HBSE 12th Class History Solutions Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ

HBSE 12th Class History यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
किताब-उल-हिन्द पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
‘किताब-उल-हिन्द’, अल-बिरूनी द्वारा रचित सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसे ‘तहकीक-ए-हिन्द’ के नाम से भी जाना जाता है। मौलिक तौर पर यह ग्रंथ अरबी भाषा में लिखा गया है तथा बाद में यह विश्व की कई प्रमुख भाषाओं में अनुवादित हुआ। इसमें कुल 80 अध्याय हैं जिनमें भारत के धर्म, दर्शन, समाज, परंपराओं, चिकित्सा, ज्योतिष इत्यादि विषयों को विस्तृत ढंग से लिखा गया है। भाषा की दृष्टि से लेखक ने इसे सरल व स्पष्ट बनाने का प्रयास किया है।

अल-बिरूनी ने इस रचना के लेखन में विशेष शैली का प्रयोग किया है। वह प्रत्येक अध्याय को एक प्रश्न से प्रारंभ करता है, फिर उसका उत्तर संस्कृतवादी परंपराओं के अनुरूप विस्तृत वर्णन के साथ करता है। फिर उसका अन्य संस्कृतियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करता है। वह इस कार्य में पाली, प्राकृत इत्यादि भाषाओं के अनुवाद का प्रयोग करता है। वह विभिन्न दन्त कथाओं से लेकर विभिन्न वैज्ञानिक विषयों खगोल-विज्ञान व चिकित्सा विज्ञान इत्यादि विषयों की रचनाएँ है। वह प्रत्येक पक्ष का वर्णन आलोचनात्मक ढंग से करता है।

प्रश्न 2.
इब्न बतूता और बर्नियर ने जिन दृष्टिकोणों से भारत में अपनी यात्राओं के वृत्तांत लिखे थे, उनकी तुलना कीजिए तथा अंतर बताइए।
उत्तर:
इब्न बतूता और बर्नियर दोनों ही विदेशी यात्री हैं। इन दोनों ने ही भारत के बारे में अपना वृत्तांत विस्तार से लिखा है। तुलनात्मक दृष्टि से इनके वृत्तांत में कुछ समानता है तो कुछ अंतर भी है।

इब्न बतूता अफ्रीका में मोरक्को देश का रहने वाला था। वह धर्मशास्त्री था। उसने साहित्यिक व शास्त्रीय यात्राओं के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से 1325 ई० में यात्रा प्रारंभ की। मध्य-एशिया में उसने भारत के शासक मुहम्मद-बिन-तुगलक की प्रशंसा सुनी। इससे उसके मन में शासक से मिलने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। वह 1334 ई० में दिल्ली पहुँचा।

मुहम्मद-बिन-तुगलक व इब्न बतूता दोनों एक-दूसरे की विद्वता से प्रभावित हुए। शासक ने उसे दिल्ली का काज़ी नियुक्त किया तथा बाद में दूत बनाकर चीन भी भेजा। चीन जाने के बाद वह 1349 ई० में स्वदेश चला गया। मोरक्को के शासक के निर्देश पर इन जुजाई ने उससे अनुभव लेकर ‘रिला’ नामक ग्रंथ की रचना की।

दूसरी ओर बर्नियर फ्रांस का रहने वाला था। वह व्यवसाय से चिकित्सक था। वह शाहजहाँ के शासन काल के अंतिम दिनों 1656 ई० में भारत आया तथा 1668 में स्वदेश चला गया। उसने ‘ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर’ नामक पुस्तक लिखी। . दोनों में समानता यह है कि दोनों ने अपने-अपने समय के शासकों के दरबार, सामंतों व अन्य उच्च वर्ग के लोगों के जीवन की जानकारी दी। दोनों ने समाज की परंपराओं विशेषकर विवाह प्रणाली, सती प्रथा तथा त्योहारों इत्यादि का वर्णन किया है। दोनों का वृत्तांत अन्य लोगों के लिए प्रेरणा बना है।

