HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय

Haryana State Board HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय

HBSE 12th Class Sociology भारतीय समाज : एक परिचय Textbook Questions and Answers

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत की लगभग कितने प्रतिशत जनसंख्या आपकी या आपसे छोटी आयु के लोगों की है?
(A) 40%
(B) 50%
(C) 55%
(D) 60%
उत्तर:
40%

प्रश्न 2.
किस प्रक्रिया के द्वारा हमें बचपन से ही अपने आसपास के संसार को समझना सिखाया जाता है?
(A) संस्कृतिकरण
(B) समाजीकरण
(C) सांस्कृतिक मिश्रण
(D) आत्मवाचक।
उत्तर:
समाजीकरण।

प्रश्न 3.
भारत किस राष्ट्र का उपनिवेश था?
(A) अमेरिका
(B) फ्रांस
(C) इंग्लैंड
(D) जर्मनी।
उत्तर:
इंग्लैंड।

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प्रश्न 4.
अंग्रेज़ों ने भारत को अपना उपनिवेश बनाना कब शुरू किया?
(A) 1660 के बाद
(B) 1700 के बाद
(C) 1650 के बाद
(D) 1760 के बाद।
उत्तर:
1760 के बाद।

प्रश्न 5.
औपनिवेशिक शासन ने पहली बार भारत को ………………. किया।
(A) एकीकृत
(B) विभाजित
(C) ब्रिटिश राज में शामिल
(D) कोई नहीं।
उत्तर:
एकीकृत।

प्रश्न 6.
औपनिवेशिक शासन ने भारत को कौन-सी ताकतवर प्रक्रिया से अवगत करवाया?
(A) प्रशासकीय एकीकरण
(B) पूँजीवादी आर्थिक परिवर्तन
(C) आधुनिकीकरण
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 7.
औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत किस प्रकार का एकीकरण भारत को भारी कीमत चुकाकर उपलब्ध हुआ?
(A) आर्थिक
(B) राजनीतिक
(C) प्रशासनिक
(D) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
उपर्युक्त सभी।

प्रश्न 8.
उपनिवेशवाद ने ही अपने शत्रु …………………… को जन्म दिया।
(A) राष्ट्रवाद
(B) व्यक्तिवाद
(C) पाश्चात्यवाद
(D) पूँजीवाद।
उत्तर:
राष्ट्रवाद।

प्रश्न 9.
औपनिवेशवाद प्रभुत्व के सांझे अनुभवों ने समुदाय के विभिन्न भागों को …………………… करने में सहायता प्रदान की।
(A) विभाजित
(B) एकीकृत
(C) विकसित
(D) कोई नहीं।
उत्तर:
एकीकृत।

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प्रश्न 10.
किस प्रक्रिया ने नए वर्गों व समुदायों को जन्म दिया?
(A) राष्ट्रवाद
(B) संस्कृतिकरण
(C) उपनिवेशवाद
(D) व्यक्तिवाद।
उत्तर:
उपनिवेशवाद।

प्रश्न 11.
किस वर्ग ने स्वतंत्रता प्राप्ति के अभियान में अगवाई की?
(A) ग्रामीण मध्य वर्ग
(B) नगरीय मध्य वर्ग
(C) ग्रामीण उच्च वर्ग
(D) नगरीय उच्च वर्ग।
उत्तर:
नगरीय मध्य वर्ग।

प्रश्न 12.
‘ब्रितानी उपनिवेशवाद’ निम्न में से किस व्यवस्था पर आधारित था?
(A) पूँजीवादी
(B) व्यावसायिकता
(C) व्यावहारिकता
(D) सभी।
उत्तर:
सभी।

प्रश्न 13.
भारत में राष्ट्रवादी भावना पनपने का कारण था?
(A) जातिवाद
(B) भाषावाद
(C) क्षेत्रवाद
(D) उपनिवेशवाद।
उत्तर:
उपनिवेशवाद।

प्रश्न 14.
इनमें से किस संरचना एवं व्यवस्था में उपनिवेशवाद ने नवीन परिवर्तन उत्पन्न किये?
(A) राजनीतिक
(B) आर्थिक
(C) सामाजिक
(D) सभी में।
उत्तर:
सभी में।

अति लघू उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में कितने प्रमुख धर्म पाए जाते हैं तथा यहाँ पाया जाने वाला प्रमुख धर्म कौन-सा है?
उत्तर:
भारत में सात प्रमुख धर्म पाए जाते हैं तथा यहाँ पर पाया जाने वाला प्रमुख धर्म हिंदू धर्म है।

प्रश्न 2.
भारत में कितनी प्रमुख भाषाएँ बोली जाती हैं तथा यहाँ कितने प्रतिशत लोगों की मातृभाषा हिंदी है?
उत्तर:
भारत में 22 प्रमुख भाषाएँ बोली जाती हैं तथा यहाँ पर 40% के लगभग लोगों की मातृभाषा हिंदी है।

प्रश्न 3.
भारत में कौन-से राज्यों का जनसंख्या घनत्व सबसे अधिक तथा सबसे कम है?
उत्तर:
पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व है तथा सबसे कम घनत्व अरुणाचल प्रदेश में है।

प्रश्न 4.
भारत में कितने प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों तथा नगरीय क्षेत्रों में रहती है?
उत्तर:
भारत में 68% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 32% जनसंख्या नगरीय क्षेत्रों में रहती है।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान में कितनी भाषाओं को मान्यता प्राप्त है तथा हिंदी के बाद कौन-सी भाषा सबसे अधिक प्रयुक्त होती है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता प्राप्त है तथा हिंदी के बाद सबसे अधिक प्रयक्त होने वाली भाषा बांग्ला है।

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प्रश्न 6.
भारत में सबसे कम प्रचलित धर्म कौन-सा है तथा किस राज्य में बौद्ध धर्म सबसे अधिक प्रचलित है?
उत्तर:
भारत में सबसे कम प्रचलित धर्म पारसी धर्म है तथा महाराष्ट्र में बौद्ध धर्म सबसे अधिक प्रचलित है।

प्रश्न 7.
भारत में प्रचलित चार वेदों के नाम बताएं।
उत्तर:
भारत में प्रचलित चार वेदों के नाम हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा सामवेद।

प्रश्न 8.
भारत का सबसे प्राचीन वेद कौन-सा है?
उत्तर:
ऋग्वेद भारत का सबसे प्राचीन वेद है।

प्रश्न 9.
उत्तर भारत तथा दक्षिण भारत में कौन-से धाम हैं?
उत्तर:
बद्रीनाथ-केदारनाथ धाम उत्तर भारत में हैं तथा रामेश्वरम दक्षिणी भारत में है।

प्रश्न 10.
पूर्वी भारत तथा पश्चिमी भारत में कौन-से धाम हैं?
उत्तर:
जगन्नाथपुरी पूर्वी भारत का धाम है तथा द्वारिकापुरी पश्चिमी भारत का धाम है।

प्रश्न 11.
क्षेत्रवाद का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जब लोग अपने क्षेत्र को प्यार करते हैं तथा दूसरे क्षेत्रों से नफ़रत करते हैं तो उसे क्षेत्रवाद कहा जाता है।

प्रश्न 12.
भारत में पुरुषों तथा महिलाओं की साक्षरता दर कितनी है?
उत्तर:
भारत में पुरुषों की साक्षरता दर 75% है तथा महिलाओं की साक्षरता दर 54% है।

प्रश्न 13.
भारत में राष्ट्रीय एकता में कौन-सी रुकावटें हैं?
उत्तर:
जातिवाद, सांप्रदायिकता, आर्थिक असमानता इत्यादि ऐसे कारक हैं जो राष्ट्रीय एकता के रास्ते में रुकावटें हैं।

प्रश्न 14.
देश में राष्ट्रीय एकता को कैसे स्थापित किया जा सकता है?
उत्तर:
देश में धर्म से जुड़े संगठनों पर प्रतिबंध लगाकर, सारे देश में शिक्षा का एक ही पाठ्यक्रम बनाकर तथा जातिवाद को खत्म करके देश में राष्ट्रीय एकता को स्थापित किया जा सकता है।

प्रश्न 15.
मध्यकाल में पश्चिमी उपनिवेशवाद का सबसे ज्यादा प्रभाव रहा। (उचित/अनुचित)
उत्तर:
अनुचित।

प्रश्न 16.
भारत में पूँजीवाद के कारण उपनिवेशवाद प्रबल हुआ। (सही/गलत)
उत्तर:
सही।

प्रश्न 17.
उपनिवेशवाद से आपका क्या अभिप्राय है?
अथवा
उपनिवेशवाद क्या है?
उत्तर:
यह प्रक्रिया औद्योगिक क्रांति के पश्चात् शुरू हुई जब पश्चिमी देशों के पास अधिक पैसा तथा बेचने के लिए अत्यधिक माल उत्पन्न होना शुरू हुआ। पश्चिमी अथवा शक्तिशाली देशों के द्वारा एशिया तथा अफ्रीका के देशों को जीतने की प्रक्रिया तथा जीते हुए देशों में अपना शासन स्थापित करने की प्रक्रिया को उपनिवेशवाद कहा जाता है।

