Author name: Prasanna

HBSE 11th Class Chemistry Solutions Chapter 3 Classification of Elements and Periodicity in Properties

Haryana State Board HBSE 11th Class Chemistry Solutions Chapter 3 Classification of Elements and Periodicity in Properties Textbook Exercise Questions and Answers.

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HBSE 11th Class Sanskrit पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय

1. ऋग्वेद

ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है। इसका रचना काल अधिकांश विद्वानों के मतानुसार 2000 ई०पू० माना जाता है। छन्दोबद्ध मन्त्रों को ऋक् या ऋचा कहते हैं। वेद का अर्थ है-ज्ञान। ऋग्वेद में ऋचाओं का संग्रह है। इसलिए ऋग्वेद को ऋक् संहिता भी कहते हैं। इसमें विविध देवताओं से सम्बन्धित ऋचाएँ एकत्रित हैं। कुछ ऋचाओं के समूह को ‘सूक्त’ कहते हैं। एक सूक्त में जो ऋचाएँ आती हैं, उनका सम्बन्ध किसी देवता विशेष या विषयवस्तु से होता है।

सारे ऋग्वेद को दस मण्डलों में विभक्त किया गया है। प्रत्येक मण्डल में कुछ सूक्त हैं तथा प्रत्येक सूक्त में कुछ मन्त्र हैं। सारे ऋग्वेद में 10 मण्डल, 1028 सूक्त और 10,580 मन्त्र हैं। इन सभी मण्डलों में सातवें मण्डल की ऋचाएँ प्राचीनतम मानी जाती हैं।

ऋग्वेद का महत्त्व

1. इसे विश्व की प्राचीनतम उपलब्ध कृति होने का गौरव प्राप्त है।

2. इसमें भारतीय देवतावाद की पूरी झलक मिलती है। इन्द्र, अग्नि तथा वरुण ये तीन ऋग्वेद के प्रमुख देवता हैं।

3. भारतीय दर्शन की पहली किरण भी इसमें दिखाई देती है। पुरुष सूक्त में सृष्टि की रचना पर विचार किया गया है। नासदीय सूक्त में सृष्टि की रहस्यमयी उत्पत्ति पर विचार मिलता है।

4. आर्यों के ऐतिहासिक, राजनीतिक तथा सामाजिक पक्षों पर भी ऋग्वेद में पर्याप्त सामग्री है। इसमें आर्यों तथा दस्युओं के संघर्ष का भी वर्णन है। इसमें सभा तथा समिति नाम की राजनीतिक परिषदों का भी उल्लेख है। इसके अनुसार समाज का आधार परिवार था।

5. ऋग्वेद में काव्य कला की कमनीय छटा छिटकी हुई है। डॉ० सूर्यकान्त के शब्दों में, “ऋग्वेद काव्य कला के उपकरणों से संकलित प्रमुख अलंकारों, व्यंजनाओं तथा ध्वनियों से अनुप्रासित परिनिष्ठित नीतियों का संकलन है।”

शास्त्री जी द्वारा इस ग्रन्थ के अनुवाद का प्रमुख उद्देश्य गान्धी जी के जीवन-दर्शन एवं उनके सिद्धान्तों से पाठकों को परिचित करवाना है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से प्रतीत होता है कि शास्त्री जी की भाषा-शैली सरस, सरल एवं मुहावरेदार है। वस्तु-विन्यास, प्रसंग के अनुरूप है। वाक्य छोटे-छोटे हैं। समासों का प्रयोग सामान्यतः नहीं के बराबर है।

HBSE 11th Class Sanskrit पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय

2. यजुर्वेद

यजुर्वेद का सम्बन्ध अध्वर्यु. पुरोहित से जोड़ा जाता है। यज्ञ का विधिपूर्वक संपादन करने वाले पुरोहित को अध्वर्यु कहते हैं। यजुर्वेद में ऐसे मन्त्रों का संग्रह पाया जाता है, जिनका सम्बन्ध यज्ञों के सम्पादन से होता है। इस वेद में यज्ञीय विधियों का विस्तृत । विवरण पाया जाता है। यजुर्वेद के निम्नलिखित दो भाग हैं

1. कृष्ण यजुर्वेद
कृष्ण यजुर्वेद में मन्त्रों तथा व्याख्या प्रधान ब्राह्मणे का सम्मिश्रण है, जबकि शुक्ल यजुर्वेद में यह मिश्रण बिल्कुल नहीं है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्रों का ही संकलन पाया जाता है। कृष्ण यजुर्वेद की अनेक शाखाएँ थीं, किन्तु आज केवल तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक संहिता, कपिष्ठल इत्यादि उपलब्ध हैं, जिनका प्रचार दक्षिण भारत में अधिक है।

2. शुक्ल यजुर्वेद।
शुक्ल यजुर्वेद के 40 अध्याय हैं, जिनमें विविध यज्ञों सम्बन्ध मन्त्र संकलित हैं। इन यज्ञों में दर्शपूर्ण मास, अग्निहोत्र, चातुर्मास्य, सोमयाग, वाजपेय, राजसूय, सौत्रामणि, अश्वमेध आदि प्रमुख हैं। इसके 16वें अध्याय को रुद्राध्याय कहते हैं, जिसमें भगवान रुद्र (शिव) के विविध रूपों को नमस्कार किया गया है। 34वें अध्याय में शिवं संकल्प की प्रार्थना है। 35वें में पितरों से प्रार्थना की गई है। अन्तिम अध्याय दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें ईश्वर को संसार का नियामक कहा गया है। यही अध्याय कुछ परिवर्तनों के साथ ईशावास्योपनिषद् के रूप में पाठकों के सामने आया है। इस वेद में अत्यन्त सुन्दर मन्त्र हैं जैसे-

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्
विश्वानि देव वयुनानि विद्वान

अर्थात् हे अग्नि देव! धन प्राप्ति के लिए आप हमें सन्मार्ग पर ले चलें। हे देव! आप अच्छे-बुरे सभी प्रकार के कार्यों को जानते हैं। यजुर्वेद में कुछ मन्त्र पद्यात्मक हैं और कुछ गद्यात्मक। जो मन्त्र पद्यात्मक हैं, वे राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत हैं। विशेष कर्मकाण्ड में उपयोगी होने के कारण यजुर्वेद अन्य सभी वेदों की तुलना में अधिक लोकप्रिय है।

3. अथर्ववेद

अथर्ववेद का सम्बन्ध ब्रह्मा नामक पुरोहित से है। ब्रह्मा उस पुरोहित को कहा जाता है, जो यज्ञ के सारे कार्यों का निरीक्षण करता है। इसके निम्नलिखित दो रचयिता माने जाते हैं (क) अथर्वा (ख) अंगिरा। इसी कारण इसे अथर्वाङ्गिरा भी कहा जाता है।

(क) अथर्वा मंगलकारी मन्त्रों का द्रष्टा होता है।
(ख) अंगिरा विनाशकारी मन्त्रों का द्रष्टा होता है।

अथर्ववेद के अन्य नाम ब्रह्मा नामक पुरोहित से सम्बन्ध होने के कारण इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है तथा राजा के राज्याभिषेक आदि से सम्बन्ध होने के कारण इसे क्षात्रवेद भी कहा जाता है।
वेदत्रयी में ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद ये तीनों वेद आते हैं, अथर्ववेद त्रयी में नहीं आता।

कछ परिचय-

  1. अथर्ववेद में 20 काण्ड, 731 सुक्त तथा 5849 मन्त्र हैं। इनमें से लगभग 1200 मन्त्र ऋग्वेद के हैं।
  2. अथर्ववेद की नौ शाखाएँ थीं, परन्तु आज शौनक और पिप्पलाद नामक दो संहिताएँ ही उपलब्ध होती हैं।
  3. अथर्ववेद में लौकिक विषयों की प्रचुरता पाई जाती है। इसमें मारण, मोहन तथा उच्चाटन की सामग्री प्रचुर मात्रा में मिलती है। इसके अतिरिक्त इसमें रोगों के निवारण से, शत्रुओं के संहार से, भय से, दीर्घ आयु से, स्वास्थ्य पाने से, सम्पन्नता एवं समृद्धि से, पापों के निवारण से, विवाह से तथा व्यापार से सम्बन्धित अनेक मन्त्र पाए जाते हैं।
  4. इस वेद के पृथ्वी सूक्त में काव्य का सौन्दर्य अपूर्व है।
  5. भेषज्यानि नामक प्रकरण भारतीय आयुर्वेद के इतिहास पर पूर्णतया अपनी छाप छोड़ता है।
  6. परीक्षित के राज्य की ऐतिहासिक जानकारी भी इसी वेद से उपलब्ध होती है।
  7. इस वेद में दार्शनिक सूक्त भी हैं।
  8. इस वेद से लोक प्रचलित विश्वासों की पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होती है।
  9. इस वेद में राज्याभिषेक का वर्णन, स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रार्थनाएँ आदि भी हैं।
  10. अभिचार-धर्म और मानव विज्ञान की दृष्टि से यह वेद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

4. रामायण

रामायण को भारतीय परम्परा में ‘आदिकाव्य’ और इसके प्रणेता वाल्मीकि मुनि को ‘आदिकवि’ माना जाता है। कथा प्रसिद्ध है कि वाल्मीकि मुनि तमसा नदी के किनारे घूम रहे थे। एक व्याध के बाण से आहत वाल्मीकि ने क्रौञ्च पक्षी की भार्या का करुण-क्रन्दन सुना तो सहसा उनके मुख से काव्यधारा फूट पड़ी; यथा

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत् क्रौञ्च मिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥

तब उनका शोक, श्लोक बन गया। उसी समय ब्रह्मा प्रकट हुए और उनकी प्रेरणा से वाल्मीकि ने रामचरित का वर्णन करते हुए ‘रामायण’ की रचना कर डाली। रामायण संस्कृत भाषा का ही नहीं, विश्व भाषाओं का आदिकाव्य है। यह अन्य कवियों के लिए प्रेरणा स्रोत है। यहीं से ललित साहित्य का आरम्भ होता है। इस ग्रन्थ में राम कथा का विस्तार से वर्णन किया गया है।

इसके सात काण्ड हैं जिन्हें बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड के नाम से जाना जाता है। इसमें लगभग 24 हजार श्लोक हैं। अतः इसे चतुर्विंशतिसाहस्री संहिता भी कहते हैं। यह ग्रन्थ अनुष्टुप् छन्द में लिखा गया है। महर्षि वाल्मीकि ने अपने इस अमर काव्य को जन-जीवन से सम्बद्ध किया जो लोक मनोरंजन के साथ-साथ लोक-परलोक दोनों का साधक बना। यह काव्य भाव, भाषा छन्द और अलंकार आदि की दृष्टि से भी नवीनतम है। वास्तव में यह लौकिक काव्य-माला का प्रथम ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ का महत्त्व न केवल धार्मिक और काव्यात्मक दृष्टि से ही, अपितु सामाजिक दृष्टि से भी है। यह हमारा राष्ट्रीय महाकाव्य है। इसमें हमारी संस्कृति का सजीव चित्र एवं राष्ट्र का जीवन है। रामायण में हमारी सभ्यता का भी बहुत महत्त्वपूर्ण तथा सुन्दर चित्र मिलता है। माता-पिता और सन्तान, भाई-भाई, देवर-भाभी का आदर्श तथा स्त्री का पातिव्रत्य आदि का ऐसा अनुपम सम्बन्ध संसार के किसी अन्य साहित्य में नहीं मिलता। भातृ-प्रेम को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि

देशे-देशे कलत्राणि देशे-देशे च बान्धवाः।
तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः ॥

रामायण में जैसी सरल, सरस, भावपूर्ण शैली, भाषा की गम्भीरता और छन्दों की रचना मिलती है, वैसी अन्य कवियों की रचनाओं में सुलभ नहीं है। रामायण एक उपजीव्य काव्य है। वाल्मीकि के पश्चात् होने वाले बहुत-से कवियों ने रामायण को आधार बनाकर अपनी-अपनी रचनाएँ संसार को भेंट की हैं। संक्षेप में, वाल्मीकि रामायण भारतीय राष्ट्र का जीवन और उसकी कविता है। इसमें लौकिक संस्कृत भाषा और साहित्य के विकास का मूल विद्यमान है।

HBSE 11th Class Sanskrit पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय

5. जातकमाला

जातक शब्द का अर्थ है-‘जन्म सम्बन्धी’ । इस आधार पर जन्म सम्बन्धी कथाओं के संग्रह को ‘जातकमाला’ कहते हैं। इस ग्रन्थ में भगवन बुद्ध के पूर्व जन्म की गाथाओं एवं उक्तियों का संग्रह किया गया है। संस्कृत साहित्य में जातक कथाओं का अपना विशेष महत्त्व है। ये कथाएँ मूलतः पालिभाषा में लिखित हैं। बोधिसत्व के कर्म दिव्य और अद्भुत हैं। उनका जीवन अलौकिक और आदर्श है। इसी से प्रेरणा लेकर ‘आर्यशर’ ने ‘जातकमाला’ ग्रन्थ की रचना की थी।

‘जातकमाला’ में जातक कथाओं के प्रारम्भ होने से पहले निदान कथा नाम की एक लम्बी भूमिका है। इस निदान कथा में सिद्धार्थ गौतम के जीवन-चरित्र के साथ उनके पूर्व के 24 बुद्धों के भी जीवन-चरित्र हैं। प्रत्येक जातक कथा चार भागों में विभक्त है-(i) वर्तमान कथा (ii) पूर्वजन्म की कथा (iii) गाथाओं की व्याख्या (iv) पूर्वजन्म की कथाओं के प्रधान पात्र । पुनः इनका तीन भागों में विभाजन किया गया है-(i) दूरे निदान (ii) अविदूरे निदान (iii) सन्ति के निदान। ‘दूरे निदान’ में बोधिसत्व के सुमेध तपस्वी के जन्म में भगवान् द्वीपङ्कर के समय में बुद्धत्व प्राप्ति के लिए प्रार्थना करने के समय से लेकर शरीर छोड़कर स्वर्ग में उत्पन्न होने तक की कथा का वर्णन है।

‘अविदूरे निदान’ में महामाया के गर्भ से उत्पन्न होकर बुद्धत्व प्राप्त करने तक की कथा है और ‘सन्ति के निदान’ में उन स्थानों का वर्णन है जहाँ भगवान बुद्ध ने विहार करते समय कोई उपदेश या जातक कथा कही थी। यद्यपि जातकमाला का मुख्य उपदेश धर्मोपदेश है, जिसमें भारत की ई०पू० छठी शताब्दी की सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक स्थिति का पूर्व ज्ञान भी होता है। इसके साथ ही इसमें मनोरंजन की भी भरपूर सामग्री विद्यमान है।
शाश्वती (प्रथमो भागः)

6. महाभारत

महाभारत केवल युद्ध का कथा-ग्रन्थ नहीं है, अपितु एक अद्वितीय संग्रह-ग्रन्थ है। वास्तव में, यह एक ज्ञान का विश्वकोष है, जिसमें प्राचीन भारत की ऐतिहासिक, धार्मिक, नैतिक और दार्शनिक आदर्शों की अमूल्य निधि संचित है। स्वयं महाभारत में लिखा है कि वह सर्वप्रधान काव्य, सब दर्शनों का सार, इतिहास और पञ्चम वेद है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विषय में जो कुछ महाभारत में कहा गया है वही अन्यत्र है, जो इसमें नहीं है, वह कहीं नहीं है।

