Haryana State Board HBSE 12th Class Sanskrit Solutions व्याकरणम् Karak-Parichayah कारक-परिचयः Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 12th Class Sanskrit व्याकरणम् कारक-परिचयः
कारक ज्ञान :
क्रिया के सम्पादन में जिन शब्दों का प्रयोग होता है वे कारक कहलाते हैं। “क्रिया जनकं” अथवा क्रियां करोति इति कारकम्। इसी प्रकार ‘क्रियान्वयि कारकम्’ अर्थात् क्रिया के साथ जिसका सीधा सम्बन्ध हो उसे कारक कहते हैं। जिसका क्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं हो वे कारक नहीं माने जाते। संस्कृत में कारक छः हैं कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण। इन छ: कारकों का क्रिया के साथ सीधा सम्बन्ध रहता है जैसे-‘राजा ने हरिद्वार’ में यश पाने के लिए अपने हाथ से रुपये ब्राह्मणों को दान दिए। इस वाक्य में दान क्रिया को सम्पादन करने में जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है वे सभी कारक हैं।
1. यहाँ दान (क्रिया) करने वाला राजा है – अतः राजा कारक हुआ।
2. दान का स्थान हरिद्वार है – अतः हरिद्वार कारक हुआ।
3. दान लेने वाला ब्राह्मण है – अतः ब्राह्मण कारक हुआ।
4. क्रिया हाथ से हुई – अतः हाथ कारक हुआ
5. रुपए दिए गए – अतः रुपए कारक हुआ।
6. दान का प्रयोजन यश प्राप्ति है – अत: यश कारक हुआ।
इस प्रकार क्रिया को पूरा करने में छ: सम्बन्ध स्थापित होते हैं जिन्हें कारक कहा जाता है और उन्हीं कारकों के चिहनों (प्रत्यय) को विभक्ति कहते हैं। जैसे –
- कर्ता कारक – प्रथमा विभक्ति-ने अर्थ में।
- कर्म कारक – द्वितीया विभक्ति-को अर्थ में।
- करण कारक – तृतीया विभक्ति-से, के, द्वारा अर्थ में। (with)
- सम्प्रदान कारक – चतुर्थी विभक्ति-के, लिए अर्थ में।
- अपादान कारक – पंचमी विभक्ति-से (अलग होना अर्थ में) (From)
- अधिकरण – सप्तमी विभक्ति में, पर, अर्थ में।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिसका क्रिया के निर्माण में कोई सम्बन्ध नहीं है, वह कारक नहीं होता।
उपर्युक्त सूची में सम्बन्ध कारक अर्थात् षष्ठी विभक्ति को कारक नहीं माना गया है क्योंकि उसका क्रिया के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं होता। जैसे-‘राज्ञः पुरुषः गच्छति।’ इस वाक्य में राजा का जाना क्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं है। राजा के होने या न होने से क्रिया पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः यहाँ ‘राजा’ सम्बन्ध कारक नहीं माना जा सकता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी षष्ठी को कारक नहीं माना जाता है। परन्तु, सम्बन्ध अर्थ को बताने वाली षष्ठी विभक्ति का, के, की, के अतिरिक्त कुछ विशेष अर्थों (संख्या आदि) में भी प्रयुक्त होती है। अतः उसे दिखाने के लिए षष्ठी विभक्ति का भी कारक प्रकरण में विवेचन किया जाता है।
