Class 12

HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. 3 जून, 1947 ई० को निम्नलिखित में से किस योजना की घोषणा की गई थी?
(A) वेवल योजना
(B) कैबिनेट मिशन योजना
(C) क्रिप्स योजना
(D) माउंटबेटन योजना
उत्तर:
(D) माउंटबेटन योजना

2. मुस्लिम सांप्रदायिकता के उदय का कारण था
(A) वहाबी आन्दोलन
(B) सर सैयद अहमद खाँ द्वारा सांप्रदायिक प्रचार
(C) अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

3. “चाहे समस्त भारत को आग लग जाए, तब भी पाकिस्तान नहीं बनेगा – पाकिस्तान मेरे शव पर ही बनेगा।”ये शब्द किसने कहे थे?
(A) महात्मा गांधी ने
(B) पंडित जवाहरलाल नेहरू ने
(C) सरदार पटेल ने
(D) मोहम्मद अली जिन्नाह ने
उत्तर:
(A) महात्मा गांधी ने

4. पाकिस्तान का निर्माण कब हुआ था ?
(A) 14 अगस्त, 1947 ई० में
(B) 15 अगस्त, 1947 ई० में
(C) 16 अगस्त, 1947 ई० में
(D) 14 अगस्त, 1948 ई० में
उत्तर:
(A) 14 अगस्त, 1947 ई० में

5. पाकिस्तान का प्रस्ताव कब पास किया गया ?
(A) 23 मार्च, 1941 ई० को
(B) 23 मार्च, 1940 ई० को
(C) 23 मार्च, 1942 ई० को
(D) 23 मार्च, 1943 ई० को
उत्तर:
(B) 23 मार्च, 1940 ई० को

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

6. अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना हुई
(A) 1906 ई० में
(B) 1907 ई० में
(C) 1908 ई० में
(D) 1909 ई० में
उत्तर:
(A) 1906 ई० में

7. ‘पाकिस्तान’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया था ?

(A) रहमत अली
(B) मुहम्मद इकबाल
(C) मुहम्मद अली जिन्नाह
(D) आगा खाँ
उत्तर:
(C) रहमत अली

8. मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस में समझौता हुआ
(A) 1916 ई० में
(B) 1917 ई० में
(C) 1918 ई० में
(D) 1920 ई० में
उत्तर:
(A) 1916 ई० में

9. अखिल भारतीय हिन्दू महासभा की स्थापना कब हुई?
(A) 1916 ई० में
(B) 1915 ई० में
(C) 1917 ई० में
(D) 1918 ई० में
उत्तर:
(B) 1915 ई० में

10. लॉर्ड मिण्टो से मिलने वाले शिष्टमण्डल का अध्यक्ष था
(A) सर अहमद मौलवी
(B) सर आगा खाँ
(C) सर सैयद अहमद खाँ
(D) मोहम्मद इकबाल
उत्तर:
(B) सर आगा खाँ

11. ‘भारत के वफादार मुसलमान’ नामक पुस्तक के रचनाकार का नाम था
(A) लॉर्ड मिण्टो
(B) सर सैयद अहमद खाँ
(C) मोहम्मद इकबाल
(D) सर आगा खाँ
उत्तर:
(B) सर सैयद अहमद खाँ

12. भारत के अंतिम अंग्रेज़ वायसराय थे
(A) लॉर्ड माऊंटबेटेन
(B) डॉ० राजेंद्र प्रसाद
(C) डॉ० राधा कृष्णन
(D) लॉर्ड एटली
उत्तर:
(A) लॉर्ड माऊंटबेटेन

13. जिन्ना को ‘कायदे आजम’ किसने कहा था?
(A) पंडित जवाहरलाल नेहरू ने
(B) महात्मा गाँधी ने
(C) सरदार पटेल ने
(D) लॉर्ड वावेल ने
उत्तर:
(B) महात्मा गाँधी ने

14. मुस्लिम लीग का संविधान कहाँ तैयार किया गया?
(A) लाहौर
(B) कलकत्ता
(C) कराची
(D) दिल्ली
उत्तर:
(C) कराची

15. मुस्लिम लीग ने ‘मुक्ति दिवस’ कब मनाया ?
(A) 22 अक्टूबर, 1939 ई० को
(B) 22 दिसम्बर, 1939 ई० को
(C) 22 नवम्बर, 1940 ई० को
(D) 22 दिसम्बर, 1941 ई० को
उत्तर:
(C) 22 दिसम्बर, 1939 ई० को

16. “निर्दोष लोगों की हत्या से विभाजन अच्छा था।” किसने कहा था?
(A) महात्मा गाँधी
(B) पंडित जवाहरलाल नेहरू
(C) लॉर्ड माउंटबेटन
(D) सरदार पटेल
उत्तर:
(D) सरदार पटेल

17. मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग की
(A) 1941 ई० में
(B) 1946 ई० में
(C) 1940 ई० में
(D) 1947 ई० में
उत्तर:
(C) 1940 ई० में

18. मुस्लिम लीग का संस्थापक किसे माना जाता है ?
(A) मोहम्मद अली जिन्नाह
(B) मोहम्मद इकबाल
(C) सर आगा खान
(D) सर सैयद अहमद खाँ
उत्तर:
(C) सर आगा खान

19. स्वतन्त्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल थे
(A) लॉर्ड माउंटबेटन
(B) पंडित जवाहरलाल नेहरू
(C) सरदार पटेल
(D) लॉर्ड वावेल
उत्तर:
(A) लॉर्ड माउंटबेटन

20. कैबिनेट मिशन ने घोषणा की
(A) 16 मई, 1946 को
(B) 17 मई, 1946 को
(C) 18 मई, 1946 को
(D) 20 मई, 1946 को
उत्तर:
(A) 16 मई, 1946 को

21. कैबिनेट मिशन के सदस्य थे
(A) चार
(B) दो
(C) तीन
(D) पाँच
उत्तर:
(C) तीन

22. 1946 में अंतरिम सरकार के कुल सदस्य निश्चित किए
(A) 12
(B) 11
(C) 13
(D) 14
उत्तर:
(D) 14

23. संविधान सभा के चुनाव हुए
(A) जुलाई, 1946
(B) जुलाई, 1947
(C) अगस्त, 1948
(D) अगस्त, 1946
उत्तर:
(A) जुलाई, 1946

24. किस अधिवेशन में काँग्रेस व मुस्लिम लीग में समझौता हुआ था?
(A) लखनऊ
(B) सूरत
(C) लाहौर
(D) बम्बई
उत्तर:
(A) लखनऊ

25. ‘भारत सरकार अधिनियम’ कब पास हुआ?
(अ) 1892 ई० में
(ब) 1909 ई० में
(स) 1919 ई० में
(द) 1935 ई० में
उत्तर:
(द) 1935 ई० में

26. मुस्लिम लीग ने सीधी कार्रवाई आरंभ करने का निर्णय लिया
(A) 16 अगस्त, 1946 को
(B) 19 अगस्त, 1946 को
(C) 15 अगस्त, 1944 को।
(D) 16 अगस्त, 1945 को
उत्तर:
(A) 16 अगस्त, 1946 को

27. मुस्लिम लीग की स्थापना कहाँ हुई थी?
(A) लाहौर
(B) ढाका
(C) पेशावर
(D) बम्बई
उत्तर:
(B) ढाका

28. ‘मुक्ति दिवस’ किस पार्टी ने मनाया था?
(A) मुस्लिम लीग
(B) समाजवादी
(C) काँग्रेस
(D) हिन्दू महासभा
उत्तर:
(A) मुस्लिम लीग

29. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री कौन थे?
(A) सरदार पटेल
(B) महात्मा गाँधी
(C) पंडित जवाहरलाल नेहरू
(D) सरदार बलदेव सिंह
उत्तर:
(C) पंडित जवाहरलाल नेहरू

30. आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति कौन थे?
(A) पंडित जवाहरलाल नेहरू
(B) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(C) सरदार पटेल
(D) महात्मा गाँधी
उत्तर:
(C) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
1 अक्तूबर, 1906 को शिमला में मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल वायसराय मिण्टो से किसकी अध्यक्षता में मिला था?
उत्तर:
1 अक्तूबर, 1906 को शिमला में मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल वायसराय मिण्टो से सर आगा खाँ की अध्यक्षता में मिला था।

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प्रश्न 2.
भारत में व्यवस्थापिका सभाओं की भारतीयों के प्रतिनिधित्व की बात कब और किसने कही?
उत्तर:
भारत में व्यवस्थापिका सभाओं की भारतीयों के प्रतिनिधित्व की बात सन् 1906 में हाऊस ऑफ कॉमन्स में भारत सचिव मार्ले ने कही।

प्रश्न 3.
मुस्लिम लीग की स्थापना कब और कहाँ की गई?
उत्तर:
मुस्लिम लीग की स्थापना ढाका में, 30 दिसंबर, 1906 को की गई।

प्रश्न 4.
मुस्लिम लीग की स्थापना सभा की अध्यक्षता किसने की थी?
उत्तर:
मुस्लिम लीग की स्थापना सभा की अध्यक्षता नवाब बकरूल-मुल्क ने की।

प्रश्न 5.
मुस्लिम लीग का संस्थापक सामान्यतः किसे माना जाता है?
उत्तर:
मुस्लिम लीग का संस्थापक आगा खाँ को माना जाता है।

प्रश्न 6.
मुस्लिम लीग की स्थापना में किन तीन उच्च-वर्गीय (नवाब । नेताओं की भूमिका रही?
उत्तर:
मुस्लिम लीग की स्थापना में आगा खाँ, मोहसिन उल-मुल्क और बकरूल-मुल्क तीन उच्च-वर्गीय (नवाब) मुस्लिम नेताओं की भूमिका रही।

प्रश्न 7.
‘पंजाब हिंदू सभा’ की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
‘पंजाब हिंदू सभा’ की स्थापना 1909 ई० में हुई।

प्रश्न 8.
‘पंजाब हिंद सभा’ की स्थापना में मुख्य भूमिका किसकी थी?
उत्तर:
‘पंजाब हिंदू सभा’ की स्थापना में लाल चंद और यू० एन० मुखर्जी की मुख्य भूमिका थी।

प्रश्न 9.
“एक हिंदू विश्वास में ही नहीं व्यावहारिक जीवन में भी यह अपनाए कि वह पहले हिंदू है और फिर भारतीय।” यह अपील पंजाब के किस हिंदू नेता ने की? –
उत्तर:
यह अपील पंजाब के नेता लाल चंद ने की।

प्रश्न 10.
‘अखिल भारतीय हिंदू सभा’ की स्थापना कब की गई?
उत्तर:
‘अखिल भारतीय हिंदू सभा’ की स्थापना 1915 ई० में की गई।

प्रश्न 11.
पृथक निर्वाचन मण्डल की स्थापना किस भारतीय परिषद् अधिनियम में स्वीकार की गई?
उत्तर:
पृथक् निर्वाचन मण्डल की स्थापना 1909 ई० के मार्ले-मिण्टो अधिनियम में स्वीकार की गई।

प्रश्न 12.
लखनऊ समझौते में कौन-से सांप्रदायिक विचार को स्वीकार करके भारतीय कांग्रेस ने भारी भूल की थी?
उत्तर:
लखनऊ समझौते में पृथक् निर्वाचन-मण्डल सांप्रदायिक विचार को स्वीकार करके भारतीय कांग्रेस ने भारी भूल की थी।

प्रश्न 13.
खिलाफत दिवस कब मनाया गया?
उत्तर:
खिलाफत दिवस 17 अक्तूबर, 1919 को मनाया गया।

प्रश्न 14.
संयुक्त कांग्रेस-लीग योजना कब तैयार की गई जो लखनऊ समझौते के नाम से प्रसिद्ध है?
उत्तर:
संयुक्त कांग्रेस-लीग योजना 1916 ई० में तैयार की गई जो लखनऊ समझौते के नाम से प्रसिद्ध है।

प्रश्न 15.
एम०ए०ओ० कॉलेज, अलीगढ़ की स्थापना कब की गई?
उत्तर:
एम०ए०ओ० कॉलेज, अलीगढ़ की स्थापना 1875 ई० में की गई।

प्रश्न 16.
मुस्लिम लीग की स्थापना अंग्रेजों की किस नीति का परिणाम थी?
उत्तर:
मुस्लिम लीग की स्थापना अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और शासन करो’ नीति का परिणाम थी।

प्रश्न 17.
आगा खाँ के नेतृत्व में मुस्लिम शिष्टमण्डल ने लॉर्ड मिण्टो से कहाँ भेंट की?
उत्तर:
आगा खाँ के नेतृत्व शष्टमण्डल ने लॉर्ड मिण्टो से शिमला में भेंट की।

प्रश्न 18.
लीग का संविधान कहाँ तथा कब तैयार किया गया?
उत्तर:
लीग का संविधान 1907 ई० में, कराची में तैयार किया गया।

प्रश्न 19.
‘नोआखली’ आज किस देश में है?
उत्तर:
‘नोआखली’ बांग्लादेश में है।

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प्रश्न 20.
1916 ई० में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने कौन-सा समझौता किया?
उत्तर:
1916 ई० में कांग्रेस तथा लीग ने लखनऊ समझौता किया।

प्रश्न 21.
प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त अंग्रेज़ी नीति के विरुद्ध मुस्लिम लीग ने कौन-सा महान आंदोलन चलाया?
उत्तर:
प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त अंग्रेज़ी नीति के विरुद्ध मुस्लिम लीग ने खिलाफत आंदोलन चलाया।

प्रश्न 22.
सांप्रदायिकता के आधार पर चुनाव-प्रणाली किस गवर्नर-जनरल ने प्रदान की?
उत्तर:
सांप्रदायिकता के आधार पर चुनाव-प्रणाली लॉर्ड मिण्टो ने प्रदान की।

प्रश्न 23.
“मुसलमानों की अंग्रेजों से मित्रता स्थापित हो सकती है, लेकिन अन्य भारतीय संप्रदायों के साथ नहीं….” ये शब्द किसके हैं?
उत्तर:
ये शब्द प्रिंसीपल बेक के हैं।

प्रश्न 24.
‘मुक्ति दिवस’ कब और किसने मनाया?
उत्तर:
22 दिसंबर, 1939 को कांग्रेस के सभी मंत्रिमण्डलों से त्यागपत्र देने पर लीग ने ‘मुक्ति दिवस’ मनाया।

प्रश्न 25.
मुस्लिम राज्य के लिए ‘पाकिस्तान’ नाम कब और किसने दिया?
उत्तर:
मुस्लिम राज्य के लिए ‘पाकिस्तान’ नाम 1933 ई० में रहमत अली ने दिया।

प्रश्न 26.
‘पाकिस्तान का प्रस्ताव’ कब पास किया गया?
उत्तर:
23 मार्च, 1940 को लीग ने लाहौर प्रस्ताव (पाकिस्तान प्रस्ताव पास किया। \

प्रश्न 27.
जिन्ना को ‘कायदे आज़म’ किसने कहा?
उत्तर:
जिन्ना को ‘कायदे आज़म’ गाँधी जी ने कहा।

प्रश्न 28.
माऊंटबेटेन भारत का वायसराय बनकर कब आया?
उत्तर:
माऊंटबेटेन भारत का वायसराय बनकर 22 मार्च, 1947 को आया।

प्रश्न 29.
सी०आर० फार्मूले पर जिन्ना ने क्या प्रतिक्रिया की?
उत्तर:
सी०आर० फार्मूले को जिन्ना ने अंगहीन कीड़े लगे हुए तथा दीमक खाए हुए पाकिस्तान’ की संज्ञा दी।

प्रश्न 30.
देश का बँटवारा कब स्वीकार कर लिया गया?
उत्तर:
3 जून, 1947 को माऊंटबेटेन योजना के तहत देश का बँटवारा स्वीकार कर लिया गया।

प्रश्न 31.
‘पाकिस्तान का निर्माण कब हुआ?
उत्तर:
‘पाकिस्तान’ का निर्माण 14 अगस्त, 1947 को हुआ।

प्रश्न 32.
मुस्लिम लीग ने कैबिनेट योजना को कब स्वीकार किया?
उत्तर:
मुस्लिम लीग ने कैबिनेट योजना को 6 जून, 1946 को स्वीकार किया।

प्रश्न 33.
कांग्रेस ने कैबिनेट योजना को कब स्वीकार किया?
उत्तर:
कांग्रेस ने कैबिनेट योजना को 25 जून, 1946 को स्वीकार किया।

प्रश्न 34.
संविधान सभा के चुनाव कब कराए गए?
उत्तर:
संविधान सभा के चुनाव जुलाई, 1946 को कराए गए।

प्रश्न 35.
मुस्लिम लीग ने सीधी कार्रवाई (Direct Action) आरंभ करने का फैसला कब किया?
उत्तर:
मुस्लिम लीग ने सीधी कार्रवाई आरंभ करने का फैसला 16 अगस्त, 1946 को किया।

प्रश्न 36.
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम कब पारित किया गया?
उत्तर:
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 18 जुलाई, 1947 को पारित किया गया।

प्रश्न 37.
भारत को स्वतंत्रता कब मिली?
उत्तर:
भारत को स्वतंत्रता 15 अगस्त, 1947 को मिली।

प्रश्न 38.
भारतीय नेताओं को विभाजन के लिए किसने सहमत किया?
उत्तर:
भारतीय नेताओं को विभाजन के लिए लॉर्ड माऊंटबेटेन ने सहमत किया।

प्रश्न 39.
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री कौन बने?
उत्तर:
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू बने।

प्रश्न 40.
“चाहे समस्त भारत को आग लग जाए, तब भी पाकिस्तान नहीं बनेगा-पाकिस्तान मेरे शव पर ही बनेगा।” किसने कहे?
उत्तर:
ये शब्द महात्मा गाँधी ने कहे।

प्रश्न 41.
“निर्दोष लोगों की हत्या से विभाजन अच्छा था।” ये शब्द किसने कहे?
उत्तर:
ये शब्द सरदार पटेल ने कहे।

प्रश्न 42.
“यदि शरीर के एक अंग में विष फैल जाए तो उसे शीघ्र ही काट देना चाहिए ताकि सारा शरीर खराब न हो जाए।” ये शब्द किसने कहे?
उत्तर:
ये शब्द सरदार पटेल ने कहे।

प्रश्न 43.
लॉर्ड वेवल को भारत का वायसराय कब नियुक्त किया गया?
उत्तर:
लॉर्ड वेवलं को भारत का वायसराय 1943 ई० में नियुक्त किया गया।

प्रश्न 44.
लॉर्ड वेवल ने रेडियो पर अपनी योजना की घोषणा कब की?
उत्तर:
लॉर्ड वेवल ने रेडियो पर अपनी योजना की घोषणा 14 जून, 1945 में की।

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प्रश्न 45.
वेवल योजना के अनुसार, भारत के राजनीतिक दलों का सम्मेलन कहाँ बुलाया गया?
उत्तर:
वेवल योजना के अनुसार, भारत के राजनीतिक दलों का सम्मेलन शिमला में बुलाया गया।

प्रश्न 46.
जुलाई, 1945 के चुनाव में इंग्लैण्ड में कौन-सा दल विजयी रहा?
उत्तर:
जुलाई, 1945 के चुनाव में इंग्लैण्ड में मजदूर दल विजयी रहा।

प्रश्न 47.
1945 ई० में इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री कौन बने?
उत्तर:
1945 ई० में इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री मि० एटली बने।

प्रश्न 48.
बंबई में नौ-सैनिक विद्रोह कब हुआ?
उत्तर:
बंबई में नौ-सैनिक विद्रोह 18 फरवरी, 1946 को हुआ।

प्रश्न 49.
कैबिनेट मिशन भारत कब आया?
उत्तर:
कैबिनेट मिशन 23 मार्च, 1946 को भारत आया।

प्रश्न 50.
कैबिनेट मिशन के कितने सदस्य थे?
उत्तर:
कैबिनेट मिशन के तीन सदस्य थे।

प्रश्न 51.
कैबिनेट मिशन ने अपनी घोषणा कब की?
उत्तर:
कैबिनेट मिशन ने अपनी घोषणा 16 मई, 1946 को की।

प्रश्न 52.
कैबिनेट मिशन द्वारा संविधान सभा के सदस्यों की संख्या कितनी निश्चित की गई?
उत्तर:
कैबिनेट मिशन द्वारा संविधान सभा के सदस्यों की संख्या 389 निश्चित की गई।

प्रश्न 53.
कैबिनेट मिशन ने अंतरिम सरकार के कितने सदस्य निश्चित किए?
उत्तर:
कैबिनेट मिशन ने अंतरिम सरकार के 14 सदस्य निश्चित किए।

प्रश्न 54.
मिशन द्वारा अंतरिम सरकार में भिन्न दलों को किस तरह प्रतिनिधित्व दिया गया?
उत्तर:
कांग्रेस 6, लीग 5, ऐंग्लो इंडियन, पारसी तथा सिक्ख सभी एक-एक।

प्रश्न 55.
‘वन मैन बाउन्ड्री फोर्स’ किसने, किसके लिए कहा है?
उत्तर:
‘वन मैन बाउन्ड्री फोर्स’ माऊंटबेटेन ने महात्मा गाँधी जी के लिए कहा है।

अति लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
विभाजन से लगभग कितने लोग प्रभावित हुए?
उत्तर:
विभाजन के दौरान भड़की सांप्रदायिक हिंसा, जनसंहार, आगजनी, लूटपाट, अराजकता, अपहरण, बलात्कार आदि घटनाओं से लाखों लोग प्रभावित हुए। अनुमान लगाया जाता है कि लगभग 2 से 2.5 लाख गैर-मुस्लिम तथा इतने ही मुस्लिम दंगों में मारे गए। लगभग 50 हजार महिलाओं का अपहरण हुआ तथा लगभग 1 करोड़ 50 लाख लोगों को अपने स्थानों से पलायन करना पड़ा।

प्रश्न 2.
आम लोगों के लिए विस्थापन का अर्थ क्या था?
उत्तर:
आम लोगों के लिए विस्थापन का अर्थ था-अपनी जड़ों से उखड़ जाना या अपने घरों से उजड़ जाना। एक ही झटके में इन लोगों की संपत्ति, घर, दुकानें, खेत, रोजी-रोटी के साधन उनके हाथों से निकल गए। बचपन की यादें छिन गईं। लाखों लोगों के प्रियजन मारे गए या बिछुड़ गए तथा वे शरणार्थी बन गए।

प्रश्न 3.
आम लोग विभाजन को क्या बता रहे थे?
उत्तर:
आम लोग विभाजन को सरकारी नजरिए से नहीं देख रहे थे। उनके लिए विभाजन एक भयानक अनुभव था और वे उसे ‘मार्शल ला’, ‘मारामारी’, ‘रौला’ या ‘हुल्लड़’ जैसे शब्दों से व्यक्त करते थे।

प्रश्न 4.
पाकिस्तान में हिंदुओं के बारे में किस प्रकार की रूढ़ छवियाँ हैं?
उत्तर:
विभाजन ने भारत और पाकिस्तान दोनों में रूढ़ छवियों का निर्माण किया। पाकिस्तान में हिंदुओं के बारे में रूढ़ छवि है कि हिंदू काले, कायर, बहुदेववादी तथा शाकाहारी होते हैं।

प्रश्न 5.
द्विराष्ट्र का सिद्धांत क्या था?
उत्तर:
मोहम्मद अली जिन्ना ने द्विराष्ट्र का सिद्धांत दिया। इस सिद्धांत के अनुसार हिंदू और मुस्लिम बिल्कुल दो समाज थे। ये दोनों धर्म, दर्शन, सामाजिक प्रथा, साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अलग-अलग थे। इसीलिए भारत में एक नहीं दो पृथक् राष्ट्र यानी हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र मौजूद थे।

प्रश्न 6.
‘फूट डालो और राज करो’ का सिद्धांत क्या है?
उत्तर:
लॉर्ड एलफिंस्टन ने साफ-साफ कहा था कि फूट डालो और राज करो प्राचीन समय में रोमन का आदर्श था और अब यह भारत में हमारा भी होना चाहिए। अंग्रेज़ प्रारंभ से ही समझ गए थे कि थोड़े से ब्रिटिश अधिकारी सामूहिक भारतीयों की ताकत की बराबरी नहीं कर सकते। अतः उन्होंने एक समुदाय को दूसरे के खिलाफ भड़काने का प्रयास किया। इस नीति का प्रयोग करके अंग्रेज़ों ने हिंदुस्तान में हिंदुओं और मुसलमानों में फूट डाली और राज़ किया।

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प्रश्न 7.
मुस्लिम लीग की स्थापना कब हुई? इसके उद्देश्य क्या थे?
उत्तर:
मुस्लिम लीग की स्थापना 30 दिसंबर, 1906 को ढाका में हुई थी। इसका मुख्य उद्देश्य मुसलमानों के राजनीतिक हितों की रक्षा करना और उनमें अंग्रेज़ों के प्रति निष्ठा पैदा करना था।

प्रश्न 8.
हिंदू महासभा पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
हिंदू महासभा की स्थापना 1915 में हुई। इसका प्रभाव उत्तर भारत तक सीमित था। यह पार्टी हिंदुओं के मध्य जाति और समुदाय के भेदभावों को समाप्त करके हिंदू समाज में एकता पैदा करने की कोशिश करती थी। यह मुसलमानों को गैर-समुदायी बताकर अपनी पहचान को परिभाषित करती थी।

प्रश्न 9.
आर्य समाज पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानंद ने 1875 में बंबई में की थी। 19वीं सदी के अंतिम दशकों और 20वीं सदी के प्रारंभिक दशकों का यह उत्तर-भारतीय हिंदू सुधार आंदोलन-पंजाब में सक्रिय था। आर्य समाज ने वैदिक ज्ञान और आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा पर बल दिया। इसने मुसलमानों को पुनः हिंदू बनाने के लिए शुद्धि आंदोलन चलाया।

प्रश्न 10.
मस्जिद के सामने संगीत बजाने से हिंसा क्यों भड़कती थी?
उत्तर:
अकसर हिंदुओं के द्वारा होली जैसे त्योहार पर नमाज़ के वक्त मस्ज़िद के बाहर संगीत बजाए जाने से हिंदू-मुस्लिम हिंसा भड़क उठती थी। इसका कारण यह था कि रूढ़िवादी मुसलमान संगीत बजाए जाने को अपनी नमाज़ या इबादत में खलल मानते थे।

प्रश्न 11.
1937 के चुनावों ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा कैसे दिया?
उत्तर:
1937 के चुनाव में कांग्रेस को भारी सफलता मिली, लेकिन मुसलमानों के लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। मुस्लिम लीग को भी इन क्षेत्रों में सफलता नहीं मिली। लीग ने यू०पी० में कांग्रेस के सामने साझा सरकार बनाने का प्रस्ताव रखा, परंतु इसे कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया। इसके बाद लीग को लगा कि पृथक् निर्वाचन प्रणाली से उसे सत्ता नहीं मिल सकती। अतः उसने उग्र-सांप्रदायिकता का रुख अपना लिया और 1940 में ‘पाकिस्तान’ का प्रस्ताव पास किया।

प्रश्न 12.
कांग्रेस के मंत्रिमण्डलों पर मुस्लिम लीग ने क्या आरोप लगाया?
उत्तर:
1937 के बाद 7 प्रांतों में तथा 1938 में 2 अन्य प्रांतों में कांग्रेसी मंत्रिमण्डल बने। लीग ने सभी प्रांतों में कांग्रेस के शासन के पूरे 27 महीने के काल में कांग्रेस के खिलाफ जोरदार प्रचार किया और कांग्रेस पर आरोप लगाया कि इस शासन में मुसलमानों पर अत्याचार किए जा रहे हैं। कांग्रेस सांप्रदायिक दंगे रोकने में असफल रही है और उर्दू की कीमत पर देवनागरी लिपि में हिंदुस्तानी को बढ़ावा दे रही है।

प्रश्न 13.
पाकिस्तान का प्रस्ताव क्या था?
उत्तर:
मार्च,1940 में मस्लिम लीग ने लाहौर में पाकिस्तान का प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि “भौगोलिक दृष्टि से सटी हुई इकाइयों को क्षेत्रों के रूप में चिह्नित किया जाए, जिन्हें बनाने में जरूरत के हिसाब से इलाकों का फिर से ऐसा समायोजन किया जाए कि हिंदुस्तान के उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी क्षेत्रों जैसे जिन हिस्सों में मुसलमानों की संख्या ज्यादा है, उन्हें इकट्ठा करके ‘स्वतंत्र राज्य’ बना दिया जाए, जिसमें शामिल इकाइयाँ स्वाधीन और स्वायत्त होंगी।

प्रश्न 14.
यूनियनिस्ट पार्टी पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
यूनियनिस्ट पार्टी की स्थापना 1923 में की गई थी। यह पार्टी पंजाब में हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख भू-स्वामियों का प्रतिनिधित्व करती थी। यह पार्टी 1923-47 के बीच पंजाब में काफी ताकतवर रही।

प्रश्न 15.
महासंघ या परिसंघ का क्या अर्थ है?
उत्तर:
आधुनिक राजनीतिक शब्दावली में ‘महासंघ’ या परिसंघ’ का अर्थ है काफी हद तक स्वायत्त और संप्रभु राज्यों का संघ, जिसकी केंद्रीय सरकार के पास केवल सीमित शक्तियाँ होती हैं।

प्रश्न 16.
‘पाकिस्तान’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किसने किया? इसका क्या अर्थ था?
उत्तर:
‘पाकिस्तान’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1933 में कैम्ब्रिज के छात्र चौधरी रहमत अली द्वारा किया गया। पाकिस्तान या पाकिस्तान (पंजाब, अफगान, कश्मीर, सिंध और ब्लूचिस्तान) का अर्थ है पवित्र स्थान।

प्रश्न 17.
लीग के ‘सीधी कार्रवाई दिवस’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
कैबिनेट मिशन की असफलता के बाद लीग ने 16 अगस्त, 1946 को ‘सीधी कार्रवाई दिवस’ घोषित किया तथा ‘लड़कर लेंगे पाकिस्तान’ का नारा दिया। इससे कलकत्ता और अन्य स्थानों पर हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे तथा हजारों लोग मारे गए तथा गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो गई। इन दंगों ने पाकिस्तान का निर्माण अपरिहार्य-सा बना दिया।

प्रश्न 18.
“गाँधीजी एक अकेली फौज थे”, स्पष्ट करें।
उत्तर:
जब अगस्त, 1947 में देश के सभी भागों में दंगे भड़क उठे तो 77 वर्ष के गाँधीजी ने अपने सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों को परखने के लिए एक बार सब कुछ दाँव पर लगा दिया। वे दंगों को रोकने और हिंदू-मुसलमानों में सद्भावना स्थापित करने के लिए अकेले ही पूर्वी बंगाल के नोआखली, बिहार के गाँवों, कलकत्ता आदि स्थानों पर गए। वे जहाँ-जहाँ भी गए, लोगों में बिजली-सा प्रभाव होता था। दंगे शांत हो उठते थे। माऊंटबेटेन ने गाँधीजी के प्रभाव को देखते हुए ‘One man boundary my force’ बताया। इस प्रकार दंगों के समय गाँधीजी ‘एक अकेली फौज’ के रूप में कार्य करते रहे और सद्भावना स्थापित करते रहे।

प्रश्न 19.
मुहाज़िर से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
विभाजन के समय संयुक्त प्रान्त व बिहार से उर्दू भाषी मुस्लिम लोग भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए। इनमें से अधिकांश सिन्ध प्रान्त में व कराची में जाकर बस गए। इन शरणार्थियों को आज भी मुहाज़िर कहा जाता है तथा इनकी अनेक समस्याएँ अभी भी बनी हुई हैं।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
क्या विभाजन को महाध्वंस कहना उपयुक्त है?
उत्तर:
विभाजन को महाध्वंस कहना उपयुक्त है। महाध्वंस एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें युद्ध जैसी स्थिति में लगभग सब कुछ नष्ट हो जाता है तथा बड़ी संख्या में लोग मारे जाते हैं। विभाजन के समय भी युद्ध जैसे हालात पैदा हो गए थे। विभाजन सांप्रदायिक हिंसा, जनसंहार, आगजनी, लूटपाट, अराजकता, अपहरण, बलात्कार आदि का पर्याय बन गया था। ‘दंगाई भीड़ों’ ने दूसरे समुदाय के लोगों को निशाना बनाकर मारा। ट्रेनों में सफर कर रहे लोगों पर हिंसक हमले हुए। ट्रेने मौत का पिंजरा बन गईं। यद्यपि हिंसा में पाकिस्तान और हिंदुस्तान में मारे गए लोगों की ठीक-ठीक संख्या बता पाना असंभव है, तथापि अनुमान लगाया जाता है कि 2 लाख से 2.5 लाख गैर-मुस्लिम तथा इतने ही मुस्लिम विभाजन की हिंसा में मारे गए।

यह भी अनुमान लगाया जाता है कि लगभग 1 करोड़ 50 लाख लोग अगस्त, 1947 से अक्तूबर, 1947 के बीच सीमा पार करने पर विवश हुए। पलक झपकते ही इन लोगों की संपत्ति, घर, दुकानें, खेत, रोजी-रोटी के साधन उनके हाथों से निकल गए। वे अपनी जड़ों से उखाड़ दिए गए। लाखों लोगों के प्रियजन मारे गए या बिछुड़ गए या शरणार्थी बन गए। वस्तुतः यह मात्र सम्पत्ति और क्षेत्र का विभाजन नहीं था बल्कि एक महाध्वंस था। 1947 में जो लोग सीमा पार से जिंदा बचकर आ रहे थे, वे विभाजन के फैसले को ‘सरकारी नज़रिए’ से नहीं देख रहे थे। उनके अनुभव भयानक थे और वे उसे ‘मार्शल लॉ’ ‘मारामारी’, ‘रौला’ या ‘हुल्लड़’ जैसे शब्दों से व्यक्त करते थे। वस्तुतः जनहिंसा, आगजनी, लूटपाट, अपहरण, बलात्कार को देखते
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हुए अनेक प्रत्यक्षदर्शियों और विद्वानों ने इसे ‘महाध्वंस’ (होलोकॉस्ट) कहा है। 1947 का हादसा इतना जघन्य था कि ‘विभाजन’ या ‘बँटवारा’ या, ‘तकसीम’ कह देने मात्र से इसके सारे पहलू प्रकट नहीं होते। मानवीय पीड़ा और दर्द का अहसास नहीं होता। महाध्वंस से सामूहिक नरसंहार की भयानकता और अन्य प्रभावों की भीषणता को कुछ हद तक समझा जा सकता है।

प्रश्न 2.
विभाजन ने भारत और पाकिस्तान के बीच में किस प्रकार की रूढ़छवियों का निर्माण किया?
उत्तर:
विभाजन की वजह से दोनों देशों में रूढ़छवियों का निर्माण हुआ। भारत में पाकिस्तान के प्रति नफरत तथा पाकिस्तान में भारत के प्रति नफरत बँटवारे की देन है। इससे दोनों देशों में दुश्मनी के भाव बने रहे हैं। यहाँ तक कि कई बार तो लोग यह भी मान लेते हैं कि भारतीय मुसलमानों की निष्ठा और वफादारी पाकिस्तान के साथ रहती है। इस क्षेत्रातीत (Extra-territorial) निष्ठा जैसी रूढ़ छवि के साथ अन्य आपत्तिजनक और गलत विचार भी गहरे में जुड़े होते हैं। जैसे कि कुछ लोगों को लगता है कि मुसलमान क्रूर, कट्टर और गंदे होते हैं। वे हमलावरों के वंशज हैं। दूसरी ओर ऐसा समझा जाता है कि हिंदू दयालु, उदार और शुद्ध होते हैं और वे सदैव हमले सहते आए हैं।

जहाँ भारत में इस प्रकार की रूढ़छवियाँ हैं वहीं पाकिस्तान में भी इसी प्रकार के विचार प्रचलन में हैं। पत्रकार आर०एम० मर्फी ने अपने अध्ययन में दर्शाया है कि पाकिस्तान में भी रूढ़ छवियां प्रचलन में हैं। उनका कहना है कि कुछ पाकिस्तानियों को लगता है कि मुसलमान निष्पक्ष, बहादुर, एकेश्वरवादी और मांसाहारी होते हैं, जबकि हिंदू काले, कायर, बहुदेववादी तथा शाकाहारी होते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इन रूढ़ छवियों में से कुछ का निर्माण विभाजन से पहले ही कुछ हिंदुओं व मुसलमानों में हो चुका था परंतु 1947 के विभाजन तथा उससे जुड़ी बर्बरता ने इन छवियों को मजबूत किया है।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

प्रश्न 3.
क्या विभाजन एक लंबे इतिहास का अंतिम चरण था?
उत्तर:
कुछ भारतीय और पाकिस्तानी इतिहासकार यह मानते हैं कि विभाजन एक लंबे इतिहास का अंतिम चरण था। इस बात में उनका कहना है कि मोहम्मद अली जिन्ना का यह सिद्धांत ठीक था कि भारत में हिंदू और मुस्लिम दो पृथक् राष्ट्र विद्यमान थे। उनके अनुसार यह विचार मध्यकालीन भारत पर भी लागू होता है। ये इतिहासकार इस बात पर बल देते हैं कि 1947 की घटनाएँ (विभाजन) मध्यकाल तथा आधुनिक काल में हुए हिंदू-मुस्लिम झगड़ों के लंबे इतिहास से जुड़ी हुई हैं।

इस प्रकार वे विभाजन को हिंदू-मुस्लिम झगड़ों का चरम बिंदु मानते हैं। परंतु ये विद्वान इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि इन दोनों समुदायों में आपसी मेल-जोल का लंबा इतिहास भी रहा है। दोनों समुदायों के मेल-मिलाप से उर्दू भाषा, संगीत, स्थापत्य, रहन-सहन आदि से नई मिली-जुली संस्कृति (Composite Culture) का उदय व विकास हुआ। परंतु जो लोग मात्र हिंदू-मुस्लिम झगड़ों की ही बात करते हैं वे यह आकलन नहीं कर पाते।

प्रश्न 4.
सांप्रदायिकता का अर्थ समझाइए।
उत्तर:
सामान्य भाषा में साम्प्रदायिकता का अभिप्राय राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए धर्म का दुरुपयोग करना है। इस विचारधारा के अंतर्गत एक समुदाय की एकता का एकमात्र आधार धर्म को माना जाता है। बिपिन चंद्र जी ने तीन तत्त्वों पर बल दिया है। प्रथम, एक सांप्रदायिक व्यक्ति का विश्वास होता है कि एक ही धर्म को मानने वालों के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हित भी समान होते हैं। दूसरा-सांप्रदायिकता को मानने वाले यह भी स्वीकार करते हैं कि एक धर्म मानने वालों के सभी प्रकार के हित एक ही नहीं होते, वरन दूसरे धर्म के मानने वालों के हितों से भिन्न भी होते हैं।

तीसरा, उक्त दोनों तत्त्व मानने वाले सांप्रदायिक लोग यह कहते हैं कि एक धर्मावलम्बियों के हित दूसरों के विरोधी होते हैं। सांप्रदायिकता के इस स्तर पर पहुँचने पर वह फासीवादी हो जाती है तथा युद्ध की भाषा बोलने लगती है। इसका अर्थ है कि सांप्रदायिकता वह राजनीति है जो धार्मिक समुदायों के बीच विरोध और झगड़े पैदा करती है। सांप्रदायिकता किसी भी समुदाय में एकता पैदा करने के लिए आंतरिक भिन्नताओं को दबाती है। उस समुदाय को किसी अन्य समुदाय के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करती है।

प्रश्न 5.
अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति विभाजन के लिए किस हद तक जिम्मेदार थी?
उत्तर:
अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को भारत में सांप्रदायिकता के उदय व विकास और अन्ततः विभाजन के लिए जिम्मेदार माना गया है। अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुसलमानों में घृणा पैदा करने को राजनीतिक शस्त्र के रूप में प्रयोग किया। इस नीति से वे भारतीय समाज में अपने समर्थक और आधार को बढ़ाते थे तथा आपसी फूट डालकर भारतीयों को एक होने से रोकते थे। 1857 ई० के बाद अंग्रेजों ने मुसलमानों का दमन किया तथा हिंदुओं को साथ लगाया। परंतु 1870 के दशक में जब शिक्षित भारतीयों में राजनीतिक चेतना आने लगी तो उन्होंने मुसलमानों का पक्ष लेना शुरू किया।

उन्हें विशेष रियायतें देने लगे। भारतीयों के मतभेदों को उभारकर उनमें दुर्भावनाएँ पैदा की। अंग्रेज़ों ने कांग्रेस को हिंदू आंदोलन बताया तथा सर सैयद अहमद के साथ मिलकर मुसलमानों को कांग्रेस के आंदोलन से दूर रखने का प्रयास किया। साथ ही उच्चवर्गीय मुसलमानों को अपना संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया। 1906 में मुस्लिम लीग का निर्माण करवाया। 1909 के एक्ट में पृथक निर्वाचन प्रणाली प्रारम्भ की। बाद में इसका विस्तार किया। 1940 के बाद तो मुस्लिम लीग को एक प्रकार से भारतीय समस्याओं विशेष रूप से सांप्रदायिक समस्या के हल के लिए वीटो का अधिकार ही दे दिया। इस नीति से भारतीयों में दंगे हुए। स्पष्ट है कि अंग्रेजों की ‘फूट डालो व राज करो’ की नीति भारतं विभाजन के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है।

प्रश्न 6.
पृथक निर्वाचन प्रणाली ने भारतीय राजनीति को कैसे प्रभावित किया? अथवा संविधान सभा में पृथक चुनाव प्रणाली का विरोध क्यों किया गया?
उत्तर:
पृथक् निर्वाचन पद्धति ने भारतीय राजनीति की प्रकृति को अत्यधिक प्रभावित किया और इसका विरोध हुआ। इस प्रणाली का अभिप्राय था कि धर्म के आधार पर पहचान को स्वीकृति प्रदान की गई। अब पृथक निर्वाचन चुनाव क्षेत्रों में सिर्फ मुस्लिम उम्मीदवार ही खड़े हो सकते थे तथा मुस्लिम मतदाता ही मत डाल सकते थे। इसका अर्थ यह भी था कि गैर-मुस्लिम मतदाता मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए मतदान नहीं कर सकते थे।

ऐसा करके ब्रिटिश सरकार ने चुनाव प्रचार और राजनीति को धार्मिक दीवारों में बाँध दिया। इस पृथक् निर्वाचन प्रणाली ने इस बात को बढ़ावा दिया कि भारतीय समाज हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच बँटा है। इससे अलगाववाद को बढ़ावा मिला और सांप्रदायिक संगठनों को भी बल मिला। इससे चुनावी राजनीति धार्मिक पहचान को गहरा और पक्का करने लगी। इसने राष्ट्रीय राजनीति को कमजोर किया।

प्रश्न 7.
कैबिनेट मिशन भारत क्यों आया? इसके प्रमुख प्रस्ताव क्या थे?
उत्तर:
15 मार्च, 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भारत को जल्दी ही स्वतंत्रता देने की बात कही। अंग्रेज़ भारत से सम्मानजनक ढंग से इंग्लैंड लौट जाना चाहते थे। अतः मार्च, 1946 में कैबिनेट मिशन भारत भेजा गया। इसका लक्ष्य भारत में एक राष्ट्रीय सरकार बनाना तथा भावी संविधान के लिए रास्ता तैयार करना था।

  • प्रस्ताव कैबिनेट मिशन ने 24 मार्च से जून, 1946 तक भारत के सभी नेताओं से वार्ता की तथा पाकिस्तान की माँग को अस्वीकार कर एक भारतीय संघ का प्रस्ताव रखा। इसकी संविधान सभा के लिए चुनाव प्रांतों द्वारा किया जाता था। प्रांतों को तीन भागों में बाँटा गया। ‘क’ समूह में मद्रास, बंबई, संयुक्त प्रांत, बिहार और उड़ीसा को रखा गया। ‘ख’ समूह में पंजाब, सीमा प्रांत और सिंध तथा आसाम और बंगाल को ‘ग’ समूह में रखा गया। प्रांतों में अवशिष्ट (Residual) शक्तियाँ रखी गईं। केंद्र के पास प्रतिरक्षा, विदेशी मामले और संचार व्यवस्था को रखा गया। योजना में यह भी कहा गया कि प्रथम आम चुनाव के बाद कोई भी प्रांत अपने समूह से अलग हट सकता है और 10 वर्ष के बाद प्रांत समूह और केंद्रीय संविधान में परिवर्तन की माँग कर सकता है। इस योजना को कांग्रेस तथा लीग दोनों ने स्वीकार कर लिया।

परंतु कांग्रेस प्रांतों के समूहीकरण को ऐच्छिक मानती थी। 10 जुलाई, 1946 को नेहरू जी ने एक बयान दिया कि कांग्रेस संविधान सभा में सभी अनुबंधों से मुक्त होकर जाएगी। जिन्ना, पहले ही इस योजना से खुश नहीं थे, तत्काल कैबिनेट योजना को अस्वीकार कर दिया।

प्रश्न 8.
वेवल योजना क्यों असफल रही?
उत्तर:
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इंग्लैंड की सरकार और भारतीय नेताओं के मध्य गतिरोध को समाप्त करने के उद्देश्य से वेवल ने सभी भारतीय नेताओं को बातचीत के लिए 14 जून, 1945 को आमंत्रित किया। सभी नेता जेलों से रिहा किए गए। वेवल योजना के तहत शिमला कांफ्रेंस हुई जिसमें वेवल ने मुख्य योजना ‘नई कार्यकारी परिषद्’ के निर्माण को लेकर रखी। नई कार्यकारिणी में वायसराय और मुख्य सेनापति को छोड़कर सभी सदस्य भारतीय होने थे तथा सभी समुदायों को संतुलित प्रतिनिधित्व दिया जाना था। हिंदू-मुस्लिम सदस्यों की संख्या बराबर होनी थी। इस कार्यकारिणी परिषद् ने अंतरिम राष्ट्रीय सरकार के रूप में कार्य करना था। परंतु नई परिषद् के निर्माण को लेकर भारतीय दलों में कोई सहमति नहीं बन पाई।

लीग का कहना था कि वह मुस्लिम समुदाय का एकमात्र प्रतिनिधि है, अतः सिर्फ उसे ही परिषद के मुस्लिम सदस्यों को चुनने का हक दिया जाए। दूसरी ओर, कांग्रेस का कहना था कि वह एक राष्ट्रीय संगठन है अतः उसे हिंदू तथा साथ ही मुस्लिम सदस्यों को चुनने का हक दिया जाए। लीग की हठधर्मिता के कारण गतिरोध पैदा हो गया। ऐसे में 14 जुलाई, 1945 को वेवल ने योजना की असफलता की घोषणा कर दी। इससे कांग्रेस व लीग में कटुता बढ़ी तथा योजना की असफलता से देश में निराशा फैली। इस घटना ने देश को विभाजन की ओर धकेला।

प्रश्न 9.
गाँधी जी द्वारा 1947 के दंगों के समय सद्भावना स्थापित करने के प्रयासों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
1947 के दंगों के समय महात्मा गाँधी ही थे जो अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी देश में सांप्रदायिक सद्भावना के प्रयासों में लगे थे। 77 वर्ष के बुजुर्ग महात्मा गाँधी ने अहिंसा के अपने सिद्धांत को एक बार फिर परखने के लिए अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया। उनका विश्वास था कि सत्य और अहिंसा के द्वारा लोगों का हृदय परिवर्तन किया जा सकता है। सचमुच इस संकट की घड़ी में गाँधीजी के नेतृत्व का चरमोत्कर्ष देखा जा सकता है। वे देश की धधकती हुई सांप्रदायिक आग को समाप्त करने के लिए पूर्वी बंगाल के नोआखली से बिहार के गाँवों में निकल पड़े। वे कलकत्ता व दिल्ली में दंगों से झुलसी झुग्गी-झोंपड़ियों तक पहुंचे। उन्होंने लोगों को समझाया कि हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे को न मारें। उन्होंने सभी जगहों पर अल्पसंख्यकों को दिलासा दी।

पूर्वी बंगाल में उन्होंने गाँव-गाँव पैदल पहुँचकर वहाँ के मुसलमानों को हिंदुओं की रक्षा के लिए समझाया। दिल्ली में भी दोनों समुदायों में भरोसा और विश्वास बहाल करने की कोशिश की। जहाँ पर गाँधी जी हिंसा को रोकने और सद्भावना की स्थापना के लिए जाते थे वहाँ पर ‘बिजली’ की गति से असर होता था। लोग अपने हथियार गाँधीजी को समर्पित कर देते थे। जहाँ बड़ी सेना भी शांति बहाल करने में सक्षम नहीं होती थी वहाँ गाँधीजी के पहुंचते ही शान्ति स्थापित हो जाती थी।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

प्रश्न 10.
इज्जत की रक्षा से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
विभाजन के दौरान ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिलते हैं जब परिवार के पुरुषों ने ही परिवार की ‘इज्जत’ की रक्षा के नाम पर अपने परिवार की स्त्रियों को स्वयं ही मार दिया या आत्महत्या के लिए प्रेरित किया। इन पुरुषों को भय होता था कि शत्रु उनकी औरतों-माँ, बहन, बेटी को नापाक कर सकता था। इसलिए परिवार की मान-मर्यादा को बचाने के लिए खुद ही उनको मार डाला। उर्वशी बुटालिया ने अपनी पुस्तक दि अदर साइड ऑफ साइलेंस में रावलपिंडी जिले के थुआखालसा नामक गाँव की एक इसी प्रकार की दर्दनाक घटना का विवरण दिया है।

वे बताती हैं कि बँटवारे के समय सिक्खों के इस गाँव की 90 औरतों ने दुश्मनों के हाथों में पड़ने की बजाय ‘अपनी इच्छा से’ एक कुएँ में कूदकर अपनी जान दे दी थी। इस गाँव के लोग इसे आत्महत्या नहीं शहादत मानते हैं और आज भी दिल्ली के एक गुरुद्वारे में हर वर्ष 13 मार्च को उनकी शहादत की याद में कार्यक्रम आयोजित किया जाता है तथा इस घटना को मर्दो, औरतों व बच्चों को विस्तार से सुनाया जाता है। वस्तुतः इस माध्यम से महिलाओं को अपनी बहनों के बलिदान और बहादुरी को अपने दिलों में संजोने और स्वयं को भी उसी साँचे में ढालने के लिए प्रेरित किया जाता है।

प्रश्न 11.
विभाजन के समय मानवता और सदभावना के पक्ष को उजागर करने वाली कोई एक घटना लिखें।
उत्तर:
विभाजन का एक पहलू जहाँ हिंसा, आगजनी, मार-काट से जुड़ा है, वहीं दूसरा पहलू मानवीय मदद और सद्भावना का भी रहा। ऐसी अनेक घटनाएँ दोनों तरफ देखने को मिलती हैं। उदाहरण के लिए एक ऐसी ही घटना का वर्णन डॉ० खुशदेव सिंह ने अपने संस्मरण में किया है। डॉ० खुशदेव सिंह पेशे से डॉक्टर थे तथा तपेदिक के विशेषज्ञ थे। विभाजन के समय वे हिमाचल प्रदेश में धर्मपुर नामक स्थान पर नियुक्त थे। उन्होंने बिना किसी भेदभाव के असंख्य शरणार्थियों (हिंदू, सिक्ख, मुसलमान सहित) को भोजन, आश्रय और सुरक्षा प्रदान की। उनकी मानवता व सहृदयता ने धर्मपुर के लोगों का दिल जीत लिया था।

उन पर वहाँ के लोगों का वैसा ही विश्वास था जैसा दिल्ली और कई स्थानों पर मुसलमानों को गाँधी जी पर था। डॉ० खुशदेव सिंह ने 1947 के बारे में उल्लेख करते हुए संस्मरण लिखा जिसका शीर्षक-लव इज स्ट्रांगर देन हेट, ए रिमेम्बेरेंस ऑफ 1947 (मोहब्बत नफ़रत से ज्यादा ताकतवर होती है : 1947 की यादें हैं) अपनी इस पुस्तक में डॉक्टर साहब ने अपने कुछ राहत कार्यों का विवरण देते हुए स्पष्ट किया है कि यह “एक इंसान होने के नाते बिरादर इंसानों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए मेरी छोटी-सी कोशिश थी।” उन्होंने 1949 में कराची की दो बार यात्राओं का विवरण बड़े गर्वपूर्वक और हृदयस्पर्शी शब्दों में दिया है।

प्रश्न 12.
व्यक्तिगत स्मृतियों की खूबी का वर्णन करो।
उत्तर:
मौखिक स्रोत के रूप में व्यक्तिगत स्मृतियों की एक महत्त्वपूर्ण खूबी यह है कि इनसे हमें लोगों के अनुभवों और स्मृतियों को गहराई से समझने में सहायता मिलती है। इन स्मृतियों के माध्यम से इतिहासकारों को विभाजन जैसी दर्दनाक घटना के दौरान लोगों को किन-किन शारीरिक और मानसिक पीड़ाओं को झेलना पड़ा, का बहुरंगी एवं सजीव वृत्तांत लिखने में सहायता मिलती है। यहाँ यह उल्लेख करना भी उपयुक्त है कि सरकारी दस्तावेजों में इस तरह की जानकारी नहीं मिलती।

ये दस्तावेज नीतिगत और दलगत या विभिन्न सरकारी योजनाओं से संबंधित होते हैं। इन फाइलों व रिपोर्टों में बँटवारे से पहले की वार्ताओं, समझौतों या दंगों और विस्थापन के आँकड़ों, शरणार्थियों के पुनर्वास इत्यादि के बारे में काफी जानकारी मिलती है। परंतु इनसे देश के विभाजन से प्रभावित होने वाले लोगों के रोजाना के हालात, उनकी अंतपीड़ा और कड़वे अनुभवों के बारे में विशेष पता नहीं लगता। यह तो व्यक्तिगत स्मृतियों से ही जाना जा सकता है।

प्रश्न 13.
मौखिक गवाही प्राप्त करने संबंधी क्या कठिनाइयाँ होती हैं?
उत्तर:
विभाजन जैसे विषय पर मौखिक गवाही प्राप्त करना अत्यंत कठिन कार्य है। साक्षात्कारकर्ता को लोगों की पीड़ा के । अहसास को समझने के लिए अत्यंत सूझ-बूझ और संवेदनशीलता से काम लेना होता है। उदाहरण के लिए सबसे पहली समस्या यह होती है कि विभाजन की पीड़ा से गुजरा व्यक्ति उस कड़वे अनुभव को दोहराना नहीं चाहता यानी बलात्कार की पीड़ा से गुजरने वाली महिला को एक अजनबी के समक्ष अपनी व्यथा पुनः बयान करने के लिए तैयार करना सरल कार्य नहीं। इसके लिए कारकर्ता को पीड़ित महिला से आत्मीय संबंध स्थापित करने चाहिएँ ताकि उपयोगी जानकारी मिल सके।

मौखिक गवाही प्राप्त करने में एक अन्य समस्या याददाश्त से संबंधित होती है। यह महत्त्वपूर्ण है कि कौन किस घटना को किस तरह से कितना याद रखता है। किन बातों को याद रखता है और किन बातों को भुला देता है। यह कुछ हद तक इस बात पर भी निर्भर करता है कि पीच के वर्षों में उनके अनुभव किस प्रकार के रहे हैं। इस दौरान उनके समुदायों और राष्ट्रों के साथ क्या हुआ है। वस्तुतः स्मृतियों के आधार पर इतिहास लेखन कठिन कार्य है।

प्रश्न 14.
1947 में पंजाब में कानून व्यवस्था की क्या स्थिति थी?
उत्तर:
1947 में पंजाब में कानून व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई थी। 3 मार्च, 1947 को लाहौर शहर में दंगा भड़कने के साथ ही पंजाब के अन्य शहरों-रावलपिण्डी, मुल्तान, अमृतसर, गुजरात, कैंप बेल, झेलम आदि में मुसलमानों और गैर-मुसलमानों में दंगे भड़क उठे थे। रावलपिण्डी, अटक और मुल्तान में हिंदुओं और सिक्खों पर जोरदार हमले हुए। गाँवों में सिक्ख किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। भीड़ ने गाँव-के-गाँव जला डाले। बहावलपुर में तत्कालीन समय में नियुक्त अंग्रेज़ अधिकारी पेंडरेल मून (Penderel Moon) ने प्रशासन की पंगुता को रक्तपात का दोषी बताया।

अराजकता और प्रशासन की अकर्मण्यता का विवरण करते हुए मून ने लिखा था कि जब मार्च, 1947 में पूरे अमृतसर में भयंकर लूटपाट, रक्तपात और आगजनी हो रही थी, तो पुलिस एक भी गोली नहीं चला पाई। मून ने स्थिति का जीवंत विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा-“24 घंटे से भी ज्यादा समय तक दंगाई भीड़ को इस विशाल व्यावसायिकं शहर में बेरोक-टोक तबाही फैलाने दी गई। बेहतरीन बाजारों को जलाकर राख कर दिया गया, जबकि उपद्रव फैलाने वालों पर एक गोली भी नहीं चलाई गई। ……जिला मजिस्ट्रेट ने अपने विशाल पुलिस बल को शहर में मार्च का आदेश दिया और उसका कोई सार्थक इस्तेमाल किए बिना बापस बुला लिया।”

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न : भारत विभाजन क्यों हुआ? कोई पाँच कारण बताएँ।
उत्तर:
भारत का विभाजन क्यों हुआ? इसके मौलिक कारण क्या थे? विभाजन के लिए कौन जिम्मेदार था? इत्यादि प्रश्नों पर इतिहासकार और विद्वान् एकमत नहीं हैं। यूरोपीय इतिहासकारों और राजनेताओं के अनुसार भारत में यूरोपीय देशों जैसी राष्ट्रीय एकता थी ही नहीं। उनका कहना था कि हिंदुओं तथा मुसलमानों में पारस्परिक दुश्मनी के कारण भारत का विभाजन हुआ। दूसरी ओर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं (महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू आदि) के अनुसार भारत का विभाजन अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का परिणाम था।

मोहम्मद अली जिन्ना तथा मुस्लिम लीग के अनुसार भारत में दो राष्ट्र-हिंदू और मुस्लिम, विद्यमान थे। डॉ०बी०आर० अंबेडकर ने हिंदुओं की अलगाववादी भावना को विभाजन का प्रमुख कारण बताया है। उनका कहना है कि इस अलगाववादी नीति के कारण ही मुस्लिम लीग की अलग राज्य की माँग सफल हुई और देश का विभाजन हुआ। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. द्विराष्ट्र का सिद्धांत-कुछ भारतीय और पाकिस्तानी इतिहासकार यह मानते हैं कि मोहम्मद अली जिन्ना का यह सिद्धांत ठीक था कि भारत में हिंदू और मुस्लिम दो पृथक् राष्ट्र विद्यमान थे। उनके अनुसार यह विचार मध्यकालीन भारत पर भी लागू होता है। ये इतिहासकार इस बात पर बल देते हैं कि 1947 की घटनाएँ (विभाजन) मध्यकाल तथा आधुनिक काल में हुए हिंदू-मुस्लिम झगड़ों के लंबे इतिहास से जुड़े हुए हैं। इस प्रकार वे विभाजन को हिंदू-मुस्लिम झगड़ों का चरम बिंदु या अंतिम चरण मानते हैं।

परंतु ये विद्वान् इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि इन दोनों समुदायों में आपसी मेल-जोल का लंबा इतिहास भी रहा है। यह उल्लेखनीय है कि भारत में मध्यकाल से ही हिंदू-मुसलमानों में आपसी सांस्कृतिक आदान-प्रदान ने दोनों समुदायों के रिश्तों को मजबूत किया था। दोनों समुदायों के मेल-मिलाप से उर्दू भाषा, संगीत, स्थापत्य, रहन-सहन आदि से नई मिली-जुली संस्कृति (Composite Culture) का उदय व विकास हुआ। परंतु जो लोग मात्र हिंदू-मुस्लिम झगड़ों की ही बात करते हैं वे यह आंकलन नहीं कर पाते।

यिक राजनीति-कुछ विद्वानों का यह मानना है कि देश का विभाजन एक ऐसी सांप्रदायिक राजनीति का शिखर था जो 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में शुरू हुई। इन विद्वानों का तर्क है कि अंग्रेज़ों ने मुसलमानों की आरक्षण की माँग को स्वीकार किया। 1909 के भारत सरकार अधिनियम में मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों का निर्माण किया तथा आगे (1919, 1935 में) इसका विस्तार किया। इस पृथक् निर्वाचन पद्धति में विभाजन के बीज बो दिए गए। इस व्यवस्था ने सांप्रदायिक राजनीति की प्रकृति को अत्यधिक प्रभावित किया। इसका अभिप्राय था कि धर्म के आधार पर पहचान को स्वीकृति

प्रदान की गई। अब इन चुनाव क्षेत्रों में सिर्फ मुस्लिम उम्मीदवार ही खड़े हो सकते थे तथा मुस्लिम मतदाता ही मत डाल सकते थे। इसका अर्थ यह भी था कि गैर-मुस्लिम मतदाता मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए मतदान नहीं कर सकते थे। ऐसा करके ब्रिटिश सरकार ने चुनाव प्रचार और राजनीति को धार्मिक दीवारों में बाँध दिया। इस पृथक् निर्वाचन प्रणाली ने इस बात को बढ़ावा दिया कि भारतीय समाज हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच बँटा है जिनके आपसी हित अलग-अलग हैं।

इससे अलगाववाद को बढ़ावा मिला और सांप्रदायिक संगठनों को भी बल मिला। इससे चुनावी राजनीति धार्मिक पहचान को गहरा और पक्का करने लगी। दूसरी ओर सांप्रदायिकता (Communalism) ने राष्ट्रीय राजनीति को कमजोर किया। महात्मा गाँधी ने पृथक् निर्वाचन मंडल के प्रभाव पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि मिन्टो-मार्ले सुधारों ने हमारा सर्वनाश कर डाला।

3. अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति (British Policy of Divide and Rule)-अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को भारत में सांप्रदायिकता के उदय व विकास और अन्ततः विभाजन के लिए जिम्मेदार माना गया है। अंग्रेज़ों ने हिंदुओं और मुसलमानों में घृणा पैदा करने को राजनीतिक शस्त्र के रूप में प्रयोग किया। लॉर्ड एलफिंस्टन ने स्पष्ट कहा था कि ‘फूट डालो और राज करो’ प्राचीन में रोमन का आदर्श था, यह हमारा भी होना चाहिए (Divide impera was the old Roman motto and it should be ours.’)। ब्रिटिश प्रारंभ से ही यह समझ गए थे कि सीमित ब्रिटिश अधिकारी सामूहिक भारतीयों की ताकत की बराबरी नहीं कर सकते। अतः उन्होंने एक समुदाय के साथ विशेष व्यवहार कर तथा दूसरे के प्रति उदासीनता दिखाकर मतभेद के बीज बोए।

इस नीति से वे भारतीय समाज में अपने समर्थक और आधार को बढ़ाते थे तथा आपसी फूट डालकर भारतीयों को एक होने से रोकते थे। 1857 ई० के बाद अंग्रेज़ों ने मुसलमानों का दमन किया तथा हिंदुओं को साथ लगाया। परंतु 1870 के दशक में जब शिक्षित भारतीयों में राजनीतिक चेतना आने लगी तो उन्होंने मुसलमानों का पक्ष लेना शुरू किया। उन्हें विशेष रियायतें देने लगे।

भारतीयों के मतभेदों को उभारकर उनमें दुर्भावनाएँ पैदा की। अंग्रेज़ों ने कांग्रेस को हिंदू आंदोलन बताया तथा सर सैयद अहमद के साथ मिलकर मुसलमानों को कांग्रेस के आंदोलन से दूर रखने का प्रयास किया। साथ ही उच्चवर्गीय मुसलमानों को अपना संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया। 1906 में मुस्लिम लीग का निर्माण करवाया। इस नीति पर चलते हुए उन्होंने आगे बहुत से और कदम उठाए।

4. सांप्रदायिक संगठनों की स्थापना (Formation of Communal Organisations)-20वीं सदी के प्रथम दशक के मध्य से साम्प्रदायिक संगठन बनने लगे। सरकार ने उन्हें प्रोत्साहन दिया। 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। लीग का मुख्य उद्देश्य मुसलमानों के राजनीतिक हितों की रक्षा करना तथा मुसलमानों में अंग्रेज़ सरकार के प्रति निष्ठा पैदा करना था। प्रारंभ के वर्षों में लीग ने पृथक् निर्वाचन प्रणाली की मांग की तथा बंगाल विभाजन का समर्थन किया।

  • इसी समय 1909 ई० में लाल चंद और बी० एन मुखर्जी के प्रयासों से पंजाब हिंदू महासभा की स्थापना हई। इनका मूल मंत्र था कि ‘हिंदू पहले हैं और भारतीय बाद में।’ इन्होंने कांग्रेस का विरोध करना शुरू किया तथा कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह हिंदुओं के हितों को नजरअंदाज कर रही है और मुसलमानों के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपना रही है। 1915 में तीय हिंदू सभा की स्थापना हुई जो हिंदू सांप्रदायिकता को संगठित रूप देने की दिशा में अगला कदम था।

5. ‘पाकिस्तान’ प्रस्ताव (‘Pakistan’ Resoution)-1937 के बाद जिन्ना की राजनीति पूरी तरह से उग्र-सांप्रदायिकता की राजनीति थी। उन्होंने कांग्रेस और राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। उन्होंने दुष्प्रचार किया कि कांग्रेस का आला कमान दूसरे सभी समुदायों और संस्कृतियों को नष्ट करने तथा हिंदू राज्य कायम करने के लिए पूरी तरह दृढ़ प्रतिज्ञ है। उन्होंने मुस्लिम जनता को भयभीत करना शुरू किया कि स्वतंत्र भारत में मुस्लिम और स्लिम और इस्लाम दोनों के ही अस्तित्व को खतरा पैदा हो जाएगा।

1940 में जिन्ना ने अपने ‘द्विराष्ट्रों के सिद्धांत’ को मुस्लिम जनता के समक्ष रखा। इस सिद्धांत की दो मान्यताएँ थीं। पहली मान्यता के अनुसार “हिंदू और मुसलमान बिल्कुल दो समाज थे। धर्म, दर्शन, सामाजिक प्रथा और साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों अलग-अलग थे ……… इसलिए ये दोनों कौमें एक राष्ट्र नहीं बन सकती थीं।” दूसरी मान्यता यह थी कि यदि भारत एक राज्य रहता है तो बहुमत के शासन के नाम पर सदा हिंदू शासन रहेगा। इसका अर्थ होगा इस्लाम के बहुमूल्य तत्त्व का पूर्ण विनाश और मुसलमानों के लिए स्थाई दासता।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

HBSE 12th Class History विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
क्या उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों और भौतिकवादियों से भिन्न थे? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
निःसंदेह नियतिवादियों और भौतिकवादियों के विचार उपनिषदों के दार्शनिकों से भिन्न थे। उपनिषदों में आत्मिक ज्ञान पर बल दिया गया था, जिसका अर्थ था आत्मा और परमात्मा के संबंधों को जानना। परमात्मा ब्रह्म है, जिससे संपूर्ण जगत पैदा हुआ है। जीवात्मा अमर है और ब्रह्म का ही अंश है। जीवात्मा ब्रह्म में लीन होकर मुक्ति प्राप्त करती है। इसके लिए सद्कर्मों और आत्मिक ज्ञान की जरूरत है। उपनिषदों के इस ज्ञान से नियतिवादियों और भौतिकवादियों के विचार भिन्न थे जो निम्नलिखित तर्कों से स्पष्ट हैं

  • नियतिवादियों का मानना था कि प्राणी नियति यानी भाग्य के अधीन है। मनुष्य उसी के अनुरूप सुख-दुख भोगता है। सद्कर्मों अथवा आत्मज्ञान से नियति नहीं बदलती।
  • भौतिकवादियों का मानना था कि मानव का शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु से बना है। आत्मा और परमात्मा कोरी कल्पना है। मृत्यु के पश्चात् शरीर में कुछ शेष नहीं बचता। अतः भौतिकवादियों के विचार भी आत्मा-परमात्मा या अन्य विचार भी उपनिषदों के दार्शनिकों से बिल्कुल भिन्न थे।

प्रश्न 2.
जैन धर्म की महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
जैन धर्म की मुख्य शिक्षाएँ इस प्रकार हैं
1. अहिंसा-जैन धर्म की शिक्षाओं का केंद्र-बिंदु अहिंसा का सिद्धांत है। जैन दर्शन के अनुसार संपूर्ण विश्व प्राणवान है अर्थात् पेड़-पौधे, मनुष्य, पशु-पक्षियों सहित पत्थर और पहाड़ों में भी जीवन है। अतः किसी भी प्राणी या निर्जीव वस्तु को क्षति न पहुँचाई जाए। यही अहिंसा है। इसे मन, वचन और कर्म तीनों रूपों में पालन करने पर जोर दिया गया।

2. तीन आदर्श वाक्य-जैन शिक्षाओं में तीन आदर्श वाक्य हैं सत्य विश्वास, सत्य ज्ञान तथा सत्य चरित्र। इन तीनों वाक्यों को त्रिरत्न कहा गया है।

3. पाँच महाव्रत-जैन शिक्षाओं में मनुष्य को पापों से बचाने के लिए पाँच महाव्रतों के पालन पर जोर दिया गया है। ये ब्रत हैं। अहिंसा का पालन, चोरी न करना, झूठ न बोलना, धन संग्रह न करना तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना।

4. कठोर तपस्या-जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति के लिए और पिछले जन्मों के बरे कर्मों के फल को समाप्त करने के लिए कठोर तपस्या पर बल दिया गया है।

प्रश्न 3.
साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
भोपाल की दो शासिकाओं शाहजहाँ बेगम और सुल्तानजहाँ बेगम ने साँची के स्तूप को बनाए रखने में उल्लेखनीय योगदान दिया। उन्होंने इसके संरक्षण के लिए धन भी दिया और इसके पुरावशेषों को भी संरक्षित किया। 1818 में इस स्तूप की खोज के बाद बहुत-से यूरोपियों का इसके पुरावशेषों के प्रति विशेष आकर्षण था। फ्रांसीसी और अंग्रेज़ अलंकृत पत्थरों को ले जाकर अपने-अपने देश के संग्रहालयों में प्रदर्शित करना चाहते थे।

फ्रांसीसी विशेषतया पूर्वी तोरणद्वार, जो सबसे अच्छी स्थिति में था, को पेरिस ले जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने शाहजहाँ बेगम से इजाजत माँगी। ऐसा प्रयत्न अंग्रेज़ों ने भी किया। बेगम ने सूझ-बूझ से काम लिया। वह इस मूल कृति को भोपाल राज्य में अपनी जगह पर ही संरक्षित रखना चाहती थी। सौभाग्यवश कुछ पुरातत्ववेत्ताओं ने भी इसका समर्थन कर दिया। इससे यह स्तूप अपनी जगह सुरक्षित रह पाया। भोपाल की बेगमों ने स्तूप के रख-रखाव के लिए धन भी उपलब्ध करवाया। सुल्तानजहाँ बेगम ने स्तूप स्थल के पास एक संग्रहालय एवं अतिथिशाला भी बनवाई।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित संक्षिप्त अभिलेख को पढ़िए और उत्तर दीजिए महाराज हुविष्क (एक कुषाण शासक) के तैंतीसवें साल में गर्म मौसम के पहले महीने के आठवें दिन त्रिपिटक जानने वाले भिक्खु बल की शिष्या, त्रिपिटक जानने वाली बुद्धमिता के बहन की बेटी भिक्खुनी धनवती ने अपने माता-पिता के साथ मधुवनक में बोधिसत्त की मूर्ति स्थापित की।

(क) धनवती ने अपने अभिलेख की तारीख कैसे निश्चित की?
(ख) आपके अनुसार उन्होंने बोधिसत्त की मूर्ति क्यों स्थापित की?
(ग) वे अपने किन रिश्तेदारों का नाम लेती हैं?
(घ) वे कौन-से बौद्ध ग्रंथों को जानती थीं?
(ङ) उन्होंने ये पाठ किससे सीखे थे?
उत्तर:
(क) धनवती ने तत्कालीन कुषाण शासक हुविष्क के शासनकाल के तैंतीसवें वर्ष के गर्म मौसम के प्रथम महीने के आठवें दिन का उल्लेख करके अपने अभिलेख की तिथि को निश्चित किया।

(ख) उन्होंने बौद्ध धर्म में अपनी आस्था प्रकट करने और स्वयं को सच्ची भिक्खुनी सिद्ध करने के लिए मधुवनक में बोधिसत्त की मूर्ति की स्थापना की।

(ग) वह अभिलेख में अपनी मौसी (माता की बहन) बुद्धमिता तथा उसके गुरु बल और अपने माता-पिता का नाम लेती है।

(घ) धनवती त्रिपिटक (सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्म पिटक) बौद्ध ग्रंथों को जानती थी।

(ङ) उन्होंने यह पाठ बल की शिष्या बुद्धमिता से सीखे थे। प्रश्न 5. आपके अनुसार स्त्री-पुरुष संघ में क्यों जाते थे?
उत्तर:
बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने के लिए महात्मा बुद्ध ने बौद्ध संघ की स्थापना की। बौद्ध संघ महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित एक धार्मिक व्यवस्था भी थी। अतः इसमें स्त्री-पुरुष निम्नलिखित कारणों से शामिल हुए

(1) बौद्ध संघ की व्यवस्था समानता पर आधारित थी। इसमें किसी वर्ण, जाति या वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता था। संघ का संगठन गणतंत्रात्मक प्रणाली पर आधारित था।

(2) शुरू में संघ में स्त्रियों को शामिल नहीं किया गया था परंतु बाद में स्त्रियों को भी संघ की सदस्या बनाया गया। वे भी बौद्ध धर्म की ज्ञाता बनीं।

(3) बौद्ध धर्म के शिक्षक-शिक्षिकाएँ बनने के लिए स्त्री-पुरुष संघ के सदस्य बनते थे। वे बौद्ध धर्म ग्रंथों का गहन अध्ययन करते थे ताकि वे संघ की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार कर सकें।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)

प्रश्न 6.
साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य के ज्ञान से कहाँ तक सहायता मिलती है ?
उत्तर:
साहित्यिक ग्रंथों के व्यापक अध्ययन से प्राचीन मूर्तिकला के अर्थ को समझा जा सकता है। यह बात साँची स्तूप की मूर्तिकला के संदर्भ में भी लागू होती है। इसलिए इतिहासकार साँची की मूर्ति गाथाओं को समझने के लिए बौद्ध साहित्यिक परंपरा के ग्रंथों का गहन अध्ययन करते हैं। बहुत बार तो साहित्यिक गाथाएँ ही पत्थर में मूर्तिकार द्वारा उभारी गई होती हैं। साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य काफी हद तक सहायक है; जैसे कि नीचे दिए गए उदाहरणों से स्पष्ट होता है

1. वेसान्तर जातक की कथा साँची के उत्तरी तोरणद्वार के एक हिस्से में एक मूर्तिकला अंश को देखने से लगता है कि उसमें एक ग्रामीण दृश्य चित्रित किया गया है। परंतु यह दृश्य वेसान्तर जातक की कथा से है, जिसमें एक राजकुमार अपना सब कुछ एक ब्राह्मण को सौंपकर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ वनों में रहने के लिए जा रहा है।
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अतः स्पष्ट है कि जिस व्यक्ति को जातक कथाओं का ज्ञान नहीं होगा वह मूर्तिकला के इस अंश को नहीं जान पाएगा।

2. प्रतीकों की व्याख्या-मूर्तिकला में प्रतीकों को समझना और भी कठिन होता है। इन्हें तो बौद्ध परंपरा के ग्रंथों को पढ़े बिना समझा ही नहीं जा सकता। साँची में कुछ एक प्रारंभिक मूर्तिकारों ने बौद्ध वृक्ष के नीचे ज्ञान-प्राप्ति वाली घटना को प्रतीकों के रूप में दर्शाने का प्रयत्न किया है। बहुत-से प्रतीकों में वृक्ष दिखाया गया है, लेकिन कलाकार का तात्पर्य संभवतया इनमें एक पेड़ दिखाना नहीं रहा, बल्कि पेड़ बुद्ध के जीवन की एक निर्णायक घटना का प्रतीक था।

इसी तरह साँची की एक और मूर्ति में एक वृक्ष के चारों ओर बौद्ध भक्तों को दिखाया गया है। परंतु बीच में जिसकी वे पूजा कर रहे हैं वहाँ महात्मा बुद्ध का मानव रूप में चित्र नहीं है, बल्कि एक खाली स्थान दिखाया गया है यही रिक्त स्थान बुद्ध की ध्यान की दशा का प्रतीक बन गया।

अतः स्पष्ट है कि मूर्तिकला में प्रतीकों अथवा चिह्नों को समझने के लिए बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन होना चाहिए। यहाँ यह भी ध्यान रहे कि केवल बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन से ही साँची की सभी मूर्तियों को नहीं समझा जा सकता। इसके लिए तत्कालीन अन्य धार्मिक परंपराओं और स्थानीय परंपराओं का ज्ञान होना भी जरूरी है, क्योंकि इसमें लोक परंपराओं का समावेश भी हुआ है। उत्कीर्णित सर्प, बहुत-से जानवरों की मूर्तियाँ तथा शालभंजिका की मूर्तियाँ इत्यादि इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 7.
चित्र I और II में साँची से लिए गए दो परिदृश्य दिए गए हैं। आपको इनमें क्या नज़र आता है? वास्तुकला, पेड़-पौधे और जानवरों को ध्यान से देखकर तथा लोगों के काम-धंधों को पहचान कर यह बताइए कि इनमें से कौन-से ग्रामीण और कौन-से शहरी परिदृश्य हैं?
उत्तर:
साँची के स्तूप में मूर्तिकला के उल्लेखनीय नमूने देखने को मिलते हैं। इनमें जातक कथाओं को उकेरा गया है, साथ ही बौद्ध परंपरा के प्रतीकों को भी उभारा गया है, यहाँ तक कि अन्य स्थानीय परंपराओं को शामिल किया गया है।
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चित्र I और II में भी बौद्ध परंपरा से जुड़ी धारणाओं को उकेरा गया है। चित्र को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसमें अनेक पेड़-पौधे और जानवरों को दिखाया गया है। दृश्य ग्रामीण परिवेश का लगता है। लेकिन बौद्ध धर्म की दया, प्रेम और अहिंसा की धारणाएँ इसमें स्पष्ट झलकती हैं। चित्र के ऊपरी भाग में जानवर निश्चिंत भाव से सुरक्षित दिखाई दे रहे हैं, जबकि निचले भाग में कई जानवरों के कटे हुए सिर और धनुष-बाण लिए हुए मनुष्यों के चित्र हैं, जो बलि प्रथा और शिकारी-जीवन, हिंसा को प्रकट करते हैं।

चित्र-II बिल्कुल अलग परिदृश्य को व्यक्त कर रहा है। संभवतः यह कोई बौद्ध संघ का भवन है जिसमें बौद्ध भिक्षु ध्यान और प्रवचन जैसे कार्यों में व्यस्त हैं। चित्र में उकेरा गया भव्य सभाकक्ष और उसके स्तंभों में भी बौद्ध धर्म के प्रतीक दिखाई दे रहे हैं। स्तंभों के ऊपर हाथी और दूसरे जानवर बने हैं। ध्यान रहे इनसे जुड़े साहित्य का यदि हम अध्ययन करें तो संभवतः इन चित्रों का और भी गहन अर्थ निकालने में सक्षम हो पाएँगे।

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प्रश्न 8.
वैष्णववाद और शैववाद के उदय से जड़ी वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
लगभग 600 ईसा पूर्व से 600 ई० के मध्य वैष्णववाद और शैववाद का विकास हुआ। इसे हिंदू धर्म या पौराणिक हिंदू धर्म भी कहा जाता है। इन दोनों नवीन विचारधाराओं की अभिव्यक्ति मूर्तिकला और वास्तुकला के माध्यम से भी हुई। इस संदर्भ में मूर्तिकला और वास्तुकला के विकास का परिचय निम्नलिखित है

1. मूर्तिकला–बौद्ध धर्म की महायान शाखा की भाँति पौराणिक हिंदू धर्म में भी मूर्ति-पूजा का प्रचलन शुरू हुआ। भगवान् विष्णु व उनके अवतारों को मूर्तियों के रूप में दिखाया गया। अन्य देवी-देवताओं की भी मूर्तियाँ बनाई गईं। प्रायः भगवान् शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में प्रस्तुत किया गया। लेकिन कई बार उन्हें मानव रूप में भी दिखाया गया। विष्णु की प्रसिद्ध प्रति देवगढ़ दशावतार मंदिर में मिली है। इसमें उन्हें शेषनाग की शय्या पर लेटे हुए दिखाया गया है।

वे कुण्डल, मुकुट व माला आदि पहने हैं। इसके एक ओर शिव तथा दूसरी ओर इन्द्र की प्रतिमाएँ हैं। नाभि से निकले कमल पर ब्रह्मा विराजमान हैं। लक्ष्मी विष्णु के चरण दबा रही हैं। वराह पृथ्वी को प्रलय से बचाने के लिए दाँतों पर उठाए हुए हैं। पृथ्वी को भी नारी रूप में दिखाया गया है। गुप्तकालीन शिव मंदिरों में एक-मुखी और चतुर्मुखी शिवलिंग मिले हैं।

2. वास्तुकला- वैष्णववाद और शैववाद के अंतर्गत मंदिर वास्तुकला का विकास हुआ। संक्षेप में, शुरुआती मंदिरों के स्थापत्य (वास्तुकला) की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(i) मंदिरों का प्रारंभ गर्भ-गृह (देव मूर्ति का स्थान) के साथ हुआ। ये चौकोर कमरे थे। इनमें एक दरवाजा होता था, जिससे उपासक पूजा के लिए भीतर जाते थे। गर्भ-गृह के द्वार अलंकृत थे।

(ii) धीरे-धीरे गर्भ-गृह के ऊपर एक ऊँचा ढांचा बनाया जाने लगा, जिसे शिखर कहा जाता था।
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(iii) शुरुआती मंदिर ईंटों से बनाए गए साधारण भवन हैं, लेकिन गुप्तकाल तक आते-आते स्मारकीय शैली का विचार उत्पन्न हो चुका था, जो आगामी शताब्दियों में भव्य पाषाण मंदिरों के रूप में अभिव्यक्त हुआ। इनमें ऊँची दीवारें, तोरण, तोरणद्वार और विशाल सभास्थल बनाए गए, यहाँ तक कि जल आपूर्ति का प्रबंध भी ‘किया गया।

(iv) पूरी एक चट्टान को तराशकर मूर्तियों से अलंकृत पूजा-स्थल बनाने की शैली भी विकसित हुई। उदयगिरि का विष्णु मंदिर इसी शैली से बनाया गया। इस संदर्भ में महाबलीपुरम् (महामल्लपुरम्) के मंदिर भी विशेष उल्लेखनीय हैं।

प्रश्न 9.
स्तूप क्यों और कैसे बनाए जाते थे? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
स्तूप बौद्ध धर्म के अनुयायियों के पूजनीय स्थल हैं। यह क्यों और कैसे बनाए गए, इसका वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है

1. स्तूप क्यों बनाए गए?-स्तूप का शाब्दिक अर्थ टीला है। ऐसे टीले, जिनमें महात्मा बुद्ध के अवशेषों (जैसे उनकी अस्थियाँ, दाँत, नाखून इत्यादि) या उनके द्वारा प्रयोग हुए सामान को गाड़ दिया गया था, बौद्ध स्तूप कहलाए। ये बौद्धों के लिए पवित्र स्थल थे।

यह संभव है कि स्तूप बनाने की परंपरा बौद्धों से पहले रही हो, फिर भी यह बौद्ध धर्म से जुड़ गई। इसका कारण वे पवित्र अवशेष थे जो स्तूपों में संजोकर रखे गए थे। इन्हीं के कारण वे पूजनीय स्थल बन गए। महात्मा बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद ने बार-बार आग्रह करके बुद्ध से उनके अवशेषों को संजोकर रखने की अनुमति ले ली थी। बाद में सम्राट अशोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से करके उन पर मुख्य शहर में स्तूप बनाने का आदेश दिया। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक सारनाथ, साँची, भरहुत, बौद्ध गया इत्यादि स्थानों पर बड़े-बड़े स्तूप बनाए जा चुके थे। अशोक व कई अन्य शासकों के अतिरिक्त धनी व्यापारियों, शिल्पकारों, श्रेणियों व बौद्ध भिक्षुओं व भिक्षुणियों ने भी स्तूप बनाने के लिए धन दिया।

2. स्तूप कैसे बनाए गए?-प्रारंभिक स्तूप साधारण थे, लेकिन समय बीतने के साथ-साथ इनकी संरचना जटिल होती गई। इनकी शुरुआत कटोरेनुमा मिट्टी के टीले से हुई। बाद में इस टीले को अंड (Anda) के नाम से पुकारा जाने लगा। अंड के ऊपर बने छज्जे जैसा ढांचा ईश्वर निवास का प्रतीक था। इसे हर्मिका कहा गया। इसी में बौद्ध अथवा अन्य बोधिसत्वों के अवशेष रखे जाते थे। हर्मिका के बीच में एक लकड़ी का मस्तूल लगा होता था। इस पर एक छतरी बनी होती थी। अंड (टीले) के चारों ओर एक वेदिका होती थी। यह पवित्र स्थल को सामान्य दुनिया से पृथक् रखने का प्रतीक थी।

परियोजना कार्य 

(क) इस अध्याय में चर्चित धार्मिक परंपराओं में से क्या कोई परंपरा आपके अड़ोस-पड़ोस में मानी जाती है? आज किन धार्मिक ग्रंथों का प्रयोग किया जाता है? उन्हें कैसे संरक्षित और संप्रेषित किया जाता है? क्या पूजा में मूर्तियों का प्रयोग होता है? यदि हाँ, तो क्या ये मूर्तियाँ इस अध्याय में लिखी गई मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं या अलग हैं? धार्मिक कृत्यों के लिए प्रयुक्त इमारतों की तुलना प्रारंभिक स्तूपों और मंदिरों से कीजिए।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

(ख) इस अध्याय में वर्णित धार्मिक परंपराओं से जुड़े अलग-अलग काल और इलाकों की कम से कम पाँच मूर्तियों और चित्रों की तस्वीरें इकट्ठी कीजिए। उनके शीर्षक हटाकर प्रत्येक तस्वीर दो लोगों को दिखाइए और उन्हें इसके बारे में बताने को कहिए। उनके वर्णनों की तुलना करते हुए अपनी खोज की रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
परियोजना (क) के लिए संकेत :

  • पौराणिक हिंदू धर्म (वैष्णववाद, शैववाद) की परंपरा वर्तमान में हिंदू धर्म के नाम से सर्वाधिक प्रचलन में है-इसमें मूर्ति पूजा है। इन मूर्तियों की तुलना आप अध्याय में वर्णित मूर्तियों से कर सकते हैं। मंदिरों की वास्तुकला की तुलना कर सकते हैं।
  • जैन मंदिर भी प्रायः मिल जाते हैं। इनकी मूर्तियों और वास्तुकला की तुलना की जा सकती है।
  • कुरुक्षेत्र में प्राचीन बौद्ध स्तूप के अवशेष भी हैं।

परियोजना (ख) के लिए संकेत :
इसके लिए विद्यार्थी स्तूप, साँची व अमरावती से प्राप्त मूर्तियों के चित्रों तथा वैष्णववाद व शैववाद से जुड़े विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र ले सकते हैं। जैन धर्म से संबंधित चित्रों का उपयोग भी कर सकते हैं। इस संदर्भ में इंटरनेट से भी चित्र ‘डाऊनलोड’ करके उपयोग में लाए जा सकते हैं।

विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास HBSE 12th Class History Notes

→ श्रमण-शिक्षक और विचारक जो स्थान-स्थान पर घूमकर अपनी विचारधाराओं से लोगों को अवगत करवाते थे तथा तर्क-वितर्क करते थे।

→ कुटागारशालाएँ–’नुकीली छत वाली झोंपड़ी’, जहाँ घुमक्कड़ श्रमण आकर ठहरते थे और विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद करते थे।

→ स्तूप-ढेर या टीला जहाँ महात्मा बुद्ध या अन्य किसी पवित्र भिक्षु के अवशेष (दाँत, अस्थियाँ, नाखून) आदि रखे जाते थे।

→ संतचरित्र-किसी संत या धार्मिक नेता की जीवनी जिसमें उस संत की उपलब्धियों का गुणगान होता है।

→ चैत्य ऐसे टीले जहाँ शवदाह के बाद शरीर के कुछ अवशेष सुरक्षित रख दिए जाते थे।

→ थेरवाद-महायान परंपरा के लोग दूसरी बौद्ध परंपरा के लोगों को हीनयान के अनुयायी कहते थे, लेकिन ये लोग (हीनयान के अनुयायी) अपने आपको थेरवादी कहते थे। इसका मतलब है वे लोग जो पुराने, प्रतिष्ठित शिक्षकों (जिन्हें थेर कहते थे) के बनाए रास्ते पर चलने वाले हैं।

→ तीर्थंकर-जैन परंपरा के अनुसार ऐसे महापुरुष जो लोगों को संसार रूपी सागर से पार उतार सकें।

→ निर्ग्रन्थ-बिना ग्रन्थि के अर्थात् बंधन मुक्त। जैन परंपरा में जैन मुनि और संन्यासी को निर्ग्रन्थ कहा गया।

→ वैष्णव-विष्णु की उपासना करने वाले।

→ शैव-शिव के उपासक।

→ महाभिनिष्क्रिमण-महात्मा बुद्ध द्वारा गृह त्याग की घटना को बौद्ध मत में महाभिनिष्क्रिमण कहा गया।

→ महापरिनिर्वाण-महात्मा बुद्ध के देहावसान को बौद्ध परंपरा में महापरिनिर्वाण कहा गया।

→ उपसंपदा-बौद्ध संघ में प्रवेश करना।

→ बोधिसत्त बौद्ध धर्म के अनुयायी जो अपने सत्त कर्मों से पुण्य कमाते थे।

समकालीन बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत में 60 से भी अधिक नए संप्रदाय उभरकर आए। इन संप्रदायों के संन्यासी घूम-घूमकर अपने विचारों का जन-समुदाय में प्रचार करते थे और साथ ही विरोधी मत वालों के साथ वाद-विवाद भी करते थे। उनके विचार मौखिक व लिखित परंपराओं में संगृहीत हुए। कलाकारों ने उन्हें अपनी कला-कृतियों में अभिव्यक्ति दी। इन संन्यासी मनीषियों में महावीर और महात्मा बुद्ध सबसे विख्यात हुए।

