Class 11

HBSE 11th Class Chemistry Solutions Chapter 3 Classification of Elements and Periodicity in Properties

Haryana State Board HBSE 11th Class Chemistry Solutions Chapter 3 Classification of Elements and Periodicity in Properties Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Chemistry Solutions Chapter 3 Classification of Elements and Periodicity in Properties

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HBSE 11th Class Sanskrit पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय

1. ऋग्वेद

ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है। इसका रचना काल अधिकांश विद्वानों के मतानुसार 2000 ई०पू० माना जाता है। छन्दोबद्ध मन्त्रों को ऋक् या ऋचा कहते हैं। वेद का अर्थ है-ज्ञान। ऋग्वेद में ऋचाओं का संग्रह है। इसलिए ऋग्वेद को ऋक् संहिता भी कहते हैं। इसमें विविध देवताओं से सम्बन्धित ऋचाएँ एकत्रित हैं। कुछ ऋचाओं के समूह को ‘सूक्त’ कहते हैं। एक सूक्त में जो ऋचाएँ आती हैं, उनका सम्बन्ध किसी देवता विशेष या विषयवस्तु से होता है।

सारे ऋग्वेद को दस मण्डलों में विभक्त किया गया है। प्रत्येक मण्डल में कुछ सूक्त हैं तथा प्रत्येक सूक्त में कुछ मन्त्र हैं। सारे ऋग्वेद में 10 मण्डल, 1028 सूक्त और 10,580 मन्त्र हैं। इन सभी मण्डलों में सातवें मण्डल की ऋचाएँ प्राचीनतम मानी जाती हैं।

ऋग्वेद का महत्त्व

1. इसे विश्व की प्राचीनतम उपलब्ध कृति होने का गौरव प्राप्त है।

2. इसमें भारतीय देवतावाद की पूरी झलक मिलती है। इन्द्र, अग्नि तथा वरुण ये तीन ऋग्वेद के प्रमुख देवता हैं।

3. भारतीय दर्शन की पहली किरण भी इसमें दिखाई देती है। पुरुष सूक्त में सृष्टि की रचना पर विचार किया गया है। नासदीय सूक्त में सृष्टि की रहस्यमयी उत्पत्ति पर विचार मिलता है।

4. आर्यों के ऐतिहासिक, राजनीतिक तथा सामाजिक पक्षों पर भी ऋग्वेद में पर्याप्त सामग्री है। इसमें आर्यों तथा दस्युओं के संघर्ष का भी वर्णन है। इसमें सभा तथा समिति नाम की राजनीतिक परिषदों का भी उल्लेख है। इसके अनुसार समाज का आधार परिवार था।

5. ऋग्वेद में काव्य कला की कमनीय छटा छिटकी हुई है। डॉ० सूर्यकान्त के शब्दों में, “ऋग्वेद काव्य कला के उपकरणों से संकलित प्रमुख अलंकारों, व्यंजनाओं तथा ध्वनियों से अनुप्रासित परिनिष्ठित नीतियों का संकलन है।”

शास्त्री जी द्वारा इस ग्रन्थ के अनुवाद का प्रमुख उद्देश्य गान्धी जी के जीवन-दर्शन एवं उनके सिद्धान्तों से पाठकों को परिचित करवाना है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से प्रतीत होता है कि शास्त्री जी की भाषा-शैली सरस, सरल एवं मुहावरेदार है। वस्तु-विन्यास, प्रसंग के अनुरूप है। वाक्य छोटे-छोटे हैं। समासों का प्रयोग सामान्यतः नहीं के बराबर है।

HBSE 11th Class Sanskrit पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय

2. यजुर्वेद

यजुर्वेद का सम्बन्ध अध्वर्यु. पुरोहित से जोड़ा जाता है। यज्ञ का विधिपूर्वक संपादन करने वाले पुरोहित को अध्वर्यु कहते हैं। यजुर्वेद में ऐसे मन्त्रों का संग्रह पाया जाता है, जिनका सम्बन्ध यज्ञों के सम्पादन से होता है। इस वेद में यज्ञीय विधियों का विस्तृत । विवरण पाया जाता है। यजुर्वेद के निम्नलिखित दो भाग हैं

1. कृष्ण यजुर्वेद
कृष्ण यजुर्वेद में मन्त्रों तथा व्याख्या प्रधान ब्राह्मणे का सम्मिश्रण है, जबकि शुक्ल यजुर्वेद में यह मिश्रण बिल्कुल नहीं है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्रों का ही संकलन पाया जाता है। कृष्ण यजुर्वेद की अनेक शाखाएँ थीं, किन्तु आज केवल तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक संहिता, कपिष्ठल इत्यादि उपलब्ध हैं, जिनका प्रचार दक्षिण भारत में अधिक है।

2. शुक्ल यजुर्वेद।
शुक्ल यजुर्वेद के 40 अध्याय हैं, जिनमें विविध यज्ञों सम्बन्ध मन्त्र संकलित हैं। इन यज्ञों में दर्शपूर्ण मास, अग्निहोत्र, चातुर्मास्य, सोमयाग, वाजपेय, राजसूय, सौत्रामणि, अश्वमेध आदि प्रमुख हैं। इसके 16वें अध्याय को रुद्राध्याय कहते हैं, जिसमें भगवान रुद्र (शिव) के विविध रूपों को नमस्कार किया गया है। 34वें अध्याय में शिवं संकल्प की प्रार्थना है। 35वें में पितरों से प्रार्थना की गई है। अन्तिम अध्याय दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें ईश्वर को संसार का नियामक कहा गया है। यही अध्याय कुछ परिवर्तनों के साथ ईशावास्योपनिषद् के रूप में पाठकों के सामने आया है। इस वेद में अत्यन्त सुन्दर मन्त्र हैं जैसे-

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्
विश्वानि देव वयुनानि विद्वान

अर्थात् हे अग्नि देव! धन प्राप्ति के लिए आप हमें सन्मार्ग पर ले चलें। हे देव! आप अच्छे-बुरे सभी प्रकार के कार्यों को जानते हैं। यजुर्वेद में कुछ मन्त्र पद्यात्मक हैं और कुछ गद्यात्मक। जो मन्त्र पद्यात्मक हैं, वे राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत हैं। विशेष कर्मकाण्ड में उपयोगी होने के कारण यजुर्वेद अन्य सभी वेदों की तुलना में अधिक लोकप्रिय है।

3. अथर्ववेद

अथर्ववेद का सम्बन्ध ब्रह्मा नामक पुरोहित से है। ब्रह्मा उस पुरोहित को कहा जाता है, जो यज्ञ के सारे कार्यों का निरीक्षण करता है। इसके निम्नलिखित दो रचयिता माने जाते हैं (क) अथर्वा (ख) अंगिरा। इसी कारण इसे अथर्वाङ्गिरा भी कहा जाता है।

(क) अथर्वा मंगलकारी मन्त्रों का द्रष्टा होता है।
(ख) अंगिरा विनाशकारी मन्त्रों का द्रष्टा होता है।

अथर्ववेद के अन्य नाम ब्रह्मा नामक पुरोहित से सम्बन्ध होने के कारण इस वेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है तथा राजा के राज्याभिषेक आदि से सम्बन्ध होने के कारण इसे क्षात्रवेद भी कहा जाता है।
वेदत्रयी में ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद ये तीनों वेद आते हैं, अथर्ववेद त्रयी में नहीं आता।

