HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 कन्थामाणिक्यम्

Haryana State Board HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 कन्थामाणिक्यम् Textbook Exercise Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Sanskrit Solutions Shashwati Chapter 10 कन्थामाणिक्यम्

HBSE 11th Class Sanskrit कन्थामाणिक्यम् Textbook Questions and Answers

I. संस्कृतेन उत्तरं दीयताम्
(क) रामदत्तः वचोभिः प्रसादयन् स्वामिनं किं पृच्छति?
(ख) भवानीदत्तस्य स्वभावः कीदृशः वर्णितः?
(ग) भवानीदत्तस्य पन्याः नाम किम् अस्ति?
(घ) सोमधरस्य गृहं कीदृशम् आसीत् ?
(ङ) कयोः मध्ये प्रगाढा मित्रता आसीत्?
(च) कस्य विलम्बेन आगमने रत्ना चिन्तिता?
(छ) रत्ना राजपथविषये किं कथयति?
(ज) कः प्रतिदिनं पदातिः गमनागमनं करोति स्म?
(झ) कः वैद्यं दूरभाषेण आह्वयति?
(ञ) सोमधरः कथं धनहीनोऽपि सम्माननीयः?
उत्तराणि:
(क) रामदत्तः वचोभिः प्रसादयन् स्वामिन् पृच्छति यत् ‘शीतलमानयानि किञ्चित् उष्णं वा?’
(ख) भवानीदत्तस्य स्वभावः पूर्णं तु गुणवतां विरुद्धः आसीत्, परमन्ते तेषां पक्षतः अभूत्।
(ग) भवानीदत्तस्य पत्न्याः नाम ‘रत्ना’ आसीत्।
(घ) सोमधरस्य गृहं नातिदीर्घम् अस्वच्छवीथिकायां स्थितं न मार्जितं न चाप्यलंकृतम्।
(ङ) सिन्धु सोमधरयोः मध्ये प्रगाढा मित्रता आसीत्।
(च) सिन्धोः विलम्बन आगता रत्ना चिन्तिता।
(छ) रत्ना राजपथविषये कथयति यत् ‘मद्यपा वाहनचालकाः झञ्झावेगेन यानं चालयन्ति।’
(ज) सोमधरः प्रतिदिनं पदातिः गमनागमनं करोति स्म।
(झ) भवानीदत्तः वैद्यं दूरभाषणेन आह्वयति।
(ञ) सोमधरः गुणवान अस्ति अतः सः धनहीनोऽपि सम्माननीयः।

2. हिन्दीभाषया आशयं व्याख्यां वा लिखत
(क) किं वृत्तम्? अद्यागतप्राय एवं वात्याचक्रम् उत्थापयसि? रत्नायाः अनेन वाक्येन भवानीदत्तस्य चरित्रं उद्घाटितं भवति।
उत्तराणि:
प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है जिसका संकलन अभिराज राजेन्द्रमिश्र विरचित ‘रूपरुद्रीयम्’ में से किया गया है। जब भवानीदत्त हरण को डाँटकर सिन्धु को लाने के लिए भेजते हैं, तभी उनकी पत्नी रत्ना कहती है कि आशय-क्या बात? आज आते ही तूफान उठा रहे हो? रत्ना के इस कथन से स्पष्ट होता है कि भवानीदत्त का स्वभाव एक कठोर अधिकारी जैसा है।

उनके व्यवहार में दया, स्नेह आदि का अभाव है। निम्न वर्ग के लोगों के प्रति उनका व्यवहार उचित नहीं है। वे उनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार करते हैं। ऐसे लोगों के साथ वे किसी भी प्रकार का संबंध नहीं रखना चाहते इसी कारण वे गुस्से में हरण को सिन्धु को लाने के लिए भेजते हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का डर है कि कहीं सिन्धु सोमधर के घर न गया हो। इस प्रकार रत्ना के उपरोक्त कथन से भवानीदत्त की स्वाभाविक कठोरता स्पष्ट होती है।

HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Chapter 10 कन्थामाणिक्यम्

(ख) पश्य, इतोऽग्रे तस्यामसभ्यवसतौ न गमिष्यसि।
उत्तराणि:
प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है जिसका संकलन अभिराज राजेन्द्रमिश्र विरचित ‘रूपरुद्रीयम्’ में से किया गया है। आशय-भवानीदत्त नहीं चाहते कि उनका पुत्र गंदी बस्ती में किसी निर्धन बालक के साथ मित्रता करे। इसलिए वे सिन्धु को डाँटते हुए कहते हैं कि देख, आज से उस असभ्य बस्ती में तू नहीं जाएगा। वस्तुतः भवानीदत्त के हृदय में निरीह एवं निम्न वर्गीय व्यक्तियों के प्रति हीन भावना है। वे अपने पुत्र में भी इसी प्रकार के संकुचित विचार भरना चाहते हैं। इसी कारण उसे सोमधर के घर जाने से एवं उसके साथ मित्रता रखने से मना करते हैं।

(ग) भवान् न जानाति राजपथवृत्तम् ।
उत्तराणि:
प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है जिसका संकलन अभिराज राजेन्द्रमिश्र विरचित ‘रूपरुद्रीयम्’ में से किया गया है। जब सोमधर घायल अवस्था में सिन्धु को लेकर उसके घर आता है तो सिन्धु के माता-पिता घबरा जाते हैं। उसकी माँ रत्ना राजपथ पर होने वाली दुर्घटनाओं के विषय में अपने पति से कह रही है कि आशय-आप सड़क का हाल नहीं जानते। राजपथ पर गाड़ी चलाने वाले ड्राइवर प्रायः शराब पीकर गाड़ी चलाते हैं। उनकी गाड़ियाँ आँधी-तूफान की गति से चलती हैं। इसलिए सड़कों पर चलने वाले छोटे वाहनों अथवा व्यक्तियों का जीवन सुरक्षित नहीं है। इसी कारण मेरे पुत्र की यह हालत हुई है।

(घ) सिन्धो! अलं भयेन । सर्वथानाहतोऽसि प्रभुकृपया।
उत्तराणि:
प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है जिसका संकलन अभिराज राजेन्द्रमिश्र विरचित ‘रूपरुद्रीयम्’ में से किया गया है। आशय-होश आने पर सिन्धु जब अपने पिता को देखता है तो वह मन-ही-मन डरने लगता है कि सोमधर के घर आने से पिता जी नाराज होंगे, परन्तु उसके पिता सोमधर के सिर पर जब हाथ रखते हैं तो सिन्धु प्रसन्न हो जाता है। उसी दौरान सोमधर सिन्धु से कहता है कि डरो मत। प्रभु की कृपा से तुम बिल्कुल ठीक हो। वस्तुतः सोमधर ने सिन्धु को सान्त्वना देते हुए कहा है कि ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है कि तुम्हें ज्यादा चोट नहीं लगी। इसमें डरने की कोई बात नहीं। कल हम दोनों फिर विद्यालय चलेंगे। इस प्रकार सोमधर का सिन्धु के प्रति विश्वास और ईश्वर के प्रति आस्था दिखाई पड़ती है।

3. अस्य पाठस्य शीर्षकस्य उद्देश्यं संक्षेपेण एकस्मिन् अनुच्छेदे हिन्दीभाषया लिखत
उत्तरम्:
इस पाठ का शीर्षक ‘कन्थामाणिक्यम्’ है। इसका अर्थ है-‘गुदड़ी का लाल’ । गुदड़ी का लाल वह होता है जो देखने में साधारण प्रतीत होता है, परन्तु उसके अन्दर विभिन्न प्रकार के गुण होते हैं। सोमधर बाहरी वेश-भूषा एवं चेष्टाओं आदि से अति निर्धन तथा साधारण-सा लगता है, परन्तु जब वह सिन्धु का मित्र होने के नाते उसे दुर्घटना में बेहोश होता देखकर बचाता है तो उसके आंतरिक गुणों का ज्ञान भवानीदत्त को होता है।

अतः वे उसे गुदड़ी का लाल कहते हैं; जो कि सही अर्थों में उचित भी है। सोमधर से मित्रता करने वाले अपने पुत्र की भी वे प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि मैं सिन्धु की अभिरुचि की प्रशंसा करता हूँ। सोमधर तो गुदड़ी का लाल ही है। मुझे अब अनुभव हुआ कि गुणवान लोग ही सभ्य, धनी और सम्माननीय होते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत/नाट्यांश का शीर्षक उद्देश्यपूर्ण है।

4. अधोलिखितेषु विशेष्यपदेषु विशेषणपदानि पाठात् चित्वा योजयत

(क) …………… मुखाकृतिम्।
(ख) …………… अस्माभिः।
(ग) ………….. भृत्यौ।
(घ) ………… मित्रता।
(ङ) ……….. दारकस्य।
(च) ……….. बालकाः।

उत्तराणि:
(क) रोषोत्तप्तां मुखाकृतिम्।
(ख) कार्यव्यापृतैः अस्माभिः।
(ग) द्वावपि भृत्यौ।
(घ) प्रगाढा मित्रता।
(ङ) वराकस्य दारकस्य।
(च) सर्वेऽपि बालकाः।

5. अधोलिखितपदानां वाक्येषु प्रयोगं कुरुत
मार्जयन्, आनय, पार्श्वे, दारकेण, प्रक्षालयति, सविस्मयम्, वच्मि, शकटे, स्नियति, आसन्दी।
उत्तराणि:

शब्दअर्थवाक्य-प्रयोग
मार्जयनूपोंछता हुआसेवकः पात्राणि मार्जयनु काष्ठ फलके स्थापयति।
आनयलाओगच्छ सिन्धुम् आसय तावत्।
पाश्वेपास मेंमम पार्श्वे एकं पुस्तकम् अस्ति।
दारकेणपुत्र के द्वाराकिं भर्तृदारकेण किज्चिद् अपराद्धम्।
प्रक्षालयतिधोता हैरजकः वस्त्राणि प्रक्षालयति।
सविस्मयम्आश्चर्य सेसा सविस्मयं मां पश्यति।
वच्चिकहता हूँअद्य अस्मिन् विषये किं वच्चि।
शकटेगाड़ी परते शकटे मृण्मयी पात्राणि पश्यन्ति।
स्निहयतिप्रेम करता है.सोमधरः मयि स्निह्यति।
आसन्दीकुर्सीरत्नायाः पार्श्वे एका आसन्दी वर्तते।

