HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज

Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज

HBSE 12th Class Hindi श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज Textbook Questions and Answers

पाठ के साथ

प्रश्न 1.
जाति-प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?
उत्तर:
लेखक जाति-प्रथा को श्रम विभाजन का एक रूप इसलिए नहीं मानता क्योंकि यह विभाजन स्वाभाविक नहीं है। पुनः यह मानव की रुचि पर भी आधारित नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें व्यक्ति की क्षमता और योग्यता की उपेक्षा की जाती है। यह माता-पिता के सामाजिक स्तर को ध्यान में रखकर ही बनाई जाती है। जन्म से पूर्व ही मनुष्य के लिए श्रम विभाजन करना पूर्णतया अनुचित है। जाति-प्रथा आदमी को आजीवन एक ही व्यवसाय से जोड़ देती है जोकि सर्वथा अनुचित है। जाति-प्रथा के कारण मनुष्य को उचित तथा अनुचित किसी भी व्यवसाय को अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। यहाँ तक कि यदि मनुष्य को भूखा मरना पड़ा तो भी वह अपना पेशा नहीं बदल सकता। यह स्थिति समाज के लिए बड़ी भयावह है।

प्रश्न 2.
जाति-प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?
उत्तर:
जाति-प्रथा किसी भी आदमी को अपनी रुचि के अनुसार पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती। उसे केवल पैतृक पेशा ही अपनाना पड़ता है। वह किसी अन्य पेशे को नहीं अपना सकता। भले ही वह उस पेशे में पारंगत क्यों न हो। आज उद्योग-धंधों की प्रक्रिया और तकनीक में लगातार विकास हो रहा है, जिससे कभी-कभी भयानक परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को पेशा बदलने को मजबूर होना पड़ता है। ऐसी स्थिति में यदि मनुष्य को पेशा न बदलने दिया जाए तो वह बेरोज़गारी और भुखमरी का शिकार हो जाएगा।

आज भले ही समाज में भयंकर जाति-प्रथा है, लेकिन उसके बाद भी कोई ऐसी मजबूरी नहीं है कि वह अपने पैतृक व्यवसाय को छोड़कर नए पेशे को न अपना सके। आज जो लोग पैतृक व्यवसाय से जुड़े हैं वे अपनी इच्छा से जुड़े हुए हैं अथवा किसी अन्य व्यवसाय में योग्यता की कमी के कारण पैतृक व्यवसाय को अपनाए हुए हैं।

प्रश्न 3.
लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?
उत्तर:
लेखक का कहना है कि ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कह सकते। दासता की एक अन्य स्थिति यह भी है जिसके अनुसार कुछ लोगों को अन्य लोगों द्वारा निर्धारित किए गए व्यवहार और कर्तव्यों का पाल होना पड़ता है। कानूनी पराधीनता न होने पर भी समाज में इस प्रकार की दासता देखी जा सकती है। उदाहरण के रूप में जाति-प्रथा के समान समाज में ऐसे लोगों का वर्ग भी संभव है जिन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी पेशे को अपनाना पड़ सकता है। उदाहरण के रूप में सफाई करने वाले कर्मचारी इसी प्रकार के कहे जा सकते हैं।

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प्रश्न 4.
शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?
उत्तर:
डॉ० आंबेडकर यह जानते हैं कि शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक परंपरा की दृष्टि से लोगों में असमानता हो सकती है, परंतु फिर भी वे क्षमता के व्यवहार्य सिद्धांत को अपनाने की सलाह देते हैं। इस संदर्भ में लेखक का यह तर्क है कि यदि हमारा समाज अपने सदस्यों का अधिकतम प्रयोग प्राप्त करना चाहता है, तो इसे समाज के सभी लोगों को आरंभ से ही समान अवसर और समान व्यवहार प्रदान करना होगा। विशेषकर हमारे राजनेताओं को सब लोगों के साथ एक-समान व्यवहार करना चाहिए। समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास करने का उचित अवसर मिलना चाहिए। लेखक का यह भी तर्क है कि जन्म लेना या सामाजिक परंपरा प्राप्त करना व्यक्ति के अपने वश में नहीं है। अतः इस आधार पर किसी के व्यवसाय का निर्णय करना उचित नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 5.
सही में आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है; जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?
उत्तर:
इस बात को लेकर हम लेखक से पूरी तरह सहमत हैं। कारण यह है कछ लोग किसी उच्च वंश में उत्पन्न होने के फलस्वरूप उत्तम व्यवहार के अधिकारी बन जाते हैं। यदि हम गहराई से विचार करें तो पता चलेगा कि इसमें उनका कोई अपना योगदान नहीं है। सामाजिक परिवेश व्यक्ति को सम्मान प्रदान कर सकता है लेकिन उस व्यक्ति के सामर्थ्य का मूल्यांकन नहीं कर सकता है। मनुष्य के कार्यों तथा उसके प्रयत्नों के फलस्वरूप ही उसकी महानता का निर्णय होना चाहिए और आदमी के प्रयत्नों की सही जाँच तब हो सकती है जब सभी को समान अवसर प्राप्त हों। उदाहरण के रूप में गाँव के विद्यालयों तथा सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों का पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के साथ मुकाबला नहीं किया जा सकता। अतः समय की माँग यह है कि जातिवाद का उन्मूलन किया जाए और सभी को समान भौतिक स्थितियाँ और सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। तब उनमें जो श्रेष्ठ व्यक्ति सिद्ध होता है, वही उत्तम व्यवहार का अधिकारी हो सकता है।

प्रश्न 6.
आदर्श समाज के तीन तत्त्वों में से एक ‘भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे/समझेंगी।
उत्तर:
आदर्श समाज के तीसरे तत्त्व (भ्रातृता) भाईचारे पर विचार करते समय लेखक ने अलग से स्त्रियों का उल्लेख नहीं किया, परंतु लेखक ने समाज की बात कही है और स्त्रियाँ समाज से अलग नहीं होतीं, बल्कि स्त्री और पुरुष दोनों के मिलने से समाज बनता है। अतः यह कहना कि आदर्श समाज में स्त्रियों को सम्मिलित किया गया है अथवा नहीं; यह सोचना ही व्यर्थ है। समाज में स्त्रियाँ स्वतः सम्मिलित हैं। भ्रातृता भले ही संस्कृतनिष्ठ शब्द है परंतु यह अधिक प्रचलित नहीं है। अतः यदि इसके स्थान पर भाईचारा शब्द का प्रयोग होता तो वह उचित होता।

पाठ के आसपास

प्रश्न 1.
आंबेडकर ने जाति-प्रथा के भीतर पेशे के मामले में लचीलापन न होने की जो बात की है, उस संदर्भ में शेखर जोशी की कहानी ‘गलता लोहा’ पर पुनर्विचार कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी शिक्षक की सहायता से इस कहानी को स्वयं पढ़ें और विचार करें।

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प्रश्न 2.
‘कार्य कुशलता’ पर जाति-प्रथा का प्रभाव विषय पर समूह में चर्चा कीजिए। चर्चा के दौरान उभरने वाले बिंदुओं को लिपिबद्ध कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी शिक्षक की सहायता से इस कहानी को स्वयं पढ़ें और विचार करें।

इन्हें भी जानें

आंबेडकर की पुस्तक जातिभेद का उच्छेद और इस विषय में गांधी जी के साथ उनके संवाद की जानकारी प्राप्त कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

हिंद स्वराज नामक पुस्तक में गांधी जी ने कैसे आदर्श समाज की कल्पना की है, उसे भी पढ़ें।
उत्तर:
विद्यार्थी शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

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प्रश्न 1.
प्रस्तुत पाठ में लेखक ने जाति-प्रथा की किन-किन बुराइयों का वर्णन किया है?
उत्तर:
जाति-प्रथा द्वारा किया गया श्रम विभाजन स्वाभाविक नहीं है क्योंकि यह श्रमिकों में भेद उत्पन्न करती है और उनमें ऊँच-नीच की भावना पैदा करती है। पुनः जाति-प्रथा पर आधारित श्रम विभाजन श्रमिकों की रुचि के अनुसार नहीं होता। जाति-प्रथा के फलस्वरूप श्रम विभाजन माँ के गर्भ में ही तय हो जाता है। जन्म लेने के बाद व्यक्ति की रुचि और क्षमता की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। यही नहीं, जाति-प्रथा मनुष्य को हमेशा के लिए एक ही व्यवसाय से जोड़ देती है। यदि विपरीत परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाएँ तो भी व्यक्ति अपना व्यवसाय नहीं छोड़ सकता जिससे उसे भूखों मरना पड़ सकता है। जाति-प्रथा के कारण कुछ काम घृणित माने गए हैं, जो लोग मजबूरी में इन कार्यों को करते हैं उन्हें लोग हीन समझते हैं।

प्रश्न 2.
आदर्श समाज के बारे में लेखक ने क्या विचार व्यक्त किए हैं?
उत्तर:
लेखक जिस आदर्श समाज की बात करता है वह स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित होगा। लेखक का कहना है कि आदर्श समाज में जो परिवर्तन होगा उसका लाभ सभी को होगा किसी एक को नहीं। इस प्रकार के समाज में अनेक प्रकार के हितों में सभी लोगों की भागीदारी होगी। यही नहीं, सभी लोग समाज के कल्याण के लिए जागरूक रहेंगे। ऐसी स्थिति में सामाजिक जीवन में सबको निरंतर संपर्क के अनेक साधन और अवसर प्राप्त होंगे। समाज में भाईचारा इस प्रकार का होगा जैसे दूध और पानी का मिश्रण होता है। अतः आदर्श समाज समाज के सभी लोगों के लिए उपयोगी होगा।

