HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 15 जैव-विविधता एवं संरक्षण

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 15 जैव-विविधता एवं संरक्षण Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 15 जैव-विविधता एवं संरक्षण

प्रश्न 1.
जैव विविधता के तीन आवश्यक घट कों (Components) के नाम बताइए।
उत्तर:
जैव विविधता के तीन स्तर या आवश्यक घटक निम्न प्रकार से हैं, ये तीनों स्तर एक-दूसरे से इतने गुँथे (Interwined) होते हैं कि प्रायोगिक आधार पर इन्हें विभक्त करना असंभव है-
(1) जातीय विविधता (Species Diversity)
(2) पारितंत्र विविधता (Ecosystem Diversity)
(3) आनुवंशिक विविधता (Genetic Diversity)

प्रश्न 2.
पारिस्थितिकीविद् किस प्रकार विश्व की कुल जातियों का आंकलन करते हैं?
उत्तर:
समुदाय में पाई जाने वाली स्पीशीज की संख्या, जाति समृद्धि ( Species richness ) मापन कहलाता है। विविधता “एकक प्रतिदर्शज (Statistics) है जिसमें जाति की संख्या और समता (evenness) संयोजित (compounded) होती है।” विविधता परिकलन के कई तरीके बताये गये हैं जो इन दो प्रकार की जानकारी को जोड़ते हैं। जैव विविधता की गणितीय अक्षांक (Mathematical Indices) भी विकसित की गई है, जिससे भिन्न भौगोलिक पैमानों पर जाति विविधता को निम्नलिखित रूप में नोट किया जा सकता है-
(1) अल्फा विविधता (Alpha Diversity ) – यह एकक समुदाय में स्पीशीज की संख्या है। यह विविधता जाति समृद्धि के लोकप्रिय संकल्पना के निकट है और भिन्न पारिस्थितिक तंत्र प्रकारों में जाति की संख्या की तुलना करने में सहायक हो सकती है।

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(2) बीटा विविधता ( Beta Diversity ) – यह उस मापन को बताता है जिसमें स्पीशीज पर्यावरणीय अंतरों (Gradients) के बीच परिवर्तित होनी है। उदाहरण के लिये पर्वत ढलान पर उत्तरोत्तरत: उच्च ऊँचाई पर यदि मॉस समुदायों की जाति लगातार एक के बाद एक परिवर्तित होती है तो बीटा विविधता उच्च है परन्तु यदि वही जाति संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र पर रहती है तो यह निम्न होती है।

(3) गामा विविधता (Gamma Diversity ) – यह बड़े भौगोलिक क्षेत्रों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। इसे कुछ इस प्रकार परिभाषित किया जाता है, “वह दर जिस पर एक ही आवासीय प्रकार के विभिन्न स्थानों में भौगोलिक विस्थापितों के रूप में अतिरिक्त जातियाँ पाई जाती हैं।” अतः गामा विविधता समान आवास के स्थानों के बीच में दूरी के साथ अथवा विस्तार होते हुए भौगोलिक क्षेत्रों के फलस्वरूप जाति बदलाव की दर ( Species Turnover Rate) है।

जैव विविधता को वर्तमान में उपलब्ध जातीय सूचियों के आधार पर देखते हैं। आकलित जातियों में से 70 प्रतिशत से अधिक जंतु हैं जबकि शैवाल, कवक, ब्रायोफाइट, आवृत्तबीजी तथा अनावृत्तबीजी पादपों को मिलाकर 22 प्रतिशत से अधिक नहीं है। जंतुओं में कीट सबसे अधिक समृद्ध जातीय वर्ग समूह है, जो संपूर्ण जातियों के 70 प्रतिशत से अधिक है।

संसार में कवक जातियों की कुल संख्या, मछली, उभयचर (Amphibia), सरीसृप ( Reptile) तथा स्तनधारियों (Mammals) से अधिक है। चित्र में कुछ मुख्य वर्गक ( Texa) की जातियों की जैव विविधता को प्रदर्शित किया जा रहा है (चित्र 15.1 ) ।

प्रश्न 3.
उष्ण कटिबंध क्षेत्रों में सबसे अधिक स्तर की जाति- समृद्धि क्यों मिलती है ? इसकी तीन परिकल्पनाएँ दीजिए।
उत्तर:
भारत में अधिकतर भू-भाग उष्ण कटिबंध क्षेत्र में है, यहाँ 1200 से अधिक पक्षी जातियाँ हैं। इक्वाडोर के उष्ण कटिबंध के वन क्षेत्र में, जैसे कि इक्वाडोर, संवहनी पौधों की जातियाँ यू. एस. ए. के मध्य पश्चिम में स्थित शीतोष्ण क्षेत्र के वनों से 10 गुना अधिक है। दक्षिण अमेरिका के अमेजन उष्ण कटिबंध वर्षा वनों की जैव विविधता पृथ्वी पर सबसे अधिक है। उष्ण कटिबंध क्षेत्र में ही सबसे अधिक जैव विविधता मिलती है। इस संबंध में पारिस्थितिक एवं जैव विकासविदों ने निम्न कल्पनाएँ प्रस्तुत की हैं-

