HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 13 जीव और समष्टियाँ

Haryana State Board HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 13 जीव और समष्टियाँ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Biology Solutions Chapter 13 जीव और समष्टियाँ

प्रश्न 1.
शीत निष्क्रियता (हाइबर्नेशन) से उपरति (डायपाज) किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर:
दोनों ही क्रियाएँ ताप अनुकूलन से सम्बन्धित हैं। प्राणियों में जब जीव प्रवास ( migrate ) नहीं कर पाता है तो वह समय में पलायन करके शीत ताप से बचता है जैसे शीत ऋतुओं में ऋतुओं की शीतनिष्क्रियता (hibernation) में जाना तथा उस समय पलायन से बचाव का तरीका है। प्रतिकूल परिस्थितियों में झीलें और तालाबों में प्राणीप्लवक (zooplankton ) की अनेक जातियाँ उपरति ( diapause) में आ जाती हैं जो निलंबित (suspended ) परिवर्धन की एक अवस्था है ।

दोनों ही क्रियाओं में प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित बचे रहने में सहायता मिलती है। जैसे ही इन्हें उपयुक्त पर्यावरण उपलब्ध होता है, ये अपना सामान्य जीवन व्यतीत करने लगते हैं। इन अवस्थाओं में भोजन ग्रहण, वृद्धि, गतिशीलता तथा प्रजनन क्रियायें सुप्त ( dormant ) हो जाती हैं।

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प्रश्न 2.
अगर समुद्री मछली को अलवणजल (फ्रेश वाटर) की जलजीवशाला (एक्वेरियम) में रखा जाता है तो क्या यह मछली जीवित रह पायेगी? क्यों और क्यों नहीं?
उत्तर:
समुद्री जल में लवणता 3% होती है, जो प्रायः समुद्रों में एक समान होती है। इस गुण के कारण समुद्री प्राणियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवासन में कोई बाधा नहीं होती है। जबकि अलवणीय जल में लवणता परिवर्तनशील होती है समुद्री व अलवणीय जल (शुद्ध जल ) में रहने वाले प्राणियों को शरीर में पानी के नियमन की समस्या से सामना करना पड़ता है।

शुद्ध जलीय (अलवणीय) प्राणियों को अंत: परासरण (endosmosis) से सामना करना पड़ता है, जबकि समुद्री प्राणियों को बहि: परासरण ( exosmosis) से सामना करना पड़ता है। जब अलवण जल प्राणी समुद्र के पानी में और समुद्री प्राणी अलवण जल में लंबे समय तक नहीं रह सकते; क्योंकि उन्हें परासरणी (Osmotic) समस्याओं का से सामना करना पड़ता है, जबकि समुद्री प्राणियों को बहि: परासरण ( exosmosis) से सामना करना पड़ता है।

जब अलवण जल प्राणी समुद्र के पानी में और समुद्री प्राणी अलवण जल में लंबे समय तक नहीं रह सकते; क्योंकि उन्हें परासरणी ( osmotic) समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अत: समुद्री मछली को अलवणजल की जलजीवशाला में रखने पर कुछ समय पश्चात् मर जायेगी ।

प्रश्न 3.
लक्षण प्ररूपी (फीनोटाइपिक) अनुकूलन की परिभाषा दीजिए। एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
किसी जीव का कोई ऐसा लक्षण ( आकारिकीय, कार्यिकीय, व्यावहारिक) है जो उसे अपने आवास में जीवित बने रहने तथा जनन करने के योग्य बनाता है, इसे अनुकूलन कहते हैं । आकारिकीय लक्षण बाहर से दिखते हैं अतः ये लक्षण प्ररूपी अनुकूलन होते हैं। अतः बाहरी ऐसा लक्षण जिसके कारण वह जीव वहाँ के पर्यावरण में जीवित रहने में सक्षम होता है, उसे लक्षण प्ररूप अनुकूलन कहते हैं।

उदाहरणार्थ- मरुस्थली पादप जैसे नागफनी (opuntia) कैक्टस में पत्तियों का अभाव होता है क्योंकि वे कांटों में रूपान्तरित होकर वाष्पोत्सर्जन न्यून करती हैं। मरुस्थल में जल की कमी होती है, अतः ये जल की कम से कम हानि करते हैं। पत्तियों का कार्य हरे चपटे तनों के द्वारा होता है। यहाँ बाहर से देखें तो कांटे पत्तियों का रूपान्तरण है तथा तना चपटा व हरा पत्ती सदृश होता है। मरुस्थलीय पौधों की पत्तियों की सतह पर मोटी उपत्वचा व रंध्र गहरे गर्त में व्यवस्थित होते हैं।

इससे भी वाष्पोत्सर्जन कम होता है । मरुस्थलीय पादपों की पत्तियाँ छोटी होती हैं। जड़ें लम्बी व गहरी होती हैं। जल में रहने वाली वनस्पति की पत्तियाँ कटी होती हैं। ठंडी जलवायु वाले स्तनधारियों के कान और पाद प्राय: छोटे होते हैं। जीवाणुओं, कवकों व निम्न पादपों में विभिन्न प्रकार के मोटी भित्ति वाले बीजाणु बनते हैं, जिससे उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित बचे रहने में सहायता मिलती है।

