Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज Textbook Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज
HBSE 12th Class History बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज Textbook Questions and Answers
उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)
प्रश्न 1.
स्पष्ट कीजिए कि विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता क्यों महत्त्वपूर्ण रही होगी?
उत्तर:
पितृवंशिकता वह पारिवारिक परंपरा है जिसमें वंश परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि की ओर चलती है। इसमें परिवार की संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र ही होते हैं। राजाओं के संदर्भ में सिंहासन के उत्तराधिकारी पुत्र ही थे।
ब्राह्मण ग्रंथों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में पितृवंशिकता का ‘आदर्श’ स्थापित हो चुका था। ऋग्वेद में भी इन्द्र जैसे वीर पुत्र की कामना की गई है। विशिष्ट उच्च परिवारों में पितृवंशिकता और भी अधिक महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि उनमें भूमि और सत्ता के स्वामित्व का प्रश्न महत्त्वपूर्ण होता था। महाभारत का युद्ध सत्ता और साधनों के प्रश्न को लेकर ही हुआ था। इस युद्ध में पांडव और कौरव दोनों चचेरे परिवार थे। जीत पांडवों की हुई तो ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर को शासक घोषित किया गया।
इससे पितृवंशिकता का आदर्श और भी सुदृढ़ हुआ। पितृवंशिकता के अपवाद यदा-कदा ही मिलते हैं। जैसे कि पुत्र के न होने पर भाई या फिर चचेरा भाई राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लेता था। कुछ विशेष परिस्थितियों में औरतें भी सत्ता की उत्तराधिकारी बनीं।
प्रश्न 2.
क्या आरंभिक राज्यों में शासक निश्चित रूप से क्षत्रिय ही होते थे? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
वर्ण व्यवस्था के अनुसार समाज की रक्षा का दायित्व और शासक बनने का अधिकार क्षत्रियों के पास था। परंतु हम देखते हैं कि आरंभिक राज्यों में सभी शासक क्षत्रिय वंश से नहीं थे। बहुत-से गैर-क्षत्रिय शासक वंशों का भी पता चलता है। उदाहरण के लिए ह्यूनसांग के समय उज्जैन व महेश्वरपुर के शासक ब्राह्मण थे। चन्द्रगुप्त मौर्य को भी ब्राह्मण ग्रंथों (पुराणों) में शूद्र बताया गया जबकि बौद्ध ग्रंथ उसे क्षत्रिय मानते हैं। मौर्यों के बाद शुंग व कण्व ब्राह्मण शासक बने। गुप्तवंश के शासक तथा हर्षवर्धन भी संभवतः वैश्य थे। इनके अतिरिक्त प्राचीन काल में बाहर से आने वाले बहुत-से आक्रमणकारी शासक (शक, कुषाण इत्यादि) भी क्षत्रिय, नहीं थे। दक्कन भारत के सातवाहन शासक भी स्वयं को ब्राह्मण मानते थे। अतः स्पष्ट है कि भारत में आरम्भिक राज्यों में सभी शासक संभवतः क्षत्रिय नहीं थे।
प्रश्न 3.
द्रोण, हिडिम्बा और मातंग की कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना कीजिए तथा उनके अंतर को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
महाभारत के आदिपर्व में द्रोण व हिडिम्बा की तथा जातक ग्रंथ में बोधिसत्त्व मातंग की कथा मिलती है। तीनों कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना बड़ी रुचिकर है। भारतीय संदर्भ में धर्म की व्याख्या वर्ण-कर्त्तव्य पालन के संदर्भ में की गई है। ब्राह्मण ग्रंथों में वर्ण-धर्म के पालन पर अत्यधिक बल दिया गया है। उसे ‘उचित’ सामाजिक कर्त्तव्य बताया गया है।
द्रोण की कथा में एकलव्य निषाद जाति से था जिसे वर्ण-धर्म के अनुसार धनुर्विद्या सीखने का अधिकार नहीं था। इसलिए ने उसे शिक्षा देने से इंकार कर दिया था। फिर भी एकलव्य ने यह विद्या अपनी लगन से प्राप्त की। गुरु द्रोण ने गुरु दक्षिणा में दायें हाथ का अंगूठा लिया। स्पष्ट है कि इस कथा के माध्यम से निषादों को धर्म का संदेश दिया जा रहा था। दूसरी कथा हिडिम्बा-भीम की है जिसमें भीम ने वर्ण-धर्म का पालन करते हए वनवासी लड़की (हिडिम्बा) के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया था।
लेकिन इसमें भी प्रचलित परंपरा से हटने का आभास मिलता है जब युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई भीम (उच्च कुल) को निम्न कुल से संबंधित हिडिम्बा के साथ विवाह की अनुमति दे दी थी। – तीसरी कथा मातंग की है जिसका जन्म चाण्डाल के घर में हुआ था।
जिसे देखकर मांगलिक नामक व्यापारी की बेटी (दिथ्थ) चिल्लाने लगी कि उसने ‘अशुभ’ देख लिया है। मातंग को मारा पीटा गया परंतु उसने हार मानने की बजाय विरोध स्वरूप ‘मरण व्रत’ धारण कर लिया। वस्तुतः यह कथा ब्राह्माणिक धर्म परंपरा के विरोध का उदाहरण है। यह विरोध मातंग के इन शब्दों में स्पष्ट झलकता है, “जिन्हें अपने जन्म पर गर्व है पर अज्ञानी हैं, वे भेंट के पात्र नहीं हैं। इसके विपरीत जो दोषमुक्त हैं, वे भेंट के योग्य हैं।” अतः तीनों कथाओं में वर्ण-धर्म के पालन करने पर बल दिया गया है, परंतु ाथ ही इस धर्म के विरुद्ध विरोध का स्वर स्पष्ट झलकता है।
प्रश्न 4.