दोनों में अंतर मुख्य रूप से उद्देश्य को लेकर है। बतूता अधिक-से-अधिक जानकारी लेकर जिज्ञासा को शांत करना चाहता है जबकि बर्नियर पूर्व (भारत) तथा पश्चिम (यूरोप) की तुलना करते हुए, भारत को निम्न बताना चाहता है। वह यूरोप में पूंजीवाद के उत्थान की स्थितियों के अनुरूप लिखता है। इब्न बतूता ने स्वयं कुछ नहीं लिखा जबकि बर्नियर ने रचना स्वयं लिखी है।

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प्रश्न 3.
बर्नियर के वृत्तांत से उभरने वाले शहरी केंद्रों के चित्र पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
बर्नियर ने मुगल काल के नगरों का वर्णन किया है। उसके अनुसार भारत की जनसंख्या का लगभग पंद्रह प्रतिशत भाग मनपात यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था। मुगलकालीन नगरों को बर्नियर शिविर नगर’ कहता था अर्थात् ऐसे नगर जो अपने अस्तित्व के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर करते थे। ये ‘शिविर नगर’ तभी बनते थे जब राजकीय दरबार का आगमन होता था। राजकीय कारवाँ के निकल जाने के बाद इन शिविर नगरों का आविर्भाव समाप्त हो जाता था। यह सामाजिक और आर्थिक रूप से राजकीय प्रश्रय पर निर्भर करते थे।

बर्नियर के अनुसार उस काल में सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे। ये नगर उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान आदि श्रेणियों में विभाजित थे। वास्तव में इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यावसायिक वर्गों के अस्तित्व का परिचायक था। . इस काल में नगरों की एक विशेषता और भी उभरकर सामने आई। घ्यापारी वर्ग मजबूत सामुदायिक एवं बंधुत्व के संबंधों से जुड़े हुए थे।

वे व्यावसायिक और जातिगत संस्थाओं के माध्यम से संगठित थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को महाजन कहा. जाता था और उनके मुखिया को सेठ। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों के सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया या सेठ द्वारा होता था। शहर के अन्य समुदायों के व्यावसायिक वर्ग में चिकित्सक (हकीम-वैद्य), अध्यापक (मुल्ला-पंडित), अधिवक्ता (वकील) चित्रकार, वास्तुविद, संगीतकार, सुलेखक आदि सम्मलित थे। ये राजकीय आश्रय अथवा अन्य के संरक्षण में रहते थे।

प्रश्न 4.
इब्न बतूता द्वारा दास प्रथा के संबंध में दिए गए साक्ष्यों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
इब्न बतूता द्वारा दास प्रथा के बारे में कई साक्ष्य दिए गए हैं। उसके अनुसार भारत में दास बाजार में उसी तरह बिकते हैं जैसी कि अन्य दैनिक प्रयोग की वस्तुएँ। लोग इन दास-दासियों को घरेलू कार्यों तथा उपहार इत्यादि के लिए खरीदते हैं। वह जब स्वयं सिन्ध पहुँचा तो उसने सुल्तान मुहम्मद-बिन-तुगलक को भेंट देने के लिए दास खरीदे। उसने मुल्तान पहुँचकर, वहाँ के गवर्नर को किशमिश व बादाम के साथ एक दास और कुछ घोड़े भेंट किए। सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने नसीरुद्दीन नामक एक धर्मोपदेशक को उसके ज्ञान व प्रवचन से प्रभावित होकर एक लाख टके तथा दो सौ दास दिए।

इब्न बतूता के अनुसार, पुरुष दास का प्रयोग घरेलू कार्यों; जैसे बाग-बगीचों की देखभाल, पशुओं की देखरेख, महिलाओं व पुरुषों को पालकी या डोली में एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने के लिए होता था। दासियाँ शाही महल, अमीरों के आवास पर घरेलू कार्य करने व संगीत गायन के लिए खरीदी जाती थीं। वह बताता है कि शासक की बहन की शादी में इन दासियों ने बहुत उच्चकोटि के कार्यक्रम प्रस्तुत किए थे। सुल्तान अपने अमीरों व दरबारियों पर नियंत्रण रखने के लिए भी दासियों का प्रयोग करता था।

