पर्वतीय क्षेत्रों को संरक्षण एवं उनके रख-रखाव के लिए केन्द्रीय एवं राज्य सरकार द्वारा विशेष कार्य किए गए। इसका मुख्य कार्य वहाँ की वनस्पति एवं कृषि योग्य जमीन का संरक्षण करना था और वहाँ से गए हुए लोगों को उन्हीं के स्थान पर रोजगार प्राप्त करवाना था।

पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए बनी राष्ट्रीय समिति ने निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर पहाड़ी क्षेत्रों में विकास के लिए सुझाव दिए थे

  1. केवल प्रभावशाली नहीं, सभी लोगों को लाभ मिले
  2. स्थानीय संसाधनों और प्रतिभाओं का विकास
  3. जीविका निर्वाह अर्थव्यवस्था को निवेश-उन्मुखी बनाना
  4. अंतः प्रादेशिक व्यापार में पिछड़े क्षेत्रों का शोषण न हो
  5. पिछड़े क्षेत्रों की बाज़ार व्यवस्था में सुधार करके श्रमिकों को लाभ पहुँचाना
  6. पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखना।

प्रश्न 8.
आर्थिक योजना के लिए तीन स्तरीय प्रादेशिक विभाजन का वर्णन करें।
उत्तर:
1. बृहत स्तरीय प्रदेश-ये सबसे उच्च स्तर के प्रदेश होते हैं। इनमें एक से अधिक राज्य सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार के प्रदेश अपनी सीमा के अंदर पूर्ण विकास की क्षमता रखते हैं। ये क्षेत्र भौगोलिक सम्पदा, कच्चे माल, शक्ति के साधनों में आत्मनिर्भर होते हैं।

2. मध्यम स्तरीय प्रदेश यह प्रदेश एक या एक से अधिक राज्यों के कुछ जिलों का संगठित स्वरूप होता है। 3. अल्पार्थक स्तरीय प्रदेश ये सबसे छोटे और निम्न स्तर के योजना प्रदेश होते हैं। इनमें कई विकास केन्द्र शामिल होते हैं।

प्रश्न 9.
भारत के विकास में प्रादेशिक विषमताओं की तीन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में नियोजित विकास की प्रक्रिया में प्रादेशिक विषमताओं की झलक प्रस्तुत होती है। विकास का फल आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को उस हिसाब से नहीं मिल पाया जितना अपेक्षित था। इस सन्दर्भ में कुछ उदाहरण उल्लेखनीय हैं जो निम्नलिखित हैं
(1) वर्ष 1999-2000 में बिहार में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 6,328 रुपए थी, जबकि दिल्ली में यह आय 35,705 रु० थी। इस प्रकार राज्यों में न्यूनतम और अधिकतम आय का अनुपात 1:56 था।

(2) देश के विभिन्न भागों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के अनुपात में भी अंतर पाया जाता है। वर्ष 1999-2000 में जम्मू और कश्मीर में गरीबों का प्रतिशत 3.48 था, जबकि ओडिशा में यह 47.95 प्रतिशत था।

(3) नगरीकरण की प्रक्रिया भी विकास का प्रमुख संकेतक माना जाता है। राज्यों में नगरीय जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त अंतर पाया जाता है। अरुणाचल प्रदेश में नगरीय जनसंख्या का अनुपात 5.50 प्रतिशत है, जबकि गोवा में यह 49.77 प्रतिशत है।

प्रश्न 10.
पंचवर्षीय योजनाओं के कोई चार मुख्य उद्देश्य बताएँ।
उत्तर:
पंचवर्षीय योजनाओं के मुख्य चार उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करना।
  2. कृषि उत्पादकता को बढ़ाना और रोजगार में वृद्धि करना।
  3. आर्थिक असमानता समाप्त या कम करना।
  4. आत्मनिर्भरता और औद्योगिक विकास में वृद्धि करना।

HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 9 भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास

प्रश्न 11.
योजना आयोग के कोई चार कार्य बताइए।
उत्तर:
योजना आयोग के कोई चार कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. देश के संसाधनों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए देश के विकास के लिए योजनाएँ तैयार करना।
  2. विभिन्न कार्यक्रमों के लिए प्राथमिकताओं को निर्धारित करना।
  3. योजनाओं की प्रगति का समय-समय पर मूल्यांकन करना।
  4. आर्थिक विकास में बाधक कारकों का पता लगाना। इन कारकों को ध्यान में रखकर आयोग उन उपायों तथा मशीनरी को भी निश्चित करता है जिनका उपयोग करके आर्थिक विकास की प्राप्ति हो।

प्रश्न 12.
भरमौर क्षेत्र की कोई चार विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
भरमौर क्षेत्र की चार मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. भरमौर क्षेत्र पर्वतीय होते हैं।
  2. ये क्षेत्र आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े होते हैं।
  3. यहाँ की जलवायु कठोर होती है।
  4. इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का जीवन स्तर निम्न होता है।

प्रश्न 13.
स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् भारत में नियोजन (Planning) को क्यों अपनाया गया? अथवा भारत में योजना पद्धति को क्यों चुना गया?
अथवा
नियोजन की आवश्यकता के कोई चार कारण लिखें।
उत्तर:
भारत में आर्थिक नियोजन को अपनाने के मुख्य चार कारण निम्नलिखित हैं
1. पिछड़ी हुई कृषि प्रणाली-भारत की स्वतंत्रता के समय देश में कृषि की अवस्था बहुत खराब थी, खाने तक के लिए भी अनाज विदेशों से मंगवाना पड़ता था। खाद्य वस्तुओं में आत्मनिर्भरता लाने के लिए नियोजन की बहुत आवश्यकता थी।

2. रोज़गार-स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय भारत में बहुत बेरोज़गारी थी। लोगों को रोज़गार दिलाने के लिए एक ओर तो बड़े उद्योगों को लगाना आवश्यक था और दूसरी ओर लघु-उद्योगों के लिए आर्थिक सहायता देकर लोगों को रोजगार दिलाना था।

3. औद्योगिकीकरण भारत में उद्योग भी बहुत पिछड़े हुए थे। लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नए उद्योगों को लगाने और पहले से चल रहे उद्योगों में सुधार करने के लिए भी नियोजन आवश्यक था।

4. शिक्षा-उद्योगों के संचालन के लिए तकनीकी कर्मचारी तथा वित्त प्रशासक मिल सकें, इसके लिए शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करना आवश्यक था। भारत में छोटे तथा बड़े स्तर पर अनेक संस्थाएँ स्थापित करने की आवश्यकता थी जिससे विद्यार्थी इंजीनियरिंग, डॉक्टरी तथा अन्य व्यवस्था के बारे में शिक्षा प्राप्त कर सकें।

प्रश्न 14.
भारत में नियोजन के मुख्य उद्देश्य बताएँ?
अथवा
भारत में नियोजन की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
भारत में आर्थिक नियोजन के मुख्य चार उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1. राष्ट्रीय आय में वृद्धि-नियोजन का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय आय में वृद्धि करना है। इस उद्देश्य हेतु विभिन्न योजनाओं में राष्ट्रीय आय में वार्षिक वृद्धि दर का लक्ष्य निश्चित किया गया। जैसे दसवीं पंचवर्षीय योजना में आठ प्रतिशत का लक्ष्य निर्धारित . किया गया। नियोजन के कारण ही प्रथम पंचवर्षीय योजना से ग्यारहवीं योजना तक राष्ट्रीय आय में वृद्धि के लक्ष्यों में तीन गुणा . तक वृद्धि हुई थी।

2. रोजगार के अवसरों में वृद्धि-सभी को रोजगार उपलब्ध कराना नियोजन का दूसरा प्रमुख उद्देश्य है। इसलिए प्रत्येक योजना में रोज़गार के अवसरों को बढ़ाने तथा अर्द्धबेरोजगारी को दूर करने के कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान दिया गया है।

3. समाजवादी ढंग के समाज की स्थापना-नियोजन का उद्देश्य देश में समाजवादी ढंग से समाज की स्थापना करना है। यह समाज सामाजिक न्याय ( Social Justice) पर आधारित होता है। यह समाज शोषण-रहित सिद्धांत पर आधारित होता है जिसमें लोगों की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।

4. निर्धनता दूर करना–पाँचवीं योजना का प्रमुख लक्ष्य ‘गरीबी हटाओ’ था। इसलिए देश में न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम पर जोर दिया जा रहा है ताकि गरीब लोगों की आय में वृद्धि हो और उनकी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।

प्रश्न 15.
राष्ट्रीय विकास परिषद् के मुख्य कार्य कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
राष्ट्रीय विकास परिषद् के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. सभी पंचवर्षीय योजनाओं अथवा वार्षिक योजनाओं के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत (Guidelines) निर्धारित करना।
  2. योजना आयोग ने योजनाओं का जो प्रारूप तैयार किया है, उस पर विचार-विमर्श करना और उसको अंतिम स्वीकृति प्रदान करना।
  3. सामाजिक-आर्थिक विकास की दिशा और उसके लक्ष्य निर्धारित करना।
  4. योजनाओं के कार्यान्वयन पर निगाह रखना और योजना-अवधि के दौरान हुई प्रगति का समय-समय पर मूल्यांकन करना।
  5. लक्ष्य से कम हुई प्रगति के कारणों की समीक्षा करना और ऐसे सुझाव देना अथवा उपाय बतलाना जिनसे कि योजना-लक्ष्यों को पूरा करने में मदद मिले।

प्रश्न 16.
अच्छे नियोजन के लिए आवश्यक चार बातें लिखें।
अथवा
अच्छे नियोजन की चार विशेषताओं पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
अच्छे नियोजन के लिए निम्नलिखित बातों की आवश्यकता होती है-

  1. नियोजन के उद्देश्यों की स्पष्ट रूप से व्याख्या की जानी चाहिए।
  2. उद्देश्यों को केवल मात्र निर्धारित करने से काम नहीं चलता। इन्हें प्राप्त करने के लिए आवश्यक साधनों तथा उपायों की भी व्यवस्था होनी चाहिए।
  3. नियोजन कठोर नहीं होना चाहिए। इसे इतना लचीला होना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर उनमें संशोधन किया जा सके।
  4. नियोजन के विभिन्न भागों में संतुलन होना आवश्यक है।

प्रश्न 17.
भारत के विकास में पहली एवं दूसरी योजनाओं की भूमिका का उल्लेख कीजिए। अथवा पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजनाओं पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
नियोजन द्वारा विकास का प्रारंभ सर्वप्रथम सोवियत संघ में हुआ और वहाँ पर इसको शानदार सफलता मिली। भारत में नियोजित विकास का सन् 1951 में आरंभ हुआ।
1. पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56)-इस योजना में कृषि के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई थी। योजना काल के दौरान कृषि, सामुदायिक विकास तथा सिंचाई कार्यक्रम पर लगभग ₹ 724 करोड़ खर्च किए गए। साथ ही औद्योगिक क्षेत्र में भी संतोषजनक प्रगति हुई। सार्वजनिक क्षेत्र में कई नए कारखाने लगाए गए; जैसे चितरंजन में रेलवे इंजन बनाने का तथा सिंदरी में खाद बनाने का कारखाना आदि।।

2. दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) इस योजना में समाजवादी समाज की अवधारणा पर बल देते हए सभी वर्गों के विकास पर बल दिया गया। इस योजना के अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र में ₹ 4800 करोड़ का निवेश प्रस्तावित किया गया था जिसमें से करीब ₹ 4600 करोड़ व्यय किए गए। इस योजना में भारी उद्योगों के विकास पर विशेष बल दिया गया था।

प्रश्न 18.
भारत की चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-74) का संक्षिप्त उल्लेख करें।
उत्तर:
इस योजना में सघन खेती (Intensive Agriculture), पौध संरक्षण (Plant Conservation) तथा उन्नत बीजों (Improved Seeds) के प्रयोग पर विशेष बल के अतिरिक्त समाज के वंचित और कमजोर वर्गों के आर्थिक उत्थान के लिए उन्हें शिक्षा तथा रोजगार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने पर भी विशेष बल दिया गया। इसके साथ ही बड़े उद्योगों तथा खनिजों के विकास के लिए ₹ 3630 करोड़ की धनराशि निर्धारित की गई थी। इस योजना में आर्थिक विकास दर को 5.7 प्रतिशत के स्तर पर लाना निर्धारित किया गया था, लेकिन इसे केवल 2.1 प्रतिशत ही प्राप्त किया जा सका। इस दौरान 1971 में भारत-पाक युद्ध और इससे पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से आए लाखों शरणार्थियों के चलते अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था।

प्रश्न 19.
भारत की नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) का संक्षिप्त उल्लेख करें।
उत्तर:
नौवीं पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 1997 को लागू की गई और इसकी अवधि 31 मार्च, 2002 तक की थी। इस योजना में प्रस्तावित निवेश ₹ 8,59,200 करोड़ था, जबकि वास्तविक निवेश ₹ 9,41,041 करोड़ रहा। इस योजना के अंतर्गत कृषि और ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने के साथ-साथ रोजगार के अवसरों पर जोर दिया गया। आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के साथ-साथ कीमतों को स्थिर रखने, सभी को खाद्यान्न उपलब्ध कराने, पेयजल तथा बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने और प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। इस योजना में 6.5 प्रतिशत की प्रस्तावित दर के विपरीत 5.4 प्रतिशत की विकास दर प्राप्त की जा सकी।

दीर्घ-उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत की पंचवर्षीय योजनाओं की प्रमुख उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
भारत की पंचवर्षीय योजनाओं की मुख्य सफलताओं का वर्णन करें। अथवा भारत में नियोजित विकास की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत बारह पंचवर्षीय और छः वार्षिक योजनाएँ पूरी कर चुका है। नियोजन के इतने वर्षों में, हमारी उपलब्धियाँ श्रेष्ठ (Outstanding) नहीं रही। फिर भी, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान हमारे जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि हुई है। सन् 1951 की तुलना में (जब प्रथम पंचवर्षीय योजना आरम्भ हुई थी) आज भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति बहुत बेहतर है। उपलब्धियों का विश्लेषण योजनाओं के लक्ष्यों तथा उद्देश्यों के सन्दर्भ में किया जाता है। निम्नलिखित तथ्य भारत में पंचवर्षीय योजनाओं की उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हैं
1. राष्ट्रीय आय में वृद्धि राष्ट्रीय आय आर्थिक संवृद्धि का सूचक है। भारत में राष्ट्रीय आय में वृद्धि निश्चित रूप से नियोजन योजन के पहले दशक (1950-51 से 1960-61) के बीच राष्ट्रीय आय में 3.8 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से औसत वृद्धि हुई। दूसरे दशक (1960-61 से 1970-71) में यह घटकर 3 प्रतिशत रह गई। तीसरे दशक (1970-71 से 1980-81) के दौरान यह बढ़कर 3.3 प्रतिशत हो गई। सन् 1980-81 से 2006-07 के बीच यह बढ़कर 6.3 प्रतिशत हो गई। दसवीं तथा ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर बहुत उत्साहवर्द्धक रही। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान यह 7.8 प्रतिशत तथा ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के पहले दो वर्षों के दौरान यह लगभग 8 प्रतिशत रही। वर्ष 2008-09 के दौरान विश्व मन्दी के कारण वृद्धि दर बहुत कम रही है। फिर भी हमें आशा है कि हम विश्व मन्दी की मार से बचे रहेंगे। हमें 6.7 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि दर बनाए रहने की उम्मीद है जबकि संसार की उन्नत अर्थव्यवस्थाएँ गतिहीनता की ओर बढ़ रही हैं।

2. प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि योजनाओं के अधीन आर्थिक विकास को उत्साहित करने वाले तत्त्वों का विकास होने के कारण कृषि तथा उद्योगों के उत्पादन में सराहनीय वृद्धि हुई है तथा रोज़गार सुविधाओं का विस्तार हुआ है। भारत में सम्पूर्ण योजनाकाल में प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि दर में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं। सम्पूर्ण नियोजन की अवधि के दौरान, प्रति व्यक्ति आय की औसत वृद्धि दर स्थिर कीमतों पर 2.9 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही है। यह इस तथ्य का संकेत है कि विकास की प्रक्रिया पूरी तरह से जड़ पकड़ नहीं पाई है, यद्यपि विकास की गति को अभी उड़ान भरनी है।

3. पूँजी निर्माण की दर में वृद्धि-पूँजी निर्माण आर्थिक विकास का मूल निर्धारक है। एक देश का आर्थिक विकास पूँजी निर्माण की दर पर निर्भर करता है। पूँजी निर्माण की दर बचत तथा निवेश पर निर्भर करती है। पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान, बचत तथा निवेश की दर में काफी वृद्धि हुई है। सन् 1950-51 में, भारत में बचत की दर राष्ट्रीय आय का 5.5% थी जो 2010-11 में बढ़कर 32.3% हो गई। 10वीं योजना के अन्त में भारत में निवेश दर का अनुमान 32.5% था, 2010-11 में यह 35.1% अनुमानित है।

4. कृषि का विकास-कृषि विकास के लिए भारत सरकार ने बहुत-सी योजनाएँ चालू की हैं, जिनका कृषि उत्पादन पर अच्छा प्रभाव पड़ा है। आज भारतीय कृषि में ऊँची उपज वाले बीज, रासायनिक खाद, मशीनों तथा नए ढंगों का प्रयोग किया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन में सराहनीय वृद्धि हुई है, जिसको हरित-क्रान्ति का नाम दिया गया है।

उदाहरणस्वरूप अनाज का उत्पादन 1951-52 में 550 लाख टन से बढ़कर 2011-12 में 2448 लाख टन हो गया था। नियोजन की अवधि के दौरान कृषि उत्पादन की औसत वृद्धि दर 2.8 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी। हमने देखा कि कृषि उत्पादन के स्तर में स्पष्ट परिवर्तन हुआ है किन्तु कृषि उत्पादन की वृद्धि दर इन सभी वर्षों में स्थिर (Stable) नहीं रही। इसमें एक वर्ष से दूसरे वर्ष उतार-चढ़ाव होता रहा है जो कि देश में जलवायु सम्बन्धी संवेदनशीलता का प्रतीक है। उपयुक्त मानसून के कारण अच्छी फसल तथा खराब मानसून के कारण खराब फसल का उत्पादन हुआ है।

5. औद्योगिक विकास योजनाओं के अधीन औद्योगिक क्षेत्र में कारखानों की संख्या, पूँजी निवेश तथा औद्योगिक उत्पादन में तीव्रता से वृद्धि हुई है। पूँजीगत वस्तु उद्योग; जैसे लोहा तथा इस्पात, मशीनरी, रासायनिक खादें आदि का बहुत सन्तोषजनक विकास हुआ है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का भी पर्याप्त विकास हुआ है। उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में देश ने लगभग आत्मनिर्भरता प्राप्त कर ली है।

उद्योग के पर्याप्त आधुनिकीकरण तथा विविधीकरण के फलस्वरूप आज भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की अर्थव्यवस्था में दसवीं सबसे बड़ी औद्योगिक अर्थव्यवस्था बन गई है। नियोजन की अवधि (1951-2012) के दौरान औद्योगिक उत्पादन की औसत वृद्धि दर 6.9 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही है। अतः योजना के काल में औद्योगिक उत्पादन में निरन्तर वृद्धि हुई है। औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर (यद्यपि उतार-चढ़ाव से मुक्त नहीं थी) कृषि उत्पादन की वृद्धि दर से काफी अधिक स्थिर रही है।

6. आर्थिक आधारिक संरचना का विकास योजना अवधि में आर्थिक आधारिक संरचना में काफी प्रगति हुई है। इसमें मुख्य रूप से यातायात, संचार के साधन, सिंचाई की सुविधाएँ, बिजली की उत्पादन क्षमता आदि शामिल किए जाते हैं। अर्थव्यवस्था में ऊर्जा निर्माण (Power-generation) में बहुत वृद्धि हुई है। सड़कों, रेलवे, बन्दरगाहों, हवाई अड्डों, दूर-संचार, बैंकिंग, बीमा आदि सभी में बहुत विकास हुआ है। योजना अवधि में बेहतर आधारिक संरचना के उपलब्ध होने से आर्थिक विकास की गति में तेजी आई है। नियोजन काल में नए बिजली-घर स्थापित किए गए हैं। बिजली आपूर्ति में तीव्रता से वृद्धि हुई है।

देश के भिन्न-भिन्न भागों में गाँवों को शहरों के साथ सड़कों तथा रेलों के द्वारा जोड़ दिया गया है, जिसके कारण देश में कृषि तथा औद्योगिक विकास की तथा श्रम की गतिशीलता में वृद्धि हुई है, जिसका लोगों के जीवन-स्तर पर अच्छा प्रभाव पड़ा है। कृषि विकास, नए उद्योगों की स्थापना तथा पुराने उद्योगों का आधुनिकीकरण करने के लिए कर्जे की सुविधाएँ देने के लिए सरकार ने व्यापारिक बैंक तथा वित्तीय संस्थाओं की स्थापना की है। बैंकों को पिछड़े भागों में शाखाएँ खोलने के लिए आदेश दिए गए हैं, जिसके कारण देश में बैंकों की शाखाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

7. सामाजिक आधारिक संरचना का विकास-सामाजिक आधारिक संरचना में शिक्षा, स्वास्थ्य तथा चिकित्सा, परिवार कल्याण आदि सेवाओं को सम्मिलित किया जाता है। इस क्षेत्र में भी पंचवर्षीय योजनाओं ने बहुत विकास किया है, जैसा कि जीवन की गुणवत्ता से सम्बन्धित आँकड़ों से स्पष्ट होता है

  • मृत्यु-दर-सन् 1951 में मृत्यु दर 27 प्रति हजार थी जो कि सन् 2011 में घटकर 7.2 प्रति हजार रह गई।
  • औसत आयु-सन् 1951 में 32 वर्ष से बढ़कर 2010-11 में 65.4 वर्ष हो गई।
  • शिक्षा सुविधाएँ-स्कूली बच्चों की संख्या सन् 1951 से तीन गुना तथा कॉलेज के विद्यार्थियों की संख्या पाँच गुना बढ़ गई है।
  • इंजीनियरिंग कॉलेजों में वार्षिक दाखिलों की संख्या जो सन् 1950 में 7,100 थी अब बढ़कर 1,33,000 हो गई है।

8. रोज़गार योजनाओं की अवधि में रोज़गार के अवसर बढ़ाने के बहुत प्रयत्न किए गए हैं। प्रथम योजना में 70 लाख, दूसरी योजना में 100 लाख तथा तीसरी योजना में 145 लाख लोगों को रोज़गार प्रदान किया गया। चौथी योजना में 180 लाख लोगों को तथा पाँचवीं योजना में 190 लाख लोगों को रोजगार प्रदान किया गया। सातवीं तथा आठवीं योजनाओं में क्रमशः 340 लाख तथा 398 लाख लोगों को रोजगार दिया गया। एक अनुमान के अनुसार नौवीं योजना के अन्त तक लगभग 41 करोड़ 64 लाख लोगों को रोज़गार दिया गया। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में 5.8 करोड़ रोज़गार के अवसरों का सजन करने का लक्ष्य था।

9. आधुनिकीकरण-योजनाओं की अवधि में अर्थव्यवस्था में जो संरचनात्मक तथा संस्थागत परिवर्तन हुए हैं वे इस बात के सूचक हैं कि अर्थव्यवस्था का काफी आधुनिकीकरण हुआ है। कुछ महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक परिवर्तन इस प्रकार हैं-
(i) राष्ट्रीय आय की संरचना में उद्योगों तथा सेवाओं का योगदान काफी बढ़ गया है

(ii) आधुनिक तकनीकी का प्रयोग करने वाले उद्योगों की संख्या

(iii) कृषि क्षेत्र में आधुनिक तकनीकी का प्रयोग निरन्तर बढ़ा है। संस्थागत परिवर्तनों में उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण सम्मिलित हैं, जो कि विकास की रणनीति, छोटे पैमाने के उद्योगों के अन्तर-क्षेत्रीय विस्तार एकाधिकारी व्यवहार पर ‘ प्रतिबन्ध इत्यादि के मुख्य तत्त्व हैं।

10. आत्म-निर्भरता-नियोजन काल में देश में आत्मनिर्भरता के सम्बन्ध में काफी प्रगति देखी जा सकती है। विभिन्न योजनाओं में विदेशी सहायता में निरन्तर कमी हुई है। आयातों की वृद्धि दर भी निरन्तर गिरावट की ओर है। निर्यातों ने खूब उन्नति की है। इनमें निरन्तर बढ़ने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। अतः भारत में योजनाएँ अर्थव्यवस्था को आत्म-निर्भरता की ओर बढ़ाने में सफल रही हैं।

संक्षेप में, भारत ने नियोजन की अवधि में विशेष प्रगति की है। देश को औद्योगिक विकास, कृषि के आधुनिकीकरण, व्यापारीकरण एवं सेवा-क्षेत्र के बहुमुखी विस्तार की ओर एक नींव स्थापित करने में सफलता मिली है। किन्तु हमारे नियोजित विकास कार्यक्रमों में गम्भीर दोष भी पाए गए हैं। इन दोषों के कारण ही हमारी उपलब्धियाँ विकास के लक्ष्य को पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सकी। काफी कुछ प्राप्त किया जा चुका है, किन्तु बहुत कुछ करना अभी बाकी है, अतः कड़ा प्रयास करना होगा।

प्रश्न 2.
भारत की विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56)-पहली योजना में समग्र विकास पर बल दिया गया था फिर भी मलतः यह एक कृषि प्रधान योजना थी। इस योजना में बिजली को भी सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई थी। संयुक्त राज्य अमेरिका की टेनेसी वैली अथॉर्टी का अनुकरण करते हुए ऐसी अनेक बहुउद्देशीय योजनाओं को आरम्भ किया गया जिनसे बाढ़ नियन्त्रण, सिंचाई, बिजली उत्पादन, मछली-पालन और मृदा अपरदन के नियन्त्रण को बल मिलता था। भाखड़ा नंगल, कोसी, दामोदर व हीराकुड परियोजनाएँ इसके उदाहरण हैं। ग्रामीण समुदायों के विकास के लिए अनेक सामुदायिक विकास कार्यक्रम भी चलाए गए। उन्हें निवेश, वित्त और सेवाओं के बारे में तथा तकनीकी जानकारियाँ दी गईं।

दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61)-इस योजना का मुख्य उद्देश्य समाजवादी समाज की स्थापना करना था। इस योजना के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार थे-

  • राष्ट्रीय आय में 25% की वार्षिक वृद्धि।
  • आधारभूत और भारी उद्योगों के विकास के साथ तीव्र औद्योगिकीकरण।
  • रोजगारों के अवसरों को बढ़ाना।
  • राष्ट्रीय आय के असमान बंटवारे और आर्थिक शक्ति के केन्द्रीयकरण को कम करना।

तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66) इस योजना का मुख्य उद्देश्य आत्म-निर्भरता का विकास करना था। इसके लिए निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किए गए थे

  • राष्ट्रीय आय में 5% की वृद्धि करना तथा निवेश को बढ़ावा देना ताकि विकास की यह दर कायम रह सके।
  • खाद्यान्नं में आत्म-निर्भरता प्राप्त करना तथा कृषि उत्पादन में इतनी बढ़ोत्तरी करना कि उद्योगों और निर्यात की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।
  • रोजगार के अवसरों को बढ़ाना।
  • आय और सम्पत्ति के वितरण की विषमताओं को कम करना।

चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-74) इस योजना का मुख्य लक्ष्य ‘स्थिरता के साथ विकास’ था। इस योजना के अन्य मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे

  • विकास की प्रक्रिया को तेज करना।
  • कृषि उत्पादन में उतार-चढ़ाव को कम करना।
  • विदेशी सहायता की अनिश्चितता के प्रभाव को कम करना।
  • अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए औद्योगीकरण।

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79)-इस योजना का मुख्य उद्देश्य गरीबी हटाना और आत्म-निर्भरता प्राप्त करना था। मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करना और आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ता प्रदान करना। छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85)-इस योजना के मुख्य उद्देश्य बेरोजगारी और अर्द्धबेरोजगारी को दूर करना व जनसंख्या के निर्धन वर्ग के जीवन-स्तर में प्रशंसनीय वृद्धि करना।

सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) इस योजना के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे-

  • अन्न के उत्पादन में वृद्धि।
  • सामाजिक न्याय व रोजगार के अवसरों का निर्माण।
  • आत्म-निर्भरता तथा बेहतर कुशलता और उत्पादकता।

आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) यह योजना नई आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी। इस योजना का मुख्य उद्देश्य निजी क्षेत्र को महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान करना, उद्योग, कृषि तथा संबद्ध क्षेत्रों में तीव्र वृद्धि, आयात और निर्यात में भरपूर वृद्धि तथा भुगतान शेष का घटना।

नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002)-इस योजना के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे-

  • सभी के लिए भोजन उपलब्ध कराना और देश को भूख से मुक्ति दिलाना।
  • न्यूनतम आवश्यकताएँ; जैसे स्वच्छ जल, प्राथमिक चिकित्सा सुविधाएँ, शिक्षा तथा आवास की सुविधा प्रदान करना।
  • सतत् पोषणीय विकास।
  • जनसंख्या वृद्धि को रोकना।
  • सूचना प्रौद्योगिकी का विकास।

दसवीं पंचवर्षीय योजना(2002-07) इस योजना के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे-

  • आर्थिक विकास की दर को 8% निर्धारित करना।
  • औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाकर निर्यात और विश्व व्यापार में अपना हिस्सा बढ़ाने का लक्ष्य रखना।
  • अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र की भूमिका को बढ़ावा देना।
  • सतत् और टिकाऊ विकास के लिए अवसंरचना में वृद्धि करना।।
  • वित्तीय और मौद्रिक नीति में अधिक लचीलापन लाना।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना(2007-12)-इस योजना के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे-

  • तीव्र तथा अधिक समावेशी विकास।
  • कृषि की विकास दर को दुगुना करना।
  • सामाजिक क्षेत्र-शिक्षा तथा स्वास्थ्य का विकास करना।
  • ग्रामीण आधारिक संरचना का विकास करना।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना(2012-17)-इस योजना के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  • तीव्र टिकाऊ एवं अधिक समावेशी विकास करना।
  • सकल घरेलू उत्पाद की दर 9% निर्धारित करना।

प्रश्न 3.
नियोजन से आप क्या समझते हैं? विकसित योजना का क्या महत्त्व है?
अथवा
नियोजन से क्या अभिप्राय है? भारत में इसकी क्या आवश्यकता है?
अथवा
भारत में आर्थिक नियोजन अपनाने के कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:
नियोजन का अर्थ (Meaning of Planning) साधारण शब्दों में, किसी भी देश के सभी साधनों और शक्तियों द्वारा पूर्व निश्चित अवधि के भीतर निर्धारित लक्ष्यों और उद्देश्यों को प्राप्त करना नियोजन (Planning) कहलाता है। नियोजित अर्थव्यवस्था के द्वारा देश का इस प्रकार समुचित आर्थिक विकास किया जाता है जिससे उसका लाभ सारे देश को पहुँच सके।

विभिन्न विद्वानों द्वारा नियोजन की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं-
1. भारत के योजना आयोग के अनुसार, “योजना मुख्य रूप से समस्याओं के तर्कशील हल ढूँढने का यत्न है तथा आर्थिक योजना का अर्थ समाज में पाए जाने वाले संभावित साधनों का प्रभावशाली प्रयोग है।”

2. साइमन स्मिथबर्ग तथा थॉमसन के अनुसार, “योजना वह गतिविधि है जिसका संबंध भविष्य के सुझावों के मूल्यांकन तथा उन गतिविधियों से होता है जिनके द्वारा प्रस्तावों को प्राप्त किया जा सके।”

3. टेरी के अनुसार, “वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक समझे जाने वाले तथ्यों, साधनों तथा गतिविधियों का सोच-समझकर चयन, प्रयोग और उन्हें एक-दूसरे के साथ संबद्ध करना ही नियोजन है।”

भारत में सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए नियोजन की आवश्यकता (Need of Planning for Socio-economic Development in India)-स्वतंत्र भारत के नेताओं ने इस बात को महसूस किया कि देश का सामाजिक तथा आर्थिक विकास एक योजनाबद्ध तरीके से किया जाए। जब रूस में सन् 1917 में साम्यवादी शासन स्थापित हुआ तो वहाँ भी भारत जैसी विषम आर्थिक परिस्थितियाँ मौजूद थीं और रूस ने इन समस्याओं को नियोजित अर्थव्यवस्था के द्वारा सुलझाया। इसके परिणामस्वरूप उसे देश की आर्थिक उन्नति तथा समृद्धि में आशातीत सफलता मिली। इससे प्रभावित होकर भारत में भी नियोजित अर्थव्यवस्था की योजना बनाई गई। भारत में आर्थिक नियोजन को अपनाने के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
1. पिछड़ी हुई कृषि प्रणाली (Backward Agricultural System)-भारत की स्वतंत्रता के समय देश में कृषि की अवस्था बहुत खराब थी, खाने तक के लिए भी अनाज विदेशों से मंगवाना पड़ता था। खाद्य वस्तुओं में आत्मनिर्भरता लाने के लिए नियोजन की बहुत आवश्यकता थी।

2. रोज़गार (Employment)-स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में बहुत बेरोज़गारी थी। लोगों को रोज़गार दिलाने के लिए एक ओर तो बड़े उद्योगों को लगाना आवश्यक था और दूसरी ओर लघु-उद्योगों के लिए आर्थिक सहायता देकर लोगों को रोज़गार दिलाना था।

3. औद्योगीकरण (Industrialisation)-भारत में उद्योग भी बहुत पिछड़े हुए थे। लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नए उद्योगों को लगाने और पहले से चल रहे उद्योगों में सुधार करने के लिए भी नियोजन आवश्यक था।

4. शिक्षा (Education)-उद्योगों के संचालन के लिए तकनीकी कर्मचारी तथा वित्त प्रशासक मिल सकें, इसके लिए शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करना आवश्यक था। भारत में छोटे तथा बड़े स्तर पर अनेक संस्थाएँ स्थापित करने की आवश्यकता थी जिससे विद्यार्थी इंजीनियरिंग, डॉक्टरी तथा अन्य व्यवस्था के बारे में शिक्षा प्राप्त कर सकें।

5. आर्थिक संकट में उपयोगी (Useful in Economic Emergency)-भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही आर्थिक संकट बना हुआ है, जिसने वर्तमान समय में और भी भयंकर रूप धारण कर लिया है। नियोजन द्वारा ही देश में उपस्थित आर्थिक समस्याओं को सुलझाया जा सकता है।

HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 9 भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास

प्रश्न 4.
भारत की दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1 सितंबर, 2001 को राष्ट्रीय विकास परिषद् की 49वीं बैठक में 10वीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र को मंजूरी प्रदान की गई। तत्पश्चात् योजना आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में 5 अक्तूबर, 2001 को योजना आयोग की पूर्ण बैठक में 10वीं पंचवर्षीय योजना के प्रारूप को स्वीकृति प्रदान की गई थी। 29 अक्तूबर, 2001 को योजना आयोग के दस्तावेज़ को मंत्रिमंडल द्वारा अनुमोदित कर दिया गया।

दसवीं पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 2002 को लागू हुई और इसकी अवधि 31 मार्च, 2007 तक रही। दसवीं योजना के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र का परिव्यय 2001-02 की कीमतों पर ₹ 15,92,300 करोड़ रखा गया जिसमें केंद्रीय योजना का अंश 9,21,291 करोड़ रुपए तथा राज्यों एवं केंद्र-शासित क्षेत्रों का अंश ₹ 6,71,009 करोड़ था। योजना को केंद्र सरकार द्वारा ₹ 7,06,000 करोड़ का बजटीय समर्थन भी प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त दसवीं पंचवर्षीय योजना में जो लक्ष्य निश्चित किए गए थे, उनमें मुख्य निम्नलिखित थे

  • इस योजना में निर्धनता अनुपात को सन् 2007 तक 20 प्रतिशत तक तथा 2012 तक 10 प्रतिशत तक लाना था।
  • इस योजना के अंतर्गत सन् 2007 तक सभी के लिए प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था।
  • इस योजना में जनसंख्या वृद्धि को भी 2001-2011 के दशक तक 16.2 प्रतिशत तक सीमित रखना था।
  • इस योजना में भारत में साक्षरता दर को सन् 2007 तक 72 प्रतिशत तथा 2012 तक 80 प्रतिशत रखने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था।
  • इस योजना में सन् 2007 तक सभी प्रदूषित नदियों की सफाई का लक्ष्य रखा गया था।
  • इस योजना में शिशु मृत्यु दर को सन् 2007 तक 45 प्रति हजार तक लाने का लक्ष्य निश्चित किया गया था।
  • इस योजना के अंतर्गत प्रति व्यक्ति आय को दोगुना करने का लक्ष्य रखा गया था।

इसके अतिरिक्त जिन नीतिगत सुधारों की अपेक्षा योजना आयोग ने 10वीं योजना के दृष्टिकोण पत्र में की थी, उनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित थे
(i) योजना के लिए सकल बजटीय समर्थन में निरंतर वृद्धि ताकि योजना के अंतिम वर्ष (2006-2007) तक इसे सकल घं उत्पाद के 5 प्रतिशत तक लाया जा सके। इसके लिए इसमें 18.3 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि की गई थी।

(ii) सरकारी कर्मचारियों की संख्या में प्रति वर्ष 3 प्रतिशत बिंदु की कटौती। योजना के पाँच वर्षों की अवधि में कोई नई नियुक्ति नहीं।

(iii) सुरक्षा व्यय एवं ब्याज भुगतान को छोड़कर शेष समस्त गैर-योजना व्यय को पाँच वर्षों की अवधि में वास्तविक अर्थों में (In Real Terms) यथावत् बनाए रखना। इसका अर्थ है कि मौद्रिक
रूप में इसमें वृद्धि को 5 प्रतिशत वार्षिक के स्तर तक सीमित रखना था।

(iv) सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में सकल कर राजस्व (डीज़ल उपकर सहित) को 2001-2002 में 9.16 प्रतिशत से बढ़ाकर 2006-2007 तक 11.7 प्रतिशत करना था। कर राजस्व में वृद्धि को मुख्यतः कराधार में वृद्धि द्वारा ही प्राप्त किया जाना चाहिए।

(v) सेवा कर के दायरे में व्यापक विस्तार।

(vi) विनिवेश (Disinvestment) में वृद्धियाँ। 10वीं योजना के पहले तीन वर्षों में ₹ 16-17 हजार करोड़ की वार्षिक विनिवेश प्राप्तियाँ।

(vii) राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 5 प्रतिशत से घटाकर 2.5 प्रतिशत तक लाना था।
यद्यपि इस अवधि में आर्थिक विकास की औसत वार्षिक दर 8 प्रतिशत निर्धारित की गई जिसे बाद में घटाकर 7 प्रतिशत कर दिया गया था। निर्धारित विकास दर को प्राप्त करने के लिए दसवीं योजना में निम्नलिखित चार उपायों पर बल दिया गया था

  • ढाँचागत और सामाजिक क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाना।
  • स्रोतों का बेहतर उपयोग सुनिश्चित करना।
  • देश में निवेश के अनुकूल वातावरण तैयार करना।
  • गवर्नेस या सुशासन को बेहतर बनाना।

प्रश्न 5.
भारत की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) का वर्णन करें।
उत्तर:
भारत की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण-पत्र को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में 19 अक्तूबर, 2006 को मंजूरी योजना आयोग द्वारा दी गई। दृष्टिकोण-पत्र में आगामी योजना के निर्धारित लक्ष्य निम्नलिखित थे
(1) विकास दर, आय एवं निर्धनता-

  • 9 प्रतिशत वार्षिक विकास दर प्राप्त करना तथा विकास दर को 2011-12 के अन्त तक बढ़ाकर 10 प्रतिशत के स्तर तक लाना था।
  • वर्ष 2016-17 तक प्रति व्यक्ति आय को दोगुना तक लाने के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वार्षिक संवृद्धि दर को 8% से बढ़ाकर 10% करना था तथा इसे 10% से 12% के बीच बनाए रखना था।
  • उच्च विकास दर के लाभों को व्यापक स्तर पर लाने के लिए कृषि जीडीपी की वार्षिक संवृद्धि दर को 4% तक बढ़ाना।
  • रोजगार के 70 मिलियन नए अवसर सृजित करना।
  • शैक्षिक बेरोजगारी को 5% से नीचे लाना।
  • अकुशल श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी दर में 20% तक की वृद्धि करना।
  • उपयोग निर्धनता के हेडकाउंट अनुपात में 10 प्रतिशतांक तक की कमी लाना।

(2) शिक्षा-

  • प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर विद्यालय छोड़कर घर बैठ जाने वाले बालकों की दर (ड्रॉप आउट रेट) को वर्ष 2003-04 में 52.2% से घटाकर वर्ष 2011-12 तक 20% के स्तर पर लाना था।
  • प्राथमिक विद्यालयों में शैक्षणिक ज्ञान प्राप्त करने के न्यूनतम मानक स्तरों को प्राप्त करना एवं गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा की प्रभावशीलता के मूल्यांकन हेतु नियमित रूप से जाँच करते रहना।
  • 7 वर्ष से अधिक आयु वर्ग में साक्षरता दर को बढ़ाकर 85% करना।
  • साक्षरता में लिंग-अंतराल (जेंडर गैप) को 10 प्रतिशतांक तक नीचे लाना।
  • प्रत्येक आयु वर्ग में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वालों के अनुपात को वर्तमान में 10 प्रतिशत से बढ़ाकर ग्यारहवीं योजना के अंत तक 15% करना था।

(3) स्वास्थ्य-

  • शिशु मृत्यु दर को घटाकर 28 तथा मातृत्व मृत्यु दर को घटाकर, 30 प्रति दस हज़ार जीवित जन्म के स्तर पर लाना।
  • कुल प्रजनन दर को 2-1 तक नीचे लाना।
  • सन् 2009 तक सभी को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराना तथा ग्यारहवीं योजना के अंत तक यह सुनिश्चित करना था कि इसमें कमी न आए।
  • 0-3 वर्ष आयु वर्ग के बालकों में कुपोषण को वर्तमान के स्तर से आधा करना।
  • महिलाओं एवं लड़कियों में रक्ताल्पता को ग्यारहवीं योजना के अंत तक 50% तक घटाना था।

(4) महिलाएँ एवं बालिकाएँ-

  • 0-6 आयु वर्ग में लिंगानुपात को वर्ष 2011-12 तक बढ़ाकर 935 तथा 2016-17 तक 950 करना था।
  • यह सुनिश्चित करना कि सभी सरकारी योजनाओं के कुल प्रत्यक्ष एवं परोक्ष लाभार्थियों में महिलाओं एवं बालिकाओं का हिस्सा कम-से-कम 33 प्रतिशत हो।
  • यह सुनिश्चित करना कि काम करने की किसी बाध्यता के बिना सभी बच्चे सुरक्षित बाल्यकाल का आनंद उठाते हैं।

(5) आधारिक अवसंरचना-

  • सभी गाँवों एवं निर्धनता रेखा से नीचे के सभी परिवारों में सन् 2009 तक विद्युत् संयोजन सुनिश्चित करना तथा ग्यारहवीं योजना के अंत तक इनमें 24 घंटे विद्युत् आपूर्ति प्रवाहित कराना था।
  • सन् 2009 तक 1000 जनसंख्या वाले सभी गाँवों (पर्वतीय एवं जनजातीय क्षेत्रों में 500 जनसंख्या) तक सभी मौसमों के लिए उपयुक्त पक्की सड़कें सुनिश्चित करना तथा सन् 2015 तक सभी महत्त्वपूर्ण अधिवासों तक पक्की सड़कें बनवाना था।
  • 2007 तक देश के सभी गाँवों तक टेलीफोन पहुँचाना तथा 2012 तक सभी गाँवों में ब्रॉड-बैंड सुविधा मुहैया कराना था।
  • सन् 2012 तक सभी को घर बनाने के लिए भूमि उपलब्ध कराना तथा सन् 2016-17 तक सभी ग्रामीण निर्धनों को आवास मुहैया कराने के लिए आवास निर्माण की गति में तेजी लाना था।

(6) पर्यावरण-

  • वनों एवं पेड़ों के अंतर्गत क्षेत्रफल में 5 प्रतिशतांक की वृद्धि करना।
  • वर्ष 2011-12 तक देश के सभी बड़े शहरों में वायु गुणवत्ता के विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक प्राप्त करना था।
  • नदियों के जल को स्वच्छ बनाने के लिए समस्त शहरी तरल कचरे को उपचारित करना।

योजना आयोग की स्वीकृति के बाद ग्यारहवीं योजना के इस दृष्टिकोण-पत्र को राष्ट्रीय विकास परिषद् द्वारा 9 दिसंबर, 2006 को स्वीकृति प्राप्त हो गई। परिषद् की यह 52वीं बैठक नई दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में संपन्न हुई थी। इस 11वीं योजना में कृषि, सिंचाई, जल संसाधनों के विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि क्षेत्रों पर विशेष बल दिया गया था।\

प्रश्न 6.
भारत की बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) का वर्णन करें।
उत्तर:
भारत की बारहवीं योजना के दृष्टिकोण-पत्र को प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में योजना आयोग द्वारा मंजूरी दी गई। योजना आयोग द्वारा बारहवीं पंचवर्षीय योजना के कार्यकाल में जिन वैकल्पिक लक्ष्यों को पूरा करना था, वे निम्नलिखित थे-

  • घरेलू मामलों का निपटारा करना और महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक दशा सुधारना भी इस योजना का लक्ष्य है।
  • 9.0 फीसदी की विकास दर ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के लक्ष्य के साथ है जो हासिल करनी है।
  • बारहवीं पंचवर्षीय योजना के लिए 9.5 फीसदी औसत विकास वृद्धि दर इस योजना का लक्ष्य है।
  • इस योजना के तहत कई स्थूल आर्थिक मॉडल के सन्दर्भ में इन लक्ष्यों को प्राप्त करना है।
  • कृषि क्षेत्र के विकास में एक महत्त्वपूर्ण त्वरण की आवश्यकता है; जैसे बिजली और पानी की आपूर्ति।
  • खनन क्षेत्र में कोयला और प्राकृतिक गैस का अतिरिक्त उत्पादन करना और उपभोक्ताओं की जरूरत को पूरा करना।
  • 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान बेरोजगारी को दूर करना, बढ़ती श्रम शक्ति के लिए रोजगार उपलब्ध कराना, सेवा-क्षेत्रों पर आराम की सुविधा का प्रबन्ध करवाना, 10 फीसदी गरीबी कम करने का इरादा है, 2 फीसदी गरीबी अनुमान सालाना योजना अवधि के दौरान एक स्थायी आधार पर कम करना है।
  • सन् 2017 तक सभी को घर बनाने के लिए भूमि उपलब्ध कराना था तथा सन 2016-17 तक सभी ग्रामीण निर्धनों को आवास मुहैया कराने के लिए आवास-निर्माण की गति में तेजी लाना।

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि योजना आयोग के द्वारा प्रायः प्रत्येक योजना के संबंध में निम्नलिखित घोषणाएँ की जाती थीं

  • आर्थिक विकास को प्रोत्साहन देना और राष्ट्रीय आय में वृद्धि लाना।
  • विदेशी पूँजी पर देश की निर्भरता को कम करना तथा देश को आत्मनिर्भर बनाना।
  • सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना-जो लोग गरीबी रेखा से नीचे का जीवन बिता रहे हैं, उनके जीवन-स्तर में सुधार लाना।
  • जनसंख्या की वृद्धि पर रोक लगाना।
  • रोज़गार के अवसरों में वृद्धि तथा बेरोज़गारों को रोजगार दिलाना।

उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए योजना आयोग देश के भौतिक साधनों और मानवीय संसाधनों (Human Resources) की जाँच करके ऐसी योजनाएँ बनाता है जिससे कि समस्त साधनों का सर्वोत्तम एवं संतुलित उपयोग किया जा सके।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

HBSE 12th Class History ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
हड़प्पा सभ्यता के शहरों में लोगों को उपलब्ध भोजन सामग्री की सूची बनाइए। इन वस्तुओं को उपलब्ध कराने वाले समूहों की पहचान कीजिए।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न स्थलों की खुदाई से यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि इस सभ्यता के लोगों की भोजन सामग्री में निम्नलिखित वस्तुएँ या चीजें सम्मिलित थीं

  • अनाज-गेहूँ, जौ, मटर, ज्वार, बाजरा, तिल, सरसों, राई, चावल आदि।
  • पेड़-पौधों के उत्पाद-खजूर, तरबूज आदि।
  • माँस-पालतू पशुओं एवं जंगली जानवरों का।
  • दूध-पशुओं से।

भोजन सामग्री में शामिल इन वस्तुओं/चीजों को निम्नलिखित समूहों द्वारा उपलब्ध करवाया जाता था

  • किसान-शहरी आबादी को गाँवों के लोग अनाज उपलब्ध करवाते थे।
  • व्यापारी-व्यापारी समूह गाँवों से अनाज को शहरों तक पहुँचाते थे जहाँ अन्नागारों में इसे रखा जाता था।
  • पशुचारी समूह कृषक समुदायों के साथ-साथ पशुचारी समूह भी थे जो माँस और दूध उपलब्ध कराते थे।
  • आखेटक व मछुवारे–हड़प्पा क्षेत्र में आखेटक समूह भी थे जो जंगली पशु, शहद, जड़ी-बूटियाँ उपलब्ध कराते थे। मछुवारे भी भोजन की जरूरत पूरी करते थे।

प्रश्न 2.
पुरातत्वविद् हड़प्पाई समाज में सामाजिक-आर्थिक भिन्नताओं का पता किस प्रकार लगाते हैं? वे कौन-सी भिन्नताओं पर ध्यान देते हैं?
उत्तर:
पुरातत्वविद् हड़प्पा सभ्यता के समाज में विद्यमान सामाजिक-आर्थिक भिन्नताओं का पता लगाने के लिए एक निश्चित विधि अपनाते हैं। वे शवाधानों का परीक्षण करते हैं। दूसरा खुदाई में प्राप्त हुए विलासिता संबंधी सामग्री का विश्लेषण करते हैं। इन आधारों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. शवाधान-हड़प्पा में मृतकों के अन्तिम संस्कार का सबसे ज्यादा प्रचलित तरीका दफनाना ही था। शव सामान्य रूप से उत्तर-दक्षिण दिशा में रखकर दफनाते थे। कब्रों में कई प्रकार के आभूषण तथा अन्य वस्तुएं भी प्राप्त हुई हैं। जैसे कुछ कब्रों में ताँबे के दर्पण, सीप और सुरमे की सलाइयाँ पाई गई हैं। कुछ शवाधानों में बहुमूल्य आभूषण और अन्य सामान मिले हैं। कुछ कब्रों में बहुत ही सामान्य सामान मिला है।

शवाधानों की बनावट से भी विभेद प्रकट होता है। कुछ कळे सामान्य बनी हैं तो कुछ कब्रों में ईंटों की चिनाई की गई है। ऐसा लगता है कि चिनाई वाली कब्रे उच्चाधिकारी वर्ग अथवा अमीर लोगों की हैं। सारांश में हम कह सकते हैं कि शवाधानों से प्राप्त सामग्री से हमें हड़प्पा के समाज की सन्तोषजनक जानकारी अवश्य प्राप्त हो जाती है।

2. विलासिता-हड़प्पा सभ्यता के नगरों से प्राप्त कलातथ्यों (Artefacts) से भी सामाजिक विभेदन का अनुमान लगाया जाता है। इन कलातथ्यों को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा जाता है पहले ऐसे अवशेष थे जो दैनिक उपयोग (Utility) के थे तथा दूसरे । विलासिता (Luxury) से जुड़े थे। दैनिक उपयोग की वस्तुएं हड़प्पा सभ्यता के सभी स्थलों से प्राप्त हुई हैं। दूसरा विलासिता की वस्तुओं में महँगी तथा दुर्लभ वस्तुएँ शामिल थीं। इनका निर्माण बाहर से प्राप्त सामग्री/पदार्थों से या जटिल तरीकों द्वारा किया जाता था। उदाहरण के लिए फयॉन्स (घिसी रेत या सिलिका/बालू रेत में रंग और गोंद मिलाकर पकाकर बनाए बर्तन) के छोटे बर्तन इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं।

ये फयॉन्स से बने छोटे-छोटे पात्र संभवतः सुगन्धित द्रवों को रखने के लिए प्रयोग में लाए जाते थे। हड़प्पा के कुछ पुरास्थलों से सोने के आभूषणों की निधियाँ (पात्रों में जमीन में दबाई हुई) भी मिली हैं। उल्लेखनीय है कि जहाँ दैनिक उपयोग का सामान हड़प्पा की सभी बस्तियों में मिला है, वहीं विलासिता का सामान मुख्यतः मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे बड़े नगरों में ही मिला है जो संभवतः राजधानियाँ भी थीं। पुरातत्वविद् सामाजिक, आर्थिक स्थिति, खानपान, मकानों, विलासिता आदि भिन्नताओं पर ध्यान देते हैं।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

प्रश्न 3.
क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि हड़प्पा सभ्यता के शहरों की जल निकास प्रणाली, नगर-योजना की ओर संकेत करती है? अपने उत्तर के कारण बताइए।
उत्तर:
इस तथ्य से सहमति के पर्याप्त प्रमाण हैं कि हड़प्पा सभ्यता के नगरों की जल निकासी प्रणाली नगर-योजना की ओर संकेत करती है। सारे नगर में नालियों का निर्माण नियोजित और सावधानीपूर्वक किया जाता था।

  • वास्तव में ऐसा लगता है कि नालियों तथा गलियों की संरचना पहले की गई थी तथा बाद में इनके साथ घरों का निर्माण किया जाता था। प्रत्येक घर के गंदे पानी की निकासी एक पाईप (पक्की मिट्टी के) से होती थी जो सड़क और गली की नाली से जुड़ी होती थी।
  • शहरों के नक्शों से जान पड़ता है कि सड़कों और गलियों को लगभग एक ग्रिड प्रणाली से बनाया गया था और वे एक-दूसरे को समकोण काटती थीं।
  • जल निकासी की प्रणाली बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि यह कई छोटी बस्तियों में भी दिखाई पड़ती है। उदाहरण के लिए लोथल में आवासों के बनाने के लिए. जहाँ कच्ची ईंटों का इस्तेमाल हुआ है वहीं नालियाँ पक्की ईंटों से बनाई गई थीं। नालियों के विषय में मैके नामक पुरातत्वविद् (अर्ली इण्डस सिविलाईजेशन) ने लिखा है, “निश्चित रूप से यह अब तक खोजी गई सर्वथा संपूर्ण प्राचीन प्रणाली है।”

प्रश्न 4.
हड़प्पा सभ्यता में मनके बनाने के लिए प्रयुक्त पदार्थों की सूची बनाइए। कोई भी एक प्रकार का मनका बनाने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
(A) पदार्थ-हड़प्पा सभ्यता के लोग गोमेद, फिरोजा, लाल पत्थर, स्फटिक (Crystal), क्वार्ट्ज़ (Quartz), सेलखड़ी (Steatite) जैसे बहुमूल्य एवं अर्द्ध-कीमती पत्थरों के अति सुन्दर मनके बनाते थे। मनके व उनकी मालाएं बनाने में ताँबा, कांस्य और सोना जैसी धातुओं का भी प्रयोग किया जाता था। शंख, फयॉन्स (faience), टेराकोटा या पक्की मिट्टी से भी मनके बनाए जाते थे। इन्हें अनेक आकारों चक्राकार, गोलाकार, बेलनाकार और खंडित इत्यादि में बनाया जाता था। कुछ मनके अलग-अलग पत्थरों को जोड़कर बनाए जाते थे। पत्थर के ऊपर सोने के टोप वाले सुन्दर मनके भी पाए गए हैं।
HBSE 12th Class History Solutions Chapter 1 Img 1

(B) प्रक्रिया मनके भिन्न-भिन्न प्रक्रिया से बनाए जाते थे। वस्तुतः यह प्रक्रिया पदार्थ (Material) के अनुसार होती थी। जिस प्रकार सेलखड़ी जैसे मुलायम पत्थर के मनके सरलता से बन जाते थे और ये सबसे ज्यादा संख्या में पाए गए हैं। सेलखड़ी के चूर्ण से लेप तैयार कर उसे सांचे में डालकर अनेक आकारों के मनके तैयार किए जाते थे। सेलखड़ी के सूक्ष्म मनके बनाने की कला तकनीक अभी भी पुरातत्ववेत्ताओं के लिए पहेली बनी हुई है।

कठोर पत्थरों के मनके बनाने की प्रक्रिया कठिन थी। उदाहरण के लिए पुरातत्वविदों का विचार है कि लाल इन्द्रगोपमणि (Carnelian) एक जटिल प्रक्रिया द्वारा बनाई जाती थी। इसे पीले रंग के कच्चे माल तथा उत्पादन के विभिन्न चरणों में मनकों को आग में पकाकर प्राप्त किया जाता था। कठोर पत्थरों को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ा जाता था। आरी से काटकर आयताकार छड़ में बदला जाता था, फिर उसके बेलनाकार टुकड़े करके पॉलिश से चमकाया जाता था। अन्त में चर्ट बरमे या कांसे के नलिकाकार बरमे से उनमें छेद किया जाता था। मनकों में छेद करने के ऐसे उपकरण चन्हदडो, लोथल, धौलावीरा जैसे स्थलों से प्राप्त हुए हैं।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

प्रश्न 5.
नीचे दिए गए चित्र को देखिए और उसका वर्णन कीजिए। शव किस प्रकार रखा गया है? उसके समीप कौन-सी वस्तुएँ रखी गई हैं? क्या शरीर पर कोई पुरावस्तुएँ हैं? क्या इनसे कंकाल के लिंग का पता चलता है?
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उत्तर:
चित्र देखकर शव के संबंध में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जाते हैं

  • शव एक गर्त में रखा हुआ है। यह उत्तर-दक्षिण दिशा में रखा हुआ है।
  • शव के समीप सिर की तरफ मृदभाण्ड रखे हैं, इनमें मटका, जार आदि शामिल हैं।
  • शव पर पुरावस्तुएँ हैं विशेषतः कंगन आदि आभूषण हैं। ऐसा लगता है कि ये वस्तुएँ मृतक द्वारा अपने जीवन काल में प्रयोग की गई थीं और हड़प्पाई लोगों का विश्वास था कि वह अगले जीवन में भी उनका प्रयोग करेगा।
  • शव को देखकर उसके लिंग (sex) के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसा लगता है कि यह किसी महिला का शव है।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)

प्रश्न 6.
मोहनजोदड़ो की कुछ विशिष्टताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी नगर-योजना प्रणाली थी। इसका संबंध विकसित हड़प्पा अवस्था (2600-1900 ई.पू.) से था। नगरों में सड़कें और गलियाँ एक योजना के अनुसार बनाई गई थीं। मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाते थे। अन्य सड़कें और गलियाँ मुख्य मार्ग को समकोण पर काटती थीं जिससे नगर वर्गाकार या आयताकार खण्डों में विभाजित हो जाते थे। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगन तथा अन्य छोटे नगरों में नगर-योजना प्रणाली में काफी समानताएँ देखने को मिलती हैं। मोहनजोदड़ो नगर में व्यापक खुदाई हुई है, इससे इस नगर की विशिष्टताओं की जानकारी मिलती है। इन विशिष्टताओं से हम अन्य नगरों की विशिष्टताओं को भी समझ सकते हैं।

मोहनजोदड़ो की कुछ विशिष्टताएँ-मोहनजोदड़ो को हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा शहरी केंद्र माना जाता है। इस सभ्यता की नगर-योजना, गृह निर्माण, मुद्रा, मोहरों आदि की अधिकांश जानकारी मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई है।

1. नगर दुर्ग–यह नगर दो भागों में बँटा था। एक भाग में ईंटों से बनाए ऊँचे चबतरे पर स्थित बस्ती है। इसके चारों ओर ईंटों से बना परकोटा (किला) था, जिसे ‘नगर दुर्ग’ (Citadel) कहा जाता है। ‘नगर दुर्ग’ का क्षेत्रफल निचले नगर से कम था। इसमें पकाई ईंटों से बने अनेक बड़े भवन पाए गए हैं। दुर्ग क्षेत्र में शासक वर्ग के लोग रहते थे। निचले नगर के चारों ओर भी दीवार थी। इस क्षेत्र में भी कई भवनों को ऊँचे चबूतरों पर बनाया गया था। ये चबूतरे भवनों की आधारशिला (Foundation) का काम करते थे। दुर्ग क्षेत्र के निर्माण तथा निचले क्षेत्र में चबूतरों के निर्माण के लिए विशाल संख्या में श्रमिकों को लगाया गया होगा।

2. प्लेटफार्म-इस नगर की यह भी विशेषता रही होगी कि पहले प्लेटफार्म या चबूतरों का निर्माण किया जाता होगा तथा बाद में इस तय सीमित क्षेत्र में निर्माण कार्य किया जाता होगा। इसका अभिप्राय यह हुआ कि पहले योजना बनाई जाती होगी तथा बाद में उसे योजनानुसार लागू किया जाता था। नगर की पूर्व योजना (Pre-planning) का पता ईंटों से भी लगता है। यह ईंटें पकाई हुई (पक्की) तथा धूप में सुखाई हुई होती थीं। इनका मानक (1:2:4) आकार था। इसी मानक आकार की ईंटें हड़प्पा सभ्यता के अन्य नगरों में भी प्रयोग हुई हैं।

3. गृह स्थापत्य-मोहनजोदड़ो से उपलब्ध आवासीय भवनों के नमूनों से सभ्यता के गृह स्थापत्य का अनुमान लगाया जाता है। घरों की बनावट में समानता पाई गई है। ज्यादातर घरों में आंगन (Courtyard) होता था और इसके चारों तरफ कमरे बने होते थे। ऐसा लगता है कि आंगन परिवार की गतिविधियों का केंद्र था। उदाहरण के लिए गर्म और शुष्क मौसम में आंगन में खाना पकाने व कातने जैसे कार्य किए जाते थे। ऐसा भी प्रतीत होता है कि घरों के निर्माण में एकान्तता (Privacy) का ध्यान रखा जाता था।

भूमि स्तर (Ground level) पर दीवार में कोई भी खिड़की नहीं होती थी। इसी प्रकार मुख्य प्रवेश द्वार से घर के अन्दर या आंगन में नहीं झांका/देखा जा सकता था। बड़े घरों में कई-कई कमरे, रसोईघर, शौचालय एवं स्नानघर होते थे। कई मकान तो दो मंजिले थे तथा ऊपर पहुंचने के लिए सीढ़ियाँ बनाई जाती थीं। मोहनजोदड़ो में प्रायः सभी घरों में कुएँ होते थे। विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि मोहनजोदड़ो नगर में लगभग सात सौ कुएँ थे।

4. दुर्ग क्षेत्र में भवन-हमने जाना कि मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और कालीबंगन जैसे नगर दो भागों में बँटे हुए थे। एक भाग कच्ची ईंटों से बने ऊँचे चबूतरे पर बना होता था तथा इसके चारों ओर मोटी दीवार होती थी। इसे दुर्ग कहा जाता है। मोहनजोदड़ो दुर्ग क्षेत्र में सार्वजनिक महत्त्व अनेक भवनों के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं

(i) विशाल स्नानागार-यह मोहनजोदड़ो का सबसे महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल है। यह ईंटों के स्थापत्य का सुन्दर नमूना है। आयताकार में बना यह स्नानागार 11.88 मीटर लम्बा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.45 मीटर गहरा है। इसके उत्तर और दक्षिण में सीढ़ियाँ बनी हैं। ये सीढ़ियाँ स्नानागार के तल तक जाती हैं। यह स्नानागार पक्की ईंटों से बना है। इसे बनाने में चूने तथा तारकोल का प्रयोग किया गया था। इसके साथ ही कुआँ था जिससे इसे पानी से भरा जाता था। साफ करने के लिए इसकी पश्चिमी दीवार में तल पर नालियाँ बनी थीं। स्नानागार के तीन ओर मंडप एवं कक्ष बने हुए थे। विद्वानों का मानना है कि इस स्नानागार और भवन का प्रयोग धार्मिक समारोहों के लिए किया जाता था।
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(ii) विशाल भवन-विशाल स्नानागार के समीप ही एक विशाल इमारत के अवशेष हैं। यह भवन 69 x 23.5 मीटर आकार का है। इसके बारे में अनुमान है कि यह किसी उच्चाधिकारी (पुरोहित) का निवास स्थान रहा होगा। इसमें 33 वर्ग फुट का खुला आंगन है और इसमें तीन बरांडे खुलते हैं।

(iii) अन्नागार-मोहनजोदड़ो में स्नानागार के साथ (पश्चिम में) एक विशाल अन्नागार भी मिला है। इस अन्नागार में ईंटों से निर्मित 27 खण्ड (Blocks) हैं। इन खंडों में प्रकाश के लिए आड़े-तिरछे रोशनदान बने हुए हैं। हड़प्पा में भी इसी प्रकार का अन्नागार मिला है। इस भवन का आकार 50 x 40 मीटर है। इस भवन के बीच में सात मीटर चौड़ा गलियारा था। इसमें अनाज, कपास तथा व्यापारिक वस्तुओं का भण्डारण किया जाता था।

5. सड़कें और गलियाँ-जैसा हमने बताया कि सड़कें और गलियाँ सीधी होती थीं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। मोहनजोदड़ो में निचले नगर में मुख्य सड़क 10.5 मीटर चौड़ी थी, इसे ‘प्रथम सड़क’ कहा गया है। अन्य सड़कें 3.6 से 4 मीटर तक चौड़ी थीं। गलियाँ एवं गलियारे 1.2 मीटर (4 फुट) या उससे अधिक चौड़े थे। घरों के बनाने से पहले ही सड़कों व गलियों के लिए स्थान छोड़ दिया जाता था। उल्लेखनीय है कि मोहनजोदड़ो के अपने लम्बे जीवनकाल में इन सड़कों पर अतिक्रमण (encroachments) या निर्माण कार्य दिखाई नहीं देता।

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6. नालियों की व्यवस्था-मोहनजोदड़ो नगर में नालियों का निर्माण भी बहुत सावधानीपूर्वक किया गया था। ऐसा लगता है कि नालियों तथा गलियों की संरचना पहले की गई थी तथा बाद में इनके साथ घरों का निर्माण किया गया था। प्रत्येक घर के गन्दे पानी (Waste Water) की निकासी एक पाईप (Terracotta Pipe) से होती थी जो सड़क गली की नाली से जुड़ा होता था। जल निकासी की प्रणाली बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि यह कई छोटी बस्तियों में भी दिखाई पड़ती है।

प्रश्न 7.
हड़प्पा सभ्यता में शिल्प उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल की सूची बनाइए तथा चर्चा कीजिए कि ये किस प्रकार प्राप्त किए जाते होंगे?
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता अपने हस्तशिल्प उत्पादों के लिए विख्यात थी। हड़प्पा के लोगों ने इन शिल्प उत्पादों में महारत हासिल कर ली थी। मनके बनाना (bead-making), सीपी उद्योग (Shell Cutting Industry), धातु-कर्म (सोना-चांदी के आभूषण, ताँबा, कांस्य के बर्तन, खिलौने उपकरण आदि), तौल निर्माण, प्रस्तर उद्योग, मिट्टी के बर्तन बनाना (Pottery), ईंटें बनाना (Brick Laying), मुद्रा निर्माण (Seal-making) आदि हड़प्पा के लोगों के प्रमुख शिल्प उत्पाद थे। कई बस्तियाँ तो इन उत्पादों के लिए ही प्रसिद्ध थीं। उदाहरण के लिए चन्हुदड़ो बस्ती में मुख्यतः शिल्प उत्पादों का ही कार्य होता था। .

(A) सूची-इन उत्पादों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता थी। कच्चे माल की सूची निम्नलिखित प्रकार की है-चिकनी मिट्टी, पत्थर, तांबा, जस्ता, कांसा, सोना, शंख, कार्नीलियन (सुन्दर लाल रंग), स्फटिक, क्वार्टज़, सेलखड़ी, लाजवर्द मणि (नीले रंग के अफगानी पत्थर), कीमती लकड़ी, कपास, ऊन, सुइयाँ, फयॉन्स, जैस्पर, चक्कियाँ आदि।

(B) माल प्राप्त करने के तरीके कच्चे माल की सूची में से कई चीजें स्थानीय तौर पर मिल जाती थीं परंतु अधिकतर; जैसे पत्थर, धातु, लकड़ी इत्यादि बाहर से मंगवाई जाती थीं। पकाई मिट्टी से बनी बैलगाड़ियों के खिलौने इस बात का संकेत हैं कि बैलगाड़ियों का प्रयोग सामान का आयात करने के लिए होता था। सिन्धु व सहायक नदियों का भी मार्गों के रूप में प्रयोग होता था। समुद्र तटीय मार्गों का इस्तेमाल भी माल लाने के लिए किया जाता था।
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1. अंतर्खेत्रीय संपर्कों से माल की प्राप्ति-हड़प्पावासी भारतीय उपमहाद्वीप व आसपास के क्षेत्रों से माल उत्पादन के लिए वस्तुएँ (कच्चा माल) प्राप्त करते थे।

1. बस्तियों की स्थापना-सिन्ध, बलूचिस्तान के समुद्रतट, गुजरात, राजस्थान तथा अफगानिस्तान तक के क्षेत्र से कच्चा माल प्राप्त करने के लिए उन्होंने बस्तियों का निर्माण किया हुआ था। इन क्षेत्रों में प्रमुख बस्तियां थीं-नागेश्वर (गुजरात), बालाकोट, शोर्तुघई (अफगानिस्तान), लोथल आदि। नागेश्वर और बालाकोट से शंख प्राप्त करते थे। शोर्तुघई (अफगानिस्तान) से कीमती लाजवर्द मणि (नीलम) आयात करते थे। लोथल के संपर्कों से भड़ौच (गुजरात) में पाई जाने वाली इन्द्रगोपमणि (Carnelian) मँगवाई जाती थी। इसी प्रकार उत्तर गुजरात व दक्षिण राजस्थान क्षेत्र से सेलखड़ी का आयात करते थे।

स्थान/बस्तीआयातित कच्चा माल
नागेश्वरशंख
बालाकोटशंख
शोर्तुघईनीलम (लाजवर्द मणि)
लोथलइन्द्रगोपमणि
दक्षिण राजस्थान व उत्तर गुजरातसेलखड़ी
खेतड़ीतांबा
दक्षिण भारतसोना

2. अभियानों से माल प्राप्ति हड़प्पा सभ्यता के लोग उपमहाद्वीप के दूर-दराज क्षेत्रों तक अभियानों (Expeditions) का आयोजन कर कच्चा माल प्राप्त करने का तरीका भी अपनाते थे। इन अभियानों से वे स्थानीय क्षेत्रों के लोगों से संपर्क स्थापित करते थे। इन स्थानीय लोगों से वे वस्तु विनिमय से कच्चा माल प्राप्त करते थे। ऐसे अभियान भेजकर राजस्थान के खेतड़ी क्षेत्र से तांबा तथा दक्षिण भारत में कर्नाटक क्षेत्र से सोना प्राप्त करते थे। उल्लेखनीय है कि इन क्षेत्रों से हड़प्पाई पुरा वस्तुओं तथा कला तथ्यों के साक्ष्य मिले हैं। पुरातत्ववेत्ताओं ने खेतड़ी क्षेत्र से मिलने वाले साक्ष्यों को गणेश्वर-जोधपुरा संस्कृति का नाम दिया है जिसके विशिष्ट मृदभांड हड़प्पा के मृदभांडों से भिन्न हैं।

2. दूरवर्ती क्षेत्रों से संपर्क-हड़प्पा सभ्यता के नगरों व्यापारियों का पश्चिम एशिया की सभ्यताओं के साथ संपर्क था। उल्लेखनीय है कि मेसोपोटामिया हड़प्पा सभ्यता के मुख्य क्षेत्र से बहुत दूर स्थित था फिर भी इस बात के साक्ष्य मिल रहे हैं कि इन दोनों सभ्यताओं के बीच व्यापारिक संबंध था।

1. तटीय बस्तियाँ–यह व्यापारिक संबंध समुद्रतटीय क्षेत्रों के समीप से (समुद्री मार्गों से) यात्रा करके स्थापित हुए थे। मकरान (बलूचिस्तान) तट पर सोटकाकोह बस्ती तथा सुत्कागेंडोर किलाबन्द बस्ती इन यात्राओं के लिए आवश्यक राशन-पानी प्रदान करती होगी।

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2. मगान-ओमान की खाड़ी पर स्थित रसाल जनैज (Rasal-Junayz) भी व्यापार के लिए महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह थी। सुमेर के लोग ओमान को मगान (Magan) के नाम से जानते थे। मगान में हड़प्पा सभ्यता से जुड़ी वस्तुएँ; जैसे मिट्टी का मर्तबान, बर्तन, इन्द्रगोप के मनके, हाथी-दांत व धातु के कला तथ्य मिले हैं। हाल ही में पुरातात्विक खोजों से संकेत प्राप्त होते हैं कि हड़प्पा के लोग संभवतः ओमान (अरब प्रायद्वीप के दक्षिण-पश्चिम छोर पर स्थित) से ताँबा मँगवाते थे। हड़प्पाई कला तथ्यों (Artefacts) और ओमानी ताँबे दोनों में निकिल (Nickel) के अंशों का मिलना दोनों के सांझा उद्भव (Origin) की ओर संकेत करता है।

3. दिलमुन–फारस की खाड़ी में भी हड़प्पाई जहाज पहुँचते थे। दिलमुन (Dilmun) तथा पास के तटों पर जहाज जाते थे। दिलमुन से हड़प्पा के कलातथ्य तथा लोथल से दिलमुन की मोहरें प्राप्त हुई हैं।

4. मेसोपोटामिया-वस्तुतः दिलमुन (बहरीन के द्वीपों से बना) मेसोपोटामिया का प्रवेश द्वार था। मेसोपोटामिया के लोग सिंधु बेसिन (Indus Basin) को मेलुहा (Meluhha) के नाम से जानते थे (कुछ विद्वानों के मतानुसार मेलुहा सिंधु क्षेत्र का बिगड़ा हुआ नाम है)। मेसोपोटामिया के लेखों (Texts) में मेलुहा से व्यापारिक संपर्क का उल्लेख है। पुरातात्विक साक्ष्यों से ज्ञात हुआ है कि मेसोपोटामिया में हड़प्पा की मुद्राएँ, तौल, मनके, चौसर के नमूने (dice), मिट्टी की छोटी मूर्तियाँ मिली हैं। इसका अभिप्राय है कि हड़प्पाई लोग मेसोपोटोमिया से व्यापार संपर्क रखते थे तथा संभवतः वे यहाँ से चाँदी एवं बढ़िया किस्म की लकड़ी प्राप्त करते थे।

प्रश्न 8.
चर्चा कीजिए कि पुरातत्वविद् किस प्रकार अतीत का पुनर्निर्माण करते हैं।
उत्तर:
पुरातत्वविदों को खुदाई के दौरान अनेक प्रकार के शिल्प तथ्य प्राप्त होते हैं। वे इन शिल्प तथ्यों को अन्य वैज्ञानिकों की मदद से अन्वेषण व विश्लेषण करके व्याख्या करते हैं। इस कार्य में वे वर्तमान में प्रचलित प्रक्रियाओं, विश्वासों आदि का भी सहारा लेते हैं। हड़प्पा सभ्यता के संबंध में पुरातत्वविदों के अग्रलिखित निष्कर्षों से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि वे किस प्रकार अतीत का पुनर्निर्माण करते हैं

1. जीवन-निर्वाह का आधार कृषि-पुरावशेषों तथा पुरावनस्पतिज्ञों की मदद से पुरातत्वविद् हड़प्पा सभ्यता की जीविका निर्वाह प्रणाली के संबंध में निष्कर्ष निकलते हैं। उनके अनुसार नगरों में अन्नागारों का पायां जाना इस बात का प्रमाण है कि इस सभ्यता के लोगों के जीवन-निर्वाह या भरण पोषण का मुख्य आधार कृषि व्यवस्था थी। सिंधु नदी के जलोढ़ मैदानों में यहाँ के किसान अनेक फसलें उगाते थे। पुरा-वनस्पतिज्ञों (Archaeo-botanists) के अध्ययनों से इस क्षेत्र में उगाई जाने वाली अनेक फसलों की जानकारी मिली है।

सभ्यता के विभिन्न स्थलों से गेहूँ, जौ, दाल, सफेद चना, तिल, राई और मटर जैसे अनाज के दाने मिले हैं। गेहूँ की दो किस्में पैदा की जाती थीं। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगन से गेहूँ और जौ प्राप्त हुए हैं। गुजरात में ज्वार और रागी का उत्पादन होता था। सौराष्ट्र में बालाकोट में बाजरा व ज्वार के प्रमाण मिले हैं। 1800 ई.पू. में लोथल में चावल उगाने के प्रमाण मिले हैं। हड़प्पा सभ्यता के लोग सम्भवतः दुनिया में पहले थे जो कपास का उत्पादन करते । इसके साक्ष्य मेहरगढ़, मोहनजोदड़ो आदि स्थानों से मिले हैं। .

