Class 12

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 2 दो ध्रुवीयता का अंत

Haryana State Board HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 2 दो ध्रुवीयता का अंत Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Political Science Important Questions Chapter 2 दो ध्रुवीयता का अंत

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
विश्व राजनीति में उभरी नई हस्तियों की व्याख्या करें।
उत्तर:
1990 के दशक में विश्व राजनीति में बहुत महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए। 1991 में शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था समाप्त हो गई तथा विश्व तेज़ी से एक ध्रुवीय होता चला गया, जिसके प्रभाव को कम करने के लिए कुछ प्रयास भी किये, यूरोपीय संघ की स्थापना इसी प्रकार का प्रयास माना जा सकता है। इसके साथ 1991 में शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् विश्व राजनीति में कुछ नई हस्तियां या राज्य उभरे जिनका वर्णन इस प्रकार है

1. रूस (Russia):
शीत युद्ध की समाप्ति पर रूस, सोवियत संघ के उत्तराधिकारी के रूप में उभर कर सामने आया, यद्यपि रूस न तो सोवियत संघ के समान सैनिक रूप से शक्तिशाली था और न ही आर्थिक रूप से। अत: रूस को अपनी आर्थिक व्यवस्था को ठीक करके अपना विकास करना था। इसके लिए रूस ने अपने सैनिक खर्चों में कमी करना शुरू किया।

परन्तु इसका एक परिणाम यह निकला कि रूस में बेरोजगारी बढ़ने लगी तथा रूस की आर्थिक व्यवस्था संकट में पड़ गई जिसके परिणामस्वरूप 1992 में रूस में आर्थिक सुधारों को लागू करने की बात की जाने लगी। रूस में समय-समय पर कुछ ऐसी घटनाएं होती रहीं, जिससे रूस को आर्थिक एवं राजनीतिक हानि उठानी पड़ी है।

उदाहरण के लिए 1994 एवं 1999 में चेचन्या विद्रोह, 2000 में परमाणु पनडुब्बी कुर्सक् की जलसमाधि, 2002 में चेचन विद्रोहियों द्वारा मास्को की रंगशाला में लोगों को बन्दी बनाना तथा 2004 में चेचन विद्रोहियों द्वारा ही बेसलान में 1100 स्कूली बच्चों, शिक्षकों तथा अभिभावकों को बन्दी बनाना इत्यादि इसमें शामिल हैं।

इन घटनाओं से रूस की आर्थिक व्यवस्था को काफ़ी हानि पहुंची तथा विश्व स्तर पर भी रूस के महत्त्व में कमी आई। इसके साथ-साथ रूस के अमेरिका के सम्बन्ध भी उतार व चढ़ाव वाले रहे। शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् रूस को विश्वास था कि वह अब अपने आर्थिक विकास पर जोर देगा, विश्व राजनीति में पुनः शक्तिशाली बन कर उभरेगा, भारत के साथ अपने सम्बन्धों को और अधिक सुदृढ़ करेगा। कुछ कठिनाइयों के बावजूद भी वर्तमान राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने इन सभी आशाओं को आगे बढ़ाया है।

2. बलकान युद्ध (Balkan States):
बलकान राज्यों में अल्बानिया, बुल्गारिया, बोसनिया तथा हरजेगोविनिया, यूनान, क्रोशिया, मान्टेनीग्रो, मेसेडोनिया तथा तुर्की शामिल हैं। बलकान को प्रायः बलकान प्रायद्वीप भी कह दिया जाता है, क्योंकि यह तीन दिशाओं से पानी से घिरा हुआ है। दक्षिण तथा पश्चिम में भूमध्य सागर की शाखाएं तथा पूर्वी भाग की ओर काला सागर स्थित है। 1980 के दशक में बलकान क्षेत्र में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए, जिनसे निपटने के लिए इस क्षेत्र के देशों ने 1988 में बेलग्रेड में एक बैठक आयोजित की।

इस सभा में सभी देशों ने विस्तृत आर्थिक सहयोग के लिए आपस में हाथ मिलाए। 1990 में युगोस्लाविया के विखण्डन ने बलकान राज्यों की एकता को कम करने का काम किया। शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् नाटो ने बलकान क्षेत्र में अपने प्रभाव को जमाने का प्रयास किया। शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् बलकान क्षेत्र में भी साम्यवाद के स्थान पर राष्ट्रवाद की विचारधारा बढ़ती जा रही थी।

यद्यपि यूगोस्लाविया संकट ने बलकान क्षेत्र में अस्थिरता पैदा की, परन्तु फिर भी शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् बलकान देशों ने विश्व स्तर पर अपनी एक नई पहचान बनाई है तथा स्वयं को विश्व की लोकतान्त्रिक विचारधारा के साथ जोड़ दिया है।

3. केन्द्रीय एशियाई राज्य (Central Asian States):
शीत युद्ध एवं द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था की समाप्ति का प्रभाव केन्द्रीय एशियाई राज्यों पर भी पड़ा। सोवियत संघ के विघटन से केन्द्रीय एशिया में कुछ नये राज्यों का उदय हुआ। इनमें उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कजाखिस्तान, किरघिस्तान तथा ताजिकिस्तान शामिल हैं।

इस क्षेत्र में शीत युद्ध के पश्चात् अमेरिका ने प्राय: सभी देशों से अपने सम्बन्धों को मधुर बनाने के प्रयास किये। अमेरिका ने इस क्षेत्र में लोकतान्त्रिक संस्थाओं के निर्माण पर जोर दिया। शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् इस क्षेत्र में स्थायित्व, आर्थिक विकास, परमाणु हथियारों पर रोक तथा मानवाधिकारों पर बल दिया गया। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अमेरिका ने इस क्षेत्र के देशों को अपना सहयोग दिया।

प्रश्न 2.
भारत-रूस सम्बन्धों की व्याख्या कीजिए। (Explain Indo-Russia relations.)
उत्तर:
सन् 1991 में भूतपूर्व सोवियत संघ का विघटन हो गया और उसके 15 गणराज्यों ने स्वयं को स्वतन्त्र राज्य घोषित कर दिया। रूस भी इन्हीं में से एक है। फरवरी, 1992 में भारतीय प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन को विश्वास दिलाया कि भारत के साथ रूस के सम्बन्ध में कोई गिरावट नहीं आएगी और वे पहले की ही तरह मित्रवत् और सहयोग पूर्ण बने रहेंगे।

आज भारत और रूस में घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन तीन दिन की ऐतिहासिक यात्रा पर 27 जनवरी, 1993 को दिल्ली पहुंचे। राष्ट्रपति येल्तसिन और प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव वार्ता में मुख्यत: आर्थिक एवं व्यापारिक विवादों के समाधान और द्विपक्षीय सहयोग के लिए एजेंडे पर विशेष जोर दिया गया।

दोनों देशों के बीच 10 समझौते हुए जिनमें रुपया-रूबल विनिमय दर तथा कर्जे की मात्रा व भुगतान सम्बन्धी जटिल समस्याओं पर हुआ समझौता विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दोनों देशों में 20 वर्ष के लिए मैत्री एवं सहयोग की सन्धि हुई। यह सन्धि 1971 की सन्धि से इस रूप से भिन्न है कि इसमें सामरिक सुरक्षा सम्बन्धी उपबन्ध शामिल नहीं है। लेकिन 14 उपबन्धों वाली इस नई सन्धि में यह प्रावधान अवश्य रखा गया है कि दोनों देश ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे एक-दूसरे के हितों पर आंच आती है। वाणिज्य तथा आर्थिक सम्बन्धों के संवर्धन के लिए चार समझौते सम्पन्न हुए। इन समझौतों से व्यापार में भारी वृद्धि की आशा की गई है।

भारत रूस समझौतों से रूस को निर्यात करने वाले भारतीय व्यापारियों की परेशानी भी दूर हो गई है। भारतीय सेनाओं के लिए रक्षा कलपुर्जो की नियमित सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए रूसी राष्ट्रपति द्वारा प्रस्तुत त्रिसूत्रीय फार्मूला दोनों देशों ने स्वीकार कर लिया। इस सहमति से भारत को रूस की रक्षा उपकरणों और प्रौद्योगिकी प्राप्त होगी और संयुक्त उद्यमों में भी उसकी भागीदारी होगी। राजनीतिक स्तर पर राष्ट्रपति येल्तसिन तथा प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव की सहमति भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक सफलता है।

रूसी राष्ट्रपति ने कश्मीर के मामले पर भारत की नीति का पूर्ण समर्थन किया और यह वचन दिया कि रूस पाकिस्तान को किसी भी तरह की तकनीकी तथा सामरिक सहायता नहीं देगा। रूस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भी कश्मीर के मुद्दे पर भारत को समर्थन प्रदान करेगा। सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए भी रूस भारत के दावे का समर्थन करेगा।

भारत के प्रधानमन्त्री की रूस यात्रा-29 जून, 1994 को भारत के प्रधानमन्त्री श्री पी० वी० नरसिम्हा राव रूस की यात्रा पर गए। भारत और रूस के मध्य वहां आपसी सहयोग व सैनिक सहयोग के क्षेत्र में 11 समझौते हुए। प्रधानमन्त्री राव की इस यात्रा से भारत और रूस के मध्य नवीनतम तकनीक के आदान-प्रदान के क्षेत्र पर बल दिया गया। रूस के प्रधानमन्त्री की भारत यात्रा-दिसम्बर, 1994 में रूस के प्रधानमन्त्री विक्टर चेरनोमिर्दीन भारत की यात्रा पर आए। भारत और रूस के बीच आठ समझौते हुए। इन समझौतों में सैनिक और तकनीकी सहयोग भी शामिल हैं। इन समझौतों का भविष्य की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है।

प्रधानमन्त्री एच० डी० देवगौड़ा की रूस यात्रा-मार्च, 1997 में भारत के प्रधानमन्त्री एच०डी० देवगौड़ा रूस गए। उन्होंने रूस के राष्ट्रपति येल्तसिन और प्रधानमन्त्री चेरनोमिर्दिन से बातचीत कर परम्परागत मित्रता बढ़ाने के लिए कई उपायों पर द्विपक्षीय सहमति हासिल की। रूस ने भारत को परमाणु रिएक्टर देने के पुराने निर्णय को पुष्ट किया।

परमाणु परीक्षण-11 मई, 1998 को भारत ने तीन और 13 मई को दो परमाणु परीक्षण किए। अमेरिका ने भारत के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध लगाए जिसकी रूस ने कटु आलोचना की। 21 जून, 1998 को रूस के परमाणु ऊर्जा मन्त्री देवगेनी अदामोव और भारत के परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ० आर० चिदम्बरम ने नई दिल्ली में तमिलनाडु के कुरनकुलम में अढाई अरब की लागत से बनने वाले परमाणु ऊर्जा संयन्त्र के सम्बन्ध में समझौता किया।

रूस के प्रधानमन्त्री की भारत यात्रा-दिसम्बर, 1998 में रूस के प्रधानमन्त्री प्रिमाकोव भारत की यात्रा पर आए। 21 दिसम्बर, 1998 को दोनों देशों ने आपसी सहयोग के सात समझौतों पर हस्ताक्षर किए। दोनों देशों के रक्षा सहयोग की अवधि सन् 2000 से 2010 तक बढ़ाने का निर्णय किया। रूसी प्रतिरक्षा मन्त्री की भारत यात्रा-मार्च, 1999 को रूस के प्रतिरक्षा मन्त्री मार्शल इगोर दमित्रियेविच सर्गियेव (Marshall Igor Dmitrievich Suergeyev) पांच दिन के लिए भारत की यात्रा पर आए।

22 मार्च, 1999 को रूसी प्रतिरक्षा मन्त्री ने भारत के साथ एक महत्त्वपूर्ण रक्षा समझौता किया जिसके अन्तर्गत भारतीय सेना अधिकारियों को रूस के सैनिक शिक्षण संस्थाओं में प्रशिक्षण दिया जाएगा। भारतीय प्रतिरक्षा मन्त्री जार्ज फर्नांडीज़ ने इस रक्षा समझौते को भारत और मास्को के बीच दीर्घकालीन समझौता बताया।

रूस के राष्ट्रपति की भारत यात्रा-अक्तूबर, 2000 में रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन भारत की यात्रा पर आए। अपनी यात्रा के दौरान रूसी राष्ट्रपति ने भारत के साथ क्षेत्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय विषयों के अलावा के अनेक विषयों पर बातचीत की। दोनों देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद, विघटनवाद, संगठित मज़हबी अपराध और मादक पदार्थों की तस्करी के खिलाफ़ सहयोग करने पर भी सहमति जताई। दोनों देशों ने आपसी हित के 17 विभिन्न विषयों पर समझौते किए। इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समझौता सामरिक भागीदारी का घोषणा-पत्र रहा।

भारत के प्रधानमन्त्री की रूस यात्रा-नवम्बर, 2001 में भारत के प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी रूस यात्रा पर गए। वाजपेयी एवं रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने शिखर वार्ता करके ‘मास्को घोषणा पत्र’ जारी किया जिसमें आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की बात कही गई। रूस ने सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता के दावे का भरपूर समर्थन किया। इसके अतिरिक्त अन्य कई क्षेत्रों में भी दोनों देशों के बीच समझौते हुए।

रूस के राष्ट्रपति की भारत यात्रा-दिसम्बर, 2004 में रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने भारत की यात्रा की। भारत एवं रूस ने आतंकवाद से एकजुट तरीके से निपटने एवं आर्थिक व्यापारिक सहयोग बढ़ाने के सामरिक महत्त्व के एक संयुक्त घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किये। रूस ने संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता के लिए भारत का वीटो सहित समर्थन किया। रूस के राष्ट्रपति की भारत यात्रा-दिसम्बर, 2008 में रूस के राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव भारत यात्रा पर आए तथा भारत के साथ अपने सम्बन्धों को और प्रगाढ़ बनाया।

भारतीय प्रधानमन्त्री की रूस यात्रा-भारत के प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह दिसम्बर, 2009 में भारत-रूस वार्षिक शिखर बैठक में भाग लेने के लिए रूस यात्रा पर गये। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने असैन्य परमाणु समझौता किया। रूसी प्रधानमन्त्री की भारत यात्रा-मार्च, 2010 में रूसी प्रधानमन्त्री श्री ब्लादिमीर पुतिन भारत यात्रा पर आए। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने सुरक्षा एवं सहयोग के पाँच समझौतों पर हस्ताक्षर किए।

रूसी राष्ट्रपति की भारत यात्रा-दिसम्बर, 2010 में भारत-रूस वार्षिक शिखर वार्ता में भाग लेने के लिए रूस के राष्ट्रपति दमित्री मेदवेदेव भारत यात्रा पर आए। इस यात्रा के दौरान दोनों दोनों दोनों देशों ने 30 समझौतों पर हस्ताक्षर किये। भारतीय प्रधानमन्त्री की रूस यात्रा-दिसम्बर, 2011 में भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रूस की यात्रा की।

इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने पारस्परिक सहयोग के चार विभिन्न समझौतों पर हस्ताक्षर किये। रूसी राष्ट्रपति की भारत यात्रा-दिसम्बर, 2012 में रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन भारत-रूस वार्षिक शिखर वार्ता में भाग लेने के लिए भारत यात्रा पर आए। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने रक्षा एवं सहयोग के 10 समझौतों पर हस्ताक्षर किए।

भारतीय प्रधानमन्त्री की रूस यात्रा-3 अक्तूबर, 2013 में भारतीय प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रूस की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने कुडनकुलम बिजली परियोजना, राकेट, मिसाइल, नौसैना, प्रौद्योगिकी और हथियार प्रणाली के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने का फैसला किया। दिसम्बर, 2014 में रूसी राष्ट्रपति श्री ब्लादिमीर पुतिन ने भारत की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने 20 समझौतों पर हस्ताक्षर किये।

दिसम्बर, 2015 में भारतीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने रूस की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने सुरक्षा, व्यापार एवं स्वच्छ ऊर्जा जैसे 16 महत्त्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए। अक्तूबर, 2016 में रूसी राष्ट्रपति श्री ब्लादिमीर पुतिन भारत यात्रा पर आए। उन्होंने भारत में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लिया तथा भारत के साथ 16 समझौतों पर भी हस्ताक्षर किये। – जून 2017 में भारतीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने रूस की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने 5 महत्त्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किये। अक्तूबर 2018 में रूसी राष्ट्रपति श्री ब्लादिमीर पुतिन वार्षिक शिखर वार्ता के लिए भारत यात्रा पर आए। इस दौरान दोनों देशों ने आठ महत्त्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किये।

सितम्बर, 2019 में भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने रूस की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने 15 समझौतों पर हस्ताक्षर किये। निःसन्देह भारत और रूस में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो चुके हैं। सभी विवाद हल हो चुके हैं, गतिरोध दूर हो चुके हैं और नए सम्बन्ध स्थापित हो चुके हैं। दोनों देशों के बीच एक नई समझदारी हुई है जो नई विश्व-व्यवस्था में योगदान कर सकती है। रूस पुरानी मित्रता को निरन्तर निभा रहा है और यह निर्विवाद है कि भारत और रूस के बीच विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग बढ़ने से दोनों देशों की ताकत बढ़ेगी।

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प्रश्न 3.
सोवियत संघ के विघटन के मुख्य कारण क्या थे ?
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन के निम्नलिखित कारण थे

(1) सोवियत संघ राजनीतिक और आर्थिक रूप से कमजोर हो चुका था।

(2) उपभोक्ता वस्तुओं की कमी ने सोवियत संघ के नागरिकों में असंतोष भर दिया।

(3) सोवियत संघ के लोग मिखाइल गोर्बाचेव के सुधारों की धीमी गति से सन्तुष्ट नहीं थे।

(4) सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन लगभग 70 सालों तक रहा है। परन्तु वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। इस कारण सोवियत संघ के नागरिक इस पार्टी से छुटकारा पाना चाहते थे।

(5) सोवियत संघ ने समय-समय पर अत्याधुनिक एवं हथियार बनाकर अमेरिका की बराबरी करने का प्रयास किया, परन्तु धीरे-धीरे उसे इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।

(6) अत्यधिक खर्चों के कारण सोवियत संघ बुनियादी ढांचे एवं तकनीकी क्षेत्र में पिछड़ता गया।

(7) सोवियत संघ राजनीतिक एवं आर्थिक तौर पर अपने नागरिकों के समक्ष पूरी तरह सफल नहीं हो पाया।

(8) 1979 में अफ़गानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप के कारण सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था और भी कमज़ोर हो गई।

प्रश्न 4.
द्वि-ध्रवीयकरण के लाभ तथा हानियाँ लिखो।
अथवा
द्वि-ध्रुवीयकरण के लाभ लिखिए।
उत्तर:
द्वि-ध्रुवीयकरण के लाभ

1. विचारधाराओं को प्रोत्साहन-द्वि-ध्रुवीय विश्व का एक लाभ यह है कि इस विश्व व्यवस्था के अन्तर्गत विचारधाराओं को बहुत महत्त्व एवं प्रोत्साहन दिया जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दोनों गुटों ने अर्थात् अमेरिका तथा सोवियत संघ ने अपनी-अपनी विचारधाराओं को प्रोत्साहित किया। जहां अमेरिका ने पूंजीवादी विचारधारा को बढ़ावा दिया, वहीं सोवियत संघ ने साम्यवादी विचारधारा को प्रोत्साहन दिया।

2. शक्ति में समानता-द्वि-ध्रुवीय विश्व में दोनों गुटों की शक्ति लगभग समान होती है। दोनों गुटों में शक्ति बराबर होने से सदैव संघर्ष की शक्ति बनी रहती है।

3. शान्ति स्थापना में सहायक-द्वि-ध्रुवीय विश्व का एक महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि इसके द्वारा विश्व में शान्ति स्थापना में सहायता मिलती है। द्वि-ध्रुवीय विश्व में जो प्रतिस्पर्धा पैदा होती है या जो संघर्ष पैदा होता है, वह केवल दोनों गुटों तक ही सीमित रहता है। शेष विश्व इस संघर्ष से अछूता रहता है।

द्वि-धुवीयकरण की हानियाँ

1. शस्त्रीकरण को बढावा-द्वि-ध्रुवीय विश्व का सबसे पहला दोष या हानि यह है कि इस व्यवस्था के कारण शस्त्रीकरण को बढ़ावा मिलता है। दोनों गुटों में एक-दूसरे से अधिक शक्तिशाली होने के लिए सदैव प्रतिस्पर्धा चलती रहती है। इसके लिए दोनों गुट सभी तरह के हथकण्डे अपनाते हैं, जिससे शस्त्रीकरण एक महत्त्वपूर्ण साधन है। शस्त्रीकरण से विश्व में शस्त्र दौड़ को बढ़ावा मिलता है तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सदैव तनाव बना रहता है।

2. युद्धों को बढ़ावा-द्वि-ध्रुवीय विश्व के कारण सदैव युद्ध का खतरा मंडराता रहता है। द्वि-ध्रुवीय विश्व में दोनों गुट सदैव एक-दूसरे से आगे निकलने के प्रयास में रहते हैं। इसके लिए दोनों गुट एक-दूसरे को सदैव हानि पहुंचाने की कोशिश में लगे रहते हैं जिससे सदैव युद्ध की सम्भावना बनी रहती है।

3. अशान्त वातावरण-द्वि-ध्रुवीय में जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि सदैव शस्त्रीकरण को बढ़ावा मिलता है, युद्ध की सम्भावना बनी रहती है। इन सभी स्थितियों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अशान्त वातावरण की स्थिति रहती है, लोगों में सदैव भय एवं आतंक व्याप्त रहता है।

प्रश्न 5.
उत्तर साम्यवादी राज्यों से आपका क्या अभिप्राय है ? लोकतान्त्रिक राजनीति व पूंजीवाद को अपनाने के मुख्य तीन कारण लिखिए।
उत्तर:
1990 के दशक में शीत युद्ध की समाप्ति एवं सोवियत संघ के विघटन से कई नये राज्य विश्व राजनीति में उभर कर सामने आए, जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा रहे थे। इन्हें ही उत्तर-साम्यवादी राज्य कहा जाता है। इन दोनों में तथा सोवियत गुट के कुछ अन्य साम्यवादी देशों में धीरे-धीरे लोकतांत्रिक राजनीति और पूंजीवाद का प्रवेश ने लगा। उदाहरण के लिए पूर्वी जर्मनी तथा पश्चिमी जर्मनी जब एक हए तब पूर्वी जर्मनी में जोकि शीत युद्ध के समय सोवियत संघ के साथ था, में लोकतान्त्रिक एवं पूंजीवाद की हवा चलने लगी थी। निम्नलिखित कारणों से इन देशों ने लोकतान्त्रिक राजनीति एवं पूंजीवाद को अपनाया

(1) उत्तर साम्यवादी देशों को यह लग रहा था कि उनके आर्थिक पिछड़ेपन का कारण उनकी शासन व्यवस्था थी। इसी कारण इन उत्तर साम्यवादी देशों ने अपने देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के साथ आर्थिक सुधारों को लागू किया।

(2) उत्तर-साम्यवादी राज्यों ने अपने राज्य में लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाने के लिए इसे अपनाया। (3) इन राज्यों ने अपने देशों में राजनीतिक स्थिरता के लिए इस व्यवस्था को अपनाया।

लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1.
द्वि-ध्रुवीय विश्व के अर्थ की व्याख्या करें।
उत्तर:
द्वितीय महायुद्ध के बाद एक महत्त्वपूर्ण घटना यह घटी कि अधिकांश महाशक्तियाँ कमज़ोर हो गईं और केवल अमेरिका और रूस ही ऐसे देश बचे जो अब भी शक्तिशाली कहला सकते थे। इस प्रकार युद्ध के उपरान्त शक्ति का एक नया ढांचा (New Power Structure) विश्व स्तर पर उभरा जिसमें केवल दो ही महाशक्तियां थीं जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावशाली थीं। ये शक्तियां थीं-सोवियत रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका।

दो गुटों, ब्लाक या कैम्प (Block or Camp) में बंटे विश्व को द्वि-ध्रुवीय विश्व का नाम एक अंग्रेज़ी इतिहासकार टायनबी (Toynbee) ने दिया था। उन दिनों में टायनबी ने लिखा था, “विश्व के सभी देश कुछ न कुछ मात्रा में अमेरिका या रूस पर आश्रित हैं। कोई भी पूर्णत: इन दोनों से स्वतन्त्र नहीं है।” यही द्वि-ध्रुवीय विश्व है। नार्थऐज और ग्रीव के अनुसार, “द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में जो प्रमुख परिवर्तन आया वह था अमेरिका और रूस का महाशक्तियों के रूप में उदय होना और साथ ही साथ यूरोप विश्व कूटनीति के केन्द्र के रूप में पतन होना।”

मॉर्गेन्थो के अनुसार, द्वितीय महायुद्ध के बाद “संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस की अन्य देशों की तुलना में शक्ति इतनी अधिक बढ़ गई थी कि वह स्वयं ही एक-दूसरे को सन्तुलित कर सकते थे। इस प्रकार शक्ति सन्तुलन बहुध्रुवीय से द्वि-ध्रुवीय में बदल गया था।” इस प्रकार द्वितीय महायद्ध के बाद कई वर्षों तक ये दो महाशक्तियाँ ही विश्व स्तर पर प्रभत्वशाली बनी रहीं और समस्त अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्र बिन्दु थीं। शक्ति संरचना का यह रूप ही द्वि-ध्रुवीय या द्वि-केन्द्रीय विश्व या व्यवस्था के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

प्रश्न 2.
द्वितीय विश्व के बिखराव के कोई चार कारण लिखें।
अथवा
द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था की समाप्ति के लिये उत्तरदायी कोई चार कारण लिखें।
अथवा
द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था की समाप्ति हेतु उत्तरदायी किन्हीं चार कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन के निम्नलिखित कारण थे

1. अमेरिकी गुट में फूट-द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन का एक प्रमुख कारण अमेरिकी गुट में फूट पड़ना था। फ्रांस तथा इंग्लैंड जैसे देश अमेरिका पर अविश्वास करने लगे थे।

2. सोवियत गुट में फूट-जिस प्रकार अमेरिकी गुट में फूट द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन का एक कारण बनी, वहीं सोवियत गुट में पड़ी फूट ने भी द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था को पतन की ओर धकेला।

3. सोवियत संघ का पतन-द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन का एक महत्त्वपूर्ण कारण सोवियत संघ का पतन था। एक गुट के पतन से द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था स्वयमेव ही समाप्त हो गई।

4. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की भूमिका-द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की भूमिका भी थी। गट-निरपेक्ष आन्दोलन ने अधिकांश विकासशील देशों को दोनों गटों से अलग रहने की सलाह दी।

प्रश्न 3.
उत्तर साम्यवादी शासन व्यवस्थाओं में लोकतान्त्रिक राजनीति एवं पूंजीवाद के प्रवेश का वर्णन करें।
उत्तर:
1990 के दशक में शीत युद्ध की समाप्ति एवं सोवियत संघ के विघटन से कई नये राज्य विश्व राजनीति में उभर कर सामने आए, जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा रहे थे। इन दोनों में तथा सोवियत गुट के कुछ अन्य साम्यवादी देशों में धीरे-धीरे लोकतान्त्रिक राजनीतिक और पूंजीवाद का प्रवेश होने लगा। उदाहरण के लिए पूर्वी जर्मनी तथा पश्चिमी जर्मनी जब एक हुए तब पूर्वी जर्मनी में जोकि शीत युद्ध के समय सोवियत संघ के साथ था में लोकतान्त्रिक एवं पूंजीवाद की हवा चलने लगी थी।

उत्तर साम्यवादी देशों को यह लग रहा था कि उनके आर्थिक पिछड़ेपन का कारण उनकी शासन व्यवस्था थी। इसी कारण इन उत्तर साम्यवादी देशों ने अपने देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के साथ आर्थिक सुधारों को लागू किया। चीन जैसे साम्यवादी देश ने भी 1990 के दशक में पश्चिम आधारित आर्थिक व्यवस्था को धीरे-धीरे अपने राज्य में लागू किया। उत्तर साम्यवादी देशों में लोकतान्त्रिक राजनीति एवं पूँजीवाद को बढ़ावा देने में अमेरिका ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 4.
भारत के उत्तर साम्यवादी देशों के साथ सम्बन्धों का वर्णन करें।
उत्तर:
भारत ने शीत युद्ध की समाप्ति एवं सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् उत्तर-साम्यवादी देशों से अपने सम्बन्धों को नई दिशा देने के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए। सोवियत संघ से अलग होने वाले 15 गणराज्यों से . अपने सम्बन्ध बनाने के लिए भारतीय प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति एवं अन्य महत्त्वपूर्ण नेताओं ने इन देशों की यात्राएं की तथा कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए।

भारत ने तुर्कमेनिस्तान, कजाखिस्तान, ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान तथा किरगिस्तान से राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा कूटनीतिक सहयोग के लिए एक विशेष ढांचे का निर्माण किया। 1993 में भारतीय प्रधानमन्त्री पी० वी० नरसिम्हा राव ने उजबेकिस्तान तथा कजाखिस्तान की यात्रा करके उनके साथ आर्थिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्धों को मजबूत किया। इसी तरह भारत ने मध्य पूर्व के अन्य उत्तर साम्यवादी देशों तथा यूरोप एवं एशिया के उत्तर साम्यवादी देशों से अपने सम्बन्ध मज़बूत बनाए।

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प्रश्न 5.
द्वि-ध्रुवीय विश्व के विकास के क्या कारण थे ?
उत्तर:
द्वि-ध्रुवीय विश्व के विकास के निम्नलिखित कारण थे

1. शीत युद्ध का जन्म-द्वि-ध्रुवीय विश्व के विकास का एक महत्त्वपूर्ण कारण शीत युद्ध था। शीत युद्ध के कारण ही विश्व अमेरिकन एवं सोवियत गुट के रूप में दो भागों में विभाजित हो गया था।

2. सैनिक गठबन्धन-द्वि-ध्रुवीय विश्व का एक कारण सैनिक गठबन्धन था। सैनिक गठबन्धन के कारण अमेरिका एवं सोवियत संघ में सदैव संघर्ष चलता रहता था।

3. पुरानी महाशक्ति का पतन-दूसरे विश्व युद्ध के बाद इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, इटली तथा जापान जैसी पुरानी महाशक्तियों का पतन हो गया तथा विश्व में अमेरिका एवं सोवियत संघ दो ही शक्तिशाली देश रह गए थे इस कारण विश्व द्वि-ध्रुवीय हो गया।

4. अमेरिका की विश्व राजनीति में सक्रिय भूमिका-द्वि-ध्रुवीय विश्व का एक अन्य कारण अमेरिका का विश्व राजनीति में सक्रिय भाग लेना भी था।

प्रश्न 6.
सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था की किन्हीं चार विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:

  • सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था भी अमेरिका की ही भान्ति अन्य देशों से बहुत आगे थी।
  • सोवियत संघ की संचार प्रणाली बहुत अधिक विकसित एवं उन्नत थी।
  • सोवियत संघ के पास ऊर्जा संसाधन के विशाल भण्डार थे, जिसमें खनिज तेल, लोहा, इस्पात एवं मशीनरी शामिल हैं।
  • सरकार ने अपने नागरिकों को सभी प्रकार की बुनियादी सुविधाएं प्रदान कर रखी थी, जिसमें स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा, चिकित्सा सुविधा तथा यातायात सुविधा शामिल हैं।

प्रश्न 7.
सोवियत प्रणाली की कोई चार विशेषताएं लिखिए।
उत्तर:

  • सोवियत संघ की राजनीतिक प्रणाली समाजवादी व्यवस्था पर आधारित थी।
  • सोवियत प्रणाली आदर्शों एवं समतावादी समाज पर बल देती है।
  • सोवियत प्रणाली पूंजीवादी एवं मुक्त व्यापार के विरुद्ध थी।
  • सोवियत प्रणाली में कम्युनिस्ट पार्टी को अधिक महत्त्व दिया जाता था।

प्रश्न 8.
सोवियत संघ में पाई जाने वाली नौकरशाही की व्याख्या करें।
उत्तर:

  • सोवियत संघ में नौकरशाही धीरे-धीरे तानाशाही एवं सत्तावादी होती चली गई।
  • नौकरशाही के उदासीन व्यवहार से नागरिकों की दिनचर्या मश्किल होती गई।
  • सोवियत संघ की नौकरशाही किसी के भी प्रति उत्तरदायी नहीं थी।
  • नौकरशाही में धीरे-धीरे भ्रष्टाचार भी बढ़ता गया।

प्रश्न 9.
मिखाइल गोर्बाचेव के समय में सोवियत संघ में घटित होने वाली किन्हीं चार घटनाओं का वर्णन करें।
उत्तर:

  • गोर्बाचेव के समय कई साम्यवादी देश लोकतान्त्रिक ढांचे में ढलने लगे थे।
  • गोर्बाचेव द्वारा शुरू की गई सुधारों की प्रक्रिया से कई साम्यवादी नेता असन्तुष्ट थे।
  • गोर्बाचेव के साथ सोवियत संघ में धीरे-धीरे राजनीतिक एवं आर्थिक संकट गहराने लगा।
  • पूर्वी यूरोप की कई साम्यवादी सरकारें एक के बाद एक गिरने लगीं।

प्रश्न 10.
सोवियत संघ के विघटन के कोई चार कारण लिखिए।
उत्तर:

  • सोवियत संघ राजनीतिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर हो चुका था।
  • उपभोक्ता वस्तुओं की कमी ने सोवियत संघ के नागरिकों में असंतोष भर दिया।
  • सोवियत संघ के लोग मिखाइल गोर्बाचेव के सुधारों की धीमी गति से सन्तुष्ट नहीं थे।
  • सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन लगभग 70 सालों तक रहा है। परन्तु वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। इस कारण सोवियत संघ के नागरिक इस पार्टी से छुटकारा पाना चाहते थे।

प्रश्न 11.
सोवियत संघ के विघटन के विश्व राजनीति पर पड़ने वाले कोई चार प्रभाव लिखें।
अथवा
सोवियत संघ के विघटन के कोई चार परिणाम लिखिए।
उत्तर:
सोवियत संघ के पतन के निम्नलिखित चार परिणाम निकले

  • सोवियत संघ के पतन से द्वितीय विश्व युद्ध से जारी शीत युद्ध समाप्त हो गया।
  • सोवियत संघ के पतन से खतरनाक एवं परमाणु हथियारों की होड़ समाप्त हो गई।
  • पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के समर्थक अमेरिका का प्रभाव पहले से और अधिक बढ़ गया।
  • विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी पूंजीवादी समर्थक आर्थिक संस्थाएं विभिन्न देशों की प्रभावशाली सलाहकार बन गईं।

प्रश्न 12.
शॉक थेरेपी के अन्तर्गत किये गए किन्हीं चार कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
शॉक थेरेपी के अन्तर्गत निम्नलिखित कार्य किये गए

  • शॉक थेरेपी द्वारा साम्यवादी अर्थव्यवस्था को समाप्त करके सम्पत्ति का निजीकरण करना था।
  • शॉक थेरेपी के अन्तर्गत मुक्त व्यापार को बढ़ावा दिया गया।
  • शॉक थेरेपी के अन्तर्गत सोवियत संघ के आर्थिक गठबन्धनों को समाप्त करके इन देशों को पश्चिमी देशों से जोड़ दिया गया।
  • शॉक थेरेपी के अन्तर्गत सामूहिक खेती को निजी खेती में बदल दिया गया।

प्रश्न 13.
शॉक-थेरेपी के कोई चार परिणाम लिखिये ।
उत्तर:
शॉक थेरेपी के निम्नलिखित परिणाम निकले

  • शॉक थेरेपी के कारण नागरिकों के लिए आजीविका कमाना कठिन हो गया।
  • शॉक थेरेपी के कारण रूसी मुद्रा रूबल का काफ़ी अवमूल्यन हो गया।
  • शॉक थेरेपी के कारण मुद्रा स्फीति के बढ़ने से महंगाई कई गुना बढ़ गई।
  • शॉक थेरेपी के कारण सोवियत संघ की औद्योगिक व्यवस्था कमजोर हो गई तथा उसे औने-पौने दामों में निजी हाथों में बेच दिया गया।

प्रश्न 14.
भारत को रूस के साथ अच्छे सम्बन्ध रखकर प्राप्त होने वाले लाभ बताएं ।
उत्तर:
भारत को रूस के साथ अच्छे सम्बन्ध रखकर निम्नलिखित लाभ हुए हैं

  • रूस ने सदैव अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर मुद्दे पर भारत का साथ दिया है।
  • भारत को रूस से सदैव अत्याधुनिक हथियार प्राप्त हुए हैं, जो भारतीय सेना को शक्तिशाली बनाने में सहायक हुए हैं।
  • भारत रूस के माध्यम से काफ़ी हद तक अपनी ऊर्जा की आवश्यकताएं पूरी करता है।
  • रूस ने भारत को परमाणु क्षेत्र में भी हर सम्भव सहयोग दिया है।

प्रश्न 15.
भारत-सोवियत संघ के आर्थिक सम्बन्धों की व्याख्या करें।
उत्तर:
भारत-सोवियत संघ के मध्य आर्थिक सम्बन्धों का वर्णन इस प्रकार है

  • सोवियत संघ ने विशाखापट्टनम, बोकारो तथा भिलाई के इस्पात करखानों को आर्थिक एवं तकनीकी सहायता प्रदान की है।
  • सोवियत संघ ने भारत को सदैव कम मूल्यों पर हथियार दिये हैं।
  • सोवियत संघ ने भारत की सार्वजनिक कम्पनियों को भी हर तरह की सहायता प्रदान की है।
  • सोवियत संघ ने भारत के साथ उस समय रुपये के माध्यम से भी व्यापार किया जब भारत के पास विदेशी मुद्रा की कमी थी।

प्रश्न 16.
द्वि-ध्रुवीयकरण के चार लाभ लिखें।
उत्तर:

  • विचारधाराओं को प्रोत्साहन-द्वि-ध्रुवीय विश्व का एक लाभ यह है कि इस विश्व व्यवस्था के अन्तर्गत विचारधाराओं को बहुत महत्त्व एवं प्रोत्साहन दिया जाता है।
  • शान्ति स्थापना में सहायक-द्वि-ध्रुवीय विश्व का एक महत्त्वपूर्ण लाभ है कि इसके द्वारा विश्व में शान्ति स्थापना में सहायता मिलती है।
  • शक्ति की समानता-द्वि-ध्रुवीय विश्व में दोनों गुटों की शक्ति लगभग समान होती है।
  • तनावों को कम करने में सहायक-द्वि-ध्रुवीयकरण अन्तर्राष्ट्रीय तनावों को कम करने में सहायक होती है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“द्वि-ध्रुवीयता’ से क्या तात्पर्य है ?
अथवा
“द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था” से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था का अर्थ यह है कि विश्व का दो गुटों में बंटा होना। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् विश्व पूंजीवादी तथा साम्यवादी दो गुटों में बंट गया। पूंजीवादी गुट का नेता अमेरिका एवं साम्यवादी गुट का नेता सोवियत संघ था। नार्थ ऐज और ग्रीव के अनुसार, “द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में जो प्रमुख परिवर्तन आया वह था, अमेरिका और रूस का महाशक्तियों के रूप में उदय होना और साथ ही यूरोप विश्व कूटनीति के केन्द्र के रूप में पतन होगा।”

प्रश्न 2.
द्वितीय महायुद्ध से निकली शक्ति संरचना की कोई दो विशेषताएं लिखें।
उत्तर:

  • द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् विभिन्न राष्ट्रों की शक्ति स्थिति में परिवर्तन आया था, जिसके कारण शक्ति की एक नई संरचना का उदय हुआ।
  • द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् लगभग सभी साम्राज्यवादी देश शक्तिहीन हो चुके थे, जिससे उनके अधीन अधिकांश देश स्वतन्त्र हो गए।

प्रश्न 3.
द्वि-ध्रुवीय विश्व के कोई दो लाभ लिखें।
उत्तर:

1. विचारधाराओं को प्रोत्साहन-द्वि-ध्रुवीय विश्व का एक लाभ यह है कि इस विश्व व्यवस्था के अन्तर्गत विचारधाराओं को बहुत महत्त्व एवं प्रोत्साहन दिया जाता है।
2. शान्ति स्थापना में सहायक-द्वि-ध्रुवीय विश्व का एक महत्त्वपूर्ण लाभ है कि इसके द्वारा विश्व में शान्ति स्थापना में सहायता मिलती है।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 2 दो ध्रुवीयता का अंत

प्रश्न 4.
द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था की कोई दो हानियाँ बताइए।
उत्तर:
1. शस्त्रीकरण को बढ़ावा-द्वि-ध्रुवीय विश्व की सबसे बड़ी हानि यह है कि इसमें शस्त्रीकरण को बढ़ावा मिलता है, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सदैव तनाव बना रहता है।
2. युद्धों को बढ़ावा-द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था में दोनों गुट एक-दूसरे को सदैव हानि पहुंचाने की कोशिश में लगे रहते हैं, जिससे सदैव युद्ध की सम्भावना बनी रहती है।

प्रश्न 5.
द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
शीत युद्ध के दौरान विश्व दो गुटों में बंटा था, एक गुट अमेरिका का था तथा दूसरा गुट सोवियत संघ का था। लगभग सम्पूर्ण विश्व इन दो गुटों में था। इसलिए विश्व को द्वि-ध्रुवीय कहा जाता था। परन्तु 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो जाने से विश्व का एक ध्रुव समाप्त हो गया। इसी को द्वि-ध्रुवीय का पतन कहा जाता है।

प्रश्न 6.
द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था के पतन के कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:
1. सोवियत संघ का पतन-द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन का एक कारण सोवियत संघ का पतन था। एक गुट के पतन से द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था अपने आप समाप्त हो गई।
2. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की भूमिका-द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की भी भूमिका थी। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के अधिकांश विकासशील देशों को दोनों गुटों से अलग रहने की सलाह दी।

प्रश्न 7.
मध्य एशियाई देशों के नाम लिखें।
उत्तर:
मध्य एशियाई देशों मे उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कजाखिस्तान, किरघिस्तान तथा ताजिकिस्तान शामिल हैं।

प्रश्न 8.
बलकान राज्यों के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
बलकान का अर्थ टूटन या विभाजन होता है। 20वीं शताब्दी के आरम्भ में अनेकों बड़े-बड़े साम्राज्यों का विघटन हुआ, जिसके कारण कई छोटे-बड़े राज्य अस्तित्व में आए। बलकान राज्यों में अल्बानिया, बुल्गारिया, बोसनिया, हरजेगोविनिया, यूनान, क्रोशिया, मान्टेनीग्रो, मेसेडोनिया तथा तुर्की शामिल हैं। बलकान क्षेत्र को यूरोप के दंगल का अखाड़ा माना जाता रहा है।

प्रश्न 9.
बलकान को प्रायः बलकान प्रायद्वीप क्यों कहा जाता है ?
उत्तर:
बलकान को प्राय: बलकान प्रायद्वीप इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह तीन दिशाओं से पानी से घिरा हुआ है। इसके दक्षिण तथा पश्चिम में भूमध्य सागर की शाखाएं तथा पूर्वी भाग की ओर काला सागर स्थित है।

प्रश्न 10.
रूस में राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर:
सोवियत संघ के पतन के पश्चात् रूस इसके उत्तराधिकारी के रूप में सामने आया तथा इसके प्रथम राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन बने। येल्तसिन ने रूस की आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था को ठीक करने के लिए कदम उठाए। बोरिस येल्तसिन ने भारत जैसे अपने अन्य मित्र देशों से अच्छे सम्बन्ध बनाए रखे तथा अमेरिका एवं पश्चिमी यूरोप से भी अपने सम्बन्ध सुधारने के प्रयास किए।

प्रश्न 11.
रूस में ब्लादिमीर पुतिन की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर:
ब्लादिमीर पतिन 2000 में येल्तसिन के स्थान पर रूस के राष्टपति बने। पतिन ने चेचन विद्रोहियों के विरुद्ध कडा रुख अपनाया। उन्होंने रूस की आर्थिक व्यवस्था को ठीक किया तथा अमेरिका के साथ मिलकर हथियारों में कमी करने का प्रयास किया। ब्लादिमीर पुतिन के शासनकाल में रूस पुनः शक्ति केन्द्र के रूप में उभर रहा है।

प्रश्न 12.
विश्व राजनीति में उभरी किन्हीं दो हस्तियों की व्याख्या करें।
उत्तर:
1. रूस-शीत युद्ध की समाप्ति पर रूस, सोवियत संघ के उत्तराधिकारी के रूप में उभर कर सामने आया। कुछ कठिनाइयों के बावजूद वर्तमान राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने रूसी आशाओं को आगे बढ़ाया है।
2. केन्द्रीय एशियाई राज्य-शीत युद्ध एवं सोवियत संघ की समाप्ति से केन्द्रीय एशिया में कुछ नये राज्यों का उदय हुआ, जिसमें उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कजाखिस्तान, किरघिस्तान तथा ताजिकिस्तान शामिल हैं।

प्रश्न 13.
ब्लादिमीर लेनिन के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
ब्लादिमीर लेनिन रूस के बोल्शेविक साम्यवादी दल का संस्थापक था। उसके नेतृत्व में 1917 में जार के विरुद्ध क्रान्ति हुई थी। लेनिन ने रूस की खराब हुई आर्थिक व्यवस्था को ठीक किया तथा रूस में साम्यवादी शासन को मज़बूत किया। लेनिन ने रूस में मार्क्सवाद के विचारों को व्यावहारिक रूप प्रदान किया।

प्रश्न 14.
द्वितीय विश्व किसे कहते हैं ?
उत्तर:
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् विश्व दो गुटों में बंट गया। एक गुट का नेतृत्व पूंजीवादी देश संयुक्त राज्य अमेरिका कर रहा था। इस गुट के देशों को पहली दुनिया भी कहा जाता है। दूसरे गुट का नेतृत्व साम्यवादी सोवियत संघ कर रहा था, इस गुट के देशों को ही दूसरी दुनिया कहा जाता है।

प्रश्न 15.
बर्लिन की दीवार के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
शीत युद्ध के दौरान जर्मनी दो भागों में बंट गया था। पश्चिमी जर्मनी संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभाव में था जबकि पूर्वी जर्मनी साम्यवादी सोवियत संघ के प्रभाव में थे। सन् 1961 में दोनों भागों के बीच में एक दीवार बना दी गई, जिसे बर्लिन की दीवार कहते थे। यह दीवार पूर्वी जर्मनी तथा पश्चिमी जर्मनी को बांटती थी। 9 नवम्बर, 1989 को इस दीवार को तोड़कर जर्मनी का एकीकरण कर दिया गया।

प्रश्न 16.
सोवियत प्रणाली के कोई दो दोष लिखिए।
उत्तर:

  • सोवियत साम्यवादी व्यवस्था धीरे-धीरे सत्तावादी हो गई थी, इसमें नौकरशाही का प्रभाव बढ़ गया था।
  • सोवियत साम्यवादी व्यवस्था में केवल एक ही दल साम्यवादी दल का ही शासन था, जोकि किसी के प्रति भी उत्तरदायी नहीं था।

प्रश्न 17.
जोजेफ स्टालिन के समय में सोवियत संघ द्वारा प्राप्त कोई दो उपलब्धियां लिखें।
उत्तर:

  • जोजेफ स्टालिन के शासनकाल के समय सोवियत संघ एक महाशक्ति के रूप में स्थापित हुआ।
  • जोजेफ स्टालिन के शासनकाल में सोवियत संघ में औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया गया।

प्रश्न 18.
सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था में गतिरोध क्यों आया ? कोई दो कारण दें।
उत्तर:

  • सोवियत संघ ने लगातार अपने संसाधनों को परमाणु एवं सैनिक कार्यों में खर्च किया, जिससे सोवियत संघ में आर्थिक संसाधनों की कमी हो गई।
  • सोवियत संघ के पिछलग्गू देशों का आर्थिक भार भी सोवियत संघ पर ही पड़ता था जिससे धीरे-धीरे सोवियत संघ आर्थिक तौर पर कमज़ोर होता चला गया।

प्रश्न 19.
सोवियत संघ में राजनैतिक गतिरोध पैदा करने में कम्युनिस्ट पार्टी किस प्रकार जिम्मेदार थी, कोई दो कारण लिखें।
उत्तर:

  • कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ में लगभग 70 साल शासन किया, परन्तु वे किसी के प्रति भी जवाबदेह नहीं थी।
  • कम्युनिस्ट पार्टी के गैर-ज़िम्मेदार एवं अक्षम होने के कारण धीरे-धीरे सोवियत संघ में भ्रष्टाचार फैलने लगा।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 2 दो ध्रुवीयता का अंत

प्रश्न 20.
1917 की रूसी क्रान्ति के कोई दो कारण लिखें।
उत्तर:

  • रूस के तत्कालीन शासक जार के उदासीन व्यवहार एवं पूंजीवादी प्रणाली का समर्थन करने के कारण क्रान्ति हुई।
  • रूस में आदर्शवादी एवं समतामूलक समाज की स्थापना के लिए क्रान्ति हुई।

प्रश्न 21.
सोवियत संघ के विघटन के कोई दो कारण लिखिये।
अथवा
भूतपूर्व सोवियत संघ के पतन के कोई दो कारण लिखिए।
उत्तर:

  • सोवियत संघ के पतन का एक महत्त्वपूर्ण कारण तत्कालीन सोवियत संघ के राष्ट्रपति गोर्बाचेव द्वारा चलाये गए राजनीतिक एवं आर्थिक सुधार कार्यक्रम थे।
  • सोवियत संघ के पतन का दूसरा तत्कालिक कारण सोवियत संघ के गणराज्यों में प्रजातान्त्रिक एवं उदारवादी भावनाएं पैदा होना है।

प्रश्न 22.
सोवियत संघ के पतन के कोई दो सकारात्मक परिणाम लिखिए।
उत्तर:

  • सोवियत संघ के पतन के कारण शीत युद्ध भी समाप्त हो गया।
  • सोवियत संघ के पतन के साथ ही खतरनाक अस्त्रों-शस्त्रों की होड़ भी समाप्त हो गई।

प्रश्न 23.
अमेरिका के एकमात्र महाशक्ति होने के काई दो दुष्परिणाम लिखें।
उत्तर:

  • अमेरिका के एकमात्र महाशक्ति होने के कारण वह अनावश्यक रूप से कई क्षेत्रों में राजनीतिक एवं सैनिक हस्तक्षेप करने लगा।
  • अमेरिका के एकमात्र महाशक्ति होने के कारण विश्व के अधिकांश आर्थिक संगठनों पर अमेरिका का प्रभुत्व स्थापित हो गया।

प्रश्न 24.
‘इतिहास की सबसे बड़ी गैराज सेल’ के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
सोवियत संघ के पतन के पश्चात् अस्तित्व में आये गणराज्यों ने ‘शॉक थेरेपी’ की विधि द्वारा अपनी अर्थव्यवस्था को ठीक करने का प्रयास किया। परन्तु ‘शॉक थेरेपी’ के परिणामस्वरूप लगभग पूरे क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को लाभ की अपेक्षा हानि हुई। रूस में राज्य नियन्त्रित औद्योगिक ढांचा ढहने लगा। लगभग 90% उद्योगों को निजी कम्पनियों को बेचा गया, इसे ही इतिहास की सबसे बड़ी गैराज सेल’ कहा जाता है।

प्रश्न 25.
‘शॉक थेरेपी’ के सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर पड़ने वाले कोई दो प्रभाव लिखें।
उत्तर:

  • ‘शॉक थेरेपी’ के प्रयोग के परिणामस्वरूप सामाजिक कल्याण की पुरानी संस्थाओं को बन्द कर दिया गया, जिससे लोगों को मदद मिलनी बन्द हो गई।
  • लोगों को दी जा रही विभिन्न सुविधाओं को बन्द कर दिया गया।

प्रश्न 26.
सोवियत संघ की भारत को कोई दो राजनीतिक देनों का वर्णन करें।
उत्तर:

  • सोवियत संघ ने कश्मीर के मुद्दे पर सदैव भारत का साथ दिया है।
  • सोवियत संघ ने 1971 के युद्ध में भारत की मदद की, जिसके कारण बंगला देश नामक एक नया देश अस्तित्व में आया।

प्रश्न 27.
सोवियत संघ द्वारा भारत को दी जाने वाली सैनिक सहायता का वर्णन करें।
उत्तर:
सोवियत संघ ने सदैव ही भारत को सैनिक सहायता प्रदान की है। सोवियत संघ ने समय-समय पर भारत को लड़ाकू जहाज़, युद्धपोत, टैंक तथा अन्य प्रकार की आधुनिक तकनीक प्रदान की है। सोवियत संघ ने कई प्रकार के हथियार एवं मिसाइल संयुक्त रूप से भी तैयार किये हैं। दोनों देशों ने समय-समय पर संयुक्त सैनिक अभ्यास किए। सोवियत संघ ने भारत की सेना को आधुनिक बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

प्रश्न 28.
सोवियत संघ एवं भारत के कोई दो सांस्कृतिक सम्बन्ध बताएं।
उत्तर:

  • सोवियत संघ तथा भारत के लेखकों एवं साहित्यकारों ने समय-समय पर एक-दूसरे की यात्रा की, जिससे दोनों देशों के सांस्कृतिक सम्बन्धों में मजबूती आई है।
  • भारतीय संस्कृति विशेषकर हिन्दी फिल्में सोवियत संघ में काफी लोकप्रिय हैं।

प्रश्न 29.
सोवियत प्रणाली की कोई दो मुख्य विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:

  • सोवियत राजनीतिक प्रणाली की धुरी कम्युनिस्ट पार्टी थी।
  • सोवियत राजनीतिक प्रणाली में किसी अन्य दल या विरोधी दल को जगह नहीं दी गई थी।

प्रश्न 30.
शॉक थेरेपी के कोई दो परिणाम लिखिये।
उत्तर:

  • शॉक थेरेपी के कारण सम्बन्धित देशों की अर्थव्यवस्था नष्ट हो गई।
  • शॉक थेरेपी के परिणामस्वरूप रूस में लगभग 90 प्रतिशत उद्योगों को निजी हाथों एवं कम्पनियों को बेच दिया गया।

प्रश्न 31.
तृतीय विश्व के देशों से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
तृतीय विश्व से अभिप्राय उन देशों से है, जो लम्बी पराधीनता के पश्चात् स्वतन्त्र हुए, इन देशों में अधिकांशतः एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमेरिका के देशों को शामिल किया जाता है। तृतीय विश्व के देशों में भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान, ब्राजील, मैक्सिको, क्यूबा, घाना तथा नाइजीरिया इत्यादि देशों को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 32.
शॉक थेरेपी किन दो मुख्य सिद्धान्तों पर आधारित थी ?
अथवा
शॉक थेरेपी के कोई दो मुख्य सिद्धान्त लिखिए।
उत्तर:

  • मुक्त व्यापार
  • निजी सम्पत्ति एवं निजी स्वामित्व।

प्रश्न 33.
‘शॉक थेरेपी’ मॉडल किसके द्वारा निर्देशित था ?
उत्तर:
‘शॉक थेरेपी’ मॉडल विश्व स्तर की अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक संस्थाएं जैसे कि विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष इत्यादि द्वारा निर्देशित था।

प्रश्न 34.
बर्लिन की दीवार कब बनी और कब विध्वंस हुई ?
उत्तर:
बर्लिन की दीवार सन् 1961 में बनी और 1989 में विध्वंस हुई थी।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न 

1. द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन का मुख्य कारण था
(A) शीत युद्ध की समाप्ति
(B) सोवियत संघ का पतन
(C) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की भूमिका
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।।

2. सोवियत संघ में किस दल की प्रधानता थी ?
(A) अनुदार दल की
(B) लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी
(C) साम्यवादी दल
(D) डेमोक्रेटिक पार्टी।
उत्तर:
(C) साम्यवादी दल।

3. मिखाइल गोर्बाचोव ने सोवियत संघ में लागू की
(A) पैट्राइस्का
(B) ग्लासनोस्त
(C) उपरोक्त दोनों
(D) कोई नहीं।
उत्तर:
(C) उपरोक्त दोनों।

4. भारत एवं रूस के सम्बन्ध किस प्रकार के रहे हैं
(A) अच्छे रहे हैं
(B) खराब रहे हैं
(C) गतिहीन रहे हैं
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(A) अच्छे रहे हैं।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 2 दो ध्रुवीयता का अंत

5. रूस के वर्तमान राष्ट्रपति हैं
(A) बोरिस येल्तसिन
(B) ब्लादिमीर पुतिन
(C) प्रिमाकोव
(D) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(B) ब्लादिमीर पुतिन

6. बर्लिन की दीवार कब बनाई गई थी ?
(A) 1950
(B) 1955
(C) 1961
(D) 1965.
उत्तर:
(C) 1961.

7. ‘बर्लिन की दीवार’ को कब गिराया गया?
(A) 1979 में
(B) 1961 में
(C) 1986 में
(D) 1989 में।
उत्तर:
(D) 1989 में।

8. निम्न में से कौन-सा समय लेनिन के जीवन काल से सम्बन्धित है ?
(A) 1920 से 1974 तक
(B) 1935 से 1995 तक
(C) 1930 से 1970 तक
(D) 1870 से 1924 तक।
उत्तर:
(D) 1870 से 1924 तक।

9. पूर्व सोवियत संघ का विघटन कब हुआ ?
(A) सन् 1990 में
(B) सन् 1991 में
(C) सन् 1992 में
(D) सन् 1993 में।
उत्तर:
(B) सन् 1991 में।

10. जर्मनी का एकीकरण कब हुआ ?
(A) सन् 1930 में
(B) सन् 1990 में
(C) सन् 1993 में
(D) सन् 1995 में।
उत्तर:
(B) सन् 1990 में।

11. यूरोपियन संघ ने यूरोपियन संविधान कब पारित किया ?
(A) 1994
(B) 1997
(C) 1995
(D) 2005.
उत्तर:
(A) 1994.

12. मिखाइल गोर्बाचोव ने कब अपने पद से त्याग-पत्र दिया ?
(A) 25 दिसम्बर, 1991
(B) 1 जनवरी, 1990
(C) 12 मार्च, 1990
(D) 16 जून, 1991.
उत्तर:
(A) 25 दिसम्बर, 1991.

13. वर्साय सन्धि औपचारिक रूप से कब समाप्त हुई ?
(A) जुलाई, 1991 में
(B) जुलाई, 1992 में
(C) जून, 1993 में
(D) जून, 1990 में।
उत्तर:
(A) जुलाई, 1991 में।

14. शीत युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतीक है
(A) बर्लिन दीवार
(B) अफगान संकट
(C) वियतनाम युद्ध
(D) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(A) बर्लिन दीवार।

15. रूस में साम्यवादी क्रान्ति कब हुई ?
(A) 1907 में
(B) 1947 में
(C) 1917 में
(D) 1957 में।
उत्तर:
(C) 1917 में।

16. मिखाइल गोर्बाचोव किस वर्ष सोवियत संघ की साम्यवादी पार्टी के महासचिव चुने गए थे ?
(A) मार्च, 1985
(B) मार्च, 1980
(C) मार्च, 1979
(D) मार्च, 1977
उत्तर:
(A) मार्च, 1985.

17. भारत व सोवियत संघ में मित्रता संधि किस वर्ष में हुई ?
(A) सन् 1966 में
(B) सन् 1970 में
(C) सन् 1971 में
(D) सन् 1972 में।
उत्तर:
(C) सन् 1971 में।

18. सोवियत संघ से अलग होने वाली घोषणा करने वाला पहला सोवियत गणराज्य कौन-सा था ?
(A) उक्रेन
(B) कजाखिस्तान
(C) तुर्कमेनिस्तान
(D) लिथुआनिया।
उत्तर:
(D) लिथुआनिया।

19. बोरिस येल्तसिन कब रूस के राष्ट्रपति बने थे ?
(A) 1991 में
(B) 1992 में
(C) 1993 में
(D) 1994 में।
उत्तर:
(A) 1991 में।

20. रूसी संसद् ने कब सोवियत संघ से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की ?
(A) जून, 1990
(B) जून, 1994
(C) जून, 1995
(D) जून 1993.
उत्तर:
(A) जून, 1990.

21. प्रथम विश्व किन देशों को कहा जाता है ?
(A) पूँजीवादी देशों को
(B) साम्यवादी देशों को
(C) विकासशील देशों
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(A) पूँजीवादी देशों को।

22. निम्न में से कौन दूसरे-विश्व के देश कहे जाते हैं ?
(A) गुलाम देश
(B) नव स्वतन्त्र देश
(C) दूसरे विश्व युद्ध के बाद के गरीब देश
(D) पूर्व सोवियत संघ और सोवियत गुट के देश।
उत्तर:
(D) पूर्व सोवियत संघ और सोवियत गुट के देश।

23. तीसरे विश्व के देशों में किसे शामिल किया जाता है ?
(A) पूँजीवादी देशों को
(B) साम्यवादी देशों को
(C) विकासशील देशों को
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(C) विकासशील देशों को।

24. प्रथम विश्व में किस देश को शामिल किया जाता है
(A) अमेरिका
(B) ब्रिटेन
(C) फ्रांस
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।।

25. द्वितीय विश्व में कौन-से देश शामिल थे ?
(A) सोवियत संघ
(B) पोलेण्ड
(C) हंगरी
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

26. तीसरे विश्व में शामिल देश है
(A) भारत
(B) ब्राजील
(C) घाना
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

27. प्रथम विश्व का नेतृत्व किसके हाथों में था ?
(A) अमेरिका
(B) सोवियत संघ
(C) भारत
(D) इंग्लैंड।
उत्तर:
(A) अमेरिका।

28. द्वितीय विश्व का नेतृत्व किसके हाथ में था ?
(A) अमेरिका
(B) सोवियत संघ
(C) भारत
(D) फ्रांस।
उत्तर:
(B) सोवियत संघ।

29. द्वितीय विश्व के बिखराव का कारण है
(A) स्टालिन की आक्रामक नीतियां
(B) चीन की आकाक्षाएं
(C) गुट निरपेक्ष आन्दोलन की भूमिका
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

30. बल्कान (Balkan) का शाब्दिक अर्थ है
(A) सम्बन्ध
(B) टूटन
(C) सन्धि
(D) युद्ध।
उत्तर:
(B) टूटन।

31. कोमीकॉन (COMECON) का सम्बन्ध निम्न में से किस देश से है ?
(A) ब्रिटेन से
(B) संयुक्त राज्य अमेरिका से
(C) भूतपूर्व सोवियत संघ से
(D) जापान से।
उत्तर:
(C) भूतपूर्व सोवियत संघ से।

32. सोवियत राजनीतिक प्रणाली मुख्यतः आधारित थी।
(A) पूंजीवादी व्यवस्था पर
(B) समाजवादी व्यवस्था पर
(C) उदारवादी व्यवस्था पर
(D) लोकतांत्रिक व्यवस्था पर।
उत्तर:
(B) समाजवादी व्यवस्था पर ।

रिक्त स्थान भरें

(1) …………..ने 1985 में सोवियत संघ में सुधारों की शुरूआत की।
उत्तर:
गोर्बाचोव,

(2) …………… पार्टी का पूर्व सोवियत संघ की राजनीतिक व्यवस्था पर दबदबा था।
उत्तर:
साम्यवादी,

(3) सोवियत संघ ने सन् …………… में अफ़गानिस्तान में हस्तक्षेप किया।
उत्तर:
1979,

(4) गोर्बाचोव ने पैट्राइस्का एवं …………… की व्यवस्था लागू की।
उत्तर:
ग्लासनोस्ट।

एक शब्द/वाक्य में उत्तर दें

प्रश्न 1.
सोवियत संघ का विघटन कब हुआ ?
अथवा
सोवियत संघ का विघटन किस वर्ष में हुआ ?
उत्तर:
सन् 1991 में।

प्रश्न 2.
किस दल का पूर्व सोवियत संघ की राजनीतिक व्यवस्था पर नियत्रंण था ?
अथवा
द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था के दौर में सोवियत संघ में किस दल का प्रभुत्व था ?
उत्तर:
साम्यवादी दल।

प्रश्न 3. भारत-सोवियत संघ के बीच ‘मित्रता सन्धि’ किस वर्ष में हुई थी ?
अथवा
भारत-सोवियत संघ मित्रता सन्धि किस वर्ष में हुई ?
उत्तर:
सन् 1971 में।

प्रश्न 4.
‘दूसरी दुनिया के देश किन्हें कहा गया ?
उत्तर:
भूतपूर्व सोवियत संघ एवं उसके सहयोगी देशों को दूसरी दुनिया के देश कहा गया।

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प्रश्न 5.
सत्तावादी समाजवादी व्यवस्था से लोकतन्त्रीय पूंजीवादी व्यवस्था का संक्रमण विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से प्रभावित हुआ। इस संक्रमण को क्या कहा जाता है ?
उत्तर:
इस संक्रमण को शॉक थेरेपी कहा जाता है।

प्रश्न 6.
रूस में साम्यवादी क्रांति किस वर्ष में हुई ?
उत्तर:
सन् 1917 में।

प्रश्न 7.
किसी एक बालकन देश का नाम बताइए।
उत्तर:
बुल्गारिया।

प्रश्न 8.
सोवियत संघ के विघटन के समय उसका राष्ट्रपति कौन था ?
उत्तर:
मिखाइल गोर्बाचेव।

प्रश्न 9.
बोरिस येल्तसिन कौन था ?
उत्तर:
बोरिस येल्तसिन रूस का प्रथम राष्ट्रपति था।

प्रश्न 10.
बर्लिन की दीवार कब गिरी ?
उत्तर:
सन् 1989 में।

प्रश्न 11.
द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन का कोई एक कारण बताइए।
उत्तर:
द्वि-ध्रुवीय विश्व के पतन का एक महत्त्वपूर्ण कारण सोवियत संघ का पतन था।

प्रश्न 12.
बर्लिन की दीवार का गिरना किस बात का प्रतीक था ?
उत्तर:
शीत युद्ध की समाप्ति का।

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HBSE 12th Class Political Science Solutions Chapter 2 दो ध्रुवीयता का अंत

Haryana State Board HBSE 12th Class Political Science Solutions Chapter 2 दो ध्रुवीयता का अंत Textbook Exercise Questions and Answers.

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HBSE 12th Class Political Science दो ध्रुवीयता का अंत Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
सोवियत अर्थव्यवस्था की प्रकृति के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन ग़लत है ?
(क) सोवियत अर्थव्यवस्था में समाजवाद प्रभावी विचारधारा थी।
(ख) उत्पादन के साधनों पर राज्य का स्वामित्व/नियन्त्रण होना।
(ग) जनता को आर्थिक आजादी थी।
(घ) अर्थव्यवस्था के हर पहलू का नियोजन और नियंत्रण राज्य करता था।
उत्तर:
(ग) जनता को आर्थिक आजादी थी।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित को कालक्रमानुसार सजाएँ
(क) अफ़गान – संकट
(ख) बर्लिन – दीवार का गिरना
(ग) सोवियत संघ का विघटन
(घ) रूसी क्रान्ति।
उत्तर:
(क) रूसी क्रान्ति।
(ख) अफ़गान – संकट।
(ग) बर्लिन – दीवार का गिरना।
(घ) सोवियत संघ का विघटन।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में कौन-सा सोवियत संघ के विघटन का परिणाम नहीं है ?
(क) संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच विचारधारात्मक लड़ाई का अन्त
(ख) स्वतन्त्र राज्यों के राष्ट्रकुल (सी० आई० एस०) का जन्म
(ग) विश्व-व्यवस्था के शक्ति-सन्तुलन में बदलाव
(घ) मध्यपूर्व में संकट।
उत्तर:
(घ) मध्यपूर्व में संकट।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में मेल बैठाएं
(1) मिखाइल गोर्बाचेव – (क) सोवियत संघ का उत्तराधिकारी
(2) शॉक थेरेपी – (ख) सैन्य समझौता
(3) रूस – (ग) सुधारों की शुरुआत
(4) बोरिस येल्तसिन – (घ) आर्थिक मॉडल
(5) वारसा
(ङ) रूस के राष्ट्रपति।
उत्तर:
(1) मिखाइल गोर्बाचेव – (ग) सुधारों की शुरुआत
(2) शॉक थेरेपी – (घ) आर्थिक मॉडल
(3) रूस – (क) सोवियत संघ का उत्तराधिकारी
(4) बोरिस येल्तसिन – (ङ) रूस के राष्ट्रपति
(5) वारसा – (ख) सैन्य समझौता।

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प्रश्न 5.
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें
(क) सोवियत राजनीतिक प्रणाली …………. की विचारधारा पर आधारित थी।
(ख) सोवियत संघ द्वारा बनाया गया सैन्य संगठन ………… था।
(ग) ……….. पार्टी का सोवियत राजनीतिक व्यवस्था पर दबदबा था।
(घ) ……….. ने 1985 में सोवियत संघ में सुधारों की शुरुआत की।
(ङ) ……….. का गिरना शीत युद्ध के अंत का प्रतीक था।
उत्तर:
(क) सोवियत राजनीतिक प्रणाली समाजवाद की विचारधारा पर आधारित थी।
(ख) सोवियत संघ द्वारा बनाया गया सैन्य गठबन्धन वारसा पैक्ट था।
(ग) साम्यवादी (कम्युनिस्ट) पार्टी का सोवियत राजनीतिक व्यवस्था पर दबदबा था।
(घ) मिखाइल गोर्बाचोव ने 1985 में सोवियत संघ में सुधारों की शुरुआत की।
(ङ) बर्लिन दीवार का गिरना शीत युद्ध के अंत का प्रतीक था।

प्रश्न 6.
सोवियत अर्थव्यवस्था को किसी पूँजीवादी देश जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका की अर्थव्यवस्था से अलग करने वाली किन्हीं तीन विशेषताओं का ज़िक्र करें।
उत्तर:

  • सोवियत अर्थव्यवस्था समाजवादी अर्थव्यवस्था पर आधारित थी।
  • सोवियत अर्थव्यवस्था योजनाबद्ध और राज्य के नियन्त्रण में थी।
  • सोवियत अर्थव्यवस्था में भूमि और अन्य उत्पादक सम्पदाओं पर राज्य का ही स्वामित्व एवं नियन्त्रण था।

प्रश्न 7.
किन बातों के कारण गोर्बाचेव सोवियत संघ में सुधार के लिए बाध्य हुए ?
अथवा
कोई चार कारण लिखिये, जिसके कारण तत्कालिक राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव सोवियत संघ में सुधार करने के लिए बाध्य हुए।
उत्तर:
गोर्बाचेव निम्नलिखित कारणों से सोवियत संघ में सुधार के लिए बाध्य हुए

  • पश्चिमी देशों में सूचना एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो रहे थे, जिसके कारण गोर्बाचेव के लिए सोवियत संघ में आर्थिक सुधार करने आवश्यक हो गए।
  • गोर्बाचेव पश्चिमी देशों के साथ सम्बन्धों को सामान्य बनाने एवं सोवियत संघ को लोकतान्त्रिक रूप देने के लिए सुधारों के लिए बाध्य हुए।
  • सोवियत संघ के नागरिकों की प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाने के लिए गोर्बाचेव सुधारों के लिए बाध्य हुए।
  • उपभोक्ताओं को वस्तुओं की कमी होने लगी। 1970 के दशक के अंत तक सोवियत अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी।

प्रश्न 8.
भारत जैसे देशों के लिए सोवियत संघ के विघटन के क्या परिणाम हुए ?
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन से विश्व राजनीति में बहुत महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व में केवल अमेरिका ही एकमात्र महाशक्ति रह गया। इसी कारण इसने भारत जैसे विकासशील देशों को सभी प्रकार से प्रभावित करना शुरू कर दिया। भारत जैसे अन्य विकासशील देशों की भी यह मजबूरी थी, कि वे अपने विकास के लिए अमेरिका के साथ चलें।

सोवियत संघ के विघटन से अमेरिका का विकासशील देशों जैसे अफ़गानिस्तान, ईरान एवं इराक में अनावश्यक हस्तक्षेप बढ़ गया। विश्व के महत्त्वपूर्ण संगठनों पर अमेरिकी प्रभुत्व कायम हो गया, जिससे भारत जैसे देशों को इनसे मदद लेने के लिए परोक्ष रूप से अमेरिकन नीतियों का ही समर्थन करना पड़ा।

प्रश्न 9.
शॉक थेरेपी क्या थी ? क्या साम्यवाद से पूंजीवाद की तरफ संक्रमण का यह सबसे बेहतर तरीका था ?
अथवा
“शॉक थेरेपी’ से आपका क्या अभिप्राय है? इसके मुख्य सिद्धान्त लिखें।
उत्तर:
सोवियत संघ के पतन के बाद रूस, पूर्वी यूरोप तथा मध्य एशिया के देशों में साम्यवाद से पूंजीवाद की ओर संक्रमण के लिए एक विशेष मॉडल अपनाया गया, जिसे शॉक थेरेपी (आघात पहुँचाकर उपचार करना) कहा जाता है। विश्व बैंक एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा इस प्रकार के मॉडल को अपनाया गया।

‘शॉक थेरेपी’ में निजी.स्वामित्व, राज्य की सम्पदा के निजीकरण और व्यावसायिक स्वामित्व के ढांचे को अपनाना, पूंजीवादी पद्धति से कृषि, करना तथा मुक्त व्यापार को पूर्ण रूप से अपनाना शामिल है। वित्तीय खुलेपन तथा मुद्राओं की आपसी परिवर्तनीयतां भी.महत्त्वपूर्ण मानी गई। परन्तु साम्यवाद से पूंजीवाद की ओर संक्रमण के लिए यह बेहतर तरीका नहीं था क्योंकि पूंजीवाद सुधार तुरन्त.किये जाने की अपेक्षा धीरे-धीरे किये जाने चाहिए थे। एकदम से ही सभी प्रकार के परिवर्तनों को लोगों पर लादकर उन्हें आघात देना उचित नहीं था।

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित कथन के पक्ष या विपक्ष में एक लेख लिखें-“दूसरी दुनिया के विघटन के.बाद भारत को अपनी विदेश नीति बदलनी चाहिए और रूस जैसे परम्परागत मित्र की जगह संयुक्त राज्य अमेरिका से दोस्ती करने पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए।”
उत्तर:
दूसरी दुनिया के विघटन के बाद भी भारत को अपनी विदेश नीति बदलने की आवश्यकता नहीं है। भारत को अपने परम्परागत एवं विश्वसनीय मित्र रूस से सदैव अच्छे सम्बन्ध बनाये रखने चाहिए, क्योंकि रूस सदैव भारत की अपेक्षाओं पर खरा उतरा है, परन्तु अमेरिका के विषय में यह बात पूर्ण रूप से नहीं कही जा सकती, कि वह आगे चलकर भी भारत का साथ देगा, अतः आवश्यकता इस बात की है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार अमेरिका से सम्बन्ध बनाए तथा रूस के साथ पहले की तरह ही अच्छे सम्बन्ध बनाए रखे।

दो ध्रुवीयता का अंत HBSE 12th Class Political Science Notes

→ शीत युद्ध के दौरान विश्व दो गुटों-अमेरिका एवं सोवियत संघ में बंटा हुआ था, इसीलिए इसे द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था कहा जाता है।
→ 1989 में जर्मनी की दीवार गिराकर पश्चिमी एवं पूर्वी जर्मनी का एकीकरण कर दिया गया।
→ सोवियत संघ में साम्यवादी पार्टी शासन की धुरी थी।
→ 1980 के दशक में मिखाइल गोर्बाचेव सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने।
→ मिखाइल गोर्बाचेव ने पैट्राइस्का तथा ग्लासनोस्त के नाम से सोवियत संघ में आर्थिक सुधार लागू किए।
→ गोर्बाचेव के आर्थिक सुधारों एवं विश्व में बदलती परिस्थितियों ने सोवियत संघ में असर दिखाना शुरू किया। सोवियत गणराज्य ने सोवियत संघ से अलग होने की मांग करनी शुरू कर दी।
→ 1991 में सोवियत संघ का पतन हो गया तथा 15 अन्य गणराज्य विश्व परिदृश्य पर उभर कर सामने आए।
→ सोवियत संघ के पतन के बाद साम्यवादी देशों में आर्थिक विकास के लिए शॉक थेरेपी को अपनाया गया, जिसके परिणाम अच्छे नहीं रहे।
→ भारत के सम्बन्ध रूस से शुरुआत से ही बहुत अच्छे रहे हैं।
→ भारत ने अन्य उत्तर-साम्यवादी देशों से भी अच्छे सम्बन्ध बनाए हुए हैं

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HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

Haryana State Board HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1.
शीतयुद्ध से आप क्या समझते हैं ? इसके प्रमुख लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शीतयुद्ध क्या है ?
द्वितीय विश्व-युद्ध वह घटना थी जिसने विरोधी विचारधारा में विश्वास रखने वाले राज्यों रूस तथा अमेरिका को एक-दूसरे के साथ सहयोग करने पर बाध्य कर दिया था। रूस ने अपने विरोधी राज्य अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी राज्यों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध लडाई लडी।

रूस और पश्चिमी राज्यों के इस युद्धकालीन सहयोग को देखते हुए यह आशा की जाने लगी थी कि युद्ध के बाद विश्व में अवश्य ही स्थायी शान्ति की स्थापना की जाएगी। युद्ध काल के यह मित्र शान्तिकाल की समस्याओं का समाधान भी मिलजुल कर निकालेंगे तथा विश्व में शान्ति और सुरक्षा की स्थापना में भी सहयोग करेंगे। परन्तु युद्धकालीन सहयोग तथा मित्रता शान्तिकालीन बोझ सहन न कर सकी और मित्रता का यह रेत का महल एकदम ढह गया।

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद इन दोनों राज्यों के सम्बन्धों में आश्चर्यजनक मोड़ आया। इनके सम्बन्ध तनावपूर्ण होते चले गए। युद्ध काल के साथी युद्ध के बाद एक-दूसरे के लिए अजनबी बन गए। इतना ही नहीं वे एक-दूसरे के प्राणों के प्यासे हो गए। आज तक दोनों के सम्बन्ध उसी प्रकार शत्रुता, कटुता तथा वैमनस्य से परिपूर्ण चले आ रहे हैं। इन्हीं सम्बन्धों की व्याख्या के लिए शीत युद्ध शब्द का प्रयोग किया जाता है।

शीतयुद्ध को विभिन्न विद्वानों के द्वारा परिभाषित किया गया है। के० पी० एस० मैनन के शब्दों में, “शीत युद्ध जैसा कि विश्व ने अनुभव किया दो विचारधाराओं, दो पद्धतियों, दो गुटों, दो राज्यों और जब वह पराकाष्ठा पर था दो व्यक्तियों के मध्य दृढ़ संघर्ष था।

विचारधारा भी पूंजीवादी तथा साम्यवादी, पद्धतियां भी संसदीय जनतन्त्र तथा सर्वहारा वर्ग की तानाशाही, गुट के नाटो तथा वार्सा पैकट, राज्य के संयुक्त राज्य अमेरिका तथा सोवियत संघ तथा व्यक्ति के जोसफ स्टालिन तथा जॉन फास्टर डलेस।” इसी प्रकार एक अन्य लेखक के शब्दों में, “शीत युद्ध ने वास्तव में 1945 के बाद के समय में एक ऐसे युग का सूत्रपात किया जो न शान्ति का था न युद्ध का, इसने पूर्व पश्चिम के विभाजन अविश्वास, शंका तथा शत्रुता को अपरत्व प्रदान कर दिया था।”

पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह दिमागों में युद्ध के विचारों को प्रश्रय देने वाला युद्ध है। नोर्थेज ग्रीब्ज के शब्दों में, “हमने देखा है कि किस प्रकार 1945 में प्रमुख धुरी राष्ट्रों जर्मनी तथा जापान की पराजय के बाद 15 वर्षों तक अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर दो महाशक्तियों अमेरिका तथा रूस की निरन्तर विरोधता का प्रभुत्व रहा। इसमें उनके साथी परन्तु अधीनस्थ राज्य भी लिप्त थे। इस स्थिति को वाल्टर लिपमैन के द्वारा शीतयुद्ध कहकर पुकारा गया जिसकी विशेषता दो गुटों में उग्र शत्रुता थी।”

इसी प्रकार फ्लोरैंस एलेट तथा मिखाईल समरस्किल ने अपनी पुस्तक ‘A Dictionary of Politics’ में शीतयुद्ध को राज्यों में तनाव की वह स्थिति जिसमें प्रत्येक पक्ष स्वयं को शक्तिशाली बनाने तथा दूसरे को निर्बल बनाने की वास्तविक युद्ध के अतिरिक्त नीतियां अपनाता है, बताया है।

डॉ० एम० एस० राजन (Dr. M.S. Rajan) के अनुसार, “शीतयुद्ध शक्ति-संघर्ष की राजनीति का मिला-जुला परिणाम दो विरोधी विचारधाराओं के संघर्ष का परिणाम है, दो प्रकार की परस्पर विरोधी पद्धतियों का परिणाम है, विरोधी चिन्तन पद्धतियों और संघर्षपूर्ण राष्ट्रीय हितों की अभिव्यक्ति है जिनका अनुपात समय और परिस्थितियों के अनुसार एक-दूसरे के पूरक के रूप में बदलता रहा है।”

पं० जवाहर लाल नेहरू (Pt. Jawahar Lal Nehru) के अनुसार, “शीतयुद्ध पुरातन शक्ति-सन्तुलन की अवधारणा का नया रूप है, यह दो विचारधाराओं का संघर्ष न होकर, दो भीमाकार शक्तियों का आपसी संघर्ष है।”

जॉन फॉस्टर डलेस (John Foster Dales) के अनुसार, “शीतयुद्ध नैतिक दृष्टि से धर्म युद्ध था, अच्छाई का बुराई के विरुद्ध, सही का ग़लत के विरुद्ध एवं धर्म का नास्तिकों के विरुद्ध संघर्ष था।”

लुईस हाले (Louis Halle) के अनुसार, “शीतयुद्ध परमाणु युग में एक ऐसी तनावपूर्ण स्थिति है, जो शस्त्र-युद्ध से एकदम भिन्न किन्तु इससे अधिक भयानक युद्ध है। यह एक ऐसा युद्ध है, जिसने अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने की अपेक्षा उन्हें और उलझा दिया। विश्व के सभी देश और सभी समस्याएं चाहे वह वियतनाम हो, चाहे कश्मीर या कोरिया हो अथवा अरब-इज़रायल संघर्ष हो-सभी शीतयुद्ध में मोहरों की तरह प्रयोग किए गए।”

इस प्रकार शीतयुद्ध से अभिप्राय दो राज्यों अमेरिका तथा रूस अथवा दो गुटों के बीच व्याप्त उन कटु सम्बन्धों के इतिहास से है जो तनाव, भय, ईर्ष्या पर आधारित है। इसके अन्तर्गत दोनों गुट एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए तथा अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के लिए प्रादेशिक संगठनों के निर्माण, सैनिक गठबन्धन, जासूसी, आर्थिक सहायता, प्रचार सैनिक हस्तक्षेप अधिकाधिक शस्त्रीकरण जैसी बातों का सहारा लेते हैं। –
शीत युद्ध की विशेषताएँ

(1) शीत युद्ध एक ऐसी स्थिति भी है जिसे मूलत: ‘गर्म शान्ति’ कहा जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में न तो पूर्ण रूप से शान्ति रहती है और न ही वास्तविक युद्ध’ होता है, बल्कि शान्ति एवं युद्ध के मध्य की अस्थिर स्थिति बनी रहती है।

(2) शीत युद्ध, युद्ध का त्याग नहीं, अपितु केवल दो महाशक्तियों के प्रत्यक्ष टकराव की अनुपस्थिति माना जाएगा।

(3) यद्यपि इसमें प्रत्यक्ष युद्ध नहीं होता है, किन्तु यह स्थिति युद्ध की प्रथम सीढ़ी है जिसमें युद्ध के वातावरण का निर्माण होता रहता है।

(4) शीत युद्ध एक वाक्युद्ध था जिसके अन्तर्गत दो पक्ष एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहते थे जिसके कारण छोटे-बड़े सभी राष्ट्र आशंकित रहते हैं।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

प्रश्न 2.
पश्चिमी गुट के अनुसार रूस किस प्रकार शीतयुद्ध के लिए ज़िम्मेदार था ?
अथवा
शीतयुद्ध उत्पन्न होने के मूलभूत कारणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
8 मई, 1945 को यूरोप में युद्ध का अन्त हुआ। 25 अप्रैल, 1945 को रूस तथा अमेरिका की सेनाओं का यूरोप के मध्य आमना-सामना हो गया। दोनों सेनाएं ऐलबे (Elbe) नदी के किनारों पर खड़ी हो गई थीं तथा यही समकालिक इतिहास की वह प्रमुख अवस्था थी जो कभी नहीं बदली, इस प्रमुख अवस्था का कारण कोई अणु बम्ब या साम्यवाद नहीं था।

इसका कारण था जर्मनी तथा अन्य यूरोपियन राज्यों का रूस तथा अमेरिका में बंटवारा। इस विभाजन के कारण ही शीत युद्ध का प्रारम्भ हुआ। यह तो मात्र एक ऐतिहासिक तथ्य है। इस स्थिति तक पहुंचने के पीछे वास्तव में कई मुख्य कारण थे। शीतयुद्ध के लिए पूर्व तथा पश्चिम दोनों एक-दूसरे को उत्तरदायी ठहराते हैं। दोनों ही को एक दूसरे के विरुद्ध कुछ शिकायतें हैं जिनको एक-दूसरे के अनुसार शीतयुद्ध के कारण कहा जाता है।

पश्चिमी गुट के अनुसार रूस का उत्तरदायित्व (Responsibility of Russia according to Western Block)-पश्चिमी राष्ट्र शीत युद्ध के लिए निम्न कारणों से रूस को उत्तरदायी समझते हैं–

1. विचारधारा सम्बन्धित कारण (Ideological Reason):
पश्चिमी विचारधारा के अनुसार साम्यवाद के सिद्धान्त तथा व्यवहार में इसके जन्म से ही शीत युद्ध के कीटाणु भरे हुए थे। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर रूस द्वितीय विजेता के रूप में प्रकट हुआ था तथा यह द्वितीय महान् शक्ति था। अमेरिका तथा रूस वास्तव में दो ऐसी पद्धतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें कभी तालमेल नहीं हो सकता तथा जो पूर्णतया एक-दूसरे की विरोधी पद्धतियां हैं।

अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देश पूंजीवादी लोकतन्त्र में विश्वास करते हैं तथा रूस साम्यवाद में, यह कहा जा सकता है कि शीतयुद्ध तो उसी समय आरम्भ हो गया था जब 1918 में रूस में क्रान्ति हुई थी तथा उसके परिणामस्वरूप वहां साम्यवादी पद्धति की स्थापना हुई थी, पश्चिमी राष्ट्रों ने तभी से रूस को सन्देह की दृष्टि से देखना आरम्भ कर दिया था। उन्होंने रूस की क्रान्ति को असफल बनाने के प्रयास भी किए। इससे रूस तथा पश्चिमी राज्यों में गहरी दरार उत्पन्न हो गई यही कारण था कि एक लम्बे समय तक रूस तथा पश्चिमी राज्य फासिज्म के विरुद्ध एक न हो सके।

यहां तक कि 1914 में जब तक जर्मनी ने रूस पर आक्रमण न कर दिया वह इस युद्ध को एक साम्राज्यवादी युद्ध मानता रहा। रूस पर जर्मनी के आक्रमण के बाद पश्चिमी राज्यों ने उससे मित्रता कर ली, पर सैद्धान्तिक मतभेद यूं का यूं मौजूद रहा। इधर रूस ने भी अपने आप को विश्व साम्यवादी क्रान्ति को समर्पित कर दिया अर्थात् साम्यवादी विचारधारा में यह सिद्धान्त था कि वह बाकी के विश्व में भी साम्यवादी क्रान्ति को फैलाए।

रूस ने पहले पहल तो प्रकट तथा प्रत्यक्ष रूप से ऐसा किया कि इसका अर्थ था कि पश्चिमी राज्यों में पूंजीवादी तथा प्रजातान्त्रिक ढांचे को नष्ट करना जिसके बिना इस प्रकार की क्रान्ति सफल नहीं हो सकती थी। अतः जब तक रूस स्पष्ट रूप से विश्व साम्यवादी क्रान्ति को पाने के लक्ष्य को त्याग न दे तो पश्चिमी देशों के लिए उस पर सन्देह करना स्वाभाविक ही है क्योंकि इस प्रकार की क्रान्ति उनके लिए मृत्यु का प्रत्यक्ष सन्देश है।

2. रूस की विस्तारवादी नीति (Extentionist Policy of Russia):
शीतयुद्ध के लिए एक अन्य कारण के लिए भी पश्चिमी राज्य रूस को उत्तरदायी ठहराते हैं। उनका कहना है कि युद्ध के बाद भी रूस ने अपनी विस्तारवादी नीति को जारी रखा। जार बादशाहों के काल में भी रूस पूर्वी यूरोप पर तथा विशेषकर बल्कान प्रायद्वीप के देशों पर अपना प्रभाव जमाना चाहता था। रूस की इस साम्यवादी नीति को सिद्ध करने के लिए कुछ उदाहरण भी दिए जाते हैं।

एक तो स्टालिन याल्टा सम्मेलन में किए गए अपने वादों से मुकर गया तथा उसने पूर्वी यूरोप के देशों में निष्पक्ष चुनाव पान पर अपनी समर्थक सरकारें बना लीं। उसने ईरान से अपनी सेनाओं को न हटाया। तुर्की पर भी अनुचित दबाव डालने का प्रयास किया गया। इस प्रकार अमेरिका के मन में उसकी विस्तारवादी नीति के बारे सन्देह होता चला गया जिसको रोकने के लिए उसने भी कुछ कदम उठाए जिन्होंने शीत युद्ध को बढ़ावा दिया।

3. रूस द्वारा याल्टा समझौते की अवहेलना (Violation of Yalta agreement by Russia):
पश्चिमी राज्यों की रूस के विरुद्ध सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि उसने याल्टा सम्मेलन में किए गए अपने वादों का खुलेआम उल्लंघन किया। याल्टा सम्मेलन में निर्णय किया गया था कि पोलैण्ड में एक मिश्रित सरकार बनाई जाएगी तथा यह कहा गया कि उसमें फासिस्टों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाएगा। वहां पर फासिस्ट कौन हैं इस बात का निर्णय करने का अधिकार उस शक्ति को होगा जिसका वहां पर आधिपत्य होगा। रूस ने पोलैण्ड में लुबनिन सरकार की स्थापना कर रखी थी।

उसमें कुछ परिवर्तन करके लन्दन की प्रवासी सरकार के भी कुछ प्रतिनिधि ले लिए गए। परन्तु सभी महत्त्वपूर्ण विभाग कम्युनिस्ट मन्त्रियों के हाथों में थे। इतना ही नहीं वहां पर जिसने भी रूस का इस बात पर विरोध किया रूस ने उसे फासिस्ट करार कर गिरफ्तार कर लिया। इस प्रकार पोलैण्ड में कुछ समय के बाद पूर्णतया साम्यवादी सरकार की स्थापना हो गई। पश्चिमी देशों ने इनका विरोध किया क्योंकि यह उनके अनुसार याल्टा समझौते का खुला उल्लंघन था।

पोलैण्ड के साथ-साथ याल्टा सम्मेलन में अन्य पूर्वी यूरोप के देशों के बारे में भी यही निर्णय किया गया था कि वहां पर निष्पक्ष तथा स्वतन्त्र चुनाव करवाए जाएंगे। रूस ने यह वचन दिया था कि वह उसकी सेनाओं के द्वारा स्वतन्त्र कराए गए राज्यों में चुनाव कराएगा। रूस के द्वारा चीन में भी याल्टा समझौते की अवहेलना की गई थी। मन्चूरिया में रूस की सेनाओं ने राष्ट्रवादी सेनाओं को घुसने नहीं दिया। इसके विपरीत साम्यवादी सेनाओं को न केवल घुसने ही दिया बल्कि उनको वह युद्ध सामग्री भी सौंप दी जो जापानी सेनाएं भागते समय छोड़ गई थीं इससे भी मित्र राष्ट्रों का क्षुब्ध होना अनिवार्य था।

4. जापान के विरुद्ध युद्ध में सम्मिलित होने में रूस की अनिच्छा (Unwillingness of Russia to enter into war against Japan):
चाहे रूस जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करने को तैयार हो गया था पर वास्तव में उसने ऐसा अनिच्छापूर्वक किया था तथा वह इस युद्ध में सम्मिलित नहीं होना चाहता था। उसने इसके लिए कितनी ही शर्ते मित्र राष्ट्रों से मनवाईं, फिर भी जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा तभी की जब अमेरिका ने जापान पर अणु बम्ब का प्रहार किया तथा उसकी हार निश्चित हो गई।

5. ईरान तथा टर्की में रूसी हस्तक्षेप (Russian intervention in Iran and Turkey):
द्वितीय विश्व युद्ध के समय अमेरिका, इंग्लैण्ड तथा रूस की सेनाएं ईरान में प्रवेश कर गई थीं। ईरान के उत्तरी भाग पर रूस की सेनाओं का अधिकार था। पश्चिमी राष्ट्रों ने उसके इस कदम को सर्वथा अनुचित बताकर अपना क्षोभ प्रकट किया तथा रूस को चेतावनी भी दी। उन्होंने इन देशों की सुरक्षा सम्बन्धित कुछ कदम भी उठाए क्योंकि यह देश नहीं चाहते थे कि रूस अपनी विस्तारवादी नीति के अन्तर्गत इन देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर ले। इससे भी दोनों पक्षों में कटुता में वृद्धि हुई तथा शीत युद्ध को प्रोत्साहन मिला।

6. यूनान में रूस का हस्तक्षेप (Russian Intervention in Greece):
1944 में हुए एक समझौते के अन्तर्गत रूस ने यूनान पर इंग्लैण्ड का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया था। इंग्लैण्ड ने यूनान पर अधिकार करने के बाद वहां के साम्यवादी दल का विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप 1945 में होने वाले चुनावों में राज्यसत्तावादियों की विजय तथा साम्यवादियों की पराजय हुई। इस पर साम्यवादियों ने यूनान की सरकार के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध प्रारम्भ कर दिया। ब्रिटेन इस हाल में नहीं था, कि इस विद्रोह का मुकाबला कर पाता इसलिए उसने यूनान से अपनी सेनाएं वापस हटाने का निश्चय किया।

पश्चिमी देशों के अनुसार इस साम्यवादी विद्रोह में स्पष्ट रूप से रूस का हाथ था। उनके अनुसार यूनान के पड़ोसी साम्यवादी राज्य यूनान के विद्रोहियों की सहायता कर रहे थे। इस प्रकार पश्चिमी देशों के लिए रूस का बढ़ता प्रभाव चिन्ता का विषय था जिसको रोकने के लिए अमेरिका ने ‘ट्रमैन सिद्धान्त’ (Trueman Doctrine) के अन्तर्गत यूनानी सरकार की आर्थिक सहायता का निश्चय किया और यही सिद्धान्त शीत युद्ध की दिशा में पश्चिम की ओर से एक महत्त्वपूर्ण कदम था, इस प्रकार यूनान में रूसी हस्तक्षेप ने भी शीत युद्ध के बढ़ाने में योगदान दिया।

7. जर्मनी पर भारी क्षति तथा अन्य समस्याएं (Heavy reparation on Germany and other roblems):
इसमें कोई सन्देह नहीं कि द्वितीय विश्व युद्ध में सबसे अधिक हानि रूस को उठानी पड़ी थी इसलिए उसने याल्टा सम्मेलन में जर्मनी से क्षतिपूर्ति के लिए 10 अरब डालर की मांग की, अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवैल्ट ने इस मांग को भविष्य में विचार करने के लिए मान लिया पर रूस ने इसको अन्तिम मान्यता समझा तथा उसने जर्मनी के उद्योग को नष्ट करते हुए सभी मशीनों का रूस में स्थानान्तरण करना आरम्भ कर दिया।

इससे पहले से ही अस्त-व्यस्त जर्मन अर्थव्यवस्था और भी अधिक छिन्न-भिन्न हो गई। इससे अमेरिका तथा इंग्लैण्ड काफ़ी नाराज़ हुए क्योंकि उनको ‘जर्मनी की आर्थिक सहायता करनी पड़ी यही नहीं रूस ने जर्मनी से सम्बन्धित अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों का भी उल्लंघन किया।

8. रूस द्वारा अमेरिका विरोधी प्रचार तथा अमेरिका में साम्यवादी गतिविधियां (Anti-American propaganda by Russia and Communist activities in America): युद्ध समाप्त होने से पहले ही रूसी समाचार-पत्रों प्रावदा (Pravada) तथा इजवेस्तिया (Izvestia) इत्यादि ने अमेरिका विरोधी प्रचार अभियान आरम्भ कर दिया। इनमें आलोचनात्मक लेख इत्यादि प्रकाशित होने लगे जिनसे अमेरिका के सरकारी तथा गैर-सरकारी क्षेत्रों में भारी क्षोभ फैला।

9. संयुक्त राष्ट्र में रूस का व्यवहार (Russian behaviour in the U.N.):
संयुक्त राष्ट्र अभी अपना कार्य ठीक ढंग से चला भी न पाया था कि रूस ने अपने निषेधाधिकार (Veto Power) का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया।1961 तक अमेरिका ने इस अधिकार का प्रयोग एक बार भी नहीं किया जबकि रूस ने इस काल में 65 बार इसका प्रयोग किया था। इस पर पश्चिमी राष्ट्रों ने यह धारणा बना ली कि रूस ने अपने निषेधाधिकार द्वारा संयुक्त राष्ट्र में पश्चिमी देशों के प्रत्येक प्रस्ताव को ठुकराने की नीति अपना ली है तथा वह संयुक्त राष्ट्र को असफल है। इससे भी दोनों पक्षों में तनाव बढ़ा। – शीतयुद्ध के लिए पश्चिमी गुट किस प्रकार ज़िम्मेदार था ? इसके लिए प्रश्न नं0 3 देखें।

प्रश्न 3.
शीतयुद्ध को बढ़ावा देने में पश्चिमी गुट किस प्रकार ज़िम्मेदार था ?
उत्तर:
शीतयुद्ध को बढ़ावा देने में कुछ हाथ पश्चिमी गुट का भी था। जिस प्रकार पश्चिमी राज्यों ने अपनी शिकायतों के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि शीतयुद्ध के कारणों के लिए रूस उत्तरदायी था उसी प्रकार रूस को पश्चिमी देशों से काफ़ी शिकायतें थीं। इसलिए रूस के अनुसार युद्ध के बाद के तनाव तथा कटुता के लिए उत्तरदायित्व पश्चिमी देशों का था। रूस की पश्चिमी देशों के विरुद्ध अग्रलिखित शिकायतें थीं

1. अमेरिका की विस्तारवादी नीति (Extentionist Policy of America):
साम्यवादी लेखकों के अनुसार शीत युद्ध का प्रमुख कारण अमेरिका की संसार पर प्रभुत्व जमाने की साम्राज्यवादी आकांक्षा में निहित है। वे कहते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध ने जर्मनी तथा इटली को धूल में मिलते हुए देखा है। चीन गृह युद्ध में उलझा हुआ था। इंग्लैण्ड प्रथम श्रेणी की शक्ति से तृतीय श्रेणी की शक्ति बन चुका था। फ्रांस की विजय मात्र औपचारिक थी। इस प्रकार जो एक मात्र पूंजीवादी देश बिना खरोंच खाए विश्व शक्ति के रूप में उभरा था वह अमेरिका था।

युद्ध के अन्त में वह एकमात्र अणु शक्ति था। उसके नियन्त्रण में दुनिया की 60% दौलत थी। उसके पास शक्तिशाली जलसेना तथा शायद सबसे शक्तिशाली वायुसेना थी क्योंकि अमेरिका का आन्तरिक ढांचा पूंजीवादी था। अतः सरकारी मशीनरी बड़े-बड़े करोड़पतियों के हाथ में थी जिनका एकमात्र उद्देश्य अधिक-से-अधिक लाभ कमाना था। अमेरिका के विश्व प्रभुत्व के स्वप्न के रास्ते में एकमात्र रुकावट रूस द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला विरोध था तथा इसी कारण अमेरिका रूस से घृणा करता था।