प्रश्न 4.
अधिकतर जीवधारी 45° सेंटी. से अधिक तापमान पर जीवित नहीं रह सकते। कुछ सूक्ष्मजीव (माइक्रोव ) ऐसे आवास में जहाँ तापमान 100° सेंटी. से अधिक है, कैसे जीवित रहते हैं?
उत्तर:
सभी सजीवों में समस्त प्रकार की उपापचयी क्रियाएँ एक निश्चित न्यून तापक्रम पर प्रारम्भ हो जाती हैं। तापक्रम के बढ़ने के साथ-साथ उपापचयी क्रिया की दर भी बढ़ जाती है परन्तु और अधिक तापमान के बढ़ने के साथ-साथ उपापचयी क्रियाएँ धीरे-धीरे मंद होना प्रारम्भ हो जाती हैं। कुछ प्राणियों में जैविक क्रियायें अत्यधिक तापक्रम पर भी होती रहती हैं।

जीवाणुओं, कवकों व निम्न पादपों में विभिन्न प्रकार के मोटी भित्ति वाले बीजाणु बनते हैं, जिससे वे उच्च ताप को सह लेते हैं । बीजाणुओं में जनन के दौरान अन्त: बीजाणु (endospore) बनता है। अन्त: बीजाणु की भित्ति मोटी होती है। बेसिलस एन्थेसिस व क्लॉस्ट्रीडियम टेटेनी का जीवाणु तो 100°C तापमान को सहन कर सकता है। ताप के प्रति यह रोधकता भित्ति में उपस्थित कैल्सियम, डाइपिकोलीनिक अम्ल की अधिकता के कारण होती है।

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प्रश्न 5.
उन गुणों को बताइए जो व्यष्टियों में तो नहीं पर समष्टियों में होते हैं ।
उत्तर:
प्रायः किसी भी जाति का कोई जीव एकल व्यष्टि (individual) में न रहकर किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में समूह में रहते हैं। ये व्यष्टियाँ समूह में रहती हुई समान संसाधनों का सांझा उपयोग करते हैं या उनके लिये स्पर्धा करते हैं, अन्तःप्रजनन (interbreed) करते हैं और इस प्रकार वे समष्टि (population ) की रचना करते हैं । किसी जाति की व्यष्टि ही समूह में रहकर समष्टि बनाती है।
हैं, जैसे-
समष्टि में कुछ ऐसे गुण होते हैं जो व्यष्टि जीव में नहीं होते
(1) व्यष्टि जन्म लेता है और मरता है परन्तु समष्टि में जन्म दरें व मृत्यु दरें होती हैं। समष्टि में इन दरों को क्रमशः प्रति व्यक्ति जन्म दर व मृत्यु दर कहते हैं। इसलिये दर को समष्टि के सदस्यों के सम्बन्धों में संख्या में परिवर्तन ( वृद्धि या ह्रास) के रूप में प्रकट किया जाता है।

(2) समष्टि का अन्य विशिष्ट गुण लिंग अनुपात ( sex ratio) है अर्थात् नर व मादा का अनुपात होता है। व्यष्टि या तो नर है या मादा है, परन्तु समष्टि का लिंग अनुपात होता है। किसी दिये गये समय में समष्टि भिन्न आयु वाले व्यष्टियों से मिलकर बनती है। यदि समष्टि के लिये आयु वितरण आलेखित (plotted) किया जाता है तो बनने वाली संरचना आयु पिरैमिड (age pyramid ) कहलाती है I

(3) समष्टि की साइज ( size) आवास में उसकी स्थिति में बारे में बताती है। कभी-कभी समष्टि की कम साइज होते हुए भी जीवों की संख्या अधिक होती है जैसे भरतपुर आर्द्रभूमि क्षेत्रों में किसी वर्ष साइबेरियाई सारस लाखों में हो सकते हैं। इनकी संख्याओं को समष्टि घनत्व (population density) से बताते हैं।

प्रश्न 6.
अगर चरघातांकी रूप से (एक्सपोनेन्शियली ) बढ़ रही समष्टि 3 वर्ष में दोगुने साइज की हो जाती है, तो समष्टि की वृद्धि की इन्ट्रिन्जिक दर (r) क्या है ?
उत्तर:
चरघातांकी वृद्धि (Exponential Growth) – किसी समष्टि की अबाधित वृद्धि उपलब्ध संसाधनों (आहार, स्थान आदि) पर निर्भर करती है। असीमित संसाधनों की उपलब्धता होने पर समष्टि में संख्या वृद्धि पूर्ण क्षमता से होती है। जैसा कि डार्विन ने प्राकृतिक वरण सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुए प्रेक्षित किया था, इसे चरघातांकी अथवा ज्यामितीय (Exponential or Geometric) वृद्धि कहते हैं। यदि N साइज की समष्टि में जन्मदर ‘b’ और मृत्युदर ‘d’ के रूप में निरूपित की जाए, तब इकाई समय अवधि ‘t’ में समष्टि की वृद्धि या कमी होगी-

‘r’ प्राकृतिक वृद्धि की इन्ट्रिन्जिक दर ( Intrinsic Rate) कहलाती है। यह समष्टि वृद्धि पर जैविक या अजैविक कारकों के प्रभाव को निर्धारित करने के लिए महत्त्वपूर्ण प्राचल (Parameter) है। यदि समष्टि 3 वर्ष में दोगुने साइज की हो जाती है तो समष्टि की वृद्धि की इन्ट्रिन्जिक दर ‘3r’ होगी।

प्रश्न 7.
पादपों में शाकाहारिता (herbivory) के विरुद्ध रक्षा करने की महत्त्वपूर्ण विधियाँ बताइए।
उत्तर:
पादपों के लिये शाकाहारी प्राणी परभक्षी है। लगभग 25 प्रतिशत कीट पादपभक्षी ( phytophagous) हैं अर्थात् वे पादप रस व पौधों के अन्य भाग खाते हैं। पौधों के लिये यह समस्या विशेष रूप से गंभीर है, क्योंकि वे अपने परभक्षियों से दूर नहीं भाग सकते जैसा कि प्राणी कर सकते हैं। इसलिये पादपों ने शाकाहारियों से बचने के लिये आश्चर्यजनक रूप से आकारिकीय और रासायनिक रक्षाविधियाँ विकसित कर ली हैं। रक्षा के लिये सबसे सामान्य आकारिकीय साधन काँटे (एकेशिया, कैक्टस) हैं।