वर्तमान समय में जो महाभारत उपलब्ध है, उसमें एक लाख श्लोक हैं, इसलिए इसे ‘शतसाहस्री संहिता’ नाम भी दिया गया है। इसके विकास की तीन अवस्थाएँ मानी जाती हैं-जय, भारत और महाभारत । इसके रचयिता व्यास मुनि माने जाते हैं, जिनका दूसरा नाम कृष्णद्वैपायन भी मिलता है, क्योंकि ये अत्यन्त कृष्ण वर्ण के थे और गङ्गा के एक द्वीप पर इनका निवास था। इसका दूसरा रूप भारत के नाम से प्रसिद्ध है। महाभारत का वर्तमान रूप 320 ई. पू. से लेकर 50 ई. पू. के बीच में माना जाता है।

महाभारत में कौरवों और पाण्डवों के परस्पर संघर्ष की कथा का वर्णन बड़े विस्तार से 18 खण्डों में किया गया है। इन खण्डों को पर्व कहा गया है। इसके अतिरिक्त, महाभारत में अनेक शिक्षाप्रद तथा रोचक उपाख्यान भी हैं। महाभारत संसार के साहित्य में आकार की दृष्टि से तथा सुन्दरतम वीरकाव्य की दृष्टि से अद्वितीय ग्रन्थ है। महाभारत की भाषा शुद्ध और गौरवपूर्ण है। इसकी तीन विशेषताएँ हैं-सरलता, अर्थगौरव और उपयुक्तता। इस भाषा का प्रयोग कवि ने अनुष्टुप् छन्द के माध्यम से किया है।

अलंकारों के प्रयोग में महाभारत काल अलंकृत शैली के कवियों के समान प्रयत्नशील नहीं था। ‘महाभारत’ बाद में आने वाले कवियों के लिए आदर्श रूप रहा है। कथानक, भाषा और शैली तीनों ही दृष्टि से आने वाले कवियों ने इसका अनुकरण किया है। काव्य साहित्य के अतिरिक्त धर्म, दर्शन, कला, समाजशास्त्र आदि सभी क्षेत्रों में इसका प्रभाव भारतीय जीवन पर दृष्टिगोचर होता है। महाभारत के सम्बन्ध में यह कथन आज भी प्रसिद्ध है

धर्मे अर्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्तितदन्यत्र यन्ने हास्ति न तत्क्वचित् ॥

7. मृच्छकटिकम्

‘मृच्छकटिकम्’ महाकवि शूद्रक द्वारा लिखा गया संस्कृत साहित्य का प्रसिद्ध नाटक है। दशरूपकों में इसे प्रकरण की कोटि में रखा गया है। इस प्रकरण की सम्पूर्ण कथा 10 अंकों में विभक्त है। इसकी कथा में सामाजिक यथार्थ एवं आदर्शवाद का सन्निवेश है। नाट्यशास्त्रीय नियमों का पालन करने वाले इस प्रकरण की कथा कवि की कल्पना पर आधारित है जिसमें मध्यमवर्गीय पात्र चारुदत्त तथा तत्कालीन प्रसिद्ध गणिका वसन्तसेना की प्रेमकथा का वर्णन किया गया है।

नाटककार ने इस प्रकरण में पात्रों का चयन प्रकरण के अनुकूल किया है। प्रकरण के पात्र नव-जीवन की लोक-भावना का सच्चा चित्रण करते हैं। इसका नायक चारुदत्त जन्म से ब्राह्मण तथा कर्म से वणिक है जो कि धीर तथा शान्त प्रकृति का है। इसकी नायिका वसन्तसेना है जोकि उस समय की प्रसिद्ध गणिका है। इन दोनों की प्रेमकथा में बाधा उत्पन्न करने वाला ‘शकार’ है, जोकि मूर्ख तथा दुष्ट स्वभाव वाला है।

साहित्य समाज का दर्पण है। यह तथ्य ‘मृच्छकटिकम’ के लिए पूर्ण चरितार्थ होता है। मृच्छकटिकम् अपने युग के समाज का चित्रण प्रस्तुत करने में सफल हुआ है। इसमें प्रकृति चित्रण अत्यन्त सजीव है। नाटककार का प्रकृति के प्रति अनन्य अनुराग प्रकट होता है। इसके पञ्चम अंक में प्रकृति के मनोहारी चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। मृच्छकटिकम् में ‘शृङ्गार रस’ प्रधान है।

इसके अतिरिक्त अद्भुत, भयानक तथा हास्य आदि रसों का सुन्दर समायोजन किया गया है। इस प्रकरण की भाषा सरल एवं सुबोध है। इसके साथ ही प्राकृत भाषा का भी सुन्दर प्रयोग किया गया है। इसमें सात प्रकार की प्राकृत भाषाओं का प्रयोग किया गया है। अलंकारों का सहज एवं स्वाभाविक प्रयोग किया गया है। निष्कर्ष रूप में ‘मृच्छकटिकम्’ एक श्रेष्ठ प्रकरण है।

8. चरकसंहिता

‘चरकसंहिता’ भारतीय आयुर्वेद विज्ञान का मूल ग्रन्थ है। इसके रचयिता आचार्य चरक हैं। चरक संहिता के उपदेशक अत्रिपुत्र पुनर्वसु ग्रन्थकर्ता अग्निवेश और प्रतिसंस्कारक आचार्य चरक हैं। इस ग्रन्थ में आयुर्वेद के सभी सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। जो सिद्धान्त इस ग्रन्थ में हैं, वे अन्यत्र कहीं नहीं हैं। यह ग्रन्थ आठ भागों में विभाजित है, जिसमें कुल 120 अध्याय हैं। ‘चरक संहिता’ के अध्ययन से पता चलता है कि इसके रचयिता आचार्य चरक ने शरीर शास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरण शास्त्र तथा औषधिशास्त्र आदि के विषय में अगाध शोध किया था।

मधुमेह, क्षयरोग, हृदयविकार आदि दुर्धर रोगों के निदान एवं औषधियों द्वारा इन रोगों के उपचार के विषय में अमूल्य ज्ञान के द्वार इन्होंने अखिल जगत के लिए खोल दिए। चरक संहिता में विभिन्न प्रकार की व्याधियों के लक्षण एवं उनके उपचार का वर्णन तो है ही इसके साथ ही स्थान-स्थान पर ज्ञान-विज्ञान, दर्शन एवं अर्थशास्त्र के विषय में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है।

विभिन्न प्रकार के असाध्य रोग आहार ग्रहण करने के कारण ही होते हैं। नियमित एवं विधिपूर्वक आहार ग्रहण करने पर रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है। आचार्य चरक ने इस ग्रन्थ में आहार ग्रहण करने की आठ विधियों का वर्णन किया है। ये विधियाँ-प्रकृति, संस्कार, संयोग, राशि (मात्रा), देश (हैबीटेट और कलाईमेट) काल, उपयोग के नियम तथा उपभोक्ता हैं।

आचार्य चरक कहते हैं कि उष्ण भोजन ही लें, स्निग्ध आहार ग्रहण करें। नियम एवं मात्रा में ही आहार ग्रहण करें। पूर्ण रूप से भोजन के पकने पर (भूख लगने पर) ही आहार लें। वीर्य विरुद्ध आहार न लें। सही उपकरणों में आहार लें। द्रुत गति से भोजन न करें। अधिक देरी तक भोजन न करें। आहार लेते हुए ज्यादा न बोलें और हँसते हुए आहार ग्रहण करें। अपनी आत्म रक्षा का विचार करके आहार ग्रहण करें। इस प्रकार चरकसंहिता आयुर्वेद शास्त्र का अमूल्य ग्रन्थ है।

9. भवानी भारती

‘भवानी भारती’ भारतमाता के महान् क्रान्तिकारी एवं परम राष्ट्रभक्त सपूत महर्षि अरविन्द घोष द्वारा रचित एक खण्डकाव्य है। महर्षि अरविन्द पूरे विश्व में महान दार्शनिक, वेदों के व्याख्याता, महायोगी तथा परम राष्ट्रभक्त के रूप में प्रसिद्ध हैं। महर्षि अरविन्द जीवन के प्रारम्भिक चरण में सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक रहे।

इसी के परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अलीपुर बम केस का अपराधी मानकर 1906 ई० में अलीपुर कारागार में बन्दी बना दिया। कारागार की इसी अवधि में इन्होंने एक रात स्वप्न में बन्दिनी भारतमाता का दर्शन किया। उस दर्शन से प्रभावित होकर इन्होंने ओजस्वी तथा राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत शतक काव्य की रचना की। यह ‘शतक काव्य’ ही ‘भवानी-भारती’ के नाम से विख्यात हुआ।

इस ग्रन्थ में कवि ने वर्णित किया है कि भारतमाता परतन्त्रता एवं अज्ञान रूपी अन्धकार के बन्धनों में जकड़ी हुई है। इस बंधन से मुक्त होने के लिए वह (भारतमाता) अपनी सन्तानों को उनके स्वर्णिम इतिहास का स्मरण कराती है। इसके साथ ही उन्हें प्रेरित करती है कि वे अपनी निद्रा एवं आलस्य का त्याग करें तथा अपने पराक्रम से राष्ट्र को पराधीनता के बंधन से मुक्त कराएँ। सम्पूर्ण भारतवर्ष की एकता का परिचय देते हुए प्रस्तुत श्लोक में कहा गया है कि

“भो भो अवन्त्यो मगधाश्च बङ्गा
अङ्गा कलिङ्गाः कुरुसिन्धवश्च ।
भो दाक्षिणात्याः शृणुतान्ध्रचोलाः
शृण्वन्तु ये पञ्चनदेषु शूराः ॥

” कवि की शैली अलंकारयुक्त, माधुर्य, प्रसादगुण सम्पन्न, सरल, सरस एवं प्रवाहमयी है।

10. पुरुष-परीक्षा

‘पुरुष-परीक्षा’ मैथिली, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि विद्यापति के द्वारा रचित कथा ग्रन्थ है। विद्यापति चतुर्दश शताब्दी के प्रसिद्ध कवि हैं, जिन्हें ‘मैथिल कोकिल’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। इन्होंने संस्कृत भाषा में अनेक विषयों पर आधारित 12 ग्रन्थों की रचना की है। उन 12 ग्रन्थों में से ‘पुरुष-परीक्षा’ एक प्रसिद्ध कथा ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से यह बताया गया है कि सच्चे पुरुष की परख किस प्रकार की जा सकती है? दयालु पुरुष के गुणों की चर्चा के प्रसंग में वासुकि नामक मुनि पारावार नामक राजा को अनेक कथाएँ सुनाते हैं। इस ग्रन्थ में बताया गया है कि सत्य, अहिंसा आदि सद्गुण ही सदाचार के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। दया, सदाचार, अहिंसा आदि गुण सज्जनों के द्वारा ही विकसित किए जा सकते हैं। इस लोक तथा परलोक में दया सदृश अन्य कोई. गुण नहीं है। अतः कहा गया है कि

“दयालुः पुरुष श्रेष्ठः सर्वजन्तूपकारकः।
तस्य कीर्तनमात्रेण कल्याणमुपपद्यते ॥

” इस कथा ग्रन्थ की भाषा प्रसादगुण सम्पन्न, सरल, सरस एवं विषयानुकूल है। ‘तदेव गगनं सैव धरा’ आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों में प्रशंसनीय कवि प्रो० श्रीनिवासरथ द्वारा रचित कविता-संग्रह है। ये विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में संस्कृत विभाग के प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष रहे। श्रीनिवास 40 वर्षों से संस्कृत : गीत लिखते आ रहे हैं। उन्हीं गीतों की कड़ी में “तदेव गगनं सैव धरा” नामक कविता-संग्रह है।

इसका प्रकाशन सन् 1995 में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है। इस कविता संग्रह में कवि ने भारतीय संस्कृति, देशभक्ति, सामाजिक सुधार, मानवीय मूल्य तथा परोपकारी दृष्टिकोण का वर्णन किया है। इसके साथ ही कवि ने पाठक वर्ग को यान्त्रिकता और कृत्रिमता के प्रति बढ़ते हुए मोह से सचेत किया है। कवि अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहता है कि

“विज्ञाननौका समानीयते ।
ज्ञानगङ्गा विलुप्तेति नालोक्यते ॥”

कविता-संग्रह का निहित भाव यह है कि समाज को जीवन-मूल्यों को भुलाकर नई भौतिक तकनीकी से अभिभूत नहीं होना चाहिए। इस कविता-संग्रह की गीतात्मक शैली पाठकों के मन को आकर्षित करती है। कविताओं की भाषा सरल एवं सरस प्रसादगुण सम्पन्न है।

12. रूपरुद्रीयम्

‘रूपरुद्रीयम्’ आधुनिककाल के प्रतिष्ठित संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित एकांकी-संग्रह है। आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों एवं लेखकों में अभिराज राजेन्द्र मिश्र का प्रमुख स्थान है। संस्कृत साहित्य के प्रति की गई सेवाओं के कारण इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा राष्ट्रपति के सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है।

‘रूपरुद्रीयम्’ एक एकांकी-संग्रह है। इस एकांकी-संग्रह के माध्यम से लेखक ने समाज के निम्न वर्ग के प्रति होने वाले अन्याय, शोषण तथा अत्याचार का यथार्थ चित्रण किया है। इस एकांकी-संग्रह के ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ के माध्यम से यह बताया गया है कि गुणवान् व्यक्ति किसी भी जाति, समुदाय अथवा वर्ग में पैदा होकर अपनी प्रतिभा को विकसित कर सकता है।

जैसा कि गरीबों की बस्ती में पैदा होने वाले सोमधर के सद्व्यवहार को देखकर समाज के प्रतिष्ठित वकील भवानीदत्त आश्चर्यचकित हो जाते हैं और उसकी शिक्षा का सारा भार अपने ऊपर ले लेते हैं। इस एकांकी-संग्रह की भाषा-शैली सरस, स्वाभाविक एवं प्रसंगानुकूल है। यत्र-तत्र आलंकारिक शब्दावली का प्रयोग भी दृष्टिगोचर होता है। भाषा में माधुर्य तथा प्रवाह सर्वत्र विद्यमान हैं।

HBSE 11th Class Sanskrit पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय

13. गीताञ्जलि

‘गीताञ्जलि’ विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार एवं दार्शनिक कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ है। टैगोर भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाले युगद्रष्टा महापुरुष थे। टैगोर ने लगभग 2230 गीतों की रचना की। उन्हीं गीतों की कड़ी में ‘गीताञ्जलि’ एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। ‘गीताञ्जलि’ गीत और अंजलि को मिलाकर बना है, जिसका अर्थ है-गीतों का उपहार (भेंट)।