2. युद्ध के समय रूस के सन्देह (Doubts of Russia during the War):
1945 में जर्मनी को पता चल गया था कि वह अधिक देर तक नहीं लड़ सकेगा। जर्मनी का यह विचार था कि यदि वह पश्चिमी राष्ट्रों से कोई समझौता कर लेता है तथा उनके सामने समर्पण करता है तो पश्चिमी देश उसके साथ इतना बुरा व्यवहार नहीं करेंगे। वे जो भी व्यवहार करेंगे वह अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार होगा।

परन्तु यदि वे रूस के सामने समर्पण करते हैं तो रूस निश्चय ही उनके साथ बुरा व्यवहार करेगा क्योंकि उन्होंने रूस पर बहुत अधिक अत्याचार किए थे तथा उनको डर था कि यदि वे रूस के सामने समर्पण करते हैं तो वह अवश्य ही उनसे बदला लेगा। अत: वे रूस के सामने समर्पण नहीं करना चाहते थे।

जर्मनी के साथ समर्पण की बातचीत चल रही थी। जर्मनी पूर्व में बहत ज़ोर से लड रहा था पर पश्चिम में उसने हथियार डालने आरम्भ कर दिए थे। रूस ने इस बात पर सन्देह किया कि कहीं पश्चिमी राष्ट्र नाजियों के साथ कोई समझौता न कर ले। रूज़वैल्ट की मृत्यु पर ट्रमैन अमेरिका का राष्ट्रपति बना जो और भी ज़्यादा रूस विरोधी था। इसलिए रूस को और भी अधिक सन्देह हुआ कि कहीं अमेरिका जर्मनी से कोई गुप्त सन्धि न कर ले।

रूस ने अमेरिका पर यह आरोप भी लगाया कि उसने इटली तथा फ्रांस के फासिस्ट तत्त्वों से सम्पर्क स्थापित किया था। उधर ब्रिटेन भी यूनान में साम्यवाद विरोधी लोगों का समर्थन कर रहा था। रूस को यह भी शिकायत थी कि फिनलैण्ड के साथ उसका युद्ध छिड़ने तथा उसके द्वारा लैनिनग्राड पर आक्रमण किए जाने पर भी अमेरिका ने काफी समय तक उससे अपने राजनैतिक सम्बन्ध विच्छेद नहीं किए थे। इस प्रकार युद्ध के काल में पश्चिमी राष्ट्रों की कुछ ऐसी गतिविधियां रहीं जो रूस के सन्देह का स्पष्ट कारण थीं।

3. पश्चिम द्वारा रूस के सुरक्षा हितों की अवहेलना (Western Block ignored Russian interest about its defence):
ज्यों ही द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ तो रूस तथा पश्चिमी राष्ट्रों के बीच अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों को स्थापित करने की एक होड़ लग गई थी। रूस ने पश्चिमी राष्ट्रों से ये कभी नहीं पूछा कि वे अपने अधिकृत प्रदेशों में किस प्रकार की शासन प्रणाली की स्थापना करने जा रहे हैं। परन्तु पश्चिमी राष्ट्रों ने इस बात पर बल दिया कि रूस अपने अधिकृत देशों में स्वतन्त्र निर्वाचनों के आधार पर प्रजातन्त्र की स्थापना करे।

परन्तु रूस ऐसा नहीं करना चाहता था। पश्चिमी राष्ट्र इन देशों में युद्ध से पहले वाली व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे पर ये पुरानी सरकारें रूस विरोधी थीं। अत: रूस अपने सुरक्षा हितों को देखते हुए इन देशों में किस प्रकार अपनी विरोधी सरकारों की स्थापना करवा सकता था जब कि पश्चिमी देश ऐसा करने पर बल दे रहे थे। अपने अधिकृत क्षेत्रों में सरकारें बनाते समय उन्होंने रूस की बात भी न पूछी थी। इस प्रकार रूस का नाराज़ होना स्वाभाविक था।

4. पश्चिमी देशों द्वारा युद्ध के समय द्वितीय मोर्चा खोलने में देरी (Delay in opening second front by Western Countries during the War):
जब फ्रांस की हार हो गई तथा जर्मनी ने रूस पर आक्रमण कर दिया तो इंग्लैण्ड तथा अमेरिका ने अपने ही हितों को ध्यान में रखते हुए रूस की सहायता करने की सोची, रूस ने इन दोनों देशों को फ्रांस की ओर से बार-बार दूसरा मोर्चा खोलने को कहा ताकि युद्ध का जो सारा दबाव इस समय रूस पर पड़ा था जर्मनी के दो स्थानों पर लड़ने के कारण कम हो जाए, परन्तु इन दोनों देशों ने यह बहाना बनाकर कि अभी हम तैयारी नहीं हुई है दूसरा मोर्चा खोलने में पर्याप्त विलम्ब किया जिसका परिणाम यह निकला कि युद्ध का सारा बोझ अकेले रूस पर पड़ा जिसके परिणामस्वरूप रूस को धन-जन की भारी हानि उठानी पड़ी।

रूस को मालूम हो गया कि यदि वह स्वयं को सुरक्षित रखना चाहता है तो उसे अपने तथा जर्मनी के बीच के राज्यों पर अपना अधिकार कर लेना चाहिए। उसका यह इरादा भांप कर चर्चिल ने जब दूसरा मोर्चा खोलने की बात की तो कहा कि हमारी सेनाएं फ्रांस की ओर से नहीं बलकान प्रायद्वीप से होकर उत्तर की ओर बढ़े। इस बात ने रूस के सन्देह की और भी पुष्टि कर दी।

5. युद्ध के समय पश्चिम द्वारा रूस की अपर्याप्त सहायता (Insufficient aid by West during War):
रूस को पश्चिमी देशों से यह भी शिकायत थी कि उन्होंने युद्ध काल में रूस की अत्यन्त अल्प मात्रा में सहायता की। 1941-42 के आरम्भिक काल में जो सहायता पश्चिमी राज्यों ने रूस को दी वह रूस द्वारा उत्पन्न कुल युद्ध सामग्री का केवल 4% थी। वास्तव में पश्चिमी राष्ट्र यह चाहते थे कि रूस जर्मनी के साथ लड़कर कमजोर हो जाए।

इसलिए उन्होंने उसकी बहुत कम सहायता की वह भी तब जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि जर्मनी द्वारा रूस को पूर्णतया नष्ट कर दिया जाना स्वयं उनके अपने हित में नहीं था। 1943 में अवश्य उन्होंने इसलिए सहायता में वृद्धि की थी। पर तब तक रूस को यह विश्वास हो चुका था कि पश्चिमी राष्ट्र वास्तव में उसकी सहायता न करके उसे निर्बल बना देना चाहते हैं।

6. लैण्डलीज कानून को समाप्त करना (End of Land Lease):
युद्ध काल में रूस को अमेरिका से लैण्डलीज कानून के अन्तर्गत सहायता मिल रही थी। रूस पहले इसी सहायता से असन्तुष्ट था क्योंकि यह सहायता अपर्याप्त थी। फिर भी रूस समझता था कि युद्ध के बाद अपने पुनर्निर्माण के लिए भी उसको अमेरिका से सहायता मिलती रहेगी। पर ब I (Trueman) राष्ट्रपति बना जो रूस विरोधी था। उसने लैण्डलीज कानून को बन्द कर दिया तथा वह थोड़ी-सी सहायता भी बन्द कर दी। उधर पश्चिमी देश रूस के क्षतिपूर्ति के दावों का भी विरोध कर रहे थे। इससे रूस को विश्वास हो गया कि पश्चिमी देश उसकी समृद्धि तथा प्रगति को नहीं देखना चाहते।

7. एटम बम्ब का रहस्य गुप्त रखना (Secret of Atom Bomb):
अमेरिका ने युद्ध की समाप्ति पर एटम बम्ब का आविष्कार कर लिया था। अमेरिका तथा रूस युद्ध में जर्मनी के विरुद्ध मित्र राष्ट्र थे। रूस ने पश्चिमी राष्ट्रों को पूर्ण सहयोग प्रदान किया था पर अमेरिका ने एटम बम्ब के रहस्य को रूस से सर्वथा गुप्त रखा जबकि इंग्लैण्ड तथा कनाडा को इसका पता था।

इस बात से स्टालिन बड़ा क्षुब्ध हुआ तथा उसने इसको एक भारी विश्वासघात माना इसका परिणाम यह निकला कि न केवल दोनों की मित्रता टूट गई बल्कि रूस ने अपनी सुरक्षा के बारे में चिन्तित होकर अस्त्र-शस्त्र बनाने में लग गया और उसने भी केवल “वर्षों में ही अणु बम्ब का आविष्कार कर लिया। इसके बाद तो दोनों में शस्त्रास्त्रों की एक होड़ लग गई जिसने शीत युद्ध को प्रोत्साहित करने में बहुत योगदान दिया।”

8. पश्चिम द्वारा रूस विरोधी प्रचार अभियान (Anti-Russian Propaganda by West):
युद्ध काल में ही पश्चिमी देशों की प्रैस रूस विरोधी प्रचार करने लगी थी। बाद में तो पश्चिमी राज्यों ने खुले आम रूस की आलोचना करनी आरम्भ कर दी। जिस रूस ने जर्मनी की पराजय को सरल बनाया उसके विरुद्ध मित्र राष्ट्रों का यह प्रचार उसको क्षुब्ध करने के लिए पर्याप्त था। मार्च, 1946 में चर्चिल ने अपने फुल्टन भाषण में स्पष्ट कहा था

“हमें तानाशाही के एक स्वरूप के स्थान पर दूसरे के संस्थापन को रोकना चाहिए।” यह दूसरा स्वरूप साम्यवाद के सिवाय और क्या हो सकता है ? राष्ट्रपति ट्रमैन ने उपराष्ट्रपति तथा तत्कालीन वाणिज्य सचिव को इस बात पर त्याग-पत्र देने के लिए कहा कि उन्होंने रूस तथा अमेरिका की मैत्री की बात कही न ने सीनेट के सामने रूस की नीति को स्पष्ट रूप से आक्रामक बताया था। इस प्रकार इस प्रचार ने एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जिसमें दोनों एक-दूसरे के प्रति घृणा, वैमनस्य की भावना में डूब गए।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

प्रश्न 4.
द्वि-ध्रुवीयकरण के विकास के कारणों को लिखिए। (Write the causes of the development of Bi-polarisation.)
उत्तर:
द्वि-ध्रुवीय विश्व के विकास के निम्नलिखित कारण थे

1. शीत युद्ध का जन्म-द्वि-ध्रुवीय विश्व के विकास का एक महत्त्वपूर्ण कारण शीत युद्ध था। शीत युद्ध के कारण ही विश्व अमेरिकन एवं सोवियत गुट के रूप में दो भागों में विभाजित हो गया था।

2. सैनिक गठबन्धन-द्वि-ध्रुवीय विश्व का एक कारण सैनिक गठबन्धन था। सैनिक गठबन्धन के कारण अमेरिका एवं सोवियत संघ में सदैव संघर्ष चलता रहता था।

3. पुरानी महाशक्ति का पतन-दूसरे विश्व युद्ध के बाद इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, इटली तथा जापान जैसी पुरानी महाशक्तियों का पतन हो गया तथा विश्व में अमेरिका एवं सोवियत संघ दो ही शक्तिशाली देश रह गए थे इस कारण विश्व द्वि-ध्रुवीय हो गया।

4. अमेरिका की विश्व राजनीति में सक्रिय भूमिका-द्वि-ध्रुवीय विश्व का एक अन्य कारण अमेरिका का विश्व राजनीति में सक्रिय भाग लेना भी था।

5. कमज़ोर राष्ट्रों को आर्थिक मदद-अमेरिका एवं सोवियत संघ विश्व के निर्धन एवं कमजोर राष्ट्रों को अपनी तरफ करने के लिए उन्हें आर्थिक मदद देते थे, जिस कारण अधिकांश निर्धन एवं कमज़ोर राष्ट्र दोनों गुटों में से एक गुट के साथ ही लेते थे।

6. शस्त्रीकरण-द्वि-ध्रुवीय विश्व का एक अन्य कारण शस्त्रीकरण था। दोनों गुट एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए शस्त्रों की दौड़ में लगे रहते थे।

7. विकास की इच्छा-अमेरिका एवं सोवियत संघ की अधिक-से-अधिक विकास की इच्छा ने भी दोनों देशों को एक-दूसरे के विरुद्ध कर दिया, तथा विश्व द्वि-ध्रुवीय हो गया।

8. परस्पर प्रतियोगिता-अमेरिका एवं सोवियत संघ में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ ने दोनों देशों के बीच आर्थिक एवं राजनीतिक प्रतियोगिता शुरू कर दी, इस कारण भी विश्व द्वि-ध्रुवीय विश्व की ओर मुड़ने लगा।

प्रश्न 5.
द्वि-ध्रुवीय विश्व की चुनौतियों का वर्णन करें। (Discuss the challenges of Bipolarity.)
उत्तर:
द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था शीत युद्ध के दौरान स्थापित हुई थी जब विश्व दो गुटों में बंट गया था, एक गुट .. का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था, तो दूसरे गुट का नेतृत्व सोवियत संघ कर रहा था। शीत युद्ध के दौरान ही द्वि-ध्रुवीय . विश्व को चुनौतियां मिलनी शुरू हो गई थी, जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती गुट-निरपेक्ष आन्दोलन (NAM) तथा नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (New International Economic Order-NIEO) की थीं, जिनका वर्णन इसं प्रकार है

1. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन (Non-aligned Movement-NAM):
शीत युद्ध के दौरान द्वि-ध्रुवीय विश्व को सबसे बड़ी चुनौती गट-निरपेक्ष आन्दोलन से मिली। शीत युद्ध के दौरान जब विश्व तेज़ी से दो गटों में बंटता जा रहा था, तब गुट-निरपेक्ष आन्दोलन ने विश्व के देशों, विशेषकर विकासशील एवं नव स्वतन्त्रता प्राप्त देशों को एक तीसरा : विकल्प प्रदान किया, जिससे ये देश किसी गुट में शामिल होने की अपेक्षा स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी विदेशी नीति का: संचालन कर सकें। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना 1961 में यूगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में की गई।

गुट निरपेक्ष आन्दोलन को शुरू करने में भारत के प्रधानमन्त्री श्री पं० जवाहर लाल नेहरू, यूगोस्लाविया के शासक जोसेफ ब्रॉन टीटो तथा मिस्त्र के शासक गमाल अब्दुल नासिर ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के अब तक सम्मेलन हो चुके हैं। 1961 में इसके 25 सदस्य थे, जोकि अब बढ़कर 120 हो गए हैं। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन ने दोनों गुटों में पाए जाने वाले शीत युद्ध को कम करने का प्रयास किया, इसने इसे एक अव्यावहारिक तथा खतरनाक नीति माना।

इसके साथ गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की नीति सदैव नाटो, वारसा पैक्ट, सीटो तथा सैन्टो जैसे सैनिक गठबन्धनों से दूर रहने की रही है, जिनका निर्माण अमेरिकी एवं सोवियत गुटों ने किया था। वास्तव में ऐसे सैनिक गठबन्धन प्रभाव क्षेत्र उत्पन्न करते हैं, और हथियारों की दौड़ को बढ़ावा देकर विश्व शान्ति को खतरा उत्पन्न करते हैं। गुट-निरपेक्ष देश प्रत्येक विषय पर उसके गुण-दोष के अनुसार विचार करते हैं, न कि किसी महाशक्ति के आदेश के अनुसार । अतः स्पष्ट है कि गुट-निरपेक्ष आन्दोलन सदैव द्वि-ध्रुवीय विश्व के लिए चुनौती बना रहा है।

2. नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (New International Economic Order-NIEO):
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के साथ-साथ नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था ने भी सदैव द्वि-ध्रुवीय विश्व को चुनौती दी है। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन तथा तीसरे विश्व के देशों ने पुरानी विश्व अर्थव्यवस्था को समाप्त करके नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के जन्म तथा स्थापना को प्रोत्साहित किया। 70 के दशक में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था मुख्य विषय बन गया।

नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का उद्देश्य विकासशील देशों को खाद्य सामग्री उपलब्ध करना, साधनों को विकसित देशों से विकासशील देशों में भेजना, वस्तुओं सम्बन्धी समझौते करना, बचाववाद (Protectionism) को समाप्त करना तथा पुरानी परम्परावादी औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के स्थान पर निर्धन तथा वंचित देशों के साथ न्याय करना है। 70 के दशक में नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना हेतु विभिन्न संगठनों जैसे संयुक्त राष्ट्र, गट-निरपेक्ष आन्दोलन, विकसित देशों व विकासशील देशों ने विभिन्न स्तरों पर प्रयास किए गए।

राष्ट्र संघ की महासभा के छठे विशेष अधिवेशन में महासभा ने नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक-व्यवस्था की स्थापना के लिए महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम बनाया, संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ-साथ गुट-निरपेक्ष देशों ने भी नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के निर्माण का प्रयास किया। विकासशील देशों को गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के पश्चात् नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था ने एक ऐसा संघ उपलब्ध करवाया है जहां से ये विकासशील द्वि-ध्रुवीय विश्व के ताने-बाने से बच सकें।

प्रश्न 6.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? इसकी प्रकृति का वर्णन करें।
उत्तर:
द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के बाद यूरोपीय उपनिवेशवादी प्रणाली के विघटन के साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर कई ऐसे घटक उपस्थित हुए जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की प्रकृति और रंग-रूप को बदल दिया। इन घटकों में एशिया, अफ्रीका तथा लेटिन अमेरिका में नए राज्यों के उदय ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन उत्पन्न किया। “इन राष्ट्रों का यत्न अन्तर्राष्ट्रीय खेल को इस प्रकार परिवर्तित करना है जिससे अनेक राष्ट्रीय हितों की पर्ति हो और न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित हो और उस ऐतिहासिक प्रक्रिया की समाप्ति हो जिसने उपनिवेशवाद को जन्म दिया था।”

अधिकांश नए राज्यों ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऐसे आन्दोलन को चुना जिसे गुट-निरपेक्षता (Non alignment) की संज्ञा दी जाती है। Belgrade Conference (1961) से लेकर Harare Conference (1986) तक गुट-निरपेक्षता का समूचा इतिहास इन नए देशों के उपर्युक्त उद्देश्य को ही ध्वनित करता है। प्रो० के० पी० मिश्रा के शब्दों में “गुट-निरपेक्षता एक ऐसा सैद्धान्तिक योगदान है जो लोकप्रिय हो रहा है और जो अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में मूल परिवर्तन लाए जाने के लिए उचित वातावरण उत्पन्न कर रहा है।”

गुट-निरपेक्षता का जन्म (Origin of Non-alignment)-वास्तव में गुट-निरपेक्षता का जन्म भारत में हुआ। सुबीमल दत्त ने अपनी पुस्तक ‘With Nehru in the Foreign Office’ में यह लिखा है-“राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान हरिपुरा सत्र (1939) में गुट-निरपेक्षता की नीति को स्वीकार किया गया था।” हमा और दर्शन भी गुट-निरपेक्षता को स्वीकार करते हैं। गांधी जी के शब्दों में “भारत को सभी का मित्र होना चाहिए और किसी का भी शत्रु नहीं होना चाहिए।” स्वतन्त्रता से पूर्व भी जब जवाहर लाल नेहरू अन्तरिम सरकार में विदेशी मामलों का कार्यभारी था, उसने यह घोषणा की थी कि भारत गुटों से पृथक् रहेगा।

1946 में दोबारा उसने घोषणा की कि भारत अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति बनाएगा। उसके अपने शब्दों में-“यथासम्भव हम गुटों से दूर रहना चाहते हैं। इन गुटों के कारण ही युद्ध हुए हैं और इनके कारण पहले से भी अधिक भयंकर युद्ध हो सकते हैं।” बर्मा के प्रधानमन्त्री ने 1948 में यही बात कही थी “ब्रिटेन, अमेरिका और रूस इन तीनों बड़ी शक्तियों के साथ बर्मा के मित्रतापूर्ण सम्बन्ध होने चाहिएं।” 1950 में फिर यह घोषणा की गई कि बर्मा किसी एक गुट के विरुद्ध किसी दूसरे गुट के साथ सम्बद्ध नहीं होना चाहता।” स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद इंडोनेशिया ने भी इस भावना को प्रकट किया।

कई विद्वान् गुट-निरपेक्षता का जन्म शीत युद्ध में मानते हैं। गुट-निरपेक्ष देशों की 1973 की Algier’s Conference में इस बात की चर्चा की गई कि गुट-निरपेक्षता शीत युद्ध का परिणाम है अथवा उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष का परिणाम है। Fidel Castro ने यह तर्क दिया कि गुट-निरपेक्षता उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन है।

F. N. Haskar के शब्दों में-“जहां तक भारत का सम्बन्ध है गुट-निरपेक्षता का आरम्भ बेलग्रेड में नहीं हुआ। न ही इसका आरम्भ अप्रैल, 1955 में बाण्डंग में हुए अफ्रीकन-एशियन राष्ट्रों के सम्मेलन में हुआ। इसकी जड़ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध किए गए स्वतन्त्रता संग्राम में है और नेहरू और गांधी द्वारा प्रदर्शित विचारों और विश्व दृष्टिकोण में है।”

हम यह कह सकते हैं कि चाहे यह संगठनात्मक रूप शीतयुद्ध के दौरान मिला किन्तु निश्चित रूप से यह शीतयुद्ध की उपज नहीं है। गुट-निरपेक्षता का अर्थ (Meaning of Non-alignment)-जैसे कि ऊपर कहा गया है कि गुट-निरपेक्षता की जड़ें द्वितीय महायुद्ध के बाद के उपनिवेशवाद विरोधी राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक संघर्षों में है। गुट-निरपेक्षता का अर्थ है उस शीतयुद्ध में विचार, निर्णय तथा कार्य की स्वतन्त्रता बनाए रखना जो सैनिक तथा अन्य गठजोड़ों को प्रोत्साहन देता है।

इसका उद्देश्य शान्ति और सहयोग के क्षेत्रों को विस्तृत करना है। अतः गुट-निरपेक्षता का अर्थ है किसी भी देश को प्रत्येक मुद्दे पर गुण-दोष के आधार पर निर्णय लेने की स्वतन्त्रता; उसे राष्ट्रीय हित के आधार पर और विश्व शान्ति के आधार पर निर्णय लेने की स्वतन्त्रता न कि किसी निर्धारित दृष्टिकोण के आधार पर या किसी बड़ी शक्ति से गठजोड़ होने के आधार पर निर्णय लेना।

गुट-निरपेक्षता की प्रकृति (Nature of Non-alignment) अधिकांश पाश्चात्य विद्वान् इस शब्द में ‘Non’ लगे होने के कारण इसे नकारात्मक अवधारणा समझते हैं। वे इसे तटस्थता समझ लेते हैं क्योंकि यह शीतयुद्ध के प्रति प्रतिक्रिया है। वे इसे उभरते राष्ट्रवाद की एक आंशिक उपज समझते हैं। अफ्रीको-एशियन राष्ट्रवाद धुरी प्रणाली की एक क्रिया है। उसकी सही प्रकृति निम्नलिखित विचार बिन्दुओं में दर्शाई जा सकती है

1. गुट-निरपेक्षता तटस्थता नहीं है (Non-alignment is not Neutrality):
गुट-निरपेक्षता की अवधारणा तटस्थता की अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है। तटस्थता का अर्थ किसी भी मुद्दे पर उसके गुण-दोषों के भिन्न उसमें भाग न लेना है। गुट-निरपेक्षता का अर्थ है, पहले से ही किसी मुद्दे पर उसके गुण-दोषों को दृष्टि में रखे बिना अपना दृष्टिकोण तथा पत्र बनाए रखना।

इसके विपरीत गुट-निरपेक्षता का अर्थ है अपना दृष्टिकोण पहले से ही घोषित न करना। कोई भी गुट-निरपेक्ष देश किसी भी मुद्दे के पैदा होने पर उसे अपने दृष्टिकोण से देखकर निर्णय करता था, न कि किसी बड़ी शक्ति के दृष्टिकोण से देखकर। तटस्थता की धारणा केवल युद्ध के समय संगत है और तटस्थता का अर्थ है अपने आपको युद्ध से अलग करना। परन्तु गुट-निरपेक्षता की धारणा युद्ध एवं शान्ति दोनों में प्रासंगिक है।

2. राष्ट्र हित और अन्तर्राष्ट्रवाद का समन्वय (Synthesis of National Interest and Internationalism):
विश्व में शान्ति बनाए रखने के साथ अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति का अर्थ है राष्ट्र हित और अन्तर्राष्ट्रवाद का समन्वय। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के नेताओं ने इस आन्दोलन को अपनी पुरातन सभ्यता की परम्पराओं पर तथा पाश्चात्य उदारवादी परम्पराओं पर आधारित किया है।

3. विश्व शान्ति की चिन्ता (Concern for World Peace):
गुट-निरपेक्षता आन्दोलन का सम्बन्ध विश्व में शान्ति स्थापना करना है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि आधुनिक युद्ध बहुत थोड़े समय में सारे विश्व को नष्ट कर सकता है। साथ ही गुट-निरपेक्ष देश अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में हिंसात्मक ढंग से हल करने के विरुद्ध हैं। उनके विचार में युद्ध समस्या को सुलझाने के स्थान पर उसे और जटिल बना देता है।

4. आर्थिक सहायता लेना (Seeking Economic Assistance):
गुट-निरपेक्षता आन्दोलन में सम्मिलित होने वाले सभी देश अविकसित हैं अथवा विकासोन्मुखी हैं। गुट-निरपेक्ष देशों ने आर्थिक क्षेत्र में आत्म-निर्भरता प्राप्त करने का यत्न किया है। उन्होंने अपने साधनों को इकट्ठा करके विकसित देशों पर अपनी निर्भरता को घटाने का यत्न किया है। गट-निरपेक्ष देशों में से भारत आत्म-विश्वास और आत्म-निर्भरता प्राप्त करने का भरसक प्रयत्न करके इन देशों के लिए उदाहरण बनने जा रहा है।

5. अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर निर्णय की स्वतन्त्रता (Independence of Judgement on International Issues):
गुट-निरपेक्षता आन्दोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सम्मिलित होने वाले देश अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर अपना निर्णय करने में स्वतन्त्र हैं।

6. उपनिवेशवाद तथा जातिवाद का विरोध (Opposition to Colonialism and Racialism):
गुट निरपेक्ष देश उपनिवेशवाद तथा जातिवाद के विरोधी हैं। सुकार्नो तथा नेहरू विशेष तौर पर इस बात से सम्बन्धित थे कि उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष बल पकड़ जाएगा। गुट-निरपेक्ष देशों, विशेषतः भारत ने Zimbabve Rhodesia की स्वतन्त्रता के लिए विशेष समर्थन दिया था। दक्षिणी अफ्रीका में अपनाए जा रहे जातिवाद का भी गुट-निरपेक्षता आन्दोलन ने विरोध किया है।

7. शक्ति की राजनीति का विरोध (Opposition to Power Politics):
Morgenthau तथा Schwar zenberger अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को शक्ति के लिए संघर्ष मानते हैं। शक्ति का अर्थ किसी विशेष व्यक्ति का दूसरे व्यक्तियों के मस्तिष्क और कार्यों पर नियन्त्रण। गुट-निरपेक्षता कम-से-कम सिद्धान्त में शक्ति की राजनीति का एक खेल है। यह प्रभाव राजनीति (Influence Politics) में विश्वास रखती है। प्रभाव राजनीति शक्ति की राजनीति से इस दृष्टि से भिन्न है कि यह समझाने-बुझाने (Persuasion) में विश्वास रखती है जबकि शक्ति बल द्वारा दूसरों से अपनी इच्छा का काम करवाना चाहती है।

8. नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना (Establishment of New International Economic Order) :
इस तथ्य के होते हुए भी कि नये राष्ट्रों ने स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली है, आर्थिक दृष्टि से अब भी विकसित देश उन पर हावी हैं। वे ऐसी आर्थिक प्रणाली में बंधे हुए हैं जो निर्धनों और अविकसित देशों का शोषण कर रखती हैं।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

प्रश्न 7.
‘गुट-निरपेक्ष आन्दोलन’ से आप क्या समझते हैं ? इसके मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन करें।
अथवा
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष का अर्थ-इसके लिए प्रश्न नं० 6 देखें। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के मुख्य सिद्धान्त-गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं

  • सदस्य देशों संप्रभुता, राष्ट्रीय स्वाधीनता, क्षेत्रीय अखण्डता एवं सुरक्षा की रक्षा करना।
  • साम्राज्यवाद, रंगभेद एवं उपनिवेशवाद का विरोध करना।
  • अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को बनाए रखना।
  • राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलनों का समर्थन करना।
  • विकासशील एवं विकसित देशों के बीच पाई जाने वाली असमानता को दूर करना।
  • शस्त्रों की होड़ को रोककर निःशस्त्रीकरण को लागू करना।
  • एक देश के आंतरिक मामलों में विदेशी हस्तक्षेप का विरोध करना।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ को मजबूत बनाना।
  • गट-निरपेक्ष देशों को आत्म-निर्भर बनाने का प्रयास करना।

प्रश्न 8.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में होने वाली गतिविधियों में भारत की भूमिका का परीक्षण कीजिए ।
अथवा
‘तटस्थता’ व ‘गुट-निरपेक्षता’ में अन्तर स्पष्ट कीजिए। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में भारत की भूमिका बताइए।
उत्तर:
तटस्थता तथा गुट-निरपेक्षता में अन्ग-तटस्थता युद्ध या युद्ध जैसी स्थिति से सम्बन्धित है, जबकि गुट-निरपेक्षता युद्ध और शान्ति दोनों से सम्बनि तटस्थता एक नकारात्मक धारणा है, जो किसी पक्ष की ओर से युद्ध में भाग लेने से रोकती है, जबकि गुट निरपेक्ष एक सकारात्मक नीति है जो विषय के महत्त्व के अनुसार उसमें किसी गुट-निरपेक्ष राष्ट्र की रुचि निर्धारित करती है।

गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में भारत की भूमिका अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में गुट-निरपेक्षता की नीति को लागू करने का श्रेय भारत के पहले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू को है। गुट-निरपेक्षता को विचार से नीति एवं नीति से आन्दोलन बनाने में भारत की भूमिका सराहनीय रही है। एक सक्रिय सदस्य के रूप में भारत ने सदैव गुट-निरपेक्ष का सम्मान एवं समर्थन किया। भारत की भूमिका निर्गुट आन्दोलन की हर गतिविधि में अहम रही है। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में होने वाली गतिविधियों में भारत ने निम्नलिखित भूमिका अभिनीत की है

(1) भारत गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का जन्मदाता है।

(2) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन विश्व शान्ति पर बल देता है। भारत के प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए द्वितीय शिखर सम्मेलन में विश्व शान्ति के लिए पांच सूत्री प्रस्ताव पेश किया जिसमें मुख्यतः-सीमा विवादों को विवेक एवं शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने, अणु शस्त्रों के निर्माण एवं प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाने एवं संयुक्त राष्ट्र का समर्थन करने पर बल दिया।

(3) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का सातवां शिखर सम्मेलन 1983 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की अध्यक्षता में दिल्ली में हुआ।

(4) 1983 में भारत के प्रयत्नों से बहुत-सी समस्याओं-ईरान-इराक युद्ध, कम्पूचिया की समस्या, हिन्द महासागर में शान्ति बनाए रखना एवं पारस्परिक आर्थिक सहयोग आदि पर सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किए गए।

(5) नाम (NAM) के अध्यक्ष के रूप में भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर सर्वसम्मति प्राप्त करके एवं गुट-निरपेक्ष तथा विश्व के देशों के हितों की रक्षा करके इस आन्दोलन को ओर भी शक्ति प्रदान की।

(6) नाम के अध्यक्ष के रूप में भारत ने पूर्ण निशस्त्रीकरण हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ में एक प्रस्ताव पेश किया।

(7) 1985 में घोषित नई दिल्ली घोषणा पत्र श्री राजीव गांधी के निशस्त्रीकरण सम्बन्धी चार सूत्रीय योजना पर आधारित था।

(8) राजीव गांधी की अध्यक्षता में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन ने दक्षिण-दक्षिण सहयोग, उत्तर-दक्षिण, उत्तर-दक्षिण वार्तालाप, नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था, संयुक्त राष्ट्र संघ की सक्रिय भूमिका आदि विषयों पर जोर दिया।

(9) भारत की पहल पर ‘अफ्रीका कोष’ कायम किया गया।

(10) भारत ने अफ्रीका कोष को, 50 करोड़ रु० की राशि दी।

(11) भारत को 1986 एवं 1989 में अफ्रीका कोष का अध्यक्ष चुना गया। ऋण, पूंजी-निवेश तथा अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था जैसे कई आर्थिक प्रस्तावों का मूल प्रारूप भारत ने बनाया।

(12) 1989 के बेलग्रेड सम्मेलन में भारत ने पृथ्वी संरक्षण कोष कायम करने का सुझाव दिया और सदस्य राष्ट्रों ने इसका भारी समर्थन किया।

(13) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के दसवें शिखर सम्मेलन में भारत ने विश्वव्यापी निशस्त्रीकरण, वातावरण सुरक्षा, आतंकवाद जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों को उठाया। भारत का यह रुख जकार्ता घोषणा में शामिल किया गया कि आतंकवाद प्रादेशिक अखण्डता एवं राष्ट्रों की सुरक्षा को एक भयानक चुनौती है।

(14) भारत ने ही गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों का ध्यान विश्वव्यापी निशस्त्रीकरण की तरफ खींचा।

(15) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के महत्त्व एवं सदस्य राष्ट्रों की इसमें निष्ठा बनाए रखने के लिए भारत ने द्विपक्षीय मामले सम्मेलन में न खींचने की बात कही जिसे सदस्य राष्ट्रों ने स्वीकार किया।

(16) 1997 में दिल्ली में गट-निरपेक्ष देशों के विदेश मन्त्रियों का शिखर सम्मेलन हआ।

(17) बारहवें शिखर सम्मेलन में भारत ने विश्वव्यापी निशस्त्रीकरण, विश्व शान्ति एवं आतंकवाद से निपटने के लिए एक विश्वव्यापी सम्मेलन बुलाने का प्रस्ताव पेश किया, जिसका सदस्य राष्ट्रों ने समर्थन किया।

(18) तेरहवें शिखर सम्मेलन में सक्रिय भूमिका अभिनीत करते हुए भारत ने आतंकवाद एवं इसके समर्थकों की कड़ी आलोचना कर विश्व शान्ति पर बल दिया।

(19) भारत ने क्यूबा में हुए 14वें, मिस्र में हुए 15वें तथा इरान में हुए 16वें शिखर सम्मेलन में भाग लेते हुए आतंकवाद को समाप्त करने का आह्वान किया।

(20) भारत ने वेनुजुएला में हुए 17वें एवं अजरबैजान में हुए 18वें शिखर सम्मेलन में भाग लेते हुए विकास के लिए वैश्विक शांति की स्थापना पर बल दिया।
अत: गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में भारत की भूमिका सदैव सराहनीय रही है।

प्रश्न 9.
शीत-युद्धोपरान्त काल में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की व्याख्या करो।
उत्तर:
शीत युद्ध के पश्चात् आज की बदली हुई परिस्थितियों में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की भूमिका में भी बदलाव आया है। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन नए विश्व के निर्माण के लिए प्रयत्नशील है जो शान्ति, मैत्री एवं सम्पन्नता से परिपूर्ण हो। वातावरण समय में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की भूमिका एवं महत्त्व दोनों ही बढ़ा रहा है या ऐसा कहा जाए कि गुट निरपेक्ष आन्दोलन की बढ़ती भूमिका ने उसे महत्त्वपूर्ण आन्दोलन बना दिया है।

विश्वीकरण की तीव्र होती प्रक्रिया के कारण विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों ने खुला बाजार नीति को अपनाया है। विकसित देशों की बहु-राष्ट्रीय कम्पनियां विकासशील देशों में पूंजी निवेश करती हैं ताकि दोनों राष्ट्रों को लाभ हो। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन ऐसी बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों से विकासशील देशों के हितों की रक्षा करता है। आज गुट-निरपेक्ष आन्दोलन शक्ति गुटों में नहीं अपितु विकसित एवं विकासशील देशों में आर्थिक सम्बन्धों में सन्तुलन पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है।

आज गुट-निरपेक्ष आन्दोलन सदस्य राष्ट्रों के सर्वांगीण विकास के लिए प्रयास कर रहा है। अब यह विकसित देशों से विकासशील एवं पिछड़े देशों के लिए आर्थिक एवं तकनीकी मदद प्राप्त करने के लिए प्रयासरत है। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन विश्वव्यापी निशस्त्रीकरण के लिए समर्पित है। कार्टाजेना सम्मेलन में परमाणु हथियारों के समूल नाश के लिए धीमे एवं सीमित प्रयासों पर सदस्य राष्ट्रों ने चिंता व्यक्त की।

बारहवें शिखर सम्मेलन में परमाणु हथियारों की होड़ को रोकने एवं उन्हें नष्ट करने के लिए एक बहु-पक्षीय समझौते पर बल दिया। इस सम्मेलन में निशस्त्रीकरण एवं आतंकवाद से निपटने के लिए विश्वव्यापी सम्मेलन बुलाने का सुझाव दिया गया।

गुट-निरपेक्ष आन्दोलन नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों को अमीर एवं विकसित राष्ट्रों के प्रभुत्व से निकालने के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन तत्पर है। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन यह देखता है कि कोई एक शक्ति केन्द्र सारी दुनिया पर अपना प्रभुत्व न कायम कर ले। विश्व को महायुद्ध की विभीषिका से बचाने के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन इसके सदस्य राष्ट्र अहम् भूमिका निभा रहे हैं।

गुट-निरपेक्ष आन्दोलन विश्वव्यापी दरिद्रता को दूर करने की कोशिश कर रहा है। कोलंबिया सम्मेलन में विकासशील देशों में भूख, ग़रीबी, निरक्षरता तथा पेयजल की कमी से निपटने के लिए प्रयास करने पर बल दिया गया। लन अब संयक्त राष्ट्र संघ में सधार के लिए भी मांग करता है यह इसे अमेरिका की दादागिरी से बचाने के लिए प्रयासरत है। अतः गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की भूमिका शीत युद्ध के बाद बढ़ गई है।

अब यह केवल नव स्वतन्त्र राष्ट्रों की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए ही नहीं प्रयासरत अपितु अपने विश्वव्यापी स्वरूप के कारण अब यह विश्वव्यापी निशस्त्रीकरण, विश्वशान्ति एवं सुरक्षा, सम्पन्नता, आर्थिक-सामाजिक उन्नति, सहयोग एवं मानवाधिकारों की रक्षा के लिए भी प्रयासरत है। अब गुट-निरपेक्ष आन्दोलन विश्वव्यापी समस्याओं एवं मामलों की ओर भी ध्यान दे रहा है।

प्रश्न 10.
नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ?
अथवा
नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद का पतन होना आरम्भ हो गया था। साम्राज्यवादी व औपनिवेशिक शक्तियों की पकड़ अपने उपनिवेशों पर ढीली पड़ने लगी थी क्योंकि साम्राज्यवादी शक्तियां ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, बैल्जियम आदि इस स्थिति में नहीं थे कि वे अपने उपनिवेशों पर अपना कब्जा जमा सकें। अतः उन्होंने अपने अपने उपनिवेशों को आजाद करना आरम्भ कर दिया जिसके परिणामस्वरूप 50 व 60 के दशक में एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका के सैंकड़ों देश अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर उभरे।

सदियों तक यूरोपीय देशों ने इन क्षेत्रों पर अपना नियन्त्रण बनाए रखा और इन देशों का शोषण किया। इन उपनिवेशों का आर्थिक शोषण कर करके यूरोपीय देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था को बहुत मज़बूत बनाया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान विश्व की अर्थव्यवस्था को बहुत धक्का लगा। इसलिए इस युद्ध के बाद यूरोपीय देशों ने अपने आर्थिक पुनरुत्थान और एकीकरण की तरफ ध्यान देना आरम्भ कर दिया ताकि अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर सकें।

नव-स्वतन्त्र अथवा विकासशील देशों को अपनी आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए विकसित देशों की मदद की आवश्यकता थी। राजनीतिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति तथा नए देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त होने के कारण संयुक्त राष्ट्र की संख्या तिगुनी हो गई थी। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन तथा तीसरे विश्व के देशों ने पुरानी विश्व अर्थव्यवस्था को समाप्त करके नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (New International Economic Order) के जन्म तथा स्थापना को प्रोत्साहित किया। 70 के दशक में इन विकासशील देशों ने राजनीतिक स्वतन्त्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतन्त्रता की मांग भी आरम्भ कर दी जिसके परिणामस्वरूप एक नई अवधारणा नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का प्रचलन हुआ। यह 70 के दशक में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में मुख्य विषय बन गया।

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था क्या है ? (What is NIEO ?)-नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था है जिसका उद्देश्य विकासशील देशों को खाद्य-सामग्री उपलब्ध कराना है, साधनों को विकसित देशों में विकासशील देशों में भेजना, वस्तओं सम्बन्धी समझौते करना, बचाववाद को समाप्त करना तथा पुरानी परम्परावादी औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के स्थान पर निर्धन तथा वंचित देशों के साथ न्याय करने के उद्देश्य से नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना करना है। 70 के दशक में इन विकासशील देशों ने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना की मांग की क्योंकि अमेरिका व यूरोपीय देश इस बात के लिए सदैव तत्पर रहे कि विकासशील देशों की तैयार वस्तुएं अमेरिका व यूरोपीय आर्थिक बाजार में प्रवेश न कर सकें।

पुरानी व्यवस्था विकासशील अथवा कम विकसित अथवा तृतीय विश्व के हितों की अवहेलना करते हुए बनाई गई है जिसका उद्देश्य विकसित राष्ट्रों के हितों व उनकी आवश्यकताओं की रक्षा करना है जबकि विकासशील देशों का उद्देश्य यह है कि नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के तहत विकसित राष्ट्रों के लिए एक आचार संहिता बनाकर तथा कम विकसित राष्ट्रों के उचित अधिकारों को मानकर अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को सबके लिए समान तथा न्यायपूर्ण बनाना है।’

“नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का विश्वास विकासशील देशों में सहयोग स्थापित करना तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को मजबूत बनाना है। इसका विश्वास विश्व में एक ऐसी लोकतन्त्रीय व्यवस्था स्थापित करना है जिससे प्रत्येक राष्ट्र को समानता का व्यवहार मिले और ऐसी आर्थिक स्थिति बने जिससे विश्व में उसका राजनीतिक स्थायित्व सुनिश्चित हो सके।” 70 के दशक के बाद इन विकासशील देशों ने आर्थिक समानता की मांग करनी आरम्भ कर दी। विकासशील राष्ट्र बिना किसी देरी के उत्तर-दक्षिणी वार्ता की मांग करते हैं। परन्तु विकसित राष्ट्र किसी भी कीमत पर इस तर्क को स्वीकार नहीं करते जिसके कारण इनके मध्य विवाद (Conflict) पैदा हो गया।

इस विवाद को उत्तर-दक्षिणी विवाद (North-South Conflict) के नाम से भी पुकारते हैं क्योंकि जितने भी विकसित देश हैं वे भू-मध्य रेखा के उत्तर में और विकासशील देश भू-मध्य रेखा के दक्षिण में स्थित हैं। उस समय की आर्थिक व्यवस्था संकटों के दौर में से गुजर रही थी। इस समय तक विकसित देशों में भी एक स्थायित्व की स्थिति आ चुकी थी अर्थात् विकसित देशों ने लगभग प्रत्येक क्षेत्र में विकास कर लिया था, जिसके परिणामस्वरूप उनका आर्थिक विकास थम गया था। मुद्रा स्फीति की दर बढ़ रही थी। मुद्रा स्फीति की समस्या पर रोक लगाने हेतु ही विकासशील देशों ने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग जोरों से आरम्भ कर दी।

यह विश्व के आर्थिक साधनों के आदर्श विभाजन पर बल देती है तथा ऐसे साधनों को उपाय में लाना चाहती है जिससे कि ग़रीब देशों में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो सके। इस व्यवस्था को जन्म देने में मुख्यतः तीन बातें सामने आती हैं-प्रथम, विकसित देशों को विकासशील देशों के साथ अपनी पूंजी में भाग देना चाहिए।

द्वितीय, मुद्रा स्फीति की बढ़ती हुई दर पर रोक लगाने के लिए यह आवश्यक है कि इस नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर बल दिया जाए। ततीय, आर्थिक साधनों के आदर्श विभाजन के लिए विकासशील देशों द्वारा विकसित देशों पर दबाव डालना। वास्तव में, इस अवधारणा ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रिया के घनिष्ठ सम्बन्ध को उभार कर सामने रखा है। जब तक आर्थिक व्यवस्था परिवर्तित नहीं होती तब तक न्यायपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था भी स्थापित नहीं की जा सकती।

पुरानी अर्थव्यवस्था की विशेषताएं (Features of the Old Economic Order): विकसित देशों द्वारा स्थापित पुरानी अर्थव्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताएं हैं

(1) पुरानी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत विश्व में पूर्वी व पश्चिमी गुटों में अन्तर पाया जाता था, नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के मुद्दे को लेकर उत्तर-दक्षिण में भी विवाद था।

(2) पुरानी आर्थिक व्यवस्था विकसित देशों के हितों की रक्षा करती थी जिससे सारा लेन-देन विकसित देशों में ही होता था जो कि भेदभाव रहित उदारवादी व्यापार पर आधारित था जिससे विश्व में खुले व्यापार की नीति को प्रोत्साहन मिला।

(3) पुरानी अर्थव्यवस्था राष्ट्रवाद से ओत-प्रोत थी। इस पर कुछेक राष्ट्रों का एकाधिकार था। यह व्यवस्था तर्कहीन, अन्यायपूर्ण और असंगत थी।

(4) पुरानी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत विकसित राष्ट्रों ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को इस तरह नियमित कर रखा था कि विकसित देशों को विकासशील देशों में आसान शर्तों पर माल बेचने की छूट प्राप्त थी।

80 के दशक के अन्त तक विकसित देशों को भी आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा, जिससे विश्व की अर्थव्यवस्था चरमरा गई। कई साम्यवादी देशों का पतन हो गया और वहां प्रजातान्त्रिक सरकारों की स्थापना हुई। इस दशक में विकासशील देशों ने भी उत्तर-दक्षिण विवाद की बजाए उत्तर-दक्षिण वार्ता (North-South Dialogue) पर बल देना आरम्भ कर दिया। 1975 तक इन विकासशील देशों की अन्तर्राष्ट्रीय धन-सम्पदा आदि का पूरा उपभोग विकसित राष्ट्रों ने किया। विकसित देशों का मत था कि अगर विकासशील देश पिछड़ गए हैं तो उनके पीछे उनकी पिछड़ी तकनीक है, जिसके कारण वे अपनी प्राकृतिक सम्पदा का उपभोग नहीं कर पाए हैं।

इसीलिए विकासशील देशों ने पुरानी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को खत्म करना चाहा। पुरानी अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के तीन भाग थे प्रथम-पश्चिमी देशों की आत्मनिर्भरता की व्यवस्था द्वितीय-उत्तर-दक्षिण की निर्भरता की व्यवस्था तृतीया- पूर्व-पश्चिम की स्वतन्त्रता की व्यवस्था पूर्वी देश अपनी आत्मनिर्भरता के लिए पश्चिमी देशों पर निर्भर हैं। इस व्यवस्था में विकासशील देशों की कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं थी।

विश्व अर्थव्यवस्था पर कुछेक विकसित देशों का एकाधिकार है। विश्व का मुनाफा भी इन्हीं देशों के हाथ में है। इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण धन तथा व्यापारिक मण्डियों पर एकाधिकार था। जिसका कच्चे माल की मण्डियों पर नियन्त्रण होगा उसका तैयार माल की मण्डियों पर नियन्त्रण होना स्वाभाविक है। इस तरह इन विकसित देशों ने अविकसित तथा विकासशील देशों का दोहरा शोषण किया जिससे विकसित व विकासशील देशों में असमानता फैल गई।

उपर्युक्त आधारों पर ही 70 के दशक में विकासशील देशों ने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग की ताकि ये देश अपना आर्थिक विकास कर सकें। विकासशील देशों की मांग है कि विकसित देश अपने देशों के अतिरिक्त साधनों को विकासशील देशों को दे दें ताकि आर्थिक रूप से पिछड़े हुए विकासशील देश लाभ उठा सकें। यदि इस दिशा में विकासशील राष्ट्र प्रगति करते हैं तो इससे विकसित देशों को भी फायदा होगा और नई मण्डियां प्राप्त होंगी। चूंकि अब इन देशों ने लम्बी परतन्त्रता के बाद स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली है।

अतः विकसित देशों का नैतिक कर्त्तव्य बनता है कि वे इन देशों की आर्थिक मदद करें ताकि ये देश भी आत्मनिर्भर बन सकें। इसके द्वारा ऐसी व्यवस्था की जाएगी ताकि आर्थिक न्याय की प्राप्ति हो सके। नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के अन्तर्गत बहुत प्रयत्नों द्वारा विकसित देश विकासशील देशों को अपनी आय का 0.7% भाग ही देने को तैयार हुए हैं जोकि बहुत कम हैं।

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के बुनियादी सिद्धान्त (Basic Principles of NIEO) विकासशील देशों ने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के लिए कुछ बुनियादी सिद्धान्त निर्धारित किए हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है

  • कच्चे माल की कीमत को घटाने-बढ़ाने पर रोक लगाई जाए तथा कच्चे माल और तैयार माल की कीमतों में अन्तर न होना।
  • बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की गतिविधियों पर समुचित प्रतिबन्ध,
  • विकासशील देशों पर वित्तीय ऋणों के भार को कम करना,
  • विश्व मौद्रिक व्यवस्था का सामान्यीकरण करना,
  • खनिज पदार्थों और सभी तरह की आर्थिक गतिविधियों पर किसी राष्ट्र की सम्प्रभुता की स्थापना करना।
  • विकासशील देशों द्वारा तैयार माल के निर्यात को प्रोत्साहन देना।
  • दोनों के मध्य तकनीकी उत्थान की खाई को समाप्त करना।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

प्रश्न 11.
नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना हेतु विभिन्न संगठनों द्वारा किये गए प्रयासों का वर्णन करें।
उत्तर:
70 के दशक में नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना हेतु विभिन्न संगठनों जैसे संयुक्त राष्ट्र, गुट-निरपेक्ष आन्दोलन, विकसित देशों व विकासशील देशों ने विभिन्न स्तरों पर यत्न किए। इन संगठनों द्वारा किए गए प्रयासों का वर्णन इस प्रकार है

1. संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए गए प्रयत्न (UN efforts at the establishment of NIEO)

(क) 1 मई, 1974 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के छठे विशेष अधिवेशन में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना में उठाए जाने वाले कुछ कार्यक्रमों को निश्चित किया जैसे कि

  • व्यापार व विकास सम्बन्धी प्रारम्भिक कच्चे माल की समस्याओं को हल किया जाए।
  • अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था और विकासशील देशों की वित्तीय सहायता देने सम्बन्धी मामलों को निपटाया जा सके।
  • विकासशील देशों द्वारा अत्यधिक औद्योगिकीकरण की दिशा में प्रयास हो।
  • विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को तकनीक का हस्तान्तरण किया जाए।
  • बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों व निगमों की गतिविधियों का संचालन तथा नियन्त्रण।
  • राज्यों के आर्थिक कार्यों व कर्तव्यों का एक चार्टर बनाया जाए जिसमें प्रत्येक राज्यों के अधिकार व कर्त्तव्य का वितरण हो।
  • विकासशील देशों के मध्य पारस्परिक सहयोग पर बल।

(ख) व्यापार और विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCTAD) सितम्बर, 1975 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा का विकास तथा अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग’ पर सातवां विशेष अधिवेशन उत्तर-दक्षिण वार्ता के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ क्योंकि इसमें तृतीय विश्व तथा पश्चिमी दोनों द्वारा अपनी समझौता वार्ताओं पर यथार्थवाद का प्रदर्शन किया गया। 77 का समूह (Group of 77) तथा पश्चिम के बीच सहानुभूतिपूर्व सहयोग के फलस्वरूप समझौता पास हुआ जो तीसरे विश्व की प्रगति के मार्ग में मील का पत्थर प्रमाणित हुआ।

इन सभी सम्मेलनों का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को सम्प्रभु, समानता तथा सहयोग के आधार पर स्थापित करने हेतु पुनर्गठित करना है ताकि इनमें से भेदभाव को हटाकर इसे न्याय पर आधारित किया जा सके। अंकटाड के कई सम्मेलनों ने इस दिशा में कार्य किए जैसे-प्रगतिशील सिद्धान्तों का निर्माण, शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्त को विकसित किया जाए, पक्षपातपूर्व रवैये की समाप्ति, सांझी निधि का निर्माण किया जाए जिससे विकासशील देशों के ऋण का भार कम हो सके।

(ग) संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन (UNIDO) के प्रयास-नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना के लिए संयुक्त राष्ट्र के औद्योगिक विकास संगठन ने भी अपने स्तर पर प्रयास आरम्भ कर दिए। इस संगठन (UNIDO) का उद्देश्य तीसरे विश्व के देशों का औद्योगिक विकास करना है। इस दिशा में इसने कुछ महत्त्वपूर्ण सम्मेलन बुलाए।

2. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन द्वारा किए गए प्रयास (Efforts of NAM) एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका ने नव-स्वतन्त्र राष्ट्रों ने मिलकर गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आरम्भ किया था। यह नव-स्वतन्त्र राष्ट्र अपना राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक कारणों से गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के रूप में एकत्र हुए। साम्राज्यवादी आर्थिक ढांचे से दबे हुए इन देशों ने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था निर्मित करने का प्रयत्न किया। गुट-निरपेक्ष देशों के लुसाका सम्मेलन (1970) में इन देशों की आर्थिक समस्याओं की तरफ ध्यान दिलाया गया। गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों के विदेश मन्त्रियों के 1975 के

लीमा सम्मेलन (LIMA Conference) में आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिए एक संहति कोष (So Fund) की स्थापना की स्वीकृति दी गई। 1983 में नई दिल्ली में हुए गुट-निरपेक्ष देशों के सातवें शिखर सम्मेलन में भारत की पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की आवश्यकता की ओर विशेष ध्यान दिलाया। इसके अतिरिक्त G-15 के विभिन्न सम्मेलनों में भी इसकी स्थापना की दिशा में मांग उठाई गई।

3. विकसित देशों के प्रयास (Efforts of Developed Countries):
80 के दशक के आरम्भ में पूर्व व बाद में विकसित देशों को भी आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा क्योंकि तेल उत्पादक देशों ने तेल की कीमतों में भारी वृद्धि कर दी थी जिसके परिणामस्वरूप विश्व की अर्थव्यवस्था चरमरा गई। अतः विकसित देशों ने भी नई व्यवस्था की ओर ध्यान देना शरू किया। विकासशील देशों की मांगों की तरफ विकसित देशों ने सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना आरम्भ कर दिया था।

विकसित देशों को आर्थिक विकास व सहयोग के संगठन (OECO) विश्व बैंक, IMF तथा GATT आदि ने बचाववाद (Protectionism) की नीति को छोड़कर उन्हें अपने हितों की रक्षा के लिए नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने का सुझाव दिया। विकासशील देशों ने भी उत्तर-दक्षिण विवाद की जगह उत्तर-दक्षिण वार्ता पर बल देना आरम्भ कर दिया। काफ़ी प्रयत्नों के द्वारा विकसित देश विकासशील देशों को अपनी आय का 0.7% हिस्सा देने को तैयार हो गए।

4. विकासशील देशों के प्रयास (Efforts of Developing Countries):
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में शामिल सभी देश विकासशील देश हैं, परन्तु विकासशील देशों में सभी गुट-निरपेक्ष देश शामिल नहीं हैं। विकासशील देशों ने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना की दिशा में निम्नलिखित प्रयत्न किए

(1) संयुक्त राष्ट्र की महासभा के 1974 में हुए सम्मेलन में विकासशील देशों ने नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना की मांग की।

(2) विकासशील देशों ने अंकडाट में विभिन्न सम्मेलनों में नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग को मनवाने के लिए प्रयत्न किए।

(3) विकासशील देशों ने 1977 के पेरिस में सम्पन्न Conference on Trade Co-operation में भी मांग उठाई। इस सम्मेलन में उत्तर-दक्षिण के देशों ने अपने-अपने मत प्रस्तुत किए।

(4) 1982 में विकासशील देशों का नई दिल्ली में सम्मेलन हुआ। इसमें विकासशील देशों को आत्मनिर्भर बनाने और पारस्परिक सहयोग के आठ बिन्दुओं पर भारत की पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने बल दिया।

इस प्रकार विकासशील देशों ने संयुक्त राष्ट्र व उसके बाहर के सम्मेलनों, गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के सम्मेलनों, राष्ट्र मण्डल के शिखर सम्मेलनों, G-15 एवं G-77 के सम्मेलनों में इस मांग को उठाकर लोकमत बनाने की कोशिश की। जी 15 की नौवीं बैठक जमैका (Jamaica) में फरवरी, 1999 में हुई और इसमें 17 देशों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में विश्व आर्थिक व्यवस्था में विकासशील देशों को अधिक भागीदारी दिए जाने की मांग की गई। यह भी सुझाव दिया गया कि WTO, WB तथा IMF जैसी आर्थिक संस्थाओं में अधिक सहयोग व तालमेल होना चाहिए।

प्रश्न 12.
शीत युद्ध में भारत की क्या प्रतिक्रिया रही ? गुट-निरपेक्षता की नीति ने किस प्रकार भारत का हित साधन किया ?
उत्तर:
शीत युद्ध के दौरान भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुट-निरपेक्ष नेता के रूप में उभर कर भारत ने न केवल स्वयं को अमेरिका एवं सोवियत संघ दोनों से अपने आपको अलग रखा, बल्कि नव स्वतन्त्रता प्राप्त देशों एवं विकासशील देशों को भी दोनों शक्ति गुटों से अलग रखने का प्रयास किया।

स्वतन्त्रता के पश्चात् पं० जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा तथा अन्य कई स्थानों पर यह स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत किसी गुट में शामिल नहीं होगा और भारत गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण करेगा। पं० जवाहरलाल नेहरू ने यह भी स्पष्ट किया था कि गुट-निरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के प्रति उदासीनता नहीं है।

सन् 1949 में प्रधानमन्त्री नेहरू ने अमरीकी कांग्रेस के समक्ष भाषण देते हुए कहा था, “जहां स्वतन्त्रता खतरे में हो न्याय खतरे में हो या यदि कहीं आक्रमण किया जा रहा हो वहां हम उदासीन नहीं रह सकते और न ही रहेंगे। हमारी नीति उदासीनता की नीति नहीं है। हमारी नीति यह है कि शान्ति स्थापना के लिए सक्रिय रूप से प्रयत्न किया जाए तथा जहां तक सम्भव हो सके शान्ति को सुदृढ़ आधार प्रदान किया जाए।”

उदाहरण के लिए 50 के दशक में हुए कोरिया युद्ध एवं स्वेज नहर के संकट को समाप्त करने के लिए भारत ने सक्रिय भूमिका निभाई। भारत ने शीत युद्ध के दौरान उन सभी अन्तर्राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय संगठनों को बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जो दोनों शक्ति गुटों में से किसी के साथ नहीं जुड़े थे।

यद्यपि कई आलोचकों का यह कहना है कि गुट-निरपेक्षता का आदर्श भारत के राष्ट्रीय हितों एवं मूल्यों से मेल नहीं खाता, परन्तु यह तर्क उचित नहीं है, क्योंकि भारत न केवल अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वतन्त्र निर्णय ले सका, बल्कि ऐसे पक्ष का साथ देता था, जिससे भारत को लाभ हो। इसके साथ-साथ दोनों महाशक्तियों ने भारत से अच्छे सम्बन्ध बनाए रखने का प्रयास किया, यदि एक गुट भारत के विरुद्ध होता तो दूसरा गुट भारत की मदद को आ जाता था।

यद्यपि कई आलोचक भारत की गुट-निरपेक्षता को सिद्धान्तहीन एवं विरोधाभासी बताते हैं। क्योंकि भारत ने सन् 1971 में सोवियत संघ से एक बीस वर्षीय सन्धि कर ली थी। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तत्कालीन परिस्थितियों में इस प्रकार की सन्धि करना भारत के लिए आवश्यक हो गया था। अधिकांश तौर पर भारत ने दोनों गुटों से अलग रहने की नीति ही अपनाई।

भारत ने निम्नलिखित ढंग से अपना हित साधन किया

1. आर्थिक पुनर्निर्माण- भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाकर अपना आर्थिक पुनर्निर्माण किया क्योंकि किसी गुट में शामिल न होने से उसे सभी देशों से सहायता प्राप्त होती रही।

2. स्वतन्त्र नीति निर्माण- भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाकर स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी नीतियों का निर्माण किया।

3. भारत की प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी-गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाने से भारत की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई।

4. दोनों गुटों से अधिक सहायता-गुट-निरपेक्ष देश होने के कारण भारत को दोनों गुटों से आर्थिक सहायता प्राप्त होती रही।

प्रश्न 13.
भारतीय गुट-निरपेक्षता के स्वरूप का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय गुट-निरपेक्षता के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है

1. भारत की निर्गुटता की नीति उदासीनता की नीति नहीं है-भारत की निर्गुटता की नीति उदासीनता की नीति नहीं है क्योंकि भारत ने स्वयं को अन्तर्राष्ट्रीय राज्य नीति से दूर नहीं रखा है, अपितु भारत अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय भूमिका अभिनीत करता है।

2. सैन्य समझौतों का विरोध-भारत सैन्य समझौतों का विरोध करता है। अतः भारत सेन्टो (CENTO), नाटो (NATO), सीटो (SEATO), वारसा सन्धि (WARSA-PACT) आदि में सम्मिलित नहीं हुआ है।

3. शक्ति राजनीति से दूर रहना-भारत शक्ति राजनीति का विरोध करता है और प्रत्येक राष्ट्र के शक्तिशाली बनने के अधिकार को स्वीकार करता है।

4. शान्तिमय सह-अस्तित्व तथा अहस्तक्षेप की नीति-भारत का पंचशील के सिद्धान्तों पर पूर्ण विश्वास है। शान्तिमय सह-अस्तित्व तथा अहस्तक्षेप की नीति पंचशील के दो प्रमुख सिद्धान्त हैं। भारत शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का समर्थन करता है।

5. स्वतन्त्र विदेश नीति-भारत अपनी स्वतन्त्र विदेश नीति पर कार्यान्वयन करता है। भारत अपनी विदेश नीति का निर्माण किसी भी अन्य देश के प्रभावाधीन नहीं करता, अपितु स्वेच्छा से स्वतन्त्र रूप में करता है। भारत दोनों शक्ति गुटों में से किसी भी गुट का सदस्य नहीं है।

6. निर्गुट देशों के मध्य गुटबन्दी नहीं है-कुछ आलोचकों का मत है कि निर्गुटता की नीति गुट-निरपेक्ष देशों की गुटबन्दी है। किन्तु आलोचकों का यह विचार उचित नहीं है। गुट-निरपेक्षता का अर्थ गुट-निरपेक्ष देशों का तृतीय गुट स्थापित करना नहीं है।

प्रश्न 14.
नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म कैसे हुआ ? UNCTAD ने 1972 की अपनी रिपोर्ट में किन सुधारों को प्रस्तावित किया ?
उत्तर:
नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म- इसके लिए प्रश्न नं० 10 देखें। UNCTAD द्वारा दिये गए सुधार-UNCTAD ने 1972 में अपनी रिपोर्ट में निम्नलिखित प्रस्ताव दिये

  • अल्पविकसित देशों को अपने उन प्राकृतिक संसाधनों पर नियन्त्रण प्राप्त होगा, जिनका दोहन एवं दुरुपयोग विकसित कर सकते हैं।
  • अल्पविकसित देश विकसित देशों के बाज़ार में भी अपना माल बेच सकेंगे।
  • विकसित देशों से आयातित प्रौद्योगिकी की लागत कम होगी।
  • अल्पविकसित देशों की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं में भूमिका बढ़ेगी।

प्रश्न 15.
भारत द्वारा गुट-निरपेक्षता की नीति को अपनाने के मुख्य कारण लिखिए।
उत्तर:
भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति को जोश में आकर नहीं अपनाया बल्कि यह गम्भीर चिन्तन का फल था और इसको अपनाने के मुख्य कारण इस प्रकार थे थिक पुननिर्माण-प्रथम, भारत कई वर्षों के साम्राज्यवादी शोषण के बाद स्वतन्त्र हुआ था और इसके सामने सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न देश के आर्थिक पुनर्निर्माण का था। यह कार्य शान्ति के वातावरण में हो सकता था न कि तनावपूर्ण स्थिति में। अतः भारत के लिए किसी गुट का सदस्य न बनना ही उचित था क्योंकि यदि भारत किसी गुट में सम्मिलित होता तो इससे स्थिति और भी तनावपूर्ण हो जाती जोकि भारत के लिए ठीक नहीं थी।

2. स्वतन्त्र नीति निर्धारण के लिए-द्वितीय, भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति इसलिए भी अपनाई क्योंकि भारतीय राष्ट्रीयता प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्र रहने की उत्कट अभिलाषी थी। भारत को स्वतन्त्रता हजारों देश-प्रेमियों के बलिदान के बाद मिली थी। अतः भारतीयों के लिए स्वतन्त्रता अमूल्य थी। किसी गुट में सम्मिलित होने का अर्थ इस मूल्यवान् स्वतन्त्रता को खो बैठना था। भारत यह अनुभव करता था कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में उसे भाग लेने का पूर्ण अधिकार है और यदि भारत किसी गुट में शामिल हो जाता तो भारत को अपना यह अधिकार खो देना पड़ता। अत: पूर्ण स्वतन्त्रता की इच्छा के कारण भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया।

3. भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए-तृतीय, भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए ठीक गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया गया।

4. शान्ति का समर्थक-गुट-निरपेक्षता की नीति का ऐतिहासिक आधार पर भी समर्थन किया जाता है। भारत का इतिहास यह बताता है कि भारत ने सदैव शान्ति की नीति का अनुसरण किया है। उसकी कभी भी विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षाएं नहीं रहीं। इस प्रकार गुट-निरपेक्षता की नीति भारत के परम्परागत दर्शन तथा आदर्शों की आधुनिक युग में राजनीतिक अभिव्यक्ति है।

5. दोनों गुटों से आर्थिक सहायता- भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण इसलिए भी किया ताकि दोनों गुटों से सहायता प्राप्त की जा सके और हुआ भी ऐसा ही। भारत दोनों गुटों द्वारा मिलने वाली सहायता का आनन्द उठाता रहा। यदि भारत एक ही गुट में शामिल हो जाता तो शायद वह न केवल एक ही गुट की सहायता लेता बल्कि दूसरे गुट वाले देश भारत को घृणा की दृष्टि से देखते।

6. भौगोलिक दशा-भारत की भौगोलिक दशा ऐसी थी कि यदि भारत पश्चिमी या साम्यवादी गुट में सम्मिलित हो जाता तो उसके अस्तित्व को संकट उत्पन्न हो जाता।

7. एशिया के हित के लिए-एशिया के नए स्वतन्त्र राष्ट्रों में पश्चिम के प्रति घृणा थी और भारत को सभी एशियाई देश प्रतिष्ठा से देख रहे थे। यदि भारत पश्चिमी गुट से मिल जाता तो एशिया के देशों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता। अन्य देश भी भारत के अनुसरण करते हुए पश्चिम में मिलना प्रारम्भ कर देते।

लघु उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1.
शीत युद्ध से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
शीत युद्ध से अभिप्राय दो राज्यों अमेरिका तथा भूतपूर्व सोवियत संघ अथवा दो गुटों के बीच व्याप्त उन बन्धों के इतिहास से है जो तनाव, भय, ईर्ष्या पर आधारित था। इसके अन्तर्गत दोनों गुट एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए तथा अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए प्रादेशिक संगठनों के निर्माण, सैनिक गठबन्धन, जासूसी, आर्थिक सहायता, प्रचार, सैनिक हस्तक्षेप, अधिकाधिक शस्त्रीकरण जैसी बातों का सहारा लेते थे।

फ्लोरेंस एलेट तथा मिखाइल समरस्किल ने अपनी पुस्तक ‘A Dictionary of Politics’ में शीत युद्ध को “राज्यों में तनाव की वह स्थिति जिसमें प्रत्येक पक्ष स्वयं को शक्तिशाली बनाने तथा दूसरे को निर्बल बनाने की वास्तविक युद्ध के अतिरिक्त नीतियां अपनाता है” बताया है। – डॉ० एम० एस० राजन (Dr. M.S. Rajan) के अनुसार, “शीत युद्ध शक्ति-संघर्ष की राजनीतिक का मिला-जुला परिणाम है, दो विरोधी विचारधाराओं के संघर्ष का परिणाम है, दो प्रकार की परस्पर विरोधी पद्धतियों का परिणाम है, विरोधी चिन्तन पद्धतियों और संघर्षपूर्ण राष्ट्रीय हितों की अभिव्यक्ति है जिनका अनुपात समय और परिस्थितियों के अनुसार एक-दूसरे के पूरक के रूप में बदलता रहा है।”

पं० जवाहर लाल नेहरू (Pt. Jawahar Lal Nehru) के अनुसार, “शीत युद्ध पुरातन शक्ति-सन्तुलन की अवधारणा का नया रूप है, यह दो विचारधाराओं का संघर्ष न होकर दो भीमाकार शक्तियों का आपसी संघर्ष है।”

प्रश्न 2.
शीत युद्ध के कोई चार परिणाम लिखिए।
उत्तर:
शीत युद्ध के परिणामों का वर्णन इस प्रकार है

1. विश्व का दो गुटों में विभाजन-शीत युद्ध का प्रथम परिणाम यह हुआ कि विश्व का दो गुटों में विभाजन हो अमेरिका के साथ हो गया, तो दूसरा गुट सोवियत संघ के साथ हो गया।

2. सैनिक गठबन्धनों की राजनीति-शीत युद्ध का एक परिणाम यह हुआ कि इसके कारण सैनिक गठबन्धनों की उत्पत्ति हुई तथा सैनिक गठबन्धनों को शीत युद्ध के एक साधन के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। अमेरिका ने जहां नाटो, सीटो तथा सैन्टो जैसे सैनिक गठबंधन बनाये, वहां सोवियत संघ ने वार्सा पैक्ट का निर्माण किया।

3. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की उत्पत्ति-शीत युद्ध के कारण गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की उत्पत्ति हुई। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य नव-स्वतन्त्रता प्राप्त राष्ट्रों को दोनों गुटों से अलग रखना था।

4. शस्त्रीकरण को बढ़ावा-शीत युद्ध का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर एक प्रभाव यह पड़ा कि इससे शस्त्रीकरण को बढ़ावा मिला। दोनों गुट एक-दूसरे पर अधिक-से-अधिक प्रभाव जमाने के लिए खतरनाक शस्त्रों का संग्रह करने लगे थे।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

प्रश्न 3.
शीत युद्ध को बढ़ावा देने में सोवियत संघ किस प्रकार ज़िम्मेदार था ? कोई दो कारण बताएं।
उत्तर:
शीत युद्ध को बढ़ावा देने में सोवियत संघ निम्नलिखित कारणों से ज़िम्मेदार था

1. विचारधारा सम्बन्धित कारण (Ideological Reason):
पश्चिमी विचारधारा के अनुसार साम्यवाद के सिद्धान्त तथा व्यवहार में इसके जन्म से ही शीत युद्ध के कीटाणु भरे हुए थे। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर रूस द्वितीय विजेता के रूप में प्रकट हुआ था तथा यह द्वितीय महान् शक्ति था। अमेरिका तथा रूस वास्तव में दो ऐसी नधित्व करते हैं जिनमें कभी तालमेल नहीं हो सकता तथा जो पर्णतया एक-दसरे की विरोधी पद्धतियां हैं।

2. रूस की विस्तारवादी नीति (Extentionist Policy of Russia):
शीत युद्ध के लिए एक अन्य कारण के लिए भी पश्चिमी राज्य रूस को उत्तरदायी ठहराते हैं। उनका कहना है कि युद्ध के बाद भी रूस ने अपनी विस्तारवादी नीति को जारी रखा। इस प्रकार अमेरिका के मन में उसकी विस्तारवादी नीति के बारे में सन्देह होता चला गया, जिसको रोकने के लिए उसने भी कुछ कदम उठाए जिन्होंने शीत युद्ध को बढ़ावा दिया।

प्रश्न 4.
शीत युद्ध को बढ़ावा देने में अमेरिका किस प्रकार ज़िम्मेदार था ?
उत्तर:
शीत यद्ध को बढावा देने में अमेरिका निम्नलिखित कारणों से जिम्मेदार था

1. अमेरिका की विस्तारवादी नीति (Extentionist Policy of America):
साम्यवादी लेखकों के अनुसार शीत युद्ध का प्रमुख कारण अमेरिका की संसार पर प्रभुत्व जमाने की साम्राज्यवादी आकांक्षा में निहित है।

2. एटम बम्ब का रहस्य गुप्त रखना (Secret of Atom Bomb):
अमेरिका ने युद्ध की समाप्ति पर एटम बम्ब का आविष्कार कर लिया था।

3. पश्चिमी द्वारा रूस विरोधी प्रचार अभियान (Anti-Russian Propaganda by West):
युद्ध काल में ही पश्चिमी देशों की प्रैस रूस विरोधी प्रचार करने लगी थीं। बाद में तो पश्चिमी राज्यों ने खुले आम रूस की आलोचना करनी आरम्भ कर दी। जिस रूस ने जर्मनी की पराजय को सरल बनाया उसके विरुद्ध मित्र राष्ट्रों को यह प्रचार उसको क्षुब्ध करने के लिए पर्याप्त था।

4. अमेरिका का जापान पर अधिकार जमाने का कार्यक्रम (American Programme of Occupation of Japan):
पहले यह निर्णय किया था कि कोरिया तथा मन्चूरिया में जापानी सेनाओं का आत्मसमर्पण रूस स्वीकार करेगा। पर तब यह पता नहीं था कि जापान इतना शीघ्र आत्म-समर्पण कर देगा। इसके लिए बाद में रूस की सहायता की आवश्यकता न पड़ी।

अणु बम्ब के आविष्कार तथा प्रयोग ने जापान को शीघ्र आत्म-समर्पण करने पर बाध्य कर दिया। अमेरिका ने जापान के लिए एक कमीशन बनाने का सुझाव दिया। इस बात से रूस को शक हो गया कि अमेरिका जापान पर अपना अधिकार जमाये रखना चाहता है। इस कारणों से दोनों में तनाव पैदा हो गया।

प्रश्न 5.
शीत युद्ध के कोई चार लक्षण लिखिए।
उत्तर:
(1) शीत युद्ध एक ऐसी स्थिति भी है जिसे मूलतः ‘गर्म शान्ति’ कहा जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में न तो पूर्ण रूप से शान्ति रहती है और न ही ‘वास्तविक युद्ध’ होता है, बल्कि शान्ति एवं युद्ध के मध्य की अस्थिर स्थिति बनी रहती है।

(2) शीत युद्ध, युद्ध का त्याग नहीं, अपितु केवल दो महाशक्तियों के प्रत्यक्ष टकराव की अनुपस्थिति माना जाएगा।

(3) यद्यपि इसमें प्रत्यक्ष युद्ध नहीं होता है, किन्तु यह स्थिति युद्ध की प्रथम सीढ़ी है। जिसमें युद्ध के वातावरण का निर्माण होता रहता है।
(4) शीत युद्ध एक वाक्युद्ध था जिसके अन्तर्गत दो पक्ष एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहते थे जिसके कारण छोटे-बड़े सभी राष्ट्र आशंकित रहते हैं।

प्रश्न 6.
नये शीत युद्ध का विश्व राजनीति पर प्रभाव लिखें।
उत्तर:
नए शीत युद्ध का विश्व राजनीति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। पुराने शीत युद्ध के समय यूरोप की औपनिवेशिक शक्तियां भूतपूर्व उपनिवेशों में अपना कार्य कर रही थीं पर अब उनका स्थान अमेरिका ने ले लिया है। वह इन देशों के प्रतिक्रियावादी शासनों का पक्ष लेता है। उसकी इस बात ने इन देशों के मार्क्सवादी नेताओं रूस की तरफ अधिक-से-अधिक झुकने के लिए प्रोत्साहित किया।

इस प्रकार इन देशों के प्रति अमेरिका का दृष्टिकोण विकासशील राज्यों में मार्क्सवाद के फैलने का कारण बना। दूसरे नए शीत युद्ध में असंलग्न आन्दोलन को एक नई गति प्रदान की है तथा अधिक-से-अधिक राज्यों की इसमें सम्मिलित होने की सम्भावना है। यद्यपि तीसरे विश्व के कुछ राज्यों ने दोनों महाशक्तियों को उनकी सेनाएं या शस्त्र अपनी भूमि पर रखने की सुविधाएं दी हैं पर फिर वे अपनी स्वायत्तता को बनाए रखने के इच्छुक हैं।

इस प्रकार अधिक-से-अधिक राज्यों में असंलग्न आन्दोलन में शामिल होने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। इसी प्रकार नए शीत युद्ध के कारण जिसके अन्तर्गत उच्चकोटि की शस्त्र तकनीक होड़ सम्बन्धित है। दोनों महाशक्तियों प्रत्यक्ष झगड़े की अपेक्षा विकासशील राज्यों में अप्रत्यक्ष टकराव में लगी रही हैं।

प्रश्न 7.
देतान्त से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में देतान्त शब्द का प्रयोग प्रायः किया जाता है। यह शब्द वास्तव में फ्रांसीसी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है शिथिलता। देतान्त के आज के अर्थ में सहयोग तथा प्रतियोगिता दोनों ही बातें आती हैं। इसका अर्थ अमेरिका एवं सोवियत संघ दोनों राज्यों में तनाव शैथिल्य से है अर्थात् दोनों राज्यों में जो पहले शीत युद्ध में लगे हुए थे तनाव में शिथिलता आई तथा वे प्रतियोगी रहते हुए भी एक-दूसरे से सहयोग कर सकते हैं।

इस प्रकार यह दोनों के सम्बन्धों के सामान्यीकरण की विधि है। आपस में हानिकारक तनावयुक्त सम्बन्धों के स्थान पर मित्रतापूर्ण सहयोग की स्थापना से है। इस प्रकार 1970 के आस-पास अमेरिकन राष्ट्रपति निकसन तथा रूस के प्रधानमन्त्री खुश्चेव के प्रयत्नों से रूस तथा अमेरिका के आपसी तनाव में जो कमी आई तथा सम्बन्धों में जो कुछ समन्वय या सहयोग की भावना उत्पन्न हुई उसी के लिए शब्द देतान्त का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 8.
देतान्त के उदय के क्या कारण थे ?
उत्तर:
देतान्त के उदय के निम्नलिखित कारण थे
(1) रूस तथा अमेरिका के बीच शस्त्रों की होड़ बढ़ती जा रही थी जिनसे नए-नए अधिक-से-अधिक घातक अणु शस्त्रों का निर्माण हो रहा था। संघर्ष की नीति पर चलने का परिणाम केवल आण्विक युद्ध के रूप में निकल सकता था। इसलिए उनको एहसास हुआ कि इन दोनों के बीच तनाव तथा संघर्ष की अपेक्षा सहयोग की आवश्यकता है। इस प्रकार अणु युद्ध के भय ने दोनों को निकट आने पर बाध्य कर दिया।

(2) अणु युद्ध की सम्भावना को कई अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं ने जैसे कोरिया का युद्ध तथा विशेषकर क्यूबा के संकट ने सिद्ध कर दिया था। अत: इन घटनाओं का भी दोनों राज्यों पर प्रभाव पड़ा तथा उन्हें आपसी तनाव को कम करने की आवश्यकता का अनुभव होने लगा।

(3) इसी प्रकार देतान्त के लिए उत्तरदायी एक कारण चीन तथा रूस के बीच बढ़ने वाले मतभेद थे। प्रारम्भ में तो रूस तथा चीन मित्र थे तथा इसमें रूस की शक्ति काफ़ी बढ़ गई थी पर 1962 के रूस तथा चीन में विवाद हो गया। अब रूस के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह चीन के सामने अपनी स्थिति को सुदृढ रखने के लिए अमेरिका से अपने सम्बन्धों को सुधारे।

(4) कुछ विचारकों का यह भी मत है कि रूस ने अपनी आर्थिक आवश्यकताओं के कारण भी अमेरिका से मित्रता स्थापित करने का प्रयास किया।

प्रश्न 9.
पुराने शीत युद्ध और नये शीत युद्ध में अन्तर बताएं।
उत्तर:
पुराने शीत युद्ध और नये शीत युद्ध में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं

1. क्षेत्र की व्यापकता के आधार पर अन्तर-पुराने शीत और नये शीत युद्ध में प्रथम अन्तर यह है कि पुराने शीत युद्ध की अपेक्षा नये शीत युद्ध का क्षेत्र अधिक व्यापक है।

2. हथियारों के आधार पर अन्तर-पुराने शीत युद्ध की अपेक्षा नये शीत युद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियों के पास अधिक परिष्कृत एवं घातक हथियार थे, इसमें परमाणु, जैविक व रासायनिक हथियार शामिल हैं।

3. स्वरूप के आधार पर अन्तर-पुराने शीत युद्ध के दौरान जहां अमेरिकन गुट द्वारा साम्यवाद का विरोध किया गया, वहीं नये शीत युद्ध के दौरान अमेरिकन गुट द्वारा केवल सोवियत संघ का विरोध किया गया।

4. सोवियत संघ एवं अमेरिका की मजबूरी-पुराने शीत युद्ध एवं नये शीत युद्ध में एक अन्तर यह है कि जहां पुराने शीत युद्ध को जारी रखना सोवियत संघ की मजबूरी थी, वहीं नया शीत युद्ध अमेरिकन गुट की मजबूरी था।

प्रश्न 10.
गुट-निरपेक्षता का क्या अर्थ है ? इसके मुख्य उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
गुट-निरपेक्षता का अर्थ है कि किसी शक्ति गुट में शामिल न होना और शक्ति गुटों के सैनिक बन्धनों व अन्य बन्धनों व अन्य सन्धियों से दूर रहना। पण्डित नेहरू ने कहा था, “जहां तक सम्भव होगा हम उन शक्ति-गुटों से अलग रहना चाहते हैं जिनके कारण पहले भी महायुद्ध हुए हैं और भविष्य में भी हो सकते हैं।” गुट-निरपेक्षता का यह भी अर्थ है कि देश अपनी नीति का निर्माण स्वतन्त्रता से करेगा न कि किसी गुट के दबाव में आकर।

गुट-निरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में तटस्थता नहीं है बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के हल के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना है। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि गुट-निरपेक्षता का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति शीतयुद्ध का दौर उदासीनता नहीं है। स्वर्गीय प्रधानमन्त्री इन्दिरा गान्धी के अनुसार, “गुट-निरपेक्षता में न तो तटस्थता और न ही समस्याओं के प्रति उदासीनता है। इसमें सिद्धान्तों के आधार पर सक्रिय और स्वतन्त्र रूप में निर्णय करने की भावना निहित है।” भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति एक सकारात्मक नीति है, केवल नकारात्मक नहीं है।
गुट-निरपेक्षता के उद्देश्य-इसके लिए प्रश्न नं० 33 देखें।

प्रश्न 11.
क्या ‘गुट-निरपेक्षता’ का अभिप्राय तटस्थता है ? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गुट-निरपेक्षता का अर्थ है किसी शक्तिशाली राष्ट्र का पिछलग्गू न बनकर अपना स्वतन्त्र मार्ग अपनाना। गुटों से अलग रहने की नीति का तात्पर्य अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में ‘तटस्थता’ कदापि नहीं है। कई पाश्चात्य लेखकों ने गुट निरपेक्षता के लिए तटस्थता अथवा तटस्थतावाद शब्द का प्रयोग किया है उनमें मॉर्गेन्थो, पीस्टर लायन, हेमिल्टन, फिश आर्मस्ट्रांग तथा कर्नल लेवि आदि ने इस नीति के लिए तटस्थता शब्द का प्रयोग कर भ्रम पैदा कर दिया है। वास्तव में दोनों नीतियां शान्ति व युद्ध के समय संघर्ष में नहीं उलझतीं, परन्तु तटस्थता निष्क्रियता व उदासीनता की नीति है, जबकि गुट-निरपेक्षता सक्रियता की नीति है।

तटस्थ देश अन्तर्राष्ट्रीय विषयों या घटनाओं के सम्बन्ध में पूर्णतया निष्पक्ष रहते हैं और वे किसी अन्तर्राष्ट्रीय घटना या विषय के सम्बन्ध में अपने विचार अभिव्यक्त नहीं करते हैं। गुट-निरपेक्ष देश अन्तर्राष्ट्रीय विषयों के प्रति निष्पक्ष या उदासीन नहीं होते, अपितु वे इन विषयों में पूर्ण रुचि लेते हैं और प्रत्येक विषय के गुणों को सम्मुख रखते हुए उसके सम्बन्ध में निर्णय करने हेतु स्वतन्त्र होते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी अभिनीत करते हैं। अतः गुट-निरपेक्षता की नीति का अभिप्राय निष्पक्षता या उदासीनता की नीति नहीं है।

प्रश्न 12.
भारत की गुट-निरपेक्षता नीति की पांच प्रमुख विशेषताएं बताइए।
उत्तर:

  • भारत किसी गुट का सदस्य नहीं है। भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति स्वतन्त्र है।
  • भारत की गुट-निरपेक्ष विदेश नीति सभी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने पर बल देती है।
  • भारत की गुट-निरपेक्ष विदेश नीति साम्राज्यवाद के विरुद्ध है।
  • भारत की गुट-निरपेक्ष नीति रंग भेदभाव की नीति के विरुद्ध है।
  • भारत की गुट-निरपेक्ष नीति विकासशील देशों के आपसी सहयोग पर बल देती है।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

प्रश्न 13.
शीतयुद्ध में भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाने के कोई चार कारण बताओ।
अथवा
शीत युद्ध के समय भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाने के कोई चार कारण लिखिए।
उत्तर:
भारत के गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाने के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कारण हैं

1. आर्थिक पुनर्निर्माण-स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत के सामने सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न देश का आर्थिक पुनर्निर्माण था। अतः भारत के लिए किसी गुट का सदस्य न बनना ही उचित था ताकि सभी देशों से आर्थिक सहायता प्राप्त की जा सके।

2. स्वतन्त्र नीति-निर्धारण के लिए-भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति इसलिए भी अपनाई ताकि भारत स्वतन्त्र नीति का निर्धारण कर सके। भारत को स्वतन्त्रता हजारों देश प्रेमियों के बलिदान के बाद मिली थी। किसी एक गुट में सम्मिलित होने का अर्थ इस मूल्यवान् स्वतन्त्रता को खो बैठना था।

3. भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए गुट-निरपेक्षता की नीति का निर्माण किया गया। यदि भारत स्वतन्त्र विदेश नीति का अनुसरण करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं पर निष्पक्ष रूप से अपना निर्णय देता तो दोनों गुट उसके विचारों का आदर करेंगे और अन्तर्राष्ट्रीय तनाव में कमी होगी और भारत की प्रतिष्ठा बढ़ेगी।

4. दोनों गुटों से आर्थिक सहायता- भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति का अनुसरण इसलिए भी किया ताकि दोनों गुटों से सहायता प्राप्त की जा सके और हुआ भी ऐसा ही।

प्रश्न 14.
बांडुंग सम्मेलन (1955) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अप्रैल, 1955 में बांडंग स्थान में एशिया और अफ्रीकी राष्टों का एक सम्मेलन हआ जिसमें 29 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में उपस्थित सभी देशों ने पंचशील के सिद्धान्तों को स्वीकार करने के साथ साथ इनका विस्तार भी किया, अर्थात् पांच सिद्धान्तों के स्थान पर दस सिद्धान्तों की स्थापना की गई। इस सम्मेलन में एशियाई तथा अफ्रीकी देशों के आधुनिकीकरण पर जोर दिया गया तथा महान् शक्तियों का अनावश्यक अनुसरण न करने पर बल दिया गया। इस सम्मेलन में सभी राज्यों की पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्नता और राष्ट्रीय सीमाओं की रक्षा करने, किसी राज्य पर सैनिक आक्रमण न करने तथा किसी राज्य के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने पर बल दिया गया।

प्रश्न 15.
बेलग्रेड शिखर सम्मेलन पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष देशों का प्रथम शिखर सम्मेलन सितम्बर, 1961 में बेलग्रेड में हुआ। इस सम्मेलन में 25 एशियाई तथा अफ्रीकी व एक यूरोपीय राष्ट्र ने भाग लिया। लैटिन अमेरिका में तीन राष्ट्रों ने पर्यवेक्षकों के रूप में सम्मेलन में भाग लिया। सम्मेलन में महाशक्तियों से अपील की गई कि वे विश्व शान्ति तथा निःशस्त्रीकरण के लिए कार्य करें तथा परमाणु परीक्षण न करें।

विश्व के सभी भागों तथा रूपों में उप-निवेशवाद, साम्राज्यवाद, नव उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद की घोर निन्दा की गई। सम्मेलन में अंगोला, कांगो, अल्जीरिया तथा ट्यूनीशिया के स्वतन्त्रता संघर्षों का समर्थन किया गया। बेलग्रेड सम्मेलन में 20 सूत्रीय घोषणा-पत्र को स्वीकार किया गया। इस घोषणा-पत्र में कहा गया कि विकासशील राष्ट्र बिना किसी भय व बाँधा के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास को प्रेरित करें। बेलग्रेड सम्मेलन गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में बहुत महत्त्व रखता है।

प्रश्न 16.
नेहरू और गुट-निरपेक्ष आन्दोलन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
1947 में जब भारत स्वतन्त्र हुआ तब पूंजीवाद तथा साम्यवाद में वैचारिक विभाजन, नस्लवाद, पिछड़े देशों की स्वतन्त्र नीति निर्माण की इच्छा इत्यादि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक वातावरण के प्रमुख विषय थे। भारत की भी यह प्रबल इच्छा थी कि वह गुटीय राजनीति से दूर रहकर अपनी इच्छा से विदेश नीति का निर्माण करे। ऐसे में भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहर लाल नेहरू के व्यक्तित्व एवं विचारधारा ने प्रमुख भूमिका निभाई। पं० नेहरू ने भारतीय विदेश नीति को गुट-निरपेक्षता की नीति पर आधारित किया।

लेकिन यह गुट-निरपेक्षता नकारात्मक तथा तटस्थवादी नहीं थी बल्कि सकारात्मक थी। पं. नेहरू के शासनकाल में गुट-निरपेक्षता की नीति को पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। जहां तक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का प्रश्न है तो इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पं० नेहरू ने गुट-निरपेक्षता की नीति के आधार पर भारत को एक अलग पहचान दिलाई।

एशिया और अफ्रीका के नव-स्वतन्त्र देश गुट-निरपेक्षता की नीति के कारण ही पं० नेहरू और भारत सरकर को मानवता का प्रवक्ता मानते थे। नेहरू के कट्टर आलोचक भी इस बात को स्वीकार करते थे कि उनकी नीति भारत की अन्तर्राष्ट्रीय पहचान स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई है। नेहरू के जीवित रहते गुट-निरपेक्ष आन्दोलन कई ऊंचाइयों को छूने लगा था। हम आज भी इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की बुनियाद और उसका अस्तित्व नेहरू के ही परिपक्व नेतृत्व की देन है।

प्रश्न 17.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के किन्हीं दो संस्थापकों के नामों का उल्लेख कीजिए। पहला गुट-निरपेक्ष आन्दोलन शिखर सम्मेलन किन तीन कारकों की परिणति था ?
उत्तर:
गट-निरपेक्ष आन्दोलन के दो मुख्य संस्थापकों में, भारत के प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू एवं युगोस्लाविया के जोसेफ ब्राज़ टीटो शामिल हैं। पहला गुट-निरपेक्ष आन्दोलन शिखर सम्मेलन निम्नलिखित तीन कारकों की परिणति था

(1) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के पाँचों संस्थापक देशों (भारत, युगोस्लाविया, मिस्र, इंडोनेशिया तथा घाना) के बीच सहयोग की इच्छा।
(2) प्रथम गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की दूसरी परिणति शीत युद्ध का प्रसार और इसका बढ़ता हुआ दायरा था।
(3) 1960 के दशक में बहुत-से नव स्वतन्त्रता प्राप्त देशों का उदय हुआ, जिन्हें एक मंच की आवश्यकता थी और वो मंच गुट-निरपेक्ष आन्दोलन ने प्रदान किया।

प्रश्न 18.
क्यूबा प्रक्षेपास्त्र संकट पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
क्यूबा अमेरिका के तट से लगा एक छोटा-सा द्वीपीय देश है। क्यूबा साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित देश है। 1960 के दशक में जब शीत युद्ध पूरे जोरों पर था, तब सोवियत संघ को इस बात की आशंका थी कि अमेरिका क्यूबा पर आक्रमण करके उसे अपने साथ मिला लेगा। यद्यपि सोवियत संघ क्यूबा को हर तरह की सहायता देता था, परन्तु फिर भी इससे वह सन्तुष्ट नहीं था। अन्ततः 1962 में सोवियत संघ ने क्यूबा में सैनिक अड्डा स्थापित करके वहां पर परमाणु प्रक्षेपास्त्र स्थापित कर दिये। इन प्रक्षेपास्त्रों के कारण अमेरिका पहली बार किसी देश के परमाणु हमले के निशाने पर आ गया।

इससे अमेरिका में हलचल मच गई। अमेरिकन राष्ट्रपति कनेडी ने अमेरिकी लड़ाकू बेड़ों को सोवियत लडाक बेडों को रोकने का आदेश दिया। इससे दोनों देशों के बीच युद्ध की सम्भावना पैदा हो गई। इसे ही क्यूबा प्रक्षेपास्त्र संकट कहा जाता है। युद्ध में अत्यधिक विनाश को देखते हुए दोनों देशों ने युद्ध न करने का निर्णय किया तथा सोवियत संघ ने भी अपने जहाजों की गति या तो धीमी कर ली या वापस हो लिए।

प्रश्न 19.
शीत युद्ध के समय कोई भयंकर एवं विनाशकारी युद्ध नहीं हुआ, कोई चार कारण बताएं।
उत्तर:

  • परमाणु युद्ध से होने वाली हानि को सहने में दोनों पक्ष सक्षम नहीं थे।
  • दोनों पक्ष एक-दूसरे की शक्ति एवं पराक्रम से डरे हुए तथा आशंकित थे।
  • युद्ध होने की स्थिति में इतना अधिक विनाश होता कि उसे किसी भी आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता था।
  • परमाणु युद्ध की स्थिति में इतना अधिक विनाश होता कि विजेता का निर्णय करना मुश्किल हो जाता।

प्रश्न 20.
शीत युद्ध की कोई चार सैनिक विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:

  • शीत युद्ध में दो शक्तिशाली गुट शामिल थे।
  • दोनों गुटों के पास परमाणु हथियार थे।
  • दोनों गुटों ने सैनिक गठबन्धन किये हुए थे।
  • शीत युद्ध के दौरान दोनों गुटों एवं उनके सहयोगियों से यह आशा की जाती थी कि वे तर्क पूर्ण एवं उत्तरदायित्व वाला व्यवहार करेंगे।

प्रश्न 21.
नाटो संगठन के किन्हीं चार उद्देश्यों का वर्णन करें।
उत्तर:

  • नाटो संगठन के सदस्य देश शान्ति के समय एक-दूसरे को आर्थिक सहयोग देंगे।
  • एक देश पर आक्रमण सभी देशों पर आक्रमण समझा जाएगा तथा सभी देश उसका मिलकर मुकाबला करेंगे।
  • नाटो के सदस्य देशों के परस्पर आपसी विवाद को बातचीत द्वारा हल किया जाएगा।
  • प्रत्येक देश अपनी सैनिक शक्ति को संगठित करेगा।

प्रश्न 22.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन से भारत को प्राप्त होने वाले कोई चार लाभ बताएं ।
उत्तर:

  • गुट-निरपेक्ष नीति अपनाने के कारण भारत वैश्विक मामलों में स्वतन्त्र भूमिका निभा सका है।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन से भारत को विभिन्न देशों से आर्थिक सहयोग बढ़ाने में मदद मिली है।
  • गुट-निरपेक्ष नीति अपनाने के कारण भारत दोनों गुटों से आर्थिक लाभ प्राप्त करने में सफल रहा है।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के कारण भारत को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है।

प्रश्न 23.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की कोई चार सीमाएं लिखें।
उत्तर:

  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन देश राजनीतिक तथा आर्थिक विकसित देशों को कोई कठोर चुनौती नहीं दे पाए हैं।
  • गुट निरपेक्ष आन्दोलन को भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों ने नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया है।
  • गुट निरपेक्ष आन्दोलन ईरान-इराक युद्ध को नहीं रोक पाया।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन इराक द्वारा कुवैत पर किये गए आक्रमण को नहीं रोक पाया।

प्रश्न 24.
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वैश्विक प्रणाली के सुधार के लिए दिए किन्हीं चार प्रस्तावों का वर्णन करें।
उत्तर:

  • विकासशील देशों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियन्त्रण होगा।
  • विकासशील देश भी अप:’ माल पश्चिमी देशों में बेच सकते हैं।
  • विकासशील देशों को कम लागत पर पश्चिमी देशों से प्रौद्योगिकी प्राप्त होगी।
  • अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संगठनों में विकासशील देशों की भूमिका को बढ़ाया जाएगा।

प्रश्न 25.
उपनिवेशवाद के अर्थ की व्याख्या करें।
उत्तर:
उपनिवेशवाद का अर्थ है कि एक शक्तिशाली देश द्वारा कमज़ोर देश को अपने प्रभाव क्षेत्र में लेकर उनका आर्थिक शोषण करना। जैसा कि ब्रिटिश साम्राज्य भारत के विरुद्ध करता था। जे० ए० हाब्सन के अनुसार, “उपनिवेशवाद, राष्ट्रीयता का प्राकृतिक बहाव है, इस परीक्षण, प्रतिनिधि संस्कृति को नए प्राकृतिक तथा सामाजिक वातावरण में, जिनमें वे अपने आप को पाते हैं, प्रतिरोपित करने की औपनिवेशिक शक्ति से किया जा सकता है।”

प्रश्न 26.
शीत युद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियों को छोटे सहयोगियों की आवश्यकता क्यों थी ? कोई चार तर्क दें।
अथवा
महाशक्तियों को शीत युद्ध के युग में मित्र राष्ट्रों की आवश्यकता क्यों थी ?
उत्तर:

  • महाशक्तियां छोटे देशों के साथ सैन्य गठबन्धन इसलिए करती थीं, ताकि उन देशों से वे अपने हथियार एवं सेना का संचालन कर सकें।
  • महाशक्तियां छोटे देशों में सैनिक ठिकाने बनाकर दुश्मन देश की जासूसी करते थे।
  • छोटे देश सैन्य गठबन्धन के अन्तर्गत आने वाले सैनिकों को अपने खर्चे पर अपने देश में रखते थे, जिससे महाशक्तियों पर आर्थिक दबाव कम पड़ता था।
  • महाशक्तियां छोटे देशों पर आसानी से अपनी इच्छा थोप सकती थीं।

प्रश्न 27.
गुट-निरपेक्ष देशों में शामिल अधिकांश को”अल्प विकसित देशों” का दर्जा क्यों दिया गया ?
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष देशों में शामिल अधिकांश को अल्प विकसित देश इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इनका पूर्ण रूप से विकास नहीं हो पाया था। द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के बाद यूरोपीय, उपनिवेशवादी प्रणाली के विघटन के साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर कई ऐसे घटक उपस्थित हुए, जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की प्रकृति और रंग-रूप को बदल दिया। इन घटकों में एशिया, अफ्रीका तथा लेटिन अमेरिका में नए राज्यों के उदय ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन कर दिया। परन्तु अधिकांश देश आर्थिक रूप से जर्जर स्थिति में थे। इसलिए इन्हें अल्प विकसित देश कहा जाता है।