प्रश्न 5.
सती प्रथा के कौन से तत्वों ने बर्नियर का ध्यान अपनी ओर खींचा?
उत्तर:
बर्नियर ने अपने वृत्तांत में सती प्रथा के बारे में काफी विस्तार से लिखा है। उसने 12 वर्ष की आयु की एक लड़की के सती होने का मार्मिक वर्णन किया है। उसने सती होने या करने की विधि भी लिखी है। बर्नियर अपने वर्णन में सती के विभिन्न पक्षों का उल्लेख करते हुए जिस तरह लिखता है उससे स्पष्ट होता है कि कई तत्वों ने उसका ध्यान इस दिशा में खींचा। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है

  • सती प्रथा यूरोप की प्रथाओं से अलग थी। किसी जीवित व्यक्ति को जलाने की प्रथा उसे अमानवीय लगी।
  • उसे भारत में अल्पवयस्क शादी आश्चर्यजनक लगी और अल्पावस्था में विधवा को सती करना और अधिक आश्चर्यजनक लगा।
  • उसे सती होने जा रही बच्ची की मनोदशा पर तरस आ रहा था।
  • उसे परिवार की बूढ़ी महिला व ब्राह्मणों का व्यवहार अजीब लगा। क्योंकि वे किसी जीवित व्यक्ति को जलाने को महसूस नहीं कर रहे थे, बल्कि प्रथा का पालन करने में व्यस्त थे।
  • विधवा के हाथ-पाँव बाँधना तथा फिर ढोल-नगाड़ों की आवाज में मरने वाले प्राणी की आवाज को दबाने से अधिक आश्चर्यजनक पहलू और क्या हो सकता था।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
जाति व्यवस्था के संबंध में अल-बिरूनी की व्याख्या पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
अल-बिरूनी की भारतीय समाज के बारे में समझ उसी वैदिक ज्ञान पर आधारित थी जिसमें वर्गों की उत्पत्ति बताई गई है। इस समझ के अनुसार ब्राह्मण का इस समाज में सर्वोच्च स्थान था। उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के सिर से हुई, उसके बाद क्षत्रियों का स्थान था जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के कंधों व हाथों से हुई। क्षत्रियों के बाद वैश्यों का स्थान था। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा की जंघाओं से हुई है। इस कड़ी में चौथा स्थान शूद्रों का है। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के चरणों से हुई है। वह यह भी लिखता है कि तीसरे व चौथे वर्ण में कोई अधिक अंतर नहीं है।

अल-बिरूनी इस विभाजन को ब्राह्मण वर्ग द्वारा संचालित बताता है, परन्तु वह अपवित्रता की धारणा को स्वीकार नहीं कर पाता। वह लिखता है कि हर वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है वह पूर्णतया स्थायी नहीं होती बल्कि वह अपनी पवित्रता की मूल स्थिति को प्राप्त करने का प्रयास करती है तथा अन्ततः सफल भी होती है। वह अपने मत के पक्ष में उदाहरण देकर स्पष्ट करता है कि हवा कितनी भी प्रदूषित क्यों न हो, सूर्य उसे स्वच्छ कर देता है। इसी तरह समुद्र के पानी में नमक की उपस्थिति भी उसे गंदा होने से बचाती है। उसके अनुसार यदि प्रकृति में अशुद्ध को शुद्ध करने का गुण नहीं होता तो पृथ्वी पर जीवन सम्भव नहीं होता।

इसी तरह जाति-व्यवस्था में अपवित्रता की व्याख्या प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है। अल-बिरूनी भारतीय समाज की जाति प्रथा की तुलना फारस से करता है। वह यह भी स्पष्ट करता है कि भारत में वर्गों की उत्पत्ति का संबंध ब्रह्मा से माना जाता है लेकिन फारस में विभाजन का आधार कार्य है। वहाँ पहले वर्ग में शासक व घुड़सवार (अर्थात सैनिक), दूसरे वर्ग में भिक्षु, तीसरे में चिकित्सक, शिक्षक, पुरोहित थे, जबकि चौथे में कृषक व शिल्पकार थे। इन सभी में व्यवसायों में बदलाव से समाज में इनकी पहचान भी बदल जाती थी।

