HBSE 12th Class History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

Haryana State Board HBSE 12th Class History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 12th Class History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

HBSE 12th Class History राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
आरंभिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाणों की चर्चा कीजिए। हड़प्पा के नगरों के प्रमाण से ये प्रमाण कितने भिन्न हैं?
उत्तर:
आरंभिक ऐतिहासिक नगरों का उदय छठी सदी ई→पू→ में हुआ। इनके शिल्प उत्पाद निम्नलिखित प्रकार से थे

(1) इस काल में मिट्टी के उत्तम श्रेणी के कटोरे व थालियाँ बनाई जाती थीं। इन बर्तनों पर चिकनी कलई चढ़ी होती थी। इन्हें उत्तरी काले पॉलिश मृदभांड (N.B.P.W.) के नाम से जाना जाता है।

(2) नगरों में लोहे के उपकरण, सोने, चाँदी के गहने, लोहे के हथियार, बर्तन (कांस्य व ताँबे के), हाथी दाँत का सामान, शीशे, शुद्ध व पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं।।

(3) भूमि अनुदान पत्रों से जानकारी मिलती है कि नगरों में वस्त्र बनाने का कार्य, बढ़ई का कार्य, आभूषण बनाने का कार्य, मृदभांड बनाने का कार्य, लोहे के औजार बनाने का कार्य होता था। हड़प्पा के नगरों से तुलना-हड़प्पा के शिल्प उत्पादों तथा आरंभिक ऐतिहासिक नगरों के शिल्प उत्पादों में काफी भिन्नता पाई जाती है। हड़प्पा सभ्यता के शिल्प कार्यों में मनके बनाना, शंख की कटाई, धातु-कर्म, मुहर बनाना तथा बाट बनाना सम्मिलित थे। परंतु हड़प्पा के लोग लोहे के उपकरण नहीं बनाते थे। उनके उपकरण पत्थर, कांस्य व ताँबे के थे। दूसरी ओर, प्रारंभिक नगरों के लोग बड़ी मात्रा में लोहे के औजार, उपकरण और वस्तुएँ बनाते थे।

प्रश्न 2.
महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
छठी सदी ई→पू→ के बौद्ध और जैन ग्रंथों में हमें 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। बौद्ध ग्रंथ अंगुतर निकाय में हमें इन राज्यों के नामों का उल्लेख मिलता है।
विशिष्ट अभिलक्षण-इन महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षण निम्नलिखित प्रकार से हैं

(1) अधिकांश जनपदों में राजतंत्रात्मक प्रणाली थी जिसमें राजा सर्वोच्च व वंशानुगत था, लेकिन निरंकश नहीं था। मन्त्रिपरिषद – अयोग्य राजा को पद से हटा दिया करती थी।

(2) कुछ महाजनपदों में गणतंत्रीय व्यवस्था थी। इन्हें गण या संघ कहते थे। गणराज्यों का मुखिया ‘गणमुख्य’ कहलाता था। जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि शासन करते थे। ये ‘राजन’ (राजा) कहलाते थे। वह अपनी परिषद् के सहयोग से राज्य करता था। वस्तुतः इन गण राज्यों में कुछ लोगों के समूह (Oligarchies) का शासन होता था।

(3) प्रत्येक महाजनपद की अपनी राजधानी थी जिसकी किलेबंदी की जाती थी।

(4) इस काल में रचित धर्मशास्त्रों में शासक तथा लोगों के लिए नियमों का निर्धारण किया गया है। इन शास्त्रों में राजा को यह सलाह दी गई कि वह कृषकों, व्यापारियों और दस्तकारों से कर प्राप्त करे। पड़ोसी राज्य पर हमला कर धन लूटना या प्राप्त करना वैध (Legitimate) उपाय बताया गया।
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(5) धीरे-धीरे इनमें से कई राज्यों ने स्थायी सेना और नौकरशाही तंत्र का गठन कर लिया था परंतु कुछ राज्य अभी भी अस्थायी सेना पर निर्भर थे।

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प्रश्न 3.
सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण इतिहासकार कैसे करते हैं?
उत्तर:
सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करने में इतिहासकारों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि सामान्य लोगों ने अपने विचारों और अनुभवों के संबंध में शायद ही कोई वृत्तांत छोड़ा हो। फिर भी इतिहासकार सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करने का प्रयास करते हैं क्योंकि इतिहास निर्माण में इन लोगों के द्वारा ही अहम् भूमिका निभाई गई। इस कार्य को पूरा करने के लिए इतिहास विभिन्न प्रकार के स्रोतों का सहारा लेते हैं।

(1) विभिन्न स्थानों पर खुदाई से अनाज के दाने तथा जानवरों की हड्डियाँ मिलती हैं जिससे यह पता चलता है कि वे किन फसलों से परिचित थे तथा किन पशुओं का पालन करते थे।

(2) भवनों और मृदभांडों से उनके घरेलू जीवन का पता चलता है।

(3) अभिलेखों से शिल्प उत्पादों का पता चलता है।

(4) भूमि अनुदान पत्रों से भी ग्रामीण जीवन की झांकी का पता चलता है। इनमें ग्राम के उत्पादन तथा ग्राम के वर्गों की जानकारी मिलती है।

(5) कुछ साहित्य भी सामान्य लोगों के जीवन पर प्रकाश डालते हैं। उदाहरण के लिए जातक कथाओं और पंचतंत्र की कहानियों से इस प्रकार के संदर्भ निकाले जाते हैं।

(6) विभिन्न ग्रन्थों में नगरों में रहने वाले सर्वसाधारण लोगों का पता चलता है। इन लोगों में धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहार, छोटे व्यापारी आदि होते थे।

प्रश्न 4.
पांड्य सरदार (स्रोत 3) को दी जाने वाली वस्तुओं की तुलना दंगुन गाँव (स्रोत 8) की वस्तुओं से कीजिए। आपको क्या समानताएँ और असमानताएँ दिखाई देती हैं?
उत्तर:
पांड्य सरदार को भेंट की गई वस्तुओं की जानकारी हमें शिल्पादिकारम् में दिए वर्णन से प्राप्त होती है तथा दंगुन गाँव वह गाँव है जिसे प्रभावती गुप्त ने एक भिक्षु को भूमि अनुदान में दिया था। इस अनुदान पत्र से हमें गाँव में पैदा होने वाली वस्तुओं की जानकारी मिलती है। पांडय सरदार को प्राप्त वस्तओं व दंगन गाँव की वस्तओं की सची निम्नलिरि