किन मायनों में सामाजिक अनुबंध की बौद्ध अवधारणा समाज के उस ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से भिन्न थी जो ‘पुरुषसूक्त’ पर आधारित था।
उत्तर:
ब्राह्मण ग्रंथों में ऋग्वेद के ‘पुरुष सूक्त’ पर आधारित सामाजिक विषमताओं की व्याख्या मिलती है। इस व्याख्या में वर्ण व जाति को ईश्वरीय बताया गया है। इसमें सामाजिक भेदभाव निहित था। बौद्ध ग्रंथों में इसके विपरीत सामाजिक विषमताओं (भेदभावों) को ईश्वर की देन या पुनर्जन्म का परिणाम नहीं माना गया है। उनके अनुसार ये भेदभाव सदैव से नहीं थे। प्रारम्भ में मानव सहित सभी जीव शान्ति की अवस्था में रहते थे। इनमें कोई मेरा-तेरा नहीं था, न कोई अमीर व न कोई गरीब था। संग्रह की प्रवृत्ति भी नहीं थी। यह व्यवस्था पतन की ओर तब बढ़ने लगी जब मानव में लालसा, मक्कारी और संचय जैसी भावनाएँ पैदा हुईं। ऐसी स्थिति में सामाजिक भेदभावों का उदय हुआ।
सामाजिक भेदभावों को दूर करने के लिए बौद्ध ग्रंथों में एक सामाजिक अनुबंध की व्याख्या मिलती है, जिसके अनुसार सब लोगों ने मिलकर राजपद स्थापित किया। ऐसे व्यक्ति (राजा) को यह अधिकार दिया कि वह अपराधी को सजा दे। इस प्रकार बौद्ध व्याख्या में राजपद ईश्वरीय नहीं माना गया, जैसा कि ब्राह्मण ग्रंथ मानते हैं, बल्कि इसे एक सामाजिक समझौता (अनुबंध) माना गया।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित अवतरण महाभारत से है जिसमें ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर दूत संजय को संबोधित कर रहे हैं :
संजय धृतराष्ट्र गृह के सभी ब्राह्मणों और मुख्य पुरोहित को मेरा विनीत अभिवादन दीजिएगा। मैं गुरु द्रोण के सामने नतमस्तक होता हूँ….. मैं कृपाचार्य के चरण स्पर्श करता हूँ….. (और) कुरु वंश के प्रधान भीष्म के। मैं वृद्ध राजा (धृतराष्ट्र) को नमन करता हूँ। मैं उनके पुत्र दुर्योधन और उनके अनुजों के स्वास्थ्य के बारे में पूछता हूँ तथा उनको शुभकामनाएँ देता हूँ, … मैं उन सब युवा कुरु योद्धाओं का अभिनंदन करता हूँ जो हमारे भाई, पुत्र और पौत्र हैं…. सर्वोपरि मैं उन महामति विदुर को (जिनका जन्म दासी से हुआ है) नमस्कार करता हूँ जो हमारे पिता और माता के सदृश हैं…. मैं उन सभी वृद्धा स्त्रियों को प्रणाम करता हूँ जो हमारी माताओं के रूप में जानी जाती हैं।
जो हमारी पत्नियाँ हैं उनसे यह कहिएगा कि, “मैं आशा करता हूँ कि वे सुरक्षित हैं”….. मेरी ओर से उन कुलवधुओं का जो उत्तम परिवारों में जन्मी हैं और बच्चों की माताएँ हैं, अभिनंदन कीजिएगा तथा हमारी पुत्रियों का आलिंगन कीजिएगा….. सुंदर, सुगंधित, सुवेशित गणिकाओं को शुभकामनाएँ दीजिएगा। दासियों और उनकी संतानों तथा वृद्ध, विकलांग और असहाय जनों को भी मेरी ओर से नमस्कार कीजिएगा….
इस सूची को बनाने के आधारों की पहचान कीजिए-उम्र, लिंग, भेद व बंधुत्व के संदर्भ में। क्या कोई अन्य आधार भी हैं? प्रत्येक श्रेणी के लिए स्पष्ट कीजिए कि सूची में उन्हें एक विशेष स्थान पर क्यों रखा गया है?