6. अधोलिखितानां पदानां सन्धिं सन्धिविच्छेदं च कुरुत
(क) भग्नावशेषः = …………..
(ख) द्वौ + अपि = ………………
(ग) पश्चाच्च = ………………..
पराजितः + असि = ……………
(ङ) चाप्यलङ्कृतम् = …………..
(च) कः + चित् = ……………
उत्तराणि:
(क) भग्नावशेषः = भग्न + अवशेषः
(ख) द्वौ + अपि = द्वावपि
(ग) पश्चाच्च = पश्चात् + च
(घ) पराजितः + असि = पराजितोऽसि
(ङ) चाप्यलकृतम् = च + अपि + अलङ्कृतम्
(च) कः + चित् = कश्चित्।

7. पाठमाश्रित्य रत्नायाः सोमधरस्य च चारित्रिकवैशिष्ट्यम् सोदाहरणं हिन्दीभाषया लिखत

पात्रों का चरित्र-चित्रण

रत्ना-रत्ना भवानीदत्त वकील की समझदार पत्नी है। वह अपने पति के विचित्र स्वभाव से सहमत नहीं है, तभी तो कहती है कि-“आज आते ही तुम तूफान उठा रहे हो, क्या किसी ‘वाद’ में पराजित हो गए हो?” वह अपने पति की मनः स्थिति को स्खलित होते देखकर कहती है कि सच बताओ क्या बात है? उसे अपने पुत्र सिन्धु से अत्यधिक स्नेह है, अतः जब सिन्धु को भवानीदत्त कठोरता से बुलाते हैं तो उनके व्यवहार से वह खिन्न हो जाती है। रला भवानीदत्त से कहती है कि ‘जो गुणवान् होता है वही सभ्य है, वही धनी है और वही आदर के योग्य है।’ यदि सोमधर का पिता सब्जी इत्यादि बेचता है और इस प्रकार से अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करता है तो इसमें कौन-सा पाप है?’ इस प्रकार वह उदार हृदय वाली महिला है।

उसे संकीर्ण दृष्टिकोण रखने वालों से चिढ़ है। रत्ना को अपने लाडले बेटे के विषय में अत्यधिक चिन्ता हो जाती है जब वह देर तक विद्यालय से नहीं लौटता। नारी-हृदय स्वभावतः सुकोमल होता है। वह घबरा जाती है और अपने पति से शीघ्र उसका पता करने के लिए कहती है। वह सड़कों पर तीव्र गति से चलने वाले वाहनों से भी अत्यधिक चिन्तित है, क्योंकि सड़कों पर वाहन चालक शराब पीकर तेज गति से अपने वाहन चलाते हैं। उन्हें यह चिन्ता नहीं होती कि कोई मरे या जिए। इस प्रकार रत्ना के संवादों से ज्ञात होता है कि वह.एक बुद्धिमती, स्नेहमयी, परोपकारी पुत्रवत्सला तथा पति की हर बात का ध्यान रखने वाली आदर्श महिला है। सोमधर-सोमधर मलिन बस्ती में रहने वाला एक गुणवान, मेधावी, सहिष्णु, परोपकारी, नेतृत्वकारी एवं मित्रता के भाव से परिपूर्ण बालक है।

वह सिन्धु से मित्रता करता है, साधारण तौर पर उसके धनिक पक्ष पर नहीं। वह हृदय से अपने मित्र से स्नेह करता है। जब सिन्धु सड़क दुर्घटना में घायल हो जाता है तो वह उसे बेहोशी की अवस्था में ही रिक्शे पर बैठाकर सँभालकर घर ले आता है। इस प्रकार वह एक साहसी एवं परोपकारी बालक है। उसमें आत्मसम्मान का भाव भी है। आशावादिता भी उसमें विद्यमान है। वह स्वयं कहता है-श्व आवाम्-पुनर्विद्यालयं गमिष्यावः’ । आत्मगौरव भी उसमें दिखाई देता है। वह सिन्धु के पिता भवानीदत्त को जो उत्तर देता है उससे स्पष्ट है कि यद्यपि वह एक सब्जी विक्रेता का पुत्र है, फिर भी उसमें धनलिप्सा की गंध तक नहीं आती। वह वकील साहब से कहता है-“न खलु । शुल्कस्तु मुक्तः।” ऐसा सुनकर वकील साहब स्वतः ही कहने लगते हैं कि वह वास्तविक रूप में ‘गुदड़ी का लाल’ है। क्योंकि कमल कीचड़ में ही खिलता है। वह एक होनहार बालक है।

8. कोष्ठाङ्कितेषु पदेषु उपयुक्तपदं चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत

(क) भवान्। पक्ववाटिकादीनि खादितुम् ……………… (इच्छसि/इच्छन्ति/इच्छति)।
(ख) …………… न श्रुतम्। (अहम्/अस्माभिः/माम्)।
(ग) हरणरामदत्तौ अट्टहासं रोड़े ……………… (प्रयतते/प्रयतेते प्रयतसे)।
(घ) नेत्राभ्यां संसारं ………………. (दर्शिष्यामि/द्रक्ष्यामि)।
(ङ) सोमधरः त्वां ………………. (आनीतः/आनीतवान्/आनीतम्)।
उत्तराणि:
(क) भवान् । पक्ववाटिकादीनि खादितुम् इच्छति।
(ख) अस्माभिः न श्रुतम्।।
(ग) हरणरामदत्तौ अट्टहासं रोद्धं प्रयतते।
(घ) नेत्राभ्यां संसारं द्रक्ष्यामि।
(ङ) सोमधरः त्वां आनीतवान्।

HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Chapter 10 कन्थामाणिक्यम्

9. अधोलिखितानां कथनानां वक्ता कः/का?

कथनम्वक्ता
(क) तत्क्षमन्तामन्नदातारः…………………….
(ख) तात! सोमधरः मयि स्निह्यति…………………….
(ग) अये यो गुणवानू स एव सभ्य: स एव धनिकः स एव आदरणीयः…………………….
(घ) त्वं पुनः शिशुरिव धैर्यहीना जायसे…………………….
(ङ) पितृव्यचरण! स्वपितुः शाकशकट्याः सज्जा मयैव करणीया वर्तते ।…………………….
(च) वंत्स सोमधरः! सत्यमेवासि त्वं कन्थामाणिक्यम् ।…………………….

उत्तराणि:

कथनम्वक्ता
(क) तत्क्षमन्तामन्नदातारःरामदत्तः
(ख) तात! सोमधरः मयि स्निह्यतिसिन्धु:
(ग) अये यो गुणवानू स एव सभ्य: स एव धनिकः स एव आदरणीयःरत्ना
(घ) त्वं पुनः शिशुरिव धैर्यहीना जायसेभवानीदत्तः
(ङ) पितृव्यचरण! स्वपितुः शाकशकट्याः सज्जा मयैव करणीया वर्तते ।सोमधर:
(च) वंत्स सोमधरः! सत्यमेवासि त्वं कन्थामाणिक्यम् ।भबानीदत्तः

योग्यताविस्तारः

1. पाठगतस्य आशयस्य स्थिरीकरणाय अधोलिखितसूक्तयः दीयन्ते

(क) सम्पत्तौ च विपतौ च महतामेकरूपता।

(ख) आपत्सु मित्रं जानीयात्।

(ग) उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ॥

(घ) न कश्चित्कस्यचिन्मित्रं न कश्चित्कस्यचिद्रिपुः ।
व्यवहारेण मित्राणि जायन्ते रिपवस्तथा ॥

(ङ) न मातरि न दारेषु न सोदर्ये न चात्मजे।
विश्वासस्तादृशः पुंसां यादृमित्रे स्वभावजे ॥

(च) मित्रं प्रीतिरसायनं नयनयोरानन्दनं चेतसः
पात्रं यत्सुखदुखयोः सह भवेन्मित्रेण तदुर्लभम् ।
ये चान्ये सुहृदः समृद्धिसमये द्रव्याभिलाषाकुला
स्ते सर्वत्र मिलन्ति तत्त्वनिकषग्रावा तु तेषां विपत् ॥
पाठस्य सूक्तयः
उत्तराणि:
(क) वार्तालापं श्रुत्वा भृत्यौ रत्ना च बहिरायान्ति। रत्ना सिन्धुं निस्संज्ञं दृष्ट्वा भृशं रोदिति।
(ख) सिन्धुं प्रतिभिज्ञाय अहं पुनस्तद् रिक्शायानम अधिरोप्य त्वरितं प्रचलितः।
(ग) पितृव्य! अहं पुनः प्रतिदिनमिव अद्यापि पदातिरेवागच्छन्नासम् विद्यालय वाहनं केनचित् ट्रकयानेन दृढमाहतम्। तदा सोमधरः रिक्शायानेनतम् गृहं नीतवान् !
(घ) तात! सोमधरः मम सुहृदः अस्ति। पठनेऽपितीक्ष्णः । सः मयि स्निह्यति।
(ङ) वत्स सोमधर! मा गाः कुत्रापि त्वम। मातृसमीपमेव तिष्ठ।
(च) भवानीदत्तोऽग्रेसरीभूय सोमधर शीर्षे करतलं सारयति ।

2. अस्य रूपकस्य संवादानां नाट्यप्रस्तुतये अभ्यासः कार्यः।
उत्तरम्:
अध्यापक प्राध्यापक निर्देशन संवादानाम् अभ्यासं कुर्यात् ।

HBSE 11th Class Sanskrit कन्थामाणिक्यम् Important Questions and Answers

अतिरिक्त प्रश्नोत्तराणि

I. अधोलिखितान् नाट्यांशान् पठित्वा एतदाधारितानाम् प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतेन लिखत
(निम्नलिखित नाट्यांशों को पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए)