कछ परिचय-

  1. अथर्ववेद में 20 काण्ड, 731 सुक्त तथा 5849 मन्त्र हैं। इनमें से लगभग 1200 मन्त्र ऋग्वेद के हैं।
  2. अथर्ववेद की नौ शाखाएँ थीं, परन्तु आज शौनक और पिप्पलाद नामक दो संहिताएँ ही उपलब्ध होती हैं।
  3. अथर्ववेद में लौकिक विषयों की प्रचुरता पाई जाती है। इसमें मारण, मोहन तथा उच्चाटन की सामग्री प्रचुर मात्रा में मिलती है। इसके अतिरिक्त इसमें रोगों के निवारण से, शत्रुओं के संहार से, भय से, दीर्घ आयु से, स्वास्थ्य पाने से, सम्पन्नता एवं समृद्धि से, पापों के निवारण से, विवाह से तथा व्यापार से सम्बन्धित अनेक मन्त्र पाए जाते हैं।
  4. इस वेद के पृथ्वी सूक्त में काव्य का सौन्दर्य अपूर्व है।
  5. भेषज्यानि नामक प्रकरण भारतीय आयुर्वेद के इतिहास पर पूर्णतया अपनी छाप छोड़ता है।
  6. परीक्षित के राज्य की ऐतिहासिक जानकारी भी इसी वेद से उपलब्ध होती है।
  7. इस वेद में दार्शनिक सूक्त भी हैं।
  8. इस वेद से लोक प्रचलित विश्वासों की पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होती है।
  9. इस वेद में राज्याभिषेक का वर्णन, स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रार्थनाएँ आदि भी हैं।
  10. अभिचार-धर्म और मानव विज्ञान की दृष्टि से यह वेद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

4. रामायण

रामायण को भारतीय परम्परा में ‘आदिकाव्य’ और इसके प्रणेता वाल्मीकि मुनि को ‘आदिकवि’ माना जाता है। कथा प्रसिद्ध है कि वाल्मीकि मुनि तमसा नदी के किनारे घूम रहे थे। एक व्याध के बाण से आहत वाल्मीकि ने क्रौञ्च पक्षी की भार्या का करुण-क्रन्दन सुना तो सहसा उनके मुख से काव्यधारा फूट पड़ी; यथा

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत् क्रौञ्च मिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥

तब उनका शोक, श्लोक बन गया। उसी समय ब्रह्मा प्रकट हुए और उनकी प्रेरणा से वाल्मीकि ने रामचरित का वर्णन करते हुए ‘रामायण’ की रचना कर डाली। रामायण संस्कृत भाषा का ही नहीं, विश्व भाषाओं का आदिकाव्य है। यह अन्य कवियों के लिए प्रेरणा स्रोत है। यहीं से ललित साहित्य का आरम्भ होता है। इस ग्रन्थ में राम कथा का विस्तार से वर्णन किया गया है।

इसके सात काण्ड हैं जिन्हें बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड के नाम से जाना जाता है। इसमें लगभग 24 हजार श्लोक हैं। अतः इसे चतुर्विंशतिसाहस्री संहिता भी कहते हैं। यह ग्रन्थ अनुष्टुप् छन्द में लिखा गया है। महर्षि वाल्मीकि ने अपने इस अमर काव्य को जन-जीवन से सम्बद्ध किया जो लोक मनोरंजन के साथ-साथ लोक-परलोक दोनों का साधक बना। यह काव्य भाव, भाषा छन्द और अलंकार आदि की दृष्टि से भी नवीनतम है। वास्तव में यह लौकिक काव्य-माला का प्रथम ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ का महत्त्व न केवल धार्मिक और काव्यात्मक दृष्टि से ही, अपितु सामाजिक दृष्टि से भी है। यह हमारा राष्ट्रीय महाकाव्य है। इसमें हमारी संस्कृति का सजीव चित्र एवं राष्ट्र का जीवन है। रामायण में हमारी सभ्यता का भी बहुत महत्त्वपूर्ण तथा सुन्दर चित्र मिलता है। माता-पिता और सन्तान, भाई-भाई, देवर-भाभी का आदर्श तथा स्त्री का पातिव्रत्य आदि का ऐसा अनुपम सम्बन्ध संसार के किसी अन्य साहित्य में नहीं मिलता। भातृ-प्रेम को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि

देशे-देशे कलत्राणि देशे-देशे च बान्धवाः।
तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः ॥

रामायण में जैसी सरल, सरस, भावपूर्ण शैली, भाषा की गम्भीरता और छन्दों की रचना मिलती है, वैसी अन्य कवियों की रचनाओं में सुलभ नहीं है। रामायण एक उपजीव्य काव्य है। वाल्मीकि के पश्चात् होने वाले बहुत-से कवियों ने रामायण को आधार बनाकर अपनी-अपनी रचनाएँ संसार को भेंट की हैं। संक्षेप में, वाल्मीकि रामायण भारतीय राष्ट्र का जीवन और उसकी कविता है। इसमें लौकिक संस्कृत भाषा और साहित्य के विकास का मूल विद्यमान है।

HBSE 11th Class Sanskrit पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय

5. जातकमाला

जातक शब्द का अर्थ है-‘जन्म सम्बन्धी’ । इस आधार पर जन्म सम्बन्धी कथाओं के संग्रह को ‘जातकमाला’ कहते हैं। इस ग्रन्थ में भगवन बुद्ध के पूर्व जन्म की गाथाओं एवं उक्तियों का संग्रह किया गया है। संस्कृत साहित्य में जातक कथाओं का अपना विशेष महत्त्व है। ये कथाएँ मूलतः पालिभाषा में लिखित हैं। बोधिसत्व के कर्म दिव्य और अद्भुत हैं। उनका जीवन अलौकिक और आदर्श है। इसी से प्रेरणा लेकर ‘आर्यशर’ ने ‘जातकमाला’ ग्रन्थ की रचना की थी।

‘जातकमाला’ में जातक कथाओं के प्रारम्भ होने से पहले निदान कथा नाम की एक लम्बी भूमिका है। इस निदान कथा में सिद्धार्थ गौतम के जीवन-चरित्र के साथ उनके पूर्व के 24 बुद्धों के भी जीवन-चरित्र हैं। प्रत्येक जातक कथा चार भागों में विभक्त है-(i) वर्तमान कथा (ii) पूर्वजन्म की कथा (iii) गाथाओं की व्याख्या (iv) पूर्वजन्म की कथाओं के प्रधान पात्र । पुनः इनका तीन भागों में विभाजन किया गया है-(i) दूरे निदान (ii) अविदूरे निदान (iii) सन्ति के निदान। ‘दूरे निदान’ में बोधिसत्व के सुमेध तपस्वी के जन्म में भगवान् द्वीपङ्कर के समय में बुद्धत्व प्राप्ति के लिए प्रार्थना करने के समय से लेकर शरीर छोड़कर स्वर्ग में उत्पन्न होने तक की कथा का वर्णन है।

‘अविदूरे निदान’ में महामाया के गर्भ से उत्पन्न होकर बुद्धत्व प्राप्त करने तक की कथा है और ‘सन्ति के निदान’ में उन स्थानों का वर्णन है जहाँ भगवान बुद्ध ने विहार करते समय कोई उपदेश या जातक कथा कही थी। यद्यपि जातकमाला का मुख्य उपदेश धर्मोपदेश है, जिसमें भारत की ई०पू० छठी शताब्दी की सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक स्थिति का पूर्व ज्ञान भी होता है। इसके साथ ही इसमें मनोरंजन की भी भरपूर सामग्री विद्यमान है।
शाश्वती (प्रथमो भागः)

6. महाभारत

महाभारत केवल युद्ध का कथा-ग्रन्थ नहीं है, अपितु एक अद्वितीय संग्रह-ग्रन्थ है। वास्तव में, यह एक ज्ञान का विश्वकोष है, जिसमें प्राचीन भारत की ऐतिहासिक, धार्मिक, नैतिक और दार्शनिक आदर्शों की अमूल्य निधि संचित है। स्वयं महाभारत में लिखा है कि वह सर्वप्रधान काव्य, सब दर्शनों का सार, इतिहास और पञ्चम वेद है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विषय में जो कुछ महाभारत में कहा गया है वही अन्यत्र है, जो इसमें नहीं है, वह कहीं नहीं है।

