HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 17 शिरीष के फूल

Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 17 शिरीष के फूल Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 17 शिरीष के फूल

HBSE 12th Class Hindi शिरीष के फूल Textbook Questions and Answers

पाठ के साथ

प्रश्न 1.
लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना है?
उत्तर:
अवधूत सुख-दुख की परवाह न करते हुए हमेशा हर हाल में प्रसन्न रहता है। वह भीषण कठिनाइयों और कष्टों में भी जीवन की एकरूपता बनाए रखता है। शिरीष का वृक्ष भी उसी कालजयी अवधूत के समान है। आस-पास फैली हुई गर्मी, तप और लू में भी वह हमेशा पुष्पित और सरस रहता है। उसका पूरा शरीर फूलों से लदा हुआ बड़ा सुंदर लगता है। इसलिए लेखक ने शिरीष को अवधूत कहा है। शिरीष भी मानों अवधूत के समान मृत्यु और समय पर विजय प्राप्त करके लहलहाता रहता है। भयंकर गर्मी और लू भी उसे परास्त नहीं कर सकती। इसलिए लेखक ने उसे कालजयी कहा है।

प्रश्न 2.
हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी ज़रूरी हो जाती है प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर:
हृदय की कोमलता को बचाने के लिए कभी-कभी व्यवहार में कठोरता लाना आवश्यक हो जाता है। इस संबंध में नारियल का उदाहरण हमारे सामने है जो बाहर से कठोर होता है, परंतु अंदर से कोमल होता है। शिरीष का फूल भी अपनी सरसता को बनाए रखने के लिए बाहर से कठोर हो जाता है। यद्यपि परवर्ती कवियों ने शिरीष को देखकर यही कहा कि इसका तो सब कुछ कोमल है। परंतु इसके फल बड़े मजबूत होते हैं। नए फूल आ जाने पर भी वे अपने स्थान को नहीं छोड़ते। अतः अंदर की कोमलता को बनाए रखने के लिए कठोर व्यवहार भी जरूरी है।

प्रश्न 3.
द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रह कर रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।
उत्तर:
निश्चय से आज का जीवन अनेक कठिनाइयों से घिरा हुआ है। कदम-कदम पर कोलाहल और संघर्ष से भरी स्थितियाँ हैं, लेकिन द्विवेदी जी हमें इन स्थितियों में भी अविचलित रहकर जिजीविषु को बनाए रखने की शिक्षा देते हैं। शिरीष का वृक्ष भी भयंकर गर्मी और लू में अनासक्त योगी के समान अविचल खड़ा रहता है। अत्यंत कठिन और विषम परिस्थितियों में भी वह अपने जीने की शक्ति को बनाए रखता है। मानव-जीवन में भी संघर्ष और बाधाएँ हैं। मानव को भी शिरीष के वृक्ष के समान इन बाधाओं से हार नहीं माननी चाहिए। आज हमारे देश में चारों ओर भ्रष्टाचार, अत्याचार, मारकाट, लूटपाट और खून-खराबा फैला हुआ है। यह सब देखकर हमें निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि इन विपरीत परिस्थितियों में भी हमें स्थिर और शांत रहकर जीवन के संघर्ष का सामना करना चाहिए।

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प्रश्न 4.
हाय, वह अवधूत आज कहाँ है! ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। कैसे?
उत्तर:
अवधूत आत्मबल के प्रतीक हैं। वे शारीरिक विषय-वासनाओं को छोड़कर मन और आत्मा की साधना में लीन रहते हैं। लेखक ने कबीर, कालिदास, महात्मा गाँधी आदि को अवधूत कहा है। परंतु आज के बड़े-बड़े साधु-संन्यासी देह बल, धन बल और माया बल का संग्रह करने में लगे हुए हैं। अतः लेखक का यह कहना सर्वथा उचित है कि आज भारत में सच्चे आत्मबल वाले संन्यासी नहीं रहे। लेखक यह भी स्पष्ट करना चाहता है कि आत्मबल के स्थान पर देह बल को महत्त्व देने के कारण ही हमारे सामने सभ्यता का संकट उपस्थित हो चुका है। यही कारण है कि आज हमारे देश में सभी लोग सुविधाएँ जुटाने में लगे हुए हैं। गांधी जैसा अनासक्त योगी अब नहीं रहा। अतः देह बल को महत्त्व देने के कारण मानव जाति के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है।

प्रश्न 5.
कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय-एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य-कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाएँ।
उत्तर:
कवि अथवा साहित्यकार समाज में सर्वोपरि स्थान रखता है। उससे ऊँचे आदर्शों की अपेक्षा की जाती है। एक सच्चा कवि अनासक्त योगी तथा स्थिर प्रज्ञ होने के कारण कठोर, शुष्क और नीतिज्ञ बन जाता है। परंतु कवि के पास विदग्ध प्रेमी का हृदय भी होता है। इसलिए वह नियमों और मानदंडों को महत्त्व नहीं देता। साहित्यकारों में दोनों विपरीत गुणों का होना आवश्यक है। यह स्थिति वज्र से भी कठोर और कुसुम से भी कोमल होने जैसी है। तुलसी, सूर, वाल्मीकि, कालिदास आदि महान् कवि इसी प्रकार के थे। उन्होंने जहाँ एक ओर मर्यादाओं का समुचित पालन किया वहाँ दूसरी ओर वे मधुरता के रस में भी डूबे रहे। जो साहित्यकार इन दोनों आदर्शों का निर्वाह कर सकता है, वही महान् साहित्यकार कहलाता है।

प्रश्न 6.
सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।।
उत्तर:
काल सर्वग्राही और सर्वनाशी है। वह सबको अपना ग्रास बना लेता है। काल की मार से बचते हुए दीर्घजीवी वही व्यक्ति हो सकता है जो अपने व्यवहार में समय के अनुसार परिवर्तन लाता है। आज समय और समाज बदल चुका है। व्यक्ति को उसी के अनुसार बदलना चाहिए और गतिशील बनना चाहिए। शिरीष के वृक्ष का उदाहरण इसी तथ्य को प्रमाणित करता है। वह अग्नि, लू तथा तपन के साम्राज्य में भी स्वयं को परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेता है। यही कारण है कि वह लू और गर्मी में भी जीवन रस खोज लेता है और प्रसन्न होकर फलता-फूलता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने व्यवहार में जड़ता को त्यागकर स्थितियों ही दीर्घजीवी होकर जीवन का रस भोग सकता है। शिरीष के फूल और महात्मा गांधी दोनों ने कठोर परिस्थितियों के सामने गतिशीलता अपनाई और वे नष्ट नहीं हुए।

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प्रश्न 7.
आशय स्पष्ट कीजिए (क) दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर की आँख बचा पाएंगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे।।
(ख) जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है?…….मैं कहता हूँ कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।
(ग) फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
उत्तर:
(क) जीवन-शक्ति और काल रूपी अग्नि का सर्वत्र निरंतर संघर्ष चलता रहता है। यह संघर्ष कभी समाप्त नहीं होता। काल का प्रभाव बहुत ही व्यापक है। जो लोग अज्ञानी हैं वे यह समझते हैं कि जहाँ पर वे देर तक बने रहेंगे तो वे काल रूपी देवता की नज़र से बच जाएंगे। परंतु उनकी यह सोच गलत है। क्योंकि जो व्यक्ति एक स्थान पर स्थिर खड़ा रहता है, काल उसे डस लेता है। यदि यमराज की मार से बचना है तो मनुष्य को हिलते-डुलते रहना चाहिए। स्थान बदलते रहना चाहिए। पीछे की ओर छिपने का प्रयास मत करो, बल्कि आगे मुँह करके बढ़ते रहो, गतिशील बनो। ऐसा करने से यमराज के कोड़े की मार से बचा जा सकता है। जो व्यक्ति स्थिर बना रहता है, वह निश्चय से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। कहीं भी जमकर खड़ा होना मरने के समान है।

(ख) जो कवि अपने कवि-कर्म में लाभ-हानि, राग-द्वेष, सुख-दुख, यश-अपयश की परवाह न करके जीवन-यापन करता है, वही सच्चा कवि कहा जा सकता है। इसके विपरीत जो कवि अनासक्त नहीं रह सकता, मस्त-मौला नहीं बन सकता, बल्कि जो अपने कविता के परिणाम, लाभ-हानि के चक्कर में फँस जाता है, वह सच्चा कवि नहीं कहा जा सकता। लेखक का विचार है कि सच्चा कवि वही है जो मस्त मौला है। जिसे न तो सुख-दुःख की, न ही हानि-लाभ की और न ही यश-अपयश की चिंता है।

(ग) कोई फल या पेड़ स्वयं अपने आप में लक्ष्य नहीं है, बल्कि वह तो एक ऐसी अंगुली है जो किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए इशारा कर रही है। वह पेड़ या फल हमें यह बताने का प्रयास करता है कि उसे उत्पन्न करने वाली अथवा बनाने वाली कोई और शक्ति है। हमें उसे जानने का प्रयास करना चाहिए।

पाठ के आसपास

प्रश्न 1.
शिरीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है। ज्येष्ठ माह की प्रचंड गरमी में फूलने वाले फूल को शीतपुष्प संज्ञा किस आधार पर दी गई होगी?
उत्तर:
शिरीष एक ऐसा वृक्ष है जो ज्येष्ठ के महीने की प्रचंड गरमी में भी फलता-फूलता है। इसके फूल बड़े कोमल और सुंदर होते हैं। जेठ के महीने में सूर्य अग्नि की वर्षा करने वाली वृष राशि में प्रवेश करता है। फलस्वरूप पृथ्वी अग्नि के समान जलने लगती है। लू के थपेड़े और आँधी, झंझावात प्रकृति और मानव को कमजोर बना देते हैं, परंतु शिरीष के कोमल पुष्प इस भयंकर भी मुरझाते नहीं, बल्कि लहराते हैं। इसका कारण यह है कि वे इतने शीतल होते हैं कि गर्मी भी उन्हें छूकर शीतल हो जाती है। शायद इसी विशेषता के कारण शिरीष के वृक्ष को शीतपुष्प की संज्ञा दी गई है।

प्रश्न 2.
कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गांधी जी के व्यक्तित्व की विशेषता बन गए?
उत्तर:
महात्मा गांधी एक महान महात्मा और सज्जन व्यक्ति थे। वे व्यवहार में भले ही पत्थर के समान कठोर लगते थे, परंतु उनका हृदय पुष्प के समान कोमल था। सामान्य लोगों की पीड़ा से वे द्रवीभूत हो जाते थे। ब्रिटिश साम्राज्य के अन्याय के विरुद्ध जब वे तन कर खड़े हो गए तब ऐसा लगा मानों यह वृद्ध व्यक्ति वज्र से निर्मित है। उन्होंने कठोर बनकर ही ब्रिटिश साम्राज्य के अन्याय और अत्याचार का विरोध किया। परंतु देश के लिए उनका हृदय पुष्प के समान कोमल बन जाता था। वे ग्रामीणों और गरीबों से अत्यधिक प्रेम करते थे।

प्रश्न 3.
आजकल अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय फूलों की बहुत माँग है। बहुत से किसान साग-सब्जी व अन्न उत्पादन छोड़ फूलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इसी मुद्दे को विषय बनाते हुए वाद-विवाद प्रतियोगिता
का आयोजन करें।
उत्तर:
शिक्षक की सहायता से विद्यार्थी स्वयं करें।

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प्रश्न 4.
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने इस पाठ की तरह ही वनस्पतियों के संदर्भ में कई व्यक्तित्त्व व्यंजक ललित निबंध और भी लिखे हैं कुटज, आम फिर बौरा गए, अशोक के फूल, देवदारु आदि। शिक्षक की सहायता से इन्हें ढूंढ़िए और पढ़िए।
उत्तर:
शिक्षक की सहायता से पुस्तकालय से द्विवेदी जी के निबंध संग्रह लेकर इन निबंधों को पढ़ें।