1. भवानीदत्तः (सक्रोधम्) मूर्ख! तस्य गृहमपि नातिदीर्घम् । अस्वच्छवीथिकायां स्थितम् । तस्य पिताऽपि शाकफलविक्रेता, न तव तात इव शिक्षितः। एवम्भूतेऽपि किमर्थं तत्राऽगमस्त्वम् ?
सिन्धुः (सदैन्यम्)
तात! सोमधरः मम सहृदस्ति। सः पठनेऽपि तीक्ष्णः। मय्यतितरां स्निह्यत्यसौ। तस्मादावयोः प्रगाढा मित्रता। स गणिते मम साहाय्यं करोति।
(i) तस्य गृहं कस्यां स्थितम् ?
(ii) शाकफलविक्रेता कः अस्ति?
(iii) सोमधरस्य गुणान् लिखत।
उत्तराणि:
(i) तस्य गृहं अस्वच्छवीथिकायाम् स्थितम्।
(ii) शाकफलविक्रेता सोमधरस्य पिता अस्ति।
(iii) सोमधरः सिन्धोः सुहृदस्ति। सः पठने अपि तीक्ष्णः। सः गणितविषये मित्रस्य सहायतां करोति।

2. सिन्धुः – (निरुत्तरस्सन्)
तात! सोमधरो मयि स्निह्यति। स मह्यमपि रोचते।
अन्ये छात्रास्तु दुष्टाः। ममाध्यापिका सोमधरं कक्षायाः मान्यतरं (मानीटर) कृतवती।
भवानीदत्तः – (सोदेवेगम्)
त्वं कथं न मान्यतरः कृतः? फलशाकविक्रेतुर्दारकः कथं त्वामतिशेते?
(सिन्धोः कर्णं किञ्चित्कुब्जीकुर्वन्)
पश्य, इतोऽग्रे तस्यामसभ्यवसतौ न गमिष्यसि। अतः परं शिक्षको भवन्तं गणितमध्यापयिष्यति। अवगतं न वा? सोमधरेण साकं मैत्रीवर्धनस्य न काप्यावश्यकता।
(सिन्धुरस्फुटं रुदन् गृहाभ्यन्तरं प्रविशति)।
(i) केन साकं मैत्रीवर्धनस्य न आवश्यकता?
(ii) कः अस्फुटं रूदन् गृहाभ्यन्तरे प्रविशति?
(iii) भवानीदत्तः सिन्धोः कर्णः किञ्चित्कुब्जीकुर्वन् किं कथयति?
उत्तराणि:
(i) सोमधरेण साकं मैत्रीवर्धनस्य न आवश्यकता।
(ii) सिन्धुः अस्फुटं रूदन् गृहाभ्यन्तरे प्रविशति।
(iii) भवानीदत्तः सिन्धोः कर्णः किञ्चित्कुब्जीकुर्वन कथयति यत् पश्य इतोऽग्रे तस्यामसभ्यवसतौ न गमिष्यसि। अतः परं शिक्षको भवन्तं गणितमध्यापयिष्यति।

(3) सोमधरः – (चायपेयं परिसमाप्य समुत्तिष्ठन्)
पितृव्यचरण! गच्छामि तावत् । नमस्ते।
(रत्नां प्रति)
अम्ब! प्रणमामि।
(सिन्धुं लालयन)
मित्र सिन्धो! श्वो मिलिष्यावः।

भवानीदत्तः – (सहर्ष रत्नां प्रति)
रत्ने! उद्घाटितं त्वयाऽद्य मम नेत्रयुगलम् । सत्यमेव सम्प्रति सिन्ध्वभिरुचिं प्रशंसामि। सोमधरस्तु कन्थामाणिक्यमेव वर्तते। इदानीमनुभूतम्मया यद्गुणवन्त एव सभ्याः धनिकाः सम्माननीयाश्च । न मे द्वेषस्सम्प्रति ग्राम्यवसतिं प्रति। पङ्केपि कमलं विकसति। रत्ने! अद्यप्रभृत्यहं त्वनेत्राभ्यां संसारं द्रक्ष्यामि।
॥ शनैर्जवनिका पतति ॥

(i) भवानीदत्तस्य नेत्रयुगलम् कया उद्घाटितम् ?
(ii) शनैः शनैः का पतति?
(iii) सोमधरः कथं धनहीनोऽपि सम्माननीयः?
उत्तराणि:
(i) भवानीदत्तस्य नेत्रयुगलम् तस्य पत्नी रत्ना (त्वया) उद्घाटितम्।
(ii) शनैः शनैः जवनिका पतति।
(iii) सोमधरः गुणवान् अस्ति। अतः धनहीनोऽपि सम्माननीयः।

II. अधोलिखित रेखांकित पदानि आधृत्य संस्कृतेन प्रश्न-निर्माणं कुरुत
(निम्नलिखित रेखांकित पदों को देखकर संस्कृत में प्रश्न निर्माण कीजिए)

(क) मम वाहनन्तु ट्रकयानेन दृढमाहतमासीत्।
(ख) न तव तात इव शिक्षितः।
(ग) यदि धनम अपेक्ष्यते तर्हि मां भणिष्यसि।
(घ) पुत्रस्य विलम्बेन आगमने रत्ना चिन्तिता।
उत्तराणि:
(क) मम वाहनन्तु केन दृढमाहतमासीत् ?
(ख) न कस्य तात इव शिक्षितः?
(ग) यदि किम् अपेक्ष्यते तर्हि मां भणिष्यसि?
(घ) कस्य विलम्बेन आगमने रत्ना चिन्तिता?

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बहुविकल्पीय-वस्तुनिष्ठ प्रश्नाश्च

III. अपोलिखित दश प्रश्नानां प्रदत्तोत्तरविकल्पेषु शुद्धविकल्पं लिखत
(निम्नलिखित दस प्रश्नों के दिए गए विकल्पों में से शुद्ध विकल्प लिखिए)

1. भवानीदत्तस्य पत्न्याः नाम किम् अस्ति?
(A) धन्या
(B) अधन्या
(C) रत्ना
(D) अरत्ना
उत्तरम्:
(C) रत्ना

2. कयोः मध्ये प्रगाढा मित्रता आसीत?
(A) सिन्धुसोमधरयोः
(B) रत्नाभवानीदत्तयोः
(C) हरणरामदत्तयोः
(D) सोमधरहरणयोः
उत्तरम्:
(A) सिन्धुसोमधरयोः

3. ‘वावपि’ अस्य सन्धिविच्छेदः अस्ति
(A) दवा + वपि
(B) द्वा + वपि
(C) द्वौ + अपि
(D) द्ध + अपि
उत्तरम्:
(C) द्वौ + अपि

4. ‘निवसति + असौ’ अत्र सन्धियुक्त पदम् अस्ति
(A) निवसत्यसौ
(B) निवसतियसौ
(C) निवसतिऽसौ
(D) निवसतीऽसौ
उत्तरम्:
(A) निवसत्यसौ

5. ‘प्रतिदिनम्’ अत्र कः समासः?
(A) तत्पुरुषः
(B) कर्मधारयः
(C) द्विगुः
(D) अव्ययीभावः
उत्तरम्:
(D) अव्ययीभावः

6. ‘विद्यालयः’ इति पदस्य विग्रहः अस्ति
(A) विद्याः च आलयः
(B) विद्याः आलयः
(C) विद्याः आलयः च
(D) विद्यायाः आलयः
उत्तरम्:
(D) विद्यायाः आलयः

7. ‘दृष्ट्वा’ इति पदे कः प्रत्ययः ?
(A) क्त्वा
(B) ल्यप्
(C) ट्वा
(D) शतृ
उत्तरम्:
(A) क्त्वा

8. ‘प्रक्षाल्य’ इति पदस्य प्रकृति प्रत्यादिविभाग:
(A) प्र + क्षा + ल्यप्
(B) प्र + क्षल् + ल्यप्
(C) प्रक्षा + ल्यप्
(D) प्र + क्षि + ल्यप्
उत्तरम्:
(B) प्र + क्षल् + ल्यप्

9. ‘अवितथं’ इति पदस्य विलोमपदं किम्?
(A) सत्यं
(B) यथार्थं
(C) असत्यं
(D) रहस्यं
उत्तरम्:
(C) असत्यं

10. ‘अलम्’ इति उपपद योगे का विभक्तिः ?
(A) द्वितीया
(B) चतुर्थी
(C) तृतीया
(D) पंचमी
उत्तरम्:
(C) तृतीया

IV. निर्देशानुसारं रिक्तस्थानानि पूरयत
(निर्देश के अनुसार रिक्त स्थान को पूरा कीजिए)

(क)
(i) ‘मह्यमपि’ अस्य सन्धिविच्छेदः …………… अस्ति ।
(ii) ‘प्रतिदिनम्’ इति पदस्य विग्रहः ……………… अस्ति।
(iii) ‘पश्यन्’ अत्र प्रकृति प्रत्यविभागः ……………. अस्ति।
उत्तराणि:
(i) मह्यम् + अपि
(ii) दिनं दिनं इति
(iii) दृश् + पश्य् + शतृ।

(ख)
(i) ‘गम् + तव्यत्’ अन्न निष्पन्न रूपम् ………………… अस्ति।
(ii) ‘बहुशः’ इति पदस्य विलोमपदं …………………. वर्तते।
(iii) ‘सम्प्रति’ इति पदस्य पर्यायपदं ………………… वर्तते।
उत्तराणि:
(i) गन्तव्यः
(ii) एकदा
(iii) अधुना।।

(ग) अधोलिखितपदानां संस्कृत वाक्येषु प्रयोग करणीयः
(निम्नलिखित पदों का संस्कृत वाक्यों में प्रयोग कीजिए)
(i) निधाय,
(ii) चतुश्चक्रे,
(iii) अधिवक्ता।
उत्तराणि:
(i) निधाय (रखकर)-त्वं पुस्तकं निधाय आगच्छ।
(ii) चतुश्चक्रे (चौराहे पर)-त्वं परश्वः चतुश्चक्रे आगमिष्यसि।
(iii) अधिवक्ता (वकील) मम जनकः अधिवक्ता अस्ति।

नाट्यांशों के सरलार्थ एवं भावार्थ

1. (समुत्प्रेरकं शिशुजनैकाङ्कम्)
॥ प्रथमं दृश्यम् ॥
नगरस्य सघनवसतौ प्रख्याताधिवक्तुर्भवानीदत्तस्य भवनम् । भवनान्तरे परिजनानां वार्ताध्वनिः श्रूयते।

भवानीदत्तः – रामदत्त! अयि भो रामदत्त! हरण! (सेवकौ रामदत्तहरणौ ससम्भ्रमं धावन्तावागच्छतः)

हरणः – (अङ्गप्रच्छदेन हस्तौ मार्जयन्) अन्नदातः! रसवत्यामासम् । किं कर्तुं युज्यते?