→ जैन और बौद्ध धर्मों का उदय उत्तर वैदिक काल (लगभग 1000 ई०पू० से 600 ई० तक) के दौरान विकसित हुई परिस्थितियों से हुआ। इस अवधि में आर्थिक स्तर पर कृषि की नई व्यवस्था विकसित हुई, सामाजिक विषमता में वृद्धि हुई। साथ ही धर्म में कई तरह की बुराइयाँ व दिखावा बढ़ चुका था। इस दौरान नए राजनीतिक परिवर्तन भी हुए। विशेषतः राजतन्त्र प्रणाली का विस्तार हुआ। सामूहिक तौर पर यही वह पृष्ठभूमि है, जिसने पूर्वोत्तर भारत में नए धार्मिक संप्रदायों को जन्म दिया।

→ उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में बलि व यज्ञादि कर्मकांडों के खिलाफ जबरदस्त प्रतिक्रिया शुरू हुई। विशेष तौर पर धर्म व दर्शन पर नए प्रश्न उठ रहे थे। उपनिषदों में नए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया। इन सिद्धांतों में कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष थे। लोग जीवन का अर्थ, मृत्यु के बाद जीवन की संभावना तथा पुनर्जन्म के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे। परंतु उपनिषदों का गूढ़ ज्ञान सामान्य जनता की समझ से बाहर था।

→ इस वैदिक परंपरा को नकारने वाले दार्शनिक सत्य के स्वरूप पर बहस कर रहे थे। सत्य, अहिंसा, तपस्या, पुनर्जन्म, कर्मफल तथा आत्मा-परमात्मा इत्यादि विषयों पर वाद-विवाद और चर्चाएँ कर रहे थे। वे अपनी-अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत कर रहे थे। इनमें से यदि कोई अपने प्रतिद्वन्द्वी को अपना ज्ञान समझाने में सफल हो जाता था तो वह प्रतिद्वन्द्वी अपने अनुयायियों के साथ उसका शिष्य बन जाता था। इनमें से कई मनीषियों ने ब्राह्मणवादी समझ से अपनी अलग समझ प्रस्तुत की।

→ ‘जैन’ शब्द संस्कृत के ‘जिन्’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है ‘विजेता’ अर्थात् वह व्यक्ति जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हो। जैन परंपरा के अनुसार महावीर स्वामी से पहले 23 तीर्थंकर (आचाय) हो चुके थे और महावीर स्वामी 24वें और अंतिम तीर्थंकर थे। तीर्थंकर का शाब्दिक अर्थ है ऐसा महापुरुष जो लोगों (स्त्री व पुरुष दोनों) को संसार रूपी सागर से पार उतार सके।
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→ जैन विचारधारा को व्यापक बनाने का श्रेय महात्मा महावीर स्वामी का है। इसलिए उन्हें इस धर्म का वास्तविक संस्थापक .. भी कहा जाता है। उनका मूल नाम वर्धमान था एवं जन्म वैशाली के पास कुड़ीग्राम में 540 ई० पू० में हुआ। उनके पिता सिद्धार्थ जातृक क्षत्रियगण के मुखिया थे तथा माता त्रिशला लिच्छवी शासक चेटक की बहन थी। महावीर स्वामी की पत्नी का नाम यशोधा तथा पुत्री का नाम प्रियदर्शनी था। 30 वर्ष की आयु में इन्होंने अपने बड़े भाई नंदीवर्धन से आज्ञा लेकर घर त्याग दिया। 12/2 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद उन्हें केवल्य अथवा परम ज्ञान की प्राप्ति हुई।

→ तब वह केवलीन या केवली कहलाए। अपनी इंद्रियों पर विजय पा लेने के कारण उन्हें ‘जिन’ अथवा जैन कहा गया। वे महावीर (अतुल पराक्रमी) भी कहलाए।

→ बौद्ध धर्म का प्रभाव जैन धर्म से भी अधिक व्यापक रहा। इस धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध उस युग के सबसे प्रभावशाली शिक्षकों में से एक थे। महात्मा बुद्ध के पिता शुद्धोधन शाक्यगण के मुखिया और कपिलवस्तु के शासक थे। उनकी माता माया कोलियागण से थीं। नेपाल की तराई के लुम्बिनी वन में बुद्ध का जन्म हुआ। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। माता का निधन हो जाने पर सिद्धार्थ का पालन-पोषण सौतेली माँ गौतमी ने किया, इसी कारण ये गौतम कहलाए।

→ बौद्ध दर्शन में संसार की समस्त वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं। ये प्रवाह के रूप में स्थायी दिखती हैं; जैसे किनारे से देखने वाले को बहता हुआ पानी ठहरा हुआ दिखता है। उनके अनुसार किसी वस्तु या जीव में कोई आत्मा नहीं है। सब कुछ हर क्षण बदल रहा है। कुछ भी स्थायी एवं शाश्वत् नहीं है।

→ महात्मा बुद्ध का निष्कर्ष था कि मनुष्य अष्ट मार्ग का अनुसरण करके पुरोहितों के फेर से व मिथ्या आडम्बरों से बच जाएगा तथा अपना लक्ष्य (मुक्ति) भी प्राप्त करेगा। उन्होंने निर्वाण के लिए व्यक्ति केंद्रित प्रयास पर बल दिया जिसमें गुरु की आवश्यकता नहीं थी। अपने शिष्यों के लिए उनका अंतिम संदेश आत्मज्ञान का था : “तुम सब अपने लिए स्वयं ही ज्योति बनो क्योंकि तुम्हें स्वयं ही अपनी मुक्ति का रास्ता खोजना है।”

→ बुद्ध के मतानुसार जन्म व मृत्यु का चक्र आत्मा से नहीं, बल्कि अहंकार (अहम्) के कारण चलता है अर्थात् पुनर्जन्म आत्मा का नहीं, बल्कि अहंकार का होता है। यदि इस पर विजय पा ली जाए तो मनुष्य को मुक्ति (निर्वाण) मिल जाएगी। बौद्ध चिंतन में आत्मा व परमात्मा जैसे विषय अप्रासंगिक हैं।

→ बौद्ध संघ की कार्य-प्रणाली गणों की परंपरा पर आधारित थी। इस प्रणाली में जनवाद अधिक था। संघ के सदस्य परस्पर बातचीत से सहमति की ओर बढ़ते थे। सभी सदस्यों के अधिकार समान थे। यदि किसी विषय पर सहमति न बन पाती तो मतदान करके बहुमत से निर्णय लिया जाता जो सभी को स्वीकार्य होता। अपराधी अथवा नियमों की उल्लंघना करने वाले भिक्षु को जो दण्ड मिलता, वह उसे अनिवार्य तौर पर भोगना पड़ता था। कालान्तर में भिक्षुओं में तीखे मतभेद पैदा हो गए, जिनके समाधान के लिए बौद्धों की चार महासभाएँ हुईं।

→ बहुत-से लोग प्राचीन मूर्तियों को पाने के लिए लालायित रहते हैं, क्योंकि वे खूबसूरत और अनुपम होती हैं। परंतु कला इतिहासकार के लिए वे ज्ञान का स्रोत होती हैं। वे उनका गहन अध्ययन करके इतिहास की कुछ लुप्त कड़ियों को जोड़ने का प्रयास करते हैं। लेकिन यह तभी संभव हो पाता है जब इतिहासकार को अन्य स्रोतों (साहित्य) का भी व्यापक ज्ञान हो। उदाहरण के लिए, बौद्ध स्तूपों पर उत्कीर्ण की हुई मूर्तियों का ऐतिहासिक अर्थ वही कर सकता है जिसने बौद्ध ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन कर रखा हो। क्योंकि बहुत बार साहित्यिक गाथाएँ ही पत्थर में मूर्तिकार द्वारा उभारी गई होती हैं।
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→ अमरावती के स्तूप से प्राप्त एक मूर्ति को देखें जिसमें एक दूसरी जातक कथा को प्रदर्शित किया गया है। यह बुद्ध द्वारा अपनी विनम्रता (करुणा) से एक मतवाले हाथी (गजराज) को वश में किए जाने की है। दृश्य कुछ यूँ है महात्मा बुद्ध की ओर एक मतवाला हाथी आगे बढ़ रहा है; स्त्री-पुरुष सब भयभीत हैं, पुरुषों के हाथ खड़े हैं और औरतें भय से उनके साथ चिपकी हुई हैं। तभी बुद्ध विनम्रता की मुद्रा में हाथी की ओर बढ़ते हैं और हाथी नतमस्तक हो जाता है। इस घटना को लोग अपने घरों के झरोखों से भी देख रहे हैं।

→ कालान्तर में बौद्ध धर्म दो शाखाओं में विभाजित हो गया। ये शाखाएँ थीं-महायान और हीनयान। इनका शाब्दिक अर्थ है क्रमशः ‘बड़ा जहाज’ और ‘छोटा जहाज’। अर्थात् जो अनुयायी बहुमत में थे, उन्होंने अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए स्वयं को महायान कहा और अल्पसंख्यकों को हीनयान के नाम से पुकारा। लेकिन पुरातन परंपरा के अनुयायियों ने स्वयं को थेरवादी माना जिसका अर्थ था कि वे पुराने, प्रतिष्ठित शिक्षकों (जिन्हें थेर कहा जाता था) के अनुयायी हैं।
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पौराणिक हिंदू धर्म में भी बौद्ध धर्म की महायान शाखा की भाँति मुक्तिदाता की कल्पना उभरकर आई। विशेषतया हिंदू धर्म में ‘मुक्तिदाता’ वाली परिकल्पना में वैष्णव और शैव परंपराएँ शामिल हैं। हिंदू धर्म की वैष्णव परंपरा में विष्णु को परमेश्वर माना
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गया है, जबकि शैव परंपरा में शिव परमेश्वर है अर्थात् दोनों में एक विशेष देवता की आराधना को महत्त्व दिया गया। उल्लेखनीय है कि इस पूजा पद्धति में उपासना और परम देवता के बीच का संबंध समर्पण और प्रेम का स्वीकारा गया। इसलिए यह भक्ति कहलाया।

काल-रेखा

कालघटना का विवरण
प्राचीन इमारतों व मूर्तियों की खोज व संरक्षण

(आधुनिक काल)

1796 ईअमरावती स्तूप के अवशेष मिले
1814 ई०इण्डियन म्यूज़ियम, कलकत्ता की स्थापना
1818 ई०साँची के स्तूप की खोज
1834 ई०रामराजा द्वारा रचित एसेज़ ऑन द आकिटैक्वर ऑफ़ द हिंदूज का प्रकाशन; कनिंघम ने सारनाथ के स्तूप का सर्वेक्षण किया।
1835-42 ई०जेम्स फर्गुसन ने भारत के महत्त्वपूर्ण प्राचीन महत्त्व के स्थलों का सर्वेक्षण किया।
1851 ईमद्रास में गवर्नमेंट म्यूज़ियम की स्थापना हुई।
1854 ई०गुंदूर के कमिश्नर एलियट ने अमरावती के स्तूप स्थल की यात्रा की; अलेक्जैंडर कनिंघम ने भिलसा टोप्स नामक पुस्तक लिखी। यह साँची पर सबसे प्रारंभिक रचनाओं में से एक है।
1876 ई०एच०डी० बारस्टो ने शाहजहाँ बेगम की आत्मकथा ताज-उल-इकबाल तारीख भोपाल (भोपाल का इतिहास) का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया।
1878 ई०राजेन्द्र लाल मित्र द्वारा लिखित बुद्ध गया : द हेरिटेज़ ऑफ़ शाक्य मुनि का प्रकाशन हुआ।
1880 ई०प्राचीन भवनों का संग्रहाध्यक्ष एच०एच०कोल को बनाया गया।
1888 ई०ट्रेजरर-ट्रोव एक्ट पास हुआ जिसके अनुसार सरकार पुरातात्विक महत्त्व की किसी भी चीज को अपने अधिकार में ले सकती थी।
1914 ई०जॉन मार्शल और अल्फ्रेड फूसे की रचना ‘द मॉन्युमेंट्स ऑफ़ साँची  का प्रकाशन हुआ।
1923 ई०जॉन मार्शल द्वारा तैयार कंजर्वेशन मैनुअल का प्रकाशन।
1955 ई०भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की स्थापना।
1989 ई०साँची को एक ‘वर्ल्ड हेरिटेज़ साइट’ घोषित किया गया।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 114 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

HBSE 12th Class History विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
1940 के प्रस्ताव के जरिए मुस्लिम लीग ने क्या माँग की?
उत्तर:
1937 के चुनावों में असफलता के बाद जिन्ना ने उग्र-साम्प्रदायिक राजनीति को अपना लिया था। 1940 में उन्होंने द्विराष्ट्रों का सिद्धांत मुस्लिम जनता के सामने रखा। इस सिद्धांत की दो मान्यताएँ थीं। पहली मान्यता के अनुसार “हिंदू और मुसलमान बिल्कुल दो समाज थे। धर्म, दर्शन, सामाजिक प्रथा और साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों अलग-अलग थे. ……..इसलिए ये दोनों कौमें एक राष्ट्र नहीं बन सकती थीं।”

दूसरी मान्यता यह थी कि यदि भारत एक राज्य रहता है तो बहुमत के शासन के नाम पर सदा हिंदू शासन रहेगा। इसका अर्थ होगा इस्लाम के बहुमूल्य तत्त्व का पूर्ण विनाश और मुसलमानों के लिए स्थायी दासता। धीरे-धीरे पाकिस्तान की स्थापना की माँग ठोस रूप ले रही थी। 23 मार्च, 1940 को लीग ने अपने लाहौर अधिवेशन में उपमहाद्वीप के मुस्लिम-बहुल इलाकों के लिए स्वायत्तता की माँग का प्रस्ताव पेश किया। यह प्रस्ताव ही ‘पाकिस्तान’ प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है।

इसमें कहा गया कि भौगोलिक दृष्टि से सटी हुई इकाइयों को क्षेत्रों के रूप में चिह्नित किया जाए, जिन्हें बनाने में जरूरत के हिसाब से इलाकों का फिर से ऐसा समायोजन किया जाए कि हिंदुस्तान के उत्तर-पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों जैसे जिन हिस्सों में मुसलमानों की संख्या ज्यादा है, उन्हें इकट्ठा करके ‘स्वतंत्र राज्य’ बना दिया जाए जिनमें शामिल इकाइयाँ स्वाधीन और स्वायत्त होंगी।

प्रश्न 2.
कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता था कि बँटवारा बहुत अचानक हुआ?
उत्तर:
कुछ लोगों का विचार है कि भारत का विभाजन एक बहुत ही अचानक लिया गया निर्णय है। ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 1940 में लीग ने ‘लाहौर प्रस्ताव’ या ‘पाकिस्तान प्रस्ताव पास किया था। इसमें अस्पष्ट शब्दों में एक मुस्लिम बहुल इलाके में स्वायत्त राज्य की स्थापना की माँग रखी गई थी। इस प्रस्ताव के रखने के बाद अगले सात वर्षों में ही विभाजन हो गया। यहाँ तक कि किसी को मालूम नहीं था कि पाकिस्तान के निर्माण का अर्थ क्या होगा, इससे भविष्य में लोगों की जिंदगी किस तरह तय होगी।

यहाँ तक कि 1947 में घर-बार छोड़कर गए लोगों को भी लगता था कि वे शांति स्थापित होने पर वापस अपने घरों में लौट सकेंगे। नेताओं ने भी लोगों के भविष्य के बारे में न ही सोचा और न ही जनसंख्या की पारस्परिक अदला-बदली पर कोई विचार किया।

यहाँ तक कि स्वयं लीग ने भी एक संप्रभु राज्य की माँग ज्यादा स्पष्ट और जोरदार ढंग से नहीं उठाई थी। ऐसा लगता है कि माँग सौदेबाजी में एक पैंतरे के रूप में उठाई गई थी ताकि मुस्लिमों के लिए अधिक रियायतें ली जा सकें। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया। इसकी समाप्ति के बाद सरकार को भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण की बातचीत करनी पड़ी, जिसमें अन्ततः भारत का विभाजन अचानक स्वीकार करना पड़ा। इससे लगता है कि भारत का विभाजन अचानक हुई घटना है।

प्रश्न 3.
आम लोग विभाजन को किस तरह देखते थे?
उत्तर:
यह भी अनुमान लगाया जाता है कि विभाजन के कारण लगभग 1 करोड़ 50 लाख लोग अगस्त, 1947 से अक्तूबर, 1947 के बीच सीमा पार करने पर विवश हुए। विश्व इतिहास में ऐसा कष्टदायक विस्थापन नहीं मिलता। विस्थापन का अर्थ था लोगों का अपने घरों से उजड़ जाना। पलक झपकते ही इन लोगों की संपत्ति, घर, दुकानें, खेत, रोजी-रोटी के साधन उनके हाथों से निकल गए। वे अपनी जड़ों से उखाड़ दिए गए। उनसे उनकी बचपन की यादें छीन ली गईं। लाखों लोगों के प्रियजन मारे गए या बिछुड़ गए। अपनी स्थानीय एवं क्षेत्रीय संस्कृति से वंचित होकर शरणार्थी बने लोगों को तिनका-तिनका जोड़कर नए सिरे से जीवन शुरू करना पड़ा।

यह मात्र सम्पत्ति और क्षेत्र का विभाजन नहीं था, बल्कि एक महाध्वंस था। 1947 में जो लोग सीमा पार से जिंदा बचकर आ रहे थे, वे विभाजन के फैसले को ‘सरकारी नज़रिए’ से नहीं देख रहे थे। उनके अनुभव भयानक थे और वे उसे ‘मार्शल लॉ’ ‘मारामारी’, ‘रौला’ या ‘हुल्लड़’ जैसे शब्दों से व्यक्त करते थे। वस्तुतः जनहिंसा, आगजनी, लूटपाट, अपहरण, बलात्कार को देखते हए अनेक प्रत्यक्षदर्शियों और विद्वानों ने इसे ‘महाध्वंस’ (होलोकॉस्ट) कहा है।

1947 का हादसा इतना जघन्य था कि ‘विभाजन’ या ‘बँटवारा’ या, ‘तकसीम’ कह देने मात्र से इसके सारे पहलू प्रकट नहीं होते। मानवीय पीड़ा और दर्द का अहसास नहीं होता। महाध्वंस से सामूहिक नरसंहार की भयानकता और अन्य प्रभावों की भीषणता को कुछ हद तक समझा जा सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि आम लोग विभाजन को एक ऐसी घटना समझते थे जिसमें उनका सब कुछ नष्ट हो गया था तथा उनके परिजन मर गए थे या बिछुड़ गए थे।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

प्रश्न 4.
विभाजन के खिलाफ महात्मा गाँधी की दलील क्या थी?
उत्तर:
महात्मा गाँधी ने विभाजन का जोरदार विरोध किया था। उन्होंने विभाजन के खिलाफ यहाँ तक कह दिया था कि विभाजन उनकी लाश पर होगा। गाँधी जी को विश्वास था कि देश में सांप्रदायिक नफरत शीघ्र ही समाप्त हो जाएगी तथा पुनः

आपसी भाईचारा स्थापित हो जाएगा। लोग घृणा और हिंसा का मार्ग छोड़ देंगे तथा सभी आपस में मिलकर अपनी समस्याओं का हल खोज लेंगे। विभाजन के अवसर पर भड़की हिंसा को शांत करने के लिए वे 77 वर्ष की आयु में भी दंगाग्रस्त क्षेत्रों में पहुंचे। उन्होंने सभी स्थानों पर हिंदुओं और मुसलमानों को शांति बनाए रखने और परस्पर स्नेह और एक-दूसरे की रक्षा करने की बात कही। उनका मानना था कि दोनों समुदाय सैकड़ों सालों से एक-साथ रहते आए हैं।

7 सितंबर, 1946 को उन्होंने प्रार्थना सभा में कहा था, “मैं फिर वह दिन देखना चाहता हूँ जब हिंदू और मुसलमान आपसी सलाह के बिना कोई काम नहीं करेंगे। मैं दिन-रात इसी आग में जले जा रहा हूँ कि उस दिन को जल्दी-से-जल्दी साकार करने के लिए क्या करूँ। लीग से मेरी गुजारिश है कि वे किसी भी भारतीय को अपना शत्रु न मानें……….। हिंदू और मुसलमान, दोनों एक ही मिट्टी से उपजे हैं। उनका खून एक है, वे एक जैसा भोजन करते हैं, एक ही पानी पीते हैं और एक ही जबान बोलते हैं।

26 सितंबर, 1946 को गाँधीजी ने इसी प्रकार की बात ‘हरिजन’ नामक साप्ताहिक में दोहराई। उन्होंने लिखा, “लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की जो माँग उठायी है, वह पूरी तरह गैर-इस्लामिक है और मुझे इसको पापपूर्ण कृत्य कहने में कोई संकोच नहीं है। इस्लाम मानवता की एकता और भाईचारे का समर्थक है, न कि मानव परिवार की एकजुटता को तोड़ने का। जो तत्त्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बाँट देना चाहते हैं, वे भारत और इस्लाम दोनों के शत्रु हैं। भले ही वे मेरी देह के टुकड़े-टुकड़े कर दें, किंतु मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते, जिसे मैं गलत मानता हूँ।”

प्रश्न 5.
विभाजन को दक्षिणी एशिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ क्यों माना जाता है?
उत्तर:
विभाजन को दक्षिणी एशिया के इतिहास में ऐतिहासिक मोड़ की संज्ञा दी जाती है। इसके कारण देश दो सम्प्रभु राज्यों (भारत और पाकिस्तान) में बँट गया। विभाजन ने तात्कालिक रूप से करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित किया। साथ ही विभाजन की स्मृतियों और कहानियों ने रूढ़छवियों (Stereotypes) का निर्माण किया जो आज भी भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को प्रभावित कर रही हैं। यहाँ तक कि भारत में आतंकवाद जैसी समस्या की जड़ें भी कुछ हद तक विभाजन के परिणामों से जुड़ी हैं।

1. जनसंहार और विस्थापन (Massacre and Displace ment)-विभाजन सांप्रदायिक हिंसा, जनसंहार, आगजनी, लूटपाट, अराजकता, अपहरण, बलात्कार आदि का पर्याय बन गया था। ‘दंगाई भीड़ों’ ने दूसरे समुदाय के लोगों को निशाना बनाकर मारा। गाँव के गाँव जला दिए। ट्रेनों में सफर कर रहे लोगों पर हिंसक
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हमले हुए। ट्रेनें मौत का पिंजरा बन गईं। यद्यपि हिंसा में पाकिस्तान और हिंदुस्तान में मारे गए लोगों की ठीक-ठीक संख्या बता पाना असंभव है, तथापि अनुमान लगाया जाता है कि 2 लाख से 2.5 लाख गैर-मुस्लिम तथा इतने ही मुस्लिम विभाजन की हिंसा में मारे गए।

यह भी अनुमान लगाया जाता है कि लगभग 1 करोड़ 50 लाख लोग अगस्त, 1947 से अक्तूबर, 1947 के बीच सीमा पार करने पर विवश हुए। विश्व इतिहास में ऐसा कष्टदायक विस्थापन नहीं मिलता। विस्थापन का अर्थ था लोगों का अपने घरों से उजड़ जाना। लाखों लोगों के प्रियजन मारे गए या बिछुड़ गए। अपनी स्थानीय एवं क्षेत्रीय संस्कृति से वंचित होकर शरणार्थी बने लोगों को तिनका-तिनका जोड़कर नए सिरे से जीवन शुरू करना पड़ा।

2. महाध्वंस (Holocaust)-यह मात्र सम्पत्ति और क्षेत्र का विभाजन नहीं था, बल्कि एक महाध्वंस था। 1947 में जो लोग सीमा पार से जिंदा बचकर आ रहे थे, वे विभाजन के फैसले को ‘सरकारी नज़रिए’ से नहीं देख रहे थे। उनके अनुभव भयानक थे और वे उसे ‘मार्शल लॉ’, ‘मारामारी’, ‘रौला’ या ‘हुल्लड़’ जैसे शब्दों से व्यक्त करते थे। वस्तुतः जनहिंसा, आगजनी, लूटपाट, अपहरण, बलात्कार को देखते हुए अनेक प्रत्यक्षदर्शियों और विद्वानों ने इसे ‘महाध्वंस’ कहा है।

3. रूढ़छवियों का निर्माण (Formation of Stereotypes)-बँटवारे की वजह से दोनों देशों में रूढ़छवियों का निर्माण हुआ। इन रूढछवियों ने लोगों की मानसिकता को गहरा प्रभावित किया है। इन छवियों का दुरुपयोग सांप्रदायिक ताकतों के द्वारा तक भी किया जा रहा है।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
ब्रिटिश भारत का बँटवारा क्यों किया गया?
उत्तर:
ब्रिटिश भारत का बँटवारा निम्नलिखित कारणों से किया गया

1. अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति (British Policy of Divide and Rule)-अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को भारत में सांप्रदायिकता के उदय व विकास और अन्ततः विभाजन के लिए जिम्मेदार माना गया है। अंग्रेज़ों ने हिंदुओं और मुसलमानों में घृणा पैदा करने को राजनीतिक शस्त्र के रूप में प्रयोग किया। अंग्रेज़ों ने कांग्रेस को हिंदू आंदोलन बताया तथा सर सैयद अहमद के साथ मिलकर मुसलमानों को कांग्रेस के आंदोलन से दूर रखने का प्रयास किया। साथ ही उच्चवर्गीय मुसलमानों को अपना संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया। 1906 में मुस्लिम लीग का निर्माण करवाया। इस नीति पर चलते हुए उन्होंने आगे बहुत से और कदम उठाए जो विभाजन का कारण बने।

2. सांप्रदायिक संगठनों की स्थापना (Formation of Communal Organisations)-20वीं सदी के प्रथम दशक के मध्य से साम्प्रदायिक संगठन बनने लगे। सरकार ने उन्हें प्रोत्साहन दिया। 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। लीग का मुख्य उद्देश्य मुसलमानों के राजनीतिक हितों की रक्षा करना तथा मुसलमानों में अंग्रेज़ सरकार के प्रति निष्ठा पैदा करना था। प्रारंभ के वर्षों में लीग ने पृथक् निर्वाचन प्रणाली की मांग की तथा बंगाल विभाजन का समर्थन किया।

इसी समय 1909 ई० में लाल चंद और बी० एन मुखर्जी के प्रयासों से पंजाब हिंदू महासभा की स्थापना हुई। इनका मूल मंत्र था कि ‘हिंदू पहले हैं और भारतीय बाद में।’ इन्होंने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह हिंदुओं के हितों को नजरअंदाज कर रही है और मुसलमानों के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपना रही है। 1915 में अखिल भारतीय हिंदू सभा की स्थापना हुई जो हिंदू सांप्रदायिकता को संगठित रूप देने की दिशा में अगला कदम था।

3. सांप्रदायिक तनाव व कलह (Communal Tensions and Conflicts)-1922 में असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद सांप्रदायिक तनावों में वृद्धि हुई। इस समय में मुसलमानों की नाराजगी के प्रमुख कारण हिंदुओं द्वारा त्योहार (होली) पर ‘मस्जिद के सामने संगीत बजाना’, ‘गो रक्षा आंदोलन’ और आर्य समाज का शुद्धि आंदोलन होते थे। हिंदू मुसलमानों के तबलीग (प्रचार) और तंजीम (संगठन) जैसे कार्यक्रमों के विस्तार से उत्तेजित होते थे। ये सांप्रदायिक तनाव इन समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ लामबंद करने का अवसर प्रदान करते थे जिससे आसानी से दंगे भड़क उठते थे।

4. ‘पाकिस्तान’ प्रस्ताव (‘Pakistan’ Resolution)-1937 के बाद जिन्ना की राजनीति पूरी तरह से उग्र-सांप्रदायिकता की राजनीति थी। उन्होंने कांग्रेस और राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। 1940 में जिन्ना ने अपने ‘द्विराष्ट्रों के सिद्धांत’ को मुस्लिम जनता के समक्ष रखा। इस सिद्धांत की दो मान्यताएँ थीं। पहली मान्यता के अनुसार “हिंदू और मुसलमान बिल्कुल दो समाज थे। धर्म, दर्शन, सामाजिक प्रथा और साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों अलग-अलग थे………इसलिए ये दोनों कौमें एक राष्ट्र नहीं बन सकती थीं।”

दूसरी मान्यता यह थी कि यदि भारत एक राज्य रहता है तो बहुमत के शासन के नाम पर सदा हिंदू शासन रहेगा। धीरे-धीरे पाकिस्तान की स्थापना की माँग ठोस रूप ले रही थी। 23 मार्च, 1940 को लीग ने अपने लाहौर अधिवेशन में उपमहाद्वीप के मुस्लिम-बहुल इलाकों के लिए स्वायत्तता की माँग का प्रस्ताव पेश किया।

5. वेवल योजना की विफलता (Failure of Wavell Plan)-1945 में वेवल योजना के तहत शिमला कांफ्रेंस हुई जिसमें वेवल ने मुख्य योजना ‘नयी कार्यकारी परिषद्’ के निर्माण को लेकर रखी। नयी कार्यकारिणी में वायसराय और मुख्य सेनापति को छोड़कर सभी सदस्य भारतीय होने थे तथा सभी समुदायों को संतुलित प्रतिनिधित्व दिया जाना था। हिंदू-मुस्लिम सदस्यों की संख्या बराबर होनी थी। परंतु नई परिषद् के निर्माण को लेकर भारतीय दलों में कोई सहमारे नहीं बन पाई।

कांग्रेस ने लीग की असहमति को योजना की असफलता का मुख्य कारण बताया। इससे कांग्रेस व लीग में कटुता बढ़ी तथा योजना की असफलता से देश में निराशा फैली। इस घटना ने देश को विभाजन की ओर धकेला।

6. कैबिनेट मिशन की असफलता (Failure of the Cabinet Mission)-15 मार्च, 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भारत को जल्दी ही स्वतंत्रता देने की बात कही। अतः मार्च, 1946 में कैबिनेट मिशन भारत भेजा गया। इसका लक्ष्य भारत में एक राष्ट्रीय सरकार बनाना तथा भावी संविधान के लिए रास्ता तैयार करना था। इस समय सबसे कठिन समस्या सांप्रदायिक समस्या बन गई थी। मुस्लिम लीग ने इसके लिए एकमात्र हल पाकिस्तान की माँग को बताया था, परंतु कैबिनेट मिशन ने पाकिस्तान की माँग को अस्वीकार कर एक भारतीय संघ का प्रस्ताव रखा।

लीग और कांग्रेस में इस पर प्रारंभ में सहमति बनी, परंतु अन्ततः दोनों ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया। कैबिनेट मिशन योजना की अस्वीकृति दुर्भाग्यपूर्ण थी। यह भारत को एक बनाए रखने का अंतिम प्रयास था। इसकी अस्वीकृति और असफलता के बाद विभाजन लगभग अपरिहार्य हो गया था। कांग्रेस के ज्यादातर नेता विभाजन को एक त्रासद परंतु अवश्यम्भावी परिणाम मान चुके थे। केवल महात्मा गाँधी और खान अब्दुल गफ्फार ख़ान ही अंत तक विभाजन का विरोध करते रहे।

7. सीधी कार्रवाई तथा साम्प्रदायिक दंगे (Direct Action and Communal Riots)-कैबिनेट योजना की असफलता के बाद लीग ने 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ घोषित किया तथा ‘लड़कर लेंगे पाकिस्तान’ का नारा दिया। इसके साथ ही कलकत्ता में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए जो 20 अगस्त तक चलते रहे। दंगे अन्य स्थानों पर भी भड़कने लग गए। पूर्वी बंगाल में नोआखली जिले में 10 अक्तूबर को दंगे शुरू हो गए।

इन दंगों का असर अन्य स्थानों पर भी हुआ। पंजाब के अनेक नगरों और गाँवों में भी खतरनाक दंगे भड़क गए। साथ ही हजारों लोग विस्थापित हो गए। दंगों ने सारे देश को दहला दिया। कानून और व्यवस्था बिल्कुल चरमरा गई तथा देश में गृह-युद्ध की स्थिति पैदा होती जा रही थी।
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8. माऊन्टबेटेन योजना तथा ब्रिटिश भारत का बँटवारा (Mountbatten plan and Division of British India)-भारत में सांप्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं निकल पा रहा था। देश में सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। उधर 20 फरवरी, 1947 को एटली ने भारत की सत्ता 30 जून, 1948 तक भारतीयों को सौंपने की घोषणा की।

साथ ही वेवल के स्थान पर माऊन्टबेटेन को भारत का गवर्नर जनरल बनाकर भेजा। माऊन्टबेटेन ने 3 जून, 1947 को भारत के विभाजन की योजना की घोषणा की। इस योजना के अनुसार भारत और पाकिस्तान नाम के दो राज्यों को सत्ता का हस्तांतरण किया गया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

प्रश्न 7.
बँटवारे के समय औरतों के क्या अनुभव रहे?
उत्तर:
विभाजन के समय सबसे अधिक पीड़ा महिलाओं को उठानी पड़ी। ‘दूसरे समुदाय’ के सम्मान को रौंदने एवं ठेस पहुँचाने के लिए महिलाओं को ही ‘सॉफ्ट टारगेट’ बनाया गया। उनके साथ बलात्कार हुए, उनको अगवा किया गया, उन्हें बार-बार बेचा-खरीदा गया। उनसे जबरदस्ती विवाह किया गया और उन्हें ‘अजनबी’ व्यक्तियों के साथ रहने को मजबूर होना पड़ा। महिलाएँ मूक एवं निरीह प्राणियों की तरह इन अत्याचारों से गुजरती रहीं। उन्हें गहरे सदमे झेलने पड़े।

इन सदमों के बावजूद भी कुछ महिलाओं ने बदली हुई स्थितियों में नए पारिवारिक बंधन स्थापित किए। किंतु जब भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने गुमशुदा औरतों की ‘बरामदगी’ की मुहिम चलाई तो महिलाओं को पुनः संकट का सामना करना पड़ा। इस बरामदगी की प्रक्रिया में मानवीय संबंधों की जटिलता के विषय पर किसी प्रकार की संवेदनशीलता नहीं दिखाई गई।

दोनों सरकारों के बीच समझौता हुआ था कि “जबरन धर्म परिवर्तन तथा बलपूर्वक विवाहों को मान्यता नहीं दी जाएगी। सरकारों द्वारा अपहरण की गई औरतों को ढूँढ़ने तथा बरामद करने का हर प्रयत्न किया जाएगा तथा उन्हें उनके परिवारों के सुपुर्द किया जाएगा।”

इस बरामदगी की पूरी प्रक्रिया में इन ‘प्रभावित औरतों’ से उनकी किसी प्रकार की राय नहीं ली गई। उन्हें अपनी जिंदगी के संबंध में फैसला लेने के अधिकार से वंचित किया गया। सरकार यह मानकर चल रही थी कि इन महिलाओं को बलपूर्वक बैठा लिया गया था। इसलिए उन्हें उनके नए परिवारों से छीनकर पुराने परिवारों के पास अथवा पुराने स्थान पर भेज दिया गया।

एक अनुमान के अनुसार महिलाओं की बरामदगी के अभियान में कुल मिलाकर लगभग 30,000 औरतों को बरामद किया गया। इनमें से 8000 हिंदू व सिक्ख औरतों को पाकिस्तान से तथा 22,000 मुस्लिम औरतों को भारत से बरामद किया गया। यह अभियान 1954 तक जारी रहा।

1. ‘इज्जत’ की रक्षा के लिए औरतों की हत्या-बँटवारे के दौरान ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जब परिवार के पुरुषों ने ही परिवार की ‘इज्जत’ की रक्षा के नाम पर अपने परिवार की स्त्री सदस्यों को स्वयं ही मार दिया या आत्महत्या के लिए प्रेरित किया। इन पुरुषों को भय होता था कि शत्रु उनकी औरतों-माँ, बहन, बेटी को नापाक कर सकता था। इसलिए परिवार की मान-मर्यादा को बचाने के लिए खुद ही उनको मार डाला। उर्वशी बुटालिया ने अपनी पुस्तक दि अदर साइड ऑफ साइलेंस (The Other Side of Silence) में रावलपिंडी जिले के थुआ खालसा नामक गाँव की एक इसी प्रकार की दर्दनाक घटना का विवरण दिया है।

2. वे बताती हैं कि बँटवारे के समय सिक्खों के इस गाँव की 90 औरतों ने ‘दुश्मनों’ के हाथों में पड़ने की बजाय ‘अपनी इच्छा से’ एक कुएँ में कूदकर अपनी जान दे दी थी। इस गाँव के लोग इसे आत्महत्या नहीं शहादत मानते हैं और आज भी दिल्ली के एक गुरुद्वारे में हर वर्ष 13 मार्च को उनकी शहादत की याद में कार्यक्रम आयोजित किया जाता है तथा इस घटना को मर्दो, औरतों व बच्चों को विस्तार से सुनाया जाता है। अंतः स्पष्ट है कि बँटवारे के समय औरतों के अनुभव पुरुषों से भिन्न थे। उन्हें असहनीय पीड़ा और संताप से गुजरना पड़ा।

प्रश्न 8.
बँटवारे के सवाल पर कांग्रेस की सोच कैसे बदली?
उत्तर:
कांग्रेस ने 1940 के दशक के प्रारंभ से ही पाकिस्तान के निर्माण या ब्रिटिश भारत के बँटवारे का विरोध किया था। परंतु सांप्रदायिक समस्या का हल न निकलने, सांप्रदायिक दंगे भड़कने तथा लीग की हठधर्मिता के चलते उसकी सोच में बदलाव आने लगा था। अंग्रेजों द्वारा 1946 के बाद भारत को जल्दी छोड़ने के फैसले से भी कांग्रेस के विचारों में बदलाव आया। कांग्रेस की सोच में बदलाव के लिए उत्तरदायी परिस्थितियों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. कांग्रेस मंत्रिमण्डल व लीग से मतभेद (Conflicts in Congress Ministries and League)-1937 के चुनावों में सफलता के बाद कांग्रेस ने प्रांतों में सरकार बनाई परन्तु कुछ प्रांतों (विशेषतः यू०पी० व बिहार) में स्थिति यह थी कि कांग्रेस सत्ता पक्ष में तथा मुस्लिम लीग के सदस्य विपक्ष में थे। ये लीग के सदस्य प्रांतों में कांग्रेसी शासन के पूरे 27 महीनों के काल में कांग्रेस के खिलाफ जोरदार प्रचार करते रहे। आरोप लगाया गया कि काँग्रेसी शासन में मुसलमानों पर अत्याचार किए जा रहे हैं। फलतः लीग व कांग्रेस में दूरियाँ भी बढ़ीं। यहाँ तक कि जब 22 अक्तूबर, 1939 को कांग्रेस सरकारों ने त्यागपत्र दिया तो लीग ने मुक्ति दिवस (Day of Deliverance) मनाया।

2. ‘पाकिस्तान’ प्रस्ताव (‘Pakistan’ Resolution)-1937 के बाद जिन्ना की राजनीति पूरी तरह से उग्र-सांप्रदायिकता की राजनीति थी। उन्होंने कांग्रेस और राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध जहर उगलना शुरू कर दिया। उन्होंने दुष्प्रचार किया कि कांग्रेस का आला कमान दूसरे सभी समुदायों और संस्कृतियों को नष्ट करने तथा हिंदू राज्य कायम करने के लिए पूरी तरह दृढ़ प्रतिज्ञ है।

उन्होंने मुस्लिम जनता को भयभीत करना शुरू किया कि स्वतंत्र भारत में मुस्लिम और इस्लाम दोनों के ही अस्तित्व को खतरा पैदा हो जाएगा। 1940 में जिन्ना ने अपने ‘द्विराष्ट्रों के सिद्धांत’ को मुस्लिम जनता के समक्ष रखा। लीग का कहना था कि यदि भारत एक राज्य रहता है तो बहुमत के शासन के नाम पर सदा हिंदू शासन रहेगा। इसका अर्थ होगा इस्लाम के बहुमूल्य तत्त्व का पूर्ण विनाश और मुसलमानों के लिए स्थायी दासता। 1940 में लीग ने लाहौर में ‘पाकिस्तान प्रस्ताव पास किया। इससे स्थितियों में बदलाव आया।

3. वेवल योजना की विफलता (Failure of Wavell Plan)-द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वायसराय वेवल ने अपनी कार्यकारिणी में भारतीयों को शामिल करने के लिए शिमला में सम्मेलन बुलाया। परंतु लीग की हठधर्मिता के कारण यह योजना असफल हो गई। लीग चाहती थी कि परिषद के सभी मुस्लिम सदस्य उसके द्वारा चुने जाएँ। इससे कांग्रेस व लीग में कटुता बढ़ी तथा निराशा फैली।

4. कैबिनेट मिशन की असफलता (Failure of the Cabinet Mission)-15 मार्च, 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भारत को जल्दी ही स्वतंत्रता देने की बात कही। अतः मार्च, 1946 में कैबिनेट मिशन भारत भेजा गया। इसका लक्ष्य भारत में एक राष्ट्रीय सरकार बनाना तथा भावी संविधान के लिए रास्ता तैयार करना था। इस समय सबसे कठिन समस्या सांप्रदायिक समस्या बन गई थी। मुस्लिम लीग ने इसके लिए एकमात्र हल पाकिस्तान की माँग को बताया था, परंतु कैबिनेट मिशन ने पाकिस्तान की माँग को अस्वीकार कर एक भारतीय संघ का प्रस्ताव रखा।

इस योजना को कांग्रेस तथा लीग दोनों ने स्वीकार कर लिया। यह विभाजन का एक संभावित विकल्प था। परन्तु बाद में मतभेद उभर गए तथा लीग ने इसे अस्वीकार कर दिया। कैबिनेट मिशन योजना की अस्वीकृति दुर्भाग्यपूर्ण थी। इसकी अस्वीकृति और असफलता के बाद विभाजन लगभग अपरिहार्य हो गया था। कांग्रेस के ज्यादातर नेता विभाजन को एक त्रासद परंतु अवश्यम्भावी परिणाम मान चुके थे।

5. सीधी कार्रवाई तथा साम्प्रदायिक दंगे (Direct Action and Communal Riots)-कैबिनेट योजना की असफलता के बाद लीग ने 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ घोषित किया तथा ‘लड़कर लेंगे पाकिस्तान’ का नारा दिया। इसके साथ ही कलकत्ता में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए जो 20 अगस्त तक चलते रहे। साथ ही हजारों लोग विस्थापित हो गए। दंगों ने सारे देश को दहला दिया। कानून और व्यवस्था बिल्कुल चरमरा गई तथा देश में गृह-युद्ध की स्थिति पैदा होती जा रही थी। इससे कांग्रेस की सोच में पूरी तरह बदलाव आ गया।

6. माऊन्टबेटेन योजना तथा पाकिस्तान का निर्माण (Mountbatten Plan and the Creation of Pakistan)-भारत में सांप्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं निकल पा रहा था। देश में सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। अन्तरिम सरकार भी लीग की रोड़ा अटकाने की नीति के कारण काम नहीं कर पा रही थी। उधर 20 फरवरी, 1947 को एटली ने भारत की सत्ता 30 जून, 1948 तक भारतीयों को सौंपने की घोषणा की। साथ ही वेवल के स्थान पर माऊन्टबेटेन को भारत का गवर्नर जनरल बनाकर भेजा।

माऊन्टबेटेन ने 3 जून, 1947 को भारत के विभाजन की योजना की घोषणा की। इस योजना के अनुसार भारत और पाकिस्तान नाम के दो राज्यों को सत्ता का हस्तांतरण करने का फैसला हुआ। कांग्रेस अब तक लीग की नीतियों के कारण बँटवारे के पक्ष में हो चुकी थी। अतः उसने बँटवारे को स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 9.
मौखिक इतिहास के फायदे व नकसानों की पड़ताल कीजिए। मौखिक इतिहास की पद्धतियों से विभाजन के बारे में हमारी समझ को किस तरह विस्तार मिलता है?
उत्तर:
विभाजन को समझने के लिए हम मौखिक इतिहास का प्रयोग करते हैं। ये स्रोत हमें विभाजन के दौर में सामान्य लोगों के कष्टों और संताप को समझने में मदद करते हैं। लाखों लोगों ने विभाजन को पीडा और चनौती के दौर के रूप में देखा। उनके लिए यह मात्र सवैधानिक बँटवारा या मुस्लिम लीग और कांग्रेस की दलगत राजनीति का मामला नहीं था। उनके लिए यह एक ऐसी घटना थी जिसने उनकी जिंदगी को पूरी तरह से बदल दिया; बुरी तरह से झकझोर डाला था।

हमें विभाजन को मात्र राजनीतिक घटना के रूप में ही नहीं समझना चाहिए वरन् इस रूप में भी देखना चाहिए कि जिन लोगों ने इस त्रासदी को भुगता वे इसके क्या अर्थ लगा रहे थे। इस घटना की उनकी स्मृतियाँ और अनुभव किस प्रकार के थे। उन स्मृतियों और अनुभवों की तह तक पहुँचकर ही हम विभाजन जैसी घटना के मानवीय आयामों (Human dimensions) को समझ सकते हैं और इसमें मौखिक इतिहास बहुत कारगर है।

1. मौखिक इतिहास के फायदे-मौखिक स्रोत के रूप में व्यक्तिगत स्मृतियों का एक महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि इनसे हमें लोगों के अनुभवों और स्मतियों को गहराई से समझने में सहायता मिलती है। इन स्मतियों के माध्यम से इतिहासकारों को विभाजन जैसी दर्दनाक घटना के दौरान लोगों को किन-किन शारीरिक और मानसिक पीड़ाओं को झेलना पड़ा, का बहुरंगी एवं सजीव वृत्तांत लिखने में सहायता मिलती है। यहाँ यह उल्लेख करना भी उपयुक्त है कि सरकारी दस्तावेज़ों में इस तरह की जानकारी नहीं मिलती। ये दस्तावेज नीतिगत और दलगत या विभिन्न सरकारी योजनाओं से संबंधित होते हैं।

इन फाइलों व रिपोर्टों में बँटवारे से पहले की वार्ताओं, समझौतों या दंगों और विस्थापन के आँकड़ों, शरणार्थियों के पुनर्वास इत्यादि के बारे में काफी जानकारी मिलती है। परंतु इनसे देश के विभाजन से प्रभावित होने वाले लोगों के रोजाना के हालात, उनकी अंतीड़ा और कड़वे अनुभवों के बारे में विशेष पता नहीं लगता। यह तो मौखिक स्रोतों से ही जाना जा सकता है।

2. मौखिक इतिहास के नुकसान-बहुत-से इतिहासकार मौखिक इतिहास के बारे में शंकालु हैं। वे इसे यह कहकर खारिज़ करते हैं कि मौखिक जानकारियों में सटीकता नहीं होती। इन जानकारियों से जो क्रम (Choronology) उभरता है. : होता। मौखिक इतिहास के खिलाफ यह भी तर्क दिया जाता है कि निजी अनुभवों की विशिष्टता के सहारे सामान्य नतीजों पर पहुँचना कठिन होता है।

मौखिक वृत्तांतों के छोटे-छोटे अनुभवों से पूरी तस्वीर सामने नहीं आती। कई इतिहासकारों को लगता है कि मौखिक वृत्तांत सतही मुद्दों (Surfacial Issues) से संबंध रखते हैं और यादों में बने रहे छोटे-छोटे अनुभव इतिहास की बड़ी प्रक्रियाओं (Larger Processes) का कारण ढूँढ़ने में असफल होते हैं।

3. विभाजन के बारे में हमारी समझ का विस्तार-मौखिक इतिहास से विभाजन के बारे में हमारी समझ का विस्तार संभव है। मौखिक स्रोतों से इतिहासकारों को जन इतिहास को उजागर करने में मदद मिलती है। वे गरीबों और कमजोरों (जन सामान्य, स्त्रियों, बच्चों, दलितों आदि) के अनुभवों को उपेक्षा के अंधकार से बाहर निकाल पाते हैं। ऐसा करके वे इतिहास जैसे विषय की सीमाओं को और फैलाने का अवसर प्रदान करते हैं।

उदाहरण के लिए मौखिक स्रोत से हमने अब्दल लतीफ की भावनाएँ, थुआ गाँव की औरतों की कहानी व सद्भावनापूर्ण प्रयासों की कहानियों को जाना। डॉ० खुशदेव सिंह के प्रति कराची में गए मुसलमान अप्रवासियों की मनोदशा को समझ पाए। शरणार्थियों के द्वारा किए गए संघर्ष को भी मौखिक स्रोतों से समझा जा सकता है। इस प्रकार इस स्रोत से इतिहास में समाज के ऊपर के लोगों से आगे जाकर सामान्य लोगों की पड़ताल करने में सफलता मिलती है।

सामान्यतः आम लोगों के वजूद को नज़र-अंदाज कर दिया जाता है या इतिहास में चलते-चलते ज़िक्र कर दिया जाता है। संक्षेप में, ये स्रोत हमें जन इतिहास को समझने में मदद प्रदान करते हैं।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
दक्षिणी एशिया के नक्शे पर कैबिनेट मिशन प्रस्तावों में उल्लिखित भाग क, ख और ग को चिह्नित कीजिए। यह नक्शा मौजूदा दक्षिण एशिया के राजनैतिक नक्शे से किस तरह अलग है?
उत्तर:
संकेत-1947 से पूर्व के अविभाजित भारत के मानचित्र पर कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों को दर्शाइए।
क समूह-संयुक्त प्रांत, मध्यप्रांत, बंबई, मद्रास, बिहार व उड़ीसा (हिंदू बहुल प्रांत)।
ख समूह-पंजाब, सिंध व उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (पश्चिम के मुस्लिम बहुल प्रांत)।
ग समूह-असम व बंगाल (पूर्व के मुस्लिम बहुल प्रांत)!

परियोजना कार्य

प्रश्न 11.
यूगोस्लाविया के विभाजन को जन्म देने वाली नृजातीय हिंसा के बारे में पता लगाइए। उसमें आप जिन नतीजों पर पहुँचते हैं उनकी तुलना इस अध्याय में भारत विभाजन के बारे में बताई गई बातों से कीजिए।
उत्तर:
प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूगोस्लाविया राज्य का उदय हुआ। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यहाँ कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ। इसका 1990 में अंत हुआ। 1992 तक आते-आते यह देश पाँच स्वतंत्र राज्यों में विभाजित हो गया। इस क्षेत्र में नृजातीय हिंसा भी हुई। पाँच राज्य थे-यूगोस्लाविया (सर्विया व मॉनटेनेग्रो को मिलाकर), क्रोशिया, मैकेडोनिया, स्लोवेनिया व बोस्निया-हर्जेगोविना। परंतु बोस्निया-हर्जेगोविना में हिंसा समाप्त नहीं हुई। यहाँ के तीन समुदायों (सर्व, क्रोर व मुसलमान) में आपस में लड़ाई चलती रही। इससे वहाँ की जनता को भारी कष्ट झेलने पड़े हैं। भारत विभाजन में हिंदू, सिक्ख और मुसलमान समुदाय आपस में लड़े। फलतः लाखों लोग मारे गए व करोड़ के करीब लोग उजड़ गए। (भारत विभाजन की हिंसा व विस्थापन पर विस्तार से लिखें।)

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

प्रश्न 12.
पता लगाइए कि क्या आपके शहर, कस्बे, गाँव या आस-पास के किसी स्थान पर दूर से कोई समुदाय आकर बसा है (हो सकता है आपके इलाके में बँटवारे के समय आए लोग भी रहते हों)। ऐसे समुदायों के लोगों से बात कीजिए और अपने निष्कर्षों को एक रिपोर्ट में संकलित कीजिए। लोगों से पूछिए कि वे कहाँ से आए हैं, उन्हें अपनी जगह क्यों छोड़नी पड़ी और उससे पहले व बाद में उनके कैसे अनुभव रहे। यह भी पता लगाइए कि उनके आने से क्या बदलाव पैदा हुए।
उत्तर:
संकेत-आपके शहर/कस्बे/गाँव में पाकिस्तान से आकर बसे पंजाबी समुदाय या सिक्ख समुदाय के लोगों का पता लगाइए और उनसे एक प्रश्नावली बनाकर उसके उत्तर जानिए। प्रश्नावली प्रश्न में दिए गए सवालों को शामिल कीजिए। अन्य प्रश्न भी डालें; जैसे वे यहाँ कब आए, पहले कहाँ आए, क्या व्यवसाय शुरू किया, अब आर्थिक स्थिति क्या है? आदि।

विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव HBSE 12th Class History Notes

→ विभाजन-1947 ई० में ब्रिटिश भारत का दो स्वतंत्र राज्यों (भारत और पाकिस्तान) में विभाजित होना।

→ शरणार्थी-अपने घरों से बेघर होकर, अपने मकानों, खेतों एवं कारोबार को छोड़कर 1947 में बनी सीमा को पार कर अजनबी जमीन/स्थान पर पहुंचने वाले लोग।

→ मौखिक इतिहास-साक्षात्कार और बातचीत के द्वारा अतीत को समझना।

→ विस्थापन-एक स्थान देश से दूसरे स्थान देश को जाना।

→ महाध्वंस (होलोकॉस्ट)-युद्ध जैसी स्थितियों में बहुत कुछ नष्ट होना तथा बड़े पैमाने पर लोगों का मारा जाना।

→ जर्मन होलोकॉस्ट-हिटलर के अधीन नाजी शासन के दौर में यहूदियों पर हुए अत्याचार।

→ नस्ली सफाया-किसी क्षेत्र से एक जाति या समुदाय के लोगों को मार देना या भगा देना।

→ रूढ़ छवियाँ (Stereotypes)-किसी गलत धारणा को निजी लाभ के उद्देश्य से बार-बार दोहराना तथा धीरे-धीरे उसका सच प्रतीत होना।

→ लखनऊ समझौता-1916 में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग में हुआ समझौता। इसके अनुसार कांग्रेस ने पृथक चुनाव क्षेत्रों को स्वीकार किया।

→ आर्य समाज-स्वामी दयानंद द्वारा स्थापित (1875 ई० में) एक संस्था। यह पंजाब में विशेष सक्रिय था। आर्य समाज वैदिक ज्ञान का पुनरुत्थान कर उसको विज्ञान की आधुनिक शिक्षा से जोड़ना चाहता था।

→ मस्जिद के सामने संगीत-किसी धार्मिक जुलूस के द्वारा अपने त्योहार (जैसे होली) पर नमाज के समय मस्जिद के सामने संगीत का बजाया जाना। इससे हिंदू-मुस्लिम हिंसा भड़क उठती थी क्योंकि संगीत को रूढ़िवादी मुसलमान अपनी नमाज में खलल समझते थे।

→ साम्प्रदायिकता-धार्मिक अस्मिता (पहचान) का विशेष तरह से राजनीतिकरण जो धार्मिक समुदायों में झगड़े पैदा करवाने की कोशिश करता है।

→ मुस्लिम लीग-1906 में ढाका में स्थापित संगठन, जो मुस्लिमों के राजनीतिक हितों की सुरक्षा के लिए बनाया गया। 1940 में इसने ‘पाकिस्तान’ का प्रस्ताव रखा।

→ हिंदू महासभा-एक हिंदू पार्टी, जिसकी स्थापना 1915 में हुई, उत्तर भारत तक सीमित रही। यह हिंदुओं में जाति व संप्रदाय के भेद खत्म कर हिंदू समाज में एकता स्थापित करने की कोशिश करती थी।

→ यूनियनिस्ट पार्टी यह पंजाब में हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख भू-स्वामियों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक पार्टी थी। यह 1923 से 1947 तक काफी शक्तिशाली रही।

→ महासंघ या परिसंघ-आधुनिक राजनीतिक शब्दावली के अनुसार एक ऐसा संघ जिसमें राज्यों की स्वायत्तता होती है और केन्द्रीय सरकार के पास केवल सीमित शक्तियाँ होती हैं।

→ प्रत्यक्ष कार्यवाही-पाकिस्तान की माँग को पूरा करने के लिए वार्ताएँ असफल होने पर मुस्लिम लीग ने सीधी कार्यवाही अर्थात् हिंसात्मक तरीका अपनाने का फैसला लिया। 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाया गया, जिसके परिणामस्वरूप कलकत्ता में दंगे भड़क उठे।

→ एक अकेली फौज-गाँधी जी जहाँ भी गए वहाँ सांप्रदायिक दंगे (1947 में) शांत हो जाते थे। दंगों पर काबू पाने में फौज नाकाम रही थी। गाँधी जी ने अकेले ही सांप्रदायिक सद्भाव स्थापना का कार्य किया।

→ औरतों की बरामदगी-1947 के दौरान अपहरण की गई औरतों का भारत-पाकिस्तान समझौते के अनुसार तलाश का कार्य शुरू हुआ। इसे ‘बरामदगी’ के नाम से जाना गया।

→ इज्जत की रक्षा-विभाजन के दौर में जब पुरुषों को यह भय होता था कि उनकी औरतों-पत्नी, बेटी, बहन….. को शत्रु नापाक कर सकता है तो वे अपनी इज्जत की रक्षा के लिए स्वयं ही उन्हें मार देते थे या औरतें स्वयं ही आत्महत्या कर लेती थीं।

→ विभाजन को दक्षिणी एशिया के इतिहास में ऐतिहासिक मोड़ की संज्ञा दी जाती है। इसके कारण देश दो सम्प्रभु राज्यों (भारत और पाकिस्तान) में बँट गया। विभाजन ने तात्कालिक रूप से करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित किया। साथ ही विभाजन की . स्मृतियों और कहानियों ने रूढ़छवियों (Stereotypes) का निर्माण किया जो आज भी भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को प्रभावित कर रही हैं। विभाजन सांप्रदायिक हिंसा, जनसंहार, आगजनी, लूटपाट, अराजकता, अपहरण, बलात्कार आदि का पर्याय बन गया था।

→ यद्यपि हिंसा में पाकिस्तान और हिंदुस्तान में मारे गए लोगों की ठीक-ठीक संख्या बता पाना असंभव है. तथापि अनुमान लगाया जाता है कि 2 लाख से 2.5 लाख गैर-मुस्लिम तथा इतने ही मुस्लिम विभाजन की हिंसा में मारे गए। यह मात्र सम्पत्ति और क्षेत्र का विभाजन नहीं था बल्कि एक महाध्वंस था। 1947 में जो लोग सीमा पार से जिंदा बचकर आ रहे थे, वे विभाजन के फैसले को ‘सरकारी नज़रिए’ से नहीं देख रहे थे। उनके अनुभव भयानक थे और वे उसे ‘मार्शल लॉ’, ‘मारामारी’ ‘रौला’ या ‘हुल्लड़’ जैसे शब्दों से व्यक्त करते थे।

→ बँटवारे की वजह से दोनों देशों में रूढ़छवियों का निर्माण हुआ। जैसे कि कुछ लोगों को लगता है कि मुसलमान क्रूर, कट्टर और गंदे होते हैं। वे हमलावरों के वंशज हैं। दूसरी ओर ऐसा समझा जाता है कि हिंदू दयालु, उदार और शुद्ध होते हैं और वे सदैव हमले सहते आए हैं। कुछ पाकिस्तानियों को लगता है कि मुसलमान निष्पक्ष, बहादुर, एकेश्वरवादी और मांसाहारी होते हैं, जबकि हिंदू काले, कायर, बहुदेववादी तथा शाकाहारी होते हैं।

→ कुछ भारतीय और पाकिस्तानी इतिहासकार यह मानते हैं कि मोहम्मद अली जिन्ना का यह सिद्धांत ठीक था कि भारत में हिंदू और मुस्लिम दो पृथक् राष्ट्र विद्यमान थे। उनके अनुसार यह विचार मध्यकालीन भारत पर भी लागू होता है। ये इतिहासकार इस बात पर बल देते हैं कि 1947 की घटनाएँ (विभाजन) मध्यकाल तथा आधुनिक काल में हुए हिंदू-मुस्लिम झगड़ों के लंबे इतिहास से जुड़ी हुई हैं। इस प्रकार वे विभाजन को हिंदू-मुस्लिम झगड़ों का चरम बिंदु या अंतिम चरण मानते हैं।

→ कुछ विद्वानों का यह मानना है कि देश का विभाजन एक ऐसी सांप्रदायिक राजनीति का शिखर था जो 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में शुरू हुई। इन विद्वानों का तर्क है कि अंग्रेज़ों ने मुसलमानों की आरक्षण की माँग को स्वीकार किया। 1909 के भारत सरकार अधिनियम में मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों का निर्माण किया तथा आगे (1919, 1935 में) इसका विस्तार किया। अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को भारत में सांप्रदायिकता के उदय व विकास और अन्ततः विभाजन के लिए जिम्मेदार माना गया है। अंग्रेज़ों ने हिंदुओं और मुसलमानों में घृणा पैदा करने को राजनीतिक शस्त्र के रूप में प्रयोग किया।

→ 1922 में असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद सांप्रदायिक तनावों में वृद्धि हुई। यह सांप्रदायिक तनाव इन समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ लामबंद करने का अवसर प्रदान करते थे जिससे आसानी से दंगे भड़क उठते थे। 1935 के एक्ट की व्यवस्था के अनुसार 1937 में प्रांतों में विधानमंडलों के चुनाव हुए। इन चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता प्राप्त हुई। परंतु कांग्रेस को मुस्लिम आरक्षित सीटों पर कोई सफलता नहीं मिली। वह 492 आरक्षित सीटों में से 58 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार चुनाव में खड़ा कर पाई तथा उसे 26 सीटों पर जीत प्राप्त हुई। दूसरी ओर मुस्लिम लीग की स्थिति इन चुनावों में काफी खराब रही।

→ 1940 में जिन्ना ने अपने ‘द्विराष्ट्रों के सिद्धांत’ को मुस्लिम जनता के समक्ष रखा। इस सिद्धांत की दो मान्यताएँ थीं। पहली मान्यता के अनुसार “हिंदू और मुसलमान बिल्कुल दो समाज थे। धर्म, दर्शन, सामाजिक प्रथा और साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों अलग-अलग थे………इसलिए ये दोनों कौमें एक राष्ट्र नहीं बन सकती थीं।” दूसरी मान्यता यह थी कि यदि भारत एक राज्य रहता है तो बहुमत के शासन के नाम पर सदा हिंदू शासन रहेगा। इसका अर्थ होगा इस्लाम के बहुमूल्य तत्त्व का पूर्ण विनाश और मुसलमानों के लिए स्थायी दासता।

→ 23 मार्च, 1940 को लीग ने अपने लाहौर अधिवेशन में उपमहाद्वीप के मुस्लिम-बहुल इलाकों के लिए स्वायत्तता की माँग का प्रस्ताव पेश किया। यह प्रस्ताव ही ‘पाकिस्तान’ प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है। 1946 के प्रांतीय चुनावों ने भारतीय राजनीति पर गहरी छाप छोड़ी। इन चुनावों में भी कांग्रेस को सामान्य सीटों पर महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त हुई। परंतु मुस्लिम सीटों पर उसे कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई। अब की बार मुस्लिम लीग को मुस्लिम सीटों पर भारी सफलता प्राप्त हुई। उसे कुल मुस्लिम वोटों का 86.6 प्रतिशत प्राप्त हुई। अब वह भारत में मुसलमानों की ‘एकमात्र प्रवक्ता’ होने का दावा कर सकती थी। इस रूप में 1946 के प्रांतीय चुनाव ‘विभाजन’ पर ‘जनमत संग्रह’ थे।

→ कैबिनेट मिशन योजना की अस्वीकृति दुर्भाग्यपूर्ण थी। यह भारत को एक बनाए रखने का अंतिम प्रयास था। इसकी अस्वीकृति और .. असफलता के बाद विभाजन लगभग अपरिहार्य हो गया था। कांग्रेस के ज्यादातर नेता विभाजन को एक त्रासद परंतु अवश्यम्भावी परिणाम मान चुके थे। केवल महात्मा गाँधी और खान अब्दुल गफ्फार ख़ान ही अंत तक विभाजन का विरोध करते रहे। कैबिनेट योजना की असफलता के बाद लीग ने 16 अगस्त, 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस’ घोषित किया तथा ‘लड़कर लेंगे पाकिस्तान’ का नारा दिया। माऊंटबेटेन ने 3 जून, 1947 को भारत के विभाजन की योजना की घोषणा की। इस योजना के अनुसार भारत और पाकिस्तान नाम के को सत्ता का हस्तांतरण किया गया।
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→ 1947 की इस भयावह स्थिति में महात्मा गाँधी ही थे जो अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी देश में सांप्रदायिक सद्भावना के प्रयासों में लगे थे। 77 वर्ष के बुजुर्ग महात्मा गाँधी ने अहिंसा के अपने सिद्धांत को एक बार फिर परखने के लिए अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया। उनका विश्वास था कि सत्य और अहिंसा के द्वारा लोगों का हृदय परिवर्तन किया जा सकता है। सचमुच इस संकट की घड़ी में गाँधीजी के नेतृत्व का चरमोत्कर्ष देखा जा सकता है। जहाँ पर गाँधी जी हिंसा को रोकने और सद्भावना की स्थापना के लिए जाते थे वहाँ पर ‘बिजली’ की गति से असर होता था। लोग अपने हथियार गाँधीजी को समर्पित कर देते थे। जहाँ बड़ी सेना भी शांति

→ बहाल करने में सक्षम नहीं होती थी वहाँ गाँधीजी के पहुँचते ही शान्ति स्थापित हो जाती थी। इसी वजह से माऊंटबेटेन ने महात्मा गाँधी को ‘One man boundary by force’ कहकर संबोधित किया था। विभाजन के समय सबसे अधिक पीड़ा महिलाओं को उठानी पड़ी। ‘दूसरे समुदाय’ के सम्मान को रौंदने एवं ठेस पहुँचाने के लिए महिलाओं को ही ‘सोफ्ट टारगेट’ बनाया गया। उनके साथ बलात्कार हुए, उनको अगवा किया गया। बार-बार बेचा-खरीदा गया। उनसे जबरदस्ती विवाह किया गया और उन्हें ‘अजनबी’ व्यक्तियों के साथ रहने को मजबूर होना पड़ा।

→ बँटवारे के दौरान ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जब परिवार के पुरुषों ने ही परिवार की ‘इज्जत’ की रक्षा के नाम पर अपने परिवार की स्त्री सदस्यों को स्वयं ही मार दिया या आत्महत्या के लिए प्रेरित किया। इन पुरुषों को भय होता था कि शत्रु उनकी औरतों-माँ, बहन, बेटी को नापाक कर सकता था। इसलिए परिवार की मान-मर्यादा को बचाने के लिए खुद ही उनको मार डाला। विभाजन के दौरान सर्वाधिक जनसंहार और रक्तपात पंजाब में देखा गया। भारत के अन्य प्रदेश (बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि) भी विभाजन से अत्यधिक प्रभावित हुए।

→ उत्तर प्रदेश, बिहार आदि क्षेत्रों से बहुत सारे मुस्लिम परिवार पलायन कर पाकिस्तान जाकर बस गए। इनमें से अधिकांश लोग सिंध प्रांत के कराची-हैदराबाद क्षेत्र में जाकर बसे। इन्हें मुहाजिर (अप्रवासी) कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि सिंध प्रांत में आज भी ‘मुहाजिरों’ की समस्याएँ समाप्त नहीं हुई हैं। वे लोग वहाँ पर आंदोलनरत हैं। भारत-विभाजन के समय बंगाल प्रांत का भी विभाजन हुआ। परंतु यहाँ पंजाब के समान एक ही बार में बड़े पैमाने पर पलायन नहीं हुआ। वहाँ से शरणार्थी धीरे-धीरे कई वर्षों तक आते रहे।

→ विभाजन के दौर के एक पक्ष का हमने अध्ययन किया कि लोग सांप्रदायिक उन्माद में अंधे होकर खून-खराबे, आगजनी, लूटपाट, बलात्कार जैसे घृणित कृत्यों में संलग्न थे; वहीं एक दूसरा पक्ष, मदद, मानवता और सद्भावना का उज्ज्वल पक्ष, भी हमारे सामने आता है। इतिहासकारों ने ऐसी अनेक घटनाएँ उजागर की हैं जिनसे पता चलता है कि महाध्वंस के उस दौर में बहुत सारे लोग अपनी जान पर खेलकर दूसरे समुदायों के लोगों की रक्षा कर रहे थे। डॉ० खुशदेव सिंह पेशे से डॉक्टर थे तथा तपेदिक के विशेषज्ञ थे।

→ विभाजन के समय वे हिमाचल प्रदेश में धर्मपुर नामक स्थान पर नियुक्त थे। उन्होंने बिना किसी भेदभाव के असंख्य शरणार्थियों (हिंदू, सिक्ख, मुसलमान सहित) को भोजन, आश्रय और सुरक्षा प्रदान की। विभाजन को समझने के लिए मौखिक वृत्तांत, संस्मरण, डायरियाँ, पारिवारिक इतिहास, स्वलिखित ब्योरे आदि का प्रयोग किया गया है। ये स्रोत हमें विभाजन के दौर में सामान्य लोगों के कष्टों और संताप को समझने में मदद करते हैं।

→ मौखिक स्रोत के रूप में व्यक्तिगत स्मृतियों की एक महत्त्वपूर्ण खूबी यह है कि इनसे हमें लोगों के अनुभवों और स्मृतियों को गहराई से समझने में सहायता मिलती है। मौखिक स्रोतों से इतिहासकारों को जन इतिहास को उजागर करने में मदद मिलती है। वे गरीबों और कमजोरों (जन सामान्य, स्त्रियों, बच्चों, दलितों आदि) के अनुभवों को उपेक्षा के अंधकार से बाहर निकाल पाते हैं। ऐसा करके वे इतिहास जैसे विषय की सीमाओं को और फैलाने का अवसर प्रदान करते हैं।

→ बहुत से इतिहासकार मौखिक इतिहास के बारे में शंकालु हैं। वे इसे यह कहकर खारिज करते हैं कि मौखिक जानकारियों में सटीकता नहीं होती। इन जानकारियों से जो क्रम (Choronology) उभरता है, वह अकसर सही नहीं होता। विभाजन जैसी घटना के मानवीय आयामों को समझने के लिए मौखिक स्रोतों के महत्त्व से इंकार नहीं किया जा सकता। मौखिक वृत्तांतों या बयानों से निकलने वाले निष्कर्षों की तुलना अन्य स्रोतों से मिलने वाले साक्ष्यों और उनके निष्कर्षों से करनी चाहिए।

काल-रेखा

कालघटना का विवरण
1905 ई०बंगाल का विभाजन
1906 ईoमुस्तिम लीग की स्थापना
1909 ई०पृथक् निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत व भारत सरकार अधिनियम
1915 ईहिंदू महासभा की स्थापना
1916 ई०लखनऊ समझौता
1930 ई०उर्दू कवि मोहम्मद इकबाल द्वारा भारतीय संध के भीतर एक ‘उत्तर-पश्चिमी भारतीय मुस्लिम राज्य’ की आवश्यकता पर जोर।
1933 ई०चौधरी रहमत अली (कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में छात्र) द्वारा ‘पाकिस्तान’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग भारत सरकार अधिनियम में प्रांतों को स्वायत्त शासन
1935 ई०प्रांतों में चुनाव तथा कांग्रेस द्वारा 11 में से 7 प्रांतों में सरकार का निर्माण
1937 ईoकांग्रेस लीग द्वारा संयुक्त प्रांत में साझा सरकार बना पाना
1937 ई०दूसरा विश्व युद्ध प्रारंभ; कांग्रेस के मंत्रिभण्डलों द्वारा नवंबर में त्यागपत्र
1939 ईoघटना का विवरण
22 दिसंबर, 1939लीग द्वारा ‘मुक्ति दिवस’ मनाना
मार्च, 1940मुस्लिम लीग द्वारा ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ पारित करना
जुलाई, 1945वेवल योजना के तहत शिमला काँफ्रेंस
1946प्रांतीय सभाओं का चुनाव, कांग्रेस को सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों तथा लीग को मुस्लिम आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में भारी सफलता
मार्च, 1946कैबिनेट मिशन का भारत आना
16 अगस्त, 1946लीग द्वारा ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाया जाना
मार्च, 1947कांग्रेस हाईकमान द्वारा पंजाब को मुस्लिम-बहुल और हिंदू/सिक्ख बहुल दो भागों में बाँटने के प्रस्ताव को मंजूरी
मार्च, 1947पंजाब में सांप्रदायिक दंगों का प्रारंभ; अमृतसर में लूटपाट, आगजनी व रक्तपात
14 अगस्त, 1947पाकिस्तान का निर्माण
15 अगस्त, 1947भारत को स्वतंत्रता मिलना

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HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अंतर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. “स्वराज की गंध से मेरे नथुने फटने लगे हैं।” ये शब्द निम्नलिखित में से किसने कहे?
(A) जवाहरलाल नेहरू ने
(B) महात्मा गाँधी ने
(C) लाला लाजपतराय ने
(D) गोपाल कृष्ण गोखले ने
उत्तर:
(B) महात्मा गाँधी ने

2. “कानून तोड़ने वाले तुम्हारा स्वागत है।” ये शब्द किसने, किसके लिए कहे?
(A) जवाहरलाल नेहरू ने जनरल डायर के लिए
(B) सरोजिनी नायडू ने गाँधी जी के लिए
(C) महात्मा गाँधी ने लाला लाजपतराय के लिए
(D) लॉर्ड इर्विन ने गाँधी जी के लिए
उत्तर:
(B) सरोजिनी नायडू ने गाँधी जी के लिए

3. ‘खुदाई खिदमतगार सेना’ का गठन किया
(A) महात्मा गाँधी ने
(B) अब्दुल गफ्फार खाँ ने
(C) सर सैयद अहमद खाँ ने
(D) दादा भाई नौरोजी ने
उत्तर:
(B) अब्दुल गफ्फार खाँ ने

4. गाँधी जी ने कपड़ा मिल मजदूरों का समर्थन किया
(A) श्रीनगर में
(B) लखनऊ में
(C) अहमदाबाद में
(D) कलकत्ता में
उत्तर:
(C) अहमदाबाद में

5. गाँधी जी का प्रसिद्ध दांडी मार्च कितने दिनों तक चला?
(A) 21 दिन
(B) 24 दिन
(C) 30 दिन
(D) 8 दिन
उत्तर:
(B) 24 दिन

6. महात्मा गांधी की डांडी यात्रा कब आरम्भ हुई?
(A) 12 मार्च, 1930 ई०
(B) 12 अप्रैल, 1931 ई०
(C) 13 मार्च, 1931 ई०
(D) 14 मार्च, 1932 ई०
उत्तर:
(A) 12 मार्च, 1930 ई०

7. महात्मा गाँधी निम्नलिखित में से किससे प्रभावित हुए?
(A) हैनरी डेविड थोरो
(B) रस्किन
(C) टॉलस्टॉय
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

8. जलियाँवाला बाग हत्याकांड किया गया
(A) जनरल डायर द्वारा
(B) हार्डिंग द्वारा
(C) आकलैंड द्वारा
(D) कर्जन द्वारा
उत्तर:
(A) जनरल डायर द्वारा

9. सर की उपाधि का त्याग किसने किया?
(A) रवींद्रनाथ टैगोर ने
(B) सेठ जमनादास बजाज ने
(C) महात्मा गाँधी ने
(D) मोतीलाल नेहरू ने
उत्तर:
(A) रवींद्रनाथ टैगोर ने

10. गाँधी जी के द्वारा असहयोग आंदोलन समाप्त करने के कारण असंतुष्ट काँग्रेसियों ने निम्नलिखित संगठन बनाया
(A) साम्यवादी दल
(B) स्वराज्य दल
(C) काँग्रेसी समाजवादी दल
(D) उदारवादी दल
उत्तर:
(B) स्वराज्य दल

11. जलियाँवाला बाग हत्याकांड निम्नलिखित में से किस तिथि को घटित हुआ?
(A) 13 अप्रैल, 1919 को
(B) 14 अप्रैल, 1920 को
(C) 13 अप्रैल, 1921 को
(D) 1 जनवरी, 1923 को
उत्तर:
(A) 13 अप्रैल, 1919 को

12. जनरल डायर को उपाधि दी गई
(A) ब्रिटिश राज्य को नष्ट करने वाला
(B) ब्रिटिश राज्य का रक्षक
(C) देशद्रोही
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) ब्रिटिश राज्य का रक्षक

13. चौरी-चौरा की घटना घटित हुई
(A) 5 फरवरी, 1922 को
(B) 10 जनवरी, 1921 को
(C) 15 जुलाई, 1923 को
(D) 5 जनवरी, 1932 को
उत्तर:
(A) 5 फरवरी, 1922 को

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

14. तुर्की के खलीफा के अधिकारों को प्राप्त करने हेतु कौन-सा आंदोलन चलाया गया?
(A) खिलाफ़त आंदोलन
(B) असहयोग आंदोलन
(C) होमरूल आंदोलन
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(A) खिलाफ़त आंदोलन

15. लाला लाजपतराय का निधन हुआ
(A) 1940 ई० में
(B) 1952 ई० में
(C) 1928 ई० में
(D) 1927 ई० में
उत्तर:
(C) 1928 ई० में

16. 1937 के आम चुनाव में कांग्रेस को कितने प्रान्तों में पूर्ण बहुमत मिला था?
(A) 7
(B) 9
(C) 8
(D) 11
उत्तर:
(A) 7

17. साइमन कमीशन के अध्यक्ष थे
(A) महात्मा गाँधी
(B) क्रिप्स
(C) सुभाषचंद्र बोस
(D) सर जॉन साइमन
उत्तर:
(D) सर जॉन साइमन

18. पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित हुआ
(A) लाहौर अधिवेशन में
(B) बंबई अधिवेशन में
(C) पूना अधिवेशन में
(D) रांची अधिवेशन में
उत्तर:
(A) लाहौर अधिवेशन में

19. सविनय अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व किया
(A) पं० जवाहरलाल नेहरू ने
(B) पं० मोतीलाल नेहरू ने
(C) जिन्ना ने
(D) महात्मा गाँधी ने
उत्तर:
(D) महात्मा गाँधी ने

20. 1929 ई० के काँग्रेस अधिवेशन (लाहौर) की अध्यक्षता की
(A) पं जवाहरलाल नेहरू ने
(B) बाल गंगाधर तिलक ने
(C) लाला लाजपतराय ने
(D) महात्मा गाँधी ने
उत्तर:
(A) पं जवाहरलाल नेहरू ने

21. सांप्रदायिक निर्णय घोषित करने वाले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे
(A) चर्चिल
(B) माउंटबेटन
(C) एटली
(D) मैकडोनाल्ड
उत्तर:
(D) मैकडोनाल्ड

22. साइमन कमीशन भारत कब आया?
(A) 1928 ई० में
(B) 1927 ई० में
(C) 1935 ई० में
(D) 1930 ई० में
उत्तर:
(A) 1928 ई० में

23. साइमन कमीशन को दो वर्ष पूर्व भेजा गया क्योंकि
(A) 1929 ई० में आम चुनाव होने वाले थे
(B) सरकार द्वारा दिखावे के लिए भारतीयों की माँगों की जाँच के लिए
(C) हिंदू-मुस्लिम झगड़ों का सरकार लाभ उठाना चाहती थी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

24. गाँधी जी ने डांडी यात्रा कहाँ से आरम्भ की?
(A) साबरमती आश्रम
(B) डांडी
(C) काठियावाड़
(D) सूरत
उत्तर:
(A) साबरमती आश्रम

25. प्रथम गोलमेज सम्मेलन प्रारंभ हुआ
(A) 12 नवंबर, 1930
(B) 14 जनवरी, 1931
(C) 15 अगस्त, 1932
(D) 13 जुलाई, 1931
उत्तर:
(A) 12 नवंबर, 1930

26. गाँधी-इर्विन समझौता कब हुआ?
(A) 5 मार्च, 1931
(B) 4 मार्च, 1932
(C) 4 जुलाई, 1945
(D) 5 अगस्त, 1931
उत्तर:
(A) 5 मार्च, 1931

27. दूसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ
(A) 7 सितंबर, 1931
(B) 8 दिसंबर, 1933
(C) 4 मई, 1934
(D) 7 सितंबर, 1930
उत्तर:
(A) 7 सितंबर, 1931

28. सरहदी गाँधी किसे कहा जाता है?
(A) महात्मा गाँधी को
(B) पं० जवाहरलाल नेहरू को
(C) सुभाषचंद्र बोस को
(D) अब्दुल गफ्फार खाँ को
उत्तर:
(D) अब्दुल गफ्फार खाँ को

29. सविनय अवज्ञा आंदोलन की पुनरावृत्ति हुई
(A) 1932 ई० में
(B) 1934 ई० में
(C) 1936 ई० में
(D) 1944 ई० में
उत्तर:
(A) 1932 ई० में

30. सांप्रदायिक निर्णय लिया गया
(A) 1932 ई० में
(B) 1934 ई० में
(C) 1935 ई० में
(D) 1936 ई० में
उत्तर:
(A) 1932 ई० में

31. तीसरा गोलमेज सम्मेलन प्रारंभ हुआ
(A) 17 नवंबर, 1932
(B) 24 दिसंबर, 1932
(C) 26 सितंबर, 1932
(D) 16 अगस्त, 1932
उत्तर:
(A) 17 नवंबर, 1932

32. सर्वदलीय सम्मेलन (1928) के अध्यक्ष थे
(A) पं० मोतीलाल नेहरू
(B) पं० जवाहरलाल नेहरू
(C) जिन्ना
(D) महात्मा गाँधी
उत्तर:
(A) पं० मोतीलाल नेहरू

33. 8 अगस्त, 1940 की घोषणा निम्नलिखित द्वारा की गई
(A) लॉर्ड लिनलिथगो द्वारा
(B) लॉर्ड माऊंटबेटन द्वारा
(C) लॉर्ड वेवल द्वारा
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(A) लॉर्ड लिनलिथगो द्वारा

34. ब्रिटिश सरकार ने भारत में क्रिप्स मिशन भेजा
(A) 1942 ई० में
(B) 1943 ई० में
(C) 1944 ई० में
(D) 1946 ई० में
उत्तर:
(A) 1942 ई० में

35. ‘करो या मरो’ का नारा दिया
(A) जवाहरलाल नेहरू ने
(B) सुभाषचन्द्र बोस ने
(C) महात्मा गाँधी ने
(D) सी०आर० दास ने
उत्तर:
(C) महात्मा गाँधी ने

36. काँग्रेस कार्य समिति के सदस्यों को गिरफ्तार किया गया
(A) 9 अगस्त, 1942 को
(B) 10 जुलाई, 1942 को
(C) 9 अगस्त, 1943 को
(D) 16 दिसंबर, 1943 को
उत्तर:
(A) 9 अगस्त, 1942 को

37. खिलाफत आंदोलन के नेता थे
(A) गाँधी जी और नेहरू
(B) मोहम्मद अली और जिन्ना
(C) शौकत अली और मुहम्मद अली
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) शौकत अली और मुहम्मद अली

38. महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु कौन थे?
(A) दादाभाई नौरोजी
(B) चितरंजन दास
(C) गोपाल कृष्ण गोखले
(D) सरदार पटेल
उत्तर:
(C) गोपाल कृष्ण गोखले

39. लाल कुर्ती दल का नेतृत्व किया
(A) मौलाना आजाद ने
(B) खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने
(C) गाँधी जी ने
(D) नेहरू जी ने
उत्तर:
(B) खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने

40. ‘स्वराज पार्टी का गठन किसने किया था?
(A) महात्मा गाँधी
(B) सरदार पटेल
(C) सी० आर० दास
(D) पंडित जवाहरलाल नेहरू
उत्तर:
(C) सी० आर० दास

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

41. महात्मा गाँधी जी ने किन प्रस्तावों को ‘असफल हो रहे बैंक का उत्तर तिथीय चैक’ बताया

(A) कैबिनेट मिशन प्रस्ताव को
(B) वेवल प्रस्ताव को
(C) क्रिप्स प्रस्ताव को
(D) सी०आर० प्रस्ताव को
उत्तर:
(C) क्रिप्स प्रस्ताव को

42. किस दल ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का विरोध किया?
(A) समाजवादी
(B) सी० पी० एम०
(C) मुस्लिम लीग
(D) कांग्रेस
उत्तर:
(C) मुस्लिम लीग

43. महात्मा गाँधी किस भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के पक्ष में थे?
(A) हिन्दी
(B) उर्दू
(C) संस्कृत
(D) इंग्लिश
उत्तर:
(A) हिन्दी

44. माउंटबेटन ने विभाजन योजना की घोषणा की
(A) 3 मार्च, 1947
(B) 3 जून, 1947
(C) 3 जनवरी, 1947
(D) 3 अप्रैल, 1947
उत्तर:
(B) 3 जून, 1947

45. भारत ‘एक राष्ट्र नहीं, दो राष्ट्र हैं’ यह कथन किसका है?
(A) मुहम्मद इकबाल का
(B) जिन्ना का
(C) सर सैय्यद अहमद खाँ का
(D) मौलाना आजाद का
उत्तर:
(B) जिन्ना का

46. भारत छोड़ो का प्रस्ताव कहाँ पारित किया गया?
(A) बंबई
(B) दिल्ली
(C) नागपुर
(D) कलकत्ता
उत्तर:
(A) बंबई

47. कौन-सा आंदोलन चौरी-चौरा की घटना के बाद समाप्त किया गया?
(A) भारत छोड़ो आंदोलन
(B) सविनय अवज्ञा आंदोलन
(C) असहयोग आंदोलन
(D) रॉलेट एक्ट
उत्तर:
(C) असहयोग आंदोलन

48. कम्युनल अवार्ड का निर्णय देते समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री कौन था?
(A) चर्चिल
(B) रेम्जे मैकडोनाल्ड
(C) एटली
(D) पामस्टोन
उत्तर:
(B) रेम्जे मैकडोनाल्ड

49. असहयोग आंदोलन का कार्यक्रम किस अधिवेशन में स्वीकार किया गया?
(A) अमृतसर अधिवेशन
(B) कलकत्ता अधिवेशन
(C) गया अधिवेशन
(D) नागपुर अधिवेशन
उत्तर:
(B) कलकत्ता अधिवेशन

50. महात्मा गाँधी कितनी बार भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अध्यक्ष चुने गए?
(A) एक बार भी नहीं
(B) दो बार
(C) एक बार
(D) चार बार
उत्तर:
(C) एक बार

51. गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका कब पहँचे?
(A) 1890 ई० में
(B) 1893 ई० में
(C) 1895 ई० में
(D) 1899 ई० में
उत्तर:
(B) 1893 ई० में

52. गाँधी जी का जन्म कब हुआ?
(A) 1860 ई० में
(B) 1869 ई० में
(C) 1879 ई० में
(D) 1866 ई० में
उत्तर:
(B) 1869 ई० में

53. महात्मा गाँधी ने ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ कब आरम्भ किया?
(A) 1942 ई० में
(B) 1940 ई० में
(C) 1941 ई० में
(D) 1943 ई० में
उत्तर:
(B) 1940 ई० में

54. गाँधी जी को 9 अप्रैल, 1919 को किस स्थान पर गिरफ्तार किया गया?
(A) बंबई में
(B) अमृतसर में
(C) दिल्ली में
(D) पलवल में
उत्तर:
(D) पलवल में

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
गाँधी जी ने अपना राजनीतिक जीवन कहाँ से प्रारंभ किया?
उत्तर:
दक्षिण अफ्रीका से।

प्रश्न 2.
1906 में दक्षिणी अफ्रीका में ‘एशियाई’ रजिस्ट्रेशन एक्ट के विरोध में गाँधी जी ने कौन-सी एसोसिएशन की स्थापना की?
उत्तर:
पैसिव रजिस्ट्रेशन एसोसिएशन।

प्रश्न 3.
भारत में गाँधी जी ने पहला सत्याग्रह कब और कहाँ किया?
उत्तर:
1917 में, चंपारन में।

प्रश्न 4.
‘अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी’ का गठन कब और कहाँ किया गया?
उत्तर:
सितंबर, 1919 में लखनऊ में।

प्रश्न 5.
जलियाँवाला बाग हत्याकांड की जाँच के लिए किस कमेटी का गठन किया गया?
उत्तर:
1919 में हंटर कमेटी का गठन किया गया।

प्रश्न 6.
‘करो या मरो’ का नारा कब, किसने और किस प्रस्ताव में दिया था?
उत्तर:
8 अगस्त, 1942 को गाँधी जी ने भारत छोड़ो प्रस्ताव में यह नारा दिया था।

प्रश्न 7.
पूना समझौता कब व किनके मध्य हुआ?
उत्तर:
सितंबर, 1932 में गाँधी जी व डॉ० अंबेडकर के मध्य हुआ।

प्रश्न 8.
गाँधी जी ने अपना राजनीतिक गुरु किसे माना?
उत्तर:
गोपाल कृष्ण गोखले को।

प्रश्न 9.
सविनय अवज्ञा आंदोलन कब प्रारंभ हुआ?
उत्तर:
1930 ई० में।

प्रश्न 10.
संवैधानिक गतिरोध को समाप्त करने हेतु लॉर्ड लिनलिथगो ने कौन-सी घोषणा की?
उत्तर:
अगस्त घोषणा, 1940

प्रश्न 11.
व्यक्तिगत सत्याग्रह कब आरंभ किया गया?
उत्तर:
अक्तूबर, 1940 में।

प्रश्न 12.
क्रिप्स मिशन भारत कब आया?
उत्तर:
22 मार्च, 1942 में।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

प्रश्न 13.
क्रिप्स मिशन का अध्यक्ष कौन था?
उत्तर:
सर स्टेफर्ड क्रिप्स।

प्रश्न 14.
जलियाँवाला बाग हत्याकांड कहाँ हुआ था?
उत्तर:
जलियाँवाला बाग हत्याकांड अमृतसर में हुआ था।

प्रश्न 15.
‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रस्ताव कब तथा कहाँ पारित किया गया?
उत्तर:
8 अगस्त, 1942 को ऑल इंडिया काँग्रेस कमेटी (A.I.C.C.) द्वारा मुंबई में।

प्रश्न 16.
भारत छोड़ो आंदोलन का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
अंग्रेज़ों को भारत से निकालना।

प्रश्न 17.
भारत छोड़ो आंदोलन का किस दल ने खुल्लमखुल्ला विरोध किया?
उत्तर:
मुस्लिम लीग ने।

प्रश्न 18.
दो समाजवादी नेताओं के नाम लिखें जिन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया?
उत्तर:
जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया।

प्रश्न 19.
“महिलाओं को कमज़ोर कहना उनका अपमान है। यह पुरुषों का महिलाओं के प्रति अन्याय है।” ये शब्द किस महान् राष्ट्रवादी नेता के हैं?
उत्तर:
महात्मा गाँधी ने।

प्रश्न 20.
स्वराज पार्टी का गठन कब और किसने किया?
उत्तर:
1 जनवरी, 1923 को सी०आर० दास (प्रधान) और मोतीलाल नेहरू (महामंत्री) ने।

प्रश्न 21.
गाँधी जी को ‘अर्धनंगा फकीर’ इंग्लैंड के किस राजनेता ने कहा?
उत्तर:
चर्चिल ने।

प्रश्न 22.
‘इंडियन ओपिनीयन’ नामक अखबार 1903 में दक्षिण अफ्रीका में किस भारतीय नेता ने निकाला?
उत्तर:
महात्मा गाँधी ने।

