Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 12 औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य
HBSE 12th Class History औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य Textbook Questions and Answers
उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)
प्रश्न 1.
औपनिवेशिक शहरों में रिकॉर्ड्स सँभालकर क्यों रखे जाते थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक शहरों में प्रत्येक कार्यालय के अपने ‘रिकॉर्डस रूम’ थे जिनमें रिकॉर्डस को सुरक्षित रखा जाता था। इसके निम्नलिखित कारण थे
(1) भारत में ब्रिटिश सत्ता मुख्यतया आँकड़ों और जानकारियों के संग्रह पर आधारित थी। उसका लक्ष्य भारत के संसाधनों को निरंतर दोहन करते हुए मुनाफा बटोरना था। इसके लिए वह अपने राजनीतिक नियंत्रण को सुदृढ़ रखना चाहती थी। ये दोनों काम बिना पर्याप्त जानकारियों के संभव नहीं थे।
(2) आंकड़ों का सर्वाधिक महत्त्व उनके लिए वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए था। कंपनी सरकार द्वारा वस्तुओं, संसाधनों व व्यापार की संभावनाओं संबंधी आकलन व ब्यौरे तैयार करवाए जाते थे। कंपनी कार्यालयों में आयात-निर्यात संबंधी विवरण रखे जाते थे।
(3) शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से शहरी जनसंख्या के उतार-चढ़ाव की जानकारी महत्त्वपूर्ण थी। उदाहरण के लिए, सड़क निर्माण, यातायात तथा साफ-सफाई इत्यादि के बारे में निर्णय लेने के लिए विविध जानकारियाँ आवश्यक थीं। अतः सांख्यिकी आँकड़े एकत्रित कर उन्हें सरकारी रिपोर्टों में प्रकाशित किया जाता था।
प्रश्न 2.
औपनिवेशिक संदर्भ में शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए जनगणना संबंधी आंकड़े किस हद तक उपयोगी होते हैं?
उत्तर:
जनगणना के आँकड़े शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनमें लोगों के व्यवसायों की जानकारी तथा उनके लिंग, आयु व जाति संबंधी सूचनाएँ मिलती हैं। ये जानकारियाँ आर्थिक और सामाजिक स्थिति को समझने के लिए काफी उपयोगी हैं। ध्यान रहे कई बार आँकड़ों के इस भारी-भरकम भंडार से सटीकता का भ्रम हो सकता है।
यह जानकारी बिल्कुल सटीक नहीं होती। इन आँकड़ों के पीछे भी संभावित पूर्वाग्रह हो सकते हैं। जैसे कि बहुत-से लोग अपने परिवार की महिलाओं की जानकारी छुपा लेते थे। ऐसे लोगों को किसी श्रेणी विशेष में रखना मुश्किल हो जाता था। वे दो तरह के काम करते थे। उदाहरण के लिए जो खेती भी करता हो और व्यापारी भी हो। ऐसे लोगों को सुविधानुसार ही किसी श्रेणी में रख लिया जाता था।
अपनी इन सीमाओं के बावजूद भी शहरीकरण के रुझानों को समझने में पहले के शहरों की तुलना में ये आँकड़े अधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। उदाहरण के लिए 1900 से 1940 तक की जनगणनाओं से पता चलता है कि इस अवधि में कुल आबादी का 13 प्रतिशत से भी कम हिस्सा शहरों में रहता था। स्पष्ट है कि औपनिवेशिक काल में शहरीकरण अत्यधिक धीमा और लगभग स्थिर जैसा ही रहा।
प्रश्न 3.
“व्हाइट” और “ब्लैक” टाउन शब्दों का क्या महत्त्व था?
उत्तर:
‘व्हाइट’ और ‘ब्लैक’ टाउन शब्द नगर संरचना में नस्ली भेदभाव का प्रतीक थे। अंग्रेज़ गोरे लोग दुर्गों के अंदर बनी बस्तियों में रहते थे, जबकि भारतीय व्यापारी, कारीगर और मज़दूर इन किलों से बाहर बनी अलग बस्तियों में रहते थे। दुर्ग के भीतर रहने का आधार रंग और धर्म था। अलग रहने की यह नीति शुरू से ही अपनाई गई थी। अंग्रेज़ों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मकान (क्वार्टस) बनाए गए थे।
सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरू से ही दिखता है। यह उस समय और भी तीखा हो गया जब अंग्रेज़ों का राजनीतिक नियंत्रण स्थापित हो गया। ‘व्हाइट टाउन’ प्रशासकीय और न्यायिक व्यवस्था का केंद्र भी था।
प्रश्न 4.
प्रमुख भारतीय व्यापारियों ने औपनिवेशिक शहरों में खुद को किस तरह स्थापित किया?
उत्तर:
18वीं सदी से पहले ही बहुत-से भारतीय व्यापारी यूरोपीय कंपनियों के सहायक के तौर पर काम करते आ रहे थे। उनमें से बहुत सारे दुभाषिए थे, यानि अंग्रेज़ी और स्थानीय भाषा जानते थे। वे अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाते थे। साथ में ये एजेंट या व्यापारी का काम भी करते थे। वे निर्यात होने वाली वस्तुओं के संग्रह में सहायक थे। इन सहायक व्यापारिक गतिविधियों में काम करते हुए कुछ भारतीय व्यापारियों ने काफी धन एकत्रित कर लिया था। 19वीं सदी के मध्य से तो
इन धनी व्यापारियों में से कुछ उद्यमी बनने लगे थे, अर्थात् उन्होंने उद्योग लगाने शुरू किए। उदाहरण के लिए, 1853 ई० में बंबई के कावसजी नाना ने भारतीय पूँजी से पहली कपड़ा मिल लगाई, लेकिन इन उभरते हुए भारतीय उद्योगपतियों को सरकार की पक्षपातपूर्ण नीति से काफी बाधा पहुँची। यह वर्ग अपनी हैसियत को ऊँचा दिखाने के लिए पश्चिमी जीवन-शैली का अनुसरण करने लगा। यह विभिन्न त्योहारों के अवसरों पर रंगीन दावतों का आयोजन करने लगा ताकि अपने स्वामी अंग्रेज़ों को प्रभावित कर सकें। यह अपने देशवासियों को भी अपनी हैसियत का परिचय करवाना चाहता था। इस उद्देश्य से इस वर्ग के लोगों ने बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण करवाया।
प्रश्न 5.