प्रश्न 5.
द्विवेदी जी की वनस्पतियों में ऐसी रुचि का क्या कारण हो सकता है? आज साहित्यिक रचना-फलक पर प्रकृति की उपस्थिति न्यून से न्यून होती जा रही है। तब ऐसी रचनाओं का महत्त्व बढ़ गया है। प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण रुचिपूर्ण है या उपेक्षामय? इसका मूल्यांकन करें।
उत्तर:
द्विवेदी जी शांति निकेतन में हिंदी के अध्यापक थे। वहाँ पर अनेक प्रकार के वृक्ष, पेड़-पौधे लगे हुए थे। लेखक ने अपनी दिनचर्या के काल में पलाश, कचनार, अमलतास आदि के पेड़ों को फलते-फूलते देखा था। इसलिए वनस्पतियों में उनकी अत्यधिक रुचि रही है। . परंतु आज के साहित्यकारों के पास न तो समझ है और न ही दृष्टि है। वे थोड़े समय में बहुत कुछ पा लेना चाहते हैं।

भाषा की बात

प्रश्न 1.
दस दिन फूले और फिर खंखड़-खंखड़ इस लोकोक्ति से मिलते जुलते कई वाक्यांश पाठ में हैं। उन्हें छाँट कर लिखें।
उत्तर:
भाषा के अर्थ और गौरव को बढ़ाने के लिए लेखक ने लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया है। प्रस्तुत पाठ में भी कुछ इसी के प्रयोग उपलब्ध होते हैं

  1. ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले।
  2. धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना।
  3. न ऊधो का लेना, न माधो का देना।
  4. वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदासाद्या।

HBSE 12th Class Hindi शिरीष के फूल Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
लेखक शिरीष के पुष्य की ओर क्यों आकर्षित हुआ?
उत्तर:
जेठ का महीना था। भयंकर गर्मी पड़ रही थी। लेखक वृक्षों के नीचे बैठकर प्रकृति को निहार रहा था। लेखक के आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ शिरीष के असंख्य वृक्ष विद्यमान थे। लेखक सोचने लगा कि इस समय भयंकर गर्मी पड़ रही है। पृथ्वी आग का कुंड बनी हुई है और गर्म लू चल रही है। ऐसी स्थिति में भी शिरीष के वृक्षों पर फूल खिल रहे हैं। शिरीष के वृक्ष की यह विशेषता देखकर लेखक उसकी ओर आकर्षित हो गया और वह शिरीष के फूल के बारे में सोचने लगा।

प्रश्न 2.
पाठ के आधार पर आरग्वध और शिरीष के फूल की तुलना कीजिए।
उत्तर:
आरग्वध का दूसरा नाम अमलतास है। यह भी शिरीष के वृक्ष की तरह गर्मियों में फूलता है। परंतु आरग्वध पर केवल 15-20 दिनों तक ही फूल टिक पाते हैं। तत्पश्चात् वे झड़ जाते हैं और यह वृक्ष खंखड़ हो जाता है। लेकिन वसंत के आरंभ होते ही शिरीष के वृक्षों पर फूल आने शुरू हो जाते हैं और आषाढ़ के महीने तक इसके फूल खिले रहते हैं। कभी-कभी तो भादों में भी उसकी शाखाएँ फूलों से लदी रहती हैं। आरग्वध के फूल तो क्षण जीवी होते हैं, परंतु पलाश के फूल लंबे काल तक अपना अस्तित्व बनाए रहते हैं।

प्रश्न 3.
शिरीष के वृक्षों का क्या उपयोग है? पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर:
शिरीष के वृक्ष आकार में बड़े तथा छायादार होते हैं। ये मंगलकारी तथा सजावटी वृक्ष माने गए हैं। परंतु इनके तने अधिक मजबूत नहीं होते और शाखाएँ तो और भी अधिक कमजोर होती हैं। इसलिए इन पर झूले नहीं डाले जा सकते। प्राचीनकाल में अमीर लोग अपने घर की चारदीवारी के पास शिरीष के वृक्ष लगाते थे। इन वृक्षों के फूल कोमल और मनोहारी होते हैं। इनमें से मोहक सुगंध उत्पन्न होती है। परंतु शिरीष के फल बहुत ही मजबूत होते हैं। जब तक नए फूल-पत्ते आकर उन्हें धक्का देकर नीचे नहीं गिरा देते तब तक वे अपने स्थान पर बने रहते हैं। आयुर्वेद की दृष्टि से यह वृक्ष बहुत ही उपयोगी माना गया है।

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प्रश्न 4.
शिरीष की महिमा का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लेखक ने शिरीष वृक्ष की अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया है, उसकी विशेषताएँ ही उसकी महिमा को दर्शाती हैं। वह आँधी, धूप, लू व गरमी की प्रचंडता में भी एक अवधूत की भाँति अविचल होकर कोमल फूलों को बिखेरता रहता है। शिरीष के फूल जितने कोमल और सुन्दर होते हैं, उसके फल उतने ही कठोर होते हैं। वे तब तक स्थान नहीं छोड़ते, जब तक नए फल आकर उन्हें धक्के मारकर गिरा न दें। शिरीष के वृक्ष की सुन्दरता की सभी साहित्यकारों ने प्रशंसा की है। यही उसकी महिमा का पक्का प्रमाण है।

प्रश्न 5.
शिरीष के फूलों की कोमलता को देखकर परवर्ती कवियों ने क्या समझा?
उत्तर:
शिरीष के फूलों की कोमलता को देखकर परवर्ती कवियों ने यह समझा कि उसका तो सब कुछ कोमल है। परंतु यह उनकी भूल है। शिरीष के फल बहुत मजबूत होते हैं। नए पत्ते निकल आने पर भी वे अपने स्थान को नहीं छोड़ते। जब तक नए पत्ते आकर उन्हें धक्का नहीं दे देते तब तक वे अपने स्थान पर बने रहते हैं। वसंत के आने पर संपूर्ण वनस्थली पुष्प और पत्तों के द्वारा कोमल ध्वनि उत्पन्न करती रहती है। लेकिन शिरीष के पुराने फल बुरी तरह से खड़खड़ाते हुए देखे जा सकते हैं। लेखक इनकी तुलना आज के नेताओं के साथ करता है। जो जमाने के रूप को न पहचान कर अपने स्थान को छोड़ना ही नहीं चाहते।

प्रश्न 6.
शिरीष के फूल पाठ के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है? अथवा शिरीष के फूल पाठ का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
यूँ तो इस पाठ के द्वारा लेखक ने अपनी प्रकृति-प्रेम की प्रवृत्ति को उजागर किया। परंतु उसका मुख्य उद्देश्य यह है कि भले ही आज कोलाहल और संघर्ष से परिपूर्ण जीवन बहुत ही कठिन बन चुका है। फिर भी हमें इन विषम परिस्थितियों में भी जिजीविषा को बनाए रखना चाहिए। शिरीष का वृक्ष ज्येष्ठ-आषाढ़ की भयंकर गर्मी और लू में भी अनासक्त योगी के समान अविचल बना रहता है। उसकी जीने की शक्ति बरकरार बनी रहती है। वह अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए निरंतर संघर्ष करता रहता है और किसी से हार नहीं मानता। हमें भी अपने सिद्धांतों पर टिके रहकर विपरीत परिस्थितियों का सामना करना चाहिए और कठोर परिस्थितियों के आगे झुकना नहीं चाहिए। इसके साथ-साथ लेखक ने राजनीतिक, साहित्य और समाज की पुरानी पीढ़ी के द्वंद्व की ओर भी संकेत किया है।

प्रश्न 7.
शिरीष के माध्यम से लेखक ने कोमल और कठोर भावों का सम्मिश्रण कैसे किया है?
उत्तर:
प्रस्तुत निबंध में लेखक ने कोमल और कठोर दोनों भावों का सुंदर मिश्रण किया है। लेखक ज्येष्ठ और आषाढ़ की भयंकर गर्मी और ल की चर्चा करता है। इन विपरीत परिस्थितियों में भी शिरीष का फूल फलता-फलता है। इसके फल बहुत ही कोमल होते हैं, परंतु इसके फल मजबूत होते हैं। ये नए पत्तों के आने पर भी अपने स्थान पर डटे रहते हैं। दूसरी ओर शिरीष के फूल भयंकर गर्मी में भी इतने कोमल होते हैं कि वे भौरों के पैरों के दबाव को सहन कर सकते हैं। पक्षियों के पैरों का दबाव पड़ते ही वे झड़ कर नीचे गिर जाते हैं। इस प्रकार लेखक ने शिरीष के माध्यम से कोमल और कठोर भावों का सुंदर मिश्रण किया है।

प्रश्न 8.
लेखक के कथन के अनुसार महाकाल देवता के कोड़ों की मार से कौन बच सकता है?
उत्तर:
लेखक का कथन है कि महाकाल देवता सपासप कोड़े चला रहा है। जीर्ण और दुर्बल उसके समक्ष झड़ जाते हैं। परंतु इन कौड़ों की मार से केवल वही बच पाते हैं जो ऊर्ध्वमुखी होते हैं। जो हमेशा ऊपर की ओर बढ़ते चले जाते हैं। जो स्थिर नहीं हैं बल्कि गतिशील हैं और हमेशा अपना स्थान बदलते रहते हैं। वे आगे की ओर मुँह करके हिलते-डुलते रहते हैं। तात्पर्य यह है कि सही रास्ते पर चलने वाले और निरंतर आगे बढ़ने वाले ही महाकाल की चोट से बच जाते हैं।

प्रश्न 9.
लेखक ने शिरीष और गांधी को एक समान क्यों कहा है?
उत्तर:
लेखक का कथन है कि गांधी जी और शिरीष को एक समान कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। शिरीष का फूल भयंकर गर्मी में भी मधुर फूल धारण किए रहता है। वह विपरीत परिस्थितियों से घबराता नहीं है। यही कारण है कि वह लंबे काल तक पुष्प धारण किए रहता है। इसी प्रकार गांधी जी ने भी असंख्य कठिनाइयों को झेला, परंतु सरसता को नहीं छोड़ा। उनके चारों ओर अग्निकांड और खून-खराबा चलता रहा परंतु वे हमेशा से ही अहिंसक और उदार बने रहे। गांधी और शिरीष दोनों ने ही विपरीत परिस्थितियों में अपने अस्तित्व को बनाए रखा। इसलिए लेखक ने इन दोनों को एक समान कहा है।

प्रश्न 10.
लेखक ने कर्णाट-राज की प्रिया विज्जिका देवी के बारे में क्या लिखा है?
उत्तर:
लेखक का कहना है कि कर्णाट-राज की प्रिया विज्जिका देवी ने बड़े गर्व से कहा था कि एक कवि ब्रह्मा थे, दूसरे वाल्मीकि और तीसरे व्यास। ब्रह्मा जी ने वेदों की रचना की, वाल्मीकि ने ‘रामायण’ की और व्यास ने ‘महाभारत’ की। इन तीनों के अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति कवि होने का दावा करता है तो मैं कर्णाट-राज की प्यारी रानी उनके सिर पर अपना बायाँ चरण रखती हूँ। भाव यह है कि कर्णाट-राज की प्रिया ने ब्रह्मा, वाल्मीकि और व्यास के अतिरिक्त किसी और को कवि नहीं माना।

