Class 11

HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् अव्यय

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions व्याकरणम् avyay अव्यय Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit व्याकरणम् अव्यय

संस्कृत भाषा में दो प्रकार के शब्द होते हैं (क) विकारी शब्द; जैसे रामः रामौ रामाः इत्यादि और (ख) अविकारी शब्द; जैसे-शनैः इत्यादि। अविकारी शब्द को ही अव्यय कहते हैं। जो शब्द तीनों लिङ्गों में तथा सभी विभक्तियों में एवं सब वचनों में एक समान रहते हैं तथा जिनमें कोई परिवर्तन नहीं होता, वे शब्द अव्यय कहलाते हैं। कुछ प्रमुख अव्यय निम्नलिखित हैं-

HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् अव्यय

अव्ययअर्थवाक्य-प्रयोग
पुराप्राचीन काल मेंपुरा रामः राजा आसीत्।
नूनमूनिश्चय हीनूनम् सः अद्य आगमिष्यति।
अद्यआजअद्य अहं विद्यालयं न गमिष्यामि।
घ्य.बीता हुआ कलह्यः सोमवारः आसीत्।
श्व:आने वाला कलश्वः रविवारः भविष्यति।
एकदाएक बारएकदा रामः लक्ष्मणं कथयत्।
यदाजबयदा स आगमिष्यति तदाहं पठिष्यामि।
कदाकबसः कदा गमिष्यति?
पर्तदतबतदा सः गृहमगच्छत्।
सर्वदासदासः सर्वदा कार्यं करोति।
कथमकिस प्रकार, क्योंअहं कथमेतत् कठिनं पुस्तकं पठिष्यामि।
शीघ्रमजल्दीदेवः शीघ्र कार्यं कुरु।
पुनःफिरसः पुनः पुनः अत्र आगच्छति।
आम्हाँआम् श्रीमान् अहमवश्यमेव गमिष्यामि।
अपिभीमया सह मोहनः अपि पठिष्यति।
सर्वत्रसब जगहईश्वरः सर्वत्र अस्ति।
अतिअधिकताजलम् अति शीतलं वर्तते।
सम्प्रतिअबअहं सम्प्रति गृहं गमिष्यामि।
धिक्धिक्कारधिक् दुष्टम्।
खलुनिश्चयबोधकअत्र खलु बहवः वृक्षाः सन्ति।
अहोविस्मयबोधकअहो! नैतद् उचितं कार्यम् अस्ति।
दिवदिन मेंदिवा निद्रा मा करुत।
अहर्निशम्दिन-रातस: अहर्निशम् पठति।
वृथाव्यर्थवृथा न गन्तव्यम् ।
नक्तम्रात मेंसः नक्तम् चिरं पठति।
नानाबिना, अनेकविद्यालये नाना छात्रा: पठन्ति।
विनाबिना, रहितविद्या विना मानवः पशुः अस्ति।
मृषाझूठमृषा न वक्तव्यम्।
अथइसके बाद, अबअथ सः कथां करोति।
मामत, नहींकदापि असत्यं मा वद।
कुतःकहाँ सेभवान् इदानीम् कुतः आगच्छति?
शनै:धीरे-धीरेसः शनैः लिखति।
उच्चै:ऊँचेवायुयान उच्चै: गच्छति।
नीचै:नीचेसःषवृक्षात् नीचैः अपतत्।

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HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरण

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions व्याकरणम् alankar Prakaran अलंकार-प्रकरण Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरण

अलंकार
काव्यशास्त्रियों ने ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ को काव्य-रूपी पुरुष का शरीर तथा ‘रस’ को काव्य की आत्मा कहा है। अलंकार ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ के सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं, उनके आकर्षण और प्रभाव को बढ़ाते हैं।

परिभाषा काव्यशास्त्रीय आचार्यों ने अलंकार की परिभाषा निम्नलिखित शब्दों द्वारा दी है
1. काव्यशोभाकरानधर्मानलंकारान् प्रचक्षते।
अर्थात काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों को अलंकार कहते हैं।

2. शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः।
रसादीनुपकुर्वन्ति अलङ्कारास्तेऽङ्गदादिवत् ॥

अर्थात् जो शब्द और अर्थ के अस्थिर धर्म हैं, जो शोभा को बढ़ाने वाले हैं तथा जो रस आदि के उपकारक होते हैं, बाजूबन्द (अंगद) के समान वे अलंकार कहलाते हैं। अलङ्करोतीति अलंकारः-जो अलङ्कृत करे वह अलंकार है।
अथवा
अलक्रियतेऽनेनेति अलंकारः-जिसके द्वारा अलङ्कृत किया जाए, उसे अलंकार कहते हैं। उपर्युक्त दोनों व्युत्पत्तियों का अर्थ यही है कि ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ को विभूषित करने वाले ‘धर्म’ को अलंकार कहते हैं। जिस प्रकार आभूषण ‘नारी’ और ‘पुरुष’ के शरीर की शोभा को बढ़ाने में सहायक होते हैं, उसी प्रकार उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि अलंकार काव्य की शोभा को बढ़ाने में सहायक होते हैं। इसीलिए उनको अलङ्कार (अर्थात् आभूषण) कहते हैं।’

भेद-अलंकार के निम्नलिखित तीन भेद हैं

  1. शब्दालंकार,
  2. अर्थालंकार,
  3. उभयालंकार

1. शब्दालंकार-जो किसी वर्ण या शब्द-विशेष के कारण वाक्य-रूपी शरीर में सुन्दरता उत्पन्न करते हैं, उन्हें शब्दालंकार कहते हैं; जैसे–अनुप्रास, यमक तथा शब्दश्लेष।
2. अर्थालंकार-जो अर्थ की सुन्दरता में अभिवृद्धि करते हैं, वे अर्थ पर आश्रित होने के कारण अर्थालंकार कहलाते हैं; जैसे उपमा, रूपक इत्यादि।
3. उभयालंकार जहाँ शब्द और अर्थ दोनों समान रूप से चमत्कारी हों, वहाँ उभयालंकार होता है; जैसे-शब्दश्लेष तथा अर्थश्लेष।

1. अनुप्रास
लक्षण अनुप्रासः शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत्।।
जहाँ स्वरों की असमानता होने पर भी शब्दों की समानता होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है अथवा स्वरों की समता न होने पर भी केवल व्यजनों की समता को अनुप्रास अलंकार कहते हैं।

उदाहरण 1. केशः काशस्तबक विकासः कायःप्रकटितकरभविलासः। ।
चक्षुर्दग्धवराटककल्पं व्यजति न चेतः काममनल्पम् ॥
इस श्लोक में ‘केश’ और ‘काश’, ‘विकास’ और ‘विलास’ तथा ‘कल्प’ और ‘अल्प’ शब्दों की समता के कारण अनुप्रास अलंकार है।

उदाहरण 2. ललितलवंगलतापरिशीलन कोमलमलयसमीरे।
मधुकरनिकरकरम्बितकोकिलकूजितंकुञ्ज कुटीरे ॥
इस श्लोक में ‘ललित’, ‘लवंग’, ‘लता’ शब्दों में, :मधुकर’, ‘निकर’, ‘करम्बित’ शब्दों में और ‘कूजित’, ‘कुञ्ज’ शब्दों में समता है, इसलिए यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

उदाहरण 3. कुवलयदलस्निग्धश्यामः शिखण्डकमण्डनो
वटुपरिषदं पुण्यश्रीकः श्रियैव सभाजयन्। इस श्लोक में ल, न, ण्ड, श्र आदि वर्गों की आवृत्ति हुई है, अतः यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरण

2. यमक
लक्षण- सत्यर्थे पृथगर्थायाः स्वरव्यञ्जनसंहतेः।
क्रमेण तेनैवावृत्तिर्यमकं विनिगद्यते ॥ . सार्थक होने पर स्वर-व्यञ्जन-समूह की भिन्न-भिन्न अर्थों में, उसी क्रम से जहाँ आवृत्ति होती है, वहाँ यमक अलंकार होता है। यमक में कहीं दोनों शब्द सार्थक, कहीं दोनों निरर्थक और कहीं एक सार्थक और दूसरा निरर्थक होता है।

उदाहरण 1.
नव पलाशपलाशवनं पुरः स्फुट्पराग परागतपङ्कजम्।।
मृदुलतान्तलतान्तमलोकयत् स सुरभिं सुरभिं सुमनोहरैः ॥

इस श्लोक में ‘पलाश’ ‘पलाश’, ‘पराग’ ‘पराग’, ‘लतान्त’ ‘लतान्त’ और ‘सुरभिं’ ‘सुरभिं’ शब्दों की आवृत्ति के कारण यहाँ । यमक अलंकार है। पहले चरण में दोनों पद्यांश-शब्द सार्थक हैं। उनमें से पहले ‘पलाश’ का अर्थ है ‘पत्ता’ तथा दूसरे ‘पलाश’ का अर्थ है ‘ढाक’ । श्लोक के दूसरे चरण में पहला ‘पराग’ सार्थक है, इसका अर्थ है ‘पुष्प रस’ तथा दूसरा ‘पराग’ निरर्थक है, क्योंकि – वह ‘परागत’ का अंश है। इसी प्रकार ‘लतान्त’ ‘लतान्त’ में पहला ‘लतान्त’ निरर्थक है। चौथे चरण में ‘रभिंसु’ ‘रभिंसु’ दोनों ही शब्द निरर्थक हैं।

