HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

HBSE 12th Class History विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
क्या उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों और भौतिकवादियों से भिन्न थे? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
निःसंदेह नियतिवादियों और भौतिकवादियों के विचार उपनिषदों के दार्शनिकों से भिन्न थे। उपनिषदों में आत्मिक ज्ञान पर बल दिया गया था, जिसका अर्थ था आत्मा और परमात्मा के संबंधों को जानना। परमात्मा ब्रह्म है, जिससे संपूर्ण जगत पैदा हुआ है। जीवात्मा अमर है और ब्रह्म का ही अंश है। जीवात्मा ब्रह्म में लीन होकर मुक्ति प्राप्त करती है। इसके लिए सद्कर्मों और आत्मिक ज्ञान की जरूरत है। उपनिषदों के इस ज्ञान से नियतिवादियों और भौतिकवादियों के विचार भिन्न थे जो निम्नलिखित तर्कों से स्पष्ट हैं

  • नियतिवादियों का मानना था कि प्राणी नियति यानी भाग्य के अधीन है। मनुष्य उसी के अनुरूप सुख-दुख भोगता है। सद्कर्मों अथवा आत्मज्ञान से नियति नहीं बदलती।
  • भौतिकवादियों का मानना था कि मानव का शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु से बना है। आत्मा और परमात्मा कोरी कल्पना है। मृत्यु के पश्चात् शरीर में कुछ शेष नहीं बचता। अतः भौतिकवादियों के विचार भी आत्मा-परमात्मा या अन्य विचार भी उपनिषदों के दार्शनिकों से बिल्कुल भिन्न थे।

प्रश्न 2.
जैन धर्म की महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
जैन धर्म की मुख्य शिक्षाएँ इस प्रकार हैं
1. अहिंसा-जैन धर्म की शिक्षाओं का केंद्र-बिंदु अहिंसा का सिद्धांत है। जैन दर्शन के अनुसार संपूर्ण विश्व प्राणवान है अर्थात् पेड़-पौधे, मनुष्य, पशु-पक्षियों सहित पत्थर और पहाड़ों में भी जीवन है। अतः किसी भी प्राणी या निर्जीव वस्तु को क्षति न पहुँचाई जाए। यही अहिंसा है। इसे मन, वचन और कर्म तीनों रूपों में पालन करने पर जोर दिया गया।

2. तीन आदर्श वाक्य-जैन शिक्षाओं में तीन आदर्श वाक्य हैं सत्य विश्वास, सत्य ज्ञान तथा सत्य चरित्र। इन तीनों वाक्यों को त्रिरत्न कहा गया है।

3. पाँच महाव्रत-जैन शिक्षाओं में मनुष्य को पापों से बचाने के लिए पाँच महाव्रतों के पालन पर जोर दिया गया है। ये ब्रत हैं। अहिंसा का पालन, चोरी न करना, झूठ न बोलना, धन संग्रह न करना तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना।

4. कठोर तपस्या-जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति के लिए और पिछले जन्मों के बरे कर्मों के फल को समाप्त करने के लिए कठोर तपस्या पर बल दिया गया है।

प्रश्न 3.
साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
भोपाल की दो शासिकाओं शाहजहाँ बेगम और सुल्तानजहाँ बेगम ने साँची के स्तूप को बनाए रखने में उल्लेखनीय योगदान दिया। उन्होंने इसके संरक्षण के लिए धन भी दिया और इसके पुरावशेषों को भी संरक्षित किया। 1818 में इस स्तूप की खोज के बाद बहुत-से यूरोपियों का इसके पुरावशेषों के प्रति विशेष आकर्षण था। फ्रांसीसी और अंग्रेज़ अलंकृत पत्थरों को ले जाकर अपने-अपने देश के संग्रहालयों में प्रदर्शित करना चाहते थे।

फ्रांसीसी विशेषतया पूर्वी तोरणद्वार, जो सबसे अच्छी स्थिति में था, को पेरिस ले जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने शाहजहाँ बेगम से इजाजत माँगी। ऐसा प्रयत्न अंग्रेज़ों ने भी किया। बेगम ने सूझ-बूझ से काम लिया। वह इस मूल कृति को भोपाल राज्य में अपनी जगह पर ही संरक्षित रखना चाहती थी। सौभाग्यवश कुछ पुरातत्ववेत्ताओं ने भी इसका समर्थन कर दिया। इससे यह स्तूप अपनी जगह सुरक्षित रह पाया। भोपाल की बेगमों ने स्तूप के रख-रखाव के लिए धन भी उपलब्ध करवाया। सुल्तानजहाँ बेगम ने स्तूप स्थल के पास एक संग्रहालय एवं अतिथिशाला भी बनवाई।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