प्रश्न 3.
लोकतंत्र से लेखक का क्या आशय है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
लेखक का विचार है कि लोगों में जो दूध-पानी के मिश्रण के समान भाईचारा विकसित होगा वही तो लोकतंत्र है। इसमें समाज के सभी लोगों में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की भावना विकसित होगी। लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति नहीं है, बल्कि लोकतंत्र सामूहिक जीवन-चर्या की एक नीति है। समाज के सम्मिलित अनुभवों का आदान-प्रदान ही लोकतंत्र है। इस प्रकार के लोकतंत्र की स्थापना होने से लोगों को अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव उत्पन्न होगा।

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प्रश्न 4.
लेखक के अनुसार मनुष्य की क्षमता किन बातों पर निर्भर करती है?
उत्तर:
लेखक का कहना है कि मनुष्यों की क्षमता शारीरिक वंश-परंपरा, सामाजिक उत्तराधिकार और मनुष्य के अपने प्रयत्नों पर निर्भर करती है। शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार जन्मजात होते हैं। ये दोनों मनुष्य के वश में नहीं हैं। अतः इनके आधार पर किसी का वर्ग और कार्य निश्चित नहीं किया जाना चाहिए और न ही जन्म के कारण किसी को श्रेष्ठ या निम्न मानना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य के प्रयत्न उसके अपने वश में हैं। अतः सभी मनुष्यों को प्रयत्न करने के समान अवसर दिए जाने चाहिएँ। प्रयत्न करने पर जो मनुष्य उत्तम है, उसे उत्तम ही कहेंगे।

प्रश्न 5.
जाति-प्रथा भारतीय समाज में बेरोज़गारी और भुखमरी का एक कारण कैसे रही है? भीमराव आंबेडकर के विचारों के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जाति-प्रथा भारतीय समाज के लिए एक कलंक है। यह हमेशा बेरोज़गारी और भुखमरी का कारण बनती रही है। जब समाज किसी व्यक्ति को जाति के आधार पर एक विशेष पेशे से जोड़ देता है और यदि वह पेशा उस आद अथवा अपर्याप्त होता है तो उसके समक्ष भुखमरी की स्थिति उपस्थित हो जाती है। जाति-प्रथा उस व्यक्ति को अपना पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती अथवा उसे पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं मिलती। ऐसी स्थिति में उसके सामने भूखों मरने के सिवाय और कोई चारा नहीं होता। भारतीय समाज हमेशा व्यक्ति को पैतृक पेशा अपनाने को मजबूर करता है। भले ही वह उसे पेशे में प्रवीण हो अथवा नहीं। पेशा बदलने की अनुमति न देना बेरोज़गारी का प्रमुख कारण बनता है। परंतु स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इस स्थिति में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। जाति-प्रथा के बावजूद आज व्यक्ति को अपना पेशा चुनने अथवा बदलने का पूरा अधिकार है। सरकार द्वारा लागू की गई आरक्षण नीति से भी इस स्थिति में काफी परिवर्तन आया है।

प्रश्न 6.
‘जाति-प्रथा’ के आधार पर श्रम विभाजन को स्वाभाविक क्यों नहीं माना गया?
उत्तर:
जाति-प्रथा श्रम का जो विभाजन करती है वह मनुष्य की रुचियों तथा उसकी क्षमताओं पर आधारित नहीं होता, बल्कि यह विभाजन जन्म और जाति के आधार पर किया जाता है। जाति-प्रथा द्वारा किया गया श्रम विभाजन अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें व्यक्ति बंधनों में जकड़ लिया जाता है। सही श्रम विभाजन वही हो सकता है जिसमें मानव की रुचियों और क्षमताओं का ध्यान रखा जाए। रोज़गार के उचित अवसर सभी को प्राप्त होने चाहिएँ । दुःख की बात तो यह है कि जाति-प्रथा के आधार पर किया गया श्रम विभाजन ऊँच-नीच और छोटे-बड़े के भेदभाव को उत्पन्न करता है। यह विभाजन पूर्णतया अस्वाभाविक है।

प्रश्न 7.
जाति-प्रथा आर्थिक विकास के लिए किस प्रकार हानिकारक है?
उत्तर:
आर्थिक विकास के लिए यह जरूरी है कि लोगों को उनकी रुचि, क्षमता तथा योग्यता के अनुसार पेशा अपनाने और श्रम करने की स्वतंत्रता हो, बल्कि सभी को समान अवसर भी मिलने चाहिएँ। जाति-प्रथा सबको समान अवसर देने से रोकती है। वह व्यक्ति की अपनी रुचि, क्षमता और इच्छा की ओर कोई ध्यान नहीं देती। जो लोग जन्मजात पेशे को अपनाने के लिए मजबूर किए जाते हैं वे न चाहते हुए मजबूर होकर काम करते हैं। पेशे में न उनका दिल लगता है, न दिमाग। वे अपनी शक्तियों और क्षमताओं का समुचित प्रयोग नहीं कर पाते जिससे आर्थिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।

प्रश्न 8.
आंबेडकर ने किसके लिए दासता शब्द का प्रयोग किया है और क्यों?
उत्तर:
आंबेडकर ने जाति-प्रथा के आधार पर पेशा अपनाने की परंपरा को ‘दासता’ की संज्ञा दी है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मनुष्य इस परंपरा के कारण अपनी इच्छानुसार पेशा नहीं चुन सकता। उसे वही काम करना पड़ता है जो जन्म से उसके लिए निर्धारित कर दिया जाता है। उसकी अपनी इच्छा की परवाह नहीं की जाती। जाति-प्रथा के कारण समाज उसके लिए जो काम निर्धारित कर लेता है, आजीवन उसे वही काम करना पड़ता है। भले ही उसमें उसकी अपनी रुचि हो या न हो। ऐसा जीवन ‘दासता’ नहीं तो और क्या कहा जाएगा।

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प्रश्न 9.
जन्मजात धंधों में लगे हुए लोग कार्यकुशल क्यों नहीं बन पाते?
उत्तर:
जिन लोगों को जाति-प्रथा के कारण जन्मजात धंधों को अपनाना पड़ता है, उनमें कभी भी कार्य-कुशलता नहीं आ पाती। उस कार्य में उनकी रुचि नहीं होती लेकिन फिर भी उन्हें मजबूर होकर वह काम करना पड़ता है। यही नहीं, ऐसा व्यक्ति दुर्भावना से ग्रस्त हो जाता है। वह काम करने की बजाय टाल-मटोल की नीति को अपनाता है। जाति-प्रथा द्वारा निर्धारित काम में उसका दिल और दिमाग नहीं लगता, जिसके फलस्वरूप वह अपनी क्षमता की अपेक्षा बहुत कम काम करता है।

प्रश्न 10.
लेखक ने किस आधार पर असमान व्यवहार को उचित माना और क्यों?
उत्तर:
लेखक का कहना है कि असमान प्रयत्न के आधार पर असमान व्यवहार उचित है। कहने का भाव यह है कि यदि कोई आदमी अपनी इच्छा से बहुत थोड़ा प्रयत्न करता है और ठीक से काम नहीं करता तो उसे कम सम्मान मिलना चाहिए। जो व्यक्ति अधिक प्रयत्न करता है उसे अधिक सम्मान मिलना चाहिए। इस प्रकार से व्यक्ति को प्रोत्साहित करना या दंडित करना सर्वथा उचित है। ऐसा करने से मनुष्य अपनी क्षमताओं का विकास कर सकेगा और अयोग्य लोगों को योग्य स्थानों पर काम करने को नहीं मिलेगा।

प्रश्न 11.
लेखक ने आदर्श समाज के बारे में क्या कहा है?
अथवा
आदर्श समाज की कल्पना का चित्रण कीजिए।
उत्तर:
लेखक आदर्श समाज की चर्चा करते हुए कहता है कि उसका आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता और भ्रातृता पर आधारित होगा। यह किसी प्रकार से भी गलत नहीं है। भाईचारे में किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती। आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता अवश्य होनी चाहिए कि समाज में किया गया कोई भी परिवर्तन सर्वत्र व्याप्त हो जाए। ऐसे समाज में सार्वजनिक हितों में सबकी भागीदारी होनी चाहिए। सामाजिक जीवन में निरंतर संपर्क के अनेक साधन और अवसर सभी को प्राप्त होने चाहिएँ। लेखक इस तुलना दूध और पानी के मिश्रण से करता है। इसी को लोकतंत्र कहा जाता है। लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति नहीं है, बल्कि सामूहिक जीवन-चर्या की एक नीति है जिसमें सभी को अनुभवों का आदान-प्रदान करने का अवसर प्राप्त होता है।

प्रश्न 12.
लेखक ने समता को काल्पनिक वस्तु क्यों माना है? फिर भी वह समता क्यों चाहता है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार लोगों के बीच में समता प्राकृतिक नहीं है। उनका कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही सामाजिक स्तर से अपने प्रयत्नों के कारण असमान होता है। सभी एक-समान नहीं हो सकते। अतः पूर्ण समता एक काल्पनिक वस्तु है। फिर भी लेखक का कहना है कि समाज के सभी लोगों को पढ़ने-लिखने और फलने-फूलने के बराबर अवसर मिलने चाहिएँ। किसी प्रकार का भेदभाव मानव के विकास में बाधा का काम करता है और उसकी कार्य-कुशलता को हानि पहुँचाता है। भले ही समाज विविध प्रकार का है और विशाल भी है, लेकिन फिर भी सभी मनुष्य समान होने चाहिएँ। तभी हमारा समाज वर्गहीन, जातिहीन और श्रेणीहीन होगा।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

1. ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ के लेखक का नाम क्या है?
(A) डॉ० भीमराव आंबेडकर
(B) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(C) विष्णु खरे
(D) धर्मवीर भारती
उत्तर:
(A) डॉ० भीमराव आंबेडकर