उत्तर:
इस अवतरण में ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर आयु, लिंग-भेद और बंधुत्व के अतिरिक्त समाज में स्थिति, ज्ञान के आधार पर संबोधन करते हैं। संबोधन की इस सूची में वर्ण व्यवस्था द्वारा स्थापित मानदंडों का विशेष ध्यान रखा गया है। उदाहरण के लिए सबसे पहले ब्राह्मणों और मुख्य पुरोहित का अभिवादन किया गया है। गुरु द्रोण व कृपाचार्य को चरण स्पर्श कहा गया है फिर कुरु वंश के प्रमुख भीष्म पितामह और फिर धृतराष्ट्र के प्रति सम्मान व्यक्त किया गया है। दुर्योधन और अन्य कुरु योद्धाओं को शुभकामनाएँ दी गई हैं। तत्पश्चात् महामति विदुर (दासीपुत्र) का आदरपूर्वक अभिवादन किया गया है।
इसके बाद महिलाओं को सूची में शामिल किया गया है जो पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता को दर्शाता है। इसके बाद गणिकाओं और सबसे अंत में वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले स्तर पर स्थित दास-दासियों को शामिल किया गया है। इनके साथ विकलांग व असहायों को रखा गया है। स्पष्ट है कि सामाजिक स्थिति के अनुरूप बनाए गए मानदंडों के कारण ही इस सूची में विभिन्न लोगों को स्थान दिया गया है।
निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)
प्रश्न 6.
भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार मौरिस विंटरविट्ज़ ने महाभारत के बारे में लिखा था कि : चूँकि महाभारत संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है………….. बहुत सारी और अनेक प्रकार की चीजें इसमें निहित हैं …. (वह) भारतीयों की आत्मा की अगाध गहराई को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।” चर्चा कीजिए।
उत्तर:
महाभारत एक विस्तृत महाकाव्य है। इसकी मूल कथा कौरवों और पांडवों के बीच सत्ता और साधनों को लेकर लड़े गए युद्ध से संबंधित है। चूंकि यह एक गतिशील ग्रंथ रहा है इसलिए इसमें इस मूल कथा के साथ-साथ अन्य कथाएँ, मिथक और घटनाक्रम जुड़ते गए। इसमें बहुत-से उपदेश भी हैं। विद्वानों का विचार है कि लगभग 1000 वर्षों (500 ई→पू→ से 500 ई→) में यह ग्रंथ संपूर्ण हुआ है। शुरू में इसमें मात्र 8800 श्लोक थे और जयस यानी विजय संबंधी ग्रंथ कहलाता था। कालांतर में यह लगभग 24000 श्लोकों के साथ भारत नाम से जाना गया। अन्ततः यह महाभारत कहलाया। अब इसमें लगभग एक लाख श्लोक हैं।
चूँकि महाभारत दीर्घ अवधि में रचा और लिखा गया है, इसलिए इसमें भारतीय समाज के अनेक पक्ष शामिल होते गए। आर्यों के उत्तर भारत में विस्तार के बाद मध्य और दक्षिणी भारत में उनका फैलाव हुआ तो उनके इस ग्रंथ में भी अनेक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व धार्मिक पक्ष जुड़ते गए। यह ग्रंथ मात्र आर्यों का नहीं रह गया। आर्य लोगों का भारत में बसने वाले अन्य जन-जातियों और कबीलों से समायोजन हुआ, तो इन लोगों के सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्ष भी इसमें जुड़ते गए। इस प्रकार मौरिस विन्टरविट्ज़ का यह निष्कर्ष उचित है कि ‘महाभारत संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है।
उनका यह वाक्य और भी सारगर्भित है कि यह ग्रंथ ‘भारतीयों की आत्मा की अगाध गहराई को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।’ इसका अर्थ है कि इस ग्रंथ में मात्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पक्षों का ही वर्णन नहीं है बल्कि नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और गहन दार्शनिक विवेचन भी है। उदाहरण के लिए इस ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण भाग श्रीमद्भगवद् गीता को लें जो संपूर्ण भारतीय दर्शन का निचोड़ है। इसमें मोक्ष प्राप्ति के तीनों मार्गों-ज्ञान, कर्म और भक्ति का अद्भुत समन्वय मिलता है।
भारतीय समाज की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता वर्ण व जाति व्यवस्था रही है। इस व्यवस्था के नैतिक और सामाजिक आदर्शों को महाभारत ग्रंथ ने विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है। यहाँ तक कि उपदेशों के माध्यम से भी उन्हें व्यक्त किया है। उदाहरण के लिए एकलव्यगाथा, जिसमें वर्ण-धर्म की पालना का उपदेश दिया गया है। अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि महाभारत में भारतीयों के सामाजिक जीवन का सार मिलता है। इसलिए यह संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है।
प्रश्न 7.