प्रश्न 4.
निम्नलिखित संक्षिप्त अभिलेख को पढ़िए और उत्तर दीजिए महाराज हुविष्क (एक कुषाण शासक) के तैंतीसवें साल में गर्म मौसम के पहले महीने के आठवें दिन त्रिपिटक जानने वाले भिक्खु बल की शिष्या, त्रिपिटक जानने वाली बुद्धमिता के बहन की बेटी भिक्खुनी धनवती ने अपने माता-पिता के साथ मधुवनक में बोधिसत्त की मूर्ति स्थापित की।

(क) धनवती ने अपने अभिलेख की तारीख कैसे निश्चित की?
(ख) आपके अनुसार उन्होंने बोधिसत्त की मूर्ति क्यों स्थापित की?
(ग) वे अपने किन रिश्तेदारों का नाम लेती हैं?
(घ) वे कौन-से बौद्ध ग्रंथों को जानती थीं?
(ङ) उन्होंने ये पाठ किससे सीखे थे?
उत्तर:
(क) धनवती ने तत्कालीन कुषाण शासक हुविष्क के शासनकाल के तैंतीसवें वर्ष के गर्म मौसम के प्रथम महीने के आठवें दिन का उल्लेख करके अपने अभिलेख की तिथि को निश्चित किया।

(ख) उन्होंने बौद्ध धर्म में अपनी आस्था प्रकट करने और स्वयं को सच्ची भिक्खुनी सिद्ध करने के लिए मधुवनक में बोधिसत्त की मूर्ति की स्थापना की।

(ग) वह अभिलेख में अपनी मौसी (माता की बहन) बुद्धमिता तथा उसके गुरु बल और अपने माता-पिता का नाम लेती है।

(घ) धनवती त्रिपिटक (सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्म पिटक) बौद्ध ग्रंथों को जानती थी।

(ङ) उन्होंने यह पाठ बल की शिष्या बुद्धमिता से सीखे थे। प्रश्न 5. आपके अनुसार स्त्री-पुरुष संघ में क्यों जाते थे?
उत्तर:
बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने के लिए महात्मा बुद्ध ने बौद्ध संघ की स्थापना की। बौद्ध संघ महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित एक धार्मिक व्यवस्था भी थी। अतः इसमें स्त्री-पुरुष निम्नलिखित कारणों से शामिल हुए

(1) बौद्ध संघ की व्यवस्था समानता पर आधारित थी। इसमें किसी वर्ण, जाति या वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता था। संघ का संगठन गणतंत्रात्मक प्रणाली पर आधारित था।

(2) शुरू में संघ में स्त्रियों को शामिल नहीं किया गया था परंतु बाद में स्त्रियों को भी संघ की सदस्या बनाया गया। वे भी बौद्ध धर्म की ज्ञाता बनीं।

(3) बौद्ध धर्म के शिक्षक-शिक्षिकाएँ बनने के लिए स्त्री-पुरुष संघ के सदस्य बनते थे। वे बौद्ध धर्म ग्रंथों का गहन अध्ययन करते थे ताकि वे संघ की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार कर सकें।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 500 शब्दों में)

प्रश्न 6.
साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य के ज्ञान से कहाँ तक सहायता मिलती है ?
उत्तर:
साहित्यिक ग्रंथों के व्यापक अध्ययन से प्राचीन मूर्तिकला के अर्थ को समझा जा सकता है। यह बात साँची स्तूप की मूर्तिकला के संदर्भ में भी लागू होती है। इसलिए इतिहासकार साँची की मूर्ति गाथाओं को समझने के लिए बौद्ध साहित्यिक परंपरा के ग्रंथों का गहन अध्ययन करते हैं। बहुत बार तो साहित्यिक गाथाएँ ही पत्थर में मूर्तिकार द्वारा उभारी गई होती हैं। साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य काफी हद तक सहायक है; जैसे कि नीचे दिए गए उदाहरणों से स्पष्ट होता है

1. वेसान्तर जातक की कथा साँची के उत्तरी तोरणद्वार के एक हिस्से में एक मूर्तिकला अंश को देखने से लगता है कि उसमें एक ग्रामीण दृश्य चित्रित किया गया है। परंतु यह दृश्य वेसान्तर जातक की कथा से है, जिसमें एक राजकुमार अपना सब कुछ एक ब्राह्मण को सौंपकर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ वनों में रहने के लिए जा रहा है।
HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 Img 4
अतः स्पष्ट है कि जिस व्यक्ति को जातक कथाओं का ज्ञान नहीं होगा वह मूर्तिकला के इस अंश को नहीं जान पाएगा।

