HBSE 11th Class Sanskrit लेखक एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions लेखक एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit लेखक एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय

1. महर्षि वाल्मीकि

कूजन्तं राम-रामेति मधुर-मधुर-मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कवितां शाखा, वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥

संस्कृत साहित्य में महर्षि वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। किंवदंती के अनुसार देवर्षि नारद की प्रेरणा से ‘मरा-मरा’ का उच्चारण करते हुए इनके मुख से अनायास ही ‘राम-राम’ निःसृत हुआ। अनेक वर्षों तक राम-नाम के जप का यही क्रम चलता रहा। तपस्या में लीन वाल्मीकि के शरीर पर दीमकों ने बाम्बी-सी बना ली थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी स्वयं उनके पास आए। उन्हें दीमकों की बाम्बी से निकालकर ‘आदिकवि’ होने का गौरवमय वरदान प्रदान किया।

वाल्मीकि के समय के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। विद्वानों ने रामायण का विस्तृत रूप से अनुशीलन करके यह स्पष्ट किया है कि इस महाकाव्य की रचना भगवान बुद्ध के प्रादुर्भाव से पूर्व हो चुकी थी। अतः रामायण 500 ई.पू. से पहले की रचना है क्योंकि विद्वानों की प्राचीन परम्परा राम एवं वाल्मीकि को समकालीन मानती है।

इस आधार पर वाल्मीकि का समय ई.पू. पञ्चम शताब्दी से पहले ही माना जा सकता है। संस्कृत साहित्य में वाल्मीकिकृत ‘रामायण’ को आदिकाव्य माना जाता है। कथा प्रसिद्ध है कि जब व्याध के बाण से बिन्धे । हुए क्रौञ्च के लिए विलाप करने वाली क्रौञ्ची का करुण क्रन्दन महर्षि वाल्मीकि ने सुना तो अचानक उनके मुख से यह श्लोक निकल पड़ा

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत् क्रौञ्च मिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥

अर्थात् हे निषाद! तुम आने वाले सैकड़ों वर्षों में भी प्रतिष्ठा को मत प्राप्त करो, क्योंकि तुमने काम-क्रीड़ा में मुग्ध क्रौञ्च जोड़े में से एक का वध किया है। अनुष्टुप् छन्दोबद्ध उक्त श्लोक ही लौकिक संस्कृत साहित्य के श्रीगणेश का कारण बना। ब्रह्मा जी के आदेश पर महर्षि वाल्मीकि ने ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ राम के जीवन का वर्णन किया। ‘रामायण’ में 24000 श्लोक हैं, जिन्हें बाल-अयोध्या-अरण्य-किष्किन्धा-सुन्दर-युद्ध तथा उत्तर-सात काण्डों में विभक्त किया गया है।

महर्षि वाल्मीकि ने इस महाकाव्य में रघुवंश शिरोमणि श्री रामचन्द्र जी की जीवन-गाथा के माध्यम से माता-पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाभी आदि के आदर्श सम्बन्धों का जो अनुपम वर्णन किया है, वह संसार के किसी अन्य साहित्य में देखने को नहीं मिलता। लक्ष्मण को मूर्छित अवस्था में देखकर श्री रामचन्द्र जी विलाप करते हुए कहते हैं कि

देशे-देशे कलत्राणि देशे-देशे च बान्धवाः।
तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः ॥

अर्थात् देश-देश में पत्नियाँ मिल सकती हैं तथा देश-देश में बन्धु मिल सकते हैं, परन्तु मैं उस देश को नहीं देखता हूँ जहाँ सगा भाई मिल जाए।

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2. महर्षि वेदव्यास

जीवन-परिचय-वैदिक साहित्य के पश्चात् संस्कृतभाषा में दो ऐसे काव्यों का उदय हुआ जिन पर भारतीय जन-जीवन और समाज को गर्व है। उनमें से एक ‘महाभारत’ है जिसके रचयिता महर्षि वेदव्यास हैं । वेदव्यास का महाभारत के पात्रों से निकट सम्बन्ध था। इनके पिता वैदिक मुनि पराशर थे। इनकी माता का नाम सत्यवती था। व्यास जी का जन्म यमुना के किसी द्वीप पर हुआ और  पालन-पोषण वहाँ के मल्लाहों के राजा दाशराज ने किया। उस द्वीप पर जन्म होने के कारण व्यास जी का नाम ‘द्वैपायन’ हुआ, रंग काला होने के कारण ये ‘कृष्ण मुनि’ कहलाए।