औपनिवेशिक मद्रास में शहरी और ग्रामीण तत्त्व किस हद तक घुल-मिल गए थे? [2017, 2019 (Set-D)]
उत्तर:
मद्रास शहर का विकास अंग्रेज़ शासकों की जरूरतों और सुविधाओं के अनुरूप किया गया था। ‘व्हाइट टाउन’ तो था ही गोरे लोगों के लिए। ‘ब्लैक टाउन’ में भारतीय रहते थे। शहर के इस भाग में बहुत-से लोग नौकरी, व्यवसाय और मजदूरी के लिए आकर बसते रहे। इस प्रकार लंबे समय तक शहर में रहते रहे और ग्रामीण और शहरी तत्त्वों का मिश्रण होता रहा। उदाहरण के लिए
- ‘वेल्लार’ एक स्थानीय ग्रामीण जाति थी। कंपनी की नौकरियाँ पाने वालों में ये लोग अग्रणी रहे। इन्होंने मद्रास में नए अवसरों का काफी लाभ उठाया।
- तेलुगू कोमाटी समुदाय ने मद्रास में व्यावसायिक सफलता प्राप्त की। धीरे-धीरे इन्होंने अनाज के व्यापार पर नियंत्रण कर लिया।
- पेरियार और वन्नियार समुदाय शहर में मजदूरी का कार्य करने लगे थे।
धीरे-धीरे ऐसे बहुत-से समुदायों की बस्तियाँ मद्रास शहर का भाग बन गईं। साथ ही बहुत-से गाँवों को मिलाने के कारण मद्रास शहर दूर-दूर तक फैल गया। आस-पास के गाँव नए उप-शहरों में बदल गए। इस प्रकार शहर फैलता चला गया और मद्रास एक अर्ध-ग्रामीण शहर जैसा हो गया।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)
प्रश्न 6.
अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण किस तरह हुआ?
उत्तर:
18वीं सदी के शहर नए (New) थे। 16वीं व 17वीं सदी के शहरों की तुलना में इन शहरों की भौतिक संरचना और सामाजिक जीवन भिन्न था। ये अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रदर्शित कर रहे थे। नए शहरों में मद्रास, कलकत्ता और बम्बई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे। इनका विकास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के चलते बंदरगाहों और संग्रह केंद्रों के रूप में हुआ। 18वीं सदी के अंत तक पहुँचते-पहुँचते ये बड़े नगरों के तौर पर उभर चुके थे। इनमें आकर बसने वाले अधिकांश भारतीय अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक गतिविधियों में सहायक के तौर पर काम करने वाले थे। अंग्रेज़ों ने अपने ‘कारखाने’ यानी वाणिज्यिक कार्यालय इन शहरों में स्थापित किए हुए थे।
इनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी किलेबंदी करवाई। मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फोर्ट विलियम और इसी प्रकार बम्बई में भी दुर्ग बनवाया गया। इन किलों में वाणिज्यिक कार्यालय थे तथा ब्रिटिश लोगों के रहने के लिए निवास थे। सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शरू से ही दिखाई पडता है।
प्रश्न 7.
औपनिवेशिक शहर में सामने आने वाले नए तरह के सार्वजनिक स्थान कौन से थे? उनके क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
नए शहर अंग्रेज़ शासकों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिंबित करते थे। कहने का अभिप्राय यह है कि जो नए सार्वजनिक स्थान विकसित हुए वो मुख्यतया नए शासकों की जरूरत के अनुरूप थे। मुख्य नए सार्वजनिक स्थान व उनके उद्देश्य इस प्रकार हैं
- नदी और समुद्र के किनारे गोदियों (Docks) व घाटों का विकास हुआ। इनका उद्देश्य ब्रिटिश व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार करना था।
- ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी व्यापारिक गतिविधियों के लिए वाणिज्यिक कार्यालय और गोदाम बनाए।
- व्यापार से जुड़ी अन्य संस्थाओं में यातायात डिपो व बैंकिंग संस्थानों का विकास हुआ। जहाजरानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ बनीं।
- प्रशासकीय कार्यालयों की स्थापना हुई। कलकत्ता में ‘राइटर्स बिल्डिंग’ इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
पुस्तक के प्रश्न
उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)
प्रश्न 1.
औपनिवेशिक शहरों में रिकॉर्स सँभालकर क्यों रखे जाते थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक शहरों में प्रत्येक कार्यालय के अपने रिकॉर्डस रूम’ थे जिनमें रिकॉर्डस को सुरक्षित रखा जाता था। इसके निम्नलिखित कारण थे
(1) भारत में ब्रिटिश सत्ता मुख्यतया आँकड़ों और जानकारियों के संग्रह पर आधारित थी। उसका लक्ष्य भारत के संसाधनों को निरंतर दोहन करते हुए मुनाफा बटोरना था। इसके लिए वह अपने राजनीतिक नियंत्रण को सुदृढ़ रखना चाहती थी। ये दोनों काम बिना पर्याप्त जानकारियों के संभव नहीं थे।
(2) आंकड़ों का सर्वाधिक महत्त्व उनके लिए वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए था। कंपनी सरकार द्वारा वस्तुओं, संसाधनों व व्यापार की संभावनाओं संबंधी आकलन व ब्यौरे तैयार करवाए जाते थे। कंपनी कार्यालयों में आयात-निर्यात संबंधी विवरण रखे जाते थे।
(3) शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से शहरी जनसंख्या के उतार-चढ़ाव की जानकारी महत्त्वपूर्ण थी। उदाहरण के लिए, सड़क निर्माण, यातायात तथा साफ-सफाई इत्यादि के बारे में निर्णय लेने के लिए विविध जानकारियाँ आवश्यक थीं। अतः सांख्यिकी आँकड़े एकत्रित कर उन्हें सरकारी रिपोर्टों में प्रकाशित किया जाता था।
प्रश्न 2.
औपनिवेशिक संदर्भ में शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए जनगणना संबंधी आंकड़े किस हद तक उपयोगी होते हैं?
उत्तर:
जनगणना के आँकड़े शहरीकरण के रुझानों को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनमें लोगों के व्यवसायों की जानकारी तथा उनके लिंग, आयु व जाति संबंधी सूचनाएँ मिलती हैं। ये जानकारियाँ आर्थिक और सामाजिक स्थिति को समझने के लिए काफी उपयोगी हैं। ध्यान रहे कई बार आँकड़ों के इस भारी-भरकम भंडार से सटीकता का भ्रम हो सकता है। यह जानकारी बिल्कुल सटीक नहीं होती।
इन आँकड़ों के पीछे भी संभावित पूर्वाग्रह हो सकते हैं। जैसे कि बहुत-से लोग अपने परिवार की महिलाओं की जानकारी छुपा लेते थे। ऐसे लोगों को किसी श्रेणी विशेष में रखना मुश्किल हो जाता था। वे दो तरह के काम करते थे। उदाहरण के लिए जो खेती भी करता हो और व्यापारी भी हो। ऐसे लोगों को सुविधानुसार ही किसी श्रेणी में रख लिया जाता था।
अपनी इन सीमाओं के बावजूद भी शहरीकरण के रुझानों को समझने में पहले के शहरों की तुलना में ये आँकड़े अधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। उदाहरण के लिए 1900 से 1940 तक की जनगणनाओं से पता चलता है कि इस अवधि में कुल आबादी का 13 प्रतिशत से भी कम हिस्सा शहरों में रहता था। स्पष्ट है कि औपनिवेशिक काल में शहरीकरण अत्यधिक धीमा और लगभग स्थिर जैसा ही रहा।
प्रश्न 3.
“व्हाइट” और “ब्लैक” टाउन शब्दों का क्या महत्त्व था?