2. प्रतीकों की व्याख्या-मूर्तिकला में प्रतीकों को समझना और भी कठिन होता है। इन्हें तो बौद्ध परंपरा के ग्रंथों को पढ़े बिना समझा ही नहीं जा सकता। साँची में कुछ एक प्रारंभिक मूर्तिकारों ने बौद्ध वृक्ष के नीचे ज्ञान-प्राप्ति वाली घटना को प्रतीकों के रूप में दर्शाने का प्रयत्न किया है। बहुत-से प्रतीकों में वृक्ष दिखाया गया है, लेकिन कलाकार का तात्पर्य संभवतया इनमें एक पेड़ दिखाना नहीं रहा, बल्कि पेड़ बुद्ध के जीवन की एक निर्णायक घटना का प्रतीक था।

इसी तरह साँची की एक और मूर्ति में एक वृक्ष के चारों ओर बौद्ध भक्तों को दिखाया गया है। परंतु बीच में जिसकी वे पूजा कर रहे हैं वहाँ महात्मा बुद्ध का मानव रूप में चित्र नहीं है, बल्कि एक खाली स्थान दिखाया गया है यही रिक्त स्थान बुद्ध की ध्यान की दशा का प्रतीक बन गया।

अतः स्पष्ट है कि मूर्तिकला में प्रतीकों अथवा चिह्नों को समझने के लिए बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन होना चाहिए। यहाँ यह भी ध्यान रहे कि केवल बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन से ही साँची की सभी मूर्तियों को नहीं समझा जा सकता। इसके लिए तत्कालीन अन्य धार्मिक परंपराओं और स्थानीय परंपराओं का ज्ञान होना भी जरूरी है, क्योंकि इसमें लोक परंपराओं का समावेश भी हुआ है। उत्कीर्णित सर्प, बहुत-से जानवरों की मूर्तियाँ तथा शालभंजिका की मूर्तियाँ इत्यादि इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 7.
चित्र I और II में साँची से लिए गए दो परिदृश्य दिए गए हैं। आपको इनमें क्या नज़र आता है? वास्तुकला, पेड़-पौधे और जानवरों को ध्यान से देखकर तथा लोगों के काम-धंधों को पहचान कर यह बताइए कि इनमें से कौन-से ग्रामीण और कौन-से शहरी परिदृश्य हैं?
उत्तर:
साँची के स्तूप में मूर्तिकला के उल्लेखनीय नमूने देखने को मिलते हैं। इनमें जातक कथाओं को उकेरा गया है, साथ ही बौद्ध परंपरा के प्रतीकों को भी उभारा गया है, यहाँ तक कि अन्य स्थानीय परंपराओं को शामिल किया गया है।
HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 Img 4

चित्र I और II में भी बौद्ध परंपरा से जुड़ी धारणाओं को उकेरा गया है। चित्र को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसमें अनेक पेड़-पौधे और जानवरों को दिखाया गया है। दृश्य ग्रामीण परिवेश का लगता है। लेकिन बौद्ध धर्म की दया, प्रेम और अहिंसा की धारणाएँ इसमें स्पष्ट झलकती हैं। चित्र के ऊपरी भाग में जानवर निश्चिंत भाव से सुरक्षित दिखाई दे रहे हैं, जबकि निचले भाग में कई जानवरों के कटे हुए सिर और धनुष-बाण लिए हुए मनुष्यों के चित्र हैं, जो बलि प्रथा और शिकारी-जीवन, हिंसा को प्रकट करते हैं।

चित्र-II बिल्कुल अलग परिदृश्य को व्यक्त कर रहा है। संभवतः यह कोई बौद्ध संघ का भवन है जिसमें बौद्ध भिक्षु ध्यान और प्रवचन जैसे कार्यों में व्यस्त हैं। चित्र में उकेरा गया भव्य सभाकक्ष और उसके स्तंभों में भी बौद्ध धर्म के प्रतीक दिखाई दे रहे हैं। स्तंभों के ऊपर हाथी और दूसरे जानवर बने हैं। ध्यान रहे इनसे जुड़े साहित्य का यदि हम अध्ययन करें तो संभवतः इन चित्रों का और भी गहन अर्थ निकालने में सक्षम हो पाएँगे।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

प्रश्न 8.
वैष्णववाद और शैववाद के उदय से जड़ी वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
लगभग 600 ईसा पूर्व से 600 ई० के मध्य वैष्णववाद और शैववाद का विकास हुआ। इसे हिंदू धर्म या पौराणिक हिंदू धर्म भी कहा जाता है। इन दोनों नवीन विचारधाराओं की अभिव्यक्ति मूर्तिकला और वास्तुकला के माध्यम से भी हुई। इस संदर्भ में मूर्तिकला और वास्तुकला के विकास का परिचय निम्नलिखित है