प्रश्न 28.
ऐसी किन्हीं चार वास्तविकताओं का उल्लेख कीजिए जिसने विश्व राजनीति में शीत युद्ध के पश्चात् बदलाव लाया।
उत्तर:
शीत युद्ध के पश्चात् निम्नलिखित कारणों से विश्व राजनीति में बदलाव आए–

  • शीत युद्ध की समाप्ति के साथ ही दोनों गुटों में चलने वाला वैचारिक संघर्ष भी समाप्त हो गया और यह विवाद भी समाप्त हो गया कि क्या समाजवादी व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था को परास्त कर सकेगी।
  • शीत युद्ध के पश्चात् विश्व में शक्ति सम्बन्ध बदल गए तथा विचारों एवं संस्थाओं के सापेक्षिक प्रभाव भी बदल गए।
  • शीत युद्ध के पश्चात् उदारीकरण एवं निजीकरण ने विश्व राजनीति को बहुत अधिक प्रभावित किया है।
  • शीत युद्ध के पश्चात् उदारवादी लोकतान्त्रिक राज्यों का उदय हुआ, जो राजनीतिक जीवन के लिए सर्वोत्तम प्रणाली है।

प्रश्न 29.
गुट-निरपेक्षता का अर्थ न तो अन्तर्राष्ट्रीय मामलों से अलग-अलग रहना था और न ही तटस्थता था। व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
गुट-निरपेक्षता की धारणा स्वयं को न तो अन्तर्राष्ट्रीय विषयों से अलग ही रखती है और न ही वह तटस्थ रहती है अर्थात् गुट-निरपेक्षता. की धारणा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होती प्रत्येक महत्त्वपूर्ण घटना में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाती है। गुट-निरपेक्षता की अवधारणा तटस्थता की अवधारणा से बिलकुल भिन्न है।

तटस्थता का अर्थ किसी भी मुद्दे पर उसके गुण-दोषों के भिन्न उसमें भाग न लेना है। तटस्थता का अर्थ है, पहले से ही किसी मुद्दे पर उसके गुण-दोषों को दृष्टि में रखे बिना अपना दृष्टिकोण तथा पक्ष बनाए रखना। इसके विपरीत गुट-निरपेक्षता का अर्थ शीतयुद्ध का दौर है अपना दृष्टिकोण पहले से ही घोषित न करना।

कोई भी गुट-निरपेक्ष देश किसी भी मुद्दे के पैदा होने पर उसे अपने दृष्टिकोण से देखकर निर्णय करता था, न कि किसी बड़ी शक्ति के दृष्टिकोण से देखकर। तटस्थता की धारणा केवल युद्ध के समय संगत है और तटस्थता का अर्थ है अपने आपको युद्ध से अलग करना। परन्तु गुट-निरपेक्षता की धारणा युद्ध एवं शान्ति दोनों में प्रासंगिक है।

प्रश्न 30.
शीत युद्ध के चार कारण लिखें।
अथवा
शीत युद्ध के कोई चार प्रमुख कारण लिखिये।।
उत्तर:
1. विचारधारा सम्बन्धित कारण-पश्चिमी विचारधारा के अनुसार साम्यवाद के सिद्धान्त तथा व्यवहार में इसके जन्म से ही शीत युद्ध के कीटाणु भरे हुए थे। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर रूस द्वितीय विजेता के रूप में प्रकट हुआ था तथा यह द्वितीय महान् शक्ति था। अमेरिका तथा रूस वास्तव में दो ऐसी पद्धतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें कभी तालमेल नहीं हो सकता तथा जो पूर्णतया एक-दूसरे की विरोधी पद्धतियां हैं।

2. रूस की विस्तारवादी नीति-शीत युद्ध के लिए एक अन्य कारण के लिए भी पश्चिमी राज्य रूस को उत्तरदायी ठहराते हैं। उनका कहना है कि युद्ध के बाद भी रूस ने अपनी विस्तारवादी नीति को जारी रखा। इस प्रकार अमेरिका के मन में उसकी विस्तारवादी नीति के बारे में सन्देह होता चला गया, जिसको रोकने के लिए उसने भी कुछ कदम उठाए जिन्होंने शीत युद्ध को बढ़ावा दिया।

3. अमेरिका की विस्तारवादी नीति-साम्यवादी लेखकों के अनुसार शीत युद्ध का प्रमुख कारण अमेरिका की संसार पर प्रभुत्व जमाने की साम्राज्यवादी आकांक्षा में निहित था।

4. एटम बम का रहस्य गुप्त रखना-अमेरिका द्वारा सोवियत संघ से एटम बम का रहस्य गुप्त रखना भी शीत युद्ध का एक कारण है।

प्रश्न 31.
विकासशील देशों की मुख्य मांगें क्या हैं ? कोई चार बताएं।
अथवा
विकासशील देशों की किन्हीं चार मुख्य मांगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

  • विकासशील देशों की प्रथम मांग नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को लागू करना है, ताकि विकसित एवं विकासशील देशों में समानता आ सके।
  • विकासशील देश सदैव इस बात की मांग करते रहे हैं कि विकसित देश उनके आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए धन प्रदान करें, क्योंकि विकसित देशों ने विकासशील देशों का शोषण करके ही धन कमाया है।
  • विकासशील देश संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने लिए और अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका की मांग कर रहे हैं।
  • विकासशील देशों पर वित्तीय ऋणों के भार को कम करना।

प्रश्न 32.
कठोर द्वि-ध्रुवीयता से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
कठोर द्वि-ध्रुवीयता से अभिप्राय शीत युद्ध के 1945 से 1955 के समय काल से लिया जाता है जब दोनों गुटों ने अपने-अपने सदस्य राज्यों को पूर्ण रूप से नियन्त्रित कर रखा था। इस समय काल में दोनों गुटों में शामिल कोई भी सदस्य राज्य अपनी आन्तरिक एवं विदेश नीति बनाने में पूर्ण रूप से स्वतन्त्र नहीं था, बल्कि उसे अपने गुट के नेता के अनुसार ही नीतियां बनानी पड़ती थीं। इसीलिए सदस्य राज्यों की नीतियां पूर्ण रूप से वाशिंगटन एवं मास्को के आस-पास ही घूमती थीं।

प्रश्न 33.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के किन्हीं चार उद्देश्यों का वर्णन करो।
उत्तर:

  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य सदस्य देशों को शक्ति गुटों से अलग रखना है।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का उद्देश्य विकासशील देशों के सम्मान एवं प्रतिष्ठा को बढ़ाना है।
  • सदस्य देशों में सामाजिक एवं आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना।
  • उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद को समाप्त करना इसका एक मुख्य उद्देश्य रखा गया है।

प्रश्न 34.
क्या शीत युद्ध की समाप्ति के बाद गुट-निरपेक्ष आन्दोलन प्रासंगिक रह गया है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् गुट-निरपेक्ष आन्दोलन निम्नलिखित कारणों से प्रासंगिक है

  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन विकासशील देशों के सम्मान एवं प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
  • निशस्त्रीकरण, विश्व शांति एवं मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।
  • यह आन्दोलन नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था की स्थापना के लिए आवश्यक है।
  • विकसित एवं विकासशील देशों में सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए प्रासंगिक है।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शीत युद्ध का अर्थ स्पष्ट करें।
अथवा
“शीत युद्ध” से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
शीत युद्ध से अभिप्राय दो राज्यों अमेरिका तथा रूस अथवा दो गुटों के बीच व्याप्त उन कटु सम्बन्धों के इतिहास से है, जो तनाव, भय तथा ईर्ष्या पर आधारित है। इसके अन्तर्गत दोनों गुट एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए तथा अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के लिए प्रादेशिक संगठनों के निर्माण, सैनिक गठबन्धन, जासूसी, आर्थिक सहायता, प्रचार, सैनिक हस्तक्षेप तथा अधिकाधिक शस्त्रीकरण जैसी बातों का सहारा लेते हैं।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

प्रश्न 2.
शीत युद्ध की कोई दो परिभाषाएं दें।
उत्तर:
1. पं० नेहरू के अनुसार, “शीत युद्ध पुरातन सन्तुलन की अवधारणा का नया रूप है। यह दो विचारधाराओं का संघर्ष न होकर, दो भीमाकार शक्तियों का आपसी संघर्ष है।”
2. जान फास्टरं डलेस के अनुसार, “शीत युद्ध नैतिक दृष्टि से धर्म युद्ध था अच्छाई का बुराई के विरुद्ध, सही का ग़लत के विरुद्ध एवं धर्म का नास्तिकों के विरुद्ध संघर्ष था।”

प्रश्न 3.
शीत युद्ध के कोई दो कारण बताएं।
उत्तर:

  • पश्चिमी विचारधारा के अनुसार, साम्यवाद के सिद्धान्त तथा व्यवहार में इसके जन्म से ही शीत युद्ध के कीटाणु भरे हुए थे।
  • साम्यवादी लेखकों के अनुसार शीत युद्ध का प्रमुख कारण अमेरिका की संसार पर प्रभाव जमाने की महत्त्वाकांक्षा में निहित है।

प्रश्न 4.
गुट-निरपेक्षता के कोई दो उद्देश्य लिखें।
उत्तर:

  • गट-निरपेक्षता आन्दोलन का मख्य उद्देश्य सदस्य देशों को शक्ति गटों से अलग रखना था।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का उद्देश्य विकासशील देशों के सम्मान एवं प्रतिष्ठा को बढ़ाना था।

प्रश्न 5.
देतान्त से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
देतान्त (Detente) एक फ्रांसीसी शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है, शिथिलता अथवा तनाव शैथिल्य। जिन राज्यों में पहले तनावयुक्त स्पर्धा, ईर्ष्या तथा विरोध के सम्बन्ध रहे हों, उनमें इस प्रकार के सम्बन्धों के स्थान पर मित्रतापूर्वक सम्बन्धों का स्थापित हो जाना। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में देतान्त शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो महान् शक्तियों अर्थात् रूस तथा अमेरिका के सन्दर्भ में किया जाता है।

प्रश्न 6.
किसी एक परमाणु युद्ध की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
विश्व में अब तक केवल एक बार परमाणु बमों का प्रयोग किया गया था। अगस्त, 1945 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने दूसरे विश्व युद्ध के समय जापान के दो शहरों हिरोशिमा एवं नागासाकी पर परमाणु बम गिराये थे। इन बमों से इन दोनों शहरों को अत्यधिक हानि हुई। सैंकड़ों लोग मारे गए एवं लाखों लोग घायल एवं अपाहिज हो गए। इस परमाणु युद्ध का प्रभाव जापान के दोनों शहरों तथा लोगों पर आज भी देखा जा सकता है। इस घटना के तुरन्त बाद जापान ने अपनी हार स्वीकार कर ली और द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया।

प्रश्न 7.
द्वितीय महायुद्ध में मित्र राष्ट्रों के समूह में शामिल किन्हीं चार देशों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • इंग्लैंड,
  • फ्रांस,
  • रूस,
  • संयुक्त राज्य अमेरिका।

प्रश्न 8.
सोवियत संघ तथा अमेरिका के द्वारा परस्पर विरोधी दुष्प्रचार ने किस प्रकार शीत युद्ध को बढ़ावा दिया ?
उत्तर:
सोवियत संघ तथा अमेरिका के द्वारा परस्पर विरोधी दुष्प्रचार ने शीत युद्ध को बहुत अधिक बढ़ावा दिया। सभी समाचार-पत्रों प्रावदा तथा इजवेस्तिया इत्यादि ने अमेरिका विरोधी प्रचार अभियान शुरू किया। इसमें आलोचनात्मक लेख प्रकाशित किये गए। इसी तरह पश्चिमी देशों ने भी सोवियत संघ की आलोचना करते हुए सोवियत संघ को ‘गुण्डों का नीच गिरोह’ तक कहा। अमेरिकी समाचार-पत्रों ने आगे लिखा कि साम्यवाद के प्रसार से इसाई सभ्यता को डूबने का खतरा है। इस प्रकार के लेखों ने शीत युद्ध को और अधिक बढ़ावा दिया।

प्रश्न 9.
अपरोध का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
परमाणु युद्ध होने की स्थिति में विजेता का निर्णय करना असम्भव हो जाता है। यदि एक गुट दूसरे गुट पर आक्रमण करके उसके परमाणु हथियारों को नष्ट करने का प्रयास करता है, तब भी विरोधी गुट के पास इतने परमाणु हथियार बचे रहते हैं, जिससे वह विरोधी देश पर आक्रमण करके उसे तहस-नहस कर सकता है। इस प्रकार की स्थिति को अपरोध की स्थिति कहते हैं।

प्रश्न 10.
गुट-निरपेक्षता का अर्थ बताएं।
अथवा
गुट-निरपेक्षता का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
गुट-निरपेक्षता का अर्थ है, किसी शक्ति गुट में शामिल न होना और शक्ति गुटों से सैनिक बन्धनों व अन्य सन्धियों से दूर रहना। गुट-निरपेक्षता का अर्थ तटस्थता नहीं है, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के हल के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना है। गुट-निरपेक्षता का अर्थ बराबर दूरी भी नहीं है, क्योंकि गुट-निरपेक्ष देश अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में उस देश या गुट का पक्ष लेते हैं, जो सही हो।।

प्रश्न 11.
बांडुंग सम्मेलन (1955) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अप्रैल, 1955 में बांडंग स्थान में एशिया और अफ्रीकी राष्टों का एक सम्मेलन हआ जिसमें 29 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में उपस्थित सभी देशों ने पंचशील के सिद्धान्तों को स्वीकार करने के साथ साथ इनका विस्तार भी किया, अर्थात् पांच सिद्धान्तों के स्थान पर दस सिद्धान्तों की स्थापना की गई।

इस सम्मेलन में एशियाई तथा अफ्रीकी देशों के आधुनिकीकरण पर जोर दिया गया तथा महान् शक्तियों का अनावश्यक अनुसरण न करने पर बल दिया गया। इस सम्मेलन में सभी राज्यों की पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्नता और राष्ट्रीय सीमाओं की रक्षा करने, किसी राज्य पर सैनिक आक्रमण न करने तथा किसी राज्य के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने पर बल दिया गया।

प्रश्न 12.
बेलग्रेड शिखर सम्मेलन पर एक संक्षिप्त नोट लिखो।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष देशों का प्रथम शिखर सम्मेलन सितम्बर, 1961 में बेलग्रेड में हुआ। इस सम्मेलन में 25 एशियाई तथा अफ्रीकी व एक यूरोपियन राष्ट्र ने भाग लिया। लैटिन अमेरिका के तीन राष्ट्रों ने पर्यवेक्षकों के रूप में सम्मेलन में भाग लिया। सम्मेलन में महाशक्तियों से अपील की गई कि वे विश्व शान्ति तथा निशस्त्रीकरण के लिए कार्य करें।

विश्व के सभी भागों एवं रूपों में उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, नव-उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद की घोर निन्दा की गई। बेलग्रेड सम्मेलन में 20 सूत्रीय घोषणा-पत्र को स्वीकार किया गया। इस घोषणा में कहा गया कि विकासशील राष्ट्र बिना किसी भय व बाधा के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास को प्रेरित करें।

प्रश्न 13.
नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (NIEO) का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से अभिप्राय है विकासशील देशों को खाद्य सामग्री उपलब्ध कराना, साधनों को विकसित देशों से विकासशील देशों में भेजना, वस्तुओं सम्बन्धी समझौते करना तथा पुरानी परम्परावादी उपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के स्थान पर निर्धन तथा वंचित देशों के साथ न्याय करना। नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के अन्तर्गत, विकसित राष्ट्रों के लिए एक आचार-संहिता बना कर तथा कम विकसित राष्ट्रों के उचित अधिकारों को मानकर अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को सबके लिए समान तथा न्यायपूर्ण बनाना है।

प्रश्न 14.
उत्तरी एटलांटिक सन्धि संगठन (नाटो) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
उत्तरी एटलांटिक सन्धि संगठन (नाटो) विश्व का एक महत्त्वपर्ण सैनिक संगठन है जिसका निर्माण 1949 युद्ध के दौरान किया गया था। नाटो में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, कनाडा तथा पश्चिमी जर्मनी जैसे देश शामिल हैं। इस संगठन की स्थापना का मुख्य उद्देश्य पश्चिमी यूरोप में सोवियत संघ के विस्तार को रोकना था।

प्रश्न 15.
वारसा पैक्ट से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
वारसा पैक्ट शीत युद्ध के दौरान नाटो के उत्तर में साम्यवादी देशों द्वारा मई, 1955 में बनाया गया क्षेत्रीय सैनिक गठबन्धन था। इस संगठन में सोवियत संघ, पोलैण्ड, पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, बुल्गारिया तथा रूमानिया जैसे साम्यवादी देश शामिल थे। सोवियत संघ इस संगठन का सर्वेसर्वा था। परन्तु शीत युद्ध की समाप्ति के साथ ही फरवरी, 1991 में वारसा पैक्ट भी समाप्त हो गया।

प्रश्न 16.
केन्द्रीय सन्धि संगठन (सैन्टो) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
केन्द्रीय सन्धि संगठन आरम्भ में बगदाद समझौते (1955) के रूप में सामने आया जोकि तुर्की और इराक के बीच हुआ था। परन्तु 1959 में इराक इस सन्धि से अलग हो गया जिसके कारण इसका नाम बदलकर सैन्टो कर दिया गया। सैन्टो में ईरान, पाकिस्तान, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका थे। इस सन्धि का निर्माण मुख्य रूप से सोवियत संघ के विरुद्ध ही किया गया था। परन्तु 1979 में यह संगठन समाप्त हो गया।

प्रश्न 17.
दक्षिण-पूर्वी एशिया सन्धि संगठन (सीटो) का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
दक्षिण-पूर्वी एशिया सन्धि संगठन (सीटो) की स्थापना 1954 में की गई। इस संगठन में ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, ब्रिटेन, न्यूज़ीलैण्ड, पाकिस्तान, फिलीपाइन्स, थाइलैण्ड तथा अमेरिका शामिल थे। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य दक्षिण-पूर्वी एशिया में साम्यवादी प्रसार को रोकना था। परन्तु 1977 में यह संगठन समाप्त हो गया।

प्रश्न 18.
शीत युद्ध के उदाहरण सहित दो अखाड़ों का वर्णन करें।
उत्तर:

  • अफ़गानिस्तान-शीत युद्ध का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अखाड़ा अफगानिस्तान रहा है।
  • संयुक्त राष्ट्र-शीत युद्ध का दूसरा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अखाड़ा संयुक्त राष्ट्र रहा है।

प्रश्न 19.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन को शुरू करने वाले तीन मुख्य देशों और उनके नेताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का जन्म शीत युद्ध के दौरान हुआ। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य भी स्वयं को शीत युद्ध से दूर रखना था। भारत गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का संस्थापक देश है। भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं० नेहरू, युगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो और मिस्त्र के तत्कालिक राष्ट्रपति जमाल नासिर गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के संस्थापक हैं।

प्रश्न 20.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के कोई चार महत्त्व लिखें।
उत्तर:

  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन ने सदस्य देशों में सामाजिक एवं आर्थिक सहयोग को बढावा दिया है।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन ने विकासशील देशों के सम्मान एवं प्रतिष्ठा को बढ़ाया है।।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन ने उपनिवेशवाद को समाप्त करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन ने सदस्य देशों को शीत युद्ध से दूर रखा।

प्रश्न 21.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में भारत की भूमिका की व्याख्या करें।
उत्तर:

  • भारत गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का संस्थापक देश है।
  • भारत ने गुट-निरपेक्ष देशों को आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट होने का आह्वान किया है।
  • भारत की पहल पर अफ्रीका कोष कायम किया गया।
  • भारत ने गुट-निरपेक्ष देशों का ध्यान निःशस्त्रीकरण की तरफ खींचा।

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प्रश्न 22.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन को आरम्भिक दौर में एक दिशा एवं आकार प्रदान करने में भारत की भूमिका की व्याख्या करें।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन को प्रारम्भिक दौर में एक दिशा एवं आकार प्रदान करने में भारत की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही है। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के उदय के समय इसकी संख्या केवल 25 थी, परन्तु भारत के प्रयासों से अब इसकी संख्या 120 हो गई है। इसी प्रकार 1955 में बांडुंग सम्मेलन तथा 1961 में हुए बेलग्रेड सम्मेलन में इस आन्दोलन के मुख्य सिद्धान्तों एवं उद्देश्यों को निर्धारित करने में भारत ने सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 23.
उपनिवेशीकरण की समाप्ति एवं गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के विस्तार के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन एवं उपनिवेशीकरण की समाप्ति एक-दूसरे से सम्बन्धित है। जैसे-जैसे उपनिवेश समाप्त होते गए, वैसे-वैसे गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का विस्तार होता गया। क्योंकि अधिकांश उपनिवेशी राज्य स्वतन्त्र होकर गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में शामिल होते गए। इसीलिए जहां 1961 के बेलग्रेड सम्मेलन में केवल 25 देश शामिल थे, वहीं 2019 में हुए अजरबैजान सम्मेलन में इनकी संख्या 120 थी।

प्रश्न 24.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की प्रकृति की व्याख्या करें।
उत्तर:
गट-निरपेक्ष आन्दोलन की प्रकति अपने आप में अनोखी है। वास्तव में इस आन्दोलन की प्रकति विषमांग स्वरूप की रही है। उदाहरण के लिए इसमें विकासशील देशों की संख्या अधिक है, जबकि विकसित देशों की कम। गुट-निरपेक्ष देशों में वैचारिक समानता का भी अभाव है अर्थात् इस आन्दोलन में उदारवादी, साम्यवादी तथा सुधारवादी सभी प्रकार के देश शामिल हैं। इस आन्दोलन में भिन्न-भिन्न जातियों एवं क्षेत्रों को प्रतिनिधित्व प्राप्त है।

प्रश्न 25.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के अन्तर्गत ‘अफ्रीकी सहायता कोष’ तथा ‘पृथ्वी संरक्षण कोष’ की स्थापना कब, कहां और किस देश की पहल पर हुई ?
उत्तर:
अफ्रीकी कोष की स्थापना भारत की पहल पर सन् 1986 में जिम्बाबवे की राजधानी हरारे में हुए 8वें गुट निरपेक्ष आन्दोलन के शिखर सम्मेलन में की गई जबकि ‘पृथ्वी संरक्षण कोष’ की भी स्थापना भारत की पहल पर ही 1989 में युगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में हुए 9वें गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के शिखर सम्मेलन में की गई।

प्रश्न 26.
‘आंशिक परमाण प्रतिबन्ध सन्धि 1963’ के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
आंशिक परमाणु प्रतिबन्ध सन्धि 5 अगस्त, 1963 में की गई। इस सन्धि का प्रमुख उद्देश्य परमाणु परीक्षणों को नियन्त्रित करना था। इस सन्धि पर अमेरिका, सोवियत संघ तथा ब्रिटेन ने हस्ताक्षर किये थे। यह सन्धि 10 अक्तूबर, 1963 को लागू हो गई। इस सन्धि के अन्तर्गत वायुमण्डल, पानी के अन्दर तथा बाहरी अन्तरिक्ष में परमाणु परीक्षण करने पर प्रतिबन्ध लगाया गया था।

प्रश्न 27.
स्टार्ट-II सन्धि की व्याख्या करें।
उत्तर:
स्टार्ट-II (Strategic Arms Reduction Treaty-II) अर्थात् सामाजिक अस्त्र न्यूनीकरण सन्धि पर 3 जनवरी, 1993 को अमेरिका एवं रूस ने हस्ताक्षर किए। इस सन्धि का मुख्य उद्देश्य खतरनाक हथियारों को नियन्त्रित करने एवं उनकी संख्या कम करने से है, ताकि जनसंहार को रोका जा सके।

प्रश्न 28.
1919 में सोवियत संघ के पतन के बाद भारत किन दो तरीकों से रूस से सम्बन्ध रखकर लाभान्वित हुआ ?
उत्तर:

  • भारत रूस से भी उसी प्रकार सम्बन्ध बनाने में सफल रहा, जिस प्रकार सोवियत संघ के साथ थे।
  • भारत को रूस के माध्यम से इससे अलग हुए गणराज्यों से भी सम्बन्ध बनाने में आसानी हुई।

प्रश्न 29.
निम्नलिखित में से गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के दो संस्थापकों के नामों की पहचान करें
(क) यासर अराफात
(ख) नेलसन मंडेला
(ग) डॉ० सुकर्णो
(घ) मार्शल टीटो।
उत्तर:
(ग) डॉ० सुकर्णो,
(घ) मार्शल टीटो।

प्रश्न 30.
1945 से 1990 तक किन्हीं दो महत्त्वपूर्ण विश्व राजनीतिक घटनाओं की व्याख्या करें।
उत्तर:

  • दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात् विश्व राजनीति में अमेरिका एवं सोवियत संघ और अधिक मज़बूत होकर उभरे।
  • इस समय दोनों गुटों से अलग रहने वाले देशों ने गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की शुरुआत की।

प्रश्न 31.
शीत युद्ध अपनी चरम सीमा पर कब पहुंचा ?
उत्तर:
शीत युद्ध अपनी चरम सीमा पर सन् 1962 में पहुंचा, जब सोवियत संघ ने क्यूबा में परमाणु प्रक्षेपास्त्र तैनात कर दिये थे। इसमें सोवियत संघ एवं अमेरिका में युद्ध की स्थिति पैदा हो गई।

प्रश्न 32.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका की विदेश नीति के कोई दो सिद्धान्त बताएं।
उत्तर:

  • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने विश्व में स्वतन्त्रता एवं समानता की रक्षा को उस समय उद्देश्य बनाया।
  • अमेरिका की विदेश नीति का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त विश्व में साम्यवाद के प्रसार को रोकना था।

प्रश्न 33.
शीत युद्ध के युग में एक पूर्वी गठबन्धन और तीन पश्चिमी गठबन्धनों के नाम लिखिए।
उत्तर:
शीत युद्ध के युग में पूर्वी गठबन्धन द्वारा वारसा पैक्ट तथा पश्चिमी गठबन्धन द्वारा नाटो, सैन्टो तथा सीटो जैसे गठबन्धन बनाए।

प्रश्न 34.
शीत युद्ध के दायरे से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
शीत युद्ध के दायरों से हमारा अभिप्राय यह है कि विश्व के किन-किन क्षेत्र विशेष या देश विशेष के कारण शीत युद्ध बढ़ा अथवा शीत युद्ध का प्रभाव किन क्षेत्रों में अधिक देखा गया। उदाहरण के लिए शीत युद्ध के दायरे में अफ़गानिस्तान को शामिल किया जा सकता है।

प्रश्न 35.
कोई दो कारण दीजिए कि छोटे देशों ने शीत युद्ध के युग की मैत्री सन्धियों में महाशक्तियों के साथ अपने-आप को क्यों जोड़ा ?
उत्तर:

  • छोटे देश महाशक्तियों के साथ अपने निजी हितों की रक्षा के लिए जुड़े।
  • छोटे देश महाशक्तियों के साथ इसलिए जुड़े क्योंकि उन्हें स्थानीय प्रतिद्वन्द्वी, देश के विरुद्ध सुरक्षा, हथियार तथा आर्थिक सहायता मिलती थी।

प्रश्न 36.
गुट-निरपेक्षता के मुख्य उद्देश्य बताएं।
अथवा
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के कोई दो उद्देश्य लिखिये।
उत्तर:

  • गुट-निरपेक्षता का मुख्य उद्देश्य सदस्य देशों को शक्ति गुटों से अलग रखना था।
  • गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का उद्देश्य विकासशील देशों के सम्मान एवं प्रतिष्ठा को बढ़ाना था।

प्रश्न 37.
तृतीय विश्व के देशों द्वारा नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग करने के कोई दो कारण लिखिये।
उत्तर:

  • पूर्वी एवं दक्षिणी विश्व के देश अपनी आत्मनिर्भरता के लिए पश्चिमी देशों पर निर्भर थे।
  • विश्व अर्थव्यवस्था पर विकसित देशों का एकाधिकार ।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. शीत युद्ध किन दो गुटों से सम्बन्धित था ?
(A) चीन-पाकिस्तान
(B) अमेरिका गुट-सोवियत गुट
(C) फ्रांस-ब्रिटेन
(D) जर्मनी-इटली।
उत्तर:
(B) अमेरिका गुट-सोवियत गुट।

2. निम्न में से शीत युद्ध का सही अर्थ क्या है ?
(A) अमेरिकी एवं सोवियत गुट के बीच व्याप्त कटु सम्बन्ध जो तनाव, भय एवं ईर्ष्या पर आधारित थे।
(B) तानाशाही व्यवस्था
(C) लोकतान्त्रिक व्यवस्था
(D) दोनों में से कोई नहीं।
उत्तर:
(A) अमेरिकी एवं सोवियत गुट के बीच व्याप्त कटु सम्बन्ध जो तनाव, भय एवं ईर्ष्या पर आधारित थे।

3. अमेरिकन गुट ने किस सैनिक गठबन्धन का निर्माण किया ?
(A) नाटो
(B) सीटो
(C) सैन्टो
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

4. सोवियत गुट ने निर्माण किया
(A) नाटो
(B) सीटो
(C) वारसा पैक्ट
(D) सैन्टो।
उत्तर:
(C) वारसा पैक्ट।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

5. भारत ने शीत युद्ध से अलग रहने के लिए किस आन्दोलन की शुरुआत की ?
(A) असहयोग आन्दोलन
(B) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन
(C) सविनय अवज्ञा आन्दोलन
(D) भारत छोड़ो आन्दोलन।
उत्तर:
(B) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन।

6. नाटो (NATO) सन्धि का निर्माण कब किया गया ?
(A) सन् 1945 में
(B) सन् 1947 में
(C) सन् 1949 में
(D) सन् 1951 में।
उत्तर:
(C) सन् 1949 में।

7. ‘वारसा संधि’ का निर्माण कब हुआ ?
(A) सन् 1955 में
(B) सन् 1950 में
(C) सन् 1952 में
(D) सन् 1954 में।
उत्तर:
(A) सन् 1955 में।

8. पूंजीवादी देश है
(A) अमेरिका
(B) फ्रांस
(C) इंग्लैंड
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

9. सोवियत गुट (साम्यवादी गुट) में कौन-सा देश शामिल था ?
(A) पोलैण्ड
(B) पूर्वी जर्मनी
(C) बुल्गारिया
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

10. क्यूबा मिसाइल संकट कब हुआ ?
(A) सन् 1959 में
(B) सन् 1961 में
(C) सन् 1962 में
(D) सन् 1965 में।
उत्तर:
(C) सन् 1962 में।

11. शीत युद्ध का आरंभ कब हुआ ?
(A) प्रथम विश्व युद्ध के पहले
(B) प्रथम विश्व युद्ध के बाद
(C) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद
(D) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के बाद।
उत्तर:
(C) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद।

12. शीतयुद्ध निम्न में से किसी एक से सम्बन्धित हैं
(A) राजनीतिक अविश्वास से
(B) सैनिक प्रतिस्पर्धा से
(C) वैचारिक मतभेद से
(D) उपरोक्त तीनों से।
उत्तर:
(D) उपरोक्त तीनों से।

13. शीत युद्ध के दौरान महाशक्तियों के बीच कौन-सा महाद्वीप अखाड़े के रूप में सामने आया ?
(A) एशिया
(B) दक्षिण अमेरिका
(C) यूरोप
(D) अफ्रीका।
उत्तर:
(C) यूरोप।

14. महाशक्तियों के लिए छोटे देश लाभदायक थे
(A) अपने भू-क्षेत्र के कारण
(B) तेल और खनिज के कारण
(C) सैनिक ठिकाने के कारण
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

15. द्वितीय विश्व युद्ध कब समाप्त हुआ?
(A) सन् 1939 ई० में
(B) सन् 1941 ई० में
(C) सन् 1943 ई० में
(D) सन् 1945 ई० में।
उत्तर:
(D) सन् 1945 ई० में।

16. वारसा पैक्ट किस वर्ष समाप्त कर दिया गया था ?
(A) 1982
(B) 1984
(C) 1991
(D) 1995.
उत्तर:
(C) 1991

17. पूंजीवादी गुट का नेता कौन था ?
(A) सोवियत संघ
(B) अमेरिका
(C) भारत
(D) चीन।
उत्तर:
(B) अमेरिका।

18. साम्यवादी गुट का नेता कौन था ?
(A) भारत
(B) अमेरिका
(C) चीन
(D) सोवियत संघ।
उत्तर:
(D) सोवियत संघ।

19. शीत युद्ध के दौरान विश्व कितने गुटों में बँटा हुआ था ?
(A) दो गुटों में
(B) तीन गुटों में
(C) चार गुटों में
(D) उपर्युक्त में से कोई भी नहीं।
उत्तर:
(A) दो गुटों में।

20. क्यूबा का सम्बन्ध किस महाशक्ति से था ?
(A) सोवियत संघ
(B) अमेरिका
(C) जापान
(D) भारत।
उत्तर:
(A) सोवियत संघ।

21. शीत युद्ध का प्रारम्भ कब हुआ ?
(A) प्रथम विश्व युद्ध से पहले
(B) प्रथम विश्व युद्ध के बाद
(C) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद
(D) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के बाद।
उत्तर:
(C) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद।

22. अगस्त, 1945 में अमेरिका ने जापान के किन दो शहरों पर परमाणु बम गिराए ?
(A) हिरोशिमा एवं नागासाकी
(B) हिरोशिमा एवं टोक्यो
(C) क्योवे एवं नागासाकी
(D) टोक्यो एवं नागासाकी।
उत्तर:
(A) हिरोशिमा एवं नागासाकी।

23. गोर्बाचोव कब सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने ?
(A) 1980
(B) 1982
(C) 1984
(D) 1985
उत्तर:
(D) 1985.

24. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के मध्य बनी ‘बर्लिन की दीवार’ को कब गिराया गया ?
(A) सन् 1979 में
(B) सन् 1986 में
(C) सन् 1989 में
(D) सन् 1990 में।
उत्तर:
(C) सन् 1989 में।

25. जर्मनी का एकीकरण कब हुआ ?
(A) 1980 में
(B) 1990 में
(C) 1991 में
(D) 1995 में।
उत्तर:
(B) 1990 में।

26. सोवियत संघ का विघटन कब हुआ था ?
(A) 1985
(B) 1999
(C) 1995
(D) 1991.
उत्तर:
(D) 1991.

27. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के संस्थापक हैं ?
(A) पं० जवाहर लाल नेहरू
(B) जोसेफ ब्रॉज टीटो
(C) गमाल अब्दुल नासिर
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

28. पहला गुट-निरपेक्ष आन्दोलन कहां हुआ था ?
(A) नई दिल्ली
(B) बेलग्रेड
(C) टोक्यो
(D) मास्को।
उत्तर:
(B) बेलग्रेड।

29. पहले गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में कितने देश शामिल हुए थे ?
(A) 20
(B) 25
(C) 30
(D) 35.
उत्तर:
(B) 25.

30. निम्नलिखित में से एक देश गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का संस्थापक देश है ?
(A) भारत
(B) पाकिस्तान
(C) नेपाल
(D) मालदीव।
उत्तर:
(A) भारत।

31. निम्न में से किस वर्ष बांडुंग सम्मेलन हुआ ?
(A) 1950
(B) 1952
(C) 1955
(D) 1960.
उत्तर:
(C) 1955.

32. अभी तक गुट-निरपेक्षता के कितने शिखर सम्मेलन हो चुके हैं ?
(A) 14
(B) 17
(C) 16
(D) 18.
उत्तर:
(D) 18.

33. गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का 18वां सम्मेलन कब हुआ ?
(A) 2019
(B) 2004
(C) 2005
(D) 2006.
उत्तर:
(A) 2019.

34. पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण किस वर्ष हुआ ?
(A) सन् 1990 में
(B) सन् 1991 में
(C) सन् 1992 में
(D) सन् 1993 में।
उत्तर:
(A) सन् 1990 में।

35. गुट निरपेक्ष देशों की वर्तमान सदस्य संख्या कितनी है?
(A) 114
(B) 116
(C) 118
(D) 120.
उत्तर:
(D) 120.

36. निम्न एक शीत युद्ध का परिणाम है
(A) एक धुव्रीय व्यवस्था
(B) द्वि-धुव्रीय व्यवस्था
(C) बहु-धुव्रीय व्यवस्था
(D) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(B) द्वि-धुव्रीय व्यवस्था।

37. शीत युद्ध के अंत का सबसे बड़ा प्रतीक था
(A) नाटो का गठन
(B) वारसा पैक्ट का गठन
(C) सैन्टो का गठन
(D) बर्लिन की दीवार का गिरना।
उत्तर:
(D) बर्लिन की दीवार का गिरना।

HBSE 12th Class Political Science Important Questions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

38. नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का आरम्भ कब हुआ ?
(A) 1970 के दशक में
(B) 1980 के दशक में
(C) 1990 के दशक में
(D) 2000 के दशक में।
उत्तर:
(A) 1970 के दशक में।

39. नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का सम्बन्ध किन देशों से है ?
(A) पूंजीवादी देशों से
(B) विकसित देशों से
(C) विकासशील देशों से
(D) साम्यवादी देशों से।
उत्तर:
(C) विकासशील देशों से।

40. नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का क्या उद्देश्य है ?
(A) विकासशील देशों पर वित्तीय ऋणों के भार को कम करना
(B) विकासशील देशों द्वारा तैयार माल के निर्णय को प्रोत्साहन देना
(C) विकसित एवं विकासशील देशों के बीच तकनीकी विकास के अन्तर को समाप्त करना
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी।

41. विकासशील तथा विकसित देशों के बीच पाये जाने वाले विवाद को किस नाम से जाना जाता है ?
(A) उत्तर-दक्षिण विवाद
(B) पूर्व-पश्चिम विवाद
(C) उत्तर-पश्चिम विवाद
(D) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(A) उत्तर-दक्षिण विवाद।

42. “शीतयुद्ध का वातावरण निलंबित मृत्युदण्ड के वातावरण के समान तनावपूर्ण होता है।” यह कथन किसका है ?
(A) स्टालिन
(B) चर्चिल
(C) पं०. जवाहर लाल नेहरू
(D) माओ-त्से तुंग।
उत्तर:
(C) पं० जवाहर लाल नेहरू।

रिक्त स्थान भरें

(1) वारसा सन्धि का निर्माण सन् ………… में हुआ।
उत्तर:
(1) 1955,

(2) अभी तक गुट-निरपेक्ष देशों के …………. शिखर सम्मेलन हो चुके हैं।
उत्तर:
18,

(3) द्वितीय विश्व युद्ध सन् 1939 से सन् ………… की अवधि में हुआ।
उत्तर:
1945,

(4) सन् 1961 में गुट-निरपेक्ष देशों का प्रथम सम्मेलन ……………. में हुआ।
उत्तर:
बेलग्रेड,

(5) ………….. संकट के समय शीत युद्ध अपनी चरम सीमा पर था।
उत्तर:
क्यूबा प्रक्षेपास्त्र,

(6) …………… का परिणाम द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था थी।
उत्तर:
शीत युद्ध,

(7) क्यूबा मिसाइल संकट सन् ……………. में हुआ।
उत्तर:
1962

(8) …………. को शीत युद्ध की चरम परिणति माना जाता है।
उत्तर:
क्यूबा मिसाइल संकट,

(9) यू-2; विमान जासूसी कांड का सम्बन्ध …………… से माना जाता है।
उत्तर:
शीत युद्ध।

एक शब्द/वाक्य में उत्तर दें

प्रश्न 1.
गुट-निरपेक्ष देशों का 16वां शिखर सम्मेलन अगस्त 2012 में किस देश में हुआ ?
उत्तर:
तेहरान।

प्रश्न 2.
नाटो (NATO) सन्धि का निर्माण कब हुआ ?
उत्तर:
सन् 1949 में।

प्रश्न 3.
शीत युद्ध के दौरान महाशक्तियों के बीच कौन-सा महाद्वीप अखाड़े के रूप में सामने आया ?
उत्तर:
यूरोप

प्रश्न 4.
भारत ने शीत युद्ध से अलग रहने के लिए किस आन्दोलन की शुरुआत की ?
उत्तर:
भारत ने शीत युद्ध से अलग रहने के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की शुरुआत की।

प्रश्न 5.
गुटं-निरपेक्षता का अर्थ लिखें।
उत्तर:
गुट-निरपेक्षता का अर्थ है किसी गुट में शामिल न होना और स्वतन्त्र नीति का अनुसरण करना।

प्रश्न 6.
जर्मनी का एकीकरण किस वर्ष में हुआ?
उत्तर:
सन् 1990 में।

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HBSE 12th Class Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

Haryana State Board HBSE 12th Class Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर Textbook Exercise Questions and Answers.

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HBSE 12th Class Political Science शीतयुद्ध का दौर Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
शीतयुद्ध के बारे में निम्नलिखित में कौन-सा कथन ग़लत है ?
(क) यह संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और उनके साथी देशों के बीच की एक प्रतिस्पर्धा थी।
(ख) यह महाशक्तियों के बीच विचारधाराओं को लेकर एक युद्ध था।
(ग) शीतयुद्ध ने हथियारों की होड़ शुरू की।
(घ) अमेरिका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।
उत्तर:
(घ) अमेरिका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।

प्रश्न 2.
निम्न में से कौन-सा कथन गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के उद्देश्यों पर प्रकाश नहीं डालता ?
(क) उपनिवेशवाद से मुक्त हुए देशों को स्वतन्त्र नीति अपनाने में समर्थ बनाना।
(ख) किसी भी सैन्य संगठन में शामिल होने से इन्कार करना।
(ग) वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।
(घ) वैश्विक आर्थिक असमानता की समाप्ति पर ध्यान केन्द्रित करना।
उत्तर:
(ग) वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।

प्रश्न 3.
नीचे महाशक्तियों द्वारा बनाए सैन्य संगठनों की विशेषता बताने वाले कुछ कथन दिए गए हैं। प्रत्येक कथन के सामने सही या ग़लत का चिन्ह लगाएँ।
(क) गठबंधन के सदस्य देशों को अपने भू-क्षेत्र में महाशक्तियों के सैन्य अड्डे के लिए स्थान देना ज़रूरी था।
(ख) सदस्य देशों को विचारधारा और रणनीति दोनों स्तरों पर महाशक्ति का समर्थन करना था।
(ग) जब कोई राष्ट्र किसी एक सदस्य-देश पर आक्रमण करता था तो इसे सभी सदस्य देशों पर आक्रमण समझा जाता था।
(घ) महाशक्तियां सभी सदस्य देशों को अपने परमाणु हथियार विकसित करने में मदद करती थीं।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) सही,
(ग) सही,
(घ) ग़लत।

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प्रश्न 4.
नीचे कुछ देशों की एक सूची दी गई है। प्रत्येक के सामने लिखें कि वह शीतयुद्ध के दौरान किस गुट से जुड़ा था ?
(क) पोलैण्ड
(ख) फ्रांस
(ग) जापान
(घ) नाइजीरिया
(ङ) उत्तरी कोरिया
(च) श्रीलंका।
उत्तर:
(क) पोलैण्ड – साम्यवादी गुट (सोवियत संघ)
(ख) फ्रांस – पूंजीवादी गुट (संयुक्त राज्य अमेरिका)
(ग) जापान – पूंजीवादी गुट (संयुक्त राज्य अमेरिका)
(घ) नाइजीरिया – गुटनिरपेक्ष में
(ङ) उत्तरी कोरिया – साम्यवादी गुट (सोवियत संघ)
(च) श्रीलंका – गुटनिरपेक्ष में।

प्रश्न 5.
शीतयुद्ध से हथियारों की होड़ और हथियारों पर नियन्त्रण-ये दोनों ही प्रक्रियाएं पैदा हुईं। इन दोनों प्रक्रियाओं के क्या कारण थे ?
उत्तर:
शीतयुद्ध से हथियारों की होड़ और हथियारों पर नियन्त्रण ये दोनों प्रक्रियाएं ही पैदा हुई थीं। शीतयुद्ध से हथियारों की होड़ से अभिप्राय यह है कि पूंजीवादी गुट एवं साम्यवादी गुट, दोनों ही एक-दूसरे पर अधिक प्रभाव रखने के लिए अपने-अपने हथियारों के भण्डार बढ़ाने लगे, जिससे विश्व में हथियारों की होड़ शुरू हो गई।

दूसरी तरफ हथियारों पर नियन्त्रण से अभिप्राय यह है कि दोनों गुट यह अनुभव करते थे कि यदि दोनों गुटों में आमने-सामने युद्ध होता है, तो दोनों गुटों को ही अत्यधिक हानि होगी और दोनों में से कोई भी विजेता बनकर नहीं उभर पाएगा, क्योंकि दोनों ही गुटों के पास परमाणु बम थे। इसी कारण शीतयुद्ध के दौरान हथियारों में कमी करने के लिए एवं हथियारों की मारक क्षमता कम करने के लिए हथियारों पर नियन्त्रण की प्रक्रिया भी पैदा हुई।

प्रश्न 6.
महाशक्तियां छोटे देशों के साथ सैन्य गठबन्धन क्यों रखती थीं ? तीन कारण बताइए।
अथवा
गठबन्धन क्यों बनाए जाते हैं ?
उत्तर:
महाशक्तियां निम्न कारणों से छोटे देशों के साथ सैन्य गठबन्धन रखती थीं

  • महाशक्तियां छोटे देशों के साथ सैन्य गठबन्धन इसलिए करती थीं, ताकि इन देशों से वे अपने हथियार और सेना का संचालन कर सकें।
  • महाशक्तियां छोटे देशों में सैनिक ठिकाने बनाकर दुश्मन देश की जासूसी करते थे।
  • छोटे देश सैन्य गठबन्धन के अन्तर्गत आने वाले सैनिकों को अपने खर्चे पर अपने देश में रखते थे, जिससे महाशक्तियों पर आर्थिक दबाव कम पड़ता था।

प्रश्न 7.
कभी-कभी कहा जाता है कि शीतयुद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं था। क्या आप इस कथन से सहमत हैं ? अपने उत्तर के समर्थन में एक उदाहरण दें।
उत्तर:
शीतयुद्ध के विषय में यह कहा जाता है कि इसका विचारधारा से अधिक सम्बन्ध नहीं था, बल्कि शीतयुद्ध शक्ति के लिए संघर्ष था। परन्तु इस कथन से सहमत नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि दोनों ही गुटों में विचारधारा का अत्यधिक प्रभाव था। पूंजीवादी विचारधारा के लगभग सभी देश अमेरिका के गुट में शामिल थे, जबकि साम्यवादी विचारधारा वाले सभी देश सोवियत संघ के गुट में शामिल थे। विपरीत विचारधाराओं वाले देशों में निरन्तर आशंका, संदेह एवं भय पाया जाता था। परन्तु 1991 में सोवियत संघ के विघटन से एक विचारधारा का पतन हो गया और इसके साथ ही शीत युद्ध भी समाप्त हो गया।

प्रश्न 8.
शीतयुद्ध के दौरान भारत की अमेरिका और सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति क्या थी ? क्या आप मानते हैं कि इस नीति ने भारत के हितों को आगे बढ़ाया ?
उत्तर:
शीतयुद्ध के दौरान भारत ने अपने आपको दोनों गुटों से अलग रखा तथा द्वितीय स्तर पर भारत ने नव स्वतन्त्रता प्राप्त देशों का किसी भी गुट में जाने का विरोध किया। भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाई। भारत ने सदैव दोनों गुटों में पैदा हुए मतभेदों को कम करने के लिए प्रयास किया, जिसके कारण ये मतभेद व्यापक युद्ध का रूप धारण न कर सके।

भारत की अमेरिका के प्रति विदेश नीति: भारत और अमेरिका में बहुत मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कभी नहीं रहे। अच्छे सम्बन्ध न होने का महत्त्वपूर्ण कारण अमेरिका का पाकिस्तान के प्रति रवैया है। अमेरिका ने कश्मीर के मामले पर सदा पाकिस्तान का समर्थन किया और पाकिस्तान को सैनिक सहायता भी दी तथा पाकिस्तान ने 1965 और 1971 के युद्ध में अमेरिकी हथियारों का प्रयोग किया। बंगला देश के मामले पर अमेरिका ने भारत के विरुद्ध सातवां समुद्री बेड़ा भेजने की कोशिश की। 1981 में अमेरिका ने भारत की भावनाओं की परवाह न करते हुए पाकिस्तान को आधुनिकतम हथियार दिए।

2 जून, 1985 में प्रधानमन्त्री राजीव गांधी अमेरिका गए तो सम्बन्ध में थोड़ा-थोड़ा बहुत सुधार हुआ। जनवरी 1989 में जार्ज बुश अमेरिका के राष्ट्रपति बने, परन्तु राष्ट्रपति बुश की नीतियों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव ने अमेरिका के साथ सम्बन्ध सुधारने का प्रयास किया, परन्तु आज भी परमाणु अप्रसार सन्धि पर भारत और अमेरिका के बीच मतभेद बने हुए हैं। G7 के टोकियो सम्मेलन में बिल क्लिटन ने रूस पर दबाव डाला कि वह भारत को क्रोयोजेनिक इंजन प्रणाली न बेचे।

भारत की सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति-भारत के सोवियत संघ के साथ आरम्भ में अवश्य तनावपूर्ण सम्बन्ध रहे हैं, परन्तु जैसे-जैसे भारत की गुट-निरपेक्षता की नीति स्पष्ट होती गई, वैसे-वैसे दोनों देश एक-दूसरे के समीप आते गए। 1960 के बाद विशेषकर भारत और सोवियत संघ के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रहे हैं। 9 अगस्त, 1971 को भारत और सोवियत संघ के बीच शान्ति मैत्री और सहयोग की सन्धि हुई। ये सन्धि 20 वर्षीय थी। दोनों देशों के नेताओं की एक-दूसरे देश की यात्राओं से दोनों देशों के गहरे सम्बन्ध स्थापित हुए हैं। दोनों देशों के बीच आर्थिक व वैज्ञानिक सहयोग बढ़ाने व सांस्कृतिक सम्बन्ध बढ़ाने के लिए कई समझौते हुए। 9 अगस्त, 1991 को 20 वर्षीय सन्धि 15 वर्ष के लिए और बढ़ा दी गई।

परन्तु 1991 के अन्त में सोवियत संघ का बड़ा तेजी से विघटन हो गया। सोवियत संघ के गणराज्यों ने अपनी-अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी और देखते-देखते ही सोवियत संघ का एक राष्ट्र के रूप में अन्त , हो गया। भारत ने सोवियत संघ के स्वतन्त्र गणराज्यों से सम्बन्ध स्थापित किए और रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने भारत के प्रधानमन्त्री नरसिम्हा राव को विश्वास दिलाया कि रूस के भारत के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने रहेंगे। भारत के रूस के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध हैं।

प्रश्न 9.
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन को तीसरी दुनिया के देशों ने तीसरे विकल्प के रूप में समझा। जब शीतयुद्ध अपने शिखर पर था तब इस विकल्प ने तीसरी दुनिया के देशों के विकास में कैसे मदद पहुंचाई ?
उत्तर:
द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब शीतयुद्ध चरम सीमा पर था, तब विश्व में एक नई धारणा ने जन्म लिया, जिसे गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में अधिकांशतया विकासशील एवं नव स्वतन्त्रता प्राप्त देश शामिल थे। इन देशों ने गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का विकल्प इसलिए चुना क्योंकि वे अपने-अपने देश का स्वतन्त्रतापूर्वक राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक विकास करना चाहते थे।

यदि वे किसी एक गुट में शामिल हो जाते तो वे अपने देश का स्वतन्त्रतापूर्वक विकास नहीं कर सकते थे, परन्तु गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का सदस्य बन कर उन्होंने दोनों गुटों से आर्थिक मदद स्वीकार करके अपने देश के विकास को आगे बढ़ाया। यदि एक गुट किसी विकासशील या नव स्वतन्त्रता प्राप्त देश को दबाने का प्रयास करता था, तो दूसरा गुट उसकी रक्षा के लिए आ जाता था तथा उसे प्रत्येक तरह की मदद प्रदान करता था, इसलिए ये देश अपना विकास बिना किसी रोक-टोक के कर सकते थे।

HBSE 12th Class Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

प्रश्न 10.
‘गुट-निरपेक्ष आन्दोलन अब अप्रासंगिक हो गया है। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं ? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन 1961 में नव-स्वतन्त्र राष्ट्रों को महाशक्तियों के प्रभाव से बचाने के लिए आरम्भ हुआ। इस आन्दोलन का उद्देश्य शक्ति गुटों से दूर रहकर अपने देश की अलग पहचान एवं अस्तित्व बनाए रखना था। गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का आरम्भ शीत-युद्ध काल में हुआ। परन्तु अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं। शीत युद्ध समाप्त हो चुका है। अमेरिका-रूस अब तनाव नहीं मैत्री चाहते हैं। वर्तमान समय में शक्ति गुट समाप्त हो चुके हैं और अमेरिका ही एक महाशक्ति देश रह गया है। संसार एक-ध्रुवीय हो चुका है। ऐसे बदले परिवेश में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन के अस्तित्व पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं।

आलोचकों का मत है कि जब विश्व में गुटबन्दियां हो रही हैं तो फिर गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का क्या औचित्य रह गया है ? जब शीत युद्ध समाप्त हो चुका है तो निर्गुट आन्दोलन की भी क्या आवश्यकता है ? कर्नल गद्दाफी ने इस आन्दोलन को अन्तर्राष्ट्रीय भ्रम का मजाकिया आन्दोलन कहा था। फ

रवरी, 1992 में गुट निरपेक्ष आन्दोलन के विदेश मन्त्रियों के सम्मेलन में मित्र ने कहा था कि सोवियत संघ के विघटन, सोवियत गुट तथा शीत युद्ध की समाप्ति के बाद गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है। अतः इसे समाप्त कर देना चाहिए। परन्तु उपरोक्त विवरण के आधार पर न तो यह कहना उचित होगा कि गुट-निरपेक्ष आन्दोलन अप्रासंगिक हो गया और न ही यह कि इसे समाप्त कर देना चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का औचित्य निम्नलिखित रूप से देखा जा सकता है

(1) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन विकासशील देशों के सम्मान एवं प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।

(2) निशस्त्रीकरण, विश्व शान्ति एवं मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आज भी प्रासंगिक है।

(3) नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था की स्थापना के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आवश्यक है।

(4) संयुक्त राष्ट्र संघ को अमेरिका के प्रभुत्व से मुक्त करवाने के लिए भी इसका औचित्य है।

(5) उन्नत एवं विकासशील देशों में सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आवश्यक है।

(6) अशिक्षा, बेरोज़गारी, आर्थिक समानता जैसी समस्याओं के समूल नाश के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन आवश्यक है।

(7) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन का लोकतान्त्रिक स्वरूप इसकी सार्थकता को प्रकट करता है।

(8) गुट-निरपेक्ष देशों की एकजुटता ही इन देशों के हितों की रक्षा कर सकती है।

(9) गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में लगातार बढ़ती सदस्य संख्या इसके महत्त्व एवं प्रासंगिकता को दर्शाती है। आज गुट निरपेक्ष देशों की संख्या 25 से बढ़कर 120 हो गई है अगर आज इस आन्दोलन का कोई औचित्य नहीं रह गया है या कोई देश इसे समाप्त करने की मांग कर रहा है तो फिर इसकी सदस्य संख्या बढ़ क्यों रही है। इसकी बढ़ रही सदस्य संख्या इसकी सार्थकता, महत्त्व एवं इसकी ज़रूरत को दर्शाती है।

(10) गुट-निरपेक्ष देशों का आज भी इस आन्दोलन के सिद्धान्तों में विश्वास एवं इसकी प्रतिनिष्ठा इसके महत्त्व को बनाए हुए है।
अत: यह कहना कि वर्तमान एक ध्रुवीय विश्व में गुट-निरपेक्ष आन्दोलन अप्रासंगिक हो गया है एवं इसे समाप्त कर देना चाहिए, बिल्कुल अनुचित होगा।

शीतयुद्ध का दौर HBSE 12th Class Political Science Notes

→ शीतयद्ध की शरुआत दूसरे विश्व-युद्ध के बाद हई।
→ शीतयुद्ध का अर्थ है, अमेरिकी एवं सोवियत गुट के बीच व्याप्त कटु सम्बन्ध जो तनाव, भय तथा ईर्ष्या पर आधारित थे।
→ शीतयुद्ध के दौरान दोनों गुट विश्व पर अपना प्रभाव जमाने के लिए प्रयत्नशील रहे।
→ अमेरिका ने 1949 में नाटो की स्थापना की।
→ सोवियत संघ ने नाटो के उत्तर में 1955 में वारसा पैक्ट की स्थापना की।
→ अमेरिका ने सीटो तथा सैन्टो जैसे संगठन भी बनाए।
→ भारत जैसे विकासशील देशों ने शीतयुद्ध से अलग रहने के लिए गुट-निरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना की।
→ विकासशील देशों ने दोनों गुटों से अलग रहने के लिए नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना पर बल दिया।
→ गुट-निरपेक्ष आन्दोलन तथा नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था दो ध्रुवीय विश्व के लिए चुनौती के रूप में सामने आए।
→ शीतयुद्ध के दौरान भारत ने विकासशील देशों को दोनों गुटों से अलग रहने के लिए प्रेरित किया।

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HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय

HBSE 12th Class Sociology भारतीय समाज : एक परिचय Textbook Questions and Answers

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत की लगभग कितने प्रतिशत जनसंख्या आपकी या आपसे छोटी आयु के लोगों की है?
(A) 40%
(B) 50%
(C) 55%
(D) 60%
उत्तर:
40%

प्रश्न 2.
किस प्रक्रिया के द्वारा हमें बचपन से ही अपने आसपास के संसार को समझना सिखाया जाता है?
(A) संस्कृतिकरण
(B) समाजीकरण
(C) सांस्कृतिक मिश्रण
(D) आत्मवाचक।
उत्तर:
समाजीकरण।

प्रश्न 3.
भारत किस राष्ट्र का उपनिवेश था?
(A) अमेरिका
(B) फ्रांस
(C) इंग्लैंड
(D) जर्मनी।
उत्तर:
इंग्लैंड।

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प्रश्न 4.
अंग्रेज़ों ने भारत को अपना उपनिवेश बनाना कब शुरू किया?
(A) 1660 के बाद
(B) 1700 के बाद
(C) 1650 के बाद
(D) 1760 के बाद।
उत्तर:
1760 के बाद।

प्रश्न 5.
औपनिवेशिक शासन ने पहली बार भारत को ………………. किया।
(A) एकीकृत
(B) विभाजित
(C) ब्रिटिश राज में शामिल
(D) कोई नहीं।
उत्तर:
एकीकृत।

प्रश्न 6.
औपनिवेशिक शासन ने भारत को कौन-सी ताकतवर प्रक्रिया से अवगत करवाया?
(A) प्रशासकीय एकीकरण
(B) पूँजीवादी आर्थिक परिवर्तन
(C) आधुनिकीकरण
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत किस प्रकार का एकीकरण भारत को भारी कीमत चुकाकर उपलब्ध हुआ?
(A) आर्थिक
(B) राजनीतिक
(C) प्रशासनिक
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 8.
उपनिवेशवाद ने ही अपने शत्रु …………………… को जन्म दिया।
(A) राष्ट्रवाद
(B) व्यक्तिवाद
(C) पाश्चात्यवाद
(D) पूँजीवाद।
उत्तर:
राष्ट्रवाद।

प्रश्न 9.
औपनिवेशवाद प्रभुत्व के सांझे अनुभवों ने समुदाय के विभिन्न भागों को …………………… करने में सहायता प्रदान की।
(A) विभाजित
(B) एकीकृत
(C) विकसित
(D) कोई नहीं।
उत्तर:
एकीकृत।

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प्रश्न 10.
किस प्रक्रिया ने नए वर्गों व समुदायों को जन्म दिया?
(A) राष्ट्रवाद
(B) संस्कृतिकरण
(C) उपनिवेशवाद
(D) व्यक्तिवाद।
उत्तर:
उपनिवेशवाद।

प्रश्न 11.
किस वर्ग ने स्वतंत्रता प्राप्ति के अभियान में अगवाई की?
(A) ग्रामीण मध्य वर्ग
(B) नगरीय मध्य वर्ग
(C) ग्रामीण उच्च वर्ग
(D) नगरीय उच्च वर्ग।
उत्तर:
नगरीय मध्य वर्ग।

प्रश्न 12.
‘ब्रितानी उपनिवेशवाद’ निम्न में से किस व्यवस्था पर आधारित था?
(A) पूँजीवादी
(B) व्यावसायिकता
(C) व्यावहारिकता
(D) सभी।
उत्तर:
सभी।

प्रश्न 13.
भारत में राष्ट्रवादी भावना पनपने का कारण था?
(A) जातिवाद
(B) भाषावाद
(C) क्षेत्रवाद
(D) उपनिवेशवाद।
उत्तर:
उपनिवेशवाद।

प्रश्न 14.
इनमें से किस संरचना एवं व्यवस्था में उपनिवेशवाद ने नवीन परिवर्तन उत्पन्न किये?
(A) राजनीतिक
(B) आर्थिक
(C) सामाजिक
(D) सभी में।
उत्तर:
सभी में।

अति लघू उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में कितने प्रमुख धर्म पाए जाते हैं तथा यहाँ पाया जाने वाला प्रमुख धर्म कौन-सा है?
उत्तर:
भारत में सात प्रमुख धर्म पाए जाते हैं तथा यहाँ पर पाया जाने वाला प्रमुख धर्म हिंदू धर्म है।

प्रश्न 2.
भारत में कितनी प्रमुख भाषाएँ बोली जाती हैं तथा यहाँ कितने प्रतिशत लोगों की मातृभाषा हिंदी है?
उत्तर:
भारत में 22 प्रमुख भाषाएँ बोली जाती हैं तथा यहाँ पर 40% के लगभग लोगों की मातृभाषा हिंदी है।

प्रश्न 3.
भारत में कौन-से राज्यों का जनसंख्या घनत्व सबसे अधिक तथा सबसे कम है?
उत्तर:
पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व है तथा सबसे कम घनत्व अरुणाचल प्रदेश में है।

प्रश्न 4.
भारत में कितने प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों तथा नगरीय क्षेत्रों में रहती है?
उत्तर:
भारत में 68% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 32% जनसंख्या नगरीय क्षेत्रों में रहती है।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान में कितनी भाषाओं को मान्यता प्राप्त है तथा हिंदी के बाद कौन-सी भाषा सबसे अधिक प्रयुक्त होती है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता प्राप्त है तथा हिंदी के बाद सबसे अधिक प्रयक्त होने वाली भाषा बांग्ला है।

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प्रश्न 6.
भारत में सबसे कम प्रचलित धर्म कौन-सा है तथा किस राज्य में बौद्ध धर्म सबसे अधिक प्रचलित है?
उत्तर:
भारत में सबसे कम प्रचलित धर्म पारसी धर्म है तथा महाराष्ट्र में बौद्ध धर्म सबसे अधिक प्रचलित है।

प्रश्न 7.
भारत में प्रचलित चार वेदों के नाम बताएं।
उत्तर:
भारत में प्रचलित चार वेदों के नाम हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा सामवेद।

प्रश्न 8.
भारत का सबसे प्राचीन वेद कौन-सा है?
उत्तर:
ऋग्वेद भारत का सबसे प्राचीन वेद है।

प्रश्न 9.
उत्तर भारत तथा दक्षिण भारत में कौन-से धाम हैं?
उत्तर:
बद्रीनाथ-केदारनाथ धाम उत्तर भारत में हैं तथा रामेश्वरम दक्षिणी भारत में है।

प्रश्न 10.
पूर्वी भारत तथा पश्चिमी भारत में कौन-से धाम हैं?
उत्तर:
जगन्नाथपुरी पूर्वी भारत का धाम है तथा द्वारिकापुरी पश्चिमी भारत का धाम है।

प्रश्न 11.
क्षेत्रवाद का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जब लोग अपने क्षेत्र को प्यार करते हैं तथा दूसरे क्षेत्रों से नफ़रत करते हैं तो उसे क्षेत्रवाद कहा जाता है।

प्रश्न 12.
भारत में पुरुषों तथा महिलाओं की साक्षरता दर कितनी है?
उत्तर:
भारत में पुरुषों की साक्षरता दर 75% है तथा महिलाओं की साक्षरता दर 54% है।

प्रश्न 13.
भारत में राष्ट्रीय एकता में कौन-सी रुकावटें हैं?
उत्तर:
जातिवाद, सांप्रदायिकता, आर्थिक असमानता इत्यादि ऐसे कारक हैं जो राष्ट्रीय एकता के रास्ते में रुकावटें हैं।

प्रश्न 14.
देश में राष्ट्रीय एकता को कैसे स्थापित किया जा सकता है?
उत्तर:
देश में धर्म से जुड़े संगठनों पर प्रतिबंध लगाकर, सारे देश में शिक्षा का एक ही पाठ्यक्रम बनाकर तथा जातिवाद को खत्म करके देश में राष्ट्रीय एकता को स्थापित किया जा सकता है।

प्रश्न 15.
मध्यकाल में पश्चिमी उपनिवेशवाद का सबसे ज्यादा प्रभाव रहा। (उचित/अनुचित)
उत्तर:
अनुचित।

प्रश्न 16.
भारत में पूँजीवाद के कारण उपनिवेशवाद प्रबल हुआ। (सही/गलत)
उत्तर:
सही।

प्रश्न 17.
उपनिवेशवाद से आपका क्या अभिप्राय है?
अथवा
उपनिवेशवाद क्या है?
उत्तर:
यह प्रक्रिया औद्योगिक क्रांति के पश्चात् शुरू हुई जब पश्चिमी देशों के पास अधिक पैसा तथा बेचने के लिए अत्यधिक माल उत्पन्न होना शुरू हुआ। पश्चिमी अथवा शक्तिशाली देशों के द्वारा एशिया तथा अफ्रीका के देशों को जीतने की प्रक्रिया तथा जीते हुए देशों में अपना शासन स्थापित करने की प्रक्रिया को उपनिवेशवाद कहा जाता है।

प्रश्न 18.
कौन-कौन से देशों ने एशिया तथा अफ्रीका में अपने उपनिवेश स्थापित किए?
उत्तर:
उपनिवेशवाद का दौर 18वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक चला। इसमें मुख्य साम्राज्यवादी देश थे-इंग्लैंड, फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन, जर्मनी, इटली इत्यादि। बाद में इसमें रूस, अमेरिका, जापान जैसे देश भी शामिल हो गए।

प्रश्न 19.
भारत में राष्ट्रवाद कब उत्पन्न हुआ?
उत्तर:
भारत में अंग्रेजों ने अपना राज्य स्थापित किया तथा यहां पश्चिमी शिक्षा देनी शुरू की। इससे 19वीं सदी के मध्य के बाद धीरे-धीरे भारत में राष्ट्रवाद उत्पन्न होना शुरू हुआ।

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प्रश्न 20.
सांप्रदायिकता का अर्थ बताएं।
उत्तर:
सांप्रदायिकता और कुछ नहीं बल्कि एक विचारधारा है जो जनता में एक धर्म के धार्मिक विचारों का प्रचार करने का प्रयास करती है तथा यह धार्मिक विचार अन्य धार्मिक समूहों के धार्मिक विचारों के बिल्कुल ही विपरीत होते हैं।

प्रश्न 21.
जातीय का क्या अर्थ है?
उत्तर:
किसी देश, प्रजाति इत्यादि का ऐसा समूह जिसके सांस्कृतिक आदर्श समान हों। एक जातीय समूह के लोग यह विश्वास करते हैं कि वह सभी ही एक पूर्वज से संबंध रखते हैं तथा उनके शारीरिक लक्षण एक समान हैं। इस समूह के सदस्य एक-दूसरे के साथ कई लक्षणों से पहचाने जाते हैं जैसे कि भाषायी, संस्कृति, धार्मिक इत्यादि।

प्रश्न 22.
भारतीय समाज में कैसे परिवर्तन आए?
उत्तर:
उपनिवेशिक दौर में एक विशेष भारतीय चेतना ने जन्म लिया। अंग्रेज़ों ने पहली बार संपूर्ण भारत को एकीकृत किया तथा पूँजीवादी आर्थिक परिवर्तन और आधुनिकीकरण की शक्तिशाली प्रक्रियाओं से भारत का परिचय कराया। इनसे भारतीय समाज में बहुत-से परिवर्तन आए।

प्रश्न 23.
भारत में राष्ट्रवाद कैसे उत्पन्न हुआ?
उत्तर:
अंग्रेजों ने भारत का आर्थिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक एकीकरण किया। उन्होंने यहां पश्चिमी शिक्षा का प्रसार किया। भारतीयों ने पश्चिमी शिक्षा ग्रहण करनी शुरू की तथा इससे उपनिवेशवाद के शत्रु राष्ट्रवाद का जन्म हुआ।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में कौन-कौन सी विभिन्नताएं पाई जाती हैं?
उत्तर:
भारत की भौगोलिक विभिन्नता के कारण भारत में कई प्रकार की विभिन्नताएं पाई जाती हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है-
1. खाने-पीने की विभिन्नता-भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में खाने-पीने में बहुत विभिन्नता पाई जाती है। उत्तर भारत में लोग गेहूं का ज्यादा प्रयोग करते हैं। दक्षिण भारत तथा तटीय प्रदेशों में चावल का सेवन काफ़ी ज्यादा है। कई राज्यों में पानी की बहुतायत है तथा कहीं पानी की बहुत कमी है। कई प्रदेशों में सर्दी बहुत ज्यादा है इसलिए वहाँ गर्म कपड़े पहने जाते हैं तथा कई प्रदेश गर्म हैं या तटीय प्रदेशों में ऊनी वस्त्रों की ज़रूरत नहीं पड़ती। इस तरह खाने-पीने तथा कपड़े डालने में विभिन्नता है।

2. सामाजिक विभिन्नता-भारत के अलग-अलग राज्यों के समाजों में भी विभिन्नता पाई जाती है। हर क्षेत्र में बसने वाले लोगों के रीति-रिवाज, रहने के तरीके, धर्म, धर्म के संस्कार इत्यादि सभी कुछ अलग-अलग हैं। हर जगह अलग-अलग तरह से तथा अलग-अलग भगवानों की पूजा होती है। उनके धर्म अलग होने की वजह से रीति-रिवाज भी अलग-अलग हैं।

3. शारीरिक लक्षणों की विभिन्नता-भौगोलिक विभिन्नता के कारण से यहाँ के लोगों में विभिन्नता भी पाई जाती है। मैदानी क्षेत्रों के लोग लंबे-चौड़े तथा रंग में साफ़ होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में लोग नाटे पर चौड़े होते हैं तथा रंग भी सफेद होता है। दक्षिण भारतीय लोग भूमध्य रेखा के निकट रहते हैं इसलिए उनका रंग काला या सांवला होता है।

4. जनसंख्या में विभिन्नता-भौगोलिक विभिन्नता के कारण यहाँ के लोगों में विभिन्नता भी पाई जाती है। मैदानी क्षेत्रों के लोग लंबे चौड़े तथा रंग में साफ होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में लोग नाटे पर चौड़े होते हैं तथा रंग भी सफेद होता है। दक्षिण भारतीय लोग भूमध्य रेखा के निकट रहते हैं इसलिए उनका रंग काला या सांवला होता है।

प्रश्न 2.
भारत की सांस्कृतिक विविधता के बारे में बताएं।
उत्तर:
भारत में कई प्रकार की जातियां तथा धर्मों के लोग रहते हैं जिस कारण से उनकी भाषा, खान-पान, रहन सहन, परंपराएं, रीति-रिवाज इत्यादि अलग-अलग हैं। हर किसी के विवाह के तरीके, जीवन प्रणाली इत्यादि भी अलग अलग हैं। हर धर्म के धार्मिक ग्रंथ अलग-अलग हैं तथा उनको सभी अपने माथे से लगाते हैं। जिस प्रदेश में चले जाओ वहाँ का नृत्य अलग-अलग है। वास्तुकला, चित्रकला में भी विविधता देखने को मिल जाती है। हर किसी जाति या धर्म के अलग-अलग त्योहार, मेले इत्यादि हैं। सांस्कृतिक एकता में व्यापारियों, कथाकारों, कलाकारों इत्यादि का भी योगदान रहा है। इस तरह यह सभी सांस्कृतिक चीजें अलग-अलग होते हुए भी भारत में एकता बनाए रखती हैं।

प्रश्न 3.
भारतीय समाज की रूप-रेखा के बारे में बताएं।
अथवा
भारतीय समाज की संरचना का वर्णन करें।
उत्तर:
भारतीय समाज को निम्नलिखित आधारों पर समझा जा सकता है-
1. वर्गों का विभाजन-पुराने समय में भारतीय समाज जातियों में विभाजित था पर आजकल यह जाति के स्थान पर वर्गों में बँट गया है। व्यक्ति के वर्ग की स्थिति उसकी सामाजिक स्थिति पर निर्भर करती है। शिक्षा, पैसे इत्यादि के कारण अलग-अलग वर्गों का निर्माण हो रहा है।

2. धर्म निरपेक्षता-पुराने समय में राजा महाराजाओं के समय में धर्म को काफ़ी महत्त्व प्राप्त था। राजा का जो धर्म होता था उसकी ही समाज में प्रधानता होती थी पर आजकल धर्म की जगह धर्म-निरपेक्षता ने ले ली है। व्यक्ति अन्य धर्मों को मानने वालों से नफ़रत नही करता बल्कि प्यार से रहता है। हर कोई किसी भी धर्म को मानने तथा उसके रीति-रिवाजों को मानने को स्वतंत्र है। समाज या राज्य का कोई धर्म नहीं है। भारतीय समाज में धर्म-निरपेक्षता देखी जा सकती है।

3. प्रजातंत्र-आज का भारतीय समाज प्रजातंत्र पर आधारित है। पुराने समय में समाज असमानता पर आधारित था परंतु आजकल समाज में समानता का बोल-बाला है। देश की व्यवस्था चुनावों तथा प्रजातंत्र पर आधारित है। इसमें प्रजातंत्र के मल्यों को बढ़ावा मिलता है। इसमें किसी से भेदभाव नहीं होता तथा किसी को उच्च या निम्न नहीं समझा जाता है।

प्रश्न 4.
आश्रम व्यवस्था के बारे में बताएं।
उत्तर:
हिंदू समाज की रीढ़ का नाम है-आश्रम व्यवस्था। आश्रम शब्द श्रम शब्द से बना है जिसका अर्थ है प्रयत्न करना। आश्रम का शाब्दिक अर्थ है जीवन यात्रा का पड़ाव। जीवन को चार भागों में बाँटा गया है। इसलिए व्यक्ति को एक पड़ाव खत्म करके दूसरे में जाने के लिए स्वयं को तैयार करना होता है। यह पड़ाव या आश्रम है। हमें चार आश्रम दिए गए हैं-
1. ब्रह्मचर्य आश्रम-मनुष्य की औसत आयु 100 वर्ष मानी गई है तथा हर आश्रम 25 वर्ष का माना गया है। पहले 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम के माने गए हैं। इसमें व्यक्ति ब्रह्म के अनुसार जीवन व्यतीत करता है। वह विद्यार्थी बन कर अपने गुरु के आश्रम में रह कर हर प्रकार की शिक्षा ग्रहण करता है तथा गुरु उसे अगले जीवन के लिए तैयार करता है।

2. गृहस्थ आश्रम-पहला आश्रम तथा विद्या खत्म करने के बाद व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। यह 26-50 वर्ष तक चलता है। इसमें व्यक्ति विवाह करवाता है, संतान उत्पन्न करता है, अपना परिवार बनाता है. जीवन यापन करता है, पैसा कमाता है तथा दान देकर लोगों की सेवा करता है। इसमें व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति करता है।

3. वानप्रस्थ आश्रम-यह तीसरा आश्रम है जोकि 51-75 वर्ष तक चलता है। जब व्यक्ति इस उम्र में आ जाता है तो वह अपना सब कुछ अपने बच्चों को सौंपकर भगवान की भक्ति के लिए जंगलों में चला जाता है। इसमें व्यक्ति घर की चिंता छोड़कर मोक्ष प्राप्त करने में ध्यान लगाता है। जरूरत पड़ने पर वह अपने बच्चों को सलाह भी दे सकता है।

4. संन्यास आश्रम-75 साल से मृत्यु तक संन्यास आश्रम चलता है। इसमें व्यक्ति हर किसी चीज़ का त्याग कर देता है तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए भगवान की तरफ ध्यान लगा देता है। वह जंगलों में रहता है, कंद मूल खाता है तथा मोक्ष के लिए वहीं भक्ति करता रहता है तथा मृत्यु तक वहीं रहता है।

प्रश्न 5.
वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊंची स्थिति किस की थी?
उत्तर:
वर्ण व्यवस्था में चार प्रकार के वर्ण बताये गये हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं चौथा वर्ण। इन सभी में से सबसे ऊंची स्थिति या दर्जा ब्राह्मणों का माना गया था, बाकी तीनों वणों को ब्राह्मणों के बाद की स्थिति प्राप्त थी। सभी वर्गों से ऊपर की स्थिति के मुख्य कारण माने गये कि उस वर्ग ने समाज का धार्मिक क्षेत्र में एवं शिक्षा के क्षेत्र में मार्ग-दर्शन करना था। अर्थ यह है कि समाज को शिक्षा प्रदान करना था। इस प्रकार माना गया है कि ब्राह्मण वर्ण के व्यक्तियों को राज दरबारों में ‘राज गुरु’ का दर्जा प्राप्त होगा और राज्य प्रबंधन के विषय में राजा उनसे सलाह मशविरा करेगा एवं मार्गदर्शन लेगा। इस विषय में कोई भी व्यक्ति इस वर्ण के विरुद्ध नहीं बोल सकता था, परंतु इस बारे में राजा पुरोहित (राजगुरु) की आज्ञा मानने को बाध्य नहीं होता था। सामान्यतः उनकी राय को मान ही लिया जाता था।

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प्रश्न 6.
आश्रम व्यवस्था के सामाजिक महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
आश्रम व्यवस्था, व्यक्ति के जीवन का सर्वपक्षीय विकास है। इस व्यवस्था में व्यक्ति के जैविक, भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास की ओर पूरा ध्यान दिया गया था। यह व्यवस्था मनुष्य को उसके सामाजिक कर्तव्यों के प्रति सचेत करती थी। व्यक्ति को उसकी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने में भी सहायक होती थी। आश्रम व्यवस्था में अपने अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों की ओर ज्यादा ध्यान दिलाती थी। इस कारण से समाज में ज्यादा संगठन सहयोग एवं संतुलन बनाये रखा जाता था। इस व्यवस्था में व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं का ध्यान भी रखा जाता था। भावार्थ कि आदमी का संपूर्ण विकास भी होता था। इस व्यवस्था के अनुसार वह अपनी सारी सामाजिक ज़िम्मेदारियों को सही ढंग से निभा सकता था।

प्रश्न 7.
पुरुषार्थ के भिन्न-भिन्न आधार कौन-से हैं?
अथवा
पुरुषार्थ के मुख्य उद्देश्य क्या-क्या हैं?
उत्तर:
पुरुषार्थ का अर्थ है व्यक्ति का ‘मनोरथ’ या इच्छा। इस प्रकार मनुष्य की इच्छा सुखी जीवन जीने की होती है, पुरुषार्थ प्रणाली व्यक्ति की इन्हीं इच्छाओं, ‘आवश्यकता और ज़रूरतों को, जोकि मानवीय जीवन का आधार होती हैं पूरा करती है। मनुष्य की इन्हीं सारी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को पुरुषार्थ प्रणाली में ‘चार भागों’ में विभक्त कर दिया गया है और ये चारों भाग हैं ‘धर्म’, ‘अर्थ’, ‘काम’ और ‘मोक्ष’। इन सभी भागों में व्यक्ति अलग-अलग तरह के कार्य संपन्न करता है। धर्म का कार्य है व्यक्ति को नैतिक नियमों में रहना और सही आचरण करना। ‘अर्थ’ के संबंध में व्यक्ति धन को कमाता एवं खर्च करता है और अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करता है।

‘काम’ के पुरुषार्थ में वह अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करता है। विवाह इत्यादि करके संतान उत्पत्ति करके अपने वंश को आगे बढ़ाता है। इसी परंपरा में वह अंतिम पुरुषार्थ जोकि ‘मोक्ष’ माना गया है को ओर अग्रसर होता है जोकि मनुष्य का अंतिम उद्देश्य जाना जाता है। इस तरह से पुरुषार्थ मनुष्य के कर्तव्यों को निश्चित करता है एवं हर समय उसका मार्गदर्शन करता है।

प्रश्न 8.
संस्कार क्या होते हैं?
अथवा
संस्कार कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर:
संस्कार, शरीर की शुद्धि के लिए होते हैं, इस प्रकार व्यक्ति के जन्म से ही संस्कार शुरू हो जाते हैं। कई संस्कार तो जन्म से पहले ही हो जाते हैं और सारी जिंदगी चलते रहते हैं। हमारे गृह सूत्र के अनुसार 11 संस्कार हैं। ‘गोत्र’ धर्म अनुसार इनकी संख्या चालीस है। इस तरह मनु स्मृति में नौ संस्कारों के विषय में बताया गया है। इनमें से कुछ निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण संस्कार हैं-

  • गर्भाधान संस्कार
  • जाति धर्म संस्कार
  • नामकरण संस्कार
  • निष्करण संस्कार
  • मुंडन संस्कार
  • चूड़ाधर्म संस्कार
  • कर्ण वेध संस्कार
  • सवित्री संस्कार
  • समवर्तन संस्कार
  • विवाह संस्कार
  • अंतेष्ठि संस्कार।

प्रश्न 9.
वर्ण की उत्पत्ति का परंपरागत सिद्धांत बताएं।
उत्तर:
परंपरागत पुरुष सिद्धांत-वर्ण प्रणाली की उत्पत्ति की सबसे पहली चर्चा ऋग्वेद के ‘पुरुष सूक्त’ में मिलती है, ऋग्वेद के गद्यांश में इस व्यवस्था का वर्णन है, इसी को ‘पुरुष-सूक्त’ कहा गया है। ‘पुरुष-सूक्त’ में सामाजिक व्यवस्था की तुलना एक पुरुष के साथ प्रतीक के रूप में की गई है, जोकि ‘सर्वव्यापी पुरुष’ या समूची मानव जाति का प्रतीक है। इस पुरुष को विश्व पुरुष, सर्वपुरुष या परम पिता परमात्मा भी कहा गया है। इस ‘विश्व पुरुष’ के अलग-अलग अंगों को अर्थात् शारीरिक अंगों को चारों वर्गों की उत्पत्ति की तरह दर्शाया गया है। इस ‘विश्व पुरुष’ के मुंह से ‘ब्राह्मणों’ की उत्पत्ति, बांहों से ‘क्षत्रियों की उत्पत्ति जांघों से ‘वैश्यों’ की उत्पत्ति एवं पैरों से ‘चौथे वर्ण’ की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है।

यह सभी प्रतीकात्मक है। इस व्यवस्था में ‘ब्राह्मण’ का कार्य मानव जाति को ज्ञान एवं उपदेश देना है जो मुंह के द्वारा ही संभव है। मनुष्य की बाहें (बाजू) शक्ति का प्रतीक हैं, इसलिए ‘क्षत्रिय’ का मुख्य कार्य समाज या देश की रक्षा करना है, वैश्यों के बारे में कहीं कुछ मतभेद मिलते हैं पर उनकी उत्पत्ति के बारे में जंघा से जो दर्शाया गया, जिससे यह प्रतीत होता है कि इस वर्ग का काम मुख्य रूप से भोजन उपलब्ध करवाना भावार्थ खेती इत्यादि या ‘व्यापार’ करना दर्शाया गया है।

इसी प्रकार चौथे वर्ण की उत्पत्ति को पैरों से माना गया है, जो यह पूरे शारीरिक ढांचे की सेवा करता है, इस तरह चौथे वर्ण का कार्य पूरे समाज की सेवा करना था। इस तरह इस ‘विश्व पुरुष’ के विभिन्न अंगों से वर्ण निकले हैं या पैदा हुए हैं। इस प्रकार जैसी उनकी उत्पत्ति हुई, उसी अनुसार उनको कार्य दिये गये हैं। इस तरह ये सभी अलग-अलग न होकर एक-दूसरे पर निर्भर हैं।

प्रश्न 10.
वर्ण की उत्पत्ति का रंग का सिद्धांत बताएं।
उत्तर:
वर्ण या रंग का सिद्धांत-वर्ण शब्द का अर्थ है रंग। महाभारत में भृगु ऋषि ने भारद्वाज मुनि को वर्ण प्रणाली की उत्पत्ति का आधार आदमी की चमड़ी के रंग अनुसार बताया है। इस सिद्धांत के अनुसार सबसे पहले ‘ब्रह्मा’ से ‘ब्राह्मणों’ की उत्पत्ति हुई। इसके पश्चात् क्षत्रिय, वैश्य और चौथे वर्ण की। इस उत्पत्ति का मुख्य कारण मनुष्य की चमड़ी का रंग था। इस विचारधारा के अनुसार ‘ब्राह्मणों’ का रंग ‘सफ़ेद’, क्षत्रिय का ‘लाल’, वैश्यों का ‘पीला’ एवं चौथे वर्ण को ‘काला’ रंग प्राप्त हुआ।

भृगु ऋषि के अनुसार वर्ण का सिद्धांत सिर्फ रंग केवल चमड़ी के रंग के आधार पर न होकर बल्कि ‘कर्म’ एवं ‘गुणों’ पर आधारित है। उनके अनुसार जो लोग क्रोध करते हैं, कठोरता एवं वीरता दिखाते हैं वे ‘रजोगुण’ प्रधान होते हैं वहीं ‘क्षत्रिय’ कहलवाये। इसी प्रकार जिन लोगों ने खेतीबाड़ी एवं खरीद-फरोख्त में रुचि दिखाई वे पीत गुण (पित्तगुण) ‘वैश्य’ कहलवाये। जो लोग (प्राणी) लालची, लोभी और हिंसात्मक प्रवृत्ति के थे, वे लोग ‘सामगुण’ वाले कहलवाये गये। इस तरह रंग के आधार एवं कार्य-कलापों के लक्षणों के आधार पर वर्ण व्यवस्था की नींव रखी गई।

प्रश्न 11.
वर्ण की उत्पत्ति के कर्म तथा धर्म का सिद्धांत का वर्णन करें।
उत्तर:
कर्म एवं धर्म का सिद्धांत-मनु स्मृति में वर्ण धर्म के लिए अलग-अलग तरह का महत्त्व बताया गया है, इसमें कर्मों की महत्ता का वर्णन है। मनु के अनुसार शक्ति को अपने वर्ण द्वारा निर्धारित कार्य ही करने चाहिए। उसे अपने से उच्च या निम्न वर्गों वाला कार्य नहीं करना चाहिए। यह हो सकता है कुछ लोग अपने वर्ण अनुसार कार्य ठीक ढंग से न कर पायें, पर फिर भी उन्हें अपने वर्ण धर्म का पालन ज़रूर करना चाहिए। मनु स्मृति अनुसार किसी और वर्ण के कार्य को करने की अपेक्षा अपने वर्ण कार्य को आधा कर लेना ही अच्छा होता है।

इस सिद्धांत के अनुसार ‘वर्णों’ का प्रबंध, समाज की आवश्यकतानुसार होता है और यह था भी इसी प्रकार। इस सिद्धांत के अनुसार जो कार्य थे, वे थे-धार्मिक कार्यों की पूर्ति, समाज एवं राज्य का प्रबंध, आर्थिक कार्य और सेवा करने के कार्य। इन्हीं सभी कार्यों को करने हेतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं चौथे वर्ण से पूर्ति हुई। इस सिद्धांत अनुसार कर्म के साथ धर्म भी जुड़ा हुआ है। हिंदुओं की मान्यतानुसार पिछले जन्मों के कर्म वर्तमान जीवन को निर्धारित करते हैं। पिछले जन्म के कर्मों के आधार पर विभिन्न तरह के लोग अलग-अलग सामाजिक ज़रूरतों की पूर्ति करते हैं। इस तरह अपने अगले जन्म के निर्धारण के लिए व्यक्ति को वर्तमान में सही कार्य करने होंगे।

प्रश्न 12.
वर्ण की उत्पत्ति का गुणों का सिद्धांत बताएं।
उत्तर:
गुणों का सिद्धांत-वर्ण प्रणाली की उत्पत्ति के संबंध में ‘गुणों’ को आधार माना गया है। इस सिद्धांत के अनुसार, सभी इंसान जन्म के समय ‘निम्न’ होते हैं। ज्यों-ज्यों व्यक्ति गुणों को अपनाता जाता है त्यों-त्यों उसका समाज में वर्ण भी निश्चित होता जाता है। इस सिद्धांत अनुसार ज्यों-ज्यों व्यक्ति को संस्कार मिलते हैं और वह इन संस्कारों द्वारा, जीवन की अलग-अलग अवस्थाओं में प्रवेश करता है और भिन्न-भिन्न गुणों को धारण करता जाता है।

इस तरह जीवन के तरीके एवं गुणों के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता है। इसी के आधार पर ही वर्गों का वर्गीकरण होता है। इन्हीं ‘गुणों के सिद्धांत’ का वर्णन एवं व्याख्यान ‘गीता’ में भी किया गया है। इस सिद्धान्त को “त्रिगुण’ सिद्धांत भी कहा गया है। हिंदुओं की विचारधारा अनुसार मानवीय कार्यों में तीन प्रकार के गुणों को वर्णित किया गया है और वे गुण हैं-‘सतोगुण’, ‘रजोगुण’। ‘तमोगुण’ इस प्रकार ‘सतोगुण’ में सद्विचार, अच्छी सोच और सदाचार शामिल है।

‘रजोगुण’ में भोग-विलास, ऐश्वर्य का जीवन, अहंकार और बहादुरी का शुमार है। इन सभी गुणों में सभी से नीचे ‘तमोगुण’ आता है, जिसमें अशिष्टता, असभ्यता, अति भोग विलास इत्यादि को शामिल किया गया था। इस तरह ‘सतोगुण’ वाले व्यक्तियों को ब्राह्मणों की श्रेणी में रखा गया था। दूसरी श्रेणी में ‘रजोगुण’ वालों में क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ग को शामिल किया गया था।

अंत में ‘तमोगुण’ वाली प्रवृत्ति के व्यक्तियों को चौथे वर्ण का दर्जा दिया गया था। इस व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे मौके मिलते हैं, जिसमें वह अपनी प्रतिभा का विकास कर सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार हर व्यक्ति को उसके स्वभाव (प्रकृति के अनुरूप) उसकी स्थिति एवं कार्य’ दिये जाते हैं, जोकि सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप ही होते हैं।

प्रश्न 13.
वर्ण की उत्पत्ति के द्विज तथा जन्म के सिद्धांत का वर्णन करें।
उत्तर:
(i) द्विज सिद्धांत-भारद्वाज मुनि ने भृगु ऋषि के वर्ण सिद्धांत को मान्यता नहीं दी, फिर अपना ‘द्विज सिद्धांत’ पेश किया। इस अनुसार सबसे पहले ‘ब्राह्मण’ पैदा हुए, जिसे ‘द्विज’ का नाम दिया गया। द्विज लोग अपने कार्य-कलापों के आधार पर चार भिन्न-भिन्न श्रेणियों में बांटे गये, जिन्हें चार वर्ण कहा गया है। इन्हीं लोगों में से जो लोग ज्यादा ‘गुस्सैल’ एवं साहसी थे उन्हें क्षत्रिय कहा जाने लगा। इसी तरह जो व्यक्ति अपने ‘द्विज धर्म’ को छोड़कर खेतीबाड़ी एवं व्यापार करने लगे उन्हें ‘वैश्य’ की श्रेणी में माना गया और जो लोग अपना धर्म त्याग कर झूठ बोलने लग गये और अति भोगी-विलासी बन गये उन्हें ‘चौथा वर्ण’ कहा जाने लगा।

(ii) जन्म का सिदधांत-विदवान बी० के० चटोपाध्याय ने जन्म को वर्ण का कारण बताया है। इस संदर्भ में उन्होंने महाभारत की कई उदाहरणों का उल्लेख किया है। इस विषय में उन्होंने द्रोणाचार्य का वर्णन किया है जिसमें वह बताते हैं कि जन्म के आधार पर ही द्रोणाचार्य ‘क्षत्रिय’ जैसा कार्य करते हुए ब्राहमण कहलाये। इसी प्रकार पांडवों के स्वभाव में भारी अंतर होते हुए भी वे सभी क्षत्रिय कहलवाये। इसलिए यह स्पष्ट है कि परिवर्तनशील गुणों के आधार पर वर्ण को निर्धारित नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 14.
व्यक्ति को जीवन में कौन-से ऋण उतारने पड़ते हैं?
उत्तर:
व्यक्ति को जीवन में तीन ऋण उतारने पड़ते हैं तथा वह हैं देव ऋण, पितृ ऋण तथा ऋषि ऋण। देव ऋण उतारने के लिए व्यक्ति को देव यज्ञ करना पड़ता है तथा पवित्र अग्नि में भेंट देनी पड़ती है। यह ऋण व्यक्ति को इसलिए अदा करना पड़ता है ताकि उसको देवी-देवताओं से पानी, हवा, भूमि इत्यादि प्राकृतिक साधन प्राप्त होते हैं। पितृ का अर्थ है हमारे पूर्वज तथा बड़े बुजुर्ग। व्यक्ति अपने माता-पिता तथा पूर्वजों का ऋणि होता है क्योंकि वह उसे जन्म देकर बड़ा करते हैं।

इसलिए उसे यह ऋण उतारना पड़ता है। व्यक्ति ऋषियों का भी ऋणी होता है क्योंकि व्यक्ति को इनसे ही आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा उसे उनसे ही विद्या भी प्राप्त होती है। इसलिए व्यक्ति अपने गुरुओं का ऋणी होता है। इसलिए व्यक्ति को ब्रह्म यज्ञ करके, पढ़ाई करके तथा औरों को पढ़ाने के द्वारा गुरु के प्रति अपना ऋण चुकाना पड़ता है। इस प्रकार व्यक्ति को अपने जीवन में यह तीन ऋण उतारने पड़ते हैं।

प्रश्न 15.
वर्ण व्यवस्था का क्या अर्थ है?
उत्तर:
भारतीय हिंदू संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद का मिश्रण। इसके अनुसार परमात्मा को मिलना सबसे बड़ा सुख है, साथ-साथ में इस दुनिया के सुखों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसलिए इन दोनों तरह के सुखों के मिश्रण के लिए, हिंदू संस्कृति में एक व्यवस्था बनाई गई है जिसे ‘वर्ण-व्यवस्था’ कहते हैं। वर्ण प्रणाली एवं वर्ण व्यवस्था, हिंदू सामाजिक व्यवस्था का मूल आधार होने के साथ-साथ हिंदू धर्म का एक अटूट अंग है।

इसलिए वर्ण के साथ संबंधित कर्तव्यों को ‘वर्ण धर्म’ कहा जाता है। वर्ण प्रणाली में व्यक्ति एवं समाज के बीच में जो संबंध है उन्हें क्रमानुसार पेश किया गया है, जिसकी सहायता से व्यक्ति सामाजिक संगठन को ठीक ढंग से चलाने में अपनी मदद देता है। वर्ण प्रणाली के द्वारा भारतीय समाज को चार अलग-अलग भागों में बांटा गया है ताकि सामाजिक कार्य ठीक ढंग से चल सकें।

निबंधात्मकपश्न

प्रश्न 1.
प्राचीन भारत में एकता के कौन-कौन से तत्त्व थे?
उत्तर:
प्राचीन भारत में एकता के निम्नलिखित तत्त्व थे:
1. ग्रामीण समाज-प्राचीन भारत ग्रामीण समाज पर आधारित था। जीवन पद्धति ग्रामीण हुआ करती थी। लोगों का मुख्य कार्य कृषि हुआ करता था। काफ़ी ज़्यादा लोग कृषि या कृषि से संबंधित कार्यों में लगे रहते थे। जजमानी व्यवस्था प्रचलित थी। धोबी, लोहार इत्यादि लोग सेवा देने का काम करते थे। इनको सेवक कहते थे। बड़े-बड़े ज़मींदार सेवा के बदले पैसा या फसल में से हिस्सा दे देते थे। यह जजमानी व्यवस्था पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी। इस सबसे ग्रामीण समाज में एकता बनी रहती थी। नगरों में बनियों का ज्यादा महत्त्व था पर साथ ही साथ ब्राह्मणों इत्यादि का भी काफ़ी महत्त्व हुआ करता था। यह सभी एक-दूसरे से जुड़े हुआ करते थे जिससे समाज में एकता रहती थी।

2. संस्थाएं-समाज की कई संस्थाओं में गतिशीलता देखने को मिल जाती थी। परंपरागत सांस्कृतिक संस्थाओं में से नियुक्तियाँ होती थीं। शिक्षा के विद्यापीठ हुआ करते थे और बहुत-सी संस्थाएं हुआ करती थीं जो कि भारत में एकता का आधार हुआ करती थीं। ये संस्थाएं भारत में एकता का कारण बनती थीं।

3. भाषा-सभी भाषाओं की जननी ब्रह्म लिपि रहती है। हमारे सारे पुराने धार्मिक ग्रंथ जैसा कि वेद, पुराण इत्यादि सभी संस्कृत भाषा में लिखे हुए हैं। संस्कृत भाषा को पूरे भारत में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। इस को देववाणी भी कहते हैं क्योंकि यह कहा जाता है कि देवताओं की भी यही भाषा है।

4. आश्रम व्यवस्था-भारतीय समाज में एकता का सबसे बड़ा आधार हमारी संस्थाएं जैसे आश्रम व्यवस्था रही है। हमारे जीवन के लिए चार आश्रमों की व्यवस्था की गई है जैसे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास। व्यक्ति को इन्हीं चार आश्रमों के अनुसार जीवन व्यतीत करना होता था तथा इनके नियम भी धार्मिक ग्रंथों में मिलते थे। यह आश्रम व्यवस्था पूरे भारत में प्रचलित थी क्योंकि हर व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य है मोक्ष प्राप्त करना जिसके लिए सभी इसका पालन करते थे। इस तरह यह व्यवस्था भी प्राचीन भारत में एकता का आधार हुआ करती थी।

5. पुरुषार्थ-जीवन के चार प्रमुख लक्ष्य होते हैं जिन्हें पुरुषार्थ कहते हैं। यह हैं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। शुरू में सिर्फ ब्राह्मण हुआ करते थे। परंतु धीरे-धीरे और वर्ण जैसे क्षत्रिय, वैश्य तथा चतुर्थ वर्ण सभी का अंतिम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति या मोक्ष प्राप्त करना होता था तथा सभी को इन पुरुषार्थों के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करना होता था। धर्म का योग अपनाते हुए, अर्थ कमाते हुए, समाज को बढ़ाते हुए मोक्ष को प्राप्त करना ही व्यक्ति का लक्ष्य है। सभी इन की पालना करते हैं। इस तरह यह भी एकता का एक तत्त्व था।

6. कर्मफल-कर्मफल का मतलब होता है काम। कर्म का भारतीय संस्कृति में काफ़ी महत्त्व है। व्यक्ति का अगला जन्म उसके पिछले जन्म में किए गए कर्मों पर निर्भर है। अगर अच्छे कर्म किए हैं तो जन्म अच्छी जगह पर होगा नहीं तो बुरी जगह पर। यह भी हो सकता है कि अच्छे कर्मों के कारण आपको जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाए। इसी को कर्म फल कहते हैं। यह भी प्राचीन भारतीय समाज में एकता का एक तत्त्व था।

