Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions कैसे बनता है रेडियो नाटक Questions and Answers, Notes.
Haryana Board 12th Class Hindi कैसे बनता है रेडियो नाटक
प्रश्न 1.
रेडियो नाटक का आरंभ कैसे हुआ?
उत्तर:
एक ज़माना था, जब दुनिया में न तो टेलीविज़न था, न ही कंप्यूटर। सिनेमा हॉल और थिएटर भी बहुत कम थे। अगर थे तो आज की तुलना में उनकी संख्या बहुत ही कम थी। किसी भी व्यक्ति को वे आसानी से उपलब्ध नहीं होते थे। ऐसी स्थिति में आम आदमी घर में बैठे मनोरंजन करने के लिए रेडियो का ही सहारा लेता था। रेडियो से ही खबरें सुनी जा सकती थीं, ज्ञानवर्धक कार्यक्रम तथा खेलों का आँखों देखा हाल भी प्रसारित होता था। उस समय एफ.एम. चैनल नहीं थे, लेकिन गीत-संगीत खूब सुनने को मिलता था। उस समय प्रसारित होने वाले रेडियो नाटक ही टी०वी० धारावाहिकों और टेलीफिल्मों की कमी को पूरा करते थे।
हिंदी साहित्य के बड़े-बड़े साहित्यकार साहित्य रचना भी करते थे और रेडियो के लिए नाटक भी लिखते थे। उस समय रेडियो के साथ जुड़ना बड़े सम्मान की बात मानी जाती थी। हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के नाट्य आंदोलन के विकास में रेडियो नाटक ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हिंदी में कुछ ऐसे नाटक भी हैं जो मूलतः रेडियो के लिए लिखे गए थे लेकिन बाद में साहित्य जगत में काफी लोकप्रिय हुए। इस संदर्भ में धर्मवीर भारती द्वारा रचित ‘अंधा युग’ (गीति नाटक) तथा मोहन राकेश द्वारा रचित ‘आषाढ़ का एक दिन’, सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। इस प्रकार रेडियो नाटक का इतिहास रेडियो से ही आरंभ होता है।
प्रश्न 2.
रेडियो नाटक और सिनेमा/रंगमंचीय नाटक में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रेडियो नाटक और सिनेमा/रंगमंचीय नाटक में निम्नलिखित अन्तर हैं-
रेडियो नाटक | सिनेमा/रंगमंचीय नाटक |
1. सिनेमा/रंगमंचीय नाटक दृश्य माध्यम है। | 1. रेडियो नाटक एक श्रव्य माध्यम है। |
2. इनमें दृश्य होते हैं। | 2. इसमें दृश्य नहीं होते। |
3. रेडियो नाटक में साज-सज्जा का कोई महत्त्व नहीं होता क्योंकि वहाँ इसका प्रयोग नहीं होता। | 3. सिनेमा/रंगमंचीय नाटक में साज-सज्जा का अत्यधिक महत्त्व होता है। |
4. रेडियो नाटक में भाव भंगिमा का महत्त्व नहीं होता। | 4. सिनेमा/रंगमंच में भाव भंगिमा का बहुत महत्त्व होता है। |
5. कहानी का विकास संवादों के माध्यम से ही होता है। | 5. इनमें कहानी का विकास पात्रों की भावनाओं और गतिविधियों तथा संवादों द्वारा किया जाता है। |
6. रेडियो नाटक में दृश्य एवं अंक नहीं होते। | 6. जबकि रंगमंचीय नाटक में दृश्य व अंक होते हैं। |
प्रश्न 3.