(1) पहाड़ी लोग वञ्जि के राजा के लिए हाथी दाँत, शहद, चंदन, सिंदूर के गोले, काजल, हल्दी, इलायची, काली मिर्च, कंद का आटा वगैरह भेंट लाए। उन्होंने राजा को बड़े नारियल, आम, दवाई में काम आने वाली हरी पत्तियों की मालाएँ, तरह-तरह के फल, प्याज़, गन्ना, फूल, सुपारी के गुच्छे, पके केलों के गुच्छे, जानवरों व पक्षियों के बच्चे आदि का अर्पण किया।

(2) दंगुन गाँव की वस्तुओं में घास, जानवरों की खाल, कोयला, मदिरा, नमक, खनिज-पदार्थ, खदिर वृक्ष के उत्पाद, फूल, दूध आदि सम्मिलित थे।

समानताएँ-दोनों सूचियों की वस्तुओं में बहुत कम समानता है। दोनों सूचियों में मात्र फूल का नाम पाया गया है। ऐसा लगता है कि पांड्य राजा भी उपहार मिलने के बाद जानवरों की खाल का प्रयोग करते थे।

असमानताएँ-इन दोनों सूचियों में अधिकतर असमानताएँ ही दिखाई देती हैं। वस्तुएँ प्राप्त करने के तरीकों में भी बहुत । असमानताएँ दिखती हैं। एक ओर जहाँ पांड्य सरदार को लोग खुशी से नाच गाकर वस्तुएँ भेंट कर रहे हैं तो दूसरी ओर दंगुन गाँव के लोगों को दान प्राप्तकर्ता को ये वस्तुएँ देनी ही पड़ती थीं। अनुदान पत्र से स्पष्ट है कि ऐसा करने के लिए वे बाध्य थे।

प्रश्न 5.
अभिलेखशास्त्रियों की कुछ समस्याओं की सूची बनाइए।
उत्तर:
अभिलेखों के अध्ययनकर्ता तथा विश्लेषणकर्ता को अभिलेखशास्त्री कहते हैं। अपने कार्य के संपादन में अभिलेखशास्त्रियों ‘को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है

(1) अभिलेखशास्त्रियों को कभी-कभी तकनीकी सीमा का सामना करना पड़ता है। अक्षरों को हल्के ढंग से उत्कीर्ण किया जाता है जिन्हें पढ़ पाना कठिन होता है। कभी-कभी अभिलेखों के कुछ भाग नष्ट हो जाते हैं। इससे अक्षर लोप हो जाते हैं जिस कारण शब्दों/वाक्यों का अर्थ समझ पाना कठिन हो जाता है।

(2) कई अभिलेख विशेष स्थान या समय से संबंधित होते हैं, इससे भी हम वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाते।

(3) एक सीमा यह भी रहती है कि अभिलेखों में उनके उत्कीर्ण करवाने वाले के विचारों को बढ़ा-चढ़ाकर व्यक्त किया जाता है। अतः तत्कालीन सामान्य विचारों से इनका संबंध नहीं होता। फलतः कई बार ये जन-सामान्य के विचारों और कार्यकलापों पर प्रकाश नहीं डाल पाते। अतः स्पष्ट है कि सभी अभिलेख राजनीतिक और आर्थिक इतिहास की जानकारी प्रदान नहीं कर पाते।

(4) अनेक अभिलेखों का अस्तित्व नष्ट हो गया है या अभी प्राप्त नहीं हुए हैं। अतः अब तक जो अभिलेख प्राप्त हुए हैं वे कुल अभिलेखों का एक अंश हैं।

(5) अभिलेखशास्त्रियों को अनेक सूचनाएँ अभिलेखों पर नहीं मिल पातीं। विशेष तौर पर जनसामान्य से जुड़ी गतिविधियों पर अभिलेखों में बहुत कम या नहीं के बराबर लिखा गया है।

(6) अभिलेखों में सदा उन्हीं के विचारों को व्यक्त किया जाता है जो उन्हें उत्कीर्ण करवाते हैं। ऐसे में अभिलेखशास्त्री को अत्यंत सावधानी तथा आलोचनात्मक अध्ययन से इनकी सूचनाओं को परखना जरूरी होता है।

प्रश्न 6.
मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। अशोक के अभिलेखों में इसमें से कौन-कौन से तत्त्वों के प्रमाण मिलते हैं?
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य भारत में प्रथम ऐतिहासिक साम्राज्य था। मगध महाजनपद ने अन्य जनपदों पर अधिकार स्थापित कर साम्राज्य का निर्माण किया। साम्राज्य की अवधारणा चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में फलीभूत हुई। बिंदुसार तथा सम्राट अशोक इस साम्राज्य के अन्य प्रमुख शासक रहे। मौर्य साम्राज्य के अभिलक्षणों की जानकारी हमें उस काल के ग्रंथों तथा अशोक के अभिलेखों से मिलती है। मौर्य साम्राज्य के प्रमुख अभिलक्षण निम्नलिखित प्रकार हैं

1. राजा-मौर्य राज्य भारत में प्रथम सर्वाधिक विस्तृत और शक्तिशाली साम्राज्य था। साम्राज्य में समस्त शक्ति का स्रोत सम्राट था। वास्तव में राजा और राज्य का भेद कम रह गया था। अर्थशास्त्र में लिखा है कि ‘राजा ही राज्य’ है। वह सर्वाधिकार संपन्न (Supreme Authority) था। वह सर्वोच्च सेनापति व सर्वोच्च न्यायाधीश था।

2. मंत्रि परिषद्-चाणक्य ने कहा है, “रथ केवल एक पहिए से नहीं चलता इसलिए राजा को मंत्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए और उनकी सलाह के अनुसार कार्य करना चाहिए। मंत्रिपरिषद् के सदस्यों को अमात्य क थे-प्रधानमंत्री, पुरोहित और सेनापति। समाहर्ता (वित्त मंत्री) और संधिधाता (कोषाध्यक्ष) अन्य महत्त्वपूर्ण मंत्री थे।”

3. प्रांतीय प्रशासन विस्तृत साम्राज्य को पाँच प्रांतों (राजनीतिक केंद्रों) में बाँटा हुआ था।

  • उत्तरापथ-इसमें कम्बोज, गांधार, कश्मीर, अफगानिस्तान तथा पंजाब आदि के क्षेत्र शामिल थे। इसकी राजधानी . तक्षशिला थी।
  • पश्चिमी प्रांत-इसमें काठियावाड़-गुजरात से लेकर राजपूताना-मालवा आदि के सभी प्रदेश शामिल थे। इसकी राजधानी उज्जयिनी थी।
  • दक्षिणपथ इसमें विंध्याचल से लेकर दक्षिण में मैसूर (कर्नाटक) तक सारा प्रदेश शामिल था। इसकी राजधानी सुवर्णगिरी थी।
  • कलिंग-इसमें दक्षिण-पूर्व का उड़ीसा का क्षेत्र शामिल था, जिसमें दक्षिण की ओर जाने के महत्त्वपूर्ण स्थल व समुद्री मार्ग थे। इसकी राजधानी तोशाली थी।
  • प्राशी (पूर्वी प्रदेश) इसमें मगध तथा समस्त उत्तरी भारत का प्रदेश था। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। यह प्रदेश पूर्ण रूप से सम्राट के नियन्त्रण में ही था।
    प्रांतों का शासन-प्रबन्ध राजा का प्रतिनिधि (वायसराय) करता था, जिसे कुमार या आर्यपुत्र कहते थे।