अल-बिरूनी बताता है कि भारतीय समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र के अतिरिक्त भी एक वर्ग था जिससे व्यवस्था से बाहर माना जाता था। उसे लोग अंत्यज कहते थे। यह वर्ग सामाजिक दृष्टि से व्यवस्था से बाहर अवश्य था, लेकिन आर्थिक तौर पर कृषि इत्यादि में अपनी सेवा निरंतर देता रहता था।

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प्रश्न 7.
क्या आपको लगता है कि समकालीन शहरी केंद्रों में जीवन-शैली की सही जानकारी प्राप्त करने में इब्न बतूता का वृत्तांत सहायक है? अपने उत्तर के कारण दीजिए।
उत्तर:
इन बतूता ने भारत के विभिन्न शहरों में अपना काफी समय बिताया। उसने जो कुछ वहाँ देखा, उसका वर्णन कर दिया। उसने अपना वर्णन इतनी कुशलता से किया है कि पाठक को यह एहसास होता है जैसे वह उस स्थान पर हो। उसके वृत्तांत से तत्कालीन शहर की बसावट तथा जीवन-शैली की विस्तार से जानकारी मिल जाती है। इस बात की पुष्टि उसके द्वारा दिल्ली व दौलताबाद के वृत्तांत से हो जाती है। उदाहरण के लिए इस वृत्तांत को लिया जा सकता है।

दिल्ली-बतूता के अनुसार “देहली बड़े क्षेत्र में फैला घनी आबादी वाला शहर है………. शहर के चारों ओर बनी प्राचीर अतुलनीय है, दीवार की चौड़ाई ग्यारह हाथ है; और इसके भीतर रात्रि के पहरेदार तथा द्वारपालों के कक्ष हैं। प्राचीर के अन्दर खाद्य सामग्री, हथियार, बारूद, प्रक्षेपास्त्र तथा घेरेबंदी में काम आने वाली मशीनों के संग्रह के लिए भंडार गृह बने हुए थे……….. प्राचीर के भीतरी भाग में घुड़सवार तथा पैदल सैनिक शहर की ओर से दूसरे छोर तक आते-जाते हैं।

प्राचीर में खिड़कियाँ बनी हुई हैं जो शहर की ओर खुलती हैं और इन्हीं खिड़कियों के माध्यम से प्रकाश अंदर आता है। प्राचीर का निचला भाग पत्थर से बना है जबकि ऊपरी भाग ईंटों से। इस शहर में कुल 28 द्वार हैं जिन्हें दरवाजा कहा जाता है। इनमें सबसे विशाल बदायूँ दरवाजा है। मांडवी दरवाजे के अन्दर अनाज मण्डी है, गुल दरवाजे के बगल में फलों का एक बगीचा है…….देहली शहर में एक बेहतरीन कब्रगाह है जिसमें : बनी कब्रों के ऊपर गुंबद बनाई गई है और जिन कब्रों पर गुंबद नहीं हैं उनमें निश्चित रूप से मेहराब है। कब्रगाह में कंदाकार, चमेली

तथा जंगली गुलाब जैसे फूल उगाए जाते हैं और ये फूल सभी मौसमों में खिले रहते हैं।” दौलताबाद-दौलताबाद के बारे में बतूता बताता है कि यह दिल्ली से किसी तरह कम नहीं था और आकार में उसे चुनौती देता था। यहाँ पुरुष व महिला गायकों के लिए एक बाजार था जिसे ताराबंबाद कहते थे। यह सबसे बड़े एवं सुन्दर बाजारों में से एक था। यहाँ बहुत सी दुकानें थीं। दुकानों को कालीन से सजाया जाता था। बाजार के मध्य में एक विशाल गुंबद खड़ा था जिसमें कालीन बिछाए गए थे। प्रत्येक गुरुवार सुबह की इबादत के बाद संगीतकारों के प्रमुख अपने सेवकों और दासों के साथ स्थान ग्रहण करते थे।