उत्तर:
‘व्हाइट’ और ‘ब्लैक’ टाउन शब्द नगर संरचना में नस्ली भेदभाव का प्रतीक थे। अंग्रेज़ गोरे लोग दुर्गों के अंदर बनी बस्तियों में रहते थे, जबकि भारतीय व्यापारी, कारीगर और मज़दूर इन किलों से बाहर बनी अलग बस्तियों में रहते थे। दुर्ग के भीतर रहने का आधार रंग और धर्म था। अलग रहने की यह नीति शुरू से ही अपनाई गई थी। अंग्रेज़ों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मकान (क्वार्टस) बनाए गए थे। सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरू से ही दिखता है। यह उस समय और भी तीखा हो गया जब अंग्रेज़ों का राजनीतिक नियंत्रण स्थापित हो गया। ‘व्हाइट टाउन’ प्रशासकीय और न्यायिक व्यवस्था का केंद्र भी था।
प्रश्न 4.
प्रमुख भारतीय व्यापारियों ने औपनिवेशिक शहरों में खुद को किस तरह स्थापित किया?
उत्तर:
18वीं सदी से पहले ही बहुत-से भारतीय व्यापारी यूरोपीय कंपनियों के सहायक के तौर पर काम करते आ रहे थे। उनमें से बहुत सारे दुभाषिए थे, यानि अंग्रेज़ी और स्थानीय भाषा जानते थे। वे अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाते थे। साथ में ये एजेंट या व्यापारी का काम भी करते थे। वे निर्यात होने वाली वस्तुओं के संग्रह में सहायक थे। इन सहायक व्यापारिक गतिविधियों में काम करते हुए कुछ भारतीय व्यापारियों ने काफी धन एकत्रित कर लिया था।
19वीं सदी के मध्य से तो इन धनी व्यापारियों में से कुछ उद्यमी बनने लगे थे, अर्थात् उन्होंने उद्योग लगाने शुरू किए। उदाहरण के लिए, 1853 ई० में बंबई के कावसजी नाना ने भारतीय पूँजी से पहली कपड़ा मिल लगाई, लेकिन इन उभरते हुए भारतीय उद्योगपतियों को सरकार की पक्षपातपूर्ण नीति से काफी बाधा पहुंची।
यह वर्ग अपनी हैसियत को ऊँचा दिखाने के लिए पश्चिमी जीवन-शैली का अनुसरण करने लगा। यह विभिन्न त्योहारों के अवसरों पर रंगीन दावतों का आयोजन करने लगा ताकि अपने स्वामी अंग्रेजों को प्रभावित कर सकें। यह अपने देशवासियों को भी अपनी हैसियत का परिचय करवाना चाहता था। इस उद्देश्य से इस वर्ग के लोगों ने बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण करवाया।
प्रश्न 5.
औपनिवेशिक मद्रास में शहरी और ग्रामीण तत्त्व किस हद तक घुल-मिल गए थे?
उत्तर:
मद्रास शहर का विकास अंग्रेज़ शासकों की जरूरतों और सुविधाओं के अनुरूप किया गया था। ‘व्हाइट टाउन’ तो था ही गोरे लोगों के लिए। ‘ब्लैक टाउन’ में भारतीय रहते थे। शहर के इस भाग में बहुत-से लोग नौकरी, व्यवसाय और मजदूरी के लिए आकर बसते रहे। इस प्रकार लंबे समय तक शहर में रहते रहे और ग्रामीण और शहरी तत्त्वों का मिश्रण होता रहा। उदाहरण के लिए
(1) ‘वेल्लार’ एक स्थानीय ग्रामीण जाति थी। कंपनी की नौकरियाँ पाने वालों में ये लोग अग्रणी रहे। इन्होंने मद्रास में नए अवसरों का काफी लाभ उठाया।
(2) तेलुगू कोमाटी समुदाय ने मद्रास में व्यावसायिक सफलता प्राप्त की। धीरे-धीरे इन्होंने अनाज के व्यापार पर नियंत्रण कर लिया।
(3) पेरियार और वन्नियार समुदाय शहर में मजदूरी का कार्य करने लगे थे। धीरे-धीरे ऐसे बहुत-से समुदायों की बस्तियाँ मद्रास शहर का भाग बन गईं। साथ ही बहुत-से गाँवों को मिलाने के कारण मद्रास शहर दूर-दूर तक फैल गया। आस-पास के गाँव नए उप-शहरों में बदल गए। इस प्रकार शहर फैलता चला गया और मद्रास एक अर्ध-ग्रामीण शहर जैसा हो गया।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)
प्रश्न 6.
अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण किस तरह हुआ?
उत्तर:
18वीं सदी के शहर नए (New) थे। 16वीं व 17वीं सदी के शहरों की तुलना में इन शहरों की भौतिक संरचना और सामाजिक जीवन भिन्न था। ये अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रदर्शित कर रहे थे। नए शहरों में मद्रास, कलकत्ता और बम्बई सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे। इनका विकास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के चलते बंदरगाहों और संग्रह केंद्रों के रूप में हुआ।
18वीं सदी के अंत तक पहुँचते-पहुँचते ये बड़े नगरों के तौर पर उभर चुके थे। इनमें आकर बसने वाले अधिकांश भारतीय अंग्रेजों की वाणिज्यिक गतिविधियों में सहायक के तौर पर काम करने वाले थे। अंग्रेज़ों ने अपने ‘कारखाने’ यानी वाणिज्यिक कार्यालय इन शहरों में स्थापित किए हुए थे।
इनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी किलेबंदी करवाई। मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फोर्ट विलियम और इसी प्रकार बम्बई में भी दुर्ग बनवाया गया। इन किलों में वाणिज्यिक कार्यालय थे तथा ब्रिटिश लोगों के रहने के लिए निवास थे। सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरू से ही दिखाई पड़ता है।
प्रश्न 7.
औपनिवेशिक शहर में सामने आने वाले नए तरह के सार्वजनिक स्थान कौन से थे? उनके क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
नए शहर अंग्रेज़ शासकों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिंबित करते थे। कहने का अभिप्राय यह है कि जो नए सार्वजनिक स्थान विकसित हुए वो मुख्यतया नए शासकों की जरूरत के अनुरूप थे।
मुख्य नए सार्वजनिक स्थान व उनके उद्देश्य इस प्रकार हैं
- नदी और समुद्र के किनारे गोदियों (Docks) व घाटों का विकास हुआ। इनका उद्देश्य ब्रिटिश व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार करना था।
- ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी व्यापारिक गतिविधियों के लिए वाणिज्यिक कार्यालय और गोदाम बनाए।
- व्यापार से जुड़ी अन्य संस्थाओं में यातायात डिपो व बैंकिंग संस्थानों का विकास हुआ। जहाजरानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ बनीं।
- प्रशासकीय कार्यालयों की स्थापना हुई। कलकत्ता में ‘राइटर्स बिल्डिंग’ इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
- पाश्चात्य शिक्षा के लिए अंग्रेज़ी-शिक्षण संस्थान खोले गए। ईसाई लोगों के लिए एंग्लिकन चर्च बनाए गए।
- रेलवे के विस्तार के साथ बड़े-बड़े रेलवे-जंक्शन बनाए गए।
- 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बड़े शहरों में नगर निगम तथा अन्य शहरों में नगरपालिकाओं का गठन किया गया। इनका उद्देश्य शहर में सफाई, जल-आपूर्ति तथा चिकित्सा इत्यादि का प्रबंध करना था।
प्रश्न 8.