4. नगर का प्रबन्ध-मैगस्थनीज़ के अनुसार नगर का प्रशासन 30 सदस्यों की एक परिषद् करती थी, जो 6 उपसमितियों में विभाजित थी।

(1) पहली समिति-यह शिल्प उद्योगों का निरीक्षण करती थी। शिल्पकारों के अधिकारों की रक्षा भी करती थी।

(2) दूसरी समिति-यह विदेशी अतिथियों का सत्कार, उनके आवास का प्रबंध तथा उनकी गतिविधियों पर नजर रखने का कार्य करती थी। उनकी चिकित्सा का प्रबंध भी करती थी।

(3) तीसरी समिति-यह जनगणना तथा कर निर्धारण के लिए, जन्म-मृत्यु का ब्यौरा रखती थी।

(4) चौथी समिति-यह व्यापार की देखभाल करती थी। इसका मुख्य काम तौल के बट्टों तथा माप के पैमानों का निरीक्षण तथा सार्वजनिक बिक्री का आयोजन यानी बाजार लगवाना था।

(5) पाँची समिति-यह कारखानों और घरों में बनाई गई वस्तुओं के विक्रय का निरीक्षण करती थी। विशेषतः यह ध्यान रखती थी कि व्यापारी नई और पुरानी वस्तुओं को मिलाकर न बेचें। ऐसा करने पर दण्ड की व्यवस्था थी।

(6) छठी समिति-इसका कार्य बिक्री कर वसूलना था। जो वस्तु जिस कीमत पर बेची जाती थी, उसका दसवां भाग बिक्री कर के रूप में दुकानदार से वसला जाता था। यह कर न देने पर मृत्यु दण्ड की व्यवस्था थी।

5. असमान शासन व्यवस्था-मौर्य साम्राज्य अति विशाल साम्राज्य था। साम्राज्य में शामिल क्षेत्र बड़े विविध और भिन्न-भिन्न . प्रकार के थे। इसमें अफगानिस्तान का पहाड़ी क्षेत्र शामिल था, वहीं उड़ीसा जैसा तटवर्ती क्षेत्र भी था। स्पष्ट है कि इतने बड़े तथा विविधताओं से भरपूर साम्राज्य का प्रशासन एक-समान नहीं होगा। साम्राज्य के सभी भागों पर नियंत्रण भी समान नहीं था। मगध प्रांत व पाटलिपुत्र में अधिक नियंत्रण होगा तथा प्रांतीय राजधानियों में भी सख्त नियंत्रण होगा। परंतु अन्य भागों में नियंत्रण उतना कठोर नहीं था।

6. आवागमन की सुव्यवस्था साम्राज्य के संचालन के लिए भू-तल और नदी मार्गों से आवागमन होता था। इनकी सुव्यवस्था की जाती थी। राजधानी से प्रांतों तक पहुँचने में भी समय लगता था। अतः मार्ग में ठहरने व खान-पान की व्यवस्था की जाती थी। अशोक ने मार्गों पर सराएँ बनवाईं, कुएँ खुदवाए तथा पेड़ लगवाए।

7. धम्म महामात्र-अशोक के अभिलेखों से जानकारी मिलती है कि अशोक ने धम्म नीति से अपने साम्राज्य में शांति-व्यवस्था तथा एकता बनाने का प्रयास किया। उसने लोगों में सार्वभौमिक धर्म के नियमों का प्रचार-प्रसार किया। अशोक के अनुसार, धर्म के प्रसार का लक्ष्य, लोगों के इहलोक तथा परलोक को सुधारना था। इसके लिए उसने राज्य की ओर से विशेष अधिकारी नियुक्त किए जो ‘धम्म महामात्र’ के नाम से जाने जाते थे। इन्हें व्यापक अधिकार दिए गए थे। उन्हें समाज के सभी वर्गों के कल्याण और सुख के लिए कार्य करना था।

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प्रश्न 7.
यह बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री, डी.सी. सरकार का वक्तव्य है : भारतीयों के जीवन, संस्कृति और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसका प्रतिबिंब अभिलेखों में नहीं है : चर्चा कीजिए।
उत्तर:
सुप्रसिद्ध अभिलेखशास्त्री डी→सी→ सरकार ने मत व्यक्त किया है कि अभिलेखों से भारतीयों के जीवन, संस्कृति और . सभी गतिविधियों से संबंधित सभी प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है। अभिलेखों से मिलने वाली जानकारी का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है

1. शासकों के नाम-अभिलेखों से हमें राजाओं के नाम का पता चलता है। साथ ही हम उनकी उपाधियों के बारे में भी जान पाते हैं। उदाहरण के लिए अशोक का नाम अभिलेखों में आया है तथा उसकी दो उपाधियों (देवनाम् प्रिय तथा पियदस्स) का भी उल्लेख मिलता है। समुद्रगुप्त, खारवेल, रुद्रदामा आदि के नाम भी अभिलेखों में आए हैं।

2. राज्य-विस्तार-उत्कीर्ण अभिलेखों की स्थापना वहीं पर की जाती थी जहाँ पर उस राजा का राज्य विस्तार होता था। उदाहरण के लिए मौर्य साम्राज्य का विस्तार जानने के लिए हमारे पास सबसे प्रमुख स्रोत अशोक के अभिलेख हैं।

3. राजा का चरित्र-ये अभिलेख शासकों के चरित्र का चित्रण करने में भी सहायक हैं। उदाहरण के लिए अशोक जनता के . बारे में क्या सोचता था। अनेक विषयों पर उसने स्वयं के विचार व्यक्त किए हैं। इसी प्रकार समुद्रगुप्त के चरित्र-चित्रण के लिए प्रयाग प्रशस्ति उपयोगी है। यद्यपि इनमें राजा के चरित्र को बढ़ा-चढ़ाकर लिखा गया है।

4. काल-निर्धारण-अभिलेख की लिपि की शैली तथा भाषा के आधार पर शासकों के काल का भी निर्धारण कर लिया जाता है।

5. भाषा व धर्म के बारे में जानकारी-अभिलेखों की भाषा से हमें उस काल के भाषा के विकास का पता चलता है। इसी प्रकार अभिलेखों पर धर्म संबंधी जानकारी भी प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए, अशोक के धम्म की जानकारी के स्रोत उसके अभिलेख हैं। भूमि अनुदान पत्रों से भी धर्म व संस्कृति के बारे में जानकारी मिलती है।