कारक और उपपद विभक्ति में भेद इस प्रकार जिस शब्द का क्रिया के साथ सम्बन्ध प्रकट होता है उसे कारक विभक्ति कहते हैं और क्रिया से भिन्न नमः, स्वस्ति, सह, विना इत्यादि कुछ अव्यय शब्दों एवं पद विशेष के योग में जो विभक्ति होती है उसे उपपद विभक्ति कहते हैं। जैसे-‘रामः पुस्तकं पठति’ कारक विभक्ति है और ‘सीता रामेण सह गच्छति’ में ‘रामेण’ उपपद विभक्ति है क्योंकि रामेण में ततीया गमन क्रिया के कारण नहीं हई किन्त ‘सह’ के कारण हई है।
जहाँ कारक विभक्ति और उपपद विभक्ति दोनों की उपस्थिति हो वहाँ कारक विभक्ति ही होती है। जैसे ‘देवं नमस्करोति’ में नम: के योग में चतुर्थी उपपद विभक्ति भी प्रयुक्त है और नमस्करण क्रिया के योग में द्वितीया कारक विभक्ति भी प्रयुक्त है। किन्तु चतुर्थी के स्थान पर नियमानुसार द्वितीया ही होगी।
प्रथमा विभक्ति :
सूत्र-प्रादिपदिकार्थ-लिंग-परिमाण-वचनमात्रे प्रथमा
अर्थ – प्रातिपादिकार्थ (व्यक्ति और जाति-Crude form) मात्र में, लिंग (स्त्रीलिंग, पुंल्लिंग-नपुंसकलिंग) मात्र में, परिणाम (वचन) मात्र में, और वचन (संख्या) (एकत्व-द्वित्व-बहुत्व) मात्र में प्रथमा विभक्ति होती है।
उदाहरण –
(क) प्रातिपदिकार्थ मात्र में उच्चैः, नीचैः, कृष्णः, श्रीः, ज्ञानम्।
(ख) लिंग मात्र में – तट: (पुंल्लिंग), तटी (स्त्रीलिंग), तटम् (नपुंसकलिंग)।
(ग) परिणाम मात्र में – द्रोणः ब्रीहिः। द्रोण-वजन जितना नपा-तुला हुआ धान। यहाँ द्रोण-किसी, आदि परिणाम का सूचक है।
(घ) वचन मात्र में – एक: (एकवचन), द्वौ (द्विवचन), बहवः (बहुवचन)।
सूचना – कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग वास्तव में प्रातिपदिकार्थ मात्र में होता है। जैसे-रामः पाठं पठति।
इसी प्रकार कर्तवाच्य के कर्म में भी प्रथमा विभक्ति का प्रयोग प्रातिपादक का अर्थमात्र कहने में होता है। जैसे-रामेण पाठः पठ्यते।
प्रथमा विभक्ति-सम्बोधन
सूत्र-सम्बोधने च
अर्थ – सम्बोधन अर्थ में भी प्रथमा विभक्ति होती है।
उदाहरण – हे राम ! हे नदि ! हे ज्ञान ! यहां सम्बोधन अर्थ में ‘राम’ से प्रथमा विभक्ति हुई है।
द्वितीया विभक्ति-कर्मकारक
सूत्र-कर्तुरीप्सिततमं कर्म
अर्थ – किसी वाक्य में प्रयोग किए गए पदार्थों में जिसमें कर्ता सबसे अधिक चाहता है, उसे कर्म कहते हैं अर्थात् कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा विशेष रूप से जिसे प्राप्त करना चाहता है, उसे कर्म कहते हैं।
उदाहरण – देवदत्तः पयसा ओदनं खादति, देवदत्त दूध से भात खाता है, इस वाक्य में भात की तरह यद्यपि दूध भी कर्ता को प्रिय है, परन्तु कर्त्ता खादन क्रिया द्वारा भात (ओदन) को विशेष रूप में प्राप्त करना चाहता है, अत: ओदन अत्यन्त इष्ट होने से कर्म हुआ, दूध नहीं।
सूत्र-कर्मणि द्वितीया