उन्नीसवीं सदी में नगर-नियोजन को प्रभावित करने वाली चिंताएँ कौन सी थीं?
उत्तर:
19वीं सदी के प्रारंभ से ही नगर-नियोजन की चिंता अंग्रेज़ प्रशासकों को सताने लगी थी। 1857 ई० के विद्रोह के बाद यह चिंता और भी गहरा गई। हैजा और प्लेग जैसी महामारियों के फैलने से वे और भी चिंतित हो उठे थे। सबसे पहले इस ओर ध्यान लॉर्ड वेलेज्ली ने दिया। 1803 में उसका प्रशासकीय आदेश ‘जन-स्वास्थ्य’ व नगर नियोजन में एक प्रमुख विचार बन गया था। प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्यों उन्होंने नगर को व्यवस्थित करने पर जोर दिया? जबकि काफी समय तक उन्होंने शहर में भारतीयों की बस्तियों में सुधार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। अंग्रेज़ अधिकारियों की नगर को नियोजित करने के पीछे निम्नलिखित चिंताएँ थीं
1. प्रशासकीय नियंत्रण उन्होंने यह महसूस किया कि शहरी जीवन के सभी आयामों पर नियंत्रण के लिए स्थायी व सार्वजनिक नियम बनाना जरूरी है। साथ ही सड़कों व इमारतों के निर्माण के लिए मानक नियमों का होना भी जरूरी है।
2. सुरक्षा-किलों के बाहर उन्होंने विशेषतौर पर खुला मैदान रखा ताकि आक्रमण होने की स्थिति में सीधी गोलीबारी की जा सके। कलकत्ता के किले के बाहर ऐसे मैदान आज भी मौजूद हैं।
3. सुरक्षित आश्रयस्थल-सन् 1857 के विद्रोह के बाद औपनिवेशिक शहरों के नियोजन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया। आतंकित अधिकारी वर्ग ने भविष्य में विद्रोह की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए ‘देशियों’ यानी भारतीयों से अलग ‘सिविल लाइंस’ में रहने की नीति अपनाई।
4. स्वास्थ्य की चिंता–प्लेग व हैजा जैसी महामारियों के प्रसार के डर से नगर-नियोजन की जरूरत और भी महत्त्वपूर्ण होती गई। वे इस बात से परेशान हो उठे कि भीड़-भाड़ वाली भारतीय बस्तियों में गंदगी व दूषित पानी से बीमारियाँ फैल रही हैं। इस विचार से इन बस्तियों में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ गया।
5. सत्ता की ताकत का प्रदर्शन-व्यवस्थित नगरों के माध्यम से अंग्रेज़ अपनी साम्राज्यवादी ताकत का प्रदर्शन करना चाहते थे। इसलिए विशेषतौर पर पहले उन्होंने कलकत्ता, बंबई और मद्रास को नियोजित राजधानियाँ बनाया। फिर दिल्ली को ‘नई दिल्ली’ के रूप में विकसित किया।
प्रश्न 9.
नए शहरों में सामाजिक संबंध किस हद तक बदल गए?
उत्तर:
नए शहरों का सामाजिक संबंध पहले के शहरों से बहुत कुछ अलग था। इसमें जिन्दगी की गति बहुत तेज़ थी। नए सामाजिक वर्ग व संबंध उभर चुके थे। मुख्य परिवर्तन इस प्रकार थे
(1) नए शहर मध्य वर्ग के केन्द्र बन चुके थे। इस वर्ग में शिक्षक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, क्लर्क तथा अकाउंटेंट्स इत्यादि थे। यह वर्ग एक नया सामाजिक समूह था जिसके लिए पुरानी पहचान अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रही थी। इन नए शहरों में पुराने शहरों वाला परस्पर मिलने-जुलने का अहसास खत्म हो चुका था, लेकिन साथ ही मिलने-जुलने के नए स्थल; जैसे कि सार्वजनिक पार्क, टाउन हॉल, रंगशाला और 20वीं सदी में सिनेमा हॉल इत्यादि बन चुके थे।
(2) नए शहरों में नए अर्थतंत्र के विकास से औरतों के लिए नए अवसर उत्पन्न हुए। फलतः सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने लगी। वे घरों में नौकरानी, फैक्टरी में मजदूर, शिक्षिका, रंग-कर्मी तथा फिल्मों में कार्य करती हुई दिखाई देने लगीं। उल्लेखनीय है कि सार्वजनिक स्थानों पर कामकाज करने वाली महिलाओं को लंबे समय तक सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा गया, क्योंकि रूढ़िवादी विचारों के लोग पुरानी परम्पराओं और व्यवस्था को बनाए रखने का समर्थन कर रहे थे। वे परिवर्तन के विरोधी थे।
(3) कामगार लोगों के लिए शहरी जीवन एक संघर्ष था। ये लोग इन नए शहरों की तड़क-भड़क से आकर्षित होकर या रोजी-रोटी की तलाश में आए। शहर में इनकी नौकरी स्थायी नहीं थी। वेतन कम था और खर्चे ज्यादा थे। इसलिए इनके परिवार गाँवों में रहते थे।
इस प्रकार कामगार लोगों का जीवन गरीबी से पीड़ित था। वे गाँव की संस्कृति से वंचित हो गए थे। शहरों में इन्होंने भी एक हद तक ‘एक शहरी संस्कृति’ रच ली थी। वे धार्मिक त्योहारों, मेलों, स्वांगों तथा तमाशों इत्यादि में भाग लेते थे। ऐसे अवसरों पर वे अपने यूरोपीय और भारतीय स्वामियों का मज़ाक उड़ाते थे।
परियोजना कार्य
प्रश्न 10.
पता लगाइए कि आपके कस्बे या गाँव में स्थानीय प्रशासन कौन-सी सेवाएँ प्रदान करता है। क्या जलापूर्ति, आवास, यातायात और स्वास्थ्य एवं स्वच्छता आदि सेवाएँ भी उनके हिस्से में आती हैं? इन सेवाओं के लिए संसाधनों की व्यवस्था कैसे की जाती है? नीतियाँ कैसे बनाई जाती हैं? क्या शहरी मज़दूरों या ग्रामीण इलाकों के खेतिहर मजदूरों के पास नीति-निर्धारण में हस्तक्षेप का अधिकार होता है? क्या उनसे राय ली जाती है? अपने निष्कर्षों के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
संकेत
1. कस्बे, शहर और गाँव के प्रशासन को स्थानीय प्रशासन कहा जाता है।
2. स्थानीय प्रशासन, जलापूर्ति, आवास, यातायात, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता आदि बहुत-सी सेवाओं के लिए उत्तरदायी होता है-अब आपने देखना है कि व्यवहार में स्थिति क्या है? क्या स्वच्छता, सड़क व जलापूर्ति संतोषजनक हैं, बहुत ही बेहतर है या फिर असंतोषजनक।
3. शहर व गाँव से निकलने वाले कचरे व कूड़ा-करकट के लिए क्या व्यवस्था की गई है? खुले में फैंका जाता है, दबाया जाता है, जलाया जाता है या फिर कोई ‘प्लाट’ लगाकर खाद व अन्य उपयोगी वस्तुओं में बदला जाता है। पता लगाएँ।
4. इन सभी सुविधाओं के लिए धन की व्यवस्था कहाँ से होती है, अर्थात् प्रत्यक्ष कर कितना लगाया जाता है और राज्य व केंद्रीय सरकार से कितना अनुदान प्राप्त होता है। क्या विश्व बैंक भी इसमें सहायता कर रहा है-पता लगाएँ। यदि कर रहा है तो क्यों?