6. कला-अभिलेख कला के भी नमूने हैं। विशेषतौर पर मौर्यकाल के अभिलेख विशाल पाषाण खंडों को पालिश कर चमकाया गया तथा उन पर पशुओं की मूर्तियाँ रखवाई गईं। ये मौर्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।

7. सामाजिक वर्गों की जानकारी-अभिलेखों से हमें तत्कालीन वर्गों के बारे में भी जानकारी मिलती है। हमें पता चलता है कि शासक एवं राज्याधिकारियों के अलावा नगरों में व्यापारी व शिल्पकार (बुनकर, सुनार, धोबी, लौहकार, बढ़ई) आदि भी रहते थे।

8. भू-राजस्व व प्रशासन-अभिलेखों से हमें भू-राजस्व प्रणाली तथा प्रशासन के विविध पक्षों की जानकारी भी प्राप्त होती है। विशेषतौर पर भूदान पत्रों से हमें राजस्व की जानकारी मिलती है। साथ ही जब भूमि अनुदान राज्याधिकारियों को दिया जाने लगा तो धीरे-धीरे स्थानीय सामंतों की शक्ति में वृद्धि हुई। इस प्रकार भूमि अनुदान पत्र राजा की घटती शक्ति जानकारी भी देते हैं। उक्त सभी बातों के साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन अभिलेखों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। अभिलेखों की सीमाएँ भी होती हैं। विशेषतौर पर जनसामान्य से संबंधित जानकारी इन अभिलेखों में कम पाई जाती है। तथापि अभिलेखों से समाज के विविध पक्षों से काफी जानकारी मिलती है।

प्रश्न 8.
उत्तर:मौर्य काल में विकसित राजत्व के विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
उत्तर:मौर्य काल में राजत्व का एक नया विचार जोर पकड़ने लगा। यह नया विचार या सिद्धांत दिव्य राजत्व का सिद्धांत था। इस सिद्धांत के तहत राजा अपने आपको ईश्वर से जोड़ने लगे। स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है कि श देवता या देवताओं से उत्पन्न बताया। इस माध्यम से वे प्रजा में अपना रुतबा बहुत ऊँचा कर लेना चाहते थे। प्रजा के दिलो-दिमागों में अपना नेतृत्व (Hegemony) स्थापित करना चाहते थे।

उल्लेखनीय है कि धर्म या धार्मिक रीतियों का प्रयोग कर, स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि या दैवीय उत्पत्ति बताकर प्रजा में राजा के प्रति आस्था पैदा करना शासकों की प्राचीन काल से ही रणनीति रही थी। उत्तरवैदिक काल में शासक अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए यज्ञों का सहारा लेते थे। यह यज्ञ बहुत-से ब्राह्मणों द्वारा लंबे समय तक करवाए जाते थे। इन यज्ञों में राजसूय यज्ञ (राज्यारोहण पर), वाजपेय (शक्तिप्रदपेय) तथा अश्वमेध यज्ञ प्रमुख थे जिसके माध्यम से राजाओं को दैवीय शक्तियाँ प्राप्त होती थीं।

मौर्य शासक अशोक ने भी दैवीय सिद्धांत का सहारा लिया। वह अपने आपको ‘देवानाम् प्रियदर्शी’ (देवों का प्यारा) की उपाधि से विभूषित करता है। मौर्योतर काल में कुषाण शासकों ने भी बड़ी-बड़ी उपाधियों को धारण किया तथा दिव्य राजत्व को अपनाया। कुषाणों ने मध्य एशिया से मध्य भारत तक के विशाल भू-क्षेत्र पर लगभग प्रथम सदी ई→पू→ से प्रथम ई→ सदी तक शासन किया। उनके द्वारा प्रचलित दैवत्व की परिकल्पना उनके सिक्कों और मूर्तियों से बेहतर रूप में अभिव्यक्त होती है।

मथुरा (उत्तरप्रदेश) के समीप माट (Mat) के एक देवस्थान से स्थापित की गई कुषाण शासकों की विशालकाय मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

इसी प्रकार की मूर्तियाँ अफगानिस्तान में एक देवस्थान से प्राप्त हुई हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि देवस्थानों में विशाल मूर्तियों की स्थापना का विशेष उद्देश्य रहा होगा। वस्तुतः वे अपने आपको ‘देवतुल्य’ प्रस्तुत करना चाहते होंगे। उल्लेखनीय है कि कुषाण शासकों ने भारतीय धर्मों (शैव, बौद्ध, वैष्णव आदि) को अपनाया तथा इन धर्म के प्रतीकों को अपने सिक्कों पर भी खुदवाया। विम ने अपने सिक्कों पर शिव की आकृति, नंदी और त्रिशूल आदि का प्रयोग किया। कुषाण शासकों ने ‘देवपुत्र’ (Son of God) की उपाधि धारण की। ऐसा करने की प्रेरणा कुषाणों को चीनी शासकों से मिली होगी जो स्वयं को ‘स्वर्गपुत्र’ (Sons of Heaven) मानते थे।

प्रश्न 9.
वर्णित काल में कृषि के तौर-तरीकों में किस हद तक परिवर्तन हुए?
उत्तर:
600 ई→पू→ से 600 ई→ के लंबे कालखंड में भारत में अनेक परिवर्तन आए। इन परिवर्तनों का प्रमुख आधार कृषि प्रणाली का विकसित होना था। इस काल में शासक अधिक मात्रा में कर वसूल करना चाहते हैं। करों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए किसान उपज बढ़ाने के उपाय ढूँढने लगे। शासकों ने भी इसमें योगदान दिया। उन्होंने सिंचाई कार्यों को बढ़ावा दिया। फलतः कृषि के तौर-तरीकों में निम्नलिखित बदलाव आए

1. सिंचाई कार्य मौर्य शासकों ने खेती-बाड़ी को बढ़ाने की ओर विशेष ध्यान दिया। राज्य किसानों के लिए सिंचाई व्यवस्था/जल वितरण का कार्य करता था। मैगस्थनीज़ ने ‘इंडिका’ में लिखा है कि मिस्र की तरह मौर्य राज्य में भी सरकारी अधिकारी जमीन की पैमाइश करते थे। नहरों का निरीक्षण करते थे जिनसे होकर पानी छोटी नहरों में पहुँचता था।

जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त मौर्य के एक गवर्नर पुष्यगुप्त ने सौराष्ट्र (गुजरात) में गिरनार के पास सुदर्शन झील पर एक बाँध बनवाया था जो सिंचाई के काम आता था। … पाँचवीं सदी में स्कंदगुप्त ने भी इसी झील का जीर्णोद्धार करवाया था। कुँओं व तालाबों से सिंचाई कर कृषि उपज बढ़ाई जाती थी। नहरों का निर्माण शासक या संपन्न लोग ही करवा पाते थे। परंतु कुओं तालाबों के निर्माण में समुदाय तथा व्यक्तिगत प्रयास भी प्रमुख भूमिका निभाते थे।

2. हल से खेती-कृषि उपज बढ़ाने का एक उपाय हल का प्रचलन था। अधिक बरसात वाले क्षेत्रों में हल के लोहे के फाल का प्रयोग प्रचलन में आया। इसकी मदद से मिट्टी को गहराई तक जोता जाने लगा। उल्लेखनीय है कि गंगा व कावेरी की घाटियों के उपजाऊ क्षेत्र में छठी सदी ई→ पू→ से लोहे वाले फाल सहित हल का प्रयोग होने लगा था। प्राचीन पालि ग्रंथों में कृषि के लिए लोहे के औजारों का उल्लेख है। अष्टाध्यायी में भी आयोविकर कुशि (लोहे की फाल) का उल्लेख है। उत्तरी भारत में इस संबंध में कुछ पुरातात्विक साक्ष्य भी मिलते हैं। इसका परिणाम कृषि क्षेत्र में वृद्धि, कृषक बस्तियों का प्रसार और उत्पादन का बढ़ना है, जिसका लाभ राज्य को भी मिला।

3. धान रोपण की विधि की शुरुआत-कृषि क्षेत्र में पैदावार बढ़ाने में एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपाय धान रोपण की शुरुआत है। भारत में धान रोपण की शुरुआत 500 ई→पू→ में स्वीकार की जाती है। धान लगाने की प्रक्रिया के लिए रोपण और रोपेति जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। सालि का तात्पर्य उखाड़कर लगाए जाने वाली जाड़े की फसलों से है। पालि ग्रंथों में इस प्रक्रिया को बीजानि पतितापेति के नाम से जाना जाता है। ज्ञातधर्म कोष में प्राकृत वाक्यांश उक्खाय निहाए का अर्थ है “उखाड़ना और । प्रतिरोपित करना” प्रतिरोपण की इस प्रणाली से पैदावार बढ़ी। इससे गाँवों में परिवर्तन आया।

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प्रश्न 10.
मानचित्र 1 और 2 की तुलना कीजिए और उन महाजनपदों की सूची बनाइए जो मौर्य साम्राज्य में शामिल रहे होंगे। क्या इस क्षेत्र में अशोक के कोई अभिलेख मिले हैं?
उत्तर:
(1) अशोक के साम्राज्य में शामिल महाजनपदों के नाम-(i) अंग, (ii) मगध, (iii) काशी, (iv) कौशल, (v) वज्जि, (vi) मल्ल, (vii) चेदी (चेटी), (viii) वत्स, (ix) कुरू, (x) पांचाल, (xi) मत्स्य, (xii) शूरसेन, (xiii) अश्मक, (xiv) (rv) गांधार, (xvi) कम्बोज।

(2) अशोक के साम्राज्य में महाजनपदीय क्षेत्रों में मिले अभिलेख-लौरिया अराराज, लौरिया नंदगढ़, रामपुरवा, सहसराम, बैरार, भाबू, टोपरा, शाहबाजगढ़ी, मानसेहरा, सारनाथ, कौशाम्बी तथा कई अन्य अभिलेख मिले हैं।
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प्रश्न 11.
एक महीने के अखबार एकत्रित कीजिए। सरकारी अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक कार्यों के बारे में दिए गए वक्तव्यों को काटकर एकत्रित कीजिए। समीक्षा कीजिए कि इन परियोजनाओं के लिए आवश्यक संसाधनों के बारे में खबरों में क्या लिखा है। संसाधनों को किस प्रकार से एकत्र किया जाता है और परियोजनाओं का उद्देश्य क्या है। इन वक्तव्यों को कौन जारी करता है और उन्हें क्यों और कैसे प्रसारित किया जाता है? इस अध्याय में चर्चित अभिलेखों के साक्ष्यों से इनकी तुलना कीजिए। आप इनमें क्या समानताएँ और असमानताएँ पाते हैं?
उत्तर:
विद्यार्थी अपने अध्यापक के दिशा-निर्देश में परियोजना रिपोर्ट तैयार करें।

प्रश्न 12.
आज प्रचलित पाँच विभिन्न नोटों और सिक्कों को इकट्ठा कीजिए। इनके दोनों ओर आप जो देखते हैं उनका वर्णन कीजिए। इन पर बने चित्रों, लिपियों और भाषाओं, माप, आकार या अन्य समानताओं और असमानताओं के बारे में एक रिपोर्ट तैयार कीजिए। इस अध्याय में दर्शित सिक्कों में प्रयुक्त सामग्रियों, तकनीकों, प्रतीकों, उनके महत्त्व और सिक्कों के संभावित कार्य की चर्चा करते हुए इनकी तुलना कीजिए।
उत्तर:
संकेत-(1) आधुनिक प्रचलित 10 रुपए, 50 रुपए, 100 रुपया, 500 रुपए तथा 1000 रुपए के नोटों पर देखकर विवरण लिखें। जैसे कि भारत सरकार, रिजर्व बैंक, गवर्नर, चित्र (राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, नोट नम्बर, रिजर्व बैंक की मोहर, राष्ट्रीय चिह्न, गवर्नर क्या वचन देता है, इत्यादि। इन सारे तथ्यों के आधार पर स्वतन्त्र भारत के नोटों की विशेषताओं पर विचार करें।

(2) 1 रुपया, 2 रुपए तथा 5 रुपए के सिक्कों पर अंकित चिह्नों की तुलना उन सिक्कों से करें जो प्राचीनकालीन सिक्के अध्याय में दिखाए गए हैं।

राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ HBSE 12th Class History Notes

→ मुद्राशास्त्र-सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहते हैं। प्राचीनकाल में धातु के बने सिक्के होते थे। इन सिक्कों पर पाए जाने वाले चित्रों, लिपि तथा सिक्कों की धातु का विश्लेषण किया जाता है। जिन संदर्भो में ये सिक्के पाए जाते हैं, उनका अध्ययन भी मुद्राशास्त्र में किया जाता है।

→ अभिलेख-अभिलेख उन्हें कहते हैं जो पत्थर, धातु, मिट्टी के बर्तन इत्यादि जैसी कठोर सतह पर खुदे होते हैं।

→ अभिलेखशास्त्र-अभिलेखों के अध्ययन को अभिलेखशास्त्र कहते हैं।

→ पंचमार्क सिक्के-चाँदी और ताँबे के आयताकार या वृत्ताकार टुकड़े बनाकर उन पर ठप्पा मारकर विभिन्न चिह्न (जैसे सूर्य, वृक्ष, मानव आदि) खोदे जाते थे। इन्हें पंचमार्क या आहत सिक्के कहते हैं।