सिनेमा, रंगमंच और रेडियो नाटक में क्या समानताएँ और विषमताएँ हैं? स्पष्ट करें।
उत्तर:
मूलतः रेडियो नाटक सिनेमा तथा रंगमंच से मिलती-जुलती विधा है। इसमें सिनेमा तथा रंगमंच की तरह चरित्र होते हैं और इन्हीं चरित्रों द्वारा संवाद बोले जाते हैं तथा संवादों के कारण ही कथानक आगे बढ़ता है। सिनेमा और रंगमंच के समान रेडियो नाटक के कथानक में आरंभ, मध्य और अंत होता है। यही नहीं, इनमें पात्रों के परिचय, द्वंद्व के साथ-साथ अंत में समाधान भी दिया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि रेडियो नाटक सतही तौर पर सिनेमा और रंगमंच के समान है।
लेकिन इनमें कुछ विषमताएँ भी हैं। पहली बात तो यह है कि सिनेमा और रंगमंच में दृश्य होते हैं, परंतु रेडियो नाटक में दृश्य नहीं होते। रेडियो नाटक एक श्रव्य माध्यम है, परंतु सिनेमा और रंगमंच में अभिनेता की भावनाओं द्वारा कथानक प्रस्तुत किया जाता है। रेडियो नाटक में ध्वनि प्रभावों का विशेष महत्त्व होता है और इन्हीं के द्वारा सब कुछ संप्रेषित किया जाता है। सिनेमा और रंगमंच में कथानक के साथ-साथ मंच सज्जा तथा वेश सज्जा का भी ध्यान रखना पड़ता है। रेडियो नाटक में इनका कोई महत्त्व नहीं होता है, क्योंकि वह दृश्य नाटक न होकर श्रव्य नाटक होता है।
प्रश्न 4.
रेडियो नाटक के कथानक में किन-किन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
रेडियो नाटक का कथानक संवादों और ध्वनि प्रभावों पर ही निर्भर रहता है। इसलिए कथानक का चुनाव करते समय अग्रलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-
(1) रेडियो नाटक का कथानक केवल एक घटना पर आधारित नहीं होना चाहिए। उदाहरण के रूप में, यदि रेडियो नाटक के कथानक का आधार पुलिस द्वारा डाकुओं का पीछा करना है, तो यह कथानक अधिक देर तक नहीं रहना चाहिए, अन्यथा यह उबाऊ हो जाएगा। इसका मतलब यह है कि रेडियो नाटक के कथानक में अत्यधिक संवाद होने चाहिए तथा एक-से-अधिक घटनाएँ भी होनी चाहिए।
(2) सामान्य तौर पर रेडियो नाटक की अवधि 15 से 30 मिनट तक होनी चाहिए। इससे अधिक की अवधि के नाटक को श्रोता सुनना पसंद नहीं करेगा। कारण यह है कि श्रोता की एकाग्रता 15 से 30 मिनट तक ही बनी रहती है। यदि रेडियो नाटक की अवधि लंबी होगी, तो श्रोता की एकाग्रता भंग हो जाएगी और उसका ध्यान भी भटक जाएगा।
(3) रेडियो नाटक में पात्रों की संख्या बहुत कम होनी चाहिए। तीन-चार पात्रों का नाटक आदर्श नाटक कहा जा सकता है। यदि रेडियो नाटक में बहुत अधिक पात्र होंगे, तो श्रोताओं को पात्रों को याद रखना कठिन होगा, क्योंकि श्रोता केवल आवाज़ के माध्यम से रेडियो के पात्रों को याद रखता है।
प्रश्न 5.
रेडियो नाटक की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रेडियो नाटक की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं
- रेडियो नाटक में संकलनत्रय के लिए कोई स्थान नहीं है। इसकी घटनाएँ गौ द्ध से लेकर गांधी युग की यात्रा कर सकती हैं, क्योंकि इसमें केवल प्रभावान्विति पर बल दिया जाता है।
- रेडियो नाटक में मनोवैज्ञानिक चित्रण की सुविधाएँ विद्यमान हैं। रेडियो नाटक के पात्रों के मन की गहराई में उतरना सरल है।
- रेडियो नाटक में वाद्य संगीत, ध्वनि प्रभाव अथवा शांति के द्वारा दश्य परिवर्तन किया जा सकता है और इस कार्य में बहुत कम समय लगता है।
- रेडियो नाटक में सभी प्रकार के दृश्य उपस्थित किए जा सकते हैं; जैसे समुद्र की ऊँची, लहरों पर डूबती-उतरती नौका अथवा कारखानों में काम करते मज़दूर।
- रंगमंच पर अस्वाभाविक लगने वाले प्रतीकात्मक पात्र रेडियो नाटक में सजीव एवं स्वाभाविक प्राणी बन जाते हैं। यही नहीं, भाव और विचार भी मानव शरीर धारण कर लेते हैं।
- रंगमंच का अस्वाभाविक स्वगत कथन माइक्रोफोन का स्पर्श पाकर रेडियो नाटक पर स्वाभाविक बन जाता है।
प्रश्न 6.