(1) जाति उद्भवन (Speciation) आम तौर पर समय का कार्य है। शीतोष्ण क्षेत्र में प्राचीन समय से बार-बार हिमनदन (Glaciations ) होता रहा जबकि उष्ण कटिबंध क्षेत्र लाखों वर्षों से अपेक्षाकृत अबाधित रहा है, इसी कारण इन क्षेत्रों में जाति विकास तथा विविधता हेतु बहुत समय मिला।

(2) उष्ण कटिबंध पर्यावरण, शीतोष्ण पर्यावरण से भिन्न तथा कम मौसमीय परिवर्तन वाला होता है। यह स्थिर पर्यावरण निकेत विशिष्टीकरण (Niche Specialization) को प्रोत्साहित करता रहा जिसके कारण से अधिक से अधिक जाति विविधता हुई।

(3) उष्ण कटिबंध क्षेत्रों में अधिक सौर ऊर्जा उपलब्ध होती है। जिससे उत्पादन अधिक होता है जिससे परोक्ष रूप से अधिक जैव विविधता होती है।

प्रश्न 4.
जातीय क्षेत्र संबंध में समाश्रयण (Regression) की ढलान का क्या महत्व है?
उत्तर:
जैव विविधता के प्रतिरूप (Patterns of Biodiversity)
(क) अक्षांशीय प्रवणता (Latitudinal gradients ) – जंतु तथा पादपों की विविधता संपूर्ण विश्व में समान न होकर असमान वितरण प्रदर्शित करती है। अनेक जंतु व पादप समूहों में रोचक विविधता देखने को मिलती है जिसमें मुख्य रूप से अक्षांशों पर विविधता में क्रमबद्ध प्रवणता है। सामान्यतः भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर जाति विविधता घटती जाती है। केवल कुछ अपवादों को छोड़कर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों (अक्षांशीय सीमा 23.5° उत्तर से 23.5° दक्षिण तक ) में शीतोष्ण या ध्रुव प्रदेशों से अधिक जातियाँ पायी जाती हैं।

भूमध्य रेखा के पास कोलम्बिया में 1,400 पक्षी जातियाँ, जबकि न्यूयार्क जो कि 41° उत्तर में है 105 पक्षी जातियाँ व ग्रीनलैण्ड के 71° उत्तर में केवल 56 पक्षियों की जातियाँ हैं। भारत में जिसका अधिकतर भू-भाग उष्ण कटिबंधीय (tropical) क्षेत्र में है, 1,200 से अधिक पक्षी जातियाँ हैं । इक्वाडोर के उष्ण कटिबंध के वन क्षेत्र में जैसे कि इक्वाडोर, संवहनी पौधों की जातियाँ U.S.A. के मध्य पश्चिम में स्थित शीतोष्ण क्षेत्र के वनों से 10 गुना अधिक हैं, दक्षिणी अमेरिका के अमेजन उष्ण कटिबंध वर्षावनों की जैव विविधता पृथ्वी पर सर्वाधिक है।

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यहां पर 40 हजार पादप जातियाँ, तीन हजार मत्स्य, 1,300 पक्षी, 427 स्तनधारी, 427 उभयचर, 378 सरीसृप तथा 1,25,000 से अधिक अकशेरुकी (invertebrates) जातियों का आवास है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इन वर्षा वनों में अभी भी कम से कम 2 लाख कीट जातियों की खोज तथा पहचान होना शेष है। उष्ण कटिबंध क्षेत्र में ऐसा क्या विशेष है जिसके कारण उसमें सबसे अधिक जैव विविधता मिलती है। इस संबंध में पारिस्थितिक तथा जैव विकासविदों ने बहुत सी परिकल्पनाएँ की हैं जिनमें से कुछ निम्न प्रकार से हैं-

(i) जाति उद्भवन (speciation) आमतौर पर समय का कार्य है। शीतोष्ण क्षेत्र में प्राचीन काल से ही बार-बार हिमनद (glaciation) होता रहा है जबकि उष्ण कटिबंध क्षेत्र लाखों वर्षों से अबाधित रहा है। इसी कारण जाति विकास तथा विविधता के लिये लंबा समय मिला है।