रामदत्तः – (वचोभिः प्रसादयन्) स्वामिन् ! शीतलमानयानि किञ्चित् उष्णं वा? आहोस्वित् पक्ववटिकादीनि खादितुमिच्छति भवान्?

भवानीदत्तः – (रोषोत्तप्तां मुखाकृतिं किञ्चिन्मसृणयन्) अलम् अलम्। सर्वेऽपि यूयं म्रियध्वे? आहूतोऽपि न शृणोति कश्चित् ? गृहमस्ति कस्यचित् भद्रपुरुषस्य भग्नावशेषो वा प्रेतानाम् ?

रामदत्तः – (सापराधमुद्रम्) स्! स् स्वामिन् कार्यव्यापृतैरस्माभिर्न श्रुतम् । तत्क्षमन्तामन्नदातारः।

शब्दार्थ-समुत्प्रेरकं (सम् + उत्प्रेरक) = उत्तम प्रेरणा देने वाला। सघनवसतौ = घनी बस्ती में। अधिवक्तुः = वकील का। ससम्भ्रमं = घबराहट के साथ। अङ्गप्रच्छदेन = शरीर पोंछने वाले कपड़े से। मार्जयन् = साफ करता हुआ। रसवत्याम् = रसोई घर में। प्रसादयन् = प्रसन्न करते हुए। आहोस्वित् = अथवा (या)। पक्ववटिका = पकौड़ी। रोषोत्तप्ताम् = क्रोध से तमतमाती। मसृणयन् = कोमले बनाते हुए। म्रियध्वे = मर रहे हो। आहूतः = बुलाया गया। भग्नावशेषः = खण्डहर। सापराधमुद्रम् = अपराधी की मुद्रा के साथ। कार्यव्यापृतैः = कार्य में लगे होने से। क्षमन्ताम् = क्षमा करें। अन्नदातारः = अन्नदाता।

प्रसंग प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से आधुनिक काल के सुप्रतिष्ठित एवं विख्यात संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस नाट्यांश में भवानीदत्त एवं रामदत्त के परस्पर वार्तालाप के माध्यम से रामदत्त द्वारा भवानीदत्त के क्रोध को शान्त करने के प्रयास का वर्णन है।

सरलार्थ (उत्तम प्रेरणादायक बच्चों की एकांकी) (पहला दृश्य) नगर की घनी बस्ती (आबादी) में विख्यात वकील भवानीदत्त का मकान। मकान के अन्दर परिवार के लोगों की बातों की आवाज़ सुनाई दे रही है।

भवानीदत्त-रामदत्त! अरे ओ रामदत्त । हरण! रामदत्त तथा हरण दोनों नौकर घबराहट के साथ दौड़ते हुए आते हैं। हरण-(शरीर के अङ्गों को पोंछने वाले कपड़े से हाथ साफ करते हुए) अन्नदाता! मैं रसोई में था। क्या करना है?

रामदत्त-(वचनों से प्रसन्न करते हुए) हे स्वामी! कुछ ठण्डा लाऊँ या गर्म? अथवा आप पकौड़ी आदि खाने की इच्छा रखते हैं? भवानीदत्त-(क्रोध से तमतमाती मुखाकृति को कुछ कोमल बनाते हुए) बस, बस! क्या तुम सभी मर रहे हो? बुलाए जाने पर भी कोई नहीं सुनता। किसी सज्जन का घर है, या प्रेतों का खण्डहर है?

रामदत्त-(अपराधी की मुद्रा में) स स.स्वामी। कार्य में लगे होने से हमने नहीं सुना। अतः अन्नदाता क्षमा करें।

भावार्थ भाव यह है कि जब भवानीदत्त अपने नौकरों को बुलाते हैं तो दोनों नौकर भागकर उनके सामने आते हैं। दोनों नौकरों में से रामदत्त स्वामी को प्रसन्न करने की कला में निपुण है। वह अपराधी के स्वर में स्वयं को व्यस्त बताकर जल्दी से क्षमा माँग लेता है तथा भवानीदत्त से उनके पसंद के खाने-पीने की वस्तुएँ लाने की बात करता है।

2. भवानीदत्तः – भवतु। अलं नाटकेन। गच्छ, सिन्धुमानय तावत्। निषेधं नाटयेच्चेत् कर्णग्राहमानय।

हरणः – (भयभीतस्सन्) स्वामिन्! किं भर्तृदारकेण किञ्चिदपराद्धम्? इदानी-मेव क्रीडित्वा सोऽपि समागतः । स्वामिन्याः पार्श्वे भविष्यति।

भवानीदत्तः – (कठोरस्वरेण) हरण! कियद्वारं निर्दिष्टोऽसि यत् प्रवचनं न कार्यम् । यदुच्यते तदेव शृणु! किमवगतम् ?

शब्दार्थ भवतु = अच्छा। निषेधं = मना करे। कर्णग्राहमानय (कर्णग्राहम् + आनय) = कान पकड़कर लाओ। भर्तृदारकेण = स्वामी के बच्चे ने (आपके बेटे ने)। अपराद्धम् = अपराध किया है। प्रवचनं = प्रवचन (समझाने या उपदेश देने के लहजे में बोलना)। अवगतम् = समझा, जाना।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस नाट्यांश में भवानीदत्त हरण को अपने पुत्र सिन्धु को लाने के लिए कहता है।

सरलार्थ भवानीदत्त-अच्छा! यह नाटक करना बन्द करो, जाओ तो सिन्धु को लेकर आओ! यदि वह आने से मना करे तो (न आने का नाटक करे) कान पकड़कर ले आओ। हरण-(भयभीत होते हुए) हे स्वामी! क्या स्वामी के बेटे ने कोई अपराध किया है? अभी ही खेलकर वह भी आया है। स्वामिनी के पास होगा। शाश्वती (प्रथमो भागः)

भवानीदत्त-(कठोर स्वर से) हरण! (तुझे) कितनी बार निर्देश दिया है कि प्रवचन नहीं करना चाहिए। जो कुछ कहा जाए उसे ही सुनो! क्या समझा?

भावार्थ भाव यह है कि भवानीदत्त अपने नौकरों के स्वभाव को जानते हैं अतः उसे डाँटकर कहते हैं कि तुम्हें जितनी बात कही जाए वही करो। प्रवचन देने की कोशिश मत करो।

3. हरणः – (सनैराश्यम्)
युक्तमेतत् स्वामिन् ! एष गच्छामि। (हरणो गच्छति। रामदत्तोऽपि तमनुसरति। कतिपयनिमेषानन्तरं द्वावपि भृत्यौ भवानीदत्तस्य पुस्तकालयमागच्छतः। पश्चाच्चाधिवक्तुः पत्नी रत्नापि दारकेण सार्धमायाति)

रत्ना – किं वृत्तम् ? अद्यागतप्राय एव वात्याचक्रमुत्थापयसि? कस्मिंश्चिद् वादे पराजितोऽसि किम्?

शब्दार्थ-सनैराश्यम् = निराशा से युक्त। निमेषानन्तरम् = क्षणों के बाद । अधिवक्तुः = वकील की। दारकेण सार्धम् = पुत्र के साथ। आयाति = आती है। वृत्तम् = बात। वात्याचक्रमुत्थापयसि (वात्याचक्रम् + उत्थापयसि) = तूफान उठा रहे हो। वादे = वाद (जिरह) में। पराजितः = हार गए (हो)। किम् = क्या।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस नाट्यांश में हरण, रामदत्त तथा पुत्र सहित रत्ना के पुस्तकालय में जाने के प्रसंग का वर्णन है।

सरलार्थ-हरण-(निराशा से युक्त होकर) मालिक! यह ठीक है अर्थात् आपने ठीक कहा! यह (मैं) जा रहा हूँ। (हरण जाता है। रामदत्त भी उसका अनुसरण करता है। कुछ क्षणों के बाद दोनों ही नौकर भवानीदत्त के पुस्तकालय में आते हैं और बाद में वकील की पत्नी रत्ना भी पुत्र के साथ आती है।) रत्नाक्या बात है? आज आते ही तूफान उठा रहे हो? क्या किसी जिरह में हार गए हो क्या? भावार्थ भाव यह है कि भवानीदत्त के आदेश पर उनकी पत्नी उन पर दबाव डालते हुए पूछती है कि आप गुस्से में क्यों हैं?

HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Chapter 10 कन्थामाणिक्यम्

4. भवानीदत्तः – बाढमू। गृहेश्वरि! पराजितोडस्मि तव न्यायालये। (हरणरामदत्तौ मुखे करप्रोज्छर्नीं विन्यस्याऽट्टहासं रोद्धं प्रयतेते)

भवानीदत्तः – (सेवकौ प्रति) भो युवां तत्र किमुपजपथः? पलायेथां ततः । (भृत्यौ हसन्तौ गृहाभ्यन्तरं पलायेते)

रत्ना – (सस्मितमू) अवितथं भण, किं वृत्तमू? मनःस्थितिः कथमद्य संस्खलति?