यह अंग्रेज़ी में लिखी 103 कविताओं का संग्रह है, जिसका प्रकाशन 1913 में किया गया था। टैगोर जी को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। गीताञ्जलि पश्चिमी जगत में बहुत ही प्रसिद्ध हुई है। इसके साथ ही इसका अनेक भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उसी कड़ी में इसका संस्कृत भाषा में भी अनुवाद किया गया है। इसके अनुवादक कोल० व्यासराय शास्त्री हैं। इस ग्रन्थ में दर्शाया गया है कि ईश्वर की वास्तविक सत्ता किसानों, मजदूरों तथा गरीबों में है। इन्हीं के बीच में परमात्मा के दर्शन किए जा सकते हैं। कवि ने कहा है कि

“ईशस्तिष्ठति वर्षातपयो
स्ताभ्यां साधु मलिनवपुः।
दूरे क्षिप तव शुद्धां शाटी
मेहि स इव पांसुरभूमिम् ॥”

अनुवादित ग्रन्थ की भाषा-शैली माधुर्य एवं प्रसादगुण सम्पन्न, सरस तथा प्रवाहमयी है।

14. सत्यशोधनम्

‘सत्यशोधनम्’ गुजराती भाषा में लिखित गाँधी जी की आत्मकथा पर आधारित एक अनूदित ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का अनुवाद पण्डित होसकेरे नागप्प शास्त्री जी ने किया। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 36 वर्ष की आयु में अपने संस्मरणों को एकत्रित कर अपनी आत्मकथा मातृभाषा गुजराती में लिखी। इसके अनन्तर विश्व की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया। स्वयं गाँधी जी ने श्रीनिवास शास्त्री के सहयोग से इसका परिशोधन किया।

गाँधी जी के अनुसार उनकी आत्मकथा आत्मपरीक्षण के रूप में है। इस ग्रन्थ के माध्यम से शास्त्री जी ने बताया है कि बचपन में गाँधी जी किस प्रकार श्रवण कुमार की मातृ-पितृ भक्ति एवं सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा से अभिभूत हुए। इस ग्रन्थ के अनुवाद का प्रमुख उद्देश्य गांधी जी के जीवन-दर्शन एवं उनके सिद्धान्तों से पाठकों को परिचित करवाना है। इस ग्रन्थ की भाषा-शैली सरस, सरल एवं मुहावरेदार है। वस्तु-विन्यास प्रसंग के अनुरूप है। वाक्य छोटे-छोटे हैं। समासों का प्रयोग सामान्यतः नहीं के बराबर है। भाषा में कहीं भी दुरूहता नहीं है।

15. श्रीमद्भगवद्गीता

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ महाभारत के छठे पर्व भीष्म पर्व का एक उपपर्व है। इसलिए यह व्यास जी की रचना है। यह गीता महाभारत युद्ध के पहले दिन भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से अर्जुन को लक्ष्य करके प्रकट हुई, इसीलिए इसका नाम ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है। श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा अगाध और असीम है। यह ग्रन्थ प्रस्थानत्रय में माना जाता है। भगवद्गीता में श्लोक होते हुए भी भगवान् की वाणी होने से ये मन्त्र ही हैं। इन श्लोकों में बहुत गहरा अर्थ भरा हुआ होने से इनको सूत्र भी कह सकते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता एक बहुत ही अलौकिक एवं विचित्र ग्रन्थ है। इसमें 18 अध्याय तथा कुल सात सौ श्लोक हैं। इसमें साधक के लिए उपयोगी पूरी सामग्री मिलती है। भगवद्गीता का उपदेश अलौकिक है। इस गम्भीर ग्रन्थ पर कितना ही विचार किया जाए, तो भी इसका कोई पार नहीं पा सकता। गीता एक शान्ति देने वाला ग्रन्थ है। इसका आश्रय लेकर पाठ करने मात्र से बड़े विचित्र, अलौकिक और शान्तिदायक भाव स्फुटित होते हैं। गीता का मुख्य लक्ष्य है कि प्रत्येक मनुष्य का प्रत्येक परिस्थिति में कल्याण हो जाए, वह किसी भी परिस्थिति में परमात्म-प्राप्ति से वंचित न रहे। गीता में प्रमुख रूप से ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोग का प्रतिपादन किया गया है। कर्मयोग को स्पष्ट करते हए कहा गया है कि

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता का अर्थ बहुत ही गम्भीर है। इसका पठन-पाठन, मनन-चिन्तन और विचार करने से बड़े ही विचित्र और नए-नए भाव स्फुरित होते रहते हैं, जिससे मन-बुद्धि चकित होकर तृप्त हो जाते हैं।

16. तर्कसंग्रह

‘तर्कसंग्रह’ एक दार्शनिक ग्रन्थ है, जिसकी रचना अन्नभट्ट ने 17वीं शताब्दी में की थी। ‘तर्कसंग्रह’ को न्याय एवं वैशेषिक दोनों दर्शनों को समाहित करने वाला ग्रन्थ माना गया है। क्योंकि इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से न्याय एवं वैशेषिक दोनों दर्शनों के मूल सिद्धान्तों का ज्ञान मिल जाता है। इस ग्रन्थ की रचना के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकार ने प्रारम्भ में ही कहा है कि “बालानां सुखबोधाय क्रियते तर्कसंग्रहः”। अर्थात् बालकों के सुखपूर्वक बोध के लिए तर्कसंग्रह की रचना कर रहा हूँ।

‘तर्कसंग्रह’ में दो शब्द हैं-तर्क तथा संग्रह । यहाँ पर ‘तर्क’ शब्द का अर्थ है द्रव्यादि सात पदार्थ, संग्रह शब्द संक्षेप के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। वस्तुतः संग्रह के अन्तर्गत उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा आते हैं। इनमें से उद्देश्य का अर्थ ‘परिगण’ है। किसी भी पदार्थ के असाधारण धर्म को ‘लक्षण’ कहा गया है। जिस पदार्थ का लक्षण किया जा रहा है वह उस पर ठीक-ठीक बैठता है अथवा नहीं, इस प्रकार का विचार करना ‘परीक्षा’ है।

इस प्रकार तर्क संग्रह द्रव्य, गुण, कर्म आदि सप्त पदार्थों के परिगणन के साथ-साथ उनके लक्षण तथा उन लक्षणों की परीक्षा को संक्षिप्त रूप से प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ है। ‘तर्कसंग्रह’ में प्रतिपादित विषयों के अर्थ को अति संक्षिप्त तथा स्पष्ट करने के लिए इसी ग्रन्थ पर आधारित ‘दीपिका’ नामक ग्रन्थ की रचना की गई है।

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HBSE 11th Class Sanskrit लेखक एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions लेखक एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit लेखक एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय

1. महर्षि वाल्मीकि

कूजन्तं राम-रामेति मधुर-मधुर-मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कवितां शाखा, वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥

संस्कृत साहित्य में महर्षि वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। किंवदंती के अनुसार देवर्षि नारद की प्रेरणा से ‘मरा-मरा’ का उच्चारण करते हुए इनके मुख से अनायास ही ‘राम-राम’ निःसृत हुआ। अनेक वर्षों तक राम-नाम के जप का यही क्रम चलता रहा। तपस्या में लीन वाल्मीकि के शरीर पर दीमकों ने बाम्बी-सी बना ली थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी स्वयं उनके पास आए। उन्हें दीमकों की बाम्बी से निकालकर ‘आदिकवि’ होने का गौरवमय वरदान प्रदान किया।

वाल्मीकि के समय के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। विद्वानों ने रामायण का विस्तृत रूप से अनुशीलन करके यह स्पष्ट किया है कि इस महाकाव्य की रचना भगवान बुद्ध के प्रादुर्भाव से पूर्व हो चुकी थी। अतः रामायण 500 ई.पू. से पहले की रचना है क्योंकि विद्वानों की प्राचीन परम्परा राम एवं वाल्मीकि को समकालीन मानती है।

इस आधार पर वाल्मीकि का समय ई.पू. पञ्चम शताब्दी से पहले ही माना जा सकता है। संस्कृत साहित्य में वाल्मीकिकृत ‘रामायण’ को आदिकाव्य माना जाता है। कथा प्रसिद्ध है कि जब व्याध के बाण से बिन्धे । हुए क्रौञ्च के लिए विलाप करने वाली क्रौञ्ची का करुण क्रन्दन महर्षि वाल्मीकि ने सुना तो अचानक उनके मुख से यह श्लोक निकल पड़ा

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत् क्रौञ्च मिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥

अर्थात् हे निषाद! तुम आने वाले सैकड़ों वर्षों में भी प्रतिष्ठा को मत प्राप्त करो, क्योंकि तुमने काम-क्रीड़ा में मुग्ध क्रौञ्च जोड़े में से एक का वध किया है। अनुष्टुप् छन्दोबद्ध उक्त श्लोक ही लौकिक संस्कृत साहित्य के श्रीगणेश का कारण बना। ब्रह्मा जी के आदेश पर महर्षि वाल्मीकि ने ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ राम के जीवन का वर्णन किया। ‘रामायण’ में 24000 श्लोक हैं, जिन्हें बाल-अयोध्या-अरण्य-किष्किन्धा-सुन्दर-युद्ध तथा उत्तर-सात काण्डों में विभक्त किया गया है।

महर्षि वाल्मीकि ने इस महाकाव्य में रघुवंश शिरोमणि श्री रामचन्द्र जी की जीवन-गाथा के माध्यम से माता-पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाभी आदि के आदर्श सम्बन्धों का जो अनुपम वर्णन किया है, वह संसार के किसी अन्य साहित्य में देखने को नहीं मिलता। लक्ष्मण को मूर्छित अवस्था में देखकर श्री रामचन्द्र जी विलाप करते हुए कहते हैं कि

देशे-देशे कलत्राणि देशे-देशे च बान्धवाः।
तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः ॥

अर्थात् देश-देश में पत्नियाँ मिल सकती हैं तथा देश-देश में बन्धु मिल सकते हैं, परन्तु मैं उस देश को नहीं देखता हूँ जहाँ सगा भाई मिल जाए।

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2. महर्षि वेदव्यास

जीवन-परिचय-वैदिक साहित्य के पश्चात् संस्कृतभाषा में दो ऐसे काव्यों का उदय हुआ जिन पर भारतीय जन-जीवन और समाज को गर्व है। उनमें से एक ‘महाभारत’ है जिसके रचयिता महर्षि वेदव्यास हैं । वेदव्यास का महाभारत के पात्रों से निकट सम्बन्ध था। इनके पिता वैदिक मुनि पराशर थे। इनकी माता का नाम सत्यवती था। व्यास जी का जन्म यमुना के किसी द्वीप पर हुआ और  पालन-पोषण वहाँ के मल्लाहों के राजा दाशराज ने किया। उस द्वीप पर जन्म होने के कारण व्यास जी का नाम ‘द्वैपायन’ हुआ, रंग काला होने के कारण ये ‘कृष्ण मुनि’ कहलाए।

इन्होंने यज्ञीय उपयोग के लिए वेदों का विभाजन किया। इसलिए इन्हें ‘वेदव्यास’ भी कहते हैं। वस्तुतः वेदव्यास ही कौरवों एवं पाण्डवों के वास्तविक पितामह थे। वे विपत्ति के समय छाया की तरह पाण्डवों के साथ रहते थे और अपने उपदेशों के माध्यम से उन्हें समयानुसार धैर्य और सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा दिया करते थे।

कृतित्व-महर्षि वेदव्यास जी ने तीन वर्षों के सतत् परिश्रम से ‘महाभारत’ की रचना की थी

त्रिभिर्वषैः सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनो मुनिः।
महाभारतमाख्यानं कृतवानिदमुत्मम् ॥

महाभारत के विकास की तीन अवस्थाएँ मानी जाती हैं-जय, भारत और महाभारत। महाभारत की तीन अवस्थाओं से स्पष्ट है कि इसकी रचना एक समय में न होकर भिन्न-भिन्न समयों में हुई। विद्वानों ने . अन्तः एवं बाह्य साक्ष्यों के आधार पर इसका समय ईसा से लगभग 3102 वर्ष पूर्व निर्धारित किया है। अतः वेदव्यास का समय ई.पू. 3102 वर्ष माना गया है।

महर्षि वेदव्यास ने ‘महाभारत’ में कौरवों और पाण्डवों के परस्पर संघर्ष की कथा का वर्णन बड़े विस्तार से अठारह खण्डों में किया है। इन खण्डों को ‘पर्व’ कहा जाता है। इन पर्यों में पाण्डवों की उत्पत्ति, उनका वनवास, पाण्डव-कौरवों के युद्धों का वर्णन, अर्जुन को श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया गीता का उपदेश, पाण्डवों के स्वर्गारोहण आदि का वर्णन किया गया है।

वैशिष्ट्यम्-संसार के साहित्य में महाभारत आकार एवं वीरकाव्य की दृष्टि से अद्वितीय ग्रन्थ है। इसकी भाषा परिष्कृत और गौरवपूर्ण है। भाषा की सरलता, अर्थगौरव एवं उपयुक्तता इसकी तीन विशेषताएँ हैं। भाषा के सौन्दर्य का सुन्दर उदाहरण ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में मिलता है। इस भाषा का प्रयोग कवि ने अनुष्टुप् छन्द के माध्यम से किया है। वर्णन-शैली में सशक्तता है। कथा में प्रवाह, विशदता, स्पष्टता और प्रसादगुण हैं, जबकि वर्णनों में चित्रात्मकता और भव्यता है।

3. महाकवि शूद्रक

संस्कृत नाट्य साहित्य में शूद्रक नाटककार के रूप में विख्यात हैं। इनके जीवन आदि के विषय में कोई विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता। शूद्रक राजा और शूद्रक कवि एक ही व्यक्ति थे अथवा दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे, इस विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं। कवि अस्पष्टता के कारण जीवन तथा रचनाकाल भी विवादास्पद है। डॉ० कीथ के अनुसार शूद्रक एक काल्पनिक व्यक्ति है तथा ‘मृच्छकटिक’ रूपक किसी अज्ञात कवि की रचना है। मृच्छकटिक की प्रस्तावना में शूद्रक के राजा और कवि होने के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं।

अधिकांश विद्वानों के अनुसार शूद्रक राजा और कवि दोनों थे। इनका उल्लेखं कादम्बरी, हर्षचरित, कथासरित्सागर, राजतरङ्गिणी आदि ग्रन्थों में भी मिलता है। विद्वानों ने शूद्रक को एक राजा मानते हुए इनका समय ई०पू० प्रथम शताब्दी के आस-पास माना है। शूद्रक की एकमात्र रचना ‘मृच्छकटिक’ है। यह दस अंकों का प्रकरण है। इसमें सामाजिक यथार्थ एवं आदर्शवाद का सन्निवेश है।

नाट्यशास्त्र के अनुसार वध, शयन, आलिङ्गन, युद्ध, रति क्रीड़ा का वर्णन नाटकों में मञ्च पर त्याज्य है। प्रस्तुतः नाटक में इन प्रसंगों का वर्णन यत्र-तत्र किया गया है। इस प्रकरण में कथावस्तु, पात्र-योजना एवं रस का चित्रण प्रकरण के अनुसार किया गया है। इस प्रकरण की भाषा सरल, सुबोध एवं पात्रानुकूल है। नाटककार ने प्राकृत भाषाओं का विषय-वस्तु एवं पात्रानुकूल प्रयोग किया है। निष्कर्ष रूप में शुद्रक एक कुशल नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हैं।