उदाहरण 2.
नगजा नगजा दयिता दयिता विगतं विगतं ललितं ललितम्।
प्रमदा प्रमदा महता महता मरणं मरणं समयात् समयात् ॥
यहाँ ‘नगजा’ ‘नगजा’, ‘दयिता’ ‘दयिता’ आदि शब्दों का प्रयोग तो उसी क्रम में हो रहा है, परन्तु इनके अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। अतः यहाँ यमक अलंकार है।

3. उपमा
लक्षण-साम्यं वाच्यमवैधर्म्य वाक्यैक्य उपमा द्वयोः।
जहाँ ‘उपमेय’ और ‘उपमान में भिन्नता होते हुए भी समान धर्म के कारण तुलना की जाए, वहाँ ‘उपमा’ अलंकार होता है। इसके चार अंग हैं

  1. उपमेय-जिसके लिए सादृश्य दिखाया जाए।
  2. उपमान-जिसके साथ सादृश्य दिखाया जाए।
  3. साधर्म्य-जो समानता दिखाई जाए।
  4. साधर्म्यवाची शब्द-जिन शब्दों (इव आदि) से सादृश्य का बोध कराया जाए।

उदाहरण 1.
क्षणात् प्रबोधमायाति तमसा लध्यते पुनः।
निर्वास्यतः प्रदीपस्य शिखेव जरतो मतिः ॥

अर्थात् वृद्ध मनुष्य की बुद्धि बुझते हुए दीपक की शिखा के समान क्षण-भर में प्रबुद्ध हो जाती है और क्षण-भर में पुनः अन्धकार से आवृत्त हो जाती है। जिस प्रकार बुझते हुए दीपक की शिखा कभी तेज होती है और तुरन्त ही मन्द हो जाती है, उसी प्रकार वृद्ध मनुष्य की बुद्धि कभी चेतन होती है और तत्काल ही अज्ञान से आवृत्त हो जाती है। उदाहरण में ‘जरतो मतिः’ उपमेय, ‘प्रदीपस्य शिखा’ उपमान, ‘प्रबोधमायाति’ व ‘तमसा लठ्यते’ समान धर्म तथा ‘इव’ उपमावाचक शब्द हैं। अतः यहाँ उपमा अलंकार है।

उदाहरण 2.
ययातेरिव शर्मिष्ठा भर्तुर्बहुमता भव।
सुतं त्वमपि सम्राजं सेव पूरुमवाप्नुहि ॥
अर्थात् ययाति की पत्नी शर्मिष्ठा के समान (तुम भी) पति की अत्यधिक सम्मानित बनो और जैसे उसने सम्राट-पुत्र को प्राप्त किया था, वैसे ही तुम भी सम्राट्-पुत्र को प्राप्त करो। यहाँ ‘त्वमपि’ (शकुन्तला) तथा ‘भर्तुः (दुष्यन्त) उपमेय हैं। ‘ययाति’ तथा ‘पुरु’ उपमान हैं। ‘सुतं’ तथा ‘बहुमता’ समान धर्म हैं। ‘इव’ उपमावाचक शब्द है। अतः यहाँ उपमा अलंकार है।

उदाहरण 3.
हंसीव कृष्ण ते कीर्तिः स्वर्गगङ्गामवगाहते।
अर्थात् हे कृष्ण! तेरी कीर्ति हंसिनी के समान स्वर्ग-गङ्गा में स्नान करती है।
यहाँ ‘कीर्ति’ उपमेय, ‘हंसिनी’ उपमान, ‘स्वर्ग-गङ्गा में स्नान’ साधारण धर्म तथा ‘इव’ समतावाची पद हैं।

4. रूपक
लक्षण-रूपकं रूपितारोपो विषये निरपहनवे।
जहाँ न छिपाए गए उपमेय पर उपमान का
अभेद रूप से आरोप किया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होता है। अन्य लक्षण तद्पकमभेदो यः उपमानोपमेपयोः।
जहाँ अत्यन्त समानता प्रकट करने के लिए उपमेय में उपमान का आरोप. किया जाता है, वहाँ रूपक अलंकार होता है।

उदाहरण 1.
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।
अर्थात् विद्या मनुष्य का सुन्दर रूप है, छिपा हुआ धन है। विद्या भोग प्रदान करती है। विद्या सुख और यश देती है। विद्या गुरुओं की गुरु होती है। प्रस्तुत उदाहरण में विद्या उपमेय है तथा रूप, धन, भोगकरी, गुरु आदि उपमान हैं। यहाँ भिन्न-भिन्न उपमान विद्या-रूप उपमेय पर आरोपित हैं। अतः यहाँ रूपक अलंकार है।

उदाहरण 2.
रावणाग्रहक्लान्तमिति वागमृतेन सः।
अभिवृष्य मरुत्सस्यं कृष्ण मेघस्तिरोदधे ॥

अर्थात् रावण-रूपी अकाल से मुरझाई हुई देववृन्द-रूपी खेती को इस प्रकार वाणी-रूपी अमृत से सींचकर कृष्ण-रूपी मेघ तिरोहित हो गया। यहाँ कृष्ण (विष्णु) प्रमुख उपमेय है तथा मेघ प्रमुख उपमान है। रावण, वाक् तथा मरुत्, ये तीनों उपमेय के अंग हैं तथा ‘अमृत एवं सस्य’ ये तीनों उपमान के अंग हैं। अतः यहाँ सांगरूपक अलंकार है।

उदाहरण 3.
तस्याः मुखं चन्द्र एव।
अर्थात् उसका मुख तो चन्द्रमा ही है।
यहाँ सौन्दर्य की अत्यधिक समानता होने के कारण मुख को चन्द्र से अभिन्न बताया गया है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् अलंकार-प्रकरण

5. उत्प्रेक्षा
लक्षण-भवेत् सम्भावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना।
जब प्रस्तुत (उपमेय) की अप्रस्तुत (उपमान) के रूप में सम्भावना की जाए, तब उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। उत्प्रेक्षावाचक शब्द ‘मन्ये’, ‘शङ्के’, ‘ध्रुवम्’, ‘प्रायः’, ‘नूनम्’, ‘इव’ इत्यादि उत्प्रेक्षावाचक शब्द हैं।

उदाहरण 1.
लिम्पतीव तमोऽङ्गानि वर्षतीवांजनं नभः,
असत्पुरुषसेवेव दृष्टिविफलतां गता।
अर्थात् वर्षा की घनघोर रात्रि में अन्धकार मानों अंगों को लीप रहा है, आकाश मानों काजल की वृष्टि कर रहा है और दुष्ट पुरुष की सेवा के समान मानों दृष्टि विफल हो गई है। यहाँ पर रात्रि के अन्धकार में अंगों को लीपने की तथा आकाश में काजल की सम्भावना की गई है, इसलिए यहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार है।

उदाहरण 2.
मुखमेवीदृशो भाति पूर्णचन्द्र इवापरः ।
मृगनयनी (हिरण के समान आँखों वाली स्त्री) का मुख इस प्रकार शोभा पा रहा है मानों वह दूसरा पूर्ण चन्द्रमा हो। यहाँ पर मृगनयनी के मुख की पूर्णिमा के चन्द्रमा के रूप में सम्भावना की गई है। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।

6. अर्थान्तरन्यास
लक्षण- सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते।
यत्र सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्येणेतरेण वा ॥

जहाँ किसी सामान्य या विशेष बात का समान धर्म वाले किसी अन्य सामान्य या विशेष उदाहरण से समर्थन किया जाता है, वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है।

उदाहरण 1.
बृहत्सहायः कार्यान्तं क्षोदीयानपि गच्छति।
सम्भूयाम्भोधिमभ्येति महानद्या नगापगाः ॥

अर्थात् छोटा व्यक्ति भी बड़ों की सहायता से कार्य में सफलता प्राप्त कर लेता है, जैसे पहाड़ों के छोटे-छोटे झरने बड़ी नदियों के सहारे विशाल समुद्र को प्राप्त कर लेते हैं।
यहाँ बड़ों की सहायता से छोटों के काम बनने का, पहाड़ी झरनों का नदियों के साथ समुद्र को प्राप्त करने की बात से समर्थन किया गया है। इसलिए यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार है।

उदाहरण 2.
हनुमानब्धिमतरद् दुष्करं किं महात्मनाम्। अर्थात् हनुमान जी ने सागर को तैरकर पार कर लिया, महापुरुषों के लिए क्या काम दुष्कर (कठिन) है।
यहाँ मुख्य अर्थ “हनुमान जी ने समुद्र को पार किया” का समर्थन “महापुरुषों के लिए क्या काम दुष्कर है” से किया गया है, अतः यहाँ पर अर्थान्तरन्यास अलंकार है।