भवानीदत्तः (प्रक्षालनद्रोण्यां मुखं प्रक्षाल्य, प्रच्छदेन च हस्तं मुखं मार्जयनू) भणामि, भणामि। सिन्धो! इतस्तावत्।

सिन्धु: – (सभयं कातरदृष्ट्या जनर्नीं पश्यनु) अम्ब!

शब्दार्थ-बाढम् = ठीक है, जी हाँ। गृहेश्वरि = घर की स्वामिनी। करप्रोञ्छनी = तौलिए को (हाथ पोंछने के वस्त्र को)। विन्यस्य = रखकर। उपजपथः = कानाफूसी कर रहे हो। पलायेथाम् = तुम दोनों भागो। अवितथं भण = सच बताओ। संस्खलति = स्खलित हो रही है। प्रक्षालनद्रोण्यां = मुँह धोने के लिए पात्र, परात, तसला आदि। अम्ब = हे माँ।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस नाट्यांश में बताया गया है कि भवानीदत्त अपने पुत्र सिन्धु को समझाना चाहते हैं। सरलार्थ भवानीदत्त-ठीक है। जी हाँ, घर की स्वामिनी! (मैं) तेरी कचहरी में हार गया हूँ।
(हरण और रामदत्त दोनों मुख पर तौलिया (हाथ पोंछने का वस्त्र) रखकर हँसी को रोकने का प्रयत्न करते हैं)।

भवानीदत्त-(सेवकों के प्रति) अरे! तुम दोनों वहाँ क्या कानाफूसी कर रहे हो। वहाँ से भागो। (दोनों नौकर हँसते हुए घर के अन्दर भाग जाते हैं)।

रत्ना-(मुस्कराहट के साथ) सच बोलो, क्या बात है? आज मन की स्थिति कैसे डगमगा रही है? भवानीदत्त-(मुँह धोने की परात में मुँह धोकर और तौलिए से हाथ मुँह पोंछते हुए) बताता हूँ, बताता हूँ। सिन्धु! इधर आना तो। सिन्धु (डर से युक्त कातर दृष्टि से माँ को देखते हुए) माँ!

भावार्थ भाव यह है कि पत्नी के समान ही भवानीदत्त भी हाजिर जबाव हैं। जब वे पत्नी की अदालत में अपनी हार स्वीकार करते हैं तो दोनों नौकर हँसने लगते हैं। नौकरों को वहाँ से हटाकर वे अपने पुत्र को कुछ समझाना चाहते हैं।

5. भवानीदत्तः – (कठोरदृष्ट्रया पश्यनु) सिन्धो! इतस्तावत । तात आह्लयति नाम्बा। आगच्छ।

रत्ना: – (दारकं लालयन्ती सविस्मयमू) भो किं कृतवानु सिन्धुः! कथमेबं व्यवहरसि, समागच्छन्नेव अंग्निं वर्षयसि? अहमपि तावदाकर्णयानि।

भवानीदत्तः – देवि! तदेव वच्चि यत्तव सिन्धुना समाचरितमू । कथं भोः, असभ्यानां वसतौ किमर्थं गतवानसि?

सिन्धु: – (सभयम) तात! मम सखा सोमधरस्तत्र निवसति। ततः स्वपुस्तकं ग्रहीतुं गतोडस्मि।

भबानीदत्तः – किं करोति तस्य पिता?

सिन्धुः – तस्य पिता चतुश्चक्रे शकटे निधाय शाकान् फलानि च विक्रीणीते।

भवानीदत्तः – तव पिता च किं करोति?

सिन्धुः – स तु उच्चन्यायालयेऽधिवक्ताइस्ति।

शब्दार्थ कठोरदृष्ट्या = कड़ी निगाह से। लालयन्ती = दुलारती हुई। वच्मि = बोलता हूँ। समाचरितम् = किया है। वसतौ = बस्ती में । ग्रहीतुम् = लेने के लिए। चतुश्चक्रे = चौराहे पर। शकटे = रेहड़ी पर। निधाय = रखकर। विक्रीणीते = बेचता है। उच्चन्यायालये = हाईकोर्ट में। अधिवक्ताऽस्ति (अधिवक्ता + अस्ति) = वकील हैं।

प्रसंग प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ । मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस नाट्यांश में सिन्धु एवं सोमधर की मित्रता के विषय में बताया गया है। सरलार्थ भवानीदत्त-(कड़ी निगाह से देखते हुए) सिन्धु! इधर तो आओ पिता बुला रहा है न कि माता। आओ। रत्ना-(बेटे को दुलारती हुई आश्चर्य के साथ) अरे सिन्धु ने क्या कर दिया! क्यों इस प्रकार व्यवहार कर रहे हो, आते ही आग बरसा रहे हो? मैं भी तो सुनें। भवानीदत्त देवी जी! वही बोलता हूँ जो तुम्हारे सिन्धु ने किया है। अरे! असभ्यों की बस्ती में किसलिए गया था?

सिन्धु–(भय के साथ) पिताजी! वहाँ मेरा मित्र सोमधर रहता है। वहाँ से अपनी पुस्तक लेने के लिए गया था। भवानीदत्त-उसका पिता क्या करता है? सिन्धु-उसका पिता चौराहे में रेहड़ी पर सब्जियाँ और फल रखकर बेचता है। भवानीदत्त और तुम्हारा पिता क्या करता है? सिन्धु-वे तो हाई कोर्ट में वकील हैं।

भावार्थ-पिता की कठोरता और माता का वात्सल्य एवं गरीब तथा अमीर में भेद का वर्णन ही इस नाट्यांश का भावार्थ है।

6. भवानीदत्तः – कीदृशं तव भवनम् ?

सिन्धुः – अतिसुन्दरं विशालं मार्जितं च मम भवनम्।

भवानीदत्तः सोमधरस्य च कीदृशम्?

सिन्धुः – (हतप्रभः सन्?) तस्य गृहं नातिदीर्घम् । अस्वच्छवीथिकायाञ्च स्थितम् । न मार्जितं न चाप्यलंकृतम्।

भवानीदत्तः – (सक्रोधम) मूर्ख! तस्य गृहमपि नातिदीर्घम् । अस्वच्छवीथिकायां स्थितम् ! तस्य पिताऽपि शाकफलविक्रेता, न तव तात इव शिक्षितः। एवम्भूतेऽपि किमर्थं तत्राऽगमस्त्वम् ?

सिन्धुः – (सदैन्यम्) तात! सोमधरः मम सुहृदस्ति। स पठनेऽपि तीक्ष्णः । मय्यतितरां स्निहयत्यसौ। तस्मादावयोः प्रगाढा मित्रता। स गणिते मम साहाय्यं करोति।

भवानीदत्तः – भोः पृच्छाम्यहं यत्तेन सह त्वया सख्यमेव कस्मात्कृतम्। तस्मै स्वपुस्तकं कस्माद् दत्तम् ? किमुच्चकुलोत्प-त्राछात्राः कक्षायां न सन्ति?

शब्दार्थ-भवनम् = मकान। मार्जितं = साफ-सुथरा । अस्वच्छवीथिकायाम् = गन्दी गली में। चाप्यलंकृतम् (च + अपि + अलंकृतम्) = और भी अलङ्कृत/सजा-सँवरा। तत्राऽगमस्त्वम् (तत्र + आगमः + त्वम्) = तू वहाँ गया। सख्यमेव (सख्यम् + एव) = मित्रता ही। उच्चकुलोत्पन्ना = ऊँचे वंश में पैदा हुए।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस नाट्यांश में भवानीदत्त ने सिन्धु से सोमधर के साथ मित्रता का कारण पूछा है क्योंकि अमीर-गरीब में प्रायः मित्रता नहीं होती।

सरलार्थ भवानीदत्त तुम्हारा मकान कैसा है? सिन्धु-बहुत सुन्दर और विशाल तथा साफ-सुथरा है मेरा मकान। भवानीदत्त और सोमधर का कैसा है? सिन्धु-(हतप्रभ होते हुए) उसका घर बहुत बड़ा नहीं है तथा गन्दी गली में स्थित है। न साफ-सुथरा है और न ही सजा-सँवरा। भवानीदत्त-(क्रोध के साथ) मूर्ख! उसका घर भी बहुत बड़ा नहीं। गन्दी गली में स्थित है। उसका बाप भी सब्जी और फल बेचने वाला है। तुम्हारे पिता की तरह पढ़ा-लिखा नहीं। ऐसा होने पर भी तू किसलिए वहाँ गया?

सिन्धु–(दीनता के साथ) पिता जी! सोमधर मेरा मित्र है। वह पढ़ने में भी तेज है। वह मुझसे बहुत अधिक स्नेह करता है। इसलिए हम दोनों की गहरी दोस्ती है। वह गणित में मेरी मदद करता है। भवानीदत्त-अरे! मैं पूछता हूँ कि उसके साथ तूने मित्रता किसलिए की! उसको अपनी पुस्तक किसलिए दी? क्या ऊँचे वंश में उत्पन्न छात्र कक्षा में नहीं हैं?

भावार्थ भवानीदत्त ने सिन्धु को अमीर-गरीब में अन्तर बताना चाहा है?