2. पशुपालन व शिकार-इसी प्रकार सभ्यता से प्राप्त शिल्प तथ्यों तथा पुरा-प्राणिविज्ञानियों (Archaeo-zoologists) के अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि हड़प्पन भेड़, बकरी, बैल, भैंस, सुअर आदि जानवरों का पालन करने लगे थे। कूबड़ वाला सांड उन्हें विशेष प्रिय था। गधे और ऊँट का पालन बोझा ढोने के लिए करते थे। ऊँटों की हड्डियाँ बड़ी मात्रा में पाई गई हैं। इसके अतिरिक्त भालू, हिरण, घड़ियाल जैसे पशुओं की हड्डियाँ भी मिली हैं। मछली व मुर्गे की हड्डियाँ भी प्राप्त हुई हैं। वे हाथी, गैंडा जैसे पशुओं से भी परिचित थे।

3. सामाजिक-आर्थिक भिन्नताओं की पहचान-पुरातत्वविद् विभिन्न प्रकार की सामग्री से विभिन्न तरीकों से यह जानने की। कोशिश करते हैं कि अध्ययन किए जाने वाले समाज में सामाजिक-आर्थिक विभेदन मौजद था या नहीं। उदाहरण के लिए हड के समाज में सामाजिक-आर्थिक स्थिति में भेद को जानने के लिए कई विधियाँ अपनाई गई हैं। शवाधानों से प्राप्त सामग्री के आधार पर इस भेद का पता लगाया जाता है। आप संभवतः मिस्र के विशाल पिरामिडों (जिनमें से कुछ हड़प्पा के समकालीन थे) से परिचित हैं। इनमें से कई राजकीय शवाधान थे जहाँ बड़ी मात्रा में धन-संपत्ति दफनाई गई थी। इसी प्रकार पुरातत्वविद् दैनिक प्रयोग तथा विलासिता से संबंधी सामग्री की पहचान कर सामाजिक-आर्थिक भिन्नता का पता लगाते थे।

4. शिल्प उत्पादन केंद्रों की पहचान-हड़प्पा के शिल्प उत्पादन केंद्रों की पहचान के लिए भी विशेष विधि अपनाई जाती है। पुरातत्वविद् किसी उत्पादन केंद्र को पहचानने में कुछ चीजों का प्रमाण के रूप में सहारा लेते हैं। पत्थर के टुकड़ों, पूरे शंखों, सीपी के ट्रकडों, तांबा, अयस्क जैसे कच्चे माल, अपूर्ण वस्तुओं, छोड़े गए माल और कडा-कर्कट आदि चीजों से उत्पादन केंद्रों की पहचान की जाती है। कारीगर वस्तुओं को बनाने के लिए पत्थर को काटते समय या शंख-सीपी को काटते हुए अनुपयोगी सामग्री छोड़ देते थे। कार्यस्थलों (Work Shops) से प्राप्त ऐसी सामग्री के ढेर होने पर अनुमान लगाया जाता है कि वह स्थल उत्पादन केंद्र रहा होगा।

5. परोक्ष तथ्यों के आधार पर व्याख्या कभी-कभार पुरातत्वविद् परोक्ष तथ्यों का सहारा लेकर वर्गीकरण करते हैं। उदाहरण के लिए कुछ हड़प्पा स्थलों पर कपड़ों के अंश मिले हैं। तथापि कपड़ा होने के प्रमाण के लिए दूसरे स्रोत जैसे मूर्तियों का सहारा लिया जाता है। किसी भी शिल्प तथ्य को समझने के लिए पुरातत्ववेत्ता को उसके.संदर्भ की रूपरेखा विकसित करनी पड़ती है। उदाहरण के लिए हड़प्पा की मोहरों को तब तक नहीं समझा जा सका जब तक उन्हें सही संदर्भ में नहीं रख पाए। वस्तुतः इन मोहरों को उनके सांस्कृतिक अनुक्रम (Cultural Sequence) एवं मेसोपोटामिया में हुई खोजों की तुलना के आधार पर ही इन्हें सही अर्थों में समझा जा सका।

निष्कर्ष व्यापक तथ्यों के अभाव, विस्तृत खुदाई न होने, लिपि न पढ़े जाने के कारण हड़प्पा सभ्यता के संबंध में पुरातत्वविदों के कई निष्कर्ष संदिग्ध बने हुए हैं। जैसे विशाल स्नानागार का संबंध आनुष्ठानिक क्रिया से था या नहीं। नारी मृण्मूर्तियों का क्या उपयोग था। साक्षरता कितनी थी। फिर भी पुरातत्वविद् उपलब्ध साक्ष्यों से इतिहास का पुनर्निर्माण करने का प्रयास करते हैं।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 1 ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता

प्रश्न 9.
हड़प्पाई समाज में शासकों द्वारा किए जाने वाले संभावित कार्यों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
हड़प्पा सभ्यता के समय में राजनीतिक सत्ता का क्या स्वरूप था तथा वे क्या-क्या कार्य करते थे। इस संबंध में पुरातत्वविदों तथा इतिहासकारों में एक मत नहीं है। विशेषतौर पर हड़प्पा लिपि के नहीं पढ़ पाने के कारण यह पक्ष अभी तक अस्पष्ट है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि वहाँ पर शासक वर्ग अवश्य था। चाहे वह कुलीनतंत्र हो या धर्मतंत्र। ऐसा निष्कर्ष इसलिए भी निकाला जाता है कि इतने बड़े पैमाने पर नगर तथा उसमें उत्तम व्यवस्था के लिए शासक वर्ग होना जरूरी है।

इसी प्रकार अन्नागारों, विशाल भवनों, औजारों, हथियारों, मोहरों में समरूपता से लगता है कि शासक अवश्य होंगे। व्यापार को नियंत्रण करने के लिए भी कोई प्रशासन की व्यवस्था रही होगी। हड़प्पा सभ्यता के सभी साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि हड़प्पाई समाज में शासक थे तथा उनके द्वारा किए जाने वाले संभावित कार्यों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से दिया जा सकता है

1. शासकों के द्वारा जटिल फैसले लिए जाते होंगे तथा उन्हें लागू करवाने जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य भी किए जाते होंगे। हड़प्पा स्थलों पर प्राप्त पुरावशेषों में असाधारण एकरूपता इस बात का सूचक है कि इस बारे में नियम रहे होंगे। मृदभाण्ड, मोहरें, बाट तथा ईंटों में यह असाधारण एकरूपता शासकों के आदेशों पर ही रही होगी।

2. बस्तियों की स्थापना व नियोजन का निर्णय लेना, बड़ी संख्या में ईंटों को बनवाना, शहरों में विशाल दुर्ग/दीवारें, सार्वजनिक भवन, दुर्ग क्षेत्र के लिए चबूतरे का निर्माण कार्य, लाखों की संख्या में विभिन्न कार्यों के लिए मजदूरों की व्यवस्था करना ; जैसे कार्य शासकों के द्वारा ही करवाए जाते रहे होंगे। नगरों की सारी व्यवस्था की देखभाल शासक वर्ग द्वारा की जाती थी।

3. कुछ पुरातत्वविदों का कहना है कि मेसोपोटामिया के समान हड़प्पा में भी पुरोहित शासक रहे होंगे। पाषाण की एक मूर्ति की पहचान ‘पुरोहित राजा’ के रूप में की जाती है जो एक प्रासाद महल में रहता था। लोग उसे पत्थर की मूर्तियों में आकार देकर सम्मान करते थे। यह संभावना भी व्यक्त की जाती है कि यह पुरोहित राजा धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करते थे। यह भी कहा जाता है कि विशाल स्नानागार एक आनुष्ठानिक क्रिया के आयोजन के लिए बनवाया गया होगा। यद्यपि हड़प्पा सभ्यता की आनुष्ठानिक प्रथाओं को अभी तक ठीक प्रकार से नहीं समझा जा सका है।

4. कुछ विद्वानों का मत है कि हड़प्पाई समाज में एक राजा नहीं था बल्कि कई शासक थे जैसे मोहनजोदड़ो हड़प्पा आदि के अपने अलग-अलग शासक होते थे। वे अपने-अपने क्षेत्र में व्यवस्था को देखते थे।

5. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हड़प्पा राज्य कांस्य युग का था तथा यह लोह युग के राज्य से भिन्न था। न इसकी स्थायी सेना थी और न स्थायी नौकरशाही। भू-राजस्व भी वसूल नहीं किया जाता था। शासक वर्ग में विभिन्न समुदायों के प्रमुख लोग शामिल थे जो आपस में मिलकर इसे चलाते थे। इन लोगों का तकनीकी, शिल्पों तथा व्यापार पर अधिकार था। ये शिल्पकारों से उत्पादन करवाते थे। दूर-दूर तक व्यापार करते थे। किसानों से अनाज शहरों तक आता था तथा इसे अन्नागारों में रखा जाता था।

6. हड़प्पा सभ्यता के काल में उभरे क्षेत्रीय, अन्तक्षेत्रीय तथा बाह्य व्यापार को सुचारू रूप से चलाने का कार्य भी शासक के हाथों में ही होगा। शासक बहुमूल्य धातुओं व मणिकों के व्यापार पर नियंत्रण रखते होंगे। इस व्यापार से उन्हें धन प्राप्त होता था। बड़े पैमाने पर शिल्प उत्पादों, माप-तोल प्रणाली, कलाओं का संचालन भी शासक करते होंगे।

स्पष्ट है कि नगर नियोजन, भवन निर्माण, दुर्ग निर्माण, निकास प्रणाली, गलियों का निर्माण, मानव संसाधन को कार्य पर लगाना, शिल्प उत्पाद, खाद्यान्न प्राप्ति, व्यापारिक कार्य, धार्मिक अनुष्ठान जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों का संपादन हड़प्पाई शासकों द्वारा किया जाता होगा।

ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ : हड़प्पा सभ्यता HBSE 12th Class History Notes

→ पुरातात्विक साक्ष्य-पुरानी ऐतिहासिक वस्तुओं को पुरातात्विक साक्ष्य कहते हैं। इनमें भौतिक अवशेष; जैसे मकान, घर, इमारतें आदि तथा मृदभांड, मोहरें, औजार, सिक्के आदि सम्मिलित हैं।

→ सेलखड़ी-एक प्रकार का पत्थर जिसका प्रयोग हड़प्पा सभ्यता में मोहरें बनाने के लिए होता था।

→ कांस्य युग-इस युग का अर्थ है जब ताँबा व टिन को मिलाकर कांसा बनाया जाता था तथा इस धातु के बर्तन, औजार, उपकरण, हथियार आदि बनाए जाते थे।

→ शिल्प तथ्य-मनुष्य की कारीगरी का नमूना । पुरातत्वविद् इससे इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं।

→ मोहर-पत्थर या लाख अथवा अन्य किसी वस्तु का टुकड़ा। इस पर कोई आकृति बनी होती थी। इसे प्रमाणीकरण के लिए प्रयोग में लाया जाता था।

→ रेडियो कार्बन डेटिंग इसे सी-14 (कार्बन-14) भी कहते हैं। यह निर्जीव कार्बनिक पदार्थ में रेडियोधर्मी आइसोटोप को मापने की विधि है। सी-14 का आधा जीवन 5568 वर्ष तथा पूर्ण कार्बन जीवन 111,36 वर्ष होता है। मृत वस्तु में कार्बन घटता रहता है।

→ खानाबदोशी-पशुचारी और चारे की तलाश में घूमने वाले समुदायों से जुड़ी जीवन-शैली। ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं।

→ कछारी मैदान-नदी किनारे के आस-पास वह क्षेत्र जिस पर बाढ़ के कारण नदी की गाद जमा होती है।

→ उत्खनन-प्राचीन स्थल की खुदाई करना।

→ अन्नागार-अनाज रखने के लिए भंडार गृह।

→ चित्रलिपि-जिस लिपि में चित्रों को प्रतीक के रूप में प्रयोग में लाया जाता है।

→ टेराकोटा-मूर्तियाँ बनाने के लिए चिकनी मिट्टी तथा रेत का मिश्रण कर आग में पकाना। यह भूरे लाल रंग का बन जाता है।

→ मनका-पत्थर का छोटा टुकड़ा जिसके बीच में धागा पिरोने के लिए छेद होता था।

→ मेसोपोटामिया-इराक का प्राचीन नाम।

→ अग्निवेदियां कालीबंगन में पाए गए ईंटों से बने गड्ढे। इनमें जानवरों की हड्डियाँ तथा राख मिली है।

→ पारिस्थितिकी पौधों का पशुओं या मनुष्यों या संस्थाओं का पर्यावरण के संबंध में अध्ययन।

→ विवर्तनिक विक्षोभ-वह प्रक्रिया जिससे पृथ्वी के धरातल के बहुत बड़े क्षेत्र ऊपर उठ जाते हैं।

→ शमन-वे महिलाएँ या पुरुष जो जादुई तथा इलाज करने की शक्ति होने के साथ ही दूसरी दुनिया से संपर्क बनाने की सामर्थ्य का दावा करते हैं।

→ बी.सी. (B.C.)-बिफोर क्राइस्ट (Before Christ) ईसा पूर्व (ई.पू.)।

→ ए.डी. (A.D.)-ऐनो डॉमिनी (Anno-Domini) लैटिन भाषा में अभिप्राय है इन द इयर आफ लॉर्ड (In the Year of Lord) अर्थात् ईसा के जन्म के वर्ष से।

→ सी.ई. (CE.)-कॉमन एरा (Common Era) आजकल ए.डी. के बजाए सी.ई. का प्रयोग किया जाने लगा है।

→ बी.सी.ई. (BCE)-बिफोर कॉमन एरा (Before Common Era) आजकल बी.सी. (ई.पू.) के स्थान पर बी.सी.ई. का प्रयोग किया जाता है।

→ सी. (Circa)-सिरका (Circa) लैटिन भाषा का शब्द है। इसका प्रयोग अनुमानतः के अर्थ में किया जाता है।

→ बी.पी. (B.P.)-बी.पी. (Before Present) अर्थात् वर्तमान से पहले।

→ हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में हुई खुदाई तथा नवीन नगरीय सभ्यता की घोषणा ने भारतीय इतिहास की हमारी धारणा को बदल दिया। इससे पूर्व ऋग्वेद व अन्य वैदिक साहित्य के आधार पर लगभग 15वीं सदी ई.पू. से वैदिक समाज से भारतीय इतिहास का प्रारंभ माना जाता था। शहरों के विषय में यह विचार था कि भारत में इनका उद्भव 6वीं सदी ई.पू. में गंगा-यमुना की द्रोणी से हुआ। हड़प्पा सभ्यता की खोज ने इस धारणा को पूर्णतः बदल दिया।

→ ऐसा इसलिए हुआ कि अब जिन नगरों व सभ्यता का पता चला वह लगभग 2500 ई.पू. के थे। इनका विशाल क्षेत्र सिंधु व सहायक नदियों तथा उससे बाहर तक फैला हुआ था। पुरातत्वविदों की दृष्टि से इस नगरीय सभ्यता के विशिष्ट पहचान बिंदु थे-ईंटें (पक्की व कच्ची), कीमती व अर्द्धकीमती पत्थर के मनके, मानव व पशुओं की अस्थियाँ, मोहरें आदि। उल्लेखनीय है कि नई बस्तियों की खोजों, खुदाइयों तथा अनुसंधानों ने इस सभ्यता के संबंध में हमारे ज्ञान में वृद्धि की है।

→ आज भी नए-नए स्थलों की खोज हो रही है और हो सकता है कि भविष्य में और भी नए-नए कला तथ्यों (Artefacts) के प्रकाश में आने पर हड़प्पावासियों के बारे में हमारे विचारों में बदलाव आए। प्रस्तुत अध्याय में इन प्रथम नगरों की कहानी के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। हम इन शहरी केंद्रों की आर्थिक और सामाजिक संस्थाओं को समझने का प्रयास करेंगे। अध्याय में हम यह जान पाएँगे कि पुरातत्वविद् प्राप्त शिल्प तथ्यों का विश्लेषण किस प्रकार करते हैं। साथ ही हम यह भी जानेंगे कि नई सामग्री (Material) तथा तथ्य (Data) मिलने पर किस प्रकार इतिहास की स्थापित अवधारणाओं (exisiting notions) में परिवर्तन आता है।

→ हड़प्पा की खोज के बाद अब तक इस सभ्यता से जुड़ी लगभग 2800 बस्तियों की खोज की जा चुकी है। इन बस्तियों की विशेषताएँ हडप्पा से मिलती हैं। विद्वानों (सरजॉन मार्शल) ने इस सभ्यता को “सिंध घाटी की सभ्यता” का नाम दिया क्योंकि शुरू में बहुत-सी बस्तियाँ सिंधु घाटी और उसकी सहायक नदियों के मैदानों में पाई गई थीं।

→ वर्तमान में पुरातत्ववेत्ता इसे “हड़प्पा की सभ्यता” कहना पसंद करते हैं। यह नामकरण इसलिए उचित है कि इस संस्कृति से संबंधित सर्वप्रथम खुदाई हड़प्पा में हुई थी। अन्य स्थानों की खुदाई से भी सभ्यता के वही लक्षण प्राप्त हुए जो हड़प्पा से प्राप्त हुए थे।

→ यद्यपि परिपक्व हड़प्पा सभ्यता का केंद्र स्थल सिन्ध और पंजाब में (मुख्यतः सिंधु घाटी में) दिखाई पड़ता है, तथापि यह सभ्यता बलूचिस्तान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जम्मू, उत्तरी राजस्थान, गुजरात तथा उत्तरी महाराष्ट्र तक फैली हुई थी अर्थात् इसका फैलाव उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने तक और पश्चिम में बलूचिस्तान से लेकर उत्तर-पूर्व में मेरठ तक का था। यह सारा क्षेत्र त्रिभुज के आधार का था। इसका पूरा क्षेत्रफल लगभग 1,299,600 वर्ग किलोमीटर आंका जाता है। हड़प्पा सभ्यता का विस्तार इसकी समकालीन मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं से काफी बड़ा था।

→ पूर्ण विकसित सभ्यता का समय लगभग 2600 ई.पू. से 1900 ई.पू. माना जाता है। इस सभ्यता के पूर्ण विकसित रूप से पहले तथा बाद में भी इसका काल माना जाता है। विकसित स्वरूप को अलग दर्शाने के लिए इन्हें आरंभिक हड़प्पा (Early Harappan) तथा उत्तर हड़प्पा (Late Harappan) नाम दिया जाता है।

→ प्राक हड़प्पा काल में सिंधु क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न कृषक समुदायों में सांस्कृतिक परम्पराओं में समानता लगती है। इन छोटी-छोटी परंपराओं के मेल से एक बड़ी परंपरा प्रकट हुई। परंतु यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये समुदाय कृषक व पशुचारी थे। कुछ शिल्पों में पारंगत थे। इनकी बस्तियाँ सामान्यतः छोटी थीं तथा कोई भी बड़ी इमारतें नहीं थीं। कुछ प्राक हड़प्पा बस्तियों का परित्याग भी हुआ तथा कुछ स्थलों पर जलाये जाने के भी प्रमाण मिले हैं। तथापि यह स्पष्ट लगता है कि हड़प्पा सभ्यता का आविर्भाव लोक संस्कृति के आधार पर हुआ।

→ नगरों में अन्नागारों का पाया जाना इस बात का प्रमाण है कि इस सभ्यता के लोगों के जीवन-निर्वाह या भरण पोषण का मुख्य आधार कृषि व्यवस्था थी।

→ उपलब्ध साक्ष्यों से कृषि तकनीक से संबंधित कुछ निष्कर्ष निकाले गए हैं। उदाहरण के लिए बनावली (हरियाणा) से मिट्टी के हल का नमूना मिला है। बहावलपुर से भी ऐसा नमूना मिला है। कालीबंगन (राजस्थान) में प्रारंभिक हड़प्पा काल के खेत को जोतने के प्रमाण मिले हैं। शोर्तुघई (उत्तरी अफगानिस्तान) से भी जुते हुए खेत (Plough and field) प्राप्त हुए हैं। पक्की मिट्टी से बनाए वृषभ (बैल) के खिलौनों के साक्ष्य तथा मोहरों पर पशुओं के चित्रों से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे बैलों का खेतों की जुताई के लिए प्रयोग करते थे।

→ संभवतः लकड़ी के हत्थों में लगाए गए पत्थर के फलकों (Stone blades) का प्रयोग फसलों को काटने के लिए किया जाता था। धातु के औजार (तांबे की हँसिया) भी मिले हैं परंतु महंगी होने की वजह से इसका प्रयोग.क्रम होता होगा।

→ सभ्यता से प्राप्त शिल्प तथ्यों तथा पुरा-प्राणिविज्ञानियों (Archaeo-zoologists) के अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि हड़प्पन भेड़, बकरी, बैल, भैंस, सुअर आदि जानवरों का पालन करने लगे थे। कूबड़ वाला सांड उन्हें विशेष प्रिय था।

→ हड़प्पा सभ्यता की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी नगर योजना प्रणाली थी। इसका संबंध विकसित हड़प्पा अवस्था (2600-1900 ई.पू.) से था। नगरों में सड़कें और गलियाँ एक योजना के अनुसार बनाई गई थीं। मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाते थे। अन्य सड़कें और गलियाँ मुख्य मार्ग को समकोण पर काटती थीं जिससे नगर वर्गाकार या आयताकार खण्डों में विभाजित हो जाते थे।

→ सड़कें और गलियाँ सीधी होती थीं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। मोहनजोदड़ो में निचले नगर में मुख्य सड़क 10.5 मीटर चौड़ी थी, इसे ‘प्रथम सड़क’ कहा गया है।

→ अन्य सड़कें 3.6 से 4 मीटर तक चौड़ी थीं। जिस प्रकार मोहनजोदड़ो में गृहों का निर्माण नियोजित तथा सावधानीपूर्वक किया गया था, उसी प्रकार सारे नगर में नालियों का निर्माण भी बहुत सावधानीपूर्वक किया गया था।

→ मोहनजोदड़ो का सबसे महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल विशाल स्नानागार है। यह ईंटों के स्थापत्य का सुन्दर नमूना है। आयताकार में बना यह स्नानागार 11.88 मीटर लम्बा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.45 मीटर गहरा है। इसके उत्तर और दक्षिण में सीढ़ियाँ बनी हैं। ये सीढ़ियाँ स्नानागार के तल तक जाती हैं। यह स्नानागार पक्की ईंटों से बना है।

→ पुरातत्ववेत्ता किसी सभ्यता में विद्यमान सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को जानने के लिए कई प्रकार के अवशेषों का प्रमाण के तौर पर प्रयोग करते हैं। कब्रों में पाई जाने वाली सामग्री इसमें प्रमुख होती है जिनसे इस प्रकार के भेदभाव का पता चलता है।

→ हड़प्पा के लोगों ने शिल्प उत्पादों में महारत हासिल कर ली थी। मनके बनाना, सीपी उद्योग, धातु-कर्म (सोना-चांदी के आभूषण, ताँबा, कांस्य के बर्तन, खिलौने उपकरण आदि), तौल निर्माण, प्रस्तर उद्योग, मिट्टी के बर्तन बनाना, ईंटें बनाना, मुद्रा निर्माण आदि हड़प्पा के लोगों के प्रमुख शिल्प उत्पाद थे। कई बस्तियाँ तो इन उत्पादों के लिए ही प्रसिद्ध थीं।

→ हड़प्पा सभ्यता के लोग गोमेद, फिरोजा, लाल पत्थर, स्फटिक (Crystal), क्वार्ट्ज़ (Quartz), सेलखड़ी (Steatite) जैसे . बहुमूल्य एवं अर्द्ध-कीमती पत्थरों के अति सुन्दर मनके बनाते थे। मनके व उनकी मालाएं बनाने में ताँबा, कांस्य और सोना जैसी धातुओं का भी प्रयोग किया जाता था। शंख, फयॉन्स (faience), टेराकोटा या पक्की मिट्टी से भी मनके बनाए जाते थे।

→ हल्की चमकदार सतह वाली सफेद रंग की आकर्षक मोहरें (Seals) हड़प्पा सभ्यता के लोगों का उच्चकोटि का योगदान कही जा सकती हैं। सेलखड़ी की वर्गाकार व आयताकार मुद्राएँ सभी सभ्यता स्थलों पर मिली हैं।

→पुरातत्वविद् किसी उत्पादन केंद्र को पहचानने में कुछ चीजों का प्रमाण के रूप में सहारा लेते हैं। पत्थर के टुकड़ों, पूरे शंखों, सीपी के टुकड़ों, तांबा, अयस्क जैसे कच्चे माल, अपूर्ण वस्तुओं, छोड़े गए माल और कूड़ा-कर्कट आदि चीजों से उत्पादन केंद्रों की पहचान की जाती है। कारीगर वस्तुओं को बनाने के लिए पत्थर को काटते समय या शंख-सीपी को काटते हुए अनुपयोगी सामग्री छोड़ देते थे।

→ हड़प्पा सभ्यता के लोग अपने उत्पादों के लिए विविध प्रकार का कच्चा माल प्रयोग में लाते थे। शिल्प उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल में शामिल वस्तुएँ थीं-चिकनी मिट्टी, पत्थर, तांबा, जस्ता, कांसा, सोना, शंख, कार्नीलियन (सुन्दर लाल रंग), स्फटिक, क्वार्टज, सेलखड़ी, लाजवर्द मणि (नीले रंग के अफगानी पत्थर), कीमती लकड़ी, कपास, ऊन इत्यादि। इनमें से कई चीजें स्थानीय तौर पर मिल जाती थीं परंतु अधिकतर; जैसे पत्थर, धातु, लकड़ी इत्यादि बाहर से मंगवाई जाती थीं।

→ हड़प्पा सभ्यता के नगरों/व्यापारियों का पश्चिम एशिया की सभ्यताओं के साथ संपर्क था। उल्लेखनीय है कि मेसोपोटामिया हड़प्पा सभ्यता के मुख्य क्षेत्र से बहुत दूर स्थित था फिर भी इस बात के साक्ष्य मिल रहे हैं कि इन दोनों सभ्यताओं के बीच व्यापारिक संबंध था। हड़प्पा की मोहरों पर चित्रों के माध्यम से लिखावट है। मुद्राओं के अतिरिक्त ताम्र उपकरणों व पट्टिकाओं, मिट्टी की लघु पट्टिकाओं, कुल्हाड़ियों, मृदभांडों आभूषणों, अस्थि छड़ों और एक प्राचीन सूचनापट्ट पर भी हड़प्पा लिपि के कई नमूने प्राप्त हुए हैं। उल्लेखनीय है कि यह लिपि अभी तक पढ़ी न जा सकने के कारण रहस्य बनी हुई है।

→ हड़प्पा सभ्यता की एक अन्य विशेषता माप और तौल व्यवस्था में समरूपता का पाया जाना था। दूर-दूर तक फैली . बस्तियों में एक ही प्रकार के बाट-बट्टे पाए गए हैं। हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने तौल की इस प्रणाली से आपसी व्यापार और विनिमय को नियन्त्रित किया होगा।

→ मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल भवन को ‘राजप्रासाद’ का नाम दिया जाता है। यद्यपि विशाल इमारत में अन्य कोई अद्भुत अवशेष नहीं मिले हैं। इसी प्रकार मोहनजोदड़ो से प्राप्त पत्थर की प्रतिमा प्राप्त हुई है। इसे ‘पुरोहित-राजा’ का नाम दिया जाता रहा है। व्हीलर महोदय ने तो इस आधार पर हड़प्पा की शासन प्रणाली को ‘धर्मतन्त्र’ नाम दिया है।

→ हड़प्पा सभ्यता के पतन के बारे में अनेक व्याख्याएँ दी जाती हैं। जलवायु परिवर्तन, नदियों में बाढ़ व भूकम्प या नदियों का सूख जाना या मार्ग बदलना इसके कारण बताए जाते हैं। इसी प्रकार कुछ विद्वानों ने बर्बर आक्रमणों को सभ्यता के अवसान का कारण बताया है। हाल ही में सभ्यता-क्षेत्र में पर्यावरणीय-असन्तुलन (Environmental Imbalances) से जोड़कर परिवर्तनों की व्याख्या प्रस्तुत की है।

→ मार्शल ने भारतीय पुरातत्व को महत्त्वपूर्ण दिशा प्रदान की। भारत में वह पहला पुरातत्वविद् था। वह यूनान तथा क्रीट के अनुभव भी अपने साथ लेकर आया था। साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि वह न केवल कनिंघम की तरह ही अद्भुत खोज करना चाहता था बल्कि वह दैनिक जीवन की पद्धतियों को भी जानना चाहता था। मार्शल ने पुरा स्थल की स्तर विन्यास (Stratigraphy) पर ध्यान न देकर सारे टीले को समान आकार की क्षैतिज इकाइयों में उत्खनन करवाया।

→ 1980 के दशक के बाद हड़प्पा-पुरातत्व में अन्तर्राष्ट्रीय रुचि लगातार बढ़ी है। भारतीय उपमहाद्वीप तथा बाहर के पुरातत्वविद् .. सांझे रूप से हड़प्पा व मोहनजोदड़ो में कार्यरत हैं। ये लोग आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग करके मिट्टी, पत्थर, धातु, पादप (Plant)तथा पशुओं के अवशेषों को प्राप्त करने के लिए सतहों के अन्वेषण एवं प्राप्त तथ्यों के प्रत्येक सूक्ष्म हिस्से के विश्लेषण में लगे हैं।

→ एक मोहर पर एक पुरुष देवता को योगी की मुद्रा में दिखाया गया है। इसके दाईं ओर हाथी तथा बाघ एवं बाईं ओर गैंडा तथा भैंसा हैं। पुरुष देवता के सिर पर दो सींग हैं। पुरातत्वविदों ने इस देवता को ‘आद्य शिव’ की संज्ञा दी है।

→ एक मोहर में एक शृंगी पशु उत्कीर्णित है। यह घोड़े जैसा पशु है, जिसके सिर के बीच में एक सींग निकला हुआ है। यह कल्पित तथा संश्लिष्ट लगता है। ऐसा बाद में हिन्दू धर्म के अन्य देवता (नरसिंह देवता) के बारे में कहा जा सकता है।
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काल-रेखा

हड़प्पाई पुरातत्व के विकास के प्रमुख चरण
19 वीं सदी 1875हड़प्पा की मोहर पर कनिंघम की रिपोर्ट
20 वीं सदी 1921दयाराम साहनी द्वारा हड़प्पा की खोज एवं माधो स्वरूप वत्स द्वारा हड़प्पा में खुदाई का आरंभ राखालदास बनर्जी द्वारा मोहनजोदड़ो की खोज
1922सर जॉन मार्शल द्वारा नवीन सभ्यता की घोषणा
1924मोहनजोदड़ो में उत्खननों का प्रारंभ
1925क्रीलर महोदय द्वारा हड़प्पा में खुदाई
1946एस. आर. राव द्वारा लोथल में खुदाई का आरंभ
1955बी.बी. लाल तथा बी. के थापर द्वारा कालीबंगन में उत्खननों का आरंभ
1960एम.आर. मुगल द्वारा बहावलपुर में उत्खनन व अन्वेषण शुरू
1974जर्मन-इतालवी संयुक्त दल द्वारा मोहनजोदड़ो में सतह-अन्वेषणों का कार्य शुरू
1980अमेरिकी दल द्वारा हड़प्पा में उत्खनन शुरू
1986धौलावीरा में आर. एस. बिष्ट द्वारा खुदाई कार्य आरंभ
1990हड़प्पाई पुरातत्व के विकास के प्रमुख चरण

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HBSE 12th Class Geography Solutions Chapter 9 भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास

Haryana State Board HBSE 12th Class Geography Solutions Chapter 9 भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Geography Solutions Chapter 9 भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास

अभ्यास केन प्रश्न

नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर को चुनिए

1. प्रदेशीय नियोजन का संबंध है
(A) आर्थिक व्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों का विकास
(B) परिवहन जल तंत्र में क्षेत्रीय अंतर
(C) क्षेत्र विशेष के विकास का उपागम
(D) ग्रामीण क्षेत्रों का विकास
उत्तर:
(C) क्षेत्र विशेष के विकास का उपागम

2. आई०टी०डी०पी० निम्नलिखित में से किस संदर्भ में वर्णित है?
(A) समन्वित पर्यटन विकास प्रोग्राम
(B) समन्वित जनजातीय विकास प्रोग्राम
(C) समन्वित यात्रा विकास प्रोग्राम
(D) समन्वित परिवहन विकास प्रोग्राम
उत्तर:
(B) समन्वित जनजातीय विकास प्रोग्राम

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3. इंदिरा गाँधी नहर कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास के लिए इनमें से कौन-सा सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है?
(A) कृषि विकास
(B) परिवहन विकास
(C) पारितंत्र-विकास
(D) भूमि उपनिवेशन
उत्तर:
(A) कृषि विकास

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
भरमौर जनजातीय क्षेत्र में समन्वित जनजातीय विकास कार्यक्रम के सामाजिक लाभ क्या हैं?
उत्तर:
भरमौर जनजातीय क्षेत्र में समन्वित जनजातीय विकास कार्यक्रम के निम्नलिखित सामाजिक लाभ हुए-

  1. साक्षरता दर में तेजी से वृद्धि
  2. लिंग अनुपात में सुधार और
  3. बाल विवाह में कमी।

प्रश्न 2.
सतत पोषणीय विकास की संकल्पना को परिभाषित करें।
उत्तर:
विकास की वह अवधारणा जिसके अंतर्गत संसाधनों का इस प्रकार दोहन किया जाता है कि उसके पुनर्भरण की संभावना भी बनी रहे और पर्यावरण का भी कम-से-कम नुकसान हो, सतत पोषणीय विकास कहलाती है। विश्व पर्यावरण व विकास आयोग के अनुसार, “सतत पोषणीय विकास एक ऐसा विकास है जिसमें भविष्य में आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित किए बिना वर्तमान पीढ़ी द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना है।

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प्रश्न 3.
इंदिरा गांधी नहर कमान क्षेत्र का सिंचाई पर क्या सकारात्मक प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
इंदिरा गाँधी नहर कमान क्षेत्र का सिंचाई पर निम्नलिखित सकारात्मक प्रभाव पड़ा है-

  1. इंदिरा गाँधी नहर परियोजना से मरुस्थलीय क्षेत्र में चमत्कारिक बदलाव आ रहा है।
  2. इससे मरुभूमि में सिंचाई के साथ ही पेयजल और औद्योगिक कार्यों के लिए भी पानी मिलने लगा है।
  3. यह विशेषतौर से गंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर और नागौर जैसे रेगिस्तानी जिलों के निवासियों को पेयजल सुविधा उपलब्ध करवा रही है।
  4. नहरी सिंचाई के प्रसार से इंदिरा गाँधी नहर कमान क्षेत्र की कृषि अर्थव्यवस्था पूरी तरह से बदल गई है। इससे बोए गए क्षेत्र का विस्तार हुआ है।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 150 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
सूखा (प्रवण) संभावी क्षेत्र कार्यक्रम पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। यह कार्यक्रम देश में शुष्क भूमि कृषि विकास में कैसे सहायक है?
उत्तर:
सूखा संभावी क्षेत्र कार्यक्रम की शुरुआत चौथी पंचवर्षीय योजना में हुई। इसका उद्देश्य सूखा संभावी क्षेत्रों में लोगों को . रोजगार उपलब्ध करवाना और सूखे के प्रभाव को कम करने के लिए उत्पादन के साधनों को विकसित करना था। पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में इसके कार्यक्षेत्र को और विस्तृत किया गया। योजना के प्रारंभ में इस कार्यक्रम के अंतर्गत ऐसे सिविल निर्माण कार्यों पर बल दिया गया जिनमें अधिक श्रमिकों की आवश्यकता होती है, परंतु बाद में इसमें सिंचाई परियोजनाओं, भूमि विकास कार्यक्रमों, वनीकरण, चरागाह विकास और ग्रामीण अवसंरचना; जैसे बिजली, सड़क, बाजार, ऋण सुविधा और सेवाओं पर बल दिया गया।

इस कार्यक्रम की समीक्षा में यह पाया गया कि यह कार्यक्रम मुख्यतया कृषि और इससे संबंधित क्षेत्रों के विकास तक ही सीमित है और पर्यावरणीय संतुलन पुनः स्थापन पर इसमें विशेष बल दिया गया। सूखा संभावी क्षेत्रों के विकास की रणनीति में जल, मिट्टी, पौधों, मानव तथा पशु जनसंख्या के बीच पारिस्थितिकीय संतुलन, पुनः स्थापन पर बल दिया जाना चाहिए। सन् 1967 में योजना आयोग ने देश में 67 जिलों की पहचान सूखा संभावी जिलों के रूप में की।

भारत में सखा संभावी क्षेत्र मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र, आंध्र प्रदेश की रायलसीमा और कर्नाटक पठार और तमिलनाडु की उच्च भूमि तथा आंतरिक भागों के शुष्क और अर्ध शुष्क क्षेत्रों में फैले हुए हैं। सूखा संभावी क्षेत्र कार्यक्रम से शुष्क कृषि के विकास में सहायता मिलती है। इन क्षेत्रों का विकास करने की अन्य रणनीतियों में सूक्ष्म-स्तर पर समन्वित जल संभर विकास कार्यक्रम अपनाना आवश्यक है।

प्रश्न 2.
इंदिरा गांधी नहर कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने के लिए उपाय सुझाएँ।
उत्तर:
इंदिरा गांधी नहर, जिसे पहले राजस्थान नहर के नाम से जाना जाता था, भारत के सबसे बड़े नहर तंत्रों में से एक है। यह नहर पंजाब में हरिके बाँध से निकलती है और राजस्थान के थार मरुस्थल पाकिस्तान सीमा के समानांतर 40 कि०मी० की औसत दूरी पर बढ़ती है। बहुत-से विद्वानों ने इंदिरा गांधी नहर परियोजना की पारिस्थितिकीय पोषणता पर प्रश्न उठाए हैं। इस क्षेत्र में विकास के साथ-साथ भौतिक पर्यावरण का निम्नीकरण हुआ है। इस कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास का लक्ष्य प्राप्त करने भारत के संदर्भ में नियोजन और सतत पोषणीय विकास के लिए मुख्य रूप से पारिस्थितिकीय सतत पोषणता पर बल देना होगा। इसलिए इस कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने वाले सात उपायों में से पाँच उपाय पारिस्थितिकीय संतुलन पुनः स्थापित करने पर बल देते हैं।

(1) जल प्रबंधन नीति का कठोरता से कार्यान्वयन करना। इस नहर परियोजना के चरण-1 में कमान क्षेत्र में फसल रक्षण सिंचाई और चरण-चरण में फसल उगाने और चरागाह विकास के लिए विस्तारित सिंचाई का प्रावधान है।

(2) इस क्षेत्र के शस्य (फसल) प्रतिरूप में सामान्यतया सघन फसलों को नहीं आ चाहिए। किसानों को बागानी कृषि में खट्टे फलों की खेती करनी चाहिए।

(3) कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम; जैसे नालों को पक्का करना, भूमि विकास, समतलन और नहर के जल का समान वितरण प्रभावी रूप से कार्यान्वित किया जाए ताकि बहते जल का नुकसान न हो।

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(4) इस प्रकार जलाक्रांत एवं लवण से प्रभावित भूमि का पुनरुद्धार किया जाएगा।

(5) वनीकरण, वृक्षों की रक्षण मेखला का निर्माण और चरागाह विकास।

(6) निर्धन आर्थिक स्थिति वाले भू-आबंटियों को कृषि के लिए पर्याप्त मात्रा में वित्तीय और संस्थागत सहायता उपलब्ध करवाकर सतत पोषणता का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।

(7) कृषि और इससे संबंधित क्रियाकलापों को अर्थव्यवस्था के अन्य सेक्टरों से जोड़कर ही सतत पोषणीय विकास किया जा सकता है।

भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास HBSE 12th Class Geography Notes

→ नियोजन (Planning) : किसी देश के भविष्य की समस्याओं का समाधान करने के लिए बनाए गए कार्यक्रमों और प्राथमिकताओं के क्रम को विकसित करने की प्रक्रिया को नियोजन कहा जाता है। ये समस्याएँ मुख्य रूप से आर्थिक और सामाजिक ही होती हैं जो समय के साथ बदलती रहती हैं।

→ नियोजन के उपगमन (Approaches of Planning) : (i) खंडीय नियोजन, (ii) क्षेत्रीय नियोजन।

→ लक्ष्य क्षेत्र नियोजन (Target Area Planning) : आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असंतुलन को रोकने व क्षेत्रीय आर्थिक और सामाजिक विषमताओं की प्रबलता को काबू में रखने के क्रम में योजना आयोग ने लक्ष्य-क्षेत्र तथा लक्ष्य-समूह योजना उपागमों को प्रस्तुत किया है। लक्ष्य क्षेत्र कार्यक्रमों में कमान नियंत्रित क्षेत्र विकास कार्यक्रम, सूखाग्रस्त क्षेत्र विकास कार्यक्रम, पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम है।

HBSE 12th Class Geography Solutions Chapter 9 भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास

→ विकास (Development) : विकास को आधुनिकीकरण का सूचक माना जाता है। विकास ऐसी प्रक्रिया है जो ऐसी संरचनाओं या संस्थाओं का निर्माण करती है, जो समाज की समस्याओं का समाधान निकालने में समर्थ हो।

→ सतत पोषणीय विकास (Continuous Nourished Development) : विकास की वह अवधारणा जिसके अंतर्गत संसाधनों का इस प्रकार दोहन किया जाता है कि उसके पुनर्भरण की संभावना भी बनी रहे और पर्यावरण का भी कम-से-कम नुकसान हो, सतत पोषणीय विकास कहलाती है। यह वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ भावी पीढ़ी की जरूरतों का भी ध्यान रखती है।

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HBSE 12th Class Geography Solutions Chapter 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार

Haryana State Board HBSE 12th Class Geography Solutions Chapter 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Geography Solutions Chapter 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार

अभ्यास केन प्रश्न

नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर को चुनिए

1. दो देशों के मध्य व्यापार कहलाता है-
(A) अंतर्देशीय व्यापार
(B) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
(C) बाह्य व्यापार
(D) स्थानीय व्यापार
उत्तर:
(B) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार

2. निम्नलिखित में से कौन-सा एक स्थलबद्ध पोताश्रय है?
(A) विशाखापट्टनम
(B) एन्नौर
(C) मुंबई
(D) हल्दिया
उत्तर:
(A) विशाखापट्टनम

HBSE 12th Class Geography Solutions Chapter 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार

3. भारत का अधिकांश विदेशी व्यापार वहन होता है-
(A) स्थल और समुद्र द्वारा
(B) स्थल और वायु द्वारा
(C) समुद्र और वायु द्वारा
(D) समुद्र द्वारा
उत्तर:
(C) समुद्र और वायु द्वारा

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. भारत का विदेशी व्यापार प्रतिकूल रहना।
  2. विभिन्न प्रकार की निर्मित वस्तुओं का निर्यात करना।
  3. विश्व के लगभग सभी देशों के साथ व्यापारिक संबंध।
  4. आयात में विभिन्नता। आयात व्यापार में पेट्रोलियम का आयात अधिक होना।
  5. अधिकांश व्यापार समुद्री मार्गों से होना।

प्रश्न 2.
पत्तन और पोताश्रय में अंतर बताइए।
उत्तर:
पत्तन और पोताश्रय में निम्नलिखित अंतर हैं-

पोताश्नय (Harbour)पत्तन (Port)
1. सागर में जहाज़ों के प्रवेश करने के प्राकृतिक स्थान को पोताश्रय कहते हैं।1. ये सागरीय तट पर जहाज़ों के ठहरने के स्थान होते हैं।
2. यहाँ जहाज़ सागरीय लहरों तथा तूफानों से सुरक्षित रहते हैं।2. यहाँ जहाज़ों पर सामान लादा तथा उतारा जाता है।
3. ज्वारनद मुख तथा कटे-फटे तट पर आदर्श प्राकृतिक पोताश्रय मिलती हैं, उदाहरण के लिए मुंबई पोताश्रय।3. यहाँ बस्तियों तथा गोदामों की सुविधाएँ होती हैं।
4. जलतोड़ दीवारों का निर्माण करके कृत्रिम पोताश्रय बनाई जा सकती हैं; जैसे चेन्नई पोताश्रय।4. इसमें जल तथा थल दोनों क्षेत्र होते हैं। ये व्यापार के द्वार कहलाते हैं।

प्रश्न 3.
पृष्ठप्रदेश के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पत्तन के आस-पास का क्षेत्र पृष्ठप्रदेश कहलाता है। पृष्ठप्रदेश की सीमाओं का चिह्नांकन करना मुश्किल होता है क्योंकि यह क्षेत्र पर सुस्थिर नहीं होता। अधिकतर एक पत्तन का पृष्ठप्रदेश दूसरे पत्तन के पृष्ठप्रदेश का अतिव्यापन कर सकता है।

प्रश्न 4.
उन महत्त्वपूर्ण मदों के नाम बताइए जिन्हें भारत विभिन्न देशों से आयात करता है?
उत्तर:
भारत निम्नलिखित वस्तुओं का विभिन्न देशों से आयात करता है

  1. पेट्रोलियम तथा पेट्रोलियम उत्पाद
  2. कच्चा माल एवं खनिज
  3. उर्वरक
  4. मशीनें अथवा पूंजीगत माल
  5. खाद्य पदार्थ
  6. अन्य वस्तुएँ आदि।

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प्रश्न 5.
भारत के पूर्वी तट पर स्थित पत्तनों के नाम बताइए।
उत्तर:
भारत के पूर्वी तट पर स्थित पत्तन निम्नलिखित हैं-

  1. तूतीकोरिन
  2. चेन्नई
  3. विशाखापट्टनम
  4. पारादीप
  5. हल्दिया
  6. कोलकाता।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 150 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
भारत में निर्यात और आयात व्यापार के संयोजन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार निर्यात और आयात के संयोजन से बनता है। जब कोई देश अपनी वस्तु या सेवा को अन्य देशों को बेचता है तो इसे निर्यात कहते हैं। इसके विपरीत जब कोई देश अन्य देशों से वस्तुएँ और सेवाएँ खरीदता है तो उसे आयात कहते हैं।

भारत का आयात संघटन/संयोजन (Composition of India’s Import)-भारत विश्व का एक प्रमुख आयातक देश है। पिछले 30-40 वर्षों में भारत में 20-25 गुना आयात बढ़ा है। अप्रैल, 2019 में 41.40 अरब अमेरिकी डॉलर (287432.9 करोड़) का आयात हुआ, जो अप्रैल 2018 के मुकाबले डॉलर के लिहाज से 4.48% अधिक है और रुपए की लिहाज से 10.52% अधिक है। हम स्वतंत्रता-प्राप्ति से पहले निर्मित वस्तुओं का आयात करते थे। इसके बाद इन वस्तुओं के आयात में कमी आने लगी। हमारे परिवहन तथा औद्योगिक विकास के लिए पेट्रोलियम के आयात की आवश्यकता बढ़ी है। अन्य आयातक वस्तुओं में खाद्यान्न, मशीनें, उर्वरक, दवाइयाँ, खाने के तेल, कागज़ आदि पदार्थ हैं। इनका विवरण इस प्रकार है-

1. पेट्रोलियम तथा संबंधित उत्पाद सन् 1950-51 में 55 करोड़ रुपए का पेट्रोलियम उत्पाद का आयात किया गया था, जो बढ़कर सन् 1984-85 में 534 करोड़ रुपए हो गया। सन् 2016-17 में 5,82,762 करोड़ रुपए के पेट्रोलियम पदार्थों का आयात किया गया था। भारत मध्य-पूर्व देशों से तेल का आयात करता है।

2. मशीनें-अपने औद्योगिक विकास के लिए भारत को स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद मशीनों की बहुत आवश्यकता हुई तथा बड़े पैमाने पर इनका आयात किया गया। इनमें कपड़ा बनाने की मशीनें, कृषि मशीनें तथा खनिज उद्योग की मशीनें शामिल हैं।

3. लोहा-इस्पात भारत में लोहे का उत्पादन खपत से कम है। सन् 1950-51 में केवल 16 करोड़ रुपए का लोहा-इस्पात का आयात किया गया था, जो बढ़कर सन् 2012-13 में लगभग 59 करोड़ रुपए का लोहा-इस्पात आयात किया गया। हम जापान, बेल्जियम, ब्रिटेन, जर्मनी तथा दक्षिणी कोरिया से लोहा मंगवाते रहे हैं। 2016-2017 में लोहा-इस्पात के आयात में कुछ कमी आई।

4. उर्वरक देश में कृषि को बढ़ावा देने के लिए भारी उर्वरकों की जरूरत पड़ी। सन् 1985-86 में लगभग 1,436 करोड़ रुपए तथा 2012-13 में 49,433 करोड़ रुपए के उर्वरक बाहर से मंगवाए गए थे, परंतु अब इनका आयात घट रहा है। हम इनको संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, जापान आदि देशों से मंगवाते हैं। उर्वरक के आयात में 2015-2016 के दौरान 2.1% की वृद्धि हई। . 2016-2017 में इसमें 1.3% की वृद्धि दर दर्ज की गई।

5. हीरे तथा कीमती पत्थर-भारत इनका निर्यातक भी है। भारत बिना कटे हीरे बाहर से मंगवाता है तथा इन्हें काटकर, पॉलिश करके निर्यात करता है। हमने सन् 1986-87 में 1495.48 करोड़ रुपए के हीरों का तथा 2012-13 में 1,23,071 करोड़ रुपए के हीरों तथा कीमती पत्थरों का आयात किया था। 2016-2017 में 1,59,464 करोड़ रुपए के आभूषणों व रत्नों का आयात किया गया।

6. खाद्य तेल-भारत को भारी मात्रा में इन्हें आयात करना पड़ता है। सन् 1955-56 में केवल 7 करोड़ रुपए के मूल्य के ख के तेलों का आयात किया गया था, जो बढ़कर सन् 1986-87 में 611 करोड़ रुपए तथा 2012-13 में 61,106 करोड़ रुपए हो गया। 2016-2017 में 73,048 करोड़ रुपए तेल का आयात हुआ। भारत के लिए इनका मुख्य स्रोत संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील तथा मलेशिया हैं।

7. दवाइयाँ हमारी दवाइयों की मांग में बहुत वृद्धि हो रही है। सन् 1985-86 में 84.4 करोड़ रुपए के मूल्य की दवाइयों का आयात किया गया था। यही आयात बढ़कर 2016-17 में 33504 करोड़ रुपए हो गया। हमारी दवाइयों के मुख्य स्रोत जर्मनी, इटली, चीन, स्पेन, बेल्जियम तथा पोलैंड आदि हैं। वर्तमान में भारत में आयात व्यापार के संघटन में काफी बदलाव हुआ है। सोने का आयात मार्च, 2019 में 31.22 प्रतिशत से बढ़कर 3.27 अरब डॉलर पर पहुँच गया। कच्चे तेल का आयात 5.55 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 11.75 अरब डॉलर रहा। पूरे वित्त वर्ष 2018-19 में निर्यात 9 प्रतिशत बढ़कर 331 अरब डॉलर पर पहुंच गया। वित्त वर्ष के दौरान व्यापार घाटा बढ़कर 176.42 अरब डॉलर रहा, जो 2017-2018 में 162 अरब डॉलर था।

भारत का निर्यात संघटन/संयोजन (Composition of India’s Export)-स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात नियोजित आर्थिक विकास की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था के साथ-साथ देश के निर्यात व्यापार में भी वृद्धि और विविधता आई
1. कृषि और समवर्गी उत्पाद-पिछले कुछ वर्षों में भारत के निर्यात में कृषि एवं समवर्गी उत्पादों का हिस्सा घटा है। कृषि उत्पादों के अंतर्गत कॉफ़ी, मसाले, चाय व दालों आदि परम्परागत वस्तुओं का निर्यात अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के कारण घटा है।

2. विनिर्मित वस्तुएँ वर्ष 2011-12 में विनिर्माण क्षेत्र ने भारत के कुल निर्यात मूल्य में अकेले 68.6 प्रतिशत की भागीदारी अंकित की थी। निर्यात सूची में इंजीनियरी के सामान, विशेषतः मशीनों और उपकरणों ने महत्त्वपूर्ण वृद्धि दर्शाई है। 2012-13 में देश के कुल निर्यात में इंजीनियरी सामान का हिस्सा 21.68 प्रतिशत था।

3. पेट्रोलियम एवं अपरिष्कृत उत्पाद-यद्यपि भारत कच्चे तेल का आयातक है, लेकिन यह पेट्रोलियम उत्पादों का बड़े पैमाने पर निर्यात भी करता है। इसका कारण यह है कि भारत ने 21 तेल-शोधनशालाएँ लगाकर तेल-शोधन की क्षमता बढ़ा ली है। पेट्रोलियम पदार्थों का निर्यात में 1997-98 में हिस्सा लगभग 1 प्रतिशत था जो बढ़कर 2011-12 में 15.6 प्रतिशत हो गया है। पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यात हिस्से में वृद्धि का कारण इनके मूल्य में वृद्धि है।

4. अयस्क एवं खनिज-भारत के निर्यात व्यापार में अयस्कों एवं खनिजों का महत्त्व बढ़ने लगा है। 1999-2000 में इनके कुल निर्यात में हिस्सा 2.5 प्रतिशत था जो 2014-15 में बढ़कर लगभग 12.76 प्रतिशत हो गया। 2016-2017 में 35,947 करोड़ रुपए अयस्क एवं खनिज का निर्यात हुआ।

देश का निर्यात मार्च, 2019 में 11 प्रतिशत से बढ़कर 32.55 अरब डॉलर पर पहुँच गया। फार्मा, रसायन और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में ऊंची वृद्धि की वजह से कुल निर्यात बढ़ा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मार्च, 2019 में आयात भी 1.44 प्रतिशत बढ़कर 43.44 अरब डॉलर रहा। हालांकि इस दौरान व्यापार घाटा घटकर 10.89 अरब डॉलर पर आ गया, जो मार्च, 2018 में 13.51 अरब डॉलर था।

प्रश्न 2.
भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की बदलती प्रकृति पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सभी देशों के लिए परस्पर लाभदायक होता है, क्योंकि कोई भी देश आत्मनिर्भर नहीं है। हाल ही के वर्षों में भारत में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की मात्रा (Volume), उसके संघटन (Compositions) और व्यापार की दिशा में आमूल परिवर्तन (Sea Changes) देखे गए। यद्यपि विश्व व्यापार में भारत की भागीदारी कुल मात्रा का केवल 1.6 प्रतिशत है, फिर भी विश्व की अर्थव्यवस्था में इसकी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की बदलती प्रकृति या प्रारूप (Changing Nature or Pattern of International Trade)-समय के साथ भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में बड़े परिवर्तन हुए हैं
(1) भारत का विदेशी व्यापार 1950-51 में 1,214 करोड़ रु० मूल्य का था जो 2012-2013 में बढ़कर 43,04,513 करोड़ रु० मूल्य का हो गया था। यह वृद्धि 1707 गुणी थी। विदेशी व्यापार में इस तीव्र वृद्धि के तीन प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  • विनिर्माण के क्षेत्र में तेज़ तरक्की (Rapid Growth in the field of manufacturing)
  • सरकार की उदार नीतियाँ (Liberal Policies of Government),
  • बाज़ारों की विविधरूपता (Diversification of Markets)।

(2) समय के साथ विदेशी व्यापार की प्रकृति में भी बदलाव आया है। भारत में आयात और निर्यात दोनों की ही मात्रा में वृद्धि हुई है, लेकिन निर्यात की तुलना में आयात का मूल्य अधिक रहा है। 2017 में आयात 344408.90 मिलियन डॉलर से बढ़कर 2018 में 37813.57 मिलियन डॉलर हो गया तथा निर्यात 2017 में 24726.71 मिलियन डॉलर से 2018 में 25834.36 मिलियन डॉलर हो गया।

(3) अर्थव्यवस्था में विविधता आने के बावजूद आयात तथा निर्यात के मूल्यों में अन्तर बढ़ता रहा और व्यापार सन्तुलन हमारे विपक्ष में होता गया। इसके लिए निम्नलिखित पाँच कारण उत्तरदायी हैं

  • विश्व स्तर पर मूल्यों में वृद्धि।
  • विश्व बाज़ार में भारतीय रुपए का अवमूल्यन।
  • बढ़ती जनसंख्या की घरेलू उत्पादों की बढ़ती मांग और उत्पादन में धीमी प्रगति।
  • घाटे में हुई इस वृद्धि के लिए अपरिष्कृत (Crude) पेट्रोलियम को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है, क्योंकि यह भारत की आयात
  • सूची में एक प्रमुख व महँगा घटक है।

HBSE 12th Class Geography Solutions Chapter 11 अंतर्राष्ट्रीय व्यापार

(4) इसी के परिणामस्वरूप विश्व के कुल निर्यात व्यापार में भारत की भागीदारी 2.1 प्रतिशत (सन् 1950) से घटकर सन् 1960 में 1.2 प्रतिशत और सन 2014-15 में मात्र 0.9 प्रतिशत रह गई है।
तालिका : भारत का विदेशी/अंतर्राष्ट्रीय व्यापार (अरब डॉलर में)

वर्षनिर्यातआयातव्यापार घाटा
200142.554.5-12.0
200244.553.8-9.3
200348.361.6-13.3
200457.2474.15-16.91
200569.1889.33-20.15
200676.23113.1-36.87
2007112.0187.9-75.9
2008176.4305.5-129.1
2009168.2274.3-106.1
2010201.1327.0-125.9
2011299.4461.4-162.0
2012298.4500.4-202.2
2013313.2467.5-154.3
2014318.2462.9-144.7
2015310.3447.9-137.6
2016262.3381.0-118.7
2017275.8384.3-108.5

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार HBSE 12th Class Geography Notes

→ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार (International Trade) : निर्यात एवं आयात के संयोजन से बनता है।

→ व्यापार संतुलन (Balance of Trade) : आयात और निर्यात का अंतर व्यापार संतुलन कहलाता है।

→ निर्यात (Export) : जब कोई देश अपनी वस्तु या सेवा को अन्य देशों को बेचता है तो उसे निर्यात कहते हैं।

→ आयात (Import) : जब कोई देश अन्य देशों से वस्तुएँ और सेवाएँ खरीदता है तो उसे आयात कहते हैं।

→ पत्तन (Port) : पत्तन गोदी (Dock), घाट तथा सामान उतारने व चढ़ाने की सुविधा से युक्त ऐसा स्थान है जो स्थल मार्गों से जुड़ा होता है।

→ पोताश्रय (Harbour) : सागर में जहाजों के प्रवेश करने के प्राकृतिक स्थान को पोताश्रय कहते हैं।

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HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए-

1. संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन किसकी अध्यक्षता में हुआ?
(A) भीमराव अंबेडकर
(B) डॉ० सच्चिदानन्द सिन्हा
(C) बी० एन० राव
(D) डॉ० राजेंद्र प्रसाद
उत्तर:
(B) डॉ० सच्चिदानन्द सिन्हा

2. संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष थे
(A) डॉ० राजेंद्र प्रसाद
(B) डॉ० भीमराव अंबेडकर
(C) एस० एस० मुखर्जी
(D) सरदार पटेल
उत्तर:
(A) डॉ० राजेंद्र प्रसाद

3. संविधान सभा के सम्मुख ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ किसने पारित किया?
(A) डॉ० राजेंद्र प्रसाद
(B) डॉ० भीमराव अंबेडकर
(C) पंडित जवाहरलाल नेहरू
(D) सरदार पटेल
उत्तर:
(C) पंडित जवाहरलाल नेहरू

4. भारतीय संविधान पास हुआ
(A) 15 अगस्त, 1947
(B) 26 नवंबर, 1949
(C) 26 जनवरी, 1950
(D) 26 नवंबर, 1950
उत्तर:
(B) 26 नवंबर, 1949

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

5. संविधान सभा के सदस्यों की संख्या थी-
(A) 393
(B) 389
(C) 289
(D) 489
उत्तर:
(B) 389

6. संविधान सभा की प्रथम बैठक कहाँ हुई थी?
(A) दिल्ली
(B) बम्बई
(C) कलकत्ता
(D) मद्रास
उत्तर:
(A) दिल्ली

7. संविधान सभा की बैठकें हुईं
(A) लगभग 166
(B) लगभग 184
(C) लगभग 267
(D) लगभग 195
उत्तर:
(A) लगभग 166

8. ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’ किसने लिखा था?
(A) अबुल फज़ल ने
(B) मोहम्मद इकबाल ने
(C) बर्नी ने
(D) फिरदौसी ने
उत्तर:
(B) मोहम्मद इकबाल ने

9. भारतीय संविधान लागू हुआ
(A) 26 जनवरी, 1949
(B) 26 जनवरी, 1950
(C) 15 अगस्त, 1950
(D) 26 नवंबर, 1949
उत्तर:
(B) 26 जनवरी, 1950

10. भारतीय संविधान सभा का निर्माण किस योजना के अंतर्गत किया गया?
(A) क्रिप्स योजना
(B) कैबिनेट मिशन योजना
(C) वेवल योजना
(D) गाँधी योजना
उत्तर:
(B) कैबिनेट मिशन

11. संविधान सभा का गठन हुआ
(A) 1944 ई० में
(B) 1942 ई० में
(C) 1946 ई० में
(D) 1950 ई० में
उत्तर:
(C) 1946 ई० में

12. संविधान सभा के चुनाव कब हुए थे ?
(A) जुलाई, 1946 ई०
(B) जुलाई, 1945 ई०
(C) जुलाई, 1944 ई०
(D) जून, 1946 ई०
उत्तर:
(A) जुलाई, 1946 ई०

13. धर्मनिरपेक्ष राज्य का अर्थ क्या था?
(A) एक धर्म पर आधारित राज्य
(B) सभी धर्मों का आदर
(C) हिन्दू धर्म के पक्ष में
(D) इस्लाम के पक्ष में
उत्तर:
(A) सभी धर्मों का आदर

14. संविधान सभा की कितनी धाराएँ हैं?
(A) 390
(B) 392
(C) 395
(D) 398
उत्तर:
(C) 395

15. संविधान सभा के सवैधानिक सलाहकार कौन थे?
(A) डॉ० बी० एन० राय
(B) सरदार पटेल
(C) डॉ० बी० आर० अम्बेडकर
(D) पंडित जवाहरलाल नेहरू
उत्तर:
(A) डॉ० बी० एन० राय

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन कब व किसकी अध्यक्षता में हुआ?
उत्तर:
संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन 9 दिसंबर, 1946 को डॉ० सच्चिदानन्द सिन्हा की अध्यक्षता में हुआ।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
डॉ० राजेंद्र प्रसाद भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष थे।

प्रश्न 3.
संविधान की प्रारूप समिति का गठन कब हुआ?
उत्तर:
संविधान की प्रारूप समिति का गठन 29 अगस्त, 1947 को हुआ।

प्रश्न 4.
संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
डॉ०. भीमराव अंबेडकर संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे।

प्रश्न 5.
संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार कौन थे?
उत्तर:
संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार श्री बी० एन० राव थे।

प्रश्न 6.
भारतीय संविधान कब पारित हुआ? उत्तर-भारतीय संविधान 26 नवंबर, 1949 को पारित हुआ।

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान कब लागू हुआ?
उत्तर:
भारतीय संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ।

प्रश्न 8. भारतीय संविधान में कितनी धाराएँ हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान में 395 धाराएँ हैं।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान ने भारत को कैसा राज्य घोषित किया?
उत्तर:
भारतीय संविधान ने भारत को संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य घोषित किया।

प्रश्न 10.
भारत की राष्ट्रभाषा क्या है?
उत्तर:
भारत की राष्ट्र भाषा हिन्दी है।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान पर किन-किन देशों के संविधानों का प्रभाव है?
उत्तर:
भारतीय संविधान पर इंग्लैंड, अमेरिका, आयरलैंड, कनाडा, दक्षिणी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया देशों के संविधानों का प्रभाव है।

प्रश्न 12.
भारतीय संविधान में कैसी नागरिकता की व्यवस्था है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में इकहरी नागरिकता की व्यवस्था है।

प्रश्न 13.
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों को शामिल करने की प्रेरणा किस देश के संविधान से ली गई?
उत्तर:
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों को शामिल करने की प्रेरणा अमेरिका के संविधान से ली गई।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

प्रश्न 14.
किस योजना ने भारतीय संविधान के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया?
उत्तर:
कैबिनेट मिशन योजना 1946 ने भारतीय संविधान के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया।

प्रश्न 15.
भारतीय संविधान सभा का गठन कब हुआ?
उत्तर:
भारतीय संविधान सभा का गठन जुलाई, 1946 में हुआ।

प्रश्न 16.
संविधान सभा के सदस्यों की संख्या कितनी थी?
उत्तर:
संविधान सभा के सदस्यों की संख्या 389 थी। इनमें से 292 सदस्य ब्रिटिश प्रांतों से तथा 93 देशी रियासतों के तथा 4 चीफ कमिश्नरियों के थे।

प्रश्न 17.
आधुनिक मन एवं भारतीय संविधान के पिता किन्हें कहा जाता है?
उत्तर:
आधुनिक मनु एवं भारतीय संविधान का पिता डॉ० भीमराव अंबेडकर को कहा जाता है।

प्रश्न 18.
भारत के संविधान में कुल कितनी अनुसूचियाँ हैं?
उत्तर:
भारत के संविधान में कुल 12 अनुसूचियाँ हैं।

प्रश्न 19.
संविधान सभा में कितने प्रतिशत सदस्य कांग्रेस दल के थे?
उत्तर:
संविधान सभा में 82 प्रतिशत सदस्य कांग्रेस दल के थे।

प्रश्न 20.
कैबिनेट मिशन ने अपनी संवैधानिक योजना की घोषणा कब की थी?
उत्तर:
कैबिनेट मिशन ने अपनी संवैधानिक योजना की घोषणा 16 मई, 1946 को की थी।

प्रश्न 21.
संविधान सभा के समक्ष उद्देश्य प्रस्ताव किसने व कब रखा था?
उत्तर:
संविधान सभा के समक्ष उद्देश्य प्रस्ताव पं० जवाहरलाल नेहरू ने 13 दिसंबर, 1946 को रखा था।

प्रश्न 22.
भारतीय संविधान को किस कालावधि में सूत्रबद्ध किया गया? उत्तर-भारतीय संविधान दिसंबर, 1946 से दिसंबर, 1949 की कालावधि में सूत्रबद्ध किया गया।

अति लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को क्यों लागू किया गया?
उत्तर:
भारत का संविधान 26 नवंबर, 1949 को बनकर तैयार हो गया था। परंतु इसे दो महीने बाद 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। इसका मुख्य कारण यह था कि कांग्रेस ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता प्रस्ताव पास किया और 26 जनवरी, 1930 का दिन प्रथम स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया गया। इसके बाद कांग्रेस ने 26 जनवरी को हर वर्ष इसी रूप में मनाया। इस पवित्र दिवस की याद ताज़ा रखने के लिए भारत का संविधान 26 जनवरी; 1950 को लागू किया गया।

प्रश्न 2.
संविधान सभा की पहली बैठक पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को नई दिल्ली में संविधान सभा हाल में हुई। इसकी अध्यक्षता डॉ० सच्चिदानन्द सिन्हा ने की। इसमें 207 सदस्य उपस्थित थे।

प्रश्न 3.
संविधान सभा के कुछ प्रमुख सदस्यों के नाम बताइए।
उत्तर:
संविधान सभा के प्रमुख सदस्यों के नाम हैं-राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, सरदार बलदेव सिंह, फ्रैंक एन्थनी, एच०पी० मोदी, अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर, बी०आर० अंबेडकर व के०एम० मुंशी।

प्रश्न 4.
भारत के संविधान में डॉ० राजेंद्र प्रसाद की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर:
डॉ० राजेंद्र प्रसाद कांग्रेस के प्रमुख सदस्य थे। 11 दिसंबर, 1946 में राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। अध्यक्ष के रूप में संविधान सभा की चर्चाओं को उन्होंने काफी प्रभावित किया। उन्हें विचार प्रकट करने का मौका दिया। राजेंद्र प्रसाद को इस बात का दुःख था कि भारतीय संविधान मूल रूप से अंग्रेजी में था और उसमें किसी भी पद के लिए किसी भी रूप में शैक्षिक योग्यता नहीं रखी गई थी।

प्रश्न 5.
संविधान सभा ने दलितों के लिए क्या प्रावधान किया? ।
उत्तर:
संविधान सभा में दलितों के अधिकारों पर काफी बहस हुई। इन जातियों के लिए सुरक्षात्मक उपायों की माँग की गई। अंत में अस्पृश्यता का उन्मूलन किया गया। दूसरा, इन्हें हिंदू मंदिरों में प्रवेश दिया गया तथा तीसरा, दलितों को विधायिकाओं और नौकरियों में आरक्षण दिया गया।

प्रश्न 6.
डॉ० बी०आर० अंबेडकर कौन थे?
उत्तर:
डॉ० बी०आर० अंबेडकर महान विद्वान, विधिवेत्ता, लेखक, शिक्षाविद् तथा महान् सुधारक थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जीवन भर संघर्ष किया। अंबेडकर अंतरिम सरकार में विधि मंत्री बने। उन्हें संविधान सभा की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। अतः उन्होंने संविधान के प्रारूप को प्रस्तुत किया तथा पास करवाया। उन्हें भारतीय संविधान का पिता भी कहा जाता है।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान की आधारभूत मान्यताएँ व सिद्धांत क्या थे?
उत्तर:
भारतीय संविधान की आधारभूत मान्यताएँ और निहित सिद्धांत ये थे कि इसके अनुसार भारत एक धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक राज्य होगा। इसमें बालिग मताधिकार पर आधारित संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया गया।

प्रश्न 8.
संविधान ने विषयों का बँटवारा किस प्रकार किया?
उत्तर:
संविधान सभा ने सभी विषयों को निम्नलिखित तीन सूचियों में बाँट दिया

  • केंद्रीय सूची-इस पर केंद्र सरकार कार्य कर सकती थी।
  • राज्य सूची-इसमें वे विषय थे जिन पर राज्य सरकार ने कार्य करना था।
  • समवर्ती सूची-इन विषयों पर राज्य सरकार व केंद्र सरकार दोनों कार्य कर सकती थीं।

प्रश्न 9.
राष्ट्र की भाषा पर महात्मा गाँधी जी के क्या विचार थे?
उत्तर:
राष्ट्र भाषा के संबंध में गाँधी जी के विचार थे कि प्रत्येक को एक ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें। हिंदी और उर्दू के मेल से बनी हिंदुस्तानी भाषा भारत की राष्ट्र भाषा होनी चाहिए क्योंकि यह भारतीय जनता के बड़े हिस्से की भाषा है और परस्पर संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई है। यह एक साझी भाषा है।

प्रश्न 10.
संविधान निर्माण में पटेल की भूमिका किस प्रकार की थी?
उत्तर:
वल्लभ भाई पटेल संविधान सभा के प्रमुख सदस्यों में से एक थे। उन्होंने अनेक रिपोर्टों के प्रारूप लिखने तथा अनेक परस्पर विरोधी विचारों के मध्य सहमति उत्पन्न करने में सराहनीय योगदान दिया।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान में कौन-से दो मौलिक अधिकार दिए गए हैं?
उत्तर:

  • स्वतन्त्रता का अधिकार,
  • समानता का अधिकार।

प्रश्न 12.
भारत के राष्ट्रीय ध्वज के क्रम से रंगों के नाम लिखो।
उत्तर:
केसरिया, सफेद, हरा।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
वयस्क मताधिकार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भारत में संविधान के द्वारा ‘स्वतंत्र सम्प्रभु गणतंत्र’ (Independent Sovereign Republic) की स्थापना की गई थी। इस नए गणतंत्र में सत्ता का स्रोत नागरिकों को होना था। इसको कार्यरूप देने के लिए संविधान निर्माताओं ने भारत में एकमुश्त वयस्क मताधिकार प्रदान किया। संविधान निर्माताओं ने भारत के लोगों पर ऐतिहासिक विश्वास व्यक्त किया। उल्लेखनीय है कि विश्व के किसी भी प्रजातंत्र में वहाँ के लोगों को एक बार में ही वयस्क मताधिकार प्राप्त नहीं हुआ।

प्रश्न 2.
धर्म-निरपेक्ष राज्य का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर:
भारतीय संविधान भारत में धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। इसका अभिप्राय यह है कि राज्य किसी विशेष धर्म को न तो राज्य धर्म मानता है और न ही किसी विशेष धर्म को संरक्षण तथा समर्थन प्रदान करता है। इसी प्रकार राज्य किसी नागरिक के खिलाफ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं कर सकता। सभी भारतीयों को यह स्वतंत्रता है कि वे किसी भी धर्म को माने, अनुकरण करें अथवा उसका प्रचार-प्रसार करें, परंतु वे दूसरे के धर्म में बाधा पैदा नहीं कर सकते।

प्रश्न 3.
संविधान निर्माण के लिए बनाई प्रमुख समितियों के नाम लिखो।।
उत्तर:
संविधान सभा ने नए संविधान के विभिन्न पक्षों का विस्तार से परीक्षण करने के लिए अनेक समितियों की नियुक्ति की। इन समितियों में से सबसे पहले महत्त्वपूर्ण समितियाँ थीं-संघीय अधिकार समिति (Union Powers Committee), संघीय संविधान समिति (Union Constitution Committee), मौलिक अधिकार समिति (Fundamental Rights Committee), प्रांतीय अधिकार समिति (Provincial Powers Committee) तथा अल्पसंख्यकों के लिए सलाहकार समिति (The Advisory Committee to Minorities)। इन समितियों ने अपने-अपने कार्यक्षेत्र में काम करने के बाद अपने प्रतिवेदन (रिपोटी/सुझावों को संविधान सभा में प्रस्तुत किया।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान में जनता की प्रभुता की स्थापना की गई है। स्पष्ट करें।
उत्तर:
भारतीय संविधान की एक विशेषता यह है कि जनता को प्रभुता का स्रोत स्वीकार किया गया है। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि हम अब अंग्रेज़ी साम्राज्य के अधीन नहीं हैं अपितु प्रभुसत्ता जनता में निहित है। इस प्रस्तावना से यह स्पष्ट होता है कि संविधान की निर्माता भारतीय जनता है और जनता ही अपनी सरकार को अपने ऊपर राज्य करने के लिए सारी शक्तियाँ प्रदान करती है। इस प्रकार सत्ता का वास्तविक स्रोत जनता है।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारत की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संविधान निर्माण से तत्काल पहले के वर्ष भारत में बहुत ही उथल-पुथल भरे थे। जहाँ एक ओर यह समय लोगों की महान् आशाओं को पूरा करने का था, वही यह मोहभंग का समय भी था। भारत को स्वतंत्रता तो प्राप्त हो गई थी, परन्तु इसका विभाजन भी हो गया था जिससे भारत में भयावह समस्याएँ खड़ी हो गई थीं। संविधान सभा जब अपना कार्य कर रही थी तो उसके कार्य को इन समस्याओं ने भी प्रभावित किया। फिर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि संविधान सभा की दोहरी भूमिका थी; एक ओर वह भारत का संविधान निर्माण करने में संलग्न थी, वहीं दूसरी ओर वह भारत की केंद्रीय असेम्बली के रूप में भी कार्य कर … रही थी। स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय पैदा हुई भारत की प्रमुख समस्याओं का विवरण निम्न प्रकार से है

1. विभाजन और सांप्रदायिक दंगे-विभाजन और उससे जुड़े विभिन्न पक्षों का अध्ययन हमने छठे अध्याय में किया है। यहाँ हम यह उल्लेख करना चाहेंगे कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय भारत के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या देश के विभाजन से जुड़ी थी। इसी समस्या से भारत में अनेक विकराल समस्याएँ पैदा हुईं। कांग्रेस ने विभाजन इसलिए स्वीकार कर लिया था कि इसके बाद समस्याएँ समाप्त हो जाएंगी।

सांप्रदायिक दंगे समाप्त हो जाएंगे तथा देश में नवनिर्माण का दौर शुरू होगा। परन्तु जून योजना (विभाजन योजना) को स्वीकार करने के बाद अगस्त, 1947 में पंजाब में भयंकर दंगे शुरू हो गए। लूटपाट, आगजनी, जनसंहार, बलात्कार, औरतों को अगवा करना आदि भयावह दृश्य आम हो गए। पुलिस प्रशासन मूक दर्शक बना रहा। ये सांप्रदायिक दंगे अगस्त 1947 से अक्तूबर 1947 तक चलते रहे।

इस महाध्वंस में लगभग 10 लाख लोग मारे गए, 50,000 महिलाएँ अगवा कर ली गईं तथा लगभग 1 करोड़ 50 लाख लोग अपने घरों से उजाड़ दिए गए। इन सांप्रदायिक दंगों को शान्त करने और हिन्दुओं-मुसलमानों में सद्भावना कायम करने के लिए महात्मा गाँधी ने अदम्य साहस दिखाया। किन्तु गाँधीजी की नीतियों से क्षुब्ध होकर नाथूराम गोडसे नामक व्यक्ति ने 30 जनवरी, 1948 को गाँधीजी की हत्या कर दी, जिसने सारी दुनिया को हिलाकर रख दिया।

2. विस्थापितों की समस्या-विभाजन तथा उससे जुड़ी हिंसा के परिणामस्वरूप अपनी जड़ों से उखड़े हुए (Uprooted) लोगों की भयंकर समस्या उभरकर सामने आयी। जान-माल की सुरक्षा न होने के कारण 1 करोड़ 50 लाख हिंदुओं और सिक्खों को पाकिस्तान से तथा मुसलमानों को भारत से बेहद खराब हालात में देशांतरण करना पड़ा। बहुत कम समय (3 माह) में हुआ यह देशांतरण दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा देशांतरण था।

देश की आज़ादी के तुरंत बाद इतनी बड़ी संख्या में उजड़े लोगों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। विभाजन से उन्हें उनकी अपनी संपत्ति, मकान, खेत, कारोबार आदि से वंचित होना पड़ा था। उनके परिवार व रिश्तेदार बिछुड़ गए थे या मारे गए थे। उनका सब कुछ छिन गया था। उनमें से अधिकतर लोगों को दंगों के कारण भयंकर दौर से गुजरना पड़ा था। अतः देश की सरकार के सम्मुख इतने बड़े समुदाय के लिए राहत और पुनर्वास की समस्या सबसे बड़ी थी।

3. भारतीय रियासतों की समस्या स्वतंत्र भारत की एकता को सबसे बड़ा खतरा भारतीय देशी रियासतों की स्थिति से उत्पन्न हुआ। इन रियासतों की संख्या लगभग 554 थी। 3 जून, 1947 को भारत के वायसराय ने यह घोषणा की कि 15 अगस्त, 1947 को देशी रियासतें अपने भाग्य का निर्णय स्वयं करेंगी अर्थात् वे भारत या पाकिस्तान दोनों में से किसी एक अधिराज्य में शामिल होंगी या अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रख सकेंगी। स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) तक सरदार पटेल और वी०पी० मेनन ने जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर शेष सभी राज्यों के शासकों को भारतीय संघ में विलय के लिए सहमत तथा बाध्य कर दिया था।

काठियावाड़ में स्थित जूनागढ़ के शासक के खिलाफ़ वहाँ की प्रजा ने बगावत कर दी थी। वह जूनागढ़ छोड़कर पाकिस्तान भाग गया था। उसका जनमत के आधार पर भारतीय संघ में विलय कर लिया गया। हैदराबाद के खिलाफ पुलिस कार्रवाई करनी पड़ी तथा कश्मीर की समस्या को लेकर भी भारत को पाकिस्तान से जूझना पड़ा। संविधान सभा की बैठकें इन समस्याओं की पृष्ठभूमि में हो रही थीं। भारत में जो कुछ इस समय घटित हो रहा था उससे संविधान सभा में होने वाली बहस और विचार-विमर्श भी अछूता नहीं था।

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प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान का निर्माण एक ऐसी संविधान सभा के द्वारा किया गया जिसे सीमित मताधिकार के आधार पर अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के द्वारा चुना गया था। फिर यह संविधान भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में अपनाए गए मूल्यों तथा आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके निर्माण में राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख प्रावधानों का विश्लेषण करने से इसकी निम्नलिखित विशेषताओं का पता चलता है

1. सबसे लम्बा संविधान-भारतीय संविधान की पहली विशेषता यह है कि इसे दुनिया के अनेक संविधानों का अध्ययन करने के बाद बनाया गया है। इसके 22 भाग हैं जिनमें 395 अनुच्छेद (धाराएँ) और 12 अनुसूचियाँ हैं। यह विश्व में सबसे लम्बा और विस्तृत संविधान है। इस संविधान के इतने बड़े होने के कई कारण बताए गए हैं। भारत एक विशाल राष्ट्र था जिसकी अपनी समस्याएँ थीं जो अंग्रेज़ी राज की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के कारण पैदा हो गई थीं।

संविधान निर्माताओं ने प्रत्येक समस्या को ध्यान में रखते हुए उसके समाधान के लिए नियम बनाए। संविधान में प्रत्येक ब्यौरा स्पष्ट किया गया। संघ की प्रणाली, मूल अधिकारों तथा नीति-निदेशक तत्त्वों, राजनीतिक संस्थाओं, जनजातियों, अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े वर्गों की संस्थाओं तथा आपातकालीन उपबन्धों को विस्तार से स्पष्ट करना पड़ा। इस कारण से यह संविधान भीमकाय बन गया।

2. जन प्रभुता की स्थापना-भारतीय संविधान की एक विशेषता यह है कि जनता को प्रभुता का स्रोत स्वीकार किया गया है। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि हम अब अंग्रेज़ी साम्राज्य के अधीन नहीं है अपितु प्रभुसत्ता जनता में निहित है। प्रस्तावना में कहा गया है कि “हम भारत के लोग …… इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।” इस प्रस्तावना से यह स्पष्ट होता है कि संविधान की निर्माता भारतीय जनता है और जनता ही अपनी सरकार को अपने ऊपर राज्य करने के लिए सारी शक्तियाँ प्रदान करती है। इस प्रकार सत्ता का वास्तविक स्रोत जनता है। इस प्रकार संविधान में सही रूप में जनतन्त्र की स्थापना की गई है।

3. भारतीय संघ की स्थापना-भारतीय संविधान के भाग (i) में अनुच्छेद 1 से 4 द्वारा भारतीय संघ की स्थापना की गई है। इसमें साफ लिखा है कि इण्डिया अर्थात् भारत राज्यों का संघ (Union of States) होगा। संविधान में इसके लिए शक्तियों का बँटवारा केन्द्र तथा राज्यों में किया गया है। संघीय संविधान समिति की रिपोर्ट में विभाजन के बाद हुए भारतीय राजनीतिक परिवर्तन को देखते हुए संघीय व्यवस्था में मजबूत केन्द्रीय शासन का प्रस्ताव रखा। देशी रियासतों ने संघीय व्यवस्था की स्थापना में काफी कठिनाई पैदा की। परन्तु देशी रियासतों के एकीकरण (Integration) के साथ इन देशी रियासतों को भारतीय संघ में भाग 2 और भाग 3 के राज्यों के रूप में विलय कर लिया गया।

4. संसदीय शासन-व्यवस्था (Parliamentry System of Government)-भारत में सरकार की संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया गया। संविधान के भाग 5 में संघीय सरकार के ढाँचे का वृत्तान्त दिया गया तथा भाग 6 में राज्यों में सरकार के गठन की प्रक्रिया का वर्णन है। इन व्यवस्थाओं के अनुसार केन्द्र तथा प्रान्तों में संसदीय शासन प्रणाली को स्वीकार किया गया। संघीय कार्यपालिका में राष्ट्रपति की व्यवस्था की गई है जिसका चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व की अप्रत्यक्ष प्रणाली द्वारा पाँच साल के लिए किया जाता है। केन्द्र में राष्ट्रपति सवैधानिक मुखिया मात्र है।

