Class 11

HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 15 पृथ्वी पर जीवन

Haryana State Board HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 15 पृथ्वी पर जीवन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Geography Solutions Chapter 15 पृथ्वी पर जीवन

HBSE 11th Class Geography पृथ्वी पर जीवन Textbook Questions and Answers

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में से कौन जैवमंडल में सम्मिलित हैं।
(A) केवल पौधे
(B) केवल प्राणी
(C) सभी जैव व अजैव जीव
(D) सभी जीवित जीव
उत्तर:
(C) सभी जैव व अजैव जीव

2. उष्णकटिबंधीय घास के मैदान निम्न में से किस नाम से जाने जाते हैं?
(A) प्रेयरी
(B) स्टैपी
(C) सवाना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) सवाना

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3. चट्टानों में पाए जाने वाले लोहांश के साथ ऑक्सीजन मिलकर निम्नलिखित में से क्या बनाती है?
(A) आयरन सल्फेट
(B) आयरन कार्बोनेट
(C) आयरन ऑक्साइड
(D) आयरन नाइट्राइट
उत्तर:
(C) आयरन ऑक्साइड

4. प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया के दौरान, प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड जल के साथ मिलकर क्या बनाती है?
(A) प्रोटीन
(B) कार्बोहाइड्रेट्स
(C) एमिनोएसिड
(D) विटामिन
उत्तर:
(B) कार्बोहाइड्रेट्स

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
पारिस्थितिकी से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पारिस्थितिकी का सीधा सम्बन्ध जैविक तथा अजैविक तत्त्वों के पारस्परिक सम्बन्धों से है। जैव समूहों तथा जीवों और वातावरण के बीच जो सम्बन्ध होते हैं, उनका अध्ययन पारिस्थितिकी कहलाता है अर्थात् वातावरण तथा जीवों के मध्य पारस्परिक क्रियाओं के अध्ययन को ही पारिस्थितिकी कहते हैं।

प्रश्न 2.
पारितत्र (Ecological system) क्या है? संसार के प्रमुख पारितंत्र प्रकारों को बताएं।
उत्तर:
पारितन्त्र का अर्थ-पारितन्त्र पर्यावरण के सभी जैव तथा अजैव घटकों के एकीकरण का परिणाम है। दूसरे शब्दों में, जीव तथा उसके पर्यावरण के बीच की स्वतन्त्र इकाई को पारितन्त्र (Ecosystem) कहा जाता है।
पारितन्त्र के प्रकार-पारितन्त्र दो प्रकार के होते हैं-

  • जलीय पारितन्त्र (Terrestrial Ecosystem)
  • स्थलीय पारितन्त्र (Aquatic Ecosystem)

संसार के कुछ प्रमुख पारितंत्र निम्नलिखित हैं- वन, घास-क्षेत्र, मरुस्थल, झील, नदी, समुद्र इत्यादि।

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प्रश्न 3.
खाद्य श्रृंखला क्या है? चराई खाद्य शृंखला का एक उदाहरण देते हुए इसके अनेक स्तर बताएं।
उत्तर:
खाद्य श्रृंखला का अर्थ-भोजन अथवा ऊर्जा के एक पोषण तल से अन्य पोषण तलों तक पहुँचने की प्रक्रिया को खाद्य श्रृंखला (Food Chain) कहा जाता है।

एक पारितन्त्र में अनेक खाद्य शृंखलाएँ बनती हैं जिनमें चराई खाद्य शृंखला भी एक प्रमुख श्रृंखला है। यह शृंखला हरे पौधों (उत्पादक) से आरम्भ होकर माँसाहारी तक जाती है। इस श्रृंखला के विभिन्न स्तर निम्नलिखित हैं
घास → हरा टिड्डा → मेंढ़क → साँप → बाज

प्रश्न 4.
खाद्य जाल (Food web) से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित बताएं।
उत्तर:
खाद्य जाल का अर्थ-पारितन्त्र में खाद्य शृंखलाएँ स्वतन्त्र इकाइयों के रूप में नहीं चलती हैं। ये आपस में अन्य खाद्य श्रृंखलाओं से अलग स्तर पर जुड़ी रहती हैं और एक जाल-सा बनाती हैं, जिसे खाद्य जाल (Food Web) कहा जाता है।

उदाहरण-किसी चरागाह पारितन्त्र में हिरण, खरगोश, चरने वाले पशु-चूहे और सुनसुनिया आदि घास को अपना भोजन बनाते हैं। चूहों को साँप या शिकारी पक्षी खा सकते हैं तथा शिकारी पक्षी साँपों को भी खा सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि उपभोक्ताओं के पास कई विकल्प मौजूद हैं जिस कारण पारितन्त्र में सन्तुलन बना रहता है।

प्रश्न 5.
बायोम (Biome) क्या है?
उत्तर:
बायोम-विशेष परिस्थितियों में पादप व जन्तुओं के अन्तर्सम्बन्धों के कुल योग को बायोम (Biome) कहते हैं। यह पौधों और प्राणियों का एक समुदाय है जो बड़े भौगोलिक क्षेत्र में पाया जाता है। संसार के प्रमुख बायोम हैं

  • वन बायोम
  • मरुस्थलीय बायोम
  • घास-भूमि बायोम
  • जलीय बायोम
  • उच्च प्रदेशीय बायोम।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
संसार के विभिन्न वन बायोम (Forest Biomes) की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
वन बायोम को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 15 पृथ्वी पर जीवन 1
1. उष्ण कटिबन्धीय वन-ये दो प्रकार के होते हैं-

  • भूमध्य रेखीय वन
  • उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती वन।

भूमध्य रेखीय वन-

  • भूमध्य रेखीय वन भूमध्य रेखा से उत्तर व दक्षिण अक्षांश के बीच स्थित होते हैं।
  • इन वनों में तापमान 20° से 25°C के बीच रहता है।
  • इन क्षेत्रों की मिट्टी अम्लीय होती है जिसमें पोषक तत्त्वों की कमी होती है।
  • इन वनों में असंख्य वृक्षों के झुण्ड लम्बे व घने वृक्ष मिलते हैं।

उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती वन-

  • उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती वन 10° से 25° उत्तर व दक्षिण अक्षांशों के बीच पाए जाते हैं।
  • इन वनों का तापमान 25° से 30°C के बीच रहता है।
  • इन वनों में वार्षिक औसत वर्षा 1000 मि०मी० होती है।
  • इन वनों में कम घने तथा मध्यम ऊँचाई के वृक्ष मिलते हैं।
  • इन वनों में कीट, पतंगे, चमगादड़, पक्षी व स्तनधारी जीव पाए जाते हैं।

2. शीतोष्ण कटिबन्धीय वन-

  • इन वनों का तापमान 20° से 30° के बीच पाया जाता है।
  • इन वनों में वर्षा समान रूप से वितरित होती है तथा 750-1500 मि०मी० के बीच होती है।
  • इन वनों में पौधों की प्रजातियों में कम विविधता पाई जाती है। यहाँ ओक, बीच आदि वृक्ष पाए जाते हैं।
  • प्राणियों में गिलहरी, खरगोश, पक्षी तथा काले भालू आदि जन्तु पाए जाते हैं।

3. बोरियल वन-

  • इन वनों में छोटी आई ऋतु व मध्यम रूप से गर्म ग्रीष्म ऋतु तथा लम्बी शीत ऋतु पाई जाती है।
  • इन वनों में वर्षा मुख्यतः हिमपात के रूप में होती है जो 400-1000 मि०मी० होती है।
  • वनस्पति में पाइन, स्यूस आदि कोणधारी वृक्ष मिलते हैं।
  • प्राणियों में कठफोड़ा, चील, भालू, हिरण, खरगोश, भेड़िया व चमगादड़ आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 2.
जैव भू-रासायनिक चक्र (Biogeochemical Cycle) क्या है? वायुमंडल में नाइट्रोजन का यौगिकीकरण (Fixation) कैसे होता है? वर्णन करें।
उत्तर:
जैव भू-रासायनिक चक्र (Biogeochemical Cycle) पृथ्वी पर जीवन विविध प्रकार से जीवित जीवों के रूप में पाया जाता है। ये जीवधारी विविध प्रकार के पारिस्थितिक अन्तर्सम्बन्धों में जीवित हैं। जीवधारी बहुलता व विविधता में ही जीवित रह सकते हैं। जीवित रहने की प्रक्रिया में विविध प्रवाह; जैसे ऊर्जा, जल व पोषक तत्त्वों की उपस्थिति सम्मिलित है। विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि पिछले 100 वर्षों में वायुमण्डल व जलमण्डल की संरचना में रासायनिक घटकों का सन्तुलन लगभग एक समान रहा है। रासायनिक तत्त्वों का यह सन्तुलन पौधों व प्राणी ऊत्तकों से होने वाले चक्रीय प्रवाह के द्वारा बना रहता है। जैवमण्डल में जीवधारी व पर्यावरण के बीच में रासायनिक तत्त्वों के चक्रीय प्रवाह को जैव भू-रासायनिक चक्र कहा जाता है।

वायुमंडल में नाइट्रोजन का यौगिकीकरण-(Fixation)वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन को जीव-जन्तु प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करने में असमर्थ हैं परन्तु कुछ फलीदार पौधों की जड़ों में उपस्थित जीवाणु तथा नीली-हरी शैवाल (Blue green Algae) वायुमण्डल की नाइट्रोजन को सीधे ही ग्रहण कर सकते हैं और उसे नाइट्रोजन के यौगिकों में बदल देते हैं। इस प्रक्रिया को नाइट्रोजन यौगिकीकरण कहते हैं। शाकाहारी जन्तुओं द्वारा इन पौधों के खाने पर इसका कुछ भाग उनमें चला जाता है।

HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 15 पृथ्वी पर जीवन

प्रश्न 3.
पारिस्थितिक संतुलन (Ecological balance) क्या है? इसके असंतुलन को रोकने के महत्त्वपूर्ण उपायों की चर्चा करें।
उत्तर:
पारिस्थितिक सन्तुलन का अर्थ-किसी पारितन्त्र या आवास में जीवों के समुदाय में परस्पर गतिक साम्यता की अवस्था ही पारिस्थितिक सन्तुलन है। यह तभी सम्भव है जब जीवधारियों की विविधता अपेक्षाकृत स्थायी रहे। अतः पारितन्त्र में हर प्रजाति की संख्या में एक स्थायी सन्तुलन को भी पारिस्थितिक सन्तुलन (Ecological Balance) कहा जाता है।

पारिस्थितिक असन्तुलन को रोकने के उपाय-

  • जीव-जन्तुओं के आवास स्थानों को नष्ट नहीं करना चाहिए।
  • वन्य जीवों के शिकार पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।
  • पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाना चाहिए।
  • वृक्षारोपण किया जाना चाहिए।
  • पर्यावरणीय कारकों का सही एवं उचित प्रयोग करना चाहिए।
  • जनसंख्या दबाव से भी पारिस्थितिकी बहुत प्रभावित हुई है अतः जनसंख्या वृद्धि पर रोक लगानी चाहिए।
  • मानव के अधिक हस्तक्षेप से असंतुलन बढ़ता है, जिससे बाढ़ और कई जलवायु संबंधी परिवर्तन देखने को मिलते है। अतः मानव का पर्यावरण से छेड़छाड़ कम करना भी एक उपाय हो सकता है।

पृथ्वी पर जीवन HBSE 11th Class Geography Notes

→ जैवमण्डल (Biosphere)-जैवमण्डल पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी पौधों, जन्तुओं, प्राणियों और इनके चारों ओर के पर्यावरण के पारस्परिक अन्तर्संबंध से बनता है।

→ पारिस्थितिकी (Ecology)-भौतिक पर्यावरण और जीवों के बीच घटित होने वाली पारस्परिक क्रियाओं के अध्ययन को पारिस्थितिकी कहते हैं।

→ पारितंत्र (Ecosystem)-पारितंत्र पर्यावरण के सभी जैव तथा अजैव घटकों के समाकलन का परिणाम है।

→ स्वपोषित (Autotroph)- ऐसे पौधे जो प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन स्वयं अकार्बनिक पदार्थों से तैयार करते हैं, स्वपोषित कहलाते हैं।

→ खाद्य शृंखला (Food Chain)-पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा का प्रवाह क्रमबद्ध स्तरों की एक श्रृंखला होती है, जिसे खाद्य श्रृंखला कहते हैं।

→ जैव भू-रासायनिक चक्र (Biogeochemical Cycle)-पारितंत्र में अजैव तत्त्वों का जैव तत्त्वों में बदलना तथा पुनः जैव तत्त्वों का अजैव तत्त्वों में बदल जाना, जैव भू-रासायनिक चक्र कहलाता है।

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HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 14 महासागरीय जल संचलन

Haryana State Board HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 14 महासागरीय जल संचलन Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Geography Important Questions Chapter 14 महासागरीय जल संचलन

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

भाग-I : सही विकल्प का चयन करें

1. महासागरों की सतह पर एक-साथ भिन्न-भिन्न लंबाई व दिशाओं वाली तरंगों के समूह को कहते हैं-
(A) स्वेल
(B) ‘सी’
(C) सर्फ
(D) बैकवाश
उत्तर:
(B) ‘सी’

2. किस महासागर में पवनों की दिशा बदलते ही धाराओं की दिशा बदल जाती है?
(A) हिंद महासागर में
(B) अंध महासागर में
(C) प्रशांत महासागर में
(D) आर्कटिक महासागर में
उत्तर:
(D) आर्कटिक महासागर में

3. तटीय भागों में टूटती हुई तरंगें कहलाती हैं-
(A) स्वेल
(B) ‘सी’
(C) सर्फ
(D) बैकवाश
उत्तर:
(C) सर्फ

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 14 महासागरीय जल संचलन

4. क्यूरोशियो धारा उत्पन्न होती है-
(A) अटलांटिक महासागर में
(B) प्रशांत महासागर में
(C) हिंद महासागर में
(D) आर्कटिक महासागर में
उत्तर:
(B) प्रशांत महासागर में

5. सारगैसो सागर स्थित है-
(A) प्रशांत महासागर में
(B) दक्षिणी ध्रुव के पास
(C) भूमध्य सागर के पास
(D) अटलांटिक महासागर के मध्य में
उत्तर:
(D) अटलांटिक महासागर के मध्य में

6. निम्नलिखित में से कौन-सी धारा अटलांटिक महासागर में नहीं बहती?
(A) गल्फ स्ट्रीम
(B) लैब्रेडोर की धारा
(C) हंबोल्ट धारा
(D) फाकलैंड की धारा
उत्तर:
(C) हंबोल्ट धारा

7. निम्नलिखित में से कौन-सी गर्म धारा है?
(A) लैब्रेडोर की धारा
(B) फाकलैंड की धारा
(C) क्यूराइल की धारा
(D) फ्लोरिडा की धारा
उत्तर:
(D) फ्लोरिडा की धारा

8. दो लगातार शिखरों या गर्तों के बीच की दूरी कहलाती है-
(A) तरंग काल
(B) तरंग गति
(C) तरंग दैर्ध्य
(D) तरंग आवृत्ति
उत्तर:
(C) तरंग दैर्ध्य

9. निम्नलिखित में से कौन-सी समुद्री धारा ‘यूरोप का कंबल’ के उपनाम से जानी जाती है?
(A) कनारी
(B) बेंगुएला
(C) इरमिंजर
(D) गल्फ स्ट्रीम
उत्तर:
(D) गल्फ स्ट्रीम

10. कालाहारी मरुस्थल के पश्चिम में कौन-सी धारा बहती है? ।
(A) कनारी
(B) बेंगुएला
(C) इरमिंजर
(D) गल्फ स्ट्रीम
उत्तर:
(B) बेंगुएला

11. जापान व ताइवान के पूर्व में कौन-सी गर्म धारा बहती है?
(A) लैब्रेडोर की धारा
(B) क्यूरोशियो की धारा
(C) गल्फ स्ट्रीम
(D) फ्लोरिडा की धारा
उत्तर:
(B) क्यूरोशियो की धारा

12. ‘प्रणामी तरंग सिद्धांत’ निम्नलिखित में से किसकी उत्पत्ति की व्याख्या करता है?
(A) महासागरीय तरंग
(B) चक्रवात
(C) ज्वार-भाटा
(D) उपसागरीय भूकंप
उत्तर:
(C) ज्वार-भाटा

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 14 महासागरीय जल संचलन

13. गर्म समुद्री धाराएँ
(A) ध्रुवों की ओर जाती हैं
(B) भूमध्य रेखा की ओर जाती हैं
(C) उष्ण कटिबंध की ओर जाती हैं
(D) कर्क रेखा और मकर रेखा के बीच चलती हैं
उत्तर:
(A) ध्रुवों की ओर जाती हैं

14. अर्द्ध दैनिक ज्वार-भाटा प्रायः कितने समय बाद आता है?
(A) 24 घंटे बाद
(B) 12 घंटे 26 मिनट बाद
(C) 36 घंटे बाद
(D) 48 घंटे बाद
उत्तर:
(B) 12 घंटे 26 मिनट बाद

15. निम्नलिखित में से कौन-सी तीन गर्म समुद्री धाराएँ हैं?
(A) गल्फ स्ट्रीम – क्यूराइल – क्यूरोशियो
(B) क्यूरेशियो – क्यूराइल – कैलिफोर्निया
(C) क्यूरोशियो – गल्फ स्ट्रीम – मोजांबिक
(D) गल्फ स्ट्रीम – मोजांबिक – ब्राजील
उत्तर:
(D) गल्फ स्ट्रीम – मोजांबिक – ब्राजील

16. जिस द्वीप के द्वारा अगुलहास धारा दो भागों में विभक्त होती है, वह है
(A) जावा
(B) आइसलैंड
(C) क्यूबा
(D) मैडागास्कर
उत्तर:
(D) मैडागास्कर

17. गल्फ स्ट्रीम की धारा उत्पन्न होती है-
(A) बिस्के की खाड़ी में
(B) मैक्सिको की खाड़ी में
(C) हडसन की खाड़ी में
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) मैक्सिको की खाड़ी में

18. निम्नलिखित में से कौन समुद्री धाराओं के प्रवाहित होने का वास्तविक कारण नहीं है?
(A) पानी की लवणता में परिवर्तन
(B) पानी के ताप में परिवर्तन
(C) पानी की गहराई में परिवर्तन
(D) पानी के घनत्व में परिवर्तन
उत्तर:
(C) पानी की गहराई में परिवर्तन

19. सुनामी की उत्पत्ति किस कारणवश होती है?
(A) भूकम्प
(B) ज्वालामुखी
(C) समुद्र गर्भ में भूस्खलन
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

20. समुद्री धाराओं के बहने का कारण है
(A) वायुदाब और पवनें
(B) पृथ्वी का परिभ्रमण और गुरुत्वाकर्षण
(C) भूमध्यरेखीय व ध्रुवीय प्रदेशों के असमान तापमान के कारण
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

भाग-II : एक शब्द या वाक्य में उत्तर दें

प्रश्न 1.
तरंग की गति किस सूत्र से ज्ञात की जाती है?
उत्तर:
HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 14 महासागरीय जल संचलन 1

प्रश्न 2.
सुनामी की उत्पत्ति किन कारणों से होती है?
उत्तर:
भूकम्प, ज्वालामुखी, समुद्र के गर्भ में भूस्खलन आदि से।

प्रश्न 3.
समुद्री धाराएँ कितने प्रकार की होती हैं?
उत्तर:
समुद्री धाराएँ दो प्रकार की होती हैं-

  1. गर्म धारा तथा
  2. ठण्डी धारा।

प्रश्न 4.
किस महासागर में पवनों की दिशा बदलते ही धाराओं की दिशा बदल जाती है?
उत्तर:
हिन्द महासागर में।

प्रश्न 5.
‘सी’ क्या होती है?
उत्तर:
अव्यवस्थित व अनियमित समुद्री तरंगों को ‘सी’ कहा जाता है।

प्रश्न 6.
जापान व ताइवान के पूर्व में कौन-सी गर्म धारा बहती है?
उत्तर:
क्यूरोशियो धारा।

प्रश्न 7.
अन्ध महासागर की सबसे महत्त्वपूर्ण गर्म धारा कौन-सी है?
उत्तर:
गल्फ स्ट्रीम धारा।

प्रश्न 8.
न्यू-फाऊंडलैण्ड के निकट कोहरा क्यों उत्पन्न हो जाता है?
उत्तर:
गल्फ स्ट्रीम गर्म धारा तथा लैब्रेडोर ठण्डी धारा के मिलने के कारण।

प्रश्न 9.
कालाहारी मरुस्थल के पश्चिम में कौन-सी धारा बहती है?
उत्तर:
बेंगुएला धारा।

प्रश्न 10.
दो ज्वारों के बीच में कितना समय रहता है?
उत्तर:
12 घण्टे, 26 मिनट।

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प्रश्न 11.
उष्ण धाराएँ कहाँ-से-कहाँ चलती हैं?
उत्तर:
उष्ण क्षेत्रों से ठण्डे क्षेत्रों की ओर।

प्रश्न 12.
ठण्डी धाराएँ कहाँ-से-कहाँ चलती हैं?
उत्तर:
ठण्डे क्षेत्रों से उष्ण क्षेत्रों की ओर।

प्रश्न 13.
सागर की प्रमुख समुद्री धाराएँ किन पवनों का अनुगमन करती हैं?
उत्तर:
सनातनी अथवा प्रचलित पवनों का।

आल-लघलरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
महासागरीय जल के परिसंचरण के मुख्य रूप कौन-कौन से हैं?
उत्तर:

  1. तरंगें
  2. धाराएँ और
  3. ज्वार-भाटा।

प्रश्न 2.
पवन द्वारा उत्पन्न तरंगें कौन-कौन सी होती हैं?
उत्तर:

  1. सी
  2. स्वेल तथा
  3. सर्फ।

प्रश्न 3.
बृहत् ज्वार कब आता है?
उत्तर:
अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन जब पृथ्वी, चन्द्रमा तथा सूर्य एक सीध में आ जाते हैं।

प्रश्न 4.
लघु ज्वार कब आता है?
उत्तर:
शुक्ल व कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन जब सूर्य तथा चन्द्रमा पृथ्वी के केन्द्र पर समकोण बनाते हैं।

प्रश्न 5.
जल तरंग के दो प्रमुख घटक अथवा भाग कौन-से होते हैं?
उत्तर:

  1. तरंग शीर्ष
  2. तरंग गर्त या द्रोणी।

प्रश्न 6.
‘सी’ क्या होती है?
उत्तर:
अव्यवस्थित व अनियमित समुद्री तरंगों को ‘सी’ कहा जाता है।

प्रश्न 7.
सर्फ किसे कहते हैं?
उत्तर:
तटीय भागों में टूटती हुई तरंगों को सर्फ कहते हैं।

प्रश्न 8.
तरंगों द्वारा कौन-कौन सी स्थलाकृतियों की रचना होती है?
उत्तर:
भृगु, वेदी, खाड़ियाँ, कन्दराएँ, पुलिन तथा लैगून इत्यादि।

प्रश्न 9.
गल्फ स्ट्रीम धारा तथा क्यूरोशियो धारा किन पवनों के प्रभाव से किस दिशा में बहती हैं?
उत्तर:
गल्फ स्ट्रीम धारा तथा क्यूरोशियो धारा पछुआ पवनों के प्रभाव से पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हैं।

प्रश्न 10.
न्यू-फाऊंडलैण्ड के निकट कोहरा क्यों उत्पन्न हो जाता है?
उत्तर:
गल्फ स्ट्रीम गर्म धारा तथा लैब्रेडोर ठण्डी धारा के मिलने के कारण।

प्रश्न 11.
हम्बोल्ट धारा कहाँ बहती है?
उत्तर:
दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तट पर दक्षिण से उत्तर की ओर। इसे पीरुवियन ठण्डी धारा भी कहते हैं।

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 14 महासागरीय जल संचलन

प्रश्न 12.
प्रशान्त महासागर की दो ठण्डी धाराएँ कौन-सी हैं?
उत्तर:

  1. पूरू की धारा
  2. कैलीफोर्निया की धारा।

प्रश्न 13.
ज्वार-भाटा की उत्पत्ति का कारण क्या है?
उत्तर:
चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी की पारस्परिक गुरुत्वाकर्षण शक्ति।

प्रश्न 14.
एक पिण्ड से दूसरे पिण्ड पर गुरुत्व बल की तीव्रता किन दो बातों पर निर्भर करती है?
उत्तर:

  1. उस पिण्ड का भार तथा
  2. दोनों पिण्डों के बीच की दूरी।

प्रश्न 15.
तरंगों के आकार और बल को कौन-से कारक नियन्त्रित करते हैं? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
समुद्री तरंगें जल की सतह पर पवनों के दबाव या घर्षण से उत्पन्न होती हैं। तरंगों का आकार और बल तीन कारकों पर निर्भर करता है

  1. पवन की गति
  2. पवन के बहने की अवधि और
  3. पवन के निर्विघ्न बहने की दूरी अर्थात् समुद्र का विस्तार।

प्रश्न 16.
सागरीय तरंगों के भौगोलिक महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अनाच्छादन के अन्य साधनों की भाँति समुद्री तरंगें भी अपरदन और निक्षेपण कार्यों द्वारा नाना प्रकार की स्थलाकृतियाँ बनाती हैं। तरंगों द्वारा निर्मित मुख्य स्थलाकृतियाँ भृगु (Cliff), वेदी (Platform), खाड़ियाँ (Bays), कन्दराएँ (Caves), पुलिन (Beaches) तथा लैगून (Lagoons) हैं।

प्रश्न 17.
महासागरीय धाराएँ क्या होती हैं?
उत्तर:
महासागरों के एक भाग से दूसरे भाग की ओर निश्चित दिशा में बहुत दूरी तक जल के निरन्तर प्रवाह को महासागरीय धारा कहते हैं। धारा के दोनों किनारों पर तथा नीचे समुद्री जल स्थिर रहता है। वास्तव में समुद्री धाराएँ स्थल पर बहने वाली नदियों जैसी होती हैं लेकिन ये स्थलीय नदियों की अपेक्षा स्थिर और विशाल होती हैं।

प्रश्न 18.
किन-किन कारकों के सम्मिलित प्रयास से महासागरीय धाराओं की उत्पत्ति होती है?
उत्तर:
महासागरीय धाराओं की उत्पत्ति में निम्नलिखित कारक सम्मिलित होते हैं-

  1. प्रचलित पवनें
  2. तापमान में भिन्नता
  3. लवणता में अन्तर
  4. वाष्पीकरण
  5. भू-घूर्णन
  6. तटों की आकृति।

प्रश्न 19.
ज्वार-भाटा दिन में दो बार क्यों आता है?
उत्तर:
एक समय में पृथ्वी के दो स्थानों पर ज्वार व दो स्थानों पर भाटा उत्पन्न होते हैं। पृथ्वी अपने अक्ष पर लगभग 24 घण्टों में घूमकर एक चक्कर (Rotation) पूरा करती है। इससे पृथ्वी के प्रत्येक स्थान को दिन में दो बार ज्वार वाली स्थिति से व दो बार भाटा वाली स्थिति से गुज़रना पड़ता है। अतः पृथ्वी की दैनिक गति के कारण ही पृथ्वी के प्रत्येक स्थान पर एक दिन में दो बार ज्वार व दो बार भाटा अवश्य आते हैं।

प्रश्न 20.
उदावन (Swash) क्या होता है?
उत्तर:
समुद्री तरंग के टूटने पर तट की ढाल के विरुद्ध ऊपर की ओर चढ़ता हुआ विक्षुब्ध (Turbulent) जल जो बड़े आकार की तटीय अपरदन से उत्पन्न सामग्री को बहा ले जा सकता है उदावन कहलाता हैं।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
तरंगें क्या हैं? तरंगों की विशेषताओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
तरंगें तरंगे महासागरीय जल की दोलायमान गति है जिसमें जल स्थिर रहता है और अपने स्थान पर ही ऊपर-नीचे और आगे-पीछे होता रहता है। तरंग एक ऊर्जा है।

तरंग की विशेषताएँ-

  1. तरंग शिखर एवं गर्त तरंग के उच्चतम और निम्नतम बिन्दुओं को क्रमशः शिखर एवं गर्त कहा जाता है।
  2. तरंग की ऊँचाई-यह एक तरंग के गर्त के अधःस्थल से शिखर के ऊपरी भाग तक की उर्ध्वाधर दूरी है।
  3. तरंग आयाम-यह तरंग की ऊँचाई का आधा होता है।
  4. तरंग काल-तरंग काल एक निश्चित बिन्दु से गुजरने वाले दो लगातार तरंग शिखरों या गर्मों के बीच समयान्तराल है।
  5. तरंगदैर्ध्य यह दो लगातार शिखरों या गर्तों के बीच की दूरी है।
  6. तरंग गति जल के माध्यम से तरंग के गति करने की दर को तरंग गति कहते हैं।
  7. तरंग आवृत्ति-यह एक सैकिण्ड के समयान्तराल में दिए गए बिन्दु से गुजरने वाली तरंगों की संख्या है।

प्रश्न 2.
समुद्री तरंगें क्या हैं? समुद्री तरंग के प्रमुख घटकों (Components) की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
समुद्री तरंगें महासागरों की सतह पर पवनों के घर्षण के प्रभाव से जल अपने ही स्थान पर एकान्तर क्रम से ऊपर-नीचे और आगे-पीछे होने लगता है, इसे समुद्री तरंगें कहते हैं।

समुद्री तरंग के प्रमुख घटक-पवन के प्रभाव से जब तरंग या लहर का जन्म होता है तो इसका कुछ भाग ऊपर उठा हुआ और कुछ भाग नीचे धंसा हुआ होता है। तरंग का ऊपर उठा हुआ भाग तरंग-श्रृंग (Crest of the wave) कहलाता है, जबकि दूसरा नीचे धंसा हुआ भाग तरंग-गर्त या द्रोणी (Trough of the wave) कहलाता है।

तरंग के एक शृंग से दूसरे शृंग तक या एक द्रोणी से दूसरी द्रोणी तक की दूरी को तरंग की लम्बाई (Wavelength) कहा जाता है। द्रोणी से शृंग तक की ऊँचाई को तरंग की ऊँचाई कहा जाता है। किसी भी निश्चित स्थान पर दो लगातार तरंगों के गुज़रने की अवधि को तरंग का आवर्त काल (Wave Period) कहा जाता है।

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प्रश्न 3.
लहरों (तरंगों) तथा धाराओं में क्या अन्तर है?
उत्तर:
लहरों (तरंगों) तथा धाराओं में निम्नलिखित अन्तर हैं-

लहरेंधाराएँ
1. इनका आकार जल की गहराई पर निर्भर करता है।1. ये जल की विशाल राशियाँ होती हैं।
2. ये अस्थायी होती हैं तथा बनती-बिगड़ती रहती हैं।2. ये स्थायी होती हैं तथा निरन्तर दिशा में चलती हैं।
3. लहरें महासागरीय जल की दोलायमान गति हैं जिसमें जल ऊपर-नीचे का स्थान छोड़कर आगे नहीं बढ़ता।3. धाराओं का जल नदी के समान है जिसमें जल अपना स्थान छोड़कर आगे बढ़ता है।
4. ये जल की ऊपरी सतह क्षेत्र तक ही सीमित हों।4. इनका प्रभाव काफी गहराई तक होता है।
5. लहरें पवनों के वेग पर निर्भर करती हैं।5. धाराएँ स्थायी पवनों के प्रभाव से निश्चित दिशा में चलती हैं।

प्रश्न 4.
ज्वार-भाटा के महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ज्वार-भाटा का महत्त्व निम्नलिखित प्रकार से है-
1. जब ज्वार-भाटा आता है तो उससे जल-विद्युत उत्पन्न की जा सकती है। कनाडा, फ्रांस, रूस तथा चीन में ज्वार का इस्तेमाल विद्युत शक्ति उत्पन्न करने में किया जा रहा है। एक 3 मैगावाट का विद्युत शक्ति संयंत्र
पश्चिम बंगाल में सुन्दरवन के दुर्गादुवानी में लगाया जा रहा है।

2. ज्वार-भाटा के समय समुद्रों से बहुत-सी बहुमूल्य वस्तुएँ; जैसे सीपियाँ, कोड़ियाँ आदि बाहर आ जाते हैं।

3. ज्वार-भाटा के समय लहरें बन्दरगाहों के तटीय भागों का कूड़ा-कर्कट बहाकर समुद्र में ले जाती हैं, जिससे नगर के समीपवर्ती भाग स्वच्छ हो जाते हैं।

4. ज्वार-भाटा के द्वारा नदियों के मुहाने का कीचड़ तथा तलछट साफ हो जाता है या बहाकर ले जाया जाता है, जिससे जहाज नदियों के मुहाने तक आसानी से आ और जा सकते हैं तथा व्यापार में सुविधा रहती है। माल को तट तक पहुँचाया जा सकता है तथा निर्यातक माल को आसानी से जहाजों में बाहर भेज सकते हैं।

5. समुद्रों के जल में ज्वार-भाटा की गति के कारण सागरीय जल, शुद्ध तथा स्वच्छ रहता है।

6. जब समुद्रों में ज्वार-भाटा आता है तो मछली पकड़ने वाले मछुआरे खुले सागर में मछली पकड़ने जाते हैं और ज्वार के समय आसानी से तट तक लौट आते हैं।

7. ज्वार-भाटा के कारण बन्दरगाह जम नहीं पाते तथा व्यापार के लिए खुले रहते हैं।

प्रश्न 5.
वृहत् ज्वार तथा निम्न ज्वार में क्या अन्तर है?
उत्तर:
वृहत् ज्वार तथा निम्न ज्वार में निम्नलिखित अन्तर हैं-

वृहत्त ज्वारनिम्न ज्यार
1. पूर्णमासी (Full Moon) तथा अमावस्या (New Moon) के दिन सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वी के एक सीध में होने के कारण संयुक्त गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण समुद्र का जल अधिक ऊँचाई तक पहुँच जाता है, जिसे उच्च ज्वार या वृहत् ज्यार कहते हैं।1. कृष्ग तथा शुक्ल पक्ष की सप्तमी अथवा अष्टमी के दिन सूर्य तथा चन्द्रमा पृथ्वी के साथ समकोण पर स्थित होने के कारण महासागरों में ज्वार की ऊँचाई कम रह जाती है, जिसे निम्न ज्वार कहते हैं।
2. उच्च ज्वार प्रायः साधारण ज्यार की तुलना में 20% अधिक ऊँचा होता है।2. निम्न ज्वार प्रायः साधारण ज्वार की तुलना में 20% कम ऊँचा होता है।

प्रश्न 6.
महासागरीय धाराओं के जलवायु पर प्रभाव का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
महासागरीय धाराओं का मुख्य रूप से आसपास के क्षेत्रों की जलवायु पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है, जो निम्नलिखित है-
जलवायु पर प्रभाव – किसी भी क्षेत्र में बहने वाली धाराओं का उसके समीपवर्ती भागों पर अत्यधिक प्रभाव देखने को मिलता है। यदि गर्म जल धारा प्रवाहित होती है तो तापक्रम को बढ़ा देती है, जबकि ठण्डी धारा जिस क्षेत्र से गुजरती है वहाँ का तापमान गिर जाता है। उदाहरणार्थ, ब्रिटिश द्वीप समूह का अक्षांश न्यू-फाउण्डलैण्ड के अक्षांश से अधिक है, लेकिन गल्फ स्ट्रीम की गर्म धारा के प्रभाव से ब्रिटिश द्वीप समूहों की जलवायु सुहावनी रहती है और यह कड़ाके की ठण्ड से बचा रहता है, जबकि न्यू-फाउण्डलैण्ड के आसपास लैब्रेडोर की ठण्डी धारा के प्रभाव के कारण तापक्रम काफी गिर जाता है और यहाँ लगभग 9 माह तक बर्फ जमी रहती है।

वर्षा की मात्रा भी जल धाराओं से प्रभावित होती है। गर्म जल धाराओं के ऊपर बहने वाली हवाएँ गर्म होती है तथा अधिक जलवाष्प ग्रहण करती हैं, जबकि इसके विपरीत ठण्डी जल धाराओं के ऊपर की वायु शुष्क तथा शीतल होने से वर्षा नहीं करती। उदाहरणार्थ, पश्चिमी यूरोप के तटवर्ती भागों में गल्फ स्ट्रीम के प्रभाव से अधिक वर्षा होती है, जबकि पश्चिमी आस्ट्रेलिया के तटों के साथ ठण्डी धाराओं के प्रभाव के कारण वर्षा भी कम होती है।

प्रश्न 7.
पवनों द्वारा उत्पन्न तीन प्रकार की समुद्री तरंगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सागरीय जल की सतह पर पवनों की रगड़ द्वारा तरंगों का निर्माण होता है। पवनें तरंगों की गति में भी संचार करती हैं। तरंगों का आकार भी पवनों की गति तथा अवधि पर निर्भर करता है। पवनों द्वारा निर्मित तरंगें तीन प्रकार की हैं-
1. सी (Sea) लहरों के अनियमित तथा अव्यस्थित रूप को ‘सी’ कहते हैं। इनका निर्माण पवनों के महासागरों पर अनियमित रूप से चलने के कारण होता है।

2. स्वेल या महातरंग (Swell) जब समुद्रों में पवन के वेग के कारण तरंगें बनती हैं और तरंगें पवनों के प्रभाव-क्षेत्र से काफी दूर चली जाती हैं तो तरंगें समान ऊँचाई तथा अवधि से आगे बढ़ती हैं, जिसे स्वेल कहते हैं।

3. सर्फ (Surf)-जब तरंगें महासागरीय भागों से समुद्र के तटवर्ती भागों की ओर आती हैं और तटीय भाग पर खड़ी चट्टानों से टकराती हैं तो ऊँचाई की ओर बढ़ती हैं और फिर टकराकर उनका श्रृंग आगे की ओर झुककर और फिर टूटकर सागर में गिर जाता है तो उसे सर्फ या फेनिल तरंग कहते हैं।

प्रश्न 8.
पवनों के अतिरिक्त अन्य कारकों द्वारा उत्पन्न समुद्री तरंगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पवनों के अतिरिक्त अन्य कारकों द्वारा उत्पन्न समुद्री तरंगों का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है-
1. प्रलयकारी तरंगें (Catastrophic Waves)-इन तरंगों की उत्पत्ति ज्वालामुखी, भूकम्प या महासागरों में हुए भूस्खलन के कारण होती है, इन्हें सुनामी (Tsunami) भी कहते हैं। सुनामी जापानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है “agreat harbour wave”।

2. तूफानी तरंगें (Stormy Waves) इनकी ऊँचाई भी अधिक होती है और ये तटीय क्षेत्रों पर भारी विनाशलीला करती हैं।

3. अन्तःतरंगें (Internal Waves) अन्तःतरंगें दो भिन्न घनत्व वाली समुद्री परतों के सीमा तल पर उत्पन्न होती हैं।

प्रश्न 9.
तापमान के आधार पर महासागरीय धाराओं के दो मोटे वर्ग कौन-से हैं? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
तापमान के आधार पर महासागरीय धाराओं को दो मोटे वर्गों में रखा जाता है-
1. गर्म धाराएँ (Warm Currents) ये धाराएँ उष्ण क्षेत्रों से ठण्डे क्षेत्रों की ओर चलती हैं। ऐसी धाराएँ जो भूमध्य रेखा के निकट से ध्रुवों की ओर चलती हैं, गर्म धाराएँ कहलाती हैं।

2. ठण्डी धाराएँ (Cold Currents) ये धाराएँ ठण्डे क्षेत्रों से उष्ण क्षेत्रों की ओर चलती हैं। ऐसी धाराएँ जो उच्च अक्षांशों व ध्रुवों के निकट से भूमध्य रेखा की ओर चलती हैं, ठण्डी धाराएँ कहलाती हैं।

प्रश्न 10.
महासागरीय जलधाराओं की सामान्य विशेषताएँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर:
महासागरीय जलधाराओं की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • जलधाराएँ हमेशा एक निश्चित दिशा में बहती हैं।
  • उच्च अक्षांशों में गर्म जल की धाराएँ महाद्वीपों के पश्चिमी तटों पर तथा ठण्डे जल की धाराएँ महाद्वीपों के पूर्वी तटों पर बहती हैं।
  • निम्न अक्षांशों में गर्म जल की धाराएँ महाद्वीपों के पूर्वी तटों पर तथा ठण्डे जल की धाराएँ महाद्वीपों के पश्चिमी तटों पर बहती हैं।
  • निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर बहने वाली धाराएँ गर्म जल की धाराएँ कहलाती हैं।
  • उच्च अक्षांशों से निम्न अक्षांशों की ओर बहने वाली धाराएँ ठण्डे जल की धाराएँ कहलाती हैं।

प्रश्न 11.
यदि महासागरीय धाराएँ न होतीं तो विश्व का क्या हुआ होता?
उत्तर:
यदि महासागरीय धाराएँ न होतीं तो विश्व की निम्नलिखित स्थिति होती-

  • तटीय प्रदेशों की वर्षा, तापमान व आर्द्रता पर किसी तरह का प्रभाव न पड़ता।
  • ऊँचे अक्षांशों में बन्दरगाहें जमीं रहतीं और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बाधा पहुँचती।
  • ठण्डी धाराओं के अभाव में नाशवान वस्तुओं (Perishable Goods) का समुद्री परिवहन सम्भव नहीं हो पाता।
  • विश्व-प्रसिद्ध मत्स्य ग्रहण क्षेत्र विकसित न हो पाते।
  • धाराओं के अभाव में जलयान उनका अनुसरण न कर पाते। परिणामस्वरूप समय व ईंधन की बचत न हो पाती।
  • यूरोप की जलवायु सुहावनी न होती तथा शीतोष्ण कटिबन्ध में वर्षा कम होती।
  • महाद्वीपों के पश्चिमी किनारे मरुस्थलीय न होते।

प्रश्न 12.
समुद्री धाराओं के नकारात्मक प्रभावों का संक्षिप्त उल्लेख कीजिए। अथवा धाराओं से होने वाली हानियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
समुद्री धाराओं के नकारात्मक प्रभाव या हानियाँ निम्नलिखित हैं-
1. धाराओं के कुछ नकारात्मक प्रभाव भी होते हैं। भिन्न तापमान वाली धाराओं के मिलन-स्थल पर घना कुहासा उत्पन्न हो जाता है जो जलयानों के आवागमन को बाधित करता है।

2. ध्रवीय क्षेत्रों से आने वाली धाराएँ अपने साथ बड़ी-बड़ी हिमशैलें (Icebergs) बहा लाती हैं जिनके टकराने से बड़े-बड़े जलयान चकनाचूर हो जाते हैं। सन् 1912 में टाईटैनिक (Titanic) नामक विश्व प्रसिद्ध व उस समय का आधुनिक और सबसे बड़ा जहाज, न्यूफाऊंडलैण्ड के निकट एक हिमशैल से टकराकर 1517 सवारियों के साथ उत्तरी अन्ध महासागर की तली में जा टिका।

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प्रश्न 13.
ज्वार-भाटा कैसे उत्पन्न होते हैं?
उत्तर:
ज्वार-भाटा सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वी के पारस्परिक गुरुत्वाकर्षण के कारण उत्पन्न होते हैं। सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा से आकार में कई गुणा बड़ा है, परन्तु सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण का पृथ्वी पर अधिक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि चन्द्रमा पृथ्वी के निकट है। परिभ्रमण करती हुई पृथ्वी का जो धरातलीय भाग चन्द्रमा के सामने आ जाता है, उसकी दूरी सबसे कम तथा उसके विपरीत वाला धरातलीय भाग सबसे दूर होता है। सबसे नजदीक वाले भाग का ज्वारीय उभार ऊपर होगा, इसे उच्च ज्वार कहते हैं। जिस स्थान पर जल-राशि कम रह जाती है, वहाँ जल अपने तल से नीचे चला जाता है, उसे निम्न ज्वार कहते हैं। पृथ्वी की दैनिक गति के कारण प्रत्येक स्थान पर 24 घण्टे में दो बार ज्वार-भाटा आता है।

प्रश्न 14.
ज्वार-भाटा कितने प्रकार का होता है? व्याख्या कीजिए।
अथवा
बृहत् ज्वार-भाटा और लघु ज्वार-भाटा में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ज्वार की ऊँचाई पृथ्वी के सन्दर्भ में सूर्य और चन्द्रमा की सापेक्षिक स्थितियों के बदलने से घटती-बढ़ती रहती है। इस आधार पर ज्वार-भाटा दो प्रकार के होते हैं-
1. बहत ज्वार-भाटा (Spring Tide)-पूर्णमासी (Full Moon) और अमावस्या (New Moon) को सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी एक सीध में आ जाते हैं जिससे पृथ्वी पर चन्द्रमा तथा सूर्य के संयुक्त गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप इन दोनों दिनों में साधारण दिनों की अपेक्षा जल का उतार-चढ़ाव अधिकतम होता है। इसे उच्च या बृहत् ज्वार-भाटा कहते हैं।

2. लघु ज्वार-भाटा (Neap Tide) शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की सप्तमी या अष्टमी के दिन सूर्य और चन्द्रमा पृथ्वी के केन्द्र ओं में आ जाते हैं। ऐसी स्थितियों में सर्य और चन्द्रमा के गरुत्व बल पथ्वी पर एक-दूसरे के विरुद्ध काम करते हैं। परिणामस्वरूप इन दोनों दिनों में महासागरों में जल का उतार-चढ़ाव साधारण दिनों के उतार-चढ़ाव की अपेक्षा कम होता है। इसे लघु ज्वार-भाटा कहते हैं।

प्रश्न 15.
ज्वारीय धारा (Tidal Current) क्या होती है?
उत्तर:
जब कोई खाड़ी खुले सागरों और महासागरों के साथ एक संकीर्ण मार्ग के साथ जुड़ी हुई होती है तब ज्वार के समय महासागर का जल-तल खाड़ी के जल-तल से ऊँचा हो जाता है। परिणामस्वरूप खाड़ी के संकीर्ण प्रवेश मार्ग के द्वारा एक द्रव-प्रेरित धारा (Hydraulic Current) खाड़ी में प्रवेश करती है। जब भाटा के समय समुद्र तल नीचा हो जाता है तो खाड़ी का जल-तल महासागर के जल-तल से ऊँचा बना रहता है। ऐसी दशा में एक तीव्र द्रव-प्रेरित धारा खाड़ी से समुद्र की ओर बहने लग जाती है। खाड़ी के अन्दर तथा बाहर की ओर जल के इस प्रवाह को ज्वारीय धारा कहते हैं।

प्रश्न 16.
ज्वारीय भित्ति (Tidal Bore) किसे कहते हैं? इसका क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
जब कोई ज्वारीय धारा किसी नदी के छिछले और सँकरे नदमुख (Estuary) में प्रवेश करती है तो वह नदी के विपरीत दिशा में प्रवाह से टकराती है। नदी तल के घर्षण तथा दो विपरीत प्रवाहों के टकराने से जल एक तीव्र चोंच वाली ऊँची दीवार के रूप में नदी में प्रवेश करता है। इसे ज्वारीय भित्ति कहते हैं। भारत में हुगली नदी के मुहाने पर ज्वारीय भित्तियों की उत्पत्ति एक आम बात है। ज्वारीय भित्ति प्रायः दीर्घ ज्वार के समय आती है। इन भित्तियों की ऊँचाई 4 से 50 फुट तक आंकी गई है। ज्वारीय भित्तियों से छमेरी नावों को हानि उठानी पड़ती है।

प्रश्न 17.
प्रवाह (Drift), धारा (Current) तथा विशाल धारा (Stream) में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रवाह-जब पवन से प्रेरित होकर सागर की सतह का जल आगे की ओर बढ़ता है तो उसे प्रवाह (Drift) कहते हैं। इसकी गति और सीमा तय नहीं होती। प्रवाह की गति मन्द होती है और इसमें केवल ऊपरी सतह का जल ही गतिशील होता है; जैसे दक्षिणी अटलांटिक प्रवाह।

धारा-महासागरों के एक भाग से दूसरे भाग की ओर निश्चित दिशा में बहुत दूरी तक जल के निरन्तर प्रवाह को धारा (Current) कहते हैं। यह प्रवाह से तेज़ गति की होती है; जैसे लैब्रेडोर धारा।

विशाल धारा-जब महासागर का अत्यधिक जल स्थलीय नदियों की भाँति एक निश्चित दिशा में गतिशील होता है तो उसे विशाल धारा (Stream) कहते हैं। इसकी गति प्रवाह और धारा दोनों से अधिक होती है; जैसे गल्फ स्ट्रीम।

प्रश्न 18.
ज्वार-भाटा से होने वाली हानियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ज्वार-भाटे से निम्नलिखित हानियाँ होती हैं-

  1. ज्वार-भाटा या ज्वारीय भित्ति के कारण कई बार छोटे जहाज़ों को हानि पहुँचती है और छोटी नावें तो डूब ही जाती हैं।
  2. ज्वार से बन्दरगाहों के समीप रेत जमना (Siltation) शुरू हो जाता है जिससे जहाजों की आवाजाई में रुकावट पैदा होती है।
  3. ज्वार-भाटा डेल्टा के निर्माण में बाधा उत्पन्न करता है।
  4. ज्वार के समय मछली पकड़ने का काम बाधित होता है।
  5. ज्वार का पानी तटीय प्रदेशों में दलदल जैसी हालत पैदा कर देता है।

प्रश्न 19.
उत्तरी हिन्द महासागर में शीत एवं ग्रीष्म ऋतुओं में समुद्री जलधाराएँ अपनी दिशा क्यों बदलती हैं?
उत्तर:
उत्तरी हिन्द महासागर में शीत एवं ग्रीष्म ऋतुओं में समुद्री जलधाराएँ मानसून पवनों के कारण अपनी दिशा में परिवर्तन करती हैं। शीत ऋतु में उत्तर:पूर्व मानसून पवनों के प्रभाव के कारण उत्तरी हिन्द महासागर की मानसूनी धारा उत्तर पूर्व से भूमध्य रेखा की ओर बहने लगती है जिसे उत्तर-पूर्वी मानसून प्रवाह कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु में मानसून की दिशा दक्षिण-पश्चिम हो जाती है जिससे भूमध्य रेखीय धारा का कुछ जल उत्तरी हिन्द महासागर में उत्तर:पूर्वी अफ्रीका तट के सहारे सोमाली की धारा के रूप में बहने लगता है।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
जल धाराओं की उत्पत्ति के कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जल धाराओं की उत्पत्ति के निम्नलिखित कारण हैं-

  • पृथ्वी की परिभ्रमण अथवा घूर्णन गति से सम्बन्धित कारक
  • अन्तः सागरीय या महासागरों से सम्बन्धित कारक
  • बाह्य सागरों से सम्बन्धित कारक

1. पृथ्वी की परिभ्रमण अथवा घूर्णन गति से सम्बन्धित कारक-पृथ्वी के घूर्णन या गुरुत्वाकर्षण बल की धाराओं की उत्पत्ति पर प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूम रही है। सम्पूर्ण पृथ्वी जल तथा स्थल दो मण्डलों में विभक्त होने के कारण परिभ्रमण में जलीय भाग स्थल का साथ नहीं दे पाते। अतः जल तरल होने के कारण विपरीत दिशा में पूर्व से पश्चिम की ओर गति करना आरम्भ कर देता है और उत्तरी गोलार्द्ध में धाराएँ भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर तथा ध्रुवों से भूमध्य रेखा की ओर चलने लगती हैं, अर्थात विक्षेपक बल के कारण धाराएँ दाईं ओर मुड़ जाती हैं। उदाहरणार्थ गल्फ स्ट्रीम और क्यूरोसियो की गरम जल धाराएँ भूमध्य रेखा के उत्तर में दाईं ओर (उत्तर:पूर्व) होती हैं।

2. महासागरों से सम्बन्धित कारक-अन्तः सागरीय कारकों से तात्पर्य है कि सागर से सम्बन्धित कारकों का धाराओं की उत्पत्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है। इनमें तापक्रम की विभिन्नता, सागरीय लवणता तथा घनत्व की विभिन्नता सम्मिलित है।

(क) तापक्रम की विभिन्नता-सूर्य की किरणें पृथ्वी पर अलग-अलग अक्षांशों पर भिन्न-भिन्न कोण बनाती हैं। भूमध्य रेखा तथा कर्क और मकर रेखाओं के मध्य सूर्य की किरणें वर्ष-भर लगभग लम्बवत् चमकती हैं जिससे तापक्रम की मात्रा अधिक होती है। भूमध्य रेखा के निकटवर्ती समुद्र अधिक ताप ग्रहण करते हैं, जिससे समुद्री जल हल्का होकर ध्रुवों की ओर अधिक घनत्व वाले स्थानों की ओर अग्रसर हो जाता है। उसकी आपूर्ति के लिए ध्रुवीय क्षेत्रों से अधिक घनत्व वाला जल आ जाता है। इस प्रकार जल राशि का प्रवाह धाराओं के रूप में होने लगता है।

(ख) महासागरीय लवणता सभी समुद्रों में लवणता पाई जाती है, लेकिन लवणता की मात्रा सर्वत्र समान नहीं है। जो सागरीय भाग अधिक लवणता वाले होते हैं, उनके पानी का घनत्व भी कम होता है इसलिए अधिक खारा पानी अधिक घनत्व के कारण नीचे तथा कम खारा पानी सागर की ओर प्रवाहित होकर धाराओं को जन्म देता है। उदाहरणार्थ उत्तरी अटलांटिक महासागर का जल भूम य रेखीय समुद्रों के जल से कम खारा होता है जिसके फलस्वरूप उत्तरी अटलांटिक का जल जिब्राल्टर से होकर अधिक लवणता वाले भूमध्य सागर की ओर प्रवाहित होता है और भूमध्य सागर का जल खारा होने से नीचे बैठता है और अन्तःप्रवाह द्वारा अटलांटिक महासागर में प्रवेश करता है।

3. बाह्य सागरों से सम्बन्धित कारक महासागरों में वायुमण्डलीय बाह्य कारकों का धाराओं की उत्पत्ति पर प्रभाव पड़ता है। वायुमण्डलीय दाब, पवनें, वर्षा, वाष्पीकरण आदि का धाराओं के विकास पर प्रभाव दिखाई देता है।