वर्तमान समय में जो महाभारत उपलब्ध है, उसमें एक लाख श्लोक हैं, इसलिए इसे ‘शतसाहस्री संहिता’ नाम भी दिया गया है। इसके विकास की तीन अवस्थाएँ मानी जाती हैं-जय, भारत और महाभारत । इसके रचयिता व्यास मुनि माने जाते हैं, जिनका दूसरा नाम कृष्णद्वैपायन भी मिलता है, क्योंकि ये अत्यन्त कृष्ण वर्ण के थे और गङ्गा के एक द्वीप पर इनका निवास था। इसका दूसरा रूप भारत के नाम से प्रसिद्ध है। महाभारत का वर्तमान रूप 320 ई. पू. से लेकर 50 ई. पू. के बीच में माना जाता है।

महाभारत में कौरवों और पाण्डवों के परस्पर संघर्ष की कथा का वर्णन बड़े विस्तार से 18 खण्डों में किया गया है। इन खण्डों को पर्व कहा गया है। इसके अतिरिक्त, महाभारत में अनेक शिक्षाप्रद तथा रोचक उपाख्यान भी हैं। महाभारत संसार के साहित्य में आकार की दृष्टि से तथा सुन्दरतम वीरकाव्य की दृष्टि से अद्वितीय ग्रन्थ है। महाभारत की भाषा शुद्ध और गौरवपूर्ण है। इसकी तीन विशेषताएँ हैं-सरलता, अर्थगौरव और उपयुक्तता। इस भाषा का प्रयोग कवि ने अनुष्टुप् छन्द के माध्यम से किया है।

अलंकारों के प्रयोग में महाभारत काल अलंकृत शैली के कवियों के समान प्रयत्नशील नहीं था। ‘महाभारत’ बाद में आने वाले कवियों के लिए आदर्श रूप रहा है। कथानक, भाषा और शैली तीनों ही दृष्टि से आने वाले कवियों ने इसका अनुकरण किया है। काव्य साहित्य के अतिरिक्त धर्म, दर्शन, कला, समाजशास्त्र आदि सभी क्षेत्रों में इसका प्रभाव भारतीय जीवन पर दृष्टिगोचर होता है। महाभारत के सम्बन्ध में यह कथन आज भी प्रसिद्ध है

धर्मे अर्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्तितदन्यत्र यन्ने हास्ति न तत्क्वचित् ॥

7. मृच्छकटिकम्

‘मृच्छकटिकम्’ महाकवि शूद्रक द्वारा लिखा गया संस्कृत साहित्य का प्रसिद्ध नाटक है। दशरूपकों में इसे प्रकरण की कोटि में रखा गया है। इस प्रकरण की सम्पूर्ण कथा 10 अंकों में विभक्त है। इसकी कथा में सामाजिक यथार्थ एवं आदर्शवाद का सन्निवेश है। नाट्यशास्त्रीय नियमों का पालन करने वाले इस प्रकरण की कथा कवि की कल्पना पर आधारित है जिसमें मध्यमवर्गीय पात्र चारुदत्त तथा तत्कालीन प्रसिद्ध गणिका वसन्तसेना की प्रेमकथा का वर्णन किया गया है।

नाटककार ने इस प्रकरण में पात्रों का चयन प्रकरण के अनुकूल किया है। प्रकरण के पात्र नव-जीवन की लोक-भावना का सच्चा चित्रण करते हैं। इसका नायक चारुदत्त जन्म से ब्राह्मण तथा कर्म से वणिक है जो कि धीर तथा शान्त प्रकृति का है। इसकी नायिका वसन्तसेना है जोकि उस समय की प्रसिद्ध गणिका है। इन दोनों की प्रेमकथा में बाधा उत्पन्न करने वाला ‘शकार’ है, जोकि मूर्ख तथा दुष्ट स्वभाव वाला है।

साहित्य समाज का दर्पण है। यह तथ्य ‘मृच्छकटिकम’ के लिए पूर्ण चरितार्थ होता है। मृच्छकटिकम् अपने युग के समाज का चित्रण प्रस्तुत करने में सफल हुआ है। इसमें प्रकृति चित्रण अत्यन्त सजीव है। नाटककार का प्रकृति के प्रति अनन्य अनुराग प्रकट होता है। इसके पञ्चम अंक में प्रकृति के मनोहारी चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। मृच्छकटिकम् में ‘शृङ्गार रस’ प्रधान है।

इसके अतिरिक्त अद्भुत, भयानक तथा हास्य आदि रसों का सुन्दर समायोजन किया गया है। इस प्रकरण की भाषा सरल एवं सुबोध है। इसके साथ ही प्राकृत भाषा का भी सुन्दर प्रयोग किया गया है। इसमें सात प्रकार की प्राकृत भाषाओं का प्रयोग किया गया है। अलंकारों का सहज एवं स्वाभाविक प्रयोग किया गया है। निष्कर्ष रूप में ‘मृच्छकटिकम्’ एक श्रेष्ठ प्रकरण है।

8. चरकसंहिता

‘चरकसंहिता’ भारतीय आयुर्वेद विज्ञान का मूल ग्रन्थ है। इसके रचयिता आचार्य चरक हैं। चरक संहिता के उपदेशक अत्रिपुत्र पुनर्वसु ग्रन्थकर्ता अग्निवेश और प्रतिसंस्कारक आचार्य चरक हैं। इस ग्रन्थ में आयुर्वेद के सभी सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। जो सिद्धान्त इस ग्रन्थ में हैं, वे अन्यत्र कहीं नहीं हैं। यह ग्रन्थ आठ भागों में विभाजित है, जिसमें कुल 120 अध्याय हैं। ‘चरक संहिता’ के अध्ययन से पता चलता है कि इसके रचयिता आचार्य चरक ने शरीर शास्त्र, गर्भशास्त्र, रक्ताभिसरण शास्त्र तथा औषधिशास्त्र आदि के विषय में अगाध शोध किया था।

मधुमेह, क्षयरोग, हृदयविकार आदि दुर्धर रोगों के निदान एवं औषधियों द्वारा इन रोगों के उपचार के विषय में अमूल्य ज्ञान के द्वार इन्होंने अखिल जगत के लिए खोल दिए। चरक संहिता में विभिन्न प्रकार की व्याधियों के लक्षण एवं उनके उपचार का वर्णन तो है ही इसके साथ ही स्थान-स्थान पर ज्ञान-विज्ञान, दर्शन एवं अर्थशास्त्र के विषय में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है।

विभिन्न प्रकार के असाध्य रोग आहार ग्रहण करने के कारण ही होते हैं। नियमित एवं विधिपूर्वक आहार ग्रहण करने पर रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है। आचार्य चरक ने इस ग्रन्थ में आहार ग्रहण करने की आठ विधियों का वर्णन किया है। ये विधियाँ-प्रकृति, संस्कार, संयोग, राशि (मात्रा), देश (हैबीटेट और कलाईमेट) काल, उपयोग के नियम तथा उपभोक्ता हैं।

आचार्य चरक कहते हैं कि उष्ण भोजन ही लें, स्निग्ध आहार ग्रहण करें। नियम एवं मात्रा में ही आहार ग्रहण करें। पूर्ण रूप से भोजन के पकने पर (भूख लगने पर) ही आहार लें। वीर्य विरुद्ध आहार न लें। सही उपकरणों में आहार लें। द्रुत गति से भोजन न करें। अधिक देरी तक भोजन न करें। आहार लेते हुए ज्यादा न बोलें और हँसते हुए आहार ग्रहण करें। अपनी आत्म रक्षा का विचार करके आहार ग्रहण करें। इस प्रकार चरकसंहिता आयुर्वेद शास्त्र का अमूल्य ग्रन्थ है।