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7. अतिशयोक्ति
लक्षण-सिद्धत्वेऽध्यवसायस्यातिशयोक्तिर्निगद्यते।
अध्यवसाय के सिद्ध अर्थात् निश्चित रूप से प्रतीत होने पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है। उपमेय को दबाकर उपमान के साथ उसके अभेद का ज्ञान अध्यवसाय कहलाता है। अतिशयोक्ति का अर्थ है-अतिशयपूर्वक लोकसीमा का उल्लंघन करके किसी वस्तु का वर्णन करना।

उदाहरण:
1. दृष्टिस्तृणीकृतजगत्त्रयसत्वसारा, धीरोद्धता नमयतीव गतिर्धरित्रीम्।
कौमारकेऽपि गिरपद् गुरु दधानः, वीरो रसः किमयमित्युत दर्प एव ॥

अर्थात् इस (कुश) की दृष्टि तीनों लोकों की शक्ति को तृण के समान तुच्छ समझती है, इसकी धीर तथा उद्धत गति मानों पृथ्वी को झुकाए दे रही है। कुमारावस्था में ही पर्वत के सदृश गौरव को धारण करता हुआ क्या यह साक्षात् वीर रस ही जा रहा है अथवा दर्प ही है। यहाँ ‘कुश’ इस उपमेय का ‘वीर रस’ और ‘दर्प’, इन उपमानों द्वारा निगरण (न दिखने) होने से अभेद-रूप अध्यवसान है।

उदाहरण:
2. कथमुपरि कलापिनः कलापो विलसति तस्य तलेऽष्टमीन्दुखण्डम्।
कुवलययुगलं ततो विलोलं तिलकुसुमं तदधः प्रवालमस्मात् ॥

अर्थात् कैसा आश्चर्य है। ऊपर मोर का कलाप (पूँछ) है। उसके नीचे अष्टमी का चन्द्रमा शोभा पा रहा है। उसके नीचे दो चंचल नीले कमल हैं। उनके नीचे तिल का फूल है और उसके नीचे मनोहर विद्रुम (मूंगे) का टुकड़ा है। यहाँ किसी सुन्दरी के बालों का मोर की पूँछ के रूप में, मस्तक का अष्टमी के चन्द्रमा के रूप में, नाक के तिल का फूल के रूप में और अधशेष का विद्रुम (मूंग) के रूप में अध्यवसान है। अतः यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।

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HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् छंद प्रकरण

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छन्द

संस्कृत साहित्य में श्लोकों के लेखन एवं उच्चारण में वर्णों की एक निश्चित व्यवस्था की गई है। इस निश्चित व्यवस्था को ‘छन्द’ या ‘वृत्त’ कहते हैं।

परिभाषा-पद्य लिखते समय वर्णों की एक निश्चित व्यवस्था रखनी पड़ती है। इस व्यवस्था को ही ‘छन्द’ या ‘वृत्त’ कहते हैं। छन्द में ‘यति’, ‘गति’ इत्यादि के भी विशेष नियम होते हैं। गद्य सामान्य बोलचाल की भाषा के अनुसार होता है, जबकि पद्य में गति, लय और यति (विराम) का विशेष ध्यान रखा जाता है, जिससे भाषा में ‘गेयता’ आ जाती है अर्थात् छन्दोबद्ध वाक्य गाने के योग्य हो जाता है। यह गेयता लाने के लिए स्वरों अथवा वर्गों में सीमा-बन्धन करना पड़ता है। इस प्रकार कुछ विशेष नियमों में बद्ध (छन्दयुक्त) रचना को ही पद्य कहते हैं।

भेद:
सामान्यतः छन्द दो प्रकार के होते हैं

  1. वर्णिक छन्द वर्णिक छन्दों में प्रत्येक पाद में वर्गों की संख्या निश्चित होती है, जैसा कि ‘वर्णिक’ शब्द से ही स्पष्ट है; जैसे–इन्द्रवज्रा छन्द।
  2. मात्रिक छन्द-मात्रिक (जाति) छन्दों के प्रत्येक पाद में मात्राओं की संख्या निश्चित होती है; जैसे-आर्या छन्द। चरण-प्रत्येक श्लोक में चार चरण (पाद या भाग) होते हैं। छन्द के चौथे भाग को चरण कहते हैं।

मात्राएँ गिनने की विधि-मात्राओं की गणना करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि ह्रस्व की एक मात्रा और दीर्घ की दो मात्राएँ होती हैं, परन्तु यदि किसी ह्रस्व से परे संयुक्त व्यंजन हो तो उस ह्रस्व को भी दीर्घ माना जाता है और उसकी भी दो मात्राएँ होती हैं।

HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् छंद प्रकरण

गुरु तथा लघु-व्यवस्था
गुरु-अनुस्वारयुक्त (जैसे-क), विसर्गयुक्त (जैसे कः) तथा आ, ई, ऊ, ऋ, लु, ए, ऐ, ओ, औ गुरु (दीघ) होते हैं एवं संयुक्त वर्ण से पूर्व का वर्ण (जैसे-अङ्ग का ‘अ’) ह्रस्व होता हुआ भी दीर्घ माना जाता है और पद के अन्त वाला वर्ण भी गुरु होता है, जैसा कि ‘छन्दोमञ्जरी’ में इसकी व्यवस्था दी गई है-

सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गो च गुरुर्भवेत्।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा ॥

लघु इनके अतिरिक्त सभी वर्ण अ, इ, उ, ऋ, लु इत्यादि लघु (ह्रस्व) होते हैं।
गुरु का चिह्न ‘ड’ तथा लघु का चिह्न ।’ लगाया जाता है।

गण तथा गण-चिह्न छन्द में मात्राएँ गिनने के लिए तीन-तीन वर्णों का एक-एक गण बनाया जाता है। ये आठ गण निम्नलिखित हैं

  1. यगण – । ऽ ऽ
  2. मगण – ऽ ऽ ऽ
  3. तगण – ऽ ऽ ।
  4. रगण – ऽ । ऽ
  5. जगण – । ऽ ।
  6. भगण – ऽ । ।
  7. नगण – ऽ । ।
  8. सगण – । । ऽ

भगण आदि गुरु, जगण मध्य गुरु तथा सगण अन्त गुरु होते हैं। यगण आदि लघु, रगण मध्य लघु और तगण अन्त लघु होते हैं। मगण में गुरु और नगण में सभी वर्ण लघु होते हैं। जैसा कि ‘छन्दोमञ्जरी’ में कहा गया है कि

आदिमध्यावसानेषु भजसा यान्ति गौरवम्।
यरता लाघवं यान्ति मनौ तु गुरुलाघवम् ॥

इन गणों को समझने के लिए यह सूत्र याद रखना चाहिए-“यमाताराजभानसलगा”। इसके एक-एक वर्ण से एक-एक गण बनता है। इसमें पहले वर्ण के साथ अगले दो वर्गों को मिलाने से वह गण बन जाता है

‘य’ के साथ ‘मा’, ‘ता’ को मिलाने से ‘यमाता’ यगण । ऽ ऽ
‘मा’ के साथ ‘ता’, ‘रा’ को मिलाने से ‘मातारा’ मगण ऽ ऽ ऽ
‘ता’ के साथ ‘रा’, ‘ज’ को मिलाने से ‘ताराज’ तगण ऽ ऽ ।
‘रा’ के साथ ‘ज’, ‘भा’ को मिलाने से ‘राजभा’ रगण ऽ । ऽ
‘ज’ के साथ ‘भा’, ‘न’ को मिलाने से ‘भगण’ जगण । । ।
‘भा’ के साथ ‘न’, ‘स’ को मिलाने से ‘भानस’ भगण ऽ । ।
‘न’ के साथ ‘स’, ‘ल’ को मिलाने से ‘नसल’ नगण । । ।
‘स’ के साथ ‘ल’, ‘गा’ को मिलाने से ‘सलगा’ सगण । । ऽ

इस प्रकार उपर्युक्त सूत्र को याद करने से इन सभी गणों को उचित प्रकार समझा जा सकता है।

यति-विराम या रुकने को यति कहते हैं। छन्द पढ़ते समय छन्द के अनुसार जहाँ विराम होता है, वहाँ ‘यति’ होती है। यति के कारण स्वर में प्रवाह आता है और अर्थ को समझने में सुविधा रहती है।

वृत्त के भेद प्रायः प्रत्येक श्लोक के चार भाग होते हैं, जो पाद या चरण कहलाते हैं। जिस वृत्त के चारों चरणों में बराबर वर्ण हों, वह समवृत्त कहलाता है। जिस वृत्त के प्रथम एवं तृतीय तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण वर्णों की दृष्टि से समान हों, वह अर्द्ध समवृत्त होता है। जिस वृत्त के चारों चरणों में वर्गों की संख्या समान न हो, वह विषम वृत्त कहलाता है।

1. अनुष्टुप् (आठ वर्णों वाला समवृत्त)

लक्षण-श्लोके षष्ठं गुरुज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम् ।
द्विचतुष्पादयोः ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥

अर्थात् अनुष्टुप् (श्लोक) छन्द के प्रत्येक चरण में पाँचवाँ वर्ण लघु और छठा गुरु होता है। सातवाँ वर्ण दूसरे और चौथे चरणों में लघु होता है, किन्तु अन्य अर्थात् पहले और तीसरे चरणों में गुरु होता है। शेष वर्गों के लिए कोई नियम नहीं है, वे दीर्घ या ह्रस्व हो सकते हैं।