7. तीर्थ स्थान-प्राचीन भारत में तीर्थ स्थान भी एकता का एक कारण हुआ करते थे। चाहे ब्राहमण हो या क्षत्रिय, या वैश्य सभी हिंदुओं के तीर्थ स्थान एक हुआ करते थे। सभी को एकता के सूत्र में बाँधने में तीर्थ स्थानों का काफ़ी महत्त्व हुआ करता था। मेलों, उत्सवों, पर्यों पर सभी इकट्ठे हुआ करते थे। तीर्थ स्थानों पर विभिन्न जातियों के लोग आया करते थे, संस्कृति का आदान-प्रदान हुआ करता था। इस तरह वह एकता के सूत्र में बँध जाते थे। काशी, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, रामेश्वरम्, वाराणसी, प्रयाग तथा चारों धाम प्रमुख तीर्थ स्थान हुआ करते थे। इस तरह इन सभी कारणों को देख कर हम कह सकते हैं कि प्राचीन भारत में काफ़ी एकता हुआ करती थी तथा उस एकता के बहुत-से कारण हुआ करते थे जिनका वर्णन ऊपर किया गया है।

प्रश्न 2.
प्राचीन भारतीय समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं के बारे में बताओ।
उत्तर:
प्राचीन भारतीय समाज की निम्नलिखित सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताएं थीं-
1. धर्म-हिंदू विचारधारा के अनुसार जीवन को संतुलित, संगठित तथा ठीक ढंग से चलाने के लिए कुछ नैतिक आदर्शों को बनाया गया है। ये सारे नैतिक आदर्श धर्म का रूप लेते हैं। इस तरह धर्म सिर्फ आत्मा या परमात्मा की ही व्याख्या नहीं करता बल्कि मनुष्य के संपूर्ण नैतिक जीवन की व्याख्या करता है। यह उन मानवीय संबंधों की भी व्याख्या करता है जो कि सामाजिक व्याख्या के आधार हैं। इस तरह धर्म एक अनुशासन है जो मनुष्य की आत्मा का विकास करके समाज को पूरा करता है तथा इस तरह धर्म प्राचीन भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है।

2. कर्मफल तथा पुनर्जन्म-पुराणों तथा धार्मिक ग्रंथों में लिखा गया है कि व्यक्ति को कर्म करने की आज़ादी है तथा इसी के अनुसार व्यक्ति जैसा कर्म करेगा उसको उसी के अनुसार फल भी भोगना पड़ेगा। उसके कर्मों के आधार पर ही उसे अलग-अलग योनियों में जन्म प्राप्त होगा। व्यक्ति के जीवन का परम उद्देश्य है जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति, जिस को मोक्ष कहते हैं। इसलिए व्यक्ति को उस प्रकार के कार्य करने चाहिए जोकि उसे मोक्ष प्राप्त करने में मदद करें। इससे समाज भी अनुशासन में रहता है।

3. परिवार-परिवार भी प्राचीन भारतीय समाज की एक प्रमुख विशेषता थी। प्राचीन भारत में संयुक्त परिवार, पितृ-सत्तात्मक, पितृस्थानी, पितृवंशी इत्यादि परिवार के प्रकार हुआ करते थे। परिवार में पिता की सत्ता चलती थी तथा उसे ही सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। परिवार में पुत्र का महत्त्व काफ़ी ज्यादा था क्योंकि धर्म के अनुसार कई संस्कारों तथा यज्ञों के लिए पुत्र ज़रूरी हुआ करता था। परिवार समाज की मौलिक इकाई माना जाता था तथा परिवार ही समाज का निर्माण करते थे।

4. विवाह-भारतीय समाज में चाहे प्राचीन हो या आधुनिक विवाह को एक धार्मिक संस्कार माना जाता है। एक विवाह के प्रकार को आदर्श विवाह माना गया है। विवाह को तोड़ा नहीं जा सकता था। किसी खास हालत में ही दूसरा विवाह करवाने की आज्ञा थी। विवाह के बाद ही परिवार बनता था इसलिए विवाह को गृहस्थ आश्रम की नींव माना जाता है। इस तरह प्राचीन भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता विवाह प्रथा हुआ करती थी।

5. राज्य-प्राचीन भारतीय समाज में राज्य एक महत्त्वपूर्ण विशेषता हुआ करती थी। राज्य का प्रबंध राजा करता था तथा राजा और प्रजा के संबंध बहुत अच्छे हुआ करते थे। राज्य का कार्यभार सेनापति, अधिकारी, मंत्रीगण संभाला करते थे यानि कि अधिकारों का बँटवारा था। इससे यह कह सकते हैं कि प्रजा की भी सुना जाती थी। चाहे राजा किसी की बात मानने को बाध्य नहीं होता था पर फिर भी उसे प्रजा के कल्याण के कार्य करने पड़ते थे।

6. स्त्रियों की स्थिति-प्राचीन भारतीय समाज में स्त्रियों को कई प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। कोई भी यज्ञ पत्नी के बिना पूरा नहीं हो सकता था। स्त्री को शिक्षा लेने का अधिकार प्राप्त था। उसे अर्धांगिनी कहते थे। चाहे बाद के समय में स्त्रियों की स्थिति में काफ़ी गिरावट आ गई थी क्योंकि कई विद्वानों ने स्त्रियों के ऊपर पुरुषों के नियंत्रण पर जोर दिया है तथा कहा है कि स्त्री हमेशा पिता, पति तथा पुत्र के नियंत्रण में रहनी चाहिए। प्राचीन काल में स्त्रियों की स्थिति फिर भी ठीक थी पर समय के साथ-साथ इनमें गिरावट आ गई थी।

7. शिक्षा-प्राचीन समय में शिक्षा को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। पहले तीन वर्गों को शिक्षा लेने का अधिकार प्राप्त था। शिक्षा गुरुकुल में ही मिलती थी। वेदों पुराणों का पाठ पढ़ाया जाता था। गुरु शिष्य के आचरण के नियम भी विकसित थे तथा शिक्षा लेने के नियम भी विकसित थे।

8. व्यक्ति और सामाजिक संस्थाएं-व्यक्ति तथा सामाजिक संस्थाएं प्राचीन समाज का महत्त्वपूर्ण आधार हुआ करती थीं। पुरुषार्थ, आश्रम व्यवस्था समाज का आधार हुआ करते थे। चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष हुआ करते थे। व्यक्ति चौथे पुरुषार्थ यानि कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए पहले तीन पुरुषार्थों के अनुसार जीवन व्यतीत करते थे। इसके साथ आश्रम व्यवस्था भी मौजूद थी।

जीवन को चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रमों में बाँटा गया था। व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति के लिए अपना जीवन इन चारों आश्रमों के अनुसार व्यतीत करते थे। यह सभी भारतीय समाज को एकता प्रदान करते थे। इसी के साथ कर्म की विचारधारा भी मौजूद थी कि व्यक्ति जिस प्रकार के कर्म करेगा उसी प्रकार से उसे योनि या मोक्ष प्राप्त होगा। मोक्ष जीवन का अंतिम लक्ष्य होता था तथा सभी उसको प्राप्त करने के प्रयास करते थे।

प्रश्न 3.
पश्चिमीकरण के भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़े हैं? उनका वर्णन करो।
अथवा
पश्चिमीकरण अथवा पश्चिमी संस्कृति के कारण भारतीय समाज में क्या परिवर्तन आ रहे हैं? उनका वर्णन करो।
अथवा
भारत में पश्चिमीकरण के प्रभावों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पश्चिमीकरण के भारतीय समाज पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े:
(i) परिवार पर प्रभाव-पश्चिमीकरण के कारण शिक्षित युवाओं तथा महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति चेतना बढ़ गई। इस कारण लोगों ने ग्रामीण क्षेत्रों में अपने संयुक्त परिवारों को छोड़ दिया तथा वह शहरों में केंद्रीय परिवार बसाने लगे। परिवार के सदस्यों के संबंधों के स्वरूप, अधिकारों तथा दायित्व में परिवर्तन हुआ।

(ii) विवाह पर प्रभाव-पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के अंतर्गत लोगों में विवाह के धार्मिक संस्कार के प्रति श्रद्धा कम हो गई तथा इसे एक समझौता समझा जाने लगा। प्रेम विवाह तथा तलाकों का प्रचलन बढ़ गया, अंतर्जातीय विवाह बढ़ने लग गए। एक विवाह को ही ठीक समझा जाने लगा। विवाह को धार्मिक संस्कार न मानकर एक समझौता समझा जाने लगा जिसे कभी भी तोड़ा जा सकता है।

(ii) नातेदारी पर प्रभाव-भारतीय समाज में नातेदारी की मनुष्य के जीवन में अहम् भूमिका रहती है। मगर पश्चिमीकरण के कारण व्यक्तिवाद, भौतिकवाद, गतिशीलता तथा समय धन है, आदि अवधारणाओं का भारतीय संस्कृति में तीव्र विकास हुआ। इससे ‘विवाह मूलक’ तथा ‘रक्त मूलक’ (Iffinal & Consaguineoun) दोनों प्रकार की नातेदारियों पर प्रभाव पड़ा। द्वितीयक एवं तृतीयक (Secondary & Tertiary) संबंध शिथिल पड़ने लगे। प्रेम विवाहों तथा कोर्ट विवाहों में विवाहमूलक नातेदारी कमज़ोर पड़ने लगी।

(iv) जाति प्रथा पर प्रभाव-सहस्रों वर्षों से भारतीय समाज की प्रमुख संस्था, जाति में पश्चिमीकरण के कारण अनेक परिवर्तन हुए। अंग्रेजों ने भारत में आने के बाद बड़े-बड़े उद्योग स्थापित किये और यातायात तथा संचार के साधनों जैसे-बस, रेल, रिक्शा, ट्राम इत्यादि का विकास व प्रसार किया। इसके साथ-साथ भारतीयों को डाक, तार, टेलीविज़न, अख़बारों, प्रैस, सड़कों व वायुयान आदि सविधाओं को परिचित कराया। बड़े-साथ उदयोगों की स्थापना की गई। इनके कारण विभिन्न जातियों के लोग एक स्थान पर उद्योग में कार्य करने लग पड़े।

एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए आधुनिक यातायात के साधनों का प्रयोग होने लगा। इससे उच्चता व निम्नता की भावना में भी कमी आने लगी। एक जाति के सदस्य दूसरी जाति के व्यवसाय को अपनाने लग पड़े।

(v) अस्पृश्यता-अस्पृश्यता भारतीय जाति व्यवस्था का अभिन्न अंग रही है मगर समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व पर आधारित पश्चिमी मूल्यों ने जातीय भेदभाव को कम किया। जाति तथा धर्म पर भेदभाव किये बिना सभी के लिये शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश की अनुमति, सभी के लिए एक जैसी शिक्षा व्यवस्था, समान योग्यता प्राप्त व्यक्तियों के लिये समान नौकरियों पर नियुक्ति आदि कारकों से अस्पृश्यता में कमी आई। अंग्रेजों ने औद्योगीकरण व नगरीकरण को बढ़ावा दिया। विभिन्न जातियों के लोग रेस्टोरेंट, क्लबों में एक साथ खाने-पीने एवं बैठने लग पड़े। अतः पश्चिमीकरण के कारण भारत में अस्पृश्यता में कमी आई।

(vi) स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन -अंग्रेजों के भारत में आगमन के समय भारत में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी निम्न थी। सती प्रथा, पर्दा प्रथा तथा बाल-विवाह का प्रचलन था तथा विधवा पुनर्विवाह पर रोक होने के कारण महिलाओं की स्थिति काफ़ी दयनीय थी। अंग्रेज़ों ने सती प्रथा को अवैध घोषित किया तथा विधवा विवाह को पुनः अनुमति दी। पश्चिमी शिक्षा के प्रसार व प्रचार के माध्यम से बूंघट प्रथा में कमी आई।

पश्चिमीकृत महिलाओं ने पैंट-कमीज़ पहननी आरंभ की। लाखों महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति चेतना आई और उन्होंने केवल घर को संभालने की पारंपरिक भूमिका को त्यागकर पुरुषों के साथ कंधा मिलाकर दफ्तरों में विभिन्न पदों पर नौकरी करनी आरंभ कर दी। इस तरह स्त्रियां अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने में सफ़ल हुईं।

(vii) नव प्रशासनिक व्यवस्था का विकास–अंग्रेजी शासनकाल में भारत में आधुनिक नौकरशाही का विकास किया गया। असंख्य नये प्रशासनिक पदों का सृजन किया गया। भारतीय असैनिक सेवाएं (Indian Civil Services) प्रारंभ की जिनके माध्यम से प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं द्वारा उच्च अधिकारियों का चयन किया जाने लगा। नौकरशाही की बड़ी संरचना का निर्माण किया।

(viii) आर्थिक संस्थाओं का विकास-ब्रिटेन के भारत में शासनकाल के दौरान अनेक आर्थिक संस्थाओं का विकास हुआ। बैंकों की स्थापना की गई। श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण का विकास हुआ। देश में पूंजीवाद का बीजारोपण हुआ। कृषि एवं औद्योगिक श्रमिकों की समस्याएं बढ़ीं। वर्ग संघर्षों में बढ़ावा हुआ। हड़ताल, घेराव, तोड़-फोड़ तथा तालाबंदी होने लगी। आर्थिक संस्थाओं के विकास ने आज़ादी सेर आज़ादी के बाद देश में अर्थव्यवस्था को नया मोड़ दिया।

प्रश्न 4.
उपनिवेशवाद का क्या अर्थ है? औपनिवेशिक काल में भारत में किस प्रकार राष्ट्रवाद का उदय हुआ?
अथवा
भारत में राष्ट्रवाद के विकास के दो कारण लिखिए।
अथवा
उपनिवेशवाद ने अपने शत्रु राष्ट्रवाद को जन्म दिया। इस कथन की पुष्टि करें।
अथवा
‘उपनिवेशवाद की समझ’ के संदर्भ में विस्तृत चर्चा कीजिए।
उत्तर:
उपनिवेशवाद की प्रक्रिया औद्योगिक क्रांति के पश्चात् शुरू हुई जब पश्चिमी देशों के पास अधिक पैसा तथा बेचने के लिए अत्यधिक माल उत्पन्न होना शुरू हुआ होगा। पश्चिमी अथवा शक्तिशाली देशों के द्वारा एशिया तथा अफ्रीका के देशों को जीतने की प्रक्रिया तथा जीते हुए देशों में अपना शासन स्थापित करने की प्रक्रिया को उपनिवेशवाद कहा जाता है। उपनिवेशवाद का दौर 18वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक चला। इसमें मुख्य साम्राज्यवादी देश थे इंग्लैंड, फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन, जर्मनी तथा इटली इत्यादि। बाद में इसमें रूस, अमेरिका तथा जापान जैसे देश भी शामिल हो गए।

भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण :-भारत में राष्ट्रवाद के उदय के निम्नलिखित कारण थे:
(i) देश का राजनीतिक एकीकरण-ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने सभी भारतीय राज्यों को इकट्ठा करके देश का राजनीतिक एकीकरण कर दिया। इससे देश में राजनीतिक एकता स्थापित हुई तथा देश को एक ही प्रशासन तथा कानून प्राप्त हुए। लोगों में उपनिवेशवाद विरोधी भावनाओं के आने से एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण का उदय हुआ।

(ii) जनता का आर्थिक शोषण-ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा ब्रिटिश राज्य की सरकारों ने भारत के आर्थिक शोषण की नीति अपनाई। भारत की आर्थिक संपदा ब्रिटेन को जाने लगी तथा देश का आर्थिक विकास रुक गया। इसका परिणाम बेरोज़गारी, निर्धनता तथा सूखे के रूप में सामने आया। किसानों के ऊपर नयी भूमि व्यवस्थाएं लाद दी गईं। इस प्रकार की आर्थिक दुर्दशा से जनता में रोष उत्पन्न हो गया तथा उन्होंने उपनिवेशवाद का विरोध करना शुरू कर दिया।

(iii) पश्चिमी शिक्षा तथा विचार-भारत की ब्रिटिश विजय से भारतीयों को यूरोपियन लोगों में संपर्क आने का मौका प्राप्त हुआ। 19वीं शताब्दी में यूरोपीय देशों में राष्ट्रवादी आंदोलन चल रहे थे। भारतीयों ने पश्चिमी शिक्षा ग्रहण करनी शुरू की तथा पश्चिमी पुस्तकें पढ़नी शुरू की। समानता, स्वतंत्रता तथा भाईचारे के पश्चिमी विचारों का भारतीयों पर भी प्रभाव पड़ा। इससे भारतीयों को उपनिवेशवाद के परिणामों तथा भारत के शोषण का पता चला। इससे भारत के लोगों में जागृति उत्पन्न हो गयी।

(iv) प्रैस का योगदान-जनता को जागृत करने में प्रैस का बहुत बड़ा योगदान होता है। भारतीय तथा ब्रिटिश प्रैस ने भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न की। बहुत से समाचारपत्र छपने शुरू हो गए जिन्होंने जनता को उपनिवेशवाद के विरुद्ध जागृत किया।

(v) सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों का योगदान-सामाजिक तथा धार्मिक सुधार आंदोलनों ने भारतीयों में चेतना जागृत की। राजा राम मोहनराय, देवेंद्र नाथ, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, ईश्वरचंद्र विद्यासागर इत्यादि ने देश में राष्ट्रवाद जगाने में बड़ी भूमिका अदा की, जिस कारण जनता धीरे-धीरे जागृत हो गयी।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि देश में उपनिवेशवाद के विरोध में राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न करने में बहुत से कारणों का योगदान था।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय

प्रश्न 5.
पुरुषार्थों के आधारों के महत्त्व का वर्णन करो।
उत्तर:
हिंदू धर्म शास्त्रों में जीवन के चार उद्देश्य दिए गए हैं तथा इन चार उद्देश्यों की पूर्ति के लिए चार मुख्य पुरुषार्थ भी दिए गए हैं। इन पुरुषार्थों के आधारों का महत्त्व इस प्रकार है
1. धर्म का महत्त्व-धर्म का हमारे सामाजिक जीवन में बहुत महत्त्व है क्योंकि धर्म व्यक्ति की अलग-अलग इच्छाओं, ज़रूरतों, कर्तव्यों तथा अधिकारों में संबंध स्थापित करता है। यह इन सभी को व्यवस्थित तथा नियमित भी करता है। जब व्यक्ति तथा समाज अपने कर्तव्यों की धर्म के अनुसार पालना करते हैं तो समाज में शांति तथा व्यवस्था स्थापित हो जाती है तथा वह उन्नति की तरफ कदम बढ़ाता है।

धार्मिक शास्त्रों में लिखा गया है कि अगर व्यक्ति अर्थ तथा काम की पूर्ति धर्म के अनुसार करे तो ही वह ठीक है तथा अगर वह इन की पूर्ति धर्म के अनुसार न करे तो समाज में नफ़रत, द्वेष इत्यादि बढ़ जाते हैं। यह कहा जाता है कि धर्म ही सच है। इसके अलावा सब कुछ झूठ है। व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन धर्म के बिना संभव ही नहीं है। धर्म प्रत्येक व्यक्ति का तथा और सभी पुरुषार्थों का मार्ग दर्शन करता है। इस तरह धर्म का हमारे लिए बहुत महत्त्व है।

2. अर्थ का महत्त्व-मनष्य की आर्थिक ज़रूरतों की पर्ति अर्थ दवारा होती है। धर्म से संबंधित सभी कार्य अर्थ की मदद से ही पूर्ण होते हैं। व्यक्ति की प्रत्येक प्रकार की इच्छा अर्थ तथा धन द्वारा ही पूर्ण होती है। व्यक्ति को अपने जीवन में पाँच यज्ञ पूर्ण करने ज़रूरी होते हैं तथा यह अर्थ की मदद से ही हो सकते हैं। व्यक्ति अपने धर्म की पालना भी अर्थ की मदद से ही कर सकता है। पुरुषार्थ व्यवस्था में अर्थ को काफ़ी महत्त्व दिया गया है ताकि वह उचित तरीके से धन इकट्ठा करे तथा अपनी ज़रूरतें पूर्ण करे। व्यक्ति को अपने जीवन में कई ऋणों से मुक्त होना पड़ता है तथा यह अर्थ की मदद से ही हो सकते हैं। इस तरह अर्थ का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है।

3. काम का महत्त्व-अगर समाज तथा संसार की निरंतरता को कायम रखना है तो यह काम की मदद से ही संभव है। व्यक्ति को काम से ही मानसिक तथा शारीरिक सुख प्राप्त होते हैं। इस सुख को प्राप्त करने के बाद ही वह अंतिम उद्देश्य अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करने की तरफ बढ़ता है। काम से ही स्त्री तथा पुरुष का मिलन होता है तथा संतान उत्पन्न होती है।

काम से ही व्यक्ति में बहुत-सी इच्छाएं जागृत होती हैं जिससे मनुष्य समाज में रहते हुए अलग-अलग कार्य करता है तथा समाज का विकास करता है। धर्म तथा अर्थ के लिए काम बहुत ही आवश्यक है। काम की सहायता से व्यक्ति अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ धार्मिक ऋणों से मुक्त होता है तथा काम की मदद से पैदा इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए धन कमाता है। इस तरह काम भी हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।

4. मोक्ष का महत्त्व-चार पुरुषार्थों में से अंतिम पुरुषार्थ है मोक्ष। हिंदू शास्त्रों में सभी कार्य मोक्ष को ही ध्यान में रखकर निश्चित किए गए हैं। मोक्ष की इच्छा ही व्यक्ति को बिना किसी चिंता तथा दुःख के अपने कार्य सुचारु रूप के लिए प्रेरित करती है। प्रत्येक व्यक्ति का अंतिम उद्देश्य होता है मोक्ष प्राप्त करना तथा इसलिए ही वह अपना कार्य सुचारु रूप से करता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि प्रत्येक पुरुषार्थ के आधारों का अपना-अपना महत्त्व है तथा व्यक्ति अंतिम पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए पहले तीन पुरुषार्थों के अनुसार कार्य करता है।

 भारतीय समाज : एक परिचय HBSE 12th Class Sociology Notes

→ हम सभी समाज में रहते हैं तथा हमें समाज के बारे में कुछ न कुछ अवश्य ही पता होता है। इस प्रकार समाजशास्त्र भी एक ऐसा विषय है जिसे कोई भी शून्य से शुरू नहीं करता। समाजशास्त्र में हम समाज का अध्ययन करते हैं तथा हमें समाज के बारे में कुछ न कुछ अवश्य ही पता होता है।

→ हमें और विषयों का ज्ञान तो विद्यालय, कॉलेज इत्यादि में जाकर प्राप्त होता है परंतु समाज के बारे में हमारा ज्ञान बिना किसी औपचारिक शिक्षा प्राप्त किए ही बढ़ जाता है। इसका कारण यह है कि हम समाज में रहते हैं, पलते हैं तथा इसमें ही बड़े होते हैं। हमारा इसके बारे में ज्ञान अपने आप ही बढ़ता रहता है।

→ इस पाठ्य-पुस्तक का उद्देश्य भारतीय समाज से विद्यार्थियों का परिचय कराना है परंतु इसका परिचय सहज बोध से नहीं बल्कि समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से करवाना है। यहां पर उन सामाजिक प्रक्रियाओं की तरफ संकेत किया जाएगा जिन्होंने भारतीय समाज को एक आकार दिया है।

→ अगर हम ध्यान से भारतीय समाज का अध्ययन करें तो हमें पता चलता है कि उपनिवेशिक दौर में एक विशेष भारतीय चेतना उत्पन्न हुई। अंग्रेजों के शासन अथवा उपनिवेशिक शासन ने न केवल संपूर्ण भारत को एकीकृत किया बल्कि पूँजीवादी आर्थिक परिवर्तन तथा आधुनिकीकरण जैसी शक्तिशाली प्रक्रियाओं से भारत को परिचित कराया। उस प्रकार के परिवर्तन भारतीय समाज में लाए गए जो पलटे नहीं जा सकते थे। इससे समाज भी वैसा हो गया जैसा पहले कभी भी नहीं था।

→ औपनिवेशिक शासन में भारत का आर्थिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक एकीकरण हुआ परंतु इसकी भारी कीमत चुकाई गई। उपनिवेशिक शासन द्वारा भारत का शोषण किया गया तथा यहां प्रभुत्व स्थापित किया गया। इसके घाव के निशान अभी भी भारतीय समाज में मौजूद हैं। एक सच यह भी है कि उपनिवेशवाद से ही राष्ट्रवाद की उत्पत्ति हुई।

→ ऐतिहासिक दृष्टि से ब्रिटिश उपनिवेशवाद में भारतीय राष्ट्रवाद को एक आकार प्राप्त हुआ। उपनिवेशवाद के गलत प्रभावों ने हमारे समुदाय के अलग-अलग भागों के एकीकृत करने में सहायता की। पश्चिमी शिक्षा के कारण मध्य वर्ग उभर कर सामने आया जिसने उपनिवेशवाद को उसकी अपनी ही मान्यताओं के आधार पर चुनौती दी।

→ यह एक जाना-पहचाना सत्य है कि उपनिवेशवाद तथा पश्चिमी शिक्षा ने परंपराओं को दोबारा खोजने के कार्य (Rediscovery) को प्रोत्साहित किया। इस खोज के कारण ही कई प्रकार की सांस्कृतिक तथा सामयिक गतिविधियों का विकास हुआ। इससे राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय स्तरों पर समुदाय के नए उत्पन्न रूपों को सुदृढ़ता प्राप्त हुई।

→ उपनिवेशवाद के कारण भारत में बहुत-से नए वर्ग तथा समुदाय उत्पन्न हुए जिन्होंने हमारे स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नगरों में विकसित हुआ मध्य वर्ग राष्ट्रवाद का प्रमुख वाहक था जिसने स्वतंत्रता प्राप्ति के कार्य को नेतृत्व प्रदान किया। उपनिवेशिक हस्तक्षेपों के कारण हमारे धार्मिक तथा जातीय समुदायों को एक निश्चित रूप प्राप्त हुआ। इन्होंने भी बाद के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। समकालीन भारतीय समाज का भावी इतिहास जिन जटिल प्रक्रियाओं द्वारा विकसित हुआ तथा इसका अध्ययन ही हमारा उद्देश्य है।

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HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए.

1. वास्कोडिगामा भारत पहुँचा-
(A) 1857 ई० में
(B) 1498 ई० में
(C) 1492 ई० में
(D) 1600 ई० में
उत्तर:
(B) 1498 ई० में

2. प्लासी की लड़ाई हुई
(A) 1757 ई० में
(B) 1857 ई० में
(C) 1850 ई० में
(D) 1764 ई० में
उत्तर:
(A) 1757 ई० में

3. प्लासी की लड़ाई में हार हुई
(A) नवाब सिराजुद्दौला
(B) नवाब वाजिद अली शाह
(C) अलीवर्दी खाँ
(D) लॉर्ड क्लाइव
उत्तर:
(A) नवाब सिराजद्दौला

4. बक्सर की लड़ाई हुई
(A) 1757 ई० में
(B) 1764 ई० में
(C) 1773 ई० में
(D) 1784 ई० में
उत्तर:
(B) 1764 ई० में

5. इलाहाबाद की संधि कब हुई?
(A) 1757 ई० में
(B) 1773 ई० में
(C) 1765 ई० में
(D) 1764 ई० में
उत्तर:
(C) 1765 ई० में

6. ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार व उड़ीसा की दीवानी का अधिकार कब प्राप्त हुए?
(A) 1765 ई० में
(B) 1773 ई० में
(C) 1784 ई० में
(D) 1800 ई० में
उत्तर:
(A) 1765 ई० में

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

7. भारत में औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था की शुरुआत हुई
(A) गोवा से
(B) बंगाल प्रांत से
(C) मद्रास से
(D) बंबई से
उत्तर:
(B) बंगाल प्रांत से

8. बंगाल में ठेकेदारी प्रणाली की शुरुआत की
(A) लॉर्ड क्लाइव ने
(B) वारेन हेस्टिंग्ज़ ने
(C) लॉर्ड कॉनवालिस ने
(D) लॉर्ड डलहौजी ने
उत्तर:
(B) वारेन हेस्टिंग्ज़ ने

9. ब्रिटिश काल में लागू की जाने वाली भू-राजस्व प्रणालियाँ कौन-सी थीं ?
(A) स्थाई बन्दोबस्त
(B) रैयतवाड़ी व्यवस्था
(C) महालवाड़ी प्रणाली
(D) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(D) उपरोक्त सभी

10. कलेक्टर का मुख्य काम था
(A) दंड देना
(B) चुनाव करवाना
(C) कर एकत्र करवाना
(D) धन बाँटना
उत्तर:
(C) कर एकत्र करवाना

11. बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त किसने लागू किया?
(A) लॉर्ड कॉर्नवालिस ने
(B) लॉर्ड डलहौजी ने
(C) लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने
(D) लॉर्ड वेलेज्ली ने
उत्तर:
(A) लॉर्ड कॉर्नवालिस ने

12. बंगाल में स्थायी बंदोबस्त कब लागू किया गया?
(A) 1765 ई० में
(B) 1773 ई० में
(C) 1793 ई० में
(D) 1820 ई० में
उत्तर:
(C) 1793 ई० में

13. स्थायी बन्दोबस्त किसके साथ किया गया?
(A) जमींदारों के साथ
(B) मुजारों के साथ
(C) किसानों के साथ
(D) गाँवों के साथ
उत्तर:
(A) जमींदारों के साथ

14. वसूल किए गए लगान में से ज़र्मींदार को मिलता था-
(A) \(\frac{1}{2}\) भाग
(B) \(\frac{1}{11}\) भाग
(C) \(\frac{10}{11}\) भाग
(D) बिल्कुल भी नहीं
उत्तर:
(B) \(\frac{1}{11}\) भाग

15. वसूल किए गए लगान में से ज़र्मींदार को सरकारी खजाने में जमा करवाना होता था
(A) \(\frac{1}{5}\) भाग
(B) \(\frac{10}{11}\) भाग
(C) \(\frac{1}{11}\) भाग
(D) \(\frac{1}{2}\) भाग
उत्तर:
(B) \(\frac{10}{11}\) भाग

16. बंगाल में जोतदार थे
(A) गाँव के मुखिया
(B) प्रांत के नवाब
(C) भूमि पर काम करने वाले
(D) कर एकत्र करने वाले
उत्तर:
(A) गाँव के मुखिया

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

17. जमींदार का वह अधिकारी जो गाँव से भू-राजस्व इकट्ठा करता था, क्या कहलाता था?
(A) मंडल
(B) अमला
(C) लठियात
(D) साहूकार
उत्तर:
(B) अमला

18. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक्ट पास किया गया
(A) रेग्यूलेटिंग एक्ट
(B) पिट्स इंडिया एक्ट
(C) 1858 ई० का एक्ट
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) रेग्यूलेटिंग एक्ट

19. रेग्यूलेटिंग एक्ट पास किया गया
(A) 1858 ई० में
(B) 1784 ई० में
(C) 1773 ई० में
(D) 1757 ई० में
उत्तर:
(C) 1773 ई० में

20. रेग्यूलेटिंग के दोषों को दूर करने के लिए एक्ट पास किया गया
(A) पिट्स इंडिया एक्ट
(B) रेग्यूलेटिंग एक्ट
(C) चार्टर एक्ट
(D) रोलेट एक्ट
उत्तर:
(A) पिट्स इंडिया एक्ट

21. पिट्स इंडिया एक्ट पास किया गया
(A) 1773 ई० में
(B) 1784 ई० में
(C) 1813 ई० में
(D) 1850 ई० में
उत्तर:
(B) 1784 ई० में

22. मद्रास प्रेसीडेंसी में मुख्यतः कौन-सी भू-राजस्व प्रणाली लागू की गई?
(A) स्थायी बंदोबस्त
(B) ठेकेदारी प्रणाली
(C) महालवाड़ी प्रणाली
(D) रैयतवाड़ी प्रणाली
उत्तर:
(D) रैयतवाड़ी प्रणाली

23. दक्कन में किसान विद्रोह कब हुआ?
(A) 1818 ई० में
(B) 1820 ई० में
(C) 1875 ई० में
(D) 1855 ई० में
उत्तर:
(C) 1875 ई० में

24. मद्रास में रैयतवाड़ी बन्दोबस्त किसने लागू किया?
(A) लॉर्ड कॉर्नवालिस
(B) थॉमस मुनरो
(C) लॉर्ड विलियम बैंटिंक
(D) लॉर्ड वेलेजली
उत्तर:
(B) थॉमस मुनरो

25. रैयत कौन थे?
(A) किसान
(B) ज़मींदार
(C) साहूकार
(D) जोतदार
उत्तर:
(A) किसान

26. औपनिवेशिक काल में लागू किए जाने वाले भू-राजस्व थे
(A) इस्तमरारी बंदोबस्त
(B) रैयतवाड़ी बंदोबस्त
(C) महालवाड़ी बंदोबस्त
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

27. रैयतवाड़ी बन्दोबस्त को कहाँ लागू किया गया?
(A) बंगाल में
(B) पंजाब में
(C) असम में
(D) मद्रास में
उत्तर:
(D) मद्रास में

28. रैयतवाड़ी बन्दोबस्त कब लागू किया गया?
(A) 1820 ई० में
(B) 1793 ई० में
(C) 1795 ई० में
(D) 1850 ई० में
उत्तर:
(A) 1820 ई० में

29. ब्रिटिश संसद में पाँचवीं रिपोर्ट कब प्रस्तुत की गई?
(A) 1813 ई० में
(B) 1713 ई० में
(C) 1613 ई० में
(D) 1913 ई० में
उत्तर:
(A) 1813 ई० में

30. पहाड़िया लोग कहाँ रहते थे?
(A) कश्मीर की पहाड़ियों में
(B) राजमहल की पहाड़ियों में
(C) मनाली की पहाड़ियों में
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) राजमहल की पहाड़ियों में

31. पहाड़िया लोग खेती के लिए क्या प्रयोग करते थे?
(A) हल
(B) कुदाल
(C) नहर
(D) ट्रैक्टर
उत्तर:
(B) कुदाल

32. संथालों ने दामिन-इ-कोह की स्थापना कब की?
(A) 1812 ई० में
(B) 1832 ई० में
(C) 1822 ई० में
(D) 1932 ई० में
उत्तर:
(B) 1832 ई० में

33. संथार्लों का अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह कब हुआ?
(A) 1845 ई० में
(B) 1855 ई० में
(C) 1865 ई० में
(D) 1875 ई० में
उत्तर:
(B) 1855 ई० में

34. संथाल किन लोगों को घृणा से ‘दिकू’ कहते थे?
(A) साहूकार
(B) जमींदार
(C) जोतदार
(D) सभी बाहरी लोगों को
उत्तर:
(D) सभी बाहरी लोगों को

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35. डेविड रिकॉर्डो कौन था?
(A) इंग्लैण्ड का चिकिस्सक
(B) कम्पनी का इंजीनियर
(C) इंग्लैण्ड का अर्थशास्त्री
(D) फ्रांस का समाजशास्त्री
उत्तर:
(C) इंग्लैण्ड का अर्थशास्त्री

36. परितीमन कानून कब पारित किया गया?
(A) 1858 ई० में
(B) 1875 ई० में
(C) 1850 ई० में
(D) 1859 ई० में
उत्तर:
(D) 1859 ई० में

37. अमेरिका में गृह युद्ध कब आरंभ हुआ था?
(A) 1857 ई० में
(B) 1864 ई० में
(C) 1861 ई० में
(D) 1865 ई० में
उत्तर:
(C) 1861 ई० में

38. 1875 ई० का दक्कन विद्योह कहाँ से प्रारंभ हुआ?
(A) सूपा से
(B) हम्पी से
(C) अहमदनगर से
(D) बम्बई से
उत्तर:
(A) सूपा से

39. रैयतवाड़ी प्रणाली में भूमि का मालिक माना गया-
(A) ज़मींदार को
(B) रैयत को
(C) नवाब को
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) रैयत को

40. रैयतवाड़ी बंदोबस्त कितने समय के लिए किया?
(A) 30 वर्षों के लिए
(B) 50 वर्षों के लिए
(C) 20 वर्षों के लिए
(D) हमेशा के लिए
उत्तर:
(A) 30 वर्षों के लिए

41. बंबई दक्कन में रैयतवाड़ी बंदोबस्त शुरू किया-
(A) 1793 ई० में
(B) 1818 ई० में
(C) 1773 ई० में
(D) 1784 ई० में
उत्तर:
(B) 1818 ई० में

42. ब्रिटेन में ‘कपास आपूर्ति संघ’ की स्थापना की गई-
(A) 1850 ई० में
(B) 1853 ई० में
(C) 1857 ई० में
(D) 1858 ‘ई० में
उत्तर:
(C) 1857 ई० में

43. मैनचेस्टर कॉटन कंपनी बनी-
(A) 1853 ई० में
(B) 1857 ई० में
(C) 1858 ई० में
(D) 1859 ई० में
उत्तर:
(D) 1859 ई० में

44. अमेरिका का गृह युद्ध समाप्त हुआ-
(A) 1861 ई० में
(B) 1865 ई० में
(C) 1857 ई० में
(D) 1850 ई० में
उत्तर:
(B) 1865 ई० में

45. पहाड़िया लोग खेती करते थे-
(A) स्थायी खेती
(B) झूम खेती
(C) बागों की खेती
(D) मिश्रित खेती
उत्तर:
(B) झूम खेती

46. दामिन-इ-कोह नामक भू-भाग पर बसाया गया-
(A) संथालों को
(B) ज़मींदारों को
(C) पहाड़ियों को
(D) अंग्रेज़ों को
उत्तर:
(A) संथालों को

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

प्रश्न 1.
वास्कोडिगामा भारत कब आया?
उत्तर:
वास्कोडिगामा 1498 ई० में भारत पहुंचा।

प्रश्न 2.
प्लासी की लड़ाई कब हुई?
उत्तर:
प्लासी की लड़ाई 1757 ई० में हुई।

प्रश्न 3.
प्लासी की लड़ाई किस-किसके मध्य हुई?
उत्तर:
प्लासी की लड़ाई बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला व अंग्रेजों के बीच लड़ी गई।

प्रश्न 4.
बक्सर का युद्ध कब हुआ?
उत्तर:
बक्सर का युद्ध 1764 ई० में हुआ।

प्रश्न 5.
भारत में औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था की शुरुआत किस प्रांत में हुई?
उत्तर:
भारत में बंगाल प्रांत में औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था की शुरुआत हुई।

प्रश्न 6.
अंग्रेजों को दीवानी का अधिकार किस संधि से प्राप्त हुआ?
उत्तर:
1765 ई० में इलाहाबाद की संधि से अंग्रेज़ों को दीवानी का अधिकार प्राप्त हुआ।

प्रश्न 7.
दीवानी के अधिकार का क्या अर्थ था?
उत्तर:
दीवानी के अधिकार का अर्थ था-राजस्व वसूली का अधिकार।

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प्रश्न 8.
बंगाल में स्थायी बंदोबस्त कब व किसने शुरू किया?
उत्तर:
बंगाल में 1793 ई० में गवर्नर जनरल लॉर्ड कार्नवालिस ने स्थायी बंदोबस्त शुरू किया। इसे ज़मींदारी बंदोबस्त भी कहा जाता है।

प्रश्न 9.
बंगाल में भू-राजस्व की ठेकेदारी प्रणाली किसने लागू की?
उत्तर:
बंगाल के गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने भू-राजस्व की ठेकेदारी प्रणाली शुरू की।

प्रश्न 10.
ठेकेदारी (इजारेदारी) प्रणाली को और अन्य किस नाम से पुकारा गया?
उत्तर:
ठेकेदारी प्रणाली को फार्मिंग प्रणाली (Farming System) भी कहा गया।

प्रश्न 11.
ठेकेदारी प्रणाली का नियंत्रण किसे सौंपा गया?
उत्तर:
ठेकेदारी प्रणाली जिला कलेक्टरों के नियंत्रण में लागू की गई।

प्रश्न 12.
कलेक्टर का मुख्य काम क्या था?
उत्तर:
कलेक्टर का मुख्य काम कर ‘इकट्ठा’ करना था।

प्रश्न 13.
बंगाल में ग्राम-मुखिया को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
बंगाल में ग्राम-मुखिया को जोतदार या मंडल कहा जाता था।

प्रश्न 14.
बंगाल में सरकार ने स्थायी बंदोबस्त किसके साथ किया?
उत्तर:
बंगाल में सरकार ने स्थायी बंदोबस्त बंगाल के छोटे राजाओं एवं ताल्लुकेदारों के साथ किया।

प्रश्न 15. बंगाल में स्थायी बंदोबस्त किसने लागू किया?
उत्तर:
बंगाल के गवर्नर जनरल लॉर्ड कार्नवालिस ने स्थायी बंदोबस्त लागू किया।

प्रश्न 16.
बंगाल में स्थायी बंदोबस्त कब लागू किया गया?
उत्तर:
1793 ई० में बंगाल में स्थायी बंदोबस्त लागू किया गया।

प्रश्न 17.
स्थायी बंदोबस्त (इस्तमरारी प्रथा) कहाँ-कहाँ लागू किया गया?
उत्तर:
बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बनारस व उत्तरी कर्नाटक में स्थायी बंदोबस्त लागू किया गया।

प्रश्न 18.
स्थायी बंदोबस्त में बंगाल के छोटे राजाओं और ताल्लुकेदारों को किस रूप में वर्गीकृत किया गया?
उत्तर:
स्थायी बंदोबस्त में छोटे राजाओं व ताल्लुकेदारों को ‘ज़मींदारों’ के रूप में वर्गीकृत किया गया।

प्रश्न 19.
स्थायी बंदोबस्त की मुख्य विशेषता क्या थी?
उत्तर:
स्थायी बंदोबस्त में ज़मींदारों द्वारा सरकार को दी जाने वाली वार्षिक भूमि कर राशि स्थायी रूप से निश्चित कर दी गई।

प्रश्न 20.
ज़मींदार को वसूल किए गए लगान में से कितना भाग अपने पास रखना होता था?
उत्तर:
ज़मींदार को किसानों से वसूल किए गए लगान में से \(\frac{1}{11}\) भाग अपने पास रखना होता था।

प्रश्न 21. जमींदार को वसूल किए लगान में से कितना भाग सरकारी खजाने में जमा करवाना पड़ता था?
उत्तर:
ज़मींदार को किसानों से वसूल किए गए लगान में से \(\frac{10}{11}\) भाग कंपनी सरकार को देना होता था।

प्रश्न 22.
ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत की गई फरमिंगर रिपोर्ट किस नाम से जानी जाती है?
उत्तर:फरमिंगर रिपोर्ट पाँचवीं रिपोर्ट के नाम से जानी जाती है।

प्रश्न 23.
फरमिंगर रिपोर्ट का संबंध किससे था?
उत्तर:
फरमिंगर रिपोर्ट भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन व क्रियाकलापों के संदर्भ में एक विस्तृत रिपोर्ट थी।

प्रश्न 24.
सूर्यास्त विधि (Sunset Law) से क्या तात्पर्य था?
उत्तर:
सूर्यास्त विधि का तात्पर्य था कि निश्चित तारीख को सूर्य छिपने तक देय राशि भुगतान न कर पाने पर ज़मींदारी नीलाम कर दी जाती थी।

प्रश्न 25.
जोतदार कौन थे?
उत्तर:
बंगाल में ग्राम के मुखियाओं को जोतदार (मंडल) कहा जाता था।

प्रश्न 26.
जमीदार का कर एकत्र करने वाला अधिकारी क्या कहलाता था?
उत्तर:
ज़मींदार का कर एकत्र करने वाला अधिकारी ‘अमला’ कहलाता था।

प्रश्न 27.
बंगाल में बटाईदार को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
बटाईदार को अधियार या बरगादार कहा जाता था।

प्रश्न 28.
शास्त्रीय (क्लासिकल) अर्थशास्त्री एडम स्मिथ की प्रसिद्ध पुस्तक का नाम बताओ।
उत्तर:
शास्त्रीय अर्थशास्त्रीय एड्म स्मिथ की प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘राष्ट्रों की सम्पत्ति’ (Wealth of Nations) थी।

प्रश्न 29.
‘राष्ट्रों की सम्पत्ति’ पुस्तक में किस प्रकार के व्यापार का विरोध किया गया?
उत्तर:
‘राष्ट्रों की सम्पत्ति’ पुस्तक में व्यापारिक एकाधिकार का विरोध किया गया।

प्रश्न 30.
ब्रिटेन से लौटे कंपनी के कर्मचारियों की क्या कहकर खिल्ली उड़ाई जाती थी?
उत्तर:
ब्रिटेन से लौटे कंपनी के कर्मचारियों को ‘नवाब’ कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई जाती थी।

प्रश्न 31.
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए कौन-सा एक्ट पास किया गया?
उत्तर:
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया पर नियंत्रण के लिए सन् 1773 में ‘रेग्यूलेटिंग एक्ट’ पास किया गया।

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प्रश्न 32.
‘इलाहाबाद की संधि’ कब की गई थी?
उत्तर:
‘इलाहाबाद की संधि’ 12 अगस्त, 1765 को की गई थी।

प्रश्न 33.
रैयत’ शब्द से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘रैयत’ शब्द को किसान के लिए प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 34.
पहाड़िया लोगों के जीविकापार्जन के साधन क्या थे?
उत्तर:
झूम की खेती, जंगल के उत्पाद व शिकार पहाड़िया लोगों के जीविकापार्जन के साधन थे।

प्रश्न 35.
चार्टर एक्ट पास करने का क्या उद्देश्य था?
उत्तर:
चार्टर एक्ट के माध्यम से कंपनी को बाध्य किया गया कि वह भारत में अपने राजस्व, प्रशासन इत्यादि के संबंध में नियमित रूप से ब्रिटिश सरकार को सूचना प्रदान करे।

प्रश्न 36.
पहाडिया लोगों की खेती का तरीका क्या था?
उत्तर:
पहाड़िया लोग झूम खेती करते थे।

प्रश्न 37.
कुछ वर्षों के लिए खाली छोड़ी गई ज़मीन का पहाड़िया लोग किस रूप में प्रयोग करते थे?
उत्तर:
कुछ वर्षों के लिए खाली छोड़ी गई परती भूमि को पहाड़िया लोग पशु चराने के लिए प्रयोग करते थे।

प्रश्न 38.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहाड़िया क्षेत्रों में घुसपैठ क्यों शुरू की?
उत्तर:
संसाधनों का दोहन व प्रशासनिक दृष्टि से कंपनी ने पहाड़िया क्षेत्रों में घुसपैठ शुरू की।

प्रश्न 39. किस ब्रिटिश अधिकारी ने पहाड़िया लोगों से संधि के प्रयास शुरू किए?
उत्तर:
भागलपुर के कलेक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड (Augustus Cleveland) ने पहाड़िया लोगों से संधि के प्रयास शुरू किए।

प्रश्न 40.
रैयतवाड़ी व्यवस्था कब और कहाँ अपनाई गई ?
उत्तर:
रैयतवाड़ी व्यवस्था सन् 1820 में मद्रास प्रेसीडेंसी में अपनाई गई। इस व्यवस्था का जन्मदाता थॉमस मुनरो को माना जाता है। यह व्यवस्था 30 वर्षों के लिए लागू की गई।

प्रश्न 41.
फ्रांसिस बुकानन ने पहाड़िया क्षेत्र की यात्रा कब की?
उत्तर:
फ्रांसिस बुकानन ने 1810-11 ई० की सर्दियों में पहाड़िया क्षेत्र की यात्रा की।

प्रश्न 42.
पहाड़िया लोगों की जीवन-शैली का प्रतीक क्या था?
उत्तर:
पहाड़िया लोगों की जीवन-शैली का प्रतीक कुदाल था।

प्रश्न 43.
‘दामिन-इ-कोह’ किसे कहा गया?
उत्तर:
‘दामिन-इ-कोह’ उस विस्तृत भू-भाग को कहा गया जो कंपनी सरकार द्वारा संथालों को दिया गया।

प्रश्न 44.
कंपनी सरकार का संथालों के साथ क्या अनुबंध हुआ?
उत्तर:
कंपनी सरकार ने संथाल कृषकों के साथ यह अनुबंध किया कि उन्हें पहले दशक के अंदर प्राप्त भूमि के कम-से-कम दसवें भाग को कृषि योग्य बनाकर खेती करनी थी।

प्रश्न 45.
संथाल लोग दिकू किसे कहते थे?
उत्तर:
सरकारी अधिकारियों, ज़मींदारों व साहूकारों को संथाल दिकू (बाहरी लोग) कहते थे।

प्रश्न 46.
संथाल विद्रोह का मुख्य नेता कौन था?
उत्तर:
संथाल विद्रोह का मुख्य नेता सिधू मांझी था।

प्रश्न 47.
सीदो (सिधू) ने स्वयं को क्या बताया?
उत्तर:
सीदो ने स्वयं को देवी पुरुष और संथालों के भगवान् ‘ठाकुर’ का अवतार घोषित किया।

प्रश्न 48.
सीदो की हत्या कब की गई?
उत्तर:
1855 ई० में सीदो को पकड़कर मार दिया गया।

प्रश्न 49.
दक्कन क्षेत्र किसे कहा गया?
उत्तर:
बंबई व महाराष्ट्र के क्षेत्र को दक्कन कहा गया।

प्रश्न 50.
साहूकार किसे कहा गया?
उत्तर:
साहूकार, उसे कहा गया जो महाजन और व्यापारी दोनों हो, यानी धन उधार भी देता हो तथा व्यापार भी करता हो।

प्रश्न 51.
दक्कन को अंग्रेज़ी राज क्षेत्र में कब मिलाया गया?
उत्तर:
1818 ई० में पेशवा को हराकर दक्कन को अंग्रेजी राज क्षेत्र में मिला लिया गया।

प्रश्न 52.
रैयतवाड़ी राजस्व प्रणाली का जन्मदाता किसे माना जाता है?
उत्तर:
थॉमस मुनरो को रैयतवाड़ी राजस्व प्रणाली का जन्मदाता माना जाता है।

प्रश्न 53.
रैयतवाड़ी प्रणाली किन प्रांतों में लागू की गई?
उत्तर:
रैयतवाड़ी राजस्व प्रणाली को मद्रास प्रेसीडेंसी में लागू किया गया।

प्रश्न 54.
रैयतवाड़ी प्रणाली में बंदोबस्त किसके साथ किया गया?
उत्तर:
रैयतवाड़ी प्रणाली में सीधा किसानों या रैयत से ही बंदोबस्त किया गया।

प्रश्न 55.
रैयतवाड़ी प्रणाली में भूमि का मालिक किसे माना गया?
उत्तर:
रैयतवाड़ी प्रणाली में किसान को कानूनी तौर पर भूमि का मालिक मान लिया गया। जिस पर वह खेती कर रहा था।

प्रश्न 56.
रैयतवाड़ी बंदोबस्त कितने समय के लिए किया गया?
उत्तर:
रैयतवाड़ी बंदोबस्त 30 वर्षों के लिए किया गया।

प्रश्न 57.
बंबई दक्कन में रैयतवाड़ी बंदोबस्त कब शुरु किया गया?
उत्तर:
बंबई दक्कन में 1818 ई० में रैयत बंदोबस्त शुरु किया गया।

प्रश्न 58.
दक्कन में भयंकर अकाल कब पड़ा?
उत्तर:
1832-34 में दक्कन में भयंकर अकाल पड़ा।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

प्रश्न 59.
औद्योगिक युग में सबसे अधिक महत्त्व की वाणिज्यिक फसल कौन-सी थी?
उत्तर:
औद्योगिक युग में सबसे अधिक महत्त्व की वाणिज्यिक फसल कपास थी।

प्रश्न 60.
ब्रिटेन में ‘कपास आपूर्ति संघ’ की स्थापना कब की गई?
उत्तर:
ब्रिटेन में 1857 ई० में ‘क़पास आपूर्ति संघ’ की स्थापना की गई।

प्रश्न 61.
‘मैनचेस्टर कॉटन कंपनी’ कब बनाई गई?
उत्तर:
मैनचेस्टर कॉटन कंपनी’ 1859 ई० में बनाई गई।

प्रश्न 62.
अमेरिका में गृह युद्ध कब शुरु हुआ?
उत्तर:
अमेरिका में सन् 1861 में गृह युद्ध छिड़ गया जो उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका के बीच था।

प्रश्न 63.
अमेरिका का गृह युद्ध कब समाप्त हुआ?
उत्तर:
सन् 1865 में अमेरिका का गृह युद्ध समाप्त हो गया।

प्रश्न 64.
ब्रिटिश सरकार ने परिसीमन कानून कब बनाया?
उत्तर:
1859 ई० में सरकार ने परिसीमन कानून पास किया।

प्रश्न 65.
परिसीमन कानून का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
परिसीमन कानून का मुख्य उद्देश्य ब्याज के संचित होने से रोकना था।

प्रश्न 66.
परिसीमन कानून के अनुसार ऋणपत्रों को कितने समय के लिए मान्य माना गया?
उत्तर:
परिसीमन कानून के अनुसार किसान व ऋणदाता के बीच हस्ताक्षरित ऋण पत्र तीन वर्ष के लिए मान्य माना गया।

प्रश्न 67.
‘दक्कन दंगा आयोग’ ने ब्रिटिश संसद में अपनी रिपोर्ट कब प्रस्तुत की?
उत्तर:
‘दक्कन दंगा आयोग’ ने 1878 ई० में अपनी रिपोर्ट ‘दक्कन दंगा रिपोर्ट’ के नाम से प्रस्तुत की।

अति लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ठेकेदारी प्रणाली के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
बंगाल के नए गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स (1772-85) ने भूमि-कर वसूली की ठेकेदारी प्रणाली शुरू की। इसे ‘फार्मिंग प्रणाली’ (Farming System) भी कहा गया है। इसके अंतर्गत उच्चतम बोली लगाने वालों (Bidders) को कर वसूल करने का ठेका दे दिया जाता था। शुरू में ये ठेके पाँच वर्षों के लिए दिए गए, परंतु बाद में वार्षिक ठेके नीलाम किए जाने लगे।

प्रश्न 2.
‘दीवानी’ शब्द से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘दीवानी’ मुगल कालीन प्रशासन में एक महत्त्वपूर्ण पद था। इसका मुख्य कार्य आय-व्यय की व्यवस्था को सुनिश्चित करना था। भू-राजस्व प्रणाली निर्धारण भी दीवान ही करता था। अकबर काल में राजा टोडरमल एक बड़े चतुर, बुद्धिमान दीवान थे।

प्रश्न 3.
स्थायी बंदोबस्त के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
सन् 1793 में गवर्नर-जनरल लॉर्ड कार्नवालिस ने बंगाल में भू-राजस्व की एक नई प्रणाली अपनाई जिसे ‘ज़मींदारी प्रथा’ ‘स्थायी बंदोबस्त’ अथवा ‘इस्तमरारी-प्रथा’ कहा गया। यह प्रणाली बंगाल, बिहार, उडीसा तथा बनारस व उत्तरी कर्नाटक में लाग की गई थी।

प्रश्न 4.
स्थायी बंदोबस्त लागू करने के दो कारण बताओ।
उत्तर:
स्थायी बंदोबस्त लागू करने के निम्नलिखित कारण थे

1. व्यापार व राजस्व संबंधी समस्याओं का समाधान (Solution of Problems Relating to Trade and Land Revenue)-कंपनी के अधिकारियों को यह आशा थी कि भू-राजस्व को स्थायी करने से व्यापार तथा राजस्व से संबंधित उन सभी समस्याओं का समाधान निकल आएगा जिनका सामना वे बंगाल विजय के समय से ही करते आ रहे थे।

2. बंगाल की अर्थव्यवस्था में संकट (Crisis in the Bengal Economy)-1770 के दशक से बंगाल की अर्थव्यवस्था अकालों की मार झेल रही थी। कृषि उत्पादन में निरंतर कमी आ रही थी। अर्थव्यवस्था संकट में फँसती जा रही थी और ठेकेदारी प्रणाली में इससे निकलने के लिए कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था।

प्रश्न 5.
स्थायी बंदोबस्त में भू-राजस्व की दर ऊँची रखने के क्या कारण थे?
उत्तर:
स्थायी बंदोबस्त में भू-राजस्व की दर शुरू से ही अपेक्षाकृत काफी ऊँची तय की गई थी। इसके दो कारण थे : पहला भू-राजस्व किसानों के अधिशेष (surplus) को हड़पने का मुख्य स्रोत था। किसानों से प्राप्त यह धन प्रशासन चलाने के साथ-साथ व्यापार करने के लिए भी उपयोगी था। दूसरा, राजस्व की दर स्थायी तौर पर निर्धारित करते समय कंपनी के अधिकारियों ने इस तथ्य को ध्यान में रखा कि आगे चलकर खेती के विस्तार तथा कीमतों में बढ़ोतरी होने से आय में वृद्धि होगी, उसमें कंपनी सरकार अपना दावा कभी नहीं कर सकेगी। अतः भविष्य की भरपाई वे शुरू से ही करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अधिकतम स्तर तक भू-राजस्वों की माँग को निर्धारित किया।

प्रश्न 6.
सूर्यास्त विधि क्या थी?
उत्तर:
सूर्यास्त विधि से तात्पर्य था कि निश्चित तारीख को सूर्य छिपने तक देय राशि का भुगतान न कर पाने पर ज़मींदारियों की नीलामी की जा सकती थी। इसमें राजस्वों की माँग निश्चित थी। फसल हो या न हो या फिर ज़मींदार रैयत से लगान एकत्र कर पाए या ना कर पाए उसे तो निश्चित तिथि तक सरकारी माँग पूरी करनी होती थी।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था से पहले बंगाल में ज़मींदारों के पास क्या-क्या अधिकार थे?
उत्तर:
बंगाल में ज़मींदार छोटे राजा थे। उनके पास न्यायिक अधिकार थे और सैन्य टुकड़ियाँ भी। साथ ही उनकी अपनी पुलिस व्यवस्था थी। कंपनी की सरकार ने उनकी यह शक्तियाँ उनसे छीन लीं। उनकी स्वायत्तता को सीमित कर दिया।

प्रश्न 8.
बंगाल में ज़मींदारों की शक्ति सीमित करने के लिए कंपनी सरकार ने क्या किया?
उत्तर:
ज़मींदारों के सैनिक दस्तों को भंग कर दिया गया। साथ ही उनके सीमा शुल्क के अधिकार को भी खत्म कर दिया गया। उनके न्यायालयों को कंपनी द्वारा नियुक्त कलेक्टर के नियंत्रण में रख दिया गया। स्थानीय पुलिस प्रबंध भी कलेक्टर ने अपने हाथ में ले लिया। इस प्रकार ज़मींदार शक्तिहीन होकर पूर्णतः सरकार की दया पर निर्भर हो गया।

प्रश्न 9.
बंगाल के जोतदारों के शक्तिशाली होने के दो कारण बताओ।
उत्तर:
बंगाल के जोतदारों के शक्तिशाली होने के कारण निम्नलिखित थे

1. विशाल ज़मीनों के मालिक (Became Owner of VastAreas of Land)-जोतदार गाँव में ज़मीनों के वास्तविक मालिक थे। कईयों के पास तो हजारों एकड़ भूमि थी। वे बटाइदारों से खेती करवाते थे।

2. व्यापार व साहूकारी पर नियंत्रण (Control over Trade and Money Landing)-जोतदार केवल भू-स्वामी ही नहीं थे। उनका स्थानीय व्यापार व साहूकारी पर भी नियंत्रण था। वे एक व्यापारी, साहूकार तथा भूमिपति के रूप में अपने क्षेत्र के प्रभावशाली लोग थे।

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प्रश्न 10.
बंगाल में बटाईदारों को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
बंगाल में बटाइदारों को अधियार अथवा बरगादार कहा जाता था। वे जोतदार के खेतों में अपने हल और बैल के साथ काम करते थे। वे फसल का आधा भाग अपने पास और आधा जोतदार को दे देते थे।

प्रश्न 11.
बेनामी खरीददारी क्या थी?
उत्तर:
बंगाल में ज़मींदारों ने अपनी ज़मींदारी की भू-संपदा बचाने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण हथकंडा बेनामी खरीददारी का अपनाया। इसमें प्रायः जमींदार के अपने ही आदमी नीलाम की गई संपत्तियों को महँगी बोली देकर खरीद लेते थे और फिर देय राशि सरकार को नहीं देते थे।

प्रश्न 12.
इतिहासकार या एक विद्यार्थी को सरकारी रिपोर्ट या दस्तावेजों का अध्ययन करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर:
इतिहासकार या एक विद्यार्थी को सरकारी रिपोर्ट एवं दस्तावेजों को काफी ध्यान से और सावधानीपूर्वक पढ़ना चाहिए। विशेषतः यह सवाल मस्तिष्क में सदैव रहना चाहिए कि यह किसने एवं किस उद्देश्य के लिए लिखी है। बिना सवाल उठाए तथ्यों को वैसे-के वैसे स्वीकार नहीं कर लिया जाना चाहिए।

प्रश्न 13.
ईस्ट इंडिया कंपनी पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कौन-कौन से कदम उठाए?
उत्तर:
भारत में कंपनी शासन पर नियंत्रण एवं उसे रेग्युलेट’ करने के लिए सबसे पहले सन् 1773 में ‘रेग्यूलेटिंग एक्ट’ पास किया गया। फिर 1784 ई० में ‘पिट्स इंडिया एक्ट’ तथा आगे हर बीस वर्ष के बाद ‘चार्टर एक्टस’ पास किए गए। इन अधिनियमों के माध्यम के कंपनी को बाध्य किया गया कि वह भारत में अपने राजस्व, प्रशासन इत्यादि के संबंध में नियमित रूप से ब्रिटिश सरकार को सूचना प्रदान करे।

प्रश्न 14.
पहाडिया लोगों द्वारा मैदानी क्षेत्रों पर आक्रमण के दो कारण बताओ।
उत्तर:
पहाड़िया जनजाति के लोग मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों विशेषतः ज़मींदारों, किसानों व व्यापारियों इत्यादि पर बराबर आक्रमण करते रहते थे। इन आक्रमणों के मुख्य कारण निम्नलिखित थे

1. अभाव अथवा अकाल (Famine)-प्रायः ये आक्रमण पहाड़िया लोगों द्वारा अभाव अथवा अकाल की परिस्थितियों में जीवित रहने के लिए किए जाते थे। मैदानी भागों में, जहाँ सिंचाई से खेती होती थी, वहाँ यह लोग खाद्य-सामग्री की लूट-पाट करके ले जाते थे।

2.शक्ति-प्रदर्शन (To Show Power)-उनका एक लक्ष्य शक्ति-प्रदर्शन कर अपनी धाक जमाना भी रहता था। इस शक्ति-प्रदर्शन का लाभ उन्हें आक्रमणों के बाद भी मिलता रहता था।

प्रश्न 15.
पहाड़िया लोगों के प्रति कंपनी अधिकारियों का दृष्टिकोण कैसा था?
उत्तर:
कंपनी अधिकारी पहाड़िया लोगों को असभ्य, बर्बर और उपद्रवी समझते थे। अतः तब तक उनके इलाकों में शासन करना आसान नहीं था जब तक उन्हें सभ्यता की परिधि में न लाया जाए। ऐसे जनजाति लोगों को सुसभ्य बनाने के लिए वो समझते थे कि उनके क्षेत्रों में कृषि-विस्तार किया जाए।

प्रश्न 16.
संथालों और पहाड़िया लोगों के संघर्ष को क्या नाम दिया जाता है?
उत्तर:
संथालों और पहाड़िया जनजाति के इस संघर्ष को कुदाल और हल का संघर्ष का नाम दिया जाता है। कुदाल पहाड़िया जनजाति की जीवन-शैली का प्रतीक था तो हल संथालों के जीवन का प्रतीक था। पहाड़िया की तुलना में संथालों में स्थायी जीवन की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति अधिक थी।

प्रश्न 17.
दीवानी का अधिकार मिलने पर कंपनी को क्या लाभ हुआ?
उत्तर:
दीवानी का अधिकार मिलने पर कंपनी को निम्नलिखित लाभ हुए

  • दीवानी मिलने पर कंपनी बंगाल में सर्वोच्च शक्ति बन गई।
  • कंपनी की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। उसके व्यापार में भी वृद्धि हुई। सुदृढ़ आर्थिक स्थिति के कारण कंपनी के पास विशाल सेना हो गई।

प्रश्न 18.
विलियम होजेज कौन था?
उत्तर:
विलियम होजेज कैप्टन कुक के साथ प्रशांत महासागर की यात्रा करते हुए भारत आया था। वह भागलपुर के कलेक्टर आगस्टस क्लीवलैंड के जंगल के गाँवों पर भ्रमण पर गया था। इन गाँवों और प्राकृतिक सौंदर्य स्थलों के उसने कई एक्वाटिंट (Aquatint) तैयार किए थे। यह ऐसी तस्वीर होती है जो ताम्रपट्टी में अम्ल (Acid) की सहायता से चित्र के रूप में कटाई करके बनाई जाती है।

प्रश्न 19.
कंपनी अधिकारी ने संथाल जनजाति को राजमहल की पहाड़ियों की तलहटी में बसने का निमंत्रण क्यों दिया ?
उत्तर:
कंपनी अधिकारी कृषि क्षेत्र का विस्तार राजमहल की पहाड़ियों की घाटियों और निचली पहाड़ियों पर करना चाहते थे। पहाड़िया लोग हल को हाथ लगाना ही पाप समझते थे। वह बाज़ार के लिए खेती नहीं करना चाहते थे। ऐसी परिस्थितियों में ही अंग्रेज़ अधिकारियों का परिचय संथाल जनजाति के लोगों से हुआ जो पूरी ताकत के साथ ज़मीन में काम करते थे। उन्हें जंगल काटने में भी कोई हिचक नहीं थी। वे पहाड़िया लोगों की अपेक्षाकृत अग्रणी बाशिंदे थे। कंपनी अधिकारियों ने संथालों को राजमहल की पहाड़ियों की तलहटी में बसे महालों (गाँवों) में बसने का निमंत्रण दिया।

प्रश्न 20.
राजमहल की पहाड़ियों में संथालों की विजय के क्या कारण थे?
उत्तर:
राजमहल की पहाड़ियों में संथालों के आगमन तथा बसाव का पहाड़िया जनजाति के लोगों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा। पहाड़िया लोगों ने संथालों का प्रबल प्रतिरोध किया। परन्तु उन्हें संथालों के मुकाबले पराजित होकर पहाड़ियों की तलहटी वाला उपजाऊ क्षेत्र छोड़कर जाना पड़ा। इस संघर्ष में संथालों की विजय हुई क्योंकि कंपनी सरकार के सैन्यबल उन्हें कब्जा दिलवा रहे थे। संथाल जनजाति के लोग शक्तिशाली लड़ाकू थे।

प्रश्न 21.
संथालों के आगमन का पहाड़िया लोगों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
संथालों के आगमन से पहाड़िया लोगों के जीवन-निर्वाह का आधार ही उनसे छिन गया था। जंगल नहीं रहे तो वे शिकार पर्याप्त घास व वन-उत्पादों से वंचित हो गए। ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों में झूम की खेती भी संभव नहीं थी। वें बंजर, चट्टानी और शुष्क क्षेत्रों में धकेले जा चुके थे। इस सबके परिणामस्वरूप पहाड़िया लोगों के रहन-सहन पर प्रभाव पड़ा। आगे चलकर वह निर्धनता तथा भुखमरी के शिकार रहे।

प्रश्न 22.
संथाल विद्रोह के दो कारण बताओ।
उत्तर:
संथाल विद्रोह के दो कारण निम्नलिखित थे

  • बंगाल में अपनाई गई स्थायी भू-राजस्व प्रणाली के कारण संथालों की जमीनें धीरे-धीरे उनके हाथों से निकलकर ज़मींदारों और साहूकारों के हाथों में जाने लगीं।
  • सरकारी अधिकारी, पुलिस, थानेदार सभी महाजनों का पक्ष लेते थे। वे स्वयं भी संथालों से बेगार लेते थे। यहाँ तक कि संथाल कृषकों की स्त्रियों की इज्जत भी सुरक्षित नहीं थी। अतः दीकुओं (बाहरी लोगों) के विरुद्ध संथालों का विद्रोह फूट पड़ा।

प्रश्न 23.
विद्रोह के दौरान संथालों ने महाजनों और साहूकारों को निशाना क्यों बनाया?
उत्तर:
संथालों ने महाजनों एवं ज़मींदारों के घरों को जला दिया, उन्होंने जमकर लूटपाट की तथा उन बही-खातों को भी बर्बाद कर दिया जिनके कारण वे गुलाम हो गए थे। चूंकि अंग्रेज़ सरकार महाजनों और ज़मींदारों का पक्ष ले रही थी। अतः संथालों ने सरकारी कार्यालयों, पुलिस कर्मचारियों पर भी हमले किए।

प्रश्न 24.
कंपनी सरकार ने संथाल विद्रोह का दमन कैसे किया?
उत्तर:
कंपनी सरकार ने विद्रोहियों को कुचलने के लिए एक मेजर जनरल के नेतृत्व में 10 टुकड़ियाँ भेजीं। विद्रोही नेताओं को पकड़वाने पर 10 हजार का इनाम रखा गया। सेना ने कत्लेआम मचा दिया। गाँव-के-गाँव जलाकर राख कर दिए।

प्रश्न 25.
बुकानन विवरण की दो विशेषताएँ लिखिए। उत्तर:बुकानन विवरण की विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) बुकानन ने अपने विवरण में उन स्थानों को रेखांकित किया जहाँ लोहा, ग्रेनाइट, साल्टपीटर व अबरक इत्यादि खनिजों के भंडार थे। यह सारी जानकारी कंपनी के लिए वाणिज्यिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण थी।

(2) बुकानन मात्र भू-खंडों का वर्णन ही नहीं करता अपितु वह सुझाव भी देता है कि इन्हें किस तरह कृषि-क्षेत्र में बदला जा सकता है। कौन-सी फसलें बोई जा सकती हैं।

प्रश्न 26.
दक्कन विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों ने क्या किया?
उत्तर:
इस विद्रोह के फैलने से ब्रिटिश अधिकारी घबरा गए। विद्रोही गाँवों में पुलिस चौकियाँ बनाई गईं। यहाँ तक कि इस इलाके को सेना के हवाले करना पड़ा। 95 किसानों को गिरफ्तार करके दंडित किया गया। विद्रोह पर नियंत्रण के बाद भी स्थिति पर नज़र रखी गई।

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प्रश्न 27.
दामिन-इ-कोह के निर्माण से संथालों के जीवन में आए दो परिवर्तनों को बताइए।
उत्तर:
दामिन-इ-कोह के निर्माण से संथालों के जीवन में आए दो परिवर्तन इस प्रकार थे

  • दामिन-इ-कोह में संथालों ने खानाबदोश जिंदगी छोड़ दी और स्थायी रूप से बस गए।
  • वे कई प्रकार की वाणिज्यिक फसलों का उत्पादन करने लगे और साहूकारों तथा व्यापारियों से लेन-देन करने लगे।

प्रश्न 28.
ब्रिटेन में ‘कपास आपूर्ति संघ’ व मैनचेस्टर कॉटन कंपनी की स्थापना के क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
1857 ई० में ‘कपास आपूर्ति संघ’ तथा 1859 ई० में मैनचेस्टर कॉटन कंपनी (Menchester Cotton Company) बनाई गई जिसका उद्देश्य दुनिया के प्रत्येक भाग में कपास के उत्पादन को प्रोत्साहित करना था।

प्रश्न 29.
रैयतवाड़ी से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
रैयतवाड़ी भू-राजस्व व्यवस्था की वह प्रणाली थी जिसके अन्तर्गत रैयत (किसानों) का सरकार से सीधा सम्बन्ध होता था। इस व्यवस्था में बिचौलिये समाप्त कर दिए गए।

प्रश्न 30.
डेविड रिकार्डो कौन था?
उत्तर:
डेविड रिकार्डो 1820 के दशक में इंग्लैण्ड का अर्थशास्त्री था। उसके अनुसार भू-स्वामी को उस समय प्रचलित ‘औसत लगानों’ को प्राप्त करने का हक होना चाहिए। जब भूमि से ‘औसत लगान’ से अधिक प्राप्त होने लगे तो वह भू-स्वामी की अधिशेष आय होगी। जिस पर सरकार को कर लगाने की आवश्यकता होगी।

प्रश्न 31.
पहाड़िया लोग मैदानी क्षेत्रों पर आक्रमण क्यों करते रहते थे?
उत्तर:
पहाड़िया लोगों द्वारा मैदानी क्षेत्रों पर आक्रमण अभाव व अकाल से बचने के लिए, मैदानों में बसे समुदायों पर अपनी शक्ति दिखाने के लिए तथा बाहरी लोगों के साथ राजनीतिक संबंध स्थापित करने के लिए भी किए जाते थे।

प्रश्न 32.
जमींदारों पर नियन्त्रण के उद्देश्य से कम्पनी ने कौन-से कदम उठाए?
उत्तर:
ज़मींदारों की शक्ति पर नियंत्रण रखने के लिए उनकी सैन्य टुकड़ियों को भंग कर दिया गया। ज़मींदारों से पुलिस एवं न्याय व्यवस्था का अधिकार छीन लिया गया तथा उनके द्वारा लिया जाने वाला सीमा शुल्क समाप्त कर दिया गया।

प्रश्न 33.
‘पाँचवीं रिपोर्ट’ महत्त्वपूर्ण क्यों थी?
उत्तर:
1813 में ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत की गई फरमिंगर की एक रिपोर्ट है। यह ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ के नाम से जानी गई, यह स्वयं में पहली चार रिपोर्टों से अधिक महत्त्वपूर्ण बन गई क्योंकि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन व क्रियाकलापों के संदर्भ में यह एक विस्तृत रिपोर्ट थी।

प्रश्न 34.
पहाड़िया लोग कौन थे?
उत्तर:
बंगाल में राजमहल की पहाड़ियों के क्षेत्र में रहने वाले लोगों को ‘पहाड़िया’ के नाम से जाना जाता था। ये लोग सदियों से प्रकृति की गोद में निवास करते आ रहे थे। झूम की खेती, जंगल के उत्पाद तथा शिकार उनके जीविकोपार्जन के साधन थे।

प्रश्न 35.
स्थायी बन्दोबस्त की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
स्थायी बन्दोबस्त की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
(1) यह समझौता बंगाल के राजाओं और ताल्लुकेदारों के साथ कर उन्हें ‘ज़मींदारों’ के रूप में वर्गीकृत किया गया।
(2) ज़मींदारों द्वारा सरकार को दी जाने वाली वार्षिक भूमि-कर राशि स्थायी रूप से निश्चित कर दी गई। इसीलिए इसे ‘स्थायी बंदोबस्त’ से भी पुकारा गया। .

प्रश्न 36.
स्थायी बन्दोबस्त की दो हानियाँ लिखो।
उत्तर:
स्थायी बन्दोबस्त की दो हानियाँ निम्नलिखित हैं
(1) इस व्यवस्था में, सरकार और रैयत के बीच कोई सीधा संबंध नहीं था। उन्हें ज़मींदारों की दया पर छोड़ दिया गया था। उनके हितों की पूरी तरह उपेक्षा की गई।

(2) इस व्यवस्था में समय-समय पर भूमिकर में वृद्धि का अधिकार सरकार के पास नहीं था। इसलिए शुरू में तो यह व्यवस्था सरकार के लिए लाभकारी रही परंतु बाद में कृषि उत्पादों में हुई वृद्धि के बावजूद भी सरकार अपने भूमि-कर में वृद्धि नहीं कर सकी।

प्रश्न 37.
पहाड़िया लोगों द्वारा अपनाई गई झूम खेती क्या थी?
उत्तर:
पहाड़िया लोग जंगल में झाड़ियों को काटकर व घास-फूस को जलाकर ज़मीन का एक छोटा-सा टुकड़ा निकाल लेते थे। यह छोटा-सा खेत पर्याप्त उपजाऊ होता था। घास व झाड़ियों के जलने से बनी राख उसे और भी उपजाऊ बना देती थी। कुछ वर्षों तक उसमें खाने के लिए विभिन्न तरह की दालें और ज्वार-बाजरा उगाते और फिर कुछ वर्षों के लिए उसे खाली (परती) छोड़ देते। ताकि यह पुनः उर्वर हो जाए। ऐसी खेती को स्थानांतरित खेती (Shifting Cultivation) अथवा झूम की खेती कहा जाता है।

प्रश्न 38.
संथाल परगना क्यों बनाया गया?
उत्तर:
संथाल विद्रोह को दबाने के बाद अलग संथाल परगना बनाया गया ताकि आक्रोश कम हो सके। इस परगने में भागलपुर और वीरभूम जिलों का 5500 वर्गमील शामिल किया गया। संथाल परगना में कुछ विशेष कानून लागू किए गए जैसे कि यहाँ यूरोपीय मिशनरियों के अतिरिक्त अन्य बाहरी लोगों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई।

प्रश्न 39.
फ्रांसिस बुकानन कौन था?
उत्तर:
फ्रांसिस बुकानन एक चिकित्सक था। इसने 1794 से 1815 तक एक चिकित्सक के रूप में बंगाल में कंपनी सरकार में नौकरी की। कुछ वर्ष वह लॉर्ड वेलजली (गवर्नर-जनरल) का शल्य चिकित्सक भी रहा। उसने कलकत्ता में अलीपुर चिड़ियाघर की स्थापना की।

प्रश्न 40.
जंगलों के विनाश के सम्बन्ध में स्थानीय लोगों व बुकानन के दृष्टिकोण में क्या अन्तर था?
उत्तर:
स्थानीय लोग जंगलों के विनाश में अपना हित नहीं देखते थे। उनका दृष्टिकोण जीवनयापन तक सीमित था। जबकि बुकानन का दृष्टिकोण आधुनिक पश्चिमी विचारधारा तथा कंपनी के वाणिज्यिक हितों से प्रेरित था।

प्रश्न 41.
महालवाड़ी प्रणाली के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
महालवाड़ी प्रणाली मुख्यतः संयुक्त प्रांत, आगरा, अवध, मध्य प्रांत तथा पंजाब के कुछ भागों में लागू की गई थी। ब्रिटिश भारत की कुल 30 प्रतिशत भूमि इसके अंतर्गत आती थी। इस बंदोबस्त में महाल अथवा गाँव को इकाई माना गया। भू-राजस्व देने के लिए यह इकाई उत्तरदायी थी। .

प्रश्न 42.
‘पूना सार्वजनिक सभा’ के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
सन् 1873 में मध्यजीवी बुद्धिजीवियों का एक नया संगठन ‘पूना सार्वजनिक सभा’ ने किसानों के मामले में हस्तक्षेप किया। भू-राजस्व दरों पर पुनः विचार करने के लिए एक याचिका दायर की गई। नई भू-राजस्व दरों के विरुद्ध कुनबी कृषकों को जागृत करने के लिए इस संगठन के कार्यकर्ता दक्कन देहात के गाँवों में भी गए।।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बंगाल में स्थायी बंदोबस्त (इस्तमरारी) के दो लाभ बताएँ।।
उत्तर:
स्थायी बंदोबस्त (ज़मींदारी प्रथा) काफी विचार-विमर्श के बाद शुरू की गई थी। इसलिए इससे कुछ अपेक्षित लाभ हुए, जो इस प्रकार हैं
1. सरकार की आय का निश्चित होना-सरकार की वार्षिक आय निश्चित हो गई जिससे प्रशासन व व्यापार दोनों को नियमित करने में लाभ हुआ।

2. धन व समय की बचत-इससे कंपनी सरकार को धन व समय दोनों की बचत हुई। प्रतिवर्ष बंदोबस्त निश्चित करने में धन व समय दोनों ही बर्बाद होते. थे।

3. वफादार वर्ग-स्थायी बंदोबस्त से ज़मींदारों का वर्ग अंग्रेजों की नीतियों से धनी हुआ। अतः यह उनका एक वफादार सहयोगी बनता गया। लेकिन यह बात सभी ज़मींदारों पर लागू नहीं हुई।

4. कंपनी के व्यापार में वृद्धि-स्थायी बंदोबस्त से बंगाल में कंपनी की आय सुनिश्चित हो गई। अब वह अपना ध्यान व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ाने में लगा पाई। फलतः इससे उसे व्यापारिक लाभ मिला।

5. ज़मींदारों की समृद्धि-जो ज़मींदार सख्ती के साथ किसानों से लगान वसूलने में सफल हुए, वे समृद्ध होते गए।

प्रश्न 2.
स्थायी बंदोबस्त की हानियों का वर्णन करें।
उत्तर:
स्थायी बंदोबस्त के कुछ लाभ कंपनी को मिले। परन्तु यह बंगाल की अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं कर सकी। कालांतर में यह कंपनी के लिए भी आर्थिक तौर पर घाटे का सौदा सिद्ध हुई। अतः कुछ विद्वानों ने इस बंदोबस्त की कड़ी आलोचना की है। इसके कुछ निम्नलिखित दुष्परिणाम हुए

1. सरकार को हानि-निःसंदेह इससे सरकार को एक निश्चित वार्षिक आय तो होने लगी। परंतु इस व्यवस्था में समय-समय पर भूमिकर में वृद्धि का अधिकार सरकार के पास नहीं था। इसलिए शुरू में तो यह व्यवस्था सरकार के लिए लाभकारी रही परंतु बाद में सरकार अपने भूमि-कर में वृद्धि नहीं कर सकी।

2. रैयत के हितों की अनदेखी-इस व्यवस्था में, सरकार और रैयत के बीच कोई सीधा संबंध नहीं था। उन्हें ज़मींदारों की दया पर छोड़ दिया गया था। उनके हितों की पूरी तरह उपेक्षा की गई। वे किसान की संपत्ति को बेचकर लगान की पूरी रकम वसूल कर सकते थे। तथापि यह तरीका आसान नहीं था क्योंकि कानूनी प्रक्रिया काफी लंबी थी।

3. कृषि में पिछड़ापन-ज़मींदारी प्रथा से कृषि अर्थव्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ बल्कि उसका पिछड़ापन और भी बढ़ता गया। ज़मींदार वर्ग ने कृषि सुधारों में कोई रुचि नहीं दिखाई। दूसरी ओर किसान पर लगान का बोझ बढ़ता गया। उसे चुकाने के लिए वह साहूकारों के चंगुल में फँसता गया। किसान के पास कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए कुछ बच ही नहीं पाता था। फलतः कृषि का पिछड़ापन बढ़ता गया।

4. अनुपस्थित ज़मींदार-इस व्यवस्था में नए जमींदार वर्ग का उदय हुआ। यह पहले के ज़मींदारों से कई मायनों में अलग था। इन्होंने उन पुराने ज़मींदारों की ज़मींदारियां खरीद ली थीं जो समय पर लगान वसूल करके सरकार को जमा नहीं करवा सके थे। इन नए ज़मींदारों ने अपनी सहूलियत के लिए किसानों से लगान वसूली का काम आगे अन्य इच्छुक लोगों को ज्यादा धन लेकर पट्टे अथवा ठेके पर दे दिया। इस प्रकार खेतिहर किसान और वास्तविक ज़मींदार के मध्य परजीवी ज़मींदारों की एक लंबी श्रृंखला (चेन) पैदा हो गई। इस लगानजीवी वर्ग का सारा भार अन्ततः किसान पर ही पड़ता था।

5. जमींदारों को हानि-प्रारंभ में स्थायी बंदोबस्त ज़मींदारों के लिए भी काफी हानिप्रद सिद्ध हुआ। बहुत-से ज़मींदार सरकार को निर्धारित भूमि-कर का भुगतान समय पर नहीं कर सके। परिणामस्वरूप उन्हें उनकी ज़मींदारी से वंचित कर दिया गया। समकालीन स्रोतों से ज्ञात होता है कि बर्दवान के राजा (शक्तिशाली ज़मींदार) की ज़मींदारी के अनेक महाल (भू-संपदाएँ) सार्वजनिक तौर पर नीलाम किए गए थे। उस पर राजस्व की एक बड़ी राशि बकाया थी। लेकिन यह कहानी अकेले बर्दवान (अब बर्द्धमान) ” की नहीं थी। 18वीं सदी के अंतिम वर्षों में काफी बड़े स्तर पर ऐसी भू-संपदाओं की नीलामी हुई थी।

प्रश्न 3.
स्थायी बंदोबस्त में ज़मींदार राजस्व राशि के भुगतान में क्यों असमर्थ हुए?
उत्तर:
राजस्व राशि का भुगतान करने में ज़मींदार कई कारणों से असमर्थ रहे। ये कारण सरकार की नीतियों एवं ज़मींदारों की स्थिति से जुड़े हुए थे। संक्षेप में ये कारण इस प्रकार थे

1. राजस्व की ऊँची दर-भू-राजस्व की दर शुरू से ही अपेक्षाकृत काफी ऊँची तय की गई थी क्योंकि राजस्व की दर स्थायी तौर पर निर्धारित करते समय कंपनी के अधिकारियों ने इस तथ्य को ध्यान में रखा कि आगे चलकर खेती के विस्तार तथा कीमतों में बढ़ोत्तरी होने से ज़मींदारों की आय में वृद्धि होगी, लेकिन सरकार अपना दावा उसमें से कभी नहीं कर सकेगी। अतः भविष्य की भरपाई वे शुरू से ही करना चाहते थे। उनकी यह दलील थी कि शुरू-शुरू में यह माँग ज़मींदारों को कुछ अधिक लगेगी परन्तु आगे आने वाले वर्षों में धीरे-धीरे यह सहज हो जाएगी।

2. मंदी में ऊँचा राजस्व-स्थायी बंदोबस्त के लिए राजस्व दर का निर्धारण 1790 के दशक में किया गया। यह मंदी का दशक था। कृषि उत्पादों की कीमतें अपेक्षाकृत कम थीं। ऐसे में रैयत (किसानों) के लिए ऊँची दर का राजस्व चुकाना कठिन था। इस प्रकार ज़मींदार किसानों से राजस्व इकट्ठा नहीं कर पाए और वह सरकार को देय राशि का भुगतान करने में भी असमर्थ रहे।

3. सूर्यास्त विधि-इस व्यवस्था में केवल राजस्वों की दर ही ऊँची नहीं थी वरन वसूली के तरीके भी अत्यंत सख्त थे। इसके लिए सूर्यास्त विधि का अनुसरण किया गया, जिसका तात्पर्य था कि निश्चित तारीख को सूर्य छिपने तक देय राशि का भुगतान न कर पाने पर ज़मींदारियों को नीलाम कर दिया जाए। ध्यान रहे इसमें राजस्वों की माँग निश्चित थी। फसल हो या न हो जमींदार को तो निश्चित तिथि तक सरकारी माँग पूरी करनी होती थी। इसलिए लगान एकत्र न करने वाले बर्बाद हो गए।

4. ज़मींदारों की शक्तियों में कमी-बंगाल में ज़मींदार छोटे राजा थे। उनके पास न्यायिक अधिकार थे और सैन्य टुकड़ियाँ भी थीं। उनकी अपनी पुलिस व्यवस्था थी। कंपनी की सरकार ने उनकी यह शक्तियाँ उनसे छीन लीं। उनकी शक्तियाँ मात्र किसानों से लगान इकट्ठा करने और अपनी ज़मींदारी का प्रबंध करने तक ही सीमित कर दी गईं। उनके सैनिक दस्तों को भंग कर दिया गया।

उनके न्यायालयों को कंपनी द्वारा नियुक्त कलेक्टर के नियंत्रण में रख दिया गया। स्थानीय पुलिस प्रबंध भी कलेक्टर ने अपने हाथ में ले लिया। इस प्रकार प्रशासन का केंद्र बिंदु ज़मींदार नहीं बल्कि कलेक्टर बनता गया। ज़मींदार शक्तिहीन होकर पूर्णतः सरकार की दया पर निर्भर हो गया। समकालीन सरकारी दस्तावेजों से पता चलता है कि किस प्रकार सरकारी माँग पूरी न कर पाने वाले ज़मींदारों को ज़मींदारी से वंचित कर दिया जाता था।

5. ग्राम मुखियाओं का व्यवहार-बंगाल में ग्राम के मुखियाओं को जोतदार अथवा मंडल कहा जाता था। यह काफी सम्पन्न किसान (रैयत) थे। कुछ गरीब किसान भी इनके प्रभाव में होते थे। इस सम्पन्न ग्रामीण वर्ग का ज़मींदारों के प्रति व्यवहार काफी नकारात्मक रहता था। जब ज़मींदार का अधिकारी गाँव में लगान एकत्र करने में असफल रहता और ज़मींदार सरकार को भुगतान न कर पाता तो जोतदारों को बड़ी खुशी होती थी।

अच्छी फसल न होने या फिर सम्पन्न रैयत जान-बूझकर समय पर ज़मींदार को लगान का भुगतान नहीं करते थे। दोनों ही अवसरों पर ज़मींदार मुसीबत में फंसता था। शक्तियाँ सीमित कर दिए जाने के कारण अब वे आसानी से बाकीदारों के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग भी नहीं कर सकते थे। वह बाकीदारों के विरुद्ध न्यायालय में तो जा सकता था। परन्तु न्याय की प्रक्रिया इतनी लंबी थी कि वर्षों चलती रहती थी।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

प्रश्न 4.
‘पाँचवीं रिपोर्ट’ क्या थी?
उत्तर:
कंपनी के प्रशासन और बंगाल की स्थिति पर सन् 1813 में ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत की गई विशेष रिपोर्ट ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ के नाम से जानी गई। क्योंकि इससे पूर्व चार रिपोर्ट इस संदर्भ में पहले भी प्रस्तुत हो चुकी थीं। लेकिन यह स्वयं में पहली चार रिपोर्टों से अधिक महत्त्वपूर्ण बन गई क्योंकि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन व क्रियाकलापों के बारे में यह एक विस्तृत रिपोर्ट थी। इसमें 1002 पृष्ठ थे जिनमें से 800 से अधिक पृष्ठों में परिशिष्ट लगाए गए थे। इन परिशिष्टों में भू-राजस्व से संबंधित आंकड़ों की तालिकाएँ, अधिकारियों की बंगाल व मद्रास में राजस्व व न्यायिक प्रशासन पर लिखी गई टिप्पणियाँ शामिल थीं।

साथ ही जिला कलेक्टरों की अपने अधीन भू-राजस्व व्यवस्था पर रिपोर्ट तथा ज़मींदारों एवं रैयतों के आवेदन पत्रों को सम्मिलित किया गया था। यह साक्ष्य इतिहास लेखन के लिए बहुमूल्य हैं। उल्लेखनीय है कि 1760 से 1800 ई० के बीच चार दशकों में बंगाल के देहात में हुए विभिन्न परिवर्तनों की जानकारी का आधार पाँचवीं रिपोर्ट में शामिल यह तथ्य ही रहे हैं। यह रिपोर्ट हमारे विचारों एवं अवधारणाओं का एक मुख्य आधार रही है।

प्रश्न 5.
ब्रिटिश संसद में ‘पाँचवीं रिपोर्ट प्रस्तुत किए जाने के क्या कारण थे?
उत्तर:
‘पाँचवीं रिपोर्ट’ भारत में कंपनी के प्रशासन तथा क्रियाकलापों पर एक विस्तृत रिपोर्ट थी। ब्रिटिश संसद में ‘पाँचवीं रिपोर्ट प्रस्तुत किए जाने के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कारण थे

1. कंपनी का सत्ता बनना-ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक कंपनी थी। परन्तु वे बक्सर के युद्ध के पश्चात् भारत में एक राजनीतिक सत्ता बन गई। फलस्वरूप उसकी गतिविधियों पर सूक्ष्म नज़र रखी जाने लगी। इंग्लैंड में अनेक राजनीतिक समूहों का मत था कि बंगाल की विजय का लाभ केवल ईस्ट इंडिया कंपनी को नहीं मिलना चाहिए, बल्कि ब्रिटिश राष्ट्र को भी मिलना चाहिए।

2. अन्य व्यापारियों का दबाव-ब्रिटेन के अनेक व्यापारिक समूह कंपनी के व्यापार के एकाधिकार का विरोध कर रहे थे। निजी व्यापार करने वाले ऐसे व्यापारियों की संख्या बढ़ रही थी। वे भी भारत के साथ व्यापार में हिस्सेदारी के इच्छुक थे। वे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को एकाधिकार प्रदान करने वाले शाही फरमान को रद्द करवाना चाहते थे। ब्रिटेन के उद्योगपति भी भारत में ब्रिटिश विनिर्माताओं के लिए अवसर देख रहे थे। अतः वे भी भारत के बाजार उनके लिए खुलवाने को उत्सुक थे।

3. कंपनी के भ्रष्टाचार व प्रशासन पर बहस कंपनी के कर्मचारी तथा अधिकारी निजी व्यापार तथा रिश्वतखोरी से बहुत-सा धन लेकर ब्रिटेन लौटते थे। उनकी यह धन संपत्ति अन्य निजी व्यापारियों के मन में ईर्ष्या उत्पन्न करती थी क्योंकि यह व्यापारी भी भारत से शुरू हुई लूट में हिस्सा पाने के इच्छुक थे। कई राजनीतिक समूह ब्रिटिश संसद में भी इस मुद्दे को उठा रहे थे। साथ ही ब्रिटेन के समाचार पत्रों में भी कंपनी अधिकारियों के लोभ व लालच का पर्दाफाश कर रहे थे। इंग्लैंड में कंपनी के बंगाल में अराजक व अव्यवस्थित शासन की सूचनाएँ भी पहुँच रही थी। अतः कंपनी के अधिकारियों में भ्रष्टाचार तथा कुशासन पर इंग्लैंड में बहस छिड़ चुकी थी।

4. कंपनी पर नियंत्रण-स्पष्ट है कि ब्रिटेन में आर्थिक एवं राजनीतिक दबावों के चलते भारत में कंपनी शासन पर नियंत्रण आवश्यक हो गया था। इसके लिए सबसे पहले सन् 1773 में ‘रेग्यूलेटिंग एक्ट’ फिर 1784 में ‘पिट्स इंडिया एक्ट’ तथा आगे और कई एक्ट पास किए गए। इन अधिनियमों के माध्यम से कंपनी को बाध्य किया गया कि वह भारत में अपने राजस्व, प्रशासन इत्यादि के संबंध में नियमित रूप से ब्रिटिश सरकार को सूचना प्रदान करे। साथ ही कंपनी के काम-काज का निरीक्षण करने के लिए कई समितियों का गठन किया गया। ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ भी एक ऐसी ही रिपोर्ट थी जिसे एक प्रवर समिति (Select Committee) द्वारा तैयार किया गया था।

प्रश्न 6.
क्या ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ पूर्णतः निष्पक्ष थी?
अथवा
‘पाँचवी रिपोर्ट’ की आलोचना के कोई दो बिन्दु लिखिए।
उत्तर:
पाँचवीं रिपोर्ट साक्ष्यों की दृष्टि से काफी समृद्ध थी, लेकिन पूर्णतः निष्पक्ष नहीं थी। 8वीं सदी के अंतिम दशकों में यह बंगाल में कंपनी सत्ता के बारे में जानकारी का महत्त्वपूर्ण आधार भी रही। इस आधार पर यह समझा जाता रहा कि बड़े स्तर पर बंगाल के परंपरागत ज़मींदार बर्बाद हो गए थे। उनकी ज़मींदारियाँ नीलाम हो गई थीं। इन पर देय राशि का बकाया सदैव बना रहता था। परन्तु ऐसे सारे निष्कर्ष ठीक नहीं थे। शोधकर्ताओं ने ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ के अतिरिक्त समकालीन बंगाल के ज़मींदारों के अभिलेखागारों तथा कलेक्टर कार्यालयों के अन्य अभिलेखों का गहन और सावधानीपूर्वक अध्ययन करके रिपोर्ट के बारे में निम्नलिखित नए निष्कर्ष निकाले

1. पहला–यह रिपोर्ट निष्पक्ष नहीं थी। जो प्रवर समिति के सदस्य इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले थे उनका प्रमुख उद्देश्य कंपनी के कुप्रशासन की आलोचना करना था। राजस्व प्रशासन की कमियों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया।

2. दूसरा-परंपरागत ज़मींदारों की शक्ति का पतन काफी बढ़ा-चढ़ाकर और आंकड़ों के जोड़-तोड़ के साथ पेश किया गया।

3. तीसरा-इसमें ज़मींदारों द्वारा ज़मीनें गँवाने और उनकी बर्बादी का उल्लेख भी अतिशयोक्तिपूर्ण है। ऊपर बताया गया है ज़मींदार नीलामी में अपनी जमीन को बचाने के लिए भी कई तरह के हथकंडे अपनाता था।

प्रश्न 7.
पहाड़िया लोगों के मैदानी लोगों के साथ संबंधों की चर्चा करें।
उत्तर:
पहाड़िया जनजाति के लोग मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों विशेषतः ज़मींदारों, किसानों व व्यापारियों इत्यादि पर बराबर आक्रमण करते रहते थे। मुख्यतः यह संबंध निम्नलिखित तीन बातों पर आधारित थे

1. अभाव अथवा अकाल-प्रायः ये आक्रमण पहाड़िया लोगों द्वारा अभाव अथवा अकाल की परिस्थितियों में जीवित रहने के लिए किए जाते थे। मैदानी भागों में, जहाँ सिंचाई से खेती होती थी, वहाँ यह लोग खाद्य-सामग्री की लूट-पाट करके ले जाते थे।

2. शक्ति-प्रदर्शन-पहाड़िया जनजाति के लोग जब बाहरी लोगों पर आक्रमण करते थे तो उनमें एक लक्ष्य शक्ति-प्रदर्शन कर अपनी धाक जमाना भी रहता था। इस शक्ति-प्रदर्शन का लाभ उन्हें आक्रमणों के बाद भी मिलता रहता था।

3. राजनीतिक संबंध-इन आक्रमणों का लाभ पहाड़िया मुखियाओं अथवा सरदारों को बाहरी लोगों के साथ राजनीतिक संबंध स्थापना में मिलता था। आक्रमणों से वे मैदानी ज़मींदारों व व्यापारियों में भय उत्पन्न करते थे। भयभीत हुए ज़मींदार बचाव के लिए मुखियाओं को नियमित खिराज़ का भुगतान करते थे। इसी प्रकार व्यापारियों से वह पथ-कर वसूल करते थे। जो व्यापारी उन्हें यह कर देते थे उनकी जान-माल की सुरक्षा का आश्वासन दिया जाता था। इस प्रकार पहाड़िया और मैदानी लोगों के बीच कुछ संघर्ष और कुछ अल्पकालीन शांति-संधियों से संबंध चलते आ रहे थे।

18वीं सदी के अंतिम दशकों से संबंध परिवर्तन-18वीं सदी के अंतिम दशकों में पहाड़िया और मैदानी लोगों के बीच संबंधों में बदलाव आने लगा। इसका मुख्य कारण ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के आर्थिक हित थे। यह पूर्वी बंगाल में अधिक-से-अधिक कृषि क्षेत्र का विस्तार करना चाहती थी। इसके लिए जंगलों को साफ करके कृषि क्षेत्र के विस्तार को प्रोत्साहन दिया। परिणाम यह हुआ कि जमींदारों और जोतदारों ने उन क्षेत्रों पर अधिकार जमा लिया जो पहले पहाड़िया लोगों के पास थे। यह लोग उनके परती खेतों पर कब्जा करके उनमें धान की खेती करने लगे। इसके लिए उन्हें कंपनी सत्ता का समर्थन प्राप्त था।

प्रश्न 8.
कंपनी सरकार ने राजमहल के पहाड़ी क्षेत्र में स्थायी कृषि के विस्तार को प्रोत्साहन क्यों दिया ?
उत्तर:
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार ने निम्नलिखित कारणों से राजमहल के पहाड़ी क्षेत्र में स्थायी कृषि के विस्तार को प्रोत्साहन दिया
1. राजस्व वृद्धि-उस काल में बंगाल की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित थी। इसलिए राजस्व का स्रोत भी कृषि उत्पादन ही था। अतः राजस्व में वृद्धि के लिए उन्होंने कृषि विस्तार पर जोर दिया।

2. कृषि उत्पादों का निर्यात-18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति हो रही थी। बड़े-बड़े उद्योग लग रहे थे। इनमें काम करने वाले लोगों के भोजन व अन्य जरूरतों के लिए कृषि उत्पादों की जरूरत थी। इसलिए कंपनी सरकार कृषि क्षेत्र के विस्तार में रुचि ले रही थी।

3. पहाड़िया के प्रति अधिकारियों का दृष्टिकोण-कंपनी के अधिकारी पहाड़िया लोगों को बर्बर और उपद्रवी समझते थे। ऐसे जनजाति लोगों को सभ्य बनाने के लिए वे समझते थे कि उनके क्षेत्रों में कृषि-विस्तार किया जाए। ताकि पहाड़िया लोग कृषि जीवन अपना सकें, जो उनकी दृष्टि में एक सभ्य सामाजिक जीवन था। वास्तविकता यह थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने आर्थिक (संसाधनों का दोहन) और प्रशासनिक दोनों उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए पहाड़िया के क्षेत्रों में घुसपैठ शुरू की।