7. सिन्धु: – (निरुत्तरस्सनू) तात! सोमधरो मयि स्निहूयति। स मह्यमपि रोचते। अन्ये छात्रास्तु दुष्टाः। ममाध्यापिका सोमधरं कक्षायाः मान्यतरं (मानीटर) कृतवती।

भवानीदत्तः – (सोद्वेगमू) त्वं कथं न मान्यतरः कृतः ? फलशाकविक्रेतुर्दारकः कथं त्वामतिशेते? (सिन्धोः कर्णं किज्चित्कुज्जीकुर्वन) पश्य, इतोड्रे तस्यामसभ्यवसतौ न गमिष्यसि। अतः परं शिक्षको भवन्तं गणितमध्यापयिष्यति। अवगतं न वा? सोमधरेण साकं मैत्रीवर्धनस्य न काप्यावश्यकता। (सिन्धुरस्फुटं रुदन् गृहाभ्यन्तरं प्रविशति)।

शब्दार्थ-निरुत्तरस्सन् = निरुतर होते हुए। मह्यमपि (मह्यम् + अपि) = मुझे भी। सोद्धगम् = व्याकुलता के साथ। विक्रेतुर्दारकः (विक्रेतुः + दारकः) = बेचने वाले का बेटा। त्वामतिशेते (त्वाम् + अतिशेते) = तुमसे बढ़कर। कुब्जीकुर्वन् = मरोड़ते हुए। साकं = साथ।

प्रसंग प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस नाट्यांश में भवानीदत्त ने सिन्धु को सोमधर से दोस्ती न करने का आदेश दिया है।

सरलार्थ-सिन्धु-(निरुत्तर होते हुए) पिताजी! सोमधर मुझ पर स्नेह बरसाता है। वह मुझे अच्छा भी लगता है। अन्य छात्र तो दुष्ट हैं! मेरी अध्यापिका ने सोमधर को कक्षा का मानीटर बनाया है।

भवानीदत्त-(व्याकुलता के साथ) तुझे मानीटर क्यों नहीं बनाया? फल और सब्जी बेचने वाले का बेटा कैसे तुमसे बढ़कर है? (सिन्धु के कान मरोड़ते हुए) देख, आज के बाद उस असभ्य बस्ती में तू नहीं जाएगा। इसके बाद (आज के बाद) शिक्षक तुम्हें गणित पढ़ाएगा। समझे या नहीं? सोमधर के साथ दोस्ती बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं। (सिन्धु अस्फुट रूप से रोते हुए घर के अन्दर प्रविष्ट होता है।)

भावार्थ भाव यह है कि भवानीदत्त ने सोमधर के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हुए अपने बेटे को प्रताड़ित किया है।

8. रत्ना (सरोषम्)
साधु साधु! विलक्षणं पितृहृदयमवाप्तम् । कोमलहृदयं बालकं विद्वेषभावं शिक्षयति भवान् ? अये, यो गुणवान् स एव सभ्यः स एव धनिकः, स एव आदरणीयः। तस्य गुणवतः पिता यदि शाकफलानि विक्रीय कुटुम्ब पालयति, तर्हि किमत्र पापम् ? स्वसंकीर्णदृष्टिमपलपितुं वराकस्य दारकस्य कर्णमेव भञ्जयितुं प्रवृत्तोऽसि। (दुर्मनायमाना गृहाभ्यन्तरं प्रविशति) ॥ जवनिकापातः ॥

शब्दार्थ-सरोषम् = क्रोध के साथ। विलक्षणम् = अजीब, विचित्र । संकीर्णदृष्टिं = संकीर्ण विचारधारा। अपलपितुं = कहने के लिए। वराकस्य = बेचारे का। भञ्जयितुम् = तोड़ने के लिए। दुर्मनायमाना = खिन्न मन वाली। जवनिकापातः = पर्दे का गिरना।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस नाट्यांश में बताया गया है कि रत्ना भवानीदत्त के इस व्यवहार से खिन्न हो जाती है।

सरलार्थ-रत्ना – (क्रोध के साथ) शाबाश! शाबाश! अजीब पिता का दिल पाया है। कोमल हृदय वाले बालक को आप द्वेष-भावना सिखा रहे हैं। अरे! जो गुणी है वही सभ्य है, वही धनी है, वही आदर के योग्य है। उस गुणी का पिता यदि सब्जी और फल बेचकर कुटुम्ब पालता है, तो इसमें क्या पाप है? अपनी संकुचित विचारधारा को दिखाने के लिए बेचारे बच्चे के कान को ही तोड़ने के लिए प्रवृत्त हो गए हो।
(खिन्न मन वाली होती हुई घर के अन्दर प्रविष्ट होती है)
पर्दा गिरता है

भावार्थ भाव यह है कि रत्ना की विचारधारा भवानीदत्त से बिल्कुल विपरीत है। वह गुणी को महत्त्व देकर उसे ही सभ्य, धनी एवं आदर के योग्य समझती है।

॥ द्वितीयं दृश्यम् ॥
9. सन्ध्याकालस्य चतुर्वादनवेला अधिवक्ता भवानीदत्तः स्वपुस्तकालये निषण्णो दूरभाषयन्त्रं बहुशः प्रवर्तयति। भार्या रत्नापि पाश्र्वस्थामासन्दीमुपविश्य चिन्तां नाटयति।

भवानीदत्तः – (यन्त्रमुपयोजयन्म) भो: किमिदं भरद्वाजविद्यानिकेतनम् ? का नु खलु भवती ब्रवीति? (श्रुतिं नाटयनु) प्राचार्या? शोभनं शोभनम्। अयमहं भवानीदत्तो ब्रवीमि। नमस्करोमि तावत्। श्रूयतां तावत्। चतुर्वादनं जातम्। परन्तु मम दारकस्सिन्धुः इदार्नी यावद्र गृहं नोपावृत्तः। किं विद्यालयेड्य कश्चिन्महोत्सवो वर्तते? (श्रुतिमभिनीय) किमुक्तमू? सपादत्रिवादन एवावकाशो जातः। सर्वेऽपि छात्राः गताः! बाढमू । पश्यामि।

रत्ना – (ससम्भ्रमम् !) किमुक्तवती प्राचार्या? त्रिवादनेगवकाशो जातः ? भो मम हृदयं कम्पते। सिन्धुः क्व वर्तते? भवानू त्वरितमेव स्कूटरयानेन गच्छतु। पश्यतु तावन्मध्येमार्ग विद्यालयवाहनं क्व वर्तते? हे परमेश्वर! रक्ष मम दारकमू! (इति रोदिति)

शब्दार्थ-चतुर्वादनवेला = चार बजे का समय। निषण्णः = बैठा हुआ। प्रवर्तयति = घुमाता है। आसन्दीम् = कुर्सी पर । यन्त्रमुपयोजयन् (यन्त्रम् + उपयोजयन्) = यन्त्र का उपयोग करते हुए। ब्रवीति = बोल रही हैं। श्रुतिं = सुने हुए को। नोपावृत्तः (न + उपावृत्तः) = न ही लौटा है। त्वरितमेव (त्वरितं + एव) = शीघ्र ही।

प्रसंग प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस नाट्यांश में बताया गया है चार बजे तक सिन्धु घर नहीं आया है इसलिए उसके माता-पिता चिन्तित हैं। शाश्वती (प्रथमो भागः)

सरलार्थ (दूसरा दृश्य) शाम के चार बजे का समय वकील भवानीदत्त अपने पुस्तकालय में बैठे टेलीफोन को बार-बार घुमाते हैं। पत्नी रत्ना भी समीप कुर्सी पर बैठकर चिन्ता कर रही है। (चिन्ता का अभिनय कर रही है)

भवानीदत्त-(दूरभाष यन्त्र का उपयोग करते हुए या टेलीफोन करते हुए) अरे! क्या यह भारद्वाज विद्यानिकेतन है? निश्चय से आप कौन बोल रही हैं? (टेलीफोन की आवाज़ का अभिनय करते हुए।) प्राचार्या जी अच्छा, अच्छा। यह मैं भवानीदत्त बोल रहा हूँ। तो नमस्कार करता हूँ। तो सुनिए चार बज गए हैं। लेकिन मेरा बेटा सिन्धु अभी तक घर नहीं लौटा है। क्या विद्यालय में आज कोई बड़ा उत्सव है? (आवाज़ का अभिनय करके) क्या कहा? सवा तीन बजे अवकाश हो गया था। सभी छात्र चले गए हैं। जी हाँ! देखता हूँ।

रत्ना-(घबराहट के साथ) प्राचार्या ने क्या कहा? तीन बजे अवकाश हो गया था। अरे! मेरा हृदय काँप रहा है। सिन्धु कहाँ है? आप शीघ्र ही स्कूटर यान से जाएँ। देखें तो बीच रास्ते में विद्यालय का वाहन कहाँ है? हे परमेश्वर! मेरे बच्चे की रक्षा करो! यह (कहकर) रोती है।

भावार्थ भाव यह है कि भवानीदत्त को पता चलता है कि विद्यालय में तीन बजे छुट्टी हो गई थी, परन्तु सिन्धु जब चार बजे तक भी घर नहीं आया, तो रत्ना चिन्तित होकर पति को अपने पुत्र सिन्धु का पता लगाने के लिए भेजती है।

10. भवानीदत्तः – (सान्त्वयनू }) गच्छामि, गच्छामि। त्वं पुनः शिशुरिव धैर्यहीना जायसे। कस्मान्मनसि अमझ्नलमेव चिन्तयसि?

रत्ना – भवान्न जानाति राजपथवृत्तम्। मद्यपा वाहनचालका झइ्झावेगेन यानं चालयन्ति। कोडपि प्रियेत वा जीवेद्वा। तेषां हतकानां किं जायते? एतत्सर्वं स्मारं स्मारं निमज्जतीव मम हृदयम्।

भवानीदत्तः – भवतु। शान्ता भव। त्वरितमागच्छामि। (इति प्रस्थामुपक्रमते। अंस्मादेव रिक्शायानमेकं भवनप्राज्ञणं प्रविशति। कश्चिद्बालकः सिन्धुमङ्के निर्धाय रिक्शायाने तिष्ठन्नास्ते)

भवानीदत्तः – (सत्वरमुपसृत्य) अये किमिदम्? (सिन्धुं विलोक्य) वत्स! सोमधरस्तमेवासि?