प्रश्न 18.
कौन-कौन से देशों ने एशिया तथा अफ्रीका में अपने उपनिवेश स्थापित किए?
उत्तर:
उपनिवेशवाद का दौर 18वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक चला। इसमें मुख्य साम्राज्यवादी देश थे-इंग्लैंड, फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन, जर्मनी, इटली इत्यादि। बाद में इसमें रूस, अमेरिका, जापान जैसे देश भी शामिल हो गए।

प्रश्न 19.
भारत में राष्ट्रवाद कब उत्पन्न हुआ?
उत्तर:
भारत में अंग्रेजों ने अपना राज्य स्थापित किया तथा यहां पश्चिमी शिक्षा देनी शुरू की। इससे 19वीं सदी के मध्य के बाद धीरे-धीरे भारत में राष्ट्रवाद उत्पन्न होना शुरू हुआ।

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प्रश्न 20.
सांप्रदायिकता का अर्थ बताएं।
उत्तर:
सांप्रदायिकता और कुछ नहीं बल्कि एक विचारधारा है जो जनता में एक धर्म के धार्मिक विचारों का प्रचार करने का प्रयास करती है तथा यह धार्मिक विचार अन्य धार्मिक समूहों के धार्मिक विचारों के बिल्कुल ही विपरीत होते हैं।

प्रश्न 21.
जातीय का क्या अर्थ है?
उत्तर:
किसी देश, प्रजाति इत्यादि का ऐसा समूह जिसके सांस्कृतिक आदर्श समान हों। एक जातीय समूह के लोग यह विश्वास करते हैं कि वह सभी ही एक पूर्वज से संबंध रखते हैं तथा उनके शारीरिक लक्षण एक समान हैं। इस समूह के सदस्य एक-दूसरे के साथ कई लक्षणों से पहचाने जाते हैं जैसे कि भाषायी, संस्कृति, धार्मिक इत्यादि।

प्रश्न 22.
भारतीय समाज में कैसे परिवर्तन आए?
उत्तर:
उपनिवेशिक दौर में एक विशेष भारतीय चेतना ने जन्म लिया। अंग्रेज़ों ने पहली बार संपूर्ण भारत को एकीकृत किया तथा पूँजीवादी आर्थिक परिवर्तन और आधुनिकीकरण की शक्तिशाली प्रक्रियाओं से भारत का परिचय कराया। इनसे भारतीय समाज में बहुत-से परिवर्तन आए।

प्रश्न 23.
भारत में राष्ट्रवाद कैसे उत्पन्न हुआ?
उत्तर:
अंग्रेजों ने भारत का आर्थिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक एकीकरण किया। उन्होंने यहां पश्चिमी शिक्षा का प्रसार किया। भारतीयों ने पश्चिमी शिक्षा ग्रहण करनी शुरू की तथा इससे उपनिवेशवाद के शत्रु राष्ट्रवाद का जन्म हुआ।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में कौन-कौन सी विभिन्नताएं पाई जाती हैं?
उत्तर:
भारत की भौगोलिक विभिन्नता के कारण भारत में कई प्रकार की विभिन्नताएं पाई जाती हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है-
1. खाने-पीने की विभिन्नता-भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में खाने-पीने में बहुत विभिन्नता पाई जाती है। उत्तर भारत में लोग गेहूं का ज्यादा प्रयोग करते हैं। दक्षिण भारत तथा तटीय प्रदेशों में चावल का सेवन काफ़ी ज्यादा है। कई राज्यों में पानी की बहुतायत है तथा कहीं पानी की बहुत कमी है। कई प्रदेशों में सर्दी बहुत ज्यादा है इसलिए वहाँ गर्म कपड़े पहने जाते हैं तथा कई प्रदेश गर्म हैं या तटीय प्रदेशों में ऊनी वस्त्रों की ज़रूरत नहीं पड़ती। इस तरह खाने-पीने तथा कपड़े डालने में विभिन्नता है।

2. सामाजिक विभिन्नता-भारत के अलग-अलग राज्यों के समाजों में भी विभिन्नता पाई जाती है। हर क्षेत्र में बसने वाले लोगों के रीति-रिवाज, रहने के तरीके, धर्म, धर्म के संस्कार इत्यादि सभी कुछ अलग-अलग हैं। हर जगह अलग-अलग तरह से तथा अलग-अलग भगवानों की पूजा होती है। उनके धर्म अलग होने की वजह से रीति-रिवाज भी अलग-अलग हैं।

3. शारीरिक लक्षणों की विभिन्नता-भौगोलिक विभिन्नता के कारण से यहाँ के लोगों में विभिन्नता भी पाई जाती है। मैदानी क्षेत्रों के लोग लंबे-चौड़े तथा रंग में साफ़ होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में लोग नाटे पर चौड़े होते हैं तथा रंग भी सफेद होता है। दक्षिण भारतीय लोग भूमध्य रेखा के निकट रहते हैं इसलिए उनका रंग काला या सांवला होता है।

4. जनसंख्या में विभिन्नता-भौगोलिक विभिन्नता के कारण यहाँ के लोगों में विभिन्नता भी पाई जाती है। मैदानी क्षेत्रों के लोग लंबे चौड़े तथा रंग में साफ होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में लोग नाटे पर चौड़े होते हैं तथा रंग भी सफेद होता है। दक्षिण भारतीय लोग भूमध्य रेखा के निकट रहते हैं इसलिए उनका रंग काला या सांवला होता है।

प्रश्न 2.
भारत की सांस्कृतिक विविधता के बारे में बताएं।
उत्तर:
भारत में कई प्रकार की जातियां तथा धर्मों के लोग रहते हैं जिस कारण से उनकी भाषा, खान-पान, रहन सहन, परंपराएं, रीति-रिवाज इत्यादि अलग-अलग हैं। हर किसी के विवाह के तरीके, जीवन प्रणाली इत्यादि भी अलग अलग हैं। हर धर्म के धार्मिक ग्रंथ अलग-अलग हैं तथा उनको सभी अपने माथे से लगाते हैं। जिस प्रदेश में चले जाओ वहाँ का नृत्य अलग-अलग है। वास्तुकला, चित्रकला में भी विविधता देखने को मिल जाती है। हर किसी जाति या धर्म के अलग-अलग त्योहार, मेले इत्यादि हैं। सांस्कृतिक एकता में व्यापारियों, कथाकारों, कलाकारों इत्यादि का भी योगदान रहा है। इस तरह यह सभी सांस्कृतिक चीजें अलग-अलग होते हुए भी भारत में एकता बनाए रखती हैं।

प्रश्न 3.
भारतीय समाज की रूप-रेखा के बारे में बताएं।
अथवा
भारतीय समाज की संरचना का वर्णन करें।
उत्तर:
भारतीय समाज को निम्नलिखित आधारों पर समझा जा सकता है-
1. वर्गों का विभाजन-पुराने समय में भारतीय समाज जातियों में विभाजित था पर आजकल यह जाति के स्थान पर वर्गों में बँट गया है। व्यक्ति के वर्ग की स्थिति उसकी सामाजिक स्थिति पर निर्भर करती है। शिक्षा, पैसे इत्यादि के कारण अलग-अलग वर्गों का निर्माण हो रहा है।

2. धर्म निरपेक्षता-पुराने समय में राजा महाराजाओं के समय में धर्म को काफ़ी महत्त्व प्राप्त था। राजा का जो धर्म होता था उसकी ही समाज में प्रधानता होती थी पर आजकल धर्म की जगह धर्म-निरपेक्षता ने ले ली है। व्यक्ति अन्य धर्मों को मानने वालों से नफ़रत नही करता बल्कि प्यार से रहता है। हर कोई किसी भी धर्म को मानने तथा उसके रीति-रिवाजों को मानने को स्वतंत्र है। समाज या राज्य का कोई धर्म नहीं है। भारतीय समाज में धर्म-निरपेक्षता देखी जा सकती है।

3. प्रजातंत्र-आज का भारतीय समाज प्रजातंत्र पर आधारित है। पुराने समय में समाज असमानता पर आधारित था परंतु आजकल समाज में समानता का बोल-बाला है। देश की व्यवस्था चुनावों तथा प्रजातंत्र पर आधारित है। इसमें प्रजातंत्र के मल्यों को बढ़ावा मिलता है। इसमें किसी से भेदभाव नहीं होता तथा किसी को उच्च या निम्न नहीं समझा जाता है।

