Class 11

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘न्याय’ शब्द की उत्पत्ति किस भाषा के किस शब्द से हुई है?
उत्तर:
न्याय (Justice) शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द ‘Jus’ से हुई है, जिसका अर्थ है-बंधन अथवा बांधना।

प्रश्न 2.
‘न्याय’ क्या है?
उत्तर:
न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसमें व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों में सामंजस्य हो तथा व्यक्ति अपने-अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का पालन करते हों।

प्रश्न 3.
न्याय के किन्हीं दो पक्षों के नाम बताएँ।
उत्तर:
न्याय के दो पक्ष हैं-

  • सामाजिक पक्ष,
  • आर्थिक पक्ष।

प्रश्न 4.
न्याय के तीन आधारभूत तत्त्व लिखें।
उत्तर:

  • कानून के समक्ष समानता,
  • निष्पक्षता तथा
  • मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 5.
न्याय की कोई एक परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
सालमंड के अनुसार, “प्रत्येक व्यक्ति को उसका भाग प्रदान करना न्याय है।”

प्रश्न 6.
सामाजिक न्याय से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
सामाजिक न्याय का अर्थ है कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्ति समान हैं और व्यक्तियों के परस्पर सामाजिक संबंधों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है।

प्रश्न 7.
आर्थिक न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आर्थिक न्याय का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक क्षेत्र में स्वतंत्रता तथा समानता प्राप्त हो, प्रत्येक को अपने आर्थिक जीवन का विकास करने के समान अवसर प्राप्त हों।।

प्रश्न 8.
क्या सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय आपस में संबंधित हैं?
उत्तर:
सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय का आपस में घनिष्ठ संबंध है। जहाँ सामाजिक न्याय की व्यवस्था है, वहाँ लोगों को आर्थिक न्याय भी मिल जाता है और जहाँ आर्थिक न्याय है, वहाँ सामाजिक न्याय वास्तविक बन सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक और सहायक हैं।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय के किन्हीं दो प्रावधानों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

  • समानता का अधिकार तथा
  • छुआछूत को गैर-कानूनी घोषित करना।

प्रश्न 10.
प्रजातंत्र में न्याय का क्या स्थान है?
उत्तर:
प्रजातंत्र की सफलता के लिए आवश्यक शर्तों की पूर्ति न्याय द्वारा ही की जाती है। न्याय समाज में सामाजिक, आर्थिक व कानूनी समानता को स्थापित करता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
न्याय के बारे में आप क्या जानते हैं?
अथवा
न्याय का अर्थ स्पष्ट करें। अथवा न्याय की अवधारणा की समीक्षा करें।
उत्तर:
न्याय की अवधारणा का राजनीति शास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका व्यक्ति के जीवन में भी बड़ा महत्त्व है और हर व्यक्ति न्याय की मांग करता है। अन्याय होने की स्थिति में व्यक्ति न्यायालय का दरवाजा खटखटाता है। न्याय व्यक्ति और समाज के हितों में सामंजस्य स्थापित करता है। ‘न्याय का अर्थ-न्याय को अंग्रेजी में Justice’ कहते हैं। ‘Justice’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द Jus’ से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ बंधन या बांधना है। इसका अभिप्राय यह है कि ‘न्याय’ उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्ति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

न्याय का अर्थ है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व कानूनी आधार पर कैसे संबंधित है। प्लेटो ने न्याय के बारे में कहा है, “न्याय वह गुण है जो अन्य गुणों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है।” इसी तरह सालमंड ने भी कहा है, “न्याय का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को उसका भाग प्रदान करना है।” प्रो० मेरियम के अनुसार “न्याय मान्यताओं और प्रतिक्रियाओं की वह प्रणाली है, जिसके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे सभी अधिकार व सुविधाएं दी जाती । हैं, जिन्हें समाज उचित मानता है।”

प्रश्न 2.
न्याय के चार आधारभूत तत्त्व लिखें।
उत्तर:
न्याय के चार आधारभूत तत्त्व निम्नलिखित हैं

1. कानून के समक्ष समानता-न्याय के इस तत्त्व से तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति कानून के सामने समान है। सभी व्यक्तियों पर एक से कानून लागू होने चाहिएँ। जाति, रंग, वंश, लिंग आदि पर बने भेदभाव के बिना सभी को कानून का समान संरक्षण मिलना चाहिए।

2. सत्य-सत्य का अर्थ है-घटना का ज्यों-का-त्यों प्रस्तुतीकरण करना। न्याय की मांग है कि तथ्यों को सत्य के आधार पर व्यक्त करना चाहिए। न्यायालयों में तथ्यों की सत्यता पर विशेष बल दिया जाता है।

3. स्वतंत्रता-न्याय और स्वतंत्रता में गहरा संबंध है। बिना स्वतंत्रता के न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। केवल स्वतंत्र और स्वच्छ वातावरण में ही मनुष्य न्याय प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए।

4. प्रकृति की अनिवार्यताओं का सम्मान-जो कार्य व्यक्ति के सामर्थ्य से बाहर है और जो कार्य प्राकृतिक रूप से व्यक्ति के लिए करना असंभव है, उसे करने के लिए व्यक्ति को मजबूर करना न्याय की भावना के विरूद्ध है। उदाहरणस्वरूप किसी बूढ़े या बीमार व्यक्ति से भारी शारीरिक काम लेना अन्याय है।

प्रश्न 3.
न्याय की अवधारणा के दो रूपों का वर्णन करें।
उत्तर:
न्याय की अवधारणा के विभिन्न रूप हैं। उनमें से दो मुख्य रूपों का वर्णन निम्नलिखित है

1. सामाजिक न्याय-राजनीति शास्त्र में आर्थिक व सामाजिक न्याय ने मुख्य रूप से ज़ोर पकड़ा है। सामाजिक न्याय की धारणा एक विशाल धारणा है, जिसकी व्याख्या विभिन्न लेखकों ने विभिन्न ढंगों से की है। कुछ इसे धन का समान वितरण मानते हैं तो कुछ इसे समाज में अवसरों की समानता मानते हैं। सामाजिक न्याय का उद्देश्य मुख्य रूप से समाज में पाई जाने वाली असमानताओं, भेदभाव और अन्याय को दूर करना है, ताकि सभी व्यक्ति अपने गुणों का विकास कर सकें। सामाजिक न्याय की भावना ने समाजवाद को भी लोकप्रिय बनाया है।

2. राजनीतिक न्याय राजनीतिक न्याय से तात्पर्य यह है कि राजनीतिक शक्ति किसी वर्ग विशेष के हाथों में केंद्रित न होकर सर्व साधारण के पास होनी चाहिए और सभी लोगों को प्रशासन में भाग लेने के अवसर प्राप्त हों। इसका अर्थ है कि राजनीतिक शक्ति का प्रयोग सभी व्यक्तियों को समान रूप से करने का अधिकार होना चाहिए। बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को मत डालने, चुनाव लड़ने, सार्वजनिक पद प्राप्त करने और सरकार की आलोचना करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

प्रश्न 4.
समाज में आप सामाजिक न्याय किस प्रकार प्राप्त करेंगे?
अथवा
सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन करें। उत्तर सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन अग्रलिखित है

1. सामाजिक समानता सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए समाज में व्यक्तियों को न तो कोई विशेष प्रकार के अधिकार प्राप्त होने चाहिएँ तथा न ही किसी व्यक्ति के साथ जन्म, जाति, रंग, नस्ल आदि के आधार पर किसी प्रकार का कोई भेदभाव होना चाहिए।

2. कानून के समक्ष समानता सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह अनिवार्य है कि सभी लोगों को कानून के समक्ष समानता तथा एक समान वैधानिक सुरक्षा प्राप्त हो। सभी प्रकार के विशेष अधिकारों तथा सुविधाओं को समाप्त किया जाए।

3. पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएँ-इस प्रकार की सुविधाएं कुछ समय के लिए पिछड़ी जातियों तथा निर्बल वर्गों के लोगों को अवश्य दी जानी चाहिएं, ताकि वे इन सुविधाओं से लाभ प्राप्त कर सकें तथा अन्य नागरिकों के समान विकास कर सकें। सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए जाति-प्रथा का अंत किया जाना अनिवार्य है।

4. समान अधिकार-यह भी अनिवार्य है कि सभी नागरिकों को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक अधिकार समान रूप से दिए जाएं।

प्रश्न 5.
आर्थिक न्याय के महत्त्वपूर्ण तत्त्व बताइए।
अथवा
न्याय के आर्थिक पक्ष का वर्णन करें।
उत्तर:
आर्थिक न्याय के महत्त्वपूर्ण तत्त्व निम्नलिखित हैं
(1) सभी नागरिकों की मूल आवश्यकताएँ पूरी होनी चाहिएँ।

(2) प्रत्येक व्यक्ति को आजीविका के साधन उपलब्ध कराने चाहिएँ और व्यक्ति को अपने काम के लिए उचित मजदूरी मिलनी चाहिए। किसी व्यक्ति का शोषण नहीं होना चाहिए।

(3) आर्थिक न्याय का यह भी अर्थ है कि विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति को राजकीय सहायता प्राप्त करने का अधिकार हो। बुढ़ापे, बेरोज़गारी तथा असमर्थता में राज्य सामाजिक एवं आर्थिक संरक्षण प्रदान करे।

(4) स्त्रियों और पुरुषों को समान कार्य के लिए समान वेतन मिलना चाहिए।

(5) संपत्ति और उत्पादन के साधनों के नियंत्रण के संबंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है।

प्रश्न 6.
समाज में आप आर्थिक न्याय किस प्रकार प्राप्त करेंगे?
उत्तर:
आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह अनिवार्य है कि समाज में ऐसी व्यवस्थाएँ विकसित हो जाएँ, जिनमें किसी व्यक्ति का अन्य व्यक्तियों अथवा संस्थाओं द्वारा आर्थिक शोषण न हो सके तथा सभी व्यक्तियों को अपनी योग्यताओं एवं आवश्यकताओं के अनुसार जीविकोपार्जन के आवश्यक साधन प्राप्त हो सकें।

आर्थिक न्याय की प्राप्ति तथा सभी लोगों को कार्य देने के लिए सरकार को उत्तरदायी होना चाहिए तथा कार्य न देने की अवस्था में बेरोज़गारी भत्ता सरकार की ओर से दिया जाना चाहिए। अपाहिज हो जाने अथवा बीमारी या वृद्धावस्था में लोगों को आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा का अधिकार प्राप्त होना अनिवार्य है।

आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए धन कुछेक व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि इसका उचित विभाजन होना अनिवार्य है। आर्थिक न्याय की प्राप्ति तभी संभव हो सकती है, यदि निर्बल वर्गों तथा श्रमिकों के हितों की सुरक्षा के लिए विशेष प्रबंध किए जाएं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 7.
लोकतंत्र में न्याय का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
लोकतंत्र में न्याय के निम्नलिखित महत्त्व हैं
(1) लोकतंत्र के लिए नागरिकों के उच्च चरित्र की आवश्यकता होती है। उच्च चरित्र से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। न्याय नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास में सहायता करता है।

(2) लोकतंत्र की सफलता के लिए राष्ट्रीय एकता की भावना का होना आवश्यक है। न्याय द्वारा समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों में एकता स्थापित की जाती है जो कि राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है।

(3) लोकतंत्र के लिए नागरिकों के विभिन्न अधिकारों का बड़ा महत्त्व है। न्याय के द्वारा लोगों के विभिन्न अधिकारों की सुरक्षा की जाती है। अधिकारों की सुरक्षा लोकतंत्र के लिए जरूरी है।

(4) लोकतंत्र के लिए सामाजिक एकता आवश्यक है, अर्थात जाति, धर्म, रंग, वंश या लिंग भेद के आधार पर ऊंच-नीच की दीवारें नहीं होनी चाहिएं। न्याय समाज के सभी वर्गों को उन्नति के समान अवसर प्रदान करके इस भेदभाव को समाप्त करता है।

(5) आर्थिक सुरक्षा को लोकतंत्र का आधार माना गया है। भूख, महंगाई व बेकारी के वातावरण में राजनीतिक स्वतंत्रताएं मूल्यहीन बन जाती हैं। न्याय द्वारा इस आर्थिक असुरक्षा को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है।

(6) लोकतंत्र चुनावों पर आधारित है। न्याय की यह मांग है कि चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से कराए जाएं।

प्रश्न 8.
भारत में सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए क्या प्रावधान है? अथवा भारत में सामाजिक न्याय की प्राप्ति हेतु मौलिक अधिकारों से कौन-सी व्यवस्थाएं की गई हैं ?
उत्तर:
भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा प्राचीन समय से चली आ रही है। प्राचीन भारत में लोगों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के प्रयत्न किए गए थे, लेकिन फिर भी सामाजिक न्याय की समस्या जटिल बनी रही है। भारत में जाति, लिंग, धर्म वरंग के आधार पर भेदभाव होता रहा है और इस भेदभाव को अनेक सुधारकों ने दूर करने का प्रयत्न किया। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के अध्याय में सामाजिक न्याय को स्थापित करने के प्रावधान निम्नलिखित हैं

(क) (1) अनुच्छेद 14 में कानून के सामने समानता का प्रावधान है।
(2) धारा 15 व 16 के अनुसार किसी के साथ किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
(3) धारा 17 के अनुसार छुआछूत को समाप्त किया गया है।
(4) धारा 18 में उपाधियाँ देने पर रोक लगाई गई है।
(5) धारा 23-24 में मनुष्य के शोषण पर रोक लगाई गई है।
(6) संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में से निकालकर आर्थिक न्याय स्थापित किया गया है।

(ख) नागरिकों की आर्थिक स्थिति को सुधारने और उन्हें आर्थिक न्याय प्रदान करने के लिए राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की व्यवस्था की गई है। धारा 46 में कमजोर वर्गों के शोषण के विरूद्ध व्यवस्था की गई है। धारा 47 में राज्य को सभी लोगों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने का निर्देश दिया गया है।

प्रश्न 9.
आर्थिक न्याय के कोई चार लक्षण बताएँ।
उत्तर:
आर्थिक न्याय के चार लक्षणों का वर्णन निम्नलिखित है

1. काम का अधिकार मनुष्य की कुछ न्यूनतम आवश्यकताएँ होती हैं। उनकी पूर्ति अनिवार्य है। उनकी पूर्ति के लिए नागरिकों को काम चाहिए अर्थात प्रत्येक नागरिक को काम मिलना चाहिए। काम के अधिकारों की स्थिति भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है। इंग्लैंड में नागरिकों को काम देना सरकार का कर्त्तव्य है। काम न मिलने की स्थिति में उन्हें बेरोजगार भत्ता दिया जाता है। साम्यवादी देशों में भी काम देना सरकार की जिम्मेदारी है। भारत में सरकार प्रत्येक व्यक्ति को काम देने का प्रयत्न कर रही है।

2. समान कार्य के लिए समान वेतन-यह भी ज़रूरी है कि पुरुष व महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले। महिलाओं की मजबूरी का लाभ न उठाया जाए। लोगों को वेतन उनके काम व गुण के आधार पर दिया जाए। एक से श्रमिकों का वेतन सभी जगह एक-सा होना चाहिए। एक स्तर के अधिकारियों का वेतन भी एक ही होना चाहिए। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एक अध्यापक व एक श्रमिक का वेतन एक-सा नहीं हो सकता।

3. न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति मनुष्य की कुछ मौलिक आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति होना अनिवार्य है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति न होने की स्थिति में लोकतंत्र व राजनीतिक स्वतंत्रता के बारे में सोचना एक ढोंग व दिखावा है, क्योंकि अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा हुआ व्यक्ति राजनीति के बारे में सोच ही नहीं सकता। आर्थिक शोषण व्यक्ति को लोकतंत्र के लिए सोचने का मौका ही नहीं देता।

4. आर्थिक सुरक्षा-आर्थिक सुरक्षा भी आर्थिक न्याय का एक भाग है। इसका अर्थ है कि बुढ़ापे, बीमारी, दिव्यांग और असहाय होने की स्थिति में जब व्यक्ति अपनी रोजी-रोटी कमा नहीं सकता तो राज्य द्वारा उसकी आर्थिक सहायता होनी चाहिए। उन्हें पेंशन, निःशुल्क चिकित्सा आदि की सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएँ।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
न्याय से आप क्या समझते हैं? इसके आधारभूत तत्त्वों का उल्लेख करें।
उत्तर:
न्याय की अवधारणा राजनीति विज्ञान में विशेष महत्त्व रखती है। इसका व्यक्ति के जीवन में भी बड़ा महत्त्व है और हर व्यक्ति न्याय की मांग करता है। यहाँ तक कि जब किसी व्यक्ति को न्यायालय से न्याय न मिले, तो वह भगवान से न्याय मांगता है। न्याय द्वारा ही व्यक्ति को अत्याचार से छुटकारा मिलता है। न्याय व्यक्तिगत स्वार्थ और सामाजिक हितों में सामंजस्य स्थापित करता है, समाज के विभिन्न वर्गों को संगठित रखता है, सामाजिक व्यवस्था को दृढ़ बनाता है और प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने अधिकारों व स्वतंत्रताओं का लाभ उठाने का वातावरण उत्पन्न करता है।

न्याय के बिना किसी का जीवन और संपत्ति सुरक्षित नहीं रह सकते। न्याय के बिना समाज और राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती। न्यायविहीन समाज में तो जंगल का-सा वातावरण ही मिल सकता है। न्याय की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना कि मानव-समाज। व्यक्ति ने इसके लिए सदैव संघर्ष किया है। न्याय की धारणा भी समयानुसार बदलती रहती है।

प्लेटो (Plato) ने नैतिकता और सद्गुणों को ही न्याय का नाम दिया था। मध्यकालीन युग में धार्मिक नियमों पर आधारित मानव व्यवहार को न्याय के अनुरूप माना जाता था। रूसो ने स्वतंत्रता और समानता को न्याय का नाम दिया। ग्रोशियस ने व्यक्तिगत हितों और सामाजिक हितों के सामंजस्य को न्याय कहा है। जॉन स्टुअर्ट मिल तथा बैंथम जैसे उपयोगितावादियों ने अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख को ही न्याय बताया है। समाजवादियों ने आर्थिक समानता को ही न्याय का आधार बताया है। इस प्रकार न्याय की अवधारणा बदलती रही है।

न्याय का अर्थ एवं परिभाषाएँ न्याय को अंग्रेजी में ‘Justice’ कहते हैं। Justice शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘Jus’ से बना है, जिसका अर्थ होता है- ‘बंधन या बांधना’ इसका अभिप्राय यह है कि न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से जुड़ा हुआ है। न्याय की भाषा इस बात से संबंधित है कि एक व्यक्ति के दूसरे के साथ नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा कानूनी संबंध क्या हैं। आधुनिक न्यायशास्त्र में न्याय का अर्थ सामाजिक जीवन की उस अवस्था से है जिसमें वैयक्तिक अधिकारों का सामाजिक कल्याण के साथ समन्वय स्थापित किया गया हो। न्याय की मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

1. बेन तथा पीटर्स के अनुसार, “न्यायपूर्वक कार्य करने का अर्थ यह है कि जब तक भेदभाव किए जाने का कोई उचित कारण न हो, तब तक सभी व्यक्तियों से एक-सा व्यवहार किया जाए।”

2. प्रो० सी०ई० मेरियम ने कहा है, “न्याय मान्यताओं और प्रक्रियाओं की वह प्रणाली है जिसके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे सभी अधिकार व सुविधाएं दी जाती हैं जिन्हें समाज उचित मानता हो।”

3. सालमंड के अनुसार, “न्याय का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को उसका भाग प्रदान करना है।”

4. प्लेटो के अनुसार, “न्याय वह गुण है जो अन्य गुणों के मध्य सामंजस्य स्थापित करता है।”

5. जे०एस० मिल के अनुसार, “न्याय उन नैतिक नियमों का नाम है जो मानव-कल्याण की धारणाओं से संबंधित है और इसलिए जीवन के पथ-प्रदर्शन के लिए किसी भी अन्य नियम से महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है।”

6. डी०डी० राफेल के अनुसार, “न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्तिगत अधिकार की भी रक्षा होती है और समाज की मर्यादा भी बनी रहती है।” उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि आधुनिक युग में न्याय से तात्पर्य सामाजिक जीवन की उस स्थिति से है जिसमें व्यक्ति के आचरण तथा समाज-कल्याण में उचित समन्वय स्थापित किया जा सके।

न्याय के आधारभूत तत्त्व यद्यपि न्याय का प्रत्येक युग में महत्त्व रहा है, तथापि न्याय का रूप प्रत्येक युग में अलग रहा है। न्याय का रूप स्थान, परिस्थितियों, समाज के ढांचे और राजनीतिक व्यवस्था पर निर्भर करता है। परंतु कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो न्याय की सभी धारणाओं में विद्यमान हैं और इन तत्त्वों को न्याय के आधारभूत तत्त्व कहा जा सकता है। ऑर्नोल्ड ब्रैशर ने न्याय के निम्नलिखित आधारभूत तत्त्वों का वर्णन किया है

1. कानून के समक्ष समानता:
न्याय का यह तत्त्व बड़ा महत्त्वपूर्ण है कि कानून के सामने सबको समान समझा जाना चाहिए और उन पर एक से कानन लागू किए जाने चाहिएं। जाति, धर्म, वंश, लिंग आदि के आधार पर बने भेदभाव के बिना सभी को कानून का समान संरक्षण मिलना चाहिए। सी०के० एलेन ने कहा है, “जहाँ पक्षपात द्वार से अन्दर आया, न्याय खिड़की से बाहर गया।” अतः कानून के समक्ष समानता समाज में अन्याय को समाप्त करती है।

2. सत्य:
सत्य न्याय का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। सत्य का अर्थ है-घटना का ज्यों-का-त्यों प्रस्तुतिकरण करना। वस्तुनिष्ठ रूप में न्याय की मांग है कि तथ्य और संबंध विषयक अपने सभी कथनों में हम सत्य का प्रयोग करें। न्यायालयों में तथ्यों की सत्यता का विशेष महत्त्व है।

3. स्वतंत्रता:
न्याय और स्वतंत्रता में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। बिना स्वतंत्रता के न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। केवल स्वतंत्र और स्वच्छंद वातावरण में ही मनुष्य न्याय प्राप्त कर सकता है। इसलिए व्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए। स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाना अन्याय है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर केवल उस सीमा तक प्रतिबंध लगाना चाहिए जितना कि राष्ट्र-हित व समाज-हित के लिए आवश्यक हो।

4. मूल्यों की व्यवस्था की सामान्यता:
न्याय का यह रूप इसे समरूपता (uniformity) प्रदान करता है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक मामले में तथा विभिन्न परिस्थितियों में न्याय की एक ही धारणा का प्रयोग किया जाना चाहिए। अलग-अलग मामलों में न्याय की अलग-अलग धारणाओं को लागू करना अनुचित है।

5. प्रकृति की अनिवार्यताओं के प्रति सम्मान:
जो कार्य व्यक्ति के सामर्थ्य से बाहर है और जो कार्य प्रकृति की ओर से व्यक्ति के लिए असंभव है, उन्हें करने के लिए व्यक्ति को मजबूर करना न्याय की भावना के विरूद्ध है। उदाहरण के लिए, किसी बीमार या बूढ़े व्यक्ति से भारी शारीरिक काम लेना अन्याय है।

6. निष्पक्षता:
निष्पक्षता न्याय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति में किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता। किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, वंश व लिंग के आधार जा सकता। इन आधारों पर भेदभाव करना अन्याय माना जाता है। सभी व्यक्ति कानून के सामने समान हैं, इसे न्याय का महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है।

इस संदर्भ में आर्नल्ड ब्रेस्ट ने कहा है, “स्वीकृत अवस्था के अन्तर्गत जो समान है उसके साथ समान व्यवहार होना चाहिए। समान परिस्थितियों में स्वेच्छाचारी ढंग से भेदभाव करना अन्याय है।” स्थानीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में न्याय प्राप्त करने के लिए उपर्युक्त आधारभूत तत्त्वों का पालन करना आवश्यक है।

प्रश्न 2.
न्याय की अवधारणा के विविध रूपों का वर्णन कीजिए।
अथवा
न्याय का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
राजनीति विज्ञान में न्याय का विशेष महत्त्व है। न्याय का अस्तिव उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव-समाज। प्रत्येक युग में समाज में न्याय की मांग रही है। इतिहास में न्याय की अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। कभी उसे ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’ का पर्याय माना जाता है तो कभी ईश्वर की इच्छा और पूर्वजन्म के कर्मों का फल।

भारतीय चिंतन में न्याय को धर्म का पर्याय माना गया है। प्लेटो ने न्याय के सिद्धांत की विस्तार से चर्चा की है। प्लेटो ने न्याय को आध्यात्मिक तथा सत्यता का रूप दिया। एबेंस्टीन (Ebenstein) के अनुसार, “प्लेटो के न्याय संबंधी विवेचन में उसके राजनीतिक दर्शन के समस्त तत्त्व शामिल थे।” अनेक विद्वानों ने समयानुसार न्याय का अर्थ एवं परिभाषा दी है। मूल रूप में न्याय को हम निम्नलिखित रूपों में समझ सकते हैं

1. प्राकृतिक न्याय:
इससे अभिप्राय उस न्याय से है जो प्राकृतिक नियमों तथा औचित्य पर आधारित हो। इतना ही नहीं, जो न्याय प्राकृतिक नियमों के अतिरिक्त निष्पक्षता, तर्कसंगतता, औचित्य तथा ईमानदारी पर आधारित है, उसे भी प्राकृतिक न्याय का नाम देते हैं। प्राकृतिक न्याय को न्यायालय भी मान्यता देते हैं और जो कार्य प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांत के विरूद्ध हो, उसे अवैध घोषित कर देते हैं। यदि किसी व्यक्ति को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर दिए बिना कोई दंड दे दिया जाए तो उसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विरूद्ध कहकर न्यायालय उसे रद्द कर देते हैं।

2. सामाजिक न्याय:
आधुनिक युग में सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में व्यक्ति को न्याय दिए जाने की भावना ने बहुत जोर पकड़ा है। सामाजिक न्याय राजनीतिक विज्ञान की एक नवीन अवधारणा के रूप में 20वीं शताब्दी में ही विकसित हुआ है। सामाजिक न्याय का उद्देश्य मुख्य रूप से समाज में पाई जाने वाली असमानताओं, भेदभाव और अन्याय को दूर करना है ताकि सभी व्यक्ति अपने गुणों का विकास कर सकें। सामाजिक न्याय की भावना ने समाजवाद को भी लोकप्रिय बनाया है।

3. राजनीतिक न्याय:
राजनीतिक न्याय से अभिप्राय है कि राजनीतिक शक्ति किसी वर्ग विशेष के हाथों में केंद्रित न होकर सर्वसाधारण के पास होनी चाहिए और सभी लोगों को प्रशासन में भाग लेने के अवसर प्राप्त हों। इसका अर्थ है कि राजनीतिक शक्ति का प्रयोग सभी व्यक्तियों को समान रूप से करने का अधिकार होना चाहिए। बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को मत डालने, चुनाव लड़ने, सार्वजनिक पद प्राप्त करने और सरकार की आलोचना करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

4. कानूनी न्याय:
कानूनी न्याय से अभिप्राय है कि कानून न्याय-संगत हों, समान व्यक्तियों के लिए समान कानून हों। किसी भी वर्ग विशेष को विशेषाधिकार प्राप्त न हों। कानून जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा बनाए जाएं और उनका औचित्य सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा समय-समय पर परखा जाए। न्यायिक प्रक्रिया (Judicial Process) निष्पक्ष, सरल, व सस्ती हो ताकि निर्धन व्यक्ति धन के अभाव में कहीं न्याय से वंचित रहकर धनी वर्ग के शोषण का शिकार न हो जाएं। इस प्रकार हम देखते हैं कि कानून तथा न्याय एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।

5. आर्थिक न्याय:
सामाजिक न्याय की तरह आर्थिक न्याय की अवधारणा भी आजकल बड़ी लोकप्रिय है। इसका अर्थ है-व्यक्तियों को आर्थिक क्षेत्र में न्याय प्रदान करना, आर्थिक असमानताओं को दूर करना, लोगों को आर्थिक शोषण से मुक्त करना तथा उनकी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करना।

आर्थिक न्याय के अंतर्गत यह बात भी आती है कि सभी व्यक्तियों को काम उपलब्ध हो, काम के कम-से-कम घंटे और अधिक-से-अधिक मजदूरी निश्चित हो, किसी का आर्थिक शोषण न हो और आर्थिक मजबूरी के कारण किसी को कोई अनैतिक काम न करना पड़े। सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा आज सामाजिक और आर्थिक न्याय की दो महत्त्वपूर्ण बातें हैं।

6. नैतिक न्याय:
संसार में कुछ नियम सर्वव्यापक, अपरिवर्तनशील और प्राकृतिक हैं। इनके अनुसार होने वाले आचरण या व्यवहार को ही नैतिक न्याय कहते हैं। उदाहरण-स्वरूप सच बोलना, प्रतिज्ञा-पालन, दया, सहानुभूति पूर्ण व्यवहार, उदारता, क्षमा आदि नैतिक न्याय के अंतर्गत आते हैं। ऐसे व्यवहार की स्थापना में राज्य को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी और सबको स्वतः ही नैतिक न्याय की प्राप्ति हो जाएगी।

प्रश्न 3.
सामाजिक न्याय के अर्थ और महत्त्व बताएँ।
अथवा
सामाजिक न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सामाजिक न्याय का अर्थ (Meaning of Social Justice)-20वीं शताब्दी में सामाजिक न्याय की अवधारणा ने बड़ा जोर पकड़ा है। सामाजिक न्याय का अर्थ मुख्य रूप से यह है कि समाज के सभी सदस्य समान समझे जाने चाहिएँ और उन्हें अधिकार तथा सुविधाएं भी समान रूप से मिलनी चाहिएं, कम या अधिक नहीं। वैसे सामाजिक न्याय की अवधारणा बड़ी पुरानी है।

भारतीय राजनीतिज्ञ कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सामाजिक और आर्थिक न्याय का उल्लेख है। उसने लिखा है, “राज्य अनाथों, असहायों, दिव्यांगों आदि को निर्वाह के साधन प्रदान करेगा तथा आर्थिक व्यवस्था का संचालन ऐसे करेगा कि नागरिकों को न्याय प्राप्त हो।” सामाजिक न्याय की अवधारणा को विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न तरीकों से स्पष्ट करने का प्रयास किया है।

पी०वी० गजेन्द्रगड़कर के अनुसार सामाजिक न्याय का अर्थ सामाजिक असमानताओं को समाप्त करके सामाजिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने से है। बार्कर का कहना है कि प्रत्येक समाज का उद्देश्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति में निहित गुणों को विकसित करने के लिए समान अवसर प्रदान करना है जिसके लिए एक उचित व्यवस्था की स्थापना करना ही सामाजिक न्याय है।

लास्की के अनुसार, “समान सामाजिक अधिकार देना ही सामाजिक न्याय है।” कुछ विद्वानों के अनुसार, समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित भाग प्रदान करना ही सामाजिक न्याय है। अपनी पुस्तक आस्पैक्ट्स ऑफ जस्टिस (Aspects of Justice) में सर सी०के० एलेन (C.K. Allen) ने सामाजिक न्याय के विषय में लिखा है, “आज हम सामाजिक न्याय के बारे में बहुत कुछ सुनते हैं।

कुछ इसका अर्थ संपत्ति के विभाजन अथवा पुनर्विभाजन से लेते हैं, कुछ इसकी व्याख्या ‘अवसर की समानता’ के रूप में करते हैं जो एक भ्रामक कथन है। मुझे भय है कि कुछ इसका अर्थ यह लेते हैं कि उनमें किसी का भी आर्थिक रूप से समृद्ध होना अन्यायपूर्ण है और अधिक बुद्धिमान लोग

इसका अर्थ यह लेते हैं कि प्राकृतिक मानवीय असमानता की सूक्ष्मता को कम किए जाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाए और आत्मोन्नति के व्यावहारिक अवसरों में कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए, वरन् उन्हें सहायता पहुंचानी चाहिए।” सर सी०के० एलेन के इस कथन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक न्याय की धारणा बहुत हद तक अस्पष्ट है।

सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित व्यवस्थाओं का अस्तिव आवश्यक है

1. कानून के समक्ष समानता:
सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि कानून की दृष्टि से सभी लोगों को समान समझा जाए। किसी व्यक्ति के साथ रंग, जाति, धर्म, लिंग, वंश आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाए। सभी लोगों के लिए एक जैसे कानून होने चाहिएं। प्रत्येक व्यक्ति को कानून का समान संरक्षण प्राप्त होना चाहिए। भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार दिया गया है।

2. सामाजिक समानता:
सामाजिक न्याय की यह विशेषता है कि इससे सामाजिक समानता की स्थापना की जाती है। समाज में सभी व्यक्ति समान समझे जाने चाहिएं और सबको अपने जीवन-विकास के लिए समान अवसर प्राप्त होने चाहिएं। सब पर एक ही प्रकार के कानून लागू होने चाहिएं और कानून के सामने सब सदस्य समान होने चाहिएं।

3. समान अधिकार:
सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं। अधिकार किसी विशेष वर्ग की निजी संपत्ति नहीं होने चाहिएं। सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएं। यदि किसी वर्ग अथवा व्यक्ति को रंग, जाति, वंश, धर्म और लिंग आदि के आधार पर अधिकारों से वंचित किया जाता है तो वहाँ पर सामाजिक न्याय नहीं हो सकता है।

4. पिछड़े वर्गों के लिए विशेष सुविधाएं:
सामाजिक न्याय की यह भी विशेषता है कि यह समाज के पिछड़े वर्ग को आगे बढ़ने के लिए विशेष सुविधाएं प्रदान करने की व्यवस्था करता है। यूं भी कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय के अंतर्गत व्यक्ति के रास्ते में जो बाधाएं हैं (जैसे कि पिछड़ापन), उन्हें दूर करने के लिए विशेष सुविधाएं और संरक्षण प्रदान किया जाता है, ताकि पिछड़ा वर्ग भी दूसरों के समान स्तर पर आ जाए।

5. असमानता का हटाना:
सामाजिक न्याय की यह भी विशेषता है कि यह समाज में फैली प्राकृतिक असमानताओं को कम करने का प्रयास करता है और सामाजिक असमानताओं को दूर करता है। इसी के अंतर्गत भारत में छुआछूत को समाप्त किया गया है और इसे गैर-कानूनी घोषित किया गया है। जिस समाज में एक वर्ग को अछूत समझा जाता हो, वहाँ सामाजिक न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

6. सामाजिक बुराइयों को दूर करना:
प्रत्येक समाज अनेक प्रकार के भ्रमों और सामाजिक बुराइयों का शिकार होता है और ये भ्रम व सामाजिक बुराइयां ही सामाजिक न्याय के रास्ते में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। अतः सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए सामाजिक बुराइयां जैसे बाल-विवाह, सती-प्रथा, दहेज-प्रथा आदि को दूर करना आवश्यक है।

7. धन का न्यायपूर्ण वितरण:
धन का असमान वितरण भी सामाजिक न्याय के मार्ग में बाधक है। अतः सामाजिक न्याय की मांग है कि समाज में धन का न्यायपूर्ण वितरण होना चाहिए। राज्य द्वारा इस प्रकार की व्यवस्था की स्थापना करनी चाहिए, जिससे धन के असमान वितरण को दूर किया जा सके।

8. सामाजिक सुरक्षा:
प्रत्येक समाज में दुर्बल, असहाय, दिव्यांग, रोगी एवं बुजुर्ग व्यक्ति होते हैं। इस प्रकार के व्यक्तियों को सहायता प्रदान करना समाज का कर्तव्य है। इसे ही सामाजिक सुरक्षा कहते हैं। जिस समाज में इस प्रकार के व्यक्तियों की सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था नहीं है, वहाँ सामाजिक न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः राज्य को इस प्रकार के सभी मनुष्यों के हितों की सुरक्षा का प्रबंध करना चाहिए।

9. लोकतांत्रिक व्यवस्था:
लोकतंत्र प्रणाली समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व पर आधारित है। लोकतंत्र में व्यक्तियों में किसी भी आधार पर अंतर नहीं किया जाता। सभी को बिना किसी भेदभाव के अधिकार प्राप्त कराए जाते हैं। यह सब कुछ सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक है अतः लोकतंत्रीय व्यवस्था सामाजिक न्याय को स्थापित करने के लिए आवश्यक शर्त है। उपरोक्त बातों को लागू करके सामाजिक न्याय की स्थापना की जा सकती है।

सामाजिक न्याय का महत्त्व:
आधुनिक युग में सामाजिक न्याय का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। सामाजिक न्याय की स्थापना के बाद वर्ग-विहीन समाज की स्थापना है। जिसमें शिक्षा का विकास होता है नागरिकों की संख्या बढ़ती है। शिक्षित नागरिक देश की संपत्ति हैं। सामाजिक न्याय राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करता है लोकतंत्र को सफल बनाने में सहायता करता है। अंत में नागरिक सुखी जीवन व्यतीत करते हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 4.
सामाजिक न्याय क्या है? भारतीय संविधान में दिए गए सामाजिक न्याय के विभिन्न प्रावधानों का वर्णन कीजिए।
अथवा
सामाजिक न्याय से क्या तात्पर्य है और भारत में यह कहाँ तक प्राप्त है?
उत्तर:
सामाजिक न्याय से अभिप्राय सामाजिक न्याय से तात्पर्य यह है कि नागरिकों के साथ सामाजिक दृष्टिकोण से किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाए तथा उन्हें उन्नति और विकास के समान अवसर प्राप्त हों। सामाजिक न्याय का आधार सामाजिक समानता है, जिसके लिए राजनीतिक सत्ता को प्रयत्न करना चाहिए।

सामाजिक न्याय की अवधारणा मूल रूप से इस बात पर आधारित है कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्ति समान हैं और धर्म, जाति, रंग, वंश आदि के आधार पर उन्हें असमान नहीं माना जाना चाहिए। भारतीय विद्वान श्री पी०वी० गजेन्द्रगड्कर के अनुसार, “सामाजिक न्याय का अर्थ सामाजिक असमानताओं को समाप्त करके सामाजिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने से है।” प्रो० लास्की के अनुसार, “न्याय स्वतंत्रता का आधार है और सामाजिक न्याय का अर्थ समान सामाजिक न्याय से है।”

अंत में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए पूर्ण सुविधाएं उपलब्ध कराना और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही सामाजिक न्याय है। भारत में सामाजिक न्याय (Social Justice in India)-वैसे तो प्राचीनकाल से ही भारत में सामाजिक न्याय का समर्थन हुआ है। कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में लिखा था कि

राज्य अनाथों, असहायों, दिव्यांग आदि को निर्वाह के साधन प्रदान करेगा, स्त्रियों, बच्चों व बीमारों को सुविधाएं देगा और आर्थिक व्यवस्था का गठन इस ढंग से करेगा कि नागरिकों को न्याय प्रदान किया जा सके। यह व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक न्याय की व्यवस्था है। आरम्भ में जाति-प्रथा काम पर आधारित थी, जन्म पर नहीं। इस समय सामाजिक न्याय को किसी प्रकार की हानि नहीं थी।

बाद में जाति-प्रथा जन्म पर आधारित हो गई और भारतीय समाज में छुआछूत आदि की बुराइयां उत्पन्न हुईं। इसके बाद तो भारतीय समाज अनेकों बुराइयों का शिकार रहा; जैसे छुआछूत, ऊंच-नीच, सांप्रदायिकता आदि। एक वर्ग को अछूत समझा जाने लगा जिसे जीवन के विकास के अवसर भी प्रदान नहीं किए गए थे। यहाँ तक कि अनुसूचित जातियों पर कुओं, तालाबों, पाठशालाओं व मंदिरों का प्रयोग करने पर भी प्रतिबंध था।

19वीं शताब्दी में समाज-सुधारकों और राष्ट्रीय नेताओं ने इन बुराइयों को दूर करने के प्रयत्न किए और सामाजिक न्याय पर जोर दिया। लोगों में जागृति उत्पन्न हुई। 20वीं शताब्दी में महात्मा गांधी ने हरिजनों के कल्याण के लिए विशेष कार्य किए। 1947 में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद सामाजिक न्याय की व्यवस्था के लिए सरकार ने विशेष कदम उठाए और संविधान के द्वारा भी भारत में सामाजिक न्याय की व्यवस्था करने के प्रयत्न किए गए।

भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय के प्रावधान भारत में मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों द्वारा सामाजिक न्याय की व्यवस्था की गई है, जो इस प्रकार है

(क) संविधान की प्रस्तावना भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक समाजवादी धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, जो सामाजिक समानता, सामाजिक स्वतंत्रता तथा आर्थिक न्याय की ओर इशारा करता है और ये सभी बातें सामाजिक न्याय के आधार हैं।

(ख) मौलिक अधिकार धारा 14-15 में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है तथा सभी पर समान कानून लागू होते हैं और कानून के सामने सब समान हैं। जाति, धर्म, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर व्यक्तियों में कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता और सभी व्यक्तियों को अपने जीवन के विकास के अवसर प्रदान किए गए हैं।

(1) धारा 17 में छुआछूत को गैर-कानूनी घोषित किया गया है और सभी सार्वजनिक स्थान सभी लोगों के लिए समान रूप से खोल दिए गए हैं।

(2) पिछड़े वर्गों के उत्थान, स्त्रियों, बच्चों तथा श्रमिकों की स्वास्थ्य-रक्षा तथा उन्हें शोषण से बचाने के लिए विशेष सुविधाओं और संरक्षण की व्यवस्था है। पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए विधानमंडल, सरकारी कार्यालयों और शिक्षा-संस्थाओं में स्थान आरक्षित हैं।

(3) धारा 19 में लोगों को विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रताएं प्रदान की गई हैं जो बिना किसी भेदभाव के दी गई हैं और ये सामाजिक न्याय को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

(4) संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में से निकालना आर्थिक न्याय की ओर एक कदम है, जो सामाजिक न्याय का आधार है। बेगार की समाप्ति कर दी गई है और लोगों को शोषण के विरूद्ध अधिकार दिया गया है।

(5) धारा 29 और 30 में अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक व शैक्षणिक विकास के लिए उन्हें मौलिक अधिकार दिए गए हैं, ताकि वे समाज में स्वतंत्रता-पूर्वक रह सकें और बहुसंख्यक वर्ग उन पर प्रभाव न जमा सके।

(ग) राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि संविधान के मौलिक अधिकारों के अंतर्गत सामाजिक न्याय की स्थापना की व्यवस्था की गई है। राज्य के नीति के निदेशक सिद्धांतों में ऐसे कितने ही सिद्धांतों का वर्णन किया गया है, जिनका लक्ष्य सामाजिक न्याय की स्थापना करना है, जैसे

(1) अनुच्छेद 38 के अनुसार, राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा, जिसमें सभी नागरिकों को राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्राप्त हो।

  • राज्य अपनी नीति का संकलन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्रियों और पुरुषों को समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हो सकें।
  • स्त्रियों और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले,
  • देश के भौतिक साधनों का स्वामित्व तथा वितरण इस प्रकार से हो कि जन-साधारण के हितों की प्राप्ति हो सके।
  • श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा शक्ति और बालकों की सुकुमार व्यवस्था का दुरुपयोग न हो।

(2) अनुच्छेद 42 के अनुसार राज्य न्यायपूर्ण तथा मानवीय दशाओं और प्रसूति सहायता की व्यवस्था करेगा।
(3) अनुच्छेद 43 के अंतर्गत राज्य मजदूरों के लिए जीवनोपयोगी वेतन प्राप्त कराने का प्रयत्न करेगा।
(4) अनुच्छेद 46 में यह स्पष्ट कहा गया है कि राज्य समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों की विशेष रूप से वृद्धि करे और उनका सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से संरक्षण करे।
(5) अनुच्छेद 47 के अनुसार राज्य लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा करने का प्रयास करेगा।

उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि संविधान के अंतर्गत सामाजिक न्याय की स्थापना की व्यवस्था की गई है। भारत सरकार ने भी सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए अनेक प्रकार की नीतियां बनाई हैं।

प्रश्न 5.
आर्थिक न्याय से आप क्या समझते हैं? व्याख्या करें।
अथवा
आर्थिक न्याय क्या है? इसके लक्षण बताएँ।
उत्तर:
आर्थिक न्याय उदारवादियों ने न्याय के कानूनी, राजनीतिक व सामाजिक पक्ष पर बल दिया है। इसके विपरीत मार्क्सवादियों ने न्याय के आर्थिक पक्ष को अधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने इसे ‘न्याय’ का मूल आधार माना है। आर्थिक न्याय आर्थिक समानता के आदर्श को मूल स्थान देता है, अर्थात आर्थिक न्याय का अर्थ आर्थिक समानता से लिया जाता है। इसी कारण आधुनिक युग में आर्थिक न्याय की अवधारणा प्रबल और लोकप्रिय होती जा रही है।

आर्थिक न्याय का अर्थ सभी नागरिकों को धन प्राप्त करने व आर्थिक जीवन में विकास करने के अवसर प्रदान करने से है। आर्थिक क्षेत्र में प्रत्येक नागरिक को समानता व स्वतंत्रता प्राप्त हो। समाज में आर्थिक असमानताओं को दूर करना और नागरिकों को आर्थिक शोषण से मुक्त कराना भी आर्थिक न्याय के क्षेत्र में आता है। इतना ही नहीं, आर्थिक न्याय में यह भी निहित है कि समाज को अपने उस असहाय वर्ग की सहायता करनी चाहिए जो धनोपार्जन नहीं कर सकता। समाज के कमजोर वर्ग को आर्थिक सहायता प्रदान करना आर्थिक न्याय ही है। वास्तव में आर्थिक न्याय की कल्पना को साकार करने के लिए सभी नागरिकों को राष्ट्रीय

संपत्ति और न्याय में समान रूप से भागीदार होना चाहिए। ऐसा न हो कि संपत्ति देश के कुछ वर्गों के हाथ में इकट्ठी होकर रह जाए। सीतलवाद (Setalvad) ने आर्थिक न्याय के बारे में विचार व्यक्त किए हैं, “आर्थिक न्याय का अर्थ नागरिक को धन प्राप्त करने व जीवन में उसका प्रयोग करने के समान अवसर प्रदान करने से है। इसमें यह निहित भी है कि जो व्यक्ति असहाय है, वृद्ध या बेकार है और धन अर्जित नहीं कर सकता, समाज को उसकी सहायता करनी चाहिए।”

आर्थिक न्याय के लक्षण: आर्थिक न्याय के मुख्य लक्षणों का वर्णन निम्नलिखित है

1. काम का अधिकार:
मनुष्य की कुछ न्यूनतम आवश्यकताएं होती हैं जिनकी पूर्ति अनिवार्य है। उनकी पूर्ति के लिए नागरिकों को काम चाहिए अर्थात प्रत्येक नागरिक को काम मिलना चाहिए। काम के अधिकारों की स्थिति भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है। इंग्लैंड में नागरिकों को काम देना सरकार का कर्त्तव्य है। काम न मिलने की स्थिति में उन्हें बेरोजगार भत्ता दिया जाता है। साम्यवादी देशों में भी काम देना सरकार की जिम्मेदारी है। भारत में सरकार प्रत्येक व्यक्ति को काम देने का प्रयत्न कर रही है।

2. समान कार्य के लिए समान वेतन:
यह भी जरूरी है कि पुरुष व महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले। महिलाओं की मजबूरी का लाभ न उठाया जाए। लोगों को वेतन उनके काम व गुण के आधार पर दिया जाए। एक से श्रमिकों का वेतन सभी जगह एक-सा होना चाहिए। एक से अधिकारियों का वेतन भी एक ही होना चाहिए। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एक अध्यापक व एक श्रमिक का वेतन एक-सा नहीं हो सकता।

3. न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति:
मनुष्य की कुछ मौलिक आवश्यकताएं हैं, उनकी पूर्ति होना अनिवार्य है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति न होने की स्थिति में लोकतंत्र व राजनीतिक स्वतंत्रता के बारे में सोचना एक ढोंग व दिखावा है, क्योंकि अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा हुआ व्यक्ति राजनीति के बारे में सोच ही नहीं सकता। आर्थिक शोषण व्यक्ति को लोकतंत्र के लिए सोचने का मौका ही नहीं देता।

4. आर्थिक सुरक्षा:
आर्थिक सुरक्षा भी आर्थिक न्याय का एक भाग है। इसका अर्थ है कि बुढ़ापे, बीमारी, दिव्यांग और असहाय होने की स्थिति में जब व्यक्ति अपनी रोजी-रोटी कमा नहीं सकता तो राज्य द्वारा उसकी आर्थिक सहायता होनी चाहिए। उन्हें पेंशन, निःशुल्क चिकित्सा आदि की सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएं।।

5. श्रमिकों के हितों की रक्षा:
आर्थिक न्याय का एक और पक्ष है कि श्रमिकों के हितों की रक्षा की जाए। इस पक्ष का मार्क्सवादियों ने समर्थन किया है। उनके अनुसार श्रमिकों का शोषण नहीं होना चाहिए। श्रमिकों को उनके काम के गुण व मात्रा के अनुसार वेतन दिया जाना चाहिए। श्रमिकों के स्वास्थ्य की देखभाल की जाती है। स्त्रियों के लिए प्रसूति-गृह, बच्चों के लिए बाल-गृह या हित-केंद्र खोले जाते हैं।

6. आर्थिक क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप:
राज्य का आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप भी न्याय के आर्थिक पक्ष में आता है। इसका तात्पर्य यह है कि क्या राज्य को आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया जाए या नहीं। कुछ लोगों का विचार है कि राज्य के हस्तक्षेप से आर्थिक विकास रुक जाता है। अतः राज्य को आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने दिया जाना चाहिए। परंतु इसके विपरीत मार्क्सवादी राज्य द्वारा हस्तक्षेप का समर्थन करते हैं।

सभी प्रकार के उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण होता है। आर्थिक न्याय इस बात का समर्थन करता है कि राज्य को आर्थिक क्षेत्र में सीमित हस्तक्षेप का अधिकार होना चाहिए, अर्थात आधुनिक युग में मिश्रित अर्थव्यवस्था को मान्यता प्रदान की गई है। जिसमें एक ओर राज्य व्यक्ति के आर्थिक कल्याण के लिए आर्थिक कार्य करता है तो दूसरी ओर निजी क्षेत्र में व्यक्ति को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त होता है।।

निष्कर्ष:
आर्थिक न्याय की अवधारणा के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आधुनिक युग की महत्त्वपूर्ण अवधारणा है। यह सामाजिक न्याय के उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायता करती है। बिना आर्थिक न्याय की स्थापना के समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना नहीं की जा सकती।

प्रश्न 6.
सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
सामाजिक न्याय को प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष प्रकार की अवस्थाओं या व्यवस्थाओं की आवश्यकता होती है। इन व्यवस्थाओं को सामाजिक न्याय की विशेषताएं या पहलू भी कहा जाता है। सामाजिक न्याय की विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है

1. सामाजिक व्यवस्था में सुधार-समय के परिवर्तन के साथ-साथ समाज में भी परिवर्तन होता है। समाज में कई प्रकार की कुरीतियाँ स्थापित हो जाती हैं। पारिवारिक और सामाजिक विघटन के कारण कई प्रकार की समस्याएं पैदा हो जाती हैं। युवक व युवतियां कई बुराइयों के शिकार हो जाते हैं; जैसे नशीली दवाओं का शिकार होना, किशोरों और किशोरियों में अपराध प्रवृत्ति का बढ़ना। इन सभी समस्याओं को शासन या राज्य कानून बनाकर दूर कर सकता है और किया जा रहा है इसे सामाजिक न्याय ही कहते हैं।

2. सामाजिक समानता सामाजिक न्याय की एक और विशेषता यह है कि समाज में समानता स्थापित हो । समाज में व्यक्ति, व्यक्ति के बीच किसी भी आधार पर असमानता नहीं होनी चाहिए। सभी कानून के सामने समान होने चाहिएं और सभी को प्रगति के समान अवसर मिलने चाहिएं। समाज में रंग, जाति व वर्ग के आधार पर भेदभाव किया जाता है। जैसे भारत में या फिर अफ्रीका में गोरे और काले के आधार पर अंतर किया जाता था। उन्हें समाज में समान दर्जा नहीं दिया जाता था। इसलिए समाज में इस प्रकार की असमानता को कानून बनाकर राज्य दूर कर सकता है। यही नहीं, नागरिकों को शिक्षित करके भी इस असमानता को दूर किया जा सकता है और सामाजिक न्याय की स्थापना की जा सकती है।

3. विशेषाधिकारों की समाप्ति सामाजिक न्याय की यह विशेषता है कि समाज में विशेषाधिकारों की समाप्ति। सामाजिक न्याय-युक्त समाज में किसी वर्ग विशेष को अधिकार या सुविधाएँ नहीं दी जाती हैं। सभी को योग्यतानुसार विकास के अधिकार दिए जाते हैं। धर्म, जाति, वंश के आधार पर विकास की सुविधाओं से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता।

4. अल्पसंख्यकों व पिछड़े वर्ग के हितों की सुरक्षा अल्पसंख्यकों व पिछड़े वर्ग के हितों की सुरक्षा करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। अल्पसंख्यकों व पिछड़े वर्ग को कुछ विशेष सुविधाएं देकर उन्हें उन्नति व विकास के रास्ते पर अग्रसर किया जा सकता है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय में इन्हें कुछ विशेष सुविधाएं देकर उसके विकास के रास्ते में जो बाधाएं हैं उन्हें दूर किया जा सकता है ताकि ये समाज के दूसरे वर्गों के समान स्तर पर आ जाएं। भारत में अल्पसंख्यकों को यह अधिकार है कि वे भाषा, लिपि व संस्कृति के विकास के लिए शिक्षा संस्थाओं की स्थापना कर सकते हैं। राज्य द्वारा ऐसी संस्थाओं को आर्थिक सहायता भी प्रदान की जाएगी।

5. सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग-अब यह बात सभी समाजों में स्वीकार कर ली गई है कि सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग सभी नागरिक कर सकते हैं। इनके उपयोग के लिए किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. न्याय की अवधारणा का प्रभाव निम्नलिखित में से होता है
(A) अराजकता की समाप्ति
(B) भ्रष्टाचार की समाप्ति
(C) शोषण से मुक्ति
(D) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों

2. प्लेटो ने न्याय का कौन-सा रूप बताया है?
(A) व्यक्तिगत न्याय
(B) सामाजिक न्याय
(C) व्यक्तिगत एवं सामाजिक न्याय
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(C) व्यक्तिगत एवं सामाजिक न्याय

3. अरस्तु ने न्याय को निम्नलिखित किन दो भागों में बांटा है?
(A) व्यक्तिगत न्याय एवं सामाजिक न्याय
(B) वितरणात्मक एवं सुधारक न्याय
(C) ईश्वरीय न्याय एवं सांसारिक न्याय
(D) निष्पक्षता एवं सत्य पर आधारित न्याय
उत्तर:
(B) वितरणात्मक एवं सुधारक न्याय

4. न्याय का आधारभूत लक्षण निम्नलिखित में से है
(A) सत्य
(B) निष्पक्षता
(C) संरक्षित भेदभाव
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. लॉक ने निम्नलिखित में से किसे प्राकृतिक अधिकार माना है?
(A) जीवन का अधिकार
(B) स्वतंत्रता का अधिकार
(C) संपत्ति का अधिकार
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

6. रॉल्स के वितरणात्मक न्याय सिद्धांत की मुख्य विशेषता निम्नलिखित में से है
(A) समाज में न्याय का प्रथम स्थान
(B) स्वतंत्रता एवं अधिकारों (प्राथमिक वस्तुओं) का न्यायपूर्ण वितरण
(C) अवसरों की समानता
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

7. रॉल्स के वितरणात्मक न्याय सिद्धांत निम्नलिखित में से मुख्य मार्क्सवादी विद्वान आलोचक है
(A) मिल्टन फिस्क
(B) रिचर्ड मिलर
(C) मिल्टन फिस्क एवं रिचर्ड मिलर
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(C) मिल्टन फिस्क एवं रिचर्ड मिलर

8. सामाजिक न्याय का लक्षण निम्नलिखित में से नहीं है
(A) कानून के समक्ष समानता
(B) समाज में विशेषाधिकारों की समाप्ति
(C) शोषण का निषेध
(D) समाज के अल्पसंख्यकों एवं पिछड़े वर्गों के हितों की उपेक्षा
उत्तर:
(D) समाज के अल्पसंख्यकों एवं पिछड़े वर्गों के हितों की उपेक्षा

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. ‘वितरणात्मक न्याय’ के मुख्य प्रवर्तक किसे माना जाता है?
उत्तर:
जान रॉल्स को।

2. A Theory of Justice (1971)’ नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं?
उत्तर:
जॉन राल्स।

3. किस विद्वान ने ‘न्याय’ को राज्य का प्राण कहा है?
उत्तर:
कौटिल्य ने।

4. जस्टिस (Justice) शब्द लेटिन भाषा के जस (Jus) शब्द से लिया गया है। लेटिन भाषा में जस (Jus) शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जस शब्द का अर्थ है बांधना।

रिक्त स्थान भरें

1. अंग्रेजी भाषा के जस्टिस (Justice) शब्द की उत्पत्ति …………. शब्द से हुई है।
उत्तर:
जस

2. समाज में धन एवं संपत्ति के असमान वितरण को …………. कहा जाता है।
उत्तर:
आर्थिक अन्याय

3. ……………… ने न्याय को समानता एवं स्वतंत्रता का मिश्रण बताया है।
उत्तर:
रूसो एवं लॉक

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HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अधिकार क्या हैं?
उत्तर:
अधिकार वे सुविधाएँ, अवसर व परिस्थितियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त करके व्यक्ति अपने जीवन के शिखर पर पहुँच सकता है।

प्रश्न 2.
अधिकार की कोई एक परिभाषा लिखें।
उत्तर:
डॉ० बेनी प्रसाद (Dr. Beni Prasad) के अनुसार, “अधिकार वे सामाजिक अवस्थाएँ हैं जो व्यक्ति की उन्नति के लिए आवश्यक हैं। अधिकार सामाजिक जीवन का आवश्यक पक्ष है।”

प्रश्न 3.
अधिकारों की कोई एक विशेषता बताइए।
उत्तर:
अधिकार व्यापक होते हैं। वे किसी एक व्यक्ति या वर्ग के लिए नहीं होते, बल्कि समाज के सभी लोगों के लिए समान होते हैं।

प्रश्न 4.
कानूनी अधिकार क्या हैं?
उत्तर:
जिन अधिकारों को राज्य की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, उन्हें कानूनी अधिकार या वैधानिक अधिकार कहते हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अदालत में दावा कर सकता है। इनकी अवहेलना करने वाले को दंडित किया जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 5.
कानूनी अधिकार के प्रकार बताएँ।
उत्तर:
कानून अधिकार चार प्रकार के होते हैं-

  • नागरिक अधिकार,
  • राजनीतिक अधिकार,
  • आर्थिक अधिकार,
  • मौलिक अधिकार।

प्रश्न 6.
सामाजिक अधिकार से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
जीवन को सुखी एवं सभ्य बनाने के लिए प्राप्त सुविधाओं को सामाजिक अधिकार कहा जाता है। सामाजिक अधिकार बहु-पक्षीय हैं। ये अधिकार समाज में रहने वाले प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 7.
किन्हीं दो सामाजिक अधिकारों पर प्रकाश डालें।
उत्तर:

  • जीवन का अधिकार यह अधिकार प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। जीवन के अधिकार में आत्मरक्षा का अधिकार भी शामिल है।
  • संपत्ति का अधिकार-संपत्ति का अधिकार जीवन-यापन के लिए अनिवार्य है। इसके अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को निजी संपत्ति रखने का अधिकार है।

प्रश्न 8.
किन्हीं दो राजनीतिक अधिकारों के नाम बताएँ।
उत्तर:

  • मताधिकार-मताधिकार से तात्पर्य है कि सभी व्यस्क नागरिकों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप देश के शासन में भाग लेने की व्यवस्था।
  • निर्वाचित होने का अधिकार-25 वर्ष की आयु प्राप्त प्रत्येक नागरिक को निर्वाचित होने का अधिकार प्राप्त है।

प्रश्न 9.
मुख्य प्राकृतिक अधिकारों की सूची बनाएँ।
उत्तर:
जीवन के अधिकार, स्वतंत्रता के अधिकार एवं संपत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकारों की सूची में शामिल किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
प्राकृतिक अधिकार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मनुष्य को जन्म से प्राकृतिक रूप में प्राप्त होते हैं। राज्य द्वारा इन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता। ..

प्रश्न 11.
कानूनी अधिकार की आधारभूत विशेषता क्या है?
उत्तर:
कानूनी अधिकार की आधारभूत विशेषता, उसके पीछे कानून की शक्ति है जिसकी अवहेलना करने पर दंड मिलता है।

प्रश्न 12.
अधिकार व्यक्ति के लिए क्यों आवश्यक हैं?
उत्तर:
अधिकार व्यक्ति के चहुंमुखी विकास के लिए एक आवश्यक शर्त है जिसके अभाव में विकास संभव नहीं है।

प्रश्न 13.
प्रेस की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
प्रेस की स्वतंत्रता से तात्पर्य है कि प्रेस पर सरकार के किसी भी प्रकार के अनुचित प्रतिबंधों का अभाव।

प्रश्न 14.
संपत्ति के अधिकार को किस श्रेणी में रखा जा सकता है?
उत्तर:
संपत्ति के अधिकार को नागरिक एवं आर्थिक अधिकार की श्रेणी में रखा जा सकता है।

प्रश्न 15.
कर्त्तव्य शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई?
उत्तर:
कर्त्तव्य को अंग्रेजी में Duty कहते हैं, जिसका मूल शब्द Debt है, जिसका अर्थ ऋण है। अतः इसी शब्द से कर्त्तव्य शब्द की उत्पत्ति हुई।

प्रश्न 16.
कर्तव्यों को कितने भागों में विभाजित किया जा सकता है?
उत्तर:

  • नैतिक कर्त्तव्य-नैतिक कर्त्तव्य का अभिप्राय यह है कि सार्वजनिक हित में जिन कार्यों को हमें करना चाहिए, उन्हें स्वेच्छापूर्वक करें। नैतिक कर्तव्यों के पहले दंड की भावना के स्थान पर नैतिकता की भावना होती है।
  • कानूनी कर्तव्य-जिन कर्त्तव्यों को कानून के दबाव से अथवा दंड पाने के भय से माना जाता है, उन्हें कानूनी कर्त्तव्य कहते हैं।

प्रश्न 17.
कानूनी कर्तव्यों में कौन से कर्त्तव्य सम्मिलित हैं? अथवा किन्हीं दो कानूनी कर्तव्यों की व्याख्या करें।
उत्तर:

  • करों की अदायगी-करों की अदायगी न करने पर दंड दिया जा सकता है।
  • कानूनों की पालना कानून का उल्लंघन करना राज्य का विरोध करना ही है। कानून भंग करना अपराध है। इसलिए कानून की अवहेलना पर दंड दिया जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 18.
नागरिकों द्वारा निभाए जाने वाले किन्हीं दो कर्तव्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
नागरिकों द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों का उल्लेख निम्नलिखित है

  • नागरिक को अपने राज्य के प्रति निष्ठावान होना चाहिए।
  • सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन करना चाहिए।

प्रश्न 19.
अधिकार और कर्त्तव्य में दो संबंध बताइए।
उत्तर:

  • एक का अधिकार दूसरे का कर्तव्य है। एक व्यक्ति का जो अधिकार है, वही दूसरों का कर्त्तव्य बन जाता है कि वह उसके अधिकार को माने तथा उसमें किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करे।
  • दूसरे का अधिकार उसका कर्त्तव्य भी है।

प्रश्न 20.
नागरिकों के दो आर्थिक अधिकारों के नाम लिखें।
उत्तर:

  • काम का अधिकार,
  • उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकार।

प्रश्न 21.
‘अधिकार में कर्तव्य निहित हैं। टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं, इसलिए अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पक्ष बताए गए हैं। वाइल्ड (Wilde) का कहना है, “केवल कर्तव्यों की दुनिया में ही अधिकारों का महत्त्व होता है।” कर्त्तव्य के बिना कोई भी अधिकार वास्तविक और व्यावहारिक रूप में लागू नहीं हो सकता।

प्रश्न 22.
अधिकार किसे कहते हैं?
उत्तर:
समाज में रहते हुए मनुष्य को अपना विकास करने के लिए कुछ सुविधाओं की आवश्यकता होती है। मनुष्य को जो सुविधाएं समाज से मिली होती हैं, उन्हीं सुविधाओं को हम अधिकार कहते हैं। साधारण शब्दों में, अधिकार से अभिप्राय उन सुविधाओं और अवसरों से है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होते हैं और उन्हें समाज ने मान्यता दी होती है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अधिकार की चार मुख्य परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
अधिकार की चार मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  • प्रो० ग्रीन के अनुसार, “अधिकार वह शक्ति है जो सामान्य हित के लिए अभीष्ट और सहायक रूप में स्वीकृत होती है।”
  • वाइल्ड के अनुसार, “विशेष कार्य करने में स्वाधीनता की उचित मांग को ही अधिकार कहते हैं।”
  • प्रो० हैरोल्ड लास्की के अनुसार, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनके बिना कोई मनुष्य अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।”
  • हॉलैंड के अनुसार, “अधिकार एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के कार्य को समाज के मत तथा शक्ति द्वारा प्रभावित करने की क्षमता है।”

प्रश्न 2.
अधिकार के पाँच मुख्य तत्त्वों अथवा विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
अधिकार के पाँच मुख्य तत्त्व अथवा विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. अधिकार व्यक्ति की मांग है अधिकार एक व्यक्ति की अन्य व्यक्तियों के विरूद्ध अपनी सुविधा की मांग है। यह समाज पर एक दावा है, परंतु इसे हम शक्ति नहीं कह सकते।

2. अधिकारों का नैतिक आधार है-व्यक्ति की नैतिक मांगें ही अधिकार बन सकती हैं, अनैतिक मांगें नहीं। जीवित रहने, संपत्ति रखने, विचार प्रकट करने आदि की मांगें नैतिक हैं परंतु चोरी करने, मारने या गाली-गलौच करने की मांग अनैतिक है।

3. समाज द्वारा स्वीकृत मांगें ही अधिकार हैं व्यक्ति की वे मांगें ही अधिकार कहलाती हैं, जिन्हें समाज स्वीकार करता है। व्यक्ति द्वारा बलपूर्वक प्राप्त की गई सुविधा अधिकार नहीं कहलाती।

4. अधिकार समाज में प्राप्त होते हैं-अधिकारों तथा कर्तव्यों का क्रम समाज में ही चलता है। समाज से बाहर व्यक्ति के न तो कोई अधिकार हैं और न ही कोई कर्त्तव्य।।

5. अधिकारों के साथ कर्तव्य जुड़े हैं-प्रत्येक अधिकार के साथ कर्त्तव्य जुड़ा है। समाज के प्रति व्यक्ति के उतने ही कर्तव्य होते हैं जितने उसे अधिकार प्राप्त होते हैं। बिना कर्त्तव्यों के अधिकार का अस्तित्व ही नहीं होता।

प्रश्न 3.
व्यक्ति को प्राप्त किन्हीं तीन अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति को निम्नलिखित तीन अधिकार प्राप्त हैं
1. जीवन का अधिकार-जीवन का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है। इसके बिना अन्य अधिकार व्यर्थ हैं। सरकार को नागरिकों के जीवन की रक्षा करनी चाहिए।

2. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार-धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ है कि मनुष्य को स्वतंत्रता है कि वह जिस धर्म में चाहे विश्वास रखे। जिस देवता की जिस तरह चाहे पूजा करे। सरकार को नागरिकों के धर्म में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।

3. काम का अधिकार प्रत्येक नागरिक को अपनी योग्यता तथा शक्ति के अनुसार नौकरी प्राप्त करने और व्यवसाय करने का पूरा-पूरा अधिकार होता है। राज्य का कर्त्तव्य है कि वह सभी नागरिकों को काम दे। यदि राज्य नागरिकों को काम नहीं दे सकता तो उसे उन्हें मासिक निर्वाह भत्ता देना चाहिए। भारत में सरकार नागरिकों को काम दिलवाने में सहायता करती है।

प्रश्न 4.
नैतिक अधिकार क्या है?
उत्तर:
कुछ अधिकार नैतिक आधार पर दिए जाते हैं। मनुष्य तथा समाज दोनों के हित के लिए व्यक्ति को कुछ सुविधाएं दी जानी चाहिएँ । जीवन की सुरक्षा, स्वतंत्रता, धर्म-पालन, शिक्षा-प्राप्ति, संपत्ति रखने आदि की सुविधाएं देने पर ही मनुष्य की भलाई हो सकती है। इनसे समाज भी उन्नत होता है, इसलिए समाज स्वेच्छा से इन अधिकारों को प्रदान करता है।

जब तक ऐसे अधिकारों के पीछे कानून की मान्यता या दबाव नहीं रहता, ये नैतिक अधिकार कहलाते हैं। नैतिक अधिकारों को मान्यता सामाजिक निंदा तथा आलोचना के भय से दी जाती है। यदि बुढ़ापे में माता-पिता की सेवा नहीं की जाती है तो समाज निंदा करता है। इसलिए माता-पिता की सेवा करना नैतिक अधिकार है।

प्रश्न 5.
कानूनी अधिकार का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जिन अधिकारों को राज्य की स्वीकृति मिल जाती है, उन्हें कानूनी या वैधानिक अधिकार कहते हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अदालत में दावा कर सकता है। जीवन, संपत्ति, कुटुंब आदि के अधिकार राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं। यदि कोई व्यक्ति या अधिकारी इन्हें छीनने का प्रयत्न करता है तो उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। राज्य इनका उल्लंघन करने वालों को दंड देता है, इसलिए कानूनी अधिकार के पीछे राज्य की शक्ति रहती है। कानूनी अधिकारों के चार उप-विभाग बन गए हैं जो हैं मौलिक अधिकार, सामाजिक अधिकार, राजनीतिक अधिकार एवं आर्थिक अधिकार ।

प्रश्न 6.
मौलिक अधिकार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
मौलिक अधिकार मनुष्य के महत्त्वशाली दावों (Claims) को मौलिक अधिकार कहते हैं। दूसरे शब्दों में, यह कहना चाहिए कि मनुष्य के विकास के लिए जो सामाजिक शर्ते अधिक आवश्यक हैं, उन्हें मौलिक अधिकार कहते हैं। मौलिक अधिकार सभी देशों में एक प्रकार के नहीं हैं। भारत में निम्नलिखित मौलिक अधिकार संविधान में दिए हुए हैं

  • समानता का अधिकार,
  • स्वतंत्रता का अधिकार,
  • शोषण के विरूद्ध अधिकार,
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार,
  • संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार,
  • संवैधानिक उपचार का अधिकार।

प्रश्न 7.
नागरिक अथवा सामाजिक अधिकारों का क्या अर्थ है? पांच महत्त्वपूर्ण नागरिक अथवा सामाजिक अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नागरिक अथवा सामाजिक अधिकार राज्य के द्वारा देशवासियों, राज्यकृत नागरिकों तथा प्रायः विदेशियों को भी दिए जाते हैं। ऐसे अधिकार व्यक्ति के सर्वोन्मुखी विकास के लिए अनिवार्य होते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण नागरिक अथवा सामाजिक अधिकार इस प्रकार हैं

  • जीवन का अधिकार,
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार,
  • संपत्ति का अधिकार,
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार और
  • परिवार तथा निवास का अधिकार।

प्रश्न 8.
राजनीतिक अधिकारों का क्या अभिप्राय है? पांच महत्त्वपूर्ण राजनीतिक अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक अधिकार उन अधिकारों का नाम है जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में राजनीतिक स्वरूप के हैं अथवा राजनीतिक प्रणाली से संबंधित हैं। ऐसे अधिकारों की मुख्य विशेषता यह है कि ये अधिकार केवल नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं तथा विदेशियों को इन अधिकारों से प्रायः वंचित रखा जाता है। कुछ महत्त्वपूर्ण राजनीतिक अधिकार निम्नलिखित हैं

  • मताधिकार,
  • चुनाव लड़ने का अधिकार,
  • सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार,
  • याचिका देने का अधिकार,
  • सरकार की आलोचना करने का अधिकार।

प्रश्न 9.
नागरिक के दो रूपों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नागरिक दो प्रकार के होते हैं

  • जन्मजात नागरिक,
  • राज्यकृत नागरिक। इनका वर्णन निम्नलिखित है

1. जन्मजात नागरिक जन्मजात नागरिक वे होते हैं जो जन्म से ही अपने देश के नागरिक होते हैं। कुछेक देशों में जन्मजात नागरिकों को अधिक सुविधाएं प्राप्त होती हैं। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में केवल जन्मजात नागरिक ही राष्ट्रपति का चुनाव लड़ सकता है।

2. राज्यकृत नागरिक-राज्यकृत नागरिक वे होते हैं जो जन्म से ही किसी अन्य देश के नागरिक होते हैं, परंतु किसी अन्य देश की कानूनी शर्ते पूरी करने के बाद उस देश की नागरिकता प्राप्त कर लेते हैं। उदाहरण के लिए, बहुत-से भारतीयों ने इंग्लैंड में बस कर वहाँ की राज्यकृत नागरिकता प्राप्त कर ली है। राज्यकृत नागरिकों को जन्मजात नागरिकों से कम अधिकार प्राप्त होते हैं। देश-विरोधी कार्य करने पर उनकी राज्यकृत नागरिकता समाप्त कर दी जाती है।

प्रश्न 10.
अवैध राज्य की अवज्ञा के अधिकार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अधिकार वह मांग है जिसे समाज मानता है और राज्य लागू करता है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि राज्य द्वारा लागू न किए जाने से समाज द्वारा मान्य कोई मांग कानून बन ही नहीं सकती। राज्य का उद्देश्य ऐसी दशाएं उत्पन्न करना है, जिनमें व्यक्ति अपने जीवन का सामान्य विकास कर सके। राज्य हमारे जीवन, संपत्ति की रक्षा करके, शांति और व्यवस्था स्थापित करके तथा समुचित अधिकारों की व्यवस्था करके ही ऐसा वातावरण पैदा करता है और इसीलिए व्यक्ति राज्य के प्रति भक्ति और आज्ञा-पालन का कर्तव्य निभाते हैं।

यदि राज्य अपने इस आधारभूत उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता तो उसे व्यक्तियों से आज्ञा का पालन करवाने का भी अधिकार नहीं है, इसलिए एक अवैध सत्ता की अवज्ञा करने के अधिकार को कई बार सबसे अधिक आधारभूत और प्राकृतिक माना गया है। यदि राज्य तानाशाह या भ्रष्ट हो जाए तो जनता को उसकी अवज्ञा करने, उसके विरूद्ध खड़ा होने और उसे बदलने का बुनियादी अधिकार है। जिस उद्देश्य के लिए राज्य को सर्वोच्च शक्ति प्रदान की गई है, यदि राज्य उसकी पूर्ति नहीं करता तो . उसे अस्तित्व में रहने का कोई अधिकार नहीं और लोगों को उसकी अवज्ञा का अधिकार है।

प्रश्न 11.
अधिकार व्यक्ति के लिए क्यों आवश्यक हैं?
उत्तर:
लास्की का कहना है कि अधिकार सामाजिक जीवन की वे दशाएं हैं, जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने जीवन का पूर्ण विकास नहीं कर सकता, अर्थात अधिकार वे सुविधाएं, अवसर तथा स्वतंत्रताएं हैं जो व्यक्ति के जीवन के विकास के लिए आवश्यक हैं और जिन्हें समाज मान्यता देता है तथा राज्य लागू करता है। यदि अधिकार न हों तो समाज में जंगल जैसा वातावरण पैदा हो जाएगा और केवल ताकतवर व्यक्ति ही जीवित रह सकेंगे।

हर व्यक्ति स्वच्छंदतापूर्वक अपनी इच्छानुसार आचरण नहीं कर सकेगा और उनका जीवन व संपत्ति सुरक्षित नहीं होंगे। अधिकारों के वातावरण में ही व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग और अपने जीवन का विकास कर सकेगा। इस प्रकार अधिकार व्यक्ति के लिए बहुत आवश्यक हैं।

प्रश्न 12.
आर्थिक अधिकारों से क्या अभिप्राय है? पांच महत्त्वपूर्ण अधिकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
आर्थिक अधिकारों से अभिप्राय उन अधिकारों से है जो व्यक्ति की आर्थिक आवश्यकताओं से संबंधित हैं तथा उसके आर्थिक विकास के लिए अत्यंत अनिवार्य हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण आर्थिक अधिकार निम्नलिखित हैं

  • काम का अधिकार,
  • उचित वेतन का अधिकार,
  • विश्राम करने का अधिकार,
  • संपत्ति का अधिकार,
  • आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा का अधिकार।

प्रश्न 13.
‘प्राकृतिक-अधिकारों’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार समझे जाते हैं जो व्यक्ति को प्राकृतिक रूप में जन्म के साथ ही मिल जाते हैं। इंग्लैंड के दार्शनिक जॉन लॉक का विचार है कि समाज और राज्य की स्थापना से पहले भी व्यक्ति को प्राकृतिक अवस्था (State of Nature) में कुछ अधिकार प्राप्त थे; जैसे जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार। उन्हें ही प्राकृतिक अधिकार कहा जाता है।

ये आज भी व्यक्तियों को प्राप्त हैं और इन्हें छीना नहीं जा सकता। कुछ लोगों का कहना है कि जो अधिकार व्यक्ति के जीवन के लिए स्वाभाविक और आवश्यक हैं, उन्हें प्राकृतिक अधिकार कहा जाता है, परंतु आधुनिक युग में प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। अधिकार और स्वतंत्रता व्यक्ति को समाज और राज्य में ही मिल सकते हैं, इनके बाहर नहीं। प्राकृतिक अधिकारों के बारे में कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 14.
कर्त्तव्य किसे कहते हैं?
उत्तर:
साधारण शब्दों में किसी काम के करने या न करने के दायित्व को कर्त्तव्य कहते हैं। ‘कर्त्तव्य’ को अंग्रेजी में ‘Duty’ कहते हैं, जिसका मूल शब्द है-Debt, जिसका अर्थ है-कर्ज या ऋण, अर्थात जो व्यक्ति को देना है। कर्त्तव्य व्यक्ति का सकारात्मक या नकारात्मक कार्य है जो व्यक्ति को दूसरों के लिए करना पड़ता है, चाहे उसकी इच्छा उसको करने की हो या न हो।

एक व्यक्ति को जो अधिकार मिलता है, वह उस समय मिल सकता है, जब दूसरे व्यक्ति अपने कर्त्तव्य का पालन उसके लिए करते हैं और उसी प्रकार जब वह व्यक्ति दूसरों के लिए कुछ कार्यों को करता है, तो इससे दूसरों को अधिकार प्राप्त होते हैं। अतः कर्त्तव्य कुछ ऐसे निश्चित और अवश्य किए जाने वाले कार्यों को कहते हैं जो कि एक सभ्य समाज और राज्य में रहते हुए व्यक्ति को प्राप्त किए गए अधिकारों के बदले में करने पड़ते हैं।

प्रश्न 15.
कर्तव्यों के पाँच प्रकार बताइए।
उत्तर:
कर्तव्यों के पाँच प्रकार निम्नलिखित हैं
1. नैतिक कर्त्तव्य-इन कर्त्तव्यों के पीछे दंड की भावना नहीं होती। इनकी अवहेलना से समाज में निंदा होती है। सत्य बोलना, माता-पिता की सेवा करना व दूसरे के प्रति अच्छा व्यवहार करना नैतिक कर्त्तव्य हैं।

2. कानूनी कर्त्तव्य-जिन कर्त्तव्यों को दंड के भय से माना जाता है, वे कानूनी कर्त्तव्य होते हैं। करें की अदायगी, कानून का पालन करना कानूनी कर्तव्य हैं।

3. मौलिक कर्त्तव्य-मौलिक कर्तव्यों का राज्य के संविधान में उल्लेख होता है। उनका महत्त्व राजनीतिक व नागरिक कर्तव्यों से अधिक होता है।

4. नागरिक कर्त्तव्य-अपने ग्राम, नगर तथा शहर के प्रति निभाए जाने वाले कर्त्तव्य नागरिक कर्त्तव्य कहलाते हैं। नगर में शांति व व्यवस्था बनाए रखना, सफाई का ध्यान रखना, सार्वजनिक स्थानों को गंदा न करना इसके उदाहरण हैं।

5. राजनीतिक कर्त्तव्य-मतदान में भाग लेना, चुनाव लड़ना, सार्वजनिक पद प्राप्त करना आदि राजनीतिक कर्त्तव्य हैं। इन कर्तव्यों की पालना करके नागरिक देश की राजनीति में हिस्सा लेते हैं।