उदाहरण 1.
यगण जगण
। ऽ ऽ । ऽ ।
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
। ऽ ऽ । ऽ ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

उदाहरण 2.
यगण जगण
। ऽ ऽ । ऽ ।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
। ऽ ऽ । ऽ ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

उदाहरण 3.
ययातेरिव शर्मिष्ठा भर्तुर्बहुमता भव।
सुतं त्वमपि सम्राजं सेव पूरुमवाप्नुहि ॥

HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् छंद प्रकरण

2. इन्द्रवज्रा:
(त त ज ग ग ग्यारह वर्णों वाला समवृत्त)
लक्षण-स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः। अर्थात् जिस छन्द के प्रत्येक पाद में दो तगण, जगण और दो गुरु हों, उसे इन्द्रवज्रा छन्द कहते हैं।

उदाहरण 1.
तगण तगण जगण दो गुरु
ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
अर्थो हि कन्या परकीय एव
ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
तामद्य सप्रेष्य परिग्रहीतुः।
ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
जातो ममायं विशदः प्रकामम्
ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा॥

उदाहरण 2.
तगण तगण जगण दो गुरु
ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
स्वर्गच्युतानामिह जीवलोके
ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
चत्वारि चिह्नानि वसन्ति देहे।
ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
दानप्रसङ्गो मधुरा च वाणी
ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
देवार्चनं पण्डिततर्पणञ्च ॥

3. उपेन्द्रवजा:
(ज त ज ग ग ग्यारह वर्णों वाला समवृत्त)
लक्षण-उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ।। अर्थात् जिस छन्द के प्रत्येक पाद में क्रमशः जगण, तगण, जगण और दो गुरु होते हों, उसे उपेन्द्रवज्रा छन्द कहते हैं।

उदाहरण 1.
जगण तगण जगण दो गुरु
। ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
। ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
। ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
। ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥

उदाहरण 2.
जगण तगण जगण दो गुरु ।
। ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
पिता सखायो गुरवः स्त्रियश्च,
। ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
न निर्गुणानां हि भवन्ति लोके।
। ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
अनन्यभक्ताः प्रिय वादिनश्च,
। ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
हिताश्च वश्याश्च भवन्ति राजन् ॥

4. उपजातिः
(ग्यारह वर्णों वाला समवृत्त)
लक्षण-अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः।
इत्थं किलान्यास्वपि मिश्रितासु स्मरन्ति जातिष्विदमेव नाम॥ अर्थात् जिस पद्य के चरणों में ‘इन्द्रवज्रा’ और ‘उपेन्द्रवज्रा’, दोनों छन्दों का मिश्रण हो और जिसके प्रत्येक चरण में ग्यारह वर्ण हों, उसे उपजाति छन्द कहते हैं।

उदाहरण:
तगण तगण जगण गुरु
ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा (इन्द्रवज्रा)
जगण तगण जगण दो गुरु
। ऽ । ऽ ऽ । ऽ । ऽ ऽ
हिमालयो नाम नगाधिराजः। (उपेन्द्रवज्रा).
तगण तग़ण जगण गुरु
ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य (इन्द्रवज्रा)
जगण तगण जगण गुरु
। ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः ॥ (उपेन्द्रवज्रा)

HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् छंद प्रकरण

5. मालिनी:
(न न म य य पन्द्रह वर्णों वाला समवृत्त)

लक्षण-ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः
अर्थात् जिस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमशः दो नगण, मगण तथा दो यगण हों और पन्द्रह वर्ण हों, वह मालिनी छन्द कहलाता है। इसमें आठवें और पन्द्रहवें वर्ण के बाद यति होती है।

उदाहरण:
नगण नगण मगण यगण यगण
। । । । । । ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ
सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं,
। । । । । । ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ
मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्म लक्ष्मी तनोति।
। । । । । । ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी,
। । । । । । ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ
किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्।

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HBSE 11th Class Sanskrit रचना निबंध-लेखनम्

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions रचना nibandh lekhanam निबंध-लेखनम् Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit रचना निबंध-लेखनम्

1. प्रातःकालीन भ्रमणम्
प्रातःकालःभ्रमणाय सर्वोत्तमः कालः भवति।यथा जीवनाय भोजनस्य आवश्यकता भवति तथैवजीवनाय भ्रमणस्य अपि आवश्यकता भवति। प्रातःकाले भ्रमणेन शरीरः स्वस्थं नीरोगः च भवति। सर्वेषु व्यायामेषु भ्रमणम् सर्वोत्तमः व्यायामः भवति । एतत् तनुं नवी करोति मस्तिष्कं च शीतली करोति। भ्रमणानन्तरं मानवः सर्वदा प्रसन्नः तिष्ठति। अहं नियमित रूपेणं प्रातः भ्रमणं करोमि। अहं चतुर्दश वर्षीयः बालःस्व चत्वारः मित्रैः सह प्रतिदिनं भ्रमणाय गच्छामि । मार्गे अनेके गोपालाः मम दृष्टिपथम् आयान्ति। ते दुग्धस्य पात्राणि द्विचक्रिकाभिः आनयन्तः दृश्यन्ते। भ्रमणं-कुर्वन्तः अहं एकस्मिन् उद्याने गच्छामि। तत्र प्रकृते सौन्दर्यम् मनः मोहयति। अभिनवानि विकसितानि पुष्पाणि दृष्ट्वा मन मनसि आनन्दः उत्पद्यते।

वृक्षाणां शाखासु मधुरं-मधुरं कूजन्तः पक्षिणः कर्णयोः अमृत रसं सिञ्चन्ति। दुर्वाङ्करेषु पतिताः जलकणिकाः मौक्तिकवत् प्रतीयन्ते। अहं द्वादशमिनट पर्यन्तं हरितघासे नग्न पादाभ्यां संचरामि । एतत् संचरणं मम शरीरे स्फूर्ति जनयति, दृष्टि च आनन्दयति। अस्मिन उद्याने अनेके अन्येऽपि भ्रमणप्रियाः जनाः दृश्यन्ते। उद्यानं परितः एका नदी अपि प्रवहति। केचित् जनाः नद्याः तटे भ्रमणं कुर्वन्ति। केचित् च व्यायाम कुर्वन्ति । निज स्वास्थ्यरक्षायै सर्वेषां जनानां बालानां वा प्रातःभ्रमण अवश्यं कुर्वेयुः ।

2. स्वच्छतायाः महत्त्वम्
‘स्वच्छता’ एका क्रिया अस्ति । यस्मात् अस्माकं शरीरः, मस्तिष्कः, वस्त्राणि, गृहाणि, कार्यक्षेत्राणि च शुद्धः पवित्रश्च भवति ।अस्माकं शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्यायं स्वच्छता’ अत्यावश्यकम् अस्ति । अस्मान् स्वच्छतां निज स्वभावे जीवने च स्थापयित्वा अस्वच्छतायाः सर्वथा परित्यागं कुर्वेत् । यतोहि अस्वच्छता सर्वेषां रोगाणां मूलाधारम् अस्ति। यः जनः प्रतिदिनं स्नानं न करोति, निज वस्त्राणि न प्रक्षालयति, गृहं निकषा पर्यावरणं मलेन प्रदूषितं करोति, सः तु सर्वदा रुग्णः भूत्वा दुःखी भवति । मलयुक्त क्षेत्रेषु अनेके कीटाणवः प्रादर्भवन्ति। ये अनेकान रोगान जनयन्ति। एतस्मात् कारणात् स्वच्छतायाः विशेष महत्त्वम् अस्ति। भोजनात् पूर्वं हस्तौ प्रक्षाल्य भोजनं कुर्वेत् । शारीरिक-मानसिक स्वच्छतायै अस्माकम् आत्मविश्वासंवर्धति।सम्पूर्ण भारतवर्षे स्वच्छतायाः प्रचार-प्रसारणाय भारतसर्वकारेण अनेकानि कार्यक्रमाणिसामाजिकनियमाश्च निर्मितानि।

‘स्वच्छभारत-अभियानम्’ इत्याख्यं महाभियानं भारतगणराज्यस्य प्रधानमन्त्रिणा नरेन्द्र मोदी महाभागेन उद्घोषितम् । 2014 तमस्य वर्षस्य अक्टूबर मासस्य द्वितीये (02/10/2014) दिनांके स्वच्छभारत अभियानस्य आरम्भः अभवत् । प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी भारतं न्यवेदयत्-“सर्वे स्वच्छभारताभियाने योगदानं यच्छन्तु” इति। तस्मिन् दिने स्वयं प्रधानमन्त्री स्वहस्ते मार्जनीं धृत्वा नवदेहली महानगरस्ये मन्दिरमार्गे स्वच्छता कार्य प्रारभत।