प्रश्न 23.
गाँधी जी द्वारा निकाले गए भारत के दो प्रमुख समाचार-पत्रों के नाम बताओ।
उत्तर:
‘हरिजन’ और ‘यंग-इंडिया’।

प्रश्न 24.
जलियाँवाला बाग हत्याकांड के पश्चात् इंग्लैंड में जनरल डायर की पैरवी के लिए 30 हज़ार पौंड किस समाचार-पत्र ने इकट्ठा करवाया?
उत्तर:
मार्निंग पोस्ट ने।

प्रश्न 25.
असहयोग आंदोलन के दौरान नेशनल कॉलेज कलकत्ता (कोलकात्ता) का प्रधानाचार्य किसको बनाया गया?
उत्तर:
सुभाषचंद्र बोस को।

प्रश्न 26.
10 फरवरी, 1943 को सरकारी हिंसा के विरोध में गाँधी द्वारा 21 दिन के लिए उपवास शुरू करने पर वायसराय की कार्यकारिणी के कौन-से तीन सदस्यों ने त्याग-पत्र दे दिया?
उत्तर:
एम०एम० सेनी, एन०आर० सरकार और ए०पी० मोदी ने।

प्रश्न 27.
“जब दुनिया में हम हर कहीं जीत रहे हैं, ऐसे वक्त में हम एक कमबख्त बूढ़े के सामने कैसे झुक सकते हैं, जो हमेशा हमारा दुश्मन रहा है।” ये शब्द इंग्लैंड के किस प्रधानमंत्री ने किसके संबंध में कहे?
उत्तर:
विंसटन चर्चिल ने, महात्मा गाँधी के बारे में सन् 1943 में कहे।

प्रश्न 28.
‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान ‘काँग्रेस रेडियो’ का गुप्त रूप से संचालन किस शहर से किया गया था, जिसकी पहली उद्घोषिका ऊषा मेहता थी?
उत्तर:
बंबई (मुंबई) से। प्रश्न 29. “मैं देश की बालू से ही काँग्रेस से बड़ा आंदोलन खड़ा कर दूंगा” ये शब्द किसने और कब कहे? उत्तर-गाँधी जी ने 1942 ई० में।

प्रश्न 30.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1921 में कितनी हड़तालें हुईं?
उत्तर:
सरकारी आँकड़ों के अनुसार 1921 में 396 हड़तालें हुईं।

प्रश्न 31.
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का उद्घाटन समारोह कब हुआ?
उत्तर:
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का उद्घाटन समारोह फरवरी, 1916 में हुआ।

प्रश्न 32.
गाँधी जी द्वारा 1918 ई० में गुजरात में चलाए गए दो सत्याग्रहों के नाम लिखो।
उत्तर:
1918 में गाँधी जी ने गुजरात अहमदाबाद मिलों के मजदूरों की माँग तथा खेड़ा में किसानों की माँगों के लिए सत्याग्रह किया।

प्रश्न 33.
भारत में गाँधी जी ने पहला देशव्यापी सत्याग्रह कौन-सा चलाया?
उत्तर:
1919 ई० में रॉलेट सत्याग्रह चलाया।

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प्रश्न 34.
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पहला ‘स्वतंत्रता दिवस’ कब मनाया गया?
उत्तर:
पहला स्वतंत्रता दिवस 26 जनवरी, 1930 को मनाया गया।

प्रश्न 35.
गाँधी जी ने नमक कानून कब तोड़ा?
उत्तर:
गाँधी जी ने नमक कानून 6 अप्रैल, 1930 को तोड़ा।

प्रश्न 36.
नमक को विरोध प्रतीक चुनने का एक कारण बताओ।
उत्तर:
क्योंकि नमक कर समस्त भारतीयों से जुड़ा था।

प्रश्न 37.
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान महाराष्ट्र में किस स्थान पर स्वतंत्र सरकार बनी?
उत्तर:
महाराष्ट्र के सतारा में स्वतंत्र सरकार बनी।

प्रश्न 38.
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पूर्वी संयुक्त प्रांत में किस क्षेत्र में स्वतंत्र सरकार बनी?
उत्तर:
पूर्वी संयुक्त प्रांत में बलिया में स्वतंत्र सरकार बनी।

प्रश्न 39.
भारत छोड़ो आंदोलन के समय मिदनापुर में बनी सरकार का नाम लिखें।
उत्तर:
मिदनापुर में बनी सरकार का नाम ‘तमलुक’ था।

प्रश्न 40.
ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार कब बनी?
उत्तर:
1945 में लेबर पार्टी की सरकार बनी।

प्रश्न 41.
15 अगस्त, 1947 को गाँधी जी कहाँ पर थे?
उत्तर:
15 अगस्त, 1947 को गाँधी जी कलकत्ता में थे।

प्रश्न 42.
महात्मा गाँधी कब शहीद हुए?
उत्तर:
30 जनवरी, 1948 को।

प्रश्न 43.
महात्मा गाँधी की आत्मकथा का क्या नाम है?
उत्तर:
महात्मा गाँधी की आत्मकथा का नाम ‘सत्य के साथ मेरे अनुभव’ (My Experiments with Truth) है।

प्रश्न 44.
महात्मा गाँधी का जन्म कब हुआ था?
उत्तर:
महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्तूबर, 1869 में हुआ था।

प्रश्न 45.
नमक सत्याग्रह किस समझौते के बाद स्थगित किया गया?
उत्तर:
गाँधी-इर्विन समझौते के बाद।

प्रश्न 46.
गाँधी जी ने अपने विचार सबसे पहले कौन-सी पुस्तक में रखे?
उत्तर:
गाँधी जी ने अपने विचार सबसे पहले ‘हिंदू स्वराज’ नामक पुस्तक में रखे।

प्रश्न 47.
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार जलियाँवाला बाग हत्याकांड में कितने लोग मारे गए?
उत्तर:
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार जलियाँवाला बाग हत्याकांड में 379 लोग मारे गए।

प्रश्न 48.
असहयोग आंदोलन शुरू होने पर टैगोर ने कौन-सी उपाधि त्यागी?
उत्तर:
असहयोग आंदोलन शुरू होने पर टैगोर ने ‘नाइट हुड’ की उपाधि त्यागी।

प्रश्न 49.
फरवरी, 1924 में जेल से रिहा होने पर गाँधी जी ने किस बात पर जोर दिया?
उत्तर:
फरवरी, 1924 में जेल से रिहा होने पर गाँधी जी ने रचनात्मक कार्यक्रमों पर जोर दिया।

प्रश्न 50.
गाँधी जी ने केवल एक बार काँग्रेस के किस वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता की थी?
उत्तर:
गाँधी जी ने केवल एक बार 1925 ई० में काँग्रेस के बेलगाम अधिवेशन की अध्यक्षता की थी।

अति लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
महात्मा गाँधी जी को राष्ट्रपिता क्यों कहते हैं?
उत्तर:
भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने में महात्मा गाँधी का सबसे अधिक योगदान है, इसलिए उन्हें भारत का ‘राष्ट्रपिता’ कहा जाता है।

प्रश्न 2.
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की क्या स्थिति थी?
उत्तर:
19वीं तथा 20वीं सदी के शुरू में भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका में नस्ली भेदभाव का सामना करना पड़ रहा था। उन्हें कुली बुलाया जाता था। उन्हें फुटपाथ पर चलने की अनुमति नहीं थी। वे प्रथम श्रेणी (रेलवे) में यात्रा नहीं कर सकते थे। उनका होटलों में प्रवेश वर्जित था। उन्हें वहाँ अपना पंजीकरण करवाना पड़ता था तथा तीन पौंड सालाना कर देना पड़ता था।

प्रश्न 3.
सत्याग्रह का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर:
सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है-सत्य पर दृढ़तापूर्वक अड़े रहना। यह विरोध करने का अहिंसात्मक मार्ग था। गाँधी जी के अनुसार, “सत्य पर अटल रहना ही सत्याग्रह है। सत्याग्रह असत्य का सत्य से और हिंसा को अहिंसा से जीतने का एक नैतिक शस्त्र है।”

प्रश्न 4.
साधन और साध्य की श्रेष्ठता क्या है?
उत्तर:
गाँधी जी साधन और साध्य की पवित्रता में विश्वास रखते थे। इसका अभिप्राय यह है कि आपका लक्ष्य (object) या साध्य भी उत्तम होना चाहिए और उसे प्राप्त करने के साधन भी शुद्ध होने चाहिएँ। स्वतंत्रता श्रेष्ठ लक्ष्य है तो उसे सत्याग्रह जैसे श्रेष्ठ साधन से ही प्राप्त किया जाना चाहिए।

प्रश्न 5.
‘बाल-पाल-लाल’ कौन थे?
उत्तर:
20वीं सदी के आरंभ में काँग्रेस में उग्रराष्ट्रवाद का उदय होने लगा था। महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक इसके नेता थे। बंगाल में बिपिनचंद्र पाल यह कार्य कर रहे थे तथा पंजाब में लाला लाजपत राय इस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। इन तीनों नेताओं को सारे देश में ‘बाल-पाल-लाल’ के नाम से जाना जाने लगा था।

प्रश्न 6.
गाँधी जी का 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में भाषण क्यों महत्त्वपूर्ण था?
उत्तर:
गाँधी जी ने इस समारोह में उपस्थित अमीर और भद्रजनों को भारत के गरीबों, किसानों और मजदूरों की तरफ ध्यान न देने के लिए लताड़ा था जो उस समारोह में उपस्थित नहीं थे। वस्तुतः वे इस भाषण में यह बता रहे थे कि. राष्ट्रीय आंदोलन में आम लोग नहीं हैं और वे इसे अब सच्चे मायने में लोगों का आंदोलन बनाना चाहते थे।

प्रश्न 7.
अहमदाबाद मिल हड़ताल पर नोट लिखें।
उत्तर:
1918 ई० में गाँधी जी ने अहमदाबाद के फैक्ट्री मालिकों तथा मजदूरों के बीच विवाद में हस्तक्षेप किया। उन्होंने मजदूरों को हड़ताल पर जाने की सलाह दी। स्वयं उन्होंने आमरण अनशन भी रखा। इसका प्रभाव मिल-मालिकों पर पड़ा तथा उन्होंने मज़दूरों का 35% मेहनताना बढ़ाना मान लिया।

प्रश्न 8.
खेड़ा किसान सत्याग्रह पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
1918 में खेड़ा के किसानों की फसल समाप्त हो गई थी परंतु सरकार पूरा लगान वसूल करना चाहती थी। गाँधी जी ने किसानों से कहा कि वे लगान न दें। इस पर सरकार ने आदेश निकाले कि लगान उन्हीं से वसूला जाए जो उसे देने में समर्थ हों। इसके बाद संघर्ष वापिस ले लिया गया।

प्रश्न 9.
असहयोग से गाँधी जी का क्या अर्थ था?
उत्तर:
गाँधी जी के अनुसार असहयोग का अर्थ यह है कि यदि सरकार जनता की आशाओं के अनुसार काम नहीं करती है या जनता के कष्टों और शिकायतों को दूर करने की कोशिश नहीं करती है या सरकार भ्रष्ट हो चुकी है तो ऐसी सरकार के साथ सहयोग न करना।

प्रश्न 10.
रॉलेट एक्ट क्या था?
उत्तर:
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सरकार ने प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था तथा प्रावधान किया था कि किसी भी व्यक्ति को सरकार विरोधी होने की शंका के आधार पर ही जेल में डाला जा सकता था। विश्वयुद्ध के बाद के लिए सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई जिसमें सिफारिश की गई कि शान्ति बनाए रखने के लिए प्रथम विश्वयुद्ध के समय के कानून ही जारी रहें। इसके आधार पर बने एक्ट को रॉलेट एक्ट कहते हैं। भारतीयों ने इसका विरोध किया तथा इसे ‘काला कानून’ करार दिया।

प्रश्न 11.
असहयोग आंदोलन के नकारात्मक कार्यक्रम क्या थे?
उत्तर:
इस आंदोलन में अहिंसात्मक ढंग से असहयोग करना था। अतः नकारात्मक कार्यक्रम महत्त्वपूर्ण थे। इसमें सरकारी स्कूलों, कॉलेजों का बहिष्कार, सरकारी न्यायालयों का बहिष्कार, चुनावों का बहिष्कार, सरकारी अलंकरणों, पदों का बहिष्कार, सरकारी समारोहों का बहिष्कार तथा विदेशी माल का बहिष्कार मुख्य थे।

प्रश्न 12.
असहयोग आंदोलन को स्थगित क्यों किया गया? अथवा महात्मा गांधी ने “असहयोग आंदोलन” वापिस क्यों लिया?
उत्तर:
यह एक अहिंसात्मक आंदोलन था परंतु 5 फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा नामक स्थान पर भीड़ ने थाने में आग लगा दी, जिससे 22 पुलिसकर्मी मारे गए। गाँधी जी को लगा कि आंदोलन में हिंसा प्रवेश कर चुकी है। अतः उन्होंने तत्काल आंदोलन स्थगित कर दिया।

प्रश्न 13.
लोग गाँधी जी में चमत्कारिक शक्तियों की कल्पना करते थे। स्पष्ट करें।
उत्तर:
गाँधी जी जहाँ-जहाँ गए उनके बारे में अनेक अफवाहें फैलती थीं। लोगों का मानना था कि गाँधी जी में चमत्कारिक शक्तियाँ हैं। जैसे संयुक्त प्रान्त में गोरखपुर जिले के लोगों का मानना था कि गाँधी जी को राजा ने किसानों के कष्ट समाप्त करने के लिए भेजा है। वे अंग्रेज़ शासकों से भी ऊँचे हैं। उनके आने से अंग्रेज़ शासक जिले से भाग जाएँगे। गाँधी जी की आलोचना पर अनिष्ट होता है।

प्रश्न 14.
साइमन कमीशन पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
1928 ई० में अंग्रेज़ सरकार ने सर साइमन की अध्यक्षता में एक 7 सदस्यों का कमीशन भारत की तात्कालिक शासन व्यवस्था के कार्यों की जाँच करने के लिए भारत भेजा। इसके सभी सदस्य गोरे थे। इसका भारत में व्यापक विरोध हुआ। मार्च, 1928 में कमीशन वापिस चला गया।

प्रश्न 15.
लाहौर अधिवेशन (1929) का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
1929 में आयोजित लाहौर अधिवेशन का महत्त्व यह है कि इस अधिवेशन के अध्यक्ष युवा जवाहरलाल नेहरू थे तथा इस अधिवेशन में काँग्रेस ने ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ को अपना लक्ष्य घोषित किया तथा इस संबंध में प्रस्ताव पास किया।

प्रश्न 16.
पूना पैक्ट क्या था?
उत्तर:
गोलमेज सम्मेलनों के बाद अंग्रेज़ सरकार ने सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा करते हुए 1932 में निर्णय दिया कि आगे से दलितों को भी पृथक् निर्वाचन का अधिकार दिया जाएगा। गाँधी जी ने इस निर्णय का विरोध करते हुए आमरण अनशन रखा। अंततः गाँधी जी व अम्बेडकर में समझौता हुआ। इसी समझौते को पूना समझौता कहा जाता है। इस समझौते के अनुसार दलित वर्ग ने पृथक् निर्वाचन की बात समाप्त कर दी तथा इसके स्थान पर सामान्य सीटों में आरक्षण की बात को मान लिया गया।

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प्रश्न 17.
व्यक्तिगत सत्याग्रह क्या था?
उत्तर:
द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने पर भारत सरकार ने भारत को भी युद्ध में धकेल दिया था। इसका काँग्रेस ने जोरदार विरोध किया। अक्तूबर, 1939 में काँग्रेस मंत्रिमंडलों ने त्याग-पत्र दे दिया। काँग्रेस चाहती थी कि सरकार आश्वासन दे कि युद्ध के बाद भारत को आजादी दे दी जाएगी व युद्ध काल में युद्ध विभाग भारतीयों के हाथों में सौंपेगी। सरकार ने उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाया तो अपनी बातों पर विश्व का ध्यान खींचने तथा देश की जनता को जगाने के लिए काँग्रेस ने 1940-41 में व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया।

प्रश्न 18.
अंतरिम सरकार की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
केबिनेट मिशन योजना के अनुसार देश में संविधान सभा के चुनाव हुए तथा जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 2 सितंबर, 1946 को अंतरिम सरकार की स्थापना हुई।

प्रश्न 19.
वेवल योजना क्या थी?
उत्तर:
भारत के वायसराय लार्ड वेवल ने मार्च, 1945 में प्रस्ताव रखा कि वायसराय तथा प्रधान सेनापति को छोड़कर वायसराय की काऊंसिल के अन्य सदस्य भारतीय होंगे जिनका चुनाव भारतीय राजनीतिक दलों में से धार्मिक समता के आधार (अर्थात् हिंदू व मुसलमान सदस्य बराबर-बराबर होंगे) पर किया जाएगा।

प्रश्न 20.
दांडी मार्च पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
मार्च, 1930 में महात्मा गाँधी ने 240 मील की पैदल यात्रा करके समुद्र तट पर दांडी नामक स्थान पर नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा। इसके पश्चात् नमक घर-घर में बनने लगा और अंग्रेज़ सरकार को भारतीयों को नमक बनाने की अनुमति देनी पड़ी।

प्रश्न 21.
असहयोग आंदोलन के बाद गाँधी जी पर चले मुकद्दमे का निर्णय करते हुए अंग्रेज़ जज़ ने क्या टिप्पणी दी?
उत्तर:
असहयोग आंदोलन के बाद 10 मार्च, 1922 को गाँधी जी को भी बंदी बना लिया गया। उन पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। सजा सुनाने वाले जज सी०एन० ब्रूमफील्ड (C.N. Broomfield) ने आश्चर्यजनक टिप्पणी की। जज ने कहा, “इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि मैंने आज तक जितनी जाँच की है अथवा करूँगा आप उनसे भिन्न श्रेणी के हैं। इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि लाखों देशवासियों की दृष्टि में आप एक महान देशभक्त और नेता हैं।

यहाँ तक कि राजनीति में जो लोग आपसे भिन्न मत रखते हैं वे भी आपको उच्च आदर्शों और पवित्र जीवन जीने वाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं।” कानून की अवहेलना करने के कारण उन्हें 6 वर्ष की सजा दी गई परंतु साथ ही जज ब्रूमफील्ड ने कहा, “यदि भारत में घट रही घटनाओं की वजह से सरकार के लिए सजा के इन वर्षों में कमी और आपको मुक्त करना संभव हुआ तो इससे मुझसे ज़्यादा कोई प्रसन्न नहीं होगा।”

प्रश्न 22.
गाँधी जी को दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष में गरीब लोगों से क्या प्रेरणा मिली?
उत्तर:
दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी को गरीब मजदूरों का नेतृत्व करने का मौका मिला। वे उन लोगों की बलिदान करने की क्षमता व साहस को देखकर अचंभित हुए। दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष के संदर्भ में उन्होंने लिखा कि वे (मजदूर) श्रद्धा से कार्य करते थे तथा उसके बदले में कभी भी वह कोई भी ईनाम पाने की अपेक्षा नहीं करते थे। उन्होंने मुझे प्रेरणा दी। उन्होंने अपने बलिदान, श्रद्धा, महान ईश्वर में गहरी आस्था से वह करने योग्य बनाया जो मैं कर सका। उन्होंने गरीब और अनपढ़ लोगों को सत्याग्रह और अहिंसा का पाठ पढ़ाया और भारत में अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन चलाया।

प्रश्न 23.
चंपारन सत्याग्रह पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
चंपारन सत्याग्रह चंपारन के किसानों का यूरोप के ‘बागान मालिक’ अत्यधिक शोषण करते थे। किसानों के स्थानीय नेताओं ने 1916 की लखनऊ में हुई काँग्रेस की वार्षिक बैठक के समय गाँधी जी को चंपारन आने के लिए मना लिया। 1917 में गाँधी जी ने चंपारन पहुँचकर किसानों की स्थिति जानने के लिए विस्तृत पूछताछ शुरू कर दी। इस पर नाराज होकर जिला प्रशासन ने गाँधी जी को चंपारन छोड़ने का आदेश दे दिया परंतु गाँधी जी ने इन आदेशों की पालना करने से साफ मना कर दिया।

इसके लिए वे किसी भी तरह का परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो गए। इस पर सरकार को अपने आदेश को रद्द करना पड़ा। अब सरकार ने एक जाँच कमेटी बनाई जिसका गाँधी जी को सदस्य बनाया गया। अंततः गाँधी जी के प्रयासों से चंपारन के किसानों का शोषण कम हो गया। भारत में गाँधी जी की यह पहली जीत थी।

प्रश्न 24.
प्रथम विश्वयुद्ध का भारतीयों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीयों ने अंग्रेज़ों का तन, मन व धन से साथ दिया था। इस आशा में कि उन्हें युद्ध के बाद आत्म-निर्णय का अधिकार दिया जाएगा। इस काल में भारत का कर्ज 411 करोड़ से 781 करोड़ हो गया। अनाज महँगा हो गया। वस्तुओं के दाम बढ़ गए। अनाज व कपड़े में कमी आ गई। युद्ध के बाद सरकार ने सैनिकों व मजदूरों की छंटनी कर दी। साथ ही अकाल-प्लेग से लगभग 120-130 लाख लोग मर गए। इन सबसे भारतीयों में जन-असंतोष पनपा।

प्रश्न 25.
सार्वजनिक भाषण राष्ट्रीय आंदोलन के अध्ययन के महत्त्वपूर्ण स्रोत कैसे हैं?
उत्तर:
राष्ट्रीय आंदोलन में लोगों को संगठित करने और जनमत तैयार करने के लिए गाँधी जी और अन्य राष्ट्रीय नेता सार्वजनिक मंचों पर भाषण देते थे। इन बड़े नेताओं के भाषण संकलित होते तथा समाचार पत्रों में भी प्रकाशित होते थे। इतिहासकार के लिए यह भाषण बड़े महत्त्वपूर्ण स्रोत होते हैं क्योंकि इनसे उनकी नीतियों, कार्यक्रमों तथा लोगों को संगठित करने के तरीकों की झलक मिलती है।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
असहयोग आंदोलन का महत्त्व लिखें। इसका उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
असहयोग आंदोलन में देश के सभी वर्गों व समुदायों के लोगों ने भाग लिया। अतः अब राष्ट्रीय आंदोलन सही अर्थों में जन-आंदोलन बन गया। यह देश के सारे भागों में फैल गया। काँग्रेस अब मात्र वाद-विवाद वाली संस्था नहीं रही। वह कार्यशील संगठन बन गई। इससे हिंदू-मुस्लिम एकता भी आई। इस आंदोलन से लोगों में अंग्रेजी राज का डर कम हुआ। उन्होंने आत्मनिर्भरता और स्वदेशी पाठ भी सीखा। असहयोग आंदोलन के मुख्य तीन उद्देश्य थे

  1. रॉलेट एक्ट रद्द करवाना तथा पंजाब की गलतियों को ठीक करवाना।
  2. खिलाफ़त से जुड़ी गलतियों को ठीक करवाना।
  3. स्वराज की माँग स्वीकार करवाना।

प्रश्न 2.
गाँधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन क्यों छेड़ा?
उत्तर:
1942 में क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश राज के खिलाफ ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू करने का फैसला लिया। भारत छोड़ो आंदोलन के निम्नलिखित कारण थे

  1. क्रिप्स मिशन की विफलता से सिद्ध हो गया था कि अंग्रेज़ सरकार भारतीयों की (काँग्रेस की) युद्ध के दौरान तथा युद्ध के बाद की माँगों (युद्ध के बाद स्वतंत्रता का वायदा) को स्वीकार करने वाली नहीं थी।
  2. इसी समय में भारत पर जापानी हमले के खतरे की आशंका बन गई थी। लोगों में जापानी हमले का भय पैदा हो रहा था। गाँधी जी का विश्वास था कि, “भारत में अंग्रेज़ों की उपस्थिति जापान के लिए भारत पर आक्रमण का आमंत्रण है और उनकी वापसी द्वारा यह संताप भी समाप्त हो जाएगा।”
  3. युद्ध के कारण वस्तुओं के अभाव और बढ़ती हुई कीमतों ने लोगों के असंतोष को विस्फोटक स्थिति में पहुँचा दिया था। गाँधी जी इस स्थिति से परिचित थे।

प्रश्न 3.
जलियाँवाला बाग हत्याकांड पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
जलियाँवाला बाग हत्याकांड-प्रथम विश्वयुद्ध से पंजाब ज्यादा प्रभावित हुआ था। वहाँ पर बहुत-से लोगों ने युद्ध में अंग्रेज़ों का साथ दिया था, परंतु इसके बदले रॉलेट एक्ट मिला। गाँधी जी के सत्याग्रह शुरू करने पर पंजाब से भारी समर्थन मिला। लाहौर, गुजरांवाला, अमृतसर, मुल्तान, कसूर आदि स्थानों पर सभाएँ हुई। 30 मार्च, 1919 व 6 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में हड़ताल हुईं। सरकार ने स्थानीय नेताओं-डॉ० सत्यपाल और डॉ० किचलू को गिरफ्तार कर लिया। गाँधी जी बंबई से पंजाब के लिए रवाना हुए तो 9 अप्रैल, 1919 को उन्हें पलवल में गिरफ्तार कर वापिस भेज दिया गया। लोग उत्तेजित हो गए।

विरोध में जलसे-जुलूस हुए, जिसमें हिंसा भी हुई। 13 अप्रैल, 1919 को जलियाँवाला बाग में 20 हजार लोग एकत्रित हुए। इन पर जनरल डायर ने बिना चेतावनी के (रास्ता रोक कर) गोली चलाने के आदेश दे दिए। लगभग 1650 गोलियाँ चलाई गईं। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 379 लोग मारे गए। मरने वालों की संख्या वास्तव में कहीं ज्यादा थी। जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने सारे देश को स्तब्ध कर दिया।

प्रश्न 4.
खिलाफत आंदोलन क्या था?
उत्तर:
प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की का खलीफा हार गया तथा 1920 में उसके साथ अपमानजनक संधि की गई। भारतीय मुसलमानों में इससे असंतोष था। उन्होंने मुहम्मद अली और शौकत अली के नेतृत्व में अंग्रेज सरकार विरोधी और खलीफा के समर्थन में आंदोलन चलाया। यह आंदोलन ‘खिलाफत आंदोलन’ कहलाता है। इस आंदोलन की तीन प्रमुख माँगें थीं-एक पहले के ऑटोमन साम्राज्य के सभी इस्लामी पवित्र स्थलों पर खलीफा का अधिकार बने रहने दिया जाए। दो, जज़ीरात-अल-अरब (अरब, सीरिया, इराक, फिलिस्तीन) इस्लामी प्रभुसत्ता (यानी खलीफा) के अधीन रहे तथा तीन, खलीफा के अधीन इतने क्षेत्र हों कि वह इस्लामी जगत के विश्वास को सुरक्षित बनाए रखने में समर्थ हों।’

आंदोलन चलाने के लिए 1918 में खिलाफत कमेटी का गठन हुआ। महात्मा गाँधी और राष्ट्रीय आंदोलन असहयोग को खिलाफत के साथ मिलाने से भारत के दो प्रमुख धार्मिक समुदाय हिन्दू और मुस्लिम मिलकर औपनिवेशिक शासन का खात्मा कर देंगे। गाँधी जी हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्वराज की प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते थे।

प्रश्न 5.
गाँधी जी की जीवन-शैली कैसी थी?
उत्तर:
गाँधी जी की जीवन-शैली से लोगों को लगता था कि वे उनके स्वाभाविक नेता हैं। गाँधी जी उन्हीं की तरह वस्त्र पहनते थे व उन्हीं की तरह रहते थे। वे जन-सामान्य की भाषा बोलते थे। गाँधी जी दूसरे नेताओं की तरह जनसमूह से अलग खड़े नहीं होते थे, बल्कि वे उनसे गहरी सहानुभूति रखते थे और उनसे घनिष्ठ संबंध भी बनाते थे। उल्लेखनीय है कि 1921 में दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान गाँधी जी ने अपना सिर मुंडवा लिया था और गरीबों के साथ अपना तादात्म्य (Identity) स्थापित करने के लिए सूती वस्त्र पहनने शुरू कर दिए थे। इस प्रकार उनके वस्त्रों से जनता के साथ उनका नाता झलकता था। जहाँ दूसरे राष्ट्रवादी नेता पश्चिमी शैली के सूट या भारतीय बन्द गले के कोट जैसे वस्त्र पहनते थे, वहीं गाँधी जी लोगों के बीच एक साधारण धोती में जाते थे।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
असहयोग आंदोलन के लिए उत्तरदायी कारणों का विवरण दें।
अथवा
‘असहयोग आन्दोलन’ महात्मा गाँधी ने क्यो चलाया था? हालातों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रथम विश्वयुद्ध से पैदा हुई आर्थिक कठिनाइयों, रॉलेट एक्ट, खिलाफत आंदोलन तथा जलियाँवाला बाग हत्याकांड जैसे कारणों ने गाँधी जी को अंग्रेजों के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर सत्याग्रह चलाने के लिए मजबूर कर दिया। उन्हें विश्वास हो गया था कि “ब्रिटिश साम्राज्य आज शैतानियत का प्रतीक है।” परिणामस्वरूप गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन के रूप में देशव्यापी आंदोलन चलाया।

1. कारण (Causes)
1. प्रथम विश्वयुद्ध के प्रभाव (Effects of the First World War) प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीयों ने अंग्रेज़ों का तन, मन व धन से साथ दिया था। इस आशा में कि उन्हें युद्ध के बाद आत्म-निर्णय का अधिकार दिया जाएगा। इस काल में भारत का कर्ज 411 करोड़ से 781 करोड़ हो गया। अनाज महँगा हो गया। वस्तुओं के दाम बढ़ गए। अनाज व कपड़ों में कमी आ गई। युद्ध के बाद सरकार ने सैनिकों व मजदूरों की छंटनी कर दी। साथ ही अकाल-प्लेग से लगभग 120-130 लाख लोग मारे गए। इस सबसे जन-असंतोष पनपा।

2. रॉलेट एक्ट (Rowlatt Act)-1919 में अंग्रेज़ी सरकार ने गाँधी जी की झोली में ऐसा मुद्दा डाल दिया था जिससे वे देशव्यापी आंदोलन खड़ा कर सकते थे। 1914-18 के विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेज़ों ने प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिए थे और किसी भी व्यक्ति को शक के आधार पर जेल में डाला जा सकता था। युद्ध के बाद भी सरकार ने सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता वाली कमेटी की सिफारिशों पर इन कठोर उपायों को जारी रखने का फैसला लिया। असेंबली में सभी भारतीयों ने इसका विरोध किया। इसे काला कानून (BlackAct) करार दिया गया। साधारण लोगों के लिए इस एक्ट का अर्थ था, “कोई वकील नहीं, कोई दलील नहीं, कोई अपील नहीं।”

रॉलेट एक्ट के जवाब में गाँधी जी ने सत्याग्रह सभा का गठन किया तथा देशभर में एक्ट के खिलाफ अभियान चलाने का निश्चय किया। एक्ट के विरोध में पहले 30 मार्च, 1919 तथा बाद में 6 अप्रैल, 1919 को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। 30 मार्च और 6 अप्रैल दोनों ही दिन देश के उत्तरी और पश्चिमी नगरों व कस्बों में हड़ताल रही। चारों ओर बंद के समर्थन में दुकानों । और स्कूलों के बंद होने के कारण जनजीवन ठप्प हो गया। पंजाब, गुजरात और बंगाल में हिंसा की घटनाएँ भी हुईं। परंतु रॉलेट सत्याग्रह से जुड़ी घटनाओं की प्रतिक्रिया आगे बढ़ चुकी थी जिसकी परिणति जलियाँवाला बाग हत्याकांड में हुई।।

3. जलियाँवाला बाग हत्याकांड (Jallianwala Bagh Massacre)-विश्वयुद्ध से पंजाब ज्यादा प्रभावित हुआ था। वहाँ पर बहुत-से लोगों ने युद्ध में अंग्रेज़ों का साथ दिया था। जब वह अपनी सेवा के बदले इनाम की अपेक्षा करते थे, परंतु इसके विपरीत रॉलेट एक्ट मिला। गाँधी जी द्वारा सत्याग्रह शुरू करने पर पंजाब से भारी समर्थन मिला। लाहौर, गुजरांवाला, अमृतसर, मुल्तान, कसूर आदि स्थानों पर सभाएँ हुईं। 30 मार्च, 1919 व 6 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में हड़ताल हुई। सरकार ने दमन का सहारा लिया।

स्थानीय नेताओं डॉ० सत्यपाल और डॉ० किचलू को गिरफ्तार कर लिया गया। गाँधी जी बंबई से पंजाब के लिए रवाना हुए तो 9 अप्रैल, 1919 को उन्हें पलवल में गिरफ्तार कर वापिस भेज दिया गया। लोग उत्तेजित हो गए। विरोध में जलसे-जुलूस हुए, जिसमें हिंसा भी हुई। 13 अप्रैल, 1919 को जलियाँवाला बाग में 20 हजार लोग एकत्रित हुए। इस पर जनरल डायर ने बिना चेतावनी के (रास्ता रोक कर) गोली चलाने के आदेश दे दिए।

लगभग 1650 गोलियाँ चलाई गईं। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 379 लोग मारे गए। मरने वालों की संख्या वास्तव में इससे भी कहीं ज्यादा थी। जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने सारे देश को स्तब्ध कर दिया।

4. खिलाफत आंदोलन (Khilafat Movement)-प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की का खलीफा हार गया तथा 1920 में उसके साथ अपमानजनक संधि की गई। भारतीय मुसलमानों में इससे असंतोष था। उन्होंने मुहम्मद अली और शौकत अली के नेतृत्व में अंग्रेज़ सरकार विरोधी और खलीफा के समर्थन में आंदोलन चलाया। यह आंदोलन ‘खिलाफत आंदोलन’ कहलाता है। आंदोलन चलाने के लिए 1918 में खिलाफ़त कमेटी का गठन हुआ।

गाँधी जी असहयोग आंदोलन चलाने की तैयारी में थे। उन्होंने इस आशा से खिलाफत मुद्दे पर अपना सहयोग दिया कि असहयोग को खिलाफ़त के साथ मिलाने से भारत के दो प्रमुख धार्मिक समुदाय-हिंदू और मुस्लिम मिलकर औपनिवेशिक शासन का खात्मा कर देंगे। गाँधी जी हिंदू-मुस्लिम एकता को स्वराज की प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते थे।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

प्रश्न 2.
सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारणों का विवरण दें।
उत्तर:
1922 में असहयोग आंदोलन समाप्त हो गया। गाँधी जी को जेल की सजा दी गई व 1924 में रिहा हुए। 1928 ई० में गाँधी जी पुनः सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने पर विचार करने लगे थे। इसी बीच सरकार ने भारत में साइमन कमीशन भेजकर भारतीय राजनीति को एक मुद्दा सौंप दिया, जिसका विरोध करते हुए काँग्रेस और गाँधी जी को अंततः नमक सत्याग्रह या सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करना पड़ा। सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए उत्तरदायी कारणों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. साइमन कमीशन (Simon Commission)-साइमन कमीशन को इंग्लैंड की सरकार ने भारत में 1919 के अधिनियम की कार्य-प्रणाली की समीक्षा करने के लिए भेजा था ताकि आगे के सुधारों पर विचार किया जा सके, परंतु इस कमीशन के सभी सदस्य श्वेत थे। परिणामस्वरूप भारत के सभी दलों ने इसका जोरदार विरोध किया। आयोग जहाँ पर भी गया लोगों ने ‘साइमन वापिस जाओ’ (Simon go back) के नारे लगाए। कई स्थानों पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया तथा गोलियाँ भी चलाईं। अमृतसर में साइमन का विरोध कर रही भीड़ का नेतृत्व लाला लाजपतराय कर रहे थे। उन पर लाठियों से प्रहार किए गए। उन्हें घातक चोटें आईं। इस कारण 17 नवंबर, 1928 को लाला जी का निधन हो गया।

2. लाहौर अधिवेशन तथा पूर्ण स्वतंत्रता प्रस्ताव (Lahore Session and Complete Independence Resolution) 1928 में काँग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में काँग्रेस द्वारा गठित नेहरू समिति ने भारत के लिए संविधान के प्रस्ताव रखे। इस प्रस्ताव में भारत के लिए अधिराज्य (Dominion States) की माँग की थी। इसका युवा सदस्यों (सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू आदि) ने विरोध किया था। तब गाँधी जी ने बचाव करते हुए प्रस्ताव इस शर्त पर पास करवाए थे कि एक वर्ष में अंग्रेज़ सरकार इन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं करेगी तो काँग्रेस पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पास करेगी।

1929 में दिसंबर के अंत में काँग्रेस ने अपना वार्षिक अधिवेशन लाहौर में किया। यह अधिवेशन दो दृष्टियों से अति महत्त्वपूर्ण था। इसका अध्यक्ष युवा नेता जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया जो इस बात का प्रतीक था कि काँग्रेस में युवाओं की भूमिका बढ़ती जा रही थी और इसका नेतृत्व अब युवाओं को सौंपा जाएगा। दूसरा, काँग्रेस ने अपना लक्ष्य ‘पूर्ण स्वराज्य’ अथवा ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ को घोषित किया।

3. स्वतंत्रता दिवस मनाना (Celebration of Independence Day) काँग्रेस ने तय किया कि 26 जनवरी, 1930 का दिन सारे देश में एक साथ स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इस अवसर पर देशभक्ति के गीत गाए जाएँगे तथा राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाएगा। स्वयं गाँधी जी ने स्वतंत्रता दिवस मनाने की रूपरेखा के बारे में सुस्पष्ट निर्देश जारी किए थे। गाँधी जी ने निर्देश दिए कि “यदि (स्वतंत्रता की) उद्घोषणा सभी गाँवों और सभी शहरों में व्यापक स्तर पर की जाए तो अच्छा होगा। अगर सभी जगहों पर एक ही समय में संगोष्ठियाँ हों तो अच्छा होगा।”

26 जनवरी को सारे देश में अति जोश-खरोश से स्वतंत्रता दिवस मनाया गया, राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया। इस दिन लोगों ने प्रतिज्ञा ली कि, “अन्य लोगों की तरह भारतीय लोगों को भी स्वतंत्रता और अपने कठिन परिश्रम के फल का आनंद लेने का अहरणीय अधिकार है और यह कि यदि कोई भी सरकार लोगों को इन अधिकारों से वंचित रखती है या उनका दमन करती है तो लोगों को इन्हें बदलने अथवा समाप्त करने का भी अधिकार है।”

4. गाँधी जी द्वारा आंदोलन की तैयारी (Preparation for the Movement by Gandhiji)-धीरे-धीरे गाँधी जी सत्याग्रह करने का मन बना रहे थे। इसलिए उन्होंने 1929 में यूरोप जाने का विचार त्याग कर सारे देश का दौरा किया। इस जनसंपर्क अभियान से उन्होंने लोगों में अपने रचनात्मक कार्यक्रमों तथा अहिंसा के संदेश को पहुँचाया। विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार पर जोर दिया। स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए भी उन्होंने स्पष्ट निर्देश दिए ताकि लोगों को जगाया जा सके। इस बीच फरवरी, 1930 में साबरमती आश्रम में काँग्रेस कार्य समिति की बैठक हुई। इसमें ‘स्वतंत्रता प्राप्ति’ के लिए गाँधी जी का आंदोलन चलाने की बागडोर सौंप दी गई।

आंदोलन शुरू करने से पूर्व गाँधी जी सरकार को एक बार आगाह करना चाहते थे तथा साथ ही सरकार को निरुत्तर भी करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने वायसराय को 11 माँगें प्रस्तुत की। इन माँगों में प्रमुख थीं-पूर्ण शराब बंदी, नमक कानून हटाना, भू-राजस्व में कमी, सैनिक व्यय को आधा करना, विदेशी वस्त्रों पर तटकर, भारतीय वस्त्र उद्योग रक्षा, राजनीतिक बंदियों की रिहाई आदि ।

गाँधी जी ने वायसराय को यह भी सूचित किया कि उनकी माँगें न माने जाने पर वह नमक कानून तोड़कर ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ शुरू कर देंगे। वायसराय से उत्तर न मिलने पर 12 मार्च, 1930 को दांडी यात्रा शुरू की तथा 5 अप्रैल, 1930 को दांडी पहुंचे। उन्होंने 6 अप्रैल, 1930 को नमक कानून तोड़कर आंदोलन शुरू किया।

प्रश्न 3.
दांडी यात्रा पर संक्षिप्त लेख लिखें।
उत्तर:
दांडी यात्रा तथा नमक कानून तोड़ने की योजना गाँधी जी ने बहुत सोच-विचार करके बनाई थी। इस योजना के अनुसार 12 मार्च, 1930 को साबरमती आश्रम से गाँधी जी ने अपने 78 अनुयायियों के साथ 241 मील दूर दांडी नामक स्थान के लिए पद यात्रा शुरू की। यात्रा के दौरान मार्ग में पड़ने वाले गाँवों में लोगों का उत्साह अद्भुत था। लोगों ने गाँधी जी का झंडियों, बंदनवारों तथा पुष्पों से स्वागत किया। उन्होंने यात्रियों को फूल-मालाएँ पहनाईं, पांव छुए तथा ‘गाँधी जी की जय’ के नारों का उद्घोष किया।

जैसे-जैसे कारवाँ आगे बढ़ता चला गया हज़ारों लोग आकर यात्रा में शामिल होते चले गए। एक अनोखा दृश्य था एक दुबला, पतला आदमी, केवल घुटनों तक धोती पहने, कंधे पर एक लंबा थैला लटकाकर, हाथ में छड़ी पकड़े, तेज कदमों के साथ पगडंडियों पर, चौड़ी सड़कों पर चला जा रहा था और अपार भीड़ उसके साथ मिलने का प्रयास कर रही थी।

प्रारंभ में अंग्रेज़ समर्थक समाचार-पत्रों ने गाँधी जी की इस योजना का बड़ा मजाक उड़ाया था। उसे ‘बाल विहार’ की संज्ञा दी तथा कहा कि, “क्या समुद्र के पानी को केतली में उबालकर महामहिम सम्राट को सिंहासन से हटाया जा सकता है।” वायसराय इर्विन ने भी 20 फरवरी, 1930 को भारत मंत्री को लिखा था कि वर्तमान में नमक आंदोलन से उसकी रात की नींद नहीं उड़ी है, परंतु सरकार तथा उसके समर्थकों का अनुमान गलत था। यात्रा शुरू होने से पहले ही हज़ारों लोग साबरमती आश्रम में जमा होने लगे थे। 11 मार्च सायं को आश्रम में 75,000 हज़ार लोग मौजूद थे जिन्हें गाँधी जी ने अहिंसा का महत्त्व समझाया।

यात्रा शुरू होने पर सफलता की खबरें समाचार-पत्रों में आने लगीं। गुजरात के गाँवों के 300 अधिकारियों ने त्याग पत्र दे दिया। जब तक गाँधी जी दांडी पहुंचे तब तक 24 दिनों में सारे देश में हलचल पैदा हो गई तथा सारा देश आंदोलन शुरू करने के लिए गाँधी जी के इशारे का इंतज़ार करने लगा। सुभाषचंद्र बोस ने इस यात्रा की तुलना इल्बा से लौटने पर नेपोलियन के पेरिस मार्च और मुसोलिनी से सत्ता प्राप्त करने हेतु रोम मार्च से की।

24 दिनों में यात्रा पूरी करके गाँधी जी व उनके सहयोगी 5 अप्रैल को दांडी पहुँचे व 6 अप्रैल को प्रातःकाल में गाँधी जी समुद्र तट पर पहुंचे। वहाँ उन्होंने नमक एकत्र कर नमक कानून को भंग कर दिया और इस प्रकार 6 अप्रैल, 1930 को सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गया।

प्रश्न 4.
भारत छोड़ो आंदोलन की प्रगति का विवरण दीजिए।
उत्तर:
1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने के साथ ही सरकार व काँग्रेस में गतिरोध पैदा हो गया था। काँग्रेस ने मंत्रिमंडलों से त्याग-पत्र दे दिया था। 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया। 1942 में गाँधी जी को विश्वास हो गया था कि अंग्रेज़ों को भारत छोड़ देना चाहिए। 7 अगस्त, 1942 को बंबई में अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी (AICC) की बैठक शुरू हुई। इस बैठक में वर्धा में पास किए ‘भारत छोड़ो प्रस्ताव’ का अनुमोदन कर दिया गया।

साथ ही गाँधी जी ने अहिंसक संघर्ष छोड़ने की मंजूरी दी। 8 अगस्त को भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित होने के बाद अपने भाषण में महात्मा गाँधी ने कहा, “आप लोगों में से प्रत्येक व्यक्ति को अब से स्वयं को स्वतंत्र व्यक्ति समझना चाहिए तथा इस प्रकार का कार्य करना चाहिए कि मानो आप स्वतंत्र हो….. मैं स्वतंत्रता से कम किसी भी वस्तु से संतुष्ट नहीं होऊँगा। हम करेंगे या मरेंगे। हम या तो भारत को स्वतंत्र कराएँगे या इस प्रयास में मर मिटेंगे।”

महात्मा गाँधी और राष्ट्रीय आंदोलन ने गाँधी जी के दिल्ली आगमन (9 सितंबर, 1947) को “बड़ी लंबी और कठोर गर्मी के बाद बरसात की फुहारों के आने” जैसा महसूस किया। सांप्रदायिक सद्भाव स्थापित करने के लिए गाँधी जी ने “सिक्खों, हिंदुओं और मुसलमानों से आह्वान किया कि वे अतीत को भुलाकर अपनी पीड़ा पर ध्यान देने की बजाय एक-दूसरे के प्रति भाईचारे का हाथ बढ़ाने और शांति से रहने का संकल्प लें ….”

उल्लेखनीय है कि सद्भाव स्थापना में गाँधी जी के व्यापक असर को रेखांकित करते हुए माऊंटबेटन ने उन्हें ‘एक अकेली फौज’ (One man Boundary Force) कहा। गाँधी जी की धर्म में गहरी आस्था थी, किन्तु साथ ही वे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत में भी दृढ़ आस्था रखते थे। उन्होंने दो राष्ट्र सिद्धांत’ (अर्थात हिंदू और मुसलमान दो पृथक् राष्ट्र हैं) को कभी भी स्वीकार नहीं किया। गाँधी जी और नेहरू के आग्रह पर काँग्रेस ने विभाजन के बाद “अल्पसंख्यकों के अधिकारों” पर एक प्रस्ताव पास किया।

इसमें भारत को बहुधर्मों और बहुत सारी नस्लों का देश स्वीकार किया गया। प्रस्ताव में कहा गया कि पाकिस्तान में जो भी स्थिति हो, भारत “एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा जहाँ सभी नागरिकों को पूर्ण अधिकार प्राप्त होंगे तथा धर्म के आधार पर भेदभाव के बिना सभी को राज्य की ओर से संरक्षण का अधिकार होगा।” गाँधी जी विभाजन के बाद भारत में मुसलमानों को पूर्ण सम्मानजनक स्थान देने के पक्ष में थे।

पंजाब में जब वे दंगे-तबाही मचा रहे थे तब उन्होंने एक लीगी नेता से कहा था कि, “मैं अपने प्राण देकर भी इसका सामना करना चाहता हूँ। मैं मुसलमानों को भारत की सड़कों पर रेंगने नहीं दूंगा। वे आत्मसम्मान के साथ चलेंगे।”

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HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. ‘भगवद्गीता’ किस धार्मिक पुस्तक का अंग है?
(A) रामायण
(B) ऋग्वेद
(C) महाभारत
(D) मनुस्मृति
उत्तर:
(C) महाभारत

2. रामायण और महाभारत का संस्कृत भाषा में रचनाकाल
(A) लगभग 1000 ई० पू० से 600 ई० पू०
(B) लगभग 600 ई० पू० से 100 ई० पू०
(C) लगभग 500 ई० पू० से 400 ई० पू०
(D) लगभग 200 ई० पू० से 200 ई०
उत्तर:
(C) लगभग 500 ई० पू० से 400 ई० पू०

3. महाभारत का युद्ध किस स्थान पर हुआ था?
(A) इंद्रप्रस्थ
(B) कुरुक्षेत्र
(C) वैशाली
(D) राजगृह
उत्तर:
(B) कुरुक्षेत्र

4. वेदों की संख्या थी
(A) चार
(B) तीन
(C) दो
(D) आठ
उत्तर:
(A) चार

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

5. रुद्रदामन किस वंश का था?
(A) कण्व
(B) सातवाहन
(C) मौर्य
(D) शक
उत्तर:
(D) शक

6. प्राचीनतम ग्रन्थों के अनुसार शूद्रों का मुख्य कर्तव्य होता था
(A) ब्राह्मणों की सेवा
(B) वैश्यों की सेवा
(C) क्षत्रियों की सेवा
(D) तीन उच्च वर्गों की सेवा
उत्तर:
(D) तीन उच्च वर्गों की सेवा

7. पांडवों की सहपत्नी थी
(A) प्रभावती
(B) सीता
(C) गौतमी
(D) द्रौपदी
उत्तर:
(D) द्रौपदी

8. बहुपति प्रथा प्रचलित थी
(A) कौरवों में
(B) पांडवों में
(C) सातवाहनों में
(D) शकों में
उत्तर:
(B) पांडवों में

9. ‘मनुस्मृति’ का संकलन कब हुआ था ?
(A) 200 ई० पूर्व – 200 ई० में
(B) 200 ई० पूर्व – 50 ई० में
(C) 100 ई० पूर्व – 100 ई० में
(D) 200 ई०- 300 ई० में
उत्तर:
(A) 200 ई० पूर्व – 200 ई० में

10. एकलव्य की कथा निम्नलिखित में से कौन-से ग्रंथ में मिलती है?
(A) महाभारत
(B) रामायण
(C) मनुस्मृति
(D) जातक कथा
उत्तर:
(A) महाभारत

11. पाणिनि द्वारा लिखित ग्रन्थ का नाम बताएँ
(A) रामायण
(B) महाभारत
(C) अष्टाध्यायी
(D) महावंश
उत्तर:
(C) अष्टाध्यायी

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

12. निम्नलिखित में से किस अभिलेख में रेशम बुनकरों की एक श्रेणी द्वारा (437-38 ई० में) सूर्य मंदिर निर्माण का उल्लेख मिलता है?
(A) मंदसौर अभिलेख
(B) गढ़वा अभिलेख
(C) समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) मंदसौर अभिलेख

13. हस्तिनापुर गाँव कहाँ स्थित है?
(A) उत्तर:प्रदेश में
(B) मध्यप्रदेश में
(C) बिहार में
(D) बंगाल में
उत्तर:
(A) उत्तर:प्रदेश में

14. महाभारत के लेखक का नाम
(A) महर्षि वेदव्यास
(B) महर्षि वाल्मीकि
(C) महर्षि तुलसीदास
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) महर्षि वेदव्यास

15. गौतमी-पुत्र-सिरी-सातकणि किस वंश का था?
(A) शक
(B) सातवाहन
(C) मौर्य
(D) कण्व
उत्तर:
(B) सातवाहन

16. ‘अष्टाध्यायी’ का लेखक है
(A) मनु
(B) चरक
(C) पाणिनि
(D) शूद्रक
उत्तर:
(C) पाणिनि

17. मनुस्मृति के अनुसार माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति का अधिकार किसको दिया जाता था?
(A) ज्येष्ठ पुत्र को
(B) सबसे बड़ी पुत्री को
(C) सबसे छोटे पुत्र को
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) ज्येष्ठ पुत्र को

18. ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक का लेखक था
(A) मनु
(B) पाणिनि
(C) शूद्रक
(D) एकलव्य
उत्तर:
(C) शूद्रक

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
गोत्र बहिर्विवाह से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
गोत्र से बाहर विवाह करने को गोत्र बहिर्विवाह कहा गया है।

प्रश्न 2. अंतर्विवाह से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
एक ही गोत्र, कुल या जाति में विवाह-संबंध को अंतर्विवाह कहा गया है।

प्रश्न 3.
बहुपत्नी प्रथा क्या होती है?
उत्तर:
एक ही पुरुष द्वारा एक से अधिक पत्नियाँ रखना, बहुपत्नी प्रथा कहलाती है।

प्रश्न 4.
एकलव्य की कथा कौन-से ग्रंथ में मिलती है?
उत्तर:
एकलव्य की कथा ‘महाभारत’ में मिलती है।

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प्रश्न 5.
संस्कृत अभिलेखों व ग्रंथों में व्यापारियों के लिए क्या शब्द प्रयुक्त किया गया है?
उत्तर:
संस्कृत अभिलेखों व ग्रंथों में व्यापारियों के लिए वणिक शब्द प्रयुक्त किया गया है।

प्रश्न 6.
विवाह-संस्कार में वर-वधू द्वारा हाथ पकड़ने की प्रथा को क्या कहा गया?
उत्तर:
विवाह-संस्कार में वर-वधू द्वारा हाथ पकड़ने की प्रथा को पाणिग्रहण कहा गया।

प्रश्न 7.
वर-वधू द्वारा अग्नि के समक्ष सात फेरे लेने को क्या संज्ञा दी गई?
उत्तर:
वर-वधू द्वारा अग्नि के समक्ष सात फेरे लेने को सप्तपदी कहा गया।

प्रश्न 8.
वर्ण-व्यवस्था में असंस्कृतभाषी लोगों को क्या कहकर पुकारा गया?
उत्तर:
वर्ण-व्यवस्था में असंस्कृतभाषी लोगों को म्लेच्छ या असभ्य कहकर पुकारा गया।

प्रश्न 9.
वर्ण-व्यवस्था में चाण्डाल किसे कहा गया?
उत्तर:
शवों की अंत्येष्टि और मृत पशुओं को छूने वालों को चाण्डाल कहा गया।

प्रश्न 10.
पितृवंशिकता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
पितृवंशिकता से अभिप्राय वह वंश-परंपरा है जो पिता से पुत्र, फिर पौत्र और प्रपौत्र आदि से चलती है। इसमें पैतृक संपत्ति पुत्रों में विभाजित होती है।

प्रश्न 11.
वर्ण-व्यवस्था वाले समाज में चाण्डाल एवं अपवित्र समझे गए लोगों को कौन-सा स्थान प्राप्त था?
उत्तर:
इनको सबसे निम्न कोटि में रखा गया था।

प्रश्न 12.
मनुस्मृति के अनुसार पैतृक जायदाद का बँटवारा किस प्रकार बताया गया है?
उत्तर:
मनुस्मृति के अनुसार, माता-पिता की मृत्यु के बाद पैतृक जायदाद का सभी पुत्रों में समान रूप से बँटवारा किया जाना. चाहिए, किंतु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था।

प्रश्न 13.
मनुस्मृति के अनुसार पैतृक संपत्ति में स्त्रियों के क्या अधिकार थे?
उत्तर:
मनुस्मृति के अनुसार स्त्रियाँ पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी की माँग नहीं कर सकती थीं।

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प्रश्न 14.
मनुस्मृति के अनुसार स्त्रीधन क्या था?
उत्तर:
विवाह के समय मिले उपहार तथा पति द्वारा दिए गए उपहार स्त्रीधन था, जिस पर स्त्रियों का स्वामित्व माना। जाता था।

प्रश्न 15.
मातृवंशिकता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
मातृवंशिकता से अभिप्राय वह वंश-परंपरा है, जो माँ से जुड़ी होती है। ऐसी परंपराओं के उदाहरण अति प्राचीन काल में ही मिलते हैं।

प्रश्न 16.
ब्राह्मणीय ग्रंथों के अनुसार शूद्रों का मुख्य कर्त्तव्य क्या था?
उत्तर:
ब्राह्मणीय ग्रंथों के अनुसार शूद्रों का मुख्य कर्त्तव्य तीन उच्च वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) की सेवा थी।

प्रश्न 17.
मनुस्मृति (संस्कृत में) की रचना का काल कौन-सा है?
उत्तर:
मनुस्मृति की रचना लगभग 200 ई० पू० से लेकर 200 ई० के बीच की गई।

प्रश्न 18.
पाणिनि की अष्टाध्यायी (संस्कृत व्याकरण) कब लिखी गई?
उत्तर:
लगभग 500 ई०पू० में पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी लिखी गई।

प्रश्न 19.
प्रारंभिक अभिलेख किस भाषा में खुदे हुए हैं?
उत्तर:
प्राकृत भाषा में।

प्रश्न 20.
महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण का अंग्रेज़ी अनुवाद किसने और कब शुरू किया?
उत्तर:
जे०ए०बी० वैन बियुटेनेन (J.A.B. Van Buitenen) ने महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण का अंग्रेजी अनुवाद सन् 1973 में शुरू किया।

प्रश्न 21.
महाभारत की मूल कथा के रचयिता किसे माना जाता है?
उत्तर:
महाभारत की मूल कथा के रचयिता भाट सारथी थे जिन्हें ‘सूत’ कहा जाता था।

प्रश्न 22.
हस्तिनापुर उत्तर प्रदेश के कौन-से जिले में है?
उत्तर:
हस्तिनापुर उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में स्थित एक गाँव है।

प्रश्न 23.
‘मृच्छकटिकम्’ नामक नाटक का लेखक कौन है?
उत्तर:
शूद्रक ने ‘मृच्छकटिकम्’ नामक नाटक की रचना की।

प्रश्न 24.
‘मृच्छकटिकम्’ का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
‘मृच्छकटिकम्’ का शाब्दिक अर्थ है ‘मिट्टी की गाड़ी’।

प्रश्न 25.
सातवीं शताब्दी में कौन-सा बौद्ध-यात्री चीन से भारत आया?
उत्तर:
ह्यूनसांग नामक चीनी-यात्री राजा हर्षवर्धन के काल में भारत आया।

प्रश्न 26.
‘कुन्ती ओ निषादी’ की लेखिका का नाम बताएँ।
उत्तर:
‘कुन्ती ओ निषादी’ की लेखिका (बांग्ला लेखिका) महाश्वेता देवी हैं।

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प्रश्न 27.
यायावर (घुमन्तु) पशुपालक कबीलों के लोगों को ब्राह्मण ग्रंथों में क्या कहा गया है?
उत्तर:
ब्राह्मण ग्रंथों में ऐसे लोगों को, जिन्हें संस्कृत का ज्ञान नहीं था, म्लेच्छ कहा गया।

प्रश्न 28.
वेदों की भाषा क्या थी?
उत्तर:
संस्कृत।

प्रश्न 29.
महाभारत में कुल कितने पर्व व अध्याय हैं?
उत्तर:
महाभारत में कुल 18 पर्व एवं 1948 अध्याय हैं।

प्रश्न 30.
सुदर्शन सरोवर का जीर्णोद्धार किसने करवाया?
उत्तर:
सुदर्शन सरोवर का जीर्णोद्धार शक शासक रूद्रदामन ने करवाया था।

प्रश्न 31.
महाभारत की प्राप्त पांडुलिपियों को कितने भागों में बाँटा गया है?
उत्तर:
महाभारत की पांडुलिपियों को दो भागों, उत्तरी व दक्षिणी भागों में बाँटा गया है।

प्रश्न 32.
विशिष्ट परिस्थितियों में किस स्त्री ने सत्ता का उपभोग किया?
उत्तर:
विशिष्ट परिस्थितियों में प्रभावति गुप्त ने सत्ता का उपभोग किया।

प्रश्न 33.
भारतीय विद्वान् एस०एन० बैनर्जी ने महाभारत पर कौन-सी पुस्तक लिखी?
उत्तर:
एस०एन० बैनर्जी ने महाभारत पर ‘Parties, Politics and the Political ideas of Mahabharata’ नामक पुस्तक लिखी।

प्रश्न 34.
श्रीमद्भगवद् गीता में कितने श्लोक हैं?
उत्तर:
श्रीमद्भगवद् गीता में लगभग 700 श्लोक हैं।

प्रश्न 35.
धर्मशास्त्र (आश्वलायन) में विवाह के कितने प्रकार बताए गए हैं?
उत्तर:
आश्वलायन में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं।

प्रश्न 36.
रामायण व महाभारत महाकाव्यों की मुख्य कथा का संबंध किससे है?
उत्तर:
रामायण व महाभारत महाकाव्यों की मुख्य कथा का संबंध परिवार में पितृवंशिकता के आदर्श को मजबूत करने से है।

प्रश्न 37.
विवाह संस्कार में ‘पाणिग्रहण’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
वर द्वारा वधू का हाथ पकड़ने की प्रथा को ‘पाणिग्रहण’ संस्कार कहा गया।

प्रश्न 38.
धर्मशास्त्रों में किन ग्रंथों को शामिल किया गया है?
उत्तर:
धर्मसूत्र, स्मृतियाँ और टीकाएँ तीन तरह के ग्रंथों को धर्मशास्त्रों में शामिल किया गया है।

प्रश्न 39.
धर्मशास्त्र का संकलन काल क्या है?
उत्तर:
धर्मशास्त्रों का संकलन काल 500 ई०पू० से 600 ई० के बीच का है।

प्रश्न 40.
आश्वलायन गृहसूत्र के अनुसार ब्रह्म विवाह किसे माना गया?
उत्तर:
ऐसा विवाह जिसमें वेदों को जानने वाले शीलवान वर को घर बुलाकर वस्त्र व आभूषण आदि से सुसज्जित कन्या को पिता द्वारा दान दिया जाता था।

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प्रश्न 41.
पैशाच विवाह किसे माना गया?
उत्तर:
ऐसा विवाह जिसमें सोई हुई, घबराई हुई कन्या के साथ बलात्कार या धोखा देकर विवाह किया जाता था।

प्रश्न 42. ‘फा-शियन’ किस देश का रहने वाला था?
उत्तर:
‘फा-शियन’ चीन का रहने वाला था।

प्रश्न 43.
श्रीमद्भगवद् गीता की शिक्षा का सार क्या है?
उत्तर:
श्रीमद्भगवद् गीता के अनुसार वर्ण व जाति के अनुरूप जिसका जो कर्त्तव्य निर्धारित हुआ है, उसे उस कर्त्तव्य को बिना किसी प्रतिफल की कामना से करना चाहिए।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बौद्ध परंपरा में सामाजिक अनुबंध से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
बौद्ध परंपरा में ‘सामाजिक अनुबंध’ के अनुसार राजपद दैवीय या पैतृक नहीं था, बल्कि एक सामाजिक समझौते का परिणाम था। ऐसे किसी भी उपयुक्त व्यक्ति को राजा चुना जा सकता था जो न्यायप्रिय हो तथा शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए क्षमता रखता हो।

प्रश्न 2.
फाहियान (Fa-xian) ने चाण्डालों की स्थिति के बारे में क्या बताया है?
उत्तर:
फाहियान एक चीनी यात्री था जो ईसा की पाँचवीं सदी के शुरू में भारत आया। उसने अपने यात्रा वृत्तांत में बताया है कि चाण्डाल शहर और गाँव से बाहर बनी अलग बस्तियों में रहते थे। जब कभी वे नगर या गाँव में आते थे तो उन्हें अपने आने की सूचना किसी वस्तु से आवाज़ करके देनी पड़ती थी।

प्रश्न 3.
लगभग 600 ई०पू० से 600 ई० की अवधि के मध्य भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति में आए बदलावों के प्रभावों का उल्लेख करें।
उत्तर:
लगभग 600 ई०पू० से 600 ई० के बीच आर्थिक व राजनीतिक जीवन में कई तरह के परिवर्तन हुए, जिनका तत्कालीन समाज पर भी अपना प्रभाव पड़ा। उदाहरण के लिए वन क्षेत्रों में कृषि विस्तार से वहाँ रहने वाले लोगों की जीवन-शैली में परिवर्तन आया। बहुत-से कारीगर समूहों का उदय हुआ। इसके अतिरिक्त संपत्ति के असमान वितरण ने सामाजिक भेदभावों को अधिक प्रखर बनाया।

प्रश्न 4.
कौरव और पांडव कौन थे? उनके बंधुत्व संबंधों में क्या परिवर्तन हुआ?
उत्तर:
कौरव व पांडव बांधव जन (Cousins) थे अर्थात् वे चचेरे भाइयों के समूह थे। यह परिवार कुरु राजवंश का था। महाभारत से पता चलता है कि चचेरे भाइयों में संपत्ति व सत्ता को लेकर युद्ध हुआ। स्पष्ट है कि दोनों समूहों में बंधुत्व के संबंधों में राजसत्ता को लेकर बड़ा भारी परिवर्तन हो गया।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पदों की संक्षिप्त व्याख्या करें (क) बहिर्विवाह, (ख) अंतर्विवाह, (ग) बहुपति प्रथा, (घ) बहुपत्नी प्रथा।
उत्तर:
(क) बहिर्विवाह-बहिर्विवाह से अभिप्राय था, गोत्र से बाहर विवाह करना। (ख) अंतर्विवाह-अंतर्विवाह से अभिप्राय था, वर्ण अथवा जाति के अंदर ही विवाह करना। (ग) बहुपति प्रथा-इस प्रथा में एक स्त्री के एक से अधिक पति होने की प्रथा है। (घ) बहुपत्नी प्रथा-बहुपत्नी प्रथा से अर्थ है एक पुरुष की एक से अधिक पत्नियाँ होने की परिपाटी।

प्रश्न 6.
कौरवों और पांडवों में बंधुत्व मामले का अंततः समाधान कैसे हुआ? इसका क्या परिणाम निकला?
उत्तर:
कौरवों और पांडवों में बंधुत्व का मसला अंततः एक युद्ध के द्वारा तय हुआ। यह युद्ध महाभारत का युद्ध कहलाया। इसमें पांडवों की विजय हुई। युद्ध के बाद ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर को शासक बनाया गया। इस प्रकार पितृवंशिकता के आदर्श को सुदृढ़ किया गया।

प्रश्न 7.
महाभारत के रचनाकाल के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
महाभारत की रचना लगभग 1000 वर्षों में हुई। शुरू में इसमें मात्र 8800 श्लोक थे और यह ‘जयस’ यानी विजय संबंधी ग्रंथ कहलाया था। कालान्तर में यह 24000 श्लोकों के साथ ‘भारत’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। अंततः यह महाभारत कहलाया और अब इसमें एक लाख श्लोक हैं।

प्रश्न 8.
बौद्ध ग्रंथों में सामाजिक गतिशीलता के उदाहरण लिखें।
उत्तर:
बौद्ध ग्रंथों में कई स्थानों पर क्षत्रियों या वैश्यों द्वारा दर्जी, कुम्हार, टोकरी बनाने वाले शिल्पी, माली और रसोइए का पेशा अपनाए जाने के उदाहरण मिलते हैं। इस सामाजिक गतिशीलता से उनकी प्रतिष्ठा में कमी नहीं आती थी।

प्रश्न 9.
एकलव्य कथा पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
एकलव्य कथा के माध्यम से निषादों (जंगल में रहने वाली जनजाति) को धर्म का संदेश दिया जा रहा था। धर्म से अभिप्राय था, अपने-अपने वर्ण कर्त्तव्य का पालन। किसी और जाति/वर्ण के काम को मत अपनाओ। ऐसा करना धर्म विरोधी कार्य होगा।

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प्रश्न 10.
एकलव्य कौन था?
उत्तर:
एकलव्य एक निषाद जनजाति का युवक था जो गुरु द्रोणाचार्य से धनुष चलाने की विद्या सीखना चाहता था। गुरु द्रोण केवल क्षत्रियों (विशेषतः कुरु राजवंश) को ही यह विद्या दे रहे थे, इसलिए उन्होंने एक वनवासी निषाद को यह शिक्षा देने से मना कर दिया, लेकिन एकलव्य ने मन से द्रोण को अपना गुरु मानकर प्रतिदिन अभ्यास किया और निपुण धनुर्धर बन गया।

उसने कुत्ते के भौंकने की आवाज पर उस कुत्ते के मुँह को बाणों से भर दिया जिसे देखकर अर्जुन और आचार्य द्रोण दोनों को आश्चर्य हुआ। द्रोणाचार्य ने जब एकलव्य से उसके गुरु का नाम पूछा तो उसने स्वयं को उन्हीं का शिष्य बताया। इस बात का पता चलने पर द्रोण ने गुरु-दक्षिणा के रूप में एकलव्य से दाहिने हाथ का अंगूठा माँगा। एकलव्य ने अपना अंगूठा देकर अपना कर्त्तव्यपालन किया, परंतु वह पहले जैसा धनुर्धर नहीं रहा।

प्रश्न 11.
‘भारतीय समाज में लिंग भेदभाव था।’ इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर:
प्राचीन भारतीय समाज में भी लिंग के आधार पर लड़कियों के प्रति भेदभाव विद्यमान था। ‘ऋग्वेद’ में पुत्र कामना को प्राथमिकता दी गई। विशेषतः इंद्र जैसे वीर पुत्र की कामना की गई है। पैतृक पारिवारिक संपत्ति में भी भेदभाव का आभास मिलता है। पैतृक संपत्ति का वारिस पुत्र ही था। लड़की की इसमें हिस्सेदारी नहीं स्वीकारी गई।

प्रश्न 12.
मनुस्मृति के अनुसार पुरुष के धन अर्जन के साधन कौन-से थे?
उत्तर:
औरत के अधिकार में मात्र उपहार से प्राप्त धन ही शामिल था परंतु पुरुष, मनु के अनुसार, सात तरीकों से धन अर्जित कर सकता था। ये तरीके थे- उत्तराधिकार, खोज, खरीद, विजित करके, निवेश करके, कार्य द्वारा तथा सज्जन मित्रों से उपहारस्वरूप भेंट स्वीकार करके।

प्रश्न 13.
कुलीन परिवारों में स्त्री की स्थिति पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
कुलीन परिवारों में स्त्रियों के लिए भौतिक सुविधाएं तो अधिक थीं, परंतु स्वतंत्रता कम थी। उन पर पुरुष का नियंत्रण अपेक्षाकृत अधिक था, यहाँ तक कि उसे ‘वस्तु-सम’ ही समझा जाता था।

प्रश्न 14.
किसी व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा को दानशीलता कैसे प्रभावित करती थी?
उत्तर:
दानशीलता धनी व्यक्ति के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम रही है। समाज में कंजूस व्यक्ति का सम्मान नहीं था। चारण/कवि दानी व्यक्तियों की प्रतिष्ठा में गीत-काव्य रचते थे। इससे धनी दानदाता की जय-जयकार होती थी।

प्रश्न 15.
विवाह संस्कार में ‘मधुपर्क’ किसे कहा गया?
उत्तर:
वर-वधू की चुनाव की प्रक्रिया के बाद वधू का पिता वर को बारात सहित आमंत्रित करता और उसका सम्मान करता था जिसे ‘मधुपर्क’ कहा गया।

प्रश्न 16.
धर्म-ग्रंथों में विवाह के कितने प्रकार बताए गए हैं?
उत्तर:
धर्म-ग्रंथों में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं-

  1. ब्रह्म विवाह,
  2. प्रजापत्य विवाह,
  3. आर्ष विवाह,
  4. दैव विवाह,
  5. असुर विवाह,
  6. गांधर्व विवाह,
  7. राक्षस विवाह,
  8. पैशाच विवाह ।

प्रश्न 17.
‘गोत्र’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
‘गोत्र’ से अभिप्राय है एक ही पूर्वज की संतान या उत्तराधिकारियों का समूह । ऐसा समूह रक्त संबंधों पर आधारित माना जाता है। इसके सदस्य स्वयं को एक ही पूर्वज की संतान स्वीकारते हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में ऐसे समूहों के सदस्यों में विवाह संबंधों के वर्जित होने के प्रमाण मिलते हैं।

प्रश्न 18.
महाभारत की विषय-वस्तु को इतिहासकार कैसे बाँटते हैं?
उत्तर:
महाभारत की विषय-वस्तु को इतिहासकार मुख्यतः दो भागों में बाँटते हैं। पहला आख्यान, जिसके अंतर्गत कहानियों का संग्रह है। दूसरा उपदेशात्मक, जिसके अंतर्गत सामाजिक व्यवहार के मानदंड आते हैं।

प्रश्न 19.
स्त्रीधन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मनु के अनुसार स्त्रीधन में शामिल था-

  1. कन्यादान के समय मिला धन;
  2. माता-पिता व भाई से मिले उपहार;
  3. विदाई के समय मिली भेंट;
  4. विवाह के बाद पति से मिलने वाले उपहार; और
  5. विभिन्न अवसरों पर मिलने वाली भेंट अर्थात् उपहार।

प्रश्न 20.
‘वर्ण’ शब्द के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
‘वर्ण’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘वरी’ धातु से हुई बताई गई है, जिसका अर्थ है वरण (चयन) करना। यानी व्यवसाय का चयन करना। कुछ विद्वान ‘वर्ण’ शब्द की उत्पत्ति का संबंध ‘रंग’ से भी जोड़ते हैं। उनके अनुसार वर्ण (रंग) का प्रयोग गौण वर्ण के आर्यों को श्याम वर्णीय अनार्यों से अलग करने के संदर्भ में आया।

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प्रश्न 21.
वैदिक कालीन ‘यज्ञ परम्परा’ के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
‘यज्ञ’ एक वैदिक कर्मकांड है जिसमें अग्नि के हवन कुंड के समक्ष बैठकर मंत्रोच्चारण के साथ किसी निश्चित उद्देश्य . की प्राप्ति के लिए हवन कुंड में आहुतियाँ डाली जाती हैं।

प्रश्न 22.
‘आश्रम प्रणाली’ के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
उत्तर वैदिक काल में व्यक्ति की आयु 100 वर्ष मानकर उसे निम्नलिखित चार भागों (आश्रमों) में बाँटा गया है

  • ब्रह्मचर्य आश्रम पहले 25 वर्ष की आयु तक।
  • गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्ष की आयु तक।
  • वानप्रस्थ आश्रम 50 से 75 वर्ष की आयु तक।
  • संन्यास आश्रम 75 से 100 वर्ष की आयु तक।

प्रश्न 23.
महाभारत का रचनाकार किसे माना जाता है?
उत्तर:
महाभारत का रचनाकार महर्षि वेदव्यास को माना जाता है। जनश्रुतियों के अनुसार मुनि वेदव्यास ने यह ग्रंथ श्रीगणेश जी से लिखवाया था।

प्रश्न 24.
ऋग्वेद के ‘दसवें मंडल’ के ‘पुरुषसूक्त’ में दिए वर्ण विभाजन को स्पष्ट करें।
उत्तर:
‘पुरुषसूक्त’ के एक मंत्र में कहा गया है कि देवताओं ने आदि पुरुष के चार भाग किए। ब्राह्मण उसका मुख, राजन्य बाहु और जंघा वैश्य थे तथा शूद्र उसके पाँव से उत्पन्न हुए।

प्रश्न 25.
जाति-व्यवस्था की दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
जाति-व्यवस्था की. दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • किसी जाति में सदस्यता केवल उन व्यक्तियों तक ही सीमित थी, जिन्होंने उसी जाति में जन्म लिया हो।
  • एक जाति के सदस्यों का विवाह उसी जाति में अनिवार्य था।

प्रश्न 26.
मौर्य काल में श्रेणियों की स्थिति पर संक्षिप्त टिप्पणी करें।
उत्तर:
मौर्य काल में श्रेणियाँ सरकार के नियंत्रण में काम करती थीं। इन्हें सरकार से लाइसेंस लेना पड़ता था। लगभग प्रत्येक श्रेणी पर एक सरकारी अधिकारी होता था, जिसे श्रेणी का अध्यक्ष कहा जाता था। श्रेणी में शिल्पकारों के प्रधान को ज्येष्ठक कहा जाता था।

प्रश्न 27.
भारत में परिवार व्यवस्था की कोई दो विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:

  • परिवार के सदस्यों का वैवाहिक या रक्त-संबंधों का होना अनिवार्य है।
  • परिवार के सदस्य प्रायः पारिवारिक परंपरा और रीति-रिवाज़ों में बँधे होते हैं। वे धार्मिक अनुष्ठानों (यज्ञ, पूजा, अर्चना आदि) को मिलकर संपादित करते हैं।

प्रश्न 28.
मातृवंशीय परंपरा से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
मातवंशीय परिवारों में वंश परंपरा माँग से जुड़ी होती है। परिवार में लड़की का महत्त्व अधिक होता है।

प्रश्न 29.
भारत में विवाह संस्था का मूल उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
विवाह संस्था का मूल उद्देश्य विवाह-संबंधों में स्थायित्व कायम करना और पितृवंश को आगे बढ़ाना था। साथ ही भारत में जातीय-व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने में भी इस संस्था की मुख्य भूमिका रही है।

प्रश्न 30.
गांधारी द्वारा अपने सबसे बड़े पुत्र दुर्योधन को दिए गए परामर्श का उल्लेख करें। इसका क्या परिणाम निकला?
उत्तर:
गांधारी कौरवों की माँ थी। वह अपने ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन को युद्ध न करने का परामर्श देती है और युद्ध न करने की विनती भी करती है। उसने कहा, “शांति की संधि करके तुम अपने पिता, मेरा और अपने शुभइच्छकों का सम्मान करोगे…….. विवेकी पुरुष जो अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है वही अपने राज्य की रखवाली करता है।

लालच और क्रोध आदमी को लाभ से दूर खदेड़ ले जाते हैं। इन दोनों शत्रुओं को पराजित कर राजा समस्त पृथ्वी को जीत सकता है …………. युद्ध में कुछ भी शुभ नहीं होता, न धर्म और न अर्थ की प्राप्ति होती है, और न ही प्रसन्नता की; युद्ध के अंत में सफलता मिले यह भी जरूरी नहीं …………… अपने मन को युद्ध में लिप्त मत करो।” स्पष्ट है कि अपनी माँ की इस सलाह को दुर्योधन ने नहीं माना, फलतः युद्ध हुआ और कौरव परिवार का समूल नाश हो गया।

प्रश्न 31.
‘परिवार’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सामाजिक संगठनों में परिवार समाज की एक महत्त्वपूर्ण मूल इकाई है। संस्कृत ग्रंथों में इसके लिए ‘कल’ शब्द का प्रयोग किया गया है। सामान्यतया रक्त संबंधों पर आधारित परिवार को एक स्वाभाविक सामाजिक इकाई मान लिया जाता है, जो कि ठीक नहीं होता क्योंकि रक्त संबंधों की परिधि में कौन-कौन से सगे-संबंधी शामिल हैं, इस बात से परिवार की परिभाषा भिन्न हो जाती है। आज भी हम देखते हैं कि कुछ लोग चचेरे या मौसेरे भाई-बहनों को रक्त-संबंधों में शामिल करते हैं जबकि कुछ अन्य उन्हें शामिल नहीं करते।

प्रश्न 32.
रामायण महाकाव्य के दो प्रमुख नैतिक तत्त्व कौन-से हैं?
उत्तर:
रामायण महाकाव्य के दो नैतिक तत्त्व हैं

  • भलाई की बुराई पर विजय। कथा में राम भलाई के और रावण बुराई के प्रतीक हैं।
  • परिवार रूपी संस्था का आदर्श।

इसमें किसी भी परिस्थिति में पुत्र को पिता की आज्ञा तथा छोटे भाई को बड़े भाई की आज्ञा का पालन करना और स्त्री को पति के प्रति निष्ठावान होना है।

प्रश्न 33.
प्राचीन भारत में पितृवंशिक आदर्श के अपवाद किन स्थितियों में मिलते हैं?
उत्तर:
पितृवंशिक आदर्श को लेकर यदा-कदा अपवाद भी मिलते हैं। पुत्र के न होने पर कई बार तो एक भाई दूसरे का धेकारी हो जाता था तो कभी चचेरे भाई भी राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लेते थे। कई बार कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में स्त्रियाँ भी सत्ता की उत्तराधिकारी बनीं। प्रभावती गुप्त का शासिका बनने का उदाहरण मिलता है।

प्रश्न 34.
उत्तर भारत में नगरीकरण के विकास का धर्मशास्त्रों से क्या संबंध है?
उत्तर:
उत्तर भारत में 600 ई०पू० से 600 ई० के मध्य नगरों का विकास हुआ। नए नगर हस्तशिल्प उत्पादन व व्यापार के केंद्र थे। इस कारण से यह नगर दूर एवं निकट से आने वाले व्यापारी व अन्य अनेक लोगों के मिलन-स्थल बन गए। फलतः इनमें वस्तुओं के क्रय-विक्रय व उत्पादन के साथ-साथ लोगों में परस्पर विचारों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया भी चली।

इससे परंपरागत विचारों एवं विश्वासों पर कई तरह के सवाल उठे। इस कारण से समाज में उथल-पुथल मची। पारिवारिक बंधन कमजोर होने लगे। वर्ण-संकर विवाह (जाति से बाहर दूसरी जाति में) होने लगे तथा प्रेम-विवाह (गांधर्व विवाह) होने लगे। समाज में बढ़ रही इस उथल-पुथल को रोकने के लिए धर्मशास्त्र रचे गए, जिनमें सामाजिक परंपराओं को बनाए रखने पर जोर दिया गया।

प्रश्न 35.
मनुस्मृति में चाण्डालों के क्या कर्त्तव्य बताए गए हैं?
उत्तर:
मनुस्मृति में चाण्डालों के ‘कर्तव्यों’ (Duties) पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जिन कामों को घृणित माना गया उन्हें करना मनुस्मृति में चाण्डालों के लिए ‘कर्त्तव्य’ बताया गया; जैसे कि वधिक कार्य, चर्म कार्य, मृत पशु उठाना, सफाई, श्मशान कर्म इत्यादि। उनके लिए नियम था कि वे मृतकों के वस्त्र, लोहे के आभूषण व बर्तनों का प्रयोग करें। रात के समय नगर व गाँवों में उनका प्रवेश वर्जित था। नगर व गाँव में उनका निवास भी वर्जित था।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
धर्मशास्त्र में कितने प्रकार के विवाहों का वर्णन मिलता है? इनमें से चार उत्तम विवाह कौन-से थे?
उत्तर:
आश्वलायन नामक ग्रंथ में प्राचीन भारत में आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन मिलता है। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है

  • ब्रह्म विवाह में वेदों को जानने वाले शीलवान वर को घर बुलाकर वस्त्र एवं आभूषण आदि से सुसज्जित कन्या को पिता द्वारा दान दिया जाता था।
  • दैव विवाह में यज्ञ करने वाले पुरोहित को यजमान अपनी कन्या का दान करता था।
  • आर्ष विवाह में लड़की का पिता वर पक्ष से गाय और बैल का एक जोड़ा लेकर अपनी कन्या का विवाह करता था।
  • प्रजापत्य विवाह में लड़की का पिता यह आदेश देता था तुम दोनों (वर-वधू) एक साथ रहकर आजीवन धर्म का आचरण करो। इसके बाद कन्यादान करता था।
  • असुर विवाह में वर कन्या के पिता को धन देकर विवाह करता था।
  • गांधर्व विवाह एक प्रकार से युवक-युवती में पारस्परिक प्रेम के आधार पर हुआ विवाह था।
  • राक्षस विवाह में कन्या को जबरन उठाकर विवाह किया जाता था अर्थात् उसे जीतकर अपने अधिकारों में लाया जाता था।
  • पैशाच विवाह में सोई हुई, प्रमत्त, घबराई हुई कन्या के साथ बलात्कार कर या धोखा देकर विवाह किया जाता था।

विवाह के इन आठ प्रकारों में से पहले चार विवाहों-ब्रह्म, प्रजापत्य, आर्ष व दैव को उत्तम माना गया। इन्हें धर्मानुकूल और आदर्श बताया गया है क्योंकि यह ब्राह्मणीय नियमों के अनुकूल थे। जबकि असुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों को अच्छा नहीं माना गया परंतु ये प्रचलन में थे। यह इस बात का प्रमाण है कि ब्राह्मणीय नियमों से बाहर विवाह प्रथाएँ अस्तित्व में थीं।

प्रश्न 2.
ब्राह्मणीय पद्धति ‘गोत्र’ के बारे में आप क्या जानते हैं? क्या यह सर्वत्र समान रूप से लागू थी?
उत्तर:
लगभग 1000 ई०पू० के आस-पास से एक ब्राह्मणीय पद्धति अस्तित्व में आई जिसके अनुसार लोगों की पहचान गोत्रों से भी होने लगी। विशेष रूप से यह ब्राह्मणों में पहले प्रचलन में आई। गोत्र का नामकरण किसी वैदिक ऋषि के नाम से होता था। उस गोत्र के सदस्य उस ऋषि के वंशज समझे जाते थे। गोत्र व्यवस्था की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ थीं

  • विवाह के पश्चात् महिला को पिता के गोत्र का नहीं, अपितु पति के गोत्र का माना जाता था।
  • एक ही गोत्र के सदस्य परस्पर विवाह संबंध नहीं कर सकते थे।

उपर्युक्त इन दोनों नियमों का अनुसरण भी अन्य ब्राह्मणीय नियमों की तरह, सभी लोगों द्वारा हर स्थान पर नहीं होता था। व्यवहार में यहाँ भी भिन्नता थी। उदाहरण के लिए यदि हम अभिलेखों से सातवाहन नरेशों के नामों का अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है। इन शासकों की रानियों के नामों से यह प्रतीत होता है कि उनके नाम गौतम और वशिष्ठ गोत्रों से जुड़े थे जो उनके पिता के गोत्र थे।

विवाह के बाद भी उन्होंने संभवतः अपने पिता का गोत्र नाम ही कायम रखा। जैसे कि राजा गोतमी-पुत्त सिरी-सातकनि, राजा वसिथि-पुत सिरी-पुलुमायि। संभवतः इन्होंने अपने पति का गोत्र नहीं अपनाया जैसा कि ब्राह्मणीय व्यवस्था में अपेक्षित था। इन नामों के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि कुछ रानियाँ एक ही गोत्र से थीं अर्थात बहिर्विवाह पद्धति की बजाय एक अन्य विवाह पद्धति यहाँ प्रचलन में थी। .