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बेर की झाड़ी में कांटे होते हैं। अनेक पौधे इस प्रकार के रसायन उत्पन्न और भंडारित करते हैं जो खाए जाने पर शाकाहारियों को बीमार कर देते हैं, पाचन का संदमन करते हैं, उनके जनन को भंग कर देते हैं या मार तक देते हैं। खाली पेड़ खेतों में उगे हुये आक (calotropis ) खरपतवार अधिक विषैला ग्लाइकोसाइड उत्पन्न करता है जिसके कारण कभी भी कोई पशु इस पौधे को नहीं खाते हैं। पौधों से अनेक रसायन जैसे निकोटीन, कैफीन, क्वीनीन, स्ट्रिकनीन, अफीम आदि प्राप्त होते हैं। वस्तुतः ये रसायन चरने वाले प्राणियों से बचने की रक्षाविधियाँ हैं ।

प्रश्न 8.
ऑर्किड पौधा, आम के पेड़ की शाखा पर उग रहा है। ऑर्किड और आम के पेड़ के बीच पारस्परिक क्रिया का वर्णन आप कैसे करेंगे?
उत्तर:
आम की शाखा पर अधिपादप (epiphyte) के रूप में उगने वाला ऑर्किड पौधा एक सहभोजिता ( commensalism) का उदाहरण है। सहभोजिता में एक जाति को लाभ होता है और दूसरी को न हानि व न लाभ होता है। यहाँ ऑर्किड को फायदा होता है जबकि आम को इससे कोई लाभ नहीं होता है। ऑर्किड का पौधा आम की शाखा पर उगकर प्रकाश, वायु व वातावरण से नमी का अवशोषण करता है।

प्रश्न 9.
कीट पीड़कों (pest / insect) के प्रबंध के लिये जैव- नियंत्रण विधि के पीछे क्या पारिस्थितिक सिद्धांत हैं?
उत्तर:
पारिस्थितिक दृष्टि से कीट पीड़कों के प्रबंध जैव नियंत्रण विधि परभक्षण (predation) क्रिया है। जब जीवों में पारस्परिक क्रियायें होती हैं तो स्वाभाविक है कि एक जाति को लाभ व दूसरी जाति को हानि होती है। जैसे पौधों को खाने वाले प्राणी शाकाहारी होते हैं परन्तुं पारिस्थितिक सन्दर्भ में वे परभक्षी होते हैं। सामान्यत: कृषि में पीड़कनाशियों के नियंत्रण हेतु विभिन्न प्रकार के रसायन उपयोग में लिये जाते हैं। इसके स्थान पर इन पीड़कनाशियों का नियंत्रण जैव विधियों से किया जाता है।

परभक्षण में एक जीव समूल रूप से दूसरे जीव का भक्षण कर लेता है अर्थात् एक जीव को लाभ तथा दूसरे जीव को हानि होती है। यदि प्रकृति में परभक्षी नहीं होते तो शिकार जातियों का समष्टि (population ) घनत्व बहुत ज्यादा हो जाता और परितंत्र में अस्थिरता आ जाती। जब भी किसी भौगोलिक क्षेत्र में कुछ विदेशज जातियाँ लाई जाती हैं तो वे आक्रामक हो जाती हैं व तेजी से फैलने लगती हैं क्योंकि आक्रांत भूमि में उसके प्राकृतिक परभक्षी नहीं होते हैं।

उदाहरण के लिये सन् 1920 के आरंभ में आस्ट्रेलिया में लाई गई नागफनी (opuntia) ने वहाँ लाखों हेक्टेयर क्षेत्र में तेजी से फैलकर तबाही मचा दी। नागफनी के नियंत्रण के लिये नागफनी को खाने वाले परभक्षी (एक प्रकार का शलभ) को उसके प्राकृतिक आवास आस्ट्रेलिया में लाया गया, तब जाकर आक्रामक नागफनी को नियंत्रित किया जा सका।

कृषि पीड़कनाशी के नियंत्रण (pest control) में अपनाए गये जैव नियंत्रण (Biological control) विधियाँ परभक्षी की समष्टि नियमन की योग्यता पर आधारित हैं। परभक्षी, स्पर्धी जातियों (competitive species) के बीच स्पर्धा की तीव्रता कम करके किसी समुदाय में जातियों की विविधता (diversity) बनाए रखने में भी सहायता करता है।

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित के बीच अंतर कीजिए-
(क) शीत निष्क्रियता और ग्रीष्म निष्क्रियता (Hibernation and Aestivation)
(ख) बाह्योष्मी और आंतरोष्मी (Ectotherms and endotherms)।
उत्तर:
(क) शीत निष्क्रियता और ग्रीष्म निष्क्रियता- दोनों ही अजीवीय कारकों के प्रति अनुक्रियाओं ( responses to abiotic factors) हैं जो जीवित रहने के लिये अपने आपको निलंबन (suspend ) करती हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में वे अपनी उपापचयी सक्रियता को कम कर और प्रसुप्ति (dormancy) अवस्था में जाकर अपने आप को बचाते हैं। प्राणियों में जीव वहाँ से पलायन करके अपने आप को सुरक्षित रखते हैं परन्तु यदि कोई जीव या प्राणी प्रवास नहीं कर सकता है तो वह समय में पलायन करके प्रतिकूल परिस्थितियों से बचता है। जैसे शीतऋतु में भालू (bear) शीतनिष्क्रियता (Hibernation) में जाकर उस समय पलायन से बचाव करता है। इसी प्रकार कुछ घोंघे और मछलियाँ ग्रीष्म ऋतु से संबंधित ताप व जलशुष्कन जैसी समस्याओं से बचने के लिये ग्रीष्म निष्क्रियता ( Aestivation) में चली जाती हैं। दोनों में ही अधिक व कम ताप से बचाव की युक्तियाँ हैं ।