क्या यह संभव है कि महाभारत का एक ही रचयिता था? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
महाभारत के रचनाकार के विषय में भी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। जनश्रुतियों के अनुसार.महर्षि व्यास ने इस ग्रंथ को श्रीगणेश जी से लिखवाया था। परंतु आधुनिक विद्वानों का विचार है कि इसकी रचना किसी एक लेखक द्वारा नहीं हुई। वर्तमान में इस ग्रंथ में एक लाख श्लोक हैं लेकिन शुरू में इसमें मात्र 8800 श्लोक ही थे। दीर्घकाल में रचे गए इन श्लोकों का रचयिता कोई एक लेखक नहीं हो सकता। इतिहासकार मानते हैं कि इसकी मूल गाथा के रचयिता भाट सारथी थे, जिन्हें सूत कहा जाता था। यह ‘सूत’ क्षत्रिय योद्धाओं के साथ रणक्षेत्र में जाते थे और उनकी विजयगाथाएँ रचते थे। विजयों का बखान करने वाली यह कथा परंपरा मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलती रही।
इतिहासकारों का अनुमान है कि पाँचवीं शताब्दी ई→पू→ से इस कथा परंपरा को ब्राह्मण लेखकों ने अपनाकर इसे और विस्तार दिया। साथ ही इसे लिखित रूप भी दिया। यही वह समय था जब उत्तर भारत में क्षेत्रीय राज्यों और राजतंत्रों का उदय हो रहा था। कुरु और पांचाल, जो महाभारत कथा के केंद्र बिंदु हैं, भी छोटे सरदारी राज्यों से बड़े राजतंत्रों के रूप में उभर रहे थे। संभवतः इन्हीं नई परिस्थितियों में महाभारत की कथा में कुछ नए अंश शामिल हुए। यह भी संभव है कि नए राजा अपने इतिहास को नियमित रूप से लिखवाना चाहते हों।
जैसे-जैसे आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ बदलती गईं, महाभारत की मूल गाथा में उनके अनुरूप नए अंश .. जुड़ते गए। महाभारत ज्ञान का एक अपूर्व खजाना बनता गया। धर्म, दर्शन और उपदेश इत्यादि अंश मूल कथा के साथ जुड़कर महाभारत एक विशाल ग्रंथ बनता गया।
इस ग्रंथ की रचना का एक और महत्त्वपूर्ण चरण लगभग 200 ई→पू→ से 200 ईसवी के बीच शुरू हुआ। यह वही चरण था जिसमें आराध्य देव के रूप में विष्णु की महत्ता बढ़ रही थी। श्रीकृष्ण, जो इस महाकाव्य के महानायकों में से एक थे, को भगवान श्री विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकार किया गया। इस प्रकार लगभग 1000 वर्ष से भी अधिक अवधि में यह ग्रंथ अपना वृहत् रूप धारण कर पाया। इससे यह भी स्पष्ट है कि इसकी रचना करने में एक से अधिक विद्वानों का योगदान है।
प्रश्न 8.
आरंभिक समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों की विषमताएँ कितनी महत्त्वपूर्ण रही होंगी? कारण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
आरंभिक भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों में भेदभाव (विषमताएँ) था। ब्राह्मण ग्रंथों से यह स्पष्ट है कि समाज में पितृवंशिकता का ‘आदर्श’ स्थापित हो चुका था। इसमें वंश परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र और प्रपौत्र आदि की ओर चलती थी। प्रारंभिक वैदिक साहित्य में औरत के प्रति सम्मान तो झलकता है, फिर भी पुरुषों को समाज में अधिक महत्त्व प्राप्त था। ऋग्वेद में पुत्र-कामना को प्राथमिकता दी गई। विशेषतः इंद्र जैसे वीर पुत्र की कामना की गई। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा गया है कि ‘मैं इसे (बेटी) यहाँ से यानी पिता के घर से मुक्त करता हूँ किंतु वहाँ (पति के घर) से नहीं। मैंने इसे वहाँ मजबूती से स्थापित किया है जिससे इंद्र के अनुग्रह से इसके उत्तम पुत्र हों और पति के प्रेम का सौभाग्य इसे प्राप्त हो।
शासक वर्गों में सिंहासन के उत्तराधिकारी भी पुत्र थे। उपनिषदों में पिता के आध्यात्मिक पुण्य का उत्तराधिकारी पुत्र को बताया गया अर्थात् पुत्र की उत्पत्ति किसी परिवार के लिए धर्म के अनुसार भी आवश्यक हो गई। फलतः सामान्य लोग भी इसी परंपरा से जुड़ते गए। पितृवंशिक परंपरा समाज की एक आदर्श पंरपरा बन गई। महाभारत के युद्ध में भी पांडवों के विजयी होने के उपरांत युधिष्ठिर को शासक घोषित किया गया। इससे पितृवंशिकता का आदर्श और भी सुदृढ़ हुआ। वस्तुतः इस आदर्श के अपवाद यदा-कदा ही मिलते हैं। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही कुछ महिलाएँ सत्ता की उत्तराधिकारी बनी हैं। जैसे कि प्रभावती गुप्त का शासिका बनने का उदाहरण मिलता है।
विवाह प्रणाली में भी स्त्री-पुरुष के संबंधों में भेदभाव स्पष्ट झलकता है। गोत्र-बहिर्विवाह प्रणाली में पिता अपनी पुत्री का विवाह एक ‘योग्य’ युवक से कन्यादान संस्कार को संपन्न करता हुआ करता था। ‘कन्यादान’ का अर्थ कहीं-न-कहीं चेतन या अचेतन रूप में स्त्री को वस्तुसम मान लेना रहा है। प्रायः छोटी उम्र में ही लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था। विशेषतः ऊँची प्रतिष्ठा वाले परिवारों (ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि) में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में और भी खराब थी। उच्च या शासक परिवारों में बहु-पत्नी विवाह का प्रचलन था।
अधिकांश धर्मशास्त्र पति व पिता की संपत्ति में औरत की हिस्सेदारी को स्वीकार नहीं करते हैं। पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र थे। स्वाभाविक तौर पर इससे समाज में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में गौण हो गई। परिवार में औरत का अधिकार केवल उसे उपहार से प्राप्त धन (स्त्रीधन) पर ही था। अन्य किसी तरीके से अर्जित धन पर औरत का स्वामित्व नहीं था। कुलीन परिवारों में भी, जहाँ साधनों की कमी नहीं थी, औरत की स्थिति गौण ही रही, बल्कि पुरुष नियंत्रण ऐसे परिवारों में और भी अधिक होता था। सातवाहन (दक्कन में) शासकों की सूची से आभास मिलता है कि उनमें पिता की अपेक्षा माताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण थीं क्योंकि शासकों को मातृनाम से (जैसे गौतमी-पुत्त सिरी-सातकणि) जाना गया। परंतु हमें यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि सातवाहन शासकों में भी राजसिंहासन की उत्तराधिकारी महिलाएँ नहीं बल्कि पुरुष ही बनें।
प्रश्न 9.