(क) प्रचलित पवनें हवाओं की दिशा तथा उनके चलने से महासागरीय जल की सतह पर घर्षण (friction) से पवनें अपनी दिशा में जल का प्रवाह करती हैं अर्थात् पवनें जिस दिशा में चलती हैं समुद्री जल को उसी दिशा में धकेलती हैं। स्थायी पवनें (प्रचलित पवनें) सदैव एक ही दिशा में चलती हैं; जैसे कर्क और मकर रेखाओं के बीच व्यापारिक पवनों की दिशा पूर्व से पश्चिम होती है। इसलिए धाराएँ भी पूर्व से पश्चिम की ओर चलती हैं और शीतोष्ण कटिबन्ध में इनकी दिशा पश्चिम से पूर्व (पछुवा पवनों के अनुरूप) भी होती हैं।

(ख) वाष्पीकरण और वर्षा (Evaporation and Rainfall) वाष्पीकरण और वर्षा का धाराओं पर काफी प्रभाव पड़ता है। जिन समुद्री भागों में वाष्पीकरण अधिक होता है वहाँ वर्षा भी अधिक होती है, लेकिन कुछ क्षेत्रों में वर्षा अधिक तथा वाष्पीकरण कम होता है। ऐसे महासागरों में लवणता बहुत कम पाई जाती है। ऐसे क्षेत्रों में जल का तल ऊँचा होता है और जहाँ वाष्पीकरण अधिक तथा वर्षा कम होती है, वहाँ जल का घनत्व अधिक तथा पानी का तल निम्न होता है। जल का तल ऊँचा-नीचा होने के फलस्वरूप ऊँचे तल से धाराओं का प्रवाह निम्न तल की ओर होता है। धाराएँ भूमध्य रेखीय उच्च तल से मध्य अक्षांशीय निम्न तल की ओर चलती हैं।

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 14 महासागरीय जल संचलन

प्रश्न 2.
जल धाराओं का जलवायु तथा व्यापार पर क्या प्रभाव पड़ता है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
महासागरीय धाराओं का मुख्य रूप से आसपास के क्षेत्रों की जलवायु तथा व्यापार पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। जिसका वर्णन निम्नलिखित है-
1. जलवायु पर प्रभाव (Effect on Climate) किसी भी क्षेत्र में बहने वाली धाराओं का उसके समीपवर्ती भागों पर अत्यधिक प्रभाव देखने को मिलता है। यदि गर्म जल धारा प्रवाहित होती है तो तापक्रम को बढ़ा देती है, जबकि ठण्डी धारा जिस क्षेत्र से गुजरती है वहाँ का तापमान गिर जाता है। उदाहरणार्थ, ब्रिटिश द्वीप समूह का अक्षांश न्यू-फाउण्डलैण्ड के अक्षांश से अधिक है, लेकिन गल्फ स्ट्रीम की गर्म धारा के प्रभाव से ब्रिटिश द्वीप समूहों की जलवायु सुहावनी रहती है और यह कड़ाके की ठण्ड से बचा रहता है, जबकि न्यू-फाउण्डलैण्ड के आसपास लैब्रेडोर की ठण्डी धारा के प्रभाव के कारण तापक्रम काफी गिर जाता है और यहाँ लगभग 9 माह तक बर्फ जमी रहती है।

वर्षा की मात्रा भी जल धाराओं से प्रभावित होती है। गर्म जल धाराओं के ऊपर बहने वाली हवाएँ गर्म होती हैं तथा अधिक जलवाष्प ग्रहण करती हैं, जबकि इसके विपरीत ठण्डी जल धाराओं के ऊपर की वायु शुष्क तथा शीतल होने से वर्षा नहीं करती। उदाहरणार्थ, पश्चिम यूरोप के तटवर्ती भागों में गल्फ स्ट्रीम के प्रभाव से अधिक वर्षा होती है, जबकि पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के तटों के साथ ठण्डी धाराओं के प्रभाव के कारण वर्षा भी कम होती है।

2. व्यापार पर प्रभाव (Effect on Trade) गर्म धाराओं के प्रभाव-क्षेत्र में आने वाले बन्दरगाह शीत ऋतु में भी जमने नहीं पाते तथा साल भर व्यापार के लिए खुले रहते हैं। जैसे पश्चिमी यूरोप के बन्दरगाहों पर गल्फ स्ट्रीम का प्रभाव रहता है, जबकि लैब्रेडोर की ठण्डी धारा के प्रभाव के कारण बन्दरगाह जम जाते हैं तथा व्यापार नहीं हो पाता। – ठण्डी तथा गर्म धाराओं के मिलने से कोहरा उत्पन्न हो जाता है, जिससे व्यापार में कठिनाइयाँ आती हैं। साथ ही इन धाराओं के आपस में मिलने से चक्रवातों की भी उत्पत्ति होती है; जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वी तट पर हरीकेन (Hurricane), जापान के समीप टाइफून तथा प्रशान्त महासागर में टारनैडो (Tarnado) तूफानी चक्रवातों के कारण ही जन्म लेते हैं।

प्रश्न 3.
जल धाराओं के प्रभावों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
उत्तर:
महासागरीय धाराओं के प्रभावों का वर्णन निम्नलिखित है-
(1) समुद्री धाराएँ निकटवर्ती समुद्रतटीय प्रदेशों के तापमान, आर्द्रता और वर्षा की मात्रा को प्रभावित करके वहाँ की जलवायु का स्वरूप निर्धारित करती हैं।

(2) उच्च अक्षांशों में गर्म धाराएँ सारा साल बन्दरगाहों को जमने से बचाकर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में सहायक सिद्ध होती हैं। इसी प्रकार ठण्डी धाराएँ नाशवान वस्तुओं (Perishable goods) के समुद्री परिवहन को प्रोत्साहित करती हैं।

(3) ठण्डी धाराएँ ध्रुवीय तथा उपध्रुवीय क्षेत्रों में अपने साथ प्लवक (Plankton) नामक सूक्ष्म जीवों को बहाकर लाती है जो मछलियों का उत्तम आहार सिद्ध होता है। इसी कारण ठण्डी धाराओं के मार्ग में मछलियाँ खूब फलती-फूलती हैं।

(4) ठण्डी और गर्म धाराओं के मिलन स्थल विश्व प्रसिद्ध मत्स्य ग्रहण क्षेत्रों के रूप में विकसित हुए हैं।

(5) महासागरों के व्यावसायिक समुद्री जलमार्ग यथासम्भव समुद्री धाराओं का अनुसरण करते हैं। इससे जलयानों की गति में तीव्रता आती है और ईंधन व समय की बचत होती है।

(6) धाराओं के कुछ नकारात्मक प्रभाव भी होते हैं। भिन्न तापमान वाली धाराओं के मिलन-स्थल पर घना कुहासा उत्पन्न हो जाता है जो जलयानों के आवागमन को बाधित करता है। ध्रुवीय क्षेत्रों से आने वाली धाराएँ अपने साथ बड़ी-बड़ी हिमशैलें (Icebergs) बहा लाती हैं जिनके टकराने से बड़े-बड़े जलयान चकनाचूर हो जाते हैं। सन् 1912 में टाईटेनिक (Titanic) नामक विश्व प्रसिद्ध व उस समय का आधुनिक और सबसे बड़ा जहाज़, न्यू-फाऊंडलैण्ड के निकट एक हिमशैल से टकराकर 1517 सवारियों के साथ उत्तरी अन्ध महासागर की तली में जा टिका।

प्रश्न 4.
ज्वार-भाटा क्या है? इसकी उत्पत्ति के कारण व प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ज्वार-भाटा-“सूर्य और चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति समुद्री जल को प्रतिदिन क्रमशः ऊपर-नीचे करती रहती है, ज्वार-भाटा कहलाती है।” ज्वार-भाटा के कारण समुद्रों का जल एक दिन में दो बार ऊपर चढ़ता है तथा उतरता है। ज्वार-भाटा के समय नदियों के जल-तल में परिवर्तन हो जाते हैं। जब समुद्रों में ज्वार आता है, तो नदियों के जल-तल ऊँचे हो जाते हैं तथा इसके विपरीत भाटे के समय नीचे हो जाते हैं।

ज्वार-भाटा की उत्पत्ति-ज्वार-भाटा सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वी के पारस्परिक गुरुत्वाकर्षण के कारण उत्पन्न होते हैं। सूर्य तथा चन्द्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण पृथ्वी का भाग उनकी ओर खिंचता है और स्थलीय भाग की अपेक्षा जलीय भाग पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव अधिक होता है। सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा से आकार में कई गुना अधिक बड़ा है, लेकिन सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण का पृथ्वी पर अधिक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि चन्द्रमा पृथ्वी के निकट है।

परिभ्रमण करती हुई पृथ्वी का जो धरातलीय भाग चन्द्रमा के सामने आ जाता है, उसकी दूरी सबसे कम तथा उसके विपरीत वाला धरातलीय भाग सबसे दूर होता है। सबसे नजदीक वाले भाग का ज्वारीय उभार ऊपर होगा, जबकि पीछे वाला भाग सबसे कम गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में होता है, लेकिन इस पीछे वाले भाग में भी उच्च ज्वार की स्थिति होती है। इस प्रकार पृथ्वी का चन्द्रमा के सामने तथा पीछे (विपरीत दिशा) वाला भाग जलीय (तरल पदाथ) होने के कारण पृथ्वी के साथ गति नहीं कर पाता। यह भाग पृथ्वी की गति से पीछे रह जाता है। आगे तथा पीछे के जलीय भाग उभरी हुई या खिंची हुई अवस्था में होते हैं। यह स्थिति एक दिन में दो बार ज्वार की तथा दो बार भाटे की होती है।

ज्वार-भाटा के प्रकार-विश्व के अनेक महासागरों तथा सागरों में जो ज्वार-भाटा आते हैं, उनकी आवृत्ति तथा ऊँचाई में अन्तर देखने को मिलता है। भूमध्य रेखीय भागों के आसपास दिन में दो बार उच्च ज्वार तथा दो बार निम्न ज्वार देखने को मिलते हैं, जबकि ध्रुवीय प्रदेशों में एक ही बार उच्च तथा निम्न ज्वार देखने को मिलते हैं, इंग्लैण्ड के दक्षिणी तट पर स्थित साऊथैप्टन (Southampton) में ज्वार प्रतिदिन चार बार आता है। इसके कारण यह है कि ज्वार दो बार तो इंग्लिश चैनल से होकर और दो बार उत्तरी सागर से होकर विभिन्न अन्तरालों पर वहाँ पहुँचते हैं। यह पृथ्वी तथा चन्द्रमा की गतियों के परिणामस्वरूप है। इस प्रकार ज्वार-भाटा दो प्रकार के होते हैं

1. उच्च या वृहत् ज्वार-भाटा जब सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वी तीनों एक ही सीध में होते हैं तो उस समय उच्च या वृहत् ज्वार-भाटा आता है। ऐसी स्थिति पूर्णमासी (Full Moon) तथा अमावस्या (New Moon) के दिन होती है। इन दिनों दिन में पृथ्वी पर सूर्य तथा चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव अधिक होता है। जब सूर्य और पृथ्वी एक ही दिशा में स्थित होते हैं, तो बीच में चन्द्रमा के आ जाने से सूर्य ग्रहण होता है और जब सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथ्वी आ जाती है, तो चन्द्रग्रहण होता है।

2. लघु ज्वार-भाटा-कृष्ण तथा शुक्ल पक्ष की सप्तमी अथवा अष्टमी के दिन सूर्य तथा चन्द्रमा पृथ्वी के साथ समकोण पर स्थित होते हैं। इस समकोण स्थिति के कारण चन्द्रमा तथा सूर्य पृथ्वी को विभिन्न दिशाओं से आकर्षित करते हैं, जिसके कारण गुरुत्वाकर्षण बल अन्य तिथियों की अपेक्षा कम रहता है और महानगरों में ज्वार की ऊँचाई भी कम रहती है जिसे लघु ज्वार कहते हैं।

प्रश्न 5.
हिन्द महासागर की धाराओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
हिन्द महासागर की धाराएँ-हिन्द महासागर में मानसूनी पवनें चला करती हैं जो छः महीने बाद अपनी दिशा बदल देती हैं। फलस्वरूप हिन्द महासागर में चलने वाली धाराएँ भी मानसून के साथ अपनी दिशा बदल देती हैं। हिन्द महासागर की धाराओं को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है-
(क) स्थायी धाराएँ-हिन्द महासागर में विषुवत् रेखा के दक्षिण में चलने वाली धाराएँ वर्ष भर एक ही क्रम में चलती हैं, अतः इन्हें ‘स्थायी धाराएँ’ कहते हैं। इन धाराओं में दक्षिणी विषुवत रेखीय जलधारा, मोजम्बिक धारा, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की जलधारा और अगुलहास धारा मुख्य हैं।

(ख) परिवर्तनशील धाराएँ-विषुवत् रेखा के उत्तर की ओर हिन्द महासागर की समस्त धाराएँ मौसम के अनुसार अपनी दिशा और क्रम बदल देती हैं। इसलिए ये परिवर्तनशील धाराएँ कहलाती हैं। इन धाराओं की दिशा व क्रम मानसून हवाओं से प्रभावित होते हैं। अतः इन्हें मानसून प्रवाह भी कहा जाता है।
1. दक्षिणी विषुवरेखीय जलधारा-यह धारा दक्षिणी-पूर्वी व्यापारिक पवनों के प्रभाव से ऑस्ट्रेलिया के पश्चिम से पूर्व की ओर चलती है। मलागसी तट के समीप यह दक्षिण की ओर मुड़ जाती है।

2. मोजम्बिक जलधारा-यह एक गरम जल की धारा है जो अफ्रीका के पूर्वी तट और मलागसी के बीच बहती है। यह उत्तर से आकर दक्षिणी विषुवत् रेखीय धारा की दक्षिणी शाखा से मिल जाती है।

3. अगुलहास जलधारा-अफ्रीका से दक्षिण में अगुलहास अन्तरीप में पछुआ पवनों के प्रभाव द्वारा पूर्व की ओर एक धारा चलने लगती है। इसी धारा को अगुलहास की गर्म धारा कहते हैं।

4. पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की धारा-अण्टार्कटिक प्रवाह की एक शाखा ऑस्ट्रेलिया के दक्षिण-पश्चिमी भाग से मुड़कर उत्तर की ओर पूर्व को ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट के साथ-साथ बहने लगती है। यही पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की ठण्डी जलधारा कहलाती है।

5. ग्रीष्मकालीन मानसून प्रवाह-ग्रीष्म ऋतु में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून पवनों के प्रवाह से एशिया महाद्वीप के पश्चिमी तटों से एक उष्ण प्रवाहपूर्व की तरफ चलने लगता है। उत्तरी विषुवत् रेखीय धारा भी मानसून के प्रभाव से पूर्व की ओर बहकर मानसून प्रवाह के साथ ग्रीष्मकाल की समुद्री धाराओं का क्रम बनाती है।

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HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 12 विश्व की जलवायु एवं जलवायु परिवर्तन

Haryana State Board HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 12 विश्व की जलवायु एवं जलवायु परिवर्तन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Geography Solutions Chapter 12 विश्व की जलवायु एवं जलवायु परिवर्तन

HBSE 11th Class Geography विश्व की जलवायु एवं जलवायु परिवर्तन Textbook Questions and Answers

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. कोपेन के A प्रकार की जलवायु के लिए निम्न में से कौन-सी दशा अर्हक हैं?
(A) सभी महीनों में उच्च वर्षा
(B) सबसे ठंडे महीने का औसत मासिक तापमान हिमांक बिंदु से अधिक
(C) सभी महीनों का औसत मासिक तापमान 18° सेल्सियस से अधिक
(D) सभी महीनों का औसत तापमान 10° सेल्सियस के नीचे
उत्तर:
(C) सभी महीनों का औसत मासिक तापमान 18° सेल्सियस से अधिक

2. जलवायु के वर्गीकरण से संबंधित कोपेन की पद्धति को व्यक्त किया जा सकता है
(A) अनुप्रयुक्त
(B) व्यवस्थित
(C) जननिक
(D) आनुभविक
उत्तर:
(D) आनुभविक

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3. भारतीय प्रायद्वीप के अधिकतर भागों को कोपेन की पद्धति के अनुसार वर्गीकृत किया जायेगा-
(A) “Af”
(B) “BSh”
(C) “Cfb”
(D) “Am”
उत्तर:
(D) “Am”

4. निम्नलिखित में से कौन सा साल विश्व का सबसे गर्म साल माना गया है?
(A) 1990
(B) 1998
(C) 1885
(D) 1950
उत्तर:
(B) 1998

5. नीचे लिखे गए चार जलवायु समूहों में से कौन आर्द्र दशाओं को प्रदर्शित करता हैं?
(A) A-B-C-E
(B) A-C-D-E
(C) B-C-D-E
(D) A-C-D-F
उत्तर:
(D) A-C-D-F

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
जलवायु के वर्गीकरण के लिए कोपेन के द्वारा किन दो जलवायविक चरों का प्रयोग किया गया है?
उत्तर:
कोपेन ने जलवायु के वर्गीकरण के लिए निम्नलिखित जलवायविक चरों का प्रयोग किया है-

  • तापमान
  • वर्षण
  • तापमान और वर्षण का वनस्पति के वितरण से सम्बन्ध।

प्रश्न 2.
वर्गीकरण की जननिक प्रणाली आनुभविक प्रणाली से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर:
जननिक प्रणाली में जलवायु को उनके कारणों के आधार पर संगठित करने का प्रयास किया जाता है, जबकि आनुभविक प्रणाली में जलवायु तापमान और वर्षण से सम्बन्धित आंकड़ों पर आधारित है।

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प्रश्न 3.
किस प्रकार की जलवायुओं में तापांतर बहुत कम होता है?
उत्तर:
उष्ण कटिबंधीय आर्द्र जलवायु में तापांतर बहुत कम होता है। यह जलवायु विषुवत् रेखा के निकट पाई जाती है। इन प्रदेशों में तापमान सामान्य रूप से ऊँचा और वार्षिक तापांतर नगण्य होता है। किसी भी दिन अधिकतम तापमान लगभग 30° से० और न्यूनतम तापमान लगभग 20° से होता है। लेकिन वार्षिक ताप में अंतर बहुत कम है।

प्रश्न 4.
सौर कलंकों में वृद्धि होने पर किस प्रकार की जलवायविक दशाएँ प्रचलित होंगी?
उत्तर:
सौर कलंक सूर्य पर काले धब्बे होते हैं, जो एक चक्रीय ढंग से घटते-बढ़ते रहते हैं। मौसम वैज्ञानियों के अनुसार सौर कलंकों की संख्या के बढ़ने से मौसम ठंडा और आर्द्र हो जाता है तथा तूफानों की संख्या बढ़ जाती है। सौर कलंकों के कम होने से उष्ण एवं शुष्क दशाएँ उत्पन्न होती हैं।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
A एवं B प्रकार की जलवायुओं की जलवायविक दशाओं की तुलना करें।
उत्तर:
A एवं B प्रकार की जलवायुओं की जलवायविक दशाओं की तुलना निम्नलिखित प्रकार से है-

‘A’ प्रकार की जलवायु‘B’ प्रकार की जलवायु.
(1) ये उष्ण कटिबंधीय आर्द्र जलवायु वाले प्रदेश हैं।(1) ये शुष्क जलवायु वाले प्रदेश हैं।
(2) इस प्रकार की जलवायु में वर्षा अधिक होती है।(2) इस प्रकार की जलवायु में वर्षा बहुत कम होती है।
(3) इस प्रकार की जलवायु में वार्षिक तापान्तर कम होता है।(3) इस प्रकार की जलवायु में वार्षिक तापान्तर अधिक होता है।
(4) यह जलवायु 0° अक्षांश के आसपास के क्षेत्रों तथा कर्क रेखा और मकर रेखा के मध्य पाई जाती है।(4) यह जलवायु 15° से 60° उत्तर व दक्षिण अक्षांशों के मध्य विस्तृत है तथा 15° से 30° के निम्न अंक्षाशों में यह उपोष्ण कटिबंधीय उच्च वायुदाब क्षेत्र में पाई जाती है।
(5) इस प्रकार की जलवायु में जैव-विविधता वाले उष्ण कटिबंधीय सदाहरित वन पाए जाते हैं।(5) इस प्रकार की जलवायु में कंटीले बन पाए जाते हैं।

प्रश्न 2.
C तथा A प्रकार के जलवायु में आप किस प्रकार की वनस्पति पाएँगे?
उत्तर:
‘A’ उष्ण कटिबंधीय जलवायु को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है-
HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 12 विश्व की जलवायु एवं जलवायु परिवर्तन 1
(1) AF-उष्ण कटिबंधीय आर्द्र जलवायु विषुवत् वृत्त के निकट पाई जाती है। इस जलवायु में सघन वितान तथा व्यापक जैव विविधता वाले सदाबहार वन पाए जाते हैं।

(2) Am-उष्ण कटिबंधीय मानसून जलवायु भारतीय उपमहाद्वीप दक्षिण अमेरिका के उत्तर:पूर्वी तथा उत्तरी आस्ट्रेलिया में पाई जाती है। इस जलवायु में पर्णपाती वन पाए जाते हैं जिसमें पेड़ अपनी पत्तियाँ वर्ष में एक बार गिरा देता है।

(3) Aw-उष्ण कटिबंधीय आर्द्र एवं शुष्क जलवायु AF प्रकार के जलवायु प्रदेशों के उत्तर एवं दक्षिण में पाई जाती है। इस जलवायु में पर्णपाती वन और पेड़ों से ढकी घासभूमियाँ पाई जाती हैं।
‘B’ कोष्ण शीतोष्ण जलवायु को चार प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है-
HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 12 विश्व की जलवायु एवं जलवायु परिवर्तन 2

  • Cwa-आर्द्र उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु में पतझड़ वन पाए जाते हैं।
  • Cs-भूमध्य-सागरीय प्रदेशों में फलों के वृक्ष पाए जाते हैं।
  • Cfa-आर्द्र उपोष्ण कटिबंधीय (Cfa) में पर्णपाती वन पाए जाते हैं। इस क्षेत्र के कुछ क्षेत्रों में घासभूमियाँ पाई जाती हैं।

प्रश्न 3.
ग्रीनहाऊस गैसों से आप क्या समझते हैं? ग्रीन हाऊस गैसों की एक सूची तैयार करें।
उत्तर:
ग्रीनहाऊस गैसें ऐसी गैसें जो धरती पर एक आवरण बनाकर कम्बल की भाँति काम करती हैं और धरती की ऊष्मा को बाहर जाने से रोकती हैं, ग्रीनहाऊस गैसें कहलाती हैं। ये पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने में सहायक हैं।

ग्रीनहाऊस गैसें वर्तमान में प्रमुख ग्रीनहाऊस गैसें कार्बन-डाइऑक्साइड (CO2), क्लोरो-फ्लोरोकार्बन्स (CFCs), मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) और ओज़ोन (O3) हैं। नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) और कार्बन मोनोक्साइड (CO) कुछ ऐसी अन्य गैसें हैं जो ग्रीनहाऊस गैसों से आसानी से प्रतिक्रिया करती हैं और वायुमण्डल में उनके सान्द्रण को प्रभावित करती हैं।

1. कार्बन-डाइऑक्साइड (CO2) वायुमण्डल में उपस्थित ग्रीनहाऊस गैसों में सबसे अधिक सान्द्रण CO2 का है। वैसे तो कार्बन-चक्र हजारों वर्षों की अवधि में वायुमण्डल में कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा सन्तुलित बनाए रखता है, लेकिन लघु-अवधि में यह सन्तुलन कई बार बिगड़ जाता है। विगत कुछ वर्षों में कोयला, पेट्रोल, डीजल तथा प्राकृतिक गैस; जैसे जीवश्मी ईंधनों के जलने से प्रतिवर्ष 6 अरब टन कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमण्डल में मिल रही है। वन तथा महासागर CO2 के कुण्ड माने जाते हैं। वन अपनी वृद्धि के लिए CO2 का उपयोग करते हैं। अतः भूमि उपयोग में परिवर्तनों के कारण की गई जंगलों की कटाई भी CO2 की मात्रा बढ़ाती है।

CO2 लगभग 0.5 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रही है। सन् 1750 के बाद वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 30 प्रतिशत बढ़ी है, जिसने ग्रीनहाऊस प्रभाव में 65 प्रतिशत का योगदान दिया है। एक अन्य अनुमान के अनुसार 21वीं शताब्दी के मध्य तक वायुमण्डल में कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा औद्योगिक क्रांति से पूर्व की तुलना में दोगुनी हो जाएगी। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा दोगुनी हो जाए तो वायुमण्डल का तापमान 3° सेल्सियस बढ़ सकता है। 21वीं सदी के अन्त तक वायुमण्डल का तापमान 1.4° से 5.8° सेल्सियस तक बढ़ सकता है।

2. क्लोरो फ्लोरो कार्बन (CFCs)-यह गैस मनुष्य का अनुसंधान है, प्रकृति में यह नहीं मिलती। यह वास्तव में संश्लेषित (Synthetic) यौगिकों का समूह है जिसका प्रत्येक अणु कार्बन-डाइऑक्साइड की तुलना में 20 हजार गुना ताप प्रग्रहित करता है। ये यौगिक वातानुकूलन व प्रशीतन की मशीनों, आग बुझाने के उपकरणों में तथा छिड़काव यन्त्रों में प्रणोदक (Propelent) के रूप में प्रयोग होते हैं। वर्तमान में इसकी मात्रा 4 प्रतिशत की दर से वायुमण्डल में बढ़ रही है। CFCs वायुमण्डल की ऊपरी सतह पर समताप मण्डल में क्लोरीन को मुक्त करती है जो ओज़ोन को तोड़ती है। ओज़ोन परत पैराबैंगनी किरणों (Ultraviolet rays) से पृथ्वी की रक्षा करती है। समताप मण्डल में ओज़ोन के सान्द्रण का ह्रास ओज़ोन छिद्र कहलाता है। यह छिद्र हानिकारक पराबैंगनी किरणों को क्षोभमण्डल से गुजरने देता है। ओज़ोन का सबसे अधिक हास अंटार्कटिका के ऊपर हुआ है।

3. नाइट्रस ऑक्साइड-इसका महत्त्वपूर्ण स्रोत उष्ण कटिबन्धीय मिट्टी है, जहाँ पर जीवाणु नाइट्रोजन के प्राकृतिक यौगिकों से क्रिया करके नाइट्रस ऑक्साइड पैदा करते हैं। कृषि में नाइट्रोजन उर्वरकों के प्रयोग, पेड़-पौधों को जलाने, नाइट्रोजन वाले ईंधन को जलाने तथा नाइलोन उद्योग द्वारा छोड़े जाने के कारण वायुमण्डल में इसकी मात्रा में वृद्धि हुई है। इस समय वायुमण्डल में इसकी मात्रा 0.31 भाग प्रति दस लाख भाग (PPM) है। नाइट्रस ऑक्साइड का प्रत्येक अणु कार्बन-डाइऑक्साइड की तुलना में 250 गुना अधिक ताप प्रग्रहित (Trap) करता है।

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4. मीथेन गैस-तापमान बढ़ाने में मीथेन गैस का प्रत्येक अणु कार्बन-डाइऑक्साइड की तुलना में 25 गुना अधिक प्रभावी है। मीथेन अपघटकों (Decomposers) की देन है। इसके अधिकांश स्रोत जैविक हैं। मीथेन गैस धान के खेतों, नम भूमि तथा दलदल से निकलती है, इसलिए इसे मार्श गैस (Marsh Gas) भी कहते हैं। यह सागरों, ताज़े जल, खनन कार्य, गैस ड्रिलिंग तथा जैविक पदार्थों के सड़ने से उत्पन्न होती है। पशु और लकड़ी खाने वाले कीड़े; जैसे दीमक को मीथेन छोड़ने का जिम्मेदार पाया गया है।

5. जलवाष्प-अन्य ग्रीनहाऊस गैसों के कारण तापमान बढ़ने से जल की वाष्पन दर भी बढ़ जाती है। वायुमण्डल में जमा हुए ज्यादा जलवाष्प तापमान को और ज्यादा बढ़ाते हैं, क्योंकि जलवाष्प स्वयं एक प्राकृतिक ग्रीनहाऊस गैस है।

6. ओज़ोन-यद्यपि निचले वायुमण्डल में यह गैस कम पाई जाती है पर फिर भी इसका जमाव गर्मी बढ़ाने का काम करता है। ग्रीनहाऊस गैसों के प्रभाव को नियन्त्रित करने वाले कारक-

  • गैस के सान्द्रण में वृद्धि के परिणाम।
  • वायुमण्डल में इसके जीवनकाल अर्थात् ग्रीनहाऊस गैसों के अणु जितने लंबे समय तक बने रहते हैं, इनके द्वारा लाए गए परिवर्तनों से वायुमण्डलीय तंत्र को उबरने में उतना अधिक समय लगता है।
  • इसके द्वारा अवशोषित विकिरण की तरंग लंबाई।

विश्व की जलवायु एवं जलवायु परिवर्तन HBSE 11th Class Geography Notes

→ समताप रेखाएँ (Isotherms)-ये काल्पनिक रेखाएँ समुद्र तल के अनुसार समान ताप वाले स्थानों को मिलाती हैं।

→ जलवायु प्रदेश (Climatic Region)-पृथ्वी के धरातल पर पाए जाने वाले ऐसे भू-भाग, चाहे वे पास-पास हों या दूर-दूर। जहाँ लगभग एक समान जलवायु पाई जाती है, जलवायु प्रदेश कहलाते हैं।

→ ध्रुवीय ज्योति (Aurora) आयनमण्डल में विद्युत चुम्बकीय घटना का एक प्रकाशमय प्रभाव, जो उच्च अक्षांशों में लाल, हरे तथा सफेद चापों के रूप में दिखाई देता है। रात को आकाश में भू-पृष्ठ से 100 कि०मी० की ऊँचाई पर ध्रुवीय ज्योति किरणों तथा चादरों की तरह दिखाई पड़ती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में यह ज्योति दक्षिणी ध्रुवीय ज्योति (Aurora Australis) तथा उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तरी ध्रुवीय ज्योति (Aurora Borealis) कहलाती है।

→ स्टैपी (Steppe) महाद्वीपों के आन्तरिक भागों में स्थित शीतोष्ण कटिबन्धीय घास के मैदानों को विभिन्न महाद्वीपों में अलग-अलग नामों से जानते हैं; जैसे-यूरेशिया में स्टैपी, उत्तरी अमेरिका में प्रेयरी, दक्षिणी अमेरिका में पंपास, अफ्रीका में वेल्ड्स तथा ऑस्ट्रेलिया में डाउन्स आदि।

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HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 8 वायुमंडल का संघटन तथा संरचना

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Haryana Board 11th Class Geography Solutions Chapter 8 वायुमंडल का संघटन तथा संरचना

HBSE 11th Class Geography वायुमंडल का संघटन तथा संरचना Textbook Questions and Answers

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में से कौन-सी गैस वायुमंडल में सबसे अधिक मात्रा में मौजूद है?
(A) ऑक्सीजन
(B) आर्गन
(C) नाइट्रोजन
(D) कार्बन डाइऑक्साइड
उत्तर:
(C) नाइट्रोजन

2. वह वायुमंडलीय परत जो मानव जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है-
(A) समतापमंडल
(B) क्षोभमंडल
(C) मध्यमंडल
(D) आयनमंडल
उत्तर:
(B) क्षोभमंडल

HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 8 वायुमंडल का संघटन तथा संरचना

3. समुद्री नमक, पराग, राख, धुएँ की कालिमा, महीन मिट्टी किससे संबंधित हैं?
(A) गैस
(B) जलवाष्प
(C) धूलकण
(D) उल्कापात
उत्तर:
(C) धूलकण

4. निम्नलिखित में से कितनी ऊँचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा नगण्य हो जाती है?
(A) 90 कि०मी०
(B) 100 कि०मी०
(C) 120 कि०मी०
(D) 150 कि०मी०
उत्तर:
(C) 120 कि०मी०

5. निम्नलिखित में से कौन-सी गैस सौर विकिरण के लिए पारदर्शी है तथा पार्थिव विकिरण के लिए अपारदर्शी?
(A) ऑक्सीजन
(B) नाइट्रोजन
(C) हीलियम
(D) कार्बन डाइऑक्साइड
उत्तर:
(D) कार्बन डाइऑक्साइड

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
वायुमंडल से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पृथ्वी के चारों तरफ कई सौ किलोमीटर की मोटाई में व्याप्त वायु के आवरण को वायुमंडल कहा जाता है। वायुमंडल पृथ्वी की गुरुत्व शक्ति के कारण ही इसके साथ टिका हुआ है। मोंकहाउस के शब्दों में, “वायुमंडल गैस की एक पतली परत है जो गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी के साथ सटी हुई है।” क्रिचफील्ड के अनुसार, “वायुमंडल गैसों का गहरा आवरण है जो पृथ्वी को पूर्णतः घेरे हुए है।”

प्रश्न 2.
मौसम एवं जलवायु के तत्त्व कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
वे तत्त्व जिनसे किसी विशिष्ट प्रकार के मौसम या जलवायु की रचना होती है, उन्हें मौसम अथवा जलवायु के तत्त्व कहा जाता है। तापमान, वायुदाब, आर्द्रता, वर्षा, वायु की दिशा एवं गति तथा जलवायु परिवर्तन आदि जलवायु के मुख्य तत्त्व हैं।

HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 8 वायुमंडल का संघटन तथा संरचना

प्रश्न 3.
वायुमंडल की संरचना के बारे में लिखें।
उत्तर:
वायुमंडल अलग-अलग घनत्व तथा तापमान वाली विभिन्न परतों का बना होता है। पृथ्वी की सतह के पास घनत्व अधिक होता है, जबकि ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ यह घटता जाता है। वायुमंडल को पाँच संस्तरों में बाँटा गया है-

  • क्षोभमंडल
  • समतापमंडल
  • मध्यमंडल
  • आयनमंडल
  • बाह्य वायुमंडल या बहिर्मंडल।

प्रश्न 4.
वायुमंडल के सभी संस्तरों में क्षोभमंडल सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण क्यों हैं?
उत्तर:
क्षोभमंडल वायुमंडल का सबसे नीचे का संस्तर है इसकी ऊँचाई लगभग 13 कि०मी० है। इस संस्तर में धूलकण तथा जलवाष्प मौजूद होते हैं। मौसम में परिवर्तन इसी संस्तर में होता है। इस संस्तर में प्रत्येक 165 मी० की ऊँचाई पर तापमान 1°C घटता जाता है। जैविक क्रिया के लिए यह सबसे महत्त्वपूर्ण संस्तर है।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
वायुमंडल के संघटन की व्याख्या करें।
उत्तर:
वायुमंडल का संघटन वायुमंडल के संघटन का अर्थ है कि वायुमंडल किन-किन पदार्थों से मिलकर बना हुआ है। वायुमंडल अनेक गैसों का यांत्रिक मिश्रण है। गैसों के अतिरिक्त वायुमंडल में जलवाष्प और कुछ सूक्ष्म ठोस कण भी पाए जाते हैं जिनमें धूलकण सबसे महत्त्वपूर्ण होते हैं।
1. गैसें (Gases)-आयतन के अनुसार शुद्ध शुष्क वायु में लगभग 78 प्रतिशत नाइट्रोजन तथा लगभग 21 प्रतिशत ऑक्सीजन पाई जाती है। इस प्रकार नाइट्रोजन व ऑक्सीजन वायुमंडल की दो प्रमुख गैसें हैं जो समूचे वायुमंडल के आयतन का 99 प्रतिशत भाग घेरे हुए हैं। शेष 1 प्रतिशत में अन्य अनेक गैसें आती हैं।

वायु में विभिन्न गैसों की प्रतिशत मात्रा (आयतन)
नाइट्रोजन78 %
ऑक्सीजन21 %
आर्गन0.93 %
कार्बन-डाइऑक्साइड0.03 %
अन्य0.04 %

कुछ महत्त्वपूर्ण गैसों की उपयोगिता
(1) ऑक्सीजन मनुष्य और जानवर साँस के रूप में ऑक्सीजन को ही ग्रहण करते हैं। ऑक्सीजन दहन (Combustion) के लिए आवश्यक है। इसके बिना आग नहीं जलाई जा सकती। ऑक्सीजन की उत्पत्ति प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया से होती है व इसका ह्रास वनों के विनाश से होता है। शैलों के रासायनिक अपक्षय में सहयोग देकर ऑक्सीजन अनेक भू-आकारों की उत्पत्ति का कारण बनती है।

(2) नाइट्रोजन नाइट्रोजन वायु में उपस्थित ऑक्सीजन के प्रभाव को कम करती है। यदि वायुमंडल में नाइट्रोजन न होती तो वस्तुएँ इतनी तेजी से जलतीं कि उस पर नियन्त्रण करना कठिन होता। इतना ही नहीं, नाइट्रोजन के अभाव में मनुष्य व जीव-जन्तुओं के शरीर के ऊतक भी जलकर नष्ट हो जाते। मिट्टी में नाइट्रोजन की उपस्थिति प्रोटीनों का निर्माण करती है जो पौधों और वनस्पति का भोजन बनते हैं।

(3) कार्बन-डाइऑक्साइड-पौधे जीवित रहने के लिए कार्बन-डाइऑक्साइड पर निर्भर करते हैं। हरे पौधे वायुमंडल की कार्बन-डाइऑक्साइड से मिलकर स्टार्च व शर्कराओं का निर्माण करते हैं। यह गैस प्रवेशी सौर विकिरण को तो पृथ्वी तल तक आने देती है किन्तु पृथ्वी से विकिरित होने वाली लम्बी तरंगों को बाहर जाने से रोकती है। इससे पृथ्वी के निकट वायुमंडल का निचला भाग गर्म रहता है। इस प्रकार कार्बन-डाइऑक्साइड ‘काँच घर’ का प्रभाव उत्पन्न करती है।

(4) ओषोण या ओज़ोन यह गैस ऑक्सीजन का ही एक विशिष्ट रूप है जो वायुमंडल में अधिक ऊँचाइयों पर ही न्यून मात्रा में मिलती है। ओजोन गैस सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों (Ultra-Violet Rays) के कुछ अंश को अवशोषित कर लेती है जिससे स्थलमण्डल एक उपयुक्त सीमा से अधिक गर्म नहीं हो पाता। ओज़ोन मुख्यतः धरातल से 10 से 50 किलोमीटर की ऊँचाई तक स्थित है।

2. जलवाष्प (Water Vapour)-वाष्प वायुमंडल की सबसे अधिक परिवर्तनशील और असमान वितरण वाली गैस है। वायुमंडल में वाष्प के मुख्य स्रोत जलमण्डल से वाष्पीकरण तथा पेड़-पौधों व मिट्टी से वाष्पोत्सर्जन है। अति ठण्डे तथा अति शुष्क क्षेत्रों में यह हवा के आयतन के एक प्रतिशत से भी कम होती है जबकि भूमध्य रेखा के पास उष्ण और आर्द्र क्षेत्रों में आयतन के हिसाब से यह 4 प्रतिशत तक हो सकती है। वायु में उपस्थित कुल जलवाष्प का लगभग आधा भाग 2,000 मीटर की ऊँचाई से नीचे व्याप्त है। भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर वायु में जलवाष्प की मात्रा कम होती जाती है। इसी प्रकार ऊँचाई के साथ भी जलवाष्प की मात्रा घटती जाती है।

3. ठोस कण व आकस्मिक रचक (Solid Particles and Accidental Component)-गैस तथा वाष्प के अतिरिक्त वायु में कुछ सूक्ष्म ठोस कण भी पाए जाते हैं जिनमें धूलकण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। ये कण सौर विकिरण का कुछ अंश अवशोषित कर लेते हैं साथ ही सूर्य की किरणों का परावर्तन और प्रकीर्णन भी करते हैं। इसी के परिणामस्वरूप हमें आकाश नीला दिखाई पड़ता है। किरणों के प्रकीर्णन के कारण ही सूर्योदय और सूर्यास्त के समय आकाश में लाल और नारंगी रंग की छटाएँ बनती हैं। इन्हीं धूल कणों के कारण ही धुंध व धूम कोहरा बनता है।

वायुमंडल में कुछ आकस्मिक रचक और अपद्रव्य भी शामिल होते हैं। इनमें धुएँ की कालिख, ज्वालामुखी राख, उल्कापात के कण, समुद्री झाग के बुलबुलों के टूटने से मुक्त हुए ठोस लवण, जीवाणु, बीजाणु तथा पशुशालाओं के पास की वायु में अमोनिया . के अंश इत्यादि पदार्थ आते हैं।

प्रश्न 2.
वायुमंडल की संरचना का चित्र खींचे और व्याख्या करें।
उत्तर:
HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 8 वायुमंडल का संघटन तथा संरचना 1
पृथ्वी के चारों तरफ पाया जाने वाला वायु का सारा आवरण केवल एक परत नहीं है बल्कि इसमें हवा की अनेक संकेन्द्रीय परतें हैं जो घनत्व और तापमान की दृष्टि से एक-दूसरे से भिन्न हैं। भूमण्डल से परे हटने के क्रम में वायुमंडल की निम्नलिखित परते हैं-
1. क्षोभमण्डल (Troposphere)-भू-तल के सम्पर्क में यह वायुमंडल की सबसे निचली परत है जिसका घनत्व सर्वाधिक है। ध्रुवों पर इस परत की ऊँचाई 8 किलोमीटर और भूमध्य रेखा पर 18 किलोमीटर है। भूमध्य रेखा पर क्षोभमण्डल की अधिक ऊँचाई का कारण यह है कि वहाँ पर चलने वाली तेज़ संवहन धाराएँ ऊष्मा को धरातल से अधिक ऊँचाई पर ले जाती हैं।

यही कारण है कि जाड़े की अपेक्षा गर्मी में क्षोभमण्डल की ऊँचाई बढ़ जाती है। संवहन धाराओं की अधिक सक्रियता के कारण इस परत को प्रायः संवहन क्षेत्र भी कहते हैं। इस मण्डल में प्रति 165 मीटर की ऊँचाई पर 1° सेल्सियस तापमान गिर जाता है। ऊँचाई बढ़ने पर तापमान गिरने की इस दर को सामान्य ह्रास दर कहा जाता है। मानव व अन्य धरातलीय जीवों के लिए यह परत सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। ऋतु व मौसम सम्बन्धी लगभग सभी घटनाएँ; जैसे बादल, वर्षा, भूकम्प आदि जो मानव-जीवन को प्रभावित करती हैं, इसी परत में घटित होती हैं। क्षोभमण्डल में ही भारी गैसों, जलवाष्प, धूलकणों, अशुद्धियों व आकस्मिक रचकों की अधिकतम मात्रा पाई जाती है।

क्षोभमण्डल की ऊपरी सीमा को क्षोभ सीमा (Tropopause) कहते हैं। यह क्षोभमण्डल व समतापमण्डल को अलग करती है। लगभग 11/2 से 2 किलोमीटर मोटी इस परत में ऊँचाई के साथ तापमान गिरना बन्द हो जाता है। इस भाग में हवाएँ व संवहनी धाराएँ भी चलना बन्द हो जाती हैं।

2. समतापमण्डल (Stratosphere)-क्षोभ सीमा से परे यह एक संवहन-रहित परत है जिसमें आँधी, बादलों की गरज, तड़ित-झंझा, धूलकण और जलवाष्प इत्यादि नहीं पाए जाते। इसमें केवल क्षीण क्षैतिज हवाएँ चलती हैं। यह परत 50 किलोमीटर की ऊँचाई तक विस्तृत है। इसकी मोटाई भूमध्य रेखा की अपेक्षा ध्रुवों पर अधिक होती है। कभी-कभी यह परत भूमध्य रेखा पर लुप्तप्राय हो जाती है। इस परत के निचले भागों में अर्थात् 20 किलोमीटर की ऊँचाई तक तापमान एक-जैसा रहता है।

इससे ऊपर 50 किलोमीटर की ऊँचाई तक तापमान धीरे-धीरे बढ़ता है। इसका कारण यह है कि 20 से 50 किलोमीटर की ऊँचाई में वायुमंडल में ओज़ोन गैस पाई जाती है जो सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर पृथ्वी को ऊर्जा के तीव्र तथा हानिकारक तत्त्वों से बचाती है। समतापमण्डल की ऊपरी सीमा समताप सीमा (Stratopause) कहलाती है जिसमें ओज़ोन की मात्रा अधिक होती है।

3. मध्यमण्डल (Mesosphere)-समतापमण्डल के ऊपर स्थित वायुमंडल की यह तीसरी परत मध्यमण्डल कहलाती है। इसका विस्तार 80 किलोमीटर की ऊँचाई तक होता है। इस परत में ऊँचाई के साथ तापमान घटने लगता है और 80 किलोमीटर की ऊँचाई पर तापमान -100° सेल्सियस तक नीचे गिर जाता है। मध्यमण्डल की ऊपरी सीमा मध्य सीमा (Mesopause) कहलाती है।

4. आयनमण्डल (Ionosphere)-मध्यमण्डल सीमा से परे स्थित यह परत 80 से 400 किलोमीटर की ऊँचाई तक विस्तृत है। इस परत में विद्यमान गैस के कण विद्युत् आवेशित होते हैं। इन विद्युत् आवेशित कणों को आयन कहा जाता है। ये आयन विस्मयकारी विद्युतीय और चुम्बकीय घटनाओं का कारण बनते हैं। इसी परत में ब्रह्माण्ड किरणों का परिलक्षण होता है। आयनमण्डल पृथ्वी की ओर से भेजी गई रेडियो-तरंगों को परावर्तित करके पुनः पृथ्वी पर भेज देता है। इसी मण्डल से उत्तरी ध्रुवीय प्रकाश तथा दक्षिणी ध्रुवीय प्रकाश के दर्शन होते हैं।

5. बाह्यमण्डल (Exosphere) वायुमंडल की यह सबसे ऊपरी परत है। इसे बहिर्मंडल भी कहा जाता है। इसकी वायु अत्यन्त विरल है जो धीरे-धीरे अंतरिक्ष में विलीन हो जाती है। यह सबसे ऊँचा संस्तरन है तथा इसके बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है।

वायुमंडल का संघटन तथा संरचना HBSE 11th Class Geography Notes

→ ब्रह्मांड किरणें (Cosmic Rays)-बाह्य अंतरिक्ष से पृथ्वी पर पहुंचने वाला रहस्यमयी विकिरण।

→ इंद्रधनुष (Rainbow)-बहुरंजित प्रकाश की एक चाप, जो वर्षा की बूंदों द्वारा सूर्य की किरणों के आंतरिक अपवर्तन तथा परावर्तन द्वारा निर्मित होती है।

→ प्रभामंडल (Halo)-सूर्य अथवा चंद्रमा के चारों ओर एक प्रकाश-वलय जो उस समय बनता है जब आकाश में पक्षाभ-स्तरी मेघ की एक महीन परत छायी रहती है। जब सौर प्रभामंडल बन जाता है, तब वह सूर्य की चमक के कारण दिखाई नहीं देता, परंतु गहरे रंग के शीशे से आसानी से देखा जा सकता है।

→ धूम कोहरा (Smog)-अत्यधिक धुएं से भरा कोहरा, जो सामान्य रूप से औद्यौगिक तथा घने बसे नगरीय क्षेत्रों में पाया जाता है। अंग्रेज़ी भाषा के इस शब्द की रचना दो शब्दों स्मोक व फॉग को मिलाकर की गई है।

HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 8 वायुमंडल का संघटन तथा संरचना

→ प्रकीर्णन (Scattering)-लघु तरंगी सौर विकिरण का वायुमंडल के धूलकण व जलवाष्पों से टकराकर टूटना।

→ इंटरनेट (Internet) एक ऐसी विद्युतीय व्यवस्था जिसमें सूचना के महामार्ग (Information Superhighway) पर बैठे लाखों, करोड़ों लोगों द्वारा आपस में जुड़े हुए कंप्यूटरों द्वारा सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है।

→ वायुमंडल (Atmosphere)-पृथ्वी के चारों तरफ कई सौ कि०मी० की मोटाई में व्याप्त वायु के आवरण को वायुमंडल कहा जाता है।

→ क्षोभमंडल (Troposphere)-भूतल के सम्पर्क में यह वायुमंडल की सबसे निचली परत है जिसका घनत्व सर्वाधिक है।

→ वायु दीप्ति (Air Glow)-आयनमंडल में वायु में एक अजीब चमक होती है जिसे वायु दीप्ति कहा जाता है।

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HBSE 11th Class History Solutions Haryana Board

Haryana Board HBSE 11th Class History Solutions

HBSE 11th Class History Solutions in Hindi Medium

  • Chapter 1 समय की शुरुआत से
  • Chapter 2 लेखन कला और शहरी जीवन
  • Chapter 3 तीन महाद्वीपों में फैला हुआ एक साम्राज्य
  • Chapter 4 इस्लाम का उदय और विस्तार : लगभग 570-1200 ई०
  • Chapter 5 यायावर साम्राज्य
  • Chapter 6 तीन वर्ग
  • Chapter 7 बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ
  • Chapter 8 संस्कृतियों का टकराव
  • Chapter 9 औद्योगिक क्रांति
  • Chapter 10 मूल निवासियों का विस्थापन
  • Chapter 11 आधुनिकीकरण के रास्ते

HBSE 11th Class History Solutions in English Medium

  • Chapter 1 From the Beginning of Time
  • Chapter 2 Writing and City Life
  • Chapter 3 An Empire Across Three Continents
  • Chapter 4 Rise and Spread of Islam: About 570-1200 C.E.
  • Chapter 5 Nomadic Empires
  • Chapter 6 Three Orders
  • Chapter 7 Changing Cultural Traditions
  • Chapter 8 Confrontation of Cultures
  • Chapter 9 The Industrial Revolution
  • Chapter 10 Displacing Indigenous Peoples
  • Chapter 11 Paths to Modernization

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HBSE 11th Class History Important Questions and Answers

Haryana Board HBSE 11th Class History Important Questions and Answers

HBSE 11th Class History Important Questions in Hindi Medium

HBSE 11th Class History Important Questions in English Medium

  • Chapter 1 From the Beginning of Time Important Questions
  • Chapter 2 Writing and City Life Important Questions
  • Chapter 3 An Empire Across Three Continents Important Questions
  • Chapter 4 Rise and Spread of Islam: About 570-1200 C.E. Important Questions
  • Chapter 5 Nomadic Empires Important Questions
  • Chapter 6 Three Orders Important Questions
  • Chapter 7 Changing Cultural Traditions Important Questions
  • Chapter 8 Confrontation of Cultures Important Questions
  • Chapter 9 The Industrial Revolution Important Questions
  • Chapter 10 Displacing Indigenous Peoples Important Questions
  • Chapter 11 Paths to Modernization Important Questions

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HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

Haryana State Board HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

भाग-I : एक शब्द या वाक्य में उत्तर दें

1. पृथ्वी की आंतरिक परत निफे के निर्माण में किन तत्त्वों की प्रधानता है?
(A) सिलिका व एल्यूमीनियम
(B) सिलिका व मैग्नीशियम
(C) बेसाल्ट व सिलिका
(D) निकिल व फेरस
उत्तर:
(D) निकिल व फेरस

2. पृथ्वी की किस गहराई पर तापमान बढ़ने से ठोस पदार्थ तरलावस्था में आ जाते हैं?
(A) 32 कि०मी०
(B) 50 कि०मी०
(C) 96 कि०मी०
(D) 100 कि०मी०
उत्तर:
(B) 50 कि०मी०

3. पृथ्वी की किस परत में बेसाल्ट चट्टानें पाई जाती हैं?
(A) सियाल
(B) साइमा
(C) निफे
(D) किसी में भी नहीं
उत्तर:
(B) साइमा

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

4. पृथ्वी की संरचना की परत है-
(A) भू-पर्पटी
(B) मैंटल
(C) क्रोड
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. सीस्मोग्राफ यंत्र किस चीज का अंकन करता है?
(A) वायुदाब का
(B) तापमान का
(C) भूकंपीय तरंगों का
(D) पवनों की गति का
उत्तर:
(C) भूकंपीय तरंगों का

6. भूकंप मूल या भूकंप केंद्र वह होता है-
(A) जहां भूकंपीय तरंगें सबसे पहले पहुँचती हैं
(B) जहां भूकंपीय तरंगों का उद्गम होता है
(C) जहां भूकंपीय तरंगें धरातल से टकराकर लौटती हैं
(D) जहां भूकंपीय तरंगें समाप्त होती हैं
उत्तर:
(B) जहां भूकंपीय तरंगों का उद्गम होता है

7. P अथवा प्राथमिक तरंगों की कौन-सी विशेषता सही नहीं है?
(A) ये तरंगें किसी भी स्थान पर सबसे पहले पहुँचती हैं।
(B) ये ठोस, तरल तथा गैसीय तीनों माध्यमों से गुजर सकती हैं।
(C) शैलों का घनत्व बदलने पर भी P तरंगों का वेग नहीं बदलता।
(D) ये सबसे तेज चलती हैं।
उत्तर:
(C) शैलों का घनत्व बदलने पर भी P तरंगों का वेग नहीं बदलता।

8. मोहोरोविसिस असंतति किसे कहा जाता है?
(A) धरातल पर बिछी तलछटी चट्टान की परत को
(B) अवसादी चट्टानों के नीचे बिछी ग्रेनाइट की परत को
(C) ग्रेनाइट की परत तथा मिश्रित मंडल के बीच स्थित कम सिलिका वाली परत को
(D) पृथ्वी के केंद्रीय मंडल को
उत्तर:
(C) ग्रेनाइट की परत तथा मिश्रित मंडल के बीच स्थित कम सिलिका वाली परत को