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प्रश्न 11.
लेखक ने अवधूत और शिरीष की तुलना किस प्रकार की है?
उत्तर:
लेखक का कहना है कि शिरीष का फूल पक्का अवधूत है और वह लेखक के मन में तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती हैं। लेखक को इस बात की हैरानी है कि वह भयंकर गर्मी और चिलकती धूप में इतना सरस कैसे बना रह सकता है। हमारे देश पर भी मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया था। इन परिस्थितियों में स्थिर रहना बड़ा कठिन है, लेकिन शिरीष ने इन विषम परिस्थितियों को सहन किया। हमारे देश में भी एक बूढ़ा अर्थात् महात्मा गांधी विषम परिस्थितियों में स्थिर रह सका था। यदि शिरीष अवधूत है तो महात्मा गांधी भी अवधूत है। गांधी भी वायुमंडल से रस खींचकर शिरीष के समान इतना सरस और कोमल हो सका था।

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

1. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म कब हुआ?
(A) सन् 1908 में
(B) सन् 1907 में
(C) सन् 1906 में
(D) सन् 1909 में
उत्तर:
(B) सन् 1907 में

2. द्विवेदी जी का जन्म किस गाँव में हुआ?
(A) छपरा
(B) कपरा
(C) खपरा
(D) तकरा
उत्तर:
(A) छपरा

3. द्विवेदी जी के पिता का नाम क्या था?
(A) अनमोल द्विवेदी
(B) रामलाल द्विवेदी
(C) करोड़ीमल द्विवेदी
(D) गिरधर द्विवेदी
उत्तर:
(A) अनमोल द्विवेदी

4. द्विवेदी जी ने किस वर्ष शास्त्राचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की?
(A) सन् 1931 में
(B) सन् 1932 में
(C) सन् 1930 में
(D) सन् 1929 में
उत्तर:
(C) सन् 1930 में

5. द्विवेदी जी किस ग्रंथ का नियमित रूप से पाठ किया करते थे?
(A) साकेत
(B) रामायण
(C) श्रीमद्भागवत गीता
(D) रामचरितमानस
उत्तर:
(D) रामचरितमानस

6. द्विवेदी जी की नियुक्ति शांति निकेतन में कब हुई?
(A) सन् 1932 में
(B) सन् 1931 में
(C) सन् 1930 में
(D) सन् 1934 में
उत्तर:
(C) सन् 1930 में

7. शांति निकेतन में द्विवेदी जी किस पद पर नियुक्त हुए?
(A) अंग्रेज़ी-अध्यापक
(B) हिंदी-अध्यापक
(C) संपादक
(D) सह-संपादक
उत्तर:
(B) हिंदी-अध्यापक

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8. शांति निकेतन में अध्यापन करने के बाद द्विवेदी जी किस विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए?
(A) मुंबई विश्व-विद्यालय
(B) कोलकाता विश्व-विद्यालय
(C) दिल्ली विश्वविद्यालय
(D) हिंदू विश्व-विद्यालय
उत्तर:
(D) हिंदू विश्वविद्यालय

9. पंजाब विश्व-विद्यालय में द्विवेदी जी किस पद पर नियुक्त हुए?
(A) वरिष्ठ प्रोफेसर
(B) मुख्य प्रोफेसर
(C) सहायक प्रोफेसर
(D) सलाहकार प्रोफेसर
उत्तर:
(A) वरिष्ठ प्रोफेसर

10. द्विवेदी जी किस पीठ पर आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए?
(A) कबीर पीठ
(B) तुलसी पीठ
(C) टैगोर पीठ
(D) गांधी पीठ
उत्तर:
(C) टैगोर पीठ

11. भारत सरकार ने द्विवेदी जी को किस उपाधि से अलंकृत किया?
(A) पद्म भूषण
(B) पद्म श्री
(C) पद्म शोभा
(D) राष्ट्र भूषण
उत्तर:
(A) पद्म भूषण

12. द्विवेदी जी का देहांत किस वर्ष हुआ?
(A) सन् 1980 में
(B) सन् 1979 में
(C) सन् 1978 में
(D) सन् 1977 में
उत्तर:
(B) सन 1979 में

13. द्विवेदी जी की रचना ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ किस विधा की रचना है?
(A) कहानी,
(B) उपन्यास
(C) आलोचना
(D) निबंध-संग्रह
उत्तर:
(B) उपन्यास

14. ‘अशोक के फूल’ किस विधा की रचना है?
(A) निबंध-संग्रह
(B) कहानी-संग्रह
(C) उपन्यास
(D) आलोचना
उत्तर:
(A) निबंध-संग्रह

15. ‘नाथ संप्रदाय’ किस विधा की रचना है?
(A) उपन्यास
(B) रेखाचित्र
(C) कहानी
(D) समीक्षा
उत्तर:
(D) समीक्षा

16. ‘विचार और वितर्क’ किस विधा की रचना है?
(A) कहानी-संग्रह
(B) निबंध-संग्रह
(C) नाटक
(D) एकांकी
उत्तर:
(B) निबंध-संग्रह

17. ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के अतिरिक्त द्विवेदी जी ने कौन-सा उपन्यास लिखा है?
(A) सेवा सदन
(B) निर्मला
(C) चारुचंद्रलेख
(D) कंकाल
उत्तर:
(C) चारुचंद्रलेख

HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 17 शिरीष के फूल

18. ‘अशोक के फूल’, ‘विचार-प्रवाह’, ‘विचार और वितर्क’ के अतिरिक्त द्विवेदी जी का और कौन-सा निबंध-संग्रह है?
(A) लता समूह
(B) देवलता
(C) कल्पलता
(D) उद्यानलता
उत्तर:
(C) कल्पलता

19. इनमें से कौन-सा समीक्षात्मक ग्रंथ द्विवेदी जी का नहीं है?
(A) सूर साहित्य
(B) हिंदी साहित्य की भूमिका
(C) मध्यकालीन धर्म साधना
(D) तुलसी साहित्य की विवेचना
उत्तर:
(D) तुलसी साहित्य की विवेचना

20. ‘शिरीष के फूल’ के रचयिता का क्या नाम है?
(A) डॉ० नगेन्द्र
(B) रामवृक्ष बेनीपुरी
(C) उदय शंकरभट्ट
(D) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
उत्तर:
(D) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

21. आरग्वध किस पेड़ का नाम है?
(A) आम का
(B) नीम का
(C) अमलतास का
(D) शिरीष का
उत्तर:
(C) अमलतास का

22. अमलतास कितने दिनों के लिए फलता है?
(A) 15-20 दिन
(B) 1-2 महीने
(C) 2 सप्ताह
(D) 4 सप्ताह
उत्तर:
(A) 15-20 दिन

23. किस ऋतु के आने पर शिरीष लहक उठता है?
(A) शीत ऋतु
(B) शिरीष ऋतु
(C) वसंत ऋतु
(D) वर्षा ऋतु
उत्तर:
(C) वसंत ऋतु

24. किस महीने तक शिरीष के फूल मस्त बने रहते हैं?
(A) चैत्र।
(B) वैसाख
(C) ज्येष्ठ
(D) आषाढ़
उत्तर:
(D) आषाढ़

25. शिरीष की समानता का उपमान है
(A) बकुल
(B) अशोक
(C) अवधूत
(D) ईश
उत्तर:
(C) अवधूत

26. शिरीष को कैसा कहा गया है?
(A) कालजयी
(B) आतंकी
(C) सौदागर
(D) जड़मति
उत्तर:
(A) कालजयी

27. शिरीष की डालें कैसी होती हैं?
(A) कमजोर
(B) मजबूत
(C) मोटी
(D) पतली
उत्तर:
(A) कमजोर

28. द्विवेदी जी ने ‘शिरीष के फूल’ नामक पाठ में संस्कृत के किस महान कवि का उल्लेख किया है?
(A) बाणभट्ट
(B) भवभूति
(C) कालिदास
(D) भास
उत्तर:
(C) कालिदास

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29. शिरीष के फल किस प्रकार के होते हैं?
(A) कोमल
(B) कठोर
(C) कमजोर
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) कठोर

30. ‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ यह कथन किस कवि का है?
(A) कबीरदास
(B) सूरदास
(C) तुलसीदास
(D) बिहारी
उत्तर:
(C) तुलसीदास

31. ‘एक कवि ब्रह्मा थे, दूसरे वाल्मीकि और तीसरे व्यास’-यह गर्वपूर्वक किसने कहा था?
(A) कालिदास
(B) धन्या देवी
(C) सरस्वती
(D) विज्जिका देवी
उत्तर:
(D) विज्जिका देवी

32. शिरीष का वृक्ष कहाँ से अपना रस खींचता है?
(A) पानी से
(B) मिट्टी से
(C) वायुमंडल से
(D) खाद से
उत्तर:
(C) वायुमंडल से

33. लेखक ने किस भक्तिकालीन कवि की तुलना अवधूत के साथ की है?
(A) कबीर
(B) जायसी
(C) सूरदास
(D) तुलसीदास
उत्तर:
(A) कबीर

34. पुराने कवि किस पेड़ में दोलाओं को लगा देखना चाहते थे?
(A) बकुल
(B) अशोक
(C) अमलतास
(D) शिरीष
उत्तर:
(A) बकुल

35. आधुनिक हिन्दी काव्य में अनासक्त कवि हैं
(A) जयशंकर प्रसाद
(B) सुमित्रानंदन पंत
(C) हरिवंश राय बच्चन
(D) मैथिलीशरण गुप्त
उत्तर:
(B) सुमित्रानंदन पंत

36. लेखक ने कबीर के अतिरिक्त और किस कवि को अनासक्त योगी कहा है?
(A) व्यास
(B) ब्रह्मा
(C) कालिदास
(D) वाल्मीकि
उत्तर:
(C) कालिदास

37. ‘शिरीष के फूल’ पाठ में महाकाल देवता द्वारा सपासप क्या चलाने की बात कही है?
(A) कोड़े
(B) डण्डे
(C) रथ
(D) भैंसा
उत्तर:
(A) कोड़े

38. बांग्ला के किस कवि को लेखक ने अनासक्त कवि कहा है?
(A) रवींद्रनाथ टैगोर
(B) शरतच्चंद्र
(C) मंगल कवि
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(A) रवींद्रनाथ टैगोर

39. ईक्षुदण्ड किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?
(A) नीम के लिए
(B) गन्ने के लिए
(C) चावल के लिए
(D) बांस के लिए
उत्तर:
(B) गन्ने के लिए

40. अंत में लेखक ने शिरीष की तुलना किसके साथ की है?
(A) महात्मा गांधी
(B) जवाहर लाल नेहरू
(C) सरदार पटेल
(D) लाल बहादुर शास्त्री
उत्तर:
(A) महात्मा गांधी

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41. ‘दिन दस फूला फूलि के खंखड़ भया पलास’ इस पंक्ति के लेखक कौन हैं?
(A) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(B) वात्स्यायन
(C) कालिदास
(D) कबीरदास
उत्तर:
(D) कबीरदास

42. राजा दुष्यंत कैसे थे?
(A) अच्छे-भले प्रेमी
(B) हृदयहीन
(C) कमजोर
(D) संन्यासी
उत्तर:
(A) अच्छे-भले प्रेमी

43. शिरीष की बड़ी विशेषता क्या है?
(A) दिव्यता
(B) मस्ती
(C) भव्यता
(D) प्रगल्भता
उत्तर:
(B) मस्ती

44. ‘शिरीष के फूल’ निबंध में वर्णित कर्णाट-राज की प्रिया का क्या नाम है?
(A) मल्लिका
(B) विज्जिका देवी
(C) अलका
(D) नंदिनी देवी
उत्तर:
(B) विज्जिका देवी

45. द्विवेदी जी ने जगत के अतिपरिचित और अति प्रामाणिक सत्य किसे कहा है?
(A) प्राचीन और नवीन को
(B) सुख और दुख को
(C) अमृत और विष को
(D) जरा और मृत्यु को
उत्तर:
(D) जरा और मृत्यु को

46. लेखक ने कवि बनने के लिए क्या बनना आवश्यक माना है?
(A) विद्वान
(B) सुखी
(C) धनी
(D) फक्कड़
उत्तर:
(D) फक्कड़

