HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

HBSE 12th Class History संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
उद्देश्य प्रस्ताव में किन आदर्शों पर जोर दिया गया था?
उत्तर:
13 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के समक्ष उद्देश्य प्रस्ताव रखा। इसमें उन आदर्शों को रेखांकित किया गया जो संविधान निर्माण में अपनाए जाने थे। इस उद्देश्य प्रस्ताव में अग्रलिखित आदर्शों पर बल दिया गया

(1) यह घोषणा की गई कि भारत एक स्वतंत्र प्रभुसत्ता संपन्न गणराज्य होगा।

(2) संविधान में प्रभुसत्ता संपन्न स्वतंत्र भारत तथा उसके घटकों तथा सरकार के अंगों को समस्त शक्ति जनता से प्राप्त होगी।

(3) प्रस्ताव में कहा गया कि भारत के समस्त लोगों के लिए सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक प्रतिष्ठा, अवसर तथा न्याय की समानता, विधि तथा सदाचार के अनुरूप विचार की अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था, व्यवसाय, सहचर्य तथा काम की स्वतंत्रता की गारंटी होगी।

(4) समस्त अल्पसंख्यकों, पिछड़ी जनजातियों तथा दलितों को पर्याप्त संरक्षण प्राप्त होंगे।

(5) भारतीय गणतंत्र के प्रदेश तथा उसकी अखंडता और इसकी भूमि, समुद्र तथा आकाश में सत्ता न्याय तथा सभ्य राष्ट्रों को कानूनों के अनुसार बनाई जाएगी।

प्रश्न 2.
विभिन्न समूह ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को किस तरह परिभाषित कर रहे थे?
उत्तर:
संविधान सभा की बहस में एक प्रमख महा यह था कि भावी संविधान में अल्पसंख्यकों को किस प्रकार के अधिकार होंगे। परंतु यह उल्लेखनीय है कि संविधान सभा में विभिन्न समूह ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को अलग-अलग प्रकार से परिभाषित कर रहे थे।

(i) संविधान सभा के सदस्य बी० पोकर बहादुर ने मुस्लिम समुदाय को अल्पसंख्यक बताया तथा अल्पसंख्यकों के लिए पृथक् निर्वाचिका प्रणाली को जारी रखने की माँग रखी। उन्होंने जोर दिया कि इस राजनीतिक प्रणाली में अल्पसंख्यकों को पूर्ण प्रतिनिधित्व दिया जाए।

(ii) समाजवादी विचारों के समर्थक व किसान आंदोलन के नेता एन०जी० रंगा ने ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की उक्त परिभाषा पर ही सवाल खड़ा किया। उन्होंने अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या आर्थिक स्तर के आधार पर करने पर जोर दिया। उन्होंने कहा असली अल्पसंख्यक तो इस देश की दबी-कुचली और उत्पीडित जनता है जो अभी तक सामान्य नागरिक के अधिकारों का लाभ भी नहीं उठ पा रही है। रंगा ने कहा कि असली अल्पसंख्यक गरीब, उत्पीड़ित व आदिवासी हैं। उन्हें सुरक्षा का आश्वासन मिलना चाहिए।

(iii) आदिवासी समूह के प्रतिनिधि सदस्य जयपाल सिंह ने आदिवासियों को अल्पसंख्यक बताया। उन्होंने कहा कि यदि भारतीय जनता में ऐसा कोई समूह है, जिसके साथ उचित बर्ताव नहीं किया गया है, तो वह मेर से अपमानित किया जा रहा है, उपेक्षित किया जा रहा है।

(iv) दलित समूहों के नेताओं ने दलितों को वास्तविक अल्पसंख्यक बताया। इन नेताओं में मद्रास के जे० नागफा, मध्य प्रांत के के०जे० खांडेलकर, मद्रास के वेला युधान मुख्य थे। खाडेलकर ने कहा “हमें हज़ारों वर्षों तक दबाया गया है।.. दबाया गया…इस हद तक दबाया गया कि हमारे दिमाग, हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भाव-शून्य हो चुका है। न ही हम आगे बढ़ने के लायक रह गए हैं। यही हमारी स्थिति है।” इस प्रकार ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को अनेक प्रकार से परिभाषित किया गया।

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प्रश्न 3.
प्रांतों के लिए ज्यादा शक्तियों के पक्ष में क्या तर्क दिए गए?
उत्तर:
संविधान सभा में केंद्र व प्रांतों के अधिकारों के प्रश्न पर भी पर्याप्त बहस हुई। कुछ सदस्य केंद्र को शक्तिशाली बनाने के समर्थक थे। कुछ सदस्यों ने राज्यों के अधिक अधिकारों की शक्तिशाली पैरवी की। मद्रास के सदस्य के० सन्तनम उनमें से एक थे। उनका मानना था कि राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान करने से राज्य ही नहीं, केंद्र भी मजबूत होगा। उन्होंने कहा कि “तमाम शक्तियाँ केंद्र को सौंप देने से वह मजबूत हो जाएगा”, यह हमारी गलतफहमी है। अधिक जिम्मेदारियों के होने पर केंद्र प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाएगा। सन्तनम ने तर्क दिया कि शक्तियों का मौजूदा वितरण राज्यों को पंगु बना देगा। राजकोषीय प्रावधान राज्यों को खोखला कर देंगे और यदि पैसा नहीं होगा तो राज्य अपनी विकास योजनाएँ कैसे चलाएगा। – उड़ीसा के एक सदस्य ने भी राज्यों के अधिकारों की वकालत की तथा उन्होंने यहाँ तक चेतावनी दे डाली कि संविधान में शक्तियों के अति केंद्रीयकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा”।