9. भवानी भारती

‘भवानी भारती’ भारतमाता के महान् क्रान्तिकारी एवं परम राष्ट्रभक्त सपूत महर्षि अरविन्द घोष द्वारा रचित एक खण्डकाव्य है। महर्षि अरविन्द पूरे विश्व में महान दार्शनिक, वेदों के व्याख्याता, महायोगी तथा परम राष्ट्रभक्त के रूप में प्रसिद्ध हैं। महर्षि अरविन्द जीवन के प्रारम्भिक चरण में सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक रहे।

इसी के परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अलीपुर बम केस का अपराधी मानकर 1906 ई० में अलीपुर कारागार में बन्दी बना दिया। कारागार की इसी अवधि में इन्होंने एक रात स्वप्न में बन्दिनी भारतमाता का दर्शन किया। उस दर्शन से प्रभावित होकर इन्होंने ओजस्वी तथा राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत शतक काव्य की रचना की। यह ‘शतक काव्य’ ही ‘भवानी-भारती’ के नाम से विख्यात हुआ।

इस ग्रन्थ में कवि ने वर्णित किया है कि भारतमाता परतन्त्रता एवं अज्ञान रूपी अन्धकार के बन्धनों में जकड़ी हुई है। इस बंधन से मुक्त होने के लिए वह (भारतमाता) अपनी सन्तानों को उनके स्वर्णिम इतिहास का स्मरण कराती है। इसके साथ ही उन्हें प्रेरित करती है कि वे अपनी निद्रा एवं आलस्य का त्याग करें तथा अपने पराक्रम से राष्ट्र को पराधीनता के बंधन से मुक्त कराएँ। सम्पूर्ण भारतवर्ष की एकता का परिचय देते हुए प्रस्तुत श्लोक में कहा गया है कि

“भो भो अवन्त्यो मगधाश्च बङ्गा
अङ्गा कलिङ्गाः कुरुसिन्धवश्च ।
भो दाक्षिणात्याः शृणुतान्ध्रचोलाः
शृण्वन्तु ये पञ्चनदेषु शूराः ॥

” कवि की शैली अलंकारयुक्त, माधुर्य, प्रसादगुण सम्पन्न, सरल, सरस एवं प्रवाहमयी है।

10. पुरुष-परीक्षा

‘पुरुष-परीक्षा’ मैथिली, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि विद्यापति के द्वारा रचित कथा ग्रन्थ है। विद्यापति चतुर्दश शताब्दी के प्रसिद्ध कवि हैं, जिन्हें ‘मैथिल कोकिल’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। इन्होंने संस्कृत भाषा में अनेक विषयों पर आधारित 12 ग्रन्थों की रचना की है। उन 12 ग्रन्थों में से ‘पुरुष-परीक्षा’ एक प्रसिद्ध कथा ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से यह बताया गया है कि सच्चे पुरुष की परख किस प्रकार की जा सकती है? दयालु पुरुष के गुणों की चर्चा के प्रसंग में वासुकि नामक मुनि पारावार नामक राजा को अनेक कथाएँ सुनाते हैं। इस ग्रन्थ में बताया गया है कि सत्य, अहिंसा आदि सद्गुण ही सदाचार के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। दया, सदाचार, अहिंसा आदि गुण सज्जनों के द्वारा ही विकसित किए जा सकते हैं। इस लोक तथा परलोक में दया सदृश अन्य कोई. गुण नहीं है। अतः कहा गया है कि

“दयालुः पुरुष श्रेष्ठः सर्वजन्तूपकारकः।
तस्य कीर्तनमात्रेण कल्याणमुपपद्यते ॥

” इस कथा ग्रन्थ की भाषा प्रसादगुण सम्पन्न, सरल, सरस एवं विषयानुकूल है। ‘तदेव गगनं सैव धरा’ आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों में प्रशंसनीय कवि प्रो० श्रीनिवासरथ द्वारा रचित कविता-संग्रह है। ये विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में संस्कृत विभाग के प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष रहे। श्रीनिवास 40 वर्षों से संस्कृत : गीत लिखते आ रहे हैं। उन्हीं गीतों की कड़ी में “तदेव गगनं सैव धरा” नामक कविता-संग्रह है।

इसका प्रकाशन सन् 1995 में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है। इस कविता संग्रह में कवि ने भारतीय संस्कृति, देशभक्ति, सामाजिक सुधार, मानवीय मूल्य तथा परोपकारी दृष्टिकोण का वर्णन किया है। इसके साथ ही कवि ने पाठक वर्ग को यान्त्रिकता और कृत्रिमता के प्रति बढ़ते हुए मोह से सचेत किया है। कवि अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहता है कि

“विज्ञाननौका समानीयते ।
ज्ञानगङ्गा विलुप्तेति नालोक्यते ॥”

कविता-संग्रह का निहित भाव यह है कि समाज को जीवन-मूल्यों को भुलाकर नई भौतिक तकनीकी से अभिभूत नहीं होना चाहिए। इस कविता-संग्रह की गीतात्मक शैली पाठकों के मन को आकर्षित करती है। कविताओं की भाषा सरल एवं सरस प्रसादगुण सम्पन्न है।

12. रूपरुद्रीयम्

‘रूपरुद्रीयम्’ आधुनिककाल के प्रतिष्ठित संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित एकांकी-संग्रह है। आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों एवं लेखकों में अभिराज राजेन्द्र मिश्र का प्रमुख स्थान है। संस्कृत साहित्य के प्रति की गई सेवाओं के कारण इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा राष्ट्रपति के सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है।

‘रूपरुद्रीयम्’ एक एकांकी-संग्रह है। इस एकांकी-संग्रह के माध्यम से लेखक ने समाज के निम्न वर्ग के प्रति होने वाले अन्याय, शोषण तथा अत्याचार का यथार्थ चित्रण किया है। इस एकांकी-संग्रह के ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ के माध्यम से यह बताया गया है कि गुणवान् व्यक्ति किसी भी जाति, समुदाय अथवा वर्ग में पैदा होकर अपनी प्रतिभा को विकसित कर सकता है।

जैसा कि गरीबों की बस्ती में पैदा होने वाले सोमधर के सद्व्यवहार को देखकर समाज के प्रतिष्ठित वकील भवानीदत्त आश्चर्यचकित हो जाते हैं और उसकी शिक्षा का सारा भार अपने ऊपर ले लेते हैं। इस एकांकी-संग्रह की भाषा-शैली सरस, स्वाभाविक एवं प्रसंगानुकूल है। यत्र-तत्र आलंकारिक शब्दावली का प्रयोग भी दृष्टिगोचर होता है। भाषा में माधुर्य तथा प्रवाह सर्वत्र विद्यमान हैं।

HBSE 11th Class Sanskrit पाठाधारित प्रमुख ग्रन्थों का परिचय

13. गीताञ्जलि

‘गीताञ्जलि’ विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार एवं दार्शनिक कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ है। टैगोर भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाले युगद्रष्टा महापुरुष थे। टैगोर ने लगभग 2230 गीतों की रचना की। उन्हीं गीतों की कड़ी में ‘गीताञ्जलि’ एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। ‘गीताञ्जलि’ गीत और अंजलि को मिलाकर बना है, जिसका अर्थ है-गीतों का उपहार (भेंट)।