उन साक्ष्यों की चर्चा कीजिए जो यह दर्शाते हैं कि बंधुत्व और विवाह संबंधी ब्राह्मणीय नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं होता था।
उत्तर:
बंधुत्व और विवाह संबंधी नियम ब्राह्मण ग्रंथों में मिलते हैं। इन ग्रंथों के लेखकों का यह विश्वास था कि इन नियमों के निर्धारण में उनका दृष्टिकोण सार्वभौमिक (सर्वत्र अनुसरण होने वाला) था। इन नियमों का पालन सभी स्थानों पर सभी के द्वारा होना चाहिए परंतु व्यवहार में ऐसा नहीं था। व्यवहार में तो जब इन नियमों की उल्लंघना होने लगी थी तभी तो ब्राह्मण विधि ग्रंथों (जैसे कि मनुस्मृति, नारदस्मृति या अन्य ग्रंथ) की जरूरत महसूस हुई और उनकी रचना की गई। इन ग्रंथों में बंधुत्व व विवाह संबंधी नियमों की उल्लंघना करने वालों के लिए दंड का विधान बताया गया था।
भारत एक उपमहाद्वीप है। इसके विशाल भू-भाग में अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएँ विद्यमान थीं। सामाजिक संबंधों में अनेक जटिलताएँ थीं। संचार के साधन अविकसित थे। एक स्थान से दूसरे स्थान पर आना-जाना आसान नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में ब्राह्मणीय नियम सार्वभौमिक नहीं बन सकते थे। ब्राह्मणीय नियमों के अनुसार चचेरे, मौसेरे व ममेरे आदि भाई-बहनों में रक्त संबंध होने के कारण विवाह वर्जित था। परंतु यह नियम दक्षिण भारत के अनेक समुदायों में प्रचलित नहीं था।
उत्तर भारत में भी सर्वत्र रूप से इनका अनुसरण नहीं होता था। आश्वलायन गृहसूत्र में विवाह के आठ प्रकारों के बारे में पता चलता है। स्पष्ट है कि विवाह के नियम एक जैसे नहीं थे। इन विवाहों में से पहले चार विवाहों (ब्रह्म, देव, आर्ष व प्रजापत्य) को ही उत्तम माना गया। उन्हें धर्मानुकूल और आदर्श बताया गया। जबकि असुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों को अच्छा नहीं माना गया, परंतु ये प्रचलन में तो थे। यह इस बात का प्रमाण है कि ब्राह्मणीय नियमों से बाहर विवाह प्रथाएँ अस्तित्व में थीं।
मानचित्र कार्य
प्रश्न 10.
मानचित्र को देखकर कुरु-पांचाल क्षेत्र के पास स्थित महाजनपदों और नगरों की सूची बनाइए।
उत्तर:
संकेत
- महाजनपदों के नाम–गांधार, कंबोज, कुरु, शूरसेन, मत्स्य, अवन्ती, चेदी वत्स, अश्मक, मगध, अंग, लिच्छवी, शाक्य, पांचाल, मल्ल, कोशांबी।
- नगरों के नाम हस्तिनापुर, मथुरा, विराट, उज्जैन, अयोध्या, कपिलवस्तु, पावा, वैशाली, कुशीनगर, सारनाथ, वाराणसी, पाटलिपुत्र, श्रावस्ती।
परियोजना कार्य
प्रश्न 11.
अन्य भाषाओं में महाभारत की पुनर्व्याख्या के बारे में जानिए। इस अध्याय में वर्णित महाभारत के किन्हीं दो प्रसंगों का इन भिन्न भाषा वाले ग्रंथों में किस तरह निरूपण हुआ है उनकी चर्चा कीजिए। जो भी समानता और विभिन्नता आप इन वृत्तांत में देखते हैं। उन्हें स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्वयं अध्ययन करके निष्कर्ष निकालें।
प्रश्न 12.