1. मूर्तिकला–बौद्ध धर्म की महायान शाखा की भाँति पौराणिक हिंदू धर्म में भी मूर्ति-पूजा का प्रचलन शुरू हुआ। भगवान् विष्णु व उनके अवतारों को मूर्तियों के रूप में दिखाया गया। अन्य देवी-देवताओं की भी मूर्तियाँ बनाई गईं। प्रायः भगवान् शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में प्रस्तुत किया गया। लेकिन कई बार उन्हें मानव रूप में भी दिखाया गया। विष्णु की प्रसिद्ध प्रति देवगढ़ दशावतार मंदिर में मिली है। इसमें उन्हें शेषनाग की शय्या पर लेटे हुए दिखाया गया है।

वे कुण्डल, मुकुट व माला आदि पहने हैं। इसके एक ओर शिव तथा दूसरी ओर इन्द्र की प्रतिमाएँ हैं। नाभि से निकले कमल पर ब्रह्मा विराजमान हैं। लक्ष्मी विष्णु के चरण दबा रही हैं। वराह पृथ्वी को प्रलय से बचाने के लिए दाँतों पर उठाए हुए हैं। पृथ्वी को भी नारी रूप में दिखाया गया है। गुप्तकालीन शिव मंदिरों में एक-मुखी और चतुर्मुखी शिवलिंग मिले हैं।

2. वास्तुकला- वैष्णववाद और शैववाद के अंतर्गत मंदिर वास्तुकला का विकास हुआ। संक्षेप में, शुरुआती मंदिरों के स्थापत्य (वास्तुकला) की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(i) मंदिरों का प्रारंभ गर्भ-गृह (देव मूर्ति का स्थान) के साथ हुआ। ये चौकोर कमरे थे। इनमें एक दरवाजा होता था, जिससे उपासक पूजा के लिए भीतर जाते थे। गर्भ-गृह के द्वार अलंकृत थे।

(ii) धीरे-धीरे गर्भ-गृह के ऊपर एक ऊँचा ढांचा बनाया जाने लगा, जिसे शिखर कहा जाता था।
HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 Img 6

(iii) शुरुआती मंदिर ईंटों से बनाए गए साधारण भवन हैं, लेकिन गुप्तकाल तक आते-आते स्मारकीय शैली का विचार उत्पन्न हो चुका था, जो आगामी शताब्दियों में भव्य पाषाण मंदिरों के रूप में अभिव्यक्त हुआ। इनमें ऊँची दीवारें, तोरण, तोरणद्वार और विशाल सभास्थल बनाए गए, यहाँ तक कि जल आपूर्ति का प्रबंध भी ‘किया गया।

(iv) पूरी एक चट्टान को तराशकर मूर्तियों से अलंकृत पूजा-स्थल बनाने की शैली भी विकसित हुई। उदयगिरि का विष्णु मंदिर इसी शैली से बनाया गया। इस संदर्भ में महाबलीपुरम् (महामल्लपुरम्) के मंदिर भी विशेष उल्लेखनीय हैं।

प्रश्न 9.
स्तूप क्यों और कैसे बनाए जाते थे? चर्चा कीजिए।
उत्तर:
स्तूप बौद्ध धर्म के अनुयायियों के पूजनीय स्थल हैं। यह क्यों और कैसे बनाए गए, इसका वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है

1. स्तूप क्यों बनाए गए?-स्तूप का शाब्दिक अर्थ टीला है। ऐसे टीले, जिनमें महात्मा बुद्ध के अवशेषों (जैसे उनकी अस्थियाँ, दाँत, नाखून इत्यादि) या उनके द्वारा प्रयोग हुए सामान को गाड़ दिया गया था, बौद्ध स्तूप कहलाए। ये बौद्धों के लिए पवित्र स्थल थे।

यह संभव है कि स्तूप बनाने की परंपरा बौद्धों से पहले रही हो, फिर भी यह बौद्ध धर्म से जुड़ गई। इसका कारण वे पवित्र अवशेष थे जो स्तूपों में संजोकर रखे गए थे। इन्हीं के कारण वे पूजनीय स्थल बन गए। महात्मा बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद ने बार-बार आग्रह करके बुद्ध से उनके अवशेषों को संजोकर रखने की अनुमति ले ली थी। बाद में सम्राट अशोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से करके उन पर मुख्य शहर में स्तूप बनाने का आदेश दिया। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक सारनाथ, साँची, भरहुत, बौद्ध गया इत्यादि स्थानों पर बड़े-बड़े स्तूप बनाए जा चुके थे। अशोक व कई अन्य शासकों के अतिरिक्त धनी व्यापारियों, शिल्पकारों, श्रेणियों व बौद्ध भिक्षुओं व भिक्षुणियों ने भी स्तूप बनाने के लिए धन दिया।