47. पुराने फलों को अपने स्थान से हटते न देखकर लेखक को किसकी याद आती है?
(A) महात्मा गाँधी की
(B) नेताओं की
(C) कालिदास की
(D) बुजुर्गों की
उत्तर:
(B) नेताओं की

48. कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता के मंत्र का प्रचार कौन करता है?
(A) पलाश
(B) शिरीष
(C) गुलाब
(D) गुलमोहर
उत्तर:
(B) शिरीष

49. शिरीष के फूल को संस्कृत साहित्य में कैसा माना गया है?
(A) कठोर
(B) मजबूत
(C) सख्त
(D) कोमल
उत्तर:
(D) कोमल

50. द्विवेदी जी के अनुसार सौंदर्य के बाह्य आवरण को भेदकर उसके भीतर तक कौन पहुँच सकते थे?
(A) कालिदास
(B) तुलसीदास
(C) वात्स्यायन
(D) कबीरदास
उत्तर:
(A) कालिदास

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51. किस ग्रंथ में बताया गया है कि वाटिका के सघन छायादार वृक्षों की छाया में ही झूला (प्रेक्षा दोला) लगाया जाना चाहिए?
(A) ऋग्वेद
(B) मेघदूत
(C) सूरसागर
(D) काम-सूत्र
उत्तर:
(D) काम-सूत्र

शिरीष के फूल प्रमुख गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

[1] जहाँ बैठ के यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निर्धूम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गरमी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल हा हैं। वे भी आस-पास बहत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध की तलना नहीं की जा सकती। वह पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भाँति । कबीरदास को इस तरह पंद्रह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़-के-खंखड़-‘दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलासा!’ ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले। फूल है शिरीष। वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक जो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितांत ढूँठ भी नहीं हूँ। शिरीष के पुष्प मेरे मानस में थोड़ा हिल्लोल ज़रूर पैदा करते हैं। [पृष्ठ-144]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तत निबंध में लेखक ने शिरीष के फल के सौं वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक स्पष्ट करता है कि शिरीष का फूल अपनी जीवन-शक्ति और संघर्षशीलता के लिए प्रसिद्ध है।

व्याख्या-लेखक शिरीष के फूल का वर्णन करता हुआ कहता है कि मैं जहाँ बैठ कर लिख रहा हूँ, उसके चारों ओर असंख्य शिरीष के फूल हैं। ये पेड़ लेखक के आगे भी हैं, पीछे भी हैं, दाएँ भी और बाएँ भी। जेठ का महीना है। धूप जल रही है और पृथ्वी बिना धुएँ के भाग का कुंड बन चुकी है। परंतु शिरीष के पेड़ पर इस धूप का कोई प्रभाव नहीं है। वह ऊपर से लेकर नीचे तक फूलों से लदा हुआ है। प्रकृति के क्षेत्र में शिरीष जैसे बहुत थोड़े-से पेड़ हैं जो इस भयंकर गर्मी में भी फूल धारण कर सकते हैं। अधिकांश पेड़ तो ग्रीष्म ऋतु में मुरझा ही जाते हैं। लेखक कर्णिकार और अमलतास के पेड़ों को भूल नहीं सकता क्योंकि उसके आस-पास दोनों प्रकार के पेड़ विद्यमान हैं। परंतु लेखक का कहना है कि हम शिरीष के पेड़ के साथ अमलतास की तुलना नहीं कर सकते। अमलतास केवल 15-20 दिन तक ही फूल धारण करता है। जैसे पलाश का पेड़ बसंत ऋतु में अल्पकाल के लिए ही फूलता है।

शायद यही कारण है कि कविवर कबीरदास को 15 दिन के लिए कर्णिकार का फूल धारण करना पसंद नहीं था। भला यह भी कोई बात है कि दस-पन्द्रह दिन तक फूल धारण करो और फिर दूंठ के दूंठ बने खड़े रहो। कबीरदास ने लिखा भी है-‘दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास’ । लेखक का कहना है कि इस प्रकार की पूँछ वालों से बिना पूँछ वाले ही अच्छे हैं। शिरीष के फूल का अपना ही महत्त्व है। जैसे ही वसंत आता है वैसे ही यह पेड़ खिल उठता है और फिर आषाढ़ के महीने तक अपनी मस्ती में खिला रहता है।

अनेक बार यदि मन में आनंद आ गया तो वह भादों के महीने में भी बिना बाधा के फूला रहता है। जब गरमी के कारण व्यक्ति के प्राण उबलने लगते हैं और गर्म लू से हृदय सूखने लगता है तब यह अकेला शिरीष का पेड़ ही समय पर विजय पाने वाले संन्यासी के समान मानों इस मंत्र का प्रचार करता है कि जीवन अविजित है, उसे जीता नहीं जा सकता। अंत में लेखक कहता है कि अन्य कवियों के समान प्रत्येक फूल और पत्ते को देखकर आसक्त होने वाला दिल विधाता ने उसे नहीं दिया। लेकिन लेखक पूर्णतया भावनाहीन भी नहीं है। यही कारण है कि शिरीष के फूल लेखक के मन में थोड़ी बहुत हलचल जरूर पैदा कर देते हैं। लेखक ,ठ के समान नीरस न होकर सरस है।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने विपरीत परिस्थितियों में भी शिरीष के फूलों के समान जिंदा रहने की क्षमता की ओर संकेत किया है।
  2. शिरीष के फूल के माध्यम से लेखक मानव को विपरीत परिस्थितियों में भी प्रसन्न रहने की प्रेरणा देता है।
  3. मुहावरों तथा सूक्तियों का उपयुक्त प्रयोग किया गया है।
  4. तत्सम प्रधान साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग है तथा शब्द-चयन उचित और भावानुकूल है।
  5. भावात्मक शैली के प्रयोग के कारण विषय-वर्णन अत्यंत रोचक बन पड़ा है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर-
प्रश्न-
(क) पाठ तथा लेखक का नाम लिखिए।
(ख) लेखक शिरीष के फूल को क्यों पसंद करता है?
(ग) कबीरदास ने अमलतास जैसे वृक्ष को पसंद क्यों नहीं किया?
(घ) ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले? इस पंक्ति का भावार्थ लिखिए।
(ङ) शिरीष किस ऋतु से लेकर किस ऋतु तक लहकता रहता है?
(च) लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत क्यों कहा है?
उत्तर:
(क) पाठ का नाम-‘शिरीष का फूल’, लेखक-हजारी प्रसाद द्विवेदी

(ख) लेखक को शिरीष के फूल इसलिए पसंद हैं क्योंकि उनमें जीवन-शक्ति और संघर्षशीलता होती है। जेठ की जलती हुई धूप में भी वह फूलों से लदा हुआ दिखाई देता है। विपरीत तथा कठोर परिस्थितियों में वह प्रकृति से जीवन रस खींचकर जीवन को अजेयता का संदेश देता है।

(ग) अमलतास एक ऐसा वृक्ष है जो केवल 15-20 दिनों के लिए ही खिलता है और तत्पश्चात् ठूठ हो जाता है। इसी कारण कबीरदास को अमलतास पसंद नहीं है। एक तो उसमें जीवन-शक्ति बहुत कम होती है, दूसरा उसके सौंदर्य की आयु भी अल्पकाल की होती है।

(घ) दुमदार उन पक्षियों को कहा गया है जिनकी पूँछ बहुत सुंदर होती है लेकिन ऐसे पक्षी अल्पकाल के लिए जीवित रहते हैं इसलिए कबीर को ये पक्षी पसंद नहीं हैं। उन्हें पूँछहीन पक्षी पसंद हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रहते हैं और संघर्षों का सामना करते हैं।

(ङ) शिरीष का वृक्ष वसंत के आने पर फूलों से लद जाता है और आषाढ़ तक मस्त बना रहता है। कभी-कभी तो भादों की गर्मी तथा लू में भी वह फूलों से लहकता रहता है।

(च) कालजयी का अर्थ है-काल को जीतने वाला अर्थात् लंबे समय तक जिंदा रहने वाला संन्यासी। वस्तुतः ऐसे फक्कड़ साधु को कहते हैं जो कठिन परिस्थितियों में भी साधना में लीन रहता है। शिरीष के फूल की तुलना कालजयी अवधूत से करना सार्थक है क्योंकि वह गर्मी, लू आदि की परवाह किए बिना फलों से लहकता रहता है।

HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 17 शिरीष के फूल

[2] फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है! यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार ज़माने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं। [पृष्ठ-146]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से अवतरित है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक ने शिरीष के फूलों की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या-लेखक का कथन है कि शिरीष के फूल इतने अधिक सुंदर और कोमल होते हैं कि कालिदास के बाद के कवियों ने यह सोच लिया कि शिरीष के वृक्ष की प्रत्येक वस्तु कोमल होती है, परंतु यह उनकी भारी गलती है। कारण यह है कि शिरीष के फल बहुत मजबूत होते हैं। ये फल नए फूलों के आ जाने पर भी अपने स्थान पर जमे रहते हैं। जब तक नए फल और पत्ते उन्हें मिलकर धक्का देकर बाहर का रास्ता नहीं दिखाते, तब तक वे अपने स्थान पर जमे रहते हैं। यही कारण है कि वसंत के आने पर संपूर्ण वन-प्रदेश फूल और पत्तों से लद जाता है और उनमें मर्र-मर्र की ध्वनि उत्पन्न होती रहती है। लेकिन शिरीष के पुराने फल खड़खड़ाते हुए अपने स्थान पर जमे रहते हैं। शिरीष के फलों को देखकर लेखक उन नेताओं को याद करने लगता है जो किसी प्रकार से भी जमाने के रुख को पहचानना नहीं चाहते और अपने पद पर तब तक जमे रहते हैं जब तक युवा पीढ़ी के लोग उन्हें धक्के मारकर बाहर नहीं निकाल देते।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने स्पष्ट किया है कि शिरीष के फूल जितने सुंदर और कोमल होते हैं, उनके फल उतने ही बड़े और अड़ियल होते हैं वे अपने स्थान को आसानी से नहीं छोड़ते।।
  2. तत्सम प्रधान साहित्यिक हिंदी भाषा का सफल प्रयोग है।
  3. शिरीष के फूलों की तुलना नेताओं के साथ करना बड़ी सार्थक और सटीक बन पड़ी है।
  4. शब्द-चयन सर्वथा उचित और भावानुकूल है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) किसे आधार मानकर लेखक ने कवियों को परवर्ती कहा है और क्यों?
(ख) शिरीष के फलों और फूलों के स्वभाव में क्या अंतर है?
(ग) शिरीष के फलों और आज के नेताओं में क्या समानता दिखाई पड़ती है?
(घ) वसंत का आगमन पुराने फलों को क्या संकेत देता है?
उत्तर:
(क) लेखक ने कालिदास को आधार मानकर बाद के कवियों को परवर्ती कहा है। वे भूल से शिरीष के वृक्ष को बहुत कोमल मानते हैं, जबकि शिरीष के फल बड़े ही कठोर और अडिग होते हैं।

(ख) शिरीष के फूल बड़े कोमल होते हैं, परंतु उसके फल बड़े कठोर और अपने स्थान पर जमे रहते हैं।

(ग) शिरीष के फलों तथा आज के नेताओं के स्वभाव में बहुत बड़ी समानता है। शिरीष के फल तब तक अपने स्थान पर जमे रहते हैं जब तक नए फूल और पत्ते उन्हें धक्का देकर नीचे नहीं गिराते। यही स्थिति आज के नेताओं की भी है जो कि इतने ढीठ हैं कि 80-85 आय तक भी राजनीति से संन्यास नहीं लेना चाहते। वे तभी अपने पद को छोड़ते उन्हें धक्का देकर बाहर का रास्ता दिखाते हैं।