4. आचार्य चरक

भारतीय चिकित्सा शास्त्र के तीन प्रसिद्ध आचार्य हैं-आचार्य सुश्रुत, आचार्य वाग्भट्ट एवं आचार्य चरक। इनमें जहाँ सुश्रुत के नाम से सुश्रुत संहिता है, वहीं आचार्य चरक के नाम से चरक संहिता है। आचार्य चरक को ‘औषधि-निर्मिति’ का पितामह माना जाता है। इन्हें त्वचा चिकित्सक भी कहते हैं। आचार्य चरक का समय 300-200 ई०पू० के लगभग माना जाता है।

कुछ समालोचकों का मानना है कि चरक संहिता में पालिसाहित्य के कुछ शब्दों का उल्लेख मिलता है। इस आधार पर आचार्य चरक का समय उपनिषदों के बाद और बुद्ध से पूर्व निश्चित किया है। इसका प्रतिसंस्कार कनिष्क के समय 78 ई० के लगभग हुआ। त्रिपिटक के चीनी भाषा के अनुवाद में कनिष्क के राजवैद्य के रूप में चरक का उल्लेख मिलता है। आचार्य चरक की शिक्षा तक्षशिला में हुई थी। ऐसा माना जाता है कि ये कुषाण राज्य के राजवैद्य थे।

आचार्य चरक आयुर्वेद के विद्वान थे। उन्होंने आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थों और उनके ज्ञान को इकट्ठा करके उसका संकलन किया। उन्होंने विभिन्न स्थानों में भ्रमण करके चिकित्सकों के साथ बैठकें कीं, उनके विचार एकत्रित किए। इस आधार पर सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जो कि आयुर्वेद की शिक्षा के लिए अत्यावश्यक हैं।

आचार्य चरक विरचित ‘चरक संहिता’ आठ भागों में विभाजित है। इसमें कुल 120 अध्याय हैं। इस ग्रन्थ में आयुर्वेद से सम्बन्धित सभी सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। जो सिद्धान्त इस ग्रन्थ में नहीं हैं, वे अन्यत्र भी नहीं हैं। इस ग्रन्थ में रोगनाशक एवं रोग निरोधक दवाओं का उल्लेख है तथा सोना, चाँदी, पारा आदि धातुओं की भस्म एवं उनके उपयोग का वर्णन है।

5. महर्षि अरविन्द घोष

महान क्रान्तिकारी तथा राष्ट्रभक्त महर्षि घोष का जन्म सन् 1872 में कोलकाता में हुआ। इनके पिता एक डॉक्टर थे। जीवन के प्रारम्भिक क्षणों में अरविन्द घोष स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी देशभक्त के रूप में उभरे। ये सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक थे। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अलीपुर बम केस का अपराधी मानकर 1906 ई० में अलीपुर कारागार में बन्दी बना दिया।

कारागार की इसी अवधि में एक रात स्वप्न में बन्दिनी भारत माता का दर्शन कर भावाविष्ट मनोदशा में कवि ने इस ओजस्वी तथा राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत ‘शतक काव्य’ का प्रणयन किया, जिसे ‘भवानी भारती’ के नाम से जाना जाता है। अपने क्रान्तिकारी विचारों एवं बौद्धिक ज्ञान के आधार पर वे एक प्रसिद्ध दार्शनिक, योगी एवं गुरु के रूप में विख्यात हुए।

वेद उपनिषद् आदि ग्रन्थों पर टीका-ग्रन्थ लिखा। इसके साथ ही योग साधना पर इन्होंने अनेक मौलिक ग्रन्थ लिखे। उन ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वे सच्चे योगी थे। योग साधना के प्रचार-प्रसार एवं संवर्धन के लिए उन्होंने पांडिचेरी में एक योग आश्रम स्थापित किया। जीवन के उत्तरार्ध में महर्षि अरविन्द वेदों के व्याख्याता, महाकवि, महायोगी, परम राष्ट्रभक्त एवं महान् दार्शनिक के रूप में विश्वमञ्च पर प्रतिष्ठित हुए। इनका निधन सन् 1950 में हुआ। उनकी भाषा-शैली अलंकारयुक्त, माधुर्य एवं प्रसादगुण सम्पन्न है।

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6. विद्यापति

मैथिली, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि विद्यापति का जन्म चतुर्दश शताब्दी (1360-1448) में मिथिला क्षेत्र के विसफी ग्राम में हुआ था। बंगाल में जयदेव ने जिस कृष्ण-प्रेम के संगीत की परम्परा चलाई थी, उसी में मैथिल कोकिल विद्यापति ने हजारों पदों में अपना सुर मिलाया और उसी के साथ मैथिली काव्यधारा की विशेषतः गीतिकाव्य की एक अनोखी धारा चल पड़ी जिसने तीन शताब्दियों तक पूर्वी भारत में मैथिली का सिक्का जमा दिया।

मैथिल कोकिल विद्यापति की प्रसिद्धि बंगाल, उड़ीसा और असम में खूब हुई। इन देशों में विद्यापति को वैष्णव माना गया और उनके अनुकरण में अनेक कवियों ने मैथिली में पदावलियाँ रची। इस साहित्य की परम्परा आधुनिककाल तक चलती आई है। विद्यापति ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन्होंने संस्कृत भाषा में विविध विषयों पर आधारित 12 ग्रन्थों की रचना है।

उसमें से ‘पुरुष-परीक्षा’ नामक कथाग्रन्थ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस ग्रन्थ में बताया गया है कि सच्चे पुरुष की परख कैसे की जाती है। इसके लिए वासुकि नामक मुनि पारावार नामक राजा को अनेक कथाएँ सुनाते हैं। इसके साथ ही ‘वि लोक विश्रुत रचना है। इसमें राधा-कृष्ण संबंधी शृंगारिक गीत तथा शक्ति और शिव विषयक कविताओं का संग्रह किया गया है। इन्हें ही क्रमशः गोसाउनिक गीत तथा नचारी कहते हैं। इनकी रचनाओं की विषय-वस्तु लोक परम्परा के अनुरूप है। रचनाओं की भाषा-शैली सहज, सरल एवं प्रवाहमयी है।

7. श्रीनिवास रथ

आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों में विशेष रूप से प्रसिद्ध श्रीनिवास रथ का जन्म सन् 1933 में पुरी (उड़ीसा) में हुआ था। श्रीनिवास रथ बाल्यकाल से मध्य प्रदेश के विभिन्न नगरों में रहे तथा अपने पिता से पारम्परिक पद्धति द्वारा संस्कृत भाषा का अध्ययन करने के पश्चात् उच्च शिक्षा इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की। ये विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में संस्कृत विभाग में प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष रहे।

श्रीनिवास रथ 40 वर्षों से संस्कृत भाषा में गीत लिखते आ रहे हैं। इनकी कविताएँ भारतीय संस्कृति, देशभक्ति, सामाजिक सुधार, मानवीय मूल्य तथा परोपकारी दृष्टिकोण से परिपूर्ण हैं। इनके कविता-संग्रह में “तदेव गगनं सैव धरा” विशेष रूप से प्रसिद्ध है। यह संग्रह राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान नई दिल्ली से सन् 1995 में प्रकाशित हुआ है। इसके साथ ही ‘विपरीत जीवन लतिका रहस्य’ नामक रचना का भी प्रकाशन सन् 2002 में हुआ था।

आधुनिक संस्कृत साहित्य में प्रो० श्रीनिवास रथ का बहुमूल्य योगदान है। इनकी कविता की गीतात्मक शैली पाठकों के मन को आकर्षित करती है। कविता के माध्यम से कवि ने बताया है कि वैज्ञानिक प्रगति के आधुनिक युग में मानव-मूल्य और नैतिक महत्त्व की गिरावट चिन्तनीय विषय है। अतः कवि ने अपने गीतों के माध्यम से इनके उन्मूलन पर विशेष बल दिया है।

8. अभिराज राजेन्द्र मिश्र

आधुनिक काल के प्रतिष्ठित संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्र मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के जौनपुर नामक ग्राम में सन् 1943 में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित दुर्गाप्रसाद मिश्र था। आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों एवं लेखकों में इनका प्रमुख स्थान है। संस्कृत साहित्य के प्रति की गई सेवाओं के कारण इन्हें विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। सन् 1988 में इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके साथ ही सन् 2002 में अपने कहानी-संग्रह ‘इक्षुगन्धा’ के लिए इन्हें राष्ट्रपति के सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया।

अभिराजमिश्र संस्कृत साहित्य में कहानी-लेखन तथा एकांकी-लेखन के रूप में प्रसिद्ध हैं। ‘इक्षुगन्धा’ इनके द्वारा रचित कहानी-संग्रह है तथा ‘रूपरूद्रीयम्’ एकांकी-संग्रह है। मिश्र जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के निम्नवर्ग के प्रति होने वाले . अन्याय तथा शोषण का यथार्थ चित्रण किया है।

उनका मानना है कि गुणवान व्यक्ति किसी भी जाति, समुदाय अथवा वर्ग में पैदा होकर अपनी प्रतिभा को विकसित कर सकता है। जैसाकि गरीबों की बस्ती में पैदा होने वाले सोमधर के सद्व्यवहार को देखकर समाज के प्रतिष्ठित वकील भवानीदत्त आश्चर्यचकित हो जाते हैं और उसकी शिक्षा का सारा भार अपने ऊपर ले लेते हैं। अभिराजमिश्र की भाषा-शैली सरस, स्वाभाविक एवं प्रसंगानुकूल है। यत्र-तत्र आलंकारिक शब्दावली का प्रयोग भी दृष्टिगोचर होता है। भाषा में माधुर्य तथा प्रवाह सर्वत्र विद्यमान है।

9. कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर

विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को कोलकाता में हुआ। इनके पिता का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर तथा माता का नाम शारदा देवी था। सेंट जेवियर से प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद बैरिस्टर बनने की इच्छा से टैगोर इंग्लैण्ड चले गए। वे 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। रवीन्द्रनाथ टैगोर में बचपन से ही कविता, छन्द और भाषा ज्ञान के प्रति अद्भुत प्रतिभा का परिचय मिलता है।

उन्होंने छः वर्ष की आयु में पहली कविता लिखी थी तथा उसी उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। वस्तुतः टैगोर भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाले युगद्रष्टा महापुरुष थे। उन्होंने गीताञ्जलि, पूरबी प्रवाहिनी, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका, शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, मायेर-खेला तथा क्षणिका आदि ग्रन्थों की रचना की थी। भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ रवीन्द्रनाथ टैगोर के द्वारा लिखा गया है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाओं में देश-विदेश के सम्पूर्ण साहित्य, दर्शन तथा संस्कृति आदि की झलक मिलती है। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया है। टैगोर और गान्धी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहाँ गान्धी राष्ट्रवाद को प्रथम स्थान पर रखते थे, वहीं टैगोर मानवतावाद को। लेकिन दोनों एक-दूसरे का बहुत आदर करते थे। उनकी काव्य-रचना ‘गीताञ्जलि’ के लिए उन्हें 1913 में साहित्य नोबेल पुरस्कार मिला। 7 अगस्त, 1941 में इनका निधन हो गया।

10. पण्डित होसकेरे नागप्प शास्त्री

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जीवन-दर्शन को आधार मानकर भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने अनेकानेक ग्रन्थ लिखे। उसी कड़ी में पण्डित होसकेरे नागप्प शास्त्री जी ने गान्धी जी की आत्मकथा को आधार मानकर एक ग्रन्थ लिखा, जिसे ‘सत्यशोधनम्’ के नाम से जाना जाता है। यद्यपि यह ग्रन्थ गान्धी जी की आत्मकथा, जिसे गान्धी जी ने स्वयं गुजराती भाषा में लिखा था, का अनुवाद है तथापि इसके अनुवाद में शास्त्री जी ने अपने संस्कृत विषय के प्रखर ज्ञान का परिचय दिया है। इस ग्रन्थ के माध्यम से शास्त्री जी ने बताया है कि बचपन में गान्धी जी किस प्रकार श्रवण कुमार की मातृपितृभक्ति एवं सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा से अभिभूत हुए।

शास्त्री जी द्वारा इस ग्रन्थ के अनुवाद का प्रमुख उद्देश्य गान्धी जी के जीवन-दर्शन एवं उनके सिद्धान्तों से पाठकों को परिचित करवाना है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से प्रतीत होता है कि शास्त्री जी की भाषा-शैली सरस, सरल एवं मुहावरेदार है। वस्तु-विन्यास, प्रसंग के अनुरूप है। वाक्य छोटे-छोटे हैं। समासों का प्रयोग सामान्यतः नहीं के बराबर है।

11. अन्नंभट्ट

भारतीय दर्शन के विद्वानों में अन्नंभट्ट का विशेष स्थान है। इनका समय 17वीं शताब्दी माना जाता है। इन्होंने न्याय और वैशेषिक दर्शनों से सम्बन्धित ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें ‘तर्कसंग्रह’ और ‘तर्कसंग्रह दीपिका’ प्रमुख हैं।। अन्नभट्ट ने बालकों को सुखपूर्वक न्याय पदार्थों का ज्ञान कराने हेतु ‘तर्कसंग्रह’ नामक लघु ग्रन्थ को लिखा। इसके अति संक्षिप्त अर्थ को स्पष्ट करवाने के अभिप्राय से स्वयं दीपिका नामक व्याख्या ग्रन्थ की भी रचना की। ‘तर्कसंग्रह’ के आरम्भ में इसी बात पर बल देते हुए उन्होंने कहा है कि

निधायहृदि विश्वेशं विधाय गुरुवन्दनम्।
बालानां सुखबोधाय क्रियते तर्कसंग्रहः ॥

अर्थात् अपने हृदय में विश्वनाथ जी का ध्यान करके अपने गुरु की वन्दना करते हुए बालकों के भी सुखपूर्वक बोध के लिए तर्कसंग्रह लिख रहा हूँ। तर्कसंग्रह के अध्ययन से पता चलता है कि अन्नंभट्ट को न्याय एवं वैशेषिक सभी मूल सिद्धान्तों का ज्ञान था। क्योंकि पदार्थों के विषय में तर्कसंग्रह में इन्होंने जो कुछ बताया है, वह पूर्णतः वैशेषिक दर्शन के अनुसार है जबकि प्रमाण के विषय में जो कुछ है वह न्याय दर्शन के अनुसार है। महर्षि गौतम ने प्रमाण, प्रमेय, संशय आदि 16 पदार्थ माने हैं जबकि अन्नभट्ट ने केवल सात पदार्थ माने हैं जोकि द्रव्य, गुण, कर्म आदि के रूप में हैं। महर्षि गौतम के 16 पदार्थों का अन्तर्भाव अन्नंभट्ट ने अपने सात पदार्थों के अन्तर्गत कर दिया है।

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HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 11 ईशः कुत्रास्ति

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 11 ईशः कुत्रास्ति Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 11 ईशः कुत्रास्ति

