HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 16 जैव-विविधता एवं संरक्षण

Haryana State Board HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 16 जैव-विविधता एवं संरक्षण Important Questions and Answers.

Haryana Board 11th Class Geography Important Questions Chapter 16 जैव-विविधता एवं संरक्षण

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

भाग-I : सही विकल्प का चयन करें

1. जैव-विविधता में शामिल हैं
(A) पेड़-पौधे
(B) अति सूक्ष्म जीवाणु
(C) जीव-जंतु
(D) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(D) उपर्युक्त सभी

2. भारत में लगभग कितनी पादप प्रजातियाँ पाई जाती हैं?
(A) लगभग 25,000
(B) लगभग 30,000
(C) लगभग 45,000
(D) लगभग 50,000
उत्तर:
(C) लगभग 45,000

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3. भारत में कितनी जीव प्रजातियाँ पाई जाती हैं?
(A) लगभग 75,261
(B) लगभग 81,251
(C) लगभग 85,271
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) लगभग 81,251

4. समान भौतिक लक्षणों वाले जीवों के समूह को क्या कहते हैं?
(A) समाज
(B) प्रजाति
(C) जीन
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(B) प्रजाति

5. भारत में पाई जाने वाली कुल पक्षी प्रजातियों में से कितने % स्थानिक हैं?
(A) 12%
(B) 14%
(C) 18%
(D) 25%
उत्तर:
(B) 14%

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6. ‘World Wild Life Fund’ की स्थापना कब की गई?
(A) 1950
(B) 1952
(C) 1955
(D) 1962
उत्तर:
(B) 1952

7. ‘World Wild Life Fund’ -WWF का मुख्यालय है-
(A) न्यूयार्क
(B) लंदन
(C) पेरिस
(D) स्विट्ज़रलैंड
उत्तर:
(D) स्विट्ज़रलैंड

8. 1992 में ब्राजील के रियो-डी-जेनेरो में जैव-विविधता के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में कितने देशों ने हस्ताक्षर किए?
(A) 152
(B) 154
(C) 156
(D) 158
उत्तर:
(C) 156

9. भारत में कितने जीवमंडल आरक्षित क्षेत्र स्थापित किए गए हैं?
(A) 12
(B) 14
(C) 16
(D) 18
उत्तर:
(B) 14

भाग-II : एक शब्द या वाक्य में उत्तर दें

प्रश्न 1.
जैव-विविधता का संरक्षण किसके लिए महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
सभी जीवधारियों के लिए।

प्रश्न 2.
समान. भौतिक लक्षणों वाले जीवों के समूह को क्या कहते हैं?
उत्तर:
प्रजाति।

प्रश्न 3.
‘World Wild Life Fund’ की स्थापना कब की गई?
उत्तर:
सन् 1962 में।

प्रश्न 4.
‘World Wild Life Fund’ (WWF) का मुख्यालय कहाँ है?
उत्तर:
स्विट्ज़रलैंड में।

प्रश्न 5.
जीवन-निर्माण के लिए एक मूलभूत इकाई बताएँ।
उत्तर:
जीवन-निर्माण के लिए जीन (Gene) एक मूलभूत इकाई है।

प्रश्न 6.
भारत में वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम कब पास हुआ?
उत्तर:
भारत में वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम सन् 1972 में पास हुआ।

प्रश्न 7.
पंजाब में स्थित एक तराई क्षेत्र का नाम बताएँ।
उत्तर:
हरिके तराई क्षेत्र (Wetland)।

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प्रश्न 8.
जैव-विविधता विश्व सम्मेलन कब और कहाँ हआ?
उत्तर:
यह 1922 ई० में रियो डी जेनेरो में हुआ।

प्रश्न 9.
जैव-विविधता के संरक्षण का एक उपाय बताएँ।
उत्तर:
जैव-विविधता संरक्षण का एक उपाय कृत्रिम संरक्षण है।

प्रश्न 10.
मानव आनुवांशिक रूप से किस प्रजाति से संबंधित है?
उत्तर:
मानव आनुवांशिक रूप से होमोसेपियन प्रजाति से संबंधित है।

प्रश्न 11.
भारत में तट-रेखा की लम्बाई बताएँ।
उत्तर:
भारत की तट-रेखा लगभग 7500 किलोमीटर लम्बी है।