(ख) बाह्योष्मी और आंतराष्मी – एन्डोथर्मिक या होमियोथर्मिक जन्तु (Endothermic or Homeothermic animals) गरम रक्त वाले जन्तु होते हैं जैसे-पक्षी, स्तनपायी आदि हैं जो अपने शरीर का तापमान किसी भी वातावरणीय ( शरीर की उपापचयी क्रियाओं द्वारा अपने शरीर ताप का नियमन करते रहते हैं ) परिस्थिति में स्थिर बनाये रखते हैं।

एक्टोथर्मिक या पोइकिलोथर्मिक जन्तु (Ectothermic or Poikilothermic animals) विषमतापी या ठंडे रक्त (cold blooded) वाले जन्तु होते हैं, जैसे सरीसृप, मछलियाँ तथा उभयचर आते हैं जिनके शरीर का तापमान वातावरण के तापमान के समय घटता बढ़ता (शीत और ग्रीष्म निष्क्रियता के फलस्वरूप ) रहता है।

प्रश्न 11.
निम्नलिखित पर संक्षित टिप्पणी (नोट) लिखिए-
(क) मरुस्थल पादपों और प्राणियों का अनुकूलन
(ख) जल की कमी के प्रति पादपों का अनुकूलन
(ग) प्राणियों में व्यावहारिक ( बिहेवियोरल) अनुकूलन
(घ) पादपों के लिए प्रकाश का महत्त्व
(च) तापमान और पानी की कमी का प्रभाव तथा प्राणियों का अनुकूलन ।
उत्तर:
(क) मरुस्थल पादपों और प्राणियों का अनुकूलन-
(i) पादप – मरुस्थल क्षेत्रों में जल की न्यूनता होती है। अतः इन पौधों की जड़ें गहरी व विस्तारित होती हैं। वाष्पोत्सर्जन की दर को कम करने के लिये पर्ण ऊपर से नीचे की ओर धीरे-धीरे सूखती जाती है (उदा. घास), पर्ण कुछ में वेल्लित ( rolling) व वलित (folding ) होती है (उदा. एमोफिला ), जलाभाव के कारण कोमल पत्तियाँ झड़ जाती हैं, पर्ण की ऊपरी सतह मोमिया होती है तथा मोटी क्यूटीकल ( cuticle) उपत्वचा व अधिचर्म कोशिकाएँ क्यूटनीकृत (cutinized) होती हैं।

पत्तियों की निचली सतह पर रंध्र गर्तों में स्थित होते हैं, पर्ण छोटे, संकरे व कांटों में रूपान्तरित होते हैं। नागफनी में पर्ण कांटों में रूपान्तरित व स्तम्भ हरा व चपटा पर्णाभ स्तम्भ (phylloclade) होता है। पर्ण व स्तम्भ पर प्रायः सघन रोमी या मोमी स्तर पाया जाता है। गूदेदार स्तम्भ जल का संग्रह करते हैं। मांसल पौधों (ग्वारपाठा, रामबाँस, सालसोला) में पर्ण के पर्णमध्योतक में जल संग्रही ऊतक होते हैं। कुछ मरुस्थलीय पादपों में विशिष्ट प्रकाश संश्लेषी पथ (CAM) पाया जाता है जो जल की हानि को रोकता है।

(ii) प्राणी – मरुस्थलीय प्राणियों की त्वचा में स्वेद ग्रंथियों की संख्या कम व ये मोटे आवरण वाले आश्रय स्थलों में रहते हैं जिससे प्रस्वेदन (Perspiration) कम होता है। इनकी त्वचा मोटी व अपारगम्य होती है, त्वचा पर शल्क व कांटे होते हैं। इनमें ऊष्मीय सहनशीलता की क्षमता होती है। प्राणियों में सांद्रित मूत्र या अर्ध ठोस यूरिक अम्ल का उत्सर्जन किया जाता है। अधिकांश मरुस्थलीय प्राणी बिलकारी व रात्रिचर स्वभाव (burrowing and nocturnal habit) वाले होते हैं।

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ये प्राणी जल व भोजन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने पर ही सक्रिय होते हैं, अन्यथा सुप्त अवस्था में रहते हैं। यूरोमेस्टिक्स (Uromastics) में बृहद आंत्र में तथा ऊँट के कूबड़ में चर्बी (fat) एकत्र रहती है। इसके जैविक विघटन तथा उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप जल का निर्माण होता है।

यह जल ऊँट के आमाशय में पाई जाने वाली जल कोशिकाओं (Water Cells) में एकत्र होता रहता है। ये प्राणी जल छिद्रों (water hole), ओस बूंदों से, रक्त से, बीजों से, मांसल पादपों से जल प्राप्त करते हैं। इनकी त्वचा आर्द्रताग्राही व उपापचय जल की प्राप्ति करते हैं ऊष्मा की सहनशीलता के लिये इनमें सुरक्षात्मक आवरण, लम्बी टांगों की उपस्थिति, बिलकारी प्रवृत्ति, एडिपोज ( adipose) स्तर की अनुपस्थिति होती है। तेज गर्मी के समय निश्चेष्ट होकर एस्टीवेशन (aestivation) में रहते हैं। नासिकाएँ ( nostrils) छोटे होते हैं, आंखों की पलकों में रूपांतरण होता है, नीचे की पलकें बड़ी व पारदर्शक होती हैं। आंखों को बन्द करने के बाद भी इन्हें दिखाई देता है। कानों पर रोम, गद्दीदार पैर, सुरक्षात्मक रंग, विष ग्रंथियाँ, विकसित संवेदी अंग आदि से ये अपनी रक्षा करते हैं।

(ख) जल की कमी के प्रति पादपों का अनुकूलन-
जल की कमी के कारण कुछ पौधे जलाभाव पलायनी (drought escaping) प्रवृत्ति के होते हैं। शुष्क क्षेत्रों में ये पौधे वर्षा ऋतु में उगकर उस ऋतु में ही अपना जीवन वृत्तांत पूर्ण कर लेते हैं। प्रतिकूल समय में ये बीज के रूप में रहते हैं, जैसे- केसिया टोरा ( Cassia tora ), टेफ्रोसिया (Taphrasia) आदि। कुछ पौधे मांसल प्रवृत्ति के होते हैं । प्रतिकूल परिस्थितियों में यह मांसल अंगों में संग्रहित जल का ढंग से उपयोग करते हैं, जैसे ग्वारपाठा (Aloe ), यूफोर्बिया (Euphorbia), नागफनी (Opuntia) आदि ।

अन्य पौधे शुष्कतारोधी (Drought resistant) होते हैं तथा ये सत्य मरुद्भिद (true xerophytes ) होते हैं। इनमें आकारिकी, शारीरिकी ( anatomical ) व शरीर क्रियात्मक अनुकूलन होता है। इनमें अधिक गहराई तक शीघ्र वृद्धि करने वाला विस्तारित मूल तन्त्र ( root system) होता है। शुष्कता को सहन करने के लिये कोशिकाओं का उच्च परासरणी दाब ( osmotic pressure) होता है तथा म्लान अवस्था (wilting condition) में वाष्पोत्सर्जन दर को यथासम्भव कम करने की क्षमता होती है। अनेक मरुस्थलीय पौधों की पत्तियों की सतह पर मोटी उपत्वचा (क्यूटिकल) होती है और उनके रंध्र (स्टोमैटा) गहरे गर्त में व्यवस्थित

प्रकाश की तीव्रता स्थलाकृति, अक्षांश, तुंगता, वातावरण की स्थिति तथा ऋतुओं से प्रभावित होती है। तीव्रता का मापन प्रकाशमापी या लक्समीटर (Photometer or Luxmeter) से किया जाता है। प्रकाश की अवधि भी महत्त्वपूर्ण है, इसे दीप्तिकालिकता कहते हैं । पौधों के पुष्पीकरण तथा फलन क्रियाओं पर इसका प्रभाव पड़ता है।

जो पौधे प्रकाश में उगते हैं, उन्हें प्रकाशप्रिय या आतपरागी या आतपोद्भिद (Photophilous or Heliophilous or Heliophytes ) कहते हैं, जैसे सूरजमुखी, पोपुलस, एमेरेन्थस छाया में उगने वाले पौधों को छायारागी या अतापोद्भिद (Sciophilous or Sciophytes ) कहते हैं। जैसे – पाइसिया, ऐबीज, टेक्सस आदि ।

पादपों पर प्रकाश का प्रभाव (Effect of Light on Plants) – प्रकाश का प्रभाव विभिन्न कार्यिकी प्रक्रमों पर होता है, जैसे- प्रकाश संश्लेषण, वाष्पोत्सर्जन, श्वसन, पादप वृद्धि, पादप वितरण तथा आन्तरिक रचना पर पड़ता है। पौधों को पर्याप्त प्रकाश न मिलने पर पीले हो जाते हैं, इसे पाण्डुरिता (Etiolation) कहते हैं। पुष्प हार्मोन ( फ्लोरीजन) का व पर्णहरिम का निर्माण भी प्रकाश में होता है। जलीय तंत्र में प्रकाश के आधार पर पादप वितरण होता है।

अनेक पौधे पुष्पन हेतु अपनी दीप्तिकालिक (Photoperiodic) आवश्यकता की पूर्ति के लिये प्रकाश पर निर्भर होते हैं। अनेक प्राणी प्रकाश की तीव्रता और अवधि (phoperiod) में दैनिक तथा मौसमी विभिन्नताओं को अपने चारे की खोज (foraging), जनन और प्रवासी गतिविधियों का समय तय करने के लिये संकेत के रूप में काम में लाते हैं।

(च) तापमान और जल की कमी का प्रभाव तथा प्राणियों का अनुकूलन-
प्राणी तथा वातावरण के मध्य निरंतर ऊर्जा का विनिमय होता रहता है। इस विनिमय के कारण ऊष्मा की प्राप्ति व ऊष्मीय क्षय के मध्य एक साम्य बना रहता है। ऊर्जा विनिमय की दृष्टि से वातावरण द्वारा अवशोषित ऊर्जा व उपापचय द्वारा उत्पन्न ऊर्जा का मान शरीर में संचित ऊर्जा व शरीर से नष्ट हुई ऊर्जा के मान के बराबर होना चाहिए।

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प्रत्येक सजीव में तापीय सहनशीलता की एक परास (range) होती है। जो प्राणी तापक्रम की वृहद परास को सहन कर सकते हैं, उन्हें यूरीथर्मल (eurythemal) कहते हैं। जैसे- साइक्लोप्स, मानव, स्पर्म व्हैल आदि । कम ताप परास को सहने वालों को स्टीनोथर्मल ( stenothermal) कहते हैं, जैसे- कोरल, टर्माइट, मछलियाँ, सरिसृप आदि ।