प्रश्न 16.
नागरिक के पाँच नैतिक कर्त्तव्य बताइए।
उत्तर:
नागरिक के पाँच नैतिक कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं

  • सत्य बोलना नागरिक का नैतिक कर्त्तव्य है।
  • माता-पिता की सेवा करना भी नैतिक कर्तव्यों में आता है।
  • दूसरों के प्रति अच्छा व्यवहार करना नैतिक कर्त्तव्य है।
  • अपने कार्य को ईमानदारी से करना भी नैतिक कर्तव्य है।
  • शिक्षा प्राप्त करना व बच्चों को शिक्षित करना आदि भी नैतिक कर्त्तव्य हैं।

प्रश्न 17.
नागरिक के पाँच कानूनी कर्तव्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
नागरिक के पाँच कानूनी कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं
1. राज-भक्ति-प्रत्येक नागरिक को राज्य के प्रति वफादार रहना चाहिए। देशद्रोह से दूर रहना चाहिए। राज्य के साथ कभी भी विश्वासघात नहीं करना चाहिए।

2. कानून का पालन-नागरिक को राज्य के कानून का पालन करना चाहिए, ताकि राज्य में शांति व व्यवस्था बनाए रखी जा सके। यदि कोई कानून अनुचित है तो उसे शांतिपूर्ण ढंग से बदलवाना चाहिए।

3. करों की अदायगी कर राज्य का आधार हैं। बिना धन के कोई भी सरकार कार्य नहीं कर सकती। अतः नागरिक को करों की ईमानदारी से अदायगी करनी चाहिए।

4. मताधिकार का प्रयोग-प्रजातंत्र में नागरिकों को मताधिकार प्रदान किया गया है। यह नागरिकों की एक पवित्र धरोहर है। अतः प्रत्येक नागरिक को मताधिकार का उचित प्रयोग करना चाहिए।

5. सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा-प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह देश की सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करे। वास्तव में सार्वजनिक संपत्ति नागरिकों की अपनी ही संपत्ति है। कानूनी कर्तव्यों की अवहेलना करने पर दंड दिया जाएगा, यह उल्लेखनीय है।

प्रश्न 18.
नैतिक कर्तव्यों व कानूनी कर्तव्यों में क्या अंतर है?
उत्तर:
नैतिक कर्तव्यों व कानूनी कर्तव्यों में मुख्य अंतर है कि नैतिक कर्तव्यों के पीछे राज्य की शक्ति नहीं होती, जबकि कानूनी कर्तव्यों के पीछे राज्य की शक्ति होती है। नैतिक कर्त्तव्यों का पालन करना या न करना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है। नैतिक कर्तव्यों का पालन न करने पर राज्य द्वारा दंड नहीं दिया जा सकता। कानूनी कर्तव्यों का पालन करना नागरिकों के लिए अनिवार्य है। कानूनी कर्तव्यों का पालन न करने पर राज्य द्वारा दंड दिया जा सकता है।

प्रश्न 19.
अधिकारों और कर्तव्यों के परस्पर संबंधों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का आपस में बहुत गहरा संबंध है तथा इनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इन दोनों में उतना ही घनिष्ठ संबंध है, जितना कि शरीर तथा आत्मा में। जहां अधिकार हैं, वहीं कर्तव्यों का होना आवश्यक है। दोनों का चोली-दामन का साथ है। मनुष्य अपने अधिकार का आनंद तभी उठा सकता है, जब दूसरे मनुष्य उसे उसके अधिकार का प्रयोग करने दें, अर्थात अपने कर्तव्य का पालन करें।

उदाहरण के लिए, प्रत्येक मनुष्य को जीवन का अधिकार है, परंतु मनुष्य इस अधिकार का आनंद तभी उठा सकता है, जब दूसरे मनुष्य उसके जीवन में हस्तक्षेप न करें, परंतु दूसरे मनुष्यों को भी जीवन का अधिकार प्राप्त है, इसलिए उस मनुष्य का भी यह कर्त्तव्य है कि वह दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप न करे, अर्थात ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धांत अपनाया जाता है, इसीलिए तो कहा जाता है कि अधिकारों में कर्तव्य निहित हैं।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अधिकार की परिभाषा दीजिए। इसकी विशेषताओं का वर्णन भी कीजिए।
उत्तर:
अधिकार व्यक्ति के जीवन-विकास के लिए बहुत आवश्यक हैं। वही सरकार अधिक अच्छी मानी जाती है जो नागरिकों को अधिक-से-अधिक अधिकार प्रदान करती है। “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएँ हैं जिनके बिना कोई भी व्यक्ति अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता।” प्रो० लास्की का उक्त कथन अधिकारों की सुंदर व्याख्या करता है। मनुष्य पूर्ण रूप से समाज पर निर्भर रहने वाला प्राणी है। उसे अपने जीवन का विकास करने के लिए समाज में रहना पड़ता है।

प्रत्येक सभ्य समाज अपने सदस्यों को ऐसे अवसर उपलब्ध कराता है जो उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होते हैं। मनुष्य को जीवित रहने, भरण-पोषण करने, शिक्षित बनने, समृद्ध होने तथा मानवीय जीवन बिताने की आवश्यकता है। यदि समाज उसे इन सभी प्रकार की उन्नति करने का अवसर नहीं देता तो वह समाज ही नष्ट हो जाता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि सभ्य समाज में काम करने की वे सब स्वतंत्रताएं, जिनसे मनुष्य के शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक गुणों के विकास में सहायता मिलती है, अधिकार कहलाते हैं। प्रजातंत्र का पूरा लाभ उठाने के लिए प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों को कई अधिकार प्रदान करता है।

अधिकारों की परिभाषाएँ (Definitions of Rights)-विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई अधिकारों की परिभाषाएं निम्नलिखित हैं

1. प्रो० ग्रीन के अनुसार, “अधिकार वह शक्ति है जो सामान्य हित के लिए अभीष्ट और सहायक रूप में स्वीकृत होती है।”

2. वाइल्ड के अनुसार, “विशेष कार्य करने में स्वाधीनता की उचित मांग को ही अधिकार कहते हैं।”

3. प्रो० हैरोल्ड लास्की के अनुसार, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएँ हैं जिनके बिना कोई मनुष्य अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।”

4. हॉलैंड के अनुसार, “अधिकार एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के कार्य को समाज के मत तथा शक्ति द्वारा प्रभावित करने की क्षमता है।”

5. श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार, “अधिकार उस व्यवस्था या नियम को कहते हैं जिसे किसी समाज के कानून का समर्थन प्राप्त हो तथा जिससे नागरिक का सर्वोच्च कल्याण होता है।”

6. डॉ० बेनी प्रसाद के अनुसार, “अधिकार न अधिक और न कम वे सामाजिक परिस्थितियाँ हैं जो व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक और अनुकूल हैं।”

7. बोसांके के अनुसार, “अधिकार वह मांग या दावा है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।”

8. ऑस्टिन के अनुसार, “अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों से बलपूर्वक कार्य कराने की क्षमता का नाम ही अधिकार है।”

9. क्रौसे के अनुसार, “अधिकार सभ्य जीवन की बाहरी शर्तों का आंगिक समूह है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि अधिकार सामान्य जीवन का एक ऐसा वातावरण है, जिसके बिना कोई व्यक्ति अपने जीवन का विकास कर ही नहीं सकता। अधिकार व्यक्ति के विकास और स्वतंत्रता का एक ऐसा दावा है जो कि व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए लाभदायक है, जिसे समाज मानता है और राज्य लागू करता है।

अधिकारों की विशेषताएँ उपरोक्त परिभाषाओं की व्याख्या से अधिकारों में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं

1. अधिकार व्यक्ति की मांग है (Right is Claim of the Individual)-अधिकार एक व्यक्ति की अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध अपनी सुविधा की मांग है। यह समाज पर एक दावा है, परंतु इसे हम शक्ति नहीं कह सकते, जैसा कि ऑस्टिन ने कहा है। शक्ति हमें प्रकृति से प्राप्त होती है, जिसमें देखने, सुनने, दौड़ने आदि की शक्तियां सम्मिलित हैं।

2. अधिकारों का नैतिक आधार है (Rights are Based on Morality) व्यक्ति की नैतिक मांगें ही अधिकार बन सकती हैं, अनैतिक मांगें नहीं। जीवित रहने, संपत्ति रखने, विचार प्रकट करने आदि की मांगें नैतिक हैं, परंतु चोरी करने, मारने या गाली-गलौच करने की सुविधा की मांग अनैतिक है। जिन मांगों से व्यक्ति तथा समाज दोनों का ही हित होता हो, वे ही अधिकार कहलाएंगे।

3. समाज द्वारा स्वीकृत मांगें ही अधिकार हैं (Rights are Recognised by the Society) व्यक्ति की वे मांगें ही अधिकार कहलाती हैं, जिन्हें समाज स्वीकार करता है। व्यक्ति द्वारा जबरन प्राप्त की गई सुविधा अधिकार नहीं कहलाती।
4. अधिकार समाज में प्राप्त होते हैं (Rights are Possible in the Society) अधिकारों तथा कर्तव्यों का क्रम समाज में ही चलता है। समाज से बाहर व्यक्ति के न तो कोई अधिकार हैं और न ही कोई कर्त्तव्य।

5. अधिकार सार्वजनिक होते हैं (Rights are Universal) अधिकार व्यापक होते हैं। वे किसी एक व्यक्ति या वर्ग के लिए नहीं होते, वरन समाज के सभी लोगों के लिए समान होते हैं। अधिकारों को प्रदान करते समय किसी के साथ जाति, धर्म, वर्ण आदि का भेदभाव नहीं किया जा सकता।

6. अधिकारों के साथ कर्त्तव्य जुड़े हैं (Rights Imply Duties) प्रत्येक अधिकार के साथ कर्त्तव्य जुड़ा है। समाज के प्रति व्यक्ति के उतने ही कर्त्तव्य होते हैं, जितने उसे अधिकार प्राप्त होते हैं। बिना कर्तव्यों के अधिकार का अस्तित्व ही नहीं होता।

7. अधिकार बदलते रहते हैं (Rights Keep on Changing)-अधिकार स्थायी रूप से नहीं रहते। अधिकारों की सूची में परिवर्तन होता रहता है। राजतंत्र अथवा तानाशाही शासन-व्यवस्था में जो अधिकार नागरिकों को दिए जाते हैं, उनकी संख्या गिनी-चुनी होती है। प्रजातंत्र में इनकी संख्या बहुत बढ़ जाती है। समाजवादी राज्य में लोगों को जो अधिकार प्राप्त हैं, वे पूंजीवादी राज्य में नहीं पाए जाते। पूंजीवादी राज्य में जो स्वतंत्रता है, वह समाजवादी राज्य में नहीं होती। इस प्रकार स्थान तथा शासन के अनुसार अधिकार बदलते रहते हैं।

8. अधिकार असीमित नहीं होते (Rights are not Unlimited) कोई अधिकार असीमित या निरंकुश नहीं होता। प्रत्येक अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाए जाते हैं। यदि हमें बोलने का अधिकार है तो इससे किसी को गालियां देने या विद्रोह फैलाने का अधिकार नहीं मिल जाता। यदि हमें अपने धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार मिल जाता है तो इसका यह अर्थ नहीं कि हमें दूसरे धर्मों की निंदा करने या जबरन अपना धर्म दूसरों पर लादने का अधिकार प्राप्त हो गया। इसी प्रकार सभी धर्मों पर नैतिक प्रतिबंध लगाए जाते हैं।

9. अधिकार लोक-हित में प्रयोग किए जा सकते हैं (Rights can be used for Social Good) अधिकार का प्रयोग समाज के हित के लिए किया जा सकता है, अहित के लिए नहीं। अधिकार समाज में ही मिलते हैं और समाज द्वारा ही दिए जाते हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है कि इनका प्रयोग समाज के कल्याण के लिए किया जाए।

10. अधिकार राज्य द्वारा सुरक्षित होते हैं (Rights are Protected by the State)-अधिकारों की एक विशेषता यह भी है कि राज्य ही अधिकारों को लागू करता है और उनकी रक्षा भी राज्य ही करता है। राज्य कानून द्वारा अधिकारों को निश्चित करता है और उनके उल्लंघन के लिए दंड की व्यवस्था करता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 2.
अधिकारों का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
किसी राज्य का समाज के लिए अधिकारों की सूची तैयार करना बहुत कठिन है, अर्थात अधिकारों का वर्गीकरण यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। वास्तव में सभ्यता के विकास के साथ-साथ अधिकारों की सूची भी बढ़ती जाती है। एक प्रजातंत्र राज्य के नागरिक को बहुत-से अधिकार मिले हुए होते हैं। अधिकारों को प्रायः तीन निम्नलिखित भागों में बांटा जाता है

  • प्राकृतिक अधिकार (Natural Rights),
  • नैतिक अधिकार (Moral Rights),
  • कानूनी अधिकार (Legal Rights)। कानूनी अधिकारों को क्रमशः चार भागों में बांट सकते हैं-(क) मौलिक अधिकार (Fundamental Rights), (ख) सामाजिक अधिकार (Civil Rights), (ग) राजनीतिक अधिकार (Political Rights), (घ) आर्थिक अधिकार (Economic Rights)।

1. प्राकृतिक अधिकार प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार समझे जाते हैं जो व्यक्ति को प्राकृतिक रूप में जन्म के साथ ही मिल जाते हैं। इंग्लैंड के दार्शनिक जॉन लॉक का विचार है कि समाज और राज्य की स्थापना से पहले भी व्यक्ति को प्राकृतिक अवस्था (State of Nature) में कुछ अधिकार प्राप्त थे; जैसे जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार।

उन्हें ही प्राकृतिक अधिकार कहा जाता है। ये आज भी व्यक्तियों को प्राप्त हैं और इन्हें छीना नहीं जा सकता। कुछ लोगों का कहना है कि जो अधिकार व्यक्ति के जीवन के लिए स्वाभाविक और आवश्यक हैं, उन्हें प्राकृतिक अधिकार कहा जाता है, परंतु आधुनिक युग में प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। अधिकार और स्वतंत्रता व्यक्ति को समाज और राज्य में ही मिल सकते हैं, इनके बाहर नहीं। प्राकृतिक अधिकारों के बारे में कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।

2. नैतिक अधिकार कुछ अधिकार नैतिक आधार पर दिए जाते हैं। मनुष्य तथा समाज दोनों के हित के लिए व्यक्ति को कुछ सुविधाएँ दी जानी चाहिएँ। जीवन की सुरक्षा, स्वतंत्रता, धर्म-पालन, शिक्षा-प्राप्ति, संपत्ति रखने आदि की सुविधाएँ देने पर ही मनुष्य की भलाई हो सकती है। इनसे समाज भी उन्नत होता है, इसलिए समाज स्वेच्छा से इन अधिकारों को प्रदान करता है।

जब तक ऐसे अधिकारों के पीछे कानून की मान्यता या दबाव नहीं रहता, ये नैतिक अधिकार कहलाते हैं। नैतिक अधिकारों की मान्यता सामाजिक निंदा तथा आलोचना के भय से दी जाती है। यदि बुढ़ापे में माता-पिता की सेवा नहीं की जाती है तो समाज निंदा करता है। इसलिए माता-पिता का यह नैतिक अधिकार है।

3. कानूनी अधिकार जिन अधिकारों को राज्य की स्वीकृति मिल जाती है, उन्हें कानूनी या वैधानिक अधिकार कहते हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अदालत में दावा कर सकता है। जीवन, संपत्ति, कुटुंब आदि के अधिकार राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त होते हैं। यदि कोई व्यक्ति.या अधिकारी इन्हें छीनने का प्रयत्न करता है तो उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। राज्य इनका उल्लंघन करने वालों को दंड देता है, इसलिए कानूनी अधिकार के पीछे राज्य की शक्ति रहती है। कानूनी अधिकारों के चार उप-विभाग बन गए हैं जो निम्नलिखित हैं-

(क) मौलिक अधिकार मनुष्य के महत्त्वशाली दावों (Claims) को मौलिक अधिकार कहते हैं। दूसरे शब्दों में, यह कहना चाहिए कि मनुष्य के विकास के लिए जो सामाजिक शर्ते अधिक आवश्यक हैं, उन्हें मौलिक अधिकार कहते हैं। मौलिक अधिकार सभी देशों में एक प्रकार के नहीं हैं। भारत में निम्नलिखित मौलिक अधिकार संविधान में दिए हुए हैं

  • समानता का अधिकार (Right to Equality),
  • स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom),
  • शोषण के विरूद्ध अधिकार (Right against Exploitation),
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion),
  • संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (Cultural and Educational Rights),
  • संवैधानिक उपचार का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)

(ख) नागरिक या सामाजिक अधिकार प्रायः वे सामाजिक सुविधाएँ, जिनके बिना सभ्य जीवन संभव नहीं हो सकता, सामाजिक अधिकारों के रूप में प्रदान की जाती हैं और प्रत्येक राज्य इसीलिए उन्हें मान्यता देता है। ऐसे अधिकार राज्य सभी निवासियों को प्रदान किए जाते हैं, चाहे वे नागरिक हों या अनागरिक। विचार प्रकट करने, सभाएं बुलाने, धर्म-पालन करने आदि के अधिकार सभ्य जीवन के लिए आवश्यक हैं, परंतु अशांति काल या आपातकाल के समय सरकार इन पर प्रतिबंध भी लगा सकती है।

राजनीतिक अधिकार राजनीतिक अधिकार नागरिकों को अपने देश की शासन-व्यवस्था में भाग लेने का अवसर प्रदान करते हैं। ये अधिकार राज्य में केवल नागरिकों को ही दिए जाते हैं। विदेशियों, अनागरिकों; जैसे नाबालिग, पागल, दिवालिया तथा अपराधी को ये अधिकार नहीं दिए जाते। इन अधिकारों में मतदान, चुनाव लड़ने, सरकारी पद प्राप्त करने, आलोचना करने आदि के अधिकार प्रमुख हैं।

(घ) आर्थिक अधिकार आर्थिक अधिकार वे सुविधाएं हैं, जिनके बिना व्यक्ति की आर्थिक उन्नति नहीं हो सकती। आधुनिक राज्यों में प्रत्येक नागरिक को काम प्राप्त करने, उचित पारिश्रमिक लेने, अवकाश प्राप्त करने आदि के अधिकार दिए जाने जरूरी हैं। पहले प्रायः गरीब लोगों का शोषण होता था तथा उन्हें मानवीय जीवन-निर्वाह के साधन भी प्राप्त नहीं थे, परंतु आधुनिक राज्य कल्याणकारी राज्य है, इसलिए गरीब तथा निःसहाय लोगों को आर्थिक संरक्षण प्रदान करना उसका कर्त्तव्य बन गया है।

प्रश्न 3.
आधुनिक राज्य में नागरिक को कौन से सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार मिलते हैं? अथवा एक लोकतांत्रिक राज्य के नागरिक के मुख्य अधिकारों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। अथवा व्यक्ति के किन्हीं तीन अधिकारों का वर्णन कीजिए। अथवा प्रजातंत्रात्मक राज्यों में नागरिकों को कौन-कौन से अधिकार प्राप्त हैं?
उत्तर:
विभिन्न प्रजातंत्रीय देशों में अलग-अलग मात्रा में नागरिकों को अधिकार दिए गए हैं। पश्चिमी देशों में नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सभी अधिकार दिए गए हैं, परंतु वहाँ काम पाने तथा अवकाश प्राप्त करने के अधिकारों को मौलिक अधिकारों की सूची में सम्मिलित नहीं किया गया है। रूस में इन अधिकारों को मौलिक अधिकारों में स्वीकृत किया गया है। भारतीय संविधान में जिन अधिकारों को मौलिक अधिकारों की सूची में सम्मिलित नहीं किया गया है, उन्हें राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों में शामिल कर लिया गया है। सभी राज्यों में इन अधिकारों के संबंध में उचित प्रतिबंध भी लागू किए गए हैं।

साधारण रूप से सभी प्रगतिशील देशों में नागरिकों को निम्नलिखित अधिकार दिए जाते हैं

(क) सामाजिक या नागरिक अधिकार (Social or Civil Rights)-सभ्य तथा सुखी जीवन के निम्नलिखित सामाजिक अधिकार नागरिक-अनागरिक सभी व्यक्तियों को प्रदान किए जाते हैं

1. जीवन का अधिकार प्रत्येक मनुष्य का यह मौलिक अधिकार है कि उसका जीवन सुरक्षित रखा जाए। राज्य बनाने का प्रथम उद्देश्य भी यही है। यदि लोग ही जीवित नहीं रहेंगे तो समाज व राज्य भी समाप्त हो जाएंगे। इसलिए राज्य अपनी प्रजा की बाहरी आक्रमणों तथा आंतरिक उपद्रवों से रक्षा करने के लिए सेना और पुलिस का संगठन करता है।

जीवन के अधिकार के साथ-साथ व्यक्ति को आत्मरक्षा करने का भी अधिकार है। मनुष्य का जीवन समाज की निधि है। उसकी रक्षा करना राज्य का परम कर्तव्य है। इसलिए किसी व्यक्ति की हत्या करना राज्य के विरुद्ध घोर अपराध माना जाता है। यही नहीं, आत्महत्या का प्रयत्न करना भी अपराध माना जाता है, परंतु राज्य उस व्यक्ति के जीवन के अधिकार को समाप्त कर देता है जो समाज का शत्रु बन जाता है तथा दूसरों की हत्या करता फिरता है।

2. संपत्ति का अधिकार संपत्ति जीवन के विकास के लिए आवश्यक है। इसलिए व्यक्ति को निजी संपत्ति रखने का अधिकार दिया जाता है। कोई उसकी संपत्ति छीन नहीं सकता अन्यथा चोरी अथवा डाका डालने को अपराध माना जाता है। बिना कानूनी कार्रवाई किए तथा उचित मुआवजा दिए राज्य भी किसी व्यक्ति की संपत्ति जब्त राज्य में निजी संपत्ति की कोई सीमा नहीं रखी जाती, फिर भी समाजवादी राज्य में व्यक्तिगत संपत्ति रखने की एक सीमा है।

अपनी शारीरिक मेहनत से प्राप्त धन रखने का वहाँ अधिकार होता है, परंतु लोगों का शोषण करके संपत्ति इकट्ठी नहीं की जा सकती। आधुनिक कल्याणकारी राज्य में यद्यपि संपत्ति रखने पर कोई प्रतिबंध नहीं होता, परंतु सरकार अधिक धन कमाने वालों पर अधिक-से-अधिक कर (Tax) लगाती है।

3. स्वतंत्र भ्रमण का अधिकार सुखी तथा स्वस्थ जीवन के लिए भ्रमण करना भी जरूरी है। राज्य प्रत्येक व्यक्ति को आवागमन की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। वह देश भर में कहीं भी आ-जा सकता है। विदेश यात्रा के लिए पासपोर्ट भी मिल सकता है। शांतिपूर्ण ढंग से आजीविका कमाने तथा सामाजिक संबंध स्थापित करने के लिए सभी लोगों को घूमने-फिरने की स्वतंत्रता है, परंतु विद्रोह फैलाने, तोड़-फोड़ की कार्रवाइयां करने वालों को यह अधिकार नहीं दिया जाता। युद्ध के समय विदेशियों के भ्रमण पर भी कठोर नियंत्रण लागू कर दिया जाता है।

4. विचार तथा भाषण की स्वतंत्रता का अधिकार प्रजातांत्रिक राज्यों में प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से विचार करने तथा बोलने अथवा भाषण देने का अधिकार दिया जाता है। विचारों के आदान-प्रदान से ही सत्य का पता लगता है। इससे जागृत लोकमत तैयार होता है जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करके उसे जनहित में कार्य करते रहने के लिए बाध्य करता है।

मंच जनता के दुःखों तथा अधिकारों को दबाने संबंधी अत्याचारों को दूर करने का शक्तिशाली माध्यम है, परंतु भाषण की स्वतंत्रता का अर्थ झूठी अफवाहें फैलाने, अपमान करने या गालियां देने का अधिकार नहीं है। मानहानि करना या राजद्रोह फैलाना अपराध है। युद्ध के समय राज्य की सुरक्षा के लिए इस स्वतंत्रता पर प्रतिबंध भी लगा दिए जाते हैं।

5. प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार समाचार-पत्र प्रजातंत्र के पहरेदार होते हैं। ये लोकमत तैयार करने के अच्छे साधन हैं। इनके माध्यम से जनता तथा सरकार एक-दूसरे की बातें समझ सकते हैं। समाचार-पत्रों पर सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए। स्वतंत्र प्रेस द्वारा ही शासन की जनहित विरोधी कार्रवाई की आलोचना की जा सकती है। प्रेस पर प्रतिबंध लगा देने से जनता का गला घोंट दिया जाता है। तानाशाही राज्यों में प्रेस को स्वतंत्र नहीं रहने दिया जाता, परंतु प्रजातंत्रीय देशों में प्रेस को स्वतंत्रता का अधिकार होता है। समाचार-पत्रों को इस अधिकार का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।

6. सभा बुलाने तथा संगठित होने का अधिकार मनुष्य में सामाजिक प्रवृत्ति होती है। वह सभा बुलाकर तथा संगठन बनाकर उसे पूर्ण करता है। जनता को शांतिपूर्वक सभाएं करने तथा अपने हितों की रक्षा करने के लिए समुदाय बनाने का अधिकार होना चाहिए। आधुनिक राज्य लोगों को यह अधिकार प्रदान करता है। सार्वजनिक वाद-विवाद,

मत-प्रकाशन तथा जोरदार आलोचना शासन के अत्याचारों तथा अधिकारों की मनमानी क्रूरताओं के विरुद्ध जनता के शस्त्र हैं, परंतु इन सभाओं, जुलूसों तथा समुदायों का उद्देश्य सार्वजनिक हित की वृद्धि करना ही होना चाहिए। द्वेष या विद्रोह फैलाने, शांति भंग करने आदि के लिए इनका प्रयोग नहीं किया जा सकता। राज्य ऐसे कार्यों को रोकने के लि पर प्रतिबंध लगा देता है, परंतु राज्य की सुरक्षा के नाम पर नागरिक स्वतंत्रता का दमन करना फासिस्टवाद है।

7. पारिवारिक जीवन का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को विवाह करने तथा कुटुंब बनाने का अधिकार है। परिवार की पवित्रता, स्वतंत्रता तथा संपत्ति की राज्य रक्षा करता है। प्रगतिशील देशों में पारिवारिक कलह दूर करने के लिए पति-पत्नी को एक-दूसरे को तलाक देने का भी अधिकार है। बहु-विवाह एवं बाल-विवाह की प्रथाओं पर भी प्रतिबंध लगाए जाते हैं।

8. शिक्षा का अधिकार आधुनिक राज्य में नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है। कई देशों में चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का प्रबंध किया गया है। शिक्षा प्रजातांत्रिक शासन की सफलता का आधार है। शिक्षित नागरिक ही अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान रखते हैं। शिक्षा अच्छे सामाजिक जीवन के लिए भी आवश्यक है, इसलिए राज्य स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, वाचनालय, पुस्तकालय नागरिकों को शिक्षा देना राज्य अपना परम कर्त्तव्य समझता है।

9. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार आधुनिक राज्य धर्म-निरपेक्ष राज्य है। ऐसे राज्य में सभी व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार धर्म-पालन करने, अपने विश्वास के अनुसार ईश्वर की उपासना करने का अधिकार होता है। राज्य उन्हें शांतिपूर्ण ढंग से अपने धर्म का प्रचार करने का भी अधिकार देता है, परंतु जबरन किसी को धर्म को परिवर्तन करने, धर्म के नाम पर शांति भंग करने अथवा अन्य धर्मों का निरादर करने का अधिकार नहीं है। भारत में नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया गया है।

10. समानता का अधिकार आधुनिक राज्य में सभी लोगों को समानता का अधिकार दिया जाता है। कानून के सामने सब बराबर हैं। किसी के साथ छोटे-बड़े, अमीर-गरीब का भेद नहीं किया जाता। समाज में सभी मनुष्यों को समान समझा जाता है। पहले की तरह ऊंच-नीच, छूत-अछूत अथवा काले-गोरे का भेद नहीं किया जाता। राज्य सभी की उन्नति के लिए समान अवसर प्रदान करता है।

11. न्याय पाने का अधिकार आधुनिक राज्य में सभी लोगों को पूर्ण न्याय प्राप्त करने का अधिकार है। अपराध करने पर सभी पर सामान्य अदालत में मुकद्दमा चलाया जाता है तथा सामान्य कानून के अंतर्गत दंड दिया जाता है। गरीब तथा निर्बल व्यक्तियों को अमीरों के अत्याचारों से बचाया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अदालत में जाने तथा न्याय पाने का अधिकार है। भारतीय संविधान में भी न्याय प्राप्त करने के लिए कानूनी उपचार की व्यवस्था की गई है। कोई भी व्यक्ति न्याय पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक अपील कर सकता है।

12. संस्कृति का अधिकार आधुनिक राज्य सभी वर्ग के लोगों को अपनी संस्कृति कायम रखने का अधिकार देता है। राज्य में कई संस्कृतियों के लोग निवास करते हैं। उन्हें अपनी भाषा, रहन-सहन, वेश-भूषा, रीति-रिवाज, कला व साहित्य को कायम रखने तथा उनका विकास करने का अवसर दिया जाता है। अल्पसंख्यक जातियों के लिए ऐसे अधिकार की अत्यंत आवश्यकता है।

13. व्यवसाय तथा व्यापार की स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने के लिए कोई भी व्यवसाय अथवा व्यापार करने का अधिकार है। परंतु वह व्यवसाय उचित तथा कानून के अंतर्गत होना चाहिए।

(ख) राजनीतिक अधिकार राजनीतिक अधिकारों द्वारा नागरिक अपने देश के शासन-प्रबंध में हिस्सा लेते हैं। विदेशियों को ये अधिकार नहीं दिए जाते। इनमें मुख्य अधिकार निम्नलिखित हैं

1. मतदान का अधिकार:
मताधिकार प्रजातंत्र की देन है। मतदान के अधिकार द्वारा सभी वयस्क नागरिक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन-प्रबंध में हिस्सा लेने लगे हैं। जनता संसद तथा कार्यपालिका के लिए अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजती है, जिससे कानून बनाने तथा प्रशासन चलाने के कार्य जनता की इच्छानुसार किए जाते हैं। इस प्रकार प्रजातांत्रिक शासन जनता का, जनता के लिए तथा जनता द्वारा चलाया जाता है।

सभी आधुनिक राज्य अधिक-से-अधिक नागरिकों को मताधिकार देने का प्रयत्न करते हैं। इसके लिए अब शिक्षा, संपत्ति, जाति, लिंग, जन्म-स्थान आदि का भेदभाव नहीं किया जाता, परंतु नाबालिगों, अपराधियों, दिवालियों, पागलों तथा विदेशियों को मताधिकार नहीं दिया जाता, क्योंकि मताधिकार एक पवित्र तथा ज़िम्मेदारी का काम है। भारत में 18 वर्ष के सभी स्त्री-पुरुषों को मताधिकार प्राप्त है।

2. चुनाव लड़ने का अधिकार:
प्रजातंत्र में सभी नागरिकों को योग्य होने पर चुनाव लड़ने का भी अधिकार दिया जाता है। मताधिकार के साथ-साथ यदि चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं दिया जाता है तो मताधिकार व्यर्थ है। प्रजातंत्र में तभी जनता की तथा जनता द्वारा सरकार बन सकती है, जब प्रत्येक नागरिक को कानून बनाने में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने का अधिकार दिया जाता हो। जनता के वास्तविक प्रतिनिधि भी वही होंगे जो उन्हीं में से निर्वाचित किए गए हों।

इसलिए राज्य नागरिकों को चुनाव लड़ने का भी अधिकार देता है, परंतु कानून बनाना अधिक ज़िम्मेदारी का काम होता है, इसलिए ऐसे नागरिक को ही निर्वाचन में खड़े होने का अधिकार होता है जो कम-से-कम 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो तथा पागल, दिवालिया व अपराधी न हो। भारत में 25 वर्ष की आयु वाले नागरिक को यह अधिकार मिल जाता है।

3. सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार:
सभी नागरिकों को उनकी योग्यतानसार अपने राज्य में सरकारी पद या नौकरियां प्राप्त करने का अधिकार दिया जाता है। सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, जाति, वंश, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। भारत में ऐसा कोई भेदभाव नहीं रखा गया है। यहाँ कोई भी नागरिक राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ सकता है, परंतु पाकिस्तान में गैर-मुस्लिम राष्ट्रपति नहीं बन सकता। अमेरिका में भी केवल जन्मजात अमेरिकी नागरिक को ही राष्ट्रपति बनाया जाता है, परंतु ये केवल अपवाद हैं।

4. राजनीतिक दल बनाने का अधिकार:
प्रजातंत्र में लोगों को दल बनाने का अधिकार होता है। समान राजनीतिक विचार रखने वाले लोग अपना दल बना लेते हैं। राजनीतिक दल ही उम्मीदवार खड़े करते हैं, चुनाव आंदोलन चलाते हैं तथा विजयी होने पर सरकार बनाते हैं। जो दल अल्पसंख्या में रह जाते हैं, वे विरोधी दल का कार्य करते हैं। इन राजनीतिक दलों के बिना प्रजातंत्र सरकार बनाना असंभव है, परंतु ऐसे राजनीतिक दल हानिकारक होते हैं जो विद्रोह फैलाने, दंगे करने तथा तोड़-फोड़ की नीति अपनाते हैं। राज्य ऐसे दलों को गैर-कानूनी घोषित कर देता है।

5. सरकार की आलोचना करने का अधिकार:
लोकतंत्र में नागरिकों को शासन-कार्यों की रचनात्मक आलोचना करने का अधिकार है। वास्तव में लोकतंत्र लोकमत पर आधारित सरकार है। विरोधी मतों के संघर्ष से ही सच्चाई सामने आती है। स्वतंत्रता का मूल जनता की निरंतर जागृति ही है। शासन के अत्याचारों अथवा अधिकारों के दोषों को दूर करने के लिए सरकार की आलोचना एक उत्तम तथा प्रभावशाली हथियार है। इससे सरकार दक्षतापूर्वक कार्य करती है। धन व सत्ता का दुरुपयोग नहीं होने पाता। केवल तानाशाही सरकार ही अपनी आलोचना सहन नहीं करती।

6. विरोध करने का अधिकार:
नागरिकों को सरकार का विरोध करने का भी अधिकार है। यदि सरकार अन्यायपूर्ण कानून बनाती है अथवा राष्ट्र-हित के विरूद्ध कार्य करती है तो उसका विरोध किया जाना चाहिए। ऐसे शासन के सामने झुकना आदर्श नागरिकता का लक्षण नहीं है। इसलिए नागरिकों को बुरी सरकार का विरोध करना चाहिए तथा उसे बदल देने का प्रयत्न करना चाहिए, परंतु ऐसा संवैधानिक तरीकों के अंतर्गत ही किया जाना चाहिए। यह भी ध्यान में रखना पड़ता है कि निजी स्वार्थ-सिद्धि के लिए ऐसा नहीं किया जा सकता। नागरिक को सरकार का विरोध करने का तो अधिकार है, परंतु राज्य का विरोध करने का कोई अधिकार नहीं।

7. प्रार्थना-पत्र देने का अधिकार:
नागरिकों को अपने कष्टों का निवारण करने के लिए। देने का अधिकार है। सरकार का ध्यान अपनी परेशानियों की ओर आकर्षित करने का यह एक पुराना तरीका है। प्रजातंत्र में संसद में जनता के प्रतिनिधियों द्वारा लोगों को भी स्वतः याचिका भेजकर सरकार के सामने अपनी समस्याएं रखने तथा उन्हें हल करने की मांग करने का अधिकार है।

प्रश्न 4.
आधुनिक राज्य में नागरिकों को कौन-कौन से आर्थिक अधिकार प्राप्त हैं?
उत्तर:
आधुनिक राज्य में नागरिकों को अनेक अधिकार प्रदान किए जाते हैं; जैसे राजनीतिक अधिकार, सामाजिक अधिकार, मौलिक अधिकार तथा आर्थिक अधिकार। यद्यपि राजनीतिक अधिकारों एवं सामाजिक अधिकारों का व्यक्ति के जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है तथापि आर्थिक अधिकारों के अभाव में ये अधिकार अधूरे हैं। इसलिए आर्थिक अधिकारों का अपना महत्त्व है।

आर्थिक अधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्ति के आर्थिक विकास के लिए आवश्यक समझे जाते हैं। आर्थिक अधिकार देने की प्रथा आधुनिक कल्याणकारी राज्य की देन है। समाजवादी विचारधारा में नागरिकों के आर्थिक अधिकारों पर अधिक बल दिया जाता है। यद्यपि सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार सभी देशों में दिए जाते हैं, परंतु आर्थिक अधिकार देने की प्रथा आधुनिक कल्याणकारी राज्य द्वारा आरंभ की गई है। समाजवादी विचारधारा में नागरिकों के आर्थिक अधिकारों पर अधिक बल दिया जाता है।

यद्यपि सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार सभी देशों में दिए जाते हैं, परंतु आर्थिक अधिकार देने की प्रथा आधुनिक कल्याणकारी राज्य द्वारा आरंभ की गई है। समाजवादी विचारधारा ने नागरिकों के आर्थिक अधिकारों पर अधिक बल दिया जाता है, क्योंकि इनके बिना दूसरे अधिकार निरर्थक सिद्ध हुए हैं। प्रमुख आर्थिक अधिकार निम्नलिखित हैं

1. काम का अधिकार प्रत्येक नागरिक को काम करने का अधिकार है। यदि उसे काम नहीं मिलता तो वह अपनी आजीविका नहीं कमा सकता और अपना तथा अपने परिवार का भरण-पोषण नहीं कर सकता। इसलिए प्रत्येक राज्य अपने नागरिकों को काम दिलाने का प्रयत्न करता है। रूस में नागरिकों को काम पाने (रोज़गार) का मौलिक अधिकार है, परंतु अन्य देशों में अभी ऐसा नहीं किया गया।

भारत में काम का अधिकार मौलिक अधिकार तो नहीं, परंतु निदेशक तत्त्वों में स्वीकृत अधिकार है। भारत की राज्य सरकारों का यह कर्त्तव्य है कि बेकारी दूर करें तथा अधिक-से-अधिक लोगों को काम पर लगाने का प्रयत्न करें। कई देशों में बेकार रहने पर लोगों को बेकारी भत्ता दिया जाता है।

2. उचित पारिश्रमिक पाने का अधिकार आधुनिक राज्य में प्रत्येक नागरिक को काम के अनुसार उचित मजदूरी अथवा वेतन प्राप्त करने का अधिकार दिया जाता है। इन्हीं अधिकारों के अंतर्गत जीवन-स्तर को उन्नत बनाने के लिए न्यूनतम वेतन कानून भी बनाए जाते हैं। इसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को एक निश्चित राशि से कम मजदूरी नहीं दी जा सकती। स्त्री-पुरुषों को समान मजदूरी देने का भी नियम है।

3. काम के घंटे निश्चित करने का अधिकार प्रत्येक राज्य में मजदूरों के लिए काम के घंटे निश्चित कर दिए जाते हैं। पहले की तरह उनसे 16 से 18 घंटे काम नहीं लिया जा सकता। सभी देशों में प्रायः 8 घंटे काम करने का समय निश्चित हो चुका है। इससे मजदूरों का अधिक शोषण नहीं किया जा सकता है तथा उनका स्वास्थ्य भी अच्छा रह सकता है।

4. उचित अवकाश तथा मनोरंजन का अधिकार मनुष्य को दिन भर काम करने के पश्चात आराम की भी जरूरत है, तभी वह अपनी थकान दूर कर सकता है तथा खोई हुई शक्ति पुनः प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक राज्य में मजदूरों को उचित अवकाश दिलाया जाता है। काम के घंटे निश्चित हो जाने से अवकाश की सुविधा हो गई है। सप्ताह में एक दिन की छुट्टी रखी जाती है। अवकाश के समय श्रमिक वर्ग के मनोरंजन की व्यवस्था की जाती है। सिनेमा, रेडियो तथा नाटक-घरों की व्यवस्था भी की जाती है, जहां लोग अपना अवकाश का समय व्यतीत कर सकें।

5. सामाजिक सुरक्षा का अधिकार राज्य में लोगों को सामाजिक सुरक्षा का अधिकार भी दिया जाता है। सामाजिक सुरक्षा का अर्थ है कि बीमार पड़ने, बेकार होने, बूढ़े होने अथवा अपंग हो जाने की स्थिति में मनुष्य का संरक्षण किया जाना चाहिए। मजदूरों तथा वेतनभोगी लोगों की सुरक्षा के लिए राज्य कई कानून बनाता है।

उनके लिए बीमा कराने, सुरक्षा-निधि कोष की व्यवस्था करने, बच्चों की शिक्षा तथा चिकित्सा का प्रबंध करने, बेकारी के समय भत्ता दिलाने, बीमार पड़ने पर आर्थिक सहायता करने, कारखाने में काम करते हुए दिव्यांग हो जाने पर सहायता देने, बुढ़ापे में पेंशन प्रदान करने आदि के लिए कानून बनाए जाते हैं। राज्य इन कानूनों के द्वारा लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए

  • प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत
  • कानून के सम्मुख समानता 3. राज्य की अवज्ञा का अधिकार।

उत्तर:
1. प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत (Theory of Natural Rights) इस सिद्धांत के अनुसार अधिकार प्रकृति की देन हैं, समाज की नहीं। व्यक्ति को अधिकार जन्म से ही प्राप्त होते हैं। ये अधिकार क्योंकि प्रकृति की देन हैं, इसलिए ये राज्य तथा समाज से स्वतंत्र और ऊपर हैं। राज्य तथा समाज प्राकृतिक अधिकारों को छीन नहीं सकते। इस सिद्धांत के अनुसार अधिकार राज्य तथा समाज बनने से पूर्व के हैं। इस सिद्धांत के मुख्य समर्थक हॉब्स, लॉक तथा रूसो थे। मिल्टन, वाल्टेयर, थॉमस पैन तथा ब्लैकस्टोन जैसे विद्वानों ने भी प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का समर्थन किया।

प्राकृतिक अधिकारों के इस सिद्धांत को सैद्धांतिक रूप में ही नहीं, अपितु व्यावहारिक रूप में भी मान्यता प्राप्त हुई । अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा में यह स्पष्ट कहा गया कि सभी मनुष्य जन्म से ही स्वतंत्र तथा समान हैं और इन अधिकारों को राज्य नहीं छीन सकता। फ्रांस की क्रांति में प्राकृतिक अधिकारों का बोलबाला रहा। आधुनिक युग में प्राकृतिक अधिकारों की व्याख्या का एक नया अर्थ लिया जाता है।

लास्की, ग्रीन, हॉबहाऊस, लॉर्ड आदि लेखकों ने प्राकृतिक अधिकारों को इसलिए प्राकृतिक नहीं माना कि ये अधिकार प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य को प्राप्त थे, अपितु इसलिए माना क्योंकि ये अधिकार मनुष्य के स्वभाव के अनुसार उसके व्यक्तित्व के लिए आवश्यक हैं। आलोचना प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांतों की, विशेषकर इसकी प्राचीन विचारधारा की, निम्नलिखित आधारों पर कड़ी आलोचना की गई है

1. ‘प्रकृति’ तथा ‘प्राकृतिक’ शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं इस सिद्धांत की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि इस सिद्धांत में प्रयुक्त ‘प्रकृति’ तथा ‘प्राकृतिक’ शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं किया गया है।

2. प्राकृतिक अधिकारों की सूची पर मतभेद प्राकृतिक शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में होने के कारण इस सिद्धांत के समर्थक अधिकारों की सूची पर भी सहमत नहीं होते।

3. प्राकृतिक अवस्था में अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य को अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते। अधिकार तो केवल समाज में ही प्राप्त होते हैं।

4. प्राकृतिक अधिकार असीमित हैं, जो कि गलत है प्राकृतिक अधिकार असीमित हैं और इन अधिकारों पर कोई नियंत्रण नहीं है, यह बात गलत है। समाज में मनुष्य को कभी भी असीमित अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते।

5. अधिकार परिवर्तनशील हैं प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत के अनुसार अधिकार निश्चित हैं, जो सर्वथा गलत है। ये परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं।

6. प्राकृतिक अधिकारों के पीछे कोई शक्ति नहीं है प्राकृतिक अधिकारों के पीछे कोई शक्ति नहीं है, जो इन्हें लागू करवा सके। सिद्धांत का महत्त्व (Value of the Theory) यदि हम प्राकृतिक शब्द का अर्थ आदर्श अथवा नैतिक लें तो इस सिद्धांत का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। आधुनिक काल में प्राकृतिक अधिकारों का अर्थ उन अधिकारों से लिया जाता है जो मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक हैं।

2. कानून के सम्मुख समानता कानून के सम्मुख समानता का अर्थ है-विशेषाधिकारों की अनुपस्थिति व सभी सामाजिक वर्गों पर कानून की समान बोध्यता। दुर्बल, सबल दोनों ही इस स्थिति में समान होते हैं जो कानून द्वारा स्थापित कार्य-विधि का परिणाम है और जिसको देश के साधारण न्यायालयों द्वारा लागू किया जाता है। हालांकि राज्य इस संदर्भ में उचित वर्गीकरणों का सहारा ले सकता है, क्योंकि कानून के सम्मुख समानता का मूल भाव यही है कि समान परिस्थितियों में व्यक्तियों से समान व्यवहार किया जाए। इसका केवल यही अर्थ है कि समान व्यक्तियों से समान व्यवहार किया जाना चाहिए।

जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है, राज्य द्वारा प्रतिपादित यह वर्गीकरण हर हालत में तर्कसंगत होना चाहिए और उसे जन-कल्याण के अतिरिक्त अन्य किसी मापदंड से न्यायोचित सिद्ध नहीं किया जाना चाहिए। यदि सबके कल्याण की प्रेरणा पाते हुए कोई कानून समाज के वर्ग विशेष या उसके सदस्यों से कोई सरोकार रखे तो यह सहज माना जा सकता है कि उक्त कानून समानता के सिद्धांत को प्रतिष्ठित करता है, भले ही वह अन्य वर्गों पर लागू न होता हो। भारत में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के आरक्षण से संबंधित सवैधानिक प्रावधान इसका एक उदाहरण है।

3. राज्य की अवज्ञा का अधिकार राजनीति विज्ञान के विचारकों के मतानुसार नागरिकों को अपने उस राज्य की अवज्ञा का अधिकार है जो राज्य अपनी जनता को सुखी रख पाने में असमर्थ होता है। आवश्यकता इस बात की है कि जनता को इतना शिक्षित बनाया जाए कि वह राज्य के मूल उद्देश्य को भली-भांति समझ सके और इस दृष्टि से अधिकारों के प्रति अपनी उपयुक्त निष्ठा व्यक्त कर सके। यह शिक्षित जनता किसी भी अनुचित हस्तक्षेप के आगे सिर नहीं झुकाएगी। अतः यह अपने आप में जनता के अधिकारों पर राज्य के अनावश्यक अतिक्रमण को दूर करने के लिए पर्याप्त होगा।

अतः किसी गैर-कानूनी सत्ता की अवज्ञा के अधिकार को अक्सर जनता के सर्वाधिक मौलिक व अंतर्निहित अधिकारों में से एक माना जाता है। कोई अच्छी-से-अच्छी सरकार भी इस अधिकार को नहीं छीन सकती। जनता के हाथों में यही अंतिम प्रभावी सुरक्षा उपाय है। यदि राज्य तानाशाह बन जाए या भ्रष्टाचार का आश्रय ले तो नागरिकों को अवज्ञा के अंतिम अधिकार का प्रयोग करने की पूरी आज़ादी है, अन्यथा कोई भी समाज कभी-न-कभी रोगग्रस्त हो जाएगा, अपना संतुलन खो बैठेगा और विखंडित हो जाएगा। अतः राज्य-हित समाज और उसके सदस्यों के हितों की पूर्ति पर ही आधारित है। दोनों के हित आवश्यक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

प्रश्न 6.
अधिकार व्यक्ति के लिए क्यों आवश्यक हैं?
अथवा
नागरिक के लिए अधिकारों की महत्ता का विवेचन करें।
उत्तर:
अधिकारों का मनुष्य के जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए तथा समाज की प्रगति के लिए अधिकारों का होना अनिवार्य है। लास्की ने अधिकारों के महत्त्व के विषय में कहा है, “एक राज्य अपने नागरिकों को जिस प्रकार के अधिकार प्रदान करता है, उन्हीं के आधार पर राज्य को अच्छा या बुरा समझा जा सकता है।” नागरिक जीवन में अधिकारों के महत्त्व निम्नलिखित हैं

1. व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास जिस प्रकार एक पौधे के विकास के लिए धूप, पानी, मिट्टी, हवा की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए भी अधिकारों की अत्यधिक आवश्यकता है। अधिकारों की परिभाषाओं में भी स्पष्ट संकेत दिया गया है कि अधिकार समाज के द्वारा दी गई वे सुविधाएं हैं, जिनके आधार पर व्यक्ति अपना विकास कर सकता है। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में व्यक्ति अधिकारों की प्राप्ति से ही विकास कर सकता है।

2. अधिकार समाज के विकास के साधन व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग है। यदि अधिकारों की प्राप्ति से व्यक्तित्व का विकास होता है तो सामाजिक विकास भी स्वयंमेव हो जाता है। इस तरह अधिकार समाज के विकास के साधन हैं।

3. लोकतंत्र की सफलता के लिए अधिकार आवश्यक हैं लोकतंत्र में अधिकारों का विशेष महत्त्व है। अधिकारों के बिना लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती और न ही लोकतंत्र सफल हो सकता है। अधिकारों के द्वारा जनता को शासन में भाग लेने का अवसर मिलता है। अधिकार और लोकतंत्र एक-दूसरे के पूरक हैं।

4. स्वतंत्रता तथा समानता के पोषक स्वतंत्रता तथा समानता लोकतंत्र के दो आधारभूत स्तंभ हैं। प्रजातंत्र की सफलता के लिए इन दोनों का होना आवश्यक है, परंतु इन दोनों का कोई महत्त्व नहीं है, यदि नागरिकों को समानता और स्वतंत्रता के अधिकार प्राप्त नहीं होते।

5. अधिकारों की व्यवस्था समाज की आधारशिला अधिकारों की व्यवस्था के बिना समाज का अस्तित्व बना रहना संभव नहीं है, क्योंकि इनके बिना समाज में लड़ाई-झगड़े, अशांति और अव्यवस्था फैली रहेगी तथा मनुष्यों के आपसी व्यवहार की सीमाएं निश्चित नहीं हो सकेंगी। वस्तुतः अधिकार ही मनुष्य द्वारा परस्पर व्यवहार से सुव्यवस्थित समाज की आधारशिला का निर्माण करते हैं।

6. अधिकार सुदृढ़ तथा कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक प्रत्येक राज्य की सुदृढ़ता तथा सफलता उसके नागरिकों पर निर्भर करती है। जिस राज्य के नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागरुक नहीं होंगे और अपने कर्त्तव्यों का सही तरह से पालन नहीं करेंगे, उस राज्य की योजनाएं असफल हो जाएंगी और वह राज्य कभी भी प्रगति एवं मजबूती नहीं प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत, अधिकारों को सही रूप से प्रयोग करने वाले सजग नागरिक राष्ट्र को सुदृढ़ता व शक्ति प्रदान करते हैं। अतः अधिकार कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक होते हैं।

प्रश्न 7.
कर्त्तव्य से आप क्या समझते हैं? विभिन्न प्रकार के कर्तव्यों का विवेचन कीजिए। अथवा कर्तव्य किसे कहते हैं? एक नागरिक के प्रमुख कर्तव्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति के अपने विकास के लिए जो शर्ते (Conditions) आवश्यक हैं, वे उसके अधिकार हैं, परंतु दूसरों के और समाज के विकास के लिए जो शर्ते आवश्यक हैं, वे उसके कर्त्तव्यं हैं। दूसरे शब्दों में यह कहना उचित होगा कि जो एक व्यक्ति के अपने दावे (Claims) हैं, वे उसके अधिकार भी हैं, परंतु दूसरों के और सरकार के दावे, जो उसके विरुद्ध हैं, वे उसके कर्त्तव्य हैं।

अपने विकास के लिए जो वह दूसरों से और सरकार से आशाएं रखता है, वे उसके अधिकार हैं तथा दूसरे व्यक्ति और राज्य अपने विकास के लिए जो आशाएं रखते हैं, वे उसके कर्तव्य हैं। जैसे एक व्यक्ति दूसरे से यह आशा करता है कि वह उसके जीवन और संपत्ति को न छीने, वे उसके अधिकार हैं। दूसरे व्यक्ति, जो यह आशा करते हैं कि वह भी दूसरों के जीवन और संपत्ति को न छीने, वे उसके कर्त्तव्य हैं।

र्तव्य एक दायित्व है। कर्त्तव्य को अंग्रेजी में ड्यूटी (Duty) कहते हैं। यह शब्द डैट (Debt) से लिया गया है, जिसका अर्थ है-ऋण या कर्ज। इसलिए ड्यूटी का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति किसी कार्य को करने या न करने के लिए नैतिक रूप से बंधा हुआ है। कर्त्तव्य एक प्रकार का ऋण है जिसके हम देनदार हैं। सामाजिक जीवन लेन-देन की सहयोग भावना पर आधारित है।

सामाजिक क्षेत्र में जो सुविधाएं हमें प्राप्त होती हैं, उनके बदले में हमें कुछ मूल्य चुकाना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, समाज से हमें जो अधिकार मिलते हैं, उनकी कीमत कर्त्तव्यों के रूप में चुकानी पड़ती है। कर्तव्यों के प्रकार (Kinds of Duties)-अधिकारों की तरह कर्त्तव्य भी भिन्न प्रकार के होते हैं–

व्यक्ति के कर्तव्यों को पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  • नैतिक कर्त्तव्य (Moral Duties),
  • कानूनी कर्त्तव्य (Legal Duties),
  • नागरिक कर्त्तव्य (Civil Duties),
  • राजनीतिक कर्त्तव्य (Political Duties),
  • मौलिक कर्त्तव्य (Fundamental Duties)।

लेकिन नैतिक तथा कानूनी दोनों प्रकार के कर्तव्यों को आगे दो भागों में बांटा जा सकता है, क्योंकि कुछ कार्य ऐसे हैं जो व्यक्ति को नहीं करने चाहिएँ, उन्हें नकारात्मक (Negative) कर्त्तव्य कहा जाता है और जो करने चाहिएँ, वे आदेशात्मक (Positive) कर्तव्य कहलाते हैं।

1. नैतिक कर्त्तव्य नैतिक कर्त्तव्य का अभिप्राय यह है कि सार्वजनिक हित में जिन कामों को हमें करना चाहिए, उन्हें स्वेच्छापूर्वक करें। यदि हम इन्हें नहीं करते तो समाज में हमारी निन्दा होगी। सत्य बोलना, माता-पिता की सेवा करना, दूसरों के प्रति अच्छा व्यवहार करना आदि नैतिक कर्त्तव्य हैं। नैतिक कर्तव्यों का उल्लंघन करने पर समाज दण्ड नहीं दे सकता, केवल निन्दा कर सकता है।

2. कानूनी कर्त्तव्य जिन कर्त्तव्यों को कानून के दबाव से अथवा दण्ड पाने के भय से किया जाता है, उन्हें कानूनी कर्त्तव्य कहते हैं। करों की अदायगी, कानून का पालन आदि कानूनी कर्त्तव्य हैं।

3. नागरिक कर्त्तव्य अपने ग्राम, नगर तथा मोहल्ले के प्रति किए जाने वाले कर्त्तव्य नागरिक कर्त्तव्य कहलाते हैं। घर व मोहल्ले में सफाई रखना, सार्वजनिक स्थानों को गंदा न करना, शांति स्थापित करने में सहायता करना आदि नागरिक कर्त्तव्य हैं।

4. राजनीतिक कर्त्तव्य देश की शासन-व्यवस्था में हिस्सा लेने के लिए किए जाने वाले कर्तव्य राजनीतिक कर्त्तव्य कहलाते हैं। मतदान में भाग लेना, चुनाव लड़ना, सार्वजनिक पद प्राप्त करना आदि राजनीतिक कर्त्तव्य हैं।

5. मौलिक कर्त्तव्य मौलिक कर्त्तव्य राज्य के संविधान में उल्लिखित रहते हैं। इनका महत्त्व साधारण राजनीतिक व नागरिक कर्त्तव्यों से अधिक होता है।

6. नकारात्मक कर्त्तव्य जब किसी व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह किसी कार्य विशेष को न करे तो वह उसका नकारात्मक कर्त्तव्य कहलाता है। शराब न पीना, चोरी न करना तथा झूठ न बोलना आदि नकारात्मक कर्त्तव्य हैं।

7. आदेशात्मक कर्त्तव्य:
आदेशात्मक कर्त्तव्य उन कर्तव्यों को कहा जाता है जिनके किए जाने की आशा व्यक्ति से की जाती है; जैसे कर देना, माता-पिता की सेवा करना, राज्य के प्रति वफादार होना तथा राज्य के कानूनों को मानना आदि आदेशात्मक कर्तव्य हैं। नागरिक के कर्त्तव्य व्यक्ति को जीवन में बहुत-से कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है। एक लेखक का कहना है कि सच्ची नागरिकता अपने कर्तव्यों का पालन करने में है।

समाज में विभिन्न समुदायों तथा संस्थाओं के प्रति नागरिक के भिन्न-भिन्न कर्त्तव्य होते हैं, जैसे उसके कर्त्तव्य अपने परिवार के प्रति हैं, वैसे ही अपने पड़ोसियों के प्रति, अपने गांव या शहर के प्रति, अपने राज्य के प्रति, अपने देश के प्रति, मानव जाति के प्रति और यहाँ तक कि अपने प्रति भी हैं। नागरिक के मुख्य कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं

(क) कानूनी कर्त्तव्य (Legal Duties) नागरिकों के कानूनी कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं

1. राज-भक्ति:
प्रत्येक नागरिक को राज्य के प्रति वफादार रहना चाहिए। उसे राज्य के साथ कभी विश्वासघात नहीं करना चाहिए। राज्य के शत्रुओं की सहायता करना, उन्हें गुप्त भेद देना देश-द्रोह है। ऐसे अपराध के लिए आजीवन कैद से लेकर मृत्यु-दंड तक दिया जा सकता है। इसलिए नागरिक को ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे राज्य को हानि हो। युद्ध तथा अन्य संकट के समय अपने स्वार्थों को त्याग कर तन-मन-धन से देश की सुरक्षा में सहायता करनी चाहिए। राज-भक्ति के आधार पर ही नागरिक तथा अनागरिक की पहचान होती है।

2. कानूनों का पालन:
एक नागरिक को अपने राज्य के कानूनों का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। कानून समाज में शांति-व्यवस्था तथा सुखी जीवन स्थापित करने के लिए बनाए जाते हैं, इसलिए उनका उचित पालन करना नागरिकों का कर्तव्य है। कानूनों का उल्लंघन करना राज्य का विरोध करना है। यदि कोई कानून अनुचित नजर आता है तो शांतिपूर्ण ढंग से सरकार को उसे बदलने के लिए मजबूर करना चाहिए, परंतु नागरिक स्वयं कानूनों को नहीं बदल सकते। कानून भंग करना अपराध है।

3. शासन अधिकारियों के साथ सहयोग:
प्रत्येक नागरिक का यह भी कर्त्तव्य है कि अपराधी की खोज, शांति की स्थापना, महामारियों आदि की रोकथाम में शासन के अधिकारियों की सहायता करे। इसी प्रकार जनहित में किए जाने वाले सरकारी कार्यों में सहायता देनी चाहिए।

जमाखोरी तथा भ्रष्टाचार करने वाले लोगों की सूचना सरकार को देनी चाहिए। न्यायालयों में सच्ची गवाही देकर न्याय-कार्य में सहायता करें । राशन व अन्य आवश्यक सामग्रियों के उचित वितरण तथा प्रबंध के संबंध में सही सूचनाएं देकर उसे अधिकारियों के साथ सहयोग करना चाहिए।

4. करों की अदायगी:
कर राज्य का आधार हैं। बिना धन के कोई सरकार काम नहीं कर सकती। अधिकांश धन सरकार करों द्वारा एकत्रित करती है। नागरिकों का यह कर्त्तव्य है कि राज्य की सेवाओं के बदले उसे करों के रूप में सहायता पहुंचाएं। राज्य नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा, स्वास्थ्य तथा शिक्षा आदि की व्यवस्था करता है। इन सुविधाओं को नागरिक तभी भली प्रकार प्राप्त कर सकते हैं, जब करों का समय पर भुगतान करते रहें। करों की चोरी नहीं करनी चाहिए।

5. मताधिकार का उचित प्रयोग:
प्रजातंत्र में नागरिकों को मतदान का अधिकार दिया जाता है। मताधिकार एक पवित्र धरोहर है। प्रत्येक नागरिक को अपने मत का उचित प्रयोग करना चाहिए। उसे जनहित का ध्यान रखकर सदैव योग्य व्यक्ति को ही अपना वोट देना चाहिए। मतदान में जातिवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार आदि की भावनाएं नहीं अपनानी चाहिएँ, अन्यथा शासन अयोग्य तथा भ्रष्ट व्यक्तियों के हाथों में चला जाता है। नागरिक का परम कर्त्तव्य है कि वह स्वार्थ-रहित होकर बुद्धिमत्तापूर्वक अपने मत का प्रयोग करे।

6. सार्वजनिक सेवा के लिए उद्यत:
जब कभी किसी नागरिक से स्थानीय अथवा राष्ट्रीय संस्थाओं का सदस्य बनने की आशा की जाए तो उसे सदैव ऐसे कार्यों के लिए तत्पर रहना चाहिए। यदि वह किसी सरकारी नौकरी के योग्य हो तो उसे उसके लिए भी अपने आपको आवश्यकतानुसार प्रस्तुत करना चाहिए।

7. सेना में भर्ती होना:
राज्य की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करने के लिए सुसंगठित सेना होनी चाहिए। इसलिए सेना में भर्ती होकर नागरिकों को देश की रक्षा के लिए भी तत्पर रहना चाहिए। आपातकाल में केवल सेना ही देश की रक्षा करने के लिए काफी नहीं होती। साधारण नागरिकों को भी सैनिक शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, जिससे आवश्यकता पड़ने पर वे द्वितीय सुरक्षा पंक्ति का कार्य कर सकें।

8. राजनीति में बुद्धिमत्ता से काम लेना:
प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि ते में पूरी समझदारी से भाग ले। किसी के झूठे बहकावे में न आए। राष्ट्रीय समस्याओं को भली प्रकार समझे तथा उनको सुलझाने का उचित प्रयत्न करे । संकुचित दलबंदी से ऊपर रहे। राष्ट्र-विरोधी प्रचार रोकने के लिए उपाय करे। सभी वर्गों के हितों की रक्षा करे तथा विचार सहिष्णुता से कार्य करे।।

9. सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा:
प्रत्येक नागरिक का यह भी कर्त्तव्य है कि वह देश की सामाजिक संपत्ति की रक्षा करे। रेल, डाक, तार, तेल के कुएँ, पेट्रोल पंप आदि को नष्ट होने से बचाए तथा तोड़-फोड़ करने वालों की सूचना सरकार को दे। रूस में सामाजिक संपत्ति की रक्षा करना एक संवैधानिक कर्त्तव्य घोषित किया गया है तथा इसके दोपी को मृत्यु-दंड तक दिया जा सकता है।

(ख) नैतिक कर्तव्य:
समाज तथा राष्ट्र को उन्नत बनाने के लिए नागरिकों को कुछ नैतिक कर्तव्यों का भी पालन करना चाहिए। राज्य के प्रति जितने कर्त्तव्य हैं, उनका पालन न करने पर राज्य जबरन उनका पालन करवा सकता है। परंतु नैतिक कर्त्तव्य नागरिक की स्वेच्छा पर निर्भर है, यद्यपि उनकी उपेक्षा करने से कोई दंड नहीं दिया जा सकता, फिर भी एक आदर्श समाज स्थापित करने के लिए निम्नलिखित कर्त्तव्यों का पालन करना प्रत्येक नागरिक का धर्म है

1. अच्छा आदमी बनना:
एक अच्छे नागरिक को अच्छा आदमी भी बनना चाहिए। उसे सदा सच बोलना चाहिए। झूठे व्यक्ति पर कोई विश्वास नहीं करता। उसे सदैव ईमानदारी से कार्य करना चाहिए। वह जो भी व्यवसाय या सेवा करे, उसमें धोखेबाजी, बेईमानी अथवा मिलावट न करे। सभी की सहायता करने तथा धर्मानुसार चलने का प्रयत्न करे। उसे मृदुभाषी, दयावान तथा अहिंसक प्रवृत्ति का बनना चाहिए। अपने नैतिक गुणों के आधार पर वह नागरिक अपने कर्तव्यों का भी अच्छी प्रकार से पालन कर सकेगा।

2. अपने प्रति कर्त्तव्य:
व्यक्ति के अपने प्रति भी बहुत-से कर्तव्य हैं। अच्छे सामाजिक जीवन के लिए नागरिकों का उन्नतशील होना बहुत जरूरी है। इसलिए व्यक्ति को अपने सर्वोमुखी विकास का ध्यान रखना चाहिए। उसे शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए, जिससे उसका शारीरिक तथा मानसिक विकास पूरी तरह से हो सके। इसके साथ ही उसे नागरिक गुणों को धारण करना चाहिए। उसे सहयोग, सहनशीलता, सहानुभूति, आत्म-संयम सत्य-भाषण आदि गुणों को धारण करना चाहिए तथा अनुशासन में रहना चाहिए, ताकि उसके अंदर आत्म-विश्वास और उत्तरदायित्व की भावना आदि गुण भी आ सकें।

3. परिवार के प्रति:
जिस प्रकार एक व्यक्ति के कर्त्तव्य अपने प्रति हैं, ताकि वह अपना विकास तथा समाज-सेवा कर सके, उसी प्रकार उसके कर्त्तव्य अपने परिवार के दूसरे सदस्यों के प्रति भी हैं। उसे चाहिए कि वह अपने परिवार के दूसरे सदस्यों को भी विकास के समान अवसर प्रदान करे और उन्हें प्रसन्नतापूर्वक रहने का अवसर दे। उसे परिवार के अच्छे रीति-रिवाजों को मानना चाहिए और बुरे रीति-रिवाजों को निकालने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे चाहिए कि वह अपने माता-पिता और दूसरे वृद्धों का आदर करे तथा अपने से छोटे भाई-बहिनों और बच्चों से प्रेम करे।

प्रति कर्त्तव्य:
प्रत्येक नागरिक के अपने पड़ोसी के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य हैं। नागरिक शास्त्र प्रायः अच्छे पड़ोसी-धर्म के पालन की शिक्षा पर बल देता है। नागरिक को अपने पड़ोसी के साथ प्रेम और सहिष्णुता का व्यवहार करना चाहिए। उसे अपने पड़ोसी के सुख-दुःख में सहायक बनना चाहिए। उसे अपने घर का कूड़ा-कचरा पड़ोसी के घर के सामने नहीं फेंकना चाहिए। उसे छोटी-छोटी बातों को लेकर पड़ोसी से किसी प्रकार का लड़ाई-झगड़ा नहीं करना चाहिए। पड़ोसी के साथ-साथ अपने सगे-संबंधियों से भी अच्छा व्यवहार करना मानव-धर्म है। अच्छा पड़ोसी बनना ही उत्तम नागरिकता है।

5. ग्राम या नगर या प्रांत के प्रति कर्त्तव्य:
प्रत्येक नागरिक के अपने ग्राम या नगर या प्रांत के प्रति भी कर्त्तव्य हैं। उसे अपने निवास स्थान को साफ-सुथरा रखकर गांव में सफाई व स्वच्छता बनाए रखने में सहायता करनी चाहिए। गलियों व सड़कों में कूड़ा-कर्कट नहीं फेंकना चाहिए। पंचायत या नगरपालिका के कार्यों में सहयोग देना चाहिए। जिस सेवा के लिए वह योग्य हो, उसे निःस्वार्थ रूप से करे। अपने प्रांत के लोगों के हितों की तरफ भी उसे ध्यान देना चाहिए। अकाल, बाढ़, दल या अन्य विपत्तियों के आने पर अपने प्रांत की सहायता करनी चाहिए। उसे प्रांत में रहने वाले सभी लोगों में सौहार्द पैदा करना चाहिए।

6. देश के प्रति कर्त्तव्य:
प्रत्येक नागरिक के अपने देश के प्रति भी कई कर्त्तव्य हैं। देश, प्रांत, नगर, ग्राम तथा परिवार से भी ऊपर है। यदि देश स्वतंत्र रहेगा तो नागरिक भी स्वतंत्र व सुखी रह सकेंगे, अन्यथा नहीं, इसलिए प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह अपने देश की स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व बलिदान करने को तैयार रहे। सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त कर आक्रमणकारी के विरुद्ध सदैव हथियार उठाने को त्तपर रहे। सेना, प्रादेशिक सेना, होम गार्ड या एन०सी०सी० में भर्ती होकर राष्ट्रीय एकता, शांति तथा व्यवस्था बनाए रखने में सहयोग दे।

प्रांतीयता, जातिवाद या भाषा संबंधी विवादों में न पड़े, सहिष्णुता तथा भाईचारे की भावना पैदा करे, सरकार के साथ पूर्ण सहयोग करे, विदेशी एजेंटों से सतर्क रहे तथा उनकी सूचना पुलिस को दे; भ्रष्टाचार, जमाखोरी, कालाबाजारी तथा नफाखोरी न करे, आर्थिक योजनाओं को सफल बनाने में सहायता करे।

7. समस्त विश्व के प्रति कर्त्तव्य:
जहां नागरिक के अपने देश तथा राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य हैं, वहाँ उसके विश्व के प्रति भी कुछ कर्त्तव्य हैं। उसे अपने आपको अपने देश का ही नहीं, अपितु विश्व का नागरिक भी समझना चाहिए। आज व्यक्ति का जीवन अंतर्राष्ट्रीय बन चुका है। इसलिए उसे सभी देशों के लोगों के प्रति सद्भावना रखनी चाहिए। उसे विश्व-शांति स्थापित करने में पूर्ण सहयोग देना चाहिए।

उसे गुलाम तथा पिछड़े देशों को स्वतंत्र तथा उन्नत बनाने के लिए साम्राज्यवादी भावनाओं का डटकर विरोध करना चाहिए। नागरिक का कर्तव्य है कि वह विनाशकारी अस्त्रों की होड़ का विरोध करे तथा मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव मिटाने का प्रयत्न करे। इस प्रकार नागरिक को संपूर्ण मानवता के लिए भी प्रयत्नशील रहना चाहिए।

प्रश्न 8.
अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का परस्पर क्या संबंध है?
अथवा
“अधिकार और कर्त्तव्य एक-दूसरे पर निर्भर हैं।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
अथवा
“अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।” व्याख्या करें।
अथवा
“अधिकारों में कर्तव्य निहित हैं।”-व्याख्या करें।
उत्तर:
अधिकारों और कर्तव्यों में संबंध अधिकारों तथा कर्तव्यों में घनिष्ठ संबंध है। अधिकारों के साथ कर्त्तव्य भी चलते हैं। समाज में न तो केवल अधिकार ही होते हैं और न केवल कर्त्तव्य ही। यदि हमें अधिकार चाहिएँ तो साथ में हमें कर्त्तव्यों का पालन भी करना होगा। अधिकारों और कर्त्तव्यों में चोली-दामन का साथ रहता है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

एक की अनुपस्थिति में दूसरा असंभव है। जो लोग उन्हें एक-पक्षीय मानकर चलते हैं, वे गलती करते हैं। प्रायः लोग अपने अधिकारों की मांग तो करते हैं, परंतु कर्त्तव्यों को भूल जाते हैं। लेकिन कर्त्तव्यों से अलग कोई अधिकार नहीं होते, केवल कर्त्तव्यों की दुनिया में ही अधिकारों की प्राप्ति हो सकती है। नागरिक अपने कर्तव्यों का पालन करके ही अधिकारों का उपभोग कर सकते हैं। इन अधिकारों तथा कर्तव्यों में परस्पर संबंध निम्नलिखित प्रकार है

1. प्रत्येक अधिकार के साथ कर्त्तव्य जुड़ा है:
जब हम समाज से किसी अधिकार की मांग करते हैं तो हमें उसका मूल्य कर्त्तव्य के रूप में चुकाना पड़ता है। बिना कर्त्तव्य-पालन किए अधिकार का दावा करना वैसा ही है, जैसे बिना दाम किए बाजार से चीजें लेने का प्रयत्न करना। प्रो० लास्की (Laski) का यह कथन उचित है, “मेरे अधिकार के साथ मेरा कर्तव्य भी है कि मैं तुम्हारे अधिकार को भी स्वीकार करूं।

जो दूसरे का अधिकार है, वही मेरा कर्तव्य है।” यदि हमें जीवित रहने, संपत्ति रखने या भाषण की स्वतंत्रता का अधिकार चाहिए तो हमारा यह भी कर्त्तव्य है कि दूसरों को जिंदा रहने दें, उनकी संपत्ति नष्ट न करें, उन्हें अपशब्द न कहें।

जो अधिकार एक व्यक्ति को प्राप्त हैं, वही दूसरों को भी प्राप्त हैं। इसलिए हमारा धर्म है कि हम दूसरों के प्रति अपने कर्त्तव्य को भी अदा करें। जब समाज में एक वर्ग यह समझने लगता है कि उसके अधिकार तो हैं, परंतु कर्त्तव्य नहीं तथा दूसरे वर्ग के केवल कर्त्तव्य ही हैं, अधिकार नहीं, तब शक्तिशाली वर्ग दुर्बल वर्ग का शोषण करने लगता है। जमींदारों द्वारा किसानों का तथा पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों का इसी धारणा के आधार पर शोषण होता रहा है। इससे समाज में दुःख तथा अशांति रहती है। प्रजातंत्र तथा समाजवाद ऐसी ही विषमताओं को मिटाने के लिए विकसित हुए हैं।

2. एक का अधिकार दूसरे का कर्तव्य है:
अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। किसी व्यक्ति को उसका अधिकार तभी मिल सकता है जब दूसरे उसको ऐसा करने का अवसर दें। प्रो० लास्की (Laski) के शब्दों में, “मेरा अधिकार तुम्हारा कर्त्तव्य है। यदि मुझे कुछ अधिकार प्राप्त हैं तो दूसरों का कर्तव्य है कि उन अधिकारों में बाधा उत्पन्न न करें।

यदि मुझे जीने का अधिकार है तो दूसरों का कर्तव्य है कि वे मुझे किसी प्रकार का आघात न पहुंचाए।” इसी प्रकार मुझे संपत्ति रखने का अधिकार है तो इसका अर्थ यही है कि अन्य लोग मेरी संपत्ति पर ज़बरन कब्जा न करें। इस प्रकार अधिकार और कर्त्तव्य एक-दूसरे के विरोधी नहीं, वरन पूरक हैं। वे एक ही व्यवस्था के दो पहलू हैं। व्यक्तिगत दृष्टि से जो बात एक का अधिकार है, सामाजिक दृष्टि से वही बात दूसरों का कर्तव्य कहलाती है।

3. प्रत्येक अधिकार एक नैतिक कर्त्तव्य भी है:
अधिकार केवल व्यक्ति के विकास का साधन ही नहीं, वरन् समाज के हित को बढ़ाने का उपकरण भी है। इस प्रकार अधिकार का सामाजिक पहलू भी है। चूंकि अधिकार समाज की ही देन है इसलिए व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह उसका उपयोग समाज के हित में करे । उदाहरण के लिए, स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत नागरिक को भाषण, प्रकाशन, भ्रमण, व्यापार आदि की स्वतंत्रता प्रदान की गई है, परंतु उसका यह कर्त्तव्य भी है कि वह इसका अनुचित प्रयोग न करे।

अनैतिक व्यापार या देश-द्रोह फैलाने की कार्रवाइयां करने पर न केवल ये अधिकार छीन लिए जाते हैं, वरन उचित दंड भी दिया जाता है। अधिकारों के उचित प्रयोग से व्यक्ति का निजी हित भी सुरक्षित रहता है। यातायात के नियमों का पालन करते हुए ही हम सड़क पर चलने के अपने अधिकार का उपयोग कर सकते हैं, अन्यथा हम किसी दुर्घटना के शिकार हो सकते हैं।

4. अधिकार एक कानूनी कर्तव्य भी है:
राज्य अपने नागरिकों को कई प्रकार के सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार प्रदान करता है। इनमें से कुछ अधिकारों का प्रयोग कानूनी तौर से अनिवार्य भी कहा जा सकता अधिकार है; जैसे मताधिकार, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार, अवकाश प्राप्त करने का अधिकार आदि। ऑस्ट्रेलिया में मताधिकार का प्रयोग न करने पर दंड दिया जाता है। रूस में अवकाश ग्रहण करना, काम पाना कानूनी तौर पर अनिवार्य है। भारत में दुकानदारों को भी सप्ताह में एक दिन की छुट्टी मनाना अनिवार्य कर दिया गया है। इस प्रकार कई अधिकार कानूनी कर्त्तव्य भी होते हैं।

5. राज्य अधिकारों की रक्षा करता है तो नागरिक का कर्तव्य राज-भक्त रहना है:
राज्य लोगों के जीवन, स्वतंत्रता तथा संपत्ति आदि के अधिकारों की रक्षा करता है, इसलिए नागरिकों का कर्तव्य है कि वे राज्य को कर (Taxes) दें, उसके कानूनों का पालन करें तथा उसकी सुरक्षा के लिए सैनिक शिक्षा प्राप्त करें। प्रो० लास्की (Laski) के अनुसार, “जब राज्य मुझे मताधिकार प्रदान करता है, तो मेरा यह कर्त्तव्य है कि मैं योग्य व्यक्ति को चुनने में ही उसका प्रयोग करूं।” इस प्रकार राज-भक्त नागरिक ही अधिकारों का उपयोग करने के अधिकारी हैं।

6. अधिकार का अंतिम लक्ष्य कर्त्तव्य की पूर्ति है:
यह भी ध्यान देने की बात है कि अधिकार केवल अधिकार के लिए नहीं मिलते। यदि हम अधिकार के लिए दावा करेंगे और कर्त्तव्यों की उपेक्षा करेंगे तो हमारे हो जाएंगे। उदाहरण के लिए, यदि हम मताधिकार का प्रयोग नहीं करते हैं तो वह अधिकार स्वतः नष्ट हो जाता है। इसलिए अधिकारों का अंतिम उद्देश्य कर्त्तव्यों की पूर्ति ही है। डॉ० बेनी प्रसाद (Dr. Beni Prasad) के शब्दों में, “यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों पर ही जोर दे और दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन न करे तो शीघ्र ही किसी के लिए कोई भी अधिकार नहीं रह जाएगा।”

7. अधिकारों तथा कर्तव्यों का एक लक्ष्य:
अधिकारों तथा कर्तव्यों का एक ही लक्ष्य होता है-व्यक्ति के जीवन को सुखी बनाना। समाज व्यक्ति को अधिकार इसलिए देता है, ताकि वह उन्नति कर सके तथा अपने जीवन का विकास कर सके। कर्त्तव्य उसको लक्ष्य पर पहुंचने में सहायता करते हैं। कर्त्तव्यों के पालन से ही अधिकार सुरक्षित रह सकते हैं।

8. अधिकार व कर्त्तव्य एक सिक्के के दो पहलू:
अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इस संदर्भ में डॉ० बेनी प्रसाद (Dr. Beni Prasad) ने ठीक ही कहा है, “अधिकार और कर्त्तव्य एक वस्तु के दो पक्ष हैं, जब कोई व्यक्ति उन्हें अपने दृष्टिकोण से देखता है तो वह अधिकार है और जब दूसरे के दृष्टिकोण से देखता है तो वह कर्त्तव्य है।”

निष्कर्ष:
अंत में हम कह सकते हैं कि अधिकार और कर्त्तव्य साथ-साथ चलते हैं तथा एक का दूसरे के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। जहां अधिकारों का नाम आता हो, वहाँ कर्त्तव्य अपने-आप उसमें शामिल हो जाते हैं। अधिकार तथा कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लास्की के अनुसार, “हमें अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए कुछ अधिकारों की आवश्यकता होती है,

इसलिए अधिकार और कर्त्तव्य एक ही वस्तु के दो अंश हैं” श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार, “कर्त्तव्य और अधिकार दोनों एक ही वस्तु हैं। अंतर केवल उनको देखने में ही है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कर्त्तव्यों के क्षेत्र में ही अधिकारों का सही महत्त्व सामने आता है।” अतएव यह स्पष्ट है कि अधिकारों एवं कर्तव्यों में घनिष्ठ संबंध है, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व असंभव है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. निम्न में अधिकारों का लक्षण है
(A) अधिकार समाज की देन हैं
(B) अधिकार असीमित नहीं होते
(C) अधिकारों का लक्ष्य सर्वहित है
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

2. निम्न में अधिकारों का लक्षण नहीं है
(A) अधिकार समाज के सभी लोगों के लिए समान होते हैं
(B) अधिकार बदलते रहते हैं
(C) अधिकार राज्य द्वारा सुरक्षित नहीं होते
(D) अधिकारों के साथ कर्त्तव्य जुड़े हैं
उत्तर:
(C) अधिकार राज्य द्वारा सुरक्षित नहीं होते

3. प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन निम्न में से किस विद्वान ने किया?
(A) लॉक
(B) आस्टिन
(C) हॉब्स
(D) अरस्तू
उत्तर:
(A) लॉक

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 5 अधिकार

4. निम्नलिखित में से कौन-सा व्यक्ति का सामाजिक अधिकार नहीं है?
(A) जीवन का अधिकार
(B) परिवार का अधिकार
(C) धर्म का अधिकार
(D) कार्य का अधिकार
उत्तर:
(D) कार्य का अधिकार

5. अधिकारों का महत्त्व निम्न में से है
(A) व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायक
(B) समाज के विकास का साधन
(C) लोकतंत्र की सफलता में अनिवार्य शर्त
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

6. मानव अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सार्वभौम घोषणा हुई थी
(A) सन् 1948 में
(B) सन् 1950 में
(C) सन् 1952 में
(D) सन् 1954 में
उत्तर:
(A) सन् 1948 में

7. निम्नलिखित में से राज्य का कानूनी कर्त्तव्य है
(A) कानूनों का पालन
(B) राज्य भक्ति
(C) करों की अदायगी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. कानूनी अधिकार होते हैं
(A) प्रकृति से प्राप्त
(B) नैतिक बल प्राप्त
(C) कानूनी सत्ता प्राप्त
(D) जनमत पर आधारित
उत्तर:
(C) कानूनी सत्ता प्राप्त

9. व्यक्ति द्वारा अपने परिवार के प्रति कर्त्तव्य की पूर्ति करना, निम्न में कौन-सा कर्त्तव्य कहलाता है?
(A) कानूनी कर्तव्य
(B) नैतिक कर्त्तव्य
(C) संवैधानिक कर्त्तव्य
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. “अधिकार सामाजिक जीवन की वे अवस्थाएँ हैं जिनके बिना कोई मनुष्य अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।” यह परिभाषा किस विद्वान ने दी है?
उत्तर:
प्रो० हैरोल्ड लास्की ने।

2. “अधिकार वह माँग या दावा है जिसे समाज मान्यता देता है और राज्य लागू करता है।” यह परिभाषा किस विद्वान की है?
उत्तर:
बोसांके की।

3. “अधिकार एवं कर्त्तव्य एक सिक्के के दो पहलू हैं।” यह कथन किस विद्वान का है?
उत्तर:
डॉ० बेनी प्रसाद का।

4. कोई एक कानूनी कर्त्तव्य लिखिए।
उत्तर:
आयकर का भुगतान करना।

रिक्त स्थान भरें

1. भारतीय संविधान में …….. व्यक्ति का मौलिक अधिकार नहीं है।
उत्तर:
संपत्ति का अधिकार

2. भारतीय संविधान के अनुच्छेद …………… में अधिकारों के संरक्षण या उपचार का प्रावधान किया गया है।
उत्तर:
32

3. “केवल कर्त्तव्यों के जगत् में ही अधिकारों का महत्त्व है।” यह कथन …………….. का है।
उत्तर:
प्रो० वाइल्ड।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता Textbook Exercise Questions and Answers.