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 3.
धर्मशास्त्रों ने ‘जाति व्यवस्था’ को किस प्रकार स्थायित्व प्रदान किया? स्पष्ट करें।
उत्तर:
धर्मशास्त्रों ने वर्ण और जाति-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में विशेष भूमिका निभाई, उसे ‘उचित’ सामाजिक कर्तव्य बताया। उसे व्यवहार में लाने के लिए सामाजिक नियम बनाए। साथ ही उपदेशात्मक शैली में लोक-कथाओं की रचना की। संक्षेप में, धर्मशास्त्रों ने मुख्यतः निम्नलिखित उपायों का अनुसरण किया

1. दैवीय उत्पत्ति-इस सिद्धांत से जन-सामान्य को यह विश्वास दिलाया गया कि जातियों की उत्पत्ति का कारण ईश्वर है। ब्राह्मण ग्रंथों में पुरुष सूक्त को बार-बार दोहराया गया ताकि लोग अपनी-अपनी जातियों में अपना कर्त्तव्य बिना किसी विरोध के निभाते रहें।

2. आत्मा, कर्म व पुनर्जन्म का सिद्धांत-उपनिषद ग्रंथों में आत्मा, कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ। इसने जाति-व्यवस्था के लिए एक धार्मिक औचित्य प्रस्तुत किया। किसी विशेष जाति (ऊँची या नीची) में जन्म को पूर्व जन्म के कर्मों का फल बताया गया।

3. राजा का कर्त्तव्य-शास्त्रों में वर्ण-व्यवस्था की रक्षा करना राजा का एक प्रमुख कर्त्तव्य बताया गया। साथ ही इस व्यवस्था की आचार-संहिता दी और शासकों को अपने-अपने राज्य में इसका अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया। मनुस्मृति में विभिन्न वर्गों के संबंध में न्याय व दंड-विधान मिलता है।

4. उपदेशात्मक उपाय-वर्णाश्रम धर्म को विभिन्न कथा-गाथाओं के माध्यम से भी व्यवहार में बनाए रखने का प्रयास किया गया। साहित्यिक परंपरा के ग्रंथों में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। गुरु द्रोण व एकलव्य की कथा इस संदर्भ में उल्लेखनीय है।

प्रश्न 4.
‘जाति व्यवस्था’ की कोई पाँच सामान्य विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
‘जाति व्यवस्था’ की निम्नलिखित सामान्य विशेषताएँ हैं …

1. पैतृक व्यवसाय-जाति की पहचान व्यवसाय से हुई। ये व्यवसाय वंशानुगत थे अर्थात् ये पिता से पुत्र तक पहुँचते रहते थे। इसीलिए जाति को आनुवंशिकता (Hereditary) पर आधारित एक वर्ग (Class) बताया गया है।

2. सदस्यता-किसी जाति में सदस्यता केवल उन व्यक्तियों तक ही सीमित थी, जिन्होंने उसी जाति में जन्म लिया। किसी एक जाति से दूसरी जाति में सदस्यता संभव नहीं थी।

3. सजातीय विवाह-एक जाति के सदस्यों का विवाह उसी जाति में अनिवार्य था। जाति से बाहर विवाह पर रोक थी। यद्यपि अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों का उल्लेख मिलता है, परंतु इन्हें अच्छा नहीं समझा जाता था। ऐसे विवाहों से अनेक वर्णसंकर जातियों का भी वर्णन ग्रंथों में आया है।

4. श्रेणीबद्धता-जाति-व्यवस्था श्रेणीबद्ध (सोपानात्मक) संगठन है अर्थात् यह सीढ़ीनुमा है, जिसमें ऊपर से नीचे की ओर प्रत्येक जाति का स्थान निर्धारित होता है।

5. पवित्रता व अपवित्रता की धारणा-जाति-व्यवस्था में पवित्रता तथा अपवित्रता की धारणा निहित थी। निचले स्तर की जातियों को अपवित्र माना गया। चर्म कर्म, मरे पशुओं को उठाना तथा साफ़-सफाई करने वाली जातियों को अपवित्र माना गया। यहाँ तक कि उन्हें अछूत कहा गया। उनके स्पर्श और दर्शन-मात्र से अपवित्र होने की बात कही गई।

प्रश्न 5.
क्या जाति व्यवस्था वाले भारतीय समाज में किसी तरह की सामाजिक गतिशीलता थी? यदि थी, तो उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
उत्तर:
वर्ग अथवा जाति-व्यवस्था पूर्णतयाः एक जड़-व्यवस्था नहीं रही। इसमें आवश्यकतानुसार कुछ गतिशीलता भी रही है। उदाहरण के लिए, शुरू में वैश्य पशुचारक और किसान थे और शूद्र सेवक थे। धीरे-धीरे उन्नति करके वैश्य व्यापारी व जमींदार हो गए और शूद्र कृषक बन गए, परंतु इस पर भी उन्हें वर्ण-व्यवस्था में द्विज का दर्जा नहीं मिला। विचाराधीन काल के अंत तक आते-आते उन्हें रामायण, महाभारत और पुराण जैसे ग्रंथों को सुनने का अधिकार मिला। उनकी स्थिति में कुछ सुधार आया।

बौद्ध ग्रंथों में सामाजिक गतिशीलता के उदाहरण-बौद्ध-ग्रंथों में कई स्थानों पर क्षत्रियों व वैश्यों द्वारा दर्जी, कुम्हार, टोकरी बनाने वाले शिल्पी, माली और रसोइए आदि का पेशा अपनाए जाने का उल्लेख मिलता है। इससे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी नहीं आती थी।

श्रेणी व्यवस्था व सामाजिक गतिशीलता-श्रेणी-व्यवस्था सामाजिक गतिशीलता का एक अन्य उल्लेखनीय उदाहरण है। सामान्य व्यवसाय करने वाली जातियाँ स्वयं को कई बार अपनी ज़रूरतों के अनुरूप श्रेणियों में संगठित कर लेती थीं। ये श्रेणियाँ शिल्पकारों को समाज में प्रतिष्ठा का स्थान प्रदान करती थीं। लगभग पाँचवीं सदी के मंदसौर (मध्य प्रदेश) अभिलेख से रेशम बुनकरों की एक श्रेणी का उल्लेख मिलता है।

इस श्रेणी के बुनकर पहले मूलतः गुजरात के लता (Lata) नाम स्थान के रहने वाले थे फिर वे मंदसौर चले आए। इतिहास के इस तथ्य से यह पता चलता है कि श्रेणी जैसे व्यावसायिक संगठन अधिक लाभ की इच्छा से स्थानांतरण भी करते थे अर्थात् इस दृष्टि से भी उनमें गतिशीलता थी।

प्रश्न 6.
वर्ण व्यवस्था का वनवासियों से संपर्क की प्रक्रिया पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
वर्ण व जाति की विचारधारा का प्रभाव भारत में बड़े स्तर पर पड़ा। फिर भी ऐसे बहुत-से वनवासी कबीले थे जो इसके प्रभाव से वंचित थे। संस्कृत ग्रंथों में ऐसे लोगों का उल्लेख प्रायः विचित्र, असभ्य और यहाँ तक कि पशुवत् जैसे विशेषणों के साथ किया गया। मुख्यतः ये ऐसे समुदाय थे जो इसके प्रभाव से वंचित थे। वे पशुपालन और खेतीबाड़ी के व्यवसाय से नहीं जुड़े थे। इनका जीवन मुख्यतः शिकार और कंद-मूल पर निर्भर था।

उदाहरण के लिए निषाद इसी वर्ग के अंतर्गत आते थे। एकलव्य संभवतः इसी समुदाय से संबंधित था। इन कबीलों के लोगों की जीवन-शैली भी अलग थी। उनकी भाषा भिन्न थी। ग्रामीण और शहरी लोग प्रायः इन्हें शंका की दृष्टि से देखते थे।

इन लोगों का यदा-कदा ‘सभ्य समाज के लोगों से भी संपर्क होता था। महाभारत व रामायण की कुछ कथाओं से विद्वान ऐसा निष्कर्ष निकालते हैं कि कई बार वर्ण-व्यवस्था के दायरे में आने वाले लोगों तथा जंगल में रहने वाली जनजातियों के मध्य विचारों का आदान-प्रदान होता था। उदाहरण के लिए महाभारत के आदिपर्वन में हिडिंबा और भीम गाथा से यही निष्कर्ष निकाला जाता है।

प्रश्न 7.
प्राचीन भारत में स्त्री के संपत्ति संबंधी अधिकार पर चर्चा करते हुए उसकी स्थिति पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
प्राचीन भारत में रचे गए अधिकांश धर्मशास्त्र पति व पिता की संपत्ति में औरत की हिस्सेदारी को स्वीकार नहीं करते। समाज पुरुष प्रधान था। इसमें लैंगिक आधार पर भेदभाव था। पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र थे। स्वाभाविक तौर पर इससे समाज में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में गौण हो गई।

मनुस्मृति में पिता की मृत्यु के बाद पैतृक संपत्ति में सभी पुत्रों का समान अधिकार स्वीकारा गया है। लेकिन पुत्री को पैतृक संपत्ति में कोई अधिकार नहीं दिया है। यहाँ तक कि पुत्र के अभाव व कोई उत्तराधिकारी न होने की स्थिति में भी यह अधिकार पुत्री को नहीं दिया गया है। मनु ने तो ऐसी संपत्ति को धार्मिक संस्थाओं को देने की बात कही है। सामान्यतया इन शास्त्रकारों ने पति की मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति में विधवा के अधिकार को भी नहीं माना है।

केवल मात्र स्त्रीधन यानी उपहार के रूप में मिलने वाले धन पर स्त्री के अधिकार को स्वीकृति दी गई है। राजपरिवारों तथा अन्य कुलीन परिवारों में औरतों के पास सुविधाओं की कमी नहीं थी, परंतु इस पर भी पुरुष की तुलना में उनकी स्थिति गौण ही रहती थी, क्योंकि सामान्य रूप से धन अर्जन के साधनों (औज़ार, भूमि, पशु, खान, जंगल इत्यादि) पर त्रण पुरुषों का ही रहता था। विद्वानों का मानना है कि जनसाधारण में स्त्रियों की स्थिति’ (Status) कुलीन परिवारों की महिलाओं की तुलना में अच्छी थी, क्योंकि साधारण परिवारों की औरतें अपने परिवार के पुरुष सदस्यों के साथ मिलकर खेत-खलिहानों में काम करती थीं। उन पर ‘पुरुष-नियंत्रण’ अपेक्षाकृत कम था। वे अधिक स्वतंत्र थीं।

प्रश्न 8.
भारत में दानशीलता और सामाजिक प्रतिष्ठा के बीच क्या संबंध रहा है? तमिल साहित्य से कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करें।
उत्तर:
भारत में दान देने की परंपरा रही है। धनी व्यक्तियों के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करने का यह एक महत्त्वपूर्ण माध्यम रही है। समाज में कंजूस व्यक्ति का सम्मान नहीं था। उसके पास धन होने के बावजूद भी लोग उसे महत्त्व नहीं देते थे, बल्कि उनसे घृणा करते थे। दानशील व्यक्ति की प्रशंसा की जाती थी। यह काम मुख्यतः उनके चारण एवं कवि करते थे। दानशील व्यक्तियों की प्रतिष्ठा में गीत-काव्य रचे गए।

प्राचीन तमिल साहित्य में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन तमिलकम् क्षेत्र में (लगभग 2000 वर्ष पहले) अनेक सरदारियाँ (Chiefdoms) थीं। इनके सरदारों ने चारणों एवं कवियों को आश्रय दिया और उन्होंने अपने आश्रयदाताओं का खूब बखान किया।

कुछ गीत/कविताएँ इनमें से संगम साहित्य में शामिल हुईं जो प्राचीन दक्षिण भारत के सामाजिक व आर्थिक संबंधों को समझने के लिए काफी महत्त्वपूर्ण हैं। दानशीलता पर रचे गए प्राचीन चारण साहित्य से दो बातें स्पष्ट होती हैं-पहली, समाज में व्यापक विषमता उत्पन्न हो चुकी थी। कुछ लोग काफी धनी थे तो कुछ भुखमरी से ग्रस्त थे। दूसरी बात यह स्पष्ट होती है कि समृद्ध लोग निर्धन लोगों की कुछ सहायता करते थे। लोगों की कुछ भूख मिटती थी तो धनवान को जय-जयकार मिलती थी।

प्रश्न 9.
एक साहित्यिक स्रोत के तौर पर इतिहासकार महाभारत को कैसे पढ़ते हैं?
उत्तर:
इतिहासकार साहित्यिक स्रोतों का उपयोग बड़ी सावधानी से करते हैं। वे इस बात का ध्यान करते हैं कि अमुक ग्रंथ का लेखक कौन है, उसका सामाजिक दृष्टिकोण क्या है, क्योंकि इनका लेखक भी अपने पूर्वाग्रहों से प्रभावित हो सकता है। वे ग्रंथ की भाषा पर भी विचार करते हैं। इतिहासकारों को महाभारत जैसे विशाल और जटिल ग्रंथ के सामाजिक इतिहास के पुनर्निर्माण में इस्तेमाल करते हुए इन सभी बातों को ध्यान में रखना पड़ता है। दो तथ्य उल्लेखनीय हैं
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  • भाषा-महाभारत मूलतः संस्कृत में लिखा गया है, परंतु इसकी संस्कृत वेदों और प्रशस्तियों की भाँति जटिल नहीं है। यह उनकी अपेक्षा काफी सरल है।
  • विषय-वस्तु-महाभारत की विषय-वस्तु को इतिहासकार सामान्यतः दो भागों में बाँटते हैं-आख्यान तथा उपदेशात्मक। आख्यान के अंतर्गत कहानियों का संग्रह रखा गया है। जबकि उपदेशात्मक के अंतर्गत सामाजिक आचार-विचार के मानदंड आते हैं। महाभारत का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपदेशात्मक अंश भगवद्गीता है। इसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
महाभारत की ऐतिहासिकता के संदर्भ में ‘हस्तिनापुर की खोज’ पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
संस्कृत साहित्य परंपरा में महाभारत को ‘इतिहास’ (ऐसा ही हुआ) माना गया है। अतः विद्वानों ने इसकी ऐतिहासिकता के पहलुओं पर विचार किया है, यहाँ तक कि उत्खनन के माध्यम से भी साक्ष्यों की तलाश की। आओ ‘हस्तिनापुर की खोज’ पर विचार करें-

सदृश्यता के आधार पर महाभारत में वर्णित जिन स्थानों की पहचान की जाती है उनमें ‘हस्तिनापुर’ नामक आधुनिक उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित ग्राम भी है। दावा यह किया जाता है कि यह वही स्थान है जहाँ कभी कुरु राज्य की राजधानी होती थी। ऐसा मानने वालों का यह भी तर्क है कि नाम का तो संयोग संभव है लेकिन इसका कुरु राज्य क्षेत्र में पड़ना मात्र संयोग नहीं हो सकता।

‘हस्तिनापुर’ की ऐतिहासिकता की जाँच के लिए (1951-52) प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता बी.बी. लाल के नेतृत्व में उत्खनन कार्य शुरू किया गया। उन्हें यहाँ आबादी के बसावट के पाँच स्तर मिले। जिनमें दूसरा और तीसरा स्तर विचाराधीन विषय पर महत्त्वपूर्ण है। दूसरे स्तर का काल निर्धारण 12वीं से 7वीं शताब्दी ई०पू० के बीच किया गया है। यह लगभग वही अवधि है जिसमें कभी ‘सूत रचनाकारों’ ने महाभारत की मूल गाथा रची थी। इस दूसरे ‘स्तर’ पर तैयार अपनी रिपोर्ट में प्रो० बी.बी. लाल लिखते हैं, “जिस सीमित क्षेत्र का उत्खनन हुआ वहाँ से घरों की कोई निश्चित परियोजना नहीं मिलती किंतु मिट्टी की बनी दीवारें और कच्ची मिट्टी की ईंटें अवश्य मिलती हैं।

सरकंडे की छाप वाले पलस्तर की खोज इस बात की ओर संकेत करती है कि कुछ घरों की दीवारें सरकंडे की बनी थीं जिन पर मिट्टी का पलस्तर चढ़ा दिया जाता था।” तीसरे स्तर, जिसका काल छठी से तीसरी शताब्दी ई०पू० माना गया, के विषय में बी.बी. लाल निष्कर्ष निकालते हैं, “इस स्तर के घर कच्ची ईंटों तथा पक्की ईंटों से बने हुए थे। गंदे पानी की निकासी के लिए शोषक-घट (Soakage Jar) तथा ईंटों के नालों का प्रयोग किया जाता था। वलय-कूपों (Ring-Wells) का उपयोग कुओं (पीने के पानी के लिए) और मल की निकासी वाले गों, दोनों ही रूपों में किया जाता था।”
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बी.बी. लाल के इन दोनों निष्कर्षों को यदि हम ध्यान से पढ़ें तो पाते हैं कि 7वीं शताब्दी ई०पू० तक तो इस स्थान पर पक्की ईंटों का प्रयोग ही नहीं था। ऐसे में जिस भव्य नगर का वर्णन साहित्य में मिलता है, उसकी संभावना पुरातात्विक साक्ष्यों में दिखाई नहीं पड़ती। या तो यह वर्णन कवियों की कल्पना मात्र था या फिर यह मूल गाथा के साथ बाद के काल (ईसा पूर्व छठी शताब्दी के बाद) में जोड़ा गया जब इस क्षेत्र में नगरीय विकास हुआ।

प्रश्न 2.
महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण का परिचय देते हुए इसकी दो मुख्य विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
शुरू में महाभारत की गाथा मौखिक तौर पर एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में चलती रही। कालांतर में इसे ब्राह्मण विद्वानों ने लिखित रूप दिया। वर्तमान में महाभारत के संपूर्ण आदिपर्वन् की कुल 235 हस्तलिपियाँ हैं। इनमें 107 देवनागरी और 26 कन्नड़ लिपि में हैं। शेष कश्मीरी, मैथिली (नेपाल से) बांग्ला, तेलुगु व मलयालम आदि में हैं। इन हस्तलिपियों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं और कोई भी दो हस्तलिपियाँ एक जैसी नहीं हैं। इसीलिए इस ग्रंथ के एक समालोचनात्मक संस्करण की जरूरत पड़ी।

संस्कृत साहित्य में समालोचनात्मक कार्य मूलकथा के निकट पहुँचने का प्रयास होता है। महाभारत के मूल पाठ (शुद्ध रूप) को स्थापित करने का कार्य साधारण नहीं था। यह एक भारी चुनौती थी।

इस चुनौती को सन् 1919 में संस्कृत के सुप्रसिद्ध विद्वान वी.एस. सुकथांकर ने स्वीकार किया। एकत्रित ग्रंथों का वर्गीकरण किया गया और फिर संपूर्ण उपलब्ध साक्ष्यों का अध्ययन करके 13000 पृष्ठों का एक समालोचनात्मक संस्करण तैयार किया गया। इन्हें 19 खंडों में प्रकाशित किया। इसे पूरा होने में 47 वर्ष लगे। इस परियोजना से महाभारत की निम्नलिखित दो विशेषताएँ उभरकर सामने आईं

  • समानता-संस्कृत के मूल पाठों (ग्रंथों) के बहुत से अंशों में समानता थी।
  • क्षेत्रीय प्रभेद-समानता के साथ इन पांडुलिपियों में काफी अंतर भी हैं। वस्तुतः यह ग्रंथ जैसे-जैसे भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में प्रसारित हुआ तो धीरे-धीरे इसमें क्षेत्रीय लोक परंपराओं और विश्वासों का समावेश होता गया।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

HBSE 12th Class History महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
महात्मा गाँधी ने खुद को आम लोगों जैसा दिखाने के लिए क्या किया?
उत्तर:
गाँधी जी ने स्वयं को आम लोगों जैसा दिखाने के लिए अनेक बातें अपने जीवन में अपनाईं-सर्वप्रथम सामान्य जन की दशा को जानने के लिए 1915 में (अफ्रीका से आगे के बाद) सारे देश का भ्रमण किया। उन्होंने भारत में अपना सार्वजनिक फरवरी, 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में दिया। इस भाषण से स्पष्ट होता है कि वे आम जनता से जुड़ना चाहते थे। समारोह में बोलते हुए उन्होंने भारत के गरीबों, किसानों, मजदूरों की ओर ध्यान न देने पर भारतीय धनी और विशिष्ट वर्ग को लताड़ा। उन्होंने समारोह में धनी और सजे-सँवरे भद्रजनों की उपस्थिति और गरीब भारतीयों की अनुपस्थिति को लेकर चिंता प्रकट की।

गाँधी जी ने कहा कि, “हमारे लिए स्वशासन का तब तक कोई अभिप्राय नहीं है जब तक हम किसानों से उनके श्रम का लगभग संपूर्ण लाभ स्वयं या अन्य लोगों को ले लेने की अनुमति देते रहेंगे। हमारी मुक्ति केवल किसानों के माध्यम से ही हो सकती है। न तो वकील, न डॉक्टर, न जमींदार इसे सुरक्षित रख सकते हैं।” इस प्रकार गाँधी जी ने इस अवसर पर भारत के किसानों और मजदूरों को याद किया। असहयोग आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक जन-आंदोलन बना दिया था। किसानों, श्रमिकों और कारीगरों ने इसमें भाग लेना शुरू कर दिया था। गाँधी जी उनके प्रिय नेता बन गए थे। गाँधी जी के प्रति आदर व्यक्त करते हुए लोग उन्हें अपना ‘महात्मा’ कहने लगे।

गाँधी जी ने अपनी जीवन-शैली में भी बदलाव किया। गाँधी जी आम लोगों की तरह वस्त्र पहनते थे वे उन्हीं की तरह रहते थे। वे जन-सामान्य की भाषा बोलते थे। गाँधी जी दूसरे नेताओं की तरह जनसमूह से अलग खड़े नहीं होते थे, बल्कि वे उनसे गहरी सहानुभूति रखते थे और उनसे घनिष्ठ संबंध भी बनाते थे। उल्लेखनीय है कि 1921 में दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान गाँधी जी ने अपना सिर मुंडवा लिया था और गरीबों के साथ अपना तादात्म्य (Identity) स्थापित करने के लिए सूती वस्त्र पहनने शुरू कर दिए थे। इस प्रकार उनके वस्त्रों से जनता के साथ उनका नाता झलकता था।

प्रश्न 2.
किसान महात्मा गाँधी जी को किस तरह देखते थे?
उत्तर:
भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण यहाँ की जनसंख्या के अधिकांश लोग किसान थे। किसानों में असहयोग आंदोलन के बाद गाँधी जी, ‘गाँधी बाबा’, ‘गाँधी महाराजा’ अथवा सामान्य ‘महात्मा जी’ जैसे नामों से लोकप्रिय हुए। किसान उन्हें अपने उद्धारक के रूप में देखते थे। किसानों का मानना था कि महात्मा गाँधी उन्हें लगान की कठोर दरों और अंग्रेज़ अधिकारियों के जुल्मों से बचा सकते हैं। वे उनके मान-सम्मान की रक्षा कर सकते हैं और उन्हें उनकी स्वायत्तता दिला सकते हैं।

भारत की गरीब जनता विशेष तौर पर किसान गाँधी जी की सात्विक जीवन-शैली और उनके द्वारा अपनाई गई धोती तथा चरखा जैसी चीजों से अत्यधिक प्रभावित थे। गाँधी जी ने स्वयं एक व्यापारी और पेशे से वकील होने पर भी यह सादी जीवन-शैली अपनाई थी तथा नित्य चरखा कातने जैसे हाथ के काम के प्रति उनका लगाव था। उनमें गरीब श्रमिकों के प्रति गहरी सहानुभूति थी। वे उनके जीवन की दशा को बदलना चाहते थे।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि गरीब लोग भी गाँधी जी में आस्था व सहानुभूति रखते थे व दूसरे नेता गरीबों को कृपा की दृष्टि से देखते थे। गाँधी जी न केवल उनके जैसा दिखते थे, बल्कि वे गरीब किसानों, मजदूरों को अच्छी प्रकार से समझना चाहते थे तथा स्वयं को उनके जीवन के साथ जोड़कर उनका उत्थान करना चाहते थे।

वस्तुतः किसानों में गाँधी जी की जनछवियों में यह मान्यता बन रही थी कि राजा ने उन्हें किसानों के कष्टों को दूर करने तथा उनकी समस्याओं का समाधान करने के लिए भेजा है और उनके पास इतनी शक्ति थी कि वे सभी अधिकारियों के निर्देशों को अस्वीकृत कर सकते थे।

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प्रश्न 3.
नमक कानून स्वतंत्रता संघर्ष का महत्त्वपूर्ण मुद्दा क्यों बन गया था?
उत्तर:
नमक हमारे राष्ट्र की संपदा थी जिस पर विदेशी सरकार ने शोषण करने के लिए एकाधिकार जमा लिया था। यह कानून द्वारा स्थापित एकाधिकार भारतीय जनता के लिए एक अभिशाप के समान था। जन-सामान्य तथा प्रत्येक भारतीय से जुड़े हुए इस कानून को गाँधी जी ने अंग्रेज़ शासन के विरोध प्रतीक के रूप में चुना। शीघ्र ही यह मुद्दा, नमक कानून, स्वतंत्रता संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया। . नमक कानून के चुनाव के निम्नलिखित कारण थे

1. यह कानून भारत में सर्वाधिक घृणित कानून था। इसके अनुसार हमारे देश में नमक के उत्पादन और बेचने पर राज्य का एकाधिकार था।

2. भारतीय विशेषतः जन-साधारण इस कानून को घृणा की नजर से देखते थे। प्रत्येक घर में नमक भोजन में अनिवार्य रूप से प्रयोग किया जाता था, परंतु सरकार ने लोगों के घरेलू प्रयोग के लिए भी नमक बनाने पर प्रतिबंध लगा रखा था। इस कारण सभी को ऊँचे मूल्यों पर दुकानों से नमक खरीदना पड़ता था।

3. जहाँ एक ओर सरकार जनता को नमक उत्पादन से रोकती, वहीं नमक अनेक स्थानों पर बिना श्रम के प्राकृतिक रूप से तैयार होता था। उसे सरकार नष्ट कर देती थी। यह एक प्रकार से राष्ट्र की संपत्ति को नष्ट करना था। इस बात से गाँवों के लोग भी परिचित थे।

4. नमक उत्पादन पर राज्य का एकाधिकार लोगों को बहुमूल्य सुलभ ग्राम उद्योग से वंचित करना था।

प्रश्न 4.
राष्ट्रीय आंदोलन के अध्ययन के लिए अखबार महत्त्वपूर्ण स्रोत क्यों हैं?
उत्तर:
19वीं सदी के अंत तथा 20वीं सदी के प्रारंभ तक भारत में अनेक भाषाओं में अखबार प्रकाशित होने लगे थे। इनमें से बहुत से समाचार-पत्र अब भी पुस्तकालयों व अभिलेखागारों में सुरक्षित हैं। इन अखबारों में राष्ट्रीय घटनाओं, राष्ट्रीय नेताओं के भाषणों, सरकार की नीतियों तथा जन-सामान्य की दशा पर टिप्पणियाँ और लेख प्रकाशित होते थे। इस रूप में ये अखबार राष्ट्रीय आंदोलन को समझने तथा इसका अध्ययन करने के लिए इतिहासकारों के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इस संदर्भ में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं

1. इनमें राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी सभी घटनाओं का विवरण मिल जाता है।

2. इन समाचार-पत्रों में राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं (राष्ट्रीय, प्रांतीय, स्थानीय स्तर के) के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

3. इन अखबारों से राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति ब्रिटिश सरकार के रुख का भी पता लगता है।

4. ये अखबार महात्मा गाँधी की गतिविधियों पर नजर रखते थे तथा उनसे संबंधित समाचारों को विशेषतः जन-आंदोलनों से जुड़े समाचारों को प्रमुखता से छापते थे। इनसे गाँधी जी व उनके जन-आंदोलन के स्वरूप का पता चलता है।

5. जनता की राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी के अध्ययन के लिए भी यह महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। लेकिन इनके अध्ययन में भी सावधानी की जरूरत होती है। इसके लिए विशेषतः हमें दो बातों का ध्यान रखना चाहिए

समाचारों का संकलन एवं रिपोर्टिंग किसी अखबार के लिए, उसके संवाददाता करते हैं। इसलिए संवाददाता की भाषा, उसकी समझ व विचार से यह निर्धारित हुआ है कि उसे गाँधी जी की कौन-सी बात सबसे अहम् लगी, जिसे उसने अखबार में छपने के लिए भेजा होगा।

संकलित समाचारों को संपादक फिर काट-छाँट करके (यानी संपादित करके) प्रकाशित करता है। यहाँ संपादक की समझ और दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण था। उदाहरण के लिए गाँधी जी के विचारों से सहमति और मतभेद रखने वाले संपादकों ने गाँधी जी के भाषणों/वक्तव्यों को अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत किया। किसी ने निंदा करते हुए छापा तो किसी ने प्रशंसा करते हुए सरकार समर्थक व सरकार विरोधी समाचार-पत्रों की रिपोर्टिंग एक-जैसी नहीं थी। लंदन से निकलने वाले समाचार-पत्रों के विवरण भारतीय राष्ट्रवादी समाचार-पत्रों के छपने वाले विवरणों से अलग हैं।

प्रश्न 5.
चरखे को राष्ट्रवाद का प्रतीक क्यों चुना गया?
उत्तर:
चरखा जन-सामान्य से संबंधित था और स्वदेशी व आर्थिक प्रगति का प्रतीक था। अतः गाँधी जी ने इसे राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में चुना। गाँधी जी स्वयं प्रतिदिन अपना कुछ समय चरखा चलाने में व्यतीत करते थे। वे अन्य सहयोगियों को भी चरखा चलाने के लिए प्रोत्साहित करते थे। वे आधुनिक युग के आलोचक थे, जिसमें मशीनों ने मानव को गुलाम बनाकर श्रम को हटा दिया था। गाँधी जी का मानना था कि चरखा गरीबों को पूरक आमदनी प्रदान कर सकता था तथा उन्हें स्वावलंबी बना सकता था। वे मशीनों के प्रति सनक के आलोचक थे।
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वस्तुतः चरखा स्वदेशी तथा राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया। पारंपरिक भारतीय समाज में सूत कातने के काम को अच्छा नहीं समझा जाता था। गाँधी जी द्वारा सूत कातने के काम ने मानसिक श्रम एवं शारीरिक श्रम की खाई को कम करने में भी सहायता की। * निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
असहयोग आंदोलन एक तरह का प्रतिरोध कैसे था?
उत्तर:
असहयोग आंदोलन एक तरह का प्रतिरोध था यह बात दो तरह से स्पष्ट होती है। प्रथम, अगर हम इसके कारणों पर दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट होता है कि यह औपनिवेशिक सरकार की ज्यादतियों के खिलाफ संघर्ष था। दूसरा, आंदोलन के स्वरूप तथा जन-सामान्य की भागीदारी से भी यह स्पष्ट है कि आंदोलन लोगों के प्रतिरोध को भी अभिव्यक्त कर रहा था। आंदोलन के कारणों तथा जनभागीदारी का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

A. कारण :
1. प्रथम विश्वयुद्ध के प्रभाव (Effects of the First World War)-प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीयों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था। युद्धकाल में भारत का कर्ज 411 करोड़ से 781 करोड़ हो गया। अनाज महँगा हो गया। वस्तुओं के दाम बढ़ गए। अनाज व कपड़े में कमी आ गई। युद्ध के बाद सरकार ने सैनिकों व मजदूरों की छंटनी कर दी। साथ ही अकाल-प्लेग से लगभग 120-130 लाख लोग मारे गए। इन सब परिस्थितियों से जन-असंतोष पनपा।

2. रॉलेट एक्ट (Rowlatt Act)-विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों ने प्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिए थे और किसी भी व्यक्ति को शक के आधार पर जेल में डाला जा सकता था। युद्ध के बाद भी सरकार ने रॉलेट एक्ट पास किया। भारतीयों ने इसका विरोध किया। इसे काला कानून (Black Act) करार दिया गया। साधारण लोगों के लिए इस एक्ट का अर्थ था, “कोई वकील नहीं, कोई दलील नहीं, कोई अपील नहीं।” गाँधी जी ने देशभर में एक्ट के खिलाफ अभियान चलाने का निश्चय किया। एक्ट के विरोध में पहले 30 मार्च तथा बाद में 6 अप्रैल, 1919 को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया।

3. जलियाँवाला बाग हत्याकांड (Jallianwala Bagh Massacre)-गाँधी जी के सत्याग्रह शुरू करने पर पंजाब से भारी समर्थन मिला। 30 मार्च व 6 अप्रैल को अमृतसर में हड़ताल हुई। सरकार ने दमन का सहारा लिया। स्थानीय नेताओं-डॉ० सत्यपाल और डॉ० किचलू को गिरफ्तार कर लिया। लोग उत्तेजित हो गए। 13 अप्रैल को जलियाँवाला बाग में 20 हज़ार लोग एकत्रित हुए। इस पर जनरल डायर ने बिना चेतावनी के (रास्ता रोककर) गोली चलाने के आदेश दे दिए। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 379 लोग मारे गए। जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने सारे देश को स्तब्ध कर दिया।

4. खिलाफत आंदोलन–प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की का खलीफा हार गया तथा 1920 में उसके साथ अपमानजनक संधि की गई। भारतीय मुसलमानों में इससे असंतोष था। उन्होंने मुहम्मद अली और शौकत अली के नेतृत्व में अंग्रेज सरकार विरोधी और खलीफा के समर्थन में आंदोलन चलाया। गाँधी जी ने खिलाफ़त मुद्दे पर अपना सहयोग दिया। गाँधी जी हिंदू-मुस्लिम एकता को स्वराज की प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते थे।

B. आंदोलन की प्रगति (Progress of Mass-Movement)-असहयोग आंदोलन ने शीघ्र ही जन-आंदोलन का रूप धारण कर लिया। आंदोलन शुरू करते हुए गाँधी जी ने स्वयं ‘केसरी-ए-हिंद’ की उपाधि तथा अन्य पदों का परित्याग कर दिया। टैगोर ने ‘नाइट हुड’ की उपाधि त्याग दी। अनेक अन्य लोगों ने भी अपनी उपाधियाँ और पदवियाँ त्याग दी। विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने अदालतों में जाना छोड़कर आंदोलन में भाग लिया।

सरकारी कोर्ट के स्थान पर राष्ट्रीय पंचायती अदालतों की स्थापना हुई। राष्ट्रीय शिक्षण संस्थान; जैसे काशी विद्यापीठ, तिलक विद्यापीठ, अलीगढ़ विद्यापीठ, जामिया मिलिया आदि स्थापित हुईं। कई कस्बों और नगरों में मजदूरों ने हड़तालें कीं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सन् 1921 में 396 हड़तालें हुईं जिनमें 6 लाख मज़दूर शामिल हुए तथा 70 लाख कार्य दिवसों (Working Days) का नुकसान हुआ। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार काफी उत्साहवर्धक रहा। हिंदू-मुस्लिम एकता का व्यापक प्रदर्शन हुआ। चुनावों का बहिष्कार हुआ।

देहातों में आंदोलन फैलने लगा। आंध्र प्रदेश में जनजातियों ने वन कानून की अवहेलना कर दी। राजस्थान में किसानों और जनजातियों ने आंदोलन किया। अवध में किसानों ने कर नहीं चुकाया। आसाम-बंगाल रेलवे के कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। पंजाब में गुरुद्वारा आंदोलन शुरू हुआ। यद्यपि नवंबर, 1921 में बंबई में प्रिंस ऑफ वेल्स के बहिष्कार के समय हिंसा हुई थी तथापि दिसंबर, 1921 में (आंदोलन में उत्साह को देखते हुए) गाँधी जी को अधिकार दिया गया कि वे सविनय अवज्ञा आंदोलन छेडे, परंतु फरवरी, 1922 में चौरी-चौरा घटना के बाद आंदोलन स्थगित कर दिया गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि आंदोलन का प्रमुख लक्ष्य औपनिवेशिक शासन का प्रतिरोध करना था। इस प्रतिरोध में जन-सामान्य ने पहली बार व्यापक पैमाने पर भाग लिया।

प्रश्न 7.
गोलमेज सम्मेलन में हुई वार्ता से कोई नतीजा क्यों नहीं निकल पाया?
उत्तर:
1930 से 1932 की अवधि में ब्रिटिश सरकार ने भारत की समस्या पर बातचीत करने तथा नया एक्ट पास करने के लिए लंदन में तीन गोलमेज सम्मेलन बुलाए, परंतु इन सम्मेलनों में किसी मुद्दे पर आम राय नहीं बन पाई। फलतः इन सम्मेलनों में कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय न हो सका। तीनों सम्मेलनों की कार्रवाई का संक्षिप्त ब्यौरा अग्रलिखित प्रकार से है

1. प्रथम गोलमेज सम्मेलन इसका आयोजन 12 नवंबर, 1930 को हुआ। इसका उद्देश्य साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर विचार-विमर्श करना था। इस समय काँग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया हुआ था। अतः उसने इसका बॉयकाट किया। इसके प्रमुख नेताओं को सरकार ने पहले ही जेलों में डाला हुआ था। सम्मेलन में आए प्रतिनिधियों में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर सहमति नहीं बन पाई। फलतः यह सम्मेलन असफल रहा।

2. दूसरा गोलमेज सम्मेलन–प्रथम गोलमेज सम्मेलन की असफलता के बाद सरकार ने काँग्रेस को अगले सम्मेलन में शामिल करने का प्रयास किया। फलतः गाँधी-इर्विन समझौता हुआ। काँग्रेस ने सम्मेलन में भाग लेने का फैसला किया।
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काँग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में गाँधी जी दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए सितंबर, 1931 में लंदन पहुँचे। मुहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि के तौर पर सम्मेलन में शामिल हुए। सम्मेलन में गाँधी जी ने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस को भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी बताया, परंतु गाँधी जी के इस दावे को तीनों तरफ से चुनौती दी गई। मुस्लिम लीग ने दावा किया कि वह भारत में मुस्लिम हितों के लिए काम करने वाली एकमात्र पार्टी है।

भारतीय राज्यों (Indian States) के शासकों का कहना था कि उनके क्षेत्रों पर काँग्रेस का कोई अधिकार नहीं है और न ही वह इन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती है। महान् विद्वान और विधिवेत्ता डॉ० बी०आर० अंबेडकर ने भी गाँधी जी के दावे को चुनौती देते हुए जोर देकर कहा कि काँग्रेस निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। डॉ० अम्बेडकर ने हरिजन वर्ग के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व की माँग रखी। गाँधी जी ने इस माँग का विरोध किया। सांप्रदायिक समस्या को लेकर सम्मेलन में एक राय नहीं बन पाई। इस कारण दूसरा गोलमेज सम्मेलन बिना किसी नतीजे पर पहुँचे ही समाप्त हो गया।

3. 17 नवंबर, 1932 को तीसरा सम्मेलन आयोजित किया गया। इसका इंग्लैंड के ही मज़दूर दल ने बहिष्कार किया। भारत में काँग्रेस ने पुनः आंदोलन छेड़ दिया था। अतः काँग्रेस ने भी इसका बहिष्कार किया। इसमें केवल 46 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इनमें से अधिकतर ब्रिटिश सरकार की हाँ में हाँ मिलाने वाले थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि इन सम्मेलनों की वार्ताओं से कोई महत्त्वपूर्ण नतीजा नहीं निकला। हाँ, ब्रिटिश सरकार ने स्वयं ही कुछ निर्णय लिए। सम्मेलनों पर श्वेत-पत्र छापा तथा 1935 में भारत सरकार अधिनियम पास किया।

प्रश्न 8.
महात्मा गाँधी ने राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप को किस तरह बदल डाला?
उत्तर:
भारतीय राजनीति में प्रवेश से पूर्व गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में जातीय भेदभाव के विरुद्ध लंबी लड़ाई लड़ी थी। दक्षिण अफ्रीका के आंदोलनों में ही उन्होंने अपने सत्याग्रह के अनूठे राजनीतिक शस्त्र का सफल प्रयोग किया। दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष में यह भी जाना कि जन-सामान्य में संघर्ष तथा बलिदान की अदम्य क्षमता होती है। 1915 में भारत आने पर उन्होंने सारे भारत का दौरा किया।

1917-18 में उन्होंने स्थानीय आंदोलनों-चंपारन, अहमदाबाद व खेड़ा में सत्याग्रह का सफल परीक्षण किया। 1920 से काँग्रेस का नेतृत्व गाँधी जी के हाथों में आ गया। अपने नेतृत्व में गाँधी जी ने अपनी नीतियों, विचारों, कार्यक्रमों और जन-आंदोलनों द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप को बहुत हद तक बदल दिया। अब इसे वास्तव में जन-आंदोलन का स्वरूप प्राप्त हुआ।

A. गाँधी जी का तरीका और विचार

1. सत्याग्रह (Satyagraha)-गाँधी जी के राजनीतिक विचारों और उनके दर्शन का केंद्र बिंदु सत्याग्रह है। सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है-सत्य पर दृढ़तापूर्वक अड़े रहना। यह विरोध करने का अहिंसात्मक मार्ग था। जन-आंदोलन के लिए इसके कई रूप हो सकते थे; जैसे हड़ताल, प्रार्थना सभा, उपवास, धरना, असहयोग, कानून की अवज्ञा (नागरिक अवज्ञा), पद-यात्रा आदि।

2. अहिंसा (Ahimsa)-सत्याग्रह दो प्रमुख सिद्धांतों पर टिका था- सत्य और अहिंसा। इसलिए गाँधी जी ने संघर्ष में सत्य के साथ-साथ अहिंसा और अहिंसात्मक तरीकों पर बल दिया। उनका दृढ़ विश्वास था कि सशस्त्र हमले का भी सत्याग्रह द्वारा विरोध किया जा सकता है।

3. लोक शक्ति में विश्वास (Faith in the Masses)-गाँधी जी की जन-शक्ति में अटूट श्रद्धा थी। उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन जन-आंदोलन बन गया। वस्तुतः दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष ने गाँधी जी को जन-शक्ति में विश्वास करना सिखाया। उन्हें वहाँ पर गरीब मजदूरों का नेतृत्व करने का मौका मिला। वे उन लोगों की बलिदान करने की क्षमता व साहस को देखकर अचंभित हुए। यह अति महत्त्वपूर्ण बात थी कि उन्होंने गरीब और अनपढ़ लोगों को सत्याग्रह और अहिंसा का पाठ पढ़ाया और अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन चलाया।

4. साधन और साध्य की श्रेष्ठता में विश्वास (Faith in the Purity of Means and Objects)-गाँधी जी साधन और साध्य की श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे। देश में स्वराज की स्थापना ही उनका लक्ष्य था और इस पवित्र लक्ष्य की प्राप्ति को वह सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर प्राप्त करना चाहते थे।

B. गाँधी जी और काँग्रेस का विस्तार (Gandhiji and Expansion of the Congress)-गाँधी जी ने राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक बनाने के लिए भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस को सच्चे मायनों में जन आधार वाला संगठन बनाया। उन्होंने इसके लिए सावधानीपूर्वक काँग्रेस का पुनर्गठन किया। भारत के विभिन्न भागों में काँग्रेस की नई शाखाएँ खोली गईं। ग्राम स्तर की काँग्रेस कमेटियाँ भी बनाई गईं। राष्ट्रवादी संदेश को फैलाने के लिए मातृभाषा का प्रयोग करना तय किया गया। इसके साथ ही काँग्रेस की प्रांतीय समितियों का भाषायी क्षेत्रों के आधार पर पुनर्गठन किया गया। काँग्रेस का दिन-प्रतिदिन का कार्य देखने के लिए काँग्रेस कार्य समिति (CWC) का गठन किया गया।

B. रचनात्मक कार्य (Constructive Work)-जन-सामान्य को राष्ट्रीय आंदोलन में लाने में उनके रचनात्मक कार्य की अहम् भूमिका है। रचनात्मक कार्यों को मुख्यतः खादी व चरखा कातना, ग्रामोद्योग, राष्ट्रीय शिक्षा, हिंदू-मुस्लिम एकता, हरिजन कल्याण, महिला उत्थान जैसे कार्यक्रमों के रूप में संगठित किया। फरवरी, 1924 में जेल से रिहा होने पर गाँधी जी ने अपना सारा ध्यान रचनात्मक कार्यों पर लगाया। उन्होंने खादी को बढ़ावा देने तथा छुआछूत को समाप्त करने पर ध्यान दिया। वे भारतीयों को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। वस्तुतः रचनात्मक कार्यक्रम उनकी व्यापक रणनीति का हिस्सा थे। सक्रिय आंदोलन के अभाव में कार्यकर्ताओं में उत्साह बनाए रखने तथा सत्याग्रह में समर्पण के भाव पैदा करने में ये कार्यक्रम अति महत्त्व के थे। इससे भविष्य के आंदोलन को बड़ी संख्या में सत्याग्रही मिले थे।

C. तीन बड़े जन-आंदोलन-गाँधी जी ने 1920 से 1945 के मध्य तीन बड़े आंदोलन अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ चलाए। इन आंदोलनों में भारतीय जनता के सभी वर्गों ने भाग लिया। इन जन-आंदोलनों ने ही राष्ट्रीय आंदोलन को सही मायने में राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। इन आंदोलनों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. असहयोग आंदोलन-अगस्त, 1920 में आंदोलन शुरू करते हुए गाँधी जी ने स्वयं ‘केसरी-ए हिंद’ की उपाधि तथा अन्य पदों का परित्याग कर दिया। विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने अदालतों में जाना छोड़कर आंदोलन में भाग लिया। इनमें प्रमुख थे सी०आर०दास, मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, पटेल राजा जी, राजेन्द्र प्रसाद, आसफ अली आदि।

सरकारी कोर्ट के स्थान पर राष्ट्रीय पंचायती अदालतों की स्थापना हुई। राष्ट्रीय शिक्षण संस्थान जैसे काशी विद्यापीठ, तिलक विद्यापीठ, अलीगढ़ विद्यापीठ, जामिया मिलिया आदि स्थापित हुए। कई कस्बों और नगरों में मजदूरों ने हड़तालें कीं। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार काफी उत्साहवर्धक रहा। हिंदू-मुस्लिम एकता का व्यापक प्रदर्शन हुआ। चुनावों का बहिष्कार हुआ। देहातों में आंदोलन फैलने लगा। आंध्र प्रदेश में जनजातियों ने वन कानून की अवहेलना कर दी।

राजस्थान में किसानों और जनजातियों ने आंदोलन किया। अवध में किसानों ने कर नहीं चुकाया। आसाम-बंगाल रेलवे के कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। पंजाब में गुरुद्वारा आंदोलन चला। नवंबर, 1921 में बंबई में प्रिंस ऑफ वेल्स का बहिष्कार हुआ, परंतु 1922 में चौरी-चौरा की घटना के बाद आंदोलन स्थगित कर दिया गया। इस आंदोलन ने 1857 के बाद पहली बार अंग्रेज़ी राज की नींव को हिलाया।

2. सविनय अवज्ञा आंदोलन-12 मार्च, 1930 को आंदोलन की शुरूआत गाँधी जी ने दांडी मार्च से की। उनके द्वारा नमक कानून तोड़ने के साथ ही यह आंदोलन सारे देश में फैल गया। राजगोपालाचारी ने त्रिचिनापल्ली से तंजौर तक यात्रा करके नमक सत्याग्रह किया। सरोजिनी नायडू ने 2000 सत्याग्रहियों के साथ धरासान में आंदोलन किया। मालाबार व सिलहट में भी ऐसे आंदोलन हुए। उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खान ने अपने अनुयायी खुदाई खिदमतगार (Servant of God) के साथ आंदोलन की अगुवाई की। पेशावर में सत्याग्रहियों पर गढ़वाल सैनिकों ने गोली चलाने से मना कर दिया।

मध्य प्रांत, कर्नाटक व महाराष्ट्र में लोगों ने ‘जंगल कानून’ का उल्लंघन किया। उत्तर प्रदेश में किसानों ने लगान देने से मना किया। शोलापुर में मजदूरों ने जोरदार हड़ताल की। वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार किया। विद्यार्थियों ने बड़ी संख्या में सरकारी शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार किया। बड़े पैमाने पर विदेशी वस्त्रों के खिलाफ धरना-प्रदर्शन आयोजित हुए। महिलाओं ने आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया।

सरकारी दमन इस आंदोलन के जवाब में सरकार ने दमन चक्र चलाया। नमक सत्याग्रह के सिलसिले में लगभग 60,000 लोगों को गिरफ्तार किया गया। गाँधी जी को भी हिरासत में ले लिया गया। 1930 ई० तक लगभग 90 हज़ार लोग जेलों में थे। काँग्रेस को गैर-कानूनी संगठन घोषित कर दिया गया। अखबारों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। पुलिस द्वारा निहत्थे सत्याग्रहियों और औरतों पर लाठियाँ बरसाना, गोली चलाना तथा प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार करना आम बात थी।

1931 में गाँधी-इर्विन समझौते के बाद आंदोलन स्थगित किया गया तथा गाँधी जी ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया परंतु इसका कोई नतीजा नहीं निकला। अतः आंदोलन पुनः शुरू किया गया। आंदोलन 1934 में स्थगित कर दिया गया।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 13 महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे

3. भारत छोड़ो आंदोलन-दूसरे विश्वयुद्ध के मुद्दे पर सरकार व काँग्रेस में गतिरोध पैदा हो गया था। अंग्रेज़ सरकार युद्ध के बाद भी भारत को स्वतंत्रता नहीं देना चाहती थी। अंततः 8 अगस्त, 1942 को गाँधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया। उन्होंने ‘करो या मरो’ का नारा दिया। सरकार ने गाँधी जी व अन्य बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। 9 अगस्त से 13 अगस्त तक सारे देश में प्रमुख नगरों; जैसे बंबई, अहमदाबाद, दिल्ली, पुणे, इलाहाबाद, लखनऊ, वाराणसी, पटना आदि पर व्यापक उपद्रव हुए, हड़तालें हुईं एवं प्रदर्शन हुए। सरकारी प्रतीकों पर हमले हुए।

संचार साधनों, सेना और पुलिस के खिलाफ तोड़-फोड़ और विध्वंस किए गए। छात्रों ने शहरों से आकर कृषक विद्रोहों को नेतृत्व प्रदान किया। इस दौर में अनेक स्थानों पर अंग्रेजी राज समाप्त हो गया तथा उन स्थानों पर समानांतर राष्ट्रीय सरकारों की स्थापना हुई। इनमें तमलुक (मिदनापुर), तलचर (उड़ीसा), सतारा (महाराष्ट्र), बलिया (पूर्वी संयुक्त प्रांत) की राष्ट्रीय सरकारें प्रमुख थीं। इसके बाद भूमिगत आंदोलन चला। इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे–जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अचुत्य प्रवर्धन, अरुणा आसफ अली आदि। आंदोलन आतंकवादी गतिविधियों और छापामार संघर्षों से चलाया गया।

सरकारी दमन-आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार ने क्रूरता और जंगलीपन की सभी सीमाओं को तोड़ दिया। निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलाई गईं। सेना ने हवाई जहाजों से गोलियाँ बरसाईं। मशीनगनों का प्रयोग किया गया। अनेक गाँवों को जलाकर राख कर दिया गया।

निष्कर्ष-स्पष्ट है कि गाँधी जी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन विश्व का सबसे बड़ा आंदोलन बन गया। उन्होंने अहिंसात्मक तरीके से आंदोलन चलाया जो विश्व में अपने प्रकार का अनूठा आंदोलन था। उन्होंने अपने विचारों, कार्यक्रमों व आंदोलनों से राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप को नई दिशा प्रदान की।

प्रश्न 9.
निजी पत्रों और आत्मकथाओं से किसी व्यक्ति के बारे में पता चलता है? ये स्रोत सरकारी ब्यौरों से किस तरह भिन्न होते हैं?
उत्तर:
1. निजी पत्र (Private Letterts)-निजी पत्र में व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार तथा दैनिक डायरी इत्यादि से महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इसमें प्रायः वे बातें भी मिल जाती हैं जिन्हें सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त नहीं किया गया होता। निजी पत्रों में बहुत-सी अन्य बातों के अतिरिक्त लिखने वाले की पीड़ा, आक्रोश, बेचैनी और असंतोष, आशा और हताशा इत्यादि की झलक भी मिल जाती है। राष्ट्रीय आंदोलन के संदर्भ में निजी पत्राचार में ऐसे कितने ही उदाहरण मिल जाएँगे। उदाहरण के लिए 1936 के वर्ष के कुछ पत्रों को ले सकते हैं जो राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू और गाँधी जी द्वारा लिखे गए।

इन पत्रों से स्पष्ट होता है कि काँग्रेस में रूढ़िवादियों और समाजवादियों के बीच एक खाई पैदा हो गई थी। नेहरू जी 1928 में यूरोप से लौटने के बाद से ही समाजवादी विचारों से प्रभावित थे। 1936 में काँग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद वे किसान-मजदूरों के समर्थन में तथा विश्व में पैदा हो रहे फासीवाद के खिलाफ जमकर बोले। नेहरू जी का यह व्यवहार रूढ़िवादियों के लिए असहनीय हो गया।

यहाँ तक कि राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल सहित काँग्रेस वर्किंग कमेटी के सात सदस्यों ने त्याग-पत्र की धमकी तक दे डाली थी। इसके बाद सरदार पटेल और नेहरू जी दोनों वर्धा में गाँधी जी से मिले। गाँधी जी ने अंततः बीच-बचाव करते हुए राष्ट्रीय आंदोलन को पहले की तरह एक बार फिर बिखरने से बचा लिया।

निजी लेखन की सीमाएँ (Limits of Private Writing) –निजी लेखन की भी अपनी कुछ सीमाएँ होती हैं। यद्यपि यह व्यक्तिगत लेखन होता है लेकिन कई बार इसमें भी निजी और सार्वजनिक की सीमा खत्म हो जाती है। निजी पत्र या डायरी लिखते समय भी लोगों को यह अहसास रहता है कि संभवतः यह भी प्रकाशित हो सकते हैं। इसी अहसास से बहुत बार इन पत्रों की भाषा और विचारों की सीमाएँ तय होती हैं।

उल्लेखनीय है कि गाँधी जी के पास जो पत्र आते थे उन्हें वह अपने हरिजन समाचार-पत्र में प्रकाशित करते रहते थे। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि नेहरू जी ने भी अपने पुराने पत्रों को पुस्तक के रूप में सार्वजनिक किया। अतः निजी लेखन का भी अध्ययन सावधानीपूर्वक करना चाहिए। उनके महत्त्व और सीमाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

2. आत्मकथाएँ (Autobiographies)-एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत है आत्मकथाएँ जिनमें मानवीय गतिविधियों का विविध विवरण मिलता है। वस्तुतः यह व्यक्ति के संपूर्ण जीवनकाल, जन्मस्थान, परिवार की पृष्ठभूमि, शिक्षा, वैचारिक प्रभाव, जीवन में कठिनाइयों का उतार-चढ़ाव, प्रमुख घटनाओं आदि से जुड़ी होती हैं। आत्मकथाओं में व्यक्ति की रुचियों और प्राथमिकताओं का भी पता लगता है। इससे व्यक्ति के बौद्धिक स्तर तथा जीवन में सत्यनिष्ठ होने का भी पता लगता है। गाँधी जी ने अपनी आत्मकथा का नाम ही ‘सत्य के साथ मेरे अनुभव’ रखा।
लेकिन आत्मकथा के लेखन को भी आँख मूंद कर स्वीकार नहीं किया जा सकता। विशेषतः इन्हें पढ़ते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए

  1. आत्मकथाएँ प्रायः स्मृति के आधार पर लिखी जाती हैं। अतः इनसे पता चलता है कि लेखक को क्या याद रहा था या फिर उसने क्या याद रखा।
  2. आत्मकथा में प्रायः लेखक वह ही लिखता है जिससे वह स्वयं को दूसरों की नज़रों में दिखाना चाहता है।
  3. आत्मकथा वस्तुतः एक तरह से अपनी छवि गढ़ने (पिक्चर बनाने) के समान होती है। इसमें अकसर लोग अपनी कमियों को इच्छा या अनिच्छा से छुपाने का प्रयास करते हैं।
  4. आत्मकथा पढ़ते समय हमें उन बातों या चुप्पियों को ढूँढना चाहिए जिन्हें लेखक ने इच्छा या अनिच्छा से अभिव्यक्त नहीं किया होता।

3. सरकारी ब्यौरे से भिन्नता-निजी पत्र और आत्मकथाएँ इतिहास के स्रोत के रूप में सरकारी ब्यौरों से पूरी तरह से भिन्न हैं। सरकार राष्ट्रीय आंदोलन और इसके नेताओं पर कड़ी नजर रखती थी। पुलिस और सी०आई०डी० के द्वारा इन पर पाक्षिक रिपोर्ट तैयार की जाती थी।

यह ब्यौरा गुप्त रखा जाता था। इन रिपोर्टों को तैयार करने वाले सरकार और स्वयं अपने पूर्वाग्रहों, नीतियों दृष्टिकोण आदि से प्रभावित होते थे। इसके विपरीत निजी पत्रों में दो व्यक्तियों के मध्य आपसी विचारों का आदान-प्रदान और निजी स्तर पर जुड़ी बातों का विवरण होता था। स्पष्ट है कि इन दोनों प्रकार के स्रोतों के विवरण की विशेषता तथा प्रकृति भिन्न होती है।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
दांडी मार्च के मार्ग का पता लगाइए। गुजरात के नक्शे पर इस यात्रा के मार्ग को चिह्नित कीजिए और उस पर पड़ने वाले मुख्य शहरों व गाँवों को चिह्नित कीजिए।
उत्तर:
संकेत-दांडी मार्च; साबरमती आश्रम अहमदाबाद से शुरू हुआ तथा बड़ोदरा, सूरत आदि से होता हुआ समुद्र तट पर स्थित दांडी पहुँचा।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
दो राष्ट्रवादी नेताओं की आत्मकथाएँ पढ़िए। देखिए कि उन दोनों में लेखकों ने अपने जीवन और समय को किस तरह अलग-अलग प्रस्तुत किया है और राष्ट्रीय आंदोलन की किस प्रकार व्याख्या की है। देखिए कि उनके विचारों में क्या भिन्नता है। अपने अध्ययन के आधार पर एक रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
संकेत-अपने प्राध्यापक से गाँधी जी व नेहरू जी की आत्मकथा के संबंध में जानकारी प्राप्त कर स्वयं रिपोर्ट लिखें।

प्रश्न 12.
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान घटी कोई एक घटना चुनिए। उसके विषय में तत्कालीन नेताओं द्वारा लिखे गए पत्रों और भाषणों को खोज कर पढ़िए। उनमें से कुछ अब प्रकाशित हो चुके हैं। आप जिन नेताओं को चुनते हैं उनमें से कुछ आपके इलाके के भी हो सकते हैं। उच्च स्तर पर राष्ट्रीय नेतृत्व की गतिविधियों को स्थानीय नेता किस तरह देखते थे इसके बारे में जानने की कोशिश कीजिए। अपने अध्ययन के आधार पर आंदोलन के बारे में लिखिए।
उत्तर:
सविनय अवज्ञा आंदोलन की दांडी मार्च से जुड़ी घटना पर सरकार की गोपनीय रिपोर्ट से स्थानीय नेताओं के विचारों को जाना जा सकता है। कुछ रिपोर्टों के अंश प्रस्तुत हैं मार्च, 1930 के पहले पखवाड़े की रिपोर्ट के कुछ अंश पढ़ें-गुजरात-इस प्रांत की राजनीतिक परिस्थितियों पर किस हद तक और क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अभी अंदाजा लगाना मुश्किल है। रबी की फसल अच्छी हुई है इसलिए फिलहाल किसान फसलों की कटाई में व्यस्त हैं। विद्याथी आने वाली परीक्षाओं की तैयारी में जुटे हैं।

मद्रास-गाँधी जी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने से बाकी मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं। आम लोग उनकी यात्रा को नाटकीय और उनके कार्यक्रम को अव्यावहारिक मानते हैं क्योंकि हिंदू जनता उन्हें अगाध श्रद्धा की दृष्टि से देखती है, इसलिए गिरफ्तारी की संभावना, जिसके बारे में वे खुद बहुत उत्सुक हैं और उसके राजनीतिक प्रभावों के बारे में बहुत-सी गलतफहमियाँ हैं।

बंगाल-गाँधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरूआत विगत पखवाड़े की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना रही। श्री जे०एम० सेनगुप्ता ने अखिल बंगाल सविनय अवज्ञा परिषद् का गठन किया है। बंगाल प्रांतीय काँग्रेस कमेटी ने अखिल बंगाल अवज्ञा परिषद् बनाई है। इन परिषदों के गठन के अलावा बंगाल में सविनय अवज्ञा के प्रश्न पर और कोई सक्रिय कदम अभी नहीं उठाया गया है। जिलों से मिली रिपोर्टों से पता चलता है कि जो बैठकें आयोजित की गईं उनमें लोगों ने कोई विशेष उत्साह नहीं दिखाया और आम जनता पर कोई गहरा असर नहीं छोड़ा है। गौरतलब बात यह है कि इन बैठकों में महिलाओं की संख्या बढ़ती जा रही है।

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बंबई-केसरी प्रेस ने आक्रामक भाषा और हमेशा की तरह आग उगलने के अंदाज में लिखा है “अगर सरकार सत्याग्रह की ताकत परखना चाहती है तो उसे पता होना चाहिए कि सत्याग्रह की सक्रियता और निष्क्रियता, दोनों से सरकार को ही नुकसान पहुँचेगा। यदि सरकार गाँधी जी को गिरफ्तार करती है तो उसे राष्ट्र के कोप का भाजन बनना पड़ेगा और यदि सरकार ऐसा नहीं करती है तो सविनय अवज्ञा आंदोलन फैलता जाएगा। इसलिए हमारा मानना है कि अगर सरकार श्री गाँधी को दंडित करती है तो भी राष्ट्र की विजय होगी और अगर सरकार उन्हें अपने रास्ते पर चलने देती है तो राष्ट्र की और भी बड़ी विजय होगी।”

दूसरी ओर विविध वृत्त नामक मध्यमार्गी अखबार ने इस आंदोलन की व्यर्थता की ओर संकेत किया है और कहा है कि यह आंदोलन अपना घोषित उद्देश्य प्राप्त नहीं कर पाया है लेकिन उसने सरकार को भी चेतावनी दी है कि दमन का रास्ता उसके उद्देश्य को कमजोर कर देगा। मार्च 1930 में दूसरे पखवाड़े की रिपोर्ट के कुछ अंश बंगाल-सबका ध्यान समुद्र तट तक गाँधी जी की यात्रा और सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने के लिए उनकी तैयारी पर केंद्रित है।

चरमपंथी अखबार उनकी गतिविधियों और भाषणों के बारे में विस्तार से लिख रहे हैं और पूरे बंगाल में हो रही बैठकों तथा उनमें पारित होने वाले प्रस्तावों के बारे में विस्तार से जानकारी दी जा रही है परंतु गाँधी जिस सविनय अवज्ञा की वकालत कर रहे हैं उसके प्रति विशेष उत्साह नहीं दिखाई देता…. ।

सामान्य रूप से लोग इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि गाँधी जी के साथ क्या किया जाता है और संभावना यही है कि अगर उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई की गई तो बंगाल के ज्वलनशील हालात में चिंगारी भड़क उठेगी। लेकिन फिलहाल ऐसी आग भड़कने के कोई गंभीर आसार दिखाई नहीं देते।

इन रिपोर्टों से विभिन्न क्षेत्रों में मार्च के बारे में जानकारी मिलती है परंतु इन्हें सावधानी से अध्ययन करना चाहिए। इनमें कई बार आशंकाएँ और गलत विचार भी दिए होते हैं। ये रिपोर्ट पूर्वाग्रह युक्त भी हैं। फिर भी इनमें उपयोगी जानकारी है।

महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन : सविनय अवज्ञा और उससे आगे HBSE 12th Class History Notes

→ राष्ट्रपिता-भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने तथा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में सर्वाधिक योगदान के कारण महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता कहा जाता है।

→ जातीय भेदभाव-दक्षिण अफ्रीका में रंग के आधार पर भारतीयों से नसली भेदभाव किया जाता था। उन पर अनेक प्रतिबंध थे। गाँधी जी ने वहाँ पर जातीय-भेद विरोधी आंदोलन चलाया।

→ सत्याग्रह इसका शाब्दिक अर्थ है-सत्य पर दृढ़तापूर्वक अड़े रहना। अहिंसात्मक तरीके से विरोध करना। गाँधी जी के अनुसार सत्य पर अटल रहना ही सत्याग्रह है।

→ अहिंसा किसी भी प्रकार (मन, कर्म, वचन) से विरोधी को आहत न करना या हानि न पहुँचाना अहिंसा है। अहिंसा वीर और निडर का शस्त्र है न कि कायर और दुर्बल का। सत्याग्रह का आधार सत्य और अहिंसा थे।

→ लोकशक्ति-सामान्य लोगों (किसानों, मज़दूरों, गरीब अनपढ़ लोगों) की असीम बलिदान करने की क्षमता में विश्वास होना। गाँधी जी की लोकशक्ति से अटूट श्रद्धा थी।

→ साधन और साध्य-साध्य वह है जिसे प्राप्त करना होता है; जैसे भारत की स्वतंत्रता साध्य थी। साधन अर्थात् वह तरीका जिसके द्वारा साध्य (object) को प्राप्त किया जाए। गाँधी जी साधन और साध्य दोनों की पवित्रता में विश्वास रखते थे।

→ उदारवादी काँग्रेस के प्रथम दौर (1885 से 1905) के आंदोलन और नेताओं को उदारवादी कहा जाता है। वे सवैधानिक और क्रमिक सुधारों की माँग तथा प्रार्थना की नीति/तरीके पर चल रहे थे।

→ उग्रराष्ट्रवादी-1905 के आस-पास काँग्रेस में उग्रराष्ट्रवादी आंदोलन और नेता प्रभावशाली होने लगे। वे स्वराज्य की माँग में विश्वास रखते थे तथा स्वदेशी और बॉयकाट को शस्त्र के रूप में अपनाना चाहते थे।

→ चंपारन सत्याग्रह-1917 में गाँधी जी द्वारा चंपारण (बिहार) में किसानों की मांगों को लेकर चलाया गया आंदोलन।

→ खेड़ा सत्याग्रह-1918 में गुजरात के खेड़ा जिले में किसानों से लगान वसूली के विरुद्ध गाँधी जी द्वारा चलाया गया सत्याग्रह। खेड़ा में किसानों की फसल बर्बाद हो गई थी, तब भी सरकार लगान की माँग कर रही थी।

→ रॉलेट विरोधी सत्याग्रह-1919 में रॉलेट एक्ट के खिलाफ सत्याग्रह सभा का गठन कर देशव्यापी अभियान गाँधी जी ने चलाया।

→ असहयोग आंदोलन-ब्रिटिश साम्राज्य की शैतानियत के खिलाफ अहिंसात्मक रूप से असहयोग आंदोलन अर्थात् सरकार से सहयोग न करना। गाँधी जी ने 1920 में असहयोग आंदोलन चलाया।

→ खिलाफत आंदोलन-1920 में अंग्रेज़ सरकार ने (इंग्लैंड की) तुर्की के खलीफा को अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया। इसके विरुद्ध भारतीय मुसलमानों में असंतोष था। मुहम्मद अली और शौकत अली ने अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध इस मुद्दे पर आंदोलन चलाया जो खिलाफत आंदोलन कहलाता है।

→ चौरी-चौरा की घटना-5 फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा (गोरखपुर) में लोगों की भीड़ ने एक थाने पर हमला कर आग लगा दी, जिसमें 22 पुलिसकर्मी मारे गए। इसके तत्काल बाद गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया।

→ चरखा-हाथ से सूत कातने का एक यंत्र। गाँधी जी प्रतिदिन कुछ समय चरखा कातते थे। चरखा स्वदेशी और राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया था।

→ रचनात्मक कार्य-जनता की सेवा करने, जनता को जगाने तथा कार्यकत्ताओं में उत्साह पैदा करने के लिए गाँधी जी ने रचनात्मक कार्य चलाए। इसमें मुख्यतः खादी व चरखा कातना, ग्रामोद्योग, राष्ट्रीय शिक्षा, हिंदू-मुस्लिम एकता, हरिजन कल्याण, महिला उत्थान जैसे कार्यक्रम शामिल थे।

→ साइमन कमीशन-1919 के अधिनियम की समीक्षा के लिए इंग्लैंड सरकार द्वारा 1928 में साइमन के नेतृत्व में साइमन कमीशन भेजा गया। कमीशन में सभी सदस्य श्वेत थे। भारत में इसका जोरदार विरोध हुआ। ‘Simon go back’ के नारे लगे थे।

→ दांडी यात्रा-नमक कानून तोड़ने के लिए 12 मार्च, 1930 से 5 अप्रैल, 1930 के मध्य साबरमती आश्रम से दांडी तक गाँधी जी द्वारा आयोजित यात्रा।

→ खुदाई खिदमतगार-उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खान द्वारा बनाया गया संगठन, जिसने गाँधी जी के अहिंसात्मक आंदोलनों में भाग लिया।

→ गाँधी-इर्विन समझौता-गाँधी-इर्विन समझौता या दिल्ली समझौता भारत के वायसराय इर्विन तथा गाँधी जी के मध्य 5 मार्च, 1931 को हुआ।

→ गोलमेज सम्मेलन-भारत की समस्या पर बातचीत करने तथा नया सुधार कानून पास करने के लिए लंदन में इंग्लैंड की सरकार ने 1930, 1931 व 1932 में तीन गोलमेज सम्मेलन बुलाए। गाँधी जी ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया।

→ प्रांतीय स्वायत्तता-1935 के एक्ट के अनुसार प्रांतों का शासन भारतीयों के हाथों में दे दिया गया। यह प्रांतीय स्वायत्तता’ के नाम से जाना जाता है।

→ पाकिस्तान प्रस्ताव-लीग द्वारा 1940 के लाहौर अधिवेशन में ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ पास किया गया, जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों की स्वतंत्र’ इकाई गठित करने के लिए कहा गया।

→ व्यक्तिगत सत्याग्रह-द्वितीय विश्वयुद्ध के मुद्दे पर सरकार के विरुद्ध काँग्रेस ने 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया।

→ भारत छोड़ो आंदोलन-क्रिप्स मिशन (1942) की असफलता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश राज के खिलाफ अपना तीसरा बड़ा आंदोलन शुरू करने का फैसला लिया तथा अंग्रेज़ों को तत्काल भारत छोड़कर चले जाने को कहा। अगस्त, 1942 में छेड़े गए इस आंदोलन को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है।

→ निजी लेखन-निजी लेखन में व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार तथा दैनिक डायरी इत्यादि शामिल होते हैं। इसमें प्रायः वे बातें भी मिल जाती हैं जिन्हें सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त नहीं किया गया होता।

→ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं में महात्मा गाँधी का शीर्ष स्थान है। भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने में उन्होंने सबसे अधिक योगदान दिया, इस कारण उन्हें “राष्ट्र-पिता’ माना गया है। राष्ट्र-निर्माण के इस कार्य में हम उन्हें इटली के गैरीबाल्डी, अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के नेता जार्ज वाशिंगटन और वियतनाम के मुक्ति संघर्ष के नेता हो ची मिन्ह के समकक्ष रख सकते हैं।

→ महात्मा गाँधी का जन्म गुजरात के काठियावाड़ जिले में स्थित पोरबंदर नामक स्थान पर 1869 ई० में हुआ। उनके पिता राजकोट रियासत के दीवान थे। 1888 ई० में कानून की पढ़ाई करने के लिए गाँधी जी इंग्लैंड गए। जल्दी ही वह गुजराती व्यापारी दादा अब्दुला (Dada Abudlla) के कानूनी प्रतिनिधि बनकर 1893 में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। यहाँ पर गाँधी को जातीय (नसली) भेदभाव का सामना करना पड़ा।

→ गोरे लोगों के हाथों अपमानित होने पर गाँधी जी ने अन्याय के विरुद्ध लड़ना तय किया। यद्यपि गाँधी जी वहाँ पर अपने कार्य के लिए एक वर्ष के लिए गए थे तथापि जातीय भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए उन्हें 20 वर्ष रुकना पड़ा। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के विरुद्ध भेदभाव वाले कानूनों के खिलाफ ‘सत्याग्रह’ चलाया। लंबे संघर्ष के दौरान गाँधी जी और उनके साथियों को अनेक बार जेल जाना पड़ा।

अंततः आंदोलन से मजबूर होकर सरकार को गाँधी जी से वार्ता करनी पड़ी। सरकार को अपनी नीतियों में परिवर्तन करना पड़ा तथा दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर से अनेक प्रतिबंध समाप्त करने पड़े।

→ गाँधी के राजनीतिक विचारों और उनके दर्शन का केंद्र-बिंदु सत्याग्रह है। सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है-सत्य पर दृढ़तापूर्वक अड़े रहना। यह विरोध करने का अहिंसात्मक मार्ग था। गाँधी जी के अनुसार, “सत्य पर अटल रहना ही सत्याग्रह है। सत्याग्रह असत्य को सत्य से और हिंसा को अहिंसा से जीतने का एक नैतिक शस्त्र है।” सत्याग्रह दो प्रमुख सिद्धांतों पर टिका था-सत्य और अहिंसा। इसलिए गाँधी जी ने संघर्ष में सत्य के साथ-साथ सत्य और अहिंसात्मक तरीकों पर बल दिया।

गाँधी जी का जन-शक्ति संगठन में अटूट श्रद्धा थी। उनके नेतृत्व में यह राष्ट्रीय आंदोलन जन-आंदोलन बन गया। भारत में आने पर गोखले ने गाँधी जी को भारत की यात्रा करने की सलाह दी। गाँधी जी जहाँ भी जाते थे, उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ जुट जाती थी। भारत में गाँधी जी ने अपने ‘सत्याग्रह’ के तरीके का प्रथम अनुभव 1917 में चंपारन (बिहार) में किया। दूसरी बार सत्याग्रह का प्रयोग 1918 में अहमदाबाद (गुजरात) तथा उसी वर्ष तीसरी बार खेड़ा (गुजरात) में ‘सत्याग्रह’ आयोजित किया।

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→ ये तीनों ही स्थानीय समस्याओं से जुड़े आंदोलन थे। प्रथम विश्वयुद्ध से पैदा हुई आर्थिक कठिनाइयों, रॉलेट एक्ट, खिलाफत आंदोलन तथा जलियाँवाला बाग हत्याकांड जैसे कारणों ने गाँधी जी को अंग्रेजों के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर सत्याग्रह चलाने के लिए मजबूर कर दिया। उन्हें विश्वास हो गया था कि “ब्रिटिश साम्राज्य आज शैतानियत का प्रतीक है।” परिणामस्वरूप गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन के रूप में देशव्यापी आंदोलन चलाया। असहयोग आंदोलन ने शीघ्र ही जन-आंदोलन का रूप धारण कर लिया। इस आंदोलन ने जन कार्रवाइयों के लिए रास्ता खोल दिया और यह ब्रिटिश भारत में अभूतपूर्व बात थी।

इस आंदोलन से देशभर में उत्साह था। सभी वर्गों ने इसमें भाग लिया था। परंतु इसी बीच 5 फरवरी, 1922 को चौरी-चौरा में एक हिंसक घटना घटी। इस घटना में 22 पुलिसकर्मी मारे गए। गाँधी जी को इस घटना से गहरा आघात लगा। उन्होंने तत्काल आंदोलन वापिस ले लिया। असहयोग आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक जन-आंदोलन बना दिया था। अब यह सारे देश के सभी भागों में तथा देश के सभी वर्गों व तबकों का आंदोलन बन चुका था। किसानों, श्रमिकों और कारीगरों ने भी इसमें भाग लेना शुरू कर दिया था।

→ गाँधी जी उनके प्रिय नेता बन गए थे। गाँधी जी की जीवन-शैली से लोगों को लगता था कि वे उनके स्वाभाविक नेता हैं। गाँधी जी उन्हीं की तरह वस्त्र पहनते थे व उन्हीं की तरह रहते थे। वे जन-सामान्य की भाषा बोलते थे। गाँधी जी दूसरे नेताओं की तरह जनसमूह से अलग खड़े नहीं होते थे, बल्कि वे उनसे गहरी सहानुभूति रखते थे। गाँधी जी प्रतिदिन अपना कुछ समय चरखा चलाने में व्यतीत करते थे। वे अन्य सहयोगियों को भी चरखा चलाने के लिए प्रोत्साहित करते थे। भारत एक कृषि प्रधान देश होने के कारण यहाँ की जनसंख्या के अधिकांश लोग किसान थे।

→ किसानों में असहयोग आंदोलन के बाद गाँधी जी, ‘गाँधी बाबा’, ‘गाँधी महाराजा’ अथवा सामान्य ‘महात्मा जी’ जैसे नामों से लोकप्रिय हुए। किसानों में उनकी छवि एक उद्धारक के समान थी। गाँधी जी को जन-सामान्य के समीप ले जाने में उनके रचनात्मक कार्य की अहम् भूमिका है। रचनात्मक कार्यों को मुख्यतः खादी व चरखा कातना, ग्रामोद्योग, राष्ट्रीय शिक्षा, हिंदू-मुस्लिम एकता, हरिजन कल्याण, महिला उत्थान; जैसे कार्यक्रमों के रूप में संगठित किया। साइमन कमीशन को इंग्लैंड की सरकार ने भारत में 1919 के अधिनियम की कार्य-प्रणाली की समीक्षा करने के लिए भेजा था ताकि आगे सुधारों पर विचार किया जा सके, परंतु इस कमीशन के सभी सदस्य श्वेत थे।

→ भारत के सभी दलों ने इसका जोरदार विरोध किया। 1929 में दिसंबर के अंत में काँग्रेस ने अपना वार्षिक अधिवेशन लाहौर में किया। इसका अध्यक्ष युवा नेता जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया। काँग्रेस ने अपना लक्ष्य ‘पूर्ण स्वराज्य’ अथवा ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ को घोषित किया। दांडी यात्रा तथा नमक कानून तोड़ने की योजना गाँधी जी ने बहुत सोच-विचार करके बनाई थी। इस योजना के अनुसार 12 मार्च, 1930 को प्रातः 6 बजकर 30 मिनट पर साबरमती आश्रम से गाँधी जी ने अपने 78 अनुयायियों के साथ 241 मील दूर दांडी नामक स्थान के लिए पद यात्रा शुरू की।

→  24 दिनों में यात्रा पूरी करके गाँधी जी व उनके सहयोगी 5 अप्रैल को दांडी पहुँचे व 6 अप्रैल को प्रातःकाल में गाँधी जी समुद्र तट पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने नमक एकत्र कर नमक कानून को भंग कर दिया और इस प्रकार 6 अप्रैल, 1930 को सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गया। गाँधी जी द्वारा नमक कानून तोड़ने के साथ ही यह आंदोलन देश के सभी भागों में फैल गया। इस आंदोलन के जवाब में सरकार ने दमन चक्र चलाया।

→ नमक सत्याग्रह के सिलसिले में लगभग 60,000 लोगों को गिरफ्तार किया गया। गाँधी जी को भी हिरासत में ले लिया गया। सर तेज बहादुर सञ्जु तथा डॉ० जयकर की मध्यस्थता से गाँधी जी और वायसराय इर्विन के बीच फरवरी-मार्च 1931 में लंबी बैठकें हुईं। अंत में दोनों में 5 मार्च, 1931 को एक समझौता हुआ जो ‘गाँधी-इर्विन’ समझौते के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

→ काँग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में गाँधी जी दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए सितंबर, 1931 में लंदन पहुँचे। साइमन कमीशन रिपोर्ट तथा गोलमेज सम्मेलनों के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को प्रशासन में भागीदारी के लिए 1935 का अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम के तहत प्रांतों में स्वायत्त शासन की स्थापना की गई थी। भारतीय दल 1935 के एक्ट से संतुष्ट नहीं थे तथापि उन्होंने इस एक्ट के तहत 1937 में प्रांतीय सभाओं के लिए चुनाव हुए तो इनमें भाग लिया। इन चुनावों में काँग्रेस को भारी सफलता प्राप्त हुई। 1937 के चुनावों में मुस्लिम लीग को भारी असफलता हाथ लगी थी।

→ वह संयुक्त प्रांत में सांझी सरकार भी नहीं बना पाई। अब उसे लग रहा था कि पृथक् निर्वाचिका से भी उसे सत्ता नहीं मिलने वाली है तो उसने उग्र रूप अपना लिया। इसके साथ ही मार्च, 1940 में अपने लाहौर अधिवेशन में लीग ने ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ को पारित किया, जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों की ‘स्वतंत्र’ इकाई गठित करने के लिए कहा गया। 1942 ई० में ब्रिटेन ने भारतीय नेताओं से बातचीत करने तथा भारतीय समस्या को हल करने के लिए क्रिप्स मिशन भारत भेजा।

→  स्टैफर्ड क्रिप्स 22 मार्च, 1942 को भारत पहुँचे तथा अपने प्रस्ताव भारतीयों के समक्ष रखे। क्रिप्स प्रस्ताव अपर्याप्त और असंतोषजनक थे। इसमें सभी दलों को खुश करने का प्रयास किया गया, परंतु सभी भारतीय दलों ने इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया।

→ क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश राज के खिलाफ अपना तीसरा बड़ा आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। अगस्त, 1942 में छेड़े गए इस आंदोलन को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है। 7 अगस्त, 1942 को बंबई में अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी (AICC) की बैठक शुरू हुई। इस बैठक में वर्धा में पास किए ‘भारत छोड़ो प्रस्ताव’ का अनुमोदन कर दिया गया। साथ ही गाँधी जी को अहिंसक संघर्ष छोड़ने की मंजूरी दी।

→  8 अगस्त को भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित होने के बाद अपने भाषण में महात्मा गाँधी ने कहा, “आप लोगों में से प्रत्येक व्यक्ति को अब से स्वयं को स्वतंत्र व्यक्ति समझना चाहिए तथा इस प्रकार का कार्य करना चाहिए कि मानो आप स्वतंत्र हो….. मैं स्वतंत्रता से कम किसी भी वस्तु से संतुष्ट नहीं होऊँगा। हम करेंगे या मरेंगे। हम या तो भारत को स्वतंत्र कराएँगे या इस प्रयास में मर मिटेंगे।” भारत छोड़ो आंदोलन सही मायनों में एक जनांदोलन था। इसमें लाखों आम लोगों ने स्वयं की प्रेरणा से भाग लिया। इतिहासकार बिपिन चंद्र का मानना है कि, “भारत छोड़ो आंदोलन में आम जनता की हिस्सेदारी तथा समर्थन एक नई सीमा तक पहुँचा।”

→ 1945-47 के मध्य तेजी से वार्ताओं का दौर शुरू हुआ। गाँधी जी सत्ता की इन वार्ताओं से लगभग दूर रहे। उन्होंने आखिर तक विभाजन का विरोध किया। गाँधी जी 15 अगस्त को दिल्ली में उपस्थित नहीं थे। वे कलकत्ता में सांप्रदायिक सद्भाव को बहाल करने के दुष्कर कार्य में लगे हुए थे। उन्होंने 24 घंटे का उपवास रखा। वे अकेले ही स्थान-स्थान पर जाकर हिंदू-मुस्लिमों के आपसी वैर-भाव को समाप्त करने में लगे थे। गाँधी जी की धर्म में गहरी आस्था थी, किंतु साथ ही वे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत में भी दृढ़ आस्था रखते थे।

→ नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 की शाम को दैनिक प्रार्थना के समय गाँधी जी पर गोली चलाकर उन्हें मौत की नींद सुला दिया। गाँधी जी एक धर्मांध के हाथों शहीद हो गए। गाँधी जी की शहादत से सारे देश में गहरे शोक की लहर दौड़ गई। उनकी शहादत पर भारत में ही नहीं, विश्वभर में उन्हें भाव-भीनी श्रद्धांजलि दी गई।

→ इतिहासकार समस्त स्रोतों का अध्ययन और विवेचन करते हुए गाँधी जी के राजनीतिक सफर और राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं। इतिहासकार के लिए यह भाषण बड़े महत्त्वपूर्ण स्रोत होते हैं क्योंकि इनसे उनकी नीतियों, कार्यक्रमों तथा लोगों को संगठित करने के तरीकों की झलक मिलती है। निजी लेखन में व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार तथा दैनिक डायरी इत्यादि शामिल होते हैं।

→ इसमें प्रायः वे बातें भी मिल जाती हैं जिन्हें सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त नहीं किया गया होता। आत्मकथाएँ एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। आत्मकथाओं में मानवीय गतिविधियों का विविध विवरण मिलता है। भारतीयों की राजनीतिक गतिविधियों के बारे में अंग्रेज़ सरकार कड़ी नज़र रखती थी। इन गतिविधियों के बारे में पुलिस व अन्य अधिकारी अपनी रिपोर्टों और पत्रों से सरकार को अवगत करवाते थे।

→ इन दस्तावेजों को पढ़कर हम जान पाते हैं कि पुलिस व अधिकारियों की नजर में गाँधी जी और उसके सहयोगियों की गतिविधियाँ कैसी थीं। 20वीं सदी के दूसरे दशक के अंत में गाँधी जी राष्ट्रीय नेता बनकर उभरे। इस समय बड़ी संख्या में अंग्रेजी और हिंदी में समाचार-पत्र प्रकाशित हो रहे थे जिन्होंने गाँधी जी की गतिविधियों को प्रमुखता से प्रकाशित किया। गाँधी जी को समझने के लिए ये महत्त्वपूर्ण साधन हैं।

काल-रेखा

कालघटना का विवरण
2 अक्तूबर, 1869 ई०गाँधी जी का जन्म।
1893 ई०गाँधी जी का दक्षिण अफ्रीका जाना।
जनवरी, 1915गाँधी जी का भारत आगमन।
1916 ई०प० मदन मोहन मालवीय द्वारा बनारस विश्वविद्यालय की स्थापना तथा गाँधी जी द्वारा समारोह में भाषण।
अप्रैल, 1917चंपारन सत्याग्रह का प्रारंभ ।
1918 ई०अहमदाबाद और खेड़ा (गुजरात में सत्याग्रह)
6 अप्रैल, 1919रॉलेट एक्ट पर अखिल भारतीय
13 अप्रैल, 1919जलियाँवाला बाग हत्याकांड।
1918 ई०खिलाफ़त कमेटी का गठन।
1 अगस्त, 1920गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया।
5 फरवरी, 1922चौरी-चौरा की घटना
12 फरवरी, 1922असहयोग आंदोलन का संगठन।
1928 ई०साइमन कमीशन का भारत आना।
31 दिसंबर, 1929लाहौर अधिवेशन में पूर्व स्वतंत्रता प्रस्ताव पास
26 जनवरी, 1930प्रथम स्वतंत्रता दिवस मनाया गया।
12 मार्च, 1930गाँधी जी द्वारा दांडी यात्रा का प्रारंभ
6 अप्रैल, 1930गाँधी जी ने नमक कानून तोड़ा।
5 मार्च, 1931गाँधी-इर्विन पैक्ट हुआ।
1931 ई०दूसरा गोलमेज सम्मेलन तथा गाँधी का लंदन जाना।
1937 ई०प्रांतीय सभाओं के चुनाव
3. सितंबर, 1939वायसराय द्वारा भारत को द्वितीय विश्वयुद्ध में झोंकना
22 अक्तूबर, 1939काँग्रेस सरकारों का त्याग-पत्र देना।
22 दिसंबर, 1939लीग द्वारा ‘मुक्ति दिवस मनाना’।
मार्च, 1940लीग का पाकिस्तान प्रस्ताव।
8 अगस्त, 1940लिनलिथगों द्वारा ‘अगस्त प्रस्ताव’ रखना।
8 अगस्त, 1942भारत छोड़ो प्रस्ताव पास किया।
9 अगस्त, 1942भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ।
14 जून, 1945‘वेवल योजना’ प्रस्ताव प्रस्तुत।
16 अगस्त, 1946लीग द्वारा कार्रवाई दिवस मनाना।
15 अगस्त, 1947भारत का स्वतंत्र होना।

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

HBSE 12th Class History बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
स्पष्ट कीजिए कि विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता क्यों महत्त्वपूर्ण रही होगी?
उत्तर:
पितृवंशिकता वह पारिवारिक परंपरा है जिसमें वंश परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि की ओर चलती है। इसमें परिवार की संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र ही होते हैं। राजाओं के संदर्भ में सिंहासन के उत्तराधिकारी पुत्र ही थे।

ब्राह्मण ग्रंथों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में पितृवंशिकता का ‘आदर्श’ स्थापित हो चुका था। ऋग्वेद में भी इन्द्र जैसे वीर पुत्र की कामना की गई है। विशिष्ट उच्च परिवारों में पितृवंशिकता और भी अधिक महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि उनमें भूमि और सत्ता के स्वामित्व का प्रश्न महत्त्वपूर्ण होता था। महाभारत का युद्ध सत्ता और साधनों के प्रश्न को लेकर ही हुआ था। इस युद्ध में पांडव और कौरव दोनों चचेरे परिवार थे। जीत पांडवों की हुई तो ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर को शासक घोषित किया गया।

इससे पितृवंशिकता का आदर्श और भी सुदृढ़ हुआ। पितृवंशिकता के अपवाद यदा-कदा ही मिलते हैं। जैसे कि पुत्र के न होने पर भाई या फिर चचेरा भाई राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लेता था। कुछ विशेष परिस्थितियों में औरतें भी सत्ता की उत्तराधिकारी बनीं।

प्रश्न 2.
क्या आरंभिक राज्यों में शासक निश्चित रूप से क्षत्रिय ही होते थे? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
वर्ण व्यवस्था के अनुसार समाज की रक्षा का दायित्व और शासक बनने का अधिकार क्षत्रियों के पास था। परंतु हम देखते हैं कि आरंभिक राज्यों में सभी शासक क्षत्रिय वंश से नहीं थे। बहुत-से गैर-क्षत्रिय शासक वंशों का भी पता चलता है। उदाहरण के लिए ह्यूनसांग के समय उज्जैन व महेश्वरपुर के शासक ब्राह्मण थे। चन्द्रगुप्त मौर्य को भी ब्राह्मण ग्रंथों (पुराणों) में शूद्र बताया गया जबकि बौद्ध ग्रंथ उसे क्षत्रिय मानते हैं। मौर्यों के बाद शुंग व कण्व ब्राह्मण शासक बने। गुप्तवंश के शासक तथा हर्षवर्धन भी संभवतः वैश्य थे। इनके अतिरिक्त प्राचीन काल में बाहर से आने वाले बहुत-से आक्रमणकारी शासक (शक, कुषाण इत्यादि) भी क्षत्रिय, नहीं थे। दक्कन भारत के सातवाहन शासक भी स्वयं को ब्राह्मण मानते थे। अतः स्पष्ट है कि भारत में आरम्भिक राज्यों में सभी शासक संभवतः क्षत्रिय नहीं थे।

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प्रश्न 3.
द्रोण, हिडिम्बा और मातंग की कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना कीजिए तथा उनके अंतर को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
महाभारत के आदिपर्व में द्रोण व हिडिम्बा की तथा जातक ग्रंथ में बोधिसत्त्व मातंग की कथा मिलती है। तीनों कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना बड़ी रुचिकर है। भारतीय संदर्भ में धर्म की व्याख्या वर्ण-कर्त्तव्य पालन के संदर्भ में की गई है। ब्राह्मण ग्रंथों में वर्ण-धर्म के पालन पर अत्यधिक बल दिया गया है। उसे ‘उचित’ सामाजिक कर्त्तव्य बताया गया है।

द्रोण की कथा में एकलव्य निषाद जाति से था जिसे वर्ण-धर्म के अनुसार धनुर्विद्या सीखने का अधिकार नहीं था। इसलिए ने उसे शिक्षा देने से इंकार कर दिया था। फिर भी एकलव्य ने यह विद्या अपनी लगन से प्राप्त की। गुरु द्रोण ने गुरु दक्षिणा में दायें हाथ का अंगूठा लिया। स्पष्ट है कि इस कथा के माध्यम से निषादों को धर्म का संदेश दिया जा रहा था। दूसरी कथा हिडिम्बा-भीम की है जिसमें भीम ने वर्ण-धर्म का पालन करते हए वनवासी लड़की (हिडिम्बा) के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया था।

लेकिन इसमें भी प्रचलित परंपरा से हटने का आभास मिलता है जब युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई भीम (उच्च कुल) को निम्न कुल से संबंधित हिडिम्बा के साथ विवाह की अनुमति दे दी थी। – तीसरी कथा मातंग की है जिसका जन्म चाण्डाल के घर में हुआ था।

जिसे देखकर मांगलिक नामक व्यापारी की बेटी (दिथ्थ) चिल्लाने लगी कि उसने ‘अशुभ’ देख लिया है। मातंग को मारा पीटा गया परंतु उसने हार मानने की बजाय विरोध स्वरूप ‘मरण व्रत’ धारण कर लिया। वस्तुतः यह कथा ब्राह्माणिक धर्म परंपरा के विरोध का उदाहरण है। यह विरोध मातंग के इन शब्दों में स्पष्ट झलकता है, “जिन्हें अपने जन्म पर गर्व है पर अज्ञानी हैं, वे भेंट के पात्र नहीं हैं। इसके विपरीत जो दोषमुक्त हैं, वे भेंट के योग्य हैं।” अतः तीनों कथाओं में वर्ण-धर्म के पालन करने पर बल दिया गया है, परंतु ाथ ही इस धर्म के विरुद्ध विरोध का स्वर स्पष्ट झलकता है।

प्रश्न 4.
किन मायनों में सामाजिक अनुबंध की बौद्ध अवधारणा समाज के उस ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से भिन्न थी जो ‘पुरुषसूक्त’ पर आधारित था।
उत्तर:
ब्राह्मण ग्रंथों में ऋग्वेद के ‘पुरुष सूक्त’ पर आधारित सामाजिक विषमताओं की व्याख्या मिलती है। इस व्याख्या में वर्ण व जाति को ईश्वरीय बताया गया है। इसमें सामाजिक भेदभाव निहित था। बौद्ध ग्रंथों में इसके विपरीत सामाजिक विषमताओं (भेदभावों) को ईश्वर की देन या पुनर्जन्म का परिणाम नहीं माना गया है। उनके अनुसार ये भेदभाव सदैव से नहीं थे। प्रारम्भ में मानव सहित सभी जीव शान्ति की अवस्था में रहते थे। इनमें कोई मेरा-तेरा नहीं था, न कोई अमीर व न कोई गरीब था। संग्रह की प्रवृत्ति भी नहीं थी। यह व्यवस्था पतन की ओर तब बढ़ने लगी जब मानव में लालसा, मक्कारी और संचय जैसी भावनाएँ पैदा हुईं। ऐसी स्थिति में सामाजिक भेदभावों का उदय हुआ।

सामाजिक भेदभावों को दूर करने के लिए बौद्ध ग्रंथों में एक सामाजिक अनुबंध की व्याख्या मिलती है, जिसके अनुसार सब लोगों ने मिलकर राजपद स्थापित किया। ऐसे व्यक्ति (राजा) को यह अधिकार दिया कि वह अपराधी को सजा दे। इस प्रकार बौद्ध व्याख्या में राजपद ईश्वरीय नहीं माना गया, जैसा कि ब्राह्मण ग्रंथ मानते हैं, बल्कि इसे एक सामाजिक समझौता (अनुबंध) माना गया।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित अवतरण महाभारत से है जिसमें ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर दूत संजय को संबोधित कर रहे हैं :
संजय धृतराष्ट्र गृह के सभी ब्राह्मणों और मुख्य पुरोहित को मेरा विनीत अभिवादन दीजिएगा। मैं गुरु द्रोण के सामने नतमस्तक होता हूँ….. मैं कृपाचार्य के चरण स्पर्श करता हूँ….. (और) कुरु वंश के प्रधान भीष्म के। मैं वृद्ध राजा (धृतराष्ट्र) को नमन करता हूँ। मैं उनके पुत्र दुर्योधन और उनके अनुजों के स्वास्थ्य के बारे में पूछता हूँ तथा उनको शुभकामनाएँ देता हूँ, … मैं उन सब युवा कुरु योद्धाओं का अभिनंदन करता हूँ जो हमारे भाई, पुत्र और पौत्र हैं…. सर्वोपरि मैं उन महामति विदुर को (जिनका जन्म दासी से हुआ है) नमस्कार करता हूँ जो हमारे पिता और माता के सदृश हैं…. मैं उन सभी वृद्धा स्त्रियों को प्रणाम करता हूँ जो हमारी माताओं के रूप में जानी जाती हैं।

जो हमारी पत्नियाँ हैं उनसे यह कहिएगा कि, “मैं आशा करता हूँ कि वे सुरक्षित हैं”….. मेरी ओर से उन कुलवधुओं का जो उत्तम परिवारों में जन्मी हैं और बच्चों की माताएँ हैं, अभिनंदन कीजिएगा तथा हमारी पुत्रियों का आलिंगन कीजिएगा….. सुंदर, सुगंधित, सुवेशित गणिकाओं को शुभकामनाएँ दीजिएगा। दासियों और उनकी संतानों तथा वृद्ध, विकलांग और असहाय जनों को भी मेरी ओर से नमस्कार कीजिएगा….