प्रश्न 4.
महात्मा गाँधी को ऐसा क्यों लगता था कि हिंदुस्तानी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए?
उत्तर:
राष्ट्रीय कांग्रेस ने तीस के दशक में यह स्वीकार लिया था कि हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू के मेल से उपजी) को राष्ट्र की भाषा का दर्जा प्रदान किया जाना चाहिए। गाँधीजी भी हिंदुस्तानी को राष्ट्र की भाषा बनाने के पक्ष में थे। उनका मानना था कि हरेक को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें। हिंदुस्तानी भारतीय जनता के बड़े भाग की भाषा थी। यह विविध संस्कृतियों के मेल-मिलाप से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी।

गाँधीजी को लगता था कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा भारत के विभिन्न समुदायों के बीच एक आदर्श संचार भाषा हो सकती है जो हिंदुओं और मुसलमानों को व उत्तर और दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है। इससे राष्ट्र निर्माण का कार्य भी आगे बढ़ेगा। 12 अक्तूबर, 1947 को गाँधीजी ने हरिजन सेवक में लिखा कि राष्ट्रीय भाषा की क्या विशेषताएँ होनी चाहिएँ : “यह हिंदुस्तानी न तो संस्कृतनिष्ठ हिंदी होनी चाहिए और न ही फारसीनिष्ठ उर्दू। यह दोनों का सुंदर मिश्रण होना चाहिए।”

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 5.
वे कौन-सी ऐतिहासिक ताकतें थीं जिन्होंने संविधान का स्वरूप तय किया?
उत्तर:
भारतीय संविधान के स्वरूप निर्धारण में अनेक ऐतिहासिक ताकतों ने भूमिका निभाई। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. अंग्रेज़ी राज-भारत के संविधान पर औपनिवेशिक शासन के दौरान पास किए गए अधिनियम का व्यापक प्रभाव है। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान में स्थापित शासन व्यवस्था पर 1935 के भारत सरकार अधिनियम का प्रभाव है।

2. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन-संविधान में जिस प्रजातांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष व समाजवादी सिद्धांतों को अपनाया गया उस पर राष्ट्रीय आंदोलन की गहरी छाप है। राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कांग्रेस में विभिन्न विचारधाराओं से संबंधित लोग सदस्य थे। उनका प्रभाव संविधान पर देखा जा सकता है।

3. कैबिनेट मिशन व संविधान सभा का चुनाव-संविधान सभा का स्वरूप केबिनेट मिशन ने तय किया। इसके अनुसार

  • इस सभा में कुल 389 सदस्य हों जिसमें से 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 93 देशी रियासतों के तथा 4 चीफ कमिश्नरियों के क्षेत्र में से हों।
  • यह निश्चित किया गया कि 10 लाख व्यक्तियों पर संविधान सभा में एक सदस्य होगा।
  • प्रांतों को उनकी जनसंख्या के आधार पर संविधान सभा में प्रतिनिधित्व दिया गया। प्रांतीय विधानसभा में प्रत्येक संप्रदाय को जितने प्रतिनिधि भेजने थे, उनका चुनाव संप्रदाय के आधार पर होगा।
  • निर्वाचन तीन संप्रदायों, मुसलमान, सिक्ख और अन्य (हिंदू व ईसाई आदि) पर आधारित होना था।
  • रियासतों को भी जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया गया। .

4. प्रमुख सदस्यों का प्रभाव-संविधान सभा और राजनीतिज्ञों के साथ-साथ प्रसिद्ध शिक्षाविद, न्यायाधीश, अधिवक्ता, लेखक, पत्रकार, पूँजीपति, श्रमिक नेता आदि सदस्य भी शामिल थे। संविधान सभा में जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, बी०आर० अंबेडकर, के०एम० मुन्शी और अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने मुख्य भूमिका निभाई। नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ रखा तथा साथ ही राष्ट्रीय ध्वज संबंधी प्रस्ताव रखा। पटेल ने अनेक रिपोर्टों के प्रारूप लिखने तथा अनेक परस्पर विरोधी विचारों के मध्य सहमति उत्पन्न करने में सराहनीय योगदान दिया। राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया तथा चर्चा को रचनात्मक दिशा दी।

सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता डॉ०बी०आर० अंबेडकर संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। कुछ प्रमुख व्यक्तियों ने उन्हें संविधान का पिता कहा है। के०एम० मुंशी और कृष्णास्वामी अय्यर प्रारूप समिति के सदस्य थे। इन दोनों ने संविधान के प्रारूप पर महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। इन सदस्यों को दो प्रशासनिक अधिकारियों बी०एन०राव और एस०एन मुखर्जी ने महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। न्यायाधीश बी०एन० राव भारत सरकार के संवैधानिक सलाहकार थे। उन्होंने अन्य देशों की राजनीतिक प्रणालियों का गहन अध्ययन कर अनेक चर्चा पत्र तैयार किए।