→ धान की रोपाई धान की रोपाई उन क्षेत्रों में की जाती है जहाँ पानी काफी मात्रा में न की रोपाई उन क्षेत्रों में की जाती है जहाँ पानी काफी मात्रा में पाया जाता है। पहले बीज अंकुरित किए जाते हैं तथा पानी से भरे खेत में पौधों की रोपाई की जाती है। इस प्रक्रिया से उपज में वृद्धि होती है।

→ गहपति-गहपति घर का मुखिया होता था। घर में रहने वाली महिलाओं, बच्चों और दासों पर उसका नियंत्रण होता था। घर से जुड़ी भूमि, पशुओं और अन्य सभी वस्तुओं का वह स्वामी होता था। कभी-कभी गहपति शब्द शहरों में रहने वाले संभ्रांत व्यक्तियों और व्यापारियों के लिए भी होता था।

→ संगम साहित्य-प्रारंभिक तमिल साहित्य को संगम साहित्य कहते हैं। दक्षिण भारत में पाण्ड्य राजाओं की राजधानी मदुरा में तमिल कवियों के सम्मेलन हुए। इन सम्मेलनों को संगम के नाम से जाना जाता है। ये तीन सम्मेलन (संगम) लगभग 300 ई→ पूर्व से 300 ई→ के बीच बुलाए गए। इन संगमों के फलस्वरूपं वृहद् संगम साहित्य की रचना हुई।

→ जातक-महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाओं को जातक कहते हैं। प्रत्येक कथा एक प्रकार की लोककथा है। इसमें 549 लोककथाएँ हैं। ये पाली भाषाएँ हैं।

→ अग्रहार-अग्रहार से अभिप्राय उस भूमि से है जो अनुदान पत्रों के माध्यम से ब्राह्मणों को दी जाती थी। इस भूमि में ब्राह्मणों को सभी प्रकार के करों से मुक्त रखा गया था।

→ तमिलकम् प्राचीन काल में भारत के सुदूर दक्षिणी क्षेत्रों को तमिलकम् नाम से जाना जाता था। इसमें तमिलनाडु तथा आंध्र व केरल के कुछ प्रदेश शामिल थे।

→ जनपद-वह भूखंड या क्षेत्र जहाँ पर कोई जन (कबीला, लोग या कुल) अपना पाँव रखता था या बस जाता था, जनपद कहलाता था। इस शब्द का प्रयोग प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं में मिलता है।

→ महाजनपद-एक बड़ा और शक्तिशाली राज्य जैसे मगध।

→ अल्पतन्त्रीय राज्य (ओली गाकी) यह एक ऐसा राज्य होता है जिसमें सत्ता कुछ गिने चुने लोगों के हाथों में होती है। उदाहरण के लिए रोम में गणतन्त्र या अल्पतन्त्र की स्थापना हुई थी।

→ दानात्मक अभिलेख (अनुदान पत्र)-धार्मिक संस्थाओं या ब्राह्मणों, भिक्षुओं आदि को दिया गया दान तथा दान के प्रमाण के रूप में प्रदान किए ताम्रपत्र को ‘अनुदान पत्र’ कहते हैं।

→ पेरिप्लस व एरीशियन-यह यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है समुद्री यात्रा। एरीथ्रियन यूनानी भाषा में लाल सागर को कहते हैं।

→ प्रतिवेदक मौर्य विशेष तौर पर अशोक के काल में रिपोर्टर (सूचना देने वाले) को प्रतिवेदक कहा जाता था। अभिलेखशास्त्री इसे संवाददाता बताते हैं।

→ हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद डेढ़ हजार वर्षों का लंबा काल अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था। इस काल में भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में अनेक विकास (Developments) हुए। सिंधु और उसकी सहायक नदियों के किनारे रहने वाले लोगों ने ऋग्वेद की रचना की। उत्तर भारत, दक्कन के पठार और कर्नाटक के क्षेत्रों में कृषक बस्तियों की शुरुआत हुई।

→ इसके साथ ही दक्कन और दक्षिण भारत में चरवाहा समुदाय के प्रमाण मिलते हैं। ईसा पूर्व की प्रथम सहस्राब्दी के दौरान मध्य और दक्षिण भारत में महापाषाणीय संस्कृति अस्तित्व में आई। वस्तुतः यह शवों के अंतिम संस्कार का नया तरीका था, जिसमें दफनाने के लिए बड़े-बड़े पाषाणों का प्रयोग किया जाता था। कई स्थानों पर इन शवाधानों में शवों के साथ लोहे के बने उपकरण और हथियारों को भी दफनाया गया था। इसका अर्थ था कि इन क्षेत्रों में लोहे का प्रयोग हो रहा था जो भौतिक संस्कृति के विकास में महत्त्वपूर्ण कदम था।

→ छठी शताब्दी ई→पू→ से अनेक प्रवाहों (Trends) के भी प्रमाण मिलते हैं। सम्भवतः इनमें सबसे ज्यादा मुखर आरंभिक राज्यों, साम्राज्यों और रजवाड़ों (kingdoms) का विकास है। इन राजनीतिक प्रक्रियाओं की पृष्ठभूमि में भी अनेक परिवर्तन कार्य कर रहे थे। कृषि क्षेत्र का विस्तार और उत्पादन बढ़ाने के अनेक तरीके अपनाए जा रहे थे, अर्थात् भारत में कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था की स्थापना हो रही थी और किसानों का महत्त्व बढ़ता जा रहा था। इसके साथ-साथ व्यापार और वाणिज्य का भी उदय और विकास हो रहा था। मुद्रा का प्रचलन बढ़ रहा था। फलतः उपमहाद्वीप पर नए नगरों का उत्कर्ष हुआ। वस्तुतः 600 ई→पू→ से 600 ई→ का काल ‘राजा, किसान और नगरों के उदय और उनके अन्तर्संबंधों का काल था।

→ अभिलेख मोहरों, प्रस्तर स्तंभों, स्तूपों, चट्टानों और ताम्रपत्रों (भूमि अनुदानपत्र) इत्यादि पर मिलते हैं। ये ईंटों या मूर्तियों पर भी मिलते हैं। अभिलेख का महत्त्व इसलिए भी है कि इन पर इनके निर्माताओं की उपलब्धियों, क्रियाकलापों और विचारों को उत्कीर्ण किया जाता है। अभिलेख स्थायी प्रमाण होते हैं तथा इनमें फेर-बदल नहीं किया जा सकता।