(घ) वसंत के आगमन पर प्रकृति में एक नवीन परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन पुराने फलों को यह इशारा करता है कि उनका समय अब खत्म हो गया है, अतः उन्हें अपना स्थान छोड़ देना चाहिए ताकि नए फल लग सकें।

[3] मैं सोचता हूँ कि पराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मत्य, ये दोनों ही जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी-‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है! सुनता कौन है? महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कीड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे! [पृष्ठ-146]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से अवतरित है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक ने शिरीष के वृक्ष के पुराने एवं मजबूत फलों को देखकर अधिकार-लिप्सा की चर्चा की है।

व्याख्या-कवि का कथन है कि उसकी यह सोच है कि पुराने लोगों की अधिकार की इच्छा समाप्त क्यों नहीं होती। समय रहते हुए बिलकुल सावधान हो जाना चाहिए और अपने पद को त्याग देना चाहिए। बुढ़ापा और मौत संसार की ऐसी सच्चाई है जो पूर्णतया प्रामाणिक है तथा सभी को इसका पता भी है। लेकिन फिर भी लोग अधिकार की इच्छा को छोड़ना नहीं चाहते। गोस्वामी तुलसीदास ने बड़ी निराशा के साथ इस तथ्य का समर्थन किया है। उनका कहना है-“धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!” अर्थात् पृथ्वी का यह प्रमाण है जो फलता है वह निश्चय से झड़ता है, जो जलता है वह नष्ट होता है। भाव यह है कि मृत्यु निश्चित है। इससे कोई बच नहीं सकता। लेखक शिरीष के फूलों को देखकर कहता है कि उन फूलों को फलते समय यह जान लेना चाहिए कि झड़ना तो निश्चित है। मानव को भी इस तथ्य को समझ लेना चाहिए। यमराज बड़ी तेजी के साथ अपने कोड़े चला रहा है।

जो पुराने और कमजोर हैं वे झड़ते जा रहे हैं। परंतु जिनकी चेतना अध्यात्म की ओर लगी हुई है, वे थोड़े समय तक जिंदा रहते हैं। इस संसार में प्राणधारा और सर्वत्र व्याप्त मृत्यु का संघर्ष निरंतर चलता रहता है। कोई भी मृत्यु से बच नहीं सकता। फिर भी अज्ञानी लोग यह समझते हैं कि जहाँ पर वे टिके हुए हैं, वहीं पर टिके रहने पर वे मृत्यु रूपी देवता से बच जाएँगे। ऐसे लोग मूर्ख हैं। जो व्यक्ति गतिशील है और अध्यात्म की ओर गतिमान है वह तो मृत्यु के कोड़े की मार से बच सकता है परंतु जो सांसारिक आसक्ति में डूबा हुआ है वह शीघ्र ही मृत्यु का शिकार बन जाएगा।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने अधिकार-लिप्सा की भर्त्सना करते हुए इस कटु सत्य का उद्घाटन किया है कि प्रत्येक प्राणी की मृत्यु निश्चित है।
  2. लेखक का यह भी कथन है कि जिसकी चेतना परमात्मा में लीन है, वही कुछ समय के लिए मृत्यु से बच सकता है।
  3. तत्सम प्रधान साहित्यिक हिंदी भाषा का सफल प्रयोग है।
  4. शब्द-चयन उचित तथा भावानुकूल है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) लेखक को पुराने की अधिकार-लिप्सा क्यों याद आ जाती है?
(ख) तुलसीदास ने जीवन के किस सत्य का उद्घाटन किया है?
(ग) ऊर्ध्वमुखी से लेखक का क्या अभिप्राय है?
(घ) काल देवता की आग से कैसे बचा जा सकता है?
उत्तर:
(क) लेखक शिरीष के वृक्ष के पुराने मजबूत फलों तथा बूढ़े राजनेताओं को देखकर ही अधिकार-लिप्सा को याद कर उठता है। भले ही पुराने फलों के झड़ने का समय आ गया है, परंतु फिर भी वे अपने स्थान को नहीं छोड़ते। इसी प्रकार वृद्ध राजनेता भी गद्दी पर जमे रहते हैं और युवा पीढ़ी को आगे नहीं आने देते। इसका कारण अधिकार-लिप्सा ही है।

(ख) तुलसीदास ने जीवन के इस सत्य का उद्घाटन किया है कि जो फलता है वह निश्चय से झड़ता भी है अर्थात् जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है। वे कहते भी हैं-“धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!”

(ग) ऊर्ध्वमुखी से लेखक का अभिप्राय है कि जिन लोगों की चेतना हमेशा अध्यात्म की ओर रहती है वे कुछ समय तक अपने स्थान पर टिके रहते हैं। ऊर्ध्वमुखी का शाब्दिक अर्थ है-ऊपर की ओर टिके रहना अर्थात् अध्यात्म की ओर टिके रहना।

(घ) काल देवता की आग से बचने का अर्थ है मृत्यु से बचना। जो व्यक्ति स्थिर नहीं रहता, अध्यात्म की ओर गतिशील रहता है और स्थान बदलता रहता है, वह कुछ समय के लिए मृत्यु से बच सकता है।

[4] एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हज़रत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस खींचता है। ज़रूर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तंतुजाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत-कुछ इस शिरीष के समान ही थे, मस्त और बेपरवा, पर सरस और मादक। कालिदास भी ज़रूर अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और ‘मेघदूत’ का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त अनाविल उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है? [पृष्ठ-146]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फल’ में से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा उसके स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक ने शिरीष की तुलना अवधूत के साथ की है।

व्याख्या-लेखक कहता है कि कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि शिरीष का वृक्ष एक विचित्र फक्कड़ संन्यासी है। चाहे जीवन में दुख हों अथवा सुख, वह कभी निराश नहीं होता और न ही हार मानता है। उसे न तो किसी से कुछ लेना है, न ही किसी को कुछ देना है। वह हमेशा अपनी मस्ती में लीन रहता है। जब संपूर्ण पृथ्वी और आकाश गर्मी के कारण जल रहे होते हैं तब यह श्रीमान पता नहीं कहाँ से जीवन के रस का संग्रह करता रहता है। जब यह मस्ती में होता है तो आठों पहर ही मस्त बना रहता है। उसे किसी की चिंता नहीं होती। एक वनस्पति शास्त्री ने लेखक को यह बताया कि शिरीष का वृक्ष ऐसे वृक्षों की श्रेणी में आता है जो अपना रस वायुमंडल की श्रेणी से प्राप्त करता है। लेखक सोचता है कि निश्चय से शिरीष ऐसा ही करता होगा।

अन्यथा इतनी गर्मी और लू के समय भी उसके फूलों में इतने कोमल तंतु जाल कैसे उत्पन्न हो जाते हैं और कैसे उसमें कोमल केसर उग आता है। लेखक का कहना है कि फक्कड़ कवियों ने ही संसार की सर्वश्रेष्ठ रसपूर्ण कविताओं की रचना की है। लेखक के अनुसार कबीरदास लगभग शिरीष के वृक्ष के समान ही था। वह भी अपने-आप में मस्त रहता था और संसार से बेपरवाह रहता था। उसमें सरसता और मस्ती थी। इसी प्रकार संस्कृत कवि कालिदास भी अवश्य आसक्तिहीन योगी था। जिस प्रकार शिरीष के फूल बड़ी मस्ती से पैदा होते हैं। उसी प्रकार मेघदूत जैसी काव्य रचना उसी कवि के हृदय से उत्पन्न हो सकती है जो अनासक्त और मुक्त हृदय हो। कवि का कहना है कि जो कवि आसक्तिहीन नहीं बन सका जिसमें फक्कड़पन नहीं है तथा जो अपने द्वारा किए गए काम का लेखा-जोखा करता रहता है, वह सच्चा कवि नहीं हो सकता है।

विशेष-

  1. यहाँ कवि ने उसी कवि को महान माना है जो फक्कड़, मस्त और अनासक्त योगी होता है।
  2. लेखक ने शिरीष के वृक्ष की तुलना अवधूत से की है जो सुख-दुख में एक साथ रहता है।
  3. तत्सम् प्रधान साहित्यिक हिंदी भाषा का सफल प्रयोग है।
  4. शब्द-चयन सर्वथा उचित और भावानुकूल है।
  5. विचारात्मक शैली का सफल प्रयोग है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) द्विवेदी जी ने शिरीष के वृक्ष की तुलना अवधूत के साथ क्यों की है?
(ख) वनस्पति शास्त्री ने लेखक को क्या बताया और लेखक की क्या प्रतिक्रिया थी?
(ग) लेखक ने किन कवियों को अवधूत कहा और क्यों?
(घ) लेखक सच्चा कवि किसे मानता है?
(ङ) कालिदास को अनासक्त योगी क्यों कहा गया है?
(च) शिरीष के फूलों को उगाने के लिए कौन-सा गुण होना चाहिए?
उत्तर:
(क) लेखक ने शिरीष को अवधूत इसलिए कहा है क्योंकि अवधूत अर्थात् अनासक्त संन्यासी सुख-दुःख की परवाह न करते हुए मस्ती में जीते हैं। उन पर विपरीत परिस्थितियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे संघर्षशील और अजेय भी होते हैं। अवधूत के समान शिरीष के फूल भी तपती लू और जलते आसमान से जीवन रस खींचकर मस्ती में खिले रहते हैं। उनमें अदम्य जीवन-शक्ति होती है।

(ख) एक वनस्पति शास्त्री ने लेखक को यह बताया कि शिरीष उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस प्राप्त करता है। लेखक वनस्पति शास्त्री के इस विचार से सहमत है। वह तर्क देता हुआ कहता है कि भयंकर लू के समय शिरीष के फूल के तंतुजाल तथा कोमल केसर अपने आप उग जाता है।

(ग) लेखक ने भक्तिकालीन कवि कबीरदास तथा संस्कृत कवि कालिदास को अवधूत कहा है। इन दोनों कवियों ने सरस रचनाएँ लिखी हैं। कबीर शिरीष के समान मस्त, बेपरवाह आसक्त तथा मादक था। कालिदास भी निश्चय से अनासक्त योगी था। वह भी शिरीष के समान था। उस अनासक्त योगी ने ‘मेघदूत’ काव्य की रचना की।

(घ) लेखक ने सच्चा कवि उसे कहा है जो लाभ-हानि के हिसाब-किताब में नहीं पड़ता। वह फक्कड़ होता है और अनासक्त भाव से काव्य-रचना करता है। वह किसी की परवाह नहीं करता और अपने आप में मस्त रहता है।

(ङ) कालिदास को अनासक्त योगी इसलिए कहा गया है क्योंकि उसने मेघदूत जैसी काव्य-रचना लिखी। जो व्यक्ति सुख-दुःख से प्रभावित नहीं होता और मस्ती में जीता है, वही इस प्रकार की काव्य-रचना लिख सकता है।

(च) शिरीष के फूल उगाने के लिए व्यक्ति को सुख-दुःख की परवाह नहीं करनी चाहिए। उसे आठों पहर मौज-मस्ती में रहना चाहिए और सुख-दुःख तथा विपरीत परिस्थितियों में मस्त रहना चाहिए। जिस प्रकार शिरीष के फूल तपती लू में भी वायुमंडल से रस खींच लेते हैं, उसी प्रकार ऐसे लोगों को भी अपने आसपास के लोगों से जीवन-शक्ति प्राप्त करनी चाहिए।

HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 17 शिरीष के फूल

[5] कालिदास वजन ठीक रख सकते थे, क्योंकि वे अनासक्त योगी की स्थिर-प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी छंद बना लेता हूँ, तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छंद बना लेते थे-तुक भी जोड़ ही सकते होंगे इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते। पुराने सहृदय ने किसी ऐसे ही दावेदार को फटकारते हुए कहा था-‘वयमपि कवयः कवयस्ते कालिदासाया!’ मैं तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हूँ। अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुंतला बहुत सुंदर थी। सुंदर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय से वह सौंदर्य डुबकी लगाकर निकला है। शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था, लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंतला के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार। [पृष्ठ-147]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा उसके स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक ने संस्कृत के महान कवि कालिदास की साहित्यिक उपलब्धियों पर प्रकाश डाला है। लेखक उन्हें स्थिर-प्रज्ञता तथा अनासक्त योगी की संज्ञा देता है।

व्याख्या-कालिदास साहित्य-रचना करते समय शब्द की लय आदि का समुचित ध्यान रखते थे, क्योंकि वे सच्चे अनासक्त योगी थे। उन्हें हम स्थिर-प्रज्ञता तथा तपा हुआ प्रेमी भी कह सकते हैं अर्थात् उनके पास एक सच्चे प्रेमी का हृदय था। कवि बनने और कहलाने से कुछ नहीं होता। संसार में अनेक ऐसे कवि हैं जो तुकबंदी कर लेते हैं, परंतु हम उन्हें कालिदास नहीं कह सकते। लेखक भी छंद बना लेता है और तुकबंदी भी कर लेता है। कालिदास भी ऐसा करते होंगे। कालिदास छंद भी बनाते थे और तुक भी जोड़ लेते थे। परंतु इससे लेखक और कालिदास एक ही श्रेणी में नहीं रखे जा सकते। एक प्राचीन सहृदय व्यक्ति ने कवि होने का दावा करते हुए एक व्यक्ति को कहा था-“हम भी कवि हैं, हम भी कवि हैं, ऐसा कहने से हम कवि नहीं बन पाते। सच्चे कवि तो कालिदास आदि थे।” लेखक कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर आश्चर्यचकित हो जाता है। वह उनके श्लोकों पर आसक्त होकर हैरान रह जाता है।

इस संदर्भ में शिरीष के फूलों का उदाहरण दिया जा सकता है। शकुंतला अद्वितीय सुंदरी थी। परंतु सुंदर होने से कोई बड़ा नहीं बन जाता। देखने की बात तो यह होती है कि कवि अपने सुंदर हृदय द्वारा उस सुंदरता में से डुबकी लगाकर बाहर निकला है या नहीं। अर्थात् उसने सौंदर्य को गंभीरता से अनुभव किया है या नहीं। शकुंतला कालिदास के हृदय से उत्पन्न हुई थी। भाव यह है कि कालिदास ने अपने हृदय की अनुभूतियों द्वारा शकुंतला के रूप-सौंदर्य का निर्माण किया था। विधाता ने उसे सौंदर्य देते समय कंजूसी नहीं बरती और कवि ने भी अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी। दूसरी ओर राजा दुष्यंत के पास भी एक प्रेमी-हृदय था और वे सज्जन व्यक्ति थे। राजा ने शकुंतला के एक चित्र का निर्माण किया। लेकिन बार-बार उनका मन अपने-आप से नाराज हो जाता था। उन्हें लगता था कि कहीं-न-कहीं कमी रह गई है। बहुत देर तक सोचने के बाद उनके मन में विचार आया कि वह शकुंतला के कानों में शिरीष का फूल लगाना भूल गए हैं। जिसका केसर उसके कपोलों तक लटका हुआ था। यही नहीं, शरदकालीन चंद्रमा की किरणों के समान कोमल और सुंदर कमलनाल का हार भी बनाना भूल गए हैं। अतः उन्होंने बाद में शकुंतला के चित्र के कानों में शिरीष का फूल बनाया और गले में कमलनाल का हार बनाया।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने स्पष्ट किया है कि कालिदास की सफलता का कारण उनकी स्थिर-प्रज्ञता और अनासक्ति थी।
  2. लेखक ने कालिदास की महानता के कारणों पर महत्त्व डालते हुए शिरीष के फूलों के महत्त्व का प्रतिपादन किया है।
  3. लाक्षणिकता के प्रयोग के कारण विषय रोचक व प्रभावशाली बन गया है।
  4. संस्कृतनिष्ठ हिंदी शब्दों का सफल प्रयोग है।
  5. वाक्य-विन्यास सार्थक व भावाभिव्यक्ति में सहायक है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) लेखक ने कालिदास को सफल कवि क्यों माना है?
(ख) सामान्य कवि और कालिदास में क्या अंतर है?
(ग) शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी-इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
(घ) शकुंतला के सौंदर्य में किस-किस का हाथ रहा?
(ङ) चित्र बनाते समय राजा दुष्यंत को शकुंतला के चित्र में क्या कमी नजर आई?
उत्तर:
(क) लेखक ने कालिदास को सफल कवि इसलिए माना है क्योंकि उसमें स्थिर-प्रज्ञता और अनासक्ति थी। वे सुख-दुःख के प्रति बेपरवाह रहते थे और स्थिर मन से काव्य-रचना करते थे।

(ख) सामान्य कवि शब्दों का प्रयोग करते समय उनकी लय, तुक तथा छंद की ओर ज्यादा ध्यान देते हैं। यह तो कविता का बाह्य पक्ष है। इस पक्ष से वे विषय-वस्तु के मर्म को नहीं जान पाते और न ही विषय की गहराई में उतरकर लिख पाते हैं। जबकि कालिदास ने शकुंतला के सौंदर्य में डूबकर उसके सौंदर्य का वर्णन किया।

(ग) शकुंतला भले ही सुंदर थी, लेकिन ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की नायिका शकुंतला की सुंदरता की सृष्टि कालिदास ने की थी। उसके सौंदर्य का वर्णन करने के लिए कवि शकुंतला के सौंदर्य में डूब गया और उसने सुंदरता के सभी पक्षों को देखते हुए काव्य-रचना की।

(घ) ईश्वरीय-कृपा, प्रेमी-हृदय दुष्यंत का असीम प्रेम तथा कवि कालिदास की सौंदर्य मुग्ध दृष्टि तीनों तत्त्वों ने समन्वित रूप में शकुंतला के सौंदर्य का निर्माण किया।

(ङ) जब राजा दुष्यंत शकुंतला के चित्र का निर्माण कर रहे थे तो उन्हें लगा कि यह चित्र पूर्ण नहीं है। उसका मन खीझ उठा। काफी देर सोचने के पश्चात् उन्हें ज्ञात हुआ कि उन्होंने शकुंतला के कानों में शिरीष के फूलों को नहीं लगाया है और न ही गले में कोमल तथा सुंदर कमलनाल का हार पहनाया है।

[6] कालिदास सौंदर्य के बाह्य आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृपीवल की भाँति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत में है। कविवर रवींद्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा-‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।’ फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है। [पृष्ठ-147]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा उसके स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। इस गद्यांश में लेखक ने कालिदास की सौंदर्य दृष्टि की सूक्ष्मता तथा पूर्णता का वर्णन किया है। यहाँ लेखक ने कालिदास के अतिरिक्त सुमित्रानंदन पंत तथा रवींद्रनाथ को भी अनासक्त कवि कहा है।

व्याख्या-कालिदास सुंदरता के सच्चे पारखी थे। वे सुंदरता के बाहरी परदे को पार करके उसकी गहराई में उतर जाते थे। चाहे सुख हो अथवा दुःख हो, वे अपने भाव-रस अनासक्त किसान के समान बाहर खींच कर ले आते थे। जिस प्रकार किसान भली-भाँति निचोड़े गन्ने से भी रस निकाल लेता है, उसी प्रकार कालिदास भी सौंदर्य में से भाव-रस निकाल लेते थे। कालिदास इसलिए महान् थे, क्योंकि वे अनासक्त व्यक्ति थे। उन्हें किसी से लगाव नहीं था। कवि सुमित्रानंदन पंत भी इसी श्रेणी के आसक्तिहीन कवि थे। कवि रवींद्रनाथ ठाकुर में भी अनासक्ति थी। इन दोनों कवियों ने सुख-दुःख की परवाह न करते हुए सुंदर काव्य-रचनाएँ लिखी हैं।

एक स्थल पर उन्होंने लिखा भी है राजा के उद्यान का मुख्यद्वार चाहे कितना भी ऊँचा हो, उसकी शिल्पकला सुंदरतम क्यों न हो, वह कभी नहीं कहता कि मेरे अंदर आकर सब रास्ते समाप्त हो गए हैं। भाव यह है कि सौंदर्य चाहे कितना महान् क्यों न हो, लेकिन वह अंतिम नहीं होता। असली पहुँचने का स्थान तो उसे पार करने के बाद ही मिलता है। यह संकेत करना उस मुख्य द्वार का कर्तव्य है। अंत में लेखक कहता है कि चाहे फूल हो चाहे वृक्ष, वे अपने आप में पूर्ण नहीं होते। वे किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए अपनी अँगुली से इशारा करते हैं अर्थात् वे हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं और समझाते हुए कहते हैं कि उससे बढ़कर भी हो सकता है, उसकी खोज करो।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने स्पष्ट किया है कि कालिदास की सौंदर्य दृष्टि बड़ी गंभीर और अंतर्भेदनी थी।
  2. कवि ने सुमित्रानंदन पंत तथा रवींद्रनाथ ठाकुर को अनासक्त कवि कहा है।
  3. सहज एवं सरल साहित्यिक हिंदी का प्रयोग हुआ है।
  4. विवेचनात्मक शैली का सफल प्रयोग है।
  5. वाक्य-विन्यास सटीक व भावाभिव्यक्ति में सहायक है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) कालिदास की सौंदर्य दृष्टि किस प्रकार की थी?
(ख) अनासक्ति का क्या अर्थ है?
(ग) कालिदास, सुमित्रानंदन पंत तथा रवींद्रनाथ में क्या समानताएँ थीं?
(घ) रवींद्रनाथ ने राजोद्यान के माध्यम से क्या संदेश दिया है?
उत्तर:
(क) कालिदास की सौंदर्य दृष्टि बड़ी सूक्ष्म एवं गहन थी। उन्होंने सुंदरता के बाहरी रूप को कभी नहीं देखा। वे सुंदरता के भीतर प्रवेश करना जानते थे। इसलिए उन्होंने बाहरी तथा भीतरी दोनों प्रकार के सौंदर्य का वर्णन किया है।

(ख) अनासक्ति का आशय है-व्यक्तिगत सुख-दुःख तथा लाभ-हानि से ऊपर उठना। सौंदर्य को भी इसी दृष्टि से देखना अनासक्त कहलाता है।

(ग) कालिदास, सुमित्रानंदन पंत तथा रवींद्रनाथ तीनों अनासक्त कवि थे। उन्होंने व्यक्तिगत सुख-दुःख, लाभ-हानि एवं राग-द्वेष से ऊपर उठकर सौंदर्य के वास्तविक रूप को समझा और उसके मर्म को जाना। ये तीनों कवि वास्तविक सौंदर्य को देखने की क्षमता रखते थे।

(घ) राजोद्यान के बारे में रवींद्रनाथ ने कहा है कि सौंदर्य कितना परिपूर्ण या बहुमूल्य क्यों न हो, लेकिन वह अंतिम नहीं होता। बल्कि वह सौंदर्य किसी ओर सर्वोत्तम तथा ऊँचे सौंदर्य की ओर इशारा करता है तथा निरंतर आगे बढ़ने का संदेश देता है।

[7] शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन धूप, वर्षा, आँधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है। शिरीष वायुमंडल में रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गांधी भी वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूँ तब तब हूक उठती है-हाय, वह अवधूत आज कहाँ है! [पृष्ठ-147-148]

प्रसंग-प्रस्तुत गद्य भाग हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2′ में संकलित निबंध ‘शिरीष के फूल’ में से लिया गया है। इसके लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती तथा उसके स्वरूप के वर्णन के साथ-साथ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। यहाँ लेखक शिरीष के फूल को याद करते हुए देश की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालता है।

HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 17 शिरीष के फूल

व्याख्या लेखक का कथन है कि शिरीष का वृक्ष सचमुच एक पक्का अवधूत है। वह मेरे मन में भाव-तरंगें उत्पन्न करता है। ये भाव-तरंगें ऊपर को उठती हैं और मेरे मन में हलचल पैदा करती हैं। लेखक सोचता है कि शिरीष का वृक्ष इतनी तपती धूप में भी इतना सरस क्यों बना हुआ है? उसमें ऐसी क्षमता कहाँ से आई है। यह जो बाहरी परिवर्तन हो रहा है, उसमें धूप, वर्षा, आँधी, लू आदि क्या सच्चाई नहीं है। यह सच्चाई है। लेकिन शिरीष का वृक्ष इन विपरीत तथा कठोर परिस्थितियों में जीना जानता है। हमारे देश में भी काफी मार-काट हुई है, घरों को जलाया गया है, लोगों का कत्ल किया गया है। यह विनाशकारी आँधी हमारे देश में चली है।

क्या हम इन कठिन परिस्थितियों में जिंदा नहीं रह सकते। जब शिरीष कठिन परिस्थितियों में स्थिर रह सकता है तब हम भी रह सकते हैं। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी इन कठोर परिस्थितियों में जीवित रहे थे। लेखक का मन उससे पूछता है कि ऐसा कैसे हो सका और क्यों हो सका। वे स्वयं उत्तर देते हुए कहते हैं कि शिरीष एक अनासक्त संन्यासी है। वह वायुमंडल से रस खींचकर कोमल भी बन सकता है और कठोर भी। महात्मा गांधी ने भी ऐसा ही किया था। उन्होंने भी वायुमंडल से रस प्राप्त करके कठोर जीवन यापन किया। लेखक जब-जब शिरीष की ओर देखता है तब-तब उसके मन में प्रश्न उठता है कि वह अनासक्त संन्यासी कहाँ चला गया? उस जैसे अवधूत अब कहीं दिखाई नहीं देते।।

विशेष-

  1. यहाँ लेखक ने विचारात्मक शैली द्वारा शिरीष के वृक्ष के माध्यम से वर्तमान भारत की स्थिति पर समुचित प्रकाश डाला है।
  2. लेखक ने शिरीष के साथ महात्मा गांधी की तुलना की है।
  3. सहज एवं सरल साहित्यिक हिंदी भाषा का प्रयोग है।
  4. वाक्य-विन्यास सटीक एवं सार्थक है तथा भावाभिव्यक्ति में सहायक है।
  5. विचारात्मक शैली का सफल प्रयोग है।

गद्यांश पर आधारित अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर
प्रश्न-
(क) शिरीष के वृक्ष के बारे में लेखक ने क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की है?
(ख) अग्निकांड और मार-काट में कौन-कौन स्थिर रह सके?
(ग) लेखक ने शिरीष को अवधूत क्यों कहा है?
(घ) एक बूढ़े से लेखक का क्या अभिप्राय है और उसकी तुलना शिरीष से क्यों की गई है?
(ङ) गांधी जी किस तरह कोमल व कठोर बने रह सके?
उत्तर:
(क) शिरीष का वृक्ष लेखक के मन में भाव-तरंगों को उठाता है। भाव यह है कि शिरीष के वृक्ष को देखकर लेखक के मन में उदात्त भाव उत्पन्न होने लगते हैं।

(ख) अग्निकांड और मार-काट के बीच शिरीष का वृक्ष स्थिर रह सका और महात्मा गांधी भी। शिरीष का वृक्ष तपती लू तथा धूप में जिंदा रह सका। इसी प्रकार महात्मा गांधी भारत-पाक विभाजन के समय हुई हिंसा के बावजूद स्थिर बने रहे।

(ग) लेखक ने शिरीष को अवधूत इसलिए कहा है क्योंकि वह ग्रीष्म ऋतु की तपन और लू के बावजूद वायुमंडल से रस खींचता है और फलता-फूलता है। इन विपरीत परिस्थितियों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

(घ) एक बूढ़े से लेखक का अभिप्राय महात्मा गांधी है, जिन्होंने भारत-पाक विभाजन के समय हिंसा का सामना किया और लोगों को शांत बने रहने की शिक्षा दी। गांधी जी ने भी शिरीष के समान कठिनाइयों में सरस रहना सीखा।

(ङ) गांधी जी ने अपनी आँखों से मार-काट को देखा। वे मार-काट करने वालों के आगे कठोर बनकर खड़े हो गए और इसी हिंसा के कारण उनके मन में करुणा की भावना उत्पन्न हुई और वे कोमल भी हो गए। इन विपरीत परिस्थितियों में भी गांधी जी कोमल व कठोर बने रहे।

शिरीष के फूल लेखक-परिचय

प्रश्न-
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक परिचय दीजिए।
उत्तर:
1. जीवन-परिचय-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी के सुप्रसिद्ध निबंधकार थे। निबंधों की रचना द्वारा उन्होंने निबंध-साहित्य को समृद्ध किया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के आरत दुबे का छपरा गाँव में सन् 1907 में हुआ था। उनके पिता अनमोल द्विवेदी बहुत अध्ययनशील तथा संत-स्वभाव के थे। द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा अपने जिले के विद्यालयों में हुई। सन् 1930 में उन्होंने ‘शास्त्राचार्य’ की परीक्षा उत्तीर्ण की। लेखक ने बाल्यकाल में ही मैथिलीशरण गुप्त की ‘भरत-भारती’ तथा ‘जयद्रथ-वध’ जैसी कृतियों को कंठस्थ कर लिया था। उन्होंने ‘उपनिषद्’, ‘महाभारत’ तथा ‘दर्शन-ग्रंथों’ का अध्ययन किशोरावस्था में ही कर लिया था। द्विवेदी जी ‘रामचरितमानस’ का नियमित रूप से पाठ किया करते थे।

सन् 1930 में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की नियुक्ति शांति-निकेतन में हिंदी अध्यापक के पद पर हुई। वहाँ पर उनको विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर, महामहोपाध्याय पं० विधु शेखर भट्टाचार्य, आचार्य क्षितिमोहन सेन, आचार्य नंदलाल बसु जैसे विश्व-विख्यात विभूतियों के संपर्क में आने का अवसर मिला। इस वातावरण ने लेखक के दृष्टिकोण को अत्यधिक व्यापक बना दिया।

अध्यापन के क्षेत्र में आचार्य द्विवेदी का बहुत योगदान रहा है। कलकत्ता में शांति निकेतन’ में अध्यापन के पश्चात् लगभग दस वर्ष तक उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तथा अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। तत्पश्चात् वे पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में भी हिंदी के वरिष्ठ प्रोफेसर तथा टैगोर-पीठ’ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे। भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्म-भूषण’ से अलंकृत किया। ये भारत सरकार की अनेक समितियों के निदेशक तथा सदस्य के रूप में हिंदी भाषा तथा साहित्य की सेवा करते हुए सन् 1979 में दिल्ली में स्वर्ग-सिधार गए।

2. प्रमुख रचनाएँ-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने विभिन्न विधाओं पर सफलतापूर्वक लेखनी चलाई है। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं

  • समीक्षात्मक ग्रंथ-‘सूर साहित्य,’ ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’, ‘मध्यकालीन धर्म साधना’, ‘सूर और उनका काव्य’, ‘नाथ-संप्रदाय’, ‘कबीर’, ‘मेघदूत’, ‘एक पुरानी कहानी’, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’, ‘लालित्य मीमांसा’ आदि।
  • उपन्यास- बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारु चंद्र लेख’, ‘पुनर्नवा’ तथा ‘अनामदास का पोथा’।
  • निबंध-संग्रह ‘अशोक के फूल’, ‘विचार-प्रवाह’, ‘विचार और वितर्क’, ‘कल्पलता’, ‘कुटज’ तथा ‘भारत के कलात्मक विनोद’।

3. साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी निबंध-साहित्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पश्चात् आचार्य द्विवेदी जी सवश्रेष्ठ निबंधकार हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य को जहाँ गवेषणात्मक, आलोचनात्मक और विचारात्मक निबंध प्रदान किए, वहाँ उन्होंने ललित निबंधों की रचना भी की है। वे हिंदी के प्रथम एवं श्रेष्ठ ललित निबंधकार हैं। यद्यपि उन्होंने पहली बार ललित निबंधों की रचना की, किंतु फिर भी उनका प्रयास अधूरा न होकर पूर्ण है। उनके निबंध साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) प्राचीन एवं नवीन का समन्वय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध साहित्य में प्राचीन एवं नवीन विचारों का अपूर्व समन्वय है। उन्होंने अपने निबंधों में जहाँ एक ओर सनातन जीवन-दर्शन और साहित्य-सिद्धांतों को अपनाया है वहीं दूसरी ओर अपने युग के नवीन अनुभवों को लिया है। प्राचीन और नवीन विचारधाराओं के सामञ्जस्य से जो नए-नए निष्कर्ष निकलते हैं वे ही उनके साहित्य की अपूर्व देन कही जाती है। इस नए दृष्टिकोण से आज के साहित्यकारों व समाज को एक नई राह मिल सकती है अथवा जिसे अपने जीवन में धारण करके मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सकता है।

(ii) विषयों की विविधता आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन-अनुभव बहुत गहन एवं विस्तृत है। उन्होंने जीवन के विविध पक्षों को समीप से देखा और परखा है। अपने विस्तृत जीवन-अनुभव के कारण ही उन्होंने अनेक विषयों को अपने निबंधों का आधार बनाया है। उनके निबंधों को विषय-विविधता के आधार पर निम्नलिखित कोटियों में रखा जा सकता है

  • सांस्कृतिक निबंध
  • ज्योतिष संबंधी
  • समीक्षात्मक
  • नैतिक
  • वृक्ष अथवा प्रकृति संबंधी।

(iii) मानवतावादी विचारधारा-द्विवेदी जी के निबंध साहित्य में मानवतावादी विचारधारा के सर्वत्र दर्शन होते हैं। इस विषय में द्विवेदी जी ने स्वयं लिखा है, “मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न कर सके, जो उसके हृदय को परदुःखकातर, संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।” आचार्य द्विवेदी का साहित्य संबंधी यह दृष्टिकोण उनके साहित्य में भी फलित हुआ है। इसीलिए उनके साहित्य में स्थान-स्थान पर मानवतावादी विचारों के दर्शन होते हैं।

(iv) भारतीय संस्कृति में विश्वास-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सदैव भारतीय संस्कृति के पक्षधर बने रहे। इसीलिए उनके निबंध साहित्य में भारतीय संस्कृति की महानता की तस्वीर देखी जा सकती है। भारतीय संस्कृति का जितना सूक्ष्मतापूर्ण अध्ययन व ज्ञान उनके निबंधों में व्यक्त हुआ है, वह अन्यत्र नहीं है। उन्होंने भारत की संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों में एकता या एकसूत्रता के दर्शन किए हैं। जीवन की एकरूपता की यही दृष्टि उनके साहित्य में साकार रूप धारण करके प्रकट हुई है। द्विवेदी जी सारे संसार के मनुष्यों में एक सामान्य मानव संस्कृति के दर्शन करते हैं। भारतीय संस्कृति के प्रति विश्वास एवं निष्ठा रखने का यह भी एक कारण है। ‘अशोक के फूल’, ‘भारतीय संस्कृति की देन’ आदि निबंधों में उनका यह विश्वास सशक्तता से व्यक्त हुआ है।