इन्होंने यज्ञीय उपयोग के लिए वेदों का विभाजन किया। इसलिए इन्हें ‘वेदव्यास’ भी कहते हैं। वस्तुतः वेदव्यास ही कौरवों एवं पाण्डवों के वास्तविक पितामह थे। वे विपत्ति के समय छाया की तरह पाण्डवों के साथ रहते थे और अपने उपदेशों के माध्यम से उन्हें समयानुसार धैर्य और सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा दिया करते थे।

कृतित्व-महर्षि वेदव्यास जी ने तीन वर्षों के सतत् परिश्रम से ‘महाभारत’ की रचना की थी

त्रिभिर्वषैः सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनो मुनिः।
महाभारतमाख्यानं कृतवानिदमुत्मम् ॥

महाभारत के विकास की तीन अवस्थाएँ मानी जाती हैं-जय, भारत और महाभारत। महाभारत की तीन अवस्थाओं से स्पष्ट है कि इसकी रचना एक समय में न होकर भिन्न-भिन्न समयों में हुई। विद्वानों ने . अन्तः एवं बाह्य साक्ष्यों के आधार पर इसका समय ईसा से लगभग 3102 वर्ष पूर्व निर्धारित किया है। अतः वेदव्यास का समय ई.पू. 3102 वर्ष माना गया है।

महर्षि वेदव्यास ने ‘महाभारत’ में कौरवों और पाण्डवों के परस्पर संघर्ष की कथा का वर्णन बड़े विस्तार से अठारह खण्डों में किया है। इन खण्डों को ‘पर्व’ कहा जाता है। इन पर्यों में पाण्डवों की उत्पत्ति, उनका वनवास, पाण्डव-कौरवों के युद्धों का वर्णन, अर्जुन को श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया गीता का उपदेश, पाण्डवों के स्वर्गारोहण आदि का वर्णन किया गया है।

वैशिष्ट्यम्-संसार के साहित्य में महाभारत आकार एवं वीरकाव्य की दृष्टि से अद्वितीय ग्रन्थ है। इसकी भाषा परिष्कृत और गौरवपूर्ण है। भाषा की सरलता, अर्थगौरव एवं उपयुक्तता इसकी तीन विशेषताएँ हैं। भाषा के सौन्दर्य का सुन्दर उदाहरण ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में मिलता है। इस भाषा का प्रयोग कवि ने अनुष्टुप् छन्द के माध्यम से किया है। वर्णन-शैली में सशक्तता है। कथा में प्रवाह, विशदता, स्पष्टता और प्रसादगुण हैं, जबकि वर्णनों में चित्रात्मकता और भव्यता है।

3. महाकवि शूद्रक

संस्कृत नाट्य साहित्य में शूद्रक नाटककार के रूप में विख्यात हैं। इनके जीवन आदि के विषय में कोई विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता। शूद्रक राजा और शूद्रक कवि एक ही व्यक्ति थे अथवा दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे, इस विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं। कवि अस्पष्टता के कारण जीवन तथा रचनाकाल भी विवादास्पद है। डॉ० कीथ के अनुसार शूद्रक एक काल्पनिक व्यक्ति है तथा ‘मृच्छकटिक’ रूपक किसी अज्ञात कवि की रचना है। मृच्छकटिक की प्रस्तावना में शूद्रक के राजा और कवि होने के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं।