5. स्थानीय गरीब लोगों (मजदूर, खेत, मजदूर इत्यादि) का नीति निर्धारण में योगदान इस बात से पता लगाएँ कि गाँव या कस्बे के निकाय के लिए चुनाव होता है या नहीं। दूसरा अधिकारी वर्ग उनकी बात सुनता है या नहीं।
6. उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए अपने प्राध्यापक के निर्देशन में रिपोर्ट तैयार करें।
प्रश्न 11.
अपने शहर या गाँव में पाँच तरह की इमारतों को चुनिए। प्रत्येक के बारे में पता लगाइए कि उन्हें कब बनाया गया, उनको बनाने का फैसला क्यों लिया गया, उनके लिए संसाधनों की व्यवस्था कैसे की गई, उनके निर्माण का जिम्मा किसने उठाया और उनके निर्माण में कितना समय लगा। उन इमारतों के स्थापत्य या वास्तु शैली संबंधी आयामों का वर्णन करिए और औपनिवेशिक स्थापत्य से उनकी समानताओं या भिन्नताओं को चिह्नित कीजिए।
उत्तर:
हर शहर व गाँव में सार्वजनिक भवन होते हैं जैसे कि, स्कूल, महाविद्यालय, पंचायतघर, शहर में टाउन हाल, नगरपालिका, अस्पताल, लाइब्रेरी इत्यादि।
- इनको बनाने में पंचायत, नगर निगम/पालिका यानी स्थानीय निकायों की भूमिका की जांच करें। सामान्य लोगों की राय किस प्रकार ऐसे निर्णयों का हिस्सा बनती है?
- धन के लिए क्या स्थानीय कर लगाया गया या राज्य व केंद्र में ‘ग्रांट’ मिली।
- इनमें ‘वास्तुशैली’ अथवा स्थापत्य शैली कौन-सी अपनाई गई है। सत्ता की झलक किस रूप में मिलती है-देखें। कौन-सी संस्कृति झलकती है।
- औपनिवेशिक स्थापत्य से यदि तुलना करोगे तो आप पाओगे कि नए स्थापत्य में स्वतंत्र भारत की झलक है।
- इन सब पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अपने प्राध्यापक के निर्देशन में रिपोर्ट तैयार करें।
औपनिवेशिक शहर : नगर-योजना, स्थापत्य HBSE 12th Class History Notes
→ शहरीकरण-शहर का भौतिक व सांस्कृतिक विकास अर्थात शहरी संस्थाओं (प्रशासनिक व शैक्षणिक) का विकास; मध्य वर्ग का विकास; भौतिक संरचना का विस्तार व विकास; नए शहरी तत्त्वों विशेषतः आधुनिक दृष्टिकोण का विकास।
→ कस्बा-मुगलकालीन भारत में एक छोटा ‘ग्रामीण शहर’ जो सामान्यतया किसी विशिष्ट व्यक्ति का केंद्र होता था।
→ गंज-मुगलकालीन कस्बों में एक स्थायी छोटे बाजार को गंज कहा जाता था।
→ पेठ व पुरम-पेठ एक तमिल शब्द है जिसका अर्थ होता है बस्ती, जबकि पुरम शब्द गाँव के लिए प्रयोग किया जाता है।
→ बस्ती बस्ती (बंगला व हिंदी) का अर्थ मूल रूप में मोहल्ला अथवा बसावट हुआ करता था। परंतु अंग्रेज़ों ने इसका अर्थ संकुचित कर दिया तथा इसे गरीबों की कच्ची झोंपड़ियों के लिए प्रयोग करने लगे। 19वीं सदी में गंदी-झोंपड़ पट्टी को बस्ती कहा जाने लगा।
→ बंगलो (Bunglow)-अंग्रेज़ी भाषा का यह शब्द बंगाल के ‘बंगला’ शब्द से निकला है जो एक परंपरागत फँस की झोंपड़ी होती थी। अंग्रेज़ अधिकारियों ने अपने रहने के बड़े-बड़े घरों को बंगलों नाम देकर इसका अर्थ ही बदल दिया।
→ ढलवाँ छतें -ढलवाँ छतें (Pitched Roofs) स्लोपदार छतों को कहा गया। 20वीं सदी के शुरु से ही बंगलों में ढलवाँ छतों का चलन कम होने लगा था तथापि मकानों की सामान्य योजना में कोई बदलाव नहीं आया था।
→ सिविल लाइंस -पुराने शहर के साथ लगते खेत एवं चरागाह को साफ करके विकसित किए गए शहरी क्षेत्र को ‘सिविल लाइंस’ का नाम दिया गया। इनमें सुनियोजित तरीके से बड़े-बड़े बगीचे, बंगले, चर्च, सैनिक बैरकें और परेड मैदान आदि होते थे।
→ औद्योगिकीकरण यह शब्द औद्योगिक क्रांति की उस प्रक्रिया के लिए उपयोग में लाया गया है जिसमें विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में नए-नए आविष्कार हुए, जिनमें लोहा, स्टील, कोयला एवं वस्त्र आदि सभी उद्योगों का स्वरूप बदल गया। वाष्प ऊर्जा – औद्योगिक क्रांति का मुख्य आधार थी। यह सबसे पहले इंग्लैंड (लगभग 1750 से 1850 के बीच) में हुई।
→ भारत में औपनिवेशिकरण के फलस्वरूप शहरों और उनके चरित्र में परिवर्तन हुए। नए शहरों का उदय हुआ। इनमें पश्चिम तट पर बम्बई व पूर्वी तट पर मद्रास और कलकत्ता तीन प्रमुख बन्दरगाह नगर विकसित हुए। ये तीनों कभी मछुआरों और दस्तकारों के गाँव मात्र थे। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के कारण धीरे-धीरे 18वीं सदी के अंत तक भारत के सबसे बड़े शहर बन गए।
यहाँ इन तीनों शहरों का गहन अध्ययन किया गया है। औपनिवेशिक और वाणिज्यिक संस्कृति का प्रभुत्व नगरों की बसावट और इनके स्थापत्य में स्पष्ट तौर पर दिखाई दिया। इस दौरान बनी इमारतों में कई तरह की स्थापत्य शैलियाँ अपनाई गईं। नगर नियोजन और स्थापत्य शैलियों का अध्ययन करके औपनिवेशिक शहरों को समझने का प्रयास किया गया है।
→औपनिवेशिक शहर मुगलकालीन शहरों से बहुत भिन्न थे। 16वीं-17वीं सदी के मुगलकालीन शहरों की श्रेणी में कस्बे सबसे छोटे थे। इन्हें ‘ग्रामीण शहर’ भी कहा जाता था। एक छोटे शहर के रूप में ही ये गाँव से अलग होते थे। मुगल काल में कस्बा सामान्यतया किसी स्थानीय विशिष्ट व्यक्ति का केंद्र होता था। इसमें एक छोटा स्थायी बाज़ार होता था, जिसे गंज कहते थे। यह बाजार विशिष्ट परिवारों एवं सेना के लिए कपड़ा, फल, सब्जी तथा दूध इत्यादि सामग्री उपलब्ध करवाता था।