अर्थ – अनुक्त कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। (कर्तृवाच्य में कर्म अनुक्त होता है, और कर्मवाच्य में उक्त।) कर्तृवाच्य में ही कर्म में द्वितीया होती है। उक्त (अभिहित) कर्म में तो प्रथमा होती है।
उदाहरण – कर्तृवाच्य कर्म (अनुक्त कर्म) में द्वितीया-हरिं भजति।
भजन क्रिया का कर्म हरि है अतः उसमें द्वितीया हुई है।
कर्मवाच्य कर्म में प्रथमा – हरिः सेव्यते, लक्ष्म्या हरिः सेवितः। यहाँ कर्म के अनुसार प्रत्यय (क्रिया) होने से कर्म उक्त है अत: यहाँ हरि में द्वितीया न होकर प्रथमा विभक्ति हुई है।
अन्य उदाहरण –
- छात्रः विद्यालयं गच्छति।
- क्षुधातः भोजनं भुंक्ते।
- परीक्षार्थी पुस्तकं पठति।
- अहं पत्रम् लिखामि।
- भक्तः भक्तिं लभते।
- पाचकः तण्डुलं पचति।
- भृत्यः भारं वहति।
नोट – उपर्युक्त उदाहरणों में स्थूलाक्षर कर्म हैं।
सूत्र-अकथितं च
अर्थ – जिस कारक की अपादान, सम्प्रदान, करण या अधिकरण आदि विवक्षा न करना चाहे, उसका कर्म संज्ञा हो जाती है। भाव यह है कि अपादान आदि कारकों के स्थान पर उनकी विवक्षा न होने पर कर्मकारक का प्रयोग होता है। किन्तु यह नियम निम्नलिखित सोलह धातुओं या उनकी समानार्थक धातुओं में ही सम्भव है –
उदाहरण – क्रम से नीचे दिए जा रहे हैं –
1. गां दोग्धि पयः (गाय से दूध दुहता है) यहाँ गाय अपादान कारक (गोः) है, किन्तु उसकी विवक्षा न होने पर गाय में पंचमी न होकर द्वितीया हुई है।
2. बलिम् याचते वसुधाम् (बलि से पृथ्वी मांगता है)-यहाँ बलि अपादान कारक (बलेः) है, किन्तु उसकी अविवक्षा होने पर कर्म संज्ञा होकर द्वितीया विभक्ति हुई है।
3. तण्डुलान् ओदनं (क्षीरम्) पचति (चावलों से भात पकाता है)-यहाँ ताण्डुल करण कारक (ताण्डुलैः) है, उसकी अविवक्षा होने पर उसमें द्वितीया विभक्ति हुई है।
4. गर्गान् शतं दण्डयति (गर्गों को सौ रुपए जुर्माना करता है)-यहाँ गर्गान् अपादान कारक (गर्गेभ्यः) है, अविवक्षा होने पर, कर्म संज्ञा होकर द्वितीया विभक्ति हुई है।
5. व्रजं अवरुणद्वि गाम् (व्रज (बाड़े) में गाय को रोकता है)-यहाँ व्रज अधिकरण कारक (व्रज) है, अविवक्षा होने पर कर्म संज्ञा होकर द्वितीया विभक्ति हुई।
6. माणवकं (बालकम्) पन्थानं पृच्छति (लड़के से मार्ग पूछता है)-यहाँ ‘माणवक’ करण-कारक (माणवकेन) है, उसकी अविवक्षा हों पर कर्म संज्ञा होकर, द्वितीया विभक्ति हुई है।
7. वृक्षम् अवचिनोति (चिनोति) फलानि (वृक्ष से फलों को चुनता है)-यहाँ वृक्ष अपादान कारक (वृक्षात्) है, अविवक्षा होने पर कर्म संज्ञा होकर द्वितीया विभक्ति हई है।
8. माणवकं (बालकम्) धर्मं ब्रूते (लड़के के लिए धर्म कहता है)-यहाँ माणवक सम्प्रदान कारक (माणवकाय) है। उसकी अविवक्षा होने पर कर्म संज्ञा होकर द्वितीया विभक्ति हुई है।
9. माणवकं धर्म शास्ति (लड़के के लिए धर्म की शिक्षा देता है)-यहाँ माणवक सम्प्रदान कारक (माणवकाय) कारक है, उसके अविवक्षा होने पर द्वितीया विभक्ति हुई है।