5. जनमत का प्रभाव-संविधान सभा में होने वाली चर्चाओं पर जनमत का पर्याप्त प्रभाव होता था। किसी भी प्रस्ताव पर संविधान सभा में बहस होती थी तो उस बहस में विभिन्न दलीलों को समाचार-पत्रों द्वारा छापा जाता था। साथ ही प्रेस में इन प्रस्तावों पर टीका-टिप्पणी, आलोचना व प्रत्यालोचना होती थी। इसके साथ-साथ संविधान सभा द्वारा जन-सामान्य के सुझाव भी आमंत्रित किए जाते थे। संविधान सभा को सैकड़ों सुझाव प्राप्त हुए थे। इन सुझावों पर संविधान सभा में विचार किया जाता था। इन सुझावों में विभिन्न समुदायों और संगठनों द्वारा अपने हितों की रक्षा के सुझाव दिए गए थे।

वस्तुतः संविधान सभा को वास्तविक शक्ति जनता से मिल रही थी। नेहरू जी ने संविधान सभा में स्पष्ट शब्दों में कहा था कि, “आपको उस स्रोत को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए, जहाँ से इस सभा को शक्ति मिल रही है।…सरकारें कागजों से नहीं बनतीं। सरकार जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति होती है। हम यहाँ इसलिए जुटे हैं, क्योंकि हमारे पास जनता की ताकत है और हम उतनी दूर तक ही जाएँगे, जितनी दूर तक लोग हमें ले जाना चाहेंगे फिर चाहे वे किसी भी समूह अथवा पार्टी से संबंधित क्यों न हों। इसलिए हमें भारतीय जनता के दिलों में स्थायी तौर पर बसी आकांक्षाओं एवं भावनाओं को हमेशा अपने जेहन में रखना चाहिए और उन्हें पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।”

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

प्रश्न 6.
दलित समूहों की सुरक्षा के पक्ष में किए गए विभिन्न दावों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
नागरिकों के अधिकारों से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण मसला दलित जातियों के अधिकारों से जुड़ा था। समाज का यह एक बहुत बड़ा वर्ग था जिसे सदियों से समाज के हाशिए पर रहना पड़ा था। समाज इनके श्रम और सेवाओं का प्रयोग तो करता संविधान का निर्माण (एक नए युग की शुरुआत) था, परंतु उन्हें किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे। वे अछूत कहलाते थे।

अंग्रेजों ने 1932 में दलित जातियों को भी ‘पृथक् निर्वाचिका’ का अधिकार प्रदान किया था, परंतु गाँधी जी ने इसका यह कहकर विरोध किया था कि इससे वे शेष समाज से कट जाएँगे। अंततः गाँधी-अंबेडकर समझौता (पूना पैक्ट) हुआ जिसके तहत सामान्य सीटों में हरिजनों को आरक्षण दिया गया। अब संविधान निर्माण के समय भी यह मुद्दा उभरकर आया कि संविधान में दलितों के अधिकारों को किस तरह परिभाषित किया जाए। उन्हें अपने उत्थान के लिए किस तरह की सुरक्षा और अधिकार दिए जाएँ।

1. मद्रास के सदस्य जे० नागप्पा (J. Nagappa) ने कहा, “हम सदा कष्ट उठाते रहे हैं, पर अब और कष्ट उठाने को तैयार नहीं हैं।” उन्होंने दलितों में शिक्षा न होने तथा प्रशासन में भागीदारी न होने पर चिंता प्रकट की।

2. मध्य प्रांत के सदस्य श्री के०जे० खाडेलकर (K.J.Khandelkar) ने दलितों की स्थिति का मार्मिक शब्दों में बयान करते हुए कहा, “हमें हजारों वर्षों तक दबाया गया है।… दबाया गया…इस हद तक दबाया गया कि हमारे दिमाग, हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भाव-शून्य हो चुका है। न ही हम आगे बढ़ने के लायक रह गए हैं। यही हमारी स्थिति है।”

3. मद्रास की दक्षायणी वेलायुधान ने दलितों पर थोपी गई सामाजिक अक्षमताओं को हटाने पर जोर दिया। उनके शब्दों में, “हमें सब प्रकार की सुरक्षाएँ नहीं चाहिएँ…। मैं यह नहीं मान सकती कि सात करोड़ हरिजनों को अल्पसंख्यक माना जा सकता है …। जो हम चाहते हैं वह यह है…हमारी सामाजिक अपंगताओं का फौरन खात्मा।” भारत विभाजन के बाद डॉ० अंबेडकर ने भी दलितों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली की माँग छोड़ दी थी। अंततः संविधान सभा में दलितों के उत्थान के लिए निम्नलिखित सुझाव स्वीकार किए गए

  • अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए;
  • हिंदू मंदिरों को सभी जातियों के लिए खोल दिया जाए; और
  • दलित जातियों को विधानमंडलों व सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाए।

यद्यपि कुछ लोगों का मानना था कि इन प्रावधानों से स्थिति में सुधार नहीं आएगा। उन्होंने कानूनी प्रावधानों के साथ-साथ समाज की सोच में बदलाव लाने पर बल दिया, तथापि लोकतांत्रिक जनता ने इन सवैधानिक प्रावधानों का स्वागत किया।

प्रश्न 7.
संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने उस समय की राजनीतिक परिस्थिति और एक मजबूत केंद्र सरकार की ज़रूरत के बीच क्या संबंध देखा?
उत्तर:
13 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा रखे गए संविधान के उद्देश्य प्रस्ताव’ में एक कमजोर केंद्र और ऐसी प्रांतीय इकाइयों की बात कही गई थी जिनके पास विस्तृत शक्तियाँ थीं। उद्देश्य प्रस्ताव कैबिनेट मिशन की सिफारिशों को ध्यान में रखकर तथा मुस्लिम लीग को खुश करने के लिए पास किया गया था। परंतु विभाजन के बाद स्थिति में बदलाव आ गया था। सभा के अधिकांश सदस्य उस समय की राजनीतिक परिस्थिति में एक शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में थे, तथापि राज्यों व केंद्र को शक्तियाँ दिए जाने के मामले में जोरदार बहस हुई।

1. शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में नेहरू के विचार-देश के विभाजन के बाद नेहरू जी, अब उन लोगों में से थे जो एक शक्तिशाली केंद्र की आवश्यकता पर बल दे रहे थे। उन्होंने संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर शक्तिशाली केंद्र की वकालत करते हुए लिखा-“अब जबकि विभाजन एक वास्तविकता बन चुका है…एक दुर्बल केंद्रीय शासन की व्यवस्था देश के लिए हानिकारक होगी।” उन्होंने कहा कि कमजोर केन्द्र शान्ति स्थापना तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत में जोरदार आवाज़ उठाने में सक्षम नहीं होगा।

2. राज्यों के लिए अधिक अधिकारों की माँग : के० सन्तनम के विचार-संविधान सभा में कुछ सदस्यों ने राज्यों के अधिक अधिकारों की शक्तिशाली पैरवी की। मद्रास के सदस्य के० सन्तनम उनमें से एक थे। उनका मानना था कि राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान करने से राज्य ही नहीं, केंद्र भी मजबूत होगा। उड़ीसा के एक सदस्य ने भी राज्यों के अधिकारों की वकालत की तथा उन्होंने यहाँ तक चेतावनी दे डाली कि संविधान में शक्तियों के अति केंद्रीयकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा”।

3. ‘मजबूत केंद्र की वकालत’-संविधान सभा में प्रांतों के लिए अधिक शक्तियों की माँग से तीखी प्रतिक्रिया उभरकर आयी। संविधान सभा के कुछ सदस्य उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों में एक मजबूत केंद्र सरकार की जरूरत को महसूस कर रहे थे तथा इसके पक्ष में अनेक निम्नलिखित तर्क दे रहे थे

(i) बी०आर० अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि “वे एक शक्तिशाली और एकीकृत केंद्र; 1935 के गवर्नमेंट एक्ट में हमने जो केंद्र बनाया था उससे भी ज्यादा शक्तिशाली केंद्र” चाहते हैं।

(ii) कुछ अन्य सदस्यों ने हिंसा और देश के विभाजन का हवाला देते हुए शक्तिशाली सरकार की आवश्यकता पर बल दिया ताकि सख्त हाथों से देश में हो रही सांप्रदायिक हिंसा रोक सके। गोपालस्वामी अय्यर ने भी बहस में भाग लेते हुए कहा कि केंद्र ज्यादा-से-ज्यादा मजबूत होना चाहिए।

(iii) संयुक्त प्रांत के एक सदस्य बालकृष्ण शर्मा ने भी शक्तिशाली केंद्र को आवश्यक बताया कि वह संपूर्ण देश के हित में योजना बना सके और उपलब्ध आर्थिक संसाधनों को भली प्रकार जुटा सके।

(iv) औपनिवेशिक दौर के केंद्रवाद की भावना ने भी भारतीय नेताओं को प्रभावित किया था। साथ ही आजादी के बाद अफरा-तफरी पर अंकुश लगाने और देश के आर्थिक विकास की योजना बनाने के लिए शक्तिशाली केंद्र और भी आवश्यक माना जाने लगा।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारत के संविधान में तत्कालीन परिस्थितियों के कारण संघ के घटक राज्यों के अधिकारों की तुलना में केंद्र में अधिकारों की ओर साफ झुकाव दिखाई दे रहा था। इसलिए सभा के अनेक सदस्य मजबूत केंद्र सरकार की आवश्यकता पर जोर दे रहे थे।

प्रश्न 8.
संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए क्या रास्ता निकाला?
उत्तर:
संविधान सभा के समक्ष एक अन्य पेचीदा मामला राष्ट्र की भाषा को लेकर था। भारत में अनेक सांस्कृतिक परंपराएँ विद्यमान थीं। विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न भाषाएँ प्रयोग में लाई जाती थीं। इस विशाल देश में सभी स्थानों पर एक भाषा का प्रचलन नहीं था। अतः संविधान सभा में राष्ट्र की भाषा का मुद्दा आया तो इस पर लंबी और आपस में तीखी बहसें हुईं।

1. हिंदी की पक्षधरता-संविधान सभा के कुछ सदस्य हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा देना चाहते थे। इन सदस्यों ने हिंदी के लिए जोरदार तरीके से पक्षधरता की। संयुक्त प्रांत के कांग्रेसी सदस्य आर०वी० धुलेकर ने संविधान निर्माण कार्य में हिंदी के प्रयोग पर बल दिया तथा यहाँ तक कह दिया कि “इस सभा में जो लोग भारत का संविधान रचने बैठे हैं और हिंदुस्तानी नहीं जानते वे इस सभा की सदस्यता के पात्र नहीं हैं। उन्हें चले जाना चाहिए।”

2. हिंदी के वर्चस्व का भय-गैर-हिंदी भाषी राज्यों के सदस्य हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। उन्हें लगता था कि हिंदी का वर्चस्व कायम हो जाएगा। इससे क्षेत्रीय भाषाओं का विकास नहीं होगा तथा वे भारतीय संस्कृति के विकास में अपना योगदान नहीं दे पाएँगी। मद्रास की सदस्य श्रीमती दुर्गाबाई ने सभा को यह भी बताया कि दक्षिण में हिंदी का विरोध बहुत ज्यादा है। उन्होंने कहा कि “विरोधियों का यह मानना शायद सही है कि हिंदी के लिए हो रहा यह प्रचार प्रांतीय भाषाओं की जड़ें खोदने का प्रयास है….।”