प्रश्न 4.
आश्रम व्यवस्था के बारे में बताएं।
उत्तर:
हिंदू समाज की रीढ़ का नाम है-आश्रम व्यवस्था। आश्रम शब्द श्रम शब्द से बना है जिसका अर्थ है प्रयत्न करना। आश्रम का शाब्दिक अर्थ है जीवन यात्रा का पड़ाव। जीवन को चार भागों में बाँटा गया है। इसलिए व्यक्ति को एक पड़ाव खत्म करके दूसरे में जाने के लिए स्वयं को तैयार करना होता है। यह पड़ाव या आश्रम है। हमें चार आश्रम दिए गए हैं-
1. ब्रह्मचर्य आश्रम-मनुष्य की औसत आयु 100 वर्ष मानी गई है तथा हर आश्रम 25 वर्ष का माना गया है। पहले 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम के माने गए हैं। इसमें व्यक्ति ब्रह्म के अनुसार जीवन व्यतीत करता है। वह विद्यार्थी बन कर अपने गुरु के आश्रम में रह कर हर प्रकार की शिक्षा ग्रहण करता है तथा गुरु उसे अगले जीवन के लिए तैयार करता है।

2. गृहस्थ आश्रम-पहला आश्रम तथा विद्या खत्म करने के बाद व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। यह 26-50 वर्ष तक चलता है। इसमें व्यक्ति विवाह करवाता है, संतान उत्पन्न करता है, अपना परिवार बनाता है. जीवन यापन करता है, पैसा कमाता है तथा दान देकर लोगों की सेवा करता है। इसमें व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति करता है।

3. वानप्रस्थ आश्रम-यह तीसरा आश्रम है जोकि 51-75 वर्ष तक चलता है। जब व्यक्ति इस उम्र में आ जाता है तो वह अपना सब कुछ अपने बच्चों को सौंपकर भगवान की भक्ति के लिए जंगलों में चला जाता है। इसमें व्यक्ति घर की चिंता छोड़कर मोक्ष प्राप्त करने में ध्यान लगाता है। जरूरत पड़ने पर वह अपने बच्चों को सलाह भी दे सकता है।

4. संन्यास आश्रम-75 साल से मृत्यु तक संन्यास आश्रम चलता है। इसमें व्यक्ति हर किसी चीज़ का त्याग कर देता है तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए भगवान की तरफ ध्यान लगा देता है। वह जंगलों में रहता है, कंद मूल खाता है तथा मोक्ष के लिए वहीं भक्ति करता रहता है तथा मृत्यु तक वहीं रहता है।

प्रश्न 5.
वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊंची स्थिति किस की थी?
उत्तर:
वर्ण व्यवस्था में चार प्रकार के वर्ण बताये गये हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं चौथा वर्ण। इन सभी में से सबसे ऊंची स्थिति या दर्जा ब्राह्मणों का माना गया था, बाकी तीनों वणों को ब्राह्मणों के बाद की स्थिति प्राप्त थी। सभी वर्गों से ऊपर की स्थिति के मुख्य कारण माने गये कि उस वर्ग ने समाज का धार्मिक क्षेत्र में एवं शिक्षा के क्षेत्र में मार्ग-दर्शन करना था। अर्थ यह है कि समाज को शिक्षा प्रदान करना था। इस प्रकार माना गया है कि ब्राह्मण वर्ण के व्यक्तियों को राज दरबारों में ‘राज गुरु’ का दर्जा प्राप्त होगा और राज्य प्रबंधन के विषय में राजा उनसे सलाह मशविरा करेगा एवं मार्गदर्शन लेगा। इस विषय में कोई भी व्यक्ति इस वर्ण के विरुद्ध नहीं बोल सकता था, परंतु इस बारे में राजा पुरोहित (राजगुरु) की आज्ञा मानने को बाध्य नहीं होता था। सामान्यतः उनकी राय को मान ही लिया जाता था।

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प्रश्न 6.
आश्रम व्यवस्था के सामाजिक महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
आश्रम व्यवस्था, व्यक्ति के जीवन का सर्वपक्षीय विकास है। इस व्यवस्था में व्यक्ति के जैविक, भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास की ओर पूरा ध्यान दिया गया था। यह व्यवस्था मनुष्य को उसके सामाजिक कर्तव्यों के प्रति सचेत करती थी। व्यक्ति को उसकी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने में भी सहायक होती थी। आश्रम व्यवस्था में अपने अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों की ओर ज्यादा ध्यान दिलाती थी। इस कारण से समाज में ज्यादा संगठन सहयोग एवं संतुलन बनाये रखा जाता था। इस व्यवस्था में व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं का ध्यान भी रखा जाता था। भावार्थ कि आदमी का संपूर्ण विकास भी होता था। इस व्यवस्था के अनुसार वह अपनी सारी सामाजिक ज़िम्मेदारियों को सही ढंग से निभा सकता था।

प्रश्न 7.
पुरुषार्थ के भिन्न-भिन्न आधार कौन-से हैं?
अथवा
पुरुषार्थ के मुख्य उद्देश्य क्या-क्या हैं?
उत्तर:
पुरुषार्थ का अर्थ है व्यक्ति का ‘मनोरथ’ या इच्छा। इस प्रकार मनुष्य की इच्छा सुखी जीवन जीने की होती है, पुरुषार्थ प्रणाली व्यक्ति की इन्हीं इच्छाओं, ‘आवश्यकता और ज़रूरतों को, जोकि मानवीय जीवन का आधार होती हैं पूरा करती है। मनुष्य की इन्हीं सारी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को पुरुषार्थ प्रणाली में ‘चार भागों’ में विभक्त कर दिया गया है और ये चारों भाग हैं ‘धर्म’, ‘अर्थ’, ‘काम’ और ‘मोक्ष’। इन सभी भागों में व्यक्ति अलग-अलग तरह के कार्य संपन्न करता है। धर्म का कार्य है व्यक्ति को नैतिक नियमों में रहना और सही आचरण करना। ‘अर्थ’ के संबंध में व्यक्ति धन को कमाता एवं खर्च करता है और अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करता है।

‘काम’ के पुरुषार्थ में वह अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करता है। विवाह इत्यादि करके संतान उत्पत्ति करके अपने वंश को आगे बढ़ाता है। इसी परंपरा में वह अंतिम पुरुषार्थ जोकि ‘मोक्ष’ माना गया है को ओर अग्रसर होता है जोकि मनुष्य का अंतिम उद्देश्य जाना जाता है। इस तरह से पुरुषार्थ मनुष्य के कर्तव्यों को निश्चित करता है एवं हर समय उसका मार्गदर्शन करता है।

प्रश्न 8.
संस्कार क्या होते हैं?
अथवा
संस्कार कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर:
संस्कार, शरीर की शुद्धि के लिए होते हैं, इस प्रकार व्यक्ति के जन्म से ही संस्कार शुरू हो जाते हैं। कई संस्कार तो जन्म से पहले ही हो जाते हैं और सारी जिंदगी चलते रहते हैं। हमारे गृह सूत्र के अनुसार 11 संस्कार हैं। ‘गोत्र’ धर्म अनुसार इनकी संख्या चालीस है। इस तरह मनु स्मृति में नौ संस्कारों के विषय में बताया गया है। इनमें से कुछ निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण संस्कार हैं-

  • गर्भाधान संस्कार
  • जाति धर्म संस्कार
  • नामकरण संस्कार
  • निष्करण संस्कार
  • मुंडन संस्कार
  • चूड़ाधर्म संस्कार
  • कर्ण वेध संस्कार
  • सवित्री संस्कार
  • समवर्तन संस्कार
  • विवाह संस्कार
  • अंतेष्ठि संस्कार।

प्रश्न 9.
वर्ण की उत्पत्ति का परंपरागत सिद्धांत बताएं।
उत्तर:
परंपरागत पुरुष सिद्धांत-वर्ण प्रणाली की उत्पत्ति की सबसे पहली चर्चा ऋग्वेद के ‘पुरुष सूक्त’ में मिलती है, ऋग्वेद के गद्यांश में इस व्यवस्था का वर्णन है, इसी को ‘पुरुष-सूक्त’ कहा गया है। ‘पुरुष-सूक्त’ में सामाजिक व्यवस्था की तुलना एक पुरुष के साथ प्रतीक के रूप में की गई है, जोकि ‘सर्वव्यापी पुरुष’ या समूची मानव जाति का प्रतीक है। इस पुरुष को विश्व पुरुष, सर्वपुरुष या परम पिता परमात्मा भी कहा गया है। इस ‘विश्व पुरुष’ के अलग-अलग अंगों को अर्थात् शारीरिक अंगों को चारों वर्गों की उत्पत्ति की तरह दर्शाया गया है। इस ‘विश्व पुरुष’ के मुंह से ‘ब्राह्मणों’ की उत्पत्ति, बांहों से ‘क्षत्रियों की उत्पत्ति जांघों से ‘वैश्यों’ की उत्पत्ति एवं पैरों से ‘चौथे वर्ण’ की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है।