सजीवों की सभी उपापचयी क्रियायें एक निश्चित न्यून तापक्रम पर प्रारम्भ हो जाती हैं। तापक्रम के बढ़ने के साथ-साथ उपापचयी क्रिया की दर भी बढ़ जाती है परन्तु अधिक तापमान के बढ़ने के साथ- साथ उपापचयी क्रियायें धीरे-धीरे मंद होना प्रारम्भ हो जाती हैं। अतः प्राणी के लिये अनुकूलतम तापक्रम वह होता है जिस पर उपापचयी क्रियायें सुचारु रूप से चलती रहें। प्रायः शीतरुधिरधारी प्राणी ठण्डे ताप से बचने के लिये इनमें अतिकुण्डलन ( supercoiling ) तथा डायापॉज (diapause) की प्रवृत्ति होती है।

समतापी या गर्मरुधिर प्राणी (homeothermic animal) में उपत्वचीय वसा एक प्रकार से कुचालक का कार्य करती है, त्वचा पर रोम आवरण होता है। इनमें सतही रक्तवाहिनियाँ होती हैं। उच्च ताप के प्रति पृष्ठीय रक्त वाहिनियों के प्रसारित होने से रक्त सतह के निकट आ जाता है, जिससे वातावरण में ऊष्मा का ह्रास होता है। पसीने का स्राव व उपापचय मंद हो जाता

है। प्राणियों में लम्बे कान व रात्रिचर आवास (nocturnal habit) की प्रवृत्ति होती है। प्राणियों में प्रजनन व्यवहार का नियंत्रण तापमान के द्वारा होता है। प्राणियों का आकार, रंग व वृद्धि तापक्रम से प्रभावित होती है। तापक्रम का प्राणियों के वितरण पर अधिक प्रभाव पड़ता है। जल एक महत्त्वपूर्ण अजैविक कारक है। जीवद्रव्य का 73- 90% भाग जल के द्वारा निर्मित होता है जिसमें सभी उपापचयी क्रियायें सम्पन्न होती हैं। प्राणियों में जल को रोकने, निष्कासन करने या संरक्षण करने के लिये अनेक प्रकार की युक्तियाँ मिलती हैं।

जलीय जीवों के लिये जल की गुणता (pH) महत्त्वपूर्ण होती है। कुछ प्राणी लवणता की व्यापक परास के प्रति सहनशील होते हैं, उन्हें पृथुलवणी (eurohaline) कहते हैं परन्तु लवणता की कम परास वालों को तनुलवणी ( stenohaline) कहते हैं। शुद्ध जलीय प्राणी अंत:परासरण व समुद्री प्राणियों को बहि: परासरण से सामना करना पड़ता है।

जलीय प्राणी तर्कुरूपी, तैरने के लिये फिन (fin), श्वसन हेतु गिल्स तथा त्वचा म्यूकस ग्रंथियों युक्त होती है। इन जलीय प्राणियों में पूंछ बड़ी, आकार बाह्य कर्ण बड़ा, गर्दन छोटी व अचलायमान, अस्थियाँ हल्की व स्पंजी, विलुप्त, नासाछिद्र व आँखें शीर्ष भाग की ओर विस्थापित, भोजन चबाने की क्षमता नष्ट, त्वचा चिकनी होती है। मरुस्थलीय प्राणी जल की न्यूनता का सामना करते हैं। अतः इनमें बिलकारी आवास ( burrowing habits), रात्रिचर आवास, शुष्क अपारगम्य त्वचा, स्वेद ग्रंथियाँ कम, डायापॉज, प्रवासन व उत्सर्जन की प्रवृत्ति मिलती है।

प्रश्न 12.
अजीवीय (एबायोटिक) पर्यावरणीय कारकों की सूची बनाइए ।
उत्तर:
पर्यावरण में मुख्य रूप से दो घटक जीवीय तथा अजीवीय होते हैं। अजैविक कारक निम्न होते हैं-
(i) जलवायवीय कारक- जैसे प्रकाश, तापमान, वर्षण, पवन, वायुमण्डलीय गैसें तथा आर्द्रता आदि ।
(ii) मृदीय कारक – जैसे मृदा गठन, मृदा जीव, मृदा वायु, मृदा ताप, मृदा जल आदि ।
(iii) स्थलाकृतिक कारक- जैसे तुंगता, ढलान, अनावरण

प्रश्न 13.
निम्नलिखित का उदाहरण दीजिए-
(क) आतपोद्भिद (हेलियोफाइट)
(ख) छायोद्भिद (स्कियोफाइट)
(ग) सजीव प्रजक (विविपेरस) अंकुरण वाले पादप
(घ) आंतरोष्मी (एंडोथर्मिक ) प्राणी
(च) बाह्योष्मी (एक्टोथर्मिक ) प्राणी
(छ) नितलस्थ (बेंथिक ) जोन का जीव ।
उत्तर:
(क) आतपोद्भिद् (Heliophytes ) – वे पौधे जो सूर्य के प्रकाश में उगते हैं अर्थात् उन्हें तीव्रता का प्रकाश प्रिय होता है, उदाहरण – सूरजमुखी, एमेरेन्थस, पोपुलस।
(ख) छायोद्भिद (Sciophytes ) व पौधे जो बहुत कम प्रकाश या छाया में वृद्धि करते हैं, उन्हें छायोद्भिद् कहते हैं, उदाहरण- पाइसिया, ऐबीज, टैक्सस आदि ।
(ग) सजीवप्रजक (Viviparous ) अंकुरण करने वाले पादप इन पादपों में बीज का अंकुरण फल के भीतर मातृ पौधे पर ही हो जाता है, उदाहरण – राइजोफोरा ( Rhizophora) सेलिकोर्निया (Salicornia), सोनेरेशिया (Sonnerasia) आदि ।
(घ) आंतराष्मी (Endothermic) प्राणी-ये शीतरुधिरधारी प्राणी होते हैं। उदाहरण-भृंग (beetle ), सरिसृप ।
(च) बाह्योष्मी (Ectothermic ) प्राणी- ये गर्मरुधिर प्राणी होते हैं, उदाहरण – ऊँट, कुत्ता, बिल्ली ।
(छ) नितलस्थ ( Benthos) – वे जीव जो जलाशय तन्त्र के तलहटी में पाये जाते हैं, उन्हें नितलस्थ कहते हैं, उदाहरण- केकड़े (crabs), भृंग (beetle), ऐम्फिपोड ( amphipod), सीप ( oysters), कोरल (corals) आदि ।

HBSE 12th Class Biology Solutions Chapter 13 जीव और समष्टियाँ

प्रश्न 14.
समष्टि ( पॉपुलेशन) और समुदाय ( कम्युनिटी) की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
समष्टि (Population ) – समान जातियों के जीवधारियों का समूह जो किसी दिये गये समय में किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में साथ-साथ निवास करता है, समष्टि कहलाता है।
समुदाय (Community) – अनेक जातियों की समष्टियाँ (जैसे- चूहे, खरगोश, चिड़ियाँ, घासें शाक व वृक्ष) एक भौगोलिक क्षेत्र में परस्पर मिलकर समुदाय बनाते हैं। समुदाय समष्टि से बड़ी इकाई होती है।

प्रश्न 15.
निम्नलिखित की परिभाषा दीजिए और प्रत्येक का एक-एक उदाहरण दीजिए-
(क) सहभोजिता (कमेसेलिज्म)
(ख) परजीविता ( पैरासिटिज्म)
(ग) छद्मावरण ( कैमुफ्लॉज )
(घ) सहोपकारिता ( म्युचुऑलिज्म)
(च) अंतरजातीय स्पर्धा ( इंटरस्पेसिफिक कंपीटीशन )।
उत्तर:
(क) सहभोजिता (Commensalism ) – इस प्रकार के साहचर्य (association) में विभिन्न जातियों के सदस्यों के बीच लाभ केवल एक को प्राप्त होता है परन्तु हानि किसी को नहीं होती है। उदाहरणार्थ- वैण्डा (Vanda) तथा आर्किड्स (Orchids), हरित शैवाल बेसीक्लेडिया (Basicladia) अलवणीय जल में पाये जाने वाले कछुए (Turtles) के कवच पर उगता है आरोही काष्ठीय पौधे कंठलतायें (Lianas ) जैसे टीनोस्पोरा, विग्नोनिया, बॉगेनविलिया आदि।

(ख) परजीविता ( Parasitism ) – ये जीव परजीवी होते हैं, जो भोजन के लिये दूसरे जीवों पर निर्भर रहते हैं तथा जिस जीव से भोजन प्राप्त करते हैं, वह परपोषी (host) होता है। परजीवी परपोषी से चूषकांगों (haustoria) की सहायता से भोज्य पदार्थ प्राप्त करता है। ये परपोषी से सम्पर्क आधार पर बाह्य परपोषी (ectoparasite) व अन्त: परपोषी (endoparasite) होते हैं।

बाह्य परपोषी में परजीवी स्वयं तो परपोषी की बाहरी सतह पर रहते हैं परन्तु अपने चूषकांगों को परपोषी की कोशिकाओं में प्रवेश करा देते हैं, उदाहरण-अमरबेल (Cuscuta), केसाईथा (Cassytha) आदि। इसमें मूल परजीवी चंदन, स्ट्राइगा, ऑरोबैंकी (Orobenche) सोलेनेसी व क्रूसीफेरी कुल के पौधों की जड़ों पर पूर्ण मूल परजीवी होते हैं। स्तम्भ परजीवी में अमरबेल होती है। केसाइथा नीम पर पूर्ण स्तम्भ परजीवी 1 अन्तः परजीवी में परजीवी, परपोषी की कोशिकाओं के भीतर रहते हैं जैसे- विषाणु, जीवाणु, माइकोप्लाज्मा आदि ।

(ग) छद्मावरण (Camouflage) – कुछ जन्तु अपने आपकी रक्षा करने के लिये ऐसा रंग या शरीर पर इस प्रकार की रेखायें उत्पन्न कर लेते हैं जिससे उन्हें छाया या शाखाओं से विभेदन नहीं किया जा सकता है। अन्य जीव इस कारण से उन्हें पहचान नहीं पाता है। यह प्रवृत्ति अनेक कीटों, स्तनधारियों व रेप्टाइल्स (Reptiles) में मिलती है।

(घ) सहोपकारिता (Mutualism) – साहचर्य में दोनों जीवों को लाभ पहुँचाता है तथा जीवन के लिये साहचर्य आवश्यक भी है, तो ऐसा जैविक संबंध सहोपकारिता कहलाता है। उदाहरणार्थ – लाइकेन, नाइट्रोजन स्थिर कारक जीवाणु (मटर कुल की ग्रन्थियों में राइजोबियम जीवाणु), कवकमूल (mycorrhizal association) आदि ।