इस सूची को बनाने के आधारों की पहचान कीजिए-उम्र, लिंग, भेद व बंधुत्व के संदर्भ में। क्या कोई अन्य आधार भी हैं? प्रत्येक श्रेणी के लिए स्पष्ट कीजिए कि सूची में उन्हें एक विशेष स्थान पर क्यों रखा गया है?
उत्तर:
इस अवतरण में ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर आयु, लिंग-भेद और बंधुत्व के अतिरिक्त समाज में स्थिति, ज्ञान के आधार पर संबोधन करते हैं। संबोधन की इस सूची में वर्ण व्यवस्था द्वारा स्थापित मानदंडों का विशेष ध्यान रखा गया है। उदाहरण के लिए सबसे पहले ब्राह्मणों और मुख्य पुरोहित का अभिवादन किया गया है। गुरु द्रोण व कृपाचार्य को चरण स्पर्श कहा गया है फिर कुरु वंश के प्रमुख भीष्म पितामह और फिर धृतराष्ट्र के प्रति सम्मान व्यक्त किया गया है। दुर्योधन और अन्य कुरु योद्धाओं को शुभकामनाएँ दी गई हैं। तत्पश्चात् महामति विदुर (दासीपुत्र) का आदरपूर्वक अभिवादन किया गया है।

इसके बाद महिलाओं को सूची में शामिल किया गया है जो पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता को दर्शाता है। इसके बाद गणिकाओं और सबसे अंत में वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले स्तर पर स्थित दास-दासियों को शामिल किया गया है। इनके साथ विकलांग व असहायों को रखा गया है। स्पष्ट है कि सामाजिक स्थिति के अनुरूप बनाए गए मानदंडों के कारण ही इस सूची में विभिन्न लोगों को स्थान दिया गया है।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)

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प्रश्न 6.
भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार मौरिस विंटरविट्ज़ ने महाभारत के बारे में लिखा था कि : चूँकि महाभारत संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है………….. बहुत सारी और अनेक प्रकार की चीजें इसमें निहित हैं …. (वह) भारतीयों की आत्मा की अगाध गहराई को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।” चर्चा कीजिए।
उत्तर:
महाभारत एक विस्तृत महाकाव्य है। इसकी मूल कथा कौरवों और पांडवों के बीच सत्ता और साधनों को लेकर लड़े गए युद्ध से संबंधित है। चूंकि यह एक गतिशील ग्रंथ रहा है इसलिए इसमें इस मूल कथा के साथ-साथ अन्य कथाएँ, मिथक और घटनाक्रम जुड़ते गए। इसमें बहुत-से उपदेश भी हैं। विद्वानों का विचार है कि लगभग 1000 वर्षों (500 ई→पू→ से 500 ई→) में यह ग्रंथ संपूर्ण हुआ है। शुरू में इसमें मात्र 8800 श्लोक थे और जयस यानी विजय संबंधी ग्रंथ कहलाता था। कालांतर में यह लगभग 24000 श्लोकों के साथ भारत नाम से जाना गया। अन्ततः यह महाभारत कहलाया। अब इसमें लगभग एक लाख श्लोक हैं।

चूँकि महाभारत दीर्घ अवधि में रचा और लिखा गया है, इसलिए इसमें भारतीय समाज के अनेक पक्ष शामिल होते गए। आर्यों के उत्तर भारत में विस्तार के बाद मध्य और दक्षिणी भारत में उनका फैलाव हुआ तो उनके इस ग्रंथ में भी अनेक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व धार्मिक पक्ष जुड़ते गए। यह ग्रंथ मात्र आर्यों का नहीं रह गया। आर्य लोगों का भारत में बसने वाले अन्य जन-जातियों और कबीलों से समायोजन हुआ, तो इन लोगों के सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्ष भी इसमें जुड़ते गए। इस प्रकार मौरिस विन्टरविट्ज़ का यह निष्कर्ष उचित है कि ‘महाभारत संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है।

उनका यह वाक्य और भी सारगर्भित है कि यह ग्रंथ ‘भारतीयों की आत्मा की अगाध गहराई को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।’ इसका अर्थ है कि इस ग्रंथ में मात्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पक्षों का ही वर्णन नहीं है बल्कि नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और गहन दार्शनिक विवेचन भी है। उदाहरण के लिए इस ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण भाग श्रीमद्भगवद् गीता को लें जो संपूर्ण भारतीय दर्शन का निचोड़ है। इसमें मोक्ष प्राप्ति के तीनों मार्गों-ज्ञान, कर्म और भक्ति का अद्भुत समन्वय मिलता है।

भारतीय समाज की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता वर्ण व जाति व्यवस्था रही है। इस व्यवस्था के नैतिक और सामाजिक आदर्शों को महाभारत ग्रंथ ने विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है। यहाँ तक कि उपदेशों के माध्यम से भी उन्हें व्यक्त किया है। उदाहरण के लिए एकलव्यगाथा, जिसमें वर्ण-धर्म की पालना का उपदेश दिया गया है। अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि महाभारत में भारतीयों के सामाजिक जीवन का सार मिलता है। इसलिए यह संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 7.
क्या यह संभव है कि महाभारत का एक ही रचयिता था? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
महाभारत के रचनाकार के विषय में भी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। जनश्रुतियों के अनुसार.महर्षि व्यास ने इस ग्रंथ को श्रीगणेश जी से लिखवाया था। परंतु आधुनिक विद्वानों का विचार है कि इसकी रचना किसी एक लेखक द्वारा नहीं हुई। वर्तमान में इस ग्रंथ में एक लाख श्लोक हैं लेकिन शुरू में इसमें मात्र 8800 श्लोक ही थे। दीर्घकाल में रचे गए इन श्लोकों का रचयिता कोई एक लेखक नहीं हो सकता। इतिहासकार मानते हैं कि इसकी मूल गाथा के रचयिता भाट सारथी थे, जिन्हें सूत कहा जाता था। यह ‘सूत’ क्षत्रिय योद्धाओं के साथ रणक्षेत्र में जाते थे और उनकी विजयगाथाएँ रचते थे। विजयों का बखान करने वाली यह कथा परंपरा मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलती रही।

इतिहासकारों का अनुमान है कि पाँचवीं शताब्दी ई→पू→ से इस कथा परंपरा को ब्राह्मण लेखकों ने अपनाकर इसे और विस्तार दिया। साथ ही इसे लिखित रूप भी दिया। यही वह समय था जब उत्तर भारत में क्षेत्रीय राज्यों और राजतंत्रों का उदय हो रहा था। कुरु और पांचाल, जो महाभारत कथा के केंद्र बिंदु हैं, भी छोटे सरदारी राज्यों से बड़े राजतंत्रों के रूप में उभर रहे थे। संभवतः इन्हीं नई परिस्थितियों में महाभारत की कथा में कुछ नए अंश शामिल हुए। यह भी संभव है कि नए राजा अपने इतिहास को नियमित रूप से लिखवाना चाहते हों।

जैसे-जैसे आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ बदलती गईं, महाभारत की मूल गाथा में उनके अनुरूप नए अंश .. जुड़ते गए। महाभारत ज्ञान का एक अपूर्व खजाना बनता गया। धर्म, दर्शन और उपदेश इत्यादि अंश मूल कथा के साथ जुड़कर महाभारत एक विशाल ग्रंथ बनता गया।

इस ग्रंथ की रचना का एक और महत्त्वपूर्ण चरण लगभग 200 ई→पू→ से 200 ईसवी के बीच शुरू हुआ। यह वही चरण था जिसमें आराध्य देव के रूप में विष्णु की महत्ता बढ़ रही थी। श्रीकृष्ण, जो इस महाकाव्य के महानायकों में से एक थे, को भगवान श्री विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकार किया गया। इस प्रकार लगभग 1000 वर्ष से भी अधिक अवधि में यह ग्रंथ अपना वृहत् रूप धारण कर पाया। इससे यह भी स्पष्ट है कि इसकी रचना करने में एक से अधिक विद्वानों का योगदान है।

प्रश्न 8.
आरंभिक समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों की विषमताएँ कितनी महत्त्वपूर्ण रही होंगी? कारण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
आरंभिक भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों में भेदभाव (विषमताएँ) था। ब्राह्मण ग्रंथों से यह स्पष्ट है कि समाज में पितृवंशिकता का ‘आदर्श’ स्थापित हो चुका था। इसमें वंश परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र और प्रपौत्र आदि की ओर चलती थी। प्रारंभिक वैदिक साहित्य में औरत के प्रति सम्मान तो झलकता है, फिर भी पुरुषों को समाज में अधिक महत्त्व प्राप्त था। ऋग्वेद में पुत्र-कामना को प्राथमिकता दी गई। विशेषतः इंद्र जैसे वीर पुत्र की कामना की गई। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा गया है कि ‘मैं इसे (बेटी) यहाँ से यानी पिता के घर से मुक्त करता हूँ किंतु वहाँ (पति के घर) से नहीं। मैंने इसे वहाँ मजबूती से स्थापित किया है जिससे इंद्र के अनुग्रह से इसके उत्तम पुत्र हों और पति के प्रेम का सौभाग्य इसे प्राप्त हो।

शासक वर्गों में सिंहासन के उत्तराधिकारी भी पुत्र थे। उपनिषदों में पिता के आध्यात्मिक पुण्य का उत्तराधिकारी पुत्र को बताया गया अर्थात् पुत्र की उत्पत्ति किसी परिवार के लिए धर्म के अनुसार भी आवश्यक हो गई। फलतः सामान्य लोग भी इसी परंपरा से जुड़ते गए। पितृवंशिक परंपरा समाज की एक आदर्श पंरपरा बन गई। महाभारत के युद्ध में भी पांडवों के विजयी होने के उपरांत युधिष्ठिर को शासक घोषित किया गया। इससे पितृवंशिकता का आदर्श और भी सुदृढ़ हुआ। वस्तुतः इस आदर्श के अपवाद यदा-कदा ही मिलते हैं। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही कुछ महिलाएँ सत्ता की उत्तराधिकारी बनी हैं। जैसे कि प्रभावती गुप्त का शासिका बनने का उदाहरण मिलता है।

विवाह प्रणाली में भी स्त्री-पुरुष के संबंधों में भेदभाव स्पष्ट झलकता है। गोत्र-बहिर्विवाह प्रणाली में पिता अपनी पुत्री का विवाह एक ‘योग्य’ युवक से कन्यादान संस्कार को संपन्न करता हुआ करता था। ‘कन्यादान’ का अर्थ कहीं-न-कहीं चेतन या अचेतन रूप में स्त्री को वस्तुसम मान लेना रहा है। प्रायः छोटी उम्र में ही लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था। विशेषतः ऊँची प्रतिष्ठा वाले परिवारों (ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि) में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में और भी खराब थी। उच्च या शासक परिवारों में बहु-पत्नी विवाह का प्रचलन था।

अधिकांश धर्मशास्त्र पति व पिता की संपत्ति में औरत की हिस्सेदारी को स्वीकार नहीं करते हैं। पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र थे। स्वाभाविक तौर पर इससे समाज में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में गौण हो गई। परिवार में औरत का अधिकार केवल उसे उपहार से प्राप्त धन (स्त्रीधन) पर ही था। अन्य किसी तरीके से अर्जित धन पर औरत का स्वामित्व नहीं था। कुलीन परिवारों में भी, जहाँ साधनों की कमी नहीं थी, औरत की स्थिति गौण ही रही, बल्कि पुरुष नियंत्रण ऐसे परिवारों में और भी अधिक होता था। सातवाहन (दक्कन में) शासकों की सूची से आभास मिलता है कि उनमें पिता की अपेक्षा माताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण थीं क्योंकि शासकों को मातृनाम से (जैसे गौतमी-पुत्त सिरी-सातकणि) जाना गया। परंतु हमें यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि सातवाहन शासकों में भी राजसिंहासन की उत्तराधिकारी महिलाएँ नहीं बल्कि पुरुष ही बनें।

प्रश्न 9.
उन साक्ष्यों की चर्चा कीजिए जो यह दर्शाते हैं कि बंधुत्व और विवाह संबंधी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं होता था।
उत्तर:
बंधुत्व और विवाह संबंधी नियम ब्राह्मण ग्रंथों में मिलते हैं। इन ग्रंथों के लेखकों का यह विश्वास था कि इन नियमों के निर्धारण में उनका दृष्टिकोण सार्वभौमिक (सर्वत्र अनुसरण होने वाला) था। इन नियमों का पालन सभी स्थानों पर सभी के द्वारा होना चाहिए परंतु व्यवहार में ऐसा नहीं था। व्यवहार में तो जब इन नियमों की उल्लंघना होने लगी थी तभी तो ब्राह्मण विधि ग्रंथों (जैसे कि मनुस्मृति, नारदस्मृति या अन्य ग्रंथ) की जरूरत महसूस हुई और उनकी रचना की गई। इन ग्रंथों में बंधुत्व व विवाह संबंधी नियमों की उल्लंघना करने वालों के लिए दंड का विधान बताया गया था।

भारत एक उपमहाद्वीप है। इसके विशाल भू-भाग में अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएँ विद्यमान थीं। सामाजिक संबंधों में अनेक जटिलताएँ थीं। संचार के साधन अविकसित थे। एक स्थान से दूसरे स्थान पर आना-जाना आसान नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में ब्राह्मणीय नियम सार्वभौमिक नहीं बन सकते थे। ब्राह्मणीय नियमों के अनुसार चचेरे, मौसेरे व ममेरे आदि भाई-बहनों में रक्त संबंध होने के कारण विवाह वर्जित था। परंतु यह नियम दक्षिण भारत के अनेक समुदायों में प्रचलित नहीं था।

उत्तर भारत में भी सर्वत्र रूप से इनका अनुसरण नहीं होता था। आश्वलायन गृहसूत्र में विवाह के आठ प्रकारों के बारे में पता चलता है। स्पष्ट है कि विवाह के नियम एक जैसे नहीं थे। इन विवाहों में से पहले चार विवाहों (ब्रह्म, देव, आर्ष व प्रजापत्य) को ही उत्तम माना गया। उन्हें धर्मानुकूल और आदर्श बताया गया। जबकि असुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों को अच्छा नहीं माना गया, परंतु ये प्रचलन में तो थे। यह इस बात का प्रमाण है कि ब्राह्मणीय नियमों से बाहर विवाह प्रथाएँ अस्तित्व में थीं।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
मानचित्र को देखकर कुरु-पांचाल क्षेत्र के पास स्थित महाजनपदों और नगरों की सूची बनाइए।
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उत्तर:
संकेत

  • महाजनपदों के नाम–गांधार, कंबोज, कुरु, शूरसेन, मत्स्य, अवन्ती, चेदी वत्स, अश्मक, मगध, अंग, लिच्छवी, शाक्य, पांचाल, मल्ल, कोशांबी।
  • नगरों के नाम हस्तिनापुर, मथुरा, विराट, उज्जैन, अयोध्या, कपिलवस्तु, पावा, वैशाली, कुशीनगर, सारनाथ, वाराणसी, पाटलिपुत्र, श्रावस्ती।

परियोजना कार्य

प्रश्न 11.
अन्य भाषाओं में महाभारत की पुनर्व्याख्या के बारे में जानिए। इस अध्याय में वर्णित महाभारत के किन्हीं दो प्रसंगों का इन भिन्न भाषा वाले ग्रंथों में किस तरह निरूपण हुआ है उनकी चर्चा कीजिए। जो भी समानता और विभिन्नता आप इन वृत्तांत में देखते हैं। उन्हें स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्वयं अध्ययन करके निष्कर्ष निकालें।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

प्रश्न 12.
कल्पना कीजिए कि आप एक लेखक हैं और एकलव्य की कथा को अपने दृष्टिकोण से लिखिए।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं सामाजिक स्थितियों का गहन अध्ययन करते हुए एकलव्य कथा को अपने दृष्टिकोण से लिखें।

बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज HBSE 12th Class History Notes

→ बहिर्विवाह किसी समूह से बाहर विवाह; जैसे कि गोत्र-बहिर्विवाह, ग्राम-बहिर्विवाह या फिर सपिंड-बहिर्विवाह।

→ अंतर्विवाह-अपने ही वर्ण, जाति, जनजाति में विवाह करना। धर्मशास्त्रों में अपने वर्ण अथवा जाति में ही विवाह पर बल दिया गया है।

→ सपिंड-बहिर्विवाह-स्मृतियों में एक ही पूर्वज को पिंडदान करने वाले तथा एक ही माता-पिता से उत्पन्न संतानों में विवाह निषेध बताया गया है। उन्हें ऐसे समूह से बाहर विवाह पर जोर दिया गया, जिन्हें सपिंड-बहिर्विवाह कहा गया।

अनुलोम विवाह-ऐसा अंतर्जातीय विवाह, जिसमें पुरुष उच्च वर्ण अथवा जाति का होता था, जबकि स्त्री निम्न वर्ण या जाति की होती थी।

→ प्रतिलोम विवाह ऐसा अंतर्जातीय विवाह जिसमें स्त्री उच्च वर्ण या जाति से होती थी जबकि पुरुष निम्न वर्ण या जाति से होता था।

→ पितृसत्तात्मक-ऐसे परिवार जिनमें वंश-परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि की ओर चलती हो।

→ मातृसत्तात्मक-ऐसे परिवार जिनमें वंश-परंपरा माँ से जुड़ी हो। इसमें लड़की का महत्त्व अधिक होता है।

→ बांधव समूह भाई-बंधुओं का एक बड़ा समूह जिसे समाज विज्ञान की भाषा में जाति समूह (Kinfolk) कहा गया है।

→ बहु-पत्नी प्रथा-एक पुरुष द्वारा एक से अधिक पत्नियाँ रखने की प्रथा।

→ धर्मशास्त्र-इनमें धर्मसूत्र, स्मृतियाँ और उन पर लिखी गई टीकाएं शामिल हैं। ये मुख्यतः प्राचीन भारत के सामाजिक कानूनों के ग्रंथ हैं।

→ वर्ण–’वर्ण’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘वरी’ धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है वरण (चयन) करना। कुछ विद्वान वर्ण का अर्थ ‘रंग’ मानते हैं।

→ समालोचनात्मक कार्य संस्कृत साहित्य के संदर्भ में समालोचनात्मक कार्य मूलकथा को खोजने का प्रयास होता है।

→ बहुपति प्रथा-एक स्त्री के एक से अधिक पति होना।

→ गोत्र-ऐसा समूह जो स्वयं को एक ही पूर्वज की संतान होने का दावा करता है।

→ श्रेणी-गिल्ड अथवा संगठन को श्रेणी कहा गया है। प्राचीन भारत में प्रायः शिल्पकार और व्यापारियों की श्रेणियाँ होती थीं।

→ स्त्रीधन-एक स्त्री को विवाह के समय पिता, पति, भाई इत्यादि से प्राप्त होने वाले उपहार अथवा भेंट। इन पर स्त्री का निजी अधिकार माना जाता था।

→ महाकाव्य-ऐसा विशाल काव्य-ग्रंथ जो किसी देश अथवा संप्रदाय के जीवन के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालता हो।

प्रस्तुत अध्याय में लगभग एक हजार वर्षों (लगभग 600 ई→ पू→ से 600 ईसवी) के दौरान भारत में हुए सामाजिक परिवर्तनों और सामाजिक संस्थाओं पर प्रकाश डाला गया है। हम जानते हैं कि वैदिक युग में पशुचारी कबीलाई समाज धीरे-धीरे रूपांतरित होता हुआ कृषक समाज में बदला। खेती के विकास के साथ-साथ दस्तकारियों की संख्या भी बढ़ती गई। समय बीतने के साथ अपने-अपने व्यवसाय में दक्ष कारीगरों के विभिन्न सामाजिक समूह उभरकर सामने आए। पुश्तैनी व्यवसाय करते-करते ये समूह कारीगर जातियों में बदलते गए। लेकिन यह सामाजिक विकास समानता पर आधारित नहीं था। इसमें संपत्ति का वितरण असमान होने के कारण आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं में वृद्धि होने लगी।

→ हम यहाँ बंधुत्व (परिवार) व विवाह नियमों का अध्ययन करते हुए इन आर्थिक व सामाजिक विभेदों का अध्ययन भी करेंगे। साथ ही यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि सामाजिक इतिहास लेखन में इतिहासकार साहित्यिक परंपराओं; जैसे कि महाभारत या रामायण का उपयोग कैसे करते हैं?

→ भारत में पितृवंशिक व्यवस्था का आदर्श ऋग्वैदिक काल से ही चला आ रहा था। शासक वर्ग ही नहीं, धनी वर्ग के लोग और ब्राह्मण भी संभवतः ऐसा ही दृष्टिकोण रखते थे। इस आदर्श को लेकर यदा-कदा अपवाद भी मिलते हैं। पुत्र के न होने पर कई बार तो एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था तो कभी बंधु-बांधव (kinsmen) राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लेते थे। कई बार कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में स्त्रियाँ भी सत्ता की उत्तराधिकारी बनीं।

→ विवाह संस्था का स्वरूप धार्मिक संस्कारों और नियमों से निर्धारित हुआ। इसका मूल उद्देश्य विवाह संबंधों में स्थायित्व कायम करना और पितृवंश को आगे बढ़ाना था। साथ ही भारत में जातीय व्यवस्था (Caste System) को स्थायित्व प्रदान करने में भी इसकी मुख्य भूमिका रही। यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पितृवंशिक व्यवस्था के अंतर्गत पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र का विशेष महत्त्व था, जबकि पुत्रियों को भिन्न दृष्टि से देखा गया। उन्हें पिता की संपत्ति में अधिकार नहीं मिला। साथ ही रक्त संबंधों से बाहर के परिवारों में उनका विवाह जरूरी माना गया। जबकि अंतर्विवाह प्रणाली (Endogamy) के अंतर्गत वर्ण अथवा जाति के अंदर ही विवाह को उत्तम माना गया। अतः वर्ण व जाति से बाहर विवाह वर्जित होता गया।

→ भारत में ‘जाति’ एक अनोखी व्यवस्था रही है। इस व्यवस्था में प्रत्येक जाति का समाज में ऊपर से नीचे तक स्थान निर्धारित था। अतः सामाजिक विषमता इसके इस स्वरूप में ही थी। ‘जाति’ का शाब्दिक अर्थ ‘जन्म’ है अर्थात् जाति एक ऐसा सामाजिक समूह है, जिसकी सदस्यता जन्मजात थी। एक जाति के सदस्यों का एक पुश्तैनी (वंशागत) व्यवसाय था और उस जाति के सदस्य अपनी ही जाति में विवाह करते थे। अन्य जातियों के साथ संबंधों में उच्च-निम्न तथा पवित्र-अपवित्रता के भावों का अहम स्थान रहा। जाति संबंधी आचार-संहिता धर्मशास्त्रों में स्पष्ट हुई, जिसे व्यवहार में बनाए रखने के लिए विभिन्न स्तरों पर प्रयास किए जाते रहे।

→ फिर भी वर्ण अथवा जाति-व्यवस्था पूर्णतः एक जड़-व्यवस्था नहीं रही है। इसमें आवश्यकतानुसार गतिशीलता रही है। उदाहरण के लिए, शुरू में वैश्य (विश के साधारण सदस्य) पशुचारक और किसान थे और शूद्र सेवक थे। धीरे-धीरे उन्नति करके वैश्य व्यापारी व जमींदार हो गए और शद्र कृषक बन गए, परंतु इस पर भी उन्हें वर्ण-व्यवस्था में द्विज का दर्जा नहीं मिला। विचाराधीन काल के अंत तक आते-आते उन्हें रामायण, महाभारत और पुराण जैसे ग्रंथों को सुनने का अधिकार मिला। उनकी स्थिति में कुछ सुधार आया।

→ वर्ण-व्यवस्था वाले समाज में सबसे निचले स्तर पर जो लोग थे, उन्हें चांडाल कहा जाता था। प्रायः धर्म-ग्रंथों में इनका वर्णन बहुत ही अपमानजनक है। उन्हें चोर, झूठे, झगड़ालू, लोभी, क्रोधी व अपवित्र बताया गया है। सामान्यतः इनका काम मृत-पशुओं को उठाना, उनकी खाल उतारना और उससे कई तरह का सामान बनाना, शवों का अंतिम संस्कार करना तथा सड़कों-गलियों की सफाई करना आदि था। इन कामों को दूषित और अपवित्र माना जाता था। यद्यपि ये सभी काम ‘सभ्य’ समाज के लिए निहायत ज़रूरी थे। धर्म-कर्म करने वाले ब्राह्मण स्वयं को सबसे पवित्र मानते थे।

→ उनका कहना तक उच्च वर्ण के लोगों को अपवित्र कर देता है। उन्हें ‘अस्पृश्य’ अथवा ‘अछूत’ बताया गया। वस्तुतः इस दृष्टिकोण ने सामाजिक विषमता को अमानवीय-स्तर तक पहुँचा दिया। फाहियान के विवरण से पता चलता है कि चाण्डाल शहर और गाँवों से बाहर अलग बस्तियों में रहते थे। ये लोग माँस का व्यवसाय करते थे। जब कभी वे नगर या गाँव में आते तो उन्हें अपने आने की सूचना किसी वस्तु से आवाज़ करके देनी पड़ती थी, ताकि स्वयं को पुनीत कहने वाले लोग उनके साये से बच सकें।

→ विचाराधीन काल में दास, भूमिहीन कृषि मज़दूर, शिकारी, मछुआरे, पशुपालक, किसान, ग्राम मुखिया, कारीगर-दस्तकार, व्यापारी तथा अधिकारी और राजा सभी भारत उप-महाद्वीप के विभिन्न भागों में समाज के अंग थे। इन सभी सामाजिक समुदायों एवं वर्गों का किसी-न-किसी रूप में आर्थिक क्रिया-कलापों में योगदान था, परंतु इनकी सामाजिक स्थिति एक समान नहीं थी। वस्तुतः समाज में उनका स्थान आर्थिक साधनों पर उनके नियंत्रण पर निर्भर करता था, जिनके पास भी ये साधन जितने अधिक थे उनकी समाज में स्थिति उतनी ही ऊँची थी। अधिकांश धर्मशास्त्र पति व पिता की संपत्ति में औरत की हिस्सेदारी को स्वीकार नहीं करते थे। स्वाभाविक तौर पर इससे समाज में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में गौण रही।

→ बौद्ध व्याख्या में सामाजिक विषमताओं को ईश्वर की देन या पूर्वजन्म का परिणाम नहीं बताया गया है, बल्कि इसके लिए लालसा को दोषी ठहराया। अतः बौद्ध व्याख्याकारों ने सामाजिक अंतर्विरोधों को दूर करने के लिए एक सामाजिक समझौते की व्याख्या दी। इसके अनुसार सामाजिक विषमता सदैव से नहीं थी। शुरू में न तो मानव पूर्ण रूप में विकसित था और न ही वनस्पति जगत। तब सभी जीव शांति की अवस्था में निवास करते थे। कोई तेरा-मेरा नहीं था। संचय की कोई प्रवृत्ति नहीं थी। यह व्यवस्था पतन की ओर तब बढ़ने लगी, जब मानव में लालसा, कपट, प्रतिहिंसा, मक्कारी और संचय जैसी भावनाएँ बलवती होने लगीं। स्पष्ट है कि इन भावनाओं से सामाजिक विषमताओं ने जन्म लिया। तब सब लोगों ने मिलकर विचार करके राजपद को मान्यता दी।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज

→ भारत की मूलकथा कौरवों व पांडवों के बीच लड़े गए संहारक युद्ध की है। ये दोनों चचेरे परिवार थे। इनमें यह युद्ध राजगद्दी व भू-क्षेत्र को लेकर हुआ। इस मुख्य कथा के अतिरिक्त महाभारत में कई तरह के मिथक, कथाएँ, वर्णन और उपदेश भी हैं। ग्रंथ तात्कालिक सामाजिक समुदायों के सामाजिक व्यवहार को भी दर्शाता है। शुरू में महाभारत की गाथा मौखिक तौर पर एक पीढ़ी से अलग पीढ़ी में चलती रही। कालांतर में इसे ब्राह्मण विद्वानों ने लिखित रूप दिया। फिर यह हस्तलिखित परंपरा में संप्रेषित होती रही।

→ इतिहासकार इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए साहित्यिक स्रोतों का उपयोग बड़ी सावधानी और विवेकपूर्ण तरीके से करते हैं। वे इस बात का ध्यान करते हैं कि अमुक ग्रंथ का लेखक कौन है, उसका सामाजिक दृष्टिकोण क्या है, क्योंकि लेखक भी अपने पूर्वाग्रहों से प्रभावित हो सकता है। वे ग्रंथ की भाषा पर भी विचार करते हैं। उदाहरण के लिए क्या वे ग्रंथ संस्कृत में हैं या फिर पालि, प्राकृत या तमिल जैसी भाषाओं में हैं। उल्लेखनीय है कि संस्कृत ब्राह्मण विद्वानों की भाषा थी तो जनसामान्य की भाषा पालि व प्राकृत थी।

→ इसलिए भाषा से संकेत मिलता है कि अमुक ग्रंथ किसी वर्ग विशेष में प्रचलित था अथवा सामान्य लोगों में। संस्कृत भी जटिल है या सरल, पद्य है या गद्य, यह पहलू भी विचारणीय होता है। इतिहासकार किसी ग्रंथ का अध्ययन करते समय उसके संभावित संकलन या रचना काल तथा उसके रचना क्षेत्र पर भी ध्यान देते हैं।

III. काल-रेखा

कालघटना का विवरण
लगभग 500 ई० पू०पाणिनि की (संस्कृत व्याकरण) अष्टाध्यायी की रचना
लगभग 500 से 200 ई० पू०धर्मसूत्रों का संस्कृत भाषा में रचनाकाल
लगभग 500 से 100 ई० पू०आरंभिक बौद्ध-ग्रंथों (त्रिपिटक सहित) का पालि भाषा में रचनाकाल
लगभग 500 ई० पू० से 400 ई०रामायण और महाभारत का संस्कृत भाषा का रचनाकाल
लगभग 200 ई० पू० से 200 ई०मनुस्मृति का रचनाकाल
405 से 411 ई०फाहियान भारत में रहा
630 से 643 ई०ह्यूनसांग भारत में रहा
1919 से 1966 ई०महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण परियोजना का काल
1973 ई०जे०ए०बी० वैन बियुटेनेन द्वारा महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण

के अंग्रेज़ी अनुवाद की शुरुआत

1978 ई०जे०ए०बी० वैन बियुटेनेन की मृत्यु

 

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HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

HBSE 12th Class History उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
ग्रामीण बंगाल के बहुत-से इलाकों में जोतदार एक ताकतवर हस्ती क्यों था?
उत्तर:
जोतदार बंगाल के गाँवों में संपन्न किसानों के समूह थे। गाँव के मुखिया भी इन्हीं में से होते थे। संक्षेप में इन जोतदारों की ताकत में वृद्धि होने के निम्नलिखित मुख्य कारण थे

1. ज़मीनों के वास्तविक मालिक-जोतदार गाँव में ज़मीनों के वास्तविक मालिक थे। कईयों के पास तो हजारों एकड़ भूमि थी। वे बटाइदारों से खेती करवाते थे। जो फसल का आधा भाग अपने पास और आधा जोतदार को दे देते थे। इससे जोतदारों की शक्ति में अत्यधिक वृद्धि होती चली गई।

2. व्यापारी तथा साहूकार-जोतदार केवल भू-स्वामी ही नहीं थे। उनका स्थानीय व्यापार व साहूकारी पर भी नियंत्रण था। वे एक व्यापारी, साहूकार तथा भूमिपति के रूप में अपने क्षेत्र के प्रभावशाली लोग थे।

3. भू-राजस्व भुगतान में जान-बूझकर देरी-जोतदार जान-बूझकर गाँव में ऐसा माहौल तैयार करवाते थे कि ज़मींदार के अधिकारी (अमला) गाँव से लगान न एकत्रित कर पाए। यह विलंब ज़मींदार के लिए कुड़की लेकर आता था। इससे जोतदार को लाभ मिलता था।

4. ज़मीन की खरीद-ज़मींदार की ज्यों ही ज़मीन की नीलामी होती थी, उसे प्रायः जोतदार ही खरीदता था। इससे उनकी शक्ति में और वृद्धि होती जाती थी और ज़मींदारों की शक्ति का दुर्बल होना स्वाभाविक था।

प्रश्न 2.
जमींदार लोग अपनी ज़मींदारियों पर किस प्रकार नियंत्रण बनाए रखते थे? उत्तर:ज़मींदारों ने अपनी सत्ता और ज़मींदारी बचाने के लिए निम्नलिखित तिकड़मबाजी लगाई

1. बेनामी खरीददारी-ज़मींदारों ने अपनी ज़मींदारी को बचाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण हथकंडा बेनामी खरीददारी का अपनाया। इसमें प्रायः ज़मींदार के अपने ही आदमी नीलाम की गई संपत्तियों को महँगी बोली देकर खरीद लेते थे। फिर वे देय राशि सरकार को नहीं देते थे। सरकार को पुनः उस ज़मीन को नीलाम करना पड़ता था और इस बार भी ज़मींदार के दूसरे एजेंट वैसा ही करते और सरकार को फिर राशि जमा नहीं करवाते।

यह प्रक्रिया तब तक दोहराई जाती जब तक सरकार और बोली लगाने वाले दोनों हार न जाते। बोली लगाने वाले नीलामी के समय आना ही छोड़ जाते थे। अन्ततः सरकार को वह ज़मींदारी पुराने ज़मींदार को देनी पड़ती थी।

2. ज़मीन का कब्जा न देना-यदि बाहर के शहरी धनी लोग अधिक बोली देकर ज़मीन खरीदने में सफल हो जाते थे तो ऐसे लोगों को कई बार ज़मींदार के लठैत (लठियाल) ज़मीन में प्रवेश ही नहीं करने देते थे। कई बार ज़मींदार अपनी रैयत को नए ज़मींदार के विरुद्ध भडका देते थे। या फिर रैयत की पुराने जमींदार के साथ लगाव व सहानुभूति होती थी। इस कारण से वह नए जमींदार को ज़मीन में घुसने ही नहीं देती थी।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

प्रश्न 3.
पहाड़िया लोगों ने बाहरी लोगों के आगमन पर कैसी प्रतिक्रिया दर्शाई?
उत्तर:
बाहरी लोगों का आगमन पहाड़िया लोगों के लिए जीवन का संकट बन गया था। उनके पहाड़ व जंगलों पर कब्जा करके खेत बनाए जा रहे थे। पहाड़िया लोगों में इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। पहाड़ियों के आक्रमणों में तेजी आती गई। अनाज व पशुओं की लूट के साथ इन्होंने अंग्रेजों की कोठियों, ज़मींदारों की कचहरियों तथा महाजनों के घर-बारों पर अपने मुखियाओं के नेतृत्व में संगठित हमले किए और लूटपाट की।

दूसरी ओर ब्रिटिश अधिकारियों ने दमन की क्रूर नीति अपनाई। उन्हें बेरहमी से मारा गया परंतु पहाड़िया लोग दुर्गम पहाड़ी गों में जाकर बाहरी लोगों (ज़मींदारों व जोतदारों) पर हमला करते रहे। ऐसे क्षेत्रों में अंग्रेज़ों के सैन्य बलों के लिए भी इनसे निपटना आसान नहीं था।

ऐसे में ब्रिटिश अधिकारियों ने शांति संधि के प्रयास शुरू किए। जिसमें उन्हें वार्षिक भत्ते की पेशकश की गई। बदले में उनसे यह आश्वासन चाहा कि वे शांति व्यवस्था बनाए रखेंगे। उल्लेखनीय है कि अधिकतर मुखियाओं ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। जिन कुछ मुखियाओं ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया था, उन्हें पहाड़िया लोगों ने पसंद नहीं किया।

प्रश्न 4.
संथालों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह क्यों किया?
अथवा
संथालों के विद्रोह के क्या कारण थे?
उत्तर:
संथालों के विद्रोह के निम्नलिखित कारण थे
(1) उनकी ज़मीनें धीरे-धीरे उनके हाथों से निकलकर ज़मींदारों और साहूकारों के हाथों में जाने लगीं। साहूकार और ज़मींदार उनकी ज़मीनों के मालिक बनने लगे। महेशपुर और पाकुड़ के पड़ोसी राजाओं ने संथालों के गाँवों को आगे छोटे ज़मींदारों व साहूकारों को पट्टे पर दे दिया। वे मनमाना लगान वसूल करने लगे।

(2) इससे शोषण व उत्पीड़न का चक्र शुरू हुआ। लगान अदा न कर पाने की स्थिति में संथाल किसान साहूकारों से ऋण लेने के लिए विवश हुए। साहूकार ने 50 से 500 प्रतिशत तक सूद वसूल किया।

(3) किसान की दरिद्रता बढ़ने लगी। वे ज़मींदारों के अर्ध-दास व श्रमिक बनने लगे।

(4) सरकारी अधिकारी, पुलिस, थानेदार सभी महाजनों का पक्ष लेते थे। वे स्वयं भी संथालों से बेगार लेते थे। यहाँ तक कि संथाल कृषकों की स्त्रियों की इज्जत भी सुरक्षित नहीं थी। अतः दीकुओं (बाहरी लोगों) के विरुद्ध संथालों का विद्रोह फूट पड़ा।

प्रश्न 5.
दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति क्रुद्ध क्यों थे?
उत्तर:
1870 ई० के आसपास दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति अत्यधिक क्रुद्ध थे। विद्रोह के दौरान उन्होंने उनके बही-खाते और कई जगह तो घरों को भी जला डाला था। वास्तव में अमेरिकी गृह युद्ध के बाद उनके लिए ऋण का स्रोत सूख गया था। उन्हें ऋण मिलना बंद हो गया था।

जब साहूकारों ने उधार देने से मना किया तो किसानों को बहुत गुस्सा आया। क्योंकि परंपरागत ग्रामीण व्यवस्था में न तो अधिक ब्याज लिया जाता था और न ही मुसीबत के समय उधार से मनाही की जाती थी। किसान विशेषतः इस बात पर अधिक नाराज़ थे कि साहूकार वर्ग इतना संवेदनहीन हो गया है कि वह उनके हालात पर रहम नहीं खा रहा है। सन् 1874 में साहूकारों ने भू-राजस्व चुकाने के लिए किसानों को उधार देने से स्पष्ट इंकार कर दिया था।

वे सरकार के इस कानून को नहीं मान रहे थे कि चल-सम्पत्ति की नीलामी से यदि उधार की राशि पूरी न हो तभी साहूकार जमीन की नीलामी करवाएँ। अब उधार न मिलने से मामला और भी जटिल हो गया। किसान विद्रोही हो उठे।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद बहुत-सी ज़मींदारियाँ क्यों नीलाम कर दी गईं?
उत्तर:
इस्तमरारी बंदोबस्त यानी ज़मींदारी प्रथा के कारण बहुत-से ज़मींदारों की ज़मींदारियाँ नीलाम कर दी गई थीं क्योंकि वे समय पर सरकार को देय राशि का भुगतान नहीं कर पाते थे। इस प्रणाली के अंतर्गत राजस्व की दर बहुत ऊँची निर्धारित की गई थी। जिस दशक में यह बंदोबस्त लागू किया गया था, उसी दशक में मंदी का दौर चल रहा था। इसलिए रैयत (किसान) अपने लगान को चुकाने की स्थिति में ही नहीं था। दूसरी ओर, कंपनी सरकार ने ज़मींदारों की सैनिक व प्रशासनिक शक्तियों को कम कर दिया था।

उनके सैनिक दस्ते भंग कर दिए थे। पुलिस और न्याय के अधिकार भी छीन लिए थे। अब वे किसानों से डंडे के बल पर लगान वसूल नहीं कर सकते थे। वे लगान न देने वाले किसानों के खिलाफ न्यायालय में तो जा सकते थे परंतु न्यायालयों में न्याय की प्रक्रिया काफी लंबी थी। उदाहरण के लिए बर्दवान जिले में ही 1798 में 30,000 से अधिक मुकद्दमें बाकीदारों के विरुद्ध लम्बित थे।

सरकार का राजस्व वसूली का रवैया बहुत ही कठोर था। इसके लिए सूर्यास्त विधि (Sunset Law) का अनुसरण किया गया था अर्थात् निश्चित तारीख को सूर्य छिपने तक देय राशि का भुगतान न करने वाले ज़मींदारों की ज़मींदारियाँ नीलाम कर दी जाती थीं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि संपन्न ग्रामीण वर्ग (जोतदार और धनी किसान) भी ज़मींदार की नीलामी से खुश होता था। वह सामान्य किसानों (रैयत) को ज़मींदार के विरुद्ध लगान न देने के लिए प्रोत्साहित भी करता था।

कई बार तो फसल न होने पर और कई बार तो जान-बूझकर भी वह ज़मींदार को लगान नहीं देता था। उसे यह पता था कि ज़मींदार सैनिक कार्रवाई नहीं कर सकता और न्यायालय में मुकद्दमों का आसानी से निर्णय नहीं हो सकता। अतः यही वे परिस्थितियाँ थीं जिनमें इस्तमरारी प्रथा के चलते बहुत-सी ज़मींदारियाँ 18वीं सदी के अंतिम दशक में नीलाम कर दी गई थीं।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

प्रश्न 7.
पहाड़िया लोगों की आजीविका संथालों की आजीविका से किस रूप में भिन्न थी?
उत्तर:
पहाड़िया और संथाल दो जनजातियाँ थीं। लेकिन दोनों की आजीविका के साधनों में अंतर था। संथाल पहाड़ियों की. अपेक्षा अग्रणी बाशिंदे थे।
दोनों जनजातियों की आजीविका के साधनों में अंतर को निम्नलिखित तरीके से स्पष्ट किया जा सकता है

पहाड़िया लोगों की आजीविकासंथालों की आजीविका
1. पहाड़िया लोगों की खेती कुदाल (Hoe) पर आधारित थी। ये राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहते थे। वे हल को हाथ लगाना पाप समझते थे।1. संथाल हल (Plough) की खेती यानी स्थायी कृषि सीख रहे थे। ये गंजुरिया पहाड़ियों की तलहटी में रहने वाले लोग थे।
2. पहाड़िया लोग झूम की खेती करते थे। वे झाड़ियों को काटकर व घास-फूँस को जलाकर एक छोटा-सा ज़मीन का टुकड़ा निकाल लेते थे। यह छोटा-सा खेत पर्याप्त उपजाऊ होता था। घास व झाड़ियों के जलने से बनी राख उसे और भी उपजाऊ बना देती थी। ये लोग साधारण कृषि औजार-कुदाल से ज़मीन को थोड़ा खुरचकर खेती करते थे। कुछ वर्षों तक उसमें खाने के लिए विभिन्न तरह की दालें और ज्वार-बाजरा उगाते और फिर कुछ वर्षों के लिए उसे खाली (परती) छोड़ देते, ताकि यह पुनः उर्वर हो जाए।2. यह अपेक्षाकृत स्थायी प्रवृत्ति के थे। ये परिश्रमी थे और इन्हें खेती की समझ थी। इसलिए जमींदार लोग इन्हें नई भूमि निकालने तथा खेती करने के लिए मजदूरी पर रखते थे।
3. कृषि के अतिरिक्त शिकार व जंगल के उत्पाद पहाड़िया लोगों की आजीविका के साधन थे। वे काठ कोयला बनाने के लिए जंगल से लकड़ियाँ एकत्र करते थे। खाने के लिए महुआ नामक पौधे के फूल एकत्र करते थे। जंगल से रेशम के कीड़े के कोया (Silkcocoons) एवं राल (Resin) एकत्रित करके बेचते थे।3. संथाल जंगल तोड़कर अपनी जमीनें निकालकर खेती करने लगे। वे पहाड़िया लोगों के क्षेत्रों में घुसे आ रहे थे। वे नए निकाले खेतों में तम्बाकू सरसों, कपास तथा चावल की खेती करते थे।
4. पहाड़िया लोग जंगलों को बर्बाद करके उस क्षेत्र में हल नहीं चलाना चाहते थे। वे बाजार के लिए खेती नहीं चाहते थे।4. ये जंगलों को तोड़कर खेती कसने में परहेज नहीं करते थे।

प्रश्न 8.

अमेरिकी गृहयुद्ध ने भारत में रैयत समुदाय के जीवन को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर:
अमेरिका में गृहयुद्ध सन् 1861 से 1865 के बीच हुआ। इस गृहयुद्ध के दौरान भारत की रैयत को खूब लाभ मिला। कपास की कीमतों में अचानक उछाल आया क्योंकि इंग्लैंड के उद्योगों को अमेरिका से कपास मिलना बंद हो गया था। भारतीय कपास की माँग बढ़ने के कारण कपास उत्पादक रैयत को ऋण की भी समस्या नहीं रही। कपास सौदागरों ने बंबई दक्कन के जिलों में कपास उत्पादन का आँकलन किया।

किसानों को अधिक कपास उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया। कपास निर्यातकों ने शहरी साहकारों को पेशगी राशियाँ दी ताकि वे ये राशियाँ ग्रामीण ऋणदाताओं को उपलब्ध करवा सकें और वे आगे किसानों की आवश्यकताओं के अनुरूप उन्हें उधार दे सकें।

निर्यातक, साहूकार, व्यापारी तथा किसान सभी अपने-अपने मुनाफे के लिए कपास की पैदावार बढ़ाने के लिए प्रयत्न करने लगे। ऋण की समस्या अब किसानों के लिए नहीं थी। साहूकार भी अपनी उधार राशि की वापसी के लिए आश्वस्त था।

दक्कन के ग्रामीण क्षेत्रों में इसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। किसानों को लंबी अवधि के ऋण प्राप्त हुए। कपास उगाई जाने वाली प्रत्येक एकड़ भूमि पर सौ रुपए तक की पेशगी राशि किसानों को दी गई। चार साल के अंदर ही कपास पैदा करने वाली ज़मीन दो गुणी हो गई। 1862 ई० तक स्थिति यह थी कि इंग्लैंड में आयात होने वाले कुल कपास आयात का 90% भाग भारत से जा रहा था। बंबई में दक्कन में कपास उत्पादक क्षेत्रों में इससे समृद्धि आई।

यद्यपि इस समृद्धि का लाभ मुख्य तौर पर धनी किसानों को ही हुआ। गरीब किसान इस तेजी के दौर में भी साहूकार के कर्ज से निकल नहीं पाए। परंतु ज्यों ही गृहयुद्ध समाप्त हुआ। पुनः अमेरिका से कपास ब्रिटेन में आयात होने लगी। भारतीय रैयत का माल बिकना कम हो गया। साथ में उनका ऋण स्रोत भी सूख गया। इससे उनमें आक्रोश बढ़ा।

प्रश्न 9.
किसानों का इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों के उपयोग के बारे में क्या समस्याएँ आती हैं?
उत्तर:
इतिहासकारों को किसानों संबंधी इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों के उपयोग के दौरान कई तरह की समस्याएँ आती हैं; जैसे कि ये स्रोत निष्पक्ष नहीं होते। राजस्व अभिलेख, विभिन्न दंगा आयोग की रिपोर्ट, सरकार द्वारा नियुक्त सर्वेक्षणकर्ताओं की रिपोर्ट, प्रशासनिक पत्राचार, अधिकारियों के निजी कागज-पत्र तथा उनकी डायरी वृत्तांत इत्यादि सभी दस्तावेज सरकारी स्रोत कहे जाते हैं।

इन सरकारी स्रोतों के आधार पर किसानों संबंधी इतिहास लिखने में सबसे बड़ी समस्या होती है उन स्रोतों के ‘उद्देश्य एवं दृष्टिकोण’ की खोज-बीन करना। क्योंकि वे किसी-न-किसी रूप में सरकारी दृष्टिकोण एवं अभिप्राय के पक्षधर होते हैं। वे निष्पक्ष नहीं होते। उदाहरण के लिए ‘दक्कन दंगा आयोग’ नियुक्ति का उद्देश्य यह पता लगाना था कि सरकारी राजस्व की माँग का विद्रोह के साथ क्या संबंध था अर्थात् क्या किसान राजस्व की ऊँची दर के कारण विद्रोही हुए थे या फिर इसके अन्य कारण थे। जाँच-पड़ताल के बाद रिपोर्ट में आयोग ने स्पष्ट किया कि सरकारी माँग किसानों के आक्रोश का कारण बिल्कुल नहीं थी।

इसके लिए साहूकार तथा उनके हथकंडे ही उत्तरदायी थे। परन्तु साहूकार की शरण में किसान क्यों जाने के लिए विवश हुआ, यहाँ आयोग निष्पक्ष नहीं रहा। राजस्व की ऊँची दर और उसे वसूलने के तरीके, विशेषतः मंदी व प्राकृतिक आपदाएँ (अकालों आदि) ही किसान को साहूकार के चंगुल में फंसाती थीं। आयोग ने इन सब बातों को उत्तरदायी नहीं माना। अतः स्पष्ट है कि आयोग सरकार का पक्ष ले रहा था। औपनिवेशिक सरकार अपने दोष को स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। ध्यान रहे सरकारी रिपोर्ट इतिहास-लेखन में बहुमूल्य स्रोत तो होते हैं, लेकिन उन्हें सदैव सावधानीपूर्वक पढ़ना चाहिए। साथ ही समाचार-पत्रों, गैर सरकारी वृत्तांतों, वैधिक अभिलेखों तथा यथासंभव मौखिक स्रोतों के साक्ष्यों से मिलान करना चाहिए।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
उपमहाद्वीप के बाह्यरेखा मानचित्र (खाके) में इस अध्याय में वर्णित क्षेत्रों को अंकित कीजिए। यह भी पता लगाइए कि क्या ऐसे भी कोई इलाके थे जहाँ इस्तमरारी बंदोबस्त और रैयतवाड़ी व्यवस्था लागू थी। ऐसे इलाकों को मानचित्र में भी अंकित कीजिए।
उत्तर:
उपमहाद्वीप में कई ऐसे क्षेत्र थे जहाँ दोनों प्रणालियाँ लागू की गई थीं जैसे कि बंगाल (बिहार, उड़ीसा सहित), मद्रास . प्रेजीडेंसी, सूरत, बंबई प्रेजीडेंसी, मद्रास के कुछ इलाके, उत्तर पूर्वी भारत में पड़ने वाले पहाड़िया और संथाल लोगों के स्थान।

इस्तमरारी बंदोबस्त मुख्यतः बंगाल बिहार व उड़ीसा क्षेत्र में लागू किया गया था। यह ब्रिटिश भारत के लगभग 19% भाग पर लागू थी।

रैयतवाड़ी प्रणाली को सन् 1820 तक मद्रास, बंबई के कुछ भागों, बर्मा तथा बरार, आसाम व कुर्ग के कुछ क्षेत्रों में लागू किया गया। इसमें कुल मिलाकर ब्रिटिश भारत की कुल भूमि के 51 प्रतिशत हिस्से को शामिल किया गया।

परियोजना कार्य

प्रश्न 11.
फ्रांसिस बुकानन ने पूर्वी भारत के अनेक जिलों के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित की थीं। उनमें से एक रिपोर्ट पढ़िए और इस अध्याय में चर्चित विषयों पर ध्यान केंद्रित करते हुए उस रिपोर्ट में ग्रामीण समाज के बारे में उपलब्ध जानकारी को संकलित कीजिए। यह भी बताइए कि इतिहासकार लोग ऐसी रिपोर्टों का किस प्रकार उपयोग कर सकते हैं।
उत्तर:
विद्यार्थी अपने अध्यापक के दिशा निर्देश में परियोजना रिपोर्ट तैयार करें।

प्रश्न 12.
आप जिस क्षेत्र में रहते हैं, वहाँ के ग्रामीण समदाय के वद्धजनों से चर्चा कीजिए और उन खेतों में जाइए जिन्हें वे अब जोतते हैं। यह पता लगाइए कि वे क्या पैदा करते हैं, वे अपनी रोजी-रोटी कैसे कमाते हैं, उनके माता-पिता क्या करते थे, उनके बेटे-बेटियाँ अब क्या करती हैं और पिछले 75 सालों में उनके जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए हैं। अपने निष्कर्षों के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी इसके लिए गाँव के सरपंच, नंबरदार तथा वृद्धजनों से सूचना प्राप्त करें। यथासंभव गाँव संबंधी रिकॉर्ड को देखें। साक्षात्कारों और विभिन्न रिकॉर्डस के आधार पर अपने अध्यापक के निर्देशन में ‘प्रोजेक्ट रिपोर्ट’ बनाएँ।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन HBSE 12th Class History Notes

→ उपनिवेशवाद-यह वह विचारधारा है जिसके अंतर्गत किसी देश, राष्ट्र या संप्रदाय को अन्य राष्ट्र या समुदाय के लोगों द्वारा अधीन बनाकर विभिन्न क्षेत्रों (आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक) को प्रभावित करने के लिए प्रेरित करती है।

→ साम्राज्यवाद-जब कोई एक राष्ट्र किसी अन्य राष्ट्र या उसके किसी भू-क्षेत्र पर राजनीतिक अधिकार स्थापित करके अपने हितों की पूर्ति करता है, तो उसे साम्राज्यवाद कहते हैं। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का परस्पर गहरा संबंध होता है।

→ औपनिवेशिक व्यवस्था-ऐसी व्यवस्था जिसका विकास उपनिवेशवाद की विचारधारा के तहत हुआ हो। उदाहरण के लिए भारत में अंग्रेजों की व्यवस्था औपनिवेशिक थी। अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए उन्होंने भारत में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन किए।

→ अभिलेखागार-उस स्थान को कहा जाता है जहाँ पुराने दस्तावेज, सरकारी रिपोर्ट, फाइलें, वैधिक निर्णय, अभियोग, याचिकाएँ, डायरियाँ, समाचार पत्र-पत्रिकाएँ इत्यादि सुरक्षित रखे जाते हैं जिन्हें शोधकर्ता उपयोग करते हैं और अपने निष्कर्षों के साथ इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं।

→ ताल्लकेदार-यह शब्द ज़मींदारों के लिए प्रयोग में आता है। लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ है वह व्यक्ति जिसके साथ ताल्लुक (संबंध) हो। आगे चलकर ताल्लुक का अर्थ क्षेत्रीय इकाई हो गया था।

→ राजा-बंगाल में 18वीं सदी में ‘राजा’ शब्द का प्रयोग प्रायः शक्तिशाली ज़मींदारों के लिए किया जाता था। इनके पास अपने न्यायिक और सैनिक अधिकार होते थे। ये नवाब को अपना ज़मींदारी-राजस्व देते थे। वैसे काफी सीमा तक ये स्वायत्त थे।

→ ज़मींदार-बंगाल के ‘राजाओं’ तथा ‘ताल्लुकेदारों को इस्तमरारी बंदोबस्त (Permanent Settlement) के तहत ‘जमींदारों’ के रूप में वर्गीकृत किया गया। उन्हें सरकार को निर्धारित राजस्व निश्चित समय पर देना होता था। इस परिभाषा के अनुसार वे गाँव में भू-स्वामी नहीं थे, बल्कि भू-राजस्व समाहर्ता यानी संग्राहक मात्र थे।

→ जोतदार-उत्तरी बंगाल में जोतदार धनी किसानों को कहा जाता था। कुछ जोतदार तो हजारों एकड़ के मालिक थे। वे अपनी खेती बटाईदारों (बरगादारों या अधियारों) से करवाते थे।

→ रैयत-अंग्रेज़ों के विवरणों में रैयत’ शब्द का प्रयोग किसानों के लिए किया जाता था। गाँव का प्रत्येक छोटा या बड़ा रैयत ज़मींदार को लगान अदा करता था।

→ शिकमी रैयत-रैयत (किसान) कुछ ज़मीन तो स्वयं जोतते थे और कुछ आगे बटाईदारों को जोतने के लिए दे देते थे। ये बटाईदार किसान शिकमी रैयत कहलाते थे। ये रैयत को फसल का हिस्सा (लगान) देते थे।

→ अमला-ज़मींदार का वह अधिकारी जो गाँव में रैयत से लगान एकत्र करने आता था।

→ जमा-गाँव की भूमि का कुल लगान।

→ लठियाल-लाठीवाला। बंगाल में ज़मींदार के लठैतों को लठियाल कहा जाता था।

→ बेनामी-इसका शाब्दिक अर्थ है ‘गुमनाम’, किसी फर्जी व्यक्ति के नाम से किए जाने वाले सौदे। इसमें असली फायदा उठाने वाले व्यक्ति का नाम सामने नहीं आता।

→ हवलदार या गाँटीदार या मंडल-उत्तरी बंगाल में जोतदार गाँवों में मुखिया (मुकद्दम) बनकर उभरे, लेकिन अन्य भागों में ऐसे धनी प्रभावशाली मुखियाओं को हवलदार या गाँटीदार (Gantidars) या मंडल कहा जाता था।

→ महालदारी-भूमि बंदोबस्त, जिसमें महाल अथवा गाँव को इकाई मानकर राजस्व की माँग निर्धारित की गई। यह मुख्यतः उत्तर भारत में लागू किया गया।

→ साहूकार-यह ऐसा व्यक्ति होता था जो पैसा ब्याज पर उधार देता था और साथ ही व्यापार भी करता था।

→ किरायाजीवी-यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग में लाया गया जो अपनी सम्पत्ति की आय पर जीवनयापन करते हैं।

→ योमॅन कंपनी के शासनकाल के रिकॉर्ड में छोटे किसान को ‘योमॅन’ कहा गया।

→ ताम्रपट्टोत्कीर्णन या एक्वाटिंट-ऐसी तस्वीर होती है जो ताम्रपट्टी में अम्ल (Acid) की सहायता से चित्र के रूप में कटाई करके बनाई जाती है।

→ इस अध्याय का संबंध औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था के उन प्रभावों से है, जो भारत के गाँवों पर पड़े। उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश राज के कारण देहाती समाज की परंपरागत व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। कुछ लोग धनवान और कुछ गरीब हो गए। बहुत-से लोगों के हाथों से गुजर-बसर के साधन तक छिन गए। राजस्व की ऊँची दर निर्धारित करने से किसानों के जीवन पर काफी बुरा असर हुआ। वे साहूकारी के जाल में फँसते गए।

→ अन्यायपूर्ण सरकारी कानूनों के प्रति किसानों की प्रतिक्रिया विद्रोहों के रूप में हुई। इस अध्याय में बंगाल तथा बंबई दक्कन के देहात में हुए परिवर्तनों को ही अध्ययन का आधार बनाया गया है।

→ सन् 1793 में गवर्नर-जनरल लॉर्ड कार्नवालिस ने बंगाल में भू-राजस्व की एक नई प्रणाली अपनाई, जिसे ‘ज़मींदारी प्रथा’, ‘स्थायी बंदोबस्त’ अथवा ‘इस्तमरारी-प्रथा’ कहा गया। यह प्रणाली बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा बनारस व उत्तरी कर्नाटक में लागू की गई थी। इस व्यवस्था से सरकार की आय निश्चित हो गई और प्रशासन व व्यापार दोनों को नियमित करने में लाभ हुआ। परन्तु यह बंगाल की अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं कर सकी।

→ कालांतर में यह प्रणाली कंपनी के लिए भी आर्थिक तौर पर घाटे की सिद्ध हुई। साथ ही इसमें रैयत को ज़मींदारों की दया पर छोड़ दिया गया था। उनके हितों की पूरी तरह उपेक्षा की गई। शीघ्र ही कंपनी अधिकारियों को इसमें एक आर्थिक बुराई और भी नज़र आने लगी। इस व्यवस्था में समय-समय पर भूमिकर में वृद्धि का अधिकार सरकार के पास नहीं था।

→ प्रारंभ में स्थाई बंदोबस्त ज़मींदारों के लिए काफी हानिप्रद सिद्ध हुआ। बहुत-से ज़मींदार सरकार को निर्धारित भूमि-कर का भुगतान समय पर नहीं कर सके। परिणामस्वरूप उन्हें उनकी ज़मींदारी से वंचित कर दिया गया। समकालीन स्रोतों से ज्ञात होता है कि बर्दवान के राजा (शक्तिशाली ज़मींदार) की ज़मींदारी के अनेक महाल (भू-संपदाएँ) सार्वजनिक तौर पर नीलाम किए गए थे।

→ ध्यान रहे ये ज़मींदार अपनी ज़मींदारियों को बचाने के लिए तरह-तरह की तिकड़मबाजी भी लगाते थे। इस व्यवस्था के चलते गाँवों के संपन्न किसान समूहों एवं जोतदारों को शक्तिशाली होने का अवसर मिला।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात : सरकारी अभिलेखों का अध्ययन

→ बंगाल में जिस अवधि के परिवर्तनों पर हम विचार कर रहे हैं उसका एक प्रमुख समकालीन स्रोत 1813 में ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत की गई एक रिपोर्ट है। यह पाँचवीं रिपोर्ट’ के नाम से जानी गई। इसमें 1002 पृष्ठ थे जिनमें से 800 से अधिक पृष्ठों में परिशिष्ट लगाए गए थे। इन परिशिष्टों में भू-राजस्व से संबंधित आंकड़ों की तालिकाएँ, अधिकारियों की बंगाल व मद्रास में राजस्व व न्यायिक प्रशासन पर लिखी गई टिप्पणियाँ, जिला कलेक्टरों की अपने अधीन भू-राजस्व व्यवस्था पर रिपोर्ट तथा ज़मींदारों एवं रैयतों के आवेदन पत्रों को सम्मिलित किया गया था।

→ ये साक्ष्य इतिहास लेखन के लिए बहुमूल्य हैं। लेकिन यह कोई निष्पक्ष रिपोर्ट नहीं कही जा सकती। इसका अध्ययन सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए। जो प्रवर समिति के सदस्य इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले थे उनका प्रमुख उद्देश्य कंपनी के कुप्रशासन की आलोचना करना था। राजस्व प्रशासन की कमियों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया।

→ इस अध्याय के एक भाग में ‘पहाड़िया’ और ‘संथालों’ के जीवन पर पड़े प्रभावों को बहुत ही गम्भीरता से वर्णित किया गया है। राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहने वाले पहाड़िया लोगों की खेती तो अभी कुदाल (Hoe) पर आधारित ही थी। जबकि गंजुरिया पहाड़ियों की तलहटी में रहने वाले संथाल हल (Plough) की खेती यानी स्थायी कृषि सीख रहे थे। अंग्रेजों ने अपने हितों के लिए पहाड़िया और संथालों के जीवन में हस्तक्षेप करके उनके परंपरागत जीवन को बदला दिया था। फिर पहाड़िया और संथालों की प्रतिक्रिया काफी तीखी हुई।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 10 Img 1

→ सन् 1855-56 में तो संथालों का आक्रोश एक ज़बरदस्त सशस्त्र विद्रोह के रूप में फूट पड़ा। जून को भगनीडीट गाँव में लगभग 400 आदिवासी गाँवों से करीब 6,000 आदिवासी प्रतिनिधियों की सभा हुई जिसमें एक स्वर से खले विद्रोह का आह्वान किया गया। विद्रोह के नेता सीदो, कान्ह, चाँद और भैरव थे। ये चारो भाई थे। सीदो (सिधू मांझी) ने स्वयं को देवीपुरुष बताया और संथालों के भगवान् ‘ठाकुर’ का अवतार घोषित किया। संथालों को विश्वास था कि भगवान् उनके साथ हैं। ये नेता हाथी, घोड़े और पालकी पर चलते थे।

→ गाँव-गाँव में ढोल, नगाड़ों के साथ जुलूस निकालकर विद्रोह का आह्वान किया गया। एक अनुमान के अनुसार लगभग 60,000 सशस्त्र संथाल संगठित हो गए थे। इन्होंने महाजनों, ज़मींदारों के घरों को जला दिया, जमकर लूटपाट की तथा उन बही-खातों को भी बर्बाद कर दिया जिनके कारण वे गुलाम हो गए थे।

→  चूंकि अंग्रेज़ सरकार महाजनों और ज़मींदारों का पक्ष ले रही थी। अतः संथालों ने सरकारी कार्यालयों, पुलिस कर्मचारियों पर हमले किए। थानों में आग लगा दी। भागलपुर और राजमहल के बीच रेल, डाक और तार सेवा को तहस-नहस कर दिया।
HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 10 Img 2
→ विद्रोहियों को कुचलने के लिए सेना ने कत्लेआम मचा दिया। गाँव-के-गाँव जलाकर राख कर दिए। निःसंदेह संथालों ने वीरतापूर्वक अंग्रेज़ी सेना का मुकाबला किया, परन्तु सीधे तीर-धनुष और छापामार युद्ध के सहारे तोपों और गोलियों के सामने अधिक समय तक नहीं टिक सके। लगभग 15,000 संथाल मारे गए। 1855 ई० में सीदो को पकड़कर मार डाला गया। 1856 ई० में कान्हू को भी पकड़ लिया गया।

→ 1875 का दक्कन विद्रोह-यह विद्रोह 12 मई, 1875 को महाराष्ट्र के एक बड़े गाँव सूपा (Supe) से शुरू हुआ। दो महीनों के अंदर यह पूना और अहमदनगर के दूसरे बहुत-से गाँवों में फैल गया। 100 कि०मी० पूर्व से पश्चिम तथा 65 कि०मी० उत्तर से दक्षिण के बीच लगभग 6500 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र इसकी चपेट में आ गया। हर जगह गुजराती और मारवाड़ी महाजनों और साहूकारों पर आक्रमण हुए।

→ उन्होंने साहूकारों से उनके ऋण-पत्र (debt bonds) और बही-खाते (Account books) छीन लिए और उन्हें जला दिया। जिन साहूकारों ने बही-खाते और ऋण-पत्र देने का विरोध किया, उन्हें मारा-पीटा गया। उनके घरों को भी जला दिया गया। इसके अलावा अनाज की दुकानें लूट ली गईं।

→ यह विद्रोह मात्र अनाज के लिए दंगा’ (Grain Riots) नहीं था। किसानों का निशाना साफ तौर पर ‘कानूनी दस्तावेज’ (Legal Documents) थे। इस विद्रोह के फैलने से ब्रिटिश अधिकारी भी घबराए। उन्होंने इस इलाके को सेना के हवाले करना पड़ा। 95 किसानों को गिरफ्तार करके दंडित किया गया।

→ विद्रोह पर नियंत्रण के बाद भी स्थिति पर नज़र रखी गई। किसानों के इन विद्रोहों का संबंध देहाती अर्थव्यवस्था में उन परिवर्तनों से है जो ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों से आए। विशेषतः इन नीतियों के चलते साहकास और कृषकों के मध्य परंपसुगत संबंध समाप्त हो गए।

→ ऋण-प्राप्ति और उसकी वापसी दोनों ही दक्कन के किसानों के लिए एक जटिल प्रक्रिया थी। परंपरागत साहूकारी कारोबार में कानूनी दस्तावेजों का इतना झंझट नहीं था। जुबान अथवा वायदा ही पर्याप्त था। क्योंकि किसी सौदे के लिए परस्पर सामाजिक दबाव रहता था। ब्रिटिश अधिकारी वर्ग बिना विधिसम्मत अनुबंधों को संदेह की दृष्टि से देखते थे। जुबानी लेन-देन कानून के दायरे में कोई महत्त्व नहीं रखता था जबकि परंपरागत प्रणाली में गाँव की पंचायत महत्त्व देती थी।

→ कर्ज में डूबे किसान को जब और उधार की जरूरत पड़ती तो केवल एक ही तरीके से यह संभव हो पाता कि वह ज़मीन, गाड़ी, हल-बैल ऋण दाता को दे दे। फिर भी जीवन के लिए तो उसे कुछ-न-कुछ साधन चाहिए थे। अतः वह इन साधनों को साहूकार से किराए पर लेता था जो वास्तव में उसके अपने ही होते थे।

क्रम संख्याकालघटना का विवरण
1 .1757अंग्रेज़ों व सिराजुद्दौला के मध्य प्लासी की लड़ाई हुई।
2 .1764बक्सर की लड़ाई।
3 .1765इलाहाबाद की संधि हुई।
4 .1772वारेन हेस्टिग्स बंगाल का गवर्नर बनकर आया जिसे 1773 में गवर्नर जनरल बनाया गया।
5 .1773कंपनी की सैनिक व राजनीतिक गतिविधियों पर नियंत्रण रखने के लिए रेग्यूलेटिंग एक्ट पास किया गया।
6 .1784रेग्यूलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने के लिए ‘पिट्स इंडिया एक्ट’ पास किया गया।
7 .1793स्थायी बंदोबस्त (इस्तमरारी अथवा ज़मींदारी) लॉर्ड कार्नवालिस ने लागू किया।
8 .1780 का दशकसंथाल बंगाल में आए और ज़मींदारों के खेतों में काम करने लगे।
9 .1800 का दशकसंथाल जनजाति के लोग राजमहल की पहाड़ियों में आकर बसने लगे।
10 .1813‘पाँचवीं रिपोर्ट’ ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत की गई।
11 .1818पहला भू-राजस्व बंदोबस्त, बंबई दक्कन में।
12 .1820 के दशककृषि उत्पादों के मूल्यों में गिरावट का प्रारंभ।
13 .1832-34
14 .1855-56बंबई दक्कन में भयंकर अकाल। आधी जनसंख्या समाप्त हो गई। संथालों का विद्रोह।
15 .1855संथाल नेता सीदो की हत्या की गई।
16 .1861-65अमेरिका गह यद्ध।

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HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए-

1. मुग़ल शब्द की उत्पत्ति हुई है
(A) मंगोल से
(B) मोगोल से
(C) मोगिल से
(D) मोगोर से
उत्तर:
(A) मंगोल से

2. मुगलों की मातृभाषा क्या थी?
(A) तुर्की
(B) अरबी
(C) फारसी
(D) उर्दू
उत्तर:
(C) फारसी

3. बाबर ने भारत पर आक्रमण किया
(A) 1490 ई० में
(B) 1526 ई० में
(C) 1497 ई० में
(D) 1504 ई० में
उत्तर:
(B) 1526 ई० में

4. ‘तुक-ए-बाबरी’ का लेखक कौन है?
(A) बाबर
(B) जहाँगीर
(C) अबुल फज़्ल
(D) मामुरी
उत्तर:
(A) बाबर

5. बाबर का उत्तराधिकारी कौन था?
(A) हुमायूँ
(B) अकबर
(C) अस्करी
(D) हिन्दाल
उत्तर:
(A) हुमायूँ

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

6. अकबर की पहली सफलता थी
(A) पानीपत की पहली लड़ाई
(B) पानीपत की दूसरी लड़ाई
(C) पानीपत की तीसरी लड़ाई
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) पानीपत की दूसरी लड़ाई

7. राजकुमार सलीम ने शासक बनने के बाद अपना नाम रखा
(A) अकबर
(B) जहाँगीर
(C) शाहजहाँ
(D) आलमगीर
उत्तर:
(B) जहाँगीर

8. जहाँगीर ने न्याय की जंजीर किस किले में लगवाई ?
(A) आगरा
(B) दिल्ली
(C) लाहौर
(D) अजमेर
उत्तर:
(A) आगरा

9. किस मुगल शासक को अपने अन्तिम दिनों में अपने पुत्र की कैद में रहना पड़ा?
(A) जहाँगीर को
(B) औरंगजेब को
(C) बहादुरशाह द्वितीय को
(D) शाहजहाँ को
उत्तर:
(D) शाहजहाँ को

10. किस मुगल शासक ने अपने पिता के रहते हुए उत्तराधिकार के युद्ध में सफलता पाई ?
(A) जहाँगीर ने
(B) शाहजहाँ ने
(C) औरंगजेब ने
(D) फरुखसियर ने
उत्तर:
(C) औरंगजेब ने

11. उत्तर मुगलकाल में सैयद बन्धुओं को लोग किस नाम से पुकारते थे ?
(A) वफादार सेवक
(B) राजा बनाने वाले
(C) मित्र मण्डली
(D) देशद्रोही
उत्तर:
(B) राजा बनाने वाले

12. इतिवृत्त किस अंग्रेजी शब्द का हिन्दी अनुवाद है ?
(A) डाक्यूमेन्ट्स
(B) क्रॉनिकल्स
(C) ऑफिशियल लेटर
(D) फरमानज
उत्तर:
(B) क्रॉनिकल्स

13. निम्नलिखित में से कौन-सी लड़ाई बाबर ने नहीं लड़ी ?
(A) कन्वाह का युद्ध
(B) चन्देरी का युद्ध
(C) घाघरा का युद्ध
(D) पानीपत का दूसरा युद्ध
उत्तर:
(A) कन्वाह का युद्ध

14. बाबरनामा किस भाषा में लिखा गया है ?
(A) अरबी
(B) फारसी
(C) उर्दू
(D) तुर्की
उत्तर:
(D) तुर्की

15. मुगलकाल में निम्नलिखित पुस्तक का अनुवाद नहीं हुआ
(A) बाबरनामा
(B) महाभारत
(C) रामायण
(D) हुमायूँनामा
उत्तर:
(D) हुमायूँनामा

16. मुगलकाल में पांडुलिपियों का रचनास्थल कहलाता था
(A) शाही दरबार
(B) कारखाना
(C) दीवान-ए-आम
(D) किताबखाना
उत्तर:
(D) किताबखाना

17. किस मुगल शासक ने गैर-मुसलमानों पर दोबारा जजिया कर लगाया?
(A) हुमायूँ
(B) अकबर
(C) शाहजहाँ
(D) औरंगजेब
उत्तर:
(D) औरंगजेब

18. फतेहपुर सीकरी किस मुगल बादशाह की नई राजधानी थी?
(A) बाबर
(B) हुमायूँ
(C) शेरशाह सूरी
(D) अकबर
उत्तर:
(D) अकबर

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

19. अकबर ने ‘जरीन कलम’ सोने की कलम का पुरस्कार किसे दिया ?
(A) अबुल फज़ल को
(B) बदायूँनी को
(C) मुहम्मद हुसैन को
(D) उपर्युक्त सभी को
उत्तर:
(C) मुहम्मद हुसैन को

20. इतिवृत्तों की चित्रकारी का उद्देश्य था
(A) पुस्तक की सुन्दरता
(B) शासक व राज्य की पहचान प्रदर्शन
(C) जनता को सन्देश देना।
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

21. इस्लाम की चित्रकारी के बारे में धारणा है
(A) इसका विकास होना चाहिए
(B) खुदा के सृजन के अधिकार को चुनौती है
(C) चित्रकारी करने वाला व्यक्ति अपराधी है
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) खुदा के सृजन के अधिकार को चुनौती है

22. ईरान का वह दरबारी चित्रकार कौन था जिसको पूरे इस्लाम जगत से मान्यता मिली ? वह बाद में भारत आ गया।
(A) विहजाद
(B) अब्दुस समद
(C) मीर सैयद अली
(D) बसावन
उत्तर:
(A) विहजाद

23. अबुल फज़ल के बारे में सत्य है
(A) वह शेख मुबारक नागौरी का पुत्र था
(B) वह फैजी का भाई था
(C) वह अरबी, फारसी, यूनानी व तुर्की का ज्ञाता था
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

24. अबुल फज़ल की हत्या करवाई थी
(A) अकबर ने
(B) सलीम (जहाँगीर ने)
(C) मानसिंह ने
(D) फैजी ने
उत्तर:
(B) सलीम (जहाँगीर ने)

25. अब्दुल हमीद लाहौरी की प्रमुख रचना कौन-सी थी?
(A) अकबरनामा
(B) आइन-ए-अकबरी
(C) बादशाहनामा
(D) आलमगीरनामा
उत्तर:
(C) बादशाहनामा

26. मुगलकाल का कौन-सा इतिवृत्त अभी तक भी फारसी से अनुवादित नहीं हो पाया है ?
(A) अकबरनामा
(B) जहाँगीरनामा
(C) बादशाहनामा
(D) आलमगीरनामा
उत्तर:
(C) बादशाहनामा

27. “हुमायूँनामा” का लेखक कौन था?
(A) अबुल फजल
(B) अब्दुल हमीद
(C) गुलबदन बेगम
(D) नूरजहाँ
उत्तर:
(C) गुलबदन बेगम

28. जज़िया किस मुगल शासक ने हटाया था?
(A) औरंगजेब ने
(B) अकबर ने
(C) शाहजहाँ ने
(D) बाबर ने
उत्तर:
(B) अकबर ने

29. हुमायूँ की पत्नी का नाम था
(A) सुल्तान जहाँ बेगम
(B) जहाँआरा
(C) गुलबदन बेगम
(D) नादिरा
उत्तर:
(D) नादिरा

30. गैर-इस्लामी जनता का विश्वास पाने के लिए अकबर ने कदम उठाया
(A) तीर्थयात्रा व जजिया कर की समाप्ति
(B) सम्मानपूर्वक वैवाहिक संबंध
(C) बलपूर्वक धर्म परिवर्तन की मनाही
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

31. अकबर ने इस स्थान को राजधानी के रूप में प्रयोग नहीं किया
(A) अजमेर
(B) आगरा
(C) दिल्ली
(D) फतेहपुर सीकरी
उत्तर:
(A) अजमेर

32. अकबर ने लाल किले का निर्माण करवाया
(A) दिल्ली में
(B) लाहौर में
(C) आगरा में
(D) इलाहाबाद मे
उत्तर:
(C) आगरा में

33. अकबर के पिता का नाम था
(A) बाबर
(B) हुमायूँ
(C) औरंगजेब
(D) जहाँगीर
उत्तर:
(B) हुमायूँ

34. अकबर ने फतेहपुर सीकरी में किस विश्व-प्रसिद्ध इमारत का निर्माण करवाया ?
(A) शेख सलीम चिश्ती की दरगाह
(B) बुलन्द दरवाजा
(C) बीरबल का महल
(D) तानसेन का भवन
उत्तर:
(B) बुलन्द दरवाजा

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

35. शाहजहाँ ने दिल्ली में मुख्य रूप से बनवाया
(A) जामा मस्जिद
(B) लाल किला
(C) चाँदनी चौक
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

36. औरंगजेब की मृत्यु हुई
(A) दिल्ली में
(B) आगरा में
(C) औरंगाबाद में
(D) लाहौर में
उत्तर:
(C) औरंगाबाद में

37. मुगल दरबार के शिष्टाचार में शामिल था
(A) किसी व्यक्ति के खड़े होने की जगह
(B) अभिवादन का तरीका
(C) शासक से मिलने के लिए नजराना भेंट करना
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

38. मुगलकाल में कौन-सी एकमात्र महिला झरोखा दर्शन देती थी ?
(A) गुलबदन बेगम
(B) नूरजहाँ
(C) मुमताज महल
(D) जहाँआरा
उत्तर:
(B) नूरजहाँ

39. मुगलकाल में सबसे खर्चीला दरबारी उत्सव था
(A) शब-ए-बारात
(B) नौरोज
(C) शासक का जन्म दिन
(D) ईद
उत्तर:
(C) शासक का जन्म दिन

40. सिंहासनों के निर्माण पर सबसे अधिक धन खर्च किसने किया ?
(A) बाबर ने
(B) अकबर ने
(C) जहाँगीर ने
(D) शाहजहाँ ने
उत्तर:
(D) शाहजहाँ ने

41. अकबर ने तीर्थयात्रा कर कब समाप्त किया?
(A) 1563 ई० में
(B) 1564 ई० में
(C) 1565 ई० में
(D) 1569 ई० में
उत्तर:
(A) 1563 ई० में

42. अकबर ने किस नए धर्म की स्थापना की ?
(A) दीन-ए-इलाही
(B) सूफी मत
(C) सुलह-ए-कुल
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) दीन-ए-इलाही

43. हरम में सबसे उच्च स्थान प्राप्त महिला को कहा जाता था
(A) अगहा
(B) अगाचा
(C) बेगम
(D) पादशाह बेगम
उत्तर:
(D) पादशाह बेगम

44. नूरजहाँ के अतिरिक्त कौन-सी महिला ऐसी थी जिसने राजनीति में खूब हस्तक्षेप किया?
(A) गुलबदन बेगम
(B) जहाँआरा
(C) मुमताज महल
(D) रोशनआरा
उत्तर:
(B) जहाँआरा

45. मुगलकालीन नौकरशाही में शामिल नहीं थे
(A) दरबारी
(B) मनसबदार
(C) जमींदार
(D) जागीरदार
उत्तर:
(C) जमींदार

46. मुगल शासक नौकरशाहों पर नियंत्रण रखते थे
(A) सख्त व्यवहार द्वारा
(B) स्थानांतरण से
(C) मृत्यु के बाद सम्पत्ति जब्त करके
(D) उपर्युक्त सभी से
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी से

47. किस मुगल शासक के काल में प्रांतों की संख्या सबसे अधिक थी ?
(A) अकबर
(B) जहाँगीर
(C) शाहजहाँ
(D) औरंगजेब
उत्तर:
(C) शाहजहाँ

48. ईरानी शासकों के लिए सामान्य रूप से शब्द प्रयोग किया जाता था
(A) सफावी
(B) तुरानी
(C) उजबेग
(D) मंगोलियन
उत्तर:
(A) सफावी

49. मुगलों व ईरानी शासकों के बीच टकराव का मुख्य कारण था
(A) काबुल पर कब्जा
(B) कन्धार पर कब्जा
(C) हैरात का शहर
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) कन्धार पर कब्जा

50. थल मार्ग से व्यापार के लिए किस समीपवर्ती राज्य की मुग़लों को आवश्यकता थी ?
(A) चीन
(B) बर्मा
(C) ऑटोमन
(D) ईरान
उत्तर:
(C) ऑटोमन

51. मुगलों के लिए ऑटोमन (तुर्की) साम्राज्य का धार्मिक महत्त्व था
(A) मक्का व मदीना के कारण
(B) धर्म युद्धों के कारण
(C) धर्म की स्वीकृति के लिए
(D) खलीफा के कारण
उत्तर:
(A) मक्का व मदीना के कारण

52. अकबर के काल में जेसुइट मिशन आया
(A) 1580-82 ई० में
(B) 1591 ई० में
(C) 1595 ई० में
(D) उपर्युक्त सभी में
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी में

53. जेसुइट का सबसे प्रमुख प्रतिनिधि मण्डल था
(A) एक्या वीणा का
(B) मान्सेरेट का
(C) राल्फ फिन्च का
(D) उपरोक्त सभी का
उत्तर:
(B) मान्सेरेट का

54. मुगलकाल में प्रधानमंत्री को क्या कहा जाता था ?
(A) खानखाना
(B) दीवान
(C) वकील
(D) सदर
उत्तर:
(C) वकील

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

55. मुगलकाल में झरोखा दर्शन का अधिकार किसको था ?
(A) काज़ी को
(B) वज़ीर को
(C) सम्राट को
(D) उपर्युक्त सभी को
उत्तर:
(C) सम्राट को

56. मुगलकाल में शाही घरानों के घरेलू कार्यों का मंत्री था
(A) खान-ए-सामा
(B) मीर-ए-बहर
(C) मीरबख्शी
(D) नाज़िम
उत्तर:
(A) खान-ए-सामा

57. अकबर ने शासन प्रबन्ध में किस शासक का अनुकरण किया था ?
(A) बहलोल लोधी
(B) शेरशाह सूरी
(C) इब्राहिम लोधी
(D) सिकन्दर लोधी
उत्तर:
(B) शेरशाह सूरी

58. निम्नलिखित में से जहाँगीर के समय का नया मुगल प्रान्त था/थे
(A) उड़ीसा
(B) सिन्ध
(C) कश्मीर
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

59. ‘बादशाहनामा’ का लेखक कौन था ?
(A) गुलबदन बेगम
(B) अब्दुल हमीद लाहौरी
(C) अबुल फज़ल
(D) इब्न-बतूता
उत्तर:
(B) अब्दुल हमीद लाहौरी

60. मुगलकाल में परगने का मुखिया कौन होता था ?
(A) आमिल
(B) मीर-ए-सदर
(C) दीवान-ए-आला
(D) मीर-ए-बहर
उत्तर:
(A) आमिल

61. अन्तिम मुगल बादशाह कौन था?
(A) औरंगजेब
(B) बहादुरशाह
(C) अकबर द्वितीय
(D) बहादुरशाह जफर द्वितीय
उत्तर:
(D) बहादुरशाह जफ़र द्वितीय

62. बुलंद दरवाज़ा का निर्माण फतेहपुर सीकरी में किसने कराया?
(A) अकबर ने
(B) शाहजहाँ ने
(C) औरंगजेब ने
(D) बाबर ने
उत्तर:
(A) अकबर ने

63. अकबर ने सभी धर्मों का सार ग्रहण कर किस नए मत की नींव डाली ?
(A) सूफी मत की
(B) भक्ति मत की
(C) दीन-ए-इलाही मत की
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) दीन-ए-इलाही मत की

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना कब और किसने की?
उत्तर:
भारत में मुग़ल साम्राजय की स्थापना 1526 ई० में बाबर ने की थी।

प्रश्न 2.
मुग़ल शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई ?
उत्तर:
मुग़ल शब्द की उत्पत्ति मंगोल शब्द से हुई।

प्रश्न 3.
मुगल शासक स्वयं को क्या कहते थे ?
उत्तर:
मुगल शासक स्वयं को तैमूरी वंशज कहते थे।

प्रश्न 4.
बाबर का जन्म स्थान कौन-सा है ?
उत्तर:
फरगाना बाबर का जन्म स्थान है।

प्रश्न 5.
हुमायूँ को भारत से बाहर किसने निकाला ?
उत्तर:
हमा को भारत से बाहर शेरशाह सरी ने निकाला।

प्रश्न 6.
अकबर का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर:
अकबर का जन्म 1542 ई० में सिन्ध के पास अमरकोट नामक स्थान पर हुआ।

प्रश्न 7.
हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर कहाँ पर था ?
उत्तर:
हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर पंजाब के कलानौर नामक स्थान पर था।

प्रश्न 8.
अकबर ने तीर्थ यात्रा कर व जजिया कर कब हटाया ?
उत्तर:
अकबर ने तीर्थ यात्रा कर 1563 ई० तथा जजिया कर 1564 ई० में हटाया।

प्रश्न 9.
1611 ई० में शादी के बाद जहाँगीर ने मेहरुनिसा को क्या नाम दिया ?
उत्तर:
1611 ई० में शादी के बाद जहाँगीर ने मेहरुनिसा को ‘नूरजहाँ’ नाम दिया।

प्रश्न 10.
खुर्रम को शाहजहाँ की उपाधि किसने और क्यों दी ?
उत्तर:
खुर्रम को शाहजहाँ की उपाधि जहाँगीर ने मेवाड़-विजय के उपलक्ष्य में दी।

प्रश्न 11.
औरंगजेब का शासन काल कब-से-कब तक था ?
उत्तर:
औरंगज़ेब का शासन काल 1658 से 1707 ई० तक रहा।

प्रश्न 12.
उत्तर मुगलकाल का समय क्या था ?
उत्तर:
उत्तर मुगलकाल 1707 से 1857 ई० तक था।

प्रश्न 13.
नादिरशाह ने भारत पर कब आक्रमण किया तथा किसे पराजित किया ?
उत्तर:
नादिरशाह ने भारत पर 1739 ई० में आक्रमण कर मुहम्मदशाह को पराजित किया।

प्रश्न 14.
अन्तिम मुगल सम्राट की मृत्यु कब व कहाँ हुई ?
उत्तर:
अन्तिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की मृत्यु 1862 ई० में रंगून. में हुई।

प्रश्न 15.
मुगलकाल में इतिवृत्त कहाँ रचे गए ?
उत्तर:
मुगलकाल में इतिवृत्त शाही दरबार के संरक्षण में ‘किताबखाना’ में रचे गए।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

प्रश्न 16.
हुमायूँनामा किसकी रचना है ?
उत्तर:
हुमायूँनामा गुलबदन बेगम की रचना है।

प्रश्न 17.
अकबरनामा का लेखक कौन था ?
उत्तर:
अबुल फज़्ल अकबरनामा का लेखक था।

प्रश्न 18.
शाहजहाँनामा किसकी रचना है ?
उत्तर:
शाहजहाँनामा अब्दुल हमीद लाहौरी की रचना है।

प्रश्न 19.
मुहम्मद काजिम की रचना का नाम लिखें।
उत्तर:
मुहम्मद काजिम की रचना ‘आलमगीरनामा’ है।

प्रश्न 20.
तुक-ए-जहाँगीरी या जहाँगीरनामा का लेखक कौन है ?
उत्तर:
जहाँगीरनामा का लेखक स्वयं जहाँगीर है।

प्रश्न 21.
मुगलकाल में दरबारी भाषा कौन-सी थी ?
उत्तर:
मुगलकाल में दरबार की भाषा फारसी थी।

प्रश्न 22.
महाभारत का फारसी भाषा में अनुवाद किस नाम से हुआ ?
उत्तर:
महाभारत का फारसी भाषा में अनुवाद ‘रज्मनामा’ के नाम से हुआ।

प्रश्न 23.
पाण्डुलिपियों का लेखन स्थल क्या कहलाता था ?
उत्तर:
पाण्डुलिपियों का लेखन स्थल ‘किताबखाना’ कहलाता था।

प्रश्न 24.
अकबर के समय में लेखन की सर्वाधिक पसंद की जाने वाली शैली का क्या नाम था ?
उत्तर:
अकबर के समय में लेखन की सर्वाधिक पसंद की जाने वाली शैली ‘नस्तलिक’ कहलाती थी।

प्रश्न 25.
अकबर ने मुहम्मद हुसैन को क्या खिताब दिया था ?
उत्तर:
अकबर ने मुहम्मद हुसैन को ‘जरीन कलम (सोने की कलम)’ का खिताब दिया।

प्रश्न 26.
ईरानी दरबार का सबसे अधिक चर्चित चित्रकार कौन था ?
उत्तर:
ईरानी दरबार का सबसे अधिक चर्चित चित्रकार विहजाद था।

प्रश्न 27.
अकबरनामा व बादशाहनामा में लगभग कितने चित्र हैं ?
उत्तर:
इन दोनों में से प्रत्येक में लगभग 150 से अधिक चित्र हैं।