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HBSE 11th Class Political Science स्वतंत्रता Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता से क्या आशय है? क्या व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता में कोई संबंध है?
उत्तर:
स्वतंत्रता ‘अंग्रेजी भाषा’ के शब्द लिबर्टी (Liberty) का हिंदी रूपांतर है। अंग्रेज़ी भाषा के इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के लिबर (Liber) शब्द से हुई है। ‘लिबर’ शब्द का अर्थ ‘बंधनों का अभाव’ (Lack of Controls) या ‘बंधनों से मुक्ति ‘ (Free from controls) तथा प्रतिबंधों की अनुपस्थिति (Absence of Restraints) से होता है।

इस तरह शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से स्वतंत्रता (Liberty)शब्द का अर्थ बंधनों का पूरी तरह न होना या बंधनों का पूरा अभाव ही कहा जाएगा। साधारण आदमी इस शब्द का अर्थ पूर्ण स्वतंत्रता से लेता है जो बिल्कुल प्रतिबंध-रहित हो, परंतु राजनीति-शास्त्र में प्रतिबंध-रहित स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता (Licence) है, स्वतंत्रता नहीं। इस शास्त्र में स्वतंत्रता का अर्थ उस हद तक स्वतंत्रता है, जिस हद तक वह दूसरों के रास्ते में रोड़ा नहीं बनती।

इसलिए स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध लगाने पड़ते हैं, ताकि प्रत्येक व्यक्ति की समान स्वतंत्रता सुरक्षित रहे। इसी कारण से मैक्नी (Mckechnie) ने कहा है, “स्वतंत्रता सभी प्रतिबंधों की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि युक्ति-रहित प्रतिबंधों के स्थान पर युक्ति-युक्त प्रतिबंधों को लगाना है।” इसकी पुष्टि करते हुए जे०एस०मिल (J.S. Mill) ने कहा है, “स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि हम अपने हित के अनुसार अपने ढंग से उस समय तक चल सकें जब तक कि हम दूसरों को उनके हिस्से से वंचित न करें और उनके प्रयत्नों को न रोकें।”

अतः राजनीति विज्ञान के आधुनिक विचारक स्वतंत्रता को केवल बंधनों का अभाव नहीं मानते, बल्कि उनके अनुसार स्वतंत्रता सामाजिक बंधनों में जकड़ा हुआ अधिकार है। स्वतंत्रता के अर्थ के साथ यहाँ यह भी स्पष्ट है कि व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता में बहुत गहरा संबंध है क्योंकि व्यक्ति की स्वतंत्रता शत-प्रतिशत राष्ट्र की स्वतंत्रता पर निर्भर है। यदि कोई देश स्वतंत्र नहीं होगा तो फिर उस देश का व्यक्ति स्वतंत्रता का आनंद कैसे उठा सकेगा।

एक स्वतंत्र राष्ट्र ही अपने नागरिकों को स्वतंत्र वातावरण एवं परिस्थितियाँ दे सकता है, जिसमें वे अपने व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं। एक परतंत्र राष्ट्र में दूसरे का हस्तक्षेप होता है इसलिए वहाँ के नागरिक अपनी इच्छानुसार काम करने की स्थिति में नहीं होते। वास्तव में उन्हें वही करना होता है, जो उन्हें करने की स्वतंत्रता प्रदान की जाती है। ऐसे राष्ट्र में रहने वाले लोगों के लिए स्वतंत्र जीवन जीना केवल एक कल्पना या स्वपन जैसा होता है। इस प्रकार यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्र की स्वतंत्रता एक-दूसरे के पूरक हैं। अतः एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं हो सकता।

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प्रश्न 2.
स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में क्या अंतर है?
उत्तर:
स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में मुख्य अंतर निम्नलिखित प्रकार से हैं
(1) नकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव है; जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव नहीं है, बल्कि उचित प्रतिबंधों को स्वीकार करना है।

(2) नकारात्मक स्वतंत्रता की अवधारणा के अनुसार वह सरकार सबसे अच्छी है जो कम-से-कम शासन एवं हस्तक्षेप करती है; जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता के दृष्टिकोण के अनुसार राज्य को नागरिकों के कल्याण के लिए सभी क्षेत्रों में कानून बनाकर हस्तक्षेप करने का अधिकार है।

(3) नकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य का व्यक्ति पर बहुत कम नियंत्रण होता है; जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विकास के लिए हस्तक्षेप कर कानूनों का निर्माण कर सकती है।

(4) नकारात्मक स्वतंत्रता के दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्ति के जीवन व संपत्ति के अधिकार असीमित हैं; जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार राज्य व्यक्ति के संपत्ति के अधिकार को सीमित कर सकता है।

(5) नकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार, कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करता है; जबकि सकारात्मक अवधारणा के अनुसार कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता में वृद्धि करता है। कानून स्वतन्त्रता की पहली शर्त है।

प्रश्न 3.
सामाजिक प्रतिबंधों से क्या आशय है? क्या किसी भी प्रकार के प्रतिबंध स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं?
उत्तर:
समाज में जब किसी समुदाय या जाति को वह सब करने की स्वतंत्रता नहीं होती जो शेष लोगों को होती है, तो ऐसी स्थिति में हम कहते हैं कि उस पर सामाजिक प्रतिबंध लगे हुए हैं। भारत के कई हिस्सों में आज भी कुछ जातियों या समुदायों का मंदिरों में प्रवेश करना वर्जित है। इस प्रकार के सामाजिक प्रतिबंधों से उन समुदायों की कानून द्वारा प्राप्त स्वतंत्रता अवरुद्ध हो जाती है और वे देश और समाज की मुख्यधारा में नहीं रह पाते।

यद्यपि समाज में व्यक्ति स्वतंत्रता के लिए कुछ प्रतिबंधों की आवश्यकता होती है क्योंकि स्वतंत्रता की प्रकृति में ही प्रतिबंध हैं और ये प्रतिबंध इसलिए आवश्यक हैं, ताकि प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर व सुविधाएं प्राप्त हो सकें और एक व्यक्ति की स्वतंत्रता किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता या सामाजिक हित में बाधक न बन सके।

स्वतंत्रता को वास्तविक रूप देने के लिए आवश्यक है कि उसे सीमित किया जाए। समाज में रहते हुए शांतिमय जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति के व्यवहार पर कुछ नियंत्रण लगाए जाएं। नियंत्रणों से मर्यादित व्यक्ति ही अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है और समाज की एक लाभदायक इकाई सिद्ध हो सकता है। अरस्तू (Aristotle) ने ठीक ही कहा है, “मनुष्य अपनी पूर्णता में सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है, लेकिन जब वह कानून व न्याय से पृथक् हो जाता है तब वह सबसे निकृष्ट प्राणी बन जाता है।” अतः स्वतंत्रता के लिए कुछ प्रतिबन्धों का होना आवश्यक है।

प्रश्न 4.
नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में राज्य की क्या भूमिका है?
उत्तर:
सकारात्मक स्वतंत्रता की अवधारणा इस तथ्य का समर्थन करती है कि नागरिकों की स्वतंत्रताएं राज्य में ही सुरक्षित रहती हैं। राज्य ही नागरिकों की स्वतंत्रताओं की रक्षा की व्यवस्था करता है। इस प्रकार राज्य को अधिकार है कि सभी नागरिकों को स्वतंत्रताएं प्रदान करने के लिए आवश्यक और उचित कदम उठाए।

नकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थकों ने राज्य को एक आवश्यक बुराई मानकर जो आलोचना की है, वह गलत है। वर्तमान कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुसार सकारात्मक स्वतंत्रता की अवधारणा को ही मान्यता दी जाती है। आलोचकों ने इस अवधारणा की सैद्धांतिक और व्यावहारिक आधारों पर आलोचना की है, परंतु वह आलोचना

इसलिए स्वीकार नहीं की जा सकती, क्योंकि सरकार की दुर्बलताओं को दूर करने की शक्ति केवल सरकार में ही निहित है। जैसे यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को किसी भी तरह की हानि पहुँचाता है या उसकी स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता है तो पीड़ित व्यक्ति न्यायालय की शरण ले सकता है।

न्यायालय दोषी व्यक्ति को उचित दंड देकर पीड़ित व्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। यह राज्य का दायित्व होता है कि वह अपने नागरिकों को वैसा वातावरण एवं व्यवस्था प्रदान करे, जिसके अंतर्गत वे एक-दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए अपना सर्वांगीण विकास कर सकें। ऐसी व्यवस्था तैयार करने के लिए राज्य द्वारा लोगों पर कुछ प्रतिबंध लगाए जाते हैं जिनका उद्देश्य उनकी भलाई करना है, बुराई नहीं।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 5.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? आपकी राय में इस स्वतंत्रता पर समुचित प्रतिबंध क्या होंगे? उदाहरण सहित बताइये।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) क के अनुसार देश के सभी नागरिकों को वाक् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, जिसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति भाषण देने, लेखन कार्य करने, चलचित्र अथवा अन्य किसी स्रोतों के माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त संविधान के 44वें संशोधन के द्वारा इसमें अनुच्छेद 364-A को जोड़ा गया है।

इस अनुच्छेद के माध्यम से समाचारपत्रों को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वे संसद अथवा विधानमंडल की कार्रवाई को प्रकाशित कर सकते हैं। यद्यपि संविधान द्वारा इस स्वतंत्रता पर भी कुछ प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था की गई है; जैसे देश की संप्रभुता राज्य की सरक्षा विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में, न्यायालय अवमानना आदि के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है, जोकि सर्वथा उचित है। वास्तव में उचित प्रतिबंधों के अधीन ही वास्तविक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सम्भव है।

स्वतंत्रता HBSE 11th Class Political Science Notes

→ स्वतंत्रता शब्द की उत्पत्ति मानव जाति के साथ ही हुई है। स्वतंत्रता मानव जीवन के लिए ऑक्सीजन है। इसके अभाव में मनुष्य का जीवन कठिन है। जब भी मनुष्य की स्वतंत्रता पर आघात किया गया है, जनता ने क्रान्ति पैदा की है।

→ इंग्लैंड की गौरवपूर्ण क्रांति (1688), अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम (1776), फ्रांस की राज्य क्रांति (1789) तथा भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

→ रूसो ने स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृत्व (Liberty, Equality and Fraternity) का नारा दिया जो फ्रांसीसी-क्रांति का मुख्य आधार बना। भारत में तिलक ने कहा, “स्वराज मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है।”

→ विश्व का इतिहास स्वतंत्रता के प्रेम के बलिदान में बहे रक्त से रंजित है। प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान तक मनुष्य ने सब कुछ न्योछावर करने में जरा-सा भी संकोच नहीं किया। स्वतंत्रता के लिए मंडेला ने अपने जीवन के 28 वर्ष जेल की कोठरियों के अंधेरे में बिताए।

→ उन्होंने अपने यौवन को स्वतंत्रता के आदर्श के लिए होम कर दिया। स्वतंत्रता के लिए मंडेला ने व्यक्तिगत रूप से बहुत ही भारी कीमत चुकाई । वास्तव में व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास तथा उसकी प्रसन्नता के लिए स्वतंत्रता आवश्यक है।

→ वही मनुष्य, मनुष्य है जो स्वतंत्र है, जिसने अपनी स्वतंत्रता खो दी, उसके जीवन का अंत हो जाता है। अतः स्वतंत्रता मनुष्य और राज्य दोनों के लिए आवश्यक है। इसलिए आज संपूर्ण संसार में स्वतंत्रता को सभ्य मानवीय जीवन की एक आवश्यक और अनिवार्य शर्त माना जाता है।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

HBSE 11th Class Political Science राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
राजनीतिक सिद्धांत के बारे में नीचे लिखे कौन-से कथन सही हैं और कौन-से गलत?
(क) राजनीतिक सिद्धांत उन विचारों पर चर्चा करते हैं जिनके आधार पर राजनीतिक संस्थाएँ बनती हैं।
(ख) राजनीतिक सिद्धांत विभिन्न धर्मों के अंतर्संबंधों की व्याख्या करते हैं।
(ग) ये समानता और स्वतंत्रता जैसी अवधारणाओं के अर्थ की व्याख्या करते हैं।
(घ) ये राजनीतिक दलों के प्रदर्शन की भविष्यवाणी करते हैं।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) गलत,
(ग) सही,
(घ) गलत।

प्रश्न 2.
‘राजनीति उस सबसे बढ़कर है, जो राजनेता करते हैं।’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं? उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में उक्त कथन पूर्णतः सही है क्योंकि राजनीति वास्तव में उन सबसे बढ़कर है जो राजनेता करते हैं। आज वे राजनेता निजी, स्वार्थपूर्ण आवश्यकताओं एवं महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने के दुष्चक्र में लगे रहते हैं। इसलिए वे दल-बदल, झूठे वायदे एवं बढ़-चढ़कर काल्पनिक दावे करने से बिल्कुल भी नहीं हिचकते हैं। फलतः राजनेताओं पर घोटालों, हिंसा, भ्रष्टाचार इत्यादि में संलिप्तता के आरोप प्रायः लगते रहते हैं। ऐसी स्थिति के विपरीत राजनीति इन सबसे बढ़कर है। वास्तव में राजनीति किसी भी समाज का महत्त्वपूर्ण और अविभाज्य अंग है।

यह सरकार के क्रियाकलापों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की संस्थाओं से भी संबंधित है। समाज में परिवार, जनजाति और आर्थिक एवं सामाजिक संस्थाएँ लोगों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूर्ण करने में सहायता करने के लिए अस्तित्व में हैं। ऐसी संस्थाएँ हमें साथ रहने के उपाय खोजने और एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों को स्वीकार करने में सहायता करती हैं।

इन संस्थाओं के साथ सरकारें भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सरकारें कैसे बनती हैं एवं कैसे कार्य करती हैं? राजनीति में दर्शाने वाली अहम् बातें हैं। इस प्रकार मूलतः राजनीति सरकार के क्रियाकलापों तक ही सीमित नहीं है बल्कि सरकारें जो भी काम करती हैं, वे लोगों के जीवन को भिन्न-भिन्न तरीकों से प्रभावित करते हुए उनके जीवन को खुशहाल बनाने के कार्य करती हैं। इस दृष्टि से राजनीति एक तरह की जनसेवा है। ऐसी जनसेवा का अभाव स्वार्थपूर्ण संकीर्ण दृष्टिकोण वाले राजनेताओं में देखने को नहीं मिलता।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 3.
लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए नागरिकों का जागरूक होना ज़रूरी है। टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
नागरिकों की जागरूकता लोकतंत्र की सफलता हेतु प्रथम अनिवार्य शर्त है। जैसा कि हम जानते हैं कि समाज का एक जागरूक और सजग नागरिक ही लोकतंत्र के मूल तत्त्वों या सिद्धांतों; जैसे स्वतंत्रता, समानता, न्याय, धर्मनिरपेक्षता आदि के महत्त्व को समझता है और उन्हें अपने जीवन में उतारता है। अगर वह राज्य में अपने अधिकारों के लिए लड़ता है तो राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों की पालना के प्रति भी सजग रहता है।

ऐसे सजग नागरिक सरकार के कार्यों में रुचि लेते हैं। सरकार की गलत नीतियों का विरोध करते हैं, तो सही नीतियों का समर्थन करते हैं। वे भ्रष्टाचार जैसी समस्या का समाधान भी ढूँढते हैं और जरूरत पड़ने पर अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से सरकार तक अपनी बात भी पहुँचाते हैं।

सजग नागरिकों की ऐसी स्थिति लोकतंत्र को मजबूत बनाती है। इसके विपरीत सजग नागरिकों के अभाव में सरकार निरंकुश बन जाएगी। जिसके फलस्वरूप उन्हें न्याय, शोषण एवं अत्याचार झेलने को विवश होना पड़ता है। नागरिकों की ऐसी स्थिति लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक सिद्धांत का अध्ययन हमारे लिए किन रूपों में उपयोगी है? ऐसे चार तरीकों की पहचान करें जिनमें राजनीतिक सिद्धांत हमारे लिए उपयोगी हों।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के समक्ष आने वाली सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं का समाधान ढूंढना है। यह मनुष्य के सामने आई कठिनाइयों की व्याख्या करता है तथा सुझाव देता है ताकि मनुष्य अपना जीवन अच्छी प्रकार से व्यतीत कर सके। राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन की उपयोगिता को निम्नलिखित चार तरीकों से प्रकट किया जा सकता है

1. वास्तविकता को समझने का साधन राजनीतिक सिद्धांत हमें राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने में सहायता प्रदान करता है। सिद्धांतशास्त्री सिद्धांत का निर्माण करने से पहले समाज में विद्यमान सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों का तथा समाज की इच्छाओं, आकांक्षाओं व प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है तथा उन्हें उजागर करता है।

वह अध्ययन तथ्यों तथा घटनाओं का विश्लेषण करके समाज में प्रचलित कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों को उजागर करता है। वास्तविकता को जानने के पश्चात ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। अतः यह हमें शक की स्थिति से बाहर निकाल देता है।

2. समस्याओं के समाधान में सहायक राजनीतिक सिद्धांत का प्रयोग शांति, विकास, अभाव तथा अन्य सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं के लिए भी किया जाता है। राष्ट्रवाद, प्रभुसत्ता, जातिवाद तथा युद्ध जैसी गंभीर समस्याओं को सिद्धांत के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है। सिद्धांत समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रशस्त करते हैं और निदानों (Solutions) को बल प्रदान करते हैं। बिना सिद्धांत के जटिल समस्याओं को सुलझाना संभव नहीं होता।

3. भविष्य की योजना संभव बनाता है-राजनीतिक सिद्धांत सामान्यीकरण (Generalization) पर आधारित है, अतः यह वैज्ञानिक होता है। इसी सामान्यीकरण के आधार पर वह राजनीति विज्ञान को तथा राजनीतिक व्यवहार को भी एक विज्ञान बनाने का प्रयास करता है। वह उसके लिए नए-नए क्षेत्र ढूंढता है और नई परिस्थितियों में समस्याओं के निदान के लिए नए-नए सिद्धांतों का निर्माण करता है।

ये सिद्धांत न केवल तत्कालीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं बल्कि भविष्य की परिस्थितियों का भी आंकलन करते हैं। वे कुछ सीमा तक भविष्यवाणी भी कर सकते हैं। इस प्रकार देश व समाज के हितों को ध्यान में रखकर भविष्य की योजना बनाना संभव होता है।

4. राजनीतिक सिद्धांत की राजनीतिज्ञों, नागरिकों तथा प्रशासकों के लिए उपयोगिता-राजनीतिक सिद्धांत के द्वारा वास्तविक राजनीति के अनेक स्वरूपों का शीघ्र ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिस कारण वे अपने सही निर्णय ले सकते हैं। डॉ० श्यामलाल वर्मा ने लिखा है, “उनका यह कहना केवल ढोंग या अहंकार है कि उन्हें राज सिद्धांत की कोई आवश्यकता नहीं है या उसके बिना ही अपना कार्य कुशलतापूर्वक कर रहे हैं अथवा कर सकते हैं।

वास्तविक बात यह है कि ऐसा करते हुए भी वे किसी-न-किसी प्रकार के राज-सिद्धांत को काम में लेते हैं।” इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजनीतिक विज्ञान के सम्पूर्ण ढांचे का भविष्य राजमीतिक सिद्धांत के निर्माण पर ही निर्भर करता है।

प्रश्न 5.
क्या एक अच्छा/प्रभावपूर्ण तर्क औरों को आपकी बात सुनने के लिए बाध्य कर सकता है?
उत्तर:
यह सत्य है कि एक अच्छा/प्रभावपूर्ण तर्क अन्यों को आपकी बात सुनने के लिए न केवल आकर्षित करने की क्षमता रखता है बल्कि उन्हें बाध्य भी कर सकता है। अच्छा बोलना एक बहुत बड़ी कला है। यदि कोई अच्छा वक्ता होने के साथ-साथ किसी बात को प्रभावपूर्ण तर्क से सिद्ध करने की क्षमता रखता है तो लोग उसकी तरफ स्वतः ही सहज भाव से खिंचे चले आते हैं। इस तरह उनकी यह कला बहुत जल्दी बहुतों को अपना प्रशंसक बना लेती है।

प्रश्न 6.
क्या राजनीतिक सिद्धांत पढ़ना, गणित पढ़ने के समान है? अपने उत्तर के पक्ष में कारण दीजिए।
उत्तर:
हम राजनीतिक सिद्धांत में सामान्यीकरण के लिए कार्य एवं कारण के सम्बन्ध का सहारा लेते हैं। इसलिए प्राय: यह माना जाता है कि राजनीतिक सिद्धांत पढ़ना गणित पढ़ने जैसा ही है। यद्यपि हम सभी गणित पढ़ते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हममें से सभी गणितज्ञ या इंजीनियर बन जाते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि बुनियादी अंकगणित का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उपयोगी सिद्ध होता है।

हम सभी प्रायः दैनिक जीवन में किसी-न-किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए जोड़, घटाव, गुणा, भाग आदि करते हैं। ठीक इसी प्रकार हमें राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन की भी आवश्यकता है। लेकिन हमें यह भी समझना है कि इसका अध्ययन करने वाला हर एक व्यक्ति राजनीतिक विचारक या दार्शनिक नहीं बन सकता, न ही राजनेता बनता है।

फिर भी इसके अध्ययन की आवश्यकता है, क्योंकि तभी हमें दैनिक जीवन में शोषण से अपने आप को बचा सकेंगे, वास्तविक स्वतंत्रता का उपभोग कर सकेंगे, दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान कर सकेंगे। अधिकार एवं कर्त्तव्यपालन में सम्बन्ध समझ सकेंगे। अत: अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक सिद्धांत का अध्ययन समाज में सभी लोगों के दैनिक जीवन के लिए उसी तरह से उपयोगी है; जैसे गणित का प्रत्येक व्यक्ति के लिए दैनिक जीवन में महत्त्व है।

राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय HBSE 11th Class Political Science Notes

→ राजनीति शब्द का जन्म हजारों वर्ष पहले यूनान में हुआ। अरस्तू को आधुनिक राजनीति का जन्मदाता माना जाता है। यहाँ तक कि अरस्तू ने राजनीति को ही अपनी पुस्तक का अध्ययन-विषय बनाया।

→ अरस्तू के बाद भी उसका अनुकरण करते हुए कुछ अन्य लेखकों ने भी राजनीति शब्द का प्रयोग किया, किंतु उस समय इस शब्द का प्रयोग जिस विषय को दर्शाने के लिए होने लगा, वह अरस्तू के काल के विषय के क्षेत्र की दृष्टि से पर्याप्त रूप से भिन्न हो चुका था, अर्थात् राजनीतिक शब्द का प्रयोग राजनीति शास्त्र के लिए किया जाने लगा।

→ जिस अर्थ में राजनीति शब्द का प्रयोग अरस्तू के द्वारा किया गया है, उसमें इस शब्द का प्रयोग ठीक है, किंतु आजकल राजनीति शास्त्र शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया जाने लगा है, इसके कारण राजनीति शास्त्र को राजनीति का नाम नहीं दे सकते।

→ इसी संदर्भ में गिलक्राइस्ट महोदय ने कहा है कि आधुनिक प्रयोग के कारण राजनीति का एक नया अभिप्राय हो गया है। अतः विज्ञान के नाम के रूप में यह बेकार हो गया है।

→ जब हम किसी देश की राजनीति की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय वहाँ की सामयिक और राजनीतिक समस्याओं से होता है। जब हम यह कहते हैं कि अमुक व्यक्ति राजनीति में रुचि रखता है तो हमारा अभिप्राय यही होता है कि वह आयात-निर्यात कर, मजदूरों एवं मिल-मालिकों के संबंधों, व्यापार, शिक्षा, खाद्य आदि विषयों से संबंधित वर्तमान प्रश्नों में अभिरुचि रखता है।

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HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता के कोई तीन लक्षण लिखें।
उत्तर:

  • विशेष सुविधाओं का अभाव।
  • इसमें सभी को विकास के समुचित या पर्याप्त अवसर दिए जाते हैं।
  • प्रत्येक व्यक्ति की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।

प्रश्न 2.
नागरिक असमानता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
नागरिक असमानता को कानूनी असमानता भी कहा जाता है। इसमें नागरिकों को अधिकार समान रूप से प्राप्त नहीं होते। इसमें सभी लोगों को जीवन, स्वतंत्रता, परिवार और धर्म आदि से संबंधित अधिकार असुरक्षित होते हैं। अधिकार प्रदान करते समय नागरिकों में रंग, जाति, धर्म या लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता है।

प्रश्न 3.
सामाजिक असमानता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
सामाजिक असमानता का अर्थ है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समान नहीं समझा जाता। समाज में रंग, जाति, धर्म, भाषा, वर्ण आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक असमानता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
राजनीतिक असमानता का अर्थ है कि नागरिकों को राजनीतिक अधिकार प्रदान करते समय विभिन्न आधारों पर भेदभाव किया जाना अर्थात वोट का अधिकार, चुने जाने का अधिकार, सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार ये सभी नागरिकों को भेदभाव के आधार पर प्राप्त कराए जाते हैं।

प्रश्न 5.
आर्थिक असमानता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
आर्थिक असमानता में साधनों के वितरण की असमान स्थिति होती है। समाज में आर्थिक आधार पर भेदभाव किया जाता है। आर्थिक असमानता में प्रत्येक व्यक्ति को जीवन-यापन के समान व उचित अवसर प्राप्त नहीं होते। आर्थिक असमानता की स्थिति देश के लिए स्वास्थ्यवर्धक नहीं होती। यह समाज को दो वर्गों में विभाजित कर देती है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

प्रश्न 6.
समानता के महत्त्व पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
आधुनिक युग में समानता का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्त्व है। स्वतंत्रता की प्राप्ति की तरह मनुष्य में समानता की प्राप्ति की इच्छा सदा रही है। बिना समानता के व्यक्ति को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सकती। समानता लोकतंत्र की आधारशिला है। समानता के बिना सामाजिक न्याय की स्थापना नहीं हो सकती। समानता का महत्त्व इस बात में निहित है कि किसी मनुष्य के साथ जाति, धर्म, रंग, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 7.
किन्हीं दो विचारधाराओं के नाम लिखिए जो स्वतंत्रता तथा समानता को परस्पर विरोधी मानती हैं।
उत्तर:
स्वतंत्रता तथा समानता को परस्पर विरोधी मानने वाली दो विचारधाराएँ निम्नलिखित हैं

  • व्यक्तिवादी विचारधारा तथा
  • अराजकतावादी विचारधारा।

प्रश्न 8.
सभी व्यक्ति समान पैदा होते हैं। इस कथन को स्पष्ट करें।
उत्तर:
कुछ विद्वानों का मत है कि प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान पैदा किया है और इसीलिए समाज की सुविधाएँ सभी को समान रूप से मिलनी चाहिएँ। प्राकृतिक रूप से सभी व्यक्ति समान हैं और सभी के साथ एक-सा व्यवहार होना चाहिए।

प्रश्न 9.
‘अवसर की समानता’ से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘अवसर की समानता’ समानता के सभी रूपों से जुड़ी हुई है। सामाजिक समानता में सभी को उन्नति व प्रगति के समान अवसर प्राप्त होने चाहिएँ। इसी तरह आर्थिक समानता में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने व अपनी आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए समान अवसर प्राप्त होने चाहिएँ।।

प्रश्न 10.
‘कानून के समक्ष समानता’ के सिद्धांत की व्याख्या करें। अथवा ‘कानून के समक्ष समानता’ का क्या अभिप्राय हैं?
उत्तर:
कानून के समक्ष समानता का अर्थ है कि सब पर एक से कानून लागू हों और कानून की दृष्टि में सब समान हों, कोई छोटा-बड़ा न हो, जाति, वंश, रंग व लिंग आदि के आधार पर कानून भेदभाव न करता हो अर्थात बड़े-से-बड़ा अधिकारी व छोटे-से-छोटे कर्मचारी कानून के सामने समान है। देश में सभी के लिए एक-सा कानून लागू होता है।

प्रश्न 11.
समानता की कोई दो परिभाषाएँ लिखें।
उत्तर:

  • स्टीफेंसन के अनुसार, “समानता से अभिप्राय मानव विकास के नियमित आवश्यक उपकरणों का समान विभाजन है।”
  • लास्की के अनुसार, “समानता का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्तियों के यथासंभव प्रयोग के समान अवसर प्रदान करने के प्रयास करना है।”

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
साधारण शब्दों में समानता का यह अर्थ लिया जाता है कि सभी व्यक्ति समान हैं, सभी के साथ समान व्यवहार होना चाहिए और सभी को समान वेतन मिलना चाहिए, परंतु समानता का यह अर्थ ठीक नहीं है कि किसी को विशेषाधिकार नहीं मिलने चाहिएँ और सभी को उन्नति के समान अवसर मिलने चाहिएँ। समाज के अंदर सभी व्यक्तियों को उन्नति के लिए समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएँ। समानता के मुख्य प्रकार हैं-

  • प्राकृतिक समानता,
  • नागरिक समानता,
  • राजनीतिक समानता,
  • सामाजिक समानता,
  • आर्थिक समानता।

प्रश्न 2.
समानता की कोई पाँच विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
समानता की पाँच विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति सभी नागरिकों की मूल आवश्यकताएँ पूरी होनी चाहिएँ।।

2. विशेष अधिकारों का अभाव-प्रत्येक व्यक्ति को आजीविका के साधन उपलब्ध होने चाहिएँ और प्रत्येक व्यक्ति को अपने काम के लिए उचित मज़दूरी मिलनी चाहिए। किसी व्यक्ति का शोषण नहीं होना चाहिए।

3. आर्थिक न्याय आर्थिक न्याय का यह भी अर्थ है कि विशेष परिस्थितियों में राजकीय सहायता प्राप्त करने का अधिकार हो। बुढ़ापे, बेरोज़गारी तथा असमर्थता में राज्य सामाजिक एवं आर्थिक संरक्षण प्रदान करे।

4. प्राकृतिक असमानताओं की समाप्ति-स्त्रियों और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिलना चाहिए।

5. उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण-संपत्ति और उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण के संबंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

प्रश्न 3.
समानता के पाँच रूपों का वर्णन करें।
उत्तर:
समानता के पाँच रूप निम्नलिखित हैं
1. प्राकृतिक समानता इसका अर्थ है कि प्रकृति ने सभी व्यक्तियों को समान बनाया है, इसलिए सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए।
2. नागरिक समानता या कानूनी समानता इसका अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हों और सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान हों।
3. सामाजिक समानता-इसका अर्थ है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समाज में समान समझा जाना चाहिए।
4. राजनीतिक समानता इसका अर्थ है कि नागरिकों को राजनीतिक अधिकार समान रूप से मिलने चाहिएँ।
5. आर्थिक समानता आर्थिक समानता का अर्थ है कि समाज में सभी व्यक्तियों को आर्थिक विकास के समान अवसर प्राप्त हों तथा अमीर और गरीब का अंतर नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 4.
‘नागरिक समानता, स्वतंत्रता की एक आवश्यक दशा के रूप में’, पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
नागरिक समानता का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हों अर्थात कानून के सामने सभी व्यक्ति समान हों। धर्म, जाति, रंग, लिंग आदि के आधार पर नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार प्राप्त होने चाहिएँ। नागरिक समानता स्वतंत्रता की एक आवश्यक शर्त है। बिना नागरिक समानता के नागरिक स्वतंत्रता का आनंद नहीं उठा सकते, इसलिए सभी लोकतंत्रीय राज्यों में कानून के समक्ष सभी नागरिकों को समान समझा जाता है और सभी को कानून का समान संरक्षण प्राप्त होता है।

प्रश्न 5.
‘स्वतंत्रता व समानता एक-दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं।’ व्याख्या करें। अथवा क्या स्वतंत्रता और समानता परस्पर विरोधी हैं? अथवा स्वतंत्रता और समानता में क्या संबंध है?
उत्तर:
स्वतंत्रता तथा समानता में गहरा संबंध है। अधिकांश आधुनिक विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता तथा समानता परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के सहयोगी हैं। समानता के अभाव में स्वतंत्रता व्यर्थ है। आर०एच० टोनी ने ठीक ही कहा है, “समानता स्वतंत्रता की विरोधी न होकर इसके लिए आवश्यक है।” आधुनिक लोकतंत्रात्मक राज्य मनुष्य की स्वतंत्रता के लिए आर्थिक तथा सामाजिक समानता स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता निरर्थक है। जिस देश में नागरिकों को आर्थिक समानता प्राप्त नहीं होती, वहाँ नागरिक अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता का प्रयोग नहीं कर पाते। भारत में राजनीतिक स्वतंत्रता तो है, परंतु आर्थिक समानता नहीं है। गरीब, बेकार एवं अनपढ़ व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता का कोई महत्त्व नहीं है। एक गरीब व्यक्ति अपना वोट बेच सकता है और चुनाव लड़ने की तो वह सोच भी नहीं सकता। अतः स्वतंत्रता के लिए समानता का होना अनिवार्य है।

प्रश्न 6.
समानता के महत्त्व पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
समानता का मनुष्य के जीवन में विशेष महत्त्व है। स्वतंत्रता की प्राप्ति की तरह मनुष्य में समानता की प्राप्ति की इच्छा सदा रही है। स्वतंत्रता के लिए समानता का होना आवश्यक है। समानता तथा स्वतंत्रता प्रजातंत्र के दो महत्त्वपूर्ण स्तंभ हैं। समानता का महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि नागरिकों के बीच जाति, धर्म, भाषा, वंश, रंग, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।

सामाजिक न्याय और सामाजिक स्वतंत्रता के लिए समानता का होना आवश्यक है। वास्तव में समानता न्याय की पोषक है। कानून की दृष्टि में सभी को समान समझा जाता है। भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद में समानता का अधिकार लिखा गया है।

प्रश्न 7.
“आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता व्यर्थ है।” व्याख्या करें।
उत्तर:
राजनीति शास्त्र में आर्थिक समानता और राजनीतिक स्वतंत्रता बहुत महत्त्वपूर्ण अवधारणाएं हैं। राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि लोगों को विभिन्न राजनीतिक अधिकार प्रदान करना। राजनीतिक अधिकारों में चुनाव का अधिकार व वोट का अधिकार हैं। राजनीतिक स्वतंत्रताएं प्रजातंत्र का आधार हैं, लेकिन केवल राजनीतिक स्वतंत्रताओं से ही प्रजातंत्र के लक्ष्यों को पूरी तरह से प्राप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह साधारणतया देखा गया है कि धनाढ्य व्यक्तियों का ही राजनीति पर अधिकार होता वे ही चुनाव लड़ते हैं।

वे ही पैसे के ज़ोर पर वोटों को खरीदते हैं। गरीब व्यक्ति चुनाव लड़ने की बात तो सोच ही नहीं सकता। उसे दो वक्त की रोटी की चिंता सताए रहती है। चुनाव लड़ने के लिए धन चाहिए, जिसकी वह व्यवस्था नही कर सकता। अतः समाज में आर्थिक विषमता को दूर किया जाना चाहिए। जहां आर्थिक विषमता होगी, वहाँ राजनीतिक स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं रह सकती।

इस संबंध में प्रो० लास्की ने ठीक ही कहा है, “राजनीतिक समानता तब तक कदापि वास्तविक नहीं हो सकती, जब तक उसके साथ आर्थिक समानता न हो।” अंत में कहा जा सकता है कि आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता केवल मात्र ढोंग, दिखावा और मिथ्या है।

प्रश्न 8.
आर्थिक असमानता का अर्थ एवं कारण बताएं।
उत्तर:
आर्थिक असमानता का अर्थ है-आर्थिक क्षेत्र में असमानता। यह अमीर तथा गरीब के बीच का अंतर होता है। आर्थिक असमानता में लोकतंत्र कमज़ोर पड़ता है क्योंकि गरीब व्यक्तियों को चुनाव में खड़े होने तथा अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजने का अवसर नहीं मिलता। सरकार पर अमीरों का अधिकार रहता है और वे अपने वर्ग के हितों को सुरक्षित रखने के लिए कार्य करते हैं। निर्धन व्यक्ति तो कई बार अपना मत बेचने पर भी मज़बूर हो जाते हैं। प्रेस पर भी धनी वर्ग का ही नियंत्रण रहता है। आर्थिक असमानता के कारण भारतीय समाज निम्नलिखित आधारों पर आर्थिक असमानता का शिकार है

(1) समाज में दो वर्ग हैं-अमीर और गरीब। अमीर वर्ग संख्या में बहुत कम है, लेकिन समाज की अधिकतर संपत्ति पर उसका कब्जा है। गरीब वर्ग समाज का बहुत बड़ा भाग है जिसके पास संपत्ति नहीं है। इस कारण अमीर वर्ग गरीबों का शोषण करने में सफल हो रहा है।

(2) आर्थिक विकास का लाभ समाज के गरीब वर्ग को नहीं पहुंचा है, जिसके कारण गरीब और अधिक गरीब हो गया है तथा अमीर और अधिक अमीर हुआ है।

(3) अनियंत्रित महंगाई के कारण मध्यम वर्ग भी बदल चुका है। वस्तुओं की बढ़ती कीमतों के कारण साधारण जनता बहुत कठिनाई का सामना कर रही है।

(4) ग्रामीण लोगों का एक बड़ा भाग आज भी ऋण के बोझ के नीचे दबा हुआ है और बंधुआ मज दूरों जैसा जीवन व्यतीत करता है। भूमिहीन श्रमिकों को आज भी जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएं भी उपलब्ध नहीं होती।

(5) अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जन-जातियों को दी गई सुविधाओं का लाभ केवल कुछ परिवारों तक ही सीमित रहा है। इन जातियों के लिए आरक्षित किए गए बहुत से पद अब भी खाली पड़े हैं।

प्रश्न 9.
राजनीतिक समानता तथा आर्थिक समानता में संबंधों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मानता तथा आर्थिक समानता में घनिष्ठ संबंध है। वास्तव में राजनीतिक समानता की स्थापना करने के लिए आर्थिक समानता की स्थापना करना बहुत आवश्यक है। उदारवादी राजनीतिक समानता को महत्त्व देते हैं, जबकि मार्क्सवादी आर्थिक समानता पर अधिक बल देते हैं। परंतु वास्तव में यह दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं।

राजनीतिक समानता की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि समाज में आर्थिक विषमताएं कम से कम हों और सभी की मौलिक आर्थिक आवश्यकताएं पूरी हों। एक भूखे तथा गरीब व्यक्ति के लिए आर्थिक समानता व्यर्थ है क्योंकि वह न तो चुनाव लड़ सकता है और न ही स्वतंत्रतापूर्वक अपने मत का प्रयोग कर सकता है।

सरकारी पद (नौकरी) प्राप्त करने के लिए उच्च शिक्षा की आवश्यकता होती है, परंतु एक निर्धन व्यक्ति के पास इसके लिए धन नहीं होता और उसके बच्चे इससे वंचित रह जाते हैं। अतः राजनीतिक समानता की वास्तविक स्थापना के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक होता है। अतः दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और दोनों में घनिष्ठ संबंध हैं।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता से आपका क्या अभिप्राय है? समानता की प्रमुख विशेषताओं/लक्षणों का वर्णन कीजिए। अथवा समानता की परिभाषा करके इसके अर्थ का विस्तृत विवेचन कीजिए।
उत्तर:
समानता का अर्थ स्वतंत्रता की तरह समानता की अवधारणा का अपना महत्त्व है। समानता को भी लोकतंत्र का आधार माना गया है। समानता के बिना लोकतंत्र को सफल नहीं बनाया जा सकता और न ही व्यक्ति के विकास को संभव बनाया जा सकता है। समानता के महत्त्व को प्राचीन काल से ही विचारकों ने स्वीकार किया है, किंतु यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवधारणा के रूप में 18वीं शताब्दी में ही सामने आई। सामाजिक व आर्थिक विषमताओं के कारण पैदा हुई यह धारणा आज राजनीति विज्ञान के अध्ययन-क्षेत्र में एक प्रमुख स्थान रखती है। समानता की अवधारणा को विश्वव्यापी और प्रभावशाली बनाने का श्रेय समाजवादियों को ही जाता है।

समानता का गलत अर्थ:
साधारण रूप से समानता का यह अर्थ लिया जाता है कि सब मनुष्य समान हैं, सभी के साथ एक-सा व्यवहार हो और सभी की आमदनी भी एक-सी होनी चाहिए। इस अर्थ के समर्थक मनुष्य की प्राकृतिक समानता पर बल देते हैं कि मनुष्य समान ही पैदा होते हैं और प्रकृति ने उन्हें समान रहने के लिए पैदा किया है, परंतु यह कहना ठीक नहीं है। प्रकृति ने सभी मनुष्यों को समान नहीं बनाया है। एक व्यक्ति दूसरे से शक्ल-सूरत तथा शरीर के विस्तार में समान नहीं है। मनुष्य किसी फैक्ट्री में बना एक उच्चकोटि का माल नहीं है। साथ ही उसकी प्राकृतिक शक्तियों में भी अंतर है। इसलिए यह धारणा गलत है।

समानता का सही अर्थ:
समानता का अर्थ हम प्राकृतिक समानता से नहीं रखते। प्रकृति ने तो हमें असमान ही बनाया है। समानता का अर्थ हम सामाजिक और सांसारिक भावना के रूप में करते हैं। मनुष्य मात्र में कुछ मौलिक समानताएं पाई जाती हैं, परंतु सामाजिक व्यवस्था ने उन समानताओं को स्थान नहीं दिया। प्राचीन काल से ही समाज में इतनी विषमता चली आ रही है कि मनुष्य, मनुष्य के अत्याचारों तथा शोषण से कराह उठा है। राजनीतिक जागृति के साथ-साथ इस असमानता के विरुद्ध भी मानव ने विद्रोह किया है।

शारीरिक समानता और असमानता तो प्राकृतिक है, किंतु समाज में फैली असमानता प्राकृतिक नहीं है। वह मनुष्य द्वारा ही स्थापित की गई है। इस सामाजिक असमानता को दूर कर समानता स्थापित करने की बात पर विचार तथा व्यवहार किया जाने लगा है। समानता की महत्ता को ध्यान में रखते हुए डॉ० आशीर्वादम ने कहा है, “फ्रांस के क्रांतिकारी न तो पागल थे और न मूर्ख, जब उन्होंने स्वतंत्रता और भ्रातृत्व का नारा लगाया था, अर्थात स्वतंत्रता और समानता साथ-साथ चलती है।”

समानता का वास्तविक अर्थ सामाजिक और आर्थिक समानता से है। परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि सभी मनुष्यों की समान आय हो तथा उनमें छोटे-बड़े, शिक्षित-अशिक्षित, बुद्धिमान-मूर्ख, योग्य-अयोग्य का भेदभाव न किया जाए। प्रकृति ने भी सभी मनुष्यों को शारीरिक बनावट, बुद्धि, रुचि और योग्यता में एक जैसा नहीं बनाया। जब तक यह अंतर रहेगा, तब तक यह बिल्कुल असंभव है कि सभी लोगों को बराबर बनाया जा सके। समानता की परिभाषाएँ समानता के सही अर्थ को समझने के लिए उसकी विभिन्न परिभाषाओं का अध्ययन आवश्यक है, जो निम्नलिखित हैं

1. प्रो० लास्की:
के शब्दों में, “समानता का यह अर्थ है कि प्रत्येक के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाए अथवा प्रत्येक व्यक्ति को समान वेतन दिया जाए। यदि ईंट ढोने वाले का वेतन एक प्रसिद्ध गणितज्ञ या वैज्ञानिक के बराबर कर दिया गया तो इससे समाज का उद्देश्य ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए समानता का यह अर्थ है कि कोई विशेष अधिकार वाला वर्ग न रहे और सबको उन्नति के समान अवसर प्राप्त हों।”

2. जे०ए० कोरी:
के अनुसार, “समानता का विचार इस बात पर बल देता हैं कि सभी मनुष्य राजनीतिक रूप में समान होते हैं, राजनीतिक जीवन में समान रूप से भाग लेने, अपने मताधिकार का प्रयोग करने, निर्वाचित होने एवं कोई भी पद ग्रहण करने के लिए सभी नागरिक समान रूप से अधिकारी होते हैं।”

3. बार्कर:
के अनुसार, “समानता का यह अर्थ है कि अधिकारों के रूप में जो सुविधाएँ मुझे उपलब्ध हैं वैसे ही और उतनी ही सुविधाएं दूसरों को भी उपलब्ध हों तथा दूसरों को जो अधिकार प्रदान किए गए हैं, वे मुझे अवश्य दिए जाएं।”

4. अप्पादोराय:
का कथन है, “यह कहना कि सब मनुष्य समान हैं, ऐसे ही गलत है जैसे कि यह कहना कि पृथ्वी समतल है।”

5. टॉनी:
के मतानुसार, “सबके लिए व्यवस्था की समानता विभिन्न आवश्यकताओं को एक ही प्रकार से संसाधित कर (या समझकर) प्राप्त नहीं की जा सकती है, बल्कि आवश्यकताओं के अनुरूप विभिन्न प्रकारों से उन्हें पूरा करने के लिए एक समान ध्यान देकर प्राप्त की जा सकती है।” समानता की विशेषताएँ/लक्षण-समानता की निम्नलिखित विशेषताएँ लक्षण स्पष्ट होते हैं।

1. विशेष सुविधाओं का अभाव:
लास्की के अनुसार समानता का पहला अर्थ होता है-विशेष सुविधाओं का अभाव, अर्थात उनके कहने का तात्पर्य यह है कि जाति, वंश, रंग, भाषा, धर्म, संपत्ति आदि के आधार पर राज्य में किसी भी व्यक्ति को विशेष सुविधाएँ नहीं मिलनी चाहिएँ। सभी के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। जहां तक प्रजातंत्र राज्य का प्रश्न है, इसमें सभी को समान मताधिकार मिलने चाहिएँ। सभी व्यक्ति प्रशासन के कार्य में भाग ले सकते हैं। किसी भी व्यक्ति को विशेष सुविधा प्राप्त नहीं होनी चाहिए।

2. सभी को पर्याप्त अवसर:
लास्की के अनुसार समानता का दूसरा अर्थ यह होता है कि सभी व्यक्तियों को विकास के लिए समुचित या पर्याप्त अवसर दिया जाए अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को यह सुविधा मिलनी चाहिए कि वह अपने गुणों का विकास समुचित रूप से कर सके। उसके आंतरिक गुणों के विकास में किसी प्रकार का रोड़ा न अटकाया जाए। उसे उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए समुचित अवसर मिलना चाहिए। महान दार्शनिक एवं विद्वान व्यक्ति मध्यम पैदा होते हैं। अगर उन्हें राज्य की ओर से समुचित अवसर न दिया जाए तो शायद ही वे अपनी प्रतिभा का विकास कर सकते हैं।

3. प्राकृतिक असमानताओं की समाप्ति:
समानता की तृतीय विशेषता यह है कि समाज में प्राकृतिक असमानताओं को नष्ट किया जाता है। यदि समाज में प्राकृतिक असमानताएं रहेंगी तो समानता के अधिकार : का कोई लाभ नहीं है।

4. मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति:
समानता का चौथा अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य होनी चाहिए अर्थात सभी को समान भोजन, वस्त्र, आवास एवं सम्पत्ति नहीं दी जा सकती है। लेकिन उनकी मौलिक आवश्यकताओं-भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की पूर्ति अवश्य होनी चाहिए। उसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि समाज में मनुष्य की जीवनयापन की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य रूप से होनी चाहिए।

लास्की (Laski) ने भी कहा है, “समानता का अर्थ एक-सा व्यवहार करना नहीं है, इसका तो आग्रह इस बात पर निर्भर : है कि मनुष्यों को सुख का समान अधिकार होना चाहिए, उनके इस अधिकार में किसी प्रकार का आधारभूत अंतर स्वीकार नहीं किया जा सकता है।”

5. तर्क के आधार पर भेदभाव:
यद्यपि समानता का अर्थ विशेषाधिकारों का अभाव है तथापि समाज में तर्क के आधार पर कुछ लोगों को विशेष सुविधाएं प्रदान कराई जा सकती हैं; जैसे पिछड़े वर्ग, अपंग स्त्रियों, रोगी तथा दिव्यांग को समाज में कुछ विशेष सुविधाएं प्राप्त कराई जाती हैं। इस व्यवस्था को कानून के सामने संरक्षण कहते हैं। ये विशेष सुविधाएं ऐसे लोगों को समाज में उन्नति व विकास करने में सहायता प्रदान करती हैं।

निष्कर्ष:
समानता का सही अर्थ यह है कि राज्य और समाज में विशेष सुविधाओं का अंत होना चाहिए और सभी को अपने-अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए। अवसर की समानता ही सच्ची समानता है। जाति, वंश, रंग, संपत्ति, भाषा, धर्म आदि के आधार पर किसी भी व्यक्ति को विशेष सुविधाएं नहीं मिलनी चाहिएँ। लास्की के अनुसार समानता के लिए निम्नलिखित बातें होनी चाहिएँ

  • सभी को पर्याप्त अवसर,
  • सभी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति,
  • विशेष सुविधाओं का अंत।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

प्रश्न 2.
समानता के विभिन्न रूपों का वर्णन कीजिए।
अथवा
सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समानता की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
समानता का अर्थ जानने के बाद हमारे लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम समानता के विभिन्न रूपों का अध्ययन करें। भिन्न-भिन्न लेखक समानता के प्रकारों को भिन्न-भिन्न संख्या और नाम देते हैं, जैसे बार्कर दो प्रकार की समानता मानता है- वैधानिक तथा सामाजिक। प्रो० लास्की के अनुसार समानता राजनीतिक तथा आर्थिक दो प्रकार की होती है। ब्राइस चार प्रकार की समानता मानता है-

  • नागरिक समानता,
  • सामाजिक समानता,
  • राजनीतिक समानता तथा
  • प्राकृतिक समानता।

आजकल समानता पांच प्रकार की मानी जाती है; जैसे

  • प्राकृतिक समानता,
  • नागरिक समानता,
  • सामाजिक समानता,
  • राजनीतिक समानता तथा
  • आर्थिक समानता।

उपर्युक्त समानताओं का विस्तारपूर्वक वर्णन नीचे दिया गया है

1. प्राकृतिक समानता:
कुछ लोगों का विचार है कि सभी लोग जन्म से ही समान हैं। वे संसार में दिखाई देने वाली सभी असमानताओं को मानवकृत मानते हैं। प्राकृतिक समानता की अवधारणा को 1789 की फ्रांस की मानव अधिकारों की घोषणा में माना गया है और 1776 ई० की अमेरिका की स्वतंत्रता घोषणा में भी माना गया है। परंतु ऐसा विचार गलत है, क्योंकि लोगों में काफी असमानताएं हैं जो जन्म से ही होती हैं और उनका समाप्त करना भी असंभव है।

दो भाई भी आपस में बराबर नहीं होते। सभी लोगों में शरीर और दिमाग से संबंधित परस्पर असमानता है। वास्तव में जन्म से ही बच्चों में शारीरिक और मानसिक असमानता होती है जिसे दूर करना संभव नहीं है। इसलिए यह कहना गलत है कि प्रकृति मनुष्यों को जन्म से समानता प्रदान करती है।

2. नागरिक समानता:
नागरिक समानता का अर्थ है कि नागरिक अधिकार सब लोगों के लिए समान हों। सब लोगों के लिए जीवन, स्वतंत्रता, परिवार और धर्म आदि से संबंधित अधिकार पूरी तरह से सुरक्षित हों। किसी भी व्यक्ति के साथ रंग, जाति, धर्म या लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। यदि किसी राज्य में किसी भी आधार पर कुछ भेदभाव किया जाता है तो वहाँ पूर्ण नागरिक समानता नहीं कही जा सकती।

नागरिक समानता में यह भी शामिल है कि सब लोग कानून के सामने बराबर (Equal before Law) हों। प्रधानमंत्री से लेकर साधारण नागरिक तक सभी के ऊपर एक ही कानून लागू हो। सरकारी कर्मचारियों के लिए भी अलग कानून न हों। किसी भी व्यक्ति को बिना कानून तोड़े कोई दंड न दिया. जाए। इसे कई बार वैधानिक समानता भी कहा जाता है।

3. सामाजिक समानता:
सामाजिक समानता का अर्थ है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समाज में समान समझा जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति समाज का बराबर अंग है और सभी को समान सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिएँ। किसी व्यक्ति से धर्म, जाति, लिंग, धन आदि के आधार पर भेदभाव न हो। भारत में जाति-पाति के आधार पर भेद किया जाता था। भारत सरकार ने कानून द्वारा छुआछूत को समाप्त कर दिया है। दक्षिण अफ्रीका में कुछ समय पहले रंग के आधार पर भेदभाव किया जाता था, जिसे 1991 में एक कानून पास करके समाप्त कर दिया गया है।

अब वहाँ सामाजिक समानता पाई जाती है। अमेरिका में भी काले और गोरे लोगों में भेद किया जाता रहा है। वहाँ पर काले लोगों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया जाता लेकिन पिछले कुछ वर्षों से कानून द्वारा इस भेदभाव को समाप्त करने का प्रयत्न किया जा रहा है। इस प्रयास में सरकार को काफी सफलता भी मिली है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सामाजिक समानता की स्थापना केवल कानून बनाकर ही नहीं की जा सकती, बल्कि इसके लिए लोगों को शिक्षित करके उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना होगा अर्थात लोगों के सामाजिक, धार्मिक व जातिगत दृष्टिकोण में परिवर्तन करना आवश्यक है।

4. राजनीतिक समानता:
राजनीतिक समानता का अर्थ है कि जो लोग संविधान और कानून की दृष्टि से योग्य हैं, उन्हें समान राजनीतिक अधिकार प्रदान किए जाएं। संविधान या कानून के द्वारा जो लोग इन अधिकारों से वंचित किए जाएं, वे किसी भेदभाव के आधार पर वंचित न किए जाएं। सभी प्रौढ़ लोगों को मताधिकार प्राप्त होना चाहिए और किसी विशेष आयु से ऊपर सब लोगों को चुनाव लड़ने का अधिकार हो। राजनीतिक समानता में समान स्वतंत्रताएं (भाषण, प्रैस और संगठन से संबंधित) और सरकार की आलोचना करने का अधिकार भी शामिल है।

इन अधिकारों पर कोई ऐसे प्रतिबंध नहीं होने चाहिएँ, जिनसे धर्म, रंग, जाति या लिंग आदि के आधार पर किसी के साथ पक्षपात हो, जैसे पाकिस्तान में कोई गैर-मुसलमान वहाँ का राष्ट्रपति नहीं बन सकता। इसी तरह कई देशों में स्त्रियों को राजनीतिक अधिकारों से वंचित किया गया है, जैसे स्विट्ज़रलैंड में पहले नीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। अभी कुछ वर्ष पहले ही वहाँ स्त्रियों को ये अधिकार दिए गए। कुछ मुस्लिम देशों में अब भी महिलाओं को राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं। यह राजनीतिक समानता के विरुद्ध है।

5. आर्थिक समानता:
आर्थिक समानता का तात्पर्य है कि लोगों में आर्थिक भेद न हों। इसका यह अर्थ नहीं कि लोगों की आमदनी व खर्च के आंकड़े समान हों, परंतु इसका उद्देश्य समाज में पाई जाने वाली धन और आय की असमानताओं को दूर करना है। आर्थिक समानता के सिद्धांत की मांग है कि समाज के सभी सदस्यों को जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त साधन प्राप्त होने चाहिएँ अर्थात सभी लोगों को कम-से-कम आवश्यक भोजन, वस्त्र और निवास-स्थान मिलना चाहिए, क्योंकि ये अच्छे जीवन की मूल आवश्यकताएं हैं।

सबकी प्रारम्भिक आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद ही किसी के लिए विलास-सामग्री की बात सोची जाए। लास्की का कथन है, “मुझे अपने लिए केक पकाने का कोई अधिकार नहीं है, जबकि मेरा पड़ोसी उसी अधिकार को रखते हुए भी भूखा सो रहा है।”सबको काम पाने तथा मजदूरी का उचित फल पाने का अधिकार हो। आर्थिक समानता इस बात पर जोर देती है कि किसी के पास भी अपने लिए जरूरत से अधिक धन नहीं होना चाहिए, जबकि दूसरे भूखे मर रहे हों।

इस प्रकार आर्थिक समानता समाजवादी आदर्श स्थापित करना चाहती है जिसमें देश की संपत्ति का न्यायपूर्ण और ठीक-ठीक वितरण हो, जिनमें आर्थिक शोषण न हो और जिसमें समाज को हानि पहुंचाकर धन एकत्रित करने का मौका न दिया जाए। वास्तव में जब तक आर्थिक समानता नहीं होगी, तब तक नागरिक, राजनीतिक और सामाजिक समानता स्थापित नहीं हो सकती।

निष्कर्ष: समानता के उपरोक्त रूपों का अध्ययन करने के पश्चात ऐसा मालूम पड़ता है कि सभी रूप अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं। अकेले में कोई समानता लाभकारी नहीं है। आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक या सामाजिक समानता स्थापित नहीं की जा सकती। ऐसे ही राजनीतिक समानता के बिना आर्थिक या नागरिक समानता स्थापित नहीं की जा सकती। अतः समाज में सभी प्रकार की समानताओं का होना आवश्यक है। व्यक्ति का विकास भी सभी समानताओं पर निर्भर करता है।

प्रश्न 3.
समानता और स्वतंत्रता में क्या संबंध है? अथवा राजनीतिक समानता और आर्थिक समानता के आपसी संबंधों का वर्णन करें। क्या स्वतंत्रता और समानता एक-दूसरे के विरोधी हैं? अथवा राजनीतिक स्वतंत्रता तथा आर्थिक समानता में संबंध बताएं।
उत्तर:
समानता और स्वतंत्रता लोकतंत्र के मूल तत्त्व हैं। व्यक्ति के विकास के लिए स्वतंत्रता तथा समानता का विशेष महत्त्व है। बिना स्वतंत्रता और समानता के मनुष्य अपना विकास नहीं कर सकता, परंतु स्वतंत्रता और समानता के संबंध पर विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विचारकों का मत है कि स्वतंत्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं, जबकि कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता तथा समानता में गहरा संबंध है और स्वतंत्रता की प्राप्ति के बिना समानता नहीं की जा सकती अर्थात एक के बिना दूसरे का कोई महत्त्व नहीं है।

स्वतंत्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं:
कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता तथा समानता परस्पर विरोधी हैं और एक ही समय पर दोनों की प्राप्ति नहीं की जा सकती। टॉक्विल तथा लॉर्ड एक्टन इस विचारधारा के मुख्य समर्थक हैं। इन विद्वानों के मतानुसार जहां स्वतंत्रता है, वहाँ समानता नहीं हो सकती और जहां समानता है, वहाँ स्वतंत्रता नहीं हो सकती। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यदि समाज में आर्थिक समानता स्थापित कर दी. गई तो स्वतंत्रता समाप्त हो जाएगी, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर धन नहीं कमा सकेगा। इन विचारकों ने निम्नलिखित आधारों पर स्वतंत्रता तथा समानता को विरोधी माना है

1. सभी मनुष्य समान नहीं हैं:
इन विचारकों के अनुसार असमानता प्रकृति की देन है। कुछ व्यक्ति जन्म से ही शक्तिशाली होते हैं तथा कुछ कमजोर। कुछ व्यक्ति जन्म से ही बुद्धिमान होते हैं और कुछ मूर्ख। अतः मनुष्य में असमानताएं प्रकृति की देन हैं और इन असमानताओं के होते हुए सभी व्यक्तियों को समान समझना अन्यायपूर्ण और अनैतिक है।

2. आर्थिक स्वतंत्रता और समानता परस्पर विरोधी हैं:
व्यक्तिवादी सिद्धांत के अनुसार स्वतंत्रता तथा समानता को परस्पर विरोधी माना जाता है। व्यक्तिवादी सिद्धांत के अनुसार मनुष्य को आर्थिक क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए तथा आर्थिक क्षेत्र में स्वतंत्र प्रतियोगिता होनी चाहिए। यदि स्वतंत्र प्रतियोगिता को अपनाया जाए तो कुछ व्यक्ति अमीर हो जाएंगे, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ेगी और यदि आर्थिक समानता की स्थापना की जाए तो व्यक्ति का स्वतंत्र व्यापार का अधिकार समाप्त हो जाता है। आर्थिक समानता तथा स्वतंत्रता परस्पर विरोधी हैं और एक समय पर दोनों की स्थापना नहीं की जा सकती।

3. समान स्वतंत्रता का सिद्धांत अनैतिक है:
सभी व्यक्तियों की मूल योग्यताएं समान नहीं होती। इसलिए सबको समान अधिकार अथवा स्वतंत्रता प्रदान करना अनैतिक और अन्यायपूर्ण है।

4. प्रगति में बाधक (Resists the Progress) यदि स्वतंत्रता के सिद्धांत को समानता के आधार पर लागू किया जाए तो इससे व्यक्ति तथा समाज को समान रूप दे दिए जाते हैं जिससे योग्य तथा अयोग्य व्यक्ति में अंतर करना कठिन हो जाता है। इससे योग्य व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का अवसर नहीं मिलता।

स्वतंत्रता और समानता परस्पर विरोधी नहीं हैं स्वतंत्रता और समानता के संबंधों के विषय में दूसरा दृष्टिकोण व्यक्त किया गया है कि यह दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। जिन विचारकों ने स्वतंत्रता को समानता का विरोधी माना है, वास्तविकता में उन्होंने स्वतंत्रता का सही अर्थ नहीं लिया है। यदि वे स्वतंत्रता को सही अर्थ में लें तो स्वतंत्रता और समानता का संबंध स्पष्ट हो जाएगा कि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

जो विचारक स्वतंत्रता तथा समानता को परस्पर विरोधी न मानकर एक-दूसरे का पूरक मानते हैं और इनका आपस में घनिष्ठ संबंध बतलाते हैं, उनमें प्रसिद्ध हैं रूसो, प्रो० आर०एच० टॉनी व प्रो० पोलार्ड। रूसो (Rousseau) के अनुसार, “बिना स्वतंत्रता के समानता जीवित नहीं रह सकती।” प्रो० आर०एच० टॉनी (Prof. R.H. Tony) के अनुसार, “समानता की प्रचुर मात्रा स्वतंत्रता की विरोधी नहीं, वरन इसके लिए अत्यंत आवश्यक है।” प्रो० पोलार्ड (Prof. Pollard) के अनुसार, “स्वतंत्रता की समस्या का केवल एक ही समाधान है और वह है समानता।” ऊपरलिखित विचारक अपने पक्ष में निम्नलिखित तर्क देते हैं

1. स्वतंत्रता और समानता का विकास एक साथ हुआ है:
स्वतंत्रता और समानता का संबंध जन्म से है। जब निरंकुशता और असमानता के विरुद्ध मानव ने आवाज उठाई और क्रांतियां हुईं, तो स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों का जन्म हुआ। इस प्रकार इन दोनों में रक्त-संबंध है।

2. दोनों प्रजातंत्र के आधारभूत सिद्धांत हैं:
स्वतंत्रता और समानता का विकास प्रजातंत्र के साथ हुआ है। प्रजातंत्र के दोनों मूल सिद्धांत हैं। दोनों के बिना प्रजातंत्र की स्थापना नहीं की जा सकती।

3. दोनों के रूप समान हैं:
स्वतंत्रता और समानता के प्रकार एक ही हैं और उनके अर्थों में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। प्राकृतिक स्वतंत्रता तथा प्राकृतिक समानता का अर्थ प्रकृति द्वारा प्रदान की गई स्वतंत्रता अथवा समानता है। नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ समान नागरिक अधिकारों की प्राप्ति है। इसी प्रकार दोनों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक इत्यादि रूप हैं।

4. दोनों के उद्देश्य समान हैं:
दोनों का एक ही उद्देश्य है और वह है व्यक्ति के विकास के लिए सुविधाएं प्रदान करना, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके। एक के बिना दूसरे का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। स्वतंत्रता के बिना समानता असंभव है और समानता के बिना स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है। आशीर्वादम (Ashirvatham) ने दोनों में घनिष्ठ संबंध बताया है।

उसने लिखा है, “फ्रांस के क्रांतिकारियों ने जब स्वतंत्रता, समानता तथा भाई-चारे को अपने युद्ध का नारा बताया तो वे न पागल थे और न ही मूर्ख।” इस प्रकार स्पष्ट है कि समानता तथा स्वतंत्रता में गहरा संबंध है।

5. आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता संभव नहीं है:
समानता और स्वतंत्रता में घनिष्ठ संबंध ही नहीं है बल्कि आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता एक धोखा व कपट मात्र है, क्योंकि गरीब व्यक्ति अपनी राजनीतिक स्वतंत्रताओं का भोग कर ही नहीं सकता। उसके लिए राजनीतिक स्वतंत्रताओं का कोई मूल्य नहीं है।

जैसा कि हॉब्सन ने ठीक ही कहा है, “भूखे व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता का क्या लाभ है? वह स्वतंत्रता को न खा सकता है और न पी सकता है।” अतः जिस समाज में गरीबी है, वहाँ राजनीतिक स्वतंत्रता हो ही नहीं सकती।

निष्कर्ष:
स्वतंत्रता और समानता के आपसी संबंधों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे के सहायक हैं। जो विद्वान इन दोनों को विरोधी मानते हैं, उन्होंने समानता व स्वतंत्रता को सही अर्थों में नहीं लिया है। यदि इन दोनों को सकारात्मक अर्थों में लिया जाए तो ये एक-दूसरे के पूरक हैं। समानता के बिना स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के बिना समानता अधूरी है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

प्रश्न 4.
आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता व्यर्थ है।
अथवा
आर्थिक समानता व राजनीतिक स्वतंत्रता में संबंध बताएँ।
अथवा
“आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता एक धोखा मात्र है।” इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर:
राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक समानता को प्रजातंत्र का आधार माना गया है। प्रजातंत्र को सफल बनाने के लिए इन दोनों स्वतंत्रताओं में आपसी संबंध होना आवश्यक है। इस संदर्भ में लास्की ने ठीक ही कहा है, “आर्थिक समानता की अनुपस्थिति में राजनीतिक स्वतंत्रता एक धोखा है।” लास्की के इस कथन में काफी सच्चाई है, क्योंकि गरीब व्यक्ति के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई महत्त्व नहीं है।

गरीब व्यक्ति मताधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। वह चुनाव नहीं लड़ सकता है अर्थात निर्धन व्यक्ति राजनीतिक स्वतंत्रताओं का आनंद नहीं उठा सकता। राजनीतिक स्वतंत्रता व आर्थिक समानता के परस्पर संबंधों को देखने से पहले राजनीतिक स्वतंत्रता एवं आर्थिक समानता के अर्थों को जानना आवश्यक है।

राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ:
राजनीतिक स्वतंत्रता का तात्पर्य है कि राज्य के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेना। व्यक्ति को इसमें अपने नागरिक अधिकारों का प्रयोग करने की स्वतंत्रता होती है। व्यक्ति अपने विवेकपूर्ण निर्णय का राजनीतिक क्षेत्र में प्रयोग कर सकता है। उसे अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है और निर्वाचित होने का भी अधिकार प्राप्त होता है। इस प्रकार राजनीतिक स्वतंत्रता शासन कार्यों में भाग लेने और शासन-व्यवस्था को प्रभावित करने की शक्ति का नाम है।

आर्थिक समानता का अर्थ:
आर्थिक समानता का साधारण शब्दों में अर्थ है कि समाज में आर्थिक असमानता को दूर किया जाए। इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति की आय और संपत्ति समान हो। इसका अर्थ यह है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने व अपनी आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए समान अवसर प्राप्त होने चाहिएँ। आर्थिक समानता के लिए निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है

  • समान अवसरों की प्राप्ति,
  • समान कार्य के लिए समान वेतन,
  • आर्थिक समानता को कम किया जाए,
  • आर्थिक शोषण को समाप्त करना,
  • स्वामी और सेवक की व्यवस्था को समाप्त करना आदि।

इन दोनों के संबंधों के बारे में हॉब्सन ने ठीक कहा है, “एक भूखे मर रहे व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता का क्या लाभ है? वह स्वतंत्रता को न खा सकता है और न पी सकता है।” श्री जी०डी० एच० कोल ने भी ठीक ही कहा है, “राजनीतिक स्वतंत्रता आर्थिक समानता के बिना एक ढोंग है।” अतः स्पष्टता के लिए इन दोनों के संबंधों को निम्नलिखित ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है

1. निर्धन व्यक्ति के लिए मताधिकार का कोई महत्त्व नहीं है:
राजनीतिक स्वतंत्रताओं में वोट का अधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण है लेकिन निर्धन व्यक्ति के लिए इसका कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि वह न तो इसको खा सकता है और न पी सकता है। निर्धन व्यक्ति हमेशा अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में लगा रहता है। निर्धन व्यक्ति को वोट का अधिकार देना एक वास्तविक वस्तु की बजाए उसकी परछाई मात्र है। यदि निर्धन व्यक्ति को मताधिकार व मजदूरी में से किसी एक का चुनाव करना पड़े तो वह मजदूरी को ही चुनेगा। अतः गरीब व्यक्ति के लिए मताधिकार का कोई महत्त्व नहीं है।

2. निर्धन व्यक्ति द्वारा मताधिकार का दुरुपयोग:
व्यक्ति की आर्थिक स्थिति उसकी राजनीतिक स्वतंत्रता को प्रभावित करती है। निर्धन व्यक्ति अपने मताधिकार का दुरुपयोग कर सकता है। वह लोभ में आकर अपने मताधिकार को बेच देता है। वास्तविकता में इसके लिए निर्धन व्यक्ति की आर्थिक स्थिति उत्तरदायी है जो उसे अपने पवित्र अधिकार, मताधिकार को बेचने के लिए मजबूर कर देती है। वह मताधिकार के बदले में प्राप्त धन से अपने परिवार की भूख मिटा सकता है। अतः स्पष्ट है कि आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता संभव नहीं है।

3. निर्धन व्यक्ति मताधिकार का प्रयोग नहीं करते:
राजनीतिक स्वतंत्रताओं का प्रयोग व्यक्ति के बुद्धि के स्तर पर निर्भर करता है अर्थात् व्यक्ति का शिक्षित व जागरूक होना आवश्यक है। निर्धनता व्यक्ति के शिक्षित होने के रास्ते में बाधा बनती है। अशिक्षित व्यक्ति न तो राजनीतिक समस्या पाता है और न ही उनका समाधान निकाल सकता है। अशिक्षित होने से व्यक्ति अपने मताधिकार का ठीक प्रयोग नहीं कर सकता और सही नेता का चुनाव भी नहीं कर सकता। अतः स्पष्ट है कि निर्धन व्यक्ति अशिक्षित रह जाते हैं तथा चालाक राजनीतिज्ञ साधारण व्यक्तियों का राजनीतिक रूप से शोषण करते हैं।

निर्धन व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता :
लोकतंत्रीय राज्यों में प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त है। परंतु यह अधिकार नाममात्र का है, क्योंकि आधुनिक युग में चुनाव लड़ने के लिए लाखों रुपयों की आवश्यकता होती है जो निर्धन व्यक्ति के पास नहीं होते। वास्तविकता यह है कि निर्धन व्यक्ति धन के अभाव में चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। वह बड़े-बड़े धनिकों या पूंजीपतियों का चुनाव में मुकाबला कैसे कर सकता है? अतः स्पष्ट है कि राजनीतिक स्वतंत्रता निर्धन के लिए मात्र एक दिखावा है।

5. निर्धन व्यक्ति उच्च पद प्राप्त नहीं कर सकता:
निर्धन व्यक्ति या श्रमिक वर्ग अशिक्षित होता है और उसके पास इतने साधन नहीं होते हैं कि वह अपने बच्चों को शिक्षित करके उन्हें उच्च पद प्राप्त करने के योग्य बना सके। उसे अपनी रोजी-रोटी कमाने से ही फुरसत नहीं मिलती, इसलिए वह राजनीति में भाग नहीं ले सकता और न ही उच्च पदों को प्राप्त कर सकता है।

6. राजनीतिक दलों पर पूंजीपतियों का नियंत्रण:
राजनीतिक स्वतंत्रता में राजनीतिक दलों का अध्ययन आता है और लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दलों का होना अनिवार्य भी है। आज की राजनीति राजनीतिक दलों पर निर्भर करती है। राजनीतिक दल ही सरकार का निर्माण करते हैं। राजनीतिक दलों को अपना काम चलाने के लिए धन चाहिए। उन्हें यह धन पूंजीपतियों से मिलता है। पूंजीपतियों का राजनीतिक दलों पर प्रभुत्व होता है।

वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक दलों को प्रभावित करते हैं। पूंजीपतियों द्वारा समर्थित राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद पूंजीपतियों के ही गुणगान करते हैं। अतः निर्धन लोगों की राजनीतिक स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है। इस संबंध में किसी लेखक ने ठीक ही कहा है कि धनवान व्यक्ति कानून पर शासन करते हैं और कानून निर्धन व्यक्ति को पीसता है।

7. प्रेस धनी व्यक्ति का साधन है :
प्रेस राजनीतिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है। प्रैस ही सरकार के कार्यों की आलोचना करती है। प्रैस द्वारा ही लोगों की समस्याओं को सरकार तक पहुंचाया जा सकता है, लेकिन प्रैस पर पूंजीपतियों का नियंत्रण होता है। प्रैस गरीब व्यक्तियों की समस्याओं को न तो छापती है और न ही सरकार का उनकी ओर ध्यान जाता है। अतः अमीर व्यक्ति ही प्रैस का प्रयोग करते हैं। प्रैस उनको ही लाभ पहुंचाती है। अतः राजनीतिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए जिस प्रकार से स्वतंत्र प्रैस की आवश्यकता होती है, वह उसके अनुसार नहीं होती।

8. इतिहास इसका समर्थन करता है :
इतिहास इस बात का समर्थन करता है कि आर्थिक असमानता के रहते राजनीतिक स्वतंत्रता स्थापित नहीं हो सकती। पूंजीपति श्रमिकों का न केवल आर्थिक आधार पर बल्कि राजनीतिक आधार पर भी उनका शोषण करते हैं। यह निश्चित है कि श्रमिक पूंजीपतियों की दया पर निर्भर करते हैं और उनके राजनीतिक अधिकार भी पूंजीपतियों के हाथों में ही चले जाते हैं।

निष्कर्ष:
उपरोक्त तर्कों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक समानता में गहरा संबंध है। लास्की का यह कहना कि आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतंत्रता एक ढोंग है, बिल्कुल सच है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि राजनीतिक स्वतंत्रता को वास्तविक बनाने के लिए आर्थिक समानता का होना अनिवार्य है इसलिए वास्तविक प्रजातंत्र का अस्तित्व केवल वही हो सकता है, जहां आर्थिक प्रजातंत्र है।

वस्तु निष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम एवं फ्रांस की राज्य क्रांति में स्वतंत्रता, समानता एवं भातृत्व का नारा देने वाले विचारक निम्नलिखित में से हैं
(A) जेफरसन
(B) जॉन लॉक एवं रूसो
(C) वाल्टेयर
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

2. समानता की अवधारणा को विकसित एवं प्रेरित करने में निम्नलिखित में से किस कारक का योगदान रहा है?
(A) साम्राज्यवाद
(B) सामंतवाद
(C) पूंजीवाद
(D) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों

3. समानता की अवधारणा के सम्बन्ध में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है?
(A) सभी को समान वेतन
(B) विशेषाधिकारों का अभाव
(C) सभी को समान गुजारा-भत्ता
(D) सबके साथ समान व्यवहार
उत्तर:
(B) विशेषाधिकारों का अभाव

4. समानता का लक्षण निम्नलिखित में से है
(A) सभी को पर्याप्त अवसर देना
(B) सभी को मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति
(C) समाज में विशेष सुविधाओं का अंत
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. समाज में नागरिकों के अधिकारों का लोगों को समान रूप से प्राप्त न होना कौन-सी असमानता का रूप है?
(A) सामाजिक असमानता
(B) प्राकृतिक असमानता
(C) नागरिक असमानता
(D) संवैधानिक असमानता
उत्तर:
(C) नागरिक असमानता

6. स्वतंत्रता एवं समानता को परस्पर विरोधी मानने वाला विचारक निम्नलिखित में से हैं
(A) डी० टॉकविल
(B) लार्ड एक्टन
(C) डी० टॉकविल एवं लार्ड एक्टल
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) डी० टॉकविल एवं लार्ड एक्टन

7. स्वतंत्रता एवं समानता को एक-दूसरे के संपूरक मानने वाले विद्वान निम्नलिखित में से हैं
(A) रूसो
(B) प्रो० पोलार्ड
(C) प्रो०आर०एच०टोनी
(D) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(D) उपर्युक्त तीनों

8. “फ्रांस के क्रांतिकारियों ने जब स्वतंत्रता, समानता तथा भाई-चारे को अपने युद्ध का नारा बनाया तो वे न पागल थे और न ही मूर्ख।” यह कथन निम्नलिखित में से है
(A) हॉब्सन
(B) आशीर्वादम
(C) लार्ड एक्टन
(D) सी०ई०एम० जोड
उत्तर:
(B) आशीर्वादम

9. आर्थिक समानता का लक्षण निम्नलिखित में से नहीं है
(A) समान कार्य के लिए समान वेतन
(B) आर्थिक शोषण को समाप्त करना
(C) समान अवसरों की प्राप्ति होना
(D) कानून के समक्ष समानता
उत्तर:
(D) कानून के समक्ष समानता

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. किस प्रकार की समानता में सभी नागरिकों को शासन में भाग लेने का समान अधिकार प्राप्त होता है?
उत्तर:
राजनीतिक समानता में।।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

2. समाज में जाति, रंग, धर्म, भाषा, वर्ण एवं जन्म के आधार पर भेदभाव होना कौन-सी असमानता का रूप है?
उत्तर:
सामाजिक असमानता का।