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। य मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस नाट्यांश में बताया गया है कि भवानीदत्त सिन्धु को ढूँढ़ने के लिए घर से निकलते हैं तभी उनके दरवाजे पर एक रिक्शा आता है।

सरलार्थ भवानीदत्त-(दिलासा देते हुए) जाता हूँ, जाता हूँ। तुम फिर बच्चे की तरह अधीर हो रही हो। किसलिए अपने मन में अमांगलिक बातें सोच रही हो! रत्ना-आप नहीं जानते सड़क का हाल। शराबी वाहनचालक तूफानी गति से वाहन चलाते हैं। कोई मरे या फिर जिए। उन दुष्टों का क्या जाता है। यह सब याद करके मेरा दिल डूबा जा रहा है।

भवानीदत्त-अच्छा शान्त हो जा। जल्दी जाता हूँ। (इतना कहकर) प्रस्थान करने का उपक्रम करता है। अचानक ही एक रिक्शा मकान के आँगन में प्रविष्ट होता है। कोई बालक सिन्धु को गोद में बिठाकर रिक्शा में ठहरा हुआ है। भवानीदत्त-(शीघ्र पास जाकर) अरे! यह क्या? (सिन्धु को देखकर) बेटा! सोमधर तुम ही हो?

भावार्थ भाव यह है कि भवानीदत्त जैसे ही सिन्धु को खोजने के लिए पत्नी को सान्त्वना देकर जाने लगता है कि सिन्धु को गोद में लेकर सोमधर रिक्शायान से वहाँ पहुँच जाता है।

11. सोमधरः – (सविनयमू) पितृय्य! अहमेवास्मि सोमधरः सिन्धोर्मित्रमू। सिन्धोर्विधालयवाहनमय केनचित् ट्रकयानेन दृढमाहतम् । ट्रकचालकस्त्वपक्रान्तः। सर्वेडपि बालकाः क्षतविक्षता जाताः।

भवानीदत्तः – वत्स! त्वं पुनः कुत्राइसीः ?

सोमधरः – पितृव्य! अहं पुनः प्रतिदिनमिव अद्यापि पदातिरेवागच्छत्रासमू । दुर्घटनामनु पञ्चनिमेषानन्तरमेव तत्रासादितवानू । महानू जनसम्मर्दस्तत्राडसीत्। सिन्धुं प्रत्यभिज्ञाय, अहं पुनस्तद् रिक्शायानमधिरोप्य त्वरितं प्रचलितः। पितृव्य! नात्याहित किमपि । सिन्धुः केवलं मूच्छामुपगतः। (वार्तालापं श्रुत्वा भृत्यौ रत्ना च बहिरायान्ति। रत्ना सिन्धुं निस्संज्ञं दृष्ट्र्वा भृंशं रोदिति)

शब्दार्थ-पितृव्य = चाचा जी। दृढमाहतम् (दृढम् + आहतम्) = जोर से टकराना। अपक्रान्तः = भाग गया। क्षतविक्षताः = घायल। पदातिरेव (पदातिः + एव) = पैदल ही। अनु = पीछे। आसादितवान् = पहुँचा। जनसम्मदः = लोगों की भीड़। प्रत्यभिज्ञाय = पहचानकर। अधिरोप्य = बिठाकर। नात्याहितं (न + अति + आहित) = ज्यादा चोट नहीं आई। निःसंज्ञः = बेहोश।

प्रसंग प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप.से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस नाट्यांश में सोमधर ने सिन्धु के घायल होने की घटना का वर्णन किया है।

सरलार्थ-सोमधर-(विनयपूर्वक) चाचा जी! मैं ही हूँ सोमधर सिन्धु का मित्र। सिन्धु के विद्यालय का वाहन आज किसी ट्रक से ज़ोर से टकरा गया। ट्रक चालक तो भाग गया। सभी बालक क्षत-विक्षत (घायल) हो गए। भवानीदत्त-बेटा! तू फिर कहाँ था?

सोमधर-चाचा जी! मैं तो प्रतिदिन की तरह आज भी पैदल ही आ रहा था। दुर्घटना के बाद पाँच मिनट के अन्दर ही वहाँ पहुँच गया। वहाँ लोगों की भारी भीड़ थी। सिन्धु को पहचानकर, मैं उसे तो रिक्शा में बिठाकर शीघ्र ही चल पड़ा। चाचा जी! कोई बड़ी चोट नहीं है। सिन्धु केवल बेहोश हो गया था। (बातचीत सुनकर दोनों नौकर और रत्ना बाहर आते हैं। रत्ना सिन्धु को बेहोश – देखकर जोर से रोने लगती है।)

भावार्थ भाव यह है कि सोमधर ने एक सच्चे मित्र के समान सिन्धु की सहायता की। बेहोश बेटे को देखकर उसकी माँ रत्ना रो पड़ती है।

12. सोमधरः – अम्ब! अलं चेतनां खलीकृत्य। डॉक्टरधूलियामहोदय-मानयामीदानीमेव। प्रतिवेश एव भिवसत्यसौ।

भवानीदत्तः – वत्स सोमधर! मा गाः कुत्रापि त्वमू । मातृसमीपमेव तिष्ठ। अहं दूरभाषयंत्रेणैव भिष्जमाहृवयामि। (मध्य एव सिन्दुश्चेतनामनुभवति। सोगम्बामाह्नयति)

सोमधरः – (सहर्षम) पितृव्यचरण! अलं भिषगाहूवानेन। सिन्धुश्चैतन्यमागतः। (भवानीदत्तः दारकसमीपं गच्छति। रत्नानेत्रे आनन्दाश्रुपूरिते जायेते)

सिन्धु: – (अम्बां तातं सोमधरख्व दृष्ट्रवा) अम्ब! कथमहं गृहमागतः? मम वाहनन्तु ट्रकयानेन दृढमाहतमासीत्। वयं सर्वेडि तारस्वरेणाक्रोशाम। वाहनमस्माकं विपर्यस्तमासीत्।

रत्ना: – (दारकं प्रचुम्बन्ती)

शब्दार्थ-अम्ब = माता जी। प्रतिवेशे = पड़ोस में। मा गाः = मत जाओ। भिषजं = वैद्य को। तारस्वरेणाक्रोशाम = ऊँची . . आवाज़ से। आक्रोशाम = चिल्लाए। विपर्यस्तम् = उलट गया। प्रचुम्बन्ती = चूमती हुई।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस नाट्यांश में बताया गया है कि जैसे ही डॉक्टर को बुलाने की बात चलती है वैसे ही सिन्धु को होश आ – जाता है।

सरलार्थ-सोमधर-माता जी! बेहोशी के बारे में मत सोचिए। मैं अभी ही डॉक्टर धुलिया महोदय को ले आता हूँ। वह पड़ोस में ही रहता है।
भवानीदत्त-बेटा सोमधर! तूं कहीं भी मत जा। माता जी के पास ही ठहर। मैं टेलीफोन द्वारा वैद्य को बुलाता हूँ। बीच में ही सिन्धु होश का अनुभव करता है। वह ‘माँ’ को बुलाता है।

सोमधर-(हर्ष के साथ) चाचा जी! वैद्य जी को बुलाने की आवश्यकता नहीं है। सिन्धु होश में आ गया है। (भवानीदत्त बेटे के पास जाता है। रत्ना की आँखें आनन्द के आँसुओं से भर जाती हैं।)

सिन्धु–(माँ, पिता और सोमधर को देखकर) माँ! मैं घरं कैसे आ गया? मेरा वाहन तो ट्रक से ज़ोर से टकरा गया था। हम सभी ऊँची आवाज़ में चिल्लाए-चीखे। हमारा वाहन उलट गया था। रत्ना-(बेटे को चूमती हुई)।

भावार्थ भाव यह है कि सिन्धु को बेहोशी की हालत में सोमधर घर लेकर आया था। जब उसे होश आता है तो वह हैरान हो जाता है कि मैं कैसे दुर्घटना वाली जगह से यहाँ आ गया। सिन्धु के परिवार के सभी सदस्य उसके होश में आने पर प्रसन्न हो । जाते हैं।

13. एवमेतात् वत्स! विपर्यस्तं तव वाहनम्। सोमधर-स्त्वामानीतवान् रिक्शायानेन।
सिन्धुः – (सप्रणयम्) सोमू? (अकस्मादेव पितरमुपस्थितं दृष्ट्वा सिन्धुः शिथिलीभवति । भवानीदत्तोऽग्रेसरीभूय सोमधरशीर्षे करतलं सारयति। सिन्धुदृष्टिीप्तिमुपगच्छति)

सोमधरः (सस्नेहम्) सिन्धो! अलं भयेन । सर्वथानाहतोऽसि प्रभुकृपया! श्व आवां पुनर्विद्यालयं गमिष्यावः । भवतु, पितृव्य! गच्छामि इदानीम् । नमस्ते। अम्ब! नमस्ते!!

भवानीदत्तः – (समादिशनिव) वत्स सोमधर! मित्रगृहान्नैवं गन्तव्यम् । तिष्ठ तावत् । क्यं सर्वेऽपि सहैवाल्पाहारं निवर्तयिष्यामः। सपीत्यनन्तरं गच्छसि।

शब्दार्थ शिथिली = ढीला पड़ जाना। अग्रेसरी = आगे होकर। करतलं = हथेली। सारयति = फेरता है। सर्वथानाहतोऽसि (सर्वथा + अनाहतः + असि) = पूरी तरह से चोट से रहित हो। सहैवाल्पाहारं (सह + एव + अल्पाहार) = साथ ही नाश्ता। निर्वर्तयिष्यामः = लेकर निवृत्त होंगे।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश-इस नाट्यांश में बताया गया है कि इस घटना के बाद भवानीदत्त के स्वभाव में परिवर्तन आ जाता है। सरलार्थ-रत्ना-बेटा! यह ऐसा ही है। तुम्हारा वाहन उलट गया था। सोमधर तुम्हें रिक्शा से लेकर आया है। सिन्धु-(प्रेम सहित) सोमू? (अचानक पिता जी को उपस्थित देखकर सिन्धु ढीला पड़ जाता है)। भवानीदत्त आगे, होकर सोमधर के सिर पर हथेली फेरते हैं। सिन्धु की दृष्टि में चमक आ जाती है।)

सोमधर-(स्नेह के साथ) सिन्धु! डरो मत। तुम प्रभु की कृपा से बिल्कुल ठीक हो अर्थात् तुम्हें चोट नहीं लगी है। कल हम दोनों फिर विद्यालय जाएँगे। अच्छा चाचा जी! अब (मैं) जाता हूँ! नमस्कार माता जी! नमस्ते!