9. ‘मोहो’ के बारे में कौन-सा कथन असत्य है?
(A) जिस कोल्पा घाटी में आए भूकंप के अध्ययन से ‘मोहो’ का पता चला, वह कुल्लू में है
(B) यह परत भू-पर्पटी तथा मैंटल के बीच सीमा रेखा है
(C) महाद्वीपों के नीचे यह 30 से 70 फुट की गहराई में मिलती है
(D) महासागरों के नीचे यह 5 से 7 कि०मी० की गहराई पर मिलती है
उत्तर:
(A) जिस कोल्पा घाटी में आए भूकंप के अध्ययन से ‘मोहो’ का पता चला, वह कुल्लू में है

10. दुर्बलतामण्डल का विस्तार कहाँ तक आँका गया है?
(A) 200 कि०मी० तक
(B) 300 कि०मी० तक
(C) 400 कि०मी० तक
(D) 600 कि०मी० तक
उत्तर:
(C) 400 कि०मी० तक

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

11. पृथ्वी के अंदर वह स्थान जहां भूकंप उत्पन्न होते हैं, क्या कहलाता है?
(A) अपकेंद्र
(B) अधिकेंद्र
(C) उद्गम केंद्र
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) उद्गम केंद्र

12. पृथ्वी के क्रोड से निम्नलिखित में से कौन-सी तरंगें निकल सकती हैं?
(A) लंबी तरंगें
(B) गौण तरंगें
(C) प्राथमिक तरंगें
(D) आड़ी तरंगें
उत्तर:
(C) प्राथमिक तरंगें

13. भूकंप की तीव्रता को मापने के बारे में कौन-सा कथन असत्य है?
(A) रिक्टर पैमाने में कोई न्यनतम व अधिकतम सीमा ही नहीं होती
(B) मरकेली पैमाना लोगों के अनुभवों के आधार पर भूकंप की तीव्रता बताता था
(C) रिक्टर पैमाने पर तीन परिमाण वाले भूकंप का कंपन दो परिमाण वाले भूकंप की अपेक्षा 10 गुना होगा
(D) रिक्टर पैमाने से भूकंप की तीव्रता का तो मापन होता है मगर मुक्त हुई ऊर्जा का नहीं
उत्तर:
(D) रिक्टर पैमाने से भूकंप की तीव्रता का तो मापन होता है मगर मुक्त हुई ऊर्जा का नहीं

14. भूकंप की तीव्रता को मापने का सबसे पहला पैमाना कौन-सा था?
(A) वुड और फ्रैंक न्यूमान का
(B) गाइसेप मरकेली का
(C) रौसी-फोरेल का
(D) चार्ल्स रिक्टर का
उत्तर:
(C) रौसी-फोरेल का

15. निम्नलिखित में से कौन-सा एक भूकंप उत्पन्न करने का कारण नहीं है?
(A) रिसे हुए समुद्री जल के उबलने से बनी
(B) मैग्मा के प्रचंड वेग से धरातल पर आने से गैसों के फैलने से
(C) सूर्य एवं चंद्रमा के ज्वारीय बल में वृद्धि होने से
(D) भू-प्लेटों के आपस में टकराने से
उत्तर:
(C) सूर्य एवं चंद्रमा के ज्वारीय बल में वृद्धि होने से

16. सन 1833 में इंडोनेशिया के क्राकाटोआ में आए भूकंप के पीछे क्या कारण था?
(A) जलीय भार से
(B) सिकुड़ती हुई चट्टानों के समायोजन से
(C) ज्वालामुखी उद्भेदन से
(D) भू-प्लेटों के टकराने से
उत्तर:
(C) ज्वालामुखी उद्भेदन से

17. उन भूकंपों को क्या कहते हैं जो दरार घाटियों, अंशों व ब्लॉक पर्वतों की रचना के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं?
(A) विवर्तनिक भूकंप
(B) ज्वालामुखी भूकंप
(C) वितलीय भूकंप
(D) समस्थितिक भूकंप
उत्तर:
(A) विवर्तनिक भूकंप

18. विनाशकारी सुनामी लहरों की उत्पत्ति का क्या कारण है?
(A) समुद्री तटों पर भूकंप आना
(B) समुद्र में ज्वालामुखी फूटना
(C) समुद्री तली में भूकंप आना
(D) महासागरीय नितल का प्रसारण
उत्तर:
(C) समुद्री तली में भूकंप आना

19. 26 जनवरी, 2001 को गुजरात के भुज में आया भूकंप रिक्टर स्केल पर कितना था?
(A) 8.4
(B) 7.9
(C) 6.8
(D) 7.0
उत्तर:
(B) 7.9

20. विश्व के अधिकतर भूकंप कहाँ आते हैं?
(A) मध्य अटलांटिक पेटी
(B) पामीर की गांठ
(C) प्रशांत महासागरीय पेटी
(D) तिब्बत का पठार
उत्तर:
(C) प्रशांत महासागरीय पेटी

21. भारत में सबसे कम भूकंप किस क्षेत्र में आते हैं?
(A) दक्कन पठार
(B) जलोढ़ मैदान
(C) हिमालय पर्वत
(D) मरुस्थल
उत्तर:
(A) दक्कन पठार

22. भू-तल पर जिस मुंह से मैग्मा, गैसें तथा विखंडित पदार्थ बाहर निकलते हैं, उसे कहा जाता है
(A) ज्वालामुखी शंकु
(B) ज्वालामुखी छिद्र
(C) नली
(D) चिमनी
उत्तर:
(B) ज्वालामुखी छिद्र

23. निम्नलिखित में से कौन-सा सक्रिय ज्वालामुखी है?
(A) स्ट्रॉमबोली
(B) विसूवियस
(C) बैरनआईलैंड
(D) पोपा
उत्तर:
(A) स्ट्रॉमबोली

24. ज्वालामुखी से निकलने वाली गैसों में 80 से 90% अंश किस गैस का होता है?
(A) हाइड्रोजन सल्फाइड
(B) सल्फर डाइऑक्साइड
(C) अमोनिया क्लोराइड
(D) भाप
उत्तर:
(D) भाप

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

25. ज्वालामुखी से निःसत तरल पदार्थों के बारे में कौन-सा कथन असत्य है?
(A) ताजे लावे का तापमान 600° से 1200° सेल्सियस होता है
(B) ज्वालामुखी पर्वत को ऊंचाई, अधिसिलिक लावा प्रदान करता है
(C) पैठिक लावा पतला होता है जो पठारों का
(D) अम्लिक लावा में सिलिका का अंश नगण्य निर्माण करता है होता है
उत्तर:
(D) अम्लिक लावा में सिलिका का अंश नगण्य निर्माण करता है होता है

26. पर्वत निर्माणकारी हलचलों में निम्नलिखित में से कौन सम्मिलित नहीं है?
(A) संवलन
(B) वलन
(C) अवतलन
(D) भ्रंशन
उत्तर:
(C) अवतलन

27. किलिमंजारो नामक मृत ज्वालामुखी किस देश में है?
(A) सिसली
(B) जापान
(C) तंजानिया
(D) मैक्सिको
उत्तर:
(C) तंजानिया

28. विश्व का सबसे ऊंचा सक्रिय ज्वालामुखी कौन-सा है?
(A) एटना
(B) फ़्यूजीयामा
(C) क्राकाटोआ
(D) अंटोफ़ाला
उत्तर:
(D) अंटोफ़ाला

29. अग्निवृत किसे कहा जाता है?
(A) परिप्रशांत महासागरीय पेटी
(B) हिंद महासागरीय पेटी
(C) मध्य महाद्वीपीय पेटी
(D) अटलांटिक महाद्वीपीय पेटी
उत्तर:
(A) परिप्रशांत महासागरीय पेटी

30. वह कौन-सा महाद्वीप है जिसमें एक भी ज्वालामुखी नहीं है?
(A) ऑस्ट्रेलिया
(B) अफ्रीका
(C) यूरोप
(D) उपर्युक्त में से कोई भी नहीं
उत्तर:
(A) ऑस्ट्रेलिया

31. भूकंप किस प्रकार की आपदा है?
(A) वायुमण्डलीय
(B) भौतिकी
(C) जलीय
(D) जीवमण्डलीय
उत्तर:
(B) भौतिकी

32. ज्वालामुखी उद्भेदन से निकले निम्नलिखित ठोस पदार्थों में से कौन-सा एक स्पंज की भांति हल्का है और जल में नहीं डूबता?
(A) लैपिली
(B) स्कोरिया
(C) टफ़
(D) झामक
उत्तर:
(D) झामक

33. वह किस प्रकार का ज्वालामुखी है जिसकी गैसों से प्रकाशमान मेघों को हवाई द्वीप के लोग अग्नि की रेफी की केशराशि समझते हैं?
(A) प्लिनी तुल्य
(B) पीलियन तुल्य
(C) हवाई तुल्य
(D) वलकैनो तुल्य
उत्तर:
(B) पीलियन तुल्य

34. किस ज्वालामुखी को ‘भूमध्य सागर का प्रकाश स्तंभ’ कहा जाता है?
(A) मोनालोआ
(B) क्राकाटोआ
(C) स्ट्रॉम्बोली
(D) विसुवियस
उत्तर:
(C) स्ट्रॉम्बोली

35. निम्नलिखित में से कौन-सा ज्वालामुखी मृत या विलुप्त हो चुका है?
(A) इटली का एटना
(B) ईरान का कोह-सुलतान
(C) लिपारी का स्ट्रॉम्बोली
(D) इटली का विसुवियस
उत्तर:
(B) ईरान का कोह-सुलतान

36. निम्नलिखित में से कौन-सा सक्रिय ज्वालामुखी भारत में है?
(A) बैरन द्वीप
(B) इरेबस
(C) टैरर
(D) एटना
उत्तर:
(A) बैरन द्वीप

37. क्रेटर और काल्डेरा स्थलाकृतियां निम्नलिखित में से किससे संबंधित हैं?
(A) उल्कापात
(B) ज्वालामुखी क्रिया
(C) पवन क्रिया
(D) हिमानी क्रिया
उत्तर:
(B) ज्वालामुखी क्रिया

38. लंबे समय तक शांत रहने के पश्चात् विस्फोट होने वाला ज्वालामुखी क्या कहलाता है?
(A) मृत
(B) प्रसुप्त
(C) सक्रिय
(D) निष्क्रिय
उत्तर:
(B) प्रसुप्त

भाग-II : एक शब्द या वाक्य में उत्तर दें

प्रश्न 1.
पृथ्वी का व्यास कितना है?
उत्तर:
12,742 कि०मी०।

प्रश्न 2.
भू-गर्भ की जानकारी प्राप्त करने के दो परोक्ष स्रोत बताएँ।
उत्तर:

  1. पृथ्वी के भीतर का तापमान
  2. उल्कापिण्ड।

प्रश्न 3.
भूकंपीय तरंगों द्वारा वक्राकार मार्ग अपनाया जाना क्या इंगित करता है?
उत्तर:
वक्राकार मार्ग यह सिद्ध करता है कि पृथ्वी के भीतर घनत्व परिवर्तित हो रहा है।

प्रश्न 4.
क्रोड किन दो प्रमुख धातुओं से बना है?
उत्तर:
लोहा और निकिल।

प्रश्न 5.
भूकंप से पैदा होने वाली समुद्री तरंगों को जापान में क्या कहा जाता है?
उत्तर:
सुनामी (Tsunami)

प्रश्न 6.
सबसे मन्द गति से चलने वाली भूकंपीय तरंगें कौन-सी हैं?
उत्तर:
धरातलीय तरंगें (L-Waves)

प्रश्न 7.
सियाल व साइमा का घनत्व बताएँ।
उत्तर:
सियाल 2.75 से 2.90 व साइमा 2.90 से 3.4।

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

प्रश्न 8.
‘पी’, ‘एस’ व ‘एल’ तरंगों के अन्य नाम बताइए।
उत्तर:
पी = अनुदैर्ध्य तरंगें; एस = अनुप्रस्थ तरंगें तथा एल = धरातलीय या लम्बी तरंगें।

प्रश्न 9.
धरातल पर परिवर्तन लाने वाले बलों के नाम बताएँ।
उत्तर:

  1. आन्तरिक बल
  2. बाह्य बल।

प्रश्न 10.
भारत की किसी एक क्रेटर झील का उदाहरण दें।
उत्तर:
लोनार झील।

प्रश्न 11.
पृथ्वी की आन्तरिक संरचना की जानकारी देने वाले दो प्रत्यक्ष साधन या स्रोत बताएँ।
उत्तर:

  1. खाने
  2. छिद्र।

प्रश्न 12.
पृथ्वी के भीतर तापमान बढ़ने की औसत दर क्या है?
उत्तर:
प्रति 32 मीटर पर 1° सेल्सियस।

प्रश्न 13.
भू-पृष्ठ किन दो प्रमुख पदार्थों से बना हुआ है?
उत्तर:

  1. सिलिका
  2. एल्यूमीनियम।

प्रश्न 14.
भूकंपीय तरंगों का अध्ययन करने वाले यन्त्र का नाम बताइए।
उत्तर:
सीस्मोग्राफ (Seismograph)।

प्रश्न 15.
पृथ्वी के भीतर ‘S’ तरंगें कितनी गहराई के बाद लुप्त हो जाती हैं?
उत्तर:
2900 किलोमीटर की गहराई के बाद।

प्रश्न 16.
वे कौन सी भूकंपीय तरंगें हैं जो केवल ठोस माध्यम से ही गुज़र सकती हैं?
उत्तर:
S-तरंगें अथवा गौण तरंगें अथवा अनुप्रस्थ तरंगें।

प्रश्न 17.
पृथ्वी का औसत अर्धव्यास कितना है?
उत्तर:
6371 किलोमीटर।

प्रश्न 18.
सियाल (Sial) किन दो शब्दों से मिलकर बना है?
उत्तर:
सियाल शब्द सिलिका (Si) तथा एल्यूमीनियम (al) के संयोग (Si + al = Sial) से बना है।

प्रश्न 19.
साइमा (Sima) किन दो शब्दों से मिलकर बना है?
उत्तर:
साइमा शब्द सिलिका (Si) तथा मैग्नीशियम (ma) के संयोग (Si+ma = Sima) से बना है।

प्रश्न 20.
निफे (Nife) किन दो शब्दों से मिलकर बना है?
उत्तर:
निफे शब्द निकिल (Ni) तथा फैरस (Fe) के संयोग (Ni + fe = Nife) से बना है।

प्रश्न 21.
पृथ्वी की केन्द्रीय परत का क्या नाम है?
उत्तर:
अभ्यान्तर या क्रोड (Core)।

प्रश्न 22.
क्रोड का घनत्व इतना अधिक क्यों है?
उत्तर:
पृथ्वी के क्रोड का अधिक घनत्व लोहे तथा निकिल की उपस्थिति के कारण है।

प्रश्न 23.
भूकंपीय तीव्रता की मापनी किस नाम से जानी जाती है?
उत्तर:
रिक्टर स्केल।

प्रश्न 24.
भूकंप की उत्पत्ति के दो कारण बताइए।
उत्तर:

  1. विवर्तनिक हलचल और
  2. ज्वालामुखी विस्फोट।

प्रश्न 25.
माउण्ट फ्यूज़ीयामा किस श्रेणी का ज्वालामुखी है?
उत्तर:
मिश्रित शंकु प्रकार का।।

प्रश्न 26.
माउण्ट विसुवियस किस श्रेणी का ज्वालामुखी है और कहाँ है?
उत्तर:
माउण्ट विसुवियस प्रसुप्त श्रेणी का ज्वालामुखी है जो इटली में है।

प्रश्न 27.
कौन-सा ज्वालामुखी ‘भूमध्य सागर का प्रकाश स्तम्भ’ कहलाता है? यह किस द्वीप पर स्थित है?
उत्तर:
स्ट्रॉम्बोली ज्वालामुखी, लिपारी द्वीप पर।

प्रश्न 28.
ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
गैस, तरल व ठोस।

प्रश्न 29.
भारत के दो ज्वालामुखियों के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. बैरन द्वीप व
  2. नारकोण्डम द्वीप (बंगाल की खाड़ी में)।

प्रश्न 30.
पृथ्वी के धरातल पर अकस्मात् होने वाली दो हलचलों के नाम लिखें।
उत्तर:

  1. भूकंप
  2. ज्वालामुखी।

प्रश्न 31.
ज्वालामुखी विस्फोट से भू-गर्भ से निकले खनिज किस रूप में होते हैं?
उत्तर:
पिघली हुई अवस्था में।

प्रश्न 32.
मैग्मा और लावा में क्या अंतर होता है?
उत्तर:
पिघला हुआ पदार्थ पृथ्वी के अन्दर मैग्मा और बाहर लावा कहलाता है।

प्रश्न 33.
विस्फोटक प्रकार के ज्वालामुखियों के दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
इटली का एटना तथा जापान का फ्यूज़ीयामा।

प्रश्न 34.
दरारी उद्भेदन से बने दो प्रदेशों का उदाहरण दीजिए।
उत्तर:

  1. दक्षिणी भारत का लावा पठार
  2. अमेरिका का स्नेक नदी का पठार।

प्रश्न 35.
शान्त उद्भेदन वाले ज्वालामुखियों के दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
स्ट्रॉम्बोली व हवाई।

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

प्रश्न 36.
ज्वालामुखी से निकले ठोस पदार्थों को किन-किन नामों से जाना जाता है?
उत्तर:
ज्वालामुखी राख, लैपिली, स्कोरिया, ब्रेसिया या संकोणाश्म ज्वालामुखी बम तथा झामक।

प्रश्न 37.
अधिक गाढ़ा और चिपचिपा लावा, जिसमें सिलिका का अंश ज्यादा होता है, कौन-सा ज्वालामुखी भू-आकार बनाता है?
उत्तर:
अम्लीय लावा शंकु अथवा गुम्बद।

प्रश्न 38.
भूकंप मूल (Seismic Focus) या भूकंप का उद्गम केन्द्र क्या होता है?
उत्तर:
भू-गर्भ में जिस स्थान पर भूकंप उत्पन्न होता है, उसे भूकंप मूल या भूकंप का उद्गम केन्द्र कहा जाता है।

प्रश्न 39.
अधिकेन्द्र (Epicentre) से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
उद्गम केन्द्र के ठीक ऊपर धरातल पर स्थित उस बिन्दु को जहाँ भूकंपीय तरंगें सबसे पहले पहुँचती हैं, अधिकेन्द्र कहते हैं।

प्रश्न 40.
अति गरम, तरल, हल्का लावा जिसमें सिलिका का अंश कम होता है, कौन-सा ज्वालामुखी भू-आकार बनाता है?
उत्तर:
पैठिक लावा शंकु अथवा लावा शील्ड।

प्रश्न 41.
दुनिया का सबसे बड़ा सक्रिय ज्वालामुखी कौन-सा है?
उत्तर:
हवाई द्वीप समूह का मोनालोआ (Mouna Loa) ज्वालामुखी।

प्रश्न 42.
विलुप्त या मृत ज्वालामुखियों के कोई दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
ईरान का कोह-सुल्तान, म्यांमार का पोपा।

प्रश्न 43.
किन अंकों के माध्यम से भूकंप की ऊर्जा को इंगित किया जाता है?
उत्तर:
1 से 9 अंकों के माध्यम से।

प्रश्न 44.
ज्वालामुखी शंकु की कौन-सी तीन किस्में होती हैं?
उत्तर:

  1. राख शंकु
  2. सिंडर शंकु
  3. मिश्रित शंकु।

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘एल’ तरंगों की खोज किसने की? इसका अन्य नाम क्या है?
उत्तर:
इन तरंगों की खोज H.D. Love ने की थी, इसलिए इन्हें Love Waves भी कहा जाता है। इनका एक और नाम R-Waves (Raylight Waves) भी है।

प्रश्न 2.
पृथ्वी के आन्तरिक भाग में ऊँचे ताप के क्या कारण हैं?
उत्तर:

  1. रासायनिक प्रतिक्रियाएँ
  2. आन्तरिक शक्तियाँ
  3. रेडियोधर्मी पदार्थों का स्वतः विखण्डन तथा
  4. उच्च मूल तापमान।

प्रश्न 3.
भू-पर्पटी क्या होती है?
उत्तर:
अवसादी शैलों से बने धरातलीय आवरण के नीचे पृथ्वी की सबसे बाहरी परत जो लगभग 5 से 50 किलोमीटर चौड़ी है, भू-पर्पटी कहलाती है।

प्रश्न 4.
श्यानता (Viscosity) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
श्यानता किसी तरल पदार्थ का वह गुण है जो इसके तत्त्वों के आन्तरिक घर्षण के कारण इसे धीरे बहने देता है। एस्फाल्ट, शहद, लावा तथा लाख ऐसे ही विस्कासी पदार्थ हैं।

प्रश्न 5.
स्थलमण्डल क्या होता है?
उत्तर:
भू-पर्पटी का वह भाग जो सियाल, साइमा तथा ऊपरी मैण्टल के कुछ भाग से मिलकर बना हुआ है, स्थलमण्डल कहलाता है।

प्रश्न 6.
तरंग दैर्ध्य (Wave Length) क्या होती है?
उत्तर:
किसी एकान्तर तरंग के क्रमिक समान बिन्दुओं के बीच की दूरी को तरंग-दैर्ध्य कहते हैं।

प्रश्न 7.
ज्वालामुखी उद्भेदन के समय कौन-कौन-सी गैसें पृथ्वी से बाहर निकलती हैं?
उत्तर:
हाइड्रोजन सल्फाइड, कार्बन-डाइ-सल्फाइड, कार्बन मोनो-ऑक्साइड, सल्फर डाइ-ऑक्साइड, हाइड्रोक्लोरिक एसिड व अमोनियम क्लोराइड इत्यादि।

प्रश्न 8.
प्रशान्त महासागरीय ज्वालावृत्त (Fiery Ring of the Pacific)
उत्तर:
विश्व के सक्रिय ज्वालामुखियों का 88 प्रतिशत प्रशान्त महासागर के पूर्वी और पश्चिमी तटों पर पाए जाने के कारण प्रशान्त महासागरीय परिमेखला को ज्वालावृत्त कहा जाता है।

प्रश्न 9.
ज्वालामुखी से होने वाले तीन लाभ बताइए।
उत्तर:

  1. उपजाऊ मिट्टी का निर्माण
  2. बहुमूल्य खनिजों की प्राप्ति
  3. पृथ्वी की आन्तरिक संरचना का ज्ञान।

प्रश्न 10.
ज्वालामुखी से होने वाली तीन हानियाँ बताइए।
उत्तर:

  1. जन-धन की हानि
  2. वायुमण्डलीय प्रदूषण
  3. जीव-जगत की मृत्यु से पारिस्थितिकी (Ecology) असन्तुलन।

प्रश्न 11.
ज्वालामुखी छिद्र क्या होता है?
उत्तर:
भूतल पर जिस मुँह से मैग्मा, गैसें तथा विखण्डित पदार्थ बाहर निकलते हैं, उसे ज्वालामुखी छिद्र कहते हैं।

प्रश्न 12.
ज्वालामुखी शंकु क्या होता है?
उत्तर:
ज्वालामुखी छिद्र से निकली हुई सामग्री के जमा होने से ज्वालामुखी शंकु बनता है।

प्रश्न 13.
ज्वालामुखी चिमनी क्या होती है?
उत्तर:
ज्वालामुखी छिद्र से जुड़ी जिस प्राकृतिक नली से मैग्मा इत्यादि का निकास होता है, उसे ज्वालामुखी नली या चिमनी कहते हैं।

प्रश्न 14.
काल्डेरा क्या होता है?
उत्तर:
क्रेटर का विस्तृत रूप काल्डेरा कहलाता है।

प्रश्न 15.
ज्वालामुखी क्या होता है?
उत्तर:
भू-पर्पटी के ऐसे निकास द्वार, जिनसे गरम पिघली चट्टानें (लावा), धुआँ, गरम गैसें, गरम वाष्प (Steam) आदि निकलकर धरातल पर और वायुमण्डल में फैल जाते हैं, को ज्वालामुखी कहते हैं।

प्रश्न 16.
पटलविरूपणी बल क्या होते हैं?
उत्तर:
पृथ्वी के भीतर होने वाली वे धीमी, किन्तु दीर्घकालीन हलचलें जो भू-पटल में विक्षोभ, मुड़ाव, झुकाव व टूटन (Fracture) लाकर धरातल पर विषमताएँ लाती हैं, उन्हें पटलविरूपणी बल कहा जाता है।

प्रश्न 17.
भूकंप के कोई चार प्रभाव लिखें।
उत्तर:

  1. हिमस्खलन
  2. सुनामी
  3. भूमि का हिलना
  4. इमारतों का टूटना व ढाँचों का ध्वस्त होना।

प्रश्न 18.
तरंग दैर्घ्य (Wave Length) क्या होती है?
उत्तर:
किसी एकान्तर तरंग के क्रमिक समान बिन्दुओं के बीच की दूरी को तरंग दैर्ध्य कहते हैं।

प्रश्न 19.
उल्कापिण्ड क्या है?
उत्तर:
उल्का का वह हिस्सा, जो अपने बड़े आकार के कारण या कम वेग के कारण पृथ्वी के वायुमण्डल में आते हुए घर्षण से पूरी तरह जल नहीं पाता और पृथ्वी तल पर आ गिरता है। अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर गिरने वाले ऐसे पिण्डों को उल्कापिण्ड कहते हैं। वायुमण्डल में पहुँचने से पहले उल्का को उल्काभ कहते हैं।

प्रश्न 20.
सुनामी से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भूकंप-जनित समुद्री लहरों के लिए सारे संसार में प्रयुक्त किया जाने वाला सुनामी एक जापानी, शब्द है, जिसका अर्थ है-Great Harbour Wave. भूकंप, विशेष रूप से समुद्री तली पर पैदा होने वाले भूकंप, 15 मीटर या इससे ऊँची लहरों को जन्म देते हैं, जिसकी गति 640 से 960 किलोमीटर प्रति घण्टा होती है। सुनामी बहुत दूर तक जा सकती हैं और तटों पर विनाशलीला करती हैं। सुनामी भूकंपों के साथ-साथ विस्फोटक ज्वालामुखी से भी पैदा होती हैं; जैसे क्राकाटोआ (1883) ज्वालामुखी से सुनामी उत्पन्न हुई थी।

प्रश्न 21.
तीन प्रकार की भूकंपीय तरंगों के नाम लिखें।
उत्तर:

  1. प्राथमिक अनुदैर्ध्य तरंगें
  2. गौण या अनुप्रस्थ तरंगें
  3. धरातलीय या लम्बी तरंगें।

प्रश्न 22.
भूकंपीय तरंगों का मार्ग वक्राकार क्यों हो जाता है? इसका महत्त्व भी स्पष्ट करें।
उत्तर:
भूकंपीय तरंगें भूकंप केन्द्र से सीधी दिशा में न चलकर टेढ़े मार्ग को अपनाती हैं। इसका कारण यह है कि घनत्व में आने वाली भिन्नता के कारण तरंगें परावर्तित होकर वक्राकार हो जाती हैं। तरंगों के मार्ग के वक्राकार होने का महत्त्व यह है कि इससे हमें पृथ्वी के अन्दर विभिन्न घनत्व वाली अनेक परतों के होने का प्रमाण मिलता है।

प्रश्न 23.
छायामण्डल से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भूकंप केन्द्र से 11,000 कि०मी० के बाद लगभग 5,000 कि०मी० का क्षेत्र ऐसा है जहाँ कोई भी तरंग नहीं पहुँचती, इस क्षेत्र को छायामण्डल कहते हैं। छायामण्डल का होना साबित करता है कि पृथ्वी का आन्तरिक भाग भारी धातुओं से बना हुआ है. इसे धात्विक क्रोड (Metallic core) भी कहते हैं।

प्रश्न 24.
रिक्टर स्केल क्या होती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अमेरिकी भूकंप वैज्ञानिक चार्ल्स फ्रांसिस रिक्टर (Charles Francis Richter) के नाम से प्रसिद्ध इस माप के द्वारा उद्गम केन्द्र पर भूकंप द्वारा निर्मुक्त ऊर्जा को मापा जाता है। इसमें 1 से 9 अंकों के माध्यम से भूकंप की ऊर्जा को इंगित किया जाता है। उदाहरणतः 7 परिमाण वाला भूकंप, 6 परिमाण वाले भूकंप से 10 गुना, 5 परिमाण वाले भूकंप से 100 गुना तथा 4 परिमाण वाले भूकंप की अपेक्षा 1000 गुना शक्तिशाली होता है। आगे भी इसका माप इसी अनुरूप होता है।

प्रश्न 25.
भूकंप क्या है? अथवा भूकंप को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
पृथ्वी की भीतरी हलचलों के कारण जब धरातल का कोई भाग अकस्मात् काँप उठता है तो उसे भूकंप कहते हैं। चट्टानों की तीव्र गति के कारण हुआ यह कम्पन अस्थाई होता है। जे.बी. मेसिलवाने के अनुसार, “भूकंप धरातल के ऊपरी भाग की वह कम्पन विधि है जो धरातल के ऊपर या नीचे चट्टानों के लचीले गुरुत्वाकर्षण की समस्थिति में क्षणिक अव्यवस्था द्वारा पैदा होती है।” सेलिसबरी के अनुसार, “भूकंप वे धरातलीय कम्पन हैं जो मनुष्य से असम्बन्धित क्रियाओं के परिणामस्वरूप होते हैं।”

प्रश्न 26.
ज्वालामुखी उद्गारों को प्रायः पर्वत निर्माण क्रिया से क्यों जोड़ा जाता है?
उत्तर:
ज्वालामुखी आकस्मिक बल है। पृथ्वी के भीतर पैदा होने वाला यह बल भू-तल के ऊपर तथा नीचे अचानक परिवर्तन ला देता है। इस आकस्मिक बल के कारण भू-पटल पर देखते-ही-देखते पर्वत, पठार, मैदान, झील, दरारें आदि बन जाती हैं। इसलिए ज्वालामुखी उद्गारों को पर्वत निर्माण क्रिया से जोड़ा जाता है।

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

प्रश्न 27.
प्रशान्त महासागर के तटीय भागों को अग्नि वलय क्यों कहा जाता है?
अथवा
प्रशान्त महासागरीय परिमेखला को ज्वालावृत क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
प्रशान्त महासागर के तटीय क्षेत्रों के चारों ओर सक्रिय ज्वालामुखी पाए जाते हैं। विश्व में लगभग 522 सक्रिय ज्वालामुखी हैं। इनमें से 403 सक्रिय ज्वालामुखी इसी क्षेत्र में पाए जाते हैं। इन ज्वालामुखियों ने प्रशान्त महासागर को एक वृत्त की तरह घेर रखा है। इन सक्रिय ज्वालामुखियों में से समय-समय पर लावा का उद्गार होता रहता है इसलिए प्रशान्त महासागर को अग्नि वलय कहते हैं।

प्रश्न 28.
भूकंप विज्ञान (Seismology) क्या होता है?
उत्तर:
वह विज्ञान जो भूकंपों की उत्पत्ति, उनकी तीव्रता का अध्ययन करता है, भूकंप विज्ञान कहलाता है। इसमें भूकंपीय तरंगों का अध्ययन भूकंपमापी यन्त्र (Seismograph) की सहायता से किया जाता है।

प्रश्न 29.
पृथ्वी का निर्माण करने वाली तीन परतों के नाम बताइए।
उत्तर:
भू-पर्पटी, मैण्टल तथा क्रोड।

प्रश्न 30.
पृथ्वी की सबसे भारी तथा सबसे हल्की परत का नाम बताइए।
उत्तर:
सबसे भारी परत-क्रोड तथा सबसे हल्की परत-भू-पर्पटी है।

प्रश्न 31.
भू-पर्पटी, मैण्टल तथा क्रोड का आयतन कितना है?
उत्तर:
भू-पर्पटी 1%, मैण्टल 83% तथा क्रोड 16%।

प्रश्न 32.
किन प्रमाणों से ज्ञात होता है कि पृथ्वी के भीतर भारी गर्मी है?
उत्तर:

  1. ज्वालामुखी
  2. गरम जल के झरने
  3. गहरी खानें।

प्रश्न 33.
विवर (Crator) क्या होता है?
उत्तर:
ज्वालामुखी शंकु के शिखर पर स्थित कीपनुमा खड्डे को विवर कहते हैं।

प्रश्न 34.
सक्रियता के आधार पर ज्वालामुखियों के प्रकार बताइए।
उत्तर:

  1. सक्रिय ज्वालामुखी
  2. प्रसुप्त ज्वालामुखी तथा
  3. विलुप्त ज्वालामुखी।

प्रश्न 35.
ज्वालामुखी के प्रमुख अंग कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
ज्वालामुखी छिद्र, ज्वालामुखी नली या चिमनी, क्रेटर, ज्वालामुखी शंकु इत्यादि।

प्रश्न 36.
ज्वालामुखी उद्भेदन कितने प्रकार का होता है?
उत्तर:
तीन प्रकार का-

  1. केन्द्रीय उद्भेदन
  2. शान्त उद्भेदन व
  3. दरारी उद्भेदन।

प्रश्न 37.
ज्वालामुखी विस्फोट किन कारणों से होता है?
उत्तर:

  1. भू-गर्भ का उच्च ताप
  2. भाप तथा गैसें
  3. दुर्बल भू-भाग
  4. भूकंप।

प्रश्न 38.
विश्व की प्रमुख ज्वालामुखी पेटियों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. प्रशान्त महासागरीय परिमेखला
  2. मध्य महाद्वीपीय पेटी
  3. अन्ध महासागरीय पेटी।

प्रश्न 39.
गुरुमण्डल (Barysphere) क्या है?
उत्तर:
पृथ्वी के अभ्यन्तर का वह सारा भाग, जो स्थलमण्डल के नीचे है, गुरुमण्डल कहलाता है। इसमें क्रोड, मैण्टल तथा दुर्बलतामण्डल (Asthenosphere) तीनों शामिल होते हैं। केवल क्रोड या मैण्टल को गुरुमण्डल नहीं कहना चाहिए।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पृथ्वी की आन्तरिक संरचना का अध्ययन क्यों आवश्यक है?
अथवा
भू-गर्भ की जानकारी हमारे लिए किस प्रकार महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
भू-गर्भ का अध्ययन भू-गर्भ विज्ञान करता है, परन्तु भू-गर्भ का ज्ञान कई भौगोलिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए सहायक है, जो निम्नलिखित हैं-

  1. भू-गर्भ के अध्ययन से पर्वतों के उत्थान, निर्माण तथा धंसाव का ज्ञान प्राप्त होता है।
  2. इससे भू-तल पर होने वाले परिवर्तनों की जानकारी प्राप्त होती है।
  3. भू-गर्भ से हमें पथ्वी की आन्तरिक शक्तियों तथा हलचलों के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है।
  4. इसके अध्ययन से हमें विभिन्न क्रियाओं; जैसे तनाव और खिंचाव आदि का ज्ञान प्राप्त होता है।
  5. भू-गर्भ की जानकारी से विभिन्न खनिज-पदार्थों की स्थिति तथा संरचना की जानकारी प्राप्त होती है।
  6. भूकंपों और ज्वालामुखियों के कारणों की व्याख्या पृथ्वी की आन्तरिक संरचना के ज्ञान से ही हो सकती है।
  7. पृथ्वी की आन्तरिक हलचलों से बने पर्वत, पठार और मैदान मानव बसाव व आर्थिक क्रियाओं का निर्धारण करते हैं।

प्रश्न 2.
पृथ्वी के आन्तरिक भाग की जानकारी परोक्ष प्रमाणों पर आधारित है, क्यों?
उत्तर:
पृथ्वी का आन्तरिक भाग दृश्य (Visible) न होने के कारण भू-गर्भ के बारे में हमारा ज्ञान सीमित है। पृथ्वी के भीतर की अधिकतर जानकारी हमें परोक्ष (Indirect) रूप से प्राप्त हुई है। भू-गर्भ के बारे में प्रत्यक्ष ज्ञान हमें खानों और सछिद्रों (Bore-holes) से मिलता है। विश्व की सबसे गहरी खान दक्षिण अफ्रीका में रॉबिन्सन गर्त है। सोने की यह खान 4 कि०मी० से कुछ कम गहरी है। तेल की खोज में खोदे गए कुओं की गहराई भी 8 कि०मी० से अधिक नहीं हो पाई है। ये दोनों गहराइयाँ पृथ्वी के केन्द्र की दूरी की तुलना में नगण्य हैं। इससे यह साफ हो जाता है कि प्रत्यक्ष रूप से तो केवल भू-पर्पटी के ऊपरी भाग की, जो धरातल के एकदम नीचे स्थित है, जानकारी प्राप्त की जा सकती है। यह ऊपरी भाग तो पृथ्वी पर खरोंच जैसा है। इससे निचले भाग की जानकारी के लिए परोक्ष वैज्ञानिक प्रमाणों का सहारा लेना पड़ता है।

प्रश्न 3.
उल्कापिण्ड पृथ्वी की आन्तरिक बनावट के विषय में जानकारी देने में किस प्रकार सहायता करती हैं?
उत्तर:
उल्कापिण्ड उल्का (Meteor) का वह हिस्सा होता है जो अपने बड़े आकार के कारण या कम वेग के कारण पृथ्वी के वायुमण्डल में आते हुए घर्षण से पूरी तरह नहीं जल पाता और पृथ्वी तल पर आ गिरता है। सौरमण्डल का सदस्य होने के कारण उल्कापिण्डों और पृथ्वी की रचना में समानता पाई जाती है, इनके अध्ययन से दो बातों का अनुमान लगाया जा सकता है-प्रथम, पृथ्वी में भी उल्कापिण्डों के समान प्याज के छिलकों जैसी संकेन्द्रीय (Concentric) परतें पाई जाती हैं। द्वितीय, उल्कापिण्डों के निर्माण में लोहा तथा निकिल की प्रधानता इंगित करती है कि पृथ्वी का केन्द्रीय भाग भी ऐसी भारी धातुओं से बना हुआ होगा।

प्रश्न 4.
पृथ्वी के आन्तरिक भाग में तापमान की क्या दशा होती है?
उत्तर:
पृथ्वी के भीतर जाने पर तापमान बढ़ता जाता है। इस बात की पुष्टि ज्वालामुखी विस्फोटों तथा गरम जल के झरनों से होती है। गहरी खानों और गहरे कुओं से भी यही साबित होता है कि धरती में नीचे जाने पर गर्मी बढ़ती जाती है। सामान्यतः की गहराई पर 1 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ जाता है। इस दर से 50 कि०मी० की गहराई पर तापमान 1,200 डिग्री सेल्सियस से 1800 डिग्री सेल्सियस के बीच तथा पृथ्वी के धात्विक क्रोड पर 2 लाख डिग्री सेल्सियस होना चाहिए परन्तु वास्तव में यह सत्य नहीं है। अब वैज्ञानिकों का विचार है कि गहराई के साथ तापमान की वृद्धि की दर भी कम होती जाती है जो इस प्रकार है

  • धरातल से 100 कि०मी० की गहराई तक 12 डिग्री सेल्सियस प्रति कि०मी०
  • 100 कि०मी० से 300 कि०मी० तक 2 डिग्री सेल्सियस/प्रति कि०मी० और
  • 300 कि०मी० से नीचे 1 डिग्री सेल्सियस प्रति कि०मी०।

इस गणना के अनुसार धात्विक क्रोड का तापमान 2,000 डिग्री सेल्सियस है, परन्तु अनेक विद्वानों का मत है कि पृथ्वी के क्रोड में 6,000 डिग्री सेल्सियस तापमान होना चाहिए।

प्रश्न 5.
सीस्मोग्राफ क्या है? सीस्मोग्राफ के प्रयोग के उद्देश्यों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
सीस्मोग्राफ वह यन्त्र है जो भूकंपीय तरंगों तथा उनकी तीव्रता को मापता है। इस यन्त्र में एक सुई लगी होती है जो ग्राफ पेपर पर भूकंपीय तरंगों को रेखांकित करती है। सीस्मोग्राफ द्वारा रेखांकित भूकंपीय तरंगों के अध्ययन द्वारा विभिन्न चट्टानों के प्रकारों तथा संरचना का ज्ञान प्राप्त होता है। सीस्मोग्राफ भूकंप के उद्गम, भूकंपीय तरंगों की गति, मार्ग और तीव्रता का ज्ञान प्रदान करता है। सीस्मोग्राफ का प्रयोग पृथ्वी की आन्तरिक जानकारी, विभिन्न खनिज-पदार्थों तथा उनकी संरचना आदि की जानकारी के लिए किया जाता है। यदि पृथ्वी का आन्तरिक भाग कठोर है तो भूकंपीय तरंगों का व्यवहार तरल भाग की तुलना में भिन्न होगा।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए.
(1) सियाल
(2) साइमा
(3) निफे
(4) मैण्टल
(5) भू-पर्पटी।
उत्तर:
(1) सियाल (Sial) यह भू-पर्पटी का ऊपरी भाग है। इस परत में Silica (SI) और Aluminium (AI) अधिक मात्रा में पाए जाते हैं, जिससे इसका नाम Sial (SI+AL) पड़ गया। इसका औसत घनत्व 2.75 से 2.90 है। इस परत की मोटाई 8 कि०मी० से 100 कि०मी० तक है। इस परत में अम्लीय पदार्थ अधिक मात्रा में मिलते हैं। महाद्वीपों की रचना सियाल से हुई मानी जाती है।

(2) साइमा (Sima) सियाल के नीचे स्थित यह परत अपेक्षाकृत भारी शैलों से बनी है। इस परत में Silica (S1) तथा Magnesium (MA) की प्रधानता है। इसी कारण इसका नाम Sima (SI + MA) पड़ा। इस परत का औसत घनत्व 2.90 से 3.4 है। इस परत की मोटाई 100 कि०मी० से 2,900 कि०मी० तक है। महासागरों की तली भी इसी साइमा से बनी है।

(3) निफे (Nife)-साइमा परत के नीचे अन्तिम परत कठोर धातुओं से बनी है इसे निफे (Nife) परत कहते हैं। इसमें Fe = Ferrus (फेरस) की मात्रा अधिक है। लौह पदार्थों की अधिकता के कारण इसमें चुम्बकीय गुण है जिससे यह प्रत्येक वस्तु को पृथ्वी की ओर आकर्षित करती है। इस परत की मोटाई 2,900 से 4980 कि०मी० है।

(4) मैण्टल (Mantle)-यह परत भू-पर्पटी के नीचे स्थित है। इसकी मोटाई 2,900 कि०मी० है। भारी चट्टानों से बनी इस परत के ऊपरी भाग में तापमान 870° सेल्सियस व निचले भाग में 2,200° सेल्सियस रहता है। ऊपरी मैण्टल अपेक्षाकृत कम तप्त होने के कारण ठोस चट्टानों का बना है। यहाँ निचले मैण्टल की अपेक्षा दबाव भी कम है। अतः यहाँ पृथ्वी के भू-गर्भ से उठती हुई तप्त चट्टानें प्रायः पिघलकर मैग्मा बनाती हैं।

(5) भू-पर्पटी (Crust) यह पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत है, जो एक पतले आवरण की तरह पृथ्वी के आन्तरिक भाग को घेरे हुए है। भू-पर्पटी स्थलमण्डल (Lithosphere) का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी मोटाई हर जगह एक जैसी नहीं है। भू-पर्पटी की औसत मोटाई 60 कि०मी० है। यद्यपि इस बारे में विद्वानों की राय अलग-अलग है लेकिन यह सत्य है कि यदि पृथ्वी को एक अण्डा मान लिया जाए, तो भू-पर्पटी की तुलना उसके छिलके से की जा सकती है। भू-पर्पटी के दो भाग हैं सियाल तथा साइमा।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट कीजिए-
(1) P-तरंगें तथा S-तरंगें
(2) सियाल तथा निफे
(3) भू-पर्पटी तथा क्रोड
(4) गुटेनबर्ग असंतति तथा मोहोरोविसिक असंतति
(5) मैग्मा तथा लावा
उत्तर:
(1) P-तरंगों तथा S-तरंगों में अंतर निम्नलिखित हैं-

P-तरंगेंS-तारों
1. इन तरंगों के प्रभाव से पदार्थ आगे-पीछे हिलते हैं।1. इन तरंगों के प्रभाव से पदार्थों के कण गति की दिशा के लम्बवत् दाएँ-बाएँ या ऊपर-नीचे दोलन करते हैं।
2. P-तरंगें ध्वनि तरंगों के समान होती हैं। इनके कणों की गति तरंग की रेखा के सीध में होती है।2. S-तरंगें प्रकाश अथवा जल तरंगों के समान होती हैं जिनमें कणों की गति तरंग की दिशा के समकोण पर होती है।
3. ये तरंगें ठोस, तरल और गैसीय तीनों ही माध्यमों से गुज़र सकती हैं।3. ये तरंगें तरल भाग में प्राय: लुप्त हो जाती हैं।
4. इनका वेग 8 से 14 कि०मी० प्रति सैकिण्ड होता है।4. इनका वेग अपेक्षाकृत कम अर्थात् 4 कि०मी० प्रति सैकिण्ड होता है।

(2) सियाल तथा निफे में अंतर निम्नलिखित हैं-

सियालनिफ़े
1. सियाल भू-पर्पटी का ऊपरी भाग है।1. निफे साइमा परत के नीचे अन्तिम परत है।
2. इस परत में सिलिका और एल्यूमीनियम अधिक मात्रा में पाए जाते हैं।2. यह भाग कठोर धातुओं निकिल तथा फेरस (लोहा) आदि से निर्मित है।
3. इस परत की मोटाई 8 से 100 कि०मी० तक है।3. यंह 2,900 कि०मी० से पृथ्वी के केन्द्र तक (6,371 कि०मी०) विस्तृत है।

(3) भू-पर्पटी तथा क्रोड में अंतर निम्नलिखित हैं-

भू-पर्पटीक्रोड
1. यह पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत है जिसकी औसत मोटाई 60 कि०मी० है।1. यह पृथ्वी का केन्द्रीय भाग है जिसका विस्तार पृथ्वी की 2,900 कि०मी० की गहराई से पृथ्वी के केन्द्र $(6,371$ कि०मी०) तक है।
2. भू-पर्पटी के दो भाग हैं-सियाल और साइमा।2. क्रोड के भी दो भाग हैं-बाह्य क्रोड, आन्तरिक क्रोड।
3. भू-पर्पटी सिलिका, एल्यूमीनियम तथा मैग्नीशियम से बनी है।3. क्रोड की रचना निकिल तथा फेरस से हुई है।

(4) गुटेनबर्ग असंतति तथा मोहोरोविसिक असंतति में अंतर निम्नलिखित हैं-

गुट़नबर्ग असंततिमोहोरोविडिक असंतति
1. यह असंतति मैण्टल और क्रोड के बीच सीमा का कार्य करती है।1. यह असंतति भू-पर्पटी और मैण्टल के बीच सीमा का कार्य करती है।
2. इसका पता भूकंप वैज्ञानिक गुटेनबर्ग ने सन् 1926 में लगाया था।2. इसका पता यूगोस्लाविया के भूकंप वैज्ञानिक मोहोरोविसिक ने सन् 1909 में लगाया था।

(5) मैग्मा तथा लावा में निम्नलिखित अन्तर हैं-

मैग्मालावा
1. पृथ्वी के भीतरी भाग में पिघले हुए गर्म घोल को मैग्मा कहा जाता है।1. जब उद्भेदन के कारण मैग्मा धरती के बाहर आकर ठण्डा तथा ठोस रूप धारण कर लेता है, तो उसे लावा कहा जाता है।
2. यह पृथ्वी के भीतरी भागों में ऊपरी मैंटल में उत्पन्न होता है।2. यह पृथ्वी के धरातल पर वायुमण्डल के सम्पर्क से ठण्डा एवं ठोस होता है।
3. इसमें जल एवं अन्य गैसें भी मिली होती हैं।3. इसमें जल एवं गैसों के अंश नहीं होते।

प्रश्न 8.
भूकंप आने के कारणों को संक्षिप्त में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भूकंप निम्नलिखित कारणों से आते हैं-

  1. भू-प्लेटों का खिसकना-स्थलमण्डल भू-प्लेटों से बना है। इन प्लेटों के आपस में टकराने से भूकंप पैदा होते हैं।
  2. ज्वालामुखी क्रिया-पृथ्वी के अन्दर स्थित मैग्मा व गैसें जब प्रचण्ड वेग से भू-पटल पर आने का प्रयास करती हैं या बाहर आ जाती हैं तो चट्टानों में कम्पन आता है।
  3. भू-पटल का संकुचन-पृथ्वी के ऊपर की चट्टानें जब नीचे की ओर सिकुड़ती हुई चट्टानों से समायोजन करती हैं तो शैलों में आई अव्यवस्था के कारण भूकंप आते हैं।
  4. भू-सन्तुलन-ऊँचे उठे भू-भागों के अपरदन से उत्पन्न तलछट धीरे-धीरे समुद्री तली में निक्षेपित होने लगता है। इससे पृथ्वी का सन्तुलन भंग हो जाता है। अतः पुनः सन्तुलन प्राप्त करने की प्रक्रिया भूकंप को जन्म देती है।
  5. जलीय भार-बड़े-बड़े जलाशयों में जल एकत्रित करने से चट्टानों पर दबाव बढ़ता है। इसमें भू-सन्तुलन अस्थिर हो जाता है जिससे भूकंप आते हैं।
  6. गैसों का फैलाव पृथ्वी के भीतर की गर्मी से गैसें गरम होकर फैलती हैं जिससे चट्टानों पर दबाव बढ़ता है और उनमें कम्पन पैदा होता है।

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

प्रश्न 9.
क्या भूकंपों से किसी प्रकार का लाभ भी होता है? संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भूकंपों से कुछ लाभ भी हुआ करते हैं-

  1. भूकंपों के माध्यम से हमें पृथ्वी की आन्तरिक संरचना के बारे में जानकारी प्राप्त करने में मदद मिलती है।
  2. भूकंपीय बल से उत्पन्न भ्रंश और वलन अनेक प्रकार के भू-आकारों को जन्म देते हैं; जैसे पर्वत, पठार, मैदान और घाटियाँ आदि।
    भूकंप के समय भूमि के धंसने से झरनों और झीलों जैसे नए जलीय स्रोतों की रचना होती है।
  3. समुद्र तटीय भागों में आए भूकंपों के कारण कम गहरी खाड़ियों का निर्माण होता है जहाँ सुरक्षित पोताश्रय बनाए जा सकते हैं।
  4. भूकंपों का आर्थिक महत्त्व भी कम नहीं है। वर्तमान में भूकंपीय तरंगें परतदार चट्टानों की अपनतियों (Anticlines) में गैस व तेल
  5. भण्डार (Oil Traps) ज्ञात करने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन मानी जाती हैं। इसके अतिरिक्त भूकंप से हुई चट्टानों की उथल-पुथल में अनेक प्रकार के अन्य खनिज भी प्राप्त होते हैं।
  6. भूकंप से भू-स्खलन क्रिया होती है। इससे मृदा के निर्माण में सहायता मिलती है और कृषि को प्रोत्साहन मिलता है।

प्रश्न 10.
भूकंपों से बचने के प्रमुख उपाय सुझाइए।
उत्तर:
भूकंप कुदरत का एक ऐसा कहर है जिसे रोकना तो सम्भव नहीं, किन्तु संगठित प्रयासों से उसके विनाश को कम किया जा सकता है। भूकंप सैकड़ों वर्षों के विकास को क्षण भर में मिटा सकता है। अतः भूकंप के विरुद्ध एक नीतिगत रक्षा कवच बनाया जाना जरूरी है। इसके तहत न केवल भूकंपमापी केन्द्रों की संख्या बढ़ाई जाए, बल्कि भूकंप की सूचना को कारगर तरीके से आखिरी आदमी तक फैलाया जाए। संवेदनशील भूकंप क्षेत्रों में लोगों को भूकंप से पहले, उसके दौरान व बाद में उठाए जाने वाले कदमों का अभ्यास करवाते रहना चाहिए। वहाँ तरंगरोधी मकानों की योजना लागू करना जरूरी है। जापान ने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। भूकंप के विरुद्ध उपायों द्वारा इच्छारहित जन-धन की अपार हानि को कम किया जा सकता है।

प्रश्न 11.
किसी ज्वालामुखी घटना और भूकंप में आप क्या सम्बन्ध पाते हैं?
उत्तर:
ज्वालामुखी विस्फोटों और भूकंपों में प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। भूकंप-क्षेत्र तथा ज्वालामुखी क्षेत्र लगभग एक ही हैं। मुख्यतः भूकंप ज्वालामुखी क्षेत्रों में ही आते हैं। ज्वालामुखी उद्गार के समय भू-पटल पर अस्थिरता उत्पन्न हो जाती है। विस्फोट के समय भू-भाग झटके तथा धमाके के साथ नीचे गिरता है तथा भू-पटल पर झटके लगने लगते हैं। उदाहरण के लिए, सन् 1883 में जावा तथा सुमात्रा के मध्य क्राकाटोआ द्वीप पर भयंकर भूकंप ज्वालामुखी उद्गार के कारण आया जिसका प्रभाव 8,000 कि०मी० की दूरी तक था। इसके झटके दक्षिणी अमेरिका के केपहार्न तक महसूस किए गए।

प्रश्न 12.
ज्वालामुखी की परिभाषा दीजिए तथा चित्र की सहायता से इसके विभिन्न अंगों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
ज्वालामुखी एक आकस्मिक प्रक्रिया है जिसमें भू-गर्भ से मैग्मा, गैसें तथा चट्टानी चूर्ण विस्फोट के रूप में धरातल पर आता है। वारसेस्टर के अनुसार, “ज्वालामुखी वह क्रिया है जिसमें गरम पदार्थ की धरातल की तरफ या धरातल पर आने की सभी क्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं।” ज्वालामुखी के अंग-भू-तल पर जिस मुँह से मैग्मा, गैसें तथा विखण्डित पदार्थ बाहर निकलते हैं, उसे ज्वालामुखी छिद्र राख, गैसें, वाष्प, शिलाखंड (Volcanic Hole) कहते हैं।
HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना 1
इस छिद्र के चारों ओर निकली हुई ज्वालामुखी विवर सामग्री के जमा होने से ज्वालामुखी शंकु (Volcanic Cone) का निर्माण होता है। इस जमाव के बड़ा और ऊँचा होने पर शंकु पर्वत शिलाखंड गौण ज्वालामुखी लावा प्रवाह सामग्री का रूप धारण कर लेता है जिसे ज्वालामुखी पर्वत (Volcanic की परतें Mountain) कहते हैं। छिद्र से जुड़ी जिस प्राकृतिक नली से मैग्मा इत्यादि का निकास होता है, उसे ज्वालामुखी नली या चिमनी (Volcanic Chimney) कहा जाता है। चिमनी के ऊपर कटोरे मैग्मा चैंबर जैसी आकृति का एक घेरा बनता है जिसे क्रेटर या विवर (Crator) ज्वालामुखी की संरचना कहा जाता है। क्रेटर के अत्यधिक विस्तृत हो जाने पर उसे काल्डेरा (Caldera) कहते हैं। कई बार मैग्मा मुख्य नली के दोनों या एक ओर रन्ध्रों से होकर बाहर निकलता है और छोटे-छोटे शंकुओं का निर्माण करता है, इन्हें गौण शंकु (Secondary Cones) कहा जाता है।