कल्पना कीजिए कि आप एक लेखक हैं और एकलव्य की कथा को अपने दृष्टिकोण से लिखिए।
उत्तर:
विद्यार्थी स्वयं सामाजिक स्थितियों का गहन अध्ययन करते हुए एकलव्य कथा को अपने दृष्टिकोण से लिखें।
बंधुत्व, जाति तथा वर्ग : आरंभिक समाज HBSE 12th Class History Notes
→ बहिर्विवाह किसी समूह से बाहर विवाह; जैसे कि गोत्र-बहिर्विवाह, ग्राम-बहिर्विवाह या फिर सपिंड-बहिर्विवाह।
→ अंतर्विवाह-अपने ही वर्ण, जाति, जनजाति में विवाह करना। धर्मशास्त्रों में अपने वर्ण अथवा जाति में ही विवाह पर बल दिया गया है।
→ सपिंड-बहिर्विवाह-स्मृतियों में एक ही पूर्वज को पिंडदान करने वाले तथा एक ही माता-पिता से उत्पन्न संतानों में विवाह निषेध बताया गया है। उन्हें ऐसे समूह से बाहर विवाह पर जोर दिया गया, जिन्हें सपिंड-बहिर्विवाह कहा गया।
अनुलोम विवाह-ऐसा अंतर्जातीय विवाह, जिसमें पुरुष उच्च वर्ण अथवा जाति का होता था, जबकि स्त्री निम्न वर्ण या जाति की होती थी।
→ प्रतिलोम विवाह ऐसा अंतर्जातीय विवाह जिसमें स्त्री उच्च वर्ण या जाति से होती थी जबकि पुरुष निम्न वर्ण या जाति से होता था।
→ पितृसत्तात्मक-ऐसे परिवार जिनमें वंश-परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि की ओर चलती हो।
→ मातृसत्तात्मक-ऐसे परिवार जिनमें वंश-परंपरा माँ से जुड़ी हो। इसमें लड़की का महत्त्व अधिक होता है।
→ बांधव समूह भाई-बंधुओं का एक बड़ा समूह जिसे समाज विज्ञान की भाषा में जाति समूह (Kinfolk) कहा गया है।
→ बहु-पत्नी प्रथा-एक पुरुष द्वारा एक से अधिक पत्नियाँ रखने की प्रथा।
→ धर्मशास्त्र-इनमें धर्मसूत्र, स्मृतियाँ और उन पर लिखी गई टीकाएं शामिल हैं। ये मुख्यतः प्राचीन भारत के सामाजिक कानूनों के ग्रंथ हैं।
→ वर्ण–’वर्ण’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘वरी’ धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है वरण (चयन) करना। कुछ विद्वान वर्ण का अर्थ ‘रंग’ मानते हैं।
→ समालोचनात्मक कार्य संस्कृत साहित्य के संदर्भ में समालोचनात्मक कार्य मूलकथा को खोजने का प्रयास होता है।
→ बहुपति प्रथा-एक स्त्री के एक से अधिक पति होना।
→ गोत्र-ऐसा समूह जो स्वयं को एक ही पूर्वज की संतान होने का दावा करता है।
→ श्रेणी-गिल्ड अथवा संगठन को श्रेणी कहा गया है। प्राचीन भारत में प्रायः शिल्पकार और व्यापारियों की श्रेणियाँ होती थीं।
→ स्त्रीधन-एक स्त्री को विवाह के समय पिता, पति, भाई इत्यादि से प्राप्त होने वाले उपहार अथवा भेंट। इन पर स्त्री का निजी अधिकार माना जाता था।
→ महाकाव्य-ऐसा विशाल काव्य-ग्रंथ जो किसी देश अथवा संप्रदाय के जीवन के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालता हो।
प्रस्तुत अध्याय में लगभग एक हजार वर्षों (लगभग 600 ई→ पू→ से 600 ईसवी) के दौरान भारत में हुए सामाजिक परिवर्तनों और सामाजिक संस्थाओं पर प्रकाश डाला गया है। हम जानते हैं कि वैदिक युग में पशुचारी कबीलाई समाज धीरे-धीरे रूपांतरित होता हुआ कृषक समाज में बदला। खेती के विकास के साथ-साथ दस्तकारियों की संख्या भी बढ़ती गई। समय बीतने के साथ अपने-अपने व्यवसाय में दक्ष कारीगरों के विभिन्न सामाजिक समूह उभरकर सामने आए। पुश्तैनी व्यवसाय करते-करते ये समूह कारीगर जातियों में बदलते गए। लेकिन यह सामाजिक विकास समानता पर आधारित नहीं था। इसमें संपत्ति का वितरण असमान होने के कारण आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं में वृद्धि होने लगी।
→ हम यहाँ बंधुत्व (परिवार) व विवाह नियमों का अध्ययन करते हुए इन आर्थिक व सामाजिक विभेदों का अध्ययन भी करेंगे। साथ ही यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि सामाजिक इतिहास लेखन में इतिहासकार साहित्यिक परंपराओं; जैसे कि महाभारत या रामायण का उपयोग कैसे करते हैं?