HBSE 11th Class Sanskrit ईशः कुत्रास्ति Textbook Questions and Answers

1. संस्कृतभाषाया उत्तरं दीयताम्
(क) ईशः कुत्रास्ति? इति पाठः कस्माद् ग्रन्थात्सङ्कलितः?
(ख) लाङ्गलिकः किं करोति?
(ग) प्रस्तरखण्डान् कः दारयते?
(घ) ईश्वरः काभ्यां सार्द्धं तिष्ठति?
(ङ) कविः जनान् कुत्र गन्तुं प्रेरयति?
(च) कविः किं चिन्तयितुं कथयति?
उत्तराणि:
(क) ‘ईशः कुत्रास्ति’ इति पाठः ‘गीताञ्जलि’ इति ग्रन्थात् सङ्कलितः।
(ख) लाङ्गलिकाः कठोर भूमिं कर्षन्ति।
(ग) जनपदरथ्याकर्ता प्रस्तर खण्डान् दारयते।
(घ) ईशः वर्षा आतपयोः मलिनवपुभिः सार्धं तिष्ठति।
(ङ) कविः जनान् कार्यक्षेत्रे गन्तुं प्रेरयति।
(च) कविः तत्त्वमिदं चिन्तयितुं कथयति।

2. “तत्रास्तीशः कठिनां भूमिं ……………. दारयते” इत्यस्य काव्यांशस्य व्याख्या हिन्दीभाषया कर्तव्या।
उत्तराणि:
प्रस्तुत श्लोक ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘ईशः कुत्रास्ति’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव कविवर ‘रवीन्द्र नाथ टैगोर’ की विश्व प्रसिद्ध रचना ‘गीताञ्जलि’ के संस्कृत अनुवाद से संकलित है। इस श्लोक में ईश्वर के निवास स्थान के विषय में बताया गया है। व्याख्या-लोग ईश्वर की खोज मन्दिरों, मस्जिदों व गिरिजाघरों में करते हैं किन्तु ईश्वर की उपलब्धि इन स्थानों पर नहीं होती।

ईश्वर वहाँ हैं, जहाँ किसान कठोर भूमि पर सूर्य की कड़ी धूप में कठिन परिश्रम करता है। कठोर भूमि को जोतकर अन्न उगाने वाली बनाता है। ईश्वर वहाँ है जहाँ कठोर, कड़ी धूप में सड़क निर्माता पत्थरों को तोड़कर राजमार्गों पर बिछाते व सड़कों का निर्माण करते हैं। पसीने से जिनके वस्त्र गल जाते हैं उनमें हज़ारों छिद्र हो जाते हैं। इन्हीं लोगों के बीच में ईश्वर का निवास है। हमें इस तथ्य पर विचार करना चाहिए तभी हम इस बिंदु पर पहुँच सकेंगे कि कर्म ही पूजा है।

HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Chapter 11 ईशः कुत्रास्ति

3. रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) अस्मिन् ……………….. कं भजसे।
(ख) स्वेदजलार्द्रः ………………….. तिष्ठ।
(ग) ध्यानं हित्वा …………………. एहि।
(घ) यदि तव ……………… धूसरितं स्यात् ।
उत्तराणि:
(क) अस्मिन् तमोवृत्ते कं भजसे।
(ख) स्वेदजलार्द्रः पश्यन् तिष्ठ।
(ग) ध्यानं हित्वा बहिः एहि।
(घ) यदि तव वसनं धूसरितं स्यात्।

4. अधोलिखितपदाना वाक्येषु प्रयोगं कुरुत
सार्द्धम्, सविधे, हित्वा, एहि, धूसरितम्, भवेत्।
उत्तराणि:

शब्दअर्थवाक्य-प्रयोग
सार्द्धूूसाथ मेंईश्वरः वर्षातपयोः ताभ्यां सार्द्धं तिष्ठति।
सबिधेपास मेंईश्वर अस्माकं सविधे तिष्ठति।
हित्वाछोड़करध्वानं हित्वा त्वं बहि: एहि।
एहिआओत्वं मलिनवपुः इव पांसुरभूमिम् एहि
धूसरितमूधूल से युक्ततव वसनं धुसरितम् अस्ति।
भवेत्होना चाहिएअस्मिन् क्षेत्रे किं भवेत्?

5. अधोलिखितेषु सन्धिं कुरुत
(क) तमोवृते + अस्मिन् = …………..
(ख) ईशः + तिष्ठति = …………..
(ग) बहिः + एहि = …………..
उत्तराणि:
(क) तमोवृत्तेऽस्मिन्।
(ख) ईशस्तिष्ठति।
(ग) बहिरेहि।

6. अधोऽङ्कितेषु सन्धिविच्छेदं कुरुत
(क) नास्त्यत्रेशः = ………… + ………….
(ख) पश्यस्तिष्ठ = ………… + ………….
(ग) तनिकटे = ………… + ………….
उत्तराणि:
(क) नास्त्यत्रेशः न + अस्ति + अत्र + ईशः
(ख) पश्यस्तिष्ठ = पश्यन् + तिष्ठ
(ग) तन्निकटे = तत् + निकटे

7. ईशस्तिष्ठति वर्षातपयो
स्ताभ्यां साधु मलिनवपुः।
दूरे क्षिप तव शुद्धां शाटी
मेहि स इव पांसुरभूमिम् ॥
इत्यस्य श्लोकस्य अन्वयं लिखत

अन्वयः मलिनवपुः ईशः वर्षा आतपयोः ताभ्यां सार्धं तिष्ठति (अत्रः) तव शुद्धां शाटीं दूरे क्षिप् (त्वम्) स इव पांसुरभूमिम् एहि।

योग्यताविस्तारः

1. पाठगतस्य आशयस्य स्थिरीकरणाय अधोलिखित-सूक्तयः दीयन्ते
मनः क्षोभं न कस्यापि
प्रकुर्वीत कथञ्चन।
आर्वोच्छ्वासैर्हि दीनानां
जगत् सर्वं प्रणश्यति ॥1॥

भावार्थ-कभी भी मन में किसी प्रकार का दुःख या खेद नहीं करना चाहिए। दीन-दुखियों के उच्छ्वासों (साँसों) । से संपूर्ण जगत् नष्ट हो जाता है।

बद्धाञ्जलिपुटा भृत्या
वित्तेशान् समुपासते।
तेभ्यस्तु ते महीयांसः
कुर्वते ये श्रमार्चनम् ॥2॥

भावार्थ-वे लोग नौकर हैं या दास हैं जो हाथ जोड़कर धन पतियों की उपासना करते हैं। उनके लिए तो वे लोग वरिष्ठ अथवा श्रेष्ठ हैं जो केवल श्रमार्चन (श्रम ही पूजा) करते हैं।

सम्भरणेन दीनानां
विपदाशु विलीयते।
ह्रियन्तेऽदातृ – वित्तानि
हिंसकेर्दस्युभिर्बलात् ॥3॥

भावार्थ-जो लोग दीन-दुखियों का भरण-पोषण करते हैं उनकी आपत्तियाँ भी लुप्त हो जाती हैं। किन्तु जो लोग दानादि नहीं करते हैं उनका धन हिंसक डाकुओं आदि के द्वारा बलपूर्वक ले लिया जाता है।

दीनं प्रति घृणाभावः
कर्तव्यो न कदाचन।
कृपापात्रं स ते भक्तः
पापकर्मा भवन्नपि ॥4॥

भावार्थ-कभी भी दीनों के प्रति घृणा भाव नहीं रखना चाहिए। पाप कर्म करते हुए भी भक्त कृपा पात्र होता है।

अशक्तमपि कार्येषु
अशक्तं मावगच्छ माम्।
समर्थ इति मत्वा मां
व्यवहारं कुरुष्व भोः ॥5॥

भावार्थ-अशक्तिशाली को शक्तिहीन होते हुए भी स्वयं को कार्यों में कमज़ोर अथवा निर्बल नहीं जानना चाहिए। हमें हमेशा स्वयं को शक्तिशाली मानकर ही व्यवहार करना चाहिए।

पाठस्य भावं चेतसि प्रवर्धनाय कानिचित् समभावगीतानि अपि श्राव्यसाधनैः श्रावयितव्यानि।
उत्तरम्:
अध्यापक/प्राध्यापक निर्देशने संवादानाम् अभ्यासं कुर्यात्।

HBSE 11th Class Sanskrit ईशः कुत्रास्ति Important Questions and Answers

अतिरिक्त प्रश्नोत्तराणि

I. अधोलिखितौ श्लोकौ पठित्वा एतदाधारितानाम् प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतेन लिखत।
(निम्नलिखित श्लोकों को पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए)

(1) तत्रास्तीशः, कठिनां भूमि
यत्र हि कर्षति लाङ्गलिकः।
यत्र च जनपदरथ्याकर्ता
प्रस्तरखण्डान् दारयते ॥
प्रश्ना:
(i) लाङ्गलिकः किं करोति?
(ii) प्रस्तरखण्डान् कः दारयते?
(iii) अस्य श्लोकस्य पाठः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलितः?
उत्तराणि:
(i) लाङ्गलिकः कठोर भूमिं कर्षति।
(ii) जनपदरथ्याकर्ता प्रस्तरखण्डान् दारयते।
(iii) अस्य श्लोकस्य पाठः ‘गीताञ्जलि’ इतिग्रन्थात् सङ्कलितः।

HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Chapter 11 ईशः कुत्रास्ति

2. ईशस्तिष्ठति वर्षातपयो
स्ताभ्यां साधु मलिनवपुः।
दूरे क्षिप तव शुद्धां शाटी
मेहि स इव पांसुरभूमिम् ॥
प्रश्ना:
(i) ताभ्यां सार्धं कः तिष्ठति?
(ii) शुद्धां शाटी कुत्र क्षिप्?
(iii) ईश्वरः काभ्यां सार्धं तिष्ठति?
उत्तराणि:
(i) ताभ्यां साधु ईशः तिष्ठति।
(ii) शुद्धां शाटीं दूरे (बहिः) क्षिप्।
(iii) ईशः वर्षा आतपाभ्यां मलिनवपुः सार्धं तिष्ठति।

II. अधोलिखित रेखांकित पदानि आधृत्य संस्कृतेन प्रश्न निर्माणं कुरुत
(निम्नलिखित रेखांकित पदों को देखकर संस्कृत में प्रश्न निर्माण कीजिए)

(क) यत्र हि कर्षति लाङ्गलिकः
(ख) त्यज जपमालां त्यज तव गानं।
(ग) ईशः वर्षातपयोः ताभ्यां सार्धं तिष्ठति।
(घ) स्वेदजलार्द्रः तन्निकटे कार्यक्षेत्रे पश्यन् तिष्ठा।
उत्तरम:
(क) यत्र हि कर्षति कः?
(ख) त्यज कां त्यज तव गानं?
(ग) ईशः कयोः ताभ्यां सार्धं तिष्ठति?
(घ) स्वेदजलार्द्रः तन्निकटे कस्मिन् पश्यन् तिष्ठ?

बहुविकल्पीय-वस्तुनिष्ठ प्रश्नाश्च

III. अधोलिखित दश प्रश्नानां प्रदत्तोत्तरविकल्पेषु शुद्धविकल्पं लिखत
(निम्नलिखित दस प्रश्नों के दिए गए विकल्पों में से शुद्ध विकल्प लिखिए)

1. कठोरभूमि कः कर्षति?
(A) श्रमिकः
(B) सेवकः
(C) लाङ्गलिकः
(D) भृत्यः
उत्तरम्:
(C) लाङ्गलिकः

2. कविः जनान् कुत्र गन्तुं प्रेरयति?
(A) देवागारे
(B) प्रस्तरखण्डे
(C) पिहित द्वारे
(D) कार्यक्षेत्रे
उत्तरम्:
(D) कार्यक्षेत्रे

3. जनपदरथ्याकर्ता कान् दारयते?
(A) क्षेत्रान्
(B) पर्वतान्
(C) अन्नान्
(D) प्रस्तरखण्डान्
उत्तरम्:
(D) प्रस्तरखण्डान्

4. ‘अत्रेशः’ अस्य सन्धिविच्छेदः अस्ति
(A) अत्र + ईशः
(B) अत्र + एशः
(C) अत्र + एशः
(D) अत्र + ईशः
उत्तरम्:
(A) अत्र + ईशः

5. ‘तत् + निकटे’ अत्र सन्धियुक्तपदं अस्ति
(A) तन्निकटे
(B) तनिकटे
(C) तनिकटे
(D) तत्निकटे
उत्तरम्:
(A) तन्निकटे

6. ‘देवागारे’ अत्र कः समासः?
(A) अव्ययीभावः
(B) कर्मधारयः
(C) बहुव्रीहिः
(D) द्विगुः
उत्तरम्:
(C) बहुव्रीहिः

7. ‘कठिनभूमि’ इति पदस्य विग्रहः अस्ति
(A) कठिनां भूमिं:
(B) कठिनं भूमिं
(C) कठिनः भूमि:
(D) कठिन् भूमिं
उत्तरम्:
(A) कठिनां भूमिं:

8. ‘हित्वा’ इति पदे कः प्रत्ययः?
(A) ल्यप्
(B) क्त्वा क्त्वा
(C) शतृ
(D) मतुप्
उत्तरम्:
(B) क्त्वा

9. ‘कुसुमं’ इति पदस्य विलोमपदं किम्?
(A) पुष्पं
(B) फलं
(C) कण्टकं
(D) कष्टं
उत्तरम्:
(C) कण्टकं

10. ‘लाङ्गलिकः’ इति पदस्य पर्याय पदं किम् ?
(A) कृषकः
(B) माङ्गलिकः
(C) लङ्गरः
(D) भृत्यः
उत्तरम्:
(A) कृषकः

HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Chapter 11 ईशः कुत्रास्ति

IV. निर्देशानुसारं रिक्तस्थानानि पूरयत
(निर्देश के अनुसार रिक्त स्थान को पूरा कीजिए)

(i) ‘सलिलमीशः’ अस्य सन्धिविच्छेदः …………….. आस्ति ।
(ii) ‘शुद्धशाटीं’ इति पदस्य विग्रहः ………………… अस्ति।
(iii) ‘मलिन वपुः’ इति पदस्य विशेषणपद ……………….. अस्ति।
उत्तराणि:
(i) सलिलम् + ईशः,
(ii) शुद्धां शाटीम्,
(iii) मलिन।

(ख)
(i) ‘धूसरितंवसनं’ इति पदस्य विशेष्यपदं ………….. अस्ति।
(ii) ‘मुक्तिः ‘ इति पदस्य विलोमपदं ………… वर्तते।
(iii) ‘साधु’ इति पदस्य पर्यायपदं ………. वर्तते।
उत्तराणि:
(i) वसनं,
(ii) बन्धनम्,
(iii) सह।

(ग) अधोलिखितपदानां संस्कृत वाक्येषु प्रयोग करणीय:
(निम्नलिखित पदों का संस्कृत वाक्यों में प्रयोग कीजिए)
(i) ध्वानं,
(ii) पांसुरं,
(ii) लाङ्गलिकः।
उत्तराणि:
(i) ध्वानं (अंधकार) सूर्यः ध्वानं दूरी करोति।
(ii) पांसुरं (धूल-धूसरित)-भूमिः पांसुरं अस्ति।
(iii) लाङ्गलिकः (हलवाहा) लाङ्गलिक क्षेत्रं कर्षति।