प्रश्न 13.
भूमण्डलीय उष्मन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भूमण्डलीय उष्मन (Global Warming) का अर्थ है-पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि होना। जीवाश्म ईंधनों के . चलने (कोयला, तेल, गैस) के कारण, तीव्र शहरीकरण व औद्योगीकरण के कारण, अधिक परिवहन साधनों के प्रयोग, कृषि में अधिक पैदावार हेतु रासायनिक पदार्थों के अधिक प्रयोग तथा वनों की निरंतर कटाई से वायुमंडल के संघटन में एक असंतुलन उत्पन्न हो गया है। इन क्रियाओं के कारण हमारे वातावरण में कार्बन-डाइऑक्साइड गैस की मात्रा निरंतर बढ़ रही है। इससे पृथ्वी का तापमान निरंतर बढ़ रहा है। भूमण्डलीय उष्मन या ग्रीन हाउस प्रभाव से पृथ्वी का औसत तापमान 0.5°C बढ़ गया है। एक अनुमान के अनुसार सन् 2040 तक पृथ्वी के तापमान में 2°C की वृद्धि हो जाएगी। भूमण्डलीय उष्मन/ग्लोबल वार्मिंग के प्रमुख दुष्परिणाम इस प्रकार हैं

  • विश्व में औसत तापमान बढ़ने से हिमाच्छादित क्षेत्रों में हिमानियाँ पिघलेंगी।
  • समुद्र का जल-स्तर ऊँचा उठेगा जिससे तटवर्ती प्रदेश व द्वीप जलमग्न हो जाएँगे। करोड़ों लोग शरणार्थी बन जाएंगे।
  • वाष्पीकरण की प्रक्रिया तेज़ होगी। पृथ्वी का समस्त पारिस्थितिक तन्त्र प्रभावित होगा। शीतोष्ण कटिबन्धों में वर्षा बढ़ेगी और समुद्र से दूर उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा घटेगी।
  • आज के ध्रुवीय क्षेत्र पहले की तुलना में अधिक गर्म हो जाएँगे।
  • जलवायु के दो तत्त्वों तापमान और वर्षा में जब परिवर्तन होगा तो निश्चित रूप से धरातल की वनस्पति का प्रारूप बदलेगा।
  • हरित गृह प्रभाव के कारण कृषि क्षेत्रों, फसल प्रारूप तथा कृषि प्राकारिकी (Topology) में परिवर्तन होने की संभावना निश्चित है।

प्रश्न 14.
ज्वालामुखी उद्भेदन के प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
ज्वालामुखी उद्भेदन तीन प्रकार के होते हैं-
1. विस्फोटक अथवा केन्द्रीय उद्भेदन ज्वालामुखी का यह उद्भेदन किसी एक केन्द्रीय मुख से प्रचण्ड विस्फोटक ध्वनि, कम्पन और गड़गड़ाहट के साथ होता है। इसमें नुकीले शैलखण्डों की बारिश के साथ लावा निकलना आरम्भ होता है। इटली का एटना तथा विसुवियस और जापान का फ्यूज़ीयामा केन्द्रीय उद्भेदन वाले ज्वालामुखियों के उदाहरण हैं।

2. शान्त उदभेदन जब मैग्मा भू-पटल की मोटी परत को नहीं तोड़ पाता तो वह अन्य निर्बल एवं दरार वाले क्षेत्रों से बाहर निकलता है। इस प्रकार के उद्भेदन में भीषणता नहीं होती, इसी कारण इसे शान्त उद्भेदन कहते हैं। स्ट्रॉम्बोली, हवाई, आईसलैण्ड व समोआ के ज्वालामुखी शान्त उद्भेदन वाले ज्वालामुखियों के उदाहरण हैं।

3. दरारी उद्भेदन इस प्रकार के उद्भेदन में बेसाल्टी लावा किसी एक मुख से न निकलकर सैंकड़ों लम्बी-लम्बी दरारों से उबल-उबलकर निकल रहा होता है। दरारी उद्भेदन में न तो भीषणता होती है और न ही गैसें और चट्टानी पदार्थ निकलते हैं। इसमें अत्यन्त तरल लावा बाहर आकर एक मोटी परत के रूप में भूमि को ढक लेता है। दक्षिणी भारत का लावा पठार और संयुक्त राज्य अमेरिका का स्नेक नदी (Snake River) का प्रदेश दरारी उद्भेदन से बने हुए हैं।

प्रश्न 15.
ज्वालामुखी विस्फोट के आधार पर इसके प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विश्व में विभिन्न प्रकार के ज्वालामुखी पाए जाते हैं, परन्तु ज्वालामुखी विस्फोट के आधार पर इन्हें निम्नलिखित तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है-
1. सक्रिय ज्वालामुखी-इस प्रकार के ज्वालामुखी से जलवाष्प, गैसें, विखण्डित पदार्थ तथा लावा उद्गार के पश्चात् हमेशा प्रवाहित होता रहता है। विश्व में लगभग 522 सक्रिय ज्वालामुखी हैं। इटली का ‘एटना’ ज्वालामुखी तथा सिसली द्वीप का ‘स्ट्रॉम्बोली’ सक्रिय ज्वालामुखी के उदाहरण हैं।।

2. प्रसुप्त ज्वालामुखी-ऐसे ज्वालामुखी जिनमें एक बार उद्गार के पश्चात् वे कुछ समय या वर्षों के लिए शान्त हो जाते हैं, परन्तु इनसे पुनः विस्फोट होते हैं, प्रसुप्त ज्वालामुखी कहलाते हैं। ये ज्वालामुखी अधिक भयानक तथा हानिकारक होते हैं। इनसे . जन तथा धन की अपार हानि होती है। इसका मुख्य उदाहरण इटली का विसुवियस ज्वालामुखी है।

3. विलुप्त या शान्त ज्वालामुखी विलुप्त ज्वालामुखी वे ज्वालामुखी हैं जो पूर्ण रूप से ठण्डे हो चुके हैं। इनके द्वारा अभी तक विस्फोट नहीं हुआ। जर्मनी का ऐफिल पर्वत तथा म्यांमार (बर्मा) का पोपा ज्वालामुखी इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

प्रश्न 16.
भूकंप क्षेत्रों के विश्व वितरण के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
अधिकांश भूकंप नवीन वलितदार पर्वतों के सहारे एवं समुद्र तटों पर पाए जाते हैं। भूकंपों और ज्वालामुखियों का वितरण मिलता-जुलता है।
1. प्रशान्त महासागरीय परिमेखला-विश्व के लगभग 68 प्रतिशत भूकंप प्रशान्त महासागर के तटीय भागों में आते हैं। इस पेटी को ‘अग्नि वलय’ (Ring of Fire) कहते हैं। यहाँ ज्वालामुखी के उद्भेदन तथा स्तर अंश की संयुक्त प्रक्रिया के फलस्वरूप भीषण भूकंप आते हैं। इस पेटी में चिली, कैलिफोर्निया, अलास्का, जापान, फ़िलीपीन्स तथा मध्य महासागरीय भाग आते हैं।

2. मध्य महाद्वीपीय पेटी विश्व के लगभग 21 प्रतिशत भूकंप इसी पेटी में आते हैं। मैक्सिको से आरम्भ होकर यह पेटी अन्धमहासागर, भूमध्य सागर, आल्पस तथा काकेशस से होती हुई हिमालय क्षेत्र तथा उसके निकटवर्ती भागों में फैली हुई है।

3. अन्य क्षेत्र-शेष 11 प्रतिशत भूकंप उपर्युक्त दो पेटियों से बाहर यहाँ-वहाँ पाए जाते हैं। कुछ भूकंप पूर्वी अफ्रीका की महान् भ्रंश घाटी क्षेत्र, लाल सागर तथा मृत सागर वाली भ्रंश पेटी में आते हैं।

प्रश्न 17.
उद्गम-केन्द्र और अधिकेन्द्र से क्या अभिप्राय है?
अथवा
उद्गम केन्द्र या भूकंप केन्द्र और अधिकेन्द्र के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
भूकंप एक प्राकृतिक घटना है जो भूपटल में हलचल उत्पन्न कर देती है। जिस बिन्दु या केन्द्र पर भूकंप उत्पन्न होता है, उसके चारों ओर भूकंप की लहरें फैलती हैं। अधिकांश भूकंप भू-गर्भ में उत्पन्न होते हैं।
HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना 3
जिस केन्द्र या बिन्दु से भूकंप की लहरें उत्पन्न होती हैं, उसे उद्गम-केन्द्र या भूकंप-केन्द्र कहते हैं। इसको अवकेंद्र भी कहते हैं। अधिकांश भूकंपों की गहराई 50 कि०मी० से 100 कि०मी० तक होती है तथा पातालीय भूकंप की गहराई लगभग 700 कि०मी० तक उद्गम केंद्र होती है। उद्गम-केन्द्र के ठीक ऊपर धरातल पर जो बिन्दु या स्थान स्थित होता है, उसे अधिकेन्द्र (Epicentre) कहते हैं। धरातल पर भूकंप मूल (उद्गम केंद्र) और अधिकेंद्र सर्वप्रथम इसी केन्द्र पर भूकंप के झटके महसूस किए जाते हैं तथा सबसे अधिक कम्पन इसी केन्द्र पर अनुभव किया जाता है।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पृथ्वी की आन्तरिक परतों या भागों का वर्णन कीजिए।
अथवा
पृथ्वी की संरचना का वर्णन करें।
अथवा
पृथ्वी की भूपर्पटी, मैंटल व क्रोड का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भूकंपीय तरंगों का आचरण बताता है कि हमारी पृथ्वी एक गठा हुआ पिण्ड (Solid Mass) नहीं है। इसके आन्तरिक भाग की रचना प्याज जैसी है, जिसमें पहली परत के नीचे दूसरी परत व दूसरी के नीचे तीसरी परत अथवा केन्द्र में धात्विक क्रोड है। भूकंपीय तरंगों की सहायता से इन परतों की सही स्थिति, मोटाई, गहराई तथा भौतिक व रासायनिक संरचना की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। ये परतें हैं
1. भू-पर्पटी (Crust) यह पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत है, जो एक पतले आवरण की तरह पृथ्वी के आन्तरिक भाग को घेरे हुए है। भू-पर्पटी स्थलमण्डल (Lithosphere) का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी मोटाई हर जगह एक-जैसी नहीं है। भू-पर्पटी की औसत मोटाई 60 कि०मी० है, यद्यपि इस बारे में विद्वानों की राय अलग-अलग है लेकिन यह सत्य है कि यदि पृथ्वी को एक अण्डा मान लिया जाए, तो भू-पर्पटी की तुलना उसके छिलके से की जा सकती है।
HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना 2
भू-पर्पटी के दो भाग हैं
(i) सियाल (Sial)-यह भू-पर्पटी का ऊपरी भाग है। इस परत में Silica (SI) और Aluminium (AL) अधिक मात्रा में पाए जाते हैं, जिससे इसका नाम Sial (SI + AL) पड़ गया। इसका औसत घनत्व 2.75 से 2.90 है। महाद्वीपों की रचना सियाल से हुई मानी जाती है।
HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना 4

(ii) साइमा (Sima)-सियाल के नीचे स्थित यह परत अपेक्षाकृत भारी शैलों से बनी है। इस परत में Silica (SI) तथा Magnesium (MA) की प्रधानता है। इसी कारण इसका नाम Sima (SI + MA) पड़ा। इस परत का औसत घनत्व 2.90-3.4 है। महासागरों की तली भी इसी साइमा से बनी है। यद्यपि सियाल और साइमा दोनों का आयतन पृथ्वी के कुल आयतन का लगभग 0.5 प्रतिशत है। फिर भी यह हमारे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यही प्रकृति और मनुष्य दोनों का कर्मक्षेत्र है।

(2) मैण्टल (Mantle) यह परत भू-पर्पटी के नीचे स्थित है। इसकी मोटाई 2,900 कि०मी० है। भारी चट्टानों से बनी इस परत के ऊपरी भाग में तापमान 870° सेल्सियस व निचले भाग में 2,200° सेल्सियस रहता है। ऊपरी मैण्टल अपेक्षाकृत कम तप्त होने के कारण ठोस चट्टानों का बना है। यहाँ निचले मैण्टल की अपेक्षा दबाव भी कम है। अतः यहाँ पृथ्वी के भू-गर्भ से उठती हुई तप्त चट्टानें प्रायः पिघलकर मैग्मा बनाती हैं।

भू-पर्पटी और मैण्टल के बीच मोहो अथवा मोहोरोविसिक असंतति (Mohorovicic Discontinuity) पाई जाती है। मोहो भू-पर्पटी को मैण्टल से अलग करने वाले स्पष्ट आकार को कहते हैं। भूकंपीय तरंगों के वेग के आधार पर मैण्टल को तीन भागों में बाँटा जाता है-

  • मोहो असंतति से 200 कि०मी० की गहराई तक
  • 200 कि०मी० से 700 कि०मी० की गहराई तक तथा
  • 700 कि०मी० से क्रोड की साइमा तक।

पृथ्वी के आन्तरिक भाग में होने वाली अदृश्य घटनाओं में मैण्टल की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इसी से संवहन धाराएँ (Convectional Currents) निकलती हैं, जो महाद्वीपीय विस्थापन, भूकंप तथा ज्वालामुखी आदि के लिए ऊर्जा प्रदान करती हैं।

(3) क्रोड (Core) यह पृथ्वी का केन्द्रीय भाग है, जिसका विस्तार 2,900 कि०मी० की गहराई से पृथ्वी के केन्द्र (6,371 कि०मी०) तक है। क्रोड का आरम्भ गुटेनबर्ग असंतति (Gutenberg Discontinuity) से होता है। यह असंतति मैण्टल और क्रोड के बीच का कार्य करती है। क्रोड के दो भाग माने जाते हैं-

  • बाह्य क्रोड
  • आन्तरिक क्रोड।

बाह्य क्रोड सम्भवतः द्रव अथवा अर्ध-द्रव अवस्था में है। यह 2,900 कि०मी० से 5,150 कि०मी० की गहराई तक विस्तृत है। इसका घनत्व 5 है। आन्तरिक क्रोड ठोसावस्था में है। यह 5,150 कि०मी० से केन्द्र तक (6,371 कि०मी०) विस्तृत है।

क्रोड का आयतन पृथ्वी के आयतन का 16 प्रतिशत है। इसकी रचना भारी खनिज पदार्थों Nickel (Ni) तथा Ferrus (Fe) से होने के कारण इसे निफे (Nife) कहा जाता है। इसका कुल द्रव्यमान (Mass) 32 प्रतिशत है।

प्रश्न 2.
पृथ्वी की आन्तरिक बनावट की जानकारी किन-किन स्रोतों से प्राप्त होती है? इस सम्बन्ध में विभिन्न प्रमाणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पृथ्वी की आन्तरिक बनावट की जानकारी देने वाले प्रमुख स्रोत व उनके प्रमाण निम्नलिखित हैं
1. घनत्व पर आधारित प्रमाण-पृथ्वी का औसत घनत्व 5.517 (ग्राम घन सेंटीमीटर) है। इसका तात्पर्य यह है कि पृथ्वी का भार अपने समान आकार वाले जलपिण्ड (Water body) से 5.5 गुना अधिक है। पृथ्वी के ऊपरी भाग में बिछी परतदार चट्टानों का घनत्व केवल 2.7 (ग्राम घन सेंटीमीटर) है जबकि इससे नीचे स्थित आग्नेय शैलों से बनी परत का घनत्व 3.0 से 3.5 (ग्राम घन सेंटीमीटर) तक ही है। इस आधार पर पृथ्वी के भीतरी भागों का घनत्व ऊपरी भागों की अपेक्षा अधिक होना चाहिए। इससे यह प्रमाणित होता है कि पृथ्वी के अंतरतम का घनत्व सर्वाधिक है।

2. दबाव पर आधारित प्रमाण-पृथ्वी में गहराई के साथ बढ़ते घनत्व के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों के दो मत हैं। एक मत के अनसार पृथ्वी के आन्तरिक भाग का अधिक घनत्व इसकी बाहरी परतों के भार अथवा दबाव के कारण है। इससे यह प्रमाणित होता है कि पृथ्वी के क्रोड का अत्यधिक घनत्व वहाँ स्थित दबाव के कारण है। किन्तु आधुनिक प्रयोगों ने सिद्ध कर दिया है कि हर शैल में एक साइभा के बाद घनत्व बढ़ना बन्द हो जाता है, दबाव चाहे कितना ही बढ़ जाए। अतः बढ़ा हुआ दबाव चट्टानों को ठोसावस्था में नहीं रख पाता। इस आधार पर दूसरे मत के अनुसार पृथ्वी का क्रोड धातु से बना है, जिसके भार के कारण यहाँ घनत्व अधिक है।

3. तापमान पर आधारित प्रमाण-पृथ्वी के भीतर जाने पर तापमान बढ़ता जाता है। इस बात की पुष्टि ज्वालामुखी विस्फोटों तथा गरम जल के झरनों से होती है। गहरी खानों और गहरे कुओं से भी यही साबित होता है कि धरती में नीचे जाने पर गर्मी बढ़ती जाती है। इस गर्मी व तापमान में वृद्धि के कई कारण हैं; जैसे

  • रासायनिक प्रतिक्रियाएँ (Chemical Reactions)
  • आन्तरिक शक्तियाँ (Internal Forces)
  • रेडियोधर्मी पदार्थों का स्वतः विखण्डन (Self Disintegration of Radioactive Minerals)

सामान्यतः प्रत्येक 32 मीटर की गहराई पर 1 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ जाता है। अब वैज्ञानिकों का विचार है कि गहराई के साथ तापमान की वृद्धि की दर भी कम होती जाती है जो इस प्रकार है

  • धरातल से 100 कि०मी० की गहराई तक 12 डिग्री सेल्सियस प्रति कि०मी०
  • 100 कि०मी० से 300 कि०मी० तक 2 डिग्री सेल्सियस प्रति कि०मी० और
  • 300 कि०मी० से नीचे 1 डिग्री सेल्सियस प्रति कि०मी०।

इस गणना के अनुसार धात्विक क्रोड का तापमान 2,000 डिग्री सेल्सियस है परन्तु अनेक विद्वानों का मत है कि पृथ्वी के क्रोड में 6,000 डिग्री सेल्सियस तापमान होना चाहिए। इतने अधिक तापमान में क्रोड के पदार्थ ठोसावस्था में नहीं रह सकते। अतः वे तरल या गैसीय अवस्था में होंगे।

पृथ्वी के तरल अथवा गैसीय होने की भी सम्भावना प्रतीत नहीं होती क्योंकि इससे अनेक भू-गर्भिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं। उपर्युक्त व्याख्या से स्पष्ट होता है कि घनत्व, दबाव और तापमान के आधार पर पृथ्वी की बनावट के बारे में कोई निश्चित प्रमाण एकत्रित नहीं किए जा सके हैं। वूलरिज़ तथा मॉर्गन ने पृथ्वी की आन्तरिक भौतिक अवस्था के सम्बन्ध में निम्नलिखित तीन निष्कर्ष निकाले हैं

  • अत्यधिक तापमान के बावजूद धात्विक क्रोड की तरल चट्टानें भारी दबाव के कारण ठोस पदार्थों जैसा आचरण करती हैं।
  • ये चट्टानें प्लास्टिक अवस्था में हैं, जिनमें लचीलापन है। अतः दबाव के कारण 2,900 कि०मी० की गहराई तक ठोस प्रतीत होती हैं।
  • आन्तरिक सतह का कुछ भाग दबाव के घटने या तापमान के बढ़ने से तरल हो सकता है, जिससे ज्वालामुखी क्रिया का आविर्भाव हो सकता है।

4. उल्कापिण्डों पर आधारित प्रमाण-अन्तरिक्ष से भू-तल पर गिरने वाले उल्कापिण्डों से भी हमें भू-गर्भ को जानने में सहायता मिलती है। सौरमण्डल का सदस्य होने के कारण उल्कापिण्डों और पृथ्वी की रचना में समानता पाई जाती है। इनके अध्ययन से दो बातों का अनुमान लगाया जा सकता है-प्रथम, पृथ्वी में भी उल्कापिण्डों के समान प्याज की परतों जैसी संकेन्द्रीय (Concentric) परतें पाई जाती हैं। द्वितीय, उल्कापिण्डों के निर्माण में लोहा तथा निकिल की प्रधानता इंगित करती है कि पृथ्वी का केन्द्रीय भाग भी ऐसी भारी धातुओं से बना हुआ होगा।

5. भूकंपीय तरंगों पर आधारित प्रमाण-
(1) ये तरंगें भूकंप केन्द्र से सीधी दिशा में न चलकर टेढ़े मार्ग को अपनाती हैं। इसका कारण यह है कि घनत्व में आने वाली भिन्नता के कारण तरंगें परावर्तित होकर वक्राकार हो जाती हैं। इससे प्रमाणित होता है कि पृथ्वी के भीतर घनत्व में भिन्नता है।

(2) पृथ्वी के क्रोड में S-तरंगों का पूर्णतया अभाव है। इससे यह प्रमाणित होता है कि भू-गर्भ का आन्तरिक भाग तरलावस्था में है क्योंकि S-तरंगें तरल भाग में लुप्त हो जाती हैं, यह क्रोड 2,900 कि०मी० की गहराई में केन्द्र के चारों ओर विस्तृत है। ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी के क्रोड का लोहा तथा अन्य धातु तरलावस्था में तो हैं किन्तु उनका व्यवहार ठोस जैसा है।

(3) भूकंप केन्द्र से 11,000 कि०मी० के बाद लगभग 5,000 कि०मी० का क्षेत्र ऐसा है जहाँ कोई भी तरंग नहीं पहुँचती, इस क्षेत्र को छायामण्डल कहते हैं। छायामण्डल का होना साबित करता है कि पृथ्वी का आन्तरिक भाग भारी धातुओं से बना हुआ है, इसे धात्विक क्रोड (Metallic core) भी कहते हैं।

प्रश्न 3.
विभिन्न प्रकार की भूकंपीय तरंगें पृथ्वी की आन्तरिक परतों के स्वभाव की भिन्नता की जानकारी किस प्रकार देती हैं?
अथवा
भूकंपीय तरंगों के बारे में संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
भूकंपीय तरंगों को सीस्मोग्राफ यन्त्र द्वारा रेखांकित किया जाता है। इन तरंगों से पृथ्वी की आन्तरिक बनावट के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। भूकंप के दौरान अग्रलिखित तीन प्रकार की भूकंपीय तरंगें पैदा होती हैं
(1) P-तरंगें इन्हें प्राथमिक (Primary) अथवा अनुदैर्ध्य तरंगें भी कहते हैं। विशेषताएँ-

  • इन तरंगों के प्रभाव से पदार्थ आगे-पीछे हिलते हैं।
  • P-तरंगें ध्वनि तरंगों के समान होती हैं। इनके कणों की गति तरंग की रेखा की सीध में होती है।
  • ये तरंगें किसी भी स्थान पर सबसे पहले पहुँचती हैं।
  • ये ठोस, तरल और गैसीय तीनों ही माध्यमों से गजर सकती हैं।
  • पृथ्वी के क्रोड से केवल यही तरंगें ही निकल सकती हैं, बाकी नहीं। इनका वेग 8 से 14 कि०मी० प्रति सैकिण्ड होता है। ये सबसे तेज चलती हैं।
  • शैलों का घनत्व बदलने पर P-तरंगों का वेग भी बदल जाता है।
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(2) S-तरंगें इन्हें गौण (Secondary) अथवा अनुप्रस्थ तरंगें भी कहते हैं। विशेषताएँ-

  • इन तरंगों के प्रभाव से पदार्थों के कण गति की दिशा के लम्बवत् दाएँ-बाएँ या ऊपर-नीचे दोलन करते हैं।
  • S-तरंगें-प्रकाश अथवा जल तरंगों के समान होती हैं, जिनमें कणों की गति तरंग की दिशा के समकोण पर होती है, इसलिए इन्हें आड़ी तरंगें भी कहते हैं।
  • ये तरंगें तरल भाग में प्रायः लुप्त हो जाती हैं।
  • इनका वेग प्राथमिक तरंगों के वेग से कम अर्थात् 4 कि०मी० प्रति सैकिण्ड होता है।
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(3) L-तरंगें इन्हें धरातलीय या लम्बी तरंगें (Long waves) भी कहा जाता है। विशेषताएँ-

  • ये अत्यधिक प्रभावशाली तरंगें होती हैं।
  • इनकी गति यद्यपि कम (3.5 कि०मी० प्रति सैकिण्ड) होती है, फिर भी ये सबसे लम्बा मार्ग तय करती हैं।
  • ये तरंगें भयंकर होती हैं जो ठोस, तरल और गैस-तीनों माध्यमों से गुज़र सकती हैं।
  • ये तरंगें मुख्यतः धरातल तक ही सीमित रहती हैं।
  • भूकंपों में होने वाली जन व धन की सबसे ज्यादा बर्बादी इन्हीं तरंगों से होती है।

भूकंपीय तरंगों का स्वभाव/व्यवहार-

  • सभी भूकंपीय तरंगों की गति अधिक घनत्व वाले क्षेत्र में तेज और कम घनत्व वाले क्षेत्र में कम हो जाती है।
  • भ्रमण पथ पर घनत्व में अन्तर आते ही ये तरंगें सीधी रेखा में न चलकर टेढ़े रूप में चलने लगती हैं। इसे तरंगों का परावर्तन (Reflection) और आवर्तन (Refraction) कहते हैं।।
  • केवल प्राथमिक तरंगें (P-Waves) ही पृथ्वी के केन्द्रीय भाग से गुज़र सकती हैं।
  • गौण तरंगें (S-Waves) द्रव (Liquid) पदार्थों में से नहीं गुज़र सकतीं।
  • धरातलीय तरंगें (L-Waves) केवल धरातल के पास ही चलती हैं, यद्यपि वे ठोस, तरल और गैस तीनों माध्यमों से गुज़र सकती हैं।

प्रश्न 4.
भूकंप की परिभाषा देते हुए इसके कारणों पर प्रकाश डालिए।
अथवा
भूकंप किसे कहते हैं? यह कैसे उत्पन्न होता है?
उत्तर:
भूकंप का अर्थ व परिभाषा (Meaning and Definition of Earthquake)-भूकंप का तात्पर्य पृथ्वी का काँपना अथवा हिलना है। जब किसी भू-गर्भिक हलचलों के कारण पृथ्वी अचानक काँप उठती है तो उसे भूकंप कहते हैं। .. सेलिसबरी के अनुसार, “भूकंप वे धरातलीय कम्पन हैं जो व्यक्ति से असम्बन्धित क्रियाओं के परिणामस्वरूप होते हैं।”

भूकंप के कारण (Cause of Earthquake)-भूकंप सम्बन्धी जानकारी के बारे में हमारा ज्ञान अभी तक अपूर्ण है, परन्तु वर्तमान वैज्ञानिकों के अनुसार भूकंप आने के कारण निम्नलिखित हैं
1. ज्वालामुखी क्रिया (Volcanic Process)-ज्वालामुखी उद्गार का भूकंप से गहरा सम्बन्ध है। जब ज्वालामुखी विस्फोट में लावा तथा अन्य पदार्थ बड़ी तीव्र गति से धरातल पर आते हैं तो आस-पास की चट्टानों में कम्पन उत्पन्न हो जाता है। उदाहरण के लिए, जावा तथा सुमात्रा के मध्य क्राकोटोआ द्वीप पर भयंकर भूकंप ज्वालामुखी उद्गार के कारण आया।

2. वलन तथा भ्रंश (Folding and Faulting)-भू-पटल पर दबाव तथा तनाव के कारण चट्टानों में वलन तथा भ्रंश पड़ जाते हैं जिससे आस-पास का क्षेत्र काँप उठता है। उदाहरण के लिए, सन् 1950 में असम राज्य में वलन तथा भ्रंश के कारण ही भूकंप उत्पन्न हुआ जिसमें 1,500 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। अक्तूबर, 1991 में उत्तरकाशी में आने वाला भूकंप वलन तथा भ्रंशन का ही परिणाम था।

3. पृथ्वी का सिकुड़ना (Contraction of Earth)-पृथ्वी अपनी उत्पत्ति के समय से निरन्तर ठण्डी हो रही है। धरातलीय भागों के सिकुड़ने से धरातल की चट्टानों में अव्यवस्था के कारण कम्पन उत्पन्न हो जाता है तथा भूकंप आते हैं।

4. भू-सन्तुलन में अव्यवस्था (Imbalancing of Earth)-पृथ्वी में कहीं-न-कहीं चट्टानों में अव्यवस्था आती रहती है तथा सन्तुलन बिगड़ जाता है जिससे भूकंप की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए 4 मार्च, 1949 को हिन्दूकुश पर्वत पर सन्तुलन अव्यवस्था के कारण भूकंप आया।

5. जलीय भार (Water Weight)-भूगोल-वेत्ताओं के अनुसार धरातल पर झीलों तथा तालाबों में पानी के भार के कारण भूकंप की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए 11 दिसम्बर, 1967 में महाराष्ट्र में कोयना में आने वाला भूकंप कोयना बाँध के निर्माण के कारण आया।

6. अन्य कारण (Other Reasons) भूकंप के कुछ कारण ऐसे भी हैं जो मानव-निर्मित या कृत्रिम हैं और जिनका प्रभाव-क्षेत्र सीमित होता है। इनमें परमाणु परीक्षण, रेलों के चलने तथा पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कों के निर्माण के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले विस्फोटकों के कारण भी आस-पास का क्षेत्र काँप उठता है।

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

प्रश्न 5.
भूकंप के विनाशकारी एवं लाभकारी प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भूकंप के विनाशकारी प्रभाव भूकंप के विनाशकारी प्रभाव निम्नलिखित हैं-
1. भूकंप से अपार जन तथा धन की हानि होती है। 11 दिसम्बर, 1967 में कोयना भूकंप द्वारा सड़कें तथा बाजार वीरान हो गए, हरे-भरे खेत ऊबड़-खाबड़ हो गए तथा हजारों व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। अक्तूबर, 1991 में उत्तर काशी तथा सन् 1992 में उस्मानाबाद और लाटूर के भूकंपों में हज़ारों व्यक्तियों की मृत्यु हो गई तथा करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति नष्ट हो गई।

2. भूकंप के कारण कई बार नदियाँ अपना मार्ग बदल लेती हैं तथा उनमें बाढ़ आ जाती है। सन् 1950 में असम में ब्रह्मपुत्र में भूकंप के कारण ही बाढ़ आई थी।

3. भूकंप के द्वारा भू-स्खलन (Landslides) के कारण बड़े-बड़े शिलाखण्ड टूटकर नदियों के मार्ग में अवरोधक बन जाते हैं और बाढ़ आने का खतरा उत्पन्न हो जाता है।

4. भूकंप के कारण धरातल पर बड़ी-बड़ी दरारें पड़ जाती हैं। सन् 1966 में कैलिफोर्निया में सैंकड़ों कि०मी० विशाल भ्रंश का निर्माण हुआ।

5. भूकंप के कारण समुद्रों में ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं जिससे जलयानों तथा तटीय क्षेत्रों की अपार हानि होती है।

6. भूकंप के कारण चट्टानों की रगड़ से जंगलों में आग लग जाती है जिससे प्राकृतिक वनस्पति तथा जीव-जन्तुओं की अपार हानि होती है।

भूकंप के लाभकारी प्रभाव-भूकंप के कारण धरातल पर कुछ लाभकारी प्रभाव भी पड़ते हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  • भूकंप से भू-स्खलन की प्रक्रिया होती है जिससे कई बार धरातल पर ऊपजाऊ मिट्टी ऊपर आ जाती है।
  • भूकंप से धरातल पर जो वलन तथा भ्रंश होते हैं उनसे कई नए जल-स्रोतों का जन्म होता है।
  • भूकंप के द्वारा कई बार जलमग्न भाग समतल धरातल में परिवर्तित हो जाते हैं जो कृषि के लिए लाभदायक होते हैं।
  • भूकंप से जो दरारें तथा भ्रंश पड़ते हैं, उनसे कई खनिजों को ढूँढने में की जाने वाली खुदाई आसानी से हो जाती है।
  • भूकंपीय तरंगों से भू-गर्भ की आवश्यक जानकारी प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
  • भूकंपों के कारण तटीय क्षेत्रों में गहरी खाड़ियाँ बन जाती हैं जहाँ सुरक्षित प्राकृतिक जलपोत बनते हैं।
  • भूकंप से कई स्रोतों (Springs) की उत्पत्ति होती है जिनमें स्नान करने से चर्म रोग ठीक हो जाते हैं।
  • भूकंप से नए पठारों, द्वीपों तथा झीलों का निर्माण होता है।

प्रश्न 6.
ज्वालामुखी का अर्थ बताते हुए इसके कारणों की व्याख्या कीजिए तथा इनके विश्व-वितरण पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
ज्वालामुखी का अर्थ (Meaning of Volcano)-ज्वालामुखी भू-तल पर घटने वाली आकस्मिक और भयानक घटना है। मोंकहाऊस के शब्दों में, “ज्वालामुखी धरातल के वे छिद्र हैं जिनसे भू-गर्भ का मैग्मा आदि पदार्थ उद्गार के रूप में बाहर निकलता है।” ट्रिवार्था के अनुसार, “वे सभी प्रक्रियाएँ जिनसे द्रवित चट्टानें पृथ्वी की गहराई से भू-पटल के बाहर निकलती हैं, ज्वालामुखी क्रिया (Volcanicity) कहलाती हैं।”

ज्वालामुखी उद्गार के कारण (Causes of Volcano Origin) ज्वालामुखी उद्गार के निम्नलिखित कारण होते हैं
1. भू-गर्भ में तापमान की वृद्धि-पृथ्वी के भू-गर्भ में अत्यधिक तापमान है। पृथ्वी के आन्तरिक भाग में 32 मीटर की गहराई में जाने पर 1 सेल्सियस तापमान बढ़ जाता है तथा भू-गर्भ में रेडियो-एक्टिव खनिजों से तापमान में वृद्धि होती है। धरातल की चट्टानों का बढ़ता हुआ दबाव भी तापक्रम में वृद्धि करता है इसलिए भू-गर्भ अत्यन्त तप्त तथा गरम है। इसलिए भू-गर्भ में चट्टानें पिघल जाती हैं जिससे आयतन में वृद्धि हो जाती है और वह तरल पदार्थ पृथ्वी की कमजोर पपड़ी को तोड़कर धरातल पर विस्फोट के रूप में आता है।

2. गैसों की उत्पत्ति धरातल का पानी छिद्रों तथा प्लेटों के किनारे से रिसकर भू-गर्भ में जाता है जिससे गैसों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि भू-गर्भ के अत्यन्त गरम होने के कारण जब उसमें पानी पहुँचता है तो वह जलवाष्प में बदल जाता है जिससे आयतन तथा दबाव में वृद्धि हो जाती है और वह जलवाष्प गैसों के रूप में कमजोर धरातल को तोड़कर विस्फोट उत्पन्न करता है।

3. दुर्बल भू-भागों का होना दुर्बल भू-भागों में किसी आन्तरिक हलचल के कारण शैलें आसानी से टूट जाती हैं और दरारों की रचना होती है जिनसे ज्वालामुखी उद्गार होता है।

4. भूकंप-भूकंप भू-पटल की चट्टानों में उपस्थित सन्तुलन में विकार आने से आते हैं। इससे चट्टानों में भ्रंश या दरारें प हैं। इन दुर्बल क्षेत्रों से गैसें व वाष्प मैग्मा के लिए बाहर आने का रास्ता बनाती हैं। अतः भूकंप और ज्वालामुखी में चोली-दामन का साथ होता है।

ज्वालामुखियों का विश्व वितरण-विश्व में लगभग 522 सक्रिय ज्वालामुखी हैं। अधिकांश ज्वालामुखी तटीय या महासागरीय क्षेत्रों तथा द्वीपों पर स्थित हैं। अधिकतर ज्वालामुखी भूकंप पेटियों के आस-पास मिलते हैं। कुछ ज्वालामुखी नवीन वलित पर्वतों के निकट भी स्थित हैं। ज्वालामुखी अग्रलिखित पेटियों में पाए जाते हैं-
1. परिप्रशान्त महासागरीय पेटी-विश्व के अधिकांश सक्रिय ज्वालामुखी इसी पेटी में स्थित हैं। यह पेटी इण्डोनेशिया के जावा, सुमात्रा से आरम्भ होकर उत्तर:पूर्व में फिलीपाइन, फारमोसा, जापान तथा कमचटका से होती हुई अलास्का से दक्षिणी अमेरिका तक चली जाती है। यहाँ प्रत्येक प्रकार के ज्वालामुखी स्थित हैं। विश्व के दो-तिहाई ज्वालामुखी इसी पेटी में स्थित हैं।

2. मध्य महाद्वीपीय पेटी-यह पेटी यूरोप तथा एशिया के मध्य पश्चिम से पूर्व में फैली हुई है। पश्चिम में यह पेटी कनारी द्वीप से आरम्भ होकर भूमध्य सागर, काकेशस, आरमीनिया, ईरान, इराक, अफ़गानिस्तान, ब्लूचिस्तान, भारत में हिमालय, म्यांमार (बा) में अराकानयोमा से होती हुई दक्षिण में इण्डोनेशिया तक फैली हुई है। इटली तथा सिसली द्वीप समूह के ज्वालामुखी भी इसी पेटी में स्थित हैं।

3. अन्ध महासागरीय पेटी-इस महासागर में मध्य अटलांटिक कटक के साथ-साथ ज्वालामुखियों का विस्तार है। यहाँ सबसे अधिक ज्वालामुखी आयरलैण्ड में हैं। एजोर तथा सेण्ट हेलना द्वीपों के ज्वालामुखी भी इसी पेटी में सम्मिलित हैं।

4. अन्य क्षेत्र-उपरोक्त तीन पेटियों के अतिरिक्त महासागरों, महाद्वीपों तथा द्वीपों में भी छुटपुट ज्वालामुखी पाए जाते हैं जो अण्टार्कटिक महाद्वीप में रास सागर, हिन्द महासागर में मैडागास्कर के आस-पास कमोटो, मॉरीशस तथा रीयूनियन द्वीपों पर स्थित हैं।

प्रश्न 7.
ज्वालामुखी से आप क्या समझते हैं? ज्वालामुखी द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों का वर्णन करें।
अथवा
ज्वालामुखी से निर्मित भू-आकारों/स्थलाकृतियों का सचित्र विवरण दीजिए।
उत्तर:
ज्वालामुखी एक आकस्मिक प्रक्रिया है जिसमें भू-गर्भ से मैग्मा, गैसें तथा चट्टानी चूर्ण विस्फोट के रूप में धरातल पर आता है। वारसेस्टर के अनुसार, “ज्वालामुखी वह क्रिया है जिसमें गरम पदार्थ की धरातल की तरफ या धरातल पर आने की सभी क्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं।” ज्वालामुखी से निःसृत पदार्थ निम्नलिखित भू-आकृतियों की रचना करते हैं-
I. ऊँचे उठे भाग (Elevated Landscape)-
1. सिडर अथवा राख शंकु (Cinder or Ash Cone)-सिंडर शंकु का निर्माण प्रायः विस्फोटीय ज्वालामखी से होता है। इन शंकुओं की रचना असंगठित पदार्थों; जैसे धूल, राख तथा हवा में उड़े हुए लावा के छोटे टुकड़ों के ठोस होकर गिरने से होता है। विशेष बात यह है कि सिंडर शंकु के निर्माण में तरल लावे का अवतल ढाल योगदान नहीं होता। आरम्भ में राख शंकु चींटी के ढेर के समान छोटे से बनते हैं, धीरे-धीरे इनका आकार बढ़ता जाता है। ये अपनी रचना में पूर्ण शंकु होते हैं और इनकी ऊँचाई 300 मीटर से अधिक धरातल नहीं होती। इन शंकुओं के किनारे अवतल (Concave) ढाल वाले सिंडर अथवा राख शंकु होते हैं। सिंडर शंकु की ढाल 30 से 40 डिग्री होती है। मैक्सिको तथा हवाई द्वीप समूह में ऐसे अनेक शंकु पाए जाते हैं।
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2. अम्लीय लावा शंकु अथवा गुम्बद (Acid Lava Cone or Dome) ये शंकु अम्ल लावा से बनते हैं जिसका उद्भेदन गाढ़ा, चिपचिपा लावा अत्यधिक विस्फोटक ढंग से होता है। इस लावा में सिलिका का अंश अधिक होता है। अधिक गाढ़ा और चिपचिपा होने के कारण यह लावा अधिक दूर तक नहीं बह पाता। अतः यह लावा भू-गर्भ से निकलते ही ज्वालामुखी के आस-पास जम जाता है। इससे संकीर्ण धरातल और उत्तल ढाल वाले शंकुनुमा गुम्बद की रचना होती है। सिसली का अम्लीय लावा शंकु अथवा गुंबद स्ट्रॉम्बोली ज्वालामुखी गुम्बद शंकु का प्रमुख उदाहरण है।
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3. पैठिक लावा शंकु अथवा लावा शील्ड (Basic Lava Cone or Lava Shield)-पैठिक लावा में सिलिका का अंश कम होता है। यह लावा अति गरम, तरल और हल्का होता है जिस कारण यह अधिक दूरी तक फैल जाता है। शान्त उभेदन (Effusive Eruption) से निकला यह लावा विस्तृत क्षेत्रों पर कम ऊँचे और मन्द ढाल वाले शंकु का निर्माण करता है। इसका आधार शील्ड की तरह होने के कारण इसे शील्ड शंकु भी कहा जाता है। हवाई अति तरल लावा से बनी द्वीप समूह का मोनालोआ (Mauna Loa) ज्वालामुखी पैठिक लावा विवर विस्तृत शीट. शंकु का मुख्य उदाहरण है। भारत का दक्षिणी पठार और संयुक्त राज्य अमेरिका का कोलम्बिया पठार लावा शील्डों के उदाहरण हैं।
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4. मिश्रित शंकु (Composite Cone)-मिश्रित शंकुओं का निर्माण तरल लावा और राख आदि अन्य ज्वालामुखी पदार्थों के बारी-बारी परतों में जमने से होता है। अपनी सुन्दर और स्पष्ट परतों के कारण इन्हें परतदार शंकु (Strato-Cones) भी कहा जाता है। विश्व के सबसे ऊँचे और विशाल ज्वालामुखी पर्वत मिश्रित शंकुओं का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं; जैसे जापान का फ्यूज़ीयामा, संयुक्त राज्य अमेरिका के माऊण्ट शस्ता, रेनियर तथा हुड, फिलीपाइन्स का मेयॉन और सिसली का स्ट्रॉम्बोली आदि। मिश्रित शंकुओं के अत्यधिक विस्तृत हो जाने पर इनकी ढलानों पर कई छोटी उपनलियों द्वारा उपशंकु बन जाते हैं, जिन्हें परजीवी शंकु (Parasite Cones) कहा जाता है।
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5. घोंसलादार शंकु (Nested Cone) कई बार पहले से बने हुए ज्वालामुखी शंकु के अन्दर एक या कई और शंकुओं का निर्माण हो जाता है। इन्हें शंकुस्थ शंकु (Cone in Cone) भी कहते हैं। इटली का विसुवियस ज्वालामुखी घोंसलादार शंकु का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
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6. ज्वालामुखी डाट या प्लग (Volcanic Plug)-मिश्रित शंकु वाले ज्वालामुखी के शान्त होने पर उनकी नली में रुका हुआ न हो चुका भाग लावा जमकर ठोस रूप धारण कर लेता है। शंकु का निर्माण करने अपरदित भाग वाले अन्य ज्वालामुखी पदार्थों की अपेक्षा यह लावा अधिक कठोर और प्रतिरोधी (Resistant) होता है। अनाच्छादन के द्वारा शंकु के अधिकांश भाग का अपरदन हो जाने के बाद भी नली की ठोस चट्टान ज्वालामुखी डाट बची रहती है, जिसे डाट कहा जाता है। इसे ज्वालामुखी ग्रीवा अपरदन से अब तक बचा हुआ भाग (Volcanic Neck) भी कहते हैं। इसकी औसत ऊँचाई 600 मीटर और व्यास 300 से 600 मीटर तक पाया जाता है। अमेरिका का डेविल टावर (Devil Tower) व ब्लैक हिल्स तथा फ्राँस का पाई द डोम (Puy de Dome) ज्वालामुखी डाट के उत्तम उदाहरण हैं।
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II. नीचे फँसे भाग (Depressed Landscape)-
1. क्रेटर झील (Crater Lake)-ज्वालामुखी छिद्र के चारों ओर बनी कीप जैसी आकृति वाला गर्त क्रेटर कहलाता है। ज्वालामुखी के शान्त होने जल – पर यह क्रेटर वर्षा के जल से भर जाता है। इस प्रकार बनी झील को क्रेटर झील कहा जाता है। भारत में महाराष्ट्र की लोनार झील, उत्तरी सुमात्रा की टोबा झील (Toba Lake) व अमेरिका में ओरेगान (Oregan) की झील क्रेटर झील क्रेटर झीलों के प्रसिद्ध उदाहरण हैं।
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2. काल्डेरा (Caldera) स्पेनिश भाषा में काल्डेरा ‘कड़ाहा’ को कहते हैं। अत्यन्त तीव्र और भयंकर विस्फोट के परिणामस्वरूप ज्वालामुखी की संरचना कमजोर पड़ जाती है जिससे शंकु का ऊपरी भाग धमाके से हवा में उड़ जाता है। उद्भेदन के समाप्त होने पर ज्वालामुखी का बहुत-सा भाग नीचे के मैग्मा कुण्ड में भर-भरा कर गिर जाता है। इस प्रकार बना गर्त काल्डेरा कहलाता है। यह क्रेटर से बहुत बड़ा होता है। काल्डेरा का मुँह कई किलोमीटर चौड़ा होता है। विश्व का सबसे बड़ा काल्डेरा जापान का आसो (Aso) है जिसकी अधिकतम चौड़ाई 27 किलोमीटर व घेरा 112 किलोमीटर है।

प्रश्न 8.
ज्वालामुखियों के लाभ तथा हानियों का वर्णन करें।
अथवा
ज्वालामुखी मानव-जीवन पर अपना प्रभाव कैसे दर्शाते हैं? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भ-गर्भ से उत्पन्न होने वाली इस विस्मयकारी प्रक्रिया ने मानव-जीवन को बहत प्रभावित किया है। ज्वालामुखी के लाभ-ज्वालामुखी से होने वाले लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) लावा चट्टानों के अपक्षय से उपजाऊ मिट्टी का निर्माण होता है जो कपास, गन्ना, तम्बाकू, गेहूँ जैसी अनेक फसलों के लिए लाभदायक होती है। दक्षिणी भारत का काली मिट्टी का प्रदेश तथा अमेरिका के वाशिंगटन प्रदेश की मिट्टियाँ लावा से बनी होने के कारण उपजाऊ हैं।

(2) ज्वालामुखी उद्भेदन से निकली उपजाऊ राख का विस्तृत क्षेत्रों पर निक्षेपण खेतों और बगीचों के लिए उपयोगी होता है।

(3) लावा और मैग्मा के जमाव से अनेक भू-आकारों की रचना होती है।

(4) ज्वालामुखी उद्भेदन से बनी आग्नेय चट्टानों में अनेक प्रकार के बहुमूल्य खनिज संचित होते हैं। लावा से बना होने के कारण भारत का दक्षिणी पठार खनिजों का भण्डार कहलाता है। इसी प्रकार स्वीडन के किसना (Kiruna) क्षेत्र में लोहे की खानें पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त ज्वालामुखी से गन्धक, बोरिक एसिड व प्यूमिस (Pumice) जैसे पदार्थ भी यहाँ से प्राप्त होते हैं।

(5) ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाए जाने वाले धुआरों (Fumaroles) से अनेक प्रकार की गैसें और वाष्य प्राप्त किए जाते हैं। अलास्का के कटमई ज्वालामुखी क्षेत्र में विशाल मात्रा में निकली गैसों से बने दृश्य को ‘Valley of Ten Thousand Smokes’ कहा जाता है।

(6) ज्वालामुखी पर्वतों के पास गरम जल के चश्मे (Hot Springs) पाए जाते हैं। इन चश्मों के जल में गन्धक का अंश होता है जिसमें नहाने से गठिया और चर्म रोगों का इलाज होता है। आईसलैण्ड में ऐसे सैकड़ों चश्में हैं जिनका प्रयोग खाना पकाने, घर व दफ्तर गरम रखने, वस्त्र धोने आदि में होता है।

(7) ज्वालामुखी प्रदेशों से निकलने वाली ऊँचे तापमान की भाप को संचित करके उससे भूतापीय विद्युत् का निर्माण किया जाता है। न्यूज़ीलैण्ड, इटली व आईसलैण्ड जैसे कई देश इस ऊर्जा का निर्माण और उपयोग कर रहे हैं।

(8) बेसाल्ट और ग्रेनाइट जैसी आग्नेय चट्टानों का भवन निर्माण में प्रयोग बढ़ रहा है।

(9) क्रेटर और काल्डेरा झीलों से खेतों की सिंचाई की जाती है। ये झीलें कई बार नदियों का उद्गम स्रोत बनती हैं। उदाहरणतः, मिस्र की नील नदी ऐसी ही एक झील विक्टोरिया से निकली है।

(10) ज्वालामुखी झीलें, शंकु, गीज़र, गरम जल के चश्मे आदि सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों की रचना करते हैं। इन्हें देखने पर्यटक दूर-दूर से आते हैं। इन पर्यटकों को ज्वालामुखी बम व सिंडर आदि अद्भुत पदार्थ बेचे जाते हैं। इससे पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिलता है। एटना, माउण्ट रेनियर, विसुवियस, फ्यूज़ीयामा, माउण्ट लैसेन पर्यटन की महत्त्वपूर्ण मंजिलें मानी जाती हैं।

(11) ज्वालामुखी क्रिया पृथ्वी के इतिहास व उसकी बनावट को समझने में मदद करती है।

(12) ज्वालामुखी प्राकृतिक सुरक्षा वाल्व (Safety Valves) का कार्य करते हैं जिनके माध्यम से खौलता हुआ मैग्मा व भारी दबाव वाली गैसें निकलती रहती हैं।

ज्वालामुखी की हानियाँ-ज्वालामुखी से होने वाली हानियाँ निम्नलिखित हैं-
(1) ज्वालामुखी विस्फोट प्रायः विनाशकारी होते हैं। 600 से 1200 डिग्री सेल्सियस तापमान वाला दहकता हुआ लावा जिस ओर बह निकलता है, सब कुछ भस्म करता चलता है।

(2) ज्वालामुखी पदार्थ न केवल सैकड़ों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को उजाड़ बना देते हैं, अपितु भारी जन-धन का भी विनाश करते हैं। आज तक लाखों लोग और जीव-जन्तु ज्वालामुखियों की भेंट चढ़ चुके हैं।

(3) विस्फोटक ज्वालामुखी अनेक गाँवों, नगरों व सभ्यताओं को मिटाकर राख कर देते हैं। उदाहरणतः इटली के विसुवियस ज्वालामुखी के उद्भेदन से पोम्पियाई (Pompeii) व हरकुलेनियस नगर देखते-ही-देखते 20 से 50 फुट मोटी लावा परत के नीचे दबकर समाप्त हो गए।

(4) ज्वालामुखी से निकली जहरीली गैसों व विखण्डित पदार्थों से पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता है। सन् 1982 में अलास्का के एल चिचोन (El Chichon) ज्वालामुखी से निकली सल्फरयुक्त गैसों ने सारे विश्व की जलवायु को प्रभावित किया था।

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HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

Haryana State Board HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Geography Solutions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

HBSE 11th Class Geography पृथ्वी की आंतरिक संरचना Textbook Questions and Answers

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में से कौन भूगर्भ की जानकारी का प्रत्यक्ष साधन है?
(A) भूकंपीय तरंगें
(B) गुरुत्वाकर्षण बल
(C) ज्वालामुखी
(D) पृथ्वी का चुंबकत्व
उत्तर:
(C) ज्वालामुखी

2. दक्कन ट्रैप की शैल समूह किस प्रकार के ज्वालामुखी उद्गार का परिणाम है?
(A) शील्ड
(B) मिश्र
(C) प्रवाह
(D) कुंड
उत्तर:
(C) प्रवाह

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3. निम्नलिखित में से कौन-सा स्थलमंडल को वर्णित करता है?
(A) ऊपरी व निचला मैंटल
(B) भूपटल व क्रोड
(C) भूपटल व ऊपरी मैंटल
(D) मैंटल व क्रोड
उत्तर:
(C) भूपटल व ऊपरी मैंटल

4. निम्न में भूकंप तरंगें चट्टानों में संकुचन व फैलाव लाती हैं?
(A) ‘P’ तरंगें
(B) ‘S’ तरंगें
(C) धरातलीय तरंगें
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(A) ‘P’ तरंगें

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
भूगर्भीय तरंगें क्या हैं?
उत्तर:
भूगर्भीय तरंगें उद्गम केंद्र से ऊर्जा मुक्त होने के दौरान पैदा होती हैं और पृथ्वी के अंदरूनी भाग से होकर सभी दिशाओं की तरफ आगे बढ़ती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं। इन्हें ‘P’ तरंगें और ‘S’ तरंगें भी कहा जाता है।