2. स्तूप कैसे बनाए गए?-प्रारंभिक स्तूप साधारण थे, लेकिन समय बीतने के साथ-साथ इनकी संरचना जटिल होती गई। इनकी शुरुआत कटोरेनुमा मिट्टी के टीले से हुई। बाद में इस टीले को अंड (Anda) के नाम से पुकारा जाने लगा। अंड के ऊपर बने छज्जे जैसा ढांचा ईश्वर निवास का प्रतीक था। इसे हर्मिका कहा गया। इसी में बौद्ध अथवा अन्य बोधिसत्वों के अवशेष रखे जाते थे। हर्मिका के बीच में एक लकड़ी का मस्तूल लगा होता था। इस पर एक छतरी बनी होती थी। अंड (टीले) के चारों ओर एक वेदिका होती थी। यह पवित्र स्थल को सामान्य दुनिया से पृथक् रखने का प्रतीक थी।

परियोजना कार्य 

(क) इस अध्याय में चर्चित धार्मिक परंपराओं में से क्या कोई परंपरा आपके अड़ोस-पड़ोस में मानी जाती है? आज किन धार्मिक ग्रंथों का प्रयोग किया जाता है? उन्हें कैसे संरक्षित और संप्रेषित किया जाता है? क्या पूजा में मूर्तियों का प्रयोग होता है? यदि हाँ, तो क्या ये मूर्तियाँ इस अध्याय में लिखी गई मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं या अलग हैं? धार्मिक कृत्यों के लिए प्रयुक्त इमारतों की तुलना प्रारंभिक स्तूपों और मंदिरों से कीजिए।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास

(ख) इस अध्याय में वर्णित धार्मिक परंपराओं से जुड़े अलग-अलग काल और इलाकों की कम से कम पाँच मूर्तियों और चित्रों की तस्वीरें इकट्ठी कीजिए। उनके शीर्षक हटाकर प्रत्येक तस्वीर दो लोगों को दिखाइए और उन्हें इसके बारे में बताने को कहिए। उनके वर्णनों की तुलना करते हुए अपनी खोज की रिपोर्ट लिखिए।
उत्तर:
परियोजना (क) के लिए संकेत :

  • पौराणिक हिंदू धर्म (वैष्णववाद, शैववाद) की परंपरा वर्तमान में हिंदू धर्म के नाम से सर्वाधिक प्रचलन में है-इसमें मूर्ति पूजा है। इन मूर्तियों की तुलना आप अध्याय में वर्णित मूर्तियों से कर सकते हैं। मंदिरों की वास्तुकला की तुलना कर सकते हैं।
  • जैन मंदिर भी प्रायः मिल जाते हैं। इनकी मूर्तियों और वास्तुकला की तुलना की जा सकती है।
  • कुरुक्षेत्र में प्राचीन बौद्ध स्तूप के अवशेष भी हैं।

परियोजना (ख) के लिए संकेत :
इसके लिए विद्यार्थी स्तूप, साँची व अमरावती से प्राप्त मूर्तियों के चित्रों तथा वैष्णववाद व शैववाद से जुड़े विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र ले सकते हैं। जैन धर्म से संबंधित चित्रों का उपयोग भी कर सकते हैं। इस संदर्भ में इंटरनेट से भी चित्र ‘डाऊनलोड’ करके उपयोग में लाए जा सकते हैं।

विचारक, विश्वास और इमारतें : सांस्कृतिक विकास HBSE 12th Class History Notes

→ श्रमण-शिक्षक और विचारक जो स्थान-स्थान पर घूमकर अपनी विचारधाराओं से लोगों को अवगत करवाते थे तथा तर्क-वितर्क करते थे।

→ कुटागारशालाएँ–’नुकीली छत वाली झोंपड़ी’, जहाँ घुमक्कड़ श्रमण आकर ठहरते थे और विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद करते थे।

→ स्तूप-ढेर या टीला जहाँ महात्मा बुद्ध या अन्य किसी पवित्र भिक्षु के अवशेष (दाँत, अस्थियाँ, नाखून) आदि रखे जाते थे।

→ संतचरित्र-किसी संत या धार्मिक नेता की जीवनी जिसमें उस संत की उपलब्धियों का गुणगान होता है।

→ चैत्य ऐसे टीले जहाँ शवदाह के बाद शरीर के कुछ अवशेष सुरक्षित रख दिए जाते थे।

→ थेरवाद-महायान परंपरा के लोग दूसरी बौद्ध परंपरा के लोगों को हीनयान के अनुयायी कहते थे, लेकिन ये लोग (हीनयान के अनुयायी) अपने आपको थेरवादी कहते थे। इसका मतलब है वे लोग जो पुराने, प्रतिष्ठित शिक्षकों (जिन्हें थेर कहते थे) के बनाए रास्ते पर चलने वाले हैं।

→ तीर्थंकर-जैन परंपरा के अनुसार ऐसे महापुरुष जो लोगों को संसार रूपी सागर से पार उतार सकें।