श्लोकों के सरलार्थ एवं भावार्थ

1. देवागारे पिहितद्वारे
तमोवृतेऽस्मिन् भजसे कम्?
त्यज जपमालां त्यज तव गानं
नास्त्यत्रेशः स्फुटय दृशम् ॥

अन्वय अस्मिन् तमोवृत्ते पिहितद्वारे देव-अगारे कं भजसे? जपमालां त्यज, तव गानं त्यज, दृशं स्फुटय अत्र ईशः न अस्ति।

शब्दार्थ देवागारे = देव मन्दिर में। पिहितद्वारे = बंद दरवाज़े वाले। तमोवृतेऽस्मिन् (तमः + आवृत्ते + अस्मिन्) = अंधकार से आच्छादित इसमें। जपमालां = मंत्र आदि जपने की माला को। नास्त्यत्रेशः (न + अस्ति + अत्र + ईश) = यहाँ ईश्वर नहीं है। स्फुटय = खोलो। दृशम् = दृष्टि (आँखों) को।

प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘ईशः कुत्रास्ति’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर’ की विश्व प्रसिद्ध रचना ‘गीताञ्जलि’ के संस्कृत अनुवाद से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस श्लोक में बताया गया है कि ईश्वर को सही स्थान पर खोजने का प्रयत्न करो। क्योंकि वे मन्दिर अथवा जपमाला आदि में नहीं रहते।

सरलार्थ हे मानव! इस अंधकार से आच्छादित बन्द दरवाज़े वाले देव मन्दिर में (त) किसका भजन कर रहा है? मंत्र आदि जपने की माला को छोड़ो, अपने गीत को छोड़ो। अपनी आँखों को खोलो और देखो यहाँ ईश्वर नहीं है।

भावार्थ भाव यह है कि ईंट-गारे आदि से निर्मित मन्दिर में प्रभु का निवास नहीं है। इसके साथ जपमाला आदि बाह्य आडंबरों से भी उनकी प्राप्ति संभव नहीं है। उनकी प्राप्ति तो अपने ज्ञान चक्षुओं के माध्यम से ही संभव है। अतः अपने ज्ञान चक्षुओं को खोलकर ईश्वर को ढूँढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए।

2. तत्रास्तीशः, कठिनां भूमि
यत्र हि कर्षति लाङ्गलिकः।
यत्र च जनपदरथ्याकर्ता
प्रस्तरखण्डान् दारयते ॥

अन्वय-हि यत्र लाङ्गलिकः कठिनां भूमिं कर्षति, यत्र च जनपदरथ्याकर्ता प्रस्तरखण्डान् दारयते, तत्र ईशः अस्ति।

शब्दार्थ तत्रास्तीशः (तत्र + अस्ति + ईशः) = ईश्वर वहाँ है। कर्षति = हल चलाता है। हि = निश्चय से। लाङ्गलिकः = हलवाहा। जनपदरथ्याकर्ता = जनपद की सड़क का निर्माण करने वाला। प्रस्तरखण्डान् = पत्थरों के टुकड़ों को। दारयते = तोड़ता है।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘ईशः कुत्रास्ति’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर’ की विश्व प्रसिद्ध रचना ‘गीताञ्जलि’ के संस्कृत अनुवाद से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस श्लोक में बताया गया है कि सच्चे अर्थों में ईश्वर का निवास कहाँ है।

सरलार्थ-निश्चय से जहाँ किसान कठोर धरती पर हल चलाता है तथा जहाँ जनपद की सड़क का निर्माण करने वाला मजदूर पत्थरों के टुकड़ों को तोड़ता है, वहाँ ईश्वर विद्यमान है।

भावार्थ भाव यह है कि भारत के किसानों तथा मजदूरों के कर्मक्षेत्र में ही ईश्वर का निवास है।

3. ईशस्तिष्ठति वर्षातपयो
स्ताभ्यां साधु मलिनवपुः।
दूरे क्षिप तव शुद्धां शाटी
मेहि स इव पांसुरभूमिम् ॥

अन्वय मलिनवपुः ईशः वर्षा आतपयोः ताभ्यां सार्धं तिष्ठति (अतः) तव शुद्धां शाटी दूरे क्षिप स इव पांसुरभूमिम् एहि।

शब्दार्थ-ईशस्तिष्ठति (ईशः + तिष्ठति) = ईश्वर ठहरता है। वर्षातपयोः = वर्षा और धूप में। सार्धं = साथ। मलिनवपुः = मैल युक्त शरीर वाला। क्षिप = फेंको। शुद्धां = स्वच्छ/साफ। शार्टी = साड़ी को। एहि = आओ। स इव = उसकी तरह। पांसुरभूमिम् = धूल-धूसरित जमीन पर।

प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘ईशः कुत्रास्ति’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर’ की विश्व प्रसिद्ध रचना ‘गीताञ्जलि’ के संस्कृत अनुवाद से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस श्लोक में बताया गया है कि दीन-हीन व्यक्ति में ही ईश्वर विद्यमान है।

सरलार्थ मैलयुक्त शरीर वाला दीन-हीन ईश्वर वर्षा और धूप में उन दोनों के साथ ठहरता है। इसलिए तुम तेरी (अपनी) साफ साड़ी को दूर फेंक दो तथा उसकी भाँति धूल-धूसरित धरती पर आओ।

भावार्थ भाव यह है कि हे मानव! बाहरी वेशभूषा को त्यागकर गरीब व्यक्ति की भाँति मिट्टी वाली जमीन पर आ जाओ। मलिन वस्त्रों को धारण करके बरसात तथा धूप की परवाह न करने वाले किसान के साथ ही ईश्वर विद्यमान है। यदि तुम्हें ईश्वर को प्राप्त करना है तो इन्हीं किसानों के समान वस्त्रों को धारण करके उनके साथ रहो। तुम्हें ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होगी।

4. मुक्तिः? क्व नु सा दृश्या मुक्तिः!
सलीलमीशः सृजति भुवम् ।
तिष्ठति चास्मद्धिताभिलाषी
सविधेऽस्माकं मिषन् सदा ॥

अन्वय-मुक्ति? नु सा मुक्तिः क्व दृश्या! ईशः सलीलं भुवं सृजति। अस्मद्ध हित-अभिलाषी च मिषन् सदा अस्माकं सविधे तिष्ठति।

शब्दार्थ-मुक्तिः = मुक्ति अथवा मोक्ष। दृश्या = देखी गईं। सलीलं = क्रीड़ा के साथ। सृजति = बनाता है। भुवं = पृथ्वी को। अस्मद्धिताभिलाषी (अस्मद् + हित + अभिलाषी) = हमारा हित चाहने वाला। सविधे = समीप में। मिषन् = देखता हुआ।

प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘ईशः कुत्रास्ति’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर’ की विश्व प्रसिद्ध रचना ‘गीताञ्जलि’ के संस्कृत अनुवाद से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस श्लोक में बताया गया है कि ईश्वर सदा हमारे साथ रहता है।

सरलार्थ मुक्ति अथवा मोक्ष? निश्चय से वह मुक्ति (अथवा मोक्ष) कहाँ देखी गई है अर्थात् किसने उस मुक्ति को अपनी आँखों से देखा है। ईश्वर क्रीड़ा के साथ इस पृथ्वी लोक की रचना करता है अर्थात् सृष्टि का निर्माण करता है तथा हमारा हित चाहने वाला वह ईश्वर देखता हुआ हमेशा हमारे समीप में निवास करता है।

भावार्थ भाव यह है कि मोक्ष की सच्चाई क्या है। इस बात को स्पष्ट रूप में नहीं बताया जा सकता, परन्तु इस सृष्टि का कर्ता स्वयं ईश्वर है। वह ईश्वर हमारी रक्षा करता हुआ सदा हमारे साथ ही रहता है।

5. ध्वानं हित्वा बहिरेहि त्वं
त्यज तव कुसुमं त्यज धूपम्।
पश्यस्तिष्ठ स्वेदजलार्द्र
स्तनिकटे कार्यक्षेत्रे ॥

अन्वय-त्वं ध्वानं हित्वा बहिः एहि, तव कुसुमं त्यज, धूपं त्यज। स्वेदजलार्द्रः तत् निकटे कार्यक्षेत्रे पश्यन् तिष्ठ।

शब्दार्थ-ध्वानं हित्वा = अंधकार को छोड़कर। बहिरेहि = बाहर आओ। कुसुमं = फूल को। स्वेदजलाईः = पसीने की बूंदों से गीले। तन्निकटे (तत + निकटे) = उसके समीप में। कार्यक्षेत्रे = कार्य करने की जगह पर।

प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘ईशः कुत्रास्ति’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से नोबेल पुरस्कार विजेतां गुरुदेव ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर’ की विश्व प्रसिद्ध रचना ‘गीताञ्जलि’ के संस्कृत अनुवाद से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस श्लोक में बताया गया है कि तुम पुष्प एवं धूप आदि का त्याग करके पसीने से लथपथ श्रमिक को देखो।

सरलार्थ-(हे मानव!) तुम अंधकार को छोड़कर बाहर आओ। तुम (मूर्ति पर चढ़ाने के लिए हाथ में रखे) फूल को एवं (पूजा के लिए धूप-दीप) धूप को छोड़ दो। पसीने की बूंदों से गीले अर्थात् लथपथ उस मज़दूर के समीप में कार्य करने की जगह पर जाओ।

भावार्थ भाव यह है कि ईश्वर की पूजा के लिए पुष्प एवं धूप आदि का त्याग करके श्रमिकों की कार्यस्थली पर जाना उचित है। क्योंकि ईश्वरीय सत्ता का दर्शन उसी स्थान पर हो सकता है।

6. यदि तव वसनं धूसरितं स्यात्
यदि च सहस्रच्छिद्रं स्यात्।
का वा क्षतिरिह तेन भवेत्ते
तत्त्वमिदं चिन्तय चित्ते ॥

अन्चय यदि तव वसनं धूसरितं स्यात् यदि च (तत्) सहस्रच्छिद्रं स्यात् तेन इह का वा ते क्षतिः भवेते, चित्ते इदं तत्त्वं चिन्तय।

शब्दार्थ-वसनं = वस्त्र। धूसरितं = धूल से सना। स्यात् = होवे। सहस्रच्छिद्रं = हज़ार छिद्रों वाला (फटा-पुराना)। क्षति = हानि। तेन = उससे। ते = तुम्हारी। तत्त्वमिदं = इस तत्त्व को। चिन्तय = सोचो। चित्ते = चित्त में।

प्रसंग प्रस्तुत श्लोक ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘ईशः कुत्रास्ति’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर’ की विश्व प्रसिद्ध रचना ‘गीताञ्जलि’ के संस्कृत अनुवाद से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस श्लोक में बताया गया है कि बाह्य वेशभूषा को न देखते हुए अपनी अन्तरात्मा में ही ईश्वरीय सत्ता को पहचानने का प्रयत्न करना चाहिए।

सरलार्थ-हे मानव! यदि तुम्हारा वस्त्र धूल से सना हुआ मैला है और उसमें यदि हज़ारों छिद्र हों तो उससे तुम्हारी क्या हानि हो सकती है। अपने चित्त में इस तत्त्व पर विचार करो। अर्थात् इस तात्विक प्रसंग को सोचो कि वास्तविकता क्या है?

भावार्थ-भाव यह है कि अपने मैले एवं फटे-पुराने वस्त्रों के विषय में विचार न करके, ईश्वरीय तत्त्व के विषय में चिन्तन करना चाहिए। भौतिकता से जुड़कर चिरन्तन तत्त्व को भूलना उचित नहीं है। अतः मानव को सांसारिकता का परित्याग करके ईश्वरीय तत्त्व के विषय में चिन्तन करना चाहिए।

ईशः कुत्रास्ति (वाणी (सरस्वती) का वसन्त गीत) Summary in Hindi

प्रस्तुत पाठ नोबेल पुरस्कार विजेता कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर की विश्वविख्यात कृति ‘गीताञ्जलि’ के संस्कृत अनुवाद से संकलित है। इसमें कवि ने ईश्वर की वास्तविक सत्ता को किसानों, मजदूरों और गरीबों में दर्शाया है। इसके अनुवादक को.ल. व्यासराय शास्त्री हैं। यद्यपि यह पुस्तक मूलतः बंगला भाषा में है। विश्व कवि की यह कृति उनके प्रगतिवादी तथा जनवादी दृष्टिकोण की परिचायिका है, जिसमें ईश्वर को मन्दिरों में ढूँढ़ने की बजाय खेतों-खलिहानों में प्रत्यक्ष अवलोकन करने का संदेश प्रदान किया गया है। सही अर्थों में रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखित यह गीत जनवादी है। आध्यात्मिकता से युक्त पाठ में वर्णित ये गीत मानव चेतना को किसी परोक्ष अनुभूति से जोड़ते हैं, जो सर्वव्यापक तथा सर्वशक्तिमान है।

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HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 12 गान्धिनः संस्मरणम्

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 12 गान्धिनः संस्मरणम् Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 12 गान्धिनः संस्मरणम्

HBSE 11th Class Sanskrit गान्धिनः संस्मरणम् Textbook Questions and Answers

1. संस्कृतेन उत्तरं दीयताम्
(क) प्रस्तुतः पाठः कस्माद् ग्रन्थात् सङ्कलितः?
(ख) गान्धिनः आत्मकथा मूलतः कस्यां भाषायां लिखिता?
(ग) गान्धिनः आत्मकथायाः संस्कृतभाषायाम् अनुवादकः कः?
(घ) महात्मा गाँधी किनाम नाटकम् अपठत?
(ङ) गान्धिनः ग्रामं के उपागच्छन् ?
(च) गान्धिनः मनसि कयोः विलापः पुनः पुनः श्रूयते स्म?
(छ) महात्मा गाँधी हरिश्चन्द्रनाटकं द्रष्टुं कस्य अनुज्ञाम् अध्यगच्छत् ?
(ज) कस्य कथायां सत्यत्वप्रतीतिः आसीत् ?
(झ) को गान्धिनः हृदये नित्यसनिहितौ आस्ताम्?
(ञ) कीदृशस्य श्रवणस्य प्रतिकृतिः गान्धिना अवलोकिता?
(ट) गान्धिनः मनसा किं प्रयुक्तम् आसीत्?
(ठ) का प्रश्नः गान्धिनः मनसि पुनः पुनः स्फुरति स्म
उत्तराणि:
(क) प्रस्तुत पाठः ‘सत्यशोधनम्’ इति ग्रन्थात् सङ्कलितः।
(ख) गान्धिनः आत्मकथा मूलतः गुजराती भाषायां लिखिता।
(ग) गान्धिनः आत्मकथायाः संस्कृतभाषायाम् अनुवादकः पण्डित होसकेरे नागप्पा शास्त्री अस्ति।
(घ) महात्मा गाँधी श्रवणपितृभक्ताख्य नाटकम् अपठत्।
(ङ) गान्धिनः ग्रामं पुत्तलिकाप्रदर्शनोपजीविनः उपागच्छन्।
(च) गान्धिनः मनसि श्रवणमातृपित्रोः विलापः पुनः पुनः श्रूयते स्म।
(छ) महात्मा गान्धी हरिश्चन्द्रनाटकं द्रष्टुं पितुः अनुज्ञाम् अध्यगच्छत् ।
(ज) हरिश्चन्द्रस्य कथायां सत्यत्व प्रतीतिः आसीत्।
(झ) हरिश्चन्द्र श्रवणौ गान्धिनः हृदये सत्यसन्निहितौ आस्ताम्।
(ञ) स्वमातापितरौ स्कन्धावलम्बिवीवधेन वहमानस्य श्रवणस्य प्रतिकृतिः गान्धिना अवलोकिता।
(ट) गान्धिनः मनसा हरिश्चन्द्र नाटकं प्रयुक्तम् आसीत्।
(ठ) हरिश्चन्द्रेणेव सर्वैरपि कस्मात् सत्यवद्भिः न भवितव्यम् इति प्रश्नः गान्धिनः मनसि पुनः पुनः स्फुरति स्म ।