(v) भाव तत्त्व की प्रधानता आचार्य द्विवेदी के निबंध साहित्य की अन्य प्रमुख विशेषता है-भाव तत्त्व की प्रमुखता। भाव तत्त्व की प्रधानता के कारण ही भाषा धारा-प्रवाह रूप में आगे बढ़ती है। वे गंभीर-से-गंभीर विचार को भी भावात्मक शैली में लिखकर उसे अत्यंत सहज रूप में प्रस्तुत करने की कला में निपुण हैं। इसी कारण उनके निबंधों में कहीं विचारों की जटिलता या क्लिष्टता अनुभव नहीं होती। इस दृष्टि से ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबंध की ये पंक्तियाँ देखिए

“एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं तब भी यह हज़रत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं।”

(vi) संक्षिप्तता-संक्षिप्तता निबंध का प्रमुख तत्त्व है। द्विवेदी जी ने अपने निबंधों के आकार की योजना में इस तत्त्व का विशेष ध्यान रखा है। यही कारण है कि उनके निबंध आकार की दृष्टि से संक्षिप्त हैं। ये आकार में छोटे होते हुए भी भाव एवं विचार तत्त्व की दृष्टि से पूर्ण हैं। ये विषय-विवेचन की दृष्टि से सुसंबद्ध एवं कसावयुक्त हैं। शैली एवं शिल्प की दृष्टि से भी कहीं अधिक फैलाव नहीं है। विषय का विवेचन अत्यंत गंभीर एवं पूर्ण है। इसलिए निबंध कला का आदर्श बने हुए हैं।

(vii) देश-प्रेम की भावना आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध साहित्य में देश-प्रेम की भावना के सर्वत्र दर्शन होते हैं। वे देश-प्रेम को हर नागरिक का परम धर्म मानते हैं। जिस मिट्टी में हम पैदा हुए, हमारा शरीर जिसके अन्न, जल, वायु से पुष्ट हुआ, उसके प्रति लगाव या प्रेम-भाव रखना स्वाभाविक है। इसलिए उन्होंने अपने निबंध साहित्य में देश-प्रेम की भावना की बार-बार और अनेक प्रकार से अभिव्यक्ति की है। इस दृष्टि से उन्होंने अपने निबंधों में अपने देश की संस्कृति, प्रकृति, नदियों, पर्वतों, सागरों, जनता के सुख-दुःख का अत्यंत आत्मीयतापूर्ण वर्णन किया है। ‘मेरी जन्मभूमि’ निबंध इस दृष्टि से अत्यंत उत्तम निबंध है। इस निबंध में उन्होंने लिखा भी है, “यह बात अगर छिपाई भी तो भी कैसे छिप सकेगी कि मैं अपनी जन्मभूमि को प्यार करता हूँ।”

4. भाषा-शैली-आचार्य द्विवेदी जी के निबंधों में गंभीर पांडित्य और सरस हार्दिकता दोनों का साथ-साथ निर्वाह हुआ है। पांडित्य एवं लालित्य का ऐसा सामञ्जस्य मिलना दुर्लभ है। वे विषय को सरल-सहज भावों में इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि पाठक विषय को हृदयगंम करता चलता है। द्विवेदी जी की तत्सम प्रधान साहित्यिक भाषा है। इसमें उन्होंने छोटे एवं बड़े दोनों प्रकार के वाक्यों का प्रयोग किया है। जहाँ लंबे वाक्यों का प्रयोग हुआ है, वहाँ विचार को समझने में अवश्य थोड़ी कठिनाई अनुभव होती है। उनकी भाषा में तत्सम शब्दावली के अतिरिक्त यथास्थान तद्भव, अंग्रेज़ी, उर्दू-फारसी व देशज शब्दों का भी भरपूर प्रयोग हुआ है। भाषा सुसंगठित, परिष्कृत, विषयानुकूल एवं प्रवाहमयी है। उनकी रचनाओं में भावात्मकता, लालित्य एवं माधुर्य का समावेश सर्वत्र दिखलाई पड़ता है। उन्होंने अपने निबंधों में विचारात्मक, व्यंग्यात्मक एवं भावात्मक शैलियों का सफल प्रयोग किया है।

शिरीष के फूल पाठ का सार

प्रश्न-
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबंध का सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:’
शिरीष के फूल’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक ललित निबंध है। इसमें लेखक ने शिरीष के फूल के सौंदर्य, उसकी मस्ती और स्वरूप का वर्णन करते हुए कुछ सामाजिक विषयों पर भी प्रकाश डाला है। लेखक ने प्राचीन साहित्य में शिरीष के महत्त्व का विवेचन करते हुए उसकी तुलना एक अवधूत के साथ की है। इस निबंध में उन्होंने शिरीष के फूल के माध्यम से मानव की दृढ़ इच्छा-शक्ति का सूक्ष्म विवेचन-विश्लेषण किया है। लेखक का प्रकृति के प्रति अनन्य प्रेम है। वे जहाँ बैठकर निबंध लिख रहे थे वहाँ उनके आस-पास शिरीष के फूल खिले हुए थे। जब जेठ की दोपहरी की जलती हुई धूप में अन्य फूल व वनस्पति मुरझा गई थी उस समय शिरीष के पेड़ फूलों से लदे हुए झूम रहे थे। बहुत कम ऐसे वृक्ष होते हैं जो गर्मी के मौसम तक फूलों से लदे रहते हैं। कनेर और अमलतास के पेड़ भी गर्मी में ही फूलते हैं, किंतु केवल पंद्रह-बीस दिन के लिए ही। इसी प्रकार वसंत में पलाश के पेड़ भी खूब फूलते हैं, किन्तु कुछ समय पश्चात् वे फूल-रहित होकर ठूठ से दिखाई देने लगते हैं। लेखक का मत है कि ऐसे कुछ देर फूलने वाले वृक्षों से तो न फूलने वाले वृक्ष अच्छे हैं।

शिरीष का फूल अन्य वृक्षों से कुछ अलग प्रवृत्ति वाला है। वह वसंत के आते ही अन्य पेड़-पौधों के समान फूलों से लद जाता है और आषाढ़ के मास तक अर्थात् वर्षा काल तक निश्चित रूप से फूलों से लदा रहकर प्रकृति की शोभा बढ़ाता रहता है। कभी-कभी भादों मास तक भी इस पर फूल खिलते रहते हैं। भयंकर गर्मी में भी शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र पढ़ता हुआ प्रतीत होता है।

शिरीष के फूल नए फूल आने तक अपना स्थान नहीं छोड़ते। यह पुराने की अधिकार-लिप्सा है। लेखक ने मनुष्य की इस प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, “जब तक नये फल-पत्ते मिलकर धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मझे इनको देखकर उन नेताओं की याद आती है जो किसी प्रकार के जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नयी पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।”

जब बुढ़ापा और मृत्यु सबके लिए निश्चित है तो शिरीष के फूलों को भी निश्चित रूप से झड़ना पड़ेगा, किंतु वे अड़े रहते हैं। न जाने वे ऐसा क्यों करते हैं। वे मूर्ख हैं, सोचते होंगे कि वे सदा ऐसे ही बने रहेंगे, कभी मरेंगे नहीं। इस संसार में भला कोई सदा बना रह सका है। काल देवता की आँख से कोई नहीं बच सकता। वृक्ष के पेड़ की यह खूबी है कि वह सुख-दुःख में सदा . समभाव बना रहता है। यदि वह वसंत में हँसता है तो ग्रीष्म ऋतु की तपन को सहता हुआ भी मुस्कुराता रहता है। लेखक को आश्चर्य होता है कि गर्मी के मौसम में वह कहाँ से रस प्राप्त करके जीवित रहता है। किसी वनस्पतिशास्त्री ने लेखक को बताया कि वह वायुमंडल से अपना रस प्राप्त कर लेता है।

HBSE 12th Class Hindi Solutions Aroh Chapter 17 शिरीष के फूल

आचार्य द्विवेदी जी का मत है कि संसार में अवधूतों के मुँह से ही संसार की सरल रचनाओं का जन्म हुआ। कबीर और कालिदास भी शिरीष की भाँति ही अवधूत प्रवृत्ति के रहे होंगे क्योंकि जो कवि अनासक्त नहीं रह सकता, वह फक्कड़ प्रवृत्ति का नहीं हो सकता। शिरीष का वृक्ष भी ऐसी फक्कड़ किस्म की मस्ती लेकर झूमता है। लेखक ने शिरीष के फूल के महत्त्व को दर्शाने के लिए प्राचीन प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखा है, “राजा दुष्यंत भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था, लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंतला के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गये हैं जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।”

कालिदास की भाँति ही हिंदी के कवि सुमित्रानंदन पंत में भी अनासक्ति है। महान् कवि रवींद्रनाथ में भी यह अनासक्ति दिखलाई पड़ती है। लेखक की मान्यता है कि फूल हो या पेड़ वह अपने आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए संकेत है। शिरीष का पेड़ सचमुच में लेखक के हृदय में अवधूत की भाँति तरंगें जगा देता है। वह विपरीत स्थितियों में भी स्थिर रह सकता है, यद्यपि ऐसा करना सबके लिए संभव नहीं होता। हमारे देश में महात्मा गांधी भी ऐसी ही विपरीत परिस्थितियों की देन थी। वे भी शिरीष की भाँति वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल तथा कठोर हो सका। लेखक जब भी शिरीष के पेड़ को देखता है तो उसे गांधी जैसे अवधूत की स्मृति आ जाती है।

कठिन शब्दों के अर्थ

धरित्री = पृथ्वी। निर्धूम = धुएँ के बिना। कर्णिकार = कनेर। आरग्वध = अमलतास। पलास = ढाक। लहकना = खिलना। खंखड़ = ढूँठ। दुमदार = पूँछ वाले। लँडूरे = बिना पूँछ वाले। निर्घात = बिना बाधा के। लू = गर्म हवा। एकमात्र = इकलौता। कालजयी = समय को जीतने वाला। अवधूत = सांसारिक विषय-वासनाओं से ऊँचा उठा हुआ संन्यासी, वाममार्गी तांत्रिक। हिल्लोल = लहर। मंगलजनक = शुभदायक। अरिष्ट = रीठा का वृक्ष । पुन्नाग = सदाबहार वृक्ष । घनमसृण = घना चिकना। हरीतिमा = हरियाली। परिवेष्टित = ढका हुआ। कामसूत्र = वात्स्यायन का काम संबंधी ग्रंथ। दोला = झूला। तुंदिल = मोटे पेट वाला। परवर्ती = बाद के। मर्मरित = खड़खड़ाहट या सरसराहट की ध्वनि। सपासप = कोड़े पड़ने की आवाज। जीर्ण = पुराना। ऊर्ध्वमुखी = प्रगति की ओर। दुरंत = जिसका विनाश न हो सके। सर्वव्यापक = सर्वत्र व्याप्त। कालाग्नि = मृत्यु की आग। हज़रत = श्रीमान। अनासक्त = निर्लिप्त। अनाविल = स्वच्छ। उन्मुक्त = स्वच्छंद, द्वंद्वरहित। फक्कड़ = मस्तमौला। कर्णाट = प्राचीन काल का कर्नाटक राज्य । उपालंभ = उलाहना। स्थिर-प्रज्ञता = अविचल बुद्धि की अवस्था। विदग्ध = अच्छी प्रकार तपा हुआ। मुग्ध = आनंदित। विस्मय-विमूढ़ = आश्चर्यचकित। कार्पण्य = कंजूसी। गंडस्थल = कपोल, गाल। शरच्चंद्र = शरद ऋतु का चाँद। शुभ्र = श्वेत। मृणाल = कमलनाल। कृपीवल = किसान। निर्दलित = अच्छी तरह से निचोड़ा हुआ। ईक्षुदंड = गन्ना। अभ्रभेदी = गगनचुंबी। गंतव्य = लक्ष्य । खून-खच्चर = लड़ाई-झगड़ा। हूक = वेदना, पीड़ा।

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