(ii) शीतोष्ण पर्यावरण में सौर ऊर्जा कम होने से उत्पादन दर कम होती है जबकि उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की सौर ऊर्जा अधिक होने से वहाँ उत्पादकता अधिक होती है जो एक प्रकार से जैव विविधता को बढ़ाने में सहायक होती है।

(iii) शीतोष्ण क्षेत्रों में मौसम बदलता रहता है जबकि उष्ण कटिबंधीय पर्यावरण में कम परिवर्तन देखने को मिलते हैं जिससे पादप व जीव जंतुओं के निकेत विशिष्टीकरण (Niche specialization) को बढ़ावा मिलता है जो अन्ततः जैव विविधता बढ़ाने में सहायक होता है।
(ख) जातीय क्षेत्र संबंध ( Species area relation ) – जर्मनी के प्रसिद्ध प्रकृतिविद् व भूगोलशास्त्री अलैक्जेण्डर वॉन हेमबोल्ट (Alexander Von Hamboldt) ने दक्षिण अमेरिका के जंगलों में कार्य करते हुये बताया कि कुछ सीमा तक किसी क्षेत्र की जातीय समृद्धि (species richness) अन्वेषण क्षेत्र की सीमा बढ़ाने के साथ बढ़ती है। वास्तव में, जाति समृद्धि और वर्गकों (अनावृत्तबीजी पादप, पक्षी चमगादड़, अलवणजलीय मछलियाँ) की व्यापक किस्मों के क्षेत्र के बीच संबंध आयताकार अतिपरवलय (Rectangular Hyperbola) होता है ।
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लघुगणक पैमाने पर यह संबंध एक सीधी रेखा दर्शाता है जो कि निम्न समीकरण द्वारा प्रदर्शित है-
Log S = log C+ Zlog A
जहाँ पर S = जातीय समृद्धि, A = क्षेत्र, Z रेखीय ढाल (Regression Coefficient)
C = Y – अंत:खंड ( Intersept)
पारिस्थितिक वैज्ञानिकों ने बताया कि Z का मान 0.1 से 0.2 परास में होता है भले ही वर्गिकी समूह अथवा क्षेत्र (जैसे कि ब्रिटेन के पादप, कैलिफोर्निया के पक्षी या न्यूयार्क के मोलस्क) कुछ भी हो। समाश्रयण रेखा ( Regression line) की ढलान आश्चर्यजनक रूप से एक जैसी होती है। लेकिन यदि हम किसी बड़े समूह, जैसे संपूर्ण महाद्वीप, के जातीय क्षेत्र संबंध का विश्लेषण करते हैं तब ज्ञात होता है कि समाश्रयण रेखा की ढलान तीव्र रूप से तिरछी खड़ी है (Z के मान की परास 0.6 से 1.2 है)। उदाहरण – विभिन्न महाद्वीपों के उष्ण कटिबंध वनों के फलाहारी पक्षी तथा स्तनधारियों की रेखा की ढलान 1.15 है। यह ढलान क्षेत्र की वृहत् सीमा तथा अत्यधिक जातीय समृद्धि को दर्शाती है।

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प्रश्न 5.
किसी भौगोलिक क्षेत्र में जाति क्षति के मुख्य कारण क्या हैं?
उत्तर:
वर्तमान में जातीय विलोपन की दर बढ़ती जा रही है। यह विलोपन मुख्यरूप से मानव क्रियाकलापों के कारण है। जाति क्षति के मुख्य कारण निम्न प्रकार से हैं-
(1) आवास विनाश (Habitat Destruction) – यह जंतु व पौधे के विलुप्तीकरण का मुख्य कारण है। उष्ण कटिबंधीय वर्षा वनों में होने वाली आवासीय क्षति का सबसे अच्छा उदाहरण है। एक समय वर्षा वन पृथ्वी के 14 प्रतिशत क्षेत्र में फैले थे, परन्तु अब 6 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में नहीं हैं। ये अधिक तेजी से नष्ट होते जा रहे हैं।

विशाल अमेजन -वन (जिसे विशाल होने के कारण ‘पृथ्वी का फेफड़ा’ कहा जाता है) उसमें सम्भवत: करोड़ों जातियाँ निवास करती हैं। इस वन को सोयाबीन की खेती तथा जानवरों के चरागाहों के लिये काटकर साफ कर दिया गया है। वर्षा- के विलुप्तीकरण का मुख्य कारण है। उष्ण कटिबंधीय वर्षा वनों में होने वाली आवासीय क्षति का सबसे अच्छा उदाहरण है।