यह अंग्रेज़ी में लिखी 103 कविताओं का संग्रह है, जिसका प्रकाशन 1913 में किया गया था। टैगोर जी को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। गीताञ्जलि पश्चिमी जगत में बहुत ही प्रसिद्ध हुई है। इसके साथ ही इसका अनेक भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उसी कड़ी में इसका संस्कृत भाषा में भी अनुवाद किया गया है। इसके अनुवादक कोल० व्यासराय शास्त्री हैं। इस ग्रन्थ में दर्शाया गया है कि ईश्वर की वास्तविक सत्ता किसानों, मजदूरों तथा गरीबों में है। इन्हीं के बीच में परमात्मा के दर्शन किए जा सकते हैं। कवि ने कहा है कि

“ईशस्तिष्ठति वर्षातपयो
स्ताभ्यां साधु मलिनवपुः।
दूरे क्षिप तव शुद्धां शाटी
मेहि स इव पांसुरभूमिम् ॥”

अनुवादित ग्रन्थ की भाषा-शैली माधुर्य एवं प्रसादगुण सम्पन्न, सरस तथा प्रवाहमयी है।

14. सत्यशोधनम्

‘सत्यशोधनम्’ गुजराती भाषा में लिखित गाँधी जी की आत्मकथा पर आधारित एक अनूदित ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का अनुवाद पण्डित होसकेरे नागप्प शास्त्री जी ने किया। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 36 वर्ष की आयु में अपने संस्मरणों को एकत्रित कर अपनी आत्मकथा मातृभाषा गुजराती में लिखी। इसके अनन्तर विश्व की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया। स्वयं गाँधी जी ने श्रीनिवास शास्त्री के सहयोग से इसका परिशोधन किया।

गाँधी जी के अनुसार उनकी आत्मकथा आत्मपरीक्षण के रूप में है। इस ग्रन्थ के माध्यम से शास्त्री जी ने बताया है कि बचपन में गाँधी जी किस प्रकार श्रवण कुमार की मातृ-पितृ भक्ति एवं सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा से अभिभूत हुए। इस ग्रन्थ के अनुवाद का प्रमुख उद्देश्य गांधी जी के जीवन-दर्शन एवं उनके सिद्धान्तों से पाठकों को परिचित करवाना है। इस ग्रन्थ की भाषा-शैली सरस, सरल एवं मुहावरेदार है। वस्तु-विन्यास प्रसंग के अनुरूप है। वाक्य छोटे-छोटे हैं। समासों का प्रयोग सामान्यतः नहीं के बराबर है। भाषा में कहीं भी दुरूहता नहीं है।

15. श्रीमद्भगवद्गीता

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ महाभारत के छठे पर्व भीष्म पर्व का एक उपपर्व है। इसलिए यह व्यास जी की रचना है। यह गीता महाभारत युद्ध के पहले दिन भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से अर्जुन को लक्ष्य करके प्रकट हुई, इसीलिए इसका नाम ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है। श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा अगाध और असीम है। यह ग्रन्थ प्रस्थानत्रय में माना जाता है। भगवद्गीता में श्लोक होते हुए भी भगवान् की वाणी होने से ये मन्त्र ही हैं। इन श्लोकों में बहुत गहरा अर्थ भरा हुआ होने से इनको सूत्र भी कह सकते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता एक बहुत ही अलौकिक एवं विचित्र ग्रन्थ है। इसमें 18 अध्याय तथा कुल सात सौ श्लोक हैं। इसमें साधक के लिए उपयोगी पूरी सामग्री मिलती है। भगवद्गीता का उपदेश अलौकिक है। इस गम्भीर ग्रन्थ पर कितना ही विचार किया जाए, तो भी इसका कोई पार नहीं पा सकता। गीता एक शान्ति देने वाला ग्रन्थ है। इसका आश्रय लेकर पाठ करने मात्र से बड़े विचित्र, अलौकिक और शान्तिदायक भाव स्फुटित होते हैं। गीता का मुख्य लक्ष्य है कि प्रत्येक मनुष्य का प्रत्येक परिस्थिति में कल्याण हो जाए, वह किसी भी परिस्थिति में परमात्म-प्राप्ति से वंचित न रहे। गीता में प्रमुख रूप से ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोग का प्रतिपादन किया गया है। कर्मयोग को स्पष्ट करते हए कहा गया है कि

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता का अर्थ बहुत ही गम्भीर है। इसका पठन-पाठन, मनन-चिन्तन और विचार करने से बड़े ही विचित्र और नए-नए भाव स्फुरित होते रहते हैं, जिससे मन-बुद्धि चकित होकर तृप्त हो जाते हैं।

16. तर्कसंग्रह

‘तर्कसंग्रह’ एक दार्शनिक ग्रन्थ है, जिसकी रचना अन्नभट्ट ने 17वीं शताब्दी में की थी। ‘तर्कसंग्रह’ को न्याय एवं वैशेषिक दोनों दर्शनों को समाहित करने वाला ग्रन्थ माना गया है। क्योंकि इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से न्याय एवं वैशेषिक दोनों दर्शनों के मूल सिद्धान्तों का ज्ञान मिल जाता है। इस ग्रन्थ की रचना के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकार ने प्रारम्भ में ही कहा है कि “बालानां सुखबोधाय क्रियते तर्कसंग्रहः”। अर्थात् बालकों के सुखपूर्वक बोध के लिए तर्कसंग्रह की रचना कर रहा हूँ।

‘तर्कसंग्रह’ में दो शब्द हैं-तर्क तथा संग्रह । यहाँ पर ‘तर्क’ शब्द का अर्थ है द्रव्यादि सात पदार्थ, संग्रह शब्द संक्षेप के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। वस्तुतः संग्रह के अन्तर्गत उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा आते हैं। इनमें से उद्देश्य का अर्थ ‘परिगण’ है। किसी भी पदार्थ के असाधारण धर्म को ‘लक्षण’ कहा गया है। जिस पदार्थ का लक्षण किया जा रहा है वह उस पर ठीक-ठीक बैठता है अथवा नहीं, इस प्रकार का विचार करना ‘परीक्षा’ है।

इस प्रकार तर्क संग्रह द्रव्य, गुण, कर्म आदि सप्त पदार्थों के परिगणन के साथ-साथ उनके लक्षण तथा उन लक्षणों की परीक्षा को संक्षिप्त रूप से प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ है। ‘तर्कसंग्रह’ में प्रतिपादित विषयों के अर्थ को अति संक्षिप्त तथा स्पष्ट करने के लिए इसी ग्रन्थ पर आधारित ‘दीपिका’ नामक ग्रन्थ की रचना की गई है।

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HBSE 11th Class Sanskrit लेखक एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions लेखक एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit लेखक एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय

1. महर्षि वाल्मीकि

कूजन्तं राम-रामेति मधुर-मधुर-मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कवितां शाखा, वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥

संस्कृत साहित्य में महर्षि वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। किंवदंती के अनुसार देवर्षि नारद की प्रेरणा से ‘मरा-मरा’ का उच्चारण करते हुए इनके मुख से अनायास ही ‘राम-राम’ निःसृत हुआ। अनेक वर्षों तक राम-नाम के जप का यही क्रम चलता रहा। तपस्या में लीन वाल्मीकि के शरीर पर दीमकों ने बाम्बी-सी बना ली थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी स्वयं उनके पास आए। उन्हें दीमकों की बाम्बी से निकालकर ‘आदिकवि’ होने का गौरवमय वरदान प्रदान किया।

वाल्मीकि के समय के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। विद्वानों ने रामायण का विस्तृत रूप से अनुशीलन करके यह स्पष्ट किया है कि इस महाकाव्य की रचना भगवान बुद्ध के प्रादुर्भाव से पूर्व हो चुकी थी। अतः रामायण 500 ई.पू. से पहले की रचना है क्योंकि विद्वानों की प्राचीन परम्परा राम एवं वाल्मीकि को समकालीन मानती है।