प्रश्न 9.
अधिकारियों ने पहाड़िया क्षेत्र में संथालों को प्राथमिकता क्यों दी?
उत्तर:
कंपनी अधिकारी कृषि क्षेत्र का विस्तार राजमहल की पहाड़ियों के क्षेत्रों में करना चाहते थे। इसके लिए पहाड़ियों की तुलना में संथाल उन्हें अग्रणी बाशिंदे लगे। इसलिए उन्होंने संथालों को प्राथमिकता दी। उन्होंने पहले ज़मींदारों से इस क्षेत्र में खेती करवाना चाहा परन्तु पहाड़ियों के उपद्रव होने लगे। वे इसके लिए पहाड़िया लोगों को भी स्थायी किसान बनाना चाहते थे। परन्तु इसमें भी उन्हें सफलता नहीं मिली।

क्योंकि पहाड़िया लोग प्रकृति-प्रेमी थे। प्रकृति के प्रति उनका दृष्टिकोण आक्रामक नहीं था। वे जंगलों को बर्बाद करके उस क्षेत्र में हल नहीं चलाना चाहते थे। वे छोटे-छोटे खेतों में कुदाली से ही खुरच कर थोड़ी-बहुत फसल लगाने के अभ्यस्त थे। इस फसल से ही उनका जीवन निर्वाह हो जाता था। वह बाज़ार के लिए खेती नहीं करना चाहते थे। वे हल को हाथ लगाना ही पाप समझते थे।

अतः अंग्रेजों को पहाड़ियों को कृषक बनाने में सफलता नहीं मिली। ऐसी परिस्थितियों में अंग्रेज़ अधिकारियों का परिचय संथाल जनजाति के लोगों से हुआ। यह पूरी ताकत के साथ ज़मीन में काम करते थे। उन्हें जंगल काटने में भी कोई हिचक नहीं थी। वे अपेक्षाकृत अग्रणी बाशिदे थे। कंपनी अधिकारियों ने संथालों को राजमहल की पहाड़ियों की तलहटी में बसे महालों (गाँवों) में बसने का निमंत्रण दिया। संथालों के गीतों और मिथकों से पता चलता है कि वे तो खेती के लिए ज़मीन की तलाश में ही भटक रहे थे। अतः उन्होंने अधिकारियों के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। राजमहल की पहाड़ियों की तलहटी में उन्हें बड़े स्तर पर जंगल क्षेत्र की ज़मीनें आबंटित की गईं।

प्रश्न 10.
‘दामिन-इ-कोह का सीमांकन’ के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
दामिन-इ-कोह नाम उस विस्तृत भू-भाग को दिया गया था जो संथालों को दिया गया था। सन् 1832 तक इस पूरे क्षेत्र का नक्शा बनाया गया। इसके चारों ओर खंबे गाड़कर इसकी परिसीमा निर्धारित की गई। इस परिसीमित क्षेत्र को संथाल भूमि घोषित किया गया। संथालों को इसी में रहते हुए हल से खेती करनी थी। उन्हें अपने जनजातीय जीवन को त्यागना था। कंपनी सरकार ने संथाल कृषकों से एक अनुबंध किया था। इसके अनुसार उन्हें पहले दशक के अंदर प्राप्त भूमि के कम-से-कम दसवें भाग को कृषि योग्य बनाकर उसमें खेती करनी थी।

संथालों को यह अनुबंध पसंद आया। सीमांकन के बाद दामिन-इ-कोह में काफी तेजी से संथालों की बस्तियों में वृद्धि हुई। सन् 1851 में मात्र 13 वर्षों में उनके गाँवों की संख्या 40 से बढ़कर 1473 तक पहुँच चुकी थी। इसी अवधि में उनकी जनसंख्या 3000 से 82,000 तक पहुंच गई। इस प्रकार संथालों को मानो उनकी दुनिया ही मिल गई थी। वे अलग सीमांकित क्षेत्र में काफी परिश्रम से जमीन निकालकर कृषि करने लगे।

प्रश्न 11.
संथालों के आगमन का पहाड़िया लोगों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
राजमहल की पहाड़ियों में संथालों के आगमन का पहाड़िया जनजाति के लोगों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा। जब उनके जंगल, खेतों तथा गाँवों पर कब्जा किया जा रहा था तो उन्होंने संथालों का तीव्र विरोध किया। परन्तु वे संथालों के मुकाबले पराजित हो गये। उन्हें पहाड़ियों की तलहटी वाला उपजाऊ क्षेत्र छोड़कर जाना पड़ा। इस संघर्ष में संथालों की विजय का कारण यह भी था कि कंपनी सरकार के सैन्यबल उन्हें कब्जा दिलवा रहे थे।

पहाड़िया लोगों के जीवन-निर्वाह का आधार ही उनसे छिन गया था। जंगल नहीं रहे तो उन्हें शिकार संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा। उनके पशुओं के लिए पर्याप्त घास नहीं रही। वे अन्य वन-उत्पादों से भी वंचित हो गए। ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों में झूम की खेती भी संभव नहीं थी क्योंकि वहाँ ज़मीन गीली नहीं रहती थी। उपजाऊ जमीनें अब उनके लिए दुर्लभ हो गईं क्योंकि उन्हें संथाल क्षेत्र में शामिल कर दिया गया था। वे बंजर, चट्टानी और शुष्क क्षेत्रों में धकेले जा चुके थे। इस सबके परिणामस्वरूप पहाड़िया लोगों के रहन-सहन पर प्रभाव पड़ा। आगे चलकर वह निर्धनता तथा भुखमरी के शिकार रहे।

प्रश्न 12.
बुकानन के विवरण की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
फ्रांसिस बुकानन एक कंपनी कर्मचारी था। उसने भारत में 1810-11 में कंपनी के भू-क्षेत्र का सर्वे करके विवरण तैयार किया था। इस विवरण में निम्नलिखित मुख्य विशेषताएँ झलकती हैं

1. खनिजों के बारे में-बुकानन ने अपने विवरण में उन स्थानों को रेखांकित किया. जहाँ लोहा, ग्रेनाइट, साल्टपीटर व अभ्ररक इत्यादि खनिजों के भंडार थे। लोहा व नमक बनाने की स्थानीय पद्धतियों का भी उसने अध्ययन किया। यह सारी जानकारी कंपनी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण थी।

2. कृषि विस्तार के बारे में-बुकानन ने सुझाव दिए कि किस तरह भू-खंडों को कृषि क्षेत्र में बदला जा सकता है। कौन-सी फसलें बोई जा सकती हैं। कीमती इमारती लकड़ी के पेड़ों का जंगल कहाँ है, उसे कैसे काटा जा सकता है। नए पेड़ कौन-से लगाए जा सकते हैं जिनसे कंपनी को लाभ होगा।

3. स्थानीय निवासियों से अलग दृष्टिकोण-इस विवरण में उसका दृष्टिकोण स्थानीय लोगों से भिन्न था। उदाहरण के लिए स्थानीय लोग जंगलों के विनाश में अपना हित नहीं देखते थे। जबकि बुकानन का दृष्टिकोण कंपनी के वाणिज्यिक हितों से प्रेरित था। इसलिए वह वनवासी लोगों की जीवन-शैली का आलोचक था। वह जंगल के भू-भागों को कृषि क्षेत्र में बदलने का पक्षधर था।

प्रश्न 13.
डेविड रिकार्डो का भू-राजस्व सिद्धांत क्या था?
उत्तर:
डेविड रिकार्डो (David Ricardo) एक प्रमुख अर्थशास्त्री थे। 19वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों से उनके आर्थिक सिद्धांत विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के नए अधिकारी इन सिद्धांतों से प्रभावित थे। अतः बंबई प्रांत (दक्कन) में नई राजस्व प्रणाली अपनाते समय उन्होंने रिकाडों के लगान सिद्धांत को भी ध्यान में रखा। इस सिद्धांत के अनुसार एक भू-स्वामी (चाहे किसान हो या फिर जमींदार) को किसी तत्कालिक अवधि में प्रचलित ‘औसत लगान’ (Average Rent) ही मिलना चाहिए। उसके अनुसार लगान एक भूमिपति की फसल पर हुए कुल खर्च को (श्रम तथा बीज, खाद, पानी सभी तरह का) अलग करने के बाद शुद्ध आय (Net Profit) था। इसलिए इस पर सरकार द्वारा कर लगाना वैध माना गया।

इस सिद्धांत के अनुसार ज़मींदारों को एक किरायाजीवी (Rentier) के रूप में देखा गया। ऐसा वर्ग जो अपनी संपत्ति पर मिलने वाले लगान से विलासी जीवन बिताता है। इसे प्रगति विरोधी प्रवृत्ति माना गया क्योंकि ज़मीन से होने वाले अधिशेष का यह उचित उपयोग नहीं था। रिकार्डो का विचार था कि इस आय पर कर लगाकर उस धन से सरकार स्वयं कृषि विकास को प्रोत्साहन दे। अर्थात् यह उपयोगितावादी विचारधारा (Utilitarianism) के अंतर्गत उत्पन्न एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन में हो रहे औद्योगिकीकरण के लिए भारत में कृषि विकास महत्त्वपूर्ण होता जा रहा था।

प्रश्न 14.
रैयतवाड़ी प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
रैयतवाड़ी बंदोबस्त सीधा रैयत (किसानों) से ही किया गया था। सरकार और किसान के बीच कोई बिचौलिया ज़मींदार नहीं था। किसान को कानूनी तौर पर उस भूमि का मालिक मान लिया गया था जिस पर वह खेती कर रहा था। ज़मीन की उपजाऊ शक्ति के अनुरूप सरकार का हिस्सा तय किया गया। यह बंदोबस्त 30 वर्षों के लिए किया गया था। इस अवधि के बाद सरकार पुनः ‘एसैसमेंट’ के द्वारा इसे बढ़ा सकती थी।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इसमें ज़मींदारों की भूमिका तो नहीं थी, फिर भी व्यवहार में किसानों को इससे कोई लाभ नहीं पहुँचा। क्योंकि इसमें ज़मींदार का स्थान स्वयं सरकार ने ले लिया था अर्थात् सरकार ही ज़मींदार बन गई थी। किसान को अपनी उपज का लगभग आधा भाग कर के रूप में सरकार को देना पड़ता था। इतना भूमिकर (Revenue) नहीं लगान (Rent) ही होता है। इस अर्थ में तो सरकार ही भूमि की वास्तविक स्वामी थी। जिसे बाद में सरकार ने स्वयं भी स्वीकार कर लिया था।

प्रश्न 15.
अमेरिकी गृह-युद्ध का भारत के कृषि उत्पादकों पर क्या प्रभाव पड़ा?
अथवा
अमेरिकी गृह-युद्ध का भारत के कपास उत्पादकों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
औद्योगिक युग में वाणिज्यिक फसलों में सबसे अधिक महत्त्व कपास का था। ब्रिटेन के वस्त्र उद्योगों के लिए इसे अधिकतर अमेरिका से मँगवाया जाता था। ब्रिटेन में आयात की जाने वाली कुल कपास का लगभग 3/4 भाग यहीं से आता था। वस्त्र निर्माताओं के लिए यह एक चिंता का विषय भी था। यदि कभी अमेरिका से आपूर्ति बंद हो गई तो क्या होगा। इसलिए 1857 ई० में कपास आपूर्ति संघ तथा 1859 ई० में मानचेस्टर कॉटन कंपनी बनाई गई। इनका उद्देश्य दुनिया के प्रत्येक भाग में कपास के उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रयास करना था। इस उद्देश्य के लिए भारत को विशेषतौर पर रेखांकित किया गया।

अब तक भारत इंग्लैंड का उपनिवेश बन चुका था। इसके कुछ भागों में कपास के लिए उपयुक्त मिट्टी और जलवायु मौजूद थी। उदाहरण के लिए दक्कन की काली मिट्टी और पंजाब के कुछ भाग में कपास पैदा होती थी। इसके साथ-साथ यहाँ सस्ता श्रम भी था। अतः किसी भी स्थिति में अमेरिका से कपास आपूर्ति बंद होने पर भारत से आपूर्ति की जा सकती थी।

अमेरिका में गृह युद्ध-अमेरिका में सन् 1861 में गृह युद्ध छिड़ गया। इससे ब्रिटेन की कपास आपूर्ति को अचानक आघात पहुँचा। ब्रिटेन के वस्त्र उद्योगों में तहलका मच गया। 1862 ई० में अमेरिका से मात्र 55000 गाँठों का आयात हुआ। जबकि 1861 ई० में 20 लाख कपास की गाँठों का आयात हुआ था। इस स्थिति में भारत से ब्रिटेन को कपास निर्यात के लिए सरकारी आदेश दिया गया।

कपास सौदागरों की तो मानों चाँदी ही हो गई। बंबई दक्कन के जिलों में उन्होंने कपास उत्पादन का आँकलन किया। किसानों को अधिक कपास उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया। कपास निर्यातकों ने शहरी साहूकारों को पेशगी राशियाँ दी ताकि वे ये राशियाँ ग्रामीण ऋणदाताओं को उपलब्ध करवा सकें और वे आगे किसानों की आवश्यकताओं के अनुरूप उन्हें उधार दे सकें।

ऋण समस्या का समाधान-अब किसानों के लिए ऋण की समस्या नहीं थी। साहूकार भी अपनी उधर राशि की वापसी के लिए आश्वस्त था। दक्कन के ग्रामीण क्षेत्रों में इसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। किसानों को लंबी अवधि के ऋण प्राप्त हुए। कपास उगाई जाने वाली प्रत्येक एकड़ भूमि पर सौ रुपये तक की पेशगी राशि किसानों को दी गई। चार साल के अंदर ही कपास पैदा करने वाली ज़मीन दोगुणी हो गई। 1862 ई० तक स्थिति यह थी कि इंग्लैंड में आयात होने वाले कुल कपास आयात का 90% भाग भारत से जा रहा था। बंबई में दक्कन में कपास उत्पादक क्षेत्रों में इससे समृद्धि आई। यद्यपि इस समृद्धि का लाभ मुख्य तौर पर धनी किसानों को ही हुआ।

प्रश्न 16.
परिसीमन कानून (1859) क्या था?
उत्तर:
ब्रिटिश सरकार ने रैयत की शिकायतों पर विचार करते हुए 1859 ई० में एक परिसीमन कानून पास किया। जिसका उद्देश्य ब्याज के संचित होने से रोकना था। इसलिए इसमें प्रावधान किया गया कि किसान व ऋणदाता के बीच हस्ताक्षरित ऋणपत्र तीन वर्ष के लिए ही मान्य होगा। यह रैयत को साहूकार के शिकंजे से निकालने का प्रयास था। परन्तु इस कानून का व्यवहार में लाभ रैयत को नहीं, बल्कि साहूकार को होने लगा। क्योंकि ऋण लेना किसान की मजबूरी थी। इसलिए तीन साल के बाद जब वह साहूकार से आगे उधार की माँग करता था तो साहूकार किसान से नए ऋण अनुबंध पर हस्ताक्षर करवाता था।

इसमें वह पिछले तीन साल का ब्याज जोड़कर मूलधन में शामिल कर देता था और फिर इस पर नए सिरे से ब्याज शुरू हो जाता था। इस प्रकार साहूकार ने बड़ी चालाकी से इस नए कानून का दुरुपयोग अपने हित के लिए करना शुरू कर दिया। इस प्रक्रिया की जानकारी भी रैयत ने ‘दक्कन दंगा आयोग’ को दी। ‘दक्कन दंगा आयोग’ में किसानों ने दर्ज अपनी शिकायतों में जबरन वसूली से संबंधित अन्याय को भी दर्ज करवाया।

प्रश्न 17.
दक्कन दंगा आयोग की रिपोर्ट के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
1857 के जन-विद्रोह की यादें अभी पुरानी नहीं पड़ी थीं। इसलिए कोई भी कृषक-विद्रोह ब्रिटिश सरकार को खतरे की घंटी जान पड़ता था। दक्कन में हुए कृषक विद्रोह (1875) को बंबई सरकार ने सफलतापूर्वक कुचल दिया था। यद्यपि शांति स्थापित करने में उसे कई महीने लगे। बंबई सरकार में प्रारंभ में तो 1875 के इस कृषक विद्रोह को इतनी गंभीरता से नहीं लिया। परन्तु जब तत्कालिक भारत सरकार (ब्रिटिश) ने दबाव डाला तो इसके लिए एक जाँच आयोग बैठाया गया। इसे ‘दक्कन दंगा आयोग’ नाम दिया गया। 1878 में ब्रिटिश संसद से प्रस्तुत इसकी रिपोर्ट को ‘दक्कन दंगा रिपोर्ट’ कहा गया। यह रिपोर्ट काफी जाँच-पड़ताल के बाद तैयार की गई थी। इसमें मुख्यतः निम्नलिखित सूचनाएँ जुटाई गईं

  • दंगाग्रस्त जिलों में किसानों, साहूकारों तथा चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज किए गए;
  • फसल मूल्यों, मूलधन तथा ब्याज से संबंधित आँकड़े जुटाए गए;
  • भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की राजस्व दरों का अध्ययन किया गया;
  • प्रशासन की भूमिका तथा जिला कलेक्टरों द्वारा भेजी गई रिपोर्टों को संकलित किया गया।

अतः यह रिपोर्ट दक्कन विद्रोह को समझने के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

प्रश्न 18.
इतिहास-लेखन में इतिहासकार सरकारी अभिलेखों का उपयोग किस प्रकार करते हैं?
उत्तर:
इतिहास लेखन के लिए स्रोत आवश्यक हैं। कानून संबंधी रिपोर्ट, दंगा आयोगों की रिपोर्ट तथा अन्य सभी तरह की सरकारी रिपोर्ट इतिहासकार के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत होते हैं। अंग्रेजी राज व्यवस्था के काल की ये रिपोर्ट इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इस काल में ‘फाइल कल्चर’ आ चुका था। संविदाओं और अनुबंधों का महत्त्व बढ़ गया था। सरकारी अभिलेखों के बारे में यह बात महत्त्वपूर्ण है कि ये स्वयं में इतिहास नहीं होते। ये इतिहास के पुनर्निर्माण के स्रोत होते हैं। इसलिए इनका उपयोग करते समय इतिहासकार अग्रलिखित बातों को ध्यान में रखते हैं

(1) वे सरकारी रिपोर्टों का अध्ययन अत्यधिक सावधानीपूर्वक करते हैं। विशेषतः इस बात को देखते हैं कि कोई रिपोर्ट किन परिस्थितियों में और क्यों तैयार की गई है। तैयार करने वाले की सोच क्या रही होगी।

(2) सरकारी रिपोर्टों का तुलनात्मक अध्ययन जरूरी होता है अर्थात् किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले इन रिपोर्टों से प्राप्त साक्ष्यों को गैर-सरकारी विवरणों, समाचार-पत्रों, संबंधित मामले की ‘कोर्ट’ में दर्ज याचिकाओं व न्यायाधीशों के निर्णयों इत्यादि के ‘साथ मिलान कर लेना चाहिए।

प्रश्न 19.
बेनामी खरीददारी पर एक टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
ज़मींदारों ने अपनी ज़मींदारी की भू-संपदा बचाने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण हथकंडा बेनामी खरीददारी को अपनाया। इसमें प्रायः ज़मींदार के अपने ही आदमी नीलाम की गई संपत्तियों को महँगी बोली देकर खरीद लेते थे और फिर देय राशि सरकार को नहीं देते थे। ऐसे बेनामी सौदों का विस्तृत विवरण बर्दवान के राजा की ज़मींदारी के मिलते हैं। इस राजा ने सबसे पहले तो अपनी ज़मींदारी का कुछ भाग अपनी माता के नाम कर दिया था क्योंकि कंपनी ने यह घोषित कर रखा था कि स्त्रियों की संपत्ति । नहीं छीनी जाएगी। दूसरा जान-बूझकर भू-राजस्व सरकार के खजाने में जमा नहीं करवाया। फलतः बकाया राशि में वृद्धि होती रही।

अन्ततः नीलामी की नौबत आ गई तो राजा ने अपने ही कुछ आदमियों को बोली के लिए खड़ा कर दिया। उन्होंने सबसे अधिक बोली देकर संपत्ति को खरीद लिया और फिर खरीद की राशि सरकार को देने से मना कर दिया। सरकार को पुनः उस ज़मीन की नीलामी करनी पड़ी और इस बार ज़मींदार के दूसरे एजेंटों ने वैसा ही किया और सरकार को फिर राशि जमा नहीं करवाई। यह प्रक्रिया तब तक दोहराई जाती रही जब तक सरकार और बोली लगाने वाले दोनों ने हार नहीं मान ली।

बोली लगाने वाले नीलामी के समय आना ही छोड़ गए। अन्ततः सरकार को यह संपदा कम कीमत पर पुनः उसी राजा (बर्दवान के ज़मींदार) को ही देनी पड़ी। लेकिन यह तरीका केवल बर्दवान के ज़मींदार ने ही नहीं अपनाया था। बेनामी खरीददारों के सहारे अपनी भू-संपदा दचाने वाले और भी ज़मींदार थे। उल्लेखनीय है कि 1790 के दशक में बंगाल में 12 बड़ी ज़मींदारियाँ थीं। स्थायी बंदोबस्त लागू होने के पहले 8 वर्षों (1793-1801) में इनमें से उत्तरी बंगाल की बर्दवान सहित 4 ज़मींदारियों की बहुत-सी सम्पत्ति नीलाम हुई। लेकिन जितने सौदे हुए, उनमें से 85 प्रतिशत असली थे। सरकार को कुल मिलाकर इनसे 30 लाख की प्राप्ति हुई।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

प्रश्न 20.
अनुपस्थित ज़मींदार व्यवस्था क्या थी?
उत्तर:
स्थायी बंदोबस्त के अंतर्गत नए ज़मींदार वर्ग का उदय हुआ। यह पहले के ज़मींदारों से कई मायनों में अलग था। नए ज़मींदारों में बहुत से लोग शहरी धनिक वर्ग से थे। इन्होंने उन पुराने ज़मींदारों की ज़मींदारियाँ खरीद ली थीं जो समय पर लगान वसूल करके सरकार को जमा नहीं करवा सके थे। प्रो० बिपिन चन्द्र के अनुसार, “1815 ई० तक बंगाल की लगभग आधी भू-संपत्ति पुराने ज़मींदारों के हाथ से निकलकर सौदागरों तथा अन्य धनी वर्गों के पास जा चुकी थी।”

इन नए ज़मींदारों ने अपनी सहूलियत के लिए किसानों से लगान वसूली का काम आगे अन्य इच्छुक लोगों को ज्यादा धन लेकर पट्टे अथवा ठेके पर दे दिया। इस प्रकार खेतिहर किसान और वास्तविक जमींदार के मध्य परजीवी जमींदारों की एक लंबी श्रृंखला (चेन) पैदा हो गई। यह श्रृंखला बंगाल में कई बार तो 50 तक पहुँच गई थी। इस लगानजीवी वर्ग का सारा भार अन्ततः किसान पर ही पड़ता था।

प्रश्न 21.
‘स्थायी बंदोबस्त के कारण बंगाल के जोतदारों की शक्ति में वृद्धि हुई।’ स्पष्ट करें।
उत्तर:
जोतदार बंगाल के गाँवों में संपन्न किसानों के समूह थे। गाँव के मुखिया भी इन्हीं में से होते थे। 18वीं सदी के अंत में ज्यों-ज्यों परंपरागत ज़मींदार स्थायी बंदोबस्त के कारण संकटग्रस्त हुए, त्यों-त्यों इन संपन्न किसानों को शक्तिशाली होने का अवसर मिलता गया।

आर्थिक व सामाजिक दोनों स्तरों में यह गाँवों में प्रभावशाली वर्ग था। कुछ गरीब किसान भी इनके प्रभाव में होते थे। इस सम्पन्न ग्रामीण वर्ग का ज़मींदारों के प्रति व्यवहार काफी नकारात्मक रहता था। जब ज़मींदार का अधिकारी, जिसे सामान्यतः ‘अमला’ कहा जाता था, गाँव में लगान एकत्र करने में असफल रहता और ज़मींदार सरकार को भुगतान न कर पाता तो जोतदारों को बड़ी खुशी होती थी। सम्पन्न रैयत जान-बूझकर भी समय पर ज़मींदार को लगान का भुगतान नहीं करते थे।

ज़मींदार की इस स्थिति के लिए मुख्य तौर पर स्थायी बंदोबस्त उत्तरदायी था। इसमें राजस्व की ऊँची दर तय की गई थी। जमींदार को निश्चित समय पर राजस्व सरकारी खजाने में जमा करवाना होता था। इसके लिए सूर्यास्त विधि कानून लागू किया गया था।

साथ ही ज़मींदारों की शक्तियाँ उनसे छीन ली गईं। उनकी स्वायत्तता को सीमित कर दिया गया। उनकी शक्तियाँ मात्र किसानों से लगान इकट्ठा करने और अपनी ज़मींदारी का प्रबंध करने तक ही सीमित कर दी गईं। वास्तव में अंग्रेज़ सरकार ज़मींदारों को महत्त्व तो दे रही थी लेकिन साथ ही वह इन्हें अपने पूर्ण नियंत्रण में रखना चाहती थी। परिणामस्वरूप उनके सैनिक दस्तों को भंग कर दिया गया।

उनके न्यायालयों को कंपनी द्वारा नियुक्त कलेक्टर के नियंत्रण में रख दिया गया। स्थानीय पुलिस प्रबंध भी कलेक्टर ने अपने हाथ में ले लिया। अब वे बाकीदारों के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग भी नहीं कर सकते थे। वह बाकीदारों के विरुद्ध न्यायालय में तो जा सकता था परन्तु न्याय की प्रक्रिया इतनी लंबी थी कि वर्षों चलती रहती थी। इसका अहसास इस तथ्य से किया जा सकता है कि अकेले बर्दवान जिले में ही सन् 1798 में 30,000 से अधिक मुकद्दमें बकायेदारों के विरुद्ध लंबित थे।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बंगाल में स्थायी बंदोबस्त लागू करने के क्या कारण थे? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
लॉर्ड कॉर्नवालिस ने निम्नलिखित कारणों से स्थायी बंदोबस्त (इस्तमरारी प्रणाली) को लागू किया

1. बंगाल की अर्थव्यवस्था में संकट-1770 के दशक से बंगाल की अर्थव्यवस्था अकालों की मार झेल रही थी। कृषि उत्पादन में निरंतर कमी आ रही थी। अर्थव्यवस्था संकट में फँसती जा रही थी और ठेकेदारी प्रणाली में इससे निकलने के लिए कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था।

2. कृषि में निवेश को प्रोत्साहन अधिकारी वर्ग यह सोच रहा था कि कृषि में निजी रुचि और निवेश के प्रोत्साहन से खेती, व्यापार और राज्य के राजस्व संसाधनों को विकसित किया जा सकता है।

3. कंपनी सरकार की नियमित आय-कंपनी सरकार अपनी वार्षिक आय को सुनिश्चित करना चाहती थी ताकि प्रशासन व व्यापार की व्यवस्था को वार्षिक बजट बनाकर व्यवस्थित किया जा सके।

4. उद्यमकर्ताओं को लाभ-इससे यह भी उम्मीद थी कि राज्य (कंपनी सरकार) के साथ-साथ उद्यमकर्ता (भूमि व साधनों का मालिक) को भी पर्याप्त लाभ होगा। राज्य की आय नियमित हो जाएगी और वह उद्यमकर्ता से और अधिक माँग नहीं करेगी तो उसका लाभ भी सुनिश्चित होगा।

5. वसूली सुविधाजनक-ज़मींदारी बंदोबस्त लागू करने के पीछे एक व्यावहारिक कारण यह भी था कि रैयत की बजाय ज़मींदारों से कर वसूलना सुविधाजनक था। इसके लिए कम अधिकारियों व कर्मचारियों से भी व्यवस्था की जा सकती थी।

6. वफादार वर्ग-अधिकारियों को यह कारियों को यह उम्मीद थी कि सरकार की नीतियों से पोषित और प्रोत्साहित छोटे (Yeomen Farmers) व बड़े शक्तिशाली ज़मींदारों का वर्ग, सरकार के प्रति वफादार रहेगा।

विशेषताएँ-स्थायी बंदोबस्त (इस्तमरारी) की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं

(1) यह समझौता बंगाल के राजाओं और ताल्लुकेदारों के साथ कर उन्हें ‘ज़मींदारों’ के रूप में वर्गीकृत किया गया।

(2) ज़मींदारों द्वारा सरकार को दी जाने वाली वार्षिक भूमि-कर राशि स्थायी रूप से निश्चित कर दी गई। इसीलिए इसे ‘स्थायी बंदोबस्त’ से भी पुकारा गया।

(3) ये ज़मींदार अपनी ज़मींदारी अथवा ‘इस्टेट’ के तब तक पूर्ण तौर पर मालिक थे जब तक वे सरकार को निर्धारित भूमि-कर नियमित रूप से अदा करते रहते थे। उनका यह अधिकार वंशानुगत तौर पर स्वीकार कर लिया गया।

(4) निर्धारित भूमि-कर राशि का समय पर भुगतान न किए जाने पर सरकार उनकी ज़मींदारी अथवा उसका कुछ भाग नीलाम कर सकती थी और इससे वह लगान की वसूली कर सकती थी।

(5) ज़मींदार अपनी ज़मींदारी का मालिक तो था परन्तु व्यवहार में वह गाँव में भू-स्वामी नहीं था बल्कि राजस्व-संग्राहक (समाहत्ता) मात्र था। उसे किसानों से वसूल किए गए लगान में से \(\frac { 1 }{ 11 }\) भाग अपने पास रखना होता था और शेष \(\frac { 10 }{ 11 }\) भाग कंपनी सरकार को देना होता था।
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(6) एक ज़मींदारी में बहुत-से गाँव और कभी-कभी तो 400 गाँव तक होते थे। कुल मिलाकर यह ज़मींदारी की एक ‘राजस्व-संपदा’ (Revenue Estate) थी, जिस पर कंपनी सरकार कर निश्चित करती थी।

(7) अलग-अलग गाँवों पर कर निर्धारण व उसे एकत्र करने का कार्य ज़मींदार का था।

(8) इस व्यवस्था में सरकार का रैयत (किसानों) से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था। उसका संबंध ज़मींदारों से था।

प्रश्न 2.
सन् 1875 के दक्कन विद्रोह का वर्णन करें। यहाँ के किसान साहूकार के कर्जदार क्यों होते जा रहे थे?
उत्तर:
यह विद्रोह 12 मई, 1875 को महाराष्ट्र के एक बड़े गाँव सूपा (Supe) से शुरू हुआ। यह गाँव जिला पूना (अब पुणे) में पड़ता था। दो महीनों के अंदर यह विद्रोह पूना और अहमदनगर के दूसरे बहुत-से गाँवों में फैल गया। उत्तर से दक्षिण के बीच लगभग 6500 वर्गकिलोमीटर का क्षेत्र इसकी चपेट में आ गया। हर जगह गुजराती और मारवाड़ी महाजनों और साहूकारों पर आक्रमण हुए। उन्हें ‘बाहरी’ और अधिक अत्याचारी समझा गया।

सूपा में व्यापारी और साहूकार रहते थे। यहीं सबसे पहले ग्रामीण क्षेत्र के कुनबे किसान एकत्र हुए और उन्होंने साहूकारों से उनके ऋण-पत्र (debt bonds) और बही-खाते (Account books) छीन लिए और उन्हें जला दिया। जिन साहूकारों ने बही-खाते और ऋण-पत्र देने का विरोध किया, उन्हें मारा-पीटा गया। उनके घरों को भी जला दिया गया। इसके अलावा अनाज की दुकानें लूट ली गईं। आश्चर्य की बात यह थी कि सूपा के अतिरिक्त दूसरे गाँवों व कस्बों में भी किसानों की यही प्रतिक्रिया सामने आई। इससे साहूकार भयभीत हो गए। वे अपना गाँव छोड़कर भाग गए। यहाँ तक कि वे अपनी संपत्ति और धन भी पीछे छोड़ गए।

स्पष्ट है कि यह मात्र ‘अनाज के लिए दंगा’ (Grain Riots) नहीं था। किसानों का निशाना साफ तौर पर ‘कानूनी दस्तावेज’ अर्थात् बहीखाते और ऋण पत्र थे। इस विद्रोह के फैलने से ब्रिटिश अधिकारी भी घबराए। विशेषतः उन्हें 1857 की जनक्रांति की याद ताजा हो आई। विद्रोही गाँवों में पुलिस चौकियाँ बनाई गईं। यहाँ तक कि इस इलाके को सेना के हवाले करना पड़ा। 95 किसानों को गिरफ्तार करके दंडित किया गया।

विद्रोह पर नियंत्रण के बाद भी स्थिति पर नज़र रखी गई। उस समय के समाचार पत्रों की रिपोर्ट से पता चलता है कि किसान योजना बनाकर अपनी कार्यवाही करते थे ताकि अधिकारियों की पकड़ में न आए। क्योंकि किसान अवसर मिलते ही साहूकार के घरों पर हमला बोल देते थे। वास्तव में अंग्रेज़ों की नीतियों के चलते साहूकारों और कृषकों के मध्य परंपरागत संबंध समाप्त हो गए। बदली हुई परिस्थितियों में साहूकार ग्रामीण क्षेत्रों में एक शोषक तत्त्व बनकर उभरा।

ऋणग्रस्तता के कारण-दक्कन में किसान कर्ज के बोझ तले दबता चला गया। सन् 1840 तक स्थिति यह पैदा हो गई थी किसान फसल का खर्च पूरा करने तथा दैनिक उपयोग की वस्तुओं के लिए भी साहूकार से ऊँची दर पर कर्ज़ के लिए विवश हो गया, जो वापिस करना आसान नहीं था। कर्ज़ बढ़ने के कारण किसान की स्थिति खराब होती गई। वह साहूकार पर निर्भर होता गया। संक्षेप में किसान के ऋणग्रस्त होने के निम्नलिखित कारण थे

1. ऊँची भू-राजस्व दर-सन् 1818 में बंबई दक्कन में पहला रैयत से बंदोबस्त किया गया। इसमें राजस्व की माँग इतनी अधिक थी कि लोग अनेक स्थानों पर अपने गाँव छोड़कर भाग गए। वे अपेक्षाकृत बंजर और कम उपजाऊ भूमि पर जाकर खेती करने लगे। वर्षा न होने पर अकाल पड़ जाता और बिना फसल के भूमिकर चुकाना संभव नहीं था। फसल हो या न हो यह कर तो सरकार को चुकाना ही होता था।

2. राजस्व वसूली में सख्ती-कर एकत्रित करवाने वाले जिला कलेक्टरों की किसानों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी। उनकी फसलें बेचकर राजस्व वसूल किया जाता था। यहाँ तक कि गाँव पर सामूहिक तौर पर जुर्माना भी कर दिया जाता था। प्रायः कलेक्टर अपने जिले का सारा भूमि-कर एकत्रित करके बड़े अधिकारियों के समक्ष अपनी कार्यकुशलता का परिचय देता था। इसके लिए उसकी नीति सदैव कठोर रहती थी। अतः मुसीबत के दिनों में भूमि-कर चुकाने के लिए किसानों को साहूकार की शरण में जाना पड़ा।

3. कृषि-उत्पाद मूल्यों में गिरावट-1830 के आस-पास तक रैयतवाड़ी प्रथा बंबई दक्कन में शुरू हुई जिसमें भूमि-कर की माँग काफी ऊँची थी। इसी दशक में ही मंदी का दौर आ गया जो लगभग 1845 तक चला। फसलों की कीमतों में भारी गिरावट आ गई। यह किसान के लिए बड़ी समस्या के रूप में आया। इसलिए वह कर्ज लेने के लिए विवश हुआ।

4. 1832-34 का अकाल-इस अकाल में लगभग एक-तिहाई पशु धन दक्कन में खत्म हो गया। यहाँ तक कि 50 प्रतिशत मानव जनसंख्या मौत का ग्रास बन गई। जो किसान इस अकाल से किसी तरह जीवित बच गए थे, उन्हें बीज खरीदने, बैल खरीदने, राजस्व चुकाने तथा जीविका चलाने के लिए ऋण लेना ही पड़ा।

सन् 1840 के बाद स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। राजस्व की माँग में कुछ कमी की गई। मंदी का दौर भी खत्म हुआ। धीरे-धीरे कृषि उत्पादों की कीमतें बढ़ने लगी, तो किसानों ने नए खेत निकालकर खेती में अधिक रुचि ली। परन्तु इसके लिए भी किसानों को बीज व बैलों की जरूरत थी। अतः साहूकार से ऋण उसे इन परिस्थितियों में भी लेना पड़ा।

प्रश्न 3.
दक्कन में किसान विद्रोह के क्या कारण थे? इसमें किसानों ने साहूकारों के बहीखाते क्यों जला डाले?
उत्तर:
दक्कन मुख्यतः बंबई और महाराष्ट्र के क्षेत्र को कहा गया है। बंबई दक्कन में किसानों ने साहूकारों तथा अनाज के व्यापारियों के खिलाफ़ अनेक विद्रोह किए। इनमें से 1875 का विद्रोह सबसे भयंकर था। यह विद्रोह महाराष्ट्र के एक बड़े गाँव सूपा (Supe) से शुरु हुआ। दो महीनों के अंदर यह विद्रोह पूना और अहमदनगर के दूसरे बहुत-से गाँवों में फैल गया। 100 कि०मी० पूर्व से पश्चिम तथा 65 कि०मी० उत्तर से दक्षिण के बीच लगभग 6500 वर्गकिलोमीटर का क्षेत्र इसकी चपेट में आ गया। हर जगह गुजराती और मारवाड़ी महाजनों और साहूकारों पर आक्रमण हुए। दक्कन के इन किसान विद्रोहों के निम्नलिखित कारण थे

1. रैयतवाड़ी प्रणाली-इस प्रणाली में किसानों को उस भूमि का मालिक माना गया था जिन पर वे खेती करते आ रहे थे। इसमें ज़मींदार तो नहीं थे परंतु सरकार फसल का लगभग आधा भाग किसानों से वसूलती थी। इस प्रणाली में भू-राजस्व की दर भी बहुत ऊँची थी।

2. किसान का ऋणग्रस्त होना-सरकार का लगान किसान पूरा नहीं कर पाता था। इसलिए उसे साहूकार से उधार लेना पड़ता था। कई बार तो उसे दैनिक उपयोग की वस्तुओं के लिए भी ऋण लेना पड़ता था जो उसके लिए वापिस करना आसान नहीं था।

अमेरिका के गृह-युद्ध (1861-65) के दिनों में कपास की माँग में अचानक उछाल आया। कपास के मूल्य में जबरदस्त वृद्धि हुई। इस स्थिति में साहूकार व्यापारियों ने किसानों को खूब अग्रिम धनराशि दी। लेकिन ज्योंहि युद्ध समाप्त हुआ ‘ऋण का यह स्रोत सूख गया’ । युद्ध के बाद कपास के निर्यात में गिरावट आ गई। कपास की माँग खत्म हो गई। किसानों को ऋण मिलना बन्द हो गया और पहले दिए हुए ऋण को लौटाने के लिए दबाव बढ़ गया। 1870 ई० के आस-पास यह स्थिति किसान विद्रोहों के लिए काफी हद तक उत्तरदायी कही जा सकती है।

3. अन्याय का अनुभव-जब साहूकारों ने उधार देने से मना किया तो किसानों को बहुत गुस्सा आया। क्योंकि परंपरागत ग्रामीण व्यवस्था में न तो अधिक ब्याज लिया जाता था और न ही मुसीबत के समय उधार से मनाही की जाती थी। किसान विशेषतः इस बात पर अधिक नाराज़ थे कि साहूकार वर्ग इतना संवेदनहीन हो गया है कि वह उनके हालात पर रहम नहीं खा रहा है। सन् 1874 में साहूकारों ने भू-राजस्व चुकाने के लिए किसानों को उधार देने से स्पष्ट इंकार कर दिया था। वे सरकार के इस कानून को नहीं मान रहे थे कि चल-सम्पत्ति की नीलामी से यदि उधार की राशि पूरी न हो तभी साहूकार जमीन की नीलामी करवाएँ। अब उधार न मिलने से मामला और भी जटिल हो गया और किसान विद्रोही हो उठे।

बही-खातों का जलना-दक्कन विद्रोह तथा देश के अन्य भागों में भी किसानों ने विद्रोहों में बही-खातों को निशाना बनाया। वास्तव में ऋण-प्राप्ति और उसकी वापसी दोनों ही दक्कन के किसानों के लिए एक जटिल प्रक्रिया थी। परंपरागत साहूकारी कारोबार में कानूनी दस्तावेजों का इतना झंझट नहीं था। जुबान अथवा वायदा ही पर्याप्त था। क्योंकि किसी सौदे के लिए परस्पर सामाजिक दबाव रहता था। ब्रिटिश अधिकारी वर्ग बिना विधिसम्मत अनुबंधों के सौदों को संदेह की दृष्टि से देखते थे। विवाद छिड़ने की स्थिति में न्यायालयों में भी ऐसे बंधपत्रों, संविदाओं और दस्तावेजों का ही महत्त्व होता था, जिनमें शर्ते साफ-साफ हस्ताक्षरित होती थीं।

जुबानी लेन-देन कानून के दायरे में कोई महत्त्व नहीं रखता था जबकि परंपरागत प्रणाली में गाँव की पंचायत महत्त्व देती थी। कर्ज़ से डूबे किसान को जब और उधार की जरूरत पड़ती तो केवल एक ही तरीके से यह संभव हो पाता कि वह ज़मीन, गाड़ी, हल-बैल ऋण दाता को दे दे। फिर भी जीवन के लिए तो उसे कुछ-न-कुछ साधन चाहिए थे। अतः वह इन साधनों को साहूकार से किराए पर लेता था। जो वास्तव में उसके अपने ही होते थे। अब उसे अपने ही साधनों का किराया साहूकार को देना होता था। अपनी विवशता के कारण उसे भाडापत्र अथवा किराया नामा में स्पष्ट करना होता कि यह पशु, बैलगाड़ी उसके अपने नहीं हैं।

उसने इन्हें किराए पर लिया है और इसके लिए वह इनका निश्चित किराया प्रदान करेगा। स्पष्ट है कि यह दस्तावेज न्यायालय में साहूकार का पक्ष ही सुदृढ़ करता था। गगजिन अनुबंधों पर वह हस्ताक्षर करता था या अंगूठा लगाता था उनमें क्या लिखा है, वह नहीं जानता था। उधार लेने के लिए हस्ताक्षर जरूरी थे। इसके बिना उन्हें कहीं कर्ज नहीं मिल सकता था। हस्ताक्षरित दस्तावेज़ कोर्ट में प्रायः साहूकार के ही पक्ष में जाता था।

अतः इस नई व्यवस्था के कारण किसान बंधपत्रों और दस्तावेजों को अपनी दुःख-तकलीफों का मुख्य कारण मानने लगा। वह तो लिखे हुए शब्दों से डरने लगा। यही वह कारण था कि जब भी कृषक विद्रोह होता था तभी किसान दस्तावेजों को जलाते थे। बहीखाते व ऋण अनुबंध पत्र, उनका पहला निशाना होता था। उसने साहूकार का घर बाद में जलाया, पहले दस्तावेजों को फूंका।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

HBSE 12th Class History औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
औपनिवेशिक शहरों में रिकॉर्ड्स सँभालकर क्यों रखे जाते थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक शहरों में प्रत्येक कार्यालय के अपने ‘रिकॉर्डस रूम’ थे जिनमें रिकॉर्डस को सुरक्षित रखा जाता था। इसके निम्नलिखित कारण थे

(1) भारत में ब्रिटिश सत्ता मुख्यतया आँकड़ों और जानकारियों के संग्रह पर आधारित थी। उसका लक्ष्य भारत के संसाधनों को निरंतर दोहन करते हुए मुनाफा बटोरना था। इसके लिए वह अपने राजनीतिक नियंत्रण को सुदृढ़ रखना चाहती थी। ये दोनों काम बिना पर्याप्त जानकारियों के संभव नहीं थे।

(2) आंकड़ों का सर्वाधिक महत्त्व उनके लिए वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए था। कंपनी सरकार द्वारा वस्तुओं, संसाधनों व व्यापार की संभावनाओं संबंधी आकलन व ब्यौरे तैयार करवाए जाते थे। कंपनी कार्यालयों में आयात-निर्यात संबंधी विवरण रखे जाते थे।

(3) शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से शहरी जनसंख्या के उतार-चढ़ाव की जानकारी महत्त्वपूर्ण थी। उदाहरण के लिए, सड़क निर्माण, यातायात तथा साफ-सफाई इत्यादि के बारे में निर्णय लेने के लिए विविध जानकारियाँ आवश्यक थीं। अतः सांख्यिकी आँकड़े एकत्रित कर उन्हें सरकारी रिपोर्टों में प्रकाशित किया जाता था।

प्रश्न 2.
औपनिवेशिक संदर्भ में शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए जनगणना संबंधी आंकड़े किस हद तक उपयोगी होते हैं?
उत्तर:
जनगणना के आँकड़े शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनमें लोगों के व्यवसायों की जानकारी तथा उनके लिंग, आयु व जाति संबंधी सूचनाएँ मिलती हैं। ये जानकारियाँ आर्थिक और सामाजिक स्थिति को समझने के लिए काफी उपयोगी हैं। ध्यान रहे कई बार आँकड़ों के इस भारी-भरकम भंडार से सटीकता का भ्रम हो सकता है।

यह जानकारी बिल्कुल सटीक नहीं होती। इन आँकड़ों के पीछे भी संभावित पूर्वाग्रह हो सकते हैं। जैसे कि बहुत-से लोग अपने परिवार की महिलाओं की जानकारी छुपा लेते थे। ऐसे लोगों को किसी श्रेणी विशेष में रखना मुश्किल हो जाता था। वे दो तरह के काम करते थे। उदाहरण के लिए जो खेती भी करता हो और व्यापारी भी हो। ऐसे लोगों को सुविधानुसार ही किसी श्रेणी में रख लिया जाता था।

अपनी इन सीमाओं के बावजूद भी शहरीकरण के रुझानों को समझने में पहले के शहरों की तुलना में ये आँकड़े अधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। उदाहरण के लिए 1900 से 1940 तक की जनगणनाओं से पता चलता है कि इस अवधि में कुल आबादी का 13 प्रतिशत से भी कम हिस्सा शहरों में रहता था। स्पष्ट है कि औपनिवेशिक काल में शहरीकरण अत्यधिक धीमा और लगभग स्थिर जैसा ही रहा।

प्रश्न 3.
“व्हाइट” और “ब्लैक” टाउन शब्दों का क्या महत्त्व था?
उत्तर:
‘व्हाइट’ और ‘ब्लैक’ टाउन शब्द नगर संरचना में नस्ली भेदभाव का प्रतीक थे। अंग्रेज़ गोरे लोग दुर्गों के अंदर बनी बस्तियों में रहते थे, जबकि भारतीय व्यापारी, कारीगर और मज़दूर इन किलों से बाहर बनी अलग बस्तियों में रहते थे। दुर्ग के भीतर रहने का आधार रंग और धर्म था। अलग रहने की यह नीति शुरू से ही अपनाई गई थी। अंग्रेज़ों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मकान (क्वार्टस) बनाए गए थे।

सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरू से ही दिखता है। यह उस समय और भी तीखा हो गया जब अंग्रेज़ों का राजनीतिक नियंत्रण स्थापित हो गया। ‘व्हाइट टाउन’ प्रशासकीय और न्यायिक व्यवस्था का केंद्र भी था।

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प्रश्न 4.
प्रमुख भारतीय व्यापारियों ने औपनिवेशिक शहरों में खुद को किस तरह स्थापित किया?
उत्तर:
18वीं सदी से पहले ही बहुत-से भारतीय व्यापारी यूरोपीय कंपनियों के सहायक के तौर पर काम करते आ रहे थे। उनमें से बहुत सारे दुभाषिए थे, यानि अंग्रेज़ी और स्थानीय भाषा जानते थे। वे अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाते थे। साथ में ये एजेंट या व्यापारी का काम भी करते थे। वे निर्यात होने वाली वस्तुओं के संग्रह में सहायक थे। इन सहायक व्यापारिक गतिविधियों में काम करते हुए कुछ भारतीय व्यापारियों ने काफी धन एकत्रित कर लिया था। 19वीं सदी के मध्य से तो

इन धनी व्यापारियों में से कुछ उद्यमी बनने लगे थे, अर्थात् उन्होंने उद्योग लगाने शुरू किए। उदाहरण के लिए, 1853 ई० में बंबई के कावसजी नाना ने भारतीय पूँजी से पहली कपड़ा मिल लगाई, लेकिन इन उभरते हुए भारतीय उद्योगपतियों को सरकार की पक्षपातपूर्ण नीति से काफी बाधा पहुँची। यह वर्ग अपनी हैसियत को ऊँचा दिखाने के लिए पश्चिमी जीवन-शैली का अनुसरण करने लगा। यह विभिन्न त्योहारों के अवसरों पर रंगीन दावतों का आयोजन करने लगा ताकि अपने स्वामी अंग्रेज़ों को प्रभावित कर सकें। यह अपने देशवासियों को भी अपनी हैसियत का परिचय करवाना चाहता था। इस उद्देश्य से इस वर्ग के लोगों ने बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण करवाया।

प्रश्न 5.
औपनिवेशिक मद्रास में शहरी और ग्रामीण तत्त्व किस हद तक घुल-मिल गए थे? [2017, 2019 (Set-D)]
उत्तर:
मद्रास शहर का विकास अंग्रेज़ शासकों की जरूरतों और सुविधाओं के अनुरूप किया गया था। ‘व्हाइट टाउन’ तो था ही गोरे लोगों के लिए। ‘ब्लैक टाउन’ में भारतीय रहते थे। शहर के इस भाग में बहुत-से लोग नौकरी, व्यवसाय और मजदूरी के लिए आकर बसते रहे। इस प्रकार लंबे समय तक शहर में रहते रहे और ग्रामीण और शहरी तत्त्वों का मिश्रण होता रहा। उदाहरण के लिए

  1. ‘वेल्लार’ एक स्थानीय ग्रामीण जाति थी। कंपनी की नौकरियाँ पाने वालों में ये लोग अग्रणी रहे। इन्होंने मद्रास में नए अवसरों का काफी लाभ उठाया।
  2. तेलुगू कोमाटी समुदाय ने मद्रास में व्यावसायिक सफलता प्राप्त की। धीरे-धीरे इन्होंने अनाज के व्यापार पर नियंत्रण कर लिया।
  3. पेरियार और वन्नियार समुदाय शहर में मजदूरी का कार्य करने लगे थे।

धीरे-धीरे ऐसे बहुत-से समुदायों की बस्तियाँ मद्रास शहर का भाग बन गईं। साथ ही बहुत-से गाँवों को मिलाने के कारण मद्रास शहर दूर-दूर तक फैल गया। आस-पास के गाँव नए उप-शहरों में बदल गए। इस प्रकार शहर फैलता चला गया और मद्रास एक अर्ध-ग्रामीण शहर जैसा हो गया।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण किस तरह हुआ?
उत्तर:
18वीं सदी के शहर नए (New) थे। 16वीं व 17वीं सदी के शहरों की तुलना में इन शहरों की भौतिक संरचना और सामाजिक जीवन भिन्न था। ये अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रदर्शित कर रहे थे। नए शहरों में मद्रास, कलकत्ता और बम्बई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे। इनका विकास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के चलते बंदरगाहों और संग्रह केंद्रों के रूप में हुआ। 18वीं सदी के अंत तक पहुँचते-पहुँचते ये बड़े नगरों के तौर पर उभर चुके थे। इनमें आकर बसने वाले अधिकांश भारतीय अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक गतिविधियों में सहायक के तौर पर काम करने वाले थे। अंग्रेज़ों ने अपने ‘कारखाने’ यानी वाणिज्यिक कार्यालय इन शहरों में स्थापित किए हुए थे।

इनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी किलेबंदी करवाई। मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फोर्ट विलियम और इसी प्रकार बम्बई में भी दुर्ग बनवाया गया। इन किलों में वाणिज्यिक कार्यालय थे तथा ब्रिटिश लोगों के रहने के लिए निवास थे। सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शरू से ही दिखाई पडता है।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक शहर में सामने आने वाले नए तरह के सार्वजनिक स्थान कौन से थे? उनके क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
नए शहर अंग्रेज़ शासकों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिंबित करते थे। कहने का अभिप्राय यह है कि जो नए सार्वजनिक स्थान विकसित हुए वो मुख्यतया नए शासकों की जरूरत के अनुरूप थे। मुख्य नए सार्वजनिक स्थान व उनके उद्देश्य इस प्रकार हैं

  1. नदी और समुद्र के किनारे गोदियों (Docks) व घाटों का विकास हुआ। इनका उद्देश्य ब्रिटिश व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार करना था।
  2. ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी व्यापारिक गतिविधियों के लिए वाणिज्यिक कार्यालय और गोदाम बनाए।
  3. व्यापार से जुड़ी अन्य संस्थाओं में यातायात डिपो व बैंकिंग संस्थानों का विकास हुआ। जहाजरानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ बनीं।
  4. प्रशासकीय कार्यालयों की स्थापना हुई। कलकत्ता में ‘राइटर्स बिल्डिंग’ इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।

पुस्तक के प्रश्न

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
औपनिवेशिक शहरों में रिकॉर्स सँभालकर क्यों रखे जाते थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक शहरों में प्रत्येक कार्यालय के अपने रिकॉर्डस रूम’ थे जिनमें रिकॉर्डस को सुरक्षित रखा जाता था। इसके निम्नलिखित कारण थे

(1) भारत में ब्रिटिश सत्ता मुख्यतया आँकड़ों और जानकारियों के संग्रह पर आधारित थी। उसका लक्ष्य भारत के संसाधनों को निरंतर दोहन करते हुए मुनाफा बटोरना था। इसके लिए वह अपने राजनीतिक नियंत्रण को सुदृढ़ रखना चाहती थी। ये दोनों काम बिना पर्याप्त जानकारियों के संभव नहीं थे।

(2) आंकड़ों का सर्वाधिक महत्त्व उनके लिए वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए था। कंपनी सरकार द्वारा वस्तुओं, संसाधनों व व्यापार की संभावनाओं संबंधी आकलन व ब्यौरे तैयार करवाए जाते थे। कंपनी कार्यालयों में आयात-निर्यात संबंधी विवरण रखे जाते थे।

(3) शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से शहरी जनसंख्या के उतार-चढ़ाव की जानकारी महत्त्वपूर्ण थी। उदाहरण के लिए, सड़क निर्माण, यातायात तथा साफ-सफाई इत्यादि के बारे में निर्णय लेने के लिए विविध जानकारियाँ आवश्यक थीं। अतः सांख्यिकी आँकड़े एकत्रित कर उन्हें सरकारी रिपोर्टों में प्रकाशित किया जाता था।

प्रश्न 2.
औपनिवेशिक संदर्भ में शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए जनगणना संबंधी आंकड़े किस हद तक उपयोगी होते हैं?
उत्तर:
जनगणना के आँकड़े शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनमें लोगों के व्यवसायों की जानकारी तथा उनके लिंग, आयु व जाति संबंधी सूचनाएँ मिलती हैं। ये जानकारियाँ आर्थिक और सामाजिक स्थिति को समझने के लिए काफी उपयोगी हैं। ध्यान रहे कई बार आँकड़ों के इस भारी-भरकम भंडार से सटीकता का भ्रम हो सकता है। यह जानकारी बिल्कुल सटीक नहीं होती।

इन आँकड़ों के पीछे भी संभावित पूर्वाग्रह हो सकते हैं। जैसे कि बहुत-से लोग अपने परिवार की महिलाओं की जानकारी छुपा लेते थे। ऐसे लोगों को किसी श्रेणी विशेष में रखना मुश्किल हो जाता था। वे दो तरह के काम करते थे। उदाहरण के लिए जो खेती भी करता हो और व्यापारी भी हो। ऐसे लोगों को सुविधानुसार ही किसी श्रेणी में रख लिया जाता था।

अपनी इन सीमाओं के बावजूद भी शहरीकरण के रुझानों को समझने में पहले के शहरों की तुलना में ये आँकड़े अधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। उदाहरण के लिए 1900 से 1940 तक की जनगणनाओं से पता चलता है कि इस अवधि में कुल आबादी का 13 प्रतिशत से भी कम हिस्सा शहरों में रहता था। स्पष्ट है कि औपनिवेशिक काल में शहरीकरण अत्यधिक धीमा और लगभग स्थिर जैसा ही रहा।

प्रश्न 3.
“व्हाइट” और “ब्लैक” टाउन शब्दों का क्या महत्त्व था?
उत्तर:
‘व्हाइट’ और ‘ब्लैक’ टाउन शब्द नगर संरचना में नस्ली भेदभाव का प्रतीक थे। अंग्रेज़ गोरे लोग दुर्गों के अंदर बनी बस्तियों में रहते थे, जबकि भारतीय व्यापारी, कारीगर और मज़दूर इन किलों से बाहर बनी अलग बस्तियों में रहते थे। दुर्ग के भीतर रहने का आधार रंग और धर्म था। अलग रहने की यह नीति शुरू से ही अपनाई गई थी। अंग्रेज़ों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मकान (क्वार्टस) बनाए गए थे। सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरू से ही दिखता है। यह उस समय और भी तीखा हो गया जब अंग्रेज़ों का राजनीतिक नियंत्रण स्थापित हो गया। ‘व्हाइट टाउन’ प्रशासकीय और न्यायिक व्यवस्था का केंद्र भी था।

प्रश्न 4.
प्रमुख भारतीय व्यापारियों ने औपनिवेशिक शहरों में खुद को किस तरह स्थापित किया?
उत्तर:
18वीं सदी से पहले ही बहुत-से भारतीय व्यापारी यूरोपीय कंपनियों के सहायक के तौर पर काम करते आ रहे थे। उनमें से बहुत सारे दुभाषिए थे, यानि अंग्रेज़ी और स्थानीय भाषा जानते थे। वे अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाते थे। साथ में ये एजेंट या व्यापारी का काम भी करते थे। वे निर्यात होने वाली वस्तुओं के संग्रह में सहायक थे। इन सहायक व्यापारिक गतिविधियों में काम करते हुए कुछ भारतीय व्यापारियों ने काफी धन एकत्रित कर लिया था।

19वीं सदी के मध्य से तो इन धनी व्यापारियों में से कुछ उद्यमी बनने लगे थे, अर्थात् उन्होंने उद्योग लगाने शुरू किए। उदाहरण के लिए, 1853 ई० में बंबई के कावसजी नाना ने भारतीय पूँजी से पहली कपड़ा मिल लगाई, लेकिन इन उभरते हुए भारतीय उद्योगपतियों को सरकार की पक्षपातपूर्ण नीति से काफी बाधा पहुंची।

यह वर्ग अपनी हैसियत को ऊँचा दिखाने के लिए पश्चिमी जीवन-शैली का अनुसरण करने लगा। यह विभिन्न त्योहारों के अवसरों पर रंगीन दावतों का आयोजन करने लगा ताकि अपने स्वामी अंग्रेजों को प्रभावित कर सकें। यह अपने देशवासियों को भी अपनी हैसियत का परिचय करवाना चाहता था। इस उद्देश्य से इस वर्ग के लोगों ने बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण करवाया।

प्रश्न 5.
औपनिवेशिक मद्रास में शहरी और ग्रामीण तत्त्व किस हद तक घुल-मिल गए थे?
उत्तर:
मद्रास शहर का विकास अंग्रेज़ शासकों की जरूरतों और सुविधाओं के अनुरूप किया गया था। ‘व्हाइट टाउन’ तो था ही गोरे लोगों के लिए। ‘ब्लैक टाउन’ में भारतीय रहते थे। शहर के इस भाग में बहुत-से लोग नौकरी, व्यवसाय और मजदूरी के लिए आकर बसते रहे। इस प्रकार लंबे समय तक शहर में रहते रहे और ग्रामीण और शहरी तत्त्वों का मिश्रण होता रहा। उदाहरण के लिए
(1) ‘वेल्लार’ एक स्थानीय ग्रामीण जाति थी। कंपनी की नौकरियाँ पाने वालों में ये लोग अग्रणी रहे। इन्होंने मद्रास में नए अवसरों का काफी लाभ उठाया।

(2) तेलुगू कोमाटी समुदाय ने मद्रास में व्यावसायिक सफलता प्राप्त की। धीरे-धीरे इन्होंने अनाज के व्यापार पर नियंत्रण कर लिया।

(3) पेरियार और वन्नियार समुदाय शहर में मजदूरी का कार्य करने लगे थे। धीरे-धीरे ऐसे बहुत-से समुदायों की बस्तियाँ मद्रास शहर का भाग बन गईं। साथ ही बहुत-से गाँवों को मिलाने के कारण मद्रास शहर दूर-दूर तक फैल गया। आस-पास के गाँव नए उप-शहरों में बदल गए। इस प्रकार शहर फैलता चला गया और मद्रास एक अर्ध-ग्रामीण शहर जैसा हो गया।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण किस तरह हुआ?
उत्तर:
18वीं सदी के शहर नए (New) थे। 16वीं व 17वीं सदी के शहरों की तुलना में इन शहरों की भौतिक संरचना और सामाजिक जीवन भिन्न था। ये अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रदर्शित कर रहे थे। नए शहरों में मद्रास, कलकत्ता और बम्बई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे। इनका विकास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के चलते बंदरगाहों और संग्रह केंद्रों के रूप में हुआ।

18वीं सदी के अंत तक पहुँचते-पहुँचते ये बड़े नगरों के तौर पर उभर चुके थे। इनमें आकर बसने वाले अधिकांश भारतीय अंग्रेजों की वाणिज्यिक गतिविधियों में सहायक के तौर पर काम करने वाले थे। अंग्रेज़ों ने अपने ‘कारखाने’ यानी वाणिज्यिक कार्यालय इन शहरों में स्थापित किए हुए थे।

इनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी किलेबंदी करवाई। मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फोर्ट विलियम और इसी प्रकार बम्बई में भी दुर्ग बनवाया गया। इन किलों में वाणिज्यिक कार्यालय थे तथा ब्रिटिश लोगों के रहने के लिए निवास थे। सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरू से ही दिखाई पड़ता है।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक शहर में सामने आने वाले नए तरह के सार्वजनिक स्थान कौन से थे? उनके क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
नए शहर अंग्रेज़ शासकों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिंबित करते थे। कहने का अभिप्राय यह है कि जो नए सार्वजनिक स्थान विकसित हुए वो मुख्यतया नए शासकों की जरूरत के अनुरूप थे।
मुख्य नए सार्वजनिक स्थान व उनके उद्देश्य इस प्रकार हैं

  • नदी और समुद्र के किनारे गोदियों (Docks) व घाटों का विकास हुआ। इनका उद्देश्य ब्रिटिश व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार करना था।
  • ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी व्यापारिक गतिविधियों के लिए वाणिज्यिक कार्यालय और गोदाम बनाए।
  • व्यापार से जुड़ी अन्य संस्थाओं में यातायात डिपो व बैंकिंग संस्थानों का विकास हुआ। जहाजरानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ बनीं।
  • प्रशासकीय कार्यालयों की स्थापना हुई। कलकत्ता में ‘राइटर्स बिल्डिंग’ इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
  • पाश्चात्य शिक्षा के लिए अंग्रेज़ी-शिक्षण संस्थान खोले गए। ईसाई लोगों के लिए एंग्लिकन चर्च बनाए गए।
  • रेलवे के विस्तार के साथ बड़े-बड़े रेलवे-जंक्शन बनाए गए।
  • 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बड़े शहरों में नगर निगम तथा अन्य शहरों में नगरपालिकाओं का गठन किया गया। इनका उद्देश्य शहर में सफाई, जल-आपूर्ति तथा चिकित्सा इत्यादि का प्रबंध करना था।

प्रश्न 8.
उन्नीसवीं सदी में नगर-नियोजन को प्रभावित करने वाली चिंताएँ कौन सी थीं?
उत्तर:
19वीं सदी के प्रारंभ से ही नगर-नियोजन की चिंता अंग्रेज़ प्रशासकों को सताने लगी थी। 1857 ई० के विद्रोह के बाद यह चिंता और भी गहरा गई। हैजा और प्लेग जैसी महामारियों के फैलने से वे और भी चिंतित हो उठे थे। सबसे पहले इस ओर ध्यान लॉर्ड वेलेज्ली ने दिया। 1803 में उसका प्रशासकीय आदेश ‘जन-स्वास्थ्य’ व नगर नियोजन में एक प्रमुख विचार बन गया था। प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्यों उन्होंने नगर को व्यवस्थित करने पर जोर दिया? जबकि काफी समय तक उन्होंने शहर में भारतीयों की बस्तियों में सुधार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। अंग्रेज़ अधिकारियों की नगर को नियोजित करने के पीछे निम्नलिखित चिंताएँ थीं

1. प्रशासकीय नियंत्रण उन्होंने यह महसूस किया कि शहरी जीवन के सभी आयामों पर नियंत्रण के लिए स्थायी व सार्वजनिक नियम बनाना जरूरी है। साथ ही सड़कों व इमारतों के निर्माण के लिए मानक नियमों का होना भी जरूरी है।

2. सुरक्षा-किलों के बाहर उन्होंने विशेषतौर पर खुला मैदान रखा ताकि आक्रमण होने की स्थिति में सीधी गोलीबारी की जा सके। कलकत्ता के किले के बाहर ऐसे मैदान आज भी मौजूद हैं।

3. सुरक्षित आश्रयस्थल-सन् 1857 के विद्रोह के बाद औपनिवेशिक शहरों के नियोजन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया। आतंकित अधिकारी वर्ग ने भविष्य में विद्रोह की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए ‘देशियों’ यानी भारतीयों से अलग ‘सिविल लाइंस’ में रहने की नीति अपनाई।

4. स्वास्थ्य की चिंता–प्लेग व हैजा जैसी महामारियों के प्रसार के डर से नगर-नियोजन की जरूरत और भी महत्त्वपूर्ण होती गई। वे इस बात से परेशान हो उठे कि भीड़-भाड़ वाली भारतीय बस्तियों में गंदगी व दूषित पानी से बीमारियाँ फैल रही हैं। इस विचार से इन बस्तियों में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ गया।

5. सत्ता की ताकत का प्रदर्शन-व्यवस्थित नगरों के माध्यम से अंग्रेज़ अपनी साम्राज्यवादी ताकत का प्रदर्शन करना चाहते थे। इसलिए विशेषतौर पर पहले उन्होंने कलकत्ता, बंबई और मद्रास को नियोजित राजधानियाँ बनाया। फिर दिल्ली को ‘नई दिल्ली’ के रूप में विकसित किया।

प्रश्न 9.
नए शहरों में सामाजिक संबंध किस हद तक बदल गए?
उत्तर:
नए शहरों का सामाजिक संबंध पहले के शहरों से बहुत कुछ अलग था। इसमें जिन्दगी की गति बहुत तेज़ थी। नए सामाजिक वर्ग व संबंध उभर चुके थे। मुख्य परिवर्तन इस प्रकार थे

(1) नए शहर मध्य वर्ग के केन्द्र बन चुके थे। इस वर्ग में शिक्षक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, क्लर्क तथा अकाउंटेंट्स इत्यादि थे। यह वर्ग एक नया सामाजिक समूह था जिसके लिए पुरानी पहचान अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रही थी। इन नए शहरों में पुराने शहरों वाला परस्पर मिलने-जुलने का अहसास खत्म हो चुका था, लेकिन साथ ही मिलने-जुलने के नए स्थल; जैसे कि सार्वजनिक पार्क, टाउन हॉल, रंगशाला और 20वीं सदी में सिनेमा हॉल इत्यादि बन चुके थे।

(2) नए शहरों में नए अर्थतंत्र के विकास से औरतों के लिए नए अवसर उत्पन्न हुए। फलतः सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने लगी। वे घरों में नौकरानी, फैक्टरी में मजदूर, शिक्षिका, रंग-कर्मी तथा फिल्मों में कार्य करती हुई दिखाई देने लगीं। उल्लेखनीय है कि सार्वजनिक स्थानों पर कामकाज करने वाली महिलाओं को लंबे समय तक सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा गया, क्योंकि रूढ़िवादी विचारों के लोग पुरानी परम्पराओं और व्यवस्था को बनाए रखने का समर्थन कर रहे थे। वे परिवर्तन के विरोधी थे।

(3) कामगार लोगों के लिए शहरी जीवन एक संघर्ष था। ये लोग इन नए शहरों की तड़क-भड़क से आकर्षित होकर या रोजी-रोटी की तलाश में आए। शहर में इनकी नौकरी स्थायी नहीं थी। वेतन कम था और खर्चे ज्यादा थे। इसलिए इनके परिवार गाँवों में रहते थे।

इस प्रकार कामगार लोगों का जीवन गरीबी से पीड़ित था। वे गाँव की संस्कृति से वंचित हो गए थे। शहरों में इन्होंने भी एक हद तक ‘एक शहरी संस्कृति’ रच ली थी। वे धार्मिक त्योहारों, मेलों, स्वांगों तथा तमाशों इत्यादि में भाग लेते थे। ऐसे अवसरों पर वे अपने यूरोपीय और भारतीय स्वामियों का मज़ाक उड़ाते थे।

परियोजना कार्य

प्रश्न 10.
पता लगाइए कि आपके कस्बे या गाँव में स्थानीय प्रशासन कौन-सी सेवाएँ प्रदान करता है। क्या जलापूर्ति, आवास, यातायात और स्वास्थ्य एवं स्वच्छता आदि सेवाएँ भी उनके हिस्से में आती हैं? इन सेवाओं के लिए संसाधनों की व्यवस्था कैसे की जाती है? नीतियाँ कैसे बनाई जाती हैं? क्या शहरी मज़दूरों या ग्रामीण इलाकों के खेतिहर मजदूरों के पास नीति-निर्धारण में हस्तक्षेप का अधिकार होता है? क्या उनसे राय ली जाती है? अपने निष्कर्षों के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
संकेत

1. कस्बे, शहर और गाँव के प्रशासन को स्थानीय प्रशासन कहा जाता है।

2. स्थानीय प्रशासन, जलापूर्ति, आवास, यातायात, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता आदि बहुत-सी सेवाओं के लिए उत्तरदायी होता है-अब आपने देखना है कि व्यवहार में स्थिति क्या है? क्या स्वच्छता, सड़क व जलापूर्ति संतोषजनक हैं, बहुत ही बेहतर है या फिर असंतोषजनक।

3. शहर व गाँव से निकलने वाले कचरे व कूड़ा-करकट के लिए क्या व्यवस्था की गई है? खुले में फैंका जाता है, दबाया जाता है, जलाया जाता है या फिर कोई ‘प्लाट’ लगाकर खाद व अन्य उपयोगी वस्तुओं में बदला जाता है। पता लगाएँ।

4. इन सभी सुविधाओं के लिए धन की व्यवस्था कहाँ से होती है, अर्थात् प्रत्यक्ष कर कितना लगाया जाता है और राज्य व केंद्रीय सरकार से कितना अनुदान प्राप्त होता है। क्या विश्व बैंक भी इसमें सहायता कर रहा है-पता लगाएँ। यदि कर रहा है तो क्यों?

5. स्थानीय गरीब लोगों (मजदूर, खेत, मजदूर इत्यादि) का नीति निर्धारण में योगदान इस बात से पता लगाएँ कि गाँव या कस्बे के निकाय के लिए चुनाव होता है या नहीं। दूसरा अधिकारी वर्ग उनकी बात सुनता है या नहीं।

6. उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए अपने प्राध्यापक के निर्देशन में रिपोर्ट तैयार करें।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

प्रश्न 11.
अपने शहर या गाँव में पाँच तरह की इमारतों को चुनिए। प्रत्येक के बारे में पता लगाइए कि उन्हें कब बनाया गया, उनको बनाने का फैसला क्यों लिया गया, उनके लिए संसाधनों की व्यवस्था कैसे की गई, उनके निर्माण का जिम्मा किसने उठाया और उनके निर्माण में कितना समय लगा। उन इमारतों के स्थापत्य या वास्तु शैली संबंधी आयामों का वर्णन करिए और औपनिवेशिक स्थापत्य से उनकी समानताओं या भिन्नताओं को चिह्नित कीजिए।
उत्तर:
हर शहर व गाँव में सार्वजनिक भवन होते हैं जैसे कि, स्कूल, महाविद्यालय, पंचायतघर, शहर में टाउन हाल, नगरपालिका, अस्पताल, लाइब्रेरी इत्यादि।

  1. इनको बनाने में पंचायत, नगर निगम/पालिका यानी स्थानीय निकायों की भूमिका की जांच करें। सामान्य लोगों की राय किस प्रकार ऐसे निर्णयों का हिस्सा बनती है?
  2. धन के लिए क्या स्थानीय कर लगाया गया या राज्य व केंद्र में ‘ग्रांट’ मिली।
  3. इनमें ‘वास्तुशैली’ अथवा स्थापत्य शैली कौन-सी अपनाई गई है। सत्ता की झलक किस रूप में मिलती है-देखें। कौन-सी संस्कृति झलकती है।
  4. औपनिवेशिक स्थापत्य से यदि तुलना करोगे तो आप पाओगे कि नए स्थापत्य में स्वतंत्र भारत की झलक है।
  5. इन सब पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अपने प्राध्यापक के निर्देशन में रिपोर्ट तैयार करें।

औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य HBSE 12th Class History Notes

→ शहरीकरण-शहर का भौतिक व सांस्कृतिक विकास अर्थात शहरी संस्थाओं (प्रशासनिक व शैक्षणिक) का विकास; मध्य वर्ग का विकास; भौतिक संरचना का विस्तार व विकास; नए शहरी तत्त्वों विशेषतः आधुनिक दृष्टिकोण का विकास।

→ कस्बा-मुगलकालीन भारत में एक छोटा ‘ग्रामीण शहर’ जो सामान्यतया किसी विशिष्ट व्यक्ति का केंद्र होता था।

→ गंज-मुगलकालीन कस्बों में एक स्थायी छोटे बाजार को गंज कहा जाता था।

→ पेठ व पुरम-पेठ एक तमिल शब्द है जिसका अर्थ होता है बस्ती, जबकि पुरम शब्द गाँव के लिए प्रयोग किया जाता है।

→ बस्ती बस्ती (बंगला व हिंदी) का अर्थ मूल रूप में मोहल्ला अथवा बसावट हुआ करता था। परंतु अंग्रेज़ों ने इसका अर्थ संकुचित कर दिया तथा इसे गरीबों की कच्ची झोंपड़ियों के लिए प्रयोग करने लगे। 19वीं सदी में गंदी-झोंपड़ पट्टी को बस्ती कहा जाने लगा।

→ बंगलो (Bunglow)-अंग्रेज़ी भाषा का यह शब्द बंगाल के ‘बंगला’ शब्द से निकला है जो एक परंपरागत फँस की झोंपड़ी होती थी। अंग्रेज़ अधिकारियों ने अपने रहने के बड़े-बड़े घरों को बंगलों नाम देकर इसका अर्थ ही बदल दिया।

→ ढलवाँ छतें -ढलवाँ छतें (Pitched Roofs) स्लोपदार छतों को कहा गया। 20वीं सदी के शुरु से ही बंगलों में ढलवाँ छतों का चलन कम होने लगा था तथापि मकानों की सामान्य योजना में कोई बदलाव नहीं आया था।

→ सिविल लाइंस -पुराने शहर के साथ लगते खेत एवं चरागाह को साफ करके विकसित किए गए शहरी क्षेत्र को ‘सिविल लाइंस’ का नाम दिया गया। इनमें सुनियोजित तरीके से बड़े-बड़े बगीचे, बंगले, चर्च, सैनिक बैरकें और परेड मैदान आदि होते थे।

→ औद्योगिकीकरण यह शब्द औद्योगिक क्रांति की उस प्रक्रिया के लिए उपयोग में लाया गया है जिसमें विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में नए-नए आविष्कार हुए, जिनमें लोहा, स्टील, कोयला एवं वस्त्र आदि सभी उद्योगों का स्वरूप बदल गया। वाष्प ऊर्जा – औद्योगिक क्रांति का मुख्य आधार थी। यह सबसे पहले इंग्लैंड (लगभग 1750 से 1850 के बीच) में हुई।

→ भारत में औपनिवेशिकरण के फलस्वरूप शहरों और उनके चरित्र में परिवर्तन हुए। नए शहरों का उदय हुआ। इनमें पश्चिम तट पर बम्बई व पूर्वी तट पर मद्रास और कलकत्ता तीन प्रमुख बन्दरगाह नगर विकसित हुए। ये तीनों कभी मछुआरों और दस्तकारों के गाँव मात्र थे। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के कारण धीरे-धीरे 18वीं सदी के अंत तक भारत के सबसे बड़े शहर बन गए।

यहाँ इन तीनों शहरों का गहन अध्ययन किया गया है। औपनिवेशिक और वाणिज्यिक संस्कृति का प्रभुत्व नगरों की बसावट और इनके स्थापत्य में स्पष्ट तौर पर दिखाई दिया। इस दौरान बनी इमारतों में कई तरह की स्थापत्य शैलियाँ अपनाई गईं। नगर नियोजन और स्थापत्य शैलियों का अध्ययन करके औपनिवेशिक शहरों को समझने का प्रयास किया गया है।

→औपनिवेशिक शहर मुगलकालीन शहरों से बहुत भिन्न थे। 16वीं-17वीं सदी के मुगलकालीन शहरों की श्रेणी में कस्बे सबसे छोटे थे। इन्हें ‘ग्रामीण शहर’ भी कहा जाता था। एक छोटे शहर के रूप में ही ये गाँव से अलग होते थे। मुगल काल में कस्बा सामान्यतया किसी स्थानीय विशिष्ट व्यक्ति का केंद्र होता था। इसमें एक छोटा स्थायी बाज़ार होता था, जिसे गंज कहते थे। यह बाजार विशिष्ट परिवारों एवं सेना के लिए कपड़ा, फल, सब्जी तथा दूध इत्यादि सामग्री उपलब्ध करवाता था।

→ कस्बे की मुख्य विशेषता जनसंख्या नहीं थी बल्कि उसकी विशिष्ट आर्थिक व सांस्कृतिक गतिविधियाँ थीं। ग्रामीण अंचलों में रहने वाले लोगों का जीवन-निर्वाह मुख्यतः कृषि, पशुपालन और वनोत्पादों पर निर्भर था। ग्रामीणों की आवश्यकताओं के अनुरूप गाँवों में साधारण स्तर की दस्तकारी थी।

→ दूसरी ओर, शहरी लोगों के आजीविका के साधन अलग थे। उनकी जीवन-शैली गाँव से अलग थी। शहरों में मुख्य तौर पर शासक, प्रशासक तथा शिल्पकार व व्यापारी रहते थे। शहरी शिल्पकार किसी विशिष्ट कला में निपुण होते थे, क्योंकि वे प्रायः अपनी शिल्पकला से संपन्न और सत्ताधारी वर्गों की जरूरतों को पूरा करते थे। शहर में रहने वाले सभी लोगों के लिए खाद्यान्न सदैव गाँव से ही आता था। अन्य कृषि-उत्पाद व जरूरत के लिए वन-उत्पाद भी उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों से ही प्राप्त होते थे। शहरों की एक अलग पहचान उनके भव्य भवन, स्थापत्य और उनकी किलेबंदी भी था।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 12 Img 1
18वीं सदी में भारत के बहुत-से पुराने शहरों का महत्त्व कम हो गया। साथ ही कई नए शहरों का भी उदय हुआ। राजनीतिक विकेंद्रीकरण के परिणामस्वरूप लखनऊ, हैदराबाद श्रीरंगापट्टम, पूना (आधुनिक पुणे), नागपुर, बड़ौदा और तंजौर (तंजावुर) जैसी क्षेत्रीय राजधानियों का महत्त्व बढ़ गया। अतः इस राजनीतिक विकेंद्रीकरण के कारण दिल्ली, लाहौर व आगरा इत्यादि मुगल सत्ता के प्रमुख नगर केंद्रों से व्यापारी, प्रशासक, शिल्पकार, साहित्यकार, कलाकार, इत्यादि काम और संरक्षण की तलाश में इन नए नगरों की ओर पलायन करने लगे।

→ यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों ने मुगल काल के दौरान ही भारत के विभिन्न स्थानों पर अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। उदाहरण के लिए 1510 में पुर्तगालियों ने पणजी में, 1605 में डचों ने मछलीपट्नम में, 1639 में अंग्रेज़ों ने मद्रास में तथा 1673 में फ्रांसीसियों ने पांडिचेरी (आजकल पुद्दचेरी) में शुरू में व्यापारिक कार्यालय (इन्हें कारखाने कहा जाता था) बनाए। इन ‘कारखानों’ के आस-पास धीरे-धीरे बस्तियों का आकार विस्तृत होने लगा। इस प्रकार शहर वाणिज्यवाद तथा पूँजीवाद परिभाषित होने लगे।

→ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनीतिक नियंत्रण स्थापित होने के उपरान्त इन शहरों का पतन शुरु हो गया। नई आर्थिक राजधानियों के रूप में मद्रास, कलकत्ता व बम्बई जैसे औपनिवेशिक बंदरगाह शहरों का उदय तेजी से होने लगा। सन् 1800 के आस-पास तक यह जनसंख्या की दृष्टि से यह सबसे बड़े शहर बन गए। इसका कारण था कि ये औपनिवेशिक प्रशासन और सत्ता के केंद्र भी बन चुके थे। इनमें नए भवन नई स्थापत्य-कला के साथ स्थापित किए गए। बहुत-से नए संस्थानों का विकास हुआ। इस प्रकार ये शहर आजीविका की तलाश में आने वाले लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गए।

→ सन् 1900 से लेकर 1940 तक भारत की कुल जनसंख्या के मात्र 13 प्रतिशत लोग ही शहरों में रहते थे। औपनिवेशिक काल में शहरीकरण अत्यधिक धीमा और लगभग स्थिर जैसा ही रहा। यदि पूर्व-ब्रिटिशकाल से तुलना की जाए तो शहरों में आजीविका कमाने वाले लोगों की संख्या बढ़ने की बजाय कम हुई। अंग्रेज़ों के राजनीतिक नियंत्रण के फलस्वरूप और आर्थिक नीतियों के चलते कलकत्ता, बम्बई और मद्रास जैसे नए शहरों का उदय तो हुआ, लेकिन ये ऐसे शहर नहीं बन पाए जिससे भारत की समूची अर्थव्यवस्था में शहरीकरण को लाभ मिले। वस्तुतः अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों व गतिविधियों के कारण उन शहरों
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का भी पतन हो गया जो अपने किसी विशिष्ट उत्पादों के लिए प्रसिद्ध थे। उदाहरण के लिए ढाका, मुर्शिदाबाद, सोनारगांव इत्यादि वस्त्र उत्पादक केंद्र बर्बाद होते गए।

रेलवे नेटवर्क के इस विस्तार से भारत में बहुत-से शहरों की कायापलट हुई। खाद्यान्न तथा कपास व जूट इत्यादि रेलवे स्टेशन आयातित वस्तुओं के वितरण तथा कच्चे माल के संग्रह केंद्र बन गए। इसके परिणामस्वरूप नदियों के किनारे बसे तथा पुराने मार्गों पर पड़ने वाले उन शहरों का महत्त्व कम होता गया जो पहले कच्चे माल के संग्रह केंद्र थे। रेलवे विस्तार के साथ रेलवे कॉलोनियाँ बसाई गईं। लोको (रलवे वर्कशॉप) स्थापित हुए। इन गतिविधियों से भी कई नए रेलवे शहर; जैसे कि बरेली, जमालपुर, वाल्टेयर आदि अस्तित्व में आए।

→ औपनिवेशिक शहर अपने नाम और स्थान से ही नए (New) नहीं थे, अपितु अपने स्वरूप से भी नए थे। ये अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिम्बित कर रहे थे। ये आधुनिक औद्योगिक शहर नहीं बन पाए बल्कि औपनिवेशिक शहरों के तौर पर ही विकसित हुए। इनका विकास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के चलते उपयोगी बंदरगाहों और संग्रह केंद्रों के रूप में हुआ।

→ अंग्रेज़ों ने अपनी ‘व्यापारिक बस्तियों’ व ‘कारखानों’ की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी किलेबंदी करवाई। मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फोर्ट विलियम और इसी प्रकार बम्बई में भी दुर्ग बनवाया गया। इन किलों में वाणिज्यिक कार्यालय थे तथा ब्रिटिश लोगों के रहने के लिए निवास थे। अंग्रेज़ों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मकान (क्वार्टस) बनाए गए थे।

→ सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरु से ही परिलक्षित हुआ। इन शहरों में आधुनिक औद्योगिक विकास के अंकुर तो फूटने लगे, लेकिन यह विकास बहुत ही धीमा और सीमित रहा। इसका कारण पक्षपातपूर्ण संरक्षणवादी नीतियाँ थीं। इन नीतियों ने औद्योगिक विकास को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया। फैक्ट्री उत्पादन शहरी अर्थव्यवस्था का आधार नहीं बन सका। वास्तव में कलकत्ता, बम्बई व मद्रास जैसे विशाल शहर मैनचेस्टर या लंकाशायर ब्रिटिश औद्योगिक शहरों की तरह औद्योगिक नगर नहीं बन सके। ये औद्योगिक नगरों की अपेक्षा सेवा-क्षेत्र अधिक थे।

→ औपनिवेशिक वाणिज्यिक संस्कृति प्रतिबिम्बित हुई। राजनीतिक सत्ता और संरक्षण ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों के हाथों में आने से नई शहरी संस्कृति उत्पन्न हुई। नए संस्थानों का उदय हुआ। नदी अथवा समुद्र के किनारे गोदियों (Docks) व घाटों का विकास होने लगा। व्यापार से जुड़ी अन्य संस्थाओं का उदय हुआ जैसे कि जहाज़रानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ बनीं तथा यातायात डिपो व बैंकिंग संस्थानों की स्थापना हुई।

→ कंपनी के प्रमुख प्रशासकीय कार्यालयों की स्थापना अपने आप में ब्रिटिश प्रशासन में नौकरशाही के बढ़ते हुए प्रभाव का सूचक था। औपनिवेशिक शहरों में शासक वर्ग तथा संपन्न यूरोपियन व्यापारी वर्ग के निजी महलनुमा मकान बने। उनके लिए पृथक क्लब, रेसकोर्स तथा रंगमंच इत्यादि भी स्थापित किए गए। ये जहाँ विदेशी अभिजात वर्ग की रुचियों को अभिव्यक्त कर रहे थे वहीं इनसे भेदभाव और प्रभुत्व भी स्पष्ट दिखाई दे रहा था।

→ एक नया भारतीय संभ्रांत वर्ग भी इन शहरों में उत्पन्न हो चुका था। यह वर्ग अपनी हैसियत को ऊँचा दिखाने के लिए पाश्चात्य जीवन-शैली का अनुसरण करने लगा। दूसरी ओर, इन शहरों में काफी बड़ी संख्या में कामगार एवं गरीब लोग रहते थे। यह खानसामा, पालकीवाहक, गाड़ीवान तथा चौकीदारों के रूप में संभ्रांत भारतीय एवं यूरोपीय लोगों को अपनी सेवाएँ उपलब्ध करवाते थे। इसके अतिरिक्त ये औद्योगिक मजदूरों के रूप में या फिर पोर्टर, निर्माण एवं गोदी मजदूरों के तौर पर कार्य करते थे। इन लोगों की स्थिति अच्छी नहीं थी। ये लोग शहर के विभिन्न भागों में घास-फूस की कच्ची झोंपड़ियों में रहते थे।

→ लम्बे समय तक उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य और सफाई जैसे मुद्दों की ओर अंग्रेजों ने कभी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने गोरी बस्तियों को ही साफ और सुंदर बनाने पर बल दिया था। लेकिन महामारियों के मंडराते खतरों से उनके इस दृष्टिकोण में बदलाव आने लगा। हैजा, प्लेग, चेचक जैसी महामारियों में लाखों लोग मर रहे थे। इससे प्रशासकों को यह खतरा सताने लगा कि ये बीमारियाँ उनके क्षेत्रों में भी फैल सकती हैं। इसलिए उनके लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा सफाई के लिए कुछ कदम उठाने जरूरी हो गए।

→ पर्वतीय शहर भी नए औपनिवेशिक विशेष शहरों के तौर पर विकसित हुए। शुरू में ये सैनिक छावनियाँ बनीं, फिर अधिकारियों के आवास-स्थल और अन्ततः पर्वतीय पर्यटन स्थलों के तौर पर विकसित हुए। इन शहरों में शिमला, माउंट आबू, दार्जीलिंग व नैनीताल इत्यादि थे।

→ धीरे-धीरे ये पर्वतीय शहर एक तरह से सेनिटोरियम (Sanitoriums) बन गए अर्थात् ऐसे स्थान बन गए जहाँ सैनिकों को आराम व चिकित्सा के लिए भेजा जाने लगा। पहाड़ी शहरों की जलवायु स्वास्थ्यवर्द्धक थी। पहाड़ों की मृदु और ठण्डी जलवायु अंग्रेज़ व यूरोपीय अधिकारियों को लुभाती थी। यही कारण था कि गर्मियों के दिनों में अंग्रेज़ अपनी राजधानी शिमला बनाते थे। इन्होंने अपने निजी और सार्वजनिक भवन यूरोपीय शैली में बनवाए।

→ इन घरों में रहते हुए उन्हें यूरोप में अपनी निवास बस्तियों की अनुभूति होती थी। पर्वतीय शहरों पर अंग्रेज़ी-शिक्षण संस्थान तथा एंग्लिकन चर्च स्थापित किए गए। स्पष्ट है कि पर्वतीय शहरों में गोरे लोगों को पश्चिमी सांस्कृतिक जीवन जीने का अवसर मिला।

→ धीरे-धीरे इन पर्वतीय शहरों को रेलवे नेटवर्क से जोड़ दिया गया और महाराजा, नवाब, व्यापारी तथा अन्य मध्यवर्गीय लोग भी इन पर्वतीय शहरों पर पर्यटन के लिए जाने लगे। इन संभ्रांत लोगों को ऐसे स्थलों पर काफी संतोष की अनुभूति होती थी। पर्वतीय स्थल केवल पर्यटन की दृष्टि से ही अंग्रेज़ों के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं थे, बल्कि उनकी अर्थव्यवस्था के लिए बड़े महत्त्वपूर्ण थे।

→ नए शहरों का सामाजिक जीवन पहले के शहरों से अलग था। ये मध्य वर्ग के केन्द्र थे। इस वर्ग में शिक्षक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, क्लर्क तथा अकाउंटेंट्स इत्यादि थे। इन नए शहरों में मिलने-जुलने के नए स्थल; जैसे कि सार्वजनिक पार्क, टाउन हॉल, रंगशाला और 20वीं सदी में सिनेमा हॉल इत्यादि बन चुके थे। ये स्थल मध्यवर्गीय लोगों के जीवन का हिस्सा बनने लगे। यह मध्य वर्ग अपनी नई पहचान और नई भूमिकाओं के साथ अस्तित्व में आया। नए शहरों में औरतों के लिए नए अवसर उत्पन्न हुए। फलतः सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने लगी।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

→ परंतु सार्वजनिक स्थानों पर कामकाज करने वाली महिलाओं को सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा जाता था। स्पष्ट है कि सामाजिक बदलाव सहज रूप से नहीं हो रहे थे। रूढ़िवादी विचारों के लोग पुरानी परम्पराओं और व्यवस्था को बनाए रखने का पुरजोर समर्थन कर रहे थे। दूसरी ओर, कामगार लोगों के लिए शहरी जीवन एक संघर्ष था। फिर भी इन लोगों ने अपनी ‘एक अलग जीवंत शहरी संस्कृति’ रच ली थी। वे धार्मिक त्योहारों, मेलों, स्वांगों तथा तमाशों इत्यादि में भाग लेते थे। ऐसे अवसरों पर वे अपने यूरोपीय और भारतीय स्वामियों पर प्रायः कटाक्ष और व्यंग्य करते हुए उनका मज़ाक उड़ाते थे।

→ विकसित होते मद्रास शहर में अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच पृथक्करण (Segregation) स्पष्ट दिखाई देता है। यह पृथक्करण शहर की बनावट और दोनों समुदायों की हैसियत (Position) में साफ-साफ झलकता है। फोर्ट सेंट जॉर्ज में अधिकतर यूरोपीय लोग रहते थे। इसीलिए यह क्षेत्र व्हाइट किले के भीतर रहने का आधार रंग और धर्म था। भारतीयों को इस क्षेत्र में रहने की अनुमति नहीं थी। व्हाइट टाउन प्रशासकीय और न्यायिक व्यवस्था का केन्द्र भी था।

→ व्हाइट टाउन से बिल्कुल अलग ब्लैक टाउन बसाया गया। कलकत्ता-नगर नियोजन में ‘विकास’ सम्बन्धी विचारधारा झलक रही थी और साथ ही इसका अर्थ राज्य द्वारा लोगों के जीवन और शहरी क्षेत्र पर अपनी सत्ता को स्थापित करना था। इसमें फोर्ट विलियम का नया किला तथा सुरक्षा के लिए मैदान रखा गया। उल्लेखनीय है कि कलकत्ता कस्बे का विकास तीन गाँवों-(सुतानाती, कोलकाता व गोविन्दपुर) को मिलाकर हुआ था।

→ कलकत्ता की नगर योजना में लॉर्ड वेलेज़्ली ने उल्लेखनीय योगदान दिया। कलकत्ता अब ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी था। इस सन्दर्भ में, 1803 ई० का वेलेज़्ली का प्रशासकीय आदेश महत्त्वपूर्ण है। वेलेज़्ली के इस सरकारी आदेश के बाद ‘जन स्वास्थ्य’ नगर नियोजन में प्रमुख विचार बन गया। शहरों में सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा और भविष्य की नगर-नियोजन की परियोजनाओं में ‘जन स्वास्थ्य’ का विशेष ध्यान रखा गया।

→ ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ ही अंग्रेज़ों का झुकाव इस ओर बढ़ता गया कि कलकत्ता, बम्बई और मद्रास को शानदार शाही राजधानियों के रूप में बनाया जाए। इन शहरों की भव्यता से ही साम्राज्यवादी ताकत सत्ता झलकती थी। नगर नियोजन में उन सभी खूबियों को प्रतिबिंबित होना था जिसका प्रतिनिधित्व होने का दावा अंग्रेज़ करते थे। ये मुख्य खूबियाँ थीं- तर्क-संगत क्रम व्यवस्था, (Rational Ordrain), सटीक क्रियान्वयन (Meticulous Execution) और पश्चिमी सौन्दर्यात्मक आदर्श (Western Aesthetic Ideas)। वस्तुतः साफ-सफाई नियोजन और सुन्दरता, औपनिवेशिक शहर के आवश्यक तत्त्व बन गए।

→ कलकत्ता, बम्बई और मद्रास जैसे बड़े शहरों में न्यूक्लासिकल तथा नव-गॉथिक शैलियों में अंग्रेज़ों ने भवन बनवाए। ये पाश्चात्य स्थापत्य शैलियाँ थीं। फिर बहुत-से धनी भारतीयों ने इन पश्चिमी शैलियों को भारतीय शैलियों में मिलाकर मिश्रित स्थापत्य शैली का विकास किया। इसे इण्डोसारासेनिक शैली कहा गया है। उल्लेखनीय है कि इन स्थापत्य शैलियों के माध्यम से भी राजनीतिक और सांस्कृतिक टकरावों को समझा जा सकता है।

काल-रेखा

1500-1700 ई०पणजी में पुर्तगाली (1510); मछलीपट्टनम में डच (1605); मद्रास (1639), बंबई (1661) और कलकत्ता (1690) में अंग्रेज़ तथा पांडिचेरी (1673) में फ्रांसीसी ठिकानों की स्थापना।
1600-1623 ई०ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के सूरत, भड़ीच, अहमदाबाद, आगरा और मछलीपट्टनम में ‘कारखाने’ (कार्यालय व गोदाम) थे।
1622 ई०बंबई उस समय एक छोटा-सा द्वीप था। यह अनेक वर्षों तक पुर्तगालियों के अधिकार में रहा। 1622 ई० में ब्रिटेन के सम्राट चार्ल्स द्वितीय को पुर्तगाली राजकुमारी से विवाह के समय दहेज में दिया गया था।
1668 ई०बंबई (मुंबई) की किलाबंदी की गई।
1698 ई०अंग्रेज़ों द्वारा कलकत्ता (आधुनिक) की नींव रखी गई।
1772-1785 ईवारेन हेस्टिंग्स का शासनकाल।
1757 ई०प्लासी के युद्ध में अंग्रेज़ों की विजय।
1773 ई०कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना।
1798-1805 ई०लॉर्ड वेलेज़्ली का भारत में गवर्नर-जनरल के रूप में कार्यकाल।
1803 ई०कलकत्ता नगर सुधार पर वेलेज़्ली का मिनट्स लिखना।
1817 ई०कलकत्ता नगर नियोजन के लिए लॉटरी कमेटी का गठन।
1818 ई०दक्कन पर अंग्रेज़ों की विजय व बम्बई को नए प्रांत की राजधानी।
1853 ई०पहली रेलवे लाइन, बम्बई से ठाणे।
1857 ई०बम्बई, कलकत्ता व मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना।
1870 का दशकनगर-पालिकाओं में निर्वाचित भारतीयों को शामिल करना।
1881 ई०मद्रास हॉर्बर के निर्माण का काम पूरा होना।
1896 ई०बम्बई के वाटसंस होटल में पहली बार फिल्म दिखाना।
1896 ई०प्लेग महामारी का फैलना।
1911 ईoकलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाया जाना।
1911 ई०‘गेट वे ऑफ़ इण्डिया’ बनाया गया।

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HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. अन्तिम मुगल बादशाह था
(A) औरंगजेब
(B) शाहजहाँ
(C) बहादुरशाह जफर
(D) जहांगीर
उत्तर:
(C) बहादुरशाह जफ़र

2. कानपुर में विद्रोहियों का नेता था
(A) शाहमल
(B) बिरजिस कद्र
(C) नाना साहिब
(D) बहादुरशाह जफ़र
उत्तर:
(C) नाना साहिब

3. वाजिद अलीशाह नवाब था
(A) दिल्ली का
(B) अवध का
(C) हैदराबाद का
(D) बंगाल का
उत्तर:
(B) अवध का

4. पेशवा बाजीराव द्वितीय का दत्तक पुत्र था
(A) नाना साहिब
(B) तात्या टोपे
(C) कुंवर सिंह
(D) रावतुला राम
उत्तर:
(A) नाना साहिब

5. बिहार में विद्रोहियों का नेता था
(A) कुंवर सिंह
(B) बख्त खाँ
(C) नाना साहिब
(D) तात्या टोपे
उत्तर:
(A) कुंवर सिंह

6. लॉर्ड डलहौजी ने धार्मिक अयोग्यता अधिनियम पारित किया
(A) 1850 ई० में
(B) 1853 ई० में
(C) 1857 ई० में
(D) 1861 ई० में
उत्तर:
(A) 1850 ई० में

7. लॉर्ड केनिंग ने सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम पारित किया
(A) 1850 ई० में
(B) 1853 ई० में
(C) 1856 ई० में
(D) 1857 ई० में
उत्तर:
(C) 1856 ई० में

8. ‘ये गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा। ये शब्द लॉर्ड डलहौजी ने किस रियासत के बारे में कहे?
(A) दिल्ली
(B) अवध
(C) बंगाल
(D) मद्रास
उत्तर:
(B) अवध

9. अवध का अन्तिम नवाब था
(A) शुजाउद्दौला
(B) सिराजुद्दौला
(C) वाजिद अली शाह
(D) बख्त खां
उत्तर:
(C) वाजिद अली शाह

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

10. अवध का अधिग्रहण किया गया
(A) 1850 ई० में
(B) 1853 ई० में
(C) 1856 ई० में
(D) 1861 ई० में
उत्तर:
(C) 1856 ई० में

11. अवध में विद्रोह की शुरूआत हुई
(A) 10 मई, 1857 को
(B) 4 जून, 1857 को
(C) 8 अप्रैल, 1857 को
(D) 17 जून, 1857 को
उत्तर:
(B) 4 जून, 1857 को

12. अवध का औपचारिक अधिग्रहण के बाद वहाँ भू-राजस्व बन्दोबस्त लागू किया गया
(A) स्थायी बन्दोबस्त
(B) एकमुश्त बन्दोबस्त
(C) ठेकेदारी बन्दोबस्त
(D) महालवाड़ी बन्दोबस्त
उत्तर:
(B) एकमुश्त बन्दोबस्त

13. सिंहभूम में कोल आदिवासियों का नेता था
(A) गोनू
(B) बिरसा मुंडा
(C) सिधू मांझी
(D) बिरजिस कद्र
उत्तर:
(A) गोनू

14. मंगल पाण्डे को फाँसी हुई
(A) 8 अप्रैल, 1857 को
(B) 10 मई, 1857 को
(C) 31 मई, 1857 को
(D) 30 जून, 1858 को
उत्तर:
(A) 8 अप्रैल, 1857 को

15. मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को बन्दी बनाकर भेजा गया
(A) कलकत्ता
(B) रंगून
(C) बम्बई
(D) लंदन
उत्तर:
(B) रंगून

16. अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अपदस्थ करके भेजा गया
(A) रंगून
(B) लंदन
(C) मद्रास
(D) कलकत्ता
उत्तर:
(D) कलकत्ता

17. लखनऊ में विद्रोह का नेतृत्व किसने किया था?
(A) तात्या टोपे
(B) लक्ष्मीबाई
(C) बेगम हजरत महल
(D) नाना साहिब
उत्तर:
(C) बेगम हजरत महल

18. 1857 ई० के विद्रोह का सबसे अधिक व्यापक रूप था
(A) पंजाब में
(B) दिल्ली में
(C) बंगाल में
(D) अवध में
उत्तर:
(D) अवध में

19. विद्रोह के बाद अंग्रेज़ों ने अवध पर पुनः अधिकार किया
(A) जून, 1857 में
(B) मार्च, 1858 में
(C) सितम्बर, 1858 में
(D) जनवरी, 1858 में
उत्तर:
(B) मार्च, 1858 में

20. विद्रोह के बाद अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर नियन्त्रण स्थापित किया
(A) 4 जून, 1857 को
(B) 17 जून, 1857 को
(C) 20 सितम्बर, 1857 को
(D) 8 अप्रैल, 1858 को
उत्तर:
(C) 20 सितम्बर, 1857 को

21. तात्या टोपे को फांसी हुई
(A) 4 जून, 1857 को
(B) 18 अप्रैल, 1859 को
(C) 10 मई, 1859 को
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) 18 अप्रैल, 1859 को

22. आज़मगढ़ घोषणा की गई
(A) 15 मई, 1857 को
(B) 15 जून, 1857 को
(C) 15 जुलाई, 1857 को
(D) 25 अगस्त, 1857 को
उत्तर:
(D) 25 अगस्त, 1857 को.