प्रश्न 28.
अबुल फज्ल ने अकबरनामा कब लिखा ?
उत्तर:
अबुल फज़्ल ने अकबरनामा 1589 से 1602 के बीच लिखा।

प्रश्न 29.
मुगलकाल के इतिवृत्तों के अनुवाद का कार्य किस संस्थान द्वारा करवाया गया ?
उत्तर:
मुगलकाल के इतिवृत्तों के अनुवाद का कार्य एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल (1784) द्वारा करवाया गया।

प्रश्न 30.
अकबरनामा का सबसे अच्छा अंग्रेजी अनुवाद किसका माना जाता है ?
उत्तर:
अकबरनामा का सबसे अच्छा अंग्रेजी अनुवाद हेनरी बेवरिज का माना जाता है।

प्रश्न 31.
मुगल राज्य को दैवीय राज्य सर्वप्रथम किसने वर्णित किया ?
उत्तर:
मुग़ल राज्य को दैवीय राज्य सर्वप्रथम अबुल फज्ल ने वर्णित किया।

प्रश्न 32.
चित्रकारों ने मुग़लों के राज्य को दैवीय राज्य कैसे स्पष्ट किया ?
उत्तर:
चित्रकारों ने मुग़ल शासकों के चेहरे को विशेष प्रभामंडल में दिखाया जैसे देवताओं को दिखाते हैं।

प्रश्न 33.
अकबर ने अपनी सारी जनता को एक जैसा स्वीकार करते हुए कौन-सी नीति अपनाई ?
उत्तर:
अकबर ने सभी के साथ मतभेद न करते हुए ‘सुलह-ए-कुल’ की नीति अपनाई।

प्रश्न 34.
‘न्याय की जंजीर’ किस शासक ने लगवाई ?
उत्तर:
‘न्याय की जंजीर’ जहाँगीर ने लगवाई।

प्रश्न 35.
आगरा शहर की नींव कब व किसने रखी ?
उत्तर:
आगरा शहर की नींव सिकंदर लोधी ने 1504 ई० में रखी।

प्रश्न 36.
आगरा का लालकिला किसने बनवाया ?
उत्तर:
आगरा का लालकिला अकबर ने बनवाया।

प्रश्न 37.
फतेहपुर सीकरी मुग़लों की राजधानी कब रही ?
उत्तर:
फतेहपुर सीकरी मुग़लों की राजधानी 1570 ई० से 1585 ई० तक रही।

प्रश्न 38.
जहाँगीर की मनपसंद जगह कौन-सी थी ?
उत्तर:
जहाँगीर की मनपसंद जगह लाहौर थी।

प्रश्न 39.
शाहजहाँ की दिल्ली को क्या नाम दिया गया?
उत्तर:
शाहजहाँ की दिल्ली को शाहजहाँनाबाद का नाम दिया गया।

प्रश्न 40.
शाहजहाँ के काल में अभिवादन के कौन-से नए तरीके जुड़े ?
उत्तर:
शाहजहाँ के काल में अभिवादन के नए तरीके ‘तसलीम’ व ‘जमींबोस’ जुड़े।

प्रश्न 41.
मुगल शासकों द्वारा प्रातःकाल जनता को दर्शन देने की प्रथा क्या कहलाती थी ?
उत्तर:
मुगल शासकों द्वारा प्रातःकाल जनता को दर्शन देने की प्रथा ‘झरोखा’ कहलाती थी।

प्रश्न 42.
मुगलशाही दरबार में कौन-सा ईरानी त्योहार धूमधाम से मनाया जाता था ?
उत्तर:
मुगलशाही दरबार में ‘नौरोज’ नामक ईरानी त्योहार धूमधाम से मनाया जाता था।

प्रश्न 43.
मयूर सिंहासन को कौन लूटकर ले गया ?
उत्तर:
मयूर सिंहासन को नादिरशाह लूटकर ले गया।

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प्रश्न 44.
शाही परिवार के अतिरिक्त अन्य लोगों के लिए मुग़ल दरबार की सर्वोच्च पदवी कौन-सी थी ?
उत्तर:
शाही परिवार के अतिरिक्त मुग़ल दरबार की सर्वोच्च पदवी ‘आसफखां’ की थी।

प्रश्न 45.
मुगल शासकों से मिलने के लिए दी जाने वाली भेंट क्या कहलाती थी ?
उत्तर:
मुग़ल शासकों से मिलने के लिए दी जाने वाली भेंट ‘नज़राना’ कहलाती थी।

प्रश्न 46.
‘हरम’ का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
उत्तर:
हरम का शाब्दिक अर्थ है ‘पवित्र स्थान’

प्रश्न 47.
मुगलकाल में राजनीति में महिलाओं की शुरुआत किससे हुई ?
उत्तर:
मुगलकाल में राजनीति में महिलाओं की शुरुआत नूरजहाँ से हुई।

प्रश्न 48.
किस राजपूत शासक ने मुगलों से वैवाहिक संबंधों की शुरुआत की ?
उत्तर:
आमेर के राजा बिहारी मल (भारमल) ने मुग़लों से वैवाहिक संबंधों की शुरुआत की।

प्रश्न 49.
मुगलकाल में दरबार की कार्रवाई को किस नाम से दर्ज किया जाता था ?
उत्तर:
मुगलकाल में दरबारी कार्रवाई ‘अखबारात-ए-दरबार-ए-मुअल्ला’ के नाम से दर्ज की जाती थी।

प्रश्न 50.
मुगलकाल में प्रांत को क्या कहते थे ? इसका मुखिया कौन होता था ?
उत्तर:
मुगलकाल में प्रांत को सूबा कहते थे। सूबे का मुखिया सूबेदार कहलाता था।

प्रश्न 51.
‘दीन-ए-इलाही’ की स्थापना कब की गई थी?
उत्तर:
‘दीन-ए-इलाही’ की स्थापना 1582 ई० में की गई थी।

प्रश्न 52.
मुगलों व ईरान के बीच झगड़े की जड़ कौन-सा शहर था ?
उत्तर:
मुगलों व ईरान के बीच झगड़े की जड़ कन्धार शहर था।

प्रश्न 53.
कन्धार मुगलों के हाथ से अन्तिम बार कब निकल गया ?
उत्तर:
कन्धार अन्तिम बार मुगलों के हाथ से 1649 ई० में निकल गया।

प्रश्न 54.
मुगलकाल में ‘मक्का व मदीना’ किस साम्राज्य का हिस्सा थे ?
उत्तर:
मुगलकाल में मक्का व मदीना तुर्की साम्राज्य ‘ऑटोमन साम्राज्य’ का हिस्सा थे।

प्रश्न 55.
अकबर के दरबार में पहला जेसुइट मिशन कब आया ?
उत्तर:
अकबर के दरबार में पहला जेसुइट मिशन 1580-82 ई० में आया।

प्रश्न 56.
अकबर ने अपने बेटे मुराद का शिक्षक किसे नियुक्त किया ?
उत्तर:
अकबर ने अपने बेटे मुराद का शिक्षक फादर मान्सेरेट को नियुक्त किया।

प्रश्न 57.
अकबर ने इबादतखाना की स्थापना कब व कहाँ की ?
उत्तर:
अकबर ने इबादतखाना की स्थापना 1575 ई० में फतेहपुर सीकरी में की।

प्रश्न 58.
मनसबदारों की भर्ती कौन करता था ?
उत्तर:
मनसबदारों की भर्ती स्वयं सम्राट करता था।

प्रश्न 59.
मनसबदार की भर्ती सम्बन्धी रिकॉर्ड को क्या कहा जाता था ?
उत्तर:
उसे हकीकत कहा जाता था।

प्रश्न 60.
मनसबदारों की कितनी श्रेणियाँ थीं ?
उत्तर:
अबुल फल के अनुसार मनसबदारों की 60 श्रेणियाँ थीं, परन्तु वास्तविक श्रेणियाँ 33-34 से ऊपर नहीं थीं।

प्रश्न 61.
अकबर के समय में भूमि को मापने के लिए किस उपकरण का प्रयोग किया जाता था ?
उत्तर:
अकबर के समय में भूमि को मापने के लिए 33 इंच का गज प्रयोग किया जाता था।

प्रश्न 62.
मनसबदारी प्रणाली किसने शुरू की थी ?
उत्तर:
मनसबदारी प्रणाली अकबर ने आरम्भ की थी।

प्रश्न 63. सबसे बड़ा मनसबदार पद कितने सैनिकों पर था ?
उत्तर:
सबसे बड़ा मनसबदार पद 10000 सैनिकों पर था।

प्रश्न 64.
किन सम्राटों की चित्रकला में रुचि थी ?
उत्तर:
अकबर तथा जहाँगीर की चित्रकला में रुचि थी।

प्रश्न 65.
बाबर ने हैरात में क्या देखा था ?
उत्तर:
बाबर ने हैरात में ईरानी चित्रकला के नमूने देखे थे।

प्रश्न 66.
हमजानामा को चित्रित करने का काम कब पूरा हुआ था ?
उत्तर:
हमजानामा को चित्रित करने का काम अकबर के समय में पूरा हुआ था।

प्रश्न 67.
अकबर के काल में भू-राजस्व व्यवस्था किसने नियन्त्रित की?
उत्तर:
अकबर के काल में भू-राजस्व व्यवस्था राजा टोडरमल ने नियन्त्रित की।

अति लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जहाँगीर कौन था?
उत्तर:
अकबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सलीम जहाँगीर के नाम से शासक बना । उसने अकबर की नीतियों को आगे बढ़ाया। उसने अपने जीवन का अधिकतर समय लाहौर में बिताया। 1611 ई० में उसने मेहरूनिसा (बाद में नूरजहाँ) से शादी की। नूरजहाँ शासन में इतनी शक्तिशाली हो गई कि उसने शासन व्यवस्था को अपने हाथ में ले लिया। विजयों की दृष्टि से जहाँगीर मेवाड़ व कांगड़ा जैसे क्षेत्रों को जीत पाया, जिनको प्राप्त करने में अकबर को सफलता नहीं मिली थी परन्तु 1622 ई० में वह कन्धार को खो बैठा।

उसके काल में उसके बेटे खुर्रम ने विद्रोह कर दिया जिससे वह काफी कमजोर हुआ। 1627 ई० में लाहौर में उसकी मृत्यु हो गई। जहाँगीर अपनी न्याय की जंजीर के कारण काफी विख्यात हुआ जो उसने आगरे के किले में लगवाई थी जिसको कोई भी फरियादी खींचकर न्याय की माँग कर सकता था।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

प्रश्न 2.
शाहजहाँ कौन था?
उत्तर:
जहाँगीर के बाद उसका पुत्र खुर्रम, शाहजहाँ के नाम से गद्दी पर बैठा। खुर्रम ने अपने पूर्वजों की नीति का अनुसरण किया। अपनी पत्नी मुमताज महल की मृत्यु के बाद उसने ताजमहल का निर्माण प्रारंभ करवाया। दक्षिण के बारे में उसने बीजापुर, गोलकुण्डा व अहमदनगर के सन्दर्भ में सन्तुलित नीति अपनाई। ईरान के शासक से वह 1638 ई० में कैन्धार जीतने में सफल रहा। 1640-45 ई० तक उसने मध्य एशिया की विजय का अभियान चलाया जिसको वह जीत तो पाया परन्तु यह विजय अस्थायी रही।

इसके बाद ईरानी शासक ने 1649 ई० में कन्धार पर फिर कब्जा कर लिया जिसको औरंगजेब के दो तथा दारा शिकोह के एक अभियान द्वारा जीता नहीं जा सका। उसके शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध था जो 1657-58 ई० में लड़ा गया। इसमें उसके तीन पुत्र दारा शिकोह, मुराद व शुजा मारे गए तथा औरंगजेब सफल रहा। उसने 1658 ई० में शाहजहाँ को गद्दी से हटाकर जेल में डाल दिया। इस तरह शाहजहाँ की मृत्यु 7 वर्ष जेल में रहने के बाद हुई।

प्रश्न 3.
मुगलों की हरम व्यवस्था के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
शाही परिवार के हरम में महिलाओं की प्रमुखता थी। इसमें सभी महिलाएँ बराबर की तथा एक-जैसी हैसियत वाली नहीं थीं। हरम में प्रमुख महिलाओं को मोटे तौर पर तीन नामों से जाना जाता था।

  • बेगम-शाही परिवार में सबसे ऊँचा स्थान बेगमों का था। बेगम प्रायः कुलीन परिवार से संबंधित होती थी।
  • अगहा-ये सामान्य कुलीन परिवारों से थीं। ये भी शादी की परंपरा के बाद ही हरम में आती थीं।
  • अगाचा-हरम में इनका दर्जा तीसरा था। इन्हें उपपत्नियों का दर्जा प्राप्त था। इन्हें इनके खर्चे के अनुरूप मासिक भत्ता व दर्जे के अनुरूप उपहार इत्यादि मिलते थे।

प्रश्न 4.
इतिवृत्त के उद्देश्य लिखें।
उत्तर:
मुगलकाल में रचे गए इतिवृत्त बहुत सोची-समझी नीति का उद्देश्य थे। विभिन्न इतिहासकारों व विद्वानों ने इस बारे में अपने-अपने मतों की अभिव्यक्ति की है जिनमें से ये पक्ष उभरकर सामने आते हैं

  • इतिवृत्तों के माध्यम से मुग़ल शासक अपनी प्रजा के सामने एक प्रबुद्ध राज्य की छवि बनाना चाहते थे।
  • इतिवृत्तों के वृत्तांत के माध्यम से शासक उन लोगों को संदेश देना चाहते थे जिन्होंने राज्य का विरोध किया था तथा भविष्य में भी कर सकते थे। उन्हें यह बताना चाहते थे कि यह राज्य बहुत शक्तिशाली है तथा उनका विद्रोह कभी सफल नहीं होगा।
  • इतिवृत्तों के माध्यम से शासक अपने राज्य के विवरणों को भावी पीढ़ियों तक पहुँचाना चाहते थे।

प्रश्न 5.
अकबरनामा की विषयवस्तु पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
अकबरनामा में राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन ऐतिहासिक दृष्टिकोण से किया गया है। लेखक ने किसी घटना का पूरा विवरण प्राप्त करने के लिए संबंधित पक्षों की जानकारी भी दी है। उसने अकबर के साम्राज्य के भौगोलिक, सामाजिक, प्रशासनिक व सांस्कृतिक पक्षों को स्पष्ट रूप से लिखा है। उसने अपने वर्णन में समय व तिथियों के अनुरूप परिवर्तन को अधिक महत्त्व नहीं दिया।

उसने अकबर के साम्राज्य में रहने वाले मुस्लिमों, हिंदुओं, जैनों व बौद्धों की जीवन-शैली, परम्पराओं तथा आपसी तालमेल को काफी महत्त्व दिया है। उसने अकबर के साम्राज्य को मिश्रित संस्कृति के केन्द्र के रूप में प्रस्तुत किया है।

अबुल फल का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। उसे अपना साप्ताहिक लेखन दरबार में पढ़ना होता था। इसलिए उसने अलंकृत भाषा को महत्त्व दिया। इस भाषा में लय व कथन शैली विशेष रूप से उभरकर सामने आई है। क्षेत्र-विशेष का वर्णन करते हुए उसने उस क्षेत्र की स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में किया है। उसके इस प्रयास से भारतीय फारसी शैली का विकास हुआ।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सुलह-ए-कुल की नीति के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
अकबर ने सुलह-ए-कुल (Absolute peace) की नीति अर्थात् सभी के साथ सुलह (किसी से मतभेद नहीं) की नीति अपनाई। यह अकबर की सोची-समझी नीति थी। इसे बाद के शासकों ने भी इसे अपनाया। औरंगज़ेब ने इस नीति में बदलाव करने के प्रयास किए तो परिणाम घातक रहे। …

(i) नीति का अर्थ-मुगल कालीन इतिवृत्तों ने इस नीति को अलग-अलग ढंग से अभिव्यक्त किया है। हाँ, इतना सभी मानते हैं कि मुगल साम्राज्य में भिन्न-भिन्न जातियों व समुदायों के लोग रहते थे। शासक इस साम्राज्य में शान्ति व स्थायित्व का स्रोत था। इसलिए वह सभी नृजातीय समूहों व समुदायों से ऊपर था तथा वह इन सभी वर्गों के बीच मध्यस्थता करता था। क्योंकि न्याय व शान्ति का मार्ग तालमेल से निकलता था। अतः यह नीति मुगल शासकों व साम्राज्य के लिए आदर्श बनी। अबुल फज़्ल, सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन का आधार बताता है। उसके अनुसार सुलह-ए-कुल इस सिद्धांत पर आधारित था कि राज्य सत्ता को क्षति नहीं पहुंचे तथा प्रजा शांति से रहे।

(ii) नीति को व्यवहार में लाना-मुग़ल शासक विशेषकर अकबर ने धर्म व राजनीति दोनों के संबंधों को समझने का प्रयास किया। उसने इनकी सीमा व महत्त्व को समझा। इस समझ के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि पूरी तरह धर्म का त्याग संभव नहीं है लेकिन धर्म की कट्टरता को त्यागकर अवश्य चला जाए। उसने धर्म को राजनीति से भी थोड़ा दूर करने का प्रयास किया।

इस कड़ी में उसने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 ई० में जजिया कर को समाप्त कर, यह सन्देश दिया कि गैर इस्लामी प्रजा से कोई भेद-भाव नहीं किया जाएगा। उसने युद्ध में पराजित सैनिकों को दास बनाने पर रोक लगाई तथा जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन को गैर-कानूनी घोषित किया। अकबर ने अपने साम्राज्य में गौ -वध को देश द्रोह घोषित करते हुए उस पर रोक लगा दी।

अकबर ने इन फैसलों के माध्यम से धार्मिक पक्षपात को समाप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाया तो साथ ही बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं का सम्मान भी किया। उसने राज्य के सभी अधिकारियों को सुलह-ए-कुल के नियमों के पालन करने के निर्देश दिए। इस तरह अकबर अपनी इस नीति के द्वारा राज्य में शांति व स्थायित्व का आधार बनाने में सफल रहा।

प्रश्न 2.
मनसबदारी प्रथा के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
मुग़ल नौकरशाही में मनसबदारी प्रमुख थी। यह सैनिक व असैनिक दोनों के लिए थी। मनसब शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है-पद। इस शब्द की व्याख्या के अनुसार जो भी व्यक्ति मुगलों की सेवा में आता था तो उसे एक मनसब दिया जाता था। वह मनसब उसकी दरबार में पहचान, जिम्मेदारी व हैसियत तीनों बातों का अहसास कराता था। मनसब में जात व सवार दो शब्दों . का प्रयोग होता था।

जात शब्द व्यक्ति के पद (status) को स्पष्ट करता था जबकि सवार उसके पास ऊँट, घोड़े, बैल इत्यादि सैनिक क्षमता का बोध कराता था। इससे यदि किसी व्यक्ति की 1000 की जात मनसब व 1000 की सवार मनसब है तो वह मनसबदार प्रथम श्रेणी में होता था, यदि जात की तुलना में सवार 500 या इसके आस-पास थे तो वह द्वितीय श्रेणी में आता था तथा यदि उसके सवार नाममात्र थे या थे ही नहीं वह तृतीय श्रेणी में आता था।

इसी श्रेणी के आधार पर उसका वेतन निर्धारित होता था जबकि इसी आधार पर उसे दरबार में जगह मिलती थी। यहाँ तक कि शासक के शिविर में भी उसी अनुरूप उसका तंबूकक्ष (Tent Room) बनता था। मनसबदारी व्यवस्था की खास बात यह थी कि मनसबदार चाहे 20 के रैंक का हो या 5,000 का वह सीधे शासक से जुड़ा होता था। वह किसी अन्य व्यक्ति के लिए जिम्मेदार नहीं होता था। मुगलकाल में सामान्य रूप से 1000 से बड़े पद के मनसबदार को उमरा (अमीर वर्ग का बहुवचन) कहा जाता था। मनसबदारों की नियुक्ति, पदोन्नति व पद मुक्ति की शक्तियाँ स्वयं शासक के पास होती थीं।

प्रश्न 3.
अकबर के धर्म संबंधी विचारों का वर्णन करें।
उत्तर:
अकबर ने धर्म संबंधी उदारता की धारणा शासन के प्रारंभिक दिनों में ही अपना ली थी। इसके व्यवहार और उदार विचारों से ईसाई पादरियों को तो यहाँ तक लगा कि शासक ने इस्लाम त्याग दिया है तथा वह ईसाई धर्म का सदस्य बन गया है। वास्तव में उनकी यह समझ तत्कालीन यूरोप की धार्मिक असहिष्णुता की नीति को स्पष्ट करती है क्योंकि इस काल में वहाँ धर्म संबंधी तालमेल का अभाव था।

अकबर ने इस तरह का व्यवहार केवल जेसुइट (ईसाई प्रचारकों) के प्रति नहीं किया बल्कि हिंदू, जैन, फारसी, बौद्ध धर्म में विश्वास. करने वाले सभी धर्मों के साथ किया। वह सभी के साथ तालमेल अपनी सुलह-ए-कुल की नीति के तहत करना चाहता रस्कार नहीं बल्कि सभी का एक-दूसरे के साथ मिलकर चलने का भाव था। अकबर की समझ यहाँ हमें और स्पष्ट होती है कि उसने फतेहपुर सीकरी में स्थापित इबादत खाना में मुसलमानों, हिंदुओं, जैन, फारसियों व ईसाइयों सभी की बातें सुनीं।

उनके वाद-विवाद व विचार अभिव्यक्ति पर अपने तर्क दिए। इस विचार-विमर्श से उसे सभी धर्मों की अच्छी बातें जानने का मौका मिला। इस्लाम के कुछ लोगों की कट्टरपंथी सोच भी वह समझ पाया।

(i) सूर्य व अग्नि का उपासक (Devotee of Fire and the Sun)-विभिन्न धर्मों के बारे में अपनी समझ विकसित हो के बाद अकबर सूर्य पर केंद्रित स्व-कल्पित दैवीय उपासना के सिद्धांत की ओर बढ़ा जिसे अबुल फज्ल ने अकबरनामा में दैवीय सिद्धांत के साथ जोड़ दिया। अकबर इस सिद्धांत के माध्यम से विभिन्न धर्म व दर्शन के ग्राही (स्वीकारने) वाले रूप की ओर बढ़ा। इस दैवीय सिद्धांत के पीछे प्रेरक शक्ति यह थी कि इस नीति से शत्रुओं पर आसानी से नियंत्रण पाया जा सकता है। वास्तव में यह सिद्धांत शासक को सबका शासक बनाता है, न कि किसी वर्ग विशेष का।

(ii) दीन-ए-इलाही (Din-I-Ilahi)-अकबर उदारवादी रास्तों पर चलकर इस रास्ते पर पहुँचा कि सभी धर्मों की अच्छी बातों को मिलाकर एक धर्म बनाया जा सकता है जो सभी को स्वीकार हो सकता है। अपने अनुभव के आधार पर उसने 1582 ई० में ‘दीन-ए-इलाही’ (‘तोहिद-ए-इहाली’) की स्थापना की जिसमें सभी धर्मों की अच्छी बातें थीं। अकबर ने इसे अपनाने पर भी किसी को बाध्य नहीं दिया। इसलिए इस नए मत को मानने वालों की संख्या सैकड़ों में रही। इसकी भी अकबर ने परवाह नहीं की।

कुल मिलाकर स्पष्ट है कि अकबर ने औपचारिक धर्म को महत्त्व न देकर साम्राज्य की जरूरत के रूप में धर्म को देखा। इसने अकबर की छवि तो उच्च बनाई साथ ही अन्य लोगों को भी मार्ग दिया कि भारत में धर्म संबंधी कौन-सी नीति कारगर है।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मुगल वंश का परिचय देते हुए मुख्य मुग़ल शासकों के बारे में जानकारी दें।
उत्तर:
मुगल शब्द की उत्पत्ति मंगोल से हुई है। मंगोल से यह शब्द बदलकर मोगोल व मौगिल्ज बना तथा अन्ततः मुगल रूप में स्थापित हो गया। मुगल शासक स्वयं को तैमूरी कहते थे। मुगल तैमूरी इसलिए कहलाते थे क्योंकि वे पितृपक्ष से तैमूर के वंशज थे। बाबर (प्रथम मुगल शासक) मातृपक्ष से चंगेज का वंशज था लेकिन वह चंगेज के साथ अपना नाम जोड़ना उचित नहीं समझता था। वह चंगेज व अन्य मंगोलों को बर्बर (बद्द या यायावर) कहता था।

1. बाबर (Babur)-मुगल वंश के संस्थापक बाबर का जन्म 14 फरवरी, 1483 को मध्य-एशिया के फरगाना (वर्तमान में उजबेगिस्तान) में हुआ। 1494 ई० में बाबर अपने पिता उमर शेख मिर्जा की मृत्यु के बाद फरगाना का शासक बना। आपसी पारिवारिक लड़ाई के कारण उसने 1497 ई० में यह राज्य खो दिया तथा इधर-उधर ठोकरें खाने के लिए मजबूर हो गया। उसने 1504 ई० में काबुल तथा 1507 ई० में कन्धार को जीता। बाबर ने 1519 से 1526 ई० तक उसने भारत पर पाँच आक्रमण किए तथा वह सभी में सफल रहा। 1526 ई० में उसने पानीपत के मैदान में दिल्ली सल्तनत के अन्तिम सुल्तान इब्राहिम लोधी को हराकर मुगल वंश की नींव रखी। उसने 1527 ई० में खानवा, 1528 ई० में चन्देरी तथा 1529 ई० में घाघरा की लड़ाइयाँ जीतकर अपने राज्य को सुदृढ़ आधार दिया। 1530 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

2. हुमायूँ (Humayun)-बाबर की मृत्यु के बाद हुमायूँ शासक बना। उसे गुजरात के शासक बहादुर शाह तथा बिहार क्षेत्र के मुखिया शेरशाह से निरन्तर युद्ध करने पड़े। शेरशाह ने उसे 1540 ई० में बेलग्राम (कन्नौज) के युद्ध में पराजित कर दिया तथा उसे भारत से निर्वासित होना पड़ा। उसने निर्वासन का कुछ समय काबुल, सिन्ध व अमरकोट में बिताया तथा अन्त में ईरान के शासक तहमास्म के पास शरण ली। ईरान के शासक की मदद से उसने काबुल, कन्धार व मध्य एशिया के क्षेत्रों को जीता। उसने 1555 ई० में शेरशाह के कमजोर उत्तराधिकारियों को हराकर एक बार फिर दिल्ली व आगरा पर अधिकार कर लिया। 1556 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।
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3. अकबर (Akbar)-हुमायूँ की मृत्यु के समय उसका पुत्र अकबर पंजाब के कलानौर में था। उसे वहीं पर शासक घोषित कर दिया गया। इस बीच रेवाड़ी के हेमू ने दिल्ली में अव्यवस्था का लाभ उठाकर कब्जा कर लिया। इस तरह अकबर व हेमू के बीच 1556 ई० में पानीपत के मैदान में दूसरा युद्ध हुआ तथा अकबर को विजय मिली। अकबर ने अपनी प्रारंभिक सफलताएँ अपने शिक्षक व संरक्षक बैहराम खाँ के नेतृत्व में पाईं।

तत्पश्चात् उसने प्रत्येक क्षेत्र में साम्राज्य का विस्तार किया। उसने आन्तरिक दृष्टि से अपने राज्य का विस्तार कर इसे विशाल, सुदृढ़ तथा समृद्ध बनाया। उसने राजपूतों व स्थानीय प्रमुखों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उसने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 ई० में जजिया कर हटाकर गैर-इस्लामी जनता को यह एहसास करवाने का प्रयास किया कि वह उनका भी शासक है। वह अपने राजनीतिक, प्रशासनिक व उदारवादी व्यवहार के कारण मुगल शासकों में महानतम स्थान प्राप्त करने में सफल रहा। 1605 ई० में उसकी मृत्यु के समय उसका साम्राज्य राजनीतिक दृष्टि से विशाल व शान्त, अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से बहुत शक्तिशाली तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध था।

4. जहाँगीर (Jahangir)-अकबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सलीम जहाँगीर के नाम से शासक बना। 1611 ई० में उसने मेहरूनिसा (बाद में नूरजहाँ) से शादी की। नूरजहाँ शासन में इतनी शक्तिशाली हो गई कि उसने शासन-व्यवस्था को अपने हाथ में ले लिया। 1627 ई० में लाहौर में उसकी मृत्यु हो गई। जहाँगीर अपनी न्याय की जंजीर के कारण काफी विख्यात हुआ जो उसने आगरे के किले में लगवाई थी।

5. शाहजहाँ (Shahajahan)-जहाँगीर के बाद उसका पुत्र खुर्रम, शाहजहाँ के नाम से गद्दी पर बैठा। अपनी पत्नी मुमताज महल की मृत्यु के बाद उसने ताजमहल का निर्माण प्रारंभ करवाया। ईरान के शासक से वह 1638 ई० में कन्धार जीतने में सफल रहा। ईरानी शासक ने 1649 ई० में कन्धार पर फिर कब्जा कर लिया। उसके शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध था जो 1657-58 ई० में लड़ा गया। इसमें उसके तीन पुत्र दारा शिकोह, मुराद व शुजा मारे गए तथा औरंगजेब सफल रहा। उसने 1658 ई० में शाहजहाँ को गद्दी से हटाकर जेल में डाल दिया। इस तरह शाहजहाँ की मृत्यु 7 वर्ष जेल में रहने के बाद हुई।

6. औरंगजेब (Aurangzeb)-1658 ई० में अपने भाइयों को हराकर व पिता को बन्दी बनाकर औरंगजेब सत्ता प्राप्त करने में सफल रहा। वह व्यक्तिगत जीवन में सादगी को पसन्द करता था, लेकिन धार्मिक दृष्टि से संकीर्ण था। उसकी संकीर्णता के चलते हुए गैर-मुस्लिम प्रजा तथा मुस्लिमों में शिया उसके विरोधी हो गए। उसे जाटों, सतनामियों, राजपूतों, सिक्खों व मराठों के विद्रोहों का सामना करना पड़ा।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

प्रश्न 2.
इतिवृत्त क्या हैं? ये क्यों लिखे गए? मुगलकाल के प्रमुख इतिवृत्त कौन-कौन से हैं ?
उत्तर:
मुग़ल शासकों के दरबार में स्वयं शासकों या दरबारियों द्वारा जिन पुस्तकों की रचना की गई उन्हें इतिवृत्त कहा जाता है। इतिवृत्त (क्रॉनिकल्स) मुगलकालीन इतिहास की जानकारी का बहुत महत्त्वपूर्ण स्रोत है। सभी मुग़ल शासकों ने इतिवृत्तों के लेखन की ओर विशेष ध्यान दिया जिसके कारण हमें घटनाओं व शासन संबंधी विभिन्न पक्षों की व्यवस्थित

1. रचना के उद्देश्य (Purpose of the Writings)-मुगलकाल में रचे गए इतिवृत्त बहुत सोची-समझी नीति का उद्देश्य थे। विभिन्न इतिहासकारों व विद्वानों ने इस बारे में अपने-अपने मतों की अभिव्यक्ति की है जिनमें से ये पक्ष उभरकर सामने आते हैं

  • इतिवृत्तों के माध्यम से मुगल शासक अपनी प्रजा के सामने एक प्रबुद्ध राज्य की छवि बनाना चाहते थे।
  • इतिवृत्तों के वृत्तांत के माध्यम से शासक उन लोगों को संदेश देना चाहते थे जिन्होंने राज्य का विरोध किया था तथा भविष्य में भी कर सकते थे। उन्हें यह बताना चाहते थे कि यह राज्य बहुत शक्तिशाली है तथा उनका विद्रोह कभी सफल नहीं होगा।
  • इतिवृत्तों के माध्यम से शासक अपने राज्य के विवरणों को भावी पीढ़ियों तक पहुँचाना चाहते थे।

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2. इतिवृत्तों की विषय-वस्तु (Subjects of Chronicles)-मुग़ल शासकों ने इतिवृत्त लेखन का कार्य दरबारियों को दिया। अधिकतर इतिवृत्त शासक की देख-रेख में लिखे जाते थे या उसे पढ़कर सुनाए जाते थे। कुछ शासकों ने आत्मकथा लेखन का कार्य स्वयं किया। इस माध्यम से ये शासक स्वयं को प्रबुद्ध वर्ग में स्थापित करना चाहते थे, साथ ही अन्य लेखकों का मार्गदर्शन भी करना चाहते थे। इन सभी पक्षों से यह स्पष्ट होता है कि इन इतिवृत्तों के केन्द्र में स्वयं शासक व उसका परिवार रहता था।

इस कारण इतिवृत्तों की विषय-वस्तु शासक, शाही परिवार, दरबार, अभिजात वर्ग, युद्ध व प्रशासनिक संस्थाएँ रहीं। इन इतिवृत्तों की विषय-वस्तु शासकों के नाम अथवा उनके द्वारा धारण उपाधियों की पुष्टि भी करना था। इसलिए इनके नाम सीधे तौर पर इतिवृत्त शासकों के नाम से जुड़े थे।

मुगलकाल के प्रमुख इतिवृत्तों में हैं-बाबरनामा या तुक-ए-बाबरी लेखक बाबर, हुमायूँनामा लेखिका हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम, अकबरनामा-लेखक अबुल फज़्ल, तुज्क-ए-जहाँगीरी लेखक जहाँगीर, शाहजहाँनामा लेखक मामुरी, बादशाहनामा (शाहजहाँ पर आधारित) लेखक-अब्दुल हमीद लाहौरी, आलमगीरनामा लेखक मुहम्मद काजिम इत्यादि हैं। विभिन्न इतिवृत्तों के नामों व लेखकों के नामों से यह स्पष्ट होता है कि मुग़ल शासक स्वयं के इतिहास-लेखन में पूरी रुचि लेते थे। इसके लिए वे इनके लेखकों को प्रत्येक तरह का संरक्षण भी देते थे तथा दरबार में उचित सम्मान भी। अधिकतर स्थितियों में इन इतिवृत्तों के लेखक शासक के अति नजदीकी मित्र होते थे।

प्रश्न 3.
मुगलों की मौलिक भाषा कौन-सी थी? उनके इतिवृत्त किस भाषा में मिलते हैं? इस काल में फारसी कैसे तथा किस-किस रूप में प्रचलन में आई?
उत्तर:
मुग़ल मूलतः मध्य एशिया से थे तथा इनकी मौलिक भाषा तुर्की थी। तुर्की भाषा में भी बाबर चगताई मूल का था, अतः उसकी भाषा ‘चगताई तुर्की’ थी। उसने अपनी आत्मकथा इसी भाषा में लिखी।

अकबर ने फारसी भाषा को दरबार की भाषा घोषित किया। उसने अपने दरबार में उन लोगों को स्थान व सम्मान दिया जो इस भाषा के ज्ञाता थे। शाही परिवार के सदस्यों को इस भाषा को सीखने का वातावरण दिया। फारसी को अपनाने के मुख्य कारण ईरान व मुगलों के संबंध कहे जा सकते हैं। हुमायूँ ने 15 वर्ष ईरान में निर्वासन में बिताए व उन लोगों के संपर्क में आया। उसने सत्ता मिलने के बाद उन्हें उनकी योग्यता के अनुरूप पद दिए। ईरानी दरबार इस काल में सांस्कृतिक विकास व बौद्धिकता का केन्द्र माना जाता था। अकबर उससे भी प्रभावित हुआ।

अकबर की मिलनसार छवि के कारण भी ईरान से विद्वानों का एक दल मुगल दरबार में पद पाने के लिए आया। अकबर ने उन्हें समुचित स्थान दिया। इस तरह यह भाषा दरबार में अलग से अपनी पहचान बनाने में सफल रही। इसके बाद प्रशासन के प्रत्येक क्षेत्र में इसके ज्ञाता हो गए। इस तरह बहुत कम समय में लेखाकारों, प्रशासनिक अधिकारियों व अभिजात वर्ग के लोगों ने इसे सीख लिया।

(i) फारसी का भारतीयकरण-फारसी मुगल दरबार व प्रशासन तंत्र की भाषा तो बन गई, लेकिन इसका स्वरूप ईरान वाला नहीं था। मुगल साम्राज्य काफी विस्तृत था। इस साम्राज्य के अलग-अलग हिस्सों में राजस्थानी, मराठी, बंगाली व तमिल भाषाएँ बोली जाती थीं। इन क्षेत्रों में जंब फारसी गई तो स्थानीय विद्वानों ने अपने-अपने क्षेत्रों की शब्दावली व मुहावरों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया। फारसी पर सर्वाधिक प्रभाव हिंदवी (उत्तर भारत की जन सामान्य की भाषा) का पड़ा। इन दोनों भाषाओं के संपर्क के कारण एक नई भाषा ‘उर्दू अस्तित्व में आई। यह भाषा हिंदवी में बोली जाती थी तथा फारसी लिपि में लिखी जाती थी।

(ii) अनुवाद कार्य-मुग़लकाल में अकबर के शासन व उसके बाद मौलिक लेखन कार्य फारसी में हुआ। इसके साथ बहुत-सी पुस्तकों का अनुवाद भी फारसी में किया गया। प्रारंभ में बाबरनामा का तुर्की से अनुवाद किया गया। इसके बाद अकबर ने महाभारत व रामायण नामक संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद का आदेश दिया। महाभारत का अनुवाद ‘रज्मनामा’ (युद्धों की पुस्तक) के रूप में हुआ। यह पुस्तक फारसी के विद्वानों में बहुत लोकप्रिय हुई। अनुवादित रूप में यह पुस्तक ईरान व मध्य एशिया भी गई।

प्रश्न 4.
पांडुलिपियों में चित्रकारी की क्या भूमिका थी? जानकारी दें।
उत्तर:
मुग़ल शासकों ने जहाँ इतिवृत्त लिखने की दिशा में बहुत ध्यान दिया, वहीं उन्होंने इस बात का भी पूरा ध्यान रखा कि इतिवृत्त सामान्य-से-सामान्य व्यक्ति को समझ में आ सके। सामान्य रूप से पुस्तक या किसी रचना में किसी भाव या विषय की अभिव्यक्ति शब्दों से नहीं हो पाती, बल्कि दृश्य उसको स्पष्ट कर देते हैं। यह बात पांडुलिपियों पर भी लागू होती है। मुग़ल शासकों व पांडुलिपि के लेखकों को इस बात का ज्ञान था। इसलिए हमने किताबखाना में काम करने वाले व्यक्तियों में चित्रकार का वर्णन भी किया है।

जब कोई भी इतिवृत्त लेखक लेखन कार्य करता था एवं यह महसूस करता था कि उक्त स्थान पर दृश्य की आवश्यकता है तो वह उस पृष्ठ पर उतनी जगह खाली छोड़ देता था। यदि बड़े चित्र की आवश्यकता होती तो आस-पास के पृष्ठों को छोड़ दिया जाता था। फिर चित्रकार लेखक से बातचीत कर किसी अन्य कागज पर विषय संबंधी चित्र बनाता था। फिर उसे उस पृष्ठ पर चिपका दिया जाता था या फिर पांडुलिपि के साथ संलग्न कर दिया जाता था। .

1. चित्रकारी का उद्देश्य (Aims of Paintings)-इतिवृत्त पर चित्रकारी मात्र भावों की अभिव्यक्ति नहीं थी बल्कि कई और पक्षों को भी स्पष्ट करती थी; जैसे

• चित्रकारी पांडुलिपि के सौन्दर्य का अभिन्न अंग थी। किसी भी पांडुलिपि को उस समय तक पढ़ने के योग्य नहीं माना जाता था जब तक वह चित्रित न हो।

• राजा व राज्य की शक्ति के बारे में जो बात शब्दों में न कही जा सके उसे चित्र के माध्यम से दिखाया जाता था। उदाहरण के लिए शाही दरबार की अधिकतर चित्रकारी में शासक के साथ शेर व गाय अथवा शेर व बकरी के चित्र मिलते हैं। इसका अर्थ साफ है कि शासक शक्तिशाली व निर्बल सभी को संरक्षण देता था।

• जनता तक विभिन्न संदेश भेजने के लिए भी शासक इस कला का प्रयोग करते थे; जैसे कि उनके लिए साम्राज्य में रहने वाले सभी बराबर हैं। वे किसी भी तरह से उनमें अन्तर नहीं देखते।
अकबर के दरबारी लेखक अबुल फज्ल ने चित्रकारी को ‘जादुई कला’ कहा है। वह कहता है कि चित्रकारी निर्जीव को सजीव की भाँति प्रस्तुत करने की क्षमता रखती है।

2. पांडुलिपियों पर चित्रण (Paintings on Manuscripts)-मुग़ल शासकों ने पांडुलिपि चित्रण की ओर विशेष ध्यान दिया। अकबर के काल में चित्रित होने वाली मुख्य पांडुलिपियों में बाबरनामा, हुमायूनामा, अकबरनामा, (महाभारत का अनुवाद), तारीख-ए-अल्फी व तैमूरनामा थीं। बाद के शासकों ने अपने इतिवृत्तों विशेषकर तज्क-ए-जहाँगीरी व शाहजहाँनामा को चित्रित करवाया। इसके साथ ही उन्होंने पहले लिखे गए इतिवृत्तों की और पांडुलिपियों को तैयार करवाकर उन्हें चित्रित करवाया। ये पांडुलिपियाँ सैकड़ों की संख्या में किताबखाना में रखी गई थीं। मुगल शासकों द्वारा जिस तरह से पांडुलिपियों को चित्रित करवाया, उसकी नकल यूरोप के शासकों ने भी की। इस काल में चित्रित पुस्तकों को उपहार में देना एक प्रकार की परंपरा बन गई थी।

प्रश्न 5.
इतिवृत्त अकबरनामा पर संक्षिप्त निबंध लिखें।।
उत्तर:
मुगल वंश की जानकारी देने वाले इतिवृत्तों की संख्या बहुत अधिक है। इनमें जो सर्वाधिक चर्चित तथा सूचनाओं से परिपूर्ण है, वह है अकबरनामा। यह इतिवृत्त बहुत विस्तृत है तथा इसमें 150 से अधिक चित्रों को चित्रित किया गया है। इन चित्रों में दरबार, विभिन्न युद्धों, मोर्चाबन्दी का विवरण, शिकार, विवाह तथा भवन निर्माण के दृश्य हैं।

अकबरनामा का लेखन अबुल फज़्ल द्वारा किया गया। वह शेख नागौरी का पुत्र तथा फैजी का भाई था। वह अरबी, फारसी, तुर्की व यूनानी का ज्ञाता था। वह उदारवादी चिन्तक तथा सूफीवादी विचारधारा से प्रभावित था। अकबर से उसकी भेंट उसके बड़े भाई फैजी ने करवाई तथा वह उन्नति करता हुआ फैजी से काफी आगे निकल गया। अकबर उसके तर्क तथा वाद-विवाद करने की योग्यता से बहुत प्रभावित हुआ। उसने अकबर की विचारधारा को उदारवादी बनाने में बहुत योगदान दिया। वह अकबर के अति नजदीकी मित्रों में से एक रहा।

(1) अकबरनामा का लेखन (Writing of Akbarnama) अकबर ने अबुल फज्ल को अकबरनामा को लिखने का आदेश 1589 ई० में दिया। उसने इसके लिखने में कुल 13 वर्ष का समय लगाया। इस काल में उसने कई बार इस पुस्तक के कई प्रारूप तैयार किए। अन्ततः इसे अन्तिम रूप दिया। इस पुस्तक में घटनाओं का क्रमानुसार विवरण है। लेखक ने इसे अधिक-से-अधिक मौलिक दस्तावेजों तथा जानकार व्यक्तियों के मौलिक प्रमाण लेकर लिखा है।

अकबरनामा तीन खण्डों में विभाजित है। इसके प्रथम दो भाग ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी देते हैं जबकि तीसरा भाग आइन-ए-अकबरी है। . अबुल फज्ल ने पहले खण्ड में पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति का आधार आदम को मानकर वहीं से लेखन प्रारंभ किया। उसने इस कड़ी में पैगम्बर मोहम्मद, भारत में दिल्ली सल्तनत का संक्षिप्त परिचय देते हुए अकबर के शासन काल के प्रारंभिक 30 वर्षों का वर्णन किया है।

अकबरनामा के दूसरे खण्ड में अकबर के 30वें वर्ष से लेकर 46वें वर्ष तक के शासन का वर्णन है। इसके बाद वह अपना लेखन जारी रखना चाहता था लेकिन 1602 ई० में अकबर के पुत्र सलीम (बाद में जहाँगीर) ने विद्रोह कर दिया। इसी दौरान सलीम ने एक षड्यंत्र द्वारा वीर सिंह बुंदेला के हाथों अबुल फज्ल की हत्या करवा दी।

(i) अकबरनामा की विषय-वस्तु (Subject-Matter of Akbarnama)-अकबरनामा में राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन ऐतिहासिक दृष्टिकोण से किया गया है। लेखक ने किसी घटना का पूरा विवरण प्राप्त करने के लिए संबंधित पक्षों की जानकारी भी दी है। उसने अकबर के साम्राज्य के भौगोलिक, सामाजिक, प्रशासनिक व सांस्कृतिक पक्षों को स्पष्ट रूप से लिखा है। उसने अपने वर्णन में समय व तिथियों के अनुरूप परिवर्तन को अधिक महत्त्व नहीं दिया। उसने अकबर के साम्राज्य में रहने वाले मुस्लिमों, हिंदुओं, जैनों व बौद्धों की जीवन-शैली, परम्पराओं तथा आपसी तालमेल को काफी महत्त्व दिया है। उसने अकबर के साम्राज्य को मिश्रित संस्कृति के केन्द्र के रूप में प्रस्तुत किया है।

अबुल फज़्ल का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। उसे अपना साप्ताहिक लेखन दरबार में पढ़ना होता था। इसलिए उसने अलंकृत भाषा को महत्त्व दिया। इस भाषा में लय व कथन शैली विशेष रूप से उभरकर सामने आई है। क्षेत्र-विशेष का वर्णन करते हुए उसने उस क्षेत्र की स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में किया है। उसके इस प्रयास से भारतीय फारसी शैली का विकास हुआ।

(ii) अकबरनामा का अनुवाद (Translation of Akbarmama)-अकबरनामा के अनुवाद का कार्य बंगाल सिविल सर्विसज़ के अधिकारी हेनरी बेवरिज (Henry Beveridge) ने अपने हाथ में लिया। उसने कड़ी मेहनत के बाद इस पुस्तक का अनुवाद किया।

प्रश्न 6.
मुगलों के राजत्व सिद्धांत के आदर्श क्या थे ? उनकी व्याख्या करें।
उत्तर:
मुगलों ने भारत पर लगभग दो शताब्दियों तक शासन किया। उन्होंने अपने शासन में कुछ सिद्धान्तों को महत्त्व दिया। ये सिद्धांत भारत की परंपरागत शासन-व्यवस्था से भी जुड़े तथा दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों से भी। इनके राजत्व के सिद्धांत में मध्य-एशियाई तत्त्व भी थे तो ईरान का प्रभाव भी साफ दिखाई देता है। मुग़ल इतिवृत्तों में मुग़ल राज्य को आदर्श राज्य वर्णित किया है जिसमें निम्नलिखित विशेषताएँ प्रस्तुत की गई हैं

1. मुग़ल राज्य : एक दैवीय राज्य (Mughal State :ADivine State)-मुगलकाल के सभी इतिवृत्त इस बात की जानकारी देते हैं कि मुगल शासक राजत्व के दैवीय सिद्धान्त में विश्वास करते थे। उनका विश्वास था कि उन्हें शासन करने की शक्ति स्वयं ईश्वर ने प्रदान की है। ईश्वर की इस तरह की कृपा सभी व्यक्तियों पर नहीं होती, बल्कि व्यक्ति-विशेष पर ही होती है।

मुगल शासकों के दैवीय राजत्व के सिद्धांत को सर्वाधिक महत्त्व अबुल फज़्ल ने दिया। वह इसे फर-ए-इज इज़ादी (ईश्वर से प्राप्त) बताता है। वह इस विचार के लिए प्रसिद्ध ईरानी सूफी शिहाबुद्दीन सहरावर्दी (1191 में मृत्यु) से प्रभावित था। उसने इस तरह के विचार ईरान के शासकों के लिए प्रस्तुत किए थे। भारत में अबुल फल के पिता शेख मुबारक नागौरी ने इसे समझा तथा अपने बेटे फज्ल व फैजी को बताया।

अबुल फज्ल ने यह सिद्धांत अकबर के लिए प्रस्तुत किया। अबुल फज्ल का यह मत इतिवृत्तों में विचार बना तथा फिर चित्रकारों ने उन्हें चित्रित किया। चित्रकारों ने मुगल शासकों के चित्रों के चारों ओर प्रभा मण्डल बना दिया। यह प्रभा मण्डल सामान्य रूप से हिन्दू धर्म में देवी-देवताओं की तस्वीरों में होता है जबकि यूरोप में ईसा व वर्जिन मेरी के चित्रों में देखने को मिलता है।

2. सुलह-ए-कुल की नीति (Policy of Sulh-i-Kul)-अकबर की सुलह-ए-कुल (Absolute peace) की नीति अर्थात् सभी के साथ सुलह (किसी से मतभेद नहीं) की थी।

(i) नीति का अर्थ-मुगलकालीन इतिवृत्तों ने इस नीति को अलग-अलग ढंग से अभिव्यक्त किया है। हाँ, इतना सभी मानते हैं कि मुग़ल साम्राज्य में भिन्न-भिन्न जातियों व समुदायों के लोग रहते थे। शासक इस साम्राज्य में शान्ति व स्थायित्व का स्रोत था। इसलिए वह सभी नृजातीय समूहों व समुदायों से ऊपर था तथा वह इन सभी वर्गों के बीच मध्यस्थता करता था। क्योंकि न्याय व शान्ति का मार्ग तालमेल से निकलता था, अतः यह नीति मुग़ल शासकों व साम्राज्य के लिए आदर्श बनी। अबुल फज़्ल, सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन का आधार बताता है। उसके अनुसार सुलह-ए-कुल इस सिद्धांत पर आधारित था कि राज्य सत्ता को क्षति नहीं पहुंचे तथा प्रजा शांति से रहे।

(ii) नीति को व्यवहार में लाना-मुगल शासक विशेषकर अकबर ने धर्म व राजनीति दोनों के संबंधों को समझने का प्रयास किया। उसने इनकी सीमा व महत्त्व को समझा। इस समझ के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि पूरी तरह धर्म का त्याग संभव नहीं है लेकिन धर्म की कट्टरता को त्यागकर अवश्य चला जाए। उसने धर्म को राजनीति से भी थोड़ा दूर करने का प्रयास किया।

इस कड़ी में उसने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 ई० में जजिया कर को समाप्त कर, यह सन्देश दिया कि गैर-इस्लामी प्रजा से कोई भेद-भाव नहीं किया जाएगा। उसने युद्ध में पराजित सैनिकों को दास बनाने पर रोक लगाई तथा जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन को गैर-कानूनी घोषित किया। अकबर ने अपने साम्राज्य में गौ-वध को देशद्रोह घोषित करते हुए उस पर रोक लगा दी।

अकबर ने इन फैसलों के माध्यम से धार्मिक पक्षपात को समाप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाया तो साथ ही बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं का सम्मान भी किया। उसने राज्य के सभी अधिकारियों को सुलह-ए-कुल के नियमों के पालन करने के निर्देश दिए। इस तरह अकबर अपनी इस नीति के द्वारा राज्य में शांति व स्थायित्व का आधार बनाने में सफल रहा।

3. सामाजिक अनुबंध पर आधारित न्यायपूर्ण प्रभुसत्ता (Just Sovereignty Based on Social Contract)-मुगल शासकों ने न्याय को विशेष महत्त्व दिया। वे यह मानते थे कि न्याय व्यवस्था ही उनसे सही अर्थों में प्रजा के साथ संबंधों की व्याख्या है। अबुल फज़्ल ने अकबर के प्रभुसत्ता के सिद्धांत को स्पष्ट किया है। उसके अनुसार बादशाह अपनी प्रजा के चार तत्त्वों-जीवन (जन), धन (माल), सम्मान और विश्वास (दीन) की रक्षा करता है।

इसके बदले में जनता से आशा करता है कि वह राजाज्ञा का पालन करे तथा अपनी आमदनी (संसाधनों) में से कुछ हिस्सा राज्य को दे। अबुल फज़्ल स्पष्ट करता है कि इस तरह का चिन्तन किसी न्यायपूर्ण संप्रभु का ही हो सकता है जिसे दैवीय मार्गदर्शन प्राप्त हो।

मगल शासकों ने सामाजिक अनबंध पर आधारित न्याय को अपनाया तथा जनता में प्रचारित भी किया। इसके लिए विभिन्न प्रकार के प्रतीकों को प्रयोग में लाया गया। इसमें सर्वाधिक कार्य चित्रकारों के माध्यम से करवाया गया। मुगल शासकों ने दरबार तथा सिंहासन के आस-पास विभिन्न स्थानों पर जो चित्रकारी करवाई उसमें वो शेर तथा बकरी या शेर तथा गाय साथ-साथ बैठे दिखाई देते हैं।

उनकी चित्रकारी जनता को यह सन्देश देने का साधन था कि इस राज्य में सबल या दुर्बल दोनों परस्पर मिलकर रह सकते हैं। इनमें भी कुछ चित्रों में शासक को शेर पर सवार दिखाया गया है जो इस बात का संदेश है कि उसके साम्राज्य में उनसे शक्तिशाली कोई नहीं था। कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि मुगलों ने विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से न्याय को प्रदर्शित करने का प्रयास किया तथा स्पष्ट किया कि इसका आधार सामाजिक अनुबंध है।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

प्रश्न 7.
मुग़लों की राजधानियाँ कौन-कौन सी थीं ? इन राजधानी नगरों का वर्णन करें।
उत्तर:
राजधानी नगर मुगलों की सभी गतिविधियों का केन्द्र थे। मुगलों के राजधानी नगर को राज्य का हृदय-स्थल कह दें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुगलों का राजधानी नगर कभी एक नहीं रहा बल्कि समय व स्थिति के अनुरूप उसमें बदलाव आते रहे। मुगलों के आने से पूर्व भारत में दिल्ली सल्तनत थी। स्वाभाविक है कि दिल्ली ही इस काल में राजधानी रहा। 1504 ई० में सिकन्दर लोदी ने आगरा शहर की नींव रखी। इससे सत्ता का एक और केन्द्र बन गया तथा गतिविधियों का संचालन दोनों नगरों से होने लगा। बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई में विजय के बाद पहले दिल्ली पर फिर आगरा पर कब्जा किया।

(i) मुग़ल साम्राज्य का प्रारंभिक काल-बाबर ने अपनी राजधानी आगरा को रखा। वहाँ पर उसने अपनी आवश्यकता के अनुरूप कुछ भवन बनवाए तथा अधिकतर की मुरम्मत करवाई। उसकी मृत्यु के बाद हुमायूँ ने भी आगरा को ही राजधानी बनाया। जिस समय वह शेरशाह से पराजित हुआ तो उसने कुछ समय के लिए दिल्ली को राजधानी बनाया। वहाँ पर उसने ‘दीन-पनाह’ नामक भवन का निर्माण भी करवाया।

(ii) अकबर के काल में राजधानी-पानीपत के दूसरे युद्ध (1556) के बाद अकबर ने दिल्ली व आगरा पर नियंत्रण किया। 1556-60 ई० तक अकबर ने अपने संरक्षक बैहराम खाँ के नेतृत्व में शासन किया। उस समय राजधानी आगरा थी लेकिन शाही वंश के अधिकतर सदस्य दिल्ली में रहते थे।
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1560 ई० के बाद अकबर ने आगरा में लाल किले का निर्माण प्रारंभ करवाया। उसने इसे सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत तथा आवश्यकता की दृष्टि से काफी विशाल बनवाया। उसने इसके लिए आस-पास के क्षेत्रों से लाल-बलुआ पत्थर मंगवाया तथा 1568 ई० तक इस किले का अधिकतर हिस्सा बनकर तैयार हो गया। जिस समय आगरा में किले का निर्माण हो रहा था, उस समय अकबर सूफी मत के प्रभाव में आ गया।

इसी कड़ी में उसे आगरा के पास सीकरी नामक स्थान पर एक सूफी सन्त सलीम चिश्ती की जानकारी मिली। उसके बाद वह उसका अनुयायी बन गया। सलीम चिश्ती के प्रति अपनी श्रद्धा दिखाने के लिए अकबर ने 1570 ई० में सीकरी का नाम बदलकर फतेहपुर सीकरी किया तथा इस स्थल को राजधानी घोषित कर दिया। यह स्थान आगरा-अजमेर मार्ग पर था तथा लोगों की पसंदीदा जगह थी। इस तरह फतेहपुर सीकरी राजधानी व तीर्थ स्थल दोनों रूपों में उभरकर सामने आया।

(iii) जहाँगीर व शाहजहाँ के काल में राजधानियाँ-जहाँगीर का राज्यारोहण आगरा में हुआ था तो यही स्थल राजधानी था। 1611 ई० में नूरजहाँ के साथ विवाह के उपरांत वह लाहौर चला गया। उसने वहाँ रावी नदी के तट पर एक लाल किले का निर्माण करवाया। जहाँगीर की मनपसंद जगह लाहौर थी। अतः यह उसकी राजधानी भी रहा तथा उसने अधिकतर समय वहाँ गुजारा। जहाँगीर गर्मियों के दिनों में अपना समय श्रीनगर में बिताया करता था। इस हेतु उसने शालीमार व निशात बागों का निर्माण भी करवाया। इस तरह यह स्थल भी उसकी अस्थायी राजधानी रहे।

जहाँगीर के बाद शाहजहाँ ने प्रारंभ में एक दशक तक अपनी राजधानी आगरा रखी। वहाँ ताजमहल का निर्माण करवाया। 1640 ई० में उसने अपना ध्यान दिल्ली की ओर दिया। उसने दिल्ली के प्राचीन आबादी क्षेत्र के पास नया शहर बसाया जिसे शाहजहानाबाद का नाम दिया। इस क्षेत्र में उसने लालकिला, जामा मस्जिद, चाँदनी-चौक बाजार का निर्माण करवाया। 1648 ई० में शाहजहाँ ने आगरा की बजाय यहाँ अधिक समय बिताना प्रारंभ कर दिया। शाहजहाँ का नया नगर विशाल व भव्य था।

(iv) औरंगजेब काल में राजधानी-औरंगज़ेब ने अपनी राजधानी की गतिविधियाँ दिल्ली से चलाईं, परन्तु उसने आगरा के महत्त्व को कम नहीं होने दिया। प्रारंभ में वह आगरा के किले से इसलिए कटा रहा क्योंकि वहाँ शाहजहाँ बन्दी था। अपने जीवन के अन्तिम 25 वर्ष उसने दक्षिण में बिताए। वहाँ मराठवाड़ा क्षेत्र में वह शिविर से प्रशासन चलाता रहा। अन्ततः औरंगाबाद नामक स्थान पर उसने दम तोड़ दिया।

प्रश्न 8.
मुगलों के शाही दरबार के बारे में आप क्या जानते हो? इस बारे में जानकारी दें।
उत्तर:
मुगल साम्राज्य का हृदय दरबार था जिसे शाही दरबार कहा गया है। शाही दरबार में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल राजसिंहासन अथवा तख्त होता था। इस पर बैठकर शासक शासन के कार्यों को संचालित करता था। राजसिंहासन एक ऐसे स्तंभ का प्रतीक माना जाता था मानो इस पर पृथ्वी टिकी हो। राजसिंहासन के ऊपर बनी छतरी, शासक की कांति (चमक) सूर्य की कांति से अलग करने वाली मानी जाती थी। राजसिंहासन को ईश्वर के प्रतीक व उपहार के रूप में देखा जाता था। राजसिंहासन के सामने बहुत बड़ा आँगन होता था, जिसकी भव्यता, सजावट, कालीन व पर्दे शासक व साम्राज्य की पहचान माने जाते थे।
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(i) दरबारी शिष्टाचार-मुगलों का दरबार चाहे काफी बड़ा हो, लेकिन वहाँ भीड़-भाड़ की स्थिति कभी नहीं होती थी। दरबार में कौन कहाँ होगा, किस स्थिति में होगा, कौन प्रवेश करेगा तथा कौन जाएगा सब कुछ एक निश्चित नियम के अनुरूप होता था। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि दरबार में शासक की आज्ञा के बिना परिंदा भी पर नहीं मार सकता था।

(ii) दरबार में अभिवादन-दरबार में अभिवादन के तरीके भी व्यक्ति की हैसियत तथा पहुँच को स्पष्ट करते थे। अभिवादन में सामने जितना बड़ा व्यक्ति होता था, उतना ही झुकना दरबारी परंपरा थी। अभिवादन का सबसे उच्चतम रूप ‘सिजदा’ अर्थात् दंडवत लेटना था। यह केवल शासक के समक्ष ही होता था। शाहजहाँ के काल में चार तसलीम (झुककर चार बार हाथ को जमीन से माथे की ओर लाना) तथा जमींबोसी (झुककर जमीन चूमना) भी अपनाए जाने लगे थे।

अभिवादन का एक सामान्य तरीका कोर्निश भी था। इसके अनुसार दरबारी अपने दाएँ हाथ की हथेली को अपनी छाती पर रखकर आगे की ओर सिर झुकाता था। यह इस बात का प्रतीक था कि अभिवादन करने वाला व्यक्ति इंद्रिय व मन स्थल को हाथ लगाते हुए झुककर विनम्रता से अपने को प्रस्तुत कर रहा है।

(iii) झरोखा-झरोखा मुग़ल दरबारी व्यवस्था की अकबर द्वारा जोड़ी गई परंपरा थी। यह प्राचीन भारतीय शासकों से ली गई थी। इसमें शासक प्रातः उठते ही सामान्य प्रार्थना इत्यादि के बाद अपने महल के एक विशेष हिस्से में बनी खिड़की (झरोखे) पर सूर्य की ओर मुँह करके बैठ जाता था। इस जगह के ठीक नीचे काफी खुली जगह होती थी जिसमें सैनिक, व्यापारी, कृषक, शिल्पकार यहाँ तक की बीमार बच्चों के साथ औरतें होती थीं।

वे सूर्योदय से पहले वहाँ एकत्रित हो जाते थे तथा शासक की झलक पाते ही ऊँची आवाज में बोलते थे ‘बादशाह सलामत’ । अकबर द्वारा प्रारंभ की गई यह परंपरा अटूट चलती रही तथा उसका यह विश्वास था कि इससे जनता का सत्ता में विश्वास बनता था। औरंगज़ेब ने बाद में इसे गैर-इस्लामी घोषित करते हुए बन्द कर दिया था।

(iv) शाही उत्सव व समारोह-मुगल दरबार में सामान्य प्रशासनिक गतिविधियों के अतिरिक्त कुछ विशेष उत्सव व समारोह होते थे। उस दिन दरबार को विशिष्ट ढंग से सजाया जाता था। सजाने के लिए रंग-बिरंगे ढंग से सजे डिब्बों में रखी मोमबत्तियाँ, महल की दीवारों पर विभिन्न तरह के बंदनवार (सज्जा के लिए विशेष रूप से तैयार चीजें) तथा विभिन्न तरह की सुगंधित चीजों का प्रयोग किया जाता था। शाही उत्सव व समारोह तीन तरह के होते थे।

a. सामूहिक सामाजिक समारोहों में ईद, शब-ए-बारात तथा (हिजरी कैलेंडर के 8वें महीने की 14वीं तारीख या सावन की रात्रि का त्योहार) होली व दीवाली प्रमुख होते थे। इनमें जनता के विभिन्न वर्गों के लोग दरबार में शाही परिवार के सदस्यों के साथ भाग लेते थे।

b. शाही विशिष्ट समारोह में सिंहासनारोहण की वर्षगाँठ, सूर्यवर्ष व चंद्रवर्ष के अनुरूप शासक के जन्म का कार्यक्रम तथा वसंतागमन पर फारसी त्योहार नौरोज मुख्य थे। इनमें शासक का जन्मदिन अन्यों की तुलना में अधिक शोभायमान तथा खर्चीला होता था।

c. शाही दरबार का तीसरा समारोह व उत्सव शहजादों की शादियों का होता था। यह इतना मंहगा, मनमोहक व आकर्षक होता था कि सामान्य व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता था।

प्रश्न 9.
मुग़ल शासकों के परिवार का वर्णन करते हुए शाही परिवार की महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
मुगल शासन-व्यवस्था में शासक प्रमुख होता था। परंतु यह ध्यान रहना चाहिए कि उसका अकेले तौर पर कोई अस्तित्व नहीं था। प्रशासन की प्रत्येक गतिविधि में उसके परिवार के सदस्यों की भूमिका अहम् होती थी। शासक के परिवार को शाही परिवार कहा जाता था। शाही परिवार के सदस्यों को दरबार से अलग वर्णित करते हुए इतिवृत्तों में सर्वाधिक प्रचलित शब्द ‘हरम’ मिलता है। हरम शब्द शासक के निवास की ओर संकेत करता है।

शाब्दिक रूप से हरम का अर्थ ‘पवित्र स्थान’ होता है। इतिवृत्तों में हरम के वर्णन में शासक, उसकी पत्नी, उपपत्नी, उसके नजदीक व दूर के रिश्तेदार, वास्तविक माता, धाय माता, सौतेली माता, उपमाता, बहन, पुत्री, चाची, मौसी उनके बच्चे व पुत्रों की पत्नियाँ व उनके सहयोगी होते थे। इसके अतिरिक्त महिला परिचारिकाएँ, गुलाम व दास-दासी भी इस परिवार का अंग होते थे।

अकबर के शासन काल से पहले मुग़लों के शाही परिवार में एक वर्ग विशेष के लोग थे। परन्तु अकबर ने जब राजपूतों के साथ वैवाहिक, राजनीतिक व मैत्री संबंध स्थापित किए तो पारिवारिक संरचना में बदलाव आया। इसमें सबसे बड़ा बदलाव तो यह था कि अब पादशाह बेगम (मुख्य पत्नी) अर्थात् हरम की राजपूत पत्नियाँ बनीं।
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1. हरम की व्यवस्था (System of Haram)-शाही परिवार के हरम में महिलाओं की प्रमुखता थी। इसमें सभी महिलाएँ बराबर की तथा एक जैसी हैसियत वाली नहीं थीं। हरम में प्रमुख महिलाओं को मोटे तौर पर तीन नामों से जाना जाता था।

बेगम-शाही परिवार में सबसे ऊँचा स्थान बेगमों का था। बेगम प्रायः कुलीन परिवार से संबंधित होती थी। उनके साथ विवाह एक निश्चित परंपरा के अनुरूप होता था। वे मेहर (दहेज) के रूप में काफी धन इत्यादि लाती थी। पहले ही दिन से इनका सम्मान होता था। शासक जिस बेगम को सर्वाधिक चाहता था उसे पादशाह

बेगम (मुख्य पत्नी) का खिताब दिया जाता था। उसकी स्थिति अन्य बेगमों की तुलना में अच्छी होती थी।
अगहा-हरम में इनका स्थान दूसरे नंबर पर था। ये सामान्य कुलीन परिवारों से थीं। ये भी शादी की परंपरा के बाद ही हरम में आती थीं।
अगाचा-हरम में इनका दर्जा तीसरा था। इन्हें उपपत्नियों का दर्जा प्राप्त था। इन्हें इनके खर्चे के अनुरूप मासिक भत्ता व दर्जे के अनुरूप उपहार इत्यादि मिलते थे।

2. शाही परिवार की महिलाओं का राजनीति में हस्तक्षेप (Interferance in Politics by the Women of Royal Family)-कई बार शाही परिवार की महिलाएँ भी राजनीति में सक्रिय रहती थीं। उदाहरण के लिए नूरजहाँ के राजनीति में आने के बाद हरम की स्थिति व पहचान दोनों बदल गई। 1611 ई० से 1626 ई० तक जहाँगीर के शासन काल में नूरजहाँ ने प्रत्येक गतिविधि में हिस्सा लिया। वह झरोखे पर बैठती थी तथा सिक्कों पर उसका नाम आता था।

‘नूरजहाँ गुट’ सही अर्थों में जहाँगीर के शासन में सारे फैसले करता था। जहाँगीर ने तो यहाँ तक कह दिया था कि मैंने बादशाहत नूरजहाँ को दे दी है, मुझे कुछ प्याले शराब तथा आधा सेर माँस के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए। शाहजहाँ के शासन काल में उसकी पुत्री जहाँआरा तथा रोशनआरा लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक फैसलों में शामिल होती थीं। वे उच्च पदों पर आसीन मनसबदारों की भाँति वार्षिक वेतन लेती थीं। जहाँआरा (शाहजहाँ की बड़ी बेटी) तो सूरत की बंदरगाह (भारत की विदेशी व्यापार की उस समय सबसे बड़ी बंदरगाह) से निरंतर राजस्व की वसूली करती थी।

हरम की प्रमुख महिलाओं ने इमारतों व बागों का निर्माण कार्य करवाया। नूरजहाँ ने आगरा में एतमादुद्दौला (अपने पिता) के मकबरे का निर्माण करवाया। शालीमार व निशात बागों को बनवाने में भी उसकी मुख्य भूमिका थी। इसी प्रकार दिल्ली में शाहजहाँनाबाद की कई कलात्मक योजनाओं में जहाँआरा की भूमिका थी। उसने शाहजहाँनाबाद में आँगन, बाग व एक दोमंजिला कारवाँ-सराय का निर्माण करवाया। दिल्ली के चाँदनी चौक की रूप-रेखा भी उसके द्वारा ही तैयार की गई थी।

प्रश्न 10.
मुगलकाल में नौकरशाही पर निबंध लिखें।
उत्तर:
मुगल साम्राज्य एक संतुलित तथा व्यवस्थित राज्य था। इसे यह रूप देने वाला वर्ग नौकरशाहों का था। इन नौकरशाहों पर मुगलों ने विश्वास भी किया तथा इन पर नियंत्रण भी रखा, जिसके कारण मुग़ल प्रशासन संगठित व उच्च आदर्शों वाला बन पाया। मुगलों के प्रशासन में भारतीय व विदेशी तत्त्वों का मिश्रण था। इसमें केंद्रीय व प्रांतीय शासन में ईरानी व मध्य एशियाई तत्त्व .
अधिक थे जबकि स्थानीय प्रशासन के अधिकतर तत्त्व भारतीय थे।

1. नौकरशाहों की नियुक्ति प्रक्रिया-मुग़ल शासन में शासक सबसे ऊपर थे। उनकी शक्तियाँ असीम थीं। अबुल फज्ल स्पष्ट करता है कि मुग़ल साम्राज्य में सत्ता की संपूर्ण क्रिया एकमात्र बादशाह में निहित थी। साम्राज्य के बाकी सभी लोग उसके आदेशों की पालना करते थे। वह व्यवस्था को चलाने के लिए योग्यता के आधार पर अधिकारियों की नियुक्ति करता था। इन्हीं लोगों के सहारे मुगल शासक एक प्रभावशाली तंत्र खड़ा कर सके।

नियुक्ति के संदर्भ में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यहाँ किसी व्यक्ति के दरबार में आने तथा सेवा से निवृत्त होने की कोई आयु नहीं थी। जिस भी व्यक्ति को सेवा में लेना होता था, शासक उससे बातचीत कर संबंधित विभाग के वरिष्ठ व्यक्ति को कहता था कि उसे दरबार में प्रस्तुत करे। इस तरह आदेश का पालन करते हुए संबंधित व्यक्ति की विस्तृत जाँच-पड़ताल करके सेवा में लेने का फैसला किया जाता था।

2. मनसबदारी प्रथा-मुग़ल नौकरशाही में मनसबदारी प्रमुख थी। यह सैनिक व असैनिक दोनों के लिए थी। मनसब शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है-पद। इस शब्द की व्याख्या के अनुसार जो भी व्यक्ति मुग़लों की सेवा में आता था तो उसे एक मनसब दिया जाता था। वह मनसब उसकी दरबार में पहचान, जिम्मेदारी व हैसियत तीनों बातों का अहसास कराता था। मनसब में जात व सवार दो शब्दों का प्रयोग होता था।

जात शब्द व्यक्ति के पद (status) को स्पष्ट करता था जबकि सवार उसके पास ऊँट, घोड़े, बैल इत्यादि सैनिक क्षमता का बोध कराता था। इससे यदि किसी व्यक्ति की 1000 की जात मनसब व 1000 की सवार मनसब है तो वह मनसबदार प्रथम श्रेणी में होता था, यदि जात की तुलना में सवार 500 या इसके आस-पास थे तो वह द्वितीय श्रेणी में आता था तथा यदि उसके सवार नाममात्र थे या थे ही नहीं वह तृतीय श्रेणी में आता था।

इसी श्रेणी के आधार पर उसका वेतन निर्धारित होता था जबकि इसी आधार पर उसे दरबार में जगह मिलती थी। यहाँ तक कि शासक के शिविर में भी उसी अनुरूप उसका तंबूकक्ष (Tent-Room) बनता था। मनसबदारी व्यवस्था की खास बात यह थी कि मनसबदार चाहे 20 के रैंक का हो या 5,000 का वह सीधे शासक से जुड़ा होता था। वह किसी अन्य व्यक्ति के लिए जिम्मेदार नहीं होता था। मुगलकाल में सामान्य रूप से 1000 से बड़े पद के मनसबदार को उमरा (अमीर वर्ग का बहुवचन) कहा जाता था। मनसबदारों की नियुक्ति, पदोन्नति व पद मुक्ति की शक्तियाँ स्वयं शासक के पास होती थीं।

3. नौकरशाहों के प्रति दरबार का व्यवहार-मुगल दरबार में नौकरी पाना बेहद कठिन कार्य था। दूसरी ओर अभिजात व सामान्य वर्ग के लोग शाही सेवा को शक्ति, धन व उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा का एक साधन मानते थे। नौकरी में आने वाले व्यक्ति से आवेदन लिया जाता था, फिर मीरबख्शी की जाँच-पड़ताल के बाद उसे दरबार में प्रस्तुत होना होता था। मीर बख्शी के साथ-साथ दीवान-ए-आला (वित्तमंत्री) तथा सद्र-उस-सुदुर (जन कल्याण, न्याय व अनुदान का मंत्री) भी उस व्यक्ति को कागज तैयार करवाकर अपने-अपने कार्यालयों की मोहर लगाते थे।

फिर वे शाही मोहर के लिए मीरबख्शी के द्वारा ले जाए जाते थे। ये तीनों मंत्री दरबार में दाएँ खड़े होते थे, बाईं ओर नियुक्ति व पदोन्नति पाने वाला व्यक्ति खड़ा होता था। शासक उससे कुछ औपचारिक बात करके उसे दरबार के प्रति वफादार रहने की बात कहता था तथा संकेत करता था कि वह किस स्थान पर खड़ा हो। इस तरह उस व्यक्ति की नियुक्ति तथा पदोन्नति मानी जाती थी।

4. नौकरशाहों पर नियंत्रण-शासक द्वारा नौकरशाहों पर नियंत्रण के लिए कुछ नियम बनाए गए थे। उनके अनुसार शासक सामान्य रूप से इनके प्रति कठोर व्यवहार रखता था। नियमित निरीक्षण में इन्हें किसी तरह की छूट नहीं थी। थोड़ा-सा भी शक होने या अनुशासन की उल्लंघना करने पर इन्हें दण्ड दिया जाता था। इनकी कभी भी कहीं भी बदली की जा सकती थी। कोई भी अधिकारी किसी भी कार्य को करने की मनाही नहीं कर सकता था।

इन सबके अतिरिक्त यह कि इनका पद पैतृक नहीं होता था अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को नए सिरे से जीवन की शुरुआत करनी होती थी। किसी भी अभिजात वर्ग के व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति, उसकी सन्तान को नहीं दी जाती थी बल्कि यह स्वतः ही बादशाह या दरबार की सम्पत्ति बन जाती थी।

प्रश्न 11.
मुगलों की विदेश नीति का परिचय देते हुए उनकी ईरान व तुर्की साम्राज्य के प्रति नीति का वर्णन करें।
उत्तर:
मुगल शासकों की विदेश नीति काफी परिपक्व थी। शासक जिस तरह की उपाधियों या पदवियों को धारण करते थे उनका असर पड़ोसी राज्यों पर अवश्य होता था। जहाँगीर (विश्व पर कब्जा करने वाला), शाहजहाँ (विश्व का शासक) तथा आलमगीर (विश्व का स्वामी) द्वारा धारण की गई उपाधियाँ खास थीं। इतिवृत्तों के लेखकों ने इन उपाधियों की व्याख्या व अर्थों का हवाला बार-बार दिया ताकि मुगल अविजित क्षेत्रों पर भी राजनीतिक नियंत्रण बना सकें तथा एक बार विजित करने के उपरांत उनका उस पर हमेशा के लिए हक बना रहे।

इस तरह से स्पष्ट होता है कि मुग़ल अपने साम्राज्य की सीमा विस्तार के लिए हमेशा प्रयासरत रहते थे। उनकी इस नीति के आधार पर ही उनके पड़ोसी देशों के साथ संबंधों का निर्धारण होता था। इन रिश्तों में कूटनीतिक चाल व संघर्ष साथ-साथ चलता था। इस कड़ी में पड़ोसी राज्यों के साथ क्षेत्रीय हितों के तनाव व राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता चलती रहती थी। इसके साथ-साथ दूतों का . आदान-प्रदान भी होता रहता था।

1. ईरान के प्रति नीति (Policy Towards Perssia)-भौगोलिक दृष्टि से मुगल साम्राज्य की स्थिति वर्तमान भारत से थोड़ी भिन्न थी। उस समय पड़ोसी देशों में सबसे बड़ी सीमा ईरान में लगती थी। ऐसे में स्वाभाविक है कि दोनों के बीच कूटनीतिक संबंध भी रहे, तनाव की स्थितियाँ भी रहीं तथा संघर्ष भी हुआ। भारत व ईरान के बीच सामरिक व व्यापारिक महत्त्व का शहर कन्धार था। यही स्थल मुगलों व सफावियों के बीच झगड़े की जड़ रहा।

झगड़े की शुरुआत 1507 ई० में बाबर द्वारा कन्धार पर कब्जा करने से प्रारंभ हुई थी तथा उसके बाद यह इन दोनों वंशों के बीच प्रतिष्ठा का प्रतीक भी बन गया जिसके कारण दोनों के बीच लंबे समय तक कंधार पर अधिकार के लिए संघर्ष चला तथा 1649 में ईरान ने अन्ततः इस पर कब्जा कर लिया। शाहजहाँ ने तीन अभियान भेजे, परंतु वे सफल नहीं हो सके। इसके बाद कन्धार कभी भी मुग़ल साम्राज्य व भारत का हिस्सा नहीं रह सका। औरंगज़ेब ने कन्धार को प्राप्त करने की बजाय क्षेत्र में शान्ति को महत्त्व दिया।

2. तुर्की साम्राज्य से संबंध (Relation with Ottomans Empire)-ईरान से आगे तुर्की साम्राज्य था जिसे सामान्य भाषा में ऑटोमन साम्राज्य के नाम से जाना जाता है। इस साम्राज्य में वर्तमान सऊदी अरब, कुवैत, सीरिया, जॉर्डन, ईरान व पश्चिमी एशिया के कई और देश थे। मुगलकाल में ऑटोमन (तुर्की) साम्राज्य धार्मिक व व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। धार्मिक दृष्टि से इसलिए क्योंकि मक्का व मदीना जैसे ऐतिहासिक शहर इस क्षेत्र में थे जिनके प्रति लोगों में श्रद्धा थी। दूसरा यह कि व्यापार का अन्तर्राष्ट्रीय मार्ग रेशम मार्ग इस क्षेत्र से गुजरता था। भारत का थल मार्ग से होने वाला 80% व्यापार इस क्षेत्र से होता था।

मुगल शासकों ने ऑटोमन साम्राज्य के बारे में यह नीति अपनाई कि उन्हें इस क्षेत्र के विदेशी व्यापार से जो लाभ होता था, उसका काफी हिस्सा वे इस क्षेत्र के धर्म स्थलों के विकास पर लगाते थे तथा कुछ पैसा फकीरों इत्यादि में बाँट देते थे। इसके कारण मुगलों की छवि भी बहुत उच्च बनी। मक्का व मदीना की देख-रेख करने वाले व्यक्तियों को मुगलों से आने वाले धन की प्रतीक्षा रहती थी।

औरंगजेब ने धन भेजने के कारणों व उद्देश्यों के बारे में विस्तृत जाँच करवाई। उसे पता चला कि इसके कारण मुगलों की अन्तर्राष्ट्रीय छवि तो जरूर अच्छी बनती है लेकिन धन का दुरुपयोग भी हो रहा है। इसलिए उसने इस धन को नियंत्रित किया तथा स्पष्ट किया कि इस धन का वितरण भारत में हो। औरंगजेब के इस कदम की प्रतिक्रिया भारत व मक्का-मदीना दोनों जगह हुई। यहाँ के कट्टरपंथियों ने इसे अनुचित करार दिया जबकि उदार लोगों ने सही व संतुलित कार्य कहा। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ऑटोमन साम्राज्य धार्मिक व व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। मुगलों ने इसे उचित महत्त्व देकर कार्रवाई की।

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Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

HBSE 12th Class History राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
मुगल दरबार में पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मुग़लकालीन भारत में मुद्रण कला का विकास नहीं हुआ था। इसलिए सभी इतिवृत्तों की रचना पांडुलिपियों (हस्तलिखित ग्रंथ) के रूप में हुई। पांडुलिपियों की रचना का मुख्य केन्द्र ‘शाही किताबखाना’ कहलाता था। फारसी भाषा में किताबखाना का आम अर्थ पुस्तकालय से लिया जाता है। मुगलकाल में किताबखाना पुस्तकालय से भिन्न था। किताबखाना सही अर्थों में लिपिघर था जहाँ बादशाह के आदेशानुसार लेखक व उनके सहयोगी सुबह से शाम तक पांडुलिपियों की रचना में व्यस्त रहते थे।

इसी स्थान पर लिखी गई पांडुलिपियों को संग्रह करके रखा भी जाता था। किताबखाना काफी बड़ा तथा सुनियोजित स्थल था। वहाँ मात्र लेखक ही नहीं होते थे, बल्कि विविध प्रकार के कार्य करने वाले व्यक्ति होते थे।

ये सभी किताबखाना के नेतृत्व में कार्य करते थे। पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया में सबसे पहले कागज व उसके पन्ने बनाने वाले कारीगर कार्य करते थे। इसी तरह स्याही बनाने वालों का वर्ग था। कागज व स्याही के तैयार होने पर लेखक लिखता था। फिर उन पृष्ठों पर चित्रकार लेखक की सलाह के अनुरूप चित्र बनाता था। लेखन व चित्र कार्य होने के बाद जिल्दसाज जिल्द चढ़ाता था। इस तरह पांडुलिपि एक. पूरी प्रक्रिया के तहत तैयार होती थी।

प्रश्न 2.
मुगल दरबार से जुड़े दैनिक-कर्म और विशेष उत्सवों के दिनों ने किस तरह से बादशाह की सत्ता के भाव को प्रतिपादित किया होगा?
उत्तर:
मुग़ल शासकों ने भारत में सत्ता स्थापित करने के बाद मध्य-एशिया, ईरान व प्राचीन भारतीय शासन-व्यवस्था को अपनाकर इस तरह की परम्पराएँ अपनाईं जिससे राज्य मजबूत हुआ। इसके साथ ही शासक की सत्ता भी जनता के मन में बैठी। इसके लिए दरबार के अग्रलिखित प्रतीकों को लिया गया है

1. राज सिंहासन-सम्राट का केंद्र बिंदु राज सिंहासन था जिसने संप्रभु के कार्यों को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया था। इसे ऐसे आधार के रूप में स्वीकार किया जाता था जिस पर पृथ्वी टिकी हुई है।

2. अधिकारियों के बैठने के स्थान प्रत्येक अधिकारी (दरबारी) की हैसियत का पता उसके बैठने के स्थान से लगता था। जो दरबारी जितना सम्राट के निकट बैठता था उसे उतना ही सम्राट् के निकट समझा जाता था।

3. सम्मान प्रकट करने का तरीका-शासक को किये गये अभिवादन के तरीके से भी अभिवादनकर्ता की हैसियत का पता चलता था।

4. दिन की शुरुआत-बादशाह अपने दिन की शुरुआत सूर्योदय के समय कुछ धार्मिक प्रार्थनाओं से करता था।

5. सार्वजनिक सभा (दीवान-ए-आम)-बादशाह अपनी सरकार के प्राथमिक कार्यों को पूरा करने के लिए दीवान-ए-आम में आता था। वहाँ राज्य के अधिकारी अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते थे।

6. खास उत्सवों के अवसर-अनके धार्मिक त्योहार; जैसे होली, ईद, शब-ए-बारात आदि त्योहारों का आयोजन खूब ठाट-बाट से किया जाता था।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

प्रश्न 3.
मुग़ल साम्राज्य में शाही परिवार की स्त्रियों द्वारा निभाई गई भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल में शाही परिवार की महिलाएँ मुख्य रूप से हरम में रहती थीं। हरम की सारी व्यवस्था का संचालन वे स्वयं करती थीं। हरम में सभी महिलाओं की स्थिति एक जैसी नहीं थी। इसके अतिरिक्त कई बार शाही परिवार की महिलाएँ भी राजनीति में सक्रिय रहती थीं। उदाहरण के लिए नूरजहाँ के राजनीति में आने के बाद हरम की स्थिति व पहचान दोनों बदल गईं। 1611 ई० से 1626 ई० तक जहाँगीर के शासन काल में नूरजहाँ ने प्रत्येक गतिविधि में हिस्सा लिया।

वह झरोखे पर बैठती थी तथा सिक्कों पर उसका नाम आता था। ‘नूरजहाँ गुट’ सही अर्थों में जहाँगीर के शासन में सारे फैसले करता था। जहाँगीर ने तो यहाँ तक कह दिया था कि मैंने बादशाहत नूरजहाँ को दे दी है, मुझे कुछ प्याले शराब तथा आधा सेर माँस के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए। शाहजहाँ के शासन काल में उसकी पुत्री जहाँआरा तथा रोशनआरा लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक फैसलों में शामिल होती थीं। वे उच्च पदों पर आसीन मनसबदारों की भाँति वार्षिक वेतन लेती थीं।

आर्थिक तौर पर सम्पन्न होने पर हरम की प्रमख महिलाओं ने इमारतों व बागों का निर्माण कार्य कराया। नरजहाँ ने आगरा में एतमादुद्दौला (अपने पिता) के मकबरे का निर्माण करवाया। शालीमार व निशात बागों को बनवाने में भी उसकी मुख्य भूमिका थी। इसी प्रकार दिल्ली में शाहजहाँनाबाद की कई कलात्मक योजनाओं में जहाँआरा की भूमिका थी। उसने शाहजहाँनाबाद में आँगन, बाग व चाँदनी चौक की रूप रेखा तैयार की। शाही परिवार की महिलाएँ प्रायः शिक्षित भी होती थीं। इसलिए साहित्य लेखन में भी अपनी भूमिका अदा करती थीं। गुलबदन बेगम ने हुमायूँनामा नामक पुस्तक लिखी। अतः स्पष्ट है कि शाही परिवार की महिलाएँ हरम व राजनीतिक मामलों में सक्रिय रहती थीं।

प्रश्न 4.
वे कौन-से मुद्दे थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर क्षेत्रों के प्रति मुगल नीतियों व विचारों को आकार प्रदान किया?
उत्तर:
मुग़ल जिस तरह आन्तरिक व्यवस्था पर ध्यान देते थे उसी तरह उनकी विदेश नीति भी काफी परिपक्व थी। शासक जिस तरह की उपाधियों या पदवियों को धारण करते थे उनका असर पड़ोसी राज्यों पर अवश्य होता था। जहाँगीर (विश्व पर कब्जा करने वाला), शाहजहाँ (विजय का शासक) तथा आलमगीर (विजय का स्वामी) द्वारा धारण की गई उपाधियाँ खास थीं।

मुग़ल अविजित क्षेत्रों पर भी राजनीतिक नियंत्रण बनाने के लिए कदम उठाते रहते थे तथा एक बार विजित करने के उपरांत उस पर हमेशा के लिए अधिकार के लिए कार्य करते थे। इससे स्पष्ट होता है कि मुगल अपने साम्राज्य की सीमा विस्तार के लिए हमेशा प्रयासरत रहते थे, उनकी इस नीति के आधार पर ही उनके पड़ोसी देशों के साथ संबंधों का निर्धारण होता था।

इन रिश्तों में कूटनीतिक चाल व संघर्ष साथ-साथ चलता था। इस कड़ी में पड़ोसी राज्यों के साथ क्षेत्रीय हितों के तनाव व राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता चलती रहती थी। इसके साथ-साथ दूतों का आदान-प्रदान भी होता रहता था। उनकी विभिन्न देशों तथा धर्मों के प्रति नीति ने उनके प्रभाव को स्थापित किया। इनके निम्नलिखित मुख्य पक्ष थे

1. ईरानियों एवं तूरानियों से संबंध-मुग़ल बादशाहों के ईरान व मध्य एशिया के पड़ोसी देशों से राजनीतिक रिश्ते हिंदूकुश पर्वतों द्वारा निर्धारित सीमा पर निर्भर करते थे।

2. कंधार का किला-नगर-यह किला मुगलों तथा सफावियों के बीच झगड़े का मुख्य कारण था। आरंभ में यह किला नगर हुमायूँ के अधिकार में था। सन् 1595 में अकबर ने इस पर दोबारा कब्जा कर लिया। जहाँगीर ने शाह अब्बास के दरबार में कंधार को मुग़ल अधिकार स्वीकारने को कहा परंतु सफलता नहीं मिली। क्योंकि शाह ने 1621 ई० में इस पर कब्जा कर लिया। शाहजहाँ ने 1638 ई० में इसे फिर जीत लिया। 1649 ई० में सफावी शासकों ने इस पर फिर अधिकार कर लिया। अतः यह मुगलों व ईरान के बीच झगड़े की जड़ रहा।

3. ऑटोमन साम्राज्य : तीर्थयात्रा और व्यापार-ऑटोमन राज्य के साथ अपने संबंधों में मुगल बादशाह धर्म और व्यापार को मिलाने की कोशिश करते थे। वे बिक्री से अर्जित आय को धर्मस्थलों व फकीरों में दान में बाँट देते थे। औरंगजेब को अरब भेजे जाने वाले धन के दुरुपयोग का पता चला तो उसने भारत में उसके वितरण का समर्थन किया।

4. ईसाई धर्म-मुग़ल दरबार के यूरोपीय विवरणों में जेसुइट वृत्तांत सबसे पुराना है। पन्द्रहवीं शताब्दी के अंत में भारत तक सीधे समुद्र की खोज का अनुसरण करते हुए पुर्तगाली व्यापारियों ने तटीय नगरों में व्यापारिक केंद्रों का जाल स्थापित किया। इस प्रकार ईसाई धर्म भारत में आया। इन बातों से स्पष्ट है कि मुगल अपनी स्थिति के प्रति सचेत थे। इसलिए बाह्य शक्तियों पर अपना दबाव बनाने के लिए कार्य करते रहते थे।