10. शतं जयति देवदत्तम् (देवदत्त से सौ रुपए जीतता है)-यहाँ देवदत्त अपादान कारक (देवदत्तात्) है, उसकी अविवक्षा होने पर द्वितीया विभक्ति हुई है।
11. सुधां क्षीरनिधिं मनाति (अमृत के लिए समुद्र को मथता है)-यहाँ सुधा सम्प्रदान कारक (सुधायै) है, किन्तु उसकी अविवक्षा होने पर कर्म संज्ञा होकर द्वितीया विभक्ति हुई है।
12. देवदत्तं शतं मुष्णाति (देवदत्त से सौ रुपए चुराता है)-यहाँ देवदत्त अपादान कारक (देवदत्तात्) है, किन्तु उसकी अविवक्षा होने पर द्वितीया विभक्ति हुई है।
13. ग्रामं अजां नयति (गाँव में बकरी को ले जाता है)-यहाँ ग्राम अधिकरण कारक (ग्रामे) है किन्तु अविवक्षा होने पर द्वितीया विभक्ति हुई है।
14. ग्रामं अजां हरति (गाँव में बकरी को हर कर ले जा रहा है)-यहाँ ग्राम अधिकरण कारक (ग्रामे) है, किन्तु अविवक्षा होने पर द्वितीया विभक्ति हुई है।
15. ग्रामं अजां कर्षति (गाँव में बकरी को खींचता है)-यहाँ ग्राम अधिकरण कारक (ग्रामे) हैं, किन्तु अविवक्षा होने पर द्वितीया विभक्ति हुई है।
16. ग्रामं अजां वहति (ग्राम अधिकरण कारक (ग्रामे) हैं, किन्तु अविवक्षा होने पर द्वितीया विभक्ति हुई है।
समानार्थक धातुओं के उदाहरण –
1. बलिं भिक्षते वसुधाम् (बलि से पृथ्वी माँगता है) – यहाँ याच धातु की समानार्थक भिक्ष् धातु है। अतः बलि में अपादान की विवक्षा न होने पर द्वितीया विभक्ति हुई है।
2. माणवकं धर्मं भाषते (लड़के के लिए धर्म कहता है) – यहाँ ब्रू धातु की समानार्थक भाष् धातु है। अत: माणवक में अपादान की विवक्षा न होने पर द्वितीया विभक्ति हुई है।
3. माणवकं धर्मं अभिधत्ते (लड़के के लिए धर्म कहता है) – यहाँ ‘ब्रू’ की समानार्थक अभि + धा धातु है। अतः माणवक में अपादान की विवक्षा न होने से द्वितीया विभक्ति हुई है।
4. माणवकं धर्मं वक्ति – (लड़के के लिए धर्म कहता है) – यहाँ ‘ब्रू’ धातु की समानार्थक ‘वच्’ धातु है। अत: माणवक में सम्प्रदान कारक की विवक्षा न होने के कारण द्वितीया विभक्ति हुई है।
कर्ता कारक
सूत्र-स्वतन्त्रः कर्ता
अर्थ – क्रिया का प्रधान भूत कारक कर्ता कहलाता है अर्थात् जो क्रिया के सम्प्रदान में प्रधान होता है, उसे कर्ता कारक कहते हैं। कर्ता का अर्थ है करने वाला। वाक्य में क्रिया को करने में जो स्वतन्त्र होता है वह कर्ता होता है। कर्तवाच्य के कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है।
उदाहरण – देवदत्तः गच्छति, यहाँ जाता है, क्रिया का प्रधान भूत कारक देवदत्त है, अत: वह कर्ता है।
तृतीया विभक्ति-करणकारक
सूत्र-साधकतमं करणम्
अर्थ – अपने कार्य को सिद्धि में कर्ता जिसकी सबसे अधिक सहायता लेता है, उसे करण कारक कहते हैं।
उदाहरण – रामेण बाणेन हतो बालि:-(राम ने बाण से बालि को मारा)। इस वाक्य में हनन क्रिया में बाण अत्यन्त सहायक होने से करण कारक है।