3. संस्कृतभाषायाः महत्त्वम्
संस्कृत भाषा विश्वस्य प्राचीनतमा भाषा अस्ति । इयं सर्वासाम् भाषाणाम् जननी अस्ति। आदिग्रन्थाः अपि संस्कृते सन्ति। पुरा इयं लोकव्यवहारस्य भाषा आसीत्। सर्वे जनाः संस्कृते वार्तालापम् अकुर्वन्। भारतस्य सर्वाः भाषाः संस्कृतस्य पुत्र्यः सन्ति। अस्य साहित्यम् अतिविशालम् अस्ति। वेदाः, गीता, रामायणं महाभारतं च संस्कृतस्य गौरवम् वर्धन्ते। कालिदास-भास-भवभूति-महाकविभिः रचितानि काव्यानि, समस्ते विश्वे सम्मानितानि सन्ति। अस्माकं भारतीया संस्कृतिः संस्कृतभाषायाम् एव सुरक्षिता।

इयम् तु अस्माकं संस्कृतेः आत्मा अस्ति। अस्माकं भूतं भविष्यं च सर्वम् अपि अनया सम्बद्धम् वर्तते। अस्माकं सर्वाणि आदर्श वाक्यानि ‘सत्यमेवजयते’, ‘अहिंसा परमो धर्मः’ आदि संस्कृत भाषायाम एव सन्ति। इयं वैज्ञानिकी समृद्धा च भाषा अस्ति। सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्ट्या अस्याः परं महत्त्वम् अस्ति। अतः उक्तम्
“भारते भाति भारति।”
“सुरभारति विजयते।”

HBSE 11th Class Sanskrit रचना निबंध-लेखनम्

4. मम विद्यालयः
अहं हरियाणा प्रान्तस्य सर्वकारी विद्यालये पठामि। अयं विद्यालय मम गृहस्य-समीपे एव अस्ति। अस्य भवनं अत्यन्त सुन्दरं सुविशालं च अस्ति। अस्मिन् विद्यालये द्वादश कक्षाः सन्ति । वस्तुतः अयं विद्यामन्दिरं अस्ति यत्र सरस्वती पूज्यते। अस्मिन् विद्यालये विज्ञानप्रयोगशाला, पुस्तकालयः जलपानगृहं चापि अस्ति। विद्यालयस्य परिसरः रमणीयम् अस्ति। छात्राणाम् कृते विशालः क्रीडाक्षेत्रं अपि . अस्ति। अस्य विद्यालयस्य छात्रा अध्ययने निष्णाताः सन्ति । अध्ययने सहक्रीडायाम् अपि छात्राः निपुणा सन्ति यतोहि अत्र समये समये क्रीडाप्रतियोगिता भवति। अस्य विद्यालयस्य परीक्षाफलं अपि शतप्रतिशतम् भवति। अत्र छात्रा अनुशासनप्रियः सन्ति। नगरवासिनः अस्मिनु महाविद्यालये स्वशिशुन पाठने स्वगौरवम् अनुभवन्ति । अतः एव मम विद्यालयः समस्ते हरियाणा प्रान्ते सुप्रसिद्धः विद्यालयः अस्ति।

5. मम प्रियः कविः
महाकवेः वाल्मीकेः नाम संस्कृत वाङ्मये सहृदयान् आह्लादयति। महर्षि वाल्मीकिः एव तादृशः विश्रुतः लोकभावाभिज्ञः मानव-मनोविज्ञानविदग्धः कविः आसीत् यो रामचरितं आश्रित्य नैतिकादर्शानाम् उपस्थापकः सर्वजनग्राह्यं महाकाव्यं प्रणीतवान्। पुण्य सलिलायास्तमसायाः तटे रोदनं कुर्वन्तः-क्रौञ्चम् अवलोक्य तस्य महाकवेः कारुण्यपूर्णावाक् प्रास्फुरत् “मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत् क्रौञ्च मिथुनादेकअवधीः काममोहितम् ॥” तस्मिन् एवं काले ब्रह्मणोवचनात् भारतीय वाङ्मये लौकिकभावोपेता रामकथा मूला रामायणसरित् प्रसृता। इदं महाकाव्यं भाषायाः माधुर्येण, माधुर्य-ओज-प्रसादगुण-समन्वितत्वेन रचनाशैल्याः मधुरतया, सर्वेषां रसानां यथास्थानम् उपन्यासात् आचार संहितायाः संकलनेन अलङ्काराणां सुनियोजनेन संस्कृतसाहित्ये उपजीव्य महाकाव्यरूपे प्रसिद्धो अस्ति।

6. गीतायाः महत्त्वम्
अथवा
मम प्रियं पुस्तकम्

‘श्रीमद्भगवद्गीता विश्वस्य सर्वप्रियं पुस्तकम् अस्ति। गीता सर्वशास्त्रमयी वर्तते। महर्षिवेदव्यासेन सर्वेषां धर्मग्रन्थानाम् साररूपेण गीता प्रणीता आसीत् । अत एव सर्वेषां धर्मग्रन्थानाम् उदात्ताः सिद्धान्ताः अस्याम् एकत्र उपलभ्यते। उक्तं च “गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।” श्रीमद्भगवद्गीतायां कर्मयोगस्य, ज्ञानयोगस्य, भक्तियोगस्य च त्रिवेणी प्रवहति। गीता निराशजनानां मनसि आशा-संचारं करोति। एषा मानवं उद्योगम् आश्रयितुम् वारं-वारं प्रेरयति। यथा अभिहितम् कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। गीतायाः अयमेव उपदेशः अस्ति यत् नरः आसक्तिं स्वार्थं च विहाय कर्म कुर्यात् । गीतानुसारेण मानवस्य शरीरं नश्वरम् अस्ति, परम् आत्मा अजरः अमरः च अस्ति। अतः शरीरस्य विनाशं विलोक्य मनुष्येन शोकः न कर्त्तव्यः। कर्त्तव्य-रक्षणेन मानवेन जीवनत्यागे अपि संकोचः न कर्त्तव्यः।

7. सत्यमेव जयते
अयं संसारः सत्येन सञ्चरति संवर्धते वा। सर्वेषां गुणानां सारभूतं सत्यमेवास्ति। भारतीय धर्मशास्त्रेषु सत्यस्य महती प्रशंसा विद्यते। सर्वोत्कृष्टः धर्मः सत्यमेव अस्ति। असत्यं सर्वाधिक महत् पापमस्ति। सत्यम् एतत् कथ्यते
“न हि सत्यात् परोधर्मः नानृतात् पातकं महत्।
सर्वम् त्ये प्रतिष्ठितमस्ति।”
सत्यपालनेन मनुष्यः संसारे सर्वत्र पूज्यते। सत्यस्य सर्वत्र जयः भवति, न च असत्यस्य। सत्येन एव जनः यशः, सुखं सफलतां च प्राप्नोति। सत्यवादी हरिश्चन्द्रः सत्यात् विचलितः नाभवत् अतः एव सः अद्यापि संसारे पूज्यते। सत्यपालकाः दशरथ युधिष्ठिर अशोकादयश्च अद्यापि विश्ववन्दनीयाः सन्ति । महात्मा गान्धी सत्येन एव राष्ट्रपिता अभवत्।

जीवने सदा सत्यं एव वक्तव्यम् सत्यमेव आचरणीयम्, सत्यमेव करणीयम्, सत्यमेव च पालनीयम्। मनः सत्येन एव शुद्धयति, न तु जलेन। सत्यवादिने जने सर्वे विश्वासं कुर्वन्ति । प्राचीनकाले भारतम् सत्याय विश्वप्रसिद्धमासीत्। अद्यापि भारतीयानां राष्ट्रीय-उद्घोषणा “सत्यमेव जयते” इति अस्ति।

अतः मनसा, वाचा, कर्मणा वा सत्यस्यैव आचरणम् कर्तव्यम् यतो हि
“सत्यमेव जयते नानृतम्।”

HBSE 11th Class Sanskrit रचना निबंध-लेखनम्

8. मम मित्रम्
जीवने मित्रस्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थानं भवति। मित्रं विना जीवनं नीरसं जायते। या घनिष्ठता मित्रेण सह भवति, न सा मात्रा, पित्रा, पत्नया वा सह भवति। ममापि मित्रं सुरेशः वर्तते। स अतीव आस्तिकः अस्ति। सः हृष्ट-पुष्ट गौरांगश्च अस्ति। सेवा भाव, अध्ययनशीलता स्नेहशीलता च तस्य विशिष्टाः गुणाः सन्ति । तस्य जनकः चिकित्सकः अस्ति। तस्य जननी अध्यापिका अस्ति। सुरेशः स्व विद्यालयस्य आदर्शः छात्रः अस्ति। स तु सदैव मया सह निवसति। छायेव सदा मम पार्वं न त्यजति। आपत्काले सम्प्राप्तेऽपि माम् त्यक्त्वा न गच्छति। स सर्वेषामपि गुरुजनानां प्रियो वर्तते। तस्य कोमलः स्वभावः आकर्षक व्यक्तित्वं च अस्ति। स पठने, क्रीडने, भाषणे अति प्रवीणः अस्ति।