अधिकांश विद्वानों के अनुसार शूद्रक राजा और कवि दोनों थे। इनका उल्लेखं कादम्बरी, हर्षचरित, कथासरित्सागर, राजतरङ्गिणी आदि ग्रन्थों में भी मिलता है। विद्वानों ने शूद्रक को एक राजा मानते हुए इनका समय ई०पू० प्रथम शताब्दी के आस-पास माना है। शूद्रक की एकमात्र रचना ‘मृच्छकटिक’ है। यह दस अंकों का प्रकरण है। इसमें सामाजिक यथार्थ एवं आदर्शवाद का सन्निवेश है।

नाट्यशास्त्र के अनुसार वध, शयन, आलिङ्गन, युद्ध, रति क्रीड़ा का वर्णन नाटकों में मञ्च पर त्याज्य है। प्रस्तुतः नाटक में इन प्रसंगों का वर्णन यत्र-तत्र किया गया है। इस प्रकरण में कथावस्तु, पात्र-योजना एवं रस का चित्रण प्रकरण के अनुसार किया गया है। इस प्रकरण की भाषा सरल, सुबोध एवं पात्रानुकूल है। नाटककार ने प्राकृत भाषाओं का विषय-वस्तु एवं पात्रानुकूल प्रयोग किया है। निष्कर्ष रूप में शुद्रक एक कुशल नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हैं।

4. आचार्य चरक

भारतीय चिकित्सा शास्त्र के तीन प्रसिद्ध आचार्य हैं-आचार्य सुश्रुत, आचार्य वाग्भट्ट एवं आचार्य चरक। इनमें जहाँ सुश्रुत के नाम से सुश्रुत संहिता है, वहीं आचार्य चरक के नाम से चरक संहिता है। आचार्य चरक को ‘औषधि-निर्मिति’ का पितामह माना जाता है। इन्हें त्वचा चिकित्सक भी कहते हैं। आचार्य चरक का समय 300-200 ई०पू० के लगभग माना जाता है।

कुछ समालोचकों का मानना है कि चरक संहिता में पालिसाहित्य के कुछ शब्दों का उल्लेख मिलता है। इस आधार पर आचार्य चरक का समय उपनिषदों के बाद और बुद्ध से पूर्व निश्चित किया है। इसका प्रतिसंस्कार कनिष्क के समय 78 ई० के लगभग हुआ। त्रिपिटक के चीनी भाषा के अनुवाद में कनिष्क के राजवैद्य के रूप में चरक का उल्लेख मिलता है। आचार्य चरक की शिक्षा तक्षशिला में हुई थी। ऐसा माना जाता है कि ये कुषाण राज्य के राजवैद्य थे।

आचार्य चरक आयुर्वेद के विद्वान थे। उन्होंने आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थों और उनके ज्ञान को इकट्ठा करके उसका संकलन किया। उन्होंने विभिन्न स्थानों में भ्रमण करके चिकित्सकों के साथ बैठकें कीं, उनके विचार एकत्रित किए। इस आधार पर सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जो कि आयुर्वेद की शिक्षा के लिए अत्यावश्यक हैं।

आचार्य चरक विरचित ‘चरक संहिता’ आठ भागों में विभाजित है। इसमें कुल 120 अध्याय हैं। इस ग्रन्थ में आयुर्वेद से सम्बन्धित सभी सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। जो सिद्धान्त इस ग्रन्थ में नहीं हैं, वे अन्यत्र भी नहीं हैं। इस ग्रन्थ में रोगनाशक एवं रोग निरोधक दवाओं का उल्लेख है तथा सोना, चाँदी, पारा आदि धातुओं की भस्म एवं उनके उपयोग का वर्णन है।

5. महर्षि अरविन्द घोष

महान क्रान्तिकारी तथा राष्ट्रभक्त महर्षि घोष का जन्म सन् 1872 में कोलकाता में हुआ। इनके पिता एक डॉक्टर थे। जीवन के प्रारम्भिक क्षणों में अरविन्द घोष स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी देशभक्त के रूप में उभरे। ये सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक थे। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अलीपुर बम केस का अपराधी मानकर 1906 ई० में अलीपुर कारागार में बन्दी बना दिया।