सूत्र-कर्तृकरणयोस्तृतीया
अर्थ – अनुक्त कर्ता (कर्मवाच्य और भाववाच्य में कर्ता अनुक्त होता है) तथा करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है।
उदाहरण – ‘रामेण बाणेन हतो बालिः’ (राम ने बाण से बाली को मारा)-इस वाक्य में करण ‘बाण’ में तृतीया विभक्ति हुई है। कर्मवाच्य में होने से यहाँ कर्ता ‘राम’ अनुक्त है, अत: राम में भी तृतीया विभक्ति हुई है।
अन्य उदाहरण –
सः स्व हस्तेन लिखति
दना भोजनं कुरु।
अहं यानेन ग्रामम् अगच्छम्।
रामः बाणेन रावणं हतवान्।
नोट – मोटे काले पदों में करण (साधन) होने से तृतीया विभक्ति हुई है।
चतुर्थी विभक्ति-सम्प्रदान कारक
सूत्र-कर्मणा यमभि प्रैतिस सम्प्रदानम्
अर्थ – दान के कर्म द्वारा कर्ता जिसे सन्तुष्ट करना चाहता है, वह पदार्थ सम्प्रदान कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि दान क्रिया जिसके लिए होती है, उसे सम्प्रदान कहते हैं।
उदाहरण – विप्राय गां ददाति (ब्राह्मण को गाय देता है)-यहाँ गोदान कर्म के द्वारा कर्त्ता विप्र से सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है, अतः ‘विप्र’ सम्प्रदान कारक है।
सूत्र-चतुर्थी सम्प्रदाने
अर्थ – सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है।
उदाहरण – विप्राय गां ददाति (ब्राह्मण को गाय देता है) यहाँ ‘विप्र’ के सम्प्रदान संज्ञक होने के कारण उसमें चतुर्थी विभक्ति हुई है।
इसी प्रकार-माता पुत्राय भोजनं ददाति।
गुरुः शिष्येभ्यः विद्यां प्रयच्छति।
‘के लिये’ अर्थ में भी चतुर्थी का प्रयोग होता है, जैसे –
1. स पूजनाय मन्दिरं गच्छति।
2. बालकाः पठनाय अत्र आगच्छन्ति।
3. लेखनी लेखनाय भवति।
सूत्र-नमः स्वस्ति-स्वाहा-स्वधाऽलं-वषड्योगाच्च
अर्थ – नमः स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम् (पर्याप्त, समर्थ) और वषट् (देवताओं को आहुति देना)-इन छ: अव्ययों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। ‘अलम् यहाँ पर्याप्त, समर्थ अर्थ का सूचक है।’ अतः अलम् अर्थ वाचक-प्रभुः समर्थः, शक्तः-इन पदों का भी अलम् में ग्रहण होता है और उस समर्थ वाचक शब्दों के योग में भी चतुर्थी होती है।
उदाहरण –
- हरये नमः (हरि को नमस्कार) – यहाँ हरि में नमः के योग में चतुर्थी विभक्ति हुई है।
- प्रजाभ्यः स्वस्ति (प्रजा का कल्याण हो) – यहाँ प्रजा में चतुर्थी है।
- अग्नये स्वाहा (अग्नि में आहुति है) – यहाँ अग्नि में चतुर्थी है।
- पितृभ्यः स्वधा (पितरों को आहुति है) – यहाँ पितृ में चतुर्थी है।
- दैत्येभ्यः हरि अलम् (हरि दैत्यों के लिए काफी है) – यहाँ दैत्य में चतुर्थी हुई है।
अन्य उदाहरण –
(i) दैत्येभ्यः हरिः प्रभुः (दैत्यों के लिए हरि समर्थ है)।
(i) दैत्येभ्यः हरिः समर्थः (दैत्यों के लिए हरि समर्थ है)।