सदैव मम विषये चिन्तयति। प्रतिदिनं रात्रौ मम कार्याणि चरितं च प्रत्यवेक्षते कानि मे सत्कर्माणि कानि च दुष्कृतानि ? आवाम् परस्परमालपन्तौ अन्योन्यस्य सुखदुःखानि श्रुत्वा तस्य प्रतिकारं चिन्तयावः अनुशासनप्रियता, आत्मसंयमः आज्ञापालनं तस्य गुणाः सन्ति। आवयोः मैत्री दिनस्य परार्धस्य छायेव क्षणिकपरिचयमात्रत, प्रारब्धा सततं वर्धते एव। यदि कदाचित् कार्यवशात् दूरमपि गच्छावः तथापि तस्यां मैत्र्यां न्यूनता न जायते। यतो हि नहि विचलति मैत्री दूरतोऽपि स्थितानाम् । एवंविधं मम मित्रं तु आत्मा एव। आत्मा एवं मां पापान्निवारयति। स सदैव मम प्रेरणास्रोतः वर्तते । अहं तं कदापि विस्मर्तुं न शक्नोमि।

9. गणतन्त्र दिवसः
कस्यापि देशस्य जीवने राष्ट्रिय पर्वाणां विशेष महत्वं भवति । अस्माकं राष्ट्रियपर्वेषु स्वतन्त्रता दिवसः, गणतन्त्र दिवसः चेति उभौ प्रसिद्धौ स्तः। 15 अगस्त’ इति दिवसः अस्माकं स्वतन्त्रता दिवसः’ अस्ति, यतोहि 15 अगस्त 1947 ईसवीये भारतवर्षः स्वतन्त्रः अभवत्। ’26 जनवरी’ अस्माकं ‘गणतन्त्र दिवसस्य’ राष्ट्रियपर्वः अस्ति। अस्मिन् एव शुभ दिवसे 1950 ईसवीये अस्माकं देशं ‘पूर्ण गणतन्त्र-राष्ट्र रूपे’ उद्घोषितोऽभवत्। दिसम्बर मासस्य एक त्रिंशत् दिवसे सन् 1929 ईसवीये रावीनद्याः तटे लाहौर नगरे काँग्रेसस्य अधिवेशनः अभवत्। अस्य अधिवेशनस्य अध्यक्षता पण्डित जवाहरलाल नेहरू महोदयः अकरोत्।

निज अध्यक्षीय भाषणे तेन अभिहितम् यत्-काँग्रेसस्य प्रमुख लक्ष्यः पूर्ण स्वराजस्य प्राप्तिः अस्ति। 1950 तमे वर्षे जनवरीमासस्य षडविंशति तारिकायां भारतीय संविधानस्य उद्घोषणा अभवत्। तस्मिन् अवसरे डॉ० राजेन्द्र प्रसाददेशस्य प्रथम राष्ट्रपतिः नियुक्तः। भारतीय इतिहासे गणतन्त्र दिवसस्य अत्यधिक महत्त्वः अस्ति। अस्मिन् दिवसे जनेषु देशभक्ति भावनायाःप्रेरणार्थः भिन्न-भिन्न राज्य सरकारेषु आनन्दवर्धकाः कार्यक्रमाः भवन्ति।

अस्मिन् दिवसे देशस्य राजधानी दिल्ली नगरे विशेष कार्यक्रमः भवति । विजयचौंक इति स्थाने राष्ट्रपति महोदयः जल, थल, वायु सेनानां सलामी स्वीकरोति। निज-निज प्रान्तानां वेश-भूषया लोक नर्तकाः नृत्य-प्रदर्शनैः निज प्रान्तीय संस्कृतेः परिचयं यच्छन्ति । निष्कर्ष रूपेण वक्तुं शक्यते यत् गणतन्त्र दिवसस्य पर्वः भारतीय नागरिकाणां हृदयेषु अलौकिक-उत्साहस्य आत्मचिन्तनस्य च प्रेरणादायकः उत्सवः अस्ति।

10. समयस्य सदुपयोगः
समयस्य सदुपयोगः जीवनसफलतायाः प्रथम सोपानम्, समुन्नतेः मूलमन्त्रम्, आत्मनिर्माणस्य च परमं साधनम् अस्ति। प्रकृति अपि इयमेव शिक्षा ददाति यत् नहि केनापि समयस्य दुरुपयोगः कर्तव्यः इति। ये जनाः कदापि समयस्य दुरुपयोगं न कुर्वन्ति सदैव कार्यसंलग्ना भवति, ते सुखेनैव तिष्ठन्ति। तादृशाः एव कर्मवीराः सर्वत्र श्रेष्ठपदं लभन्ते।। संसारस्य सर्वेषु वस्तुषु समयः अधिकं महत्त्वपूर्ण अधिकं च मूल्यवद् वस्तु वर्तते। अन्यानि वस्तूनि विनष्टानि पुनरपि लब्धुं शक्यन्ते, परं समयः विनष्टः केनापि उपायेन पुनः परवर्तयितुं न शक्यते । यस्य आयुषः यावान् अंशः निरर्थकंगतः स.गतः एव ।

अतः तथा प्रयतितव्यं यथा एकस्यापि क्षणस्य दुरुपयोगः न स्यात्, सर्वोऽपि च समयः समुचितरूपेण व्यतीतः भवेत् । समयः कस्यापि प्रतीक्षां न करोति। अनेके जनाः निरर्थकं समयं यापयन्ति। ते द्यूते, नृत्यदर्शने, कलहे, वृथा भ्रमणे, पिशुनतायां, चाटुकारितायां च समस्तं समयं नयन्ति।निज जीवनस्य च बहुमूल्यम् अंशं वृथा यापयन्ति। उत्तमाः छात्राः सदा समयस्य महत्त्वं जानन्ति, ते समये उत्तिष्ठन्ति; स्वकार्यं च तत्परतया कुर्वन्ति। अतः ते उन्नतिं सफलतां च प्राप्नुवन्ति। परं प्रमादी छात्रः कदापि उन्नतिं न अधिगच्छति। अतः अस्माभिः आलस्यं विहाय सर्वदैव समयस्य सदुपयोगः कर्तव्यः। एकमपि क्षणं वृथा न यापनीयम् । सत्यमुच्यते-“न कार्यकालमतियातयेत्।”

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HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् प्रत्यय प्रकरण

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions व्याकरणम् pratyay prakaran प्रत्यय प्रकरण Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit व्याकरणम् प्रत्यय प्रकरण

प्रत्यय
प्रत्यय सदा धातु अथवा शब्द के अन्त में जोड़े जाते हैं। सुप् प्रत्यय शब्द के अन्त में जोड़े जाते हैं। इनसे संज्ञा, सर्वनाम तथा विशेषण बनते हैं। तिङ् लगाने से क्रिया पद बनते हैं। इन प्रत्ययों के अतिरिक्त संस्कृत में अन्य तीन प्रकार के प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है-

  1. कृदन्त प्रत्यय,
  2. तद्धित प्रत्यय,
  3. स्त्री प्रत्यय।

1. कृदन्त प्रत्यय जो प्रत्यय धातुओं (क्रिया शब्दों) के अन्त में लगाए जाते हैं, वे ‘कृत्’ प्रत्यय कहलाते हैं। इन प्रत्ययों के जुड़ने के बाद जो शब्द बनते हैं, उन्हें ‘कृदन्त’ कहते हैं।

जैसे-पठित्वा – पठ् + क्त्वा ।
पठितुम् – पठ् + तुमुन्
पठितः – पठ् + क्त
पठितव्यः – पठ् + तव्यत्

संस्कृत में अनेक प्रत्यय हैं, लेकिन यहाँ कुछ मुख्य प्रत्ययों का उल्लेख किया जा रहा है (क्त्वा, ल्यप्, तुमुन, क्त, क्तवतु, तव्यत्, अनीयर)

क्त्वा प्रत्यय
क्त्वा का अर्थ है-‘करके’ । क्त्वा में ‘क’ का लोप हो जाता है तथा ‘त्वा’ शेष रह जाता है; जैसे गम् + क्त्वा = गत्वा धातु से पहले उपसर्ग नहीं होता तभी ‘क्त्वा’ प्रत्यय लगता है।

घातुअर्थप्रत्ययान्त शब्दधातुअर्थप्रत्ययान्त शब्द
पठ्पढ़नापठित्वाकथूकहनाकथयित्वा
चल्चलनाचलित्वागण्गिननागणयित्वा
हस्हंसनाहसित्वाचुर्चुरानाचोरयित्वा
रक्ष्रक्षा करनारक्षित्वासेव्सेवा करनासेवित्वा
रच्रचना करनारचयित्वापापीनापीत्वा
भक्ष्खानाभक्षयित्वाज्ञाजाननाज्ञात्या
दादेनादत्वाछिद्काटनाछित्वा

HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् प्रत्यय प्रकरण

ल्यप् प्रत्यय
किसी भी धातु के आरम्भ में उपसर्ग आ जाने पर धातु के अन्त में लगने वाले “क्त्वा” प्रत्यय के स्थान पर “ल्यप्” हो जाता है। “ल्यपू” का “य” शेष रहता है।

जैसे- विजित्य = वि + जि + क्त्वा – ल्यप्
विक्रीय = वि + क्री + क्त्वा – ल्यप् “ल्यप्”
प्रत्यय लगे शब्द का अर्थ भी ‘करके’ होता है।

उपसर्ग+धातुल्यपू प्रत्यय युक्त शब्दअर्थ
प्र.+प्रहृत्यप्रहार करके
सम्+हैसंहृत्यसंहार करके
परि+परिहत्यहर कर
वि+ज्ञाविज्ञायजानकर
+दाआदायलेकर
प्र+नशप्रणश्यबष्ट करके