कारागार की इसी अवधि में एक रात स्वप्न में बन्दिनी भारत माता का दर्शन कर भावाविष्ट मनोदशा में कवि ने इस ओजस्वी तथा राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत ‘शतक काव्य’ का प्रणयन किया, जिसे ‘भवानी भारती’ के नाम से जाना जाता है। अपने क्रान्तिकारी विचारों एवं बौद्धिक ज्ञान के आधार पर वे एक प्रसिद्ध दार्शनिक, योगी एवं गुरु के रूप में विख्यात हुए।

वेद उपनिषद् आदि ग्रन्थों पर टीका-ग्रन्थ लिखा। इसके साथ ही योग साधना पर इन्होंने अनेक मौलिक ग्रन्थ लिखे। उन ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वे सच्चे योगी थे। योग साधना के प्रचार-प्रसार एवं संवर्धन के लिए उन्होंने पांडिचेरी में एक योग आश्रम स्थापित किया। जीवन के उत्तरार्ध में महर्षि अरविन्द वेदों के व्याख्याता, महाकवि, महायोगी, परम राष्ट्रभक्त एवं महान् दार्शनिक के रूप में विश्वमञ्च पर प्रतिष्ठित हुए। इनका निधन सन् 1950 में हुआ। उनकी भाषा-शैली अलंकारयुक्त, माधुर्य एवं प्रसादगुण सम्पन्न है।

HBSE 11th Class Sanskrit लेखक एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय

6. विद्यापति

मैथिली, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि विद्यापति का जन्म चतुर्दश शताब्दी (1360-1448) में मिथिला क्षेत्र के विसफी ग्राम में हुआ था। बंगाल में जयदेव ने जिस कृष्ण-प्रेम के संगीत की परम्परा चलाई थी, उसी में मैथिल कोकिल विद्यापति ने हजारों पदों में अपना सुर मिलाया और उसी के साथ मैथिली काव्यधारा की विशेषतः गीतिकाव्य की एक अनोखी धारा चल पड़ी जिसने तीन शताब्दियों तक पूर्वी भारत में मैथिली का सिक्का जमा दिया।

मैथिल कोकिल विद्यापति की प्रसिद्धि बंगाल, उड़ीसा और असम में खूब हुई। इन देशों में विद्यापति को वैष्णव माना गया और उनके अनुकरण में अनेक कवियों ने मैथिली में पदावलियाँ रची। इस साहित्य की परम्परा आधुनिककाल तक चलती आई है। विद्यापति ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन्होंने संस्कृत भाषा में विविध विषयों पर आधारित 12 ग्रन्थों की रचना है।

उसमें से ‘पुरुष-परीक्षा’ नामक कथाग्रन्थ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस ग्रन्थ में बताया गया है कि सच्चे पुरुष की परख कैसे की जाती है। इसके लिए वासुकि नामक मुनि पारावार नामक राजा को अनेक कथाएँ सुनाते हैं। इसके साथ ही ‘वि लोक विश्रुत रचना है। इसमें राधा-कृष्ण संबंधी शृंगारिक गीत तथा शक्ति और शिव विषयक कविताओं का संग्रह किया गया है। इन्हें ही क्रमशः गोसाउनिक गीत तथा नचारी कहते हैं। इनकी रचनाओं की विषय-वस्तु लोक परम्परा के अनुरूप है। रचनाओं की भाषा-शैली सहज, सरल एवं प्रवाहमयी है।

7. श्रीनिवास रथ

आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों में विशेष रूप से प्रसिद्ध श्रीनिवास रथ का जन्म सन् 1933 में पुरी (उड़ीसा) में हुआ था। श्रीनिवास रथ बाल्यकाल से मध्य प्रदेश के विभिन्न नगरों में रहे तथा अपने पिता से पारम्परिक पद्धति द्वारा संस्कृत भाषा का अध्ययन करने के पश्चात् उच्च शिक्षा इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की। ये विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में संस्कृत विभाग में प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष रहे।