2. डॉ० भीमराव आंबेडकर का जन्म कब हुआ?
(A) 14 अप्रैल, 1890 को
(B) 12 अप्रैल, 1891 को
(C) 14 अप्रैल, 1891 को
(D) 14 अप्रैल, 1881 को
उत्तर:
(C) 14 अप्रैल, 1891 को

3. भीमराव आंबेडकर का जन्म कहाँ पर हुआ?
(A) महू में
(B) मेद्या में
(C) बहू में
(D) भाण्डू में
उत्तर:
(A) महू में

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4. महू किस राज्य में स्थित है?
(A) उत्तरप्रदेश में
(B) राजस्थान में
(C) हरियाणा में
(D) मध्यप्रदेश में
उत्तर:
(D) मध्यप्रदेश में

5. डॉ० भीमराव का जन्म किस परिवार में हुआ?
(A) ब्राह्मण परिवार में
(B) क्षत्रिय परिवार में
(C) अस्पृश्य परिवार में
(D) वैश्य परिवार में
उत्तर:
(C) अस्पृश्य परिवार में

6. डॉ० भीमराव ने आरंभिक शिक्षा कहाँ प्राप्त की?
(A) पाकिस्तान में
(B) भारत में
(C) श्रीलंका में
(D) जापान में
उत्तर:
(B) भारत में

7. उच्चतर शिक्षा के लिए सर्वप्रथम वे कहाँ गए?
(A) न्यूयार्क में
(B) लंदन में
(C) पेरिस में
(D) हांगकांग में
उत्तर:
(A) न्यूयार्क

8. न्यूयॉर्क के बाद भीमराव ने कहाँ पर उच्च शिक्षा प्राप्त की?
(A) वाशिंगटन में
(B) दिल्ली में
(C) मुंबई में
(D) लंदन में
उत्तर:
(D) लंदन में

9. किन विश्वविद्यालयों ने डॉ. आंबेडकर को विधि, अर्थशास्त्र एवं राजनीति विज्ञान में डिग्रियाँ प्रदान की?
(A) पंजाब विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय ने
(B) कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इक्नॉमिक्स ने
(C) कोलकाता विश्वविद्यालय और मुंबई विश्वविद्यालय ने
(D) इलाहाबाद विश्वविद्यालय और मेरठ विश्वविद्यालय ने
उत्तर:
(B) कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इक्नॉमिक्स ने

10. किस समाज से डॉ० आंबेडकर का मोह भंग हो गया?
(A) हिंदू समाज से
(B) ब्राह्मण समाज से
(C) जैन समाज से
(D) वैश्य समाज से
उत्तर:
(A) हिंदू समाज से

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11. डॉ० आंबेडकर कब बौद्ध धर्म के मतानुयायी बने?
(A) 12 अक्तूबर, 1952 को
(B) 14 अक्तूबर, 1956 को
(C) 12 अक्तूबर, 1955 को
(D) 16 अक्तूबर, 1957 को
उत्तर:
(B) 14 अक्तूबर, 1956 को

12. डॉ. आंबेडकर के साथ और कितने लोग बौद्ध धर्म के मतानुयायी बने?
(A) 2 लाख
(B) 3 लाख
(C) 5 लाख
(D) 7 लाख
उत्तर:
(C) 5 लाख

13. डॉ. आंबेडकर किस महान कवि से प्रभावित हुए थे?
(A) गुरुनानक देव से
(B) कबीरदास से
(C) रविदास से
(D) धर्मदास से
उत्तर:
(B) कबीरदास से

14. डॉ० भीमराव आंबेडकर का देहांत कब हुआ?
(A) 6 दिसंबर, 1956 को
(B) 5 दिसंबर, 1955 को
(C) 12 दिसंबर, 1956 को
(D) 6 दिसंबर, 1951 को
उत्तर:
(A) 6 दिसंबर, 1956 को

15. डॉ० भीमराव आंबेडकर ने किसके निर्माण में योगदान दिया?
(A) हिंदू समाज
(B) दलित समाज
(C) भारतीय संविधान
(D) भारतीय समाज
उत्तर:
(C) भारतीय संविधान

16. भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय ने बाबा साहेब आंबेडकर के संपूर्ण वाङ्मय को कितने खंडों में विभाजित किया है?
(A) 22
(B) 23
(C) 24
(D) 21
उत्तर:
(D) 21

17. बाबा भीमराव की रचना ‘जेनेसिस एंड डवेलपमेंट’ का प्रकाशन कब हुआ?
(A) सन् 1927 में
(B) सन् 1928 में
(C) सन् 1917 में
(D) सन् 1930 में
उत्तर:
(C) सन् 1917 में

18. ‘द अनटचेबल्स, हू आर दे? का प्रकाशन किस वर्ष में हुआ?
(A) सन् 1945 में
(B) सन् 1946 में
(C) सन् 1947 में
(D) सन् 1948 में
उत्तर:
(D) सन् 1948 में

19. बाबा भीमराव आंबेडकर द्वारा रचित ‘बुद्धा एंड हिज़ धम्मा’ कब प्रकाशित हुई?
(A) सन् 1957 में
(B) सन् 1958 में
(C) सन् 1959 में
(D) सन् 1960 में
उत्तर:
(A) सन् 1957 में

20. ‘हू आर द शूद्राज़’ का प्रकाशन कब हुआ?
(A) सन् 1947 में
(B) सन् 1946 में
(C) सन् 1950 में
(D) सन् 1951 में
उत्तर:
(B) सन् 1946 में

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21. ‘थॉट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स’ का प्रकाशन कब हुआ?
(A) सन् 1950 में
(B) सन् 1951 में
(C) सन् 1955 में
(D) सन् 1960 में
उत्तर:
(C) सन् 1955 में

22. बाबा भीमराव आंबेडकर द्वारा रचित ‘द प्रॉबल्म ऑफ़ द रुपी’ का प्रकाशन कब हुआ?
(A) सन् 1919 में
(B) सन् 1920 में
(C) सन् 1922 में
(D) सन् 1923 में
उत्तर:
(D) सन् 1923 में

23. ‘द राइज़ एंड फॉल ऑफ द हिंदू वीमैन’ कब प्रकाशित हुई?
(A) सन् 1965 में
(B) सन् 1960 में
(C) सन् 1921 में
(D) सन् 1930 में
उत्तर:
(A) सन् 1965 में

24. ‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ कब प्रकाशित हुई?
(A) सन् 1930 में
(B) सन् 1936 में
(C) सन् 1920 में
(D) सन् 1940 में
उत्तर:
(B) सन् 1936 में

25. डॉ. आंबेडकर द्वारा रचित ‘लेबर एंड पार्लियामेंट्री डैमोक्रेसी’ किस वर्ष प्रकाशित हुई?
(A) सन् 1941 में
(B) सन् 1942 में
(C) सन् 1943 में
(D) सन् 1950 में
उत्तर:
(C) सन् 1943 में

26. सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान को लेखक ने क्या कहा है?
(A) स्वतंत्रता
(B) तानाशाही
(C) दासता
(D) लोकतंत्र
उत्तर:
(D) लोकतंत्र

27. जाति-प्रथा व्यक्ति को जीवन भर के लिए किससे बाँध देती है?
(A) एक ही व्यवसाय से
(B) अनेक व्यवसायों से
(C) व्यवसाय बदलने से
(D) व्यवसाय छोड़ने से
उत्तर:
(A) एक ही व्यवसाय से

28. लेखक ने भारतीय समाज में बेरोज़गारी और भुखमरी का क्या कारण बताया है?
(A) गरीबी
(B) पूँजीवाद
(C) जाति-प्रथा
(D) सांप्रदायिकता
उत्तर:
(C) जाति-प्रथा

29. आंबेडकर ने दूध और पानी के मिश्रण की तुलना किससे की है?
(A) स्वतंत्रता से
(B) समता से
(C) भाईचारे से
(D) सम्पन्नता से
उत्तर:
(C) भाईचारे से

30. लेखक ने काल्पनिक जगत की वस्तु किसे कहा है?
(A) राजनीति को
(B) सिद्धांत को
(C) समता को
(D) जातिवाद को
उत्तर:
(C) समता को

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31. लेखक के अनुसार हिन्दू धर्म की जाति-प्रथा व्यक्ति को कौन-सा पेशा चुनने की अनुमति देती है?
(A) पैतृक पेशा
(B) स्वतंत्र पेशा
(C) कर्मानुसार
(D) कार्य-कुशलता के अनुसार
उत्तर:
(A) पैतृक पेशा

32. कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए मजबूर करना क्या कहलाता है?
(A) स्वतंत्रता
(B) आज्ञा पालन
(C) दासता
(D) गरीबी
उत्तर:
(C) दासता

33. कौन-सा धर्म व्यक्ति को जाति-प्रथा के अनुसार पैतृक-काम अपनाने को मजबूर करता है?
(A) हिन्दू
(B) मुस्लिम
(C) सिक्ख
(D) ईसाई
उत्तर:
(A) हिन्दू

34. स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित समाज को आंबेडकर ने कैसा समाज कहा है?
(A) अच्छा
(B) महत्त्वपूर्ण
(C) आदर्श
(D) स्वीकार्य
उत्तर:
(C) आदर्श

35. लेखक के अनुसार इस युग में किसके पोषकों की कमी नहीं है?
(A) श्रमवाद
(B) जातिवाद
(C) धर्मवाद
(D) राजनीति
उत्तर:
(B) जातिवाद

36. माता-पिता के आधार पर श्रम विभाजन करना किसकी देन है?
(A) धर्म की
(B) समाज की
(C) जाति-प्रथा की
(D) बेरोज़गारी की
उत्तर:
(C) जाति-प्रथा की