गायिकाएँ एक के बाद एक झुण्डों में उनके समक्ष आकर सूर्यास्त का गीत गाती और नाचती थीं। इन बतूता के दोनों शहरों के वृत्तांत को जानने के बाद शहरी जन-जीवन की विस्तृत झांकी आँखों के सामने आती है जिससे स्पष्ट होता है कि शहर की बनावट कैसी थी। उसकी सुरक्षा के लिए क्या कदम उठाए गए थे। वहाँ बाजार में क्या मिलता था। शहरों में सांस्कृतिक गतिविधियाँ किस तरह चलती थीं। अतः स्पष्ट है कि इन बतूता का वृत्तांत समकालीन शहरी केंद्रों की जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

प्रश्न 8.
चर्चा कीजिए कि बर्नियर का वृत्तांत किस सीमा तक इतिहासकारों को समकालीन ग्रामीण समाज को पुनर्निर्मित .. करने में सक्षम करता है?
उत्तर:
बर्नियर ने अपने वृत्तांत में भारतीय ग्रामीण समाज के बारे में बहुत कुछ लिखा है। वह इस बारे में स्पष्ट करता है कि भारत में ग्रामीण समाज पिछड़ा हुआ है। उसके अनुसार “हिंदुस्तान के साम्राज्य के विशाल ग्रामीण अंचलों में अधिकतर रेतीली या बंजर हैं। यहाँ की खेती अच्छी नहीं है और इन इलाकों में आबादी भी कम है। यहाँ तक कि कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा हिस्सा श्रमिकों के अभाव में कृषि विहीन रह जाता है, गरीब लोग अपने लोभी स्वामियों की माँगों को पूरा करने में प्रायः असमर्थ रहते हैं।

वे अत्यंत निरंकुशता से हताश हो गाँव छोड़कर चले जाते हैं।” बर्नियर का यह वृत्तांत एक पक्षीय है। इस बात को समझने के लिए इतिहासकार को उसके लेखन का उद्देश्य समझना होगा। जिसमें यह स्पष्ट है कि वह यूरोप में निजी स्वामित्व जारी रखना चाहता है। वह भारत के कृषक व ग्रामीण समाज की दुर्दशा के लिए भूमि स्वामित्व को जिम्मेदार ठहराता है। यह भारत में स्वामित्व निजी के स्थान पर शासकीय मानता है।

इतिहासकार उसके वृत्तांत को पढ़कर सामान्य रूप से यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि भारतीय ग्राम पिछड़े हुए थे। ऐसा कार्ल मार्क्स व मॉन्टेस्क्यू ने भी कहा है। इसके लिए जरूरी है कि इतिहासकार अन्य तुलनात्मक स्रोतों का अध्ययन करें। वह बर्नियर की स्थिति तथा लेखन के उद्देश्य को भी समझे। इतिहासकार ग्रामीण समाज के अन्य पक्षों विशेषकर लोगों की जीवन शैली के बारे में भी जानने का प्रयास करे। इन बिंदुओं पर ध्यान रखकर 17वीं शताब्दी के गाँवों के बारे में इतिहासकार समझ बना सकता है।

इसी कदम पर आगे बढ़ते हुए इतिहासकार समकालीन ग्रामीण समाज को भी समझ सकता है। वह बर्नियर की तरह के स्रोतों का जब मूल्यांकन कर लेगा तथा अन्य स्रोतों का अध्ययन उसकी विषय-वस्तु में होगा तो निश्चित तौर पर समकालीन समाज को अच्छी तरह समझ सकता है। अतः बर्नियर का वृत्तांत इतिहास को समकालीन ग्रामीण समाज समझने का मार्ग तो देता है लेकिन उसके दोषों के प्रति भी उसे सचेत होना होगा।

यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ HBSE 12th Class History Notes

→ शास्त्ररूढ़-शास्त्रों से संबंधित

→ शरिया (शरियत)-इस्लामी कानून

→ कारवाँ-बड़ी सामूहिक यात्रा

→ श्रुतलेख-सुनकर लिखना

→ इतालवी-इटली का निवासी

→ ऑटोमन साम्राज्य-तुर्की का साम्राज्य

→ अमीर (मध्यकाल में) सामंत

→ डच हॉलैण्ड के निवासी

→ पुनः मुद्रित दोबारा प्रकाशन

→ हस्तलिपियाँ हाथ से लिखे गए ग्रन्थ

→ अवरोध-समस्या

→ पतंजलि की कृति–पतंजलि की रचना

→ अंत्यज-सामाजिक वर्ण व्यवस्था से बाहर के लोग

→ काज़ी-न्याय करने वाला इस्लाम धर्म का विशेषज्ञ

→ ताराबबाद-गायकों का बाजार

→ उलुक-अश्व वाली डाक सेवा

→ दावा-पैदल डाक सेवा

→ कालीकट-वर्तमान कोजीकोड (केरल)