3. “भूखे व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता का क्या लाभ है? वह स्वतंत्रता को न खा सकता है और न पी सकता है।” यह कथन किस विद्वान का है?
उत्तर:
हॉब्सन का।

रिक्त स्थान भरें

1. पुरुष एवं स्त्रियों में भेदभाव करना ……………. असमानता का रूप कहलाता है।
उत्तर:
लैंगिक

2. जन्म के आधार पर सभी मनुष्यों को समान मानने वाली समानता …………….. कहलाती है।
उत्तर:
प्राकृतिक समानता

3. “राजनीतिक स्वतंत्रता आर्थिक समानता के बिना एक ढोंग है।” यह कथन एक ढाग है।” यह कथन …………….. का है।
उत्तर:
जी०डी०एच० कोल

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार

HBSE 11th Class Political Science अधिकार Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
अधिकार क्या हैं और वे महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? अधिकारों का दावा करने के लिए उपयुक्त आधार क्या हो सकते हैं?
उत्तर:
अधिकार सामान्य जीवन का एक ऐसा वातावरण है, जिसके बिना कोई भी व्यक्ति अपने जीवन का विकास कर ही नहीं सकता। अधिकार व्यक्ति के विकास और स्वतंत्रता का एक ऐसा दावा है जो कि व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए लाभदायक है, जिसे समाज मानता है और राज्य लागू करता है। अधिकार एक व्यक्ति की अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध अपनी सुविधा की मांग है। यह समाज पर एक दावा है, परंतु इसे हम शक्ति नहीं कह सकते, जैसा कि ऑस्टिन ने कहा है कि शक्ति हमें प्रकृति से प्राप्त होती है, जिसमें देखने, सुनने और दौड़ने आदि की शक्तियां सम्मिलित हैं।

परंतु यह बात ध्यान देने योग्य है कि व्यक्ति की प्रत्येक मांग को हम ‘दावा’ (Claim) नहीं कह सकते, क्योंकि मांग उचित भी हो सकती है अथवा अनुचित भी, नैतिक भी हो सकती है और अनैतिक भी। एक व्यक्ति की दूसरे को मारने अथवा लूटने की मांग को हम दावा नहीं कह सकते, क्योंकि इस दावे से दूसरे को हानि हो सकती है और समाज ऐसे दावे को कभी स्वीकार नहीं कर सकता।

केवल वही ‘दावा’ ही अधिकार बन सकता है जिसे समाज की स्वीकृति प्राप्त हो, परंतु एक ‘दावे’ के अधिकार बनने के लिए केवल इतना ही काफी नहीं है, समाज द्वारा स्वीकार व्यक्ति का केवल वही ‘दावा’ अधिकार का रूप ले सकता है, जिसे राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त हो जाए अर्थात राज्य उसे लागू करने के लिए स्वीकृति प्रदान कर दे। बोसांके (Bosanque) ने लिखा है कि

“अधिकार मनुष्य का वह दावा है जिसे समाज स्वीकार करता है तथा राज्य लागू करता है।” व्यक्ति की नैतिक मांगें ही अधिकार बन सकती हैं, अनैतिक मांगें नहीं। जीवित रहने, संपत्ति रखने, विचार प्रकट करने आदि की मांगें नैतिक हैं, परंतु चोरी करने, मारने या गाली-गलौच करने की मांग अनैतिक है। जिन मांगों से व्यक्ति तथा समाज दोनों का ही हित होता हो, वे ही अधिकार कहलाएंगे।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 2.
किन आधारों पर यह अधिकार अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक माने जाते हैं?
उत्तर:
अधिकार व्यापक होते हैं। वे किसी एक व्यक्ति या वर्ग के लिए नहीं होते, वरन् समाज के सभी लोगों के लिए समान होते हैं। अधिकारों को प्रदान करते समय किसी के साथ जाति, धर्म, वर्ण आदि का भेदभाव नहीं किया जा सकता; जैसे

(1) समाज में सभी व्यक्तियों को व्यक्तिगत रूप में सम्मानित जीवन जीने का अधिकार है। अतः व्यक्तियों के जीवन को कानून द्वारा पूर्णतः सुरक्षा प्रदान की जाती है। इसी तरह

(2) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों के लिए महत्त्वपूर्ण है। इसी वजह से अधिकारों की प्रकृति सार्वभौमिक मानी जाती है। इसके अतिरिक्त

(3) शिक्षा का अधिकार हमें उपयोगी कौशल प्रदान करता है और जीवन में सूझ-बूझ के साथ चयन करने में सक्षम बनाता है। व्यक्ति के कल्याण के लिए शिक्षा अनिवार्य है। यही कारण है कि शिक्षा के अधिकार को सार्वभौमिक अधिकार माना गया है।

प्रश्न 3.
संक्षेप में उन नए अधिकारों की चर्चा कीजिए, जो हमारे देश में सामने रखे जा रहे हैं। उदाहरण के लिए आदिवासियों के अपने रहवास और जीने के तरीके को संरक्षित रखने तथा बच्चों के बँधुआ मजदूरी के खिलाफ अधिकार जैसे नए अधिकारों को लिया जा सकता है।
उत्तर:
अब विविध समाजों में मानवाधिकारों के संदर्भ में नए-नए खतरे और चुनौतियाँ उभरने लगी हैं और इसी क्रम में उन मानवाधिकारों की सूची लगातार बढ़ती जा रही है जिनका लोगों ने परिस्थितियों के कारण दावा किया है; जैसे कुछ नए अधिकार निम्नलिखित हैं

(1) स्वच्छ हवा, शुद्ध जल और टिकाऊ विकास जैसे अधिकार की मांग या दावा आम बात हो गई है।
(2) महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा को रोकने के लिए अधिकार की माँग भी आज प्रमुख दावों में सम्मिलित है।
(3) युद्ध या प्राकृतिक संकट के दौरान अनेक लोग, खासकर महिलाएँ, बच्चे या बीमार जिन बदलावों को झेलते हैं, उनके बारे में नई जागरूकता ने आजीविका के अधिकार, बच्चों के अधिकार और ऐसे अन्य अधिकारों की माँग उत्पन्न की है।
(4) महिला सशक्तिकरण के लिए लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की माँग भी निरन्तर बढ़ रही है।
(5) समाज के कमजोर/गरीब तबके के लोगों के लिए शौचालयों की व्यवस्था भी आज के समय में अपरिहार्य मांग बनती जा रही है।

प्रश्न 4.
राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों में अंतर बताइये। हर प्रकार के अधिकार के उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
नागरिकों के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों के अर्थों के साथ उनके अन्तर को निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है

1. राजनीतिक अधिकार राजनीतिक अधिकार से अभिप्राय उन अधिकारों से है जिनमें नागरिक को देश की शासन प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर मिलता है। राजनीतिक अधिकार व्यक्ति को एक निश्चित योग्यता के आधार पर प्राप्त होता है; जैसे, मत देने के लिए एक निश्चित आयु सीमा निर्धारित की गई है, उसी प्रकार लोकसभा एवं विधानसभा के सदस्य बनने के लिए एक निश्चित आयु सीमा निर्धारित की गई है।

राजनीतिक अधिकार नागरिक स्वतंत्रताओं से जुड़े होते हैं। नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ है-स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जाँच का अधिकार, विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार तथा प्रतिवाद करने और असहमति प्रकट करने का अधिकार । नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक अधिकार मिलकर किसी सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली के सफल संचालन के आधार बनते हैं।

2. आर्थिक अधिकार आर्थिक अधिकार उन सुविधाओं का नाम है जिनके कारण व्यक्ति अपनी आर्थिक स्थिति को अच्छी बना सकता है। कुछ मुख्य आर्थिक अधिकार हैं-काम करने का अधिकार, उचित मजदूरी पाने का अधिकार, काम के निश्चित घंटों का अधिकार, अवकाश का अधिकार और आर्थिक सुरक्षा का अधिकार आदि।

आर्थिक अधिकार राजनीतिक अधिकार से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि एक मजदूर और भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए संघर्ष करने वालों के लिए अपने-आप में राजनीतिक अधिकार का कोई मूल्य नहीं है। अतः राजनीतिक अधिकारों के उपयोग हेतु आर्थिक समानता आवश्यक है।

3. सांस्कृतिक अधिकार- अब अधिकांश लोकतांत्रिक देशों की सरकारों ने राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के साथ नागरिकों के सांस्कृतिक दावों को भी मान्यता प्रदान की है; जैसे अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार, अपनी भाषा लिपि और संस्कृति के शिक्षण के लिए संस्थाएँ बनाने के अधिकार को बेहतर जिंदगी जीने के लिए आवश्यक माना जा रहा है। हमारे भारतीय संविधान में भी हमने सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकार को मूल अधिकार के रूप में प्रदान किया है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार

प्रश्न 5.
अधिकार राज्य की सत्ता पर कुछ सीमाएँ लगाते हैं। उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अधिकार हमें केवल यहीं नहीं बताते कि राज्य को क्या करना है बल्कि हमें वे यह भी बताते हैं कि राज्य को क्या कुछ नहीं करना है। दूसरे शब्दों में, अधिकार राज्य की सत्ता पर कुछ सीमाएँ या अंकुश भी लगाते हैं, जो अग्रलिखित रूप में स्पष्ट कर सकते हैं

(1) राज्य सत्ता केवल अपनी इच्छा से किसी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं कर सकती। अगर वह किसी को जेल में बंद करना चाहती है, तो उसे इस कार्रवाई को उचित ठहराना पड़ेगा। उसे किसी न्यायालय के समक्ष उस व्यक्ति की स्वतंत्रता के विपरीत बन्दी बनाने का कारण बताना होगा।
(2) किसी को गिरफ्तार करने से पहले गिरफ्तारी का वारंट दिखाना पुलिस के लिए आवश्यक होता है।
(3) गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष अपने आपको दोष मुक्त करने का पूर्ण अधिकार होगा। ऐसा वह स्वयं या वकील की सहायता से भी कर सकता है।

इस प्रकार हमारे अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य की सत्ता वैयक्तिक जीवन और स्वतंत्रता की मर्यादा का उल्लंघन किए बगैर काम करे। राज्य संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न सत्ता हो सकती है, उसके द्वारा निर्मित कानून बलपूर्वक लागू किए जा सकते हैं लेकिन संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न राज्य का अस्तित्व अपने लिए नहीं, बल्कि व्यक्ति के हित के लिए होता है। अतः सत्तारूढ़ सरकार को जनता के कल्याण की दृष्टि से ही कार्य करना होता है, अन्यथा जनता राज्य सत्ता के विरुद्ध खड़ी हो सकती है।

अधिकार HBSE 11th Class Political Science Notes

→ अधिकार और कर्त्तव्य राजनीतिक विचारकों के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। जब से बुद्धिजीवी वर्ग ने संगठन समाज, राज्य, व्यक्ति तथा समाज के संबंधों का गंभीर अध्ययन करना आरंभ किया तब से व्यक्ति के अधिकार और कर्तव्य महत्त्वपूर्ण हो गए हैं।

→ अधिकार को लेकर ही विश्व में कई क्रांतियां हुईं। अधिकार के प्रश्न पर अनेक वाद लिखे गए हैं। अधिकारों को लेकर ही प्रथम और द्वितीय महायुद्ध हुए। विश्व में अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का गठन भी अधिकारों की सुरक्षा के लिए ही किया गया है।

→ आधुनिक युग के प्रजातांत्रिक समय में अधिकारों की और भी अधिक महत्ता बढ़ गई है। राजनीतिक दल, सरकार, व्यक्ति और संस्थाओं के द्वारा अधिकारों की ही बात की जाती है।

→ प्रजातांत्रिक युग में प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति सजग हो चुका है और अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए हर संभव प्रयत्न करता है। प्रस्तुत अध्याय में हम व्यक्ति के अधिकारों और कर्तव्यों का अध्ययन करेंगे।

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HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़ Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान : एक जीवंत दस्तावेज़

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा कितने स्तरीय है? उनके नाम बताएँ।
उत्तर:
भारत में वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा तीन स्तरीय है

  • ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत,
  • खण्ड (ब्लॉक) अथवा तहसील स्तर पर पंचायत समिति,
  • जिला स्तर पर जिला-परिषद् ।

प्रश्न 2.
ग्राम सभा किसे कहते हैं?
उत्तर:
एक ग्राम पंचायत के क्षेत्र में रहने वाले सभी व्यक्ति, जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुके हैं और जिनका नाम मतदाताओं की सूची में होता है, मिलकर ग्राम सभा का निर्माण करते हैं। दूसरे शब्दों में, ग्राम पंचायत के क्षेत्र में रहने वाले सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 3.
ग्राम पंचायत के सदस्यों की संख्या कितनी होती है?
उत्तर:
एक ग्राम पंचायत के सदस्यों की संख्या गाँव की जनसंख्या के आधार पर राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। पंजाब में यह संख्या 5 से 13 के बीच तथा हरियाणा में 5 से 9 तक हो सकती है।

प्रश्न 4.
ग्राम पंचायत के अध्यक्ष को क्या कहा जाता है? उसका चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
ग्राम पंचायत के अध्यक्ष को सरपंच कहा जाता है। उसका चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 5.
ग्राम-पंचायत के सदस्यों का चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के आधार पर किया जाता है।

प्रश्न 6.
ग्राम पंचायत का कार्यकाल कितना होता है?
उत्तर:
73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार ग्राम पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है। सरकार द्वारा उसे पहले भी भंग किया जा सकता है।

प्रश्न 7.
ग्राम पंचायत के कोई तीन कार्य लिखिए।
उत्तर:

  • अपने क्षेत्र के विकास के लिए बजट तैयार करना तथा उसे ग्राम सभा के सामने पेश करना,
  • गाँव की गलियाँ बनवाना तथा उनकी मुरम्मत करवाना,
  • पीने के लिए शुद्ध पानी का प्रबन्ध करना।

प्रश्न 8.
ग्राम पंचायत की आय के कोई तीन साधन बताएँ।
उत्तर:

  • गृह-कर,
  • सरकार तथा अन्य संस्थाओं द्वारा प्राप्त अनुदान,
  • पंचायत द्वारा किए गए जुर्माने से आय।

प्रश्न 9.
पंचायत समिति के कोई दो कार्य लिखें।
उत्तर:

  • सामुदायिक विकास पंचायत समिति का मुख्य कार्य है। इसके अतिरिक्त अन्य कार्य हैं-क्षेत्र में विकास योजनाएँ लागू करना, उत्पादन में वृद्धि के लिए प्रयास करना तथा लोगों के लिए रोज़गार आदि पैदा करना,
  • कुटीर उद्योगों, ग्रामीण कला तथा कारीगरी के विकास के लिए प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना करना।

प्रश्न 10.
पंचायत समिति की आय के कोई साधन बताएँ।
उत्तर:

  • मेलों तथा मण्डियों से प्राप्त आय,
  • राज्य सरकार द्वारा वित्तीय सहायता अथवा अनुदान।

प्रश्न 11.
ज़िला-परिषद् के कोई दो कार्य बताएँ।
उत्तर:

  • अपने क्षेत्र में स्थापित पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करना,
  • पंचायत समितियों के बजट का निरीक्षण करना तथा उसे अपनी स्वीकृति प्रदान करना,
  • जिले में ग्रामीण विकास के सम्बन्ध में सरकार को सुझाव देना।

प्रश्न 12.
जिला-परिषद् की आय के कोई दो साधन बताएँ।
उत्तर:

  • राज्य सरकार द्वारा सहायता के रूप में दिया गया धन,
  • स्थानीय करों (Local Taxes) का कुछ भाग ज़िला-परिषद् को मिलता है।

प्रश्न 13.
74वाँ संवैधानिक संशोधन कब तथा किस लिए पास किया गया?
उत्तर:
74वाँ संवैधानिक संशोधन देश में शहरी स्थानीय संस्थाओं को अधिक मजबूत बनाने और उनमें लोगों की भागीदारी को बढ़ाने के लिए भारतीय संसद द्वारा सन 1992 में पास किया गया, जो सन 1993 में लागू हआ।

प्रश्न 14.
74वें संवैधानिक संशोधन की कोई दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:

  • इस संवैधानिक संशोधन द्वारा स्थानीय नगर संस्थाओं को पहली बार संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई,
  • इस संवैधानिक संशोधन के अनुसार तीन स्तरीय शहरी संस्थाओं की स्थापना की व्यवस्था की गई
    (a) परिवर्तनीय क्षेत्र के लिए नगर पंचायत,
    (b) छोटे नगरों के लिए नगर-परिषद् तथा
    (c) बड़े नगरों के लिए नगर-निगम।

प्रश्न 15.
नगर-निगम किसे कहते हैं? हरियाणा में कुल कितने नगर निगम हैं?
उत्तर:
नगर-निगम शहरी स्थानीय प्रशासन की सर्वोच्च संस्था है, जिसकी स्थापना बड़े-बड़े नगरों में की जाती है। हरियाणा में कुल 10 नगर-निगम हैं।

प्रश्न 16.
नगर-निगम में कितने सदस्य होते हैं?
उत्तर:
प्रत्येक नगर-निगम के सदस्यों की संख्या उस नगर की जनसंख्या के आधार पर राज्य सरकार द्वारा विशेष अधिनियम के अन्तर्गत निश्चित की जाती है।

प्रश्न 17.
नगर-निगम के सदस्यों का चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
नगर-निगम के सदस्यों अर्थात् सभासदों (Councillors) का चुनाव नगर के मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के अनुसार किया जाता है। सभासद कुछ अन्य सदस्यों का चुनाव करते हैं, जिन्हें एल्डरमैन (Aldermen) कहा जाता है, ये व्यक्ति सामाजिक, राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्ति होते हैं जो साधारण चुनाव के झंझट में नहीं पड़ना चाहते।

प्रश्न 18.
नगर-निगम का कार्यकाल कितना होता है?
उत्तर:
गम का साधारण कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है। राज्य सरकार द्वारा इसे निश्चित कार्यकाल समाप्त होने से पहले भी भंग किया जा सकता है।

प्रश्न 19.
नगर-निगम के अध्यक्ष को क्या कहते हैं? उसका चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
नगर-निगम के अध्यक्ष को महापौर (Mayor) कहा जाता है। उसका चुनाव नगर-निगम के सदस्यों द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 20.
महापौर (Mayor) के कोई दो कार्य लिखें।।
उत्तर:

  • वह नगर-निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है,
  • महापौर नगर का प्रथम नागरिक कहलाता है। वह नगर में आने वाले विशिष्ट अतिथियों का अभिनन्दन करते है।

प्रश्न 21.
नगर-निगम के कोई चार कार्य लिखें।
उत्तर:

  • अपने क्षेत्र में सफाई का प्रबन्ध करना,
  • पीने के लिए पानी तथा बिजली की व्यवस्था करना,
  • गली-सड़ी तथा मिलावट वाली वस्तुओं की बिक्री पर रोक लगाना,
  • श्मशान घाट तथा कब्रिस्तान की व्यवस्था करना।

प्रश्न 22.
नगर-निगम की आय के कोई दो साधन लिखें।
उत्तर:

  • गृह-कर (House Tax),
  • व्यवसाय कर (Profession Tax)

प्रश्न 23.
नगर-परिषद् (Municipal Council) की स्थापना किन नगरों में की जाती है ?
उत्तर:
नगर-परिषद् की स्थापना प्रायः उन नगरों में की जाती है जिनकी जनसंख्या 20,000 से अधिक होती है, परन्तु बहुत अधिक नहीं होती। इसकी स्थापना छोटे नगरों में की जाती है।

प्रश्न 24.
नगर-परिषद् के सदस्यों की संख्या कितनी होती है?
उत्तर:
नगर-परिषद् के सदस्यों की संख्या नगर की जनसंख्या के आधार पर राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है।

प्रश्न 25.
नगर-परिषद् के सदस्यों का चुनाव कैसे किया जाता है?
उत्तर:
नगर-परिषद् के सदस्यों का चुनाव नगर में रहने वाले मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के आधार पर किया जाता है।

प्रश्न 26.
नगर-परिषद् का कार्यकाल कितना होता है?
उत्तर:
नगर-परिषद् का साधारण कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है, परन्तु राज्य सरकार द्वारा इसे पहले भी भंग किया जा सकता है।

प्रश्न 27.
नगर परिषद् के कोई दो कार्य लिखें।
उत्तर:

  • नगर में पीने के पानी का प्रबन्ध करना,
  • नगर में बीमारी को फैलने से रोकना।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 28.
नगर-परिषद् की आय के कोई तीन साधन लिखें।
उत्तर:

  • गृह कर,
  • व्यवसाय कर,
  • मनोरंजन कर।

प्रश्न 29.
छावनी बोर्ड (Cantonment Board) की स्थापना कहाँ और क्यों की जाती है?
उत्तर:
छावनी बोर्ड की स्थापना उन शहरों में की जाती है जिनमें सैनिक छावनी (Army cantonment) है। यह बोर्ड केन्द्रीय सरकार के अधीन होता है। छावनी बोर्ड-छावनी क्षेत्र में वही कार्य करता है, जो नगर में नगर-परिषद् करती है।

प्रश्न 30.
शहरी स्थानीय संस्थाओं की कार्यविधि में कोई तीन दोष (त्रुटियाँ) लिखें।
उत्तर:

  • धन की कमी,
  • दलबन्दी की भावना,
  • जातिवाद तथा सम्प्रदायवाद।

प्रश्न 31.
स्थानीय सरकार के दोषों को दूर करने के कोई तीन उपाय लिखिये।
सरकार के दोषों को दूर करने के तीन उपाय इस प्रकार है-

  • शिक्षा का प्रचार करना,
  • राजनीतिक जागरूकता लाना,
  • अधिकार क्षेत्र में वृद्धि करना।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्थानीय शासन की कोई दो परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
स्थानीय शासन. की दो मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

1. पी० स्टोन्स के अनुसार, “स्थानीय शासन किसी देश के शासन का वह भाग है जो किसी विशेष क्षेत्र में जनता से सम्बन्धित मामलों का प्रशासन करता है।”
2. एल० गोल्डिंग के अनुसार, “स्थानीय शासन किसी क्षेत्र की जनता द्वारा अपने मामलों का स्वप्रबन्ध है।”

प्रश्न 2.
स्थानीय शासन की चार विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
स्थानीय शासन की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. निश्चित क्षेत्र स्थानीय शासन की प्रत्येक इकाई का निश्चित क्षेत्र होता है, जिसके अन्दर रहकर स्थानीय इकाई अपने दायित्वों का निर्वाह करती है।
2. स्थानीय सत्ता स्थानीय निकायों के पास स्थानीय सत्ता होती है तथा इसके निर्वाचित प्रतिनिधि इस सत्ता का प्रयोग करते हैं।
3. स्वायत्तता स्थानीय शासन की संस्थाएँ को स्वायत्तता प्राप्त होती है। अन्यथा ये संस्थाएँ अपना उत्तरदायित्व निभा नहीं सकती, लेकिन इन पर राज्य सरकार के कुछ अंकुश भी होते हैं।
4. सरकार व जनता के बीच कड़ी-स्थानीय स्वशासन की इकाइयों को सरकार एवं जनता के बीच कड़ी माना जाता है। जिला प्रशासन इनके माध्यम से ही जनता तक पहुँच सकता है।

प्रश्न 3.
स्थानीय शासन के महत्त्व के चार शीर्षक लिखें।
उत्तर:
स्थानीय शासन के चार महत्त्वपूर्ण शीर्षक निम्नलिखित हैं-
1. लोकतन्त्र की पाठशाला-स्थानीय शासन को लोकतन्त्र की पाठशाला कहा जाता है, क्योंकि इनके द्वारा स्थानीय स्तर पर नागरिकों को प्रशासन चलाने का ज्ञान प्राप्त होता है।

2. जनता की सेवा स्थानीय शासन की संस्थाएँ ऐसी सेवाओं और वस्तुओं का प्रबन्ध करती हैं, जिनसे स्थानीय जनता का जीवन सुखी और खुशहाल बनता है। ये संस्थाएँ कठिन परिस्थितियों में लोगों की सेवा भी करती हैं।

3. धन की बचत-स्थानीय संस्थाएँ केन्द्रीय सरकार का अनावश्यक खर्च कम करती हैं। ये स्थानीय स्तर पर कम खर्च से अधिक लाभ कमा सकती हैं।

4. राजनीतिक विकेन्द्रीयकरण स्थानीय शासन सत्ता के राजनीतिक विकेन्द्रीयकरण का उदाहरण है। इसमें सत्ता का केन्द्रीयकरण नहीं होता, बल्कि सत्ता लोगों में विभाजित होती है।

प्रश्न 4.
पंचायती राज का क्या अर्थ है? अथवा भारत में पंचायती राज की अवधारणा से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पंचायती राज की धारणा ग्रामीण क्षेत्रों के विकास तथा प्रबन्ध के सम्बन्ध में एक नया विचार है। ग्रामीण क्षेत्रों के स्थानीय स्वशासन को पंचायती राज कहा जाता है। पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके अन्तर्गत गाँवों में रहने वाले लोगों को अपने गाँवों का प्रशासन तथा विकास सम्बन्धी कार्य स्वयं अपनी इच्छानुसार करने का अधिकार दिया जाता है।

ऐसा अनुभव किया जाता है कि एक क्षेत्र में रहने वाले लोग ही उस क्षेत्र की समस्याओं से भली भाँति परिचित होते हैं और उन्हीं के द्वारा ही स्थानीय समस्याओं को ठीक तरह से हल किया जा सकता है। पंचायती राज की स्थापना से ही ग्रामीण स्तरों पर लोकतान्त्रिक संस्थाओं की स्थापना करके शक्तियों का विकेन्द्रीयकरण किया जाता है जिससे लोकतन्त्र अधिक मज़बूत होता है।

प्रश्न 5.
पंचायती राज के मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
पंचायती राज के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं-

  • पंचायती राज का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र में लोकतन्त्र की स्थापना करना है,
  • पंचायती राज का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अपने स्थानीय मामलों को स्वयं नियोजित करने तथा शासन प्रबन्ध करने का अधिकार देना है,
  • पंचायती राज का उद्देश्य गाँवों के लोगों में सामुदायिक और आत्म-निर्भरता की भावना उत्पन्न करना है,
  • पंचायती राज का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में कमज़ोर तथा पिछड़े वर्ग के लोगों का स्वशासन में सहभागी बनाना है,
  • पंचायती राज का उद्देश्य साम्प्रदायिक विकास योजनाओं को लागू करने में ग्रामीण लोगों को उत्साहित करना है।

प्रश्न 6.
पंचायती राज का तीन-स्तरीय ढाँचा क्या है? अथवा भारत में पंचायती राज के त्रि-स्तरीय ढाँचे की कार्य-प्रणाली का विवरण दीजिए।
उत्तर:
संविधान के 73वें संशोधन द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पंचायती राज का ढाँचा निश्चित किया गया। कुछ छोटे राज्यों (जिनकी कुल जनसंख्या 20 लाख से कम है) के लिए यह ढाँचा दो-स्तरीय है, जबकि अन्य राज्यों में तीन-स्तरीय है। छोटे राज्यों में पंचायती राज की बीच की इकाई पंचायत समिति की स्थापना नहीं की जाएगी। पंचायती राज का तीन-स्तरीय ढाँचा निम्नलिखित प्रकार से कार्य करता है।

1. ग्राम पंचायतें पंचायती राज के ढाँचे में सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायतें हैं। लगभग सभी गाँवों में ग्राम पंचायतें हैं और छोटे-छोटे गाँवों को पंचायत के लिए किसी साथ वाले गाँव के साथ मिला दिया जाता है। पंच गाँव में रहने वाले सभी मतदाताओं द्वारा चुने जाते हैं और इनका कार्यकाल पाँच वर्ष होता है। ग्राम पंचायतें अपने गाँव के चहुंमुखी विकास के लिए सभी कार्य करती हैं और न्यायिक पंचायतों को तो न्यायिक अधिकार भी दिए गए हैं। पंचायत अपना काम चलाने के लिए कर (Tax) भी लगाती है।

2. पंचायत समिति-पंजाब पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अनुसार प्रत्येक विकास खण्ड में पंचायतों के ऊपर पंचायत समिति की व्यवस्था की गई है। इस अधिनियम के अनुसार पंचायत समिति में निम्नलिखित सदस्य होंगे…

(1) प्रत्यक्ष निर्वाचित सदस्य पंचायत समिति के क्षेत्र के मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कुछ पंचायत समिति के सदस्य च जाएँगे। जिनकी संख्या 6 से 10 तक होगी।

(2) सरपंचों द्वारा निर्वाचित सदस्य पंचायत समिति के कुछ सदस्य इसके क्षेत्र में आने वाली पंचायतों के सरपंच अपने में से चुनकर भेजेंगे। सरपंचों द्वारा निर्वाचित सदस्यों और जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों का पंचायत समिति में अनुपात 40:60 का होगा।

(3) विधान सभा के सदस्य पंजाब विधान सभा के वे सदस्य, जिनके चुनाव क्षेत्र का कुछ भाग पंचायत समिति के क्षेत्र में आता है, उसके पदेन सदस्य होंगे।

3. जिला परिषद्-पंजाब पंचायती राज अधिनियम 1994 के अनुसार प्रत्येक जिले में विकास खण्डों के ऊपर एक ज़िला परिषद् होती है। इस अधिनियम के अनुसार ज़िला-परिषद् के निम्नलिखित सदस्य होंगे

  • प्रत्यक्ष निर्वाचित सदस्य-ज़िला-परिषद् के क्षेत्र मतदाताओं द्वारा कुछ सदस्य प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं और हर निर्वाचित क्षेत्र से एक सदस्य चुना जाता है। एक ज़िला-परिषद् में 10 से लेकर 25 तक सदस्य हो सकते हैं। जिले के प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या लगभग समान होती है,
  • पंचायत समितियों के अध्यक्ष इसके सदस्य होते हैं,
  • लोक सभा और राज्य विधान सभा के वे सदस्य जिनका चुनाव क्षेत्र उस जिला परिषद् में आता है वे उसके पदेन सदस्य होते हैं,
  • राज्य सभा के वे सदस्य, जिनका नाम उस जिले की मतदाता की सूची में अंकित है, भी जिला परिषद् के पदेन सदस्य होंगे।

प्रश्न 7.
ग्राम सभा किसे कहते हैं?
उत्तर:
ग्राम सभा को पंचायती राज की नींव कहा जाता है। एक ग्राम पंचायत के क्षेत्र में रहने वाले सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। ग्राम सभा की एक वर्ष में दो सामान्य बैठकों का होना अनिवार्य है। ग्राम सभा अपने अध्यक्ष (जिसे सरपंच कहते हैं) तथा कार्यकारी समिति (ग्राम पंचायत) का चुनाव करती है।

ग्राम सभा ग्राम पंचायत द्वारा बनाए गए वार्षिक बजट पर सोच-विचार करती है और अपने क्षेत्र के लिए विकास योजनाएँ तैयार करती है। ग्राम सभा विकास योजनाओं को लागू करने में भी सहायता करती है। परन्तु व्यवहार में ग्राम सभा कोई विशेष कार्य नहीं करती क्योंकि इसकी बैठकें बहुत कम होती हैं।

प्रश्न 8.
ग्राम पंचायत का गठन कैसे किया जाता है।
उत्तर:
ग्राम पंचायत ग्राम सभा की कार्यकारिणी तथा पंचायती राज की त्रि-स्तरीय प्रणाली में प्रथम अर्थात् सबसे निचले स्तर की इकाई है। पंजाब में ग्राम पंचायत के सदस्यों की संख्या एक सरपंच तथा 5-13 पंचों के बीच (ग्राम सभा की सदस्य-संख्या के आधार पर) निश्चित की जाती है। यह संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है।

ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव ग्राम सभा द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली द्वारा किया जाता है। प्रत्येक पंचायत में कुछ स्थान अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा महिलाओं के लिए आरक्षित रखे जाते हैं। सरपंच का चुनाव भी ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। सरपंच ग्राम पंचायत की बैठकों की अध्यक्षता करता है। ग्राम पंचायत में निर्णय बहुमत से लिए जाते हैं। ग्राम पंचायत का कार्यकाल पाँच वर्ष निश्चित किया गया है।

प्रश्न 9.
ग्राम पंचायत का अध्यक्ष कौन होता है? उसके क्या कार्य हैं? अथवा ग्राम पंचायत अथवा ग्राम के स्थानीय मामलों में सरपंच की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ग्राम पंचायत का अध्यक्ष (सभापति) सरपंच होता है। उसका चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। सरपंच के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं-

  • सरपंच ग्राम पंचायत की बैठकें बुलाता है तथा उनकी अध्यक्षता करता है,
  • सरपंच ग्राम पंचायत की बैठकों की कार्रवाई का रिकार्ड रखता है,
  • सरपंच अपने गाँव की पंचायत के वित्तीय और कार्यकारी प्रशासन के लिए उत्तरदायी होता है,
  • सरपंच ग्राम पंचायत के अधिकारी तथा अन्य कर्मचारी, जिनकी सेवाएँ ग्राम पंचायत को दी गई हों, उनके कार्यों की देखभाल तथा उन पर नियन्त्रण रखता है,
  • सरपंच अपने सभी पंचों के साथ मिलकर गाँव में शान्ति तथा व्यवस्था को बनाए रखता है।

प्रश्न 10.
पंचायत समिति का गठन कैसे किया जाता है।
उत्तर:
पंचायत समिति में निम्नलिखित तीन प्रकार के सदस्य शामिल होते हैं

1. निर्वाचित सदस्य पंचायत समिति के कुछ सदस्य समिति के क्षेत्र में रहने वाले मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के आधार पर चुने जाते हैं। पंजाब में इन सदस्यों की संख्या 6 तथा 10 के बीच में राज्य सरकार द्वारा पंचायत समिति क्षेत्र की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। प्रायः 15,000 की जनसंख्या पर एक सदस्य का निर्वाचन किया जाता है। परन्तु यह संख्या कम-से-कम 6 तथा अधिक-से-अधिक 10 होगी। पंचायत समिति के कुछ सदस्य सरपंचों तथा पंचों द्वारा चुने जाते हैं। इस प्रकार के सदस्यों तथा प्रत्यक्ष रूप से चुने गए सदस्यों का अनुपात 6 : 4 होगा।

2. सहायक सदस्य-पंचायत समिति द्वारा चुने गए राज्य विधान सभा के सदस्य तथा संसद के सदस्य समिति के सहायक सदस्यों के रूप में शामिल होते हैं। उन्हें पंचायत समिति की बैठकों में भाग लेने तथा पंचायत समिति के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष के चुनाव तथा पदच्युत होने को छोड़कर अन्य सभी निर्णयों के लेने में मतदान का भी अधिकार होता है।

3. पदेन सदस्य-सब डिवीज़ीनल मैजिस्ट्रेट तथा खण्ड विकास अधिकारी पंचायत समिति के पदेन सदस्य होते हैं। उन्हें पंचायत समिति की बैठकों में भाग लेने तथा बोलने का अधिकार होता है, परन्तु वे मतदान में भाग नहीं ले सकते।

4. आरक्षित स्थान पंचायत समिति के निर्वाचित सदस्यों में कुछ स्थान अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन-जातियों के सदस्यों तथा महिलाओं के लिए आरक्षित रखे जाते हैं। पंचायत समिति का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है।

प्रश्न 11.
पंचायत समिति के कोई पाँच कार्य लिखें।
उत्तर:
पंचायत समिति क्षेत्र के सभी विकास कार्यों के लिए उत्तरदायी होती है। इसके मुख्य कार्य इस प्रकार हैं-

  • पंचायत समिति का मुख्य कार्य सामुदायिक विकास है। इसमें विकास योजना को लागू करना, उत्पादन में वृद्धि के लिए प्रयत्न करना तथा लोगों के लिए रोज़गार पैदा करना,
  • क्षेत्र में लघु-सिंचाई योजनाएँ बनाना तथा भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए नीति बनाना,
  • स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना करना तथा बीमारी को रोकने के लिए टीके लगवाना,
  • आपात्कालीन सहायता का वितरण,
  • पिछड़ी जातियों के विकास के लिए योजनाएँ बनाना।

प्रश्न 12.
पंचायत समिति की आय के मुख्य साधन बताइए।
उत्तर:
पंचायत समिति की आय के मुख्य साधन इस प्रकार हैं-

  • पंचायत समिति के क्षेत्र में लगाए गए स्थानीय करों का कुछ भाग पंचायत समिति को मिलता है,
  • मेलों तथा मण्डियों से प्राप्त आय,
  • राज्य सरकार से सहायता के रूप में प्राप्त धन,
  • पंचायत समिति की अपनी सम्पत्ति से होने वाली आय,
  • समिति के क्षेत्र से इकट्ठा होने वाले लगान का कुछ भाग भी पंचायत समिति को मिलता है,
  • पंचायत समिति जिला परिषद् की अनुमति से कुछ अन्य कर भी कर लगा सकती है तथा अपनी आमदनी को बढ़ा सकती है।

प्रश्न 13.
हरियाणा राज्य पंचायती अधिनियम, 1994 के अधीन सरपंचों के तीन मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ग्राम पंचायत के सभापति (अध्यक्ष) को सरपंच कहा जाता है। उसके तीन कार्य इस प्रकार हैं-

  • सरपंच ग्राम पंचायत की बैठकें बुलाता है तथा उनका सभापतित्व करता है,
  • सरपंच ग्राम पंचायत की बैठकों की कार्रवाई का रिकार्ड रखता है,
  • सरपंच अपने गाँव की पंचायत के वित्तीय तथा कार्यकारिणी प्रशासन के लिए जिम्मेवार होता है।

प्रश्न 14.
जिला परिषद् की रचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जिला-परिषद् पंचायती राज की सबसे ऊपर की इकाई है। प्रत्येक जिले में पंचायत समिति के ऊपर जिला परिषद् का . गठन किया गया है। वर्तमान में हरियाणा में 21 जिला-परिषद् है क्योंकि नवनिर्मित नए चरखी दादरी जिले में जिला परिषद् के गठन की अधिसूचना अभी जारी नहीं हुई। इसमें ये सदस्य शामिल होते हैं

  • प्रत्येक जिले में कुछ सदस्य, जिनकी संख्या 10 से 25 तक होगी, जिला परिषद् क्षेत्र में रहने वाले मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाएँगे,
  • जिले में गठित पंचायत समितियों के अध्यक्ष,
  • राज्य सभा, विधान सभा तथा लोक सभा के वे सदस्य जो जिला परिषद् के क्षेत्र से चुने गए हों,
  • राज्य सभा के वे सदस्य जिनका नाम उस जिले के मतदाताओं की सूची में हो।

प्रत्येक जिला परिषद् में कुछ स्थान अनुसूचित जातियों तथा महिलाओं के लिए सुरक्षित किए जाते हैं। जिला-परिषद् का कार्यकाल (73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार) 5 वर्ष निश्चित किया गया है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 15.
जिला परिषद् के अध्यक्ष (Chairman) पर एक नोट लिखें।
उत्तर:
जिला-परिषद् के अध्यक्ष का चुनाव जिला परिषद् के निर्वाचित सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से अपनी पहली बैठक में किया जाता है। यह चुनाव डिप्टी कमिशनर अथवा उस द्वारा मनोनीत अधिकारी की देख-रेख में होता है। उसका चुनाव 5 वर्ष के लिए होता है। उसे इस अवधि के समाप्त होने से पहले भी सदस्यों के 2/3 बहुमत से हटाया जा सकता है। जिला-परिषद् के अध्यक्ष के मुख्य कार्य इस प्रकार हैं-

  • वह जिला परिषद् की बैठक बुलाता है तथा उसकी अध्यक्षता करता है,
  • वह जिला-परिषद् के लिए नियुक्त अधिकारियों व कर्मचारियों पर निगरानी व नियन्त्रण रखता है,
  • वह अपने जिले में प्राकृतिक आपदा के शिकार लोगों की सहायता के लिए प्रतिवर्ष एक लाख रुपए खर्च करता है,
  • वह जिला परिषद् के वार्षिक बजट पर भी निगरानी रखता है।

प्रश्न 16.
सरकार पंचायती राज पर कैसे नियन्त्रण रखती है?
उत्तर:
पंचायती राज पूर्णरूप से सरकार से स्वतन्त्र नहीं है। राज्य सरकारें पंचायती राज संस्थाओं पर नियन्त्रण रखती हैं और उन्हें आदेश दे सकती हैं। राज्य सरकार निम्नलिखित ढंग से पंचायती राज की संस्थाओं पर नियन्त्रण रखती है

  • पंचायती राज की संस्थाओं की स्थापना राज्य सरकार द्वारा की जाती है और इन संस्थाओं के संगठन, कार्य तथा क्षेत्र का निर्धारण सरकार द्वारा ही किया जाता है,
  • पंचायती राज संस्थाएँ नीति-निर्माण में स्वतन्त्र नहीं हैं। इन संस्थाओं द्वारा पास किए गए प्रस्तावों और नीतियों पर सरकार की स्वीकृति लेनी पड़ती है,
  • पंचायती राज संस्थाओं के सभी प्रथम अधिकारियों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है,
  • सरकार या उसका अधिकारी पंचायती राज संस्थाओं को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए आदेश दे सकता है,
  • पंचायती राज संस्थाएँ वित्त के मामले में आत्म-निर्भर नहीं हैं। इन संस्थाओं को सरकार से अनुदान प्राप्त होता है। अतः सरकार इन संस्थाओं के हिसाब-किताब की जाँच-पड़ताल करने के लिए लेख परीक्षक भेजती है,
  • सरकार डिप्टी कमिशनर के माध्यम से पंचायत और पंचायत समिति के बजट पर नियन्त्रण रखती है,
  • इन संस्थाओं द्वारा बनाए गए उप-नियमों को सरकार की स्वीकृति मिलने के बाद ही लागू किया जा सकता है,
  • विशेष परिस्थितियों में पंचायती राज संस्थाओं को सरकार निलम्बित या भंग कर सकती है।

प्रश्न 17.
वर्तमान ग्रामीण जीवन की तीन प्रमुख समस्याओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के 70 वर्षों के बाद भी ग्रामीण जीवन का पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। इसकी तीन प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं

1. जल-आपूर्ति ग्रामीण जनता को पीने का शुद्ध जल आज भी उपलब्ध नहीं है। अधिकतर गाँवों में मनुष्यों और पशुओं के लिए गाँव का तालाब ही जल-आपूर्ति का काम करता है। ऐसे तालाबों का पानी पशुओं के पीने के लिए भी शुद्ध नहीं कहा जा सकता, मनुष्यों की तो बात ही दूसरी है। इस उद्देश्य की पूर्ति में कुछ प्रगति अवश्य हुई है, परन्तु अब भी इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है।

2. ऊर्जा-ग्रामीण विकास के लिए ऊर्जा को उपलब्ध करवाना भी आवश्यक है। ग्रामीण जीवन का काफी बड़ा भाग आज भी ऊर्जा के साधन से वंचित है। कुछ ही राज्य ऐसे हैं जहाँ सभी गाँवों में बिजली की आपूर्ति की व्यवस्था की गई है। आज भी अधिकतर ग्रामवासी घरों में रोशनी करने तथा खाना पकाने के लिए तेल, लकड़ी एवं गोबर के प्रयोग पर निर्भर हैं। उन्हें बिजली की आपूर्ति तथा उन्नत किस्म के चूल्हों और गोबर गैस आदि की सुविधाएँ उपलब्ध कराने की जरूरत है।

3. भूमि का असमान वितरण-ग्रामीण जीवन की यह भी प्रमुख समस्या है कि यहाँ कृषि भूमि का बहुत असमान वितरण देखने को मिलता है। बड़े-बड़े ज़मींदारों के पास बहुत अधिक भूमि है, चाहे वह बेनामी तौर पर है या किसी गैर-कानूनी तरीके से रखी हुई है और वास्तविक रूप में खेती-बाड़ी करने वाले लोग भूमिहीन मज़दूर ही हैं।

प्रश्न 18.
74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की कोई पाँच विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारत में शहरी स्थानीय संस्थाओं के वर्तमान गठन तथा कार्यविधि का आधार 74वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम है। इसकी पाँच विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. संवैधानिक मान्यता इस संवैधानिक संशोधन द्वारा शहरी स्थानीय संस्थाओं को पहली बार सवैधानिक मान्यता प्रदान की गई।

2. तीन प्रकार की शहरी स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था इस अधिनियम द्वारा प्रत्येक राज्य के लिए तीन स्तरीय शहरी स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था की गई है-

  • परिवर्तनीय क्षेत्र के लिए नगर पंचायत,
  • छोटे नगरों के लिए नगर-परिषद्,
  • बड़े नगरों के लिए नगर-निगम।

3. आरक्षण की व्यवस्था इस संशोधन अधिनियम द्वारा सभी शहरी, स्थानीय संस्थाओं में अनुसूचित जातियाँ तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए कुछ स्थान आरक्षित करने की व्यवस्था है।

4. अवधि इस संशोधन द्वारा सभी स्तर की शहरी स्थानीय संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है।

5. विशेष व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व-इस संशोधन के द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि विशिष्ट व्यक्तियों, क्षेत्र से सम्बन्धित राज्य विधानमण्डल तथा संसद सदस्यों को भी नगर-परिषद् में शामिल किया जाएगा।

प्रश्न 19.
नगर-निगम का सभापति कौन होता है? उसके कार्य लिखें। अथवा महापौर (Mayor) कौन होता है?
उत्तर:
महापौर (Mayor) नगर-निगम का अध्यक्ष होता है। उसका चुनाव नगर-निगम के सभी सदस्यों, पार्षदों तथा एल्डरमैन द्वारा किया जाता है। साधारणतः उसका चुनाव एक वर्ष के लिए किया जाता है, परन्तु एक वर्ष की समाप्ति पर उसे प्रायः दोबारा महापौर चन लिया जाता है। महापौर नगर-निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है और निगम (सदन) में शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखता है। वह निगम का सबसे अधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति होता है।

प्रश्न 20.
नगर-निगम अथवा नगरपालिका (नगर-परिषद्) के कोई छः कार्य लिखें।
उत्तर:
नगर-निगम दिए गए कार्य करती है

  • नगर में पानी तथा बिजली की व्यवस्था करना,
  • नगर की सफाई की व्यवस्था करना,
  • गली-सड़ी वस्तुओं की बिक्री पर रोक लगाना,
  • स्त्रियों के लिए प्रसूति-गृह (Maternity centres) तथा बच्चों के लिए स्वास्थ्य कल्याण केन्द्र स्थापित करना,
  • यातायात के लिए लोकल बसें चलाना,
  • श्मशान-भूमि तथा कब्रिस्तान का प्रबन्ध करना,
  • जन्म व मृत्यु के आँकड़े रखना,
  • गलियों व सड़कों को बनवाना तथा उनकी मुरम्मत करवाना।

प्रश्न 21.
नगर-परिषद् (Municipal Council) की रचना पर नोट लिखें।
उत्तर:
नगर-परिषद् के सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा उस नगर की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। पंजाब सरकार द्वारा जारी की गई एक अधिसूचना के अनुसार पाँच हजार से कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों के लिए 9 सदस्य और पाँच लाख से अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र के नगर-परिषद् में अधिक-से-अधिक 49 सदस्य होंगे। नगर-परिषद् के सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर नगर के मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है।

चुनाव के लिए नगर को लगभग समान जनसंख्या वाले चुनाव क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है और प्रत्येक चुनाव क्षेत्र (वाड) से एक सदस्य चुना जाता है। नगर के सदस्यों को प्रायः नगर पार्षद कहा जाता है। इन सदस्यों के अतिरिक्त राज्य विधान सभा के सभी सदस्य, जिनके चुनाव क्षेत्र पूर्ण अथवा आंशिक रूप से उस नगर की सीमा में आते हैं, नगर-परिषद् के सदस्य होंगे। उन्हें परिषद् की बैठक में भाग लेने तथा बोलने का अधिकार होता है। परन्तु वे मतदान में भाग नहीं ले सकते। नगर-परिषद् का साधारण कार्यकाल पाँच वर्ष निश्चित किया गया है।

प्रश्न 22.
नगर पंचायत पर एक नोट लिखिए।
उत्तर:
नगर पंचायत की स्थापना सरकार द्वारा उन परिवर्तनीय क्षेत्रों में की जाती है, जिसकी जनसंख्या 20,000 से अधिक न हो। पंजाब में इस समय 32 नगर पंचायतों की स्थापना की गई है। पंजाब तथा हरियाणा में नगर पंचायतों के सदस्यों की संख्या कम-से-कम पाँच रखी गई है। इन सदस्यों का चनाव परिवर्तनीय क्षेत्र के मतदाताओं की सूची में शामिल मतदाताओं द्वारा किया जाता है।

नगर पंचायत के सदस्यों की संख्या के आधार पर क्षेत्र को भिन्न-भिन्न वार्डों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक क्षेत्र (वाड) से एक सदस्य चुना जाता है। नगर पंचायत अपने क्षेत्र के लिए वही कार्य करती है जो नगर-परिषद् द्वारा अपने क्षेत्र के लिए किए जाते हैं। ये हैं-नगर की सफाई का प्रबन्ध, लोगों के स्वस्थ की देखभाल, सड़कें अथवा पुल बनवाना तथा उनकी मुरम्मत, पीने के पानी तथा बिजली का प्रबन्ध करना आदि।

प्रश्न 23.
नगर-परिषद् पर सरकार के नियन्त्रण के कोई तीन तरीकों का वर्णन करें।
उत्तर:
सरकार इस प्रकार तरीकों द्वारा नगर-परिषद् पर नियन्त्रण रख सकती है

  • जिले का जिलाधीश (Deputy Commissioner) नगर-परिषद् के कार्यों की देख-रेख करता है। वह नगर-परिषद् को उसके कार्यों के सम्बन्ध में आदेश दे सकता है,
  • नगरपालिका के प्रमुख कर्मचारियों की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है,
  • सरकार किसी भी नगर परिषद् को उसका कार्यकाल समाप्त होने से पहले भँग करके वहाँ प्रशासक (Administrator) नियुक्त कर सकती है,
  • नगर-परिषद् जो भी नियम तथा अधिनियम बनाती है उनकी स्वीकृति सरकार से लेनी पड़ती है,
  • सरकार किसी भी नगर-परिषद् का रिकॉर्ड मँगवाकर उसकी देखभाल कर सकती है।

प्रश्न 24.
छावनी बोर्ड पर नोट लिखें।
उत्तर:
जिन नगरों में सैनिक छावनियाँ हैं, उन छावनी क्षेत्रों में स्थानीय विषयों का प्रबन्ध करने के लिए केन्द्रीय सुरक्षा मन्त्रालय छावनी बोर्ड की स्थापना की जाती है। इसके सदस्यों की संख्या केन्द्रीय रक्षा मन्त्रालय द्वारा निश्चित की जाती है। इसके आधे सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत किए जाते हैं तथा शेष आधे सदस्यों का चुनाव छावनी क्षेत्र में रहने वाले मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। छावनी बोर्ड का कमांडिंग अफसर छावनी बोर्ड का पदेन (Ex-officio) अध्यक्ष होता है। इसके अतिरिक्त एक कार्यकारी अधिकारी होता है जिसकी नियुक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा की जाती है।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्थानीय शासन का अर्थ क्या है? स्थानीय शासन की परिभाषाएँ देते हुए इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्थानीय शासन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Local Government) स्थानीय शासन हमारे देश में शासन की त्रि-स्तरीय प्रणाली का एक अनिवार्य भाग है अन्य दो स्तर हैं, केन्द्रीय शासन एवं राज्य शासन। दूसरे शब्दों में, स्थानीय शासन शासकीय संस्थाओं के स्तम्भ के निम्नतम स्तर पर अव्यवस्थित है राष्ट्रीय शासन इस स्तम्भ का शीर्ष स्तर है जबकि राज्य शासन मध्यवर्ती स्तर।

स्थानीय शासन ग्रामीण एवं नगरीय दोनों क्षेत्रों में कार्यशील है, अतएव इसे क्रमशः ग्रामीण एवं नगरीय शासन कहते हैं। नगरीय स्थानीय शासन नगर-निगमों, नगरपालिकाओं, टाउन एरिया एवं अधिसूचित क्षेत्र समितियों द्वारा क्रियारत है, जबकि ग्रामीण स्थानीय शासन जिला-परिषदों, पंचायत समितियों एवं ग्राम पंचायतों के माध्यम से कार्य करता है। स्थानीय शासन की परिभाषाएँ विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्नलिखित प्रकार से दी गई हैं

1. पी० स्टोनस (P. Stones):
के अनसार, “स्थानीय शासन किस देश के शासन का वह भाग है जो किसी विशेष क्षेत्र में जनता से सम्बन्धित मामलों का प्रशासन करता है।” उसका आगे कथन है कि यह समुदाय की पत्नी के रूप में कार्य करता है, क्योंकि यह उसके पर्यावरण को रहने योग्य बनाता है, सड़कों को स्वच्छ रखता है, बच्चों को शिक्षा प्रदान करता है, मकानों का निर्माण करता है, एवं अन्य सभी ऐसे कार्य, जो सभ्य जीवन व्यतीत करने हेतु योग्य बनाते हैं, करता है।

2. वी. वेंकट राव (V.Venkat Rao):
का कथन है, “स्थानीय शासन सरकार का वह भाग है जो मुख्यतया स्थानीय विषयों से सम्बन्धित है, जिनका प्रशासन राज्य सरकार के अधीन प्राधिकारियों द्वारा होता है, परन्तु जिन्हें योग्यता प्राप्त निवासियों द्वारा स्वतन्त्र रूप से निर्वाचित किया जाता है।”

3. जोन जे० क्लार्क (John J. Clarke):
के शब्दों में, “स्थानीय शासन किसी राष्ट्र अथवा राज्य सरकार का वह भाग है जो मुख्यतया किसी विशेष जिले अथवा स्थान के निवासियों से सम्बन्धित मामलों का निपटारा करता है।”

4. एल० गोल्डिंग (L. Golding):
के अनुसार, “स्थानीय शासन किसी क्षेत्र की जनता द्वारा अपने मामलों का स्वप्रबन्ध है।”

5. जी० मोंटग्यू हैरिस (G Montagu Haris):
का कथन है, “स्थानीय शासन स्वतन्त्र रूप से निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से स्वयं लोगों द्वारा प्रशासन है।”

6. के० वेंकट रंगैया (K. Venkatarangaiya):
के अनुसार, “स्थानीय शासन किसी क्षेत्र, देहात, नगर अथवा राज्य से छोटे अन्य किसी क्षेत्र का स्थानीय निवासियों के प्रतिनिधि निकाय द्वारा प्रशासन है जिसे पर्याप्त भागों में स्वायत्तता प्राप्त होती है, जो स्थानीय करारोपण द्वारा अपने राजस्व का कुछ अंश एकत्रित कर सकती है एवं अपनी आय को स्थानीय सेवाओं पर व्यय कर सकती है। अतः इस प्रकार यह राज्य एवं केन्द्रीय सेवाओं से विभिन्न होती है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन का सरल अर्थ यह निकलता है कि स्थानीय शासन एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत किसी विशेष स्थान का शासन वहाँ के लोगों द्वारा चलाया जाता है। इस व्यवस्था का रूप, संगठन व प्रकृति केन्द्रीय या राज्य सरकार के विशेष अधिनियम के अनुसार निर्धारित की जाती है।

स्थानीय शासन सत्ता के विकेन्द्रीयकरण पर आधारित है और इसका मुख्य उद्देश्य स्थानीय क्षेत्र के निवासियों का कल्याण व विकास करना होता है। स्थानीय स्तर पर गठित संस्थाएँ स्वतन्त्र व स्वायत्तता होती हैं और ये प्रशासन का संचालन बिना रोक-टोक व हस्तक्षेप से करती हैं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि ये संस्थाएँ पूर्णतः स्वतन्त्र होती हैं। ये राज्य या केन्द्रीय सरकारों के अधीन रहकर कार्य करती हैं और ये राज्य या केन्द्रीय सरकारों के कानूनों के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकतीं। स्थानीय शासन का अर्थ समझने के बाद अब हम स्थानीय शासन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करेंगे, जो इस प्रकार हैं

स्थानीय शासन की मुख्य विशेषताएँ (Main Features of Local Government):
स्थानीय शासन के अर्थ व परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी विशेष क्षेत्र के स्थानीय प्रतिनिधियों द्वारा संचालित शासन-प्रबन्ध ही स्थानीय शासन कहलाता है। स्थानीय शासन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. निश्चित स्थानीय क्षेत्र स्थानीय शासन की प्रत्येक इकाई, चाहे वह नगरपालिका की कोई संस्था हो या पंचायत की कोई संस्था हो, का अपना एक निश्चित कार्य क्षेत्र होता है। स्थानीय शासन की प्रत्येक इकाई का अधिकार क्षेत्र व सीमान्तर का निर्धारण राज्य सरकार/संघीय सरकार करती है। इस निश्चित अधिकार क्षेत्र के अन्दर रहकर ही स्थानीय शासन की इकाई अपने दायित्वों का निर्वाह करती है।

राज्य सरकार स्थानीय शासन की किसी भी इकाई की सीमा का निर्धारण करते समय सम्बन्धित क्षेत्र का जनसंख्या घनत्व (एक k.m. वर्ग में रहने वाले लोग), स्थानीय क्षेत्र की आय के साधन, शहरीकरण या ग्रामीण पृष्ठभूमि का विस्तार आदि तत्त्वों को ध्यान में रखती है।

2. स्थानीय सत्ता-स्थानीय शासन की संस्थाओं का प्रशासन कुशलतापूर्वक चलाने के लिए वहाँ के नागरि को सत्ता व शक्ति सौंपना आवश्यक है। ये चुने हुए प्रतिनिधि स्थानीय शासन की संस्थाओं के प्रशासन का संचालन करते हैं और अपने क्षेत्र के लोगों के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इन प्रतिनिधियों को स्थानीय समस्याओं के बारे में ज्ञान होता है और ये अपने विचार, केन्द्र या राज्य सरकार के पास प्रभावशाली तरीके से पहुंचा सकते हैं। इसलिए स्थानीय शासन की संस्थाओं के जन-प्रतिनिधियों को स्थानीय स्तर पर शक्ति सौंप देनी चाहिए।

3. स्थानीय लोगों की सेवा-स्थानीय शासन पर गठित सभी संस्थाएँ लोगों की सेवा और सुविधा के लिए कार्यरत होती हैं। इन संस्थाओं का मख्य उद्देश्य स्थानीय क्षेत्र में रहने वाले लोगों का कल्याण करना होता है। बिजली, पानी, स्वास्थ्य, यातायात. शिक्षा आदि सभी प्रकार की सेवाओं का लाभ स्थानीय क्षेत्र के लोगों को मिलता है। यदि वित्तीय स्थिति अच्छी हो और राज्य सरकार कुछ सहायता प्रदान कर दे तो स्थानीय लोगों की सेवा के स्तर व गुणों में वृद्धि हो सकती है।

4. स्थानीय आय के साधन-स्थानीय शासन की संस्थाएँ स्थानीय सेवाओं व प्रशासन का प्रबन्ध करने हेतु स्थानीय वित्तीय स्रोतों से प्राप्त धन का ही प्रयोग करती हैं। इन संस्थाओं की आय की अनेक साधन होते हैं जिनमें स्थानीय कर (Local Tax) राज्य से प्राप्त ऋण व सेवाओं के बदले ली गई फीस शामिल है।

स्थानीय संस्थाओं को अपना बजट बनाने की स्वतन्त्रता होती है। वे अपने शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए आय के सभी उपलब्ध साधनों का पूरा लाभ उठाती हैं। कई बार स्थानीय नागरिक . भी स्वेच्छा से स्थानीय क्षेत्र के विकास के लिए चन्दा, दान आदि भी देते हैं।

5. स्वायत्तता स्थानीय शासन की संस्थाएँ स्थानीय लोगों की जरूरतों को पूरा करती हैं। यदि इन संस्थाओं पर अत्यधिक नियन्त्रण व प्रतिबन्ध लगाए जाएँ तो ये कुशलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकतीं। इन संस्थाओं को एक अधिकार क्षेत्र की सीमा में रहकर पूर्ण स्वतन्त्रता व स्वायत्तता होती है।

परन्तु इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि ये संस्थाएँ अपनी इच्छा से कुछ भी कार्य कर सकती हैं। राज्य या केन्द्रीय सरकार के कानूनों व नियमों के विरुद्ध ये संस्थाएँ कुछ भी नहीं कर सकतीं। इन संस्थाओं को किस हद तक स्वायत्तता दी जाए व किस सीमा तक स्वतन्त्रता दी जाए, इसका निर्णय सम्बन्धित विषय पर निर्भर करता है।

6. अप्रभुसत्तामयी अस्तित्व-ये संस्थाएँ प्रभुसत्ताधारी नहीं होतीं। इन पर केन्द्र व राज्य सरकारों के आदेश व शक्ति का नियन्त्रण होता है। ये केवल स्वायत्तता होती हैं। पूर्ण प्रभुसत्ता केवल राज्य के पास होती है। पूर्ण प्रभुसत्ता का अर्थ यह होता है कि किसी मामले पर निर्णय लेने का अन्तिम अधिकार किसके पास हो। स्थानीय प्रशासन चलाने के लिए इन संस्थाओं को स्वायत्तता दी गई है, परन्तु कर्तव्यों का पालन ठीक प्रकार से नहीं करने पर सरकार इनके कार्यों में हस्तक्षेप भी कर सकती है।

ये संस्थाएँ अपने कार्यों व शक्तियों के सफलतापूर्वक संचालन के लिए, वित्तीय सहायता, तकनीकी सहायता, कानूनों की स्वीकृति एवं कर्मचारियों की भर्ती व प्रशिक्षण के लिए राज्य सरकार की स्वीकृति पर निर्भर रहती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राज्य सरकार स्थानीय शासन की संस्थाओं पर वैधानिक, प्रशासनिक व वित्तीय नियन्त्रण रखती है। इस प्रकार ये संस्थाएँ पूर्णतः प्रभुसत्ता सम्पन्न नहीं होती।

7. संवैधानिक दर्जा प्रत्येक देश की स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को संविधान या विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों या कार्यकारी आदेशों के द्वारा वैधानिक दर्जा दिया जाता है। भारत में 73वें व 74वें संवैधानिक संशोधन के पारित हो जाने के उपरान्त पंचायतों व नगरपालिकाओं से सम्बन्धित सभी महत्त्वपूर्ण बातों का वर्णन संविधान की धारा 243, 11वीं अनुसूची व 12वीं अनुसूची में किया गया है। इससे पूर्व पंचायतों का जिक्र धारा 40 में आता था।

8. सभी स्तरों पर गठित सरकारों का आधार अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, राज्य तथा जिला स्तर पर गठित सरकारों का आधार व नींव स्थानीय शासन की इकाइयाँ होती हैं। इन्हें सरकार की स्टाफ एजेंसी माना जाता है। केन्द्रीय व राज्य सरकार के कल्याणकारी व विकास सम्बन्धी कार्यक्रम स्थानीय स्तर पर ही लागू किए जाते हैं।

सभी विषय चाहे वह कानून व व्यवस्था का विषय हो या फिर समाज कल्याण या राष्ट्रीय विकास का, स्थानीय लोगों के लिए होते हैं। सरकार व जनता के बीच कड़ी-स्थानीय स्वशासन की इकाइयों को सरकार व जनता को जोड़ने वाली कड़ी माना जाता है। जिला प्रशासन जिसे भारतीय लोक प्रशासन का आधार माना जाता है, वास्तव में स्थानीय शासनीय इकाइयों के माध्यम से ही जनता तक पहुँचता है। इन इकाइयों को राजनीतिक शक्ति भी प्राप्त होती है जिनकी उपेक्षा करना व्यावहारिक तौर पर सम्भव नहीं होता।

10. जनता का शासन-स्थानीय शासन को जनता का शासन कहा जाता है, क्योंकि जनता के प्रतिनिधि, जो कि प्रत्यक्ष चुनाव से चुने जाते हैं, ही लोगों के सहयोग व परामर्श के अनुसार स्थानीय स्वशासन का प्रबन्ध करते हैं। इस स्तर पर जन-प्रतिनिधियों और जनता के मध्य विशेष दूरी नहीं होती। प्रजातन्त्र, जिसका अर्थ लोगों का शासन होता है, स्थानीय शासन की इकाइयों में ही विराजमान होता है।

11. स्थानीय शासन का विभाजन प्रत्येक देश की स्थानीय शासन की इकाइयों का विभाजन दो प्रकार से होता है ग्रामीण एवं शहरी संस्थाएँ। भारत में ग्रामीण स्तर पर गठित शासन की इकाइयों में पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद और शहरी स्तर पर गठित शहरी शासन की इकाइयों में नगर परिषद, नगर पालिका एवं नगर-निगम सम्मिलित हैं। ग्रामीण इकाइयों में जिला-परिषद और शहरी इकाइयों में नगर-निगम उच्चतम, स्वायत्तता, शक्तिशाली तथा स्वतन्त्र निकाय माने जाते हैं।

12. सरकार पर निर्भरता स्थानीय स्तर पर क्षेत्रीय लोगों द्वारा गठित प्रशासकीय इकाइयों, जो कि स्वयं निर्णय करती हैं, को स्थानीय सरकार कहा जाता है, परन्तु व्यवहार में ये निकाय पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं होते। केन्द्रीय या राज्य सरकार भिन्न-भिन्न आधारों पर इनकी आन्तरिक कार्य-प्रणाली में हस्तक्षेप करती रहती है।

सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी इन संस्थाओं की स्वायत्तता पर प्रभाव डालते हैं और इन अधिकारियों को स्थानीय शासन की इकाइयों की स्वतन्त्रता के रास्ते में गले की हड्डी माना जाता है। ये निकाय धन की उपलब्धता, नियमों की व्याख्या, तकनीकी परामर्श, पदाधिकारियों की अवधि तथा कार्यकाल आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर सरकार के दृष्टिकोण व सोच पर ही निर्भर होते हैं।

13. निरन्तर विकास की अवस्था में स्थानीय प्रशासन की संस्थाओं की एक और विशेषता यह होती है कि ये संस्थाएँ निरन्तर विकास की अवस्था में रहती हैं क्योंकि इनमें हर समय विकास की गुंजाइश रहती है। इतिहास के भिन्न-भिन्न कालों; जैसे प्राचीन युग, वैदिक युग, मौर्य युग, मुगल युग, ब्रिटिश युग और स्वतन्त्रता के पश्चात् के युग में इन संस्थाओं में किसी-न-किसी प्रकार का सुधार हुआ है। आज संवैधानिक मान्यता मिलने के बाद भी इन संस्थाओं के विकास का क्रम रुका नहीं है।

14. प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग-स्थानीय सरकार की भिन्न-भिन्न इकाइयों में राज्य या केन्द्रीय सरकारों द्वारा प्रदत्त की गई शक्तियों का प्रयोग किया जाता है। सम्बन्धित उचित सत्ता (Concerned Appropriate Authority) अधिनियमों व उप-नियमों के अनुसार इन इकाइयों की शक्तियाँ व कार्य हस्तान्तरित करती रहती है, ताकि प्रजातन्त्र का विकास हो सके और ये संस्थाएँ सरकार के अधीन रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सकें।

निष्कर्ष स्थानीय शासन की इकाइयों को संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद और प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीयकरण की अवधारणा के विकास के फलस्वरूप स्थानीय शासन का महत्त्व बढ़ गया है। प्रजातन्त्र की गति और सफलता स्थानीय शासन की कार्यकुशलता व श्रेष्ठता पर निर्भर करती है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 2.
स्थानीय शासन के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
स्थानीय शासन का महत्त्व (Significance of Local Government)-स्थानीय शासन प्रजातन्त्र की नींव (Foundation) है। यह केन्द्रीय स्तर पर गठित प्रशासनिक व्यवस्था की आधारशिला है। यदि स्थानीय स्तर पर लोगों को शासन करने का अधिकार न दिया जाए तो प्रजातन्त्र का विकास नहीं हो सकता। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा और लोगों के अपने अधिकारों ता के कारण स्थानीय शासन की संस्थाओं का महत्त्व बढ़ रहा है।

सरकार की एक विशेष इकाई के रूप में स्थानीय शासन के उद्भव के कई कारण रहे हैं। इनमें ऐतिहासिक, वैधानिक और प्रशासनिक कारण मुख्य हैं। यदि भिन्न-भिन्न लेखकों के विचारों का विश्लेषण किया जाए तो स्थानीय शासन के महत्त्व को आसानी से समझा जा सकता है, जो इस प्रकार हैं

1. लोकतन्त्र की पाठशाला स्थानीय शासन को लोकतन्त्र की पाठशाला कहा जाता है क्योंकि इनके द्वारा स्थानीय स्तर पर नागरिकों को प्रशासन चलाने के दायित्वों का ज्ञान मिलता है और वे शासन-प्रणाली के संचालन की तथा प्रबन्ध की शिक्षा ग्रहण करते हैं। स्थानीय शासन लोगों को प्रशासनिक प्रक्रियाओं में प्रत्यक्ष भाग लेने का अवसर प्रदान करता है।

लोग स्थानीय समस्याओं व झगड़ों को दूर करने का उत्तदायित्व सम्भालते हैं और उनकी प्रजातन्त्र में रुचि बढ़ जाती है। ब्राइस (Bryce) के अनुसार, स्थानीय शासन को लोकतन्त्र की सर्वोत्तम पाठशाला और लोकतन्त्र का सूक्ष्म रूपं मानता है। वी. वेंकट राव (V.Venkat Rao) के अनुसार, “स्थानीय शासन लोकतन्त्र का आधार है। इसके बिना लोकतन्त्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती अथवा इसके बिना लोकतान्त्रिक ढाँचा ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा। दूसरी ओर स्थानीय शासन का स्थायित्व भी लोकतन्त्र पर निर्भर है। यह सम्भवतः लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में सम्भव है।” इसलिए हम कह सकते हैं कि स्थानीय शासन प्रजातन्त्र का पालना है, जहाँ पर प्रजातन्त्र जन्म लेता है और विकसित होता है।

2. सामाजिक सहयोग का साधन स्थानीय शासन की संस्थाएँ लोगों में सामाजिक भावना का विकास करती हैं। स्थानीय स्तर पर किसी भी प्रकार की समस्या, झगड़े व वाद-विवादों का हल वे मिल-जुलकर निकाल लेते हैं। स्थानीय शासन सामाजिक सहयोग व भाईचारे का उचित साधन है। स्थानीय शासन की संस्थाएँ एक ऐसा माध्यम हैं जिनसे समाज को व्यक्तिगत व स्वार्थी तत्त्वों के कारण टूटने से बचाया जा सकता है। स्थानीय स्तर पर लोगों में परस्पर सहयोग, पहलकदमी और उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है, जिससे सामुदायिकी भावना और प्रजातन्त्र को शक्ति मिलती है।

3. जनता की सेवा स्थानीय शासन की संस्थाओं का मुख्य उद्देश्य स्थानीय लोगों की सेवा करना होता है। ये संस्थाएँ ऐसी सेवाओं व वस्तुओं का प्रबन्ध करती हैं जिनसे स्थानीय जनता का जीवन सुखी व खुशहाल बनता है। इन संस्थाओं द्वारा लोगों को प्रदान की गई महत्त्वपूर्ण सेवाओं में सफाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन, पानी का प्रबन्ध, लाइब्रेरी व यातायात के साधनों का प्रबन्ध आदि आते हैं। ये संस्थाएँ स्थानीय लोगों की कठिन परिस्थितियों में भी सेवा करती हैं।

4. प्रशासन में कुशलता यदि स्थानीय संस्थाओं का अस्तित्व न हो तो केन्द्रीय सत्ता द्वारा प्रशासन का संचालन करना अति कार्यों की अधिकता व स्थानीय समस्याओं के ज्ञान के अभाव के कारण राज्य सरकार के अधिकारी अपना पूरा ध्यान स्थानीय समस्याओं की ओर नहीं दे पाते। स्थानीय लोगों को शासन का अधिकार देकर हम उन्हें प्रशासन का भाग बन सकते हैं और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें कोई भी उत्तरदायित्वपूर्ण प्रशासकीय कार्य सौंपा जा सकता है। ये संस्थाएँ लोगों के सबसे नजदीक होती हैं जिसके कारण लोगों के द्वारा स्थानीय समस्याओं का हल करना सम्भव हो जाता है।

5. केन्द्रीय शासन के कार्यभार को कम करना स्थानीय शासन की संस्थाएँ केन्द्र व राज्य सरकार तथा जिला प्रशासन के कार्यभार को हल्का करती हैं। इससे उनका बचा हुआ समय व ऊर्जा राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों की ओर केंद्रित हो सकते हैं। इससे राज्य व केन्द्रीय स्तर की सरकारें अपना-अपना उत्तरदायित्व अच्छी तरह निभा सकती हैं।

6. अधिकारी वर्ग को तानाशाह बनने से रोकना-स्थानीय शासन अधिकारी तन्त्र की तानाशाही प्रवृत्ति के विरुद्ध एक कवच के रूप में कार्य करता है। कई बार अधिकारी गण लोगों की समस्याओं का समाधान करने की बजाय स्वेच्छाचारी व्यवहार करते हैं और जन-भावनाओं का बिल्कुल आदर नहीं करते। ऐसे समय में स्थानीय शासन की संस्थाएँ, जोकि एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति होती है, अधिकारियों पर पूर्ण अनुशासन बनाए रखती हैं जिससे अधिकारियों की तानाशाही नीतियों को रोकने में सफलता मिलती है। डॉ० फाइनर (Dr. Finer) ने इस विषय पर बहुत सटीक विचार व्यक्त करते हुए कहा है, “स्थानीय शासन केन्द्रीयकरण के बढ़ते हुए खतरे की प्रतिक्रिया है।”

7. विकास योजनाओं की सफलता-देश के विकास के लिए चलाई जा रही विकास योजनाओं की सफलता स्थानीय शासन की संस्थाओं पर निर्भर करती है। विकास व कल्याणकारी योजनाएँ तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक ये संस्थाएँ अपना योगदान न दें। विकास योजनाओं में लोगों की सहभागिता इन संस्थाओं के माध्यम से सुनिश्चित हो जाती है। संविधान के 73वें व 74वें संशोधन के लागू होने के बाद ग्राम सभाओं व जिला योजना समितियों को विकास का मुख्य उत्तरदायित्व सौंपा गया है। केन्द्र व राज्य सरकारें सभी विकास योजनाओं को इन संस्थाओं के माध्यम से लागू करती हैं।

8. राजनीतिक विकेन्द्रीयकरण स्थानीय शासन सत्ता के राजनीतिक विकेन्द्रीयकरण का उदाहरण है। इस प्रकार की व्यवस्था में सत्ता का केन्द्र एक नहीं होता, बल्कि लोगों के मध्य विभाजित हो जाता है। स्थानीय नागरिकों को राजनीतिक निर्णय लेने की है और वे बार-बार आवश्यक कार्यों हेतु केन्द्रीय सत्ता या अधिकारियों के पास नहीं जाते। प्राकृतिक आपदाओं में ये संस्थाएँ लोगों की कुशलता से सेवा करती हैं।

9. लोकतन्त्र को मजबूत बनाना-स्थानीय शासन से लोकतन्त्र मजबूत बनता है। लोग स्थानीय स्तर पर सभी समस्याओं को हल कर लेते हैं और उन्हें निर्णय लेने की स्वतन्त्रता प्राप्त होती है जिससे जनता में प्रजातान्त्रिक भावना का विकास होता है। इन संस्थाओं से लोगों में नागरिकता के गुण पनपते हैं। इन संस्थाओं को अधिक उपयोगी और कारगर बनाने के लिए अधिक-से-अधिक अधिकार दिए जाने चाहिएँ।

10. धन की बचत-स्थानीय शासन की संस्थाएँ केन्द्रीय सरकार का अनावश्यक खर्च कम करती हैं। ये संस्थाएँ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध साधनों का कुशलतम प्रयोग करके कम-से-कम धन से अधिक लाभ कमा सकती हैं। यदि ये संस्थाएँ न हों तो केन्द्रीय सरकार को विशेष कार्य लागू करने के लिए अलग-अलग विभागों की स्थापना करनी पड़ती और इन विभागों में भर्ती किए गए कर्मचारियों को वेतन एवं अन्य सुविधाओं के लिए धन खर्च करना पड़ता।

11. मानव संसाधनों का विकास-स्थानीय स्तर पर कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो कोई कार्य नहीं करते, जबकि उनमें कार्य करने की क्षमता, योग्यता और प्रतिभा होती है। ये व्यक्ति स्थानीय संस्थाओं में अपना योगदान देते हैं जिस कारण इन्हें अपने गुणों का विकास करने का अवसर मिल जाता है। स्थानीय शासन की संस्थाओं के अभाव में स्थानीय स्तर पर उपलब्ध मानव व भौतिक संसाधन व्यर्थ में ही नष्ट हो जाते हैं।

12. नागरिक गुणों व राष्ट्रीय भावना का विकास-जब स्थानीय लोग पंचायतों व नगरपालिकाओं की कार्य-प्रणालियों में भाग लेते हैं तो उन्हें अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों का ज्ञान हो जाता है। इससे उनमें एक अच्छे नागरिक के कर्तव्यों का विकास होता है। इसके अतिरिक्त उनमें जन-सेवा, उदारता, त्याग, राष्ट्र-भक्ति, कर्तव्य-पालन आदि की भावनाओं का विकास होता है। प्रो० लॉस्की का विचार है कि स्थानीय शासन की संस्थाएँ नागरिक गुणों और राष्ट्रीय भावना के विकास का मुख्य साधन हैं। इस स्तर पर वे देश-भक्ति का प्रथम पाठ भी सीखते हैं।

स्थानीय शासन के उपर्युक्त महत्त्वों को देखते हुए हम कह सकते हैं कि स्थानीय शासन का.मानव जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। हर आदमी को किसी-न-किसी काम के लिए स्थानीय शासन की जरूरत पड़ती है। संक्षेप में यह स्वीकार किया जा सकता है कि लोगों की सेवा करने, प्रजातन्त्र का विकास करने, अधिकारी वर्ग की तानाशाही को कम करने, आर्थिक मितव्ययता तथा योजनाओं को सफल बनाने में स्थानीय शासन की संस्थाएँ अति महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।

प्रश्न 3.
पंचायती राज की धारणा की व्याख्या करें। इसके मुख्य उद्देश्य क्या हैं? अथवा पंचायती राज का क्या अर्थ है? इसकी तीन-स्तरीय संरचना की व्याख्या करें।
उत्तर:
पंचायती राज स्वतन्त्र भारत की एक महान् उपलब्धि है। पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके अन्तर्गत गाँवों में रहने वाले लोगों को अपने गाँवों का प्रशासन तथा विकास सम्बन्धी कार्य स्वयं अपनी इच्छानुसार करने का अधिकार दिया गया है। भारत में प्राचीनकाल से ही ग्राम पंचायतों का महत्त्व रहा है। वैदिक काल में स्थानीय समस्याओं को स्थानीय लोग स्वयं ही सुलझा लेते थे।

वैदिक काल के पश्चात् भी सैंकड़ों वर्षों तक ग्रामीण जीवन स्वतन्त्रता-पूर्वक व्यतीत होता रहा। मुस्लिम युग में यद्यपि मुस्लिम शासकों ने पंचायतों को महत्त्व नहीं दिया, परन्तु पंचायतें फिर भी झगड़ों का निपटारा करती थीं और कई अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य भी करती थीं। अंग्रेजी शासन के प्रारम्भिक काल में पंचायतों को नष्ट कर दिया गया।

उसके पश्चात् 20वीं शताब्दी के आरम्भ में यद्यपि पंचायतों की फिर से स्थापना करने के लिए एक कानून भी पास किया गया, परन्तु इस दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश में पंचायतों की स्थापना की ओर भी ध्यान दिया। ग्रामों में पंचायतों की स्थापना के महत्त्व को समझते हुए संविधान के अनुच्छेद 40 में यह व्यवस्था की गई कि राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करेगा और उन्हें इतनी शक्तियाँ व अधिकार देगा, जिससे वे स्वशासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने के योग्य बन सकें। इस कार्य के लिए सन् 1956 में श्री बलवन्त राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया।

इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही सम्पूर्ण देश में तीन-स्तरीय (Three-Tier). पंचायती राज की स्थापना की गई। इसमें सबसे निचले अथवा गाँव के स्तर पर ग्राम पंचायत (Gram Panchayat), ब्लॉक अथवा खण्ड के स्तर पर पंचायत समिति (Panchayat Samiti) तथा जिले । स्तर पर जिला परिषद् (Zila Parishad) की व्यवस्था की गई। इस ढाँचे का कार्य-क्षेत्र जिले के ग्रामीण क्षेत्रों से सम्बन्धित था।

पंचायती राज की स्थापना भारत में सबसे पहले 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में हुई। आन्ध्र प्रदेश ने 1 नवम्बर, 1959 को पंचायती राज व्यवस्था को अपनाया तथा असम, कर्नाटक एवं उड़ीसा ने भी उसी वर्ष इसे लागू किया। गुजरात, बिहार, पंजाब, महाराष्ट्र तथा उत्तर प्रदेश ने सन् 1961 में, मध्य प्रदेश ने सन् 1962 में, पश्चिम बंगाल ने सन् 1963 में तथा हिमाचल प्रदेश ने इसे सन् 1968 में अपनाया।

संविधान के 73वें संशोधन, जो सन् 1992 में पास हुआ तथा 1993 में लागू हुआ, द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को सं मान्यता प्रदान की गई है। इस संशोधन द्वारा संसद ने इस व्यवस्था का एक सामान्य ढाँचा (General Structure) निर्धारित कर दिया जिसके आधार पर राज्यों को पंचायती राज व्यवस्था के लिए नए कानून बनाने के लिए कहा गया। पंचायती राज के मुख्य उद्देश्य पंचायती राज के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं

  • ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को अपने स्थानीय मामलों में स्वयं नियोजन तथा प्रबन्ध का अवसर देना,
  • लोकतान्त्रिक शासन-प्रणाली को स्थानीय स्तर पर क्रियान्वित करना तथा शक्ति के विकेन्द्रीयकरण को विश्वसनीय बनाना है,
  • ग्रामीण क्षेत्रों के पिछड़े तथा कमज़ोर लोगों को ग्रामीण विकास के कार्यक्रम में भागीदार बनाने का अवसर प्रदान करना है,
  • ग्रामीण सामुदायिक विकास योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए ग्रामीण लोगों को सहभागी बनाने, उनकी पहल शक्ति (Initiative) को उत्साहित करना तथा उनके जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने के लिए प्रयत्न करना है,
  • गाँवों में उपलब्ध मानव-शक्ति तथा अन्य साधनों का उचित प्रयोग करना,
  • ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी दूर करना तथा सामाजिक न्याय का विकास करना।

पंचायती राज की संरचना संविधान के 73वें संशोधन, जो सन् 1993 में लागू हुआ, द्वारा यह व्यवस्था की गई थी कि प्रत्येक राज्य सरकार के लिए इस संशोधन की व्यवस्थाओं के अनुसार पंचायती राज सम्बन्धी नए अधिनियम का निर्माण करना अनिवार्य है। ऐसा अधिनियम 73वें संवैधानिक संशोधन के लागू होने के एक वर्ष के अन्दर बन जाना चाहिए।

इस व्यवस्था के अनुसार हरियाणा विधान सभा ने ‘हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994’ (Haryana Panchayati RajAct, 1994) पास किया, जो 21 अप्रैल, 1994 को लागू हुआ। इस अधिनियम द्वारा हरियाणा में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पंचायती राज के नए ढाँचे की व्यवस्था की गई है। इसके अनुसार हरियाणा में पंचायती राज व्यवस्था की निम्नलिखित चार संस्थाएँ स्थापित की गई हैं ।

  • ग्राम सभा,
  • ग्राम पंचायत,
  • पंचायत समिति,
  • ज़िला-परिषद्।

1. ग्राम सभा हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अधीन यह व्यवस्था की गई है कि सरकार 500 अथवा उससे अधिक की जनसंख्या वाले एक गाँव तथा कुछ पड़ोसी गाँवों को सामूहिक तौर पर ग्राम सभा क्षेत्र (Gram Sabha Area) घोषित कर सकती है। इस क्षेत्र में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति, जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुका है तथा उसका नाम मतदाता सूची में है, ग्राम सभा का सदस्य होता है। दूसरे शब्दों में, ग्राम सभा क्षेत्र में रहने वाले सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं।

2. ग्राम पंचायत (Gram Panchayat)-ग्राम पंचायत ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की मुख्य इकाई है। इस समय देश में 2,50,000 के लगभग ग्राम पंचायतें मौजूद हैं जबकि हरियाणा में 6311 ग्राम पंचायतें वर्तमान में हैं। हरियाणा में पंचायती राज का गठन हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 (Haryana Panchayati RajAct, 1994) के आधार पर किया गया है।

हरियाणा के प्रत्येक गांव जिसकी जनसंख्या 500 या इससे अधिक है, में एक ग्राम सभा (Gram Sabha) की स्थापना की जाती है। इससे कम जनसंख्या वाले गाँव को इस उद्देश्य से किसी साथ वाले गांव से मिलाकर एक सांझी ग्राम सभा की स्थापना की जाती है। उस क्षेत्र में रहने वाले सभी नागरिक, जिनकी आयु 18 वर्ष अथवा उससे अधिक होती है, ग्राम सभा के सदस्य होते हैं।

हरियाणा में एक ग्राम पंचायत में एक सरपंच (Sarpanch) तथा 6 से 20 तक पंच (Members) होते हैं। यह संख्या गांव की जनसंख्या, के आधार पर निश्चित की जाती है। सरपंच तथा अन्य पंचों (सदस्यों) का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के आधार पर किया जाता है।

3. पंचायत समिति-पंचायत समिति का गठन खण्ड (Block) स्तर पर किया जाता है। पंचायत समिति के कुछ सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है। इसके कुछ संदस्य सरपंचों तथा पंचों द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं। लोगों द्वारा चुने गए सदस्यों तथा पंचायतों के सदस्यों द्वारा चुने गए पंचायत समिति के सदस्यों का अनुपात 60:40 होता है। इसके अतिरिक्त राज्य विधान सभा के सदस्य तथा सहकारी संस्थाओं के प्रतिनिधि भी इसके सदस्य होते हैं। पंचायत समिति का मुख्य कार्य अपने क्षेत्र में ग्रामीण विकास तथा सामुदायिक विकास योजनाओं को क्रियान्वित करना होता है।

4. जिला परिषद्-जिला-परिषद् की स्थापना जिला स्तर पर की जाती है। प्रत्येक जिले में एक ज़िला-परिषद् होती है। जिले । में गठित सभी पंचायत समितियों के अध्यक्ष जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। जिले से चुने गए विधान सभा तथा संसद के सदस्य इसके सहायक सदस्य होते हैं। जिलाधीश (Deputy Commissioner) ज़िला-परिषद् का पदेन सदस्य होता है। जिला-परिषद् का मुख्य कार्य अपने अधीन पंचायत समितियों के कार्यों की देखभाल करना, उनमें तालमेल बनाए रखना तथा उन्हें निर्देश देना होता है।

प्रश्न 4.
पंचायती राज से सम्बन्धित 73वें संवैधानिक संशोधन पर संक्षिप्त नोट लिखें। अथवा 73वें संवैधानिक संशोधन के अन्तर्गत पंचायती राज प्रणाली में क्या परिवर्तन किए गए हैं?
उत्तर:
पंचायती राज से संबंधित 72वां सवैधानिक संशोधन बिल 16 सितंबर, 1992 को लोकसभा में पेश किया गया। यह संशोधन लोकसभा द्वारा 22 दिसंबर को और राज्यसभा द्वारा 23 दिसंबर, 1992 को पास कर दिया गया। इसे 24 अप्रैल, 1993 को राष्ट्रपति की मंजूरी 73वें संवैधानिक संशोधन के रूप में मिली। इस संशोधन द्वारा प्रत्येक राज्य के लिए एक वर्ष के अन्दर पंचायती राज एक्ट के आधार पर राज्य विधानमण्डल द्वारा कानून बनाना अनिवार्य किया गया। यह संशोधन 24 अप्रैल, 1993 को लागू हुआ। 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता (Constitutional Recognition to Panchayati Raj Institutions):
73वें संवैधानिक संशोधन के पास होने से पहले स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं थी और संविधान में इनकी कोई व्यवस्था भी नहीं थी। इस संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग (Part-IX) तथा एक नई अनुसूची शामिल किए गए हैं। भाग 9 में अंकित सभी अनुच्छेद तथा 11वीं अनुसूची में उच्च विषयों का वर्णन किया गया है, जिनके संबंध में शक्तियाँ पंचायतों को सौंपी जा सकती हैं।

2. ग्रामसभा की परिभाषा (Definition of Gram Sabha):
73वें संवैधानिक संशोधन में ग्राम सभा की परिभाषा दी गई है। इस परिभाषा के अनुसार एक पंचायत के क्षेत्र में आए गाँवों के जिन लोगों के नाम मतदाताओं की सूची में दर्ज हैं-वे सभी लोग सामूहिक रूप से ग्रामसभा का निर्माण करेंगे। ग्रामसभा गाँव के स्तर पर ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगी और ऐसे कार्यों को करेगी जो राज्य विधानमंडल कानून बनाकर निश्चित करेगी। .