श्रीनिवास रथ 40 वर्षों से संस्कृत भाषा में गीत लिखते आ रहे हैं। इनकी कविताएँ भारतीय संस्कृति, देशभक्ति, सामाजिक सुधार, मानवीय मूल्य तथा परोपकारी दृष्टिकोण से परिपूर्ण हैं। इनके कविता-संग्रह में “तदेव गगनं सैव धरा” विशेष रूप से प्रसिद्ध है। यह संग्रह राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान नई दिल्ली से सन् 1995 में प्रकाशित हुआ है। इसके साथ ही ‘विपरीत जीवन लतिका रहस्य’ नामक रचना का भी प्रकाशन सन् 2002 में हुआ था।

आधुनिक संस्कृत साहित्य में प्रो० श्रीनिवास रथ का बहुमूल्य योगदान है। इनकी कविता की गीतात्मक शैली पाठकों के मन को आकर्षित करती है। कविता के माध्यम से कवि ने बताया है कि वैज्ञानिक प्रगति के आधुनिक युग में मानव-मूल्य और नैतिक महत्त्व की गिरावट चिन्तनीय विषय है। अतः कवि ने अपने गीतों के माध्यम से इनके उन्मूलन पर विशेष बल दिया है।

8. अभिराज राजेन्द्र मिश्र

आधुनिक काल के प्रतिष्ठित संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्र मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के जौनपुर नामक ग्राम में सन् 1943 में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित दुर्गाप्रसाद मिश्र था। आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों एवं लेखकों में इनका प्रमुख स्थान है। संस्कृत साहित्य के प्रति की गई सेवाओं के कारण इन्हें विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। सन् 1988 में इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके साथ ही सन् 2002 में अपने कहानी-संग्रह ‘इक्षुगन्धा’ के लिए इन्हें राष्ट्रपति के सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया।

अभिराजमिश्र संस्कृत साहित्य में कहानी-लेखन तथा एकांकी-लेखन के रूप में प्रसिद्ध हैं। ‘इक्षुगन्धा’ इनके द्वारा रचित कहानी-संग्रह है तथा ‘रूपरूद्रीयम्’ एकांकी-संग्रह है। मिश्र जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के निम्नवर्ग के प्रति होने वाले . अन्याय तथा शोषण का यथार्थ चित्रण किया है।

उनका मानना है कि गुणवान व्यक्ति किसी भी जाति, समुदाय अथवा वर्ग में पैदा होकर अपनी प्रतिभा को विकसित कर सकता है। जैसाकि गरीबों की बस्ती में पैदा होने वाले सोमधर के सद्व्यवहार को देखकर समाज के प्रतिष्ठित वकील भवानीदत्त आश्चर्यचकित हो जाते हैं और उसकी शिक्षा का सारा भार अपने ऊपर ले लेते हैं। अभिराजमिश्र की भाषा-शैली सरस, स्वाभाविक एवं प्रसंगानुकूल है। यत्र-तत्र आलंकारिक शब्दावली का प्रयोग भी दृष्टिगोचर होता है। भाषा में माधुर्य तथा प्रवाह सर्वत्र विद्यमान है।

9. कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर

विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को कोलकाता में हुआ। इनके पिता का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर तथा माता का नाम शारदा देवी था। सेंट जेवियर से प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद बैरिस्टर बनने की इच्छा से टैगोर इंग्लैण्ड चले गए। वे 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। रवीन्द्रनाथ टैगोर में बचपन से ही कविता, छन्द और भाषा ज्ञान के प्रति अद्भुत प्रतिभा का परिचय मिलता है।

उन्होंने छः वर्ष की आयु में पहली कविता लिखी थी तथा उसी उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। वस्तुतः टैगोर भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाले युगद्रष्टा महापुरुष थे। उन्होंने गीताञ्जलि, पूरबी प्रवाहिनी, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका, शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, मायेर-खेला तथा क्षणिका आदि ग्रन्थों की रचना की थी। भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ रवीन्द्रनाथ टैगोर के द्वारा लिखा गया है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाओं में देश-विदेश के सम्पूर्ण साहित्य, दर्शन तथा संस्कृति आदि की झलक मिलती है। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया है। टैगोर और गान्धी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहाँ गान्धी राष्ट्रवाद को प्रथम स्थान पर रखते थे, वहीं टैगोर मानवतावाद को। लेकिन दोनों एक-दूसरे का बहुत आदर करते थे। उनकी काव्य-रचना ‘गीताञ्जलि’ के लिए उन्हें 1913 में साहित्य नोबेल पुरस्कार मिला। 7 अगस्त, 1941 में इनका निधन हो गया।