→ भारत में पितृवंशिक व्यवस्था का आदर्श ऋग्वैदिक काल से ही चला आ रहा था। शासक वर्ग ही नहीं, धनी वर्ग के लोग और ब्राह्मण भी संभवतः ऐसा ही दृष्टिकोण रखते थे। इस आदर्श को लेकर यदा-कदा अपवाद भी मिलते हैं। पुत्र के न होने पर कई बार तो एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था तो कभी बंधु-बांधव (kinsmen) राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लेते थे। कई बार कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में स्त्रियाँ भी सत्ता की उत्तराधिकारी बनीं।
→ विवाह संस्था का स्वरूप धार्मिक संस्कारों और नियमों से निर्धारित हुआ। इसका मूल उद्देश्य विवाह संबंधों में स्थायित्व कायम करना और पितृवंश को आगे बढ़ाना था। साथ ही भारत में जातीय व्यवस्था (Caste System) को स्थायित्व प्रदान करने में भी इसकी मुख्य भूमिका रही। यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि पितृवंशिक व्यवस्था के अंतर्गत पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र का विशेष महत्त्व था, जबकि पुत्रियों को भिन्न दृष्टि से देखा गया। उन्हें पिता की संपत्ति में अधिकार नहीं मिला। साथ ही रक्त संबंधों से बाहर के परिवारों में उनका विवाह जरूरी माना गया। जबकि अंतर्विवाह प्रणाली (Endogamy) के अंतर्गत वर्ण अथवा जाति के अंदर ही विवाह को उत्तम माना गया। अतः वर्ण व जाति से बाहर विवाह वर्जित होता गया।
→ भारत में ‘जाति’ एक अनोखी व्यवस्था रही है। इस व्यवस्था में प्रत्येक जाति का समाज में ऊपर से नीचे तक स्थान निर्धारित था। अतः सामाजिक विषमता इसके इस स्वरूप में ही थी। ‘जाति’ का शाब्दिक अर्थ ‘जन्म’ है अर्थात् जाति एक ऐसा सामाजिक समूह है, जिसकी सदस्यता जन्मजात थी। एक जाति के सदस्यों का एक पुश्तैनी (वंशागत) व्यवसाय था और उस जाति के सदस्य अपनी ही जाति में विवाह करते थे। अन्य जातियों के साथ संबंधों में उच्च-निम्न तथा पवित्र-अपवित्रता के भावों का अहम स्थान रहा। जाति संबंधी आचार-संहिता धर्मशास्त्रों में स्पष्ट हुई, जिसे व्यवहार में बनाए रखने के लिए विभिन्न स्तरों पर प्रयास किए जाते रहे।
→ फिर भी वर्ण अथवा जाति-व्यवस्था पूर्णतः एक जड़-व्यवस्था नहीं रही है। इसमें आवश्यकतानुसार गतिशीलता रही है। उदाहरण के लिए, शुरू में वैश्य (विश के साधारण सदस्य) पशुचारक और किसान थे और शूद्र सेवक थे। धीरे-धीरे उन्नति करके वैश्य व्यापारी व जमींदार हो गए और शद्र कृषक बन गए, परंतु इस पर भी उन्हें वर्ण-व्यवस्था में द्विज का दर्जा नहीं मिला। विचाराधीन काल के अंत तक आते-आते उन्हें रामायण, महाभारत और पुराण जैसे ग्रंथों को सुनने का अधिकार मिला। उनकी स्थिति में कुछ सुधार आया।
→ वर्ण-व्यवस्था वाले समाज में सबसे निचले स्तर पर जो लोग थे, उन्हें चांडाल कहा जाता था। प्रायः धर्म-ग्रंथों में इनका वर्णन बहुत ही अपमानजनक है। उन्हें चोर, झूठे, झगड़ालू, लोभी, क्रोधी व अपवित्र बताया गया है। सामान्यतः इनका काम मृत-पशुओं को उठाना, उनकी खाल उतारना और उससे कई तरह का सामान बनाना, शवों का अंतिम संस्कार करना तथा सड़कों-गलियों की सफाई करना आदि था। इन कामों को दूषित और अपवित्र माना जाता था। यद्यपि ये सभी काम ‘सभ्य’ समाज के लिए निहायत ज़रूरी थे। धर्म-कर्म करने वाले ब्राह्मण स्वयं को सबसे पवित्र मानते थे।
→ उनका कहना तक उच्च वर्ण के लोगों को अपवित्र कर देता है। उन्हें ‘अस्पृश्य’ अथवा ‘अछूत’ बताया गया। वस्तुतः इस दृष्टिकोण ने सामाजिक विषमता को अमानवीय-स्तर तक पहुँचा दिया। फाहियान के विवरण से पता चलता है कि चाण्डाल शहर और गाँवों से बाहर अलग बस्तियों में रहते थे। ये लोग माँस का व्यवसाय करते थे। जब कभी वे नगर या गाँव में आते तो उन्हें अपने आने की सूचना किसी वस्तु से आवाज़ करके देनी पड़ती थी, ताकि स्वयं को पुनीत कहने वाले लोग उनके साये से बच सकें।