37. आदर्श समाज की विशेषता है
(A) विघटन
(B) अलगाव
(C) गतिशीलता
(D) विद्वेष
उत्तर:
(C) गतिशीलता

38. इस युग में ‘जातिवाद’ क्या है ?
(A) गुण
(B) विडम्बना
(C) श्रेष्ठ व्यवस्था
(D) ईश-विधान
उत्तर:
(B) विडम्बना

39. बाबा साहेब आंबेडकर ने किस प्रकार के समाज की कल्पना की है?
(A) स्वतंत्र समाज की
(B) समान समाज की
(C) आदर्श समाज की
(D) गतिशील समाज की
उत्तर:
(C) आदर्श समाज की

HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज

40. लेखक ने भाईचारे के वास्तविक रूप को किसके मिश्रण की भाँति बताया है?
(A) आटा-नमक
(B) दूध-पानी
(C) दूध-घी
(D) घी-शक्कर
उत्तर:
(B) दूध-पानी

41. लेखक के अनुसार दासता का संबंध किससे नहीं है?
(A) समाज से
(B) कानून से
(C) शिक्षा से
(D) धन से
उत्तर:
(B) कानून से

42. किस क्रांति में ‘समता’ शब्द का नारा लगाया गया था?
(A) रूसी क्रांति में
(B) फ्रांसीसी क्रांति में
(C) जर्मन क्रांति में
(D) जापानी क्रांति में
उत्तर:
(B) फ्रांसीसी क्रांति में

43. बाबा साहेब के अनुसार किसके आधार पर समानता अनुचित है?
(A) वंश-परंपरा और सामाजिक प्रतिष्ठा के
(B) रोज़गार और धन के
(C) जाति और धर्म के
(D) धर्म और शिक्षा के
उत्तर:
(A) वंश-परंपरा और सामाजिक प्रतिष्ठा के

44. जाति-प्रथा के पोषक लोग किन जातियों से संबंधित हैं?
(A) छोटी जातियों से
(B) उच्च जातियों से
(C) राजनेताओं से
(D) धार्मिक नेताओं से
उत्तर:
(B) उच्च जातियों से

45. आर्थिक विकास के लिए जाति-प्रथा का परिणाम कैसा है?
(A) हानिकारक
(B) लाभकारी
(C) उपयोगी
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) हानिकारक

46. श्रम के परंपरागत तरीकों में किस कारण से परिवर्तन हो रहा है?
(A) शिक्षा के कारण
(B) गरीबी के कारण
(C) बेरोज़गारी के कारण
(D) आधुनिक तकनीक के कारण
उत्तर:
(D) आधुनिक तकनीक के कारण

47. पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में किसका प्रमुख एवं प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है?
(A) मजदूरी का
(B) बेरोजगारी का
(C) असमानता का
(D) छुआछूत का
उत्तर:
(B) बेरोजगारी का

48. आधुनिक युग में विडम्बना की बात क्या है?
(A) साम्यवाद
(B) जातिवाद
(C) अद्वैतवाद
(D) प्रयोगवाद
उत्तर:
(B) जातिवाद

49. लेखक के अनुसार किस पहलू से जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है?
(A) राजनैतिक
(B) धार्मिक
(C) सामाजिक
(D) आर्थिक
उत्तर:
(D) आर्थिक

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50. जाति-प्रथा मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा-रुचि व आत्म-शक्ति को दबाकर उसे क्या बना देती है?
(A) निष्क्रिय
(B) सक्रिय
(C) कर्मशील
(D) गतिशील
उत्तर:
(A) निष्क्रिय

51. आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिए किसे आवश्यक मानता है?
(A) जाति-प्रथा
(B) शिक्षा
(C) श्रम-विभाजन
(D) प्रोत्साहन
उत्तर:
(C) श्रम-विभाजन

52. फ्रांसीसी क्रांति के नारे में कौन-सा शब्द विवाद का विषय रहा है?
(A) राजतंत्र
(B) समता
(C) स्वतंत्रता
(D) श्रम-विभाजन
उत्तर:
(B) समता

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

[1] यह विडंबना की ही बात है, कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज ‘कार्य-कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है, कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंत किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता [पृष्ठ-153]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ में से उद्धृत है। इसके लेखक,भारतीय संविधान के निर्माता ० भीमराव आंबेडकर हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता तथा बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। इस गद्यांश में लेखक यह कहना चाहता है कि जाति-प्रथा को श्रम विभाजन से जोड़कर नहीं देखना चाहिए।

व्याख्या-लेखक का कथन है कि हमारे लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आधुनिक युग में लोग जातिवाद का समर्थन करते हैं। जातिवाद का समर्थन करने वाले इसके लिए अनेक आधारों को खोजने की कोशिश करते हैं। उनके द्वारा जातिवाद का समर्थन करने का एक आधार यह बताया जाता है कि आज हमारा समाज सभ्य हो चुका है और कार्य-कुशलता के लिए श्रम का विभाजन नितांत आवश्यक है। जहाँ तक जाति-प्रथा का प्रश्न है यह श्रम विभाजन का ही एक अन्य रूप है। अतः जाति-प्रथा में कोई बुराई नज़र नहीं आती। भाव यह है कि जाति-प्रथा का समर्थन करने वाले लोग जाति-प्रथा को श्रम विभाजन से जोड़ने का प्रयास करते हैं। परंतु लेखक ने उनके इस मत के बारे में अनेक विपत्तियाँ उठाई हैं।

उनका कहना है कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का रूप ले चुकी है। जहाँ तक श्रम विभाजन का प्रश्न है यह सभ्य समाज के लिए नितांत आवश्यक है परंतु संसार के किसी भी सभ्य समाज में श्रम के विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों के भिन्न-भिन्न वर्गों में बनावटी विभाजन नहीं करती। हमारे लिए दुःख की बात है कि जाति-प्रथा को हम श्रम विभाजन का आधार मान चुके हैं। यह समाज के लिए घातक है। भारत में प्रचलित जाति-प्रथा की एक अन्य विशेषता यह है कि यह न केवल श्रमिकों का अस्वाभाविक रूप से विभाजन करती है, बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे के मुकाबले में ऊँचा और नीचा घोषित कर देती है। परंतु ऊँच-नीच की यह प्रथा संसार के किसी भी समाज में प्रचलित नहीं है। केवल हमारे देश में ही श्रमिकों को विभिन्न वर्गों में बाँटकर ऊँच-नीच की खाई पैदा कर दी जाती है।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि हमारे देश में जाति-प्रथा को ही श्रम विभाजन का आधार माना गया है जो कि सर्वथा अनुचित है।
  2. सहज, सरल तथा साहित्यिक हिंदी भाषा का सफल प्रयोग हुआ है।
  3. वाक्य-विन्यास सर्वथा उचित व भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
  4. गंभीर विवेचनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) पाठ तथा लेखक का नाम लिखिए।
(ख) लेखक ने किस बात को विडंबना कहा है?
(ग) किस कारण से लोग जातिवाद का समर्थन करते हैं?
(घ) श्रम विभाजन का क्या अर्थ है?
(ङ) क्या जाति-प्रथा एक बुराई है?
(च) भारत में ऐसी कौन-सी व्यवस्था है जो दूसरे देशों से अलग है?
उत्तर:
(क) पाठ का नाम–‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’, लेखक का नाम-बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ।

(ख) लेखक ने इस बात को विडंबना कहा है कि आज के वैज्ञानिक युग में हमारे देश में जातिवाद का समर्थन करने वालों की कमी नहीं है। वे लोग कार्य-कुशलता के लिए जाति-प्रथा को आवश्यक मानते हैं।

(ग) लोगों का विचार है कि कार्य-कुशलता के लिए जातिवाद आवश्यक है। उनका कहना है कि जातियाँ कर्म के आधार पर बनाई गई हैं और ये कर्म का विभाजन करती हैं। अतः श्रम विभाजन के लिए जाति-प्रथा आवश्यक है।

(घ) श्रम विभाजन का अर्थ है-मानव के लिए उपयोगी कामों का वर्गीकरण करना अर्थात प्रत्येक काम को कशलता से करने के लिए काम-धंधों का विभाजन करना । जैसे कोई खेती करता है, मजदूरी करता है, कोई फैक्ट्री चलाता है, कोई चिकित्सा करता है।

(ङ) निश्चय ही जाति-प्रथा एक बुराई है क्योंकि यह श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिकों का भी विभाजन करती है। जाति-प्रथा मानव को जन्म से ही किसी व्यवसाय से जोड़ देती है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि मानव अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार काम नहीं कर पाता। यह इसलिए भी बुराई है क्योंकि इससे समाज में ऊँच-नीच का भेद-भाव उत्पन्न हो जाता है।

(च) जन्म के आधार पर काम-धंधा तय करना, केवल भारत में ही प्रचलित है। यह व्यवस्था ऊँच-नीच को जन्म देती है। भारत के अतिरिक्त यह पूरे संसार में कहीं भी प्रचलित नहीं है।

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[2] जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व एकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है। [पृष्ठ-153-154]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ से उद्धृत है। इसके लेखक डॉ० भीमराव आंबेडकर हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता तथा बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। यहाँ लेखक स्पष्ट करता है कि जाति-प्रथा मानव को जीवन भर के लिए एक ही पेशे से बाँध देती है।