→ द्वि-विपरीतता दोनों को एक-दूसरे के विपरीत

→ बेहतर-भूमि धारकों का वर्ग

→ बलाहार-भूमिहीन कृषक

→ टका-सल्तनत काल की मुद्रा

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए : समाज के बारे में उनकी समझ

→ भारत में प्राचीन काल से विदेशी यात्री आते रहे हैं। ये यात्री व्यापार, रोजगार, तीर्थ यात्रा या धर्म प्रचार इत्यादि उद्देश्यों से आए। इन यात्रियों में से कुछ ने अपने वृत्तांत पुस्तक, व्यक्तिगत डायरी व संस्मरण के रूप में लिखे हैं। उनके यही लिखित साक्ष्य हमें भारतीय इतिहास के विभिन्न पक्षों को समझने का आधार देते हैं।

→ प्रस्तुत अध्याय में भारतीय उपमहाद्वीप में आने वाले उन यात्रियों का वर्णन है जिन्होंने मध्यकालीन समाज के बारे में विस्तृत वर्णन दिया है। इस बारे में भी सभी यात्रियों का वर्णन सम्भव नहीं है अतः केवल तीन यात्रियों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। ये यात्री ग्यारहवीं शताब्दी में मध्य-एशिया वर्तमान उज्बेकिस्तान से आने वाले अल-बिरूनी, चौदहवीं शताब्दी में मोरक्को (अफ्रीका) से आने वाले इब्न बतूता तथा सत्रहवीं शताब्दी में फ्रांसीसी यात्री फ्रांस्वा बर्नियर हैं।

→ इन यात्रियों ने जिस तरह सामाजिक स्थिति का वर्णन किया है उससे कालक्रम के अनुरूप लगभग पूरे मध्यकाल की समझ बनती है। अरब लेखकों में सबसे महत्त्वपूर्ण व विस्तृत जानकारी देने वाला व्यक्ति अल-बिरूनी है जो महमूद क देने वाला व्यक्ति अल-बिरूनी है जो महमूद के साथ भारत आया, जिसने तत्कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डाला।

→ अल-बिरूनी का वास्तविक नाम अबू रेहान था। उसका जन्म मध्य-एशिया में स्थित आधुनिक उज्बेकिस्तान के ख्वारिज्म (वर्तमान नाम खीवा) नामक स्थान पर 973 ई० में हुआ। ख्वारिज्म इस समय शिक्षा का अति महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। अल-बिरूनी को इसी स्थान पर शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। उसने यहाँ पर सीरियाई, हिब्रू, फारसी, अरबी व संस्कृत भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। इसलिए वह इन भाषाओं में लिखित मौलिक ग्रन्थों को पढ़ पाया। वह यूनानी भाषा को नहीं समझता था लेकिन इस भाषा के सभी प्रमुख ग्रन्थ अनुवादित हो चुके थे। इसी कारण वह प्लेटो व अरस्तु के दर्शन व ज्ञान को अनुवादित रूप में पढ़ पाया। इस तरह वह अपने जीवन के प्रारंभिक दौर में ही विभिन्न भाषाओं के साहित्य से परिचित हो गया।

→1017 ई० में महमूद ने ख्वारिज्म पर आक्रमण किया तथा जीत हासिल की। विजय के बाद उसने यहाँ पर कुछ लोगों को बंदी बनाया। इनमें कुछ विद्वान तथा कवि भी थे। अल-बिरूनी भी इन्हीं बंदी लोगों में एक था तथा वह इसी अवस्था में गजनी लाया गया। गजनी में रहते हुए महमूद उसकी प्रतिभा से प्रभावित हुआ। फलतः न केवल महमूद ने उसे मुक्त किया वरन् उसे दरबार में सम्मानजनक पद भी दिया। बाद में अल-बिरूनी उसका राजकवि भी बना। गजनी प्रवास के दौरान उसने खगोल-विज्ञान, गणित व चिकित्सा से संबंधित पुस्तकें पढ़ीं। वह महमूद के साथ भारत में कई बार आया तथा उसने इस क्षेत्र में ब्राह्मणों, पुरोहितों व विद्वानों के साथ काफी समय बिताया।