3. पंचायत की परिभाषा तथा संरचना (Definition and Composition of Panchayat):
73वें सवैधानिक संशोधन के अनुसार पंचायत शासन की एक ऐसी संस्था है जिसकी स्थापना सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए की जाती है।

4. तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली (Three Tier System of Panchayati Raj):
अनुच्छेद 243 (ख) त्रिस्तरीय पंचायती राज की व्यवस्था करता है। प्रत्येक राज्य में निम्न स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत समिति तथा सबसे ऊपर जिला स्तर पर जिला परिषद् का गठन किया जाएगा परंतु उस राज्य में जिसकी जनसंख्या 20 लाख से अधिक नहीं है, वहाँ मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत समितियों का गठन करना आवश्यक नहीं होगा। प्रत्येक राज्य में पंचायतों की संरचना संबंधी व्यवस्था संबंधित राज्य के विधानमंडल द्वारा की जाएगी।

5. सदस्यों का प्रत्यक्ष चुनाव (Direct Election of Members of Panchayats):
पंचायती राज की नई प्रणाली के अधीन यह व्यवस्था की गई है कि प्रत्येक पंचायत-क्षेत्र को विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में बांटा जाएगा और इन चुनाव-क्षेत्रों से पंचायत के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से लोगों द्वारा किया जाएगा। ग्राम स्तर पर पंचायत का अध्यक्ष ऐसी रीति से चुना जाएगा, जो राज्य विधानमंडल द्वारा कानून बनाकर निश्चित की जाएगी। मध्यवर्ती तथा जिला स्तर पर पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव उसके सदस्यों द्वारा अपने में से किया जाएगा।

6. पंचायतों के अध्यक्ष को पद से हटाना (Removal of Chairman from office):
73वें संवैधानिक संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि ग्राम स्तर की पंचायत के अध्यक्ष (Sarpanch) को उसके निश्चित कार्यकाल की समाप्ति से पूर्व ग्राम सभा द्वारा उसके पद से हटाया जा सकता है। ग्राम सभा ऐसी कार्यवाही केवल तभी कर सकती है यदि इस संबंध में पंचायत ग्राम सभा को ऐसा करने की सिफारिश करे।

पंचायत द्वारा ऐसी सिफारिश करने के लिए यह आवश्यक है कि पंचायत अपने कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित व मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के बहुमत से अध्यक्ष को हटाने संबंधी प्रस्ताव प्राप्त करे। जब पंचायत का ऐसा प्रस्ताव ग्राम सभा को प्राप्त होगा, तो ग्राम सभा उस पर विचार करने के लिए अपनी एक विशेष बैठक बुलाएगी। ऐसी बैठक 15 दिन की पूर्व सूचना देने के बाद की जाएगी तथा ऐसी बैठक में ग्राम सभा के 50 प्रतिशत सदस्यों की उपस्थिति आवश्यक होगी। यदि ऐसी बैठक में ग्राम सभा अपने उपस्थिति तथा मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के बहुमत द्वारा अध्यक्ष के विरुद्ध प्रस्ताव पास कर देती है, तो ग्राम पंचायत के अध्यक्ष को पद से हटा दिया जाएगा।

मध्यवर्ती स्तर तथा जिला स्तर की पंचायतों के अध्यक्षों (Chairmen of Panchayat Samitis and Zila Parishads) के किसी अध्यक्ष को उसका निश्चित कार्यकाल समाप्त होने से पहले उसके पद से हटाने के लिए यह आवश्यक है कि संबंधित पंचायत इस उद्देश्य के लिए अपने चुने हुए कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित व मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत के साथ अपने अध्यक्ष के विरुद्ध प्रस्ताव पास करे।

7. विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों, अधिकारियों का पंचायतों में प्रतिनिधित्व (Representation of certain categories of Persons and Officials in Panchayats):
73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा राज्य विधानमंडल को यह शक्ति दी गई है कि वह भिन्न-भिन्न स्तर की पंचायतों में निम्नलिखित व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व दल के संबंध में व्यवस्था कर सकती है-

  • सदन स्तर की पंचायतों के अध्यक्षों (Chairmen of Panchayat Samitis) का जिला स्तर की पंचायतों (Zila Parishad) में प्रतिनिधित्व,
  • ग्राम स्तर की पंचायतों के अध्यक्षों (Sarpanches) का मध्यम स्तर की पंचायतों (Panchayat Samiti) में प्रतिनिधित्व,
  • मध्यम स्तर तथा जिला स्तर की पंचायतों में लोकसभा तथा राज्य विधानसभा के उन सदस्यों को प्रतिनिधित्व जो उनके क्षेत्र में निर्वाचित हुए हों,
  • राज्य सभा तथा राज्य विधान परिषद् के सदस्यों को उन पंचायतों में प्रतिनिधित्व जिस पंचायत के क्षेत्र में उनका नाम मतदाता के रूप में शामिल हो।

यदि उनका नाम मध्यम स्तर की पंचायत के क्षेत्र में मतदाता के रूप में शामिल होगा तथा उस मध्यम स्तर की पंचायत (Panchayat Samiti) में प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है और यदि उसका नाम जिला-परिषद् के क्षेत्र में मतदाता सूची में शामिल होगा तो उसे जिला परिषद् में प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि ग्राम पंचायत में ऐसे सदस्यों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा सकता है।

8. स्थानों का आरक्षण (Reservation of seats)-नई पंचायती राज प्रणाली में विभिन्न पंचायतों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित करने की व्यवस्था की गई है। इसके लिए संविधान में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गई हैं-

(1) अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए प्रत्येक पंचायत में स्थान आरक्षित किए जाएंगे। उनकी संख्या पंचायत के क्षेत्र की जनसंख्या के अनुपात के अनुसार निश्चित की जाएगी,

(2) आरक्षित स्थानों के चुनाव-क्षेत्रों में समय-समय पर परिवर्तन किया जाएगा,

(3) प्रत्येक पंचायत में चुनाव द्वारा भरे जाने वाले स्थान में से 1/3 स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाएगा,

(4) अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित किए गए स्थानों में से 1/3 स्थान उन जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाएंगे,

(5) ग्राम स्तर, मध्यम स्तर तथा जिला स्तर की पंचायतों के अध्यक्षों के पदों की अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियाँ और महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों की व्यवस्था संबंधित राज्य के विधानमंडल द्वारा कानून पास करके की जाएगी,

(6) पंचायतों के अध्यक्षों के पदों की कुल संख्या का 50% भाग महिलाओं के लिए आरक्षित करने की घोषणा की गई,

(7) ऊपर दी गई व्यवस्थाओं के अतिरिक्त राज्य विधानमंडल कानून द्वारा नागरिकों की किसी अन्य पिछड़ी श्रेणी के लिए पंचायतों में स्थान आरक्षित करने की व्यवस्था कर सकता है।

9. पंचायतों का कार्यकाल (Tenure of Panchayats):
पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष होगा। यह कार्यकाल पंचायत की पहली बैठक की तिथि से आरंभ होगा। किसी भी स्तर की पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष से अधिक नहीं हो सकता।

10. पंचायतों के कार्य (Functions of Panchayats):
संविधान की 11वीं अनुसूची में कुल 29 विषय रखे गए हैं, जिन पर पंचायत कानून बनाकर उन कार्यों को कर सकती है। इनमें से कुछ प्रमुख विषय इस प्रकार हैं

  • कृषि, जिसमें कृषि विस्तार शामिल है,
  • भूमि सुधार, चकबंदी तथा भूमि संरक्षण,
  • लघु सिंचाई तथा जल-प्रबंध,
  • पशु पालन, दुग्ध उद्योग तथा मुर्गी पालन व मत्स्य उद्योग,
  • खादी ग्राम और कुटीर उद्योग,
  • पीने का पानी,
  • ईंधन और चारा,
  • सड़कें, पुल, गोघाट, जलमार्ग तथा संचार के अन्य साधन,
  • गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोत,
  • शिक्षा, जिसमें प्राथमिक तथा माध्यमिक विद्यालय शामिल हैं;
  • तकनीकी तथा व्यावसायिक शिक्षा,
  • पुस्तकालय,
  • बाजार तथा मेले,
  • परिवार कल्याण, स्त्री तथा बाल विकास,
  • समाज के कमजोर वर्गों, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जन-जातियों का कल्याण,
  • स्वास्थ्य और स्वच्छता जिसके अंतर्गत अस्पताल तथा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और औषधालय आदि शामिल हैं।

11. वित्त आयोग की स्थापना (Establishment of Finance Commission):
73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा एक महत्त्वपूर्ण व्यवस्था यह की गई है कि इस संशोधन के लागू होने के एक वर्ष के भीतर राज्य या राज्यपाल एक वित्त आयोग की नियुक्ति करेगा जो निम्नलिखित विषयों पर राज्यपाल को अपनी सिफारिश करेगा-

  • ऐसे करों, शुल्कों तथा फीसों को दर्शाना जो पंचायतों को प्रदान किए जा सकें,
  • राज्य की संचित निधि (Consolidated fund of the State) से पंचायतों के लिए सहायता अनुदान,
  • पंचायतों की वित्तीय स्थिति में सुधार के लिए सुझाव देना, वित्त-आयोग में कितने सदस्य होंगे, उनके लिए कौन-सी योग्यताएँ आवश्यक होंगी, उनका चुनाव किस प्रकार होगा तथा आयोग को क्या शक्तियाँ प्राप्त होंगी, इन सभी बातों के संबंध में व्यवस्था राज्य विधानमंडल के कानून द्वारा की जाएगी।

निष्कर्ष (Conclusion)-73वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम इस कारण से बहुत महत्त्वपूर्ण है कि इसके अनुसार पंचायती राज की संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। इस अधिनियम के अनुसार पंचायतों का कार्यकाल निश्चित करके उनके चुनावों की निश्चित अवधि पर यह व्यवस्था की गई है कि इन संस्थाओं को अब छः महीने से अधिक समय तक भंग अथवा स्थगित नहीं किया जा सकता। इस एक्ट के पास होने से पहले इन संस्थाओं के चुनाव कई-कई वर्षों तक नहीं होते थे। इसके अतिरिक्त पंचायतों की वित्तीय स्थिति में सुधार करने के लिए उन्हें कर लगाने की शक्ति देना तथा वित्तीय आयोग की स्थापना करना भी पंचायती राज प्रणाली को मजबूत बनाने के महत्त्वपूर्ण कदम हैं।

प्रश्न 5.
ग्राम पंचायत के संगठन एवं कार्यों का वर्णन करें। अथवा ग्राम पंचायत की संरचना, कार्यों तथा आय के साधनों का वर्णन करें।
उत्तर:
ग्राम पंचायत (Gram Panchayat) ग्राम पंचायत ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की मुख्य इकाई है। इस समय देश में 2,50,000 के लगभग ग्राम पंचायतें मौजूद हैं। जबकि हरियाणा में 6311 ग्राम पंचायतें वर्तमान में है। रचना (Composition) हरियाणा में पंचायती राज का गठन हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 (Haryana Panchayati RajAct, 1994) के आधार पर किया गया है।

हरियाणा के प्रत्येक गांव जिसकी जनसंख्या 500 या इससे अधिक है, में एक ग्राम सभा (Gram Sabha) की स्थापना की जाती है। इससे कम जनसंख्या वाले गाँव.को इस उद्देश्य से किसी साथ वाले गांव से मिलाकर एक सांझी ग्राम सभा की स्थापना की जाती है। उस क्षेत्र में रहने वाले सभी नागरिक, जिनकी आयु 18 वर्ष अथवा उससे अधिक होती है, ग्राम सभा के सदस्य होते हैं।

हरियाणा में एक ग्राम पंचायत में एक सरपंच (Sarpanch) तथा 6 से 20 तक पंच (Members) होते हैं। यह संख्या गांव की जनसंख्या, के आधार पर निश्चित की जाती है। सरपंच तथा अन्य पंचों (सदस्यों) का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-प्रणाली के आधार पर किया जाता है। योग्यताएँ-ग्राम पंचायत का सदस्य बनने के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए-

  • वह भारत का नागरिक हो,
  • वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
  • वह दिवालिया अथवा पागल न हो,
  • वह किसी अपराध के लिए दण्डित न किया गया हो तथा न्यायालय द्वारा चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित न किया गया हो,
  • वह संसद अथवा राज्य विधानमण्डल का सदस्य न हो,
  • वह कम-से-कम एक वर्ष से उस गाँव में रह रहा हो।

स्थानों का आरक्षण-पंजाब पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अनुसार पंचायतों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों (पंजाब में अनुसूचित जनजातियाँ नहीं हैं) महिलाओं तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए स्थान सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गई है। यह आरक्षण इस प्रकार है

(1) अनुसूचित जातियों के लिए प्रत्येक क्षेत्र में इन जातियों की जनसंख्या के अनुपात. के आधार पर स्थान सुरक्षित रखे जाएँगे,

(2) आरक्षित स्थानों की कुल संख्या का कम-से-कम एक-तिहाई (1/3) स्थान अनुसूचित जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे और ऐसे स्थान विभिन्न आरक्षित वार्डों को चक्रानुक्रम द्वारा तथा लॉटरी द्वारा (By rotation and by lottery) आबंटित किए जाएँगे,

(3) प्रत्येक ग्राम पंचायत में प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या के 1/3 आरक्षित स्थान (अनुसूचित जातियों से सम्बन्धित महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या सहित) महिलाओं के

(4) प्रत्येक खण्ड में ग्राम पंचायतों के सरपंचों के कुछ पद अनुसूचित जातियों तथा महिलाओं के लिए आरक्षित रखे जाएँगे।

हरियाणा में जनवरी सन् 2016 में हुए पंचायी राज संस्थाओं के हुए चुनावों से पहले कुछ अन्य योग्यताएं भी जोड़ दी गई हैं। ये इस प्रकार हैं हरियाणा में जनवरी 2016 में हुए पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों से पहले हरियाणा विधानसभा में एक संशोधन बिल पास करके इसमें चार शर्ते और जोड़ दी गई हैं जो इस प्रकार हैं-

  • महिलाओं व एस सी (S.C.) वर्ग के लिए शैक्षिक योग्यता (Educational Qualification) 8वीं, बाकी सभी के लिए 10वीं पास, 5वीं पास दलित महिलाएं पंच पद के लिए चुनाव लड़ सकेंगी,
  • पर्चा भरने से पहले प्रत्याशी के घर में टॉयलेट (Toilet) होना जरूरी है,
  • सहकारी लोन, बिजली बिल तथा गृह कर (House Tax) समेत सभी सरकारी देनदारियों का भुगतान हो,
  • 10 वर्ष की सज़ा वाले गंभीर अपराधिक मामलों में चार्जशीट न हो।

कार्यकाल (Tenure):
73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार समस्त भारत में पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित कर दिया गया । है। यदि सरकार की राय में कोई पंचायत अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करती है अथवा अपने कर्तव्यों का ठीक प्रकार से पालन नहीं करती, तो सरकार द्वारा उसे भंग किया जा सकता है। किसी पंचायत के भंग होने के छह महीने के अन्दर उसके नए चुनाव करवाने अनिवार्य हैं।

अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष-ग्राम पंचायत का एक अध्यक्ष होता है, जिसे सरपंच (Sarpanch) कहते हैं। उसका चुनाव मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। उसे अपनी अवधि पूरी करने से पहले भी पद से हटाया जा सकता है। सरपंच ग्राम सभा तथा ग्राम पंचायतों की बैठकें बुलाता है तथा उनकी अध्यक्षता करता है। उसकी अनुपस्थिति में ये कार्य उप-सरपंच द्वारा पूरे किए जाते हैं। उप-सरपंच का चुनाव पंचायत के सदस्यों द्वारा किया जाता है।

बैठकें ग्राम पंचायत की एक महीने में कम-से-कम दो बैठकें होनी अनिवार्य हैं। यदि पंचायत के सदस्यों का बहमत लिखित रूप में विशेष बैठक की माँग करता है तो सरपंच द्वारा तीन दिन के अन्दर ऐसी बैठक बुलाना अनिवार्य है। पंचायत की बैठकों के लिए गणपूर्ति (Quorum) (सरपंच सहित कुल सदस्यों का बहुमत) निश्चित की गई है। पंचायत में निर्णय बहुमत से लिए जाएँगे। किसी विषय पर समान मत पड़ने की स्थिति में सरपंच को निर्णायक मत (Casting Vote) देने का अधिकार होगा। ग्राम पंचायत के कार्य-ग्राम पंचायत के कार्यों का वर्णन (73वें संवैधानिक संशोधन, 1992 के अनुसार) संविधान की 11वीं अनुसूची में किया गया है। ये कार्य इस प्रकार हैं

(i) प्रशासनिक कार्य-

  • (1) ग्राम पंचायत ग्राम सभा द्वारा निश्चित किए गए कार्यों को पूरा करेगी,
  • यह क्षेत्र के विकास के लिए बज़ट तैयार करेगी और ग्राम सभा में पेश करेगी तथा विकास की योजनाओं को भी तैयार करेगी। ये कार्य मुख्य रूप से प्रशासनिक हैं।

(ii) कल्याणकारी कार्य-पंचायती राज व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करना है। इसीलिए ग्राम पंचायत के कल्याणकारी कार्य निश्चित इस प्रकार किए गए हैं-

(1) कृषि के क्षेत्र में कृषि तथा बागवानी का विकास, बंजर भूमि का विकास और चराई भूमि का विकास आदि,

(2) पशुपालन के क्षेत्र में पशु धन में सुधार, डेरी उद्योग, मुर्गी पालन आदि को प्रोत्साहन देना। इसके साथ ही मछली उत्पादन में विकास भी शामिल है,

(3) ग्राम पंचायत का यह भी कार्य है कि वह सड़कों के दोनों ओर वृक्ष लगवाए और वन के विकास में सहयोग दे,

(4) ग्रामीण लोगों को रोजगार देने के लिए कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देना,

(5) ग्रामीणों के लिए आवास की व्यवस्था करना तथा पीने के पानी के लिए कुओं, तालाबों आदि का निर्माण कराना,

(6) गाँवों में ऊर्जा की योजनाओं का विकास करना और विकसित चूल्हों का प्रचार करना,

(7) शिक्षा के क्षेत्र में लोगों में शिक्षा के प्रसार के लिए वयस्क, औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा का प्रसार करना। पुस्तकालय खोलना और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करना,

(8) ग्रामीण क्षेत्र में सफाई के लिए सड़कें और सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण करना तथा इसी प्रकार की अन्य व्यवस्थाएँ करना,

(9) सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में परिवार कल्याणकारी कार्यक्रम लागू करना और बीमारियों की रोकथाम के लिए उपाय करना। इसी के साथ महिला, शिशु और दिव्यांगों के कल्याण के लिए भी कार्य करना, (10) अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए भी कार्य करना,

(11) कानून द्वारा अन्य और भी ऐसे कार्य निश्चित किए गए हैं जिससे कि ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के साथ चेतना भी जागृत क्षेत्र में यह भी व्यवस्था है कि पंचायत समिति भी ग्राम पंचायत को कोई कार्य सौंप सकती है,

(12) बाढ़, सूखा तथा अन्य संकटकाल की स्थिति में गाँव वालों की सहायता करना,

(13) प्रसूति केन्द्र (Maternity Centre) तथा बाल कल्याण केन्द्र (Child Welfare Centre) खोलना तथा उनका प्रबन्ध करना,

(14) पुलों तथा पुलियों का निर्माण तथा मुरम्मत करवाना,

(15) कुएँ, तालाब आदि बनवाना तथा उनकी रक्षा करना,

(16) श्मशान भूमि तथा कब्रिस्तान की देखभाल करना,

(17) मेलों तथा मण्डियों का आयोजन करना,

(18) सार्वजनिक उद्यान, खेल के मैदान आदि का प्रबन्ध करना तथा सार्वजनिक मनोरंजन के लिए आयोजन करना,

(19) पुस्तकालयों तथा वाचनालयों (Libraries and Reading Rooms) की स्थापना व देखभाल करना,

(20) महामारियों के विरुद्ध निवारणात्मक तथा औपचारिक उपाय करना,

(21) यात्रियों के ठहरने का प्रबन्ध करना,

(22) पंचायत किसी पटवारी, सन्तरी, चौकीदार, टीकाकरण कर्मचारी, कनिष्ठ अभियन्ता या गाँव से सम्बन्धित किसी अन्य सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध शिकायत ज़िलाधीश (उपायुक्त) को पहुंचा सकती है।

(i) न्याय सम्बन्धी कार्य-हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अनुसार पंचायतों को निम्नलिखित न्याय-सम्बन्धी कार्य सौंपे गए हैं .. यदि कोई व्यक्ति पंचायत के फौजदारी आदेशों का उल्लंघन करता है तो पंचायत को उस पर 100 रुपए तक जुर्माना करने का अधिकार है। यदि कोई व्यक्ति पंचायत के आदेशों का लगातार उल्लंघन करता है तो पंचायत उस पर 10 रुपए प्रतिदिन की दर से जुर्माना कर सकती है जो 1000 रुपए तक हो सकता है। पंचायत के इस निर्णय के विरुद्ध निर्देशक पंचायत’ (Director of Panchayats) के पास 30 दिन के अन्दर अपील की जा सकती है, जिसका निर्णय अन्तिम माना जाएगा।

ग्राम पंचायत की आय के साधन प्रत्येक ग्राम पंचायत के लिए एक ग्राम निधि (Fund) होगी जिसमें से ग्राम पंचायत खर्च कर सकेगी। ग्राम पंचायत की आय के स्रोत इस प्रकार हैं-

  • सरकार या अन्य संस्थाओं द्वारा प्राप्त अनुदान,
  • वसूल किए गए हार, पंचायत भमि आदि से प्राप्त आय,
  • क्षेत्र के कड़ा-कर्कट, पशुओं के शव, गोबर या कड़ा आदि बेचने से आय,
  • ग्राम मछली क्षेत्रों से हुई आय जो सम्बन्धित ग्राम पंचायत के अधीन है,
  • गृह-कर द्वारा आय,
  • ग्राम-कर द्वारा आय,
  • पंचायत द्वारा किए गए जुर्माने से प्राप्त आय,
  • पशु मेलों या अन्य मेलों में दुकानदारों से प्राप्त आय,
  • जनता से प्राप्त अनुदान अथवा ऋण,
  • 73वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार राज्य विधानमण्डल पंचायतों की आय में वृद्धि करने हेतु राज्य सरकार द्वारा लगाए गए कुछ करों को भी पंचायतों को सौंप सकता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 6.
जिला-परिषद् के गठन, कार्यों तथा आय के साधनों का वर्णन करें।
उत्तर:
पंचायती राज के तीनों स्तरों में सबसे ऊपर जिला परिषद् है। प्रत्येक जिले में पंचायत समिति के ऊपर एक ज़िला-परिषद् की स्थापना की जाती है ज़िला-परिषद् का गठन-जिला-परिषद् पंचायती राज की सबसे ऊपर की इकाई है। प्रत्येक जिले में पंचायत समिति के ऊपर जिला परिषद का गठन किया गया है। वर्तमान में हरियाणा में 21 जिला परिषद हैं क्योंकि नवनिर्मित नए चरखी दादरी जिले में जिला परिषद् के गठन की अधिसूचना अभी जारी नहीं हुई है। हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अनुसार प्रत्येक जिला परिषद् में प्रत्यक्ष रूप से चुने गए सदस्य होंगे

1. प्रत्यक्ष रूप से चुने गए सदस्य

(1) ज़िला-परिषद् क्षेत्र में रहने वाले लोगों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कुछ सदस्यों का चुनाव किया जाता है। इन सदस्यों की संख्या 10 से लेकर 25 तक हो सकती है, जो जिले की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। जिस जिला-परिषद् के क्षेत्र की जनसंख्या 5 लाख से अधिक नहीं होगी, उसमें न्यूनतम 10 सदस्य चुने जाएँगे। वह ज़िला-परिषद् क्षेत्र, जिसकी जनसंख्या 12 लाख से अधिक होगी, उसके सदस्यों की संख्या 25 से अधिक नहीं हो सकती,

(2) जिले में गठित सभी पंचायत समितियों के अध्यक्ष,

(3) राज्य विधान सभा तथा लोकसभा के वे सदस्य जिसका चुनाव-क्षेत्र उस जिले में पड़ता है, जिला-परिषद् के सदस्य होंगे,

(4) राज्य सभा तथा राज्य विधान परिषद् क्षेत्र (यदि राज्य में विधान परिषद् हो) यदि उनका नाम ज़िला-परिषद् क्षेत्र के मतदाताओं की सूची में अंकित है, तो वह ज़िला-परिषद् का सदस्य होगा। स्थानों का आरक्षण प्रत्येक जिला परिषद में कुछ स्थान अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित किए जाते हैं। अनुसूचित जातियों तथा पिछड़ी जातियों के लिए प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा भरे जाने वाले स्थानों का अनुपात वही होगा जो उस ज़िला-परिषद् क्षेत्र की कुल जनसंख्या का होगा।

2. स्त्रियों के लिए आरक्षण-प्रत्येक ज़िला-परिषद् में प्रत्यक्ष चुनावों से भरे जाने वाले स्थानों की कुल संख्या का 1/3 भाग स्त्रियों के लिए आरक्षित किया जाएगा। स्त्रियों के लिए आरक्षित किए गए स्थानों में अनुसूचित जातियों की स्त्रियों के लिए आरक्षित किए गए स्थान भी शामिल होंगे।

3. पिछड़ी श्रेणियों के लिए आरक्षण-जिस ज़िला-परिषद् क्षेत्र की कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत भाग पिछड़ी श्रेणियों के । लोगों का होगा, उस ज़िला-परिषद् में एक स्थान उन श्रेणियों के लिए भी आरक्षित रखा जाएगा।

कार्यकाल (Tenure):
संविधान के 73वें संशोधन के अनुसार जिला परिषद् का कार्यकाल पाँच वर्ष निश्चित किया गया है। यदि जिला परिषद् का कोई सदस्य बिना सूचना दिए परिषद की लगातार चार बैठकों में अनुपस्थित रहता है तो उसकी ज़िला-परिषद् की सदस्यता समाप्त हो जाएगी। जिला परिषद् को उसकी अयोग्यता, भ्रष्टाचार अथवा अपनी शक्ति के दुरुपयोग के कारण राज्य सरकार द्वारा उसे उसका कार्यकाल समाप्त होने से पहले भी भँग किया जा सकता है।

बैठकें तथा गणपूर्ति ज़िला-परिषद् की तीन मास में कम-से-कम एक बैठक अवश्य होनी चाहिए। इन साधारण बैठकों के अतिरिक्त ज़िला-परिषद् के कुल सदस्यों के एक-तिहाई सदस्यों के लिखित अनुरोध पर जिला परिषद् के अध्यक्ष द्वारा दो सप्ताह के भीतर इसकी विशेष बैठक बुलाई जाएगी। जिला-परिषद् की साधारण बैठक के लिए कुल सदस्य संख्या का 1/3 भाग तथा विशेष बैठक के लिए कुल सदस्यों का 1/2 भाग उपस्थित होना आवश्यक होता है।

अध्यक्ष-जिला-परिषद् के सदस्य अपने में से एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष का चुनाव करते हैं। अध्यक्ष ज़िला-परिषद् की बैठकों में सभापतित्व करता है और उनमें अनुशासन बनाए रखता है तथा उसकी कार्रवाई को ठीक प्रकार से चलाने का उत्तरदायी है। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में ये कार्य उपाध्यक्ष द्वारा किए जाते हैं।

सचिव जिला परिषद् के निर्णयों को लागू करने तथा इसके दैनिक कार्यों को चलाने के लिए एक सचिव की नियुक्ति की जाती है जो मासिक वेतन लेता है और वह सरकार द्वारा नियक्त किया जाता है तथा अपने कार्यों के लिए जिला परिषद के प्रति उत्तरदायी होता है।

समितियाँ-जिला-परिषद् अपना काम समितियों के माध्यम से करती है। इसकी विभिन्न समितियाँ हैं कार्य समिति, विकास समिति, योजना तथा वित्त समिति, समाज कल्याण समिति, स्वास्थ्य समिति, शिक्षा समिति आदि। इन समितियों का गठन ज़िला-परिषद् आरम्भ में ही कर लेती है।

जिला-परिषद् के कार्य-ज़िला-परिषद् के कार्य इस प्रकार हैं-

  • यह मूल रूप से अपने क्षेत्र में स्थित पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय पैदा करती है और जिले का सामूहिक विकास करने का प्रयत्न करती है,
  • ज़िला-परिषद् पंचायत समितियों के बजट का निरीक्षण करती है और उन पर अपनी स्वीकृति देती है,
  • यह पंचायत समितियों के कार्यों पर निगरानी रखती है, उन्हें परामर्श देती है और आवश्यक हो तो आदेश देती है, ताकि पंचायत समिति अपने कार्य ठीक प्रकार से कर सके,
  • यह दो या दो से अधिक पंचायत समितियों से सम्बन्धित विकास योजनाएँ बनाती है और उन्हें कार्यान्वित करती है,
  • यह पंचायत समितियों की विकास योजनाओं को समस्त जिले की विकास योजनाओं के साथ समन्वित करने का प्रयत्न करती है,
  • यह जिले के ग्रामीण विकास के सम्बन्ध में सरकार को सुझाव दे सकती है,
  • सरकार किसी भी योजना को लागू करने का उत्तरदायित्व जिला परिषद् को सौंप सकती है,
  • ज़िला-परिषद् ग्रामीण जीवन को विकसित करने और उनके जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने के लिए अनिवार्य कदम उठा सकती है।

ज़िला-परिषद् की आय के साधन (Sources of Income of Zila Parishad):
जिला-परिषद् को जिन साधनों से आय प्राप्त होती है वे इस प्रकार हैं-

  • स्थानीय करों (Local Taxes) का कुछ भाग ज़िला-परिषद् को मिलता है,
  • ज़िला-परिषद् सरकार की आज्ञा से कुछ धन पंचायतों से ले सकती है,
  • राज्य सरकार जिला परिषद् को सहायता के रूप में प्रतिवर्ष कुछ धन देती है,
  • ज़िला-परिषद् को अपनी सम्पत्ति से बहुत-सी आय होती है,
  • ज़िला-परिषद् सरकार की अनुमति से ब्याज पर धन उधार भी ले सकती है,
  • केन्द्रीय सरकार द्वारा ज़िला-परिषदों के लिए निश्चित किया गया धन,
  • कुटीर व लघु उद्योगों की उन्नति के लिए अखिल भारतीय संस्थाओं द्वारा दिए गए अनुदान और अन्य विशेष योजनाओं के लिए समय-समय पर मिलने वाले अनुदान।

प्रश्न 7.
भारत में पंचायती राज की कार्य-प्रणाली में मौजूद त्रुटियों पर एक लेख लिखिए।
अथवा
पंचायती राज से सम्बन्धित मुख्य समस्याओं का वर्णन कीजिए। साथ ही यह भी बताइए कि पंचायती राज की समस्याओं को कैसे दूर किया जा सकता है?
अथवा
भारत की पंचायती राज प्रणाली को सफलतापूर्वक चलाने के मार्ग में आने वाली समस्याओं की चर्चा करें।
उत्तर:
इसमें सन्देह नहीं है कि पंचायती राज की स्थापना से कई लाभ हुए हैं, परन्तु इस व्यवस्था में अनेक त्रुटियाँ (कमियाँ) हैं, जिनके कारण भारत में पंचायती राज अधिक सफल नहीं हो पाया है। ये त्रुटियाँ निम्नलिखित हैं

1. अनपढ़ता-स्वतन्त्रता-प्राप्ति के 70 वर्षों के बाद भी निरक्षरता साक्षरता में नहीं बदली जा सकी है। गाँव के प्रौढ़ व्यक्ति तो विशेषकर अनपढ़ हैं। उन्हें पंचायती राज के उद्देश्यों और कार्य-प्रणाली का ज्ञान नहीं है। कई जगह तो ग्राम सभा की बैठकें होती ही नहीं, वैसे ही कागजों में दिखा दी जाती हैं। कुछ पढ़े-लिखे और चालाक व्यक्ति अधिकाँश अनपढ़ लोगों को बेवकूफ बनाकर पंचायतों को अपने लाभ के लिए चलाते रहते हैं और अधिकाँश जनता तक उसके लाभ नहीं पहुँचते।

2. राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप-पंचायती राज एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें राजनीतिक दलों की कोई आवश्यकता नहीं, जिसमें गाँव के सभी लोग एक मंच पर इकट्ठे होकर समस्याओं पर विचार करें तथा निर्णय करें और उस निर्णय को लागू करें। परन्तु राजनीतिक दल अपनी हितपूर्ति के लिए गाँव के लोगों को एक मंच पर इकट्ठा नहीं होने देते, उन्हें जाति, धर्म आदि के आधार पर बाँटे रखते हैं, उन्हें लड़ाते रहते हैं और साम्प्रदायिकता तथा गुटबन्दी की भावना को बढ़ाकर शक्ति निर्माण कार्यों में नहीं लगने देते। इससे पंचायती राज का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता और प्रगति भी धीमी पड़ती है।

3. धन का अभाव पंचायती राज की संस्थाओं के अपनी आय के साधन सीमित हैं, उनके पास धन की कमी रहती है, वे स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी इच्छानुसार धन इकट्ठा नहीं कर सकतीं। परिणाम यह होता है कि वे अपनी योजनाओं को लागू करने, ग्रामीण जीवन को विकसित करने, उनके जीवन को सुविधाजनक बनाने के काम नहीं कर पातीं। बिना धन के कौन-सी योजना लागू की जा सकती है? बहुत-से गाँवों में तो सड़कों और नालियों की व्यवस्था भी पंचायत नहीं कर पाती, क्योंकि इसके लिए उसके पास धन नहीं है।

4. सरकार का अत्यधिक नियन्त्रण-पंचायती राज जिस भावना से लागू होना चाहिए, वह भावना इसमें विद्यमान नहीं है। पंचायती राज एक प्रकार से लोगों पर थोपा गया है और सरकार पंचायती राज की संस्थाओं पर बहुत अधिक नियन्त्रण रखती है। जिले के उपायुक्त महोदय पंचायती राज संस्थाओं को अनावश्यक आदेश देता है। यहाँ तक कि इन संस्थाओं के अनेक निर्णयों को निरस्त कर देता है।

वास्तव में सरकार की भूमिका तो उन्हें सलाह तथा सहायता देने की होनी चाहिए, आदेश देने की नहीं, परन्तु व्यवहार में ये संस्थाएँ भी सरकार के नियन्त्रण में काम करती हैं और सरकार इन्हें आदेश तथा निर्देश अधिक देती है। इस कारण ग्रामीण यह महसूस नहीं करते कि यह उनकी अपनी स्वतन्त्र संस्था है। यद्यपि 1994 के हरियाणा पंचायती राज अधिनियम के पास होने के बाद सरकारी हस्तक्षेप में कमी तो आई है, फिर भी सरकारी नियन्त्रण से इन संस्थाओं को अभी और स्वतन्त्रता की आवश्यकता है।

5. जातिवाद तथा सम्प्रदायवाद-ग्रामीण लोगों में निर्धनता तथा निरक्षरता के कारण जातिवाद तथा साम्प्रदायिकता की दुर्भावना बहुत अधिक मात्रा में पाई जाती है। ये भावनाएँ गाँव के लोगों में भाई-चारा, आपसी सहयोग तथा प्रेम की भावनाओं को जागृत नहीं होने देतीं। पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव जाति-भेद के आधार पर लड़े जाते हैं और चुने जाने के बाद भी सदस्यों के बीच ये भेदभाव बने रहते हैं।

पंचायती राज संस्थाओं के सदस्य जातिवाद के आधार पर आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं, जिससे पंचायत का काम ठीक प्रकार से नहीं हो सकता। प्रायः पंचायती राज संस्थाओं में आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न तथा उच्च जाति के लोगों का ही प्रभुत्व रहता है। जाति, धर्म तथा कई बार दलों के आधार पर भी इसके सदस्यों में गुटबन्दी (Groupism) बनी रहती है, जिससे संस्था का काम ठीक प्रकार से नहीं चल पाता।

6. निर्धनता-गाँवों में रहने वाले लोगों की गरीबी भी पंचायती राज की एक मुख्य समस्या है। गरीब व्यक्ति दिन भर अपना तथा अपने परिवार का पेट भरने की चिन्ता में रहता है और उसके लिए सार्वजनिक मामलों अथवा गाँव की समस्याओं के बारे में सोचने का समय ही नहीं होता। वे ग्राम पंचायत की कार्यविधि में उत्साहपूर्वक भाग नहीं ले सकते।

इसके अतिरिक्त गरीबी के कारण लोग कर नहीं दे सकते जिससे पंचायतें नए कर लगाकर अपनी आमदनी को बढ़ा नहीं सकतीं। भारत में निर्धनता का मुख्य कारण संपत्ति का असमान वितरण है, जिसके कारण अमीरों की आय में तेजी से वृद्धि हो रही है और निर्धन निर्धनता की जंजीरों में ही जकड़े हुए हैं। निर्धनों की संपत्ति कच्चे मकान, बर्तन और पशु ही हैं, जिसके कारण उनके लिए आय के नए स्रोत प्राप्त करना असंभव है।

7. सरकारी कर्मचारियों की भूमिका सरकारी कर्मचारियों की भूमिका ने भी, जोकि बड़ी निराशाजनक तथा आश्चर्यजनक है, पंचायती राज की प्रगति को धीमा कर रखा है। पंचायत समिति के निर्णयों को लागू करने के कार्य जिन कर्मचारियों के जिम्मे हैं, वे सरकार के अधीन हैं और वे पंचायत समिति को अपना स्वामी न मानकर उसे आदेश देने का प्रयत्न करते हैं। सरकारी कर्मचारी समितियों तथा पंचायतों को स्वतन्त्रतापूर्ण काम नहीं करने देते, जिससे कि पंचायती राज के कार्य में रुकावट आती है।

8. ग्राम सभा की प्रभावहीन भूमिका-ग्राम सभा, जिसे गाँव की संसद भी कहा जाता है, आजकल नाममात्र की बनकर रह गई है। कहने को तो इसकी वर्ष में दो बैठकें अवश्य होनी चाहिएँ और बजट आदि इसके द्वारा पास होना चाहिए, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है या तो इसकी बैठकें होती ही नहीं और हो भी तो ग्रामवासी इनमें रुचि नहीं लेते। केवल ग्राम पंचायत के चुनाव के समय ही इसके अस्तित्व का पता चलता है। इसके बाद तो पंचायत ही जो चाहे करती चली जाती है। इसकी बैठकों की कार्रवाई कागजों में ही लिख ली जाती है।

निष्कर्ष-आज देश में पंचायती राज की स्थिति सराहनीय नहीं है। यह जनता का राज है और लोगों को अपनी स्थानीय आवश्यकताएँ पूरी करने तथा विकास कार्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। परन्तु इसने बड़ी धीमी गति से कार्य किया है। जब तक इसमें पाई जाने वाली कमियों को दूर नहीं किया जाएगा, तब तक यह अपना प्रभाव नहीं दिखा सकती।

पंचायतों तथा पंचायत समितियों के पास अपना स्वतन्त्र पर्याप्त धन होना चाहिए और सरकार का इन पर नियन्त्रण कम होना चाहिए तथा सरकार इन्हें सहायता और सलाह देने का कार्य करे, न कि आदेश देने और इसके कार्य में रुकावट लाने का। आशा है कि इन सुविधाओं के परिणामस्वरूप पंचायती राज अपना प्रभाव अवश्य दिखाएगा और भारत के ग्रामीण जीवन का विकास होगा। त्रुटियों को दूर करने के उपाय-पंचायती राज व्यवस्था की त्रुटियों को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं

1. शिक्षा का प्रसार-पंचायती राज संस्थाओं को सफल बनाने के लिए प्रथम आवश्यकता शिक्षा का प्रसार है। जब तक लोग शिक्षित नहीं होंगे और अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों के प्रति सजग नहीं होंगे, तब तक ये संस्थाएँ सफलतापूर्वक काय

2. सदस्यों को प्रशिक्षण आज पंचायती राज संस्थाओं का कार्य बहुत अधिक पेचीदा तथा जटिल है। प्रशिक्षण (Training) के बिना पंचायती राज संस्थाओं के सदस्य अपना कार्यों को ठीक प्रकार से नहीं कर सकते और न ही उचित निर्णय ले सकते हैं। इस कारण इन सदस्यों के प्रशिक्षण की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए।

3. योग्य और ईमानदार कर्मचारी स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के कर्मचारियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर होनी चाहिए। उनके वेतन आदि अन्य सरकारी कर्मचारियों के बराबर होने चाहिएँ, ताकि योग्य व्यक्ति इन संस्थाओं में नौकरी प्राप्त करने के लिए आकर्षित हों। इन कर्मचारियों के प्रशिक्षण की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है।

4. राजनीतिक दलों पर रोक स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में राजनीतिक दलों के लिए कोई स्थान नहीं है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है। वैसे तो कानून द्वारा उन दलों पर कुछ एक प्रतिबन्ध लगाए हुए हैं, परन्तु व्यावहारिक रूप में ये प्रतिबन्ध निष्प्रभावी सिद्ध हए हैं। इस कप्रथा को रोकने के लिए कानून पर अधिक निर्भर रहना ठीक नहीं है, बल्कि लोगों की सावधानी, दलों की सद्भावना तथा शुभ नीति ही अधिक उपयोगी हो सकते हैं।

5. ग्राम सभा को सक्रिय करना चाहिए- पंचायती राज को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि ग्राम सभा को एक प्रभावशाली संस्था बनाया जाए। इसकी बैठकें नियमित रूप से होनी चाहिएँ और गाँव के नागरिकों को इसकी कार्रवाइयों में रुचि लेनी चाहिए। जब तक गाँव के नागरिक स्वयं अपनी समस्याओं तथा अपने क्षेत्र के प्रति उत्साह नहीं दिखाएँगे, तब तक पंचायती राज का सफल होना असम्भव है।

6. सरकारी हस्तक्षेप में कमी स्थानीय संस्थाओं को अपने कार्यों में अधिक-से-अधिक स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए, तभी ये संस्थाएँ सफल हो सकती हैं। सरकारी हस्तक्षेप या नियन्त्रण की बजाय इन संस्थाओं को उचित परामर्श (Proper Guidance) की अधिक आवश्यकता है। इसलिए सरकार को चाहिए कि इन संस्थाओं को अधिक स्वतन्त्रता दे और इनके पथ-प्रदर्शन की व्यवस्था करे।

7. धन की अधिक सहायता-धन का अभाव भी इन संस्थाओं की सफलता में एक बहुत बड़ी बाधा है। सरकार को चाहिए कि इन संस्थाओं की धन से पूरी-पूरी सहायता करे। लोगों के जीवन में सुधार करने के लिए ये संस्थाएँ जो नई योजनाएँ बनाएँ, सरकार को चाहिए कि उसके लिए पर्याप्त मात्रा में धन दे।

8. नियमित चुनाव पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव निश्चित अवधि के पश्चात् नियमित रूप से होने चाहिएँ। फरवरी, 1989 में तत्कालीन राष्ट्रपति श्री वेंकटरमन ने यह सुझाव दिया था कि पंचायत के चुनावों को राज्यों की विधान सभाओं तथा लोकसभा के चुनावों की तरह अनिवार्य बना दिया जाए और इसके लिए संविधान में संशोधन कर दिया जाए। पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव आयोग की देख-रेख में होने चाहिएँ।

9. पंचायती राज की संस्थाओं को अधिक शक्तियाँ देनी चाहिएँ पंचायती राज की संस्थाओं को अधिक दायित्व तथा शक्तियाँ मिलनी चाहिएँ। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए 23 दिसम्बर, 1992 को संविधान का 73वाँ संशोधन पारित किया गया है, जिसके अन्तर्गत अब पंचायती राज की संस्थाओं को अधिक शक्तियाँ प्राप्त हो गई हैं।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 8.
भारत में पंचायती राज के महत्त्व की विवेचना कीजिए। अथवा पंचायती राज की स्थापना से भारत में गाँवों में रहने वाले लोगों को क्या-क्या लाभ हुए हैं?
उत्तर:
2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान में पंचायती राज का उद्घाटन करते हुए भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “हम भारत के लोकतन्त्र की आधारशिला रख रहे हैं।” वास्तव में पंचायती राज की स्थापना से प्रजातन्त्र का विकेन्द्रीयकरण होता है और देश का प्रत्येक साधारण-से-साधारण नागरिक भी देश के प्रशासन में स्वयं को भागीदार समझने लगता है। अतः पंचायती राज का बहुत महत्त्व है। निम्नलिखित तथ्यों से पंचायती राज के महत्त्व का पता चलता है

1. प्रत्यक्ष लोकतन्त्र-गाँवों में पंचायती राज की स्थापना का होना प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से कम नहीं है, क्योंकि गाँवों के सब लोग ग्राम सभा के सदस्य के रूप में, जिनकी बैठक एक वर्ष में दो बार बुलाई जाती है, गाँव की समस्याओं पर विचार करते हैं और उनका निर्णय करते हैं। ग्राम सभा गाँव की संसद (Parliament) की तरह है और गाँव के सभी नागरिक इस संसद के सदस्य हैं। पंचायती राज के वे सब लाभ हैं जो प्रत्यक्ष लोकतन्त्र से प्राप्त होते हैं। पंचायती राज की स्थापना से प्रत्यक्ष और वास्तविक लोकतन्त्र की स्थापना होती है।

2. जनता का अपना शासन-पंचायती राज जनता का अपना राज्य होता है। इसकी स्थापना से भारत के गाँवों में लोगों का अपना शासन स्थापित हो चुका है। गाँव का प्रत्येक वयस्क नागरिक ग्राम सभा का सदस्य है और ग्राम पंचायत के चुनाव में भाग लेता है। ग्राम पंचायत ग्राम के प्रशासन सम्बन्धी, समाज कल्याण सम्बन्धी, विकास सम्बन्धी तथा न्याय सम्बन्धी सब कार्य करती है।

इस प्रकार गाँव का व्यक्ति अपने भविष्य का स्वयं निर्माता बना हुआ है। भारत का नागरिक अब किसी के अधीन नहीं है और वह वास्तविक रूप में अपने ऊपर स्वयं शासन करता है और अपने शासन से अच्छा कोई शासन नहीं होता।

3. अधिकारों और कर्तव्यों का ज्ञान पंचायती राज की स्थापना से गाँव का प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को गाँव के प्रशासन के साथ सम्बन्धित समझता है। आज के ग्रामीण को अपने कर्तव्यों के बारे में जानकारी है तथा वे अपने अधिकारों के बारे में पहले की अपेक्षा अधिक सचेत हैं। गाँव के निवासी अब ग्राम सभा की बैठकों में भाग लेकर ग्राम पंचायत आदि के चुनाव में दिलचस्पी लेते हैं और ग्राम पंचायतों द्वारा निश्चित ‘करों’ इत्यादि को देने से भी हिचकते नहीं हैं।

4. आत्म-निर्भरता-पंचायती राज का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य ग्रामों को आत्म-निर्भर बनाना है। ग्राम पंचायत व पंचायत समितियाँ जनता की अपनी संस्थाएँ हैं और वे स्वयं आवश्यकतानुसार कर आदि लगाकर अपनी जरूरतों को पूरा करती हैं तथा अपने विकास की योजनाएँ बनाती हैं और उन्हें लागू करती हैं।

पंचायती राज से पहले ग्रामीण विकास की योजनाएँ सरकारी कर्मचारियों द्वारा बनाई जाती थीं और सरकारी कर्मचारी स्वेच्छा से उन्हें लागू करते थे, परन्तु अब यह लोगों की अपनी इच्छा पर निर्भर है। पंचायती राज की स्थापना के बाद गाँव के लोग अपनी विकास योजनाओं को स्वयं लागू करते हैं और इस प्रकार से हमारे बहुत-से गाँव आत्मनिर्भरता प्राप्त कर चुके हैं।

5. स्थानीय समस्याओं का समाधान-किसी विशेष क्षेत्र की स्थानीय समस्याओं का समाधान केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा शीघ्रता एवं सुगमता से नहीं किया जा सकता। इसका मुख्य कारण यह है कि सरकार के अधिकारियों का गाँव के लोगों के साथ सीधा सम्पर्क नहीं होता। पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों का जनता के साथ सीधा सम्पर्क होता है। वे क्षेत्र की समस्याओं से भली-भाँति परिचित होते हैं। अतः इस सदस्यों द्वारा स्थानीय समस्याओं को आसानी से हल किया जा सकता है।

6. स्वतन्त्रता की भावना का विकास-पंचायती राज की स्थापना से लोगों में स्वतन्त्रता की भावना का बहुत विकास हुआ है, जिससे देश में लोकतन्त्र की जड़ों को मजबूत करने में सहायता मिली है। इस सम्बन्ध में पंचायती राज के महत्त्व का वर्णन करते हुए स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने एक बार कहा था, “हमारे देश के लोकतन्त्र की बुनियाद मज़बूत होने में पंचायती राज संस्थाओं का प्रमुख स्थान रहा है। इन पर जो बड़ी आशाएँ रखी गई हैं वे पूरी हो सकती हैं जबकि गाँवों में रहने वाले कमज़ोर वर्ग के लोग, ग्रामीण, स्वायत्तता शासन में सक्रिय रूप से भाग लें।”

7. न्यायिक कार्य का महत्त्व पंचायती राज की संस्थाएँ गाँवों के लोगों को सस्ता तथा शीघ्र न्याय दिलाने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। साधारण झगड़ों को सुलझाने के लिए ग्रामीण लोगों को न्यायालयों में नहीं जाना पड़ता। इससे धन तथा समय दोनों की बहुत बचत होती है।

8. कृषि का विकास व आर्थिक उन्नति-पंचायती राज की स्थापना का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इसकी स्थापना के बाद से ग्रामों में कृषि का बहुत अधिक विकास हुआ है। उसका कारण यह है कि ग्राम पंचायतें, पंचायत समितियाँ व जिला परिषदें सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों की सहायता से किसानों को अच्छे किस्म के बीज प्रदान करती रहती हैं व वैज्ञानिक कृषि तथा नवीनतम कृषि-यन्त्रों के बारे में जानकारी देती रहती है।

परिणामस्वरूप कृषि की उपज बढ़ी है। कृषि की उपज बढ़ने से जहाँ एक ओर किसानों व गाँव के अन्य लोगों की आर्थिक व सामाजिक रूप से उन्नति हुई है, वहाँ दूसरी ओर देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बन गया है। यह पंचायती राज का ही महत्त्व है।

9. प्रशासन की शिक्षा भारत में लोकतन्त्रात्मक सरकार की स्थापना की गई है। इस प्रकार की सरकार में प्रत्येक व्यक्ति को प्रशासन की ज़िम्मेदारी सम्भालने के लिए तैयार रहना चाहिए। पंचायती राज गाँव के अशिक्षित व कम शिक्षा प्राप्त लोगों को प्रशासन की शिक्षा देने का सबसे अच्छा साधन है। पंचायती राज द्वारा स्थापित स्थानीय स्वशासन शहरों की स्थानीय स्वशासन संस्थाओं की अपेक्षा लोगों को प्रशासन की अधिक शिक्षा प्रदान करता है।

जैसे कि नगरों की स्थानीय संस्थाएँ नियम बनाने का प्रशिक्षण तो लोगों को देती हैं, लेकिन न्याय करने का प्रशिक्षण उन संस्थाओं के सदस्यों को नहीं मिलता। पंचायती राज गाँव के लोगों को नियम बनाने, उन्हें लागू करने, विकास योजनाएँ बनाने तथा उन्हें लागू करने और न्याय करने का भी अवसर देता है। इस प्रकार पंचायती राज द्वारा गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को प्रशासन की शिक्षा प्राप्त होती है।

निष्कर्ष इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पंचायती राज लोगों में आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भरता की भावना पैदा करता है और उनकी स्थानीय मामलों में रुचि उत्पन्न करता है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में स्वतन्त्रता तथा उत्पन्न करता है। इससे ग्रामीण जीवन के विकास में बहुत सहायता मिलती है। लोगों को अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों के बारे में जागरूक करके पंचायती राज लोकतन्त्र को सफल बनाने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

प्रश्न 9.
शहरी स्वशासन संस्थाओं से सम्बन्धित 74वें संवैधानिक संशोधन की मुख्य धाराओं का वर्णन करें। अथवा 74वें संविधान संशोधन द्वारा शहरी स्थानीय संस्थाओं में किए गए परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर:
देश में शहरी स्थानीय संस्थाओं को अधिक मजबूत बनाने और उनमें लोगों की भागीदारी को बढ़ाने के लिए भारतीय संसद द्वारा सन् 1992 में 74वाँ संवैधानिक संशोधन पास किया गया जो 1993 में लागू हुआ। इस संवैधानिक संशोधन के मुख्य अनुच्छेद निम्नलिखित हैं-

1. स्थानीय संस्थाओं की संवैधानिक मान्यता-74वें संशोधन द्वारा स्थानीय नगर संस्थाओं को पहली बार संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। इस संशोधन द्वारा संविधान में भाग 9A शामिल किया गया तथा 12वीं सूची इसमें जोड़ी गई जिसमें 18 विषय शामिल हैं। संविधान के इस भाग में शहरी स्थानीय संस्थाओं की संरचना, कार्य, शक्तियों आदि का उल्लेख है।

2. तीन प्रकार की स्थानीय संस्थाओं का वर्णन-74वें संविधान संशोधन ने प्रत्येक राज्य के लिए तीन स्तरीय शहरी स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था की है; जैसे-

  • परिवर्तनीय क्षेत्र के लिए नगर पंचायत-नगर पंचायत 10,000 से 20,000 तक की जनसंख्या के क्षेत्र में होगी। ये ऐसे क्षेत्र हैं जो ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्र में परिवर्तित हो रहे हैं,
  • छोटे नगरीय क्षेत्रों के लिए नगरपालिका,
  • विशाल शहरी क्षेत्रों के लिए नगर-निगम। यहाँ पर स्पष्ट करना आवश्यक है कि इन संस्थाओं का निर्णय राज्य सरकार द्वारा किया जाएगा।

3. नगरपालिका का संगठन प्रत्येक नगरपालिका का क्षेत्र राज्य सरकार द्वारा निश्चित किया जाएगा। नगरपालिका को वार्डो में विभाजित किया जाएगा और प्रत्येक वार्ड से प्रत्यक्ष रूप से मतदाता एक प्रतिनिधि को निर्वाचित करेंगे। नगरपालिका के चुनाव सम्बन्धी विषय राज्य के विधानमण्डल द्वारा निश्चित किए जाएंगे।

4. विशेष प्रतिनिधित्व की व्याख्या इस संशोधन के द्वारा यह भी व्यवस्था है कि राज्य का विधानमण्डल विशिष्ट व्यक्तियों, क्षेत्र से सम्बन्धित लोकसभा, विधानसभा और राज्यसभा के सदस्यों को भी नगरपरिषद् में शामिल कर सकता है।

5. अध्यक्ष या सभापति का चुनाव इसकी व्यवस्था राज्य का विधानमण्डल कानून द्वारा करेगा।

6. वार्ड समितियों की व्यवस्था इस संशोधन के द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि जिस नगरपरिषद् के क्षेत्र में तीन लाख या इससे अधिक जनसंख्या होगी, वहाँ वार्ड समितियाँ स्थापित की जाएँगी। इनका संगठन और अधिकार-क्षेत्र राज्य विधानमण्डल के कानून द्वारा किया जाएगा।

7. आरक्षण की व्यवस्था-74वें संविधान संशोधन ने शहरी स्थानीय संस्थाओं में स्थानों के लिए आरक्षण की निम्नलिखित व्यवस्था की है-

  • प्रत्येक नगरपालिका में जनसंख्या के अनुपात के अनुसार अनुसूचित जातियों और जनजातियों के स्थान सुरक्षित होंगे। इन स्थानों में से 1/3 स्थान अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए सुरक्षित किए जाएँगे,
  • नगरपालिका के कुल स्थानों में 50% स्थान महिलाओं के लिए सुरक्षित करने की घोषणा की गई,
  • पिछड़ी जाति के लिए भी एक स्थान सुरक्षित करने की व्यवस्था है,
  • इस संशोधन द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि राज्य का विधानमण्डल प्रधान पदों के लिए अनुसूचित जातियों, जनजातियों और महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित करेगा।

8. अवधि-शहरी स्थानीय संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है। यदि निश्चित अवधि से पूर्व नगरपालिका भंग कर दी जाती है तो उसके चुनाव छह महीने के अन्दर करवाने आवश्यक हैं।

9. सदस्यो की योग्यताएँ-शहरी स्थानीय संस्थाओं का सदस्य होने के लिए अन्य योग्यताओं के साथ 21 वर्ष की आय आवश्यक है।

10. नगरपालिका की शक्तियाँ-74वें संविधान संशोधन द्वारा 18 विषयों पर नगरपालिका को कार्य करने का अधिकार दिया गया है। इन 18 विषयों का उल्लेख संविधान की 12वीं सूची में किया गया है। इसके साथ यह भी व्यवस्था है कि राज्य का विधानमण्डल नगरपालिका को कुछ ‘कर’ लगाने और उन्हें इकट्ठे करने का भी अधिकार दे सकता है।

11. चुनाव आयोग की व्यवस्था-शहरी क्षेत्र की स्थानीय संस्थाओं के चुनाव राज्य के चुनाव आयोग द्वारा करवाए जाएँगे। राज्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राज्य के राज्यपाल द्वारा होगी।

12. वित्त आयोग की व्यवस्था शहरी स्थानीय संस्थाओं के गठन के बाद राज्य सरकार एक वित्तीय आयोग नियुक्त करेगी जो इन संस्थाओं की वित्त सम्बन्धी विषयों पर विचार करेगा।

13. जिला आयोजन समिति-74वें संशोधन में यह भी व्यवस्था है कि राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा जिला आयोजन समिति की स्थापना करेगा। इसका संगठन भी राज्य विधानमण्डल द्वारा ही निश्चित किया जाएगा। जिला आयोजन समिति का कार्य ज़िला पंचायतों और नगरपालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को समन्वित करके पूरे जिले के विकास के लिए कार्य करना है।

14. महानगर योजना समिति-74वें संविधान संशोधन द्वारा यह भी व्यवस्था की गई है कि ऐसे क्षेत्रों में, जिनकी जनसंख्या 20 लाख अथवा उससे अधिक है, महानगर योजना समिति की स्थापना की जाए। यह समिति महानगर के सम्पूर्ण क्षेत्र के विकास के लिए योजनाएँ तैयार करेगी।

15. नगरपालिकाओं को कर लगाने की शक्ति और निधियाँ-

  • राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा नगरपरिषदों को कर (Tax) शुल्क (Duty), पथ-कर (Toll-tax) तथा फीसें (Fees) लगाने की शक्ति प्रदान कर सकता है।
  • राज्य विधानमण्डल राज्य सरकार द्वारा लगाए गए करों, शुल्कों, पथ-करों और फीसों को नगरपालिका को सौंप सकती है।
  • राज्य की संचित निधि में से (Consolidated Fund of State) नगरपालिकाओं को सहायता अनुदान (Grant-in-aid) दिया जा सकता है।
  • राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा प्राप्त होने वाले धनों (Moneys) के लिए निधियों (Funds) और उन निधियों से निकाले जाने वाले धनों की व्यवस्था कर सकता है।

16. नगरपालिकाओं के चुनाव-सम्बन्धी मामले न्यायालय के क्षेत्राधिकार से बाहर-74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के अनुसार यह व्यवस्था की गई है कि नगरपालिकाओं के चुनाव-क्षेत्र के परिसीमित (Delimitation of constituencies) या ऐसे चुनाव-क्षेत्रों के बँटवारे से सम्बन्धित किसी कानून को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। नगरपालिका के किसी सदस्य के चुनाव को उसी प्राधिकारी के पास चुनौती दी जा सकती है जिसकी व्यवस्था राज्य विधानमण्डल द्वारा कानून बना कर की गई हो।

17. वर्तमान कानूनों तथा नगरपालिकाओं का जारी रहना-74वें संवैधानिक संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि नगरपालिकाओं से सम्बन्धित कोई भी कानून और नगरपालिकाएँ, जो 74वें संवैधानिक संशोधन के लागू होने से पहले अस्तित्व में थीं, तब तक अपने पदों पर कायम रहेंगी जब तक कि राज्य विधानमण्डल द्वारा प्रस्ताव पारित करके उनको भंग नहीं किया जाता।

18. उपरोक्त व्यवस्थाएँ कुछ क्षेत्रों पर लागू नहीं होंगी-74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की उपरोक्त व्यवस्थाएँ निम्नलिखित क्षेत्रों पर लागू नहीं होंगी।

  • संविधान के अनुच्छेद 244 पद (1) और पद (2) में वर्णित अनुसूचित क्षेत्रों और कबायली क्षेत्रों (Scheduled areas and Tribal areas)।
  • पश्चिमी बंगाल के दार्जिलिंग जिले के पहाड़ी क्षेत्र जहाँ ‘दार्जिलिंग गोरखा परिषद्’ (Darjeeling Gorkha Hill Council) स्थापित है।

19. संघीय क्षेत्रों पर लागू होना-74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम की सभी व्यवस्थाएँ संघीय क्षेत्रों पर लागू होंगी। संघीय क्षेत्र के सम्बन्ध में इस अधिनियम में राज्य के राज्यपाल’ के स्थान पर ‘संघीय क्षेत्र प्रशासक’ (Administrative of Union Territory) और ‘राज्य विधानमण्डल’ के स्थान पर ‘संघीय विधानसभा’, यदि उस क्षेत्र में विधानसभा’ ही प्रयोग, किए जाएँगे।

इस विवरण से यह स्पष्ट है कि 74वें संविधान संशोधन द्वारा शहरी स्थानीय संस्थाओं के लिए एक नई प्रणाली की व्यवस्था की गई है। इस नई प्रणाली के अन्तर्गत नगरपालिकाओं को पहले की अपेक्षा बहुत अधिक दृढ़ और की भागीदारी को बेहतर बनाया गया है। शहरी स्थानीय संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है और पहले की तुलना में उन्हें अधिक शक्तियाँ, जिम्मेवारियाँ तथा वित्तीय साधन सौंपे गए हैं।

इन संस्थाओं में स्त्रियों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया है और स्थानीय स्तर पर लोकतन्त्र को अधिक सशक्त बनाने का प्रयत्न किया गया है। इस प्रकार इस संविधान संशोधन द्वारा शहरी स्थानीय संस्थाओं की स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया गया है।

प्रश्न 10.
नगर-निगम की संरचना, कार्यों तथा आय के साधनों का वर्णन करें। अथवा . नगर निगम की संरचना और कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
नगर-निगम शहरी क्षेत्र में गठित स्थानीय शासन की इकाइयों में सर्वोच्च, सम्माननीय तथा स्वायत्त निकाय होता है। नगर पालिकाओं की अपेक्षा नगर-निगम को अधिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं और इन पर सरकारी नियन्त्रण भी कम होता है। केन्द्रीय शासित क्षेत्र में नगर-निगम स्थापित करने के लिए तथा संसद और राज्यों में नगर-निगम गठित करने के लिए राज्य विधानमण्डल द्वारा विशेष अधिनियम पारित करने पड़ते हैं।

भारत में सबसे पहले चेन्नई में नगर-निगम गठित किया गया था। हमारे देश में इस समय हैदराबाद, पटना, सूरत, शिमला, ग्वालियर, मुम्बई, आगरा, कोलकाता, दिल्ली, अमृतसर आदि बड़े-बड़े शहरों में नगर-निगम गठित किए गए हैं। प्रत्येक नगर-निगम के लिए एक विशेष अधिनियम पारित किया गया है। उदाहरण के लिए दिल्ली में, दिल्ली नगर-निगम अधिनियम, 1957, मुम्बई में मुम्बई नगर-निगम अधिनियम, 1888, पंजाब में पंजाब नगर-निगम अधिनियम, 1976, हरियाणा में फरीदाबाद में नगर-निगम का गठन पहले से ही किया हुआ है। इसके बाद गुड़गाँव को भी नगर-निगम बना दिया गया।

इस तरह हरियाणा में अम्बाला, हिसार, करनाल, पानीपत, पंचकूला, यमुनानगर, सोनीपत और रोहतक को मिलाकर दस नगर निगम स्थापित किए गए थे। इसी तरह जुलाई, 2015 को सोनीपत को हरियाणा का दसवाँ नगर निगम बनाया गया। यहाँ यह स्पष्ट है कि फरवरी, 2018 में हरियाणा मंत्रिमण्डल के द्वारा लिए गए निर्णय के अनुसार अम्बाला नगर निगम को भंग कर दिया गया था,

लेकिन 23 जुलाई, 2019 को कोर्ट केस में कोर्ट ने बीच का रास्ता अपनाते हुए अम्बाला सिटी को नगर निगम और अम्बाला कैंट को नगर परिषद का रूप दे दिया। इसके बाद हरियाणा सरकार ने 27 जुलाई, 2019 को अधिसूचना जारी करते हुए अम्बाला शहर को नगर-निगम एवं अम्बाला छावनी को नगर परिषद बना दिया गया। इस प्रकार वर्तमान में हरियाणा में 10 नगर निगम हैं।

हरियाणा में इस प्रकार का कानून हरियाणा नगर-निगम अधिनियम, 1994 (Haryana Municipal Corporation Act, 1994) विधानमण्डल ने 31 मई, 1994 को पारित किया और इसके अनुसार फरीदाबाद में नगर-निगम गठित किया गया। राज्य सरकार अधिसूचना जारी करके इस अधिनियम में अन्य नगरीय क्षेत्रों को भी शामिल कर सकती है।

यह निगम एक सतत् उत्तराधिकार प्राप्त निकाय (Body of Perpetual Succession) है जिसको एक सामान्य मुहर (Common Seal), सम्पत्ति तथा स्वयं के नाम से दावा करने या अभियोग चलाने की शक्ति प्राप्त है। रचना (Composition) हरियाणा नगर निगम अधिनियम के अनुसार जिन शहरों की जनसंख्या 3 लाख से अधिक है वहाँ नगर निगम की स्थापना की जाती है। इसके अतिरिक्त 74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा की गई व्यवस्था के अनुसार राज्य विधानमण्डल कानून द्वारा निम्नलिखित वर्गों के व्यक्तियों को नगर-निगम में प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था करता है

(क) तीन व्यक्ति, जिन्हें नगरीय प्रशासन के अनुभव का विशेष ज्ञान प्राप्त हो,
(ख) नगर-निगम के नगरीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोकसभा तथा विधानसभा के सदस्य,
(ग) राज्य सभा के सदस्य जिनका नगरीय क्षेत्र में मतदाता के रूप में पंजीकरण है। उपर्युक्त मनोनीत सदस्यों में से (क) वर्ग के सदस्यों को नगर-निगम की बैठकों में मताधिकार से तथा (ख) एवं (ग) वर्ग के सदस्यों को मेयर, वरिष्ठ उप-मेयर या उप-मेयर के चुनाव तथा हटाने की प्रक्रिया में मताधिकार से वंचित रखा गया है।

निगम का कार्यकाल (Duration of Corporation):
नगर-निगम का कार्यकाल, सिवाय भंग होने की अवस्था में, पाँच वर्ष होता है। यदि किसी कारणवश निगम को भंग कर दिया जाता है तो अगली चुनी गई नगर-निगम शेष बचे समय के लिए कार्य करेगी। निगम को भंग करने से पूर्व उसे अपने विचार व्यक्त करने का पूरा अवसर दिया जाता है। सदस्यों की

अयोग्यताएँ (Disqualifications of the Members):
74वें संवैधानिक संशोधन के आधार पर हरियाणा विधानसभा द्वारा पारित हरियाणा नगर-निगम अधिनियम, 1994 के अनुसार नगर-निगम का सदस्य बनने के लिए नगरीय क्षेत्र के वार्ड में पंजीकृत मतदाता होने के अतिरिक्त 25 वर्ष की उम्र होना आवश्यक है। अधिनियम के अनुच्छेद 8 के अनुसार सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित कारणों को अयोग्य माना गया है

  • राज्य विधानमण्डल के निर्वाचन के उद्देश्य से मानी गई अयोग्यता,
  • विकृत चित,
  • दिवालिया,
  • विदेशी नागरिकता,
  • इस अधिनियम की धारा 22 के अन्तर्गत परिभाषित भ्रष्ट विधि,
  • भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 171-E या 171-F या इस अधिनियम की धारा 30 या 31 के अनुसार कोई अपराधिक मुकद्दमा,
  • अनैतिक आचार के कारण दोष-सिद्धि या हिरासत,
  • निगम के अन्तर्गत किसी भी लाभ के पद पर होना,
  • सरकार के अन्तर्गत किसी भी लाभ के पद पर होना,
  • निगम से लाइसेन्सशुदा, वास्तुविद् (Architect) ड्राफ्ट्स मैन, इंजीनियर, पैमाइश करने वाला (Surveyer), पलम्बर या नगर योजनाकार,
  • निगम के किसी कार्य या संविदा से लाभ प्राप्तकर्ता,
  • निगम के द्वारा संचालित किसी फर्म या व्यवसाय का हिस्सेदार,
  • सरकार, निगम या स्थानीय सत्ता के अधीन किसी सेवा से पदच्युति,
  • निगम को देय किसी फीस या जुर्माने को अदा करने में असफल होने पर,
  • दो से अधिक जीवित बच्चों का माँ-बाप होने पर। यद्यपि यह शर्त उन माता-पिताओं पर नहीं लागू होती जिनके पास 31 मई, 1995 तक या इससे पहले दो जीवित बच्चे हो।

निगम में आरक्षित सीट (Reserved Seats of the Corporation):
74वें संशोधन के आधार पर हरियाणा नगर-निगम अधिनियम, 1994 की धारा 11 के अनुसार निम्नलिखित वर्गों के लिए सीटों का आरक्षण किया गया है-

(1) नगरीय क्षेत्र की कुल जनसंख्या और अनुसूचित जातियों की जनसंख्या के मध्य अनुपात के अनुसार सीटें आरक्षित की जाती हैं। इनका कुल जनसंख्या तथा कुल सीटों में एक समान अनुपात होना चाहिए,

(2) उपर्युक्त सीटों में से एक-तिहाई सीटें अनुसूचित जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएँगी,

(3) प्रत्यक्ष चुनाव के द्वारा भरी गई कुल सीटों में से एक-तिहाई सीटें (अनुसूचित जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों समेत) महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएंगी। इन सीटों का बँटवारा भिन्न-भिन्न वार्डों में लॉटरी के द्वारा किया जाएगा,

(4) दो सीटें पिछड़ी जातियों के लिए, जिन वार्डों में इन जातियों की अधिकतम संख्या है, आरक्षित की जाएंगी।

(5) मेयर, वरिष्ठ उप-मेयर तथा उप-मेयर के पदों का आरक्षण सामान्य वर्ग, अनुसूचित जातियों, पिछड़ी जातियों तथा महिलाओं के लिए क्रमवार (By Rotation) लॉटरी पद्धति के अनुसार किया जाएगा। स्थानीय शासन नगर-निगम के अधिकारीगण तथा संस्थाएँ-नगर-निगम में प्रायः निम्नलिखित अधिकारीगण तथा संस्थाएँ होती हैं

1. महापौर (Mayor):
नगर-निगम का अध्यक्ष महापौर (Mayor) कहलाता है। इसका चुनाव नगर-निगम के सदस्यों द्वारा किया जाता है। नगर-निगम के सदस्य एक ‘उप-महापौर’ (Deputy Mayor) का भी चुनाव करते हैं। आमतौर पर महापौर तथा उप-महापौर का चुनाव एक वर्ष के लिए किया जाता है, परन्तु कार्यकाल की समाप्ति पर उन्हें प्रायः दुबारा चुन लिया जाता है। महापौर नगर-निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है। अव्यवस्था उत्पन्न होने की स्थिति में वह सदन की बैठक को स्थगित कर सकता है। महापौर नगर का प्रथम नागरिक कहलाता है। नगर में आने वाले विशिष्ट अतिथियों का वह अभिनन्दन करता है।

2. निगम की सामान्य परिषद् (General Council of the Corporation):
निगम की सामान्य परिषद् में सभी सभासद तथा एल्डरमैन शामिल होते हैं। सामान्य परिषद् के सदस्यों की संख्या सभी नगर-निगमों के लिए एक-जैसी नहीं है। निगम आयुक्त को छोड़कर नगर-निगम के अन्य अधिकारियों की नियुक्ति सामान्य परिषद् द्वारा की जाती है।

दिल्ली नगर-निगम के आयुक्त की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा की जाती है, परन्तु राज्यों में निगम आयुक्त राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। सामान्य परिषद् निगम क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं पर विचार करती है तथा सामान्य नीति बनाती है, जिसे विभिन्न समितियों द्वारा क्रियान्वित किया जाता है।