  • ‘P’ तरंगें इन्हें प्राथमिक तरंगें भी कहा जाता है। ये तरंगें तीव्र गति से चलने वाली तरंगें होती हैं जो धरातल पर सबसे पहले पहुँचती हैं।
  • ‘S’ तरंगें इन्हें द्वितीयक तरंगें भी कहा जाता है। ये तरंगें धरातल पर कुछ समय के अंतराल के बाद पहुँचती हैं।

प्रश्न 2.
भूगर्भ की जानकारी के लिए प्रत्यक्ष साधनों के नाम बताइए।
उत्तर:
(1) भूगर्भ की जानकारी का सबसे आसानी से उपलब्ध ठोस पदार्थ धरातलीय चट्टानें हैं। ये चट्टानें हमें खनन प्रक्रिया द्वारा प्राप्त होती हैं। खनन प्रक्रिया द्वारा हम भूगर्भ में स्थित जानकारियाँ प्राप्त कर सकते हैं।

(2) खनन के अलावा भू-वैज्ञानिक दो मुख्य परियोजनाओं पर भी काम कर रहे हैं जोकि इस प्रकार हैं-

  • गहरे समुद्र में प्रवेधन परियोजना
  • समन्वित महासागरीय प्रवेधन परियोजना

(3) ज्वालामुखी उद्गार भी प्रत्यक्ष जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

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प्रश्न 3.
भूकंपीय तरंगें छाया क्षेत्र कैसे बनाती हैं?
उत्तर:
ऐसे क्षेत्र को भूकंपीय छाया क्षेत्र कहा जाता है जहाँ कोई भी भूकंपीय तरंगें अभिलेखित नहीं होती। वैज्ञानिकों के अनुसार भूकंप अधिकेन्द्र से 105° और 145° के बीच का क्षेत्र दोनों (S या P) तरंगों का छाया क्षेत्र होगा।

105° के परे क्षेत्र में ‘S’ तरंगें नहीं पहुँचतीं। ‘P’ तरंगों का छाया क्षेत्र एक पट्टी के रूप में पृथ्वी के चारों तरफ फैला है, ‘S’ तरंगों का छाया क्षेत्र विस्तार में बड़ा अर्थात् पृथ्वी के 40 प्रतिशत भाग से भी अधिक है।
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प्रश्न 4.
भूकंपीय गतिविधियों के अतिरिक्त भूगर्भ की जानकारी संबंधी अप्रत्यक्ष साधनों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
पदार्थ के गुणधर्म के विश्लेषण से पृथ्वी के आंतरिक भाग की अप्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त होती है। पृथ्वी की आंतरिक जानकारी के अप्रत्यक्ष साधन उल्काएँ हैं, जो कभी-कभी धरती पर पहुँच जाती हैं। इन्हीं ठोस उल्काओं से हमारी पृथ्वी का गठन हुआ है। गुरुत्वाकर्षण तथा चुबकीय स्रोतों का अध्ययन करना भी अप्रत्यक्ष साधनों के अंतर्गत आता है।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
भूकंपीय तरंगों के संचरण का उन चट्टानों पर प्रभाव बताएँ जिनसे होकर ये तरंगें गुजरती हैं।
उत्तर:
भूकंपीय तरंगें दो प्रकार की होती हैं-भूगर्भिक तरंगें व धरातलीय तरंगें। भूगर्भिक तरंगों और धरातलीय शैलों के मध्य अन्योय क्रिया के कारण कई तरंगें उत्पन्न होती हैं। अलग-अलग घनत्व वाले पदार्थों से गुजरने के कारण इन तरंगों के वेग में परिवर्तन आता रहता है। इन परिवर्तनों के कारण परावर्तन (Reflection) एवं आवर्तन (Refraction) होता है, जिस कारण तरंगों की दिशा में बदलाव आता रहता है।

भिन्न-भिन्न प्रकार की भूकंपीय तरंगों के संचरित होने की प्रणाली भी भिन्न-भिन्न होती है, जैसे ही ये संचरित होती हैं, तो शैलों में कंपन पैदा होती है। ‘P’ तरंगें-‘P’ तरंगों से कंपन की दिशा तरंगों की दिशा के समानांतर ही होती है। ये तरंगें संचरण गति की दिशा में ही पदार्थ पर दबाव डालती हैं। इसके फलस्वरूप पदार्थ के घनत्व में भिन्नता आती है और शैलों में संकुचन व फैलाव की प्रक्रिया पैदा होती है।

‘S’ तरंगें-ये तरंगें ऊर्ध्वाधर तल में तरंगों की दिशा के समकोण पर कंपन पैदा करती हैं। ये तरंगें जिस पदार्थ से गुजरती हैं, उसमें उभार व गर्त बनाती हैं। ये तरंगें सबसे अधिक विनाशकारी समझी जाती हैं।

प्रश्न 2.
अंतर्वेधी आकृतियों से आप क्या समझते हैं? विभिन्न अंतर्वेधी आकृतियों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
अंतर्वेधी आकृति (Intrusive Landform)-ज्वालामुखी उद्गार से जो लावा निकलता है, उसके ठंडा होने से आग्नेय शैल बनती है और जब लावा भूपटल के भीतर ही ठंडा हो जाता है तो कई आकृतियाँ बनती हैं इन्हें ही अंतर्वेधी आकृतियाँ कहते हैं।

विभिन्न अंतर्वेधी आकृति (Various Intrusive Landform)-विभिन्न अंतर्वेधी आकृतियाँ इस प्रकार हैं-
1. बैथोलिथ (Batholiths) यदि मैग्मा का बड़ा पिंड भूपर्पटी में अधिक गहराई पर ठंडा हो जाए तो एक गुंबद के आकार में विकसित हो जाता है, इसे ही बैथोलिथ कहते हैं। ये अनाच्छादन प्रक्रियाओं के द्वारा ऊपरी पदार्थ के हटने पर धरातल पर उभर आते हैं। ये ग्रेनाइट के बने पिंड होते हैं।

2. लैकोलिथ (Lacoliths)-ये गंबदनुमा विशाल चट्टानें हैं, जिनका तल समतल व एक पाइपरूपी वाहक-नली से नीचे से जडा होता है और गहराई में पाया जाता है। इनक कृति धरातल पर पाए जाने वाले मिश्रित ज्वालामुखी के गुंबद से मिलती है।

3. लैपोलिथ, फैकोलिथ व सिल (Lapoliths, Phacoliths and sills) ऊपर उठते लावा का कुछ भाग क्षैतिज दिशा में पाए जाने वाले कमजोर धरातल में चला जाता है और यहाँ यह अलग-अलग आकृतियों में जम जाता है। यदि यह तश्तरी के आकार में जम जाए तो लैपोलिथ कहलाता है। यदि यह लहरदार आकृति में जम जाए तो फैकोलिथ कहलाता है।

अंतर्वेधी आग्नेय चट्टानों का क्षैतिज तल में एक चादर के रूप में ठंडा होना सिल या शीट कहलाता है। जमाव की मोटाई के आधार पर इन्हें विभाजित किया जाता है। कम मोटाई वाली जमाव को “शीट” व घने मोटाई वाले जमाव को “सिल” कहा जाता है।

4. डाइक (Dyke)-जब लावा का प्रवाह दरारों में धरातल के लगभग समकोण होता है और यदि इसी अवस्था में ठण्डा हो जाए तो दीवार की भाँति संरचना बनती है। यही संरचना डाइक कहलाती है। ज्वालामुखी उद्गार से बने दक्कन ट्रेप इसी प्रकार की स्थलाकृति के उदाहरण हैं।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना HBSE 11th Class Geography Notes

→ भू-पर्पटी (Crust of the Earth) यह अवसादी शैलों से बने धरातलीय आवरण के नीचे पृथ्वी की सबसे बाहरी परत है, जो लगभग 5 से 50 किलोमीटर चौड़ी है। इस पतली परत की तुलना अण्डे के छिलके से की जा सकती है।

→ श्यानता (Viscosity)-किसी तरल पदार्थ का वह गुण जो इसके तत्त्वों के आन्तरिक घर्षण के कारण इसे धीरे बहने देता है। एस्फाल्ट, लाख, शहद, लावा इत्यादि ऐसे ही विस्कासी पदार्थ हैं।

→ उल्कापिण्ड (Meteorites)-उल्का का वह हिस्सा जो अपने बड़े आकार के कारण या कम वेग के कारण पृथ्वी के वायुमंडल में आते हुए घर्षण से पूरी तरह जल नहीं पाता और पृथ्वी तल पर आ गिरता है। अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर गिरने वाले ऐसे पिण्डों को उल्कापिण्ड कहते हैं। वायुमंडल में पहुंचने से पहले उल्का को उल्काभ कहते हैं।

→ स्थलमंडल (Lithosphere)-वायुमण्डल और जलमंडल से भिन्न भू-पर्पटी का वह भाग, जो सियाल, साइमा तथा ऊपरी मैंटल के कुछ भाग से मिलकर बना है, उसे स्थलमंडल कहते हैं।

→ तरंगदैर्ध्य (Wave Length)-किसी एकांतर तरंग (Alternating wave) के क्रमिक समान बिंदुओं के बीच की दूरी तरंगदैर्ध्य कहलाती है। उदाहरणतः दो समुद्री तरंगों के शीर्षों के बीच की दूरी।

HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना

→ गुरुमंडल (Barysphere)-पृथ्वी के अभ्यंतर का वह सारा भाग, जो स्थलमंडल के नीचे है। इसमें क्रोड, मैंटल तथा दुर्बलतामंडल (Asthenosphere) तीनों शामिल होते हैं। केवल क्रोड या मैंटल को गुरुमंडल नहीं कहना चाहिए।

→ पटलविरूपणी बल (Diastrophic Forces)-पृथ्वी के भीतर होने वाली वे धीमी, किंतु दीर्घकालीन हलचलें जो भू-पटल में विक्षोभ, मुड़ाव, झुकाव व टूटन (Fracture) लाकर धरातल पर विषमताएं लाती हैं, उन्हें पटलविरूपणी बल कहा जाता है। इन बलों से महाद्वीप बनते हैं।

→ सुनामी (Tsunamis) भूकंप-जनित समुद्री लहरों के लिए सारे संसार में प्रयुक्त किया जाने वाला सुनामी एक जापानी शब्द है, जिसका अर्थ है-Great Harbour Wave भूकंप, विशेष रूप से समुद्री तली पर पैदा होने वाले भूकंप, 15 मीटर या इससे ऊंची लहरों को जन्म देते हैं, जिसकी गति 640 से 960 किलोमीटर प्रति घंटा होती है। सुनामी बहुत दूर तक जा सकती हैं और तटों पर विनाशलीला करती हैं। सुनामी भूकंपों के साथ-साथ विस्फोटक ज्वालामुखी से भी पैदा होती हैं; जैसे क्राकाटोआ (1883) ज्वालामुखी से सुनामी उत्पन्न हुई थी। ऐसी तरंगों को ज्वारीय तरंगें कहना सर्वथा गलत है।

→ प्रशांत अग्नि वलन (Pacific Ring of Fire)-प्रशांत महासागर के पूर्वी और पश्चिमी तटों पर दुर्बल भू-पटल के कारण वहां अधिकतर होने वाली ज्वालामुखी क्रिया और भूकंपों के आगमन के कारण इस क्षेत्र को प्रशांत अग्नि वलय कहा जाता है।

→ भूकंप मूल (Seismic Focus) पृथ्वी के अन्दर वह स्थान जहाँ भूकंप उत्पन्न होता है अर्थात् जहाँ से ऊर्जा निकलती है, भूकंप का उद्गम केन्द्र या भूकंप मूल कहलाता है।

→ अधिकेन्द्र (Epicentre)-धरातल का वह बिन्दु जो उद्गम केन्द्र के सबसे निकट होता है अर्थात् जहाँ भूकंपीय तरंगें सबसे पहले पहुँचती हैं, अधिकेन्द्र कहलाता है।

→ भूकंपलेखी (Seismograph or Seismometre)-भूकंपीय तरंगों को दर्ज (Record) करने वाला स्वचालित यंत्र भूकंपलेखी कहलाता है।

→ समभूकंप रेखाएँ (Iso-seismal lines) समान तीव्रता अथवा आघात वाली भूकंप-रेखाओं को समभूकंप रेखाएँ कहते हैं।

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HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास

Haryana State Board HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Geography Important Questions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

भाग-I : सही विकल्प का चयन करें-

1. सौरमण्डल में कितने ग्रह हैं?
(A) 8
(B) 7
(C) 9
(D) 11
उत्तर:
(A) 8

2. सौरमण्डल का सबसे बड़ा ग्रह कौन-सा है?
(A) बृहस्पति
(B) शनि
(C) मंगल
(D) शुक्र
उत्तर:
(A) बृहस्पति

3. सौरमण्डल का सबसे छोटा ग्रह कौन-सा है?
(A) बुध
(B) शुक्र
(C) शनि
(D) बृहस्पति
उत्तर:
(A) बुध

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास

4. निम्नलिखित में से चन्द्रमा एक है
(A) नीहारिका
(B) क्षुद्रग्रह
(C) उपग्रह
(D) ग्रह
उत्तर:
(C) उपग्रह

5. सूर्य का निकटतम ग्रह कौन-सा है?
(A) शुक्र
(B) बुध
(C) मंगल
(D) पृथ्वी
उत्तर:
(B) बुध

6. निम्नलिखित में से पार्थिव ग्रह नहीं है-
(A) बुध
(B) मंगल
(C) शनि
(D) शुक्र
उत्तर:
(C) शनि

7. सूर्य से अधिकतम दूरी पर कौन-सा ग्रह है?
(A) शनि
(B) बुध
(C) नेप्च्यून
(D) यूरेनस
उत्तर:
(C) नेप्च्यून

8. चन्द्रमा किस ग्रह का प्राकृतिक उपग्रह है?
(A) शुक्र
(B) बुध
(C) पृथ्वी
(D) मंगल
उत्तर:
(C) पृथ्वी

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास

9. पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित नीहारिका परिकल्पना किसने प्रस्तुत की?
(A) लाप्लेस ने
(B) काण्ट ने
(C) प्लूटो ने
(D) जेम्स जीन्स ने
उत्तर:
(A) लाप्लेस ने

10. सौरमण्डल का जनक माना जाता है-
(A) बोने ग्रह को
(B) प्राक्रतिक उपग्रह को
(C) तारों को
(D) नीहारिका को
उत्तर:
(D) नीहारिका को

भाग-II : एक शब्द या वाक्य में उत्तर दें

प्रश्न 1.
आधुनिक समय में ब्रह्मांड की उत्पत्ति संबंधी सर्वमान्य सिद्धांत का नाम क्या है?
उत्तर:
बिग बैंग सिद्धांत।

प्रश्न 2.
बिग बैंग की घटना कब हुई?
उत्तर:
आज से 13.7 अरब वर्षों पहले।

प्रश्न 3.
प्रकाश की गति कितनी है?
उत्तर:
3 लाख कि०मी० प्रति सैकेंड।

प्रश्न 4.
‘प्रकाश वर्ष’ किस इकाई का मापक है?
उत्तर:
खगोलीय दूरी का।

प्रश्न 5.
पृथ्वी की उत्पत्ति के बारे में प्रारंभिक मत किस दार्शनिक ने दिया?
उत्तर:
इमैनुअल कान्ट।

प्रश्न 6.
सूर्य का निकटतम ग्रह कौन-सा है?
उत्तर:
बुध।

प्रश्न 7.
पृथ्वी की सूर्य से औसत दूरी कितनी है?
उत्तर:
14 करोड़, 95 लाख, 98 हजार कि०मी०।

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प्रश्न 8.
पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित ‘नीहारिका परिकल्पना’ किसने प्रस्तुत की?
उत्तर:
लाप्लेस ने।

प्रश्न 9.
पृथ्वी की उत्पत्ति कब हुई?
उत्तर:
लगभग 460 करोड़ वर्ष पूर्व।

प्रश्न 10.
पृथ्वी पर जीवन लगभग कितने वर्ष पूर्व विकसित हुआ?
उत्तर:
लगभग 380 करोड़ वर्ष पूर्व।

प्रश्न 11.
श्रेष्ठ ग्रह किन्हें कहा जाता है?
उत्तर:
बाहरी ग्रहों को श्रेष्ठ ग्रह कहा जाता है।

प्रश्न 12.
पहले पृथ्वी किस अवस्था में थी?
उत्तर:
तरल अवस्था में।

प्रश्न 13.
लाप्लेस ने ‘नीहारिका संकल्पना’ कब प्रस्तुत की?
उत्तर:
लाप्लेस ने ‘नीहारिका संकल्पना’ सन् 1796 में प्रस्तुत की।

प्रश्न 14.
ग्रहों के आकार, रचक सामग्री तथा तापमान में अन्तर क्यों पाया जाता है?
उत्तर:
सूर्य से सापेक्षिक दूरी के कारण।

प्रश्न 15.
पृथ्वी का औसत घनत्व कितना है?
उत्तर:
5.517 ग्राम प्रति घन सें०मी०।

प्रश्न 16.
पृथ्वी के एकमात्र उपग्रह का क्या नाम है?
उत्तर:
चंद्रमा।

प्रश्न 17.
सूर्य केन्द्रित परिकल्पना को प्रस्तुत करने वाले प्राचीन भारतीय विद्वान् का नाम बताइए।
उत्तर:
आर्यभट्ट।

प्रश्न 18.
तुच्छ ग्रह (Inferior Planets) किन्हें कहा जाता है?
उत्तर:
आन्तरिक ग्रहों को तुच्छ ग्रह कहा जाता है।

प्रश्न 19.
उस पौधे का नाम लिखिए जिसके जीवाश्म सभी महाद्वीपों में मिलते हैं।
उत्तर:
ग्लोसोपैट्रिस।

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प्रश्न 20.
सौरमण्डल के एक बाहरी ग्रह का नाम लिखें।
उत्तर:
बृहस्पति।

प्रश्न 21.
सौरमण्डल के एक आन्तरिक/भीतरी ग्रह का नाम लिखें।
उत्तर:
पृथ्वी।

प्रश्न 22.
पृथ्वी के कितने उपग्रह हैं?
उत्तर:
पृथ्वी का एक ही उपग्रह है।

प्रश्न 23.
जलीय ग्रह (Watery Planet) किसे कहा जाता है?
उत्तर:
पृथ्वी को।

प्रश्न 24.
पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति इसके निर्माण के कौन-से चरण में हुई?
उत्तर:
पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति इसके निर्माण के अंतिम चरण में हुई।

प्रश्न 25.
पृथ्वी अथवा चन्द्रमा में से आयु में कौन छोटा है?
उत्तर:
दोनों की आयु बराबर है क्योंकि दोनों की रचना एक ही समय हुई थी।

प्रश्न 26.
चंद्रमा की उत्पत्ति कब हुई?
उत्तर:
लगभग 4.4 अरब वर्षों पहले।

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भू-केन्द्रित (Geo-Centric) परिकल्पना से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भू-केन्द्रित परिकल्पना का अर्थ है कि पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केन्द्र है और सूर्य, चन्द्रमा तथा ग्रह इत्यादि आकाशीय पिण्ड पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं।

प्रश्न 2.
सूर्य-केन्द्रित (Helio-Centric) सौरमण्डल का क्या अर्थ है?
उत्तर:
इसका अर्थ यह है कि सौरमण्डल का केन्द्र सूर्य है। सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं।

प्रश्न 3.
सौरमण्डल आंतरिक या पार्थिव ग्रह कितने हैं? उनके नाम लिखिए।
उत्तर:
सौरमण्डल आंतरिक या पार्थिव ग्रह चार हैं-बुध, शुक्र, पृथ्वी एवं मंगल।

प्रश्न 4.
सौरमण्डल में कुल कितने ग्रह हैं? उनके नाम लिखिए।
उत्तर:
हमारे सौरमण्डल में 8 ग्रह हैं-बुध, शुक्र, पृथ्वी और मंगल बृहस्पति, शनि, अरुण एवं वरुण।

प्रश्न 5.
सौरमण्डल के बाहरी या जोवियन ग्रहों के नाम लिखिए।
उत्तर:
बृहस्पति, शनि, अरुण (Uranus) तथा वरुण (Neptune)।

प्रश्न 6.
मन्दाकिनी क्या होती है? हमारी मन्दाकिनी का नाम बताइए।
उत्तर:
लाखों-करोड़ों तारों के कुन्ज को मन्दाकिनी कहा जाता है। हमारी मन्दाकिनी का नाम आकाशगंगा (Milky Way) है।

प्रश्न 7.
‘पोलर वन्डरिंग’ क्या होती है?
उत्तर:
विभिन्न युगों में ध्रुवों की स्थिति का बदलना पोलर वन्डरिंग (Polar Wandering) कहलाता है।

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प्रश्न 8.
ग्रहाणु क्या होते हैं?
उत्तर:
एक परिकल्पना (चेम्बरलिन व मोल्टन) के अनुसार सूर्य तथा निकट से गुजरते तारे के टकराव के कारण गैसीय पदार्थ एक फ़िलेमेन्ट के रूप में पूर्व स्थित सूर्य से छिटककर जिहा आकार के पदार्थ छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखर गए। ये टुकड़े ठण्डे पिण्डों के रूप में उड़ते हुए सूर्य के चारों ओर कक्षाओं में घूमने लगे, इन्हें ही ग्रहाण (Planetisimols) कहा जाता है।

प्रश्न 9.
आदि तारा (Protostar) क्या है?
उत्तर:
तप्त गैसों के बादल से बनी नीहारिका में जब विस्फोट हुआ तो अभिनव तारे की उत्पत्ति हुई। इस तारे के सघन भाग अपने ही गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से विखण्डित हो गए। सघन क्रोड विशाल तथा अधिक गरम होता गया। इसे आदि तारा कहते हैं जो अन्त में सूर्य बन गया।

प्रश्न 10.
स्पष्ट कीजिए कि चन्द्रमा की उत्पत्ति पृथ्वी के साथ ही हुई थी।
उत्तर:
चन्द्रमा से प्राप्त शैलों के नमूनों के काल निर्धारण (Radiomatric Dating) से ज्ञात होता है कि चन्द्रमा और पृथ्वी का जन्म एक-साथ हुआ था क्योंकि दोनों की रचना एक-जैसी चट्टानों से हुई है।

प्रश्न 11.
पार्थिव एवं जोवियन ग्रहों में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
पार्थिव और जोवियन ग्रहों में निम्नलिखित अंतर हैं-

पार्थिव ग्रहजोवियन ग्रह
1. पार्थिव का अर्थ है-पृथ्वी की तरह। ये ग्रह पृथ्वी की तरह ही शैलों एवं धातुओं से बने हैं।1. जोवियन का अर्थ है-बृहस्पति की तरह। ये ग्रह बृहस्पति की तरह पर्थिव ग्रहों से विशाल हैं।
2. इन ग्रहों को आंतरिक ग्रह कहा जाता है।2. इन ग्रहों को बाहरी ग्रह कहा जाता है।
3. ये ग्रह अधिकतर चट्टानी हैं।3. ये ग्रह अधिकतर गैसीय हैं।

प्रश्न 12.
नेबुला या नीहारिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
धूल तथा गैसों से बने एक विशालकाय बादल को नेबुला कहते हैं।

प्रश्न 13.
पृथ्वी का निर्माण कब और कैसे हुआ?
उत्तर:
आज से लगभग 4 अरब 60 करोड़ वर्ष पहले अन्तरिक्ष में यह विशालकाय नेबुला भंवरदार गति से घूम रहा था। यह अपनी ही गुरुत्व शक्ति के कारण धीरे-धीरे सिकुड़ने लगा तथा इसकी आकृति एक चपटी डिस्क के समान हो गई। एक बहुमान्य परिकल्पना के अनुसार, इस नेबुला के ठण्डे होने तथा सिकुड़ने से ही पृथ्वी का निर्माण हुआ।

प्रश्न 14.
अपकेन्द्री बल (Centrifugal Force) के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
किसी तीव्र गति से घूमती वस्तु के केन्द्र से बाहर की ओर उड़ने था छिटक जाने की प्रवृत्ति को पैदा करने वाला बल अपकेन्द्री बल (Centrifugal Force) कहलाता है। इसके विपरीत अभिकेन्द्री बल (Centripetal force) होता है, जिसमें वस्तु केन्द्र की ओर जाने की प्रवृत्ति रखती है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
कोणीय संवेग के संरक्षण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्राकृतिक पिण्ड ग्रहों की भंवरदार गति को नापने की इकाई कोणीय संवेग कहलाती है। यह वस्तु के आकार तथा उसकी घूमने की गति पर निर्भर करती है।
कोणीय संवेग = ग्रह का द्रव्यमान x परिक्रमण गति x कक्ष की त्रिज्या।
कोणीय संवेग के संरक्षण के सिद्धान्त के अनुसार, किसी भी पदार्थ के विभिन्न भागों के आपस में टकराने से उसकी परिभ्रमण गति प्रभावित नहीं होती तथा न ही गतिहीन पदार्थ में गति उत्पन्न होती है।

प्रश्न 2.
सौर परिवार के आन्तरिक ग्रह भारी क्यों हैं?
उत्तर:
जब नीहारिका चपटी तश्तरी (Flat Disc) बनकर घूम रही थी तो उसमें अपकेन्द्री शक्ति बढ़ गई। अपकेन्द्री शक्ति के कारण नीहारिका एक जुट नहीं रह पाई और छोटे-छोटे गैसीय पिण्डों के रूप में बँट गई। नीहारिका का बचा हुआ भाग धीरे-धीरे घूमता हुआ तारा बन गया जिसे हम सूर्य कहते हैं। नीहारिका से अलग हुआ प्रत्येक पिण्ड सूर्य का चक्कर लगाने लगा। विकिरण के कारण इन पिण्डों का ऊपरी भाग ठण्डा होकर सिकुड़ने लगा लेकिन केन्द्रीय भाग तप्त होता गया।

समय के साथ धूल के भारी कण सूर्य के निकट और हल्के तत्त्व तथा गैसें सूर्य से दूर वितरित हो गए। इन्हीं पदार्थों से 8 ग्रहों का निर्माण हुआ। इसी कारण सौर-मण्डल के बाहरी ग्रह गैसों से बने विशालकाय पिण्ड हैं; जैसे बृहस्पति, शनि, अरुण और वरुण। जबकि सूर्य के निकट स्थित आन्तरिक ग्रह चट्टानों से निर्मित और भारी हैं; जै तारक ग्रह चट्टाना स रानामत और भारी है; जैसे बुध, शुक्र, पृथ्वी तथा मंगल। इसी कारण सौर परिवार के आन्तरिक ग्रह भारी है।

प्रश्न 3.
पृथ्वी का विकास किस प्रकार हुआ?
उत्तर:
पृथ्वी का विकास अनेक अवस्थाओं में से गुजरने के पश्चात् हुआ है। पृथ्वी गैस और द्रव अवस्था से होती हुई वर्तमान ठोस अवस्था में परिवर्तित हो गई। इसकी ऊपरी सतह पर हल्के पदार्थ ठण्डे होकर ठोस रूप धारण करते गए तथा भारी पदार्थ पृथ्वी के केन्द्र में जमा हो गए। धीरे-धीरे पृथ्वी की ऊपरी सतह ठोस चट्टानों की बन गई। पृथ्वी के आन्तरिक भाग के ठण्डा होने तथा सिकुड़ने से पृथ्वी की बाह्य भू-पर्पटी पर सिलवटें पड़ गईं। इससे पर्वत श्रेणियों तथा द्रोणियों का निर्माण हुआ। उसी समय हल्की गैसों से वायुमण्डल का निर्माण हो गया। वायुमण्डल में गरम गैसीय पदार्थों के ठण्डा होने से बादल बने। इन बादलों से हजारों वर्षों तक वर्षा हुई और द्रोणियों में जल के भर जाने से महासागरों का निर्माण हो गया।

प्रश्न 4.
भू-पृष्ठ (Crust of the Earth) का निर्माण कैसे हुआ?
उत्तर:
पृथ्वी की उत्पत्ति गैस और धूल के एक धधकते हुए गोले के रूप में हुई थी। कुछ समय पश्चात् पृथ्वी ने ठण्डी होकर तरल रूप धारण कर लिया। इस तरल रूपी पृथ्वी के पदार्थों ने अपने घनत्व (Density) के अनुसार स्थिति ग्रहण कर ली। हल्के पदार्थ ऊपर की ओर आ गए और सबसे भारी पदार्थ पृथ्वी के भीतर चले गए। इस प्रकार तरल पृथ्वी भिन्न-भिन्न घनत्व के पदार्थों से बनी कई परतों में बँट गई। पृथ्वी की सबसे ऊपरी पपड़ी ठण्डी होकर कठोर बन गई। ठोस शैलों से बनी इस ऊपरी परत को हम भू-पृष्ठ (Crust of the Earth) कहते हैं।

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास

प्रश्न 5.
पर्वत श्रेणियाँ, कटकें व द्रोणियाँ किस प्रकार अस्तित्व में आए?
उत्तर:
भू-पृष्ठ के निर्माण के बाद उसका नीचे वाला भाग भी ठण्डा होकर सिकुड़ने लगा। इससे पृथ्वी की ऊपरी पट्टी अर्थात भू-पृष्ठ पर बल पड़ने लगे। धरती पर जो भाग ऊपर उठ गए वे पर्वत श्रेणियाँ व कटकें कहलाईं और जो भाग द्रोणियों बन गए वे द्रोणियाँ (Basins) कहलाईं।

प्रश्न 6.
पृथ्वी पर जीवन का विकास किस प्रकार आरम्भ हुआ?
उत्तर:
पृथ्वी अपने जन्म से अब तक के लम्बे इतिहास में लगभग आधी अवधि तक उजाड़ पड़ी रही। इस पर जीवन के किसी भी रूप का अस्तित्व नहीं था। फिर पता नहीं किस प्रकार महासागरों में जीवन शुरू हुआ। कहा जाता है कि जल में किसी बड़े अणु ने किसी प्रकार अपने जैसा दूसरा अणु पैदा कर लिया। इस प्रकार पृथ्वी पर पौधों और प्राणियों के आश्चर्यजनक संसार के रूप में जीवन की शुरुआत हुई। पृथ्वी पर यह जीवन कैसे शुरू हआ- आज भी अस्पष्ट है। यह माना जाता है कि पृथ्वी पर जीवन का विकास लगभग 380 करोड़ वर्ष पहले आरंभ हुआ।

प्रश्न 7.
पृथ्वी के उच्चतम भाग तथा महासागरों के निम्नतम भाग में कितना अन्तर है?
उत्तर:
पृथ्वी के उच्चतम भाग तथा महासागरों के निम्नतम भाग में लगभग बीस किलोमीटर का अन्तर है। पृथ्वी पर उच्चतम भाग हिमालय पर्वत श्रृंखला में माऊंट एवरेस्ट है जिसकी ऊँचाई 8,848 मीटर है। महासागरों में निम्नतम भाग प्रशान्त महासागर में मैरियाना च में चैलेंजर गर्त है जिसकी गहराई 11,022 मीटर है। इस तरह माऊंट एवरेस्ट तथा चैलेंजर गर्त की गहराई में अन्तर 8,848 + 11,022 = 19,870 मीटर है जो लगभग बीस किलोमीटर है।

प्रश्न 8.
पृथ्वी पर नवीनतम वलित पर्वत हिमालय पर्वत, आल्पस पर्वत श्रृंखला तथा रॉकी-एण्डीज़ पर्वत श्रृंखला का निर्माण कैसे हुआ?
उत्तर:
कार्बोनिफेरस युग (लगभग 35 करोड़ वर्ष पूर्व) के अन्त में पेन्जिया का विभंजन आरम्भ हुआ। गुरुत्वाकर्षण बल, प्लवनशीलता बल (Force of Buoyancy) तथा ज्वारीय बल के कारण पेन्जिया का कुछ भाग पश्चिम की ओर तथा कुछ भाग भूमध्य रेखा की ओर खिसकने लगा। उत्तर के लारेशिया भू-खण्ड तथा दक्षिण के गोण्डवानालैण्ड के खिसकने से वे एक-दूसरे के निकट आए और उनके बीच जो टेथीज़ सागर था, वह संकरा होता चला गया तथा उसमें जमे अवसाद में बल पड़ने से आल्पस तथा हिमालय पर्वतों का निर्माण हुआ। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के पश्चिम की ओर खिसकने से उनके पश्चिमी किनारों पर वलन पड़ गए। उनसे रॉकीज़ तथा एण्डीज़ पर्वत-शृंखलाओं की उत्पत्ति हुई।

प्रश्न 9.
ग्रहों की सूर्य से दूरी, घनत्व एवं अर्धव्यास की दृष्टि से तुलना करें।
उत्तर:

ग्रहसूर्य से दूरी(gm/cm³)घनत्वअर्धव्यास
बुध0.3875.440.383
शुक्र0.7235.2450.949
पृथ्वी1.0005.5171.000
मंगल1.5243.9450.533
बृहस्पति5.2031.3311.19
शनि9.5390.709.460
अरुण19.1821.174.11
वरुण30.0581.663.88

प्रश्न 10.
चन्द्रमा की उत्पत्ति कैसे हुई? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चन्द्रमा की उत्पत्ति के बारे में दो सम्भावनाएँ व्यक्त की गई हैं-
पहली-चन्द्रमा सूर्य से गैसीय रूप में बाहर आया और बहुत ही छोटा होने के कारण पृथ्वी की आकर्षण शक्ति द्वारा अपनी ओर खींच लिया गया।

दूसरी-पृथ्वी पर एक विशाल उल्कापिण्ड गिरा और टक्कर के कारण पथ्वी का पदार्थ टटकर अलग हो गर उल्कापिण्ड गिरा, एक महान गर्त बना जिसमें पानी भर जाने से प्रशान्त महासागर की रचना हुई। वह भूखण्ड जो टूटकर अन्तरिक्ष में फैल गया, चन्द्रमा बन गया।

प्रश्न 11.
सूर्य पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
सौरमण्डल का प्रमुख तथा केन्द्रीय पिण्ड, एक बृहद् दीप्त गोला, जिसका व्यास 13,92,000 किलोमीटर है जो पृथ्वी के व्यास से 109 गुना है। सूर्य में हमारी पृथ्वी जैसे 13 लाख पिण्ड समा सकते हैं। विश्वास किया जाता है कि इसका आन्तरिक भाग तरल अवस्था में एवं बाह्य भाग गैस का आवरण है। सूर्य के धरातल का तापमान 6000°C है व इसके केन्द्र पर 15,000,00°C तापमान पाया जाता है।

प्रश्न 12.
अन्तरिक्ष से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अन्तरिक्ष का न कोई आदि है और न ही अन्त। अन्तरिक्ष में छोटे व बड़े आकार की अरबों मन्दाकिनियाँ अथवा तारकीय समूह (Galaxies) हैं। प्रत्येक तारकीय समूह में लाखों सौरमण्डल हैं। अनुमान है कि अन्तरिक्ष में 2 अरब सौरमण्डल हैं। औसतन एक मन्दाकिनी का व्यास 30,000 प्रकाश वर्षों (Light years) की दूरी जितना होता है। दो मन्दाकिनियों के बीच 10 लाख प्रकाश वर्ष जितनी औसत दूरी होती है। हमारा सौरमण्डल आकाशगंगा नामक मन्दाकिनी में है, जो अन्तरिक्ष में नगण्य-सा स्थान रखती है, जबकि इसमें सूर्य जैसे तीन खरब तारे होने का अनुमान है।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पृथ्वी की उत्पत्ति का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ऐसी मान्यता है कि लगभग 460 करोड़ वर्ष पहले अन्तरिक्ष में धूलकणों और गैसों से बना एक बहुत बड़ा बादल भंवरदार गति से घूम रहा था। भँवरदार गति या घूर्णन को कोणीय संवेग (Angular Momentum) नामक भौतिक राशि द्वारा मापा जाता है। कोणीय संवेग किसी पदार्थ के घूमने की गति और उसके आकार पर निर्भर करता है। आकाश में तेजी से घूमने के कारण इस गरम धधकते वायव्य महापिण्ड या नीहारिका (Nebula) का ऊपरी भाग विकिरण से ठण्डा होने लगा, किन्तु इसका भीतरी भाग गर्मी से धधकता रहा। नीहारिका का ऊपरी ठण्डा हुआ भाग अपने ही गुरुत्व बल से धीरे-धीरे सिकुड़ने लगा।

सिकुड़ने के साथ ही नीहारिका की आकृति एक चपटी तश्तरी (Flat disc) के समान होती गई। गति विज्ञान (Dynamics) के नियमानुसार, सिकुड़ती हुई वस्तु का परिभ्रमण वेग बढ़ जाता है। अतः जैसे-जैसे नीहारिका सिकुड़कर छोटी होती गई वैसे-वैसे कोणीय संवेग को बनाए रखने के लिए उसके घूर्णन की गति और तेज होती गई। घूमने की गति बढ़ जाने के कारण नीहारिका (Nebula) में अपकेन्द्री शक्ति (Centrifugal force) बढ़ गई।

अपकेन्द्री शक्ति के कारण तेज़ी से घूमते हुए पिण्ड से पदार्थ के केन्द्र से बाहर छिटक जाने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है। इससे नीहारिका एकजुट नहीं रह पाई, बल्कि छोटे-छोटे गैसीय पिण्डों के रूप में विभक्त हो गई। नीहारिका का बचा हुआ भाग बहुत धीरे-धीरे घूमता हुआ एक तारे का रूप धारण कर गया, जिसे हम सूर्य कहते हैं। नीहारिका से अलग हुए पिण्डों में मूल नीहारिका के कोणीय संवेग का 98% भाग बचा हुआ था। इन पिण्डों से आठ ग्रहों का निर्माण हुआ। प्रत्येक पिण्ड सूर्य का चक्कर लगाने लगा तथा विकिरण के कारण उनका ऊपरी भाग भी ठण्डा होकर सिकुड़ने लगा। इस प्रक्रिया में उनका केन्द्रीय भाग तप्त होता गया।

समय के साथ धूल के भारी कण सूर्य के निकट और हल्के तत्त्व तथा गैसें सूर्य से दूर वितरित हो गए। इसी कारण सौरमण्डल के बाहरी ग्रह गैसों से बने विशालकाय पिण्ड हैं, जबकि सूर्य के निकट स्थित आन्तरिक ग्रह चट्टानों से निर्मित और भारी हैं। जिस प्रकार नीहारिका से ग्रहों की रचना हुई, उसी प्रकार ग्रहों से उपग्रह भी बने।

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HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास

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Haryana Board 11th Class Geography Solutions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास

HBSE 11th Class Geography पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास Textbook Questions and Answers

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में से कौन-सी संख्या पृथ्वी की आयु को प्रदर्शित करती है?
(A) 46 लाख वर्ष
(B) 460 करोड़ वर्ष
(C) 13.7 अरब वर्ष
(D) 13.7 खरब वर्ष
उत्तर:
(B) 460 करोड़ वर्ष

2. निम्न में से कौन-सी अवधि सबसे लम्बी है?
(A) इओन (Eons)
(B) महाकल्प (Era)
(C) कल्प (Period)
(D) युग (Epoch)
उत्तर:
(A) इओन (Eons)

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3. निम्न में से कौन-सा तत्त्व वर्तमान वायुमण्डल के निर्माण व संशोधन में सहायक नहीं है?
(A) सौर पवन
(B) गैस उत्सर्जन
(C) विभेदन
(D) प्रकाश संश्लेषण
उत्तर:
(C) विभेदन

4. निम्नलिखित में से भीतरी ग्रह कौन से हैं?
(A) पृथ्वी व सूर्य के बीच पाए जाने वाले ग्रह
(B) सूर्य व छुद्र ग्रहों की पट्टी के बीच पाए जाने वाले ग्रह
(C) वे ग्रह जो गैसीय हैं
(D) बिना उपग्रह वाले ग्रह
उत्तर:
(B) सूर्य व छुद्र ग्रहों की पट्टी के बीच पाए जाने वाले ग्रह

5. पृथ्वी पर जीवन निम्नलिखित में से लगभग कितने वर्षों पहले आरम्भ हुआ?
(A) 1 अरब, 37 करोड़ वर्ष पहले
(B) 460 करोड़ वर्ष पहले
(C) 38 लाख वर्ष पहले।
(D) 3 अरब, 80 करोड़ वर्ष पहले
उत्तर:
(D) 3 अरब, 80 करोड़ वर्ष पहले

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
पार्थिव ग्रह चट्टानी क्यों हैं?
उत्तर:
पार्थिव ग्रह जनक तारे के बहुत समीप बने जहाँ अत्यधिक तापमान होने के कारण गैसें संघनित व घनीभूत न हो सकीं। गुरुत्वाकर्षण शक्ति की कमी के कारण ये चट्टानी रूप में हैं। पार्थिव ग्रह पृथ्वी की भाँति ही चट्टानों/शैलों और धातुओं से बने हैं, इसलिए ये चट्टानी हैं।

प्रश्न 2.
पृथ्वी की उत्पत्ति संबंधित दिए गए तर्कों में निम्न वैज्ञानिकों के मूलभूत अंतर बताएँ (क) कान्ट व लाप्लेस (ख) चैम्बरलेन व मोल्टन
उत्तर:
(क) कान्ट व लाप्लेस इन वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी का निर्माण धीमी गति से घूमते हुए पदार्थों के बादल से हुआ जोकि सूर्य की युवा अवस्था से संबद्ध थे। कान्ट व लाप्लेस ने इसको नीहारिका परिकल्पना का नाम दिया।

(ख) चैम्बरलेन व मोल्टन-इन वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड में एक अन्य भ्रमणशील तारे के सूर्य के नजदीक से गुजरने के कारण उसके गुरुत्वाकर्षण शक्ति के फलस्वरूप सूर्य की सतह से कुछ पदार्थ निकलकर अलग हुए और सूर्य के चारों ओर घूमने लगे। यही पदार्थ बाद में धीरे-धीरे संघनित होकर ग्रहों का रूप धारण करने लगा।

प्रश्न 3.
विभेदन प्रक्रिया से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पृथ्वी की उत्पत्ति के दौरान व उत्पत्ति के तुरंत बाद अत्यधिक ताप के कारण पृथ्वी के कुछ भाग पिघल गए और तापमान की अधिकता के कारण हल्के व भारी घनत्व वाले पदार्थ अलग होने शुरू हो गए। हल्के व भारी घनत्व वाले पदार्थों के अलग होने की इस प्रक्रिया को विभेदन प्रक्रिया कहा जाता है।

HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास

प्रश्न 4.
प्रारम्भिक काल में पृथ्वी के धरातल का स्वरूप क्या था?
उत्तर:
पृथ्वी पर जीवन का विकास होने से पहले गर्म चट्टानें तथा असमतल धरातल पाया जाता था। पृथ्वी के वायुमण्डल में हाइड्रोजन तथा हीलियम गैसें अधिक मात्रा में विद्यमान थीं। परन्तु पृथ्वी की विभेदन प्रक्रिया के कारण बहुत-सी गैसें व जलवाष्प बाहर निकले जिस कारण पृथ्वी का तापमान ठण्डा हुआ और आज से 380 करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी पर जीवन का विकास हुआ।

प्रश्न 5.
पृथ्वी के वायुमंडल को निर्मित करने वाली प्रारंभिक गैसें कौन-सी थीं?
उत्तर:
पृथ्वी के वायुमंडल को निर्मित करने वाली प्रारंभिक गैसें हाइड्रोजन और हीलियम थीं, जो काफी गर्म थीं। इन गैसों की उपलब्धता के कारण ही पृथ्वी तरल अवस्था में थी। प्रारंभिक दौर में पृथ्वी भी सूर्य की तरह काफी गर्म थी। पृथ्वी का यह वातावरण सौर पवनों के कारण पृथ्वी से दूर हो गया। इन्हीं पवनों के प्रभाव के कारण सभी पार्थिव ग्रहों से आदिकालिक वायुमण्डल या तो दूर हो गया या समाप्त हो गया। यह वायुमंडल के विकास की प्रथम अवस्था थी।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए

प्रश्न 1.
बिग बैंग सिद्धांत का विस्तार से वर्णन करें।
उत्तर:
कई प्रसिद्ध भूगोलवेत्ताओं ने पृथ्वी की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न परिकल्पनाएँ दीं। उन्होंने केवल पृथ्वी की ही नहीं अपितु पूरे ब्रह्मांड की उत्पत्ति की गुथी को सुलझाने का प्रयास किया। 1920 ई० में प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता एडविन हब्बल ने ब्रह्मांड के विस्तार के बारे में बताया। आधुनिक समय में ब्रह्मांड की उत्पत्ति का सर्वमान्य सिद्धान्त “बिग बैंग सिद्धान्त” है, जिसे विस्तरित ब्रह्मांड परिकल्पना भी कहा जाता है। ब्रह्मांड के विस्तृत होने का कारण भी इसी परिकल्पना से पता चला। आकाशगंगाओं (Galaxies) के बीच बढ़ती दूरी के कारण ही ब्रह्मांड का विस्तार होने लगा।
HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास 2
बिग बैंग सिद्धांत के अनुसार ब्रह्मांड का विस्तार निम्नलिखित अवस्थाओं में हुआ-
(i) जिन पदार्थों से ब्रह्मांड बना है वे अति सूक्ष्म गोलक के रूप में एक ही स्थान पर स्थित थे। इन पदार्थों का तापमान तथा घनत्व अनंत था।

(ii) वैज्ञानिकों के अनुसार बिग बैंग की घटना आज से लगभग 13.7 अरब वर्षों पहले हुई थी। वैज्ञानिकों के अनुसार बिग बैंग की प्रक्रिया में अति छोटे गोलक में भीषण विस्फोट हुआ, इस विस्फोट प्रक्रिया से वृहत् विस्तार हुआ। विस्तार के कारण कुछ ऊर्जा पदार्थ में परिवर्तित हो गई, जिस कारण विस्तार की गति धीमी पड़ गई।

(iii) बिग बैंग से 3 लाख वर्षों के दौरान, तापमान 4500 केल्विन तक गिर गया और परमाणवीय पदार्थों का निर्माण होने लगा तथा ब्रह्मांड पारदर्शी हो गया।

निष्कर्ष-ब्रह्मांड के विकास का अर्थ है-आकाशगंगाओं के बीच दूरी में विस्तार होना। ब्रह्मांड के विस्तार का चरण आज भी जारी है परन्तु कई वैज्ञानिक इस पक्ष में नहीं हैं। जैसे कि वैज्ञानिक हॉयल ने इसका विकल्प ‘स्थित अवस्था संकल्पना’ के नाम से प्रस्तुत किया। परन्तु ब्रह्मांड के विकास और विस्तार संबंधी अनेक प्रमाणों के मिलने पर वैज्ञानिक वर्ग अब ब्रह्मांड विस्तार सिद्धान्त के पक्षधर हैं।

प्रश्न 2.
पृथ्वी के विकास संबंधी अवस्थाओं को बताते हुए हर अवस्था/चरण को संक्षेप में वर्णित करें।
उत्तर:
पृथ्वी का विकास विभिन्न अवस्थाओं में हुआ है। पृथ्वी का निर्माण लगभग 460 करोड़ वर्ष पहले हुआ। पृथ्वी के विकास की विभिन्न अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं
1. ब्रह्मांड की उत्पत्ति-आकाशगंगाओं के एक-दूसरे से दूर हो जाने के कारण ब्रह्मांड का निर्माण हुआ। ब्रह्मांड की उत्पत्ति पर अनेक वैज्ञानिकों ने अपने-अपने मत प्रस्तुत किए हैं, जिनमें से बिग बैंग सिद्धान्त को सर्वसहमति से विश्वसनीय सिद्धान्त माना गया है।

2. पृथ्वी का तापमान आरंभ में पृथ्वी तरल अवस्था में थी क्योंकि पृथ्वी पर हाइड्रोजन और हीलियम गैस की अधिकता थी, जोकि काफी गर्म होती हैं। इसी गर्म अवस्था के कारण अधिक घनत्व वाले पदार्थ पृथ्वी के केन्द्र पर आ गए और हल्के पदार्थ पृथ्वी की ऊपरी सतह पर आ गए।

3. तारों का निर्माण-

  • तारों का निर्माण लगभग 5 से 6 अरब वर्षों पहले हुआ।
  • एक आकाशगंगा अंसख्य तारों का समूह है। इनका विस्तार इतना अधिक होता है कि इनकी दूरी हजारों प्रकाश वर्षों (Light Years) में मापी जाती है।
  • एक आकाशगंगा के निर्माण की शुरुआत हाइड्रोजन गैस से बने विशाल बादल के संचयन से होती है, जिसे निहारिका कहते हैं। निहारिका के झुंड बढ़ते-बढ़ते गैसीय पिंड में बदल गए जिनसे तारों का निर्माण हुआ।

4. वायुमंडल का विकास-आरंभ में वायुमंडल में नाइट्रोजन, कार्बन-डाइऑक्साइड, मीथेन, जलवाष्प व अमोनिया अधिक मात्रा में और ऑक्सीजन बहुम कम थी। परन्तु वर्तमान वायुमंडल की तीन अवस्थाएँ हैं-

पहली अवस्था-प्रारंभिक वायुमंडल, जिसमें हाइड्रोजन व हीलियम की अधिकता थी, जो सौर पवन के कारण पृथ्वी से दूर हो गया।
दूसरी अवस्था-पृथ्वी के ठंडा होने और विभेदन के दौरान, पृथ्वी के अंदरूनी भाग से बहुत-सी गैसें व जलवाष्प बाहर निकले, जिन्होंने वायुमंडल के विकास में सहयोग किया।

तीसरी अवस्था-अंत में वायुमंडल की संरचना को जैव मंडल की प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया ने संशोधित किया।

5. जीवन की उत्पत्ति-पृथ्वी की उत्पत्ति का अंतिम चरण जीवन की उत्पत्ति व विकास से संबंधित है।
निष्कर्ष-ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी पर जीवन का विकास लगभग 380 करोड़ वर्ष पहले आरंभ हुआ। एक कोशीय जीवाणु से आज के मनुष्य तक जीवन के विकास का सार भूवैज्ञानिक काल मापक्रम से प्राप्त किया जा सकता है।

पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास HBSE 11th Class Geography Notes

→ अन्तरिक्ष (Universe)-अन्तरिक्ष का न कोई आदि है और न ही अन्त। अन्तरिक्ष में छोटे व बड़े आकार की अरबों मन्दाकिनियाँ अथवा तारकीय समूह (Galaxies) हैं। प्रत्येक तारकीय समूह में लाखों सौरमण्डल हैं। अनुमान है कि अन्तरिक्ष में 2 अरब सौरमण्डल हैं। औसतन एक मन्दाकिनी का व्यास 30,000 प्रकाश वर्षों (Light years) की दूरी जितना होता है। दो मंदाकिनियों के बीच 10 लाख प्रकाश वर्ष जितनी औसत दूरी होती है। हमारा सौरमण्डल आकाश गंगा नामक मन्दाकिनी में है, जो अन्तरिक्ष में नगण्य-सा स्थान रखती है, जबकि इसमें सूर्य जैसे तीन खरब तारे होने का अनुमान है।

→ ग्रह (Planet)-ग्रह प्रकाशहीन व अपारदर्शी वे आठ आकाशीय पिण्ड हैं जो अपनी कीली पर घूमते हुए सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्ताकार (Elliptical) पथ पर चक्कर लगाते हैं। ग्रह सूर्य के प्रकाश को प्रतिबिम्बित करते हैं।

→ अपकेन्द्री बल (Centrifugal Force)-किसी तीव्र गति से घूमती वस्तु के केन्द्र से बाहर की ओर उड़ने या छिटक जाने की प्रवृत्ति को पैदा करने वाला बल। इसके विपरीत अभिकेन्द्री बल (Centripetal Force) होता है, जिसमें वस्तु केन्द्र की ओर जाने की प्रवृत्ति रखती है।
HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास 1

→ धूमकेतु या पुच्छल तारे (Comets) शैलकणों, धूल, गैसों से विरचित सौर परिवार के इस विलक्षण सदस्य का सिर प्रायः ठोस होता है जिसके पीछे पारदर्शी, चमकीली लम्बी पूँछ होती है। ये दीर्घ कक्षाओं में सूर्य का परिक्रमण करते हैं और उसके काफी निकट आने पर दृष्टिगोचर होते हैं। उदाहरणतः 76 वर्षों बाद दिखने वाला हेली धूमकेतु पिछली बार सन् 1986 में दिखाई दिया था।

HBSE 11th Class Geography Solutions Chapter 2 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास

→ गुरुत्वाकर्षण (Gravitation)-ब्रह्माण्ड में हर पिण्ड अन्य पिण्डों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस आकर्षण बल को गुरुत्वाकर्षण कहते हैं। इसका परिमाण पिण्ड के द्रव्यमान (mass) का समानुपाती है अर्थात् जो पिण्ड जितना अधिक भारी होता है, उसका गुरुत्वाकर्षण उतना ही अधिक होता है तथा पिंडों के बीच की दूरी के वर्ग का व्युत्क्रमानुपाती होता है अर्थात् पिण्डों के बीच की दूरी बढ़ने के साथ गुरुत्वाकर्षण घटता है; यदि दूरी दुगुनी हो जाए तो गुरुत्वाकर्षण \(\frac { 1 }{ 4 }\) रह जाएगा, यदि दूरी तिगुनी हो जाए तो गुरुत्वाकर्षण \(\frac { 1 }{ 9 }\) रह जाएगा आदि।

→ कैल्विन पैमाना (Kelvin Scale)-उष्मागतिक (Thermodynamic) तापमान की इकाई जिसका नाम ब्रिटिश भौतिकशास्त्री लॉर्ड कैल्विन (1824-1907) के नाम पर रखा गया है। इस पैमाने में हिमांक को 273k तथा भाप बिन्दु को 373k अंकित किया जाता है और बीच की दूरी को 100 बराबर भागों में बाँट दिया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक भाग 1k कहलाता है।

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HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 7 भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास

Haryana State Board HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 7 भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Geography Important Questions Chapter 7 भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