प्रश्न 12.
किन्हीं दो संकटापन्न प्रजातियों के नाम लिखें।
उत्तर:

  1. रेड पांडा
  2. बाघ

अति-लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
टैक्सोनोमी क्या है?
उत्तर:
जीवों के वर्गीकरण के विज्ञान को टैक्सोनोमी कहते हैं।

प्रश्न 2.
तप्त स्थल क्या है?
उत्तर:
संसार के जिन क्षेत्रों में प्रजातीय विविधता पाई जाती है, उन्हें विविधता के ‘तप्त स्थल’ कहा जाता है।

प्रश्न 3.
आनुवंशिकी क्या है?
उत्तर:
आनुवंशिक लक्षणों के पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरण की विधियों और कारणों के अध्ययन को आनुवंशिकी कहते हैं।

प्रश्न 4.
आनुवंशिकता क्या है?
उत्तर:
जीवधारियों की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में विभिन्न लक्षणों के प्रेक्षण या संचरण को आनुवंशिकता कहते हैं।

प्रश्न 5.
प्रजाति का विलुप्त होना क्या है?
उत्तर:
प्रजाति के विलुप्त होने का अभिप्राय है कि उस प्रजाति का अन्तिम सदस्य भी मर गया है।

प्रश्न 6.
भारत के प्राचीनतम राष्ट्रीय उद्यान (National Park) का नाम लिखें। इसकी स्थापना कब की गई थी?
उत्तर:
भारत का प्राचीनतम राष्ट्रीय उद्यान कोर्बेट राष्ट्रीय उद्यान (Corbet National Park) है। इसकी स्थापना सन् 1936 में की गई थी।

प्रश्न 7.
जैव-विविधता के विभिन्न स्तर क्या हैं?
उत्तर:
जैव-विविधता को निम्नलिखित तीन स्तरों पर समझा जाता है-

  1. आनुवांशिक जैव-विविधता
  2. प्रजातीय जैव-विविधता
  3. पारितन्त्रीय जैव-विविधता।

प्रश्न 8.
जैव-विविधता संरक्षण के मुख्य उद्देश्य बताएँ।
उत्तर:

  1. जैव-विविधता का संरक्षण तथा संवर्द्धन।
  2. पारिस्थितिकीय प्रक्रियाओं और जैव भू-रसायन चक्रों को बनाए रखना।
  3. पारितन्त्रों की उत्पादकता एवं प्रजातियों के स्थायी उपयोग को निश्चित करना।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘मानव अस्तित्व के लिए जैव-विविधता अति आवश्यक है।’ अपने तर्क देकर स्पष्ट करें।
अथवा
जैव विविधता का संक्षिप्त महत्त्व लिखिए।
उत्तर:
मानव पर्यावरण एक प्रमुख घटक है। जैव-मण्डल में वह एक उपभोक्ता की भूमिका भी निभाता है। वस्तुतः मानव का अस्तित्व जैव-विविधता पर ही आधारित है, क्योंकि जीवन की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति जैव-विविधता से ही होती है; जैसे खाद्य सामग्री, प्राणदायिनी ऑक्सीजन, ईंधन, जीवन रक्षक दवाइयाँ और जीवनोपयोगी अन्य समान भी उसे वनस्पति और जीव-जन्तुओं से ही प्राप्त होता है।

प्रश्न 2.
मनुष्य को जैव-विविधता से खाद्य पदार्थ किस प्रकार प्राप्त होते हैं?
उत्तर:
विभिन्न पारितन्त्रों में रहने वाले मानवों की खाद्य आदतें (Food Habits) काफी हद तक उस पारितन्त्र में मिलने वाले खाद्य पदार्थ से बनती हैं। उदाहरण के लिए समुद्रों के समीप रहने वाले लोग समुद्री जीवों (मछली आदि) का भक्षण करते हैं। इसी प्रकार मैदानों में रहने वाले लोग वहाँ पैदा होने वाले अनाजों से अपना भोजन ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार वनों में रहने वाले लोग वनों में उपलब्ध फलों तथा पशु-पक्षियों को खाकर अपना पेट भरते हैं। संक्षेप में, कहा जाए तो सभी प्रकार के अनाज, फल, सब्जियाँ, माँस, मसाले, तेल, चाय, कॉफी व अन्य खाद्य पदार्थों की आपूर्ति जीवों व वनस्पतियों से ही होती है।