→ कस्बे की मुख्य विशेषता जनसंख्या नहीं थी बल्कि उसकी विशिष्ट आर्थिक व सांस्कृतिक गतिविधियाँ थीं। ग्रामीण अंचलों में रहने वाले लोगों का जीवन-निर्वाह मुख्यतः कृषि, पशुपालन और वनोत्पादों पर निर्भर था। ग्रामीणों की आवश्यकताओं के अनुरूप गाँवों में साधारण स्तर की दस्तकारी थी।
→ दूसरी ओर, शहरी लोगों के आजीविका के साधन अलग थे। उनकी जीवन-शैली गाँव से अलग थी। शहरों में मुख्य तौर पर शासक, प्रशासक तथा शिल्पकार व व्यापारी रहते थे। शहरी शिल्पकार किसी विशिष्ट कला में निपुण होते थे, क्योंकि वे प्रायः अपनी शिल्पकला से संपन्न और सत्ताधारी वर्गों की जरूरतों को पूरा करते थे। शहर में रहने वाले सभी लोगों के लिए खाद्यान्न सदैव गाँव से ही आता था। अन्य कृषि-उत्पाद व जरूरत के लिए वन-उत्पाद भी उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों से ही प्राप्त होते थे। शहरों की एक अलग पहचान उनके भव्य भवन, स्थापत्य और उनकी किलेबंदी भी था।
18वीं सदी में भारत के बहुत-से पुराने शहरों का महत्त्व कम हो गया। साथ ही कई नए शहरों का भी उदय हुआ। राजनीतिक विकेंद्रीकरण के परिणामस्वरूप लखनऊ, हैदराबाद श्रीरंगापट्टम, पूना (आधुनिक पुणे), नागपुर, बड़ौदा और तंजौर (तंजावुर) जैसी क्षेत्रीय राजधानियों का महत्त्व बढ़ गया। अतः इस राजनीतिक विकेंद्रीकरण के कारण दिल्ली, लाहौर व आगरा इत्यादि मुगल सत्ता के प्रमुख नगर केंद्रों से व्यापारी, प्रशासक, शिल्पकार, साहित्यकार, कलाकार, इत्यादि काम और संरक्षण की तलाश में इन नए नगरों की ओर पलायन करने लगे।
→ यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों ने मुगल काल के दौरान ही भारत के विभिन्न स्थानों पर अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। उदाहरण के लिए 1510 में पुर्तगालियों ने पणजी में, 1605 में डचों ने मछलीपट्नम में, 1639 में अंग्रेज़ों ने मद्रास में तथा 1673 में फ्रांसीसियों ने पांडिचेरी (आजकल पुद्दचेरी) में शुरू में व्यापारिक कार्यालय (इन्हें कारखाने कहा जाता था) बनाए। इन ‘कारखानों’ के आस-पास धीरे-धीरे बस्तियों का आकार विस्तृत होने लगा। इस प्रकार शहर वाणिज्यवाद तथा पूँजीवाद परिभाषित होने लगे।
→ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनीतिक नियंत्रण स्थापित होने के उपरान्त इन शहरों का पतन शुरु हो गया। नई आर्थिक राजधानियों के रूप में मद्रास, कलकत्ता व बम्बई जैसे औपनिवेशिक बंदरगाह शहरों का उदय तेजी से होने लगा। सन् 1800 के आस-पास तक यह जनसंख्या की दृष्टि से यह सबसे बड़े शहर बन गए। इसका कारण था कि ये औपनिवेशिक प्रशासन और सत्ता के केंद्र भी बन चुके थे। इनमें नए भवन नई स्थापत्य-कला के साथ स्थापित किए गए। बहुत-से नए संस्थानों का विकास हुआ। इस प्रकार ये शहर आजीविका की तलाश में आने वाले लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गए।
→ सन् 1900 से लेकर 1940 तक भारत की कुल जनसंख्या के मात्र 13 प्रतिशत लोग ही शहरों में रहते थे। औपनिवेशिक काल में शहरीकरण अत्यधिक धीमा और लगभग स्थिर जैसा ही रहा। यदि पूर्व-ब्रिटिशकाल से तुलना की जाए तो शहरों में आजीविका कमाने वाले लोगों की संख्या बढ़ने की बजाय कम हुई। अंग्रेज़ों के राजनीतिक नियंत्रण के फलस्वरूप और आर्थिक नीतियों के चलते कलकत्ता, बम्बई और मद्रास जैसे नए शहरों का उदय तो हुआ, लेकिन ये ऐसे शहर नहीं बन पाए जिससे भारत की समूची अर्थव्यवस्था में शहरीकरण को लाभ मिले। वस्तुतः अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों व गतिविधियों के कारण उन शहरों
का भी पतन हो गया जो अपने किसी विशिष्ट उत्पादों के लिए प्रसिद्ध थे। उदाहरण के लिए ढाका, मुर्शिदाबाद, सोनारगांव इत्यादि वस्त्र उत्पादक केंद्र बर्बाद होते गए।
रेलवे नेटवर्क के इस विस्तार से भारत में बहुत-से शहरों की कायापलट हुई। खाद्यान्न तथा कपास व जूट इत्यादि रेलवे स्टेशन आयातित वस्तुओं के वितरण तथा कच्चे माल के संग्रह केंद्र बन गए। इसके परिणामस्वरूप नदियों के किनारे बसे तथा पुराने मार्गों पर पड़ने वाले उन शहरों का महत्त्व कम होता गया जो पहले कच्चे माल के संग्रह केंद्र थे। रेलवे विस्तार के साथ रेलवे कॉलोनियाँ बसाई गईं। लोको (रलवे वर्कशॉप) स्थापित हुए। इन गतिविधियों से भी कई नए रेलवे शहर; जैसे कि बरेली, जमालपुर, वाल्टेयर आदि अस्तित्व में आए।
→ औपनिवेशिक शहर अपने नाम और स्थान से ही नए (New) नहीं थे, अपितु अपने स्वरूप से भी नए थे। ये अंग्रेज़ों की वाणिज्यिक संस्कृति को प्रतिबिम्बित कर रहे थे। ये आधुनिक औद्योगिक शहर नहीं बन पाए बल्कि औपनिवेशिक शहरों के तौर पर ही विकसित हुए। इनका विकास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के चलते उपयोगी बंदरगाहों और संग्रह केंद्रों के रूप में हुआ।
→ अंग्रेज़ों ने अपनी ‘व्यापारिक बस्तियों’ व ‘कारखानों’ की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इनकी किलेबंदी करवाई। मद्रास में फोर्ट सेंट जॉर्ज, कलकत्ता में फोर्ट विलियम और इसी प्रकार बम्बई में भी दुर्ग बनवाया गया। इन किलों में वाणिज्यिक कार्यालय थे तथा ब्रिटिश लोगों के रहने के लिए निवास थे। अंग्रेज़ों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मकान (क्वार्टस) बनाए गए थे।