भाग-I : एक शब्द या वाक्य में उत्तर दें

1. नदी द्वारा बहाकर लाए गए असंगठित पदार्थों के आपस में टकराने व टूटने की क्रिया को क्या कहते हैं?
(A) अपघर्षण
(B) सन्निघर्षण
(C) जलयोजन
(D) रासायनिक अपरदन
उत्तर:
(B) सन्निघर्षण

2. निम्नलिखित में से कौन-सा कारक नदी अपरदन की क्षमता को निर्धारित नहीं करता?
(A) जल की मात्रा
(B) नद-भार की मात्रा
(C) चट्टान का भार
(D) जल का वेग
उत्तर:
(C) चट्टान का भार

3. निम्नलिखित में से कौन-सा स्थलरूप नदी की प्रौढ़ावस्था की विशेषता नहीं है?
(A) मृत झील
(B) नदी विसर्प
(C) जलोढ़ पंख
(D) अंतर्ग्रथित पर्वत प्रक्षेप
उत्तर:
(D) अंतर्ग्रथित पर्वत प्रक्षेप

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4. अधःकर्तित विसर्प निम्नलिखित में से किसके परिणाम होते हैं?
(A) निक्षेपण
(B) भ्रंशन
(C) पुनर्योवन
(D) अधोगमन
उत्तर:
(C) पुनर्योवन

5. तटीय भागों में जान-माल के लिए सबसे खतरनाक समुद्री तरंग कौन-सी है?
(A) अधःप्रवाह
(B) सुनामी
(C) स्थानांतरणी तरंग
(D) भग्नोर्मि
उत्तर:
(B) सुनामी

6. अवसादों का तटों के साथ-साथ उनके समानांतर एक पतले, लंबे बांध के रूप में निक्षेपण क्या कहलाता है?
(A) तटबंध
(B) समुद्री कटक
(C) भू-जिह्वा
(D) रोधिका और रोध
उत्तर:
(D) रोधिका और रोध

7. स्टैक स्थलरूप का निर्माण निम्नलिखित में से कौन-सा अभिकर्ता करता है?
(A) प्रवाहित जल
(B) पवन
(C) सागरीय लहरें
(D) भूमिगत जल
उत्तर:
(C) सागरीय लहरें

8. कार्ट प्रदेश में भूमिगत कंदराओं की छत से नीचे फर्श की ओर लटकता हुआ भू-आकार क्या कहलाता है?
(A) कंदरा स्तंभ
(B) स्टैलेक्टाइट
(C) स्टैलेग्माइट
(D) चूर्णकूट
उत्तर:
(B) स्टैलेक्टाइट

9. बालू से बना अर्धचंद्राकार टीला क्या कहलाता है?
(A) बालुका स्तूप
(B) बारखन
(C) सीफ़
(D) लोएस
उत्तर:
(B) बारखन

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10. मशरुम चट्टान निम्नलिखित में से किससे संबंधित है?
(A) कार्ट स्थलाकृति
(B) मरुस्थलीय स्थलाकृति
(C) हिमानी स्थलाकृति
(D) समुद्री लहर स्थलाकृति
उत्तर:
(B) मरुस्थलीय स्थलाकृति

11. निम्नलिखित में से कौन-सी भू-आकृति हिमनदी के कार्य से संबंधित?
(A) जल-प्रपात
(B) सर्क
(C) रोधिका
(D) टिब्बा
उत्तर:
(B) सर्क

12. निम्नलिखित में से अपरदन के लिए कौन-सा तरीका हिमनदी द्वारा अपनाया जाता है?
(A) सन्निघर्षण
(B) जल की दाब क्रिया
(C) उत्पाटन
(D) विलयन
उत्तर:
(C) उत्पाटन

13. हिमनद की निक्षेप क्रिया से बनी ‘अंडों की टोकरी जैसी स्थलाकृति’ का अन्य नाम कौन-सा है?
(A) एस्कर
(B) ड्रमलिन
(C) रॉश मूटोने
(D) बॅग एंड टेल
उत्तर:
(B) ड्रमलिन

भाग-II : एक शब्द या वाक्य में उत्तर दें

प्रश्न 1.
तल सन्तुलन के कारकों में सर्वाधिक शक्तिशाली कारक कौन-सा है?
उत्तर:
नदी।

प्रश्न 2.
नदी अपरदन को प्रभावित करने वाले कारक कौन-से हैं?
उत्तर:
जल प्रवाह का वेग, जल की मात्रा, चट्टानों की प्रकृति, नद-भार आदि।

प्रश्न 3.
विश्व के सबसे बड़े कैनियन का नाम क्या है?
उत्तर:
ग्रैण्ड कैनियन (कोलोरेडो)।

प्रश्न 4.
भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े डेल्टा का नाम बताइए।
उत्तर:
सुन्दरवन डेल्टा।

प्रश्न 5.
‘अपरदन चक्र’ की संकल्पना किस भूगोलवेत्ता ने प्रस्तुत की?
उत्तर:
विलियम मौरिस डेविस ने।

प्रश्न 6.
नदी अपहरण (River Capture) की घटना नदी की कौन-सी अवस्था में घटती है?
उत्तर:
युवावस्था में।

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प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से प्रत्येक के लिए उपयुक्त पारिभाषिक शब्द लिखिए-

  1. वे प्रक्रियाएँ जो स्थलीय धरातल को एक-समान स्तर पर लाने की चेष्टा करती हैं।
  2. एक नदी जो शाखाओं में विभक्त होकर परस्पर जुड़े जलमार्गों की एक जाल-सी आकृति बनाती है।
  3. दी के किनारे मोटे अवसादों के निक्षेपण से बने प्राकृतिक तटबन्ध।
  4. नदी का घुमावदार मार्ग तथा उससे बने फंदे।
  5. आसपास के दो भिन्न अपवाह क्षेत्रों को अलग करने वाली उच्च भूमि।
  6. पेड़ के तने और डालियों के समान दिखने वाला अपवाह तन्त्र।
  7. किसी खनिज पर होने वाली जल की रासायनिक क्रिया।
  8. वे चट्टानी पदार्थ जिनकी मदद से नदी, हिमानी और पवन अपरदन कार्य करते हैं।

उत्तर:

  1. प्रवणता सन्तुलन की प्रक्रियाएँ
  2. जालीनुमा अपवाह तन्त्र
  3. प्राकृतिक तटबन्ध
  4. गुंफित नदी
  5. जल विभाजक
  6. द्रुमाकृतिक प्रवाह प्रणाली
  7. जलयोजन
  8. शैल-मलबा।

प्रश्न 8.
भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में हिमरेखा की ऊँचाई कितनी होती है?
उत्तर:
लगभग 5000 मीटर।

प्रश्न 9.
किस महाद्वीप पर हिमानियाँ नहीं पाई जाती?
उत्तर:
ऑस्ट्रेलिया में।

प्रश्न 10.
हिमालय पर्वत में कितनी हिमानियाँ हैं?
उत्तर:
15,000 हिमानियाँ।

प्रश्न 11.
पवन अपरदन को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक कौन-से हैं?
उत्तर:
पवन की गति, धूलकणों का आकार और ऊँचाई, चट्टानों की संरचना तथा जलवायु।

प्रश्न 12.
केरल तट पर स्थित सबसे बड़ी लैगून का नाम बताएँ।
उत्तर:
वेंबनाद।

प्रश्न 13.
विश्व में सबसे अधिक उत्सुत कूप (Artesian Wells) कहाँ पाए जाते हैं?
उत्तर:
ऑस्ट्रेलिया के आर्टीज़ियन बेसिन में।

प्रश्न 14.
शैलों के गुण तथा रचना के आधार पर बनने वाले दो प्रकार के झरनों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. भ्रंश झरना तथा
  2. डाइक झरना।

प्रश्न 15.
घोल रंध्र सबसे ज्यादा कहाँ पाए जाते हैं?
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका के केन्टुकी राज्य में।

प्रश्न 16.
गुफ़ाओं में भूमिगत जल की निक्षेपण क्रिया द्वारा बनने वाले स्तम्भों को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
कन्दरा स्तम्भ।

प्रश्न 17.
नदी रासायनिक अपरदन किन क्रियाओं द्वारा होता है?
उत्तर:

  1. संक्षारण द्वारा
  2. घोलीकरण द्वारा।

प्रश्न 18.
निम्नलिखित के लिए उपयुक्त पारिभाषिक शब्द लिखिए

  1. दो अपवाह बेसिनों के बीच ऊपर उठा हुआ भू-भाग।
  2. वह समस्त क्षेत्र जहाँ से एक बड़ी नदी जल-ग्रहण करती है।
  3. वह सम्पूर्ण क्षेत्र जिस पर पृष्ठीय जल के निकास मार्ग एक ही दिशा में हों।
  4. जिस स्थान पर कोई नदी किसी खाड़ी, झील या समुद्र में गिरती है।
  5. नदी का जन्म स्थान।
  6. पत्थरों और शिलाखण्डों का भार के कारण नदी तल पर घिसटते चलना।
  7. संकरी तथा अत्यधिक गहरी V-आकार की घाटी।
  8. गॉर्ज की अपेक्षा संकरी, गहरी और बड़ी V-आकार की घाटी।
  9. पुरानी नदी का पुनः युवावस्था में आ जाना।
  10. अधिक गहरी जलज गर्तिका।
  11. चट्टानों की असमान प्रतिरोधिता के कारण बहते जल का थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कूदना।
  12. वह स्थान जहाँ पुराना और नया बाढ़ का मैदान मिलता है।

उत्तर:

  1. जल-विभाजक
  2. अपवाह क्षेत्र
  3. अपवाह बेसिन
  4. नदमुख
  5. उद्गम क्षेत्र
  6. कर्षण
  7. गॉर्ज
  8. केनियन
  9. पुनर्योवन
  10. अवनमन कुण्ड
  11. क्षिप्रिका
  12. निकप्वाइंट।

प्रश्न 19.
V-आकार की घाटी किन क्षेत्रों में विकसित होती है?
उत्तर:
जहाँ वर्षा सामान्य से अधिक होती है तथा चट्टानें अति कठोर नहीं होती।

प्रश्न 20.
गॉर्ज या महाखण्ड बनाने वाली भारत की कुछ नदियों के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
सिन्धु, सतलुज, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, कोसी व गण्डक इत्यादि।

प्रश्न 21.
केनियन सामान्यतः किन दशाओं में बनते हैं?
उत्तर:
शुष्क व अर्ध-शुष्क जलवायु वाले ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में।

प्रश्न 22.
विश्व की सबसे बड़ी केनियन कौन-सी और कहाँ है?
उत्तर:
ग्रैण्ड केनियन, कोलोरेडो नदी पर, संयुक्त राज्य अमेरिका में।

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प्रश्न 23.
सामान्यतः जलज गर्तिकाएँ कहाँ पर स्थित पाई जाती हैं?
उत्तर:
क्षिप्रिकाओं के ऊपर और जल-प्रपात के नीचे।

प्रश्न 24.
भारत में सबसे ऊँचा जल-प्रपात कौन-सा है?
उत्तर:
कर्नाटक में शरबती नदी द्वारा बनाया गया 260 मीटर ऊँचा जोग प्रपात या गरसोप्पा प्रपात।

प्रश्न 25.
आकार की दृष्टि से जलोढ़ पंख और जलोढ़ शंकु में क्या अन्तर होता है?
उत्तर:
जलोढ़ पंख जलोढ़ शंकु की अपेक्षा अधिक चौड़े किन्तु कम ऊँचे होते हैं।

प्रश्न 26.
नदी की प्रौढ़ावस्था में बनने वाले भू-आकारों के नाम लिखिए।
उत्तर:
जलोढ़ पखं, विसर्प, गोखुर झीलें इत्यादि।

प्रश्न 27.
संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रसिद्ध प्रपात का नाम और विशेषता बताएँ।
उत्तर:
नियाग्रा जल-प्रपात; 120 मीटर ऊँचा व अस्थायी प्रकृति का है।

प्रश्न 28.
जलोढ़ शंकुओं की रचना प्रायः किस प्रकार के जलवायु प्रदेशों में होती है?
उत्तर:
अर्ध-शुष्क प्रदेशों में।

प्रश्न 29.
गोखुर झील को मृत झील (Mort Lake) क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
क्योंकि समय के अनुसार गोखुर झील अवसादों से भरकर सूख जाती है।

प्रश्न 30.
वृद्धावस्था में नदी कौन से भू-आकारों की रचना करती है?
उत्तर:
नदी गुंफ, प्राकृतिक तटबन्ध, बाढ़ के मैदान व डेल्टा इत्यादि।

प्रश्न 31.
उन असामान्य कारकों के नाम लिखें जिनसे जल-प्रपातों की रचना होती है?
उत्तर:

  1. भूकम्प
  2. ज्वालामुखी व
  3. भूसंचरण।

प्रश्न 32.
कोई नदी प्रवणित अवस्था में कब मानी जाती है?
उत्तर:
जब वह आधार तल पर बह रही होती है।

प्रश्न 33.
किस विद्वान् ने कब सिद्ध किया था कि हिमनदियाँ गतिशील होती हैं?
उत्तर:
लुई अगासिस ने सन् 1834 में।

प्रश्न 34.
महाद्वीपीय हिमनदियों के दो क्षेत्र बताएँ।
उत्तर:

  1. अंटार्कटिका महाद्वीप
  2. ग्रीनलैण्ड।

प्रश्न 35.
भारत में सबसे बड़ी हिमनदी कौन-सी है?
उत्तर:
सियाचिन हिमनदी, 72 कि०मी० लम्बी।

प्रश्न 36.
शृंग के कोई दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर:

  1. आल्पस पर्वत श्रेणी में मैटर्नहार्न
  2. हिमालय में त्रिशूल पर्वत।

प्रश्न 37.
लोएस प्रदेश कहाँ स्थित है?
उत्तर:
उत्तर:पश्चिमी चीन में।

प्रश्न 38.
भारत के पूर्वी तट पर लैगून झीलों के कोई दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर:

  1. चिल्का झील
  2. पुलिकट झील।

प्रश्न 39.
हिमनदी से बनने वाले प्रमुख भू-आकारों के नाम लिखिए।
उत्तर:
सर्क, शृंग, लटकती घाटी, U-आकार की घाटी, टार्न, कॉल ड्रमलिन, हिमोढ़ इत्यादि।

प्रश्न 40.
वायु अपरदन से बनने वाले प्रमुख भू-आकारों के नाम लिखें।
उत्तर:

  1. छत्रक
  2. ज्यूज़न
  3. यारडांग
  4. इन्सेलबर्ग।

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
नदी अपरदित पदार्थों का परिवहन किन तीन रूपों में करती है?
उत्तर:

  1. घुलाकर
  2. निलम्बित अवस्था में तथा
  3. लुढ़काकर।

प्रश्न 2.
अपरदन चक्र की तीन अवस्थाओं के नाम बताइए।
उत्तर:

  1. युवावस्था
  2. प्रौढ़ावस्था तथा
  3. वृद्धावस्था।

प्रश्न 3.
कर्णहिम (Neve) की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:
यह-

  1. वायुरहित
  2. ठोस तथा
  3. संगठित होती है।

प्रश्न 4.
माल्सपाइना क्या है और यह कहाँ है?
उत्तर:
माल्सपाइना एक पर्वतपादीय हिमानी है जो अलास्का में है।

प्रश्न 5.
पवन किन तीन तरीकों से अपरदन करती है?
उत्तर:

  1. अपवहन द्वारा
  2. अपघर्षण द्वारा तथा
  3. सन्निघर्षण द्वारा।

प्रश्न 6.
भारत के चार प्रमुख लैगून कौन-कौन से हैं?
उत्तर:

  1. वेंबनाद
  2. अष्टमुदी (केरल)
  3. पुलिकट (तमिलनाडु-आन्ध्र प्रदेश सीमा) तथा
  4. चिल्का (ओडिशा तट)।

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प्रश्न 7.
निमग्न उच्च भूमि तट के तीन प्रसिद्ध प्रकारों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. रिया तट
  2. फियोर्ड तट
  3. डालमेशियन तट।

प्रश्न 8.
प्रवणता संतुलन के कारकों के तीन प्रमुख कार्य बताएँ।
अथवा
भू-आकृतिक कारकों के प्रमुख कार्य कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर:

  1. अपरदन
  2. परिवहन
  3. निक्षेपण।

प्रश्न 9.
प्रमुख प्रवाह प्रणालियों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. द्रुमाकृतिक अपवाह तन्त्र
  2. समानान्तर अपवाह तन्त्र
  3. जालीनुमा अपवाह तन्त्र
  4. अरीय अपवाह तन्त्र
  5. पूर्ववर्ती अपवाह तन्त्र
  6. आन्तरिक अपवाह।

प्रश्न 10.
नदी अपनी युवावस्था में किन-किन भू-आकारों की रचना करती है?
उत्तर:
इस अवस्था में नदी V-आकार घाटी, गॉर्ज, केनियन, जलज गर्तिका, जल-प्रपात, क्षिप्रिका व अवनमनकुण्ड इत्यादि भू-आकार बनाती है।

प्रश्न 11.
नदी द्वारा भौतिक अपरदन किन तीन रूपों में सम्पन्न होता है?
उत्तर:

  1. अपघर्षण
  2. सन्निघर्षण
  3. जल की दाब क्रिया।

प्रश्न 12.
भू-आकृतिक परिवर्तन के पाँच कारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर:

  1. नदी
  2. हिमनदी
  3. पवन
  4. समुद्री तरंगें तथा
  5. भूमिगत जल।

प्रश्न 13.
जल-प्रपात क्या होता है?
उत्तर:
चट्टानी कगार के ऊपरी भाग से नदी का सीधे नीचे गिरना जल-प्रपात कहलाता है।

प्रश्न 14.
भारत के उल्लेखनीय जल-प्रपातों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. जोग प्रपात
  2. शिवसमुद्रय प्रपात
  3. येना प्रपात तथा
  4. धुआँधार प्रपात।

प्रश्न 15.
आधार तल किसे कहते हैं?
उत्तर:
झील या समुद्र के तल को, जिसमें नदी गिरती है, नदी अपरदन का आधार तल कहते हैं।

प्रश्न 16.
अपरदन चक्र किन तीन कारकों का प्रतिफल है?
उत्तर:

  1. संरचना (Structure)
  2. प्रक्रिया (Process)
  3. अवस्था (Stage)।

प्रश्न 17.
किन्हीं तीन विश्व प्रसिद्ध डेल्टाओं के नाम लिखें।
उत्तर:

  1. नील डेल्टा
  2. गंगा डेल्टा
  3. मिसीसिपी डेल्टा।

प्रश्न 18.
हिमविदर क्या होते हैं?
उत्तर:
विभंजन के कारण हिमनदी में पड़ी दरारों को हिमविदर कहा जाता है।

प्रश्न 19.
ग्रेट आर्टिज़ियन बेसिन कहाँ स्थित है?
उत्तर:
ग्रेट आर्टिज़ियन बेसिन ऑस्ट्रेलिया के मध्य-पूर्वी भाग में क्वींसलैण्ड में स्थित है। इस क्षेत्र का क्षेत्रफल लगभग पन्द्रह लाख वर्ग कि०मी० है। यह उत्सुत कुओं वाला विश्व का सबसे बड़ा क्षेत्र है। यह क्षेत्र ग्रेट आर्टिज़ियन बेसिन कहलाता है।

प्रश्न 20.
‘मियाण्डर’ (विसप) शब्द कहाँ से और किस कारण लिया गया है?
उत्तर:
यह शब्द टर्की की नदी ‘मियाण्डर’ से लिया गया है क्योंकि समुद्र में गिरने से पहले यह नदी बहुत ज्यादा बल खाती और इठलाती चलती है।

प्रश्न 21.
चट्टानों की पारगम्यता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
चट्टानों के अन्दर से होकर भूमि-जल का बहाव पारगम्यता कहलाता है। ये चट्टानें दरारों द्वारा एक-दूसरे से मिली होती हैं। ये चट्टानें पारगम्य चट्टानें कहलाती हैं।

प्रश्न 22.
हिमनदी की गति किन कारणों पर निर्भर करती है?
उत्तर:

  1. धरातल का ढाल
  2. हिमनदी की मोटाई
  3. तापमान
  4. ऋतु।

प्रश्न 23.
प्रवणता संतुलन की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
बाह्य शक्तियाँ; जैसे नदी, हिमनदी, वायु तथा समुद्री लहरें ऊँची-नीची भूमि को अपरदन तथा निक्षेपण क्रिया द्वारा समतल करने का प्रयास करती हैं। ये शक्तियाँ ऊँचे भागों का अपरदन कर उन्हें निम्न भागों में जमा करती रहती हैं और समतल भूमि का निर्माण करती हैं। इस प्रक्रिया को प्रवणता सन्तुलन कहते हैं।

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प्रश्न 24.
स्टैलेक्टाइट का निर्माण किस भू-आकृतिक कारक द्वारा होता है?
उत्तर:
गुफा की छत से चूना पत्थर की चट्टान से टपके हुए कैल्शियम बाइकार्बोनेट युक्त पानी से स्टैलेक्टाइट का निर्माण होता है।

प्रश्न 25.
जल-चक्र से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
जल हमेशा गतिशील होता है। सागरों तथा महासागरों का जल सूर्यातप के कारण जलवाष्प बनकर वायुमण्डल में चला जाता है, जिससे वर्षा होती है। वर्षा के जल का कुछ अंश बहकर नदियों द्वारा सागरों तथा महासागरों में मिल जाता है तथा कुछ अंश वाष्पीकरण द्वारा वायुमण्डल में मिल जाता है तथा शेष भाग भूमिगत हो जाता है। इस प्रकार जल वायुमण्डल, स्थलमण्डल तथा जलमण्डल पर स्थानान्तरित होता रहता है, जिसे जल-चक्र कहते हैं। इस चक्र द्वारा तीनों मण्डलों में जल का सम्बन्ध जुड़ा रहता है।

प्रश्न 26.
भूमिगत जल किसे कहते हैं?
उत्तर:
वर्षा के जल का कुछ अंश पारगम्य चट्टानों द्वारा भूमि के नीचे चला जाता है, जिसे ‘भूमिगत जल’ कहते हैं। यही भूमिगत जल हमें कुओं, नलकूपों आदि द्वारा प्राप्त होता है। ऐसा अनुमान है कि यदि समस्त भूमिगत जल को धरातल की सतह पर लाया जाए तो सतह पर 170 मीटर की ऊँचाई तक जल का विस्तार हो जाएगा।

प्रश्न 27.
नदी को अपने उद्गम क्षेत्र से मुहाने तक कितने भागों में बाँटा जा सकता है?
उत्तर:
उद्गम क्षेत्र से मुहाने तक नदी को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

  1. पर्वतीय या ऊपरी भाग (युवावस्था)
  2. मध्य भाग (प्रौढ़ावस्था)
  3. डेल्टा या निचला भाग (वृद्धावस्था)।

प्रश्न 28.
नदी V-आकार की घाटी की रचना कैसे करती है?
उत्तर:
उद्गम स्थान से निकलते ही नदी अपने मार्ग के ढाल और गति के कारण अपनी तली को काटकर गहरा करने का कार्य करती है। इससे घाटी का आकार V-अक्षर जैसा हो जाता है। घाटी का निरन्तर विकास होता रहता है जिसमें क्षैतिज अपरदन (Lateral Erosion) कम तथा लम्बवत् अपरदन (Vertical Erosion) अधिक होता है।

प्रश्न 29.
स्थायी हिमक्षेत्र कहाँ पाए जाते हैं?
उत्तर:
स्थायी हिमक्षेत्र ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों जैसे हिमालय तथा आल्पस इत्यादि तथा ध्रुवीय प्रदेशों में मिलते हैं। ग्रीनलैण्ड तथा अंटार्कटिका विशाल हिमक्षेत्र हैं। इन प्रदेशों में हिमांक से नीचे तापमान व लगातार भारी तुषार के कारण हिमतूल जमते रहते हैं। कम वाष्पीकरण व भयंकर ठण्ड के कारण हिम ग्रीष्मकाल में भी नहीं पिघलती।

प्रश्न 30.
हिमनदी U-आकार की घाटी क्यों बनाती है?
उत्तर:
हिमनदियों में अपने लिए स्वयं घाटी बनाने की शक्ति नहीं होती, बल्कि वे हिमावरण से पहले नदियों द्वारा निर्मित घाटियों में होकर बहती हैं। नदी घाटी में बहती हिम घाटी की तली व पावों का अपरदन करके उसे अधिक गहरा और चौड़ा कर देती है। इससे नदी की घाटी की मूल V-आकृति के स्थान पर U-आकार की घाटी विकसित होती है।

प्रश्न 31.
हिमनदी के विभिन्न भाग विभिन्न गति से क्यों बहते हैं? अथवा हिमनदी का मध्य भाग किनारों की अपेक्षा अधिक तेज़ी से क्यों चलता है?
उत्तर:
हिमनदी के विभिन्न भाग विभिन्न दर से बहते हैं। हिम की गति किनारों की अपेक्षा मध्य भाग में तथा तलहटी की अपेक्षा सतह पर अधिक होती है। इसका कारण यह है कि तली और किनारों पर आधारी चट्टान (Base rock) के घर्षण के फलस्वरूप हिम के प्रवाह की गति कम हो जाती है। मध्य भाग में ऐसी कोई रुकावट न होने के कारण हिमनदी की गति अधिक हो जाती है।

प्रश्न 32.
चूना पत्थर के क्षेत्रों में नदियों के अचानक लुप्त हो जाने की घटना की व्याख्या आप किस प्रकार करेंगे?
उत्तर:
भूमिगत जल की घुलन क्रिया द्वारा बड़े-बड़े घोल रन्ध्रों का निर्माण होता है। इन घोल रन्ध्रों में भूतल का जल-प्रवाह लुप्त हो जाता है तथा भूतल पर बहने वाली नदियाँ भूमिगत बहने लगती हैं। परिणामस्वरूप भूतल पर शुष्क घाटियों का निर्माण होता है तथा भूमिगत क्षेत्र में अन्धी घाटियाँ बन जाती हैं। निचले ढलानों वाले क्षेत्रों में ये घाटियाँ नदियों द्वारा भूतल पर प्रगट हो जाती हैं तथा नदियाँ भूतल पर बहने लगती हैं।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
नदियाँ भूतल पर समतल स्थापना का कार्य किन-किन रूपों में करती हैं? संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नदियाँ भूतल पर समतल स्थापना का कार्य तीन रूपों में करती हैं-

  1. अपरदन-नदी के द्वारा अपने तटों और तलहटी की चट्टानों को काटने, खुरचने, तराशने या घुलाने की क्रिया को अपरदन (Erosion) कहते हैं।
  2. परिवहन-नदी के द्वारा अपरदित शैल चूर्ण को अपने जल के वेग के साथ बहाकर या घुलाकर ले जाने की क्रिया को परिवहन (Transportation) कहते हैं।
  3. निक्षेपण-नदी के द्वारा बहाकर लाए गए तलछट को किसी निम्न प्रदेश, घाटी, झील अथवा समुद्र की तली में जमा कर देने की क्रिया को निक्षेपण (Deposition) कहा जाता है।

प्रश्न 2.
नदी किन-किन रूपों में भौतिक अपरदन करती है?
उत्तर:
नदी द्वारा भौतिक अपरदन तीन रूपों में सम्पन्न होता है-
1. अपघर्षण नदी अपने प्रवाह वेग से शैल मलबे को तलहटी के साथ घसीटते हुए या स्वतन्त्र रूप से बहा ले जाती है। ये चट्टानी टुकड़े औज़ार (Tools) का कार्य करते हैं और अपने मार्ग में आने वाली धरातलीय चट्टानों को खुरचते हुए चलते हैं। इससे अपरदन और बढ़ता है। अपरदन का यह रूप अपघर्षण (Abrasion or Corrasion) कहलाता है।

2. सन्निघर्षण नदी द्वारा बहाकर लाए गए असंगठित पदार्थ आपस में टकराते व रगड़ खाते चलते हैं जिससे उनका और घाटी दोनों का अपरदन होता है। बड़े-बड़े शिलाखण्ड घिसकर गोल व नुकीली गुटिकाओं में बदल जाते हैं और अन्ततः ये टुकड़े बजरी और फिर बालू (रत) में बदल जाते हैं। अपरदन का यह रूप सन्निघर्षण (Attrition) कहलाता है।

3. जल की दाब क्रिया-चट्टानों के अपरदन की इस विधि में नदी अपने वेग और दबाव के कारण मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों के कणों को ढीला करके बहा ले जाती है।

प्रश्न 3.
नदी की अपरदन क्षमता को निर्धारित करने वाले कारक कौन से हैं?
अथवा
“नदी द्वारा अपरदन पानी की मात्रा और भूमि के ढलान पर निर्भर करता है।” व्याख्या करें।
उत्तर:
नदी की अपरदन क्षमता को मुख्यतः निम्नलिखित चार कारक निर्धारित करते हैं-
1. जल का वेग तेज़ गति से बहता जल अपने साथ अधिक नद-भार को बहा ले जाता है। यही शैल चूर्ण चट्टानों की तली और किनारों पर प्रहार करके उनका तेज़ी से अपरदन करता है।

2. जल की मात्रा-जल की अधिक मात्रा होने पर नदी मार्ग की चट्टानों का अधिक बलपूर्वक अपरदन कर सकती है। अधिक जल से रासायनिक अपरदन की मात्रा भी बढ़ जाती है।

3. चट्टानों की प्रकृति ग्रेनाइट अथवा बेसाल्ट जैसी कठोर चट्टानों के क्षेत्र से गुज़रते हुए नदी की अपरदन क्रिया सीमित हो जाती है जबकि बलुआ पत्थर या चूने के प्रदेशों में जल की अपरदन क्रिया सर्वाधिक होती है। इसका कारण यह है कि कोमल चट्टानें कठोर चट्टानों की अपेक्षा शीघ्र अपरदित होती हैं।

4. नद-भार की मात्रा और प्रकृति-बहते हुए जल में महीन पदार्थ प्रभावी अपरदन नहीं कर पाते जबकि नदी की तली के साथ रगड़ खाते हुए बड़े शैल-खण्ड अत्यन्त कारगर ढंग से घाटी की तली और किनारों को तोड़ते-फोड़ते चलते हैं। यदि नदी में जल की मात्रा और गति बढ़ जाए तो नद-भार की अपरदन क्षमता बहुत अधिक बढ़ जाती है।

प्रश्न 4.
नद-बोझ क्या होता है? नदी परिवहन को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों का संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
नद-बोझ का अर्थ नदी द्वारा ढोए जाने वाले अवसाद को नद-भार या नद-बोझ (River Load) कहा जाता है। नद-भार में बड़े-बड़े शिलाखण्डों से लेकर महीन चीका तक सम्मिलित होते हैं।

नदी परिवहन को प्रभावित करने वाले कारक-नदी परिवहन को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-
1. जल का वेग-जल का वेग (Velocity of Water) घाटी के ढाल तथा जल के आयतन पर निर्भर करता है। जब कभी नदी में बहते हुए जल की गति किन्हीं कारणों से बढ़ जाती है तो जल की परिवहन क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है।

2. नद-भार का आकार महीन शैल-कणों को नदी काफ़ी दूर तक बहा ले जाती है। कुछ खनिज जल में घुलकर और अधिक दूरी तक पहुँच जाते हैं, लेकिन बड़े और भारी शिलाखण्ड कुछ ही दूरी तक बहाए जा सकते हैं।

3. जल की मात्रा यदि अन्य हालात सामान्य रहें तो नदी में जल की मात्रा (Volume of Water) दुगुनी होने पर उसके परिवहन की शक्ति भी दुगुनी से ज्यादा हो जाती है।

प्रश्न 5.
नदी अपना बोझ किन विधियों से ढोती है?
उत्तर:
नद-बोझ का परिवहन तीन प्रकार से होता है-

  • घुलकर-जैसे थोड़ी-बहुत मात्रा में चूने की चट्टानों के अंश घुलकर चलते हैं।
  • निलम्बन अवस्था में जैसे चीका और गाद के कण पानी में चढ़ते-उतरते, लटककर झूले खाते हुए चलते हैं।
  • लुढ़ककर-जैसे भारी शैल पदार्थ लुढ़कते और घिसटते हुए आगे बढ़ते हैं।

इसके भी दो तरीके हैं-

  • वल्गन (Saltation) में बजरी और रोड़ी जैसे कण कभी थोड़ा ऊपर उठते हैं और कभी तली पर आ टिकते हैं।
  • कर्षण (Traction) में पत्थर और शिलाखण्ड भार के कारण तल पर घिसटते चलते हैं।

प्रश्न 6.
पुनर्योवन (Rejuvination ) क्या होता है? इसके प्रभावों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पुनर्योवन का अर्थ-यदि नदी के अपरदन-चक्र के पूरा हुए बिना ही किसी भूगर्भिक हलचल के कारण प्रौढ़ावस्था वाला क्षेत्र युवावस्था को प्राप्त हो जाता है, तो उसे पुनर्योवन कहते हैं।

पुनर्योवन के प्रभाव-पुनर्योवन के प्रभाव निम्नलिखित हैं-

  • नदी की अपरदन शक्ति में वृद्धि होती है।
  • गहरे विसों का निर्माण होता है।
  • पुरानी घाटियों में नई घाटियों का निर्माण आरम्भ हो जाता है।
  • नदी-वेदिकाओं का जन्म होता है।

प्रश्न 7.
जल-प्रपात क्या है? महाखड्ड जल-प्रपात के नीचे क्यों स्थित रहता है?
उत्तर:
जल प्रभाव का अर्थ-जब नदी ऊँचे स्थान से नीचे की ओर गिरती है तो उससे जल-प्रपात का निर्माण होता है। जब नदी के मार्ग में कठोर तथा कोमल चट्टानें क्रमबद्ध रूप से स्थित होती हैं तो नदी कोमल चट्टान को आसानी से काट देती है तथा कठोर चट्टान का कटाव कम होता है जिससे नदी की तलहटी निरन्तर नीची हो जाती है तथा नदी का जल ऊपर से नीचे गिरने लगता है जिसे जल-प्रपात कहते हैं।

जल के तीव्र वेग से नीचे गिरने के कारण नीचे कोमल चट्टानों का अपरदन होता है जिससे वहाँ एक कुण्ड का निर्माण होता है। धीरे-धीरे जल-प्रपात पीछे हटता रहता है जिससे वह कुण्ड, महाकुण्ड या महाखड्ड में बदल जाता है।

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 7 भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास

प्रश्न 8.
नदी घाटी का विकास किन-किन रूपों में होता है? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नदी घाटी का विकास तीन भिन्न रूपों में होता है-
1. घाटी का गहरा होना घाटी का प्रारम्भिक विकास तीव्र ढाल वाले पर्वतीय प्रदेशों में होता है। लाम्बिक अपरदन (Lateral Erosion) अधिक होने के कारण घाटी गहरी व संकीर्ण बनती है। यह नदी की युवावस्था होती है।

2. घाटी का चौड़ा होना-मैदानी भाग में कम ढाल के कारण नदी लाम्बिक अपरदन कम और पार्श्विक अपरदन (Horizontal Erosion) अधिक करने लगती है। इस भाग में नदी चौड़ाई में विकसित होती है।

3. घाटी का लम्बा होना-नदी घाटी की लम्बाई (Lengthening) कई प्रकार से बढ़ती है। प्रमुख रूप से नदी अपने शीर्ष का अपरदन करके अपने उद्गम स्थल की ओर बढ़ती है। इसमें घाटी लम्बी होती है। शीर्ष अपरदन करते-करते नदी अपनी सहायक नदियों को भी खा जाती है, जिसे सरिता-अपहरण कहते हैं। इससे भी घाटी की लम्बाई बढ़ती है। विसों का आकार बढ़ने से भी घाटी लम्बी होती है। डेल्टा सदा समुद्र की ओर बढ़कर नदी घाटी की लम्बाई में वृद्धि करता रहता है।

प्रश्न 9.
डेल्टा बनने की आवश्यक भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
डेल्टा बनने की आवश्यक भौगोलिक दशाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) नदी के ऊपरी भाग में जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना चाहिए ताकि अधिक अपरदन द्वारा नद-भार की अधिक मात्रा प्राप्त हो सके।

(2) मुख्य नदी में अनेक सहायक नदियाँ (Tributaries) मिलनी चाहिएँ ताकि तलछट की अतिरिक्त राशि उपलब्ध हो सके। महीन तलछट जितना अधिक होगा, डेल्टा निर्माण की प्रक्रिया उतनी ही सरल होगी।

(3) नदी का प्रवाह मार्ग लम्बा हो ताकि समुद्र तक पहुँचते-पहुँचते घाटी प्रवणित (Graded) हो सके और नदी की गति मन्द हो जाए। नदी का कम वेग निक्षेपण में सहायता करता है। समुद्र तट के निकट स्थित पर्वतों से निकलने वाली नदियाँ डेल्टा की अपेक्षा ज्वार-नदमुख (Estuaries) बनाती हैं।

(4) नदी के मार्ग में कोई झील न हो ताकि नदी द्वारा ढोया गया अवसाद उसमें निक्षेपित न होने लगे।

(5) नदी के मुहाने पर शक्तिशाली समुद्री तरंगें, धाराएँ तथा ज्वार-भाटा न आते हों, अन्यथा निक्षेप इनके साथ बहकर समुद्र में चला जाएगा और डेल्टा की रचना कभी नहीं हो पाएगी।

भारत के पश्चिमी तट पर इन दशाओं के न होने के कारण नदियाँ डेल्टा की अपेक्षा ज्वार-नदमुख (Estuaries) बनाती हैं, जबकि पूर्वी तट पर अनेक नदियाँ बड़े-बड़े डेल्टाओं की रचना करती हैं।

प्रश्न 10.
अपवाह तन्त्र किसे कहते हैं? अपवाह तन्त्रों के मुख्य प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर:
अपवाह तन्त्र-किसी क्षेत्र में बहने वाली नदियों तथा उनकी सहायक नदियों के क्रम को अपवाह तन्त्र कहते हैं। अपवाह तन्त्र के प्रकार-अपवाह तन्त्र के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं-
1. समानान्तर प्रारूप इसमें नदियाँ लगभग एक-दूसरे के समानान्तर बहती हैं। लघु हिमालय क्षेत्र में बहने वाली नदियाँ इस प्रकार का तन्त्र बनाती हैं।

2. जालीनुमा अपवाह तन्त्र-इस प्रणाली में जलधाराएँ पूर्ण रूप से ढाल का अनुसरण करती हैं तथा प्रवाह मार्ग में परिवर्तन ढाल के अनुसार होता है। सहायक नदियाँ मुख्य नदियों के समकोण पर मिलती हैं। उदाहरण के लिए, पेरिस बेसिन में इस प्रकार का अपवाह तन्त्र देखने को मिलता है।

3. द्रुमाकृतिक अपवाह तन्त्र इसमें मुख्य नदी वृक्ष के तने के समान होती है तथा उसकी सहायक नदियाँ वृक्ष की शाखाओं की भाँति फैली होती हैं। भारत में गंगा तथा गोदावरी नदियाँ इस प्रकार का तन्त्र बनाती हैं।

4. अरीय अपवाह तन्त्र-इसमें धरातल के मध्यवर्ती भाग में कोई ऊँची पर्वत श्रेणी या पठारी भाग स्थित होता है तथा चारों ओर निम्न भू-भाग होता है। नदियाँ चारों ओर से बहना आरम्भ करती हैं। भारत में पारसनाथ से निकलने वाली नदियाँ इस प्रकार का तन्त्र बनाती हैं।

5. पूर्ववर्ती अपवाह तन्त्र-इसमें नदियों की धारा का जन्म स्थलखण्ड के उत्थान से पूर्व हो जाता है। सिन्धु तथा सतलुज नदियाँ इसी प्रकार के तन्त्र का निर्माण करती हैं।

6. आन्तरिक अपवाह तन्त्र-यह तन्त्र अर्द्ध शुष्क तथा मरुस्थलीय भागों में मिलता है। इसमें नदियाँ कुछ दूर बहने के पश्चात् मरुस्थल में लुप्त हो जाती हैं। ये नदियाँ झील या समुद्र तक नहीं पहुँचतीं।।

प्रश्न 11.
भौम-जलस्तर को निर्धारित करने वाले कारक कौन-से हैं? उनकी संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर:
ऊपरी तल के रन्ध्रों से जल रिसकर भू-गर्भ की चट्टानों में एकत्रित होता रहता है और कुछ गहराई के पश्चात चट्टानें जल से संतृप्त होती हैं, इन्हें जल-संतृप्त चट्टानें कहते हैं। जल संतृप्त चट्टान पर जल की ऊपरी सतह को भूमिगत जल का तल (Underground.Water Level) कहते हैं। इसे भौम-जलस्तर भी कहते हैं। अन्य शब्दों में, किसी क्षेत्र में भूतल के नीचे का वह तल जिसके नीचे शैलें जल से भरपूर होती हैं, तो उसे भौम-जलस्तर कहते हैं।

भौम-जलस्तर परिवर्तनशील है। कुछ क्षेत्रों में यह केवल 2-3 मीटर की गहराई पर मिलता है तथा कई क्षेत्रों में सैकड़ों मीटर गहरा होता है। इसी प्रकार वर्षा ऋतु में जलस्तर ऊँचा तथा शुष्क ऋतु में जलस्तर नीचा होता है। भौम-जलस्तर को निम्नलिखित घटक नियन्त्रित करते हैं-

  • शैलों की पारगम्यता
  • वर्षा की मात्रा
  • शैलों की सरंध्रता
  • शैलों की संरचना।

प्रश्न 12.
भूमिगत जल के प्रमुख स्रोत कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
वर्षा और बर्फ के पिघलने से प्राप्त जल, जिसे उल्कापात जल (Meteoric Water) कहते हैं, के अतिरिक्त भूमिगत जल में वृद्धि करने वाले और भी स्रोत हैं। समुद्रों और झीलों की तली में स्थित परतदार चट्टानों के छिद्रों और सुराखों में इकट्ठा हुआ जल सहजात जल या तलछट जल (Connate Water) कहलाता है। जब कभी भू-गर्भिक उत्थान के कारण-समुद्र का कोई भाग ऊपर उठता है तो उस भाग से संचित जल भूमिगत जल बन जाता है।

जलज चट्टानों के नीचे दब जाने से मुक्त हुआ जल भी भूमिगत जल में वृद्धि करता है। इसके अतिरिक्त जब कभी तप्त मैग्मा चट्टानों में प्रवेश कर जाता है तो चट्टानों में स्थित वाष्पीय पदार्थ घनीभूत होकर भूमिगत जल में मिल जाते हैं। ऐसा जल मैग्मज जल (Magmatic Water) या तरुण जल (Juvenile Water) कहलाता है। पृष्ठीय जल (Surface water) का कितना हिस्सा भूमिगत जल बनेगा यह वहाँ की जलवायु पर निर्भर करता है।

प्रश्न 13.
गुफाओं का निर्माण कैसे होता है?
उत्तर:
चूने के प्रदेश में धरातल की ऊपरी सतह पर कठोर चट्टानें होती हैं तथा भू-पृष्ठ के नीचे चूने की चट्टानें। ऐसी स्थिति में यहाँ नदियों या भूमिगत जल द्वारा अन्दर की चूने की चट्टानों का घुलना आरम्भ हो जाता है जिससे धरातल के नीचे खोखला भाग बन जाता है तथा ऊपर कठोर चट्टान छत की तरह स्थित रहती है। इस प्रकार गुफा का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में केंटुकी राज्य में 50 कि०मी० लम्बी गुफा है। देहरादून के निकट ‘रोबर्स’ कन्दरा, बिहार में सासाराम के निकट ‘गुप्तेश्वर’ गुफा प्रसिद्ध गुफाएँ हैं। विश्व की सबसे बड़ी कन्दरा स्विट्ज़रलैण्ड में ‘हलौच’ कन्दरा है। यह 85 कि०मी० लम्बी है।

प्रश्न 14.
झरनों का निर्माण किस प्रकार होता है?
उत्तर:
भूमिगत जल प्राकृतिक रूप से स्वयं एक धारा के रूप में बाहर निकलने लगता है, जिसे झरना कहते हैं। मोकहाउस के शब्दों में, “झरना धरातल पर जल का प्राकृतिक प्रवाह है। यह बहुत तेजी से पर्याप्त शक्ति से बाहर आता है और धीरे-धीरे कम दबाव से बहता है।” झरने जल से भरे हुए धरातल के उन स्थानों पर मिलते हैं जहाँ पारगम्य चट्टानें स्थित होती हैं। भूमिगत जल-भूतल की ढलान के साथ बहता हुआ प्राकृतिक छिद्र या सन्धि स्थल से बाहर आ जाता है जिससे झरने का निर्माण होता है। ये झरने पर्वतीय गिरीपद के निकट पाए जाते हैं।

प्रश्न 15.
झरने कितने प्रकार के होते हैं? संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
झरनों से विभिन्न प्रकार का जल निकलता है। विभिन्न भू-गर्भिक और स्थल रूपों के आधार पर झरने निम्नलिखित प्रकार के होते हैं

  1. दुःस्थित झरना-इस प्रकार के झरनों में पारगम्य चट्टानें भूतल पर जलस्तर के ऊपर स्थित होती हैं।
  2. परिरुद्ध झरना इसमें जल से संतृप्त धरातल के ऊपर या नीचे मित् जल भृत की परतें होती हैं।
  3. भ्रंश झरना-ये झरने भू-तल पर विभ्रंश रेखा के निकट से निकलते हैं। इनका निर्माण भ्रंशन के कारण जल से भरपूर चट्टानों का अपारगम्य चट्टानों के सामने आने से होता है।
  4. विभेदित झरना-ग्रेनाइट की चट्टानें सभेदित होती हैं तथा इनमें सन्धियाँ पाई जाती हैं। इन झरनों का निर्माण इन सन्धियों में से झुके हुए भू-तल पर बाहर निकलने से होता है।
  5. डाइक झरना-जब पारगम्य चट्टानों के मध्य डाइक स्थित होती है तथा उनके सन्धि स्थल से जल बाहर निकलने लगता है तो डाइक झरने का निर्माण होता है।
  6. कार्ट झरना-कार्ट क्षेत्रों में घुलन क्रिया द्वारा जल नीचे चला जाता है। जब यह जल स्तर धरातल से मिलता है तो झरने के रूप में बाहर आ जाता है।
  7. अन्य झरने कई क्षेत्रों में भू-स्खलन अथवा मलबा शंकु के साथ-साथ झरनों का जन्म होता है।

प्रश्न 16.
उत्सुत कूप की रचना किन दशाओं में होती है? ये किन प्रदेशों में मिलते हैं?
उत्तर:
उत्सुत कूप-ये वे प्राकृतिक कुएँ हैं जो आन्तरिक भाग से धरातल पर स्वतः ही जल का निष्कासन करते रहते हैं। उत्स्रुत कूप अथवा पाताल तोड़ कुएँ सर्वप्रथम फ्राँस प्रान्त के अर्टवायज़ (Artois) क्षेत्र में खोदे गए, इसलिए इन्हें आर्टीजियन कुँओं के नाम से पुकारा जाता है।

उत्स्त्रुत कूप रचना की दशाएँ-उत्स्त्रुत कूप रचना की दशाएँ निम्नलिखित हैं-

  • दो अपारगम्य शैलों के मध्य एक पारगम्य शैल होती है।
  • पारगम्य चट्टान जल से भरपूर होती है तथा उसके दोनों सिरे ऊँचे तथा खुले होते हैं। इस क्षेत्र में वर्षा अधिक होती है।
  • इन शैलों की आकृति प्लेट के आकार की होती है तथा अभिनति का वलन होता है।
  • ढलान वाले क्षेत्र के ऊपरी सिरों से जल निचले क्षेत्र में इकट्ठा होता रहता है।
  • अपारगम्य शैल में छिद्र करके कूप खोदा जाता है।
  • जल दबाव शक्ति-क्रिया द्वारा जल स्वतः तेज़ गति से बाहर आता है।

उत्त कूप सबसे अधिक ऑस्ट्रेलिया में पाए जाते हैं जो यहाँ 15 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में फैले हुए हैं। यहाँ नौ हजार से भी अधिक ऐसे कुएँ हैं। भारत में तराई क्षेत्र, गुजरात में जलोढ़ क्षेत्र तथा तमिलनाडु के अर्काट जिले में ऐसे कूप पाए जाते हैं।

प्रश्न 17.
गीजर क्या है? गीज़र की रचना कैसे होती है?
उत्तर:
गीजर का अर्थ भू-गर्भ से गरम (तप्त) जल रुक-रुक कर झटकों के साथ कई मीटर की ऊँचाई तक धरातल पर निकलता है तो उसे गीज़र कहते हैं। यह जल धरातल पर 50 से 60 मीटर की ऊँचाई तक जाता है। ‘गीजर’ शब्द आईसलैण्ड के ‘गेसिर’ शब्द से बना है। गेसिर इस द्वीप का महान् गीज़र है। इसमें गरम जल लगभग 60 मीटर की ऊँचाई तक ऊपर उठता है।

गीजर की रचना के आधार-गीजर ‘गशर’ का पर्यायवाची लगता है। इसकी रचना निम्नलिखित आधार पर होती है-

  • भू-तल के नीचे पृथ्वी के आन्तरिक भाग में अधिक तापमान के कारण गरम जल के भण्डार स्थित हैं।
  • अधिक तापमान के कारण आन्तरिक जल भाप में बदल जाता है।
  • भूमिगत गरम जल तथा भाप संकरी तथा टेढ़ी-मेढ़ी नली द्वारा फुहारे के रूप में बाहर निकलते हैं।
  • भूमि के नीचे जल को उबलने में कुछ समय लगता है इसलिए संकरी नली से जल रुक-रुक कर बाहर आता है।
  • ये मुख्य रूप से सक्रिय ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
  • गीजर के जल के साथ कई खनिज पदार्थ तथा सिलिक मिश्रित होती हैं, जो गीजर के मुख के आसपास जमा हो जाते हैं।

प्रश्न 18.
हिमनदी किन दो प्रकारों से अपरदन क्रिया करती है? संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
हिमोढ़ की सहायता से हिमनदी निम्नलिखित दो प्रकारों से अपरदन क्रिया करती है-
1. अपघर्षण-इस प्रक्रिया में हिमनद अपने मलबे की सहायता से यांत्रिक विधि द्वारा अपनी घाटी और किनारों को रेगमार की तरह घिसता, खरोंचता और चिकनाता हुआ आगे बढ़ता है। इससे घाटी की तली में बारीक धारियों के रूप में खरोंच के निशान भी पड़ जाते हैं।

2. उत्पाटन-इस क्रिया में हिमनदी अपने मार्ग में पड़ने वाली अनावृत्त शैलों के अदृढ़खण्डों को अपनी ताकत से उखाड़ कर अलग कर देती है।

प्रश्न 19.
हिमनदी क्या होती है? यह कैसे बनती है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
हिमनदी का अर्थ कर्णहिम (Neve) के पुनस्र्फटन (Recrystallisation) से बनी हिमकी विशाल संहत राशि जो धरातल पर गुरुत्वाकर्षण के प्रभावाधीन बहती है, हिमनदी या हिमानी कहलाती है।

कैसे बनती है हिमनदी?-ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों और ध्रुवीय प्रदेशों में जहाँ तापमान हिमांक बिन्दु (Freezing Point) से कम होता है, वर्षण (Precipitation) जल की बूँदों के रूप में न होकर हिमतूलों (Snow flakes) के रूप में होता है।

लगातार अनेक वर्षों तक हिमपात होते रहने से हिम की परतें एक-दूसरे के ऊपर बिछती रहती हैं। ऊपरी परतों के दबाव के कारण हिम की निचली परतों से वायु निकल जाती है और हिम ठोस व संहत रूप धारण करने लगती है। ऐसी हिम को कर्णहिम या नेवे (Neve) कहा जाता है। जब हिमराशि की ऊँचाई 70-80 मीटर तक पहुँच जाती है तो वह अपने भार तथा पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से ढाल पर नीचे की ओर खिसकने लगती है। इस धीमी गति से बहती हुई बर्फ को हिमनदी कहा जाता है।

प्रश्न 20.
हिमनदियाँ क्यों बहती हैं? अथवा हिमनदियों के संचलन का कारण बताइए।
उत्तर:
स्विट्ज़रलैण्ड के प्रकृति-विज्ञानी (Naturalist) लुई अगासिज़ (Louis Aggasiz) ने सर्वप्रथम सन् 1834 में इस सत्य को उजागर किया था कि हिमनदियाँ गतिशील होती हैं। ये 2.5 सेण्टीमीटर प्रतिदिन से 30 मीटर प्रतिदिन की दर से बहती हैं। हिमनदी के विभिन्न भाग विभिन्न दर से बहते हैं। हिम की गति किनारों की अपेक्षा मध्य भाग में तथा तलहटी की अपेक्षा सतह पर अधिक होती है। इसका कारण यह है कि तली और किनारों पर आधारी चट्टान (Base Rock) के घर्षण के फलस्वरूप हिम के प्रवाह की गति कम हो जाती है।

प्रश्न 21.
हिमक्षेत्र और हिमरेखा के अन्तर को आप कैसे स्पष्ट करेंगे?
उत्तर:
हिमनदी अपने अस्तित्व और पोषण (Nourishment) के लिए अप्रत्यक्ष रूप से समुद्रों पर निर्भर करते हैं। जिन ठण्डे प्रदेशों में वार्षिक हिमपात की दर उसके पिघलने और वाष्पित होने की दर से अधिक होती है, वे सदा बर्फ से ढके रहते हैं, ऐसे क्षेत्र जहाँ बर्फ पड़ी रहती है, हिमक्षेत्र कहलाते हैं। हिमक्षेत्र की निचली सीमा को हिमरेखा कहा जाता है। हिमरेखा वह सीमा होती है जहाँ से ऊपर बर्फ कभी नहीं पिघलती। हिमरेखा कभी भी स्पष्ट और निश्चित नहीं होती। भूमध्य-रेखीय प्रदेशों में अधिक गर्मी के कारण हिमरेखा 6,000 मीटर की ऊँचाई पर मिलती है जबकि ध्रुवीय प्रदेशों में हिमरेखा समुद्र तल तक पहुँची हुई होती है। विश्व में सबसे ऊँची हिम रेखाएँ 20° से 30° उत्तरी व दक्षिणी अक्षांशों (Latitudes) के शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती हैं। हिमालय में हिमरेखा 4,250 मीटर की ऊँचाई पर पाई जाती है।