3. स्थायी समितियाँ (Standing Committees):
सामान्य परिषद् अपने कार्यों का संचालन स्थायी समितियों के द्वारा करती है। ये समितियाँ सामान्य परिषद् द्वारा निर्वाचित की जाती हैं। ये समितियाँ मुख्य रूप से करारोपण तथा वित्त (Taxation and Finance), शिक्षा, स्वास्थ्य, बजट तैयार करना, निर्माण कार्य, बिजली तथा यातायात आदि विषयों से सम्बन्धित होती हैं।

4. निगम आयुक्त (Municipal Commissioner):
निगम आयुक्त नगर-निगम का प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी होता है। वह महापौर को प्रशासन सम्बन्धी विवरण देता रहता है। निगम के प्रशासन को चलाने का उत्तरदायित्व मुख्य प्रशासनिक अधिकारी पर होता है, जिसे कमीश्नर (आयुक्त) कहा जाता है। दिल्ली में वह केन्द्रीय सरकार द्वारा तथा राज्यों के निगमों में राज्य सरकार द्वारा पाँच वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है, परन्तु सरकार इस अवधि को घटा-बढ़ा सकती है।

निगम आयुक्त निगम के अन्य सभी अधिकारियों के ऊपर होता है। वह विभिन्न संस्थाओं के कर्त्तव्य निर्धारित करता है और उनके कार्यों की देखभाल करता है। वह कई नियुक्तियाँ भी करता है। उसका कर्त्तव्य है कि वह निगम को अपने कार्यों का विवरण देता रहे। नगर-निगम के सदस्य जो भी जानकारी प्राप्त करना चाहें, उसे निगम आयुक्त ही देता है।

निगम की बैठकें (Meetings of the Corporation)-निगम अपने कार्य का संचालन करने के लिए प्रति माह एक बैठक का आयोजन करता है। निगम की प्रथम बैठक मण्डल-आयुक्त द्वारा बुलाई जाती है जिसमें मेयर का चुनाव किया जाता है। ऐसी बैठक की अध्यक्षता मण्डल-आयुक्त द्वारा नियुक्त सदस्य के द्वारा की जाती है। यदि मेयर के उम्मीदवारों के मध्य बराबर-बराबर के मत पड़ते हैं तो अध्यक्ष अतिरिक्त मत के द्वारा निर्णय करता है।

इन बैठकों की अध्यक्षता (सिवाय मेयर, वरिष्ठ उप-मेयर या उप-मेयर के निर्वाचन सम्बन्धी बैठक) मेयर, उसकी अनुपस्थिति में उप-मेयर द्वारा की जाती है। प्रत्येक बैठक की सूचना बैठक आरम्भ होने से 5 दिन पूर्व भेजी जाती है। निगम का सचिव प्रत्येक बैठक की कार्रवाई का संक्षिप्त रिकार्ड एक रजिस्टर में दर्ज करता है और अगली बैठक में इसकी जानकारी देता है। वह बैठक के अध्यक्ष के हस्ताक्षर भी करवाता है। कार्रवाई रिपोर्ट की सूचना प्रत्येक निगम के सदस्य को दी जाती है।

निगम का सचिव बैठक आरम्भ होने के तीन बाद बैठक में लिए गए निर्णय की रिपोर्ट सरकार को प्रेषित करता है और सरकार निगम सचिव से बैठक के सम्बन्ध में किसी कागजात की प्रति मंगवा सकती है। प्रत्येक बुलाई गई बैठक के लिए आवश्यक गणपूर्ति 1/3 निश्चित की गई है जिसके अभाव में बैठक स्थगित कर दी जाती है।

निगम के कार्य (Functions of Corporation)-देश में भिन्न-भिन्न नगर-निगमों को कई प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं। कई राज्यों में निगम को सामान्य कार्य करने पड़ते हैं और उनकी सूची अधिनियम में दी जाती है। परन्तु कई राज्यों में निगमों को दो प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं अनिवार्य और ऐच्छिक।हरियाणा नगर-निगम अधिनियम, 1994 के अध्याय III की धाराओं 42, 43 और 44 के अनुसार निगम को निम्नलिखित कार्य सौंपे गए हैं

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

1. आर्थिक विकास व सामाजिक न्याय सम्बन्धी कार्य (Functions related with Economic Development and Social Justice)-नगर-निगम आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय तथा संविधान की 12वीं अनुसूची में सम्मिलित 18 विषयों को लागू करने से सम्बन्धित योजनाओं और कार्यों का क्रियान्वयन करता है। इसमें निम्नलिखित कार्य आते हैं …

  • नगरीय योजना,
  • भूमि उपयोग का विनियमन और भवनों का निर्माण,
  • आर्थिक और सामाजिक विकास योजना।
  • सड़कें और पुल,
  • घरेलू, औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए जल प्रदाय (Water Supply),
  • लोक स्वास्थ्य, स्वच्छता, सफाई और कूड़ा-कर्कट प्रबन्ध,
  • अग्निशमन सेवाएँ,
  • नगरीय वानिकी, पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिक आयामों की अभिवृद्धि (Ecological Aspects),
  • समाज के दुर्बल वर्गों, दिव्यांगों और मानसिक रोगियों का हित,
  • गन्दी बस्ती सुधार,
  • नगरीय निर्धनता उन्मूलन,
  • नगरीय सुख-सुविधाओं; जैसे पार्क, उद्यान तथा खेलों के मैदानों की व्यवस्था,
  • सांस्कृतिक, शैक्षणिक और सौन्दर्य के आयामों की वृद्धि,
  • कब्रिस्तान, शवदाह और श्मशान,
  • पशु तालाब तथा पशुओं के प्रति क्रूरता का निवारण,
  • जन्म-मरण सांख्यिकी,
  • सार्वजनिक सुख-सुविधाओं में वृद्धि; जैसे सड़कों पर प्रकाश तथा जन-सुविधाएँ,
  • वध-शालाओं (Slaughters) और चर्मशोधन-शालाओं (Tanneries) का विनियमन।

2. आवश्यक कार्य (Obligatory Functions):
निगम के लिए यह आवश्यक होगा कि वह नीचे लिखे कार्यों को लागू करने के लिए, जोकि उसके कर्तव्यों का हिस्सा होंगे, हर सम्भव प्रयास करेगा

  • शौचालयों तथा मूत्रालयों का निर्माण, रख-रखाव व सफाई,
  • जल-आपूर्ति व्यवस्था का प्रबन्ध,
  • कूड़ा-कर्कट, गन्दगी व वातावरण को दूषित करने वाले पदार्थों को हटाना,
  • हानिकारक पौधों तथा कष्टदायक बाधाओं को हटाना,
  • मृतकों का दाह-संस्कार करने के लिए स्थानों का नियमन,
  • पशु तालाबों का रख-रखाव,
  • हानिकारक बीमारियों की रोकथाम,
  • नगरीय बाजारों का नियमन,
  • घृणोत्पादक व्यवसायों (Offensive Traders) पर रोक,
  • खतरनाक भवनों को हटाना,
  • सार्वजनिक गलियों, पुलियों तथा उच्च मार्गों (Causeways) का निर्माण, रख-रखाव व सुधार,
  • गलियों की सफाई व प्रकाश का प्रबन्ध,
  • गलियों से बाधाएँ हटाना,
  • घरों और गलियों में नम्बर लगाना,
  • नगरीय कार्यालयों का रख-रखाव
  • सार्वजनिक पार्को, उद्यानों तथा मनोरंजन के साधनों का प्रबन्ध,
  • अग्नि-शामक दल व यन्त्र का प्रबन्ध व आग लगने की अवस्था में जानमाल की रक्षा करना,
  • स्मारकों का रख-रखाव,
  • निगम की सभी सम्पत्तियों का विकास करना।
  • सड़क के किनारों पर लगे पेड़-पौधों की देखभाल करना,
  • भवनों व भूमि का सर्वेक्षण,
  • इस अधिनियम के अधीन सौंपा गया कोई भी अन्य कार्य।

3. ऐच्छिक कार्य (Discretionary Functions):
नगर-निगम उपलब्ध वित्तीय साधनों की पर्याप्तता के आधार पर निम्नलिखित कार्य करता है

  • सांस्कृतिक, शारीरिक व सामान्य शिक्षा का प्रबन्ध,
  • पुस्तकालयों, संग्रहालयों व चिड़ियाघरों की स्थापना करना,
  • खेल-कूद व व्यायाम के लिए व्यायामशालाओं व अखाड़ों का निर्माण करना,
  • विवाहों का पंजीकरण,
  • जनगणना,
  • अति विशिष्ट व्यक्तियों का स्वागत करना,
  • जनता के लिए संगीत, मनोरंजन व सिनेमाघरों की व्यवस्था करना,
  • प्रदर्शनियों व मेलों का प्रबन्ध करना,
  • विश्राम-गृहों, वृद्ध-आश्रमों, बाल-भवनों, अनाथालयों तथा बहरों और गूगों के लिए आवासों का प्रबन्ध करना,
  • निगम अधिकारियों व कर्मचारियों के लिए आवास स्थानों का प्रबन्ध करना,
  • निगम कर्मचारियों का कल्याण,
  • जन-स्वास्थ्य से सम्बन्धित पानी, स्वास्थ्य और औषधियों का परीक्षण करने के लिए प्रयोगशालाओं का प्रबन्ध करना,
  • निराश्रितों और दिव्यांगों की सहायता करना,
  • जन टीकाकरण,
  • जनता के लिए तैरने और नहाने के लिए स्थानों का रख-रखाव करना,
  • दुग्ध डेयरियों का प्रबन्ध करना,
  • कुटीर उद्योगों तथा हस्तशिल्प कला-केन्द्रों का प्रबन्ध करना।
  • गोदामों का प्रबन्ध करना,
  • वाहनों तथा पशुओं के ठहरने के स्थानों का प्रबन्ध करना,
  • नगर निवासियों के ठहरने के लिए आवास स्थलों का निर्माण करना,
  • अस्पतालों, औषधालयों तथा प्रसूति एवं शिशु-कल्याण केन्द्रों की स्थापना करना,
  • जन-सुरक्षा, स्वास्थ्य तथा जन-कल्याण के लिए किसी भी प्रकार का कदम उठाना,
  • निगम से स्वीकृत योजनाओं के अनुसार नगरीय क्षेत्रों का सुधार करना।

निगम निधि (Corporation Fund)-नगर-निगम भिन्न-भिन्न वित्तीय देनदारियों के लिए एक निगम निधि की स्थापना करेगा जिसमें निम्नवत सम्मिलित हैं

  • निगम स्थापित करने से पूर्व सभी फंड,
  • इस अधिनियम के अन्तर्गत सभी प्रकार के प्राप्त धन,
  • निगम की ओर से की गई सभी सम्पत्तियों की आय का निपटारा,
  • निगम की किसी भी प्रकार की सम्पत्तियों से प्राप्त किराया,
  • सभी प्रकार के शुल्क और जुर्माने,
  • निगम के द्वारा सरकार, किसी व्यक्ति या संस्था से प्राप्त धन,
  • निगम के द्वारा जमा किए गए धन पर ब्याज या अन्य लाभ,
  • निगम के द्वारा अन्य किसी भी स्रोत से प्राप्त धन।

उपर्युक्त सभी प्रकार की वित्तीय देनदारियों के लिए गठित निगम फंड को किसी राष्ट्रीय बैंक, सरकारी कोषागार या सरकार निगम आयुक्त द्वारा रखा जाएगा। किसी भी प्रकार के पैसे का लेन-देन तब तक नहीं किया जाएगा, जब तक कि लेखा अधिकारी (Account Officer) तथा निगम आयुक्त (Commissioner) हस्ताक्षर न कर दें। निगम की आय के साधन (Sources of Income of Corporation) : निगम की आय के साधन निम्नलिखित हैं

1. निगम द्वारा लगाए गए कर (Taxes imposed by the Corporation):
निगम भिन्न-भिन्न प्रकार के करों को लगाने का अधिकार रखता है, परन्तु कुछ कर सिर्फ सरकार की स्वीकृति से ही लगाए जा सकते हैं। निगम जिन करों को सरकार की पूर्व स्वीकृति के बिना लगा सकता है, उनमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं

  • भवनों व भूमि पर कर,
  • सरकार द्वारा निर्धारित दर के अनुसार चुंगीकर,
  • सम्पत्तियों के बेचने (Sale), परिवर्तन करने (Exchange) रेहन या बन्धक (Mortgage) या पट्टे (Lease) पर देने के बदले में प्राप्त शुल्क। इसके अतिरिक्त निगम सरकार की स्वीकृति से निम्नलिखित कर लगा सकता है

(1) व्यवसाय, व्यापार, रोजगार और अन्य धन्धों पर कर,
(2) वाहन-कर (सिवाय मोटर-वाहन तथा पशु),
(3) शहरी भूमि की कीमत बढ़ने पर विकास-कर (Development Tax),
(4) तमाशा कर (Show Tax),
(5) ऊर्जा का उपभोग करने पर (5 पैसे प्रति यूनिट से कम) ऊर्जा-कर,
(6) हरियाणा नगर पालिका अधिनियम के अन्तर्गत लगाया गया अन्य कोई भी कर।

2. निगम द्वारा ली जाने वाली फीसें (Fees Charged by the Corporation) राज्य सरकार की पूर्व स्वीकृति से निगम स्थापित विधि के अनुसार निम्नलिखित फीसों को वसूल कर सकता है

  • समाचार-पत्रों के सिवाय अन्य विज्ञापनों पर शुल्क,
  • भवन के लिए आवेदन पत्रों पर शुल्क,
  • कुछ क्षेत्रों में स्वच्छता सुविधाओं को प्रदान करने और रख-रखाव पर विकास शुल्क,
  • प्रकाश शुल्क,
  • गन्दगी दूर हटाने पर शुल्क,
  • भवन योजनाओं के अन्तर्गत आन्तरिक सेवाओं पर शुल्क,
  • निगम द्वारा प्रदान की गई सेवाओं के लिए उचित समझा गया अन्य कोई शुल्क।

3. करों और फीसों की वसूली (Recovery of Taxes and Fees):
निगम सभी प्रकार के करों व फीसों को वसूली करने के लिए विधि या प्रक्रिया का निर्णय करता है। वह इन करों और फीसों को निम्नलिखित तरीके से भी वसूल कर सकता है

  • भू-राजस्व की बकाया राशि,
  • दोषी की चल-सम्पत्ति को बेचना या उसकी कुड़की (Distrairt) करना,
  • दोषी की अचल सम्पत्ति को बेचना या उसकी कुड़की करना,
  • चुंगी या पथ-कर के मामले में दोषी की किसी वस्तु या वाहन को कब्जे में लेना,
  • भूमि और भवन-कर के मामले में सम्पत्ति की कुड़की करना,
  • अभियोग करना।

4. निगम द्वारा उधार लेना (Borrowing by Corporation)-निगम एक प्रस्ताव पारित कर ऋण पत्र (Debenture) या किसी अचल सम्पत्ति अथवा सभी या किसी वसूल किए जाने वाले कर या फीस की जमानत पर किसी लोक संस्था से उधार ले सकता है। निगम जिन उद्देश्यों के लिए धन उधार ले सकता है, उनमें निम्नलिखित आते हैं

  • किसी प्रकार की जमीन का अधिग्रहण करने के लिए,
  • किसी भवन को ऊँचा (Eracting) उठाने के लिए,
  • किसी ऐसे स्थायी कार्य को आरम्भ करने के लिए जिसकी कई वर्षों तक चलने की सम्भावना हो,
  • सरकार के किसी ऋण को अदा करने के लिए,
  • पहले लिए गए किसी ऋण की अदायगी करने के लिए,
  • इस अधिनियम के अन्तर्गत किसी अन्य वैधानिक उद्देश्य के लिए।

निगम उपर्युक्त कार्यों को पूरा करने के लिए सरकार की पूर्व स्वीकृति के बिना कोई भी ऋण उधार नहीं ले सकता। इसके अतिरिक्त ऋण की सीमा, ब्याज की दर, ऋण का भुगतान करने की विधि, समय तथा अन्य शर्तों के निर्णयों में भी सरकार की स्वीकृति ली जाती है।

यद्यपि उधार लिए गए धन की अदायगी 60 वर्षों से कम समय में करनी पड़ती है। निगम ऋण पत्रों की जमानत पर उधार लिए गए धन की अदायगी करने के लिए ऋण परिषोध कोष (Sinking Fund) की स्थापना कर सकता है।

5. सरकारी अनुदान (Govt. Grants):
सरकार समय-समय पर निगमों की आर्थिक सहायता करने के लिए सरकारी अनुदान देती है। यह निगमों की आय का महत्त्वपूर्ण साधन है। निगम के द्वारा बजट तैयार करना (Preparation of the Budget by the Corporation)-निगम आय और व्यय का अनुमान लगाने के लिए प्रत्येक वर्ष फरवरी के प्रथम सप्ताह से पहले बजट तैयार करवाता है।

इस प्रकार तैयार किया गया बजट फरवरी के अन्तिम सप्ताह से पहले-पहले सरकार के पास स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। सरकार यदि उचित समझती है तो कुछ संशोधनों सहित या बिना संशोधन के 31 मार्च से पहले यह बजट निगम के पास वापिस भेज देती है।

निगम के लेखों की तैयारी व उनका परीक्षण (Preparation and Audit of Corporation Accounts)-निगम के लेखों को रखने और उनकी परीक्षा करने का उत्तरदायित्व एक अधिकारी का होता है, जिसे स्थानीय कोष लेखा अधिकारी (Examiner Local Fund Accounts) कहते हैं। वह निगम के लेखों की रिपोर्ट निगम-परिषद् के समकक्ष प्रस्तुत करता है

और निगम की प्राप्तियों व खर्चों का संक्षिप्त विवरण (Abstract of Receipts and Expenditure) तैयार करवाता है। वह निगम के वित्तीय लेन-देनों में पालन किए गए नियमों की देख-रेख करता है। वह किसी प्रकार की वित्तीय अनियमितता व गबन की सूचना आयुक्त को और उसके माध्यम से सरकार को देता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 11.
नगरपरिषद् की रचना, कार्यों तथा आय के साधनों का वर्णन करें।
उत्तर:
नगर-परिषद् शहरी स्थानीय स्वशासन की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है। 74वें संवैधानिक संशोधन एक्ट के पास होने से पहले इसे नगरपालिका (Municipal Committee) के नाम से पुकारा जाता था। परन्तु इस एक्ट द्वारा इसे नगर-परिषद् (Municipal Council) का नाम दिया गया है। हरियाणा में प्रायः जिन नगरों की जनसंख्या 50 हजार तक होती है,

वहाँ नगरपालिका का गठन किया जाता है तथा जिन नगरों की जनसंख्या 50 हजार से 3 लाख के बीच में होती है, उनमें राज्य सरकार द्वारा नगर-परिषद् की स्थापना कर दी जाती है। वर्तमान में हरियाणा में 21 नगरपरिषद् एवं 57 नगरपालिकाएँ हैं। नगर की जनसंख्या, रोजगार की उपलब्धता, आय तथा आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार द्वारा

उस क्षेत्र में नगर-परिषद् की स्थापना की जाती है। ऊपर दिए गए तत्त्वों को ध्यान में रखते हुए पंजाब में नगर-परिषदों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया है। इस समय पंजाब में 27 ‘ए’ श्रेणी की, 39 ‘बी’ श्रेणी की तथा 31 ‘सी’ श्रेणी की नगर-परिषदें हैं।

1. नगर-परिषद् की रचना (Composition of Municipal Council):
प्रत्येक नगर-परिषद् में सदस्यों की संख्या नगर की जनसंख्या के आधार पर राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। 11 नवंबर, 1994 को पंजाब सरकार द्वारा जारी की गई एक अधिसूचना के अनुसार यह संख्या 9 से कम तथा 49 से ऊपर नहीं होगी। नगर-परिषद् में निम्नलिखित दो प्रकार के सदस्य होते हैं-

1. सदस्यों का चुनाव-वे सदस्य, जिनकी संख्या समय-समय पर राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है, का चुनाव नगर के मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार प्रणाली के आधार पर प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। चुनाव के लिए नगर को लगभग समान जनसंख्या वाले वार्डों (Wards) में बाँट दिया जाता है और प्रत्येक वार्ड (चुनाव-क्षेत्र) में से एक सदस्य चुना जाता है। नगरपरिषद् के सदस्यों को प्रायः नगर पार्षद् (Municipal Councillor) कहा जाता है।

2. सहायक सदस्य राज्य विधानसभा के वे सभी सदस्य, जिनके निर्वाचन-क्षेत्र उस नगरपरिषद् क्षेत्र में पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से आते हों, ऐसे सदस्य, नगरपरिषद् के सहायक सदस्य (Associate Members) होते हैं। उन्हें नगरपरिषद् की बैठकों में भाग लेने तथा बोलने का अधिकार तो होता है, परन्तु वे परिषद् में होने वाले मतदान में भाग नहीं ले सकते।

स्थानों का आरक्षण
(1) प्रत्येक नगरपरिषद् में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुसार स्थान सुरक्षित किए जाने का प्रावधान है। इन स्थानों में समय-समय पर परिवर्तन करने की व्यवस्था है,

(2) इन जातियों के लिए सुरक्षित किए गए स्थानों में से 1/3 स्थान इन जातियों से सम्बन्धित महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे,

(3) प्रत्येक नगरपरिषद् में 1/3 स्थान महिलाओं (जिनमें अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के स्थान भी शामिल होंगे) के लिए आरक्षित किए जाएँगे,

(4) प्रत्येक नगरपरिषद् में एक स्थान पिछड़े वर्गों के लिए सुरक्षित करने की व्यवस्था है। योग्यताएँ संविधान के 74वें संशोधन के अनुसार नगरपरिषद् का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निश्चित की गई भारत का नागरिक हो,

(2) वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,
(3) वह पागल, दिवालिया या अपराधी न हो,
(4) वह केन्द्रीय सरकार अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर कार्य न कर रहा हो,
(5) उसका नाम मतदाताओं की सूची में होना चाहिए,
(6) उसे नगरपरिषद् के चुनाव के लिए मताधिकार प्राप्त हो अथवा चुनाव के अयोग्य घोषित न किया गया हो।

कार्यकाल-74वें संविधान संशोधन द्वारा नगरपरिषद का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित किया गया है। यदि किसी नगरपरिषद को उसकी अवधि समाप्त होने से पूर्व भंग कर दिया जाता है, तो 6 महीने में नई नगरपरिषद् का चुनाव कराना अनिवार्य है। नव-निर्वाचित नगरपरिषद् शेष (बचे हुए) काल के लिए ही कार्य करेगी।

यदि भंग की गई नगरपरिषद् का शेष कार्यकाल 6 महीने से कम हो तो फिर नई नगरपरिषद् का चुनाव नहीं करवाया जाएगा। अध्यक्ष व उपाध्यक्ष नगरपरिषद् अपने निर्वाचित सदस्यों में से एक अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का चुनाव करेगी। नगरपरिषदों में अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष पद अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों एवं महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाने की भी व्यवस्था है।

यदि किसी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के विरुद्ध नगरपरिषद् के सदस्य 2/3 बहुमत से अविश्वास प्रस्ताव पास कर देते हैं, तो उसे अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ेगा। बैठकें प्रत्येक नगरपरिषद् की एक मास में कम-से-कम एक बैठक होनी अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त, यदि नगरपरिषद् की संख्या के आधे सदस्य लिखित रूप में विशेष अधिवेशन बुलाने की माँग करें, तो अध्यक्ष द्वारा 10 दिन के अन्दर ऐसी विशेष बैठक अवश्य बुलाई जाएगी।

नगरपरिषद की बैठक में सभी निर्णय बहुमत से लिए जाते हैं और किसी विषय पर समान मत पड़ने की स्थिति में अध्यक्ष को निर्णायक मत (Casting Vote) देने का अधिकार होगा।

स्थायी कर्मचारी नगरपरिषद् का दैनिक कार्य चलाने के लिए एक कार्यकारी अधिकारी होता है। उसे मासिक वेतन मिलता है। उसकी नियुक्ति नगरपरिषद् ही करती है। कहीं-कहीं कार्यकारी अधिकारी और सचिव दोनों ही होते हैं। सचिव कार्यकारी अधिकारी के अधीन कार्य करता है। इसके अतिरिक्त नगरपरिषद् के अन्य स्थायी अधिकारी भी होते हैं; जैसे इंजीनियर, स्वास्थ्य अधिकारी आदि। नगरपरिषद् के कार्य नगरपरिषद् के कार्यों को हम निम्नलिखित दो भागों में बाँट सकते हैं

1. अनिवार्य कार्य-ये वे कार्य हैं जो हर नगरपरिषद् को करने पड़ते हैं। नगरपरिषद् द्वारा अनिवार्य रूप से किए जाने वाले कार्य निम्नलिखित हैं-

  • नगर में सड़कों तथा गलियों का निर्माण करवाना और पुरानी सड़कों तथा गलियों की मुरम्मत करवाना,
  • शहरों की सड़कों तथा गलियों में सफाई का प्रबन्ध करना,
  • बिजली तथा पानी का प्रबन्ध करना,
  • आग बुझाने के लिए ‘फायर ब्रिगेड’ (Fire Brigade) की व्यवस्था करना,
  • नागरिकों के स्वास्थ्य की रक्षा का उचित प्रबन्ध करना,
  • नगर में बनने वाले नए मकानों के नक्शे पास करना। पुराने तथा खतरनाक मकानों को गिरवाना या मालिकों को निर्देश देकर उनकी मुरम्मत करवाना,
  • नगर में जन्म और मृत्यु का रिकॉर्ड रखना।

2. ऐच्छिक कार्य-ये वे कार्य हैं, जो यदि साधन और सुविधा हो तो नगरपरिषदों को करने चाहिएँ। बहुत-सी नगरपरिषदें, जिनके आय के साधन अच्छे हैं, ये कार्य भी करती हैं। नगरपरिषद् द्वारा किए जाने वाले निम्नलिखित कार्य उसके ऐच्छिक कार्यों के क्षेत्र में आते हैं-

  • पुस्तकालयों तथा वाचनालयों की स्थापना करना और उनका प्रबन्ध करना,
  • कुएँ, तालाब, खेल के मैदान आदि बनवाना,
  • स्थानीय बसों, रेलगाड़ियों आदि की व्यवस्था करना,
  • मेलों तथा मण्डियों का प्रबन्ध करना,
  • पार्क, उद्यान आदि बनवाना,
  • श्मशान तथा कब्रिस्तान के लिए स्थान निश्चित करना तथा उनका प्रबन्ध करना,
  • शुद्ध दूध की सप्लाई का प्रबन्ध करना,
  • खतरनाक उद्योग-धन्धों पर प्रतिबन्ध लगाना,
  • गन्दी तथा मिलावट वाली वस्तुओं की बिक्री पर रोक लगाना,
  • प्रसूति केन्द्र, बाल-कल्याण केन्द्र आदि खोलना और उनका प्रबन्ध करना,
  • प्रारम्भिक शिक्षा का प्रबन्ध करना,
  • प्रदर्शनियों का आयोजन करना,
  • यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशाला या सराय आदि का निर्माण करना।

आय के साधन-नगरपरिषद की आय के साधन निम्नलिखित हैं-

  • नगर में बाहर से आने वाली वस्तुओं पर नगरपरिषद् चुंगी कर (Octroi Duty) लगाती है। यह नगरपरिषद् की आय का मुख्य साधन है,
  • नगरपरिषद् अपने क्षेत्र के मकानों पर कर लगाती है,
  • नगरपरिषद् कई वस्तुओं के रखने पर लाइसेंस फीस लेती है। ताँगे, रेहड़ी, ठेला, साइकिल, रिक्शा आदि रखने के लिए नगरपरिषद् से लाइसेंस लेना होता है। इस लाइसेंस फीस से भी नगरपरिषद् को काफी आय होती है,
  • पानी तथा बिजली कर से भी नगरपरिषद्को काफी आय होती है,
  • नगरपरिषद् द्वारा स्थापित स्कूलों तथा अस्पतालों से प्राप्त फीस से भी इसे आय होती है,
  • नगरों में किसी विशेष स्थान पर जाने के लिए या किसी नदी या पुल का प्रयोग करने के लिए नगरपरिषद् टोल-टैक्स अथवा मार्ग-कर लगाती है,
  • नगरपरिषद् सिनेमा, नाटक, दंगल आदि पर भी मनोरंजन कर लगा सकती है,
  • पशुओं पर कर लगाने से भी इसकी आय होती है,
  • नगरपरिषद् की अपनी जिससे होने वाली आय नगरपरिषद के पास ही रहती है. (1) नगरपरिषद अपने क्षेत्र में कई प्रकार के ठेके देती है। जैसे मुख्य स्थानों पर साइकिल स्टैण्ड का ठेका, कूड़ा-कर्कट, खाद आदि का ठेका। इससे हुई आय भी नगरपरिषद् की आय है,
  • मण्डियों, मेलों आदि पर कर लगाने से भी इसकी आय होती है,
  • नौकाओं, पुलों पर कर लगाने से भी आय प्राप्त होती है।

नगरपरिषद पर सरकार का नियन्त्रण-नगरपरिषद् को स्थानीय शासन चलाने में पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं होती। उसे राज्य सरकार के निर्देशन तथा नियन्त्रण में कार्य करना पड़ता है। कभी-कभी तो सरकार का हस्तक्षेप इतना अधिक हो जाता है कि नगरपरिषद् के सदस्य न कोई स्वतन्त्र निर्णय ले पाते हैं और न ही कोई ठोस काम कर पाते हैं। राज्य सरकार अग्रलिखित तरीकों से नगरपरिषदों पर नियन्त्रण करती है

(1) ज़िले का ज़िलाधीश सरकार का प्रतिनिधि होता है। वह नगरपरिषद् के काम की देख-रेख करता है। नगरपरिषद् द्वारा किए गए हर प्रस्ताव की सूचना ज़िलाधीश को दी जाती है। यदि जिलाधीश यह समझे कि वह प्रस्ताव जनहित के विरुद्ध है, या उसे नगरपरिषद् ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके पास किया है, तो वह (जिलाधीश) उस प्रस्ताव को निरस्त कर सकता है,

(2) अपना काम ठीक से न करने पर नगरपरिषद् को जिलाधीश से चेतावनी मिलती है। यदि फिर भी नगरपरिषद् ठीक प्रकार से कार्य नहीं करती तो ज़िलाधीश सरकार से उस नगरपरिषद् को भंग करने की सिफारिश कर सकता है,

(3) सरकार कभी भी नगरपरिषद् के हिसाब-किताब की जाँच-पड़ताल कर सकती है,

(4) नगरपरिषद् द्वारा अपनाए गए उप-नियम सरकार की स्वीकृति के बाद ही लागू हो सकते हैं,

(5) सरकार कभी भी नगरपरिषद् को भंग करके वहाँ प्रशासक (Administrator) नियुक्त कर सकती है,

(6) नगरपरिषद् के सदस्यों की संख्या सरकार ही निश्चित करती है,

(7) सरकार नगरपरिषद् के सदस्यों या सभापति को दोषी ठहराकर उनकी अवधि समाप्त होने से पहले भी उन्हें पद से हटा सकती है,

(8) नगरपरिषद् को अपनी वार्षिक रिपोर्ट सरकार को भेजनी होती है,

(9) नगरपरिषद् के प्रमुख अधिकारियों को सरकार की स्वीकृति के बाद ही नियुक्त किया जाता है। सरकार की सिफारिश पर उन्हें पद से हटाया जा सकता है,

(10) नगरपरिषद् अपना बजट पास करके सरकार के पास भेजती है, सरकार उसमें परिवर्तन कर सकती है,

(11) सरकार नगरपरिषद् को धन से सहायता देती है। इस सहायता के द्वारा वह नगरपरिषद् पर नियन्त्रण रखती है। वह कुछ शर्ते लगा सकती है कि सहायता तभी मिलेगी, जब नगरपरिषद् ऐसा करेगी अथवा ऐसा नहीं करेगी।

निष्कर्ष-नगरपरिषदों का लोकतन्त्र में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। नगरपरिषदें नगर के विकास और कल्याण के लिए वे सब काम करती हैं जो दूर बैठी केन्द्रीय या राज्य सरकारें नहीं कर सकतीं। परन्तु हम देखते हैं कि हमारे यहाँ नगरपरिषदों पर राज्य सरकारों का बहुत अधिक नियन्त्रण है। अधिकतर नगरपरिषदें धन की कमी और अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण अपना कार्य ठीक तरह से नहीं कर पातीं।

स्वतन्त्र भारत में नए-नए नगर बस रहे हैं। पुराने नगरों की जनसंख्या और क्षेत्र बढ़ रहे हैं। ऐसे समय में नगरपरिषदों को समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान करना है। राज्य सरकार को चाहिए कि वे नगरपरिषदों को राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप से स्वतन्त्र करे, राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप से उन्हें मुक्त रखे तथा उन्हें पर्याप्त धन की सहायता दे।

प्रश्न 12.
शहरी स्थानीय संस्थाओं की कार्य-विधि में कौन-से दोष (त्रुटियाँ) हैं? उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है? अथवा शहरी स्थानीय संस्थाओं की कार्य-विधि के दोष बताते हुए इन्हें दूर करने के उपाय बताएँ।
उत्तर:
भारत में शहरी स्थानीय संस्थाओं को पूरी तरह से लागू कर दिया गया है। परन्तु ये संस्थाएँ उतनी सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर रही हैं जितनी कि इनसे अपेक्षा की गई है। स्थानीय संस्थाओं की कार्यविधि में अनेक दोष हैं, जो निम्नलिखित हैं

1. धन की कमी स्थानीय संस्थाओं के कार्य तो राष्ट्र-निर्माण को ही सौंपे जाते हैं, परन्तु इनकी आर्थिक स्थिति इतनी सुदृढ़ नहीं होती, जिससे ये अपना कार्य सन्तोषजनक ढंग से कर सकें। स्थानीय संस्थाओं के पास उचित मात्रा में धन नहीं होता। इनकी आय के साधन बहुत कम हैं, जिनसे इतनी आय नहीं हो पाती कि वे अपने सभी कार्यों को ठीक प्रकार से कर सकें। धन की कमी के कारण ये संस्थाएँ अपने कर्तव्यों का पालन ठीक तरह से नहीं कर पातीं।

2. दलबन्दी की भावना-यह बात सर्वमान्य है कि स्थानीय संस्थाओं में राजनीतिक दलों का कोई उचित स्थान नहीं होता है। स्थानीय संस्था का सम्बन्ध एक नगर या गाँव से होता है और इसके कार्य सफाई, पानी, शिक्षा, सड़कों आदि तक सीमित होते हैं। इसके कुछ ऐसे कार्य भी होते हैं जिनमें राजनीतिक मतभेद की भावना नहीं की जा सकती।

इसके अतिरिक्त राजनीतिक दल स्थानीय स्वशासन के सारे ढाँचे को दलबन्दी की भावना से दूषित कर देते हैं। उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में स्थानीय संस्थाओं के चुनाव भी दल-पद्धति के आधार पर होते हैं।

3. लोगों की उदासीनता-आम व्यक्ति स्थानीय संस्थाओं के प्रति उदासीन रहते हैं। स्थानीय संस्थाओं के चुनावों में लोगों की रुचि बहत कम है। आम स्थानीय प्रशासन के बारे में भी उनका रवैया ऐसा ही होता है जैसे कि उनका उससे कोई वास्ता ही न हो। लोगों की उदासीनता कई अन्य दोषों का कारण बन जाती है।

4. अयोग्य व्यक्तियों का चुना जाना प्रायः यह देखा गया है कि स्थानीय संस्थाओं में योग्य व्यक्तियों की बजाय अयोग्य व्यक्ति ही अधिक चुने जाते हैं। गाँवों में अधिकतर नागरिक अशिक्षित होते हैं, जिससे वे अपने मत का उचित प्रयोग नहीं कर पाते। मतदान योग्यता के आधार पर नहीं होता। कुछ चालाक व्यक्ति नागरिकों को बेवकूफ बनाकर वोट ले लेते हैं और अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए शासन चलाते हैं। .

5. अयोग्य कर्मचारी स्थानीय संस्थाओं के कर्मचारी प्रायः अयोग्य और भ्रष्ट होते हैं। उन्हें अपने कार्य के बारे में कोई अधिक जानकारी नहीं होती। वे रिश्वत (Bribery) जैसे भ्रष्ट तरीकों का भी प्रयोग करते हैं।

6. निष्पक्षता का अभाव-स्थानीय संस्थाएँ निष्पक्षता से कार्य नहीं करतीं। इसका यह परिणाम निकलता है कि लोगों का इनमें विश्वास नहीं रहता। पंचायतों में तो इनका और भी बुरा परिणाम निकलता है क्योंकि पंचायतों को न्यायिक कार्य भी करने पड़ते हैं। इससे पंचायत के द्वारा किए गए निर्णय निष्पक्ष तथा ठीक नहीं होते हैं।

7. केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकार का हस्तक्षेप स्थानीय संस्थाएँ इसलिए भी अपना कार्य ठीक प्रकार से नहीं कर पाती क्योंकि इनके कार्यों में केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारें अधिक हस्तक्षेप करती रहती हैं और वे स्वतन्त्रता-पूर्वक अपनी इच्छा के अनुसार कोई कार्य कर ही नहीं सकतीं। ऐसी दशा में स्थानीय संस्थाएँ सरकार के अधीन हो जाती हैं और वह उद्देश्य, जिसकी प्राप्ति के लिए इनकी स्थापना होती है, पूरा नहीं हो पाता।

8. जातीयता और साम्प्रदायिकता-उत्तर प्रदेश में स्थानीय संस्थाएँ जातीय और साम्प्रदायिकता के आधार पर कार्य करती हैं। स्थानीय सरकार के दोषों को दूर करने के उपाय-निम्नलिखित उपायों के द्वारा स्थानीय स्वशासन के दोषों को दूर किया जा सकता है तथा उसे सफल बनाया जा सकता है

1. शिक्षा का प्रसार स्थानीय संस्थाओं की सफलता के लिए जनता का शिक्षित होना पहली आवश्यकता है। शिक्षित व्यक्ति ही अपने कर्तव्यों का ठीक प्रकार से पालन कर सकते हैं और अपने उत्तरदायित्व को समझ सकते हैं। शिक्षित होने के कारण वे अपने मत का ठीक प्रयोग करेंगे और योग्य व्यक्तियों को चुनेंगे। योग्य व्यक्ति चुने जाने के पश्चात् निष्पक्षता से काम करेंगे और दलबन्दी के झगड़ों में नहीं पड़ेंगे।

2. आर्थिक दशा में सुधार-सरकार को चाहिए कि स्थानीय संस्थाओं की आर्थिक दशा में सुधार करे। उन्हें ‘कर’ (Tax) लगाने के लिए और भी अधिकार होने चाहिएँ तथा सरकार की तरफ से धन की अधिक सहायता मिलनी चाहिए। सरकार उन्हें जो धन दे, उसके साथ अनुचित शर्ते न रखे और न ही उन पर अधिक नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करे।

उच्च नैतिक स्तर-स्थानीय स्वशासन की सफलता के लिए लोगों का उच्च नैतिक स्तर भी बड़ा आवश्यक है। यदि लोगों का चरित्र ऊँचा होगा तो वे जो भी कार्य करेंगे, जन-हित के लिए करेंगे और निजी स्वार्थ या अपने दल, जाति आदि के स्वार्थ के लिए नहीं करेंगे। ऐसे व्यक्ति ही स्थानीय संस्थाओं को निष्पक्ष बना सकते हैं।

4. आदर्श जनमत-स्थानीय स्वशासन की सफलता अथवा असफलता जनमत पर भी निर्भर करती है। कई बार लोगों के गलत प्रचार अथवा अफवाहों से नगर या ग्राम का वातावरण खराब हो जाता है, जिसका बुरा प्रभाव स्थानीय संस्थाओं पर भी पड़ता है। अतः स्थानीय स्वशासन की सफलता के लिए आदर्श जनमत का निर्माण करना आवश्यक है।

5. सक्रिय रुचि स्थानीय संस्थाओं की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि नगर अथवा गाँव के नागरिक अपनी स्थानीय समस्याओं के हल के लिए सक्रिय रूप से भाग लें। यह आमतौर पर देखा जाता है कि नागरिक अपने व्यक्तिगत कार्यों में इतने व्यस्त रहते हैं कि वे स्थानीय समस्याओं को हल करने में कोई रुचि नहीं रखते। सक्रिय रुचि के बिना स्थानीय संस्थाओं में सुधार होना कठिन है।

6. स्वायत्तता-स्थानीय संस्थाओं को और भी अधिक अधिकार मिलने चाहिएँ तथा उनके कार्यों में सरकारी हस्तक्षेप कम-से-कम होना चाहिए। सरकारी हस्तक्षेप के कारण इन संस्थाओं में कार्य करने का उत्साह नहीं रहता। सरकार इन संस्थ निगरानी रखे, इनको आवश्यक सहयोग दे और उनके कार्यों में समन्वय लाने का कार्य करे। भाव यह है कि सरकार । पथ-प्रदर्शक की भूमिका अभिनीत करे। सरकार को इस बात की चिन्ता नहीं करनी चाहिए कि कोई संस्था कुछ गलतियाँ करती है। कुछ गलतियों के बाद ही उसमें सुधार स्वयंमेव हो जाएगा।

7. कर्मचारियों में सुधार स्थानीय संस्थाओं में किए गए सुधार तब तक लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकते, जब तक कर्मचारियों को योग्यता के आधार पर नियुक्त नहीं किया जाएगा। कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने के लिए उचित व पर्याप्त व्यवस्था करनी चाहिए और उनके वेतन भी सरकारी कर्मचारियों के समान होने चाहिएँ। इस सम्बन्ध में प्रान्तीयकरण (Provincialization) की नीति को अपनाना चाहिए।

निष्कर्ष-73वें तथा 74वें संवैधानिक संशोधनों द्वारा पंचायती राज तथा शहरी स्थानीय संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है और इन संस्थाओं के दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया गया है। आशा है कि अब इन संस्थाओं के कुशल संचालन से भारत में लोकतन्त्र की जड़ें और अधिक मजबूत होंगी।

वस्तु निष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. भारत में वर्तमान ग्रामीण स्थानीय शासन (पंचायती राज) व्यवस्था निम्नलिखित संवैधानिक संशोधन पर आधारित है
(A) 73वें
(B) 74वें
(C) 75वें
(D) 72वें
उत्तर:
(A) 73वें

2. निम्न स्थानीय शासन का महत्त्व है
(A) लोकतंत्र की पाठशाला
(B) प्रशासन में कुशलता
(C) धन का बजट
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

3. 73वें संवैधानिक संशोधन की विशेषता है
(A) दो-स्तरीय पंचायती राज
(B) तीन-स्तरीय पंचायती राज
(C) चार-स्तरीय पंचायती राज
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) तीन-स्तरीय पंचायती राज

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

4. ग्राम पंचायत की बैठकों की अध्यक्षता करता है
(A) सरपंच
(B) महापौर
(C) वरिष्ठ पंच
(D) डिप्टी कमिश्नर
उत्तर:
(A) सरपंच

5. पंचायती राज संस्थाओं (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषद्) का निश्चित कार्यकाल निम्नलिखित है
(A) 3 वर्ष
(B) 4 वर्ष
(C) 5 वर्ष
(D) 6 वर्ष
उत्तर:
(C) 5 वर्ष

6. सरपंच का चुनाव किया जाता है
(A) पंचायत के सदस्यों द्वारा
(B) राज्य सरकार द्वारा
(C) प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं द्वारा
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं द्वारा

7. महिलाओं के लिए स्थानीय संस्थाओं में सदस्यों की निम्न मात्रा में स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं
(A) 1/2
(B) 1/5
(C) 1/3
(D) 1/4
उत्तर:
(A) 1/2

8. ग्राम पंचायत का सदस्य बनने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम आयु होनी चाहिए
(A) 18 वर्ष
(B) 21 वर्ष
(C) 25 वर्ष
(D) 20 वर्ष
उत्तर:
(B) 21 वर्ष

9. वर्तमान स्थिति में शहरी स्थानीय संस्थाओं की स्थापना निम्नलिखित संवैधानिक संशोधन के आधार पर की जाती है
(A) 73वें
(B) 74वें
(C) 75वें
(D) 76वें
उत्तर:
(B) 74वें

10. बड़े शहरों में स्थापित स्थानीय शासन की इकाई है
(A) ज़िला-परिषद्
(B) नगर-परिषद्
(C) नगर-निगम
(D) छावनी बोर्ड
उत्तर:
(C) नगर-निगम

11. प्रत्येक नगर-निगम में महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित होंगे
(A) 1/4
(B) 1/3
(C) 1/5
(D) 1/10
उत्तर:
(B) 1/3

12. नगर निगम का अध्यक्ष होता है
(A) अध्यक्ष
(B) गवर्नर
(C) मुख्यमंत्री
(D) महापौर
उत्तर:
(D) महापौर

13. नगर निगम का सदस्य बनने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम आयु होनी चाहिए
(A) 18 वर्ष
(B) 20 वर्ष
(C) 21 वर्ष
(D) 25 वर्ष
उत्तर:
(C) 21 वर्ष

14. महापौर का चुनाव किया जाता है
(A) मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से
(B) नगर निगम के सदस्यों द्वारा किसी भी व्यक्ति को
(C) नगर निगम के सदस्यों द्वारा अपने में से
(D) राज्य सरकार द्वारा
उत्तर:
(C) नगर निगम के सदस्यों द्वारा अपने में से

15. नगर-परिषद् की स्थापना की जाती है
(A) छोटे शहरों में
(B) बहुत बड़े शहरों में
(C) जिला स्तर पर
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) छोटे शहरों में

16. निम्न नगर-परिषद्/नगर निगम की आय का साधन है
(A) विभिन्न करों से होने वाली आय
(B) सरकारी अनुदान
(C) गृह-कर
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. पंचायत समिति का गठन किस स्तर पर किया जाता है?
उत्तर:
पंचायत समिति का गठन ब्लॉक (Block) अथवा खण्ड स्तर पर किया जाता है।

2. पंचायत समिति की योजनाओं को लागू करने में सहायता करने वाले अधिकारी का नाम लिखें।
उत्तर:
खण्ड विकास अधिकारी (Block Development Officer)।

3. भारत में पहली पंचायत कब और कहाँ पर गठित की गई थी?
उत्तर:
2 अक्तूबर, 1959 को नागौर (राजस्थान) में।

4. ग्राम सभा की बैठकें कितनी बार होनी आवश्यक हैं?
उत्तर:
वर्ष में दो बार, प्रतिवर्ष 13 अप्रैल और 2 अक्तूबर को ग्राम सभा की बैठकें होनी आवश्यक हैं।

5. संविधान के कौन-से संशोधन के अनुसार नगरपालिकाओं की स्थिति को संवैधानिक दर्जा दिया गया है?
उत्तर:
74वें संशोधन में।

6. संविधान की 12वीं अनुसूची में नगरपालिकाओं के अधिकार क्षेत्र में कितने विषय रखे गए हैं?
उत्तर:
18 विषय।

7. ग्राम पंचायत के अध्यक्ष को क्या कहते हैं?
उत्तर:
सरपंच।

8. नया पंचायती राज अधिनियम देश में कब लागू किया गया?
उत्तर:
सन् 1993 में।

9. ग्राम सभा का आषाढ़ी अधिवेशन कब बुलाया जाता है?
उत्तर:
13 अप्रैल को।

10. पंचायत समिति के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष को निश्चित अवधि से पूर्व कैसे हटाया जा सकता है?
उत्तर:
2/3 बहुमत द्वारा।

11. पंचायती राज संस्थाओं की सफलता के मार्ग में कोई एक बाधा बताएँ।
उत्तर:
निरक्षरता।

12. बलवंत राय मेहता समिति ने देहातों के विकास के लिए किस प्रणाली को लागू करने का सुझाव दिया?
उत्तर:
पंचायती राज को लागू करने का सुझाव।

13. पंचायती राज संस्थाओं पर सरकार के नियंत्रण का कोई एक साधन लिखिए।
उत्तर:
प्रशासकीय नियंत्रण।

14. हरियाणा पंचायती राज अधिनियम राज्य विधानसभा द्वारा कब पारित किया गया?
उत्तर:
17 मार्च, 1994 को।

15. ग्राम सभा में विशेष बैठक या अधिवेशन हेतु कितने सदस्यों को अनुरोध करना पड़ता है?
उत्तर:
1/5 सदस्यों को।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

16. भारत में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा कब दिया गया?
उत्तर:
73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सन् 1992 में।

17. हरियाणा में कितने नगर निगम हैं?
उत्तर:
10

18. नगर निगम के अध्यक्ष को क्या कहते हैं?
उत्तर:
मेयर।

19. हरियाणा पंचायती राज अधिनियम कब पारित किया गया?
उत्तर:
सन् 1994 में।

20. जिला-परिषद् का गठन किस स्तर पर किया जाता है?
उत्तर:
ज़िला-स्तर पर।

रिक्त स्थान भरें

1. 73वां संवैधानिक संशोधन सन् ……………. में लागू हुआ।
उत्तर:
24 अप्रैल, 1993

2. ग्राम पंचायत एवं जिला परिषद के मध्य ……………. का गठन किया गया है।
उत्तर:
पंचायत समिति

3. हरियाणा में पंचायती राज अधिनियम …………… को लागू किया गया।
उत्तर:
22 अप्रैल, 1994

4. ग्राम पंचायत के सदस्य हेतु न्यूनतम आयु …………. वर्ष होनी चाहिए।
उत्तर:
21

5. ग्राम पंचायत के अध्यक्ष को …………… कहते हैं।
उत्तर:
सरपंच

6. नगर निगम के सदस्य को ……………. कहते हैं।
उत्तर:
महापौर

7. नगर निगम के अध्यक्ष को ……………. कहते हैं।
उत्तर:
मेयर

8. हरियाणा में ……………. नगर निगम हैं।
उत्तर:
10

9. स्थानीय संस्थाओं पर ……………. सरकार का नियन्त्रण है।
उत्तर:
राज्य

10. नगरपालिका के सदस्य को ……………. कहा जाता है।
उत्तर:
नगर-पार्षद

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

HBSE 11th Class Political Science सामाजिक न्याय Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का क्या मतलब है? हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ कैसे बदला?
उत्तर:
एक समाज में हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का यह मतलब है कि वह व्यक्ति क्या पाने का अधिकारी है। उसे वह दे देना ही न्याय है। हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ बदला है। प्राचीन काल में गलत व्यक्ति का प्राप्य दंड और सही व्यक्ति का प्राप्य पुरस्कार था। लेकिन यह विचार है कि न्याय में हर व्यक्ति को उसका उचित शामिल है। जो आज भी न्याय की हमारी समझ का महत्त्वपूर्ण अंग बना हुआ है। इसीलिए न्याय की अवधारणाओं में आज यह एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है कि मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति का प्राप्य क्या है?

जैसे भारतीय संविधान के अनुसार हर मनुष्य को गरिमा प्रदान की गई है। यदि संविधान के अनुसार सभी व्यक्तियों की गरिमा स्वीकृत है, तो उनमें से हर एक का प्राप्य यह होगा कि उन्हें अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समान रूप से मूल अधिकार प्राप्त हो एवं अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हो तथा कानून द्वारा सभी की गरिमा एवं अधिकारों को सुरक्षित रखा जाए। अत: न्याय के लिए आवश्यक है कि हम सभी व्यक्तियों को समुचित और बराबर महत्त्व प्रदान करें।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 2.
अध्याय में दिए गए न्याय के तीन सिद्धांतों की संक्षेप में चर्चा करो। प्रत्येक को उदाहरण के साथ समझाइये।
उत्तर:
आधुनिक समाज में प्राय: यह आम सहमति है कि समाज में सभी लोगों को समान महत्त्व दिया जाए। यद्यपि यह निर्णय करना बहुत मुश्किल है कि हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाए। इस संबंध में निम्नलिखित तीन सिद्धांत दिए गए हैं

1.समकक्षों के साथ समान बरताव का सिद्धांत-यह माना जाता है कि मनुष्य होने के नाते सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसलिए वे समान अधिकार और समान बरताव के अधिकारी भी है। आधुनिक राज्यों में व्यक्तियों को जो महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए गए हैं, उनमें जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार शामिल हैं जो नागरिक होने के नाते सभी को समान रूप से प्राप्त हैं एवं राज्य सभी के अधिकारों का समान रूप से संरक्षण भी करता है।

इसके अतिरिक्त समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धांत का अर्थ यह भी है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाए एवं उन्हें उनके काम और कार्यकलापों के आधार पर जाँचा जाना चाहिए, न कि इस आधार पर कि वे किस समुदाय एवं वर्ग के सदस्य हैं; जैसे यदि स्कूल में पुरुष शिक्षक को महिला शिक्षक से अधिक वेतन मिलता है तो यह अनुचित एवं अन्यायपूर्ण है।

2. समानुपातिक न्याय का सिद्धांत-किसी विशेष स्थिति में हर व्यक्ति के साथ समान बरताव अन्याय हो सकता है; जैसे परीक्षा में शामिल होने वाले सभी विद्यार्थियों को बराबर अंक दे देना पूर्णतः गलत होगा। प्रत्येक विद्यार्थी को उसकी मेहनत, क्षमता और कार्यकौशल के आधार पर अंक मिलने चाहिए तभी उनके साथ न्याय होगा। दूसरे शब्दों में, लोगों को उनके प्रयास के पैमाने और योग्यता के अनुपात में पुरस्कृत करना न्यायसंगत होता है। इसलिए, समाज में न्याय के लिए समान बरताव के सिद्धांत का समानुपातिकता के सिद्धांत के साथ संतुलन बैठाना भी बहुत आवश्यक है।

3. विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल रखने का सिद्धांत यह सिद्धांत सामाजिक न्याय को बढावा देने का एक साधन है। यह समान बरताव के सिद्धांत का विस्तार करता है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धांत में यह भी अंतर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भो में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाए; जैसे दिव्यांगता वाले लोगों को कुछ विशेष मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझा जा सकता है।

संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में तथा शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए आरक्षण का प्रावधान इसी सिद्धांत के अंतर्गत हुआ है। इस प्रकार न्याय के उपर्युक्त तीनों सिद्धांतों के बीच उचित सामंजस्य स्थापित करने पर ही शासन द्वारा एक न्यायपरक समाज की स्थापना की जा सकती है।

प्रश्न 3.
क्या विशेष जरूरतों का सिद्धांत सभी के साथ समान बरताव के सिद्धांत के विरुद्ध है?
उत्तर:
किसी समाज में लोगों की विशेष ज़रूरतों को ध्यान में रखने का सिद्धांत समान बरताव के सिद्धांत के विरुद्ध नहीं है, बल्कि यह सिद्धांत समान व्यवहार के सिद्धांत का विस्तार करता है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धांत में यह अंतर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भो में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव या व्यवहार किया जाए। जैसे यदि दिव्यांगता वाले लोगों को कुछ विशेष परिस्थितियों या मामलों में असमान और विशेष सहायता दी जाती है तो यह पूर्णत: न्यायसंगत कहा जाएगा।

प्रश्न 4.
निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण को युक्तिसंगत आधार पर सही ठहराया जा सकता है। रॉल्स ने इस तर्क को आगे बढ़ाने में अज्ञानता के आवरण’ के विचार का उपयोग किस प्रकार किया?
उत्तर:
जॉन रॉल्स एक उदारवादी चिन्तक थे। उन्होंने निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण को उचित ठहराया है। वे तर्क देते हैं कि निष्पक्ष एवं न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यही है कि हम स्वयं को ऐसी परिस्थिति में होने की कल्पना करें जहाँ हमें यह निर्णय लेना है। इसी संदर्भ में जॉन रॉल्स ने अज्ञानता के आवरण के विचार का उपयोग किया है। रॉल्स के अनुसार समाज में अपने संभावित स्थान और हैसियत के बारे में हर व्यक्ति पूरी तरह अनभिज्ञ होगा अर्थात् उसे अपने विषय में कोई जानकारी नहीं होगी।

अज्ञानता की हालत में हर व्यक्ति अपने हितों को ध्यान में रखकर फैसला करेगा कि उसके लिए क्या लाभप्रद होगा? इसलिए हर कोई सबसे बुरी स्थिति के मद्देनजर समाज की कल्पना करेगा। स्वयं के लिए सोच-विचारकर चलने वाले व्यक्ति के सामने यह स्पष्ट रहेगा कि जो जन्म से सुविधा-संपन्न हैं, वे कुछ विशेष अवसरों का उपभोग करेंगे।

लेकिन यदि उनका जन्म वंचित समुदाय में होता है, तब वैसी स्थिति में रॉल्स का कहना है कि जब व्यक्ति खुद को इस स्थिति में रखकर सोचेगा तब वह अवश्य ही ऐसे समाज के बारे में सोचेगा जो कमजोर वर्ग के लिए यथोचित अवसर सुनिश्चित कर सके। वह व्यक्ति अवश्य ही संगठन के ऐसे नियमों की सिफारिश करेगा जिससे यथार्थ में पिछड़े वर्ग को लाभ पहुँचे। व्यक्ति के इस प्रयास से दिखेगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसे महत्त्वपूर्ण सुविधाएँ समाज के सभी उच्च एवं कमजोर वर्ग के लोगों को प्राप्त हो। ‘अज्ञानता के आवरण’ वाली स्थिति की विशेषता है कि यह लोगों को विवेकशील बनाए रखती है।

उनमें अपने लिए सोचने और अपने हित में जो अच्छा हो, उसे चुनने की अपेक्षा रहती है। यद्यपि प्रासंगिक बात यह है कि जब वे ‘अज्ञानता के आवरण’ में रहकर चुनते हैं तो वे पाएँगे कि सबसे बुरी स्थिति में ही सोचना उनके लिए लाभकारी होगा। इस प्रकार, अज्ञानता का कल्पित आवरण ओढ़ना उचित कानूनों तथा नीतियों की प्रणाली तक पहुँचने का पहला कदम है। इससे यह प्रकट होगा कि विवेकशील मनुष्य न केवल सबसे बुरे संदर्भ के मद्देनजर चीजों को देखेंगे बल्कि वे यह भी सुनिश्चित करने का प्रयत्न करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ सम्पूर्ण समाज के लिए लाभदायक एवं कल्याणकारी हों।

प्रश्न 5.
आम तौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें क्या मानी गई हैं? इस न्यूनतम को सुनिश्चित करने में सरकार की क्या जिम्मेदारी है?
उत्तर:
विभिन्न सरकारों और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं की गणना के लिए विभिन्न तरीके सुझाए हैं। लेकिन सामान्यतः इस पर सहमति है कि स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक पोषक तत्त्वों की बुनियादी मात्रा, आवास, शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी इन बुनियादी स्थितियों के महत्त्वपूर्ण हिस्से होंगे। यद्यपि किसी भी समाज में मनुष्यों की न्यूनतम बुनियादी जरूरतों को सुनिश्चित करने में सरकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, जो इस प्रकार हैं-

(1) किसी भी समाज के लिए बेरोजगारी एक सामाजिक अभिशाप है। जब तक सरकार इसका निवारण नहीं करती तब तक लोग अपनी बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी करने में असमर्थ होंगे। अतः सरकार का दायित्व है कि वह प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता और आवश्यकता के अनुसार काम दे।

(2) सरकार का यह भी कर्त्तव्य है कि जिन लोगों को रोजगार नहीं मिल सका, उन्हें बेरोजगारी भत्ता दे ताकि वे अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से कर सकें।

(3) सरकार शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विद्यालयों की स्थापना कराए और उनमें शिक्षकों की नियुक्ति करे ताकि उन इलाकों के सभी बच्चे शिक्षा ग्रहण कर सकें।

(4) सरकार किसानों की दशा सुधारने की दिशा में अहम् भूमिका निभा सकती है। वह गरीब और छोटे किसानों को सस्ती दरों पर ऋण उपलब्ध करा सकती है एवं फसल का उचित मूल्य निर्धारण कर सकती है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 6.
सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिए राज्य की कार्यवाई को निम्न में से कौन-से तर्क से वाजिब ठहराया जा सकता है?
(क) गरीब और जरूरतमंदों को निशुल्क सेवाएँ देना एक धर्म कार्य के रूप में न्यायोचित है।
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
(ग) कुछ लोग प्राकृतिक रूप से आलसी होते हैं और हमें उनके प्रति दयालु होना चाहिए।
(घ) सभी के लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।
उत्तर
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
(घ) सभी के लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।

सामाजिक न्याय HBSE 11th Class Political Science Notes

→ न्याय की अवधारणा बहुत प्राचीन है। यह राजनीतिक सिद्धांत में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इसका संबंध व प्रभाव मनुष्य-जीवन के प्रत्येक पक्ष से है। इसलिए मनुष्य न्याय प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता आया है और कर रहा है।

→ यहाँ तक कि जब मनुष्य को समाज में न्याय प्राप्त नहीं होता तो वह भगवान से न्याय की मांग करता है। न्याय द्वारा ही व्यक्ति अत्याचार से छुटकारा पा सकता है।

→ न्याय ही अराजकता, कलह, अशांति, भ्रष्टाचार और शोषण की अवस्था को दूर करता है। सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए न्याय की आवश्यकता पड़ती है।

→ न्याय की भावना मानव-जीवन और सामाजिक व्यवस्था की आधारशिला है। न्याय की भावना सामाजिक संबंधों और व्यक्तिगत स्वार्थ के बीच संतुलन पैदा करती है और सामाजिक व्यवस्था को नैतिक आधार प्रदान करके उसे सुदृढ़ करती है।

→ न्याय ही प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने अधिकारों व स्वतंत्रताओं का लाभ उठाने का वातावरण उत्पन्न करता है। न्याय के बिना किसी का जीवन और संपत्ति सुरक्षित नहीं रह सकते।

→ न्याय के बिना समाज और राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। न्याय-विहीन समाज में तो जंगल जैसा वातावरण ही मिल सकता है। प्रस्तुत अध्याय में हम न्याय के संबंध में चर्चा करेंगे।

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HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 समानता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 समानता Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 समानता

HBSE 11th Class Political Science समानता Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
कुछ लोगों का तर्क है कि असमानता प्राकृतिक है जबकि कुछ अन्य का कहना है कि वास्तव में समानता प्राकृतिक है और जो असमानता हम चारों ओर देखते हैं उसे समाज ने पैदा किया है। आप किस मत का समर्थन करते हैं? कारण दीजिए।
उत्तर:
कुछ लोगों का विचार है कि मनुष्य में स्वाभाविक असमानता है। स्वयं प्रकृति ने भी सबको समान नहीं बनाया है। कुछ लोग जन्म से ही तीव्र एवं बुद्धिमान् होते हैं, तो कुछ लोग मूर्ख एवं मन्दबुद्धि वाले। कोई शारीरिक दृष्टि से अधिक शक्तिशाली है, तो कोई दुर्बल है। सभी के खान-पान, रहन-सहन एवं स्वभाव में कुछ-न-कुछ असमानता है। अतः सभी व्यक्तियों को समान तुला पर तोलना ठीक नहीं है। अतएव यह कहना कि प्रत्येक मनुष्य समान है, उसी प्रकार गलत है, जैसे यह कहना कि पृथ्वी समतल है। इसके ठीक विपरीत कुछ लोगों का विचार है कि सभी लोग जन्म से ही समान हैं।

वे संसार में दिखाई देने वाली सभी असमानताओं को मानवकृत मानते हैं। प्राकृतिक समानता की अवधारणा को 1789 ई० को फ्रांस की मानव अधिकारों की घोषणा में माना गया है और 1776 ई० की अमेरिका की स्वतन्त्रता घोषणा में भी माना गया है। परन्तु ऐसा विचार गलत है, क्योंकि लोगों में काफी असमानताएँ हैं जो जन्म से ही होती हैं और उनको समाप्त करना भी असम्भव है।

दो भाई भी आपस में बराबर नहीं होते। सभी लोगों में शरीर और दिमाग से सम्बन्धित परस्पर असमानता है। वास्तव में जन्म से ही बच्चों में शारीरिक और मानसिक असमानता होती है जिसे दूर करना सम्भव नहीं है। इसलिए मेरे विचार से यह कहना गलत है कि प्रकृति मनुष्यों को जन्म से समानता प्रदान करती है। प्राकृतिक असमानता का समर्थन करते हुए जी०डी०एच० कोल (GD.H. Cole) ने कहा है, “व्यक्ति शारीरिक बल, पराक्रम, मानसिक योग्यता, सृजनात्मक प्रवृत्ति, समाज सेवा की भावना और सबसे अधिक कल्पना शक्ति में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं।”

प्रश्न 2.
एक मत है कि पूर्ण आर्थिक समानता न तो संभव है और न ही वांछनीय एक समाज ज़्यादा से ज़्यादा बहुत अमीर और बहुत ग़रीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है। क्या आप इस तर्क से सहमत हैं? अपना तर्क दीजिए।
उत्तर:
इस तर्क से मैं पूर्णतः सहमत हूँ कि पूर्ण आर्थिक समानता लाना बिल्कुल भी संभव नहीं है। लेकिन हाँ, अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बहुत चौड़ी या गहरी नहीं होनी चाहिए। इसीलिए आज अधिकतर सरकारें लोगों को आजीविका कमाने एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु समान अवसर उपलब्ध करवाने का प्रयास कर रही हैं। यद्यपि यहाँ यह भी स्पष्ट है कि समान अवसरों के बावजूद भी असमानता बनी रह सकती है, लेकिन इसमें यह संभावना छिपी है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर प्राप्त कर सकता है।

इसी उद्देश्य के अंतर्गत ही हमारी भारतीय सरकार ने भी वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और हॉस्टल जैसी सुविधाएँ भी मुहैया करवाई हैं। वंचित समुदायों को अवसर की समानता देने के लिए नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की सुविधा भी दी गई है। जैसे दिसम्बर, 2019 में दिए गए 104वें संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान के मूल आरक्षण सम्बन्धी प्रावधान को सन् 2030 तक बढ़ाया गया है। अतः ऐसे सब प्रयासों से बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

HBSE 11th Class Political Science Solutions Chapter 3 समानता

प्रश्न 3.
नीचे दी गई अवधारणा और उसके उचित उदाहरणों में मेल बैठायें।
(क) सकारात्मक कार्रवाई – (1) प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है।
(ख) अवसर की समानता – (2) बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं।
(ग) समान अधिकार – (3) प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिए।
उत्तर:
(क) सकारात्मक कार्रवाई – (2) बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं।
(ख) अवसर की समानता – (3) प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिए।
(ग) समान अधिकार – (1) प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है।

प्रश्न 4.
किसानों की समस्या से संबंधित एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार छोटे और सीमांत किसानों को बाजार से अपनी उपज का उचित मल्य नहीं मिलता। रिपोर्ट में सलाह दी गई कि सरकार को बेहतर मल्य सनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। लेकिन यह प्रयास केवल लघु और सीमांत किसानों तक ही सीमित रहना चाहिए। क्या यह सलाह समानता के सिद्धांत से संभव है?
उत्तर:
रिपोर्ट में सरकार को जो सलाह दी गई है वह समानता के सिद्धांत के अनुसार संभव है क्योंकि रिपोर्ट में केवल लघु और सीमांत किसानों की ही चर्चा की गई है। अत: सलाह भी उन्हीं के हितों से संबंधित है। इसलिए यह सलाह समानता के सिद्धांत से संभव है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से किस में समानता के किस सिद्धांत का उल्लंघन होता है और क्यों?
(क) कक्षा का हर बच्चा नाटक का पाठ अपना क्रम आने पर पड़ेगा।
(ख) कनाडा सरकार ने दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति से 1960 तक यूरोप के श्वेत नागरिकों को कनाडा में आने और बसने के लिए प्रोत्साहित किया।
(ग) वरिष्ठ नागरिकों के लिए अलग से रेलवे आरक्षण की एक खिड़की खोली गई।
(घ) कुछ वन क्षेत्रों को निश्चित आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित कर दिया गया है।
उत्तर:
(क) इस कथन में सामाजिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन हो रहा है, क्योंकि नाटक का पाठ पढ़ने का अवसर सबसे पहले मेधावी बच्चों को मिलना चाहिए।

(ख) इस कथन में राजनीतिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन हो रहा है, क्योंकि इसमें कनाडा सरकार द्वारा अश्वेतों के साथ भेदभाव की नीति अपनाई गई है।

(ग) इस कथन में सामाजिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन हो रहा है, क्योंकि इस तरह की समानता सभी नागरिकों के साथ एक-समान व्यवहार करने का दावा करती है।

(घ) इस कथन में भी सामाजिक समानता के सिद्धांत का ही उल्लंघन हो रहा है, क्योंकि वन क्षेत्रों पर निश्चित आदिवासी समुदायों का ही नहीं बल्कि पूरे आदिवासी समुदायों का अधिकार होना चाहिए।

प्रश्न 6.
यहाँ महिलाओं को मताधिकार देने के पक्ष में कुछ तर्क दिए गए हैं। इनमें से कौन-से तर्क समानता के विचार से संगत हैं। कारण भी दीजिए।
(क) स्त्रियाँ हमारी माताएँ हैं। हम अपनी माताओं को मताधिकार से वंचित करके अपमानित नहीं करेंगे।
(ख) सरकार के निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं इसलिए शासकों के चुनाव में उनका भी मत होना चाहिए।
(ग) महिलाओं को मताधिकार न देने से परिवारों में मतभेद पैदा हो जाएंगे।
(घ) महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है। मताधिकार से वंचित करके लंबे समय तक उन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता है।
उत्तर:
तर्क (क) समानता के विचार से संगत है, क्योंकि इसमें पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी मताधिकार देने की बात कही गई है।
तर्क (ख) भी समानता के विचार से संगत है, क्योंकि इसमें भी स्त्रियों को पुरुषों की तरह मताधिकार देने की बात कही गई है।
तर्क (ग) समानता के विचार से मेल नहीं खाता. क्योंकि इसमें महिलाओं को मताधिकार नहीं देने की बात कही गई है।
तर्क (घ) समानता के विचार से मेल खाता है, क्योंकि इसमें स्पष्ट किया गया है कि जिस दुनिया में हम रहते हैं वह स्त्रियों और पुरुषों की बराबर की संख्या से बनी है और इस आधार पर उन्हें मताधिकार अवश्य दिया जाना चाहिए।

समानता HBSE 11th Class Political Science Notes

→ समानता राजनीति विज्ञान का एक आधारभूत सिद्धांत है। समानता प्रजातंत्र का एक मुख्य स्तंभ है। समानता व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए परम आवश्यक है।

→ प्रत्येक युग में मनुष्य ने समानता सामंतवाद और पूंजीवाद ने समानता के नारे को बुलंद किया है। समानता के महत्त्व को प्राचीनकाल से ही विचारकों ने स्वीकार किया है, किंतु यह एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा के रूप में केवल 18वीं शताब्दी में ही उभरकर आई।

→ अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम (1776 ई०) और फ्रांस की राज्य क्रांति (1789 ई०) में जेफरसन, जॉन लॉक, रूसो, वाल्टैयर एवं पेन जैसे विचारकों ने स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व (Liberty, Equality and Fraternity) का नारा दिया जिसने आगे चलकर स्वतंत्र राष्ट्रों के निर्माण में मदद की।

→ 1776 ई० में अमेरिका में यह घोषणा की गई, “हम लोग इस सत्य को स्वतः सिद्ध मानते हैं कि सभी व्यक्ति समान पैदा होते हैं।”

→ सन् 1789 में फ्रांस की सफल क्रांति के बाद फ्रांस की राष्ट्रीय सभा (National Assembly) ने मानवीय अधिकारों की अपनी घोषणा में समानता के महत्त्व को स्वीकार करते हुए कहा था, “मनुष्य हमेशा स्वतंत्र और समान रूप में जन्म लेते हैं और अपने अधिकारों के विषय में समान ही रहते हैं।”

→ वर्तमान युग प्रजातंत्र और समाजवाद का युग है जिसका मूर्त रूप समानता के द्वारा ही संभव है। आज संपूर्ण विश्व समानता के सिद्धांत में आस्था प्रकट करता है तथा राजनीति विज्ञान की यह मुख्य धुरी बन गई है।

→ मानव-सभ्यता का विकास और प्रगति दोनों समानता के सिद्धांत पर आधारित हैं।

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HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता को परिभाषित करें।
उत्तर:
राजनीति विज्ञान के विद्वान मैक्नी के अनुसार, “स्वतंत्रता सभी प्रतिबंधों की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि युक्ति-रहित प्रतिबंधों के स्थान पर युक्ति-युक्त प्रतिबंधों को लगाना है।”

प्रश्न 2.
स्वतंत्रता के नकारात्मक रूप का वर्णन करें।
उत्तर:
नकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ है व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता होना और उसकी स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध न होना, परंतु स्वतंत्रता का यह अर्थ सही नहीं है। यदि स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध न हो तो समाज में अराजकता फैल जाएगी और समाज में एक ही कानून होगा ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस ।’

प्रश्न 3.
आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ बताइए।
उत्तर:
आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि लोगों को अपनी जीविका कमाने की स्वतंत्रता हो तथा इसके लिए उन्हें उचित साधन व सुविधाएं प्राप्त हों। नागरिकों की बेरोज़गारी और भूख से मुक्ति हो तथा प्रत्येक को काम करने के समान अवसर प्राप्त होने चाहिएँ।

प्रश्न 4.
व्यक्तिगत स्वतंत्रता किसे कहते हैं?
उत्तर:
व्यक्तिगत स्वतंत्रता से तात्पर्य है कि व्यक्ति को ऐसे कार्य करने की स्वतंत्रता प्रदान करना जो केवल उस तक ही सीमित हों और उनके करने से दूसरों पर किसी प्रकार का प्रभाव न पड़ता हो।

प्रश्न 5.
प्राकृतिक स्वतंत्रता से क्या अभिप्राय है? उत्तर प्राकृतिक स्वतंत्रता से तात्पर्य है कि मनुष्य को वह सभी कुछ करने की स्वतंत्रता दी जाए जो कुछ वह करना चाहता है। प्रश्न 6. स्वतंत्रता की किन्हीं तीन विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:

  • स्वतंत्रता सभी बंधनों का अभाव नहीं है,
  • स्वतंत्रता केवल समाज में ही प्राप्त हो सकती है,
  • स्वतंत्रता सभी व्यक्तियों को समान रूप से मिलती है।

प्रश्न 7.
किसी व्यक्ति द्वारा स्वतंत्रता के उपयोग की आवश्यक दो दशाएँ बताइए।
अथवा
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए आवश्यक किन्हीं दो शर्तों का उल्लेख करें।
उत्तर:

  • स्वतंत्रता के उपयोग के लिए आवश्यक है कि स्वतंत्रता सबके लिए एक समान हो तथा सबको स्वतंत्रता एक समान मिलनी चाहिए।
  • शक्ति के दुरुपयोग के विरुद्ध स्वतंत्रता का होना अनिवार्य है। स्वतंत्रता के उपयोग के लिए लोकतंत्र तथा प्रेस की स्वतंत्रता का होना अनिवार्य है।

प्रश्न 8.
क्या स्वतंत्रता असीम है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता व्यक्ति के विकास के लिए अति आवश्यक है। स्वतंत्रता का सही अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को उन कार्यों को करने का अधिकार हो जिससे दूसरे व्यक्तियों को हानि न पहुंचे। स्वतंत्रता पर अनैतिक तथा निरंकुश बंधन नहीं होने चाहिएँ, परंतु स्वतंत्रता असीम नहीं है। सभ्य समाज में स्वतंत्रता बिना बंधनों व कानूनों के दायरे में होती है, परंतु स्वतंत्रता पर अन्यायपूर्ण तथा अनुचित बंधन नहीं होने चाहिएँ।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 9.
स्वतंत्रता के किन्हीं चार प्रकारों के नाम लिखिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता के चार प्रकार निम्नलिखित हैं

  • प्राकृतिक स्वतंत्रता,
  • नागरिक स्वतंत्रता,
  • आर्थिक स्वतंत्रता तथा
  • राजनीतिक स्वतंत्रता।

प्रश्न 10.
स्वतंत्रता के किन्हीं तीन संरक्षकों का उल्लेख करें।
उत्तर:
स्वतंत्रता के तीन संरक्षक निम्नलिखित हैं

  • मौलिक अधिकारों की घोषणा,
  • प्रजातंत्र व्यवस्था का होना,
  • कानून का शासन।

प्रश्न 11.
सकारात्मक स्वतंत्रता की किन्हीं तीन विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:

  • स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव नहीं है।
  • सकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ विशेषाधिकारों का अभाव है।
  • राज्य स्वतंत्रताओं का रक्षक है।

प्रश्न 12.
स्वतंत्रता के मार्क्सवादी सिद्धांत की तीन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • पूंजीवादी व्यवस्था में स्वतंत्रता संभव नहीं है।
  • हिंसात्मक क्रांति द्वारा परिवर्तन।
  • स्वतंत्र न्यायपालिका का अभाव।

प्रश्न 13.
स्वतंत्रता के मार्क्सवादी सिद्धांत की आलोचना के दो शीर्षकों का उल्लेख करें।
उत्तर:

  • व्यक्तिगत संपत्ति का विरोध गलत है।
  • पूंजीवादी समाज की आलोचना अनुचित।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता का अर्थ बताइए।
उत्तर:
स्वतंत्रता शब्द को अंग्रेज़ी भाषा में ‘Liberty’ कहते हैं। ‘लिबर्टी’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से निकला है, जिसका अर्थ है-‘पूर्ण स्वतंत्रता’ अथवा किसी प्रकार के बंधनों का न होना। इस प्रकार स्वतंत्रता का अर्थ है-व्यक्ति को उसकी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और उस पर कोई बंधन नहीं होना चाहिए, परंतु स्वतंत्रता का यह अर्थ गलत है। स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि व्यक्ति पर अन्यायपूर्ण तथा अनुचित प्रतिबंध नहीं होने चाहिएं, वरन उसे उन अवसरों की भी प्राप्ति होनी चाहिए जिनसे उसे अपना विकास करने में सहायता मिलती हो।

प्रश्न 2.
स्वतंत्रता की कोई तीन परिभाषाएँ लिखिए।
उत्तर:
1. गैटेल के अनुसार, “स्वतंत्रता से अभिप्राय उस सकारात्मक शक्ति से है जिससे उन बातों को करके आनंद प्राप्त होता है जो कि करने योग्य हैं।”

2. कोल के अनुसार, “बिना किसी बाधा के अपने व्यक्तित्व को प्रकट करने का नाम स्वतंत्रता है।”

3. प्रो० लास्की के अनुसार, “स्वतंत्रता का अर्थ उस वातावरण की उत्साहपूर्ण रक्षा करना है जिससे मनुष्य को अपना उज्ज्वलतम स्वरूप प्रकट करने का अवसर प्राप्त होता है।” अतः स्वतंत्रता अनुचित प्रतिबंधों के स्थान पर उचित प्रतिबंधों का होना है। स्वतंत्रता उस वातावरण को कहा जा सकता है, जिसका लाभ उठाकर व्यक्ति अपने जीवन का सर्वोत्तम विकास कर सके।

प्रश्न 3.
स्वतंत्रता की कोई पाँच विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
स्वतंत्रता की पाँच विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • सभी तरह की पाबंदियों का अभाव स्वतंत्रता नहीं है।
  • निरंकुश, अनैतिक, अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों का अभाव ही स्वतंत्रता है।
  • स्वतंत्रता सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्राप्त होती है।
  • व्यक्ति को वह सब कार्य करने की स्वतंत्रता है जो करने योग्य हैं।
  • स्वतंत्रता का प्रयोग समाज के विरुद्ध नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 4.
नागरिक स्वतंत्रता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
नागरिक स्वतंत्रता वह स्वतंत्रता है जो व्यक्ति को एक संगठित समाज का सदस्य होने के रूप में मिलती है। जीवन के विकास के लिए व्यक्ति को अनेक प्रकार की सुविधाओं की आवश्यकता होती है। ऐसी सुविधाएं केवल संगठित समाज में ही संभव हो सकती हैं। समाज में रह रहे व्यक्ति को राज्य के कानूनों के प्रतिबंधों के प्रसंग में जो सुविधाएं प्राप्त होती हैं, उन सुविधाओं को सामूहिक रूप से नागरिक स्वतंत्रता का नाम दिया जाता है।

नागरिक स्वतंत्रता प्राकृतिक स्वतंत्रता के बिल्कुल विपरीत है। प्राकृतिक स्वतंत्रता संगठित समाज में प्रदान नहीं की जा सकती, जबकि नागरिक स्वतंत्रता केवल संगठित समाज में ही संभव हो सकती है।

प्रश्न 5.
राजनीतिक स्वतंत्रता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
राजनीतिक स्वतंत्रता से अभिप्राय राजनीतिक अधिकारों का प्राप्त होना है। ऐसे अधिकार केवल प्रजातांत्रिक समाज में ही प्राप्त हो सकते हैं। जिन राज्यों में राजनीतिक अधिकार प्रदान नहीं किए जाते, वहां राजनीतिक स्वतंत्रता का अस्तित्व नहीं हो सकता। राजनीतिक स्वतंत्रता का अभिप्राय राज्य के कार्यों में भाग लेने के सामर्थ्य से है। मताधिकार, चुनाव लड़ने का अधिकार, सरकार की आलोचना करने का अधिकार, याचिका देने का अधिकार आदि कुछ ऐसे राजनीतिक अधिकार हैं जिनकी प्राप्ति पर ही राजनीतिक स्वतंत्रता का अस्तित्व निर्भर करता है।