व्याख्या-लेखक का कथन है कि जाति-प्रथा मनुष्य के पेशे का दोषपूर्ण निर्धारण पहले से ही निश्चित कर देती है और वह आजीवन उस पेशे से बँध जाता है। भले ही वह पेशा उसके लिए उचित न हो, पर्याप्त न हो। यह भी संभव है कि वह व्यक्ति उस पेशे के कारण भूखा मर जाए। आज के युग में यह स्थिति अकसर देखी जाती है। कारण यह है कि देश में उद्योग-धंधों और तकनीक का या तो लगातार विकास होता रहता है अथवा कभी उसमें अचानक बदलाव आ जाता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य को मजबूर होकर अपना पेशा बदलना पड़ता है। इसके विपरीत हालातों में भी मनुष्य को अपना व्यवसाय बदलने की आज़ादी न हो तो उसके पास भूखा मरने की बजाय कोई अन्य रास्ता नहीं रह जाता। हिंदू धर्म में जाति-प्रथा का बोल-बाला है। किसी भी आदमी को ऐसा पेशा चुनने की आजादी नहीं दी जाती जो उसे पिता से प्राप्त न हुआ हो। भले ही वह उस पेशे में कितना भी प्रवीण क्यों न हो फिर भी वह उस पेशे को नहीं अपना सकता। जब जाति-प्रथा व्यक्ति को पेशा बदलने की आज्ञा नहीं देती तो भारत में बेरोजगारी तो बढ़ेगी ही। अतः जाति-प्रथा भारत में बढ़ती बेरोज़गारी का एक प्रमुख कारण है।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने जाति-प्रथा की आलोचना इसलिए की है क्योंकि वह व्यक्ति को एक पेशे से बाँध देती है।
  2. जाति-प्रथा बेरोज़गारी फैलाने का एक प्रमुख कारण है।
  3. सहज, सरल तथा साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है।
  4. वाक्य-विन्यास सार्थक व भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
  5. विवेचनात्मक शैली का सफल प्रयोग हुआ है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) जाति-प्रथा में लेखक को क्या दोष दिखाई देता है?
(ख) मानव को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता कब और क्यों पड़ती है?
(ग) पेशा बदलने की आज़ादी न मिलने के क्या परिणाम होते हैं?
(घ) कौन-सा धर्म मनुष्य को पैतृक पेशे के अतिरिक्त अन्य किसी पेशे को चुनने की आज़ादी नहीं देता?
(ङ) जाति-प्रथा बेरोजगारी का प्रमुख कारण कैसे है?
उत्तर:
(क) जाति-प्रथा में लेखक को अनेक दोष दिखाई देते हैं। पहली बात यह है कि जाति-प्रथा जन्म से मनुष्य के पेशे को निर्धारित कर देती है और वह जीवन-भर उस पेशे से बँध जाता है। यदि पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त हो तो मनुष्य भूखा भी मर सकता है।

(ख) जब उद्योग-धंधों की प्रक्रिया या तकनीक में अचानक परिवर्तन आ जाए या उसका विकास अवरुद्ध हो जाए तो मनुष्य को अपना पेशा बदलना पड़ सकता है।

(ग) यदि मनुष्य को पेशा बदलने की आज़ादी न हो और उसके पेशे की माँग में कमी आ जाए तो उसे भूखा मरना पड़ सकता है।

(घ) हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी मनुष्य को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती जो उसका पैतृक पेशा न हो। यह व्यवस्था सर्वथा अनुचित है।

(ङ) भारत में जाति-प्रथा मनुष्य को पेशा परिवर्तन की अनुमति नहीं देती। अतः यह जाति-प्रथा बेरोज़गारी को बढ़ावा देती है और यह बेरोज़गारी का प्रमुख कारण भी है।

[3] श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति-प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता। ‘पूर्व लेख’ ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग ‘निर्धारित’ कार्य को ‘अरुचि’ के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। [पृष्ठ-154]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ में से अवतरित है। इसके लेखक भारतीय संविधान के निर्माता डॉ० भीमराव आंबेडकर हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता तथा बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। यहाँ लेखक स्पष्ट करता है कि श्रम विभाजन की दृष्टि से जाति-प्रथा में अनेक दोष देखे जा सकते हैं क्योंकि जाति-प्रथा के द्वारा बनाया गया श्रम विभाजन मनुष्य की इच्छा व रुचि को नहीं देखता।

व्याख्या-लेखक पुनः कहता है कि जहाँ तक श्रम विभाजन का प्रश्न है, इसकी दृष्टि से भी जाति-प्रथा में अनेक गंभीर दोष देखे जा सकते हैं। जाति-प्रथा जो श्रम का विभाजन करती है, उसमें मनुष्य की इच्छा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। मनुष्य के अपने निजी विचार क्या हैं; उसकी अपनी रुचि किस काम में है? इसके बारे में जाति-प्रथा में किया गया श्रम विभाजन कुछ नहीं करता। भाव यह है कि मनुष्य की व्यक्तिगत भावनाओं और रुचियों को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता, बल्कि जाति-प्रथा पूर्व जन्म य में लिखे हए को अधिक महत्त्व देती है। लेखक पनः कहता है कि आज हमारे देश में उद्योगों में गरीबी और शोषण इतनी गंभीर समस्या नहीं है जितनी कि अनेक लोगों को मजबूर होकर ऐसे काम करने पड़ते हैं जिनमें उनकी रुचि नहीं है और ये काम समाज द्वारा निर्धारित किए जाते हैं।

इन हालातों में मनुष्य में बुरी भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। वह या तो टाल-मटोल करता है या बहुत कम काम,करता है। इन हालातों में काम करने वालों का न तो उस काम में दिल लगता है और न ही वे दिमाग लगाकर काम करते हैं। अतः वे अपने काम में प्रवीणता प्राप्त नहीं कर सकते। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि जाति-प्रथा आर्थिक दृष्टि से समाज के लिए घातक है। कारण यह है कि जाति-प्रथा मनुष्य की स्वाभाविक बढ़ावा देने वाली रुचि और अंदर की शक्ति को दबा देती है और मानव अस्वाभाविक नियमों में बँध जाता है और वह बेकार हो जाता है। अतः जाति-प्रथा समाज के लिए सबसे बड़ी हानिकारक प्रथा है।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने श्रम विभाजन की दृष्टि से जाति-प्रथा को दोषयुक्त घोषित किया है। क्योंकि जाति-प्रथा मनुष्य की व्यक्तिगत भावना और व्यक्तिगत रुचि को कोई महत्त्व नहीं देती।
  2. सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है।
  3. वाक्य-विन्यास सार्थक व भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
  4. गंभीर विवेचनात्मक शैली का सफल प्रयोग हुआ है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) लेखक ने श्रम विभाजन की दृष्टि से जाति-प्रथा को दोषपूर्ण क्यों माना है?
(ख) पूर्व लेख के आधार पर श्रम विभाजन का तात्पर्य क्या है?
(ग) लेखक के अनुसार श्रम के क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या कौन-सी है?
(घ) कार्य निर्धारित होने के दुष्परिणाम क्या हैं?
(ङ) कार्य-कुशलता कैसे बढ़ायी जा सकती है?
(च) क्या आर्थिक दृष्टि से जाति-प्रथा हानिकारक है?
उत्तर:
(क) श्रम विभाजन की दृष्टि से जाति-प्रथा निश्चय से दोषपूर्ण है। पहली बात तो यह है कि मनुष्य की इच्छा और रुचि को न देखकर पूर्व लेख के आधार पर उसके पेशे को निर्धारित करती है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि मनुष्य इस काम में कोई रुचि नहीं लेता और काम को अनावश्यक बोझ समझता है।

(ख) पूर्व लेख के आधार पर श्रम विभाजन का अभिप्राय है कि जन्म के आधार पर मनुष्य के पेशे का निर्णय करना अर्थात् यह सोचना कि मनुष्य को पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ही प्रतिफल मिलना चाहिए।

(ग) श्रम के क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोगों को अपनी इच्छा व रुचि के अनुसार काम नहीं दिया जाता। उन्हें मजबूर होकर वह काम करना पड़ता है जो वे नहीं करना चाहते। इससे काम की उत्पादक शक्ति घट जाती है।

(घ) कार्य निर्धारित होने का सबसे बुरा परिणाम यह होता है कि श्रमिक काम में रुचि नहीं लेता। वह काम को बोझ समझता है इसलिए काम के प्रति उसके मन में दुर्भावना उत्पन्न हो जाती है। वह टाल-मटोल की नीति को अपनाता है तथा दिल-दिमाग से उस काम को नहीं करता।

(ङ) कार्य-कुशलता को बढ़ाने के लिए यह जरूरी है कि प्रत्येक मनुष्य को उसकी रुचि के अनुसार काम दिया जाए बल्कि उसे अपनी इच्छा से व्यवसाय ढूँढने का मौका दिया जाए।

(च) आर्थिक दृष्टि से जाति-प्रथा अत्यधिक हानिकारक है। इस प्रथा के फलस्वरूप लोगों को पैतृक काम-धंधा करना पड़ता है जिसमें उनकी रुचि नहीं होती। वे दिल और दिमाग से उस काम को नहीं करते, जिससे न तो कार्य में कुशलता आ सकती है और न ही उत्पादकता बढ़ सकती है।

[4] मेरा आदर्श-समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा। क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृता अर्थात भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? किसी भी आदर्श-समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह है कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है। क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इनमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो। [पृष्ठ-154-155]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ में से उद्धृत है। इसके लेखक भारतीय संविधान के निर्माता डॉ० भीमराव आंबेडकर हैं। इस लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता तथा बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। इस गद्यांश में लेखक ने आदर्श समाज की चर्चा की है।

व्याख्या-लेखक कहता है कि मेरा आदर्श समाज ऐसा होगा जिसमें स्वतंत्रता, समानता और आपसी भाई-चारा होगा। लेखक का विचार है कि भाई-चारे में किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यह कुछ सीमा तक उचित भी है। आदर्श समाज में इतनी अधिक गतिशीलता होनी चाहिए ताकि उसमें आवश्यक परिवर्तन समाज के एक किनारे से दूसरे किनारे तक व्याप्त हो सके अर्थात् गतिशीलता से ही समाज में परिवर्तन आता है। इस प्रकार के आदर्श समाज के अनेक प्रकार के लाभों में सबको योगदान देना चाहिए। सभी को उन लाभों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में बिना किसी बाधा के आपसी संबंध होने चाहिएँ।