तुमुन् प्रत्यय (निमित्तार्थक)
जब एक क्रिया किसी दूसरी क्रिया की पूर्ति के लिए की जाती है, तो उसे ‘निमित्तार्थक क्रिया’ कहते हैं। इस निमित्तार्थक पूर्व क्रिया में धातु के अन्त में ‘तुमुन् प्रत्यय’ जोड़ देते हैं। इसका ‘तुम्’ शेष रह जाता है। इस प्रत्यय से बने शब्द का अर्थ ‘के लिए’ होता है। “तुमुन्” प्रत्ययान्त शब्द “अव्यय” बन जाते हैं। अतः इनके रूप सदा एक जैसे ही रहते हैं। इनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता है। इनके उदाहरण नीचे दिए गए हैं

धातुप्रत्ययान्त शब्दधातुप्रत्ययान्त शब्द
अर्च्अर्चयितुमनश्नष्टुम्
कुज्करजयितुमभ्रम्भ्रमितुम्
भूभवितुम्तुष्तोष्टुम्
पठ्पठितुम्चुरचोरयितुम्
स्थास्थातुम्कथ्कथायितुम्
गम्गन्तुमभक्ष्भक्षयितुमू

भूतकालिक प्रत्यय ‘क्त’ और ‘क्तवतु’

‘क्त’ प्रत्यय-यह प्रत्यय भूतकालिक है। इसका प्रयोग विशेषण तथा भूतकालिक क्रिया बनाने के लिए होता है। विशेष रूप से वाक्य में कर्म के लिङ्ग, वचन के अनुसार इसका प्रयोग सकर्मक धातुओं से कर्मवाच्य में होता है। इसका “त” शेष रह जाता है। कर्ता तृतीया विभक्ति और कर्म प्रथमा विभक्ति में होता है।

जैसे- गम् + क्तः = गतः श्रु + क्तः = श्रुतः
वाक्य प्रयोग– छात्रेण लेख लिखितः। बालेन पाठ पठितः।

इन वाक्यों में कर्म के अनुसार क्रियाओं का प्रयोग हुआ है तथा कर्ता और कर्म को प्रथमा विभक्ति में प्रयोग किया गया है। ‘क्तवतु’ प्रत्यय-इस प्रत्यय का प्रयोग भी भूतकाल में होता है। क्तवतु’ में ‘क्’ तथा ‘उ’ का लोप हो जाता है तथा ‘त्वत्’ शेष रह जाता है। इस प्रत्यय का प्रयोग कर्तृवाच्य में होता है; जैसे

  1. सः पुस्तकं पठितवान् (उसने पुस्तक पढ़ी)
  2. सः पत्रम् लिखितवान् (उसने पत्र लिखा)
धातुक्त (त)क्तवतु (त्वत्)धातुक्त (त)क्तवतु (त्वत्)
पठ्पठितःपठितवान्जितःजितःजितवान्
चलचलितःचलितवान्नीतःनीतःनीतवान्
हसहसितःहसितवान्भीतःभीतःभीतवान्
रक्षरक्षितःरक्षितवान्शयितःशयितःशयितवान्
रच्रचितःरचितवान्भूतःभूतःभूतवान्
भक्ष्भक्षितःभक्षितवान्श्रुतःश्रुतःश्रुतवान्

शतृ तथा शानच् प्रत्यय ये दोनों प्रत्यय वर्तमान काल के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। ये ‘हुए’ (करता हुआ / करती हुई) अर्थ को प्रकट करते हैं। जिस प्रकार अंग्रेजी भाषा में किसी क्रिया का Present Participle रूप बनाने के लिए. क्रिया के मूल रूप के आगे (ing) लगाया जाता है, उसी प्रकार संस्कृत में उसी भाव को प्रकट करने के लिए शतृ या शानच् प्रत्यय जोड़े जाते हैं। दोनों प्रत्ययों में अन्तर यही है कि परस्मैपदी धातुओं के साथ शतृ प्रत्यय तथा आत्मनेपदी धातुओं के साथ शानच् प्रत्यय जोड़ा जाता है। शतृ में से ‘अत्’ तथा शानच् में से ‘आन’ शेष रहता है। भ्वादिगण, दिवादिगण, तुदादिगण तथा चुरादि गण की धातुओं में ‘आन’ से पूर्व ‘म्’ जुड़कर ‘मान’ हो जाता है।

शतृ प्रत्यय के उदाहरण- खेलता हुआ लड़का = क्रीडन् बालकः (पु०)
शानच् प्रत्यय के उदाहरण लभ् + शानच् = लभमान, वृत् + शानच् = वर्तमान, शी + शानच् = शयान आदि।

नीचे कुछ मुख्य-मुख्य धातुओं के साथ शतृ प्रत्यय लगाकर पुंल्लिङ्ग में रूप दिए जा रहे हैं

1. भ्वादिगण
भू + शतृ = भू + अत् = भवत्
पठ् + शतृ = पठत्
जि + शतृ = जयत्
नी + शतृ = नयत्

भवन्
स्था + शतृ = तिष्ठत्
हस् + शतृ = हसत्
घ्रा + शतृ = जिघ्रत्

भवन्तौ भवन्तः
पा + शतृ = पिवत्
नम् + शतृ = नमत्
ह + शतृ = हरत्

2. अदादिगण
अद् + शतृ = अदत्
दुह् + शतृ = दुहत्
स्तु + शतृ = स्तुवत्
अस् + शतृ = सत्
हन् + शतृ धनत्
शास् + शतृ = शासत्
इण् (इ)+ शतृ = यत्
विद् + शतृ = विदत्
रुद् + शतृ = रुदत्

HBSE 11th Class Sanskrit व्याकरणम् प्रत्यय प्रकरण

3. जुहोत्यादिगण
हु + शतृ = जुहत् जुहत् जुहतौ जुहतः
(इन धातुओं के शतृ प्रत्ययान्त शब्द के रूप बनाते हुए न नहीं लगता)
भी + शतृ = बिभ्यत्
दा + शतृ = ददत्
भृ + शतृ = विभ्रत्

शानच् प्रत्यय

1. भ्वादिगण
सेव् + शानच् = सेवमानः भाष् + शानच् = भाषमाणः
लभ् + शानच् = लभमानः’ वृत् + शानच् = वर्तमानः
ईक्ष् + शानच् = ईक्षमाणः वृध् + शानच् = . वर्धमानः

2. दिवादिगण
मन् + शानच् = मन्यमानः
खिद् + शानच् खिद्यमानः
जन् + शानच् = जायमानः
युध् + शानच् युध्यमानः
विद् + शानच् = विद्यमानः
युज् + शानच् = युज्यमानः

3. तुदादिगण
मुच् + शानच् = मुञ्चमानः
आ + द्रु = आद्रियमाणः
मृ + शानच् = म्रियमाणः
विद् + शानच् = विन्दमानः
सिच् + शानच् = सिंचमानः
तुद् + शानच् = तुदमानः

तव्यत् और अनीयर् प्रत्यय

तव्यत्’ प्रत्यय का प्रयोग ‘चाहिए’ अर्थ में होता है। तव्यत् के ‘त’ का लोप होकर “तव्य” शेष रहता है। इसका प्रयोग कर्मवाच्य या भाववाच्य में होता है।
अनीयर् प्रत्यय-‘अनीयर’ प्रत्यय का प्रयोग ‘योग्य’ अर्थ में होता है। ‘अनीयर’ के ‘र’ का लोप होकर ‘अनीय शेष रह जाता है। इसका प्रयोग कर्मवाच्य या भाववाच्य में होता है।

वाक्य में प्रयोग

  1. यह आश्रम का मृग है, इसे नहीं मारना चाहिए, नहीं मारना चाहिए। (आश्रम मृगोऽयं न हन्तव्यो न हन्तव्यः)
  2. घर में आये हुए शत्रु का सम्मान नहीं करना चाहिए। (गृहमागतोऽपि शत्रु न सम्मानीयः)

प्रमुख धातुओं के तव्यत् तथा अनीयर् प्रत्ययों के रूप दिए जा रहे हैं

धातुअर्थतव्यत् प्रत्ययान्त  पुल्लिङ्ग शब्दअनीयर् प्रत्ययान्त पुंल्लिङ्ग शब्द
अर्च्पूजा करनाअर्चितव्यःअर्चनीयः
कूजकूजनाकूजितव्यःकूजनीयः
भूहोनाभवितव्यःभवनीयः
पठ्पढ़नापठितव्यःपठनीयः

क्तिन्-प्रत्यय
सभी धातुओं से भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए क्तिन् प्रत्यय जोड़ा जाता है। क्तिन् का ‘ति’ शेष रह जाता है और इससे बनने वाला शब्द स्त्रीलिङ्ग होता है। इस प्रत्यय के जुड़ने से धातु में प्रायः वहीं परिवर्तन होते हैं, जो क्त प्रत्यय जुड़ने से होते हैं, अतः क्तिन् प्रत्ययान्त रूप क्त के समान ही बनेंगे। इनके रूप ह्रस्व इकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के समान होंगे। अब कुछ धातुओं के क्तिन् प्रत्ययान्त रूप दिए जाते हैं