प्रश्न 6.
स्वतंत्रता के दो संरक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता के दो संरक्षण निम्नलिखित हैं

1. लोकतंत्र की व्यवस्था लोकतंत्रीय व्यवस्था में ही लोगों को स्वतंत्रता अधिक समय तक और अधिक-से-अधिक मात्रा में मिल सकती है। स्वतंत्रता लोकतंत्र का एक आधार है और शासक जनता के प्रतिनिधि होने के कारण आसानी से स्वतंत्रता का हनन नहीं कर सकते।

2. मौलिक अधिकारों की घोषणा अधिकारों का अतिक्रमण होने की संभावना राज्य की ओर से अधिक होती है। मौलिक अधिकार संविधान में लिखे होते हैं। ऐसा होने से अधिकारों का हनन राज्य द्वारा या व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता। मौलिक अधिकारों की घोषणा से स्वतंत्रता की रक्षा होती है।

प्रश्न 7.
स्वतंत्रता के सकारात्मक दृष्टिकोण का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता के सकारात्मक पक्ष से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को वह सब कुछ करने की स्वतंत्रता है जो सभ्य समाज में करने के योग्य होता है। स्वतंत्रता के इस पक्ष का अर्थ प्रत्येक प्रकार के प्रतिबंधों का अभाव नहीं, अपितु अनैतिक, निरंकुश तथा अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों का अभाव है। स्वतंत्रता के सकारात्मक पक्ष का अभिप्राय एक ऐसा वातावरण स्थापित करना है, जिसमें मनुष्य को अपना सर्वोत्तम विकास करने के लिए उपयुक्त अवसर प्राप्त हों। स्वतंत्रता के सकारात्मक रूप का साधारण अर्थ है करने योग्य कार्यों को करने तथा उपभोग योग्य वस्तुओं का उपभोग करने की स्वतंत्रता।

प्रश्न 8.
आर्थिक स्वतंत्रता तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के संबंधों का वर्णन करें।
उत्तर:
आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ है-भूख और अभाव से मुक्ति। जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के अवसर, काम की उचित मजदूरी की व्यवस्था तथा आर्थिक अभाव से छुटकारा । राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ है-मत डालने, चुनाव लड़ने, सार्वजनिक पद प्राप्त करने और सरकार की आलोचना करने की स्वतंत्रता। राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता में घनिष्ठ संबंध है।

जहाँ आर्थिक स्वतंत्रता नहीं है, वहां राजनीतिक स्वतंत्रता कोई अर्थ नहीं है और यह वास्तविक नहीं है। एक भूखे व्यक्ति के लिए मताधिकार का भी कोई मूल्य नहीं, यदि वह अपनी रोजी-रोटी के लिए दूसरे की दया पर निर्भर है। एक मजदूर को यदि उसका मालिक बिना कारण तुरंत नौकरी से निकाल सकता है और उसे भूखा मरने पर मजबूर कर सकता है तो क्या वह मजदूर अपने मत का प्रयोग अपने मालिक की इच्छा के विरुद्ध नहीं कर सकता।

एक भूखे व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ने के अधिकार का तो कोई अर्थ ही नहीं क्योंकि चुनाव लड़ने के लिए धन चाहिए। गरीबी के कारण वोट बेचे जाते हैं और धनवान व्यक्ति उन्हें खरीदते हैं। यह भी सत्य है कि जिस व्यक्ति का धन पर नियंत्रण है, उसका प्रशासन पर भी प्रभाव जम जाता है। एक दिन की मजदूरी खोकर कोई भी मजदूर अपनी आत्मा की आवाज़ के अनुरूप वोट डालने नहीं जा सकता। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि आर्थिक स्वतंत्रता और राजनीतिक स्वतंत्रता में गहरा संबंध है तथा दोनों साथ-साथ ही रह सकती हैं।

प्रश्न 9.
आधुनिक राज्य में स्वतंत्रता किस प्रकार सुरक्षित रखी जा सकती है? अथवा स्वतंत्रता की सुरक्षा के कोई पांच उपाय बताइए।
उत्तर:
स्वतंत्रता मनुष्य के विकास व उन्नति के लिए अत्यंत आवश्यक है। स्वतंत्रता की सुरक्षा के विभिन्न उपायों में से पांच उपाय अग्रलिखित हैं

1. प्रजातंत्र-स्वतंत्रता व प्रजातंत्र में गहरा संबंध है। स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रजातंत्र में ही की जा सकती है क्योंकि इस प्रकार की प्रणाली में जनता की सरकार होती है और लोगों के अधिकारों को छीना नहीं जा सकता। इसके विपरीत राजतंत्र प्रणाली में स्वतंत्रता की सुरक्षा नहीं हो सकती।

2. मौलिक अधिकारों की घोषणा जनता को स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए लोगों के मौलिक अधिकारों की घोषणा कर उन्हें संविधान में लिख दिया जाता है, ताकि संविधान द्वारा लोगों की स्वतंत्रता की सुरक्षा हो सके।

3. स्वतंत्र प्रेस स्वतंत्र प्रेस भी लोगों की स्वतंत्रता को सुरक्षित करने में सहायता करती है। यदि प्रेस पर अनुचित दबाव हो तो कोई भी व्यक्ति अपने विचारों को स्वतंत्रतापूर्वक प्रकट नहीं कर सकता। स्वतंत्र प्रेस ही सरकार की सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखती है।

4. कानून का शासन-कानून का शासन स्वतंत्रता की सुरक्षा करता है। कानून के सामने सभी समान होने चाहिएं और सभी लोगों के लिए एक-सा कानून होना चाहिए। इससे शासन वर्ग की स्वेच्छाचारिता पर रोक लगती है।

5. स्वतंत्र न्यायपालिका स्वतंत्र न्यायपालिका लोगों की स्वतंत्रता की सुरक्षा करती है। कानून कितने ही अच्छे क्यों न हों, जब तक न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं होती, कानूनों को सही ढंग से लागू नहीं किया जा सकता। अतः कानूनों को लागू करने के लिए न्यायाधीश स्वतंत्र, निडर व ईमानदार होने चाहिएँ।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 10.
क्या स्वतंत्रता पूर्ण होती है?
उत्तर:
स्वतंत्रता वास्तविक रूप में पूर्ण नहीं हो सकती। किसी भी व्यक्ति को पूर्ण रूप से वह सब कुछ करने का अवसर या आजादी नहीं दी जा सकती जो वह करना चाहता है। समाज में रहते हुए व्यक्ति सामाजिक नियमों व कर्तव्यों से बंधा हुआ होता है और उसे अपने सभी कार्य दूसरों के सुख-दुःख, सुविधा-असुविधा को ध्यान में रखकर करने पड़ते हैं। पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है स्वेच्छाचारिता, जो सामाजिक जीवन में संभव नहीं है।

समाज लोगों के आपसी सहयोग पर खड़ा है और कार्य कर रहा है। यदि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण स्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए मनमानी करेगा तो समाज की शांति समाप्त हो जाएगी तथा जंगल जैसा वातावरण पैदा हो जाएगा। एक सभ्य समाज में हम पूर्ण स्वतंत्रता की कल्पना भी नहीं कर सकते। इस प्रकार स्वतंत्रता पूर्ण नहीं होती, बल्कि उचित प्रतिबंधों के अस्तित्व में ही कायम रहती है।

प्रश्न 11.
“शाश्वत जागरूकता ही स्वतंत्रता की कीमत है।” टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
प्रो० लास्की ने ठीक ही कहा है, “शाश्वत जागरुकता ही स्वतंत्रता की कीमत है।” स्वतंत्रता की सुरक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय स्वतंत्रता के प्रति जागरुक रहना है। नागरिकों में सरकार के उन कार्यों के विरुद्ध आंदोलन करने की हिम्मत व हौंसला होना चाहिए जो उनकी स्वतंत्रता को नष्ट करते हों। सरकार को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि यदि उसने नागरिकों की स्वतंत्रता को कुचला तो नागरिक उसके विरुद्ध पहाड़ की तरह खड़े हो जाएंगे। लास्की के शब्दों में, “नागरिकों की महान भावना, न कि कानूनी शब्दावली स्वतंत्रता की वास्तविक संरक्षक है।”

प्रश्न 12.
कानून तथा स्वतंत्रता में क्या संबंध है? अथवा ‘कानून स्वतंत्रता का विरोधी नहीं है।’ व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
व्यक्तिवादियों के मतानुसार, राज्य जितने अधिक कानून बनाता है, व्यक्ति की स्वतंत्रता उतनी ही कम होती है। अतः उनका कहना है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता तभी सुरक्षित रह सकती है जब राज्य अपनी सत्ता का प्रयोग कम-से-कम करे। परंतु आधुनिक लेखकों के मतानुसार स्वतंत्रता तथा कानून परस्पर विरोधी न होकर परस्पर सहायक तथा सहयोगी हैं।

राज्य ही ऐसी संस्था है जो कानूनों द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करती है जिसमें व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का आनंद उठा सकता है। राज्य कानून बनाकर एक नागरिक को दूसरे नागरिक के कार्यों में हस्तक्षेप करने से रोकता है। राज्य कानूनों द्वारा सभी व्यक्तियों को समान सुविधाएं प्रदान करता है, ताकि मनुष्य अपना विकास कर सके। स्वतंत्रता और कानून एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। लॉक ने ठीक ही कहा है, “जहाँ कानून नहीं, वहां पर स्वतंत्रता भी नहीं।”

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता से आप क्या समझते हैं? स्वतंत्रता के नकारात्मक तथा सकारात्मक सिद्धांतों का वर्णन करें।
अथवा
नकारात्मक और सकारात्मक स्वतंत्रता में अंतर बतलाइए। अथवा सकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थन में तर्क दीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता का मानव समाज में बड़ा महत्त्व है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास तथा उसकी प्रसन्नता के लिए इसका होना बहुत ही आवश्यक है। स्वतंत्र व्यक्ति ही अपने जीवन को अपनी इच्छा के अनुसार ढालकर उसे प्रसन्नतापूर्वक व्यतीत कर सकता है। एक व्यक्ति को दूसरे के आदेश से किसी कार्य को करने में उतनी प्रसन्नता नहीं होती जितनी कि उसे उसी कार्य को अपनी इच्छा के अनुसार करने से होती है।

इसके अतिरिक्त अपने व्यक्तिगत मामलों को जितनी अच्छी तरह से एक व्यक्ति स्वयं समझ सकता है और उनकी गुत्थियों को सुलझा सकता है, उतनी अच्छी तरह से दूसरा व्यक्ति न तो उन मामलों को समझ सकता है और न ही उनकी गुत्थियों को सुलझा सकता है। स्वतंत्रता से व्यक्ति का नैतिक स्तर भी ऊंचा होता है। उसमें आत्म-विश्वास, स्वावलंबिता तथा कार्य को प्रारंभ करने की शक्ति आदि गुण उत्पन्न होते हैं।

इस दृष्टिकोण से यह प्रजातंत्र के लिए भी आवश्यक है। वास्तव में, स्वतंत्रता प्रजातंत्र का आधार है। इंग्लैंड में तो स्वतंत्रता, जिसका अर्थ उस समय जनता के स्वार्थों की रक्षा करना ही समझा जाता था, की भावना तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही दिखाई दी थी, जब मैग्ना कार्टा (MagnaCarta) नामक नागरिक स्वतंत्रता के अधिकार-पत्र की राजा जॉन के द्वारा घोषणा करवाई गई, परंतु इसका विस्तार से प्रचार व प्रसार सत्रहवीं शताब्दी में ही हुआ।

इंग्लैंड की महान क्रांति तथा फ्रांस की क्रांति ने यूरोप के सभी देशों में स्वतंत्रता की भावना फैला दी। फ्रांस की क्रांति के बाद लोकतंत्र के सिद्धांतों (Liberty, Equality, Fraternity) का झंडा सर्वत्र फहराया जाने लगा। बीसवीं शताब्दी तक यह झंडा एशिया व अफ्रीका के देशों में भी फहराया जाने लगा। व्यक्तिगत व राष्ट्रीय स्वतंत्रता अब भी सभी लोगों का जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है। स्वतंत्रता अर्थात Liberty शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘लिबर’ (Liber) से बना है, जिसका अर्थ है ‘कोई भी कार्य अपनी इच्छा के अनुसार करने की स्वतंत्रता’

साधारण व्यक्ति इस शब्द का अर्थ पूर्ण स्वतंत्रता से लेता है जो बिल्कुल प्रतिबंध-रहित हो, परंतु राजनीति शास्त्र में प्रतिबंध-रहित स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता (Licence) है, स्वतंत्रता नहीं। राजनीति शास्त्र में स्वतंत्रता का अर्थ उस हद तक स्वतंत्रता है, जिस हद तक वह दूसरों के रास्ते में बाधा नहीं बनती। इसलिए स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध लगाने पड़ते हैं, ताकि प्रत्येक व्यक्ति की समान स्वतंत्रता सुरक्षित रहे।

इसी कारण से मैक्नी ने कहा है, “स्वतंत्रता सभी प्रतिबंधों की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि युक्तिरहित प्रतिबंधों के स्थान पर युक्तियुक्त प्रतिबंधों को लगाना है।” इसकी पुष्टि करते हुए जे०एस० मिल ने कहा है, “स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ यह है कि हम अपने हित के अनुसार अपने ढंग से उस समय तक चल सकें जब तक कि हम दूसरों को उनके हिस्से से वंचित न करें और उनके प्रयत्नों को न रोकें।”

मानव अधिकारों की घोषणा (1789) में भी स्वतंत्रता का अर्थ इसी प्रकार से दिया है। इस घोषणा के अनुसार स्वतंत्रता व्यक्ति की वह शक्ति है जिसके द्वारा व्यक्ति वे सभी कार्य कर सकता है जो दूसरों के उसी प्रकार के अधिकारों पर कोई दुष्प्रभाव न डालें।

राजनीति विज्ञान के आधुनिक विद्वान स्वतंत्रता को केवल बंधनों का अभाव नहीं मानते, बल्कि उनके अनुसार स्वतंत्रता सामाजिक बंधनों में जकड़ा हुआ अधिकार है।

(क) स्वतंत्रता के दो रूप (Two Aspects of Liberty) स्वतंत्रता के सकारात्मक रूप के समर्थक लॉक, एडम स्मिथ, हरबर्ट स्पैंसर, जे०एस०मिल आदि हैं। प्रारंभिक उदारवादियों ने नकारात्मक स्वतंत्रता का समर्थन किया। इस प्रकार एडम स्मिथ व रिकार्डो आदि अर्थशास्त्रियों ने खुली प्रतियोगिता का समर्थन किया और कहा कि राज्य को व्यक्ति के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

जॉन स्टुअर्ट मिल (J.S. Mill) ने अपनी पुस्तक ‘On Liberty’ में व्यक्ति के कार्यों को दो भागों में विभाजित किया है-स्व-संबंधी कार्य व पर-संबंधी कार्य। मिल व्यक्ति के स्व-संबंधी कार्यों में राज्य के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को पसंद नहीं करता। यहां तक कि व्यक्ति के गलत कार्यों में राज्य को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि इनका संबंध व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से होता है,

परंतु यदि व्यक्ति के कार्यों का प्रभाव दूसरे व्यक्ति के व्यवहार पर पड़ता है तो राज्य या समाज उसमें हस्तक्षेप कर सकता है। इसलिए जे०एस० मिल व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्र छोड़ देने के पक्ष में है। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए।

1. स्वतंत्रता का नकारात्मक स्वरूप (Negative Aspect of Liberty):
स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजी में ‘लिबर्टी’ (Liberty) शब्द का प्रयोग किया जाता है। लिबर्टी शब्द लेटिन भाषा के Liber शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है-स्वतंत्र। इसका प्रायः यही अर्थ लिया जाता है कि व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की छूट हो। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति जैसा चाहे करे, उस पर कोई नियंत्रण या बंधन न हो, उसके काम का दूसरों पर चाहे जो भी प्रभाव पड़े।

इस प्रकार इसका अर्थ है-‘सभी प्रतिबंधों का अभाव’, परंतु सभ्य समाज में रहकर इस प्रकार की अनियंत्रित स्वतंत्रता मिलनी असंभव है। समाज में रहकर व्यक्ति अपनी इच्छा से जो चाहें, नहीं कर सकते। किसी भी व्यक्ति को चोरी करने या दूसरों को मारने की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। यह स्वतंत्रता का निषेधात्मक या नकारात्मक अर्थ है। समाज व्यक्ति को स्वेच्छा-अधिकार नहीं दे सकता, क्योंकि वह तो स्वतंत्रता न होकर उच्छृखलता हो जाती है। इससे ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। ऐसी स्वतंत्रता केवल सबल व्यक्ति ही उपयोग में ला सकेंगे, निर्बलों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं होगा।

स्वतंत्रता के नकारात्मक स्वरूप के विश्लेषण के पश्चात इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्टं होती हैं

  • कानून एक बुराई है, क्योंकि यह व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाता है।
  • व्यक्ति को विकास के लिए विभिन्न राजनीतिक व नागरिक स्वतंत्रताएं मिलनी चाहिएं।
  • व्यक्ति को स्व-कार्यों में पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए।
  • आर्थिक गतिविधियों और विचार व भाषण पर प्रतिबंध नहीं होना चाहिए।
  • पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थन करते हैं।
  • मताधिकार को व्यापक बनाना चाहिए।
  • सरकार का कार्यक्षेत्र सीमित होना चाहिए। वह सरकार सबसे अच्छी सरकार है जो सबसे कम काम करती है।

2. स्वतंत्रता का सकारात्मक स्वरूप (Positive Aspect of Liberty):
नकारात्मक स्वतंत्रता, स्वतंत्रता न होकर लाइसैंस बन जाती है। इससे व्यक्ति को अपनी स्वेच्छा से बिना किसी प्रतिबन्ध के कुछ भी करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इससे किसी को स्वतंत्रता नहीं मिलती। स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ है, “प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा काम करने की छूट, जिससे दूसरों को हानि न पहुंचे।” समाज में रहते हुए मनुष्य सीमित और नियंत्रित स्वतंत्रता को प्राप्त कर सकता है।

सभी पर न्यायोचित और समान प्रतिबंध होना चाहिए, जिससे स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव नहीं होता, बल्कि ऐसे प्रतिबंधों का अभाव होता है जो अन्यायपूर्ण, असमान तथा अनुचित हों। परंतु स्वतंत्रता केवल नकारात्मक अर्थ ही नहीं रखती, वरन उसका एक सकारात्मक अर्थ भी है। इसका अर्थ केवल अन्यायपूर्ण, अनुचित तथा असमान प्रतिबंधों का अभाव ही नहीं है,

बल्कि उन अवसरों की उपस्थिति भी है जो व्यक्ति को करने योग्य कामों को करने के और भोगने योग्य वस्तुओं को भोगने के योग्य बनाती है। इस प्रकार सकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ है “वे परिस्थितियां, जिसमें मनुष्यों को अपने व्यक्तित्व के विकास का और अपने आपको अच्छा बनाने का पर्याप्त अवसर मिलता है।”

(ख) सकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थन में तर्क (Arguments in Favour of Positive Liberty):
सकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थकों का कहना है कि राज्य के कानून तथा नियम मनुष्यों की स्वतंत्रता का विनाश नहीं करते, बल्कि उसकी स्वतंत्रता में वृद्धि करते हैं। लेकिन जो प्रतिबंध राज्य द्वारा लगाए जाएं, वे जनता की इच्छा को ध्यान में रखते हुए लगाए जाने चाहिएं। यदि वे प्रतिबंध व्यक्ति के कार्यों में किसी प्रकार भी बाधक होंगे तो यह स्वतंत्रता के लिए हानिकारक है।

स्वतंत्रता का सकारात्मक सिद्धांत मनुष्य को उस स्तर तक उठाने से संबंधित है जिस स्तर तक वह अपने मानसिक और नैतिक गुणों का सर्वोत्तम ढंग से उपयोग कर सके। यह सरकार का दायित्व है कि वह नागरिकों को इसके लिए शिक्षित करे और उनके जीवन-स्तर को ऊपर उठाए। इस सिद्धांत के समर्थकों का कहना है कि व्यक्ति क्योंकि स्वयं विचारशील है, उसे स्वयं सोचना चाहिए कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। लेकिन वास्तव में देखा जाए तो प्रत्येक व्यक्ति अपने हित के अनुसार ही कार्य करता है।

लास्की, लॉक, टी०एच० ग्रीन, मैक्नी, मैकाइवर और गैटेल आदि स्वतंत्रता के सकारात्मक सिद्धांत के प्रमुख समर्थक हैं। उनका कहना है कि स्वतंत्रता केवल बंधनों का अभाव नहीं है। मनुष्य समाज में रहता है और समाज का हित ही उसका हित है। समाज-हित के लिए सामाजिक नियमों तथा आचरणों द्वारा नियंत्रित रहकर व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के अवसर की प्राप्ति ही ब्दों में, “स्वतंत्रता एक सकारात्मक चीज है। इसका मतलब केवल बंधनों का अभाव नहीं है।” लास्की के अनुसार, “स्वतंत्रता से मेरा अभिप्राय उस वातावरण की स्थापना से है, जिसमें मनुष्यों को अपना सर्वोत्तम विकास करने का अवसर मिलता है।”

टी०एच० ग्रीन के अनुसार, “स्वतंत्रता से अभिप्राय प्रतिबंधों का अभाव नहीं है। स्वतंत्रता का सही अर्थ है उन कार्यों को करने या उन सुखों को भोग सकने की क्षमता जो वास्तव में भोगने योग्य हों।” संक्षेप में, सकारात्मक स्वतंत्रता का क्षेत्र नकारात्मक स्वतंत्रता के क्षेत्र से कहीं अधिक विस्तृत तथा व्यापक है। सकारात्मक स्वतंत्रता की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव नहीं है। सकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थक उचित प्रतिबंधों को स्वीकार करते हैं, परंतु वे अनुचित प्रतिबंधों के विरुद्ध हैं। सामाजिक हित के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।

(2) स्वतंत्रता का अर्थ केवल नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि आर्थिक स्वतंत्रता भी है। आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ है आर्थिक सुरक्षा की भावना जिसे राज्य अपने अनेक कानूनों द्वारा उपलब्ध कराएगा।

(3) राज्य का कार्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में आने वाली बाधाओं को दूर करना है।

(4) राज्य का कार्य ऐसी परिस्थितियां पैदा करना है जो व्यक्तित्व के विकास में सहायक हों।

(5) स्वतंत्रता और राज्य के कानून परस्पर विरोधी नहीं हैं। कानून स्वतंत्रता को नष्ट नहीं करते बल्कि स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं।

(6) स्वतंत्रता का अर्थ उन सामाजिक परिस्थितियों का विद्यमान होना है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायक हों।

(7) स्वतंत्रता अधिकारों के साथ जुड़ी हुई है। जितनी अधिक स्वतंत्रता होगी, उतने ही अधिक अधिकार होंगे। अधिकारों के बिना व्यक्ति को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सकती।

प्रश्न 2.
स्वतंत्रता के विभिन्न प्रकार कौन-कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए। अथवा स्वतंत्रता का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता को अंग्रेजी में ‘Liberty’ कहते हैं, जो लैटिन भाषा के शब्द ‘Liber’ से निकला है, जिसका अर्थ है “सब प्रतिबंधों का अभाव अर्थात प्रत्येक मनुष्य पर से सब प्रकार के प्रतिबंध हटा दिए जाएं और उसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने का अधिकार दे दिया जाए।” परंतु राजनीति विज्ञान में स्वतंत्रता का अर्थ उस हद तक स्वतंत्रता है जिस हद तक वह दूसरों की स्वतंत्रता के मार्ग में बाधा नहीं बनती। यदि व्यक्ति को सभी प्रकार के कार्य करने की स्वतंत्रता दे दी जाए तो समाज में अराजकता उत्पन्न हो जाएगी।

इसका अर्थ यह होगा कि केवल शक्तिशाली ही अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग कर सकेंगे और समाज में एक ही कानून होगा-“जिसकी लाठी उसकी भैंस”। किसी भी व्यक्ति को चोरी करने या दूसरों की हत्या करने की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। अतः स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ है-“प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा कार्य करने की छूट जिससे दूसरों को हानि न पहुंचे।”

परंतु स्वतंत्रता केवल नकारात्मक अर्थ ही नहीं रखती, बल्कि उसका सकारात्मक अर्थ भी है। इस रूप में स्वतंत्रता का अर्थ केवल अन्यायपूर्ण तथा अनुचित प्रतिबंधों का अभाव ही नहीं, बल्कि उन अवसरों की उपस्थिति भी है, जो व्यक्ति को करने योग्य कार्यों को करने और भोगने योग्य वस्तुओं को भोगने का अवसर भी प्रदान करती है। विभिन्न विद्वानों द्वारा स्वतंत्रता की विभिन्न परिभाषाएं और विभिन्न अर्थ बताए गए हैं तथा परिभाषाओं के आधार पर ही स्वतंत्रता के विभिन्न तत्त्वों का उल्लेख किया गया है। अतः उन तत्त्वों के आधार पर स्वतंत्रता के निम्नलिखित विभिन्न रूपों का वर्णन किया जा सकता है

1. प्राकृतिक स्वतंत्रता (Natural Liberty):
प्राकृतिक स्वतंत्रता की कल्पना समझौतावादी विचारकों ने विशेष रूप से की है। प्राकृतिक स्वतंत्रता का ठीक-ठीक अर्थ क्या है, यह कहना कठिन है। रूसो के कथनानुसार, “मनुष्य स्वतंत्र उत्पन्न होता है, किंतु प्रत्येक स्थान पर वह बंधन से बंधा हुआ है।” इसका अर्थ है कि प्रकृति ने व्यक्ति को स्वतंत्र पैदा किया है और यदि उसमें कोई दासता की भावना है, तो वह समाज द्वारा दी गई स्वतंत्रता का परिणाम है।

समाज बनने से पहले व्यक्ति जंगल में रहने वाले पशु-पक्षियों की तरह स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करता था। प्राकृतिक स्वतंत्रता के होने से सब व्यक्ति इच्छानुसार जीवन व्यतीत करते थे और वे किसी कानून या नियम से नहीं बंधे हुए थे। उस समय तेरे-मेरे की भावना नहीं थी, आवश्यकता की वस्तुएं पर्याप्त मात्रा में लोगों को मिल जाया करती थीं, इसलिए मनुष्य प्राकृतिक स्वतंत्रता का उपभोग करता था।

परंतु इस मत से अधिकांश विचारक सहमत नहीं हैं, क्योंकि निरंकुश स्वतंत्रता का अर्थ है कि कोई भी स्वतंत्र नहीं है। प्राकृतिक स्वतंत्रता केवल जंगल की स्वतंत्रता है जो वास्तव में स्वतंत्रता है ही नहीं। सच्चे अर्थ में तो स्वतंत्रता केवल राजनीतिक दृष्टि से संगठित समाज में ही पाई जा सकती है। प्राकृतिक स्वतंत्रता और नागरिक स्वतंत्रता के बीच मौलिक अंतर यह है कि प्राकृतिक स्वतंत्रता व्यक्ति अपनी शारीरिक शक्ति के आधार पर ही प्राप्त करता है, जबकि नागरिक स्वतंत्रता का संरक्षण राज्य करता है। प्राकृतिक स्वतंत्रता बलवानों की वस्तु है, किंतु नागरिक स्वतंत्रता सभी की वस्तु है।

2. नागरिक स्वतंत्रता (Civil Liberty) नागरिक स्वतंत्रता प्राकृतिक स्वतंत्रता से उलट है। जहाँ प्राकृतिक स्वतंत्रता राज्य की स्थापना से पहले मानी जाती है, वहां नागरिक स्वतंत्रता राज्य के द्वारा सुरक्षित मानी जाती है। गैटेल के अनुसार, “नागरिक स्वतंत्रता में वे अधिकार और विशेषाधिकार शामिल हैं जिन्हें राज्य अपनी प्रजा के लिए बनाता और सुरक्षित रखता है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक (व्यक्ति) को कानून की सीमा के अंदर अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने का अधिकार है। इसमें दूसरे लोगों के हस्तक्षेप से रक्षा करना या सरकार के हस्तक्षेप से रक्षा करना शामिल हो सकते हैं।”

इस प्रकार नागरिक स्वतंत्रता उन अधिकारों के समूह का नाम है जो कानून के द्वारा मान लिए गए हों और राज्य जिनको सुरक्षित रखता हो। दूसरे शब्दों में, इसी बात को गिलक्राइस्ट इस प्रकार कहते हैं कि कानून दो प्रकार के होते हैं सार्वजनिक (Public) तथा व्यक्तिगत (Private)। सार्वजनिक कानून स्वतंत्रता की सरकार के हस्तक्षेप से रक्षा करता है। बार्कर के अनुसार, “नागरिक स्वतंत्रता तीन प्रकार की है-

  • शारीरिक स्वतंत्रता,
  • मानसिक स्वतंत्रता और
  • व्यावहारिक स्वतंत्रता।

वह शारीरिक स्वतंत्रता में जीवन, स्वास्थ्य और घूमना-फिरना, मानसिक स्वतंत्रता में विचारों और विश्वासों का प्रकट करना तथा व्यावहारिक स्वतंत्रता में दूसरे व्यक्तियों के साथ संबंधों और समझौतों से संबंधित कार्यों में अपनी इच्छा और छांट आदि को शामिल करता है।”

अमेरिका के संविधान में भी नागरिक स्वतंत्रताओं का उल्लेख मिलता है। संविधान में कहा गया है कि कानून की उचित प्रक्रिया के बिना किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा। नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा की हद तथा तरीके का आधार सरकार का रूप है। प्रजातंत्र में नागरिक स्वतंत्रता अधिक सुरक्षित होती है, जबकि स्वेच्छाचारी सरकार में इसकी अधिक सुरक्षा नहीं होती।

इससे यह अर्थ नहीं लगा लेना चाहिए । नागरिक स्वतंत्रताओं का हनन नहीं होता। लोकतंत्र में भी व्यक्तियों पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं, जिनसे नागरिक स्वतंत्रताओं पर रोक लग जाती है, जैसे भारत के संविधान में विभिन्न स्वतंत्रताएं प्रदान की गई हैं। इसके साथ संविधान में ही निवारक नजरबंदी कानून, भारत सुरक्षा अधिनियम, आंतरिक सुरक्षा कानून आदि के द्वारा समाज व राष्ट्र की सुरक्षा का बहाना लेकर नागरिक स्वतंत्रताओं पर रोक लगा दी गई है।

अतः नागरिक स्वतंत्रता का बहुत अधिक महत्त्व है। इस स्वतंत्रता के आधार पर ही देश की उन्नति व विकास का अनुमान लगाया जा सकता है। जिस देश में नागरिक स्वतंत्रता जितनी अधिक होगी, वह देश उतना ही विकासशील होगा।

3. आर्थिक स्वतंत्रता (Economic Liberty):
प्रजातंत्र तभी वास्तविक हो सकता है जब राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता भी हो। लेनिन के शब्दों में, “नागरिक स्वतंत्रता आर्थिक स्वतंत्रता के बिना निरर्थक है।” आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ वह नहीं, जिसे पूंजीवादी मुक्त प्रतिद्वंद्विता (Free Competition) कहते हैं वरन इसका अर्थ शोषण का अभाव और मालिक के अत्याचार से मुक्ति है।

प्रो० लास्की के अनुसार, “आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ मनुष्य को अपना दैनिक भोजन कमाते हुए युक्तियुक्त रूप में सुरक्षा व अवसर प्राप्त होना है।” प्रत्येक नागरिक को बेकारी और अभाव के भय से स्वतंत्र बनाया जाना ही सच्ची स्वतंत्रता है। आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त कराने के लिए ऐसी आर्थिक व्यवस्था स्थापित की जाए जिसमें व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से अन्य व्यक्तियों के अधीन न रहे।

सब व्यक्तियों को अपनी आर्थिक उन्नति करने का समान अवसर प्राप्त हो। यदि इसके लिए राज्य को व्यक्ति के आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप भी करना पड़े तो उसे करना चाहिए। आर्थिक स्वतंत्रता का यह विचार उस आर्थिक व्यवस्था की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ है, जिसमें पूंजीपति श्रमिकों का मनमाना शोषण करते थे और उनकी मजदूरी का एक बड़ा भाग स्वयं हड़प करके धनी बन जाते थे।

इसलिए जिस प्रकार राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक शक्ति को कुछ लोगों के हाथों से निकालकर जनता के हाथों में सौंपा गया, उसी प्रकार आर्थिक शक्ति भी थोड़े-से पूंजीपतियों के हाथों से निकालकर जन-साधारण को दी जानी चाहिए। इसके लिए एक ओर मजदूरों के कुछ आर्थिक अधिकार हों; जैसे काम पाने,

उचित घंटे काम करने, उचित मजदूरी पाने, अवकाश पाने, बेकारी, बीमारी, बुढ़ापे और दुर्घटना की अवस्था में सहायता व सुरक्षा पाने तथा मजदूर संघ बनाकर अपने हितों की रक्षा करने के अधिकार तो दूसरी ओर मजदूरों को उद्योग-धंधों के प्रबंध में भागीदार बनाया जाना चाहिए। समाजवादी विचारक भी इसी बात पर बल देते हैं कि आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता व्यर्थ है।

4. राष्ट्रीय स्वतंत्रता (National Liberty):
राष्ट्रीय स्वतंत्रता का अर्थ है-विदेशी नियंत्रण से स्वतंत्रता। जनता की राजनीतिक तथा नागरिक स्वतंत्रता तभी संभव है जब राष्ट्र स्वयं पूर्ण रूप से प्रभुसत्ता-संपन्न राज्य हो। साम्राज्यवादी देश के अधीन रहने पर विदेशी सत्ता जनता को अपनी सरकार बनाने या शासन में हिस्सा लेने का मौका नहीं देती तथा शासन के अत्याचारों के विरुद्ध जनता को भाषण, संगठन, प्रकाशन आदि तक नहीं करने देती।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता साम्राज्यवाद को नष्ट करना चाहती है। व्यक्ति का पूर्ण विकास एक स्वतंत्र राष्ट्र में ही हो सकता है। इसलिए व्यक्ति की उन्नति के लिए राष्ट्रीय स्वतंत्रता आवश्यक है। भारत ने 15 अगस्त, 1947 को राष्ट्रीय स्वतंत्रता प्राप्त की। तभी से जनता को वास्तविक स्वतंत्रता का अनुभव होने लगा।

5. व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Individual Liberty):
व्यक्तिगत स्वतंत्रता से अभिप्राय उन कार्यों को करने की स्वतंत्रता है जो व्यक्ति के अपने निजी जीवन से संबंधित हों। कुछ मामले ऐसे हैं जो व्यक्ति के निजी जीवन से संबंधित होते हैं। ऐसे कार्यों में कोई भी व्यक्ति दूसरे का हस्तक्षेप सहन नहीं करता, यहाँ तक कि निजी संबंधियों का भी हस्तक्षेप सहन नहीं किया जाता।

अपने निजी मामलों में प्राप्त स्वतंत्रता को व्यक्तिगत स्वतंत्रता कहते हैं, जैसे वस्त्र, रहन-सहन, पारिवारिक जीवन, विवाह-संबंध आदि। मिल का कहना है, “प्रत्येक व्यक्ति के कुछ कार्य ऐसे हैं जिनका दूसरों पर प्रभाव नहीं पड़ता और इन मामलों में उसे पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी आवश्यक है, परंतु वास्तव में व्यक्ति का ऐसा कोई कार्य नहीं है, जिसका प्रभाव केवल उसी तक सीमित हो, दूसरों पर भी उसका कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है।

व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में भी सामाजिक हित, कानून और व्यवस्था, नैतिकता, राष्ट्र की सुरक्षा आदि के आधार पर कुछ अंकुश लगाए जाते हैं। निरंकुशता या पूर्ण स्वतंत्रता जैसी कोई बात समाज में नहीं हो सकती।”

6. राजनीतिक स्वतंत्रता (Political Liberty):
राजनीतिक स्वतंत्रता व्यक्ति के राजनीतिक जीवन को उन्नत और विकसित करने के लिए आवश्यक है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति को जो राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं, उनका यह स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग करे, वह कानून-निर्माण तथा प्रशासन में भाग ले। लास्की ने कहा है, “राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ राज्य के कार्यों में सक्रिय भाग लेने की शक्ति से है।

यह स्वतंत्रता केवल लोकतंत्र में ही संभव है, राजतंत्र और तानाशाही में नहीं। प्रतिनिधियों को चुनने के लिए मतदान की स्वतंत्रता, चुनाव लड़ने की स्वतंत्रता, सार्वजनिक पद प्राप्त करने की स्वतंत्रता, सरकार की आलोचना करने की स्वतंत्रता केवल लोकतंत्र में ही मिलती है। अधिनायकतंत्र में यह स्वतंत्रता लोगों को प्राप्त नहीं होती।

लीकॉक महोदय ने राजनीतिक स्वतंत्रता को संवैधानिक स्वतंत्रता का नाम दिया है और कहा है कि जनता को अपनी सरकार स्वयं चुनने का अधिकार दिया जाना चाहिए। इस प्रकार राजनीतिक स्वतंत्रता के अंतर्गत केवल सरकार के कार्यों में भाग लेने का अधिकार नहीं है, बल्कि सरकार का विरोध करना भी इसके अंतर्गत आता है।

राजनीतिक दलों का निर्माण करना व उनकी सदस्यता ग्रहण करना इस स्वतंत्रता में आते हैं। इस प्रकार की स्वतंत्रता साम्यवादी राज्यों में प्रदान नहीं की जाती है। अंत में इस प्रकार की स्वतंत्रता को सीमित तो किया जा सकता है, लेकिन पूर्णतया समाप्त नहीं किया जा सकता। व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए राजनीतिक क्षेत्र में उसे अधिकार देना अत्यंत आवश्यक है।

7. धार्मिक स्वतंत्रता (Religious Liberty):
धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके विश्वास के अनुसार किसी धर्म को मानने, पूजा-पाठ करने व धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसलिए व्यक्ति अपने धर्म में किसी दूसरे व्यक्ति या राज्य के हस्तक्षेप को सहन नहीं करता। आधुनिक युग में अधिकांश देशों ने अपने नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया है।

जिन देशों में विभिन्न संप्रदायों के लोग निवास करते हैं, वहां धार्मिक स्वतंत्रता का महत्त्व और भी अधिक होता है। धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देने से अल्पसंख्यकों में देश के शासन के प्रति विश्वास बना रहता है और राज्य में स्थिरता आती है। भारत ने इसी भावना के अनुसार धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत को अपनाया है। भारतीय संविधान में धारा 25 से 28 तक प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है और यह भी स्पष्ट किया गया है कि राज्य धर्म के आधार पर नागरिकों में कोई मतभेद नहीं करेगा। राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है।

8. नैतिक स्वतंत्रता (Moral Liberty):
स्वतंत्रता केवल बाह्य परिस्थितियों द्वारा ही प्रदान नहीं की जा सकती। यह एक मनोवैज्ञानिक भावना है जिसे मनुष्य अनुभव करता है। व्यक्ति केवल तभी पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो सकता है, जब वह नैतिक रूप से भी स्वतंत्र हो। नैतिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि व्यक्ति अपनी बुद्धि व विवेक के अनुसार तथा अन्य व्यक्तियों के व्यक्तित्व को सम्मान प्रदान करते हुए निर्णय ले सके तथा कार्य कर सके।

आदर्शवादी राजनीतिक विचारकों ने नैतिक स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया है। हीगल (Hegel), ग्रीन (Green) व बोसांके (Bosanquet) के अनुसार, “नैतिक स्वतंत्रता केवल राज्य में ही प्राप्त की जा सकती है। राज्य उन परिस्थितियों का निर्माण करता है, जिनमें रहकर मनुष्य नैतिक उन्नति कर सकता है और नैतिक रूप से स्वतंत्र हो सकता है।”

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 3.
स्वतंत्रता की रक्षा के लिए मुख्य उपायों का वर्णन कीजिए।
अथवा
किसी व्यक्ति द्वारा स्वतंत्रता के उपभोग की आवश्यक दो दशाएं बताइए। अथवा स्वतंत्रता के मुख्य सरंक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर:
स्वतंत्रता व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अति आवश्यक है। स्वतंत्रता का अर्थ नियंत्रण का अभाव नहीं वरन व्यक्ति के विकास के लिए उचित परिस्थितियों का रहना है, इसलिए स्वतंत्रता में वे अधिकार तथा परिस्थितियां शामिल हैं, जिनसे मनुष्य को अपने व्यक्तित्व के विकास में सहायता मिलती है। राज्य उन अधिकारों को सुरक्षित रखता है।

इसके लिए ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे न तो सरकार और न ही लोग किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता को नष्ट कर सकें। इसलिए निम्नलिखित साधन स्वतंत्रता के संरक्षण के लिए अपनाए जाते हैं स्वतंत्रता के संरक्षण (Safeguard of Liberty) स्वतंत्रता के संरक्षण निम्नलिखित हैं

1. प्रजातंत्र की स्थापना (Establishment of Democracy):
लोगों की स्वतंत्रता पर सरकार के रूप का भी प्रभाव पड़ता है। जहाँ राजतंत्र या कुलीनतंत्र होता है, वहां स्वेच्छाचारिता की अधिक संभावना होती है। प्रजातंत्र में सभी लोगों का प्रतिनिधित्व होता है, इसलिए जिन लोगों के अधिकारों पर आक्षेप होता है, उनके प्रतिनिधि विशेष रूप से और सांसद आम तौर से उनके लिए लड़ते हैं।

आम लोग भी ऐसे अवसरों पर भाषण और प्रैस आदि की स्वतंत्रताओं का लाभ उठा सकते हैं तथा स्वतंत्र न्यायालय फैसले में उनकी सहायता कर सकता है। वास्तव में, स्वतंत्रता के दूसरे रक्षा कवच; जैसे प्रैस, पक्षपात रहित न्यायालय, अधिकारों का संवैधानीकरण, मजबूत विरोधी दल, कानून का शासन आदि प्रजातंत्र में ही जीवित रह सकते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए प्रजातांत्रिक सरकार होनी चाहिए।

2. जागरूकता तथा शिक्षा (Vigilance and Education):
स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए लोगों का जागरूक रहना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए कहा जाता है, “शाश्वत-जागरूकता स्वतंत्रता की कीमत है।” (Eternal vigilance is the price of Liberty.) स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए लोगों को हमेशा देखते रहना चाहिए कि सरकार, कोई संघ या कोई व्यक्ति उनकी स्वतंत्रता पर आक्षेप तो नहीं कर रहा है।

यदि आक्षेप होता है तो तुरंत उसका विरोध करना चाहिए। जागरूकता के लिए और अधिकारों के ज्ञान की प्राप्ति के लिए तथा उन्हें सुरक्षित रखने के ढंग को जानने के लिए शिक्षा अनिवार्य है, क्योंकि अशिक्षित आदमी , अपने अधिकारों को और उन्हें सुरक्षित रखने के ढंग को नहीं समझ सकता है।

3. मौलिक अधिकारों की घोषणा (Declaration of Fundamental Rights):
जनता को स्वतंत्रता प्रदान करने वाले नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों को संविधान में मौलिक अधिकारों के रूप में घोषित कर दिया जाना चाहिए। इससे उनकी स्थायी सुरक्षा हो जाती है और उनका उल्लंघन सुगमता से नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार स्वतंत्रता देश के संविधान द्वारा सुरक्षित कर दी जाती है। वह सरकार द्वारा छीनी भी नहीं जा सकती, क्योंकि वह उनकी पहुंच से बाहर हो जाती है।

4. न्यायपालिका की स्वतंत्रता (Independence of Judiciary):
किसी भी देश के लोगों की स्वतंत्रता तब तक सुरक्षित नहीं रह सकती, जब तक कि न्यायालय स्वतंत्र न हों। कानून चाहे कितने ही अच्छे हों, परंतु उनसे स्वतंत्रता की रक्षा तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि उन कानूनों को लागू करने वाले न्यायधीश स्वतंत्र, ईमानदार, निडर तथा निष्पक्ष न हों।

न्यायधीशों पर न तो कार्यपालिका का और न ही विधानमंडल का दबाव होना चाहिए, तब ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता व अधिकारों को अधिकारियों के दबाव से या लोगों से सुरक्षित रख सकते हैं। इसलिए यह कहा जाता है कि वैयक्तिक स्वतंत्रता बहुत कुछ उस पद्धति पर निर्भर है, जिसके द्वारा न्याय किया जाता है।

5. शक्ति का पृथक्करण (Separation of Powers):
न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए शक्ति का पृथक्करण (Separation of Power) आवश्यक है। शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपादन माण्टेस्क्यू ने किया। उसने सरकार के तीनों अंगों के अलग होने पर बल डाला है। न्यायालय तभी स्वतंत्र रह सकते हैं जबकि राज्य में शासन-सत्ता को अलग-अलग अंगों में विभाजित कर दिया जाए अर्थात कानून बनाने वाली, शासन करने वाली तथा न्याय करने वाली संस्थाएं अलग-अलग संगठित हों तथा उनका एक-दूसरे पर कोई दबाव या प्रभाव न हो। इससे जनता की स्वतंत्रता की गारंटी मिल जाती है।

6. शक्ति का विकेंद्रीयकरण (Decentralization of Authority):
स्वतंत्रता की सुरक्षा का एक अन्य उपाय सत्ता का विकेंद्रीयकरण है। जहाँ भी शासन-सत्ता केंद्रित की जाती है, वहां तानाशाही व अनुत्तरदायी शासन स्थापित हो जाता है। अतः राज्य में स्वायत्त-शासन संस्थाओं को अधिक-से-अधिक सत्ताएं सौंपी जाएं। इससे जनता भी राजनीतिक शिक्षा प्राप्त करती है। स्थानीय संस्थाएं राष्ट्रीय-स्वशासन की पाठशालाएं कहलाती हैं।

इस संदर्भ में लास्की ने विचार व्यक्त किया हैं, “राज्य में शक्तियों का जितना अधिक वितरण होगा, उसकी प्रकृति उतनी अधिक विकेंद्रित होगी और व्यक्तियों में अपनी स्वतंत्रता के लिए उतना ही अधिक उत्साह होगा।” इसी प्रकार डॉ० टॉक्विल ने भी कहा है, “किसी भी राष्ट्र में स्वतंत्र सरकार स्थापित की जा सकती है, लेकिन स्वशासन की संस्थाओं के बिना लोगों में स्वतंत्रता की भावना विकसित नहीं हो सकती है।”

7. आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय (Economic Equality and Social Justice):
यह बिल्कुल उचित कहा गया है कि स्वतंत्रता आर्थिक समानता के बिना बिल्कुल व्यर्थ है (Liberty without Economic Equality is a farce)। स्वतंत्रता, वास्तविकता में साधन है, साध्य नहीं। स्वतंत्रता की आवश्यकता व्यक्तित्व के विकास और समान अवसरों के उपभोग के लिए पड़ती है, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन प्रसन्नतापूर्वक व्यतीत कर सके और अपने विचारानुसार जीवन के ध्येय की प्राप्ति कर सके।

परंतु यह सब आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय के बिना संभव नहीं, क्योंकि सभी अधिकारों से पूरा लाभ उठाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है और समाज के भेदभाव भी उसमें बाधक सिद्ध हो सकते हैं। इस तरह के तत्त्व एक देश में होने से वहां के लोगों की स्वतंत्रता पूरी तरह से सुरक्षित रह सकती है। प्रत्येक देश में इन सारे तत्त्वों का होना आवश्यक नहीं है। सरकार के रूप के अनुसार इनमें थोड़ा-बहुत भेद हो सकता है, परंतु इनमें से अधिकतर प्रत्येक देश में होने चाहिएं।

8. कानून (Law) कानून भी स्वतंत्रता की सुरक्षा में बहुत अधिक सहायता करता है हालांकि कभी-कभी कानून स्वतंत्रता का विरोध भी करता है परंतु साधारणतः यह स्वतंत्रता को सुरक्षित ही रखता है। समान स्वतंत्रता कानून के बिना असंभव है। कानून अधिकारों को सरकार तथा दूसरे लोगों के आक्षेप से बचाता है। जो लोग दूसरे लोगों के अधिकारों को छीनने के लिए कानून को तोड़ते हैं, उन पर मुकद्दमे चलाए जाते हैं और न्यायपालिका उन्हें दंड देती है। जो कानून स्वतंत्रता को सुरक्षित नहीं रखता और असमानता फैलाता है, वह अच्छा नहीं समझा जाता और कई बार ऐसे कानूनों का विरोध किया जाता है।

आधुनिककाल में ‘कानून का शासन’ (Rule of Law) सबसे अच्छा समझा जाता है। कानून के सामने सब समान होने चाहिएँ और सब लोगों पर, साधारण व्यक्ति से लेकर प्रधानमंत्री तक एक ही कानून लागू होना चाहिए। किसी व्यक्ति या वर्ग को कोई विशेषाधिकार (Privileges) नहीं दिए जाने चाहिएं। कानून के शासन का यह भी अर्थ है कि किसी व्यक्ति को बिना कानून तोड़े हुए दंड नहीं दिया जाना चाहिए।

9. सशक्त विरोधी दल (Strong Opposition Party):
स्वतंत्रता की सुरक्षा में विरोधी दल का भी बड़ा भारी हाथ होता है। जब कभी भी शासक दल लोगों के अधिकारों में हस्तक्षेप करता है, उसी समय विरोधी दल संसद में तथा संसद से बाहर उसकी आलोचना करता है। आलोचना से सरकार को भी जनमत के खिलाफ होने का भय रहता है। यदि विरोधी दल मज़बूत है तो शासक दल को आने वाले निर्वाचनों में हार जाने का भय हो सकता है। इस प्रकार मज़बूत विरोधी दल स्वतंत्रता की सुरक्षा में सहायक सिद्ध होता है।

10. स्वतंत्र प्रैस (Free Press):
स्वतंत्र प्रैस भी लोगों की स्वतंत्रताओं को सुरक्षित रखने के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। यदि प्रैस के ऊपर कोई दबाव और अनुचित नियंत्रण नहीं है तो प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों को स्वतंत्रता-पूर्वक प्रकट कर सकता है। यदि कभी किसी व्यक्ति या संघ के अधिकारों पर कोई आक्षेप होता है तो प्रैस उस मामले के सत्य को प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचा सकता है।

जनमत बनाने में भी स्वतन्त्र प्रैस की अहम भूमिका होती है। स्वतंत्र प्रेस से सरकार भी डरती है जिसके कारण वह कोई ऐसा कार्य नहीं करती जिससे लोगों के अधिकारों को कोई ठेस पहुंचे। प्रैस की स्वतंत्रता में प्रेस सरकार के तथा धनी लोगों के अनुचित प्रभाव से मुक्त होनी चाहिए तथा प्रैस को भी रंग, जाति, धर्म तथा भाषा आदि के आधार पर कोई पक्षपात नहीं करना चाहिए।

निष्कर्ष (Conclusion)-दी गई चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए रक्षा कवचों का होना अनिवार्य है। स्वतंत्रता की रक्षा पर लोकतंत्र का भविष्य निर्भर करता है। लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है जो लोगों को जागरूक व कर्त्तव्यपरायण बनाती है। लोगों की कर्त्तव्यपरायणता और जागरूकता पर स्वतंत्रता की सुरक्षा हो सकती है। ऐसा होने से शासक वर्ग व्यक्तियों की स्वतंत्रता का अपहरण करने का दुःसाहस नहीं कर सकेंगे।

प्रश्न 4.
कानून व स्वतंत्रता के आपसी संबंधों की विवेचना कीजिए। अथवा कानून और स्वतंत्रता में क्या संबंध है?
उत्तर:
स्वतंत्रता और कानून के संबंधों का विषय इतना महत्त्वपूर्ण है कि अनेक विद्वानों का ध्यान इसकी ओर आकर्षित हुआ है। विद्वानों ने स्वतंत्रता और कानून के संबंध के विषय में दो दृष्टिकोण व्यक्त किए हैं जिनका वर्णन निम्नलिखित है

(क) स्वतंत्रता और कानून परस्पर विरोधी हैं (Liberty and Law opposed to each other):
पहले दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति कानून व स्वतंत्रता को एक-दूसरे का विरोधी मानती है। 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में अधिकांश राजनीतिक विचारक यह मत रखते हैं कि स्वतंत्रता और कानून में परस्पर विरोध है। अराजकतावादियों तथा व्यक्तिवादियों का यह भी मत रहा है कि स्वतंत्रता और कानून एक-दूसरे के विरोधी हैं।

जितने अधिक कानून होंगे, उतनी कम स्वतंत्रता होगी। राज्य का कार्य-क्षेत्र इतना व्यापक है कि मनुष्य को हर कदम पर कानून रोकता है। इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित हो जाती है और उसका काम करने का उत्साह मारा जाता है। इसलिए इनका मत है कि कानून स्वतंत्रता का विरोधी है। इस संबंध में विलियम गोडविन (Villiam Godwin) ने कहा है, “कानून स्वतंत्रता के लिए सबसे अधिक हानिकारक संस्था है।” इसी प्रकार कोकर (Coker) का भी यही विचार है, “राजनीतिक सत्ता अनावश्यक तथा अवांछनीय है।” इन विचारकों के मत निम्नलिखित हैं

1. व्यक्तिवादियों का मत (View of Individualists):
18वीं शताब्दी में व्यक्तिवादियों ने व्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर कि राज्य के कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक प्रतिबंध है, इसलिए व्यक्ति की स्वतंत्रता तभी सुरक्षित रह सकती है, जब राज्य अपनी सत्ता का प्रयोग कम-से-कम करे, अर्थात उनके मतानुसार, “वह सरकार अच्छी है जो कम-से-कम शासन या कार्य करती है।” इसी प्रकार जे०एस० मिल (J.S. Mill) ने भी कहा है, “सरकार का हस्तक्षेप व्यक्ति के शारीरिक अथवा मानसिक विकास के कुछ-न-कुछ भाग को अवरुद्ध कर देता है।”

2. अराजकतावादियों का मत (View of Anarchists):
अराजकतावादियों के अनुसार राज्य प्रभुसत्ता का प्रयोग करके नागरिकों की स्वतंत्रता को नष्ट करता है, अतः अराजकतावादियों ने राज्य को समाप्त करने पर जोर दिया ताकि राज्य-विहीन समाज की स्थापना की जा सके। इसी संदर्भ में अराजकतावादी प्रोधा (Prondha) ने विचार व्यक्त किया है, “मनुष्य पर मनुष्य का किसी भी रूप में शासन अत्याचार है।”

3. सिंडीकलिस्ट का मत (View of Syndicalists):
सिंडीकलिस्ट अराजकतावादियों की तरह राज्य को पूर्णतः समाप्त करना चाहते हैं, क्योंकि उनके मतानुसार राज्य सदैव पूंजीपतियों का समर्थन करता है जिससे व्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस प्रकार सिंडीकलिस्ट राज्य और सरकार को समाप्त करके उसके स्थान पर श्रमिक संघों का शासन स्थापित करने के पक्ष में हैं। श्रमिक संघों की व्यवस्था में व्यक्तियों की स्वतंत्रता अधिक सुरक्षित रहती है।

4. बहुत्ववादियों का मत (View of Pluralists):
बहुत्ववादियों का विचार है कि राज्य के पास जितनी अधिक सत्ता होती है, उससे व्यक्ति की स्वतंत्रता उतनी ही कम होती है, इसलिए वे राज्य सत्ता को विभिन्न समुदायों में बांटने के पक्ष में हैं। इस प्रकार बहुत्ववादी राज्य को भी एक संस्था मानते हैं और उसे अन्य संस्थाओं से अधिक शक्ति देने के पक्ष में नहीं हैं। अगर राज्य को अधिक शक्ति दी गई तो उससे व्यक्ति की स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी। इस विचार का समर्थन करते हुए लास्की (Laski) महोदय ने कहा है, “असीमित और अनत्तरदायी राज्य मानवता के हितों के विरुद्ध है।”

(ख) स्वतंत्रता और कानून एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं (Liberty and Law are not opposed to Each Other) स्वतंत्रता और कानून को एक-दूसरे का विरोधी होने का विचार ऐसे लेखकों ने दिया जो स्वतंत्रता के नकारात्मक पक्ष में विश्वास रखते थे। यह विचार उस समय व्यक्त किया गया जिस समय तानाशाही प्रवृत्तियां पूरे जोर पर थीं, परंतु जैसे-जैसे लोकतंत्रात्मक प्रवृत्तियां सामने आईं तो राजनीतिक विचारकों ने यह स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया कि कानून और स्वतंत्रता एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं।

अतः स्वतंत्रता और कानून के संबंध के विषय में दूसरा दृष्टिकोण यह है कि ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। एक का अस्तित्व दूसरे के बिना खतरे में पड़ जाएगा। इस दृष्टिकोण के समर्थक समाजवादी और आदर्शवादी हैं। इन विचारकों का कहना है कि कानून स्वतंत्रता का हनन नहीं करता, बल्कि उसकी रक्षा करता है।

इसलिए लॉक (Locke) महोदय ने ठीक ही कहा है, “जहाँ कानून नहीं है, वहां स्वतंत्रता नहीं है।” हॉकिंस (Hockins) ने भी लिखा है, “व्यक्ति जितनी अधिक स्वतंत्रता चाहता है, उतना ही उसे सत्ता के आगे झुकना पड़ता है।” इस दृष्टिकोण का विस्तारपूर्वक वर्णन निम्नलिखित है

1. कानून स्वतंत्रता का रक्षक है (Law safeguards Liberty):
अराजकतावादियों तथा अन्य विचारकों का मत सही नहीं है। कानून स्वतंत्रता का विरोधी तभी दिखाई देता है, जब स्वतंत्रता का अर्थ ही स्वेच्छाचारिता लगाया जाता है। स्वतंत्रता को जब मनमाना काम करने की छूट समझ लिया जाता है, तब बुरे कामों की रुकावट के लिए जो कानून नज़र आते हैं, वे विरोधी ही कहलाएंगे।

व्यक्ति को जब कानून चोरी-डकैती, लूटमार, जुआ, शराबखोरी नहीं करने देता तो ऐसे व्यक्ति कानून को उनकी स्वतंत्रता का बाधक समझेंगे ही, परंतु भले-मानसों की सुरक्षा तथा उनकी सुविधा के लिए ऐसे कानून बनाना राज्य के लिए जरूरी है। यह व्यक्ति के हित में होता है कि मनमाने काम करने की स्वतंत्रता पर सीमाएं लगाई जाएं, नहीं तो व्यक्ति एक-दूसरे के दायरे में कदम आघात करेंगे। इसलिए स्वतंत्रता का अर्थ सभी के लिए सीमित स्वाधीनता है।

अपने दायरे में रहकर अपना विकास करना ही स्वतंत्रता है, जिसका अभिप्राय है कि सब पर कुछ प्रतिबंध लगाए जाएं, जिससे वे एक-दूसरे की स्वतंत्रता न छीन सकें। ऐसे प्रतिबंध किसी व्यक्ति या संस्था के निजी प्रतिबंध नहीं हो सकते। यह कार्य तो राज्य ही अपनी शक्ति द्वारा कर सकता है। राज्य अपनी सत्ता कानून द्वारा प्रदर्शित करता है, इसलिए कानून सबकी स्वतंत्रता के लिए आवश्यक होते हैं। कानून स्वतंत्रता के विरोधी नहीं, बल्कि उसकी पहली शर्त होते हैं। वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं।

इसलिए लॉक (Locke) ने कहा था, “जहाँ कानून नहीं होते, वहां स्वतंत्रता नहीं होती।” जब तक हम कानून को बाहरी बंधन के रूप में मानते हैं तब तक उसके प्रति विरोध और असंतोष रहता उसे उचित समझकर अपनी अंतरात्मा से उसे स्वीकार कर लें तो वह स्वतंत्रता का सहायक नज़र आता है। जैसे रूसो ने कहा है, “उस कानून का पालन, जिसे हम अपने लिए बनाते हैं, स्वतंत्रता कहलाता है।”

2. कानून स्वतंत्रता की पहली शर्त है (Law is the first condition of Liberty):
जो विचारक स्वतंत्रता का सकारात्मक अर्थ स्वीकार करते हैं और स्वतंत्रता पर उचित बंधनों को आवश्यक मानते हैं, वे कानून को स्वतंत्रता की सुरक्षा की पहली शर्त समझते हैं और सत्ता को आवश्यक मानते हैं। हॉब्स, जो निरंकुशतावादी (Absolutist) माना जाता है, स्वीकार करता है कि कानून के अभाव में व्यक्ति हिंसक पशु बन जाता है।

अतः सत्ता व कानून का होना आवश्यक है, ताकि व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक जीवन बिता सके। मॉण्टेस्क्यू (Montesquieu) ने स्वतंत्रता की परिभाषा करते हुए कहा है, “स्वतंत्रता वे सभी कार्य करने का अधिकार है, जिनको करने की अनुमति कानून देता है।” रूसो (Rousseau) ने सामान्य इच्छा (General Will) को मानने को ही वास्तविक स्वतंत्रता कहा है। विलोबी (Willoughby) के अनुसार, “स्वतंत्रता केवल वहीं सुरक्षित है, जहाँ बंधन हैं।”

रिचि (Ritchie) के स-विकास के सुअवसर के रूप में स्वतंत्रता को संभव बनाते हैं और सत्ता के अभाव में इस प्रकार की स्वतंत्रता संभव नहीं हो सकती।” स्वतंत्रता की प्रकृति में ही प्रतिबंध हैं और प्रतिबंध इसलिए आवश्यक हैं ताकि प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर व सुविधाएं प्राप्त हो सकें और एक व्यक्ति की स्वतंत्रता किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता या सामाजिक हित में बाधक न बन सके।

स्वतंत्रता को वास्तविक रूप देने के लिए आवश्यक है कि उसे सीमित किया जाए। समाज में रहते हुए शांतिमय जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति के व्यवहार पर कुछ नियंत्रण लगाए जाएं। नियंत्रणों से मर्यादित व्यक्ति ही अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है और समाज की एक लाभदायक इकाई सिद्ध हो सकता है। अरस्तू (Aristotle) ने ठीक ही कहा है, “मनुष्य अपनी पूर्णता में सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है, लेकिन जब वह कानून व न्याय से पृथक हो जाता है तब वह सबसे निकृष्ट प्राणी बन जाता है।”

3. आदर्शवादियों के विचार (View of Idealist) आदर्शवादी (Idealist) विचारकों ने कानून व स्वतंत्रता में घनिष्ठ संबंध स्वीकार किया है और इनके अनुसार स्वतंत्रता न केवल कानून द्वारा सुरक्षित है, अपितु कानून की देन है। हीगल (Hegel) के अनुसार, “राज्य में रहते हुए कानून के पालन में ही स्वतंत्रता निहित है।” हीगल ने राज्य को सामाजिक नैतिकता की साक्षात मूर्ति कहा है और कानून चूंकि राज्य की इच्छा की अभिव्यक्ति है। अतः नैतिक रूप से भी व्यक्ति की स्वतंत्रता कानून के पालन में ही निहित है।

टी०एच० ग्रीन (T.H. Green) के अनुसार, “हमारे अधिकांश कानून हमारी सामाजिक स्वतंत्रता को कम करते हैं, परंतु इनका उद्देश्य ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करना है जिनके अंतर्गत व्यक्ति अपने गुणों का पूर्ण विकास कर सकता है।” स्पष्ट है कि स्वतंत्रता व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है और व्यक्तित्व का विकास कानून के पालन द्वारा ही हो सकता है। रूसो ने भी कहा है, “ऐसे कानून का पालन, जो हम स्वयं अपने लिए निश्चित करते हैं, वही स्वतंत्रता है।”

4. क्या प्रत्येक कानून स्वतंत्रता का रक्षक है? (Does every law protect the Liberty?)-प्रत्येक कानून स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करता। कई बार ऐसे कानूनों का निर्माण किया जाता है जो शासकों के हित में होते हैं, न कि समस्त जनता के हित में। ब्रिटिश साम्राज्य के समय भारत में कई बार ऐसे कानूनों का निर्माण किया गया था, जिनका उद्देश्य भारतीयों की स्वतंत्रता को नष्ट करना होता था।

तानाशाही राज्य में ऐसे कानूनों का निर्माण किया जाता है। नागरिकों को उन कानूनों का पालन करना चाहिए जो नैतिकता पर आधारित हों तथा समाज के हित में हों। परंतु नागरिकों को शांतिपूर्वक उन कानूनों का विरोध करना चाहिए जो उनकी स्वतंत्रता को नष्ट करने के लिए पास किए गए हों।

निष्कर्ष (Conclusion) दिए गए विवरण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि कानून स्वतंत्रता का विरोधी है या सहयोगी, यह परिस्थितियों पर निर्भर है। यदि कानून जनता के हित को ध्यान में रखकर बनाया जाता है तो वह स्वतंत्रता का सहयोगी होता है और स्वतंत्रता सुरक्षित रहती है परंतु जब कानून थोड़े-से लोगों के हित को ध्यान में रखकर बनाए जाएं अथवा शासकों के हित में बनाए जाएं तो ऐसे कानून स्वतंत्रता के विरोधी होते हैं। स्वतंत्रता की रक्षा के लिए प्रजातंत्र की स्थापना सर्वोत्तम साधन है, क्योंकि प्रजातंत्र में जनता स्वयं ही शासक और शासित होती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. लेटिन भाषा के लिबर (Liber) शब्द का शाब्दिक अर्थ निम्नलिखित में से है
(A) बंधनों का अंकुश
(B) बंधनों से मुक्ति
(C) प्रतिबंधों की उपस्थिति
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(B) बंधनों से मुक्ति

2. “जिस तरह बदसूरती का न होना स्वतंत्रता नहीं है, उसी तरह बंधनों का होना स्वतंत्रता नहीं है।” यह कथन किस विद्वान का है?
(A) बार्कर
(B) लास्की
(C) हरबर्ट स्पेंसर
(D) ग्रीन
उत्तर:
(A) बार्कर

3. नकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ निम्नलिखित में से है
(A) स्व-कार्यों में पूर्ण स्वतंत्रता
(B) व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध के कारण कानून एक बुराई है
(C) सरकार का सीमित कार्यक्षेत्र
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

4. सकारात्मक स्वतंत्रता की विशेषता निम्नलिखित में से है
(A) अनुचित प्रतिबंधों के विरुद्ध जबकि उचित प्रतिबंधों का समर्थन
(B) कानून स्वतंत्रता को नष्ट नहीं बल्कि रक्षा करते हैं
(C) स्वतंत्रता अधिकारों के साथ जुड़ी हुई है
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. “मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है, परंतु प्रत्येक स्थान पर वह बंधन में बंधा हुआ है।” यह कथन निम्न में से है
(A) रूसो
(B) हॉब्स
(C) लॉक
(D) मिल
उत्तर:
(A) रूसो

6. राष्ट्रीय स्वतंत्रता का अर्थ निम्न में से है
(A) एक राष्ट्र को विदेशी नियंत्रण से पूर्णतः स्वतंत्रता का प्राप्त होना
(B) एक राष्ट्र की विदेश नीति पर अन्य राष्ट्र का नियंत्रण होना
(C) एक राष्ट्र के आंतरिक मामलों में अन्य राष्ट्रों का हस्तक्षेप न होना
(D) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(A) एक राष्ट्र को विदेशी नियंत्रण से पूर्णतः स्वतंत्रता का प्राप्त होना

7. निम्नलिखित में से स्वतंत्रता का संरक्षण माना जाता है
(A) कानून का शासन
(B) मौलिक अधिकारों की संवैधानिक व्यवस्था
(C) स्वतंत्र प्रेस
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. स्वतंत्रता की सुरक्षा हेतु निम्नलिखित उपाय उपयुक्त नहीं है
(A) निरंकुशतंत्र की स्थापना
(B) सशक्त विरोधी सत्तापक्ष
(C) न्यायपालिका एवं विधानपालिका में पृथक्करण
(D) प्रजातंत्र की स्थापना
उत्तर:
(A) निरंकुशतंत्र की स्थापना

9. “स्वतंत्रता अति शासन का उल्टा रूप है।” यह कथन निम्नलिखित में से किस विद्वान का है
(A) मिल
(B) गैटेल
(C) लास्की
(D) रूसो
उत्तर:
(C) लास्की

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

10. “व्यक्ति जितनी अधिक स्वतंत्रता चाहता है, उतना ही उसे सत्ता के आगे झुकना पड़ता है।” यह कथन निम्नलिखित में से किस विद्वान का है?
(A) हॉकिन्स
(B) लास्की
(C) प्रोंधा
(D) मिल
उत्तर:
(A) हॉकिन्स

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. अंग्रेजी भाषा के लिबर्टी (Liberty) शब्द की उत्पत्ति लिबर (Liber) शब्द से हुई है। यह शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर:
लेटिन भाषा से।

2. “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
बाल गंगाधर तिलक का।

3. सामाजिक समझौता (Social Contract) नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं?
उत्तर:
रूसो।

4. “जहाँ कानून नही होते, वहाँ स्वतंत्रता नहीं होती।” यह कथन किसका है?
उत्तर:
जॉन लॉक।

रिक्त स्थान भरें

1. अंग्रेजी भाषा के ‘लिबर्टी’ शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के …………. शब्द से हुई है।
उत्तर:
लिबर

2. …………… विचारधारा के विद्वान कानून को स्वतंत्रता का शत्रु नहीं मानते।
उत्तर:
समाजवादी

3. “पूँजीवाद के उदय से मजदूर लगातार जंजीरों में जकड़ा हुआ है।” यह कथन ……………. का है।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स

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HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

Haryana State Board HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

अति लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई और यह किस भाषा का है?
उत्तर:
राजनीति शब्द की उत्पत्ति ‘पोलिस’ (Polis) शब्द से हुई है और यह यूनानी भाषा का शब्द है।

प्रश्न 2.
राजनीति विज्ञान का पितामह किसको माना जाता है और उसका संबंध किस देश से था?
उत्तर:
राजनीति विज्ञान का पितामह अरस्तू को माना जाता है। अरस्तू का संबंध यूनान देश से था।

प्रश्न 3.
राजनीति को ‘सर्वोच्च विज्ञान’ (Master Science) की संज्ञा किसने दी थी?
उत्तर:
राजनीति को सर्वोच्च विज्ञान की संज्ञा अरस्तू ने दी थी।

प्रश्न 4.
राजनीति से संबंधित विभिन्न दृष्टिकोणों के नाम लिखिए।
उत्तर:
राजनीति से संबंधित मुख्यतः तीन दृष्टिकोण हैं-

  • प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण,
  • परंपरागत दृष्टिकोण,
  • आधुनिक दृष्टिकोण।

प्रश्न 5.
प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण के किन्हीं दो मुख्य समर्थकों का नाम लिखिए।
उत्तर:
अरस्तू और प्लेटो को प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण का समर्थक माना जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 6.
प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण की तीन मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण की तीन मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • नगर राज्यों से संबंधित है,
  • राज्य और समाज में भेद नहीं करता,
  • आदर्श राज्य की परिकल्पना करता है।

प्रश्न 7.
राजनीति की कोई एक परंपरागत परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
लॉर्ड एक्टन के अनुसार, “राजनीति शास्त्र राज्य व उसके विकास के लिए अनिवार्य दशाओं से संबंधित है।”

प्रश्न 8.
किन्हीं दो विद्वानों के नाम लिखें जो राजनीति को राज्य का अध्ययन मानते हैं।
उत्तर:
गार्नर व लॉर्ड एक्टन राजनीति को केवल राज्य का अध्ययन मानते हैं।

प्रश्न 9.
राजनीतिक सिद्धांत के आधुनिक दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर:
आधुनिक दृष्टिकोण में औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं के स्थान पर अनौपचारिक राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 10.
आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति के क्षेत्र के मूल में क्या आता है?
उत्तर:
आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति के क्षेत्र में शक्ति का अध्ययन आता है। यह मानव व्यवहार का भी अध्ययन करता है।

प्रश्न 11.
पोलिटिक्स (Politics) नामक पुस्तक किस विद्वान ने लिखी थी और किस देश का निवासी था?
उत्तर:
पोलिटिक्स नामक पुस्तक अरस्तू ने लिखी थी और वह यूनान देश का निवासी था।

प्रश्न 12.
गैर-राजनीतिक क्षेत्र में राजनीति के हस्तक्षेप के दो शीर्षकों के नाम लिखें।
उत्तर:
गैर-राजनीतिक क्षेत्र में राजनीति के हस्तक्षेप के मुख्य दो उदाहरण हैं-(1) घरेलू मामलों में राजनीति का हस्तक्षेप, (2) महिलाओं को संपत्ति के अधिकार की प्राप्ति।

प्रश्न 13.
सिद्धांत से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सिद्धांत से अभिप्राय एक ऐसी मानसिक दृष्टि से है जो कि एक वस्तु के अस्तित्व एवं उसके कारणों को प्रकट करती है।

प्रश्न 14.
‘सिद्धांत’ शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई और यह किस भाषा का है?
उत्तर:
‘सिद्धांत’ शब्द की उत्पत्ति ‘थ्योरिया’ शब्द से हुई और यह ग्रीक भाषा का है।

प्रश्न 15.
सिद्धांत की कोई एक परिभाषा दें।।
उत्तर:
गिब्सन के अनुसार, “सिद्धांत ऐसे व्यक्तियों का जो विभिन्न जटिल तरीकों के द्वारा आपस में एक दूसरे से संबंधित हो एक समूह का संग्रह है।”

प्रश्न 16.
राजनीतिक सिद्धांत के मुख्य तीन तत्त्वों के नाम लिखें।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत के मख्य तीन तत्त्व-(1) अवलोकन. (2) व्याख्या और (3) मल्यांकन हैं।

प्रश्न 17.
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:

  • यह मुख्यतः वर्णनात्मक अध्ययन है,
  • यह समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है।

प्रश्न 18.
राजनीतिक सिद्धांत के परंपरागत तथा आधुनिक विचारों में दो मुख्य अंतर लिखें।[
उत्तर:

  • परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत संस्थाओं से जबकि आधुनिक राजनीति सिद्धांत एक प्रयोग सिद्ध अध्ययन है।
  • परंपरावादी आदर्शवादी है जबकि आधुनिक यथार्थवादी है।

प्रश्न 19.
राजनीतिक सिद्धांत का आधुनिक दृष्टिकोण किस बात पर अधिक बल देता है?
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत का आधुनिक दृष्टिकोण विस्तृत है। यह यथार्थवाद एवं व्यावहारिक अध्ययन पर भी बल देता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 20.
राजनीतिक सिद्धांत की कोई दो महत्त्वपूर्ण उपयोगिताएं लिखें।
उत्तर:

  • यह भविष्य की योजना संभव बनाता है,
  • यह राजनीतिक वास्तविकताओं को समझाने में सहायक है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति का क्या अर्थ है?
उत्तर:
‘राजनीति’ आधुनिक युग में सबसे अधिक प्रयोग होने वाला शब्द है। इसलिए भिन्न-भिन्न लोगों ने इस शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में किया है। साधारण अर्थों में इस शब्द का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में किया जाता है। इस शब्द का प्रयोग उन क्रियाओं और प्रक्रियाओं के लिए किया जाता है जिन्हें अच्छा नहीं समझा जाता है; जैसे विद्यार्थियों को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए या फिर अपने मित्रों के साथ राजनीति नहीं खेलनी चाहिए अर्थात् राजनीति शब्द का प्रयोग विकृत अर्थ में किया जाता है।

वर्तमान लोक जीवन में यह शब्द बड़ा अप्रतिष्ठित हो गया है और इससे छल, कपट, बेईमानी आदि का बोध होता है। राजनीति का उपरोक्त अर्थ संकुचित व विकृत है, परंतु राजनीति शब्द का अर्थ संकुचित न होकर व्यापक है। राजनीति एक ऐसी क्रिया है जिसमें हम सभी किसी-न-किसी रूप में अवश्य भाग लेते हैं। लोकतंत्र में रहते हुए राजनीति से अलग नहीं रहा जा सकता।

राजनीति अरस्तू के समय से ही समाज में है। अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं और स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज में अनेक प्रकार के संघ, दल और समुदायों का निर्माण करता है। इन संस्थाओं या संगठनों के संघर्ष से समाज में मतभेद पैदा हो जाते हैं, मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते क्रांति या शक्ति का सहारा न लेकर शांतिपूर्ण संघर्ष द्वारा अपने मतभेदों को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। समाज के इस संघर्ष से उत्पन्न क्रिया को राजनीति कहा जाता है।

प्रश्न 2.
राजनीति की कोई दो परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
यद्यपि ‘राजनीति’ शब्द को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है फिर भी सुविधा की दृष्टि से राजनीति की कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  • हरबर्ट जे० स्पाइरो (Herbert J. Spiro) के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव समाज अपनी समस्याओं का समाधान करता है।”
  • डेविड ईस्टन (David Easton) के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव आवश्यकताओं तथा इच्छाओं की पूर्ति सीमित (मानवीय, भौतिक और आध्यात्मिक) साधनों का सामाजिक इकाई में (चाहे नगर हो, राज्य हो या संगठन) बंटवारा करता है।”

प्रश्न 3.
राजनीति के प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
यूनानी दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1. नगर-राज्यों से संबंधित-प्राचीन यूनानी दृष्टिकोण नगर-राज्य को राजनीति के अध्ययन का प्रमुख विषय मानता है। नगर-राज्यों का आकार बहुत छोटा होता था। जनसंख्या भी सीमित होती थी, परंतु नगर-राज्य अपने-आप में निर्भर और स्वतंत्र होते थे। नगर-राज्य का उद्देश्य लोगों को अच्छा जीवन प्रदान करना था।

2. सामुदायिक जीवन में भाग लेना जरूरी-यूनानी विचारकों के अनुसार प्रत्येक नागरिक के लिए राजनीति में भाग लेना आवश्यक है। इसलिए अरस्तू ने नागरिक का अर्थ बताते हुए कहा था कि वह व्यक्ति नागरिक है जो राज्य के कानूनी और न्यायिक कार्यों में भाग लेता है, लेकिन अरस्तू ने नागरिकों को राजनीतिक जीवन में भाग लेने तक सीमित रखा अर्थात् समाज के कुछ ऐसे वर्ग थे जिन्हें राजनीति में या राज्य के कार्यों में भाग लेने का अधिकार प्राप्त नहीं था; जैसे श्रमिकों, गुलामों और स्त्रियों को राज्य . के कार्यों में भाग लेने के अधिकार से वंचित रखा गया था।

3. राज्य और समाज में भेद नहीं यूनानी दार्शनिकों ने राज्य और समाज में कोई अंतर नहीं किया। दोनों शब्दों का प्रयोग उन्होंने एक-दूसरे के लिए किया है। उनके अनुसार, राज्य व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक पक्ष; सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक से संबंधित है।

4. आदर्श राज्य यूनानी विचारकों के लिए राज्य एक नैतिक संस्था है। मनुष्य केवल राज्य में रहकर ही नैतिक जीवन व्यतीत करता है। राज्य द्वारा ही नागरिकों में नैतिक गुणों का विकास किया जाता है। इसलिए यूनानी एक आदर्श राज्य की स्थापना करना चाहते थे।

प्रश्न 4.
राजनीति के परंपरागत दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
राजनीति के परंपरागत दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • प्राचीन लेखक संस्थाओं की संरचनाओं और सरकार के गठन पर विचार करते हैं। वे यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि संस्थाओं का उदय कैसे हुआ।
  • परंपरागत विचारक आदर्शवादी हैं। वे देखते हैं कि क्या होना चाहिए? उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि क्या है? अर्थात् वह राजनीतिक मूल्यों, नैतिकता व सात्विक विचारों पर अधिक बल देते हैं। इसमें कल्पना अधिक है।
  • परंपरावादियों का दृष्टिकोण व्यक्तिगत अधिक है। उसमें चिंतन और कल्पना है। ये दार्शनिक व विचारात्मक पद्धति में विश्वास करते हैं।
  • परंपरावादी विचारक राजनीति शास्त्र को विज्ञान मानते हैं।

प्रश्न 5.
राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण की चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. सीमित साधनों का आबंटन राजनीति है समाज में मूल्य-भौतिक साधन; जैसे सुख-सुविधाएँ, लाभकारी पद, राजनीतिक पद आदि सीमित हैं। इन सीमित साधनों को समाज में बांटना है। अतः सीमित साधनों को पाने के लिए संघर्ष होता है तथा एक होड़-सी लग जाती है। प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह द्वारा साधनों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। साधनों के बंटवारे की इसी प्रक्रिया को राजनीति कहा जाता है।