23. विद्रोही क्या चाहते थे?
(A) अंग्रेजी राज का अन्त
(B) हिन्दू व मुसलमानों में एकता
(C) वैकल्पिक सत्ता की तलाश
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

24. विद्रोह के दमन के लिए अंग्रेज़ों ने क्या कदम उठाए?
(A) विद्रोहियों पर अमानवीय अत्याचार किए
(B) वफादार शासकों व जमींदारों को भारी इनाम दिए
(C) सारे उत्तरी भारत में मार्शल लॉ लागू कर दिया
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

25. ‘द क्लिमेंसी ऑफ केनिंग’ चित्र ब्रिटेन की पंच नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ
(A) 1854 ई० में
(B) 1856 ई० में
(C) 1857 ई० में
(D) 1858 ई० में
उत्तर:
(D) 1858 ई० में

26. ‘इन मेमोरियम’ चित्र जोजेफ नोएल पेटन ने बनाया
(A) 1857 ई० में
(B) 1858 ई० में
(C) 1859 ई० में
(D) 1860 ई० में
उत्तर:
(C) 1859 ई० में 27. सती प्रथा को अवैध घोषित किया गया
(A) 1820 ई० में
(B) 1824 ई० में
(C) 1825 ई० में
(D) 1829 ई० में
उत्तर:
(D) 1829 ई० में

28. ‘उत्तराधिकार कानून पास किया गया
(A) 1850 ई० में
(B) 1853 ई० में
(C) 1857 ई० में
(D) 1859 ई० में
उत्तर:
(A) 1850 ई० में

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

29. 1857 ई० के विद्रोह के समय भारत का गवर्नर जनरल था
(A) लॉर्ड रिपन
(B) लॉर्ड केनिंग
(C) लॉर्ड डलहौजी
(D) लॉर्ड वेलेजली
उत्तर:
(B) लॉर्ड केनिंग

30. 1857 ई० के विद्रोह का तत्कालीन कारण था
(A) अवध का विलय
(B) झांसी का विलय
(C) चर्बी वाले कारतूस
(D) उत्तराधिकार कानून
उत्तर:
(C) चर्बी वाले कारतूस

31. झांसी का अंग्रेजी राज्य में विलय किया गया
(A) 1850 ई० में
(B) 1853 ई० में
(C) 1854 ई० में
(D) 1857 ई० में
उत्तर:
(C) 1854 ई० में

32. अवध का विलय किस गवर्नर जनरल ने किया?
(A) लॉर्ड डलहौजी
(B) लॉर्ड वेलेजली
(C) लॉर्ड केनिंग
(D) लॉर्ड रिपन
उत्तर:
(A) लॉर्ड डलहौजी

33. अवध में एकमुश्त बन्दोबस्त लागू किया गया
(A) 1850 ई० में
(B) 1853 ई० में
(C) 1856 ई० में
(D) 1857 ई० में
उत्तर:
(C) 1856 ई० में

34. लखनऊ में विद्रोहियों ने अवध के किस चीफ कमीश्नर को मौत के घाट उतार दिया?
(A) जनरल नील
(B) हैनरी लॉरेंस
(C) कोलिन कैम्पबेल
(D) जनरल हैवलॉक
उत्तर:
(B) हैनरी लॉरेंस

35. ‘बाग डंका शाह’ के नाम से प्रसिद्ध था
(A) शाहमल
(B) नाना साहिब
(C) कुंवर सिंह
(D) मौलवी अहमदुल्ला शाह
उत्तर:
(D) मौलवी अहमदुल्ला शाह

36. विद्रोह को कुचलने में देशी रियासतों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया
(A) पटियाला
(B) ग्वालियर
(C) हैदराबाद
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

37. भारत का प्रथम शहीद कौन था?
(A) नाना साहिब
(B) मंगल पांडे
(C) बहादुरशाह
(D) रानी लक्ष्मीबाई
उत्तर:
(B) मंगल पांडे

38. अंग्रेज़ों ने कुशासन की आड़ में किस राज्य को अधिकार में लिया था?
(A) झांसी
(B) सतारा
(C) अवध
(D) हैदराबाद
उत्तर:
(C) अवध

39. ‘फिरंगी’ शब्द किस भाषा का है?
(A) फारसी
(B) अरबी
(C) उर्दू
(D) संस्कृत
उत्तर:
(A) फारसी

40. ब्रिटिश ईस्ट-इण्डिया कंपनी के अधीन सेवारत भारतीय सैनिकों का पहला सैनिक विद्रोह कहाँ हुआ?
(A) मेरठ
(B) बैरकपुर
(C) पटना
(D) वेल्लोर
उत्तर:
(D) वेल्लोर

41. 1857 ई० के विद्रोह के लिए लॉर्ड डलहौजी का वह कौन-सा प्रशासकीय कदम था जो सर्वाधिक उत्तरदायी सिद्ध हुआ ?
(A) भारत में रेलवे. डाक और तार व्यवस्था का प्रचलन
(B) कुशासन के नाम पर देशी राज्यों का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय
(C) लैप्स की नीति का अंधाधुंध क्रियान्वयन
(D) भारतीय शासकों की पेंशन को बन्द या कम कर देना।
उत्तर:
(C) लैप्स की नीति का अंधाधुंध क्रियान्वयन

42. 1857 ई० का विद्रोह ‘एक राष्ट्रीय विद्रोह’ था न कि ‘एक सैनिक विद्रोह’ यह शब्द किस अंग्रेज़ सांसद और राजनीतिज्ञ “के हैं?
(A) लॉर्ड केनिंग
(B) लॉर्ड डलहौजी
(C) लॉर्ड डिजरायली
(D) लॉर्ड एलनबरो
उत्तर:
(C) लॉर्ड डिजरायली

43.1857 ई० के विद्रोह का आरम्भ कब हुआ?
(A) लखनऊ
(B) मेरठ
(C) बैरकपुर
(D) कानपुर
उत्तर:
(B) मेरठ

44. अंग्रेज़ों ने विद्रोह के किस मुख्य केंद्र पर सबसे पहले पुनर्धिकार किया?
(A) कानपुर
(B) दिल्ली
(C) लखनऊ
(D) झाँसी
उत्तर:
(B) दिल्ली

45. दिल्ली में विद्रोही सेना का सेनानायक कौन था?
(A) अजीमुल्ला
(B) खान बहादुर खाँ
(C) बाबा कुँवर सिंह
(D) जनरल बख्त खाँ
उत्तर:
(A) अजीमुल्ला

46. 1857 ई० के विद्रोह का कौन-सा नेता बचकर नेपाल भाग गया और बाद में उसकी गतिविधियों का कभी पता नहीं चल पाया?
(A) नाना साहिब
(B) खान बहादुर खाँ
(C) बेगम हज़रत अली
(D) तात्या टोपे
उत्तर:
(A) नाना साहिब

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
दिल्ली में विद्रोहियों को किसने रोकने का प्रयास किया?
उत्तर:
कर्नल रिप्ले ने विद्रोहियों को आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास किया।

प्रश्न 2.
सिपाही जब लाल किले पर पहुंचे तो बहादुरशाह जफर क्या कर रहे थे?
उत्तर:
बहादुरशाह जफर प्रातःकालीन नमाज पढ़कर और सहरी खाकर उठे थे।

प्रश्न 3.
सिपाहियों ने बहादुरशाह जफर से क्या अनुरोध किया?
उत्तर:
सिपाहियों ने बहादुरशाह जफ़र से नेतृत्व के लिए अनुरोध किया।

प्रश्न 4.
सिपाहियों के अनुरोध पर बहादुरशाह जफर ने क्या किया?
उत्तर:
सिपाहियों के अनुरोध पर बहादुरशाह जफ़र ने स्वयं को भारत का बादशाह घोषित करके विद्रोह का नेता घोषित कर दिया।

प्रश्न 5.
बहादुरशाह जफर द्वारा नेतृत्व स्वीकार करने पर विद्रोह का स्वरूप कैसा हो गया?
उत्तर:
बहादुरशाह के नेतृत्व स्वीकार करने पर यह विद्रोह केवल सिपाहियों का विद्रोह नहीं रहा, बल्कि विदेशी सत्ता के विरुद्ध राजनीतिक विद्रोह बन गया।

प्रश्न 6.
बहादुरशाह जफर ने देश के हिन्दुओं व मुसलमानों से क्या अपील की?
उत्तर:
बहादुरशाह जफर ने सारे देश के हिन्दुओं व मुसलमानों को देश व धर्म के लिए लड़ने का आह्वान किया।

प्रश्न 7.
कानपुर में विद्रोह का नेतृत्व किसने किया?
उत्तर:
कानपुर में विद्रोह का नेतृत्व नाना साहिब ने किया।

प्रश्न 8.
नाना साहिब को अन्य किस नाम से जाना जाता था?
उत्तर:
नाना साहिब को धोंधू पंत के नाम से जाना जाता था।

प्रश्न 9.
इलाहाबाद में विद्रोहियों का नेता कौन था?
उत्तर:
मौलवी लियाकत खाँ, जो पेशे से एक अध्यापक व वहाबी नेता थे, ने विद्रोह का नेतृत्व व प्रशासन की कमान संभाली।

प्रश्न 10.
बिहार में विद्रोह का नेतृत्व किसके हाथ में था?
उत्तर:
जगदीशपुर के ज़मींदार कुंवरसिंह व कुछ अन्य स्थानीय ज़मींदारों ने बिहार में विद्रोह का नेतृत्व सँभाला।

प्रश्न 11.
ग्वालियर व झाँसी में विद्रोह का नेतृत्व किसने किया?
उत्तर:
ग्वालियर व झाँसी में विद्रोह का नेतृत्व झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और तांत्या टोपे ने किया।

प्रश्न 12.
विद्रोह में सिंधिया राजा की क्या भूमिका थी?
उत्तर:
सिंधिया राजा ने विद्रोहियों को कुचलने में अंग्रेज़ों का साथ दिया।

प्रश्न 13.
बंगाल की बैरकपुर छावनी में बगावत का आह्वान किसने किया?
उत्तर:
29 मार्च, 1857 को परेड के समय बंगाल की बैरकपुर छावनी में मंगल पाण्डे ने बगावत का आह्वान किया।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

प्रश्न 14.
मंगल पाण्डे को फांसी पर कब लटकाया गया?
उत्तर:
8 अप्रैल, 1857 को मंगल पाण्डे को फांसी पर लटकाया गया।

प्रश्न 15.
लैप्स का सिद्धान्त किस गवर्नर जनरल ने प्रतिपादित किया?
उत्तर:
लॉर्ड डलहौजी ने लैप्स के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

प्रश्न 16.
लैप्स के सिद्धान्त द्वारा कौन-कौन से राज्यों का विलय किया गया?
उत्तर:
सतारा, नागपुर, झाँसी तथा उदयपुर राज्यों का लैप्स के सिद्धान्त से अंग्रेज़ी राज्य में विलय किया गया।

प्रश्न 17.
मंगल पाण्डे कौन था?
उत्तर:
मंगल पाण्डे 34वीं नेटिव इन्फ्रेंट्री में एक सैनिक था।

प्रश्न 18.
अंग्रेजों ने बहादुरशाह जफर को बन्दी बनाकर कहाँ भेजा?
उत्तर:
बहादुरशाह जफ़र को बन्दी बनाकर रंगून भेजा गया।

प्रश्न 19.
बहादुरशाह जफर की मृत्यु कब हुई?
उत्तर:
रंगून में 1862 में बहादुरशाह जफर की मृत्यु हो गई।

प्रश्न 20.
रानी लक्ष्मीबाई को वीरगति कब व कहाँ प्राप्त हुई?
उत्तर:
रानी लक्ष्मीबाई को 17 जून, 1858 को ग्वालियर में वीरगति प्राप्त हुई।

प्रश्न 21.
नाना साहिब ने कानपुर पर अधिकार कब किया?
उत्तर:
नाना साहिब ने कानपुर पर 26 जून, 1857 को अधिकार किया।

प्रश्न 22.
‘द रिलीफ ऑफ लखनऊ’ नामक चित्र कब तथा किसने बनाया?
उत्तर:
‘द रिलीफ ऑफ लखनऊ’ नामक चित्र टॉमस जोन्स बार्कर द्वारा 1859 में बनाया गया।

प्रश्न 23.
‘द रिलीफ ऑफ लखनऊ’ चित्र में क्या दर्शाया गया है?
उत्तर:
‘द रिलीफ ऑफ लखनऊ’ चित्र में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि संकट की घड़ी का अन्त हो चुका है।

प्रश्न 24.
‘इन मेमोरियम’ चित्र कब व किसने बनाया?
उत्तर:
‘इन मेमोरियम’ चित्र जोजेफ नोएल पेटन द्वारा 1859 ई० में बनाया गया।

प्रश्न 25.
‘इन मेमोरियम’ चित्र में क्या दिखाया गया है?
उत्तर:
‘इन मेमोरियम’ चित्र में अंग्रेज़ औरतें व बच्चे एक-दूसरे से लिपटे दिखाई दे रहे हैं। वे असहाय प्रतीत होते हैं।

प्रश्न 26.
‘द क्लिमेंसी ऑफ केनिंग’ नामक चित्र कब प्रकाशित हुआ?
उत्तर:
‘द क्लिमेंसी ऑफ केनिंग’ नामक चित्र 24 अक्तूबर, 1857 को ब्रिटिश पत्रिका ‘पंच’ में प्रकाशित हुआ।

प्रश्न 27.
‘द क्लिमेंसी ऑफ केनिंग’ में क्या दिखाने का प्रयास किया गया है?
उत्तर:
‘द क्लिमेंसी ऑफ केनिंग’ चित्र में केनिंग को दयालु दिखाने का प्रयास किया गया है।

प्रश्न 28.
शाह मल कहाँ का रहने वाला था?
उत्तर:
शाह मल उत्तर प्रदेश के बड़ौत परगना का रहने वाला था।

प्रश्न 29.
1857 के विद्रोह के समय अवध का चीफ कमिश्नर कौन था?
उत्तर:
1857 के विद्रोह के समय अवध का चीफ कमिश्नर हैनरी लॉरैस था।

प्रश्न 30.
बंगाल आर्मी की पौधशाला किसे कहा गया?
उत्तर:
अवध को बंगाल आर्मी की पौधशाला कहा गया।

प्रश्न 31.
धार्मिक अयोग्यता अधिनियम कब पारित किया गया?
उत्तर:
धार्मिक अयोग्यता अधिनियम 1850 में पारित किया गया।

प्रश्न 32.
1857 ई० के विद्रोह के समय वहाँ का नवाब कौन था?
उत्तर:
अवध विलय के समय नवाब वाजिद अली शाह वहाँ का नवाब था।

प्रश्न 33.
आज़मगढ़ घोषणा कब की गई?
उत्तर:
25 अगस्त, 1857 को आज़मगढ़ घोषणा की गई।

प्रश्न 34.
झाँसी को अंग्रेज़ी साम्राज्य में कब मिलाया गया?
उत्तर:
लैप्स के सिद्धान्त के अनुसार 1854 में झाँसी को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाया गया।

प्रश्न 35.
1857 ई० के विद्रोह के समय भारत का गवर्नर जनरल कौन था?
उत्तर:
1857 ई० के विद्रोह के समय केनिंग भारत का गवर्नर जनरल था।

प्रश्न 36.
अवध में लोगों ने अपना नेता किसे घोषित किया?
उत्तर:
अवध के अपदस्थ नवाब के बेटे बिरजिस कद्र को लोगों ने अपना नेता घोषित किया।

प्रश्न 37.
कारतूस वाली अफवाह के अतिरिक्त और कौन-सी अफवाह उड़ रही थी?
उत्तर:
कारतूस वाली अफवाह के अतिरिक्त आटे में हड्डियों के चूरे की मिलावट एक अन्य अफवाह थी।

प्रश्न 38.
अवध में विद्रोह कब प्रारम्भ हुआ?
उत्तर:
4 जून, 1857 को अवध में विद्रोह प्रारम्भ हुआ।

प्रश्न 39.
अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अपदस्थ करके कहाँ भेजा गया?
उत्तर:
अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अपदस्थ करके कलकत्ता भेज दिया गया।

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प्रश्न 40.
दिल्ली में विद्रोहियों का नेतृत्व किसने किया?
उत्तर:
दिल्ली में विद्रोहियों का नेतृत्व बख्त खाँ ने किया।

प्रश्न 41.
विद्रोहियों ने विद्रोह को शुरू करने का क्या तरीका अपनाया?
उत्तर:
सिपाहियों ने विद्रोह शुरू करने का संकेत प्रायः शाम को तोप का गोला दाग कर या बिगुल बजाकर किया।

प्रश्न 42.
बरेली में विद्रोह का नेतृत्व किसने किया?
उत्तर:
बरेली में रूहेला सरदार खान बहादुर खाँ ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया।

प्रश्न 43.
दिल्ली में प्रशासनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए विद्रोहियों ने क्या किया?
उत्तर:
दिल्ली में प्रशासन चलाने के लिए एक प्रशासनिक कौंसिल बनाई गई। इसके कुल 10 सदस्य थे।

प्रश्न 44.
पानीपत में विद्रोहियों का नेतृत्व किसने किया?
उत्तर:
बु-अली शाह कलंदर मस्जिद के मौलवी ने पानीपत में विद्रोहियों का नेतृत्व किया।

प्रश्न 45.
विद्रोह की शुरूआत किस अफवाह से हुई?
उत्तर:
विद्रोह की शुरूआत चर्बी वाले कारतूसों की अफवाह से हुई।

प्रश्न 46.
सामान्य सेवा अधिनियम किस गवर्नर-जनरल के काल में पारित हुआ?
उत्तर:
सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम 1856 ई० में गवर्नर-जनरल लॉर्ड केनिंग के काल में पास किया गया।

प्रश्न 47.
लॉर्ड डलहौजी ने लैप्स की नीति के तहत कौन-कौन से राज्य हड़पे?
उत्तर:
सतारा, संभलपुर, जैतपुर, उदयपुर, नागपुर तथा झांसी राज्य डलहौजी ने ‘राज्य हड़पने की नीति’ के तहत हड़पे।

प्रश्न 48.
अवध का विलय ब्रिटिश साम्राज्य में कैसे किया गया?
उत्तर:
अवध पर ‘कुशासन’ का आरोप लगाकर उसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया गया।

प्रश्न 49.
“यह गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” लॉर्ड डलहौजी ने यह शब्द किस राज्य के बारे में कहे?
उत्तर:
यह शब्द अवध राज्य के बारे में कहे गए।

अति लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मेरठ छावनी में विद्रोह कब शुरू हुआ?
उत्तर:
10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में विद्रोह शुरू हुआ। भारतीय पैदल सेना के सिपाहियों ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इंकार कर दिया। कोर्ट मार्शल हुआ और 85 भारतीय सिपाहियों को 8 से लेकर 10 वर्ष तक की कठोर सज़ा दी गई।

प्रश्न 2.
देशी नरेशों के नाम पत्र में बहादुरशाह जफर ने क्या इच्छा प्रकट की?
उत्तर:
देशी नरेशों के नाम पत्र लिखते हुए बहादुरशाह जफ़र ने कहा मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि जिस तरीके से भी हो और जिस कीमत पर हो सके फिरंगियों को हिन्दुस्तान से बाहर निकाल दिया जाए। मेरी यह तीव्र इच्छा है कि तमाम हिन्दुस्तान आज़ाद हो जाए। अंग्रेज़ों को निकाल दिए जाने के बाद अपने निजी लाभ के लिए हिन्दुस्तान पर हुकूमत करने की मुझ में जरा भी ख्वाहिश नहीं है। यदि आप सब देशी नरेश दुश्मन को निकालने की गरज से अपनी-अपनी तलवार खींचने के लिए तैयार हों तो मैं अपनी तमाम राजसी शक्तियाँ (Royal Powers) और अधिकार देशी नरेशों के किसी चुने हुए संघ को सौंपने के लिए राजी हूँ।

प्रश्न 3.
बहादुरशाह जफर ने देश के हिंदुओं और मुसलमानों से क्या अपील की?
उत्तर:
बहादुरशाह जफर ने सारे देश के हिंदुओं और मुसलमानों के नाम एक अपील जारी की। इसमें सभी से देश व धर्म के लिए लड़ने का आह्वान किया गया। बहादुर शाह ने राजपूताना व दिल्ली के आस-पास के देशी शासकों को भी विद्रोह में शामिल होने के लिए पत्र लिखे। विद्रोहियों ने सभी जगह बहादुर शाह को अपना नेता मान लिया। कानपुर में मराठा सरदार नाना साहिब स्वयं को बहादुरशाह का पेशवा घोषित करके उसका प्रशासन चलाने लगा।

प्रश्न 4.
मध्य भारत में विद्रोह के प्रसार के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
मध्य भारत के झाँसी, ग्वालियर, इंदौर, सागर तथा भरतपुर आदि क्षेत्रों में व्यापक प्रभाव रहा। मुख्यतः यहाँ विद्रोह का नेतृत्व झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने किया। राजस्थान और मध्य प्रदेश के अधिकतर देशी राजा अंग्रेज़ों की वफादारी निभाते रहे। उदाहरण के लिए ग्वालियर के अधिकांश सैनिकों और लोगों ने विद्रोह में भाग लिया, परंतु सिंधिया राजा ने विद्रोहियों को कुचलने के लिए अंग्रेजों का साथ दिया।

प्रश्न 5.
विद्रोही सिपाही मेरठ से दिल्ली क्यों पहुँचे?
उत्तर:
विद्रोही जानते थे कि नेतृत्व व संगठन के बिना अंग्रेजों से लोहा नहीं लिया जा सकता था। यह बात सही है कि विद्रोह के दौरान छावनियों में सैनिकों ने अपने स्तर पर भी कुछ निर्णय लिए थे। फिर भी सिपाही जानते थे कि सफलता के लिए राजनीतिक नेतृत्व जरूरी है। इसीलिए सिपाही मेरठ में विद्रोह के तुरंत बाद दिल्ली पहुंचे। वहाँ उन्होंने बहादुर शाह को अपना नेता बनाया।

प्रश्न 6.
कानपुर में नाना साहिब की अंग्रेज़ों से नाराजगी का क्या कारण था?
उत्तर:
कानपुर में नाना साहिब अपने अपमान से सख्त नाराज थे। क्योंकि उनसे ‘पेशवा’ की पदवी छीन ली गई थी, साथ ही 8 लाख रुपये वार्षिक पेंशन भी अंग्रेज़ों ने बंद कर दी थी।

प्रश्न 7.
शासक व ज़मींदार विद्रोह में भाग क्यों ले रहे थे?
उत्तर:
मुख्यतः अपदस्थ शासक और उजड़े हुए ज़मींदार विद्रोह में भाग ले रहे थे, क्योंकि शासक तो पुनः अपनी राजशाही स्थापित करना चाहते थे और ज़मींदार अपनी जमीनों के लिए लड़ रहे थे।

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प्रश्न 8.
1857 ई० के विद्रोह के कोई दो प्रशासनिक कारण बताओ।
उत्तर:
1857 ई० के विद्रोह के प्रशासनिक कारण निम्नलिखित थे

  1. लैप्स के सिद्धान्त के द्वारा झांसी, सतारा, नागपुर आदि रियासतों को अंग्रेजी राज में मिलाना तथा कुशासन का आरोप लगाकर अवध जैसे राज्य को हड़पना।
  2. देशी राजाओं पर सहायक सन्धि थोपना तथा नई भू-राजस्व प्रणालियाँ लागू करना व जटिल कानून व्यवस्था बनाना।

प्रश्न 9.
अवध का विद्रोह इतना व्यापक क्यों था? दो कारण बताओ।
उत्तर:

  1. अवध के नवाब को हटाए जाने पर लोगों में असन्तोष था।
  2. अंग्रेज़ों की भारतीय सेना में अवध के सैनिकों की संख्या अधिक थी। वे अवध की घटनाओं से दुःखी थे।
  3. अवध को अंग्रेज़ी राज्य में मिलाए जाने के कारण वहाँ के दरबारी व कर्मचारी वर्ग बेरोज़गार हो गए। उनमें अंग्रेजों के विरुद्ध भारी रोष था।

प्रश्न 10.
सहायक सन्धि ने देशी राजाओं को किस प्रकार पंगु बना दिया? ।
उत्तर:
सहायक सन्धि की शर्तों के अनुसार देशी राजाओं को सैनिक शक्ति से वंचित कर दिया गया। कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए देशी राजा को अंग्रेज़ों पर निर्भर रहना पड़ता था। अंग्रेजों के परामर्श के बिना वह शासक किसी दूसरे शासक के साथ युद्ध या सन्धि नहीं कर सकता था।

प्रश्न 11.
अवध में अंग्रेज़ों की रुचि बढ़ने के क्या कारण थे?
उत्तर:
अवध की उपजाऊ जमीन को अंग्रेज़ नील व कपास की खेती के लिए प्रयोग करना चाहते थे तथा अवध को उत्तरी भारत का एक बड़े बाजार के रूप में विकसित करना चाहते थे।

प्रश्न 12.
1857 ई० के विद्रोह के कोई दो सैनिक कारण बताओ।
उत्तर:
1857 ई० के विद्रोह के दो सैनिक कारण निम्नलिखित हैं

  1. सिपाहियों के वेतन और भत्ते बहुत कम थे। एक घुड़सवार सेना के सिपाही को 27 रुपए और पैदल सेना के सिपाही को मात्र 7 रुपए मिलते थे। वर्दी और भोजन का खर्च निकालकर मुश्किल से उसके पास एक या दो रुपए बच पाते थे।
  2. सेना में गोरे व काले के आधार पर भेदभाव आम बात थी। गोरे सैनिकों के अधिकार व सुविधाएँ भारतीय सैनिकों की तुलना में कहीं अधिक थीं। वेतन और भत्तों में भी भेदभाव किया जाता था। भारतीय सैनिकों की पदोन्नति के अवसर लगभग न के बराबर थे।

प्रश्न 13.
1857 ई० के विद्रोह के कोई दो सामाजिक कारण बताओ।
उत्तर:
1857 ई० के विद्रोह के सामाजिक कारण निम्नलिखित हैं

1. सामाजिक सुधार कानून-गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक (1828-35) ने समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए कानून बनाने की दिशा में पहलकदमी की। सती प्रथा, बाल-विवाह, कन्या-वध इत्यादि को रोकने के लिए कानून बनाए गए। 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पास करके विधवाओं के विवाह को कानूनी मान्यता दी गई।
निःसंदेह ये कदम प्रगतिशील तथा भारतीयों के हित में थे। परंतु रूढ़िवादी भारतीयों ने इन सुधारों को सामाजिक मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप समझा।

2. पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार-1835 ई० में लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली को भारत में लाग किया। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नवयुवकों में पाश्चात्य संस्कृति की ओर झुकाव बढ़ रहा था। नव-शिक्षित वर्ग पश्चिमी रहन-सहन और भाषा को अपनाकर गर्व अनुभव करने लगा था। वह अन्य भारतीयों से स्वयं को श्रेष्ठ समझने लगा। इससे स्वाभाविक रूप से यह विश्वास होने लगा कि अंग्रेज़ हमारे धर्म को नष्ट करना चाहते हैं, हमारे बच्चों को ईसाई बनाना चाहते हैं।

प्रश्न 14.
बहादुरशाह जफर के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
बहादुरशाह जफ़र मुगलों का अन्तिम शासक था। वह 1837 ई० में सिंहासन पर बैठा। 1857 ई० के विद्रोह के समय विद्रोहियों ने उसे सम्राट घोषित करके अपना नेता घोषित किया। विद्रोहियों का साथ देने के कारण उसे कैद करके रंगून भेज दिया गया। 1862 ई० में वहीं उसकी मृत्यु हो गई।

प्रश्न 15.
ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का चरित्र विदेशी था।’ स्पष्ट करें।
उत्तर:
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का चरित्र विदेशी था। इसे तलवार के बल पर स्थापित किया गया था। इस सत्ता के संचालक हज़ारों मील दूर लंदन में बैठे थे। वहीं भारत के लिए शासन संबंधी नीतियाँ व कानून बनाए जाते थे, जिन्हें लागू करने वाले अंग्रेज़ प्रशासनिक अधिकारी अपने जातीय अभिमान से ग्रस्त थे। वे भारतीयों को हीन समझते थे और उनसे मिलने-जुलने में अपनी तौहीन समझते थे।

प्रश्न 16.
कम्पनी की न्याय व्यवस्था भी असंतोष का कारण थी, कैसे?
उत्तर:
कंपनी द्वारा स्थापित नई न्याय-व्यवस्था भी भारतीयों में असंतोष का एक कारण रही। ‘कानून के सम्मुख समानता’ के सिद्धांत पर आधारित बताई गई इस व्यवस्था में तीन मुख्य दोष थे-अनुचित देरी, न्याय मिलने में अनिश्चितता और अत्यधिक व्यय। इन दोषों के कारण यह नया कानूनी तंत्र अमीर वर्ग के हाथ में गरीब आदमी के शोषण का एक हथियार बन गया था।

प्रश्न 17.
मौलवी अहमदुल्ला शाह कौन था?
उत्तर:
फैज़ाबाद के मौलवी अहमदुल्ला शाह ने 1857 ई० के विद्रोह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने लोगों को अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया। अनेक मुसलमान उन्हें पैगम्बर मानते थे। उनके साथ हजारों लोग जुड़ गए थे। 1857 ई० में उन्हें अंग्रेज़ विरोधी प्रचार के कारण जेल में बन्द कर दिया गया। चिनहाट के संघर्ष में उन्होंने हैनरी लॉरेंस को पराजित किया।

प्रश्न 18.
अवध अधिग्रहण से ताल्लुकदारों के सम्मान व सत्ता को क्षति पहुँची, कैसे?
उत्तर:
अंग्रेजी राज से ताल्लुकदारों की सत्ता व सम्मान को भी जबरदस्त क्षति हुई। ताल्लुकदार अवध क्षेत्र में वैसे ही छोटे राजा थे जैसे बंगाल में ज़मींदार थे। वे छोटे महलनुमा घरों में रहते थे। अपनी-अपनी जागीर में सत्ता व जमीन पर उनका पिछली कई सदियों से नियंत्रण था। ताल्लुकदार नवाब की संप्रभुत्ता (Sovereignty) को स्वीकार करते हुए पर्याप्त स्वायत्तता (Autonomy) रखते थे। इनके अपने दुर्ग व सेना थी। 1856 में अवध का अधिग्रहण करते ही इन ताल्लुकदारों की सेनाएँ भंग कर दी गईं और दुर्ग भी ध्वस्त कर दिए गए।

प्रश्न 19.
किसानों में असंतोष के क्या कारण थे?
उत्तर:
अंग्रेज़ी राज से संपूर्ण ग्रामीण समाज व्यवस्था भंग हो गई। अंग्रेज़ों की भू-राजस्व व्यवस्था में कोई लचीलापन नहीं था। न तो लगान तय करते वक्त और न ही वसूली में। मुसीबत के समय भी सरकार किसानों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रखती थी।

प्रश्न 20.
1857 ई० के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों की भूमिका किस हद तक उत्तरदायी थी?
उत्तर:
1857 ई० के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों की भूमिका निम्नलिखित कारणों से उत्तरदायी थी

  1. भारत में बढ़ते हुए ईसाई धर्म के प्रसार को खतरा माना जा रहा था।
  2. सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम (1856) के अनुसार किसी भी भारतीय सैनिक को समुद्र पार भेजा जा सकता था। हिन्दू लोग इसे धर्म भ्रष्ट होना समझते थे।
  3. 1856 ई० में सैनिकों को नई एनफील्ड राइफल दी गई। इसमें डालने वाले कारतूसों की सील को मुँह से खोलना पड़ता था। सैनिकों ने इसमें चर्बी लगी समझा और इसे धर्म भ्रष्ट करने का षड्यन्त्र बताया।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

प्रश्न 21.
किसान व सैनिकों में क्या संबंध थे?
उत्तर:
किसान और सैनिक परस्पर गहन रूप से जुड़े हुए थे। सेना का गठन गाँवों के किसानों तथा ज़मींदारों में से ही किया गया था। बल्कि अवध को तो “बंगाल आर्मी की पौधशाला” (“Nursery of the Bengal Army”) कहा जाता था। यह सैनिक अपने गांव-परिवार से जुड़े हुए थे। हर सैनिक किसी किसान का बेटा, भाई या पिता था। एक भाई खेत में हल जोत रहा था तो दूसरे ने वर्दी पहन ली थी अर्थात वह भी वर्दीधारी ‘किसान’ ही था। वह भी गाँव में किए जा रहे अंग्रेज़ अधिकारियों के जुल्म से दुखी होता था।

प्रश्न 22.
यूरोपीय अधिकारी सैनिकों के साथ कैसा व्यवहार करते थे?
उत्तर:
यूरोपीय अधिकारियों में नस्ली भेदभाव अधिक था। भारतीय सिपाहियों को वे गाली-गलौच व शारीरिक हिंसा पहुँचाने में कोई परहेज नहीं करते थे। उनके लिए सैनिकों की भावनाओं की कोई कद्र नहीं थी। ऐसी स्थिति में दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ जाने से संदेह की भावना पैदा होना स्वाभाविक था। डर एवं संदेह बढ जाने से अफवाहों की भमिका बढ़ जाती है।

प्रश्न 23.
आजमगढ़ घोषणा में व्यापारियों के विषय में क्या कहा गया?
उत्तर:
षड्यंत्रकारी ब्रिटिश सरकार ने नील, कपड़े, जहाज व्यवसाय जैसी सभी बेहतरीन एवं मूल्यवान वस्तुओं के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया है। व्यापारियों को दो कौड़ी के आदमी की शिकायत पर गिरफ्तार किया जा सकता है। बादशाही सरकार स्थापित होने पर इन सभी फरेबी तौर-तरीकों को समाप्त कर दिया जाएगा। जल व थल दोनों मार्गों से होने वाला सारा व्यापार भारतीय व्यापारियों के लिए खोल दिया जाएगा। इसलिए प्रत्येक व्यापारी का यह उत्तरदायित्व है कि वह इस संघर्ष में भाग ले।

प्रश्न 24.
आजमगढ़ घोषणा में सरकारी कर्मचारियों के बारे में क्या कहा गया?
उत्तर:
ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत प्रशासनिक एवं सैनिक सेवाओं में भर्ती होने वाले भारतीय लोगों को सम्मान नहीं मिलता। उनका वेतन कम होता है और उनके पास कोई शक्ति नहीं होती। प्रशासनिक और सैनिक में प्रतिष्ठा और धन वाले सारे पद केवल गोरों को ही दिए जाते हैं। इसलिए ब्रिटिश सेवा में कार्यरत सभी भारतीयों को अपने धर्म और हितों की ओर ध्यान देना चाहिए तथा अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी को त्यागकर बादशाही सरकार का साथ देना चाहिए।

प्रश्न 25.
आजमगढ़ घोषणा में पंडितों, फकीरों एवं अन्य ज्ञानी व्यक्तियों के विषय में क्या कहा गया?
उत्तर:
पंडित और फ़कीर क्रमशः हिंदू और मुस्लिम धर्मों के संरक्षक हैं। यूरोपीय इन दोनों धर्मों के शत्रु हैं। जैसाकि सब जानते हैं अब धर्म के कारण ही अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष छिड़ा हुआ है, इसलिए फ़कीरों और पंडितों का कर्त्तव्य है कि “वो मेरे पास आएँ और इस पवित्र संघर्ष में अपना योगदान दें।”

प्रश्न 26.
‘द रिलीफ ऑफ लखनऊ’ चित्र में क्या दिखाया गया है?
उत्तर:
टॉमस जोन्स बार्कर के चित्र ‘द रिलीफ ऑफ लखनऊ’ में कोलिन कैम्पबैल के पहुंचने पर खुशी झलक रही है। मध्य में कैम्पबैल के साथ अभिनन्दन की मुद्रा में औट्रम व हैवलॉक दिखाई दे रहे हैं। घटना-क्षण लखनऊ का है। उनके सामने थोड़ी दूरी पर शव और घायल पड़े हैं जो विद्रोहियों की पराजय और मार-काट के साक्षी हैं। नायकों के पास ही घोड़े काफी शांत मुद्रा में दिखाई दे रहे हैं जो इस बात का प्रतीक हैं कि संकट समाप्त हो चुका है।

प्रश्न 27.
हेनरी हार्डिंग के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
हेनरी हार्डिंग ने सेना के साजो-सामान के आधुनिकीकरण का प्रयास किया। उसने सेना में एनफील्ड राइफल का इस्तेमाल शुरू किया जिनमें चिकने कारतूस प्रयोग होते थे और सिपाही उनमें चर्बी लगी होने की अफवाह के कारण विद्रोही हो गए।

प्रश्न 28.
कुँवर सिंह कौन था? संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
कुँवर सिंह बिहार में जगदीशपुर की आरा रियासत का ज़मींदार था। वह लोगों में राजा के नाम से विख्यात था। कुँवर सिंह ने आजमगढ़ व बनारस में अंग्रेज़ी फौज को पराजित किया। उसने छापामार युद्ध पद्धति से अंग्रेज़ों से लोहा लिया। अप्रैल, 1858 में उसकी मृत्यु हो गई।

प्रश्न 29.
नाना साहिब कौन थे? उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
नाना साहिब अन्तिम पेशवा बाजीराव द्वितीय का दत्तक पुत्र था। पेशवा की मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों ने नाना साहिब को पेशवा नहीं माना और न ही उसे पेंशन दी। 1857 ई० के विद्रोह में विद्रोहियों के आग्रह से वे विद्रोह में शामिल हो गए। कानपुर में उन्होंने सेनापति नील और हेवलॉक को पराजित करके किले पर पुनः अधिकार कर लिया, लेकिन कोलिन कैम्पबेल की सेना के आने बाद नाना साहिब को पुनः पराजित कर दिया गया। वे भागकर नेपाल चले गए। प्रशंसकों ने इसे भी उनकी बहादुरी बताया।

प्रश्न 30.
तात्या टोपे कौन था? उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
तात्या टोपे नाना साहिब की सेना का एक बहादुर व विश्वसनीय सेनापति था। उसने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला नीति अपनाकर उनकी नाक में दम कर दिया। उसने अंग्रेज़ जनरल बिन्द्रहैम को परास्त किया। उसने रानी लक्ष्मीबाई का पूर्ण निष्ठा के साथ सहयोग दिया। 1858 ई० में अंग्रेजों ने तात्या टोपे को फाँसी दे दी।

प्रश्न 31.
रानी लक्ष्मीबाई के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
रानी लक्ष्मीबाई झाँसी के राजा गंगाधर राव की पत्नी थी। राजा की मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों ने उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया और लैप्स के सिद्धान्त के अनुसार झाँसी को अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला लिया। 1857 ई० के विद्रोह में स्वयं रानी ने अंग्रेज़ी सेनाओं से टक्कर ली। नाना साहिब के विश्वसनीय सेनापति तात्या टोपे और अफगान सरदारों की मदद से उन्होंने ग्वालियर पर पुनः अधिकार कर लिया। कालपी के स्थान पर अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए वह वीरगति को प्राप्त हई। उसकी वीरता हमेशा आजादी के दीवानों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रही।

प्रश्न 32.
शाह मल कौन था? संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
शाह मल उत्तर प्रदेश के बड़ौत परगने के जाट परिवार से सम्बन्ध रखते थे। बड़ौत में 84 गाँवों की ज़मींदारी थी। जमीन उपजाऊ थी। लेकिन ऊँची लगान दर के कारण जमीन महाजनों व व्यापारियों के हाथों में जा रही थी। शाहमल ने किसानों को अंग्रेजों के खिलाफ संगठित किया। व्यापारियों व महाजनों के घर लूटे। बही-खाते जलाए, पुल व सड़कें तोड़ीं। शाह मल ने एक अंग्रेज़ अधिकारी के बंगले पर कब्जा करके उसे अपना कार्यालय बनाया और उसे न्याय भवन का नाम दिया। जहाँ वह लोगों के विवादों का निपटारा करने लगा। जुलाई, 1858 में शाह मल अंग्रेजों के साथ हुई एक लड़ाई में मारा गया।

प्रश्न 33.
विद्रोह को राजनीतिक वैधता कैसे मिली?
उत्तर:
बहादुशाह जफर ने स्वयं को भारत का बादशाह घोषित करके विद्रोह का नेता घोषित कर दिया। इससे सिपाहियों के विद्रोह को राजनीतिक वैधता मिल गई। एक सुप्रसिद्ध इतिहासकार के शब्दों में इससे विद्रोह को ‘एक सकारात्मक राजनीतिक अर्थ” (A positive political meaning’) मिल गया।

प्रश्न 34.
1857 का विद्रोह किस अफवाह से शुरू हुआ?
उत्तर:
1857 ई० के शुरू में ही भारतीय सिपाहियों में एक अफवाह थी कि नए दिए गए कारतूसों में गाय व सूअर की चर्बी लगी हुई है। इन्हीं ‘चर्बी वाले कारतूसों’ ने इन सिपाहियों को अपने दीन-धर्म की रक्षा के लिए एकजुट कर दिया था। उल्लेखनीय है कि यह कारतूस नई ‘एनफील्ड राइफल’ के लिए विशेषतौर पर तैयार किए गए थे।

प्रश्न 35.
‘सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम क्या था?
उत्तर:
1856 ई० में गवर्नर-जनरल लॉर्ड केनिंग के शासन काल में ‘सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम’ पास किया गया। इसके अनुसार भर्ती के समय ही प्रत्येक सैनिक को यह लिखित रूप में स्वीकार करना होता था कि जहाँ भी (भारत या भारत के बाहर) सरकार उसे युद्ध के लिए भेजेगी, वह जाएगा। इससे सैनिकों में भी असंतोष पैदा हुआ।

प्रश्न 36.
‘लेक्स लोसी एक्ट’ (Lex Loci Act, 1850) क्या था?
उत्तर:
1850 ई० में सरकार ने एक उत्तराधिकार कानून (Lex Loci Act, 1850) पास किया। इस कानून के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति अन्य धर्म ग्रहण कर ले तो भी वह पैतृक संपत्ति का उत्तराधिकारी रह सकता था। अब यदि कोई ईसाई धर्म ग्रहण करता था तो उसे पैतृक संपत्ति में से मिलने वाले हिस्से से वंचित नहीं किया जा सकता था।

प्रश्न 37.
महालवाड़ी भूमि कर प्रणाली विद्रोह के लिए क्यों उत्तरदायी थी?
उत्तर:
भूमि-कर की महालवाड़ी व्यवस्था में समय-समय पर भूमि-कर में वृद्धि करने का प्रावधान था। साथ ही भूमि-कर अदा करने का उत्तरदायित्व सामूहिक रूप से सारे गांव (महाल) पर था। कर की बढ़ौतरी व उसे न अदा कर पाने पर सारा गांव-ज़मींदार व किसान प्रभावित होते थे और सभी पर सरकारी जुल्म बरपता था। यही कारण है कि गांव-के-गांव विद्रोही हो गए थे।

प्रश्न 38.
लैप्स की नीति क्या थी?
उत्तर:
जिन राज्यों के नरेशों की अपनी निजी संतान (पुत्र) नहीं थी और गोद लिए हुए पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से कंपनी ने स्पष्ट इंकार कर दिया था। झांसी व सतारा इत्यादि राज्यों में यह नीति विद्रोह को हवा देने में एक बड़ा कारण रही। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र के राज अधिकार के लिए संघर्ष में उतरी थी।

प्रश्न 39.
‘यह गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।’ यह शब्द किसने क्यों कहे थे?
उत्तर:
1851 में ही लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध के बारे में कहा था कि “यह गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा” (“A cherry that will drop into our mouth one day”) डलहौज़ी उग्र साम्राज्यवादी नीति का पोषक था। उसने नैतिकता को दाव पर रखते हुए, देशी नरेशों के अस्तित्व को मिटाने तथा उनके राज क्षेत्रों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने का निर्णय कर लिया था।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

प्रश्न 40.
एकमुश्त बन्दोबस्त का ताल्लुकदारों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
1856 ई० में अधिग्रहण के बाद एकमुश्त बंदोबस्त (Summary Settlement of 1856) नाम से भू-राजस्व व्यवस्था लागू की गई, जो इस मान्यता पर आधारित थी कि ताल्लुकदार जमीन के वास्तविक मालिक नहीं हैं। वे भू-राजस्व एकत्रित करने वाले बिचौलिये ही रहे हैं, जो किसानों से कर वसूल करके नवाब को देते थे। उन्होंने ज़मीन पर कब्जा धोखाधड़ी व शक्ति के बल पर किया हुआ है। इस मान्यता के आधार पर ज़मीनों की जाँच की गई और ताल्लुकदारों की ज़मीनें उनसे लेकर किसानों को दी जाने लगीं और उन्हें मालिक घोषित किया गया।

प्रश्न 41.
‘इन मेमोरियम’ चित्र में कैसी भावनाओं को चित्रांकित किया गया है?
उत्तर:
1859 में जोसेफ नोएल पेटन (Joseph Noel Paton) का चित्र ‘इन मेमोरियम’ यानी ‘स्मृति में प्रकाशित हआ। इसमें अंग्रेज़ औरतें और बच्चे लाचार और मासूम स्थिति में परस्पर लिपटे हुए हैं। चित्र में भीषण हिंसा नहीं है फिर भी उस तरफ एक विशेष खामोशी संकेत कर रही है जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है, जिसमें मृत्यु और बेइज्जती कुछ भी हो सकता है। दर्शक के मन में बेचैनी और क्रोध की भावना चित्र को निहारने से सहज रूप में उभरती है।

प्रश्न 42.
‘जस्टिस’ नामक चित्र के नीचे पंक्ति में क्या लिखा गया है?
उत्तर:
12 सितंबर, 1857 को पन्च नामक एक पत्रिका में ‘जस्टिस’ नामक प्रकाशित हुए एक चित्र में एक ब्रिटिश स्त्री को हाथ में तलवार और ढाल लिए आक्रामक मुद्रा में दिखाया गया है। प्रतिशोध से तड़पती हुई वह विद्रोहियों को कुचल रही हैं। भारतीय स्त्री-बच्चे डर से दुबके हुए हैं।
चित्र के नीचे एक पंक्ति में लिखा गया है कि “कानपुर में हुए भीषण जन-संहार के समाचार ने समूचे ब्रिटेन में बदले की गहरी इच्छा और भयानक अपमान के भाव को उत्पन्न कर दिया है।”

प्रश्न 43.
‘द क्लिमेंसी ऑफ केनिंग” कॉर्टून में किस चीज को दिखाया गया है?
उत्तर:
24 अक्तूबर, 1857 को पन्च नामक पत्रिका में प्रकाशित एक कॉर्टून (‘The Clemency of Canning’) में कैंनिग को एक सैनिक को क्षमा करते हुए दिखाया गया है। इसमें एक साथ कई भाव प्रकट होते हैं। भारतीय सिपाही को बौना और फटी पैंट में अपमानजनक स्थिति में दिखाया गया है। वहीं अभी भी उसकी तलवार से खून टपक रहा है यानी उसमें बर्बरता कायम है। फिर भी केनिंग एक दयावान बुजुर्ग (उपहास पात्र) के रूप में उसके सिर पर हाथ रखकर उसे क्षमा कर रहा है।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1857 के विद्रोह की शुरूआत व प्रसार में अफवाहों व भविष्यवाणियों पर प्रकाश डालिए? लोग इन पर क्यों विश्वास कर रहे थे?
उत्तर:
‘चर्बी वाले कारतूस’ तथा कुछ अन्य अफवाहों व भविष्यवाणियों से विद्रोह की शुरूआत व प्रसार हुआ। लेकिन अ तभी फैलती हैं जब उन अफवाहों में लोगों के मन में गहरे बैठे भय और संदेह की आवाज़ सुनाई देती है। अतः भय और संदेह पैदा करने वाली परिस्थितियों में ही किसी ऐसी घटना के दूसरे कारण छिपे होते हैं।
अफवाहें व भविष्यवाणियाँ-1857 का विद्रोह मुख्यतः चर्बी वाले कारतूसों की अफवाह को लेकर शुरू हुआ। लेकिन अन्य कई और अफवाहों का भी इसमें योगदान था :

1. ‘चर्बी वाले कारतूस’ (Greased Cartridges)-1857 ई० का विद्रोह मुख्यतः चर्बी वाले कारतूसों की अफवाह को लेकर शुरू हुआ। 1857 ई० के शुरू में ही भारतीय सिपाहियों में एक अफ़वाह थी कि नए दिए गए कारतूसों में गाय व सूअर की चर्बी लगी हुई है। इन्हीं ‘चर्बी वाले कारतूसों ने इन सिपाहियों को अपने दीन-धर्म की रक्षा के लिए एकजुट कर दिया था। गाय हिंदुओं के लिए पूजनीय थी तो सूअर से मुसलमान घृणा करते थे। अतः दोनों धर्मों के सैनिकों ने इसे अंग्रेज़ों का धर्म भ्रष्ट करने का षड़यंत्र समझा। इन कारतूसों के प्रति सिपाहियों की नाराजगी को भांपते हुए ब्रिटिश अधिकारियों ने सिपाहियों को लाख समझाने का प्रयत्न किया परंतु किसी ने इस पर विश्वास नहीं किया। इसने सिपाहियों में अत्यंत रोष उत्पन्न कर दिया था।

2. अन्य अफवाहें व भविष्यवाणियाँ-अन्य अफ़वाहों में से एक थी आटे में हड्डियों के चूरे की मिलावट । इसे लोग अंग्रेज़ों के एक बड़े षड्यंत्र के रूप में देख रहे थे। उन्हें यह लग रहा था कि हिंदू और मुसलमान सभी भारतीयों के धर्म भ्रष्ट करने के एक षड्यंत्र के तहत ही आटे में गाय व सूअर की हड्डियों का चूरा मिलाया गया है। लोगों ने बाजार के आटे को हाथ तक लगाने से मना कर दिया। अधिकारी वर्ग के समझाने-बुझाने के प्रयास भी कोई काम नहीं आए। बल्कि रेल व तार जैसी व्यवस्था के बारे में यही भ्रांति एवं अफवाह थी कि यह भी ईसाई बनाने का एक षड्यंत्र ही है। इसी बीच ‘फूल और चपाती’ बाँटने की रिपोर्ट आ रही थीं और साथ ही यह भविष्यवाणी भी जोर पकड़ रही थी कि अंग्रेजी राज भारत में अपनी स्थापना के सौ वर्ष बाद समाप्त हो जाएगा।

प्रश्न 2.
सहायक संधि प्रणाली की विशेषताएँ लिखो।
उत्तर:
लॉर्ड वेलेजली ने 1798 ई० में भारत में सहायक संधि प्रणाली को अपनाया। इसकी प्रमुख शर्ते इस प्रकार थीं

  • देशी शासक को अपने दरबार में एक अंग्रेज़ रेजीडेंट रखना होता था और इसके परामर्शनुसार ही शासन का संचालन करना था।
  • देशी शासक को अपने राज्य में एक अंग्रेज़ी सहायक सेना को रखना होता था और इस सहायक सेना का व्यय देशी शासक को ही करना था।
  • देशी शासक अंग्रेजों के परामर्श के बिना किसी दूसरे शासक के साथ युद्ध अथवा संधि नहीं कर सकता था।
  • देशी शासक अंग्रेज़ों के अतिरिक्त किसी अन्य यूरोपीय जाति के व्यक्ति को राज्य में नौकरी पर नहीं रख सकता था।
  • देशी शासक को राज्य में सहायक सेना रखने के बदले में एक निश्चित धनराशि कंपनी को देनी होती थी। धनराशि न देने की स्थिति में देशी शासक को अपने राज्य का कुछ भू-भाग अंग्रेजों को देना होता था।

प्रश्न 3.
अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई न्याय व्यवस्था विद्रोह के लिए कैसे उत्तरदायी थी?
उत्तर:
ब्रिटिश कंपनी द्वारा स्थापित नई न्याय व्यवस्था भी भारतीयों में असंतोष का एक कारण रही। ‘कानून के सम्मुख समानता’ के सिद्धांत पर आधारित बताई गई इस व्यवस्था में तीन मुख्य दोष थे-अनुचित देरी, न्याय मिलने में अनिश्चितता और अत्यधिक व्यय। इन दोषों के कारण यह नया कानूनी तंत्र गरीब आदमी के शोषण का अमीर वर्ग के हाथ में एक हथियार बन गया अभियोग वर्षों तक चलता रहता था। कोर्ट फीस और वकीलों के खर्चे किसी आम आदमी के बस की बात नहीं थी। इसके अलावा न्यायालयों में भ्रष्टाचार का बोलबाला था। अमीर व चालाक आदमी झूठे गवाह बनाकर भी अभियोग का निर्णय अपने पक्ष में करवाने में सफल हो जाते थे।

उल्लेखनीय है कि विद्रोह से पहले के वर्षों में अंग्रेजों द्वारा स्थापित नई भूमिकर व्यवस्था तथा भूमि के स्वामित्व को लेकर ग्रामीण वर्गों में कई तरह के अंतर्विरोध उभर आए थे। इसके लिए उन्हें अदालतों के दरवाजे खटखटाने पड़ रहे थे। लेकिन गरीब किसान को न्याय नहीं मिल रहा था। उसकी जमीन महाजनों के हाथों में जा रही थी। अवध में तो किसान, ज़मींदार एवं ताल्लुकदार सभी भूमि के स्वामित्व को लेकर परेशान थे। धड़ाधड़ एक-दूसरे के विरुद्ध मुकद्दमें दायर कर रहे थे। इस प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए सादिक-उल-अखबार नामक एक समाचार-पत्र ने लिखा, “वे अपना धन व्यर्थ गंवा रहे हैं और सरकार के खजाने को भर रहे हैं।” वास्तव में, इन परिस्थितियों में यह न्याय-व्यवस्था भी विद्रोह के कारणों में से एक थी।

प्रश्न 4.
विद्रोह की असफलता के कोई पाँच कारण बताएँ।
उत्तर:
विद्रोह की असफलता के कारण निम्नलिखित थे
1. केनिंग की कूटनीति और साम्राज्य बनाए रखने का दृढ़ संकल्प-अंग्रेज़ अधिकारियों की रणनीति और उनके दृढ़ संकल्प की विद्रोह के दमन में विशेष भूमिका रही।

2. संगठन व योजना का अभाव-विद्रोहियों के पास संगठन और योजना का अभाव था। 31 मई की योजना के भी पुख्ता प्रमाण नहीं हैं। यदि थी भी तो कार्यान्वित नहीं हो पाई।

3. अस्त्र-शस्त्रों की कमी-उनके पास केवल वो ही गोला-बारूद व बंदूकें थीं जो उन्होंने ब्रिटिश शस्त्रागारों से लूटे थे। नए हथियारों की आपूर्ति ज्यादा संभव नहीं थी।

4. यातायात व संचार-साधनों पर अंग्रेजों का नियंत्रण-विशेषतः रेल व तार व्यवस्था पर अंग्रेजों का पूर्ण नियंत्रण था।जिनके बारे में एक अंग्रेज़ लेखक ने लिखा था-रेल व तार व्यवस्था ने 1857 ई० की क्रांति में हमारे लिए हजारों मनुष्यों का काम किया।

5. सभी सैनिकों का विद्रोह में शामिल होना-अंग्रेज़ फौज में लगभग आधे भारतीय सिपाही तो विद्रोही हो गए थे, लेकिन शेष सिपाहियों ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेज़ों का पूरा-पूरा साथ दिया।

6. अंग्रेज़ों को देशी शासकों का सहयोग–अधिकांश देशी नरेशों (हैदराबाद, ग्वालियर, पटियाला, नाभा, जींद, कपूरथला, बड़ौदा तथा राजपूताना के अधिकार शासक इत्यादि) विद्रोह के दमन कार्य में अंग्रेज़ों की सहायता की।

7. सीमित जन-समर्थन-उत्तर:भारत के काफी क्षेत्रों में सैनिक विद्रोहियों को व्यापक जन-समर्थन मिला। फिर भी पंजाब, पूर्वी बंगाल, राजस्थान व गुजरात इत्यादि क्षेत्रों में विद्रोह न के बराबर था। दक्षिणी भारत इससे लगभग अछूता रहा। शिक्षित मध्य वर्ग की सहानुभूति भी अंग्रेज़ों के साथ थी।

प्रश्न 5.
1857 ई० के विद्रोह के प्रमुख आर्थिक कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:
1857 ई० के विद्रोह के प्रमुख आर्थिक कारण निम्नलिखित हैं

1. भारत का आर्थिक शोषण भारत में अंग्रेज़ों की व्यवस्था शोषणकारी थी। अपनी राजनीतिक सत्ता का दुरुपयोग करते हुए अंग्रेजों ने कृषकों से अधिकाधिक लगान वसूल किया। कारीगरों को कोड़ियों के भाव अपना माल बेचने के लिए विवश किया। इस प्रकार भारतीय कारीगरों व किसानों की दुनिया देखते-ही-देखते उजड़ गई। बेरोजगारी, बदहाली और भुखमरी छा गई। इसी ने किसान, कारीगर और जन-सामान्य को विद्रोही बना दिया था।

2. महालवाड़ी भूमि-कर व्यवस्था-भूमि-कर की महालवाड़ी व्यवस्था को इरफान हबीब ने इस विद्रोह के लिए मुख्य तौर पर दोषी बताया है। इस व्यवस्था में समय-समय पर भूमि-कर में वृद्धि करने का प्रावधान था। साथ ही भूमि-कर अदा करने का उत्तरदायित्व सामूहिक रूप से सारे गांव (महाल) पर था। कर न अदा कर पाने पर सारा गांव प्रभावित होता था। यही कारण है कि गांव-के-गांव विद्रोही हो गए थे।

3. भूमि-कर की सख्ती से उगाही-ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी अधिक-से-अधिक भूमि-कर वसूलना चाहती थी। अकाल और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय भी भारतीय किसान को अंग्रेजी हुकूमत कोई रियायत नहीं देती थी। सख्ती से डंडे के बल पर पैसा वसूला जाता था। भारतीय किसान भुखमरी की स्थिति में था। कर अदा करने के लिए वह कर्ज-पर-कर्ज लेता था। वास्तव में यही वह जुल्म था जिससे किसान विद्रोही हो गए थे।

4. बेरोजगारी और भुखमरी कंपनी शासन की शोषणकारी नीतियों से जन-सामान्य निरंतर गरीब होता रहा। कई स्थानों पर भुखमरी की स्थिति थी। सर सैयद अहमद खाँ लिखते हैं, “कुछ लोग इतने गरीब थे कि वे एक-एक आने अथवा एक-एक सेर आटे के लिए प्रसन्नतापूर्वक विद्रोहियों के साथ मिल गए।”

प्रश्न 6.
1857 के जनविद्रोह के पूर्व के कुछ वर्षों में अंग्रेज़ अधिकारियों और भारतीय सिपाहियों के बीच सम्बन्ध किस प्रकार बदल गए?
उत्तर:
1857 के जनविद्रोह से पहले, लगभग 15 वर्षों में अधिकारियों और सैनिकों (सिपाहियों) के बीच परस्पर सम्बन्धों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उभरे। यह परिवर्तन भी सेना में आक्रोश का एक बड़ा कारण था। 1820 तक के दशक में गोरे अधिकारियों व भारतीय सिपाहियों के बीच संबंधों में काफी मित्रतापूर्ण भाव था। अधिकारी सिपाहियों के साथ तलवारबाज़ी, मल्ल-युद्ध इत्यादि खेलों में भाग लेते थे। इकट्ठे शिकार पर जाते थे। वे भारतीय रीति-रिवाज व संस्कृति में भी रुचि लेते थे और भारतीय भाषाओं से परिचय रखते थे। उनमें अभिभावक का स्नेह और अधिकारी का रौब दोनों था।

परंतु 1840 के बाद आए नए अधिकारियों में ये सब बातें नहीं थीं। उनमें नस्ली भेदभाव अधिक था। भारतीय सिपाहियों को वे गाली-गलौच व शारीरिक हिंसा पहुँचाने में कोई परहेज नहीं करते थे। उनके लिए सैनिकों की भावनाओं की कोई कद्र नहीं थी। ऐसी स्थिति में दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ जाने से संदेह की भावना का पैदा होना स्वाभाविक था। डर एवं संदेह बढ़ जाने से अफवाहों की भूमिका बढ़ जाती है।

प्रश्न 7.
1857 के विद्रोह को कुचलने के लिए किस प्रकार के कानूनों का सहारा लिया गया?
उत्तर:
1857 के विद्रोह को कुचलने के लिए प्रत्येक ‘गोरे व्यक्ति’ को सर्वोच्च न्यायिक अधिकार प्रदान किए गए। इसके लिए कई कानून पारित किए गए। मई और जून (1857) में समस्त उत्तर भारत में मार्शल लॉ लगाया गया। साथ ही विद्रोह को कुचले जाने वाली सैनिक टुकड़ियों के अधिकारियों को विशेष अधिकार दिए गए। एक सामान्य अंग्रेज़ को भी उन भारतीयों पर मुकद्दमा चलाने व सजा देने का अधिकार था, जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था। सामान्य कानूनी प्रक्रिया को समाप्त कर दिया गया। इसके अभाव में केवल मृत्यु दंड ही सजा हो सकती थी। अतः यह स्पष्ट कर दिया था कि विद्रोह की केवल एक ही सजा है सजा-ए-मौत।

प्रश्न 8.
1857 ई० के विद्रोह के परिणाम बताएँ।
उत्तर:
1857 ई० के विद्रोह के परिणाम भारतीयों तथा अंग्रेज़ों दोनों के लिए काफी महत्त्वपूर्ण थे। अंग्रेज़ इसके बाद सजग हो गए। जबकि भारतीयों में यह राष्ट्रवाद के लिए एक प्रेरक तत्त्व बन गया। इस विद्रोह के संक्षेप में निम्नलिखित परिणाम निकले

1. प्रशासनिक ढांचे में परिवर्तन-1858 में ब्रिटिश संसद में एक एक्ट पारित करके भारत में कंपनी शासन को समाप्त कर दिया। भारत पर नियंत्रण के लिए लंदन में गृह-विभाग (भारत सचिव तथा उसकी 15 सदस्यीय परिषद्) बनाया गया। भारत में गवर्नर-जनरल (मुख्य प्रशासक) को भारतीय रियासतों के लिए वायसराय (प्रतिनिधि) कहा जाने लगा।

2. उच्च वर्गों के प्रति नई नीति-भारतीय नरेशों को अंग्रेजों ने पर्णतः अधीन रखते हए जनता के आंदोलनों के विरोध में ही नीति जागीरदारों और जमींदारों के साथ अपनाई गई। अतः 1858 के बाद यह भारतीय उच्च वर्ग ब्रिटिश सत्ता का आधार स्तंभ हो गया।

3. फूट डालो और राज करो की नीति-जन संघर्षों के विरुद्ध यह नीति ब्रिटिश प्रशासकों की एक मुख्य शस्त्र बन गई, सैनिकों में भी यही नीति अपनाई गई। हिंदू-मुसलमानों में फूट डलवाने का प्रयास विद्रोह के दौरान और भविष्य में जारी रहा। यह नीति भारत के लिए बहुत ही घातक सिद्ध हुई।

4. समाज-सुधारों के परित्याग की नीति-विद्रोह से पूर्व के कुछ दशकों में ‘समाज-सुधार’ की नीति (उदाहरण के लिए उन्होंने सती-प्रथा, कन्या-वध, बाल-विवाह आदि को अवैध घोषित किया, विधवा विवाह को कानूनी मान्यता दी) को इसके बाद पूर्णतः त्याग दिया गया।

5. राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरणा-1857 का विद्रोह आजादी के दीवानों के लिए एक प्रमुख प्रेरणा स्रोत बना।

प्रश्न 9.
“अफवाहें तभी फैलती हैं जब उनसे लोगों में भय और संदेह की अनुगूंज सुनाई दे।” स्पष्ट करें।
उत्तर:
1857 के विद्रोह के शुरू होने तथा उसके घटनाक्रम को निर्धारित करने में अफवाहों की बहुत बड़ी भूमिका थी। उदाहरण के लिए चर्बी लगे कारतूसों की बात या आटे में हड्डियों के चूरे की मिलावट पर सैनिकों सहित लोगों ने मन से विश्वास किया। इन अफवाहों के बारे में अधिकारियों ने अपने स्पष्टीकरण दिए और समझाने-बुझाने का प्रयास भी किया। लेकिन किसी ने विश्वास नहीं किया। इसका कारण था अफवाहों के पीछे का सच, जिसमें लोगों के मन में गहरे बैठे डर और संदेह की गूंज सुनाई देती है। ब्रिटिश नीतियों ने लोगों के मन में गहरे डर को जन्म दिया। उदाहरण के लिए कुछ नीतियों को देखें-

(1) भारतीय हिन्दू सैनिकों को दूसरे देशों (अफगानिस्तान, मिस्र, तिब्बत, बर्मा आदि) में लड़ने के लिए भेजा जाता था। ये सैनिक मुख्यतः उच्च जातियों से थे और बाहर जाने में अपने धर्म की क्षति समझते थे। जब उन्होंने विरोध किया तो कानून बनाकर उन्हें मजबूर किया गया। इससे यह विश्वास हआ कि सरकार उनके धर्म को नष्ट करना चाहती है।

(2) सामाजिक सुधार कानूनों और पाश्चात्य शिक्षा प्रसार से भी यही प्रकट हो रहा था कि अंग्रेज़ ईसाई धर्म का प्रसार करने के लिए यह सब कुछ कर रहे हैं।

(3) ईसाई मिशनरियों को स्कूलों, छावनियों एवं जेलों सभी जगह अपने धर्म प्रचार की खुली छूट दी गई थी। वास्तव में यहीं अंग्रेजों की नीतियाँ व गतिविधियाँ थीं जो अफवाहों के माध्यम से गूंज रही थीं।

प्रश्न 10.
विद्रोहियों के प्रति अंग्रेज़ों ने दहशत का प्रदर्शन किस प्रकार किया?
उत्तर:
विद्रोह को सख्ती से कुचल दिया गया था, लेकिन इसके उपरान्त ‘दहशत के प्रदर्शन’ की नीति अपनाई गई। इसका उद्देश्य था कि भारतीय भविष्य में विद्रोह को स्मरण करते ही काँप उठे और वे पुनः विद्रोह करने की कभी न सोच सकें। इसलिए यह प्रदर्शन दो स्तरों पर किया गया

1. ब्रिटेन में प्रदर्शन-ब्रिटिश समाचार पत्र-पत्रिकाओं में भी अत्यधिक लोमहर्षक शब्दों में विद्रोह से संबंधित विवरण व कहानियाँ प्रकाशित की गईं। विशेषतः विद्रोहियों की हिंसात्मक कार्रवाइयों को भड़काऊ एवं ‘बर्बर’ रूप में प्रस्तुत किया गया, जिनको पढ़कर ब्रिटेन के आम लोगों में प्रतिशोध व ‘सबक सिखाने की मांग’ उठी। फलतः विद्रोहियों को कुचलने वाले, घरों व गांवों को जलाने वाले उन लोगों की दृष्टि में नायक बनकर उभरे। इंग्लैण्ड में कितने ही चित्र, रेखाचित्र, पोस्टर, कार्टून आदि बने और प्रकाशित हुए जिनसे प्रतिशोध की भावना को प्रोत्साहन मिला।

2. भारत में प्रदर्शन-इंग्लैण्ड में तो प्रतिशोध (बदला) के लिए मांग उठ रही थी तो भारत में दिल दहला देने वाली मार-काट और पाश्विक अत्याचार किए गए। प्रतिशोध के लिए सार्वजनिक दंड की नीति अपनाई गई। गांव के बाहर पेड़ों पर सरे आम फांसी दी गई। विद्रोही सिपाहियों को तोप के गोलों से उड़ाया गया। इसका उद्देश्य सैनिकों और आम लोगों को सबक सिखाना था।

प्रश्न 11.
दिल्ली पर अंग्रेज़ों के पुनः नियन्त्रण को संक्षेप में बताएँ।
उत्तर:
लॉर्ड केनिंग ने शुरू से ही दिल्ली पर पुनः अधिकार करने की रणनीति अपनाई। क्योंकि वह जानता था कि दिल्ली को विद्रोहियों से छीन लेने से उनकी कमर टूट जाएगी। इसके लिए 8 जून को अंबाला की ओर से आगे बढ़कर अंग्रेज़ी सेना ने दिल्ली को घेर लिया और अंतिम आक्रमण के लिए पंजाब से आने वाली एक दूसरी सैनिक टुकड़ी का इंतजार करने लगी। विद्रोही सिपाहियों ने मिर्जा मुगल तथा बख्त खाँ के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना पर कई धावे बोले, परंतु कोई जोरदार बड़ा आक्रमण नहीं कर पाए, क्योंकि सिपाहियों में अनुशासन व समन्वय का अभाव था। खजाना खाली था।

सिपाहियों को वेतन देने के लिए भी धन नहीं था। दिल्ली में विद्रोहियों में सर्वाधिक प्रभावशाली सैनिक नेता बख्त खाँ था। नजफगढ़ में उसकी सेना अंग्रेजों से हार गई जो विद्रोहियों के लिए गहरा आघात था। इसी बीच सितंबर के आरंभ तक जॉन निकलसन के नेतृत्व में पंजाब से एक बड़ी सैनिक टुकड़ी पहुँचने से अंग्रेज़ी सेना की शक्ति में और भी वृद्धि हो गई। अंत में पाँच दिन के घमासान संघर्ष के बाद 20 सितंबर, 1857 ई० को अंग्रेज़ी सेना ने विजयी होकर दिल्ली में प्रवेश किया, परंतु निकलसन इस लड़ाई में मारा गया। दिल्ली पर पुनः अधिकार करते ही अंग्रेज़ी सेना ने दिल्लीवासियों पर असीम अत्याचार किए।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

प्रश्न 12.
कला व साहित्य ने 1857 के घटनाक्रम को जीवित रखने में योगदान दिया। झांसी की रानी के उदाहरण से स्पष्ट करें।
उत्तर:
साहित्य तथा चित्रों में विद्रोह के नेताओं को ऐसे नायकों के रूप में प्रस्तुत किया है जिन्होंने अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध हथियार उठाये। उन्हें महान देशभक्त माना गया। देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में वे हमेशा प्रेरणा स्रोत बने रहे। अनेक चित्रों व साहित्य में रानी लक्ष्मीबाई की छवि को एक मर्दाना योद्धा के रूप में स्थापित किया गया है। उसे सैनिक वेशभूषा में घोड़े पर सवार, एक हाथ में तलवार व एक हाथ में लगाम थामे युद्ध के मैदान में जाते हुए दिखाया गया है। इससे रानी लक्ष्मीबाई की छवि एक वीरांगना के रूप में उभरकर सामने आई। सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियाँ और अधिक जोश भर देती हैं, “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।”

प्रश्न 13.
1857 ई० के विद्रोह ने भारतीय राजनीति पर दीर्घकालीन प्रभाव डालें। समीक्षा कीजिए।
अथवा
1857 ई० के विद्रोह की विरासत की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
यद्यपि अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 ई० का विद्रोह असफल रहा लेकिन भारतीय राजनीति पर इसके दीर्घकालीन प्रभाव पड़े। वास्तव में ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति के लिए भारतीय जनता का यह पहला शक्तिशाली विद्रोह था जिसमें हिन्दुओं व मुसलमानों ने सारे भेद भुलाकर समान रूप से भाग लिया। भारतीय जनता के मन पर इसने अमिट छाप छोड़ी।

आधुनिक राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास का आधार तैयार करने में इस विद्रोह की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में 1857 के नायक हमेशा प्रेरणा स्रोत बने रहे। वीरों की गाथाएं घर-घर गाई जाने लगीं। उनके नाम जन-शक्ति का प्रतीक बनें और आज भी उन्हें स्मरण किया जाता है। पूरे देश में इस विद्रोह के 150 वर्ष पूरे होने पर स्थानीय से राष्ट्रीय स्तर तक के कार्यक्रम आयोजित किए गए।

प्रश्न 14.
1857 ई० के विद्रोह के दौरान हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच एकता के महत्त्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
1857 ई० के विद्रोह में हिन्दुओं तथा मुसलमानों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। दोनों समुदायों की एकता सैनिकों, जनता और नेताओं सभी में देखी गई। बहादुरशाह जफ़र को सभी हिंदुओं और मुसलमानों ने अपना नेता माना। हिंदुओं की भावनाओं को ठेस न पहुँचे इसलिए कई स्थानों पर गो हत्या पर प्रतिबन्ध लगाया गया। स्वयं बादशाह बहादशाह जफ़र की ओर से की गई घोषणा में मुहम्मद व महावीर दोनों की दुहाई देते हुए संघर्ष में शामिल होने की अपील की गई।

ब्रिटिश अधिकारियों ने इस एकता को तोड़ने के भरसक प्रयास किए। उदाहरण के लिए बरेली में विद्रोह के नेता खान बहादुर के विरुद्ध हिन्दू प्रजा को भड़काने के लिए वहाँ के अधिकारी जैम्स औट्रम द्वारा दिया गया धन का लालच भी कोई काम नहीं आया।

प्रश्न 15.
मौलवी अहमदुल्ला शाह पर एक टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
मौलवी अहमदुल्ला शाह नेताओं में ऐसा ही एक नाम है जिन्हें लोग पैगंबर मानने लगे थे। सन् 1856 में उन्हें अंग्रेज विरोधी प्रचार करते हुए गांव-गांव जाते देखा गया था। उनके साथ हजारों लोग जुड़ गए थे। वे एक पालकी में बैठकर चलते थे। पालकी के आगे-आगे ढोल और पीछे उनके हजारों समर्थक चलते थे। 1857 में उन्हें फैजाबाद की जेल में बंद कर दिया गया। रिहा होने पर 22वीं नेटिव इन्फेंट्री के विद्रोही सिपाहियों ने उन्हें अपना नेता मान लिया। वे बहादुर व ताकतवर थे। साथ ही उनकी ‘पैगंबर’ होने की छवि ने उन्हें लोगों का विश्वास जीतने में सहायता की।

बहुत सारे लोगों का विश्वास था कि उन्हें कोई हरा नहीं सकता। उनके पास ईश्वरीय शक्तियाँ हैं। चिनहाट के संघर्ष में उन्होंने हेनरी लारेंस को पराजित किया। मौलवी अहमदुल्ला का वास्तविक नाम सैयद अहमदखान (जियाऊद्दीन) था। वह सूफी संत सैयद फरकान अली का शिष्य था। इसी संत ने उसे अहमदुल्ला शाह का नाम दिया था। उसके विचार जेहादी बनते गए और वह अंग्रेज़ विरोधी प्रचारक बन गया।

प्रश्न 16.
विद्रोहियों के नेता के रूप में राव तुलाराम के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
राव तुलाराम ने रेवाड़ी क्षेत्र में विद्रोहियों को उल्लेखनीय नेतृत्व प्रदान किया। यह इसी क्षेत्र की एक छोटी रियासत के मालिक थे। इनका जन्म 1825 ई० में रामपुरा (रवाड़ी) के स्थान पर हुआ। 1839 ई० में पिता की मृत्यु के बाद इन्होंने रियासत को सँभाला। वह इस बात से नाराज थे कि अंग्रेजों ने अपनी नीति से इस रियासत को एक इस्तमरारी जागीर में बदल दिया अर्थात् ऐसी रियासत जिसमें सत्ता के अधिकार सीमित कर दिए गए हों, केवल भू-राजस्व एकत्र करने का अधिकार छोड़ा गया हो। राव तुलाराम ने 16 नवम्बर, 1857 को नारनौल के स्थान पर अंग्रेज़ों से जमकर लड़ाई की। इसमें हारने के बाद वे राजस्थान के कई राजाओं से सहायता माँगने के लिए गए। फिर सहायता के लिए ईरान व अफगानिस्तान गए। उन्होंने रूस के जार से भी सम्पर्क स्थापित किया। 23 सितंबर, 1863 में काबुल में 38 वर्ष की उम्र में इनका देहान्त हो गया।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1857 के प्रमुख राजनीतिक कारणों पर संक्षेप में प्रकाश डालें।
उत्तर:
1857 के विद्रोह के लिए उत्तरदायी प्रमुख राजनीतिक कारण इस प्रकार थे

1. विस्तार की नीति-ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में साम्राज्य स्थापित करने के लिए भारतीय राज्यों को पराजित करके उन्हें सहायक संधि स्वीकार करने के लिए विवश किया। सहायक संधि भारतीय नरेशों को गुलाम बनाने का एक तरीका था। इसे स्वीकार करने वाले देशी राज्य की सैन्य-शक्ति को समाप्त कर दिया जाता था। फिर धीरे-धीरे उसका राज्य-क्षेत्र कंपनी के राज्य में मिलाया जाने लगता था। लेकिन 19वीं शताब्दी के मध्य पहुँचते-पहुँचते इन ‘अधीन’ भारतीय नरेशों को यह भय लगने लगा कि अंग्रेज़ धीरे-धीरे उनके राज्यों का अस्तित्व ही मिटा देंगे। क्योंकि अंग्रेज़ उग्र विस्तार की नीति अपना चुके थे।

2. राज्य हड़पने की नीति-लॉर्ड डलहौजी ने सात भारतीय राज्यों का विलय राज्य हड़पने की नीति के अंतर्गत कर लिया था अर्थात् इन राज्यों के नरेशों की अपनी निजी संतान (पुत्र) नहीं थी और गोद लिए हुए पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से कंपनी ने स्पष्ट इंकार कर दिया था। झांसी व सतारा में यह नीति विद्रोह का एक बड़ा कारण रही। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र के राज अधिकार के लिए संघर्ष में उतरी थी।

3. पेंशन व उपाधियों की समाप्ति-कर्नाटक व तंजौर के शासक तथा पेशवा बाजीराव द्वितीय के गोद लिए हुए पुत्र नाना साहिब (धोंधू पंत) की पेंशन व उपाधि दोनों छीन लिए थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु (1852 ई०) के पश्चात् नाना साहिब को न तो ‘पेशवा’ स्वीकार किया गया और न ही उसे 8 लाख रुपए वार्षिक पेंशन प्रदान की गई। नाना साहिब इस असहनीय अपमान से सख्त नाराज़ हुए। इसी नाराज़गी के कारण उन्होंने विद्रोह में भाग लिया तथा सिपाहियों व जन-विद्रोहियों का अदम्य साहस के साथ नेतृत्व किया।

4. बहादुर शाह जफर के प्रति अनादर भाव-मुगल साम्राज्य का सूर्यास्त तो बहुत पहले ही हो चुका था। उसके पास न तो सैन्य शक्ति थी और न ही राज्य। फिर भी भारत के लोगों के मन में उनके प्रति सहानुभूति व आदर-सम्मान दोनों ही था। कंपनी के प्रशासक तब तक मुगल सम्राट के प्रति सम्मान करने का दिखावा करते रहे, जब तक उन्होंने भारत में अपनी स्थिति को मजबूत न कर लिया।

लॉर्ड डलहौजी ने मुगल बादशाह बहादुर शाह की उपाधि को समाप्त करके उसे राजमहल व किले से वंचित करने का सुझाव दिया था। लॉर्ड केनिंग ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि बहादुर शाह की मृत्यु के पश्चात् मुगल बादशाह का पद समाप्त कर दिया जाएगा। इसके उत्तराधिकारी को महल व किले में रहने का अधिकार नहीं होगा। सम्राट् के प्रति यह दुर्व्यवहार बहुत-से लोगों के असंतोष का कारण बना।

5. विदेशी सत्ता कंपनी के शासन का चरित्र विदेशी था। इसे तलवार के बल पर स्थापित किया गया था। इस सत्ता के संचालक हज़ारों मील दूर लंदन में बैठे थे। वहीं भारत के लिए शासन संबंधी नीतियाँ व कानून बनाए जाते थे, जिन्हें लागू करने वाले अंग्रेज़ प्रशासनिक अधिकारी अपने जातीय अभिमान से ग्रस्त थे। वे भारतीयों को हीन समझते थे और उनसे मिलने-जुलने में अपनी तौहीन समझते थे।

ब्रिटिश सत्ता का भारत में लक्ष्य जन-कल्याण कभी नहीं रहा। इसका लक्ष्य इंग्लैंड के आर्थिक हितों को लाभ पहुंचाने में निहित था। स्पष्ट है कि इन राजनीतिक कारणों का भी जन-विद्रोह के विस्तार में योगदान रहा है।

प्रश्न 2.
विद्रोहियों के दृष्टिकोण पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखें।
अथवा
विद्रोही क्या चाहते थे? स्पष्ट करें।
उत्तर:
पर्याप्त स्रोतों के अभाव में विद्रोहियों के दृष्टिकोण को समझना इतना सरल नहीं है। वैसे तो इस विद्रोह से संबंधित दस्तावेजों की कमी नहीं है। परन्तु यह सब सरकारी रिकॉर्डस हैं। इनसे अंग्रेज़ अधिकारियों की सोच का तो पता चलता है लेकिन विद्रोहियों का दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं होता।

अंग्रेज़ इसमें विजेता थे और विजेताओं का अपना ही दृष्टिकोण होता है। हारने वालों का दृष्टिकोण तो वैसे भी उनके द्वारा दबा दिया जाता है। 19वीं सदी के मध्य में हुए इस विद्रोह में भाग लेने वाले अधिकांश लोग अनपढ़ थे। जो कोई पढ़े-लिखे भी थे, उन्हें भी, जिस तरीके से विद्रोह को कुचला गया उसके चलते, कोई ब्यान दर्ज करवाने का अवसर नहीं मिला। फिर भी विद्रोहियों . द्वारा जारी की गई कुछ घोषणाएँ व इश्तहार मिलते हैं, जिनसे हमें विद्रोहियों के दृष्टिकोण की कुछ झलक मिलती है।

1. एकता की सोच-विद्रोही भारत के सभी सामाजिक समुदायों में एकता (Unity) चाहते थे। विशेषतौर पर हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया गया। उनकी घोषणाओं में जाति व धर्म का भेद किए बिना विदेशी राज़ के विरुद्ध समाज के सभी समुदायों का आह्वान किया गया। अंग्रेज़ी राज से पहले मुगल काल में हिंदू-मुसलमानों के बीच रही सहअस्तित्व की भावना का उल्लेख किया गया। बादशाह बहादुरशाह जफर की ओर से की गई घोषणा में मुहम्मद और महावीर दोनों की दुहाई देते हुए संघर्ष में शामिल होने की अपील की गई।

बरेली में विद्रोह के नेता खानबहादुर के विरुद्ध हिंदू प्रजा को भड़काने के लिए अंग्रेज़ अधिकारी जेम्स औट्रम (James Outram) द्वारा दिया गया धन का लालच भी कोई काम नहीं आया था। अंततः हारकर उसे 50,000 रुपये वापस ख़जाने में जमा करवाने पड़े जो इस उद्देश्य के लिए निकाले गए थे। इसी प्रकार दिल्ली में बकरीद के अवसर पर भी सांप्रदायिक तनाव पैदा करवाने की असफल कोशिश की गई थी।

2. विदेशी सत्ता को समाप्त करने की कोशिश-विद्रोहियों की घोषणाओं में ब्रिटिश राज के विरुद्ध सभी भारतीय सामाजिक होने का आह्वान किया गया। ब्रिटिश राज को एक विदेशी शासन के रूप में शोषणकारी माना गया। इससे संबंधित प्रत्येक चीज़ को पूर्ण तौर पर खारिज किया जा रहा था। अंग्रेजी सत्ता को निरंकुश के साथ-साथ षड़यं के लिए अंग्रेजी राज में कंपनी व्यापार तबाही का मुख्य कारण था। जबकि छोटे-बड़े भूस्वामियों के लिए अंग्रेज़ों द्वारा लागू भू-राजस्व व्यवस्था बर्बादी का कारण थी। अतः व्यापार की नई व्यवस्था तथा भू-राजस्व व्यवस्था को निशाना बनाया गया। अंग्रेज़ी व्यवस्था के कारण जो जीवन-शैली प्रभावित हुई उसे भी उन्होंने इंगित किया। वे पुरानी व्यवस्था को पुनः स्थापित करना चाहते थे।

धर्म, सम्मान व रोजगार के लिए लड़ने का आह्वान किया गया। इस लड़ाई को एक ‘व्यापक सार्वजनिक भलाई’ घोषित किया गया। विद्रोहियों की घोषणाओं में सर्वाधिक डर इसी बात को लेकर अभिव्यक्त हुआ कि अंग्रेज़ हमारी संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। वे हमारी जाति व धर्म को भ्रष्ट करके अंततः हमें ईसाई बनाने का प्रयास कर रहे हैं। इस डर और संदेह के कारण अफवाहें जोर पकड़ने लगीं। लोग इनमें विश्वास करने लगे।

3. अन्य उत्पीड़कों के विरुद्ध विद्रोह के दौरान विद्रोहियों के व्यवहार से कुछ एक ऐसा भी लगता है कि वे अंग्रेजी राज़ के साथ-साथ अन्य उत्पीड़कों के भी विरुद्ध थे। वे उन्हें भी नष्ट करना चाहते थे। उदाहरण के लिए उन्होंने सूदखोरों के बही-खाते जला दिये और उनके घरों में तोड़-फोड़ व आगजनी की। शहरी संभ्रांत लोगों को जानबूझ कर अपमानित भी किया। वे उन्हें अंग्रेजों के वफादार और उत्पीड़क मानते थे।

4. विकल्प की तलाश-निःसंदेह अंग्रेजी राज व्यवस्था को विद्रोही उखाड़ फेंकना चाहते थे। इसे उखाड़ने के बाद उनके पास भविष्य की नई राजनीतिक व्यवस्था की योजना नहीं थी। इसलिए वे पुरानी व्यवस्था को ही विकल्प के रूप में देख रहे थे। वे देशी राजा-रजवाड़ा शाही ही पुनः स्थापित करने के लिए लड़ रहे थे। वे 18वीं सदी की पूर्व ब्रिटिश दुनिया को ही दोबारा स्थापित देखना चाहते थे। इसलिए पुराने ढर्रे पर दरबार और दरबारी नियुक्तियाँ की गईं। आदेश जारी किए गए। भू-राजस्व वसूली और सैनिकों के वेतन भुगतान का प्रबंध किया गया। अंग्रेज़ों से लड़ने की योजना बनाने तथा सेना की कमान श्रृंखला निश्चित करने में भी प्रेरणा स्रोत 18वीं सदी का मुगल जगत ही था।

प्रश्न 3.
सन् 1857 के विद्रोह के लिए उत्तरदायी धार्मिक कारणों का संक्षिप्त में वर्णन करें।
उत्तर:
1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक कारणों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी। कई तरह की अफवाहें इस विद्रोह के शुरू होने और इसके फैलने से जुड़ी हुई थीं। इन अफवाहों के विश्वास के पीछे भी धार्मिक भावनाएं थीं। सैनिक और सामान्य लोग सभी इनसे आहत थे। 19वीं सदी के दूसरे दशक से कम्पनी सरकार ने भारतीय समाज को ‘सुधारने के लिए कई कानून बनाए और साथ ही ईसाई प्रचारकों को ईसाई धर्म प्रचार की छूट दी। इनसे विद्रोह की भावनाएं उत्पन्न हुईं। संक्षेप में हम इस संदर्भ में धार्मिक विश्वासों की भूमिका को इस प्रकार रेखांकित कर सकते हैं

1. सामाजिक सुधार कानून-गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक (1828-35) ने सती प्रथा, बाल-विवाह, कन्या-वध इत्यादि को रोकने के लिए कानून बनाए। 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पास किया। इन कानूनों का रूढ़िवादी भारतीयों ने विरोध किया क्योंकि वे इन्हें सामाजिक और धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप बता रहे थे। चूंकि ये एक विदेशी सत्ता द्वारा बनाए गए कानून थे। इसलिए भी लोगों के मन में संदेह पैदा होना स्वाभाविक था।

2. पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार-अंग्रेज़ी शिक्षण संस्थाओं में ईसाई धर्म व पाश्चात्य संस्कृति का प्रचार धड़ल्ले से किया जा रहा था। नव-शिक्षित वर्ग पश्चिमी रहन-सहन और भाषा को अपनाकर गर्व अनुभव करने लगा था। इससे स्वाभाविक रूप से यह विश्वास होने लगा कि अंग्रेज़ हमारे धर्म को नष्ट करना चाहते हैं और वे हमारे बच्चों को ईसाई बनाना चाहते हैं।

3. ईसाई धर्म का प्रचार-धर्म के मामले में तो भारतीय भयभीत हो गए थे। लोगों में यह डर बैठ गया था कि अंग्रेज़ उन्हें ईसाई बनाना चाहते हैं। मिशनरियों द्वारा स्कूलों में धड़ल्ले से धर्म-प्रचार किया जाता था। जेलों में भी पादरी कैदियों में ईसाई धर्म का प्रचार करते थे। सेना में सरकार की ओर से पादरी नियुक्त किए जाने लगे जो धर्म-प्रचार करते थे। धर्म परिवर्तन करने वाले भारतीय सिपाहियों को पदोन्नति का प्रलोभन दिया जाता था।

4. उत्तराधिकार कानून-1850 ई० में सरकार ने एक उत्तराधिकार कानून (Lex Loci Act, 1850) पास करके लोगों की शंका को विश्वास में बदल दिया था। इस कानून के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति अन्य धर्म ग्रहण कर ले तो भी वह पैतृक संपत्ति का उत्तराधिकारी रह सकता था। अब यदि कोई ईसाई धर्म ग्रहण करता था तो उसे पैतृक संपत्ति में से मिलने वाले हिस्से से वंचित नहीं किया जा सकता था।

5. सामान्य सेवा अधिनियम-1856 ई० में अंग्रेजों ने ‘सामान्य सेवा भती अधिनियम’ पास किया। इसके अनुसार भर्ती के समय ही प्रत्येक सैनिक को यह लिखित रूप में स्वीकार करना होता था कि जहाँ भी (भारत या भारत के बाहर) सरकार उसे युद्ध के लिए भेजेगी, वह जाएगा। इससे सैनिकों में भी असंतोष हुआ क्योंकि वे (अधिकांश उच्च जाति के हिन्दू सैनिक) समझते थे कि वे समुद्र पार जाने से उनकी जाति और धर्म दोनों नष्ट हो जाएंगे।

6. ‘चर्बी वाले कारतूस’ व अन्य अफवाहें-1857 ई० के शुरू में ही भारतीय सिपाहियों में एक अफवाह थी कि नए दिए गए कारतूसों में गाय व सूअर की चर्बी लगी हुई है। इन्हीं ‘चर्बी वाले कारतूसों’ ने इन सिपाहियों को अपने दीन-धर्म की रक्षा के लिए एकजुट कर दिया था। गाय हिंदुओं के लिए पूजनीय थी तो सूअर से मुसलमान घृणा करते थे। अतः दोनों धर्मों के सैनिकों ने इसे अंग्रेज़ों का धर्म भ्रष्ट करने का षड्यंत्र समझा।

अन्य कई तरह की अफवाहों में से एक थी आटे में हड्डियों के चूरे की मिलावट। इसे लोग अंग्रेजों के एक बड़े षड्यंत्र के रूप में देख रहे थे। उन्हें यह लग रहा था कि हिंदू और मुसलमान सभी भारतीयों के धर्म भ्रष्ट करने के एक षड्यंत्र के तहत ही आटे में गाय व सूअर की हड्डियों का चूरा मिलाया गया है। लोगों ने बाजार के आटे को हाथ तक लगाने से मना कर दिया। अधिकारी वर्ग के समझाने-बुझाने के प्रयास भी कोई काम नहीं आए। स्पष्ट है कि 1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में बहुत-से धार्मिक विश्वासों की भूमिका रही है, क्योंकि अंग्रेजों की नीतियों से यह विश्वास आहत हो रहे थे।

प्रश्न 4.
जन विद्रोह के प्रसार का विस्तार से वर्णन करें।
उत्तर:
विद्रोह 10 मई को मेरठ से शुरू हुआ। 11 मई को बहादुरशाह जफर ने स्वयं को विद्रोह का नेता घोषित करके समर्थन दे दिया। 12 और 13 मई को उत्तर भारत में शांति नज़र आई। लेकिन दिल्ली में विद्रोहियों के कब्जे और बहादुर शाह के नेतृत्व की सूचना जहाँ-जहाँ पहुंचती गई, वहाँ-वहाँ उत्तर भारत में विद्रोह तेज होता गया। एक महीने के भीतर ही उत्तर भारत की सैन्य छावनियों, शहर व. देहात में बड़े स्तर पर विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। भारत में अंग्रेज़ी सेना में लगभग 2 लाख 32 हजार भारतीय सैनिक थे। इनमें से लगभग आधे. इसमें कूद पड़े। विद्रोह शुरू करने का तरीका (Pattern) लगभग सभी जगह एक जैसा ही था।

सिपाहियों ने विद्रोह शुरू होने का संकेत प्रायः शाम को तोप का गोला दाग कर या फिर बिगुल बजाकर दिया। फिर जेल, सरकारी खजाने, टेलीग्राफ दफ्तर, रिकॉर्ड रूम, अंग्रेज़ों के बंगलों सहित तमाम सरकारी भवनों पर हमले किए गए। रिकॉर्ड रूम जलाए गए।

‘मारो फिरंगियों को’ नारों के साथ हिंदी, उर्दू व फारसी में अपीलें जारी की गईं। बड़े स्तर पर गोरे लोगों पर आक्रमण हुए। हिंदुओं और मुसलमानों ने एकजुट होकर विद्रोह में आह्वान किया। लोग अंग्रेजी शासन के प्रति नफरत से भरे हुए थे। वे लाठी, दरांती, तलवार, भाला तथा देशी बंदूकों जैसे अपने परंपरागत हथियारों के साथ विद्रोह में कूद पड़े। इनमें किसान, कारीगर, दकानदार व नौकरी पेशा तथा धर्माचार्य इत्यादि सभी लोग शामिल थे। सिपाहियों का यह विद्रोह एक व्यापक ‘जन-विद्रोह’ बन गया।

  • क्षेत्रीय विस्तार-सामाजिक व क्षेत्रीय दोनों तरह से निम्नलिखित क्षेत्र इसकी चपेट में आए

1. उत्तर प्रदेश-इस प्रदेश में लगभग समस्त गांवों, कस्बों और शहरों में यह फैल गया था। जून के पहले सप्ताह तक बरेली, लखनऊ, अलीगढ़, कानपुर, इलाहाबाद, आगरा, मेरठ, बनारस जैसे बड़े-बड़े नगर स्वतंत्र हो चुके थे। विद्रोहियों ने इन पर अधिकार जमा लिया था। बरेली में रूहेला सरदार खान बहादुर खाँ, कानपुर में नाना साहिब (धोंधू पंत) तथा इलाहाबाद में पेशे से एक अध्यापक व वहाबी नेता मौलवी लियाकत खाँ ने प्रशासन की कमान संभाल ली। लखनऊ में अवध के नवाबों के राजवंश ने सत्ता संभाल ली थी परंतु यहाँ विद्रोह का असली नेता अहमदुल्ला शाह था।

2. बिहार में विद्रोह-बिहार में पटना, दानापुर, शाहबाद तथा छोटा नागपुर में काफी बड़े स्तर पर जन-विद्रोह के रूप में फूटा। यहाँ नेतृत्व जगदीशपुर के ज़मींदार कुंवर सिंह व कुछ अन्य स्थानीय ज़मींदारों ने किया।

3. मध्य भारत में विद्रोह-मध्य-भारत के झाँसी, ग्वालियर, इंदौर, सागर तथा भरतपर आदि क्षेत्रों में व्यापक प्रभाव रहा। मख्यतः यहाँ विद्रोह का नेतृत्व झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने किया। राजस्थान और मध्य प्रदेश के अधिकतर देशी राजा अंग्रेज़ों के वफादार बने रहे। परंतु कई स्थानों पर जनता और सेना अपने शासकों का साथ छोड़कर विद्रोही हो गई थी। उदाहरण के लिए ग्वालियर के सैनिकों और लोगों ने विद्रोह में भाग लिया, परंतु सिंधिया राजा ने विद्रोहियों को कुचलने के लिए अंग्रेज़ों का साथ दिया।

4. पंजाब व हरियाणा में विद्रोह-पंजाब में तो अंग्रेज़ों के विरुद्ध जेहलम, स्यालकोट आदि इलाकों में कुछ छिट-पुट घटनाएँ ही हुईं, लेकिन हरियाणा के हांसी, हिसार, रोहतक, रिवाड़ी और दिल्ली के साथ लगते मेवात क्षेत्र में बड़े स्तर पर लोगों ने हथियार उठाए। रिवाड़ी में राव तुला राम व उसके चचेरे भाई राव कृष्ण गोपाल ने इसका नेतृत्व किया। झज्जर में अब्दुल रहमान खाँ, मेवात में सरदार अली हसन खाँ तथा बल्लभगढ़ में राव नाहर सिंह और फर्रुखनगर के नवाब फौजदार खाँ विद्रोहियों के नेता थे।

यह विद्रोह मुख्यतः उत्तर भारत में ही था लेकिन कुछ छुट-पुट घटनाएँ दक्षिण व पूर्वी भारत में भी घटीं। पूर्व में दूर-दराज के क्षेत्र आसाम में भी इस विद्रोह की हवा पहुंची।
इस प्रकार यह उत्तर भारत में एक व्यापक विद्रोह था। बहुत-से अंग्रेज़ अधिकारियों में इससे घबराहट फैल गई थी। उन्हें लगने लगा था कि भारत उनके हाथ से निकल रहा है।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