→ विचाराधीन काल में दास, भूमिहीन कृषि मज़दूर, शिकारी, मछुआरे, पशुपालक, किसान, ग्राम मुखिया, कारीगर-दस्तकार, व्यापारी तथा अधिकारी और राजा सभी भारत उप-महाद्वीप के विभिन्न भागों में समाज के अंग थे। इन सभी सामाजिक समुदायों एवं वर्गों का किसी-न-किसी रूप में आर्थिक क्रिया-कलापों में योगदान था, परंतु इनकी सामाजिक स्थिति एक समान नहीं थी। वस्तुतः समाज में उनका स्थान आर्थिक साधनों पर उनके नियंत्रण पर निर्भर करता था, जिनके पास भी ये साधन जितने अधिक थे उनकी समाज में स्थिति उतनी ही ऊँची थी। अधिकांश धर्मशास्त्र पति व पिता की संपत्ति में औरत की हिस्सेदारी को स्वीकार नहीं करते थे। स्वाभाविक तौर पर इससे समाज में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में गौण रही।
→ बौद्ध व्याख्या में सामाजिक विषमताओं को ईश्वर की देन या पूर्वजन्म का परिणाम नहीं बताया गया है, बल्कि इसके लिए लालसा को दोषी ठहराया। अतः बौद्ध व्याख्याकारों ने सामाजिक अंतर्विरोधों को दूर करने के लिए एक सामाजिक समझौते की व्याख्या दी। इसके अनुसार सामाजिक विषमता सदैव से नहीं थी। शुरू में न तो मानव पूर्ण रूप में विकसित था और न ही वनस्पति जगत। तब सभी जीव शांति की अवस्था में निवास करते थे। कोई तेरा-मेरा नहीं था। संचय की कोई प्रवृत्ति नहीं थी। यह व्यवस्था पतन की ओर तब बढ़ने लगी, जब मानव में लालसा, कपट, प्रतिहिंसा, मक्कारी और संचय जैसी भावनाएँ बलवती होने लगीं। स्पष्ट है कि इन भावनाओं से सामाजिक विषमताओं ने जन्म लिया। तब सब लोगों ने मिलकर विचार करके राजपद को मान्यता दी।
→ भारत की मूलकथा कौरवों व पांडवों के बीच लड़े गए संहारक युद्ध की है। ये दोनों चचेरे परिवार थे। इनमें यह युद्ध राजगद्दी व भू-क्षेत्र को लेकर हुआ। इस मुख्य कथा के अतिरिक्त महाभारत में कई तरह के मिथक, कथाएँ, वर्णन और उपदेश भी हैं। ग्रंथ तात्कालिक सामाजिक समुदायों के सामाजिक व्यवहार को भी दर्शाता है। शुरू में महाभारत की गाथा मौखिक तौर पर एक पीढ़ी से अलग पीढ़ी में चलती रही। कालांतर में इसे ब्राह्मण विद्वानों ने लिखित रूप दिया। फिर यह हस्तलिखित परंपरा में संप्रेषित होती रही।
→ इतिहासकार इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए साहित्यिक स्रोतों का उपयोग बड़ी सावधानी और विवेकपूर्ण तरीके से करते हैं। वे इस बात का ध्यान करते हैं कि अमुक ग्रंथ का लेखक कौन है, उसका सामाजिक दृष्टिकोण क्या है, क्योंकि लेखक भी अपने पूर्वाग्रहों से प्रभावित हो सकता है। वे ग्रंथ की भाषा पर भी विचार करते हैं। उदाहरण के लिए क्या वे ग्रंथ संस्कृत में हैं या फिर पालि, प्राकृत या तमिल जैसी भाषाओं में हैं। उल्लेखनीय है कि संस्कृत ब्राह्मण विद्वानों की भाषा थी तो जनसामान्य की भाषा पालि व प्राकृत थी।
→ इसलिए भाषा से संकेत मिलता है कि अमुक ग्रंथ किसी वर्ग विशेष में प्रचलित था अथवा सामान्य लोगों में। संस्कृत भी जटिल है या सरल, पद्य है या गद्य, यह पहलू भी विचारणीय होता है। इतिहासकार किसी ग्रंथ का अध्ययन करते समय उसके संभावित संकलन या रचना काल तथा उसके रचना क्षेत्र पर भी ध्यान देते हैं।
III. काल-रेखा
काल | घटना का विवरण |
लगभग 500 ई० पू० | पाणिनि की (संस्कृत व्याकरण) अष्टाध्यायी की रचना |
लगभग 500 से 200 ई० पू० | धर्मसूत्रों का संस्कृत भाषा में रचनाकाल |
लगभग 500 से 100 ई० पू० | आरंभिक बौद्ध-ग्रंथों (त्रिपिटक सहित) का पालि भाषा में रचनाकाल |
लगभग 500 ई० पू० से 400 ई० | रामायण और महाभारत का संस्कृत भाषा का रचनाकाल |
लगभग 200 ई० पू० से 200 ई० | मनुस्मृति का रचनाकाल |
405 से 411 ई० | फाहियान भारत में रहा |
630 से 643 ई० | ह्यूनसांग भारत में रहा |
1919 से 1966 ई० | महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण परियोजना का काल |
1973 ई० | जे०ए०बी० वैन बियुटेनेन द्वारा महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण के अंग्रेज़ी अनुवाद की शुरुआत |
1978 ई० | जे०ए०बी० वैन बियुटेनेन की मृत्यु |