2. समूची राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण ही राजनीति है-परंपरावादियों ने राजनीति को राज्य व शासन का अध्ययन मात्र माना है। लेकिन आधुनिक विचारक न केवल राज्य व शासन का अध्ययन करते हैं, बल्कि उन सभी पहलुओं का भी अध्ययन करते हैं जिनका संबंध प्रत्यक्ष या अप्रयत्क्ष रूप से राज्य व शासन से होता है अर्थात वह समुदाय, समाज, श्रमिक संगठन, दबाव-समूह व हित-समूह आदि का अध्ययन करते हैं।

3. राजनीति शक्ति का अध्ययन है-आधुनिक लेखकों ने राजनीति की शक्ति के अध्ययन में अधिक रुचि प्रकट की है। उन्होंने राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष कहा है। इन लेखकों में से केटलिन, लासवैल, वाइज़मैन, मैक्स वेबर और राबर्ट डहल उल्लेखनीय हैं।

4. राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है-आधुनिक लेखक राजनीति को एक वर्ग-संघर्ष के अतिरिक्त कुछ और नहीं मानते।जैसे कार्ल मार्क्स ने राजनीति को वर्ग-संघर्ष माना है। उसके अनुसार समाज सदा ही दो वर्गों में विभाजित रहा है शासक वर्ग व शासित वर्ग।

प्रश्न 6.
क्या गैर-राजनीति क्षेत्र में राजनीति का हस्तक्षेप है? व्याख्या करें।
उत्तर:
साधारणतः यह धारणा बन चुकी है कि राजनीति आम जीवन को प्रभावित नहीं करती, लेकिन आधुनिक समय में इस धारणा में परिवर्तन हुआ है और यह सोचा जाने लगा है कि राजनीति सामान्य जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करती है। 19वीं शताब्दी के आधुनिकीकरण ने तथा जन-आंदोलनों ने राजनीति के क्षेत्र का विस्तार किया है। अब राजनीति लगभग प्रत्येक घर में प्रवेश कर चुकी है। अब हम कुछ ऐसे क्षेत्रों का अध्ययन करेंगे जो कभी राजनीति की परिधि से बाहर माने जाते थे, लेकिन अब के राजनीति से अछूते नहीं हैं।

1. घरेलू मामलों में राजनीति का हस्तक्षेप-पारिवारिक मामलों को कभी राजनीति से पूर्ण रूप से स्वतंत्र माना जाता और घरेलू मामलों में राजनीति का हस्तक्षेप न के बराबर था। लेकिन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में घरेलू मामलों में राजनीति के हस्तक्षेप का आरंभ हुआ।

2. महिलाओं को संपत्ति में अधिकार की प्राप्ति-भारतीय संसद ने संविधान में संशोधन कर हिंदू संपत्ति उत्तराधिकार अधिनियम में सन् 2005 में संशोधन किया। अब महिलाओं को पारिवारिक संपत्ति में बराबर का अधिकार प्राप्त हो गया है।

3. विभिन्न अधिकारों के क्षेत्र में बढ़ोतरी-प्रारंभ में व्यक्ति को केवल कर्त्तव्य-पालन की ही शिक्षा मिलती थी। उसके अधिकार बड़े सीमित थे। लेकिन राजनीति के हस्तक्षेप से व्यक्तियों के अधिकारों में बढ़ोतरी हुई है। जैसे उसे अब दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। उसे विदेश भ्रमण का भी अधिकार प्राप्त हो चुका है।

4. शिक्षा का अधिकार-किसी भी समाज की उन्नति व विकास शिक्षा पर निर्भर करता है। यदि नागरिक शिक्षित है तो निश्चित रूप से समाज अनेक प्रकार के कष्टों से मुक्त होता है। इसलिए निरक्षरता को दूर करने के लिए संविधान में संशोधन कर शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों की श्रेणी रख दिया है।

प्रश्न 7.
पर्यावरण के संरक्षण में राजनीति का हस्तक्षेप कैसे है? व्याख्या करें।
उत्तर:
राजनीति पर्यावरण के संरक्षण को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। विकास और पर्यावरण एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। यदि पर्यावरण विकास के लिए आधार प्रदान करता है तो विकास पर्यावरण के रख-रखाव, इसके पोषण और समृद्धि में सहायता देता है। पर्यावरण विकास की प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण सहायक तत्व है।

यही नहीं मानव जीवन के लिए पर्यावरण अति-आवश्यक है और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए भारतीय संसद ने पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक अधिनियमों वायु प्रदूषण अधिनियम, जल प्रदूषण अधिनियम, पर्यावरण प्रदूषण अधिनियम आदि का निर्माण किया है।

प्रश्न 8.
राजनीतिक सिद्धांत की कोई चार परिभाषाएँ दीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत की चार परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

1. डेविड हैल्ड (David Held):
के अनुसार, “राजनीतिक सिद्धांत राजनीतिक जीवन से संबंधित अवधारणाओं और व्यापक अनुमानों का एक ऐसा ताना-बाना है जिसमें शासन, राज्य और समाज की प्रकृति व लक्ष्यों और मनुष्यों की राजनीतिक क्षमताओं का विवरण शामिल है।”

2. जॉन प्लेमैंनेज़ (John Plamentaz):
के अनुसार, “एक सिद्धांतशास्त्री राजनीति की. शब्दावली का विश्लेषण और स्पष्टीकरण करता है। वह उन सभी अवधारणाओं की समीक्षा करता है जो कि राजनीतिक बहस के दौरान प्रयोग में आती हैं। सीमाओं के उपरान्त अवधारणाओं के औचित्य पर भी प्रकाश डाला जाता है।”

3. कोकर (Coker):
के अनुसार, “जब राजनीतिक शासन, उसके रूप एवं उसकी गतिविधियों का अध्ययन केवल अध्ययन या तुलना मात्र के लिए नहीं किया जाता अथवा उनको उस समय के और अस्थायी प्रभावों के संदर्भ में नहीं आंका जाता, बल्कि उनको लोगों की आवश्यकताओं, इच्छाओं एवं उनके मतों के संदर्भ में घटनाओं को समझा व इनका मूल्य आंका जाता है, तब हम इसे राजनीतिक सिद्धांत कहते हैं।” ।

4. एण्ड्रयु हैकर (Andrew Hecker):
के शब्दों में, “राजनीतिक सिद्धांत एक ओर बिना किसी पक्षपात के अच्छे राज्य तथा समाज की तलाश है तो दूसरी ओर राजनीतिक एवं सामाजिक वास्तविकताओं की पक्षपात रहित जानकारी का मिश्रण है।”

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 9.
आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की कोई तीन विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. विश्लेषणात्मक अध्ययन आधुनिक विद्वानों ने विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है। वे संस्थाओं के सामान्य वर्णन से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझना चाहते थे। इस कारण से उन्होंने व्यक्ति व संस्थाओं के वास्तविक व्यवहार को समझने के लिए अनौपचारिक संरचनाओं, राजनीतिक प्रक्रियाओं व व्यवहार के विश्लेषण पर बल दिया।

2. अध्ययन की अन्तर्शास्त्रीय पद्धति-आधुनिक विद्वानों की यह मान्यता है कि राजनीतिक व्यवस्था समाज व्यवस्था की अनेक उपव्यवस्थाओं (Multi-Systems) में से एक है और इन सभी व्यवस्थाओं का अध्ययन अलग-अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक उपव्यवस्था अन्य उप-व्यवस्थाओं के व्यवहार को प्रभावित करती है।

इसीलिए किसी एक उपव्यवस्था का अध्ययन अन्य उपव्यवस्थाओं के संदर्भ में ही किया जा सकता है। राजनीतिक व्यवस्था पर समाज की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आदि व्यवस्थाओं का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। अतः हमें किसी समाज की राजनीतिक व्यवस्था को ठीक ढंग से समझने के लिए उस समाज की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करना आवश्यक है।

3. आनुभाविक अध्ययन-राजनीति के आधुनिक विद्वानों ने राजनीति को शुद्ध विज्ञान बनाने के लिए राजनीतिक तथ्यों के माप-तोल पर बल दिया है। यह तथ्य-प्रधान अध्ययन है जिसमें वास्तविकताओं का अध्ययन होता है। इससे उन्होंने नए-नए तरीके अपनाए, जैसे जनगणना तथा आंकड़ों का अध्ययन करना तथा जनमत जानने की विधियां और साक्षात्कार के द्वारा कुछ परिणाम निकालना आदि।

प्रश्न 10.
राजनीतिक सिद्धांत के कार्यक्षेत्र के किन्हीं तीन शीर्षकों की व्याख्या करें।
उत्तर:”
राजनीतिक सिद्धांत के तीन कार्यक्षेत्र निम्नलिखित हैं

1. राज्य का अध्ययन-प्राचीनकाल से ही राज्य की उत्पत्ति, प्रकृति तथा कार्य-क्षेत्र के बारे में विचार होता रहा है कि राज्य का विकास कैसे हुआ तथा नगर-राज्य के समय से लेकर वर्तमान राष्ट्रीय राज्य के रूप में पहुंचने तक इसके स्वरूप का कैसा विकास हुआ आदि।

2. सरकार का अध्ययन सरकार ही राज्य का वह तत्व है जिसके द्वारा राज्य की अभिव्यक्ति होती है। अतः सरकार भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। सरकार के तीन अंग व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका-माने गए हैं। इन तीनों अंगों का संगठन, इनके अधिकार, इनके आपस में संबंध तथा इन तीनों से संबंधित भिन्न-भिन्न सिद्धांतों का अध्ययन भी हम करते हैं।

3. शक्ति का अध्ययन वर्तमान समय में शक्ति के अध्ययन को भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में शामिल किया जाता है। शक्ति के कई स्वरूप हैं, जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक शक्ति, व्यक्तिगत शक्ति, राष्ट्रीय शक्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति इत्यादि।

प्रश्न 11.
राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के कोई चार लाभ लिखें।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के लाभों को निम्नलिखित तथ्यों से प्रकट किया जा सकता है

1. भविष्य की योजना संभव बनाता है नई परिस्थितियों में समस्याओं के निदान के लिए नए-नए सिद्धांतों का निर्माण किया जाता है। ये सिद्धांत न केवल तत्कालीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं बल्कि भविष्य की परिस्थितियों का भी आंकलन करते हैं। वे कुछ सीमा तक भविष्यवाणी भी कर सकते हैं। इस प्रकार देश व समाज के हितों को ध्यान में रखकर भविष्य की योजना बनाना संभव होता है।

2. वास्तविकता को समझने का साधन-राजनीतिक सिद्धांत हमें राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने में सहायता प्रदान करता है। सिद्धांतशास्त्री सिद्धांत का निर्माण करने से पहले समाज में विद्यमान सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों का तथा समाज की इच्छाओं, आकांक्षाओं व प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है तथा उन्हें उजागर करता है।।

3. अवधारणा के निर्माण की प्रक्रिया संभव-राजनीतिक सिद्धांत विभिन्न विचारों का संग्रह है। यह किसी राजनीतिक घटना को लेकर उस पर विभिन्न विचारों को इकट्ठा करता है तथा उनका विश्लेषण करता है। जब कोई निष्कर्ष निकल आता है तो उसकी तुलना की जाती है। उन विचारों की परख की जाती है तथा अंत में एक धारणा बना ली जाती है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है जो नए संकलित तथ्यों को पुनः नए सिद्धांत में बदल देती है।।

4. समस्याओं के समाधान में सहायक-राजनीतिक सिद्धांत का प्रयोग शांति, विकास, अभाव तथा अन्य सामाजिक, आर्थिक . व राजनीतिक समस्याओं के लिए भी किया जाता है। राष्ट्रवाद, प्रभुसत्ता, जातिवाद तथा युद्ध जैसी गंभीर समस्याओं को सिद्धांत के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है। सिद्धांत समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रशस्त करते हैं और निदानों (Solutions) को बल प्रदान करते हैं। बिना सिद्धांत के जटिल समस्याओं को सुलझाना संभव नहीं होता।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीति से आप क्या समझते हैं? इसकी परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
राजनीति क्या है, यह एक विवादास्पद व रोचक प्रश्न है। इस प्रश्न का सही उत्तर देना बड़ा कठिन है। साधारण व्यक्ति से लेकर विद्वानों तक ने इस प्रश्न का अपने-अपने ढंग से उत्तर देने का प्रयत्न किया है, लेकिन कोई भी इसका संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया है। राजनीति का अध्ययन प्राचीन समय से चला आ रहा है। अरस्तू ने राजनीति को सामान्य जीवन से संबंधित माना और राजनीति को ‘सर्वोच्च विज्ञान’ (Master Science) की संज्ञा दी। उनके अनुसार मनुष्य के चारों ओर के वातावरण को समझने के लिए राजनीति-शास्त्र का ज्ञान अति आवश्यक है।

अरस्तू के विचार में मनुष्य के जीवन के विभिन्न पहलुओं में से उसका राजनीतिक पहलू अधिक महत्त्वपूर्ण है। यही पहलू जीवन के अन्य पहलुओं को प्रभावित करता है। उसका कहना था कि राजनीति वैज्ञानिक रूप से यह निश्चित करती है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।

वर्तमान काल में राजनीति की महत्ता और भी अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि अब राज्य एक पुलिस राज्य न होकर एक कल्याणकारी राज्य बन गया है, जो व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक पक्ष में हस्तक्षेप करता है अर्थात राज्य व्यक्ति की हर छोटी व बड़ी आवश्यकता को पूरा करने का प्रयास करता है। इस प्रकार शासक व शासितों में घनिष्ठ संबंध स्थापित हो जाते हैं। एक ओर शासक अपने-आपको सत्ता में रखने का प्रयत्न करते हैं तो दूसरी ओर शासित उन पर अंकुश लगाना चाहते हैं। इससे राजनीति का जन्म होता है।

अतः राजनीति का मनुष्य जीवन पर इतना प्रभाव होने से यह अनिवार्य हो जाता है कि इस शब्द की उत्पत्ति और अर्थ को समझा जाए। राजनीति शब्द की उत्पत्ति और अर्थ (Origin and Meaning of Politics)-प्राचीन काल से ही राजनीति विज्ञान के लिए ‘राजनीति’ शब्द का प्रयोग होता आ रहा है। अरस्तू ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक का नाम ‘पॉलिटिक्स’ (Politics) रखा था।

पॉलिटिक्स शब्द ग्रीक भाषा के पॉलिस (Polis) शब्द से बना है। पॉलिस शब्द का संबंध नगर-राज्यों (City States) से है। प्राचीन यूनान में छोटे-छोटे नगर-राज्य होते थे। प्रत्येक नगर एक प्रभुसत्ता संपन्न राज्य था। इसलिए यूनानियों के दृष्टिकोण से पॉलिटिक्स का अर्थ उस विज्ञान से हुआ जो राज्य की समस्याओं से संबंधित हो, परंतु आधुनिक समय में बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना होने के कारण पॉलिटिक्स का अर्थ उन राजनीतिक समस्याओं से है जो किसी ग्राम, नगर, प्रांत, देश और विश्व के सामने हैं।

‘राजनीति’ आधुनिक युग में सबसे अधिक प्रयोग होने वाला शब्द है। इसलिए भिन्न-भिन्न लोगों ने इस शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में किया है। साधारण अर्थों में इस शब्द का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में किया जाता है। इस शब्द का प्रयोग उन क्रियाओं और प्रक्रियाओं के लिए किया जाता है जिन्हें अच्छा नहीं समझा जाता है; जैसे विद्यार्थियों को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए या फिर अपने मित्रों के साथ राजनीति नहीं खेलनी चाहिए अर्थात् राजनीति शब्द का प्रयोग विकृत अर्थ में किया जाता है। वर्तमान लोक जीवन में यह शब्द बड़ा अप्रतिष्ठित हो गया है और इससे छल, कपट, बेईमानी आदि का बोध होता है।

राजनीति का उपर्युक्त अर्थ संकुचित व विकृत है, परंतु राजनीति शब्द का अर्थ संकुचित न होकर व्यापक है। राजनीति एक ऐसी क्रिया है जिसमें हम सभी किसी-न-किसी रूप में अवश्य भाग लेते हैं। लोकतंत्र में रहते हुए राजनीति से अलग नहीं रहा जा सकता। राजनीति अरस्तू के समय से ही समाज में है। अरस्तू ने कहा था कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं और स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है।

वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज में अनेक प्रकार के संघ, दल और समुदायों का निर्माण करता है। इन संस्थाओं या संगठनों के संघर्ष से समाज में मतभेद पैदा हो जाते हैं, मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते क्रांति या शक्ति का सहारा न लेकर शांतिपूर्ण संघर्ष द्वारा अपने मतभेदों को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। समाज के इस संघर्ष से उत्पन्न क्रिया को राजनीति कहा जाता है।

गिलक्राइस्ट (Gilchrist) के अनुसार, “राजनीति से अभिप्राय आजकल सरकार की वर्तमान समस्याओं से होता है जो अक्सर वैज्ञानिक दृष्टि से राजनीति के ढंग की होने की बजाय आर्थिक ढंग की होती हैं। जब हम किसी मनुष्य के बारे में यह कहते हैं कि वह राजनीति में रुचि रखता है तो हमारा आशय यह होता है कि वह वर्तमान समस्याओं, आयात-निर्यात, श्रम समस्याओं, कार्यकारिणी का विधानपालिका से संबद्ध और वास्तव में किसी अन्य ऐसे प्रश्नों में रुचि रखता है, जिनकी ओर देश के कानून निर्माताओं को ध्यान देना आवश्यक है या ध्यान देना चाहिए।”

इस प्रकार राजनीति का क्षेत्र बहुत व्यापक है। वह केवल व्यावहारिक बातों तक ही सीमित नहीं होती। राजनीति में हम राजनीतिक क्रियाओं तथा संबंधों को शामिल करते हैं। राजनीति प्रत्येक समाज में पाई जाती है। राजनीति में सर्वव्यापकता है। राजनीति व्यक्ति की हर गतिविधि में विद्यमान है।

1. राजनीति की परिभाषाएँ (Definitions of Politics):
यद्यपि ‘राजनीति’ शब्द को परिभाषित करना एक कठिन कार्य है फिर भी सुविधा की दृष्टि से राजनीति की कुछ मुख्य परिभाषाएँ अग्रलिखित हैं हरबर्ट जे० स्पाइरो (Herbert J. Spiro) के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव समाज अपनी समस्याओं का समाधान करता है।”

2. डेविड ईस्टन (David Easton):
के अनुसार, “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव आवश्यकताओं तथा इच्छाओं की पूर्ति सीमित (मानवीय, भौतिक और आध्यात्मिक) साधनों का सामाजिक इकाई में (चाहे नगर हो, राज्य हो या संगठन) बंटवारा करता है।”

3. हेनरी बी० मेयो (Henri B. Meyo):
के शब्दों में, “राजनीति केवल विवाद ही नहीं है, बल्कि एक ऐसी विधि भी है जिसके द्वारा झगड़ों को सुलझाकर और संघर्ष का निपटारा करके ऐसी नीतियां बनाई जाती हैं जो शासन से संबंधित और बाध्यकारी होती हैं।”

प्रश्न 2.
परंपरागत तथा आधुनिक दृष्टिकोणों में राजनीति के अर्थ बताएँ।
उत्तर:
परंपरागत दृष्टिकोण (Traditional View)-परंपरागत दृष्टिकोण से तात्पर्य है कि राजनीति का संबंध जीवन की ओं से है। इसलिए परंपरावादियों का दृष्टिकोण औपचारिक व संस्थात्मक (Formal and Institutional) है। उन्होंने अपने अध्ययन के क्षेत्र को संस्थाओं के अध्ययन तक ही सीमित रखा है और उन्होंने राजनीति को राजनीति शास्त्र कहना उचित समझा। इस दृष्टिकोण के मुख्य समर्थक प्लेटो, हॉब्स व रूसो हैं। इस दृष्टिकोणं का अध्ययन निम्नलिखित है

1. राजनीति विज्ञान राज्य से संबंधित (Political Science deals with State):
इस क्षेत्र में ऐसे लेखक आते हैं, जिन्होंने राजनीति विज्ञान को केवल राज्य से संबंधित माना है। उनके अध्ययन का आधार राज्य है और राज्य राजनीति विज्ञान का केंद्र-बिंदु है। ब्लंशली (Bluntschli) के अनुसार, “राजनीति शास्त्र वह विज्ञान है जिसका संबंध राज्य से है और जो यह समझने का प्रयत्न करता है कि राज्य के आधार का मूल तत्व क्या है, उसका आवश्यक रूप क्या है, उसकी किन विविध रूपों में अभिव्यक्ति होती है तथा उसका विकास कैसे हुआ।”

इसी तरह लार्ड एक्टन (Lord Acton) ने कहा है, “राजनीति शास्त्र राज्य व उसके विकास के लिए अनिवार्य दशाओं से संबंधित है।” गार्नर (Garner) द्वारा भी इसी प्रकार का मत व्यक्त किया गया है, “राजनीति शास्त्र का प्रारंभ तथा अंत राज्य के साथ होता है।” उपर्युक्त परिभाषाएं राजनीति शास्त्र में राज्य के महत्त्व को समझने का प्रयत्न करती हैं।

2. राजनीति विज्ञान सरकार से संबंधित है (Political Science is related to Government):
राजनीति शास्त्र में राज्य के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है, परंतु राज्य के अतिरिक्त राजनीति शास्त्र में सरकार, मानव तथा राज्य के बाहरी संबंधों का भी अध्ययन किया जाता है। इसलिए राजनीति शास्त्र को सरकार व शासन से संबंधित संस्थाओं का अध्ययन भी माना जाता है। कुछ परंपरावादी लेखक इसी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।

लीकॉक (Leacock) के अनुसार, “राजनीति शास्त्र सरकार से संबंधित है।” इसी तरह सीले (Seeley) का भी मत है, “राजनीति शास्त्र शासन के तत्वों का अनुसंधान उसी प्रकार करता है; जैसे अर्थशास्त्र संपत्ति का, जीवशास्त्र जीवन का, बीजगणित अंकों का तथा ज्यामिति-शास्त्र स्थान तथा ऊंचाई का करता है।”

इन लेखकों ने सरकार को राजनीति शास्त्र का मुख्य विषय माना है। इसका कारण यह है कि राज्य अपने कार्य स्वयं नहीं कर सकता, इसलिए सरकार की इस उद्देश्य के लिए आवश्यकता पड़ती है। राजनीति शास्त्र में सरकार की रचना, उसके उद्देश्य व उसके विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।

3. राजनीति विज्ञान में राज्य व सरकार का अध्ययन (Study of State and Government in Political Science):
राजनीति विचारकों का एक समूह राज्य के अध्ययन पर बल देता है तो दूसरा सरकार व शासन के अध्ययन को अपना विषय बनाता है। वस्तुतः यह दोनों ही धारणाएँ महत्त्वपूर्ण तो हैं, लेकिन दोनों ही अधूरी हैं। ये दोनों धारणाएं एक-दूसरे की पूरक हैं। क्योंकि राज्य का सरकार के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। सरकार राज्य का न केवल अंग है, बल्कि वह उसके स्वरूप की व्याख्या भी करता है।

इस तरह राजनीतिक वैज्ञानिकों ने कुछ ऐसी परिभाषाएं दी हैं जो राज्य तथा सरकार दोनों के अध्ययन पर प्रकाश डालती हैं। इसी संदर्भ में गिलक्राइस्ट (Gilchrist) ने कहा है, “राजनीति शास्त्र राज्य तथा सरकार से संबंधित है।” इसी तरह पाल जैनेट (Paul Janet) द्वारा भी विचार व्यक्त किया गया है, “यह समाज शास्त्र का वह भाग है जो राज्य के मूल आधारों तथा शासन के सिद्धांत की विवेचना करता है।”

गैटेल (Gettel) भी राजनीति शास्त्र में सरकार व राज्य दोनों का अध्ययन करता है। गैटेल के अनुसार, “राजनीति शास्त्र राज्य के भूत, वर्तमान तथा भविष्य के राजनीतिक संगठन तथा राजनीतिक कार्यों का, राजनीतिक समस्याओं तथा राजनीति सिद्धांतों का अध्ययन करता है।”

परंपरावादी दृष्टिकोण की विशेषताएँ (Characteristics of the Traditional View)-दी गई विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर परंपरावादी दृष्टिकोण की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) प्राचीन लेखक संस्थाओं की संरचनाओं और सरकार के गठन पर विचार करते हैं। वे यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि संस्थाओं का उदय कैसे हुआ।
परंपरागत विचारक आदर्शवादी हैं।

(2) वे देखते हैं कि क्या होना चाहिए? उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि क्या है? अर्थात् वह राजनीतिक मूल्यों, नैतिकता व सात्विक विचारों पर अधिक बल देते हैं। इसमें कल्पना अधिक है।

(3) परंपरावादियों का दृष्टिकोण व्यक्तिगत अधिक है। उसमें चिंतन और कल्पना है। ये दार्शनिक व विचारात्मक पद्धति में विश्वास करते हैं।

(4) परंपरावादी विचारक राजनीति शास्त्र को विज्ञान मानते हैं।

(5) परंपरावादी केवल राजनीति से संबंधित नहीं हैं। उनका संबंध अनेक समाजशास्त्रों से है। परंपरावादी नैतिकवाद व अध्यात्मवाद में विश्वास रखते हैं। उन्होंने राज्य को एक नैतिक संस्था माना है। उनका झुकाव उदारवाद की ओर था। इसलिए उन्होंने राज्य को कल्याणकारी कहा था। वे व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता देने के पक्ष में हैं।

आधुनिक द्र ष्टिकोण (Modern View)-परंपरावादियों और उदारवादियों ने राजनीति के अध्ययन के विषय को केवल राज्य, सरकार व कानून तक ही सीमित रखा। उन्होंने राजनीति को केवल औपचारिक माना अर्थात उन्होंने राजनीति में औपचारिक दिया, लेकिन इसके विपरीत आधुनिक दृष्टिकोण में राजनीति को औपचारिक संस्थाओं के अध्ययन के बंधन से मुक्त करने का प्रयत्न किया गया है।

आधुनिक विचारधारा के अनुसार राजनीति में औपचारिक संस्थाओं की अपेक्षा अनौपचारिक संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है। उनका कहना है कि संस्थाएं विधानमंडल, कार्यपालिका व न्यायालय तथा अन्य संस्थाएं स्वयं कोई कार्य नहीं कर सकतीं। ये संस्थाएं किस प्रकार से कार्य करती हैं, इन्हें कौन-से लोग चलाते हैं तथा देश की सामाजिक व आर्थिक स्थिति कैसी है, इन सब बातों का अध्ययन राजनीति में किया जाता है।

अतः आधुनिक विचारक राजनीतिक गतिविधियों पर अधिक जोर देते हैं। वे औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं के स्थान पर अनौपचारिक राजनीतिक संस्थाओं; जैसे राजनीतिक दल, दबाव-समूह, लोकमत, चुनाव, मतदान व आचरण आदि पर अधिक ध्यान देते हैं। कछ आधनिक लेखक राजनीति को संघर्ष के रूप में देखते हैं। इस प्रकार आधनिक राजनीति दृष्टिकोण से अधिक विस्तृत है। राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण का संक्षेप में इस प्रकार वर्णन किया जा सकता है

1. सीमित साधनों का आबंटन राजनीति है (Allocation of Scarce Resources is Politics):
डेविड ईस्टन (David Easton) ने राजनीति की परिभाषा देते हुए कहा है, “राजनीति का संबंध मूल्यों के अधिकारिक आबंटन से है।” इसका अर्थ यह है कि समाज में मूल्य–भौतिक साधन; जैसे सुख-सुविधाएं, लाभकारी पद, राजनीतिक पद आदि सीमित हैं। इन सीमित साधनों को समाज में बांटना है। इनका वितरण करने के लिए एक ऐसी शक्ति की आवश्यकता है जिसकी बात सभी मानें।

इसलिए ईस्टन ने ‘अधिकारिक’ शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार की बाध्यकारी शक्ति प्रत्येक समाज में होती है। अतः सीमित साधनों को पाने के लिए संघर्ष होता है तथा एक होड़-सी लग जाती है। प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह द्वारा साधनों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। साधनों के बंटवारे की इसी प्रक्रिया को राजनीति कहा जाता है। एक अन्य आधुनिक लेखक लासवैल (Lasswell) ने इसे दूसरे शब्दों में लिखा है, “राजनीति की विषय-वस्तु है कौन प्राप्त करता है, क्या प्राप्त करता है, कब प्राप्त करता है और कैसे प्राप्त करता है।”

2. समूची राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण ही राजनीति है (Politics is an Analysis of the whole Political System):
परंपरावादियों ने राजनीति को राज्य व शासन का अध्ययन मात्र माना है। लेकिन आधुनिक विचारक न केवल राज्य व शासन का अध्ययन करते हैं, बल्कि उन सभी पहलुओं का भी अध्ययन करते हैं जिनका संबंध प्रत्यक्ष या अप्रयत्क्ष रूप से राज्य व शासन से होता है अर्थात वह समुदाय, समाज, श्रमिक संगठन, दबाव-समूह व हित-समूह आदि का अध्ययन करते हैं।

इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि आधुनिक लेखक राजनीति में समूची राजनीतिक व्यवस्था को सम्मिलित करते हैं; जैसे कि ऐलन बाल (Alan Ball) ने कहा है, “राजनीतिक व्यवस्था में केवल औपचारिक संस्थाओं (विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका) का ही समावेश नहीं है, बल्कि उसमें समाज की हर प्रकार की राजनीतिक गतिविधि समाहित है।”

इस तरह राजनीतिक व्यवस्था विभिन्न राजनीतिक गतिविधियों का एक समूह है जिसमें प्रत्येक गतिविधि का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। जैसे चुनाव-प्रणाली के दोषों का प्रभाव सभी गतिविधियों पर पड़ता है। अतः राजनीति में सामाजिक जीवन के उन सभी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है जिनका प्रभाव राजनीतिक संस्थाओं, गतिविधियों व प्रक्रियाओं पर पड़ता है।

राजनीति शक्ति का अध्ययन है (Politics is the study of Power)-आधुनिक लेखकों ने राजनीति की शक्ति के अध्ययन में अधिक रुचि प्रकट की है। उन्होंने राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष कहा है। इन लेखकों में से केटलिन, लासवैल, वाइज़मैन, मैक्स वेबर और राबर्ट डहल उल्लेखनीय हैं। केटलिन (Catlin) ने कहा है, “समस्त राजनीति स्वभाव से शक्ति-संघर्ष है।”

मैक्स वेबर (Max Weber) ने इसी संदर्भ में व्यक्त किया है, “राजनीति शक्ति के लिए संघर्ष है अथवा जिन लोगों के हाथ में सत्ता है उन्हें प्रभावित करने की क्रिया है। यह संघर्ष राज्यों के मध्य तथा राज्य के भीतर संगठित समुदायों के बीच चलता है और यह दोनों संघर्ष राजनीति के अंतर्गत आ जाते हैं।” इस तरह इस परिभाषा से यह निश्चित हो जाता है कि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाला शक्ति के लिए संघर्ष राजनीति के अध्ययन का विषय बन गया है। लासवैल (Lasswell) ने राजनीति को इस प्रकार से परिभाषित किया है, “राजनीति शक्ति को बनाने व उसमें भाग लेने का यन है।”

वाइज़मैन (Wiseman) ने शक्ति की व्याख्या करते हुए अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं “विरोध के होते हुए किसी व्यक्ति की इच्छाओं का पालन करवाने की योग्यता को शक्ति कहते हैं।” अर्थात आधुनिक लेखकों के अनुसार राजनीति में, शक्ति क्या है? कैसे प्राप्त की जाती है? कैसे खोई जाती है? इसके क्या आधार हैं; इत्यादि आते हैं।

4. राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है (Politics is a Class Struggle):
आधुनिक लेखक राजनीति को एक वर्ग-संघर्ष के अतिरिक्त कुछ और नहीं मानते। जैसे कार्ल मार्क्स ने राजनीति को वर्ग-संघर्ष माना है। उसके अनुसार समाज सदा ही दो वर्गों में विभाजित रहा है-शासक वर्ग व शासित वर्ग। शासक वर्ग हमेशा शासित वर्ग का शोषण करता रहा है क्योंकि उसके पास शक्ति है और वह राज्य के यंत्र का प्रयोग शासितों का शोषण करने के लिए करता है।

इसी शोषण प्रक्रिया को राजनीति कहा जाता है। यह शोषण या वर्ग-संघर्ष तब तक चलता रहता है जब तक समाज में वर्ग-भेद समाप्त नहीं हो जाता। इसलिए मार्क्स एक वर्ग-विहीन समाज की स्थापना करना चाहता था। न वर्ग होंगे, न संघर्ष होगा और न राजनीति होगी।

5. राजनीति सामान्य हित स्थापित करने का साधन है (Politics as a mean to bring Common Good):
साधारणतः राजनीति को संघर्ष माना जाता है जिसमें समाज में रहने वाला एक वर्ग दूसरे वर्ग पर अपना आधिपत्य जमाना चाहता है या शक्ति-विहीन लोग शासन पर अधिकार प्राप्त करके शक्ति प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं।

लेकिन यह राजनीति का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है कि राजनीति वर्ग-संघर्ष नहीं है, बल्कि समाज के विभिन्न समुदायों अथवा वर्गों के बीच संघर्षों को दूर करके शांति स्थापित करने का साधन है। राजनीति समाज में शांति व्यवस्था व न्याय की स्थापना का प्रयास है जिसमें समाज हित व व्यक्तिगत हित में सामंजस्य स्थापित किया जाता है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

प्रश्न 3.
राजनीतिक सिद्धांत की परिभाषा दीजिए। आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ लिखिए। शांत क्या है? लंबे समय से विद्वानों के बीच यह विवाद का विषय रहा है। विभिन्न अवधारणाएं इसे विभिन्न तरह से परिभाषित करती हैं। इसके लिए विभिन्न शब्दावली; जैसे राजनीति शास्त्र (Political Science), राजनीति (Politics), राजनीतिक दर्शन (Political Philosophy) आदि का प्रयोग किया जाता है।

परंतु इन सभी के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। राजनीतिक सिद्धांत को अंग्रेजी में पॉलिटिकल थ्योरी (Political Theory) कहा जाता है। राजनीतिक सिद्धांत ‘राजनीति एवं सिद्धांत’ दो शब्दों से मिलकर बना है। राजनीतिक सिद्धांत का अर्थ जानने से पूर्व ‘सिद्धांत’ का अर्थ समझना अति आवश्यक है।

सिद्धांत का अर्थ (Meaning of Theory)-सिद्धांत को अंग्रेजी में थ्योरी (Theory) कहा जाता है। ‘थ्योरी’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द थ्योरिया (Theoria) से हुई है, जिसका अर्थ होता है “एक ऐसी मानसिक दृष्टि जो कि एक वस्तु के अस्तित्व एवं उसके कारणों को प्रकट करती है।” ‘विवरण’ (Description) या किसी लक्ष्य के बारे में कोई विचार या सुझाव देने (Proposals of Goals) को ही सिद्धांत नहीं कहा जाता है।

प्रत्येक व्यक्ति संसार में घटने वाली घटनाओं, वस्तुओं, प्राणियों एवं समूहों को अपने दृष्टिकोण से देखता है तथा उस पर अपनी टिप्पणियां करते हैं। प्रत्येक मानव आवश्यकता पड़ने पर उस पर कुछ प्रयोग भी करते हैं तथा आवश्यकता एवं समय के अनुसार उसमें कुछ परिवर्तन भी करते हैं, जिसे सिद्धांत (Theory) कहा जाता है। आर्नोल्ड ब्रेट (Armold Breht) के शब्दों में, “सिद्धांत के अंतर्गत तथ्यों का वर्णन, उनकी व्याख्या, लेखक का इतिहास बोध, उनकी मान्यताएं एवं लक्ष्य शामिल हैं जिनके लिए किसी सिद्धांत का प्रतिपादन किया जाता है।”

आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ (Characteristics of Modern Political Theory)-आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. विश्लेषणात्मक अध्ययन (Analytical Study)-आधुनिक विद्वानों ने विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है। वे संस्थाओं के सामान्य वर्णन से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझना चाहते थे। इस व्यक्ति व संस्थाओं के वास्तविक व्यवहार को समझने के लिए अनौपचारिक संरचनाओं, राजनीतिक प्रक्रियाओं व व्यवहार के विश्लेषण पर बल दिया। ईस्टन, डहल, वेबर तथा आमंड इत्यादि अनेक विद्वानों ने व्यक्ति के कार्यों व उसके व्यवहार पर अधिक बल दिया क्योंकि इनके विश्लेषण से राजनीतिक व्यवस्था को समझना आसान था।

2. अध्ययन की अन्तर्शास्त्रीय पद्धति (Inter-Disciplinary Approach to the Study of Politics)-आधुनिक विद्वानों की यह मान्यता है कि राजनीतिक व्यवस्था समाज व्यवस्था की अनेक उपव्यवस्थाओं (Multi-Systems) में से एक है और इन सभी व्यवस्थाओं का अध्ययन अलग-अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक उपव्यवस्था अन्य उप-व्यवस्थाओं के व्यवहार को प्रभावित करती है।

इसीलिए किसी एक उपव्यवस्था का अध्ययन अन्य उपव्यवस्थाओं के संदर्भ में ही किया जा सकता है। राजनीतिक व्यवस्था पर समाज की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आदि व्यवस्थाओं का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। अतः हमें किसी समाज की राजनीतिक व्यवस्था को ठीक ढंग से समझने के लिए उस समाज की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करना आवश्यक है।

वर्तमान समय में यह धारणा ज़ोर पकड़ रही है कि अंतर्राष्ट्रीयकरण (Globalization) की प्रक्रिया को समझे बिना राज्य के बारे में कोई चिंतन नहीं किया जा सकता। राजनीतिक सिद्धांत में विश्व अर्थव्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय कानून तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन अलग-अलग नहीं बल्कि एक साथ करने की आवश्यकता है। इसका कारण यह है कि ये सभी तत्व राज्य के कार्यक्षेत्र और इसकी प्रभुसत्ता को प्रभावित करते हैं।

3. आनुभाविक अध्ययन (Empirical Study or Approach) राजनीति के आधुनिक विद्वानों ने राजनीति को शुद्ध विज्ञान बनाने के लिए राजनीतिक तथ्यों के माप-तोल पर बल दिया है। यह तथ्य-प्रधान अध्ययन है जिसमें वास्तविकताओं का अध्ययन होता है। इससे उन्होंने नए-नए तरीके अपनाए, जैसे जनगणना (Census Records) तथा आंकड़ों (Datas) का अध्ययन करना तथा जनमत जानने की विधियां (Opinion Polls) और साक्षात्कार (Interviews) के द्वारा कुछ परिणाम निकालना आदि।

डेविड ईस्टन (David Easton) ने कहा है, “खोज सुव्यवस्थित रूप से की जानी चाहिए। यदि कोई सिद्धांत आंकड़ों पर आधारित नहीं है तो वह निरर्थक साबित होगा।” आधुनिक विद्वान् वर्तमान काल के लोकतंत्रात्मक शासन के आदर्श स्वरूप के अध्ययन में रुचि न रखकर लोकतंत्र के वास्तविक व्यावहारिक रूप का आनुभाविक अध्ययन करते हैं और इस धारणा से उन्होंने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि अन्य शासन-प्रणालियों की भांति लोकतंत्र में भी एक ही वर्ग-छोटा-सा विशिष्ट वर्ग (Elite)-शासन करता है। यह दृष्टिकोण लोकतंत्र के आनुभाविक अध्ययन का ही परिणाम है।

4. अनौपचारिक कारकों का अध्ययन (Study of Informal Factors) आधुनिक विद्वानों के अनुसार परंपरागत अध्ययन की औपचारिक संस्थाओं; जैसे राज्य, सरकार व दल आदि का अध्ययन काफी नहीं है। वे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने के लिए उन सभी अनौपचारिक कारकों का अध्ययन करना आवश्यक समझते हैं जो राजनीतिक संगठन के व्यवहार को प्रभावित करता है।

वह जनमत, मतदान आचरण (Voting Behaviour), विधानमंडल, कार्यपालिका, न्यायपालिका, राजनीतिक दल, दबाव-समूहों तथा जनसेवकों (Public Servants) के अध्ययन पर भी बल देते हैं। इस श्रेणी में व्यवहारवादी विचारक-डहल, डेविस ईस्टन, आमंड तथा पॉवेल शामिल हैं।

5. मूल्यविहीन अध्ययन (Value-free Study)-आधुनिक लेखक, विशेष रूप से व्यवहारवादी (Behaviouralists), नीति के मूल्यविहीन अध्ययन पर बल देते हैं। उनका कहना है कि राजनीतिक विचारकों को ‘मूल्यनिरपेक्ष’ अर्थात तटस्थ (Neutral) रहना चाहिए। उन्हें ‘क्या होना चाहिए’ (What ought to be) के स्थान पर ‘क्या है’ (What exists) का उत्तर खोजना चाहिए। उन्हें ठीक तथा गलत के प्रश्नों से मुक्त रहना चाहिए।

लेखक को चाहिए कि वह तथ्यों तथा आंकड़ों के स्थान पर मात्र वर्गीकरण तथा विश्लेषण करे। उसे यह कहने का कोई अधिकार नहीं है कि कौन-सी शासन-प्रणाली अच्छी है और कौन-सी बुरी है। इस प्रकार व्यवहारवादी विचारक मूल्यविहीन अध्ययन पर बल देते हैं जिससे उपयुक्त वातावरण में वास्तविकताओं का अध्ययन किया जा सके।

6. उत्तर व्यवहारवाद-मूल्यों को पुनः स्वीकार करने की पद्धति (Post-Behaviouralism : Acceptance of Values in the Study of Politics)-व्यवहारवादी क्रांति ने आदर्शों तथा मूल्यों को पूर्णतः अस्वीकार कर दिया था। राजनीति को पूर्ण विज्ञान बनाने की चाह में व्यवहारवादी लेखक आंकड़ों तथा तथ्यों में ही उलझकर रह गए थे।

उन्होंने किसी लक्ष्य व आदर्श के साथ जुड़ने से साफ इन्कार कर दिया। परंतु शीघ्र ही एक नई क्रांति का उदय हुआ जिसे उत्तर व्यवहारवाद (Post Behaviouralism) के नाम से पुकारा जाता है। इस युग के सिद्धांतशास्त्रियों को यह अनुभव हो गया कि राजनीति प्राकृतिक विज्ञानों की भांति पूर्ण विज्ञान का रूप नहीं ले सकती। अतः उन्होंने मानवीय उद्गम (Normative Approach) और आनुभाविक उद्गम (Empirical Approach) दोनों को स्वीकार कर लिया।

डेविड ईस्टन की ही भांति कोबन (Cobban) तथा ‘लियो स्ट्रास’ (Leo Starauss) ने भी मूल्यों के पुनर्निर्माण (Reconstruction of Values) पर बल दिया है। जॉन रॉल्स (John Rawls) ने उन सिद्धांतों तथा प्रक्रियाओं का पता लगाने का प्रयत्न किया है जिन पर चलकर हम न्यायोचित समाज की स्थापना कर सकते हैं।

7. समस्या समाधान का प्रयास (Problem Solving Efforts) सिद्धांतशास्त्रियों द्वारा मूल्यों को स्वीकार कर लेने का यह परिणाम निकला है कि अब वे समस्याओं के समाधान में जुट गए हैं। आधुनिक सिद्धांतशास्त्री जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं वे हैं युद्ध तथा शांति, बेरोज़गारी, पर्यावरण, असमानता तथा सामाजिक हलचल। राजसत्ता, प्रभुसत्ता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा न्याय आदि तो पहले से ही राजनीतिक विज्ञान के अंग हैं।

प्रश्न 4.
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. मुख्यतः वर्णनात्मक अध्ययन (Mainly Descriptive Studies):
परंपरागत सिद्धांत की मुख्य विशेषता यह है कि यह मुख्यतः वर्णनात्मक है। इसका अर्थ यह है कि इसमें केवल राजनीतिक संस्थाओं का वर्णन किया गया है। अतः यह न तो व्याख्यात्मक है, न विश्लेषणात्मक और न ही इसके माध्यम से राजनीतिक समस्या का समाधान हो पाया है। इन विद्वानों के अनुसार राजनीतिक संस्थाओं का वर्णन मात्र पर्याप्त है और उनके द्वारा इस बात पर विचार नहीं किया गया कि इन संस्थाओं की समानताओं तथा भिन्नताओं के मूल में कौन-सी ऐसी परिस्थितियां हैं, जो इन्हें प्रभावित करती हैं।

2. समस्याओं का समाधान करने का प्रयास (Study for Solving Problems):
परंपरागत लेखकों की रचनाओं पर अपने युग की घटनाओं का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है और वे अपने-अपने ढंग से इन समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए प्रयत्नशील थे। उदाहरणस्वरूप, प्लेटो (Plato) के सामने यूनान के नगर-राज्यों के आपसी ईर्ष्या-द्वेष तथा कलह का जो वातावरण मौजूद था उससे छुटकारा पाने के लिए उसने दार्शनिक राजा (Philosopher King) के सिद्धांत की रचना की। उस व्यवस्था का उद्देश्य शासक वर्ग को निजी स्वार्थ से ऊपर रखना था।

दार्शनिक राजा का अपना कोई निजी परिवार नहीं होगा और शासक वर्ग में शामिल अन्य व्यक्तियों को भी अपना निजी परिवार बसाने का अधिकार नहीं होगा। उन्हें तो समस्त समाज को ही अपना परिवार समझना होगा। इटली की तत्कालीन स्थिति को देखकर मैक्यावली (Machiavelli) इस परिणाम पर पहुंचा कि शासक के लिए अपने राज्य को विस्तृत तथा मज़बूत बनाने के लिए झूठ, कपट, हत्या और अन्य सभी साधन उचित हैं।

इस प्रकार इंग्लैंड में अशांति तथा अराजकता की स्थिति को देखते हुए हॉब्स (1588-1679) ने निरंकुश राजतंत्र (Absolute Monarchy) का समर्थन किया। हॉब्स के चिंतन का मुख्य उद्देश्य किसी ऐसी व्यवस्था की खोज करना था जिससे गृह-युद्ध तथा अशांति के वातावरण को समाप्त किया जा सके।

3. परंपरागत चिंतन पर दर्शन, धर्म तथा नीतिशास्त्र का प्रभाव (Influence of Philosophy, Religion and Ethics on Classical Studies):
परंपरागत चिंतन की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि वे दर्शन तथा धर्म से प्रभावित रहा है तथा उसमें नैतिक मूल्य विद्यमान रहे हैं। यद्यपि प्लेटो तथा अरस्तू के चिंतन में ये कुछ हद तक दिखाई देते हैं परंतु इनका स्पष्ट उदाहरण मध्ययुग में ईसाई धर्म द्वारा राज्य के प्रभावित हो जाने पर प्राप्त हुआ।

इस समय राज्य तथा चर्च (Church) के आपसी संबंध को लेकर एक भीषण विवाद उठ खड़ा हुआ जो उस काल की विचारधारा का मुख्य विषय बन गया। यूरोप के कई विद्वानों ने यह विचार व्यक्त किया कि धर्म राज्य से श्रेष्ठ है और धर्माधिकारी भी राज्य के मामलों में हस्तक्षेप कर सकते हैं।

सेंट थॉमस एक्वीनास (Saint Thomas Acquinas) इसी मत के समर्थक थे। दूसरी ओर, यह विचार निरंतर महत्त्वपूर्ण बना रहा कि राजसत्ता, धर्मसत्ता से श्रेष्ठ है और उसे चर्च को विनियमित करने का अधिकार है। इस विचार का समर्थन मुख्य रूप से विलियम ऑकम (William Occam) द्वारा किया गया।

4. मुख्यतः आदर्शात्मक अध्ययन (Mainly Normative Studies):
परंपरागत चिंतनों के ग्रंथों को पढ़ने से यह पता चलता है कि इनमें कुछ आदर्शों को न केवल पहले से ही स्वीकार कर लिया गया है, बल्कि इन्हीं मान्यताओं की कसौटी पर अन्य देशों की राजनीतिक संस्थाओं व शासन को परखा जाता है। इस प्रकार उन लेखकों ने मानवीय उद्गम (Normative Approach) का सहारा लिया।

मानवीय उद्गम का अर्थ यह है कि पहले मस्तिष्क में किसी विशेष आदर्श की कल्पना कर ली जाती है और फिर उस कल्पना को व्यावहारिक रूप देने के लिए सिद्धांत का निर्माण किया जाता है। इस अध्ययन पद्धति को अपनाने वाले लेखकों में प्लेटो, हॉब्स, रूसो, थाटे तथा हीगल आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों ने मनघड़त अथवा काल्पनिक आदर्शों के आधार पर आदर्श राज्य की रचना का प्रयास किया।

प्लेटो ने दार्शनिक राजा (Philosopher King) तथा रूसो ने सामान्य इच्छा (General Will) के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। रूसो के अनुसार सामान्य इच्छा कभी असत्य व भ्रांत नहीं हो सकती और वही शासन अच्छा होगा जो सामान्य इच्छा के अनुसार चलाया जाएगा। हीगल (Hegal) ने लिखा है कि पूर्ण विकसित राज्य राजतंत्र हो सकता है। सम्राट राज्य की एकता का प्रतीक है।

परंतु कुछ परंपरागत लेखक ऐसे भी हैं जिन्होंने मानवीय उद्गम के साथ-साथ आनुभाविक उद्गम (Empirical Approach) को भी अपनाया। उन्होंने तथ्यों तथा आंकड़ों का संकलन करके उनका विधिवत् विश्लेषण किया। उदाहरणस्वरूप अरस्तू ने अपने काल के 158 नगर-राज्यों के संविधानों का अध्ययन किया और फिर उसने अपने आदर्श राज्य की कल्पना की। इसी प्रकार मार्क्स के विचारों में भी मानवीय तथा आनुभाविक, दोनों पद्धतियों का मिला-जुला रूप मिलता है।

5. मुख्यतः कानूनी, औपचारिक तथा संस्थागत अध्ययन (Primarily Legal, Formal and Institutional Studies) परंपरागत अध्ययन मुख्यतः विधि तथा संविधान द्वारा निर्मित औपचारिक संस्थाओं से संबंधित था। उस काल के लेखकों ने इस बात का प्रयास नहीं किया कि संस्था के औपचारिक रूप से बाहर जाकर उसके व्यवहार का अध्ययन किया जाए, जिससे उसके विशिष्ट व्यवहार का परीक्षण किया जा सके।

उदाहरणस्वरूप डायसी (Diecy), जेनिंग्स (Jennings), लास्की (Laski) तथा मुनरो (Munro) आदि विद्वानों ने अपने अध्ययनों में संस्थाओं के कानूनी व औपचारिक रूप का ही अध्ययन किया। इस प्रकार परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत दार्शनिक, आदर्शवादी तथा इतिहासवादी था। प्रश्न 5. राजनीति सिद्धांत के कार्यक्षेत्र या विषय-वस्तु का वर्णन करो।
उत्तर:
आज के युग में मनुष्य के जीवन का कोई भी भाग ऐसा नहीं है जो राजनीति से अछूता रह सके। उदारवादियों ने राज्य तथा राजनीति का संबंध केवल सरकार तथा नागरिकों तक ही सीमित रखा जबकि मार्क्सवादियों ने उत्पादन के सभी साधनों पर राज्य का स्वामित्व माना है। आज के नारीवादी लेखक (Feminist Writers) पारिवारिक तथा घरेलू मामलों में भी राज्य के हस्तक्षेप का समर्थन करते हैं।

इस प्रकार अब राजनीति विज्ञान का क्षेत्र बहुत ही व्यापक हो गया है। राजनीतिक सिद्धांतशास्त्रियों को अब बहुत से विषयों के बारे में सिद्धांतों का निर्माण करना पड़ता है। आजकल मुख्य रूप से निम्नलिखित विषयों को राजनीतिक सिद्धांत के कार्यक्षेत्र में शामिल किया जाता है

1. राज्य का अध्ययन (Study of State):
प्राचीनकाल से ही राज्य की उत्पत्ति, प्रकृति तथा कार्य-क्षेत्र के बारे में विचार होता रहा है कि राज्य की उत्पत्ति कैसे हुई, उसका विकास कैसे हुआ तथा नगर-राज्य के समय से लेकर वर्तमान राष्ट्रीय राज्य के रूप में पहुंचने तक इसके स्वरूप का कैसा विकास हुआ आदि। इसके अतिरिक्त मनुष्य के राज्य संबंधी विचारों में भी लगातार परिवर्तन होता आया है।

प्राचीनकाल में लोग राजा की आज्ञा को ईश्वर की आज्ञा मानते थे और उसका विरोध करना पाप समझा जाता था। परंतु वर्तमान काल में राजनीति शास्त्रियों के अनुसार राज्य की सत्ता का अंतिम स्रोत जनता है और राज्य को जनता की भलाई के लिए ही कार्य करना होता है। इस प्रकार हम राज्य के स्वरूप, उद्देश्यों तथा कार्यक्षेत्र के बारे में अध्ययन करते हैं।

2. सरकार का अध्ययन (Study of the Government):
सरकार ही राज्य का वह तत्त्व है जिसके द्वारा राज्य की अभिव्यक्ति होती है। अतः सरकार भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। सरकार के तीन अंग-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका-माने गए हैं। इन तीनों अंगों का संगठन, इनके अधिकार, इनके आपस में संबंध तथा इन तीनों से संबंधित भिन्न-भिन्न सिद्धांतों का अध्ययन भी हम करते हैं।

जिस प्रकार राज्य के ऐतिहासिक स्वरूप का हमें अध्ययन करना होता है, ठीक उसी प्रकार हमें सरकार के स्वरूप का भी अध्ययन करना होता है जैसे एक समय था, जब दरबारियों की सरकारें हुआ करती थीं, अब वह समय है, जब सरकारें जनता के प्रतिनिधियों की होती हैं। अतः राजनीतिशास्त्र में सरकार के अंग, उसके प्रकार तथा उसके संगठन आदि का भी अध्ययन किया जाता है।

3. नीति-निर्माण प्रक्रिया (Policy-making Process):
आधुनिक विद्वानों के अनुसार नीति-निर्माण प्रक्रिया भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में अध्ययन की जानी चाहिए। इस विषय में उन सब साधनों का अध्ययन होना चाहिए जो कि शासकीय नीति निश्चित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं। इस दृष्टि से राजनीतिशास्त्र में विधानपालिका तथा कार्यपालिका के शासन-संबंधी कार्यों, मतदाताओं, राजनीतिक दलों, उनके संगठनों तथा उनको प्रभावित करने वाले ढंगों का अध्ययन किया जाता है।

राज्य की अनेक संस्थाएं क्या नीतियां अपनाएं, उन नीतियों को किस प्रकार लागू किया जाए, यह भी राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन का एक मुख्य विषय है। सिद्धांतशास्त्रियों ने राजनीतिक दलों की न केवल परिभाषाएं दी हैं, बल्कि उनकी संरचना, कार्यों तथा उनके रूपों के बारे में भी लिखा है।

प्रायः तीन प्रकार की दल-प्रणालियों की चर्चा की जाती है-एकदलीय पद्धति, द्विदलीय पद्धति तथा बहुदलीय पद्धति। इसी प्रकार मतदान तथा प्रतिनिधित्व के विषय में भी कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। कुछ वर्ष पहले तक महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखा गया था और इसके पक्ष में अनेक दलीलें दी जाती थीं परंतु अंत में व्यस्क मताधिकार के सिद्धांत की विजय हुई। इस प्रणाली के अंतर्गत केवल कुछ लोगों (पागल, दिवालिये तथा अपराधियों) को छोड़कर अन्य सभी नागरिकों को एक निश्चित आयु प्राप्त करने पर मतदान का अधिकार दे दिया जाता है।

4. शक्ति का अध्ययन (Study of Power):
वर्तमान समय में शक्ति के अध्ययन को भी राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में शामिल किया जाता है। शक्ति के कई स्वरूप हैं, जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक शक्ति, व्यक्तिगत शक्ति, राष्ट्रीय शक्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति इत्यादि। राजनीतिक सिद्धांतकार शक्ति के इन विभिन्न रूपों के पारस्परिक संबंधों को देखता है और यह जानना चाहता है कि मानव समाज में किसको क्या मिलता है, कैसे मिलता है और क्यों मिलता है। परंतु शक्ति के अध्ययन में प्रमुख स्थान राजनीतिक शक्ति को दिया जाता है और राजनीतिक सिद्धांतकार इसी को महत्त्व देते हैं।

5. व्यक्ति तथा राज्य के संबंधों का अध्ययन (Study of Individual’s Relations with State):
व्यक्ति और राज्य का क्या संबंध हो, इस विषय पर राजनीतिक सिद्धांत के विद्वानों ने अपने-अपने मत दिए। प्राचीनकाल से लेकर अब तक इस विषय पर अनेक विरोधी विचार आए हैं। 18वीं सदी में व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अत्यधिक बल दिया गया तथा राज्य के अधिकारों को सीमित करने का समर्थन किया गया। आदर्शवादियों के विचारों में काफी मतभेद रहा है।

वर्तमान लोकतंत्रीय व्यवस्था ने मौलिक अधिकारों पर बहुत जोर दिया है, ताकि व्यक्ति का पूर्ण विकास हो सके। संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से आरंभ होकर अब तक जितने भी संविधान बने हैं उनमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है। यहाँ तक कि साम्यवादी राज्यों में भी नागरिकों को मौलिक अधिकर दिए गए हैं भले ही उनकी रक्षा की उचित व्यवस्था न की गई हो।

आज जबकि भिन्न-भिन्न विचारधाराओं को अपनाने वाले देश अपने राज्यों में ‘कल्याणकारी राज्य’ के सिद्धांतों को अपना रहे हैं जिनके अनुसार राज्य नागरिकों के जीवन के सभी क्षेत्रों-राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, साहित्यिक आदि में हस्तक्षेप कर सकता है। यह प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण बना हुआ है कि इस परिस्थिति में नागरिकों के अधिकारों को किस हद तक सुरक्षित किया जाए।

भारत में जहाँ आर्थिक व्यवस्था एक निश्चित योजना के अनुसार चलाई जा रही है, वहाँ भी यह प्रश्न गंभीर है कि कहीं इससे राज्य नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण न कर दे। अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्ति तथा राज्य के आपसी संबंध राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के महत्त्वपूर्ण विषय हैं।

6. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन (Study of International Relations):
आवागमन के विकास के कारण आज का संसार एक लघु संसार बन गया है जिसके कारण भिन्न-भिन्न राज्यों में आपसी संबंध होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि आज हमें राजनीतिक सिद्धांत में अंतर्राष्ट्रीय कानून तथा भिन्न-भिन्न अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nations Organization) आदि का अध्ययन भी राजनीतिक क्षेत्र में आता है।

7. शक्ति सिद्धांत तथा क्षेत्रीय संगठन जैसे यूरोपियन समुदाय तथा दक्षेस का अध्ययन (Study of the concept of Power and Regional Organization like SAARC and European Community):
राजनीतिशास्त्र के आधुनिक विद्वानों ने शक्ति को इस शास्त्र का मुख्य विषय माना है। उनके अनुसार राजनीति में जो कुछ होता है वह सब इसी शक्ति-संघर्ष के कारण होता है। कैटलीन ने भी राजनीति को संघर्ष पर आधारित माना है। उसके अनुसार जहाँ कहीं भी राजनीति है, वहाँ शक्ति का होना स्वाभाविक है। इसी विचारधारा का समर्थन लासवैल ने भी किया है।

इन विद्वानों के अनुसार शक्ति के कई रूप; जैसे सत्ता, प्रभाव, बल, अनुनय, दमन या दबाव भी हो सकते हैं जो परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। राज्य और राजनीतिक संस्थाओं द्वारा शक्ति और उसके विभिन्न रूपों का प्रयोग किया जाता है परंतु इसके साथ-साथ राजनीति में सहयोग का भी प्रमुख स्थान है।

8. स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के आदर्शों की समीक्षा (Review of the ideals of Liberty, Equality and Justice):
प्राचीनकाल से लेकर अब तक ऐसे अनेक राजनीतिक विचारक हुए हैं जो बहुत-सी विचारधाराओं–व्यक्तिवाद, आदर्शवाद, मार्क्सवाद, समाजवाद, उपयोगितावाद तथा गांधीवाद आदि के साथ जुड़े हुए हैं। इन सभी विचारधाराओं का लक्ष्य एक ऐसे समाज की स्थापना करना था जिसमें स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के सिद्धांत को समर्थन प्राप्त हो।

उदारवादियों ने राजनीतिक स्वतंत्रता तथा नागरिकों के अधिकारों के लिए जो संघर्ष किया उसका समर्थन कार्ल मार्क्स द्वारा भी किया गया। यद्यपि उन्होंने इस बात पर बल दिया कि वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना तभी होगी जब समाज से वर्ग-भेद दूर हो जाएंगे। महात्मा गांधी ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें सत्ता का अधिक से अधिक विकेंद्रीकरण होगा। यह विकेंद्रीकरण न केवल राजनीतिक तथा प्रशासनिक क्षेत्रों में बल्कि आर्थिक क्षेत्रों में भी होगा। ऐसी व्यवस्था में प्रशासन, उत्पादन तथा वितरण की मूल इकाई ‘ग्राम’ (Village) होगा। इसे उन्होंने ग्राम स्वराज्य का नाम दिया।

9. नारीवाद (Feminism):
इसमें कोई संदेह नहीं है कि पारिवारिक मामलों में केवल एक सीमा तक ही सरकार द्वारा हस्तक्षेप किया जा सकता है परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार इस ओर कोई भी ध्यान न दे। अनेक देशों में स्त्रियों की दशा को लए आंदोलन हो रहे हैं परंतु व्यक्तिवादी तथा मार्क्सवादी विचारकों ने एक लंबे अर्से तक नारी-उत्पीड़न के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठाई।

सन् 1970 के दशक में स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए बहुत गंभीर प्रयत्न किए गए और अनेक लेखकों ने इस बात पर विचार प्रकट किया है कि सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक सभी क्षेत्रों में उनकी स्थिति कैसे सुनिश्चित की जाए।

भारत में सती-प्रथा, बाल-विवाह तथा देवदासी प्रथा के विरुद्ध लड़ाई लड़ी गई और राज्य द्वारा इनके विरुद्ध कानून पास करके ही इन्हें समाप्त किया गया। अब भारत में सभी स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए 1/3 स्थान सुरक्षित करने की व्यवस्था की गई है और संसद तथा राज्य विधानमंडलों में भी उनके लिए स्थान सुरक्षित रखने से संबंधित बिल विचाराधीन है।

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

10. मानव व्यवहार का अध्ययन (Study of Human Behaviour):
राजनीति के आधुनिक विद्वानों ने राजनीतिक व्यवहार को राजनीतिशास्त्र का मुख्य विषय माना है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि राजनीतिक क्षेत्र में व्यक्ति जो कुछ करता है उसके पीछे जो प्रेरणाएं कार्य करती हैं उनका अध्ययन राजनीतिक सिद्धांत में होना चाहिए। इस प्रकार राजनीति मनुष्य व्यवहार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

मनुष्य समाज में रहते हुए जो कुछ क्रिया-कलाप करता है वे सभी क्रिया-कलाप राजनीतिक सिद्धांत के अंतर्गत आने चाहिएं। इन आधुनिक विद्वानों, जो व्यवहारवादी दृष्टिकोण से राजनीतिक सिद्धांत के विषय का अध्ययन करते हैं, की मान्यताएं हैं कि मनुष्य भावनाओं का समूह होता है, उसकी अपनी प्रवृत्तियां और इच्छाएँ होती हैं जिनके अनुसार उसका राजनीतिक व्यवहार नियंत्रित होता है।

इसलिए ये आधुनिक विद्वान् व्यक्ति या व्यक्ति-समूहों के राजनीतिक व्यवहार को बहुत महत्व देते हैं और राजनीतिक संस्थाओं को बहुत कम। मनुष्य के व्यवहार का वैज्ञानिक रीति से अध्ययन करके उसकी कमियों को दूर करने के उपाय बतलाए जा सकते हैं जिससे कि भविष्य में ऐसी गलतियां न हों।

11. विकास, आधुनिकीकरण और पर्यावरण की समस्याएँ (Problems of Development, Modernization and Environment):
समाजशास्त्र के बढ़ते प्रभाव के कारण राजनीतिक सिद्धांत में कुछ नवीन अवधारणाओं को भी अपनाया गया है जिसमें समाजीकरण, विकास, गरीबी, असमानता तथा आधुनिकीकरण आदि शामिल हैं। विकासशील देशों के राजनीतिक विकास के संबंध में लिखने वाले लेखकों में जी० आमण्ड (G. Almond) तथा डेविड एप्टर (David Apter) हैं।

माईरन वीनर (Myren Wenir) तथा रजनी कोठारी (Rajni Kothari) ने भारत के सामाजिक एवं राजनीतिक विकास का क्रमबद्ध अध्ययन किया जिससे जातिवाद, संप्रदायवाद तथा दलित राजनीति अब भारतीय राजनीति के मुख्य केंद्र-बिंदु बन गए हैं।

पिछले कई वर्षों से पर्यावरण संबंधी समस्याएं भी मनुष्य जाति के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरकर सामने आई हैं। पर्यावरण संरक्षण के अनेक उपाय सुझाए जाते हैं; जैसे जनसंख्या नियंत्रण, वन सर्वेक्षण तथा औद्योगिक विकास के लिए साफ-सुथरे वातावरण की आवश्यकता आदि।
इस प्रकार हम देखते हैं कि राजनीतिक सिद्धांत का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है और यह दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है।

प्रश्न 6.
राजनीति सिद्धांत के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के समक्ष आने वाली सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं का समाधान ढूंढना है। यह मनुष्य के सामने आई कठिनाइयों की व्याख्या करता है तथा सुझाव देता है ताकि मनुष्य अपना जीवन अच्छी प्रकार व्यतीत कर सके। राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन के महत्त्व (उद्देश्य) को निम्नलिखित तथ्यों से प्रकट किया जा सकता है

1. भविष्य की योजना संभव बनाता है (Makes Future Planning Possible):
राजनीतिक सिद्धांत सामान्यीकरण (Generalization) पर आधारित है, अतः यह वैज्ञानिक होता है। इसी सामान्यीकरण के आधार पर वह राजनीति विज्ञान को तथा राजनीतिक व्यवहार को भी एक विज्ञान बनाने का प्रयास करता है। वह उसके लिए नए-नए क्षेत्र ढूंढता है और नई परिस्थितियों में समस्याओं के निदान के लिए नए-नए सिद्धांतों का निर्माण करता है।

ये सिद्धांत न केवल तत्कालीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं बल्कि भविष्य की परिस्थितियों का भी आंकलन करते हैं। वे कुछ सीमा तक भविष्यवाणी भी कर सकते हैं। इस प्रकार देश व समाज के हितों को ध्यान में रखकर भविष्य की योजना बनाना संभव होता है।

2. वास्तविकता को समझने का साधन (Source to Know the Truth):
राजनीतिक सिद्धांत हमें राजनीतिक वास्तविकताओं मझने में सहायता प्रदान करता है। सिद्धांतशास्त्री सिद्धांत का निर्माण करने से पहले समाज में विद्यमान सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों का तथा समाज की इच्छाओं, आकांक्षाओं व प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है तथा उन्हें उजागर करता है।

वह अध्ययन तथ्यों तथा घटनाओं का विश्लेषण करके समाज में प्रचलित कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों को उजागर करता है। वास्तविकता को जानने के पश्चात ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। अतः यह हमें शक की स्थिति से बाहर निकाल देता है।

3. अवधारणा के निर्माण की प्रक्रिया संभव (Process of the Concept of Construction Possible):
राजनीतिक सिद्धांत विभिन्न विचारों का संग्रह है। यह किसी राजनीतिक घटना को लेकर उस पर विभिन्न विचारों को इकट्ठा करता है तथा उनका विश्लेषण करता है। जब कोई निष्कर्ष निकल आता है तो उसकी तुलना की जाती है। उन विचारों की परख की जाती है तथा अंत में एक धारणा बना ली जाती है। यह एक गतिशील प्रक्रिया है जो नए संकलित तथ्यों को पुनः नए सिद्धांत में बदल देती है।

4. समस्याओं के समाधान में सहायक (Useful in Solving Problems):
राजनीतिक सिद्धांत का प्रयोग शांति, विकास, अभाव तथा अन्य सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं के लिए भी किया जाता है। राष्ट्रवाद, प्रभुसत्ता, जातिवाद तथा युद्ध जैसी गंभीर समस्याओं को सिद्धांत के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है। सिद्धांत समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रशस्त करते हैं और निदानों (Solutions) को बल प्रदान करते हैं। बिना सिद्धांत के जटिल समस्याओं को सुलझाना संभव नहीं होता।

5. सरकार (शासन) को औचित्य प्रदान करता है (Provides legitimacy to the Government):
कोई भी सरकार (शासन) केवल दमन तथा आतंक के आधार पर अधिक समय तक नहीं चल सकती। उसका ‘वैधीकरण’ आवश्यक होता है। जनता के मन में यह विश्वास बिठाना आवश्यक होता है कि अमुक व्यक्ति अथवा दल को देश पर शासन करने का कानूनी अधिकार प्राप्त है। जब भी कोई शासक शासन पर अधिकार करता है और शासन के स्वरूप को बदलता है तब वह उसके औचित्य को सिद्ध करने के लिए किसी सिद्धांत का सहारा लेता है।

हिटलर तथा मुसोलिनी जैसे व्यक्तियों ने भी अपनी तानाशाही स्थापित करने के लिए क्रमशः नाजीवाद (Nazism) तथा फासीवाद (Fascism) जैसी विचारधाराओं का सहारा लिया। लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद तथा विशिष्ट वर्गीय शासन की स्थापना के लिए भी सिद्धांत ही औचित्य प्रदान करते हैं। अपनी विचारधाराओं का जनता में प्रचार करके वे जनता का समर्थन प्राप्त करने तथा लोगों का विश्वास जीतने में सफल होते हैं। इससे उनका वैधीकरण हो जाता है।

6. अनुगामियों का मार्गदर्शन (Guidance to Followers):
सिद्धांतशास्त्री विभिन्न सिद्धांतों का निर्माण करके अपने अनुगामियों तथा समर्थकों व शिष्यों का मार्गदर्शन करते हैं तथा उनमें आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न करते हैं। हिन्दू चिंतन की लंबी परंपरा में अनेक ऋषियों ने अपने संपूर्ण जीवन को लगाकर विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे सार्वकालिक सिद्धांतों की रचना की जो हजारों वर्षों के पश्चात भी उनके अनुयायियों तथा समर्थकों का मार्गदर्शन कर रहे हैं और वे बड़े आत्मविश्वास के साथ इन सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं।

मार्क्स (Marx) तथा एंगेल्स (Engles) ने जिस साम्यवादी विचारधारा का प्रतिपादन किया और जिस सिद्धांत की रचना की उसने उनके समर्थकों में बहुत विश्वास उत्पन्न किया था।

7. सिद्धांत राजनीतिक आंदोलन के प्रेरणा स्रोत बनते हैं (Theories become inspiration behind many Political Movements):
सिद्धांत राजनीतिक आंदोलनों को प्रभावित करते हैं। लेनिन (Lenin) जो राजनीतिक आंदोलन के लिए सिद्धांत के महत्व को समझते थे, ने सन् 1902 में कहा था, “एक विकसित या प्रगतिशील सिद्धांत के बिना कोई दल किसी संघर्ष का नेतृत्व नहीं कर सकता।” लेनिन (Lenin) ने यह बात बार-बार कही, “क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना क्रांतिकारी आंदोलन संभव नहीं है।”

भारत में गांधी जी द्वारा चलाए गए राष्ट्रीय आंदोलन के पीछे देशवासियों का समर्थन उस विचारधारा के कारण था जो .. सत्य तथा अहिंसा के आधार पर आधारित था। इस प्रकार प्लेटो, अरस्तू, चाणक्य, लॉक, माण्टेस्क्यू, गांधी, मार्क्स तथा एगेल्स जैसे . विचारकों की कृतियों में उस समय की परिस्थितियों के संबंध में जो प्रश्न उन्होंने उठाए, उनका आज भी महत्व है। 20वीं शताब्दी में इस कार्य के लिए ग्राहम वालास, लास्की, मैकाइवर, चार्ल्स मैरियम, रॉबर्ट डहल, डेविड ईस्टन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

8. सामाजिक परिवर्तन को समझने में सहायक (Helpful in understanding the Social Change):
मानव समाज एक गतिशील संस्था है जिसमें दिन-प्रतिदिन परिवर्तन होते रहते हैं। ये परिवर्तन समाज के राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक जीवन पर कुछ न कुछ प्रभाव डालते हैं। ऐसे परिवर्तनों के विभिन्न पक्षों तथा उनके द्वारा उत्पन्न हुए प्रभावों को समझने के लिए राजनीतिक सिद्धांत सहायक सिद्ध होता है।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिन देशों में स्थापित सामाजिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध क्रांतियां हुईं अथवा विद्रोह हुए उनका मुख्य कारण यह था कि स्थापित सामाजिक व्यवस्थाएं (Established Social Order) नई उत्पन्न परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थीं। फ्रांस की सन् 1789 की क्रांति का उदाहरण हमारे सामने है।

कार्ल मार्क्स ने राजनीतिक सिद्धांत को एक विचारधारा (Ideology) का ही रूप माना है और उसका विचार था कि जब नई सामाजिक व्यवस्था (वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज) की स्थापना हो जाएगी तो फिर सिद्धांतीकरण की आवश्यकता नहीं रहेगी। मार्क्स ने एक विशेष विचारधारा और कार्यक्रम के आधार पर वर्गविहीन और राज्यविहीन समाज की कल्पना की थी।

उसका यह विचार ठीक नहीं है कि ऐसा समाज स्थापित हो जाने के पश्चात सिद्धांतीकरण (Theorising) की आवश्यकता नहीं रहेगी। वास्तव में, सभ्यता के निरंतर हो रहे विकास के कारण जैसे-जैसे मानव-समाज का अधिक विकास होगा वैसे-वैसे सामाजिक परिवर्तन को समझने तथा उसकी व्याख्या करने के लिए राजनीतिक सिद्धांत की आवश्यकता महसूस होगी।

9. स्पष्टता प्राप्त करना (Acquiring Clarity):
राजनीतिक सिद्धांत वैचारिक तथा विश्लेषणात्मक स्पष्टता (Conceptual and Analytical) प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण सहायता करते हैं। राजनीतिक विचारों का यह कर्त्तव्य है कि लोकतंत्र, कानून, स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय आदि मूल्यों की रक्षा करें। इसके लिए राजनीतिक सिद्धांत का ज्ञान होना अति आवश्यक है क्योंकि इससे हमें इन राजनीतिक अवधारणाओं का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त होता है। ये स्पष्टतया विश्लेषणात्मक अध्ययन से प्राप्त होती हैं।

10. राजनीतिक सिद्धांत की राजनीतिज्ञों, नागरिकों तथा प्रशासकों के लिए उपयोगिता (Utility of Political Theory for Politicians, Citizens and Administrators) राजनीतिक सिद्धांत के द्वारा वास्तविक राजनीति के अनेक स्वरूपों का शीघ्र ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिस कारण वे अपने सही निर्णय ले सकते हैं।

डॉ० श्यामलाल वर्मा ने लिखा है, “उनका यह कहना केवल ढोंग या अहंकार है कि उन्हें राज सिद्धांत की कोई आवश्यकता नहीं है या उसके बिना ही अपना कार्य कुशलतापूर्वक कर रहे हैं अथवा कर सकते हैं। वास्तविक बात यह है कि ऐसा करते हुए भी वे किसी न किसी प्रकार के राज-सिद्धांत को काम में लेते हैं।” इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजनीतिक विज्ञान के सम्पूर्ण ढांचे का भविष्य राजनीतिक सिद्धांत के निर्माण पर ही निर्भर करता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दिए गए विकल्पों में से उचित विकल्प छाँटकर लिखें

1. निम्नलिखित में से किस विद्वान को प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक कहा जाता है ?
(A) प्लेटो
(B) सुकरात
(C) अरस्तू
(D) कार्ल मार्क्स
उत्तर:
(C) अरस्तू

2. राजनीति की प्रकृति संबंधी यूनानी दृष्टिकोण की विशेषता निम्न में से नहीं है
(A) राज्य एक नैतिक संस्था है
(B) राज्य एवं समाज में अंतर नहीं
(C) राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है।
(D) नगर-राज्यों से संबंधित अध्ययन पर बल
उत्तर:
(C) राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है

3. निम्नलिखित में से राजनीति संबंधी परंपरागत दृष्टिकोण के समर्थक हैं
(A) प्लेटो
(B) हॉब्स
(C) रूसो
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

HBSE 11th Class Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत : एक परिचय

4. राजनीति संबंधी परंपरावादी दृष्टिकोण की विशेषता निम्नलिखित में से है
(A) दार्शनिक एवं विचारात्मक पद्धति में विश्वास
(B) नैतिकवाद एवं अध्यात्मवाद में विश्वास
(C) राजनीति शास्त्र को विज्ञान के रूप में स्वीकार करना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

5. राजनीति संबंधी आधुनिक दृष्टिकोण की विशेषता निम्नलिखित में से नहीं है
(A) राजनीति शक्ति का अध्ययन है
(B) राजनीति एक वर्ग-संघर्ष है
(C) राजनीति केवल राज्य एवं सरकार का अध्ययन
(D) राजनीति समूची राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण है मात्र है
उत्तर:
(C) राजनीति केवल राज्य एवं सरकार का अध्ययन

6. मात्र है “राजनीति शास्त्र शासन के तत्त्वों का अनुसंधान उसी प्रकार करता है जैसे अर्थशास्त्र संपत्ति का जीवशास्त्र जीवन का, बीजगणित अंकों का तथा ज्यामिति-शास्त्र स्थान तथा ऊंचाई का करता है।” यह कथन निम्नलिखित में से किस विद्वान का है?
(A) गार्नर
(B) लाई एक्टन
(C) गैटेल
(D) सीले
उत्तर:
(D) सीले

7. निम्नलिखित में से परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत का लक्षण है
(A) यह मुख्यतः वर्णनात्मक अध्ययन है
(B) यह मुख्यतः आदर्शात्मक अध्ययन है
(C) यह मुख्यतः कानूनी, औपचारिक एवं संस्थागत अध्ययन है
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. निम्नलिखित में से आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत का लक्षण नहीं है
(A) विश्लेषणात्मक अध्ययन
(B) आनुभाविक अध्ययन
(C) अनौपचारिक कारकों का अध्ययन
(D) वर्णनात्मक अध्ययन पर बल
उत्तर:
(D) वर्णनात्मक अध्ययन पर बल

9. राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में निम्नलिखित में से सम्मिलित है
(A) शक्ति का अध्ययन
(B) राज्य एवं सरकार का अध्ययन
(C) मानव व्यवहार का अध्ययन
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

10. राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में निम्नलिखित में से सम्मिलित नहीं है
(A) राज्य एवं व्यक्तियों के संबंधों का अध्ययन
(B) नारीवाद का अध्ययन
(C) विदेशी संविधानों का अध्ययन
(D) अंतर्राष्ट्रीय संबंधों एवं संगठनों का अध्ययन
उत्तर:
(C) विदेशी संविधानों का अध्ययन

11. राजनीतिक सिद्धांत का महत्त्व निम्न में से है
(A) यह राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने में सहायक है
(B) यह सामाजिक परिवर्तन को समझने में सहायक है
(C) यह सरकार को औचित्यपूर्णता प्रदान करने में सहायक है
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर एक शब्द में दें

1. ‘पॉलिटिक्स’ नामक ग्रंथ के रचयिता कौन हैं?
उत्तर:
अरस्तू।

2. “राजनीति शास्त्र का प्रारंभ तथा अंत राज्य के साथ होता है।” यह कथन किस विद्वान का है?
उत्तर:
गार्नर का।

3. राजनीति शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के किस शब्द से हुई है?
उत्तर:
पोलिस (Polis) शब्द से।

4. थ्योरी (Theory) शब्द की उत्पत्ति थ्योरिया (Theoria) शब्द से हुई है। यह शब्द किस भाषा से लिया गया है?
उत्तर:
ग्रीक भाषा से।

5. “राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव समाज अपनी समस्याओं का समाधान करता है।” यह कथन किसने कहा?
उत्तर:
हरबर्ट जे० स्पाइरो ने।

रिक्त स्थान भरें

1. “राजनीतिक सिद्धांत एक प्रकार का जाल है जिससे संसार को पकड़ा जा सकता है, ताकि उसे समझा जा सके। यह एक अनुभवपूरक व्यवस्था के प्रारूप की अपने मन की आँख पर बताई गई रचना है।” यह कथन ………… विद्वान का है।
उत्तर:
कार्ल पॉपर

2. “समस्त राजनीति स्वभाव से शक्ति-संघर्ष है।” यह कथन ……………. ने कहा।
उत्तर:
केटलिन

3. “राजनीति का संबंध मूल्यों के अधिकारिक आबंटन से है।” यह कथन ……………. ने कहा।
उत्तर:
डेविड ईस्टन।

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