→ उनके साथ रहने के कारण वह संस्कृत भाषा में और प्रवीण हो गया। अब वह न केवल इसे समझ सकता था बल्कि अनुवाद करने में भी सक्षम हो गया। उसने सहारा रेगिस्तान से लेकर वोल्गा नदी तक की यात्रा के आधार पर लगभग 20 पुस्तकों की रचना की। इन रचनाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण ‘किताब-उल-हिन्द’ है जिसे ‘अल बरूनीज इण्डिया’ के नाम से जाना जाता है। गजनी में ही 1048 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

→ इब्न बतूता चौदहवीं शताब्दी का यात्री था। उसने विश्व के विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण 1325 से 1354 ई० तक किया। अफ्रीका, एशिया व यूरोप के कुछ हिस्से की यात्रा करने के कारण इसे, एक प्रारंभिक विश्व यात्री की संज्ञा दी जाती है। इब्न बतूता का जन्म अफ्रीका महाद्वीप के मोरक्को नामक देश के तैंजियर नामक स्थान पर 24 फरवरी, 1304 ई० को हुआ। बतूता का परिवार इस क्षेत्र में सबसे सम्मानित, शिक्षित व इस्लामी कानूनों का विशेषज्ञ माना जाता था। बतूता कम आयु में ही उच्चकोटि का धर्मशास्त्री बन गया।

→ इन बतूता साहित्यिक व शास्त्रीय ज्ञान से सन्तुष्ट नहीं था। उसके मन में यात्राओं के माध्यम से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने की लालसा उत्पन्न हुई। इसी की पूर्ति हेतु वह 22 वर्ष की आयु में घर से निकला तथा विश्व के विभिन्न स्थानों तथा दूर-दराज क्षेत्रों की यात्रा की। 1325-1332 ई० तक उसने मक्का व मदीना की यात्रा की तथा इसके बाद सीरिया, इराक, फारस, यमन, ओमान तथा पूर्वी अफ्रीका के देशों की यात्रा की। उसने अपनी यात्राएँ जल एवं थल दोनों मार्गों से की। इन देशों की यात्रा के उपरांत वह मध्य-एशिया के रास्ते से भारत की ओर बढ़ा तथा 1333 ई० में सिन्ध पहुँचने में सफल रहा।

→ बतूता 1334 ई० में दिल्ली पहुँचा तथा सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक से भेंट की। ये दोनों एक दूसरे की विद्वता से प्रभावित हुए। सुल्तान ने बतूता को दिल्ली का काजी (न्यायाधीश) नियुक्त कर उसे शाही सेवा में ले लिया। उसने 8 वर्षों तक इस पद पर कार्य किया। इसी दौरान सुल्तान के साथ उसका मतभेद हो गया जिसके कारण उसे पद से हटाकर जेल में डाल दिया गया।

→ परन्तु यह स्थिति अधिक समय तक नहीं रही तथा सुल्तान ने एक बार फिर उस पर विश्वास कर शाही सेवा में ले लिया। इस बार उसे चीन में सुल्तान की ओर से दूत बन कर जाने का आदेश दिया। इस समय चीन में मंगोलों का राज्य था। इस तरह 1342 ई० में इन बतूता ने नई नियुक्ति स्वीकार कर चीन की ओर प्रस्थान किया। . वह सुमात्रा होते हुए चीनी बन्दरगाह जायतुन (वर्तमान नाम क्वानझू) उतरा। उसने यहाँ से चीन के विभिन्न स्थानों की यात्रा की तथा मंगोल शासक को बीजिंग में महम्मद तगलक का पत्र सौंपा। शासक ने उसे दूत के रूप में स्वीकार किया, लेकिन बतता स्वयं वहाँ लम्बे समय तक नहीं रुक सका।