इसके लिए सभी को साधन और अवसर प्राप्त होने चाहिएँ। भाव यह है कि भाईचारा दूध और पानी की तरह होना चाहिए। सच्चा भाईचारा ऐसा ही होता है। इसे हम लोकतंत्र भी कहते हैं। लेखक का कहना है कि लोकतंत्र शासन की एक व्यवस्था नहीं है, बल्कि लोकतंत्र सामाजिक जीवन जीने की एक पद्धति है और समाज के सभी अनुभवों के आदान-प्रदान का तरीका है। परंतु इसमें यह भी जरूरी है कि इसमें लोगों की अपने मित्रों के प्रति श्रद्धा और आदर की भावना भी उत्पन्न हो। नहीं तो भाईचारा सफल नहीं हो पाएगा और न ही लोकतंत्र।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने आदर्श समाज की व्याख्या करते हुए भाईचारे की भावना को विकसित करने पर बल दिया है।
  2. लेखक ने लोकतंत्र पर समुचित प्रकाश डाला है।
  3. सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है।
  4. वाक्य-विन्यास सार्थक व भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
  5. गंभीर विवेचनात्मक शैली का सफल प्रयोग किया गया है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) लेखक ने किस समाज को आदर्श समाज माना है?
(ख) लेखक ने समाज में किस प्रकार के भाईचारे का समर्थन किया है?
(ग) लेखक ने लोकतंत्र की क्या परिभाषा बताई है?
(घ) समाज में किस प्रकार की गतिशीलता की बात की गई है?
(ङ) गतिशीलता, अबाध संपर्क तथा दूध-पानी के मिश्रण में कौन-सी समानता है?
उत्तर:
(क) लेखक ने उस समाज को आदर्श माना है जिसमें स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा हो। उसमें इस प्रकार की गतिशीलता होनी चाहिए कि सभी आवश्यक परिवर्तन संपूर्ण समाज में व्याप्त हो जाएँ।

(ख) लेखक समाज में इस प्रकार का भाईचारा चाहता है जिसमें लोगों के बीच बिना बाधा के संपर्क हो। उस भाईचारे में न तो कोई बंधन हो, न जड़ता और न ही रूढ़िवादिता, बल्कि गतिशीलता होनी चाहिए। जैसे दूध और पानी मिलकर एक हो जाते हैं वैसे लोगों को मिलकर एक हो जाना चाहिए।

(ग) लेखक भाईचारे का दूसरा नाम लोकतंत्र को मानता है। उसका विचार है कि लोकतंत्र केवल शासन पद्धति नहीं है, बल्कि सामूहिक जीवन जीने का ढंग है। सच्चा लोकतंत्र वही है जिसमें लोग परस्पर अनुभवों का आदान-प्रदान करते हैं और दूसरे का उचित सम्मान करते हैं।

(घ) लेखक ने समाज में गतिशीलता का मत यह लिया है कि लोगों में परस्पर निर्बाध संपर्क हो, सहभागिता हो और सबकी रक्षा करने की जागरूकता हो। लोग दूध-पानी के समान मिले हुए हों और एक-दूसरे के प्रति श्रद्धा तथा सम्मान का भाव रखते हों।

(ङ) गतिशीलता, अबाध संपर्क तथा दूध-पानी के मिश्रण में सबसे बड़ी समानता यह है कि लोगों में उदारतापूर्वक मेल-मिलाप हो। जिस प्रकार दूध और पानी मिलकर एक हो जाते हैं उसी प्रकार लोग जाति-पाँति के बंधनों को त्यागकर गतिशील रहते हुए परस्पर संपर्क करें और एक-दूसरे का सम्मान करें।

HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज

[5] जाति-प्रथा के पोषक, जीवन, शारीरिक-सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मनुष्य के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता का अर्थ होगा अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है, तो उसका अर्थ उसे ‘दासता’ में जकड़कर रखना होगा, क्योंकि ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। ‘दासता’ में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है। उदाहरणार्थ, जाति-प्रथा की तरह ऐसे वर्ग होना संभव है, जहाँ कुछ लोगों की अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं। [पृष्ठ-155]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ में से अवतरित है। इसके लेखक भारतीय संविधान के निर्माता डॉ० भीमराव आंबेडकर हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता, बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। यहाँ लेखक कहता है कि जाति-प्रथा के पोषक जीवन, शारीरिक सुरक्षा और संपत्ति के अधिकार को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मानव की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करेंगे।

व्याख्या-लेखक का कथन है कि जो लोग जाति-प्रथा का समर्थन करते हैं, वे जीवन की शारीरिक-सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को तो प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लेंगे। इस प्रवृत्ति के प्रति उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी, लेकिन मानव के समर्थ तथा प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए वे आसानी से तैयार नहीं होंगे अर्थात् जाति-प्रथा के पोषक यह कदापि नहीं मानेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति को मानव समझकर उसे स्वतंत्रता का प्रभावशाली प्रयोग करने दिया जाए। कारण यह है कि इस प्रकार की स्वतंत्रता का मतलब यह है कि अपना व्यवसाय चुनने की आजादी किसी को नहीं है, बल्कि इसका मतलब है समाज के छोटे वर्ग को गुलामी में जकड़कर रखना।

लेखक का कथन है कि केवल कानूनी पराधीनता को दासता नहीं कहा जा सकता । दासता में वो स्थिति भी शामिल है जिसमें कुछ लोगों को अन्य लोगों के द्वारा निश्चित किए गए व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। भाव यह है कि समाज का उच्च वर्ग निम्न वर्ग के लिए व्यवहार को निर्धारित करने और कुछ कार्यों का पालन करने के लिए मजबूर करे तो यह भी दासता ही कही जाएगी। समाज में इस प्रकार की स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी समाज में उपलब्ध हो सकती है।।

उदाहरण के रूप में जाति-प्रथा के समाज में लोगों का ऐसा वर्ग भी हो सकता है जिन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे को अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने दासता अर्थात गुलामी की विभिन्न स्थितियों का गंभीर विवेचन किया है और जाति-प्रथा का खंडन – किया है।
  2. सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है।
  3. वाक्य-विन्यास सार्थक व भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
  4. गंभीर विवेचनात्मक शैली का सफल प्रयोग हुआ है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) जाति-प्रथा का पोषण करने वाले क्या स्वीकार करते हैं और क्या अस्वीकार करते हैं?
(ख) दासता का क्या अर्थ है?
(ग) कानूनी पराधीनता न होने पर भी लोगों को इच्छा के विरुद्ध पेशे क्यों अपनाने पड़ते हैं?
(घ) जाति-प्रथा का पोषण करने वाले लोग किस स्वतंत्रता का विरोध करते हैं और क्यों?
उत्तर:
(क) जाति-प्रथा का पोषण करने वाले लोग शारीरिक सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को तो स्वीकार कर लेते हैं, परंतु मनुष्य के सक्षम और प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करते।

(ख) कुछ लोगों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए मजबूर करना ही दासता कहलाता है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि जाति-प्रथा के आधार पर जो कर्त्तव्य लोगों के निर्धारित किए जाते हैं वे दासता के ही लक्षण हैं।

(ग) जाति-प्रथा के कारण समाज में कुछ ऐसे वर्ग भी हैं जिन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं, परंतु यह कानूनी पराधीनता न होकर भी सामाजिक पराधीनता तो अवश्य है। उदाहरण के रूप में सफाई कर्मचारियों को सफाई का काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। उन्हें कोई और काम नहीं दिया जाता।

(घ) जाति-प्रथा का पोषण करने वाले लोग मानव को पेशा (व्यवसाय) चुनने की स्वतंत्रता देने के विरुद्ध हैं। विशेषकर उच्च जाति के लोग इसका निरंतर विरोध करते रहते हैं। वे स्वयं तो ऊँचे कार्य करना चाहते हैं और समाज में श्रेष्ठ कहलाना चाहते हैं, परंतु छोटी जातियों को ऊपर उठने का अवसर प्रदान नहीं करते।

[6] ‘समता’ का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता। इसका और भी आधार उपलब्ध है। एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो, ‘मानवता’ के दृष्टिकोण से समाज दो वर्गों व श्रेणियों में नहीं बाँटा जा सकता। ऐसी स्थिति में, राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है, कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। राजनीतिज्ञ यह व्यवहार इसलिए नहीं करता कि सब लोग समान होते, बल्कि इसलिए कि वर्गीकरण एवं श्रेणीकरण संभव होता। [पृष्ठ-156]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ में से उद्धृत है। इसके लेखक भारतीय संविधान के निर्माता डॉ० भीमराव आंबेडकर हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जाति-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को स्वतंत्रता, समता, बंधुता से जोड़कर देखने का प्रयास किया है। यहाँ लेखक ने समता के औचित्य पर समुचित प्रकाश डाला है।

व्याख्या-लेखक का कथन है कि समता का औचित्य बहुत व्यापक है। यह यहीं पर समाप्त नहीं हो जाता। इसके अन्य आधार भी देखे जा सकते हैं। एक राजनेता को असंख्य लोगों से मिलना पड़ता है। अपने हलके के लोगों से मिलते समय, व्यवहार करते समय.उसके पास इतना अधिक समय नहीं होता कि वह प्रत्येक व्यक्ति के विषय की जानकारी प्राप्त करे। न ही वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं और क्षमताओं को जान सकता है और न ही सबके साथ अलग-अलग आवश्यक व्यवहार कर सकता है। यदि गहराई से देखा जाए तो लोगों की आवश्यकताओं और क्षमताओं को आधार बनाकर भिन्न-भिन्न व्यवहार करना उचित नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा करने से हम मानवता की दृष्टि से समाज को दो वर्गों तथा श्रेणियों में विभक्त कर देंगे जोकि किसी भी प्रकार से सही नहीं कहा जा सकता।