3. भाषा समिति की रिपोर्ट-संविधान सभा की भाषा समिति ने विषय की नाजुकता के मद्देनजर एक फार्मूला विकसित किया ताकि भाषा पर गतिरोध को तोड़ा जा सके। समिति ने सुझाव दिया था कि देवनागरी में लिखी हिंदी भाषा भारत की राजकीय भाषा (Official Language) होगी। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। इस बीच आगामी 15 वर्षों के लिए सरकारी कार्यों में अंग्रेज़ी का प्रयोग भी जारी रहेगा। साथ ही प्रत्येक प्रांत को अपने कार्यों के लिए एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा।

4. समायोजन की भावना पर बल-राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर सदस्यों में विवाद तीखा होता जा रहा था। इस पर अनेक सदस्यों ने इस मद्दे पर सभी सदस्यों में समायोजन की भावना विकसित करने पर बल दिया। बंबई के श्री शंकरराव देव (Shri Shankar Rao Dev) ने कहा कि कांग्रेस के एक सदस्य तथा गाँधी जी के अनुयायी होने के नाते वे हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा स्वीकार कर चुके हैं, परंतु उन्होंने चेताया कि यदि आप हिंदी के लिए दिल से समर्थन चाहते हैं तो आप ऐसा कुछ न करें जिससे संदेह पैदा हो और भय को बल मिले।

इसी प्रकार के आपसी समायोजन व सम्मान की भावना की बात मद्रास के श्री टी०ए० रामलिंगम चेट्टियार (T.A. Ramalingam Chettiar) ने भी कही। उन्होंने आग्रह किया कि “जब हम साथ रहना चाहते हैं और एक एकीकृत राष्ट्र की स्थापना करना चाहते हैं तो परस्पर समायोजन होना ही चाहिए और लोगों पर चीजें थोपने का सवाल नहीं उठना चाहिए।” इस समायोजन की भावना का सदस्यों ने स्वागत किया तथा भाषा समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर भाषा विवाद को निपटाने का मार्ग निकाला गया।

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मानचित्र कार्य

प्रश्न 9.
वर्तमान भारत के राजनीतिक मानचित्र पर यह दिखाइए कि प्रत्येक राज्य में कौन-कौन सी भाषाएँ बोली जाती हैं। इन राज्यों की राजभाषा को चिह्नित कीजिए। इस मानचित्र की तुलना 1950 के दशक के प्रारंभ के मानचित्र से की दोनों मानचित्रों में आप क्या अंतर पाते हैं? क्या इन अंतरों से आपको भाषा और राज्यों के आयोजन के संबंधों के बारे में कुछ पता चलता है।
उत्तर:
भारत के राज्य और उनमें बोली जाने वाली भाषाएँ व बोलियाँ

  1. असम-असमी, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, बांग्ला और बोडा।
  2. अरुणाचल प्रदेश-निसी, अदि, अंगमी।
  3. आंध्र प्रदेश (सीमांध्र)-तेलुगू, उर्दू, हिंदी।
  4. ओडिशा-उड़िया, तेलुगू, हिंदी।
  5. उत्तर प्रदेश-हिंदी, उर्दू, पंजाबी।
  6. कर्नाटक कन्नड़, तेलुगू, उर्दू।
  7. केरल-मलयालम, तमिल, तेलुगू।
  8. गुजरात-गुजराती, हिंदी, सिंधी।
  9. गोवा-कोंकणी, मराठी, कन्नड़।
  10. तमिलनाडु-तमिल, तेलुगू, कन्नड़।
  11. त्रिपुरा-बांग्ला, हिंदी, मणिपुरी।
  12. नगालैंड हो, ओ, कोन्याक।
  13. पंजाब-पंजाबी, हिंदी, उर्दू।
  14. पश्चिमी बंगाल-बांग्ला, हिंदी, संथाली।
  15. बिहार-हिंदी, उर्दू, संथाली।
  16. मणिपुर-मणिपुरी, भाड़ो, टंगकुट।
  17. मध्यप्रदेश-हिंदी, गोंडी, भीली।
  18. महाराष्ट्र-मराठी, उर्दू, हिंदी।
  19. मिजोरम–लुशाई, बांग्ला।
  20. मेघालय-खासी, गारो, बांग्ला।
  21. राजस्थान-हिंदी, भीली, उर्दू।
  22. सिक्किम-नेपाली, भोटिया, हिंदी।
  23. हरियाणा-हिंदी, पंजाबी, उर्दू, हरियाणवी।
  24. हिमाचल प्रदेश-हिंदी, पंजाबी, किन्नूरी।
  25. उत्तराखंड-हिंदी, पंजाबी, उर्दू।
  26. छत्तीसगढ़-हिंदी, भीली, गोंडी।
  27. झारखंड हिंदी, उर्दू, संथाली। 28. तेलंगाना-तेलुगू, उर्दू।