वास्तविक कार्यपालिका की शक्ति प्रधानमंत्री तथा मन्त्रिमण्डल में निहित है। मन्त्रिमण्डल को संसद के निम्न सदन के प्रति उत्तरदायी बनाया गया। इसी प्रकार राज्य में राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त गवर्नर नाममात्र का मुखिया होता है। वास्तविक शक्ति मुख्यमन्त्री और उसकी मंत्रि-परिषद् में होती है। केन्द्र में प्रधानमन्त्री तथा राज्य में मुख्यमन्त्री सदन में बहुमत वाले दल का नेता होता है। प्रधानमन्त्री या मुख्यमन्त्री तभी तक अपने पद पर बने रह सकते हैं जब तक उन्हें सदन का विश्वास प्राप्त हो। इस प्रकार कार्यपालिका पर भी जनता द्वारा चुनी हुई लोकसभा अथवा विधानसभा का नियन्त्रण होता है, क्योंकि कार्यपालिका इन चुने हुए सदनों के प्रति उत्तरदायी होती है।

5. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)-राष्ट्रीय संविधान सभा ने मूल अधिकारों के परीक्षण तथा सुझाव प्रस्तुत करने के लिए एक अलग से मूलाधिकार समिति (Fundamental Rights Committee) बनाई। संविधान सभा ने काफी विचार-विमर्श के बाद नागरिकों के मूल अधिकारों तथा उनकी रक्षा की भी व्यवस्था की। संविधान के भाग तीन (अनुच्छेद 12-35) में नागरिकों के मूल अधिकारों का वर्णन किया गया है। मौलिक अधिकारों को छः वर्गों में बाँटा गया है

  • समता का अधिकार (Right to Equality) (अनुच्छेद 14-18)
  • स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom) (अनुच्छेद 19)
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right against Exploitation) (अनुच्छेद 23-24)
  • धर्म स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion) (अनुच्छेद 25-28)
  • संस्कृति तथा शिक्षा संबंधी अधिकार (Cultural and Educational Rights) (अनुच्छेद 29-30)
  • सम्पत्ति का अधिकार (Right to Prosperity)

संविधान में मूल अधिकारों के साथ-साथ नागरिकों को संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies) भी प्रदान किया गया है। इस अधिकार के अनुसार कोई भी व्यक्ति मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है। न्यायालय व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करने में सक्षम है, परन्तु संसद तथा सरकार कुछ विशेष परिस्थितियों जैसे आपातकाल में इन अधिकारों को निलम्बित तथा सीमित कर सकती है।

6. राज्य नीति के निदेशक तत्त्व (Directive Principles of State)-संविधान में राज्य नीति के निदेशक तत्त्वों का विवरण दिया गया है। यद्यपि ये सिद्धान्त किसी न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाए जा सकते हैं, परन्तु फिर भी इन निदेशक तत्त्वों को देश के प्रशासन के लिए बहुत आवश्यक माना गया है। यह अपेक्षा की जाती है कि सभी विधानमण्डलों के लिए जरूरी है कि वे कानून बनाते समय इन सिद्धान्तों को सम्मुख रखेंगे। संविधान के नीति निदेशक तत्त्वों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है

(i) वे तत्त्व जिनका उद्देश्य नए समाज की रचना के लिए कल्याणकारी राज्य को बढ़ावा देना था।

(ii) वे तत्त्व जिनका उद्देश्य गाँधी जी के सिद्धान्तों को प्रोत्साहन देना; जैसे ग्राम पंचायतों का गठन, कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन, अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़ों के आर्थिक हितों की रक्षा तथा सुधार, मादक द्रव्यों पर नियन्त्रण आदि है।

(iii) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा को प्रोत्साहन देने वाले तत्त्व जिनमें कहा गया कि राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को प्रोत्साहन दे, राष्ट्रों के बीच न्यायोचित तथा सम्मानजनक व्यवहार बनाए रखे, अन्तर्राष्ट्रीय कानून और सन्धियों को स्वीकार करे तथा झगड़ों को बातचीत से सुलझाने के प्रयत्न करे।

7. स्वतन्त्र न्यायपालिका (Independent Judiciary) भारतीय संविधान निर्माताओं ने देश में एक स्वतन्त्र न्यायपालिका तथा अन्य स्वतन्त्र संस्थाओं की स्थापना की जिन पर कार्यपालिका का कम-से-कम हस्तक्षेप था। संविधान में संघीय न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय के गठन, शक्तियों आदि का वर्णन दिया गया है। न्यायाधीशों की योग्यता, नियुक्ति का ढंग तथा वेतन संविधान में ही तय कर दिए गए ताकि वे सरकार या पार्लियामेन्ट के अनुचित दबाव से बच सकें। न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखने की कोशिश की गई है। सारे देश में एक जैसे दीवानी और फौजदारी कानून भी स्थापित किए गए हैं।

8. संकटकालीन उपबन्धों का समावेश (Inclusion of Emergency Provisions)-भारतीय संविधान में देश में आपात्कालीन ते की शक्तियों का उल्लेख किया गया है। संविधान में तीन प्रकार की आपात स्थिति के उपबन्धों का समावेश किया गया है-आपात्काल की घोषणा, संवैधानिक व्यवस्था ठप्प होने सम्बन्धी घोषणा तथा वित्तीय आपात् की घोषणा। संवैधानिक व्यवस्था ठप्प होने सम्बन्धी घोषणा अधिकतर राज्य सरकारों से संबंधित है। इसमें राज्य के गवर्नर द्वारा राष्ट्रपति से राष्ट्रपति शासन लागू करने की बात कही गई है, परन्तु साथ ही यह भी प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति आपात् स्थिति संबंधी उद्घोषणा को यथाशीघ्र संसद से अनुमोदित करवाएगा।

9. कठोरता तथा लचीलेपन का मिश्रण (Blend of Rigidity and Flexibility)-भारतीय संविधान कठोरता तथा लचीलेपन का एक अपूर्व मिश्रण लिए हुए है। यह न तो इंग्लैण्ड के संविधान के समान लचीला है और न ही उतना कठोर है जितना अमेरिका का संविधान। संविधान निर्माता संविधान को इतना कठोर भी नहीं बनाना चाहते थे कि आवश्यकता पड़ने पर इसे बदला ही नहीं जा सके और न ही इतना लचीला बनाना चाहते थे कि सत्ताधारी दल इसे खिलौना समझकर अपने हितों की सिद्धि के लिए बार-बार इसमें परिवर्तन करता रहे। हमारे संविधान की बहुत-सी धाराएँ ऐसी हैं जिन्हें आसानी से बदला नहीं जा सकता।

इनके संशोधन के लिए न केवल संसद के बहुमत का होना आवश्यक है अपितु उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों को दो-तिहाई संशोधन के पक्ष में होना जरूरी है तथा राज्य विधानसभाओं की कम-से-कम आधी संख्या उसे अनुमोदित करे। परन्तु साथ ही संविधान इतना भी कठोर नहीं है कि इसमें संशोधन ही न किया जा सके। उदाहरण के लिए इसमें कई धाराएँ ऐसी हैं जिन्हें साधारण बहुमत से संशोधित किया जा सकता है।

10. वयस्क मताधिकार-भारत में संविधान के द्वारा ‘स्वतंत्र सम्प्रभु गणतंत्र’ (Independent Sovereign Republic) की स्थापना की गई थी। इस नए गणतंत्र में सत्ता का स्रोत नागरिकों को होना था। इसको कार्यरूप देने के लिए संविधान निर्माताओं मताधिकार प्रदान किया। इस पर संविधान सभा में काफी हद तक सहमति थी। संविधान निर्माताओं ने भारत के लोगों पर ऐतिहासिक विश्वास व्यक्त किया। उल्लेखनीय है कि विश्व के किसी भी प्रजातंत्र में वहाँ के लोगों को एक बार में ही वयस्क मताधिकार प्राप्त नहीं हुआ। ब्रिटेन व अमेरिका जैसे देशों में भी प्रारंभ से मताधिकार के लिए संपत्ति अधिकार की शर्ते आयद थीं।

11. धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना (Foundation of Secular State) भारतीय संविधान भारत में धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। इसका अभिप्राय यह है कि राज्य किसी विशेष धर्म को न तो राज्य धर्म मानता है और न ही किसी विशेष धर्म को संरक्षण तथा समर्थन प्रदान करता है। इसी प्रकार राज्य किसी नागरिक के खिलाफ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं कर सकता। सभी भारतीयों को यह स्वतन्त्रता है कि वे किसी भी धर्म को माने, अनुकरण करें अथवा उसका प्रचार-प्रसार करें, परन्तु . वे दूसरे के धर्म में बाधा पैदा नहीं कर सकते। संविधान में सभी को समान स्वतन्त्रता और समान अवसर प्राप्त हैं। किसी भी धर्म का व्यक्ति भारत के बड़े-से-बड़े पद पर आसीन हो सकता है।

परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि राज्य नास्तिक है या धर्म-विरोधी है, अपितु वह धर्म के विषय में धर्म-निरपेक्ष है। धर्म निरपेक्षता का अर्थ केवल धार्मिक सहनशीलता ही है। वेंकटारमन के अनुसार, “भारतीय राज्य न तो धार्मिक है न अधार्मिक है और न ही धर्म विरोधी, किन्तु यह धार्मिक संकीर्णताओं तथा वृत्तियों से बिल्कुल दूर है और धार्मिक मामलों में तटस्थ है।”

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HBSE 12th Class History संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
उद्देश्य प्रस्ताव में किन आदर्शों पर जोर दिया गया था?
उत्तर:
13 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के समक्ष उद्देश्य प्रस्ताव रखा। इसमें उन आदर्शों को रेखांकित किया गया जो संविधान निर्माण में अपनाए जाने थे। इस उद्देश्य प्रस्ताव में अग्रलिखित आदर्शों पर बल दिया गया

(1) यह घोषणा की गई कि भारत एक स्वतंत्र प्रभुसत्ता संपन्न गणराज्य होगा।

(2) संविधान में प्रभुसत्ता संपन्न स्वतंत्र भारत तथा उसके घटकों तथा सरकार के अंगों को समस्त शक्ति जनता से प्राप्त होगी।

(3) प्रस्ताव में कहा गया कि भारत के समस्त लोगों के लिए सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक प्रतिष्ठा, अवसर तथा न्याय की समानता, विधि तथा सदाचार के अनुरूप विचार की अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था, व्यवसाय, सहचर्य तथा काम की स्वतंत्रता की गारंटी होगी।

(4) समस्त अल्पसंख्यकों, पिछड़ी जनजातियों तथा दलितों को पर्याप्त संरक्षण प्राप्त होंगे।

(5) भारतीय गणतंत्र के प्रदेश तथा उसकी अखंडता और इसकी भूमि, समुद्र तथा आकाश में सत्ता न्याय तथा सभ्य राष्ट्रों को कानूनों के अनुसार बनाई जाएगी।

प्रश्न 2.
विभिन्न समूह ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को किस तरह परिभाषित कर रहे थे?
उत्तर:
संविधान सभा की बहस में एक प्रमख महा यह था कि भावी संविधान में अल्पसंख्यकों को किस प्रकार के अधिकार होंगे। परंतु यह उल्लेखनीय है कि संविधान सभा में विभिन्न समूह ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को अलग-अलग प्रकार से परिभाषित कर रहे थे।

(i) संविधान सभा के सदस्य बी० पोकर बहादुर ने मुस्लिम समुदाय को अल्पसंख्यक बताया तथा अल्पसंख्यकों के लिए पृथक् निर्वाचिका प्रणाली को जारी रखने की माँग रखी। उन्होंने जोर दिया कि इस राजनीतिक प्रणाली में अल्पसंख्यकों को पूर्ण प्रतिनिधित्व दिया जाए।

(ii) समाजवादी विचारों के समर्थक व किसान आंदोलन के नेता एन०जी० रंगा ने ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की उक्त परिभाषा पर ही सवाल खड़ा किया। उन्होंने अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या आर्थिक स्तर के आधार पर करने पर जोर दिया। उन्होंने कहा असली अल्पसंख्यक तो इस देश की दबी-कुचली और उत्पीडित जनता है जो अभी तक सामान्य नागरिक के अधिकारों का लाभ भी नहीं उठ पा रही है। रंगा ने कहा कि असली अल्पसंख्यक गरीब, उत्पीड़ित व आदिवासी हैं। उन्हें सुरक्षा का आश्वासन मिलना चाहिए।

(iii) आदिवासी समूह के प्रतिनिधि सदस्य जयपाल सिंह ने आदिवासियों को अल्पसंख्यक बताया। उन्होंने कहा कि यदि भारतीय जनता में ऐसा कोई समूह है, जिसके साथ उचित बर्ताव नहीं किया गया है, तो वह मेर से अपमानित किया जा रहा है, उपेक्षित किया जा रहा है।

(iv) दलित समूहों के नेताओं ने दलितों को वास्तविक अल्पसंख्यक बताया। इन नेताओं में मद्रास के जे० नागफा, मध्य प्रांत के के०जे० खांडेलकर, मद्रास के वेला युधान मुख्य थे। खाडेलकर ने कहा “हमें हज़ारों वर्षों तक दबाया गया है।.. दबाया गया…इस हद तक दबाया गया कि हमारे दिमाग, हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भाव-शून्य हो चुका है। न ही हम आगे बढ़ने के लायक रह गए हैं। यही हमारी स्थिति है।” इस प्रकार ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को अनेक प्रकार से परिभाषित किया गया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

प्रश्न 3.
प्रांतों के लिए ज्यादा शक्तियों के पक्ष में क्या तर्क दिए गए?
उत्तर:
संविधान सभा में केंद्र व प्रांतों के अधिकारों के प्रश्न पर भी पर्याप्त बहस हुई। कुछ सदस्य केंद्र को शक्तिशाली बनाने के समर्थक थे। कुछ सदस्यों ने राज्यों के अधिक अधिकारों की शक्तिशाली पैरवी की। मद्रास के सदस्य के० सन्तनम उनमें से एक थे। उनका मानना था कि राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान करने से राज्य ही नहीं, केंद्र भी मजबूत होगा। उन्होंने कहा कि “तमाम शक्तियाँ केंद्र को सौंप देने से वह मजबूत हो जाएगा”, यह हमारी गलतफहमी है। अधिक जिम्मेदारियों के होने पर केंद्र प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाएगा। सन्तनम ने तर्क दिया कि शक्तियों का मौजूदा वितरण राज्यों को पंगु बना देगा। राजकोषीय प्रावधान राज्यों को खोखला कर देंगे और यदि पैसा नहीं होगा तो राज्य अपनी विकास योजनाएँ कैसे चलाएगा। – उड़ीसा के एक सदस्य ने भी राज्यों के अधिकारों की वकालत की तथा उन्होंने यहाँ तक चेतावनी दे डाली कि संविधान में शक्तियों के अति केंद्रीयकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा”।

प्रश्न 4.
महात्मा गाँधी को ऐसा क्यों लगता था कि हिंदुस्तानी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए?
उत्तर:
राष्ट्रीय कांग्रेस ने तीस के दशक में यह स्वीकार लिया था कि हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू के मेल से उपजी) को राष्ट्र की भाषा का दर्जा प्रदान किया जाना चाहिए। गाँधीजी भी हिंदुस्तानी को राष्ट्र की भाषा बनाने के पक्ष में थे। उनका मानना था कि हरेक को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें। हिंदुस्तानी भारतीय जनता के बड़े भाग की भाषा थी। यह विविध संस्कृतियों के मेल-मिलाप से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी।

गाँधीजी को लगता था कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा भारत के विभिन्न समुदायों के बीच एक आदर्श संचार भाषा हो सकती है जो हिंदुओं और मुसलमानों को व उत्तर और दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है। इससे राष्ट्र निर्माण का कार्य भी आगे बढ़ेगा। 12 अक्तूबर, 1947 को गाँधीजी ने हरिजन सेवक में लिखा कि राष्ट्रीय भाषा की क्या विशेषताएँ होनी चाहिएँ : “यह हिंदुस्तानी न तो संस्कृतनिष्ठ हिंदी होनी चाहिए और न ही फारसीनिष्ठ उर्दू। यह दोनों का सुंदर मिश्रण होना चाहिए।”

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 5.
वे कौन-सी ऐतिहासिक ताकतें थीं जिन्होंने संविधान का स्वरूप तय किया?
उत्तर:
भारतीय संविधान के स्वरूप निर्धारण में अनेक ऐतिहासिक ताकतों ने भूमिका निभाई। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. अंग्रेज़ी राज-भारत के संविधान पर औपनिवेशिक शासन के दौरान पास किए गए अधिनियम का व्यापक प्रभाव है। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान में स्थापित शासन व्यवस्था पर 1935 के भारत सरकार अधिनियम का प्रभाव है।

2. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-संविधान में जिस प्रजातांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष व समाजवादी सिद्धांतों को अपनाया गया उस पर राष्ट्रीय आंदोलन की गहरी छाप है। राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कांग्रेस में विभिन्न विचारधाराओं से संबंधित लोग सदस्य थे। उनका प्रभाव संविधान पर देखा जा सकता है।

3. कैबिनेट मिशन व संविधान सभा का चुनाव-संविधान सभा का स्वरूप केबिनेट मिशन ने तय किया। इसके अनुसार

  • इस सभा में कुल 389 सदस्य हों जिसमें से 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 93 देशी रियासतों के तथा 4 चीफ कमिश्नरियों के क्षेत्र में से हों।
  • यह निश्चित किया गया कि 10 लाख व्यक्तियों पर संविधान सभा में एक सदस्य होगा।
  • प्रांतों को उनकी जनसंख्या के आधार पर संविधान सभा में प्रतिनिधित्व दिया गया। प्रांतीय विधानसभा में प्रत्येक संप्रदाय को जितने प्रतिनिधि भेजने थे, उनका चुनाव संप्रदाय के आधार पर होगा।
  • निर्वाचन तीन संप्रदायों, मुसलमान, सिक्ख और अन्य (हिंदू व ईसाई आदि) पर आधारित होना था।
  • रियासतों को भी जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया गया। .

4. प्रमुख सदस्यों का प्रभाव-संविधान सभा और राजनीतिज्ञों के साथ-साथ प्रसिद्ध शिक्षाविद, न्यायाधीश, अधिवक्ता, लेखक, पत्रकार, पूँजीपति, श्रमिक नेता आदि सदस्य भी शामिल थे। संविधान सभा में जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, बी०आर० अंबेडकर, के०एम० मुन्शी और अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने मुख्य भूमिका निभाई। नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ रखा तथा साथ ही राष्ट्रीय ध्वज संबंधी प्रस्ताव रखा। पटेल ने अनेक रिपोर्टों के प्रारूप लिखने तथा अनेक परस्पर विरोधी विचारों के मध्य सहमति उत्पन्न करने में सराहनीय योगदान दिया। राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया तथा चर्चा को रचनात्मक दिशा दी।

सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता डॉ०बी०आर० अंबेडकर संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। कुछ प्रमुख व्यक्तियों ने उन्हें संविधान का पिता कहा है। के०एम० मुंशी और कृष्णास्वामी अय्यर प्रारूप समिति के सदस्य थे। इन दोनों ने संविधान के प्रारूप पर महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। इन सदस्यों को दो प्रशासनिक अधिकारियों बी०एन०राव और एस०एन मुखर्जी ने महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। न्यायाधीश बी०एन० राव भारत सरकार के संवैधानिक सलाहकार थे। उन्होंने अन्य देशों की राजनीतिक प्रणालियों का गहन अध्ययन कर अनेक चर्चा पत्र तैयार किए।

5. जनमत का प्रभाव-संविधान सभा में होने वाली चर्चाओं पर जनमत का पर्याप्त प्रभाव होता था। किसी भी प्रस्ताव पर संविधान सभा में बहस होती थी तो उस बहस में विभिन्न दलीलों को समाचार-पत्रों द्वारा छापा जाता था। साथ ही प्रेस में इन प्रस्तावों पर टीका-टिप्पणी, आलोचना व प्रत्यालोचना होती थी। इसके साथ-साथ संविधान सभा द्वारा जन-सामान्य के सुझाव भी आमंत्रित किए जाते थे। संविधान सभा को सैकड़ों सुझाव प्राप्त हुए थे। इन सुझावों पर संविधान सभा में विचार किया जाता था। इन सुझावों में विभिन्न समुदायों और संगठनों द्वारा अपने हितों की रक्षा के सुझाव दिए गए थे।

वस्तुतः संविधान सभा को वास्तविक शक्ति जनता से मिल रही थी। नेहरू जी ने संविधान सभा में स्पष्ट शब्दों में कहा था कि, “आपको उस स्रोत को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए, जहाँ से इस सभा को शक्ति मिल रही है।…सरकारें कागजों से नहीं बनतीं। सरकार जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति होती है। हम यहाँ इसलिए जुटे हैं, क्योंकि हमारे पास जनता की ताकत है और हम उतनी दूर तक ही जाएँगे, जितनी दूर तक लोग हमें ले जाना चाहेंगे फिर चाहे वे किसी भी समूह अथवा पार्टी से संबंधित क्यों न हों। इसलिए हमें भारतीय जनता के दिलों में स्थायी तौर पर बसी आकांक्षाओं एवं भावनाओं को हमेशा अपने जेहन में रखना चाहिए और उन्हें पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।”

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प्रश्न 6.
दलित समूहों की सुरक्षा के पक्ष में किए गए विभिन्न दावों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
नागरिकों के अधिकारों से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण मसला दलित जातियों के अधिकारों से जुड़ा था। समाज का यह एक बहुत बड़ा वर्ग था जिसे सदियों से समाज के हाशिए पर रहना पड़ा था। समाज इनके श्रम और सेवाओं का प्रयोग तो करता संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत) था, परंतु उन्हें किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे। वे अछूत कहलाते थे।

अंग्रेजों ने 1932 में दलित जातियों को भी ‘पृथक् निर्वाचिका’ का अधिकार प्रदान किया था, परंतु गाँधी जी ने इसका यह कहकर विरोध किया था कि इससे वे शेष समाज से कट जाएँगे। अंततः गाँधी-अंबेडकर समझौता (पूना पैक्ट) हुआ जिसके तहत सामान्य सीटों में हरिजनों को आरक्षण दिया गया। अब संविधान निर्माण के समय भी यह मुद्दा उभरकर आया कि संविधान में दलितों के अधिकारों को किस तरह परिभाषित किया जाए। उन्हें अपने उत्थान के लिए किस तरह की सुरक्षा और अधिकार दिए जाएँ।

1. मद्रास के सदस्य जे० नागप्पा (J. Nagappa) ने कहा, “हम सदा कष्ट उठाते रहे हैं, पर अब और कष्ट उठाने को तैयार नहीं हैं।” उन्होंने दलितों में शिक्षा न होने तथा प्रशासन में भागीदारी न होने पर चिंता प्रकट की।

2. मध्य प्रांत के सदस्य श्री के०जे० खाडेलकर (K.J.Khandelkar) ने दलितों की स्थिति का मार्मिक शब्दों में बयान करते हुए कहा, “हमें हजारों वर्षों तक दबाया गया है।… दबाया गया…इस हद तक दबाया गया कि हमारे दिमाग, हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भाव-शून्य हो चुका है। न ही हम आगे बढ़ने के लायक रह गए हैं। यही हमारी स्थिति है।”

3. मद्रास की दक्षायणी वेलायुधान ने दलितों पर थोपी गई सामाजिक अक्षमताओं को हटाने पर जोर दिया। उनके शब्दों में, “हमें सब प्रकार की सुरक्षाएँ नहीं चाहिएँ…। मैं यह नहीं मान सकती कि सात करोड़ हरिजनों को अल्पसंख्यक माना जा सकता है …। जो हम चाहते हैं वह यह है…हमारी सामाजिक अपंगताओं का फौरन खात्मा।” भारत विभाजन के बाद डॉ० अंबेडकर ने भी दलितों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली की माँग छोड़ दी थी। अंततः संविधान सभा में दलितों के उत्थान के लिए निम्नलिखित सुझाव स्वीकार किए गए

  • अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए;
  • हिंदू मंदिरों को सभी जातियों के लिए खोल दिया जाए; और
  • दलित जातियों को विधानमंडलों व सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाए।

यद्यपि कुछ लोगों का मानना था कि इन प्रावधानों से स्थिति में सुधार नहीं आएगा। उन्होंने कानूनी प्रावधानों के साथ-साथ समाज की सोच में बदलाव लाने पर बल दिया, तथापि लोकतांत्रिक जनता ने इन सवैधानिक प्रावधानों का स्वागत किया।

प्रश्न 7.
संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने उस समय की राजनीतिक परिस्थिति और एक मजबूत केंद्र सरकार की ज़रूरत के बीच क्या संबंध देखा?
उत्तर:
13 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा रखे गए संविधान के उद्देश्य प्रस्ताव’ में एक कमजोर केंद्र और ऐसी प्रांतीय इकाइयों की बात कही गई थी जिनके पास विस्तृत शक्तियाँ थीं। उद्देश्य प्रस्ताव कैबिनेट मिशन की सिफारिशों को ध्यान में रखकर तथा मुस्लिम लीग को खुश करने के लिए पास किया गया था। परंतु विभाजन के बाद स्थिति में बदलाव आ गया था। सभा के अधिकांश सदस्य उस समय की राजनीतिक परिस्थिति में एक शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में थे, तथापि राज्यों व केंद्र को शक्तियाँ दिए जाने के मामले में जोरदार बहस हुई।

1. शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में नेहरू के विचार-देश के विभाजन के बाद नेहरू जी, अब उन लोगों में से थे जो एक शक्तिशाली केंद्र की आवश्यकता पर बल दे रहे थे। उन्होंने संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर शक्तिशाली केंद्र की वकालत करते हुए लिखा-“अब जबकि विभाजन एक वास्तविकता बन चुका है…एक दुर्बल केंद्रीय शासन की व्यवस्था देश के लिए हानिकारक होगी।” उन्होंने कहा कि कमजोर केन्द्र शान्ति स्थापना तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत में जोरदार आवाज़ उठाने में सक्षम नहीं होगा।

2. राज्यों के लिए अधिक अधिकारों की माँग : के० सन्तनम के विचार-संविधान सभा में कुछ सदस्यों ने राज्यों के अधिक अधिकारों की शक्तिशाली पैरवी की। मद्रास के सदस्य के० सन्तनम उनमें से एक थे। उनका मानना था कि राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान करने से राज्य ही नहीं, केंद्र भी मजबूत होगा। उड़ीसा के एक सदस्य ने भी राज्यों के अधिकारों की वकालत की तथा उन्होंने यहाँ तक चेतावनी दे डाली कि संविधान में शक्तियों के अति केंद्रीयकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा”।

3. ‘मजबूत केंद्र की वकालत’-संविधान सभा में प्रांतों के लिए अधिक शक्तियों की माँग से तीखी प्रतिक्रिया उभरकर आयी। संविधान सभा के कुछ सदस्य उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों में एक मजबूत केंद्र सरकार की जरूरत को महसूस कर रहे थे तथा इसके पक्ष में अनेक निम्नलिखित तर्क दे रहे थे

(i) बी०आर० अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि “वे एक शक्तिशाली और एकीकृत केंद्र; 1935 के गवर्नमेंट एक्ट में हमने जो केंद्र बनाया था उससे भी ज्यादा शक्तिशाली केंद्र” चाहते हैं।

(ii) कुछ अन्य सदस्यों ने हिंसा और देश के विभाजन का हवाला देते हुए शक्तिशाली सरकार की आवश्यकता पर बल दिया ताकि सख्त हाथों से देश में हो रही सांप्रदायिक हिंसा रोक सके। गोपालस्वामी अय्यर ने भी बहस में भाग लेते हुए कहा कि केंद्र ज्यादा-से-ज्यादा मजबूत होना चाहिए।

(iii) संयुक्त प्रांत के एक सदस्य बालकृष्ण शर्मा ने भी शक्तिशाली केंद्र को आवश्यक बताया कि वह संपूर्ण देश के हित में योजना बना सके और उपलब्ध आर्थिक संसाधनों को भली प्रकार जुटा सके।

(iv) औपनिवेशिक दौर के केंद्रवाद की भावना ने भी भारतीय नेताओं को प्रभावित किया था। साथ ही आजादी के बाद अफरा-तफरी पर अंकुश लगाने और देश के आर्थिक विकास की योजना बनाने के लिए शक्तिशाली केंद्र और भी आवश्यक माना जाने लगा।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारत के संविधान में तत्कालीन परिस्थितियों के कारण संघ के घटक राज्यों के अधिकारों की तुलना में केंद्र में अधिकारों की ओर साफ झुकाव दिखाई दे रहा था। इसलिए सभा के अनेक सदस्य मजबूत केंद्र सरकार की आवश्यकता पर जोर दे रहे थे।

प्रश्न 8.
संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए क्या रास्ता निकाला?
उत्तर:
संविधान सभा के समक्ष एक अन्य पेचीदा मामला राष्ट्र की भाषा को लेकर था। भारत में अनेक सांस्कृतिक परंपराएँ विद्यमान थीं। विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न भाषाएँ प्रयोग में लाई जाती थीं। इस विशाल देश में सभी स्थानों पर एक भाषा का प्रचलन नहीं था। अतः संविधान सभा में राष्ट्र की भाषा का मुद्दा आया तो इस पर लंबी और आपस में तीखी बहसें हुईं।

1. हिंदी की पक्षधरता-संविधान सभा के कुछ सदस्य हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा देना चाहते थे। इन सदस्यों ने हिंदी के लिए जोरदार तरीके से पक्षधरता की। संयुक्त प्रांत के कांग्रेसी सदस्य आर०वी० धुलेकर ने संविधान निर्माण कार्य में हिंदी के प्रयोग पर बल दिया तथा यहाँ तक कह दिया कि “इस सभा में जो लोग भारत का संविधान रचने बैठे हैं और हिंदुस्तानी नहीं जानते वे इस सभा की सदस्यता के पात्र नहीं हैं। उन्हें चले जाना चाहिए।”

2. हिंदी के वर्चस्व का भय-गैर-हिंदी भाषी राज्यों के सदस्य हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। उन्हें लगता था कि हिंदी का वर्चस्व कायम हो जाएगा। इससे क्षेत्रीय भाषाओं का विकास नहीं होगा तथा वे भारतीय संस्कृति के विकास में अपना योगदान नहीं दे पाएँगी। मद्रास की सदस्य श्रीमती दुर्गाबाई ने सभा को यह भी बताया कि दक्षिण में हिंदी का विरोध बहुत ज्यादा है। उन्होंने कहा कि “विरोधियों का यह मानना शायद सही है कि हिंदी के लिए हो रहा यह प्रचार प्रांतीय भाषाओं की जड़ें खोदने का प्रयास है….।”

3. भाषा समिति की रिपोर्ट-संविधान सभा की भाषा समिति ने विषय की नाजुकता के मद्देनजर एक फार्मूला विकसित किया ताकि भाषा पर गतिरोध को तोड़ा जा सके। समिति ने सुझाव दिया था कि देवनागरी में लिखी हिंदी भाषा भारत की राजकीय भाषा (Official Language) होगी। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। इस बीच आगामी 15 वर्षों के लिए सरकारी कार्यों में अंग्रेज़ी का प्रयोग भी जारी रहेगा। साथ ही प्रत्येक प्रांत को अपने कार्यों के लिए एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा।

4. समायोजन की भावना पर बल-राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर सदस्यों में विवाद तीखा होता जा रहा था। इस पर अनेक सदस्यों ने इस मद्दे पर सभी सदस्यों में समायोजन की भावना विकसित करने पर बल दिया। बंबई के श्री शंकरराव देव (Shri Shankar Rao Dev) ने कहा कि कांग्रेस के एक सदस्य तथा गाँधी जी के अनुयायी होने के नाते वे हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा स्वीकार कर चुके हैं, परंतु उन्होंने चेताया कि यदि आप हिंदी के लिए दिल से समर्थन चाहते हैं तो आप ऐसा कुछ न करें जिससे संदेह पैदा हो और भय को बल मिले।

इसी प्रकार के आपसी समायोजन व सम्मान की भावना की बात मद्रास के श्री टी०ए० रामलिंगम चेट्टियार (T.A. Ramalingam Chettiar) ने भी कही। उन्होंने आग्रह किया कि “जब हम साथ रहना चाहते हैं और एक एकीकृत राष्ट्र की स्थापना करना चाहते हैं तो परस्पर समायोजन होना ही चाहिए और लोगों पर चीजें थोपने का सवाल नहीं उठना चाहिए।” इस समायोजन की भावना का सदस्यों ने स्वागत किया तथा भाषा समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर भाषा विवाद को निपटाने का मार्ग निकाला गया।

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मानचित्र कार्य

प्रश्न 9.
वर्तमान भारत के राजनीतिक मानचित्र पर यह दिखाइए कि प्रत्येक राज्य में कौन-कौन सी भाषाएँ बोली जाती हैं। इन राज्यों की राजभाषा को चिह्नित कीजिए। इस मानचित्र की तुलना 1950 के दशक के प्रारंभ के मानचित्र से की दोनों मानचित्रों में आप क्या अंतर पाते हैं? क्या इन अंतरों से आपको भाषा और राज्यों के आयोजन के संबंधों के बारे में कुछ पता चलता है।
उत्तर:
भारत के राज्य और उनमें बोली जाने वाली भाषाएँ व बोलियाँ

  1. असम-असमी, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, बांग्ला और बोडा।
  2. अरुणाचल प्रदेश-निसी, अदि, अंगमी।
  3. आंध्र प्रदेश (सीमांध्र)-तेलुगू, उर्दू, हिंदी।
  4. ओडिशा-उड़िया, तेलुगू, हिंदी।
  5. उत्तर प्रदेश-हिंदी, उर्दू, पंजाबी।
  6. कर्नाटक कन्नड़, तेलुगू, उर्दू।
  7. केरल-मलयालम, तमिल, तेलुगू।
  8. गुजरात-गुजराती, हिंदी, सिंधी।
  9. गोवा-कोंकणी, मराठी, कन्नड़।
  10. तमिलनाडु-तमिल, तेलुगू, कन्नड़।
  11. त्रिपुरा-बांग्ला, हिंदी, मणिपुरी।
  12. नगालैंड हो, ओ, कोन्याक।
  13. पंजाब-पंजाबी, हिंदी, उर्दू।
  14. पश्चिमी बंगाल-बांग्ला, हिंदी, संथाली।
  15. बिहार-हिंदी, उर्दू, संथाली।
  16. मणिपुर-मणिपुरी, भाड़ो, टंगकुट।
  17. मध्यप्रदेश-हिंदी, गोंडी, भीली।
  18. महाराष्ट्र-मराठी, उर्दू, हिंदी।
  19. मिजोरम–लुशाई, बांग्ला।
  20. मेघालय-खासी, गारो, बांग्ला।
  21. राजस्थान-हिंदी, भीली, उर्दू।
  22. सिक्किम-नेपाली, भोटिया, हिंदी।
  23. हरियाणा-हिंदी, पंजाबी, उर्दू, हरियाणवी।
  24. हिमाचल प्रदेश-हिंदी, पंजाबी, किन्नूरी।
  25. उत्तराखंड-हिंदी, पंजाबी, उर्दू।
  26. छत्तीसगढ़-हिंदी, भीली, गोंडी।
  27. झारखंड हिंदी, उर्दू, संथाली। 28. तेलंगाना-तेलुगू, उर्दू।

1950 के बाद भारतीय राज्यों का भाषा या अन्य आधार पर पुनर्गठन हुआ है। इन राज्यों के भाषायी चरित्र में भी महत्त्वपर्ण बदलाव आए हैं। हिंदी भाषी राज्यों में शहरी क्षेत्रों में अंग्रेजी का प्रभाव बढा है। उत्तरी भारत के राज्यों में पंजाबी भी कछ लोग समझने व बोलने लगे हैं। दक्षिण के राज्यों में स्थानीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी और हिंदी का प्रचार हुआ है।

परियोजना कार्य 

प्रश्न 10.
हाल के वर्षों के किसी एक महत्त्वपूर्ण सवैधानिक परिवर्तन को चुनिए। पता लगाइए कि यह परिवर्तन क्यों हुआ, परिवर्तन के पीछे कौन-कौन से तर्क दिए गए और परिवर्तन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या थी? अगर संभव हो, तो संविधान सभा की चर्चाओं को देखने की कोशिश कीजिए। (http: // parliamentofindia.nic.in / Is / debates / debates.htm)। यह पता लगाइए कि मुद्दे पर उस वक्त कैसे चर्चा की गई। अपनी खोज पर संक्षिप्त रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
भारत की संसद, राज्य विधान सभाओं व स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम रहता है जबकि महिलाएँ हमारे समाज का आधा हिस्सा हैं। भारत के सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए महिलाओं की राजनीतिक सत्ता व प्रक्रियाओं में भागीदारी आवश्यक है। इस हेतु 1993 में 73वें व 74वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं व नगरपालिकाओं में एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। संसद तथा राज्य विधानसभाओं में भी इस प्रकार के आरक्षण की माँग चल रही है। धीरे-धीरे यह माँग जोर पकड़ रही है परंतु सर्वसम्मति न बनने के कारण जब भी यह विधेयक संसद में लाया गया तो इसका कई राजनीतिक दलों ने अपने पक्ष रखते हुए विरोध किया है।

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प्रश्न 11.
भारतीय संविधान की तुलना संयुक्त राज्य अमेरिका अथवा फ्रांस अथवा दक्षिणी अफ्रीका के संविधान से कीजिए। ऐसा करते हुए निम्नलिखित में से किन्हीं दो विषयों पर गौर कीजिए : धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकार और केंद्र एवं राज्यों के बीच संबंध । यह पता लगाइए कि इन संविधानों में अंतर और समानताएँ किस तरह से उनके क्षेत्रों के इतिहासों से जुड़ी हुई हैं।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें।

संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत HBSE 12th Class History Notes

→ संविधान-एक कानूनी दस्तावेज जिसके अनुसार किसी देश का शासन चलाया जाता है।

→ संविधान सभा-संविधान निर्माण के लिए बनाई गई सभा।

→ संविधान की प्रस्तावना प्रस्तावना अर्थात् संविधान का परिचय। इससे संविधान के संबंधे में मार्गदर्शन प्राप्त होता है।

→ प्रभुता संपन्न राज्य-एक ऐसा राज्य जो पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो तथा किसी बाहरी शक्ति के दबाव से मुक्त हो। भारत 26 जनवरी, 1950 को प्रभुता संपन्न राज्य बना। ।

→ उद्देश्य प्रस्ताव-13 दिसंबर, 1946 को पंडित नेहरू जी द्वारा संविधान सभा के समक्ष प्रस्ताव रखा गया, जिसमें संविधान के मूल आदर्शों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई।

→ धर्म-निरपेक्षता-राज्य द्वारा किसी धर्म को राज्य धर्म के रूप में स्वीकार न करना तथा न ही किसी धर्म का विरोध करना।

→ वयस्क मताधिकार-बिना किसी भेदभाव के वयस्क (18/21 वर्ष की आयु) स्त्री-पुरुषों को मतदान करने का अधिकार।

→ केंद्रीय संघवाद-प्रांतों की तुलना में केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान करना। भारत में केंद्रीय संघवाद की स्थापना की गई है। मौलिक अधिकार-संविधान द्वारा प्रदत्त वे अधिकार जिन्हें राज्य सरकार नहीं छीन सकती। ये नागरिकों के सर्वांगीण विकास के लिए दिए गए हैं।

→ अल्पसंख्यक-किसी देश/राज्य/प्रांत/क्षेत्र विशेष में कम संख्या में रहने वाले लोगों का समूह।

→ संसदीय सरकार इसमें राज्य अध्यक्ष (राष्ट्रपति) में नाममात्र की शक्ति होती है। वास्तविक शक्ति सरकार के अध्यक्ष (प्रधानमंत्री) में होती है।

→ गणतंत्र दिवस-जिस दिन भारत का संविधान लागू हुआ वह गणतंत्र दिवस कहलाता है। यह 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। अतः भारत में 26 जनवरी का दिन गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

→ जन प्रभुता-जनता को प्रभुता का स्रोत स्वीकारना।

→ वित्तीय संघवाद-वह व्यवस्था जिसमें राजकोष का ज्यादातर हिस्सा केंद्र के पास हो।

संविधान निर्माण से तत्काल पहले के वर्ष भारत में बहुत ही उथल-पुथल भरे थे। जहाँ एक ओर यह समय लोगों की महान् आशाओं को पूरा करने का था, वहीं यह मोहभंग का समय भी था। भारत को स्वतंत्रता तो प्राप्त हो गई थी, परन्तु इसका विभाजन भी हो गया था जिससे भारत में भयावह समस्याएँ खड़ी हो गई थीं। संविधान सभा जब अपना कार्य कर रही थी तो उसके कार्य को इन समस्याओं ने भी प्रभावित किया।

→ स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय भारत के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या देश के विभाजन से जुड़ी थी। इसी समस्या से भारत में अनेक विकराल समस्याएँ पैदा हुईं। जून योजना (विभाजन योजना) को स्वीकार करने के बाद अगस्त, 1947 में पंजाब में भयंकर दंगे शुरू हो गए। लूटपाट, आगजनी, जनसंहार, बलात्कार, औरतों को अगवा करना आदि जैसे भयावह दृश्य आम हो गए।

→ पुलिस प्रशासन मूकदर्शक बना रहा। ये सांप्रदायिक दंगे अगस्त, 1947 से अक्तूबर, 1947 तक चलते रहे। इस महाध्वंस में लगभग 10 लाख लोग मारे गए, 50,000 महिलाएँ अगवा कर ली गईं तथा लगभग 1 करोड़ 50 लाख लोग अपने घरों से उजाड़ दिए गए। विभाजन तथा उससे जुड़ी हिंसा के परिणामस्वरूप अपनी जड़ों से उखड़े हुए (Uprooted) लोगों की भयंकर समस्या उभरकर सामने आयी। जान-माल की सुरक्षा न होने के कारण 1 करोड़ 50 लाख हिंदुओं और सिक्खों को पाकिस्तान से तथा मुसलमानों को भारत से बेहद खराब हालात में देशांतरण करना पड़ा। उनका सब कुछ छिन गया था।

→ उनमें से अधिकतर लोगों को दंगों के कारण भयंकर दौर से गुजरना पड़ा था। अतः देश की सरकार के सम्मुख इतने बड़े समुदाय के लिए राहत और पुनर्वास की समस्या सबसे बड़ी थी। स्वतंत्र भारत की एकता को सबसे बड़ा खतरा भारतीय देशी रियासतों की स्थिति से उत्पन्न हुआ। इन रियासतों की संख्या लगभग 554 थी।

→ स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) तक सरदार पटेल और वी०पी० मेनन मै जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर शेष सभी राज्यों के शासकों को भारतीय संघ में विलय के लिए सहमत तथा बाध्य कर दिया था। 1946 में पहले प्रांतीय सभाओं के चुनाव हुए तथा जुलाई, 1946 के अंतिम सप्ताह में संविधान सभा का चुनाव किया गया। सभा के 389 सदस्यों में से 296 सदस्यों पर चुनाव होना था (210 सामान्य, 78 मुस्लिम व 4 सिक्ख) जिनमें से 292 सदस्यों का चुनाव हुआ।

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→ इन 292 सदस्यों में से 212 कांग्रेस और उसके सहयोगी के सदस्य थे। लीग के 73 सदस्य चुने गए तथा 7 सदस्य अन्य दलों से। संविधान सभा में जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, बी०आर० अंबेडकर, के०एम० मुन्शी और अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने मुख्य भूमिका निभाई। 11 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा ने अपना स्थायी अध्यक्ष डॉ० राजेंद्र प्रसाद को चुना।

→ 13 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के समक्ष उद्देश्य प्रस्ताव रखा जिसको दृष्टि में रखकर भारतीय संविधान का निर्माण किया जाना था। संविधान सभा में ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ प्रस्तुत करते हुए अपने भाषण में नेहरू जी ने अतीत में झाँकते हुए अमेरिकी व फ्रांसीसी क्रांतियों और वहाँ के संविधान निर्माण का उल्लेख किया। उन्होंने इस अवसर पर सोवियत समाजवादी गणराज्य के जन्म को भी याद किया जो दुनिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था।

→ नेहरू ने भारतीय संविधान निर्माण के इतिहास को मुक्ति व स्वतंत्रता के एक लंबे ऐतिहासिक संघर्ष का हिस्सा बताया। नेहरू जी ने विश्वास व्यक्त किया कि “हम सिर्फ नकल करने वाले नहीं हैं।” संविधान सभा के सदस्य बी० पोकर बहादुर ने 27 अगस्त, 1947 को अल्पसंख्यकों के लिए पृथक् निर्वाचिका प्रणाली को जारी रखने की माँग रखी। इस माँग पर प्रभावशाली भाषण देते हुए श्री बहादुर ने तर्क दिया कि “अल्पसंख्यक सब जगह होते हैं; हम उन्हें चाहकर भी नहीं हटा सकते।

→ हमें आवश्यकता एक ऐसे राजनीतिक-ढांचे की है जिसमें अल्पसंख्यक भी अन्य समुदायों के साथ सद्भावना से जी सकें तथा समुदायों के बीच मतभेद कम-से-कम हो।” पृथक् निर्वाचन प्रणाली की उक्त माँग का संविधान सभा में जोरदार विरोध हुआ। हाल ही में देश के विभाजन और सांप्रदायिक दंगों से इस माँग पर अधिकतर राष्ट्रवादी भड़क उठे।

→ सरदार पटेल ने इस माँग की जोरदार शब्दों में आलोचना की। उन्होंने कहा-“अंग्रेज़ तो चले गए, मगर जाते-जाते शरारत का बीज बो. गए। सरदार पटेल ने कहा कि पृथक निर्वाचिका “एक ऐसा विष है जो हमारे देश की पूरी राजनीति में समा चुका है।” गोविंद वल्लभ पंत ने इस माँग को न केवल राष्ट्र के लिए वरन् अल्पसंख्यकों के लिए भी खतरनाक बताया। संविधान सभा में लंबी बहस के बाद इस माँग को अस्वीकार कर दिया गया।

→  उल्लेखनीय है कि सभी मुसलमान सदस्य भी इस माँग का समर्थन नहीं कर रहे थे। समाजवादी विचारों के समर्थक व किसान आंदोलन के नेता एन०जी० रंगा ने जोर देकर कहा कि असली अल्पसंख्यक गरीब, उत्पीड़ित व आदिवासी हैं। उन्हें सुरक्षा का आश्वासन मिलना चाहिए।

→ जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते हुए आदिवासी समूह के प्रतिनिधि सदस्य जयपाल सिंह ने भी आदिवासियों की स्थिति को सुधारने तथा समाज के सभी समुदायों से आदिवासियों से मेलजोल की आवश्यकता पर बल दिया। नागरिकों के अधिकारों से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण मसला दलित जातियों के अधिकारों से जुड़ा था। समाज का यह एक बहुत बड़ा वर्ग था जिसे सदियों से समाज के हाशिए पर रहना पड़ा था। अंततः संविधान सभा में दलितों के उत्थान के लिए निम्नलिखित सुझाव स्वीकार किए गए

(i) अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए;

(ii) हिंदू मंदिरों को सभी जातियों के लिए खोल दिया जाए; और

(iii) दलित जातियों को विधानमण्डलों व सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाए। संविधान सभा के अधिकांश सदस्य एक शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में थे तथापि राज्यों व केंद्र को शक्तियाँ दिए जाने के मामले में जोरदार बहस हुई। केंद्र और राज्यों के मध्य शक्तियों और कार्य का विभाजन करने के लिए संविधान में सभी विषयों की तीन सचियाँ बनाई गई थीं-केंद्रीय सची, राज्य सची और समवर्ती सूची। मद्रास के सदस्य के० सन्तनम उनमें से एक थे।

→ उनका मानना था कि राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान करने से राज्य ही नहीं, केंद्र भी मजबूत होगा। उड़ीसा के एक सदस्य ने भी राज्यों के अधिकारों की वकालत की तथा उन्होंने यहाँ तक चेतावनी दे डाली कि संविधान में शक्तियों के अति केंद्रीयकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा”। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने तीस के दशक में यह स्वीकार लिया था कि हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू के मेल से उपजी) को राष्ट्र की भाषा का दर्जा प्रदान किया जाना चाहिए।

→ गाँधीजी भी हिंदुस्तानी को राष्ट्र की भाषा बनाने के पक्ष में थे। संविधान सभा के कुछ सदस्य हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा देना चाहते थे। इन सदस्यों ने हिंदी के लिए जोरदार तरीके से पक्षधरता की। गैर-हिंदी भाषी राज्यों के सदस्य हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। उन्हें लगता था कि हिंदी का वर्चस्व कायम हो जाएगा। इससे क्षेत्रीय भाषाओं का विकास नहीं होगा तथा वे भारतीय संस्कृति के विकास में अपना योगदान नहीं दे पाएँगी।

→ राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर सदस्यों में विवाद तीखा होता जा रहा था। इस पर अनेक सदस्यों ने इस मुद्दे पर सभी सदस्यों में समायोजन की भावना विकसित करने पर बल दिया।

→ 1950 को सभा के सदस्यों ने इस पर हस्ताक्षर किए। कुल 284 सदस्यों ने इस पर हस्ताक्षर किए और अंततः भारत का सम्पूर्ण संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू कर दिया गया। भारत में संविधान के द्वारा ‘स्वतंत्र सम्प्रभु गणतंत्र’ (Independent Sovereign Republic) की स्थापना की गई थी। इस नए गणतंत्र में सत्ता का स्रोत नागरिकों को होना था। इसको कार्यरूप देने के लिए संविधान निर्माताओं ने भारत में एकमश्त वयस्क मताधिकार प्रदान किया।

→ भारतीय संविधान भारत में धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। इसका अभिप्राय यह है कि राज्य किसी विशेष धर्म को न तो राज्य धर्म मानता है और न ही किसी विशेष धर्म को संरक्षण तथा समर्थन प्रदान करता है। परंतु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि राज्य नास्तिक है या धर्म-विरोधी है, अपितु वह धर्म के विषय में धर्म-निरपेक्ष है। धर्म-निरपेक्षता का अर्थ केवल धार्मिक सहनशीलता ही है।

काल-रेखा

कालघटना का विवरण
26 जुलाई, 1945ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार सत्ता में आना
दिसम्बर, 1945 व जनवरी, 1946भारत में आम चुनाव
16 मई, 1946कैबिनेट मिशन योजना की घोषणा
16 जून, 1946मुस्लिम लींग द्वारा कैबिनेट मिशन योजना स्वीकारना
16 जून, 1946अन्तरिम सरकार के गठन का प्रस्ताव
2 सितम्बर, 1946नेहरू के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार का गठन
13 अक्तूबर, 1946लीग अन्तरिम सरकार में शामिल
9 दिसम्बर, 1946संविधान सभा की पहली बैठक
16 जुलाई, 1947अन्तरिम सरकार की आखिरी बैठक
11 अगस्त, 1947जिन्ना पाकिस्तान की संविधान सभा के अध्यक्ष बने
14 अगस्त, 1947पाकिस्तान की स्वतन्त्रता व कराची में जश्न
14-15 अगस्त, 1947 (मध्यरात्रि)भारत की स्वतन्त्रता
26 जनवरी, 1950भारतीय संविधान को अपनाया जाना

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HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. ‘अकबरनामा’ का लेखक कौन था?
(A) अकबर
(B) गुलबदन बेगम
(C) अबुल फज्ल
(D) बाबर
उत्तर:
(C) अबुल फज्ल

2. ‘आइन-ए-अकबरी’ रचना है
(A) अकबर की
(B) बाबर की
(C) अबुल फज्ल की
(D) जहाँगीर की
उत्तर:
(C) अबुल फज्ल की

3. ‘आइन-ए-अकबरी’ का लेखन पूरा हुआ
(A) 1556 ई० में
(B) 1565 ई० में
(C) 1590 ई० में
(D) 1598 ई० में
उत्तर:
(D) 1598 ई० में

4. शाह नहर की मरम्मत किसने करवाई थी?
(A) बाबर ने
(B) अकबर ने
(C) जहाँगीर ने
(D) शाहजहाँ ने
उत्तर:
(D) शाहजहाँ ने

5. मुगलकाल में आर्थिक इतिहास की जानकारी देने वाला सबसे प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है
(A) बाबरनामा
(B) अकबरनामा
(C) आइन-ए-अकबरी
(D) तुजक-ए-जहाँगीरी
उत्तर:
(C) आइन-ए-अकबरी

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

6. मुगलकालीन स्रोतों में रैयत’ शब्द का अर्थ लिया जाता है
(A) कृषक से
(B) प्रजा से
(C) दोनों से
(D) किसी से नहीं
उत्तर:
(C) दोनों से

7. मुगलकाल में कृषक श्रेणी में नहीं आता था
(A) ज़मींदार
(B) खुद-काश्त
(C) पाहि-काश्त
(D) मुंजारा
उत्तर:
(A) ज़मींदार

8. पानीपत की पहली लड़ाई कब हुई थी?
(A) 1517 ई० में
(B) 1526 ई० में
(C) 1556 ई० में
(D) 1761 ई० में
उत्तर:
(B) 1526 ई० में

9. मुगलकाल में सरकारी भूमि कहलाती थी
(A) जागीर
(B) मदद-ए-मास
(C) खिराज
(D) खालिसा
उत्तर:
(D) खालिसा

10. किसी अधिकारी या मनसबदार को उसकी सेवा के बदले दिया जाने वाला भू-क्षेत्र कहलाता था
(A) जागीर
(B) मदद-ए-मास
(C) खिराज
(D) खालिसा
उत्तर:
(A) जागीर

11. रहट का सामान्य तौर पर सिंचाई के लिए प्रयोग प्रारंभ हुआ
(A) गुप्तकाल में
(B) मौर्य काल में
(C) मुगलकाल में
(D) ब्रिटिश काल में
उत्तर:
(C) मुगलकाल में

12. अकबर की मृत्यु कब हुई थी ?
(A) 1530 ई० में
(B) 1605 ई० में
(C) 1556 ई० में
(D) 1707 ई० में
उत्तर:
(B) 1605 ई० में

13. मुग़लकाल में कौन-सी नई फसल कृषि व्यवस्था का हिस्सा बनी?
(A) तम्बाकू
(B) रेशम
(C) मक्का
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

14. रबी की फसल की कटाई होती थी
(A) जून-जुलाई में
(B) अक्तूबर-नवम्बर में
(C) दिसम्बर-जनवरी में
(D) मार्च-अप्रैल में
उत्तर:
(D) मार्च-अप्रैल में

15. जाति व्यवस्था में महत्त्व दिया जाता था
(A) सामाजिक हैसियत को
(B) पैतृक व्यवसाय को
(C) जातीय बंधनों को
(D) उपर्युक्त सभी को
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी को

16. ‘आईन-ए-अकबरी’ कितने भागों का संकलन है?
(A) 4
(B) 5
(C) 6
(D) 3
उत्तर:
(D) 3

17. ग्राम पंचायत के फैसले प्रायः किए जाते थे
(A) कृषक वर्ग द्वारा
(B) बहुमत द्वारा
(C) गाँव के प्रभावी लोगों द्वारा
(D) सरकार के निर्देशों द्वारा
उत्तर:
(C) गाँव के प्रभावी लोगों द्वारा

18. ग्राम पंचायत के मुखिया का चुनाव प्रायः होता था
(A) बहुमत के आधार पर
(B) पैतृक आधार पर
(C) सर्वसम्मति से
(D) सरकारी अधिकारियों द्वारा
उत्तर:
(B) पैतृक आधार पर

19. मुगल काल में पंचायत का मुखिया कौन होता था?
(A) मनसबदार
(B) आमिल
(C) दीवान
(D) मुकद्दम या मंडल
उत्तर:
(D) मुकद्दम या मंडल

20. जातीय पंचायत का कठोरतम दंड था
(A) मृत्यु दंड देना
(B) ज़मीन से बेदखल करना
(C) सामाजिक बहिष्कार
(D) कैद में डालना
उत्तर:
(C) सामाजिक बहिष्कार

21. निम्न-वर्ग के व्यक्ति को यदि पंचायत में न्याय नहीं मिलता तो वह क्या करता था?
(A) बदले में सामाजिक बहिष्कार
(B) कोतवाल के पास शिकायत
(C) गाँव छोड़कर भाग जाना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) गाँव छोड़कर भाग जाना

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

22. ग्राम समाज में कृषक एवं गैर-कृषक का अन्तर समाप्त हो जाता था
(A) फसल की कटाई, निराई व बुआई के समय
(B) पंचायत के फैसले करते हुए
(C) किसी सामूहिक कार्यक्रम में
(D) ज़मींदार के आगमन पर
उत्तर:
(A) फसल की कटाई, निराई व बुआई के समय

23. गैर-कृषि कार्य की सेवा के बदले अनाज देने की प्रथा के लिए 18वीं शताब्दी में कौन-सा शब्द अधिक प्रयोग होने लगा?
(A) खरायती
(B) जजमानी
(C) सेवा शुल्क
(D) साझीदारी
उत्तर:
(B) जजमानी

24. पश्चिमी स्रोतों में भारतीय गाँव को कहा गया है
(A) शिविरिम
(B) अविकसित व पिछड़े हुए
(C) एक छोटा गणराज्य
(D) ये सभी
उत्तर:
(C) एक छोटा गणराज्य

25. कृषि के कार्य में महिला साथ देती थी
(A) फसल कटाई में
(B) अनाज से दाना निकालने में
(C) फसल की निराई में
(D) उपर्युक्त सभी में
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी में

26. गैर-कृषि कार्य में यह कार्य मात्र महिलाओं का माना जाता था
(A) खाना पकाने का
(B) सूत कातने का
(C) मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए मिट्टी बनाने का
(D) उपर्युक्त सभी का
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी का

27. मुगलकाल में महिलाओं के बारे में प्रमाण मिलते हैं
(A) विधवा पुनर्विवाह के
(B) दुल्हन की कीमत लेने के
(C) महिला का भू-स्वामी होने के
(D) उपर्युक्त सभी के
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी के

28. पंचायतें महिलाओं को न्याय देते समय ध्यान रखती थीं
(A) महिला की जाति का
(B) शिकायतकर्ता का शोषक से रिश्ते का
(C) दोनों का
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) दोनों का

29. जंगलवासी मुगल राज्य को उपलब्ध कराते थे
(A) हाथी
(B) हथियार
(C) लकड़ी
(D) रेशम
उत्तर:
(A) हाथी

30. जंगलवासियों की व्यवस्था में परिवर्तन का कारण था
(A) जंगल के उत्पादनों का वाणिज्यिक होना
(B) जंगल के सरदारों का सरकारी सेवा में जाना
(C) जंगलों की कटाई से कृषि का विस्तार
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

31. कृषि संबंधों में वह वर्ग कौन-सा था जो कृषि उत्पादन पर कब्जा करता था, लेकिन स्वयं कृषि नहीं करता था?
(A) कृषक
(B) ज़मींदार
(C) राजस्व अधिकारी
(D) बिचौलिए
उत्तर:
(B) ज़मींदार

32. निम्नलिखित ज़मींदार की श्रेणी नहीं थी
(A) प्रारंभिक
(B) मध्यस्थ
(C) स्वायत्त मुखिया
(D) खुद-काश्त
उत्तर:
(D) खुद-काश्त

33. मुगलकाल में भूमि की मिल्कियत होती थी
(A) ज़मींदार के पास
(B) कृषक के पास
(C) सरकार के पास
(D) पटवारी के पास
उत्तर:
(A) ज़मींदार के पास

34. जमींदारी प्राप्त करने का मुख्य स्रोत था
(A) पैतृक पद्धति
(B) युद्ध द्वारा क्षेत्र पर अधिकार
(C) जंगल की सफाई
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

35. राज्य की आर्थिक नीतियों के विरुद्ध विद्रोह किया
(A) कृषकों ने
(B) ज़मींदारों ने
(C) दोनों ने
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) दोनों ने

36. अकबर के काल में भू-राजस्व व्यवस्था को नाम दिया जाता था
(A) टोडरमल का बन्दोबस्त
(B) स्थायी बन्दोबस्त
(C) महालवाड़ी
(D) रैयतवाड़ी
उत्तर:
(A) टोडरमल का बन्दोबस्त

37. मुगलकाल में कर एकत्रित व निर्धारित करने वाला अधिकारी था
(A) मीर-ए-अर्ज
(B) मीरबक्शी
(C) अमील गुज़ार
(D) दरोगा
उत्तर:
(C) अमील गुज़ार

38. मुगलकाल में सर्वाधिक उपजाऊ जमीन को कहा जाता था
(A) परौती
(B) चचर
(C) पोलज
(D) बंजर
उत्तर:
(C) पोलज

39. मुगलकाल में कर एकत्रित करने की पद्धति थी
(A) जब्ती
(B) गल्ला बक्शी
(C) कनकूत
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

40. मुगलकाल में यूरोप के साथ भारत का अधिकतर व्यापार होने लगा था
(A) जल मार्ग से
(B) थल मार्ग से
(C) दोनों से
(D) किसी से नहीं
उत्तर:
(A) जल मार्ग से

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

41. मुगलकाल में भारत में अधिक चाँदी एकत्रित हई
(A) चाँदी खानों से
(B) विदेशी व्यापार से
(C) पुश्तैनी संपत्ति से
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) विदेशी व्यापार से

42. 1690 ई० के आस-पास आने वाला इटली का यात्री था
(A) बर्नियर
(B) मनूची
(C) कारेरी
(D) तैवर्नियर
उत्तर:
(C) कारेरी

43. मुद्रा के अधिक प्रसार से मुख्य रूप से परिवर्तन आया
(A) राजस्व एकत्रित के तरीकों में
(B) आन्तरिक व्यापार में
(C) ग्राम व शहर के संबंधों में
(D) उपर्युक्त सभी में
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी में

44. तकावी क्या थी?
(A) उर्वर भूमि
(B) किसानों का ऋण
(C) नगदी फसल पर मामूली कर
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) किसानों का ऋण

45. करोड़ी कौन थे?
(A) उत्तर भारत में राजस्व वसूलने वाले वे अधिकारी जिनसे एक करोड़ रुपए का राजस्व राजकोष को प्राप्त होता था
(B) वैसे अधिकारी जो कानूनगो द्वारा उपलब्ध कराए गए तथ्यों और आँकड़ों का निरीक्षण करते थे
(C) उपर्युक्त दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) उपर्युक्त दोनों

46. किस मुग़ल शासक ने सर्वप्रथम अकाल के समय राहत कार्य को शुरू किया था?
(A) जहाँगीर
(B) शाहजहाँ
(C) औरंगजेब
(D) अकबर
उत्तर:
(D) अकबर

47. अकबर के किस दीवान ने भू-राजस्व उपज के स्थान पर नगद जमा करवाने की प्रथा को आरंभ किया था?
(A) टोडरमल
(B) मानसिंह
(C) मुजफ्फर खाँ
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) टोडरमल

48. भू-राजस्व के लिए अकबर ने किस संवत को अपनाया?
(A) विक्रमी संवत्
(B) हिजरी संवत्
(C) इलाही संवत्
(D) ईस्वी
उत्तर:
(C) इलाही संवत्

49. माप और उस पर कर निर्धारण की प्रणाली को क्या कहा जाता है?
(A) काकूत
(B) नसक
(C) गल्ला बख्शी
(D) जब्ती
उत्तर:
(D) जब्ती

50. मुकद्दम को माल गुजारी वसूल करने के बदले में दस्तूरी के रूप में उपज का कितने प्रतिशत मिलता था?
(A) 2 1/2%
(B) 5%
(C) 5 1/2%
(D) 7%
उत्तर:
(A) 2 1/2%

51. डॉ० सतीश चन्द्र के अनुसार मुगलों के पतन का मुख्य कारण क्या था?
(A) औरंगज़ेब की धार्मिक नीति
(B) कमज़ोर उत्तराधिकारी
(C) औरंगज़ेब की दक्षिण नीति
(D) जागीरदारी को चलाने का ढाँचा
उत्तर:
(D) जागीरदारी को चलाने का ढाँचा

52. अकबर की राजधानी थी
(A) आगरा
(B) दिल्ली
(C) फतेहपुर सीकरी
(D) अजमेर
उत्तर:
(C) फतेहपुर सीकरी

53. कनकूत की विशेषता क्या थी?
(A) यह अपेक्षाकृत कम था
(B) इसमें समय कम लगता था
(C) राजस्व अधिकारी की आवश्यकता नहीं थी
(D) अनाज को खलिहान में देखना नहीं पड़ता था
उत्तर:
(D) अनाज को खलिहान में देखना नहीं पड़ता था

54. आसामी क्या था?
(A) बहुत-से जमींदारी गाँवों का समूह
(B) एक अकेला किसान
(C) भू-राजस्व वसूल करने वाले अधिकारी
(D) जिनकी फसल अच्छी हो
उत्तर:
(B) एक अकेला किसान

55. मुगलकाल के अंत में जमींदारी प्रथा में कुछ परिवर्तन हुआ, निम्नलिखित में से कौन-सा उससे सम्बन्धित नहीं था?
(A) जाट, सिक्ख और सतनामी जैसे किसान विद्रोहों के पीछे जमींदारों का ही हाथ था
(B) जब-जब जाट या मराठा जमींदारों को अपने विद्रोहों में सफलता हाथ लगी, उन्होंने जमींदार और शासक दोनों की भूमिका अदा की
(C) दूसरे भू-राजस्व किसानों ने जमींदारी अधिकारों की मांग नहीं की
(D) ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद जमींदारों के अधिकारों में मुगलकाल की अपेक्षा काफी वृद्धि हो गई
उत्तर:
(C) दूसरे भू-राजस्व किसानों ने जमींदारी अधिकारों की मांग नहीं की

56. जमींदारी प्रथा के बारे में कौन-सा कथन सत्य है?
(A) जमींदारों ने छोटे-छोटे दुर्ग बनाए और इनकी देखभाल के लिए छोटी-सी फौज रखी
(B) जमींदारों में भी उप-विभाजन था जो मध्यस्थ जमींदारों के रूप में जाने जाते थे
(C) मध्यस्थ जमींदार बहुत-से लाभों को प्राप्त करते थे यथा लगान रहित भूमि दलाली, उपकर आदि
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

57. मुगलकालीन भारत में दो मुख्य कृषक वर्ग थे
(A) खुद-काश्त व पाहि-काश्त
(B) किसान और जमींदार
(C) जमींदार और जागीरदार
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) खुद-काश्त व पाहि-काश्त

58. निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सत्य है?
(A) जागीर कभी भी स्थानांतरित नहीं होती थी
(B) जागीरदारों का अपनी जागीरों पर स्थायी कब्जा होता था
(C) जागीरदारों के पास न्यायिक अधिकार नहीं थे
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) जागीरदारों के पास न्यायिक अधिकार नहीं थे।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
पानीपत की पहली लड़ाई कब हुई?
उत्तर:
पानीपत की पहली लड़ाई 1526 ई० में हुई।

प्रश्न 2.
मुगलकाल में कितने प्रतिशत लोग गाँव में रहते थे?
उत्तर:
मुगलकाल में 85% से अधिक लोग गाँव में रहते थे।

प्रश्न 3.
अबुल फज्ल की किन्हीं दो पुस्तकों के नाम लिखो।
उत्तर:
‘अकबरनामा’ व ‘आइन-ए-अकबरी’

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प्रश्न 4.
आइन-ए-अकबरी का लेखन कब पूरा हुआ?
उत्तर:
आइन-ए-अकबरी का लेखन 1598 ई० में पूरा हुआ।

प्रश्न 5.
आइन-ए-अकबरी कुल कितने खण्डों में प्रकाशित है?
उत्तर:
आइन-ए-अकबरी कुल तीन खण्डों में प्रकाशित है।

प्रश्न 6.
मुगलकाल में कृषि व्यवस्था को जानने के लिए अधिक पाण्डुलिपियाँ किस क्षेत्र में मिली हैं?
उत्तर:
मुगल साम्राज्य की कृषि व्यवस्था को जानने वाली पाण्डुलिपियाँ गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र व बंगाल से मिली हैं।

प्रश्न 7.
खुद-काश्त कौन थे?
उत्तर:
जो किसान स्वयं अपनी खेती करते थे, खुद-काश्त कहलाते थे।

प्रश्न 8.
तीन तरह के कृषकों के नाम लिखो।
उत्तर:
खुद-काश्त, पाहि व मुंजारा।

प्रश्न 9.
मुगलकाल में भूमि के दो प्रकार कौन-कौन से थे?
उत्तर:
खालिसा व जागीर।

प्रश्न 10.
मुगलकाल में सरकारी जमीन क्या कहलाती थी?
उत्तर:
मुगलकाल में सरकारी ज़मीन खालिसा कहलाती थी।

प्रश्न 11.
‘हिंदुस्तान में गाँव व शहर पलभर में उजड़ जाते थे।’ यह कथन किसका है?
उत्तर:
यह कथन बाबर का है।

प्रश्न 12.
भारत में मुगलकाल में कृषि व्यवस्था सिंचाई के लिए किस पर आश्रित थी?
उत्तर:
मुगलकाल में कृषि सिंचाई के लिए मानसून की वर्षा पर निर्भर थी।

प्रश्न 13.
मुग़लकाल में फसल चक्र को किन दो नामों से जाना जाता था?
उत्तर:
मुगलकाल में फसल चक्र को खरीफ व रबी के नामों से जाना जाता था।

प्रश्न 14.
भारत में तम्बाकू कौन लाए?
उत्तर:
भारत में तम्बाकू पुर्तगाली लाए।

प्रश्न 15.
ग्रामीण व्यवस्था में व्यक्ति के लिए कठोर दण्ड क्या था?
उत्तर:
ग्रामीण व्यवस्था में व्यक्ति को ग्राम तथा जाति से बाहर निकालना सबसे कठोर दंड था।

प्रश्न 16.
मुगलकाल में ग्राम व्यवस्था का संचालन कौन करता था?
उत्तर:
मुगलकाल में ग्राम व्यवस्था का संचालन पंचायत करती थी।

प्रश्न 17.
गाँव में झगड़ों का निपटारा कौन करता था?
उत्तर:
गाँव में झगड़ों का निपटारा पंचायत करती थी।

प्रश्न 18.
ग्रामीण व्यवस्था में जाति व्यवस्था का नियमन कैसे किया जाता था?
उत्तर:
ग्रामीण व्यवस्था में जाति व्यवस्था का नियमन ‘जाति की पंचायत’ द्वारा किया जाता था।

प्रश्न 19.
गाँव में गैर-कृषि कार्य करने वालों की औसत संख्या क्या थी?
उत्तर:
गाँव में गैर-कृषि कार्य करने वालों की औसत संख्या 25 से 30% थी।

प्रश्न 20.
प्रारंभिक पश्चिमी स्रोतों में गाँव को क्या कहा गया है?
उत्तर:
प्रारंभिक पश्चिमी स्रोतों में गाँव को ‘एक छोटा गणराज्य’ कहा गया है।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

प्रश्न 21.
मुगलकाल में गाँव में आपस में विनिमय कैसे होता था?
उत्तर:
मुगलकाल में गाँव के लोग आपस में विनिमय वस्तुओं से करते थे।

प्रश्न 22.
क्या महिलाएँ मुगलकाल में भूमि की मालिक हो सकती थीं?
उत्तर:
हाँ, इस काल में महिलाएँ भूमि की मालिक हो सकती थीं।

प्रश्न 23.
जंगलवासियों का जीवन कैसा था?
उत्तर:
जंगलवासियों का जीवन प्रकृतिमूलक था।

प्रश्न 24.
जंगलवासियों पर राज्य किसके लिए आश्रित था?
उत्तर:
जंगलवासियों पर राज्य हाथियों के लिए आश्रित था।

प्रश्न 25.
मुगलकाल में ज़मींदारों को किन-किन नामों से जाना जाता था?
उत्तर:
मुगलकाल में ज़मींदार प्रारंभिक, मध्यस्थ व स्वायत्त मुखिया के नाम से जाने जाते थे।

प्रश्न 26.
मुगलकाल में ज़मींदारी का मुख्य आधार क्या था?
उत्तर:
मुगलकाल में ज़मींदारी मुख्य रूप से पैतृक आधार पर मिलती थी।

प्रश्न 27.
राज्य के विरुद्ध विद्रोहों में कृषक व ज़मींदार की आपसी स्थिति क्या थी?
उत्तर:
राज्य के विरुद्ध विद्रोहों में कृषक व ज़मींदार साथ-साथ थे।

प्रश्न 28.
अकबर के काल में भू-राजस्व व्यवस्था का मुखिया कौन था?
उत्तर:
अकबर के काल में भू-राजस्व व्यवस्था का मुखिया राजा टोडरमल था।

प्रश्न 29.
मुगलकाल में सबसे अच्छी ज़मीन को क्या कहा गया?
उत्तर:
मुगलकाल में सबसे अच्छी ज़मीन को पोलज कहा गया।

प्रश्न 30.
मुगलकाल में कर एकत्रित करने के लिए सर्वाधिक प्रयोग में आने वाली पद्धति क्या थी?
उत्तर:
मुगलकाल में कर एकत्रित करने के लिए प्रयुक्त होने वाली पद्धति जब्ती थी।

प्रश्न 31.
इटली के किस यात्री ने अपने वृत्तांत में यह बताया है कि विश्व का सारा सोना-चाँदी भारत में एकत्रित होता है?
उत्तर:
यह जानकारी इटली के यात्री जोवान्नी कारेरी ने दी।

प्रश्न 32.
मुगल वंश के समकालीन चीन में कौन-सा वंश था?
उत्तर:
मुगल वंश के समकालीन चीन में मिंग वंश था।

प्रश्न 33.
16वीं व 17वीं शताब्दी में ईरान पर किस वंश का शासन था?
उत्तर:
इस काल में ईरान पर सफावी वंश का शासन था।

प्रश्न 34.
गाँव में लोगों का मुख्य व्यवसाय क्या था?
उत्तर:
गाँव में लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था।

प्रश्न 35.
मुगलकाल में मुख्य फसलें कौन-कौन सी थीं?
उत्तर:
मुख्य फसलें गेहूँ, चावल, जौ, बाजरा, चना, दालें, कपास, गन्ना, नील, तिलहनी फसलें, पोस्त आदि थीं।

प्रश्न 36.
कंधार में किस प्रकार की गेहूँ पैदा होती थी?
उत्तर:
कंधार में एक विशेष प्रकार की श्वेत गेहूँ पैदा होती थी।

प्रश्न 37.
उस समय दलहनी फसलें कौन-कौन सी होती थीं?
उत्तर:
उस समय मूंग, मोठ, माश, अरहर, लोबिया आदि मुख्य दलहनी फसलें पैदा होती थीं।

प्रश्न 38.
सबसे बढ़िया नीलं कहाँ पर पैदा होता था?
उत्तर:
सबसे बढ़िया नील ब्याना तथा खरखेज नामक स्थानों में उत्पन्न होता है।

प्रश्न 39.
उस समय भूमि को कितने भागों में बाँटा जाता था?
उत्तर:
उस समय भूमि को चार भागों में बाँटा जाता था(i) पोलज, (ii) परौती, (ii) चचर, (iv) बंजर।

प्रश्न 40.
पोलज और परौती पर भूमि कर कितना था?
उत्तर:
पोलज और परौती भूमि पर भूमि कर 1/3 भाग था।

प्रश्न 41.
कौन-से शहरों में शाही कारखानों की स्थापना की गई थी?
उत्तर:
उस समय लाहौर, आगरा, फतेहपुर सीकरी, अहमदाबाद आदि नगरों में शाही कारखानों की स्थापना की गई थी।

प्रश्न 42.
उस समय प्रसिद्ध उद्योग कौन-सा था?
उत्तर:
उस समयं सूती कपड़ा उद्योग प्रसिद्ध उद्योग था।

प्रश्न 43.
उस समय दरियाँ कौन-से शहरों में बनाई जाती थीं?
उत्तर:
मुलतान, लाहौर, फतेहपुर सीकरी, अलवर, जौनपुर आदि स्थानों पर दरियाँ बनाई जाती थीं।

प्रश्न 44.
रेशमी कपड़ा तैयार करने के उद्योग कौन-से थे?
उत्तर:
अहमदाबाद, बिहार तथा बंगाल में रेशमी कपड़ा उद्योग थे।

प्रश्न 45.
ऊनी गलीचों तथा शालों का प्रसिद्ध उद्योग कहाँ पर था?
उत्तर:
कश्मीर में।

प्रश्न 46.
रेशमी कागज़ तैयार करने का उद्योग कहाँ पर था?
उत्तर:
रेशमी कागज़ तैयार करने का उद्योग स्यालकोट में था।

प्रश्न 47.
युद्ध शस्त्र बनाने का कारखाना कहाँ पर था?
उत्तर:
लाहौर तथा गुजरात में युद्ध शस्त्र बनाने के उद्योग थे।

प्रश्न 48.
भारत का व्यापार किन-किन देशों से होता था?
उत्तर:
भारत का व्यापार लंका, बर्मा, जावा, सुमात्रा, तिब्बत, नेपाल, ईरान, मध्य एशिया, मिस्र, पूर्वी अफ्रीका, यूरोप आदि देशों से होता था।

अति लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आइन-ए-अकबरी क्यों लिखी गई?
अथवा
आइन-ए-अकबरी’ का लेखन क्यों किया गया?
उत्तर:
आइन-ए-अकबरी अकबर के दरबारी अबुल फज़्ल द्वारा लिखी गई। इसका मुख्य उद्देश्य अकबर के शासन काल की घटनाओं के साथ-साथ सामाजिक व आर्थिक पक्ष को जानना था। दूसरों शब्दों में आइन-ए-अकबरी के लेखन का उद्देश्य अकबर के शासन काल के शाही कानूनों को सारांश में लिखना था।

प्रश्न 2.
आइन-ए-अकबरी के खण्डों के नाम लिखो।
उत्तर:
आइन-ए-अकबरी के तीन खण्ड हैं। इसके पहले खण्ड का नाम मंजिल आबादी, दूसरे खण्ड का नाम सिपह आबादी तथा तीसरे का नाम मुल्क आबादी है।

प्रश्न 3.
आइन-ए-अकबरी की किन्हीं दो सीमाओं या दोषों का वर्णन करो।
उत्तर:
आइन-ए-अकबरी की दो सीमाओं का वर्णन इस प्रकार से है
(i) आइन-ए-अकबरी पूरी तरह से दरबारी संरक्षण में लिखी गई है। लेखक कहीं भी अकबर के विरुद्ध कोई शब्द प्रयोग नहीं कर पाया। उसने विभिन्न विद्रोहों के कारणों व दमन को भी एकपक्षीय ढंग से प्रस्तुत किया है।

(ii) आइन-ए-अकबरी में विभिन्न स्थानों पर जोड़ में गलतियाँ पाई गई हैं। यहाँ यह माना जाता है कि गलतियाँ अबुल फज़्ल के सहयोगियों की गलती से हुई होगी या फिर नकल उतारने वालों की गलती से।

प्रश्न 4.
खुद-काश्त कौन थे? उनका समाज में क्या स्थान था?
उत्तर:
खुद-काश्त दो शब्दों के मेल से बना है खुद एवं काश्त। जिसका अर्थ है वह व्यक्ति जो अपनी भूमि को स्वयं जोतता हो अर्थात् अपनी भूमि पर स्वयं खेती करने वाला। इस व्याख्या के अनुसार कृषक अपनी भूमि का मालिक होता था। वह अपने गाँव में ही परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर खेती करता था। वह अपनी भूमि को बेचने, गिरवी रखने या हस्तान्तरित करने का अधिकार रखता था। उसे ज़मीन से बेदखल नहीं किया जा सकता था। वे गाँव में सबसे ऊँचे स्थान पर थे।

प्रश्न 5.
मुगलकाल में मिल्कियत के आधार पर भूमि के दो प्रकार लिखें।
उत्तर:
मुगलकाल में भूमि को खालिसा व जागीर में बाँटा गया है।
(i) खालिसा-खालिसा सरकारी भूमि को कहा जाता था अर्थात् ऐसी भूमि जिसका भू-राजस्व सीधे सरकारी कोष में जमा होता था। इस ज़मीन पर कृषि खुद-काश्त, पाहि-काश्त या मुंजारे करते थे तथा राजस्व सरकारी अधिकारी एकत्रित करते थे।

(ii) जागीर-जागीर उस भू-क्षेत्र को कहा जाता था जिसका राजस्व किसी सरकारी अधिकारी या मनसबदार को उसकी सेवा के बदले दिया जाता था। मनसबदार या जागीरदार, इस जमीन के प्रायः मालिक नहीं होते थे। उन्हें राज्य द्वारा समय-समय पर स्थानान्तरित किया जाता था।