10. पण्डित होसकेरे नागप्प शास्त्री

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जीवन-दर्शन को आधार मानकर भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने अनेकानेक ग्रन्थ लिखे। उसी कड़ी में पण्डित होसकेरे नागप्प शास्त्री जी ने गान्धी जी की आत्मकथा को आधार मानकर एक ग्रन्थ लिखा, जिसे ‘सत्यशोधनम्’ के नाम से जाना जाता है। यद्यपि यह ग्रन्थ गान्धी जी की आत्मकथा, जिसे गान्धी जी ने स्वयं गुजराती भाषा में लिखा था, का अनुवाद है तथापि इसके अनुवाद में शास्त्री जी ने अपने संस्कृत विषय के प्रखर ज्ञान का परिचय दिया है। इस ग्रन्थ के माध्यम से शास्त्री जी ने बताया है कि बचपन में गान्धी जी किस प्रकार श्रवण कुमार की मातृपितृभक्ति एवं सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा से अभिभूत हुए।

शास्त्री जी द्वारा इस ग्रन्थ के अनुवाद का प्रमुख उद्देश्य गान्धी जी के जीवन-दर्शन एवं उनके सिद्धान्तों से पाठकों को परिचित करवाना है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से प्रतीत होता है कि शास्त्री जी की भाषा-शैली सरस, सरल एवं मुहावरेदार है। वस्तु-विन्यास, प्रसंग के अनुरूप है। वाक्य छोटे-छोटे हैं। समासों का प्रयोग सामान्यतः नहीं के बराबर है।

11. अन्नंभट्ट

भारतीय दर्शन के विद्वानों में अन्नंभट्ट का विशेष स्थान है। इनका समय 17वीं शताब्दी माना जाता है। इन्होंने न्याय और वैशेषिक दर्शनों से सम्बन्धित ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें ‘तर्कसंग्रह’ और ‘तर्कसंग्रह दीपिका’ प्रमुख हैं।। अन्नभट्ट ने बालकों को सुखपूर्वक न्याय पदार्थों का ज्ञान कराने हेतु ‘तर्कसंग्रह’ नामक लघु ग्रन्थ को लिखा। इसके अति संक्षिप्त अर्थ को स्पष्ट करवाने के अभिप्राय से स्वयं दीपिका नामक व्याख्या ग्रन्थ की भी रचना की। ‘तर्कसंग्रह’ के आरम्भ में इसी बात पर बल देते हुए उन्होंने कहा है कि

निधायहृदि विश्वेशं विधाय गुरुवन्दनम्।
बालानां सुखबोधाय क्रियते तर्कसंग्रहः ॥

अर्थात् अपने हृदय में विश्वनाथ जी का ध्यान करके अपने गुरु की वन्दना करते हुए बालकों के भी सुखपूर्वक बोध के लिए तर्कसंग्रह लिख रहा हूँ। तर्कसंग्रह के अध्ययन से पता चलता है कि अन्नंभट्ट को न्याय एवं वैशेषिक सभी मूल सिद्धान्तों का ज्ञान था। क्योंकि पदार्थों के विषय में तर्कसंग्रह में इन्होंने जो कुछ बताया है, वह पूर्णतः वैशेषिक दर्शन के अनुसार है जबकि प्रमाण के विषय में जो कुछ है वह न्याय दर्शन के अनुसार है। महर्षि गौतम ने प्रमाण, प्रमेय, संशय आदि 16 पदार्थ माने हैं जबकि अन्नभट्ट ने केवल सात पदार्थ माने हैं जोकि द्रव्य, गुण, कर्म आदि के रूप में हैं। महर्षि गौतम के 16 पदार्थों का अन्तर्भाव अन्नंभट्ट ने अपने सात पदार्थों के अन्तर्गत कर दिया है।

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