1950 के बाद भारतीय राज्यों का भाषा या अन्य आधार पर पुनर्गठन हुआ है। इन राज्यों के भाषायी चरित्र में भी महत्त्वपर्ण बदलाव आए हैं। हिंदी भाषी राज्यों में शहरी क्षेत्रों में अंग्रेजी का प्रभाव बढा है। उत्तरी भारत के राज्यों में पंजाबी भी कछ लोग समझने व बोलने लगे हैं। दक्षिण के राज्यों में स्थानीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी और हिंदी का प्रचार हुआ है।

परियोजना कार्य 

प्रश्न 10.
हाल के वर्षों के किसी एक महत्त्वपूर्ण सवैधानिक परिवर्तन को चुनिए। पता लगाइए कि यह परिवर्तन क्यों हुआ, परिवर्तन के पीछे कौन-कौन से तर्क दिए गए और परिवर्तन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या थी? अगर संभव हो, तो संविधान सभा की चर्चाओं को देखने की कोशिश कीजिए। (http: // parliamentofindia.nic.in / Is / debates / debates.htm)। यह पता लगाइए कि मुद्दे पर उस वक्त कैसे चर्चा की गई। अपनी खोज पर संक्षिप्त रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
भारत की संसद, राज्य विधान सभाओं व स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम रहता है जबकि महिलाएँ हमारे समाज का आधा हिस्सा हैं। भारत के सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए महिलाओं की राजनीतिक सत्ता व प्रक्रियाओं में भागीदारी आवश्यक है। इस हेतु 1993 में 73वें व 74वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं व नगरपालिकाओं में एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। संसद तथा राज्य विधानसभाओं में भी इस प्रकार के आरक्षण की माँग चल रही है। धीरे-धीरे यह माँग जोर पकड़ रही है परंतु सर्वसम्मति न बनने के कारण जब भी यह विधेयक संसद में लाया गया तो इसका कई राजनीतिक दलों ने अपने पक्ष रखते हुए विरोध किया है।

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प्रश्न 11.
भारतीय संविधान की तुलना संयुक्त राज्य अमेरिका अथवा फ्रांस अथवा दक्षिणी अफ्रीका के संविधान से कीजिए। ऐसा करते हुए निम्नलिखित में से किन्हीं दो विषयों पर गौर कीजिए : धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकार और केंद्र एवं राज्यों के बीच संबंध । यह पता लगाइए कि इन संविधानों में अंतर और समानताएँ किस तरह से उनके क्षेत्रों के इतिहासों से जुड़ी हुई हैं।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं करें।

संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत HBSE 12th Class History Notes

→ संविधान-एक कानूनी दस्तावेज जिसके अनुसार किसी देश का शासन चलाया जाता है।

→ संविधान सभा-संविधान निर्माण के लिए बनाई गई सभा।

→ संविधान की प्रस्तावना प्रस्तावना अर्थात् संविधान का परिचय। इससे संविधान के संबंधे में मार्गदर्शन प्राप्त होता है।

→ प्रभुता संपन्न राज्य-एक ऐसा राज्य जो पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो तथा किसी बाहरी शक्ति के दबाव से मुक्त हो। भारत 26 जनवरी, 1950 को प्रभुता संपन्न राज्य बना। ।

→ उद्देश्य प्रस्ताव-13 दिसंबर, 1946 को पंडित नेहरू जी द्वारा संविधान सभा के समक्ष प्रस्ताव रखा गया, जिसमें संविधान के मूल आदर्शों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई।

→ धर्म-निरपेक्षता-राज्य द्वारा किसी धर्म को राज्य धर्म के रूप में स्वीकार न करना तथा न ही किसी धर्म का विरोध करना।

→ वयस्क मताधिकार-बिना किसी भेदभाव के वयस्क (18/21 वर्ष की आयु) स्त्री-पुरुषों को मतदान करने का अधिकार।

→ केंद्रीय संघवाद-प्रांतों की तुलना में केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान करना। भारत में केंद्रीय संघवाद की स्थापना की गई है। मौलिक अधिकार-संविधान द्वारा प्रदत्त वे अधिकार जिन्हें राज्य सरकार नहीं छीन सकती। ये नागरिकों के सर्वांगीण विकास के लिए दिए गए हैं।

→ अल्पसंख्यक-किसी देश/राज्य/प्रांत/क्षेत्र विशेष में कम संख्या में रहने वाले लोगों का समूह।

→ संसदीय सरकार इसमें राज्य अध्यक्ष (राष्ट्रपति) में नाममात्र की शक्ति होती है। वास्तविक शक्ति सरकार के अध्यक्ष (प्रधानमंत्री) में होती है।

→ गणतंत्र दिवस-जिस दिन भारत का संविधान लागू हुआ वह गणतंत्र दिवस कहलाता है। यह 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। अतः भारत में 26 जनवरी का दिन गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

→ जन प्रभुता-जनता को प्रभुता का स्रोत स्वीकारना।

→ वित्तीय संघवाद-वह व्यवस्था जिसमें राजकोष का ज्यादातर हिस्सा केंद्र के पास हो।

संविधान निर्माण से तत्काल पहले के वर्ष भारत में बहुत ही उथल-पुथल भरे थे। जहाँ एक ओर यह समय लोगों की महान् आशाओं को पूरा करने का था, वहीं यह मोहभंग का समय भी था। भारत को स्वतंत्रता तो प्राप्त हो गई थी, परन्तु इसका विभाजन भी हो गया था जिससे भारत में भयावह समस्याएँ खड़ी हो गई थीं। संविधान सभा जब अपना कार्य कर रही थी तो उसके कार्य को इन समस्याओं ने भी प्रभावित किया।