प्रश्न 6.
मुगलकाल में कौन-कौन सी नई फसलें कृषि व्यवस्था का हिस्सा बनीं?
उत्तर:
मुगलकाल में कुछ नई फसलें भी उत्पादित की जाने लगी थीं। इन फसलों में पहला नाम रेशम का था। इस फसल का जीव (कीड़ा) चीन से लाया गया तथा यह बंगाल में बहुत अधिक प्रचलन में आयी। इस काल में नई दूसरी फसल तम्बाकू थी। यह फसल पुर्तगालियों द्वारा 17वीं सदी के प्रारंभ (1603) में अफ्रीकी क्षेत्र से लाई गई। इस काल में अन्य आने वाली फसलों में मक्का, जई, पटसन इत्यादि थीं।

प्रश्न 7.
ग्राम पंचायत का गठन कैसे होता था?
उत्तर:
ग्राम पंचायत में मुख्य रूप से गाँव के सम्मानित बुजुर्ग होते थे। इन बुजुर्गों में भी उनको महत्त्व दिया जाता था जिनके पास पुश्तैनी ज़मीन या सम्पत्ति होती थी। प्रायः गाँव में कई जातियाँ होती थीं इसलिए पंचायत में भी इन विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि होते थे। परन्तु इसमें विशेष बात यह है कि साधन सम्पन्न व उच्च जातियों को ही पंचायत में महत्त्व दिया जाता था। खेती पर आश्रित भूमिहीन वर्ग को पंचायत में शामिल अवश्य किया जाता था, लेकिन उन्हें महत्त्व नहीं दिया जाता था।

प्रश्न 8.
मुगलकाल के आर्थिक इतिहास की जानकारी के बाह्य स्रोतों का वर्णन करो।
उत्तर:
बाह्य स्रोतों में मुख्य रूप से ईस्ट इंडिया कम्पनी व अन्य यूरोपीय कम्पनियों व व्यापारियों के दस्तावेज हैं। ये दस्तावेज प्रत्यक्ष तौर पर आर्थिक पक्ष की जानकारी कम ही देते हैं, लेकिन बीच-बीच में अच्छा प्रकाश डालते हैं। इन दस्तावेजों में डायरी, संस्मरण, सरकारी व निजी दस्तावेज हैं। इनमें भारत के व्यापार, आयात-निर्यात, विभिन्न क्षेत्रों में होने वाला कृषि व गैर-कृषि उत्पादन का वर्णन भी है। स्थानीय लोगों की जीवन-शैली व आर्थिक जरूरतों पर ये अधिक प्रकाश डालते हैं। इनका वर्णन दरबारी प्रभाव से मुक्त है।

प्रश्न 9.
पाहि-काश्त से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
पाहि का अर्थ होता है-पड़ोसी अर्थात् वह व्यक्ति जो पड़ोस के गाँव की ज़मीन पर खेती करता था। वह दूसरे गाँव की ज़मीन ठेके पर लेता था या खरीद लेता था। इसका कारण दूसरे गाँव की भूमि का अच्छा होना था। कृषक अकाल इत्यादि के समय मजबूरी में कृषि करता था। कुछ स्रोतों में पाहि शब्द की व्याख्या अपने ही गाँव में पड़ोसी की खेती जोतने के रूप में भी की गई है। इस कृषक को शर्तों के अनुरूप खेती करनी होती थी।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

प्रश्न 10.
मुगलकाल में व्यापारिक फसलों या जिन्स-ए-कामिल के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
मुगलकाल में जिन्स-ए-कामिल शब्द का अर्थ उन फसलों से लगाया जाता है जिससे राज्य को कर अधिक मिलता था। गन्ना व कपास सबसे अच्छी फसल कही जाती थी। राज्य के द्वारा भी इन फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रयास किया जाता था। कपास मध्य भारत, दक्षिणी क्षेत्र, बंगाल, गुजरात एवं राजपूताना के क्षेत्रों में उगाई जाती थी। गन्ना पंजाब, दिल्ली, आगरा, बंगाल व अवध क्षेत्र में अधिक मिलता था। तिलहन की फसलें संपूर्ण उत्तरी भारत में उगती थीं। अलीगढ़, ब्याना, आगरा, पटना व बनारस क्षेत्र के नील की विश्व में बहुत अधिक माँग थी। दक्षिण के क्षेत्र में गर्म मसाले पैदा होते थे।

प्रश्न 11.
एक ‘छोटा गणराज्य’ क्या था? इसकी प्रमुख विशेषताएँ क्या थीं?
उत्तर:
एक ‘छोटा गणराज्य’ भारतीय गाँव था, जिसे पश्चिमी लेखकों द्वारा यह शब्द दिया गया है। उनके अनुसार भारत में गाँव आत्मनिर्भर, बहुसंस्कृतीय, अपनी आवश्यकताओं की सभी चीजों का उत्पादन करने वाले थे। यह आन्तरिक प्रशासन के लिए किसी पर निर्भर नहीं थे। इस तरह उनका मानना है कि गाँव छोटी इकाई अवश्य है, लेकिन इनका अस्तित्व स्वतंत्र है। गाँव के लोग सामूहिक स्तर पर संसाधनों व श्रम का बँटवारा करते थे, जबकि सभी को मालूम था कि उनमें सामाजिक बराबरी नहीं है। इस समाज में कुछ ज़मीन के मालिक थे, जबकि कुछ दूसरों की कृषि पर सेवा देकर जीवन-यापन करते थे।

प्रश्न 12.
मुगलकाल में जातीय पंचायत की संक्षिप्त जानकारी दें।
उत्तर:
मुगल काल में लगभग सभी गाँव में कई जातियाँ होती थीं। प्रत्येक जाति की अपनी एक पंचायत होती थी। ये जातीय पंचायत गाँव की परिधि के बाहर भी महत्त्व रखती थीं। इनका अस्तित्व क्षेत्रीय आधार पर भी होता था। ये बहुत शक्तिशाली होती थीं। ये पंचायतें अपनी जाति (बिरादरी) के झगड़ों का निपटारा करती थीं। जातीय परंपरा व बन्धनों के दृष्टिकोण से ये ग्रामीण पंचायतों की तुलना में अधिक कठोर थीं। दीवानी झगड़ों का निपटारा, शादियों के जातिगत मानदंड, कर्मकांडीय गतिविधियों का आयोजन तथा अपने व्यवसाय को मजबूत करना इनके काम थे।

प्रश्न 13.
ग्राम समाज में कृषक व गैर-कृषक वर्ग के आपसी संबंधों का उल्लेख करें।
उत्तर:
मुगलकाल में कृषक व गैर-कृषक समुदाय ग्रामीण संरचना का अटूट हिस्सा था। कृषक समुदाय, फसल की कटाई, जुताई, बिजाई इत्यादि के कार्य स्वयं नहीं कर पाता था। वह इस कार्य के लिए गैर-कृषकों का सहयोग लेता था और ये गैर-कृषक कृषि के मुख्य काम के समय अपने सारे कार्य छोड़कर कृषि कार्य में जुट जाते थे।

प्रश्न 14.
मुगलकाल में ग्रामीण व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन हुए?
उत्तर:
मुगलकाल में ग्रामीण व्यवस्था में बदलाव आए। इस काल में शहरीकरण का थोड़ा विकास हुआ जिसके चलते गाँव व शहर के बीच व्यापारिक रिश्ते बढ़े। इस कड़ी में वस्तु-विनिमय की बजाय नकद धन का अधिक प्रयोग होने लगा। इसी तरह मुग़ल शासकों ने भू-राजस्व की वसूली जिन्स के साथ-साथ नकदी में भी प्रारंभ की।

प्रश्न 15.
दस्तकार के रूप में महिलाएँ क्या-क्या करती थीं?
उत्तर:
मुगलकाल में महिलाएँ सूत कातने, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को साफ करने, भिगोने तथा गँधने का कार्य करती थीं। वे कपड़े की बुनाई-कढ़ाई भी करती थीं। सामान्य तौर पर जब कृषि कार्य का अधिक दबाव नहीं होता था तो महिलाएँ कुछ-न-कुछ दस्तकारी के कार्य करती रहती थीं।

प्रश्न 16.
जंगलवासियों के जीवन में बदलाव के किन्हीं दो कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:
मुगलकाल में जंगलवासियों के जीवन में बदलाव के दो कारक इस प्रकार हैं

  • वाणिज्यिक खेती व व्यापार के कारण जंगलों की सफाई की गई तथा शहद, मधु व लाख की खरीद-बेच ने उनकी परम्परागत जीवन-शैली को बदला।
  • राज्यों की विस्तारवादी नीति व हाथियों की आवश्यकता ने जंगलवासियों को प्रभावित किया। राज्य ने उन्हें संरक्षण दिया और उन्होंने राज्य को हाथी दिए।

प्रश्न 17.
मुगलकाल में ज़मींदार के अधिकार व कर्त्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
मुगलकाल में जमींदारों के पास अपनी ज़मीन की खरीद, बेच, हस्तांतरण, गिरवी रखने का अधिकार था। विभिन्न तरह के प्रशासनिक पदों पर इन्हें नियुक्त किया जाता था। अपने क्षेत्र में विशेष पोशाक, घोड़ा, वाद्य यन्त्र बजाने का अधिकार इनके पास था। भू-राजस्व से इन्हें एक निश्चित मात्रा में कमीशन मिलता था। इनके पास अपनी सेना होती थी। ज़मींदारों के कर्त्तव्यों के बारे में कहा जा सकता है कि अपने क्षेत्र में शांति व्यवस्था स्थापित करने की जिम्मेदारी इनकी थी।

इनके क्षेत्र से शासक व शाही परिवार का कोई सदस्य गुजरता था तो उन्हें वहाँ उपस्थित होना पड़ता था। राज्य के प्रति स्वामीभक्ति इनका सबसे बड़ा कर्त्तव्य था। कुछ ज़मींदार अपने क्षेत्र में धर्मशालाएँ बनवाना व कुएँ खुदवाना भी जरूरी समझते थे।

प्रयन 18.
ज़मींदार व कृषकों के संबंधों पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
मुगलकाल के कुछ साक्ष्यों के अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कि जमींदार वर्ग अपने अधीन कृषक वर्ग का शोषण करता था, जिसके कारण इस वर्ग की छवि शोषक वर्ग के रूप में उभरकर सामने आती है। इसके साथ-साथ साक्ष्य इस बात पर भी प्रकाश डालते हैं कि कृषकों के साथ इस वर्ग के संबंधों में पैतृकवाद व संरक्षणवाद भी था। इस बात के पक्ष में हम दो तर्क दे सकते हैं

(i) मुगलकाल में भक्ति व सूफी आन्दोलन के संतों व फकीरों ने अपने उपदेशों व गीतों में समाज की बुराइयों, जातिगत समस्याओं व अत्याचारों की कड़ी निन्दा की है। उन्होंने कहीं भी ज़मींदार वर्ग की शोषक के रूप में आलोचना नहीं की, बल्कि राजस्व अधिकारियों के प्रति सामान्य कृषक वर्ग को विद्रोही बताया है।

(ii) 17वीं शताब्दी में भारत के विभिन्न हिस्सों में कृषकों के विद्रोह हुए। इन विद्रोहों में कृषकों ने ज़मींदारों के विरुद्ध कभी बगावत नहीं की, बल्कि इन विद्रोहों में ज़मींदार कृषक के साथ दिखे।

प्रश्न 19.
अकबर के काल में भूमि के विभाजन को स्पष्ट करें।
उत्तर:
अकबर के काल में उपजाऊपन के आधार पर भूमि को निम्नलिखित चार हिस्सों में विभाजित किया गया

  • पोलज-कृषक की सबसे उपजाऊ भूमि को पोलज कहा गया। इस ज़मीन पर वर्ष में नियमित फसल होती थी। इस पर सिंचाई व्यवस्था भी ठीक थी।
  • परौती यह वह ज़मीन थी जो एक फसल के बाद कुछ दिनों के लिए खाली छोड़ दी जाती थी अर्थात् यह ज़मीन वर्ष में केवल एक फसल देती थी।
  • चाचर (छाछर) यह ज़मीन 2 से 4 वर्षों में एक फसल अच्छी देती थी। प्रायः जब काफी बरसात होती थी तब इसमें फसल ठीक होती थी।
  • बंजर-इस ज़मीन पर कभी-कभार फसल होती थी। कई बार पाँच वर्ष तक जोत में नहीं आती थी। यह ज़मीन रेतीली, उबड़-खाबड़ तथा चरागाह क्षेत्र वाली थी।

प्रश्न 20.
16वीं व 17वीं सदी के एशिया के प्रमुख राजवंशों के नाम लिखें।
उत्तर:
16वीं व 17वीं शताब्दी में एशिया के अलग-अलग क्षेत्रों में शक्तिशाली साम्राज्यों की स्थापना हुई। इस काल में चीन में मिंग साम्राज्य, ईरान में सफावी साम्राज्य, तुर्की में आटोमन साम्राज्य तथा भारत में मुग़ल साम्राज्य स्थापित हुआ।

प्रश्न 21.
मुग़लों की टकसालों पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
मुग़ल शासकों के द्वारा शुद्ध-चाँदी की मुद्रा का प्रचलन किया गया। इनकी टकसाल शाही राजधानी दिल्ली व आगरा के अतिरिक्त लाहौर, इलाहाबाद, अजमेर, बुरहानपुर में स्थापित की।

प्रश्न 22.
मुद्रा प्रणाली के प्रसार के मजदूरों पर क्या प्रभाव पड़े?
उत्तर:
मुगलकाल में मुद्रा-प्रणाली के प्रचलन से वस्तु-विनिमय के स्थान पर मुद्रा विनिमय अधिक प्रचलन में आई। गाँवों से बिकने के लिए फसलें व अन्य उत्पादन शहर में आने लगा तथा इसी तरह शहर की चीजें गाँवों में जाने लगीं। इससे गाँव व शहर के बीच अन्तर कम हुआ, इसी तरह राज्य द्वारा भी कर एकत्रित करने के लिए जिन्स की तुलना में मुद्रा (नकद) को महत्त्व दिया गया।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आइन-ए-अकबरी कब व क्यों लिखी गई? इसके विभिन्न भागों का वर्णन करें।
उत्तर:
आइन-ए-अकबरी अकबर के शासन काल में अबुल फज्ल द्वारा लिखी गई रचना है। अबुल फज्ल अकबर का दरबारी लेखक था। अकबर के आदेश से अबुल फज़्ल ने ‘अकबरनामा’ को लिखना प्रारम्भ किया। अकबरनामा के तीन खण्ड हैं। इन खण्डों में तीसरा खण्ड आइन-ए-अकबरी है। विस्तृत जानकारी होने के कारण इसे अलग रचना मान लिया गया तथा इस रचना के ही तीन खण्ड बन गए। आइन-ए-अकबरी के लेखन का उद्देश्य अकबर के शासन काल के शाही कानूनों को सारांश में लिखना था। इस तरह आइन-ए-अकबरी इतिहास लेखन का एक हिस्सा थी जो बाद में अकबर के साम्राज्य, प्रान्तों, क्षेत्रों व शाही कानूनों का एक दस्तावेज बन गई।

अकबर के शासनकाल के 42वें वर्ष में अर्थात् 1598 में अबुल फज्ल ने इसे पाँच संशोधनों के बाद पूरा किया। आइन-ए-अकबरी पाँच भागों में विभाजित है जिसमें से पहले तीन का एक खण्ड है तथा शेष दो अलग-अलग खण्डों में प्रकाशित है। पाँचों भागों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है

(i) पहला भाग-आइन-ए-अकबरी के पहले भाग को ‘मंजिल आबादी’, का नाम दिया गया है। इस हिस्से में शाही-आवास, दरबार, कोष, मुद्रा, मूल्यवान वस्तुओं के रख-रखाव व उनके नाप-तोल इत्यादि के बारे में बताया गया है।

(ii) दूसरा भाग-आइन के दूसरे भाग को ‘सिपह आबादी’ के नाम से जाना जाता है। इस भाग में मुगल सेना व उसके विभिन्न अंगों, नागरिक प्रशासन, मनसबदारी व्यवस्था व मनसबों की संख्या के बारे में बताया गया है। इस भाग में विद्वानों, कवियों तथा कलाकारों की जीवनियों को भी संक्षिप्त में दर्ज किया गया है।

(iii) तीसरा भाग-आइन के तीसरे भाग को ‘मुल्क आबादी’ का नाम दिया गया है। इसमें मुग़ल साम्राज्य के 12 प्रान्तों (उत्तर भारत) के बारे में जानकारी दी गई है। इस जानकारी में राजस्व की दरें, उनको एकत्रित करने की पद्धति व प्रान्तों की भौगोलिक स्थिति को विस्तार से स्पष्ट किया है। उसने प्रत्येक प्रान्त को अलग-अलग अध्यायों में विभाजित किया है। बीच-बीच में उसने प्रान्तों की स्थलाकृति व रेखाचित्र भी बनाए हैं।

(iv) चौथा व पाँचवाँ भाग आइन के चौथे व पाँचवें भाग में भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक व साहित्यिक परम्पराओं का उल्लेख किया गया है। इन दोनों भागों के लिए अबुल फज़्ल ने अधिकतर जानकारी अलबेरुनी के वृत्तांत से ली है। अबुल फज्ल ने आइन के अन्त में अकबर के शुभ वचनों को संकलित किया है।

प्रश्न 2.
आइन-ए-अकबरी कृषि एवं आर्थिक इतिहास लेखन का महत्त्वपूर्ण स्रोत है, इस पर अपने विचार दें।
उत्तर:
आइन-ए-अकबरी सूचना व जानकारी की दृष्टि से बेजोड़ है। इसके लेखन में अबुल-फज़्ल अन्य मध्यकालीन लेखकों की तुलना में काफी आगे निकल गया। उस समय के ज्यादातर लेखक प्रायः युद्ध, राजनीति, दरबारी गतिविधियों व वंशों के गुणगान को महत्त्व देते हैं। जबकि अबुल-फज़्ल ने राजनीति, अर्थव्यवस्था, धर्म, समाज सभी विषयों को बड़ी कुशलता से प्रस्तुत किया है। आइन के महत्त्वपूर्ण पक्ष को निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में समझ सकते हैं

(i) अबुल-फल स्वयं स्वीकार करता है कि उसने पुस्तक को त्रुटि रहित बनाने का प्रयास किया। इस हेतु उसने यह पुस्तक पाँच बार लिखी तथा हर बार जानकारी में संशोधन किया है अर्थात् उसने इसे जल्दी की बजाय अच्छा करने पर जोर दिया।

(ii) उसने सूचनाओं को बड़े स्तर पर एकत्रित किया एवं करवाया। इसके लिए उसने हर तरह के प्रयास किए। उसने उन्हें संकलित कर जिस तरह क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया, वह कोई सरल कार्य नहीं था।

(iii) राज्य की आर्थिक नीतियों, भू-राजस्व को निर्धारित करने की पद्धति, फसलों, सिंचाई इत्यादि पर प्रकाश डालने वाला यह एकमात्र ग्रन्थ है। इस अभाव में मध्यकाल को ठीक तरह से समझना बेहद कठिन कार्य है।

(iv) मुगलकाल में गैर-कृषि उत्पादन, उनका विनिमय, उनके मिलने के स्थल तथा शासक द्वारा उनके प्रोत्साहन के बारे में उसकी जानकारी हमें तत्कालीन व्यापार व उद्योग व्यवस्था को समझने में सहायता करती है।

(v) मुगलकालीन ग्रामीण समाज, मनसबदारी प्रणाली, कृषक-ज़मींदार व राज्य के सम्बन्धों, वस्तुओं के भावों का वर्णन उसने जिस तरह किया है, वह तत्कालीन भारत को समझने में तो मदद करता ही है, साथ में विश्व के अन्य भागों से तुलना करने का आधार भी देता है।

आइन-ए-अकबरी के बारे में यह कहा जा सकता है कि अबुल-फज़्ल द्वारा रचित यह ग्रन्थ हर प्रकार की जानकारी से भरपूर है। इसकी कुछ सीमाएँ भी रहीं, परन्तु ये बहुत कम हैं। इस तरह की कमियाँ लगभग प्रत्येक तरह के स्रोत में होती हैं। निस्सन्देह अबुल-फल अपने समकालीन व अन्य मध्यकालीन लेखकों से आगे था। अपने लेखन में जहाँ वह अच्छी जानकारी दे पाया वही स्वयं का एवं अकबर का नाम भी उचित ढंग से उभार पाया है। आइन-ए-अकबरी ने मुगलकाल के पुनर्निर्माण के लिए शोधकर्ताओं व इतिहासकारों को प्रचुर मात्रा में सामग्री उपलब्ध कराई है।

प्रश्न 3.
मुगलकाल में कृषकों की विभिन्न श्रेणियों पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
मुगलकाल में कृषक के लिए मोटे तौर पर रैयत या मुज़रियान शब्द का प्रयोग होता था। कई स्थानों पर कृषक के लिए किसान व आसामी शब्द भी प्रचलन में थे। 17वीं शताब्दी के स्रोतों में खुद-काश्त व पाहि-काश्त इत्यादि शब्दों का प्रयोग कृषकों के लिए मिलता है। यह शब्द उनकी प्रकृति में अन्तर को स्पष्ट करता है। कहीं-कहीं यह विभिन्न क्षेत्रों के भाषायी अन्तर के कारण हैं। इन अन्तरों को समझने के लिए इनकी संक्षिप्त व्याख्या को जानना आवश्यक है।

(i) रैयत-रैयत शब्द प्रारम्भिक स्रोतों में प्रजा के लिए प्रयोग हुआ। फिर यह कृषक के लिए ही प्रयुक्त किया जाने लगा तथा कृषक शब्द के बहुवचन (अर्थात् अधिक संख्या) के लिए रिआया शब्द का प्रयोग हुआ। यह शब्द सभी तरह के कृषकों के लिए प्रयोग में लाया गया।
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(ii) खुद-काश्त-कृषक श्रेणी में यह शब्द ऊँचे दर्जे के किसानों के लिए प्रयोग होता है। खुद-काश्त दो शब्दों के मेल से बना है-खुद एवं काश्त। जिसका अर्थ है वह व्यक्ति जो अपनी भूमि को स्वयं जोतता हो अर्थात् अपनी भूमि पर स्वयं खेती करने वाला। इस व्याख्या के अनुसार कृषक अपनी भूमि का मालिक होता था। वह अपने गाँव में ही परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर खेती करता था। वह अपनी भूमि को बेचने, गिरवी रखने या हस्तान्तरित करने का अधिकार रखता था। उसे ज़मीन से बेदखल नहीं किया जा सकता था।

(iii) पाहि-काश्त-पाहि का अर्थ होता है-पड़ोसी अर्थात् वह व्यक्ति जो पड़ोस के गाँव की ज़मीन पर खेती करता था। वह दूसरे गाँव की ज़मीन ठेके पर लेता था या खरीद लेता था। इसका कारण दूसरे गाँव की भूमि का अच्छा होना था। अकाल इत्यादि के समय मजबूरी में कृषि करता था। कुछ स्रोतों में पाहि शब्द की व्याख्या अपने ही गाँव में पड़ोसी की खेती जोतने के रूप में भी की गई है। इस कृषक को शर्तों के अनुरूप खेती करनी होती थी।

(iv) मुज़रियान या मुंजारा-यह कृषकों की श्रेणी में सबसे निचले दर्जे पर था। उसके पास हल व बैल तो अपने थे लेकिन वह ज़मीन का मालिक नहीं था। उसके पास भूमि खरीदने व ठेके पर लेने की क्षमता भी नहीं थी। अतः वह किसी भी किसान के साथ हिस्सेदार व बँटाईदार के रूप में खेती करता था। उत्पादन को बाद में एक निश्चित मात्रा में बाँट लिया जाता था। इस वर्ग की संख्या काफी थी व इसकी स्थिति हमेशा दयनीय थी। ज़मीन का मालिक उसे प्रतिवर्ष अपनी शर्तों के अनुरूप खेती करने को देता था।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

प्रश्न 4.
मुगलकाल की सिंचाई तकनीक के बारे में आप क्या जानते हैं? अथवा 16वीं-17वीं शताब्दी में कृषि के लिए कौन-से सिंचाई साधनों का इस्तेमाल होता था?
उत्तर:
मुगलकाल में कृषि प्रकृति पर निर्भर थी। जिन क्षेत्रों में जिस तरह की वर्षा होती थी लोग उसी तरह की फसलें पैदा करते थे। कहीं-कहीं नदियों का पानी भी सिंचाई के लिए प्रयोग में आता था। कम वर्षा वाले क्षेत्र में सिंचाई के लिए कृषक को कृत्रिम साधनों का प्रयोग भी करना पड़ा। सिंचाई के कृत्रिम साधन निम्नलिखित थे

(i) रहट-यह रहट लकड़ी या लोहे के पहियों वाला था। स्रोतों में रहट के लिए प्रशियिन बहिल’ शब्द का प्रयोग किया गया है। बाबर ने अपनी आत्मकथा में भारत में सिंचाई प्रणाली व रहट के प्रयोग के बारे में विस्तार से जानकारी दी है।

(ii) जलाशयों से सिंचाई-कृषक कुछ स्थानों पर प्राकृतिक जलाशयों के साथ-साथ कृत्रिम जलाशय भी खोद लेते थे। इन जलाशयों में वर्षा का पानी एकत्रित हो जाता था जो एक सीमित क्षेत्र की सिंचाई करता था।

(iii) नहरों से सिंचाई-राज्य के द्वारा भी जोत क्षेत्र को बढ़ाने के लिए सिंचाई हेतु कुछ मदद की गई। उदाहरण के लिए शाहजहाँ ने पंजाब में शाह नहर का निर्माण करवाया। इसी तरह फिरोज शाह द्वारा जिस नहर का निर्माण करवाकर हिसार पानी लाया गया था उसकी अकबर व शाहजहाँ के काल में फिर से खुदाई करवाई गई।

प्रश्न 5.
मुगलकाल में कौन-कौन सी फसलें किस-किस क्षेत्र में उत्पादित होती थीं?
उत्तर:
मुगलकाल की मुख्य फसलें गेहूँ, चावल, जौ, ज्वार, कपास, बाजरा, तिलहन, ग्वार इत्यादि थीं। सामान्यतः कृषक खाद्यान्नों का ही उत्पादन करते थे। ये फसलें भौगोलिक स्थिति के अनुरूप उगाई जाती थीं। चावल मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में होता था जहाँ अधिक वर्षा होती थी। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जौ, ज्वार, बाजरा इत्यादि बोए जाते थे, जबकि गेहूँ लगभग भारत के प्रत्येक क्षेत्र में बोई जाती थी। फसलों के उत्पादन में सर्वाधिक महत्त्व मानसून पवनों का था। ‘आइन-ए-अकबरी’ में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादित होने वाली फसलों पर प्रकाश डाला गया है। उसके अनुसार आगरा व मालवा क्षेत्र में 39 फसलें तथा दिल्ली, लाहौर, मुलतान व गुजरात क्षेत्र में 43 फसलें प्रचलन में थीं।

मुगलकाल में कुछ फसलों के लिए जिन्स-ए-कामिल शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ उन फसलों से लगाया जाता है जिससे राज्य को कर अधिक मिलता था। गन्ना व कपास सबसे अच्छी फसल कही जाती थी। राज्य के द्वारा भी इन फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रयास किया जाता था। कपास मध्य भारत, दक्षिणी क्षेत्र, बंगाल, गुजरात एवं राजपूताना के क्षेत्रों में उगाई जाती थी। गन्ना पंजाब, दिल्ली, आगरा, बंगाल व अवध क्षेत्र में अधिक मिलता था। .

मुगलकाल में कुछ नई फसलें भी व्यापार के लिए उत्पादित की जाने लगी थीं। इन फसलों में पहला नाम रेशम का था। इस फसल का जीव (कीड़ा) चीन से लाया गया तथा यह बंगाल में बहुत अधिक प्रचलन में आई। इसी फसल के कारण बंगाल का रेशमी कपड़ा विश्वविख्यात हो गया। इस काल में नई दूसरी फसल तम्बाकू थी। यह फसल पुर्तगालियों द्वारा 17वीं सदी के प्रारंभ (1603) में अफ्रीकी क्षेत्र से लाई गई। इस काल में अन्य आने वाली फसलों में मक्का, जई, पटसन इत्यादि थीं। 17वीं शताब्दी में आने वाली फसलों में टमाटर, आलू व हरी मिर्च कही जा सकती हैं। भारत में ये नई फसलें व सब्जियाँ अफ्रीका, स्पेन व अरब क्षेत्र से आईं।

प्रश्न 6.
ग्राम पंचायत में निम्न वर्ग की स्थिति पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
ग्राम पंचायतों पर मुख्य रूप से उच्च वर्ग का प्रभुत्व था। वह वर्ग अपनी मनमर्जी के फैसले पंचायत के माध्यम से लागू करवाता था। सामान्य-तौर पर निम्न वर्ग के लोग पंचायत की इस तरह की कार्रवाई को झेल लेते थे। परन्तु स्रोतों में विशेषकर महाराष्ट्र व राजस्थान से प्राप्त दस्तावेजों में इस तरह के प्रमाण मिले हैं जिनमें निम्न वर्ग ने विरोध किया हो। इन दस्तावेज़ों में ऊँची जातियों व सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध जबरन कर वसूली या गार की शिकायत है। जिसके अनुसार निम्न वर्ग के लोग स्पष्ट करते हैं कि उनका शोषण किया जा रहा है तथा उन्हें उनसे न्याय की उम्मीद भी नहीं है। ये शिकायतें बड़े ज़मींदार तथा अधिकारियों के नाम लिखी गई हैं।

शिकायत के अनुसार पंचायत की बैठक होती थी। सबसे पहले पंचायत शिकायतकर्ता को समझाने का प्रयास करती थी। उसके विरोध करने की स्थिति में समझौता करवाने का प्रयास किया जाता। पंचायत के फैसले सभी स्थितियों में एक जैसे नहीं होते थे बल्कि व्यक्ति की जाति व सामाजिक हैसियत का ध्यान रखा जाता था। पंचायत के फैसले से यदि शिकायतकर्ता सन्तुष्ट नहीं होता था तो वह विरोध के कठोर रास्ते अपनाता था।

विरोध की शैली में वह विद्रोही हो जाता था या फिर गाँव छोड़कर भाग जाता था। खेतिहर का गाँव से भागना कृषक समुदाय के लिए नुकसानदायक था, क्योंकि इन्हीं मजदूरों के सहारे तो खेती सम्भव थी। इस काल में जमीन की कमी नहीं थी, बल्कि मेहनत करने वाले अर्थात् श्रम शक्ति की कमी थी। श्रम शक्ति कम होने का भय ग्राम के उच्च वर्ग को सताता था। इस तरह पंचायत इस बात का ध्यान रखती थी कि निम्न वर्ग के लोगों को विद्रोही न होना पड़े, इसके लिए विभिन्न तरह के दबाव प्रयोग में लाकर खेतिहरों पर अंकुश रखती थी।

प्रश्न 7.
मुग़लकाल में ग्रामीण दस्तकार से क्या आशय है? इनके कृषक वर्ग से संबंध कैसे होते थे?
उत्तर:
ग्रामीण दस्तकार से अभिप्राय उन लोगों से है जो गाँव में रहकर बुनाई, कताई, रंगरेजी, कपड़े की छपाई, मिट्टी के बर्तनों का बनाना, कृषि के उपकरणों का निर्माण करना, जूते एवं चमड़े की चीज़ों का निर्माण करते थे। 18वीं शताब्दी के दस्तावेज़ों से यह पुष्टि होती है कि ऐसे ग्रामीण दस्तकारों की संख्या काफी थी। औसत रूप में यह संख्या 25 से 30 प्रतिशत तक होती थी।

जैसा कि स्पष्ट है कि कृषक व गैर-कृषक समुदाय (ग्रामीण दस्तकार) ग्रामीण संरचना का अटूट हिस्सा था। इनके बीच में इस तरह के संबंध थे कि कई बार इनमें अन्तर करना कठिन होता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि कृषक समुदाय, फसल की कटाई, जुताई, बिजाई इत्यादि के कार्य स्वयं नहीं कर पाता था। वह इस कार्य के लिए इन दस्तकारों का सहयोग लेता था और ये दस्तकार भी कृषि के मुख्य काम के समय अपने सारे कार्य छोड़कर कृषि कार्य में जुट जाते थे।
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ग्रामीण दस्तकार अपनी सेवाएँ पूरे ग्रामीण समुदाय को देता था। इन दस्तकारों को सेवा के बदले नकद वेतन नहीं मिलता था, बल्कि कृषक फसल आने के बाद एक हिस्सा इन्हें दे देता था। कई बार दस्तकार को स्थायी तौर पर गाँव में बसाने के लिए उसे ज़मीन दे दी जाती थी। ज़मीन कितनी तथा किस तरह की शर्तों में दी जाएगी, यह फैसला गाँव की पंचायत करती थी।

महाराष्ट्र में दस्तकारों को पुश्तैनी तौर पर दी जाने वाली भूमि मीरास या (वतन) कहलाती थी। जब कोई दस्तकार इस तरह भूमि का मालिक बन जाता था, तो उसकी सामाजिक हैसियत भी बदल जाती थी। ग्रामीण समाज में दस्तकारों की सेवा-शर्तों का फैसला मुख्य रूप से पंचायत करती थी। कई बार दस्तकार, कृषक व खेतिहर मजदूर आपस में बैठकर फैसला कर लेते थे कि अदायगी कैसे तथा कब होगी।

प्रश्न 8.
ग्राम ‘एक छोटा गणराज्य’ था। इस आशय को स्पष्ट करें।
उत्तर:
भारतीय ग्राम व्यवस्था को पश्चिमी इतिहासकारों ने अलग-अलग ढंग से अध्ययन की विषय-वस्तु बनाया है। उन्होंने अपने अध्ययनों में गाँव के लिए ‘छोटा गणराज्य’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘छोटा गणराज्य’ कहने वाले लेखकों ने गाँव के बारे में कहा कि भारत में गाँव आत्मनिर्भर, बहुसंस्कृतीय, अपनी आवश्यकताओं की सभी चीज़ों का उत्पादन करने वाले थे। ये आन्तरिक प्रशासन के लिए किसी पर निर्भर नहीं थे। इस तरह उनका मानना है कि गाँव छोटी इकाई अवश्य है, लेकिन इनका अस्तित्व स्वतंत्र है।

प्राचीनकाल से ही ग्रामों की यह व्यवस्था चली आ रही थी। इन लेखकों का मानना है कि गाँव के लोग सामूहिक स्तर पर संसाधनों व श्रम का बँटवारा करते थे, जबकि सभी को मालूम था कि उनमें सामाजिक बराबरी नहीं है। इस समाज में कुछ ज़मीन के मालिक थे, जबकि कुछ दूसरों की कृषि पर सेवा देकर जीवन-यापन करते थे। जाति व सामाजिक चिन्तन (स्त्री-पुरुष) के आधार पर ग्राम में विषमताएँ थीं। गाँव में शक्तिशाली लोग साधनों पर भी नियंत्रण रखते थे, गाँव के फैसले करते थे तथा शोषण भी करते थे। फिर भी सामान्य तौर पर एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करते थे।

भारतीय ग्राम प्राचीनकाल से छोटे गणराज्य के रूप में कार्य कर रहे थे। मुगलकाल में इस व्यवस्था में थोड़ा-बहुत बदलाव आना शुरू हो गया था। इस काल में शहरीकरण का थोड़ा विकास हुआ जिसके चलते गाँव व शहर के बीच व्यापारिक रिश्ते बढ़े। इस कड़ी में वस्तु-विनिमय की बजाय नकद धन का अधिक प्रयोग होने लगा। इसी तरह मुग़ल शासकों ने भू-राजस्व की वसूली जिन्स के साथ-साथ नकदी में भी प्रारंभ की।

शासक की ओर से नकदी को अधिक महत्त्व दिया जाता था। इस काल में विदेशी व्यापार में भी वृद्धि हुई। विदेशों को निर्यात होने वाली चीजें गाँव में बनती थीं। इस व्यापार से नकद धन मिलता था। इस तरह धीरे-धीरे मजदूरी का भुगतान भी नकद किया जाने लगा। इस काल में खाद्यान्न फसलों के साथ-साथ नकदी फसलें भी उगाई जाने लगीं, जिसमें कृषक को पर्याप्त मात्रा में लाभ होता था। रेशम तथा नील मुगलकाल में अत्यधिक लाभ देने वाली फसलें मानी जाती थीं।

प्रश्न 9.
मुगलकालीन कृषि समाज में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
मुगलकालीन समाज में स्त्री व पुरुष दोनों के बीच श्रम विभाजन काफी हद तक नियोजित था। महिलाएँ पुरुषों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर कार्य किया करती थीं। इस व्यवस्था में पुरुष खेत जोतने व हल चलाने का कार्य करते थे, जबकि महिलाएँ निराई, कटाई व फसल से अनाज निकालने के कार्य में हाथ बँटाती थीं। फसल की कटाई व बिजाई के अवसर पर जहाँ श्रम शक्ति की आवश्यकता होती थी तो परिवार का प्रत्येक सदस्य उसमें शामिल होता था ऐसे में महिला कैसे पीछे रह सकती थी। सामान्य दिनचर्या में भी कृषक व खेतिहर मजदूर प्रातः जल्दी ही काम पर जाता था तो खाना, लस्सी व पानी इत्यादि को उसके पास पहुँचाना महिला के कार्य का हिस्सा माना जाता था। इसी तरह जब पुरुष खेत में होता था तो घर पर पशुओं की देखभाल का सारा कार्य महिलाएँ करती थीं।

मुगलकाल में दस्तकार महिलाएँ सूत कातने, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को साफ करने, भिगोने तथा गूंधने का कार्य करती थीं। वे कपड़े की बुनाई-कढ़ाई भी करती थीं। सामान्य तौर पर जब कृषि कार्य का अधिक दबाव नहीं होता था तो महिलाएँ कुछ-न-कुछ दस्तकारी के कार्य करती रहती थीं। इस काल में इनकी गैर-कृषि कार्यों में माँग लगातार बढ़ी थी।

जिन-जिन चीज़ों का वाणिज्यीकरण हो रहा था तथा लाभ के साथ जुड़ती जा रही थीं, उसी के अनुरूप महिलाओं की श्रम शक्ति की माँग भी बढ़ रही थी। इस माँग की पूर्ति के लिए अब महिलाएँ नियोक्ता के घर जाकर काम करने लग गई थीं। यहाँ तक कि बाजारों में भी ऐसी व्यवस्था होने लगी थी, जहाँ महिलाएँ सामूहिक तौर पर बैठकर कार्य करने लगी थीं। इस तरह से महिलाओं के लिए चारदीवारी के बंधन कुछ कमजोर होने लगे थे।

प्रश्न 10.
मुगलकाल में जमींदार कौन थे? उनकी प्रमुख श्रेणियों का वर्णन करो।
उत्तर:
मुगलकाल में जो व्यक्ति कृषि व्यवस्था का केंद्र था तथा भूमि का मालिक था, जमींदार कहलाता था। उसे ज़मीन के बारे में सारे अधिकार प्राप्त थे अर्थात् वह अपनी जमीन को बेच सकता था या किसी को हस्तांतरित कर सकता था। वह अपनी भूमि से कर एकत्रित करके राज्य को देता था। इस तरह यह वर्ग अपने से ऊपर तथा नीचे वाले दोनों वर्गों पर प्रभाव रखता था। ज़मींदार के सन्दर्भ में एक खास बात यह भी है कि वह खेती की कमाई खाता था, लेकिन स्वयं खेती नहीं करता था।

बल्कि वह अपने अधीन कृषकों व मजदूरों से कृषि करवाता था। . जमींदार अपने अधिकारों के कारण गाँव व क्षेत्र में सामाजिक तौर पर भी पहचान रखता था। उसकी यह स्थिति पैतृक थी तथा राज्य उसकी इस स्थिति में सामान्य-तौर पर बदलाव नहीं कर सकता था। मुगलकाल में ज़मींदार की तीन श्रेणियाँ थीं। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है

(i) प्रारंभिक ज़मींदार-ये ज़मींदार वो थे जो अपनी ज़मीन का राजस्व स्वयं कोष में जमा कराते थे। एक गाँव में प्रायः ऐसे ज़मींदार 4 या 5 ही हुआ करते थे।

(ii) मध्यस्थ ज़मींदार-ये ज़मींदार वो थे जो अपने आस-पास के क्षेत्रों के ज़मींदारों से कर वसूल करते थे तथा उसमें से कमीशन के रूप में एक हिस्सा अपने पास रखकर कोष में जमा कराते थे। ऐसे ज़मींदार या तो एक गाँव में एक या फिर दो या तीन गाँवों का एक होता था।

(iii) स्वायत्त मुखिया ये ज़मींदार बहुत बड़े क्षेत्र के मालिक होते थे। कई बार इनके पास 200 या इससे अधिक गाँव भी होते थे। इनकी पहचान स्थानीय राजा की तरह होती थी। सरकारी तन्त्र भी उनके प्रभाव में होता था। इनके क्षेत्र में कर एकत्रित करने में सरकार के अधिकारी भी सहयोग देते थे। ये बहुत साधन सम्पन्न होते थे।

प्रश्न 11.
मुगलकाल में ज़मींदारी कैसे-कैसे प्राप्त की जाती थी? इस बारे में किन्हीं पाँच पहलुओं पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
मुगलकाल में कोई व्यक्ति ज़मींदार कैसे बनता था एवं किस तरह से शक्तियाँ हासिल करता था, इस बारे में साक्ष्य प्रकाश डालते हैं। इनमें से कुछ का वर्णन इस प्रकार है

(i) ज़मींदारी प्राप्त करने का पहला कारण पैतृक माना जाता है, जिसके अनुसार वंशीय व जातीय आधार पर जिन लोगों को यह अधिकार था वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता था। अबुल-फल इस बारे में स्पष्ट करता है कि ब्राह्मण, राजपूत व अन्य उच्च जातियों की यह स्थिति थी। कुछ मुस्लिम ज़मींदार भी इस श्रेणी में आ गए थे।

(ii) पश्चिमी भारत के कुछ दस्तावेज युद्ध में जीत कर इसकी उत्पत्ति से जोड़ते हैं। इनके अनुसार शक्तिशाली वर्ग युद्ध जीतकर क्षेत्र पर कब्जा कर लेता था तथा कमजोर लोगों को वहाँ से बेदखल कर देता था। उसके बाद अपनी ताकत के सहारे ये लोग राज्य से मिल्कियत का प्रमाण-पत्र भी ले लेते थे।

(iii) कुछ लोगों ने अपने सहयोगियों से मिलकर जंगलों की सफाई कर अपनी बस्तियाँ बसाईं तथा धीरे-धीरे इनका विस्तार कर लिया। इस तरह इन्हें ज़मींदारी अधिकार मिल गए। ये ज़मींदार प्रायः छोटे रहे।

(iv) कुछ जातियों व परिवारों ने स्वयं को संगठित कर ऐसी राजनीति बनाई कि बड़े भू-क्षेत्र पर उनका कब्जा हो। उसके बाद राज्य को सहयोग देकर उन क्षेत्रों से कर एकत्रित करने का अधिकार ले लिया। इसके बाद अपने-अपने क्षेत्र में जमींदारियाँ स्थापित करने में कामयाब रहे। उत्तर भारत में कुछ राजपूत व जाट परिवार तथा बंगाल में किसान पशुचारी वर्ग से सदगोप जैसी जातियों के लोगों ने ऐसा ही किया।

(v) इनके अतिरिक्त कुछ लोगों ने शाही सेवा करके, व्यापार इत्यादि में लाभ कमाकर ज़मीन खरीदकर, अन्य व्यक्ति से हस्तांतरण करवाकर भी जमींदारियाँ लीं। किसी-किसी व्यक्ति को राज्य द्वारा उसकी सैनिक व असैनिक सेवा से प्रभावित होकर उन्हें जमींदारियाँ दीं। आर्थिक स्थिति के अच्छा होने से कुछ सामान्य वर्ग की जातियों के लोगों द्वारा भी जमींदारियाँ खरीदी गईं।

प्रश्न 12.
मुगलकाल में अकबर ने किस तरह की भू-राजस्व व्यवस्था को महत्त्व दिया? उसने भूमि को किस तरह विभाजित करवाया?
उत्तर:
मुगलकाल में राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भू-राजस्व था। मुगल शासक अकबर को विरासत में आर्थिक दृष्टि से कमजोर राज्य मिला था। उसने अपने राज्य की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए एक प्रशासन तंत्र को खड़ा किया। इस कार्य में उसे टोडरमल जैसा दीवान मिला। उसने जिस तरह से कार्य किए उससे राज्य आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हो गया। तत्कालीन साक्ष्यों में इस व्यवस्था को टोडरमल का बन्दोबस्त बताया है।

अकबर के निर्देशानुसार उसके दीवान टोडरमल ने प्राप्त सूचनाओं का अध्ययन कर विशेषज्ञों की राय ली। फिर उसने यह फैसला किया कि सरकार को पता चले कि उसके साम्राज्य में जोत क्षेत्र कितना है। इसके लिए सारे साम्राज्य की ज़मीन की नपाई की गई। (इसमें काफी जंगली क्षेत्र व पहाड़ी क्षेत्र नहीं आ पाया।) इस नपाई के आधार पर साम्राज्य को 182 परगनों में बाँटा गया। प्रत्येक परगने की आय लगभग एक करोड़ रुपए थी।

जमीन की नपाई के बाद यह सोचा गया कि कर का निर्धारण कैसे हो? इसके लिए दीवान ने कर एकत्रित करने वाले अधिकारी अमील-गुजार को स्पष्ट किया कि राज्य नकद वसूली को महत्त्व देता है। परन्तु यह कृषक की मर्जी पर है कि वह जिन्स (फसल) के रूप में भुगतान करता है तो भी उसे कष्ट नहीं होना चाहिए। इसके बाद कर निर्धारण सभी क्षेत्रों व कृषकों से एक समान नहीं किया गया बल्कि यह भूमि के उपजाऊपन के आधार पर था। उपजाऊपन के आधार पर भूमि को चार हिस्सों में विभाजित किया।

  • पोलज-कृषक की सबसे उपजाऊ भूमि को पोलज कहा गया। इस ज़मीन पर वर्ष में नियमित फसल होती थी। इस पर सिंचाई व्यवस्था भी ठीक थी।
  • परौती-यह वह ज़मीन थी जो एक फसल के बाद कुछ दिनों के लिए खाली छोड़ दी जाती थी अर्थात् यह ज़मीन वर्ष में केवल एक फसल देती थी।
  • चचर (छाछर)-यह ज़मीन 2 से 4 वर्षों में एक फसल अच्छी देती थी। प्रायः जब काफी बरसात होती थी तब इसमें फसल ठीक होती थी।
  • बंजर-इस ज़मीन पर कभी-कभार फसल होती थी। कई बार पाँच वर्ष तक जोत में नहीं आती थी। यह ज़मीन रेतीली, उबड़-खाबड़ तथा चरागाह क्षेत्र वाली थी।

ज़मीन के इस बँटवारे के बाद पहली दोनों किस्म की ज़मीन को फिर तीन भागों में बाँटा जाता था जिसे उत्तम, मध्यम व खराब का नाम दिया जाता था।

प्रश्न 13.
मुगलकाल में कर एकत्रित करने की प्रमुख विधियाँ कौन-सी थीं? वर्णन करें।
उत्तर:
अकबर के काल में भूमि की नपाई व बँटवारे के बाद टोडरमल ने कर एकत्रित करने की ओर ध्यान दिया। सबसे पहले उसने जमा व हासिल के बीच अन्तर के कारणों को समझा, फिर उसके समाधान के लिए कदम उठाए ताकि निर्धारित व वसूल किए. गए कर के बीच का अन्तर समाप्त हो। मुगलकाल में कर एकत्रित करने के लिए तीन प्रणालियाँ अपनाई गईं

(i) जन्ती प्रणाली-मुगलकाल में सर्वाधिक प्रचलन इस प्रणाली का रहा। यह प्रणाली पंजाब, दिल्ली, आगरा, इलाहाबाद, मालवा, अजमेर, अवध व मुलतान क्षेत्र में अपनाई गई। इस प्रणाली के अनुसार सरकार कृषक से आगामी 5 से 10 वर्ष का समझौता कर लेती थी कि वह आगामी इन दिनों में प्रतिवर्ष इतना कर देता रहेगा। इसके लिए कृषक का पिछले 5 वर्ष का रिकार्ड देखा जाता था। इस नीति से सरकार की आय आगामी कुछ वर्षों के लिए निश्चित हो जाती थी।

(ii) गल्ला बख्शी-कर एकत्रित करने की यह प्रणाली सिंध, कश्मीर, काबुल व गुजरात में अपनाई गई। यह थोड़ी-सी कठिन थी, लेकिन फिर भी इसे अपनाया जाता था। इस प्रणाली के अनुसार कृषक फसल के रोपने के बाद पटवारी को सूचना देता था कि उसने अपने खेत में यह फसल बोई है। सूचना प्राप्ति के महीने तक पटवारी अन्न संबंधित अधिकारियों को लेकर खेत में जाता था तथा खड़ी फसल की स्थिति को देखकर अनुमान लगाता था कि प्रति एकड़ कितनी फसल हो जाएगी। उसी आधार पर कृषक से समझौता किया जाता था।

(iii) कनकूत (नसक) कर एकत्रित करने की यह प्रणाली सबसे अधिक जोखिम वाली थी तथा फसल कटाई के समय अपनाई जाती थी। इसमें एक तो कृषक द्वारा सूचना न देने का भय रहता था। दूसरा फसल पूरे क्षेत्र में एक साथ कटती थी। इससे कई बार अधिकारी मौके पर पहुँच नहीं पाते थे। इस बारे में अलग-अलग साक्ष्य अलग-अलग ढंग से जानकारी देते हैं। परन्तु इन सब में यह स्पष्ट है कि यह मुख्य रूप से फसल कटने पर ली जाती थी। मौके पर सरकारी अधिकारी अपना हिस्सा ले जाते थे और किसान अपना।

प्रश्न 14.
16वीं व 17वीं शताब्दी में व्यापार संबंधी परिवर्तन पर नोट लिखो।
उत्तर:
16वीं व 17वीं शताब्दी में एशिया व यूरोप, दोनों में हो रहे आर्थिक परिवर्तनों से भारत को काफी लाभ हो रहा था। जल व स्थल मार्ग के व्यापार से भारत की चीजें पहले से अधिक दुनिया में फैली तथा नई-नई वस्तुओं का व्यापार भी प्रारंभ हुआ। इस व्यापार की खास बात यह थी कि भारत से विदेशों को जाने वाली मदों में उपयोग की चीजें थीं तथा बदले में भारत में चाँदी आ रही थी। भारत में चाँदी की प्राकृतिक दृष्टि से कोई खान नहीं थी। उसके बाद भी विश्व की चाँदी का बड़ा हिस्सा भारत में ‘एकत्रित हो रहा था। चाँदी के साथ-साथ व्यापार विनिमय से भारत में सोना भी आ रहा था।

भारत में विश्व-भर से सोना-चाँदी आने के कारण मुगल साम्राज्य समृद्ध हुआ। इसके चलते हुए अर्थव्यवस्था में कई तरह के बदलाव आए। मुग़ल शासकों के द्वारा शुद्ध चाँदी की मुद्रा का प्रचलन किया गया। सूरत इस काल में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के बहुत बड़े (यूरोपीय यात्रियों के अनुसार सबसे बड़े) केन्द्र के रूप में उभरा। बाह्य व्यापार में मुद्रा के प्रचलन का प्रभाव आन्तरिक व्यापार पर भी पड़ा। इसमें भी अब वस्तु-विनिमय के स्थान पर मुद्रा विनिमय अधिक प्रचलन में आने लगी। शहरों में बाजार बड़े आकार के होने लगे। गाँवों से बिकने के लिए फसलें व अन्य उत्पादन शहर में आने लगा तथा इसी तरह शहर की चीजें गाँवों में जाने लगीं।

इससे गाँव व शहर के बीच अन्तर ही कम नहीं हुआ, बल्कि मुद्रा का विस्तार भी तेजी से हुआ। इसी कारण राज्य द्वारा भी कर एकत्रित करने के लिए जिन्स की तुलना में मुद्रा (नकद) को महत्त्व दिया जाने लगा। इस मुद्रा के प्रसार ने, मजदूरों को भी नकद मजदूरी देने की स्थितियाँ दीं। इन सारी स्थितियों में अर्थव्यवस्था को स्थिरता मिली। इसके कारण कृषक वर्ग ने भी खाद्यान्न फसलों के साथ-साथ नकदी फसलों का उत्पादन करना शुरू किया। इससे कृषक भी समृद्ध हुए जिनके कारण गाँव की स्थिति में भी बदलाव आना प्रारंभ हुआ।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मुगलकालीन समाज में ग्राम पंचायतों के कार्यों का वर्णन करो।
उत्तर:
ग्रामीण समुदाय में एक अति महत्त्वपूर्ण पंचायत व्यवस्था थी। गाँव की सारी व्यवस्था, आपसी संबंध तथा स्थानीय प्रशासन का संचालन पंचायत द्वारा ही किया जाता था। ग्राम पंचायत में मुख्य रूप से गाँव के सम्मानित बुजुर्ग होते थे। इन बुजुर्गों में भी उनको महत्त्व दिया जाता था जिनके पास पुश्तैनी ज़मीन या सम्पत्ति होती थी। प्रायः गाँव में कई जातियाँ होती थी इसलिए पंचायत में भी इन विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि होते थे।

परन्तु इसमें विशेष बात यह है कि साधन सम्पन्न व उच्च जातियों को ही पंचायत में महत्त्व दिया जाता था। खेती पर आश्रित भूमिहीन वर्ग को पंचायत में शामिल अवश्य किया जाता था, लेकिन उन्हें महत्त्व नहीं दिया जाता था। हाँ, इतना अवश्य है कि पंचायत में लिए गए फैसले को मानना सभी के लिए जरूरी था। प्रायः सामान्य दर्जे के काम करने वालों को पंचायत में निर्णय के लिए नहीं बुलाया जाता था, बल्कि फैसले की जानकारी देने व उसे लागू करने के लिए ही बुलाया जाता था।

गाँव की पंचायत मुखिया के नेतृत्व में कार्य करती थी। इसे मुख्य रूप से मुकद्दम या मंडल कहते थे। मुकद्दम या मंडल का चुनाव पंचायत द्वारा किया जाता था। इसके लिए गाँव के पंचायती बुजुर्ग बैठकर किसी एक व्यक्ति के नाम पर सहमत हो जाते थे। मुखिया के कार्यों में पटवारी मदद करता था। गाँव की आमदनी, खर्च व अन्य विकास कार्यों को करवाने की जिम्मेदारी उसकी होती थी। गाँव की जातीय व्यवस्था तथा सामाजिक बंधनों को लागू करने में वह अधिक समय लगाता था।

पंचायत के कार्य-ग्राम पंचायत को गाँव के विकास तथा व्यवस्था की देख-रेख में कार्य करने होते थे। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है

(a) गाँव की आय व खर्च का नियंत्रण पंचायत करती थी। गाँव का अपना एक खजाना होता था जिसमें गाँव के प्रत्येक परिवार का हिस्सा होता था। इस खजाने से पंचायत गाँव में विकास कार्य कराती थी। इसके साथ-साथ पंचायत उन मुख्य अधिकारियों की सेवा (खातिरदारी) पर खर्च करती थी जो गाँव के दौरे पर आते थे।

(b) गाँव में प्राकृतिक आपदाओं विशेषकर बाढ़ व अकाल की स्थिति में भी पंचायत विशेष कदम उठाती थी। इसके लिए वह अपने कोष का प्रयोग तो करती ही थी साथ में सरकार से तकावी (विशेष आर्थिक सहायता) के लिए भी कार्य करती थी।

(c) गाँव के सामुदायिक कार्य जिन्हें कोई एक व्यक्ति या कृषक नहीं कर सकता था तो वह कार्य पंचायत द्वारा किए जाते थे। इनमें छोटे-छोटे बाँध बनाना, नहरों व तालाबों की खुदाई करवाना, गाँव के चारों ओर मिट्टी की बाड़ बनवाना तथा सुरक्षा के लिए कार्य करना इत्यादि प्रमुख थे।

(d) गाँव की सामाजिक संरचना विशेषकर जाति व्यवस्था के बंधनों को लागू करवाना भी पंचायत का मुख्य काम था। पंचायत किसी व्यक्ति को जाति की हदों को पार करने की आज्ञा नहीं देती थी। पंचायत शादी के मामले व व्यवसाय के मामले में इन बंधनों को कठोरता से लागू करती थी।
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(e) गाँव में न्याय करना पंचायत का अति महत्त्वपूर्ण कार्य था। गाँव में हर प्रकार के झगड़े व सम्पत्ति-विवाद का समाधान पंचायत करती थी। पंचायत दोषी व्यक्ति को कठोर दण्ड दे सकती थी, जिसमें व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार तक होता था। किसी व्यक्ति को एक सीमित समय (विशेष अवस्था में असीमित भी) के लिए गाँव से बाहर निकाल दिया जाता था। संबंधित व्यक्ति को निर्धारित समय अवधि में गाँव को छोड़ना पड़ता था। इस दण्ड के कारण वह मात्र गाँव में अपमानित नहीं होता था बल्कि उसे जातीय पेशे को भी त्यागना पड़ता था।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

प्रश्न 2.
मुगलकाल में जंगलवासियों का जीवन कैसा था? उसमें किस तरह के परिवर्तन आ रहे थे?
उत्तर:
मुगलकाल में भारत का विशाल भू-क्षेत्र जंगलों से सटा था तथा यहाँ के लोग आदिवासी थे, जो कबीलों की जिन्दगी जीते थे। तत्कालीन स्रोतों व रचनाओं में इन आदिवासियों के लिए ‘जंगली’ शब्द का प्रयोग किया गया है। मुगलकालीन स्रोतों व साहित्य में यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग किया जाता था, जो जंगलों में प्राकृतिक जीवन-शैली के अनुरूप रह रहे थे। जंगलों के उत्पादों, शिकार व स्थानांतरित कृषि के सहारे वे लोग अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। उनके कार्य मौसम (जलवायु) के अनुकूल होते थे अर्थात् उन्हें प्रकृति जो उपलब्ध कराती थी, उसे ही ये स्वीकार कर लेते थे। उदाहरण के लिए हम मध्य भारत में रहने वाले भीलों की बात कर सकते हैं।

ये लोग मानसून के दिनों में खेती करते, बसंत के दिनों में जंगल के उत्पाद एकत्रित करते, गर्मियों में मछलियों को पकड़ते तथा सर्दियों के दिनों में शिकार करते थे। ये अपनी इस तरह की गतिविधियाँ सैकड़ों सालों से जंगलों से घूमते-फिरते करते आ रहे थे। सरकार व राज्य का जंगलों व आदिवासियों के बारे में विचार अच्छा नहीं था, क्योंकि राज्य मानता था कि जंगल में राज्य विरोधी व अराजकता वाली गतिविधियाँ चलती थीं। राज्य कभी भी जंगली जीवन जीने वालों को नियंत्रित नहीं कर पाया।
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मुगलकाल में जंगल की व्यवस्था व जीवन-शैली में तेजी से बदलाव आया। विभिन्न तरह के व्यापारियों, सरकारी अधिकारियों एवं स्वयं शासक भी विभिन्न अवसरों पर जंगलों में जाया करते थे। इस तरह अब जंगल का जीवन पहले की तरह स्वतंत्र व शान्त नहीं रहा, बल्कि समाज के आर्थिक व सामाजिक परिवर्तनों से प्रभावित होने लगा। 16वीं व 17वीं सदी में राज्यों की विस्तारवादी नीति से भी जंगली जनजातियों का जीवन प्रभावित हुआ। वे कबीले शिकार बने जिसके दोनों ओर शक्तिशाली राज्य थे। आइन-ए-अकबरी में स्पष्ट किया गया है कि विभिन्न स्थानीय राजाओं का जोत क्षेत्र बढ़ा। इसका कारण साफ था कि अकबर के शासन काल में राजनीतिक दृष्टि से शान्ति स्थापित हुई तथा राज्य स्थायी भी हुआ। इस बात का लाभ क्षेत्रीय शक्तियों ने उठाकर विभिन्न जंगली क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया।

जंगल के क्षेत्र में सांस्कृतिक गतिविधियों में तेजी आई। जिस तरह से सूफी सन्तों व फकीरों की कार्य प्रणाली से कृषक समुदाय प्रभावित हुआ वैसे ही जंगलवासी भी प्रभावित हुए। इस तरह इस्लाम धीरे-धीरे इन क्षेत्रों में भी फैलने लगा। इस्लाम अपनाने के बाद इन लोगों की परंपराएँ इत्यादि भी बदलीं। इस तरह जंगलवासियों के जीवन व व्यवस्था में काफी बदलाव आया। इस काल में जंगलवासियों की दूरियाँ गाँव व नगरों से कम हुई वहीं राज्य के साथ भी संबंधों में बदलाव आया।

प्रश्न 3.
मुग़ल काल की उत्पादन प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर:
सामान्य तौर पर किसी भी काल का अध्ययन करते समय पुरुषों का वर्णन मिलता है। महिलाओं के बारे में जानकारी बहुत सीमित होती है। विभिन्न स्रोतों से इस बात का पता चलता है कि मुगल काल की उत्पादन प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। कृषक, खेतिहर या दस्तकारों के परिवारों की महिलाएँ विभिन्न कामों में अपनी सेवाएँ देती थीं।

1. कृषि में भूमिका-मुगलकालीन समाज में स्त्री व पुरुष दोनों के बीच श्रम विभाजन काफी हद तक नियोजित था। महिलाएँ पुरुषों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर कार्य किया करती थीं। कार्य विभाजन की कड़ी में सामाजिक तौर पर यह माना जाता था कि पुरुष बाहर के कार्य करेंगे तथा महिलाएँ चारदीवारी के अन्दर। यहाँ विभिन्न स्रोतों में महिलाएँ कृषि उत्पादन व विशेष कार्य अवसरों पर साथ-साथ चलती हुई प्रतीत होती हैं। इस व्यवस्था में पुरुष खेत जोतने व हल चलाने का कार्य करते थे, जबकि महिलाएँ निराई, कटाई व फसल से अनाज निकालने के कार्य में हाथ बँटाती थीं।

फसल की कटाई व बिजाई के अवसर पर जहाँ श्रम शक्ति की आवश्यकता होती थी तो परिवार का प्रत्येक सदस्य उसमें शामिल होता था ऐसे में महिला कैसे पीछे रह सकती थी। सामान्य दिनचर्या में भी कृषक व खेतिहर मजदूर प्रातः जल्दी ही काम पर जाता था तो खाना, लस्सी व पानी इत्यादि को उसके पास पहुँचाना महिला के कार्य का हिस्सा माना जाता था। इसी तरह जब पुरुष खेत में होता था तो घर पर पशुओं की देखभाल का सारा कार्य महिलाएँ करती थीं। अतः स्पष्ट है कि कृषि उत्पादन में महिला की भागीदारी काफी महत्त्वपूर्ण थी।

जहाँ महिलाएँ कृषि उत्पादन में बराबर की हिस्सेदारी लेती थीं, वहीं समाज के लोगों के मन में कुछ पूर्वाग्रह देखे जा सकते हैं। जैसे राजस्थान व गुजरात से प्राप्त स्रोतों से पता चलता है कि रजस्वला (मासिक धम) की स्थिति में महिलाओं को हल या कुम्हार का चाक छूने नहीं दिया जाता था। इसी तरह वे बंगाल में इन्हीं दिनों में पान के बागान में नहीं जा सकती थीं। समाज की इस बारे में धारणा का यह पक्ष हो सकता है कि इस तरह के प्रतिबन्ध के कारण महिला को उन दिनों में अधिक कार्य नहीं करना पड़ता होगा। इसलिए उन पर सामाजिक व धार्मिक बंधन लगा दिए गए।

2. दस्तकार महिलाएँ दस्तकार महिलाएँ सूत कातने, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को साफ करने, भिगोने तथा गूंधने का कार्य करती थीं। वे कपड़े की बुनाई-कढ़ाई भी करती थीं। सामान्य तौर पर जब कृषि कार्य का अधिक दबाव नहीं होता था तो महिलाएँ कुछ-न-कुछ दस्तकारी के कार्य करती रहती थीं। मुग़ल काल में इनकी गैर-कृषि कार्यों में माँग लगातार बढ़ी थी। जिन-जिन चीज़ों का वाणिज्यीकरण हो रहा था तथा लाभ के साथ जुड़ती जा रही थीं, उसी के अनुरूप महिलाओं की श्रम शक्ति की माँग भी बढ़ रही थी।

इस माँग की पूर्ति के लिए अब महिलाएँ नियोक्ता के घर जाकर काम करने लग गई थीं। यहाँ तक कि बाजारों में भी ऐसी व्यवस्था होने लगी थी, जहाँ महिलाएँ सामूहिक तौर पर बैठकर कार्य करने लगी थीं। इस तरह से महिलाओं के लिए चारदीवारी के बंधन कुछ कमजोर होने लगे थे।

3. परिवार की श्रम शक्ति की वृद्धि-मुग़ल काल में मानव की श्रम शक्ति का बहुत अधिक महत्त्व था। ऐसे में महिलाओं का महत्त्व और अधिक बढ़ गया था क्योंकि उसमें परिवार वृद्धि की क्षमता थी। इसी कारण इस समाज में लोग उसे वंश-वृद्धि (श्रम वृद्धि) के संसाधन के तौर पर देखते थे। दूसरी ओर, बार-बार बच्चों को जन्म देने व कुपोषण के कारण महिलाओं की मृत्यु-दर काफी अधिक थी।

इस मृत्यु के कारण महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में कम थी। इस कम संख्या के कारण कृषक व दस्तकारी जातियों में तलाकशुदा महिलाओं व विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त था। जबकि साधन-सम्पन्न परिवारों में इस तरह की प्रथा नहीं के बराबर थी। उनमें तो सती प्रथा का प्रचलन काफी अधिक था।

इससे पता चलता है कि साधन-सम्पन्न परिवारों की तुलना में सामान्य वर्ग की महिलाएँ उत्पादन प्रक्रिया में अधिक हिस्सा लेती थीं। इसलिए उनका महत्त्व भी अधिक था। यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि तात्कालिक स्रोतों में दहेज का वर्णन कम है जबकि ‘दुल्हन की कीमत’ का वर्णन अधिक है, अर्थात् वर पक्ष द्वारा शादी करने के लिए खर्च करना एक सामान्य बात थी।

इस तरह महिला का महत्त्व परिवार की श्रम शक्ति में वृद्धि के लिए काफी माना जाता था। इस महत्त्व के कारण परिवार में महिला पर नियंत्रण रखना जरूरी समझा जाता था। यह समाज भी वर्तमान की भाँति पुरुष प्रधान समाज था। इसलिए सामाजिक तौर पर परिवार व समुदाय द्वारा महिला पर प्रतिबन्ध लगाए जाते थे। चारित्रिक दृष्टि से मात्र शक के आधार पर ही उन्हें भारी दण्डों का सामना करना पड़ता था।

4. महिलाओं द्वारा अधिकार माँगना-पश्चिमी भारत विशेषकर राजस्थान, गुजरात व महाराष्ट्र से इस तरह के स्रोत मिले हैं जिनमें महिलाओं ने अन्याय व शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई। महिलाओं ने ग्राम पंचायत के पास प्रार्थना-पत्र भेजकर उससे न्याय व मुआवजे की माँग की है। महिलाओं द्वारा अपने पतियों की बेवफाई का विरोध भी किया गया है। इस तरह की शिकायतों में वे स्पष्ट करती हैं कि पति उनका व बच्चों का ध्यान नहीं रखता है और न ही उन्हें भरण-पोषण की चीजें उपलब्ध कराता है।

महिलाओं के प्रार्थना-पत्रों पर उनके नाम अंकित नहीं मिलते बल्कि वे अपना हवाला परिवार के मुखिया की माँ, पत्नी व बहन के रूप में देती हैं। पंचायत फैसले देते समय उनका कितना पक्ष लेती थी यह विभिन्न स्थितियों में अलग-अलग था। सामान्य तौर पर पुरुषों को पंचायतें दण्ड नहीं देती थीं। हाँ, इस बात का दबाव जरूर डालती थी कि वे परिवार की देखभाल की सही जिम्मेदारी निभाए।

5. महिला : भू-स्वामिनी के रूप में मुग़ल काल में विभिन्न स्रोतों से यह स्पष्ट है कि यह समाज पुरुष प्रधान था। वहीं कुछ साक्ष्य विशेषकर पंजाब से ऐसे भी मिले है जिनमें महिला को ज़मीन व पुश्तैनी सम्पत्ति का मालिक बताया गया है। इन स्रोतों से स्पष्ट है कि महिलाएँ अपनी सम्पत्ति व ज़मीन के क्रय-विक्रय में अपनी भूमिका निभाती थीं व सक्रिय हिस्सेदारी रखती थीं। कुछ परिवारों (हिन्दू व मुस्लिम) में ज़मींदारी उत्तराधिकार में मिलती थी।

वे पूरी सक्रियता के साथ अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करती थीं। उस जमींदारी में वे कृषकों, खेतिहरों व कर एकत्रित करने वाले कारिन्दों को दिशा-निर्देश देती थीं। ऐसे मामलों में वे पंचायत के फैसलों में हिस्सा लेने को छोड़कर हर तरह के कार्य करती थीं। बंगाल के कुछ साक्ष्य भी महिलाओं के कुछ स्थानों पर ज़मींदार होने की पुष्टि करते हैं। 18वीं सदी के राज्यों में भी सबसे बड़ी व मशहूर जमींदारियों का वर्णन है। उनमें भी राज-परिवार की एक महिला को सर्वप्रमुख बताया गया है।

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HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 10 परिवहन तथा संचार

Haryana State Board HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 10 परिवहन तथा संचार Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Geography Important Questions Chapter 10 परिवहन तथा संचार

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

A. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर को चुनिए

1. उत्तर-दक्षिण गलियारा श्रीनगर को दक्षिण के किस शहर से जोड़ता है?
(A) कन्याकुमारी
(B) तूतीकोरिन
(C) तिरुवनन्तपुरम
(D) चेन्नई
उत्तर:
(A) कन्याकुमारी

2. स्वर्णिम चतुर्भुज महामार्ग में लेनों की संख्या कितनी है?
(A) 4
(B) 6
(C) 8
(D) 12
उत्तर:
(B) 6

3. राज्यों की राजधानियों को जिला मुख्यालयों से जोड़ने वाली सड़कों को कहते हैं-
(A) स्वर्णिम चतुर्भुज महा राजमार्ग
(B) राष्ट्रीय राजमार्ग
(C) राज्य राजमार्ग
(D) जिला मार्ग
उत्तर:
(C) राज्य राजमार्ग

4. सीमा सड़क संगठन का निर्माण कब हुआ था?
(A) सन् 1950 में
(B) सन् 1952 में
(C) सन 1960 में
(D) सन् 1966 में
उत्तर:
(C) सन 1960 में

HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 10 परिवहन तथा संचार

5. स्वर्णिम चतुर्भुज महा राजमार्गों का निर्माण और रख-रखाव कौन करता है?
(A) राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI)
(B) केंद्रीय लोकनिर्माण विभाग (CPWD)
(C) सीमा सड़क संगठन (BRO)
(D) लोक निर्माण विभाग (PWD)
उत्तर:
(A) राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI)

6. जहाँ से यातायात प्रारंभ हो, कहलाता है-
(A) उद्गम
(B) गंतव्य
(C) मार्ग
(D) वाहक
उत्तर:
(A) उद्गम

7. वह बिंदु जहाँ पर यातायात समाप्त होता है, कहलाता है
(A) उद्गम
(B) गंतव्य
(C) मार्ग
(D) वाहक
उत्तर:
(B) गंतव्य

8. वह वाहन जो यात्रियों और सामान को ढोता है, कहलाता है-
(A) मार्ग
(B) वाहक
(C) उद्गम
(D) गंतव्य
उत्तर:
(B) वाहक

9. अमृतसर से दिल्ली तक राष्ट्रीय महामार्ग है-
(A) NH-1
(B) NH-3
(C) NH-4
(D) NH-5
उत्तर:
(A) NH-1

10. दिल्ली से मुंबई तक राष्ट्रीय महामार्ग है-
(A) NH-1
(B) NH-3
(C) NH-8
(D) NH-15
उत्तर:
(C) NH-8

HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 10 परिवहन तथा संचार

11. ग्रांड ट्रंक रोड (GT. Road) कहा जाता है-
(A) NH-1
(B) NH-2
(C) NH-3
(D) NH4
उत्तर:
(A) NH-1

12. दिल्ली से कोलकाता तक राष्ट्रीय महामार्ग है-
(A) NH-1
(B) NH-2
(C) NH-3
(D) NH-4
उत्तर:
(B) NH-2

13. भारतीय सुदूर संवेदन (IRS) का प्रारंभ कब हुआ?
(A) सन् 1975 में
(B) सन् 1983 में
(C) सन् 1988 में
(D) सन् 1992 में
उत्तर:
(C) NH-7

14. राष्ट्रीय महामार्ग कहाँ-से-कहाँ तक है?
(A) दिल्ली से अमृतसर तक
(B) वाराणसी से कन्याकुमारी तक
(C) दिल्ली से मुंबई तक
(D) दिल्ली से कोलकाता तक
उत्तर:
(B) वाराणसी से कन्याकुमारी तक

15. कोंकण रेलवे का निर्माण कब हुआ?
(A) सन् 1990 में
(B) सन् 1998 में
(C) सन् 1994 में
(D) सन् 1992 में
उत्तर:
(B) सन् 1998 में

16. भारत में वायु परिवहन सेवा की शुरुआत कब हुई?
(A) सन् 1960 में
(B) सन् 1950 में
(C) सन् 1911 में
(D) सन् 1907 में
उत्तर:
(C) सन् 1911 में

17. भारत में पहली रेलगाड़ी कब चलाई गई?
(A) 16 अप्रैल, 1853 को
(B) 20 अप्रैल, 1855 को
(C) 22 अप्रैल, 1872 को
(D) 25 अप्रैल, 1875 को
उत्तर:
(A) 16 अप्रैल, 1853 को

18. ब्रॉड गेज में रेल की पटरियों के बीच कितनी दूरी होती है?
(A) 1.616 मीटर
(B) 1 मीटर
(C) 0.762 मीटर
(D) 0.610 मीटर
उत्तर:
(A) 1.616 मीटर

19. मीटर गेज में रेल की पटरियों के बीच कितनी दूरी होती है?
(A) 0.610 मीटर
(B) 0.762 मीटर
(C) 1 मीटर
(D) 1.676 मीटर
उत्तर:
(C) 1 मीटर

20. नैरो गेज में रेल की पटरियों के बीच कितनी दूरी होती है?
(A) 1.676 मीटर
(B) 1 मीटर
(C) 0.762 मीटर
(D) 0.532 मीटर
उत्तर:
(C) 0.762 मीटर

21. बीस वर्षीय सड़क योजना कब आरंभ की गई?
(A) सन् 1961 में
(B) सन् 1965 में
(C) सन् 1972 में
(D) सन् 1977 में
उत्तर:
(A) सन् 1961 में

22. भारत में राष्ट्रीय जलमार्गों के विकास और रख-रखाव के लिए भारतीय आंतरिक जलमार्ग प्राधिकरण का गठन किया गया-
(A) सन् 1956 में
(B) सन् 1972 में
(C) सन् 1986 में
(D) सन् 1995 में
उत्तर:
(C) सन् 1986 में

HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 10 परिवहन तथा संचार

23. भारत की तटरेखा की लंबाई है-
(A) लगभग 7516 कि०मी०
(B) लगभग 8234 कि०मी०
(C) लगभग 9005 कि०मी०
(D) लगभग 9500 कि०मी०
उत्तर:
(A) लगभग 7516 कि०मी०

24. भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह (INSAT) की स्थापना कब की गई?
(A) सन् 1975 में
(B) सन् 1983 में
(C) सन् 1988 में
(D) सन् 1992 में
उत्तर:
(B) सन् 1983 में

25. सदिया-धुबरी मार्ग कौन-सा जलमार्ग है?
(A) राष्ट्रीय जलमार्ग-1
(B) राष्ट्रीय जलमार्ग-2
(C) राष्ट्रीय जलमार्ग-3
(D) राष्ट्रीय जलमार्ग-4
उत्तर:
(B) राष्ट्रीय जलमार्ग-2

26. “भारतीय रेलवे ने विविध संस्कृति के लोगों को एक-साथ लाकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया है।” यह कथन है-
(A) महात्मा गाँधी
(B) डॉ बी०आर० अम्बेडकर
(C) स्वामी विवेकानंद
(D) जवाहरलाल नेहरू
उत्तर:
(A) महात्मा गाँधी

27. परिवहन का सबसे तेज और महँगा साधन है-
(A) सड़क मार्ग
(B) वायुमार्ग
(C) रेलमार्ग
(D) जलमार्ग
उत्तर:
(B) वायुमार्ग

28. वायु परिवहन का राष्ट्रीयकरण कब किया गया?
(A) सन् 1911 में
(B) सन् 1946 में
(C) सन् 1950 में
(D) सन् 1953 में
उत्तर:
(D) सन् 1953 में

29. पेट्रोलियम उत्पादों के परिवहन का सबसे उत्तम साधन है-
(A) सड़कमार्ग
(B) वायुमार्ग
(C) पाइप लाइन
(D) जलमार्ग
उत्तर:
(C) पाइप लाइन

30. भारत की पहली पाइप लाइन कहाँ-से-कहाँ तक बिछाई गई?
(A) नहारकटिया से नूनमती
(B) नूनमती से बरौनी
(C) बरौनी से कानपुर
(D) लाकवा से बरौनी
उत्तर:
(A) नहारकटिया से नूनमती

31. भारतीय गैस प्राधिकरण लिमिटेड की स्थापना कब की गई?
(A) सन् 1965 में
(B) सन् 1972 में
(C) सन् 1984 में
(D) सन् 1988 में
उत्तर:
(C) सन् 1984 में

32. राष्ट्रीय पावर ग्रिड की स्थापना कब हुई थी?
(A) सन् 1955 में
(B) सन् 1972 में
(C) सन् 1980 में
(D) सन् 1985 में
उत्तर:
(C) सन् 1980 में

33. प्रसार भारती का गठन कब किया गया?
(A) सन् 1980 में
(B) सन् 1985 में
(C) सन् 1992 में
(D) सन् 1997 में
उत्तर:
(D) सन् 1997 में

34. भारत में आकाशवाणी का प्रसारण कब हुआ?
(A) सन् 1927 में
(B) सन् 1936 में
(C) सन् 1945 में
(D) सन् 1957 में
उत्तर:
(A) सन् 1927 में

35. आकाशवाणी को ऑल इंडिया रेडियो का नाम कब दिया गया?
(A) सन् 1927 में
(B) सन् 1936 में
(C) सन् 1945 में
(D) सन् 1957 में
उत्तर:
(B) सन् 1936 में

HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 10 परिवहन तथा संचार

36. दूरदर्शन ने राष्ट्रीय चैनल कब शुरू किया था?
(A) सन् 1927 में
(B) सन् 1936 में
(C) सन् 1983 में
(D) सन् 1988 में
उत्तर:
(D) सन् 1988 में

37. भारत में राष्ट्रीय कार्यक्रम और रंगीन टेलीविज़न की शुरुआत हुई
(A) सन् 1936 में
(B) सन् 1983 में
(C) सन् 1992 में
(D) सन् 1996 में
उत्तर:
(C) सन् 1992 में

38. दूरदर्शन का पहला कार्यक्रम कब प्रसारित किया गया?
(A) 15 सितंबर, 1958 को
(B) 15 सितंबर, 1959 को
(C) 15 सितंबर, 1960 को
(D) 15 सितंबर, 1961 को
उत्तर:
(B) 15 सितंबर, 1959 को

B. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक शब्द में दीजिए

प्रश्न 1.
स्वर्ण चतुष्कोण परम राजमार्ग योजना कब शुरू की गई थी?
अथवा
स्वर्णिम चतुर्भुज महा-राजमार्ग परियोजना कब आरंभ की गई?
उत्तर:
2 जनवरी, 1999 में।

प्रश्न 2.
अमृतसर से दिल्ली तक राष्ट्रीय महामार्ग कौन-सा है?
उत्तर:
NH-1।

प्रश्न 3.
भारत में वायु परिवहन की शुरुआत कब हुई?
उत्तर:
सन् 1911 में।

प्रश्न 4.
भारत में सबसे लंबा राष्ट्रीय महामार्ग/राजमार्ग कौन-सा है?
उत्तर:
राष्ट्रीय महामार्ग नं० 44 भारत का सबसे लम्बा राजमार्ग है। पहले NH-7 था।