→ निर्ग्रन्थ-बिना ग्रन्थि के अर्थात् बंधन मुक्त। जैन परंपरा में जैन मुनि और संन्यासी को निर्ग्रन्थ कहा गया।

→ वैष्णव-विष्णु की उपासना करने वाले।

→ शैव-शिव के उपासक।

→ महाभिनिष्क्रिमण-महात्मा बुद्ध द्वारा गृह त्याग की घटना को बौद्ध मत में महाभिनिष्क्रिमण कहा गया।

→ महापरिनिर्वाण-महात्मा बुद्ध के देहावसान को बौद्ध परंपरा में महापरिनिर्वाण कहा गया।

→ उपसंपदा-बौद्ध संघ में प्रवेश करना।

→ बोधिसत्त बौद्ध धर्म के अनुयायी जो अपने सत्त कर्मों से पुण्य कमाते थे।

समकालीन बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत में 60 से भी अधिक नए संप्रदाय उभरकर आए। इन संप्रदायों के संन्यासी घूम-घूमकर अपने विचारों का जन-समुदाय में प्रचार करते थे और साथ ही विरोधी मत वालों के साथ वाद-विवाद भी करते थे। उनके विचार मौखिक व लिखित परंपराओं में संगृहीत हुए। कलाकारों ने उन्हें अपनी कला-कृतियों में अभिव्यक्ति दी। इन संन्यासी मनीषियों में महावीर और महात्मा बुद्ध सबसे विख्यात हुए।

→ जैन और बौद्ध धर्मों का उदय उत्तर वैदिक काल (लगभग 1000 ई०पू० से 600 ई० तक) के दौरान विकसित हुई परिस्थितियों से हुआ। इस अवधि में आर्थिक स्तर पर कृषि की नई व्यवस्था विकसित हुई, सामाजिक विषमता में वृद्धि हुई। साथ ही धर्म में कई तरह की बुराइयाँ व दिखावा बढ़ चुका था। इस दौरान नए राजनीतिक परिवर्तन भी हुए। विशेषतः राजतन्त्र प्रणाली का विस्तार हुआ। सामूहिक तौर पर यही वह पृष्ठभूमि है, जिसने पूर्वोत्तर भारत में नए धार्मिक संप्रदायों को जन्म दिया।

→ उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में बलि व यज्ञादि कर्मकांडों के खिलाफ जबरदस्त प्रतिक्रिया शुरू हुई। विशेष तौर पर धर्म व दर्शन पर नए प्रश्न उठ रहे थे। उपनिषदों में नए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया। इन सिद्धांतों में कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष थे। लोग जीवन का अर्थ, मृत्यु के बाद जीवन की संभावना तथा पुनर्जन्म के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे। परंतु उपनिषदों का गूढ़ ज्ञान सामान्य जनता की समझ से बाहर था।

→ इस वैदिक परंपरा को नकारने वाले दार्शनिक सत्य के स्वरूप पर बहस कर रहे थे। सत्य, अहिंसा, तपस्या, पुनर्जन्म, कर्मफल तथा आत्मा-परमात्मा इत्यादि विषयों पर वाद-विवाद और चर्चाएँ कर रहे थे। वे अपनी-अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत कर रहे थे। इनमें से यदि कोई अपने प्रतिद्वन्द्वी को अपना ज्ञान समझाने में सफल हो जाता था तो वह प्रतिद्वन्द्वी अपने अनुयायियों के साथ उसका शिष्य बन जाता था। इनमें से कई मनीषियों ने ब्राह्मणवादी समझ से अपनी अलग समझ प्रस्तुत की।

→ ‘जैन’ शब्द संस्कृत के ‘जिन्’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है ‘विजेता’ अर्थात् वह व्यक्ति जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हो। जैन परंपरा के अनुसार महावीर स्वामी से पहले 23 तीर्थंकर (आचाय) हो चुके थे और महावीर स्वामी 24वें और अंतिम तीर्थंकर थे। तीर्थंकर का शाब्दिक अर्थ है ऐसा महापुरुष जो लोगों (स्त्री व पुरुष दोनों) को संसार रूपी सागर से पार उतार सके।
HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 Img 1

→ जैन विचारधारा को व्यापक बनाने का श्रेय महात्मा महावीर स्वामी का है। इसलिए उन्हें इस धर्म का वास्तविक संस्थापक .. भी कहा जाता है। उनका मूल नाम वर्धमान था एवं जन्म वैशाली के पास कुड़ीग्राम में 540 ई० पू० में हुआ। उनके पिता सिद्धार्थ जातृक क्षत्रियगण के मुखिया थे तथा माता त्रिशला लिच्छवी शासक चेटक की बहन थी। महावीर स्वामी की पत्नी का नाम यशोधा तथा पुत्री का नाम प्रियदर्शनी था। 30 वर्ष की आयु में इन्होंने अपने बड़े भाई नंदीवर्धन से आज्ञा लेकर घर त्याग दिया। 12/2 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद उन्हें केवल्य अथवा परम ज्ञान की प्राप्ति हुई।