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प्रश्न 3.
‘प्राणदायिनी ऑक्सीजन का आधार भी जैव-विविधता ही है।’ उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य भोजन व पानी के बगैर तो कुछ समय तक जीवित रह सकता है, परन्तु ऑक्सीजन के बिना तो वह कुछ मिनट भी नहीं जी सकता। वस्तुतः मानव सहित सभी जीवों का अस्तित्व प्राणदायिनी ऑक्सीजन पर निर्भर है। यह प्राणदायिनी ऑक्सीजन हमें वृक्षों से प्राप्त होती है। वृक्षों से जीवों को ऑक्सीजन प्राप्त होती है तथा वृक्ष पर्यावरण से कार्बन-डाइऑक्साइड ग्रहण करते हैं। यदि हम वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई करते हैं तो इसका अवसर पर्यावरण में उपस्थित ऑक्सीजन व अन्य गैसों पर भी पड़ेगा, जिसका असर मानव स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।

प्रश्न 4.
“जैव-विविधता औषधियों के लिए खजाना है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जैव-विविधता से हमें अनेक प्रकार की औषधियाँ प्राप्त होती हैं। मनुष्य प्रागैतिहासिक काल से ही जड़ी-बूटियों तथा जीवों का औषधियों के लिए प्रयोग करता रहा है। कहते हैं कि सर्वप्रथम चीन में वनस्पतियों का औषधियों के लिए प्रयोग किया गया। हमारे ऋग्वेद व अन्य वेदों में सैकड़ों जड़ी-बूटियों का उल्लेख है, जो हमें वनस्पतियों से मिलती थीं। चरक संहिता में वनस्पतियों की औषधियों से गम्भीर रोगों के निदान के फार्मूले दिए गए हैं। आयुर्वेद में जड़ी-बूटियों से विभिन्न औषधियों द्वारा रोगों का निदान किया जाता रहा है। आज भारत और विश्व में अनेक रोगों से सम्बन्धित औषधियाँ वनस्पति जीवों से प्राप्त की जा रही हैं।

प्रश्न 5.
जैव-विविधता के संरक्षण की आवश्यकता क्यों है?
अथवा
जैव-विविधता के संरक्षण के उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
मानव सहित पृथ्वी का भविष्य जैव-विविधता पर निर्भर है परन्तु पिछली तीन शताब्दियों से प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया गया है, इससे जैव-विविधता को खतरा उत्पन्न हो गया है। अतः जैव-विविधता का संरक्षण पर्यावरण और मानव के लिए अत्यधिक जरूरी है। जैव-विविधता के संरक्षण के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं–

  • जैव-विविधता का संरक्षण तथा संवर्द्धन।
  • पारिस्थितिकीय प्रक्रियाओं और जैव भू-रसायन चक्रों को बनाए रखना।
  • पारितन्त्रों की उत्पादकता एवं प्रजातियों के स्थायी उपयोग को निश्चित करना।

प्रश्न 6.
खतरे में पड़ चुके जैव-विविधता क्षेत्र का क्या अर्थ है?
उत्तर:
विश्व की जैव-विविधता विशेष भौगोलिक परिस्थितियों तथा जलवायु के कारण विशेष प्रकार के इकोलोजिकल क्षेत्रों में विभाजित है। परन्तु मानवीय गतिविधियों खासतौर पर औद्योगिक क्रान्ति के बाद जैव-विविधता के अन्धाधुन्ध दोहन से ऐसे क्षेत्र खतरे में पड़ चुके हैं। उदाहरण के लिए भारतीय पश्चिमी घाट, उत्तर-पूर्व क्षेत्र तथा अण्डमान-निकोबार खतरे में पड़ चुके क्षेत्र हैं।