प्रश्न 22.
हिमरेखा क्या होता है? हिमरेखा की ऊँचाई को निर्धारित करने वाले प्रमुख कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
हिमरेखा का अर्थ-हिमरेखा हिमक्षेत्र की निचली सीमा को हिमरेखा कहते हैं। यह वह ऊँचाई होती है जिससे ऊपर बर्फ कभी भी नहीं पिघलती तथा बर्फ पूरे वर्ष जमी रहती है। हिमरेखा की ऊँचाई ध्रुवीय क्षेत्रों में समुद्र तल के पास भी हो सकती है, परन्तु भूमध्य रेखीय क्षेत्रों में इसकी ऊँचाई 6,000 मी० तक होती है।

हिमरेखा की ऊँचाई को निर्धारित करने वाले कारक-हिमरेखा की ऊँचाई को निर्धारित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-

  • अक्षांश ध्रुवीय प्रदेशों में कम तापमान के कारण हिमरेखा की ऊँचाई कम होती है तथा भूमध्य-रेखीय प्रदेशों में अधिक तापमान के कारण इसकी ऊँचाई अधिक होती है।
  • हिम की मात्रा-जिन क्षेत्रों में हिमपात अधिक होता है, वहाँ यह नीची तथा कम हिमपात वाले क्षेत्रों में ऊँची होती है।
  • ढलान तथा आर्द्रता तीव्र ढलान तथा शुष्क प्रदेशों में हिमरेखा ऊँची व सरल ढलान तथा आर्द्र क्षेत्रों में इसकी ऊँचाई कम होती है।
  • ऋतु का प्रभाव-शीत ऋतु में हिमरेखा नीची तथा ग्रीष्म ऋतु में हिमरेखा ऊँची होती है।

प्रश्न 23.
पवन चट्टानों का अपरदन कितने प्रकार से करती है? पवन अपरदन को प्रभावित करने वाले कारकों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
पवन जिन ढीले चट्टानी कणों को ढोती है, उन्हीं को औज़ार (Tool) बनाकर अपने मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों का यान्त्रिक अपरदन करती है। पवन चट्टानों का अपरदन तीन प्रकार से करती है-

  • अपवहन (Deflation)-इस क्रिया द्वारा भौतिक अपक्षय से टूटी हुई चट्टानों के कणों को अपने साथ उड़ा ले जाती है।
  • सन्निघर्षण (Attrition)-इस क्रिया में पवनों के साथ उड़ते हुए कण आपस में टकराकर सूक्ष्म होते रहते हैं।
  • अपघर्षण (Abrasion) इसमें रेत के कण चट्टान पर प्रहार करके रेगमार की भांति उसे खुरच देते हैं।

पवन अपरदन को प्रभावित करने वाले कारक-पवन अपरदन को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं

  • पवन बालू के कणों को अधिक ऊँचाई तक नहीं उठा पाती, इसलिए पवन का अपरदन कार्य धरातल से थोड़ी-सी ऊँचाई तक ही प्रभावी होता है।
  • पवन का अपरदन उन कणों के आकार पर भी निर्भर करता है जिन्हें वह उड़ाकर या घसीटकर अपने साथ ढोती है।
  • पवन की गति और उसके बहने की अवधि भी पवन के अपरदन कार्य को प्रभावित करते हैं।
  • वातीय अपरदन की मात्रा चट्टानों की प्रकृति (कोमल या कठोर), सन्धियों (Joints) और उनके कणों के संघटन से भी प्रभावित होती है।

प्रश्न 24.
समुद्री अपरदन (Marine Erosion) किस प्रकार होता है? यह किन-किन कारकों पर निर्भर करता है?
उत्तर:
समुद्री अपरदन की प्रक्रिया-जब समुद्री तरंगें तटों पर जाकर टूटती हैं तो वे वहाँ स्थित चट्टानों पर तेज़ प्रहार करती हैं। ऐसा अनुमान है कि फेनिल तरंगें तट के प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र पर 3,000 से 30,000 किलोग्राम जितना दबाव डाल सकती हैं। तूफ़ानी तरंगों का दबाव और अधिक होता है। जब समुद्री तरंगें तटों से टकराती हैं तो चट्टानों के छिद्रों और दरारों में छिपी वायु भिंच (Compress) जाती है।

तरंग के वापस लौटते ही यह दबी हुई वायु झटके से बाहर निकलती है। हवा के इस आकस्मिक फैलाव का विस्फोटक प्रभाव पड़ता है और चट्टानी कण ढीले पड़ने लगते हैं। इस क्रिया की लम्बी अवधि तक पुनरावृत्ति तटीय चट्टानों को तोड़ देती है। यदि तरंगें बजरी और बालू रूपी यन्त्रों से लैस हों तो सागरीय अपरदन और तेज़ हो जाता है। समुद्री तरंगें अपरदन क्रिया द्रव-प्रेरित बल, अपघर्षण, विलयन तथा सन्निघर्षण द्वारा करती हैं।

समुद्री अपरदन के कारक-समुद्र का अपरदन कार्य अनेक कारकों पर निर्भर करता है; जैसे-

  • समुद्री तरंगों के आकार और उनकी शक्ति
  • तट की ऊँचाई
  • तट का ढाल
  • तटीय चट्टानों की बनावट और संगठन
  • समुद्री तल की गहराई
  • तरंग के टूटने का बिन्दु इत्यादि।

प्रश्न 25.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए-
1. अपशल्कन अथवा पल्लवीकरण
2. ‘I’ आकार की घाटी
3. ‘V’ आकार की घाटी
4. ‘U’ आकार की घाटी
5. जैव अपक्षय
6. कार्बोनेटीकरण
7. लटकती घाटी
8. गॉर्ज
9. जल-प्रपात
10. गुंफित नदी
11. डेल्टा
12. प्राकृतिक तटबन्ध तथा बाढ़ का मैदान
13. पुनर्योवन
14. पूर्ववर्ती अपवाह तन्त्र
15. सर्क
16. हिमोढ़
17. ड्रमलिन
18. छत्रक
19. इन्सेलबर्ग
20. बारखन
21. बालुका स्तूपों का खिसकना
22. समुद्री भृगु
23. तरंग-यर्षित वेदी
24. अपक्षेप मैदान
25. रिया तट
26. भौम-जलस्तर
27. झरना।
उत्तर:
1. अपशल्कन अथवा पल्लवीकरण-कुछ चट्टानें ताप की उत्तम चालक नहीं होतीं। सूर्य के प्रचण्ड ताप द्वारा उनकी ऊपरी पपड़ी तो गरम हो जाती है, जबकि पपड़ी के नीचे का भीतरी भाग ठण्डा ही रहता है। यह ताप विभेदन चट्टानों की समकंकता (Cohesion) भंग कर देता है, जिससे चट्टानों की ऊपरी पपड़ी मूल चट्टानों से ऐसे अलग हो जाती है; जैसे प्याज़ का छिलका। चट्टान से अलग होने पर छिलकों जैसी ये परतें टूटकर चूर-चूर हो जाती हैं। चट्टानों के टूटने का यह रूप पल्लवीकरण या अपशल्कन (Exfoliation) कहलाता है।
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2. I’ आकार की घाटी-इसे केनियन भी कहते हैं। केनियन की रचना ऐसे क्षेत्रों में होती है जहाँ नदी, ऊँचे पहाड़ी, पठारी भाग तथा कठोर चट्टानों से निर्मित भू-भाग से होकर गुजरती है। नदी की घाटी कम चौड़ी, अधिक गहरी एवं सँकरी होती है। इसकी आकृति ‘आई’ (I) के आकार की होती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में कोलोरेडो नदी पर विश्व-प्रसिद्ध केनियन की लम्बाई 480 कि०मी० तथा गहराई 1,828 मीटर है।

3. ‘V’ आकार की घाटी-पर्वतीय क्षेत्रों में नदी लम्बवत् कटाव के साथ-साथ पाश्विक कटाव भी करती है जिसके कारण ‘V’ आकार की घाटी का निर्माण होता है। हिमालय से निकलने वाली अधिकांश नदियाँ V-आकार की घाटी में प्रवाहित होती हैं।

4. ‘U’ आकार की घाटी-ये घाटियाँ हिमानियों द्वारा निर्मित हैं। इनके ढाल खड़े तथा तली चौरस और सपाट होती है। इन घाटियों का निर्माण नदियों की V-आकार की घाटी के विकास में हिमनद के अपघर्षण तथा उत्पादन क्रिया के द्वारा इन घाटियों को पूर्णतया चौरस तथा सपाट बनाती है। मुख्य हिमानी की घाटी गहरी तथा विस्तृत होती है।

5.जैव अपक्षय-चट्टानों की वह टूट-फूट जिसमें जीव-जन्तु, वनस्पति और मनुष्य उत्तरदायी हों जैविक अपक्षय कहलाता है। जैविक अपक्षय में भी यान्त्रिक और रासायनिक दोनों प्रकार के अपक्षय शामिल होते हैं। जैविक अपक्षय के मुख्य कारक बिलकारी जीव-जन्तु, वनस्पति की जड़ें तथा मनुष्य द्वारा खनन हैं।

6. कार्बोनेटीकरण-जल में घुली कार्बन-डाइऑक्साइड गैस की मात्रा अपने सम्पर्क में आने वाली चट्टानों के खनिजों को कार्बोनेट में बदल देती है, इसे कार्बोनेटीकरण कहते हैं। कार्बन-युक्त जल एक हल्का अम्ल (Carbonic Acid) होता है, जो चूनायुक्त चट्टानों को तेज़ी से घुला देता है। सभी चूना-युक्त प्रदेशों में भूमिगत जल कार्बोनेटीकरण के द्वारा अपक्षय का प्रमुख कारक बनता है।

7. लटकती घाटी-नदियों की तरह हिमनदियों की भी सहायक लटकती हिमनदियाँ होती हैं। पर्वतीय ढालों पर बहती हुई अधिकांश हिम की मुख्य घाटी में बहने की प्रवृत्ति होती है। बर्फ की मोटाई और उसके द्वारा तली पर डाले गए दबाव में अन्तर के कारण सहायक हिमनदी अपनी घाटी को उस गहराई और चौड़ाई में नहीं काट पाती, जिस गहराई तक मुख्य हिमनदी काट पाती है। इससे सहायक और मुख्य हिमनदी के संगम-स्थल पर तीव्र ढाल विकसित हो जाता है। जब बर्फ घाटी की ओर पिघल जाती है तो सहायक हिमनदी का जल मुख्य घाटी में जल-प्रपात वाले जलप्रपात अथवा क्षिप्रिका बनाते हुए गिरने लगता है। सहायक हिमनदी का मुख और घाटी मुख्य हिमनदी की घाटी से काफी ऊपर अधर में लटकते दिखाई पड़ते हैं। लटकती घाटियों के सर्वोत्तम उदाहरण कैलिफोर्निया के सियरा नेवादा पर्वत की योसेमाइट घाटी (Yosemite Valley) में देखे जा सकते हैं।
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8. गॉर्ज-सँकरी और अत्यधिक गहरी V-आकार घाटी को गॉर्ज कहा जाता है। ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में जब नदी प्रतिरोधी चट्टानों के ऊपर बहती है तो वह तीव्र वेग के कारण तली को काटकर अपनी घाटी को गहरा करती रहती है जबकि पाश्विक अपरदन का कार्य कम होता है। चट्टानों की कठोरता के कारण घाटी के किनारों के ऊपरी भाग ऋतु-अपक्षय के कारण कट-कट कर नीचे घाटी में गिरते रहते हैं, किन्तु निचले भाग अपक्षय के प्रभाव से मुक्त रहते हैं। इसलिए गॉर्ज ऊपर से अपेक्षाकृत चौड़े होते हैं।

9. जल-प्रपात जब नदी चट्टानी कगार के ऊपरी भाग से सीधे नीचे गिरती है तो उसे जल-प्रपात कहते हैं। नदी की घाटी में कहीं कोमल तो कहीं कठोर चट्टानें बिछी हुई होती हैं। नदी की अपरदन क्रिया से कोमल चट्टानें तो शीघ्र कट जाती हैं जबकि कठोर चट्टानें कम गति से घिसती हैं। अतः नदी द्वारा चट्टानों की भिन्न अपरदन दर ही सामान्य जल प्रपातों के निर्माण का मुख्य कारण है। भूकम्प, ज्वालामुखी तथा भू-संचरण के कारण भी जल-प्रपातों की रचना होती है। सामान्यतः जल-प्रपात निम्नलिखित दो दशाओं में बनते हैं

  • जब चट्टानों की परतें क्षैतिज अवस्था में हों।
  • जब चट्टानों की परतें लम्बवत् अवस्था में हों।

10. गुंफित नदी-निचले भाग में नदी नद-भार को ढो पाने में असमर्थ होती है अतः वह अपने ही तल पर साथ बह रहे अवसाद का निक्षेपण करने लगती है। इससे नदी की धारा अवरुद्ध होने लगती है। परिणामस्वरूप नदी अनेक धाराओं में बँटकर बहने लगती है। ये धाराएँ बालू से बनी अवरोधिकाओं द्वारा एक-दूसरे से अलग हुई होती हैं। अनेक जलधाराओं से फंदे बनाती हुई ऐसी नदी को गुंफित नदी कहते हैं।

11. डेल्टा-किसी समुद्र या झील में गिरने से पहले नदी अपने आधार तल (Base Level) को प्राप्त कर चुकी होती है। इस समय उसकी शक्ति अत्यन्त क्षीण और वेग अत्यन्त मन्द होता है। नदी अपना बचा हुआ समस्त नद-भार मुहाने पर जमा कर देती है। इस अवसाद के अवरोध के कारण नदी एक मुख्य धारा के रूप में नहीं बह पाती, बल्कि छोटी-छोटी अनेक शाखाओं (Distributaries) में बँटकर बहने लगती है।

ये शाखाएँ भी अपने-अपने मुहाने पर नद-भार का निक्षेप करने लगती हैं। इस प्रकार मुहाने के पास विशाल क्षेत्र में एक त्रिभुजाकार स्थलाकृति का निर्माण हो जाता है, जिसे डेल्टा कहते हैं। इस त्रिभुजाकार स्थलरूप को डेल्टा इसलिए कहते हैं क्योंकि नील नदी के डेल्टा की आकृति यूनानी भाषा के डेल्टा (∆) अक्षर से मिलती है। विश्व में गंगा-ब्रह्मपुत्र का डेल्टा (1,25,000 वर्ग कि०मी०) सबसे बड़ा डेल्टा है। विश्व की सभी नदियाँ डेल्टा नहीं बनातीं।
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12. प्राकृतिक तटबन्ध तथा बाढ़ का मैदान वर्षा ऋतु में बाढ़ आने पर नदी का जल उसके किनारों से बाहर निकलकर बहने लगता है। बाढ़ के समय नदी में जल की मात्रा और नद-भार ढोने की शक्ति दोनों ही बढ़ जाते हैं। बाढ़ उतरने पर नदी इतने अधिक जलोढ़ का परिवहन करने में असमर्थ हो जाती है और नद-भार का निक्षेप करना आरम्भ कर देती है। अवसाद की एक मोटी परत नदी के किनारों पर जमने लगती है क्योंकि तटों के पास घर्षण (Friction) के कारण जल की गति सबसे कम होती है।

अनेक वर्षों तक इस क्रम के बार-बार दोहराए जाने पर नदी के तटों पर लम्बे ऊँचे टीले बने दिखाई देते हैं जिन्हें प्राकृतिक तटबन्ध कहा जाता है। प्रायः ये तटबन्ध नदी के जल-तल से एक या दो मीटर ऊँचे होते हैं, लेकिन कई बार इनकी ऊँचाई आस-पास के मकानों की छतों से भी ऊँची होती है। प्राकृतिक तटबन्धों को कई बार कृत्रिम रूप से ऊँचा और पक्का भी कर दिया जाता है।

कई बार तटबन्धों के टूट जाने पर नदी का जल आस-पास के क्षेत्रों में फैल जाता है। बाढ़ की समाप्ति पर जल अपने साथ बहाकर लाए गए महीन नद-भार की एक परत वहाँ बिछा देता है, जिसे बाढ़ का मैदान कहते हैं।

13. पुनर्योवन-प्रवणित अवस्था में बहती नदी यदि आधार तल को प्राप्त कर भी ले तो यह स्थिति अस्थाई होती है। इसका कारण यह है कि कभी नदी घाटी का तल ऊपर उठ जाता है या स्थाई माना जाने वाला समुद्र का तल ही किन्हीं कारणों से नीचा हो सकता है। ऐसे में प्रवणित घाटी के तल में व्यवधान पैदा हो सकता है। व्यवधान की अवस्था में नदी अपने तल का अधिकतर ऊपर की ओर अपरदन करके सुधार करती है। प्रवणित घाटी में नदी द्वारा पुनः अपरदन की क्रिया पुनर्योवन कहलाती है। पुनर्योवन . की अवस्था में पुरानी घाटी के नीचे नई घाटी का निर्माण होने लगता है।

14. पूर्ववर्ती अपवाह तन्त्र-पूर्ववर्ती अपवाह तन्त्र उसे कहते हैं जिसका आविर्भाव स्थलखण्ड में उत्थान से पहले हो चुका होता है। मार्ग में स्थलखण्ड का उत्थान हो जाने के बाद भी ये नदियाँ अपने पहले वाले मार्ग को अपनाए रहती हैं। अपरदन के द्वारा ये अपने मार्ग के अवरोध को लगातार काटती रहती हैं। ज्यों-ज्यों भूखण्ड का उत्थान होता है, त्यों-त्यों ये नदियाँ अपनी उसी घाटी को गहरा करती रहती हैं। ये धाराएँ स्थानीय ढाल का अनुसरण नहीं करती, इसलिए उन्हें अक्रमवर्ती जलधारा (Insequent Streams) भी कहा जाता है। सिन्धु और सतलुज नदियाँ पूर्ववर्ती अपवाह का सर्वोत्तम उदाहरण हैं। तिब्बत के पठार से निकलने वाली ये नदियाँ हिमालय पर्वत से भी पुरानी हैं। इनके मार्ग में हिमालय के उत्थान के बावजूद इन नदियों ने अपने मार्ग को अक्षुण बनाए रखा है।

15. सर्क-जब ऊँचे पर्वतीय भागों से फिसलकर हिम नीचे आती है, तो वह ढाल पर गड्ढे बना देती है। इसमें तुषार अपक्षय (FrostAction) का भी हाथ होता है। समय के साथ ये गड्ढे हिमखोदाव (Nivation) की क्रिया से चौड़े और गहरे होते रहते हैं। पर्वतीय ढालों पर बने ऐसे विशाल गर्त हिम गह्वर कहलाते हैं। दूर से यह भू-आकृति अर्ध-गोलीय रंगमंच (Amphi-Theatre) अथवा गहरी सीट वाली आराम कुर्सी जैसी प्रतीत होती है।

16. हिमोद-जब हिमनदी पिघलती है तो हिम की विभिन्न परतों में जकड़कर साथ-साथ चल रहे शैल मलबे का घाटी में यथास्थान निक्षेपण होने लगता है। प्रत्यक्ष रूप से बिछाए गए रेत के महीन कणों से लेकर बड़े-बड़े शिलाखण्डों के अस्तरित (Unstratified) मिश्रण को टिल (Till) कहा जाता है। टिल से निर्मित स्थलाकृतियों को हिमोढ़ कहा जाता है। हिमोढ़ निम्नलिखित चार प्रकार के होते हैं-

  • पाश्विक हिमोढ़
  • मध्यवर्ती हिमोढ़
  • अन्तिम हिमोढ़
  • तलस्थ अथवा भूमि हिमोढ़।

17. ड्रमलिन-हिमनदी की घाटी में हिम के प्रवाह की दिशा में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर उल्टी नौका जैसी आकृति के महीन मृत्तिका (Till) से बने अनेक टिब्बे पाए जाते हैं, जिन्हें ड्रमलिन कहा जाता है। ये 30 मीटर तक ऊँचे और एक किलोमीटर तक लम्बे होते हैं। इन टिब्बों के विस्तृत क्षेत्र को दूर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे एक विशाल टोकरी में आधे कटे अण्डे उल्टे रखे हुए हों। इसलिए इसे अण्डों की टोकरी जैसी स्थलाकृति (Basket of Eggs Topography) भी कहा जाता है। ड्रमलिन हिमनदों के पीछे हटने और फिर आगे बढ़ने की पुनरावृत्ति से बनते हैं। ड्रमलिन हिमनद की निक्षेप क्रिया का परिणाम हैं। ये सैकड़ों की तादाद में इकडे पाए जाते हैं।

18. छत्रक-मरुस्थलों में पवन के मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों के आधार तल पर अपरदन सबसे अधिक होता है, क्योंकि पवन में बड़े व भारी कण धरातल के समीप बह रहे होते हैं। बड़े कण ऊपर के सूक्ष्म कणों की अपेक्षा चट्टान के निचले भाग में तेजी से अपरदन करते हैं। इस अघोरदन (Undercutting) के कारण चट्टान का निचला भाग सँकरा और ऊपरी भाग चौड़ा बना रहता है। ऐसा भू-आकार दूर से छतरी जैसा दिखाई पड़ता है।

19. इन्सेलबर्ग-शुष्क मरुस्थलों में यदि कहीं कठोर चट्टान बिछी होती है तो पवन द्वारा उस चट्टान के आस-पास तो अपरदन होता रहता है, किन्तु उसके नीचे की भूमि अपरदन से बची रह जाती है। काफ़ी मात्रा में अपरदन हो चुकने के बाद यह भूमि एक ऊँचे स्तम्भ के रूप में उभरी रह जाती है, जिसे भू-स्तम्भ या डिमोइसल कहते हैं।

20. बारखन-बारखन तुर्की भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है-खिरघिज़ स्टेपी में बालू की पहाड़ी। बारखन विशेष आकृति वाले बालू के टीले या पहाड़ियाँ होती हैं जो वायु की दिशा में आड़ी बनती हैं। इनका अग्रभाग चन्द्राकार होता है और इनके दोनों छोरों पर पवन की दिशा में एक-एक सींग जैसी आकृति निकली रहती है। बारखन का पवनाभिमुख ढाल उत्तम और मन्द होता है, जबकि पवनविमुख ढाल तीव्र और अवतल होता है। इस तीव्र ढाल से उतरती हुई पवन भूमि पर घिसटती हुई बहती है जिससे उसमें भँवर गति (Eddies) पैदा हो जाती है। इससे टिब्बे के किनारे भीतर की ओर दबते हैं और बारखन अर्ध-चन्द्राकार जैसा विचित्र भू-आकार बन जाता है। बारखन सामान्यतः समूहों में पाए जाते हैं। बालू के सामान्य टिब्बों की भाँति बारखन भी आगे खिसकते हैं। इनकी औसत ऊँचाई 30 मीटर तक होती है।

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21. बालुका स्तूपों का खिसकना-यदि लम्बे समय तक पवन एक ही दिशा में बहती रहे और विस्तृत क्षेत्र में वनस्पति आवरण का अभाव हो तो बालू के टीले पवन की प्रवाह दिशा में खिसकते रहते हैं। पवनमुखी मंद ढाल (Windward Slope) से पवन बालू को उड़ाकर पवनविमुखी तीव्र ढाल (Leeward Slope) पर जमा करती रहती है। इस प्रकार रेत टिब्बे के पिछले भाग से अगले भाग में पहुँचती रहती है और बालू का टिब्बा आगे की ओर सरकता रहता है। इनके खिसकाव की सामान्य गति 5 से 20 मीटर प्रति वर्ष होती है।

22. समुद्री भृगु-एकदम खड़े समुद्री तट को भृगु कहा जाता है। जिन तटों पर तीव्र ढाल वाली चट्टानें तट से समुद्र के नीचे चली जाती हैं, वहाँ शुरू में फेनिल तरंगें समुद्र के जल-स्तर पर अपरदन के द्वारा एक खाँच (Notch) का निर्माण करती हैं। यह खाँच अपरदन के द्वारा अन्दर-ही-अन्दर बढ़ती जाती है और आधार को तब तक खोखला करती रहती है, जब तक चट्टान का खाँचे के ऊपर लटकता हुआ भाग समुद्र में गिर नहीं जाता। इस प्रकार बची हुई चट्टान का दीवार की तरह खड़ा सीधा भाग भूगु कहलाता है।

23. तरंग-घर्षित वेदी-भृगु के बार-बार पीछे हटने से उत्पन्न शैल मलबे को ज्वारीय तरंगें भृगु के सामने ज़मा करती रहती हैं। इससे जल के अन्दर एक अपेक्षाकृत समतल मैदान का निर्माण हो जाता है, जिसे तरंग-घर्षित वेदी कहते हैं।

24. अपक्षेप मैदान-हिमनदी के पिघलने से उत्पन्न जल अपने शैल मलबे के साथ अन्तिम हिमोढ़ के पीछे इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। जब जल की मात्रा बढ़ जाती है तो वह अन्तिम हिमोढ़ के ऊपर से होकर बहने लगता है। इससे अन्तिम हिमोढ़ का भी थोड़ा-बहुत अपरदन हो जाता है। यह सामग्री अन्तिम हिमोढ़ से आगे एक विस्तृत क्षेत्र में अपने भारीपन के क्रम में बिछ जाती है। इसे हिमप्रवाह मैदान या अपक्षेप मैदान कहा जाता है।

25. रिया तट-हिम युग के बाद समुद्र का जल-स्तर बढ़ने से समुद्र के साथ समकोण बनाती हुई उच्च भूमियों की नदी घाटियों और नद-मुख (River Mouths) जल में डूब गए। इस प्रकार बना तट रिया तट कहलाता है। ये तट फियोर्ड तट से इस कारण भिन्न होते हैं कि ये हिमनदित नहीं होते और समुद्र की ओर इनकी गहराई बढ़ती जाती है। एड्रियाटिक सागर व जापान की तट-रेखा रिया तट के उदाहरण हैं।

26. भौम-जलस्तर-गुरुत्व बल के प्रभाव से जल रिस-रिस कर चट्टान की किसी अपारगम्य परत तक जा पहुँचता है। यदि इस जल को झरना बनकर बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिलता तो यह चट्टान के छिद्रों और दरारों में एकत्रित होकर उसे जल से परिपूर्ण या संतृप्त (Saturated) कर देता है। इस जलयुक्त चट्टान को जलभृत (Acquifer) या संतृप्त चट्टान कहा जाता है। जल-संतृप्त शैलों का ऊपरी तल भौम-जलस्तर कहलाता है।

भौम-जलस्तर एक सरल रेखा की भाँति सदा समतल नहीं पाया जाता। सामान्यतः भौम-जलस्तर धरातलीय बनावट (Relief) और चट्टान की प्रकृति (Rock Type) का अनुसरण करता है। पहाड़ियों के धरातल से यह काफी नीचे किन्तु मेहराबनुमा होती है, किन्तु घाटियों के नीचे यह V-आकार की तथा निम्न मैदानों के नीचे समतल होती है।

27. झरना-जलीय दबाव के कारण जब भूमिगत जल चट्टानी दरारों व जोड़ों (Joints) से अपने आप धरातल पर निकल आता है, तो उसे झरना कहते हैं।

प्रश्न 26.
निम्नलिखित में अन्तर स्पष्ट कीजिए-
(1) जलोढ़ पंख तथा डेल्टा
(2) जल-प्रपात तथा क्षिप्रिकाएँ
(3) स्टैलेक्टाइट तथा स्टैलेग्माइट
(4) U आकार की घाटी तथा V आकार की घाटी।
उत्तर:
(1) जलोढ़ तथा डेल्टा में अंतर निम्नलिखित है-

जलोढ़ पंख (Alluvial Fan)डेल्टा (Delta)
1. जलोढ़ पंख मध्यवर्ती भाग में बनी स्थलाकृति होती है।1. डेल्टा नदी के निचले भाग में बनी स्थलाकृति होती है।
2. ऊपर से देखने पर यह एक पंख के समान विस्तृत होता है।2. ऊपर से देखने पर यह यूनानी भाषा के डेल्टा (∆) अक्षर के समान प्रतीत होता है।
3. यह पर्वतीय कंदरा के बाहर मैदान की तरफ फैला होता है।3. यह नदी के समुद्र में गिरने से पहले बनता है।

(2) जल प्रपात तथा क्षिप्रिकाओं में अंतर निम्नलिखित हैं-

जल-प्रपात (Water Falls)क्षिप्रिकाएँ (Rapids)
1. जल-प्रपात में जल काफी ऊँचाई से गिरता है।1. क्षिप्रिका में जल छोटी-छोटी ऊँचाइयों से गिरता है।
2. यह चट्टानों की क्षैतिज व अनुप्रस्थ दोनों अवस्थाओं में बन सकता है।2. यह तब बनती है, जब चट्टानें अनुप्रस्थ दिशा में स्थित हों।
3. इसमें ढाल खड़ा होता है।3. इसमें ढाल खड़ा नहीं होता, लेकिन ढाल प्रवणता अधिक होती है।
4. इसका आर्थिक महत्त्व अधिक है।4. इसका आर्थिक महत्त्व कम है।

(3) स्टैलेक्टाइट तथा स्टैलेग्माइट में अंतर निम्नलिखित है-

स्टैलेक्टाइट (Stalactite)स्टैलेगमाइट (Stalagmite)
1. ये कार्स्ट प्रदेशों में गुफाओं की छत से नीचे की ओर लटके हुए स्तंभ होते हैं।1. ये कार्स्ट प्रदेशों में गुफाओं के फर्श पर ऊपर की और उठे हुए स्तंभ होते हैं।
2. ये पतले और नुकीले होते हैं।2. ये अपेक्षाकृत मोटे किन्तु छोटे होते हैं।
3. ये चूनायुक्त जल की गुफा की छत पर लटकी बूँदों के वाष्पीकृत हो जाने से बनते हैं।3. ये चूनायुक्त जल की गुफा के धरातल पर गिरी बूँदों के सूखने से बनते हैं।

(4) U आकार की घाटी तथा V आकार की घाटी में अंतर निम्नलिखित हैं-

U आकार की घाटी (U-Shaped Valley)V आकार की घटी (V-Shaped Valley)
1. यह घाटी हिमनदी के अपरदन से बनती है।1. यह घाटी नदी के अपरदन से बनती है।
2. इस घाटी के किनारे एकदम खड़े होते हैं।2. इस घाटी के किनारे ढालू होते हैं।
3. यह घाटी अधिक गहरी होने पर भी U-आकार की ही रहती है।3. यह घाटी अधिक गहरी होने पर ‘I’ आकार की कैनियन बन जाती है।
4. U-आकार की घाटी ऊँचे पर्वतों और उच्च अक्षांशों में पाई जाती है।4. V-आकार की घाटी मध्य व निम्न अक्षांशों में पाई जाती है।

प्रश्न 27.
नदी के मध्य भाग में मोड़ या घुमाव (विसप) क्यों बनते हैं?
उत्तर:
मन्द गति के कारण मैदानी भाग में नदी की परिवहन शक्ति इतनी क्षीण हो जाती है कि वह अपने मार्ग में आने वाली रुकावटों को अपरदन द्वारा दूर करने की अपेक्षा अपनी धारा का रुख मोड़ लेती है। नदी का अपना अवसाद ही उसके मार्ग की रुकावट बनने लगता है। यदि एक बार नदी के मार्ग में मोड़ आ जाए तो फिर यह प्रक्रिया रुक नहीं पाती। इसका कारण यह है कि घुमाव में बहता हुआ जल अपने बाहरी या अवतल (Concave) किनारों पर अपरदन और घुमाव के अन्दर वाले या उत्तल (Convex) किनारों पर निक्षेपण अधिक करता है। इससे अवतल किनारों पर जल गहरा तथा धारा तेज़ और उत्तल किनारों पर जल कम गहरा तथा धारा मन्द होती है। परिणामस्वरूप अपरदित किनारा पीछे हटता जाता है और निक्षेप वाला किनारा घाटी तल पर आगे बढ़ता जाता है। इस क्रिया से नदी के घुमाव बढ़ते जाते हैं, जिन्हें नदी विसर्प कहा जाता है।

प्रश्न 28.
भारत के पश्चिमी तट पर नर्मदा और ताप्ती नदियाँ डेल्टा क्यों नहीं बनाती?
उत्तर:
भारत के पश्चिमी तट पर नर्मदा व ताप्ती नदियाँ डेल्टा नहीं बना पातीं। इसके निम्नलिखित कारण हैं-

  • पश्चिमी तट पर बहने वाली नदियों के निचले भाग तीव्र ढाल वाले होते हैं।
  • नदियाँ तीव्र गति से अरब सागर में गिरती हैं जिसमें मिट्टी का निक्षेप नहीं हो पाता।
  • पश्चिमी तटीय मैदान कम चौड़ा होने के कारण वहाँ समतल भूमि की कमी होती है।

प्रश्न 29.
छत्रक या गारा कैसे बनता है? ऐसे भू-आकार कहाँ मिलते हैं?
उत्तर:
मरुस्थलों में पवन के मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों के आधार तल पर अपरदन सबसे अधिक होता है, क्योंकि पवन में बड़े व भारी कण धरातल के समीप उड़ रहे होते हैं। बड़े कण ऊपर के सूक्ष्म कणों की अपेक्षा चट्टान के निचले भाग में तेजी से अपरदन करते हैं। इस अधोरदन (Undercutting) के कारण चट्टान का निचला भाग सँकरा और ऊपरी भाग चौड़ा बना रहता है। ऐसा भू-आकार दूर से छतरी जैसा दिखाई पड़ता है। सहारा मरुस्थल में ऐसी स्थलाकृतियों को ‘गारा’ कहा जाता है। राजस्थान में जोधपुर के निकट ग्रेनाइट की चट्टानों से बने ऐसे अनेक छत्रक देखने को मिलते हैं।

प्रश्न 30.
मरुस्थलों में पवन अनाच्छादन का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन क्यों माना जाता है?
उत्तर:
अनाच्छादन के साधन के रूप में पवन का कार्य केवल शुष्क व अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में ही सीमित रहता है। इन मरुस्थलीय क्षेत्रों में वर्षा की कमी के कारण मिट्टी के कण परस्पर बँधे हुए नहीं होते, बल्कि ढीले होते हैं। वनस्पति के आवरण के न होने से ऐसे क्षेत्रों में पवन रेत के इन असंगठित कणों को बड़ी आसानी से उड़ा ले जाती है। जहाँ कहीं भी पवन की गति में कमी आती है, वह इन रेत के कणों को निक्षेपित करने लगती है।

प्रश्न 31.
लैगून क्या होती है? यह कैसे बनती है? भारत में लैगूनों के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
कई बार एक बालू-भित्ति (Sand bar) समुद्र के एक छोटे से भाग को मुख्य समुद्र से अलग कर देती है। ऐसी आंशिक रूप से रोधिका द्वारा घिरी हुई खारे पानी की झील को लैगून कहा जाता है। लैगून का सम्बन्ध एक संकीर्ण मार्ग द्वारा समुद्र से बना रहता है। भारत के पूर्व में ओडिशा तट पर चिल्का (Chilka) झील तथा दक्षिण में तमिलनाडू तट पर पुलिकट (Pulicut) झील तथा केरल तट पर वेंबानाद (Vembanad) झील लैगून झीलों के ही उदाहरण हैं।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
नदी की अपरदन अथवा निक्षेपण क्रिया से बनने वाली स्थलाकृतियों (भू-आकृतियों) का वर्णन कीजिए।
अथवा
नदी घाटी के तीन मुख्य भागों में प्रवणता सन्तुलन के कारक के रूप में, नदी के कार्यों को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
प्रवाहित जल द्वारा निर्मित अपरदित स्थलरूपों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अपरदन, परिवहन और निक्षेपण क्रियाओं के माध्यम से नदी अपने मार्ग के विभिन्न भागों में अनेक प्रकार के स्थलरूपों की रचना करती है।
(क) नदी घाटी के ऊपरी भाग में बनी स्थलाकृतियाँ-नदी घाटी का ऊपरी भाग पर्वतीय क्षेत्र में स्थित उसके उद्गम स्थान (Source) से आरम्भ होता है। इस भाग में नदी तीव्र ढाल पर बहती है जिस कारण उसका वेग और अवसाद ढोने की शक्ति अधिक होती है। इस अवस्था में नदी का प्रमुख कार्य अपरदन होता है जिसके द्वारा नदी निम्नलिखित आकृतियों का निर्माण करती है
1. V-आकार घाटी (V-shaped Valley)-उद्गम स्थान से निकलते ही नदी अपने मार्ग के ढाल और गति के कारण अपनी तली को काटकर गहरा करने का कार्य करती है। इससे घाटी का आकार V-अक्षर जैसा हो जाता है। घाटी का निरन्तर विकास होता रहता है जिसमें क्षैतिज अपरदन (Lateral Erosion) कम तथा लम्बवत् अपरदन (Vertical Erosion) अधिक होता है। प्रायः V-आकार की घाटी उन क्षेत्रों में विकसित होती है, जहाँ वर्षा सामान्य से अधिक होती है तथा चट्टानें अति कठोर नहीं होती।

2. महाखड्ड अथवा गॉर्ज (Gorge)-संकरी और अत्यधिक गहरी V-आकार घाटी को गॉर्ज कहा जाता है। ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में जब नदी प्रतिरोधी चट्टानों के ऊपर बहती है तो वह तीव्र वेग के कारण तली को काटकर अपनी घाटी को गहरा करती रहती है जबकि पाश्विक अपरदन का कार्य कम होता है। चट्टानों की कठोरता के कारण घाटी के किनारों के ऊपरी भाग ऋतु-अपक्षय के कारण कट-कट कर नीचे घाटी में गिरते रहते हैं, किन्तु निचले भाग अपक्षय के प्रभाव से मुक्त रहते हैं। इसलिए गॉर्ज ऊपर से अपेक्षाकृत चौड़े होते हैं। हिमालय में सिन्धु, सतलुज तथा ब्रह्मपुत्र दर्शनीय और भयावह महाखड्डों का निर्माण करती हैं।

3. कैनियन (Canyon) कैनियन गॉर्ज की अपेक्षा बड़ी, गहरी और संकरी होती है। यह घाटी अंग्रेज़ी के I (आई) अक्षर जैसी होती है जिसके दोनों किनारे एकदम तीक्ष्ण ढाल वाले होते हैं। कैनियन सामान्यतः शुष्क व अर्ध-शुष्क जलवायु वाले ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में कम वर्षा के कारण घाटी तो चौड़ी नहीं हो पाती, किन्तु बारहमासी नदी अपने तल को लम्बवत् काटकर गहरा अवश्य बनाती रहती है। अमेरिका में कोलोरेडो नदी द्वारा निर्मित ग्रैण्ड कैनियन (Grand Canyon) 483 कि०मी० लम्बा, 2088 मीटर गहरा तथा 6 से 16 कि०मी० चौड़ा है।

4. जलज गर्तिका (Pot Holes) नदी के मार्ग में पड़ने वाले ठोस चट्टानी तल पर लुढ़कते हुए शिलाखण्ड गड्ढे बना देते हैं। इन गड्ढों में नदी का जल जब भँवर के रूप में घूमता है तो गड्ढों में पड़े कंकड़-पत्थर जल के साथ तेज़ी से घूमते हुए छेदक (Drill) का काम करते हैं। नदी तल में बने ऐसे गर्मों को जलज गर्तिका कहते हैं। अधिक गहरी जलज गर्तिका को अवनमन कुण्ड (Plung Pool) कहा जाता है।
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5. जल-प्रपात (Waterfall)-जब नदी चट्टानी कगार के ऊपरी भाग से सीधे नीचे गिरती है तो उसे जल-प्रपात कहते हैं। नदी की घाटी में कहीं कोमल तो कहीं कठोर चट्टानें बिछी हुई होती हैं। नदी की अपरदन क्रिया से कोमल चट्टानें तो शीघ्र कट जाती हैं जबकि कठोर चट्टानें कम गति से घिसती हैं। अतः नदी द्वारा चट्टानों की भिन्न अपरदन दर ही सामान्य जल प्रपातों के निर्माण का मुख्य कारण है। भूकम्प, ज्वालामुखी तथा भू-संचरण के कारण भी जल-प्रपातों की रचना होती है।
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6. क्षिप्रिकाएँ (Rapids)-जब नदी के मार्ग में कठोर तथा कोमल चट्टानें अनुप्रस्थ (Transverse) दिशा में स्थित होती हैं तो असमान प्रतिरोधिता के कारण नदी का मार्ग ऊबड़-खाबड़ हो जाता है। परिणामस्वरूप ऊपर से बहता हुआ जल थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ‘कूदता’ हुआ प्रतीत होता है, इसे क्षिप्रिका कहते हैं। क्षिप्रिकाओं के कोमल समूह को सोपानी जल-प्रपात (Cascade) कहते हैं। अफ्रीका में आसवान तथा खारतूम के बीच नील नदी कई क्षिप्रिकाएँ और सोपानी जल-प्रपात बनाती है।
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(ख) नदी घाटी के मध्यवर्ती भाग में निर्मित स्थलाकृतियाँ-
पर्वतीय क्षेत्र से नीचे उतरकर नदी जब मैदानी भाग में प्रवेश करती है तो उसमें जल की मात्रा बढ़ चुकी होती है। नदी घाटी का ढाल एकाएक कम होने से नदी का वेग भी कम हो जाता है। ऐसी दशा में नदी तल की अपेक्षा किनारों का अपरदन अधिक करने लगती है। अपरदन की अपेक्षा अधिक निक्षेपण नदी के मध्यवर्ती भाग में पाई जाने वाली प्रमुख विशेषता है। नदी के इस भाग में अनलिखित भू-आकृतियों की रचना होती है-
1. जलोढ़ पंख एवं जलोढ़ शंकु (Alluvial Fan and Alluvial Cone)-जब कोई पर्वतीय नदी मैदान में प्रवेश करती है तो ढाल के एकदम कम होते ही नदी अवसाद को बहा ले जाने में असमर्थ होने लगती है। परिणामस्वरूप नदी अपने नद-भार को पर्वतीय कन्दरा के बाहर एक अर्धवृत्ताकार रूप में फैला देती है जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं। रॉकीज़ तथा इण्डीज़ पर्वतों से निकलने वाली
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लगभग सभी नदियों ने जलोढ़ पंखों की रचना की है। हिमालय की तलहटी में अनेक जलोढ़ पंखों ने मिलकर गंगा के मैदान के उत्तरी भाग में भाबर क्षेत्र का निर्माण किया है। कई बार अधिक नद-भार के जमा हो जाने के कारण जलोढ़ पंख काफी ऊँचे और तीव्र ढाल वाले हो जाते हैं, जिन्हें जलोढ़ शंकु कहा जाता है। जलोढ़ शंकुओं की रचना प्रायः अर्ध-शुष्क प्रदेशों में होती है। अमेरिका के सेन जुआन (San Juan) पर्वत की तलहटी में अनेक उन्नत जलोढ़ शंकु देखे जा सकते हैं।

2. नदी विसर्प (River Meanders)-प्रौढ़ावस्था में नदी सीधी न बहकर साँप की तरह बल खाती बहती है जिसे विसर्पण (Meandering) कहा जाता है। मन्द गति के कारण मैदानी भाग में नदी की परिवहन शक्ति इतनी क्षीण हो जाती है कि वह अपने मार्ग में आने वाली रुकावटों को अपरदन द्वारा दूर करने की अपेक्षा अपनी धारा का रुख मोड़ लेती है। नदी का अपना अवसाद ही उसके मार्ग की रुकावट बनने लगता है। यदि एक बार नदी के मार्ग में मोड़ आ जाए तो फिर यह प्रक्रिया रुक नहीं पाती।

इसका कारण यह है कि घुमाव में बहता हुआ जल अपने बाहरी या अवतल (Concave) किनारों पर अपरदन और घुमाव के अन्दर वाले या उत्तल (Convex) किनारों पर निक्षेपण अधिक करता है। इससे अवतल किनारों पर जल गहरा तथा धारा तेज़ और उत्तल किनारों पर जल कम गहरा तथा धारा मन्द होती है। परिणामस्वरूप अपरदित किनारा पीछे हटता जाता है और निक्षेप वाला किनारा घाटी तल पर आगे बढ़ता जाता है। इस क्रिया से नदी के घुमाव बढ़ते जाते हैं, जिन्हें नदी विसर्प कहा जाता है।

3. गोखुर झील (Oxbow Lake)-नदी के विसर्प ज्यों-ज्यों बड़े होते जाते हैं, त्यो-त्यों विसरों के स्कन्ध ढाल एक-दूसरे के निकट आने लगते हैं। नदी थोड़ी-सी दूरी तय करने के लिए कई गुना लम्बा मार्ग तय करती है। बाढ़ आने पर नदी अपनी संकीर्ण निक्षेपण ग्रीवा को काटकर सीधी हो लेती है। विसर्पाकार मोड़ अलग छूट जाता है। कटे हुए विसर्प के सिरे बालू, मिट्टी और गाद से भर जाते हैं जिन्हें गोखुर झील या छाड़न झील कहा जाता है। इस गोखुर झील झील की आकृति गाय के खुर जैसी होती है। इसे मृत झील विसों की ग्रीवा का तंग होना (Mort Lake) भी कहते हैं, क्योंकि समय के साथ वह अवसादों से भरकर सूख जाती है।
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(ग) नदी घाटी के निचले भाग में निर्मित स्थलाकृतियाँ-नगण्य ढाल और कम गति के कारण इस अन्तिम भाग में नदी की भार वहन करने की क्षमता अत्यन्त कम हो जाती है। इस भाग में नदी सर्वाधिक निक्षेपण करती है तथा अपरदन न के बराबर होता है। घाटी के निचले भाग में बनने वाली भू-आकृतियाँ निम्नलिखित हैं-
1. गुंफित नदी (Braided River) निचले भाग में नदी नद-भार को ढो पाने में असमर्थ होती है अतः वह अपने ही तल पर साथ बह रहे अवसाद का निक्षेपण करने लगती है। इससे नदी की धारा अवरुद्ध होने लगती है। परिणामस्वरूप नदी अनेक धाराओं में बँटकर बहने लगती है। ये धाराएँ बालू से बनी अवरोधिकाओं द्वारा एक-दूसरे से अलग हुई होती हैं। अनेक जलधाराओं से फंदे बनाती हुई ऐसी नदी को गुंफित नदी कहते हैं।
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2. प्राकृतिक तटबन्ध और बाढ़ का मैदान (Natural Levees and Flood Plains)-वर्षा ऋतु में बाढ़ आने पर नदी का जल उसके किनारों कसे बाहर निकलकर बहने लगता है। बाढ़ के समय नदी में जल की मात्रा और नद-भार ढोने की शक्ति दोनों ही बढ़ जाते हैं। बाढ़ उतरने पर नदी इतने अधिक जलोढ़ का परिवहन करने में असमर्थ हो जाती है और नद-भार का निक्षेप करना आरम्भ कर देती है। अवसाद की एक मोटी परत नदी के किनारों पर जमने लगती है क्योंकि तटों के पास घर्षण (Friction) के कारण जल की गति सबसे कम होती है। अनेक वर्षों तक इस क्रम के बार-बार दोहराए जाने पर नदी के तटों पर लम्बे ऊँचे टीले बने दिखाई देते हैं जिन्हें प्राकृतिक तटबन्ध कहा जाता है। प्रायः ये तटबन्ध नदी के जल-तल से एक या दो मीटर ऊँचे होते हैं, लेकिन कई बार इनकी ऊँचाई आस-पास के मकानों की छतों से भी ऊँची होती है। प्राकृतिक तटबन्धों को कई बार कृत्रिम रूप से ऊँचा और पक्का भी कर दिया जाता है।
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कई बार तटबन्धों के टूट जाने पर नदी का जल आस-पास के क्षेत्रों में फैल जाता है। बाढ़ की समाप्ति पर जल अपने साथ बहाकर लाए गए महीन नद-भार की एक परत वहाँ बिछा देता है, जिसे बाढ़ का मैदान कहते हैं। प्रतिवर्ष बाढ़ का जल इन मैदानों में नई उपजाऊ मिट्टी का निक्षेप कर देता है। गंगा, सिन्धु, ह्वांग्हो व मिसीसिपी इत्यादि नदियों ने ऐसे ही विशाल मैदानों की रचना की है।

3. डेल्टा (Delta) किसी समुद्र या झील में गिरने से पहले। नदी अपने आधार तल (Base Level) को प्राप्त कर चुकी होती है। इस समय उसकी शक्ति अत्यन्त क्षीण और वेग अत्यन्त मन्द होता है। नदी अपना बचा हुआ समस्त नद-भार मुहाने पर जमा कर देती है। इस अवसाद के अवरोध के कारण नदी एक मुख्य धारा के रूप में नहीं बह पाती, बल्कि छोटी-छोटी अनेक शाखाओं (Distributaries) में बँटकर बहने लगती है। ये शाखाएँ भी अपने-अपने मुहाने पर नद-भार का निक्षेप करने लगती हैं। इस प्रकार मुहाने के पास विशाल क्षेत्र में एक त्रिभुजाकार स्थलाकृति का निर्माण हो जाता है, जिसे डेल्टा कहते हैं। इस त्रिभुजाकार स्थलरूप को डेल्टा इसलिए कहते हैं क्योंकि नील नदी के डेल्टा की आकृति यूनानी भाषा के डेल्टा (A) अक्षर से मिलती है। विश्व में गंगा-ब्रह्मपुत्र का डेल्टा (1,25,000 वर्ग कि०मी०) सबसे बड़ा डेल्टा है। विश्व की सभी नदियाँ डेल्टा नहीं बनातीं।

प्रश्न 2.
डेविस का भौगोलिक चक्र क्या है? इसकी प्रमुख अवस्थाओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
अपरदन चक्र का अर्थ समझाते हुए इसे नियन्त्रित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिए तथा यह भी बताइए कि नदी घाटी के विकास के साथ अपरदन चक्र का क्या सम्बन्ध है?
उत्तर:
अपरदन चक्र का अर्थ (Meaning of Erosion Cycle)-अपरदन चक्र की संकल्पना को सबसे पहले व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने का श्रेय अमेरिकी विद्वान् विलियम मॉरिस डेविस को जाता है। उन्होंने सन् 1889 में विचार प्रस्तुत किया कि किसी भी भूदृश्य (Landscape) का निर्माण और विकास इतिहास के एक लम्बे दौर में होता है, जिसके अन्तर्गत उस भूखण्ड को कई क्रमिक अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। स्थलाकृतियों के इसी क्रमिक विकास को ही डेविस ने अपरदन चक्र या भौगोलिक चक्र कहा है। उनके अनुसार, “भौगोलिक चक्र समय की वह अवधि है जिसके अन्तर्गत एक उत्थित भूखण्ड अपरदन के प्रक्रम द्वारा प्रभावित होकर एक आकृतिविहीन समतल मैदान में बदल जाता है।”

अपरदन चक्र को नियन्त्रित करने वाले कारक (Controlling Factors of Erosion Cycle) भूदृश्य का विकास कुछ कारकों द्वारा निर्धारित होता है; जैसे-

  • स्थलरूप की संरचना (Structure) तथा चट्टानों के गुण व स्वभाव
  • उस स्थलमण्डल पर परिवर्तन लाने वाली प्रक्रियाएँ (Processes) तथा
  • अपरदन की अवस्था (Stage)। इसी आधार पर डेविस ने कहा था कि, “भूदृश्य संरचना, प्रक्रिया एवं अवस्था का परिणाम होता है।”

यद्यपि स्थलाकृतियों के विकास में नदी, हिमनदी, समुद्री लहरों और पवन व भूमिगत जल की भागीदारी होती है किन्तु बहते हुए जल का कार्य अपरदन के अन्य कारकों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण एवं व्यापक होता है। इसलिए नदी के अपरदन-चक्र को डेविस ने सामान्य अपरदन-चक्र (Normal Cycle of Erosion) की संज्ञा दी है।

अपरदन-चक्र की विभिन्न अवस्थाएँ (Different Stages of Erosion Cycle)-अपरदन-चक्र को तीन अवस्थाओं में विभाजित किया जाता है जिनके निर्धारण में कोई समय-सीमा तय नहीं है।
1. युवावस्था (Youthful Stage)-ऐसी कल्पना की जाती है कि समुद्र तल से जैसे ही किसी समतलीय भूखण्ड का उत्थान होता है, उस पर ढाल के अनुरूप अनुवर्ती (Consequent steams) का उदय हो जाता है। इस अवस्था में नदियाँ क्षैतिज कटाव (Lateral Cutting) कम और लम्बवत् कटाव (Down Cutting) ज्यादा करती हैं, जिससे घाटी गहरी होती जाती है। इस अवस्था में नदी अपने आधार तल को प्राप्त करने की भरसक कोशिश करती है। सरिताएँ अपनी घाटी का विस्तार शीर्ष अपरदन द्वारा करती हैं।

शीर्ष अपरदन (Headward Erosion) द्वारा ही एक नदी दूसरी नदी के जल का अपहरण करती है, जिसे सरिता-हरण (River Capture or River Piracy) कहा जाता है। सहायक नदियों का विकास होने पर वृक्षाकार जलप्रवाह प्रणाली (Dendritic Drainage Pattern) का विकास हो जाता है। युवावस्था के अन्तिम चरण में नदियों के मध्य के जल-विभाजक संकुचित होने लगते हैं और अनेक उप-खण्डों में विभाजित हो जाते हैं। इस अवस्था की महत्त्वपूर्ण आकृतियाँ गॉर्ज, कैनियन, V-आकार घाटी, जल-प्रपात व क्षिप्रिका इत्यादि हैं।