ऐसी स्थिति में राजनेता को अपने व्यवहार में एक ऐसे सिद्धांत को अपनाना होता है जो सबके लिए उपयोगी और व्यवहार्य हो और वह सिद्धांत यही है कि एक क्षेत्र के सभी लोगों के साथ एक-सा व्यवहार किया जाए। राजनेता यह व्यवहार इसलिए नहीं करता कि सभी लोग समान होते हैं, बल्कि इसलिए करता है कि उसके लिए लोगों का वर्गीकरण तथा श्रेणीकरण संभव होता है। लेखक के कहने का भाव यह है कि राजनेता को अपने सभी मतदाताओं के साथ एक-सा व्यवहार करना चाहिए, उसे किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने समता के औचित्य पर विशेष बल दिया है।
  2. लेखक ने सिद्धांत और व्यवहार को व्यवहार्य कहा है।
  3. सहज, सरल एवं साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग हुआ है।
  4. वाक्य-विन्यास सर्वथा उचित तथा भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
  5. गंभीर विवेचनात्मक शैली का सफल प्रयोग हुआ है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) समता के कौन-से औचित्य पर बल दिया गया है?
(ख) राजनीतिज्ञ को सबके साथ समान व्यवहार क्यों करना पड़ता है?
(ग) लेखक ने किस सिद्धांत और व्यवहार को व्यवहार्य कहा है?
(घ) राजनीतिज्ञ सब मनुष्यों के साथ एक समान व्यवहार क्यों नहीं कर पाता?
उत्तर:
(क) समता के औचित्य पर बल देने से लेखक का अभिप्राय यह है कि असंख्य लोगों की अलग-अलग आवश्यकताओं को जानकर उनके साथ अलग-अलग व्यवहार नहीं किया जा सकता। अतः मनुष्य को सबके साथ एक-समान व्यवहार करना चाहिए।

(ख) राजनीतिज्ञ को सबके साथ इसलिए समान व्यवहार करना पड़ता है क्योंकि उसका संपर्क असंख्य लोगों के साथ होता है। उसके लिए सबकी क्षमताओं और आवश्यकताओं को जान पाना संभव नहीं है। इसलिए उसे मजबूर होकर सबके साथ एक-जैसा व्यवहार करना पड़ता है।

(ग) सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार को ही लेखक ने व्यवहार्य कहा है क्योंकि इस सिद्धांत के द्वारा वह सबके साथ एक जैसा व्यवहार कर सकता है।

(घ) राजनीतिज्ञ सबके साथ एक-समान व्यवहार इसलिए नहीं कर पाता क्योंकि सभी लोग समान नहीं होते, बल्कि उनमें वर्गीकरण और श्रेणीकरण की संभावना बनी रहती है।

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज Summary in Hindi

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज लेखिका-परिचय

प्रश्न-
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का साहित्यिक परिचय दीजिए।
उत्तर:
1. जीवन-परिचय-डॉ० भीमराव का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्यप्रदेश के महू ज़िले में हुआ। आरंभिक शिक्षा उन्होंने भारत में प्राप्त की। क्योंकि उनका जन्म एक गरीब अस्पृश्य परिवार में हुआ था, इसलिए उन्हें आजीवन हिंदू धर्म की वर्ण-व्यवस्था तथा भारतीय समाज की जाति व्यवस्था के विरुद्ध लंबा संघर्ष करना पड़ा। बड़ौदा नरेश के प्रोत्साहन पर वे पहले उच्चतर शिक्षा के लिए न्यूयार्क गए। बाद में लंदन चले गए। उन्होंने वैदिक साहित्य को अनुवाद के माध्यम से पढ़ा और सामाजिक क्षेत्र में मौलिक कार्य किया। परिणामस्वरूप वे एक इतिहास-मीमांसक, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षाविद् तथा धर्म-दर्शन के व्याख्याता बनकर उभरे। कुछ समय तक उन्होंने अपने देश में वकालत की और अछूतों, स्त्रियों तथा मजदूरों को मानवीय अधिकार तथा सम्मान दिलाने के लिए लंबा संघर्ष किया। स्वयं दलित होने के कारण उन्हें सामाजिक समता पाने के लिए भी लंबा संघर्ष करना पड़ा। भारत लौटकर उन्होंने कुछ पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया। आंबेडकर ने कानून की उपाधि प्राप्त करने के साथ ही विधि, अर्थशास्त्र व राजनीति विज्ञान में अपने अध्ययन और अनुसंधान के कारण कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इक्नॉमिक्स से अनेक डिग्रियाँ भी प्राप्त की।

डॉ० आंबेडकर ने अपने चिंतन तथा रचनात्मकता के लिए बुद्ध एवं कबीर से प्रेरणा प्राप्त की। जातिवाद से संघर्ष करते हुए उनका हिंदू समाज से मोह-भंग हो गया। अतः 14 अक्तूबर, 1956 को अपने पाँच लाख अनुयायियों के साथ वे बौद्ध धर्म के मतानुयायी बन गए। वे भारतीय संविधान के निर्माता थे। यही कारण है कि उनको ‘भारत रत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। 6 दिसंबर, 1956 को दिल्ली में इस महान समाजशास्त्री का देहांत हो गया।

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2. प्रमुख रचनाएँ-‘दें कास्ट्स इन इंडिया’, ‘देयर मेकेनिज्म’, ‘जेनेसिस एंड डेवलपमेंट’ (1917, प्रथम प्रकाशित कृति), ‘द अनटचेबल्स’, ‘हू आर दे?’ (1948), ‘हू आर द शूद्राज़’ (1946), ‘बुद्धा एंड हिज़ धम्मा’ (1957), ‘थाट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स’ (1955), ‘द प्रॉब्लम ऑफ़ द रुपी’ (1923), ‘द एबोलुशन ऑफ़ प्रोविंशियल फायनांस इन ब्रिटिश इंडिया’ (पीएच.डी. की थीसिस, 1916), ‘द राइज़ एंड फॉल ऑफ़ द हिंदू वीमैन’ (1965), ‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ (1936), ‘लेबर एंड पार्लियामेंट्री डैमोक्रेसी’ (1943), ‘बुद्धिज्म एंड कम्युनिज्म’ (1956), (पुस्तकें व भाषण) ‘मूक नायक’, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘जनता’ (पत्रिका-संपादन), हिंदी में उनका संपूर्ण वाङ्मय भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय से बाबा साहब आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय नाम से 21 खंडों में प्रकाशित हो चुका है।

3. साहित्यिक विशेषताएँ-डॉ० भीमराव आंबेडकर लोकतंत्रीय शासन-व्यवस्था के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने अपने साहित्य के द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त जाति-प्रथा तथा छुआछूत का उन्मूलन करने का भरसक प्रयास किया। यही नहीं, उन्होंने जाति-प्रथा का विरोध करते हुए समाज में व्याप्त शोषण का भी विरोध किया। अछूतों के प्रति उनके मन में अत्यधिक सहानुभूति की भावना थी। वे आजीवन समाज के निचले तबके के लोगों के हक के लिए संघर्ष करते रहे।

महात्मा बुद्ध, संत कबीर और ज्योतिबा फुले ने उनकी विचारधारा को अत्यधिक प्रभावित किया। वस्तुतः वे इस प्रकार के लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे जिसमें न तो जाति-पाँति का भेदभाव हो और न ही कोई छोटा-बड़ा हो, बल्कि सभी समान हों। यही कारण है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में समकालीन समाज की विसंगतियों, विडंबनाओं, छुआछूत, जाति-प्रथा का यथार्थ वर्णन किया। प्रस्तुत निबंध ‘श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा’ उनकी निबंध-कला का श्रेष्ठ उदाहरण है जिसमें उन्होंने जाति-प्रथा जैसे विषय को स्वतंत्रता, समता और भाईचारे से जोड़कर देखने का प्रयास किया है।

4. भाषा-शैली-डॉ० आंबेडकर ने अंग्रेज़ी तथा हिंदी दोनों भाषाओं में उच्चकोटि के साहित्य का निर्माण किया है। जहाँ तक हिंदी भाषा का प्रश्न है उसमें उन्होंने तत्सम एवं तद्भव शब्दों के अतिरिक्त उर्दू, फारसी तथा अंग्रेज़ी के शब्दों का भी सुंदर मिश्रण किया है। उनकी भाषा सहज, सरल तथा बोधगम्य है। जहाँ कहीं वे गंभीर विषय का वर्णन करते हैं, वहाँ उनकी भाषा भी गंभीर बन जाती है। शब्द-चयन एवं वाक्य-विन्यास पूर्णतया भावानुकूल तथा प्रसंगानुकूल है। उन्होंने प्रायः विचारात्मक, वर्णनात्मक, चित्रात्मक तथा व्यंग्यात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। जहाँ कहीं वे सामाजिक विसंगतियों का खंडन करते हैं, वहाँ उनका व्यंग्य तीखा और चुभने वाला बन गया है।