प्रश्न 5.
अवध में विद्रोह की व्यापकता के कारण स्पष्ट करें।
अथवा
अवध में विद्रोह अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक ‘लोक प्रतिरोध’ में कैसे बदल गया? स्पष्ट करें।
उत्तर:
अन्य स्थानों की अपेक्षा अंग्रेजों के विरुद्ध लोक-प्रतिरोध अवध में अधिक था। लोग फिरंगी राज के आने से अत्यधिक आहत थे। उन्हें लग रहा था कि उनकी दुनिया लुट गई है। वह सब कुछ बिखर गया है, जिन्हें वे प्यार करते थे। अंग्रेजी राज की नीतियों ने किसानों, दस्तकारों, सिपाहियों, ताल्लुकदारों और राजकुमारों को परस्पर जोड़ दिया था। फलस्वरूप यह एक लोक-प्रतिरोध बनकर उभरा।

1. अवध का विलय-अवध का विलय 1856 में विद्रोह फूटने से लगभग एक वर्ष पहले ‘कुशासन’ का आरोप लगाते हुए किया गया था। इसे लोगों ने न्यायसंगत नहीं माना। बल्कि वे इसे अंग्रेज़ों का एक विश्वासघात पूर्ण कदम मान रहे थे। अवध को ब्रिटिश राज में मिलाने की इच्छा काफी पहले से बन चुकी थी। 1851 में ही लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध के बारे में कहा था कि “यह गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा” उसकी दिलचस्पी अवध की उपजाऊ जमीन को हड़पने में भी थी।

यह जमीन नील और कपास की खेती के लिए उपयुक्त थी। अवध के विलय से एक भावनात्मक उथल-पुथल शुरू हो गई। लोगों में नवाब व उसके परिवार से गहरी सहानुभूति थी। वे उन्हें दिल से चाहते थे। जब नवाब लखनऊ से विदा ले रहे थे तो बहुत सारे लोग उनके पीछे विला

2. उच्च वर्गों के हितों को हानि-देशी रियासतों के पतन के बाद परंपरागत दरबारी कुलीन उच्च वर्ग भी बर्बाद हो गया। राजा-नवाबों की ओर से इन परिवारों के सदस्यों को विशेषाधिकार प्राप्त थे। जन-सामान्य में यह प्रतिष्ठित लोग थे। देशी राज्यों के विलय के बाद इनकी सुख-सुविधा, विशेषाधिकार व प्रतिष्ठा सब खत्म हो गई। इससे असंतोष पनपा और वे विद्रोहियों के सहयोगी बन गए।

3. आश्रित वर्गों को हानि-देशी राज्यों के विलय से सेना व सामान्य वर्ग के लोगों पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ा। हज़ारों सैनिक बेरोज़गार हो गए। कुछ तो रोजी-रोटी को मोहताज़ हो गए थे। अवध की सेना में से 45,000 सिपाहियों को मामूली पेंशन देकर बर्खास्त कर दिया गया था। मात्र 1000 को ब्रिटिश सेना में रखा गया और वे भी कंपनी की नौकरी से खुश नहीं थे। दरबार व उसकी संस्कृति खत्म होने के साथ ही कवि, कारीगर, बावर्ची, संगीतकार, नर्तक, सरकारी कर्मचारी व अन्य बहुत सारे लोगों की आजीविका समाप्त हो गई।

4. ताल्लुकदारों को क्षति-ताल्लुकदार अवध क्षेत्र में वैसे ही छोटे राजा थे जैसे बंगाल में ज़मींदार थे। वे छोटे महलनुमा घरों इनके अपने दुर्ग व सेना थी। 1856 में अवध का अधिग्रहण करते ही इन ताल्लुकदारों की सेनाएँ भंग कर दी गईं और दुर्ग भी ध्वस्त कर दिए गए।

जिनके पास ज़मीन के कागज-पत्र ठीक नहीं थे, उनकी ज़मीनें छीन ली गई थीं। लगभग 21,000 ताल्लुकदारों से ज़मीनें छीन ली गईं। सबसे बुरी मार दक्षिणी अवध के ताल्लुकदारों पर पड़ी। कुछ तो रोज़ी-रोटी को मोहताज़ हो गए थे। उनका सामाजिक सम्मान, स्थिति सब चली गई। ऐसी स्थिति में इन. जागीरदारों ने विद्रोहियों का साथ दिया।

5. किसानों में असंतोष-विद्रोह में बहुत बड़ी संख्या में किसानों ने भाग लिया। इससे अंग्रेज़ अधिकारी काफी परेशान हुए थे। उन्हें यह आशा थी कि जिन किसानों को हमने ज़मीन का मालिक घोषित किया है वे तो अंग्रेज़ समर्थक रहेंगे ही। परंतु ऐसा नहीं हुआ।

ब्रिटिश व्यवस्था की अपेक्षा वे ताल्लुकदारी को ही बेहतर मान रहे थे। ज़मींदार बुरे वक्त में उनकी सहायता भी करता था। लोगों की दृष्टि में इन ताल्लुकदारों की छवि दयालु अभिभावकों की थी। तीज-त्योहारों पर भी उन्हें कर्जा अथवा मदद मिल जाती थी, फसल खराब होने पर भी उनकी दया-दृष्टि किसानों पर रहती थी। मुसीबत के समय यह नई सरकार कोई सहानुभूति की भावना कृषकों से नहीं रखती थी।

किसान ये जान चुके थे कि अवध में भू-राजस्व की दर का आकलन बहुत बढ़ा-चढ़ा कर किया गया है। कुछ स्थानों पर तो भू-राजस्व की माँग में 30 से 70% तक की वृद्धि हुई थी। इस राजस्व व्यवस्था से सरकार के राजस्व में तो वृद्धि हुई लेकिन किसानों का शोषण कम होने की बजाय बढ़ गया। वस्तुतः इन्हीं कारणों से किसानों ने विदेशी सत्ता के विरुद्ध शस्त्र उठाए।

6. किसान व सेना में संबंध-अवध में किसान और सैनिक परस्पर गहन रूप से जुड़े हुए थे। सेना का गठन गांवों के किसानों तथा ज़मींदारों में से ही किया गया था। बल्कि अवध को तो “बंगाल आर्मी की पौधशाला” (“Nursery of the Bengal Army”) कहा जाता था। यह सैनिक अपने गांव-परिवार से जुड़े हुए थे। हर सैनिक किसी किसान का बेटा, भाई या पिता था। एक भाई खेत में हल जोत रहा था तो दूसरे ने वर्दी पहन ली थी।

वह भी गांव में किए जा रहे अंग्रेज़ अधिकारियों के जुल्म से दुखी होता था। स्वाभाविक तौर पर उसमें भी इससे आक्रोश पैदा होता था। भूमि-कर की बढ़ी दरों व कठोरता से उसकी उगाही से किसान त्राही-त्राही कर रहा था। यहीं से अधिकांश सैनिक भर्ती किए हुए थे। नए भू-राजस्व कानूनों से जहाँ किसान, जमींदार ताल्लुकदार सभी पीड़ित थे वहीं सैनिक भी कम दुखी नहीं थे। स्पष्ट हैं कि इन सभी कारणों के संयोजन से ही अवध में विद्रोह एक जबरदस्त लोक-प्रतिरोध का रूप धारण कर गया।

प्रश्न 6.
1857 की घटना के बारे में प्रचलित दो मुख्य विचारधाराओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें।
अथवा
1857 की घटना ‘प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम’ था या मात्र एक ‘सैनिक विद्रोह’ था? स्पष्ट करें।
उत्तर:
1857 की घटना की प्रकृति को लेकर इतिहासकारों में काफी मतभेद रहा है। भारतीय देशभक्तों ने आजादी की लड़ाई लड़ते हुए इसे ‘प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम’ की संज्ञा दी, जबकि दूसरी ओर अंग्रेज़ अधिकारियों और लेखकों ने इसे शुद्ध रूप में एक ‘सैनिक विद्रोह’ बताया। आजकल इतिहासकार इसे ‘जन-विद्रोह’ अथवा ‘1857 का आंदोलन’ के नाम से पुकारते हैं। यहाँ हम इन्हीं दो विचारों के तर्कों पर विचार करेंगे कि यह सैनिक विद्रोह था अथवा प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम।

1. सैनिक विद्रोह-अंग्रेज लेखक सर जॉन लारेंस तथा जॉन सीले इत्यादि ने 1857 की घटना को एक सैनिक विद्रोह बताया है। सीले का विचार है कि “यह देशभक्ति की भावना से रहित स्वार्थपूर्ण सैनिक विद्रोह था।” इस विचार के पक्ष में इन लेखकों ने निम्नलिखित तर्क दिए हैं

  • विद्रोह की शुरूआत मेरठ सैनिक छावनी से हुई और इसका प्रभाव क्षेत्र मुख्यतः सैनिकों में था। विशेषतः उत्तर भारत की छावनियों में ही रहा।
  • कुछ स्वार्थी लोगों को छोड़कर आम लोगों ने सैनिकों का साथ नहीं दिया।
  • विद्रोहियों में देश प्रेम , की भावना नहीं थी।
  • सैनिक वेतन, भत्ते व अन्य कुछ छोटी-मोटी समस्याओं से नाराज थे। साथ ही उनकी धार्मिक भावनाओं को ध्यान में न रखने के कारण वे भड़क उठे।
  • सभी जगह विद्रोह पहले सैनिकों ने शुरू किया और बाद में वे शासक उनके साथ मिल गए जिनकी सत्ता छीन ली गई थी।
    अतः इन तर्कों के आधार पर पश्चिमी लेखकों का मत है कि 1857 की घटना एक सैनिक विद्रोह’ से अधिक कुछ नहीं था।

2. प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम-इस मत के समर्थकों में वीर सावरकर, अशोक मेहता, पट्टाभि सीतारमैय्या तथा इतिहासकार ईश्वरीप्रसाद सरीखे महानुभाव हैं। उल्लेखनीय है कि सन् 1909 में वीर सावरकर की पुस्तक ‘1857 का भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम’ आजादी के दीवानों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गई थी। इन लेखकों के मुख्य तर्क इस प्रकार हैं

1. विद्रोही देश भक्ति से प्रेरित थे। वे स्वधर्म और स्वराज के लिए लड़े।,

2. विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए यह एक सामूहिक प्रयास था। इसमें हिन्दू, मुसलमान और विभिन्न जातियों के लोगों ने मिलकर संघर्ष किया और बलिदान दिया।
धर्बी वाले कारतूसों’ ने तो मात्र चिंगारी का काम किया। वास्तव में यह ब्रिटिश नीतियों से पैदा हुए दीर्घकालीन असंतोष का परिणाम था। यदि ये ‘कारतूस’ न भी होते तो भी यह मुक्ति का आंदोलन तो चलना ही था। यद्यपि उपरोक्त तर्कों के आधार पर इसे आजादी की पहली लड़ाई बताया गया। तथापि कुछ इतिहासकारों ने इस विचार को भी उचित नहीं माना है। उदाहरण के लिए आर०सी० मजूमदार ने लिखा है, “तथाकथित राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम न तो पहला था, न राष्ट्रीय था और न ही मुक्ति का संग्राम था।”

निष्कर्ष-उपरोक्त दोनों मत अपनी-अपनी दृष्टि का परिणाम हैं। अंग्रेज़ लेखक कभी यह मानने को तैयार नहीं थे कि ब्रिटिश सरकार की नीतियों के कारण यह संग्राम पैदा हुआ। वे अपनी छोटी-मोटी गलतियों; जैसे कि कारतूसों का मामला आदि से ही इसे जोड़कर देखते थे। दूसरी ओर ‘पहला स्वतन्त्रता संग्राम’ बताने वाले लेखक देशभक्ति की भावना से प्रेरित थे और यही भावना पैदा करना चाहते थे। इसलिए उस जमाने में राष्ट्रीय विचारधारा के अभाव में भी उन्होंने इसे राष्ट्रीय आंदोलन बताया। इसकी सबसे बड़ी कमी थी कि विद्रोहियों के सामने भविष्य की स्पष्ट योजना नहीं थी। वे पुरानी व्यवस्था को पुनः स्थापित करने की सोच रहे थे।

प्रश्न 7.
1857 ई० के विद्रोह में भारतीय सैनिक क्यों शामिल हुए?
उत्तर:
1857 ई० के विद्रोह में भारतीय सैनिकों के शामिल होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे

(1) सिपाहियों के वेतन और भत्ते बहुत कम थे। एक घुड़सवार सेना के सिपाही को 27 रुपए और पैदल सेना के सिपाही को मात्र 7 रुपए मिलते थे। वर्दी और भोजन का खर्च निकालकर मुश्किल से उनके पास एक या दो रुपए बच पाते थे।

(2) सेना में गोरे व काले के आधार पर भेदभाव आम बात थी। गोरे सैनिकों के अधिकार व सुविधाएँ भारतीय सैनिकों की तुलना में कहीं अधिक थीं। वेतन और भत्तों में भेदभाव किया जाता था। भारतीय सैनिकों के पदोन्नति के अवसर लगभग न के बराबर थे।

(3) सिपाहियों को अपनी जाति तथा धर्म के खोने का भय सता रहा था। सिपाहियों के धर्म और जाति से सम्बन्धित चिह्न पहनने पर रोक लगा दी गई थी। सैनिकों के लिए विदेश में कुछ समय काम करना अनिवार्य कर दिया गया था।

(4) 1857 ई० का विद्रोह मुख्यतः चर्बी वाले कारतूसों की अफवाह को लेकर शुरू हुआ। 1857 ई० के शुरू में ही भारतीय सिपाहियों में एक अफवाह थी कि नए दिए गए कारतूसों में गाय व सूअर की चर्बी लगी हुई है। इन्हीं ‘चर्बी वाले कारतूसों’ ने इन सिपाहियों को अपने दीन-धर्म की रक्षा के लिए एकजुट कर दिया था। अतः दोनों धर्मों के सैनिकों ने इसे अंग्रेजों का धर्म भ्रष्ट करने का षड्यंत्र समझा। इन कारतूसों के प्रति सिपाहियों की नाराज़गी को भांपते हुए ब्रिटिश अधिकारियों ने सिपाहियों को लाख समझाने का प्रयत्न किया परंतु किसी ने इस पर विश्वास नहीं किया। इसने सिपाहियों में अत्यंत रोष उत्पन्न कर दिया था।

(5) सिपाहियों को अपने देशवासियों तथा गाँव के लोगों से बहुत प्रेम था। अतः बहुत-से स्थानों पर सिपाही गाँव की जनता का साथ देने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में कूद गए।

(6) अंग्रेज अधिकारी भारतीय सैनिकों से दुर्व्यवहार किया करते थे। वे उन्हें अंग्रेज सिपाहियों की तुलना में हीन समझते थे। वे भारतीय सिपाहियों के रहन-सहन तथा उनकी परम्पराओं का मजाक उड़ाते थे। इसी कारण भारतीय सैनिकों में रोष बढ़ने लगा और वे 1857 ई० में हुए विद्रोह में शामिल हो गए।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

HBSE 12th Class History औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
बहुत सारे स्थानों पर विद्रोही सिपाहियों ने नेतृत्व सँभालने के लिए पुराने शासकों से क्या आग्रह किया ?
उत्तर:
बहुत सारे स्थानों पर विद्रोही सिपाहियों (सैनिकों) ने नेतृत्व संभालने के लिए पुराने अपदस्थ शासकों से आग्रह किया कि वे विद्रोह को नेतृत्व प्रदान करें। क्योंकि वे जानते थे कि नेतृत्व व संगठन के बिना अंग्रेजों से लोहा नहीं लिया जा सकता। यह बात सही है कि सिपाही जानते थे कि सफलता के लिए राजनीतिक नेतृत्व जरूरी है। इसीलिए सिपाही मेरठ में विद्रोह के तुरंत बाद दिल्ली पहुंचे। वहाँ उन्होंने बहादुर शाह को अपना नेता बनाया।

वह वृद्ध था। बादशाह तो नाममात्र का ही था। स्वाभाविक तौर पर वह विद्रोह की खबर से बेचैन और भयभीत हुआ। यद्यपि अंग्रेजों की नीतियों से वह त्रस्त तो था ही फिर भी विद्रोह के लिए तैयार वह तभी हुआ जब कुछ सैनिक शाही शिष्टाचार की अवहेलना करते हुए दरबार तक आ चुके थे। सिपाहियों से घिरे बादशाह के पास उनकी बात मानने के लिए और कोई चारा नहीं था। अन्य स्थानों पर भी पहले सिपाहियों ने विद्रोह किया और फिर नवाबों और राजाओं को नेतृत्व करने के लिए विवश किया।

प्रश्न 2.
उन साक्ष्यों के बारे में चर्चा कीजिए जिनसे पता चलता है कि विद्रोही योजनाबद्ध और समन्वित ढंग से काम कर रहे थे?
उत्तर:
इस बात के कुछ प्रमाण मिलते हैं कि सिपाही विद्रोह को योजनाबद्ध एवं समन्वित तरीके से आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। विभिन्न छावनियों में विद्रोही सिपाहियों के बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान था। ‘चर्बी वाले कारतूसों’ की बात सभी छावनियों में पहुँच गई थी। बहरमपुर से शुरू होकर बैरकपुर और फिर अंबाला और मेरठ में विद्रोह की चिंगारियाँ भड़कीं। इसका अर्थ है कि सूचनाएँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच रही थीं।

सिपाही बगावत के मनसूबे गढ़ रहे थे। इसका एक और उदाहरण यह है कि जब मई की शुरुआत में सातवीं अवध इर्रेग्युलर कैवेलरी (7th Awadh Irregular Cavalry) ने नए कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया तो उन्होंने 48वीं नेटिव इन्फेंट्री को लिखा : “हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए यह फैसला लिया है और 48वीं नेटिव इन्फेंट्री के आदेश की प्रतीक्षा है।”

सिपाहियों की बैठकों के भी कुछ सुराग मिलते हैं। हालांकि बैठक में वे कैसी योजनाएँ बनाते थे, उसके प्रमाण नहीं हैं। फिर भी कुछ अंदाजें लगाए जाते हैं कि इन सिपाहियों का दुःख-दर्द एक-जैसा था। अधिकांश उच्च-जाति के थे और उनकी जीवन-शैली भी मिलती-जुलती थी। स्वाभाविक है कि वे अपने भविष्य के बारे में ही निर्णय लेते होंगे। चार्ल्स बॉल (Charles Ball) उन शुरुआती इतिहासकारों में से है जिसने 1857 की घटना पर लिखा है।

इसने भी उन सैन्य पंचायतों का उल्लेख किया है जो कानपुर सिपाही लाइन में रात को होती थी। जिनमें मिलिट्री पुलिस के कप्तान ‘कैप्टेन हियर्से’ की हत्या के लिए 41वीं नेटिव इन्फेंट्री के विद्रोही सैनिकों ने उन भारतीय सिपाहियों पर दबाव डाला, जो उस कप्तान की सुरक्षा के लिए तैनात थे।

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प्रश्न 3.
1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों की किस हद तक भूमिका थी? [2017 (Set-A, D)]
उत्तर:
1857 के घटनाक्रम के निर्धारण में धार्मिक विश्वासों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी। विभिन्न तरीकों से सैनिकों की धार्मिक भावनाएं आहत हुई थीं। सामान्य लोग भी अंग्रेज़ी सरकार को संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। उन्हें यह लग रहा था कि सरकार अंग्रेज़ी शिक्षा और पाश्चात्य संस्कृति का प्रचार-प्रसार करके भारत में ईसाइयत को बढ़ावा दे रही है।

उनका संदेह गलत भी नहीं था क्योंकि अधिकारी वर्ग ईसाई पादरियों को धर्म प्रचार की छूट और प्रोत्साहन दे रहे थे। सैनिकों और स्कूलों में धर्म परिवर्तन के लिए प्रलोभन भी दिया जा रहा था। 1850 में बने उत्तराधिकार कानून से यह संदेह विश्वास में बदल गया। इसमें धर्म बदलने वाले को पैतृक सम्पत्ति प्राप्ति का अधिकार दिया गया था।

सैनिकों को विदेशों में जाकर लड़ने के लिए भी विवश किया जाता था, जिसे वे गलत मानते थे। इसमें वे अपना धर्म भ्रष्ट मानते थे। अन्ततः इन सभी परिस्थितियों के अन्तर्गत ‘चर्बी वाले कारतूस’ तथा कुछ अन्य अफवाहों, जैसे कि ‘आटे में हड्डियों के चूरे की मिलावट इत्यादि के चलते इस विद्रोह का घटनाक्रम निर्धारित हुआ। अफवाहें तभी विश्वासों में बदल रही थीं क्योंकि उनमें संदेह की अनुगूंज थी।

प्रश्न 4.
विद्रोहियों के बीच एकता स्थापित करने के लिए क्या तरीके अपनाए गए?
उत्तर:
विद्रोहियों की सोच में सभी भारतीय सामाजिक समुदायों में एकता आवश्यक थी। विशेषतौर पर हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया गया। उनकी घोषणाओं में निम्नलिखित बातों पर जोर दिया गया-

  1. जाति व धर्म का भेद किए बिना विदेशी राज के विरुद्ध समाज के सभी समुदायों का आह्वान किया गया।
  2. अंग्रेज़ी राज से पहले मुगल काल में हिंदू-मुसलमानों के बीच रही सहअस्तित्व की भावना का बखान भी किया गया।
  3. लाभ की दृष्टि से इस युद्ध को दोनों समुदायों के लिए एक-समान बताया।
  4. बादशाह बहादुर शाह की ओर से की गई घोषणा में मुहम्मद और महावीर दोनों की दुहाई देते हुए संघर्ष में शामिल होने की अपील की गई।
  5. विद्रोह के लिए समर्थन जुटाने के लिए तीन भाषाओं हिंदी, उर्दू और फारसी में अपीलें जारी की गईं।

प्रश्न 5.
अंग्रेज़ों ने विद्रोह को कुचलने के लिए क्या कदम उठाए?
उत्तर:
विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेज़ों ने निम्नलिखित कदम उठाए
(1) गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग ने कम्पनी सरकार के समस्त ब्रिटिश साधनों को संगठित करके विद्रोह को कुचलने के लिए एक समुचित योजना बनाई।

(2) मई और जून (1857) में समस्त उत्तर भारत में मार्शल लॉ लगाया गया। साथ ही विद्रोह को कुचले जाने वाली सैनिक टुकड़ियों के अधिकारियों को विशेष अधिकार दिए गए।

(3) एक सामान्य अंग्रेज़ को भी उन भारतीयों पर मुकद्दमा चलाने व सजा देने का अधिकार था, जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था। सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अभाव में केवल मृत्यु दंड ही सजा हो सकती थी।

(4) सबसे पहले दिल्ली पर पुनः अधिकार की रणनीति अपनाई गई। केनिंग जानता था कि दिल्ली के पतन से विद्रोहियों की कमर टूट जाएगी। साथ ही देशी शासकों और ज़मींदारों का समर्थन पाने के लिए उन्हें लालच दिया गया।

(5) हिंदू-मुसलमानों में सांप्रदायिक तनाव भड़काकर विद्रोह को कमजोर करने का प्रयास किया गया। लेकिन इसमें उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
अवध में विद्रोह इतना व्यापक क्यों था? किसान, ताल्लुकदार और ज़मींदार उसमें क्यों शामिल हुए?
उत्तर:
अवध में विद्रोह अपेक्षाकृत सबसे व्यापक था। इस प्रांत में आठ डिविजन थे उन सभी में विद्रोह हुआ। यहाँ किसान व दस्तकार से लेकर ताल्लुकदार और नवाबी परिवार के सदस्यों सहित सभी लोगों ने इसमें भाग लिया। हरेक गांव से लोग विद्रोह में शामिल हुए। यहाँ विदेशी शासन के विरुद्ध यह विद्रोह लोक-प्रतिरोध का रूप धारण कर चुका था। लोग फिरंगी राज के आने से अत्यधिक आहत थे। उन्हें लग रहा था कि उनकी दुनिया लुट गई है; वो सब कुछ बिखर गया है, जिन्हें वो प्यार करते थे। वस्तुतः इसमें विभिन्न प्रकार की पीड़ाओं (A chain of grievances) ने किसानों, सिपाहियों, ताल्लुकदारों और खजकुमारों को परस्पर जोड़ दिया था। संक्षेप में, विद्रोह की व्यापकता के निम्नलिखित कारण थे

1. अवध का विलय-अवध का विलय 1856 में विद्रोह फूटने से लगभग एक वर्ष पहले हुआ था। इसे ‘कुशासन’ का आरोप लगाते हुए ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया गया था। लेकिन अवधवासियों ने इसे न्यायसंगत नहीं माना। बल्कि वे इसे डलहौज़ी का विश्वासघात मान रहे थे। 1851 में ही लॉर्ड डलहौज़ी ने अवध के बारे में कहा था कि “यह गिलास फल (cherry) एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” डलहौज़ी एक उग्र साम्राज्यवादी था।

वस्तुतः उसकी दिलचस्पी अवध की उपजाऊ जमीन को हड़पने में भी थी। अतः कुशासन तो एक बहाना था। अवधवासी यह जानते थे कि अपदस्थ नवाब वाजिद अली शाह बहुत लोकप्रिय था। लोगों की नवाब व उसके परिवार से गहरी सहानुभूति थी। जब उसे कलकत्ता से निष्कासित किया गया तो बहुत-से लोग उनके पीछे विलाप करते हुए गए।

2. ताल्लुकदारों का अपमान-ताल्लुकदारों ने विद्रोह में बढ़-चढ़कर भाग लिया। उनकी सत्ता व सम्मान को अंग्रेजी राज से जबरदस्त क्षति हुई थी। ताल्लुकदार अवध क्षेत्र में वैसे ही छोटे राजा थे जैसे बंगाल में ज़मींदार। वे छोटे महलनुमा घरों में रहते थे। अपनी-अपनी जागीर में सत्ता व जमीन पर उनका नियंत्रण था। 1856 में अवध का अधिग्रहण करते ही इन ताल्लुकदारों की सेनाएँ भंग कर दी गईं और दुर्ग भी ध्वस्त कर दिए गए।

3. भूमि छीनने की नीति-आर्थिक दृष्टि से अवध के ताल्लुकदारों की हैसियत व सत्ता को क्षति भूमि छीनने की नीति से पहुँची। 1856 ई० में अधिग्रहण के तुरंत बाद एक मुश्त बंदोबस्त (Summary Settlement of 1856) नाम से भू-राजस्व व्यवस्था लागू की गई, जो इस मान्यता पर आधारित थी कि ताल्लुकदार जमीन के वास्तविक मालिक नहीं हैं। उन्होंने जमीन पर कब्जा धोखाधड़ी व शक्ति के बल पर किया हुआ है। इस मान्यता के आधार पर ज़मीनों की जाँच की गई। ताल्लुकदारों की जमीनें उनसे लेकर किसानों को दी जाने लगीं। पहले अवध के 67% गाँव ताल्लुकदारों के पास थे और इस ब्रिटिश नीति से यह संख्या घटकर मात्र 38% रह गई।

4. किसानों में असंतोष-विद्रोह में बहुत बड़ी संख्या में किसानों ने भाग लिया। इससे अंग्रेज़ अधिकारी काफी परेशान हुए थे, क्योंकि किसानों ने अंग्रेज़ों का साथ देने की बजाय अपने पूर्व मालिकों (ताल्लुकदारों) का साथ दिया। जबकि अंग्रेजों ने उन्हें ज़मीनें भी दी थीं। इसके कई कारण थे जैसे कि अंग्रेजी राज से एक संपूर्ण ग्रामीण समाज व्यवस्था भंग हो गई थी। यदि कभी ज़मींदार किसानों से बेगार या धन वसूलता था तो बुरे वक्त में वह उनकी सहायता भी करता था। ताल्लुकदारों की छवि दयालु अभिभावकों की थी।

तीज-त्योहारों पर भी उन्हें कर्जा अथवा मदद मिल जाती थी, फसल खराब होने पर भी उनकी दया दृष्टि किसानों पर रहती थी। लेकिन अंग्रेज़ी राज की नई भू-राजस्व व्यवस्था में कोई लचीलापन नहीं था, न ही उसके निर्धारण में और न ही वसूली में। मुसीबत के समय यह नई सरकार कृषकों से कोई सहानुभूति की भावना नहीं रखती थी। संक्षेप में कहा जा सकता है कि अवध में विद्रोह विभिन्न सामाजिक समूहों का एक सामूहिक कृत्य था। किसान, ज़मींदार व ताल्लुकदारों ने इसमें बड़े स्तर पर सिपाहियों का साथ दिया क्योंकि अंग्रेजों के खिलाफ इन सबका दुःख-दर्द एक हो गया था।

प्रश्न 7.
विद्रोही क्या चाहते थे? विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि में कितना फर्क था?
उत्तर:
विद्रोही नेताओं की घोषणाओं, सिपाहियों की कुछ अर्जियों तथा नेताओं के कुछ पत्रों से हमें विद्रोहियों की सोच के बारे में कुछ जानकारी मिलती है, जो इस प्रकार है

(1) वे अंग्रेज़ी सत्ता को उत्पीड़क, निरंकुश और षड्यंत्रकारी मान रहे थे। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश राज के विरुद्ध सभी भारतीय सामाजिक समूहों को एकजुट होने का आह्वान किया। वे इस राज से सम्बन्धित प्रत्येक चीज को खारिज कर रहे थे।

(2) विद्रोहियों की घोषणाओं से ऐसा लगता है कि वे भारत के सभी सामाजिक समूहों में एकता चाहते थे। विशेष तौर पर उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया। लाभ की दृष्टि से युद्ध को दोनों समुदायों के लिए एक-समान बताया। बहादुरशाह जफ़र की घोषणा में मुहम्मद और महावीर दोनों की दुहाई के साथ संघर्ष में भाग लेने की अपील की गई।

(3) वे वैकल्पिक सत्ता के रूप में अंग्रेज़ों का राज समाप्त करके 18वीं सदी से पहले की मुगलकालीन व्यवस्था की ओर ही वापिस लौटना चाहते थे।

विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि में अंतर-उपरोक्त बातों से यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि सभी विद्रोहियों की सोच बिल्कुल एक जैसी थी। वास्तव में अलग-अलग सामाजिक समूहों की दृष्टि में अंतर था, उदाहरण के लिए

(1) सैनिक चाहते थे कि उन्हें पर्याप्त वेतन, पदोन्नति तथा अन्य सुविधाएं यूरोपीय सिपाहियों की तरह ही प्राप्त हों। वे अपने आत्म-सम्मान व भावनाओं की भी रक्षा चाहते थे। वे अंग्रेजों की विदेशी सत्ता को खत्म करके अपने पुराने शासकों की सत्ता की पुनः स्थापना चाहते थे।

(2) अपदस्थ शासक विद्रोह के नेता थे। परन्तु इनमें से अधिकांश अपनी रजवाड़ा शाही को ही पुनः स्थापित करने के लिए लड़ रहे थे। इसलिए उन्होंने पुराने ढर्रे पर ही दरबार लगाए और दरबारी नियुक्तियाँ कीं।

(3) ताल्लुकदार अथवा ज़मींदार अपनी जमींदारियों और सामाजिक हैसियत के लिए संघर्ष में कूदे थे। वे अपनी जमीनों को पुनः प्राप्त करना चाहते थे जो अंग्रेज़ों ने उनसे छीनकर किसानों को दे दी थीं।

(4) किसान अंग्रेज़ों की भू-राजस्व व्यवस्था से परेशान था। इसमें कोई लचीलापन नहीं था। राजस्व का निर्धारण बहुत ऊँची दर पर किया जाता था और उसकी वसूली ‘डण्डे’ के साथ की जाती थी। फसल खराब होने पर भी सरकार की ओर से कोई दयाभाव नहीं था। इसी कारण वह साहकारी के चंगल में फँसता था। यही कारण था कि अंग्रेजी राज के साथ-साथ वह अन्य उत्पीडकों को भी खत्म करना चाहता था। उदाहरण के लिए उन्होंने कई स्थानों पर सूदखोरों के बहीखाते जला दिए और उनके घरों में तोड़-फोड़ की।

उपरोक्त समूहों के अतिरिक्त दस्तकार भी अंग्रेज़ों की नीतियों से बर्बाद हुए। वे भी विद्रोहियों के साथ आ गए थे। बहुत-से रूढ़िवादी विचारों के लोग सामाजिक व धार्मिक कारणों से भी अंग्रेज़ी व्यवस्था को खत्म करना चाहते थे।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 11 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

प्रश्न 8.
1857 के विद्रोह के बारे में चित्रों से क्या पता चलता है? इतिहासकार इन चित्रों का किस तरह विश्लेषण करते हैं?
उत्तर:
चित्र भी इतिहास लिखने के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत होते हैं। 1857 के विद्रोह से सम्बन्धित कुछ चित्र, पेंसिल से बने रेखाचित्र, उत्कीर्ण चित्र (Etchings), पोस्टर, कार्टून इत्यादि उपलब्ध हैं। कुछ चित्रों और कार्टूनों के बाजार-प्रिंट भी मिलते हैं। किसी घटना की छवि बनाने में ऐसे चित्रों की विशेष भूमिका होती है। चित्र विचारों और भावनाओं के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं को भी व्यक्त करते हैं। 1857 के चित्रों के विश्लेषण से पता चलता है कि जो चित्र इंग्लैण्ड में बने उन्होंने ब्रिटिश जनता में अलग छवि बनाई।

इनसे वहाँ के लोग उत्तेजित हुए और उन्होंने विद्रोहियों को निर्दयतापूर्वक कुचल डालने की मांग की। दूसरी ओर भारत में छपने वाले चित्रों, संबंधित फिल्मों तथा कला व साहित्य के अन्य रूपों में उन्हीं विद्रोहियों की अलग छवि को जन्म दिया। इस छवि ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन को पोषित किया। इंग्लैण्ड और भारत में चित्रों से बनने वाली छवियों को हम निम्नलिखित कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं

A. अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए चित्र-इन चित्रों को देखकर विविध भावनाएँ और प्रतिक्रियाएँ पैदा होती हैं।

(1) टॉमस जोन्स बार्कर द्वारा 1859 में बनाए गए चित्र ‘द रिलीफ ऑफ लखनऊ’ में अंग्रेज़ नायकों (कैम्पबेल, औट्रम व हैवलॉक) की छवि उभरती है। इन नायकों ने लखनऊ में विद्रोहियों को खदेड़कर अंग्रेज़ों को सुरक्षित बचा लिया था।
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(2) बहुत-से समकालीन चित्रों ने ब्रिटिश नागरिकों में प्रतिशोध की भावना को बढ़ावा मिला। उदाहरण के लिए जोसेफ़ नोएल पेटन का चित्र ‘इन मेमोरियम’ (स्मृति में) को देखने से दर्शक के मन में बेचैनी और क्रोध की भावना सहज रूप से उभरती है। दूसरी ओर ‘मिस व्हीलर’ का तमंचा वाले चित्र से ‘सम्मान की रक्षा का संघर्ष’ नज़र आता है।
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(3) दमन और प्रतिशोध की भावना को बढ़ावा देने वाले बहुत-से चित्र मिलते हैं। 1857 के पन्च नामक पत्र में ‘जस्टिस’ नामक चित्र में एक गौरी महिला को बदले की भावना से तड़पते हुए दिखाया गया है। विद्रोहियों को तोप से उड़ाते हुए बहुत-से चित्र बनाए गए हैं। इन चित्रों को देखकर ब्रिटेन के आम नागरिक प्रतिशोध को उचित ठहराने लगे। केनिंग की ‘दयाभाव’ का मजाक उड़ाने लगे। ‘द क्लिमेंसी ऑफ केनिंग’ ऐसा ही एक कार्टून है।
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B. भारतीयों द्वारा बनाए गए चित्र-यदि हम भारत में 1857 में जुड़ी फिल्मों और चित्रों को देखते हैं तो हमारे मन में अलग प्रतिक्रिया होती है। रानी लक्ष्मीबाई का नाम लेते ही मन में वीरता, अन्याय और विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष की साकार प्रतिमा की छवि बनती है। ऐसी छवि बनाने में गीतों, कविताओं, फिल्मों एवं चित्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। लक्ष्मीबाई के चित्र प्रायः घोड़े पर सवार हाथ में तलवार लिए वीरांगना के बनाए गए।

प्रश्न 9.
एक चित्र और एक लिखित पाठ को चुनकर किन्हीं दो स्रोतों की पड़ताल कीजिए और इस बारे में चर्चा कीजिए कि उनसे विजेताओं और पराजितों के दृष्टिकोण के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
हम पाठ्यपुस्तक में दिए गए चित्रों में से चित्र को लेते हैं। इस चित्र में विजेताओं का दृष्टिकोण झलकता है। इसमें विद्रोहियों को दानवों तथा अंग्रेज़ औरत को वीरांगना के रूप में दर्शाया गया है। चित्र का शीर्षक ‘मिस व्हीलर’ है। उसे कानपुर में हाथ में तमंचा लिए हुए अपनी इज्जत की रक्षा करती हुई दृढ़तापूर्वक खड़ी दिखाया गया है। अकेली औरत पर किस तरह से विद्रोही तलवारों और बंदूकों से आक्रमण कर रहे हैं; जैसे वे मानव नहीं दानव हों।

चित्र में धरती पर बाइबल पड़ी है जो इस संघर्ष को ‘ईसाइयत की रक्षा के संघर्ष के रूप में व्यक्त करती है। यह चित्र उस हत्याकांड पर आधारित है जब विद्रोहियों ने नाना साहिब के न चाहते हुए भी अंग्रेज़ औरतों और बच्चों को मौत के घाट उतार दिया था, लेकिन यह हत्याकांड तब हुआ जब विद्रोहियों ने बनारस में अंग्रेजों द्वारा किए गए हत्याकाण्डों का समाचार सुना। वे अपने प्रतिशोध को रोक नहीं पाए।

(अन्तिम भेंट में हनवंत सिंह ने उस अंग्रेज़ अफसर से कहा था, “साहिब, आपके मुल्क के लोग हमारे देश में आए और उन्होंने हमारे राजाओं को खदेड़ दिया। आप अधिकारियों को भेजकर जिले-जिले में जागीरों के स्वामित्व की जाँच करवाते हैं। एक ही झटके में आपने मेरे पूर्वजों की जमीन मुझसे छीन ली।

मैं चुप रहा। फिर अचानक आपका बुरा समय प्रारंभ हो गया। यहाँ के लोग आपके विरुद्ध उठ खड़े हुए। तब आप मेरे पास आए, जिसे आपने बरबाद कर दिया था। मैंने आपकी जान बचाई है। किंतु, अब मैं अपने सिपाहियों को लेकर लखनऊ जा रहा हूँ ताकि आपको देश से खदेड़ सऊँ।” पाठयपस्तक में स्रोत नं0 4) स्पष्ट है कि विजेताओं के दृष्टिकोण से बने चित्र में पराजितों के दृष्टिकोण के लिए कोई स्थान नहीं था।

अब हम Box में दिए गए स्रोत को लेंगे। यह एक लिखित रिपोर्ट का भाग है। इसमें ताल्लुकदारों यानी पराजितों के दृष्टिकोण का पता चलता है। विवरण में काला कांकर के राजा हनवंत सिंह की उस अंग्रेज़ अधिकारी से बातचीत के अंश हैं जो 1857 में जान बचाने के लिए हनवंत सिंह के पास शरण लेता है। हनवंत सिंह उसकी जान बचाता है और साथ ही अंग्रेजों को देश से निकालने के लिए लखनऊ जाकर लड़ने का निश्चय भी दोहराता है। इस विवरण को पढ़कर हमारे मन में विद्रोहियों की छवि वह नहीं उभरती जो

‘मिस व्हीलर’ नामक चित्र में उभरती है। यहाँ ताल्लुकदार हनवंत सिंह एक विद्रोही नेता है जो एक ओर शरण में आए एक अंग्रेज़ की जान बचाता है तो दूसरी ओर अपने सिपाहियों को लेकर युद्ध क्षेत्र में उतरता है। यहाँ विद्रोही बर्बर, नृशंस और दानव नहीं हैं। वे एक ‘वीर इंसान’ हैं।

परियोजना कार्य

प्रश्न 10.
1857 के विद्रोही नेताओं में से किसी एक की जीवनी पढ़ें। देखिए कि उसे लिखने के लिए जीवनीकार ने किन स्रोतों का उपयोग किया है? क्या उनमें सरकारी रिपोर्टों, अखबारी खबरों, क्षेत्रीय भाषाओं की कहानियों, चित्रों और किसी अन्य चीज़ का इस्तेमाल किया गया है? क्या सभी स्रोत एक ही बात कहते हैं या उनके बीच फर्क दिखाई देते हैं? अपने निष्कर्षों पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी पुस्तकालय से या इंटरनेट पर विद्रोही नेताओं जैसे कि बहादुरशाह जफर, महारानी लक्ष्मीबाई, तांत्या तोपे, कुंवर सिंह, राव तुलाराम इत्यादि प्रमुख नेताओं की जीवनी पढ़ें। पढ़ते समय विद्यार्थी यह विवरण तैयार करें कि लेखक ने किन स्रोतों के आधार पर पुस्तक लिखी है। सरकारी रिपोर्टों का उपयोग कितना है, देशी भाषा, स्थानीय कोई भी भाषा या अंग्रेज़ी समाचार-पत्र, पत्रिकाओं से कितने और कैसे तथ्य लिए गए हैं। पेंटिंग, मूर्ति, कार्टून, गीत, रागनी इत्यादि का कितना प्रयोग है। लेखक किस दृष्टि से लिख रहा है। वह कितना निष्पक्ष है। इसमें यह भी नोट करें कि इन सम्बन्धित साक्ष्यों में आपस में कितना अंतर है। सारी सूचनाओं के आधार पर अपने प्राध्यापक के निर्देशन में एक रिपोर्ट तैयार करें।

प्रश्न 11.
1857 पर बनी कोई फिल्म देखिए और लिखिए कि उसमें विद्रोह को किस तरह दर्शाया गया है। उसमें अंग्रेज़ों, विद्रोहियों और अंग्रेज़ों के भारतीय वफादारों को किस तरह दिखाया गया है? फिल्म किसानों, नगरवासियों, आदिवासियों, जमीदारों और ताल्लकदारों के बारे में क्या कहती है? फिल्म किस तरह की प्रतिक्रिया को जन्म देना चाहती है?
उत्तर:
1857 के विद्रोह पर कई फिल्में बनी हैं। परन्तु उनमें सर्वाधिक चर्चित ‘मंगल पांडे’ है जिसमें आमिर खान ने छाप छोड़ने वाली भूमिका निभाई है। इस फिल्म को देखा जा सकता है। इसमें भारतीय सिपाहियों की दिनचर्या, असंतोष, धर्म के प्रति उनमें संवेदनशीलता, जातीय सम्बन्धों की झलक, भारत के विभिन्न समूहों (किसान, आदिवासी, जमींदार, ताल्लुकदार) आदि की स्थिति इत्यादि को फिल्माया गया है।

फिल्म देखकर मन पर क्या प्रतिक्रिया होती है। इस पर विचार करें। उदाहरण के लिए फिल्म में जिस प्रकार ‘चर्बी वाले कारतूस’ बनाते दिखाया गया है, इस पर विचार करें कि क्या यह ‘ऐतिहासिक सत्य है या कल्पनात्मक अभिव्यक्ति। यदि यह कल्पनात्मक अभिव्यक्ति है तो दर्शक पर क्या प्रभाव डालती है। फिर हम जान पाएँगे कि छवियाँ कैसे निर्मित होती हैं।

औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य HBSE 12th Class History Notes

→ फिरंगी-फिरंगी फारसी भाषा का शब्द है जो सम्भवतः फ्रैंक (जिससे फ्रांस नाम पड़ा है) से निकला है। हिंदी और उर्दू में पश्चिमी लोगों का मजाक उड़ाने के लिए कभी-कभी इसका प्रयोग अपमानजनक दृष्टि से भी किया जाता था।

→ रेजीडेंट-ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि को रेजीडेंट कहा जाता था। उसे ऐसे राज्यों में नियुक्त किया जाता था जो अंग्रेजों के प्रत्यक्ष शासन में नहीं था, लेकिन आश्रित राज्य होता था।

→ सहरी-रोजे (रमजान महीने के व्रत) के दिनों में सूरज निकलने से पहले का भोजन।

→ गवर्नर-जनरल-भारत में ब्रिटिश सरकार का मुख्य प्रशासक’ गवर्नर-जनरल कहलाता था।

→ वायसराय-1858 के बाद गवर्नर-जनरल को भारतीय रियासतों के लिए वायसराय कहा जाने लगा। वायसराय का अर्थ था ‘प्रतिनिधि’ यानी इंग्लैण्ड के ‘ताज’ का प्रतिनिधि।

→ बादशाह-मुगल शासक बादशाह कहलाते थे। इसका मौलिक शब्द है ‘पादशाह’ जिसका अर्थ है-‘शाहों का शाह’ पादशाह चगती तुर्की का शब्द है। फारसी में यह बादशाह बन गया।

→ बैरक-सैनिकों का सैनिक छावनी में निवास स्थान।

→ छावनी सेना का स्टेशन जिसमें बड़ी संख्या में सैनिक टुकड़ियाँ रहती थीं।

→ इस अध्याय में हम 1857 के जन-विद्रोह का अध्ययन करेंगे। सबसे अधिक गहन विद्रोह अवध क्षेत्र में हुआ। इसलिए इस क्षेत्र में हुए विद्रोह की गहन छान-बीन करेंगे। साथ ही इसके सामान्य कारणों को भी पढ़ेंगे। विद्रोही क्या सोचते थे और कैसे वे अपनी योजनाएँ बनाते थे; उनके नेता कैसे थे इत्यादि पहलुओं पर भी चर्चा करेंगे। दमन और फिर अंततः इस विद्रोह की छवियाँ (चित्रों, रेखाचित्रों व कार्टून इत्यादि के माध्यम से) कैसे निर्मित हुई, इस पर भी विचार करेंगे।

→ 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में विद्रोह शुरू हुआ। सिपाहियों ने ‘चर्बी वाले कारतूसों’ का प्रयोग करने से इंकार कर दिया। 85 भारतीय सिपाहियों को 8 से लेकर 10 वर्ष तक की कठोर सज़ा दी गई। उसी दिन दोपहर तक अन्य सैनिकों ने भी बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। शीघ्र ही यह समाचार मेरठ शहर और आस-पास के देहात में भी फैल गया और कुछ लोग भी सिपाहियों से आ मिले।

→ 11 मई को सूर्योदय से पूर्व ही मेरठ के लगभग दो हजार जाँबाज़ सिपाही दिल्ली में प्रवेश कर चुके थे। उन्होंने कर्नल रिप्ले सहित कई अंग्रेज़ों की हत्या कर दी। फिर सिपाही लालकिले पहुँचे। उन्होंने बहादुर शाह जफ़र से नेतृत्व के लिए अनुरोध किया। वह कहने मात्र के लिए ही बादशाह था। वास्तव में वह एक बूढ़ा, शक्तिहीन, अंग्रेजों का पेंशनर था। उसने संकोच और अनिच्छा के साथ सिपाहियों के आग्रह को स्वीकार कर लिया। उसने स्वयं को विद्रोह का नेता घोषित कर दिया। इससे सिपाहियों के विद्रोह को राजनीतिक वैधता मिल गई।

→ सैनिकों के विद्रोह को देखकर जनसामान्य भी कुछ भयरहित हो गए। लोग अंग्रेज़ी शासन के प्रति नफरत से भरे हुए थे। वे लाठी, दरांती, तलवार, भाला तथा देशी बंदूकों जैसे अपने परंपरागत हथियारों के साथ विद्रोह में कूद पड़े। इनमें किसान, कारीगर, दुकानदार व नौकरी पेशा तथा धर्माचार्य इत्यादि सभी लोग शामिल थे। आम लोगों के आक्रोश की अभिव्यक्ति स्थानीय शासकों के खिलाफ भी हुई। बरेली, कानपुर व लखनऊ जैसे बड़े शहरों में अमीरों व साहूकारों पर भी हमले हुए।

→ लोगों ने इन्हें उत्पीड़क और अंग्रेज़ों का पिठू माना। इसके अतिरिक्त विद्रोह-क्षेत्रों में किसानों ने भू-राजस्व देने से मना कर दिया था। सिपाहियों का यह विद्रोह एक व्यापक ‘जन-विद्रोह’ बन गया। एक अनुमान के अनुसार, इसके दौरान अवध में डेढ़ लाख और बिहार में एक लाख नागरिक शहीद हुए थे।
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यह एक व्यापक विद्रोह था। जून के पहले सप्ताह तक बरेली, लखनऊ, अलीगढ़, कानपुर, इलाहाबाद, आगरा, मेरठ, बनारस जैसे बड़े-बड़े नगर स्वतंत्र हो चुके थे। यह गाँवों और कस्बों में फैल चुका था। हरियाणा व मध्य भारत में भी यह जबरदस्त विद्रोह था।

→ विभिन्न छावनियों के बीच विद्रोही सिपाहियों में भी तालमेल के कुछ सुराग मिलते हैं। इनके बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान था। ‘चर्बी वाले कारतूसों’ की बात सभी छावनियों में पहुंच गई थी। ‘धर्म की रक्षा’ को लेकर चिंता और आक्रोश भी सभी जगह था। सिपाही बगावत के मनसूबे गढ़ रहे थे। इसका एक और उदाहरण यह है कि जब मई की शुरूआत में सातवीं अवध इरेग्युलर कैवेलरी (7th Awadh Irregular Cavalry) ने नए कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया तो उन्होंने 48वीं नेटिव इन्फेंट्री को लिखा : “हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए यह फैसला लिया है और 48वीं नेटिव इन्फेंट्री के हुक्म का इंतजार कर

→ सिपाहियों की बैठकों के भी कुछ सुराग मिलते हैं। हालांकि बैठकों में वो कैसी योजनाएँ बनाते थे, उसके प्रमाण नहीं हैं। फिर भी कुछ अंदाजे लगाए जाते हैं कि इन सिपाहियों का दुःख-दर्द एक-जैसा था। अधिकांश उच्च-जाति से थे और उनकी जीवन-शैली भी मिलती-जुलती थी। स्वाभाविक है कि वे अपने भविष्य के बारे में ही निर्णय लेते होंगे। इनके नेता मुख्यतः अपदस्थ शासक और ज़मींदार थे। विभिन्न स्थानों पर इसके स्थानीय नेता भी उभर आए थे। इनमें से कुछ तो किसान नेता थे।

→ यह विद्रोह कुछ अफवाहों और भविष्यवाणियों से भड़का था। लेकिन अफवाहें तभी फैलती हैं जब उनमें लोगों के मन में गहरे बैठे भय और संदेह की अनुगूंज सुनाई देती है। इन अफ़वाहों में लोग विश्वास इसलिए कर रहे थे क्योंकि इनके पीछे बहुत-से ठोस कारण थे। ये कारण सैनिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक थे। लोग अंग्रेज़ों की नई व्यवस्था को भारतीय दमनकारी, परायी और हृदयहीन मान रहे थे। उनकी परंपरागत दुनिया उजड़ रही थी जिससे वे परेशान हुए। अतः इन बहुत-से कारणों के समायोजन से लोग विद्रोही बने।

→ अवध प्रांत में आठ डिविजन थे, उन सभी में विद्रोह हुआ। यहाँ किसान व दस्तकार से लेकर ताल्लुकदार और नवाबी परिवार के सदस्यों सहित सभी वर्गों के लोगों ने वीरतापूर्वक संघर्ष किया। हरेक गाँव से लोग विद्रोह में शामिल हुए। ताल्लुकदारों ने उन सभी गाँवों पर पुनः अपना अधिकार कर लिया जो अवध विलय से पहले उनके पास थे। किसान अपने परंपरागत मालिकों (ताल्लुकदारों) के साथ मिलकर लड़ाई में शामिल हुए। अवध की राजधानी लखनऊ विद्रोह का केंद्र-बिंदु बनी। फिरंगी राज के चिहनों को मिटा दिया गया। टेलीग्राफ लाइनों को तहस-नहस कर दिया गया। यहाँ घटनाओं का क्रम कुछ इस तरह चला। 4 जून, 1857 को विद्रोह प्रारंभ हुआ। विद्रोहियों ने ब्रिटिश रैजीडेंसी को घेर लिया।

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1 जुलाई को अवध का चीफ कमीश्नर हैनरी लारेंस (Henery Lawrence) लड़ता हुआ मारा गया। 1858 के शुरू में विद्रोहियों की संख्या लखनऊ शहर में लगभग 2 लाख की थी। यहाँ संघर्ष सबसे लंबा चला। अन्य स्थानों की अपेक्षा विदेशी शासन के विरुद्ध लोक-प्रतिरोध (Popular Resistance) अवध में अधिक था। अवध के विलय से एक भावनात्मक उथल-पुथल शुरू हो गई। एक अन्य अखबार ने लिखा : “देह (शरीर) से जान जा चुकी थी। शहर की काया बेजान थी….। कोई सड़क, कोई बाज़ार और कोई घर ऐसा न था जहाँ से जान-ए आलम से बिछुड़ने पर विलाप का शोर न गूंज रहा हो।” लोगों के दुःख और असंतोष की अभिव्यक्ति लोकगीतों में भी हुई।

→ संक्षेप में कहा जा सकता है कि अवध में भारी विद्रोह देहात व शहरी लोगों, सिपाहियों तथा ताल्लुकदारों का एक सामूहिक कृत्य (Collective Act) था। बहुत-से सैनिक कारणों से तो सैनिक ग्रस्त थे ही वे अपने परिवार व गाँव के दुःख-दर्द से भी आहत थे।
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→ विद्रोहियों की घोषणाओं में ब्रिटिश राज के विरुद्ध सभी भारतीय सामाजिक समूहों को एकजुट होने का आह्वान किया गया। ब्रिटिश राज को एक विदेशी शासन के रूप में सर्वाधिक उत्पीड़क व शोषणकारी माना गया। इसलिए इससे संबंधित प्रत्येक चीज़ को पूर्ण तौर पर खारिज किया जा रहा था। अंग्रेजी सत्ता को उत्पीड़क एवं निरंकुश के साथ

→ साथ ही, धर्म, सम्मान व रोजगार के लिए लड़ने का आह्वान किया गया। इस लड़ाई को एक ‘व्यापक सार्वजनिक भलाई’ घोषित किया। विद्रोह के दौरान विद्रोहियों ने सूदखोरों के बही-खाते भी जला दिये थे और उनके घरों में तोड़-फोड़ व आगजनी की थी। शहरी संभ्रांत लोगों को जान बूझकर अपमानित भी किया। वे उन्हें अंग्रेज़ों के वफादार और उत्पीड़क मानते थे।

→ विद्रोही भारत के सभी सामाजिक समुदायों में एकता चाहते थे। विशेषतौर पर हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया गया। उनकी घोषणाओं में जाति व धर्म का भेद किए बिना विदेशी राज के विरुद्ध समाज के सभी समुदायों का आह्वान किया गया। अंग्रेज़ी राज से पहले मुगल काल में हिंदू-मुसलमानों के बीच रही सहअस्तित्व की भावना का उल्लेख भी किया गया। लाभ की दृष्टि से इस युद्ध को दोनों समुदायों के लिए एक समान बताया।

→ ध्यान रहे विद्रोह के चलते ब्रिटिश अधिकारियों ने हिंदू और मुसलमानों में धर्म के आधार पर फूट डलवाने का भरसक प्रयास किए थे, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। उदाहरण के लिए बरेली में विद्रोह के नेता खानबहादुर के विरुद्ध हिंदू प्रजा को भड़काने के लिए अंग्रेज़ अधिकारी जेम्स औट्रम (James Outram) द्वारा दिया गया धन का लालच भी कोई काम नहीं आया था। अंततः हारकर उसे 50,000 रुपये वापस ख़जाने में जमा करवाने पड़े जो इस उद्देश्य के लिए निकाले गए थे।

→ विद्रोह का दमन करने के लिए मई और जून (1857) में समस्त उत्तर भारत में मार्शल लॉ लगाया गया। साथ ही विद्रोह को कुचले जाने वाली सैनिक टुकड़ियों के अधिकारियों को विशेष अधिकार दिए गए। एक सामान्य अंग्रेज़ को भी उन भारतीयों पर मुकद्दमा चलाने व सजा देने का अधिकार था, जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था। सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अभाव में केवल मृत्यु दंड ही सजा हो सकती थी।

→ साथ ही सबसे पहले दिल्ली पर पुनः अधिकार की रणनीति अपनाई गई। केनिंग जानता जन-विद्रोह और राज (1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान) था कि दिल्ली के पतन से विद्रोहियों की कमर टूट जाएगी। हिंदू-मुसलमानों में सांप्रदायिक तनाव भड़काकर विद्रोह को कमजोर करने का प्रयास भी किया गया। लेकिन इसमें उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी।

→ इस अध्याय के अंतिम भाग में उन छवियों को समझने का प्रयास किया गया है जो अंग्रेज़ों व भारतीयों में निर्मित हुईं। इन छवियों में शामिल हैं-विद्रोह से संबंधित अनेक चित्र, पेंसिल निर्मित रेखाचित्र, उत्कीर्ण चित्र (Etchings), पोस्टर, के उपलब्ध बाजार-प्रिंट इत्यादि। साथ में हम जान पाएंगे कि इतिहासकार ऐसे स्रोतों का कैसे उपयोग करते हैं।

समय-रेखा

1.1801 ई०वेलेजली द्वारा अवध में सहायक संधि लागू की गई
2.13 फरवरी, 1856अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय
3.10 मई, 1857मेरठ में सैनिकों द्वारा विद्रोह
4.11 मई, 1857विद्रोही सेना का मेरठ से दिल्ली पहुँचना
5.12 मई , 1857बहादुर शाह ज़फर द्वारा विद्रोहियों का नेतृत्व स्वीकार करना
6.30 मई, 1857लखनऊ में विद्रोह
7.4 जून, 1857अवध में सेना में विद्रोह
8.10 जून, 1857सतारा में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध व्रिदोह
9.30 जून, 1857चिनहाट के युद्ध में अंग्रेज़ों की हार
10.जुलाई, 1858युद्ध में शाह मल की मृत्यु
11.20 सितंबर, 1857ब्रिटिश सेना का विजयी होकर दिल्ली में प्रवेश
12.25 सितंबर, 1857ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियाँ हैवलॉक व ऑट्रम के नेतृत्व में लखनऊ पहुँचीं रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई
13.17 जून, 1858वेलेजली द्वारा अवध में सहायक संधि लागू की गई

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HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. ईस्ट इंडिया कंपनी को ब्रिटेन के राजा से बंबई मिला
(A) 1661 ई० में
(B) 1639 ई० में
(C) 1690 ई० में
(D) 1680 ई० में
उत्तर:
(A) 1661 ई० में

2. सिविल लाइंस में बसाया गया
(A) राजाओं को
(B) कलर्कों को
(C) गोरों को
(D) गरीबों को
उत्तर:
(C) गोरों को

3. सिक्किम के राजा से दार्जीलिंग छीना गया
(A) 1818 ई० में
(B) 1835 ई० में
(C) 1850 ई० में
(D) 1857 ई० में
उत्तर:
(B) 1835 ई० में

4. हिल स्टेशनों के विकास का उद्देश्य था
(A) सैनिकों को ठहराने के लिए
(B) सीमा की निगरानी करने के लिए
(C) शत्रु पर आक्रमण के लिए
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. वायसरॉय जॉन लॉरेंस ने अपनी कौंसिल शिमला में स्थानांतरित की
(A) 1840 ई० में
(B) 1850 ई० में
(C) 1860 ई० में
(D) 1864 ई० में
उत्तर:
(D) 1864 ई० में

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6. कलकत्ता में फँस की झोंपड़ियों को अवैध घोषित किया गया
(A) 1800 ई० में
(B) 1815 ई० में
(C) 1836 ई० में
(D) 1854 ई० में
उत्तर:
(C) 1836 ई० में

7. बंबई में टाउन हॉल का निर्माण हुआ
(A) 1833 ई० में
(B) 1855 ई० में
(C) 1857 ई० में
(D) 1866 ई० में
उत्तर:
(A) 1833 ई० में

8. स्वेज नहर को खोला गया
(A) 1869 ई० में
(B) 1879 ई० में
(C) 1889 ई० में
(D) 1899 ई० में
उत्तर:
(A) 1869 ई० में

9. औपनिवेशिक भारत की वाणिज्यिक राजधानी थी
(A) दिल्ली
(B) कलकत्ता
(C) मद्रास
(D) बंबई
उत्तर:
(D) बंबई

10. मद्रास में औपनिवेशिक काल में अधिकतर इमारतें किस शैली में बनीं?
(A) गुजराती शैली में
(B) इंडो-सारासेनिक शैली में
(C) नव-गॉथिक शैली में
(D) नियोक्लासिक शैली में
उत्तर:
(B) इंडो-सारासेनिक शैली में

11. ताजमहल होटल व गेट वे ऑफ इंडिया की स्थापत्य शैली है
(A) परंपरागत गुजराती शैली
(B) मुगलकालीन शैली
(C) इंडो सारासेनिक शैली
(D) नव-गॉथिक शैली
उत्तर:
(A) परंपरागत गुजराती शैली

12. मद्रास हार्बर का निर्माण पूरा हुआ
(A) 1857 ई० में
(B) 1870 ई० में
(C) 1881 ई० में
(D) 1891 ई० में
उत्तर:
(C) 1881 ई० में

13. अंग्रेज़ों द्वारा कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई
(A) 1700 ई० में
(B) 1773 ई० में
(C) 1784 ई० में
(D) 1800 ई० में
उत्तर:
(C) 1784 ई० में

14. औपनिवेशिक सरकार मानचित्र तैयार करवाती थी
(A) शहरों के विकास की योजना के लिए
(B) सत्ता नियंत्रण के लिए
(C) व्यवसायों के विकास के लिए
(D) उपर्युक्त सभी के लिए
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी के लिए

15. 18वीं शताब्दी के पतनोन्मुख नगर था
(A) सूरत
(B) ढाका
(C) मछलीपट्नम
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

16. रेलवे आगमन से नगर अस्तित्व में आया
(A) जमालपुर
(B) बरेली
(C) वाल्टेयर
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

17. अंग्रेजों द्वारा फोर्ट विलियम का निर्माण करवाया गया
(A) कलकत्ता में
(B) दिल्ली में
(C) बंबई में
(D) मद्रास में
उत्तर:
(A) कलकत्ता में

18. ब्रिटिश काल में प्रथम पर्वतीय स्थल कौन-सा बना?
(A) शिमला
(B) दार्जीलिंग
(C) नैनीताल
(D) मनाली
उत्तर:
(A) शिमला

19. ‘गेट वे ऑफ इंडिया’ का निर्माण किसके स्वागत के लिए हुआ?
(A) जॉर्ज पंचम और उनकी पत्नी
(B) जमशेद जी टाटा
(C) प्रेमचन्द रायचन्द
(D) लॉर्ड डलहौजी
उत्तर:
(A) जॉर्ज पंचम और उनकी पत्नी

20. औपनिवेशिक काल में किस शहर को भारत का सरताज कहा जाता था?
(A) दिल्ली को
(B) कलकत्ता को
(C) मद्रास को
(D) बंबई को
उत्तर:
(D) बंबई को

21. तेलुगू कोमाटी से अभिप्राय था
(A) बुनकर समुदाय
(B) व्यावसायिक समुदाय
(C) अधिकारीगण
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) व्यावसायिक समुदाय

22. जनगणना के आँकड़ों को भ्रामक माना जाता है क्योंकि
(A) लोग प्रायः अपनी बीमारी के बारे में सही नहीं बताते
(B) कुछ लोग ऊँची हैसियत का झूठा दावा करते हैं
(C) घर की औरतों के बारे में जानकारी देना अच्छा नहीं मानते
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

23. अंग्रेज़ों की नजर में ‘ब्लैक टाउन’ केंद्र थे
(A) गदंगी के
(B) बीमारियों के
(C) अराजकता के
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

24. मुगलकाल में मदुरै और कांचीपुरम प्रसिद्ध थे
(A) व्यापार के लिए
(B) त्योहारों के लिए
(C) मंदिरों के लिए
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

25. औपनिवेशिक काल में कानपुर प्रसिद्ध था
(A) स्टील उत्पादन के लिए
(B) चीनी मिट्टी के बर्तनों के लिए
(C) सूती, ऊनी व चमड़े की वस्तुओं के लिए
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) सूती, ऊनी व चमड़े की वस्तुओं के लिए

26. ‘ब्लैक टाउन’ में रहते थे
(A) गोरे लोग
(B) भारतीय लोग
(C) सैनिक अधिकारी,
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) भारतीय लोग

27. शिमला को राजधानी बनाया
(A) लॉर्ड वेलेज़्ली
(B) जॉन लॉरेंस
(C) लॉर्ड डलहौजी
(D) लॉर्ड कैनिंग
उत्तर:
(B) जॉन लॉरेंस

28. मुगलकाल में राजधानी शहर था
(A) दिल्ली
(B) लाहौर
(C) आगरा
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

29. दक्षिणी भारत का प्रमुख नगर था
(A) मदुरै
(B) कांचीपुरम
(C) हम्पी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

30. विक्टोरिया टर्मीनस बना है
(A) गुजराती शैली में
(B) नव-गॉथिक शैली में
(C) इंडो सारासेनिक शैली में
(D) नव शास्त्रीय शैली में
उत्तर:
(B) नव-गॉथिक शैली में

31. औपनिवेशिक काल में भारत पश्चिमी तट पर शहर विकसित हुआ
(A) बंबई
(B) मद्रास
(C) कलकत्ता
(D) मदुरै
उत्तर:
(A) बंबई

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32. अंग्रेज़ी राज के दौरान विकसित हुए शहरों को कहा गया
(A) अंग्रेज़ी शहर
(B) औपनिवेशिक शहर
(C) मुगलकालीन शहर
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) औपनिवेशिक शहर

33. फ्रांसीसियों ने किस स्थान को अपना व्यापारिक केन्द्र बनाया था?
(A) कलकत्ता
(B) मद्रास
(C) गोवा
(D) पांडिचेरी
उत्तर:
(D) पांडिचेरी

34. भारत में पहली रेल लाइन कब बिछाई गई?
(A) 1850 ई० में
(B) 1853 ई० में
(C) 1857 ई० में
(D) 1819 ई० में
उत्तर:
(B) 1853 ई० में

35. ‘गंज’ से क्या अभिप्राय है?
(A) औपनिवेशिक शहर
(B) कस्बे का बाजार
(C) गाँव
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) कस्बे का बाजार

36. पुर्तगालियों ने अपना व्यापारिक केन्द्र कहाँ स्थापित किया?
(A) मद्रास में
(B) गोवा में
(C) पांडिचेरी में
(D) बम्बई में
उत्तर:
(B) गोवा में

37. कलकत्ता नगर सुधार पर लॉर्ड वेलेज्ली द्वारा ‘मिनट्स’ कब लिखा गया?
(A) 1803 ई० में
(B) 1853 ई० में
(C) 1911 ई० में
(D) 1857 ई० में
उत्तर:
(A) 1803 ई० में

38. अंग्रेजों ने मद्रासपट्टम नाम व्यापारिक बस्ती कब बसाई?
(A) 1600 ई० में
(B) 1639 ई० में
(C) 1803 ई० में
(D) 1911 ई० में
उत्तर:
(B) 1639 ई० में

39. भारत के लिए नए समुद्री मार्ग की खोज किसने की?
(A) कोलंबस ने
(B) वास्कोडिगामा ने
(C) काउंट-डि-लाली ने
(D) लॉर्ड वेलेज़्ली ने
उत्तर:
(B) वास्कोडिगामा ने

40. अंग्रेजों ने फोर्ट सैन्ट जॉर्ज कहाँ बनवाया?
(A) बम्बई में
(B) मद्रास में
(C) दिल्ली में
(D) आगरा में
उत्तर:
(B) मद्रास में

41. अंग्रेजों ने किस स्थान को व्यापारिक केंद्र बनाया?
(A) मद्रास को
(B) पणजी को
(C) कलकत्ता को
(D) पांडिचेरी को
उत्तर:
(C) कलकत्ता को

42. 1911 ई० से पहले भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी कहाँ स्थित थी?
(A) दिल्ली
(B) बम्बई
(C) कलकत्ता
(D) मद्रास
उत्तर:
(C) कलकत्ता

43. गेटवे ऑफ इंडिया का निर्माण कब हुआ था?
(A) 1911 ई० में
(B) 1875 ई० में
(C) 1905 ई० में
(D) 1900 ई० में
उत्तर:
(A) 1911 ई० में

44. भारत में प्रथम रेलगाड़ी कब चलाई गई?
(A) 1857 ई० में
(B) 1853 ई० में
(C) 1843 ई० में
(D) 1856 ई० में
उत्तर:
(B) 1853 ई० में

45. भारत में पहली सूती मिल कहाँ स्थापित की गई?
(A) अमृतसर में
(B) कलकत्ता में
(C) मद्रास में
(D) बम्बई में
उत्तर:
(D) बम्बई में

46. जमशेदपुर किस वस्तु के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हुआ?
(A) चमड़े की वस्तुओं के लिए
(B) स्टील उत्पादन के लिए
(C) काँच के सामान के लिए
(D) रेलवे नगर के रूप में
उत्तर:
(B) स्टील उत्पादन के लिए

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
औपनिवेशिक काल में भारत में कौन-कौन से शहर विकसित हुए?
उत्तर:
औपनिवेशिक काल में भारत के पश्चिमी तट पर बंबई व पूर्वी तट पर मद्रास और कलकत्ता तीन नगर विकसित हुए।

प्रश्न 2.
अंग्रेजी राज में विकसित शहरों को क्या कहा गया?
उत्तर:
अंग्रेजी राज के दौरान विकसित शहरों को औपनिवेशिक शहर कहा गया।

प्रश्न 3.
छोटे शहरों को क्या कहा गया?
उत्तर:
छोटे शहरों को ‘कस्बा’ कहा गया।

प्रश्न 4.
‘ब्लैक टाउन’ शब्द का क्या अर्थ था ?
उत्तर:
सरकारी रिकॉर्ड्स में भारतीय लोगों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ कहा जाता था।

प्रश्न 5.
कस्बे की मुख्य विशेषता क्या थी?
उत्तर:
कस्बे की मुख्य विशेषता जनसंख्या नहीं, बल्कि उसकी विशिष्ट आर्थिक व सांस्कृतिक गतिविधियाँ थीं।

प्रश्न 6.
गाँवों का जीवन-निर्वाह मुख्यतया किस पर निर्भर था?
उत्तर:
गाँवों का जीवन-निर्वाह मुख्यतया कृषि, पशुपालन और वनोत्पादों पर निर्भर था।

प्रश्न 7.
शहरों में खाद्यान्न कहाँ से आता था?
उत्तर:
शहरों में खाद्यान्न हमेशा गाँवों से आता था।

प्रश्न 8.
मुगलकालीन शहर मुख्यतया तथा, आगरा, दिल्ली, लाहौर आदि क्यों प्रसिद्ध थे?
उत्तर:
ये शहर प्रशासन व सत्ता के केंद्र के साथ-साथ घनी जनसंख्या व विशाल भवनों वाले शहर थे।

प्रश्न 9.
मुगलकालीन शहरों की मुख्य विशेषता क्या थी?
उत्तर:
मुगलों के शहर कला व स्थापत्य के केंद्र थे। भव्य महल, किले, उद्यान, द्वार व मस्जिद इन शहरों की विशेषता थी।

प्रश्न 10.
मुगलकालीन स्थापत्य कला कैसी थी?
उत्तर:
मुगलकालीन स्थापत्य कला में इस्लामिक, बौद्ध, जैन व हिंदू भवन-निर्माण शैलियों का बेहतर समावेश था।

प्रश्न 11.
‘मनसब’ से क्या अभिप्राय था?
उत्तर:
‘मनसब’ अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘पद’ अर्थात् मनसबदार मुगलकाल में सैनिक व असैनिक दोनों तरह का अधिकारी होता था।

प्रश्न 12.
16वीं व 17वीं शताब्दी में शहर की शांति और व्यवस्था बनाए रखने का काम किसका था?
उत्तर:
16वीं व 17वीं शताब्दी में शहर की शांति व व्यवस्था बनाए रखने का काम कोतवाल का होता था।

प्रश्न 13.
मुगल साम्राज्य की राजनीतिक व्यवस्था कैसी थी?
उत्तर:
मुगल साम्राज्य की राजनीतिक व्यवस्था केंद्रीकृत थी।

प्रश्न 14.
पुर्तगाली यात्री वास्कोडिगामा भारत कब पहुँचा?
उत्तर:
पुर्तगाली यात्री वास्कोडिगामा 1498 ई० में भारत पहुंचा।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

प्रश्न 15.
पुर्तगालियों ने अपनी पहली व्यापारिक बस्ती कहाँ बसाई?
उत्तर:
पुर्तगालियों ने 1510 ई० में पणजी में अपनी पहली व्यापारिक बस्ती बसाई।

प्रश्न 16.
फ्रांसीसियों ने आरंभिक व्यापारिक कार्यालय कहाँ स्थापित किया?
उत्तर:
फ्रांसीसियों ने शुरू में व्यापारिक कार्यालय पांडिचेरी में स्थापित किया।

प्रश्न 17.
डच व्यापारिक कंपनी ने अपना व्यापारिक कार्यालय कहाँ स्थापित किया?
उत्तर:
1605 ई० में डच व्यापारिक कंपनी ने अपना व्यापारिक कार्यालय मछलीपट्टनम में स्थापित किया।

प्रश्न 18.
व्यापारिक कार्यालय को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
व्यापारिक कार्यालय को कारखाना कहा जाता था।

प्रश्न 19.
यूरोपीय व्यापारिक कंपनियाँ भारत से किन वस्तुओं का व्यापार करती थीं?
उत्तर:
यूरोपीय व्यापारिक कंपनियाँ भारत से काली मिर्च, मसाले व वस्त्रों का निर्यात करती थीं।

प्रश्न 20.
औपनिवेशिक प्रशासन व सत्ता के केंद्र कौन-से शहर थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक प्रशासन व सत्ता के केंद्र मद्रास, कलकत्ता व बंबई शहर थे।

प्रश्न 21.
कौन-कौन से नगर आर्थिक राजधानियों के रूप में विकसित हुए?
उत्तर:
मद्रास, कलकत्ता व बंबई शहर आर्थिक राजधानियों के रूप में विकसित हुए।

प्रश्न 22.
भारतीयों के लिए सबसे पहले निर्वाचन पद्धति किन संस्थाओं में शुरु की गई?
उत्तर:
नगर निगमों, नगरपालिका व देहात के जिला बोर्डों के लिए निर्वाचन पद्धति प्रारंभ की गई।

प्रश्न 23.
सर्वे ऑफ इंडिया की स्थापना किस गवर्नर-जनरल के काल में हुई?
उत्तर:
सर्वे ऑफ इंडिया की स्थापना 1878 ई० में गवर्नर-जनरल लॉर्ड लिटन के काल में हुई।

प्रश्न 24.
भारत में सबसे पहले जनगणना कब एवं किसने करवाई?
उत्तर:
सन् 1872 में भारत में अंग्रेज़ सरकार ने पहली अखिल भारतीय जनगणना करवाने का प्रयास किया।

प्रश्न 25.
भारत में हर दस साल बाद दशकीय जनगणना कब से शुरु की गई?
उत्तर:
सन 1881 से भारत में हर दस साल के बाद दशकीय जनगणना नियमित तौर पर करवाई जाती रही।

प्रश्न 26.
अंग्रेजों ने फोर्ट सेंट जॉर्ज की स्थापना कहाँ की?
उत्तर:
अंग्रेज़ों ने मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज की स्थापना की।

प्रश्न 27.
फोर्ट विलियम कहाँ स्थापित किया गया?
उत्तर:
फोर्ट विलियम कलकत्ता में स्थापित किया गया।

प्रश्न 28.
किलेबंद बंदरगाह नगरों को क्या कहा गया?
उत्तर:
किलेबंद बंदरगाह नगरों को ‘प्रेसीडेंसी’ कहा गया।

प्रश्न 29.
भारत में पहली सूती मिल कहाँ स्थापित की गई?
उत्तर:
भारत में पहली सूती मिल बंबई में स्थापित की गई।

प्रश्न 30.
औपनिवेशिक काल में जमशेदपुर क्यों प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर:
जमशेदपुर स्टील उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हुआ।

प्रश्न 31.
उन बस्तियों को क्या कहा जाता था जहाँ केवल गोरे लोगों को ही बसाया जाता था?
उत्तर:
ऐसी बस्तियाँ जहाँ केवल गोरे लोगों को ही बसाया जाता था सिविल लाइंस कहा जाता था।

प्रश्न 32.
अंग्रेज़ों ने सिक्किम में कौन-सा हिल स्टेशन छीना?
उत्तर:
1835 ई० में अंग्रेज़ों ने सिक्किम से दार्जीलिंग हिल स्टेशन छीना।

प्रश्न 33.
शिमला को राजधानी कब बनाया गया?
उत्तर:
जॉन लॉरेंस ने 1864 ई० में शिमला को राजधानी बनाया गया।

प्रश्न 34.
कलकत्ता में स्टार थियेटर की स्थापना किसने की?
उत्तर:
विनोदनी दासी ने 1883 ई० में स्टार थियेटर, कलकत्ता की स्थापना की।

प्रश्न 35.
तेलुगू कोमाटी से क्या अभिप्राय था?
उत्तर:
तेलुगू कोमाटी एक समुदाय था जिसने मद्रास में व्यावसायिक सफलता प्राप्त की।

प्रश्न 36.
फोर्ट विलियम (कलकत्ता) के आसपास खाली छोड़े गए मैदान को स्थानीय भाषा में क्या कहा जाता था ?
उत्तर:
फोर्ट विलियम के आसपास खाली जगह को स्थानीय लोग ‘गारेर मठ’ कहते थे।

प्रश्न 37.
कलकत्ता में गवर्नमेंट हाउस का निर्माण किसने करवाया?
उत्तर:
कलकत्ता में गवर्नमेंट हाउस का निर्माण लॉर्ड वेलेज़्ली ने करवाया।

प्रश्न 38.
लॉर्ड वेलेज़्ली ने कलकत्ता नगर नियोजन के लिए प्रशासकीय आदेश कब जारी किया?
उत्तर:
लॉर्ड वेलेज़्ली ने कलकत्ता नगर नियोजन के लिए प्रशासकीय आदेश 1803 ई० में जारी किया।

प्रश्न 39.
कलकत्ता में नगर नियोजन के कार्य के लिए लॉटरी कमेटी की स्थापना कब की गई?
उत्तर:
कलकत्ता में नगर नियोजन के कार्य के लिए 1817 ई० में लॉटरी कमेटी की स्थापना की गई।

प्रश्न 40.
कलकत्ता में घास-फूस की झोंपड़ियों को अवैध कब घोषित किया गया?
उत्तर:
आग लगने की आशंका से बचने के लिए कलकत्ता में 1836 ई० में घास-फूस की झोंपड़ियों को अवैध घोषित किया गया।

प्रश्न 41. ‘लॉटरी कमेटी’ क्या थी?
उत्तर:
‘लॉटरी कमेटी’ कलकत्ता के नगर नियोजन करने वाली समिति थी।

प्रश्न 42.
बंबई में एल्फिस्टन सर्किल का निर्माण कब हुआ?
उत्तर:
1860 ई० में बंबई में एल्फिस्टन सर्किल बनाया गया।

प्रश्न 43.
बंबई में ‘चाल’ बनाने का क्या उद्देश्य था?
उत्तर:
बंबई में ‘चाल’ बनाने का उद्देश्य बढ़ती हुई जनसंख्या को आवास प्रदान करना था।

प्रश्न 44.
इंडो-सारासेनिक स्थापत्य शैली से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
इंडो-सारासेनिक स्थापत्य शैली में भारतीय व यूरोपीय दोनों स्थापत्य शैलियों का मिश्रण किया गया है।

प्रश्न 45.
नवशास्त्रीय (नियोक्लासीकल) शैली क्या थी?
उत्तर:
नवशास्त्रीय शैली में बड़े-बड़े स्तंभों के पीछे रेखागणितीय संरचनाओं का निर्माण किया गया।

प्रश्न 46.
18वीं शताब्दी में भारत में तीन प्रसिद्ध बंदरगाहें कौन-सी थीं?
उत्तर:
बंबई, कलकत्ता व मद्रास 18वीं शताब्दी की प्रसिद्ध बंदरगाहें थीं।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

प्रश्न 47.
भारत में पहली बार जनगणना कब करवाई गई?
उत्तर:
भारत में पहली बार जनगणना का प्रयास 1872 ई० में किया गया।

प्रश्न 48.
अंग्रेज़ों ने भारत में व्यापारिक राजधानी किस शहर को बनाया?
उत्तर:
ब्रिटिश काल में बम्बई भारत की व्यापारिक राजधानी के तौर पर उभरा।

प्रश्न 49.
भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों का सबसे पहला केंद्र कौन-सा था?
उत्तर:
पश्चिमी तट पर स्थित सूरत की बंदरगाह भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों का पहला केंद्र था।

प्रश्न 50.
मद्रासपट्टम को स्थानीय लोग क्या कहते थे?
उत्तर:
स्थानीय लोग मद्रासपट्टम को चेनापट्नम कहते थे।

प्रश्न 51.
भारत में पहली रेलवे लाइन कब और कहाँ तक बिछाई गई?
उत्तर:
1853 ई० में बम्बई से ठाणे तक पहली रेलवे लाइन बिछाई गई।

प्रश्न 52.
1911 ई० में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी कलकत्ता से बदलकर किस शहर को बनाया गया?
उत्तर:
1911 ई० में कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी बनाया गया।

अति लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कस्बे के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
कस्बे एक छोटे शहर के रूप में गाँव से अलग होते थे। मुगल काल में कस्बा सामान्यतया किसी स्थानीय विशिष्ट व्यक्ति का केंद्र होता था। इसमें एक छोटा स्थायी बाज़ार होता था, जिसे गंज कहते थे। यह बाजार विशिष्ट परिवारों एवं सेना के लिए कपड़ा, फल, सब्जी तथा दूध इत्यादि सामग्री उपलब्ध करवाता था। कस्बे की मुख्य विशेषता जनसंख्या नहीं थी, बल्कि उसकी विशिष्ट आर्थिक व सांस्कृतिक गतिविधियाँ थीं। उन्हीं के कारण उसे ‘ग्रामीण शहर’ कहा जाता था।

प्रश्न 2.
मुगलकालीन शहरों की जीवन-शैली कैसी थी?
उत्तर:
मुगलकालीन शहरी लोगों की जीवन-शैली गाँव से अलग थी। शहरों में मुख्य तौर पर शासक, प्रशासक तथा शिल्पकार व व्यापारी रहते थे। शहरी शिल्पकार किसी विशिष्ट कला में निपुण होते थे। वे प्रायः संपन्न और सत्ताधारी वर्गों की जरूरतों को पूरा करते थे। शहर में रहने वाले सभी लोगों के लिए खाद्यान्न सदैव गाँव से ही आता था। शासक वर्ग किसानों से राजस्व की वसूली करता था।

प्रश्न 3.
शहर व गाँवों में संबंध कैसे थे?
उत्तर:
शहर और गाँव में स्थायी और अस्थायी संबंध रहते थे। शहर के लोगों के लिए खाद्यान्न गाँव से ही आता था। किसान के उत्पादन का एक भाग शहरों की ओर बहता था। प्रायः यह बहाव एक तरफा ही रहता था। फसल बेचकर नकद कर चुकाने के बाद शहर से गाँव की ओर धन व वस्तुओं का बहाव बहुत ही कम था। ग्रामीण लोगों का शहरों से संपर्क कई तरीकों से रहता था। बड़े शहरों में भी ग्रामीण लोगों का आना-जाना बना रहता था। अकाल या किसी अन्य प्राकृतिक आपदा के समय प्रायः लोग जीवित रहने की उम्मीद में शहर की ओर आते थे। कई बार आक्रमणों के समय भी सुरक्षा के लिए गाँव के लोग किलेनुमा शहरों में आकर शरण लेते थे।

प्रश्न 4.
मुगलकालीन शहरों की क्या विशेषताएँ थीं?
उत्तर:
मुगलों के शहर, कला और स्थापत्य के केंद्र थे। भव्य महल, किले, उद्यान, द्वार व मस्जिद इन शहरों की विशेषता थी। विभिन्न मुगल शासकों ने अपनी-अपनी शक्ति, सामर्थ्य और राजनीतिक स्थितियों के अनुरूप शहरों में भवन निर्माण के क्षेत्र में अपना-अपना योगदान दिया। शासकों की व्यक्तिगत रुचि ने भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 5.
मुगलकाल में जागीरदार कौन थे?
उत्तर:
मुगलकाल में जागीरदार किसी क्षेत्र का प्रमुख सैनिक था। उसे वेतन में नकद धन नहीं, बल्कि क्षेत्र (जागीर) दिया जाता था। जबकि मनसबदार नकद वेतन प्राप्त करता था।

प्रश्न 6.
मुगलकाल में शहरों में कोतवाल के क्या कर्त्तव्य थे?
उत्तर:
शहर की सामाजिक व वैधानिक व्यवस्था को बनाए रखने का काम शहर के कोतवाल का होता था। वह शहर में एक महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक अधिकारी होता था। शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए उसके पास एक सैनिक टुकड़ी होती थी। वह शहर में जल-आपूर्ति की देखभाल, गुलामों की बिक्री पर रोक और ‘गिल्ड-मास्टर’ की नियुक्ति करता था। वह जन्म-मृत्यु संबंधी शहर का रिकॉर्ड भी रखता था। वह माप-तोल की व्यवस्था का भी निरीक्षण करता था ताकि व्यापारी वर्ग हेरा-फेरी न करे। इसके अतिरिक्त वह शहर में आने-जाने वाले लोगों पर नज़र रखता था।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक सत्ता के लिए रिकॉर्डस का क्या महत्त्व था?
उत्तर:
भारत में ब्रिटिश सत्ता मुख्यतः आँकड़ों और जानकारियों के संग्रह पर आधारित थी। ज्ञातव्य है कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का लक्ष्य भारत के संसाधनों को अधिकतम स्तर तक निरंतर दोहन करते हुए मुनाफा बटोरना था। इसके लिए वह अपने राजनीतिक नियंत्रण को सुदृढ़ रखना चाहती थी। ये दोनों काम बिना पर्याप्त जानकारियों के संभव नहीं थे। आंकड़ों का सर्वाधिक महत्त्व उनके लिए वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए था।

प्रश्न 8.
सांख्यिकी आँकड़ों का क्या महत्त्व था?
उत्तर:
शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से शहरी जनसंख्या के उतार-चढ़ाव की जानकारी महत्त्वपूर्ण थी। सड़क निर्माण, यातायात तथा साफ-सफाई इत्यादि के बारे में निर्णय लेने के लिए विविध जानकारियाँ आवश्यक थीं। अतः सांख्यिकी आँकड़े एकत्रित कर सरकारी रिपोर्टों में प्रकाशित किए जाते थे।

प्रश्न 9.
शहरों में नगरपालिकाओं की स्थापना क्यों की गई?
उत्तर:
लोग नागरिक सेवाओं; जैसे सफाई व्यवस्था, सड़क, जल-आपूर्ति की देखभाल के लिए शहरों में नगरपालिकाओं की स्थापना की गई। बड़े औपनिवेशिक शहरों; जैसे मद्रास, कलकत्ता, बम्बई में ‘कार्पोरेशन’ (नगर-निगम) बनाए गए।”

प्रश्न 10.
नगरपालिका रिकॉर्डस किसे कहा जाता था?
उत्तर:
नगरपालिका व नगर-निगमों की विविध तरह की गतिविधियों के फलस्वरूप विशाल मात्रा में आँकड़े अथवा ‘रिकॉर्डस बनाए गए। ये संस्थाएँ इन रिकॉर्डस को ‘रिकॉर्डस रूम’ में सुरक्षित रखती थीं। इन्हें ‘नगरपालिका रिकॉर्डस’ कहा जाता है। शहरों के इतिहास लेखन के लिए ये काफी महत्त्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध करवाते हैं।

प्रश्न 11.
कंपनी अधिकारियों ने शहरों के मानचित्र क्यों बनवाए?
उत्तर:
किसी स्थान की बनावट व भू-दृश्य को समझने के लिए मानचित्र आवश्यक होते हैं। इसके लिए कंपनी की सेवा में मानचित्र विशेषज्ञ नियुक्त किए जाते थे, जो सटीक वैज्ञानिक औजारों की सहायता से बड़ी सावधानीपूर्वक मानचित्र तैयार करते थे। औपनिवेशिक सत्ता के लिए मानचित्रों के महत्त्व को हम इस तथ्य से भी समझ सकते हैं कि भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा सन् 1878 में लॉर्ड लिटन (गवर्नर-जनरल) के काल में ‘सर्वे ऑफ इण्डिया’ (Survey of India) की स्थापना की गई।

प्रश्न 12.
शहरी मानचित्रों में क्या दर्शाया जाता था?
उत्तर:
शहरों के मानचित्रों में घाट, तालाब, हरियाली के स्थान, नदी-नाले, आवास-बस्तियाँ, बाज़ार, प्रशासनिक कार्यालय, शिक्षण संस्थाएँ, अस्पताल इत्यादि विभिन्न तरह की जानकारियाँ चिह्नित की जाती थीं। निःसंदेह ऐसे मानचित्र औपनिवेशिक शहरों को समझाने के लिए काफी महत्त्वपूर्ण हैं।

प्रश्न 13.
जनगणना आँकड़ों से क्या-क्या जानकारियाँ प्राप्त होती हैं?
उत्तर:
जनगणना आँकड़ों से निम्नलिखित जानकारियाँ प्राप्त होती हैं

  1. जनसंख्या आँकड़ों से लोगों के व्यवसायों के अनुरूप जानकारी प्राप्त होती है।
  2. इनसे आयु, लिंग व जाति संबंधी उपलब्ध सूचनाएँ सामाजिक इतिहास लेखन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
  3. औपनिवेशिक शहरों में ‘श्वेत’ व ‘अश्वेत’ लोगों की संख्या का पता लगाया जा सकता है।
  4. शहरी लोगों के जीवन-स्तर, विभिन्न बीमारियों के दुष्प्रभावों तथा उनसे प्राप्त होने वाले स्रोतों के आँकड़े मिल सकते हैं।

प्रश्न 14.
बंबई अंग्रेजों को कैसे प्राप्त हुई?
उत्तर:
बंबई सात टापुओं पर बसा हुआ था जो पुर्तगालियों के अधीन था। पुर्तगाली राजकुमारी का विवाह ब्रिटेन के राजा के साथ हुआ और बंबई उसे दहेज में मिला। बाद में राजा ने बंबई ईस्ट इण्डिया कंपनी को किराए पर दे दिया।

प्रश्न 15.
अधिकांश लोग जनगणना अधिकारियों को संदेह की दृष्टि से क्यों देखते थे?
उत्तर:
जनगणना अधिकारियों को प्रायः लोग संदेह की दृष्टि से देखते थे। उन्हें लगता था कि कोई नया टैक्स लगाने के लिए अधिकारी जानकारी इकट्ठी कर रहे हैं। कुछ लोग अपने घर की औरतों के बारे में जानकारी देना पसंद नहीं करते थे।

प्रश्न 16.
जनगणना के आँकड़ों की जाँच से औपनिवेशिक शहरों की क्या जानकारी सामने आती है?
उत्तर:
जनगणना आँकड़े ये बताते हैं कि 19वीं सदी व 20वीं सदी के मध्य तक शहरीकरण अत्यधिक धीमा और लगभग स्थिर जैसा रहा। परंपरागत शहरों का पतन हुआ लेकिन अंग्रेज़ों के राजनीतिक नियंत्रण के फलस्वरूप और आर्थिक नीतियों के कारण कलकत्ता, मद्रास व बंबई का विकास तेजी से हुआ। बंदरगाह नगर कुछ ही वर्षों में विशाल शहर बन गए।

प्रश्न 17.
सिविल लाइंस क्या थी? इसकी दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
सिविल लाइंस नए शहरी इलाके थे जहाँ गोरे लोगों को बसाया जाता था। यहाँ का प्रबंध भी गोरों के हाथों में ही होता था। अक्सर यहाँ सैनिक अधिकारियों के लिए बंगले बनाए जाते थे। 1857 ई० के विद्रोह के बाद सुरक्षा की दृष्टि से दो सिविल लाइंस बनाई गईं।

प्रश्न 18.
हिल स्टेशन बनाने के आरंभिक उद्देश्य क्या थे?
उत्तर:
अंग्रेज़ों ने सेना की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए हिल स्टेशनों की स्थापना की। ये सैनिकों को ठहराने, सीमा की निगरानी करने तथा शत्रु पर हमला करने के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान थे।

प्रश्न 19.
हिल स्टेशन औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के लिए किस प्रकार महत्त्वपूर्ण थे?
उत्तर:
पर्वतीय स्थल केवल पर्यटन की दृष्टि से ही अंग्रेज़ों के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं थे, बल्कि उनकी अर्थव्यवस्था के लिए बड़े महत्त्वपूर्ण थे। पर्वतीय ढलानों पर चाय, कॉफी के बागानों का विकास किया गया। इन बागानों के मालिक गोरे लोग थे। 19वीं सदी के मध्य से चाय बागान उद्योग की शुरुआत हुई थी। जल्दी ही यह उद्योग भारत का सबसे बड़ा बागान उद्योग बन चुका था। भारत संसार का सबसे बड़ा चाय उत्पादक व निर्यातक देश बन गया। 1940 ई० तक भारत में पैदा होने वाली चाय का 8 प्रतिशत निर्यात होने लगा। इसी तरह कॉफी व अन्य पर्वतीय बागान भी अंग्रेजों के लिए विशाल मुनाफे का आधार बन गए।

प्रश्न 20.
कलकत्ता को आधुनिक बनाने के लिए कंपनी सरकार ने कौन-से सुधार लागू किए?
उत्तर:
कलकत्ता को आधुनिक बनाने के लिए कंपनी सरकार ने निम्नलिखित सुधार लागू किए

  1. कंपनी सरकार ने गंदे जल की निकासी के लिए भूमिगत नालियों का प्रबंध किया।
  2. शहर में रोशनी का उचित प्रबंध किया गया।
  3. कलकत्ता निवासियों के पीने के लिए स्वच्छ जल का प्रबंध किया।
  4. शहर की सफाई की देखभाल के लिए तीन कमिश्नरों को नियुक्त किया।

प्रश्न 21.
विनोदिनी दासी की आत्मकथा का क्या नाम था? इसकी रचना कब की गई?
उत्तर:
विनोदिनी दासी ने 1910 ई० से 1913 ई० के बीच अपनी आत्मकथा ‘आमार कथा’ की रचना की। यह एक प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली महिला थी। विनोदिनी दासी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी कि उन्होंने अभिनेत्री, संस्था निर्माता एवं लेखिका के तौर पर अनेक भूमिकाओं को एक-साथ कुशलतापूर्वक निभाया। उन्होंने 1883 ई० में स्टार थियेटर कलकत्ता की स्थापना की। परन्तु तत्कालीन पितृसत्तात्मक समाज ने सार्वजनिक क्षेत्र में उनकी उपस्थिति की प्रशंसा नहीं की।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

प्रश्न 22.
लॉर्ड वेलेज़्ली ने 1803 ई० के प्रशासकीय आदेश में क्या आदेश जारी किया?
उत्तर:
वेलेज़्ली ने अपने कलकत्ता मिनट्स में लिखा, “यह सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है कि वह इस विशाल नगर में सड़कों, नालियों और जल-मार्गों में सुधार की एक सम्पूर्ण व्यवस्था बनाकर तथा इमारतों व सार्वजनिक भवनों के निर्माण व प्रसार के बारे में स्थायी नियम बनाकर और हर तरह की गड़बड़ियों को नियंत्रित कर यहाँ के निवासियों को स्वास्थ्य, सुरक्षा और सुविधा उपलब्ध करवाए।”

प्रश्न 23.
लॉटरी कमेटी ने कलकत्ता के पूर्ण विकास के लिए क्या कार्य किए?
उत्तर:
लॉटरी कमेटी ने कलकत्ता के पूर्ण विकास के लिए एक नया नक्शा तैयार करवाया। कमेटी ने शहर के भारतीय आबादी वाले भाग में सड़क का निर्माण करवाया, नदी के किनारों से अवैध कब्जों को हटवाया, भारतीय भाग वाले हिस्से को साफ-सुथरा बनाने के लिए अनेक झोंपड़ियों को हटाकर गरीब मजदूरों को वहाँ से निकाल दिया। हाँ, मज़दूरों को बसाने के लिए कलकत्ता के बाहरी किनारे पर स्थान दे दिया गया।

प्रश्न 24.
अंग्रेज़ों ने भारत में यूरोपीय स्थापत्य शैलियों को क्यों अपनाया?
उत्तर:
अंग्रेज़ों ने भारत में यूरोपीय स्थापत्य शैलियों को निम्नलिखित कारणों से अपनाया

(1) अंग्रेज़ भारत में बाहर से आए थे। वे यूरोपीय स्थापत्य शैली अपनाकर एक जाना-पहचाना-सा भू-दृश्य बना देना चाहते थे, ताकि विदेश में या उपनिवेश में रहते हुए भी घर जैसा महसूस कर सकें।

(2) यूरोपीय शैली को अपनाकर अंग्रेज भारत में अपनी श्रेष्ठता दिखाना चाहते थे। वस्तुतः यह उनके भारत पर अधिकार और सत्ता का प्रतीक भी थी।

(3) अंग्रेज़ों की सोच यह भी थी कि यूरोपीय शैली की इमारतों से उनमें और भारतीय प्रजा के बीच फर्क व फासला साफ दिखाई देगा। वस्तुतः इस माध्यम से अपनी उच्चता की भावना और भारतीय प्रजा के निम्नता के स्तर को साफ तौर पर उजागर करना चाहते थे।

प्रश्न 25.
अंग्रेज़ों द्वारा भारत में नवशास्त्रीय शैली अपनाने के क्या कारण थे?
उत्तर:
इस शैली के माध्यम से अंग्रेज़ रोम की भव्यता के समान साम्राज्यीय भारत (Imperial India) के वैभव को दिखाने के लिए प्रयोग करना चाहते थे। इस शैली के तहत बड़े-बड़े स्तम्भों का निर्माण रेखा-गणितीय संरचनाओं के आधार पर किया जाता औपनिवेशिक शहर : नगरीकरण, नगर-योजना और स्थापत्य था। इस शैली को भारत के उष्ण-कटिबंधीय जलवायु के अनुकूल भी माना गया। बम्बई का टाउन हॉल (1833 ई०) इसी शैली के आधार पर बनाया गया। बहुत सारी व्यावसायिक इमारतें भी इस आधार पर बनाई गईं। इन इमारतों में एल्फिस्टन सर्कल की इमारतें मुख्य थीं।

प्रश्न 26.
स्थापत्य शैलियाँ व इमारतें इतिहास लेखन में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, कैसे? दो कारण बताओ।
उत्तर:
1. सौंदर्य आदर्शों की अनुभूति-स्थापत्य शैलियों और इमारतों से तात्कालिक सौंदर्यात्मक आदर्शों की अनुभूति होती है। औपनिवेशिक शासक अपने इस सौंदर्यात्मक आदर्शों के माध्यम से भी अपनी श्रेष्ठता की भावना को व्यक्त करते थे।

2. सत्ता प्रभुत्व की अभिव्यक्ति इमारतों में प्रभुत्व की भावना भी निहित होती है। यह हमें उन लोगों की सोच व दृष्टि के बारे में बताती है जो उन्हें बनाने वाले थे। उदाहरण के लिए, जैसा कि हमने देखा, औपनिवेशिक इमारतों में नस्ली भेदभाव स्पष्ट झलकता है।

3. नई स्थापत्य शैलियों का विकास-पश्चिमी स्थापत्य शैलियों से प्रभावित होकर बहुत-से सम्पन्न भारतीयों ने अपने भवनों के निर्माण में यूरोपीय शैलियों को अपनाया। वे उन्हें आधुनिकता और सभ्यता का प्रतीक समझने लगे थे।