इस आधार पर वाल्मीकि का समय ई.पू. पञ्चम शताब्दी से पहले ही माना जा सकता है। संस्कृत साहित्य में वाल्मीकिकृत ‘रामायण’ को आदिकाव्य माना जाता है। कथा प्रसिद्ध है कि जब व्याध के बाण से बिन्धे । हुए क्रौञ्च के लिए विलाप करने वाली क्रौञ्ची का करुण क्रन्दन महर्षि वाल्मीकि ने सुना तो अचानक उनके मुख से यह श्लोक निकल पड़ा

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत् क्रौञ्च मिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥

अर्थात् हे निषाद! तुम आने वाले सैकड़ों वर्षों में भी प्रतिष्ठा को मत प्राप्त करो, क्योंकि तुमने काम-क्रीड़ा में मुग्ध क्रौञ्च जोड़े में से एक का वध किया है। अनुष्टुप् छन्दोबद्ध उक्त श्लोक ही लौकिक संस्कृत साहित्य के श्रीगणेश का कारण बना। ब्रह्मा जी के आदेश पर महर्षि वाल्मीकि ने ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ राम के जीवन का वर्णन किया। ‘रामायण’ में 24000 श्लोक हैं, जिन्हें बाल-अयोध्या-अरण्य-किष्किन्धा-सुन्दर-युद्ध तथा उत्तर-सात काण्डों में विभक्त किया गया है।

महर्षि वाल्मीकि ने इस महाकाव्य में रघुवंश शिरोमणि श्री रामचन्द्र जी की जीवन-गाथा के माध्यम से माता-पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाभी आदि के आदर्श सम्बन्धों का जो अनुपम वर्णन किया है, वह संसार के किसी अन्य साहित्य में देखने को नहीं मिलता। लक्ष्मण को मूर्छित अवस्था में देखकर श्री रामचन्द्र जी विलाप करते हुए कहते हैं कि

देशे-देशे कलत्राणि देशे-देशे च बान्धवाः।
तं तु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः ॥

अर्थात् देश-देश में पत्नियाँ मिल सकती हैं तथा देश-देश में बन्धु मिल सकते हैं, परन्तु मैं उस देश को नहीं देखता हूँ जहाँ सगा भाई मिल जाए।

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2. महर्षि वेदव्यास

जीवन-परिचय-वैदिक साहित्य के पश्चात् संस्कृतभाषा में दो ऐसे काव्यों का उदय हुआ जिन पर भारतीय जन-जीवन और समाज को गर्व है। उनमें से एक ‘महाभारत’ है जिसके रचयिता महर्षि वेदव्यास हैं । वेदव्यास का महाभारत के पात्रों से निकट सम्बन्ध था। इनके पिता वैदिक मुनि पराशर थे। इनकी माता का नाम सत्यवती था। व्यास जी का जन्म यमुना के किसी द्वीप पर हुआ और  पालन-पोषण वहाँ के मल्लाहों के राजा दाशराज ने किया। उस द्वीप पर जन्म होने के कारण व्यास जी का नाम ‘द्वैपायन’ हुआ, रंग काला होने के कारण ये ‘कृष्ण मुनि’ कहलाए।

इन्होंने यज्ञीय उपयोग के लिए वेदों का विभाजन किया। इसलिए इन्हें ‘वेदव्यास’ भी कहते हैं। वस्तुतः वेदव्यास ही कौरवों एवं पाण्डवों के वास्तविक पितामह थे। वे विपत्ति के समय छाया की तरह पाण्डवों के साथ रहते थे और अपने उपदेशों के माध्यम से उन्हें समयानुसार धैर्य और सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा दिया करते थे।

कृतित्व-महर्षि वेदव्यास जी ने तीन वर्षों के सतत् परिश्रम से ‘महाभारत’ की रचना की थी

त्रिभिर्वषैः सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनो मुनिः।
महाभारतमाख्यानं कृतवानिदमुत्मम् ॥

महाभारत के विकास की तीन अवस्थाएँ मानी जाती हैं-जय, भारत और महाभारत। महाभारत की तीन अवस्थाओं से स्पष्ट है कि इसकी रचना एक समय में न होकर भिन्न-भिन्न समयों में हुई। विद्वानों ने . अन्तः एवं बाह्य साक्ष्यों के आधार पर इसका समय ईसा से लगभग 3102 वर्ष पूर्व निर्धारित किया है। अतः वेदव्यास का समय ई.पू. 3102 वर्ष माना गया है।

महर्षि वेदव्यास ने ‘महाभारत’ में कौरवों और पाण्डवों के परस्पर संघर्ष की कथा का वर्णन बड़े विस्तार से अठारह खण्डों में किया है। इन खण्डों को ‘पर्व’ कहा जाता है। इन पर्यों में पाण्डवों की उत्पत्ति, उनका वनवास, पाण्डव-कौरवों के युद्धों का वर्णन, अर्जुन को श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया गीता का उपदेश, पाण्डवों के स्वर्गारोहण आदि का वर्णन किया गया है।

वैशिष्ट्यम्-संसार के साहित्य में महाभारत आकार एवं वीरकाव्य की दृष्टि से अद्वितीय ग्रन्थ है। इसकी भाषा परिष्कृत और गौरवपूर्ण है। भाषा की सरलता, अर्थगौरव एवं उपयुक्तता इसकी तीन विशेषताएँ हैं। भाषा के सौन्दर्य का सुन्दर उदाहरण ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में मिलता है। इस भाषा का प्रयोग कवि ने अनुष्टुप् छन्द के माध्यम से किया है। वर्णन-शैली में सशक्तता है। कथा में प्रवाह, विशदता, स्पष्टता और प्रसादगुण हैं, जबकि वर्णनों में चित्रात्मकता और भव्यता है।

3. महाकवि शूद्रक

संस्कृत नाट्य साहित्य में शूद्रक नाटककार के रूप में विख्यात हैं। इनके जीवन आदि के विषय में कोई विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता। शूद्रक राजा और शूद्रक कवि एक ही व्यक्ति थे अथवा दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे, इस विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं। कवि अस्पष्टता के कारण जीवन तथा रचनाकाल भी विवादास्पद है। डॉ० कीथ के अनुसार शूद्रक एक काल्पनिक व्यक्ति है तथा ‘मृच्छकटिक’ रूपक किसी अज्ञात कवि की रचना है। मृच्छकटिक की प्रस्तावना में शूद्रक के राजा और कवि होने के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं।

अधिकांश विद्वानों के अनुसार शूद्रक राजा और कवि दोनों थे। इनका उल्लेखं कादम्बरी, हर्षचरित, कथासरित्सागर, राजतरङ्गिणी आदि ग्रन्थों में भी मिलता है। विद्वानों ने शूद्रक को एक राजा मानते हुए इनका समय ई०पू० प्रथम शताब्दी के आस-पास माना है। शूद्रक की एकमात्र रचना ‘मृच्छकटिक’ है। यह दस अंकों का प्रकरण है। इसमें सामाजिक यथार्थ एवं आदर्शवाद का सन्निवेश है।

नाट्यशास्त्र के अनुसार वध, शयन, आलिङ्गन, युद्ध, रति क्रीड़ा का वर्णन नाटकों में मञ्च पर त्याज्य है। प्रस्तुतः नाटक में इन प्रसंगों का वर्णन यत्र-तत्र किया गया है। इस प्रकरण में कथावस्तु, पात्र-योजना एवं रस का चित्रण प्रकरण के अनुसार किया गया है। इस प्रकरण की भाषा सरल, सुबोध एवं पात्रानुकूल है। नाटककार ने प्राकृत भाषाओं का विषय-वस्तु एवं पात्रानुकूल प्रयोग किया है। निष्कर्ष रूप में शुद्रक एक कुशल नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हैं।