भवानीदत्त (आदेश-सा देते हुए) बेटा सोमधर! मित्र के घर से ऐसे ही नहीं जाना चाहिए। तो ठहरो। हम सभी साथ ही नाश्ता लेकर निवृत्त होंगे। इसके बाद ही तुम जाओगे।

भावार्थ भाव यह है कि इस घटना से भवानीदत्त की आँखें खुल गईं। जो अमीर एवं गरीब, साफ-सुथरी बस्ती एवं गंदी बस्ती में फर्क समझते थे, वे ही अब गंदी बस्ती में रहने वाले निर्धन के बेटे सोमधर से प्यार करने लगे हैं।

14. सोमधरः – पितृव्यचरण! स्वपितुः शाकशकट्याः सज्जा मयैव करणीया वर्तते। स मां प्रतीक्षमाणो भविष्यति।

भवानीदत्तः – (हतप्रभः सन्) वत्स सोमधर! सत्यमेवासि त्वं कन्थामाणिक्यम्। सिन्धुस्त्वामतितरां प्रशंसति। इतः प्रभृति तव शिक्षणव्यवस्थामहं सम्पादयिष्यामि। (भृत्यौ अल्पाहारमानयतः। सर्वेऽपि निषीदन्त्यशितुम्) बाढम् । सोमधर! श्व एवाहं युवयोः कृते विचक्रिके ऋष्यामि। युवां द्वावपि सावधानं प्रवर्तयतम्। सहैवा-गच्छतं सहैवा गच्छतम् । वत्स! शुल्कमपि ददासि?

सोमधरः – न खलु । शुल्कस्तु मुक्तः। निर्धनच्छात्रनिधितः पञ्चविंशतिरूप्यकाणि प्रतिमासं प्राप्यन्ते।

भवानीदत्तः – शोभनम् । वत्स! तथापि यदि धनमपेक्ष्यते तर्हि मां भणिष्यसि। (रत्नां पतिं सगर्वं पश्यति)

शब्दार्थ-शाकशकट्याः = सब्जी वाली रेहड़ी की। सज्जा = तैयारी। मयैव (मया + एव) = मुझे ही। कन्थामाणिक्यम् = गुदड़ी के लाल। अतितरां = बहुत अधिक। निषीदन्त्यशितुम् (निषीदन्ति + अशितुम्) = बैठते हैं, खाने के लिए। द्विचक्रिके = दो साइकिलें। अपेक्ष्यते = अपेक्षित हो। सगर्वं = गर्व के साथ।

प्रसंग-प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ – मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस नाट्यांश में भवानीदत्त सोमधर की प्रशंसा करते हुए उसकी पढ़ाई-लिखाई का खर्च स्वयं उठाने के लिए तैयार हो जाते हैं, इस बात का वर्णन है।

सरलार्थ-सोमधर-चाचा जी! अपने पिता की सब्जी वाली रेहड़ी की तैयारी मुझे ही करनी होती है। वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।

भवानीदत्त-(हतप्रभ से होते हुए) बेटा सोमधर! तुम सच ही ‘गुदड़ी के लाल’ हो। सिन्धु तुम्हारी बहुत अधिक प्रशंसा करता है। अब से तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई का प्रबन्ध मैं संपन्न करूँगा। दोनों नौकर नाश्ता लाते हैं। सभी खाने के लिए बैठ जाते हैं। हाँ सोमधर! कल ही मैं तुम दोनों के लिए दो साइकिलें खरीदूंगा। तुम दोनों ही सावधान रहना। एक-साथ ही जाना, साथ ही आना! बेटा! फीस भी देते हो? सोमधर-निश्चय से नहीं। फीस में तो छूट है (फीस माफ है)। निर्धन छात्रों के कोष से हर महीने पच्चीस रुपये प्राप्त हो जाते हैं।

भवानीदत्त अच्छा है। बेटा! फिर भी यदि धन की आवश्यकता हो तो मुझसे कहना। (रत्ना पति को गर्व के साथ देखती है।)

भावार्थ भाव यह है कि सोमधर द्वारा किए गए इस उपकार से एवं अपने पिता के कार्य में सहायता करने से भवानीदत्त इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि निश्चय ही वह गुदड़ी का लाल है। इसलिए वे उसकी हर दृष्टि से सहायता करने के लिए तैयार हो जाते हैं।

HBSE 11th Class Sanskrit Solutions Chapter 10 कन्थामाणिक्यम्

15. सोमधरः – (चायपेयं परिसमाप्य समुत्तिष्ठन्) पितृव्यचरण! गच्छामि तावत्। नमस्ते। (रत्नां प्रति) अम्ब! प्रणमामि। (सिन्धुं लालयन) मित्र सिन्धो! श्वो मिलिष्यावः।

भवानीदत्तः – (सहर्ष रत्नां प्रति)
रत्ने! उद्घाटितं त्वयाऽद्य मम नेत्रयुगलम्। सत्यमेव सम्प्रति सिन्ध्वभिरुचिं प्रशंसामि। सोमधरस्तु कन्थामाणिक्यमेव वर्तते। इदानीमनुभूतम्मया यद्गुणवन्त एव सभ्याः धनिकाः सम्माननीयाश्च । न मे द्वेषस्सम्प्रति ग्राम्यवसतिं प्रति। पङ्केऽपि कमलं विकसति। रत्ने! अद्यप्रभृत्यहं त्वन्नेत्राभ्यां संसारं द्रक्ष्यामि। ॥ शनैर्जवनिका पतति ॥

शब्दार्थ चायपेयं = चाय-पान । समुत्तिष्ठन् (सम् + उतिष्ठन्) = उठते हुए। लालयन् = प्यार करते हुए। उद्घाटितम् = खोल दीं। सिन्ध्वभिरूचिं (सिन्धो + अभि + रूचि) = सिन्धु की अभिरुचि की। द्वेषस्सम्प्रति (द्वेषः + सम्प्रति) = अब द्वेष। शनैर्जवनिका (शनैः + जवनिका) = धीरे से पर्दा।

प्रसंग प्रस्तुत नाट्यांश ‘शाश्वती प्रथमो भागः’ पुस्तक के अन्तर्गत ‘कन्थामाणिक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ मूल रूप से आधुनिक संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है।

सन्दर्भ-निर्देश इस नाट्यांश में बताया गया है कि भवानीदत्त के स्वभाव में परिवर्तन का मुख्य कारण सिन्धु के बेहोश होने की घटना एवं उनकी पत्नी रत्ना का स्वभाव है।

सरलार्थ-सोमधर-(चाय-पान समाप्त करके उठते हुए) चाचा जी! तो चलता हूँ। नमस्ते। (रत्ना के प्रति) माता जी प्रणाम करता हूँ। (सिन्धु को प्यार करते हुए) मित्र! सिन्धु कल मिलेंगे।

भवानीदत्त-(प्रसन्नता के साथ रत्ना के प्रति) रत्ना! तुमने आज मेरी आँखें खोल दीं। सत्य में ही मैं अब सिन्धु की अभिरुचि की प्रशंसा करता हूँ। सोमधर तो गुदड़ी का लाल ही है। अब मैंने अनुभव किया कि गुणी ही सभ्य, धनी तथा सम्मान के योग्य होते हैं। अब मुझे ग्राम्य बस्ती के प्रति द्वेष का भाव नहीं है। कीचड़ में भी कमल खिलता है। रत्ना! आज से मैं तेरी आँखों से संसार
को देखूगा। धीरे से पर्दा गिरता है।

भावार्थ-भाव यह है कि सभ्य एवं परोपकारी व्यक्ति किसी भी स्थान अथवा समाज में पैदा हो सकते हैं, इसलिए भवानीदत्त ने कहा है कि अब मैं कभी भी ग्राम्य बस्ती से द्वेष नहीं करूँगा। इसके साथ ही वे अपनी पत्नी का भी धन्यवाद करते हैं कि उसने उनकी आँखें खोल दीं। कीचड़ में कमल के खिलने की बात कहकर नाटककार ने समाज की एक कड़वी सच्चाई को प्रकट किया है।

कन्थामाणिक्यम् (वाणी (सरस्वती) का वसन्त गीत) Summary in Hindi

पाठ-परिचय प्रस्तुत पाठ आधुनिककाल के प्रतिष्ठित संस्कृत साहित्यकार अभिराज राजेन्द्रमिश्र के एकांकी-संग्रह ‘रूपरुद्रीयम्’ से संकलित है। कन्थामाणिक्यम् का अर्थ है-गुदड़ी का लाल। नगर के जाने-माने हाइकोर्ट के वकील भवानीदत्त को स्वभावतः चिढ़ है गरीबों की बस्ती से। वे नहीं चाहते कि उनका बच्चा सिन्धु गन्दी बस्ती की ओर जाए, परन्तु संयोगवश सिन्धु का मित्र सोमधर उसी बस्ती में रहता है।

दुर्घटना में सिन्धु के आहत होने पर एक दिन वही सोमधर सिन्धु को रिक्शे पर बैठाकर घर लाता है। इधर सिन्धु के घर में सभी चिन्तित हैं कि बच्चा अभी तक घर क्यों नहीं लौटा? फोन पर फोन होते हैं। भवानीदत्त स्वयं पता लगाने जाना ही चाहते हैं कि एक रिक्शा घर के लॉन में आता है जिस पर सोमधर सिन्धु को गोद में सम्भाले बैठा है। सोमधर के इस सद्व्यवहार से भवानीदत्त की आँखें खुलं जाती हैं। वे उसे गुदड़ी का लाल मान लेते हैं और उसकी शिक्षा का सारा भार अपने ऊपर ले लेते हैं। अब उन्हें गरीबों एवं उनकी बस्ती से बड़ी सहानुभूति हो जाती है।

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