रेडियो नाटक के तत्वों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
रेडियो नाटक का आधार ध्वनि है और ध्वनि ही भावाभिव्यक्ति का सबसे बड़ा साधन है। एक ही शब्द का हम अलग-अलग उच्चारण करके प्रेम, घृणा, क्रोध आदि विभिन्न भावनाओं को व्यक्त कर सकते हैं। रेडियो नाटक में ध्वनि का प्रयोग तीन प्रकार से होता है और यही तीन ही रेडियो नाटक के तत्त्व हैं। ये हैं
- भाषा
- ध्वनि प्रभाव
- संगीत
(1) भाषा-भाषा रेडियो नाटक का मूल आधार है। यही बोलने और सुनने के काम आती है, परंतु रेडियो नाटक में सहज, सरल, स्वाभाविक भाषा का ही प्रयोग होना चाहिए। जटिल भाषा रेडियो नाटक को असफल बनाती है, क्योंकि रेडियो नाटक सुनने वाले आम लोग होते हैं। रेडियो नाटक में भाषा का प्रयोग दो रूपों में किया जाता है
- कथोपकथन,
- नैरेशन (प्रवक्ता का कथन)
कथोपकथन रेडियो नाटक के पात्रों की मानसिक स्थितियों से परिचित करवाता है। कथानक को गति देता है, श्रोता को अपनी ओर आकर्षित करता है।
नैरेशन का अर्थ है-नाटक का वह अंश, जिसके द्वारा पात्र नाटक के क्रिया-कलापों के वातावरण का निर्माण करता है, आवश्यक विवरण देता है और घटनाओं की श्रृंखला को जोड़ता है। इस प्रकार के पात्र को सूत्रधार प्रवक्ता, वाचक, वाचिका, आलोचक, उद्घोषक, स्त्री स्वर, पुरुष स्वर आदि नाम दिए जाते हैं।
नैरेटर भी दो प्रकार के होते हैं
- प्रथम कोटि के नैरेटर का व्यक्तिगत जीवन के नाटक की घटनाओं से कोई संबंध नहीं होता और वह नाटक के क्रिया-कलाप का तटस्थ दर्शक तथा प्रवक्ता होता है।
- दूसरी कोटि का नैरेटर नाटक का पात्र होता है, जिसके जीवन की घटनाएँ नाटक से प्रत्यक्ष रूप से संबंध रखती हैं। उसके कथन काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं।
(2) ध्वनि प्रभाव ध्वनि का अर्थ है-रेल, तूफ़ान, कारखाना, वर्षा, बादल, बाज़ार आदि की ध्वनियाँ, जिनका प्रयोग नाटक प्रसारित करते समय किया जाता है। इन ध्वनियों के प्रयोग से रेडियो नाटक में वातावरण का निर्माण होता है।
(3) संगीत-ध्वनि और वाद्य संगीत का प्रयोग पात्रों के कार्यों के लिए पृष्ठभूमि तथा वातावरण निर्माण के लिए किया जाता है। यही नहीं, इसके द्वारा भावाभिव्यंजना, दृश्य परिवर्तन तथा देशकाल का परिचय भी दिया जाता है। संगीत के प्रयोग से रेडियो नाटक सजीव एवं प्रभावशाली बन जाता है।
प्रश्न 7.