2. रिक्तस्थानानि पूरयत
(क) ग्रामात् ग्रामं …………………… पुत्तलिकाप्रदर्शनोपजीविनः उपागच्छन्?
(ख) श्रवणस्य पितृभक्तिः ………………… त्वया स्थापनीया।
(ग) स रागः मे ………………. तन्मयमकरोत्।
(घ) अनेकशः मे नेत्रभ्याम् …………….. विस्सारितानि।
(ङ) हरिश्चन्द्रश्रवणौ ………………. मम हृदये नित्यसनिहितौ।
उत्तराणि:
(क) ग्रामात् ग्रामं पर्यटनाः पुत्तलिकाप्रदर्शनोपजीविनः उपागच्छन् ?
(ख) श्रवणस्य पितृभक्तिः आदर्शरूपेण त्वया स्थापनीया।
(ग) स रागः मे हृदयं तन्मयमकरोत्।
(घ) अनेकशः मे नेत्राभ्याम् अश्रूणि विस्सारितानि।
(ङ) हरिश्चन्द्रश्रवणौ उभावपि मम हृदये नित्यसन्निहितौ।

HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Chapter 12 गान्धिनः संस्मरणम्

3. अधोलिखितेषु यथानिर्देशं पदचयनादिकं कुरुत
(क) अस्मात् पाठात् अव्ययपदानि चिनुत ।
उत्तरम्:
उपरि, कथम, च, अपि, एव, कदापि, इति, अद्य, पुनः पुनः, इव, किन्तु, तथापि, वत्, न, अक्षरशः, अनेकशः।

(ख) एतेषां शब्दानां संस्कृतवाक्ये प्रयोगं कुरुत
पर्यटनम्, उद्दिश्य, संवृत्ता, प्राप्य, भवितव्यम्
उत्तराणि:
पर्यटनम् (भ्रमण) तीर्थस्थानानां पर्यटनम् अतिरुचिकरं भवति।
उद्दिश्य (कहकर) एतत् उद्दिश्य सा गृहं गतवती।
संवृत्ता (हुई) श्रवणसदृशी घटनैका संवृत्ता
प्राप्य (प्राप्त करके) किन्तु अनुज्ञां कतिकृत्वः प्राप्य गन्तुं शक्येत्।
भवितव्यम् (होना चाहिए)-सर्वैः हरिश्चन्द्रेणेव सत्यवदभिः भवितव्यम्

(ग) अस्मिन् पाठे कर्मवाच्ये प्रयुक्तानि क्रियापदानि चिनुत ।
उत्तरम्:
शक्येत, भवितव्यम्, निस्सारितानि, विलीयते।

(घ) अधोलिखितशब्दानां समानार्थक शब्दं लिखत
लोचनम्, पितरौ, मनः
उत्तरम्:
लोचनम् = नेत्रम्, चक्षु, अक्षि, नयनम् ।
पितरौ = मातापितरौ, जनकजनन्यौ।
मनः = चित्तम्, चेतः, हृदयम्।

4. अधोलिखितपदेषु सन्धिं सन्धिविच्छेदं वा कुरुत
(क) दृष्टिरपतत् = ……… + ……….
(ख) ग्रामात् + ग्रामम् = ………………
(ग) कदा + अपि + अप्रमार्जनीयाम् = …………….
(घ) घटनैका = ………….. + …………….
(ङ) तत् + नाटकम् = ………………
(च) इत्येष = ………….. + …………….
(छ) मनसि + आविरभूत् = ………………
उत्तराणि:
(क) दृष्टिरपतत् = दृष्टिः + अपतत्।
(ख) ग्रामात् + ग्रामम् = ग्रामाद्ग्रामम्।
(ग) कदा + अपि + अप्रमार्जनीयाम् – = कदाप्य प्रमार्जनीयाम्
(घ) घटनैका = घटना + एका।
(ङ) तत् + नाटकम् = तन्नाटकम्।
(च) इत्येष = इति + एष।
(छ) मनसि + आविरभूत … = मनस्याविरभूत् ।

5. हिन्दीभाषया आशयं स्पष्टीकुरुत

(क) सत्यानुसरणं सत्यस्यार्थे हरिश्चन्द्रवन्निर्विकल्पेन मनसा क्लेशानामनुभवः ।
आशय:
प्रस्तुत गद्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘गान्धिनः संस्मरणम्’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ ‘सत्यशोधनम्’ नामक ग्रन्थ से संकलित है। ‘हरिश्चन्द्र’ नामक नाटक ने गाँधी जी के जीवन पर अमिट छाप छोड़ी थी। हरिश्चन्द्र की भाँति सभी को किसलिए सत्यवादी होना चाहिए? इसी बात पर चिन्तन करते हुए गाँधी ने सोचा कि-सत्य का अनुसरण करने पर सत्य के लिए ही, हरिश्चन्द्र की भाँति ही बिना किसी विकल्प के अर्थात् यही ठीक है, ऐसा मानकर मैं अपने मन से बहुत-से दुःखों का अनुभव करता हूँ। महाराजा हरिश्चन्द्र के कष्ट कदम-कदम पर हमें दुःखी करते हुए सच्चाई के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करेंगे।

(ख) निस्संख्यवारमिदं नाटकं मया स्वयं मनसा प्रयुक्तं स्यात्। आशय- प्रस्तुत गद्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘गान्धिनः संस्मरणम्’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ ‘सत्यशोधनम्’ नामक ग्रन्थ से संकलित है। ‘हरिश्चन्द्र’ नाटक को देखने के बाद गाँधी जी के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन हुए। इस संबंध में वे कहते हैं कि इस नाटक को मैंने अनेक बार अपने ही मन से प्रयोग किया जिसने कि हमें हरिश्चन्द्र के समान कठिन कार्यों को करने तथा सच्चाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान की।

(ग) श्रवणस्य पितभक्तिरादर्शरूपेण त्वया स्थापनीयेत्यात्मनात्मान-मबोधायम्। आशय- प्रस्तुत गद्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘गान्धिनः संस्मरणम्’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ ‘सत्यशोधनम्’ नामक ग्रन्थ से संकलित है। महात्मा गाँधी ने बचपन में ‘श्रवणपितृभक्ति’ नामक नाटक को पढ़ा। श्रवण कुमार की पितृ भक्ति की कहानी गाँधी जी के लिए अमिट हो गई। इसी सम्बन्ध में गाँधी जी ने कहा है कि श्रवण कुमार की मातृ-पितृ भक्ति को देखकर मैंने स्वयं अपने को समझाया कि हमें भी श्रवण कुमार के समान ही अपने माता-पिता की सेवा करनी चाहिए। इस विचारधारा को गाँधी जी ने अपने जीवन में उतारा भी।

योग्यताविरतारः

गान्धिनः संस्मरणम् इति पाठम् अनुसृत्य मातृभक्तेः पितृभक्तेः एवं सत्यनिष्ठायाः भावं दृढीकरणाय इमे श्लोकाः प्रस्तूयन्ते।

1. मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद। (शतपथब्राह्मणात्)
अर्थात् मनुष्य को माता-पिता व आचार्य से मुक्त जानो।

2. उपाध्यायान् दशाचार्यः
आचार्याणां शतं पिता।
सहस्रं तु पितृन् माता
गौरवेणातिरिच्यते॥

अर्थात् उपाध्याय से दशगुना आचार्य, आचार्यों से सौ गुना पिता, पिता से हजार गुनी माता गौरव को प्राप्त करती है।

3. मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव। (उपनिषदः)

अर्थात् माता-पिता और आचार्य देव हैं। देवता के समान ही इन तीनों की सेवा सुश्रूषा एवं उपासना करें।

4. माता गुरुतरा भूमे; पितोच्चतरस्तथा। (महाभारतात्)

अर्थात् माता का स्थान भूमि से बढ़कर है, पिता का स्थान आकाश से भी बढ़कर है।

5. सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः।
सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यानास्ति परं पदम्।। (रामायणात्)

अर्थात् इस संसार में सत्य ही ईश्वर है, सत्य पर ही धर्म आधारित है। सभी का निवास सत्य की जड़ों में निहित है। इसलिए सत्य से बढ़कर गौरवशाली स्थान किसी का नहीं है।

HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Chapter 12 गान्धिनः संस्मरणम्

6. भूमिः कीर्तिर्यशो लक्ष्मीः पुरुषं प्रार्थयन्ति हि।
सत्यं समनुवर्तन्ते सत्यमेव भजेत्ततः॥ (रामायणात्)

अर्थात् भूमि, कीर्ति, यश तथा लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए पुरुष प्रार्थना करते हैं। किन्तु सत्य का अनुगमन किया जाता है। अतः सत्य की ही पूजा करनी चाहिए।

7. बलं सर्वबलेभ्योऽपि सत्यमेवातिरिच्यते।
सत्यवानबलः श्रेयान् सबलात् सत्यवर्जितात्॥ (रामायणात्)

अर्थात्-शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक बलों में बल ही सभी बलों में श्रेष्ठ है, किन्तु सत्य इनसे भी बढ़कर है। सत्यधारियों का बल श्रेयस्कर है। अन्य बलों से सत्य बल की तुलना करना ठीक नहीं है।

HBSE 11th Class Sanskrit गान्धिनः संस्मरणम् Important Questions and Answers

अतिरिक्त प्रश्नोत्तराणि

I. अधोलिखितौ गद्यांशी पठित्वा एतदाधारितानाम् प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतेन लिखत।
(निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए)

1. एतत्पुस्तकं पुत्तलिका चेति द्वयं मिलित्वा श्रवणकथां मे मनसः कदाप्यप्रमार्जनीयामकरोत् । अस्व पितृभक्तिरादर्शरूपेण त्वया स्थापनीयेत्यात्मनात्मानमबोधयम् । श्रवणस्य मरणेन सन्तप्यमानयोस्तत्पित्रोविलापोऽद्यापि मे मनसि पुनः पुनः श्रूयते इव। मदर्थे पित्रा वितीर्णेन पोचेन तमहमालापयम् । स रागो मे हृदयं तन्मयमकरोत्।

(i) मे मनसि का अप्रमार्जनीयम् आसीत्?
(ii) गान्धी महोदयः आदर्शरूपेण किं स्थापितम्?
(iii) गान्धिनः मनसि कयोः विलापः पुनः पुनः श्रूयते स्म?
उत्तराणि:
(i) मे मनसि एतत्पुस्तकं पुत्तलिका चेति द्वयं मिलित्वा श्रवणकथां अप्रमार्जनीयम् आसीत्।
(ii) गान्धी महोदयः श्रवणस्य पितृभक्तिः आदर्शरूपेण स्थापितम्।
(iii) गान्धिनः मनसि श्रवणपित्रोः विलापः पुनः पुनः श्रूयते स्म।

2. हरिश्चन्द्रेणेव सर्वैरपि कस्मात् सत्यवभिनं भवितव्यम् इत्येष प्रश्नो दिवानिशं मे मनसि पुनः पुनः अस्फुरत् सत्यानुसरणं सत्यस्यार्थे हरिश्चन्द्रवनिर्विकल्पेन मनसा क्लेशानामनुभवः । इत्येष आप एक एव मे मनस्याविरभूत । हरिश्चन्द्रकथायामक्षरशः सत्यत्वप्रतीतिरासीत् । सर्वस्यास्य स्मरणमनेको मे नेत्राभ्यामश्रूणि निस्सारितानि। हरिश्चन्द्र श्रवणावुभावपि मम हृदये नित्यसनिहिती स्तः । अयापि तन्नाटकपाठेन पूर्ववन्मे हृदयं विलीयत इत्यहं जाने ॥

(i) कस्य कथायां सत्यत्वप्रतीतिः आसीत् ?
(ii) कौ गान्धिनः हृदये नित्यसन्निहितौ आस्ताम्?
(iii) कः प्रश्नः गान्धिनः मनसिं पुनः पुनः स्फुरति स्म?
उत्तराणि:
(i) हरिश्चन्द्रस्य कथायां सत्यत्वप्रतीतिः आसीत्।
(ii) हरिश्चन्द्र श्रवणौ गान्धिनः हृदये नित्यसन्निहितौ आस्ताम् ।
(iii) हरिश्चन्द्रेणेव सर्वैरपि कस्मात् सत्यवादिभिर्न भवितव्यम्।

II. अधोलिखित शब्दानां प्रकृति प्रत्यय विभागः क्रियताम्।
(निम्नलिखित शब्दों के प्रकृति-प्रत्यय कीजिए)
प्रमार्जनम्, मिलित्वा, अवलोकयितुम्, प्रयुक्तं, गन्तुम्
उत्तराणि:
प्रमार्जनम् प्र + मृज् + णिच् + ल्युट्।
मिलित्वा मिल् + क्त्वा।
अवलोकयितुम् अव + लोक् + तुमुन्।
प्रयुक्तं-प्र + युज् + क्त।
गन्तुम्-गम् + तुमुन्।

बहुविकल्पीय-वस्तुनिष्ठ प्रश्नाश्च

III. अधोलिखित दश प्रश्नानां प्रदत्तोत्तरविकल्पेषु शुद्धविकल्पं लिखत
(निम्नलिखित दस प्रश्नों के दिए गए विकल्पों में से शुद्ध विकल्प लिखिए)

1. महात्मा गाँधी किन्नाम नाटकम् अपठत्?
(A) हरिश्चन्द्रनाटकः
(B) सत्यशोधनः
(C) श्रवणपितृभक्तिः
(D) पुत्तलिकाप्रदर्शनः
उत्तरम्:
(C) श्रवणपितृभक्तिः

2. गान्धिनः मनसा किं प्रयुक्तम् आसीत् ?
(A) हरिश्चन्द्रनाटकम्
(B) श्रवणपितृभक्तिनाटकम्
(C) सत्यशोधनम् नाटकम्
(D) पुत्तलिकाप्रदर्शनम्
उत्तरम्:
(A) हरिश्चन्द्रनाटकम्

3. ‘घटनका’ अस्य सन्धिविच्छेदः अस्ति
(A) घट + नैका
(B) घट् + अनैका
(C) घटना + ऐका
(D) घटना + एका
उत्तरम्:
(D) घटना + एका