→ अशोक के अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं। यह लिपि बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी। यह आधुनिक भारतीय लिपियों की उद्गम लिपि भी है। ब्राह्मी लिपि को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने 1838 में पढ़ने (Decipher) में सफलता पाई।

→ भूमि अनुदान पत्र अभिलेखों में ही सम्मिलित किए जाते हैं। इन दान पत्रों में राजाओं, राज्याधिकारियों, रानियों, शिल्पियों, व्यापारियों इत्यादि द्वारा दिए गए धर्मार्थ धन, मवेशी, भूमि आदि का उल्लेख मिलता है। राजाओं और सामंतों द्वारा दिए गए भूमि अनुदान पत्र का विशेष महत्त्व है क्योंकि इनमें प्राचीन भारत की व्यवस्था और प्रशासन से संबंधित जानकारी मिलती है।

→ पुरातात्विक सामग्री में सिक्कों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। शासकों की राज्य सीमा, राज्यकाल, आर्थिक स्थिति तथा धार्मिक विश्वासों के संबंध में सिक्के महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। इनसे सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व की जानकारी भी प्राप्त होती है। मुद्रा प्रणाली का आरंभ मानव की आर्थिक प्रगति का प्रतीक है। सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (Numismatics) कहा जाता है।

→ सबसे पहले छठी शती ई→पू→ में चाँदी और ताँबे के आयताकार या वृत्ताकार टुकड़े बनाए गए। इन टुकड़ों पर ठप्पा मारकर अनेक प्रकार के चिह्न जैसे कि सूर्य, वृक्ष, मानव, खरगोश, बिच्छु, साँप आदि खोदे हुए थे। इन्हें पंचमार्क या आहत सिक्के कहते हैं।

→ प्रत्येक महाजनपद की अपनी राजधानी (Capital) थी जिसकी किलेबंदी की जाती थी। राज्य को किलेबंद शहर, सेना और नौकरशाही के लिए आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता होती थी। इस काल में रचित इन धर्मशास्त्रों में शासक तथा लोगों के लिए नियमों का निर्धारण किया गया है। इन शास्त्रों में राजा को यह सलाह दी गई कि वह कृषकों, व्यापारियों और दस्तकारों से कर तथा अधिकार (Tribute) प्राप्त करे।

HBSE 12th Class History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

→ प्रारंभ में मगध की राजधानी राजगृह (राजगीर का प्राकृत नाम) थी जिसका अभिप्राय था राजा का घर (House of King)। राजगृह पहाड़ियों के बीच स्थित एक किलेबंद था। बाद में 4 शताब्दी ई→पू→ में पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) मगध की राजधानी बना। पाटलिपुत्र का गंगा नदी के संपर्क मार्गों पर नियंत्रण था। उल्लेखनीय है कि छठी शताब्दी ई→पू→ से चौथी शताब्दी ई→पू→ के मध्य में 16 महाजनपदों में से मगध महाजनपद सबसे शक्तिशाली होकर उभरा।

→ अन्ततः मगध महाजनपद विस्तार करते हुए भारत में प्रथम साम्राज्य का रूप धारण कर गया। यह प्रथम साम्राज्य मौर्य साम्राज्य था जिसकी स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने लगभग 321 ई→पू→ में की। चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य का विस्तार उत्तर:पश्चिम में . अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान तक फैला हुआ था। भारतीय इतिहास का महान शासक अशोक चंद्रगुप्त मौर्य का पौत्र (Grandson) था जिसने कलिंग (वर्तमान ओडिशा) को जीता।

→ अशोक ने प्रजा में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना पैदा करने का प्रयास किया। सामूहिक रूप से उसकी इसी नीति को धम्म कहा गया है।

→ मौर्य राज्य भारत में प्रथम सर्वाधिक विस्तृत और शक्तिशाली साम्राज्य था। साम्राज्य में समस्त शक्ति का स्रोत सम्राट था। वास्तव में राजा और राज्य का भेद कम रह गया था। अर्थशास्त्र में लिखा है कि ‘राजा ही राज्य’ है। वह सर्वाधिकार संपन्न (Supreme Authority) था। वह सर्वोच्च सेनापति व सर्वोच्च न्यायाधीश था। सभी पदों पर वही नियुक्ति करता था।

→ अशोक के अनुसार, धर्म के प्रसार का लक्ष्य, लोगों के इहलोक तथा परलोक को सुधारना था। इसके लिए उसने राज्य की ओर से विशेष अधिकारी नियुक्त किए जो ‘धम्म महामात्र’ के नाम से जाने जाते थे।

→ मौर्य शासकों के पास एक शक्तिशाली सेना थी, जिसकी सहायता से राज्य का क्षेत्रीय विस्तार किया गया, साथ ही उस पर नियन्त्रण बनाए रखने में भी उसकी विशेष भूमिका रही। प्लिनी (Pliny) के अनुसार उनके पास 9,000 हाथी, 30,000 अश्वारोही और 6,00,000 पैदल सैनिक थे। इसके अलावा बड़ी संख्या में रथ भी उनकी सेना में थे।

→ इतिहासकारों को यह जानकर भी सुखानुभूति हुई कि अशोक के अभिलेखों के संदेश दूसरे शासकों के आदेशों के बिल्कुल भिन्न थे। ये अभिलेख उन्हें बताते थे कि अशोक बहुत ही शक्तिर्शाली तथा मेहनती सम्राट था जो विनम्रता से (बिना बड़ी-बड़ी उपाधियों को धारण किए) जनता को पुत्रवत मानकर उनके नैतिक उत्थान में लगा रहा। इस प्रकार इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इन इतिहासकारों ने अशोक को प्रेरणादायक व्यक्तित्व स्वीकारा तथा मौर्य साम्राज्य को अत्यधिक महत्त्व दिया।

→ सुदूर दक्षिण में इस काल में तीन राज्यों का उदय हुआ। यह क्षेत्र तमिलकम् (इसमें आधुनिक तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश व केरल के भाग शामिल थे) कहलाता था। तीन राज्यों के नाम हैं-चोल, चेर और पाण्ड्य । दक्षिण के ये राज्य संपन्न थे तथा लंबे समय तक अस्तित्व में रहे।

→ संगम साहित्य बहुत ही विपुल -कुछ विद्वान इसे महासंग्रह कहते हैं। इस काव्य को भ्रमणशील भाट और विद्वान कवि दोनों ने लिखा। यह साहित्य चोल, चेर, पाण्ड्य शासकों तथा अनेक छोटे-मोटे राजाओं या नायकों की जानकारी देता है।

→ प्रारम्भिक चोल शासकों में कारिकाल सबसे प्रसिद्ध है। कारिकाल का अर्थ ‘जले हुए पैर वाला व्यक्ति’ होता है।