रेडियो नाटकों में ध्वनि तथा संवादों की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रेडियो एक श्रव्य माध्यम है। रेडियो रूपक रेडियो से प्रसारित किया जाता है। अतः यह भी श्रव्य विधा है। इसमें संवादों का विशेष महत्त्व रहता है। श्रोता ध्वनि तथा संवादों को सुनकर ही कथानक को समझता है और आनंद उठाता है। नाटक के पात्रों की जानकारी भी संवादों से मिलती है, जिन्हें सुनकर श्रोता अपने मन में पात्र का बिंब बना लेता है। संवादों से ही पात्रों के नाम, उनके काम तथा उनकी चारित्रिक विशेषताओं का परिचय मिलता है। संवाद भाषा पर निर्भर होते हैं। भाषा से ही पता चलता है कि नाटक संवाद शहरी हैं अथवा ग्रामीण। यही नहीं, भाषा से पात्रों की आयु तथा व्यवसाय का भी पता चल जाता है। जब पात्र एक-दूसरे को नाम लेकर बुलाते हैं, तो श्रोता को उसकी जानकारी मिल जाती है। संवाद ही कथानक को गतिशील बनाते हैं और पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन करते हैं।
जहाँ तक ध्वनि का प्रश्न है, उसके बिना रेडियो नाटक प्रभावहीन होता है। ध्वनि अनुकूल देशकाल तथा वातावरण का निर्माण करती है। आँधी, तूफान, सड़क, वर्षा, बादल, कारखाना, बाज़ार आदि की जानकारी भी ध्वनि से मिलती है। पुनः ध्वनि का सहयोग पाकर ही संवाद गतिशील होते हैं और कथानक को आगे बढ़ाते हैं। अतः संवादों के साथ-साथ ध्वनि प्रभाव का भी रेडियो नाटक में विशेष महत्त्व है।
पाठ से संवाद
प्रश्न 1.
दृश्य-श्रव्य माध्यमों की तुलना में श्रव्य माध्यम की क्या सीमाएँ हैं? इन सीमाओं को किस तरह पूरा किया जा सकता है?
उत्तर:
दृश्य-श्रव्य माध्यम में हम नाटक को अपनी आँखों से देख भी सकते हैं और पात्रों द्वारा बोले गए विभिन्न संवादों को सुन भी सकते हैं। नाटक निर्देशक संपूर्ण नाटक को रंगमंच पर प्रस्तुत करता है। नाटक में अनेक दृश्य होते हैं, जिन्हें मंच पर सजाया जाता है। जब प्रत्येक दृश्य को अभिनय द्वारा प्रस्तुत किया जाता है तब हम अभिनेताओं के हाव-भाव को देखते हैं, उनके वार्तालाप को सुनते हैं इस प्रकार से हम संपूर्ण नाटक का आनंद लेते हैं। सिनेमा और टी०वी० सीरियल में भी यही स्थिति होती है। परंतु श्रव्य माध्यम की कुछ सीमाएँ हैं। इसमें हम कुछ भी देख नहीं सकते, केवल सुन सकते हैं। रेडियो नाटक में निर्देशक नाटक को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि ध्वनियों के माध्यम से ही सब-कुछ समझना पड़ता है। उदाहरण के रूप में, यदि नदी के किनारे पर दो पात्र वार्तालाप कर रहे हैं, तो नदी के बहने की ध्वनि उत्पन्न की जाएगी और फिर वहाँ पात्र बात करते सुनाई देंगे।
इससे श्रोता अनुमान लगा लेगा कि पात्र नदी के किनारे आपस में बातें कर रहे हैं। इसी प्रकार यदि जंगल का दृश्य प्रस्तुत करना हो, तो जंगल देने वाला संगीत उत्पन्न किया जाता है। कभी-कभी पात्र वातावरण की सृष्टि करने के लिए स्वयं वार्तालाप द्वारा इसे प्रस्तुत करते हैं; जैसे-“ओह! बड़ी सर्दी पड़ रही है। ठंड के मारे हाथ काँप रहे हैं।” यदि वर्षा का वातावरण उत्पन्न करना हो, तो बरसात होने की ध्वनि प्रस्तुत की जाएगी तथा जल्दी-जल्दी चलने की आवाज़ों को उनके वार्तालाप के साथ जोड़ा जाएगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि दृश्य-श्रव्य माध्यम की तुलना में श्रव्य माध्यम में साधन बहुत सीमित होते हैं। इसमें केवल ध्वनि द्वारा ही वातावरण का निर्माण किया जा सकता है। इसके विपरीत, नाटक अथवा सिनेमा में दृश्य-श्रव्य दोनों माध्यमों का प्रयोग किया जाता है।
प्रश्न 2.