(ii) दैत्येभ्यः हरिः शक्तः (दैत्यों के लिए हरि समर्थ है)। यहाँ दैत्य में चतुर्थी विभक्ति हुई है। नोट-यहाँ अलम का अर्थ काफी है, निषेध नहीं।
5. इन्द्राय वषट् – (इन्द्र के लिए आहुति)-यहाँ इन्द्र में चतुर्थी हुई है। वषट् का प्रयोग वेद में ही मिलता है, लोक में नहीं।
पञ्चमी विभक्ति-अपादानकारक
सूत्र-ध्रुवमपायेऽपादानम्
अर्थ – अलग होने में स्थिर या अचल कारक को अपादान कहते हैं। तात्पर्य यह है कि दो वस्तुओं का अलगाव हो, तब जो वस्तु अपने स्थान से अलग नहीं होती, उसी को अपादान कहते हैं।
उदाहरण –
(i) ग्रामात् आयाति (गाँव से वह आता है) – यहाँ गाँव अपने ही स्थान पर स्थिर रहता है। अतः वह अपादान कारक है।
(ii) धावतः अश्वात् पतति-(दौड़ते हुए घोड़े से वह गिरता है)-यहाँ पतन क्रिया में अश्व स्थिर है अतः अपादान संज्ञक है।
नोट – दौड़ता हुआ भी घोड़ा पतन क्रिया स्थिर में रहता है अर्थात् सवार गिरता है घोड़ा नहीं, अतः अश्व के अपादान कारक बनने में कोई बाधा नहीं।
सूत्र-अपादाने पंचमी
अर्थ-अपादान में पंचमी विभक्ति होती है।
उदाहरण –
1. ग्रामात् आयाति (गाँव से आता है) – यहाँ ग्राम में अपादान संज्ञक होने से पंचमी विभक्ति हुई है।
2. धावतः अश्वात् पतति (दौड़ते हुए घोड़े से वह गिरता है) – यहाँ अश्व में अपादान संज्ञा होने से पंचमी विभक्ति हुई है। धावतः अश्व का विशेषण है, अतः उसमें भी पंचमी हुई है।
3. वृक्षात् पत्रं पतति (वृक्ष से पत्ता गिरता है) – यहाँ वृक्ष में अपादान होने से पंचमी विभक्ति हुई है।
षष्ठी विभक्ति
सूत्र-षष्ठी शेषे
अर्थ – प्रतिपादिकार्थ, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण इन सम्बन्धों को छोड़ कर शेष-अर्थात् स्वामी-सेवक, जन्य-जनक तथा कार्य-कारण आदि अन्य सम्बन्धों में षष्ठी विभक्ति होती है।
इसके अतिरिक्त कर्म, करण आदि कारकों की सम्बन्ध क्रिया से अन्वय (सम्बन्ध) मात्र विवक्षा की षष्ठी विभक्ति होती है।
उदाहरण –
1. राज्ञः पुरुषः (राजा का आदमी)। यहाँ स्वामी-सेवक सम्बन्ध होने से राजन् में षष्ठी विभक्ति हुई है।
2. बालकस्य माता (बालक की मां)-यहाँ जन्य-जनक भाव होने से बालक में षष्ठी हुई है।
3. मृत्तिकायाः घटः (मिट्टी का घड़ा)-यहाँ कार्य-कारण सम्बन्ध होने से मृत्तिका में षष्ठी विभक्ति हुई है।
4. सतां गतम् (सत्पुरुष सम्बन्धि गमन)-यहाँ कर्ता ‘सत्’ की सम्बन्ध मात्र विवक्षा होने से उसमें षष्ठी विभक्ति हुई है।
5. सर्पिषो जानीते-(घी के सम्बन्ध से प्रवृत्त होता है) (सर्पिष: सम्बन्धित उपायेन प्रवर्तते) यहाँ भी सम्बन्ध मात्र की विवक्षा में करण कारण ‘सर्पिष्’ में षष्ठी विभक्ति हुई है।
6. मातुः स्मरति (माता सम्बन्धी स्मरण करता है)-हाँ सम्बन्ध को विवक्षा में कर्म कारक ‘मातृ’ में षष्ठी विभक्ति है।