2. प्रौढ़ावस्था (Mature Stage)-प्रौढ़ावस्था में नदी का मुख्य कार्य पार्श्ववर्ती अपरदन (Lateral Erosion) हो जाता है जिससे नदी अपनी घाटी को निरन्तर चौड़ा करती रहती है। इस अवस्था में नदी की अपरदन तथा निक्षेपण क्रियाओं में सन्तुलन स्थापित हो जाता है। नदियों के बीच के जल-विभाजक और भी संकीर्ण होने लगते हैं। इस अवस्था से जुड़ी महत्त्वपूर्ण स्थलाकृतियाँ नदी विसर्प, गोखुर झील, प्राकृतिक तटबन्ध, बाढ़ का मैदान व गुंफित नदी इत्यादि हैं।

3. वृद्धावस्था (Old Stage)-प्रौढ़ावस्था में नदियों का लम्बवत् अपरदन एकदम बन्द हो जाता है तथा निक्षेप ही नदी का मुख्य कार्य रह जाता है। सहायक नदियों की संख्या कम या समाप्त हो जाती है। नदी की घाटी सर्वाधिक चौड़ी होती है। क्षैतिज अपरदन और अपक्षय मिलकर स्थलखण्ड को निरन्तर नीचा करने में जुटे रहते हैं। सम्पूर्ण नदी आधार तल को प्राप्त हो जाती है व केवल कहीं-कहीं प्रतिरोधी चट्टानों के कुछ भाग उठे हुए दिखाई पड़ते हैं। सारा प्रदेश एक समप्रायः मैदान (Peneplain) के रूप में दिखाई पड़ता है। डेल्टा अपरदन-चक्र की अन्तिम अवस्था में बनने वाली सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आकृति है।

अपरदन-चक्र एक सिद्धान्त तो है मगर सच्चाई नहीं अपरदन-चक्र कभी भी अपनी अन्तिम परिणति समप्रायः मैदान तक नहीं पहुँच पाता, क्योंकि इस चक्र के पूरा होने में बहुत लम्बा समय चाहिए। इतने लम्बे समय तक पृथ्वी कभी शान्त नहीं रह पाती। इस दौरान ज्वालामुखी उद्भेदन, भू-संचलन व जलवायु में परिवर्तन के कारण अपरदन-चक्र के मार्ग में अनेक बाधाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। बाधित होने पर अपरदन-चक्र नए सिरे से आरम्भ होता है। प्रौढ़ावस्था वाले अपरदन-चक्र का इस प्रकार पुनः युवावस्था को प्राप्त करना पुनर्योवन (Rejuvination) कहलाता है।

प्रश्न 3.
हिमानी निर्मित स्थलाकृतियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
हिमानी के अपरदन, परिवहन व निक्षेपण कार्यों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
हिमनदी अपरदन, परिवहन, निक्षेपण व जलोढ़ निक्षेप से निर्मित स्थलाकृतियों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
हिमनदी अपरदन व निक्षेपण कार्यों से निर्मित स्थलाकृतियों का वर्णन करें।
अथवा
हिमानी के अपरदन व निक्षेपित स्थलाकृतियों का वर्णन करें।
उत्तर:
अनाच्छादन के अन्य साधनों की भाँति हिमनदी भी शैलों का अपरदन तथा अपरदित सामग्री का परिवहन और निक्षेपण करती है। इस प्रक्रिया में अनेक प्रकार की स्थलाकृतियों का जन्म होता है।
(क) हिमनदी के अपरदन कार्यों से निर्मित स्थलाकृतियाँ (Landforms Produced by Erosional Work of Glacier)जिस आधारी चट्टान पर हिम की विशाल राशि पड़ी होती है, वहाँ हिम के भारी दबाव के कारण हिम पिघलती है तथा बर्फ और तली के बीच जल की पतली परत उत्पन्न हो जाती है। जल की यह परत (Film of Water) हिम को खिसकाने में ग्रीस का काम करती है।

बहती हिमनदी की खालिस बर्फ प्रभावी ढंग से अपरदन नहीं कर पाती। वे चट्टानी टुकड़े जो हिमनदी में ऊपर से नीचे भरे रहते हैं, हिम द्वारा अपरदन कार्य में मदद करते हैं। इनमें अपोढ़ (Drift), गोलाश्म (Boulder), गोलाश्म मृत्तिका (Boulder Clay) इत्यादि होते हैं जिन्हें संयुक्त रूप से हिमोढ़ सामग्री (Morainic Material) कहा जाता है। हिमोढ़ की सहायता से हिमनदी निम्नलिखित दो प्रकार से अपरदन कार्य करती है

1. अपघर्षण (Abrasion) इस प्रक्रिया में हिमनद अपने मलबे की सहायता से यांत्रिक विधि द्वारा अपनी घाटी और किनारों को रेगमार की तरह घिसता, खरोंचता और चिकनाता हुआ आगे बढ़ता है। इससे घाटी की तली में बारीक धारियों के रूप में खरोंच के निशान भी पड़ जाते हैं।

2. उत्पाटन (Plucking) इस क्रिया में हिमनदी अपने मार्ग में पड़ने वाली अनावृत्त शैलों के अदृढ़खण्डों को अपनी ताकत से उखाड़कर अलग कर देती है।

हिमनदी के अपरदन से बने भू-आकार (Features of Glacial Erosion)-हिमनदी के अपरदन से बने भू-आकार नीचे दिए गए हैं-
1. हिम गहर या सर्क (Cirque)-जब ऊँचे पर्वतीय भागों से फिसलकर हिम नीचे आती है, तो वह ढाल पर गड्ढे बना देती है। इसमें तुषार अपक्षय (FrostAction) का भी हाथ होता है। समय के साथ ये गड्ढे हिमखोदाव (Nivation) की क्रिया से चौड़े और गहरे होते रहते हैं। पर्वतीय ढालों पर बने ऐसे विशाल गर्त हिम गह्वर कहलाते हैं। दूर से यह भू-आकृति अर्ध-गोलीय रंगमंच (Amphi Theatre) अथवा गहरी सीट वाली आराम कुर्सी जैसी प्रतीत होती है। सर्क का तल सपाट होता है। यह एक ओर से खुला तथा तीन ओर से अति तीव्र चट्टानी ढालों से घिरा होता है। इन्हीं तीव्र ढालों से ही बर्फ गिर-गिरकर इस कटोरे नुमा आकृति में जमा होती रहती है। फ्रांस में पिरेनीज़ पर्वत पर बना गेवर्नी का सर्क विश्व का सबसे प्रसिद्ध सर्क है जिसके नाम पर ऐसी सभी स्थलाकृतियों को सर्क कहा जाता है।
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2. टार्न (Tarn) सर्क में हिम के पूर्णतः पिघल जाने के बाद जल एकत्रित होकर एक झील का निर्माण करता है, जिसे टार्न या गिरिताल कहा जाता है।

3. शृंग (Horn) जब किसी पर्वत की विभिन्न ढालों पर समान ऊँचाई पर अनेक सर्क बन जाते हैं, तो वे अपने शीर्ष की दीवार को तेजी से काटने लगते हैं। इसके फलस्वरूप सर्कों के बीच में पिरामिड के आकार की एक नुकीली चोटी बन जाती है, जिसे शृंग कहते हैं। स्विट्ज़रलैण्ड में आलप्स पर्वत श्रेणी का मैटरहॉर्न (Matterhorn) शृंग का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। हिमालय
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4. कॉल (Col)-जब किसी पर्वत की विपरीत ढालों पर एक ही ऊँचाई पर स्थित दो विशाल सर्क अभिशीर्ष अपरदन (Headward Erosion) करते हैं तो उनके पिछले भाग आपस में मिल जाते हैं। इससे पर्वत के आर-पार एक दर्रा बन जाता है, जिसे कॉल कहते हैं। इन दरों के प्रयोग से पर्वतीय मार्गों की दूरियाँ कम हो जाती हैं। कनाडियन पैसेफिक रेलमार्ग ऐसे ही एक कॉल से गुज़रता है।

5. कंघीनुमा कटक (Comb Ridge)-जब किसी पर्वत श्रेणी पर पास-पास अनेक सर्क बन जाते हैं और तीव्र अपरदन के फलस्वरूप पहाड़ी कटक पर अनेक शृंगों का निर्माण हो जाता है तो उसकी आकृति कंघी के दाँतों के समान नुकीली किन्तु असमान हो जाती है। इन्हें अरेत (Arete) भी कहते हैं।
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6. U-आकार की घाटी (U-Shaped Valley)-हिमनदियों में | अपने लिए स्वयं घाटी बनाने की शक्ति नहीं होती, बल्कि वे हिमावरण से पहले नदियों द्वारा निर्मित घाटियों में होकर बहती हैं। नदी घाटी में बहती हिम घाटी की तली व पाश्र्थों का अपरदन करके उसे अधिक गहरा और चौड़ा कर देती है। इससे नदी की घाटी की मूल V-आकृति के स्थान पर Uआकार की घाटी विकसित होती है।
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7. लटकती घाटी (Hanging Valley)-नदियों की तरह हिमनदियों की भी सहायक हिमनदियाँ होती हैं। पर्वतीय ढालों पर बहती हुई अधिकांश हिम की मुख्य घाटी में बहने की प्रवृत्ति होती है। बर्फ की मोटाई और उसके द्वारा तली पर डाले गए दबाव में अन्तर के कारण सहायक हिमनदी अपनी घाटी को उस गहराई और चौड़ाई में नहीं काट पाती, जिस गहराई तक मुख्य हिमनदी काट पाती है। इससे सहायक और मुख्य हिमनदी के संगम-स्थल पर तीव्र ढाल विकसित हो जाता है। जब बर्फ पिघल जाती है तो सहायक हिमनदी का जल मुख्य घाटी में जल-प्रपात अथवा क्षिप्रिका बनाते हुए गिरने लगता है। सहायक हिमनदी का मुख और घाटी मुख्य हिमनदी की घाटी से काफ़ी ऊपर अधर में लटकते दिखाई पड़ते हैं। लटकती घाटियों के सर्वोत्तम उदाहरण कैलिफोर्निया के सियरा नेवादा पर्वत की योसेमाइट घाटी (Yosemite Valley) में देखे जा सकते हैं।

8. भेड़ पीठ शैल अथवा रॉश मूटोने (Sheep Rock or Roche Mountonnee) हिमनदित क्षेत्र में पाया जाने वाला ऐसा भू-आकार जिसके एक ओर ढाल मन्द व चिकना तथा दूसरी ओर ढाल तीव्र व ऊबड़-खाबड़ हो, भेड़ शिला या रॉश मूटोने कहलाता है। दूर से ऐसी आकृति बैठी हुई भेड़ की पीठ जैसी दिखाई पड़ती है।
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हिमनदी के मार्ग में जब कभी ऊबड़-खाबड़ घाटी कड़ी, ऊँची चट्टान का अवरोध पैदा करती है, तो हिमनदी इन अवरोधों खरोंचें के ऊपर से बहना शुरू कर देती है। जिस ढाल पर हिमानी चढ़ती है, उसे वह अपने मलबे के घर्षण (Abrasion) द्वारा घिस-घिसकर भेड़ शिला मन्द और चिकना कर देती है किन्तु इन अवरोधों का प्रवाह विमुख ढाल जिस पर हिमानी उतरती है, उत्पाटन (Plucking) क्रिया द्वारा टूटा-फूटा और ऊबड़-खाबड़ बना रहता है। इसका कारण यह है कि विमुख ढाल पर हिमनदी का घाटी की तली से पूर्ण सम्पर्क नहीं रह पाता।

9. शृंग एवं पूँछ स्थलाकृति (Creg and Tail Topography)-कई बार हिमनदी के मार्ग में बेसाल्ट या ज्वालामुखी प्लग (Volcanic Plug) जैसी दृढ़ और कठोर चट्टान आ जाती है, इससे हिमनदी के प्रवाह की दिशा की ओर कठोर चट्टान पर फैली मिट्टी का अपरदन हो जाता है। प्लग की तीव्र ढाल पर चढ़ने के बाद हिमनदी जब दूसरी ओर नीचे उतरती है, तो दूसरी ओर की मिट्टी का ग्रीवा (Crag) अपेक्षाकृत कम अपरदन होता है क्योंकि यहाँ पर शैल को हिमनद का | हिमनदी की दिशा पंछ (Tail) संरक्षण प्राप्त होता है। इस कारण दूसरी ओर चट्टान का ढाल मन्द व | हल्का हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे कठोर चट्टानी प्लग को पीछे से असंगठित अपोढ़ की एक लम्बी पूँछ लग गई हो।
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इंग्लैण्ड की एडिनबर्ग (Edinburgh) की केसिल रॉक (Castle Rock) शृंग एवं पूँछ स्थलाकृति का उत्कृष्ट उदाहरण है।

10. फियॉर्ड (Fiord) ऊँचे अक्षांशों में हिमनदियाँ न केवल समुद्र तटों तक पहुँच जाती हैं, बल्कि समुद्र में पहुँचकर अपनी घाटी को समुद्र तल से भी गहरा काट देती हैं। समुद्र में घुसी इन लम्बी, चौड़ी और गहरी U-आकार घाटियों को फियॉर्ड कहा जाता है। कहीं-कहीं फियॉर्ड 1800 मीटर तक गहरी पाई जाती है। नार्वे, ग्रीनलैण्ड, अलास्का व न्यूज़ीलैण्ड के समुद्री तटों पर अनेक फियॉर्ड पाए जाते हैं।

11. हिमज झीलें (Glaciated Lakes)-ठण्डे प्रदेशों में हिमनदियों की विस्तृत अपरदन क्रिया के फलस्वरूप चट्टानी धरातल पर हाथ की उंगलियों के समान पतली व लम्बी झीलों की एक श्रृंखला-सी बन जाती है। इन्हें हिमज झीलें कहते हैं। उत्तरी अमेरिका की महान् झीलों (Great Lakes) का निर्माण भी हिमानियों के अपरदन व अपरदित सामग्री से जल के अवरुद्ध होने से हुआ है।

(ख) हिमनदी का परिवहन कार्य (Glacial Transportation)-हिमनदियाँ शैल मलबे के एक ऐसे बेमेल मिश्रण का परिवहन करती हैं जिसमें सूक्ष्मता और स्थूलता के सभी क्रमों के पदार्थ शामिल होते हैं। प्रायः गतिहीन-सी लगने वाली ये हिमनदियाँ 15 मीटर व्यास तथा सैकड़ों टन भारी शिलाखण्डों को अपने मूल स्थान से कई सौ किलोमीटर दूर ढकेलकर ले जाती हैं। शैल मलबे का कुछ अंश हिम की ऊपरी परतों में, कुछ अंश निचली परतों में और कुछ अंश पार्यों पर हिमीभूत होकर हिमनदी के साथ-साथ खिसकता है। भारी शिलाखण्डों को हिमनदी अपने अगले भाग द्वारा ठेल-ठेल कर ले जाती है।

(ग) हिमनदी के निक्षेपण कार्यों से निर्मित स्थलाकृतियाँ (Landforms Produced by Glacial Deposition)-हिमनदियों के निक्षेपण कार्य से बनने वाली प्रमुख स्थलाकृतियाँ नीचे दी गई हैं
1. हिमोढ़ (Moraines)-जब हिमनदी पिघलती है, तो हिम की विभिन्न परतों में जकड़कर साथ-साथ चल रहे शैल मलबे का घाटी में यथा-स्थान निक्षेपण होने लगता है। प्रत्यक्ष रूप से बिछाए मध्यवर्ती हिमोढ़ गए रेत के महीन कणों से लेकर बड़े-बड़े शिलाखण्डों के अस्तरित (Unstratified) मिश्रण को टिल (Till) कहा जाता है। टिल से निर्मित स्थलाकृतियों को हिमोढ़ कहा जाता है। हिमोढ़ निम्नलिखित पाश्विक हिमोढ़ चार प्रकार के होते हैं
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(1) पाश्विक हिमोढ़ (Lateral Moraines)-हिमानी घाटी के किनारों पर लम्बी-लम्बी कटकों के रूप में निक्षेपित हुआ हिमोढ़ों के प्रकार शैल-मलबा पाश्विक हिमोढ़ कहलाता है। इन हिमोढ़ों की सामान्य ऊँचाई 100 फुट
से अधिक होती है।

(2) मध्यवर्ती हिमोढ़ (Medial Moraines)-दो हिमनदियों के मिलने पर उनके पाश्विक हिमोढ़ भी मिल जाते हैं। हिमनदी के पिघलने पर घाटी के बीचों-बीच शैल सामग्री का एक कटक अथवा टीलों के रूप में निक्षेपण हो जाता है। इसे मध्यवर्ती हिमोढ़ कहते हैं।

(3) अन्तिम हिमोढ़ (Terminal Moraines)-अन्तिम हिमोढ़ टिल से बनी हुई एक ऐसी कटक होती है जो हिमनदी के प्रवाह (Advance) की अन्तिम सीमा तय करती है। अन्तिम पड़ाव पर हिमनदी के पिघलने या पीछे हटने पर हर बार एक नया हिमोढ़ बनता है जो पहले से बने हिमोढ़ से पीछे की ओर होता है। घाटी हिमनदियों के अन्तिम हिमोढ़ प्रायः अर्ध-चन्द्राकार श्रेणियों के रूप में मिलते हैं।

(4) तलस्थ अथवा भूमि हिमोढ़ (Grained Moraines)-हिमनदी के तेज़ी से पीछे हटने पर उसके मलबे का घाटी तल पर ऊबड़-खाबड़ ढंग से निक्षेपण हो जाता है। इसे तलस्थ हिमोढ़ कहते हैं। तलस्थ हिमोढ़ के यत्र-तत्र फैले टीलों के बीच छोटे-छोटे अवनमन व गड्ढे (Knolls and Depressions) बन जाते हैं जो बाद में झीलों और दलदलों में बदल जाते हैं।

2. हिमनदोढ़ टीले अथवा ड्रमलिन (Drumlin) हिमनदी की घाटी में हिम के प्रवाह की दिशा में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर उल्टी नौका जैसी आकृति के महीन मृत्तिका (Till) से बने अनेक टिब्बे पाए जाते हैं, जिन्हें ड्रमलिन कहा जाता है। ये 30 मीटर तक ऊँचे, और एक किलोमीटर तक लम्बे होते हैं। इन टिब्बों के विस्तृत क्षेत्र | को दूर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे एक विशाल टोकरी में आधे कटे अण्डे उल्टे रखे हुए हों। इसलिए इसे अण्डों की टोकरी जैसी स्थलाकृति (Basket of Eggs Topography) भी कहा जाता है। ड्रमलिन हिमनदों के पीछे हटने और फिर आगे बढ़ने की पुनरावृत्ति से बनते हैं। ड्रमलिन हिमनद की निक्षेप क्रिया का परिणाम हैं। ये सैकड़ों की तादाद में इकट्ठे पाए जाते हैं।
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(घ) हिमानी-जलोढ़ निक्षेप से निर्मित स्थलाकृतियाँ (Landform Produced by Glacio-Fluvial Deposits)-हिमानी-जलोढ़ निक्षेप से बनने वाली स्थलाकृतियाँ नीचे दी गई हैं
1. केटिल या केतली (Kettles)-हिम विनाश के दौरान पीछे हटती हिमानी से हिम का एक विशाल खण्ड अलग-थलग (Isolated) होकर घाटी में कहीं आंशिक या पूर्ण रूप से धंसा रह जाता है। इस हिमखण्ड के पूरी तरह पिघल जाने के बाद हिमोढ़ में एक गर्त बचा रह जाता है। इसे केटिल या केतली कहते हैं।

2. एस्कर या हिमनदीय कटक (Esker)-घाटी हिमनदों के क्षेत्र में रेत-बजरी से बने लम्बे, कम ऊँचे, टेढ़े-मेढ़े या कुण्डलाकार कुछ कटक मिलते हैं, जिन्हें एस्कर कहते हैं। अन्वेषकों का मत है कि एस्कर का निर्माण स्थिर हिमनद के नीचे बहने वाली जलधाराओं की निक्षेप क्रिया से होता है, इन्हें अधो-हिमानी सरिताएँ (Sub-glacial Streams) कहा जाता है। ये सरिताएँ घाटी की तली में लम्बी-खोखली सुरंगें बना देती हैं। जब हिमनद के मार्ग में कोई टीला आ जाता है, तो इन अधो-हिमानी सरिताओं को निकास (Exit) नहीं मिल पाता। इससे उनके द्वारा अपरदित मलबे का उन्हीं सुरंगों में निक्षेप हो जाता है। यद्यपि एस्कर 160 किलोमीटर लम्बे भी पाए गए हैं, किन्तु इनकी चौड़ाई कुछ मीटर ही होती है।

3. केम (Kame) हिमानी के अग्रभाग से निकलने वाली जलधाराएँ बजरी और बालू को ऊँचे-नीचे टीलों के रूप में जमा कर देती हैं। महीन सामग्री से बने इन टीलों को केम कहा जाता है। कई बार घाटी और उसके पार्यों के बीच रेत-बजरी की चौड़ी पट्टी बन जाती है, जिसे केम चबूतरा (Kame Terrace) कहा जाता है।
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4. हिम प्रवाह मैदान (Outwash Plain)-हिमनदी के पिघलने से उत्पन्न जल अपने शैल मलबे के साथ अन्तिम हिमोढ़ के पीछे इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। जब जल की मात्रा बढ़ जाती है तो वह अन्तिम हिमोढ़ के ऊपर से होकर बहने लगता है। इससे अन्तिम हिमोढ़ का भी थोड़ा-बहुत अपरदन हो जाता है। यह सामग्री अन्तिम हिमोढ़ से आगे एक विस्तृत क्षेत्र में अपने भारीपन के क्रम में बिछ जाती है। इसे हिम प्रवाह मैदान कहा जाता है।

प्रश्न 4.
समुद्री तरंगों के अपरदन व निक्षेपण कार्यों का वर्णन कीजिए।
अथवा
समुद्री तरंगों के अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
समुद्री तरंगों के अपरदन व निक्षेपण कार्यों से निर्मित स्थलाकृतियों की विवेचना कीजिए।
अथवा
सागरीय तरंगों द्वारा सागरीय तट पर लाए गए परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।
अथवा
अनाच्छादन के साधन के रूप में सागरीय तरंगों के कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
तटीय भागों में समुद्र अनाच्छादन का एक अत्यन्त शक्तिशाली कारक है। भारत के पश्चिमी तट को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि समुद्री लहरों की चट्टानों पर मारक शक्ति इतनी प्रचण्ड भी हो सकती है। वायुजनित लहरों (Waves), धाराओं (Currents) और ज्वार-भाटा (Tides) के माध्यम से समुद्री जल अपने तटों को निरन्तर काटता और बनाता रहता है। समुद्री तटों के इस कटाव और जमाव के परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की स्थलाकृतियों का जन्म होता है।
(क) समुद्री तरंगों के अपरदन कार्यों से निर्मित स्थलाकृतियाँ (Landforms Produced by Erosional Work of Marine Waves) समुद्री अपरदन का सामान्य रूप फेनिल तरंगों (Surf) द्वारा घटित होता है। तूफानी तरंगें (Stormy Waves) तटों का सबसे भीषण अपरदन करती हैं, यद्यपि ये हमेशा उत्पन्न नहीं होतीं। तूफानी तरंगें थोड़े समय में ही तटों का इतना अधिक अपरदन कर देती हैं जितना सामान्य तरंगें लम्बे समय तक भी नहीं कर पातीं। धाराएँ और ज्वार-भाटा तट-रेखा पर बहुत थोड़ी मात्रा में प्रत्यक्ष प्रहार कर पाते हैं। धाराएँ अपरदित शैल मलबे का परिवहन करके उसे तटों के साथ निक्षेपित कर देती हैं जबकि ज्वार-भाटा समुद्र के निम्न व उच्च जल-स्तरों के बीच अपरदन की सीमा रेखा तय करता है।

समुद्री अपरदन के कारक (Factors of Marine Erosion)-समुद्र का अपरदन कार्य अनेक कारकों पर निर्भर करता है-

  • समुद्री तरंगों के आकार और उनकी शक्ति
  • तट की ऊँचाई
  • तट का ढाल
  • तटीय चट्टानों की बनावट और संगठन
  • समुद्री तल की गहराई
  • तरंग के टूटने का बिन्दु इत्यादि।

समुद्री अपरदन की प्रक्रिया (Process of Marine Erosion)-जब समुद्री तरंगें तटों पर जाकर टूटती हैं, तो वे वहाँ स्थित चट्टानों पर तेज़ प्रहार करती हैं। ऐसा अनुमान है कि फेनिल तरंगें तट के प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र पर 3,000 से 30,000 किलोग्राम जितना दबाव डाल सकती हैं। तूफानी तरंगों का दबाव और अधिक होता है। जब समुद्री तरंगें तटों से टकराती हैं तो चट्टानों के छिद्रों और दरारों में छिपी वायु भिंच (Compress) जाती है। तरंग के वापस लौटते ही यह दबी हुई वायु झटके से बाहर निकलती है। हवा के इस आकस्मिक फैलाव का विस्फोटक प्रभाव पड़ता है और चट्टानी कण ढीले पड़ने लगते हैं। इस क्रिया की लम्बी अवधि तक पुनरावृत्ति तटीय चट्टानों को तोड़ देती है। यदि तरंगें बजरी और बालू रूपी यन्त्रों से लैस हों तो सागरीय अपरदन और तेज हो जाता है। समुद्री तरंगें अपरदन क्रिया द्रव-प्रेरित बल, अपघर्षण, विलयन तथा सन्निघर्षण द्वारा करती हैं।

समुद्री तरंगों के अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियाँ (Coastal Features of Marine Erosion)-समुद्री तरंगों की अपरदन क्रिया द्वारा निम्नलिखित भू-आकारों का निर्माण होता है-
1. समुद्री भृगु (Sea Cliff) एकदम खड़े समुद्री तट को भृगु कहा जाता है। जिन तटों पर तीव्र ढाल वाली चट्टानें तट से समुद्र के नीचे चली जाती हैं, वहाँ शुरू में फेनिल तरंगें समुद्र के जल-स्तर पर अपरदन के द्वारा एक खाँच (Notch) का निर्माण करती हैं। यह खाँच अपरदन के द्वारा अन्दर-ही-अन्दर बढ़ती जाती है और आधार को तब तक खोखला करती रहती है, जब तक चट्टान का खाँचे के ऊपर लटकता हुआ भाग समुद्र में गिर नहीं जाता। इस प्रकार बची हुई चट्टान का दीवार की तरह खड़ा सीधा भाग भृगु कहलाता है। समुद्री तरंगों के लगातार प्रहार से भृगु स्थल की ओर पीछे हटते रहते हैं। भारत के पश्चिमी तट पर अरब सागर की ओर मुँह किए खड़े अनेक विशालकाय भृगु देखने को मिलते हैं।
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2. तरंग-घर्षित वेदी (Wave-cut Platform) भृगु के बार-बार पीछे हटने से उत्पन्न शैल मलबे को ज्वारीय तरंगें भृगु के सामने जमा करती रहती हैं। इससे जल के अन्दर एक अपेक्षाकृत समतल मैदान का निर्माण हो जाता है, जिसे तरंग-घर्षित वेदी कहते हैं।।
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3. समुद्री गुफ़ाएँ (Sea Caves)-जिन तटीय चट्टानों में जोड़, दरारें और कोमल चट्टानों के संस्तर मौजूद रहते हैं, वहाँ तरंगों द्वारा विभेदी अपरदन (Differential Erosion) के कारण समुद्री गुफ़ाओं का निर्माण होता है।

4. समुद्री मेहराब या प्राकृतिक पुल (Sea Arch or Natural Bridge)-तट से समुद्र की ओर काफी आगे तक बढ़ी हुई चट्टान पर जब दो विपरीत दिशाओं से गुफ़ाएँ बनने लगती हैं तो एक समय पर ये गुफ़ाएँ पीछे से आपस में मिल जाती हैं। इससे चट्टान के आर-पार एक विशाल छिद्र बनता है, जिसे समुद्री मेहराब या प्राकृतिक पुल कहा जाता है।
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5. स्टैक या स्तम्भ (Stack or Pillar) जब समुद्री मेहराब की छत गिर पड़ती है, तो चट्टान का अगला भाग समुद्र में एक स्तम्भ के रूप में खड़ा दिखाई पड़ता है। इसे स्टैक कहते हैं।

6. वात छिद्र (Blow Holes)-तरंगों द्वारा गुफ़ाओं पर प्रहार करने से उनका मुँह जल द्वारा बन्द हो जाता है। इन द्वारों के बन्द होने से कन्दराओं के अन्दर भरी हुई वायु बाहर निकलने के लिए कन्दराओं की छतों पर छिद्र कर देती है। इस तरह से बने छिद्र को वात छिद्र या प्राकृतिक चिमनी या ग्लाउप कहा जाता है। इन्हें उगलने वाले छिद्र भी कहा जाता है। लहरों द्वारा धकेली हुई हवा इस छिद्र से फुहार को बाहर फेंकती हुई सीटी की-सी आवाज़ के साथ बाहर निकलती है।
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(ख) समुद्री तरंगों के निक्षेपण कार्यों से निर्मित स्थलाकृतियाँ (Landforms Produced by Marine Deposition) समुद्री तरंगों की निक्षेपण क्रिया द्वारा निम्नलिखित भू-आकारों का निर्माण होता है
1. पुलिन (Beach)-निम्न ज्वार और तट रेखा के बीच बालू, बजरी तथा गोलाश्म के अस्थायी निक्षेप को पुलिन कहा जाता है। कमज़ोर समुद्री तरंगें तट पर निक्षेपण करती हैं जिससे पुलिन का आकार बढ़ने लगता है लेकिन तूफ़ानी तरंगें पुलिन का अपरदन करके उसे नष्ट कर देती हैं।

2. भू-जिह्वा (Spit)-तट के सहारे मलबे का निक्षेप एक ऐसी कटक के रूप में होता है जिसका एक सिरा तट से जुड़ा होता है व दूसरा सिरा रोधिका के रूप में समुद्र की ओर निकला रहता है।
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3. लैगून (Lagoon) कई बार एक बालू-भित्ति (Sand bar) समुद्र के एक छोटे-से भाग को मुख्य समुद्र से अलग कर देती है। ऐसी आंशिक रूप से रोधिका द्वारा घिरी हुई खारे पानी की झील को लैगून कहा जाता है। लैगून का सम्बन्ध एक संकीर्ण मार्ग द्वारा समुद्र से बना रहता है। भारत के पूर्व में ओडिशा तट पर चिल्का झील तथा तमिलनाडु तट पर पुलिकट झील तथा पश्चिम में केरल तट पर वेंबानद झील लैगून झीलों के ही उदाहरण हैं। जर्मनी भाषा में खाड़ी के आर-पार भू-जिह्वा के विकास से बनी उथली तटीय लैगूनों को हैफ़ कहा जाता है।

4. रोधिका (Bar)-जब समुद्री तरंगें अवसादों को तट के समानान्तर कुछ दूरी पर समुद्री तली पर निक्षेप कर देती हैं, तो इस प्रकार बने पतले व लम्बे बाँधों को रोधिका कहते हैं। जब ये रोधिकाएँ जल से ऊपर दिखने लगती हैं, तो इन्हें समुद्री रोधिका कहा जाता है। रोधिका के दोनों छोरों का स्थल भाग से जुड़ा होना जरूरी नहीं है।

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प्रश्न 5.
भौम जल क्या है? इसके स्थल-स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भौम जल-जहाँ चट्टानें पारगम्य, पतली परतों, अत्याधिक संधियों या दरारों वाली होती हैं तो वहाँ धरातलीय जल का कुछ भाग रिसकर और टपककर भूमिगत हो जाता है, इसे भौम जल कहते हैं। यह अपरदनात्मक और निक्षेपणात्मक दोनों प्रकार के स्थल-रूप बनाता है।

भौम जल के स्थल-स्वरूप भौम जल के स्थल-स्वरूप इस प्रकार हैं-

  • अपरदनात्मक स्थल-स्वरूप
  • निक्षेपणात्मक स्थल-स्वरूप

I. अपरदनात्मक भौम जल के प्रमुख अपरदनात्मक स्थल-स्वरूप निम्नलिखित हैं-
1. विलय रंध्र-ये चूना-पत्थर या डोलोमाइट चट्टानों के तल पर जल की घुलन-क्रिया द्वारा बने छोटे व मध्यम आकार के लगभग गोल व उथले गर्त होते हैं जिन्हें विलय रंध्र कहते हैं।

2. घोल रंध्र-डोलोमाइट, जिप्सम और चूने की चट्टानों में खड़ी संधियाँ होती हैं। इनमें CO2 से युक्त जल अपनी घुलन- शक्ति द्वारा अनेक छोटे-छोटे छिद्र बना देता है जिन्हें घोल रंध्र कहते हैं।

3. डोलाइन घोल व विलय रंध्रों के आपस में मिल जाने से छिद्र बड़े बन जाते हैं, इन्हें डोलाइन कहा जाता है।
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II. निक्षेपणात्मक भौम जल के प्रमुख निक्षेपणात्मक स्थल-स्वरूप निम्नलिखित हैं
1. स्टैलेक्टाइट-चूने के प्रदेशों में भूमिगत कंदराओं में जल छत से बूंद-बूंद टपकता है। कई बार बूंदें टपकने से पहले ही वाष्पीकरण द्वारा सूख जाती हैं। इस प्रकार चूने के अंश पृथ्वी पर चिपके रह जाते हैं। लंबे समय तक इस क्रिया की पुनरावृत्ति होने पर चूने के निक्षेप से बना एक स्तम्भ छत से लटका हुआ दिखाई देने लगता है। यह छत की ओर मोटा व नीचे की ओर पतला व नुकीला होता है, जिसे स्टैलेक्टाइट कहते हैं।
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2. स्टैलेग्माइट-कंदराओं की तली पर छत से गिरने वाली चूना-युक्त जल की बूंदों का भी वाष्पीकरण होता है। इससे चूने का कंदरा की तली पर जमाव होने लगता है। समय बीतने के साथ तल पर मोटे बेलनाकार स्तम्भ ऊपर की ओर बढ़ने लगते हैं, इन्हें स्टैलेग्माइट कहते हैं।

प्रश्न 6.
उष्ण मरुस्थली प्रदेशों में पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
पवन किस प्रकार अपघर्षण तथा अपवहन कार्य करती है? इन कार्यों के परिणामों का अलग-अलग उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
नदी तथा हिमानी की तरह पवन भी अपरदन एवं निक्षेपण का कार्य करके विभिन्न प्रकार के भू-दृश्यों का निर्माण करती है। पवन का कार्य मरुस्थली तथा अर्द्ध-मरुस्थली क्षेत्रों में सक्रिय होता है। वर्षा के अभाव में वनस्पति की कमी तथा मिट्टी के असंगठित कणों के कारण पवन द्वारा रेत को एक स्थान से दूसरे स्थान तक उड़ाने में आसानी रहती है। पवन तीन प्रकार से अपरदन का कार्य करती है
1. अपघर्षण (Abrasion)-पवन में धूलकण, कंकड़-पत्थर के बारीक टुकड़े तथा रेत अपरदन के रूप में कार्य करते हैं। चट्टानों से टकराकर ये कण एक रेगमार की भाँति कटाव करते हैं, जिससे विभिन्न प्रकार की भू-आकृतियों का निर्माण होता है।

2. सन्निघर्षण (Attrition)-पवन के साथ प्रवाहित होने वाले रेत एवं धूलकण एक-दूसरे से टकराकर चूर-चूर हो जाते हैं, जिसे सन्निघर्षण कहते हैं।

3. अपवाहन (Deflation) धरातल पर असंगठित रूप से बिखरे धूलकण एवं रेत को हवा एक स्थान से उड़ाकर दूसरे स्थान पर ले जाती है जिससे असंगठित चट्टानों का अपरदन हो जाता है, इसे अपवाहन कहते हैं।

अपरदन क्रिया से निर्मित स्थलाकृतियाँ (Landforms Produced by Wind Erosion Process)-पवन अपरदन क्रिया द्वारा निम्नलिखित भू-आकृतियों का निर्माण करती है-
1. छत्रक शैल या गारा (Mushroom or Gara)इनकी आकृति कुकुरमुत्ता के पौधे के समान या छतरी के समान होती है, इसलिए इन्हें छत्रक कहते हैं। हवा के साथ उड़ने वाले दिशा रेत के कण चट्टानों पर बार-बार प्रहार करते रहते हैं जिससे चट्टानों के निचले असंगठित एवं ढीले भाग कट जाते हैं जबकि रेत का घातक प्रहार चट्टान के ऊपरी भाग, जहाँ चट्टानें कठोर हों, अपेक्षाकृत कम अपरदित आधार पर होता है क्योंकि इस होते हैं जिनके फलस्वरूप ऊपरी छतरीनुमा चट्टानी भाग अप्रभावित ऊंचाई पर पवन में सर्वाधिक भार रहता है, जिसे छत्रक शैल कहते हैं।
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2. ज्यूजन (Zeugen) मरुस्थली भागों में परतदार चट्टानों में इस प्रकार की आकृति देखने को मिलती है। जब कोमल चट्टानों के ऊपर कठोर चट्टानी भाग क्षैतिज दिशा में बिछा होता है तो ऐसी दशा में नीचे की कोमल चट्टान कट जाती है तथा ऊपरी कठोर चट्टान मेज की भाँति अप्रभावित रहती है, जिसे ज्यूजन कहते हैं।

3. इन्सेलबर्ग (Inselberg)-मरुस्थलीय क्षेत्रों में एक द्वीप के आकार की उठी हुई आकृति को इन्सेलबर्ग कहते हैं। जब कठोर एवं कोमल चट्टानें लम्बवत् रूप में खड़ी होती हैं और कोमल चट्टानें हवा द्वारा अपरदित हो जाती हैं तब ऐसी स्थिति में दो लम्बवत् कठोर चट्टानों के मध्य निम्न भूमि या अपरदित भाग होता है। दूर से देखने पर ये खड़ी चट्टानें द्वीप की तरह लगती हैं। ऐसी आकृतियाँ कालाहारी मरुस्थल में दिखाई देती हैं।

4. यारडांग (Yardang) मरुस्थलीय क्षेत्रों में जब कोमल तथा कठोर चट्टानें एक-दूसरे के समानान्तर खड़ी होती हैं तो कोमल तथा असंगठित चट्टानें शीघ्र कट जाती हैं तथा कठोर चट्टानें नुकीली एवं खड़ी रहती हैं। दोनों नुकीली मापक) चट्टानों के मध्य में नालियाँ-सी बन जाती हैं, जिन्हें यारडंग कहते हैं।
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5. वातगर्त (Deflation Basin)-भू-तल पर कोमल चट्टानों के असंगठित रेत के कणों को हवा उड़ाकर ले जाती है। बार-बार हवा के प्रहार से रेत वहाँ से खाली होती रहती है तथा एक गर्त-सा बन जाता है, जिसे वातगर्त या वातबेसिन कहते हैं।

6. भू-स्तम्भ (Demoisella)-कोमल या असंगठित चट्टान के ऊपर कठोर चट्टान होती है। कोमल चट्टानी भाग अपरदित हो जाता है जबकि कठोर चट्टान का अपरदन नहीं होता। कठोर चट्टान कोमल चट्टान के ऊपर एक दुकान की तरह खड़ी रहती है, जिन्हें भू-स्तम्भ कहते हैं।
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पवन का निक्षेप कार्य तथा निर्मित स्थलाकृतियाँ (Wind Deposition Work and Produced Land Forms)मरुस्थलीय क्षेत्रों में पवन की गति जब मन्द हो जाती है या उसके मार्ग में कोई बाधा उत्पन्न हो जाती है तो उसमें सम्मिलित रेत तथा मिट्टी के कणों का जमाव आरम्भ हो जाता है तथा निम्नलिखित भू-आकृतियों का निर्माण होता है
1. बालू के टीले (Sand Dunes)-पवन की गति कम होने से रेत तथा मिट्टी के मोटे कणों के जमाव से बालू के स्तूपों का निर्माण होता है। ये तीन प्रकार के होते हैं-
(1) लम्बे बालू का स्तूप (Longitudinal Sand Dunes) इनका निर्माण प्रचलित पवन की दिशा के समानान्तर होता है। ये लम्बी पहाड़ी की आकृति में बनते हैं।

(2) आड़े बालू का स्तूप (Transverse Sand Dunes) इनका निर्माण प्रचलित पवन की दिशा के समकोण पर होता है। इनकी आकृति अर्द्ध-चन्द्राकार होती है।

(3) बारखन (Barkhan) इनका आकार अर्द्ध-चन्द्राकार होता है। इनकी पवनमुखी ढाल उत्तल तथा पवनविमुखी ढाल अवतल होती है। इनका आकार दूज के चाँद की तरह होता है। इनके शिखर नुकीले सींग की तरह होते हैं। इनकी लम्बाई 150 कि०मी० तक तथा ऊँचाई 30 मीटर तक होती है।
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2. लोएस (Loess)-पवन द्वारा लाई गई बारीक मिट्टी के निक्षेप को लोएस कहते हैं। लोएस के कणों को पवन बहुत दूर तक मरुस्थलीय क्षेत्रों में उड़ा ले जाती है। लोएस की मिट्टी अधिक उपजाऊ होती है। उदाहरण के लिए, चीन के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में पीली मिट्टी का लोएस प्रदेश है। यह लगभग तीन लाख वर्ग मील बारखन क्षेत्र में फैला हुआ है।

प्रश्न 7.
विभिन्न प्रकार की सागरीय तट-रेखाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
समुद्र तट और समुद्री किनारे के बीच स्थित सीमा रेखा को तट-रेखा कहते हैं। समुद्र तट दो प्रकार के होते हैं-

  • निमग्न समुद्र तट (Coastline of Submergence)
  • निर्गत समुद्र तट (Coastline of Emergence)

(क) निमग्न समुद्र तट (Coastline of Submergence)- निमग्न समुद्र तट के भी दो प्रकार होते हैं-

  • निमग्न उच्च भूमि का समुद्र तट (Submerged Upland Coast)
  • निमग्न निम्न भूमि का समुद्र तट (Submerged Lowland Coast)

1. निमग्न उच्च भूमि का समुद्र तट (Submerged Upland Coast)-ऐसे तटों का निर्माण स्थलखण्ड के नीचे धंसने या समुद्र के जलस्तर के ऊपर उठने से होता है। ये तट निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-
(a) फियोर्ड तट (Fiord Coast) इन तटों का निर्माण हिमनदी द्वारा अपरदित U-आकार घाटियों के आंशिक रूप से समुद्र में डूबने से होता है। हिम युग के बाद हिम के पिघलने से समुद्र का जल-स्तर बढ़ा और तटों पर स्थित लम्बी, सँकरी और गहरी घाटियों में समुद्र का जल घुस गया। इन घाटियों के तीव्र ढाल वाले पार्श्व समुद्र से नीचे बाहर निकले हुए होते हैं। फियोर्ड स्थल पर बहुत लम्बी दूरी तक गहरे होते हैं, किन्तु समुद्र में ये घाटियाँ उथली पाई जाती हैं। नार्वे का सोग्ने फियोर्ड (Sogne Fiord) 175 कि०मी० लम्बा, 6 कि०मी० चौड़ा व मध्य घाटी में 4000 फुट गहरा है। नार्वे के अतिरिक्त फियोर्ड तट के अच्छे उदाहरण दक्षिणी-चिली, ग्रीनलैण्ड, अलास्का तथा न्यूजीलैण्ड में मिलते हैं। फियोर्ड गहरे व संरक्षित बन्दरगाहों के लिए आदर्श माने जाते हैं। कई गहरे फियो? से होकर जलयान देश के भीतर तक पहुँच सकते हैं।

(b) रिया तट (Ria Coast)-हिम युग के बाद समुद्र का जल-स्तर बढ़ने से समुद्र के साथ समकोण बनाती हुई उच्च भूमियों की नदी घाटियों और नद-मुख (River Mouths) जल में डूब गए। इस प्रकार बना तट रिया तट कहलाता है। ये तट फियोर्ड तट से इस कारण भिन्न होते हैं कि ये हिमनदित नहीं होते और समुद्र की ओर इनकी गहराई बढ़ती जाती है। एड्रियाटिक सागर व जापान की तट-रेखा रिया तट के उदाहरण हैं।

(c) डाल्मेशियन तट (Dalmatian Coast) तट के समानान्तर स्थित लम्बी पर्वतीय कटकों के समुद्र में डूबने से डाल्मेशियन तट की रचना होती है। इन जलमग्न कटकों के ऊपरी भाग लम्बे द्वीपों के रूप में दिखाई पड़ते हैं। युगोस्लाविया के डाल्मेशियन तट के नाम पर ही ऐसे तटों को डाल्मेशियन तट कहा जाता है।

2. निमग्न भूमि का समुद्र तट (Submerged Lowland Coastline)-इस प्रकार के तट किसी मैदानी भाग के जलमग्न होने से बनते हैं। ये तट कटे-फटे नहीं होते। इन तटों पर रोधिकाएँ और लैगून पाए जाते हैं। यूरोप का बाल्टिक तट इस प्रकार के तटों का श्रेष्ठ उदाहरण है।

(ख) निर्गत समुद्र तट (Coastline of Emergence) इस प्रकार के तटों का निर्माण स्थलखण्ड के ऊपर उठने या समुद्र के जल-स्तर के नीचे होने से होता है। इन तटों पर पुलिन, भू-जिह्वा, रोधिकाएँ, लैगून, भृगु व मेहराबें पाई जाती हैं। भारत का दक्षिण-पूर्वी तट निर्गत समुद्र तट का उदाहरण है।

धीरे-धीरे ज़मीन के अन्दर रिसकर (Seepage) व टपक-टपक कर (Percolation) भूमिगत हो जाता है। अतः पृथ्वी की ऊपरी सतह के नीचे भूमिगत चट्टानों के छिद्रों एवं दरारों में एकत्रित हुए जल को भूमिगत जल कहा जाता है। झरनों (Springs) के माध्यम से भूमिगत जल धरातल पर निकलकर जलीय चक्र (Hydrological Cycle) का हिस्सा बन जाता है।

प्रश्न 8.
भूमिगत जल किस प्रकार प्रवणता सन्तुलन का कारक बनता है? इसके अपरदन और निक्षेपण कार्यों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
कार्ट स्थलाकृतियों के विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ कौन-सी हैं? इस तरह के भू-दृश्यों की निर्माण विधियों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रवणता सन्तुलन के अन्य साधनों की भाँति भूमिगत जल भी अपरदन, परिवहन और निक्षेपण कार्य करता है। लेकिन भूमिगत जल का कार्य चूने की चट्टानों से बने प्रदेशों में अधिक प्रभावी होता है। ऐसे प्रदेशों को कार्ट प्रदेश (Karst Region) कहते हैं। ‘कार्ट’ शब्द युगोस्लाविया के एड्रियाटिक तट (Adriatic Coast) पर स्थित इसी नाम के एक क्षेत्र से लिया गया है जहाँ चूनायुक्त चट्टानों पर वर्षा के जल का भारी प्रभाव देखा जा सकता है।
(क) भूमिगत जल का अपरदन कार्य (Erosional Work of Underground Water) -चूने के प्रदेशों में भूमिगत जल की घोलक क्रिया द्वारा निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण भू-आकारों की रचना होती है-
1. अवकूट (Lapies)-जब हल्की ढाल वाली चूनायुक्त चट्टानों की सन्धियों में कार्बनयुक्त भूमिगत जल भर जाता है, तो वह सन्धियों में स्थित कैल्शियम कार्बोनेट के कणों को घोल देता है। परिणामस्वरूप चूने की चट्टानों की सन्धियाँ चौड़ी हो जाती हैं और कालान्तर में सीधी दीवारों में गहरे गड्ढों वाला भू-रूप उत्पन्न होता है जिसे फ्रांसीसी भाषा में लेपीज़ कहते हैं। ऐसी स्थलाकृति को जर्मनी में कारेन (Karren) तथा अंग्रेज़ी में क्लिण्ट (Clint) कहते हैं।

2. घोल रंध्र (Sink Holes) डोलोमाइट, जिप्सम और चूने की चट्टानों में खड़ी सन्धियाँ (Vertical Joints) होती हैं। इन संधियों में कार्बन-डाइऑक्साइड जल अपनी घुलन शक्ति द्वारा अनेक छोटे-बड़े छिद्र बना देता है, जिन्हें घोल रंध्र कहते हैं। ये कीपाकार (Funnel shaped) अथवा बेलनाकार (Cylindrical) होते हैं। सामान्यतः ये 3 से 9 मीटर गहरे गड्ढे होते हैं तथा इनके मुख का क्षेत्रफल 1 मीटर से अधिक होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के केन्टुकी राज्य में चूने से बने पठारी क्षेत्र पर 60,000 से अधिक घोल रंध्र पाए जाते हैं। भारत में ऐसे घोल रंध्र मेघालय की चूना संस्तरों के दक्षिणी हिस्से में पाए जाते हैं।

3. विलय रंध्र (Swallow Holes) भूमिगत जल की घोल क्रिया द्वारा घोल रंध्रों का आकार उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है और वे बेलनाकार नलिकाओं के रूप में विकसित होने लगते हैं, इन्हें विलय रंध्र कहते हैं। धरातलीय नदियाँ घोल रंध्रों में घुसकर इन विलय रंध्रों के रास्ते से ही लुप्त हो जाती हैं। ये रंध्र भूमिगत मार्गों द्वारा कन्दराओं से जुड़े होते हैं।

4. शुष्क व अन्धी घाटियाँ (Dry and Blind Valleys) धरातलीय नदियाँ जब घोल रंध्रों और विलय रंध्रों के रास्ते भूमिगत हो जाती हैं, तो धरातल पर स्थित मूल घाटियों में जल बहना बन्द हो जाता है। इन सूखी तली वाली घाटियों को अन्धी घाटियाँ कहा जाता है।

5. कुण्ड या डोलाइन (Dolines)-अनेक घोल रंध्रों और विलय रंध्रों के परस्पर मिल जाने से बने विशाल गर्तों को डोलाइन कहते हैं। ये धरातल पर कीप जैसे व नीचे खोखले बेलन जैसे होते हैं। यूरोप के पिरेनीज़ क्षेत्र में अनेक डोलाइन देखने को मिलते हैं।

6. सकुण्ड या युवाला (Uvalas) भूमिगत जल के पाश्विक अपरदन (Lateral Erosion) द्वारा अनेक डोलाइनों के बीच की दीवारें घुलकर गिर जाती हैं जिससे वे आपस में मिल जाते हैं। इससे एक विशाल गर्त का निर्माण होता है, जिसे युवाला कहते हैं। युवाला डोलाइन से बड़ा होता है।

7. पोनोर (Ponors)-जब युवालाओं में पर्याप्त भूमिगत जल इकट्ठा हो जाता है, तो उसके अपरदन कार्य में तेजी आ जाती है। फलस्वरूप अनेक युवाला परस्पर मिलकर सुरंगनुमा भू-आकार का निर्माण करते हैं, जिसे पोनोर कहते हैं।

8. कन्दरा (Cavern) कई बार धरातल पर कठोर चट्टानों के नीचे चूनायुक्त चट्टानें बिछी होती हैं। इन चूने की चट्टानों को भूमिगत जल घुलाकर खोखला करता रहता है। किन्तु ऊपर की कठोर चट्टान छत की तरह टिकी रहती है। इस प्रकार चूने के प्रदेश में भीतर-ही-भीतर मीलों लम्बी-चौड़ी गुफाएँ बन जाती हैं, जिन्हें कन्दरा कहा जाता है। मूल रूप से कन्दरा का निर्माण चूने की चट्टानों के संस्तर तल (Bedding Plane) और विभंजन द्वारा नियंत्रित होता है।

9. प्राकृतिक पुल (Natural Bridge) भूमिगत जल द्वारा होने वाले लगातार अपरदन से कई बार कन्दराओं की छत का कुछ भाग नीचे गिर जाता है और कुछ भाग पहले की तरह अटका रहता है। यह बचा हुआ भाग आने-जाने का मार्ग प्रदान करता है, इसलिए इसे प्राकृतिक पुल कहा जाता है।

(ख) भूमिगत जल का निक्षेपण कार्य (Depositional Work of Underground Water)-जब भूमिगत जल में घुली हुई कार्बन-डाइऑक्साइड निकल जाती है तो उसमें घुला हुआ चूने का अंश (कैल्शियम बाइकार्बोनेट) पुनः जमने लगता है और कन्दराओं में विविध प्रकार के भू-आकारों की रचना होने लगती है-
1. स्टैलेक्टाइट (Stalactite) चूने के प्रदेशों में भूमिगत कन्दराओं में जल छत से बूंद-बूंद करके टपकता रहता है। इन बूंदों में घुला हुआ चूना होता है। कई बार छत से चिपकी बूंद जब तक इतनी बड़ी होती है कि वह नीचे गिरे, उससे पहले वाष्पीकरण द्वारा उसका कुछ अंश सूख जाता है। फलस्वरूप चूने का अंश छत से चिपका रह जाता है। लम्बे समय तक इस क्रिया की पुनरावृत्ति होने पर चूने के निक्षेप से बना एक स्तम्भ छत से लटका दिखाई पड़ने लगता है। यह स्तम्भ छत की ओर मोटा व नीचे की ओर पतला व नुकीला होता है। इसे स्टैलेक्टाइट कहते हैं।

2. स्टैलेग्माइट (Stalagmite) कन्दराओं की तली पर छत से गिरने वाली चूना-युक्त जल की बूंदों का भी वाष्पीकरण होता है। इससे चूने का कन्दरा की तली पर जमाव होने लगता है। कालान्तर में कन्दरा के तल पर मोटे, बेलनाकार स्तम्भ ऊपर की ओर बढ़ने लगते हैं। इन्हें स्टैलेग्माइट कहते हैं। स्टैलेग्माइट स्टैलेक्टाइट की अपेक्षा मोटे किन्तु छोटे होते हैं।

3. कन्दरा स्तम्भ (Cave Pillars) कई बार ऊपर से नीचे की ओर लटकते हुए स्टैलेक्टाइट और नीचे से ऊपर की ओर बढ़ते हुए स्टैलेग्माइट आपस में मिल जाते हैं और कन्दरा स्तम्भ का निर्माण करते हैं। ऐसे कन्दरा-स्तम्भ उत्तर प्रदेश के देहरादून जिले व आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में देखने को मिलते हैं।

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