यह सभी प्रतीकात्मक है। इस व्यवस्था में ‘ब्राह्मण’ का कार्य मानव जाति को ज्ञान एवं उपदेश देना है जो मुंह के द्वारा ही संभव है। मनुष्य की बाहें (बाजू) शक्ति का प्रतीक हैं, इसलिए ‘क्षत्रिय’ का मुख्य कार्य समाज या देश की रक्षा करना है, वैश्यों के बारे में कहीं कुछ मतभेद मिलते हैं पर उनकी उत्पत्ति के बारे में जंघा से जो दर्शाया गया, जिससे यह प्रतीत होता है कि इस वर्ग का काम मुख्य रूप से भोजन उपलब्ध करवाना भावार्थ खेती इत्यादि या ‘व्यापार’ करना दर्शाया गया है।

इसी प्रकार चौथे वर्ण की उत्पत्ति को पैरों से माना गया है, जो यह पूरे शारीरिक ढांचे की सेवा करता है, इस तरह चौथे वर्ण का कार्य पूरे समाज की सेवा करना था। इस तरह इस ‘विश्व पुरुष’ के विभिन्न अंगों से वर्ण निकले हैं या पैदा हुए हैं। इस प्रकार जैसी उनकी उत्पत्ति हुई, उसी अनुसार उनको कार्य दिये गये हैं। इस तरह ये सभी अलग-अलग न होकर एक-दूसरे पर निर्भर हैं।

प्रश्न 10.
वर्ण की उत्पत्ति का रंग का सिद्धांत बताएं।
उत्तर:
वर्ण या रंग का सिद्धांत-वर्ण शब्द का अर्थ है रंग। महाभारत में भृगु ऋषि ने भारद्वाज मुनि को वर्ण प्रणाली की उत्पत्ति का आधार आदमी की चमड़ी के रंग अनुसार बताया है। इस सिद्धांत के अनुसार सबसे पहले ‘ब्रह्मा’ से ‘ब्राह्मणों’ की उत्पत्ति हुई। इसके पश्चात् क्षत्रिय, वैश्य और चौथे वर्ण की। इस उत्पत्ति का मुख्य कारण मनुष्य की चमड़ी का रंग था। इस विचारधारा के अनुसार ‘ब्राह्मणों’ का रंग ‘सफ़ेद’, क्षत्रिय का ‘लाल’, वैश्यों का ‘पीला’ एवं चौथे वर्ण को ‘काला’ रंग प्राप्त हुआ।

भृगु ऋषि के अनुसार वर्ण का सिद्धांत सिर्फ रंग केवल चमड़ी के रंग के आधार पर न होकर बल्कि ‘कर्म’ एवं ‘गुणों’ पर आधारित है। उनके अनुसार जो लोग क्रोध करते हैं, कठोरता एवं वीरता दिखाते हैं वे ‘रजोगुण’ प्रधान होते हैं वहीं ‘क्षत्रिय’ कहलवाये। इसी प्रकार जिन लोगों ने खेतीबाड़ी एवं खरीद-फरोख्त में रुचि दिखाई वे पीत गुण (पित्तगुण) ‘वैश्य’ कहलवाये। जो लोग (प्राणी) लालची, लोभी और हिंसात्मक प्रवृत्ति के थे, वे लोग ‘सामगुण’ वाले कहलवाये गये। इस तरह रंग के आधार एवं कार्य-कलापों के लक्षणों के आधार पर वर्ण व्यवस्था की नींव रखी गई।

प्रश्न 11.
वर्ण की उत्पत्ति के कर्म तथा धर्म का सिद्धांत का वर्णन करें।
उत्तर:
कर्म एवं धर्म का सिद्धांत-मनु स्मृति में वर्ण धर्म के लिए अलग-अलग तरह का महत्त्व बताया गया है, इसमें कर्मों की महत्ता का वर्णन है। मनु के अनुसार शक्ति को अपने वर्ण द्वारा निर्धारित कार्य ही करने चाहिए। उसे अपने से उच्च या निम्न वर्गों वाला कार्य नहीं करना चाहिए। यह हो सकता है कुछ लोग अपने वर्ण अनुसार कार्य ठीक ढंग से न कर पायें, पर फिर भी उन्हें अपने वर्ण धर्म का पालन ज़रूर करना चाहिए। मनु स्मृति अनुसार किसी और वर्ण के कार्य को करने की अपेक्षा अपने वर्ण कार्य को आधा कर लेना ही अच्छा होता है।

इस सिद्धांत के अनुसार ‘वर्णों’ का प्रबंध, समाज की आवश्यकतानुसार होता है और यह था भी इसी प्रकार। इस सिद्धांत के अनुसार जो कार्य थे, वे थे-धार्मिक कार्यों की पूर्ति, समाज एवं राज्य का प्रबंध, आर्थिक कार्य और सेवा करने के कार्य। इन्हीं सभी कार्यों को करने हेतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं चौथे वर्ण से पूर्ति हुई। इस सिद्धांत अनुसार कर्म के साथ धर्म भी जुड़ा हुआ है। हिंदुओं की मान्यतानुसार पिछले जन्मों के कर्म वर्तमान जीवन को निर्धारित करते हैं। पिछले जन्म के कर्मों के आधार पर विभिन्न तरह के लोग अलग-अलग सामाजिक ज़रूरतों की पूर्ति करते हैं। इस तरह अपने अगले जन्म के निर्धारण के लिए व्यक्ति को वर्तमान में सही कार्य करने होंगे।

प्रश्न 12.
वर्ण की उत्पत्ति का गुणों का सिद्धांत बताएं।
उत्तर:
गुणों का सिद्धांत-वर्ण प्रणाली की उत्पत्ति के संबंध में ‘गुणों’ को आधार माना गया है। इस सिद्धांत के अनुसार, सभी इंसान जन्म के समय ‘निम्न’ होते हैं। ज्यों-ज्यों व्यक्ति गुणों को अपनाता जाता है त्यों-त्यों उसका समाज में वर्ण भी निश्चित होता जाता है। इस सिद्धांत अनुसार ज्यों-ज्यों व्यक्ति को संस्कार मिलते हैं और वह इन संस्कारों द्वारा, जीवन की अलग-अलग अवस्थाओं में प्रवेश करता है और भिन्न-भिन्न गुणों को धारण करता जाता है।

इस तरह जीवन के तरीके एवं गुणों के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता है। इसी के आधार पर ही वर्गों का वर्गीकरण होता है। इन्हीं ‘गुणों के सिद्धांत’ का वर्णन एवं व्याख्यान ‘गीता’ में भी किया गया है। इस सिद्धान्त को “त्रिगुण’ सिद्धांत भी कहा गया है। हिंदुओं की विचारधारा अनुसार मानवीय कार्यों में तीन प्रकार के गुणों को वर्णित किया गया है और वे गुण हैं-‘सतोगुण’, ‘रजोगुण’। ‘तमोगुण’ इस प्रकार ‘सतोगुण’ में सद्विचार, अच्छी सोच और सदाचार शामिल है।

‘रजोगुण’ में भोग-विलास, ऐश्वर्य का जीवन, अहंकार और बहादुरी का शुमार है। इन सभी गुणों में सभी से नीचे ‘तमोगुण’ आता है, जिसमें अशिष्टता, असभ्यता, अति भोग विलास इत्यादि को शामिल किया गया था। इस तरह ‘सतोगुण’ वाले व्यक्तियों को ब्राह्मणों की श्रेणी में रखा गया था। दूसरी श्रेणी में ‘रजोगुण’ वालों में क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ग को शामिल किया गया था।

अंत में ‘तमोगुण’ वाली प्रवृत्ति के व्यक्तियों को चौथे वर्ण का दर्जा दिया गया था। इस व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे मौके मिलते हैं, जिसमें वह अपनी प्रतिभा का विकास कर सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार हर व्यक्ति को उसके स्वभाव (प्रकृति के अनुरूप) उसकी स्थिति एवं कार्य’ दिये जाते हैं, जोकि सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप ही होते हैं।

प्रश्न 13.
वर्ण की उत्पत्ति के द्विज तथा जन्म के सिद्धांत का वर्णन करें।
उत्तर:
(i) द्विज सिद्धांत-भारद्वाज मुनि ने भृगु ऋषि के वर्ण सिद्धांत को मान्यता नहीं दी, फिर अपना ‘द्विज सिद्धांत’ पेश किया। इस अनुसार सबसे पहले ‘ब्राह्मण’ पैदा हुए, जिसे ‘द्विज’ का नाम दिया गया। द्विज लोग अपने कार्य-कलापों के आधार पर चार भिन्न-भिन्न श्रेणियों में बांटे गये, जिन्हें चार वर्ण कहा गया है। इन्हीं लोगों में से जो लोग ज्यादा ‘गुस्सैल’ एवं साहसी थे उन्हें क्षत्रिय कहा जाने लगा। इसी तरह जो व्यक्ति अपने ‘द्विज धर्म’ को छोड़कर खेतीबाड़ी एवं व्यापार करने लगे उन्हें ‘वैश्य’ की श्रेणी में माना गया और जो लोग अपना धर्म त्याग कर झूठ बोलने लग गये और अति भोगी-विलासी बन गये उन्हें ‘चौथा वर्ण’ कहा जाने लगा।