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज पाठ का सार

प्रश्न-
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर द्वारा रचित ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ नामक पाठ का सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत पाठ जातिवाद के आधार पर की जाने वाली असमानता का वर्णन है। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर अनेक तर्क देकर इस जातिवाद का विरोध करते हैं। आधुनिक युग में भी अनेक लोग जातिवाद का समर्थन करते हैं। उनका कहना है कि कार्य-कुशलता के आधार पर श्रम-विभाजन जरूरी है। परंतु दुःख इस बात का है कि जातिवाद श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन भी करता है जो कि लेखक को स्वीकार्य नहीं है। किसी भी सभ्य समाज में श्रम-विभाजन तो होना चाहिए, परंतु भारत में जाति-प्रथा का प्रचलन श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन करता है और वर्गभेद के कारण लोगों को ऊँच-नीच घोषित करता है। यदि हम जाति-प्रथा को श्रम-विभाजन का कारण मान लें तो भी यह मानव की रुचि पर आधारित नहीं है। एक विकसित और सक्षम समाज को व्यक्तियों को अपनी-अपनी रुचि के अनुसार व्यवसाय चुनने के योग्य बनाना चाहिए परंतु हमारे समाज में ऐसा नहीं हो रहा। लोग आज भी जाति-प्रथा में विश्वास रखते हैं और जाति के आधार पर मनुष्य को माता-पिता के सामाजिक स्तर पर पेशा अपनाने के लिए मजबूर करते हैं जो कि गलत है।

बसे बडा दोष यह है कि यह लोगों को एक पेशे से जोड देती है। इसके कारण यदि किसी उद्योग-धंधे में तकनीकी विकास के कारण परिवर्तन हो जाता है तो लोगों को भूखा मरना पड़ता है समाज में पेशा न बदलने के कारण बेरोज़गारी की समस्या उत्पन्न होती है। जाति-प्रथा के आधार पर जो श्रम-विभाजन किया जाता है, वह स्वेच्छा पर निर्भर नहीं होता। न ही इसमें व्यक्ति की रुचि को देखा जाता है, बल्कि माता-पिता के सामाजिक स्तर और पूर्व लेख को महत्त्व दिया जाता है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि लोगों को मजबूर होकर वे काम करने पड़ते हैं जिनमें उनकी रुचि नहीं होती। ऐसे लोगों में टालू मानसिकता उत्पन्न हो जाती है। जो काम उनकी रुचि के अनुसार नहीं होता उसमें उनका दिल-दिमाग नहीं लगता। इसलिए हम कह सकते हैं कि जाति-प्रथा मनुष्य की प्रेरणा, रुचि को दबाती है और उन्हें निष्क्रिय बनाती है।

बाबा साहेब एक आदर्श समाज की कल्पना करते हैं। वे ऐसा समाज विकसित करना चाहते हैं जिसमें स्वतंत्रता, समता तथा भ्रातृभाव हो। भ्रातभाव में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हमारा समाज गतिशील होना चाहिए ताकि वांछित परिवर्तन समाज में तत्काल व्याप्त हो जाएँ। इस प्रकार के समाज में सभी लोगों का सभी कार्यों में समभाग होना चाहिए। ऐसा होने पर सब सबके प्रति सजग होंगे और सबको सामाजिक साधन और अवसर प्राप्त होंगे। लेखक का कहना है कि भाईचारा दूध और पानी की तरह मिला होना चाहिए। इसी को वे लोकतंत्र का नाम देते हैं। उनका विचार है कि लोकतंत्र शासन की पद्धति नहीं है, बल्कि सामूहिक जीवनचर्या और अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम ही लोकतंत्र है। इसमें अपने साथी मनुष्यों के प्रति सम्मान तथा श्रद्धा की भावना होनी चाहिए।

यह आदान-प्रदान जीवन और शारीरिक सुरक्षा का विरोध नहीं करता। हम संपत्ति अर्जित कर सकते हैं, आजीविका के लिए औजार बना सकते हैं तथा घर के लिए जरूरी सामान रख सकते हैं। इस अधिकार पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। दुःख इस बात का है कि मानव को सुखी बनाने के लिए प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के अधिकार के लिए सभी लोग तैयार नहीं होते। क्योंकि इसी के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता मिल जाती है। यदि यह स्वतंत्रता नहीं मिलती तो मनुष्य अभावों के कारण दास बन जाता है। दासता का संबंध कानून से नहीं है। यदि मनुष्य को दूसरों द्वारा निर्धारित व्यवहार तथा कर्तव्यों का पालन करना पड़े तो वह भी दासता कही जाएगी। जाति-प्रथा का सबसे बड़ा दोष यह है कि मनुष्य को अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशा अपनाना पड़ता है।

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फ्रांसीसी क्रांति में ‘समता’ शब्द का नारा लगाया गया था। परंतु यह शब्द काफी विवादास्पद रहा है। जो लोग समता की आलोचना करते हैं कि सभी मनुष्य एक-समान नहीं होते भले ही यह एक सच्चाई है, परंतु यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। समता भले ही असंभव सिद्धांत है, लेकिन यह एक नियामक सिद्धांत भी है। मनुष्य की क्षमता शारीरिक वंश-परंपरा, सामाजिक उत्तराधिकार तथा मनुष्य के अपने प्रयत्नों पर निर्भर है। इन तीनों दृष्टियों से मनुष्य समान नहीं होते। यदि ऐसी स्थिति है तो भी समाज को ऐसे लोगों के साथ असमान व्यवहार नहीं करना चाहिए, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता विकसित करने के लिए नए प्रयास करने चाहिएँ।

बाबा साहेब का यह भी कहना है कि वंश-परंपरा और सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर असमानता अनुचित है। यदि यह असमानता की जाएगी तो उसमें केवल सुविधाभोगी लोगों को ही लाभ पहुँचेगा। ‘प्रयत्न’ मानव के अपने वश में हैं। परंतु वंश-परंपरा और सामाजिक प्रतिष्ठा उसके हाथ में नहीं है। इसलिए वंश-परम्परा और सामाजिक उत्तराधिकार के नाम पर असमान व्यवहार करना सरासर गलत है। अन्य शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि समाज के सभी सदस्यों को अपनी-अपनी योग्यतानुसार अवसर प्राप्त होने चाहिएँ और समान अवसरों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। जहाँ तक राजनेताओं का प्रश्न है, उनका वास्ता अनेक लोगों से पड़ता है, परंत उनके पास इतना समय नहीं होता कि वे सबके बारे में जानकारी प्राप्त करें तथा आवश्यकताओं और क्षमताओं को जानें। राजनेताओं के लिए यह व्यवहार्य सिद्धांत उपयोगी है कि वे मानवता का पालन करते हुए समाज को दो वर्गों और श्रेणियों में विभाजित न करें। उन्हें सबके साथ समान व्यवहार करना चाहिए, परंतु व्यवहार में ऐसा हो नहीं पाता। राजनीतिज्ञों को सबके साथ एक-सा व्यवहार इसलिए करना चाहिए क्योंकि वर्गीकरण तथा श्रेणीकरण करने में न केवल उनकी व्यक्तिगत हानि है, बल्कि समाज की भी हानि है। भले ही समता एक काल्पनिक वस्तु है फिर भी राजनीतिज्ञ को सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए समता का पालन करना चाहिए। यह व्यावहारिक भी है और उसके व्यवहार की एकमात्र कसौटी भी है।

कठिन शब्दों के अर्थ

श्रम-विभाजन = मानवकृत कामों के लिए अलग-अलग श्रेणियाँ बनाना। विडंबना = दुर्भाग्य । पोषक = पुष्ट करने वाला। अस्वाभाविक = कृत्रिम (बनावटी)। श्रमिक = मज़दूर। समर्थन = सहमति। करार देना = घोषित करना। सक्षम = समर्थ । पेशा = धंधा। अनुपयुक्त = जो उचित नहीं है। प्रतिकूल = विपरीत। दूषित = दोषपूर्ण। प्रशिक्षण = शिक्षण देना। निर्विवाद = बिना किसी विवाद के। निजी = अपना। स्तर = श्रेणी (अवस्था)। निर्धारित करना = तय करना। निष्क्रिय = क्रियाहीन । प्रक्रिया = पद्धति। अकस्मात = अचानक। अनुमति = सहमति। पैतक = पिता से प्राप्त। प्रत्यक्ष = आँखों के समक्ष । स्वेच्छा = अपनी इच्छा से। पूर्वलेख = जन्म से पहले भाग में लिखा हुआ। उत्पीड़न = शोषण। दुर्भावना = बुरी भावना। प्रेरणा = रुचि (बढ़ावा देने वाली रुचि)। खेदजनक = दुखदायी। नीरस गाथा = उबाने वाली कथा या प्रसंग। भ्रातृता = भाईचारा। छोर = किनारा । गतिशीलता = आगे बढ़ने की प्रवृत्ति । बहुविध = अनेक प्रकार का। हित = स्वार्थ। सजग = सचेत। अबाध = बिना किसी बाधा के। पद्धति = तरीका। जीवनचर्या = जीवन जीने की पद्धति । गमनागमन = आना-जाना। स्वाधीनता = स्वतंत्रता। जीविकोपार्जन = जीवन के साधन जुटाना। समक्ष = सामने। पराधीनता = गुलामी। तथ्य = सच्चाई। नियामक सिद्धांत = दिशा देने वाला विचार। उत्तराधिकार = पूर्वजों से मिला अधिकार। ज्ञानार्जन = ज्ञान प्राप्त करना। निःसंदेह = बिना शक के। बाजी मार लेना = विजय प्राप्त करना। उत्तम = श्रेष्ठ । कुल = परिवार । ख्याति = प्रसिद्धि । पैतृक संपदा = पिता से प्राप्त संपत्ति। व्यावसायिक प्रतिष्ठा = व्यवसाय सम्बन्धी सम्मान। निष्पक्ष निर्णय = बिना पक्षपात के फैसला। तकाज़ा = आवश्यकता। व्यवहार्य = व्यावहारिक। वर्गीकरण = वर्गों में विभक्त करना। कसौटी = जाँच का आधार।

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