→ सरकारी रिकॉर्डस में भारतीयों की बस्ती को ‘ब्लैक टाउन’ (काला शहर) तथा अंग्रेज़ों की बस्ती को ‘व्हाइट टाउन’ यानी गोरा शहर बताया गया है। इस प्रकार नए शहरों की संरचना में नस्ल आधारित भेदभाव शुरु से ही परिलक्षित हुआ। इन शहरों में आधुनिक औद्योगिक विकास के अंकुर तो फूटने लगे, लेकिन यह विकास बहुत ही धीमा और सीमित रहा। इसका कारण पक्षपातपूर्ण संरक्षणवादी नीतियाँ थीं। इन नीतियों ने औद्योगिक विकास को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया। फैक्ट्री उत्पादन शहरी अर्थव्यवस्था का आधार नहीं बन सका। वास्तव में कलकत्ता, बम्बई व मद्रास जैसे विशाल शहर मैनचेस्टर या लंकाशायर ब्रिटिश औद्योगिक शहरों की तरह औद्योगिक नगर नहीं बन सके। ये औद्योगिक नगरों की अपेक्षा सेवा-क्षेत्र अधिक थे।
→ औपनिवेशिक वाणिज्यिक संस्कृति प्रतिबिम्बित हुई। राजनीतिक सत्ता और संरक्षण ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों के हाथों में आने से नई शहरी संस्कृति उत्पन्न हुई। नए संस्थानों का उदय हुआ। नदी अथवा समुद्र के किनारे गोदियों (Docks) व घाटों का विकास होने लगा। व्यापार से जुड़ी अन्य संस्थाओं का उदय हुआ जैसे कि जहाज़रानी उद्योग के लिए बीमा एजेंसियाँ बनीं तथा यातायात डिपो व बैंकिंग संस्थानों की स्थापना हुई।
→ कंपनी के प्रमुख प्रशासकीय कार्यालयों की स्थापना अपने आप में ब्रिटिश प्रशासन में नौकरशाही के बढ़ते हुए प्रभाव का सूचक था। औपनिवेशिक शहरों में शासक वर्ग तथा संपन्न यूरोपियन व्यापारी वर्ग के निजी महलनुमा मकान बने। उनके लिए पृथक क्लब, रेसकोर्स तथा रंगमंच इत्यादि भी स्थापित किए गए। ये जहाँ विदेशी अभिजात वर्ग की रुचियों को अभिव्यक्त कर रहे थे वहीं इनसे भेदभाव और प्रभुत्व भी स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
→ एक नया भारतीय संभ्रांत वर्ग भी इन शहरों में उत्पन्न हो चुका था। यह वर्ग अपनी हैसियत को ऊँचा दिखाने के लिए पाश्चात्य जीवन-शैली का अनुसरण करने लगा। दूसरी ओर, इन शहरों में काफी बड़ी संख्या में कामगार एवं गरीब लोग रहते थे। यह खानसामा, पालकीवाहक, गाड़ीवान तथा चौकीदारों के रूप में संभ्रांत भारतीय एवं यूरोपीय लोगों को अपनी सेवाएँ उपलब्ध करवाते थे। इसके अतिरिक्त ये औद्योगिक मजदूरों के रूप में या फिर पोर्टर, निर्माण एवं गोदी मजदूरों के तौर पर कार्य करते थे। इन लोगों की स्थिति अच्छी नहीं थी। ये लोग शहर के विभिन्न भागों में घास-फूस की कच्ची झोंपड़ियों में रहते थे।
→ लम्बे समय तक उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य और सफाई जैसे मुद्दों की ओर अंग्रेजों ने कभी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने गोरी बस्तियों को ही साफ और सुंदर बनाने पर बल दिया था। लेकिन महामारियों के मंडराते खतरों से उनके इस दृष्टिकोण में बदलाव आने लगा। हैजा, प्लेग, चेचक जैसी महामारियों में लाखों लोग मर रहे थे। इससे प्रशासकों को यह खतरा सताने लगा कि ये बीमारियाँ उनके क्षेत्रों में भी फैल सकती हैं। इसलिए उनके लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा सफाई के लिए कुछ कदम उठाने जरूरी हो गए।
→ पर्वतीय शहर भी नए औपनिवेशिक विशेष शहरों के तौर पर विकसित हुए। शुरू में ये सैनिक छावनियाँ बनीं, फिर अधिकारियों के आवास-स्थल और अन्ततः पर्वतीय पर्यटन स्थलों के तौर पर विकसित हुए। इन शहरों में शिमला, माउंट आबू, दार्जीलिंग व नैनीताल इत्यादि थे।
→ धीरे-धीरे ये पर्वतीय शहर एक तरह से सेनिटोरियम (Sanitoriums) बन गए अर्थात् ऐसे स्थान बन गए जहाँ सैनिकों को आराम व चिकित्सा के लिए भेजा जाने लगा। पहाड़ी शहरों की जलवायु स्वास्थ्यवर्द्धक थी। पहाड़ों की मृदु और ठण्डी जलवायु अंग्रेज़ व यूरोपीय अधिकारियों को लुभाती थी। यही कारण था कि गर्मियों के दिनों में अंग्रेज़ अपनी राजधानी शिमला बनाते थे। इन्होंने अपने निजी और सार्वजनिक भवन यूरोपीय शैली में बनवाए।
→ इन घरों में रहते हुए उन्हें यूरोप में अपनी निवास बस्तियों की अनुभूति होती थी। पर्वतीय शहरों पर अंग्रेज़ी-शिक्षण संस्थान तथा एंग्लिकन चर्च स्थापित किए गए। स्पष्ट है कि पर्वतीय शहरों में गोरे लोगों को पश्चिमी सांस्कृतिक जीवन जीने का अवसर मिला।
→ धीरे-धीरे इन पर्वतीय शहरों को रेलवे नेटवर्क से जोड़ दिया गया और महाराजा, नवाब, व्यापारी तथा अन्य मध्यवर्गीय लोग भी इन पर्वतीय शहरों पर पर्यटन के लिए जाने लगे। इन संभ्रांत लोगों को ऐसे स्थलों पर काफी संतोष की अनुभूति होती थी। पर्वतीय स्थल केवल पर्यटन की दृष्टि से ही अंग्रेज़ों के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं थे, बल्कि उनकी अर्थव्यवस्था के लिए बड़े महत्त्वपूर्ण थे।
→ नए शहरों का सामाजिक जीवन पहले के शहरों से अलग था। ये मध्य वर्ग के केन्द्र थे। इस वर्ग में शिक्षक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, क्लर्क तथा अकाउंटेंट्स इत्यादि थे। इन नए शहरों में मिलने-जुलने के नए स्थल; जैसे कि सार्वजनिक पार्क, टाउन हॉल, रंगशाला और 20वीं सदी में सिनेमा हॉल इत्यादि बन चुके थे। ये स्थल मध्यवर्गीय लोगों के जीवन का हिस्सा बनने लगे। यह मध्य वर्ग अपनी नई पहचान और नई भूमिकाओं के साथ अस्तित्व में आया। नए शहरों में औरतों के लिए नए अवसर उत्पन्न हुए। फलतः सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की उपस्थिति बढ़ने लगी।