(ii) जन्म का सिदधांत-विदवान बी० के० चटोपाध्याय ने जन्म को वर्ण का कारण बताया है। इस संदर्भ में उन्होंने महाभारत की कई उदाहरणों का उल्लेख किया है। इस विषय में उन्होंने द्रोणाचार्य का वर्णन किया है जिसमें वह बताते हैं कि जन्म के आधार पर ही द्रोणाचार्य ‘क्षत्रिय’ जैसा कार्य करते हुए ब्राहमण कहलाये। इसी प्रकार पांडवों के स्वभाव में भारी अंतर होते हुए भी वे सभी क्षत्रिय कहलवाये। इसलिए यह स्पष्ट है कि परिवर्तनशील गुणों के आधार पर वर्ण को निर्धारित नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 14.
व्यक्ति को जीवन में कौन-से ऋण उतारने पड़ते हैं?
उत्तर:
व्यक्ति को जीवन में तीन ऋण उतारने पड़ते हैं तथा वह हैं देव ऋण, पितृ ऋण तथा ऋषि ऋण। देव ऋण उतारने के लिए व्यक्ति को देव यज्ञ करना पड़ता है तथा पवित्र अग्नि में भेंट देनी पड़ती है। यह ऋण व्यक्ति को इसलिए अदा करना पड़ता है ताकि उसको देवी-देवताओं से पानी, हवा, भूमि इत्यादि प्राकृतिक साधन प्राप्त होते हैं। पितृ का अर्थ है हमारे पूर्वज तथा बड़े बुजुर्ग। व्यक्ति अपने माता-पिता तथा पूर्वजों का ऋणि होता है क्योंकि वह उसे जन्म देकर बड़ा करते हैं।

इसलिए उसे यह ऋण उतारना पड़ता है। व्यक्ति ऋषियों का भी ऋणी होता है क्योंकि व्यक्ति को इनसे ही आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा उसे उनसे ही विद्या भी प्राप्त होती है। इसलिए व्यक्ति अपने गुरुओं का ऋणी होता है। इसलिए व्यक्ति को ब्रह्म यज्ञ करके, पढ़ाई करके तथा औरों को पढ़ाने के द्वारा गुरु के प्रति अपना ऋण चुकाना पड़ता है। इस प्रकार व्यक्ति को अपने जीवन में यह तीन ऋण उतारने पड़ते हैं।

प्रश्न 15.
वर्ण व्यवस्था का क्या अर्थ है?
उत्तर:
भारतीय हिंदू संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद का मिश्रण। इसके अनुसार परमात्मा को मिलना सबसे बड़ा सुख है, साथ-साथ में इस दुनिया के सुखों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसलिए इन दोनों तरह के सुखों के मिश्रण के लिए, हिंदू संस्कृति में एक व्यवस्था बनाई गई है जिसे ‘वर्ण-व्यवस्था’ कहते हैं। वर्ण प्रणाली एवं वर्ण व्यवस्था, हिंदू सामाजिक व्यवस्था का मूल आधार होने के साथ-साथ हिंदू धर्म का एक अटूट अंग है।

इसलिए वर्ण के साथ संबंधित कर्तव्यों को ‘वर्ण धर्म’ कहा जाता है। वर्ण प्रणाली में व्यक्ति एवं समाज के बीच में जो संबंध है उन्हें क्रमानुसार पेश किया गया है, जिसकी सहायता से व्यक्ति सामाजिक संगठन को ठीक ढंग से चलाने में अपनी मदद देता है। वर्ण प्रणाली के द्वारा भारतीय समाज को चार अलग-अलग भागों में बांटा गया है ताकि सामाजिक कार्य ठीक ढंग से चल सकें।

निबंधात्मकपश्न

प्रश्न 1.
प्राचीन भारत में एकता के कौन-कौन से तत्त्व थे?
उत्तर:
प्राचीन भारत में एकता के निम्नलिखित तत्त्व थे:
1. ग्रामीण समाज-प्राचीन भारत ग्रामीण समाज पर आधारित था। जीवन पद्धति ग्रामीण हुआ करती थी। लोगों का मुख्य कार्य कृषि हुआ करता था। काफ़ी ज़्यादा लोग कृषि या कृषि से संबंधित कार्यों में लगे रहते थे। जजमानी व्यवस्था प्रचलित थी। धोबी, लोहार इत्यादि लोग सेवा देने का काम करते थे। इनको सेवक कहते थे। बड़े-बड़े ज़मींदार सेवा के बदले पैसा या फसल में से हिस्सा दे देते थे। यह जजमानी व्यवस्था पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी। इस सबसे ग्रामीण समाज में एकता बनी रहती थी। नगरों में बनियों का ज्यादा महत्त्व था पर साथ ही साथ ब्राह्मणों इत्यादि का भी काफ़ी महत्त्व हुआ करता था। यह सभी एक-दूसरे से जुड़े हुआ करते थे जिससे समाज में एकता रहती थी।

2. संस्थाएं-समाज की कई संस्थाओं में गतिशीलता देखने को मिल जाती थी। परंपरागत सांस्कृतिक संस्थाओं में से नियुक्तियाँ होती थीं। शिक्षा के विद्यापीठ हुआ करते थे और बहुत-सी संस्थाएं हुआ करती थीं जो कि भारत में एकता का आधार हुआ करती थीं। ये संस्थाएं भारत में एकता का कारण बनती थीं।

3. भाषा-सभी भाषाओं की जननी ब्रह्म लिपि रहती है। हमारे सारे पुराने धार्मिक ग्रंथ जैसा कि वेद, पुराण इत्यादि सभी संस्कृत भाषा में लिखे हुए हैं। संस्कृत भाषा को पूरे भारत में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। इस को देववाणी भी कहते हैं क्योंकि यह कहा जाता है कि देवताओं की भी यही भाषा है।

4. आश्रम व्यवस्था-भारतीय समाज में एकता का सबसे बड़ा आधार हमारी संस्थाएं जैसे आश्रम व्यवस्था रही है। हमारे जीवन के लिए चार आश्रमों की व्यवस्था की गई है जैसे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास। व्यक्ति को इन्हीं चार आश्रमों के अनुसार जीवन व्यतीत करना होता था तथा इनके नियम भी धार्मिक ग्रंथों में मिलते थे। यह आश्रम व्यवस्था पूरे भारत में प्रचलित थी क्योंकि हर व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य है मोक्ष प्राप्त करना जिसके लिए सभी इसका पालन करते थे। इस तरह यह व्यवस्था भी प्राचीन भारत में एकता का आधार हुआ करती थी।

5. पुरुषार्थ-जीवन के चार प्रमुख लक्ष्य होते हैं जिन्हें पुरुषार्थ कहते हैं। यह हैं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। शुरू में सिर्फ ब्राह्मण हुआ करते थे। परंतु धीरे-धीरे और वर्ण जैसे क्षत्रिय, वैश्य तथा चतुर्थ वर्ण सभी का अंतिम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति या मोक्ष प्राप्त करना होता था तथा सभी को इन पुरुषार्थों के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करना होता था। धर्म का योग अपनाते हुए, अर्थ कमाते हुए, समाज को बढ़ाते हुए मोक्ष को प्राप्त करना ही व्यक्ति का लक्ष्य है। सभी इन की पालना करते हैं। इस तरह यह भी एकता का एक तत्त्व था।

6. कर्मफल-कर्मफल का मतलब होता है काम। कर्म का भारतीय संस्कृति में काफ़ी महत्त्व है। व्यक्ति का अगला जन्म उसके पिछले जन्म में किए गए कर्मों पर निर्भर है। अगर अच्छे कर्म किए हैं तो जन्म अच्छी जगह पर होगा नहीं तो बुरी जगह पर। यह भी हो सकता है कि अच्छे कर्मों के कारण आपको जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाए। इसी को कर्म फल कहते हैं। यह भी प्राचीन भारतीय समाज में एकता का एक तत्त्व था।