→ तब वह केवलीन या केवली कहलाए। अपनी इंद्रियों पर विजय पा लेने के कारण उन्हें ‘जिन’ अथवा जैन कहा गया। वे महावीर (अतुल पराक्रमी) भी कहलाए।

→ बौद्ध धर्म का प्रभाव जैन धर्म से भी अधिक व्यापक रहा। इस धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध उस युग के सबसे प्रभावशाली शिक्षकों में से एक थे। महात्मा बुद्ध के पिता शुद्धोधन शाक्यगण के मुखिया और कपिलवस्तु के शासक थे। उनकी माता माया कोलियागण से थीं। नेपाल की तराई के लुम्बिनी वन में बुद्ध का जन्म हुआ। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। माता का निधन हो जाने पर सिद्धार्थ का पालन-पोषण सौतेली माँ गौतमी ने किया, इसी कारण ये गौतम कहलाए।

→ बौद्ध दर्शन में संसार की समस्त वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं। ये प्रवाह के रूप में स्थायी दिखती हैं; जैसे किनारे से देखने वाले को बहता हुआ पानी ठहरा हुआ दिखता है। उनके अनुसार किसी वस्तु या जीव में कोई आत्मा नहीं है। सब कुछ हर क्षण बदल रहा है। कुछ भी स्थायी एवं शाश्वत् नहीं है।

→ महात्मा बुद्ध का निष्कर्ष था कि मनुष्य अष्ट मार्ग का अनुसरण करके पुरोहितों के फेर से व मिथ्या आडम्बरों से बच जाएगा तथा अपना लक्ष्य (मुक्ति) भी प्राप्त करेगा। उन्होंने निर्वाण के लिए व्यक्ति केंद्रित प्रयास पर बल दिया जिसमें गुरु की आवश्यकता नहीं थी। अपने शिष्यों के लिए उनका अंतिम संदेश आत्मज्ञान का था : “तुम सब अपने लिए स्वयं ही ज्योति बनो क्योंकि तुम्हें स्वयं ही अपनी मुक्ति का रास्ता खोजना है।”

→ बुद्ध के मतानुसार जन्म व मृत्यु का चक्र आत्मा से नहीं, बल्कि अहंकार (अहम्) के कारण चलता है अर्थात् पुनर्जन्म आत्मा का नहीं, बल्कि अहंकार का होता है। यदि इस पर विजय पा ली जाए तो मनुष्य को मुक्ति (निर्वाण) मिल जाएगी। बौद्ध चिंतन में आत्मा व परमात्मा जैसे विषय अप्रासंगिक हैं।

→ बौद्ध संघ की कार्य-प्रणाली गणों की परंपरा पर आधारित थी। इस प्रणाली में जनवाद अधिक था। संघ के सदस्य परस्पर बातचीत से सहमति की ओर बढ़ते थे। सभी सदस्यों के अधिकार समान थे। यदि किसी विषय पर सहमति न बन पाती तो मतदान करके बहुमत से निर्णय लिया जाता जो सभी को स्वीकार्य होता। अपराधी अथवा नियमों की उल्लंघना करने वाले भिक्षु को जो दण्ड मिलता, वह उसे अनिवार्य तौर पर भोगना पड़ता था। कालान्तर में भिक्षुओं में तीखे मतभेद पैदा हो गए, जिनके समाधान के लिए बौद्धों की चार महासभाएँ हुईं।

→ बहुत-से लोग प्राचीन मूर्तियों को पाने के लिए लालायित रहते हैं, क्योंकि वे खूबसूरत और अनुपम होती हैं। परंतु कला इतिहासकार के लिए वे ज्ञान का स्रोत होती हैं। वे उनका गहन अध्ययन करके इतिहास की कुछ लुप्त कड़ियों को जोड़ने का प्रयास करते हैं। लेकिन यह तभी संभव हो पाता है जब इतिहासकार को अन्य स्रोतों (साहित्य) का भी व्यापक ज्ञान हो। उदाहरण के लिए, बौद्ध स्तूपों पर उत्कीर्ण की हुई मूर्तियों का ऐतिहासिक अर्थ वही कर सकता है जिसने बौद्ध ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन कर रखा हो। क्योंकि बहुत बार साहित्यिक गाथाएँ ही पत्थर में मूर्तिकार द्वारा उभारी गई होती हैं।
HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 Img 4