→ स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय भारत के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या देश के विभाजन से जुड़ी थी। इसी समस्या से भारत में अनेक विकराल समस्याएँ पैदा हुईं। जून योजना (विभाजन योजना) को स्वीकार करने के बाद अगस्त, 1947 में पंजाब में भयंकर दंगे शुरू हो गए। लूटपाट, आगजनी, जनसंहार, बलात्कार, औरतों को अगवा करना आदि जैसे भयावह दृश्य आम हो गए।

→ पुलिस प्रशासन मूकदर्शक बना रहा। ये सांप्रदायिक दंगे अगस्त, 1947 से अक्तूबर, 1947 तक चलते रहे। इस महाध्वंस में लगभग 10 लाख लोग मारे गए, 50,000 महिलाएँ अगवा कर ली गईं तथा लगभग 1 करोड़ 50 लाख लोग अपने घरों से उजाड़ दिए गए। विभाजन तथा उससे जुड़ी हिंसा के परिणामस्वरूप अपनी जड़ों से उखड़े हुए (Uprooted) लोगों की भयंकर समस्या उभरकर सामने आयी। जान-माल की सुरक्षा न होने के कारण 1 करोड़ 50 लाख हिंदुओं और सिक्खों को पाकिस्तान से तथा मुसलमानों को भारत से बेहद खराब हालात में देशांतरण करना पड़ा। उनका सब कुछ छिन गया था।

→ उनमें से अधिकतर लोगों को दंगों के कारण भयंकर दौर से गुजरना पड़ा था। अतः देश की सरकार के सम्मुख इतने बड़े समुदाय के लिए राहत और पुनर्वास की समस्या सबसे बड़ी थी। स्वतंत्र भारत की एकता को सबसे बड़ा खतरा भारतीय देशी रियासतों की स्थिति से उत्पन्न हुआ। इन रियासतों की संख्या लगभग 554 थी।

→ स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) तक सरदार पटेल और वी०पी० मेनन मै जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर शेष सभी राज्यों के शासकों को भारतीय संघ में विलय के लिए सहमत तथा बाध्य कर दिया था। 1946 में पहले प्रांतीय सभाओं के चुनाव हुए तथा जुलाई, 1946 के अंतिम सप्ताह में संविधान सभा का चुनाव किया गया। सभा के 389 सदस्यों में से 296 सदस्यों पर चुनाव होना था (210 सामान्य, 78 मुस्लिम व 4 सिक्ख) जिनमें से 292 सदस्यों का चुनाव हुआ।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

→ इन 292 सदस्यों में से 212 कांग्रेस और उसके सहयोगी के सदस्य थे। लीग के 73 सदस्य चुने गए तथा 7 सदस्य अन्य दलों से। संविधान सभा में जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, बी०आर० अंबेडकर, के०एम० मुन्शी और अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने मुख्य भूमिका निभाई। 11 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा ने अपना स्थायी अध्यक्ष डॉ० राजेंद्र प्रसाद को चुना।

→ 13 दिसंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के समक्ष उद्देश्य प्रस्ताव रखा जिसको दृष्टि में रखकर भारतीय संविधान का निर्माण किया जाना था। संविधान सभा में ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ प्रस्तुत करते हुए अपने भाषण में नेहरू जी ने अतीत में झाँकते हुए अमेरिकी व फ्रांसीसी क्रांतियों और वहाँ के संविधान निर्माण का उल्लेख किया। उन्होंने इस अवसर पर सोवियत समाजवादी गणराज्य के जन्म को भी याद किया जो दुनिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था।

→ नेहरू ने भारतीय संविधान निर्माण के इतिहास को मुक्ति व स्वतंत्रता के एक लंबे ऐतिहासिक संघर्ष का हिस्सा बताया। नेहरू जी ने विश्वास व्यक्त किया कि “हम सिर्फ नकल करने वाले नहीं हैं।” संविधान सभा के सदस्य बी० पोकर बहादुर ने 27 अगस्त, 1947 को अल्पसंख्यकों के लिए पृथक् निर्वाचिका प्रणाली को जारी रखने की माँग रखी। इस माँग पर प्रभावशाली भाषण देते हुए श्री बहादुर ने तर्क दिया कि “अल्पसंख्यक सब जगह होते हैं; हम उन्हें चाहकर भी नहीं हटा सकते।

→ हमें आवश्यकता एक ऐसे राजनीतिक-ढांचे की है जिसमें अल्पसंख्यक भी अन्य समुदायों के साथ सद्भावना से जी सकें तथा समुदायों के बीच मतभेद कम-से-कम हो।” पृथक् निर्वाचन प्रणाली की उक्त माँग का संविधान सभा में जोरदार विरोध हुआ। हाल ही में देश के विभाजन और सांप्रदायिक दंगों से इस माँग पर अधिकतर राष्ट्रवादी भड़क उठे।

→ सरदार पटेल ने इस माँग की जोरदार शब्दों में आलोचना की। उन्होंने कहा-“अंग्रेज़ तो चले गए, मगर जाते-जाते शरारत का बीज बो. गए। सरदार पटेल ने कहा कि पृथक निर्वाचिका “एक ऐसा विष है जो हमारे देश की पूरी राजनीति में समा चुका है।” गोविंद वल्लभ पंत ने इस माँग को न केवल राष्ट्र के लिए वरन् अल्पसंख्यकों के लिए भी खतरनाक बताया। संविधान सभा में लंबी बहस के बाद इस माँग को अस्वीकार कर दिया गया।

→  उल्लेखनीय है कि सभी मुसलमान सदस्य भी इस माँग का समर्थन नहीं कर रहे थे। समाजवादी विचारों के समर्थक व किसान आंदोलन के नेता एन०जी० रंगा ने जोर देकर कहा कि असली अल्पसंख्यक गरीब, उत्पीड़ित व आदिवासी हैं। उन्हें सुरक्षा का आश्वासन मिलना चाहिए।

→ जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते हुए आदिवासी समूह के प्रतिनिधि सदस्य जयपाल सिंह ने भी आदिवासियों की स्थिति को सुधारने तथा समाज के सभी समुदायों से आदिवासियों से मेलजोल की आवश्यकता पर बल दिया। नागरिकों के अधिकारों से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण मसला दलित जातियों के अधिकारों से जुड़ा था। समाज का यह एक बहुत बड़ा वर्ग था जिसे सदियों से समाज के हाशिए पर रहना पड़ा था। अंततः संविधान सभा में दलितों के उत्थान के लिए निम्नलिखित सुझाव स्वीकार किए गए

(i) अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए;

(ii) हिंदू मंदिरों को सभी जातियों के लिए खोल दिया जाए; और

(iii) दलित जातियों को विधानमण्डलों व सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाए। संविधान सभा के अधिकांश सदस्य एक शक्तिशाली केंद्र के पक्ष में थे तथापि राज्यों व केंद्र को शक्तियाँ दिए जाने के मामले में जोरदार बहस हुई। केंद्र और राज्यों के मध्य शक्तियों और कार्य का विभाजन करने के लिए संविधान में सभी विषयों की तीन सचियाँ बनाई गई थीं-केंद्रीय सची, राज्य सची और समवर्ती सूची। मद्रास के सदस्य के० सन्तनम उनमें से एक थे।

→ उनका मानना था कि राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान करने से राज्य ही नहीं, केंद्र भी मजबूत होगा। उड़ीसा के एक सदस्य ने भी राज्यों के अधिकारों की वकालत की तथा उन्होंने यहाँ तक चेतावनी दे डाली कि संविधान में शक्तियों के अति केंद्रीयकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा”। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने तीस के दशक में यह स्वीकार लिया था कि हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू के मेल से उपजी) को राष्ट्र की भाषा का दर्जा प्रदान किया जाना चाहिए।

→ गाँधीजी भी हिंदुस्तानी को राष्ट्र की भाषा बनाने के पक्ष में थे। संविधान सभा के कुछ सदस्य हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा देना चाहते थे। इन सदस्यों ने हिंदी के लिए जोरदार तरीके से पक्षधरता की। गैर-हिंदी भाषी राज्यों के सदस्य हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। उन्हें लगता था कि हिंदी का वर्चस्व कायम हो जाएगा। इससे क्षेत्रीय भाषाओं का विकास नहीं होगा तथा वे भारतीय संस्कृति के विकास में अपना योगदान नहीं दे पाएँगी।

→ राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर सदस्यों में विवाद तीखा होता जा रहा था। इस पर अनेक सदस्यों ने इस मुद्दे पर सभी सदस्यों में समायोजन की भावना विकसित करने पर बल दिया।

→ 1950 को सभा के सदस्यों ने इस पर हस्ताक्षर किए। कुल 284 सदस्यों ने इस पर हस्ताक्षर किए और अंततः भारत का सम्पूर्ण संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू कर दिया गया। भारत में संविधान के द्वारा ‘स्वतंत्र सम्प्रभु गणतंत्र’ (Independent Sovereign Republic) की स्थापना की गई थी। इस नए गणतंत्र में सत्ता का स्रोत नागरिकों को होना था। इसको कार्यरूप देने के लिए संविधान निर्माताओं ने भारत में एकमश्त वयस्क मताधिकार प्रदान किया।

→ भारतीय संविधान भारत में धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। इसका अभिप्राय यह है कि राज्य किसी विशेष धर्म को न तो राज्य धर्म मानता है और न ही किसी विशेष धर्म को संरक्षण तथा समर्थन प्रदान करता है। परंतु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि राज्य नास्तिक है या धर्म-विरोधी है, अपितु वह धर्म के विषय में धर्म-निरपेक्ष है। धर्म-निरपेक्षता का अर्थ केवल धार्मिक सहनशीलता ही है।

काल-रेखा

काल घटना का विवरण
26 जुलाई, 1945 ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार सत्ता में आना
दिसम्बर, 1945 व जनवरी, 1946 भारत में आम चुनाव
16 मई, 1946 कैबिनेट मिशन योजना की घोषणा
16 जून, 1946 मुस्लिम लींग द्वारा कैबिनेट मिशन योजना स्वीकारना
16 जून, 1946 अन्तरिम सरकार के गठन का प्रस्ताव
2 सितम्बर, 1946 नेहरू के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार का गठन
13 अक्तूबर, 1946 लीग अन्तरिम सरकार में शामिल
9 दिसम्बर, 1946 संविधान सभा की पहली बैठक
16 जुलाई, 1947 अन्तरिम सरकार की आखिरी बैठक
11 अगस्त, 1947 जिन्ना पाकिस्तान की संविधान सभा के अध्यक्ष बने
14 अगस्त, 1947 पाकिस्तान की स्वतन्त्रता व कराची में जश्न
14-15 अगस्त, 1947 (मध्यरात्रि) भारत की स्वतन्त्रता
26 जनवरी, 1950 भारतीय संविधान को अपनाया जाना

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