प्रश्न 5.
भारत में पहली रेलगाड़ी कब चलाई गई?
उत्तर:
16 अप्रैल, 1853 को।

प्रश्न 6.
पहली रेलगाड़ी कहाँ-से-कहाँ तक चलाई गई?
उत्तर:
मुम्बई-ठाणे।

प्रश्न 7.
परिवहन का सबसे महंगा साधन कौन-सा है?
उत्तर:
वायु परिवहन।

प्रश्न 8.
परिवहन का सबसे सस्ता साधन कौन-सा है?
उत्तर:
जल परिवहन।

प्रश्न 9.
ब्रॉड गेज में रेल की पटरियों के बीच कितनी दूरी होती है?
उत्तर:
1.616 मीटर।

प्रश्न 10.
भारतीय रेलतंत्र का एशिया में कौन-सा स्थान है?
उत्तर:
पहला।

प्रश्न 11.
वायु परिवहन का राष्ट्रीयकरण कब किया गया?
उत्तर:
सन् 1953 में।

प्रश्न 12.
भारत में पहली पाइप लाइन कब बिछाई गई?
उत्तर:
सन् 1962 में।

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प्रश्न 13.
देश की सबसे बड़ी पाइपलाइन हजीरा-विजयपुर-जगदीशपुर कितनी लंबी है?
उत्तर:
लगभग 1750 किलोमीटर।

प्रश्न 14.
दक्षिण भारत में सड़कों के अधिकतम घनत्व वाले दो राज्यों के नाम बताइए।
उत्तर:
केरल और तमिलनाडु।

प्रश्न 15.
भारत की दो प्रमुख नाव्य नदियों के नाम बताइए।
उत्तर:
गंगा और ब्रह्मपुत्र।।

प्रश्न 16.
भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण गैस पाइप लाइन का नाम बताइए।
उत्तर:
एच०वी०जे० गैस पाइप लाइन।

प्रश्न 17.
राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-1 किस नदी पर तथा किन दो स्थानों के बीच पड़ता है?
उत्तर:
गंगा-हल्दिया-इलाहाबाद।

प्रश्न 18.
भारत के किस भौगोलिक क्षेत्र में रेलमार्गों का सर्वाधिक विकास हुआ है?
उत्तर:
उत्तरी भारत के विशाल मैदान में।

प्रश्न 19.
‘स्वर्णिम चतुर्भुज’ किन चार महानगरों को जोड़ता है?
उत्तर:
दिल्ली, मुंबई, चेन्नई तथा कोलकाता को।

प्रश्न 20.
दो राष्ट्रीय जलमार्गों के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. इलाहाबाद से हल्दिया
  2. सदिया से धुबरी।

प्रश्न 21.
स्वर्णिम चतर्भज महा-राजमार्ग परियोजना का क्या उद्देश्य है?
उत्तर:
महानगरों के बीच की दूरी और परिवहन समय को कम करना।

प्रश्न 22.
भारत का सबसे लम्बा राष्ट्रीय जलमार्ग कौन-सा है?
उत्तर:
हल्दिया और इलाहाबाद (प्रयागराज) गंगा जलमार्ग।

प्रश्न 23.
संचार का आधुनिकतम साधन कौन-सा है?
उत्तर:
इंटरनेट।

प्रश्न 24.
सीमा सड़क संगठन का गठन कब हुआ?
उत्तर:
सन् 1960 में।

प्रश्न 25.
उत्तर-दक्षिण गलियारा महा-राजमार्ग किन दो शहरों को जोड़ता है?
उत्तर:
उत्तर-दक्षिण गलियारा महा-राजमार्ग श्रीनगर को कन्याकुमारी से जोड़ता है।

प्रश्न 26.
पूर्व-पश्चिम गलियारा महा-राजमार्ग किन दो शहरों को जोड़ता है?
उत्तर:
पूर्व-पश्चिम गलियारा महा-राजमार्ग सिलचर (असम) को पोरबंदर (गुजरात) से जोड़ता है।

प्रश्न 27.
स्वर्णिम चतुर्भुज महा राजमार्गों का निर्माण व रख-रखाव कौन करता है?
उत्तर:
भारत का राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI)।

प्रश्न 28.
राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण व रख-रखाव कौन करता है?
उत्तर:
राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण व रख-रखाव केंद्रीय लोक निर्माण विभाग (CPWD) करता है।

प्रश्न 29.
राज्य राजमार्गों का निर्माण व रख-रखाव कौन करता है?
उत्तर:
राज्य राजमार्गों के निर्माण व रख-रखाव का कार्य सार्वजनिक निर्माण विभाग (P.W.D.) द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 30.
राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-2 किस नदी पर तथा किन दो स्थानों के बीच पड़ता है?
उत्तर:
बह्मपुत्र नदी तथा सदिया व धुबरी के बीच।

HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 10 परिवहन तथा संचार

प्रश्न 31.
मुंबई और ठाणे के बीच चली पहली भारतीय रेल ने कितना सफर तय किया था?
उत्तर:
34 कि०मी०।

प्रश्न 32.
दिल्ली और मुंबई को कौन-सा राष्ट्रीय महामार्ग जोड़ता है?
उत्तर:
राष्ट्रीय महामार्ग-8।

प्रश्न 33.
भारत में ग्रैण्ड ट्रंक रोड़ का निर्माण किसने करवाया था?
उत्तर:
अफगान सम्राट शेरशाह सूरी ने।

प्रश्न 34.
भारत में सर्वप्रथम मैट्रो की शुरुआत कब और कहाँ हुई?
उत्तर:
सन् 1972 में कोलकाता में।

प्रश्न 35.
भारतीय देशीय जलमार्ग प्राधिकरण का गठन कब हुआ?
उत्तर:
27 अक्तूबर, 1986 में।

प्रश्न 36.
मैट्रो रेलवे कोलकाता जोन की घोषण कब की गई?
उत्तर:
25 दिसम्बर, 2010 को।

प्रश्न 37.
भारतीय गैस प्राधिकरण लिमिटेड की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
सन् 1984 में।

प्रश्न 38.
निम्नलिखित का पूरा नाम लिखें BOT, BRO, NRSA, INSAT, IRS, NHAI, NH, HVJ, CPWD, SPWD.
उत्तर:

  1. BOT : Built Operate and Transfer
  2. BRO : Border Roads Organisation
  3. NRSA : National Remote Sensing Agency
  4. INSAT : Indian National Satellite System
  5. IRS : Indian Remote Sensing
  6. NHAI : National Highway Authority of India
  7. NH : National Highways
  8. HVJ : Hajira Vijaipur Jagdishpur
  9. CPWD: Central Public Works Department
  10. SPWD : State Public Works Department

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय विद्युत ग्रिड का क्या उद्देश्य है?
उत्तर:
क्षेत्रीय ग्रिडों को मिलाकर देश में बिजली की आपूर्ति को सतत् व नियमित रखना।

प्रश्न 2.
भारत में संचार के प्रमुख साधन कौन से हैं? संचार के कौन-कौन से साधन होते हैं?
उत्तर:
दूरभाष (टेलीफोन), टेलीग्राम, फैक्स, ई-मेल, इंटरनेट, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें, उपग्रह (सेटेलाइट) जनसभाएँ, सम्मेलन आदि।

प्रश्न 3.
सड़क परिवहन की क्या असुविधाएँ हैं?
उत्तर:

  1. दुर्गम क्षेत्रों में सड़कें बनाना कठिन है
  2. इनसे अधिक तथा भारी माल नहीं ढोया जा सकता
  3. वर्षा ऋतु में सड़क परिवहन में दुर्घटनाओं की संभावना बनी रहती है।

प्रश्न 4.
उत्तर-पूर्वी राज्यों में रेलमार्गों का अभाव क्यों है?
उत्तर:
इन राज्यों में ऊबड़-खाबड़ धरातल, नदियाँ, नाले, चट्टानें, सघन चन, आर्थिक पिछड़ापन तथा विरल जनसंख्या रेलों के विकास में बाधा उत्पन्न करती है।

प्रश्न 5.
भारत के विशाल मैदानों में रेलमार्गों का जाल हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों से अधिक क्यों है?
अथवा
भारत के विशाल मैदानों में रेलों का विकास हिमालय प्रदेश की तुलना में अधिक क्यों हुआ है?
उत्तर:
भारत के विशाल मैदान समतल भूमियाँ हैं। इन मैदानों में रेल लाइनें बिछाना आसान है और अधिक खर्चा भी नहीं आता, जबकि हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में पर्वतों को काटकर रेल लाइनें बिछाना बहुत ही कठिन कार्य है और इस पर खर्चा भी बहुत अधिक आ जाता है। इसलिए भारत के विशाल मैदानों में रेलमार्गों का जाल हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों से अधिक है।

HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 10 परिवहन तथा संचार

प्रश्न 6.
व्यक्तिगत संचार के साधन से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
व्यक्तिगत संचार के साधन से अभिप्राय उन साधनों से है जिनका प्रयोग कोई व्यक्ति अपने संदेशों के आदान-प्रदान के लिए करता है। उदाहरण-टेलीफोन, पत्र आदि।

प्रश्न 7.
जनसंचार के साधनों से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
जनसंचार के साधनों से हमारा अभिप्राय संचार के उन साधनों से है जिनके द्वारा किसी सूचना को हजारों, लाखों लोगों तक एक-साथ पहुँचाया जा सकता है। उदाहरण-रेडियो, समाचार-पत्र आदि।

प्रश्न 8.
परिवहन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
परिवहन एक ऐसा तंत्र है जिसमें यात्रियों और सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाया और ले जाया जाता है।

प्रश्न 9.
स्थल परिवहन के कौन-कौन से प्रकार हैं?
उत्तर:

  1. सड़क परिवहन
  2. रेल परिवहन
  3. पाइपलाइन।

प्रश्न 10.
संचार के साधन किसे कहते हैं?
उत्तर:
जो साधन संदेशों और सूचनाओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं, उन्हें संचार के साधन कहते हैं।

प्रश्न 11.
जीवन के लिए संचार के साधन क्यों आवश्यक हैं?
उत्तर:
आपसी मेल-जोल को बढ़ाने के लिए संचार के साधन आवश्यक हैं। इसके अतिरिक्त वर्तमान समय में उद्योगों और व्यापार के लिए भी संचार के साधनों की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 12.
भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व एवं पश्चिम गलियारों के अन्तिम स्टेशनों/छोरों के नाम लिखें।
अथवा
उत्तर-दक्षिण गलियारे के दो अन्तिम स्टेशनों के नाम लिखें।
अथवा
पूर्व-पश्चिम गलियारे के दो अन्तिम स्टेशनों के नाम लिखें।
उत्तर:

  1. उत्तरी गलियारे का अन्तिम छोर-श्रीनगर
  2. पूर्वी गलियारे का अन्तिम छोर-सिलचर
  3. दक्षिणी गलियारे का अन्तिम छोर-कन्याकुमारी
  4. पश्चिमी गलियारे का अन्तिम छोर-पोरबंदर

प्रश्न 13.
राष्ट्रीय राजमार्ग क्या है?
उत्तर:
राष्ट्रीय राजमार्ग राष्ट्रीय महत्त्व की सड़कें हैं। ये देश के एक राज्य को दूसरे राज्य से मिलाती हैं। इन राजमार्गों के निर्माण का कार्य एवं रख-रखाव केंद्र सरकार द्वारा कराया जाता है।

प्रश्न 14.
‘प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क परियोजना’ क्या है?
उत्तर:
यह परियोजना केंद्र सरकार द्वारा चलाई गई है। इस परियोजना में वे सड़कें आती हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों तथा गाँवों को शहरों से जोड़ती हैं।

प्रश्न 15.
भारत के दो अंतःस्थलीय जलमार्गों के नाम बताइए।
उत्तर:
भारत के दो अंतःस्थलीय जलमार्ग निम्नलिखित हैं-

  1. गंगा नदी जलमार्ग इलाहाबाद और हल्दिया के बीच।
  2. ब्रह्मपुत्र नदी जलमार्ग-सदिया और धुबरी के बीच।।

प्रश्न 16.
भारत में महा राजमार्गों के कोई दो उद्देश्य लिखें।
उत्तर:

  1. भारत के महानगरों के बीच की दूरी व परिवहन समय को कम करना।
  2. तीव्र गति से चलने वाले वाहनों की जरूरतों को पूरा करना।

प्रश्न 17.
सीमांत सड़कों की कोई दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:

  1. देश के सीमांत क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण करना।
  2. सीमांत क्षेत्रों के आर्थिक विकास में सहायता प्रदान करना।

प्रश्न 18.
साइबर स्पेस से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
साइबर स्पेस कम्प्यूटर में एक ऐसा काल्पनिक स्पेस है जिसमें इलेक्ट्रॉनिक संवाद सूचनाओं और चित्रों का आदान-प्रदान होता है।

प्रश्न 19.
मुक्त आकाश नीति के बारे में बताइए।
उत्तर:
सरकार ने अप्रैल, 1992 में मुक्त आकाश नीति को अपनाया। इसका मुख्य उद्देश्य भारतीय निर्यातकों की सहायता करना और उनके निर्यात को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतियोगितापूर्ण बनाना था। इस नीति के अंतर्गत विदेशी निर्यातकों का संगठन कोई भी मालवाहक वायुयान देश में ला सकता है।

प्रश्न 20.
ग्रामीण सड़कें क्या होती हैं?
उत्तर:
वे सड़कें जो ग्रामीण क्षेत्रों और गाँवों को शहरों से जोड़ती हैं, उन्हें ग्रामीण सड़कें कहते हैं। इन सड़कों को प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क परियोजना के तहत विशेष प्रोत्साहन मिलता है।

प्रश्न 21.
दूरदर्शन दूनिया का सबसे बड़ा स्थलीय नैटवर्क कैसे है?
उत्तर:
भारत में दूरदर्शन की शुरुआत सन् 1959 में हुई। दूरदर्शन जनसंचार का सबसे प्रभावशाली दृश्य-श्रव्य साधन है, क्योंकि यह विभिन्न आयु वर्ग के व्यक्तियों के लिए मनोरंजक, ज्ञानवर्धक एवं खेल जगत से संबंधित कार्यक्रम प्रसारित करता है। इसलिए यह दुनिया का सबसे बड़ स्थलीय नैटवर्क है।

प्रश्न 22.
राज्य राजमार्ग क्या होता है?
उत्तर:
राज्यों की राजधानियों को जिला मुख्यालयों से जोड़ने वाली सड़कें राज्य राजमार्ग (State Highways) कहलाती हैं। इनका निर्माण व रख-रखाव राज्य लोक निर्माण विभाग (S.P.W.D.) करता है।

प्रश्न 23.
महासागरीय मार्ग क्या है?
उत्तर:
भारत के पास द्वीपों सहित लगभग 7517 कि०मी० लंबा समुद्री तट है। इन मार्गों में 12 प्रमुख तथा 185 गौण पत्तन हैं। ये महासागरीय मार्ग, परिवहन व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के साथ-साथ इन मार्गों का उपयोग देश की मुख्य भूमि तथा द्वीपों के बीच परिवहन के लिए भी होता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
परिवहन भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
परिवहन-तंत्र देश की अर्थव्यवस्था को एकीकृत करता है। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में परिवहन व्यवस्था के विकास के क्षेत्र में अनेक कार्य किए गए हैं। देश में उत्पादन का विशिष्टीकरण खनिज पदार्थों की उपलब्धता के आधार पर स्थानीय स्तर पर हुआ है तथा इन उत्पादों की खपत के लिए स्थानीय बाजार है। यह विशिष्टीकरण विशेष रूप से स्थानीय वस्त्रों, खाद्य पदार्थों तथा हस्तशिल्प कलाओं में दिखाई देता है। परिवहन के साधन इन स्थानीय बाजारों को राष्ट्रीय बाजारों से तथा राष्ट्रीय बाजार इन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार से जोड़ते हैं। औद्योगिक क्षेत्र, व्यापारिक क्षेत्र तथा पिछड़े हुए क्षेत्र सड़कों द्वारा आपस में जुड़े हुए हैं। रेलमार्गों का विकास किया गया है। देश की आर्थिक व्यवस्था में भारी सामान को दूर-दूर के क्षेत्रों में पहुँचाने के लिए रेलें तथा सड़कें एक-दूसरे के पूरक का कार्य करते हैं। प्रादेशिक विकास के लिए विभिन्न प्रकार के परिवहन साधनों को संगठित किया गया है।

सड़क, रेलमार्ग, वायुमार्ग तथा जलमार्ग सभी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए आपस में जुड़े हुए हैं। अतः परिवहन का एक सुगठित और समन्वित तंत्र देश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

प्रश्न 2.
सड़क परिवहन के क्या लाभ हैं? अथवा सड़क परिवहन के प्रमुख गुणों का उल्लेख करें।
उत्तर:
सड़क परिवहन यातायात का एक उत्तम साधन है। इसके के निम्नलिखित लाभ हैं-

  1. यह कम दूरियों के लिए माल तथा यात्रियों के ढोने का उत्तम साधन है।
  2. यह ग्रामीण क्षेत्रों को नगरों से जोड़ता है।
  3. सड़क परिवहन द्वारा विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ ग्राहक के घर तक पहुँचाई जा सकती हैं।
  4. शीघ्र खराब होने वाली वस्तुओं को शीघ्रता से उपभोग-क्षेत्रों तक पहुँचाया जाता है।

प्रश्न 3.
भारत में सड़कों के घनत्व में प्रादेशिक भिन्नता का वर्णन कीजिए। अथवा भारत में सड़कों का वितरण समान नहीं है स्पष्ट करें।
उत्तर:
सड़कों के घनत्व में प्रादेशिक अंतर पाया जाता है। प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सड़कों की लंबाई को सड़कों का घनत्व कहा जाता है। सड़कों का राष्ट्रीय घनत्व 75.42 कि०मी० है। लगभग सभी उत्तरी राज्यों और प्रमुख दक्षिणी राज्यों में सड़कों का घनत्व अधिक है। हिमालयी प्रदेश, उत्तर:पूर्वी राज्यों, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सड़कों का घनत्व कम है क्योंकि इन राज्यों की भौगोलिक परिस्थितियाँ सड़क-निर्माण के अनुकूल नहीं हैं। भारत में उच्चावचीय विविधता के कारण सड़कों का वितरण असमान है। ये क्षेत्र निम्नलिखित प्रकार से हैं
1. पर्वतीय और मरुस्थलीय क्षेत्र-इन क्षेत्रों में सड़कों का जाल बहुत ही विरल है। अतः यहाँ पर सड़कों का घनत्व बहुत कम है। सामरिक महत्त्व के कारण इन क्षेत्रों में बहुत-सी सीमावर्ती सड़कों का निर्माण किया गया है। पहाड़ी तथा अधिक ऊबड़-खाबड़ क्षेत्रों में सड़कें बनाना कठिन तथा खर्चीला कार्य है। इसलिए मैदानी क्षेत्रों में अपेक्षाकृत घनत्व तथा गुणवत्ता अधिक होती है।

2. पठारी क्षेत्र भारत के पठारी क्षेत्र में सड़कों का घनत्व सामान्य (मध्यम स्तर) है। पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश तथा ओडिशा राज्य इस क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं।

3. मैदानी क्षेत्र-उत्तरी भारत में गंगा और पंजाब के मैदान तथा दक्षिणी भारत में केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में सड़कों के जाल का घनत्व सबसे सघन पाया जाता है। कुछ सड़कें दूर-दराज़ के क्षेत्रों को भी मिलती है।

HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 10 परिवहन तथा संचार

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में अंतर स्पष्ट कीजिए (i) परिवहन और संचार, (ii) राष्ट्रीय मार्ग और राज्य महामार्ग, (ii) मीटर गेज और ब्रॉड गेज, (iv) व्यक्तिगत संचार और जनसंचार।
उत्तर:
(i) परिवहन और संचार में निम्नलिखित अंतर हैं-

परिवहनसंचार
1. परिवहन यंत्रों तथा संगठनों द्वारा मनुष्य और माल-भार को एक-स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाया जाता है।1. समाचारों, सूचनाओं और ज्ञान के आदान-प्रदान को संचार कहा जाता है।
2. परिवहन के मुख्य साधन हैं-रेलें, सड़के जलमार्ग और वायुमार्ग।2. संचार के मुख्य साधन हैं-रेडियो, दूरदर्शन, दूरभाष तथा उपग्रह।

(ii) राष्ट्रीय मार्ग और राज्य महामार्ग में निम्नलिखित अंतर हैं

राष्ट्रीय महामार्गराज्य महामार्ग
1. ये समस्त देश की प्रमुख सड़कें हैं।1. ये विभिन्न राज्यों की मुख्य सड़कें हैं।
2. ये महामार्ग प्रमुख व्यापारिक, औद्योगिक नगरों और राजधानियों को तथा प्रमुख बंदरगाहों को आपस में मिलाते हैं।2. ये महामार्ग विभिन्न राज्यों की राजधामियों को राज्यों के प्रमुख नगरों व कार्यालयों से मिलाते हैं।
3. ये प्रायः केंद्रीय सरकार द्वारा निर्मित हैं।3. ये राज्य सरकारों द्वारा निर्मित हैं।
4. इनकी कुल लंबाई 1,01,011 कि०मी० है।4. इनकी लंबाई 1,76,166 कि०मी० है।
5. ये आर्थिक तथा सैनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।5. ये प्रशासनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।

(iii) मीटर गेज और ब्रॉड गेज में निम्नलिखित अंतर हैं

मीटर गेजब्रॉड गेज (बड़ी रेल लाइन)
1. इसमें रेल पटरियों के बीच की दूरी एक मीटर होती है।1. इसमें रेल पटरियों के बीच की दूरी $1.616$ मी० होती है।
2. ये अधिकतर पहाड़ी भागों में पाए जाते हैं।2. ये अधिकतर मैदानी भागों में पाए जाते हैं।
3. ये यात्री तथा हल्के सामान के ढोने के लिए बनाए गए हैं।3. ये अधिक भारी सामान तथा यात्रियों के परिवहन के लिए बनाए गए हैं।
4. मीटर गेज लाइन की कुल लंबाई 2016 में 3,880 कि०मी० है।4. ब्रॉड गेज लाइन की कुल लंबाई 2016 में 60,510 कि०मी० है।

(iv) व्यक्तिगत संचार और जनसंचार में निम्नलिखित अंतर हैं

व्यक्तिगत संचारजनसंचार
1. किसी व्यक्ति विशेष तक संदेश पहुँचाना व्यक्तिगत संचार कहलाता है।1. सामूहिक रूप से लोगों के समूह तक संदेश पहुँचाना जनसंचार कहलाता है।
2. व्यक्तिगत संचार के साधन हैं-डाक सेवा तथा कंप्यूटर, जिसमें इंटरनेट और ई-मेल भी शामिल हैं।2. जनसंचार के माध्यम हैं-अखबार, पत्र पत्रिकाएँ, रेडियो तथा दूरदर्शन।

प्रश्न 5.
उपग्रह संचार पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
दूरदर्शन के कार्यक्रमों को दूर-दूर तक पहुँचाने के लिए उपग्रह का प्रयोग किया जाता है। इस दिशा में भारत का पहला सफल प्रयास SITE था जो अगस्त, 1975 से जुलाई, 1976 तक कार्यरत रहा। इस प्रयोग से राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा, आंध्र प्रदेश तथा कर्नाटक को लाभ हुआ। अब इनसेट-बी (INSAT-B) इस कार्य को सफलता से कर रहा है तथा इन प्रदेशों में दूरदर्शन के कार्यक्रम देखे जाते हैं। इसके द्वारा दिल्ली से 181 उच्च शक्ति तथा निम्न शक्ति के ट्रांसमीटर जुड़े हुए हैं तथा इसके द्वारा सारे भारत में राष्ट्रीय कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। अब इनसेट-1B का स्थान इनसेट-1D ने ले लिया है।

प्रश्न 6.
भारतीय राष्ट्रीय महामार्ग प्राधिकरण ने किन परियोजनाओं की जिम्मेदारी ले रखी है?
उत्तर:
भारतीय राष्ट्रीय प्राधिकरण ने देश-भर में विभिन्न चरणों में कई प्रमुख परियोजनाओं की जिम्मेदारी ले रखी है।
1. स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना-देश के चार महानगरों दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और मुंबई को 4/6 गलियों वाले परम राजमार्ग से जोड़ने की योजना को स्वर्ण चतुर्भुज कहा जाता है। इन परम राजमार्गों के बन जाने से भारत के महानगरों के बीच समय-दूरी काफी कम हो गई है।

2. उत्तर-दक्षिण तथा पूर्व-पश्चिम गलियारा-उत्तर:दक्षिण गलियारे का उद्देश्य जम्मू कश्मीर के श्रीनगर से तमिलनाडु के कन्याकुमारी को 4,016 कि०मी० लंबे मार्ग द्वारा जोड़ना है। पूर्व एवं पश्चिम गलियारे का उद्देश्य असम में सिलचर से गुजरात में पोरबंदर को 3,640 कि०मी० लंबे मार्ग द्वारा जोड़ना है।

प्रश्न 7.
रेलवे पटरियों की चौड़ाई के आधार पर भारतीय रेल को कितने वर्गों में बाँटा गया है।
उत्तर:
भारतीय रेल के तीन वर्ग निम्नलिखित हैं-

  1. बड़ी लाइन (Broad Guage)-ब्रॉड गेज में रेल पटरियों के बीच की दूरी 1 616 मी० होती है। ब्रॉड गेज लाइन की कुल लंबाई सन् 2016 में लगभग 60,510 कि०मी० थी।
  2. मीटर लाइन (Meter Guage) मीटर गेज में रेल पटरियों के बीच की दूरी 1 मीटर होती है। इसकी कुल लंबाई सन् 2016 में लगभग 3,880 कि०मी० थी।
  3. छोटी लाइन (Narrow Guage)-नैरो गेज़ में रेल पटरियों के बीच की दूरी 0.762 या 0.610 मीटर होती है। इसकी कुल लंबाई सन् 2016 में लगभग 2,297 कि०मी० थी।

प्रश्न 8.
परिवहन तथा संचार के साधन किसी देश की जीवन रेखा तथा अर्थव्यवस्था क्यों कहे जाते हैं?
अथवा
परिवहन के साधन हमारी अर्थव्यवस्था की मूल धमनियाँ होती हैं इस कथन को स्पष्ट करें।
उत्तर:
वे साधन, जिनके प्रयोग से यात्री और माल को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाया जाता है, यातायात एवं परिवहन के साधन कहलाते हैं। यातायात तथा संचार के विभिन्न साधनों को देश की जीवन-रेखाएँ कहते हैं, क्योंकि देश के आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास में आधुनिक रेल, सड़क, जल एवं वायु-सेवाओं का बहुत बड़ा योगदान है। भारत जैसे विशाल देश में, जहाँ के बीच में विस्तृत दूरियाँ हैं, जहाँ आर्थिक एवं सामाजिक विभिन्नताएँ और विविध प्रकार के प्राकृतिक साधन असमान ढंग से वितरित हैं। आधनिक यातायात और संचार के साधनों का देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास पर बह प्रभाव पड़ता है। यातायात एवं संचार के विभिन्न साधन किसी राष्ट्र की जीवन-रेखाएँ इसलिए कहे जाते हैं, क्योंकि-

  1. ये देश के दूरवर्ती भागों को समीप ले आते हैं और उनके विकास में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। ये किसी प्रदेश के प्राकृतिक साधनों के विकास में सहयोग देते हैं।
  2. ये विभिन्न प्रकार के प्रदेशों के आर्थिक विशिष्टीकरण को विकसित करते हैं।
  3. ये परस्पर निर्भरता को विकसित करते हैं। देश के विभिन्न प्रदेशों के बीच आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संबंध स्थापित करते हैं।
  4. भारत जैसे विशाल देश के आर्थिक विकास की यातायात तथा संचार के साधनों के बिना कल्पना नहीं की जा सकती।
  5. ये देश को एक राजनीतिक व सामाजिक सूत्र में बाँध देते हैं।

प्रश्न 9.
दक्षिणी भारत की तुलना में उत्तरी भारत में रेलों और सड़कों का विकास अधिक हुआ है, क्यों?
उत्तर:
दक्षिणी भारत की अपेक्षा उत्तरी भारत में रेलों तथा सड़कों का विकास अधिक हुआ है क्योंकि
(1) उत्तरी मैदान एक विस्तृत समतल मैदान है। उसकी भूमि नरम है। इसलिए इस भाग में सड़कें बनाना तथा रेल लाइनें बिछाना आसान है। इसके विपरीत, दक्षिणी भारत एक पठारी प्रदेश है। पठारी और ऊँची-नीची भूमि में रेल लाइनें बिछाना बड़ा कठिन तथा महँगा काम है।

(2) उत्तरी मैदान एक उपजाऊ प्रदेश है। इसलिए यहाँ कृषि और उद्योग-धंधों का काफी विकास हुआ है। कच्चे माल को कारखानों तक ले जाने और वहाँ से तैयार माल को बाजारों तक लाने के लिए सड़कों तथा रेलों का काफी विकास हुआ है।

(3) उत्तरी मैदान की जनसंख्या का घनत्व अधिक है। इसलिए यहाँ यात्रियों की संख्या तथा काम करने के लिए मजदूर अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं।

प्रश्न 10.
किसी प्रदेश के सामाजिक विकास में सड़कों की क्या भूमिका है?
उत्तर:
सड़कें देश के लिए जीवन-रेखा का कार्य करती हैं। हमारी अर्थव्यवस्था में सड़कों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। देश के सुदूर क्षेत्रों तक पहुँचना सड़क परिवहन की सुविधा के द्वारा ही संभव हुआ है। जिस राज्य में सड़कों का अधिक विकास हुआ है वह राज्य औद्योगिक तथा व्यापारिक प्रगति के पथ पर तेजी के साथ अग्रसर हुआ है। सड़कों का जाल सामाजिक प्रगति का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। हमारा राज्य, हरियाणा इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। यहाँ गाँव-गाँव को सड़कों के साथ जोड़ दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप ही हमारे गाँवों की काया पलट हो गई है। कृषि विकास, शिक्षा तथा चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में भी हमारे राज्य में काफी प्रगति हुई है।

प्रश्न 11.
भारत के जनसंचार साधनों में दूरभाष और रेडियो/आकाशवाणी व दूरदर्शन के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
1. दूरभाष-टेलीफोन संचार का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। भारत में टेलीफोन सुविधा प्रत्येक गांव तक नहीं पहुंच पाई है। अभी तक 70% गांवों में ही सार्वजनिक टेलीफोन सेवा उपलब्ध हो पाई है। भारत में प्रति सौ व्यक्ति टेलीफोन सघनता 2.5 तक ही हुई है। यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तुलना में नगण्य है। इसके अलावा नगरीय तथा ग्रामीण टेलीफोन सुविधा में बड़ा अंतराल है। देश में दूरसंचार सुविधा प्रतिवर्ष 20% की दर से बढ़ी है। जिन गांवों में टेलीफोन सुविधा उपलब्ध भी है तो उनमें रख-रखाव तथा व्यवस्थात्मक की कमी के कारण सुविधा प्रभावी नहीं है, जबकि भारत का वास्तविक विकास, कृषि का रोजगार सृजन तथा सकल घरेलू आय में योगदान, गाँव की प्रभावी दूर संचार सुविधा पर ही निर्भर है।

2. आकाशवाणी तथा दूरदर्शन-रेडियो तथा दूरदर्शन न केवल लोकप्रिय हैं, बल्कि इसने लोगों के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन में भी बदलाव ला दिया है। इन्होंने थोड़े समय में ही घर-घर में जगह बना ली है। नवीनतम सूचनाओं की प्राप्ति के लिए इनसे सरल तथा उत्तम कोई और साधन नहीं है। दूरदर्शन जनसंचार का न केवल लोकप्रिय, अपितु अत्यंत प्रभावशाली माध्यम बन चुका है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता ध्वनि के साथ-साथ दृश्यता भी है। दूरदर्शन ने लोगों की सोच तथा जीवनशैली पर गहरा प्रभाव डाला है। इससे सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों में गहरा बदलाव हुआ है। समाचार, मौसम, खोज, अनुसंधान, ज्ञान-विज्ञान, संगीत, नाटक, फिल्म, नृत्य, सांस्कृतिक कार्यक्रम, खेल आदि के प्रसारण के लिए दूरदर्शन का नियमित उपयोग होने लगा है।

प्रश्न 12.
रेल परिवहन के चार गुण बताएँ।
उत्तर:
रेल परिवहन के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  1. रेलें सबसे अधिक संख्या में यात्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती हैं।
  2. रेलें प्रतिवर्ष भारी मात्रा में खाद्यान्नों और उर्वरकों की ढुलाई करती हैं।
  3. रेलें कोयले, खनिज तेल और खनिज अयस्क की लंबी दूरी तक ढुलाई करती हैं।
  4. ये अंतःस्थलीय परिवहन का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन हैं।

प्रश्न 13.
रेल परिवहन की अपेक्षा सड़क परिवहन अधिक महत्त्वपूर्ण क्यों है?
उत्तर:
रेल परिवहन की अपेक्षा सड़क परिवहन के अधिक महत्त्वपूर्ण होने के कारण निम्नलिखित हैं-

  1. रेलवे लाइन की अपेक्षा सड़कों की निर्माण लागत बहुत कम है।
  2. अपेक्षाकृत ऊबड़-खाबड़ भू-भागों पर सड़कें बनाई जा सकती हैं।
  3. अधिक ढाल प्रवणता तथा पहाड़ी क्षेत्रों में भी सड़कें निर्मित की जा सकती हैं।
  4. अपेक्षाकृत कम व्यक्तियों, कम दूरी व कम वस्तुओं के परिवहन में सड़क परिवहन सस्ता है।
  5. यह घर-घर सेवाएँ उपलब्ध करवाता है तथा सामान चढ़ाने व उतारने की लागत भी अपेक्षाकृत कम है।

HBSE 12th Class Geography Important Questions Chapter 10 परिवहन तथा संचार

प्रश्न 14.
सीमावर्ती सड़कों का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
सीमावर्ती सड़कों का निर्माण भारत सरकार द्वारा गठित संस्थान सीमा सड़क संगठन (BRO) के द्वारा किया जाता है। सीमा सड़क संगठन की स्थापना सन् 1960 में की गई थी। यह संगठन देश के उत्तर और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में सामरिक महत्त्व की सड़कों का निर्माण करता है जो दुर्गम सीमावर्ती क्षेत्रों में तैनात सैनिकों के लिए रक्षा सामग्री और खाद्य सामग्री भेजने में सहायक रहती है। इन सड़कों के विकास से दुर्गम क्षेत्रों में आने-जाने की सुगमता बढ़ी है तथा ये इन क्षेत्रों के आर्थिक विकास में भी सहायक हुई है।

प्रश्न 15.
भारत में जल परिवहन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
जलमार्ग परिवहन का सबसे सस्ता साधन है। यह भारी तथा अधिक स्थान घेरने वाले सामानों को ढोने के लिए अधिक त है। भारत में 14,500 किलोमीटर लंबे अंतःस्थलीय जलमार्ग हैं। इनमें से 3700 किलोमीटर लंबे जलमागों में यंत्रीकृत नावें चलाई जा सकती हैं। भारत सरकार ने निम्नलिखित जलमार्गों को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया है

  1. गंगा नदी जलमार्ग इलाहाबाद और हल्दिया के बीच (लंबाई 1620 कि०मी)
  2. ब्रह्मपुत्र नदी जलमार्ग-सदिया और धुबरी के बीच (लंबाई 891 कि०मी०)
  3. केरल में पश्चिम-तटीय नहर-कोहापुरम से कोम्मान के बीच उद्योगमंडल तथा चंपक्कारा नहरें (लंबाई 250 कि०मी०), गोदावरी,
  4. कृष्णा, बरक, सुंदरवन बकिंघम नहर, ब्रह्माणी, पूर्व तटीय नहर तथा दामोदर घाटी परियोजना के अंतर्गत निकाली गई नहर की गणना अन्य उपयोगी अंतःस्थलीय जलमार्गों में की जाती है।

प्रश्न 16.
भारत में सड़क परिवहन की प्रमुख समस्याओं का वर्णन करें।
उत्तर:
भारत में सड़क परिवहन की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  1. यातायात व यात्रियों की संख्या को देखते हुए हमारे देश में सड़कों का जाल अपर्याप्त है।
  2. भारत में लगभग आधी सड़कें कच्ची हैं तथा वर्षा ऋतु के दौरान इनका उपयोग सीमित हो जाता है।
  3. राष्ट्रीय राजमार्गों की संख्या भी पर्याप्त नहीं है।
  4. शहरों में बनी सड़कें अत्यंत तंग तथा भीड़ भरी हैं।
  5. सड़कों पर बने पुल तथा पुलियाँ पुरानी तथा तंग हैं और उन पर आवागमन सुरक्षित नहीं है।
  6. सड़कों का रख-रखाव ठीक नहीं है।

प्रश्न 17.
भारत में जल परिवहन के लाभ व हानि बताएँ।
उत्तर:
लाभ-

  • यह सस्ता साधन है।
  • इसके रख-रखाव की लागत बहुत कम है।
  • यह पर्यावरण अनुकूल परिवहन है।

हानि-

  • यह धीमा परिवहन है।
  • यह अन्य साधनों से अधिक जोखिम-भरा है।

प्रश्न 18.
रेल परिवहन कहाँ पर अत्यधिक सुविधाजनक परिवहन साधन है तथा क्यों?
उत्तर:
रेल परिवहन मैदानी प्रदेशों में अत्यधिक सुविधाजनक परिवहन साधन है। इसके मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

  1. मैदानी प्रदेश समतल होने के कारण यहाँ पर रेल लाइनें बिछाना सरल है।
  2. मैदानी प्रदेशों में समतल भूमि होने के कारण रेल लाइनों के बिछाने पर लागत कम आती है।
  3. मैदानी भाग सघन बसे होते हैं और यह सघन जनसंख्या आवागमन के लिए रेलों का प्रयोग करती है जिससे रेलवे को. बहुत आय होती है।

प्रश्न 19.
स्वर्णिम चतुर्भुज महा राजमार्ग से क्या अभिप्राय है?
अथवा
भारत के स्वर्ण चतुर्भुज परम राजमार्ग का उल्लेख करें।
अथवा
एक्सप्रेस राष्ट्रीय राजमार्ग किसे कहते हैं?
उत्तर:
भारत सरकार ने दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई-मुंबई को जोड़ने वाली छः लेन वाली महा राजमार्गों की सड़क परियोजना 2 जनवरी, 1999 में आरंभ की, जिसे स्वर्णिम चतुर्भुज महा राजमार्ग कहते हैं। इस महा राजमार्ग के बन जाने से भारत के महानगरों के बीच समय-दूरी कम हो गई है। इन सड़कों को एक्सप्रेस राष्ट्रीय राजमार्ग भी कहते हैं। इस परियोजना के अन्तर्गत दो गलियारे प्रस्तावित हैं। पहला उत्तर:दक्षिण गलियारा जो श्रीनगर को कन्याकुमारी से जोड़ता है और दूसरा पूर्व-पश्चिम गलियारा जो सिल्वर (असम) को पोरबंदर (गुजरात) से जोड़ता है।

प्रश्न 20.
भारत में रेल जाल वितरण प्रतिरूप किन कारणों से प्रभावित हुआ है? वर्णन करें।
अथवा
“भूमि का प्राकृतिक स्वरूप और जनसंख्या का घनत्व रेलमार्ग के जाल को प्रभावित करता है।” वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रेलमार्गों का प्रादेशिक वितरण (Regional Distribution of Railways)-भारत में रेलमार्गों का विकास धरातल के स्वरूप के अनुसार ही हुआ है। स्पष्ट रूप से रेलमार्गों की सघनता के स्वरूप द्वारा प्रभावित हुई है।
1. उत्तरी मैदान (Northern lands)-सतलुज-गंगा के मैदान में रेलों का सर्वाधिक विकास हुआ है। पश्चिम में अमृतसर से लेकर पूर्व में हावड़ा तक रेलों का जाल बिछा हुआ है, जिससे स्पष्ट होता है कि समतल भूमि रेलों के विकास के लिए अनुकूल है। आर्थिक दृष्टि से भी यह क्षेत्र कृषि एवं औद्योगिक रूप से संपन्न है, जिसने रेलों की मांग और विकास को प्रोत्साहित किया है। इस क्षेत्र में दिल्ली, कानपुर, मुगलसराय, पटना, हावड़ा, कोलकाता चारों ओर से रेलमार्गों से जुड़े हुए हैं। ये देश के जंक्शन हैं। दिल्ली और कोलकाता महानगर देश के सभी प्रमुख शहरों से रेलमार्गों द्वारा जुड़े हुए हैं।

2. प्रायद्वीपीय पठार (Continental Plateau)-पठारी भाग अपेक्षाकृत कम विकसित हैं। इस भाग में रेलवे लाइन बिछाने का खर्चा अधिक आता है। इस क्षेत्र में जनसंख्या भी विरल है। इस प्रदेश के मुख्य रेलवे केंद्र भोपाल, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, बंगलौर, तिरुवनंतपुरम तथा कोचीन हैं जो दिल्ली तथा कोलकाता महानगरों से रेलवे द्वारा ज़ परिवहन तथा संचार

3. हिमालयी प्रदेश (Himalaya Region) इस क्षेत्र में रेलों का विकास न्यूनतम हुआ है। पर्वतीय एवं पहाड़ी धरातल, पिछड़ी अर्थव्यवस्था एवं विरल जनसंख्या होने के कारण यहाँ रेल लाइनें नहीं बिछाई जा सकीं। इस क्षेत्र में छोटी एवं सीमित रेल लाइनें हैं, जिनमें कालका-शिमला, सिलीगुड़ी-दार्जिलिंग तथा गुवाहाटी-दीमापुर ही मुख्य हैं। उत्तर प्रदेश का पर्वतीय भाग, उत्तर पूर्व का अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर तथा त्रिपुरा रेल सुविधाओं से पूर्ण रूप से वंचित हैं।

4. तटीय मैदान (Coastal Regions)-पूर्वी घाट के पूर्वी तटीय मैदान तथा पश्चिमी घाट के पश्चिमी तटीय मैदानों में प्रायद्वीपीय पठार की तुलना में रेलमार्गों का विकास अधिक हुआ है। इसका प्रमुख कारण धरातल समतल तथा मैदानी है। पूर्वी तट में चेन्नई-कोलकाता रेलमार्ग प्रमुख हैं। पश्चिमी घाट अपेक्षाकृत कटा-फटा है तथा तटीय मैदानी भाग संकरा है, जिससे रेलमार्गों के निर्माण में बाधा उत्पन्न होती है। भारत सरकार की चिर-प्रतीक्षित कोंकण रेलवे जो पश्चिमी तट के साथ-साथ 838 कि०मी० लंबी है, बनकर तैयार हो गई है तथा 26 जनवरी, 1998 को इसका शुभारंभ करके रेलों के आवागमन के लिए खोल दी गई है।

दीर्घ-उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
सड़कों के घनत्व से क्या तात्पर्य है? सड़क घनत्व को प्रभावित करने वाले कारक उदाहरण सहित दीजिए।
उत्तर:
सड़कों का घनत्व (Density of Roads)-प्रति 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल की सड़कों की कुल लम्बाई को सड़क मार्ग का घनत्व कहते हैं।
सड़क के घनत्व को प्रभावित करने वाले कारक (Factor-effecting of Density of Road)-देश में सड़कों के घनत्व में बहुत अधिक प्रादेशिक अंतर पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, जम्मू कश्मीर में यह घनत्व 10.48 कि०मी० है, जबकि केरल में यह 387.24 कि०मी० है। भारत में सड़कों का राष्ट्रीय घनत्व 75.42 कि०मी० प्रति 100 वर्ग कि०मी० है।
1. मैदानी भाग (Part of Land)-उत्तरी भारत का मैदान समतल व सपाट है। वहाँ भूमि नरम है, जिसके कारण सड़कों काण सस्ता व आसान हो जाता है। दूसरी ओर पर्वतीय और पठारी क्षेत्रों में कठोर धरातल, ऊबड़-खाबड़ भूमि तथा घने वन के कारण सड़कों का निर्माण कठिन और महंगा हो जाता है।

2. विकसित उद्योग (Developed Industry)-कच्चे माल को औद्योगिक क्षेत्र तथा तैयार माल को मंडियों लिए सड़कों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।

3. कच्चा माल (Raw Material)-दक्षिण भारत में उत्तर भारत की अपेक्षा पक्की सड़कों का अनुपात अधिक है। दक्षिण में कठोर धरातल के कारण पक्की सड़कों के निर्माण की अधिक सुविधा प्राप्त है। वहाँ सड़क बनाने के लिए आवश्यक कंकड़-पत्थर भी आसानी से मिल जाते हैं। इसके विपरीत उत्तरी भारत में सड़क-निर्माण के लिए आवश्यक पत्थर की कमी है तथा इसे दूर से लाना पड़ता है।

इसके अतिरिक्त उत्तरी मैदान के राज्यों में सघन जनसंख्या, उत्तम कृषि, बड़े-बड़े नगरों की उपस्थिति भी सड़कों के विकास को प्रोत्साहित करती है। दूसरी ओर, पठारी और पर्वतीय क्षेत्र में पिछड़ी अर्थव्यवस्था, विरल जनसंख्या, अधिक वर्षा तथा नदियों की अधिकता के कारण सड़कों का निर्माण कठिन होता है। दुर्गम भूमियाँ प्रायः सड़क विहीन होती हैं।

प्रश्न 2.
सड़क परिवहन के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राचीनकाल में मनुष्य पगडंडियों तथा कच्ची सड़कों के रास्ते आवागमन करते थे। वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर पैदल थे लेकिन प्रौद्योगिक विकास के साथ-साथ आवागमन के लिए पक्की सड़कों तथा महामार्गों का विकास किया गया जिन पर मोटरगाड़ियाँ, बसें, ट्रक, स्कूटर, ट्रैक्टर आदि के द्वारा परिवहन होने लगा। मनुष्य अपनी आवश्यकता की वस्तुओं को विभिन्न स्थानों से मंगवाने लगा। अपने अतिरेक कृषि उत्पादनों को उनकी माँग के अनुसार बाजार तक भेजने लगा। अतः सड़क परिवहन का हमारे लिए बहुत महत्त्व है। इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

  • सड़कों के द्वारा मनुष्य अपनी आवश्यकता की विभिन्न वस्तुओं को मंगवा सकता है तथा दूसरे स्थान तक पहुँचा सकता है।
  • सड़कें यातायात का सस्ता साधन हैं।
  • सड़कों का निर्माण दुर्गम, पहाड़ी तथा हिमाच्छादित प्रदेशों में भी किया जा सकता है।
  • कम दूरी के लिए सड़कें यातायात के सस्ते साधन हैं।
  • सड़कों द्वारा पदार्थों का परिवहन उत्पादक क्षेत्रों से उपभोक्ता के घर तक किया जा सकता है।
  • सड़कों द्वारा माल को लाने-ले जाने में अधिक सुरक्षा रहती है।
  • शीघ्र खराब होने वाली वस्तुओं; जैसे सब्जी, फल, मछली, दूध, घी आदि को सड़कों द्वारा माँग वाले क्षेत्रों में शीघ्र पहँचाया जा सकता है।
  • छोटी दूरियों के लिए सड़क परिवहन, रेल परिवहन की अपेक्षा आर्थिक दृष्टि से लाभदायक होता है।
  • सड़क परिवहन रेल, जहाज तथा वायु परिवहन का पूरक है क्योंकि रेल जहाज और विमान केवल सीमित स्थानों पर ही जाते हैं, जबकि सड़कें सभी गाँवों, नगरों और बाज़ारों को इन साधनों से जोड़ती है।
  • इससे सम्पूर्ण परिवहन तन्त्र की क्षमता बढ़ती है।
  • दुर्गम क्षेत्रों में जहाँ परिवहन के अन्य साधन नहीं पहुँच सकते। वहाँ केवल सड़कें ही यातायात को सुविधा प्रदान करती हैं।
  • सड़कों द्वारा उद्योगों के लिए कच्चे तथा निर्मित माल का परिवहन आसान हो गया है।
  • गाँवों को नगरों से जोड़कर सड़कें वंचित ग्रामीण समुदाय को शिक्षा व अन्य सुविधाओं तक पहुँचाने का अवसर प्रदान करती हैं।

निष्कर्ष – सड़कें कच्ची भी होती हैं और पक्की भी। कच्ची सड़कों को बनाना आसान व सस्ता पड़ता है। लेकिन इनका प्रयोग सभी ऋतुओं में नहीं किया जा सकता। अत्यधिक भारी वर्षा और बाढ़ के दौरान पक्की सड़कें भी टूट जाती हैं। सड़कें किसी भी देश के व्यापार और वाणिज्य को विकसित करने एवं पर्यटन को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। विश्व में परिवहन के अन्य साधनों की तुलना में सड़क परिवहन का विकास एवं प्रसार अधिक हुआ है तथा इसने आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

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प्रश्न 3.
भारत के आंतरिक जलमार्गों पर एक भौगोलिक लेख लिखिए।
अथवा
भारत के आंतरिक जलमार्गों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
किसी देश के औद्योगिक विकास के लिए जलमार्गों का विकसित होना नितांत आवश्यक है। संसार के लगभग सभी औद्योगिक तथा व्यापारिक राष्ट्रों को उत्तम जलमार्गों की सुविधा उपलब्ध है। जलमार्ग यात्रियों तथा माल के परिवहन का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। कोयला, धातु अयस्क, इस्पात, सीमेंट, उर्वरक, खाद्यान्न आदि भारी सामानों को जलमार्गों से वहन करने में न्यूनतम व्यय होता है अर्थात् भारी तथा कम मूल्य के पदार्थों के लिए जलमार्ग उपयुक्त तथा सस्ते साधन हैं। जलमार्गों के साधनों में ईंधन की खपत कम होने के कारण ये पर्यावरण के अनुकूल प्रणाली भी है। देश में जल परिवहन को दो भागों में बाँटा जा सकता है
1. अंतर्देशीय या आंतरिक जलमार्ग-भीतरी जलमार्गों में नदियों, नहरों तथा बड़ी झीलों को सम्मिलित किया जाता है। भारत में भीतरी जलमार्गों द्वारा केवल 5 से 35 लाख टन सामान प्रतिवर्ष ढोया जाता है। यह देश के परिवहन में लगभग 1 प्रतिशत का योगदान है। देश की विशालता, क्षेत्रफल, जनसंख्या तथा नदियों की दृष्टि से भारत में भीतरी जलमार्गों की सेवाएं नगण्य हैं।

नौ संचालन की दृष्टि से दक्षिणी भारत की अपेक्षा उत्तरी भारत की नदियाँ अधिक उपयोगी हैं क्योंकि ये हिमालय से निकलने के कारण वर्षभर जल से भरी रहती हैं। दक्षिण भारत की नदियों में केवल वर्षाकाल में ही जल उपलब्ध होता है। दक्षिणी भारत में नदियों की अपेक्षा इनसे निकली नहरें परिवहन के लिए अधिक उपयोगी हैं। पश्चिमी तट पर लैगूनों को नहरों द्वारा जोड़कर उपयोगी जलमार्ग तैयार किए गए हैं। भारत की अनेक नहरों को जल परिवहन के लिए उपयोग किया जाता है

  • पंजाब की सरहिंद नहर में हिमालय से लकडियाँ लाई जाती हैं।
  • गोआ से कच्चा लोहा नावों द्वारा मार्मागोआ बंदरगाह तक लाया जाता है।
  • केरल के पश्चिमी तट पर 480 कि०मी० लंबी नहर में जल परिवहन द्वारा प्रतिवर्ष लगभग 20 लाख टन सामान तथा 18 से 19 लाख यात्रियों का परिवहन होता है।
  • कोलकाता से प्रतिवर्ष लगभग 48 लाख टन चाय, जूट, खनिज, चावल तथा यात्री भारत के विभिन्न भागों में पहुँचाए जाते हैं।गोदावरी में दोलेश्वरम तक तथा कृष्णा नहर में परिवहन होता है।
  • आंध्र प्रदेश में कृष्णा तथा गोदावरी डेल्टा की नहरें काकीनाड़ा तथा मसुलिपट्टनम बंदरगाह के मध्य जल परिवहन के लिए

नदी परिवहन वर्षभर चालू रहने वाले मार्गों पर स्टीमर तथा बड़ी नावें चलती हैं। जलमार्गों की दृष्टि से पश्चिम बंगाल, असम, बिहार तथा तमिलनाडु राज्य महत्त्वपूर्ण हैं। हल्दिया-कोलकाता-पटना के मध्य प्रतिवर्ष लगभग एक लाख यात्री तथा 70 लाख टन माल स्टीमर व कारगो सेवा के द्वारा लगभग 935 कि०मी० की दूरी तक ढोया जाता है। असम, पश्चिम बंगाल तथा बिहार से कोलकाता तक नियमित स्टीमर सेवा उपलब्ध है। इसके द्वारा कृषि तथा बागान उद्योग का सामान तथा खनिज व यात्रियों की ढुलाई होती है।

ब्रह्मपुत्र नदी के मुहाने से डिब्रूगढ़ के मध्य लगभग 1440 कि०मी० तक स्टीमर सेवा उपलब्ध है। कोलकाता से असम तक स्टीमर चलते हैं। अधिकांश जूट, चाय, लकड़ी, चावल आदि सामान बड़े शहरों तक नावों द्वारा पहुंचाया जाता है। आंतरिक जलमार्गों के विकास के लिए सन् 1986 में भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण का गठन किया गया। यह प्राधिकरण देश में आंतरिक जलमार्गों तथा परिवहन की उन्नति, विकास, रख-रखाव तथा नियमन के लिए उत्तरदायी होगा। सरकार ने निम्नलिखित जलमार्गों को राष्ट्रीय जलमार्गों का दर्जा प्रदान किया है

  • राष्ट्रीय जलमार्ग-1 हल्दिया से इलाहाबाद तक गंगा नदी में 1620 कि०मी० तक फैला है। यह जलमार्ग उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल से गुजरता है।
  • राष्ट्रीय जलमार्ग-2 धुबरी से नादिया तक ब्रह्मपुत्र नदी में 891 कि०मी० तक फैला है। यह जलमार्ग पूर्वोत्तर क्षेत्र को कोलकाता तथा हल्दिया बंदरगाह से जोड़ता है।
  • राष्ट्रीय जलमार्ग-3 केरल में कोलम से कोटापुरम तक 250 कि०मी० तक फैला है।
  • राष्ट्रीय जलमार्ग-4 काकीनाड़ा से मखकानम जलमार्ग 1078 कि०मी० लंबा है। यह जलमार्ग गोदावरी तथा कृष्णा नदियों में फैला है।
  • राष्ट्रीय जलमार्ग-5 ब्रह्माणी नदी से महानदी डेल्टा नदी-तंत्र के साथ छरबतिया से घमारा तक का 588 कि०मी० लंबा है।

2. सामुद्रिक जलमार्ग भारत के 7,516 कि०मी० लंबे समुद्र तट पर 12 मुख्य तथा 185 छोटी बंदरगाहें स्थित हैं। इस तटीय भाग में परिवहन का मुख्य साधन जल परिवहन है। घरेलू माल की ढुलाई
तटीय जल परिवहन द्वारा होती है। देश की अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार का मुख्य स्थान होता है। लगभग सभी महत्त्वपूर्ण देशों के व्यापारी जहाज भारत के पत्तनों पर आते हैं।

भारत के हिंद महासागर से पूर्व तथा दक्षिण-पूर्व की ओर चीन, जापान, मलेशिया, इण्डोनेशिया तथा ऑस्ट्रेलिया को; दक्षिण तथा पश्चिम में संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप तथा अफ्रीका को तथा दक्षिण में श्रीलंका को सामुद्रिक मार्ग जाते हैं। इस प्रकार भारत, पश्चिम के औद्योगिक व सम्पन्न देशों, दक्षिण-पूर्वी, एशियाई विकासशील तथा कृषि प्रधान देशों के मध्य महत्त्वपूर्ण स्थिति में है। भारत के महत्त्वपूर्ण पत्तनों पर आने वाले महत्त्वपूर्ण जलमार्ग हैं

  • स्वेज जलमार्ग भारत तथा यूरोप के मध्य इस व्यापारिक मार्ग से कच्चा माल और खाद्य पदार्थ यूरोप को और तैयार माल तथा मशीनें भारत को आती हैं।
  • उत्तमाशा अंतरीप जलमार्ग-यह मार्ग भारत को दक्षिणी तथा पश्चिमी अफ्रीका से जोड़ता है।
  • सिंगापुर जलमार्ग यह जलमार्ग भारत को चीन तथा जापान से जोड़ता है। इस मार्ग से भारत, कनाडा तथा न्यूजीलैंड के मध्य भी व्यापार होता है। इस मार्ग से भारत को सूती, रेशमी कपड़ा, लोहे तथा इस्पात का सामान, मशीनें, रासायनिक पदार्थ तथा कागज आता है और बदले में रूई, मैंगनीज, जूट, लोहा, अभ्रक आदि निर्यात होता है।
  • सुदूर-पूर्व का जलमार्ग-यह जलमार्ग भारत तथा ऑस्ट्रेलिया के मध्य स्थित है। इस मार्ग से भारत में ऊन, फल, अयस्क आदि आते हैं तथा जूट, अलसी, चाय, इंजीनियरिंग का सामान तथा परिधान आदि का निर्यात होता है।

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प्रश्न 4.
भारत में परिवहन के साधन के रूप में तेल और गैस पाइपलाइनों के विकास पर टिप्पणी लिखिए।
अथवा
भारत में तेल और गैस पाइपलाइन परिवहन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
गैस एवं तरल पदार्थों का परिवहन पाइपलाइनों द्वारा किया जाता है। इसमें मुख्य रूप से गैस, गैसोलिन, पेट्रोलियम, ईंधन तथा जल का परिवहन किया जाता है। तेल उत्पादक क्षेत्रों से खनिज तेल शोधन-शालाओं और फिर खपत के क्षेत्रों तक पहुँचाने में पाइपलाइन सबसे सस्ता तथा सुलभ साधन है। पहले यह कार्य रेल तथा सड़क परिवहन द्वारा किया जाता था, लेकिन जब से पाइपलाइनों का प्रयोग किया जाने लगा, कई समस्याओं का समाधान हो गया।

स्वतंत्रता से पूर्व भारत में तेल पाइपलाइनें बहुत कम थीं, लेकिन 1960 के बाद नए तेल क्षेत्रों का अन्वेषण तथा उत्पादन में वृद्धि के कारण पाइपलाइनों की लंबाई में निरंतर वृद्धि होती गई। 1980 में देश में 5,000 कि०मी० लंबी पाइपलाइनें थीं, जो 1995-96 में लगभग 9,000 कि०मी० लंबी पाइपलाइनें हो गईं। देश में पहली पाइपलाइन सन् 1962 में असम राज्य में बिछाई गई। सन् 1964 में इस पाइपलाइन का विस्तार बिहार में बरौनी तक किया गया।

भारत का दूसरा तेल उत्पादक क्षेत्र गुजरात में कच्छ की खाड़ी के पास स्थित है। यहाँ विभिन्न तेल क्षेत्रों से शोधन-शालाओं को पाइपलाइन द्वारा जोड़ दिया गया है। 1965 में अंकलेश्वर-कोयली पाइपलाइन का निर्माण किया गया। इसके अतिरिक्त यहाँ काकोल-साबरमती, नवगांव-काकोल-कोयली पाइपलाइन, अंकलेश्वर-उत्तरन गैस लाइन, अंकलेश्वर-बडौदरा गैस लाइन, कैम्बे-धुबरन गैस पाइपलाइन तथा कोयली-अहमदाबाद पाइपलाइन का निर्माण कार्य गा, जिससे खाड़ी क्षेत्र के तेल उत्पादन को प्रोत्साहन मिला।

बॉम्बे हाई अरब सागर में महत्त्वपूर्ण तेल उत्पादक क्षेत्र है, यहाँ का तेल 1,256 कि०मी० लंबी पाइपलाइन द्वारा मथुरा की अति आधुनिक तेल शोधन-शाला में पहुँचाया जा रहा है। एक नई प्रस्तावित पाइपलाइन मथुरा से जालंधर तक है। इस पाइप लाइन से पानीपत की तेल शोधन-शाला को भी लाभ हो रहा है। इस पाइप लाइन को बॉम्बे हाई के अलावा कोयली (कोयली-मथुरा) से भी जोड़ दिया गया है।

गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया द्वारा विश्व की सबसे लंबी भूमिगत गैस लाइन हजीरा-विजयपुर-जगदीशपुर (H.V.J.) का निर्माण किया गया है जो 1750 कि०मी० लंबी है। इसे दिल्ली महानगर तक बढ़ाने की योजना है। एक पाइपलाइन कांडला से भटिंडा तक बनाने की योजना है जो गुजरात, राजस्थान और पंजाब में लगभग 1454 कि०मी० लंबी होगी तथा इस लाइन को मथुरा से भी जोड़ा जाएगा।

प्रश्न 5.
भारत में वायु परिवहन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
वायु परिवहन, परिवहन का सबसे तेज तथा महंगा साधन है। भारत जैसे बड़े भौगोलिक क्षेत्र वाले देश में बड़े-बड़े औद्योगिक तथा व्यापारिक केंद्रों के मध्य वाय परिवहन की सविधा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। देश के अत्यं पहुंचने के लिए वायु परिवहन एक उचित माध्यम है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी वायु परिवहन की आवश्यकता अपरिहार्य है।

भारत में वायु परिवहन के विकास के लिए उचित परिस्थितियां पाई जाती हैं। यहाँ की अनुकूल प्राकृतिक परिस्थितियां, तीव्र गति से औद्योगिक विकास, वायुयान बनाने के लिए कच्चे माल व तकनीकी ज्ञान की उपलब्धि तथा कुशल श्रमिकों की उपलब्धि मुख्य अनुकूल कारक हैं। इसके अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय वायुमार्गों में भारत की स्थिति अत्यंत लाभप्रद है।

भारत में वायु परिवहन की शुरुआत वर्ष 1911 में हुई जब इलाहाबाद से नैनी तक वायुयान डाक सेवा शुरू की गई। पहली अंतर्राष्ट्रीय वायु सेवा वर्ष 1922 में मद्रास से कराची के मध्य शुरू की गई। प्रथम महायुद्ध के पश्चात् भारत में वायु परिवहन का विकास तेजी से हुआ। वर्ष 1953 में भारत की सभी वायु परिवहन कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करके इसे दो निगमों में बांट दिया गया

  • इंडियन एयर लाइंस कार्पोरेशन तथा
  • एयर इंडिया इंटरनेशनल कार्पोरेशन जो अब एयर इंडिया के नाम से जानी जाती है।

प्रथम निगम का कार्यक्षेत्र आंतरिक उड़ानों तथा दूसरे निगम का कार्यक्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों से संबंधित है। मार्च, 1994 से निजी कंपनियों को भी वायु परिवहन व्यवसाय में भाग लेने का अधिकार दे दिया गया है। इससे सार्वजनिक क्षेत्र की इन दोनों कंपनियों का एकाधिकार समाप्त हो गया है। वायु परिवहन में निजी कंपनियों का हिस्सा तेजी से बढ़ने के कारण वर्तमान में कुल व्यवसाय का लगभग,63% निजी कंपनियों के हाथ में है। भारत में वायु परिवहन की सुविधाएँ प्रदान करने का दायित्व भारतीय विमान पत्तन प्राधिकरण का है।

प्रश्न 6.
भारत में संचार तंत्र का विस्तृत वर्णन कीजिए।
अथवा
संचार-तंत्र क्या होता है? भारत में संचार के विभिन्न साधनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वे साधन जो समाचारों तथा संदेशों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाते हैं; जैसे समाचार-पत्र, टेलीफोन, रेडियो, संचार, टेलीविजन आदि संचार के साधन कहलाते हैं। संचार साधन किसी देश के व्यापारिक तथा औद्योगिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारत के प्रमुख संचार साधन निम्नलिखित हैं
1. डाक सेवाएँ-देश में औसतन 4,700 व्यक्तियों के लिए एक डाकघर है जो सामान्यतया 22 वर्ग कि०मी० में काम करता है। देश में 50 हजार से अधिक गाँवों में चलती-फिरती डाक सेवा उपलब्ध है। लगभग सभी गाँवों में डाक प्रतिदिन वितरित की जाती है। भारत का संसार के लगभग सभी देशों के साथ डाक संचार संपर्क है।

2. टेलीफोन सेवाएँ जब भारत स्वतंत्र हुआ उस समय देश में केवल 321 टेलीफोन एक्सचेंज थे और संपूर्ण देश में 87,000 के लगभग टेलीफोन थे। मार्च, 1990 में देश में 14,300 टेलीफोन एक्सचेंज थे और टेलीफोनों की संख्या 45.91 लाख थी। देश के सभी प्रमुख नगरों के बीच सीधा डायल घुमाकर टेलीफोन किया जा सकता है। अब भारत का 50 से अधिक देशों के साथ सीधा टेलीफोन संपर्क स्थापित किया जा सकता है।

3. टैलेक्स सेवा-भारत में टैलेक्स सेवा 1963 ई० में आरंभ हुई थी। 31 दिसंबर, 1989 को देश के 311 नगरों में टैलेक्स सेवा उपलब्ध थी। अब देश में इसकी स्थापना के बाद तो इस सेवा का अत्यधिक विस्तार हो गया है।

4. टेलीविज़न या दूरदर्शन भारत में पहला दूरदर्शन केंद्र सन् 1959 में दिल्ली में स्थापित किया गया था। अब तो देश में रंगीन टेलीविज़न का भी प्रचलन हो गया है। टेलीविज़न शिक्षा, मनोरंजन तथा विज्ञान का प्रमुख साधन बन गया है। INSAT-IB की स्थापना से तो टेलीविज़न सेवा में एक क्रांति आ गई है। वर्तमान में एल०सी०डी०, एल०ई०डी० का अधिक प्रचलन है।

5. रेडियो और बेतार-इस समय देश में 200 से अधिक रेडियो स्टेशन हैं तथा लगभग 327 ट्रांसमीटर हैं। यह सेवा 94.96% जनसंख्या को प्राप्त है।

6. उपग्रह संचार सेवा भारत ने जून, 1981 में अपना पहला उपग्रह-APPLE SATELLITE अंतरिक्ष में भेजा था। INSAT-IB के अंतरिक्ष में स्थापित किए जाने के बाद तो उपग्रह संचार सेवा में एक क्रांति-सी आ गई है। यह बहु-उद्देशीय संचार उपग्रह है। INSAT-D के अंतरिक्ष में स्थापित किए जाने के बाद तो इस सेवा में और भी सुधार हुआ है।

श्री राकेश शर्मा भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री थे तथा डॉ० कल्पना चावला ने भारत की पहली महिला अंतरिक्ष यात्री होने का गौरव प्राप्त किया था।

7. समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ-समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं को जनसंचार के साधनों के नाम से जाना जाता है। इनका विभिन्न भाषाओं में दैनिक, साप्ताहिक या मासिक प्रकाशन होता है। ये लोगों तक आसानी से उपलब्ध होने वाले साधन हैं।

प्रश्न 7.
आधुनिक जीवन में ‘उपग्रह व कम्प्यूटर’ से भारत के जनसंचार-तंत्र में क्रांति आ गई वर्णन करें।
उत्तर:
उपग्रहों का उपयोग-भारत में अंतरिक्ष उपग्रह प्रणाली से संबंधित गतिविधियाँ सन् 1962 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति (इसरो) के गठन से प्रारंभ होकर वर्तमान समय तक अनवरत जारी हैं। उपग्रह प्रणाली के विकास से संसार और भारत के संचार तंत्र में एक क्रांति आ गई है। भारत की उपग्रह प्रणालियाँ दो प्रकार की हैं

  • भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह प्रणाली (इंडियन नेशनल सेटेलाइट सिस्टम-INSAT)
  • भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह प्रणाली (इंडियन रिमोट सेंसिंग सेटेलाइट सिस्टम-IRS)।

इन्सेट दूरसंचार, मौसम की जानकारी और पूर्वानुमान विविध प्रकार के आंकड़ों और कार्यक्रमों के लिए एक बहुउद्देशीय उपग्रह प्रणाली है। भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह (आई० आर० एस०) प्रणाली द्वारा अंतरिक्ष में स्थापित उपग्रह अनेक वर्णक्रमीय (स्पेक्ट्रल) बैंडों में आंकड़े एकत्र करते हैं तथा विभिन्न उपयोगों के लिए स्थलीय स्टेशनों को इनका प्रसारण करते हैं। ये उपग्रह प्रकृति के संसाधनों के प्रबंधन में बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। भारतीय सुदूर संवेदी एजेंसी हैदराबाद में स्थित है।

कंप्यूटर का उपयोग-आधुनिक युग में कंप्यूटर की भूमिका अत्यंत महत्त्वूपर्ण हो गई है। कंप्यूटर के माध्यम से इंटरनेट और ई-मेल किया जा सकता है। यह सारे संसार में कम लागत पर सूचनाएँ और ज्ञान प्रसारित कर सकता को तीव्र गति और कम लागत पर भेजा और प्राप्त किया जा सकता है। अपनी विशिष्ट सेवाओं और क्षमताओं के कारण कंप्यूटर का विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग बढ़ता जा रहा है। कंप्यूटर की विशिष्ट क्षमताएँ हैं-गति, शुद्धता, भंडारण क्षमता और स्वचालन। शिक्षा और ज्ञान के प्रसार में कंप्यूटर की भूमिका उल्लेखनीय है।

प्रश्न 8.
भारत में रेल परिवहन के विकास तथा वितरण का संक्षेप में वर्णन कीजिए। अथवा भारत में रेलमार्गों के विकास तथा महत्त्व का विस्तार से वर्णन करें।
उत्तर:
रेल परिवहन (Rail Transport) दूरस्थ क्षेत्रों को जोड़ने के लिए एवं आन्तरिक परिवहन की दृष्टि से रेल महत्त्वपूर्ण साधन है। रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा के पश्चात् भारतीय रेलतंत्र विश्व में चौथा बड़ा रेल जाल है। भारत में रेलवे परिवहन का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है। रेलवे भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों; जैसे कृषि, व्यापार, उद्योग तथा सेवा आदि के . विकास में सहयोग करने वाला प्रमुख माध्यम है। भारत में परिवहन साधनों का समुचित विकास के अभाव में कृषि क्षेत्रों से अन्न . को अन्य क्षेत्रों तक पहुंचाने, कोयले का अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरण, कच्चे माल को उद्योगों तक तथा तैयार माल को बाजार तथा पत्तनों तक पहुँचाने का कार्य मुख्यतः रेलों द्वारा ही होता है। भारतीय रेलवे, सुरक्षा, शान्ति व्यवस्था, राष्ट्रीय सांस्कृतिक तथा भौगोलिक एकता स्थापित करने में भी महत्त्वपूर्ण है।

भारत के रेलमार्ग का विकास 19वीं शताब्दी में प्रारम्भ हुआ। देश में पहली रेल मुंबई से थाणे तक 34 कि०मी० मार्ग पर 16 अप्रैल, 1853 को चलाई गई थी। देश के विभाजन से पूर्व भारत में लगभग 65.5 हजार कि०मी० लम्बा रेलमार्ग था, परन्तु विभाजन के पश्चात् लगभग 55000 कि०मी० लंबी लाइन भारत के हिस्से में आई। तब से भारतीय रेलों ने बहुत उन्नति की है और आज यह एक विशाल रेल तंत्र के रूप में विकसित हुआ है। वर्तमान में भारत में रेलमार्गों की कुल लम्बाई लगभग 67,368 कि०मी० है। इसमें दोहरा बहुपथ रेलमार्ग की लम्बाई लगभग 21,237 कि०मी० (कुल का 31.85%) और विद्युतकृत रेलमार्ग की लम्बाई लगभग 25,367 कि०मी० (कुल का 37.65%) है। देश के नियोजन काल में रेल परिवहन का संरचनात्मक तथा गुणात्मक विकास हुआ। रेलवे भारत का सबसे बड़ा राष्ट्रीयकृत सरकारी प्रतिष्ठान है।

रेलमार्गों का महत्त्व (Importance of Railways) भारत में रेलमार्गों का महत्त्व निम्नलिखित हैं-

  • रेल परिवहन संसार के आर्थिक विकास में अकेला सबसे अधिक शक्तिशाली कारक सिद्ध हुआ है। यह सर्वाधिक विभिन्न उत्पादों,
  • सवारियों तथा डाक ले जाने की सुविधा प्रदान करता है।
  • रेल स्थल पर अत्यंत तीव्र गति वाला परिवहन का साधन है।
  • यह मोटर गाड़ियों की अपेक्षा कई गुना अधिक भार ढोने की क्षमता रखता है।
  • रेल भारी तथा सस्ती वस्तुओं को दूर-दूर तक ले जाती है।
  • अधिक दूरी तय करने के लिए रेल सबसे उपयुक्त एवं सुविधाजनक साधन है।
  • स्थल पर पशुओं के परिवहन के लिए रेलों से बढ़कर कोई और सस्ता, सुविधाजनक और विस्तृत साधन उपलब्ध नहीं है।
  • रेल-तंत्र किसी भी देश के आंतरिक परिवहन का आधार होता है।

रेलमागों का वितरण (Distribution of Railways)-भारत में रेलमार्गों का वितरण समान नहीं है। देश में क्षेत्रीय स्तर पर सघन, सामान्य तथा विरल रेखा जाल पाया जाता है। रेलमार्गों के वितरण के तीन विभिन्न प्रतिरूप निम्नलिखित प्रकार से हैं
1. सघन रेलमार्गों वाला क्षेत्र-भारत के उत्तरी मैदान में अमृतसर से कोलकाता के बीच रेलमार्गों का सघन जाल बिछा हुआ है। यहाँ रेलमार्गों की सघनता 40 लाख कि०मी० प्रति 1000 कि०मी० है।

2. सामान्य रेलमार्गों वाला क्षेत्र-तमिलनाडु तथा छोटा नागपुर के क्षेत्रों को छोड़कर लगभग समस्त प्रायद्वीपीय पठार पर रेलों का घनत्व सामान्य है। यहाँ रेलमार्ग उत्तरी मैदान की तुलना में कम हैं। अपेक्षाकृत मध्यम जनसंख्या घनत्व, पहाड़ी तथा पठारी भूप्रदेश के कारण रेलों का आंतरिक भागों में विस्तार कम है।

3. विरल रेलमार्गों वाला क्षेत्र-इसके अंतर्गत निम्नलिखित क्षेत्र आते हैं-

  • हिमालय प्रदेश
  • उत्तरी पूर्वी भारत
  • पश्चिमी राजस्थान।

बिखरी हुई अल्प जनसंख्या, अल्प विकसित अर्थव्यवस्था, कठिन भूप्रदेश तथा रेल विकास की उच्च लागत इन क्षेत्रों की निम्न सघनता के कारण हैं।

रेलवे जोन (Railway Zones) भारतीय रेलवे का संचालन केंद्र सरकार द्वारा होता है। भारतीय रेलवे को नौ प्रखण्डों में बांटकर प्रशासन और संचालन को व्यवस्थित करने का प्रयास सन् 1950 के बाद किया गया। समस्त देश में रेलमार्गों का जाल निरंतर सघन होता जा रहा है।

वर्तमान में भारतीय रेल को 17 रेल मण्डलों (Zones) में विभाजित किया गया है जो निम्नलिखित प्रकार से हैं-

रेल-मण्डलमुख्यालय
1. उत्तरी-पूर्वी सीमांत रेल मण्डलमालेगांव (गुवाहाटी)
2. पूर्वोत्तर रेल मण्डलगोरसपुर
3. पूर्वी रेल मण्डलकोलकाता (हावड़ा)
4. दक्षिणी-पूर्वी रेल मण्डलकोलकाता
5. पूर्वी तटीय रेल मण्डलभुवनेश्वर
6. पूर्वी मध्य रेल मण्डलहाजीपुर
7. दक्षिणी-पूर्वी-मध्य रेल मण्डलबिलासपुर
8. उत्तर-मध्य रेल मण्डलइलाहाबाद
9. पश्चिम-मध्य रेल मण्डलजबत्लपुर
10. उत्तरी रेल मण्डलनई दिल्ली
11. उत्तरी-पश्चिमी रेल मण्डलजयपुर
12. पश्चिमी रेल मण्डलमुंबई (चर्च गेट)
13. दक्षिणी-मध्य रेल मण्डलसिकन्दराबाद
14. मध्य रेल मण्डलमुंबई (विक्टोरिया टर्मिनल)
15. दक्षिणी-पश्चिमी रेल मण्डलहुबली
16. दक्षिणी रेल मण्डलचेन्नई

रेल परिवहन भारत के आंतरिक स्थल परिवहन का आधार है। यह माल और. सवारियों को सुगमतापूर्वक दूर तक ढोने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से रेल परिवहन भारत के आर्थिक विकास और राष्ट्रीय एकीकरण में अकेला सबसे शक्तिशाली कारक सिद्ध हुआ है। महात्मा गाँधी ने कहा था कि “भारतीय रेलवे ने विविध संस्कृतियों के लोगों को एक साथ लाकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया है।”

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प्रश्न 9.
“भारत के आर्थिक विकास में रेलों और सड़कों का विकसित होना अति आवश्यक है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
भारत के आर्थिक विकास हेतु रेलों और सड़कों का विकसित होना अति आवश्यक है जिसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है

सड़कों की उपयोगिता-

  • सड़क परिवहन रेल, जहाज और वायुयान यातायात का पूरक है क्योंकि रेल और जहाज केवल सीमित स्थानों पर ही पहुँच सकते हैं जबकि सड़कें सभी गाँवों, नगरों और बाज़ारों को इन साधनों से जोड़ती हैं। इससे संपूर्ण परिवहन तंत्र की क्षमता बढ़ती है।
  • कृषि और ग्रामीण विकास में सड़कों का योगदान सर्वोपरि है। गाँवों तक कृषि यंत्र, खाद, उर्वरक, बीज इत्यादि पहुँचाना तथा कृषि-उत्पादों को मंडियों तक लाना सड़कों द्वारा ही संभव है।
  • सीमावर्ती दुर्गम क्षेत्रों में तैनात सेनाओं को रसद एवं युद्ध-सामग्री पहुँचाने का एकमात्र कारगर साधन सड़कें ही हैं।
  • सड़कें छोटे-से-छोटे गाँव को भी नगरों से मिलाकर ग्रामीण लोगों को शिक्षा एवं अन्य सुविधाओं तक पहुँचने का अवसर प्रदान करती हैं।
  • रेलमार्गों की तुलना में सड़कों का निर्माण सस्ता और आसान होता है।
  • सड़क यात्रा अधिक लोचदार (Flexible) होती है, जिसमें सवारी को कहीं भी चढ़ाया या उतारा जा सकता है। यह सुविधा रेलों, जहाज़ों और वायुयानों में नहीं है।

भारतीय रेल की उपयोगिता-भारतीय रेल की उपयोगिता निम्नलिखित हैं-

  • रेल परिवहन भारत के आंतरिक स्थल परिवहन का आधार है। यह माल और सवारियों को सुगमतापूर्वक दूर तक ढोने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • रेल परिवहन भारत के आर्थिक विकास और राष्ट्रीय एकीकरण में सबसे शक्तिशाली कारक है।
  • कोयले द्वारा चालित वाष्प इंजनों के प्रतिस्थापन से रेलवे स्टेशनों के पर्यावरण में भी सुधार हुआ है।
  • रेलों का सही विकास सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद आरंभ हुआ जब अंग्रेज़ सरकार ने अनुभव किया कि प्रशासन के शिकंजों को फैलाने और मज़बूत करने के लिए रेल-परिवहन का विकास आवश्यक है।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

HBSE 12th Class History भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए कि संप्रदाय के समन्वय से इतिहासकार क्या अर्थ निकालते हैं?
उत्तर:
इतिहासकारों की दृष्टि में भारत के विभिन्न समुदायों में विचारों व विश्वासों का आदान-प्रदान होता था। धार्मिक विश्वासों के बारे में वे मानते हैं कि कम-से-कम दो प्रक्रियाएँ चल रही थीं। एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रचार की थी। यह परंपरा मूल रूप से उच्च वर्गीय परंपरा थी जो वैदिक ग्रंथों में फली-फूली। ये ग्रंथ सरल संस्कृत छंदों में भी रचे गए। वैदिक परंपरा का यह सरल साहित्य सामान्य लोगों के लिए था।