प्रश्न 5.
मुग़ल प्रांतीय प्रशासन के मुख्य अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। केंद्र किस तरह से प्रांतों पर नियंत्रण रखता था ?
उत्तर:
मुगल साम्राज्य काफी विस्तृत था। एक जगह से उसकी व्यवस्था संचालित नहीं हो सकती थी। मुगलों ने इसे आगे विभिन्न इकाइयों में विभाजित किया था। इन्हें प्रांत या सूबा कहा जाता था। इन इकाइयों में भी केन्द्रीय व्यवस्था की तरह हर स्तर (छोटे-बड़े) के अधिकारी व नौकरशाह होते थे। उनके संबंध शाही दरबार से निरंतर रहते थे।

प्रांतों का आकार एक-जैसा नहीं था लेकिन इनके नाम भौगोलिकता के अनुरूप थे। सूबे का मुखिया सबेदार होता था जिसकी नियुक्ति शासक द्वारा की जाती थी। वह उसी के प्रति जिम्मेदार होता था। सूबेदार की सहायता के लिए दीवान, बख्शी तथा सद्र के नाम से सहायक वजीर (मंत्री) होते थे। वे सूबेदार के सहयोगी अवश्य थे लेकिन इनकी नियुक्ति भी प्रत्यक्षतः शासक द्वारा की जाती थी। इस तरह सूबेदार स्वतंत्र होते हुए भी नियंत्रण में था। अकबर के काल में सूबों की संख्या 15, जहाँगीर के काल में 17, शाहजहाँ के काल में 22 तथा औरंगजेब के काल में 21 थी।

जैसे संपूर्ण राज्य सूबों में विभाजित था, उसी तरह सूबे सरकारों में विभाजित थे। सरकार में सबसे बड़ा अधिकारी फौजदार था। किसी सूबे में सरकारों की संख्या कितनी होगी यह निश्चित नहीं था। सरकार को आगे परगनों में विभाजित किया गया था। परगना का स्तर वर्तमान जिले का रहा होगा। परगना स्तर पर कानूनगो, चौधरी व काजी नामक अधिकारी थे। कानूनगो, राजस्व का रिकॉर्ड रखने वाला अधिकारी था जबकि चौधरी का मुख्य कार्य राजस्व संग्रह करना था।

ये दोनों अधिकारी वंशानुगत थे। प्रशासन में सबसे छोटी इकाई गाँव थी। इसकी व्यवस्था ग्राम पंचायत देखती थी। मुग़लों का प्रांतीय शासन केंद्र से अलग-थलग नहीं था बल्कि तंत्र का एक हिस्सा था। विभिन्न प्रांतों व उसकी इकाइयों के अधिकारियों का तबादला प्रति वर्ष या दो वर्ष में किया जाता था। मगलों के प्रशासन की पकड गाँव तक थी। मगल अपने अधिकारियों को स देते थे। इस तरह प्रान्त के अनियन्त्रित होने की गुंजाइश नहीं थी।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
उदाहरण सहित मुग़ल इतिहासों के विशिष्ट अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए।
अथवा
इतिवृत्त की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
इतिवृत्त (क्रॉनिकल्स) मुगलकालीन इतिहास की जानकारी का बहुत महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। सभी मुग़ल शासकों ने इतिवृत्तों के लेखन की ओर विशेष ध्यान दिया। इतिवृत्त के विभिन्न आयामों व पक्षों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है-

1. रचना के उद्देश्य-मुगलकाल में रचे गए इतिवृत्त बहुत सोची-समझी नीति का उद्देश्य थे। विभिन्न इतिहासकारों व विद्वानों ने इस बारे में अपने-अपने मतों की अभिव्यक्ति की है जिनमें से ये पक्ष उभरकर सामने आते हैं

  • इतिवृत्तों के माध्यम से मुगल शासक अपनी प्रजा के सामने एक प्रबुद्ध राज्य की छवि बनाना चाहते थे।
  • इतिवृत्तों के वृत्तांत के माध्यम से शासक उन लोगों को संदेश देना चाहते थे जिन्होंने राज्य का विरोध किया था तथा भविष्य में भी कर सकते थे। उन्हें यह बताना चाहते थे कि यह राज्य बहुत शक्तिशाली है तथा उनका विद्रोह कभी सफल नहीं होगा।
  • इतिवृत्तों के माध्यम से शासक अपने राज्य के विवरणों को भावी पीढ़ियों तक पहुँचाना चाहते थे।

2. इतिवृत्तों की विषय-वस्तु-मुग़ल शासकों ने इतिवृत्त लेखन का कार्य दरबारियों को दिया। अधिकतर इतिवृत्त शासक की देख-रेख में लिखे जाते थे या उसे पढ़कर सुनाए जाते थे। कुछ शासकों ने आत्मकथा लेखन का कार्य स्वयं किया। इस माध्यम से ये शासक स्वयं को प्रबुद्ध वर्ग में स्थापित करना चाहते थे, साथ ही अन्य लेखकों का मार्गदर्शन भी करना चाहते थे। इन सभी पक्षों से यह स्पष्ट होता है कि इन इतिवृत्तों के केन्द्र में स्वयं शासक व उसका परिवार रहता था। इस कारण इतिवृत्तों की विषय-वस्तु शासक, शाही परिवार, दरबार, अभिजात वर्ग, युद्ध व प्रशासनिक संस्थाएँ रहीं। इन इतिवृत्तों की विषय-वस्तु शासकों के नाम अथवा उनके द्वारा धारण उपाधियों की पुष्टि भी करना था।

3. भाषा-मुग़ल दरबारी इतिहास फारसी भाषा में लिखे गये थे। क्योंकि मुगलों की मातृभाषा तुर्की थी। इनके पहले शासक बाबर ने कविताएँ और संस्मरण तुर्की में लिखे थे।

4. अनुवाद-बाबर के संस्मरणों का बाबरनामा के नाम से तुर्की से फारसी भाषा में अनुवाद किया गया था। महाभारत और रामायण का अनुवाद भी फारसी भाषा में हुआ।

5. शिल्पकारों का योगदान-पांडुलिपियों की रचना में विविध प्रकार के कार्य करने वाले लोग शामिल होते थे; जैसे चित्रकार, जिल्दसाज तथा आवरणों को अलंकृत करने वाले लोग।

6. मुगल काल के प्रमुख इतिवृत्त-मुगलकाल के प्रमुख इतिवृत्त यह है

बाबरनामा या तुक-ए-बाबरी लेखक बाबर, हुमायूँनामा लेखिका हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम, अकबरनामा-लेखक अबुल फज्ल, तुक-ए-जहाँगीरी लेखक जहाँगीर, शाहजहाँनामा लेखक मामुरी, बादशाहनामा (शाहजहाँ पर आधारित) लेखक अब्दुल हमीद लाहौरी, आलमगीरनामा लेखक मुहम्मद काजिम । इन इतिवृत्तों के नामों से स्पष्ट होता है कि ये इतिवृत्त शासक-विशेष के साथ जुड़े हैं तथा या तो स्वयं का वृत्तांत हैं या दरबारी द्वारा अपने संरक्षण का विवरण है।

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प्रश्न 7.
इस अध्याय में दी गई दृश्य सामग्री किस हद तक अबल फज्ल द्वारा किए गए ‘तसवीर’ के वर्णन से मेल खाती है?
उत्तर:
अकबर के दरबारी लेखक अबुल फज़्ल ने चित्रकारी को ‘जादुई कला’ कहा है। वह कहता है कि चित्रकारी निर्जीव को सजीव की भाँति प्रस्तुत करने की क्षमता रखती है। इसलिए वह तसवीर के वर्णन में चित्रकारों की प्रशंसा करता है। अबुल फज्ल ने अपने वृत्तांत में अकबर के विचारों को उद्धत किया है कि बादशाह कहते हैं, “कई लोग ऐसे हैं जो चित्रकला से घृणा करते हैं पर मैं ऐसे व्यक्तियों को नापसंद करता हूँ।

मुझे लगता है कि कलाकार के पास खुदा को समझने का बेजोड़ तरीका है। चूंकि कहीं-न-कहीं उसे यह महसूस होता है कि खुदा की रचना को वह जीवन नहीं दे सकता।”

इस्लाम सामान्य रूप से प्राकृतिक चित्रों की चित्रकारी का समर्थन नहीं करता। ऐसी धारणा है कि चित्रकारी एक सृजन है जबकि सृजन का अधिकार केवल खुदा के पास है। इसलिए कुरान और हदीस में मानव रूपों के चित्रण पर प्रतिबंध का वर्णन है। उसी वर्णन के अनुरूप उलेमा (धर्मशास्त्री) चित्रकारी को गैर-इस्लामी घोषित करते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि कलाकार अपने इस कार्य से खुदा की रचना करने की शक्ति को अपने हाथ में लेने का प्रयास करता है।

हमें मुगलकाल में शासकों तथा कट्टरपंथी धर्मशास्त्रियों के बीच निरंतर तनाव दिखाई देता है। उलेमा शासक की गतिविधियों को धर्म-विरोधी बताते हैं जबकि शासक इसे मानव भावों की अभिव्यक्ति तथा खुदा को समझने का मार्ग बताते हैं।

अबुल फज़्ल के वर्णन के आधार पर शासकों ने धर्म की कट्टरता को महत्त्व न देते हुए चित्रकला को महत्त्व दिया। इससे चित्रकला की व्याख्या ही बदल गई। जैसा कि स्पष्ट किया गया है कि इस्लाम प्राकृतिक चीजों व रूपों के चित्रण की आज्ञा नहीं देता, इसके बाद भी मुगलकाल में चित्रकारी खूब फली-फूली। समय के साथ इस्लाम में विश्वास करने वाले विद्वानों व धर्मशास्त्रियों ने चित्रकारी के बारे में नई व्याख्याएँ की, जिसके कारण मोटे तौर पर धारणा में बदलाव आया। मात्र कुछ रूढ़िवादी चिन्तक ऐसे थे जो बाद तक भी विरोध करते रहे।

नए व्याख्याकारों ने राज्य की राजनीतिक आवश्यकता के अनुरूप इसे उचित बताया। इस व्याख्या के अनुसार स्पष्ट किया गया कि इससे शासक व जनता के बीच की दूरी में कमी आती है तथा राजा व प्रजा एक-दूसरे के भाव समझ पाते हैं। शासक केवल किसी एक धर्म विशेष का नहीं है। ईरान के मुस्लिम शासकों (सफावी) ने भी चित्रकारी को संरक्षण दिया। इसके लिए कार्यशालाएँ आयोजित कीं। इन सबका प्रभाव भी मुगल शासकों पर पड़ा। अतः चित्रकारी संबंधी नई व्याख्या प्रस्तुत की जिसमें चित्रकारी को धर्म विरोधी घोषित न कर, सांस्कृतिक विकास का पहलू घोषित किया।

नई व्याख्याओं के चलते हुए मुगल दरबार चित्रकारों के लिए संरक्षण क्षेत्र बन गया। कुछ कलाकार; जैसे मीर सैय्यद अली, अब्दुस समद व विहजाद ईरान से भारत आए। अकबर के समय केसू, जसवन्त, बसावन जैसे हिन्दू कलाकार भी दरबार में पहुंचे। अकबर सप्ताह में एक दिन चित्रों की प्रदर्शनी का आयोजन करवाता था। उसी परंपरा को जहाँगीर ने आगे बढ़ाया। उसका काल चित्रकला की दृष्टि से स्वर्ण काल माना जाता था।

मुगल शासकों ने पांडुलिपि चित्रण की ओर विशेष ध्यान दिया। अकबर के काल में चित्रित होने वाली मुख्य पांडुलिपियों में बाबरनामा, हुमायूँनामा, अकबरनामा, हम्जनामा, रज्मनामा (महाभारत का अनुवाद), तारीख-ए-अल्फी व तैमूरनामा थीं। बाद के शासकों ने अपने इतिवृत्तों विशेषकर तुक-ए-जहाँगीरी व शाहजहाँनामा को चित्रित करवाया। इसके साथ ही उन्होंने पहले लिखे गए इतिवृत्तों की और पांडुलिपियों को तैयार करवाकर उन्हें चित्रित करवाया।

ये पांडुलिपियाँ सैकड़ों की संख्या में किताबखाना में रखी गई थीं। मुग़ल शासकों द्वारा जिस तरह से पांडुलिपियों को चित्रित करवाया गया, उसकी नकल यूरोप के शासकों ने भी की। इस काल में चित्रित पुस्तकों को उपहार में देना एक प्रकार की परंपरा बन गई थी।

प्रश्न 8.
मुगल.अभिजात वर्ग के विशिष्ट अभिलक्षण क्या थे? बादशाह के साथ उनके संबंध किस तरह बने?
उत्तर:
मुगलकाल के नौकरशाहों यानी अधिकारियों के समूह को अभिजात वर्ग का नाम दिया गया है। इस समूह में विभिन्न क्षेत्रों व धार्मिक समूहों के लोग थे। मुगल शासक इस बात का ध्यान रखते थे कि कोई भी दल इतना बड़ा न हो कि वह संगठित होकर राज्य के लिए चुनौती बन जाए। यह नौकरशाहों का समूह उस गुलदस्ते जैसा था जिसमें अलग-अलग रंग तथा अलग-अलग किस्म के फूल हैं, लेकिन वे एक मुट्ठी में बंधकर शोभा प्रदान करने की स्थिति में हों। ये चाहे किसी धर्म या क्षेत्र से हों, इनकी खास बात यह थी कि ये शासक के प्रति वफादार थे।

अकबर के शासन काल के प्रारंभिक दौर में इस अभिजात वर्ग में तुरानी (मध्य-एशिया) तथा ईरानी मुख्य थे। 1560 ई० के। बाद अभिजात वर्ग में बदलाव आया। इसमें दो वर्ग और जुड़े। ये राजपूत तथा भारतीय मुसलमान थे। राजपूत परिवारों से सर्वप्रथम आमेर (अंबर) का राजा भारमल (बिहारीमल) था जिसने वैवाहिक राजनीतिक संबंधों द्वारा अकबर के अभिजात वर्ग में प्रवेश किया।

जहाँगीर के काल में अभिजात वर्ग की मौलिक संरचना वही बनी रही, परंतु अधिक ऊँचे पदों पर ईरानी पहुँचने में सफल रहे। इसका मुख्य कारण नूरजहाँ थी क्योंकि वह स्वयं ईरान से आई थी। उसके पिता ग्यास बेग, भाई आसफ खाँ इत्यादि बहुत ऊँचे पदों तक पहुँचे। उनके साथ संबंधों का फायदा उठाकर अन्य ईरानी भी आगे बढ़ गए। शाहजहाँ के काल में अभिजात वर्ग सन्तुलित था। उसमें भारतीय व विदेशी सभी शामिल थे। औरंगजेब के समय भी स्थिति लगभग इसी तरह की रही।

सामान्यतः यह कहा जाता है कि उसने यह पद केवल सुन्नीओं के लिए रखे थे। परंतु आंकड़े बताते हैं कि उसके दरबार में राजपूत व मराठे काफी अच्छी संख्या में थे। सिंहासन ग्रहण करने के समय तथा मृत्यु तक संख्या में कमी नहीं आई बल्कि आंकड़े वृद्धि दर्ज कराते थे।

मुग़ल साम्राज्य सैन्य प्रधान राज्य था। इसलिए अभिजात वर्ग की सेना संबंधित गतिविधियों को बहुत महत्त्व दिया जाता था। अभिजात वर्ग के सदस्य सैन्य अभियानों का नेतृत्व भी करते थे साथ ही केन्द्र व प्रान्त स्तर पर अधिकारी के रूप में कार्य भी करते थे। वे अपनी टुकड़ी के सैनिक प्रमुख होते थे। उन्हें अपने सैनिकों व घुड़सवारों को भर्ती करना होता था। इन सैनिक व घुड़सवारों के लिए हथियार, रसद व प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी मनसबदार की होती थी।

उसके घोड़ों की पीठ के दोनों ओर मुगलों का शाही निशान बना होता था। उसके मुखिया तथा घोड़े का नम्बर भी दर्ज होता था। शासक विभिन्न अवसरों पर नियमित रूप से इन अधिकारियों की सेना का निरीक्षण करता था। समय के साथ बदलाव के चलते हुए शासक व अभिजात वर्ग के बीच रिश्ते मुरीद व मुर्शीद जैसे बन गए थे। कुछ के साथ रिश्ते बहुत अधिक अपनेपन के भी थे।

मुगल दरबार में नौकरी पाना बेहद कठिन कार्य था। दूसरी ओर अभिजात व सामान्य वर्ग के लोग शाही सेवा को शक्ति, धन व उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा का एक साधन मानते थे। नौकरी में आने वाले व्यक्ति से आवेदन लिया जाता था, फिर मीरबख्शी की जाँच-पड़ताल के बाद उसे दरबार में प्रस्तुत होना होता था। मीरबख्शी के साथ-साथ दीवान-ए-आला (वित्तमंत्री) तथा सद्र-उस-सद्धर (जन कल्याण, न्याय व अनुदान का मंत्री) भी उस व्यक्ति को कागज तैयार करवाकर अपने-अपने कार्यालयों की मोहर लगाते थे।

फिर वे शाही मोहर के लिए मीरबख्शी के द्वारा ले जाए जाते थे। ये तीनों मंत्री दरबार में दाएँ खड़े होते थे, बाईं ओर नियुक्ति व पदोन्नति पाने वाला व्यक्ति खड़ा होता था। शासक उससे कुछ औपचारिक बात करके उसे दरबार के प्रति वफादार रहने की बात कहता था तथा संकेत करता था कि वह किस स्थान पर खड़ा हो। इस तरह उस व्यक्ति की नियुक्ति तथा पदोन्नति मानी जाती थी।

शासक द्वारा नौकरशाहों पर नियंत्रण के लिए कुछ नियम बनाए गए थे। उनके अनुसार शासक सामान्य रूप से इनके प्रति कठोर व्यवहार रखता था। नियमित निरीक्षण में इन्हें किसी तरह की छूट नहीं थी। थोड़ा-सा भी शक होने या अनुशासन की उल्लंघना करने पर इन्हें दण्ड दिया जाता था। इनकी कभी भी कहीं भी बदली की जा सकती थी। कोई भी अधिकारी किसी भी कार्य को करने की मनाही नहीं कर सकता था। इन सबके अतिरिक्त यह कि इनका पद पैतृक नहीं होता था अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को नए सिरे से जीवन की शुरुआत करनी होती थी। किसी भी अभिजात वर्ग के व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति, उसकी सन्तान को नहीं दी जाती थी बल्कि यह स्वतः ही बादशाह या दरबार की सम्पत्ति बन जाती थी।

प्रश्न 9.
राजत्व के मुगल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्त्वों की पहचान कीजिए।
उत्तर:
मुग़लों ने भारत पर लगभग दो शताब्दियों तक शासन किया। उन्होंने अपने शासन में कुछ सिद्धान्तों को महत्त्व दिया। ये सिद्धांत भारत की परंपरागत शासन-व्यवस्था से भी जुड़े तथा दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों से भी। इनके राजत्व के सिद्धांत में मध्य-एशियाई तत्त्व भी थे तो ईरान का प्रभाव भी साफ दिखाई देता है। इनके राजत्व के आदर्शों को विभिन्न इतिवृत्तों में विशेष जगह मिली है। कई स्थानों पर तो इतिवृत्त मुगल राजत्व सिद्धांत की स्पष्ट व्याख्या भी करते हैं। मुग़ल इतिवृत्तों में मुग़ल राज्य को आदर्श राज्य वर्णित किया है जिसमें निम्नलिखित विशेषताएँ प्रस्तुत की हैं

1. मुगल राज्य : एक दैवीय राज्य-मुगलकाल के सभी इतिवृत्त इस बात की जानकारी देते हैं कि मुगल शासक राजत्व के दैवीय सिद्धान्त में विश्वास करते थे। उनका विश्वास था कि उन्हें शासन करने की शक्ति स्वयं ईश्वर ने प्रदान की है। ईश्वर की इस तरह की कृपा सभी व्यक्तियों पर नहीं होती, बल्कि व्यक्ति-विशेष पर ही होती है।
मुगल शासकों के दैवीय राजत्व के सिद्धांत को सर्वाधिक महत्त्व अबुल फज़्ल ने दिया। वह इसे फर-ए-इज़ादी (ईश्वर से प्राप्त) बताता है। वह इस विचार के लिए प्रसिद्ध ईरानी सूफी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी (1191 में मृत्यु) से प्रभावित था। उसने इस तरह के विचार ईरान के शासकों के लिए प्रस्तुत किए थे।

2. सुलह-ए-कुल : एकीकरण का एक स्रोत-मुग़ल इतिवृत्त साम्राज्य को हिन्दुओं, जैनों, ज़रतुश्तियों और मुसलमानों जैसे अनेक भिन्न-भिन्न नृजातीय और धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सभी तरह की शांति और स्थायित्व के स्रोत रूप में बादशाह सभी धार्मिक और नृजातीय समूहों से ऊपर होता था, इनके बीच मध्यस्थता करता था तथा यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे। अबुल फज्ल सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है। सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।

मुगल शासक विशेषकर अकबर ने धर्म व राजनीति दोनों के संबंधों को समझने का प्रयास किया। उसने इनकी सीमा व महत्त्व को समझा। इस समझ के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि पूरी तरह धर्म का त्याग संभव नहीं है लेकिन धर्म की कट्टरता को त्यागकर अवश्य चला जाए। उसने धर्म को राजनीति से भी थोड़ा दूर करने का प्रयास किया। इस कड़ी में उसने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 ई० में जजिया कर को समाप्त कर, यह सन्देश दिया कि गैर-इस्लामी प्रजा से कोई भेद-भाव नहीं किया जाएगा। उसने युद्ध में पराजित सैनिकों को दास बनाने पर रोक लगाई तथा जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन को गैर-कानूनी घोषित किया। अकबर ने अपने साम्राज्य में गौ-वध को देशद्रोह घोषित करते हुए उस पर रोक लगा दी।

3. सामाजिक अनुबंध पर आधारित न्यायपूर्ण प्रभुसत्ता-मुग़ल शासकों ने न्याय को विशेष महत्त्व दिया। वे यह मानते थे कि न्याय व्यवस्था ही उनसे सही अर्थों में प्रजा के साथ संबंधों की व्याख्या है। अबुल फज्ल ने अकबर के प्रभुसत्ता के सिद्धांत को स्पष्ट किया है। उसके अनुसार बादशाह अपनी प्रजा के चार तत्त्वों-जीवन (जन), धन (माल), सम्मान और विश्वास (दीन) की रक्षा करता है। इसके बदले में जनता से आशा करता है कि वह राजाज्ञा का पालन करे तथा अपनी आमदनी (संसाधनों) में से कुछ हिस्सा राज्य को दे। अबुल फज़्ल स्पष्ट करता है कि इस तरह का चिन्तन किसी न्यायपूर्ण संप्रभु का ही हो सकता है जिसे दैवीय मार्गदर्शन प्राप्त हो।

मुग़ल शासकों ने सामाजिक अनुबंध पर आधारित न्याय को अपनाया तथा जनता में प्रचारित भी किया। इसके लिए विभिन्न प्रकार के प्रतीकों को प्रयोग में लाया गया। इसमें सर्वाधिक कार्य चित्रकारों के माध्यम से करवाया गया। मुगल शासकों ने दरबार तथा सिंहासन के आस-पास विभिन्न स्थानों पर जो चित्रकारी करवाई उसमें वो शेर तथा बकरी या शेर तथा गाय साथ-साथ बैठे दिखाई देते हैं। उनकी चित्रकारी जनता को यह सन्देश देने का साधन था कि इस राज्य में सबल या दुर्बल दोनों परस्पर मिलकर रह सकते हैं। इनमें भी कुछ चित्रों में शासक को शेर पर सवार दिखाया गया है जो इस बात का संदेश है कि उसके साम्राज्य में उनसे शक्तिशाली कोई नहीं था।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
विश्व मानचित्र के एक रेखाचित्र पर उन क्षेत्रों को अंकित कीजिए जिनसे मुगलों के राजनीतिक व सांस्कृतिक संबंध थे।
उत्तर:
इसके लिए विद्यार्थी विश्व के मानचित्र में वर्तमान अफगानिस्तान, ईरान, अरब क्षेत्र के देश, तुर्की, उजबेगिस्तान व मध्य एशिया के देशों को दिखाएँ।

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परियोजना कार्य

प्रश्न 11.
किसी मुग़ल इतिवृत्त के विषय में और जानकारी ढूंढिए। इसके लेखक, भाषा, शैली और विषयवस्तु का वर्णन करते हुए एक वृत्तांत तैयार कीजिए। आपके द्वारा चयनित इतिहास की व्याख्या में प्रयुक्त कम-से-कम दो चित्रों का, बादशाह की शक्ति को इंगित करने वाले संकेतों पर ध्यान केंद्रित करते हुए, वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल के इतिवृत्त या वृत्तांत में से किसी एक का चयन करते हुए हम अकबरनामा को चुन सकते हैं तथा यह जानकारी ले सकते हैं।

  • वृत्तांत (इतिवृत्त का नाम)-अकबरनामा
  • लेखक – अबुल फल
  • शैली – दरबारी लेखन
  • भाषा – फारसी
  • विषय-वस्तु – अकबर के काल की घटनाओं का विवरण

इस बारे में विस्तृत जानकारी आप जे०बी०डी० पुस्तक में मुख्य इतिवृत्त के रूप में वर्णित अकबरनामा के संदर्भ में जानकारी से ले सकते हैं।

मौलिक रूप में इस पुस्तक में 150 से अधिक चित्र दिए गए हैं। इन चित्रों को पुस्तक की मूल प्रति, इंटरनेट तथा राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में रखी चित्रकारियों में देख सकते हैं। इन चित्रों में दरबार से संबंधित किन्हीं भी दो चित्रों को देख सकते हैं, इन चित्रों में आप पाएँगे कि शासक के बैठने की जगह अन्यों से ऊँची है तथा अन्य दरबारी भी एक निश्चित क्रम में बैठे हैं। इस तरह शासक के बैठने के स्थान पर आप प्रायः शेर तथा बकरी या शेर तथा गाय के चित्र पाएंगे।

इसका अर्थ स्पष्ट है कि शासक शक्तिशाली-से-शक्तिशाली व सामान्य-से-सामान्य दोनों का रक्षक है। शासक अपनी परंपरा व बादशाह की शक्ति को इन संकेतों से प्रदर्शित कर रहा है।

प्रश्न 12.
राज्यपद के आदर्शों, दरबारी रिवाजों और शाही सेवा में भर्ती की विधियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए व समानताओं और विभिन्नताओं पर प्रकाश डालते हुए मुगल दरबार और प्रशासन की वर्तमान भारतीय शासन व्यवस्था से तुलना कर एक वृत्तांत तैयार कीजिए।
उत्तर:
मुगलकाल में नौकरशाही शासन-व्यवस्था का केंद्र थी, परंतु इस नौकरशाही की शक्ति का स्रोत मुगल शासक थे। इसलिए वे नौकरशाहों को नियुक्त करते समय दरबारी प्रतिष्ठा, व्यक्ति की सामाजिक, धार्मिक हैसियत का ध्यान रखते थे। शासक के विचार तथा कार्य-प्रणाली पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता था। शासक का अपने बड़े-से-बड़े तथा छोटे-से-छोटे अधिकारी के प्रति व्यवहार प्रायः कठोर होता था।

इस काल में कार्य की विशेषज्ञता को महत्त्व नहीं दिया जाता था बल्कि सेवा में आया हुआ व्यक्ति सैनिक, असैनिक, दरबार संबंधी व राजस्व संबंधी सभी कार्य करने के लिए बाध्य होता था। उदाहरण के लिए अकबरनामा का लेखक अबुल फज्ल दरबारी लेखक था परंतु उसने 15 से अधिक सैन्य अभियानों में सेना का नेतृत्व किया। वह शासक का सलाहकार भी था। शासक ने उसे कई बार सेना निरीक्षण का कार्य भी दिया।

इसकी तुलना जब हम भारतीय शासन-व्यवस्था से करते हैं तो स्पष्ट होता है कि यह व्यवस्था एक संविधान के तहत चलती है जिसको राष्ट्र द्वारा 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। इस संविधान व सरकार में शक्ति का स्रोत जनता है। वह हर तरह के परिवर्तन की शक्ति रखती है। शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए विशाल नौकरशाही, केंद्र तथा राज्य स्तर पर है। इनको एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा नियुक्त किया जाता है।

इस बारे में यह ध्यान भी रखा जाता है कि व्यक्ति उस विषय का विशेषज्ञ हो। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मुगलकालीन शासन-व्यवस्था आज की शासन-व्यवस्था से काफी भिन्न थी।

राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार HBSE 12th Class History Notes

→ तैमूरी वंशज तैमूर के वंश से संबंध रखने वाले मुग़ल स्वयं को तैमूरी वंशज कहते थे।

→ बहु या यायावर-वह समुदाय जो एक स्थान पर न बसा हो बल्कि विभिन्न स्थानों पर घूमते हुए जीवन जीता हो।

→ पादशाह या बादशाह-शाहों का शाह अर्थात् शासकों का शासक बाबर द्वारा यह उपाधि काबुल व कंधार जीतने के बाद ली गई थी।

→ न्याय की जंजीर-जहाँगीर द्वारा स्वयं को न्यायप्रिय घोषित करने के लिए आगरा के किले में सोने की जंजीर लगवाई जिसे कोई भी फरियादी खींच सकता था।

→ इतिवृत्त-मुगल शासकों के दरबार में दरबारियों द्वारा लिखे गए वृत्तांत।

→ चगताई तुर्की-बाबर की आत्मकथा की भाषा। मूलतः यह तुर्की थी लेकिन इस पर बाबर के कबीले के बोली चगताई का प्रभाव था।

→ हिंदवी-मुगलकाल में उत्तर-भारत में जन साधारण द्वारा बोली जाने वाली भाषा।

→ रज्मनामा मुगलकाल में महाभारत नामक पुस्तक का अनुवाद करके उसे रज्मनामा का नाम दिया गया।

→ शाही किताबखाना-मुग़ल शासकों के महल में स्थित वह जगह जहाँ पर पुस्तकें लिखी जाती थीं।

→ नस्तलिक-मुगलकाल में कागज पर कलम से लिखने की एक शैली।

→ फर-ए-इज़ादी ईश्वर से प्राप्त राज्य, अबुल फज्ल ने मुगलों के राज्य को फर-ए-इज़ादी का नाम दिया।

→ सुलह-ए-कुल-अकबर की सबके साथ मिलकर चलने की नीति सुलह-ए-कुल कहलाई। शाब्दिक अर्थ के रूप में इसे ‘पूर्ण शांति’ कहा जाता है।

→ जियारत-किसी सूफी फकीर की दरगाह पर श्रद्धापूर्वक प्रार्थना के लिए जाना।

→ दीन-पनाह मुग़ल शासक हुमायूँ द्वारा दिल्ली में बनाया गया भवन।

→ बुलंद दरवाजा-अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में बनाई गई दरवाजा रूपी इमारत।

→ शाहजहाँबाद-मुग़ल शासक शाहजहाँ द्वारा दिल्ली में ही बसाया गया एक नया शहर जिसमें लाल किला, जामा मस्जिद व चाँदनी चौक शामिल थे।

→ जमींबोसी-अपने से बड़े के प्रति झुककर जमीन चूमकर अभिवादन की प्रा।।

→ चार तसलीम-चार बार झुककर अभिवादन करना।

→ झरोखा-मुग़ल शासकों की सूर्योदय के समय जनता को महल की विशेष जगह से दर्शन देने की प्रथा।

→ नौरोज-ईरानी परंपरा के अनुसार नववर्ष का उत्सव, इसे मुग़ल दरबार में उत्सव के रूप में मनाया जाता था।

→ हिजरी कैलेंडर-इस्लामी परम्परा के अनुरूप समय गणना बताने वाला कैलेंडर।

→ तख्त-ए-मुरस्सा-शाहजहाँ द्वारा बनाया गया हीरे-जवाहरातों से जड़ा सिंहासन । इसे सामान्यतः मयूर सिंहासन कहा जाता था।

→ नकीब-दरबार में किसी भी विशेष व्यक्ति या शासक के आने की घोषणा करने वाला व्यक्ति।

→ नजराना मगल शासक, शहजादे का राज परिवार के किसी सदस्य को भेंटस्वरूप दिया जाने वाला उपहार।

→ पादशाह बेगम-मुगल बादशाह की वह पत्नी जो शाही आवास की देख-रेख करती थी।

→ हरम-शाब्दिक अर्थ पवित्र यह वह स्थान था जहाँ मगल शासकों का परिवार रहता था।

मनसबदार-मुगलों की सेवा में सैनिक या असैनिक सेवा करने वाला उच्च पद का व्यक्ति।

→ सूबा मुगलकाल में प्रांत के लिए प्रयुक्त शब्द।

→ जेसुइट-ईसाई धर्म प्रचारकों के लिए प्रयोग किया जाने वाला शब्द।

→ दीन-ए-इलाही-सभी धर्मों के बारे में सुनने के बाद अकबर द्वारा 1582 ई० में स्थापित नया मत।

→ 15वीं तथा 16वीं शताब्दी में विश्व भर में अनेक युग प्रवर्तक घटनाएं घटीं। नए-नए राजवंशों की स्थापना हुई, यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance) तथा धर्म सुधार (Reformation) आंदोलन चले। उसी प्रकार भारत में भी दिल्ली सल्तनत का पतन हुआ तथा उसके खण्डहरों पर मुगल साम्राज्य का उदय हुआ। यह परिवर्तन भारतीय इतिहास में एक ऐसा परिवर्तन था जिसने न केवल देश के इतिहास की धारा को ही नया मोड़ दिया, अपितु एक नए क्षितिज एवं नव-प्रभात का भी सूत्रपात किया। यह एक महान् राजनीतिक परिवर्तन था। इस परिवर्तन का सूत्रधार तैमूर का वंशज बाबर था।।

→ मुगल वंश के संस्थापक बाबर का जन्म 14 फरवरी, 1483 को मध्य-एशिया के फरगाना (वर्तमान में उजबेगिस्तान) में हुआ। 1494 ई० में बाबर अपने पिता उमर शेख मिर्जा की मृत्यु के बाद फरगाना का शासक बना। उसने 1504 ई० में काबुल तथा 1507 ई० में कन्धार को जीता। 1519 से 1526 ई० तक उसने भारत पर पाँच आक्रमण किए तथा वह सभी में सफल रहा। 1526 ई० में उसने पानीपत के मैदान में दिल्ली सल्तनत के अन्तिम सुल्तान इब्राहिम लोधी को हराकर मुगल वंश की नींव रखी।

→ उसने अपने राज्य को सुदृढ़ आधार दिया। 1530 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। .. बाबर की मृत्यु के बाद हुमायूँ शासक बना। शेरशाह ने उसे 1540 ई० में बेलग्राम (कन्नौज) के युद्ध में पराजित कर दिया तथा उसे भारत से निर्वासित होना पड़ा। उसने 1555 ई० में शेरशाह के कमजोर उत्तराधिकारियों को हराकर एक बार फिर दिल्ली व आगरा पर अधिकार कर लिया। इसके बाद 1556 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

→ हुमायूँ की मृत्यु के समय उसका पुत्र अकबर शासक बना। अकबर ने अपनी प्रारंभिक सफलताएँ अपने शिक्षक व संरक्षक बैहराम खाँ के नेतृत्व में पाईं। तत्पश्चात् उसने प्रत्येक क्षेत्र में साम्राज्य का विस्तार किया। उसने आन्तरिक दृष्टि से अपने राज्य का विस्तार कर इसे विशाल, सुदृढ़ तथा समृद्ध बनाया। उसने राजपूतों व स्थानीय प्रमुखों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उसने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 ई० में जजिया कर हटाकर गैर-इस्लामी जनता को यह एहसास करवाने का प्रयास किया कि वह उनका भी शासक है। इस तरह अकबर अपने राजनीतिक, प्रशासनिक व उदारवादी व्यवहार के कारण मुग़ल शासकों में महानतम स्थान प्राप्त करने में सफल रहा। 1605 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

→ अकबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सलीम जहाँगीर के नाम से शासक बना। उसने अकबर की नीतियों को आगे बढ़ाया। उसने अपने जीवन का अधिकतर समय लाहौर में बिताया। 1611 ई० में उसने मेहरूनिसा (बाद में नूरजहाँ) से शादी की। नूरजहाँ शासन में इतनी शक्तिशाली हो गई कि उसने शासन व्यवस्था को अपने हाथ में ले लिया। 1627 ई० में लाहौर में उसकी मृत्यु हो गई।

→ जहाँगीर के बाद उसका पुत्र खुर्रम, शाहजहाँ के नाम से गद्दी पर बैठा। खुर्रम ने अपने पूर्वजों की नीति का अनुसरण किया। अपनी पत्नी मुमताज महल की मृत्यु के बाद उसने ताजमहल का निर्माण प्रारंभ करवाया। दक्षिण के बारे में उसने बीजापुर, गोलकुण्डा व अहमदनगर के सन्दर्भ में सन्तुलित नीति अपनाई। उसके शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध था जो 1657-58 ई० में लड़ा गया। इसमें उसके तीन पुत्र दारा शिकोह, मुराद व शुजा मारे गए तथा औरंगज़ेब सफल रहा। उसने 1658 ई० में शाहजहाँ को गद्दी से हटाकर जेल में डाल दिया।

→ 1658 ई० में अपने भाइयों को हराकर व पिता को बन्दी बनाकर औरंगज़ेब सत्ता प्राप्त करने में सफल रहा। वह व्यक्तिगत जीवन में सादगी को पसन्द करता था, लेकिन धार्मिक दृष्टि से संकीर्ण था। प्रशासनिक व्यवस्था में उसने कोई बदलाव नहीं किया। उसके काल में मुगल साम्राज्य की आर्थिक स्थिति खराब हो गई, जिससे सैन्य तंत्र भी कमजोर हुआ। इस तरह 1707 ई० में उसकी मृत्यु के समय मुगल साम्राज्य चारों ओर से संकटों से घिरा हुआ था।

→ 1707 ई० में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल वंश में एक के बाद एक कमजोर शासक आए। इन शासकों के काल में शासन, दरबार व अभिजात वर्ग पर शासकों की पकड़ कमजोर हुई, जिसके कारण सत्ता का केन्द्र दिल्ली, आगरा व लाहौर न होकर विभिन्न क्षेत्रीय नगर हो गए। इन क्षेत्रीय नगरों में क्षेत्रीय सत्ता की स्थापना हुई। 1739 ई० में ईरान के शासक नादिरशाह ने मुग़ल शासक मुहम्मद शाह को बुरी तरह से पराजित कर दिल्ली में लूटमार की। इससे मुगल साम्राज्य का वैभव, सम्मान व पहचान मिट्टी में मिल गई।

→ 1857 ई० केजन-विद्रोह में एक बार फिर जन-विद्रोहियों ने मुग़ल राज्य व वंश के नाम का प्रयोग किया तथा अन्तिम मुगल शासक . बहादुरशाह जफर को इसका नेतृत्व दे दिया। अन्ततः वह हार गया तथा उसके पुत्रों व परिवार के अधिकतर सदस्यों का कत्ल कर दिया । गया। उसे बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया, जहाँ 1862 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद मुगल वंश समाप्त हो गया।

→ मुग़ल शासकों ने शासन के लिए जिस तरह की व्यवस्था अपनाई, उसके द्वारा वे विशाल विजातीय जनता तथा बहु-सांस्कृतिक जीवन के बीच तालमेल बना सके। शासन-व्यवस्था की इस कड़ी में इस वंश के शासकों ने अपने वंश के इतिहास-लेखन की ओर विशेष ध्यान दिया। यह इतिहास-लेखन दरबारी संरक्षण में दरबारियों एवं विद्वानों के द्वारा लिखा गया। इन दरबारी लेखकों द्वारा जहाँ शासक की इच्छा व भावना का ध्यान रखा गया, वहीं उन्होंने इस महाद्वीप से संबंधित विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ भी उपलब्ध कराई हैं।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 9 राजा और विभिन्न वृत्तांत : मुगल दरबार

→ आधुनिक इतिहासकारों विशेषतः अंग्रेज़ी में लिखने वालों ने मुगलों की इस लेखन शैली को ‘क्रॉनिकल्स’ का नाम दिया है, जिसको अनुवादित रूप में इतिवृत्त या इतिहास कहा जा सकता है। ये इतिवृत्त (वृत्तांत) मुगलकाल की घटनाओं का कालानुक्रमिक विवरण प्रस्तुत करते हैं। इन इतिवृत्तों की सामग्री दरबारी लेखकों द्वारा कड़ी मेहनत से एकत्रित की गई। फिर इन्होंने इसे व्यवस्थित ढंग से वर्गीकृत किया। मुगलकालीन इतिहास-लेखन के लिए यह इतिवृत्त सबसे प्रमुख स्रोत है, क्योंकि इनमें तथ्यात्मक जानकारी प्रचुर मात्रा में है।

→ इन इतिवृत्तों में मुगल शासकों की विजयों, राजधानियों, दरबार, केंद्रीय व प्रांतीय शासन व विदेश नीति पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ-साथ मुगल शासकों की धार्मिक नीति तथा प्रजा के साथ व्यवहार का विस्तृत वर्णन भी है। निःसंदेह ये इतिवृत्त या वृत्तांत मुगलकालीन इतिहास के लेखन का महत्त्वपूर्ण आधार हैं।

काल-रेखा

कालघटना का विवरण
1483 ईoबाबर का फरगाना में जन्म
1494 ई०बाबर का फरगाना का शासक बनना
1497 ईoबाबर के हाथ से राज्य का निकलना व निर्वासन जीवन की शुरुआत
1504 ई०बाबर की काबुल विजय, सिकंदर लोधी द्वारा आगरा की स्थापना
1526 ईoपानीपत की पहली लड़ाई व बाबर की जीत
1530 ईoबाबर की मृत्यु तथा बाबरनामा की पाण्डुलिपि को संगृहीत करना।
1540 ई०हुमायूँ की शेरशाह के हाथों हार व भारत से बाहर जाना
1555 ईoहुमायूँ की पुनः भारत विजय
1556 ई०हुमायूँ की मृत्यु, पानीपत की दूसरी लड़ाई व अकबर का शासक बनना
1562 झoअकबर द्वारा किसी राजपूत परिवार से वैवाहिक संबंधों की शुरुआत
1563 ई०अकबर द्वारा तीर्थ यात्रा कर की समाप्ति
1564 ई०अकबर द्वारा जजिया कर को हटाना
1570-85 ई०अकबर द्वारा फतेहपुर सीकरी में भवन निर्माण व उसे राजधानी बनाना
1587 ई०गुलबदन बेगम द्वारा हुमायूँनामा के लेखन की शुरुआत
1589 ई०बाबरनामा का तुर्की से फारसी में अनुवाद
1589-1602 ईoअबुल फण्ल द्वारा अकबरनामा का लेखन
1596-98 ई०अबुल फण्ल्ल द्वारा आइन-ए-अकबरी का लेखन
1605 ई०अकबर की मृत्यु व सलीम का जहाँगीर के नाम से शासक बनना
1611 ई०जहाँगीर की नूरजहाँ से शादी
1605-22 ई०जहाँगीर द्वारा आत्मकथा तुज़्क-ए-जहाँगीरी (जहाँगीरनामा) का लेखन
1627 ई०जहाँगीर की मृत्यु
1631 ई०मुमताज महल की मृत्यु
1639-47 ई०अब्दुल हमीद लाहौरी द्वारा बादशाहनामा के दो खण्डों का लेखन
1657-58 ई०शाहजहाँ के काल में उत्तराधिकार का युद्ध
1658 ई०औरंगज़ेब का शासक बनना
1668 ई०मुहम्मद काजिम द्वारा औरंगज़ेब के काल के पहले 10 वर्षों का इतिवृत्त आलमगीरनामा के नाम से संकलन
1669 ई०औरंगज़ेब के काल में जाटों का विद्रोह
1679 ई०औरंगज़ेब द्वारा जजिया कर फिर से लगाना औरंगज़ेब की मृत्यु
1707 ई०से संकलन

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HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

Haryana State Board HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Important Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न के अन्तर्गत कुछेक वैकल्पिक उत्तर दिए गए हैं। ठीक उत्तर का चयन कीजिए

1. कुरु जनपद की राजधानी का क्या नाम था?
(A) वैशाली
(B) इन्द्रप्रस्थ
(C) श्रावस्ती
(D) राजगृह
उत्तर:(B) इन्द्रप्रस्थ

2. बिम्बिसार किस जनपद का सुप्रसिद्ध शासक था?
(A) मगध
(B) कौशल
(C) काशी
(D) अंग
उत्तर:
(A) मगध

3. अंग जनपद की राजधानी थी
(A) चम्पा
(B) वाराणसी
(C) कुशीनगर
(D) वैशाली
उत्तर:
(A) चम्पा

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

4. प्रद्योत किस जनपद का शासक था?
(A) कौशल
(B) अवन्ति
(C) अंग
(D) वत्स
उत्तर:
(B) अवन्ति

5. कौटिल्य कहाँ के रहने वाले थे?
(A) मिथिला के
(B) पावा के
(C) रामग्राम के
(D) कपिलवस्तु के
उत्तर:
(C) रामग्राम के

6. निम्नलिखित में से कौन नंद वंश का संस्थापक था?
(A) महापद्मनन्द
(B) घनानन्द
(C) केशवानन्द
(D) महेश्वरानन्द
उत्तर:
(A) महापद्मनन्द

7. साम्राज्य के रूप में मगध का उत्थान आरम्भ हुआ
(A) बिम्बिसार के शासन काल से
(B) अजातशत्रु के शासन काल से
(C) शिशुनाग के शासन काल से
(D) महापद्मनन्द के शासन काल से
उत्तर:
(A) बिम्बिसार के शासन काल से

8. चन्द्रगुप्त मौर्य की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विजय थी
(A) मगध विजय
(B) पंजाब की विजय
(C) पश्चिमी भारत की विजय
(D) दक्षिणी भारत की विजय
उत्तर:
(A) मगध विजय

9. मौर्य साम्राज्य का संस्थापक था
(A) अशोक
(B) बिन्दुसार
(C) चन्द्रगुप्त मौर्य
(D) बिम्बिसार
उत्तर:
(C) चन्द्रगुप्त मौर्य

10. मौर्य साम्राज्य की राजधानी थी
(A) स्वर्णगिरि
(B) तक्षशिला
(C) पाटलिपुत्र
(D) उज्जैन
उत्तर:
(C) पाटलिपुत्र

11. अशोक के समय का सबसे प्रसिद्ध स्तूप है
(A) रूपनाथ का
(B) सारनाथ का
(C) सांची का
(D) प्रयाग का
उत्तर:
(C) सांची का

12. अशोक ने धम्म प्रचार के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त किए, जिन्हें कहा जाता था
(A) अमात्य
(B) सन्निधाता
(C) युक्त
(D) धम्ममहामात्र
उत्तर:
(D) धम्ममहामात्र

13. श्रीनगर और ललितापाटन नामक नगरों की स्थापना की
(A) चन्द्रगुप्त मौर्य ने
(B) अशोक ने
(C) कनिष्क ने
(D) बिन्दुसार ने
उत्तर:
(B) अशोक ने

14. अशोक के समय तीसरी बौद्ध सभा का आयोजन हुआ
(A) वैशाली में
(B) पाटलिपुत्र में
(C) तक्षशिला में
(D) राजगृह में
उत्तर:
(B) पाटलिपुत्र में

15. अशोक के द्वारा कलिंग का युद्ध लड़ा गया
(A) 269 ई०पू० में
(B) 273 ई०पू० में
(C) 261 ई०पू० में
(D) 251 ई०पू० में
उत्तर:
(C) 261 ई०पू० में

16. मैगस्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा
(A) 300 ई०पू० से 295 ई०पू० तक
(B) 305 ई०प० से 298 ई०पू० तक
(C) 302 ई०पू० से 298 ई०पू० तक
(D) 302 ई०पू० से 297 ई०पू० तक
उत्तर:
(C) 302 ई०पू० से 298 ई०पू० तक

17. कौटिल्य ने अर्थशास्त्र की रचना की
(A) हिन्दी भाषा में
(B) पाली भाषा में
(C) संस्कृत भाषा में
(D) प्राकृत भाषा में
उत्तर:
(C) संस्कृत भाषा में

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

18. मौर्य-शासनकाल में गोचरन (चरागाह) भूमि की व्यवस्था करने वाला कहलाता था
(A) लवणाध्यक्ष
(B) गोडाध्यक्ष
(C) सूत्राध्यक्ष
(D) विवीताध्यक्ष
उत्तर:
(D) विवीताध्यक्ष

19. बिन्दुसार के दरबार में आने वाला ग्रीक राजदूत था
(A) एरियन
(B) मीनाण्डर
(C) डायमेकस
(D) सेल्यूकस
उत्तर:
(C) डायमेकस

20. कौटिल्य के अनुसार, मौर्यकाल में स्त्री गुप्तचरों में हुआ करती थी
(A) शिल्पकारिका
(B) भिक्षुणी
(C) वेश्या
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

21. मौर्य साम्राज्य मुख्य रूप से विभक्त था
(A) आठ प्रान्तों में
(B) चार प्रान्तों में
(C) दो प्रान्तों में
(D) पाँच प्रान्तों में
उत्तर:
(D) पाँच प्रान्तों में

22. मौर्यकालीन शासन-व्यवस्था की सर्वाधिक छोटी इकाई थी
(A) प्रान्त
(B) नगर
(C) मुक्ति
(D) ग्राम
उत्तर:
(D) ग्राम

23. उड़ीसा का वह स्थान जहाँ से अशोक के अभिलेख प्राप्त हुए हैं
(A) कलिंग
(B) जौगड़
(C) कटक
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(B) जौगड़

24. अशोक को कश्मीर का प्रथम मौर्य शासक बताया है
(A) विल्हण ने
(B) कल्हण ने
(C) रविकीर्ति ने
(D) हरिषेण ने
उत्तर:
(B) कल्हण ने

25. अशोक का तेरहवां शिलालेख, जिसमें कलिंग विजय का वर्णन है, प्राप्त हुआ है
(A) धौली से
(B) मानसेहरा से
(C) जौगढ़ से
(D) गिरनार से
उत्तर:
(A) धौली से

26. पाषाण स्तम्भ का ऊपरी भाग जो राष्ट्रीय चिहन के रूप में लिया गया है वह है
(A) सारनाथ का
(B) प्रयाग का
(C) कौशाम्बी का
(D) इलाहाबाद का
उत्तर:
(A) सारनाथ का

27. सातवाहनों की राजभाषा थी
(A) संस्कृत
(B) पाली
(C) तमिल
(D) प्राकृत
उत्तर:
(D) प्राकृत

28. गौतमी पुत्र शातकर्णि ने उपाधि धारण की
(A) स्वामी
(B) महाराज
(C) राजराज
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

29. सातवाहन काल में नगरों में जलपूर्ति का प्रबन्ध करने वाले अधिकारी को कहा जाता था
(A) पनिपहारक
(B) पनिहारक
(C) पनिहार
(D) पनिहारा
उत्तर:
(A) पनिपहारक

30. श्रेणी धर्म क्या था?
(A) निगम सभा
(B) धर्म सभा
(C) व्यापारिक निगम
(D) राजसभा
उत्तर:
(C) व्यापारिक निगम

31. सातवाहन काल में व्यावसायिक संघ की अलग-अलग श्रेणी के प्रधान को कहा जाता था
(A) श्रेष्ठिन
(B) श्रेष्ठ
(C) श्रेणिक
(D) श्रोता
उत्तर:
(A) श्रेष्ठिन

32. कुषाण काल में कला का प्रमुख केन्द्र था
(A) मथुरा
(B) तक्षशिला
(C) वाराणसी
(D) पेशावर
उत्तर:
(A) मथुरा

33. कुषाणों को भारत की किस शक्ति ने हराया?
(A) चोलों ने
(B) राष्ट्रकूटों ने
(C) गुप्तशासकों ने
(D) आन्ध्रशासकों ने
उत्तर:
(C) गुप्तशासकों ने

34. ‘पुरुषपुर’ किस शासक की राजधानी थी?
(A) अशोक की
(B) हर्ष की
(C) समुद्रगुप्त की
(D) कनिष्क की
उत्तर:
(D) कनिष्क की

35. ‘चरक संहिता’ में वर्णन है
(A) रामायण का
(B) महाभारत का
(C) चित्रकला का
(D) भारतीय जड़ी-बूटियों का
उत्तर:
(D) भारतीय जड़ी-बूटियों का

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

36. भारतीय व यूनानी कला का मिश्रण थी
(A) गुप्त कला
(B) मथुरा कला
(C) गन्धार कला
(D) अमरावती कला
उत्तर:
(C) गन्धार कला

37. ‘संगम’ किस भाषा का शब्द है?
(A) हिन्दी
(B) संस्कृत
(C) तमिल
(D) कन्नड़
उत्तर:
(B) संस्कृत

38. ‘संगम’ शब्द का अर्थ है
(A) सभा
(B) समिति
(C) राजा
(D) प्रजा
उत्तर:
(A) सभा

39. तमिल संगम थी
(A) तमिल सेना
(B) नदी
(C) कवियों की सभा
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(C) कवियों की सभा

40. प्रथम संगम कहाँ हुआ था?
(A) मदुरा
(B) कपातपुरम्
(C) कांची
(D) चेन्नई
उत्तर:
(A) मदुरा

41. तोलकाप्पियम किस संगम का ग्रन्थ है?
(A) प्रथम
(B) द्वितीय
(C) तृतीय
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) द्वितीय

42. संक्षिप्त वेद कहा जाता है
(A) तोलकाप्पियम
(B) पत्थुप्पात्तु
(C) तिरुकुराल
(D) शिलप्पादिकारम्
उत्तर:
(C) तिरुकुराल

43. वनिगर कहते थे
(A) कृषक को
(B) सैनिक को
(C) व्यापारी को
(D) ब्राह्मण को
उत्तर:
(C) व्यापारी को

44. ‘मा’ व ‘वेलि’ कहते थे
(A) भूमि की माप
(B) पैदल व हस्ति सेना
(C) नृत्य व नृत्यांगना
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) पैदल व हस्ति सेना

45. ‘एनाडि’ की उपाधि किसे दी जाती थी?
(A) राजा को
(B) योद्धाओं को
(C) मन्त्रियों को
(D) किसानों को
उत्तर:
(B) योद्धाओं को

46. संगमकाल में ‘अवनम्’ कहते थे
(A) नगर में बाजार को
(B) यवनों के निवास स्थान को
(C) राजदरबार को
(D) सेना को
उत्तर:
(A) नगर में बाजार को

47. संगमकाल में भारत से निर्यात होने वाली प्रमुख वस्तुएँ थीं
(A) रूई व रेशम
(B) मसाले
(C) हाथी दाँत
(D) हथियार
उत्तर:
(B) मसाले

48. समुद्रगुप्त का महाकवि था
(A) हरिषेण
(B) वीरसेन
(C) रुद्रसेन
(D) वागसेन
उत्तर:
(A) हरिषेण

49. गुप्त संवत् आरम्भ हुआ
(A) 320 ई० से
(B) 320 ई०पू० से
(C) 240 ई० से
(D) 335 ई० से
उत्तर:
(A) 320 ई० से

50. चन्द्रगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी था
(A) स्कन्दगुप्त
(B) कुमारगुप्त
(C) समुद्रगुप्त
(D) चन्द्रगुप्त द्वितीय
उत्तर:
(C) समुद्रगुप्त

51. ‘गरुड़’ की उपाधि किस गुप्त सम्राट ने धारण की?
(A) चन्द्रगुप्त प्रथम
(B) चन्द्रगुप्त द्वितीय
(C) समुद्रगुप्त
(D) स्कन्दगुप्त
उत्तर:
(C) समुद्रगुप्त

52. शकारी की उपाधि धारण की
(A) समुद्रगुप्त
(B) चन्द्रगुप्त द्वितीय
(C) चन्द्रगुप्त प्रथम
(D) कुमारगुप्त
उत्तर:
(B) चन्द्रगुप्त द्वितीय

53. इलाहाबाद स्तम्भ लेख का लेखक था?
(A) नागसेन
(B) हरिषेण
(C) कालिदास
(D) विशाखदत्त
उत्तर:
(B) हरिषेण

54. महरौली लौह-स्तम्भ सम्बन्धित है
(A) समुद्रगुप्त से
(B) समगुप्त से
(C) चन्द्रगुप्त द्वितीय से
(D) कुमारगुप्त से
उत्तर:
(C) चन्द्रगुप्त द्वितीय से

55. गुप्तकाल की मूर्तिकला का सर्वोत्तम उदाहरण माना जाता है
(A) सूर्य की मूर्ति
(B) सारनाथ की बुद्ध-मूर्ति
(C) विष्णु की मूर्ति
(D) मथुरा में खड़े हुए बुद्ध की मूर्ति
उत्तर:
(B) सारनाथ की बुद्ध-मूर्ति

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

56. पंचतन्त्र का लेखक था
(A) विष्णु शर्मा
(B) शूद्रक
(C) कालिदास
(D) भारवि
उत्तर:
(A) विष्णु शर्मा

57. शकों को पराजित करने वाला गुप्त सम्राट् था
(A) समुद्रगुप्त
(B) चन्द्रगुप्त प्रथम
(C) चन्द्रगुप्त द्वितीय
(D) रामगुप्त
उत्तर:
(C) चन्द्रगुप्त द्वितीय

58. गुप्तकाल में कला, विद्या एवं व्यापार का प्रमुख केन्द्र था
(A) इन्द्रप्रस्थ
(B) थानेसर
(C) उज्जैन
(D) थार
उत्तर:
(C) उज्जैन

59. ‘मुद्राराक्षस’ किस प्रकार का नाटक है?
(A) जासूसी
(B) ऐतिहासिक
(C) रोमांचक
(D) हास्यप्रद
उत्तर:
(B) ऐतिहासिक

60. गुप्त वंश के पतन का निम्नलिखित कारण था
(A) सैनिक दुर्बलता
(B) हूणों के आक्रमण
(C) स्कन्दगुप्त के अयोग्य उत्तराधिकारी
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

61. महाजनपदों के शासक किसानों से उनकी उपज का लगभग 1/6 हिस्सा कर के रूप में लेने लगे थे। यह कर कहा जाता था
(A) भू-राजस्व
(B) बलि
(C) भाग
(D) हिस्सा
उत्तर:
(C) भाग

62. अशोक के प्राप्त अभिलेखों की संख्या है
(A) 44
(B) 77
(C) 75
(D) 66
उत्तर:
(A) 44

63. उत्तर पश्चिमी भारत में लगवाए अभिलेखों में अशोक ने किस लिपि का प्रयोग किया?
(A) खरोष्ठी
(B) ब्राह्मी
(C) आरमाईक
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) खरोष्ठी

64. सोलह महाजनपदों का उदय हुआ
(A) ऋग्वैदिक युग में
(B) गुप्त युग में
(C) मौर्य युग में
(D) बुद्ध युग में
उत्तर:
(D) बुद्ध युग में

65. अशोक की कलिंग विजय का उल्लेख किस अभिलेख में मिलता है?
(A) 10वें अभिलेख में
(B) 12वें अभिलेख में
(C) 13वें अभिलेख में
(D) 11वें अभिलेख में
उत्तर:
(C) 13वें अभिलेख में

66. “प्रजा की भलाई में ही उसकी (राजा की) भलाई है।” यह कहा
(A) अशोक ने
(B) कौटिल्य ने
(C) मैगस्थनीज ने
(D) मनु ने
उत्तर:
(B) कौटिल्य ने

67. मैगस्थनीज किस शासक के दरबार में मेहमान बनकर रहा?
(A) सिकन्दर के
(B) चन्द्रगुप्त मौर्य के
(C) कुमारगुप्त के
(D) समुद्रगुप्त के
उत्तर:
(B) चन्द्रगुप्त मौर्य के

68. महाजनपदों की संख्या थी
(A) 20
(B) 18
(C) 26
(D) 16
उत्तर:
(D) 16

69. ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में सफलता पाई
(A) कनिंघम ने
(B) जेम्स प्रिंसेप ने
(C) जॉन मार्शल ने
(D) व्हीलर ने
उत्तर:
(B) जेम्स प्रिंसेप ने

70. ‘प्रियदस्सी’ की उपाधि धारण की
(A) चंद्रगुप्त में
(B) बिंदुसार ने
(C) अशोक ने
(D) अजातशत्रु ने
उत्तर:
(C) अशोक ने

71. सिक्कों का अध्ययन कहलाता है
(A) पुरातत्व
(B) मुद्राशास्त्र
(C) धर्मशास्त्र
(D) अर्थशास्त्र
उत्तर:
(B) मुद्राशास्त्र

72. प्रिंसेप अशोक के अभिलेखों की ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में सफल हुआ
(A) 1828 ई० में
(B) 1938 ई० में
(C) 1838 ई० में
(D) 1848 ई० में
उत्तर:
(C) 1838 ई० में

73. सोने की खानों के लिए महत्त्वपूर्ण था
(A) सुवर्णगिरि
(B) उज्जयिनी
(C) तोसाली
(D) तक्षशिला
उत्तर:
(A) सुवर्णगिरी

74. प्रभावती किस गुप्त शासक की पुत्री थी?
(A) चंद्रगुप्त प्रथम
(B) समुद्रगुप्त
(C) चंद्रगुप्त द्वितीय
(D) स्कंदगुप्त
उत्तर:
(C) चंद्रगुप्त द्वितीय

75. छठी सदी ई०पू० से कृषि उपज बढ़ाने का तरीका था
(A) सिंचाई को बढ़ावा
(B) धान का रोपण
(C) लोहे के फाल वाले हल का प्रयोग
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

76. धम्म का संदेश देने वाला था
(A) अशोक
(B) चाणक्य
(C) बिंदुसार
(D) चंद्रगुप्त मौर्य
उत्तर:
(A) अशोक

77. शिल्पकारों और व्यापारियों के संघ को कहा जाता था
(A) समूह
(B) श्रेणी
(C) गण
(D) समिति
उत्तर:
(B) श्रेणी

78. धम्म महामात्र नामक विशेष अधिकारी नियुक्त करने वाला था
(A) समुद्रगुप्त
(B) चंद्रगुप्त मौर्य
(C) अशोक
(D) चंद्रगुप्त द्वितीय
उत्तर:
(C) अशोक

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
सर्वप्रथम सिक्कों का चलन कब आरंभ हुआ?
उत्तर:
सर्वप्रथम सिक्कों का चलन पाँचवीं सदी ई०पू० के लगभग से आरंभ हुआ।

प्रश्न 2.
जनपद शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जनपद शब्द का अर्थ है जहाँ लोगों ने अपना पाँव रखा अर्थात् जहाँ बस गए।

प्रश्न 3.
गंगा व सोन नदियों के संगम पर ‘पाटलिपुत्र’ नामक नगर की स्थापना किसने की?
उत्तर:
पाटलिपुत्र नगर की स्थापना बिम्बिसार ने की।

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प्रश्न 4.
अभिलेखों के अध्ययन को क्या कहते हैं?
उत्तर:
अभिलेखों के अध्ययन को अभिलेख शास्त्र कहते हैं।

प्रश्न 5.
पंचमार्क सिक्कों का आकार कैसा था?
उत्तर:
पंचमार्क सिक्कों का आकार आयताकार या वृत्ताकार होता था।

प्रश्न 6.
जातक क्या है?
उत्तर:
जातक महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ हैं।

प्रश्न 7.
जातकों की संख्या कितनी है?
उत्तर:
जातकों की संख्या 549 है।

प्रश्न 8.
‘पेरिप्लस’ का क्या अर्थ है?
उत्तर:
पेरिप्लस का अर्थ है-समुद्री यात्रा।

प्रश्न 9.
पतिवेदक कौन थे?
उत्तर:
पतिवेदक अशोक के काल में रिपोर्टर थे।

प्रश्न 10.
‘इंडियन एपिग्राफी एंड इंडियन एपिग्राफिकल ग्लोसरी’ नामक पुस्तक किसकी रचना है?
उत्तर:
‘इंडियन एपिग्राफी एंड इंडियन एपिग्राफिकल ग्लोसरी’ डी०सी० सरकार की रचना है।

प्रश्न 11.
बंगाल एशियाटिक सोसायटी का गठन कब हुआ?
उत्तर:
बंगाल एशियाटिक सोसायटी का गठन 1784 ई० में हुआ।

प्रश्न 12.
‘देवानापिय’ किस राजा की उपाधि थी?
उत्तर:
‘देवानांपिय’ राजा अशोक की उपाधि थी।

प्रश्न 13.
ओलीगार्की या समूह शासन किसे कहते हैं?
उत्तर:
ओलीगार्की या समूह शासन उसे कहते हैं जहाँ सत्ता पुरुषों के एक समूह के हाथ में हो।

प्रश्न 14.
राजगाह का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
राजगाह का शाब्दिक अर्थ है ‘राजाओं का घर’।

प्रश्न 15.
सुवर्णगिरि (सोने का पहाड़) कहाँ थी?
उत्तर:
सुवर्णगिरि कर्नाटक में थी।

प्रश्न 16.
महाजनपदों की संख्या कितनी थी?
उत्तर:
महाजनपदों की संख्या 16 थी।

प्रश्न 17.
भारत में सबसे अधिक अभिलेख किस शासक के हैं?
उत्तर:
भारत में सबसे अधिक अभिलेख अशोक के हैं।

प्रश्न 18.
छठी से चौथी सदी ई०पू० में कौन-सा महाजनपद सबसे शक्तिशाली बन गया?
उत्तर:
छठी से चौथी सदी ई०पू० में मगध महाजनपद सबसे शक्तिशाली बन गया।

प्रश्न 19. अपनी सोने की खानों के कारण कौन-सा स्थान उपयोगी था?
उत्तर:
अपनी सोने की खानों के कारण सुवर्णगिरि उपयोगी था।

प्रश्न 20.
अशोक ने धम्म प्रचार के कौन-से विशेष अधिकारी नियुक्त किए?
उत्तर:
अशोक ने धम्म प्रचार के लिए ‘धम्म महामात्र’ नामक विशेष अधिकारी नियुक्त किए।

प्रश्न 21.
भारत के सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रंथ का नाम बताएँ।
उत्तर:
भारत का सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ है।।

प्रश्न 22.
भारत में आधुनिक भाषाओं में प्रयुक्त लगभग सभी लिपियों का मूल कौन-सी लिपि है?
उत्तर:
आधुनिक भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त लगभग सभी लिपियों का मूल ब्राह्मी लिपि है।

प्रश्न 23.
‘लिच्छिवी दौहित्र’ कौन था?
उत्तर:
‘लिच्छिवी दौहित्र’ समुद्रगुप्त था।

प्रश्न 24.
गुप्तकालीन धातुकला का उत्कृष्ट नमूना कौन-सा है?
उत्तर:
गुप्तकालीन धातुकला का उत्कृष्ट नमूना महरौली का लौह स्तम्भ है।

प्रश्न 25.
गुप्त काल की राजभाषा क्या थी?
उत्तर:
गुप्त काल की राजभाषा संस्कृत थी।

प्रश्न 26.
गुप्तकाल का महान् खगोलज्ञ व गणितज्ञ कौन था?
उत्तर:
गुप्तकाल का महान खगोलज्ञ व गणितज्ञ आर्यभट्ट था।

प्रश्न 27.
छठी शताब्दी ई० पूर्व में कितने महाजनपद थे? किन्हीं चार के नाम बताएँ।
उत्तर:
छठी शताब्दी ई०पूर्व में कुल 16 महाजनपद थे। इनमें से मगध, काशी, कौशल तथा कुरू को मुख्य चार के रूप में बता सकते हैं।

प्रश्न 28.
तक्षशिला किस जनपद की राजधानी थी?
उत्तर:
तक्षशिला गांधार जनपद की राजधानी थी।

प्रश्न 29.
बिम्बिसार तथा अजातशत्रु किस महाजनपद के दो प्रसिद्ध शासक थे?
उत्तर:
बिम्बिसार तथा अजातशत्रु मगध जनपद के प्रसिद्ध शासक थे।

प्रश्न 30.
छठी शताब्दी ई०पू० में राजगृह किस महाजनपद की राजधानी थी?
उत्तर:
छठी शताब्दी ई०पू० राजगृह मगध महाजनपद की राजधानी थी।

प्रश्न 31.
मगध के किस शासक ने अवन्ति महाजनपद को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया?
उत्तर:
शिशुनाग ने अवन्ति को मगध में सम्मिलित किया।

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प्रश्न 32.
घनानंद किस वंश का अन्तिम शासक था?
उत्तर:
घनानंद मगध के नंद वंश का अन्तिम शासक था।

प्रश्न 33.
मत्स्य जनपद की राजधानी कौन-सी थी?
उत्तर:
मत्स्य जनपद की राजधानी विराटनगर थी।

प्रश्न 34.
उज्जैन किस जनपद की राजधानी थी?
उत्तर:
उज्जैन अवन्ति जनपद की राजधानी थी।

प्रश्न 35.
श्रावस्ती किस जनपद की राजधानी थी?
उत्तर:
श्रावस्ती कौशल जनपद की राजधानी थी।

प्रश्न 36.
वह कौशल राजा, जिसने काशी को जीता था, का नाम क्या था?
उत्तर:
महाकौशल ने काशी को जीता था।

प्रश्न 37.
इन्द्रप्रस्थ किस जनपद की राजधानी थी?
उत्तर:
इन्द्रप्रस्थ कुरू जनपद की राजधानी थी।

प्रश्न 38.
वज्जि जनपद की राजधानी क्या थी?
उत्तर:
वज्जि जनपद की राजधानी वैशाली थी।

प्रश्न 39.
चन्द्रगुप्त मौर्य ने किस यूनानी शासक को हराया?
उत्तर:
चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस निकेटर नामक यूनानी शासक को हराया।

प्रश्न 40.
मैगस्थनीज़ कौन था?
उत्तर:
चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी शासक सेल्यूकस का राजदूत था।

प्रश्न 41.
अशोक के समय के दो प्रसिद्ध स्तूप कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
सांची तथा भारहुत के स्तूप अशोक के समय के प्रसिद्ध स्तूप हैं।

प्रश्न 42.
इण्डिका का लेखक कौन था?
उत्तर:
इण्डिका का लेखक मैगस्थनीज़ था।

प्रश्न 43.
मैगस्थनीज़ किसके शासन काल में भारत आया?
उत्तर:
मैगस्थनीज़ चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-काल में भारत आया।

प्रश्न 44.
कौटिल्य कौन था?
उत्तर:
कौटिल्य चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रधानमन्त्री था।

प्रश्न 45.
कौटिल्य (चाणक्य) ने राजनीति से सम्बन्धित कौन-सी पुस्तक की रचना की ?
उत्तर:
कौटिल्य (चाणक्य) ने राजनीति से सम्बन्धित ‘अर्थशास्त्र’ की रचना की।

प्रश्न 46.
अशोक ने किस नयी नैतिक विचारधारा का प्रचार किया?
उत्तर:
अशोक ने धम्म नामक विचारधारा का प्रचार किया।

प्रश्न 47.
धम्म के प्रचार के लिए अशोक ने कौन-से विशेष अधिकारी नियुक्त किए?
उत्तर:
धम्म के प्रचार के लिए अशोक ने धम्म महामात्र अधिकारी नियुक्त किए।

प्रश्न 48.
अशोक ने किन दो नए नगरों की स्थापना की?
उत्तर:
अशोक ने श्रीनगर तथा ललितापाटन नामक दो नगरों की स्थापना की।

प्रश्न 49.
कलिंग का युद्ध कब हुआ?
उत्तर:
कलिंग का युद्ध 261 ई०पू० में हुआ।

प्रश्न 50.
वर्तमान भारत के राष्ट्रीय चिह्न कहाँ से लिए गए हैं?
उत्तर:
वर्तमान भारत के राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ के अशोक स्तम्भ से लिए गए हैं।

प्रश्न 51.
अशोक के अभिलेख कौन-सी दो लिपियों में मिले हैं?
उत्तर:
अशोक के अभिलेख ब्राह्मी लिपि तथा खरोष्ठी लिपि में मिले हैं।

प्रश्न 52.
हरिषेण कौन था ?
उत्तर:
हरिषेण गुप्त शासक समुद्रगुप्त (335-375 ई०) के दरबार में सेनापति और साथ ही लेखक और कवि था। वह ‘प्रयाग प्रशस्ति’ का लेखक है। इसमें उसने अपने शासक समुद्रगुप्त को ‘परमात्मा तुल्य’ कहते हुए बखान किया है।

प्रश्न 53.
चन्द्रगुप्त मौर्य को ‘एण्ड्रोकोट्स’ किस लेखक ने कहा है?
उत्तर:
चन्द्रगुप्त मौर्य को ‘एण्ड्रोकोट्स’ प्लूटार्क ने कहा है।

प्रश्न 54.
सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् अशोक ने कौन-सी उपाधि धारण की?
उत्तर:
सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात् अशोक ने ‘देवानामप्रिय’ की उपाधि धारण की।

प्रश्न 55.
सारनाथ स्तम्भ के शिरोभाग में सिंह के बीच में एक चक्र है, यह चक्र किसका सूचक है?
उत्तर:
यह चक्र धर्म का सूचक है।

प्रश्न 56.
कारखानों तथा खानों के मन्त्री को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
कारखानों तथा खानों के मन्त्री को कर्मान्तिक कहा जाता था।

प्रश्न 57.
मौर्यशासन काल में कृषि विभाग के अध्यक्ष को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
मौर्यशासन काल में कृषि विभाग के अध्यक्ष को सीताध्यक्ष कहा जाता था।

प्रश्न 58.
अर्थशास्त्र की रचना किस भाषा में हुई?
उत्तर:
अर्थशास्त्र की रचना संस्कृत भाषा में हुई।

प्रश्न 59.
मौर्य-शासनकाल में राजकीय कोष का प्रमुख कौन होता था?
उत्तर:
मौर्य-शासनकाल में राजकीय कोष का प्रमुख सन्निधाता होता था।

प्रश्न 60.
मीनाण्डर का शासनकाल क्या था?
उत्तर:
मीनाण्डर का शासनकाल 165-145 ई०पू० था।

प्रश्न 61.
मीनाण्डर की राजधानी का नाम बताएँ।
उत्तर:
मीनाण्डर की राजधानी का नाम शाकल (श्यालकोट) था।

प्रश्न 62.
मीनाण्डर का किस बौद्ध भिक्षु के साथ वाद-विवाद हुआ?
उत्तर:
मीनाण्डर का नागसेन (नागार्जुन) बौद्ध-भिक्षु के साथ वाद-विवाद हुआ।

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प्रश्न 63.
पहली बार सोने के सिक्के किसने जारी किए?
उत्तर:
पहली बार सोने के सिक्के हिन्द-यूनानी शासकों ने जारी किए।

प्रश्न 64.
विक्रम संवत् का प्रारम्भ कब हुआ?
उत्तर:
विक्रम संवत् का प्रारम्भ 58 ई०पू० से माना जाता था।

प्रश्न 65.
शकों का सबसे शक्तिशाली राजा कौन-था?
उत्तर:
शकों का सबसे शक्तिशाली राजा रुद्रदामा (रुद्रदमन) था।

प्रश्न 66.
सुदर्शन झील की मरम्मत किस शक राजा ने करवाई?
उत्तर:
सुदर्शन झील की मरम्मत रूद्रदमन प्रथम ने करवाई।

प्रश्न 67.
शक संवत् का प्रारम्भ कब से माना जाता है?
उत्तर:
शक संवत् का प्रारम्भ 78 ई० से माना जाता है।

प्रश्न 68.
कुषाणों का सबसे प्रसिद्ध शासक कौन था?
उत्तर:
कुषाणों का सबसे प्रसिद्ध शासक कनिष्क था।

प्रश्न 69.
कनिष्क की राजधानी का नाम बताएँ।
उत्तर:
कनिष्क की राजधानी का नाम पुरुषपुर (पेशावर) था।

प्रश्न 70.
मगध-विजय अभियान में कनिष्क को मिलने वाला बौद्ध विद्वान कौन था?
उत्तर:
मगध-विजय अभियान में कनिष्क को मिलने वाला बौद्ध विद्वान् अश्वघोष था।

प्रश्न 71.
कनिष्क द्वारा बसाए गए नगर का नाम बताएँ।
उत्तर:
कनिष्क द्वारा बसाए गए नगर का नाम कनिष्कपुर था।

प्रश्न 72.
कनिष्क की सबसे महत्त्वपूर्ण विजय कौन-सी थी?
उत्तर:
कनिष्क की सबसे महत्वपूर्ण विजय चीन क्षेत्र की विजय थी।

प्रश्न 73.
कनिष्क द्वारा धारण की गई उपाधि का नाम बताएँ।
उत्तर:
कनिष्क द्वारा धारण की गई उपाधि का नाम देवपुत्र था।

प्रश्न 74.
तमिल संगम से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
तमिल कवियों की सभा या सम्मेलन तमिल संगम होता है।

प्रश्न 75.
टूटे हुए सिर वाली कनिष्क की मूर्ति किस कला का नमूना है?
उत्तर:
टूटे हुए सिर वाली कनिष्क की मूर्ति मथुरा कला का नमूना है।

प्रश्न 76.
‘बुद्ध चरित’ का लेखक कौन था?
उत्तर:
‘बुद्ध चरित’ का लेखक अश्वघोष था।

प्रश्न 77.
सबसे प्रसिद्ध भारतीय-यूनानी शासक कौन था?
उत्तर:
सबसे प्रसिद्ध भारतीय-यूनानी शासक मीनाण्डर था।

प्रश्न 78.
कुषाणकाल में कौन-सी नई मूर्तिकला का आरम्भ हुआ?
उत्तर:
कुषाणकाल में गान्धार कला की मूर्तिकला का आरंभ हुआ।

प्रश्न 79.
शक संवत् किस शासक ने चलाया?
उत्तर:
शक संवत् कनिष्क ने चलाया।

प्रश्न 80. शक कहाँ के मूल निवासी थे?
उत्तर:
शक मध्य एशिया के मूल निवासी थे।

प्रश्न 81.
सातवाहन राज्य में स्थानीय सामंतों को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
सातवाहन राज्य में स्थानीय सामंतों को महाभोज कहा जाता था।

प्रश्न 82.
भूमि दान-पत्रों को रखने वाले अधिकारी को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
भूमि दान-पत्रों को रखने वाले अधिकारी को पत्तिक पालक कहा जाता था।

प्रश्न 83.
व्याकरण विषय की तोलकाप्पियम पुस्तक किस भाषा में लिखी गई है?
उत्तर:
व्याकरण विषय की तोलकाप्पियम पुस्तक तमिल भाषा में लिखी गई है।

प्रश्न 84.
संगम साहित्य किस भाषा में लिखा गया है?
उत्तर:
संगम साहित्य तमिल भाषा में लिखा गया है।

प्रश्न 85.
‘बाइबिल ऑफ तमिल’ कौन-सी पुस्तक को कहा जाता है?
उत्तर:
‘बाइबिल ऑफ तमिल’ ‘तिरूक्कुराल’ पुस्तक को कहा जाता है।

प्रश्न 86.
तमिल कविता की आँडिसी कौन-सी पुस्तक है?
उत्तर:
तमिल कविता की आँडिसी मणिमेरवलॅम् पुस्तक है।

प्रश्न 87.
कौन-सी पुस्तक ‘बुक ऑफ मैरिज’ है?
उत्तर:
जीवक चिंतामणि ‘बुक ऑफ मैरिज’ है।

प्रश्न 88.
चोल शासकों में सबसे प्रतापी शासक का नाम बताइए।
उत्तर:
चोल शासकों में सबसे प्रतापी शासक का नाम कारिकाल था।

प्रश्न 89.
पुहार की स्थापना किसने की?
उत्तर:
पुहार की स्थापना राजा कारिकाल ने की।

प्रश्न 90.
चेर राज्य की राजधानी का नाम बताएँ।
उत्तर:
चेर राज्य की राजधानी का नाम वज्जि था।

प्रश्न 91.
चेर राज्य के सबसे महान राजा का नाम तथा राज्य का प्रतीक चिहन बताइए।
उत्तर:
महान् राजा शेनगुटुन लाल चेर तथा राज्य का प्रतीक चिह्न धनुष था।

प्रश्न 92.
पाड्य राज्य की राजधानी का क्या नाम था?
उत्तर:
पांड्य राज्य की राजधानी का नाम मदुरा था।

प्रश्न 93.
रोम से प्रमुख व्यापार कौन-से युग में होता था?
उत्तर:
रोम से प्रमुख व्यापार संगम युग में होता था।

प्रश्न 94.
तिरुक्कुरल के लेखक कौन थे?
उत्तर:
तिरुक्कुरल के लेखक तिरुवल्लुवर थे।

प्रश्न 95.
गुप्त वंश का संस्थापक किसे माना जाता है?
उत्तर:
गुप्त वंश का संस्थापक श्री गुप्त को माना जाता है।

प्रश्न 96.
चन्द्रगुप्त प्रथम का शासनकाल बताएँ।
उत्तर:
चन्द्रगुप्त प्रथम का शासनकाल 320 ई० से 335 ई० तक था।

प्रश्न 97.
गुप्त संवत् का प्रारम्भ कब हुआ?
उत्तर:
गुप्त संवत् का प्रारम्भ 320 ई० पू० से हुआ।

प्रश्न 98.
गुप्त संवत् किसने चलाया?
उत्तर:
गुप्त संवत् चन्द्रगुप्त प्रथम ने चलाया।

प्रश्न 99.
लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ किस गुप्त सम्राट ने विवाह किया था?
उत्तर:
लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ चन्द्रगुप्त प्रथम ने विवाह किया था।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 100.
चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपना उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया?
उत्तर:
चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपना उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त को नियुक्त किया।

प्रश्न 101.
समुद्रगुप्त गद्दी पर कब बैठा?
उत्तर:
समुद्रगुप्त गद्दी पर 335 ई० में बैठा।

प्रश्न 102.
दक्षिण विजय अभियान में समुद्रगुप्त ने कितने राजाओं के संगठन को पराजित किया?
उत्तर:
दक्षिण विजय अभियान में समुद्रगुप्त ने 12 राजाओं के संघ को पराजित किया।

प्रश्न 103.
किस गुप्त शासक ने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की थी?
उत्तर:
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की थी।

प्रश्न 104.
भारतीय नेपोलियन किसे कहा गया?
उत्तर:
भारतीय नेपोलियन समुद्रगुप्त को कहा गया।

प्रश्न 105.
इलाहाबाद स्तम्भ लेख का लेखक कौन था?
उत्तर:
इलाहाबाद स्तम्भ लेख का लेखक हरिषेण था।

प्रश्न 106.
अर्थशास्त्र पुस्तक के लेखक कौन हैं?
उत्तर:
कौटिल्य।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
पुरालेख शास्त्र तथा पुरा लिपिशास्त्र किसे कहते हैं?
उत्तर:
अभिलेख मोहरों, प्रस्तर स्तंभों, स्तूपों, चट्टानों और ताम्रपत्रों (भूमि अनुदान पत्र) इत्यादि पर मिलते हैं। ये ईंटों या मूर्तियों पर भी मिलते हैं। इनके अध्ययन को पुरालेख शास्त्र (Ephigraphy) कहा जाता है। अभिलेखों तथा अन्य पुराने दस्तावेजों की तिथियों के अध्ययन को पुरालिपि शास्त्र (Palaeography) कहा जाता है।

प्रश्न 2.
600 ई०पू० में भारतीय उपमहाद्वीप पर विकसित हुए शहरों और कस्बों की सूची बनाइए।
उत्तर:
भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग छठी शताब्दी ई०पू० में विभिन्न क्षेत्रों में कई नगरों का उदय हुआ। ये नगर हड़प्पा सभ्यता के काफी समय बाद हड़प्पा क्षेत्रों से उत्तर:पूर्व में मुख्यतः गंगा-यमुना की घाटी में पैदा हुए। इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थीं। प्रमुख नगरों व कस्बों की सूची इस प्रकार से है-(1) पाटलिपुत्र, (2) उज्जयिनी, (3) कौशाम्बी, (4) अयोध्या, (5) श्रावस्ती, (6) काशी, (7) तक्षशिला अस्सपुर, (8) वैशाली, (9) कुशीनगर, (10) कपिलवस्तु, (11) साकेत, (12) मारूकच्छ (भड़ौच), (13) सोपारा, (14) तक्षशिला।

प्रश्न 3.
भूमि अनुदान पत्रों से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भूमि अनुदान पत्र अभिलेखों में ही सम्मिलित किए जाते हैं। इन दान पत्रों में राजाओं, राज्याधिकारियों, रानियों, शिल्पियों, व्यापारियों इत्यादि द्वारा दिए गए धर्मार्थ धन, मवेशी, भूमि आदि का उल्लेख मिलता है। राजाओं और सामंतों द्वारा दिए गए भूमि अनुदान पत्र का विशेष महत्त्व है क्योंकि इनमें प्राचीन भारत की व्यवस्था और प्रशासन से संबंधित जानकारी मिलती है। ईस्वी की आरंभिक शती से ऐसे अनुदान पत्र मिलने लगते हैं। अधिकांशतः ये ताम्रपत्रों पर खुदे हुए हैं। भूमि अनुदानकर्ता इन्हें दान प्राप्तकर्ता को प्रमाण के रूप में देते थे। सामान्यतः इन अनुदान पत्रों में भिक्षुओं, ब्राह्मणों, मंदिरों, विहारों, जागीरदारों और अधिकारियों को दिए गए गाँवों, भूमियों और राजस्व के दानों का विवरण उपलब्ध है।

प्रश्न 4.
अभिलेखों के साक्ष्य की सीमाएँ स्पष्ट करें।
उत्तर:
इतिहास की पुनर्रचना में अभिलेख विश्वस्त स्रोत माने जाते हैं। परंतु इनकी अपनी सीमाएँ भी होती हैं

(1) कभी-कभी अभिलेखों के कुछ भाग नष्ट हो जाते हैं इससे अक्षर लोप हो जाते हैं। जिस कारण शब्दों वाक्यों का अर्थ समझ पाना कठिन हो जाता है।
राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

(2) एक सीमा यह भी रहती है कि अभिलेखों में उनके उत्कीर्ण करवाने वाले के विचारों को बढ़ा-चढ़ाकर व्यक्त किया जाता है। अतः तत्कालीन सामान्य विचारों से इनका संबंध नहीं होता। फलतः कई बार ये जन-सामान्य के विचारों और कार्यकलापों पर प्रकाश नहीं डाल पाते।
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प्रश्न 5.
पंचमार्क सिक्कों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
विनिमय के साधन के रूप में सिक्कों का प्रचलन शुरू हुआ। सबसे पहले छठी शती ई०पू० में चाँदी और ताँबे के आयताकार या वृत्ताकार टुकड़े बनाए गए। इन टुकड़ों पर ठप्पा मारकर अनेक प्रकार के चिह्न जैसे कि सूर्य, वृक्ष, मानव, खरगोश, बिच्छु, साँप आदि खोदे हुए थे। इन्हें पंचमार्क या आहत सिक्के कहते हैं। इस प्रकार के पंचमार्क सिक्के भारतीय उपमहाद्वीप के अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं।

प्रश्न 6.
‘प्रयाग प्रशस्ति’ के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
प्रयाग प्रशस्ति का संबंध गुप्त शासक समुद्रगुप्त से है। इसका लेखक समुद्रगुप्त का राजकवि हरिषेण था। यह अभिलेख 33 लाइनों में संस्कृत भाषा में है। इससे हमें समुद्रगुप्त के चरित्र (गुणों) तथा सफलताओं की जानकारी मिलती है। समुद्रगुप्त के गुणों का बखान करते हुए प्रयाग प्रशस्ति में लिखा है-“धरती पर उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। अनेक गुणों और शुभकार्यों से संपन्न उन्होंने अपने पैर के तलवे से अन्य राजाओं के यश को खत्म कर दिया है।” समुद्रगुप्त की तुलना परमात्मा से भी की गई है। “वे परमात्मा पुरुष हैं …….वे करुणा से भरे हुए हैं… वे मानवता के लिए दिव्यमान उदारता की प्रतिमूर्ति हैं।”

प्रश्न 7.
कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मौर्यकालीन रचना है। इसके लेखक चाणक्य या विष्णुगुप्त या कौटिल्य हैं। कौटिल्य प्राचीन भारत का एक प्रमुख कूटनीतिज्ञ व नीतिकार था। वह मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य का शिक्षक व प्रधानमन्त्री था। पुस्तक के नाम से ऐसा आभास होता है कि इसकी विषय-सामग्री अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित है, परन्तु इसमें शासन-सम्बन्धी विश्लेषण मुख्य है।

इसमें शासक, उसकी सलाहकार परिषद्, जनता व शासक सम्बन्ध, न्याय व्यवस्था, शासन चलाने की प्रणाली, युद्ध नीति, विदेशी विशेषकर पड़ोसियों से सम्बन्धों के बारे में बताया है। यह रचना 15 खण्डों में विभाजित है। प्रत्येक खण्ड में लेखक ने तत्कालीन राजनीति, शासन-प्रबन्ध, भारत की स्थिति, समाज व संस्कृति को विस्तृत ढंग से बताया है।

प्रश्न 8.
अशोक के अभिलेखों के ऐतिहासिक महत्त्व पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अशोक के अभिलेखों से हमें महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इन अभिलेखों से अशोक के साम्राज्य विस्तार, उसकी शासन-व्यवस्था, धम्म प्रणाली तथा उसके द्वारा बौद्ध धर्म को फैलाने के लिए किए गए प्रयासों के प्रमाण उपलब्ध होते हैं। ये अभिलेख अशोक के चरित्र, उसकी पड़ोसियों के प्रति नीति तथा मौर्य कला पर भी प्रकाश डालते हैं।

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प्रश्न 9.
अग्रहार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अग्रहार से हमारा अभिप्राय उस भूमि से है जो अनुदान पत्रों के माध्यम से ब्राह्मणों को दी जाती थी। इस भूमि में ब्राह्मणों को सभी प्रकार के करों से मुक्त रखा गया था। दूसरी ओर इस भूमि से जो आय होती थी वह ब्राह्मणों द्वारा धर्म एवं शिक्षा सम्बन्धी कार्यों पर खर्च की जाती थी।

प्रश्न 10.
गुप्तकाल में किए गए भूमि अनुदानों की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारत में भूमि अनुदान की प्रणाली प्रथम शताब्दी ई० से प्रारंभ हो गई थी। उत्तरी भारत में भूमि अनुदान के उदाहरण गुप्तकाल में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। गुप्तकाल की भूमि अनुदान के संबंध में निम्नलिखित दो विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं

  • भूमि अनुदान मुख्य तौर पर ब्राह्मणों को एवं धार्मिक संस्थाओं को दिया जाता था।
  • दान देते समय दान प्राप्त करने वालों को उनके कर्तव्यों के बारे में स्पष्ट निर्देश दिए जाते थे।