एक समय वर्षा वन पृथ्वी के 14 प्रतिशत क्षेत्र में फैले थे, परन्तु अब 6 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में नहीं हैं। ये अधिक तेजी से नष्ट होते जा रहे हैं। विशाल अमेजन वर्षा-वन (जिसे विशाल होने के कारण ‘पृथ्वी का फेफड़ा’ कहा जाता है) उसमें सम्भवत: करोड़ों जातियाँ निवास करती हैं। इस वन को सोयाबीन की खेती तथा जानवरों के चरागाहों के लिये काटकर साफ कर दिया गया है।

अनेक घटनाओं में, आवास विनाश करने वाले कारक बड़ी औद्योगिक और व्यावसायिक क्रियाएँ, भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था जैसे खनन (Mining), पशु रैंचन (Cattle ranching), व्यावसायिक मत्स्यन ( Commercial fishing ), वानिकी (Forestry) रोपण (Plantation), कृषि, निर्माण कार्य व बाँध निर्माण, जो लाभ के उद्देश्य से शुरू हुए हैं।

आवास की बड़ी मात्रा प्रतिवर्ष लुप्त हो रही है क्योंकि विश्व के वन कट रहे हैं। वर्षा वन, उष्णकटिबंधीय शुष्क वन, आर्द्रभूमियाँ (Wetlands), मैन्यूव (Mangrooves) और घास भूमियाँ ऐसे आवास हैं जिनका विलोपन हो रहा है और इनमें मरुस्थलीकरण हो रहा है।

(2) आवास खण्डन (Habitat Fragmentation ) – आवास जो पूर्व में बड़े क्षेत्र घेरते थे ये प्राय: सड़कों, खेतों, कस्बों, नालों, पावर लाइन आदि द्वारा अब खंडों में विभाजित हो गए हैं। आवास खंडन वह प्रक्रम है जहाँ आवास के बड़े, संतत क्षेत्र, क्षेत्रफल में कम हो गए हैं और दो या अधिक खंडों में विभाजित हो गए हैं।

जब आवास क्षतिग्रस्त होते हैं वहाँ प्रायः आवास खंड छोटा भाग (Patch work) शेष रह जाता है। ये खंड प्रायः एक-दूसरे से अधिक रूपांतरित या निम्नीकृत दृश्य भूमि (Degraded landscape) द्वारा विलग होते हैं। आवास खंडन स्पीशीज के सामर्थ्य को परिक्षेपण ( dispersal) और उपनिवेशन (colonisation) के लिए सीमित करता है। प्रदूषण के कारण भी आवास में खंडन हुआ है, जिससे अनेक जातियों के जीवन को खतरा उत्पन्न हुआ है।

जब मानव क्रियाकलापों द्वारा बड़े आवासों को छोटे-छोटे खण्डों में विभक्त कर दिया जाता है तब जिन स्तनधारियों और पक्षियों को अधिक आवास चाहिए, वे प्रभावित हो रहे हैं तथा प्रवासी (migratory ) स्वभाव वाले कुछ प्राणी भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं जिससे समष्टि (Population) में कमी होती है।

(3) आवास निम्नीकरण और प्रदूषण (Habitat Degradation and Pollution ) वन आवास में अनियंत्रित धरातलीय अग्नि भले ही पेड़ों को नष्ट नहीं कर सकती परन्तु वन के धरातल पर उगने वाले छोटे पादप समुदाय व कीट प्राणीजगत अधिक प्रभावित होते हैं, यह आवास निम्नीकरण है।

प्रवाल भित्ति क्षेत्रों (Coral reef areas) में नौकाविहार भंगुर स्पीशीज (Fragile species) को निम्नीकृत करता है। पीड़कनाशी, औद्योगिक रसायन और अपशिष्ट, कारखानों और मोटरगाड़ियों से उत्सर्जन और अपरदित पहाड़ी से अवसाद निक्षेप (Sediments deposits) आदि आवास निम्नीकरण करते हैं। जल व वायु प्रदूषण, अम्ल वर्षा आदि भी निम्नीकरण करते हैं।

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(4) विदेशी जातियों का प्रवेश (Introduction of Exotic Species) जब बाहरी जातियाँ अनजाने में या जानबूझकर किसी भी उद्देश्य से एक क्षेत्र में लाई जाती हैं तब उनमें से कुछ आक्रामक होकर स्थानिक जातियों में कमी या उनकी विलुप्ति का कारण बन जाती हैं। जैसे जब नील नदी की मछली (Nele Perch) को पूर्वी अफ्रीका की विक्टोरिया झील में डाला गया तब झील में रहने वाली पारिस्थितिक रूप से बेजोड़ सिचलिड (Cichlid) मछलियों की 200 से अधिक जातियाँ विलुप्त हो गई।

हम गाजर घास (Parthenium), लैंटाना और हायसिंध (Eichornia) जैसी आक्रामक खरपतवार जातियों से पर्यावरण को होने बाली क्षति और हमारी देशज जातियों के लिए पैदा हुए खतरे से अच्छी तरह से परिचित हैं। मत्स्य पालन के उद्देश्य से अफ्रीकन कैटफिश (Charias gariepinas ) मछली को हमारी नदियों में लाया गया; लेकिन अब ये मछली हमारी नदियों की मूल अशल्कमीन (कैटफिश जातियों) के लिए खतरा पैदा कर रही हैं।

(5) अतिदोहन या अतिशोषण (Overexploitation ) बढ़ती मानव जनसंख्या प्राकृतिक सम्पदाओं के उपयोग को तीव्र कर रही है। विश्व के अधिकतर भागों में जितना जल्दी हो सके आजकल सम्पदाओं का शोषण हो रहा है। सम्पदाओं का अतिशोषण किसी स्थानीय जाति के लिये व्यावसायिक बाजार उत्पन्न होने से भी होता है।

मानव हमेशा भोजन तथा आवास के लिए प्रकृति पर निर्भर रहा है, लेकिन जब ‘आवश्यकता’ ‘लालच’ में बदल जाती है तब इस प्राकृतिक संपदा का अधिक दोहन (Over-exploitation) शुरू हो जाता है मानव द्वारा अति दोहन से पिछले 500 वर्षों में बहुत सी जातियाँ (स्टीलर समुद्री गाय, पैसेंजर कबूतर ) विलुप्त हुई हैं। आज बहुत सारी समुद्री मछलियों की संख्या शिकार के कारण कम होती रही है जिसके कारण व्यावसायिक महत्त्व की जातियाँ ख़तरे में हैं। बढ़ती ग्रामीण गरीबी, पैदावार के बढ़ते योग्य तरीके और अर्थव्यवस्था का भूमण्डलीकरण मिलकर जातियों को विलोपन के कगार तक पहुँचा रहे हैं।

(6) स्थानांतरी या झूम जुताई (Shifting or Jhum Cultivation) विश्व के अनेक विकासशील देशों में बड़े भूमिपति तथा व्यवसाय में रुचि वाले व्यक्ति, स्थानीय किसान को जबरदस्ती हटा देते हैं अतः स्थानीय किसानों के पास सुदूर अविकसित क्षेत्रों में जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाता, ये अपनी जीविका स्थानांतरी जुताई द्वारा चलाते हैं।

इस प्रक्रिया में ये प्राकृतिक पेड़ वनस्पति (वन) के क्षेत्र को जलाते हैं तथा इसकी पोषण समृद्ध भस्म पर दो या तीन वर्ष कृषि कर छोड़ देते हैं फिर से अन्य स्थान का चयन कर यही प्रक्रिया दोहराते हैं। इस प्रक्रिया से वहाँ की विविध पादप व प्राणीजात जातियाँ नष्ट हो जाती हैं। आदिवासी व्यक्ति इसी प्रकार की कृषि करते हैं। भारत में यह कृषि असम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर, मेघालय, नागालैण्ड, सिक्किम और त्रिपुरा राज्यों में की जाती है।

(7) सहविलुप्तता (Co-extinctions) जब एक जाति विलुप्त होती है तब उस पर आधारित दूसरी जंतु व पादप जातियाँ भी विलुप्त होने लगती हैं। जब एक परपोषी मत्स्य जाति विलुप्त होती है तब उसके विशिष्ट परजीवियों का भी वही भविष्य होता है। दूसरा उदाहरण सहविकसित (Cocvolved), परागणकारी (Pollinator), सहोपकारिता (Mutualism) का है जहाँ एक (पादप) के विलोपन से दूसरे (कीट) का विलोपन भी निश्चित रूप से होता है।

प्रश्न 6.
पारितंत्र के कार्यों के लिए जैव विविधता कैसे उपयोगी है?
उत्तर:
मानव जैव जगत से अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लाभ प्राप्त करता है। यह भोजन, औषधियों, रेशे, रबर एवं इमारती लकड़ी का स्रोत है। जैविक संसाधनों में प्रमुख लाभकारी नवीन संसाधन भी हैं। जीवों की विविधता जैसे अनेक पारिस्थितिक कार्य शुल्क रहित प्रदान करती है, जो पारितंत्र के स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए आवश्यक है। जैव विविधता के उपयोग निम्न प्रकार से हैं-
(1) भोजन एवं उन्नत किस्मों का स्रोत (Sources of Food and Improved Varieties) जैव विविधता आधुनिक कृषि के लिए तीन प्रकार से उपयोगी है-
(क) नई फसलों के स्रोत के रूप में।
(ख) उन्नत किस्मों के प्रजनन के लिए सामग्री के रूप में और (ग) नए जैवनिम्नकरणीय पीड़कों के स्रोत के रूप में।
भोजनीय पादपों की कई हजार जातियों में से 70 प्रतिशत से भी कम जातियाँ विश्व के भोजन का अधिकांश ( 85 प्रतिशत) भाग उत्पन्न करने के लिए उगाई जाती हैं। गेहूँ, मक्का एवं चावल ये तीन प्रमुख कार्बोहाइड्रेट फसलें, मानव आबादी को जीवित रखने के लिए लगभग दो-तिहाई भोजन प्रदान करती हैं। अन्न, फल, सब्जियाँ व मिर्च-मसाले सभी पौधों से प्राप्त होते हैं।