प्रश्न 27.
‘व्हाइट टाउन’ शब्द का क्या महत्त्व था?
उत्तर:
अंग्रेज़ों ने अनेक शहरों में अपने रहने के स्थानों की किलेबंदी की। इन किलों में अधिकतर यूरोपीय लोग रहते थे। इसलिए इस क्षेत्र को ‘व्हाइट टाउन’ कहा गया। ये अंग्रेज़ों के नस्ली भेद-भाव की सोच को स्पष्ट करते हैं। भारतीय लोग इन बस्तियों में नहीं रह सकते थे।

प्रश्न 28.
‘गंज’ से क्या अभिप्राय था?
उत्तर:
मुगल काल में कस्बे के स्थायी बाजार व छोटे से बाजार को ‘गंज’ कहा जाता था। यह बाजार विशिष्ट परिवारों एवं सेना के लिए कपड़ा, फल, सब्जी तथा दूध इत्यादि सामग्री उपलब्ध करवाता था।

प्रश्न 29.
औपनिवेशिक शहरों की सामान्य विशेषता क्या थी?
उत्तर:
बम्बई, मद्रास व कलकत्ता तीनों औपनिवेशिक शहरों में अंग्रेज़ों ने अपने व्यापारिक व प्रशासनिक कार्यालय स्थापित किए। तीनों शहर बंदरगाह नगर विकसित हुए।

प्रश्न 30.
मद्रास में अंग्रेज़ों ने अपना प्रभाव कैसे स्थापित किया?
उत्तर:
1611 ई० में अंग्रेज़ों ने मसुलीपट्टम में अपनी फैक्ट्री स्थापित की। 1639 ई० में मद्रासपट्टम नामक स्थान पर एक व्यापारिक बस्ती बनाई। अंग्रेज़ों ने इस स्थान पर बसने का अधिकार स्थानीय तेलुगू सामंतों से खरीदा।

प्रश्न 31.
शहरी जीवन पर नियंत्रण रखने के लिए अंग्रेज़ कौन-कौन से कार्य करते थे?
उत्तर:
शहरी जीवन की गति व दिशा पर नज़र रखने के लिए अंग्रेज़ नियमित रूप से शहर का सर्वेक्षण, सांख्यिकी आँकड़े इकट्ठे करना तथा शहर के मानचित्र या नक्शे तैयार करवाते थे। इन गतिविधियों के माध्यम से वे शहरी जीवन पर अपना नियंत्रण रखते थे।

प्रश्न 32.
‘गेट वे ऑफ इंडिया’ का निर्माण कब व क्यों किया गया?
उत्तर:
1911 ई० में जॉर्ज पंचम व उनकी पत्नी मैरी के स्वागत में ‘गेट वे ऑफ इंडिया’ का निर्माण किया गया।

प्रश्न 33.
औपनिवेशिक काल में विकसित हुए पर्वतीय स्थानों के नाम लिखें।
उत्तर:
शिमला, माउंटआबू, दार्जिलिंग तथा मनाली इत्यादि पर्वतीय स्थान विकसित हुए। इनका आरंभिक उद्देश्य ब्रिटिश सेना की जरूरतों को पूरा करना था।

प्रश्न 34.
‘इण्डो-सारासेनिक’ के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
इण्डो-सारासेनिक स्थापत्य शैली में भारतीय व यूरोपीय दोनों शैलियों का सम्मिश्रण है।

प्रश्न 35.
नियोक्लासिक (नवशास्त्रीय) शैली क्या थी? बम्बई में बनी इसी शैली की कुछ इमारतों के नाम बताएँ।
उत्तर:
नियोक्लासिक शैली में बड़े-बड़े स्तंभों के पीछे रेखागणितीय संरचनाओं का निर्माण किया जाता था। इस शैली में बम्बई में टाउन हॉल एवं एल्फिस्टन सर्कल आदि का निर्माण हुआ।

प्रश्न 36.
स्वेज नहर को कब खोला गया? बम्बई पर इसका क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
1869 ई० में स्वेज़ नहर को खोला गया। स्वेज़ नहर ने लाल सागर व भूमध्य सागर को मिला दिया जिससे भारत से यूरोप के बीच जलमार्ग की दूरी कम हो गई और बम्बई बंदरगाह से व्यापार में वृद्धि हुई।

प्रश्न 37.
औपनिवेशिक काल में अपनाई गई स्थापत्य शैलियों के नाम लिखें।
उत्तर:
औपनिवेशिक काल में नियोक्लासिक (नवशास्त्रीय), नवगॉथिक व इण्डो-सारासेनिक स्थापत्य शैलियों में इमारतें बनीं।

प्रश्न 38.
वेल्लालार कौन थे?
उत्तर:
वेल्लालार मद्रास की एक स्थानीय ग्रामीण जाति थी। आरंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी पाने वालों में इनकी प्रमुख भूमिका थी।

प्रश्न 39.
कलकत्ता में ‘गवर्नमैंट हाउस’ का निर्माण कब व किसने करवाया?
उत्तर:
कलकत्ता में 1803 ई० में लॉर्ड वेलेज्ली ने गवर्नमेंट हाउस का निर्माण करवाया। यह ब्रिटिश सत्ता का प्रतीक था।

प्रश्न 40.
बम्बई के विक्टोरिया टर्मिनस के निर्माण में किस स्थापत्य शैली का प्रयोग किया गया?
उत्तर:
विक्टोरिया टर्मिनस के निर्माण में नव-गॉथिक शैली का प्रयोग किया गया। यह ग्रेट इंडियन पेनिन्स्युलर रेलवे कंपनी का स्टेशन और मुख्यालय हुआ करता था।

प्रश्न 41.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने फोर्ट विलियम की स्थापना कहाँ की? इसकी प्रमुख विशेषता लिखो।
उत्तर:
फोर्ट विलियम किला कलकत्ता में बनवाया गया। इसके चारों ओर सुरक्षा की दृष्टि से एक विशाल खाली मैदान छोड़ा गया, जिसे स्थानीय भाषा में ‘गेरार मठ’ कहा जाता है।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
छोटे शहर या कस्बे गाँवों से किस प्रकार भिन्न थे?
उत्तर:
कस्बे एक छोटे शहर के रूप में गाँव से अलग होते थे। मुगल काल में कस्बा सामान्यतया किसी स्थानीय विशिष्ट व्यक्ति का केंद्र होता था। इसमें एक छोटा स्थायी बाज़ार होता था, जिसे गंज कहते थे। यह बाजार विशिष्ट परिवारों एवं सेना के लिए कपड़ा, फल, सब्जी तथा दूध इत्यादि सामग्री उपलब्ध करवाता था। गाँवों में रहने वाले लोगों का जीवन-निर्वाह मुख्यतः कृषि, पशुपालन और जंगल पर निर्भर था। दूसरी ओर, शहरी लोगों के आजीविका के साधन अलग थे। उनकी जीवन-शैली गाँव से अलग थी। शहरों में मुख्य तौर पर शासक, प्रशासक तथा शिल्पकार व व्यापारी रहते थे। शहरी शिल्पकार किसी विशिष्ट कला में निपुण होते थे, क्योंकि वे प्रायः संपन्न और सत्ताधारी वर्गों की जरूरतों को पूरा करते थे। शहर में रहने वाले सभी लोगों के लिए खाद्यान्न सदैव गाँव से ही आता था।

प्रश्न 2.
औपनिवेशिक काल से पहले शहर व गाँव में संबंध स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शहर और गाँव पूर्ण रूप से पृथक् नहीं थे। उनमें संबंध रहते थे। शहर के लोगों के लिए अनाज गाँव से ही आता था। किसान अपने उत्पाद या तो नकद भूमि कर चुकाने के लिए व्यापारियों को बेचते थे या फिर फसल के हिस्से के रूप में देते थे। दोनों ही रूपों में उनके उत्पादन का एक भाग शहरों की ओर बहता था। प्रायः यह बहाव एक तरफा ही रहता था। शहर से गाँव की ओर धन व वस्तुओं का बहाव बहुत ही कम था, तथापि फेरी वाले और कुछ छोटे व्यापारी कस्बों से सामान गाँवों में बेचने के लिए जाते थे। इससे बाजार का विस्तार और उपभोग की नई शैलियों का सृजन होता था।

ग्रामीण लोगों का शहरों से संपर्क कई तरीकों से रहता था। शहरों में भी ग्रामीण लोगों का आना-जाना बना रहता था। अकाल आदि के समय प्रायः लोग जीवित रहने की उम्मीद में शहर की ओर आते थे। कई बार आक्रमणों के समय भी सुरक्षा के लिए गाँव के लोग शहरों में शरण लेते थे। तीर्थ यात्रा भी ग्रामीण लोगों का संबंध शहरों से जोड़ती थी। तीर्थ यात्री बहुत-से शहरों और कस्बों से गुजरते हुए जाते थे।

प्रश्न 3.
भारत में 16वीं और 11वीं सदी के शहर की आंतरिक व्यवस्था पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
16वीं तथा 17वीं शताब्दी के मध्यकालीन शहर औपनिवेशिक शहरों से भिन्न थे। इन शहरों में मुगल सत्ताधारी वर्ग का वर्चस्व होता था। प्रशासकों और अमीरों के साथ-साथ बड़ी संख्या में उनकी सेना रहती थी। अतः इन लोगों के लिए कुछ विशिष्ट सेवाओं की जरूरत पड़ती थी। शिल्पकार अमीर वर्ग के लिए विशिष्ट हस्तशिल्प तैयार करते थे। शहरों में रहने वाले प्रत्येक वर्ग, जाति व समुदाय से यह अपेक्षा रहती थी कि हर व्यक्ति अपने स्थान व कर्तव्य को समझे और उसके अनुरूप कार्य करे।

शहर की सामाजिक व वैधानिक व्यवस्था को बनाए रखने का काम शहर के कोतवाल का होता था। शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए उसके पास एक सैनिक टुकड़ी होती थी। जरूरत पड़ने पर वह फौज़दार (मुगल सैन्य अधिकारी) से भी सैनिक सहायता प्राप्त कर सकता था।

शहर में शांति व्यवस्था बनाए रखने के अतिरिक्त कोतवाल सामाजिक-नैतिक और व्यावसायिक गतिविधियों पर भी नज़र रखता था। वह शहर में जल-आपूर्ति की देखभाल करता था। वह जन्म-मृत्यु संबंधी शहर का रिकॉर्ड रखता था। वह माप-तोल की व्यवस्था का भी निरीक्षण करता था। इसके अतिरिक्त वह शहर में आने-जाने वाले लोगों पर नज़र रखता था।
स्पष्ट है कि मुगल सत्ता की शहर की आंतरिक व्यवस्था को बनाए रखने में वह एक महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि था।

प्रश्न 4.
औपनिवेशिक काल में शहरों की जाँच-पड़ताल में जनगणना के आँकड़े किस सीमा तक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं? स्पष्ट करें।
उत्तर:
सन् 1872 में भारत में अंग्रेज़ सरकार ने पहली अखिल भारतीय जनगणना करवाने का प्रयास किया। तत्पश्चात् सन् 1881 से हर दस साल के बाद दशकीय जनगणना करवाई जाती रही। जनगणना के ये आँकड़े शहरीकरण अथवा उसके रुझानों को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनसे निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है

  1. इनसे लोगों के व्यवसायों के अनुरूप जानकारी प्राप्त होती है।
  2. इनसे आयु, लिंग व जाति संबंधी उपलब्ध सूचनाएँ सामाजिक इतिहास लेखन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
  3. शहरी लोगों के जीवन-स्तर, विभिन्न बीमारियों के दुष्प्रभावों तथा उनसे प्राप्त होने वाले स्रोतों के आँकड़े मिल सकते हैं।

इस प्रकार जनसंख्या के आँकड़ों से हमें महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ मिल सकती हैं, लेकिन कई बार सटीकता का भ्रम पैदा हो जाता है अर्थात् लगता है कि ये सभी आँकड़े शहर की बिल्कुल सटीक जानकारी उपलब्ध करवा रहे हैं। यहाँ इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि उपलब्ध आँकड़े में भी गलती की संभावना होती है। अतः इतिहासकार को पता लगाना चाहिए कि आँकड़े क्यों और किसने उपलब्ध करवाए हैं। साथ ही उसे जनगणना के तरीके को भी समझना चाहिए।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

प्रश्न 5.
ब्रिटिश अधिकारियों ने शहरों व देहातों के मानचित्र बनाने पर जोर क्यों दिया?
उत्तर:
ब्रिटिश अधिकारी यह मानते थे कि किसी स्थान की बनावट व भू-दृश्य को समझने के लिए मानचित्र आवश्यक होते हैं। इसके लिए कंपनी की सेवा में मानचित्र विशेषज्ञ नियुक्त किए जाते थे। वो वैज्ञानिक औजारों की सहायता से बड़ी सावधानीपूर्वक मानचित्र तैयार करते थे। भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा सन् 1878 में लॉर्ड लिटन (गवर्नर-जनरल) के काल में सर्वे ऑफ इण्डिया’ (Survey of India) की स्थापना की गई। बढ़ते हुए शहरों की विकास योजना तैयार करने तथा व्यापारिक संभावनों का पता लगाने के लिए भी अंग्रेज़ शासकों के लिए मानचित्र महत्त्वपूर्ण थे।

इन मानचित्रों में घाट, तालाब, हरियाली के स्थान, नदी-नाले, आवास-बस्तियाँ, बाज़ार, प्रशासनिक कार्यालय, शिक्षण संस्थाएँ, अस्पताल इत्यादि विभिन्न तरह की जानकारियाँ चिह्नित की जाती थीं। निःसंदेह ऐसे मानचित्र औपनिवेशिक शहरों को समझाने के लिए काफी महत्त्वपूर्ण हैं। लेकिन साथ ही हमें ब्रिटिश शासकों की सोच में भेदभाव की नीति भी स्पष्ट हो जाती है। उदाहरण के लिए शहर में गरीब बस्तियों को चिह्नित ही नहीं किया जाता था, क्योंकि शासकों के लिए उनका महत्त्व ही नहीं था।

प्रश्न 6.
औपनिवेशिक शहरों के उदय पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
अंग्रेज़ों के राजनीतिक नियंत्रण और आर्थिक नीतियों के चलते कलकत्ता, बम्बई और मद्रास जैसे नए शहरों का उदय हुआ। कुछ वर्षों में ही ये विशाल शहर बन गए। ये शहर शुरु में भारतीय सूती कपड़े, मसाले व अन्य निर्यात उत्पादों के संग्रह डिपो थे। अर्थात् इन बंदरगाह नगरों पर बने गोदामों में भारत के विभिन्न भागों से निर्यात-उत्पादों को लाकर एकत्रित किया जाता था ताकि उन्हें ब्रिटेन भेजा जा सके। इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति ने व्यापार के इस प्रवाह को बदल दिया। अब भारत कच्चे माल का निर्यातक व पक्के माल का आयातक देश बन गया। अर्थात् भारत से रूई, जूट, खाल आदि वस्तुओं का निर्यात होने लगा और ब्रिटेन से कपड़ा भारत में आयात होने लगा।

व्यापार के इस नए प्रवाह के कारण कलकत्ता, बम्बई व मद्रास जैसे शहरों में ब्रिटेन में बनी वस्तुएँ उतरने लगी और वे रेलवे के माध्यम से देश के विभिन्न अंचलों में पहुंचने लगीं। दूसरी ओर, कच्चा माल और अनाज अब इन बंदरगाह शहरों की ओर बहने लगा। इसी प्रकार रेलवे स्टेशनों के आस-पास शहर बने। पर्वतीय क्षेत्र में हिल स्टेशन विकसित हुए।

प्रश्न 7.
भारत में शहरों को रेलवे नेटवर्क’ ने किस प्रकार प्रभावित किया?
उत्तर:
भारत में पहली बार 1853 ई० में रेलगाड़ी बम्बई से ठाणे के बीच चलाई गई। इसके बाद तेजी से रेलवे नेटवर्क का विस्तार किया गया। 19वीं सदी के 7वें दशक में कुल 1300 किलोमीटर रेलमार्ग थे जो 1905 तक बढ़कर 45000 किलोमीटर हो गया था। रेलवे नेटवर्क के इस विस्तार ने भारत में बहुत-से शहरों की कायापलट कर दी। अनाज तथा कपास व जूट इत्यादि कच्चे माल को रेलगाड़ी बंदरगाह नगरों तक लाने लगी। इंग्लैंड से आयातित तैयार माल को दूर-दराज के प्रदेशों तक पहुँचाने लगी। इस

हरेक रेलवे स्टेशन ‘मंडी’ (छोटा बाजार) बनने लगा था। वो आयातित वस्तुओं के वितरण तथा कच्चे माल के संग्रह केंद्र बन गए। इसके परिणामस्वरूप नदियों के किनारे बसे तथा पुराने मार्गों पर पड़ने वाले शहरों का महत्त्व कम होता गया। रेल के कारण आर्थिक गतिविधियों का केंद्र पुराने शहरों से दूर होता गया जो उनके पतन का कारण था। उदाहरण के लिए गंगा के किनारे पर स्थित मिर्जापुर पहले कपास और सूती वस्त्रों के संग्रह का केंद्र होता था परंतु ‘रेलवे नेटवर्क’ के बाद यह शहर अपनी पहचान खोने लगा था।
रेलवे विस्तार के साथ रेलवे कॉलोनियाँ और लोको (रेलवे वर्कशॉप) स्थापित हुए। इससे भी कई नए रेलवे शहर, जैसे कि बरेली, जमालपुर, वाल्टेयर आदि अस्तित्व में आए। पहाड़ी क्षेत्रों में रेल जाने से पर्वतीय पर्यटन शहरों का उदय हुआ।

प्रश्न 8.
भारतीय उद्योगों के प्रति औपनिवेशिक सरकार के दृष्टिकोण को स्पष्ट करें।
उत्तर:
(1) ब्रिटिश सरकार ने नवोदित भारतीय उद्योगों की कोई आर्थिक सहायता नहीं की। उधर बैंकों, वित्तीय कंपनियों तथा बीमा कंपनियों में विदेशी पूँजी का नियंत्रण होने के कारण भारतीय उद्योगपतियों को अंग्रेज़ उद्योगपतियों की तुलना में ऊँची दर पर ब्याज का भुगतान करना पड़ता था।

(2) सरकार की ओर से नवोदित भारतीय उद्योगों को कोई सहायता एवं संरक्षण नहीं मिला। बिना सरकारी संरक्षण के किसी भी देश में औद्योगीकरण संभव नहीं हुआ था।

(3) भारतीय उद्योगपतियों को सहायता पहुँचाने की अपेक्षा सरकार ने विदेशी प्रतियोगियों की सहायता करके भारतीय उद्योग को हानि पहुँचाई। उदाहरण के लिए, रेल के भाड़ों में भेदभाव रखा गया। आंतरिक रेलमार्गों पर माल भाड़े की दर अधिक रखी गई थी।

(4) मुक्त व्यापार नीति (Free Trade Policy) से भी भारत में नवोदित उद्योगों को क्षति पहुँची। उन्हें सरकार की ओर से कोई सहारा भी नहीं मिला।

(5) ब्रिटिश सरकार ने भारत में तकनीकी शिक्षा तथा आधारभूत उद्योगों (इस्पात, मशीन निर्माण, रसायन, तेल और धातु कर्म आदि) को निरुत्साहित किया। परिणामस्वरूप भारतीय उद्योगपतियों को मशीनों के लिए विकसित पूँजीपति देशों पर निर्भर होना पड़ता था। कुशल इंजीनियरों एवं विशेषज्ञों के लिए भी भारतीयों को विकसित देशों पर ही निर्भर रहना पड़ता था।

प्रश्न 9.
सन् 1857 के विद्रोह ने शहरी परिवेश को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर:
सन् 1857 के जन-विद्रोह ने भारत में शहरी परिवेश को प्रभावित किया। 1857 के विद्रोह से अंग्रेज़ आतंकित हो गए थे। उन्हें सदैव विद्रोह की आशंका दिखती थी। इसलिए उन्होंने भविष्य में विद्रोह की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए ‘देशियों’ यानी भारतीयों से अलग दूर सुरक्षित बस्तियों में रहने की नीति अपनाई। इस दृष्टि से उन्होंने शहरों की बनावट में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए
(1) पुराने शहरों अथवा कस्बों के साथ लगते खेतों और चरागाहों को साफ करवाकर नए शहरी क्षेत्र विकसित किए गए। इन्हें ‘सिविल लाइंस’ का नाम दिया गया।

(2) “सिविल लाइंस’ में केवल गोरे लोग निवास करते थे।

(3) सैनिक छावनियों का निर्माण व्यवस्थित तरीके से सुरक्षित स्थानों के रूप में किया गया। इनमें बड़े-बड़े बगीचों में विशाल बंगले, बैरकें, परेड मैदान तथा चर्च आदि बनवाए गए।

(4) छावनियों में कमान ‘गोरे’ अधिकारियों को सौंपी गई। इस प्रकार ये छावनियाँ यूरोपियों के लिए सुरक्षित आश्रय-स्थल शहरी जीवन के मॉडल भी थे।

प्रश्न 10.
औपनिवेशिक काल में पर्वतीय शहर क्यों विकसित हुए?
उत्तर:
पर्वतीय शहर शुरु में सैनिक छावनियाँ बनीं, फिर अधिकारियों के आवास-स्थल और अन्ततः पर्वतीय पर्यटन स्थलों के तौर पर विकसित हुए। प्रारंभ में इनकी स्थापना और बसावट ब्रिटिश सेना की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए की गई थी। इन पर्वतीय शहरों का रणनीतिक दृष्टि से काफी महत्त्व था। विशेषतया यूरोपीय अधिकारियों व सैनिकों को ठहराने, सीमा की सुरक्षा करने तथा शत्रु पर आक्रमण करने के लिए इन शहरों का उपयोग किया गया। धीरे-धीरे ये पर्वतीय शहर ऐसे स्थान बन गए जहाँ सैनिकों को आराम व चिकित्सा के लिए भेजा जाने लगा। वास्तविकता यह थी कि अंग्रेज़ों का ध्यान सेना की सुरक्षा पर था। सैनिकों को बीमारियों से बचाने के लिए पर्वतीय शहरों को भी एक तरह से नई छावनियों के तौर पर ही विकसित किया गया।

पहाड़ी शहरों की जलवायु स्वास्थ्यवर्द्धक थी। इसलिए गर्मियों के दिनों में अंग्रेज़ अपनी राजधानी शिमला बनाते थे। सन् 1864 में गवर्नर-जनरल जॉन लारेंस ने स्थायी रूप से अपने काउंसिल कार्यालय को शिमला में स्थापित कर लिया था। प्रधान सेनापति का आवास भी यहीं बनाया गया। इसके अतिरिक्त अन्य बहुत-से अंग्रेज़ व यूरोपीय अधिकारियों ने अपने निवास स्थल पर्वतीय शहरों पर बनाने शुरु किए। स्पष्ट है कि पर्वतीय शहरों में गोरे लोगों को पश्चिमी सांस्कृतिक जीवन जीने का अवसर मिला। रेलवे नेटवर्क से जोड़ दिए जाने पर ये शहर सम्पन्न वर्गीय भारतीयों के लिए भी महत्त्वपूर्ण हो गए। महाराजा, नवाब, व्यापारी तथा अन्य मध्यवर्गीय लोग इन पर्वतीय शहरों पर पर्यटन के लिए जाने लगे।

प्रश्न 11.
स्थापत्य शैलियाँ ऐतिहासिक दृष्टि से किस प्रकार महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर:
स्थापत्य शैलियाँ अथवा इमारतें हमारे विचारों को आकार देने में सहायक होती हैं। इतिहास लेखन में इनका बहुत महत्त्व है। इनसे निम्नलिखित बातों का पता चलता है

1. सौंदर्य आदर्शों की अनुभूति स्थापत्य शैलियों और इमारतों से तात्कालिक सौंदर्यात्मक आदर्शों की अनुभूति होती है। औपनिवेशिक शासक अपने इस सौंदर्यात्मक आदर्शों के माध्यम से भी अपनी श्रेष्ठता की भावना को व्यक्त करते थे।

2. सत्ता प्रभुत्व की अभिव्यक्ति इमारतों में प्रभुत्व की भावना भी निहित होती है। यह हमें उन लोगों की सोच व दृष्टि के बारे में बताती हैं जो उन्हें बनाने वाले थे। इमारतों के माध्यम से सत्ता अपने प्रभुत्व का अहसास करवाती है।

3. नई स्थापत्य शैलियों का विकास-पश्चिमी स्थापत्य शैलियों से प्रभावित होकर बहुत-से सम्पन्न भारतीयों ने अपने भवनों के निर्माण में यूरोपीय शैलियों को अपनाया।

4. राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पहचान-19वीं सदी के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते औपनिवेशिक आदर्शों से अलग हमें राष्ट्रीय व क्षेत्रीयता की पहचान कराने वाली स्थापत्य शैलियों के दर्शन होने लगते हैं। यही वह समय था जब राष्ट्रीय विचारधारा भारत में अपना स्वरूप ग्रहण कर रही थी।

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि हम उस युग की स्थापत्य शैलियों के माध्यम से राजनीतिक व सांस्कृतिक टकरावों को समझ सकते हैं।

प्रश्न 12.
औपनिवेशिक शहरों (नए शहरों) में सामाजिक जीवन कैसा था?
उत्तर:
नए शहरों का सामाजिक जीवन पहले के शहरों से बिल्कुल अलग था। शहरों में नए सामाजिक वर्ग सामने आ रहे थे

(1) शहरों में मध्यम वर्ग शिक्षक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, क्लर्क तथा अकाउटेंट्स आदि थे। शहरों में मेहनतकश कामगारों का एक नया वर्ग उभर रहा था।

(2) यातायात के साधन; जैसे घोड़ागाड़ी, ट्रामों और बसों के आने से लोगों का शहरों में आना-जाना आसान हो गया। घर से दफ्तर या फैक्ट्री जाना एक नए किस्म के अनुभव होने लगे। यातायात सुविधाओं के कारण लोग शहरों के केंद्र से दूर जाकर बस सकते थे।

(3) शहरों में औरतों के लिए भी नए अवसर थे। सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने लगी थी, यद्यपि सार्वजनिक स्थानों पर औरतों का काम करना अच्छा नहीं मानते थे। उन पर कार्टूनों के माध्यम से व्यंग्य किए गए।

(4) शहरों में कामगार लोगों का जीवन आसान नहीं था। आजीविका की तालाश में लोग गाँवों से शहरों की ओर आ रहे थे। इनमें से अधिकांश पुरुष थे। शहरों में इनके लिए स्थायी नौकरियाँ नहीं थीं। इनके पास पर्याप्त बुनियादी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं थीं।

प्रश्न 13.
मद्रास शहर की बसावट में अंग्रेजों की जातीय श्रेष्ठता साफ झलकती है, कैसे? स्पष्ट करें।
उत्तर:
मद्रास शहर का विकास निःसन्देह अंग्रेजों की जातीय श्रेष्ठता को दर्शाता है
(1) मद्रास में अंग्रेज़ों ने फोर्ट सेंट जॉर्ज किले का निर्माण करवाया। इस किले में अधिकतर यूरोपीय लोग रहते थे। इसीलिए यह क्षेत्र व्हाइट टाउन के रूप में जाना गया।

(2) किले के भीतर रहने का आधार रंग और धर्म था। भारतीयों को इस क्षेत्र में रहने की अनुमति नहीं थी।

(3) यूरोपीय ईसाई होने के कारण पुर्तगालियों, डचों इत्यादि को व्हाइट टाउन में रहने की छूट थी।

(4) संख्या में कम.होते हुए भी अंग्रेज़ शासक थे। शहर का विकास भी इन्हीं लोगों की जरूरतों व सुविधाओं के अनुरूप ही किया जा रहा था।

(5) व्हाइट टाउन से बिल्कुल अलग ब्लैक टाउन बसाया गया, जो किला-क्षेत्र से दूर उत्तर दिशा में जाकर बसाया गया।

(6) ब्लैक टाउन पुराने भारतीय शहरों के समान ही था। इसमें मन्दिर और बाज़ार के आस-पास रिहायशी मकान बनाए गए थे। इसमें तंग और आड़ी-टेढ़ी गलियाँ थीं।

(7) अलग-अलग जातियों के लोग विशेष मोहल्लों में रहते थे।

प्रश्न 14.
बंगाल में अंग्रेज़ों ने अपने शासन के आरंभ में ही नगर-नियोजन के कार्य को अपने हाथों में क्यों ले लिया?
उत्तर:
बंगाल में अंग्रेज़ों द्वारा नगर-नियोजन का काम अपने हाथों में लेने के कारण इस प्रकार थे

(1) बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने 1765 ई० में कलकत्ता पर आक्रमण करके किले पर अधिकार कर लिया जिसे अंग्रेज़ माल गोदाम के रूप में प्रयोग करते थे। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ों ने फोर्ट विलियम का निर्माण करवाया और इसके इर्द-गिर्द एक विशाल खाली मैदान छोड़ा गया।

(2) लॉर्ड वेलेज़्ली ने 1803 ई० में गवर्नमेंट हाउस का निर्माण करवाया जो अंग्रेज़ी सत्ता का प्रतीक था। इसके अतिरिक्त भारतीय जनसंख्या वाले इलाके संकरी गलियों, गंदे तालाबों तथा जल-निकासी की खस्ता हालत के कारण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक थे। वेलेज़्ली ने एक आदेश जारी किया जिसके अनुसार बाजारों, घाटों, कब्रिस्तानों एवं चर्मशोधन इकाइयों को शहर से हटा दिया गया। शहर के सफाई प्रबंध की ओर विशेष ध्यान दिया गया।

प्रश्न 15.
भारत के औपनिवेशिक शहर क्या सही अर्थों में औद्योगिक शहर’ बन सके? स्पष्ट करें।
उत्तर:
रेलवे नेटवर्क’ के माध्यम से भारत में आधुनिक औद्योगिक विकास के अंकुर फूटने लगे। इन शहरों में भारत के विभिन्न ग्रामीण अंचलों से कच्चा माल पहुँचता था। आजीविका की तलाश में कामगार लोग इन शहरों में आ रहे थे अर्थात् यहाँ कच्चा माल भी था और सस्ता श्रम भी उपलब्ध था। ऐसी स्थिति में भारतीय व्यापारियों व उद्यमियों ने कुछ उद्योग लगाने शुरू किए। उदाहरण के लिए, 1853 ई० में बम्बई में कावसजी नाना ने पहली सूती कपड़ा मिल लगाई। भारत में 1905 में 206 सूती कपड़े की मिलें थीं। कलकत्ता के आस-पास जूट मिलें लगाई गईं।

अंग्रेज़ी राज़ के दौरान भारत में औद्योगिक विकास की शुरुआत तो हुई, लेकिन यह विकास बहुत ही धीमा और सीमित रहा। पक्षपातपूर्ण संरक्षणवादी नीतियों ने औद्योगिक विकास को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया। वास्तव में कलकत्ता, बम्बई व मद्रास जैसे विशाल शहर मैनचेस्टर या लंकाशायर ब्रिटिश औद्योगिक शहरों की तरह औद्योगिक नगर नहीं बन सके। इनमें रहने वाले अधिकांश मेहनत करने वाली आबादी औद्योगिक मजदूरों की नहीं थी, बल्कि उस श्रेणी में आती थी, जिसे अर्थशास्त्री तृतीयक क्षेत्र (Tertiary Sector) अर्थात् सेवा-क्षेत्र कहते हैं। इसी चरित्र के कारण इन्हें मुख्यतया औपनिवेशिक शहर कहा गया है।

प्रश्न 16.
भवन निर्माण की इंडो-सारासेनिक शैली के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
इण्डो शब्द भारतीय का परिचायक था। सारासेन शब्द का प्रयोग यूरोपीय लोगों द्वारा मुसलमानों के लिए किया जाता था। इण्डो-सारासेनिक शैली भारतीय और यूरोपीय स्थापत्य शैलियों के तत्त्वों का मिश्रण थी। यह शैली मध्यकालीन भारतीय इमारतों की निर्माण-शैली से प्रभावित थी। मध्यकालीन इमारतों के गुम्बदों, छतरियों, जालियों तथा मेहराबों ने विशेष रूप से अंग्रेज़ शासकों को आकर्षित किया।

इस शैली को अपनाकर अंग्रेज़ शासक स्वयं को भारत का वैध तथा स्वाभाविक शासक भी सिद्ध करना चाहते थे। 1911 ई० में इंग्लैण्ड का राजा जॉर्ज पंचम व उसकी पत्नी मैरी भारत में आए। इस अवसर पर उनके स्वागत के लिए ‘गेट वे ऑफ इण्डिया’ का निर्माण करवाया गया। यह परम्परागत गुज़राती शैली का बेहतर उदाहरण है। इसी समय में, जमशेदजी टाटा ने इस शैली में ताजमहल होटल बनवाया।
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प्रश्न 17.
नव-शास्त्रीय या नियोक्लासिकल शैली के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
नव-शास्त्रीय शैली का संबंध प्राचीन रोमन भवन-निर्माण शैली से था। अंग्रेज़ों ने इस शैली को विशेष तौर पर भारत के अनुकूल माना। इस शैली में बड़े-बड़े स्तम्भों का निर्माण रेखा-गणितीय संरचनाओं के आधार पर किया जाता था। भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में पैदा हुई इस शैली को भारत के उष्ण-कटिबंधीय जलवायु के अनुकूल भी माना गया। बम्बई का टाउन हाल (1833 ई०) इसी शैली के आधार पर बनाया गया। बहुत सारी व्यावसायिक इमारतें भी इस आधार पर बनाई गईं। इन इमारतों में एल्फिस्टन सर्कल की इमारतें मुख्य थीं।
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दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
औपनिवेशिक शहरों का स्वरूप किस प्रकार का था? वर्णन करें।
उत्तर:
16वीं व 17वीं सदी के शहरों की तुलना में इन शहरों की भौतिक संरचना, परिवेश और सामाजिक जीवन भिन्न था। यह अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिम्बित कर रहे थे। इनमें आधुनिकता परिलक्षित हुई, कहने का अभिप्राय है कि ये आधुनिक औद्योगिक शहर नहीं बन पाए बल्कि औपनिवेशिक शहरों के तौर पर ही विकसित हुए उनका स्वरूप निम्नलिखित प्रकार से था-

1. किलेबंद बंदरगाह नगर (Fortified Port Cities)-नए शहरों में मद्रास, कलकत्ता और बम्बई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे। इन्हें ‘प्रेजीडेंसी शहर’ भी कहा जाता था। इनका विकास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के चलते उपयोगी बंदरगाहों और संग्रह केंद्रों के रूप में हुआ। 18वीं सदी के अंत तक पहुँचते-पहुँचते ये बड़े नगरों के तौर पर सुस्थापित हो चुके थे। इनमें आकर बसने वाले अधिकांश भारतीय अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक गतिविधियों में सहायक बनकर आजीविका कमाने वाले थे। विशेषतः वे निर्यात होने वाले उत्पादों के संग्रह में सहायक थे। बंदरगाह शहरों की बस्तियों में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कारखाने’ यानी वाणिज्यिक कार्यालय स्थापित कर लिए थे।

यह व्यापारिक कंपनियों के बीच व्यापारिक मुनाफे के लिए प्रतिस्पर्धा का दौर था, जो कई बार तीखे संघर्षों में बदल जाती थी। इसलिए अंग्रेज़ों ने अपनी व्यापारिक बस्तियों व ‘कारखानों’ की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी किलेबंदी करवाई। मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फोर्ट विलियम और इसी प्रकार बम्बई में भी दुर्ग बनवाया गया। इन किलों में वाणिज्यिक कार्यालय थे तथा ब्रिटिश लोगों के रहने के लिए निवास थे।

2. नगर संरचना में नस्ली भेदभाव (Racial Differentiation in Towns Structure)-अंग्रेज़ लोग, जैसा कि बताया गया है, दुर्गों के अंदर बनी बस्तियों में रहते थे। जबकि भारतीय व्यापारी, कारीगर और मज़दूर इन किलों से बाहर बनी अलग बस्तियों में रहते थे। अलग रहने की यह नीति शुरू से ही अपनाई गई थी। अंग्रेज़ों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मकान (क्वार्टस) बनाए गए थे। सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेजों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरू से ही परिलक्षित हुआ। यह उस समय और भी तीखा हो गया जब अंग्रेज़ों का राजनीतिक नियंत्रण स्थापित हो गया।

3. सेवाओं के केंद्र (Centre of Tertiary Sector)-19वीं सदी में इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ इन शहरों में नए बदलाव नज़र आए। रेलवे नेटवर्क’ के माध्यम से ये शहर भारत के दूर-दराज के अंचलों से जुड़ गए। धीरे-धीरे इनमें आधुनिक औद्योगिक विकास के अंकुर फूटने लगे। इन शहरों में भारत के विभिन्न ग्रामीण अंचलों से कच्चा माल पहुँचता था। आजीविका की तलाश में कामगार लोग इन शहरों में आ रहे थे अर्थात् यहाँ कच्चा माल भी था और मेहनत करने वाले लोग यानी सस्ता श्रम भी उपलब्ध था। अब उद्योग लगाने के लिए उद्यमी और पूँजी की जरूरत थी।

ऐसी स्थिति में उन भारतीय व्यापारियों व उद्यमियों ने कुछ उद्योग लगाने शुरू किए जिनके पास कुछ पूँजी एकत्रित हो चुकी थी। उदाहरण के लिए 1853 में बम्बई में कावसजी नाना ने पहली सूती कपड़ा मिल लगाई। भारत में 1905 में 206 सूती कपड़े की मिलें थीं। कलकत्ता के आस-पास जूट मिलें लगाई गईं। इनमें ब्रिटिश उद्योगपतियों ने भी अपनी पूँजी लगाई। सन् 1901 में भारत में 40 जूट मिलें थीं। पहली जूट मिल 1855 ई० में कलकत्ता के पास रिशरा में स्थापित की गई थी।

निःसंदेह अंग्रेज़ी राज़ के दौरान भारत में औद्योगिक विकास की शुरुआत हुई। लेकिन यह विकास बहुत ही धीमा और सीमित रहा। इसका कारण पक्षपातपूर्ण संरक्षणवादी नीतियाँ थीं। इन नीतियों ने औद्योगिक विकास को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया। फैक्ट्री उत्पादन शहरी अर्थव्यवस्था का आधार नहीं बन सका। वास्तव में कलकत्ता, बम्बई व मद्रास जैसे विशाल शहर मैनचेस्टर या लंकाशायर ब्रिटिश औद्योगिक शहरों की तरह औद्योगिक नगर नहीं बन सके।

इनमें रहने वाले अधिकांश मेहनत करने वाली आबादी औद्योगिक मजदूरों की नहीं थी, बल्कि उस श्रेणी में आती थी, जिसे अर्थशास्त्री तृतीयक क्षेत्र (Tertiary Sector) अर्थात् सेवा-क्षेत्र कहते हैं। आर्थिक विकास के इसी चरित्र के कारण इन्हें मुख्यतः औपनिवेशिक शहर कहा गया है। इनके विकास से समूचे देश की अर्थव्यवस्था में भी आधुनिकीकरण की दिशा में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य

प्रश्न 2.
नए शहरों में उभरते सामाजिक जीवन पर नोट लिखें।
उत्तर:
नए शहरों का सामाजिक जीवन पहले के शहरों से बिल्कुल अलग था। इसमें औपनिवेशिक प्रभुत्व के साथ आधुनिकता झलकती थी। जिन्दगी की गति बहुत तेज़ थी। सामान्य भारतीय इन शहरों में भाग-दौड़ और लोगों के व्यवहार में आ रहे परिवर्तनों से आश्चर्यचकित थे। यहाँ हम नए सामाजिक वर्गों के जीवन को रेखांकित कर रहे हैं

1. मध्य वर्ग (Middle Class)-नए शहर मध्य वर्ग के केन्द्र थे। इस वर्ग में शिक्षक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, क्लर्क तथा अकाउंटेंट्स इत्यादि थे। इन शहरों में इस वर्ग के लोगों की माँग निरन्तर बढ़ती जा रही थी। मध्य वर्ग एक नया सामाजिक समूह था जिसके लिए पुरानी पहचान अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रही थी। इन नए शहरों में पुराने शहरों वाला परस्पर मिलने-जुलने का अहसास खत्म हो चुका था, लेकिन साथ ही मिलने-जुलने के नए स्थल; जैसे कि सार्वजनिक पार्क, टाउन हॉल, रंगशाला और 20वीं सदी में सिनेमा हॉल इत्यादि बन चुके थे। यह स्थल मध्यवर्गीय लोगों के जीवन का हिस्सा बनने लगे।

मध्य वर्ग, समाज में सबसे जागृत वर्ग के तौर पर विकसित हुआ। यह शिक्षित वर्ग था। स्कूल, कॉलेज और पुस्तकालय जैसे नए शिक्षण संस्थान इनकी पहुँच में थे। समाचार-पत्र और पत्रिकाओं में यह लोग अपना मत व्यक्त करते थे। इस वर्ग में से विद्वान लोग स्वयं समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ निकालते थे। इससे वाद-विवाद और चर्चा का नया दायरा उत्पन्न हुआ। सामाजिक और राष्ट्रीय महत्त्व के विषय चर्चा के केन्द्र-बिन्दु बने। राष्ट्रीय-चेतना को प्रसारित करने में इस वर्ग के लोगों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। पुराने रीति-रिवाज़ों, कर्म-काण्डों और जीवन के तौर-तरीकों पर सवाल उठाए गए। 19वीं सदी में सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन उठ खड़ा हुआ। स्पष्ट है कि मध्य वर्ग अपनी नई पहचान और नई भूमिकाओं के साथ अस्तित्व में आया।

2. महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन (Changes in the Condition of Women)-नए शहरों में नए अर्थतंत्र, यातायात व संचार के साधनों के विकास से औरतों के लिए नए अवसर उत्पन्न हुए। फलतः सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने लगी। वे घरों में नौकरानी, फैक्टरी में मजदूर, शिक्षिका रंग-कर्मी तथा फिल्मों में कार्य करती हुई दिखाई देने लगीं। उल्लेखनीय है कि सार्वजनिक स्थानों पर कामकाज करने वाली महिलाओं को सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा जाता था। शिक्षित कामकाजी महिलाओं के ऊपर पेंटिंग और कार्टूनों के माध्यम से व्यंग्य किए गए। 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में बनी कालीघट की पेंटिंग इसका एक उदाहरण है।

इसमें पुरुषों की बेचैनी दिखाई देती है कि कैसे एक नए जमाने की शिक्षित महिला एक जादूगरनी है, जो आदमी को भेड़ बनाकर वश में कर लेती है। अतः स्पष्ट है कि सामाजिक बदलाव सहज रूप से नहीं हो रहे थे। रूढ़िवादी विचारों के लोग पुरानी परम्पराओं और व्यवस्था को बनाए रखने का पुरजोर समर्थन कर रहे थे। वे नहीं चाहते थे कि औरत पढ़-लिखकर काम करने के लिए सार्वजनिक स्थानों पर जाए। वे अभी भी औरत को घर की चारदीवारी के भीतर ही रखना चाहते थे। उन्हें यह डर था कि औरतों के शिक्षित होने से पूरी सामाजिक व्यवस्था ही खतरे में पड़ जाएगी।

यहाँ तक कि औरतों की शिक्षा का समर्थन करने वाले समाज-सुधारक भी महिलाओं को अच्छी गृहिणी बनाने की बात कर रहे थे। वे भी उन्हें माँ और पत्नी की परम्परागत भूमिकाओं में ही देखना चाहते थे। उनका यह असंतोष परम्परागत पितृसत्तात्मक समाज को बनाए रखने का ही प्रयास था। दूसरी ओर, शिक्षित मध्यवर्गीय महिलाएँ पत्र-पत्रिकाओं, आत्म-कथाओं और पुस्तकों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रही थीं।

3. कामगार लोग (Labouring People)-कामगार लोगों के लिए शहरी जीवन एक संघर्ष था। ये लोग इन नए शहरों की तड़क-भड़क से आकर्षित होकर आए थे या फिर आजीविका के नए अवसरों की तलाश में आए। आने वालों में अधिकांशतः पुरुष थे। इन कामगार लोगों के लिए शहर की महँगाई को देखते हुए अपने परिवार को साथ रख पाना आसान नहीं था। अतः बहुत-से लोग अपने परिवार को पीछे गाँव में ही छोड़कर आए थे। शहर में इनकी नौकरी स्थायी नहीं थी। वेतन कम था और खर्चे ज्यादा थे। खाना काफी महँगा था और मकान का किराया भी आमदनी को देखते हुए बहुत ज्यादा था।

इस प्रकार, मज़दूर यानी कामगार लोगों का जीवन गरीबी से पीड़ित था। ये सामान्यतः झोंपड़-पट्टी में रहते थे। इन्हें जीवन की बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थीं। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी इन लोगों ने अपनी एक अलग जीवंत शहरी संस्कृति’ रच ली थी। वे धार्मिक त्योहारों, मेलों, स्वांगों तथा तमाशों इत्यादि में भाग लेते थे। ऐसे अवसरों पर वे अपने यूरोपीय और भारतीय स्वामियों पर प्रायः कटाक्ष और व्यंग्य करते हुए उनका मज़ाक उड़ाते थे।

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HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. बौद्ध संघ में प्रवेश पाने वाली प्रथम महिला थी
(A) बुद्ध की पत्नी यशोधरा
(B) बुद्ध की उपमाता गौतमी
(C) उपर्युक्त दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) बुद्ध की उपमाता गौतमी

2. महात्मा बुद्ध का बचपन का नाम था
(A) सिद्धार्थ
(B) शुद्धोधन
(C) वर्धमान
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) सिद्धार्थ

3. बौद्ध मत में महाभिनिष्क्रिमण से अभिप्राय है
(A) महात्मा बुद्ध द्वारा ज्ञान प्राप्त करना
(B) महात्मा बुद्ध द्वारा तपस्या करना
(C) महात्मा बुद्ध द्वारा गृह त्याग करना
(D) महात्मा बुद्ध द्वारा देह त्याग करना
उत्तर:
(C) महात्मा बुद्ध द्वारा गृह त्याग करना

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

4. बौद्ध धर्म के प्रमुख अंग हैं
(A) बुद्ध
(B) संघ
(C) धम्म
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. बौद्ध परंपरा में महापरिनिर्वाण से अभिप्राय है
(A) महात्मा बुद्ध द्वारा सच्चा ज्ञान प्राप्त करना
(B) महात्मा बुद्ध द्वारा गृह त्याग करना
(C) महात्मा बुद्ध द्वारा नगर भ्रमण करना
(D) महात्मा बुद्ध द्वारा देहावसान करना
उत्तर:
(D) महात्मा बुद्ध द्वारा देहावसान करना

6. त्रिपिटक किस धर्म से संबंधित है?
(A) हिन्दू धर्म
(B) जैन धर्म
(C) इस्लाम धर्म
(D) बौद्ध धर्म
उत्तर:
(D) बौद्ध धर्म

7. आबू के जैन मन्दिर प्रसिद्ध हैं
(A) दिलवाड़ा के नाम से
(B) अजंता के नाम से
(C) साँची स्तूप के नाम से
(D) महाबलीपुरम के मन्दिर के नाम से
उत्तर:
(A) दिलवाड़ा के नाम से

8. कालान्तर में जैन धर्म किन सम्प्रदायों में विभाजित हुआ ?
(A) श्वेताम्बर
(B) दिगम्बर
(C) उपर्युक्त दोनों
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) उपर्युक्त दोनों

9. जैन धर्म के कुल तीर्थंकर हुए हैं
(A) 22
(B) 25
(C) 24
(D) 1
उत्तर:
(C) 24

10. जैन धर्म के 24वें व अन्तिम तीर्थंकर थे
(A) महावीर स्वामी
(B) ऋषभदेव
(C) पार्श्वनाथ
(D) अजितनाथ
उत्तर:
(A) महावीर स्वामी

11. महात्मा बुद्ध ने प्रथम उपदेश दिया था
(A) कपिलवस्तु में
(B) सारनाथ में
(C) गया में
(D) कुशीनगर में
उत्तर:
(B) सारनाथ में

12. बौद्ध धर्म में मुक्ति का मार्ग बताया गया
(A) त्रिरत्न को
(B) अष्ट मार्ग को
(C) तपस्या को
(D) अहिंसा को
उत्तर:
(B) अष्ट मार्ग को

13. मद्रास में गवर्नमेंट म्यूजियम की स्थापना हुई
(A) 1905 ई० में
(B) 1805 ई० में
(C) 1851 ई० में
(D) 1914 ई० में
उत्तर:
(C) 1851 ई० में

14. जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया गया
(A) त्रिरत्न को
(B) अष्ट मार्ग को
(C) वेदों के ज्ञान को
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) त्रिरत्न को

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

15. निम्नलिखित में से कौन-सा बौद्ध ग्रन्थ नहीं है ?
(A) महावंश
(B) दीपवंश
(C) महाभारत
(D) जातक
उत्तर:
(C) महाभारत

16. महायान का सम्बन्ध किस धर्म से है ?
(A) हिन्दू धर्म
(B) शैव धर्म
(C) जैन धर्म
(D) बौद्ध धर्म
उत्तर:
(D) बौद्ध धर्म

17. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय संग्रहालय की नई दिल्ली में नींव रखी
(A) 1905 ई० में
(B) 1955 ई० में
(C) 1989 ई० में
(D) 1960 ई० में
उत्तर:
(B) 1955 ई० में

18. जातकों की भाषा क्या थी?
(A) पालि
(B) हिन्दी
(C) संस्कृत
(D) प्राकृत
उत्तर:
(B) हिन्दी

19. महावीर स्वामी का देहावसान हुआ
(A) पावापुरी में
(B) कुशीनगर में
(C) कुंडग्रीम में
(D) लुम्बिनी में
उत्तर:
(A) पावापुरी में

20. महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ
(A) लुम्बिनी वन में
(B) पावापुरी में
(C) कुशीनगर में
(D) सारनाथ में
उत्तर:
(A) लुम्बिनी वन में

21. महावीर स्वामी का प्रारम्भिक नाम था
(A) सिद्धार्थ
(B) वर्धमान
(C) सिद्धांत
(D) शुद्धोधन.
उत्तर:
(B) वर्धमान

22. बौद्ध साहित्य की रचना किस भाषा में हुई थी?
(A) पालि भाषा में
(B) संस्कृत भाषा में
(C) प्राकृत भाषा में
(D) मगधी भाषा में
उत्तर:
(A) पालि भाषा में

23. महाबलीपुरम् के मंदिर स्थित हैं
(A) केरल राज्य में
(B) आन्ध्र प्रदेश में
(C) तमिलनाडु में
(D) महाराष्ट्र में
उत्तर:
(C) तमिलनाडु में

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24. महावीर का बचपन में नाम था
(A) सिद्धार्थ
(B) वर्धमान
(C) सिद्धान्त
(D) शुद्धोधन
उत्तर:
(B) वर्धमान

25. कैलाशनाथ मंदिर, एलोरा मंदिर निम्नलिखित में से कौन-से राज्य में पड़ता है?
(A) बिहार में
(B) महाराष्ट्र में
(C) राजस्थान में
(D) उड़ीसा में
उत्तर:
(B) महाराष्ट्र में

26. पाँचवीं शताब्दी का देवगढ़ विष्णु मंदिर कौन-से राज्य में है ?
(A) उत्तर प्रदेश में
(B) पश्चिमी बंगाल में
(C) उड़ीसा में
(D) मध्य प्रदेश में
उत्तर:
(A) उत्तर प्रदेश में

27. साँची का स्तूप कहाँ पर स्थित है?
(A) भोपाल के निकट
(B) मथुरा के निकट
(C) आगरा के निकट
(D) दिल्ली के निकट
उत्तर:
(A) भोपाल के निकट

28. अमरावती के स्तूप की खोज हुई
(A) 1854 ई० में
(B) 1850 ई० में
(C) 1796 ई० में
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) 1796 ई० में

29. पुन्ना नामक दासी की गाथा (थेरीगाथा) कौन-से बौद्ध ग्रंथ में मिलती है ?
(A) विनयपिटक में
(B) सुत्तपिटक में
(C) अभिधम्मपिटक में
(D) जातक कथाओं में
उत्तर:
(B) सुत्तपिटक में

30. सुल्तान जहाँ बेगम कहाँ की नवाब थी?
(A) दिल्ली
(B) भोपाल
(C) लखनऊ
(D) जयपुर
उत्तर:
(B) भोपाल

31. जातक कथाओं का संबंध किस धर्म से है?
(A) बौद्ध धर्म
(B) शैव धर्म
(C) हिंदू धर्म
(D) जैन धर्म
उत्तर:
(A) बौद्ध धर्म

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
वेदोत्तर साहित्य किसे माना गया है?
उत्तर:
वेदोत्तर साहित्य में वेदांग, स्मृतियाँ, महाकाव्य तथा पुराण शामिल हैं।

प्रश्न 2.
वेदांगों की संख्या कितनी है?
उत्तर:
वेदांगों की संख्या छः (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष) है।

प्रश्न 3.
स्मृतियों की विषय-वस्तु क्या है?
उत्तर:
स्मृतियाँ मुख्य रूप से कानूनी (वैधानिक) ग्रंथ हैं।

प्रश्न 4.
प्रमुख स्मृतियों के नाम बताएँ।
उत्तर:
मनुस्मृति, नारद स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति तथा पाराशर स्मृति प्रमुख वैधानिक स्मृतियाँ हैं।

प्रश्न 5.
पुराण का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
पुराण का शाब्दिक अर्थ ‘प्राचीन’ है। पुराणों की संख्या 18 है। संस्कृत परंपरा में इन्हें ऐतिहासिक ग्रंथ माना जाता है।

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प्रश्न 6.
प्रमुख पुराण कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
ब्रह्मा, विष्णु, मत्स्य, भागवत, अग्नि, शिव, मार्कण्डेय, गरुड़ पुराण इत्यादि प्रमुख हैं।

प्रश्न 7.
जातक कथाओं की संख्या कितनी है? ये किस भाषा में लिखी गईं?
उत्तर:
जातक कथाएँ 549 हैं जो पालि भाषा में लिखी गई हैं।

प्रश्न 8.
यूनानी राजा मिनांडर व बौद्ध भिक्ष नागसेन में दार्शनिक वार्तालाप किस ग्रंथ में मिलता है?
उत्तर:
‘मिलिन्दपन्हों’ ग्रंथ में मिनांडर व नागसेन में हुआ- दार्शनिक वार्तालाप मिलता है।

प्रश्न 9.
ऋग्वेद काल में प्राकृतिक देवताओं में सर्वोत्तम किसे माना गया?
उत्तर:
ऋग्वेद काल में प्राकृतिक देवताओं में सर्वोत्तम इंद्र को माना गया जो मुख्यतः आकाश का देवता था।

प्रश्न 10.
जैन धर्म के पहले तीर्थंकर कौन थे?
उत्तर:
जैन धर्म के पहले तीर्थंकर स्वामी ऋषभदेव थे।

प्रश्न 11.
महात्मा महावीर को परम ज्ञान की प्राप्ति के बाद क्या कहा गया?
उत्तर:
महात्मा महावीर को परम ज्ञान की प्राप्ति के बाद ‘जिन’ या ‘जैन’ कहा गया।

प्रश्न 12.
जैन धर्म आगे चलकर किन दो मुख्य संप्रदायों में विभाजित हो गया?
उत्तर:
लगभग 300 ई०पू० के काल में जैन धर्म श्वेतांबर और दिगंबर दो मुख्य संप्रदायों में विभाजित हो गया।

प्रश्न 13.
महात्मा बुद्ध द्वारा घर छोड़ने को बौद्ध परंपरा में क्या कहा गया?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध द्वारा घर छोड़ने को बौद्ध परंपरा में महाभिनिष्क्रिमण कहा गया है।

प्रश्न 14.
स्तूप का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
स्तूप का शाब्दिक अर्थ है ढेर अथवा टीला।

प्रश्न 15.
वर्तमान में साँची के स्तूप की देख-रेख किसके पास है?
उत्तर:
वर्तमान में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग साँची के स्तूप की देख-रेख करता है।

प्रश्न 16.
साँची के स्तूप को ‘वर्ल्ड हेरिटेज़ साइट’ कब घोषित किया गया?
उत्तर:
सन 1989 में साँची के स्तुप को ‘वर्ल्ड हेरिटेज साइट’ घोषित किया गया।

प्रश्न 17.
साँची के स्तूप की जानकारी प्राप्त करने के लिए मेजर अलेक्जेंडर ने क्या-क्या कार्य किए ?
उत्तर:
मेजर अलेक्जेंडर ने उस जगह के चित्र बनाए, वहाँ के अभिलेखों को पढ़ा और गुंबदनुमा ढाँचे के बीचों-बीच खुदाई करवाई।

प्रश्न 18.
सुल्तानजहाँ बेगम कहाँ की नवाब थी? उत्तर:सुल्तानजहाँ बेगम भोपाल की नवाब थी। प्रश्न 19. त्रिपिटक किस धर्म से संबंधित हैं? उत्तर:त्रिपिटक बौद्ध धर्म से संबंधित है। प्रश्न 20. प्राचीनतम बौद्ध ग्रन्थ किस भाषा में लिखे गए ?
उत्तर:
प्राचीनतम बौद्ध ग्रन्थ पालि भाषा में लिखे गए।

प्रश्न 21.
सबसे प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ त्रिपिटक कौन से हैं ?
उत्तर:
सबसे प्राचीन बौद्ध ग्रंथ सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक हैं।

प्रश्न 22.
महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश किस स्थान पर दिया ?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ के स्थान पर आषाढ़ की पूर्णिमा को दिया।

प्रश्न 23.
महात्मा बुद्ध के पहले उपदेश को किस नाम से जाना जाता है ?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध के पहले उपदेश को धर्म चक्र प्रवर्तन (धर्म के पहिये को घुमाना) के नाम से जाना जाता है।

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प्रश्न 24.
बौद्ध धर्म में स्तूप किस बात के प्रतीक माने गए ?
उत्तर:
बौद्ध धर्म में स्तूप को बुद्ध के महापरिनिर्वाण का प्रतीक मान लिया गया।

प्रश्न 25.
शैव धर्म में शिव का चित्रांकन किस रूप में किया गया ?
उत्तर:
शैव धर्म में शिव का चित्रांकनं प्रायः उनके प्रतीक लिंग के रूप में किया गया।

प्रश्न 26.
बोधिसत्त किसे कहा गया?
उत्तर:
बौद्ध धर्म में बोधिसत्तों को परम करुणामय जीव माना गया जो अपने सत्त कार्यों से पुण्य कमाते थे।

प्रश्न 27.
बौद्ध चिंतन की नई परंपरा को किस नाम से जाना गया ?
उत्तर:
बौद्ध चिंतन की नई परंपरा को महायान के नाम से जाना गया।

प्रश्न 28.
हिंदू धर्म में वैष्णव किसे कहा गया ?
उत्तर:
वह हिंदू परंपरा जिसमें विष्णु को सबसे महत्त्वपूर्ण देवता माना गया, वैष्णव परंपरा कहा गया।

प्रश्न 29.
लोग बौद्ध संघ की सदस्यता क्यों प्राप्त करते थे ?
उत्तर:
बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन करने और बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए लोग बौद्ध संघ में जाते थे।

प्रश्न 30.
बौद्ध संघ में प्रवेश पाने वाली प्रथम महिला कौन थी ?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध की उपमाता प्रजापति गौतमी संघ में प्रवेश पाने वाली पहली महिला भिक्षुणी थी।

प्रश्न 31.
जैन धर्म में संन्यासी को क्या कहा जाता है ?
उत्तर:
जैन धर्म में जैन मुनि और संन्यासी को निर्ग्रन्थ कहा जाता है।

प्रश्न 32.
तीर्थंकर शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
तीर्थंकर शब्द का अर्थ है-‘संसार रूपी सागर से पार उतारने वाला’।

प्रश्न 33.
श्वैन-त्सांग किस देश का रहने वाला था?
उत्तर:
श्वैन-त्सांग चीन देश का रहने वाला था।

प्रश्न 34.
आबू के जैन मन्दिर किस नाम से प्रसिद्ध हैं ?
उत्तर:
आबू के जैन मंदिर ‘दिलवाड़ा’ नाम से प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 35.
महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति कहाँ हुई?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति गया (बिहार) में हुई।

प्रश्न 36.
महात्मा बुद्ध के बचपन का क्या नाम था?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था।

प्रश्न 37.
महात्मा बुद्ध का देहावसान किस स्थान पर हुआ ?
उत्तर:
कुशीनगर अथवा कुशीनारा के स्थान पर महात्मा बुद्ध का देहावसान हुआ।

प्रश्न 38.
बौद्ध परंपरा में महात्मा बुद्ध के देहावसान को क्या कहा गया ?
उत्तर:
बौद्ध परंपरा में महात्मा बुद्ध के देहावसान को ‘महापरिनिर्वाण’ कहा गया।

प्रश्न 39.
‘सुत्तपिटक’ का सम्बन्ध किससे है?
उत्तर:
‘सुत्तपिटक’ का सम्बन्ध बौद्ध साहित्य से है।

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प्रश्न 40.
महात्मा बद्ध ने अपना पहला उपदेश कहाँ दिया था?
उत्तर:
महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश ‘सारनाथ’ में दिया था।

अति लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
इतिहासकार मूर्तियों व प्रतीकों की व्याख्या कैसे करते हैं ?
उत्तर:
मूर्तियों व प्रतीकों को समझने के लिए इतिहासकारों को कलाकृति बनाने वालों की परंपरा का ज्ञान होना चाहिए। उदाहरण के लिए महात्मा बुद्ध से जुड़े प्रतीकों को समझने के लिए बुद्ध के जीवन चरित यानी ‘बौद्ध चरित’ के बारे में ज्ञान होना जरूरी है।

प्रश्न 2.
नियतिवादी सम्प्रदाय का संस्थापक कौन था ?
उत्तर:
नियतिवादी सम्प्रदाय का संस्थापक मक्खलि गोसाल था। इसके अनुसार प्राणी नियति (भाग्य) के अधीन है। उसमें न बल है न पराक्रम । वह भाग्य के अधीन सुख-दुख भोगता है।

प्रश्न 3.
कला इतिहासकारों को साहित्यिक परंपराओं का ज्ञान क्यों जरूरी होता है?
उत्तर:
कला इतिहासकार कलाकृतियों को समझकर इतिहास की कुछ लुप्त कड़ियों को जोड़ने का प्रयास करते हैं। लिए उन्हें साहित्यिक परंपराओं से परिचित होना पड़ता है। इसके अभाव में कई बार अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

प्रश्न 4.
‘धर्म-चक्र-प्रवर्तन’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
धर्मचक्र प्रवर्तन से अभिप्राय है धर्म के चक्र को घुमाना। ज्ञान-प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध ने सारनाथ के स्थान पर अपना पहला धर्म उपदेश दिया, उसे ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 5.
बौद्ध धर्म के निर्वाण अथवा निब्बान से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
बौद्ध धर्म में निर्वाण की अवधारणा से अभिप्राय है मन की पूर्ण व अमिट शांति। इसे अच्छे आचरण और अष्ट मार्ग का अनुसरण करते हुए प्राप्त किया जा सकता था। वस्तुतः अहंकार और इच्छा पर पूर्ण नियंत्रण करते हुए जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होना ही निर्वाण था।

प्रश्न 6.
गांधार कला शैली की मूर्तिकला की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
यह कला शैली भारतीय और यूनानी कला शैली के परस्पर मिलन से पैदा हुई। इसमें विषय-वस्तु महात्मा बुद्ध और बौद्ध परंपराओं से लिए गए, जबकि मूर्ति बनाने का तरीका यूनानी था। मूर्तियों के तीखे नैन-नक्श, घुघराले बाल, झीने और पारदर्शी उत्कीर्ण वस्त्र इस शैली की मुख्य पहचान है।

प्रश्न 7.
मथुरा कला शैली की विशेषता बताइए।
उत्तर:
मथुरा कला-शैली का केन्द्र मथुरा था। यहाँ लाल बलुआ पत्थर से बौद्ध, जैन व हिंदू धर्म के देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाई गईं। प्रारंभिक बौद्ध मूर्तियों में बुद्ध को खड़ी मुद्रा में दिखाया गया है। उनका दायां हाथ अभय मुद्रा में है और बायां कूल्हे पर टिका है। वस्त्र शरीर से बिल्कुल सटे हुए हैं।

प्रश्न 8.
आत्मिक ज्ञान से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
आत्मिक ज्ञान से अभिप्राय आत्मा और परमात्मा के संबंधों को जानना। परम सत्य ब्रह्म (परमात्मा) है। संपूर्ण जगत उसी से पैदा हुआ। जीवात्मा जो अजर-अमर है ब्रह्म का ही अंश है। जीवात्मा ब्रह्म में लीन होकर मुक्ति को प्राप्त करती है। इसके लिए कर्मकाण्ड नहीं, बल्कि सद्कर्मों की जरूरत है।

प्रश्न 9.
भौतिकवादियों के अनुसार मानव शरीर की रचना कैसे हुई?
उत्तर:
भौतिकवादियों का कहना था कि पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु से मानव शरीर बना है। आत्मा या परमात्मा कोरी कल्पना है। मृत्यु के बाद शरीर में कुछ शेष नहीं बचता।

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प्रश्न 10.
महायान विचारधारा की दो विशेषताएँ बताइए। अथवा महायान पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:

  • महायान विचारधारा बौद्ध धर्म का एक संशोधित और नवीन रूप था। इसमें बुद्ध और बोधिसत्तों की ईश्वर के रूप में पूजा होने लगी, जबकि पुरातन परंपरा के बौद्ध अनुयायी महात्मा बुद्ध को ईश्वर नहीं, बल्कि अपना पथ-प्रदर्शक गुरु मानते थे।
  • महायान शाखा की पूजा-पद्धति भी अलग थी। पहले पूजा के प्रतीक चिह्न थे; जैसे बुद्ध के पैर के निशान, स्तूप, उजला हाथी, वृक्ष, चक्र इत्यादि, जबकि महायान शाखा में लोग महात्मा बुद्ध की प्रतिमा बनाकर पूजा करने लगे।

प्रश्न 11.
हिंदू धर्म में वैष्णव व शैव परंपरा क्या है ?
उत्तर:
हिंदू धर्म की वैष्णव परंपरा में विष्णु को परमेश्वर माना गया है, जबकि शैव परंपरा में शिव परमेश्वर है अर्थात् दोनों में एक विशेष देवता की आराधना को महत्त्व दिया गया। इस पूजा पद्धति में उपासना और परम देवता के बीच का संबंध समर्पण और प्रेम का स्वीकारा गया इसलिए यह भक्ति कहलाई।

प्रश्न 12.
अवतारवाद क्या है ?
उत्तर:
अवतारवाद वैष्णव धर्म के एक प्रधान अंग के रूप में उभरकर आया। इसके अनुसार विष्णु के 10 अवतारों को स्वीकार किया गया है। ये दस अवतार हैं-मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध व कल्की। यह माना जाता था कि सांसारिक कष्टों से भक्तों को मुक्त करने के लिए विष्णु भगवान् समय-समय पर अवतार धारण करते हैं।

प्रश्न 13.
शैव किसे कहा गया है ?
उत्तर:
शिव के धर्मानुयायियों और भक्तों को शैव कहा गया। इस मत के अनुयायी शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में पूजते थे। कई बार शिव को मनुष्य के रूप में भी (मूर्तियों में) दिखाया गया। जहाँ विष्णु के उपासक उसे सृष्टि के पालनहार के रूप में देखते थे, वहीं शिव के उपासक उन्हें सृष्टि के कर्ता और संहारक के रूप में स्वीकार करते थे।

प्रश्न 14.
पौराणिक कथाओं की मुख्य विशेषताएँ क्या थी?
उत्तर:
पौराणिक कथाओं में देवी-देवताओं की भी कहानियाँ हैं। पुराणों की बहुत-सी कथाएँ लोक-कथाएँ बन चुकी थीं। सामान्यतया इन्हें संस्कृत श्लोकों में लिखा गया था। इन श्लोकों को ऊँची आवाज़ में उच्चरित किया जाता था ताकि सभी सुन सकें। महिलाएँ व शूद्र, जिन्हें वैदिक साहित्य पढ़ने-सुनने की अनुमति नहीं थी, वे भी पुराणों को सुन सकते थे। इसलिए पौराणिक किस्से लोकधारा के हिस्से थे। पुराणों की कहानियों का विकास और प्रचार-प्रसार लोगों के मेल-मिलाप से हुआ।

प्रश्न 15.
मन्दिर स्थापत्य की दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:

  • मंदिरों का प्रारंभ गर्भ-गृह (देव मूर्ति का स्थान) के साथ हुआ। ये चौकोर कमरे थे। इनमें एक दरवाजा होता था, जिससे उपासक पूजा के लिए भीतर जाते थे।
  • धीरे-धीरे गर्भ-गृह के ऊपर एक ऊँचा ढांचा बनाया जाने लगा, जिसे शिखर कहा जाता था।

प्रश्न 16.
अजन्ता की गुफाओं के चिह्नों की विशेषता बताइए।
उत्तर:
अजन्ता की गुफाओं (महाराष्ट्र) से प्राप्त हुए भित्तिचित्र (दीवारों पर बने चित्र) हैं। छतों और कोनों में सजाने के लिए वृक्ष, पुष्प, नदी व झरने आदि बनाए गए हैं। इनके अलावा सर्वाधिक चित्र दो विषयों पर हैं-

  • बद्ध और बोधिसत्तों के चित्र और
  • जातक गाथाओं के दृश्य। इन चित्रों में हर्ष, उल्लास, प्रेम, भय, करुणा, लज्जा व घृणा जैसी मानवीय भावनाओं का अद्भुत प्रदर्शन हुआ है। कुछ चित्र बिल्कुल स्वाभाविक और सजीव दिखते हैं।

प्रश्न 17.
श्रमण कौन थे ?
उत्तर:
शिक्षक और विचारक जो स्थान-स्थान पर घूमकर अपनी विचारधाराओं के विषय में अन्य लोगों से तर्क-वितर्क करते थे, उन्हें श्रमण कहा जाता था।

प्रश्न 18.
‘जैन’ शब्द से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
जैन’ शब्द संस्कृत के ‘जिन’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है ‘विजेता’ अर्थात् वह व्यक्ति जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली हो। जिन अर्थात् जितेन्द्रिय।

प्रश्न 19.
निर्ग्रन्थ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
निर्ग्रन्थ का अर्थ है बिना ग्रन्थि के अर्थात् बंधन मुक्त। वे मनुष्य जो संसार के सभी बन्धनों से मुक्त हो गए हों। जैन ‘मुनि और संन्यासी निर्ग्रन्थ के नाम से जाने जाते हैं।

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प्रश्न 20.
त्रिरत्न से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
जैन धर्म के अनुसार मोक्ष-प्राप्ति के लिए त्रिरत्न का पालन करना अत्यंत आवश्यक है। ये त्रिरत्न हैं

  • सम्यक् विश्वास,
  • सम्यक् ज्ञान,
  • सम्यक् चरित्र।

प्रश्न 21.
बौद्ध धर्म में संघ का क्या महत्त्व था ?
उत्तर:
बौद्ध संघ भिक्षुओं का संगठन था। यह बौद्ध धर्म की शक्ति का प्रमुख आधार था। इसने बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में अत्यधिक योगदान दिया।

प्रश्न 22:
जातक कथाओं से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
जातक ग्रन्थों में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाओं का उल्लेख है। इनकी संख्या लगभग 549 है। ये पालि भाषा में लिखे गए हैं।

प्रश्न 23.
स्तूप क्यों बनाए जाते थे ?
उत्तर:
स्तूप संस्कृत.का शब्द है, जिसका अर्थ है-ढेर। महात्मा बुद्ध या अन्य किसी पवित्र भिक्षु के अवशेषों; जैसे दाँत, भस्म, हड्डियाँ या किसी पवित्र ग्रन्थ पर स्तूप बनाए जाते थे और ये अवशेष स्तूप के केन्द्र में बने एक छोटे कक्ष में एक पेटिका में रखे जाते थे।

प्रश्न 24.
जैन धर्म का विभाजन कौन-से दो उप-संप्रदायों में हुआ?
उत्तर:
300 ई०पू० के आसपास जैन धर्म दो संप्रदायों श्वेतांबर और दिगंबर में विभाजित हो गया। दिगंबर जैन भिक्षु वस्त्र धारण नहीं करते, जबकि श्वेतांबर श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।

प्रश्न 25.
बौद्ध धर्म के पतन के कोई दो कारण लिखें।।
उत्तर:
बौद्ध धर्म के पतन के निम्नलिखित दो प्रमुख कारण थे (i) कालांतर में बौद्ध धर्म में आडंबर व दुर्बलताएँ उत्पन्न हो गईं जिनके चलते यह अपनी लोकप्रियता खो बैठा। (ii) समय बीतने के साथ बौद्ध धर्म में विचार मतभेद उत्पन्न हो गए जिससे यह कई संप्रदायों व उपसंप्रदायों में बँट गया।

प्रश्न 26.
सुल्तानजहाँ बेगम ने साँची के स्तूप में कैसे योगदान दिया ?
उत्तर:
सुल्तानजहाँ बेगम ने साँची के स्तूप में विशेष रुचि ली। बेगम ने स्तूप के अवशेषों को यूरोपियनों की गिद्ध दृष्टि से बचाया, संरक्षण के लिए धन उपलब्ध करवाया एवं साथ ही स्तूप-स्थल के पास एक संग्रहालय और अतिथिशाला भी बनवाई।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध धर्म के चार सत्य कौन-से हैं तथा ‘धर्म चक्र प्रवर्तन’ से आप क्या समझते हैं ? अथवा बौद्ध धर्म की किन्हीं दो शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बौद्ध धर्म में निम्नलिखित चार शाश्वत सत्य बताए गए हैं

  • संसार दुःखों का घर है।
  • दुःखों का कारण इच्छाएँ हैं।
  • इच्छाओं को कम करके दुःख कम किए जा सकते हैं।
  • इच्छाओं एवं लालसाओं को अष्ट मार्ग से त्यागा जा सकता है।

धर्म चक्र प्रवर्तन से अभिप्राय है धर्म के चक्र को घुमाना। ज्ञान-प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध ने सारनाथ के स्थान पर अपना पहला धर्म उपदेश दिया, उसे ‘धर्म चक्र प्रवर्तन’ के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 2.
जैन धर्म की मुख्य तीन शिक्षाएँ लिखिए।
उत्तर:
(1) त्रिरत्न (Three Jewels) महावीर स्वामी ने मानव जीवन का मुख्य लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति बताया। इसके लि जीवन में तीन आदर्श वाक्य अपनाने पर बल दिया। ये तीन वाक्य ही त्रिरत्न कहलाए-

  • सत्य विश्वास अर्थात् मनुष्य को अपने । ऊपर तथा तीर्थंकरों पर विश्वास होना चाहिए।
  • सत्य ज्ञान अर्थात् तीर्थंकरों के उपदेशों का सच्चे मन से अनुसरण करना।
  • सत्य चरित्र अर्थात् महाव्रतों पर आधारित अच्छा आचरण अथवा कर्म करना।

(2) पाँच महाव्रत (Five Mahavartas)-इन व्रतों को अणुव्रत भी कहा गया है। मनुष्यों को पापों से बचने के लिए पाँच महाव्रतों के पालन पर जोर दिया गया। ये व्रत थे- अहिंसा यानी हत्या न करना, चोरी न करना, झूठ न बोलना, धन संग्रह न करना तथा ब्रह्मचर्य (अमृषा) का पालन। जैन साधु व साध्वी इन पाँचों व्रतों का पालन करते थे।

(3) अहिंसा (Non-Violence)-जैन दर्शन की सबसे महत्त्वपूर्ण अवधारणा यह है कि संपूर्ण विश्व प्राणवान है अर्थात् पेड़-पौधे, मनुष्य, पशु-पक्षियों आदि में ही नहीं, बल्कि पत्थर, चट्टानों, जल इत्यादि सभी में जीवन होता है। जीवों के प्रति अहिंसा अर्थात् मनुष्यों, पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों तथा पेड़-पौधों को क्षति न पहुँचाना जैन धर्म का केन्द्र-बिन्दु है। . जैन दर्शन में अहिंसा के सिद्धान्त का संबंध मन, वचन व क्रम तीनों से है अर्थात् इन तीनों रूपों में किसी भी तरह का हिंसा भाव पैदा नहीं होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि जैन धर्म के इस सिद्धांत ने संपूर्ण भारतीय चिंतन परंपरा को प्रभावित किया है।

प्रश्न 3.
अमरावती स्तूप की खोज और नियति के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
अमरावती स्तूप की खोज और उसकी नियति का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
(i) खोज–अमरावती (महाराष्ट्र) के बौद्ध स्तूप की खोज भी अनजाने में ही हुई। सन् 1796 में एक स्थानीय राजा एक मंदिर बनाना चाहता था, तभी उसे अमरावती के स्तूप के प्राचीन अवशेष मिल गए। उसकी रुचि उन्हें खोद निकालने में और भी बढ़ गई, क्योंकि वह सोचने लगा कि संभवतया इस टीले में कोई खजाना ही दबा पड़ा हो। उन्हीं दिनों में कॉलिन मेकेन्जी नामक अंग्रेज पुरातत्त्वविद् यहाँ पहुँचा और उसने इस स्थान का सर्वेक्षण किया। सन् 1854 में एलियट नामक एक अंग्रेज़ अधिकारी ने अमरावती के स्तूप स्थल की यात्रा की, कुछ खुदाई भी करवाई। अंततः … उन्होंने स्तूप का पश्चिमी तोरणद्वार भी ढूँढ निकाला।

(ii) नियति-अमरावती में जिस स्थान पर यह स्तूप था वहाँ आज मिट्टी के ढेर के सिवा कुछ नहीं है, जबकि यह साँची के स्तूप से भी अधिक सुंदर था और सफेद संगमरमर की नक्काशीदार मूर्तियों से बना था। 1796 ई० में इस स्तूप की खोज के साथ ही इन मूर्तियों को उठाकर ले जाने का सिलसिला चल पड़ा था। इन पुरावशेषों को अलग-अलग स्थानों पर ले जाया गया।

एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल, इंडिया ऑफिस (मद्रास) और यहाँ तक कि कुछ पत्थर लंदन तक पहुंच गए। ध्यान रहे ये केवल संग्रहालयों की शोभा ही नहीं बने बल्कि बहुत-से ब्रिटिश अधिकारियों के बंगलों और बागों में सुशोभित हुए। अमरावती के स्तूप की यह नियति इसलिए भी हुई क्योंकि इसकी खोज साँची से थोड़ी पहले हुई थी। विद्वान काफी वर्षों तक इस बात के महत्त्व को नहीं समझ पाए कि पुरातात्विक अवशेषों का संरक्षण उनके खोज के स्थानों पर ही होना जरूरी है। संग्रहालयों में उनकी प्लास्टर प्रतिकृतियाँ ही रखी जाएँ।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

प्रश्न 4.
पौराणिक हिंदू धर्म के बारे में आप क्या जानते हैं?
अथवा
वैष्णव व शैव मत के उदय के बारे में एक टिप्पणी लिखें। .
उत्तर:
ब्राह्मण धर्म में भी नई परंपरा पनपी। इस परंपरा को हम पौराणिक हिंदू धर्म के नाम से जानते हैं। इस परंपरा में भी .. महायानों की भाँति ‘मुक्तिदाता’ की कल्पना उभरकर आई। हिंदू धर्म की वैष्णव परंपरा में विष्णु को परमेश्वर माना गया है, जबकि शैव परंपरा में शिव परमेश्वर है अर्थात् दोनों में एक विशेष देवता की आराधना को महत्त्व दिया गया। … वैष्णव व शैव धार्मिक परंपराओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

1. वैष्णववाद की विशेषताएँ-वैष्णव संप्रदाय के दो मुख्य तत्त्व हैंभक्ति और अहिंसा। भक्ति का अर्थ तो जैसा कि पहले बताया । … गया है कि देवता के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव है। अहिंसा किसी जीव का वध न करने का सिद्धांत है। इन दोनों ही सिद्धांतों के फलस्वरूप वैष्णव संप्रदाय का विस्तार हुआ। लोग विष्णु की प्रतिमा बनाकर पूजा करने लगे, जीव-हत्या से घृणा करने लगे और बहुत-से उपासकों ने शाकाहार को अपनाया।

इस नए धर्म का स्वरूप उदार था। अवतारवाद वैष्णव धर्म के एक प्रधान अंग के रूप में उभरकर आया। इसके अनुसार विष्णु के 10 अवतारों को स्वीकार किया गया है। ये दस अवतार हैं-मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध व कल्की, यहाँ तक कि इसमें बुद्ध को भी विष्णु का अवतार मान लिया गया।

2. शैव मत-शिव के भक्तों को शैव कहा गया। इस मत के अनुयायी शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में पूजते थे। कई बार शिव को मनुष्य के रूप में भी (मूर्तियों में) दिखाया गया। जहाँ विष्णु के उपासक उसे पालनहार के रूप में देखते थे, वहीं शिव के उपासक उन्हें सृष्टि के संहारक के रूप में स्वीकार करते थे। छठी शताब्दी तक शैव मत की लोकप्रियता में काफी वृद्धि हुई तथा इसका दक्षिण भारत में भी प्रसार हुआ।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ सरल थीं। उनके उपदेश तर्क पर आधारित थे। उनकी मुख्य शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन इस . प्रकार है
1. चार सत्य–महात्मा बुद्ध ने निम्नलिखित चार सत्यों की पहचान की

  • मनुष्य के लिए संसार दुःखों का घर है।
  • दुःखों का कारण मनुष्य की तष्णा एवं लालसा है।
  • लालसा पर विजय पाकर दुःखों से मुक्ति पाई जा सकती है।
  • अष्टमार्ग (मध्य माग) लालसाओं पर विजय पाने का तरीका है।

2. अष्टमार्ग-इसे मध्य मार्ग (Middle Path) भी कहा गया है क्योंकि यह दोनों अति विलासिता और कठोर तपस्या के बीच का मार्ग है।
संक्षेप में, अष्ट मार्ग की आठ आदर्श बातें इस प्रकार हैं

  • सत्य दृष्टि अर्थात् सत्य व असत्य (बुराई) की पहचान की दृष्टि।
  • सत्य संकल्प अर्थात् बुराई को त्यागने का पवित्र संकल्प।
  • सत्य वचन अर्थात् मृदु वाणी होना तथा झूठ, निंदा व अप्रिय वचन का परित्याग।
  • सत्य कर्म अर्थात् मनुष्य का कर्म अहिंसा, इंद्रिय संयम और दयाभाव पर आधारित हो।
  • सत्य आजीविका अर्थात् जीवनयापन के लिए उचित एवं पवित्र साधनों का उपयोग।
  • सत्य प्रयत्न अर्थात् शारीरिक एवं मानसिक इच्छाओं को त्यागने का प्रयत्न।
  • सत्य स्मृति अर्थात् मनुष्य को सदैव ध्यान रखना चाहिए कि उसका शरीर भी नश्वर है।
  • सत्य समाधि अर्थात अमिट शांति के लिए चिंतन की समाधि।।

महात्मा बुद्ध का निष्कर्ष था कि मनुष्य इस अष्ट मार्ग का अनुसरण करके पुरोहितों के फेर से व मिथ्या आडंबरों से बच जाएगा तथा मुक्ति भी प्राप्त करेगा।

3. आचरण के नियम-अपने अनुयायियों के लिए बुद्ध ने आचरण के नियम बनाए। उनमें से मुख्य थे

  • अहिंसा का पालन;
  • झूठ का परित्याग;
  • नशे का सेवन न करना;
  • प्रायः धन का लोभ न करना;
  • भोग विलासी न बनना;
  • मन को शुद्ध रखना;
  • किसी से घृणा न करना तथा
  • सबकी भलाई करना और उसके बारे में सोचना।

4. निर्वाण-महात्मा बुद्ध ने मनुष्य के जीवन का मुख्य लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति बताया। निर्वाण से अभिप्राय मन की पूर्ण शांति से था। अहम् एवं इच्छा पर पूर्ण नियंत्रण से ही निर्वाण-प्राप्ति होती है।

प्रश्न 2.
बौद्ध संघ पर एक संक्षिप्त निबंध लिखें।
उत्तर:
धर्म का प्रचार सुव्यवस्थित तरीके से करने के लिए पहला बौद्ध संघ सारनाथ में और फिर अन्य स्थानों पर संघ बनाए गए। यह धर्म के शिक्षकों का संघ था। ये शिक्षक (श्रमण) सादा जीवन व्यतीत करते थे। उनके पास जीवनयापन के लिए बहुत ही जरूरी वस्तुओं को छोड़कर और कुछ नहीं होता था। उदाहरण के लिए उनके पास एक कटोरा होता था जिसमें वो दिन में एक बार उपासकों से भोजन की भीख प्राप्त करते थे।

इसलिए इन श्रमणों को भिक्खु (भिक्षु) कहा जाता था। बौद्ध संघ में भिक्षु, भिक्षुणियों को गहन अध्ययन करवाया जाता था। आचरण के नियम पालन करवाए जाते थे। वर्षा काल को छोड़कर वर्ष भर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते हुए धर्म प्रचार करते थे। वर्षा काल के चार महीनों में अध्ययन पर बल दिया जाता था। सभी भिक्षुओं और भिक्षुणियों को संघ के नियमों का सख्ती से पालन करना होता था। इन नियमों का वर्णन ‘विनय पिटक’ नामक ग्रंथ में मिलता है।

1. संघ की सदस्यता-बौद्ध संघ में सभी जाति, वर्ण एवं वर्गों के लोग इसके सदस्य बन सकते थे जिनकी आयु 15 वर्ष से अधिक थी। इसके लिए उन्हें अपने माता-पिता एवं अभिभावकों से अनुमति लेनी जरूरी थी। अपराधी, कुष्ठ रोगी तथा संक्रामक रोग से पीड़ित लोगों के लिए संघ की सदस्यता वर्जित थी। प्रारंभ में महिलाओं को भी संघ की सदस्या नहीं बनाया गया था। परंतु बाद में महिलाओं को भी संघ में शामिल होने की अनुमति दे दी गई थी।

बुद्ध की उपमाता महाप्रजापति गौतमी संघ में शामिल होने वाली पहली महिला थी। संघ में प्रवेश पाने वाली कुछ महिलाएँ बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त करके इसकी शिक्षक भी बन गईं।

2. संघ की कार्य-प्रणाली-संघ की कार्य-प्रणाली में जनवाद अधिक था। संघ के सदस्य परस्पर बातचीत से सहमति की ओर बढ़ते थे। सभी सदस्यों के अधिकार समान थे। यदि किसी विषय पर सहमति न बन पाती तो मतदान करके बहुमत से निर्णय लिया जाता जो सभी को स्वीकार्य होता। अपराधी अथवा नियमों की उल्लंघना करने वाले भिक्षु को दण्ड मिलता था।

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प्रश्न 3.
भारत में बौद्ध धर्म के प्रसार के विभिन्न कारणों पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
भारत में इस धर्म के प्रसार के लिए मुख्यतया निम्नलिखित कारण उत्तरदायी रहे
1. बुद्ध का व्यक्तित्व-बौद्ध धर्म के प्रसार का एक महत्त्वपूर्ण कारण बुद्ध का व्यक्तित्व था। उनकी करनी और कथनी में भेद नहीं था। वे भलाई करके बुराई को भगाने का तथा प्रेम से घृणा को जीतने का प्रयास करते थे। निंदा और गाली से उन्हें क्रोध नहीं आता था।

2. वैदिक धर्म से मोहभंग-बौद्ध धर्म के उत्थान के समय वैदिक धर्म कर्मकाण्डी बन चुका था। लोग यज्ञ, बलि और आडंबरों से ऊब चुके थे। जब उन्हें सरल धर्म मिला तो वे उसकी ओर आकर्षित हुए। नए धर्म में समानता की भावना भी

3. सरल भाषा का प्रयोग-बौद्ध मत का प्रचार बुद्ध ने जनसामान्य की भाषा पालि में किया जो संस्कृत की तुलना में लोगों को अधिक आकर्षित कर सकी। आम लोग बौद्ध विचारों को सुगमता से समझ पाए।

4. बौद्ध संघ की भूमिका-बौद्ध संघ में प्रचारकों को न केवल बौद्ध धर्म की उच्च शिक्षा दी जाती थी बल्कि उनके चरित्र निर्माण पर भी विशेष ध्यान दिया जाता था। पुरोहितों की तुलना में इनके आचरण को. लोगों ने अधिक पसंद किया।

5. अनुकूल परिस्थितियाँ-बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ भी अनुकूल थीं। इसे राजकीय संरक्षण मिला। बिम्बिसार, अजातशत्रु व प्रसेनजित जैसे राजाओं ने इसके प्रचार में सहायता की। अशोक व कनिष्क जैसे शासकों के प्रयासों से यह दूसरे देशों में पहुंचा। नई कृषि व्यवस्था भी ऐसे धर्म के अनुकूल थी जो बलि प्रथा का विरोध करे और पशुधन की सुरक्षा करे। बौद्ध धर्म का अहिंसा का सिद्धांत इस दिशा में महत्त्वपूर्ण था।

6. समानता का भाव-बौद्ध धर्म में अच्छे आचरण व मूल्यों को महत्त्व दिया गया, न कि जन्म के आधार पर किसी तरह की श्रेष्ठता को। बौद्ध धर्म स्वीकार करने वालों को अपनी पुरानी पहचान छोड़नी पड़ती थी। यहाँ राजा और रंक सब बराबर थे। इसलिए बड़ी संख्या में महिलाएँ व पुरुष इसकी ओर आकर्षित हुए।

7. करुणा भाव-बौद्ध धर्म की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी-दया और करुणा। इसमें यह विश्वास किया जाता था कि समाज का निर्माण इंसानों ने किया है, न कि भगवान ने। इसलिए इसमें राजाओं और धनी लोगों को कमज़ोरों के प्रति दयावान और आचारवान होने की सलाह दी गई। वस्तुतः दया और करुणा के भाव को महत्त्व देने के आदर्श बहुत-से लोगों को पसंद आए।

प्रश्न 4.
भारत में बौद्ध धर्म के विलुप्त होने के मुख्य कारण लिखें। .
उत्तर:
12वीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते भारत में बौद्ध धर्म प्रायः विलुप्त सा हो गया। इसमें निम्नलिखित कारण उत्तरदायी रहे
(1) धीरे-धीरे बौद्ध धर्म में भी बुराइयाँ व आडंबर आते गए। अतः इन दुर्बलताओं के चलते यह धर्म अपनी लोकप्रियता खो बैठा।

(2) ब्राह्मण धर्म का पौराणिक हिंदू धर्म के रूप में पुनरुत्थान हुआ। इसकी पूजा पद्धति और महायान धर्म की पूजा पद्धति में कोई विशेष अंतर नहीं था। अवतारवाद की धारणा से हिंदू धर्म जनप्रिय होता गया। यहाँ तक कि महात्मा बुद्ध को भी विष्णु का अवतार मान लिया गया। इससे बौद्ध धर्म अपनी पहचान खोने लगा।

(3) कालान्तर में बौद्ध संघ व विहार (मठ) धन एकत्र करने के केन्द्र बन गए। फलतः बहुत-से भिक्षु भोग-विलासी व दुराचारी हो गए। ऐसी परिस्थितियों में मठ और भिक्षु लोगों के श्रद्धा के केन्द्र नहीं रहे।

(4) धीरे-धीरे राजनीतिक संरक्षण से भी यह धर्म वंचित होता गया। अशोक व कनिष्क जैसे शासकों के संरक्षण में इसका खूब प्रसार हुआ था। गुप्त शासकों से इसे संरक्षण नहीं मिला। हर्षवर्धन ने कुछ संरक्षण दिया, शेष राजपूत शासकों ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। हूण व तुर्क आक्रमणकारियों से भी इसे क्षति पहुंची।

(5) समय बीतने के साथ-साथ इस धर्म में फूट पड़ती गई। इसके कई संप्रदाय और उप-संप्रदाय बन गए। अतः इस फूट ने भी इसे पतन के मार्ग पर ला खड़ा किया।

प्रश्न 5.
जैन व बौद्ध धर्म के उदय के कारणों को स्पष्ट करें।
उत्तर:
जैन व बौद्ध धर्मों के उदय के कारणों का वर्णन इस प्रकार है

1. आर्थिक परिवर्तन-बौद्ध व जैन धर्मों के उदय को उत्तर वैदिक काल में हुए आर्थिक परिवर्तनों से जोड़कर देखा जाता है। इस काल में लोहे की कुल्हाड़ियों और हलों से खेती का विस्तार होता जा रहा था जिसमें पशुओं का महत्त्व बढ़ गया था। परंतु प्राचीन धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पशुओं की बलि दी जाती थी। इसलिए नव-उदित धर्मों (जैन व बौद्ध क्योंकि वे बलि प्रथा का विरोध कर रहे थे।

कृषि उत्पादन में वृद्धि के फलस्वरूप व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन मिला। व्यापारिक वर्ग यानी वैश्य वर्ण का महत्त्व बढ़ने लगा। लेकिन वर्ण व्यवस्था वाले समाज में उनकी सामाजिक स्थिति ब्राह्मण और क्षत्रिय से निम्न थी। अतः वैश्य ऐसे धर्म की आकांक्षा करने लगे जिससे उनकी सामाजिक स्थिति ऊँची हो सके।

2. नई राजनीतिक परिस्थितियाँ-छठी शताब्दी ईसा पूर्व की राजनीतिक परिस्थितियों ने भी नए धर्मों के उदय के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार किया। विशेषतया मगध क्षेत्र में नए धर्मों को फलने-फूलने का अवसर मिला। यहाँ के स्थानीय लोगों को ‘अनार्य’ कहा गया। आर्य लोगों के इस क्षेत्र में प्रवेश से ब्राह्मणवादी व कट्टर परंपराएँ फैलने लगीं। इसका विरोध यहाँ के स्थानीय लोगों द्वारा किया जा रहा था।

इन्हीं परिस्थितियों में यहाँ के लोगों से नए धर्मों को समर्थन मिला। विभिन्न शासकों (बिम्बिसार, अजातशत्रु व अशोक आदि) द्वारा नए धर्मों को संरक्षण दिया और इन धर्मों को स्वयं भी स्वीकार किया। इसका कारण साफ है कि ये शासक ब्राह्मणों के वर्चस्व से मुक्त रहना चाहते थे।

3. वर्ण व्यवस्था में जटिलता-शुरू में यज्ञ सामूहिक तौर पर किए जाते थे। परिवार के सभी सदस्य इसमें शामिल होते थे। परन्तु धीरे-धीरे इसमें बदलाव आता गया। विशेषतः उत्तर वैदिक काल में चतुर्वर्ण व्यवस्था जटिल हो चुकी थी। यह काम पर नहीं बल्कि जन्म पर आधारित हो चुकी थी। शूद्र तो शुरू से ही द्विज वर्ण में नहीं था, वैश्य या क्षत्रिय का प्रतिभाशाली पुत्र भी अब ब्राह्मण नहीं हो सकता था।

शूद्रों के प्रति भेदभाव में वृद्धि हो चुकी थी। उनके प्रति उच्च वर्गों में अस्पृश्यता की भावना भी उत्पन्न होने लगी। धर्म में उनके लिए मोक्ष का मार्ग नहीं था। फलतः नए विकल्पों पर विचार की प्रक्रिया शुरू हुई।

4. यज्ञ परंपरा (वैदिक धम) में जटिलता-शुरू में यज्ञ सामूहिक तौर पर किए जाते थे। परिवार के सभी सदस्य इसमें शामिल होते थे। परन्तु धीरे-धीरे इसमें बदलाव आता गया। विशेषतः उत्तर वैदिक काल में इस परंपरा में जटिलता बढ़ती गई। समाज में भी अब पहले जैसी बंधुता नहीं थी। वर्गीय विभाजन होता गया। धर्म पर एक विशेष वर्ग ‘ब्राह्मण’ का प्रभाव स्थापित हो गया।

अब खर्चीले यज्ञ, बलि, व्यर्थ के रीति-रिवाजों और आडंबरों को महत्त्व दिया जाने लगा। यज्ञ परंपरा साधारण लोगों की पहुंच से दूर हो गई या उन पर एक भारी बोझ बन गई। फलतः इनके विरुद्ध जन भावनाएँ उत्पन्न होने लगीं। बहुत-से लोग इन पर पुनर्विचार करने लगे।

5. नवीन विचारकों का उदय-उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में बलि व यज्ञादि कर्मकांडों के खिलाफ जबरदस्त प्रतिक्रिया शुरू हुई। धर्म व दर्शन पर नए प्रश्न खड़े हुए। उपनिषदों में नए सिद्धांतों; जैसे कि कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष इत्यादि का प्रतिपादन हुआ, परंतु यह गूढ़ ज्ञान सामान्य जनता की समझ से बाहर था। इस वैदिक परंपरा को नकारने वाले दार्शनिक सत्य के स्वरूप पर बहस कर रहे थे।

वे अपनी-अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत कर रहे थे। विभिन्न संप्रदायों के श्रमण एक-दूसरे से तर्क-वितर्क करते थे। ये वनों, उपवनों में बनी कुटागारशालाओं में ठहरते थे। इनमें ई अपने प्रतिद्वन्द्वी को अपना ज्ञान समझाने में सफल हो जाता था तो वह प्रतिद्वन्द्वी अपने अनुयायियों के साथ उसका शिष्य बन जाता था। महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी इसी परंपरा के थे।

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प्रश्न 6.
साँची की बौद्ध मूर्तिकला में लोक परंपराओं के समावेश पर एक संक्षिप्त लेख लिखें।
उत्तर:
साँची की मूर्तियों में कई चिह्न ऐसे हैं जिनका बौद्ध धर्म से सीधा संबंध नहीं है। इनमें से कुछ बुद्ध से पूर्व की परंपराओं से आए हैं या फिर अन्य लोक विश्वासों से इनका समावेश हुआ है। इन लोक विश्वासों या परंपराओं से बौद्ध धार्मिक परंपरा और भी समृद्ध हुई है। बौद्ध धर्म में कुछ लोक परंपराओं के समावेश होने के उदाहरण उल्लेखनीय हैं

1. शालभंजिका की मूर्ति साँची के तोरणद्वार के किनारे एक पेड़ से झूलती हुई सुंदर स्त्रियाँ दिखाई गई हैं। माना जाता है कि ये शालभंजिका की मूर्तियाँ हैं। लोक परंपराओं में ऐसा विश्वास था कि इन स्त्रियों के छूने से वृक्ष फूल और फलों से भर जाते हैं। इससे ये शुभ का प्रतीक बन गईं। संभवतया इसी कारण स्तूप के अलंकरण में इनका प्रयोग किया गया।

2. जानवरों की मूर्तियाँ-साँची स्तूप की मूर्तियों में हाथी, घोड़े, बंदर व गाय-बैल आदि जानवरों की मूर्तियाँ भी शामिल हैं। इतिहासकारों का विश्वास है कि इन जानवरों का मनुष्यों के गुणों के प्रतीक के रूप में उपयोग किया जाता था। उदाहरण के लिए लोक सांस्कृतिक परंपरा में हाथी शक्ति और ज्ञान का प्रतीक माना गया था।

3. माया या गजलक्ष्मी-साँची की एक और मूर्ति बड़ी प्रसिद्ध है जिसमें कमल तथा दो हाथियों के बीच में खड़ी एक महिला है। हाथी उस महिला पर अभिषेक की मुद्रा में जल डाल रहे हैं। यह मूर्ति भी विद्वानों को असमंजस में डालती है। कुछ विद्वान इसे बुद्ध की माता माया मानते हैं जबकि कुछ इसे सौभाग्य की देवी गजलक्ष्मी बताते हैं। कुछ इसका संबंध माता और गजलक्ष्मी दोनों. से जोड़ते हैं। अतः इसमें भी बौद्ध धार्मिक परंपरा का अन्य धार्मिक परंपराओं से मिलन दिखाई पड़ता है।

4. उत्कीर्णित सर्प-साँची के कई स्तंभों पर सर्पो की मूर्तियाँ मिलती हैं। बौद्ध धर्म के साहित्यिक ग्रंथों में सर्प कथाओं का कोई उल्लेख नहीं है। संभवतया इन सौ का प्रतीक भी लोक परंपराओं से लिया गया हो। भारत में ऐसी परंपराएँ रही हैं जिनमें सर्प पूजनीय माने गए हैं।

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