7. तीर्थ स्थान-प्राचीन भारत में तीर्थ स्थान भी एकता का एक कारण हुआ करते थे। चाहे ब्राहमण हो या क्षत्रिय, या वैश्य सभी हिंदुओं के तीर्थ स्थान एक हुआ करते थे। सभी को एकता के सूत्र में बाँधने में तीर्थ स्थानों का काफ़ी महत्त्व हुआ करता था। मेलों, उत्सवों, पर्यों पर सभी इकट्ठे हुआ करते थे। तीर्थ स्थानों पर विभिन्न जातियों के लोग आया करते थे, संस्कृति का आदान-प्रदान हुआ करता था। इस तरह वह एकता के सूत्र में बँध जाते थे। काशी, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, रामेश्वरम्, वाराणसी, प्रयाग तथा चारों धाम प्रमुख तीर्थ स्थान हुआ करते थे। इस तरह इन सभी कारणों को देख कर हम कह सकते हैं कि प्राचीन भारत में काफ़ी एकता हुआ करती थी तथा उस एकता के बहुत-से कारण हुआ करते थे जिनका वर्णन ऊपर किया गया है।

प्रश्न 2.
प्राचीन भारतीय समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं के बारे में बताओ।
उत्तर:
प्राचीन भारतीय समाज की निम्नलिखित सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताएं थीं-
1. धर्म-हिंदू विचारधारा के अनुसार जीवन को संतुलित, संगठित तथा ठीक ढंग से चलाने के लिए कुछ नैतिक आदर्शों को बनाया गया है। ये सारे नैतिक आदर्श धर्म का रूप लेते हैं। इस तरह धर्म सिर्फ आत्मा या परमात्मा की ही व्याख्या नहीं करता बल्कि मनुष्य के संपूर्ण नैतिक जीवन की व्याख्या करता है। यह उन मानवीय संबंधों की भी व्याख्या करता है जो कि सामाजिक व्याख्या के आधार हैं। इस तरह धर्म एक अनुशासन है जो मनुष्य की आत्मा का विकास करके समाज को पूरा करता है तथा इस तरह धर्म प्राचीन भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है।

2. कर्मफल तथा पुनर्जन्म-पुराणों तथा धार्मिक ग्रंथों में लिखा गया है कि व्यक्ति को कर्म करने की आज़ादी है तथा इसी के अनुसार व्यक्ति जैसा कर्म करेगा उसको उसी के अनुसार फल भी भोगना पड़ेगा। उसके कर्मों के आधार पर ही उसे अलग-अलग योनियों में जन्म प्राप्त होगा। व्यक्ति के जीवन का परम उद्देश्य है जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति, जिस को मोक्ष कहते हैं। इसलिए व्यक्ति को उस प्रकार के कार्य करने चाहिए जोकि उसे मोक्ष प्राप्त करने में मदद करें। इससे समाज भी अनुशासन में रहता है।

3. परिवार-परिवार भी प्राचीन भारतीय समाज की एक प्रमुख विशेषता थी। प्राचीन भारत में संयुक्त परिवार, पितृ-सत्तात्मक, पितृस्थानी, पितृवंशी इत्यादि परिवार के प्रकार हुआ करते थे। परिवार में पिता की सत्ता चलती थी तथा उसे ही सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। परिवार में पुत्र का महत्त्व काफ़ी ज्यादा था क्योंकि धर्म के अनुसार कई संस्कारों तथा यज्ञों के लिए पुत्र ज़रूरी हुआ करता था। परिवार समाज की मौलिक इकाई माना जाता था तथा परिवार ही समाज का निर्माण करते थे।

4. विवाह-भारतीय समाज में चाहे प्राचीन हो या आधुनिक विवाह को एक धार्मिक संस्कार माना जाता है। एक विवाह के प्रकार को आदर्श विवाह माना गया है। विवाह को तोड़ा नहीं जा सकता था। किसी खास हालत में ही दूसरा विवाह करवाने की आज्ञा थी। विवाह के बाद ही परिवार बनता था इसलिए विवाह को गृहस्थ आश्रम की नींव माना जाता है। इस तरह प्राचीन भारतीय समाज की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता विवाह प्रथा हुआ करती थी।

5. राज्य-प्राचीन भारतीय समाज में राज्य एक महत्त्वपूर्ण विशेषता हुआ करती थी। राज्य का प्रबंध राजा करता था तथा राजा और प्रजा के संबंध बहुत अच्छे हुआ करते थे। राज्य का कार्यभार सेनापति, अधिकारी, मंत्रीगण संभाला करते थे यानि कि अधिकारों का बँटवारा था। इससे यह कह सकते हैं कि प्रजा की भी सुना जाती थी। चाहे राजा किसी की बात मानने को बाध्य नहीं होता था पर फिर भी उसे प्रजा के कल्याण के कार्य करने पड़ते थे।

6. स्त्रियों की स्थिति-प्राचीन भारतीय समाज में स्त्रियों को कई प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। कोई भी यज्ञ पत्नी के बिना पूरा नहीं हो सकता था। स्त्री को शिक्षा लेने का अधिकार प्राप्त था। उसे अर्धांगिनी कहते थे। चाहे बाद के समय में स्त्रियों की स्थिति में काफ़ी गिरावट आ गई थी क्योंकि कई विद्वानों ने स्त्रियों के ऊपर पुरुषों के नियंत्रण पर जोर दिया है तथा कहा है कि स्त्री हमेशा पिता, पति तथा पुत्र के नियंत्रण में रहनी चाहिए। प्राचीन काल में स्त्रियों की स्थिति फिर भी ठीक थी पर समय के साथ-साथ इनमें गिरावट आ गई थी।

7. शिक्षा-प्राचीन समय में शिक्षा को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। पहले तीन वर्गों को शिक्षा लेने का अधिकार प्राप्त था। शिक्षा गुरुकुल में ही मिलती थी। वेदों पुराणों का पाठ पढ़ाया जाता था। गुरु शिष्य के आचरण के नियम भी विकसित थे तथा शिक्षा लेने के नियम भी विकसित थे।

8. व्यक्ति और सामाजिक संस्थाएं-व्यक्ति तथा सामाजिक संस्थाएं प्राचीन समाज का महत्त्वपूर्ण आधार हुआ करती थीं। पुरुषार्थ, आश्रम व्यवस्था समाज का आधार हुआ करते थे। चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष हुआ करते थे। व्यक्ति चौथे पुरुषार्थ यानि कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए पहले तीन पुरुषार्थों के अनुसार जीवन व्यतीत करते थे। इसके साथ आश्रम व्यवस्था भी मौजूद थी।

जीवन को चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रमों में बाँटा गया था। व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति के लिए अपना जीवन इन चारों आश्रमों के अनुसार व्यतीत करते थे। यह सभी भारतीय समाज को एकता प्रदान करते थे। इसी के साथ कर्म की विचारधारा भी मौजूद थी कि व्यक्ति जिस प्रकार के कर्म करेगा उसी प्रकार से उसे योनि या मोक्ष प्राप्त होगा। मोक्ष जीवन का अंतिम लक्ष्य होता था तथा सभी उसको प्राप्त करने के प्रयास करते थे।

प्रश्न 3.
पश्चिमीकरण के भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़े हैं? उनका वर्णन करो।
अथवा
पश्चिमीकरण अथवा पश्चिमी संस्कृति के कारण भारतीय समाज में क्या परिवर्तन आ रहे हैं? उनका वर्णन करो।
अथवा
भारत में पश्चिमीकरण के प्रभावों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पश्चिमीकरण के भारतीय समाज पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े:
(i) परिवार पर प्रभाव-पश्चिमीकरण के कारण शिक्षित युवाओं तथा महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति चेतना बढ़ गई। इस कारण लोगों ने ग्रामीण क्षेत्रों में अपने संयुक्त परिवारों को छोड़ दिया तथा वह शहरों में केंद्रीय परिवार बसाने लगे। परिवार के सदस्यों के संबंधों के स्वरूप, अधिकारों तथा दायित्व में परिवर्तन हुआ।

(ii) विवाह पर प्रभाव-पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के अंतर्गत लोगों में विवाह के धार्मिक संस्कार के प्रति श्रद्धा कम हो गई तथा इसे एक समझौता समझा जाने लगा। प्रेम विवाह तथा तलाकों का प्रचलन बढ़ गया, अंतर्जातीय विवाह बढ़ने लग गए। एक विवाह को ही ठीक समझा जाने लगा। विवाह को धार्मिक संस्कार न मानकर एक समझौता समझा जाने लगा जिसे कभी भी तोड़ा जा सकता है।

(ii) नातेदारी पर प्रभाव-भारतीय समाज में नातेदारी की मनुष्य के जीवन में अहम् भूमिका रहती है। मगर पश्चिमीकरण के कारण व्यक्तिवाद, भौतिकवाद, गतिशीलता तथा समय धन है, आदि अवधारणाओं का भारतीय संस्कृति में तीव्र विकास हुआ। इससे ‘विवाह मूलक’ तथा ‘रक्त मूलक’ (Iffinal & Consaguineoun) दोनों प्रकार की नातेदारियों पर प्रभाव पड़ा। द्वितीयक एवं तृतीयक (Secondary & Tertiary) संबंध शिथिल पड़ने लगे। प्रेम विवाहों तथा कोर्ट विवाहों में विवाहमूलक नातेदारी कमज़ोर पड़ने लगी।