→ अमरावती के स्तूप से प्राप्त एक मूर्ति को देखें जिसमें एक दूसरी जातक कथा को प्रदर्शित किया गया है। यह बुद्ध द्वारा अपनी विनम्रता (करुणा) से एक मतवाले हाथी (गजराज) को वश में किए जाने की है। दृश्य कुछ यूँ है महात्मा बुद्ध की ओर एक मतवाला हाथी आगे बढ़ रहा है; स्त्री-पुरुष सब भयभीत हैं, पुरुषों के हाथ खड़े हैं और औरतें भय से उनके साथ चिपकी हुई हैं। तभी बुद्ध विनम्रता की मुद्रा में हाथी की ओर बढ़ते हैं और हाथी नतमस्तक हो जाता है। इस घटना को लोग अपने घरों के झरोखों से भी देख रहे हैं।

→ कालान्तर में बौद्ध धर्म दो शाखाओं में विभाजित हो गया। ये शाखाएँ थीं-महायान और हीनयान। इनका शाब्दिक अर्थ है क्रमशः ‘बड़ा जहाज’ और ‘छोटा जहाज’। अर्थात् जो अनुयायी बहुमत में थे, उन्होंने अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए स्वयं को महायान कहा और अल्पसंख्यकों को हीनयान के नाम से पुकारा। लेकिन पुरातन परंपरा के अनुयायियों ने स्वयं को थेरवादी माना जिसका अर्थ था कि वे पुराने, प्रतिष्ठित शिक्षकों (जिन्हें थेर कहा जाता था) के अनुयायी हैं।
HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 Img 2

पौराणिक हिंदू धर्म में भी बौद्ध धर्म की महायान शाखा की भाँति मुक्तिदाता की कल्पना उभरकर आई। विशेषतया हिंदू धर्म में ‘मुक्तिदाता’ वाली परिकल्पना में वैष्णव और शैव परंपराएँ शामिल हैं। हिंदू धर्म की वैष्णव परंपरा में विष्णु को परमेश्वर माना
HBSE 12th Class History Solutions Chapter 4 Img 6
गया है, जबकि शैव परंपरा में शिव परमेश्वर है अर्थात् दोनों में एक विशेष देवता की आराधना को महत्त्व दिया गया। उल्लेखनीय है कि इस पूजा पद्धति में उपासना और परम देवता के बीच का संबंध समर्पण और प्रेम का स्वीकारा गया। इसलिए यह भक्ति कहलाया।

काल-रेखा

काल घटना का विवरण
प्राचीन इमारतों व मूर्तियों की खोज व संरक्षण

(आधुनिक काल)

1796 ई अमरावती स्तूप के अवशेष मिले
1814 ई० इण्डियन म्यूज़ियम, कलकत्ता की स्थापना
1818 ई० साँची के स्तूप की खोज
1834 ई० रामराजा द्वारा रचित एसेज़ ऑन द आकिटैक्वर ऑफ़ द हिंदूज का प्रकाशन; कनिंघम ने सारनाथ के स्तूप का सर्वेक्षण किया।
1835-42 ई० जेम्स फर्गुसन ने भारत के महत्त्वपूर्ण प्राचीन महत्त्व के स्थलों का सर्वेक्षण किया।
1851 ई मद्रास में गवर्नमेंट म्यूज़ियम की स्थापना हुई।
1854 ई० गुंदूर के कमिश्नर एलियट ने अमरावती के स्तूप स्थल की यात्रा की; अलेक्जैंडर कनिंघम ने भिलसा टोप्स नामक पुस्तक लिखी। यह साँची पर सबसे प्रारंभिक रचनाओं में से एक है।
1876 ई० एच०डी० बारस्टो ने शाहजहाँ बेगम की आत्मकथा ताज-उल-इकबाल तारीख भोपाल (भोपाल का इतिहास) का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया।
1878 ई० राजेन्द्र लाल मित्र द्वारा लिखित बुद्ध गया : द हेरिटेज़ ऑफ़ शाक्य मुनि का प्रकाशन हुआ।
1880 ई० प्राचीन भवनों का संग्रहाध्यक्ष एच०एच०कोल को बनाया गया।
1888 ई० ट्रेजरर-ट्रोव एक्ट पास हुआ जिसके अनुसार सरकार पुरातात्विक महत्त्व की किसी भी चीज को अपने अधिकार में ले सकती थी।
1914 ई० जॉन मार्शल और अल्फ्रेड फूसे की रचना ‘द मॉन्युमेंट्स ऑफ़ साँची  का प्रकाशन हुआ।
1923 ई० जॉन मार्शल द्वारा तैयार कंजर्वेशन मैनुअल का प्रकाशन।
1955 ई० भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की स्थापना।
1989 ई० साँची को एक ‘वर्ल्ड हेरिटेज़ साइट’ घोषित किया गया।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *