Haryana State Board HBSE 10th Class Science Notes Chapter 15 हमारा पर्यावरण Notes.
Haryana Board 10th Class Science Notes Chapter 15 हमारा पर्यावरण
→ पर्यावरण (Environment)-हमारे आस-पास का वह आवरण जो हमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करता है, पर्यावरण कहलाता है।
→ पारिस्थितिकी (Ecology)-जीवधारियों पर पर्यावरण के प्रभावों के अध्ययन की शाखा को पारिस्थितिकी कहते हैं पारिस्थितिकी शब्द का सबसे पहले प्रयोग रेटर ने किया था।
→ पर्यावरणीय कारक (Environmental factors)-पर्यावरण के प्रमुख दो कारक होते हैं –
- अजैविक कारक (Abiotic factors)-इसमें अजीवित अंश सम्मिलित होते हैं, जैसे-जल, वायु, वर्षा, ताप, नमी, मृदा, आदि ।
- जैविक कारक (Biotic factors)-इसमें जीवित अंश सम्मिलित होते हैं, जैसे-उत्पादक, उपभोक्ता, अपघटक।
→ पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem) किसी स्थान विशेष पर पाये जाने वाले जीवधारियों तथा उनके पर्यावरण के बीच प्रकार्यात्मक सम्बन्ध को पारिस्थितिक तंत्र कहते हैं। इकोसिस्टम शब्द सर्वप्रथम ए. जी. टेन्सले ने दिया।
→ पारिस्थितिक तंत्र के घटक (Components of ecosystem) : पारिस्थितिक तंत्र के निम्नलिखित दो प्रमुख घटक
होते हैं –
(A) अजैविक घटक (Abiotic components)-ये निम्न प्रकार हैं –
- अकार्बनिक (Inorganic) इसमें H2O, CO2 एवं अन्य गैसें, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, अमोनिया, पोटैशियम, मैग्नीशियम, लवण, आदि सम्मिलित हैं।
- कार्बनिक (Organic)-इसमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, आदि वृहत्त् अणु सम्मिलित हैं।
- भौतिक (Physical)-इसमें वातावरणीय कारक जैसे-वायु, जल, ताप, प्रकाश आदि सम्मिलित हैं।
(B) जैविक घटक (Biotic components)-इसमें विभिन्न जीवधारी सम्मिलित किये जाते हैं। ये निम्न प्रकार होते |
- उत्पादक (Producers)-सभी हरे प्रकाश संश्लेषी पौधे उत्पादक कहलाते हैं। ये सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पर्णहरित की सहायता से पानी एवं CO2 द्वारा भोजन संश्लेषित कर लेते हैं। यह भोजन प्रायः। मंड, प्रोटीन एवं वसा के रूप में संचित कर लिया जाता है।
उपभोक्ता (Consumers)-जन्तु भोजन प्राप्ति के लिए पौधों द्वारा बनाये गये भोजन पर आश्रित होते हैं।
अतः ये उपभोक्ता कहलाते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं
- प्राथमिक उपभोक्ता-ये सीधे पौधों को खाते हैं अत: शाकाहारी होते हैं, जैसे-टिड्डा।।
- द्वितीयक उपभोक्ता-ये शाकाहारी जन्तुओं को खाते हैं, जैसे-मेंढ़क।
- तृतीयक उपभोक्ता-ये द्वितीयक उपभोक्ताओं को खाते हैं, जैसे-सर्प।
(iii) अपघटक (Decomposers)-ये सूक्ष्म जीव होते हैं जो पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं के मृत शरीरों का अपघटन करके ऊर्जा प्राप्त करते हैं। ये पदार्थों का चक्रण करते हैं।
→ आहार श्रृंखला (Food chain) किसी पारितंत्र में जीव भोजन के लिए अन्य जीवों पर निर्भर करते हैं। उदाहरण के लिए घास को टिड्डा खाता है, टिड्डे को मेंढ़क और मेंढ़क को सर्प खा लेता है। इस प्रकार पारितंत्र में जीवधारियों की निर्भरता के आधार पर एक श्रृंखला बन जाती है, इसे खाद्य श्रृंखला या आहार श्रृंखला कहते हैं। प्रकृति में तीन प्रकार की खाद्य शृंखलाएँ देखने को मिलती हैं – जलीय खाद्य श्रृंखला, स्थलीय खाद्य श्रृंखला तथा अपरद (detrites) खाद्य श्रृंखला।
कुछ प्रमुख खाद्य श्रृंखलाओं के उदाहरण निम्न प्रकार हैं –
- घास स्थल : घास → टिड्डा → मेढक → सर्प।
- वन स्थल : पौधे → हिरन → शेर।
- तालाब : पादप प्लवक → कीड़े-मकोड़े → मछलियाँ।।
- अपरद : सड़ी-गली पत्तियाँ → जीवाणु → जीवाणु भोजी, कवक → कवक भोजी।
→ पोषण स्तर (Trophic level)—आहार श्रृंखला के विभिन्न स्तरों पर ऊर्जा का स्थानान्तरण होता है, इन स्तरों को पोषण स्तर कहते हैं।
→ आहार जाल (Food web)-प्रकृति में कोई भी आहार श्रृंखला एकल नहीं होती। अनेक आहार श्रृंखलाएँ आपस मेंसम्बन्धित भी होती हैं। उदाहरण के लिए घास को टिड्डा खाता है, लेकिन घास हिरन, खरगोश आदि द्वारा भी खायी | जा सकती है। इसी प्रकार हिरन को शेर खाता है परन्तु हिरन को चीता, भेड़िया, तेंदुआ आदि भी खा सकते हैं। अतः । यह आवश्यक नहीं है कि किसी भी जीव को किसी भी विशिष्ट जीव द्वारा ही खाया जाए। स्पष्ट है कि एक जीव | के एक से अधिक भक्ष्य हो सकते हैं और स्वयं भी जीव अनेक जीवों का भक्ष्य बन सकता है। इस प्रकार अनेक | खाद्य श्रृंखलाएँ आपस में जुड़कर एक जाल जैसी रचना बनाती हैं जिसे खाद्य जाल या आहार जाल कहते हैं।
→ सुपोषण (Eutrophication)-वाहित मलमूत्र जब बहकर जलाशयों में पहुँचते हैं तो इनमें कार्बनिक पदार्थों की मात्रा | काफी बढ़ जाती है जिसके फलस्वरूप जलीय प्लवकों की संख्या भी काफी बढ़ जाती है। प्लवकों की अत्यधिक | संख्या बढ़ने पर इन्हें जलीय ऑक्सीजन की कमी होने लगती है। ऑक्सीजन के अभाव में असंख्य जीव मरने और सड़ने लगते हैं। अतः जलाशय में पोषकों के अत्यधिक संभरण तथा ऑक्सीजन की कमी को सुपोषण कहते हैं। ।
→ ऊर्जा स्थानान्तरण का दस प्रतिशत का नियम-इसके अनुसार किसी भी आहार श्रृंखला में प्रत्येक पोषण स्तर पर उपलब्ध ऊर्जा उससे पहले स्तर पर उपलब्ध ऊर्जा का 10% होती है। प्रत्येक श्रेणी के जीव एक पोषण स्तर बनाते हैं।। प्रत्येक पोषण स्तर पर लगभग 90% ऊर्जा जैवीय क्रियाओं तथा ऊष्मा के रूप में निकल जाती है तथा केवल 10% ऊर्जा ही इसमें संचित रहती है। यह ऊर्जा ही अगले पोषण स्तर के लिए उपलब्ध रहती है। इस प्रकार अन्तिम पोषण स्तर तक पहुँचते-पहुँचते बहुत कम ऊर्जा रह जाती है। इसे लिन्डेमान का ऊर्जा सम्बन्धी 10% का नियम कहते हैं।