→ 1347 ई० में वहाँ से वापिस अपने देश मोरक्को के लिए चल दिया। वह 8 नवम्बर, 1349 ई० को अपने पैतृक स्थान तेंजियर मोरक्को के शासक ने उससे अपने अनुभव तथा विभिन्न स्थानों की जानकारी देने के लिए कहा। उसने अपनी स्मृति के आधार पर यह सारी जानकारी शासक को उपलब्ध कराई जिसे संकलित कर रिला या रला या सफरनामा नामक पुस्तक के रूप में सुरक्षित किया गया। इब्न बतूता की अपने पैतृक स्थान तैंजियर में 1377 ई० में मृत्यु हो गई।

→ बर्नियर एक राजनीतिज्ञ, दार्शनिक तथा इतिहासकार था। उसने बारह वर्ष (1656-68) का समय भारत में लगाया। वह शाहजहाँ के बड़े बेटे दारा शिकोह का चिकित्सक था। बर्नियर का जन्म फ्रांस के अजों नामक प्रान्त के जुं नामक स्थान पर 1620 ई० में हुआ। उसका परिवार कृषि का कार्य करता था। उसने कृषि के साथ-साथ पढ़ाई की तथा पेशे से चिकित्सक बन गया। इसी व्यवसाय को करते हुए उसने फिलिस्तीन, सीरिया व मिस्र की यात्रा की। वह 1656 ई० में सूरत पहुँचा तथा इसी वर्ष दारा शिकोह ने उसे अपना चिकित्सक बना दिया।

→ उसने शाहजहाँ के शासनकाल में उत्तराधिकार के युद्ध की कुछ घटनाएँ देखी जिसका उसने विस्तार से वर्णन किया है। दारा की मृत्यु के बाद उसे आर्मीनियाई अमीर (सामन्त) डानिश मंडखान ने संरक्षण दिया। उसने भारत में सूरत, आगरा, लाहौर, कश्मीर, कासिम बाजार, मसुलीपट्टम व गोलकुण्डा इत्यादि स्थानों का भ्रमण किया। वह 1668 ई० में भारत से फ्रांस लौट गया। 1688 ई० में उसके पैतृक स्थान पर ही उसकी मृत्यु हो गई।

→ फ्रांस्वा बर्नियर ने मुगल काल में भारत की यात्रा की। उसने जो कुछ देखा व समझा उसे ‘ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर’ नामक रचना में लिखता गया। उसकी यह रचना फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुई तथा इसे फ्रांस के शासक लुई XIV को समर्पित किया गया। प्रारंभिक पाँच वर्षों 1670-75 के बीच यह रचना अंग्रेजी, डच, जर्मन तथा इतालवी में अनुवादित हो गई तथा आठ बार फ्रांसीसी में इसका पुनर्मुद्रण हुआ। इन तीनों ही यात्रियों ने भारत के बारे में वृत्तांत दिया है। यह वृत्तांत काफी सूचनाप्रद तथा रोचक है।

क्रम संख्या काल यात्री देश/क्षेत्र
1. 711-12 मोहम्मद-बिन-कासिम अरब क्षेत्र
2. 973-1048 अल-बिरूनी उज्बेकिस्तान
3. 1254-1323 मार्को पोलो इटली
4. 1304-1377 इब्न बतूता मोरक्को (अफ्रीका)
5. 1413-82 अंब्दुर-रज़्ज़ाक समरकन्द
6. 1498 वास्कोडिगामा पुर्तगाल
7. 1518 दूरते बारबोसा पुर्तगाल
8. 1580-84 फादर मान्सरेत स्पेन
9. 1582-91 राल्फ फिच इंग्लैड
10. 1615-19 सर टॉमस रो इंग्लैंड
11 1617-20 एडवर्ड टेरी इंग्लैंड
12 1626-31 महमूदवली बलखी बल्ख
13 1620-27 फ्रेन्को पेलसर्ट इंग्लैंड
14 1600-1667 पीटर मुंडी इंग्लैंड
15 1605-1689 तैवर्नियर फ्रांस
16 1620-1688 फ्रांस्वा बर्नियर फ्रांस
17 1653-1708 मनूकी इटली

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