(iv) जाति प्रथा पर प्रभाव-सहस्रों वर्षों से भारतीय समाज की प्रमुख संस्था, जाति में पश्चिमीकरण के कारण अनेक परिवर्तन हुए। अंग्रेजों ने भारत में आने के बाद बड़े-बड़े उद्योग स्थापित किये और यातायात तथा संचार के साधनों जैसे-बस, रेल, रिक्शा, ट्राम इत्यादि का विकास व प्रसार किया। इसके साथ-साथ भारतीयों को डाक, तार, टेलीविज़न, अख़बारों, प्रैस, सड़कों व वायुयान आदि सविधाओं को परिचित कराया। बड़े-साथ उदयोगों की स्थापना की गई। इनके कारण विभिन्न जातियों के लोग एक स्थान पर उद्योग में कार्य करने लग पड़े।

एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए आधुनिक यातायात के साधनों का प्रयोग होने लगा। इससे उच्चता व निम्नता की भावना में भी कमी आने लगी। एक जाति के सदस्य दूसरी जाति के व्यवसाय को अपनाने लग पड़े।

(v) अस्पृश्यता-अस्पृश्यता भारतीय जाति व्यवस्था का अभिन्न अंग रही है मगर समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व पर आधारित पश्चिमी मूल्यों ने जातीय भेदभाव को कम किया। जाति तथा धर्म पर भेदभाव किये बिना सभी के लिये शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश की अनुमति, सभी के लिए एक जैसी शिक्षा व्यवस्था, समान योग्यता प्राप्त व्यक्तियों के लिये समान नौकरियों पर नियुक्ति आदि कारकों से अस्पृश्यता में कमी आई। अंग्रेजों ने औद्योगीकरण व नगरीकरण को बढ़ावा दिया। विभिन्न जातियों के लोग रेस्टोरेंट, क्लबों में एक साथ खाने-पीने एवं बैठने लग पड़े। अतः पश्चिमीकरण के कारण भारत में अस्पृश्यता में कमी आई।

(vi) स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन -अंग्रेजों के भारत में आगमन के समय भारत में स्त्रियों की स्थिति काफ़ी निम्न थी। सती प्रथा, पर्दा प्रथा तथा बाल-विवाह का प्रचलन था तथा विधवा पुनर्विवाह पर रोक होने के कारण महिलाओं की स्थिति काफ़ी दयनीय थी। अंग्रेज़ों ने सती प्रथा को अवैध घोषित किया तथा विधवा विवाह को पुनः अनुमति दी। पश्चिमी शिक्षा के प्रसार व प्रचार के माध्यम से बूंघट प्रथा में कमी आई।

पश्चिमीकृत महिलाओं ने पैंट-कमीज़ पहननी आरंभ की। लाखों महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति चेतना आई और उन्होंने केवल घर को संभालने की पारंपरिक भूमिका को त्यागकर पुरुषों के साथ कंधा मिलाकर दफ्तरों में विभिन्न पदों पर नौकरी करनी आरंभ कर दी। इस तरह स्त्रियां अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने में सफ़ल हुईं।

(vii) नव प्रशासनिक व्यवस्था का विकास–अंग्रेजी शासनकाल में भारत में आधुनिक नौकरशाही का विकास किया गया। असंख्य नये प्रशासनिक पदों का सृजन किया गया। भारतीय असैनिक सेवाएं (Indian Civil Services) प्रारंभ की जिनके माध्यम से प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं द्वारा उच्च अधिकारियों का चयन किया जाने लगा। नौकरशाही की बड़ी संरचना का निर्माण किया।

(viii) आर्थिक संस्थाओं का विकास-ब्रिटेन के भारत में शासनकाल के दौरान अनेक आर्थिक संस्थाओं का विकास हुआ। बैंकों की स्थापना की गई। श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण का विकास हुआ। देश में पूंजीवाद का बीजारोपण हुआ। कृषि एवं औद्योगिक श्रमिकों की समस्याएं बढ़ीं। वर्ग संघर्षों में बढ़ावा हुआ। हड़ताल, घेराव, तोड़-फोड़ तथा तालाबंदी होने लगी। आर्थिक संस्थाओं के विकास ने आज़ादी सेर आज़ादी के बाद देश में अर्थव्यवस्था को नया मोड़ दिया।

प्रश्न 4.
उपनिवेशवाद का क्या अर्थ है? औपनिवेशिक काल में भारत में किस प्रकार राष्ट्रवाद का उदय हुआ?
अथवा
भारत में राष्ट्रवाद के विकास के दो कारण लिखिए।
अथवा
उपनिवेशवाद ने अपने शत्रु राष्ट्रवाद को जन्म दिया। इस कथन की पुष्टि करें।
अथवा
‘उपनिवेशवाद की समझ’ के संदर्भ में विस्तृत चर्चा कीजिए।
उत्तर:
उपनिवेशवाद की प्रक्रिया औद्योगिक क्रांति के पश्चात् शुरू हुई जब पश्चिमी देशों के पास अधिक पैसा तथा बेचने के लिए अत्यधिक माल उत्पन्न होना शुरू हुआ होगा। पश्चिमी अथवा शक्तिशाली देशों के द्वारा एशिया तथा अफ्रीका के देशों को जीतने की प्रक्रिया तथा जीते हुए देशों में अपना शासन स्थापित करने की प्रक्रिया को उपनिवेशवाद कहा जाता है। उपनिवेशवाद का दौर 18वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक चला। इसमें मुख्य साम्राज्यवादी देश थे इंग्लैंड, फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन, जर्मनी तथा इटली इत्यादि। बाद में इसमें रूस, अमेरिका तथा जापान जैसे देश भी शामिल हो गए।

भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण :-भारत में राष्ट्रवाद के उदय के निम्नलिखित कारण थे:
(i) देश का राजनीतिक एकीकरण-ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने सभी भारतीय राज्यों को इकट्ठा करके देश का राजनीतिक एकीकरण कर दिया। इससे देश में राजनीतिक एकता स्थापित हुई तथा देश को एक ही प्रशासन तथा कानून प्राप्त हुए। लोगों में उपनिवेशवाद विरोधी भावनाओं के आने से एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण का उदय हुआ।

(ii) जनता का आर्थिक शोषण-ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा ब्रिटिश राज्य की सरकारों ने भारत के आर्थिक शोषण की नीति अपनाई। भारत की आर्थिक संपदा ब्रिटेन को जाने लगी तथा देश का आर्थिक विकास रुक गया। इसका परिणाम बेरोज़गारी, निर्धनता तथा सूखे के रूप में सामने आया। किसानों के ऊपर नयी भूमि व्यवस्थाएं लाद दी गईं। इस प्रकार की आर्थिक दुर्दशा से जनता में रोष उत्पन्न हो गया तथा उन्होंने उपनिवेशवाद का विरोध करना शुरू कर दिया।

(iii) पश्चिमी शिक्षा तथा विचार-भारत की ब्रिटिश विजय से भारतीयों को यूरोपियन लोगों में संपर्क आने का मौका प्राप्त हुआ। 19वीं शताब्दी में यूरोपीय देशों में राष्ट्रवादी आंदोलन चल रहे थे। भारतीयों ने पश्चिमी शिक्षा ग्रहण करनी शुरू की तथा पश्चिमी पुस्तकें पढ़नी शुरू की। समानता, स्वतंत्रता तथा भाईचारे के पश्चिमी विचारों का भारतीयों पर भी प्रभाव पड़ा। इससे भारतीयों को उपनिवेशवाद के परिणामों तथा भारत के शोषण का पता चला। इससे भारत के लोगों में जागृति उत्पन्न हो गयी।

(iv) प्रैस का योगदान-जनता को जागृत करने में प्रैस का बहुत बड़ा योगदान होता है। भारतीय तथा ब्रिटिश प्रैस ने भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न की। बहुत से समाचारपत्र छपने शुरू हो गए जिन्होंने जनता को उपनिवेशवाद के विरुद्ध जागृत किया।

(v) सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों का योगदान-सामाजिक तथा धार्मिक सुधार आंदोलनों ने भारतीयों में चेतना जागृत की। राजा राम मोहनराय, देवेंद्र नाथ, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, ईश्वरचंद्र विद्यासागर इत्यादि ने देश में राष्ट्रवाद जगाने में बड़ी भूमिका अदा की, जिस कारण जनता धीरे-धीरे जागृत हो गयी।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि देश में उपनिवेशवाद के विरोध में राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न करने में बहुत से कारणों का योगदान था।