दूसरी परंपरा शूद्र, स्त्रियों व अन्य सामाजिक वर्गों के बीच स्थानीय स्तर पर विकसित हुई विश्वास प्रणालियों पर आधारित थी। अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की ऐसी प्रणालियाँ काफी लंबे समय में विकसित हुईं। इन दोनों अर्थात् ब्राह्मणीय व स्थानीय परंपराओं के संपर्क में आने से एक-दूसरे में मेल-मिलाप हुआ। इसी मेल-मिलाप को (ख) इतिहासकार समाज की गंगा-जमुनी संस्कृति या संप्रदायों के समन्वय के रूप में देखते हैं। इसमें ब्राह्मणीय ग्रंथों में
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शूद्र व अन्य सामाजिक वर्गों के आचरणों व आस्थाओं को स्वीकृति मिली। दूसरी ओर सामान्य लोगों ने कुछ सीमा तक ब्राह्मणीय परंपरा को स्थानीय विश्वास परंपरा में शामिल कर लिया। इसका एक बेहतरीन उदाहरण उड़ीसा में पुरी में देखने को मिलता है। यहाँ स्थानीय देवता जगन्नाथ अर्थात् संपूर्ण विश्व का स्वामी था। बारहवीं सदी तक आते-आते उन्होंने अपने इस देवता को विष्णु के रूप में स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 2.
किस हद तक उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली मस्जिदों का स्थापत्य स्थानीय परिपाटी और सार्वभौमिक आदर्शों का सम्मिश्रण है?
उत्तर:
इस्लाम का लोक प्रचलन जहाँ भाषा व साहित्य में देखने को मिलता है, वहीं स्थापत्य कला (विशेषकर मस्जिद) के निर्माण में भी स्पष्ट दिखाई देता है। मस्जिद के लिए अनिवार्य है कि उसका प्रार्थना स्थल का दरवाजा मक्का की ओर खुले तथा मस्जिद में मेहराब तथा मिनबार (व्यासपीठ) हो। इन समानताओं को ध्यान में रखते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ मस्जिदें बनीं जिनमें मौलिकताएँ तो वही हैं लेकिन छत की स्थिति, निर्माण का सामान, सज्जा के तरीके व स्तंभों के बनाने की विधि अलग थी। इनको जन-सामान्य ने अपनी भौगोलिक व परंपरा के अनुरूप बनाया।

कश्मीर में श्रीनगर स्थित झेलम नदी के किनारे बनी चरार-ए-शरीफ को देखिए जो पहाड़ी क्षेत्र की भवन निर्माण परंपराओं को प्रदर्शित करती है। इससे स्पष्ट होता है कि इस्लामिक स्थापत्य स्थानीय लोक प्रचलन का एक हिस्सा बन गया, अर्थात् इनमें मस्जिद के सार्वभौमिक गुण भी थे तथा स्थानीय परिपाटी को भी अपनाया गया था।
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प्रश्न 3.
बे शरिया और बा शरिया सूफी परंपरा के बीच एकरूपता और अंतर, दोनों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सूफी फकीरों ने सिद्धांतों की मौलिक व्याख्या कर नवीन मतों की नींव रखी। जैसे उन्होंने खानकाह का जीवन त्यागकर रहस्यवादी, फकीर की जिंदगी को निर्धनता व ब्रह्मचर्य के साथ जिया। इन्हें कलंदर, मदारी, मलंग व हैदरी इत्यादि नामों से जाना गया। इन सूफी मतों में जो शरिया में विश्वास करते थे उन्हें बा-शरिया कहते थे तथा जो शरिया की अवहेलना करते थे उन्हें बे-शरिया कहा जाता था। इनमें एकरूपता इस बात की थी कि ये दोनों सूफी आंदोलन से थे।

इनकी जीवन-शैली सरल थी। ये इस्लामिक परंपराओं की व्याख्या सरल ढंग से करते थे। इनमें अंतर इनके विश्वास को लेकर था। बा-शरिया के फकीर धर्म को राजनीति से जुड़ा मानते थे तथा वे शासन को शरियत के अनुसार चलाने के पक्षधर थे, जबकि बे-शरिया धर्म की व्याख्या देश, काल, परिस्थिति के अनुसार करने में विश्वास करते थे।

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प्रश्न 4.
चर्चा कीजिए कि अलवार, नयनार व वीरशैवों ने किस प्रकार जाति प्रथा की आलोचना प्रस्तुत की?
उत्तर:
अलवार, नयनार व वीरशैव दक्षिण भारत में उत्पन्न विचारधाराएँ थीं। इनमें अलवार व नयनार तमिलनाडु में तथा वीरशैव कर्नाटक में थे। इन्होंने जाति प्रथा के बंधनों को अपने ढंग से नकारा। अलवार व नयनार संतों ने जाति प्रथा का खंडन किया। उन्होंने सभी मनुष्यों को एक ईश्वर की संतान घोषित किया। इनके साहित्य में वैदिक ब्राह्मणों की तुलना में विष्णु भक्तों को प्राथमिकता दी गई है। ये भक्त चाहे किसी भी जाति अथवा वर्ण से थे। अलवार व नयनार संत ब्राह्मण समाज, शिल्पकार और किसान समुदाय से थे। इनमें से कुछ तो ‘अस्पृश्य’ समझी जाने वाली जातियों में से भी थे। अलवार समाज ने इन संतों व उनकी रचनाओं को पूरा सम्मान दिया तथा उन्हें वेदों जितना प्रतिष्ठित बताया।

अलवार संतों का एक मुख्य काव्य ‘नलयिरादिव्यप्रबंधम्’ को तमिल वेद के रूप में मान्यता दी गई। लिंगायत समुदाय के लोगों ने भी जाति व्यवस्था का विरोध किया। इन्होंने ब्राह्मणीय धर्मशास्त्रों की मान्यताओं को नहीं स्वीकारा। उन्होंने वयस्क विवाह तथा विधवा पुनर्विवाह को मान्यता प्रदान की। इस समुदाय में अधिकतर वे लोग शामिल हुए जिनको ब्राह्मणवादी व्यवस्था में विशेष महत्त्व नहीं मिला। इनका विश्वास था कि जाति व्यवस्था वर्ग विशेष के हितों की पूर्ति करती है।

प्रश्न 5.
कबीर तथा बाबा गुरु नानक के मुख्य उपदेशों का वर्णन कीजिए। इन उपदेशों का किस तरह संप्रेषण हुआ ?
उत्तर:
कबीर तथा गुरु नानक मध्यकालीन संत परंपरा में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनके उपदेशों ने समाज को नई दिशा दी। कबीर-कबीर के जन्म, प्रारंभिक जीवन और वंश आदि के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। अधिकांश विद्वानों के अनुसार उनका जन्म बनारस में हिन्दू परिवार में हुआ, परन्तु उनका पालन-पोषण नीरू नामक जुलाहे के घर में हुआ। वे ईश्वर की एकता, समानता में विश्वास रखते थे। उन्होंने अच्छे कर्मों, चरित्र की उच्चता व मन की पवित्रता पर बल दिया।

जाति-पांति व वर्ग में वे विश्वास नहीं करते थे। उन्हें हिन्दू-मुसलमान एकता में दृढ़ विश्वास था। हजारों हिन्दू, मुस्लिम उनके शिष्य थे। वे मूर्ति-पूजा, व्यर्थ के रीति-रिवाज़ों व आडंबरों के घोर विरोधी थे। मूर्ति-पूजा का खंडन करते हुए उन्होंने बहुत सुंदर दोहा लिखा

“जे पाहन पूजै हरि मिलें, तो मैं पूनँ पहार।
वा ते यह चाकी भली, पीस खाए संसार।”

कबीर को रामानन्द का शिष्य माना जाता है। भक्ति आंदोलन के सुधारकों में कबीर को बड़ा ऊँचा और महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वे ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे। हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए उन्होंने भरसक प्रयास किए। उन्होंने जात-पात, छुआछूत, व्यर्थ के रीति-रिवाज़, मूर्ति पूजा, धार्मिक यात्राओं, अंधविश्वासों और बाह्य आडम्बरों का खंडन किया। उन्होंने मन की शुद्धता और अच्छे कर्म करने पर अधिक बल दिया।

श्री गुरु नानक देव जी-श्री गुरु नानक देव जी सिख धर्म के प्रणेता थे। उनका जन्म 1469 ई० में रावी नदी के तट पर स्थित तलवंडी (वर्तमान ननकाना साहिब) नामक गाँव में हुआ था। उनका झुकाव शुरू से ही अध्यात्मवाद की ओर था। उन्होंने सारे भारत में, दक्षिण में श्रीलंका से पश्चिम में मक्का और मदीना तक का भ्रमण किया था।

उनकी प्रमुख शिक्षा थी कि ईश्वर एक है। वह सर्वशक्तिमान है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने निष्काम भक्ति, शुभ कर्म, शुभ जीवन, नाम के स्मरण और आत्मसमर्पण पर अधिक बल दिया। मार्गदर्शन के लिए उन्होंने गुरु की अनिवार्यता को स्वीकार किया है। वे जाति-पाति, ऊँच-नीच, धर्म व वर्ग के भेदभाव के विरुद्ध थे। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। वे गृहस्थ जीवन को सर्वश्रेष्ठ मानते थे और उसके त्याग के पक्ष में नहीं थे।

उन्होंने गृहस्थ जीवन में ही ईश्वर की प्राप्ति को संभव बताया। धर्मनिरपेक्षता के प्रचार के लिए उन्होंने लंगर की प्रथा प्रारंभ की, उन्हें गरीबों से अत्यधिक सहानुभूति थी, धर्म के नाम पर आपसी संघर्ष व्यर्थ है। इन्होंने एक साधारण व्यक्ति का जीवन जीते हुए लोक भाषा में अपनी बात कही। इनके तर्क करने का ढंग तथा उपदेश जनता में लोकप्रिय हुए जिस कारण बहुत बड़ी संख्या में लोग इनका अनुसरण करने लगे।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
सूफी मत के मुख्य धार्मिक विश्वासों और आचारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सूफी मत के धार्मिक विश्वास सरल थे। ये सरल आदर्श ही इनके आचरण का आधार बने। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है नौवीं सदी में जब सूफी मत का आंदोलन के रूप में आविर्भाव हुआ, तो इसके लिए कुछ नियमों तथा सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। सूफी साधकों ने परमात्मा, आत्मा तथा सृष्टि आदि की विवेचना की। संक्षेप में, सूफी मत के सिद्धान्तों को निम्नलिखित प्रकार से दर्शाया जा सकता है

(1) परमात्मा के संबंध में सूफी साधकों का विचार था कि परमात्मा एक है। उनका मानना था कि वह अद्वितीय पदार्थ जो

(2) आत्मा को सूफी साधक ईश्वर का अंग मानते हैं। यह सत्य प्रकाश का अभिन्न अंग है, परन्तु मनुष्य के शरीर से उसका अस्तित्व खो जाता है।

(3) जगत के संबंध में सूफी साधकों का विचार है कि परमात्मा से सूर्य, चन्द्र, बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि, नक्षत्रगण आदि उत्पन्न हुए। परमात्मा की कृपा से ही अग्नि, हवा, जल, पृथ्वी का निर्माण हुआ। सूफी साधक जगत को माया से पूर्ण नहीं देखते थे।

(4) मनुष्य के संबंध में सूफी साधकों का विचार था कि मनुष्य परमात्मा के सभी गुणों को अभिव्यक्त करता है।

(5) सूफी साधकों ने पूर्ण मानव को अपना गुरु (मुर्शीद) माना। बिना आध्यात्मिक गुरु के वह कभी, कुछ नहीं प्राप्त कर सकता है।

(6) प्रेम को प्रायः सभी धर्मों में परमात्मा को प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ साधक माना है। सूफियों ने भी इसी प्रेम के द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने की आशा की।

(7) परमात्मा के साक्षात्कार के लिए, मिलन या एकाकार होने के लिए अपनी यात्रा में सूफियों को दस अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। सूफी मत के अनुसार ये दस अवस्थाएँ इस प्रकार थीं

  • तैबा (प्रायश्चित)
  • बरा (संयम)
  • जुहद (धर्मपरायणता)
  • फगर (निर्धनता)
  • सब्र (धैर्य)
  • शुक्र (कृतज्ञता)
  • खौफ (भय)
  • रज़ा (आशा)
  • तवक्कुल (संतुष्टि)
  • रिजा (देवी इच्छा के समक्ष आत्म-समर्पण)

इन सिद्धान्तों पर चलते हुए सूफी संत व उनके अनुयायी कष्टमय जीवन जीना पसन्द करते थे। उनके लिए सुख, साधन इतना अर्थ नहीं रखते थे जितना कि जिंदगी के सरलतम व ऊँचे आदर्शों के अनुरूप जीना। ये प्रायः समझौतावादी चिंतन नहीं अपनाते थे।

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प्रश्न 7.
क्यों और किस तरह शासकों ने नयनार और सूफी संतों से अपने संबंध बनाने का प्रयास किया?
उत्तर:
अलवार, नयनार व सूफी संत जन-साधारण के बीच काफी लोकप्रिय होते थे। शासक की तुलना में समाज पर उनकी पकड़ काफी अच्छी होती थी। शासकों की हमेशा यह इच्छा रहती थी कि वे इन संत-फकीरों का विश्वास जीत लें। इससे जनता के साथ जुड़ने में आसानी रहेगी तथा उन्हें जन समर्थन मिलने की उम्मीद रहेगी। तमिलनाडु क्षेत्र में शासकों ने अलवार-नयनार संतों को हर प्रकार का सहयोग दिया। इन शासकों ने उन्हें अनुदान दिए तथा मन्दिरों का निर्माण करवाया।

चोल शासकों ने चिदम्बरम, तंजावुर तथा गंगैकोंडचोलपुरम में विशाल शिव मन्दिरों का निर्माण करवाया। इन मन्दिरों में शिव की कांस्य प्रतिमाओं को बड़े स्तर पर स्थापित किया। अलवार व नयनार संत वेल्लाल कृषकों व सामान्य जनता में ही सम्मानित नहीं थे, बल्कि शासकों ने भी उनका समर्थन पाने का प्रयास किया। सुन्दर मन्दिरों का निर्माण व उनमें मूर्तियों (कांस्य, लकड़ी, पत्थर व अन्य धातुओं) की स्थापना के अतिरिक्त शासक वर्ग ने संत कवियों के गीतों व विचारों को भी महत्त्व दिया।

उन्होंने इन संत-कवियों की प्रतिमाएँ भी देवताओं के साथ लगवाईं। इन संतों के उपदेशों व भजनों का संग्रह करवाकर शासकों ने एक तमिल ग्रन्थ ‘तवरम’ का संकलन भी किया।

इसी तरह से सूफी संतों को भी शासकों ने विभिन्न तरह के अनुदान दिए। अजमेर में मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह तो शासक व शाही परिवार के सदस्यों की पहली पसन्द बन गई थी। मुहम्मद तुगलक सल्तनत काल का पहला सुल्तान था जिसने इस दरगाह की यात्रा की। मुहम्मद तुगलक स्वयं निजामुद्दीन औलिया की खानकाह पर भी निरन्तर जाया करता था। मुगल काल में अकबर ने अपने जीवन में अजमेर की 14 बार यात्रा की। उसने इस दरगाह को विभिन्न चीजें दीं। इसके बाद जहाँगीर, शाहजहाँ व शाहजहाँ की
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पुत्री जहाँआरा द्वारा भी इस स्थान पर जाने के प्रमाण मिलते हैं। अकबर ने फतेहपुर सीकरी में सलीम चिश्ती से न केवल भेंट की, बल्कि उससे प्रभावित होकर अपनी राजधानी भी आगरा से बदलकर फतेहपुर सीकरी कर दी। बाद में उसने सलीम चिश्ती की दरगाह का निर्माण भी फतेहपुर सीकरी के अन्य भवनों के बीच करवाया।
अतः स्पष्ट है कि शासक इन संत फकीरों के माध्यम से समाज से जुड़ना चाहते थे। इसी उद्देश्य से वे संतों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते थे और समाज पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता था।

प्रश्न 8.
उदाहरण सहित विश्लेषण कीजिए कि क्यों भक्ति और सूफी चिंतकों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया?
उत्तर:
सूफी फकीरों व भक्ति संतों की लोकप्रियता का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने स्थानीय भाषा में अपने विचारों को अभिव्यक्ति दी। चिश्ती सिलसिले के शेख व अनुयायी तो मुख्य रूप से हिंदवी में बात करते थे। बाबा फरीद, कबीर व श्री गुरु नानक की काव्य रचनाएँ स्थानीय भाषा में थीं। इनमें से अधिकतर श्री गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। कुछ और सूफियों ने ईश्वर के प्रति आस्था व मानवीय प्रेम को कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत किया। इनकी भाषा भी सामान्य व्यक्ति की थी।

मलिक मोहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ चित्तौड़ के राजा रतनसेन व पद्मिनी के बीच प्रेम-प्रसंग पर आधारित है। इसने समाज को सूफी विचारधारा से जोड़ने में मदद की। जायसी के अनुसार, प्रेम आत्मा का परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग है। चिश्तियों की तरह अन्य सूफियों ने भी विभिन्न तरह का काव्य वाचन किया। इस काव्य को खानकाहों व दरगाहों पर विभिन्न अवसरों पर गाया जाता था।

सूफी कविता की एक विधा 17वीं व 18वीं शताब्दी में कर्नाटक में बीजापुर क्षेत्र में विकसित हुई। इसे दक्खनी (उर्दू का एक रूप) कहा गया। इसमें महिलाओं के दैनिक जीवन व कार्य प्रणाली की छोटी-छोटी कविताएँ चिश्ती संतों द्वारा रची गईं। इनमें विभिन्न पारिवारिक परंपराओं पर कविताएँ लोरीनामा, शादीनामा तथा चरखानामा इत्यादि थीं। ये कविताएँ कार्य करते समय महिलाएँ गाया करती थीं। भक्ति सन्तों के उपदेश आज भी गीतों इत्यादि में इसलिए सुरक्षित हैं क्योंकि वे सामान्य व्यक्ति की भाषा में थे।

इसी सरल भाषा के माध्यम से आम व्यक्ति धर्म व अध्यात्म जैसी जटिल बातों को समझ पाते थे। इसी तरह सामाजिक रूढ़ियों व अन्ध-विश्वासों को कमजोर करने में सफलता तभी मिल सकती थी जब भाषा को समझा जा सके। इस तरह सूफी फकीरों व भक्ति संतों ने अपने विचार सामान्य व्यक्ति की भाषा में अभिव्यक्त किए।

प्रश्न 9.
इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पाँच स्रोतों का अध्ययन कीजिए और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
यह भक्ति व सूफी परंपराओं से संबंधित है। ये परंपराएँ राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से जुड़ी हुई नहीं हैं। मुख्यतयाः इनका आकार सामाजिक व धार्मिक है। विषय की प्रकृति में भिन्नता के कारण इनके स्रोतों में भी अंतर है। इस अध्याय में प्रयुक्त मुख्य पाँच स्रोतों व उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचार इस प्रकार हैं

1. लोकधारा-भक्ति व सूफी संतों की जानकारी के लिए अध्याय में मूर्ति कला, स्थापत्य कला एवं धर्म गुरुओं के संदेशों का प्रयोग किया गया है। इसी तरह उनके अनुयायियों द्वारा रचित गीत, काव्य रचनाएं, जीवनी इत्यादि भी प्रयोग में लाई गई हैं। सामाजिक-धार्मिक दृष्टि से इन्हें इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि जन-मानस उनमें विश्वास कर सके तथा जीवन के आदर्शों की प्रेरणा ले सके।

2. ‘कश्फ-उल-महजुब’-यह अली बिन उस्मान हुजविरी (मृत्यु 1071) द्वारा सूफी विचार व आचरण पर लिखित प्रारंभिक मुख्य पुस्तक है। इस पुस्तक में यह ज्ञान मिलता है कि बाह्य परंपराओं ने भारत के सूफी चिन्तन को कैसे प्रभावित किया या इससे स्थानीय समाज व धर्म कैसे प्रभावित हुआ।

3. मुलफुज़ात (सूफी संतों की बातचीत)-यह फारसी के कवि अमीर हसन सिजज़ी देहलवी द्वारा संकलित है। इस कवि द्वारा शेख निजामुद्दीन औलिया की बातचीत को आधार बनाकर ‘फवाइद-अल-फुआद’ ग्रन्थ लिखा गया। इनका उद्देश्य शेखों के उपदेशों एवं कथनों को संकलित करना होता था ताकि नई पीढ़ी उनका अनुकरण कर सके।

4. मक्तुबात-यह लिखे हुए पत्रों का संकलन होता है जिन्हें या तो स्वयं शेख ने लिखा था या उसके किसी करीबी अनुयायी ने। इन पत्रों में धार्मिक सत्य, अनुभव, अनुयायियों के लिए आदर्श जीवन-शैली व शेख की आकांक्षाओं का पता चलता है। शेख अहमद सरहिंदी (मृत्यु 1624) के लिखे पत्र ‘मक्तुबात-ए-इमाम रब्बानी’ में संकलित हैं जिसमें अकबर की उदारवादी तथा असांप्रदायिक विचारधारा का ज्ञान मिलता है।

5. ‘तज़किरा’-इसमें सूफी संतों की जीवनियों का स्मरण होता है। भारत में पहला सूफी तज़किरा मीर खुर्द किरमानी का सियार-उल-औलिया है जो चिश्ती संतों के बारे में है। भारत में सबसे महत्त्वपूर्ण तज़किरा ‘अख्यार-उल-अखयार’ है। तज़किरा में सिलसिले की प्रमुखता स्थापित करने का प्रयास किया जाता था। इसके साथ ही आध्यात्मिक वंशावली की महिमा को बढ़ा-चढ़ा कर लिखा जाता था।

इस तरह तज़किरा में कल्पनीय, अद्भुत व अविश्वसनीय बातें भी होती हैं। परंतु इतिहासकार का दायित्व है कि वह इन पक्षों के होते हुए भी इसमें से जानकारी ग्रहण करें। प्रस्तुत अध्याय में धार्मिक परंपरा के इतिहास लेखन के बारे में मौखिक व लिखित दोनों तरह की परंपराओं को समझने का प्रयास किया गया है। इनमें अभी कुछ ही साक्ष्य सुरक्षित हो पाए हैं।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
भारत के एक मानचित्र पर, 3 सूफी स्थल और 3 वे स्थल जो मंदिरों (विष्णु, शिव तथा देवी से जुड़ा एक मंदिर) से संबद्ध हैं, निर्दिष्ट कीजिए।
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परियोजना कार्य

प्रश्न 11.
इस अध्याय में वर्णित 3 धार्मिक उपदेशकों/चिंतकों/संतों का चयन कीजिए और उनके जीवन व उपदेशों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कीजिए। इनके समय, कार्यक्षेत्र और मुख्य विचारों के बारे में एक विवरण तैयार कीजिए। हमें इनके बारे में कैसे जानकारी मिलती है और हमें क्यों लगता है कि वे महत्त्वपूर्ण हैं।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें। इसके लिए दीर्घउत्तरीय प्रश्न 7 एवं 8 में संत कबीर एवं गुरु नानक देव जी का अध्ययन करें।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

प्रश्न 12.
इस अध्याय में वर्णित सूफी व देव स्थलों से संबद्ध तीर्थयात्रा के आचारों के बारे में अधिक जानकारी हासिल कीजिए। क्या ये यात्राएँ अभी भी की जाती हैं? इन स्थानों पर कौन लोग और कब-कब जाते हैं? वे यहाँ क्यों जाते हैं? इन तीर्थयात्राओं से जुड़ी गतिविधियाँ कौन सी हैं?
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें।

भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ HBSE 12th Class History Notes

→ शास्त्ररूढ़ शास्त्रों से संबंधित

→ जगन्नाथ-संपूर्ण विश्व का स्वामी

→ अलवार-तमिलनाडु में विष्णु के भक्त

→ अंडाल-तमिलनाडु की एक अलवार स्त्री भक्त

→ वीरशैव-शिव के वीर

→ आनुष्ठानिक-धार्मिक अनुष्ठान संबंधी

→ पतंजलि की कृति-पतंजलि की रचना

→ वैष्णव-विष्णु को इष्टदेव मानने वाले

→ नयनार-तमिलनाडु में शिव के भक्त

→ तवरम-तमिल भाषा में नयनारों के भजनों का एक ग्रन्थ

→ लिंगायत-लिंग धारण करने वाले शिव भक्त

→ जिम्मी-इस्लामिक राज्य में (गैर इस्लामी) संरक्षित श्रेणी के लोग

→ मुकद्दस-पवित्र

→ तामीर-निर्माण

→ मातृकुलीयता-माता के कुल से अपना संबंध जोड़ना

→ मिनबार-व्यासपीठ

→ जजिया-इस्लामिक राज्य में जिम्मियों से लिया जाने वाला कर

→ तामील-आज्ञा का पालन

→ मातृ-गृहता-माता का अपनी संतान के साथ मायके में रहना व पति का भी उसी परिवार में रहना

→ मेहराब-प्रार्थना का स्थल

→ इन्सान-ए-कामिल-मर्यादा पुरुषोत्तम

→ मुरीद-भक्त या अनुयायी

→ दरगाह-शेख का समाधि-स्थल

→ लंगर-सामुदायिक रसोई

→ काकी-रोटी (अन्न) बाँटने वाला

→ जियारत प्रार्थना

→ उलटबाँसी-विपरीत अर्थ वाली उक्तियाँ

→ कबीर-महान

→ सगुण-ईश्वर को किसी रूप या आकार में मानना

→ खालसा पंथ-पवित्रों की सेना

→ मक्तुबात-लिखे हुए पत्रों का संकलन

→ मुर्शीद-पीर या शेख

→ खानकाह-शेख का निवास

→ उर्स-पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन

→ फुतूह-बिना मांगा दान

→ मुरक्का-ए-दिल्ली-दिल्ली का एलबम

→ सल्तान-उल-मशेख शेखों में सुल्तान

→ नाम-सिमरन-ईश्वर का सच्चा जाप

→ निर्गुण-ईश्वर को किसी आकार या रूप में न स्वीकारना

→ संगत-सामुदायिक उपासना (उपासक)

→ मुलफुजात-सूफी संतों की बातचीत

→ तजकिरा-सूफी संतों की जीवनियों का स्मरण

→ 8वीं से 18वीं सदी का काल भारत के इतिहास में धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है, क्योंकि इस काल में धार्मिक विश्वास व श्रद्धा में विभिन्न तरह के परिवर्तन हो रहे थे। ये परिवर्तन आन्तरिक व बाह्य दोनों कारणों से हो रहे थे। इनके कारण केवल धर्म व धार्मिक परंपराएँ ही नहीं बदल रही थीं, बल्कि सामाजिक ताना-बाना भी प्रभावित हो रहा था। इस तरह के सामाजिक-धार्मिक परिवर्तनों के कारण राजनीतिक व्यवस्था, स्थिति व शासन करने की शैली में भी बदलाव आ रहा था। इन सभी परिवर्तनों की जड़ में भक्ति व सूफी परंपराएँ थीं। यहीं भक्ति व सूफी परंपराएँ इस अध्याय की विषय-वस्तु हैं।

→ वैदिक धर्म में जीवन के चार उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष बताए गए हैं। इन उद्देश्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मोक्ष को माना जाता है। मोक्ष को प्राप्त करने के लिए तीन मार्ग ज्ञान, कर्म व भक्ति बताए गए हैं। इन मार्गों में जनसामान्य में सर्वाधिक लोकप्रिय भक्ति मार्ग रहा। मध्यकाल में तो इसे भक्ति आंदोलन के नाम से जाना गया है, परंतु ध्यान योग्य पहलू यह है कि मध्यकाल तो इस परंपरा का शिखर काल था।

इसकी जड़ें प्राचीन काल में ही प्रकट होने लगी थीं। जब उपासक अपने इष्टदेव की आराधना मंदिरों में तल्लीनता से करते हुए प्रेम-भाव को व्यक्त करते थे। ये उपासक विभिन्न तरह की रचनाओं को गाते एवं श्रद्धा व्यक्त करते थे। इस तरह के भाव वैष्णव व शैव दोनों संप्रदायों के लोग अभिव्यक्त करते थे।

→ भक्ति शब्द की उत्पत्ति ‘भज्’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ सेवा से लिया जाता है। भक्ति व्यापक अर्थ में मनुष्य द्वारा ईश्वर या इष्टदेव के प्रति पूर्ण समर्पण होता है जिसके अनुरूप व्यक्ति स्वयं को अपने श्रद्धेय में समा लेता है। इसमें सामाजिक रूढ़ियाँ, ताना-बाना, मर्यादाएँ तथा बंधनों की भूमिका नहीं होती, बल्कि सरलता, समन्वय की भावना तथा पवित्र जीवन पर बल दिया जाता है। भक्ति संत कवियों ने समाज की रूढ़ियों व नकारात्मक चीजों का विरोध कर, उसके प्रत्येक वर्ग को अपने साथ जोड़ा, जिनके चलते हुए समाज का एक बड़ा वर्ग इनका अनुयायी व समर्थक बन गया।

→ सभी भक्त कवियों ने मोटे तौर पर एक ईश्वर में विश्वास, ईश्वर के प्रति निष्ठा व प्रेम तथा गुरु के महत्त्व पर बल दिया। साथ ही मानव मात्र की समानता, जीवन की पवित्रता, सरल धर्म तथा समन्वय की भावना के लिए कहा। इन संत कवियों में सगुण व निर्गुण के आधार पर अंतर था। सगुण के कुछ संत कवि भगवान राम के रूप में लीन थे, जबकि कुछ को कृष्ण का रूप पसन्द था। इन्हीं आधारों पर इन्हें राममार्गी तथा कृष्णमार्गी कहा जाता था।

→ भक्ति परंपरा की शुरुआत वर्तमान तमिलनाडु क्षेत्र में छठी शताब्दी में मानी जाती है। प्रारंभ में इस परंपरा का नेतृत्व विष्णु भक्त अलवारों तथा शिव भक्त नयनारों ने किया। ये अलवार तथा नयनार संतों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते थे। ये अपने इष्टदेव की स्तुति में भजन इत्यादि गाते थे। इन संतों ने कुछ स्थानों को अपने इष्टदेव का निवास स्थान घोषित कर दिया जहाँ पर बड़े-बड़े मन्दिरों का निर्माण किया गया।

इस तरह ये स्थल तीर्थ स्थलों के रूप में उभरे। संत-कवियों के भजनों को मन्दिरों में अनुष्ठान के समय गाया जाने लगा तथा इन संतों की प्रतिमा भी इष्टदेव के साथ स्थापित कर दी गई। इस तरह इन संतों की भी पूजा प्रारंभ हो गई।
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→ बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक क्षेत्र में एक नए आंदोलन की शुरुआत हुई जिसको बासवन्ना (1106-68) नामक ब्राह्मण संत ने नेतृत्व दिया। बासवन्ना चालुक्य राजा के दरबार में मंत्री थे व जैन धर्म में विश्वास करते थे। उनकी विचारधारा को कर्नाटक क्षेत्र में बहुत लोकप्रियता मिली। उसके अनुयायी शिव के उपासक वीरशैव कहलाए। उनमें से लिंग धारण करने वाले लिंगायत बने। इस समुदाय के लोग शिव की उपासना लिंग के रूप में करते हैं तथा पुरुष अपने बाएं कंधे पर, चाँदी के एक पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते हैं। इन लिंगधारी पुरुषों को लोग बहुत सम्मान देते हैं तथा श्रद्धा व्यक्त करते हैं। कन्नड़ भाषा में इन्हें जंगम या यायावर भिक्षु कहा जाता है।

→ अरब क्षेत्र में इस्लाम का उदय विश्व के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। 7वीं शताब्दी में इसके उदय के पश्चात् यह धर्म पश्चिमी एशिया में तेजी से फैला और कालांतर में यह भारत में भी पहुँचा। तत्पश्चात् यहाँ बाहर से आई धार्मिक व वैचारिक पद्धति के साथ आदान-प्रदान की प्रक्रिया शुरू हुई। फलतः एक नया सामाजिक ताना-बाना उभरा।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

→ इस्लाम के भारत में आगमन के पश्चात् जो परिवर्तन हुए वे मात्र शासक वर्ग तक सीमित नहीं थे, बल्कि संपूर्ण उपमहाद्वीप के जन-सामान्य के विभिन्न वर्गों; जैसे कृषक, शिल्पी, सैनिक, व्यापारी इत्यादि से भी जुड़े थे। समाज के बहुत-से लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया। उन्होंने अपनी जीवन-शैली व परंपराओं का पूरी तरह परित्याग नहीं किया, लेकिन इस्लाम की आधार स्तम्भ पाँच बातें अवश्य स्वीकार कर लीं।

→ सूफी शब्द की उत्पत्ति के बारे में सभी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। हाँ यह स्पष्ट है कि सूफीवाद का अंग्रेज़ी समानार्थक शब्द ‘सूफीज्म’ है। सूफीज्म शब्द हमें प्रकाशित रूप में 19वीं सदी में मिलता है। इस्लामिक साहित्य में इसके लिए तसब्बुफ शब्द मिलता है। कुछ विद्वान यह स्वीकारते हैं कि यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ है ऊन अर्थात् जो लोग ऊनी खुरदरे कपड़े पहनते थे उन्हें सूफी कहा जाता था। कुछ विद्वान सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ साफ होता है।

→  इसी तरह कुछ अन्य विद्वान सूफी को सोफिया (यानि वे शुद्ध आचरण) से जोड़ते हैं। इस तरह इस शब्द की उत्पत्ति के बारे में एक मत तो नहीं हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि इस्लाम में 10वीं सदी के बाद अध्यात्म, वैराग्य व रहस्यवाद में विश्वास करने वाली सूचियों की संख्या काफी थी तथा ये काफी लोकप्रिय हुए। इस तरह 11वीं शताब्दी तक सूफीवाद एक विकसित आंदोलन बन गया।

→ भारतीय उपमहाद्वीप में कई सिलसिलों की स्थापना हुई। इनमें सर्वाधिक सफलता चिश्ती सिलसिले को मिली, क्योंकि जन-मानस इसके साथ अधिक जुड़ पाया। चिश्ती सिलसिले की स्थापना ख्वाजा इसहाक शामी चिश्ती ने की। परंतु भारत में इसकी स्थापना का श्रेय मुईनुद्दीन चिश्ती को जाता है। मुईनुद्दीन चिश्ती का जन्म 1141 ई० में ईरान में हुआ। इस सिलसिले के अन्य संतों में कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, हमीदुद्दीन नागौरी, निजामुद्दीन औलिया व शेख सलीम चिश्ती इत्यादि हैं। इनकी कार्य प्रणाली, जीवन-शैली व ज्ञान ने भारत के जन-सामान्य को आकर्षित किया।

समय-रेखा

काल (लगभग)व्यक्ति व क्षेत्र की जानकारी
1. छठी व सातवीं शताब्दी 500-700 ईoतमिलनाडु में अलवार व नयनारों के नेतृत्व में भक्ति आन्दोलन का उदय।
2. आठवीं व नौवीं शताब्दी 700-900 ई०तमिलनाडु में सुन्दर मूर्ति, नम्मलवर, मणिक्वचक्कार व अंडाल का समय, शंकराचार्य (788-820) का काल
3. दसर्वं व ग्यारहवीं शताब्दी 900-1100 ई०उत्तर भारत में राजपूतों का उत्थान, पंजाब में अल हुजविरी, दाता गंज बख्श तथा तमिलनाडु में रामानुजाचार्य का काल।
4. बारहवीं शताब्दी 1100-1200 ई०कर्नाटक में बासवन्ना (1106-68) तथा उत्तर भारत में मोहम्मद गोरी के आक्रमण 1192 ई० में मुइनुद्दीन चिश्ती का भारत आगमन।
5. तेरहवीं शताब्दी 1200-1300 ई०खाजा मुइनुद्दीन चिश्ती का अजमेर में स्थापित होना, दिल्ली में बख्तियार काकी, महाराष्ट्र में ज्ञानदेव, पंजाब में बहाऊद्दीन जकारिया व फरीदुद्दीन गंज-ए-शंकर; दिल्ली सल्तनत की स्थापना।
6. चौदहवीं शताब्द्री 1300-1400 ई०दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो व जियाऊद्दीन बर्नी, सिन्ध में शाहबाज कलन्दर, कश्मीर में लाल देद, उत्तर प्रदेश में रामानंद।
7. पंद्रहवीं शताब्द्री 1400-1500 ई०उत्तर प्रदेश में कबीर, रैदास व सूरदास; पंजाब में गुरुनानक; महाराष्ट्र में तुकाराम व नामदेव; असम में शंकरदेव; गुजरात में बल्लभाचार्य व ग्वालियर में अब्दुल्ला सत्तारी।
8. सोलहवीं शताब्दी 1500-1600 ई०राजस्थान में मीराबाई; पंजाब में गुरु अंगददेव व गुरु अर्जुन देव, उत्तर प्रदेश में मलिक मोहम्मद जायसी, तुलसीदास। भारत में मुगल वंश की स्थापना, बंगाल में श्री चैतन्य।
9. सत्रहवीं शताब्दी 1600-1700 ई०हरियाणा क्षेत्र में शेख अहमद सरहिन्दी; पंजाब व दिल्ली में गुरु तेग बहादुर, उत्तर भारत में गुरु गोबिन्द सिंह व पंजाब में मियाँ मीर।
10. अठारहवीं शताब्दी 1700-1800 ई०बंगाल में संन्यासी व चुआरो का उत्थान, भारत में अंग्रेजी शासन का प्रारंभ, राजा राम मोहन राय का जन्म (1774)।

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HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. धार्मिक विश्वास व आचार में समन्वय अधिक देखने को मिला
(A) शिव की उपासना में
(B) विष्णु की उपासना में
(C) देवी की उपासना में
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

2. समाजशास्त्री रेडफील्ड ने सांस्कृतिक समन्वय की परंपरा को नाम दिया
(A) महान व लघु
(B) उच्च व कमजोर
(C) पूर्वी व पश्चिमी
(D) उत्तरी व दक्षिणी
उत्तर:
(A) महान व लघु

3. देवियों की उपासना को प्रारंभ में किस नाम से जाना गया?
(A) मातृ पूजा
(B) तंत्रवाद
(C) लक्ष्मी पूजा
(D) दुर्गा पूजा
उत्तर:
(B) तंत्रवाद

4. मध्यकाल में बौद्ध धर्म में कौन सी नई शाखा पनपी?
(A) हीनयान
(B) महायान
(C) वज्रयान
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(C) वज्रयान

5. हिन्दू धर्म की परंपरा के अनुसार कौन-सा मार्ग मोक्ष से नहीं जुड़ा?
(A) ज्ञान
(B) कर्म
(C) भक्ति
(D) दान
उत्तर:
(D) दान

6. अलवार व नयनार परंपरा भारत के किस क्षेत्र में पनपी?
(A) गुजरात
(B) तमिलनाडु
(C) महाराष्ट्र
(D) कर्नाटक
उत्तर:
(B) तमिलनाडु

7. तमिल वेद किस रचना को माना जाता है?
(A) नलयिरादिव्यप्रबंधम्
(B) लोक मीमांसा
(C) तोलकापियम
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(A) नलयिरादिव्यप्रबंधम्

8. अंडाल नामक अलवार स्त्रीभक्त किसकी उपासना करती थी?
(A) विष्णु
(B) शिव
(C) देवी
(D) जगन्नाथ
उत्तर:
(A) विष्णु

9. चोल शासकों के मन्दिर नहीं हैं
(A) चिदम्बरम में
(B) गगैकोंडचोलपुरम में
(C) कांचीपुरम में
(D) तंजावुर में
उत्तर:
(C) कांचीपुरम में

10. दसवीं शताब्दी तक कितने अलवारों की कविताओं का संकलन हो गया था?
(A) 10
(B) 12
(C) 14
(D) 16
उत्तर:
(B) 12

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

11. कंधे पर लघु शिवलिंग धारियों को कन्नड़ साहित्य में कहा गया है
(A) जंगम
(B) वीरशैव
(C) लिंगायत
(D) दाता
उत्तर:
(A) जंगम

12. कर्नाटक में भक्ति आंदोलन के प्रमुख माने जाते हैं।
(A) सुन्दरम
(B) बासवन्ना
(C) विश्वेरिया
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) बासवन्ना

13. त्रिपक्षीप संघर्ष में शामिल नहीं थे
(A) पाल
(B) प्रतिहार
(C) चोल
(D) राष्ट्रकूट
उत्तर:
(C) चोल

14. दिल्ली सल्तनत की स्थापना कब हुई?
(A) 1025 ई० में
(B) 1191 ई० में
(C) 1206 ई० में
(D) 1526 ई० में
उत्तर:
(C) 1206 ई० में

15. भारत पर पहला अरब आक्रमण किसने किया?
(A) महमूद गजनवी ने
(B) मुहम्मद-बिन-कासिम ने
(C) मुहम्मद गोरी ने
(D) बाबर ने
उत्तर:
(B) मुहम्मद-बिन-कासिम ने

16. इस्लामी राज्य में गैर-इस्लामी जनता को क्या कहा जाता था?
(A) यवन
(B) मलेच्छ
(C) निम्न
(D) जिम्मी
उत्तर:
(D) जिम्मी

17. अकबर ने जजिया कब हटाया?
(A) 1560 ई० में
(B) 1562 ई० में
(C) 1564 ई० में
(D) 1576 ई० में
उत्तर:
(C) 1564 ई० में

18. मुस्लिम व्यापारियों द्वारा मातृगृहता व मातृकुलीयता की परंपरा किस क्षेत्र में अपनाई गई?
(A) असम
(B) केरल
(C) पंजाब
(D) सिन्ध
उत्तर:
(B) केरल

19. सूफी संतों ने इस्लाम में इन्सान-ए-कामिल किसे घोषित किया?
(A) पैगम्बर मोहम्मद को
(B) खलीफा अबुबकर को
(C) मुइनुद्दीन चिश्ती को
(D) अकबर को
उत्तर:
(A) पैगम्बर मोहम्मद को

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

20. इस्लामिक साहित्य में सूफी आंदोलन को क्या नाम दिया गया है?
(A) सिलसिला
(B) खानकाह
(C) दरगाह
(D) तसत्वुफ
उत्तर:
(D) तसत्वुफ

21. सूफी संत के अनुयायी आम भाषा में क्या कहलाते थे?
(A) मुर्शीद
(B) भिक्षु
(C) मुरीद
(D) जोगी
उत्तर:
(C) मुरीद

22. सूफी संत के निवास को क्या कहा जाता था?
(A) आश्रम
(B) खानकाह
(C) दरगाह
(D) मस्जिद
उत्तर:
(B) खानकाह

23. भारत में सूफी आंदोलन का कौन-सा सिलसिला अधिक लोकप्रिय हुआ?
(A) चिश्ती
(B) कादरी
(C) सुहरावर्दी
(D) नक्शबंदी
उत्तर:
(A) चिश्ती

24. मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह कहाँ है?
(A) दिल्ली में
(B) जयपुर में
(C) लाहौर में
(D) अजमेर में
उत्तर:
(D) अजमेर में

25. निजामुद्दीन औलिया की दरगाह कहाँ है?
(A) दिल्ली में
(B) जयपुर में
(C) लाहौर में
(D) अजमेर में
उत्तर:
(A) दिल्ली में

26. अमीर खुसरो किसे अपना गुरु (श्रद्धेय) मानते थे?
(A) मुइनुद्दीन चिश्ती को
(B) कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी को
(C) निजामुद्दीन औलिया को
(D) सलीम चिश्ती को
उत्तर:
(C) निजामुद्दीन औलिया को

27. मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर अकबर ने कितनी बार यात्रा की?
(A) 10
(B) 14
(C) 18
(D) 20
उत्तर:
(B) 14

28. ‘वे दिल्ली का चिराग नहीं बल्कि मुल्क का चिराग थे?’ ये किसके बारे में कहा गया?
(A) निजामुद्दीन औलिया के बारे में
(B) नसीरुद्दीन-ए-चिराग के बारे में
(C) दाता-ए-गंज बख्श के बारे में
(D) उपर्युक्त सभी के बारे में
उत्तर:
(B) नसीरुद्दीन-ए-चिराग के बारे में

29. मलिक मुहम्मद जायसी की रचना कौन-सी है?
(A) पृथ्वीराज रासो
(B) तजाकिरा
(C) पद्मावत
(D) तहकीक-ए-हिन्द
उत्तर:
(C) पद्मावत

30. चिश्ती शेख प्रायः पसन्द नहीं करते थे
(A) ऐश्वर्यपूर्ण जीवन
(B) राज दरबार में ऊँचे पद
(C) शासकों की गोष्ठियों में शामिल होना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

31. ‘बीजक’ किसकी रचना मानी जाती है?
(A) सूरदास की
(B) तुलसीदास की
(C) कबीरदास की
(D) मीराबाई की
उत्तर:
(C) कबीरदास की

32. संत कबीर का गुरु किन्हें माना जाता है?
(A) रामानंद को
(B) रामानुज को
(C) शंकराचार्य को
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(A) रामानंद को

33. श्री गुरु नानक देव जी का जन्म कब हुआ?
(A) 1398 ई० में
(B) 1419 ई० में
(C) 1469 ई० में
(D) 1526 ई० में
उत्तर:
(C) 1469 ई० में

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

34. ‘आदि ग्रंथ’ का संकलन किसने किया?
(A) श्री गुरु नानक देव जी ने
(B) श्री गुरु अर्जुन देव जी ने
(C) श्री गुरु तेग बहादुर जी ने
(D) श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने
उत्तर:
(B) श्री गुरु अर्जुन देव जी ने

35. मीराबाई की शादी किस परिवार में हुई?
(A) जयपुर के परिवार में
(B) जोधपुर के परिवार में
(C) बीकानेर के परिवार में
(D) मेवाड़ के परिवार में
उत्तर:
(D) मेवाड़ के परिवार में

36. मीराबाई किसकी उपासक थी?
(A) विष्णु की
(B) शिवजी की
(C) श्रीकृष्ण की
(D) श्रीराम की
उत्तर:
(C) श्रीकृष्ण की

37. मीराबाई के गुरु कौन माने जाते हैं?
(A) रैदास
(B) दादू
(C) नामदेव
(D) मलुकदास
उत्तर:
(A) रैदास

38. असम क्षेत्र में भक्ति आंदोलन के संत कवि थे
(A) चैतन्य
(B) शंकरदेव
(C) नामदेव
(D) रामानंद
उत्तर:
(B) शंकरदेव

39. सूफी संतों की बातचीत पर आधारित रचना कहलाती है
(A) तजकिरा
(B) मुलफुज़ात
(C) रिहला
(D) रूबाई
उत्तर:
(B) मुलफुज़ात

40. सूफी संतों के जीवनी संस्मरण पर आधारित रचना को कहा जाता है
(A) तजकिरा
(B) मुलफुज़ात
(C) रिला
(D) रूबाई
उत्तर:
(A) तजकिरा

41. जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ क्या है?
(A) शिव का अवतार
(B) विष्णु का अवतार
(C) संपूर्ण विश्व का स्वामी
(D) सभी का संरक्षक
उत्तर:
(C) संपूर्ण विश्व का स्वामी

42. उड़ीसा में जगन्नाथ के साथ पूजा जाने वाला उनका भाई या अन्य देवता कौन-सा है?
(A) विष्णु
(B) बलराम (बलभद्र)
(C) सूर्य
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) बलराम (बलभद्र)

43. श्री गुरु नानक देव जी के उत्तराधिकारी कौन थे?
(A) श्री गुरु तेग बहादुर जी
(B) श्री गुरु अंगद देव जी
(C) श्री गुरु अर्जुन देव जी
(D) श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी
उत्तर:
(B) श्री गुरु अंगद देव जी

44. धार्मिक समन्वय की श्रृंखला में भारत के विभिन्न हिस्सों में नए देवी-देवताओं की पूजा होने लगी। ये मुख्य रूप से किस देवी-देवता के प्रतीक थे?
(A) विष्णु
(B) शिव
(C) लक्ष्मी या पार्वती
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

45. तमिलनाडु में भक्ति परंपरा से जुड़े संत कहलाते थे
(A) अलवार
(B) नयनार
(C) (A) व (B) दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) (A) व (B) दोनों

46. अलवार व नयनारों के किस विचार ने उन्हें सामान्य समुदाय में लोकप्रिय बनाया?
(A) वैदिक चिन्तन ने
(B) मन्दिरों के प्रति लगाव ने
(C) धन-सम्पदा पूर्ण जीवन ने
(D) उनके जाति के प्रति दृष्टिकोण ने
उत्तर:
(D) उनके जाति के प्रति दृष्टिकोण ने

47. चोल शासकों द्वारा सर्वाधिक मन्दिर किस देवता के बनाए गए?
(A) शिव
(B) ब्रह्मा
(C) राम
(D) कृष्ण
उत्तर:
(A) शिव

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48. कर्नाटक में भक्ति आन्दोलन की प्रारंभिक परंपरा किस नाम से लोकप्रिय हुई?
(A) अलवार
(B) नयनार
(C) वीरशैव
(D) सूफी
उत्तर:
(C) वीरशैव

49. वीरशैव परम्परा में लिंग धारण करने वालों को क्या कहा जाता था?
(A) अलवार
(B) नयनार
(C) धर्म रक्षक
(D) लिंगायत
उत्तर:
(D) लिंगायत

50. लिंगायतों ने विरोध किया
(A) पुनर्जन्म के सिद्धान्त का
(B) कठोर जाति प्रथा का
(C) स्थापित ब्राह्मणीय व्यवस्था की कठोरता का
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

51. भारत में इस्लाम ने प्रवेश किया
(A) व्यापार के माध्यम से
(B) विजय अभियान के हिस्से के रूप में
(C) सांस्कृतिक परिवर्तन की अदला-बदली से
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

52. सैद्धांतिक रूप में इस्लामिक राज्य में कानून का स्रोत माना जाता है?
(A) शरियत को
(B) खलीफा के आदेश को
(C) शासक के कथन को
(D) काजी के निर्णय को
उत्तर:
(A) शरियत को

53. अकबर ने पहली बार अजमेर में ‘नवाज शरीफ’ की यात्रा कब की?
(A) 1556 ई० में
(B) 1562 ई० में
(C) 1568 ई० में
(D) 1572 ई० में
उत्तर:
(B) 1562 ई० में

54. निम्नलिखित में एक भक्ति आन्दोलन का प्रचारक नहीं था
(A) महात्मा बुद्ध
(B) कबीर
(C) रामानन्द
(D) गुरु नानक
उत्तर:
(A) महात्मा बुद्ध

55. “हिन्दू और मुसलमान एक ही मिट्टी से बने हैं।” ये शब्द किस संत के हैं?
(A) शंकराचार्य
(B) जयदेव
(C) कबीर
(D) गुरु नानक
उत्तर:
(C) कबीर

56. भारत के किस भाग में भक्ति आन्दोलन आरम्भ हुआ?
(A) उत्तरी भारत
(B) दक्षिणी भारत
(C) पूर्वी भारत
(D) पश्चिमी भारत
उत्तर:
(B) दक्षिणी भारत

57. निम्नलिखित में से सूफी मत का प्रचारक कौन था?
(A) विवेकानन्द
(B) रामानन्द
(C) मुईनुद्दीन
(D) कबीर
उत्तर:
(C) मुईनुद्दीन

58. ‘गीत गोविन्द’ का रचयिता कौन था?
(A) जयदेव
(B) नामदेव
(C) सोमदेव
(D) रामानन्द
उत्तर:
(A) जयदेव

59. प्रथम सिक्ख गुरु कौन थे?
(A) गुरु नानक देव जी
(B) गुरु अमर दास
(C) श्री गुरु तेग बहादुर जी
(D) श्री गुरु अर्जुन देव जी
उत्तर:
(A) गुरु नानक देव जी

60. “परमात्मा मन्दिरों और मस्जिदों की चार दीवारियों में बन्द नहीं है, वह तो किसी अच्छे हृदय में वास करता है।” ये किसके शब्द हैं?
(A) महात्मा बुद्ध
(B) कबीर
(C) महावीर
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) कबीर

61. ‘रामचरितमानस’ की रचना किसने की थी?
(A) सूरदास
(B) जयदेव
(C) कबीर
(D) तुलसीदास
उत्तर:
(D) तुलसीदास

62. “सो क्यों मन्दा आखिये, जित जम्मे राजान।” ये शब्द किसके हैं?
(A) शंकराचार्य
(B) कबीर
(C) गुरु नानक
(D) रामानन्द
उत्तर:
(C) गुरु नानक

63. निम्नलिखित में भक्ति आन्दोलन का कौन प्रचारक नहीं था?
(A) गुरु नानक
(B) कबीर
(C) तुलसीदास
(D) गुरु गोबिन्द सिंह
उत्तर:
(D) गुरु गोबिन्द सिंह

64. सल्तनत काल में सूफी मत का प्रचार निम्नलिखित ने किया
(A) मलिक काफूर ने
(B) निजामुद्दीन औलिया ने
(C) रामानन्द ने
(D) फिरोज़ तुगलक ने
उत्तर:
(B) निजामुद्दीन औलिया ने

65. भक्ति आन्दोलन ने सबसे गहरी चोटी मारी
(A) ब्राह्मणों पर
(B) क्षत्रियों पर
(C) वैश्यों पर
(D) शूद्रों पर
उत्तर:
(A) ब्राह्मणों पर

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66. भक्ति आन्दोलन (निर्गुण भक्ति) में निम्नलिखित में से किस पर अधिक जोर दिया गया?
(A) हिन्दू-मुस्लिम पृथक्-पृथक् हैं
(B) कर्म-काण्डों में विश्वास
(C) मूर्ति-पूजा का विरोध
(D) मूर्ति-पूजा में विश्वास
उत्तर:
(C) मूर्ति-पूजा का विरोध

67. मध्यकाल में अधिक सम्मान होता था
(A) ब्राह्मणों का
(B) राजपूतों का
(C) शूद्रों का
(D) मुसलमानों का
उत्तर:
(A) ब्राह्मणों का

68. दक्षिणी भारत में भक्त प्रचारक थे
(A) एकनाथ व नामदेव
(D) कबीर तथा नानक
(C) रामानन्द तथा चैतन्य
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(A) एकनाथ व नामदेव

69. ‘गरीब नवाज’ किस शहर में स्थित है?
(A) आगरा
(B) दिल्ली
(C) जयपुर
(D) अजमेर
उत्तर:
(D) अजमेर

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
उपासना पद्धति में लघु व महान परंपरा किस चिन्तक का विचार है?
उत्तर:
उपासना पद्धति में लघु व महान परंपरा रॉबर्ट रेडफील्ड का विचार है।

प्रश्न 2.
उड़ीसा का जगन्नाथ मन्दिर किस स्थान पर है?
उत्तर:
उड़ीसा का जगन्नाथ मन्दिर पुरी में है।

प्रश्न 3.
तमिलनाडु में विष्णु भक्तों को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
तमिलनाडु में विष्णु भक्तों को अलवार कहा जाता था।

प्रश्न 4.
तमिलनाडु में शिव भक्तों को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
तमिलनाडु में शिव भक्तों को नयनार कहा जाता था।

प्रश्न 5.
तमिल क्षेत्र में बहु-चर्चित स्त्रीभक्त कौन थी?
उत्तर:
तमिल क्षेत्र में बहु-चर्चित स्त्रीभक्त अंडाल थी।

प्रश्न 6.
कर्नाटक में नवीन संत आंदोलन किससे माना जाता है?
उत्तर:
कर्नाटक में नवीन संत आंदोलन बासवन्ना से माना जाता है।

प्रश्न 7.
कर्नाटक का भक्ति आंदोलन किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
कर्नाटक का भक्ति आंदोलन वीरशैव लिंगायत के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 8.
मुहम्मद-बिन-कासिम ने भारत पर आक्रमण कब किया?
उत्तर:
मुहम्मद-बिन-कासिम ने भारत पर 711 ई० में आक्रमण किया।

प्रश्न 9.
इस्लामिक राज्य में गैर-इस्लामिक प्रजा को क्या कहते हैं?
उत्तर:
इस्लामिक राज्य में गैर-इस्लामिक प्रजा को जिम्मी कहते हैं।

प्रश्न 10.
भारत में प्रवासी संप्रदायों के लिए संस्कृत साहित्य में क्या नाम दिया गया है?
उत्तर:
भारत में प्रवासी संप्रदायों के लिए संस्कृत साहित्य में मलेच्छ नाम दिया गया है।

प्रश्न 11.
इस्लाम की आदर्श पुस्तक कौन-सी है?
उत्तर:
इस्लाम की आदर्श पुस्तक कुरान है।

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प्रश्न 12.
शेख (संत) का निवास स्थान क्या कहलाता था?
उत्तर:
शेख (संत) का निवास स्थान खानकाह कहलाता था।

प्रश्न 13.
शेख संत की कब्र पर बना स्मारक क्या कहलाता है?
उत्तर:
शेख संत की कब्र पर बना स्मारक दरगाह कहलाता है।

प्रश्न 14.
मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह कहाँ है?
उत्तर:
मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह अजमेर में है।

प्रश्न 15.
बर्नी व खुसरो किसके शिष्य थे?
उत्तर:
बर्नी व खुसरो निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे।

प्रश्न 16.
मुगल शासकों द्वारा बार-बार किस दरगाह में यात्रा की गई?
उत्तर:
मुगल शासकों द्वारा बार-बार अजमेर शरीफ की दरगाह में यात्रा की गई।

प्रश्न 17.
श्री गुरु नानक देव जी की किन्हीं दो रचनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
जपु जी साहिब, आसा दी वार ।

प्रश्न 18.
कबीर जी का जन्म स्थान किसे माना जाता है?
उत्तर:
कबीर जी का जन्म काशी में माना जाता है।

प्रश्न 19.
‘कबीर ग्रन्थावली’ का संकलन किसने किया?
उत्तर:
‘कबीर ग्रन्थावली’ का संकलन दादू पंथियों ने किया।

प्रश्न 20.
श्री गुरु नानक देव जी ने उपासना की पद्धति कौन-सी दी?
उत्तर:
श्री गुरु नानक देव जी ने उपासना की नाम जाप पद्धति दी।

प्रश्न 21.
खालसा पंथ की स्थापना कब और किसने की?
उत्तर:
खालसा पंथ की स्थापना 1699 ई० में श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने की।

प्रश्न 22.
मीराबाई किस क्षेत्र की राजकुमारी थी?
उत्तर:
मीराबाई मेड़ता की राजकुमारी थी।

प्रश्न 23.
‘जपुजी साहिब’ की रचना किसने की थी?
उत्तर:
‘जपुजी साहिब’ की रचना श्री गुरु नानक देव जी ने की थी।

प्रश्न 24.
शंकरदेव के इष्ट देव कौन थे?
उत्तर:
शंकरदेव के इष्ट देव विष्णु थे।

प्रश्न 25.
श्री गुरु नानक देव जी के उत्तराधिकारी कौन थे?
उत्तर:
श्री गुरु नानक देव जी के उत्तराधिकारी श्री गुरु अंगद देव जी थे।

प्रश्न 26.
भक्ति आन्दोलन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
भक्ति आन्दोलन से अभिप्राय भक्ति द्वारा मोक्ष की प्राप्ति करना है।

प्रश्न 27.
सूफी मत के पंजाब में प्रसिद्ध प्रचारक कौन थे?
उत्तर:
सूफी मत के पंजाब में प्रसिद्ध प्रचारक बाबा फरीद थे।

प्रश्न 28.
भक्ति आन्दोलन के प्रमुख प्रचारक कौन थे?
उत्तर:
भक्ति आन्दोलन के प्रमुख प्रचारक शंकराचार्य, कबीर, गुरु नानक तथा चैतन्य थे।

प्रश्न 29.
भक्ति आन्दोलन का जन्म कहाँ हुआ?
उत्तर:
भक्ति आन्दोलन का जन्म दक्षिणी भारत में हुआ।

प्रश्न 30.
भक्ति आन्दोलन का एक राजनीतिक प्रभाव बताइए।
उत्तर:
अकबर ने सहनशीलता की नीति को अपनाया।

प्रश्न 31.
कोई एक सूफी सिद्धान्त बताइए।
उत्तर:
एकेश्वरवाद तथा रहस्यवाद।

प्रश्न 32.
भक्ति आन्दोलन का एक उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
भक्ति आन्दोलन का एक उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता है।

प्रश्न 33.
भक्ति आन्दोलन के प्रचारकों की भाषा क्या थी?
उत्तर:
भक्ति आन्दोलन के प्रचारकों की भाषा सरल स्थानीय भाषा थी।

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प्रश्न 34.
भक्ति आन्दोलन के कारण से पंजाब में कौन-से नए धर्म का जन्म हुआ?
उत्तर:
भक्ति आन्दोलन के कारण से पंजाब में सिक्ख धर्म का जन्म हुआ।

प्रश्न 35.
गुरु नानक ने कौन-सी भाषा में प्रचार किया?
उत्तर:
गुरु नानक ने पंजाबी भाषा में प्रचार किया।

प्रश्न 36.
पहली बार हिन्दी भाषा में भक्ति आन्दोलन का प्रचार किसने किया?
उत्तर:
पहली बार हिन्दी भाषा में भक्ति आन्दोलन का प्रचार रामानन्द ने किया।

प्रश्न 37.
सूफी मत का उदय कहाँ हुआ?
उत्तर:
सूफी मत का उदय ईरान में हुआ।

प्रश्न 38.
महाराष्ट्र के सन्तों के नाम लिखो।
उत्तर:
महाराष्ट्र के सन्तों के नाम संत तुकाराम, नामदेव, एकनाथ, रामदास आदि थे।

प्रश्न 39.
चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति आन्दोलन का प्रचार कहाँ किया?
उत्तर:
चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति आन्दोलन का प्रचार बंगाल में किया।

प्रश्न 40.
उत्तरी भारत में सुहरावर्दी सम्प्रदाय की स्थापना किसने की?
उत्तर:
उत्तरी भारत में सुहरावर्दी सम्प्रदाय की स्थापना शेख बहाउद्दीन जगरिया ने की।

प्रश्न 41.
सूफी मत के नक्शबन्दिया सम्प्रदाय के संस्थापक कौन थे?
उत्तर:
सूफी मत के नक्शबन्दिया सम्प्रदाय के संस्थापक बहाउद्दीन नक्शबन्द थे।

प्रश्न 42.
सूफी मत के कादरी सम्प्रदाय की स्थापना किसने की?
उत्तर:
सूफी मत के कादरी सम्प्रदाय की स्थापना नासिरुद्दीन महमूद जिलानी ने की।

प्रश्न 43.
‘खानकाह’ किसे कहते थे?
उत्तर:
सूफी संतों के आश्रम को ‘खानकाह’ कहते थे।

प्रश्न 44.
सूफी मत में पीर तथा मुरीद से क्या अर्थ था?
उत्तर:
पीर गुरु को तथा मुरीद शिष्य को कहा जाता था।

प्रश्न 45.
जगन्नाथ का विश्व प्रसिद्ध मन्दिर कहाँ है?
उत्तर:
जगन्नाथ का विश्व प्रसिद्ध मन्दिर पुरी (उड़ीसा) में है।

प्रश्न 46.
जगन्नाथ को किसका रूप माना गया?
उत्तर:
जगन्नाथ को विष्णु का रूप माना गया।

प्रश्न 47.
भक्ति विचारधारा के दो रूप कौन-कौन से थे?
उत्तर:
भक्ति विचारधारा के दो रूप निर्गुण व सगुण थे।

प्रश्न 48.
कर्नाटक में शिव भक्तों को क्या कहा गया?
उत्तर:
कर्नाटक में शिव भक्तों को वीरशैव कहा गया।

प्रश्न 49.
कर्नाटक में शिव के वे भक्त जो लिंग धारण करते थे, क्या कहलाते थे?
उत्तर:
कर्नाटक में शिव के वे भक्त जो लिंग धारण करते थे लिंगायत कहलाते थे।

प्रश्न 50.
पुनर्जन्म के बारे में लिंगायतों का क्या विश्वास था?
उत्तर:
वे इसे अस्वीकार करते थे।

प्रश्न 51.
इस्लाम में धर्मशास्त्री क्या कहलाता है?
उत्तर:
इस्लाम में धर्मशास्त्री उलेमा कहलाता है।

प्रश्न 52.
इस्लाम के मुख्य दो मत कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
इस्लाम के मुख्य दो मत शिया व सुन्नी हैं।

प्रश्न 53.
मातृ-गृहता व मातृकुलीयता की परंपरा भारत के किस राज्य में थी?
उत्तर:
मातृ-गृहता व मातृकुलीयता की परंपरा भारत के केरल राज्य में थी।

प्रश्न 54.
चरार-ए-शरीफ की मस्जिद कहाँ है?
उत्तर:
चरार-ए-शरीफ की मस्जिद कश्मीर में है।

प्रश्न 55.
सूफी मत में पीर की आत्मा का परमात्मा से मिलन क्या कहलाता है?
उत्तर:
सूफी मत में पीर की आत्मा का परमात्मा से मिलन उर्स कहलाता है।

प्रश्न 56.
सूफी संत की दरगाह पर की गई प्रार्थना क्या कहलाती है?
उत्तर:
सूफी संत की दरगाह पर की गई प्रार्थना जियारत कहलाती है।

प्रश्न 57.
कबीर इस्लामी दर्शन से प्रभावित होकर अल्लाह, खुदा, हजरत व पीर को किस रूप में देखते है?
उत्तर:
कबीर इस्लामी दर्शन से प्रभावित होकर अल्लाह, खुदा, हजरत व पीर को सत्य के रूप में देखते हैं।

प्रश्न 58.
कबीर ने शब्द व शून्य की अभिव्यंजनाएँ किससे ली हैं?
उत्तर:
कबीर ने शब्द व शून्य की अभिव्यंजनाएँ योगी परंपरा से लीं हैं।

प्रश्न 59.
‘पद्मावत’ का लेखक कौन था ?
उत्तर:
‘पद्मावत’ का लेखक ‘मलिक मुहम्मद जायसी’ था।

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प्रश्न 60.
पाँचवें सिक्ख गुरु कौन थे?
उत्तर:
पाँचवें सिक्ख गुरु, गुरु अर्जुन देव जी थे।

प्रश्न 61.
दसवें व अन्तिम सिक्ख गुरु थे?
उत्तर:
दसवें व अन्तिम सिक्ख गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी थे।

प्रश्न 62.
सूफी संतों की बातचीत पर आधारित ग्रन्थ क्या कहलाता है?
उत्तर:
सूफी संतों की बातचीत पर आधारित ग्रन्थ मुलफुजात कहलाता है।

अति लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सांस्कृतिक समन्वय की कड़ी में ‘महान’ व ‘लघु’ परंपरा से क्या आशय है?
उत्तर:
सांस्कृतिक समन्वय की परंपरा-जिन आदर्शों को उच्च वर्ग के लोग मानते थे अर्थात् जो परंपरा उच्च वर्ग की थी एवं अधिक प्रभावी थी, उसे ‘महान्’ परंपरा की संज्ञा दी गई। दूसरी ओर स्थानीय जन-साधारण में फली-फूली परंपरा को ‘लघु’ परंपरा कहा गया है। ‘लघु’ व ‘महान्’ के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान से साँझी भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति का विकास हुआ है। लेकिन यह मेल-मिलाप सदैव सौहार्दपूर्ण स्थितियों में नहीं रहा, बल्कि द्वन्द्वपूर्ण था अर्थात् सौहार्द के साथ-साथ मतभेद व तनाव भी इसका हिस्सा थे।

प्रश्न 2.
तंत्रवाद व तंत्रवादी विचारधारा से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
धार्मिक उपासना पद्धति में देवी की उपासना को तंत्रवाद या तांत्रिक के नाम से भी जाना गया। इस पूजा पद्धति में स्त्री, पुरुष तथा सभी वर्गों व वर्गों के लोग शामिल होते थे। इस विचारधारा का प्रभाव शैव व बौद्ध धर्म पर भी पड़ा। बौद्ध धर्म में भी नई धारा विकसित हुई जिसे वज्रयान का नाम दिया गया तथा इस विचारधारा में महात्मा बुद्ध को विष्णु का अवतार स्वीकार कर लिया गया। यह बौद्ध धर्म की तंत्रवादी विचारधारा थी।

प्रश्न 3.
अलवार व नयनार परंपरा क्या थी?
उत्तर:
अलवार व नयनार परंपरा का संबंध तमिलनाडु क्षेत्र से था। भक्ति आंदोलन के प्रारंभिक क्षेत्र में जो भक्त विष्णु की पूजा करते थे, अलवार कहलाते थे। जबकि शिव की पूजा करने वाले नयनार कहलाते थे। अलवार तथा नयनार संतों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते थे। वे अपने इष्टदेव की स्तुति में भजन इत्यादि गाते थे। इन संतों ने कुछ स्थानों को अपने इष्टदेव का निवास स्थान घोषित कर दिया जहाँ पर बड़े-बड़े मन्दिरों का निर्माण किया गया। इस तरह ये स्थल तीर्थ-स्थलों के रूप में उभरे।

प्रश्न 4.
अलवार नयनार परंपरा में शामिल महिलाओं के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
अलवार नयनार परंपरा में केवल पुरुष ही नहीं थे, बल्कि स्त्रियाँ भी शामिल थीं। अंडाल नामक अलवार स्त्री के भक्ति गीत उस समय बहुत लोकप्रिय हुए। वह स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपने भावों को अभिव्यक्त करती थी। नयनार परंपरा में कराइक्काल अम्मइयार नामक महिला को बहुत सम्मान मिला जिसने घोर तपस्या की। इन परंपराओं में शामिल स्त्रियों ने सामाजिक कर्तव्यों को त्याग दिया, लेकिन वे किसी वैकल्पिक व्यवस्था की सदस्या अर्थात् भिक्षुणी इत्यादि नहीं बनीं। इनकी जीवन-शैली व रचनाएँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था को खुली चुनौती थीं।

प्रश्न 5.
वीरशैव परंपरा पर संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर:
वीरशैव परंपरा कर्नाटक क्षेत्र में थी। इसको बासवन्ना (1106-68) नामक ब्राह्मण संत ने नेतृत्व दिया। बासवन्ना चालुक्य राजा के दरबार में मंत्री थे। वे शिव के उपासक थे। उनकी विचारधारा को बहुत लोकप्रियता मिली। उनके अनुयायी शिव के उपासक अर्थात् वीरशैव कहलाए। उनमें से जो लिंग धारण करते थे, उन्हें लिंगायत कहा जाता था। इस समुदाय के लोग शिव की उपासना लिंग के रूप में करते हैं, इन लिंगधारी पुरुषों को लोग बहुत सम्मान देते हैं तथा श्रद्धा व्यक्त करते हैं। कन्नड़ भाषा में इन्हें जंगम या यायावर भिक्षु कहा जाता है।

प्रश्न 6.
नाथ, सिद्ध व जोगी कौन थे? इनकी गतिविधियों का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
मध्यकालीन नाथ, सिद्ध व जोगी उत्तरी भारत के वे लोग थे जो ब्राह्मणीय पूजा-पद्धति व विचारधारा को स्वीकार नहीं करते थे। इन नाथ, सिद्ध व जोगियों में कुछ शिल्पी या जुलाहे थे। ब्राह्मणीय व्यवस्था में उन्हें ‘निम्न’ दर्जा प्राप्त था।

परंतु भक्ति परंपरा में उन्हें बहुत सम्मान मिला। साथ ही उनकी दस्तकारियों को भी प्रोत्साहन मिला। सांस्कृतिक व आर्थिक दोनों स्तरों पर उनका योगदान रहा। दस्तकारी की गतिविधियों के कारण नगरीय क्षेत्रों का विस्तार हुआ तथा इनकी चीजों की माँग मध्य व पश्चिमी एशिया में बहुत अधिक बढ़ी जिससे व्यापार को प्रोत्साहन मिला।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

प्रश्न 7.
उलेमा से क्या अभिप्राय है? इनकी शासन में क्या भूमिका थी?
उत्तर:
उलेमा इस्लाम में धर्मशास्त्री होता है। यह आलिम का बहुवचन है। आलिम का अर्थ होता है ज्ञानी अर्थात् जिसके पास इलम (ज्ञान) है वह आलिम कहलाएगा तथा आलिमों का समूह उलेमा। इस समूह (उलेमा) का यह कर्त्तव्य था कि शासन-व्यवस्था में शासक को सलाह भी दे तथा इस्लाम धर्म की रक्षा हेतु कार्य भी करे। लेकिन व्यवहार में इस्लाम को कठोरता से प्रचलन में लाना आसान नहीं था क्योंकि शासित जनता भारत में गैर-इस्लामिक (हिन्दू व अन्य) थी। शासक को प्रजा की भावना को ध्यान में रखना पड़ता था। इसलिए उलेमा प्रायः शासक का सलाहकार रहा। वह प्रायः शासक को अपने दबाव में नहीं ले पाया। वे ऊँचे पदों पर नियुक्त अवश्य थे।

प्रश्न 8.
मुगल शासकों ने जनता से जुड़ने के लिए कैसी नीति अपनाई?
उत्तर:
मुगल शासक सल्तनत काल के शासकों की तुलना में अधिक व्यावहारिक थे। उन्होंने प्रायः उलेमा वर्ग के दबाव को अस्वीकार करते हुए कुछ भिन्न कदम उठाए तथा जनता को यह एहसास करवाया कि वे मात्र मुस्लिम समाज के शासक नहीं हैं, बल्कि सभी समुदायों के हैं। इस बारे में उन्होंने शासितों के लिए काफी लचीली नीति अपनाई।

जैसे अकबर ने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर में छूट दी, 1564 ई० में जजिया कर हटाया, विभिन्न मन्दिरों व धार्मिक संस्थाओं के लिए भूमि अनुदान दिए तथा कर इत्यादि में छूट दी। वस्तुतः अकबर ने गैर-इस्लामिक (हिंदू) को जिम्मी नहीं वरन् उन्हें बिना किसी भेदभाव के प्रजा स्वीकार किया। इस तरह के कार्य अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ तथा यहाँ तक कि औरंगजेब द्वारा भी किए गए।

प्रश्न 9.
भारत में इस्लाम लोक प्रचलन में कैसे आया? इसका क्या प्रभाव रहा?
उत्तर:
भारत में इस्लाम के आगमन से हुए परिवर्तन मात्र शासक वर्ग तक सीमित नहीं थे, बल्कि संपूर्ण उपमहाद्वीप के जन-सामान्य के विभिन्न वर्गों; जैसे कृषक, शिल्पी, सैनिक, व्यापारी इत्यादि से भी जुड़े थे। समाज के बहुत-से लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया। उन्होंने अपनी जीवन-शैली व परंपराओं का पूरी तरह परित्याग नहीं किया, लेकिन इस्लाम की आधार स्तम्भ पाँच बातें अवश्य स्वीकार कर लीं।

इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति भी स्थानीय भाषा में ही जारी रखी, जिससे पंजाबी, मुल्तानी, सिंधी, कच्छी, हिन्दी, गुजराती जैसी भाषाओं को विकास के लिए बल मिला क्योंकि इन भाषाओं के लोगों ने कुरान के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए इनका प्रयोग किया। इसी तरह नई लिपि भी सामने आई, जिसमें प्रमुख रूप से खोजकी लिपि थी जिसे खोजा इस्माइली (शिया) समुदाय द्वारा विकसित किया गया। पंजाब, सिन्ध व गुजरात में व्यापारी लोग इसका प्रयोग करते थे जिसे लंडा या लांडी हिन्दी भी कहा जाता था।

प्रश्न 10.
मध्यकालीन समाज व साहित्य में समुदायों के नामकरण का क्या आधार था?
उत्तर:
मध्यकालीन समाज व साहित्य में समुदायों का नामकरण भौगोलिक व भाषायी आधार पर होता था। उस समाज में प्रायः हिन्दू व मुस्लिम जैसे शब्द इस तरह प्रयोग नहीं होते थे। 8वीं से 14वीं शताब्दी के संस्कृत ग्रन्थों व अभिलेखों में मुसलमान शब्द का प्रयोग शायद ही हुआ हो, बल्कि समुदायों के नाम उनके जन्म के क्षेत्र के आधार पर प्रयोग होते थे; जैसे तुर्की, ताजिक, फारसी, अरबी व अफगान इत्यादि।

प्राचीनकाल में भी नाम भौगोलिक आधार पर ही प्रयुक्त होते थे। जैसे अफगानों को शक तथा यूनान के लोगों को यवन इत्यादि। संस्कृत साहित्य में प्रवासियों तथा उन लोगों के लिए, जो वर्ण-व्यवस्था में शामिल नहीं थे, मलेच्छ शब्द का प्रयोग होता है। यह शब्द इस बात की पुष्टि भी करता है कि इन प्रवासियों की भाषा संस्कृत भाषायी परिवार की नहीं है।’

प्रश्न 11.
सूफी सिलसिलों का नामकरण कैसे हुआ?
उत्तर:
सूफी सिलसिलों के नाम मुख्य रूप से उनके स्थापित करने वाले के नाम पर पड़े। जैसे चिश्ती सिलसिले का नाम उसके संस्थापक खाजा इसहाक, शामी, चिश्ती, कादरी सिलसिला शेख अब्दुल कादिर जिलानी तथा नक्शबंदी सिलसिला बहाऊद्दीन नक्शबन्द के नाम से पड़ा। यहाँ पर ध्यान देने योग्य है कि चिश्ती सिलसिले के संस्थापक ख्वाज़ा इसहाक शामी का चिश्ती नाम मध्य अफगानिस्तान में स्थित उनके जन्म स्थान चिश्ती नामक शहर से जुड़ा है।

प्रश्न 12.
निजामुद्दीन औलिया की खानकाह के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
निजामुद्दीन औलिया की खानकाह दिल्ली शहर के बाहरी क्षेत्र में यमुना नदी के किनारे गियासपुर क्षेत्र में थी। इसमें एक बड़ा कमरा तथा कई छोटे कमरे थे। इस खानकाह क्षेत्र में शेख का परिवार, सेवक, अनुयायी स्थायी तौर पर रहते तथा उपासना करते थे। अतिथियों के लिए भी यहाँ विशेष जगह थी। खानकाह एक बड़ा क्षेत्र था जो चारदीवारी से घिरा था, जिसके कारण आस-पास के लोग बाह्य आक्रमण (विशेषकर मंगोल) के समय यहाँ शरण लेते थे।

शेख स्वयं एक छोटे कमरे में छत पर रहते थे। वहीं उनकी अपने विशिष्ट अनुयायियों तथा अतिथियों से भेंट होती थी। खुले आंगन व निवास क्षेत्र एक गलियारे के साथ जुड़ा था। खानकाह में एक सामुदायिक रसोई (लंगर) फुतूह (बिना माँगे दान) से निरन्तर चलती थी।

प्रश्न 13.
निजामुद्दीन औलिया की खानकाह पर कौन-कौन आता था?
उत्तर:
निजामुद्दीन औलिया की खानकाह पर समाज के प्रत्येक वर्ग के लोग, सैनिक, दास, धनी-निर्धन एवं व्यापारी आदि आते थे। इसके अतिरिक्त गायक, हिन्दू-मुस्लिम, जोगी, कलंदरज्ञान लेने वाले, विचार-विमर्श करने, इबादत करने, ताबीज लेने के लिए भी यहाँ लोग आते थे। कुछ लोग अपने विवादों का समाधान करवाने या यात्रा विश्राम के लिए भी यहाँ आते थे। विशिष्ट व बौद्धिक वर्ग में अमीर खुसरो जैसे गायक, कवि अमीर हसन सिजनी जैसे दरबारी तथा जिआऊद्दीन बरनी जैसे इतिहासकार भी आते थे।

प्रश्न 14.
शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जाने वाले अति विशिष्ट लोगों में किस-किस का नाम आता है?
उत्तर:
मुहम्मद बिन तुगलक सल्तनत काल का पहला सुल्तान था जिसने मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की यात्रा की। इसके बाद विभिन्न राज परिवार के लोग तथा शासक यहाँ आते रहे जिसके कारण यह लोकप्रिय होती गई। मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खलजी ने यहाँ पहली इमारत का निर्माण करवाया। अकबर अपने जीवन में चौदह बार यहाँ आया। वह यहाँ निरंतर 1580 ई० तक आता रहा। उसने प्रत्येक बार इस दरगाह को दान व भेंट दी। इसके बाद यह दरगाह मुगल परिवार के सदस्यों की यात्रा की पहली पसन्द बन गई। शाहजहाँ की बड़ी पुत्री जहाँआरा की 1643 ई० में इस स्थल की यात्रा काफी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