7. एधः उदकस्य उपस्कुरुते (लकड़ी जल-सम्बन्धी गुणों को धारण करती है)-यहाँ कर्म कारक “दक” में सम्बन्ध विवक्षा के कारण षष्ठी विभक्ति हुई है।
8. भजे शंभोश्चरणयोः (शम्भू के चरणों के विषय (सम्बन्ध में) भेजता हूँ)-यहाँ सम्बन्ध मात्र की विवक्षा होने से कर्मकारक चरण में षष्ठी विभक्ति हुई है।
इसी प्रकार-सतां चरितम् (सज्जनों का चरित्र)।
रामस्य भ्राता लक्ष्मणः अस्ति।
यहां रेखांकित में षष्ठी सम्बन्ध के कारण षष्ठी विभक्ति हुई है।
टिप्पणी (i) शेष – शेष का अर्थ है कर्म करण आदि की अविवक्षा।
(ii) सम्बन्ध–सम्बन्ध का अर्थ है क्रिया से अन्वय (सम्बन्ध)।
सप्तमी विभक्ति-अधिकरण कारक
सूत्र-आधारोऽधिकरणम्
अर्थ – कर्ता और कर्म के द्वारा किसी भी क्रिया के आधार कारक को अधिकरण कहते हैं। जिसमें क्रिया रहती है, उसे आधार कहते हैं। यह आधार तीन प्रकार का होता है –
औपश्लेषिक, वैषयिक तथा अभिव्यापक।
उदाहरण –
1. औपश्लेषिक आधार – जिसके साथ आधेय का भौतिक संयोग (संश्लेष) होता है, उसे औपश्लेषिक आधार कहते हैं।
जैसे – (i) कटे आस्ते – (चटाई पर है) – यहाँ चटाई (कट) से बैठने वाले का प्रत्यक्ष भौतिक मेल है। अतः ‘कट’ औपश्लेषिक आधार है।
(ii) स्थाल्यां पचति – (पतीली में पकाता है) – यहाँ ओदन कर्म (आधेय) का पतीली (स्थली) से भौतिक संयोग है, अतः स्थाली औपश्लेषिक आधार है।
2. वैषयिक आधार – जिसके साथ आधेय का बौद्धिक संयोग (सम्बन्ध) रहता है, वह वैषयिक आधार कहलाता है।
जैसे – मोक्षे इच्छा अस्ति – मोक्ष के विषय में इच्छा है) – यहाँ मोक्ष वैषयिक आधार है, क्योंकि यह इच्छा का विषय है। जैसे –
3. अभिव्यापक आधार – जिसके साथ आधेय का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध हो उसे अभिव्यापक आधार कहते हैं। जैसे
(i) तिलेषु तैलम्-(तिलों में तेल है) – यहाँ ‘तिल’ अभिव्यापक आधार है, क्योंकि उसके सभी अवयवों में तेल व्याप्त है उसके किसी एक हिस्से में नहीं।
(ii) सर्वस्मिन् आत्मा अस्ति (विराजते) – (सब में आत्मा है)-यहाँ ‘सर्व अभिव्यापक आधार क्योंकि आत्मा का सब में सर्वात्मना संयोग है।
सूत्र-सप्तम्यधिकरणे च
अर्थ – अधिकरण कारक में सप्तमी विभक्ति होती है और दूर तथा अन्तिक (पास) अर्थवाचक शब्दों से भी सप्तमी विभक्ति होती है।
उदाहरण –
- कटे अस्ति (चटाई पर है) – यहाँ अधिकरण कट में सप्तमी है।
- स्थाल्यां पचति (पतीली में पकाता है) – यहाँ अधिकरण स्थाली में सप्तमी है।
- मोक्षे इच्छा अस्ति (मोक्ष में इच्छा है) – यहाँ अधिकरण मोक्ष में सप्तमी हुई है।
- तिलेषु तैलम्-(तिलों में तेल है) – यहाँ अधिकरण तिल में सप्तमी है।
- सर्वस्मिन् आत्मा अस्ति (सब में आत्मा है) – यहाँ अधिकरण ‘सर्व’ में सप्तमी विभक्ति है।
- वनस्य दूरे (वन से दूर) – यहाँ दूर अर्थवाची दूर शब्द में सप्तमी विभक्ति है।
- वनस्य अन्तिके (वन के पास) – यहाँ पास अर्थवाची अन्तिक शब्द में सप्तमी विभक्ति हुई है।