प्रश्न 11.
गुप्तकालीन सिक्कों के बारे में जानकारी दीजिए। अथवा सोने के सिक्के के बारे में एक संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
प्राचीन काल में सोने के कुछ सर्वाधिक सुंदर सिक्के गुप्त शासकों ने चलाए। अनेक सिक्कों पर विष्णु और गरुड़ के चित्र अंकित हैं। चन्द्रगुप्त प्रथम ने सबसे पहले सोने के सिक्के जारी किए। इन सिक्कों में एक ओर चंद्रगुप्त और कुमार देवी की आकृति और दूसरी ओर एक देवी की आकृति तथा नीचे लिच्छवयः शब्द उत्कीर्ण है। समुद्रगुप्त की वीणा बजाते हुए मुद्रा तथा ‘अश्वमेध पराक्रम’ अंकित मुद्रा इस संबंध में विशेष उल्लेखनीय हैं। चन्द्रगुप्त द्वितीय के चाँदी के सिक्कों से पता चलता है कि उसने शकों को हराया। गुप्तकालीन सिक्कों का वजन कुषाण शासकों के सिक्कों के समान है। परंतु कुछ विद्वानों का विश्लेषण है कि कुषाण सिक्कों में स्वर्ण धातु की मात्रा अधिक थी।
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प्रश्न 12.
बाद के गुप्त शासकों के काल में सोने के सिक्कों की कमी आने लगी थी। इतिहासकार इसका क्या अर्थ निकालते हैं?
उत्तर:
भारत में छठी शताब्दी ई० से सोने के सिक्कों के संचय कम मिले हैं। स्कंदगुप्त के राज्य काल (467 ई०) के अन्त में सोने के सिक्कों में सोने की मात्रा कम होने लगी थी। कुछ इतिहासकारों ने यह मत व्यक्त किया है कि इस कमी का मुख्य कारण पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के बाद लंबी दूरी के व्यापार में कमी आना था। इससे भारत की संपन्नता प्रभावित हुई तथा इससे भारत में नगरों का पतन होने लगा।

परंतु कुछ अन्य इतिहासकार इस मत से सहमत नहीं हैं। उनका तर्क है कि इस काल में नये नगरों तथा व्यापार के नेटवर्क का उदय हो रहा था। उनका मत है कि यह ठीक है कि सिक्के कम मिलने लगे हैं परंतु अभिलेखों और ग्रंथों में सिक्कों का उल्लेख है तो क्या इसका अर्थ यह लिया जाए कि सिक्के प्रचलन में अधिक थे तथा इनका संग्रहण न हुआ हो।

प्रश्न 13.
अशोक के शिलालेखों में ब्राह्मी लिपि पढ़ने में कौन सफल रहा?
उत्तर:
अशोक के अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं। यह लिपि बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी। यह आधुनिक भारतीय लिपियों की उद्गम लिपि भी है। ब्राह्मी लिपि को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने 1838 में पढ़ने (De cipher) में सफलता पाई। प्रिंसेप ने पाया कि अधिकांश अभिलेखों एवं सिक्कों पर ‘पियदस्सी’ राजा का उल्लेख है। कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम अशोक भी लिखा था।
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भारतीय इतिहासकार भारतीय शासकों की वंशावलियों की रचना के लिए विभिन्न अभिलेखों और ग्रंथों का उपयोग करने लगे थे। फलतः बीसवीं सदी के आरंभ तक भारत के राजनीतिक इतिहास की एक सामान्य रूपरेखा तैयार कर ली गई। इसके बाद इतिहासकार राजनीतिक परिवर्तन के संदर्भो को समझने का प्रयास करने लगे।

प्रश्न 14.
धम्म महामात्र कौन थे?
उत्तर:
अशोक ने धम्म के प्रचार के लिए विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की, इन्हें धम्म महामात्र कहा जाता था। अशोक ने धम्म नीति से अपने साम्राज्य में शांति-व्यवस्था तथा एकता बनाने का प्रयास किया। उसने लोगों में सार्वभौमिक धर्म के नियमों का प्रचार-प्रसार किया। अशोक के अनुसार, धर्म के प्रसार का लक्ष्य, लोगों के इहलोक तथा परलोक को सुधारना था। अशोक ने प्रचार करवाया कि धम्म के पालन से लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा। धम्म महामात्रों को व्यापक अधिकार दिए गए थे। उन्हें समाज के सभी वर्गों के कल्याण और सुख के लिए कार्य करना था।

प्रश्न 15.
‘कनिष्क ‘ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
कनिष्क को इतिहास में एक महान शासक के रूप में जाना जाता है। वह कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था। कनिष्क ने 78 ई० (लगभग) में राजगद्दी ग्रहण की। उसकी राजधानी पुरुषपुर थी। उसने अपने शासनकाल में पंजाब, कश्मीर, उज्जैन, मथुरा, मगध आदि क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। कनिष्क की चीन विजय को सबसे महानतम विजय कहा जाता है। उसने चीन के शासक को युद्ध में पराजित करके काफी बड़े क्षेत्र को अपने राज्य में शामिल किया था। कनिष्क एक धार्मिक प्रवृत्ति का बुद्धिमान शासक था। वह मूल रूप से सूर्य की पूजा किया करता था। कनिष्क ने बाद में बौद्ध धर्म अपनाया तथा उसका अनुसरण किया।

बौद्ध धर्म की नवीन शाखा ‘महायान’ के प्रचार-प्रसार में कनिष्क का महत्त्वपूर्ण योगदान था। उसने बौद्ध धर्म से संबंधित कई स्तूपों तथा मठों का निर्माण करवाया। उसने देश-विदेश में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए प्रचारक नियुक्त किए। बौद्ध धर्म की चौथी सभा का आयोजन कनिष्क द्वारा ही करवाया गया था। इस सभा में शामिल भिक्षुओं ने अपने विचारों तथा अनुभव के आधार पर बौद्ध धर्म में चल रहे मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया। कनिष्क बौद्ध भिक्षुओं की धन से भी सहायता करता था ताकि बौद्ध धर्म का प्रचार निर्बाध गति से चलता रहे।

प्रश्न 16.
अशोक के धर्म के कोई दो सिद्धान्त बताइए।
उत्तर:
(i) सहिष्णुता यह अशोक के धम्म का प्रमुख सिद्धांत है। इसका आधार ‘वाणी पर नियन्त्रण’ है। मनुष्य को अवसर के महत्त्व को देखकर बात करनी चाहिए। अपने स्वयं के धर्म की भी अत्यधिक प्रशंसा तथा दूसरों के प्रति मौन रहने से भी तनाव ही बढ़ता है। मनुष्य को दूसरे आदमी के सम्प्रदाय का आदर भी करना चाहिए।

(ii) अहिंसा-धम्म का दूसरा बुनियादी सिद्धान्त अहिंसा था। इसके मुख्यतः दो पहलू थे-पहला इसके अन्तर्गत पशु-पक्षियों के वध पर रोक लगाई गई। अहिंसा का दूसरा पहलू हिंसात्मक युद्धों (भेरिघोष) को त्यागकर धम्म विजय (धम्मघोष) अपनाना था। वृहद् शिलालेख XIII में उसने कलिंग युद्ध के दौरान हुई विनाशलीला का बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है।

प्रश्न 17.
छठी शताब्दी ई०पू० में नगरों में शिल्पकारों एवं व्यापारियों की श्रेणियों (Guilds) के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
छठी शताब्दी ई०पू० में गंगा-यमुना की घाटी में नगरों का उदय एवं विकास होने लगा। इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे। इन नगरों में राजा, सेना, राज्याधिकारियों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में शिल्पकार और व्यापारी भी रहते थे।

इन शिल्पकारों एवं व्यापारियों की श्रेणियों या संघों का भी उल्लेख मिलता है। प्रत्येक श्रेणी का एक अध्यक्ष होता था। इन श्रेणियों में विभिन्न व्यवसायों से जुड़े कारीगर सम्मिलित होते थे। प्रमुख शिल्पकार श्रेणियाँ थीं-धातुकार (लुहार, स्वर्णकार, ताँबा, कांसा व पीतल का काम करने वाले), बढ़ई, राजगीर, जुलाहे, कुम्हार रंगसाज, बुनकर, कसाई, मछुआरे इत्यादि। ये श्रेणियाँ अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करती थीं, उन्हें ऋण प्रदान करती थीं और उनका धन संचय करती थीं।

श्रेणियाँ कच्चा माल खरीदती थीं और तैयार माल बाजार में बेचती थीं। ये माल तैयार करने के नियमों का निर्धारण करती थीं। ये श्रेणियाँ अपने सदस्यों के आपसी विवादों को सुलझाती थीं। कई बार ये सिक्के भी जारी करती थीं। ये श्रेणियाँ शिक्षण संस्थाओं या धार्मिक संस्थाओं को दान भी देती थीं। सांची स्तूप पर उत्कीर्ण लेख से पता चलता है कि इसके कलात्मक दरवाजों में से एक दरवाजा हाथी दांत का काम करने वाले शिल्पियों के संघ ने बनवाया था।

प्रश्न 18.
पाटलिपुत्र के उत्कर्ष व पतन के बारे में आप क्या जानते हैं? .
उत्तर:
यह अत्यंत उत्सुकता का विषय है कि पाटलिपुत्र का उत्कर्ष व पतन कैसे हुआ। पहले यह एक छोटा-सा गाँव था जो पाटलि के नाम से जाना जाता था। 5वीं सदी ई०पू० में मगध के शासकों ने यहाँ पर राजधानी बदली तथा इसका नाम पाटलिपुत्र कर दिया। चौथी सदी ई०पू० में यह मौर्य साम्राज्य की राजधानी रहा। इस काल में यह एशिया के सबसे बड़े नगरों में से एक था। बाद में इसका पराभव होने लगा। जब 7वीं सदी ई० में चीनी यात्री ह्यूनसांग ने इस स्थल का दौरा किया तो उसने यहाँ पर नगर के भग्नावशेष को देखा। उसने लिखा कि यहाँ पर बहुत कम लोग रह रहे थे। वर्तमान में यह नगर पटना के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 19.
मैगस्थनीज़ और उसकी पुस्तक इंडिका के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
मैगस्थनीज़ को फारस और बेबीलोन के यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में राजदूत बनाकर भेजा गया था। वह पाटलिपुत्र में 302 ई० पूर्व से 298 ई०पूर्व तक रहा। इसने भारत के सम्बन्ध में इंडिका नामक पुस्तक लिखी जो मौर्यकालीन भारत के सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विदेशी वृत्तांत है। इसमें उसने तत्कालीन भारत की प्राकृतिक स्थिति, मिट्टी, जलवायु, पशु-पौधे व शासन-प्रणाली तथा सामाजिक एवं धार्मिक अवस्था का विषद वर्णन किया है।

यद्यपि इस ग्रंथ में मैगस्थनीज़ ने कुछ बातें सुनी-सुनाई और अविश्वसनीय लिखी हैं, फिर भी ए०एल०बाशम का यह कथन उपयुक्त लगता है, “चाहे मैगस्थनीज़ का लेख उतना पूर्ण एवं यथार्थ नहीं जितना कि हम चाहते हैं, फिर भी इसका महत्त्व है क्योंकि यह एक विदेशी यात्री का भारत के बारे में प्रामाणिक एवं सम्बद्ध वृत्तांत है।” परन्तु दुर्भाग्यवश उसकी मूलकृति (इंडिका) उपलब्ध नहीं है। इसकी जानकारी हमें परवर्ती यूनानी लेखकों (स्ट्रेबो, डियोडोरस, प्लीनी ज्येष्ठ, एरियन, प्लूटार्क आदि) द्वारा अपनी पुस्तकों में दिए गए उद्धरणों से ही मिलती है।

प्रश्न 20.
प्राचीन काल में राजाओं द्वारा भूमि अनुदान क्यों किया जाता था?
उत्तर:
भारत में पहली सदी ई० से शासकों द्वारा भूमि अनुदान देने के प्रमाण मिलने शुरू हो जाते हैं। ये अनुदान धार्मिक संस्था, ब्राह्मणों, भिक्षुओं आदि को दिए जाते थे। इतिहासकारों का मानना है कि भूमि अनुदान अनेक कारणों से दिए गए जो निम्नलिखित अनुसार थे

  • कुछ का मानना है कि शासक अपने धर्म व संस्कृति का प्रसार कर राज्य का विस्तार तथा स्थायित्व चाहते थे।
  • शासक कृषि क्षेत्र का विस्तार करना चाहते थे।
  • इन भूमि अनुदानों से शासक स्थानीय प्रभावशाली और शक्तिशाली वर्ग का समर्थन प्राप्त करना चाहते थे।
  • एक अन्य विचार यह भी है कि शासक अपने आपको समाज के अन्य लोगों से श्रेष्ठ और उच्च मानवीय गुणों वाला दिखाना चाहते थे।

प्रश्न 21.
मौर्यकाल में सैन्य प्रबंध से जडी दूसरी उपसमिति का क्या कार्य था?
उत्तर:
यह उपसमिति यातायात और खानपान की व्यवस्था देखती थी। इसके लिए उसे निम्नलिखित कार्य करने पड़ते थे

  • सेना के हथियार ढोने के लिए बैलगाड़ियों की व्यवस्था करना।
  • सैनिकों के लिए भोजन तथा पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था करना।
  • सैनिकों की देखभाल के लिए सेवकों और शिल्पकारों की नियुक्ति करना।

प्रश्न 22.
राष्ट्रवादी इतिहासकारों के लिए अशोक प्रेरणा का स्रोत क्यों था?
उत्तर:
उपनिवेशिक काल में भारत में राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने इतिहास लिखते हुए अशोक को प्रेरणा का स्रोत माना। उनके सकों की तुलना में काफी शक्तिशाली और परिश्रमी था। उसके राज्य का आदर्श उच्च था। वह उन शासकों की अपेक्षा बहुत ही विनीत था, जो अपने नाम के साथ बड़ी-बड़ी उपाधियाँ लगाते थे। अशोक के इन्हीं गुणों के कारण उसे राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने प्रेरणा का स्रोत माना।

प्रश्न 23.
‘मौर्य साम्राज्य का उतना महत्त्व नहीं है जितना कि बताया गया है’ इसे स्पष्ट करते हुए तीन तर्क दीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने मौर्य साम्राज्य को अत्यधिक महत्त्व दिया है, परंतु कुछ इतिहासकारों ने इसको नकारा है। उन्होंने इसके लिए निम्नलिखित तर्क दिए हैं

  • मौर्य साम्राज्य केवल 150 वर्ष ही चला जो कोई बड़ा काल नहीं है।
  • मौर्य साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के सारे भागों पर फैला हुआ नहीं था।
  • साम्राज्य की सीमा में भी सभी भागों पर एक-सा नियंत्रण नहीं था।

प्रश्न 24.
भारतीय उपमहाद्वीप में छठी सदी ई०पू० में उदय होने वाले नगरों की कोई तीन विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारतीय उपमहाद्वीप पर छठी सदी ई०पू० में अनेक नगरों का उदय हुआ। इन नगरों की विशेषताएँ निम्नलिखित थीं

  • इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे।
  • प्रायः ये सभी नगर स्थल या नदी मार्गों पर बसे थे।
  • मथुरा जैसे नगर सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा व्यावसायिक गतिविधियों के केंद्र थे।

प्रश्न 25.
सरदार कौन होते थे? इनके क्या कार्य थे?
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद अनेक क्षेत्रों में शक्तिशाली सरदारों का उदय हुआ। इनका पद पैतृक भी हो सकता था और नहीं भी। ये सरदार विशेष धार्मिक अनुष्ठानों का संचालन करते थे। युद्ध के समय ये सेना का नेतृत्व करते थे। साथ ही विवादों को सलझाने में भी मध्यस्थ का काम करते थे। ये सरदार अपने अधीनस्थ लोगों से भेंट प्राप्त करते थे और उसका कछ भाग अपने समर्थकों में बाँटते थे।

प्रश्न 26.
‘छठी शताब्दी ई०पू० में उपमहाद्वीप में पनपे सभी नगर संचार मार्गों पर बसे हुए थे। उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
यह बात सही है कि इस काल में पनपे नगर संचार मार्गों पर बसे हुए थे। इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित अनुसार है

  • पाटलिपुत्र जैसे नगर नदी मार्ग के किनारे बसे थे।
  • उज्जैन जैसे कुछ नगर भू-तल मार्गों पर बसे थे।
  • पुहार जैसे नगर समुद्रतट पर समुद्री मार्ग पर स्थित थे।

प्रश्न 27.
प्रभावती कौन थी?
उत्तर:
प्रभावती गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त II (375-415 ई०) की पुत्री थी। उसका विवाह वाकाटक शासक से हुआ। प्रभावती के बारे में विशेष बात यह है कि उसने भूमि अनुदान दिया था जो किसी महिला द्वारा भूमिदान का विरला उदाहरण है।

प्रश्न 28.
‘पेरिप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी’ नामक पुस्तक किस बात पर प्रकाश डालती है?
उत्तर:
पेरिप्लस’ एक यूनानी शब्द है जिसका अर्थ है समुद्री रास्ता और ‘एरीथ्रियन’ शब्द का यूनानी में अर्थ है ‘लाल सागर’। इसका लेखक कोई यूनानी है। इस रचना में 80-115 ई० के मध्य रोम को निर्यात होने वाली व्यापारिक मदों का विवरण दिया गया है। इन मदों में भारत से निर्यात होने वाली वस्तुएँ थीं काली मिर्च, दाल-चीनी जैसे गर्म मसाले। इसके बदले में भारत में बहुमूल्य वस्तुएँ (पुखराज, मूंगे, हीरे, सोना आदि) आयात की जाती थीं।

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प्रश्न 29.
अशोक द्वारा धारण की गई दो उपाधियाँ कौन-सी थीं? उनका अर्थ भी बताइए।
उत्तर:
अशोक द्वारा धारण की गई दो उपाधियाँ निम्नलिखित थीं

  • देवानांपिय,
  • पियदस्सी। ‘देवानांपिय’ का अर्थ है-देवताओं का प्रिय तथा ‘प्रियदस्सी’ का अर्थ है-‘देखने में सुंदर’।

प्रश्न 30.
‘शिल्पादिकारम’ के विवरण से पता चलता है कि पांड्य सरदारों को लोग उपहार देते थे। स्पष्ट कीजिए कि लोग उपहार क्यों देते थे तथा ये सरदार उनका उपयोग किसलिए करते होंगे?
उत्तर:
शिल्पादिकारम् में विवरण मिलता है कि लोगों ने पांड्य सरदार को उपहार में अनेक वस्तुएँ (जैसे हाथीदाँत, शहद, चंदन, हल्दी, इलायची, काली मिर्च, बड़े नारियल, आम, फल, जानवरों व पक्षियों के बच्चे) दीं। लोगों का मानना था कि वे राजा के शासन में रह रहे थे। ये उपहार राजा का सम्मान करने के लिए दिए गए। सरदार इन उपहारों का उपयोग स्वयं करते होंगे अथवा इन्हें अपने समर्थकों के बीच बँटवा देते होंगे।

प्रश्न 31.
600 ई०पू० के बाद नद्री घाटियों और समुद्रतट पर विकसित हुए शहरों और कस्बों की सूची बनाइए। इन शहरों को हम भारत के शहरीकरण की अवस्था क्यों कहते हैं?
उत्तर:
इस काल में विकसित हुए नदी घाटियों तथा समुद्र तटीय नगरों के नाम निम्नलिखित प्रकार से हैं

  • नदी घाटियों में विकसित नए शहर थे-राजगृह, राजगीर, पाटलिपुत्र, उज्जयिनी, सारनाथ, वाराणसी, मथुरा, कन्नौज, तक्षशिला, सुवर्णगिरि, नालंदा आदि।
  • समुद्रतट पर विकसित हुए शहर थे-चंपा, पुहार, मालाबार, कोदूमनाल, भृगुकच्छ आदि।

हड़प्पा सभ्यता से जुड़े शहरों के पतन के बाद लगभग 1500 वर्षों तक भारत में नगरों का उल्लेख नहीं मिलता है। 1500 वर्षों के बाद नए नगर उत्तरी भारत व अन्य क्षेत्रों में विकसित हुए तो इन नगरों को इतिहासकारों ने भारत में शहरीकरण की दूसरी अवस्था का नाम दिया है।

प्रश्न 32.
मौर्योत्तर काल में कौन-कौन से प्रमुख शिल्प थे?
उत्तर:
मौर्योत्तर काल में वस्त्र बनाने, रेशम बुनने, अस्त्रों एवं विलासिता का निर्माण, लोहारों, धातु शिल्पियों, सुनार, रंगरेज (कपड़ा रंगना), दंत शिल्प, मूर्तिकार गंधियों इत्यादि के प्रमुख कार्य थे।

प्रश्न 33.
रेशम मार्ग किसे कहते हैं? भारत इससे कैसे जुड़ा था?
उत्तर:
चीन से रेशम रोमन साम्राज्य को भेजा जाता था। जिस मार्ग से रेशम चीन से रोमन साम्राज्य जाता था, वह मार्ग रेशम मार्ग (Silk Route) के नाम से जाना जाता था। यह मार्ग चीन से शुरु होकर मध्य एशिया से अफगानिस्तान और ईरान होता हुआ रोम साम्राज्य में पहुँचता था। ईरान से पार्थियन साम्राज्य की स्थापना होने से इस मार्ग में बाधा आई। तब यह रेशम मध्य एशिया से अफगानिस्तान और फिर भारत आकर पश्चिम बंदरगाहों से रोमन साम्राज्य को जाने लगा।

लघु-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अशोक के प्रमुख अभिलेखों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
देश में सबसे पुराने अभिलेख ईसा पूर्व तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख-स्तंभ लेख हैं। प्रमुख नगर या व्यापार मार्गों पर स्थित ये अभिलेख सारे भारतवर्ष में पाए गए हैं। अफगानिस्तान में ये अरामेइक और यूनानी लिपि में हैं। पाकिस्तान में खरोष्ठी लिपि में तथा शेष भारत में ब्राह्मी लिपि में हैं। अशोक के ये अभिलेख सामाजिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक राज्यादेशों या शासनादेश की श्रेणी में आते हैं। अशोक के प्रमुख अभिलेख निम्नलिखित हैं

1. चौदह वृहद् शिलालेख-बड़े-बड़े शिलाखंडों पर उत्कीर्ण शिलालेख दिए गए स्थानों पर मिले हैं-मानसेहरा (पाकिस्तान), कलसी (देहरादून, उत्तराखंड), गिरनार (गुजरात), शाहबाजगढ़ी (पाकिस्तान), सोपारा (महाराष्ट्र), धौली और जौगड़ (ओडिशा), मास्की और एरगुड़ि (आन्ध्र प्रदेश)।।

2. लघु शिलालेख-ये शिलालेख प्राप्त हुए हैं-रूपनाथ (जबलपुर, मध्यप्रदेश), गुजरो (दतिया, आंध्र प्रदेश)। इसकी महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसका प्रारंभ देवनाम् प्रियस अशोक राजस् शब्दों से हुआ है। सहसराम (शाहबाद, बिहार), मास्की (आन्ध्र प्रदेश), ब्रह्मगिरि (कर्नाटक), सिद्धपुर (ब्रह्मगिरि के पश्चिम में), अरहौरा (मिर्जापुर), दिल्ली, भाव-बैराट (राजस्थान)।

3. स्तम्भ लेख-ये छह स्थानों पर हैं-दिल्ली-टोपरा, दिल्ली-मेरठ, प्रयाग, रामपुरवा, लौरिया नंदनगढ़ व लौरिया अरराज। इनमें से प्रयाग स्तंभ लेख काफी महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें अशोक द्वारा संघ के नियम पालन के लिए भिक्षु-भिक्षुणियों को निर्देश हैं। इसी स्तंभ पर एक और लेख भी मिला है जिसमें अशोक की रानी कारूवारी के द्वारा बौद्ध संघ को दान का उल्लेख है। इसलिए इसको रानी अभिलेख (Queen Edict) भी कहा जाता है। इन अभिलेखों के अतिरिक्त बैराट, सारनाथ, सांची, कौशाम्बी में लघु स्तंभ लेख, धौली व जौगड़ में कलिंग शिलालेख भी प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 2.
अभिलेखों से ऐतिहासिक साक्ष्य किस प्रकार प्राप्त किए जाते हैं? अशोक के अभिलेखों से उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तर:
इतिहासकार और अभिलेखशास्त्री अभिलेखों से किस प्रकार साक्ष्य प्राप्त करते हैं तथा उन साक्ष्यों की सत्यता को स्थापित करने में उन्हें क्या-क्या समस्याएँ आती हैं? यह इतिहास पुनर्निर्माण की प्रक्रिया की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। अशोक के अभिलेखों में साक्ष्य प्राप्त करने व उससे जुड़ी समस्याओं के अध्ययन से इसको समझा जा सकता है। अशोक के अधिकांश शिलालेखों पर उसका नाम नहीं लिखा है।

इन अभिलेखों मैं केवल देवानांपिय (देवताओं का प्रिय) और पियदस्सी (प्रियदर्शी) का उल्लेख है। कुछ अभिलेखों में अशोक का नाम था तथा बौद्ध ग्रंथों में अशो गया था। अभिलेख शास्त्रियों ने शैली, भाषा और पुरालिपि विज्ञान के आधार पर परीक्षण कर निष्कर्ष निकाला कि ये अशोक की ही उपाधियाँ थीं तथा यह एक ही शासक था।

अशोक यह दावा करता है कि उससे पूर्व किसी शासक के द्वारा अपने राज्य में प्रतिवेदन (Reports) प्राप्त करने की व्यवस्था नहीं थी। क्या यह दावा ठीक है? क्या यह सत्य है कि उसके पूर्व के राजनीतिक इतिहास में यह व्यवस्था नहीं थी। अभिलेखों के परीक्षण से पता लगता है कि यह बात बढ़ा-चढ़ा कर कही गई है। अशोक के अभिलेखों में कोष्ठकों (Words Within brackets) में शब्द लिखे गए हैं। अभिलेखशास्त्री कभी-कभार इनके साथ कुछ शब्द जोड़कर इनका अर्थ निकालने का प्रयास करते हैं। परंतु साथ ही यह भी ध्यान में रखते हैं कि कहीं मौलिक अर्थ में परिवर्तन न आ जाए।

अशोक ने अपने अधिकांश अभिलेखों को किसी नगर या व्यापारिक मार्गों के समीप लगवाया। इसका क्या अर्थ निकाला जाए ? क्या सभी गुजरने वाले रुककर इन्हें पढ़ते थे। जबकि अधिकतर लोग अशिक्षित होंगे। क्या सारे उपमहाद्वीप पर प्राकृत भाषाओं को समझा जाता था? क्या सम्राट की आज्ञाओं का सभी लोग पालन करते थे। इन साक्ष्यों के आधार पर प्रश्नों के उत्तर जान पाना आसान नहीं है।

अशोक के अभिलेखों में एक अन्य समस्या उभरती है। अशोक अपने 13वें शिलालेख में कलिंग की विजय तथा उससे होने वाली वेदना का विवरण देता है। इससे युद्ध के प्रति उसके व्यवहार में परिवर्तन आया। उसने धम्म विजय का मार्ग अपनाया। परंतु यह स्थिति जटिल हो जाती है जब हम लेख के ऊपरी अर्थ को छोड़कर आगे बढ़ते हैं। दूसरा, उड़ीसा (ओडिशा) से प्राप्त हुए अभिलेखों में अशोक की वेदना का उल्लेख नहीं है। क्या इसका अर्थ यह है कि ये अभिलेख उस क्षेत्र में नहीं हैं जो जीता गया था या इसका अर्थ यह लिया जाए कि उस क्षेत्र में स्थिति अत्यधिक कष्टप्रद थी। अतः शासक उस मुद्दे को बता ही नहीं पाया।

प्रश्न 3.
मुद्राशास्त्र क्या है?
उत्तर:
सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (Numismatics) कहा जाता है। मुद्राशास्त्र में सिक्कों की बनावट, लिखावट, दृष्यांक आदि का अध्ययन किया जाता है। साथ ही उनमें प्रयोग की गई धातु तथा उनकी प्राप्ति के स्थान का भी विश्लेषण किया जाता है। पुरातात्विक सामग्री में सिक्कों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

शासकों की राज्य सीमा, राज्यकाल, आर्थिक स्थिति तथा धार्मिक विश्वासों के संबंध में सिक्के महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। इनसे सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व की जानकारी भी प्राप्त होती है। मुद्रा प्रणाली का आरंभ मानव की आर्थिक प्रगति का प्रतीक है। मुद्राशास्त्रियों ने इनका अध्ययन कर प्रमुख राजवंशों के सिक्कों की सूचियाँ तैयार की हैं।

भारत में सबसे पहले छठी सदी ई०पू० में चाँदी व ताँबे के आहत सिक्के प्रयोग में आए। पूरे महाद्वीप में खुदाई के दौरान सिक्के मिले हैं। मौर्य काल में सिक्के जारी किए गए। हिंदू-यूनानी शासकों ने सिक्कों पर प्रतियाँ और नाम लिखवाया। कुषाण शासकों ने सोने के सिक्के जारी किए। दक्षिण भारत में भी शासकों ने सिक्के जारी किए। वहाँ से रोमन सिक्के भी मिले हैं। बड़े पैमाने पर गुप्त शासकों के सोने के सिक्के मिले हैं। ये सिक्के काफी भव्य हैं। भारत के अनेक संग्रहालयों (कोलकाता, पटना, लखनऊ, दिल्ली, मुंबई, चेन्नई आदि) में ये सिक्के सुरक्षित हैं।

प्रश्न 4.
हिन्द-यूनानी व कुषाण सिक्कों की जानकारी दें।
उत्तर:
यूनानी प्रभाव के अन्तर्गत हिन्द-यूनानी शासकों ने मौर्योत्तर काल (लगभग दूसरी सदी ई०पू०) में पहली बार इतने बड़े सिक्के जारी किए जिन पर शासक का नाम तथा चित्र बने थे। इन सिक्कों से यह स्पष्ट था कि ये सिक्के किन-किन राजाओं के हैं। मिनांडर के सिक्के बड़ी मात्रा में पाए गए हैं। मौर्योत्तर काल में कुषाण शासक व्यापार और वाणिज्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
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उनका साम्राज्य मध्य एशिया से मध्य भारत तक फैला हुआ था। मध्य एशिया के व्यापार मार्गों पर इनका नियंत्रण था। उल्लेखनीय है कि कुषाण शासकों ने पहली बार नियमित रूप से सोने के सिक्के चलाए। कुषाणों के चाँदी के सिक्के नहीं मिलते। संभवतः यूनानियों और शकों के चाँदी के सिक्के कुषाण साम्राज्य में बिना रोक-टोक चलते थे।
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कुषाणों के सिक्कों तथा समकालीन रोमन सिक्कों के वजन में समानता पाई गई है। रोमन और पार्थियन सिक्के उत्तरी और मध्य भारत में अनेक स्थलों से प्राप्त हुए हैं। अधिकांश रोमन सिक्के सोने और चाँदी के हैं।

प्रश्न 5.
महाजनपदों की आय के स्रोतों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
प्रत्येक महाजनपद की अपनी राजधानी (Capital) थी जिसकी किलेबंदी की जाती थी। राज्य को किलेबंद शहर, सेना और नौकरशाही के लिए आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता होती थी। धन के अभाव में राज्य की व्यवस्था का सच पाना कठिन था। तत्कालीन धर्मशास्त्रों में इस संबंध में अनेक उल्लेख पाए गए हैं। इस काल में रचित इन धर्मशास्त्रों में शासक तथा लोगों के लिए नियमों का निर्धारण किया गया है।

इन शास्त्रों में राजा को यह सलाह दी गई कि वह कृषकों, व्यापारियों और दस्तकारों से कर तथा अधिकार (Tribute) प्राप्त करे। किन्तु हमें इस बात की जानकारी नहीं मिलती कि राजा वनवासी और पशुचारी समुदायों से भी धन वसूलते थे या नहीं। हाँ पड़ोसी राज्य पर हमला कर धन लूटना या प्राप्त करना वैध (Legitimate) उपाय बताया गया। धीरे-धीरे इनमें से कई राज्यों ने स्थायी सेना और नौकरशाही तंत्र का गठन कर लिया था परंतु कुछ राज्य अभी भी अस्थायी थे।

प्रश्न 6.
मौर्य साम्राज्य के महत्त्व पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य का भारतीय इतिहास में अत्यधिक महत्त्व है। मौर्य साम्राज्य भारतीय इतिहास का पहला ऐतिहासिक साम्राज्य था जो लगभग 150 वर्षों (321 ई०पू० से 185 ई०पू०) तक अस्तित्व में रहा। इस काल की राजनीतिक और भौतिक-सांस्कृतिक उपलब्धियों को लेकर इतिहासकारों के विचारों को निम्नलिखित दो प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है

(1) 19वीं सदी में भारत के इतिहासकारों ने जब अपने प्रारंभिक इतिहास का पुनर्निर्माण शुरू किया तो उन्होंने मौर्य साम्राज्य के उदय को महत्त्वपूर्ण सीमा रेखा (land mark) स्वीकारा। 19वीं तथा 20वीं सदी के राष्ट्रवादी इतिहासकार यह संभावना देखकर भाव-विभोर हो उठे कि प्रारंभिक भारत में एक इतने महत्त्वपूर्ण साम्राज्य का जन्म हुआ था। पुरातात्विक प्रमाणों से भी साम्राज्य की पाषाण मूर्तियों का पता लगा कि वे मूर्तियाँ कला के अद्भुत नमूने थीं। इस काल में शिल्पकला का चरम विकास हुआ। इस काल अशोक के पाषाण स्तंभों में सारनाथ का स्तम्भ सर्वाधिक सुंदर नमूना है।

इसमें परस्पर पीठ सटाए बैठे चार शेरों की आकृतियाँ हैं। शीर्ष के नीचे गोलाई पर हाथी, बैल, सिंह व घोड़े की दौड़ती हुई आकृतियाँ हैं। इनके बीच-बीच में चार धर्म-चक्र उत्कीर्ण किए हुए हैं जो बौद्ध धर्म के धर्म-चक्र प्रवर्तन के प्रतीक रूप हैं। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र ने इस सारनाथ स्तंभ के शीर्ष को राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न स्वीकार किया है। इतिहासकारों को यह जानकर भी सुखानुभूति हुई कि अशोक के अभिलेखों के संदेश दूसरे शासकों के आदेशों के बिल्कुल भिन्न थे।

ये अभिलेख उन्हें बताते थे कि अशोक बहुत ही शक्तिशाली तथा मेहनती सम्राट था जो विनम्रता से (बिना बड़ी-बड़ी उपाधियों को धारण किए) जनता को पुत्रवत मानकर उनके नैतिक उत्थान में लगा रहा। इस प्रकार इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इन इतिहासकारों ने अशोक को प्रेरणादायक व्यक्तित्व स्वीकारा तथा मौर्य साम्राज्य को अत्यधिक महत्त्व दिया।

(2) स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के भारतीय इतिहासकार मौर्य साम्राज्य के प्रति राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से थोड़ा अलग मत रखते हैं। वे राष्ट्रवादी इतिहासकारों की महिमामण्डन करने वाली शैली से सहमत नहीं हैं। उनका मत है कि मौर्य साम्राज्य दीर्घकाल तक जीवित नहीं रहा। यह उपमहाद्वीप के इतिहास में लगभग 150 वर्षों तक रहा जो कोई लंबा काल नहीं है। इसके अतिरिक्त इस साम्राज्य में उपमहाद्वीप के संपूर्ण क्षेत्र शामिल नहीं थे। यहाँ तक कि मौर्य साम्राज्य की सीमाओं के भीतर भी साम्राज्य के सारे हिस्सों . पर केंद्रीय सत्ता का पूर्ण नियंत्रण नहीं था। फलतः दूसरी सदी ई०पू० में भारत के अनेक भागों में नए-नए राजवंश तथा राज्य अस्तित्व में आने लगे थे।

प्रश्न 7.
पाटलिपुत्र के प्रशासन पर मैगस्थनीज़ के विवरण का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मैगस्थनीज़ ने पाटलिपुत्र के प्रशासन का काफी विस्तृत विवरण दिया है। नगर प्रशासन चलाने के लिए अलग से अधिकारी वर्ग होता था। नगर का सर्वोच्च अधिकारी नागरक अथवा नगराध्यक्ष कहलाता था। नगर में आधुनिक मजिस्ट्रेट का कार्य नगर व्यवहारक महामत करता था। उसके अनुसार नगर का प्रशासन 30 सदस्यों की एक परिषद् करती थी, जो 6 उपसमितियों में विभाजित थी। प्रत्येक समिति में 5-5 सदस्य थे।

1. पहली समिति-यह शिल्प उद्योगों का निरीक्षण करती थी एवं शिल्पकारों के अधिकारों की रक्षा भी करती थी।

2. दसरी समिति-यह विदेशी अतिथियों का सत्कार. उनके आवास का प्रबंध तथा उनकी गतिविधियों पर नजर रखने का क करती थी। उनकी चिकित्सा का प्रबंध भी करती थी।

3. तीसरी समिति-यह जनगणना तथा कर निर्धारण के लिए, जन्म-मृत्यु का ब्यौरा रखती थी।

4. चौथी समिति-यह व्यापार की देखभाल करती थी। इसका मुख्य काम तौल के बट्टों तथा माप के पैमानों का निरीक्षण तथा सार्वजनिक बिक्री का आयोजन यानी बाजार लगवाना था।

5. पाँचवीं समिति-यह कारखानों और घरों में बनाई गई वस्तुओं के विक्रय का निरीक्षण करती थी। विशेषतः यह ध्यान रखती थी कि व्यापारी नई और पुरानी वस्तुओं को मिलाकर न बेचें। ऐसा करने पर दण्ड की व्यवस्था थी।

6. छठी समिति-इसका कार्य बिक्री कर वसूलना था। जो वस्तु जिस कीमत पर बेची जाती थी, उसका दसवां भाग बिक्री कर के रूप में दुकानदार से वसूला जाता था। यह कर न देने पर मृत्युदण्ड की व्यवस्था थी।

प्रश्न 8.
भूमि अनुदान के फलस्वरूप ग्रामों में उभरे नए संभ्रांत वर्ग कौन-से थे?
उत्तर:
भारत में प्रथम सदी ई० से भूमि अनुदान दिए जाने के प्रमाण मिलने लगते हैं। राजा या बड़े व्यक्तियों द्वारा धार्मिक महत्त्व की संस्था या व्यक्तियों को भूमि अनुदान के साथ-साथ प्रमाण के रूप में दिए गए पत्र को भूमि अनुदान पत्र कहा जाता था। इनमें से कुछ अनुदान पत्र पाषाण पर खुदे हुए हैं तथापि अधिकांश अनुदान पत्र हमें ताम्रपत्रों पर उपलब्ध होते हैं। प्रारंभ में ऐसे भूमि अनुदान पत्र मुख्य रूप से ब्राह्मणों या धार्मिक संस्थाओं; जैसे मंदिर, मठ, विहार आदि को दिए गए। बाद में राजकीय अधिकारियों तथा सेना के अधिकारियों की भी भूमि अनुदान प्रथा शुरू हुई।

प्रारंभ में ये अनुदान पत्र संस्कृत भाषा में प्राप्त होते थे बाद में स्थानीय भाषाओं; जैसे तमिल, तेलुगू आदि में भी मिलने लगे। विभिन्न शासकों द्वारा अनुदान पत्र (Land Grants by Different Rulers) मौर्यकाल में कौटिल्य ने लिखा है कि राजा ब्राह्मणों, राज्याधिकारियों, राजकुमारों, रानियों, सेना की टुकड़ी रखने के बदले जमींदारों को भूमि अनुदान कर सकता है।

सातवाहन शासक वासिष्ठी पुत्र पुलाभावी ने गुफा में रहने वाले भिक्षुओं को गाँव अनुदान किया तथा अनुदान पत्र प्रदान किया। साथ ही इस अनुदान पत्र में यह आदेश था कि राजकीय कर्मचारी या पुलिस इस गाँव में प्रवेश न करे। परंतु राजा ऐसे अनुदान को रद्द भी कर सकता था। गौतमी पुत्र सातकर्णी ने भी भूमि अनुदान की। नासिक अभिलेख में भी ऐसा उल्लेख मिलता है कि अनुदान में दिए गए गाँव में कोई सरकारी अधिकारी प्रवेश नहीं करेगा तथा कोई भिक्षुओं को नहीं छुएगा।

गुप्तकाल में अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सम्राटों ने धार्मिक कार्यों या परोपकार के लिए अनेक गाँव अनुदान में दिए। सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त द्वारा दिए अनुदान पत्र का विवरण हमें प्राप्त होता है। प्रभावती ने अभिलेख में ग्राम कुटुंबिनों (गृहस्थ और कृषक), ब्राह्मणों और दंगुन गाँव के अन्य निवासियों को स्पष्ट आदेश दिया। उस समय गाँवों में अनेक वस्तुओं का उत्पादन होता था। ग्रामों में अन्न उत्पादन के अलावा घास, जानवरों की खाल व कोयला प्राप्त होता था। मदिरा, नमक, खनिज पदार्थ, फल-फूल, दूध आदि भी गाँवों के उत्पादों में मुख्य थे। सरकार इन सबको प्राप्त करने का अधिकार अग्रहार ग्रामों (अनुदानित ग्रामों) में अनुदान प्राप्तकर्ता को दे देती थी।

भूमि अनुदान से स्पष्ट है कि गाँवों में भूमि अनुदान प्राप्त नया वर्ग उभर रहा था। अनुदान पत्र में उल्लेख होता था कि किस व्यक्ति को अनुदान दिया गया है तथा उसे क्या-क्या अधिकार प्राप्त होंगे। गाँवों के लोगों को नए प्रधान (अनुदान प्राप्तकत्ता) के आदेशों के पालन की हिदायत होती थी। गाँव के लोगों को सरकार को दिए जाने वाले कर और अन्य भेंटें अब अनुदान प्राप्तकर्ता को देनी होती थीं। ये ब्राह्मण अपनी इच्छा से गाँवों के लोगों से करों की वसूली भी करते थे। अतः स्पष्ट है प्राप्तकर्ताओं का विशिष्ट वर्ग उभरकर आ रहा था।

प्रश्न 9.
क्षेत्रीय राज्य या महाजनपदों के उदय के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ क्या थी? 16 महाजनपदों के नाम बताइए।
उत्तर:
छठी सदी ई.पू. के काल को प्रारंभिक भारतीय इतिहास में अति महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस काल में भारत में व्यापक आर्थिक परिवर्तनों का दौर शुरु हुआ जिसने प्रारंभिक क्षेत्रीय राज्यों या 16 महाजनपदों के उदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कृषि के क्षेत्र का विस्तार हुआ। कृषि उत्पादन के तरीकों में परिवर्तन आया। इसमें धान की रोपण. विधि मुख्य थी जिससे उत्पादन में वृद्धि हुई। कृषि में लोहे का प्रयोग बढ़ा।

साथ-ही-साथ नगरों की स्थापना हुई। नगरों में शिल्पसंघों (श्रेणी प्रणाली) और व्यापारी वर्ग का उदय हुआ। मुद्रा का प्रसार हुआ। व्यापार व वाणिज्य का प्रसार हुआ। इन आर्थिक परिवर्तनों ने महाजनपदों के उदय की पृष्ठभूमि तैयार की।

अब राजा अपने सैन्य और प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए किसानों से उपज का हिस्सा एकत्र कर सकते थे अर्थात् राज्य की आय बढ़ी। इसका यह अर्थ है कि राजा की शक्ति बढ़ी। अब राजा बढ़ी हई आय तथा लोहे के शस्त्रों से जनपद का विस्तार कर सकता था। वस्तुतः यह काल प्रारंभिक राज्यों के उदय का काल था। अब क्षेत्रीय भावनाएँ प्रबल हुईं। लोगों का जो लगाव जन या कबीले से था, वह पहले अपने गाँव-घर से हुआ और बाद में अपने जनपद (अर्थात् जहाँ पर जन ने अपना पाँव रखा बस गया।) से हुआ। धीरे-धीरे यह जनपद ही अपना क्षेत्र विस्तार करके महाजनपदों में बदल गए।

छठी सदी ई० पू० में उदय हुए बौद्ध तथा जैन मत के ग्रंथों में हमें 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। बौद्ध ग्रंथ अंग्रतर निकाय में हमें राज्यों के नामों का उल्लेख इस प्रकार मिलता है(i) अंग, (ii) मगध, (ii) काशी, (iv) कोशल, (v) वज्जि, (vi) मल्ल, (vii) चेदि (चेटी), (viii) वत्स, (ix) कुरू, (x) पांचाल, (xi) मत्स्य, (xii) शूरसेन, (xiii) अश्मक, (xiv) अवन्ति, (v) गांधार, (xvi) कंबोज।

प्रश्न 10.
मगध जनपद की शक्ति के उत्कर्ष में सहायक कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
छठी शताब्दी ई०पू० से चौथी शताब्दी ई०पू० के मध्य में 16 महाजनपदों में से मगध महाजनपद सबसे शक्तिशाली होकर उभरा। आधुनिक इतिहासकारों द्वारा मगध की शक्ति के उत्कर्ष के संबंध में विभिन्न व्याख्याएँ प्रस्तुत की जाती हैं। संक्षेप में मगध के उत्कर्ष के कारणों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. मगध की भौगोलिक अवस्था मगध के उत्थान में वहाँ की भौगोलिक स्थिति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसकी दोनों राजधानियाँ राजगृह व पाटलिपुत्र, सामरिक दृष्टिकोण से पूरी तरह सुरक्षित थीं। राजगृह चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ था। इन पहाड़ियों की चारदीवारी को तोड़कर शत्रु का इसमें प्रवेश कठिन था। इसी तरह से पाटलिपुत्र भी सुरक्षित थी। इसके चारों ओर की नदियों गंगा, गंडक व सोन ने इसे जलदुर्ग बना दिया था।

2. मगध की आर्थिक दशा-जहाँ मगध की भौगोलिक स्थिति ने उसे आक्रमणकारियों से सुरक्षित बनाया, वहीं इसने वहाँ की आर्थिक स्थिति को भी सम्पन्न किया, जिसके बल पर मगध का उत्थान हुआ। मगध की उपयुक्त जलवायु ने उसे उपजाऊ बनाया। यहाँ पर्याप्त मात्रा में वर्षा होती थी जिससे भूमि में उत्पादन अधिक होता था। इसके अतिरिक्त उत्पादन ने उद्योग-धंधों व वाणिज्य का विकास किया।

इस विकास के कारण नगरों का उत्थान हुआ। कृषि, व्यापार व उद्योग के उन्नत होने से राज्य की आय बढ़ी। इस आर्थिक सम्पन्नता ने मगध शासकों को अधिक स्थायी सेना रखने की स्थिति में ला दिया, जिससे वे साम्राज्यवादी नीति को अपना सकें।

3. लोहे के विशाल भण्डार-मगध के साम्राज्य विस्तार में लोहे की खानों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण थी। लोहे की अच्छी खानों (आधुनिक झारखंड) से उन्हें पर्याप्त मात्रा में लोहा प्राप्त हुआ। इस लोहे से उन्नत किस्म के शस्त्र बनाए जा सकें तथा खेती का विस्तार हो सका। अपने उत्तम शस्त्रों के प्रयोग से मगध अपने शत्रुओं को सरलता से पराजित कर पाया।

4. मगध की सैन्य व्यवस्था मगध के शासकों ने सैन्य व्यवस्था की ओर विशेष ध्यान दिया। मगध के शासकों ने अपनी सेना में हाथियों को शामिल किया। मगध के साम्राज्य में बहुत से जंगल थे, जहाँ हाथी पाए जाते थे। दलदली भूमि पर घोड़े की तुलना में हाथी की उपयोगिता अधिक कारगर थी। दुर्गों को भेदने का काम भी केवल हाथी ही कर सकते थे।

5. मगध के शासकों की भूमिका-मगध के उत्थान में उसके शासकों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण थी। मगध में एक के बाद अनेक शक्तिशाली शासक हुए। ये शासक महत्त्वाकांक्षी, योग्य व साहसी थे जिन्होंने अपने सैन्य कार्यों व कूटनीति के आधार पर अपने साम्राज्य की सीमा का विस्तार किया। इस साम्राज्य की नींव बिम्बिसार द्वारा डाली गई। अजातशत्रु जैसे शासकों ने इसका प्रभाव आस-पास के क्षेत्रों में बनाया। उदय भद्र, शिशुनाग व महापद्मनन्द जैसे शासकों ने इसका खुलकर साम्राज्य विस्तार किया।

प्रश्न 11.
अशोक का धम्म क्या था? इसके कोई पाँच सिद्धांत लिखिए।
उत्तर:
1. अर्थ-अशोक ने प्रजा में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना पैदा करने का प्रयास किया। सामूहिक रूप से उसकी इसी नीति को धम्म कहा गया है। धम्म का अर्थ स्पष्ट करने के लिए एक स्तंभ लेख में अशोक स्वयं प्रश्न करता है कि ‘कियं चु धम्मे’ (अर्थात् धम्म क्या है) फिर उत्तर देता है, ‘अपासिनवे, बहुकथाने, दया, दान सोचये’ अर्थात् पाप-रहित होना (अपासिनवे), बहुत-से कल्याणकारी कार्य करना (बहुकथाने), प्राणियों पर दया करना, दान देना, सत्यता और शुद्ध कर्म ही धम्म है।

2. सिद्धांत-
1. सहिष्णुता-यह अशोक के धम्म का प्रमुख सिद्धांत है। इसका आधार ‘वाणी पर नियन्त्रण’ है। मनुष्य को अवसर के महत्त्व को देखकर बात करनी चाहिए। अपने स्वयं के धर्म की भी अत्यधिक प्रशंसा तथा दूसरों के प्रति मौन रहने से भी तनाव ही बढ़ता है। मनुष्य को दूसरे आदमी के सम्प्रदाय का आदर भी करना चाहिए। ऐसा करने से उसके अपने धर्म का प्रभाव कम नहीं होगा, बल्कि बढ़ेगा। इसी से सहनशीलता की भावना पैदा होगी। वह कहता है कि सर्वत्र सभी धर्म वाले एक-साथ निवास करें।

2. अहिंसा-धम्म का दूसरा बुनियादी सिद्धान्त अहिंसा था। इसके मुख्यतः दो पहलू थे-पहला इसके अन्तर्गत पशु-पक्षियों के वध पर रोक लगाई गई। सम्राट ने राजमहल में भी भोजन के लिए प्रतिदिन दो मोर तथा एक मृग के अतिरिक्त अन्य पशु-पक्षियों की हत्या पर रोक लगा दी थी। अहिंसा का दूसरा पहलू हिंसात्मक युद्धों (भेरिघोष) को त्यागकर धम्म विजय (धम्मघोष) अपनाना था। वृहद् शिलालेख XIII में उसने कलिंग युद्ध के दौरान हुई विनाशलीला का बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। वह अपने उत्तराधिकारियों (पुत्र अथवा प्रपौत्र) को भी युद्ध न लड़ने की सलाह देता है।

3. आत्मनिरीक्षण-अशोक ने आत्मनिरीक्षण के सिद्धान्त पर बल दिया है। इसके अनुसार मनुष्य को अच्छाइयों के साथ-साथ स्वयं की कमजोरियों अथवा कुप्रवृत्तियों (आसिनवों) का ज्ञान होना चाहिए। उग्रता, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष तथा निष्ठुरता जैसी इन बुराइयों का पता आत्म-परीक्षण से ही लग सकता है, जिसमें वह निरन्तर प्रयास करके धीरे-धीरे मुक्त हो सकता है और पाप-रहित जीवन व्यतीत कर सकता है।

4. बड़ों का आदर-अशोक के धम्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने से बड़ों का आदर (अपरिचित) करना चाहिए। बच्चों को माता और पिता की आज्ञा माननी चाहिए। उनकी भावनाओं का आदर करना चाहिए। इसी प्रकार शिष्यों को अपने गुरुजनों का आदर करना चाहिए तथा सभी को ब्राह्मणों व ऋषियों के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए।

5. छोटों के प्रति प्रेम भाव-धम्म का एक अन्य मुख्य सिद्धान्त यह था कि बड़ों को छोटों के साथ और स्वामी को सेवकों के साथ दया व प्रेमपूर्ण का व्यवहार (सम्प्रतिपति) करना चाहिए। उसने दासों, सेवकों तथा आश्रितों के प्रति विशेष तौर पर अच्छा व्यवहार करने का आदेश दिया।

HBSE 12th Class history Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

प्रश्न 12.
क्या सारे मौर्य साम्राज्य के सभी क्षेत्रों में एकरूप प्रशासन प्रणाली विद्यमान थी?
उत्तर:
यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या मौर्य साम्राज्य के सभी क्षेत्रों में एकरूप प्रशासन प्रणाली विद्यमान थी। आर्थिक आवश्यकताओं ने संभवतः मौर्य साम्राज्य के सभी क्षेत्रों में एक-जैसी प्रशासनिक व्यवस्था पैदा कर दी। अशोक के अभिलेख साम्राज्य के सभी भागों में फैले हुए थे। इनमें एक-जैसे सन्देश उत्कीर्ण थे। क्या इसका अर्थ यह लिया जाए कि इतने विशाल साम्राज्य में एक रूप प्रशासन व्यवस्था पनप गई थी।

आवागमन व संचार के साधनों के विकसित अवस्था में होने पर भी क्या साम्राज्य के सभी भागों पर पूर्ण तथा एक रूप नियंत्रण था। वर्तमान में अधिकांश इतिहासकारों का मत है कि साम्राज्य की विशालता और इसमें शामिल प्रदेशों की विविधताओं को देखते हुए यह एकरूपता संभव प्रतीत नहीं होती। उदाहरण के लिए साम्राज्य में अफगानिस्तान के पहाड़ी क्षेत्र, उत्तरी मैदान, उड़ीसा के तटवर्ती क्षेत्र व दक्षिण में कर्नाटक जैसे दूरवर्ती क्षेत्र थे।

ऐसी स्थिति में इतिहासकार रोमिला थापर के शब्दों में, स्थानीय स्तरों पर साम्राज्य के सभी भागों में एकरूप प्रशासन होना अनिवार्य नहीं है। संभवतः सर्वाधिक प्रबल प्रशासनिक नियंत्रण पाटलिपुत्र (साम्राज्य की राजधानी) तथा उसके निकटवर्ती प्रांतीय केंद्रों पर ही रहा होगा। इन प्रांतीय केंद्रों का भी बड़ी सूझबूझ से चुनाव किया गया होगा। उदाहरण के लिए उज्जैन एवं तक्षशिला लम्बी दूरी के व्यापार मार्गों पर स्थित थे।

इसी प्रकार दक्षिणी प्रांत की राजधानी सुवर्णगिरी (सोने की पहाड़ी) कर्नाटक में सोने की खदानों की दृष्टि से. महत्त्वपूर्ण थी। नियंत्रण तथा प्रशासन में एकरूपता की दृष्टि से साम्राज्य क्षेत्रों को तीन भागों में बाँटकर देखा जाता है साम्राज्य का नाभिकीय (केंद्रीय) क्षेत्र-यह केंद्रीय प्रदेश था। इसमें मगध क्षेत्र, यानि मुख्यतः गंगा घाटी और उसके आस-पास के इलाकों से लेकर विंध्य पर्वत के उत्तर तक भू-भाग शामिल था। साम्राज्य के इस भाग में प्रशासन पूर्ण रूप से लगभग वैसा ही था जैसा कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ और मैगस्थनीज़ ने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में बताया है।

(i) विजित समृद्ध क्षेत्र-यह मगध क्षेत्र से बाहर मौर्य शासकों द्वारा जीता हुआ क्षेत्र था। इसमें मुख्यतः उत्तर:पश्चिमी तथा कलिंग का भू-भाग शामिल था। संसाधनों (उपजाऊ भूमि) की दृष्टि से यह समृद्ध भू-भाग था। ऐसे क्षेत्रों में प्रशासन का प्रबंध राजा का प्रतिनिधि (Governor) यानि कुमार करता था। यहाँ प्रशासन मोटे रूप में केंद्रीय क्षेत्र के प्रशासन से मिलता-जुलता था, परन्तु पूरी तरह से समरूप (Identical) नहीं था।

(1) सीमांत राज्य क्षेत्र-ऐसे क्षेत्रों को प्राचीन साहित्य में प्रयन्त कहा गया है। इस क्षेत्र में मौर्य साम्राज्य का व्यवहार में प्रत्यक्ष नियंत्रण भूमि से उस गलियारे तक सीमित था जहाँ से महत्त्वपूर्ण मार्ग गुजरते थे या कीमती कच्ची धातुओं के भंडार थे। इसका उदाहरण दक्कन प्रायद्वीप है। यहाँ मौर्यों का प्रत्यक्ष नियंत्रण कर्नाटक क्षेत्र में कोलार की सोने की खानों वाले क्षेत्र में था या फिर दक्षिण की ओर जाने वाले पूर्वी और पश्चिमी तटीय मार्गों पर था। स्पष्ट है कि साम्राज्य के सभी क्षेत्रों में समरूप प्रशासन प्रणाली नहीं थी।

प्रश्न 13.
मौर्य साम्राज्य के पतन के कोई चार कारण लिखिए।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य का भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्व है। यह भारत का पहला शक्तिशाली साम्राज्य था जिसने देश के एक बड़े भाग पर लगभग 150 वर्षों तक शासन किया। परन्तु धीरे-धीरे मौर्य साम्राज्य की नींव कमजोर पड़ने लगी तथा उसका पतन हो गया। मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है

1. विशाल साम्राज्य– सम्राट अशोक ने अपने शासनकाल में मौर्य साम्राज्य का बहुत अधिक विस्तार किया। इस विशालकाय साम्राज्य की प्रशासन-व्यवस्था संभालना प्रत्येक शासक के बस की बात नहीं थी। परिणामस्वरूप अशोक की मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य नियंत्रण से बाहर हो गया।

2. अयोग्य तथा निर्बल प्रशासक मौर्य साम्राज्य के नवीन शासक अपने पूर्वजों की भांति योग्य तथा शक्तिशाली नहीं थे। ये सभी शासक विस्तृत मौर्य साम्राज्य पर पकड़ बनाए न रख सके। साथ ही उनमें कुशल प्रशासन का गुण नहीं था। परिणामस्वरूप मौर्य साम्राज्य का पतन होने लगा।

3. बाहरी हमले-विदेशी हमलावर मानो मौर्य साम्राज्य के कमजोर होने की राह देख रहे थे। उन्होंने अवसर का लाभ उठाया और मौर्य सीमाओं पर हमले करने शुरू कर दिए। इन हमलों में मौर्य साम्राज्य की प्रशासन-व्यवस्था को भारी ठेस पहुँचाई।

4. खराब आर्थिक स्थिति मौर्य साम्राज्य जो पूर्व में धन-संपदा से परिपूर्ण एक साम्राज्य था धीरे-धीरे धन के अभाव से ग्रस्त हो गया। सम्राट अशोक ने हृदय परिवर्तन के पश्चात हृदय खोलकर दान-दक्षिणा दी तथा कई भव्य निर्माण कार्य करवाए। इसका सीधा असर राजकोष पर पड़ा। खराब आर्थिक स्थिति में प्रशासनिक कार्यों का संचालन असंभव हो गया था।

प्रश्न 14.
सुदूर दक्षिण के तीन राज्यों (चेर, चोल व पांड्य) की संक्षिप्त जानकारी दें।।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद दक्षिण तथा सुदूर दक्षिण में कई. नए राज्यों का उदय हुआ। इन राज्यों को सरदारियों (Chiefdoms) के नाम से भी जाना जाता है। राज्य के मुखिया को सरदार या राजा कहा जाता था। सुदूर दक्षिण में इस काल में तीन राज्यों का उदय हुआ। यह क्षेत्र तमिलकम् (इसमें आधुनिक तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश व केरल के भाग शामिल थे) कहलाता था। तीन राज्यों के नाम हैं-चोल, चेर और पाण्ड्य दक्षिण के ये राज्य संपन्न थे तथा लंबे समय तक अस्तित्व में रहे।

1. चेर-उदियन जेरल पहला प्रमुख शासक था। इसका पुत्र नेदुनजेरल आदन प्रतापी शासक था। उसने अनेक युद्धों में भाग लिया तथा अपना अधिकतर जीवन युद्ध शिविरों में बिताया। कहते हैं कि उसने सात राजाओं को हराकर ‘अधिराज’ की उपाधि धारण की।

उसे इमयवरम्बन (Imayavarmban) (हिमालय तक सीमा वाला) भी कहा जाता है। शेनगुटुवन (धर्मपरायण कुटूवन) एक वीर और सबसे महान शासक बताया गया है। उसके पास एक शक्तिशाली बेड़ा था। यह लाल चेर के नाम से भी प्रसिद्ध था। वह संगम कवि परणार का समकालीन था। परणार ने उसके उत्तर भारतीय विजय अभियान का वर्णन किया है। शेनगुटुवन का सौतेला भाई तथा उसका उत्तराधिकारी पेरुंजेरल आदन था। पेरूंजेरल चोल शासक कारिकल का समकालीन था।

2. चोल-दक्षिण के प्राचीनतम शासक राजवंशों में से चोल प्रमुख हैं। चोल राज्य तोण्डेमण्डलम् या चोल मण्डलम् के नाम से जाने जाते हैं। इसकी राजधानी तिरुचिरापल्ली जिले में उरैयूर थी। बाद में इसकी राजधानी पुहार बनी। पुहार को कावेरी पत्तनम् के नाम से भी जाना जाता है। कारिकाल-प्रारम्भिक चोल शासकों में कारिकाल सबसे प्रसिद्ध है। कारिकाल का अर्थ ‘जले हुए पैर वाला व्यक्ति’ होता है।

किंवदन्ती है कि बचपन में ही उसका अपहरण करके उसके शत्रुओं ने उसे बन्दी बना लिया था और बाद में कारागार में आग लगा दी थी। कहते हैं कि जब कारिकाल आग से निकलकर भाग रहा था तो उसका पैर झुलस गया। इस कारण उसे कारिकाल के नाम से जाना गया। उसके नाम के सम्बन्ध में अन्य व्याख्या कलिका काल (Death to Kali) अथवा शत्रु के हाथियों का काल (Death of Enemy Elephant) भी दी जाती है। कारिकाल के बाद गृहयुद्ध के कारण इसका पतन हो गया।

3. पाण्ड्य पाण्ड्य भी दक्षिण भारत के इतिहास में प्राचीनतम शासक राजवंशों में से एक थे। उनकी राजधानी मदुराई में तमिल कवियों तथा तमिल भाट कवियों की बड़ी सभाओं (संगमों) का आयोजन हुआ था। प्रथम पाण्ड्य शासक नेडियोन था। इसके बाद पाण्ड्य शासक पल्लशालई मुदृकडुमी था। इसे प्रथम ऐतिहासिक शासक माना जाता है।

पाण्ड्य शासकों में सबसे महान शासक नेइंजेलियन था। इसकी उपाधि से ज्ञात होता है कि इसने किसी आर्य (उत्तर भारत) सेना को पराजित किया। वह तलैयालंगानम् (Talaiyalanganam) के युद्ध को जीतने के कारण बहुत प्रसिद्ध हुआ। नेडुंजेलियन ने दो पड़ोसी शासकों और पाँच छोटे सरदारों के गुट का सफलतापूर्वक सामना किया।

ये शत्रु उसकी राज्य सीमा में घुस आए थे। इन्हें उसने वापस खदेड़ दिया तथा तलैयालंगानम् (तंजौर जिले में तिरवालूर से आठ मील दूरी पर) नामक स्थान पर उन्हें हरा दिया। इन पराजित शासकों में चेर राजा शेय को बन्दी बनाकर पाण्डेय राज्य के कारागार में डाल दिया गया। इस विजय से उसका राज्य सुरक्षित हो गया तथा तमिल क्षेत्र के राज्यों पर उसका नियन्त्रण स्थापित हो गया।

प्रश्न 15.
प्रमुख गुप्त शासकों पर संक्षिप्त लेख लिखिए।
उत्तर:
चौथी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य का उदय और विकास महत्त्वपूर्ण परिघटना है। प्रारंभ में गुप्त शासक कुषाणों के सामन्त थे और धीरे-धीरे उन्होंने अपनी सत्ता बढ़ाकर कुषाणों के स्थान पर बिहार-उत्तरप्रदेश में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इस वंश के प्रमुख शासक निम्नलिखित हैं

1. चंद्रगुप्त प्रथम (319-334 ई०)-चंद्रगुप्त प्रथम इस वंश का पहला प्रसिद्ध राजा हुआ। उससे लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह कर अपने आप को शक्तिशाली बताया। उसने गुप्त संवत् चलाया तथा ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की।

2. समुद्रगुप्त (335-375 ई०) चंद्रगुप्त का उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त था। प्रयाग प्रशस्ति में उसका गुणगान किया गया है। हरिषेण इस प्रशस्ति का लेखक, कवि और सेनापति था। समुद्रगुप्त के गुणों का बखान करते हुए प्रयाग प्रशस्ति में लिखा है-“धरती पर उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था। अनेक गुणों और शुभ कार्यों से संपन्न उन्होंने अपने पैर के तलवे से अन्य राजाओं के यश को खत्म कर दिया है।”

समुद्रगुप्त की तुलना परमात्मा से भी की गई है। “वे परमात्मा पुरुष हैं ……..वे करुणा से भरे हुए हैं… वे मानवता के लिए दिव्यमान उदारता की प्रतिमूर्ति हैं।” समुद्रगुप्त ने गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया। उसने गंगा-यमुना दोआब के राजाओं को हराकर प्रदेश अपने राज्य में मिला लिया। उसने 9 गणराज्यों को हराया। दक्षिण के 12 शासकों को हराकर अपने अधीन बनाया। विंध्य क्षेत्र के अटाविक राज्यों को अपने वश में किया। सीमावर्ती शासक भी उसकी अधीनता मानते थे।

3. चंद्रगुप्त द्वितीय (380-414 ई०) चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष की चोटी पर पहुँचा। उसने वाकाटकों से अपनी कन्या प्रभावती का विवाह किया जो बाद में पति की मृत्यु पर वहाँ की वास्तविक शासिका बनी। भूमिदान संबंधी उसके अभिलेख बतलाते हैं कि उसने अपने पिता के हित में काम किया। चंद्रगुप्त ने पश्चिमी मालवा और गुजरात पर अधिकार कायम कर लिया था।

उसने शकों को पराजित किया तथा ‘शकारी’ की उपाधि धारण की। उसने उज्जैन को दूसरी राजधानी बनाया। दिल्ली में कुतुबमीनार के समीप (एक लौह स्तंभ पर खुदे हुए अभिलेख में चंद्र नामक किसी शासक की कीर्ति का वर्णन किया गया है। इस चंद्र को बंदगुप्त माना जाता है। उसने “विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की। चंद्रगुप्त द्वितीय के बाद कुमार गुप्त तथा स्कंदगुप्त गुप्त वंश के अन्य प्रमुख शासक रहे।

प्रश्न 16.
अध्ययनकाल में व्यापार से संबंधी जानकारी दीजिए।
उत्तर:
छठी सदी ई०पू० से भारत में नगरों का विकास होने लगा था। ये नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे। साथ ही यहाँ पर शिल्प उत्पाद भी प्रमुख थे। यह भी उल्लेखनीय है कि ये नगर व्यापार मार्गों पर बसे हुए थे। मौर्यकाल, मौर्योत्तर काल और दक्षिण के राज्यों में इस काल में व्यापार तथा वाणिज्य का विकास देखा जा सकता है। संक्षेप में इसकी जानकारी निम्नलिखित प्रकार से है

1. व्यापार मार्ग-छठी शताब्दी ई०पू० से भारतीय उपमहाद्वीप पर भूतल और नदीय व्यापार मागों का विकास होने लगा था। एक-दूसरे को आड़े-तिरछे काटते ये व्यापार मार्ग उपमहाद्वीप के बाहर तक जाते थे। सबसे महत्त्वपूर्ण मार्ग पाटलिपुत्र से तक्षशिला तक जाता था। पूर्व में यह पाटलिपुत्र को ताम्रलिप्ति बंदरगाह से जोड़ता था। दूसरा मार्ग कौशाम्बी से पश्चिम समुद्र तट पर भरुक (भरूच) बंदरगाह तक जाता था।

एक दक्षिण-पूर्वी मार्ग पाटलिपुत्र से गोदावरी तट पर प्रतिष्ठान तक जाता था। एक अन्य मार्ग वैशाली से कपिलवस्तु होकर पेशावर तक जाता था। आगे यह स्थल मार्ग पश्चिमी एशिया के क्षेत्रों से होकर भूमध्य सागर तक जाता था। एक मार्ग तक्षशिला से काबुल तथा आगे बैक्ट्रिया से कैस्पियन सागर व काला सागर तक जाता था। इसी प्रकार एक मार्ग कंधार से ईरान तथा ईरान से पूर्वी भूमध्य सागर तक जाता था।

समुद्र तटीय मार्ग भी व्यापार के लिए महत्त्वपूर्ण थे। एक मार्ग भरूच बंदरगाह से सोपारा होते हुए पश्चिमी तट के साथ-साथ श्रीलंका तक जाता था। इसी प्रकार एक मार्ग ताम्रलिप्ति से पूर्वी तट के साथ-साथ जलमार्ग से श्रीलंका पहुँचता था। इस प्रकार समुद्र के माध्यम से व्यापारी दूर देशों तक व्यापार करते थे। उदाहरण के लिए अरब सागर से पूर्वी उत्तरी अफ्रीका तथा पश्चिमी एशिया के देशों से व्यापार होता था। पूर्व की तरफ बंगाल की खाड़ी से व्यापारी दक्षिणी पूर्वी एशिया और चीन से व्यापार करते थे।

2. व्यापार के साधन-यह जानना उपयोगी है कि उन दिनों में व्यापार किन साधनों से होता था। कुछ लोग पैदल सफर करते हुए अपना सामान बेचते थे। बड़े व्यापारी बैलगाड़ियों तथा लदू जानवरों के कारवाँ के साथ यात्रा करते थे। समुद्री नाविकों (Sea barers) का भी उल्लेख मिलता है। समुद्री व्यापार संकटों से भरा होता था परंतु इससे अत्यधिक लाभ प्राप्त होता था। सफल व्यापारियों को तमिल में मासात्तुवन (Masattuvan) कहते थे। प्राकृत में इनके लिए सेट्ठी तथा स्थावाह (Satthavas) शब्द का प्रयोग हुआ है।

3. व्यापारिक वस्तुएँ-तमिल व संस्कृत साहित्य तथा विदेशी वृत्तांतों से जानकारी मिलती है कि भारत में अनेक प्रकार का सामान एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जाता था। इन वस्तुओं में प्रमुख थीं-नमक, अनाज, वस्त्र, लोहे का सामान, कीमती पत्थर, लकड़ी, औषधीय पौधे इत्यादि। भारत का विदेशी व्यापार रोमन साम्राज्य तक फैला हुआ था। रोमन साम्राज्य में भारतीय मसालों (विशेषतः काली मिच), वस्त्रों और औषधियों की काफी माँग रहती थी। इसके अलावा भारत से इलायची, चावल, मसूर, कपास, फल, नील, मोती इत्यादि भी निर्यात वस्तुओं में शामिल थे। रोम निवासी भारत से रेशम भी मंगवाते थे जो भारतीय व्यापारी चीन से यहाँ लाते थे।

रोम से भारत को बढ़िया किस्म की शराब, चीनी के बर्तनों और सोने-चांदी के सिक्कों का आयात होता था। पेरिप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी का लेखक उस काल में (लगभग पहली शताब्दी ई० में) भारत से लालसागर के पार विदेशों में जाने वाली वस्तुओं की सूची देता है। पेरिप्लस ने लिखा है कि भारत से काली मिर्च, दालचीनी, पुखराज, सुरमा, मूंगे, कच्चे शीशे, तांबे, टिन और सीसे का आयात किया जाता है। इसके अतिरिक्त भारत से आने वाला सामान है-मोती, हाथीदाँत, रेशमीवस्त्र, पारदर्शी पत्थर, हीरे, काले नग, कछुए की खोपड़ी आदि।

दीर्घ-उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संगम साहित्य पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
पांड्य राजाओं के संरक्षण में कवियों और भाटों ने तीन-चार सौ वर्षों में विद्या केंद्रों में एकत्र होकर संगम साहित्य का सजन किया। ऐसी साहित्य सभा को संगम कहते थे। इसलिए सारा साहित्य संगम साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विशाल संगम साहित्य में से आज जो रचनाएँ उपलब्ध हैं उनकी संख्या 2289 है। इनमें से कुछ कविताएँ अत्यन्त छोटी (मात्र पाँच पक्तियों की) हैं और कुछ बहुत लम्बी हैं।

ये कविताएँ 473 कवियों द्वारा रचित हैं जिनमें कुछ कवयित्रियाँ भी हैं। कविताओं के अतिरिक्त तमिल व्याकरण तथा महाकाव्य भी उपलब्ध है। वर्तमान में उपलब्ध संगम साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है

1. पत्थुप्पात्तु-पत्थुप्पात्तु बहुत लम्बे दस काव्यों का संग्रह है। नक्कीकर कृत इस काव्य में मुरूगन नामक युद्ध के एक देवता की स्तुति की गई है। इसी कवि ने एक काव्य में एक राजा का युद्ध भूमि में वीरतापूर्वक युद्ध तथा महलों में रह रही रानी की विरह वेदना का हृदयस्पर्शी वृत्तान्त प्रस्तुत किया है। इसमें चोल राज्य की राजधानी पुहार का विस्तार से वर्णन है

2. एतुत्थोकई-इन कविताओं के आठ संग्रह हैं। हर एक संग्रह में 70 से 500 कविताएँ हैं। इन कविताओं की विषय-वस्तु प्यार और निजी व आन्तरिक मनोभाव हैं या राजाओं और वीरों के कृत्यों का बखान है। कई कविताओं में नगरों (मदुरा शहर) और नदियों के सौंदर्य आदि का भी वर्णन है।

3. पदिनेन कीलकनक्कु इसमें 18 धर्मोपदेशों का संग्रह है। इनमें सबसे प्रसिद्ध तिरुवल्लुवर की रचना ‘कुराल’ या ‘तिरुकुराल’ है। इसमें दस-दस कविताओं के 113 वर्ग-भाग हैं। कराल धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं कामसूत्र तीनों का संगम है। लेकिन ज्ञान और नैतिक मूल्यों की जानकारी के लिए इसका सबसे अधिक महत्त्व है। इसलिए इस पुस्तक को तमिल वेद या संक्षिप्त वेद भी कहा जाता है।

4. शिल्पादिकारम्-शिल्पादिकारम् एक महाकाव्य है। इसका लेखक चोल नरेश कारिकल का पौत्र इंलगोवन था, परन्तु वास्तविक रचनाकार के सम्बन्ध में विवाद है। यह महाकाव्य बहुत यथार्थवादी है। इसमें पुहार या कावेरीपत्तनम् के धनी व्यापारी के पुत्र कोवलन और उसकी अभागी पत्नी कन्नगी का बहुत दुखद और मार्मिक चित्रण है। कन्नगी एक पतिव्रता नारी थी। उसका पति कोवलन एक माधवी नामक वेश्या के चक्कर में अपना धन गंवा बैठता है।

वह गरीब के रूप में पुहार से मदुरा चला जाता है। वहाँ पर मदुरा की रानी के हार की चोरी के आरोप में पाण्ड्य राजा शेनगुटुंवि द्वारा उसको प्राणदण्ड दिया जाता है। कन्नगी द्वारा अपने पति को निर्दोष सिद्ध करने पर राजा को पश्चात्ताप हुआ तथा इस आघात से सिंहासन पर ही उसकी मृत्यु हो गई। आज भी कन्नगी की दक्षिण में पूजा प्रचलित है। यह अनेक धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं से परिपूर्ण है।

5. मणिमेखलम-यह भी महाकाव्य है। इसका लेखक मदुराई के कवि सतनार या शातन को बताया जाता है। लेखक बौद्ध धर्म का एक अनुयायी लगता है। इसकी नायिका मणिमेखलम् (शिल्पादिकारम् के नायक कोवलन की पुत्री) है। वह अपने प्रेमी की मृत्यु का समाचार सुनकर बौद्ध भिक्षुणी हो जाती है। इस ग्रन्थ का अन्य उद्देश्य बौद्ध धर्म के उत्थान को दर्शाना है।

6. जीवक चिन्तामणि-यह भी महाकाव्य है। उत्तर संगम साहित्य से जुड़े इस ग्रन्थ का नायक जीवक है। वह अपने पिता के हत्यारे से बदला लेता है और पिता का खोया हुआ राज्य वापस प्राप्त करता है। नायक को युवा अवस्था में ही वैराग्य हो जाता है। अतः वह राज्य छोड़कर जैन मुनि बन जाता है। जीवक चिन्तामणि दक्षिण में जैन मत पर भी प्रकाश डालता है।

7. तोलकाप्पियम-वीर काव्य ग्रन्थों तथा महाकाव्यों के अलावा संगम साहित्य के अन्तर्गत तमिल व्याकरण का ग्रन्थ तोलकाप्पियम भी आता है। इसकी रचना अगस्त्य के शिष्य तोलकाप्पियार तथा 11 अन्य विद्वानों (जो सभी अगस्त्य के ही शिष्य थे) द्वारा की गई है। यह ग्रन्थ तमिल व्याकरण, साहित्य परम्परा तथा समाजशास्त्र की एक रचना है। इसे तमिल साहित्य की सभी साहित्यिक परम्पराओं का स्रोत भी स्वीकार किया जाता है।

प्रश्न 2.
चन्द्रगुप्त की प्रमुख विजयों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
चन्द्रगुप्त की सैनिक कार्रवाइयों का ठीक-ठीक स्पष्ट ब्यौरा किसी भी ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है। जो सूचनाएँ मिलती हैं वे यत्र-तत्र कुछ ग्रंथों में बिखरी हुई मिलती हैं। यूनानी लेखकों ने अपने विवरण में चन्द्रगुप्त की पंजाब (उत्तर:पश्चिम) की विजय का ही वर्णन किया है, जबकि अधिकांश भारतीय स्रोतों में मगध-विजय का पता चलता है। चन्द्रगुप्त मौर्य की प्रमुख विजय निम्नलिखित प्रकार से हैं

1. मगध-विजय-321 ई० पू० में 25 वर्ष की आयु में चन्द्रगुप्त मौर्य मगध राज सिंहासन पर बैठा। यह कैसे सम्भव हुआ अपने-आप में बड़ा दिलचस्प है, क्योंकि मगध जैसे शक्तिशाली राज्य से लड़ने के लिए सेना कहाँ से आई? मगध उस समय उत्तरी भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य था। लेकिन मगध का राजा अत्याचारी और लालची होने के कारण प्रजा-जनों में अलोकप्रिय था। करों के भार से दबे हुए थे।

इन परिस्थितियों में चन्द्रगुप्त और चाणक्य के लिए जन-समर्थन जुटाने और सेना संगठित करने में आसानी हुई। इन्होंने मगध साम्राज्य के सीमावर्ती हिमालय के पर्वतीय प्रदेशों में रहने वाली जातियों में से सेना संगठित की। यह लगभग वही समय था जब सिकन्दर (326 ई० पू०) उत्तर:पश्चिम की ओर से पंजाब में जन कबीलों को रौंदता हुआ आगे बढ़ रहा था।

ऐसी परिस्थिति में विदेशी आक्रमणकारियों के भय के कारण घनानंद जैसे अलोकप्रिय शासक के विरुद्ध कबीलों में सेना भर्ती करना और भी आसान हो गया था। जैसे भी सेना संगठित की हो, इतना निश्चित है कि चन्द्रगुप्त की सेना नंदशासक के मुकाबले बहुत कम थी। ऐसी स्थिति में चाणक्य की कूटनीति कारगर साबित हुई। उन्होंने नंद राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों के साथ छेड़छाड़ से अपना अभियान शुरु किया और धीरे-धीरे राज्य के केन्द्र की ओर बढ़ते गए। नंद नरेश उनकी गतिविधियों की गम्भीरता नहीं भाँप पाया और उन्होंने अन्ततः उसे सिंहासन से उखाड़ फेंका।

2. पंजाब विजय-मगध-विजय के तुरन्त पश्चात् चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने पंजाब विजय अभियान शुरु किया, क्योंकि इस क्षेत्र में विस्तार के लिए परिस्थितियाँ पूर्णतः अनुकूल थीं। ये परिस्थितियाँ सिकन्दर के आक्रमण से बनी थीं। सिकन्दर के उत्तर:पश्चिम (पंजाब क्षेत्र) पर किए गए आक्रमण (326 ई०पू०) का तात्कालिक और अप्रत्याशित परिणाम यह हुआ था कि इसने सारे भारत पर मौर्यों की विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया था।

इस आक्रमण से पंजाब के गणराज्य कमज़ोर हो गए थे और 323 ई०पू० में सिकन्दर की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उसके सेनापतियों में साम्राज्य विभाजन के लिए युद्ध छिड़ गया था। इससे पंजाब क्षेत्र में यूनानियों की शक्ति भी दर्बल पड़ गई थी। इस परिस्थिति में चन्द्रगुप्त बड़ी आसानी से सिंधु नदी तक का क्षे सफल हो गया था।

3. पश्चिमी और मध्य भारत पर विजय पंजाब विजय के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने अपना ध्यान पश्चिम और मध्य भारत की ओर केन्द्रित किया। इन विजय अभियानों की भी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है, परन्तु रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख (दूसरी शताब्दी ई० के मध्य का) से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने काठियावाड़ (सौराष्ट्र) को अपने राज्य में मिला लिया था। इस शिलालेख में चन्द्रगुप्त के राजदूत पुष्यगुप्त का उल्लेख है, जिसने सुदर्शन नामक झील बनवाई थी। साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि नर्मदा नदी के उत्तर में मालवा प्रदेश पर भी चन्द्रगुप्त ने अधिकार कर लिया था।

4. सेल्यूकस निकेटर से युद्ध-सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर ने अपने प्रतिद्वन्द्वियों को पछाड़कर पश्चिम एशिया में बेबीलोन से लेकर ईरान और बैक्ट्रिया तक अपना प्रभुत्व जमा लिया था। 305 ई०पू० में वह सिंधु नदी को पार करके पंजाब और सिंध पर पुनः यूनानी प्रभुत्व स्थापित करने के लिए आगे बढ़ा।

परन्तु इस बार परिस्थितियाँ बिल्कुल अलग थीं। अब सामना परस्पर विभक्त छोटे-छोटे राज्यों से नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली साम्राज्य से था। 303 ई०पू० में लम्बे युद्ध के बाद इस युद्ध में चन्द्रगुप्त की विजय हुई। इसके बाद दोनों के बीच एक मैत्रीपूर्ण सन्धि हो गई जिसके अनुसार चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी दिए। बदले में सेल्यूकस ने अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और सिंधु नदी का पश्चिमी क्षेत्र चन्द्रगुप्त को दे दिया।

इसके अतिरिक्त दोनों शासकों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित हुए। समझा जाता है कि सेल्यूकस की एक पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त से हुआ था। इस विवाह का राजनीतिक महत्त्व था। इससे मौर्य साम्राज्य की उत्तर:पश्चिमी सीमा सुरक्षित हो गई थी।

दोनों शासकों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने रहे। इसका प्रमाण दोनों के बीच उपहारों और राजनयिकों का आदान-प्रदान है। सेल्यूकस का राजदूत मैगस्थनीज़ कई वर्षों तक चन्द्रगुप्त के दरबार पाटलिपुत्र में रहा था। स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर:पश्चिम सीमा से पूर्व में बंगाल तक फैला हुआ था। पश्चिम में गुजरात का क्षेत्र उसके अधिकार में था।

प्रश्न 3.
संगम युगीन सुदूर दक्षिण के राज्यों में व्यापार व वाणिज्य के विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संगम युग में सुदूर दक्षिण व्यापार और वाणिज्य का अप्रत्याशित रूप से विकास हुआ। राज्यों को इस अन्तर्देशीय तथा विदेशी व्यापार से बड़ी मात्रा में आय प्राप्त होती थी। कृषि उत्पादन में वृद्धि, मौर्य साम्राज्य के विस्तार से दक्षिण के साथ व्यापार सम्पर्कों में वृद्धि, भारतीय वस्तुओं की रोमन विश्व में माँग बढ़ना, शहरों का उदय तथा उनमें विशेषज्ञ दस्तकारों का होना आदि इस काल में व्यापार और वाणिज्य के विकास के प्रमुख कारण बताए जा सकते हैं। दक्षिण में संगम युग में व्यापार और वाणिज्य के सन्दर्भ में निम्नलिखित पहलुओं को ध्यान में रखा जा सकता है

1. प्रमुख शहरी केन्द्र व्यापार और वाणिज्य के केन्द्र के रूप में इस काल में शहरों का उदय हुआ। इनमें से कुछ नगर जो आन्तरिक भागों में थे, वे स्थानीय और अन्तर्देशीय व्यापार और वाणिज्य के केन्द्र थे। ऐसे केन्द्रों में उरैयूर, काँची (कांचीपुरम) और मदुराई मुख्य थे। यहाँ पर बाजार अवनम् के नाम से जाने जाते थे, जहाँ लेन-देन होता था। ये राजनीतिक गतिविधियों के केन्द्र भी थे।

दूसरे प्रकार के नगरों को पत्तिनम् (बन्दरगाह) कहते थे जो कि दक्षिण के शासकों के संरक्षण में काफी सक्रिय थे। इन पत्तिनमों में पूर्वी तट पर पुहार अथवा कावेरीपत्तिनम् (चोलों का), अरिकमड कोरकाई (पाण्ड्यों का) प्रमुख थे। पश्चिम तट पर मुजरिस, टिनडिस, नेलयंदा प्रसिद्ध व्यापार के केन्द्र थे। यहाँ जहाजरानी, बन्दरगाह निर्माण हुआ तथा गोदाम बने। विदेशी व्यापारी भी बड़ी संख्या में रहने लगे।

2. वाणिज्य संगठन-आन्तरिक क्षेत्रों में नमक का व्यापार करने वाले उमाना समुदाय की जानकारी मिलती है जो ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े-बड़े कारवां (उमानवुथ) में जाते थे। नमक के अलावा अनाज (कुलावानेकन), चीनी (पानीटा वनिकन), कपड़े (अरूवैवानिकय), स्वर्ण (पोन वनिकन) आदि के व्यापारी भी थे। सुदूर दक्षिण में तिरूवेल्सारी में व्यापारियों के संगठन के प्रमाण मिलते हैं।

3. वस्तु विनिमय तथा सिक्के स्थानीय व्यापार का आधार वस्तु विनिमय था। संगम साहित्य में हमें पशु, जड़ी-बूटी, मछली के तेल, ताड़ी, गन्ना आदि सामानों की अदला-बदली का उल्लेख मिलता है। विदेशी व्यापार में भी वस्तु विनिमय का चलन होगा। परन्तु रोम से सोने तथा चाँदी के माध्यम से व्यापार के प्रमाण मिलते हैं। कुछ मुद्राशास्त्रियों का मानना है कि संगम काल में आहत सिक्के तथा रोमन सिक्के व्यापार में प्रयोग में लाए जाते थे।

4. स्थानीय तथा अन्तर्देशीय व्यापार-कृषक, चरवाहे, मछुआरे और जनजातीय लोग अपने सामान का लेन-देन करते होंगे। उदाहरण के लिए नमक, मछली, धान, दुग्ध, जड़ें, मृगमांस, शहद, ताड़ी आदि का स्थानीय बाजार में लेन-देन होता था। नमक के बदले में धान, धान के बदले में दुग्ध, दही, घी, मछली तथा शराब के लिए शहद दिया जाता था। मृगमांस और ताड़ी के बदले चावल, पपड़िया और गन्ना दिया जाता था।

मौर्यकाल में उत्तर और दक्षिण में व्यापार सम्पर्क बढ़े। मौर्यों ने दक्षिण से सोना तथा अन्य संसाधन प्राप्त करने के तरीके अपनाए थे। कौटिल्य के अनुसार, दक्षिण राज्य क्षेत्रों में शंख, हीरे, जवाहरात और सोना बड़ी मात्रा में था। दक्षिण में खनिज पदार्थों तथा मूल्यवान धातुओं का व्यापार होता था। उत्तर के व्यापारी बड़ी मात्रा में चाँदी के आहत सिक्के लाते थे। कलिंग से दक्षिण के राज्यों में महीन रेशम का आयात किया जाता था। उरैयूर, कांची, मदुराई इस अन्तर्देशीय व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे।

5. विदेशी या समुद्रीय व्यापार-तमिल क्षेत्र के शासकों की आय का एक मुख्य स्रोत विदेशी व्यापार था। इस समद्रीय व्यापार से तटीय बन्दरगाह नगरों में रहने वाले व्यापारी समुदाय बहुत सम्पन्न हो गए थे। भारत से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में मसाले (काली मिर्च, इलायची), औषधीय जड़ी-बूटियाँ, मूल्यवान रत्न (बेरिल, गोमेद, कर्निलियन, जेस्फर) मोती, हाथी दाँत का सामान, कीमती इमारती लकड़ी (तेन्दु, सागौन, चन्दन और बांस आदि), रंगीन सूती वस्त्र, मलमल, नील आदि मुख्य थे।

विदेशी लोग भारत में घोड़े लाते थे। इसके अलावा धातुएँ (ताँबा, सीसा), तैयार माल में बढ़िया शराब, आभूषण, सोने, चाँदी के सिक्के तथा मिट्टी के बर्तन भी लाते थे। इस काल में भारत का रोम के साथ व्यापार बढ़ा। प्रारम्भ में, यह व्यापार अरब व्यापारियों के माध्यम से होता था। बाद में हिप्पालुस नामक नाविक द्वारा मॉनसूनी हवाओं की खोज के बाद रोमन व्यापारी भारत से सीधा व्यापार करने लगे।

पुहार या कावेरीपत्तिनम् एक सर्वदेशीय महानगर था जहाँ पर अलग-अलग भाषा बोलने वाले देशी और विदेशी व्यापारी एक साथ रहते थे। पुहार में बड़े-बड़े विदेशी जहाज सोना और सामान भरकर लाते थे तथा यहाँ से सामान ले जाते थे। मदुराई के तट पर सलियर एक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह थी जहाँ अकसर बड़े-बड़े जहाज आते थे। पश्चिमी तट के बन्दरगाहों में मुजरिस सबसे प्रसिद्ध था। पुसा नुरू की एक कविता में धान के बदले में मछलियाँ, काली मिर्च की गाँठों और समुद्र तट पर खड़े बड़े-बड़े जहाजों से कई प्रकार के माल को छोटी नौकाओं में लादने का वर्णन है। इसी तट पर बन्दर आयातित मोतियों एवं कोडुमानम दुर्लभ सामान के आयात के लिए प्रसिद्ध था।

HBSE 12th Class History Important Questions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Read More »