4. आचार्य चरक

भारतीय चिकित्सा शास्त्र के तीन प्रसिद्ध आचार्य हैं-आचार्य सुश्रुत, आचार्य वाग्भट्ट एवं आचार्य चरक। इनमें जहाँ सुश्रुत के नाम से सुश्रुत संहिता है, वहीं आचार्य चरक के नाम से चरक संहिता है। आचार्य चरक को ‘औषधि-निर्मिति’ का पितामह माना जाता है। इन्हें त्वचा चिकित्सक भी कहते हैं। आचार्य चरक का समय 300-200 ई०पू० के लगभग माना जाता है।

कुछ समालोचकों का मानना है कि चरक संहिता में पालिसाहित्य के कुछ शब्दों का उल्लेख मिलता है। इस आधार पर आचार्य चरक का समय उपनिषदों के बाद और बुद्ध से पूर्व निश्चित किया है। इसका प्रतिसंस्कार कनिष्क के समय 78 ई० के लगभग हुआ। त्रिपिटक के चीनी भाषा के अनुवाद में कनिष्क के राजवैद्य के रूप में चरक का उल्लेख मिलता है। आचार्य चरक की शिक्षा तक्षशिला में हुई थी। ऐसा माना जाता है कि ये कुषाण राज्य के राजवैद्य थे।

आचार्य चरक आयुर्वेद के विद्वान थे। उन्होंने आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थों और उनके ज्ञान को इकट्ठा करके उसका संकलन किया। उन्होंने विभिन्न स्थानों में भ्रमण करके चिकित्सकों के साथ बैठकें कीं, उनके विचार एकत्रित किए। इस आधार पर सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जो कि आयुर्वेद की शिक्षा के लिए अत्यावश्यक हैं।

आचार्य चरक विरचित ‘चरक संहिता’ आठ भागों में विभाजित है। इसमें कुल 120 अध्याय हैं। इस ग्रन्थ में आयुर्वेद से सम्बन्धित सभी सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। जो सिद्धान्त इस ग्रन्थ में नहीं हैं, वे अन्यत्र भी नहीं हैं। इस ग्रन्थ में रोगनाशक एवं रोग निरोधक दवाओं का उल्लेख है तथा सोना, चाँदी, पारा आदि धातुओं की भस्म एवं उनके उपयोग का वर्णन है।

5. महर्षि अरविन्द घोष

महान क्रान्तिकारी तथा राष्ट्रभक्त महर्षि घोष का जन्म सन् 1872 में कोलकाता में हुआ। इनके पिता एक डॉक्टर थे। जीवन के प्रारम्भिक क्षणों में अरविन्द घोष स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी देशभक्त के रूप में उभरे। ये सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक थे। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अलीपुर बम केस का अपराधी मानकर 1906 ई० में अलीपुर कारागार में बन्दी बना दिया।

कारागार की इसी अवधि में एक रात स्वप्न में बन्दिनी भारत माता का दर्शन कर भावाविष्ट मनोदशा में कवि ने इस ओजस्वी तथा राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत ‘शतक काव्य’ का प्रणयन किया, जिसे ‘भवानी भारती’ के नाम से जाना जाता है। अपने क्रान्तिकारी विचारों एवं बौद्धिक ज्ञान के आधार पर वे एक प्रसिद्ध दार्शनिक, योगी एवं गुरु के रूप में विख्यात हुए।

वेद उपनिषद् आदि ग्रन्थों पर टीका-ग्रन्थ लिखा। इसके साथ ही योग साधना पर इन्होंने अनेक मौलिक ग्रन्थ लिखे। उन ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वे सच्चे योगी थे। योग साधना के प्रचार-प्रसार एवं संवर्धन के लिए उन्होंने पांडिचेरी में एक योग आश्रम स्थापित किया। जीवन के उत्तरार्ध में महर्षि अरविन्द वेदों के व्याख्याता, महाकवि, महायोगी, परम राष्ट्रभक्त एवं महान् दार्शनिक के रूप में विश्वमञ्च पर प्रतिष्ठित हुए। इनका निधन सन् 1950 में हुआ। उनकी भाषा-शैली अलंकारयुक्त, माधुर्य एवं प्रसादगुण सम्पन्न है।

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6. विद्यापति

मैथिली, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के प्रसिद्ध कवि विद्यापति का जन्म चतुर्दश शताब्दी (1360-1448) में मिथिला क्षेत्र के विसफी ग्राम में हुआ था। बंगाल में जयदेव ने जिस कृष्ण-प्रेम के संगीत की परम्परा चलाई थी, उसी में मैथिल कोकिल विद्यापति ने हजारों पदों में अपना सुर मिलाया और उसी के साथ मैथिली काव्यधारा की विशेषतः गीतिकाव्य की एक अनोखी धारा चल पड़ी जिसने तीन शताब्दियों तक पूर्वी भारत में मैथिली का सिक्का जमा दिया।

मैथिल कोकिल विद्यापति की प्रसिद्धि बंगाल, उड़ीसा और असम में खूब हुई। इन देशों में विद्यापति को वैष्णव माना गया और उनके अनुकरण में अनेक कवियों ने मैथिली में पदावलियाँ रची। इस साहित्य की परम्परा आधुनिककाल तक चलती आई है। विद्यापति ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन्होंने संस्कृत भाषा में विविध विषयों पर आधारित 12 ग्रन्थों की रचना है।

उसमें से ‘पुरुष-परीक्षा’ नामक कथाग्रन्थ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस ग्रन्थ में बताया गया है कि सच्चे पुरुष की परख कैसे की जाती है। इसके लिए वासुकि नामक मुनि पारावार नामक राजा को अनेक कथाएँ सुनाते हैं। इसके साथ ही ‘वि लोक विश्रुत रचना है। इसमें राधा-कृष्ण संबंधी शृंगारिक गीत तथा शक्ति और शिव विषयक कविताओं का संग्रह किया गया है। इन्हें ही क्रमशः गोसाउनिक गीत तथा नचारी कहते हैं। इनकी रचनाओं की विषय-वस्तु लोक परम्परा के अनुरूप है। रचनाओं की भाषा-शैली सहज, सरल एवं प्रवाहमयी है।

7. श्रीनिवास रथ

आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों में विशेष रूप से प्रसिद्ध श्रीनिवास रथ का जन्म सन् 1933 में पुरी (उड़ीसा) में हुआ था। श्रीनिवास रथ बाल्यकाल से मध्य प्रदेश के विभिन्न नगरों में रहे तथा अपने पिता से पारम्परिक पद्धति द्वारा संस्कृत भाषा का अध्ययन करने के पश्चात् उच्च शिक्षा इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की। ये विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में संस्कृत विभाग में प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष रहे।

श्रीनिवास रथ 40 वर्षों से संस्कृत भाषा में गीत लिखते आ रहे हैं। इनकी कविताएँ भारतीय संस्कृति, देशभक्ति, सामाजिक सुधार, मानवीय मूल्य तथा परोपकारी दृष्टिकोण से परिपूर्ण हैं। इनके कविता-संग्रह में “तदेव गगनं सैव धरा” विशेष रूप से प्रसिद्ध है। यह संग्रह राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान नई दिल्ली से सन् 1995 में प्रकाशित हुआ है। इसके साथ ही ‘विपरीत जीवन लतिका रहस्य’ नामक रचना का भी प्रकाशन सन् 2002 में हुआ था।