प्रश्न 15.
चिश्ती सिलसिले की दरगाहों पर संगीत का कार्यक्रम क्यों तथा कैसे होता था?
उत्तर:
चिश्ती सिलसिले की दरगाहों पर उपासना का एक ढंग संगीत भी था। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण कव्वाली होती थी। कव्वाल इस गायन के द्वारा रहस्यवादी गुणगान करते थे एवं इस तरह आध्यात्मिक संगीत द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास करते थे। निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर कव्वाली का कार्यक्रम अमीर खुसरो द्वारा किया जाता था। उन्होंने कौल (कव्वाली के प्रारंभ में गाई जाने वाली कहावत) को प्रारंभ कर चिश्ती दरगाह की सभा को नई दिशा दी।

दरगाह पर संगीत के कार्यक्रम में पहले कौल, फिर फारसी, हिन्दी या उर्दू में कविता (कई बार तीनों का मिश्रण वाली) गाई जाती थी। फिर कौल से.सभा का समापन होता था। चिश्ती उपासना पद्धति में इस तरह संगीत सभा निरंतर लोकप्रिय होती गई।

प्रश्न 16.
कबीर की जानकारी के प्रमुख साक्ष्य कौन-से हैं?
उत्तर:
कबीर की जानकारी के साक्ष्य उनकी कविताओं या उनकी मृत्यु के उपरान्त लिखी गई जीवनियों में हैं। कबीर की रचनाओं का संकलन भिन्न-भिन्न रूपों में विभिन्न लोगों ने किया है। वाराणसी व उत्तर-प्रदेश के क्षेत्र में कबीर की मुख्य रचना ‘बीजक’ का संकलन कबीर पंथियों द्वारा किया गया है। राजस्थान में कबीर ग्रन्थावली को दादू-पंथियों ने तैयार करवाया है। कबीर के कई पद आदिग्रंथ में भी संकलित हैं। ये सभी संकलन उनकी मृत्यु के बाद हुए। इनका प्रकाशन उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ।

प्रश्न 17.
संत कबीर के साहित्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कबीर का काव्य निर्गुण कवियों की श्रृंखला में संत भाषा व खड़ी बोली में है, जिसे सधुक्कड़ी का नाम दिया जाता है। उनकी कुछ रचनाएँ दैनिक जीवन की भाषा के विपरीत या उल्टे अर्थ वाली भाषा में हैं। उन्हें उलटबाँसी उक्तियाँ कहा जाता है। उलटबाँसी की उक्तियाँ का तात्पर्य परम सत्य के स्वरूप को समझने की जटिलता की ओर संकेत करता है। कबीर कई जगह अभिव्यंजना शैली (विपरीत भाव शैली) का प्रयोग भी करते हैं जैसे ‘समदरि लागि आगि’ इस तरह की भाषा को समझना व उसका भाव लगाना भी सामान्य परिस्थितियों में संभव नहीं होता।

प्रश्न 18.
कबीर का अध्ययन वर्तमान में चुनौतीपूर्ण क्यों है?
उत्तर:
कबीर के बारे में अध्ययन इसलिए चुनौतीपूर्ण है क्योंकि कई गुटों व.मतों के लोग उन्हें अपनों से जोड़ते हैं तथा उसी के अनुरूप उनके पदों का प्रयोग करते हैं। अभी तक कबीर के बारे में यह प्रमाणित नहीं हो पाया है कि वे जन्म से हिन्दू थे या मुस्लिम। यह विवाद 17वीं शताब्दी में उनकी जीवनी-लेखन के साथ ही प्रारंभ हुआ था तथा आज भी जारी है। जनश्रुति व वैष्णव परंपरा के अनुसार कबीर जन्म से हिन्दू थे तथा उनका पालन-पोषण एक मुस्लिम जुलाहे के द्वारा किया गया। यह मुस्लिम जुलाहा भी कुछ समय पहले ही इस्लाम में आया था। इसी तरह कबीर के गुरु रामानंद माने जाते हैं जबकि ऐतिहासिक दृष्टि से दोनों के समय में काफी अधिक अंतर है।

प्रश्न 19.
गुरु नानक देव जी की प्रमुख शिक्षाओं व चिन्तन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ उनके भजनों व उपदेशों में पाई जाती हैं जिनके आधार पर स्पष्ट है कि उन्होंने धर्म के बाहरी आडंबरों; जैसे यज्ञ, आनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति पूजा व कठोर तप को नकारा। उन्होंने हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्मों के ग्रन्थों की पवित्रता को भी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने ईश्वर के आकार, रूप, लिंग इत्यादि को नकारते हुए निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने रब या ईश्वर की उपासना का मार्ग निरंतर स्मरण तथा नाम के जाप को बताया। उन्होंने भाषा में जटिलता को महत्त्व न देकर अपनी बात क्षेत्रीय लोक भाषा (पंजाबी) में कही।

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प्रश्न 20.
मीराबाई का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
मीराबाई प्रमुख राजपूत मेवाड़ परिवार की वधू तथा मारवाड़ के मेड़ता जिले की एक कन्या थी। उनका विवाह उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं हुआ। उन्होंने सामाजिक दायित्व व बन्धन तोड़ते हुए एवं पति की आज्ञा न मानते हुए घर त्याग दिया। मीरा ने गृहस्थ जीवन का रास्ता बदलकर विष्णु के अवतार कृष्ण को अपना पति मानकर घुमक्कड़ जीवन जीना चुना। उन्होंने अपने गीतों व भजनों में भगवान श्रीकृष्ण को सर्वस्व न्यौछावर करने की बात कही है।

प्रश्न 21.
जाति-प्रथा के बारे में अलवारों का क्या मत है?
उत्तर:
अलवार व नयनार संतों ने जाति प्रथा का खंडन किया तथा ब्राह्मणों की प्रभुता को भी अस्वीकारा। उन्होंने सभी को एक ईश्वर की संतान घोषित किया। उन्होंने वैदिक ब्राह्मणों की तुलना में विष्णु भक्तों को प्राथमिकता दी, ये भक्त चाहे किसी भी जाति अथवा वर्ण से थे। अलवार व नयनार संत ब्राह्मण समाज, शिल्पकार और किसान समुदाय से थे। इनमें से कुछ तो ‘अस्पृश्य’ समझी जाने वाली जातियों में से भी थे।

प्रश्न 22.
भारत में इस्लाम का प्रारंभ कैसे हुआ?
उत्तर:
7वीं शताब्दी में इसके उदय के पश्चात् यह धर्म पश्चिमी एशिया में तेजी से फैला और कालांतर में यह भारत में भी पहुँचा। भारत में शुरू में यह व्यापारियों के साथ पहुँचा। फिर राजनीतिक व अन्य कारणों से भी इसका विस्तार हुआ। दिल्ली सल्तनत व मुगल साम्राज्य इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 23.
इस्लाम की पाँच मौलिक शिक्षाएँ कौन-सी हैं?
उत्तर:
इस्लाम की मौलिक शिक्षाएँ इस प्रकार हैं

  • अल्लाह एकमात्र ईश्वर है।
  • पैगम्बर मोहम्मद उनके दूत अर्थात् शाहद हैं।
  • दिन में पाँच बार नमाज पढ़नी चाहिए।
  • खैरात (ज़कात) बाँटनी चाहिए।
  • जीवन में एक बार हज की यात्रा पर मक्का जाना चाहिए।

प्रश्न 24.
सूफी शब्द से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सूफीवाद का अंग्रेजी समानार्थक शब्द सूफीज्म है। सूफीज्म शब्द हमें प्रकाशित रूप में 19वीं सदी में मिलता है। इस्लामिक साहित्य में इसके लिए तसव्वुफ शब्द मिलता है। कुछ विद्वान यह स्वीकारते हैं कि यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ है ऊन अर्थात् जो लोग ऊनी खुरदरे कपड़े पहनते थे उन्हें सूफी कहा जाता था। कुछ विद्वान सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ साफ होता है। इसी तरह कुछ अन्य विद्वान सूफी को सोफिया (यानि वे शुद्ध आचरण) से जोड़ते हैं।

प्रश्न 25.
सूफी आंदोलन में सिलसिला से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सिलसिले का अर्थ है जंजीर अर्थात् वह विचारधारा जो मुर्शीद को मुरीद से जोड़ती है, सिलसिला कहलाता है। सूफी सिलसिलों के नाम मुख्य रूप से उनके स्थापित करने वाले के नाम पर पड़े। जैसे चिश्ती सिलसिले का नाम उसके संस्थापक ख्वाजा इसहाक शामी चिश्ती कादरी सिलसिला शेख अब्दुल कादिर जिलानी तथा नक्शबंदी सिलसिला बहाऊद्दीन नक्शबन्द के नाम से पड़ा। यहाँ पर ध्यान देने योग्य है।

प्रश्न 26.
‘गरीब नवाज’ की दरगाह के बारे में संक्षेप में बताएँ।
उत्तर:
अजमेर में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है जिन्हें लोग ‘गरीब नवाज़’ की दरगाह कहते हैं। यह शेख के आचरण, धर्मनिष्ठा व आध्यात्मिकता के कारण विख्यात हुए। मुहम्मद बिन तुगलक सल्तनत काल का पहला सुल्तान था जिसने इस दरगाह की यात्रा की। इसके बाद विभिन्न राज परिवार के लोग तथा शासक यहाँ आते रहे जिसके कारण यह लोकप्रिय होती गई। मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खलजी ने यहाँ पहली इमारत का निर्माण करवाया।

प्रश्न 27.
भक्ति आंदोलन से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
भक्ति शब्द की उत्पत्ति “भज्’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ सेवा से लिया जाता है। भक्ति व्यापक अर्थ में मनुष्य द्वारा ईश्वर या इष्टदेव के प्रति पूर्ण समर्पण होता है जिसके अनुरूप व्यक्ति स्वयं को अपने श्रद्धेय में समा लेता है। इसमें सामाजिक रूढ़ियाँ, ताना-बाना, मर्यादाएँ तथा बंधनों की भूमिका नहीं होती। बल्कि सरलता, समन्वय की भावना तथा पवित्र जीवन पर बल दिया जाता है।

प्रश्न 28.
श्री गुरु नानक देव जी की विचारधारा को फैलाने में श्री गुरु अर्जुन देव जी का क्या योगदान है? ।
उत्तर:
श्री गुरु अर्जुन देव जी ने श्री गुरु नानक देव जी के विचारों को संकलित कर एक ग्रन्थ की रचना की जिसे आदि ग्रंथ के रूप में मान्यता मिली। इनके प्रवचनों को ‘गुरबानी’ कहा गया। सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में दसवें गुरु श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर की रचनाओं को भी आदि ग्रंथ में जोड़ दिया। अब यह ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब के नाम से जाना जाने लगा।

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प्रश्न 29.
श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने किस पंथ की स्थापना की? अथवा ‘खालसा पंथ की स्थापना कैसे हुई?
उत्तर:
श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ (पवित्रों की सेना) की स्थापना की तथा उन्हें पाँच प्रतीक-बिना कटे केश, कृपाण, कछहरा, कंघा और लोहे का कड़ा धारण करने के लिए कहा। इस तरह दसवें गुरु श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के समय यह समुदाय सामाजिक, धार्मिक व सैनिक दृष्टि से संगठित हो गया।

प्रश्न 30.
असम के प्रमुख संत कवि कौन थे? उन्होंने किस मत का प्रचार किया?
उत्तर:
शंकरदेव असम में वैष्णव धर्म के प्रचारक थे। उनके उपदेश भगवद्गीता और भागवत पुराण पर आधारित थे। इसलिए इनका धर्म ‘भगवती धर्म’ के नाम से विख्यात हुआ। उन्होंने अपना समर्पण भगवान विष्णु के प्रति व्यक्त करते हुए उपदेश दिए। उन्होंने कीर्तन व श्रद्धावान भक्तों, सत्संग में भगवान विष्णु के उच्चारण पर बल दिया। उनके प्रार्थना स्थल सत्र (मठ) तथा नामघर कहे जाते थे।

प्रश्न 31.
धार्मिक परंपरा को जानने के प्रमुख स्रोत कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
धार्मिक परंपराओं के इतिहास की जानकारी के स्रोतों में मूर्तिकला, स्थापत्य कला, धर्मगुरुओं के संदेश व कहानियाँ इसके प्रमुख स्रोत होते हैं। इनके अतिरिक्त धर्म प्रमुख को समझने के लिए बाद की पीढ़ियों व अनुयायियों द्वारा उनके बारे में रचे गए गीत तथा काव्य रचनाएँ भी इतिहास लेखन में महत्त्वपूर्ण होती हैं।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में धार्मिक विश्वास व आचरण में समन्वय से क्या आशय है? अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर:
भारत में विभिन्न विश्वासों व आचरणों में विश्वास करने वाले लोग प्राचीन काल से ही रहे हैं। इनका आपस में जुड़कर चलना ही विश्वास व आचरण का समन्वय है। इस समन्वय से हमें अनेक देवी-देवताओं के बारे में जानकारी मिलती है। इन देवी-देवताओं में से कुछ प्राचीनकाल के हैं और कुछ कालांतर में दृष्टिगत हुए इन देवी-देवताओं में विष्णु, शिव और देवी की आराधना की परिपाटी अधिक विस्तृत हुई। भारत के विभिन्न समुदायों में विचारों व विश्वासों का आदान-प्रदान होता रहा। धार्मिक विश्वासों में दो प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलीं। इनमें एक प्रक्रिया ब्राह्मणीय विचारधारा के प्रचार की थी।

यह परंपरा मूल रूप से उच्च वर्गीय परंपरा थी जो वैदिक ग्रंथों में फली-फूली। इन्होंने ग्रंथ सरल संस्कृत छंदों में भी रचे। विशेषतः पौराणिक ग्रंथों में यह परंपरा काफी सरल रूप में सामने आई। वैदिक परंपरा का यह सरल साहित्य सामान्य लोगों के लिए था अर्थात् स्त्रियों व शूद्रों के लिए जो वैदिक ज्ञान से परिचित नहीं थे, वे भी इसे ग्रहण कर सकते थे। दूसरी परंपरा शूद्र, स्त्रियों व अन्य सामाजिक वर्गों के बीच स्थानीय स्तर पर विकसित हुई, विश्वास प्रणालियों पर आधारित थी। अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की ऐसी प्रणालियाँ काफी लंबे समय में विकसित हुईं।

इन दोनों अर्थात् ब्राह्मणीय व स्थानीय परंपराओं के संपर्क में आने से एक-दूसरे में मेल-मिलाप हुआ। यही मेल-मिलाप समाज की गंगा-जमुनी संस्कृति है। ब्राह्मणीय ग्रंथों में शूद्र व अन्य सामाजिक वर्गों के आचरणों व आस्थाओं को स्वीकृति मिली। इससे इस परंपरा को नया रूप मिला। दूसरी ओर सामान्य लोगों ने कुछ सीमा तक ब्राह्मणीय परंपरा को स्थानीय विश्वास परंपरा में शामिल कर लिया।

इसका एक बेहतरीन उदाहरण उड़ीसा में पुरी में देखने को मिलता है। यहाँ स्थानीय देवता जगन्नाथ अर्थात् संपूर्ण विश्व का स्वामी था। बारहवीं सदी तक आते-आते उन्होंने अपने इस देवता को विष्णु के रूप में स्वीकार कर लिया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रतिमा का रूप वही रखा, जो पहले से चला आ रहा था। धार्मिक विश्वास व पूजा पद्धतियों का यह मेल-मिलाप केवल ब्राह्मणीय व स्थानीय पद्धतियों में नहीं था, बल्कि अनेक धार्मिक विचारधाराओं व पद्धतियों के बीच निरंतर चलता रहा। इसने समाज को नई दिशा दी।

प्रश्न 2.
तमिलनाडु की अलवार व नयनार संत परंपरा पर नोट लिखें।
उत्तर:
तमिलनाडु क्षेत्र में छठी शताब्दी भक्ति परंपरा की शुरुआत मानी जाती है। इस परंपरा का नेतृत्व विष्णु भक्त अलवारों तथा शिव भक्त नयनारों ने किया। ये अलवार तथा नयनार संतों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते थे। ये अपने इष्टदेव की स्तुति में भजन इत्यादि गाते थे। इन संतों ने कुछ स्थानों को अपने इष्टदेव का निवास स्थान घोषित कर दिया जहाँ पर बड़े-बड़े मन्दिरों का निर्माण किया गया।

इस तरह ये स्थल तीर्थ स्थलों के रूप में उभरे। संत-कवियों के भजनों को मन्दिरों में अनुष्ठान के समय गाया जाने लगा तथा इन संतों की प्रतिमा भी इष्टदेव के साथ स्थापित कर दी गई। इस तरह इन संतों की भी पूजा प्रारंभ हो गई।

अलवार व नयनार संतों ने जाति प्रथा का खंडन किया तथा ब्राह्मणों की प्रभुता को भी अस्वीकारा। उन्होंने सभी को एक ईश्वर की संतान घोषित किया। अलवार व नयनार संत ब्राह्मण समाज, शिल्पकार और किसान समुदाय से थे। इनमें से कुछ तो ‘अस्पृश्य’ समझी जाने वाली जातियों में से भी थे। समाज ने इन संतों व उनकी रचनाओं को पूरा सम्मान दिया तथा उन्हें वेदों जितना प्रतिष्ठित बताया। अलवार संतों के एक मुख्य काव्य ‘नलयिरादिव्यप्रबंधम्’ को तमिल वेद के रूप में मान्यता भी मिली। अलवार नयनार परंपरा में केवल पुरुष ही नहीं थे, बल्कि स्त्रियाँ भी शामिल थीं।

उदाहरण के लिए अंडाल नामक अलवार स्त्री के भक्ति गीत उस समय बहुत लोकप्रिय हुए। वह स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपने भावों को अभिव्यक्त करती थी। नयनार परंपरा में कराइक्काल अम्मइयार नामक महिला को बहुत सम्मान मिला जिसने घोर तपस्या की। उसकी रचनाओं को सुरक्षित रखा गया। इन परंपराओं में शामिल पुरुषों व स्त्रियों ने सामाजिक बंधनों को त्याग दिया। स्थानीय लोग उनकी उपासना, उनके विचारों व कार्यों के कारण करते थे।

प्रश्न 3.
अलवारों व नयनारों के राज्य के साथ संबंधों का वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर:
तमिल क्षेत्र में अलवार व नयनार संत जब अपनी पहचान बना चुके थे, उस समय पल्लव, पांड्य व चोल वंशों के राज्यों ने अलवार-नयनार भक्ति-परंपरा को भी अनुदान दिया। इस अनुदान के सहारे विष्णु व शिव के मंदिरों का निर्माण काफी अधिक मात्रा में हुआ।

चोल शासकों ने चिदम्बरम, तंजावुर तथा गंगैकोंडचोलपुरम में विशाल शिव मन्दिरों का निर्माण करवाया। इन मन्दिरों में शिव की कांस्य प्रतिमाओं को बड़े स्तर पर स्थापित किया। अलवार व नयनार संत वेल्लाल कृषकों व सामान्य जनता में ही सम्मानित नहीं थे, बल्कि शासकों ने भी उनका समर्थन पाने का प्रयास किया। सुन्दर मन्दिरों का निर्माण व उनमें मूर्तियों (कांस्य, लकड़ी, पत्थर व अन्य धातुओं) की स्थापना के अतिरिक्त शासक वर्ग ने संत कवियों के गीतों व विचारों को भी महत्त्व दिया, जिसके कारण वे और अधिक लोकप्रिय हुए।

अब उनके भजनों को मन्दिरों में गाने पर महत्त्व दिया जाने लगा। संत कवियों के भजनों के संकलन का एक तमिल ग्रन्थ ‘तवरम’ शासकों के द्वारा संकलित करवाया गया। दसवीं शताब्दी तक बारह अलवारों की रचनाओं का एक और ग्रन्थ संकलित किया गया। यह ग्रन्थ ‘नलयिरादिव्यप्रबन्धम’ (चार हजार पावन रचनाएँ) के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 4.
कर्नाटक की वीरशैव व लिंगायत परंपरा पर नोट लिखें।
उत्तर:
बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक क्षेत्र में एक नए आंदोलन की शुरुआत हुई जिसको बासवन्ना (1106-68) नामक ब्राह्मण संत ने नेतृत्व दिया। बासवन्ना को कर्नाटक क्षेत्र में बहुत लोकप्रियता मिली। वे शिव के उपासक थे। उनके अनुयायी वीरशैव कहलाए। इस समुदाय के लोग शिव की उपासना लिंग के रूप में करते हैं तथा पुरुष अपने बाएं कंधे पर, चाँदी के एक पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते हैं। इन्हें लिंगायत कहा जाता है।

लिंगायत समुदाय के लोगों ने जाति व्यवस्था का विरोध किया। ये लोग पुनर्जन्म का भी विरोध करते हैं। इनका मानना है कि वे मृत्यु के बाद भक्त शिव में विलीन हो जाते हैं और पुनः संसार में नहीं लौटते। वे धर्मशास्त्रों में वर्णित श्राद्ध संस्कार को भी नहीं करते। वे अंतिम संस्कार अपनी स्थानीय विधि अनुसार करते हुए मृत शरीर को दफनाते हैं। इन्होंने ब्राह्मणीय धर्मशास्त्रों की मान्यताओं को नहीं स्वीकारा।

उन्होंने वयस्क विवाह तथा विधवा पुनर्विवाह को मान्यता प्रदान की। इस समुदाय में अधिकतर वे लोग शामिल हुए जिनको ब्राह्मणवादी व्यवस्था में विशेष महत्त्व नहीं मिला। उन्होंने बासवन्ना के वचनों को गीतों व कविताओं के रूप में गाया। इन्हीं गीतों के माध्यम से वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर चोट भी करते हैं।

प्रश्न 5.
भारत में इस्लामी राज्य की स्थापना के बाद शासक व शासितों के संबंध कैसे रहे?
उत्तर:
अरब क्षेत्र में इस्लाम के उदय के पश्चात् यह विश्व के बहुत बड़े हिस्से में फैल गया और भारत में भी आया। भारत पर पहला अरब आक्रमण 711 ई० में सिन्ध पर हुआ तथा उसके बाद आक्रमणों का सिलसिला जारी रहा। इसी कड़ी में पहले दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई। दिल्ली सल्तनत (1206-1526) के बाद 1526 से 1707 तक यहाँ मुगलवंश का शासन रहा। 1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् 18वीं शताब्दी में क्षेत्रीय राज्य उभर कर आए, उनमें भी कुछ इस्लाम को मानने वाले थे।

इस प्रकार भारत में इस्लाम परंपरा में विश्वास रखने वाले शासकों ने दीर्घ अवधि तक अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखा। इस राजनीतिक व्यवस्था के सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक आयाम भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रहे। क्योंकि यहाँ शासक इस्लाम में विश्वास करने वाला था तथा जनता का बहुसंख्यक वर्ग गैर-इस्लामी था।

इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले शासक से उम्मीद की जाती थी कि वह सैद्धांतिक व व्यावहारिक रूप में कुरान के दिशा-निर्देशों के अनुरूप शासन करे तथा उलेमा से मार्गदर्शन ले। लेकिन व्यवहार में यह सब प्रचलन में लाना आसान नहीं था।

क्योंकि शासित जनता भारत में गैर-इस्लामिक (हिन्दू व अन्य) थी। इसलिए शासक को प्रजा की भावना को ध्यान में रखना पड़ता था। सल्तनत काल भारत में इस्लामी राज्य का प्रारंभिक चरण रहा। इन शासकों को बीच की नीति अपनानी पड़ी। मुगल शासकों ने इस बारे में कुछ भिन्न कदम उठाए तथा जनता को यह एहसास करवाया कि वे मात्र मुस्लिम समाज के शासक नहीं हैं बल्कि

सभी समुदायों के हैं। इस बारे में उन्होंने शासितों के लिए काफी लचीली नीति अपनाई। जैसे अकबर ने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर में छूट दी, 1564 ई० में जजिया कर हटाया, विभिन्न मन्दिरों व धार्मिक संस्थाओं के लिए भूमि अनुदान दिए तथा कर इत्यादि में छूट दी।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

प्रश्न 6.
सूफी आंदोलन से क्या अभिप्राय है? इसके विकास में खानकाह व दरगाह की भूमिका पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
सूफी शब्द की उत्पत्ति के बारे में सभी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। हाँ यह स्पष्ट है कि सूफीवाद का अंग्रेजी समानार्थक शब्द सूफीज्म है। विद्वान यह स्वीकारते हैं कि यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ है ऊन अर्थात् जो लोग

सूफियों के सामान्य सिद्धांत

  • कुरान में पूर्ण आस्था।
  • हजरत मुहम्मद के जीवन को आदर्श मानना।
  • धर्म सम्मत भोजन ग्रहण करना
  • आराम की वस्तुओं का त्याग करना।
  • दूसरों द्वारा कष्ट पहुँचाने पर कष्ट का अनुभव करना।
  • आदर्शपूर्ण नियम बनाना व उनका पालन करना।

ऊनी खुरदरे कपड़े पहनते थे उन्हें सूफी कहा जाता था। कुछ विद्वान सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ साफ होता है। इसी तरह कुछ अन्य विद्वान सूफी को सोफिया (यानि वे शुद्ध आचरण) से जोड़ते हैं। इस तरह इस शब्द की | उत्पत्ति के बारे में एक मत तो नहीं हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि इस्लाम में 10वीं सदी के बाद अध्यात्म, वैराग्य व रहस्यवाद में विश्वास करने वाली सूचियों की | संख्या काफी थी तथा ये काफी लोकप्रिय हुए। इस तरह 11वीं शताब्दी तक सूफीवाद एक विकसित आंदोलन बन गया।

सूफी आंदोलन के विकास का केन्द्र खानकाह व दरगाह थी। खानकाह सूफी सिलसिले में शेख (संत, फकीर) अर्थात् पीर या मुर्शीद का निवास होती थी। जहाँ शेख के अनुयायी उनसे आध्यात्मिक ज्ञान, शक्ति व आशीर्वाद प्राप्त करते थे। खानकाहों में ही सिलसिले के नियमों का निर्माण होता था तथा शेख व जन-सामान्य के बीच रिश्तों की सीमा का निर्धारण किया जाता था।

पीर अर्थात् शेख की मृत्यु के बाद उन्हें जिस स्थान पर दफनाया जाता था वह दरगाह (फारसी में अर्थ दरबार) कहलाती थी। दरगाह मुरीदों तथा जन-सामान्य के लिए भक्ति स्थल बन जाती थी। दरगाह पर लोग ज़ियारत (दर्शन) करने आते थे। धीरे-धीरे ज़ियारत विशेष अवसरों विशेषकर बरसी के साथ जुड़ गया। यह ज़ियारत उर्स नाम से जानी जाती थी जिसका अर्थ ईश्वर से पीर की आत्मा के मिलन से लिया जाता था।

इस तरह लोग अपनी आध्यात्मिक, ऐहिक, सामाजिक तथा पारिवारिक कामनाओं की पूर्ति हेतु दरगाहों पर आने लगे। इस तरह शेख का लोग वली (ईश्वर के मित्र) के रूप में आदर करने लगे तथा उनके आशीर्वाद से मिली बरकत को विभिन्न प्रकार के करामात से जोड़ने लगे। इस तरह धीरे-धीरे इन केंद्रों पर इस आन्दोलन का बहुत विकास हुआ।

प्रश्न 7.
सिलसिले से क्या अभिप्राय है? इनके नामकरण पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
12वीं शताब्दी तक सूफी आंदोलन वैचारिक तौर पर बँटने लगा तथा इन विभाजित समूहों को सिलसिलों का नाम दिया गया। सिलसिला का शाब्दिक अर्थ है जंजीर जो शेख, पीर या मुर्शीद को अपने अनुयायियों (मुरीदों) से जोड़ती है। इस जंजीर में पहली कड़ी पैगम्बर मोहम्मद, फिर शेख तथा फिर उनके उत्तराधिकारी खलीफा होते थे। सिलसिले में शामिल होने वाले व्यक्ति को एक अनुष्ठान द्वारा दीक्षा दी जाती थी।

सूफी सिलसिलों के नाम मुख्य रूप से उनके स्थापित करने वाले के नाम पर पड़े। जैसे चिश्ती सिलसिले का नाम उसके संस्थापक ख्वाजा इसहाक शामी चिश्ती कादरी सिलसिला शेख अब्दुल कादिर जिलानी तथा नक्शबंदी सिलसिला बहाऊद्दीन नक्शबन्द के नाम से पड़ा। यहाँ पर ध्यान देने योग्य है चिश्ती सिलसिले के संस्थापक ख्वाज़ा इसहाक शामी का चिश्ती नाम मध्य अफगानिस्तान में स्थित उनके जन्म-स्थान चिश्ती नामक शहर से जुड़ा है।

सिलसिले का नामकरण उनकी शैली व आदर्शों के साथ भी जुड़ा है। कुछ सूफी फकीरों ने सिद्धांतों की मौलिक व्याख्या कर नवीन मतों की नींव रखी। इन नवीन मतों में जो शरिया में विश्वास करते थे उन्हें बा-शरिया कहते थे तथा जो शरिया की अवहेलना करते थे उन्हें बे-शरिया कहा जाता था।

प्रश्न 8.
खानकाह क्या थी? चिश्ती खानकाह की कार्यप्रणाली अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर:
सूफी संत, शेख या पीर जिस स्थान पर रहते थे, उसे खानकाह कहा जाता था। चिश्ती सिलसिले को लोकप्रिय बनाने में भी खानकाह की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। हमें दिल्ली स्थित निजामुद्दीन औलिया के समय के खानकाह से उनके जीवन की जानकारी मिलती है, जिसके आधार पर हम चिश्ती सिलसिले को समझ सकते हैं। यह खानकाह दिल्ली शहर के बाहरी क्षेत्र में यमुना नदी के किनारे गियासपुर क्षेत्र में थी। इस खानकाह क्षेत्र में शेख का परिवार, सेवक, अनुयायी स्थायी तौर पर रहते तथा उपासना करते थे। अतिथियों के लिए भी यहाँ विशेष जगह थी। खानकाह एक बड़ा क्षेत्र था जो चारदीवारी से घिरा हुआ था।

खानकाह में एक सामुदायिक रसोई (लंगर) फुतूह (बिना माँगे दान) से निरन्तर चलती थी। यहाँ समाज के प्रत्येक वर्ग के लोग, सैनिक, दास, धनी-निर्धन, व्यापारी आते थे। इसके अतिरिक्त गायक, हिन्दू-मुस्लिम, जोगी, कलंदरज्ञान लेने वाले, विचार-विमर्श करने एवं इबादत करने, ताबीज लेने के लिए यहाँ आते थे। कुछ लोग अपने विवादों का समाधान करवाने या यात्रा विश्राम के लिए भी यहाँ आते थे। विशिष्ट व बौद्धिक वर्ग में अमीर खुसरो जैसे गायक, कवि अमीर हसन सिजनी जैसे दरबारी तथा जिआऊद्दीन बरनी जैसे इतिहासकार आते थे। आने वाले सभी लोग शेख के समक्ष झुककर आदर देते थे। अनुयायी उन्हें पीने को पानी देते थे। नए अनुयायियों को यहाँ दीक्षा दी जाती थी।

प्रश्न 9.
चिश्ती दरगाह पर जियारत कैसे होती थी? वर्णन करें।
उत्तर:
चिश्ती संतों की दरगाह उनके अनुयायियों तथा जन-सामान्य के लिए तीर्थ-स्थल बन गए। लोग इन स्थानों पर जियारत के लिए जाते हैं तथा संत से आशीर्वाद (बरकत) की कामना करते हैं। लोगों के लिए सर्वाधिक श्रद्धा का स्थल अजमेर में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह भी थी जिन्हें लोग ‘गरीब नवाज़’ की दरगाह कहते थे। मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खलजी ने यहाँ पहली इमारत का निर्माण करवाया। दिल्ली व गुजरात के मार्ग पर होने के कारण यह दरगाह यात्रियों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र बन गई। अकबर अपने जीवन में कुल चौदह बार यहाँ आया। वह यहाँ निरंतर 1580 ई० तक आता रहा। उसने प्रत्येक बार इस दरगाह को दान व भेंट दी।

चिश्ती सिलसिले की सभी दरगाहों पर उपासना का एक ढंग नृत्य व संगीत भी था। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण कव्वाली होती थी। कव्वाल इस गायन के द्वारा रहस्यवादी गुणगान करते थे एवं इस तरह आध्यात्मिक संगीत द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास करते थे। निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर कव्वाली का कार्यक्रम अमीर खुसरो द्वारा किया जाता था। चिश्ती उपासना पद्धति में इस तरह संगीत सभा निरंतर लोकप्रिय होती गई।

प्रश्न 10.
सूफी संतों के राज्य के साथ कैसे संबंध रहे? इस बारे में जानकारी दें।
उत्तर:
सूफी सिलसिलों की राज्य के साथ संबंध के बारे में धारणा भिन्न-भिन्न थी। चिश्ती संप्रदाय के अनुयायी व शेख संयम व सादगी पसंद थे। वे सत्ता से दूर रहने का प्रयास करते थे। वे राज व्यवस्था से कटते भी नहीं थे। यदि राज्य द्वारा बिना माँगे दान दिया जाता था तो वे स्वीकार करते थे। इस भाव के आधार पर शासकों ने समय-समय पर खानकाहों को भूमि व दान दिया। चिश्ती विभिन्न तरह के दान को एकत्रित रखने की बजाय उन्हें खाने, वस्त्र पहनने एवं बाँटने तथा समा की महफिलों का आयोजन करने पर विश्वास करते थे। वे ऐसा करना नैतिक दायित्व समझते थे।

दूसरी ओर, संतों की लोकप्रियता के कारण शासक उनसे संपर्क रखना चाहते थे, क्योंकि शासक जनता में उनकी पकड़ से शासन को स्थायी करना चाहते थे। शासकों को मालूम था कि प्रजा का बहुसंख्यक वर्ग गैर-इस्लामी है। कभी-कभार सुल्तानों व सूफियों के बीच आचरण व शासन-व्यवस्था को लेकर तनाव भी हो जाता था। दोनों उम्मीद करते थे कि दूसरा उन्हें झुककर प्रणाम करे या कदम चूमे।

ऐसे में शेख को उसके अनुयायी आडंबरपूर्ण ऊँची पदवी दे देते थे। जैसे . निजामुद्दीन औलिया के शिष्य व अनुयायी उन्हें सुल्तान-उल-मशेख (शेखों में सुल्तान) कहकर संबोधित करते थे। सुहरावर्दी व नक्शबंदी सिलसिले की बात करें तो वे क्रमशः दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों व मुगल शासकों से जुड़े रहे। उन्होंने शासन का पूरा लाभ उठाया। अतः स्पष्ट है कि सभी सूफी सिलसिलों की राज्य संबंधी धारणा एक-जैसी नहीं थी।

प्रश्न 11.
कबीर की जानकारी के स्रोतों का वर्णन करते हुए, उनकी भाषा-शैली की जानकारी दें।
उत्तर:
कबीरदास भक्ति आंदोलन के संत कवियों में काफी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। कबीर की जानकारी के साक्ष्य उनकी कविताओं या उनकी मृत्यु के उपरान्त लिखी गई जीवनियों में हैं। वाराणसी व उत्तर-प्रदेश के क्षेत्र में कबीर की मुख्य रचना ‘बीजक’ का संकलन कबीर पंथियों द्वारा किया गया है, जबकि राजस्थान में कबीर ग्रन्थावली को दादू-पंथियों ने तैयार करवाया है। इसी तरह कबीर के कई पद आदिग्रंथ में भी संकलित हैं। ये सभी संकलन उनकी मृत्यु के बाद हुए। कबीर का काव्य निर्गुण कवियों की श्रृंखला में संत भाषा व खड़ी बोली में है, जिसे सधुक्कड़ी का नाम दिया जाता है।

उनकी कुछ रचनाओं में दैनिक जीवन की भाषा के विपरीत या उल्टे अर्थ में प्रयोग किया है, इसलिए उन्हें उलटबाँसी उक्तियाँ कहा जाता है। उलटबाँसी की उक्तियों का तात्पर्य परम सत्य के स्वरूप को समझने की जटिलता की ओर संकेत करता है। कबीर कई जगह अभिव्यंजना शैली (विपरीत भाव शैली) का प्रयोग भी करते हैं, जैसे ‘समदरि लागि आगि’ इस तरह की भाषा को समझना व उसका भाव लगाना भी सामान्य परिस्थितियों में संभव नहीं होता।

प्रश्न 12.
कबीर का दर्शन किन-किन विचारधाराओं से प्रभावित है? कबीर का अध्ययन इतिहासकारों के लिए चुनौतीपूर्ण क्यों है?
उत्तर:
कबीर के विचार विभिन्न धर्मों तथा दर्शन से प्रभावित हैं। इस्लामी दर्शन से प्रभावित होकर वे सत्य को अल्लाह, हजरत, खुदा व पीर कहते थे। इसी दर्शन में वे एकेश्वरवाद व मूर्तिभंजन का खुला समर्थन करते थे। वेदांत दर्शन से वे अलख (अदृश्य), निराकार, ब्रह्मा व आत्मा इत्यादि पक्षों को लेते थे। योगी परंपरा से शब्द व शून्य इत्यादि भावों को स्वीकार करते थे। सूफी विचारधारा के जिक्र (मन में धारण करना) व इश्क (प्रेम) को महत्त्व देते थे, जबकि हिन्दू दर्शन ‘नाम सिमरन’ परंपरा को जीवन की सफलता का रहस्य कहते थे।

इतिहासकारों के लिए कबीर का अध्ययन चुनौतीपूर्ण रहा है, क्योंकि विभिन्न भाषाओं व क्षेत्रों में संकलित कबीर-साहित्य में भी मतभेद है। कुछ लोगों का विश्वास है कि इसमें सभी पद कबीर रचित नहीं हैं। फिर भी विद्वान भाषाशैली व विषयवस्तु के आधार पर कबीर के पदों को ढूंढने का प्रयास करते हैं। परन्तु अभी तक इसमें आंशिक सफलता मिली है। कबीर के बारे में अध्ययन और कठिन होने का एक कारण यह भी है कि कई गुटों व मतों के लोग उन्हें अपनों से जोड़ते हैं तथा उसी के अनुरूप उनके पदों का प्रयोग करते हैं। विभिन्न संप्रदाय तथा समूह उन्हें अपना प्रेरक मानते हैं। कबीर की विचारधारा उस युग में समाज में विभिन्न वर्गों के लिए प्रासंगिक थी तथा आज भी अपना अलग महत्त्व रखती है।

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प्रश्न 13.
गुरु नानक देव जी पर नोट लिखें।
उत्तर:
गुरु नानक देव जी भक्ति परंपरा में निर्गुण संत कवि परंपरा से जुड़े हैं। उनका जन्म 1469 ई० में एक हिन्दू परिवार में वर्तमान पाकिस्तान के तलवंडी (वर्तमान में ननकाना साहब) नामक स्थान पर हुआ। इनका जन्म-स्थान इस्लाम बहुल क्षेत्र था जिस कारण उन्हें इस समुदाय के लोगों के व्यवहार व जीवन को समझने का भरपूर अवसर मिला। पारिवारिक पृष्ठभूमि व्यापारिक होने के कारण उन्होंने लेखाकार.का प्रशिक्षण लिया तथा फारसी सीखी। उनका विवाह छोटी आयु में हो गया तथा पारिवारिक जिम्मेदारी भी काफी थी, लेकिन वे अपना अधिकतर समय सूफी व भक्त संतों के साथ बिताते थे। उन्होंने दूर-दूर के क्षेत्रों की यात्रा करके विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त किए।

गुरु नानक के संदेश उनके भजनों व उपदेशों में पाए जाते हैं जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि उन्होंने धर्म के बाहरी आडंबरों; जैसे यज्ञ, आनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति पूजा व कठोर तप को नकारा। उन्होंने हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्मों के ग्रन्थों की पवित्रता को भी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने ईश्वर के आकार, रूप, लिंग इत्यादि को नकारते हुए निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने रब या ईश्वर की उपासना का मार्ग निरंतर स्मरण तथा नाम के जाप को बताया। उन्होंने अपनी बात क्षेत्रीय लोक भाषा (पंजाबी) में कही। उन्होंने अपने अनुयायियों (संगत) के लिए नियम निर्धारित किए तथा उन्हें संगठित किया। उन्होंने सामूहिक उपासना पर बल दिया तथा अपने अनुयायी अंगद को उत्तराधिकारी मानते हुए उन्हें गुरु पद पर आसीन किया।

प्रश्न 14.
मीराबाई के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
मीराबाई भक्ति संत कवि परंपरा में सगुणमार्गी विचारधारा से संबंधित है। वह एक कृष्ण भक्त कवयित्री थी। उनकी जीवनी के स्रोत उनके भजन हैं जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा गाया गया। मीराबाई राजपूताना मेवाड़ परिवार की वधू तथा मारवाड़ के मेड़ता जिले की एक कन्या थी। उनका विवाह उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने सामाजिक दायित्व व बन्धन तोड़ते हुए एवं पति की आज्ञा न मानते हुए घर त्याग दिया।

एक जनश्रुति के अनुसार उन्हें मेवाड़ के शाही सिसोदिया वंश द्वारा जहर देकर मारने का प्रयास भी किया गया। मीरा ने गृहस्थ जीवन का रास्ता बदलकर विष्णु के अवतार कृष्ण को अपना पति मानकर घुमक्कड़ जीवन जीना चुना। उन्होंने अपने गीतों व भजनों में भगवान श्रीकृष्ण को सर्वस्व न्यौछावर करने की बात कही है।

मीराबाई ने पारिवारिक मर्यादाओं को ही नहीं तोड़ा बल्कि समाज की जातिवादी व्यवस्था की भी परवाह नहीं की। मीरा के गुरु रैदास एक चर्मकार थे। उस रूढ़िवादी समाज में राजपूत परिवार का इस तरह से सामान्य जाति से संबंध होना भी बड़ा अपराध था, परंतु उसने इस बात की परवाह नहीं की। मीराबाई के चारों ओर अनुयायियों की भीड़ नहीं लगी तथा न ही उन्होंने किसी समुदाय की नींव डाली। फिर भी गुजरात, राजस्थान व उत्तर भारत के लोगों द्वारा उनके पद गाए जाते हैं तथा वह समाज के एक बड़े वर्ग का प्रेरणा स्रोत है।

प्रश्न 15.
सूफी परंपरा के प्रमुख स्रोत कौन-कौन से हैं? वर्णन करें।
उत्तर:
सूफी परंपरा की जानकारी के स्रोत काफी हैं जिनको इतिहास लेखन में सामग्री के रूप में अधिक प्रयोग किया जा सकता है। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है

(1) ‘कश्फ-उल-महजुब’ अली बिन उस्मान हुजविरी (मृत्यु 1071) द्वारा सूफी विचार व आचरण पर लिखित प्रारंभिक मुख्य पुस्तक है। इस पुस्तक में यह ज्ञान मिलता है कि बाह्य परंपराओं ने भारत के सूफी चिन्तन को कैसे प्रभावित किया।

(2) मुलफुज़ात (सूफी संतों की बातचीत) फारसी के कवि अमीर हसन सिजज़ी देहलवी द्वारा संकलित है। इस कवि द्वारा शेख निजामुद्दीन औलिया की बातचीत को आधार बनाकर ‘फवाइद-अल-फुआद’ ग्रन्थ लिखा गया। इसके बाद भी विभिन्न शेखों की अनुमति से इस तरह की रचनाएँ लिखी गईं। इनका उद्देश्य शेखों के उपदेशों एवं कथनों को संकलित करना होता था।

(3) मक्तुबात लिखे हुए पत्रों का संकलन होता है जिसे या तो स्वयं शेख ने लिखा था या उसके किसी करीबी अनुयायी ने। इन पत्रों में धार्मिक सत्य, अनुभव, अनुयायियों के लिए आदर्श जीवन-शैली व शेख की आकांक्षाओं का पता चलता है। शेख अहमद सरहिंदी (मृत्यु 1624) के लिखे पत्र ‘मक्तुबात-ए-इमाम रब्बानी’ में संकलित हैं जिसमें अकबर की उदारवादी तथा असांप्रदायिक विचारधारा का ज्ञान मिलता है।

(4) ‘तजकिरा’ सूफी संतों की जीवनियों का स्मरण होता है। भारत में पहला सूफी तजकिरा मीर खुर्द किरमानी का सियार-उल-औलिया है, जो चिश्ती संतों के बारे में है। भारत में सबसे महत्त्वपूर्ण तजकिरा ‘अख्बार-उल-अखयार’ है। तजकिरा में सिलसिले की प्रमुखता स्थापित करने का प्रयास किया जाता था। इसके साथ ही आध्यात्मिक वंशावली की महिमा को बढ़ा-चढ़ा कर लिखा जाता था। इस तरह तजकिरा में कल्पनीय अद्भुत व अविश्वसनीय बातें भी होती हैं।

प्रश्न 16.
सूफी आंदोलन पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
इस्लाम के रहस्यवाद का दूसरा नाम सूफी है। विद्वानों ने ‘सूफी’ शब्द के अनेक अर्थ बताए हैं। कुछ का मानना है कि सूफी का अर्थ ‘ज्ञानी’ (सोफिया) होता है। इसलिए ज्ञानी व्यक्ति को सूफी कहा जाता है। ‘सूफी’ शब्द ‘सफा’ से बना है जिसका अभिप्राय साफ-सुथरा अथवा पवित्र होता है। सूफी मत के सिद्धान्तों को निम्नलिखित प्रकार से दर्शाया जा सकता है
(1) परमात्मा के संबंध में सूफी साधकों का विचार था कि परमात्मा एक है। उनका मानना था कि वह अद्वितीय पदार्थ निरपेक्ष है, अगोचर है, अपरिमित है और नानात्व से परे है, वही परम सत्य है।

(2) सूफी साधक आत्मा को ईश्वर का अंग मानते हैं। वह सत्य प्रकाश का अभिन्न अंग है, परन्तु मनुष्य के शरीर में उसका अस्तित्व खो जाता है।

(3) जगत के संबंध में सूफी साधकों का विचार था कि परमात्मा की कृपा से ही अग्नि, हवा, जल तथा पृथ्वी का निर्माण हुआ।

(4) मनुष्य के संबंध में सूफी साधकों का विचार था कि मनुष्य परमात्मा के सभी गुणों को अभिव्यक्त करता है।

(5) सूफी साधकों ने पूर्ण मानव को अपना गुरु (मुर्शीद) माना। बिना आध्यात्मिक गुरु के मनुष्य कभी कुछ प्राप्त नहीं कर सकता।

(6) प्रेम को प्रायः सभी धर्मों में परमात्मा को प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ साधक माना है। सूफ़ियों ने भी इसी प्रेम के द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने की आशा की।
मुस्लिम सूफी फकीरों ने अपने निवास के लिए हिन्दू पद्धति के अनुसार आश्रम बनवाए, जिन्हें ‘खानकाह’ कहा जाता था। भारत में सूफी सम्प्रदायों का विशेष रूप से प्रभाव था।

प्रश्न 17.
भक्ति आन्दोलन के प्रसार के पाँच कारण बताएँ।
उत्तर:
भक्ति आन्दोलन मध्य काल में बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ। इसके लोकप्रिय होने के मुख्य पाँच कारण निम्नलिखित हैं

1. भक्ति मार्ग की सरलता-सामान्य तौर पर यह मान्यता है कि ज्ञान-मार्ग तथा कर्म-मार्ग की तुलना में भक्ति-मार्ग आसान है। हिन्दू धर्म में ज्ञान की शिक्षा ग्रहण करने के लिए व्यापक साहित्य उपलब्ध है। आम आदमी के लिए यह मार्ग आसान तथा जटिलता से रहित था। अतः यह लोकप्रिय होता चला गया।

2. जाति व्यवस्था की जटिलता तथा भेदभाव-वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा ने धीरे-धीरे जटिल रूप ग्रहण कर लिया था। इस व्यवस्था में भेदभाव भी विद्यमान था। कुछ जातियों को निम्न माना जाता था। इन निम्न जातियों को धर्म-शास्त्र का अध्ययन करने की अनुमति नहीं थी। भक्ति आन्दोलन के अनेक सन्तों कबीर, नानक, नामदेव, रविदास आदि ने इसका विरोध किया। उन्होंने जनता में इन आन्दोलनों को लोकप्रिय होने का आधार प्रदान किया।

3. इस्लाम का प्रभाव-इस्लाम के भाई-चारे की भावना, एकेश्वरवाद की धारणा आदि ने हिन्दू समाज को प्रभावित किया तथा भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तकों ने इन बातों को स्वीकार कर आन्दोलन चलाया, परन्तु अनेक विद्वान् इस मत को स्वीकार नहीं करते। उनका मानना है कि वैदिक संस्कृति तथा हिन्दू धर्म में भक्ति मार्ग विद्यमान था।

4. वैष्णव आचार्यों के कार्य-दक्षिण के वैष्णव मत के आचार्यों ने दक्षिण भारत में विष्णु भक्ति को फैलाने का कार्य किया। अलवार सन्तों के बाद रामानुज ने दक्षिण में वैष्णव मत का प्रचार-प्रसार किया। इससे भक्ति ने आन्दोलन का रूप ग्रहण किया।

5. समन्वय की भावना-यह भी बताया जाता है कि सूफी आन्दोलन पर ‘योगियों’ तथा ‘सिद्धों’ का अत्यधिक प्रभाव था। इसी प्रकार भक्ति आन्दोलन पर भी सूफीवाद का प्रभाव स्वीकारा जाता है। दोनों आन्दोलन इस्लाम और हिन्दू धर्मों में बेहतर समन्वय स्थापित करना चाहते थे तथा आपसी कट्टरता को कम करना चाहते थे।

प्रश्न 18.
भक्ति आन्दोलन की पाँच प्रमुख विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
भक्ति आन्दोलन एक सरल आन्दोलन था। जन-साधारण को इसके विचार अच्छे लगे। इसकी लोकप्रियता का कारण इसकी विचारधारा थी। इस आन्दोलन की विचारधारा की पाँच विशेषताएँ इस प्रकार हैं

1. एकेश्वरवाद में निष्ठा-भक्ति की धारणा का अर्थ एकेश्वर के प्रति सच्ची निष्ठा माना गया। ईश्वर को अलग-अलग नामों से पुकारा जा सकता है। भक्ति में दो सम्प्रदाय उभरकर आए। एक वे जो सगुण रूप की उपासना करते थे तथा दूसरे वे जो निर्गुण रूप को मानते थे। उनका कहना था कि ईश्वर सर्वव्यापी है तथा प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करता है।

2. ईश्वर के प्रति समर्पण तथा प्रेम पर बल-भक्ति का मुख्य साधन ईश्वर के चरणों में पूर्ण समर्पण-भाव तथा प्रेम-भाव की उत्पत्ति को स्वीकार किया गया। उपासक अपने आपको प्रभु चरणों में समर्पित कर प्रभु से एकाकार करने का प्रयत्न करता था।

3. गुरु की महत्ता पर बल-गुरु शब्द का शाब्दिक अर्थ बताया जाता है अन्धकार से प्रकाश में ले जाने वाला। भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने ‘गुरु’ की महिमा को स्वीकार किया। गुरु, जिसने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया है और अब जो दूसरे को मार्ग दिखा सकता है, को ईश्वर के समान दर्जा प्रदान किया गया।

4. मानव मात्र की समानता में विश्वास-भक्ति आन्दोलन से जुड़े सभी संतों ने मानव मात्र की समानता पर बल दिया। संसार के सभी मानवों को उस परम शक्ति (ईश्वर) की सन्तान स्वीकार किया गया। उनमें मौलिक समानता स्वीकार करते हुए किसी भी प्रकार के भेदभाव को अस्वीकार कर दिया गया।

5. मन की शुद्धता तथा पवित्र जीवन पर बल-भक्ति आन्दोलन के संचालकों ने हृदय की शुद्धता तथा पवित्र जीवन पर बल दिया। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि भक्ति के आचरण से सभी बातें जुड़ी हैं तथा सभी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इससे सभी में प्रेम-भाव पैदा होता है। सर्व से प्रेम-भाव सब प्रकार के भेदों को स्वतः ही समाप्त कर देता है।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
तमिलनाडु की भक्ति परंपरा के विभिन्न पक्षों का उल्लेख करें।
उत्तर:
भक्ति परंपरा की शुरुआत वर्तमान तमिलनाडु क्षेत्र में छठी शताब्दी में मानी जाती है। प्रारंभ में इस परंपरा का नेतृत्व विष्णु भक्त अलवारों तथा शिव भक्त नयनारों ने किया। ये अलवार तथा नयनार संतों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते थे। ये अपने इष्टदेव की स्तुति में भजन इत्यादि गाते थे। इन संतों ने कुछ स्थानों को अपने इष्टदेव का निवास स्थान घोषित कर दिया जहाँ पर बड़े-बड़े मन्दिरों का निर्माण किया गया।

1. जाति-प्रथा के बारे में अलवार-नयनार संतों का दृष्टिकोण-अलवार व नयनार संतों ने जाति प्रथा का खंडन किया तथा ब्राह्मणों की प्रभुता को भी अस्वीकारा। उन्होंने सभी को एक ईश्वर की संतान घोषित किया। इन्होंने वैदिक ब्राह्मणों की तुलना में विष्णु भक्तों को प्राथमिकता दी। वे भक्त चाहे किसी भी जाति अथवा वर्ण से थे। अलवार व नयनार संत ब्राह्मण समाज, शिल्पकार और किसान समुदाय से थे। इनमें से कुछ तो ‘अस्पृश्य’ समझी जाने वाली जातियों में से भी थे। अलवार समाज ने इन संतों व उनकी रचनाओं को पूरा सम्मान दिया तथा उन्हें वेदों जितना प्रतिष्ठित बताया।
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2. अलवार-नयनार परंपरा में महिला संत-अलवार-नयनार परंपरा में केवल पुरुष ही नहीं थे, बल्कि स्त्रियाँ भी शामिल थीं। उदाहरण के लिए अंडाल नामक अलवार स्त्री के भक्ति गीत उस समय बहुत लोकप्रिय हुए तथा आज भी गाए जाते हैं। वह स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपने भावों को अभिव्यक्त करती थी।

3. अलवारों व नयनारों के राज्य के साथ संबंध-जिस समय तमिल क्षेत्र में अलवार व नयनार संत अपनी पहचान बना रहे थे, उस समय पल्लव, पांड्य व चोल वंशों का राज्य इस क्षेत्र पर था। इन राज्यों ने अलवार-नयनार भक्ति-परंपरा को भी फलने-फूलने के भरपूर अवसर दिए। इस अनुदान के सहारे विष्णु व शिव के मंदिरों का निर्माण काफी अधिक मात्रा में हुआ।
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चोल शासकों ने चिदम्बरम, तंजावुर तथा गगैकोंडचोलपुरम में विशाल शिव मन्दिरों का निर्माण करवाया। इन मन्दिरों में शिव की कांस्य प्रतिमाओं
को बड़े स्तर पर स्थापित किया। शासक वर्ग ने संत कवियों के गीतों व विचारों को भी महत्त्व दिया, जिसके कारण वे और अधिक लोकप्रिय हुए। अब उनके भजनों को मन्दिरों में गाने पर महत्त्व दिया जाने लगा। संत कवियों के भजनों के संकलन का एक तमिल ग्रन्थ ‘तवरम’ शासकों के प्रयासों का परिणाम है।

प्रश्न 2.
भारत में इस्लामी राज्य कैसे स्थापित हुआ? यह जन-सामान्य में कैसे लोकप्रिय हुआ?
उत्तर:
अरब क्षेत्र में इस्लाम का उदय विश्व के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। 7वीं शताब्दी में इसके उदय के पश्चात् यह धर्म पश्चिमी एशिया में तेजी से फैला और कालांतर में यह भारत में भी पहुँचा। भारत पर पहला अरब आक्रमण 711 ई० में सिन्ध पर हुआ तथा उसके बाद आक्रमणों का सिलसिला जारी रहा। इसी कड़ी में पहले दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई।

दिल्ली सल्तनत (1206-1526) में मामुलक, खलजी, तुगलक, सैयद व लोधी वंश के शासकों ने शासन किया। इसके बाद 1526 से 1707 तक यहाँ मुगलवंश का शासन रहा। 1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् 18वीं शताब्दी में क्षेत्रीय राज्य उभर कर आए, उनमें भी कुछ इस्लाम को मानने वाले थे। इस प्रकार भारत में इस्लाम परंपरा में विश्वास रखने वाले शासकों ने दीर्घ अवधि तक अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखा।
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1. शासन में उलेमा वर्ग की भूमिका-उलेमा इस्लाम में धर्मशास्त्री को बोलते हैं जो आलिम का बहुवचन है। आलिम का अर्थ होता है ज्ञानी अर्थात् जिसके पास इलम (ज्ञान) है वह आलिम कहलाएगा तथा आलिमों का समूह उलेमा। इस समूह (उलेमा) का यह कर्त्तव्य था कि शासन-व्यवस्था में शासक को सलाह भी दे तथा धर्म की रक्षा हेतु संतुलित व्याख्या भी करे। लेकिन व्यवहार में भारत में इस्लाम को कठोरता से प्रचलन में लाना आसान नहीं था। क्योंकि शासित जनता भारत में गैर-इस्लामिक (हिन्दू व अन्य) थी। इसलिए शासक ने उलेमा वर्ग को शासन पर हावी नहीं होने दिया।

2. शासकों की नीति-सल्तनत काल तक तो भारत में इस्लामी राज्य का प्रारंभिक चरण रहा। इन शासकों ने व्यावहारिक नीति अपनाकर राज्य को सुरक्षित किया। मुगल शासकों ने इस बारे में कुछ भिन्न कदम उठाए तथा जनता को यह एहसास करवाया कि वे मात्र मुस्लिम समाज के शासक नहीं हैं बल्कि सभी समुदायों के हैं। इस बारे में उन्होंने शासितों के लिए काफी लचीली नीति अपनाई। जैसे अकबर ने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर में छूट दी, 1564 ई० में जजिया कर हटाया, विभिन्न मन्दिरों व धार्मिक संस्थाओं के लिए भूमि अनुदान दिए तथा कर इत्यादि में छूट दी। वस्तुतः अकबर ने गैर-इस्लामिक (हिंदू) को जिम्मी नहीं वरन् उन्हें बिना किसी भेदभाव के प्रजा स्वीकार किया।
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3. इस्लाम की लोक प्रचलित परंपरा-इस्लाम के भारत में आगमन के पश्चात् जो परिवर्तन हुए वे मात्र शासक वर्ग तक सीमित नहीं थे, बल्कि संपूर्ण उपमहाद्वीप के जन-सामान्य के विभिन्न वर्गों; जैसे कृषक, शिल्पी, सैनिक, व्यापारी इत्यादि से भी जुड़े थे। समाज के बहुत-से लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया। उन्होंने अपनी जीवन-शैली व परंपराओं का पूरी तरह परित्याग नहीं किया, लेकिन इस्लाम की आधार स्तम्भ पाँच बातें अवश्य स्वीकार कर लीं।
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4. नई भाषाओं व परंपरा को महत्त्व-सामाजिक संदर्भ में सूफी सन्तों द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति स्थानीय भाषा में की गई। . इसी कारण पंजाबी, मुल्तानी, सिंधी, कच्छी, हिन्दी, गुजराती जैसी भाषाओं को बल मिला क्योंकि इन भाषाओं के लोगों ने कुरान के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए इनका प्रयोग किया।

5. स्थापत्य कला पर प्रभाव- इस्लाम का लोक प्रचलन जहाँ भाषा व साहित्य में देखने को मिलता है, वहीं स्थापत्य कला (विशेषकर मस्जिद) के निर्माण में भी स्पष्ट दिखाई देता है। भारतीय उपमहाद्वीप में जो मस्जिदें बनीं उनमें मौलिकताएँ तो मस्जिद वाली हैं लेकिन छत की स्थिति, निर्माण का सामान, सज्जा के तरीके व स्तंभों के बनाने की विधि अलग थी। इनको जन-सामान्य ने अपनी भौगोलिक व परंपरा के अनुरूप बनाया। इससे स्पष्ट होता है कि इस्लामिक स्थापत्य स्थानीय लोक प्रचलन का एक हिस्सा बन गया।

प्रश्न 3.
सूफी आन्दोलन क्या था? भारत में इसका विकास कैसे हुआ?
उत्तर:
सूफी शब्द की उत्पत्ति के बारे में सभी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। हाँ यह स्पष्ट है कि सूफीवाद का अंग्रेजी समानार्थक शब्द सूफीज्म है। सूफीज्म शब्द हमें प्रकाशित रूप में 19वीं सदी में मिलता है। इस्लामिक साहित्य में इसके लिए तसव्वुफ शब्द मिलता है। कुछ विद्वान यह स्वीकारते हैं कि यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ है ऊन अर्थात् जो लोग ऊनी खुरदरे कपड़े पहनते थे उन्हें सूफी कहा जाता था।

कुछ विद्वान सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ साफ होता है। इसी तरह कछ अन्य विद्वान सफी को सोफिया (यानि शुद्ध आचरण) से जोड़ते हैं। इस तरह इस शब्द की उत्पत्ति के बारे में एक मत तो नहीं हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि इस्लाम में 10वीं सदी के बाद अध्यात्म, वैराग्य व रहस्यवाद में विश्वास करने वाली सूचियों की संख्या काफी थी तथा ये काफी लोकप्रिय हुए। इस तरह 11वीं शताब्दी तक सूफीवाद एक विकसित आंदोलन बन गया।

सूफिया के सामान्य सिद्धात

  • करान में पूर्ण आस्था।
  • हजरत मुहम्मद के जीवन को आदर्श मानना।
  • धर्म सम्मत भोजन ग्रहण करना
  • आराम की वस्तुओं का त्याग करना।
  • दूसरों द्वारा कष्ट पहुँचाने पर कष्ट का अनुभव न करना।
  • आदर्शपूर्ण नियम बनाना व उनका पालन करना।

1. सूफी आंदोलन के केन्द्र खानकाह व दरगाह-सूफी आंदोलन के विकास का केन्द्र खानकाह व दरगाह थी। खानकाह सूफी सिलसिले में शेख (संत, फकीर) अर्थात् पीर या मुर्शीद का निवास होती थी, जहाँ शेख के अनुयायी उनसे आध्यात्मिक ज्ञान, शक्ति व आशीर्वाद प्राप्त करते थे। खानकाहों में ही सिलसिले | के नियमों का निर्माण होता था तथा शेख व जन-सामान्य के बीच रिश्तों की सीमा का निर्धारण किया जाता था। पीर अर्थात् शेख की मृत्यु के बाद उन्हें जिस स्थान पर दफनाया जाता था वह दरगाह (फारसी में अर्थ दरबार) कहलाती थी। दरगाह मुरीदों तथा जन-सामान्य के लिए भक्ति-स्थल बन जाती थी।

दरगाह पर लोग ज़ियारत (दर्शन) करने आते थे। धीरे-धीरे ज़ियारत विशेष अवसरों विशेषकर बरसी के साथ जुड़ गया। यह ज़ियारत उर्स नाम से जानी जाती थी जिसका अर्थ ईश्वर से पीर की आत्मा के मिलन से लिया जाता था। इस तरह लोग अपनी आध्यात्मिक, ऐहिक, सामाजिक तथा पारिवारिक कामनाओं की पूर्ति हेतु दरगाहों पर आने लगे। इस तरह शेख का लोग वली (ईश्वर के मित्र) के रूप में आदर करने लगे तथा उनके आशीर्वाद से मिली बरकत को विभिन्न प्रकार के करामात से जोड़ने लगे।

2. सिलसिलों की भूमिका भारत में सूफी आन्दोलन विभिन्न सिलसिलों द्वारा फैलाया गया। इन सूफी सिलसिलों के नाम मुख्य रूप से उनके स्थापित करने वालों के नाम पर पड़े। जैसे चिश्ती सिलसिले का नाम उसके संस्थापक ख्वाजा इसहाक, शामी, चिश्ती, कादरी सिलसिला शेख अब्दुल कादिर जिलानी तथा नक्शबंदी सिलसिला बहाऊद्दीन नक्शबन्द के नाम से पड़ा। यहाँ पर ध्यान देने योग्य है चिश्ती सिलसिले के संस्थापक ख्वाज़ा इसहाक शामी का चिश्ती नाम मध्य अफगानिस्तान में स्थित उनके जन्म-स्थान चिश्ती नामक शहर से जुड़ा है।

भारत में मुख्य रूप से चिश्ती, सुहरावर्दी, कादरी, नक्शबंदी, शतारी व फिरदोसी सिलसिले स्थापित हुए। परंतु इन सब में सर्वाधिक प्रमुख तथा लोकप्रिय चिश्ती सिलसिला हुआ।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

प्रश्न 4.
भारत में सूफी सिलसिला क्यों तथा कैसे लोकप्रिय हुआ?
उत्तर:
भारतीय उपमहाद्वीप में कई सिलसिलों की स्थापना हुई। इनमें सर्वाधिक सफलता चिश्ती सिलसिले को मिली, क्योंकि जन-मानस इसके साथ अधिक जुड़ पाया। चिश्ती सिलसिले की स्थापना ख्वाजा इसहाक शामी चिश्ती ने की। परंतु भारत में इसकी स्थापना का श्रेय मुईनुद्दीन चिश्ती को जाता है। मुईनुद्दीन चिश्ती का जन्म 1141 ई० में ईरान में हुआ। इस सिलसिले के अन्य संतों में कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, हमीदुद्दीन नागौरी, निजामुद्दीन औलिया व शेख सलीम चिश्ती – इत्यादि थे। इनकी कार्य-प्रणाली, जीवन-शैली व ज्ञान ने भारत के जन-सामान्य को आकर्षित किया। इस सिलसिले के लोकप्रिय होने के कारणों का वर्णन इस प्रकार है
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1. चिश्ती खानकाह की कार्य प्रणाली-चिश्ती सिलसिले को लोकप्रिय बनाने में भी खानकाह की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। हमें दिल्ली स्थित निजामुद्दीन औलिया के समय के खानकाह के जीवन की जानकारी विभिन्न साक्ष्यों में मिलती है जिसके आधार पर हम चिश्ती सिलसिले को समझ सकते हैं।

खानकाह में एक सामुदायिक रसोई (लंगर) फुतूह (बिना माँगे दान) से निरन्तर चलती थी। यहाँ सुबह से शाम तक समाज के प्रत्येक वर्ग के लोग, सैनिक, दास, धनी-निर्धन, व्यापारी आते थे। इसके अतिरिक्त गायक, हिन्दू-मुस्लिम, जोगी, कलंदरज्ञान लेने वाले, विचार-विमर्श करने, इबादत करने, ताबीज लेने के लिए यहाँ आते थे। कुछ लोग अपने विवादों का समाधान करवाने या यात्रा विश्राम के लिए भी यहाँ आने वाले सभी लोग शेख के समक्ष झुककर आदर देते थे। अनुयायी उन्हें पीने को पानी देते थे। नए अनुयायियों को यहाँ दीक्षा दी जाती थी व यौगिक क्रियाएँ करवाई जाती थीं।

2. चिश्ती दरगाह में उपासना पद्धति-जैसा कि बताया गया है चिश्ती संतों की दरगाह उनके अनुयायियों तथा जन-सामान्य के लिए तीर्थ-स्थल बन गए। लोग इन स्थानों पर जियारत के लिए जाते थे तथा संत से आशीर्वाद (बरकत) की कामना करते थे। विगत शताब्दियों से समाज के सभी वर्गों के लोग इन दरगाहों में आस्था व्यक्त करते रहे हैं। चिश्ती सिलसिले की सभी दरगाहों पर उपासना का एक ढंग नृत्य व संगीत था। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण कव्वाली होती थी। कव्वाल इस गायन के द्वारा रहस्यवादी गुणगान करते थे एवं इस तरह आध्यात्मिक संगीत द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास करते थे। चिश्ती उपासना पद्धति में संगीत सभा निरंतर लोकप्रिय होती गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि उन पर भक्ति परंपरा का प्रभाव था।

3. सूफी परंपरा व भाषा-सूफी फकीरों व संतों की लोकप्रियता का एक मुख्य कारण यह भी है कि उन्होंने स्थानीय भाषा में अपने विचारों को अभिव्यक्ति दी। चिश्ती सिलसिले के शेख व अनुयायी तो मुख्य रूप से हिंदवी में बात करते थे। सूफियों ने ईश्वर के प्रति आस्था व मानवीय-प्रेम को कविताओं के माध्यम से प्रस्तुत किया। इनकी भाषा भी सामान्य व्यक्ति की थी।

प्रश्न 5.
सूफी मत पर हिन्दू मत का क्या प्रभाव पड़ा? भारतीय समाज में सूफी मत की क्या भूमिका रही?
उत्तर:
सूफी आन्दोलन इस्लाम से जुड़ा था, परन्तु उस पर हिन्दू मत का प्रभाव था। उसने इस मत से कई चीजें ग्रहण की।

(क) सूफी मत पर हिन्दू मत का प्रभाव

1. आत्मा के संबंध में विचार-अलबिरुनी के कथानुसार आत्मा के सम्बन्ध में सूफी सिद्धान्त पतंजलि के ‘योगसूत्र’ के सिद्धान्त की ही तरह है। सूफी रचनाओं में यह विचार अभिव्यक्त है कि “प्रतिदान प्राप्त करने के उद्देश्य से शरीर आत्मा का ही मूर्त रूप होता है।” अलबिरुनी ने आत्म-विकास के रूप में दैवी प्रेम के सूफी सिद्धान्त की पहचान भगवद्गीता के समानान्तर अनुच्छेदों से की है। तेरहवीं शताब्दी तक भारतीय सूफीयों का सामना कनकटे (खंडित कर्ण वाले) योगियों अथवा गोरखनाथ के नाथ अनुयायियों से हुआ।

शेख निजामुद्दीन औलिया इस सिद्धान्त से प्रभावित थे कि मानव-शरीर शिव तथा शक्ति के रूप में विभक्त होता है। इस आधार पर सिर से नाभि तक का भाग जो शिव से सम्बद्ध होता है, आध्यात्मिक होता है। नाभि से नीचे का भाग जो शक्ति से सम्बद्ध होता है, लौकिक होता है। शेख निजामुद्दीन औलिया योग के इस सिद्धान्त से प्रभावित थे कि बच्चे के नैतिक चरित्र का निर्धारण बच्चे के गर्भावस्था में आने के समय से ही हो जाता है।

2. योग तथा प्राणायाम का प्रभाव हठयोग की पुस्तक अमृतकुण्ड का तेरहवीं शताब्दी में अरबी तथा फारसी में अनुवाद किया गया था। इसका सूफी मत पर स्थायी प्रभाव पड़ा। शेख नासिरुद्दीन चिराग-ए-देहलवी ने कहा था कि प्राणायाम सूफी मत का सारतत्व है। प्राणायाम आरम्भ में जानबूझ कर किया गया कार्य होता है, परन्तु बाद में स्वचलित हो जाता है। उन्होंने सिद्धों के रूप में प्रसिद्ध योगियों की भान्ति प्राणायाम का अभ्यास करने पर अधिक बल दिया। यौगिक मुद्राएँ तथा प्राणायाम चिश्तिया सूफी पद्धति का अभिन्न अंग बन गईं। शेख हमीदुद्दीन नागौरी के हिन्दी पदों से भी योग का प्रभाव दृष्टिगत होता है।

3. नाथ सिद्धान्तों (अलख) का प्रभाव-चिश्तिया शेख अब्दुल कुद्स गंगोही पर नाथ सिद्धान्तों का दूरगामी प्रभाव पड़ा था। उनका हिन्दी उपनाम अलख (अगोचर) था। उनका कथन है कि अगोचर भगवान् (अलख निरंजन) अदृश्य है। एक अन्य पद में शेख ने अलख निरंजन की पहचान ईश्वर (खुदा) से की है। रुसदनामा में योगी संत गौरखनाथ के सन्दर्भो में उनकी तुलना परमसत्ता के अन्तिम सत्य से की गई है। इन दृष्टान्तों से प्रकट होता है कि सूफी धार्मिक विश्वासों पर हिन्दू तन्त्रवाद की क्रियाओं का स्पष्ट भाव था।

4. ऋषि परंपरा को स्वीकारना-कश्मीर की शैव महिला योगी लल्ल या लाल देड़ (लल्ल योगेश्वरी) द्वारा व्यक्त विचारों के साथ सूफी धारणाओं का समन्वय शेख नूरुद्दीन ऋषि के ऋषि आन्दोलन में परिलक्षित होता है। नूरुद्दीन और उनके अनुयायियों ने हिन्दू सन्तों के समान ही अपने को ऋषि कहलाना प्रारम्भ किया था। पन्द्रहवीं शताब्दी के बंगाल में नाथपंथी विचारों को अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई। अकबर के दरबार में फारसी में संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद से मुसलमानों को हिन्दू दर्शन की वेदान्त शाखा का परिचय मिला। सूफी संत जनता की भाषा में उपदेश देते थे तथा हिन्दी, बंगाली, पंजाबी, कश्मीरी आदि सभी प्रान्तीय भाषाओं के विकास में उनका अत्यधिक योगदान रहा।

(ख) भारतीय समाज में सूफी धर्म की भूमिका

मध्ययुगीन भारतीय समाज में सूफी सन्तों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

1. हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों में समन्वय-इस धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों में समन्वय की भावना पैदा करना था। सूफी सन्तों ने सामाजिक सेवा को व्यावहारिक रूप दिया और उसे परमात्मा की सेवा का एकमात्र साधन बताया।

2. नैतिक आचरण को बढ़ावा-सूफी सन्तों ने अपने शिष्यों में समाज सेवा, सद्व्यवहार और क्षमा आदि गुणों पर जोर दिया। उन लोगों ने जनता के चरित्र तथा उनके दृष्टिकोण को सुधारने का प्रयास किया।

3. राज्य नीति को प्रभावित करना-सुलतानों के रूढ़िवादी इस्लामी विचार भी इन सन्तों को मान्य नहीं थे। अतः उन्होंने शक्ति प्रलोभन तथा तलवार द्वारा धर्म परिवर्तन की नीति का अनुमोदन नहीं किया। वे राजनीति से अलग रहे। उन्होंने लोगों से स्पष्ट कहा कि इस अन्धकारमय युग में प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि लेखनी, वाणी, धन तथा पद से दुख संतप्त प्रजा की सेवा करे। इस प्रकार उन्होंने शासकों के हृदय में प्रजा की भलाई की भावना पैदा की।

4. क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में योगदान-एकेश्वरवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके उन्होंने पारस्परिक मतभेदों को दूर करने की चेष्टा की। खड़ी बोली, जो कि सर्वसाधारण की भाषा थी, के विकास में सूफी सन्तों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अतिरिक्त पंजाबी, गुजराती आदि क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में योगदान दिया।

प्रश्न 6.
भक्ति आन्दोलन क्या था? इसकी उत्पत्ति व प्रसार के कारणों पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
भक्ति शब्द की उत्पत्ति ‘भज्’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ सेवा से लिया जाता है। भक्ति व्यापक अर्थ में मनुष्य द्वारा ईश्वर या इष्टदेव के प्रति पूर्ण समर्पण होता है

भक्ति आंदोलन की विशेषताएँ

  • एकेश्वरवाद में निष्ठा।
  • ईश्वर के प्रति समर्पण।
  • गुरु को अत्यधिक महत्त्व देना।
  • मानव मात्र की समानता में विश्वास ।
  • जीवन की पवित्रता को महत्त्व।
  • धर्म की सरलता में विश्वास।
  • समाज की बुराइयों का विरोध।
  • हिन्द-मस्लिम एकता को महत्त्व।
  • प्रेम की शुद्धता को महत्त्व।

जिसके अनुरूप व्यक्ति स्वयं को अपने श्रद्धेय में समा लेता है। इसमें सामाजिक रूढ़ियाँ, ताना-बाना, मर्यादाएँ तथा बंधनों की भूमिका नहीं होती। बल्कि सरलता, समन्वय की भावना तथा पवित्र जीवन पर बल दिया जाता है। भक्ति संत कवियों ने समाज की रूढ़ियों व नकारात्मक चीजों का विरोध कर, उसके प्रत्येक वर्ग को अपने साथ जोड़ा, जिनके चलते हुए समाज का एक बड़ा वर्ग इनका अनुयायी व समर्थक बन गया।

सभी भक्त कवियों ने मोटे तौर पर एक ईश्वर में विश्वास, ईश्वर के प्रति निष्ठा व प्रेम तथा गुरु के महत्त्व पर बल दिया। साथ ही मानव मात्र की समानता, जीवन की पवित्रता, सरल धर्म तथा समन्वय की भावना के लिए कहा। इन संत कवियों में सगुण व निर्गुण के आधार पर अंतर था। सगुण के कुछ संत कवि भगवान राम के रूप में लीन थे जबकि कुछ को कृष्ण का रूप पसन्द था। इन्हीं आधारों पर इन्हें राममार्गी तथा कृष्णमार्गी कहा जाता था।

भक्ति आन्दोलन की उत्पत्ति और प्रसार के कारण-यद्यपि भक्ति तथा सूफी आन्दोलनों के संदर्भ में प्रचलित धारणाओं का विश्लेषण करते हुए इन आन्दोलनों की उत्पत्ति के संबंध में भी विचार व्यक्त किए हैं, परन्तु भक्ति आन्दोलन की उत्पत्ति तथा प्रसार के कारण को विस्तार से जानना उपयोगी होगा। विभिन्न विद्वानों द्वारा इसकी उत्पत्ति और प्रसार के बारे में निम्नलिखित कारण बताए जाते हैं

1. भक्ति मार्ग की सरलता-सामान्य तौर पर यह मान्यता है कि ज्ञान-मार्ग तथा कर्म-मार्ग की तुलना में भक्ति-मार्ग आसान है। हिन्दू धर्म में ज्ञान की शिक्षा ग्रहण करने के लिए व्यापक साहित्य उपलब्ध है। अनेक दर्शनों (छठ दर्शन) के द्वारा इसकी जानकारी प्राप्त होती है। दूसरा कर्म-काण्डों एवं पूजा-पाठ की क्रियाओं को अपनाना भी जटिल था। यद्यपि गीता में इन तीनों मार्गों का सम्मिलन किया गया तथा एक के बिना दूसरे को अछूत बताया गया है, परन्तु आम आदमी के लिए यह मार्ग आसान तथा जटिलता से रहित था। अतः यह लोकप्रिय होता चला गया।

2. जाति व्यवस्था की जटिलता तथा भेदभाव-वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा ने धीरे-धीरे जटिल रूप ग्रहण कर लिया था। इस व्यवस्था में भेदभाव भी विद्यमान था। कुछ जातियों को निम्न माना जाता था। इन निम्न जातियों को धर्म-शास्त्र अध्ययन की अनुमति नहीं थी। इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को दूर करने का प्रयत्न बौद्ध धर्म द्वारा किया गया था, जो कि एक समय में बहुत लोकप्रिय हुआ, परन्तु राजपूतकाल में बौद्ध-धर्म का पतन होता चला गया। अतः इस समय लोग ऐसे मार्ग की ओर देख रहे थे जो उन्हें आसानी से अपनी जीविका कमाते हुए ईश्वर तक पहुँचने का या मोक्ष का मार्ग प्रदान करे। भक्ति आन्दोलन के अनेक सन्तों कबीर, नानक, नामदेव, रविदास आदि ने अपने स्वयं के उदाहरणं देते हुए जनता में इन आन्दोलनों को लोकप्रिय होने का आधार प्रदान किया।

3. हिंदुओं द्वारा धर्मान्तरण तथा अछूतों की असहाय अवस्था-इस्लाम के आगमन पर भारत में हिन्दुओं द्वारा इस्लाम मत अपनाया जाने लगा। यह मत बदलने वाले लोग निम्न जातियों तथा अछूत मानी जानी वाली जातियों में से थे, जिनको सवर्ण माने जाने वाले हिन्दुओं द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाता था। अछूतों को तो वर्ण व्यवस्था से बाहर ही माना जाता था। उत्तर-वैदिक काल के पश्चात् अछूतों की दशा में बहुत गिरावट आई।

बौद्ध मत भी अपने आपको जाति प्रथा से पूर्णरूप से मुक्त नहीं कर सका। ऐसी अवस्था में अछूतों की दशा अधिक असहाय रूप में उभरी। भक्ति आन्दोलन ने जाति के बन्धनों को पूरी तरह से अस्वीकार किया। मात्र ईश्वर-समर्पण तथा ईश्वर-भजन पर जोर दिया। इस प्रकार यह विचार व्यक्त किया जाता है कि हिन्दू धर्म में सुधार लाने, धर्मान्तरण पर रोक लगाने तथा अछूतों को मुक्ति का मार्ग दिलाने की आवश्यकताओं के कारण भक्ति आन्दोलन का उदय तथा प्रसार हुआ।