HBSE 12th Class Sociology Solutions Chapter 1 भारतीय समाज : एक परिचय

प्रश्न 5.
पुरुषार्थों के आधारों के महत्त्व का वर्णन करो।
उत्तर:
हिंदू धर्म शास्त्रों में जीवन के चार उद्देश्य दिए गए हैं तथा इन चार उद्देश्यों की पूर्ति के लिए चार मुख्य पुरुषार्थ भी दिए गए हैं। इन पुरुषार्थों के आधारों का महत्त्व इस प्रकार है
1. धर्म का महत्त्व-धर्म का हमारे सामाजिक जीवन में बहुत महत्त्व है क्योंकि धर्म व्यक्ति की अलग-अलग इच्छाओं, ज़रूरतों, कर्तव्यों तथा अधिकारों में संबंध स्थापित करता है। यह इन सभी को व्यवस्थित तथा नियमित भी करता है। जब व्यक्ति तथा समाज अपने कर्तव्यों की धर्म के अनुसार पालना करते हैं तो समाज में शांति तथा व्यवस्था स्थापित हो जाती है तथा वह उन्नति की तरफ कदम बढ़ाता है।

धार्मिक शास्त्रों में लिखा गया है कि अगर व्यक्ति अर्थ तथा काम की पूर्ति धर्म के अनुसार करे तो ही वह ठीक है तथा अगर वह इन की पूर्ति धर्म के अनुसार न करे तो समाज में नफ़रत, द्वेष इत्यादि बढ़ जाते हैं। यह कहा जाता है कि धर्म ही सच है। इसके अलावा सब कुछ झूठ है। व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन धर्म के बिना संभव ही नहीं है। धर्म प्रत्येक व्यक्ति का तथा और सभी पुरुषार्थों का मार्ग दर्शन करता है। इस तरह धर्म का हमारे लिए बहुत महत्त्व है।

2. अर्थ का महत्त्व-मनष्य की आर्थिक ज़रूरतों की पर्ति अर्थ दवारा होती है। धर्म से संबंधित सभी कार्य अर्थ की मदद से ही पूर्ण होते हैं। व्यक्ति की प्रत्येक प्रकार की इच्छा अर्थ तथा धन द्वारा ही पूर्ण होती है। व्यक्ति को अपने जीवन में पाँच यज्ञ पूर्ण करने ज़रूरी होते हैं तथा यह अर्थ की मदद से ही हो सकते हैं। व्यक्ति अपने धर्म की पालना भी अर्थ की मदद से ही कर सकता है। पुरुषार्थ व्यवस्था में अर्थ को काफ़ी महत्त्व दिया गया है ताकि वह उचित तरीके से धन इकट्ठा करे तथा अपनी ज़रूरतें पूर्ण करे। व्यक्ति को अपने जीवन में कई ऋणों से मुक्त होना पड़ता है तथा यह अर्थ की मदद से ही हो सकते हैं। इस तरह अर्थ का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है।

3. काम का महत्त्व-अगर समाज तथा संसार की निरंतरता को कायम रखना है तो यह काम की मदद से ही संभव है। व्यक्ति को काम से ही मानसिक तथा शारीरिक सुख प्राप्त होते हैं। इस सुख को प्राप्त करने के बाद ही वह अंतिम उद्देश्य अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करने की तरफ बढ़ता है। काम से ही स्त्री तथा पुरुष का मिलन होता है तथा संतान उत्पन्न होती है।

काम से ही व्यक्ति में बहुत-सी इच्छाएं जागृत होती हैं जिससे मनुष्य समाज में रहते हुए अलग-अलग कार्य करता है तथा समाज का विकास करता है। धर्म तथा अर्थ के लिए काम बहुत ही आवश्यक है। काम की सहायता से व्यक्ति अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ धार्मिक ऋणों से मुक्त होता है तथा काम की मदद से पैदा इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए धन कमाता है। इस तरह काम भी हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।

4. मोक्ष का महत्त्व-चार पुरुषार्थों में से अंतिम पुरुषार्थ है मोक्ष। हिंदू शास्त्रों में सभी कार्य मोक्ष को ही ध्यान में रखकर निश्चित किए गए हैं। मोक्ष की इच्छा ही व्यक्ति को बिना किसी चिंता तथा दुःख के अपने कार्य सुचारु रूप के लिए प्रेरित करती है। प्रत्येक व्यक्ति का अंतिम उद्देश्य होता है मोक्ष प्राप्त करना तथा इसलिए ही वह अपना कार्य सुचारु रूप से करता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि प्रत्येक पुरुषार्थ के आधारों का अपना-अपना महत्त्व है तथा व्यक्ति अंतिम पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए पहले तीन पुरुषार्थों के अनुसार कार्य करता है।

 भारतीय समाज : एक परिचय HBSE 12th Class Sociology Notes

→ हम सभी समाज में रहते हैं तथा हमें समाज के बारे में कुछ न कुछ अवश्य ही पता होता है। इस प्रकार समाजशास्त्र भी एक ऐसा विषय है जिसे कोई भी शून्य से शुरू नहीं करता। समाजशास्त्र में हम समाज का अध्ययन करते हैं तथा हमें समाज के बारे में कुछ न कुछ अवश्य ही पता होता है।

→ हमें और विषयों का ज्ञान तो विद्यालय, कॉलेज इत्यादि में जाकर प्राप्त होता है परंतु समाज के बारे में हमारा ज्ञान बिना किसी औपचारिक शिक्षा प्राप्त किए ही बढ़ जाता है। इसका कारण यह है कि हम समाज में रहते हैं, पलते हैं तथा इसमें ही बड़े होते हैं। हमारा इसके बारे में ज्ञान अपने आप ही बढ़ता रहता है।

→ इस पाठ्य-पुस्तक का उद्देश्य भारतीय समाज से विद्यार्थियों का परिचय कराना है परंतु इसका परिचय सहज बोध से नहीं बल्कि समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से करवाना है। यहां पर उन सामाजिक प्रक्रियाओं की तरफ संकेत किया जाएगा जिन्होंने भारतीय समाज को एक आकार दिया है।

→ अगर हम ध्यान से भारतीय समाज का अध्ययन करें तो हमें पता चलता है कि उपनिवेशिक दौर में एक विशेष भारतीय चेतना उत्पन्न हुई। अंग्रेजों के शासन अथवा उपनिवेशिक शासन ने न केवल संपूर्ण भारत को एकीकृत किया बल्कि पूँजीवादी आर्थिक परिवर्तन तथा आधुनिकीकरण जैसी शक्तिशाली प्रक्रियाओं से भारत को परिचित कराया। उस प्रकार के परिवर्तन भारतीय समाज में लाए गए जो पलटे नहीं जा सकते थे। इससे समाज भी वैसा हो गया जैसा पहले कभी भी नहीं था।

→ औपनिवेशिक शासन में भारत का आर्थिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक एकीकरण हुआ परंतु इसकी भारी कीमत चुकाई गई। उपनिवेशिक शासन द्वारा भारत का शोषण किया गया तथा यहां प्रभुत्व स्थापित किया गया। इसके घाव के निशान अभी भी भारतीय समाज में मौजूद हैं। एक सच यह भी है कि उपनिवेशवाद से ही राष्ट्रवाद की उत्पत्ति हुई।

→ ऐतिहासिक दृष्टि से ब्रिटिश उपनिवेशवाद में भारतीय राष्ट्रवाद को एक आकार प्राप्त हुआ। उपनिवेशवाद के गलत प्रभावों ने हमारे समुदाय के अलग-अलग भागों के एकीकृत करने में सहायता की। पश्चिमी शिक्षा के कारण मध्य वर्ग उभर कर सामने आया जिसने उपनिवेशवाद को उसकी अपनी ही मान्यताओं के आधार पर चुनौती दी।

→ यह एक जाना-पहचाना सत्य है कि उपनिवेशवाद तथा पश्चिमी शिक्षा ने परंपराओं को दोबारा खोजने के कार्य (Rediscovery) को प्रोत्साहित किया। इस खोज के कारण ही कई प्रकार की सांस्कृतिक तथा सामयिक गतिविधियों का विकास हुआ। इससे राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय स्तरों पर समुदाय के नए उत्पन्न रूपों को सुदृढ़ता प्राप्त हुई।

→ उपनिवेशवाद के कारण भारत में बहुत-से नए वर्ग तथा समुदाय उत्पन्न हुए जिन्होंने हमारे स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नगरों में विकसित हुआ मध्य वर्ग राष्ट्रवाद का प्रमुख वाहक था जिसने स्वतंत्रता प्राप्ति के कार्य को नेतृत्व प्रदान किया। उपनिवेशिक हस्तक्षेपों के कारण हमारे धार्मिक तथा जातीय समुदायों को एक निश्चित रूप प्राप्त हुआ। इन्होंने भी बाद के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। समकालीन भारतीय समाज का भावी इतिहास जिन जटिल प्रक्रियाओं द्वारा विकसित हुआ तथा इसका अध्ययन ही हमारा उद्देश्य है।

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