आधुनिक संस्कृत साहित्य में प्रो० श्रीनिवास रथ का बहुमूल्य योगदान है। इनकी कविता की गीतात्मक शैली पाठकों के मन को आकर्षित करती है। कविता के माध्यम से कवि ने बताया है कि वैज्ञानिक प्रगति के आधुनिक युग में मानव-मूल्य और नैतिक महत्त्व की गिरावट चिन्तनीय विषय है। अतः कवि ने अपने गीतों के माध्यम से इनके उन्मूलन पर विशेष बल दिया है।

8. अभिराज राजेन्द्र मिश्र

आधुनिक काल के प्रतिष्ठित संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्र मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के जौनपुर नामक ग्राम में सन् 1943 में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित दुर्गाप्रसाद मिश्र था। आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों एवं लेखकों में इनका प्रमुख स्थान है। संस्कृत साहित्य के प्रति की गई सेवाओं के कारण इन्हें विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। सन् 1988 में इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके साथ ही सन् 2002 में अपने कहानी-संग्रह ‘इक्षुगन्धा’ के लिए इन्हें राष्ट्रपति के सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया।

अभिराजमिश्र संस्कृत साहित्य में कहानी-लेखन तथा एकांकी-लेखन के रूप में प्रसिद्ध हैं। ‘इक्षुगन्धा’ इनके द्वारा रचित कहानी-संग्रह है तथा ‘रूपरूद्रीयम्’ एकांकी-संग्रह है। मिश्र जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के निम्नवर्ग के प्रति होने वाले . अन्याय तथा शोषण का यथार्थ चित्रण किया है।

उनका मानना है कि गुणवान व्यक्ति किसी भी जाति, समुदाय अथवा वर्ग में पैदा होकर अपनी प्रतिभा को विकसित कर सकता है। जैसाकि गरीबों की बस्ती में पैदा होने वाले सोमधर के सद्व्यवहार को देखकर समाज के प्रतिष्ठित वकील भवानीदत्त आश्चर्यचकित हो जाते हैं और उसकी शिक्षा का सारा भार अपने ऊपर ले लेते हैं। अभिराजमिश्र की भाषा-शैली सरस, स्वाभाविक एवं प्रसंगानुकूल है। यत्र-तत्र आलंकारिक शब्दावली का प्रयोग भी दृष्टिगोचर होता है। भाषा में माधुर्य तथा प्रवाह सर्वत्र विद्यमान है।

9. कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर

विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को कोलकाता में हुआ। इनके पिता का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर तथा माता का नाम शारदा देवी था। सेंट जेवियर से प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद बैरिस्टर बनने की इच्छा से टैगोर इंग्लैण्ड चले गए। वे 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। रवीन्द्रनाथ टैगोर में बचपन से ही कविता, छन्द और भाषा ज्ञान के प्रति अद्भुत प्रतिभा का परिचय मिलता है।

उन्होंने छः वर्ष की आयु में पहली कविता लिखी थी तथा उसी उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। वस्तुतः टैगोर भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाले युगद्रष्टा महापुरुष थे। उन्होंने गीताञ्जलि, पूरबी प्रवाहिनी, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका, शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, मायेर-खेला तथा क्षणिका आदि ग्रन्थों की रचना की थी। भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ रवीन्द्रनाथ टैगोर के द्वारा लिखा गया है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाओं में देश-विदेश के सम्पूर्ण साहित्य, दर्शन तथा संस्कृति आदि की झलक मिलती है। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया है। टैगोर और गान्धी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहाँ गान्धी राष्ट्रवाद को प्रथम स्थान पर रखते थे, वहीं टैगोर मानवतावाद को। लेकिन दोनों एक-दूसरे का बहुत आदर करते थे। उनकी काव्य-रचना ‘गीताञ्जलि’ के लिए उन्हें 1913 में साहित्य नोबेल पुरस्कार मिला। 7 अगस्त, 1941 में इनका निधन हो गया।

10. पण्डित होसकेरे नागप्प शास्त्री

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जीवन-दर्शन को आधार मानकर भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने अनेकानेक ग्रन्थ लिखे। उसी कड़ी में पण्डित होसकेरे नागप्प शास्त्री जी ने गान्धी जी की आत्मकथा को आधार मानकर एक ग्रन्थ लिखा, जिसे ‘सत्यशोधनम्’ के नाम से जाना जाता है। यद्यपि यह ग्रन्थ गान्धी जी की आत्मकथा, जिसे गान्धी जी ने स्वयं गुजराती भाषा में लिखा था, का अनुवाद है तथापि इसके अनुवाद में शास्त्री जी ने अपने संस्कृत विषय के प्रखर ज्ञान का परिचय दिया है। इस ग्रन्थ के माध्यम से शास्त्री जी ने बताया है कि बचपन में गान्धी जी किस प्रकार श्रवण कुमार की मातृपितृभक्ति एवं सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा से अभिभूत हुए।

शास्त्री जी द्वारा इस ग्रन्थ के अनुवाद का प्रमुख उद्देश्य गान्धी जी के जीवन-दर्शन एवं उनके सिद्धान्तों से पाठकों को परिचित करवाना है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से प्रतीत होता है कि शास्त्री जी की भाषा-शैली सरस, सरल एवं मुहावरेदार है। वस्तु-विन्यास, प्रसंग के अनुरूप है। वाक्य छोटे-छोटे हैं। समासों का प्रयोग सामान्यतः नहीं के बराबर है।

11. अन्नंभट्ट

भारतीय दर्शन के विद्वानों में अन्नंभट्ट का विशेष स्थान है। इनका समय 17वीं शताब्दी माना जाता है। इन्होंने न्याय और वैशेषिक दर्शनों से सम्बन्धित ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें ‘तर्कसंग्रह’ और ‘तर्कसंग्रह दीपिका’ प्रमुख हैं।। अन्नभट्ट ने बालकों को सुखपूर्वक न्याय पदार्थों का ज्ञान कराने हेतु ‘तर्कसंग्रह’ नामक लघु ग्रन्थ को लिखा। इसके अति संक्षिप्त अर्थ को स्पष्ट करवाने के अभिप्राय से स्वयं दीपिका नामक व्याख्या ग्रन्थ की भी रचना की। ‘तर्कसंग्रह’ के आरम्भ में इसी बात पर बल देते हुए उन्होंने कहा है कि

निधायहृदि विश्वेशं विधाय गुरुवन्दनम्।
बालानां सुखबोधाय क्रियते तर्कसंग्रहः ॥

अर्थात् अपने हृदय में विश्वनाथ जी का ध्यान करके अपने गुरु की वन्दना करते हुए बालकों के भी सुखपूर्वक बोध के लिए तर्कसंग्रह लिख रहा हूँ। तर्कसंग्रह के अध्ययन से पता चलता है कि अन्नंभट्ट को न्याय एवं वैशेषिक सभी मूल सिद्धान्तों का ज्ञान था। क्योंकि पदार्थों के विषय में तर्कसंग्रह में इन्होंने जो कुछ बताया है, वह पूर्णतः वैशेषिक दर्शन के अनुसार है जबकि प्रमाण के विषय में जो कुछ है वह न्याय दर्शन के अनुसार है। महर्षि गौतम ने प्रमाण, प्रमेय, संशय आदि 16 पदार्थ माने हैं जबकि अन्नभट्ट ने केवल सात पदार्थ माने हैं जोकि द्रव्य, गुण, कर्म आदि के रूप में हैं। महर्षि गौतम के 16 पदार्थों का अन्तर्भाव अन्नंभट्ट ने अपने सात पदार्थों के अन्तर्गत कर दिया है।

HBSE 11th Class Sanskrit लेखक एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय Read More »