4. ‘मनसि + आविरभूतू’ अत्र सन्धियुक्तपदं अस्ति
(A) मनस्याविरभूत्
(B) मनसि + आविरभूत्
(C) मनसिऽविर्मत्
(D) मनसि आर्विभूत्
उत्तरम्:
(A) मनस्याविरभूत्

5. ‘पितरौ’ अत्र कः समासः?
(A) अव्ययीभावः
(B) तत्पुरुषः
(C) एकशेषद्वन्द्वः
(D) कर्मधारयः
उत्तरम्:
(C) एकशेषद्वन्द्वः

6. ‘प्र + मृज् + णिच् + ल्युट्र’ अत्र निष्पन्न रुपम् अस्ति-
(A) प्रमृजि
(B) प्रमार्जनम्
(C) प्रमृज
(D) प्रमृजम्
उत्तरम्:
(B) प्रमार्जनम्

7. ‘अवलोकयितुम्’ इति पदे कः प्रत्ययः अस्ति?
(A) शतृ
(B) णिच्
(C) तुमुन्
(D) ल्यप्
उत्तरम्:
(C) तुमुन्

8. ‘उभयतः’ इति उपपद योगे का विभक्तिः ?
(A) प्रथमा
(B) द्वितीया
(C) तृतीया
(D) पञ्चमी
उत्तरम्:
(B) द्वितीया

HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Chapter 12 गान्धिनः संस्मरणम्

9. ‘प्रयुक्तम्’ इति पदस्य विलोमपदं किम् ?
(A) मुक्तम्
(B) सयुक्तम्
(C) अयुक्तम्
(D) अप्रयुक्तं
उत्तरम्:
(D) अप्रयुक्तं

10. ‘पर्यटन्तः’ इति पदस्य पर्याय पदं किम्
(A) आगच्छन्तः
(B) गच्छन्तः
(C) परिभ्रमन्तः
(D) अगच्छन्तः
उत्तरम्:
(C) परिभ्रमन्तः

IV. निर्देशानुसारं रिक्तस्थानानि पूरयत
(निर्देश के अनुसार रिक्त स्थान को पूरा कीजिए)

(क)
(i) ‘इत्येष’ अस्य सन्धिविच्छेदः ………. अस्ति ।
(ii) ‘पितरौ’ इति पदस्य विग्रहः ……………… अस्ति ।
(iii) ‘प्रयुक्तम्’ अत्र प्रकृति प्रत्यय विभागः …………… अस्ति।
उत्तराणि:
(i) इति + एष,
(ii) माता च पिता च,
(iii) प्र + युज् + क्त।

(i) ‘प्र + युज् + क्त’ अत्र निष्पन्न रूपम् …………….. अस्ति ।
(ii) ‘प्रयुक्तम्’ इति पदस्य विलोमपदं …………….. वर्तते।
(iii) ‘अनुज्ञा’ इति पदस्य पर्यायपदं …………… वर्तते।
उत्तराणि:
(i) प्रयुक्तम्,
(ii) अप्रयुक्तम्,
(iii) आदेशं।

(ग) अधोलिखितपदानां संस्कृत वाक्येषु प्रयोग करणीयः
(निम्नलिखित पदों का संस्कृत वाक्यों में प्रयोग कीजिए)
(i) तन्मयम्,
(ii) दिवानिशं,
(iii) मनसा।
उत्तराणि:
(i) तन्मयम् (उसमें डूब जाना)-सः रागः मे हृदयं तन्मयम्।
(ii) दिवानिशं (दिन और रात) सः दिवानिशं पठति।
(iii) मनसा (मन से) मनसा सत्यनिष्ठः भवेत्।

गद्यांशों के सरलार्थ एवं भावार्थ

1. मम पित्रा क्रीत्वा स्थापितस्य श्रवणपितृभक्त्याख्यनाटकग्रन्थस्योपरि कथमपि मे दृष्टिरपतत् । तमेनं तत्परतयाहमपठम्। तत्कालमेव ग्रामाद्ग्रामं पर्यटन्तः पुत्तलिकाप्रदर्शनोपजीविनः केचिदस्मद्ग्राममुपागमन् । तत्प्रदर्शितपुत्तलिकासु यात्रामुद्दिश्य स्कन्धावलम्बिवीवधेन स्वमातापितरौ वहमानस्य श्रवणस्य प्रतिकृतिरेका अवलोकिता। एतत्पुस्तकं पुत्तलिका चेति द्वयं मिलित्वा श्रवणकथां मे मनसः कदाप्यप्रमार्जनीयामकरोत् ।श्रवणस्य पितृभक्तिरादर्शरूपेण त्वया स्थापनीयेत्यात्मनात्मानमबोधयम्। श्रवणस्य मरणेन सन्तप्यमानयोस्तत्पित्रोविलापोऽद्यापि मे मनसि पुनःपुनः श्रूयते इव। मदर्थे पित्रा वितीर्णेन वाद्येन तमहमालापयम् । स रागो मे हृदयं तन्मयमकरोत् ।

शब्दार्थ क्रीत्वा = खरीदकर (खरीदी हुई)। स्थापितस्य = रखी हुई/सुरक्षित । श्रवणपितृभक्त्याख्य = ‘श्रवणपितृभक्ति’ नाम वाले। ग्रन्थस्योपरि (ग्रन्थस्य + उपरि) = ग्रंथ के ऊपर। पर्यटन्तः = घूमते हुए। पुत्तलिकाप्रदर्शनोपजीविनः = पुत्तलिका/कठपुतली का नाच दिखाकर जीविका चलाने वाले। उपागम् = आये। स्कन्धावलम्बिवीवधेन (स्कन्ध + अवलम्बि + वीवधेन) = कन्धे पर लटकी काँवड़ (बँहगी)। वहमानस्य = ढोते हुए उठाते हुए। प्रतिकृतिः = चित्र/फोटो। अवलोकिता = देखी। कदाप्यप्रमार्जनीयाम् (कदा + अपि + अप्रमार्जनीयाम्) = कभी न मिटने वाली। स्थापनीयेत इति = स्थापित करना चाहिए। आत्मनात्मानमबोधयम् = ऐसा स्वयं को स्वयं से ही समझाया। सन्तप्यमानयोः = तड़पते हुए का दुखी होते हुए का। तत्पित्रोविलापोऽद्यापि (तत् + पित्रोः + विलापाः + अद्य + अपि) = उसके माता-पिता का रोदन आज भी। वितीर्णेन = दिए गए। आलापयम् = गाया।

प्रसंग प्रस्तुत गद्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘गान्धिनः संस्मरणम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से गाँधी जी की आत्मकथा ‘सत्यशोधनम्’ नामक ग्रन्थ से संकलित है। इस ग्रन्थ को संस्कृत भाषा में पण्डित होसकेरे नागप्प शास्त्री जी ने अनूदित किया है।

सन्दर्भ-निर्देश इस गद्यांश में बताया गया है कि श्रवण कुमार की पितृभक्ति का गाँधी जी के मन पर अमिट प्रभाव पड़ा।

सरलार्थ मेरे पिता जी के द्वारा खरीदकर रखी हुई ‘श्रवणपितृभक्ति’ नामक नाट्यग्रन्थ के ऊपर किसी तरह मेरी नज़र पड़ गई। उसको मैंने तल्लीनता से पढ़ा। उसी समय ही एक गाँव से दूसरे गाँव तक घूमते हुए कठपुतली का नाच दिखाकर जीविका चलाने वाले कुछ (लोग) हमारे गाँव में आए। उनके द्वारा दिखाई गई कठपुतलियों में यात्रा के उद्देश्य से कंधे पर लटकी हुई काँवड़ (बँहगी) से अपने माता-पिता को उठाकर ले जाते हुए श्रवण कुमार की फोटो (चित्र) देखी।

इस पुस्तक तथा कठपुतली इन दोनों ने मिलकर श्रवण की कहानी को कभी न मिटने वाली बना दिया। श्रवण कुमार की पितृभक्ति को आदर्श रूप से तुम्हें (गाँधी को) स्थापित करना चाहिए, ऐसा स्वयं को स्वयं से ही समझाया। श्रवण कुमार की मृत्यु से दुःखी होते हुए उसके माता-पिता का रोदन आज भी मेरे मन में बार-बार सुनाई-सा-देता है। मेरे लिए पिता जी के द्वारा दिए गए वाद्ययन्त्र से मैंने उसे गाया। उस राग ने मेरे हृदय को तन्मय कर दिया।

भावार्थ भाव यह है ‘श्रवणपितृभक्ति’ नामक पुस्तक को पढ़कर गाँधी जी के मन पर श्रवण कुमार की माता और पिता की भक्ति का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसे वे आजीवन नहीं भुला पाए। इस कहानी से संबंधित करुणगीत को गाँधी जी ने वाद्ययन्त्र के साथ गाया भी।

2. नाटकान्तरसम्बन्धिन्यपरा तत्सदृशी घटनैका संवृत्ता। एतत्कालमेव कयापि नाटकमण्डल्या प्रयुक्तं नाटकमवलोकयितुं पितुरनुज्ञाम् अध्यगच्छम् । तत्राटकं हरिश्चन्द्रचरितात्मकमासीत् । तदेतल्लोचनासेचनकं मम मानसमकर्षत् किन्त्वनुज्ञां कतिकृत्वः प्राप्य गन्तुं शक्येत। तथाप्येतनिमित्तं व्यसनं नैव माममुञ्चत् । निस्संख्यवारमिदं नाटकं मया स्वयं मनसा प्रयुक्तं स्यात् । हरिश्चन्द्रेणेव सर्वैरपि कस्मात् सत्यवद्भिर्न भवितव्यम् इत्येष प्रश्नो दिवानिशं मे मनसि पुनःपुनः अस्फुरत् सत्यानुसरणं सत्यस्यार्थे हरिश्चन्द्रवनिर्विकल्पेन मनसा क्लेशानामनुभवः। इत्येष आदर्श एक एव मे मनस्याविरभूत। हरिश्चन्द्रकथायामक्षरशः सत्यत्वप्रतीतिरासीत्। सर्वस्यास्य स्मरणमनेकशो मे नेत्राभ्यामश्रूणि निस्सारितानि। हरिश्चन्द्र श्रवणावुभावपि मम हृदये नित्यसंनिहितौ स्तः। अद्यापि तन्नाटकपाठेन पूर्ववन्मे हृदयं विलीयत इत्यहं जाने ॥

शब्दार्थ घटनैका (घटना + एका) = एक घटना। संवृत्ता = हुई। अध्यगच्छम् (अधि + अगच्छम्) = प्राप्त किया। तदेतल्लोचनासेचनकम् = आँखों को शीतल करने वाले ऐसे उस नाटक को। अकर्षत् = आकृष्ट किया। कृतिकृत्वः = कितनी बार। गन्तुम् शक्येत = जाया जा सकता है। व्यसनम् = लगन/आसक्ति। निस्संख्यवारम् = अनेक बार; बहुत बार। दिवानिशम् = दिन-रात । पुनःपुनः अस्फुरत् = बार-बार उभरता हुआ। हरिश्चन्द्रवनिर्विकल्पेन (हरिश्चन्द्रवत् + निर्विकल्पेन) = हरिश्चन्द्र के समान सत्यनिष्ठ। मनस्याविरभूत (मनसि + आविरभूत) = मन में प्रकट हुआ। अनेकशः = अनेक बार। विलीयते = लीन हो रहा है। जाने = समझता हूँ।

प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘गान्धिनः संस्मरणम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से गाँधी जी की आत्मकथा ‘सत्यशोधनम्’ नामक ग्रन्थ से संकलित है। इस ग्रन्थ को संस्कृत भाषा में पण्डित होसकेरे नागप्प शास्त्री जी ने अनूदित किया है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस गद्यांश में बताया गया है कि गाँधी जी ने हरिश्चन्द्र के जीवन से संबंधित नाटक देखा जिनकी सत्यनिष्ठा उनके जीवन में अंत तक समाई रही। . सरलार्थ-नाटक से संबंधित उसके समान ही एक और घटना घटित हुई। इसी समय ही किसी नाटक-मंडली द्वारा प्रयुक्त नाटक को देखने के लिए पिता जी की आज्ञा को प्राप्त किया। वह नाटक हरिश्चन्द्र के चरित से संबंधित था। आँखों को शीतल करने वाले ऐसे उस नाटक ने मेरे मन को आकृष्ट कर लिया, किन्तु आज्ञा प्राप्त करके कितनी बार जाया जा सकता है।

अर्थात् किसी भी नाटकादि को देखने के लिए बार-बार आज्ञा लेकर जाना संभव नहीं है तो भी इसके निमित्त आसक्ति ने मुझको नहीं छोड़ा। अनेक बार इस नाटक को मैंने स्वयं मन से प्रयुक्त किया। क्या सभी को हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी नहीं होना चाहिए। इस प्रकार से यही प्रश्न मेरे मन में बार-बार दिन-रात प्रकट होने लगा कि सत्य के लिए सत्य का अनुसरण हरिश्चन्द्र के समान सत्यनिष्ठ मन से क्लेशों का अनुभव करना चाहिए, ऐसा विचार उभरने लगा। यही एक आदर्श मेरे मन में प्रकट हुआ। हरिश्चन्द्र की कहानी में अक्षरशः सत्यता की प्रतीति थी। इसके स्मरण ने अनेक बार मेरी आँखों से आँसू बहाए। हरिश्चन्द्र और श्रवण कुमार दोनों ही मेरे हृदय में सदैव विद्यमान हैं। आज भी उस नाटक को पढ़ने से पहले की तरह मेरा हृदय विलीन हो रहा है। ऐसा मैं समझता हूँ।

भावार्थ भाव यह है कि श्रवण कुमार के जीवन पर आधारित नाटक के प्रभाव के साथ ही हरिश्चन्द्र के नाटक ने भी गाँधी जी पर अमिट छाप छोड़ी। बार-बार नाटक को देखने के लिए उनका मन करता था। परन्तु बार-बार पिता की आज्ञा लेकर देखना संभव नहीं था। परन्तु इस लगन से वे मुक्त नहीं हो सके। वे सोचते थे कि क्यों नहीं सभी लोग हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी एवं श्रवण कुमार की तरह मात-पित भक्त बन जाते। हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा को गाँधी जी ने आजीवन निभाया।

गान्धिनः संस्मरणम् (वाणी (सरस्वती) का वसन्त गीत) Summary in Hindi

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 36 वर्ष की आयु में अपने संस्मरणों को एकत्रित कर अपनी आत्मकथा मातृभाषा गुजराती में लिखी। इसके अनन्तर विश्व की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया। स्वयं गाँधी जी ने श्रीनिवास शास्त्री के सहयोग से इसका परिशोधन किया। गाँधी जी के अनुसार उनकी आत्मकथा आत्मपरीक्षण के रूप में है। पंडित होसकेरे नागप्प शास्त्री जी ने गाँधी जी की आत्मकथा को संस्कृत भाषा में ‘सत्यशोधनम्’ नामक ग्रन्थ के रूप में अनूदित किया। प्रस्तुत पाठ इसी ग्रन्थ से लिया गया है। इसमें यह वर्णित किया गया है कि बचपन में गाँधी जी किस प्रकार श्रवण कुमार की मातृ-पितृभक्ति एवं सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा से अभिभूत हुए।

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