अर्च् + क्तिन् = अर्चितिः
अधि ✓ इ + क्तिन् = भूतिः
अस् (भू) + क्तिन् = भूतिः
कृ + क्तिन् = कृतिः
आप् + क्तिन् = आप्तिः
इष् + क्तिन् = इष्टि:
क्री + क्तिन् = क्रीति:
कृ + क्तिन् = कीर्णि:

ण्वुल तृच प्रत्यय
धातु से विशेषण अर्थात् ‘उस क्रिया को करने वाला’ अर्थ को प्रकट करने के लिए ण्वुल् और तृच् प्रत्यय जोड़े जाते हैं (ण्वुल्तृचौ, 3.1.133)। ण्वुल का वु शेष रहता है और उसके भी (युवोरनाकौ) सूत्र के नियमानुसार अक हो जाता है। तृच का तृ शेष रहता है। ण्वुल् में से ण और ल् की इत् संज्ञा होकर लोप होता है, इसलिए ण्वुल् (अक) परे होने पर

(क) धातु के अन्त में विद्यमान इ, उ, ऋ को वृद्धि, ऐ और आर् हो जाते हैं।
(ख) धातु की उपधा के अ को दीर्घ हो जाता है।
(ग) आकारान्त धातुओं के पश्चात् युक्
(य) जुड़ जाता है।
तृच् होने पर प्रायः सभी कार्य तुमुन् के समान होते हैं।

ण्वुल (अक) और तृच् (त) प्रत्यय जुड़ने पर विशेषण शब्द बनते हैं, अतः उनके रूप विशेष्य के अनुसार पुंल्लिङ्ग, नपुंसकलिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग तीनों में बनेंगे। ण्वुल् (अक) प्रत्यय होने पर पुंल्लिङ्ग में बालक के समान, नपुंसकलिङ्ग में फल के समान और स्त्रीलिङ्ग में बालिका के समान रूप होंगे; जैसे पाठकः, पाठकम्, पाठिका इत्यादि। तृच् (त) प्रत्यय होने पर कर्तृ शब्द के समान

पुंल्लिंग में-कर्त्ताकर्त्तारौकर्त्तारः
नपुंसकलिड्ग में-कर्त्रकर्त्तृणीकर्त्त्धि
स्त्रीलिफ्ग में-कर्त्रीकर्त्यौकर्त्र्य:

अब नीचे कुछ ण्वुल और तृच प्रत्ययान्त रूप पुंल्लिङ्ग प्रथमा एकवचन में दिए जाते हैं-

णुलुल् प्रत्ययान्ततृच् प्रत्ययान्त
अद् (खाना) आदकः(अत्त) अत्ता
अधि ✓ इ (पढ़ना) अध्ययकः(अध्येत्) अध्येता
अधि ✓ इ + णिच् अध्यापकः(अध्यापयित्) अध्यापयिता
अर्च् (पूजा करना) अर्चक:(अर्चयित्र) अर्चयिता
उत् ✓ पद् (उत्पन्न करना) उत्पादकः(उत्पादयित) उत्पादयिता

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ल्युट् प्रत्यय
धातुओं से भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए कुछ प्रत्यय किए जाते हैं। उनमें क्तिन, क्त, ल्युट्, घञ् आदि हैं। यहाँ तो केवल ल्युट और क्तिन् प्रत्ययों का ही प्रयोग दिया जा रहा है। व्याकरण में आता हैं कि (नपुंसके भवे क्तः 3.3.114) नपुंसकलिङ्ग में भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए क्त (त) प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे-गतम् = जाना, ज्ञातम् = ज्ञान, रुदितम् = रोना, हसितम् = हँसी आदि। इससे आगे ही कहा गया है। (ल्युट् च, 3.3.115) नपुंसकलिङ्ग में भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए ल्युट् प्रत्यय का भी प्रयोग किया जाता है। ल्युट का यु शेष रहता है। (युवोरनाको, 7.1.12-यु को अन और वु को अक आदेश होता है) यु को अन आदेश हो जाता है।

  1. आकारान्त और हलन्त धातुओं के साथ सन्धि होकर अन जुड़ जाता है। यथा स्थानम्, यानम्, पनम्, पचनम्, गमनम्, पाचनम्, सेवनम्, पठनम् आदि।
  2. स्वरान्त धातुओं के साथ अन जुड़ने पर इ, उ, ऋ को गुण हो जाता है और अयादि सन्धि होने पर रूप बनता है। यथा चयनम्, जयनम्, पवनम्, हरणम् आदि।
  3. धातुओं की उपधा में इ, उ, ऋ को गुण हो जाता है। यथा-वेदनम्, दोहनम्, नर्तनम् आदि।
  4. ल्युट् प्रत्यय वाले शब्द सदा नपुंसकलिङ्ग में होते हैं। इनके रूप फल के समान बनते हैं।

भू + ल्युट् = भवनम्
पच् + ल्युट् = पचनम्
दृश् + ल्युट् = दर्शनम्
पठ् + ल्युट् = पठनम्
गम् + ल्युट् = गमनम्
स्था + ल्युट् = स्थानम्

2. तद्धित प्रत्यय संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया-विशेषण तथा अव्यय में प्रत्यय लगाकर जो नये शब्द बनते हैं, वे तद्धित प्रत्ययान्त शब्द कहलाते हैं तथा उन प्रत्ययों को तद्धित प्रत्यय कहते हैं। तद्धित प्रत्यय लगने पर नये शब्दों के अर्थ भी मूल शब्दों से भिन्न हो जाते हैं।
जैसे-शक्तिवाला. – शक्ति + मतुप् = शक्तिमान्
शिव की सन्तान – शिव + अण् = शैवः
त्व, तल्, मतुप, ठक्

त्व प्रत्यय
शब्द के अन्त में “व” जुड़ जाने पर वह शब्द नपुंसकलिङ्ग रूप में प्रयुक्त होता है। भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए ‘त्व’ प्रत्यय लगाया जाता है; जैसे

शब्दप्रत्ययप्रत्ययान्त शब्द
पशुत्वपशुत्वम्
महत्त्वमहत्वम्
नारीत्वनारीत्वम्

तल् प्रत्यय
स्त्रीलिङ्ग में भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए ‘तल’ प्रत्यय भी लगाया जाता है। तल के स्थान पर ‘ता’ हो जाता है; जैसे

शब्दप्रत्ययप्रत्ययान्त शब्द
शत्तुतल्शत्तुता
मधुरतल्प्रियता
मधुरतल्मधुरता

मतुप् प्रत्यय
इस प्रत्यय का प्रयोग “वाला” अर्थ प्रकट करने के लिए किया जाता है। प्रत्यय का केवल ‘मत्’ ही शेष रह जाता है। यह अधिकतर इकारान्त, ईकारान्त और उकारान्त इत्यादि शब्दों में जुड़ता है।

इकारान्त शब्द
अग्नि + मतुप् = अग्निमत् (अग्निमान्, पुरुष)
शक्ति + मतुप् = शक्तिमत् (शक्तिवाला, शक्तिमान्, पुरुष)

ईकारान्त शब्द
धी + मतुप् = धीमत् (बुद्धिमान्, धीमान् पुरुष)
श्री + मतुप् = श्रीमत् (श्रीमान्, पुरुष)

उकारान्त शब्द
भानु + मतुप = भानुमत् (चमकने वाला, भानुमान्, पुरुष)
अंशु + मतुप् = अंशुमत् (सूय) अंशुमान, पुरुष)

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ऊकारान्त शब्द
वधू + मतुप् = वधूमत् (वधू युक्त) वधूमान् पुरुष, (पुँल्लिंग)

ओकारान्त शब्द
गो + मतुप् = गोमत् (गौओं वाला) गोमानु, पुरुष, (पुँल्लिंग)

हलन्त शब्द
घनुष् + मतुप् = धनुष्मत् (धनुर्धारी) धनुष्मान् पुरुष, (पुंल्लिड्ग)
गुरुत् + मतुप् = गुरुत्मत् (गुरुड़) गुरुत्मान् पुरुष, (पुंल्लिड्ग)

ठक् प्रत्यय
शब्द में ठक् के स्थान पर “अक्” जुड़ जाता है। ठक् प्रत्यय का प्रयोग भाववाचक संज्ञा के अर्थ के रूप में होता है। ठक् प्रत्ययान्त शब्दों के रूप निम्नलिखित हैं

धर्म + ठक् = धार्मिक (धर्म करने वाला) शब्द

शब्दप्रत्ययप्रत्ययान्त शब्दअर्थ
समाजठक्सामाजिकःसमाज की रक्षा करने वाला
अधर्मठक्अधार्मिकःधर्म न करने वाला
दुर्दुरठक्दाटुरिकःदर्दुर करने वाला
न्यायठक्नैयायिकःन्याय पढ़ने या जानने वाला

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HBSE 11th Class Chemistry Solutions Chapter 12 Organic Chemistry – Some Basic Principles and Techniques

Haryana State Board HBSE 11th Class Chemistry Solutions Chapter 12 Organic Chemistry – Some Basic Principles and Techniques Textbook Exercise Questions and Answers.

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