→ पाण्ड्य शासकों में सबसे महान नेडुजेलियन था। इसकी उपाधि से ज्ञात होता है कि इसने किसी आर्य (उत्तर भारत) सेना को पराजित किया। वह तलैयालंगानम् के युद्ध को जीतने के कारण बहुत प्रसिद्ध हुआ।

→ स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है कि शासकों ने अपने आपको देवता या देवताओं से उत्पन्न बताया। इस माध्यम से वे प्रजा में अपना रुतबा बहुत ऊँचा कर लेना चाहते थे। प्रजा के दिलो-दिमागों में अपना नेतृत्व (Hegemony) स्थापित करना चाहते थे। उल्लेखनीय है कि धर्म या धार्मिक रीतियों का प्रयोग कर, स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि या दैवीय उत्पत्ति बताकर प्रजा में राजा के प्रति आस्था पैदा करना शासकों की प्राचीन काल से ही रणनीति रही थी।
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→ कुषाण शासकों ने भारतीय धर्मों (शैव, बौद्ध, वैष्णव आदि) को अपनाया तथा इन धर्मों के प्रतीकों को अपने सिक्कों पर भी खुदवाया। विम ने अपने सिक्कों पर शिव की आकृति, नंदी और त्रिशूल आदि का प्रयोग किया। कुषाण शासकों ने ‘देवपुत्र’ (Son of God) की उपाधि धारण की।

→ कृषि व्यवस्था के उदय के आरंभ से ही उपज बढ़ाने के अनेक उपाय किए जाते रहे थे। फलतः नई फसलों को उगाना, मिट्टी को उपजाऊ बनाना, खेती में हल तथा धातु का प्रयोग इत्यादि तरीके प्रचलन में आए। फसल की सिंचाई कर उपज बढ़ाना भी प्रमुख तरीका था।

→ कृषि क्षेत्र में पैदावार बढ़ाने में एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपाय धान रोपण की शुरुआत है। भारत में धान रोपण की शुरुआत 500 ई→पू→ में स्वीकार की जाती है। धान लगाने की प्रक्रिया के लिए रोपण और रोपेति जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है।

→ गुप्तकाल में अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सम्राटों ने धार्मिक कार्यों या परोपकार के लिए अनेक गाँव अनुदान में दिए। सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त द्वारा दिए अनुदानपत्र का विवरण भी हमें प्राप्त होता है। प्रभावती ने अभिलेख में ग्राम कुटुंबिनों (गृहस्थ और कृषक), ब्राह्मणों और दंगुन गांव के अन्य निवासियों को स्पष्ट आदेश दिया।

→ भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग छठी शताब्दी ई→पू→ में विभिन्न क्षेत्रों में कई नगरों का उदय हुआ। ये नगर हड़प्पा सभ्यता के काफी समय बाद हड़प्पा क्षेत्रों से उत्तर:पूर्व में मुख्यतः गंगा-यमुना की घाटी में पैदा हुए। इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थीं। इस काल के प्रमुख नगर तक्षशिला अस्सपुर, वैशाली, कुशीनगर, उज्जयिनी, कपिलवस्तु, मिथिला, शाकल, साकेत, चम्पा, पाटलिपुत्र आदि थे।

→ नगरों में शिल्पकारों एवं व्यापारियों की श्रेणियों या संघों का भी उल्लेख मिलता है। प्रत्येक श्रेणी का एक अध्यक्ष होता था। इन श्रेणियों में विभिन्न व्यवसायों से जुड़े कारीगर सम्मिलित होते थे। प्रमुख शिल्पकार श्रेणियाँ थीं-धातुकार (लुहार, स्वर्णकार, ताँबा, कांसा व पीतल का काम करने वाले), बढ़ई, राजगीर, जुलाहे, कुम्हार, रंगसाज, बुनकर, कसाई, मछुआरे इत्यादि। ये श्रेणियाँ अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करती थीं।

→ तमिल व संस्कृत साहित्य तथा विदेशी वृत्तांतों से जानकारी मिलती है कि भारत में अनेक प्रकार का सामान एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जाता था। इन वस्तुओं में प्रमुख थीं-नमक, अनाज, वस्त्र, लोहे का सामान, कीमती पत्थर, लकड़ी, औषधीय पौधे इत्यादि। भारत का विदेशी व्यापार रोमन साम्राज्य तक फैला हुआ था।

क्रम संख्या काल घटना का विकरण
1. लगभग 600 ई०पू० उत्तर प्रदेश और पश्चिम बिहार में लोहे का बड़े पैमाने पर प्रयोग
2. लगभभग 600 ई०पू० धान रोपण विधि, गंगा द्रोणी में नगरीकरण और महाजनपदों का उदय, आहत सिक्कों का प्रयोग
3. लगभग 500 ई०पू० से 400 ई० पू० मगध शासकों द्वारा सत्ता का सुदृढ़ीकरण करना
4. लगभग 327-325 ई०पू० सिकंदर का भारत पर आक्रमण
5. लगभग 321 ई०पू० चंद्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण
6. 268-231 ई०पू० अशोक का शासन काल
7. लगभग 200 ई०पू० मध्य एशिया से घनिष्ठ व्यापार संपर्क प्रारंभ
8. लगभग 100 ई०पू० से 200 ई०पू० उत्तर-पश्चिम में शक शासक, रोम से व्यापार
लगभग 78 ई०पू० कनिष्क का राज्यारोहण; शक संवत् आरंभ
10. लगभग 320 ई०पू० गुप्त शासन का आरंभ
11. लगभग $335-375$ ई० पू० समुद्रगुप्त का शासनकाल
12. लगभग $375-415$ ई० पू० चंद्रगुप्त II, दक्षिण में वाकाटक
13. लगभग $500-600$ ई० पू० चालुक्य (कर्नाटक में) व पल्लव (तमिलनाडु में)
14. लगभग $606-647$ ई० पू० हर्षवर्धन कन्नौज में शासक, ह्यनसांग का भारत आना।
15. 1784 ईo बंगाल एशियाटिक सोसायटी का गठन
16. 1838 ई० जेम्स प्रिंसेप अशोक के अभिलेख पढ़ने में सफल हुआ
17. 1877 ईo अलेक्जैंडर कनिंघम द्वारा अशोक के अभिलेखों के अंक अंश का प्रकाशन
18. 1886 ई० एपिग्राफिआ कर्नाटिका (Ephigraphia Carnatica) का प्रथम अंक प्रकाशित
19. 1888 ई० एपिग्राफिआ इंडिका (Ephigraphia Indica) का प्रथम अंक प्रकाशित
20. 1965-66 ई० डी. सी. सरकार द्वारा ‘इंडियन एपिग्राफी एंड इंडियन एपिग्राफ़िकल ग्लोसरी (Indian Ephigraphy and Indian Ephigraphical Glossary) का प्रकाशन

 

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