(च) अंतरजातीय स्पर्धा (Interspecific competition)-दो भिन्न जातियों के बीच होने वाली स्पर्धा को अन्तरजातीय स्पर्धा कहते हैं। एलीलोपैथी (Allelopathy) इसी प्रकार की स्पर्धा होती है, जैसे एरिस्टिडा ( Aristida) घास फीनोल (phenol) जैसे पदार्थों का स्राव करती है जिससे नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु और शैवालों की वृद्धि रुक जाती है ।

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प्रश्न 16.
उपयुक्त आरेख ( diagram) की सहायता से लॉजिस्टिक (संभार तंत्र ) समष्टि (population) वृद्धि का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रकृति में किसी भी समष्टि के पास इतने असीमित संसाधन नहीं होते कि चरघातांकी वृद्धि (exponential growth) होती रहे। इसके कारण सीमित संसाधनों के लिए व्यष्टियों में प्रतिस्पर्धा होती है। आखिर में ‘योग्यतम’ व्यष्टि जीवित बनी रहकर जनन करेगी। अनेक देशों की सरकारों ने भी इस तथ्य को समझा है और मानव समष्टि वृद्धि को सीमित करने के लिए विभिन्न प्रतिबंध लागू किए हैं।

प्रकृति में दिए गए आवास के पास अधिकतम संभव संख्या के पालन-पोषण के लिए पर्याप्त संसाधन होते हैं, इससे आगे और वृद्धि संभव नहीं है। उस आवास में उस जाति के लिए इस सीमा को प्रकृति की पोषण क्षमता या carrying capacity (k) मान लेते हैं।

किसी आवास में सीमित संसाधनों के साथ वृद्धि कर रही समष्टि आरंभ में पश्चता प्रावस्था (lag phase) दर्शाती है। उसके बाद त्वरण और मंदन (acceleration and deceleration) और अंततः अनन्तस्पर्शी (asymptote) प्रावस्थाएँ आती हैं, जब समष्टि घनत्व पोषण क्षमता तक पहुँच जाती है। समय (t) के संदर्भ में N का आरेख ( plot) से सिग्मॉइड वक्र (sigmoid curve) बन जाता है। इस प्रकार की समष्टि वृद्धि विहुस्ट पर्ल लॉजिस्टिक वृद्धि (Verhulst Pearl logistic growth) कहलाती है और निम्नलिखित समीकरण द्वारा वर्णित है-

जहाँ N = समयt पर समष्टि घनत्व
r = प्राकृतिक वृद्धि की इंट्रीन्जिक (intrinsic) दर K = पोषण क्षमता
अधिकांश प्राणियों की समष्टियों में वृद्धि के लिए संसाधन परिमित (finite) हैं और देर-सबेर सीमित होने वाले हैं, इसलिए लॉजिस्टिक वृद्धि मॉडल को अधिक यथार्थपूर्ण माना जाता है।

प्रश्न 17.
निम्नलिखित कथनों में परजीविता ( पैरासिटिज्म) को कौनसा सबसे अच्छी तरह स्पष्ट करता है-
(क) एक जीव को लाभ होता है।
(ख) दोनों जीवों को लाभ होता है।
(ग) एक जीव को लाभ होता है दूसरा प्रभावित नहीं होता है।
(घ) एक जीव को लाभ होता है दूसरा प्रभावित होता है।
उत्तर:
(घ) एक जीव को लाभ होता है दूसरा प्रभावित होता है।

प्रश्न 18.
समष्टि (population) की कोई तीन महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ बताइए और व्याख्या कीजिए ।
उत्तर:
[ नोट – समष्टि की विशेषताओं के सम्बन्ध में पाठ्यपुस्तक के प्रश्न संख्या 5 को देखिये ।]
प्रायः किसी भी जाति का कोई जीव एकल व्यष्टि (individual) में न रहकर किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में समूह में रहते हैं। ये व्यष्टियाँ समूह में रहती हुई समान संसाधनों का सांझा उपयोग करते हैं या उनके लिये स्पर्धा करते हैं, अन्तःप्रजनन (interbreed) करते हैं और इस प्रकार वे समष्टि (population ) की रचना करते हैं । किसी जाति की व्यष्टि ही समूह में रहकर समष्टि बनाती है। हैं, जैसे- समष्टि में कुछ ऐसे गुण होते हैं जो व्यष्टि जीव में नहीं होते-

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(1) व्यष्टि जन्म लेता है और मरता है परन्तु समष्टि में जन्म दरें व मृत्यु दरें होती हैं। समष्टि में इन दरों को क्रमशः प्रति व्यक्ति जन्म दर व मृत्यु दर कहते हैं। इसलिये दर को समष्टि के सदस्यों के सम्बन्धों में संख्या में परिवर्तन ( वृद्धि या ह्रास) के रूप में प्रकट किया जाता है।

(2) समष्टि का अन्य विशिष्ट गुण लिंग अनुपात ( sex ratio) है अर्थात् नर व मादा का अनुपात होता है। व्यष्टि या तो नर है या मादा है, परन्तु समष्टि का लिंग अनुपात होता है। किसी दिये गये समय में समष्टि भिन्न आयु वाले व्यष्टियों से मिलकर बनती है। यदि समष्टि के लिये आयु वितरण आलेखित (plotted) किया जाता है तो बनने वाली संरचना आयु पिरैमिड (age pyramid ) कहलाती है (चित्र 13.4) I

(3) समष्टि की साइज ( size) आवास में उसकी स्थिति में बारे में बताती है। कभी-कभी समष्टि की कम साइज होते हुए भी जीवों की संख्या अधिक होती है जैसे भरतपुर आर्द्रभूमि क्षेत्रों में किसी वर्ष साइबेरियाई सारस लाखों में हो सकते हैं। इनकी संख्याओं को समष्टि घनत्व (population density) से बताते हैं ।

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