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वसा, तेल, रेशे आदि अन्य उपयोग के लिए और अधिक नई जातियों की खोज और इन्हें उगाने की आवश्यकता है। व्यापारिक एवं घरेलू खाद्य जातियों के गुणों को सुधारने के लिए इनको वन्य संबंधियों से संरक्षित रखा जाता है। घरेलू खाद्य जातियों को नए गुणों, जैसे रोग प्रतिरोध या उन्नत उपज प्रदान करने के लिए वन जातियों के जीनों का उपयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ, एशिया में उगाये जा रहे धान को भारत की वन्य धान की एकमात्र जाति (Oryza nivara) से प्राप्त जीनों द्वारा चार प्रमुख रोगों से सुरक्षित रखा गया है।

(2) दवाएँ एवं औषधियाँ (Drugs and Medicines) – अनेक महत्त्वपूर्ण औषधियाँ पादप आधारित पदार्थों से उत्पन्न हुई हैं। पादपों से प्राप्त पदार्थ, जिन्हें बहुमूल्य दवाओं में विकसित किया गया है, इसके उदाहरण हैं- मार्फीन (Papaver somniferum) का दर्द निवारक के रूप में उपयोग, कुनैन (Cinchona ladgeriana), मलेरिया के उपचार हेतु एवं टैक्सोल (Taxus brevifolia) कैंसर की दवा है ।

सदाबहार (Catharanthus roseus) के पौधे से विनब्लास्टीन (Vinblastine) एवं विन्क्रिस्टीन नामक कैंसर रोधी औषधियाँ निर्मित की जाती हैं। इन औषधियों से बाल्यकाल में होने वाले रक्त कैंसर ‘ल्यूकेमिया’ (Leukemia) पर 99 प्रतिशत नियंत्रण कर लेने में सफलता अर्जित हुई है। कवक द्वारा पैनीसिलीन, जीवाणु से एरिथ्रोमाइसिन, टेट्रासाइक्लिन नामक प्रतिजैविक औषधियाँ निर्मित की जाती हैं। वर्तमान में औषधि निर्माण में दवाओं का 25 प्रतिशत, पादप की मात्र 120 जातियों से प्राप्त होता है परन्तु सम्पूर्ण विश्व में परंपरागत औषधियों में हजारों पादप जातियों का उपयोग होता है। वन्य पादपों विशेषतः उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों के पादपों में उच्च स्तर की औषधियाँ पाई जाती हैं। ये पादप विषों एवं औषधियों के स्रोत के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं।

(3) सौंदर्यपरक एवं सांस्कृतिक लाभ (Aesthetic and Cultural Benefits)- प्रकृति को सुन्दर रूप प्रदान करने में जैव विविधता की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जैव विविधता का सौंदर्य में योगदान है। उदाहरण के तौर पर पारिस्थितिक पर्यटन, पक्षी निरीक्षण, पालतू जीवों की देखभाल, बागवानी आदि । जन्तुआलय (Zoo) में जितनी ज्यादा जैव विविधता होती है, वह दर्शकों को उतना ही ज्यादा मनोरंजक लगती है।

पर्यटक प्राकृतिक सुन्दरता व वन्यप्राणियों को देखते हैं, इसे इकोटूरिज्म (Ecotourism) कहते हैं । कुछ पौधे सुन्दरता के लिए सड़कों के दोनों ओर उगाये जाते हैं । मानव के सम्पूर्ण इतिहास में लोगों ने जैव विविधता के महत्त्व को मानव जाति के अस्तित्व से सांस्कृतिक एवं धार्मिक विश्वास के माध्यम से जोड़ा है।

अधिकतर गाँवों एवं कस्बों में तुलसी, पीपल, केला, आंवला एवं खेजड़ी जैसे पादप तथा विभिन्न अन्य वृक्ष लगाये जाते हैं, जिन्हें लोग पवित्र मानकर पूजा करते हैं। अशोक, आम की पत्तियों की ‘बन्दनवार’, यज्ञ, विवाह, धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान अनिवार्य रूप से लगाई जाती हैं। निःसंदेह, मानव की इस प्रकार की मनोवृत्ति प्रकृति की वानस्पतिक सम्पदा को सुरक्षित रखती है।