→ पारिस्थितिक पिरैमिड (Ecological pyramids)-किसी भी पारितंत्र में उत्पादकों, विभिन्न श्रेणी के उपभोक्ताओं की संख्या, जीवभार तथा संचित ऊर्जा के पारस्परिक संबंधों के चित्रीय निरूपण को पारिस्थितिक पिरैमिड कहते हैं। पारिस्थितिक पिरैमिड तीन प्रकार के होते हैं
- जीव संख्या का पिरैमिड,
- जीव भार का पिरैमिड तथा
- ऊर्जा का पिरैमिड।
→ जैव निम्नीकरणीय अपशिष्ट पदार्थ (Bio-degradable wastes)-ऐसे अपशिष्ट पदार्थ जो समय के साथ प्रकृति में सूक्ष्मजीवों की क्रियाओं द्वारा हानिरहित पदार्थों में अपघटित कर दिए जाते हैं, जैव-निम्नीकरणीय अपशिष्ट पदार्थ कहलाते हैं, जैसे-घरेलू कचरा, कृषि अपशिष्ट।
→ जैव-अनिम्नीकरणीय अपशिष्ट पदार्थ (Non-biodegradable wastes)-ऐसे अपशिष्ट पदार्थ जो प्रकृति में लम्बे समय तक बने रहते हैं और जिनका अपघटन सूक्ष्म जीवों की क्रियाओं द्वारा नहीं किया जा सकता है। जैव-अनिम्नीकरणीय अपशिष्ट पदार्थ कहलाते हैं, जैसे-प्लास्टिक, डी. डी. टी. आदि।।
→ जैविक-आवर्धन (Biological-magnification)-जब कोई हानिकारक रसायन, जैसे-डी. डी. टी. भोजन के साथ किसी स्व-आहार श्रृंखला में प्रवेश कर जाता है तो इसका सान्द्रण धीरे-धीरे प्रत्येक पोषी स्तर में बढ़ता जाता है। इस | परिघटना को जैविक आवर्धन कहते हैं। इस आवर्धन का स्तर अलग-अलग पोषी स्तरों पर भिन्न-भिन्न होता है, जैसे
→ ओजोन (Ozone)-ओजोन प्रकृति में गैस के रूप में पायी जाती है। इसके एक अणु में ऑक्सीजन के तीन परमाणु होते हैं। यह ऑक्सीजन का एक अपरूप है। ओजोन पृथ्वी के ऊपर लगभग 16 किमी की ऊँचाई पर एक सघन परत के रूप में स्थित है। यह सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी किरणों (UV-rays) से पृथ्वी पर जीवन की रक्षा करती है।
→ रेफ्रिजरेशन वर्क्स, अग्निशामक यंत्रों, जेट उत्सर्जन तथा ऐरोसोल स्प्रे से उत्सर्जित होने वाले एक रसायन क्लोरो-फ्लुओरो कार्बन (CFC) से वायुमण्डलीय ओजोन का क्षरण हो रहा है जिससे कुछ स्थानों पर ओजोन परत काफी पतली हो गयी है।
→ पराबैंगनी किरणों से त्वचा रोग, आँखों के रोग तथा प्रतिरक्षी तंत्र के रोग उत्पन्न होने की संभावना बढ़ जाती है। जीवमण्डल (Biosphere)-पृथ्वी का वह समस्त भाग जिसमें जीवधारी पाये जाते हैं, जीवमण्डल कहलाता है।
→ स्थलमण्डल (Lithosphere)-पृथ्वी की स्थल-सतह, जैसे-रेगिस्तान, मैदान, चट्टान आदि स्थलमण्डल कहलाती हैं।
→ जलमण्डल (Hydrosphere)-पृथ्वी का वह भाग जिस पर जल है, जलमण्डल कहलाता है।
→ वायुमण्डल (Atmosphere)-पृथ्वी के चारों ओर विभिन्न गैसों वाला क्षेत्र वायुमण्डल कहलाता है।