→ परंतु सार्वजनिक स्थानों पर कामकाज करने वाली महिलाओं को सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा जाता था। स्पष्ट है कि सामाजिक बदलाव सहज रूप से नहीं हो रहे थे। रूढ़िवादी विचारों के लोग पुरानी परम्पराओं और व्यवस्था को बनाए रखने का पुरजोर समर्थन कर रहे थे। दूसरी ओर, कामगार लोगों के लिए शहरी जीवन एक संघर्ष था। फिर भी इन लोगों ने अपनी ‘एक अलग जीवंत शहरी संस्कृति’ रच ली थी। वे धार्मिक त्योहारों, मेलों, स्वांगों तथा तमाशों इत्यादि में भाग लेते थे। ऐसे अवसरों पर वे अपने यूरोपीय और भारतीय स्वामियों पर प्रायः कटाक्ष और व्यंग्य करते हुए उनका मज़ाक उड़ाते थे।
→ विकसित होते मद्रास शहर में अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच पृथक्करण (Segregation) स्पष्ट दिखाई देता है। यह पृथक्करण शहर की बनावट और दोनों समुदायों की हैसियत (Position) में साफ-साफ झलकता है। फोर्ट सेंट जॉर्ज में अधिकतर यूरोपीय लोग रहते थे। इसीलिए यह क्षेत्र व्हाइट किले के भीतर रहने का आधार रंग और धर्म था। भारतीयों को इस क्षेत्र में रहने की अनुमति नहीं थी। व्हाइट टाउन प्रशासकीय और न्यायिक व्यवस्था का केन्द्र भी था।
→ व्हाइट टाउन से बिल्कुल अलग ब्लैक टाउन बसाया गया। कलकत्ता-नगर नियोजन में ‘विकास’ सम्बन्धी विचारधारा झलक रही थी और साथ ही इसका अर्थ राज्य द्वारा लोगों के जीवन और शहरी क्षेत्र पर अपनी सत्ता को स्थापित करना था। इसमें फोर्ट विलियम का नया किला तथा सुरक्षा के लिए मैदान रखा गया। उल्लेखनीय है कि कलकत्ता कस्बे का विकास तीन गाँवों-(सुतानाती, कोलकाता व गोविन्दपुर) को मिलाकर हुआ था।
→ कलकत्ता की नगर योजना में लॉर्ड वेलेज़्ली ने उल्लेखनीय योगदान दिया। कलकत्ता अब ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी था। इस सन्दर्भ में, 1803 ई० का वेलेज़्ली का प्रशासकीय आदेश महत्त्वपूर्ण है। वेलेज़्ली के इस सरकारी आदेश के बाद ‘जन स्वास्थ्य’ नगर नियोजन में प्रमुख विचार बन गया। शहरों में सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा और भविष्य की नगर-नियोजन की परियोजनाओं में ‘जन स्वास्थ्य’ का विशेष ध्यान रखा गया।
→ ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ ही अंग्रेज़ों का झुकाव इस ओर बढ़ता गया कि कलकत्ता, बम्बई और मद्रास को शानदार शाही राजधानियों के रूप में बनाया जाए। इन शहरों की भव्यता से ही साम्राज्यवादी ताकत सत्ता झलकती थी। नगर नियोजन में उन सभी खूबियों को प्रतिबिंबित होना था जिसका प्रतिनिधित्व होने का दावा अंग्रेज़ करते थे। ये मुख्य खूबियाँ थीं- तर्क-संगत क्रम व्यवस्था, (Rational Ordrain), सटीक क्रियान्वयन (Meticulous Execution) और पश्चिमी सौन्दर्यात्मक आदर्श (Western Aesthetic Ideas)। वस्तुतः साफ-सफाई नियोजन और सुन्दरता, औपनिवेशिक शहर के आवश्यक तत्त्व बन गए।
→ कलकत्ता, बम्बई और मद्रास जैसे बड़े शहरों में न्यूक्लासिकल तथा नव-गॉथिक शैलियों में अंग्रेज़ों ने भवन बनवाए। ये पाश्चात्य स्थापत्य शैलियाँ थीं। फिर बहुत-से धनी भारतीयों ने इन पश्चिमी शैलियों को भारतीय शैलियों में मिलाकर मिश्रित स्थापत्य शैली का विकास किया। इसे इण्डोसारासेनिक शैली कहा गया है। उल्लेखनीय है कि इन स्थापत्य शैलियों के माध्यम से भी राजनीतिक और सांस्कृतिक टकरावों को समझा जा सकता है।
काल-रेखा
1500-1700 ई० | पणजी में पुर्तगाली (1510); मछलीपट्टनम में डच (1605); मद्रास (1639), बंबई (1661) और कलकत्ता (1690) में अंग्रेज़ तथा पांडिचेरी (1673) में फ्रांसीसी ठिकानों की स्थापना। |
1600-1623 ई० | ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के सूरत, भड़ीच, अहमदाबाद, आगरा और मछलीपट्टनम में ‘कारखाने’ (कार्यालय व गोदाम) थे। |
1622 ई० | बंबई उस समय एक छोटा-सा द्वीप था। यह अनेक वर्षों तक पुर्तगालियों के अधिकार में रहा। 1622 ई० में ब्रिटेन के सम्राट चार्ल्स द्वितीय को पुर्तगाली राजकुमारी से विवाह के समय दहेज में दिया गया था। |
1668 ई० | बंबई (मुंबई) की किलाबंदी की गई। |
1698 ई० | अंग्रेज़ों द्वारा कलकत्ता (आधुनिक) की नींव रखी गई। |
1772-1785 ई | वारेन हेस्टिंग्स का शासनकाल। |
1757 ई० | प्लासी के युद्ध में अंग्रेज़ों की विजय। |
1773 ई० | कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना। |
1798-1805 ई० | लॉर्ड वेलेज़्ली का भारत में गवर्नर-जनरल के रूप में कार्यकाल। |
1803 ई० | कलकत्ता नगर सुधार पर वेलेज़्ली का मिनट्स लिखना। |
1817 ई० | कलकत्ता नगर नियोजन के लिए लॉटरी कमेटी का गठन। |
1818 ई० | दक्कन पर अंग्रेज़ों की विजय व बम्बई को नए प्रांत की राजधानी। |
1853 ई० | पहली रेलवे लाइन, बम्बई से ठाणे। |
1857 ई० | बम्बई, कलकत्ता व मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना। |
1870 का दशक | नगर-पालिकाओं में निर्वाचित भारतीयों को शामिल करना। |
1881 ई० | मद्रास हॉर्बर के निर्माण का काम पूरा होना। |
1896 ई० | बम्बई के वाटसंस होटल में पहली बार फिल्म दिखाना। |
1896 ई० | प्लेग महामारी का फैलना। |
1911 ईo | कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाया जाना। |
1911 ई० | ‘गेट वे ऑफ़ इण्डिया’ बनाया गया। |