4. इस्लाम का प्रभाव-ताराचन्द्र, हुमायूँ कबीर आदि इतिहासकारों ने भक्ति आन्दोलन के लिए इस्लाम के सम्पर्कों को महत्त्वपूर्ण माना है। इस्लाम के भाईचारे की भावना, एकेश्वरवाद की धारणा आदि ने हिन्दू समाज को प्रभावित किया तथा भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तकों ने इन बातों को स्वीकार कर आन्दोलन चलाया, परन्तु अनेक विद्वान् इस मत को स्वीकार नहीं करते। उनका मानना है कि वैदिक संस्कृति तथा हिन्दू धर्म में भक्ति मार्ग विद्यमान था। उत्तर वैदिक काल में उपनिषदों ने ‘एक’ की बात को स्थापित कर दिया तथा भक्ति को अन्य मार्गों से जोड़ने का कार्य गीता के द्वारा किया गया था।

5. वैष्णव आचार्यों के कार्य दक्षिण के वैष्णव मत के आचार्यों ने दक्षिण भारत में विष्णु भक्ति को फैलाने का कार्य किया। अलवार सन्तों के बाद रामानुज ने दक्षिण में वैष्णव मत का प्रचार व प्रसार किया। ये लोग, विष्णु (बारह अवतारों में से एक ) के अनन्य भक्त थे। उनके सम्प्रदाय में अधिकतर लोग निम्न जातियों से थे, परन्तु ब्राह्मण, स्त्रियाँ तथा कुछ राजा भी इस सम्प्रदाय में शामिल हो गए। भक्ति गीतों के माध्यम से इन्होंने वैष्णव मत का प्रचार व प्रसार किया।

इस प्रकार प्रारम्भ में वैष्णव भक्ति दक्षिण में उपजी तथा धीरे-धीरे इसका प्रचार उत्तर में हुआ और इसने भक्ति आन्दोलन का रूप ग्रहण किया जिसमें अनेक सम्प्रदाय शामिल थे। संक्षेप में यह स्वीकार किया जा सकता है कि भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति में किसी एक कारण को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। तत्कालीन परिस्थितियों तथा अनेक कारणों ने इसकी उत्पत्ति और प्रसार में योगदान दिया।

प्रश्न 7.
संत कबीर कौन थे? भक्ति संत परम्परा में उनके महत्त्व को स्पष्ट करें। अथवा संत कबीर के जीवन और उपदेशों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भक्ति आन्दोलन के एक प्रमुख संत कबीर का जन्म 1440 ई० में एक विधवा के यहाँ हुआ माना जाता है। लोक-लज्जा के भय से उसने नवजात शिशु को वाराणसी में लहरतारा के पास एक तालाब के समीप छोड़ दिया। निःसन्तान जुलाहा नीरु तथा उसकी पत्नी नीमा उसे उठा लाए और उसका नाम कबीर रखा। इस प्रकार कबीर का प्रारम्भिक जीवन एक मुस्लिम परिवार में बीता, लेकिन कबीर ने स्वयं को हिन्दू-मुस्लिम से परे रखकर एक योगी कहा।

कबीर की शिक्षा-दीक्षा किसी संस्था में नहीं हुई। उन्होंने जो कुछ प्राप्त किया, वह उनके जीवन का गहरा अनुभव था। वे भक्ति और सूफी सन्तों के सम्पर्क में आए। रामानन्द का प्रभाव कबीर पर सबसे अधिक था। रामानन्द ने उन्हें रामभक्ति का मन्त्र दिया। हिन्दू धर्म तथा दर्शन सम्बन्धी शिक्षा दी। कबीर की शिक्षा देशाटन, सत्संगति तथा विभिन्न सम्प्रदायों के साथ सम्पर्क का परिणाम था। स्वयं सिकन्दर लोधी ने उनके प्रभाव को स्वीकार किया था।

कबीर ने जो कुछ भी प्राप्त किया था वह सब उन्होंने समाज को अर्पित कर दिया। उनकी भाषा से यह निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने खूब पर्यटन किया होगा। उनकी भाषा में खड़ी बोली, पूर्वी, ब्रज, राजस्थानी, पंजाबी, अरबी, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रचुर प्रयोग हुआ है। कबीर ने रमैणी, शब्द, साखी तथा छन्दों में साहित्य की रचना की। उनकी रचनाओं के संकलन को बीजक कहा जाता है। गुरु ग्रन्थ साहिब में उनकी रचनाओं को शामिल किया गया है। संत कबीर ने अपनी शिक्षाओं में निम्नलिखित बातों पर मुख्य तौर पर जोर दिया

1. धर्म की सहजता कबीर ने धर्म को जन-साधारण रूप देने के लिए उसकी सहजता पर बल दिया। कबीर मत में साधन सहज होना चाहिए। प्रतिदिन के जीवन के साथ धर्म साधना का कोई विरोध नहीं होना चाहिए। कबीर ने इस सत्य को खूब समझा था। यही कारण है कि वे संन्यासियों के शिरोमणि होकर भी सहज बने रहे। धर्म में सहजता के कारण कबीर का दर्शन भी सहज हो गया।

2. कर्मयोग पर बल-पहली बार कबीर ने धर्म को अकर्मण्यता से हटाकर कर्मयोग की भूमि पर टिकाया था और उसे सहज बनाकर जन-साधारण के लिए ग्राह्य बनाया।

3. बाह्य आडम्बरों का खण्डन-कबीर ने किसी भी धार्मिक विश्वास, लोक तथा वेद के अन्धानुकरण को स्वीकार नहीं किया। हिन्दू धर्म के आचारों; जैसे पूजा, उत्सव, वेदपाठ, तीर्थयात्रा, व्रत, छुआछूत तथा कर्मकाण्डों पर कबीर ने कस-कसकर व्यंग्य किया। कबीर के अनुसार यदि विचार शुद्ध एवं पवित्र नहीं हैं तो धर्म भी पवित्र नहीं हो सकता। उन्होंने हिन्दुओं की मूर्ति-पूजा को व्यर्थ कहा तथा दूसरी ओर इन्होंने मुसलमानों के नमाज पढ़ने के ढंग पर तीखा प्रहार किया।

4. कबीर की धर्म-निरपेक्षता कबीर के युग में दो धर्मों, संस्कृतियों एवं सभ्यताओं का संघर्ष था। कबीर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच समानता का प्रतिपादन करके तथा पारस्परिक विरोध को समाप्त करके उन्हें एकता के सूत्र में बांधना चाहते थे।

5. भक्ति भावना-कबीर ने भक्ति मार्ग को कर्म मार्ग तथा ज्ञान मार्ग से श्रेष्ठ बताते हुए कहा कि जब तक आराध्य के प्रति भक्ति भाव नहीं है, तब तक जप, तप, संयम, स्नान, ध्यान आदि सब व्यर्थ हैं। वे आत्म अनुभव को ही एक मात्र ज्ञान मानते हैं जो भक्ति भाव के बिना नहीं हो सकता तथा जिसे वह प्राप्त होता है वह अन्य को यह अनुभव दे नहीं सकते।
कबीर ने लिखा है

“आत्म अनुभव ग्यान की जो कोई पूछे बात।
सो गूंगा गुढ़ खाइके कहै कौन मुख स्वाद।”

कबीर ने भक्ति को पराकाष्ठा पर पहुँचाया। उनके अनुसार, भक्ति आत्म अनुभव है तथा उसमें मुक्ति की मांग का भी समर्पण है। कबीर का यह कथन बहुत गहन तथा गहरा है।

“राता माता नाम का, पीया प्रेम अधाय।
मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाय।”

6. गुरु की महत्ता पर बल-कबीर ने अपनी भक्ति में गुरु को बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। कबीर की दृष्टि में गुरु वह साधु है जिसे ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त है। उन्होंने ठीक ही कहा है

“गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोबिन्द दियो बताय।”

7. अद्वैतवाद पर बल-निर्गुणवादी कबीर ईश्वर के सगुण रूप को भले ही न मानते हों किन्तु कण-कण में उस मूल तत्त्व की व्याप्ति को एवं उसकी कृपा के प्रसाद को कभी नहीं नकारते। मानव शरीर जिस तत्त्व से चलायमान है वह आत्मा है। कबीर ने परम ब्रह्म को मूल तत्त्व की संज्ञा दी है। यही अद्वैत तत्त्व है। आत्मा सर्वव्यापी है। वह निराकार, निर्विकार एवं अनन्त है। कबीर के आत्मा सम्बन्धी विचार गीता पर आधारित हैं।

8. कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों का खण्डन-कबीर एक महान् समाज-सुधारक थे। हिन्दू समाज की जाति प्रथा, नारी वर्ग का नैतिक अवमूल्यन, पर्दा प्रथा, बाल विवाह उनके लिए सहानुभूति का विषय बन गया था। निम्न जातियों पर उच्च वर्ग का घोर अत्याचार, शिक्षा के अभाव में जादू-टोना, शकुन-अपशकुन, जीव-हिंसा, मांस भक्षण, वेश्यागमन, अन्धविश्वास आदि कुरीतियाँ समाज की जड़ें खोखली कर रही थीं। कबीर ने तटस्थ होकर सामाजिक तथा आर्थिक विषमताओं को देखा था और अपने प्रबल व्यक्तित्व से इन्हें मिटाने का प्रयास किया।

अतः कहा जा सकता है कि मध्ययुगीन समाज-सुधारकों में कबीर का व्यक्तित्त्व और कृतित्व है। वे मात्र भक्त ही नहीं वरन् एक भविष्यद्रष्टा, युगस्रष्टा, समाज सुधारक, महात्मा तथा एक महान् उच्च गुणों से सम्पन्न मानव भी थे।

प्रश्न 8.
गुरु नानक देव जी कौन थे? इनके जीवन व शिक्षाओं पर प्रकाश डालें।
अथवा गुरु नानक देव जी के मुख्य उपदेशों का वणन कीजिए। इन उपदेशों का किस तरह संप्रेषण हुआ?
उत्तर:
गुरु नानक देव जी सिक्ख धर्म के संस्थापक थे। उनका जन्म 1469 ई० में आधुनिक पाकिस्तान में तलवंडी (ननकाना साहब) में हुआ। इनका परिवार व्यापार करता था। इनका विवाह छोटी आयु में हो गया तथा पारिवारिक जिम्मेदारी भी काफी थी लेकिन वे अपना काफी समय सूफी व भक्त संतों के साथ बिताते थे। उन्होंने दूर-दूर के क्षेत्रों की यात्रा करके विभिन्न प्रकार के अनुभव पाए। … गुरु नानक देव जी के संदेश उनके भजनों व उपदेशों में पाए जाते हैं जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि उन्होंने धर्म के बाहरी आडंबरों; जैसे यज्ञ, आनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति पूजा व कठोर तप को नकारा।

उन्होंने हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्मों के ग्रन्थों की पवित्रता को भी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने ईश्वर के आकार, रूप, लिंग इत्यादि नकारते हुए निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने रब या ईश्वर की उपासना का मार्ग निरंतर स्मरण तथा नाम के जाप को बताया। उन्होंने अपनी बात क्षेत्रीय लोक भाषा (पंजाबी) में कही।

उन्होंने सामूहिक उपासना पर बल दिया तथा अपने अनुयायी अंगद को उत्तराधिकारी मानते हुए उन्हें गुरु पद पर आसीन किया। इस तरह वे दूसरे गुरु बने तथा उनके बाद गुरु बनाने की परंपरा लगभग दो शताब्दियों तक चलती रही तथा गुरु गोबिंद सिंह दसवें गुरु तक इस परंपरा का निर्वाह किया गया। इनकी शिक्षाओं का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है

1. मानव समानता मध्यकालीन एकेश्वरवादी धार्मिक सिद्धान्त में अन्तर्निहित मानवीय समानता के नैतिक विचारों के अनुरूप हैं। इनका विचार था कि जाति के अनुसार सोचना मूर्खता है। किसी व्यक्ति का सम्मान ईश्वर के प्रति उसकी निष्ठा के कारण होना चाहिए, न कि उसकी सामाजिक स्थिति के कारण। इनका कहना है, “ईश्वर व्यक्ति के गुणों को जानता है, पर वह उसकी जाति के बारे में नहीं पूछता, क्योंकि दूसरे लोक में कोई जाति नहीं है।” उनका उद्देश्य अपने अनुयायियों में समानता और बन्धुत्व की भावना का संचार करना था। गुरु नानक देव जी छुआछूत के सिद्धांत में विश्वास नहीं करते थे जिसने समाज को अनेक टुकड़ों में विभाजित कर दिया . था।

2. अकाल पुरुष-गुरु नानक देव जी ने निराकार (आकार-रहित) ईश्वर की कल्पना की और इस निराकार ईश्वर को इन्होंने अकाल पुरुष (अनन्त एवं अनादि ईश्वर) की संज्ञा दी।

3. अन्धविश्वासों तथा रूढ़िवाद की निन्दा-गुरु नानक देव जी बड़े गहन और सशक्त विचारों वाले व्यक्ति थे। अतः इन्होंने बड़ी स्पष्टता या सार्वजनिक जीवन के नैतिक मापदण्डों, सामाजिक व्यवहारों एवं विश्वासों का निर्धारण किया। ये धार्मिक एवं सामाजिक अंधविश्वासों के भयंकर विरोधी थे और इन्हें सांस्कृतिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन का प्रतीक मानते थे। इन्होंने अन्धविश्वासों को धार्मिक मूल्यों से पृथक् करने के लिए लोगों को शिक्षित किया। हिन्दू और इस्लाम दोनों के अन्धविश्वासों और रूढ़िवाद की निन्दा की गई।

4. एकेश्वर-गुरु नानक देव जी एकेश्वरवादी थे और कुछ अन्य भक्ति सन्तों के विपरीत इनका एकेश्वरवाद अनन्य था। इनका अवतारवाद में विश्वास नहीं था। इन्होंने यह शिक्षा दी कि सम्पूर्ण जगत् में एक ही ईश्वर है, अन्य कोई नहीं है। गुरु नानक

5. सद्गुणों पर बल-गुरु नानक देव जी का कहना है कि सद्गुणों के बिना भक्ति नहीं हो सकती। सच्चाई निःसन्देह बड़ी है, लेकिन सच्चा जीवन उससे भी बढ़कर है। व्यक्ति को विनम्रता, दया, क्षमा और मधुरवाणी जैसे गुणों को कर्मठतापूर्वक अपनाना चाहिए। सत्य की खोज करने वाले व्यक्ति का प्राथमिक कर्त्तव्य ईश्वर का स्मरण है। ईश्वर का नाम याद करो तथा सब कुछ छोड़ दो। सिमरन ईश्वर की भक्ति की पद्धति है।

ईश्वर कहीं बाहर नहीं, अपितु प्रत्येक व्यक्ति के अन्तःस्थल में निवास करता है। ईश्वर सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है, शरीर में भी निवास करता है। सत्य बोलो, तब तुम अपने भीतर ईश्वर का अनुभव करोगे। नानक ईश्वर पर सर्वशक्तिमान यथार्थ के रूप में विश्वास करते थे, लेकिन इन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि प्रेम एवं भक्ति के द्वारा व्यक्तिगत मानवीय आत्मा का ईश्वर के साथ मिलन हो सकता है।
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प्रश्न 9.
भक्ति आन्दोलन की प्रमुख विशेषताएँ क्या थीं? वर्णन करें।
उत्तर:
भक्ति आन्दोलन मध्यकाल का एक सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन था। इसने इस समाज को दिशा दी। इसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं…

1. एकेश्वरवाद में निष्ठा-भक्ति आन्दोलन के संत एक ईश्वर (एकेश्वर) की सत्ता में निष्ठा रखते थे। उनका मानना था कि राम, रहीम, अल्लाह, ईश्वर, ओंकार सब उसी एक सत्ता के मनुष्यों द्वारा दिए गए नाम हैं। भक्त एक ही ईश्वर की उपासना करते थे। भक्ति में दो सम्प्रदाय उभरकर आए। एक वे जो सगुण रूप की उपासना करते थे तथा दूसरे वे जो निर्गुण रूप को मानते थे। सगुण उपासक वैष्णव के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनके आराध्य देव राम और कृष्ण रहे। निर्गुण मतानुयायी मूर्ति-पूजा को नहीं मानते थे। उनका कहना था कि ईश्वर सर्वव्यापी है तथा प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करता है।

2. ईश्वर के प्रति समर्पण तथा प्रेम पर बल-भक्ति का मुख्य साधन ईश्वर के चरणों में पूर्ण समर्पण-भाव तथा प्रेम-भाव की उत्पत्ति को स्वीकार किया गया। उपासक अपने आपको प्रभु चरणों में समर्पित कर प्रभु से एकाकार करने का प्रयत्न करता था। इसमें ईश्वर के प्रति प्रेम-भाव को महत्त्वपूर्ण माना जाता था। कबीर ने दिव्य प्रेम पर अत्यधिक बल दिया। सन्तों का मत था कि समर्पण भाव से काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार आदि पर नियन्त्रण किया जा सकता है। अहंकार को मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा माना गया। समर्पण, ईश-कृपा तथा गुरु-भक्ति से अहंकार की समाप्ति संभव मानी गई।

3. गुरु की महत्ता पर बल-गुरु शब्द का शाब्दिक अर्थ अन्धकार से प्रकाश में ले जाने वाला बताया जाता है। भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने ‘गुरु’ की महिमा को स्वीकार किया। गुरु जिसने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया और अब जो मार्ग दिखा सकता हो। गरु को ईश्वर के समान दर्जा प्रदान किया गया। संत कबीर ने गुरु को वह नाव बताई जो शिष्य को भवसागर से पार उतार सकती है। सन्तों ने स्वीकार किया कि गुरु मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरूप का दर्शन करवा सकता है।

गुरु वह द्वार है, जहाँ से ईश्वर का मार्ग साफ हो जाता है। गुरु निकटता से ही अहंकार से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार गुरु नानक देव जी ने स्वीकारा “गुरु भक्ति ही नाव है, वह दिव्य घर में पहुँचाने की सीढ़ी है, वह मनुष्य की सोई आत्मा को जगाता है और सेवा, प्रेम तथा भक्ति के मार्ग पर चलने में सहायता देता है।

4. मानव मात्र की समानता में विश्वास-सभी भक्ति आन्दोलन से जुड़े सन्तों ने मानव मात्र की समानता पर बल दिया। उन्होंने जाति, वर्ग, धर्म या लिंग के भेद के आधार पर समाज में मानव की असमानता को अस्वीकार किया। संसार के सभी मनुष्यों को उस परम शक्ति (ईश्वर) की सन्तान स्वीकार किया गया। संतों का विश्वास था कि स्वार्थी लोगों ने (चाहे वे धर्म से जुड़े थे या राजनीति से जुड़े थे) अपने हित साधन के लिए मानव जाति को विभिन्न जातियों या सम्प्रदायों में बांट दिया है।

संतों ने प्रेम, भाईचारे तथा शान्ति से रहने का उपदेश दिया। सन्तों ने कहा कि परमात्मा की कृपा से हृदय में प्रेम उपजने पर भक्त के लिए अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, जात-पात के भेद स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं तथा इस प्रकार भक्ति-मार्ग मानव मात्र में समानता की स्थापना करने में सहायक सिद्ध हुआ। इस रूप में भक्ति आन्दोलन, समतावादी आन्दोलन था।

5. पवित्र जीवन पर बल–भक्ति आन्दोलन ने पवित्र जीवन पर बल दिया। पवित्र जीवन को आचरण के साथ-साथ खान-पान व शुद्ध एवं मेहनत की कमाई से जोड़ा गया। प्राचीन योग परम्परा से सम्बन्धित नियमों पर बल दिया गया। अनेक संत स्वयं अपने हाथ से काम करते थे तथा सादा जीवन व प्रभु-भक्ति का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करते थे। नानक, कबीर, रविदास, नामदेव का जीवन इस दृष्टि से उल्लेखनीय है जिन्होंने लोगों के समक्ष अपना उदाहरण प्रस्तुत किया तथा अपने शिष्यों को प्रेरणा प्रदान की।

6. धार्मिक सरलता पर बल-भक्ति आन्दोलन के सभी सन्तों ने धर्म की सरलता पर बल दिया। धर्म के नाम पर चल रहे अनेक आडम्बरों, अन्ध-विश्वासों, दिखावे, कर्म-काण्डों तथा ढकोसलों का खण्डन किया। यहाँ तक कि अनेक सन्तों ने मूर्ति पूजा का भी विरोध किया। कबीर तथा नानक इनमें प्रमुख थे। हिन्दू धर्म तथा इस्लाम के अनेक रीति-रिवाज़ों को अस्वीकार किया गया। पुरोहित वर्ग की अधिसत्ता तथा कर्म-काण्डों की निन्दा की गई। मुल्ला के द्वारा ऊँचे स्वर में अल्लाह को पुकारने को आडम्बर करार दिया गया। धर्म में यज्ञों तथा कर्म-काण्डों के लिए कोई स्थान स्वीकार नहीं किया गया।

यहाँ तक कि उपवास, रोजों, तीर्थयात्रा, गेरुए वस्त्रों, शरीर पर राख लगाने, कुण्डल डालने, दाढ़ी-मूंछ रखने, सिर मुंडवाने आदि को बाह्य आडम्बर बताया तथा इनका मजाक भी उड़ाया। सच्चा धर्म उसे स्वीकारा, जिसमें सरलता हो। आडम्बरों के स्थान पर मानवीय गुणों तथा नैतिकता पर जोर दिया गया हो। बाहरी दिखावे को नहीं वरन् आन्तरिक शुद्धता को धर्म का आधार माना गया। कबीर ने कहा वह व्यक्ति अधिक धार्मिक तथा पुण्यात्मा है जिसका मन पवित्र है। ईमानदारी, भाई-चारे, प्रेम, सहयोग, दया, अहिंसा आदि मानवीय गुणों को सरल धर्म का आधार स्वीकार किया।

7. समन्वयवाद की भावना-भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तकों ने हिन्दू तथा इस्लाम में समन्वयवादी भावना के आधार पर सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करने के प्रयत्न किए। भक्ति और सूफी आन्दोलनों में अनेक सन्तों के शिष्य सभी धर्मों और सम्प्रदायों से संबंध रखने वाले थे। कबीर तथा नानक ने इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कार्य किया। नानक पर इस्लाम की परंपराओं की छाप देखी जा सकती है। इसी प्रकार बल्लभाचार्य राजनीति से अलग रहकर धर्म और संस्कृति के माध्यम से इन दोनों धर्मों के अनुयायियों के बीच सामंजस्य चाहते थे। भक्ति तथा सूफी सन्तों के द्वार शूद्रों, ब्राह्मणों, मुसलमानों, अमीर-गरीब सभी के लिए खुले रहते थे।

8. समाज सुधार-यद्यपि भक्ति आन्दोलन मूलतः एक धार्मिक आन्दोलन था, परन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि धर्म और समाज की व्यवस्था आपस में पूरी तरह से जुड़ी होती है। धर्म में सुधार का सीधा प्रभाव समाज पर भी पड़ता रहा है। इस दृष्टि से भक्ति आन्दोलन के द्वारा समाज सुधार के कार्य भी किए गए। भक्ति आन्दोलन ने जाति प्रथा का घोर विरोध किया। अस्पृश्यता को परमात्मा तथा मानवता के खिलाफ अपराध बताया।

स्त्रियों की दशा को सुधारने के प्रयत्न भी किए। अनेक संतों ने सती प्रथा, कन्या वध तथा दास प्रथा का भी विरोध किया। यही नहीं, उन्होंने अत्यधिक धन संग्रह तथा आर्थिक असमानता पर भी प्रहार किया। यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि एक भक्त की स्थिति में पहुंचने पर भक्त के हृदय से यह सामाजिक दोष स्वतः ही दूर हो जाते हैं। वह जाति-पाति, छुआछूत से ऊपर उठ जाता है।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ : धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ

प्रश्न 10.
भक्ति आन्दोलन के प्रमुख प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर:
मध्यकालीन भारतीय समाज के सभी क्षेत्रों को भक्ति आन्दोलन ने प्रभावित किया। सभी क्षेत्रों में इसके दूरगामी प्रभाव रहे। भारत में मिली-जुली संस्कृति (Composite Culture) के निर्माण में भक्ति आन्दोलन ने अहम् भूमिका निभाई।

1. धार्मिक प्रभाव-भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने हिन्दू धर्म की कुरीतियों, बाह्य आडम्बरों, कर्मकाण्डों आदि का खण्डन किया। इससे इस धर्म में सुधार हुआ। बड़ी संख्या में लोगों ने भक्ति आन्दोलन की शिक्षाओं का पालन करना शुरू किया। हिन्दू धर्म तथा दर्शन के वास्तविक स्वरूप को सन्तों ने सारे देश में फैलाने का कार्य किया। भक्ति ने उत्तरी भारत तथा दक्षिणी भारत के सांस्कृतिक सम्पर्कों को भी बढ़ावा दिया।

सगुण तथा निर्गुण भक्ति ने हिन्दू धर्म को नया जोश प्रदान किया। इस तरह भक्ति आन्दोलन, जिसे हिन्दू धर्म में सुधार आन्दोलन भी स्वीकार किया जाता है, ने हिन्दू धर्म को सर्वप्रिय बनाने में सहयोग दिया। इससे धर्मान्तरण में कमी आई। इस्लाम के एकेश्वरवाद, भाई-चारे की भावना व सामाजिक समानता के आदर्शों को भक्ति सन्तों ने अपनी शिक्षाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। निर्गुण उपासकों ने मूर्तिपूजा का खण्डन किया।

भक्ति आंदोलन से कालान्तर में नए-नए सम्प्रदायों का जन्म हुआ। इन सम्प्रदायों का आधार विभिन्न सन्तों द्वारा विशेष सिद्धान्तों पर बल देना या उनकी परम्परा को आगे बढ़ाना था। उदाहरण के लिए कबीर, दादू, चैतन्य, तुकाराम के अनुयायियों ने कबीरपंथ, दादूपंथ, काली बाबा वरकरी पंथ आदि की स्थापना कर ली। गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं ने सिक्ख धर्म का रूप धारण कर लिया। गुरु नानक देव प्रथम गुरु माने गए तथा गुरु परम्परा में नौ अन्य गुरु हुए और अन्त में गुरु ग्रन्थ साहिब को गुरु का स्थान प्रदान किया गया। गुरु ग्रन्थ साहिब में भक्ति सन्तों और सूफी सन्तों की वाणी को प्रमुख स्थान दिया गया।

2. सामाजिक प्रभाव-सामाजिक स्तर पर सन्तों द्वारा जाति प्रथा को समाप्त तो नहीं किया जा सका, परन्तु सन्तों के जाति प्रथा के विरोध ने यह सिद्ध कर दिया कि मानव अपने अच्छे कर्मों तथा प्रयत्नों से उच्च स्थान प्राप्त कर सकता है चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में हुआ हो या उसका व्यवसाय कुछ भी हो। रामानन्द निम्न जातियों के लोगों को गुरु मन्त्र देकर अमर हो गए। कबीर जुलाहे थे परन्तु मध्यकाल की महान् संत परम्परा में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त हुआ।

रविदास को तथाकथित निम्न जाति से होने पर भी समाज में उच्च स्थान प्राप्त हुआ। कहते हैं कि धन्ना भक्त से भगवान् ने स्वयं अन्न ग्रहण किया। इस प्रकार सन्तों ने अपने आचरण तथा प्रयत्नों के आधार पर जाति प्रथा पर प्रहार किया। भक्ति आंदोलन से सामाजिक समरसता, सुख शान्ति एवं सामाजिक दायित्व की भावना को बल मिला। इससे मानवता की सेवा को बढ़ावा मिला।

3. राजनीतिक प्रभाव-भक्ति आन्दोलन का प्रभाव राजनीतिक क्षेत्र में देखा जा सकता है। अकबर की धार्मिक नीति तथा दीन-ए-इलाही की स्थापना पर भक्ति तथा सूफी आन्दोलन की अमिट छाप रही है। उसने भारतीय समाज के सभी धर्मों तथा सम्प्रदायों से सद्व्यवहार की नीति अपनाई। राजपूतों से वैवाहिक संबंध स्थापित किए। अकबर की धार्मिक सहनशीलता तथा समानता की नीति ने उसकी राजनीतिक सफलताओं को प्रभवित किया। इसके अतिरिक्त सिक्ख तथा मराठा शक्ति के उदय में भी भक्ति आंदोलन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

4. सांस्कृतिक प्रभाव-भक्ति आन्दोलन के प्रादेशिक भाषा तथा साहित्य के विकास व कला क्षेत्र में उल्लेखनीय सांस्कृतिक प्रभाव रहे हैं। भक्ति सन्तों का प्रभाव पंजाब से दक्षिण भारत तथा गुजरात से बंगाल तक देखा जा सकता है। जहाँ-जहाँ ये संत उपदेश देते थे, स्थानीय शब्द उनकी भाषा का माध्यम व अंग बन जाते थे। इस रूप में भारतीय प्रादेशिक भाषाओं का विकास तथा उसमें साहित्य की रचना भक्ति आन्दोलन की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक देन है।

ब्रजभाषा, खड़ी बोली, पंजाबी, बंगाली, उड़िया, आसामी, गुजराती, राजस्थानी आदि में उनके उपदेशों तथा रचनाओं ने इन भाषाओं के विकास में योगदान दिया। कबीर, नानक देव, मीरा, दादूदयाल, तुलसीदास, सूरदास, चैतन्य, ज्ञानेश्वर, जयदेव, नामदेव, तुकाराम आदि सन्तों का प्रादेशिक भाषा और साहित्य की उन्नति में सराहनीय योगदान रहा। भक्ति तथा सूफी आन्दोलन के कारण समाज में सहनशीलता का वातावरण तैयार हुआ।

इससे इस्लाम की कला परंपराएँ जिस पर ईरान तथा मध्य एशिया का प्रभाव मुख्य था तथा भारतीय कला परंपराओं का संगम हुआ। स्थापत्य (Architecture) में इसे इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार चित्रकला में भी ईरानी तथा भारतीय चित्रकला ने एक-दूसरे को प्रभावित किया। संगीत के क्षेत्र में भी भक्ति सन्तों का प्रभाव देखा जा सकता है।

सूफी सन्तों ने भी संगीत कला को प्रभावित किया। अमीर खुसरो ने भारतीय धुनों के आधार पर कव्वाली और ख्याल जैसी संगीत शैलियों का आविष्कार किया। वाद्य यत्रों में सितार (ईरानी तम्बूरे तथा भारतीय वीणा का मिश्रण) तबले का आविष्कार हुआ। इस्लामी जगत् के वाद्य यन्त्र (सारंगी, रूबाब, शहनाई) का भारत में प्रचलन हुआ। इसी प्रकार भक्ति तथा सूफी आन्दोलनों के संयुक्त प्रभाव के परिणामस्वरूप कला का विकास हुआ।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि भक्ति आन्दोलन ने सूफी आन्दोलन के साथ मिलकर भारतीय समाज को व्यापक रूप से प्रभावित किया जिसकी अमिट छाप भारतीय संस्कृति, धर्म, राजनीति, समाज, प्रादेशिक भाषाओं एवं साहित्य कला एवं स्थापत्य आदि क्षेत्रों में स्पष्ट दिखाई देती है।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

HBSE 12th Class History  किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
कृषि इतिहास लिखने के लिए आईन-ए-अकबरी को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने में कौन-सी समस्याएँ हैं? इतिहासकार इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं?
उत्तर:
आइन-ए-अकबरी मुगलकालीन कृषि इतिहास लेखन का एक अति महत्त्वपूर्ण स्रोत है। यह अकबर के काल की कृषि व्यवस्था के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालती है। इससे हमें मुगलकाल की फसलों, सिंचाई तकनीक, कृषकों तथा ज़मींदारों के आपसी संबंधों की जानकारी मिलती है। इतना होते हुए भी इस पुस्तक की कुछ सीमा रूपी समस्याएँ हैं। इसका वर्णन इस प्रकार है

(i) आइन-ए-अकबरी पूरी तरह से दरबारी संरक्षण में लिखी गई है। लेखक कहीं भी अकबर के विरुद्ध कोई शब्द प्रयोग नहीं कर पाया। उसने विभिन्न विद्रोहों के कारणों व दमन को भी एक पक्षीय ढंग से प्रस्तुत किया है।

(ii) आइन-ए-अकबरी में विभिन्न स्थानों पर जोड़ में गलतियाँ पाई गई हैं। यहाँ यह माना जाता है कि गलतियाँ अबल-फज्ल के सहयोगियों की गलती से हुई होंगी या फिर नकल उतारने वालों की गलती से।

(iii) आइन में आंकड़े राज्य के सन्दर्भ में तो सहायक हैं, जिसमें दर इत्यादि का वर्णन सही है। परन्तु मजदूरों की मजदूरी, जन-सामान्य की कर सम्बन्धी समस्या का वर्णन इसमें नहीं है। इसी तरह कई क्षेत्रों के सन्दर्भ में कीमतें भी विरोधाभासपूर्ण बताई गई हैं।

(iv) अबुल-फज़ल ने आइन का लेखन आगरा में किया; इसलिए आगरा व इसके आस-पास का वर्णन बहुत अधिक विस्तार के साथ किया गया है। इस बारे में उसकी सूचनाएँ पूरी तरह सही भी हैं। अन्य स्थानों के आंकड़ों एवं सूचनाओं में कमियाँ भी हैं तथा ये सीमित भी हैं।

इतिहासकार इन सीमा रूपी समस्याओं का निपटारा, अन्य स्रोतों का प्रयोग तुलना रूप में या जानकारी प्राप्त करके करता है। आंकड़ों से संबंधित जानकारी अबुल फज़्ल के ही वर्णन के अन्य स्थानों में मिल जाती है। जोड़ इत्यादि की गलतियों का निदान पुनः जोड़ करके इतिहासकार इसे स्रोत के रूप में प्रयोग कर लेता है।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

प्रश्न 2.
सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को किस हद तक महज़ गुज़ारे के लिए खेती कह सकते हैं? अपने उत्तर के कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल की मुख्य फसलें गेहूँ, चावल, जौ, ज्वार, कपास, बाजरा, तिलहन, ग्वार इत्यादि थीं। सामान्यतः कृषक खाद्यान्नों का ही उत्पादन करते थे। ये फसलें भौगोलिक स्थिति के अनुरूप उगाई जाती थीं। चावल मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में होता था जहाँ 40 इंच या इससे अधिक वार्षिक वर्षा होती थी। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जौ, ज्वार, बाजरा इत्यादि बोए जाते थे, जबकि गेहूँ लगभग भारत के प्रत्येक क्षेत्र में बोई जाती थी। फसलों के उत्पादन में सर्वाधिक महत्त्व मानसून पवनों का था।

जहाँ वे अधिक सक्रिय होती थीं वहाँ गेहूँ व चावल का फसल चक्र रहता था। कम सक्रिय क्षेत्रों में कम वर्षा या कम पानी वाली फसलें उत्पादित होती थीं। इस काल में गन्ना, कपास व नील इत्यादि फसलें भी उगाई जाती थीं। इन फसलों को जिन्स-ए-कामिल कहा जाता था। मुगलकाल में रेशम, तम्बाकू, मक्का, जई, पटसन इत्यादि भी उत्पादित होने लगा था।

इन सभी तरह के फसलों के उत्पादन के बाद भी यह कहा जा सकता है कि इस समय कृषि उत्पादन महज गुजारे के लिए था। ऐसा इसलिए क्योंकि खाद्यान्न फसलों के अतिरिक्त फसलें सीमित क्षेत्र में उत्पादित होती थीं। कृषक समाज फसलें उत्पादित करते समय परिवार के भरण-पोषण का ध्यान भी रखता था। सरकार के पास राजस्व के रूप में फसल ही आती थी। नकदी मुद्रा नहीं के बराबर ही थी।

सरकार तथा ग्रामीण समुदाय के पास अनाज के भंडार न होना भी इस बात की पुष्टि करता है कि अतिरिक्त अनाज का अभाव था। इस कारण और अकाल इत्यादि के समय भूख से मरने के उदाहरण से भी इस बात की पुष्टि होती है कि कृषक जितना उत्पादन करता था उतना साथ-साथ उपभोग भी हो जाता था।

प्रश्न 3.
कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का विवरण दीजिए।
उत्तर:
मुगलकालीन समाज में महिलाएं पुरुषों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर कार्य किया करती थीं। कार्य विभाजन की कड़ी में सामाजिक तौर पर यह माना जाता था कि पुरुष बाहर के कार्य करेंगे तथा महिलाएँ चारदीवारी के अन्दर। यहाँ विभिन्न स्रोतों में महिलाएँ कृषि उत्पादन व विशेष कार्य अवसरों पर साथ-साथ चलती हुई प्रतीत होती हैं। इस व्यवस्था में पुरुष खेत जोतने व हल चलाने का कार्य करते थे, जबकि महिलाएँ निराई, कटाई व फसल से अनाज निकालने के कार्य में हाथ बँटाती थीं।

फसल की कटाई व बिजाई के अवसर पर जहाँ श्रम शक्ति की आवश्यकता होती थी तो परिवार का प्रत्येक सदस्य उसमें शामिल होता था ऐसे में महिला कैसे पीछे रह सकती थी। सामान्य दिनचर्या में भी कृषक व खेतिहर मजदूर प्रातः जल्दी ही काम पर जाता था तो खाना, लस्सी व पानी इत्यादि को उसके पास पहुँचाना महिला के कार्य का हिस्सा माना जाता था। इसी तरह जब पुरुष खेत में होता था तो घर पर पशुओं की देखभाल का सारा कार्य महिलाएँ करती थीं। अतः स्पष्ट है कि कृषि उत्पादन में महिला की भागीदारी काफी महत्त्वपूर्ण थी।
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प्रश्न 4.
विचाराधीन काल में मौद्रिक कारोबार की अहमियत की विवेचना उदाहरण देकर कीजिए।
उत्तर:
16वीं व 17वीं सदी में एशिया व यूरोप दोनों में हो रहे मौद्रिक परिवर्तनों से भारत को काफी लाभ हो रहा था। जल व स्थल मार्ग के व्यापार से भारत की चीजें पहले से अधिक दुनिया में फैली तथा नई-नई वस्तुओं का व्यापार भी प्रारंभ हुआ। इस व्यापार की खास बात यह थी कि भारत से विदेशों को जाने वाली मदों में उपयोग की चीजें थीं तथा बदले में भारत में चाँदी आ रही थी। भारत में चाँदी की प्राकृतिक दृष्टि से कोई खान नहीं थी। उसके बाद भी विश्व की चाँदी का बड़ा हिस्सा भारत में एकत्रित हो रहा था। चाँदी के साथ-साथ व्यापार विनिमय से भारत में सोना भी आ रहा था।

भारत में विश्व भर से सोना-चाँदी आने के कारण मुग़ल साम्राज्य समृद्ध हुआ। इसके चलते हुए अर्थव्यवस्था में कई तरह के बदलाव आए। मुग़ल शासकों के द्वारा शुद्ध-चाँदी की मुद्रा का प्रचलन किया गया। बाह्य व्यापार में मुद्रा के प्रचलन का प्रभाव आन्तरिक व्यापार पर भी पड़ा। इसमें भी अब वस्तु-विनिमय के स्थान पर मुद्रा विनिमय अधिक प्रचलन में आने लगी। शहरों में बाजार बड़े आकार के होने लगे। गाँवों से बिकने के लिए फसलें शहर आने लगीं। मुद्रा के प्रचलन में राज्य का राजस्व जिन्स के साथ नकद भी आने लगा। मुद्रा के कारण ही मज़दूरों को मज़दूरी के रूप में नकद पैसा दिया जाने लगा।

प्रश्न 5.
उन सबूतों की जाँच कीजिए जो ये सुझाते हैं कि मुगल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व बहुत महत्त्वपूर्ण था।
उत्तर:
मुगलकाल में राज्य की आय का मुख्य स्रोत भू-राजस्व था। राज्य की आर्थिक स्थिति तथा कोष इस बात पर निर्भर करता था कि भू-राजस्व कितना तथा कैसे एकत्रित किया जा रहा है। आइन-ए-अकबरी में टोडरमल की नीति को स्पष्ट किया गया है कि अकबर ने अपने राजकोष को समृद्ध बनाने के लिए इस तरह की नीति अपनाई। उसने अपने राजकोष की स्थिति को देखकर सारे साम्राज्य की भूमि को नपवाया। इस नपाई के बाद प्रत्येक क्षेत्र को इस आधार पर बांटा की उससे भू-राजस्व एक करोड़ रुपया बनता हो।

इस तरह सारा साम्राज्य 182 परगनों में विभाजित किया गया। नपाई के बाद जमीन का बंटवारा भी उसके उपजाऊपन के आधार पर किया गया। इस बंटवारे का उद्देश्य भी राजस्व की वास्तविकता का ज्ञान करना था।

मुगलकाल में राज्य की आर्थिक स्थिति भी उसी समय तक अच्छी रही जब तक भू-राजस्व ठीक एकत्रित किया गया। उदाहरण के लिए औरंगजेब के काल में हम सर्वाधिक कृषक विद्रोह देखते हैं क्योंकि उसने कठोरता के साथ अधिक भू-राजस्व वसूलने का प्रयास किया। यह प्रयास असफल रहा। अतः स्पष्ट है कि मुगलकाल में राजकोषीय व्यवस्था का आधार भू-राजस्व व्यवस्था थी। * निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
आपके मुताबिक कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक संबंधों को प्रभावित करने में जाति किस हद तक एक कारक थी?
उत्तर:
ग्रामीण समुदाय में पंचायत, गाँव का मुखिया, कृषक व गैर-कृषक समुदाय के लोग थे। इस समुदाय के इन घटकों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति में गहरा तालमेल था अर्थात् जो वर्ग साधन सम्पन्न था, उसी का सामाजिक स्तर भी ऊँचा था। वह अपने स्तर को बनाए रखने के लिए हमेशा प्रयासरत रहता था। गाँव में रहने वाला हर व्यक्ति सामाजिक ताने-बाने का एक हिस्सा था। मुगलकाल में जाति व गाँव एक-दूसरे के पूरक भी थे। अर्थात् जाति गाँव को बांधती थी तथा गाँव जाति व्यवस्था को बनाकर रखने में मदद करता था। एक गाँव में कृषक, दस्तकार तथा सेवा करने वाली जातियाँ होती थीं। प्रत्येक जाति अपना पुश्तैनी कार्य करती थी।

आर्थिक व सामाजिक स्तर पर इन जातियों में समानता की स्थिति नहीं थी। निम्न जातियों में मुख्य रूप से वो जातियाँ थीं जिनके पास भूमि की मिल्कियत नहीं थी। ये लोग गाँव में वे कार्य करते थे जिन्हें निम्न या हीन समझा जाता था; जैसे मृत पशुओं को उठाना, चमड़े के कार्य या सफाई कार्य इत्यादि। इन जातियों के लोग खेतों में मजदूरी भी करते थे। उस काल में खेती योग्य जमीन की कमी नहीं थी। फिर भी निम्न जातियों के लिए कुछ कार्य ही निर्धारित थे क्योंकि अन्य कार्य को करने की जिम्मेदारी अन्य उच्च वर्गों की मानी जाती थी। इस तरह यह कहा जा सकता है कि निम्न जातियों के लोग निर्धनता का जीवन जीने के लिए मजबूर थे।

जैसा कि स्पष्ट है कि गाँव में जाति, गरीबी व सामाजिक हैसियत के बीच प्रत्यक्ष संबंध था। निम्न वर्ग के लोगों की स्थिति अधिक गरीबी वाली थी। समाज में कुछ लोग ऐसे भी थे जिनकी स्थिति बीच वाली थी। इस बीच वाले समुदाय में कुछ वर्गों की आर्थिक स्थिति में बदलाव के साथ सामाजिक हैसियत में भी कुछ बदलाव आया। उदाहरण के तौर पर कहा जा सकता है कि इस काल में पशुपालन व बागबानी का काफी विकास हुआ। इसके कारण इन कार्यों को करने वाली अहीर, गुज्जर व माली जैसी जातियों की आर्थिक स्थिति सुधरी।

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प्रश्न 7.
सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगलवासियों की जिंदगी किस तरह बदल गई?
उत्तर:
16वीं व 17वीं सदी में कृषि व्यवस्था पर आधारित समाज के अतिरिक्त भी भारत का ग्रामीण समाज था। यह समाज बड़े जंगल क्षेत्र, झाड़ियों (खरबंदी) का क्षेत्र, पहाड़ी कबीलाई क्षेत्र इत्यादि था। यह समाज मुख्य रूप से झारखंड, उड़ीसा व बंगाल का कुछ क्षेत्र, मध्य भारत, हिमालय का तराई क्षेत्र तथा दक्षिण के पठार व तटीय क्षेत्रों में फैला था। जंगल के लोगों का जीवन कृषि व्यवस्था से भिन्न था।

इस काल में भारत का विशाल भू-क्षेत्र जंगलों से सटा था तथा यहाँ के लोग आदिवासी थे जो कबीलों की जिन्दगी जीते थे। वे जंगलों में प्राकृतिक जीवन-शैली के अनुरूप रह रहे थे। जंगलों के उत्पादों, शिकार व स्थानांतरित कृषि के सहारे वे लोग अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। उनके कार्य मौसम (जलवायु) के अनुकूल होते थे। मुगलकाल में जंगल की व्यवस्था व जीवन-शैली में तेजी से बदलाव आया।

विभिन्न तरह के व्यापारियों, सरकारी अधिकारियों एवं स्वयं शासक भी विभिन्न अवसरों पर जंगलों में जाया करते थे। इस तरह अब जंगल का जीवन पहले की तरह स्वतंत्र व शान्त नहीं रहा, बल्कि समाज के आर्थिक व सामाजिक परिवर्तनों से प्रभावित होने लगा। इन परिवर्तनों के लिए बहुत-से कारण जिम्मेदार थे। इनमें से मुख्य का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है

(i) हाथियों की प्राप्ति-मुगलकाल की सेना में हाथियों का बहुत महत्त्व था। ये हाथी जंगलों में मिलते थे। राज्य इन्हें प्राप्त करने के लिए जंगली क्षेत्र पर नियंत्रण रखता था। मुगलकाल में राज्य जंगलवासियों से यह उम्मीद करता था कि वे भेंट अर्थात् पेशकश के रूप में हाथी दें।

(ii) शिकार यात्राएँ-मुग़ल शासक अपना सारा समय दरबार व महल में नहीं गुजारते थे, बल्कि वे अपने अधिकारियों व मनसबदारों के साथ शिकार के लिए भी जाया करते थे। यह शिकार मात्र मनोरंजन या भोजन विशेष के लिए नहीं होता था बल्कि इससे कुछ अधिक इसके सरोकार थे। शासक इस माध्यम से अपने पूरे साम्राज्य की वास्तविकता को जानना चाहता था। वह वहाँ लोगों की शिकायतें सुनता था तथा न्याय भी करता हेत शिविर था। शासक की इस तरह की गतिविधियों ने राज्य व जंगलवासियों की बीच की दूरियों में कमी की।
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(iii) वाणिज्यिक कृषि-वाणिज्यिक खेती व व्यापार के कारण भी जंगलवासियों का जीवन प्रभावित हुआ। जंगल में उत्पादित होने वाले पदार्थों विशेषकर शहद, मोम व लाख भारत से काफी मात्रा में निर्यात होता था। इन पदार्थों की पूर्ति जंगल से होती थी। भारतीय लाख की यूरोप में माँग बढ़ती जा रही थी। इसको जंगलवासी बड़ी कुशलता से तैयार करते थे। इस तरह धीरे-धीरे जंगलवासियों का एक वर्ग इन चीजों को उपलब्ध कराने वाला हो गया। इस समय जंगल में मुख्य व्यापार वस्तुओं के माध्यम से होता था, परन्तु धीरे-धीरे धातु मुद्रा भी वहाँ घुसपैठ कर रही थी।

(iv) व्यापारिक गतिविधियाँ-कुछ छोटे कबीले दो बस्तियों के बीच रहते थे। इन्होंने इन बस्तियों को जोड़ने के लिए व्यापारिक कार्य करने शुरू कर दिए। इस काल में कुछ कबीले गाँव व शहर के बीच व्यापार की कड़ी का काम कर रहे थे। इनके ऊपर गाँव व शहर दोनों की जीवन-शैली का प्रभाव पड़ रहा था।

(v) मुखियाओं का ज़मींदारों के रूप में उदय-जंगल की सामाजिक संरचना में कबीलों के कुछ सरदार या मुखिया जंगल के सरदार या ज़मींदार बन गए। उन्हें अपने जंगल की रक्षा के लिए सेना की आवश्यकता महसूस होने लगी। दूसरी ओर, शासक व अधिकारियों के सम्पर्क में रहने के कारण वह उस तरह की जीवन-शैली अपनाने लगा। कुछ कबीलों के मुखिया तो सरकारी क्षेत्र में आ गए। उन्होंने अपने करीबी लोगों एवं कबीलों के अन्य लोगों को भी सरकारी सेवा में लेने की स्थितियाँ बना दीं। इस तरह स्पष्ट है कि इस सामाजिक बदलाव ने जंगलवासियों व कबीलों की जिन्दगी को पूरी तरह से बदल दिया।
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प्रश्न 8.
मुग़ल भारत में ज़मींदारों की भूमिका की जाँच कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल में ज़मींदार महत्त्वपूर्ण था क्योंकि वह बहुत बड़े भू-क्षेत्र का मालिक था। यह सारा भू-क्षेत्र उसके निजी प्रयोग के लिए था। अपने इस अधिकार के कारण वह गाँव व क्षेत्र में सामाजिक तौर पर भी ऊँची पहचान रखता था। इस ऊँची पहचान का कारण उसकी जाति भी थी। इस तरह वह व्यक्ति सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से बहुत ऊँची पहचान रखता था।

उसकी यह स्थिति पैतृक थी तथा राज्य उसकी इस स्थिति में सामान्य तौर पर बदलाव नहीं कर सकता था। इसलिए राज्य उससे विभिन्न प्रकार की सेवाएँ (खिदमत) लेता था जिनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण राजस्व की वसूली थी। राज्य की सेवाओं के बदले उसकी राजनीतिक हैसियत भी ऊँची होती थी। इन स्थितियों के चलते हुए उसके लिए कार्य करने वाले कृषक, दिहाड़ीदार मजदूर, खेतिहर वर्ग तथा गाँवों के अन्य लोग लगभग उसकें पराधीन होते थे। इसलिए उसे स्थानीय स्तर पर कोई चुनौती नहीं मिलती थी। मुगलकाल में ज़मींदार की तीन श्रेणियाँ थीं। इनका वर्णन इस प्रकार है

(i) प्रारंभिक ज़मींदार ये ज़मींदार वो ज़मींदार होते थे जो अपनी ज़मीन का राजस्व स्वयं कोष में जमा कराते थे। एक गाँव में प्रायः ऐसे ज़मींदार 4 या 5 ही हुआ करते थे।

(ii) मध्यस्थ ज़मींदार ये ज़मींदार वो थे जो अपने आस-पास के क्षेत्रों के ज़मींदारों से कर वसूल करते थे तथा उसमें से कमीशन के रूप में एक हिस्सा अपने पास रखकर कोष में जमा कराते थे। ऐसे ज़मींदार या तो एक गाँव में एक या फिर दो या तीन गाँवों का एक होता था।

(ii) स्वायत्त मुखिया ये ज़मींदार बहुत बड़े क्षेत्र के मालिक होते थे। कई बार इनके पास 200 या इससे अधिक गाँव भी होते थे। इनकी पहचान स्थानीय राजा की तरह होती थी। सरकारी तन्त्र भी उनके प्रभाव में होता था। इनके क्षेत्र में कर एकत्रित करने में सरकार के अधिकारी भी सहयोग देते थे। ये बहुत साधन सम्पन्न होते थे।

जमींदारों के अधिकार व कर्त्तव्य (Rights and Duties of Zamindars) अधिकार व कर्तव्यों की दृष्टि से इनको सामाजिक तौर पर कोई चुनौती नहीं थी। ज़मींदार वर्ग के बारे में बताया गया कि इससे ऊपर व अधीन वर्ग दोनों को इसकी जरूरत थी। ऐसे में अपनी ज़मीन की खरीद, बेच, हस्तांतरण, गिरवी रखने का अधिकार इनके पास था। विभिन्न तरह के प्रशासनिक पदों पर इन्हें नियुक्त किया जाता था। अपने क्षेत्र में विशेष पोशाक, घोड़ा, वाद्य यन्त्र बजवाने का अधिकार इनके पास था। भू-राजस्व से इन्हें एक निश्चित मात्रा में कमीशन मिलता था।

ज़मींदारों के कर्त्तव्यों के बारे में कहा जा सकता है कि अपने क्षेत्र में शांति व्यवस्था स्थापित करने की जिम्मेदारी इनकी थी। इनके क्षेत्र से शासक व शाही परिवार का कोई सदस्य गुजरता था तो उन्हें वहाँ उपस्थित होना पड़ता था। राज्य के प्रति स्वामीभक्ति इनका सबसे बड़ा कर्त्तव्य था। कुछ ज़मींदार अपनी पहचान बनाने के लिए सामाजिक पंचायतों में भाग लेते थे तथा विभिन्न तरह के झगड़ों को निपटाने के फैसले किया करते थे। कुछ ज़मींदार अपने क्षेत्र में धर्मशालाएँ बनवाना व कुएँ खुदवाना भी जरूरी समझते थे।

प्रश्न 9.
पंचायत और गाँव का मुखिया किस तरह से ग्रामीण समाज का नियमन करते थे? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
ग्रामीण समुदाय में एक महत्त्वपूर्ण पहलू पंचायत व्यवस्था थी। गाँव की सारी व्यवस्था, आपसी संबंध तथा स्थानीय प्रशासन का संचालन पंचायत द्वारा ही किया जाता था। ग्राम पंचायत प्राचीनकाल में ही शक्तिशाली संस्था के रूप में कार्य कर रही थी। विभिन्न प्रकार के राजनीतिक परिवर्तनों का इस पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। विभिन्न शक्तिशाली शासकों ने भी इसकी कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप नहीं किया। मुग़ल शासकों ने भी इस बारे में पहले से प्रचलित नीति का पालन किया।

(i) पंचायत का गठन-ग्राम पंचायत में मुख्य रूप से गाँव के सम्मानित बुजुर्ग होते थे। इन बुजर्गों में भी उनको महत्त्व दिया जाता था जिनके पास पुश्तैनी ज़मीन या सम्पत्ति होती थी। प्रायः गाँव में कई जातियाँ होती थी इसलिए पंचायत में भी इन विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि होते थे। परन्तु इसमें विशेष बात यह है कि साधन सम्पन्न व उच्च जातियों को ही पंचायत में महत्त्व दिया जाता था। खेती पर आश्रित भूमिहीन वर्ग को पंचायत में शामिल अवश्य किया जाता था, लेकिन उन्हें महत्त्व नहीं दिया जाता था। हाँ, इतना अवश्य है कि पंचायत में लिए गए फैसले को मानना सभी के लिए जरूरी था।

(ii) पंचायत का मुखिया-गाँव की पंचायत मुखिया के नेतृत्व में कार्य करती थी। इसे मुख्य रूप से मुकद्दम या मंडल कहते थे। मुकद्दम या मंडल का चुनाव पंचायत द्वारा किया जाता था। इसके लिए गाँव के पंचायती बुजुर्ग बैठकर किसी एक व्यक्ति के नाम पर सहमत हो जाते थे। प्रायः गाँव के सबसे बड़े कृषक या प्रभावशाली व्यक्ति को मुखिया माना जाता था। मुखिया का चुनाव होने के बाद पंचायत उसका नाम स्थानीय ज़मींदार के पास भेजती थी।

ज़मींदार प्रायः उस नाम को स्वीकार कर लेता था। इस तरह मुखिया के चयन की औपचारिकता पूरी होती थी। मुखिया के कार्यों में पटवारी मदद करता था। गाँव की आमदनी, खर्च व अन्य विकास कार्यों के करवाने की जिम्मेदारी उसकी होती थी। गाँव की जातीय व्यवस्था तथा सामाजिक बंधनों को लागू करने में वह अधिक समय लगाता था।

(iii) पंचायत के कार्य ग्राम पंचायत व मुखिया को गाँव के विकास तथा व्यवस्था की देख-रेख में कार्य करने होते थे। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है

(a) गाँव की आय व खर्च का नियंत्रण पंचायत करती थी। गाँव का अपना एक खजाना होता था जिसमें गाँव के प्रत्येक परिवार का हिस्सा होता था। इस खजाने से पंचायत गाँव में विकास कार्य कराती थी।

(b) गाँव में प्राकृतिक आपदाओं विशेषकर बाढ़ व अकाल की स्थिति में भी पंचायत विशेष कदम उठाती थी। इसके लिए वह अपने कोष का प्रयोग तो करती ही थी साथ में सरकार से तकावी (विशेष आर्थिक सहायता) के लिए भी कार्य करती थी।

(c) गाँव के सामुदायिक कार्य जिन्हें कोई एक व्यक्ति या कृषक नहीं कर सकता था तो वह कार्य पंचायत द्वारा किए जाते थे। इनमें छोटे-छोटे बाँध बनाना, नहरों व तालाबों की खुदाई करवाना, गाँव के चारों ओर मिट्टी की बाड़ बनवाना तथा सुरक्षा के लिए कार्य करना इत्यादि प्रमुख थे।

(d) गाँव की सामाजिक संरचना विशेषकर जाति व्यवस्था के बंधनों को लागू करवाना भी पंचायत का मुख्य काम था। पंचायत किसी व्यक्ति को जाति की हदों को पार करने की आज्ञा नहीं देती थी। पंचायत शादी के मामले व व्यवसाय के मामले में इन बंधनों को कठोरता से लागू करती थी।

(e) गाँव में न्याय करना पंचायत का अति महत्त्वपूर्ण कार्य था। गाँव में हर प्रकार के झगड़े व सम्पत्ति-विवाद का समाधान पंचायत करती थी। पंचायत दोषी व्यक्ति को कठोर दण्ड दे सकती थी, जिसमें व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार तक कर दिया जाता था।

इस तरह स्पष्ट है कि पंचायत व गाँव का मुखिया गाँव नियमन परंपरावादी ढंग से करते थे। ग्रामीण ताना-बाना व जातीय परंपरा को बनाए रखना इनका मुख्य ध्येय होता था।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
विश्व के बहिरेखा वाले नक्शे पर उन इलाकों को दिखाएँ जिनका मुग़ल साम्राज्य के साथ आर्थिक संपर्क था। इन इलाकों के साथ यातायात-मार्गों को भी दिखाएँ।
उत्तर:
मुग़लों का आर्थिक संपर्क, जल व थल मार्ग से कई देशों से था। इन देशों को विश्व के मानचित्र में प्रदर्शित किया जा सकता है मध्य एशिया के देश, पश्चिमी एशिया के देश, दक्षिणी एशिया के देश, अरब क्षेत्र के देश, फ्रांस, ब्रिटेन और पुर्तगाल।
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परियोजना कार्य 

प्रश्न 11.
पड़ोस के एक गाँव का दौरा कीजिए। पता कीजिए कि वहाँ कितने लोग रहते हैं, कौन-सी फसलें उगाई जाती हैं, कौन-से जानवर पाले जाते हैं, कौन-से दस्तकार समूह रहते हैं, महिलाएँ ज़मीन की मालिक हैं या नहीं, और वहाँ की पंचायत किस तरह काम करती है। जो आपने सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के बारे में सीखा है उससे इस सूचना की तुलना करते हुए, समानताएँ नोट कीजिए। परिवर्तन और निरंतरता दोनों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी इसके लिए सर्वप्रथम अपने गाँव या पड़ोस के गाँव का चयन करें। इसके लिए वह एक प्रश्नावली तैयार करें। जैसे

  • आपके गाँव में कौन-कौन सी फसलें होती हैं।
  • गाँव के लोग किन-किन पशुओं को पालते हैं।
  • गाँव में किस-किस दस्तकारी से संबंधित लोग रहते हैं।
  • क्या गाँव में महिलाओं को भूमि के मालिक होने का अधिकार है।
  • आपकी पंचायत क्या-क्या कार्य करती है।
  • आपकी पंचायत का चुनाव कैसे होता है।

इन प्रश्नों की जानकारी के बाद विद्यार्थी अध्याय को ध्यान से पढ़कर तुलना करें कि फसलों व जानवरों में कोई बदलाव आया है। इसमें विशेष अंतर पंचायत व्यवस्थाएँ यह हैं कि मुगल काल में पंचायतें प्रभावी वर्ग की स्थायी पैतृक पदों वाली तथा जातीय आधार पर होती थी जबकि आज की पंचायतों को चुनाव में गाँव का प्रत्येक स्त्री पुरुष बिना किसी जाति धर्म, क्षेत्र, भाषा के भेदभाव के बिना हिस्सा ले सकता है।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

प्रश्न 12.
आइन का एक छोटा सा अंश चुन लीजिए (10 से 12 पृष्ठ, दी गई वेबसाइट पर उपलब्ध)। इसे ध्यान से पढ़िए और इस बात का ब्योरा दीजिए कि इसका इस्तेमाल एक इतिहासकार किस तरह से कर सकता है?
उत्तर:
पाठ्यपुस्तक में वर्णित आइन को पढ़िए। इसके लिए आप इंटरनेट से भी मदद ले सकते हैं या फिर किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय के पुस्तकालय से आइन पुस्तक के रूप में ले सकते हैं। इस पुस्तक के किसी एक अध्याय को पढ़कर अपने विचार निश्चित कर सकते हैं। इसके लिए J.B.D. की पाठ्यपुस्तक आपके लिए मददगार होगी क्योंकि इस पुस्तक में अध्याय के प्रारंभ में भी स्रोतों का अध्ययन किया गया है। इसमें आइन-ए-अकबरी के विभिन्न भागों व अध्यायों का वर्णन है।

आइन-ए-अकबरी की स्रोतों के रूप में सीमाएँ तथा महत्त्व को भी स्पष्ट रूप से इंगित किया गया है। इन्हीं पक्षों का प्रयोग आप विस्तृत विश्लेषण के लिए अपने चयनित किए गए अध्याय पर भी कर सकते हैं।

किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य HBSE 12th Class History Notes

→ आइन-ए-अकबरी-अकबर के शासनकाल में उसके दरबारी अबुल फज्ल द्वारा लिखी गई पुस्तक।

→ रैयत-इसका शाब्दिक अर्थ प्रजा है। मुगलकाल में यह शब्द कृषकों के लिए प्रयोग किया गया है। इस शब्द का बहुवचन ‘रिआया’ है।

→ खुद-काश्त-वह किसान जो ज़मीन का मालिक भी था तथा स्वयं उसको जोतता भी था।

→ पाहि-काश्त-यह वह किसान था जिसके पास अपनी जमीन नहीं होती थी। वह पड़ोस के गाँव या अपने ही गाँव में पड़ोसी की ज़मीन पर खेती करता था।

→ खालिसा-मुगलकाल की वह ज़मीन जिससे एकत्रित भू-राजस्व सीधे सरकारी कोष में जाता था।

→ जागीर-ज़मीन का वह हिस्सा जिसका राजस्व किसी अधिकारी को उसकी सरकारी सेवा अर्थात् वेतन के बदले दिया जाता था।

→ जिन्स-ए-कामिल-मुगलकाल में उत्पादित होने वाली वे फसलें जो खाद्यान्न नहीं होती थीं। राज्य को इन फसलों से अधिक कर प्राप्त होता था।

→ रबी-वह फसल जो अक्तूबर-नवंबर में बोई जाती तथा मार्च-अप्रैल में काटी जाती थी।

→ खरीफ वह फसल जो मई, जून व जुलाई में रोपित की जाती तथा अक्तूबर व नवंबर में काटी जाती थी।

→ पुश्तैनी-वह कार्य या संपत्ति जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता हो।

→ मल्लाहजादा-मल्लाह वह व्यक्ति होता है जो नौका चलाता है। उसका पुत्र मल्लाहजादा कहलाता था।

→ खेतिहर-वह व्यक्ति जो स्वयं ज़मीन का मालिक नहीं होता बल्कि कृषक के साथ मिलकर मज़दूर इत्यादि के रूप में कार्य करता था।

→ मीरास-किसी व्यक्ति को उसकी सेवा के बदले भूमि दी जाती थी। उसे मीरास या वतन कहा जाता था।

→ जंगली-वे लोग जिनका निवास स्थान जंगल में था।

→ कारवाँ–सामूहिक रूप में पशुओं व गाड़ियों के साथ व्यापार करने वाले लोग।

→ ज़मींदार-मुगलकाल का वह व्यक्ति जो ज़मीन का मालिक होता था। उसे अपनी ज़मीन बेचने, खरीदने व हस्तांतरण का अधिकार होता था।

→ स्वायत्त मुखिया-मुगलकाल में एक ऐसा ज़मींदार जो बहुत बड़े क्षेत्र का स्वामी होता था। जनता उन्हें उस क्षेत्र में शासक ही समझती थी।

→ जरीब-ज़मीन को नापने के लिए प्रयोग की जाने वाली लोहे की जंजीर जरीब कहलाती थी।

→ शिजरा-किसी गाँव, शहर या क्षेत्र का कपड़े पर बनाया गया नक्शा शिजरा कहलाता था। इसमें निवास क्षेत्र व कृषि क्षेत्र का उल्लेख होता था।

→ पोलज-मुगलकाल की वह कृषि भूमि जो सबसे अधिक उपजाऊ थी।

→ जमा-मुगलकाल में किसी क्षेत्र विशेष के लिए निर्धारित लगान दर जमा कहलाती थी। ”

→ हासिल-मुगलकाल में किसी क्षेत्र विशेष से जितना कर एकत्रित होता था वह हासिल कहलाता था।

→ टकसाल वह स्थान जहाँ पर किसी राज्य अथवा देश की मुद्रा छपती थी या आज भी छपती है।

→ मुकद्दम-मुगलकाल में गाँव के मुखिया को कहा जाता था।

→ एक ‘छोटा गणराज्य’-भारतीय गाँव के लिए अंग्रेज लेखकों द्वारा प्रयोग किया गया शब्द।

→ पायक-असम क्षेत्र में पैदल सैनिकों को पायक कहा जाता था।

→ सफावी-ईरान के शासकों को सफावी कहा जाता था।

मुगलकाल में कुल जनसंख्या के लगभग 85% से अधिक लोग गाँवों में रहते थे। गाँवों की अर्थव्यवस्था का केन्द्र कृषि थी। छोटे-से-छोटे कृषक तथा खेतिहर मजदूर से लेकर बड़े-से-बड़े व्यक्ति का सम्बन्ध कृषि से था। समाज के सभी वर्ग कृषि उत्पादन में अपना-अपना हिस्सा अपने-अपने ढंग से लेते थे। इस उत्पादन के बँटवारे में समाज के विभिन्न वर्गों में सहयोग, टकराव व प्रतिस्पर्धा साथ-साथ चलती थी। इन्हीं रिश्तों व परिस्थितियों के बीच ग्रामीण समाज की संरचना बनती थी।

→ मुगल साम्राज्य की आय का मुख्य साधन भू-राजस्व था। वह विभिन्न तरीकों से विभिन्न व्यक्तियों के माध्यम से इसे एकत्रित करता था। इस राजस्व के एकत्रित करने में यह आवश्यक था कि ग्रामीण समाज पर नियंत्रण रखा जाए। मुग़ल शासकों ने भू-राजस्व को एकत्रित करने के लिए जिन्स के साथ-साथ मुद्रा की नीति को भी अपनाया। इस काल में खाद्यान्न फसलों के साथ-साथ नकदी या वाणिज्यिक फसलें भी उगाई जाती थीं। इस प्रक्रिया के चलते हुए व्यापार, मुद्रा व बाजार का सम्बन्ध गाँवों से हो गया। इस कारण गाँव भी अब अलग-अलग न रह कर शहर से जुड़ गए।

→ मुगलकाल का आर्थिक इतिहास जानने का एक प्रमुख साधन आइन-ए-अकबरी है। इस स्रोत से हमें यह पता चलता है कि राज्य का कृषि, कृषक व ज़मींदारों के बारे में दृष्टिकोण कैसा था? इसके अतिरिक्त कुछ और स्रोत भी हैं जो आर्थिक पक्ष की जानकारी देते हैं। इन स्रोतों का प्रयोग कर 16वीं व 17वीं शताब्दी के आर्थिक इतिहास का पुनर्निर्माण किया जा सकता है।

→ जैसा कि स्पष्ट है मुगलकाल में भी भारत कृषि प्रधान देश था। उस समय लोग आज की तुलना में कृषि पर अधिक निर्भर थे। ये लोग वर्ष भर खेती के कार्यों में लगे रहते थे। ज़मीन की जुताई, बिजाई व कटाई के अनुरूप इनकी दिनचर्या जुड़ी थी। इस समय कृषि पर आधारित उद्योग लगभग प्रत्येक गाँव में थे जिसमें लोग कृषि के मुख्य काम के अतिरिक्त समय गुजारते थे। भौगोलिक दृष्टि से भारत में कृषक व कृषि व्यवस्था की प्रणाली एक-जैसी नहीं थी।

→ मैदानी क्षेत्रों में बड़े-बड़े खेत थे तथा उनमें उत्पादन बड़े स्तर पर होता था। पहाड़ी क्षेत्रों में छोटे-छोटे खेत व उत्पादन भी सीमित थे। इस तरह पठारी व मरुस्थल क्षेत्र की स्थिति भी अन्य से भिन्न थी। भारत के बहुत बड़े हिस्से पर जंगल भी थे। वहाँ रहने वाले लोगों की जीवन-शैली पूरी तरह से भिन्न थी। इस तरह से पूरे भारत के बारे में कृषक व कृषि के सन्दर्भ में एक जैसे निष्कर्ष निकालना सम्भव नहीं है।

→ मुगलकाल में कृषक के लिए मोटे तौर पर रैयत या मुज़रियान शब्द का प्रयोग मिलता है। कई स्थानों पर हमें कृषक के लिए किसान व आसामी शब्द भी मिलते हैं। 17वीं शताब्दी के स्रोतों में खुद-काश्त व पाहि-काश्त इत्यादि शब्दों का प्रयोग कृषकों के लिए मिलता है। यह शब्द उनकी प्रकृति में अन्तर को स्पष्ट करता है। कहीं-कहीं यह विभिन्न क्षेत्रों के भाषायी अन्तर के कारण है।

→ मुगलकाल में फसल चक्र खरीफ व रबी के नाम से जाना जाता था। यह फसल चक्र भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में था। उपजाऊ क्षेत्रों में दोनों फसलें होती थीं। जबकि कम उपजाऊ क्षेत्रों में एक फसल मौसम के अनुरूप ली जाती थी। रबी (बसन्त) की फसल अक्तूबर-नवम्बर में रोपित होती थी तथा मार्च-अप्रैल में काटी जाती थी जबकि खरीफ (पतझड़) की फसल की बिजाई मई, जून व जुलाई में होती थी तथा कटाई सितम्बर, अक्तूबर व नवम्बर में होती थी।

→  इस फसल चक्र का आधार मानसून पवनें थीं। भारत में जिन क्षेत्रों में वर्षा पर्याप्त मात्रा में होती थी या सिंचाई के साधन उपलब्ध थे, वहाँ तीन फसलें भी ली जाती थीं। तीसरी फसल मोटे तौर पर पशुओं के लिए चारा इत्यादि होता था। दूसरी ओर गन्ना व नील इस तरह की फसलें भी थीं जो वर्ष में एक बार ही हो पाती थीं।

→ कृषि सम्बन्धी इन पक्षों की एक विशेष बात यह थी कि मुगलकाल में जोत क्षेत्र काफी बड़ा था। कृषि क्षेत्र को बढ़ाने के लिए राज्य तथा कृषकों द्वारा लगातार कार्य किए गए। जोत क्षेत्र के बढ़ने तथा नई फसलों के आगमन का परिणाम यह रहा कि अकाल व भुखमरी की स्थिति पहले से कम हुई। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव जनसंख्या पर पड़ा। 1600 से 1700 तक भारत की जनसंख्या में लगभग 5 करोड़ की वृद्धि हुई तथा आगामी 100 वर्षों में यह और अधिक बढ़ी। स्रोतों के अनुमान के अनुसार 16वीं व 17वीं शताब्दी में भारत की जनसंख्या में लगभग 33% की वृद्धि हुई। इस जनसंख्या वृद्धि से कृषि उत्पादन भी बढ़ा क्योंकि कृषि पर काम करने वाले लोग भी बढ़े।

→ गाँव में व्यवस्था का संचालन पंचायतें करती थीं। गाँव में प्रायः कई जातियाँ होती थीं। प्रत्येक जाति की अपनी एक पंचायत होती थी। ये जातीय पंचायत गाँव की परिधि के बाहर भी महत्त्व रखती थी। इनका अस्तित्व क्षेत्रीय आधार पर भी होता था। ये बहुत शक्तिशाली होती थीं। ये पंचायतें अपनी जाति (बिरादरी) के झगड़ों का निपटारा करती थीं। जातीय परंपरा व बन्धनों के दृष्टिकोण से ये ग्रामीण पंचायतों की तुलना में अधिक कठोर थीं।

→ दीवानी झगड़ों का निपटारा, शादियों के जातिगत मानदण्ड, कर्मकाण्डीय गतिविधियों का आयोजन तथा अपने व्यवसाय को मजबूत करना इनके काम थे। व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को ये पंचायतें जाति से बाहर कर देती थीं। सामाजिक अस्तित्व की दृष्टि से यह दण्ड बेहद कठोर होता था क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति अपने परिवार, व्यवसाय व वैवाहिक संबंधों इत्यादि से भी कट जाता था।

→ ग्राम पंचायतों पर मुख्य रूप से उच्च वर्ग का प्रभुत्व था। वह वर्ग अपनी मनमर्जी के फैसले पंचायत के माध्यम से लागू करवाता था। सामान्य तौर पर निम्न वर्ग के लोग पंचायत की इस तरह की कार्रवाई को झेल लेते थे। परन्तु स्रोतों में विशेषकर महाराष्ट्र व राजस्थान से प्राप्त दस्तावेजों में इस तरह के प्रमाण मिले हैं कि निम्न वर्ग ने विरोध किया हो। इन दस्तावेज़ों में ऊँची जातियों व सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध जबरन कर वसूली या बेगार की शिकायत है, जिसके अनुसार निम्न वर्ग के लोग स्पष्ट करते हैं कि उनका शोषण किया जा रहा है तथा उन्हें उनसे न्याय की उम्मीद भी नहीं है।

→ भारतीय ग्राम प्राचीनकाल से छोटे गणराज्य के रूप में कार्य कर रहे थे। मुगलकाल में इस व्यवस्था में थोड़ा-बहुत बदलाव आना शुरू हो गया था। इस काल में शहरीकरण का थोड़ा विकास हुआ जिसके चलते गाँव व शहर के बीच व्यापारिक रिश्ते बढ़े। इस कड़ी में वस्तु-विनिमय की बजाय नकद धन का अधिक प्रयोग होने लगा। इसी तरह मुग़ल शासकों ने भू-राजस्व की वसूली जिन्स के साथ-साथ नकदी में भी प्रारंभ की।

→ शासक की ओर से नकदी को अधिक महत्त्व दिया जाता था। इस काल में विदेशी व्यापार में भी वृद्धि हुई। विदेशों को निर्यात होने वाली चीजें गाँव में बनती थीं। इस व्यापार से नकद धन मिलता था।

→ इस तरह धीरे-धीरे मजदूरी का भुगतान भी नकद किया जाने लगा। इस काल में खाद्यान्न फसलों के साथ-साथ नकदी फसलें भी उगाई जाने लगी, जिससे कृषक को पर्याप्त मात्रा में लाभ होता था। रेशम तथा नील मुगलकाल में अत्यधिक लाभ देने वाली फसलें मानी जाती थीं। इस तरह ग्रामीण समाज में वस्तु विनिमय के साथ मुद्रा का प्रयोग भी होने लगा। इससे ग्रामीण ताना-बाना व व्यवस्था प्रभावित होने लगी।

→ जंगलवासियों के जीवन में भी मुगलकाल में कई तरह के परिवर्तन आए। विभिन्न कारणों के होते हुए जंगलवासियों की दूरियाँ गाँव व नगरों से कम हुई, वहीं राज्य के साथ भी संबंधों में बदलाव आया। 16वीं सदी के एक बंगाली कवि मुकंदराम चक्रवर्ती ने ‘चंडीमंगल’ नामक कविता लिखी। इस कविता के नायक कालकेतु ने जंगल खाली करवाकर नए साम्राज्य की स्थापना की। उसने अपनी कविता में उस प्रक्रिया को वर्णित किया है जो जंगल में साम्राज्य का विस्तार करने के लिए अपनाई गई तथा जिसने जंगल के जीवन व व्यवस्था को बदल दिया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य

→ मुगलकाल में कृषि संबंधों का अध्ययन करते हुए अभी तक हमने कृषक, गैर-कृषक व ग्रामीण समुदायों के कुछ पक्षों का वर्णन किया है। इन संबंधों में एक और बहुत महत्त्वपूर्ण पक्ष का अध्ययन जरूरी है। यह पक्ष ज़मींदार के नाम से जाना जाता था। यह कृषि व्यवस्था का केन्द्र था, क्योंकि वह भूमि का मालिक था। उसे ज़मीन के बारे में सारे अधिकार प्राप्त थे अर्थात् वह अपनी ज़मीन को बेच सकता था या किसी को हस्तांतरित कर सकता था।

→ वह अपनी भूमि से कर एकत्रित करके राज्य को देता था। इस तरह यह वर्ग अपने से ऊपर तथा नीचे वाले दोनों वर्गों पर प्रभाव रखता था। ज़मींदार के सन्दर्भ में एक खास बात यह भी है कि वह खेती की कमाई खाता था, लेकिन स्वयं खेती नहीं करता था। बल्कि वह अपने अधीन कृषकों व मजदूरों से कृषि करवाता था।

→ निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं कि 16वीं व 17वीं सदी सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। इस काल में ग्रामीण व्यवस्था व कृषि व्यवस्था में कई तरह के बदलाव आए। ये बदलाव आपस में जुड़े थे। ग्रामीण व्यवस्था में जाति व्यवस्था प्रमुख थी। उसी आधार पर सामाजिक ताना-बाना बना था। कृषक समुदाय इस व्यवस्था में शीर्ष पर था। उसकी जाति भी उच्च थी। निम्न जातियों के लोग भूमि के मालिक नहीं थे। वे या तो गैर-कृषक कार्य करते थे या फिर खेतिहर मजदूर थे।

काल-रेखा

कालघटना का विवरण
1483 ई०बाबर का मध्य एशिया के फरगाना में जन्म
1504 ई०बाबर की काबुल-विजय
1526 ई०बाबर की पानीपत की पहली लड़ाई में जीत, दिल्ली सल्तनत का अन्त व मुग़ल वंश की स्थापना
1530 ई०हुमायूँ का गद्दी पर बैठना
1540 ई०हुमायूँ की शेरशाह सूरी द्वारा पराजय व हुमायूँ का (1540-55) भारत से निर्वासन
1540-45 ई०शेरशाह सूरी का शासन काल
1545-55 ई०शेरशाह सूरी के उत्तराधिकारियों का काल
1555-56 ई०हुमायूँ द्वारा फिर से सत्ता पर अधिकार करना
1556 ई०पानीपत की दूसरी लड़ाई व अकबर के शासन काल का प्रारंभ
1556-1605 ई०अकबर का शासन काल
1605-1627 ई०जहाँगीर का शासन काल
1628-1658 ई०शाहजहाँ का शासन काल
1658-1707 ई०औरंगज़ेब का शासन काल
1707-1857 ई०औरंगज़ेब के बाद 11 मुग़ल शासकों का काल या उत्तर मुग़लकाल
1739 ई०नादिरशाह का दिल्ली पर आक्रमण व लूटमार
1757 ई०प्लासी की लड़ाई में बंगाल पर अंग्रेजों का कब्ना
1761 ई०पानीपत की तीसरी लड़ाई व मराठों की अब्दाली के हाथों हार
1765 ई०बंगाल, बिहार व उड़ीसा में अंग्रेजों को दीवानी अधिकार की प्राप्ति
1857 ई०1857 का जन विद्रोह, अन्तिम मुग़ल बादशाह को बन्दी बनाकर बर्मा की राजधानी रंगून भेजना।

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