(4) नीति मान (Ethical Value) – हमारा समाज आदिकाल से सदैव वृक्षों की पूजा करके उन्हें संरक्षित करने में अग्रणी रहा है। हमारे देश के राजस्थान प्रान्त में कदम्ब एवं खेजड़ी व आंवला, उड़ीसा में आम, इमली; मध्य प्रदेश में ढाक तथा बिहार में महुआ की पूजा की जाती है।

(5) आनुवंशिक मूल्य ( Genetic Value) – जीवधारियों में ऐसे अनेक लक्षण हैं जिनका अनुसंधान होना अभी तक शेष है। किसी भी समष्टि में जीन – कोश ( Gene pool) संबंधित जाति का प्रतिनिधि होता है। जीन कोश से तात्पर्य है कि किसी भी समष्टि के जीवधारियों के जीनों का साथ-साथ जुड़ना। इनका संरक्षित रहना परम आवश्यक है ताकि निकट भविष्य में इनका लाभदायक उपयोग किया जा सके। अतः प्रकृति प्रदत्त जैव विविधता मानव के लिए एक वरदान है। जैव विविधता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव को लाभ देती है, यद्यपि यह मानव से कुछ नहीं लेती है।

प्रश्न 7.
पवित्र उपवन क्या हैं? उनकी संरक्षण में क्या भूमिका है?
उत्तर;
भारत में पारिस्थितिकतः अद्वितीय और जैवविविधता – समृद्ध क्षेत्रों को राष्ट्रीय उद्यानों, वन्यजीव अभयारण्यों जीवमंडल आरक्षितियों (Biosphere Reserves) के रूप में कानूनी सुरक्षा प्रदान की गई है। अब भारत में 14 जीवमंडल संरक्षित क्षेत्र, 90 राष्ट्रीय उद्यान तथा 448 वन्य जीव अभयारण्य हैं। भारत में सांस्कृतिक व धार्मिक परम्परा का इतिहास जो प्रकृति की रक्षा करने पर जोर देता है ।

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बहुत-सी संस्कृतियों में वनों के लिए अलग भू-भाग छोड़े जाते थे और उनमें सभी पौधों तथा वन्यजीवों की पूजा की जाती थी। इस तरह के पवित्र उपवन (Sacred groves) या आश्रय मेघालय की खासी तथा जयंतिया पहाड़ी, राजस्थान की अरावली, कर्नाटक तथा महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट व मध्यप्रदेश की सरगूजा, चंदा व बस्तर क्षेत्र हैं।

मेघालय के पवित्र उपवन बहुत सी दुर्लभ व संकटोत्पन्न पादपों की अंतिम शरणस्थली हैं। भारत तथा कुछ अन्य एशियाई देशों में जैव विविधता के संरक्षण की सुरक्षा के लिए एक पारंपरिक नीति अपनाई जाती रही है। ये विभिन्न आमापों के वन खंड हैं जो जनजातीय समुदायों द्वारा धार्मिक पवित्रता प्रदान किये जाने से सुरक्षित हैं ।

पवित्र वन सबसे अधिक निर्विघ्न वन हैं जहाँ मानव का कोई प्रभाव नहीं है। ये द्वीपों ( Islands ) का प्रतिनिधित्व करते हैं और सभी प्रकार के विघ्नों से मुक्त हैं। यद्यपि ये बहुधा अत्यधिक निम्नीकृत भू-दृश्य द्वारा घिरे होते हैं। इस सन्दर्भ में देखें तो सिक्किम की केचियोपालरी झील पवित्र मानी जाती है एवं इसका संरक्षण जनता द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 8.
पारितंत्र सेवा के अंतर्गत बाढ़ व भू-अपरदन (Soil Erosion) नियंत्रण आते हैं। यह किस प्रकार पारितंत्र के जीवीय घटकों (Biotic Components) द्वारा पूर्ण होते हैं?
उत्तर:
जैव विविधता पृथ्वी की संरचना को बनाए रखती है, जिसके कारण मिट्टी तथा पोषकों की कमी नहीं होती है। पारिस्थितिक तंत्र की धारण क्षमता के अभाव में मृदा अपरदन होता है, जिसके फलस्वरूप मिट्टी में लवणता विकसित होती है। मिट्टी में पोषकों की मात्रा घट जाती है तथा मिट्टी की ऊपरी परत का अपक्षय हो जाता है, जिसके कारण मिट्टी की उर्वरता प्रभावित होती है।