नीचे कुछ दृश्य दिए गए हैं। रेडियो नाटक में इन दृश्यों को आप किस-किस तरह से प्रस्तुत करेंगे, विवरण दीजिए।
(क) घनी अँधेरी रात
(ख) सुबह का समय
(ग) बच्चों की खुशी
(घ) नदी का किनारा
(ङ) वर्षा का दिन
उत्तर:
(क) घनी अँधेरी रात-साँय-साँय की आवाज़, किसी पात्र द्वारा यह कहना कि घना काला अँधेरा है, हाथ-को-हाथ नहीं सूझ रहा, चौकीदार की सीटी और जागते रहो का स्वर आदि द्वारा घनी अँधेरी रात के दृश्य को प्रस्तुत किया जा सकता है।
(ख) सुबह का समय-चिड़ियों के चहचहाने का स्वर, मुर्गे द्वारा बाँग देना, किसी पात्र द्वारा प्रातःकालीन भजन का स्वर आदि साधनों से सुबह के समय को प्रस्तुत किया जा सकता है।
(ग) बच्चों की खुशी-बच्चों के कोलाहल का स्वर, उनकी किलकारियाँ, उनकी हँसी तथा उनके खिलौनों की ध्वनियों द्वारा बच्चों की खुशी का दृश्य प्रस्तुत किया जा सकता है।
(घ) नदी का किनारा-नदी के बहते पानी की आवाज़, हवा का स्वर, पक्षियों का कलरव, किसी पात्र द्वारा यह कहना कि नदी का पानी बहुत ठंडा है आदि स्वरों द्वारा नदी के किनारे का दृश्य प्रस्तुत किया जा सकता है।
(ङ) वर्षा का दिन-निरंतर वर्षा होने की ध्वनि, किसी पात्र का यह कहना कि ‘आज तो वर्षा रुकने का नाम नहीं ले रही’, छाता खोल लो, पानी बहने का स्वर, परनाले से पानी गिरने का स्वर आदि के माध्यम से वर्षा के दिन का दृश्य प्रस्तुत किया जा सकता है।
प्रश्न 3.
रेडियो नाटक लेखन का प्रारूप बनाइए और अपनी पुस्तक की किसी कहानी के एक अंश को रेडियो नाटक में रूपांतरित कीजिए।
उत्तर:
‘ईदगाह’ कहानी के आरंभ में एक ऐसा दृश्य है, जिसमें गाँव के कछ लड़के मिलकर ईदगाह जाने लगते हैं। वे हामिद को बुलाने के लिए उसके घर जाते हैं। हामिद भी ईदगाह के मेले में जाना चाहता है। हामिद की दादी उसे मेले में जाने से थोड़ा सावधान करती है। वह हामिद को मेले के लिए तीन पैसे देती है। रेडियो नाटक के लिए यह दृश्य इस प्रकार हो सकता है
(कुछ बच्चों की मिली-जुली आवाजें आ रही हैं। उनके पैरों की आवाज़ हामिद के घर के समीप आती जा रही हैं। वे हामिद के घर का दरवाज़ा खटखटाते हैं।)
- एक स्वर-अरे ओ हामिद! हम सब मेले में जा रहे हैं। क्या तुम आ रहे हो?
- हामिद-रुको! ‘मैं भी चल रहा हूँ।
(चलने की आवाज़) - दादी-बेटे हामिद! थोड़ा रुको।
- हामिद-(ऊँचे स्वर में) दादी जान क्या है?
- दादी-मेले में सावधान होकर चलना कहीं……….
- हामिद-(बीच में टोककर) हाँ! दादी मुझे सारा पता है। चिंता मत करो।
- दादी-बेटे! मेले में कोई गंदी चीज़ न खाना।
- हामिद हाँ, दादी ठीक है। ऐसा ही करूँगा।
(बाहर बच्चों की आवाजें तीव्र हो जाती हैं।) - हामिद-(दरवाजा खोलते हुए) चलो! मैं भी साथ चल रहा हूँ।
(धीरे-धीरे बच्चों की आवाजें मंद पड़ जाती हैं और पैरों की आवाजें भी लुप्त हो जाती हैं।