विभिन्न प्रकार के मृदा जीव मिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं तो वनस्पति का आवरण मिट्टी की ऊपरी परत को ढँक कर रखता है। इस कारण मृदा संरक्षित रहती है। जीवों के मृत भाग मृदा में मिलकर ह्यूमस बनाते हैं। मृदा से पौधे जल को ग्रहण करते हैं व वाष्पोत्सर्जन की क्रिया करते हैं। वनस्पति आवरण बाढ़ को भी नियंत्रित करता है। वनस्पति जल – चक्र को नियंत्रित करती है। वनस्पति के कारण मृदा में जल का संतुलन बना रहता है, यही नहीं, पर्यावरण का संतुलन भी बना रहता है।

वन विनाश से प्राकृतिक आपदाएं बढ़ने लगी हैं, जिसमें बाढ़ भी एक है। वैज्ञानिकों का कथन है कि मौसम को सुव्यवस्थित बनाये रखने में वनों की महती भूमिका है। यदि वनस्पति घटती जायेगी तो उस क्षेत्र का मौसम गड़बड़ाने लगेगा। वृक्षों की जड़ें जमीन से गहराई तक होने के कारण वर्षा के प्रवाह में बहने वाली मिट्टी को रोकती हैं, साथ ही धरती के जलस्तर में भी वृद्धि करती हैं।

प्रश्न 9.
पादपों की जाति विविधता (22 प्रतिशत ) जंतुओं (72 प्रतिशत) की अपेक्षा बहुत कम है; क्या कारण है कि जंतुओं में अधिक विविधता मिलती है?
उत्तर:
पृथ्वी पर जैव विविधिता को देखें तो सभी आकलित जातियों में से 70 प्रतिशत से अधिक जन्तु हैं, जबकि शैवाल, कवक, ब्रायोफाइट, आवृत्तबीजी तथा अनावृत्तबीजियों जैसे पादपों को मिलाकर 22 प्रतिशत से अधिक नहीं हैं। जन्तुओं में कीट सबसे अधिक समृद्ध जातीय वर्ग समूह है, जो संपूर्ण जातियों के 70 प्रतिशत से अधिक है इसका अर्थ यह है कि इस ग्रह में प्रत्येक 10 जंतुओं में से 7 कीट हैं। पुनः कीटों की इस अत्यधिक विविधता को हम कैसे समझाएँ ? संसार में कवक जातियों की कुल संख्या मछली, उभयचर (एम्फीबिया ), सरीसृप ( रेप्टाइल) तथा स्तनधारियों (मैमल्स) से अधिक है।

HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 15 जैव-विविधता एवं संरक्षण

इसका कारण यह है कि जन्तुओं में वर्गकों (Texa) के समूह अधिक होते हैं तथा इसमें भी कीटों की संख्या सर्वाधिक होती है। पादपों में वर्गक समूह कम होते हैं तथा बचाव के साधन कम होने व पर्यावरण में परिवर्तन होने के कारण विलुप्त होने की सम्भावना अधिक रहती है। जन्तु अपनी रक्षा करने में सक्षम होते हैं तथा इन पर परिवर्तित पर्यावरण का प्रभाव पादपों की तुलना में कम होता है।

पादपों की वृद्धि व जैव विविधता के लिए उष्ण कटिबंध क्षेत्र अधिक उपयुक्त होते हैं। पृथ्वी पर इस प्रकार के क्षेत्र सम्पूर्ण पृथ्वी की तुलना में कम हैं। प्राणियों में तन्त्रिका तंत्र तथा अन्तःस्रावी तंत्र पाया जाता है। जिससे प्राणी वातावरण से संवेदनाओं को ग्रहण करके उसके प्रति अनुक्रिया करते हैं व स्वयं को वातावरण के प्रति अनुकूलित कर लेते हैं। इस कारण किसी भी पारितंत्र में जन्तुओं में अधिक जैव विविधता मिलती है।

प्रश्न 10.
क्या आप ऐसी स्थिति के बारे में सोच सकते हैं, जहाँ पर जानबूझकर किसी जाति को विलुप्त करना चाहते हैं? क्या आप इसे उचित समझते हैं?
उत्तर:
जब कोई जाति पर्यावरण को हानि पहुँचाना प्रारम्भ कर देती है तथा अन्य प्राकृतिक जातियों को पीड़ित करने लगती है तब इस प्रकार की जाति को जान-बूझकर विलुप्त करना आवश्यक हो जाता है। उदाहरण के तौर पर ऐवीज मच्छर (जो डेंगू ज्वर, हाथी पांव तथा अन्य रोग फैलाता है) तथा ऐनोफेलीज मच्छर (जो कि मलेरिया फैलाता है) को विलुप्त किया जा रहा है। इन मच्छरों को नष्ट या विलुप्त करके अनेक लोगों का जीवन बचा सकते हैं।

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