प्रश्न 7.
‘सभी भौतिक तत्त्व सजीवों (Living Organism) को प्रभावित करते हैं। बताइए कैसे?
उत्तर:
पारिस्थितिक तन्त्र क्रियाशील रहता है अर्थात पारितन्त्र के घटकों में आपस में अन्तक्रिया सदैव चलती रहती है। पारितन्त्र की इस क्रियाशीलता में ऊर्जा प्रवाह (Energy Flow), पोषक तत्त्वों का चक्र, जीवों की अन्तक्रिया तथा पर्यावरण नियन्त्रण शामिल होता है जो सामूहिक रूप से इस तन्त्र को चलाते हैं। यह सारी क्रिया एक चक्र के रूप में चलती रहती है, जिसे जैव भू-रासायनिक चक्र (Biogeochemical Cycle) के नाम से जाना जाता है। जैव भू-रासायनिक चक्र में सूर्य ऊर्जा का प्रमुख स्रोत होता है, जो जलवायु व्यवस्था के अनुसार ऊर्जा प्रदान करता है। इन भौतिक तत्त्वों से ही सजीव तत्त्व अपना भोजन बनाते हैं या प्राप्त करते हैं। वस्तुतः प्रकृति के भौतिक तत्त्व सजीवों को जीवन का आधार प्रदान करते हैं।

प्रश्न 8.
आवासों की क्षति का जैव-विविधता पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
प्रकृति का वह स्थान जहाँ जीव वास एवं अपना विकास करते हैं, आवास स्थान कहलाता है। कृषि क्षेत्र के विस्तार, औद्योगीकरण तथा अनेक विकास योजनाओं के परिणामस्वरूप आज तेजी से जीवों के आवास स्थल नष्ट हो रहे हैं। जंगल नष्ट होने से हाथी, शेर व अन्य छोटे-मोटे सभी जानवरों की प्रजातियाँ खतरे में पड़ गई हैं। इसी प्रकार जल-प्रदूषण व विकास योजनाओं के कारण नदी, झील व समुद्र के आवास भी नष्ट होते जा रहे हैं। पानी के जीवों की दुनिया भी उजड़ रही है।

प्रश्न 9.
‘प्रदूषण जैव-विविधता के लिए खतरनाक है।’ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पर्यावरण प्रदूषण जैव-विविधता के लिए प्रमुख खतरा बन गया है। इससे प्राकृतिक आवासों में बदलाव आने से इकोसिस्टम की कार्य-प्रणाली प्रभावित होती है। नदियों के प्रदूषित होने से नदियों तथा डेल्टा के प्राणियों का अत्यधिक नुकसान हुआ है। इसी प्रकार झीलों, तालाबों, समुद्रों इत्यादि के पानी में भी पीड़क, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन और तेल से जलीय जीव खतरे में पड़ रहे हैं। पर्यावरण प्रदूषण से मौसम में परिवर्तन, तापमान में वृद्धि, ओजोन परत में छेद सभी जैव-विविधता के लिए खतरे का कारण बनते जा रहे हैं।

प्रश्न 10.
प्रकृति में सन्तुलन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
लाखों-करोड़ों वर्षों के अन्तराल में पृथ्वी पर प्राकृतिक व्यवस्था कायम हुई तथा इसमें सन्तुलन बनता चला गया। धरातलीय परिवर्तन, मौसम में परिवर्तन, जीवों की पुरानी प्रजातियाँ विलुप्त हुईं तथा नई प्रजातियाँ आईं। ये सभी घटनाएँ प्राकृतिक थीं-चाहे वे विपदाएँ हों या विकास की घटनाएँ या मौसम में परिवर्तन या प्रजातियों का लुप्त होना या उनका विकास इत्यादि। ये घटनाएँ एक लम्बे अन्तराल में हुआ करती थीं। इसलिए उन्हें पुनः परस्पर सन्तुलित होने, आपसी समन्वय और समायोजन का जैव-विविधता एवं संरक्षण अवसर मिल जाया करता था। एक प्रजाति विलुप्त होती थी तो उसकी जगह नई प्रजाति स्वयं ही पैदा हो जाती थी। इस प्रकार जैव-विविधता व परस्पर उनकी निर्भरता बनी रहती थी। हम कह सकते हैं कि प्राकृतिक कारणों से प्रकृति मूलतः नष्ट नहीं हुआ करती। उसका स्वरूप बदल जाया करता है। मसलन अपने विकास के बाद धरती पर जंगल कभी नष्ट नहीं हुए, हाँ उनका स्वरूप जरूर बदल गया।

निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
जैव-विविधता की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जैव-विविधता-जैव-विविधता से तात्पर्य पृथ्वी पर (जैवमण्डल में) जीवन की सम्पूर्ण विविधता से है अर्थात् स्थल व जल में सभी प्रकार के सूक्ष्मजीवों (Micro Organisms), वनस्पति जगत (Plants) व जानवरों का जोड़ ही जैव-विविधता है। विश्व संसाधन संस्थान (World Resources Institute) द्वारा जैव-विविधता की अवधारणा पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट किया है कि जैव-विविधता विश्व में जीवों की विविधता है, जिसमें आनुवंशिक विविधता (Genetic Diversity) तथा उनके द्वारा बनाया गया समुच्चय शामिल होता है।

यह प्राकृतिक जैव सम्पदा का पर्याय है, जो मानव जीवन व उसके कल्याण में सहायक है। इस अवधारणा में आनुवंशिक प्रजातियों व पारितन्त्रों के बीच पारस्परिक अन्तर्सम्बन्धता झलकती है। उल्लेखनीय है कि गुणसूत्र (Genes) प्रजातियों के घटक होते हैं तथा प्रजातियाँ पारितन्त्रों की घटक होती हैं। अतः इनमें से किसी भी स्तर में कोई भी परिवर्तन दूसरे को बदल देता है। वस्तुतः प्रजातियाँ जैव-विविधता की अवधारणा का केन्द्र बिन्दु हैं।

रियो डी जेनेरो (1992 ई०) ने जैव-विविधता के विश्व सम्मेलन (Global Convention on Biological Diversity) में जैव-विविधता को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-“Biological diversity is the variability among living organisms from all sources including inter alia, terrestrial, marine and other aquatic. Eco-systems and the ecological complexes of which they are a part, this includes diversity with in species and eco-system.”

‘जैव-विविधता’ अपेक्षाकृत नया शब्द है। यह जैविक विविधता (Biological Diversity) का संक्षिप्त रूप है। ‘जैविक विविधता’ शब्द का प्रयोग 1980 ई० के आसपास एक क्षेत्र में उपस्थित प्रजातियों के सन्दर्भ में ई.ओ. विल्सन (E.O. Wilson) द्वारा किया गया। जबकि ‘जैव-विविधता’ की परिकल्पना में बहुत-सी बातें शामिल हैं। विशेष रूप से प्रजातियाँ व आवासों की हानि, जैविक संस्थाओं का उपयोग, महत्त्व तथा प्रबन्धन विषय इसके अन्तर्गत आते हैं। जैव-विविधता में इसके संरक्षण के लिए तत्काल कार्रवाई को भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। वस्तुतः रियो पृथ्वी सम्मेलन में जैव-विविधता की अवधारणा ने जन-साधारण का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है।

प्रश्न 2.
‘मानव हस्तक्षेप ने प्राकृतिक सन्तुलन में गड़बड़ी पैदा कर दी है।’ कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आज प्रकृति में मानव के हस्तक्षेप के कारण प्राकृतिक सन्तुलन में गड़बड़ी पैदा हो चुकी है। उसके विभिन्न अंगों, घटकों को जोड़ने वाली कड़ियाँ टूट चुकी हैं। निरन्तर जटिल प्रक्रियाओं वाली प्रकृति से कई प्रक्रियाएँ लुप्त हो चुकी हैं। पर्यावरण में बड़ी तेजी से हानिकारक एवं जहरीले पदार्थ फैलते जा रहे हैं, जो प्राकृतिक नहीं बल्कि कृत्रिम प्रक्रियाओं की देन है।

जो प्राकृतिक विनाश पहले लाखों-करोड़ों वर्षों से होता था, अब वह केवल कुछ ही सदियों, यहाँ तक कि मात्र कुछ दशकों में ही हो रहा है। विनाश की अवधि कम हो रही है, उसकी तीव्रता एवं व्यापकता बढ़ती जा रही है। बड़े पैमाने पर प्रकृति का विनाश मूलतः औद्योगिक क्रान्ति से आरम्भ हुआ। जनसंख्या में वृद्धि एवं प्रकृति-दोहन की नित-नई तकनीक ने इस विनाश को असाधारण रूप से बढ़ा दिया है।

इस प्रकार आज मानव-जनित प्रदूषण तथा प्रकृति विनाश कोई स्वाभाविक-प्राकृतिक प्रक्रिया न होकर कृत्रिम सामाजिक प्रक्रिया है। यह विनाश एवं प्रदूषण अब ऐसे बिन्दु पर बड़ी तेजी से पहुँचता जा रहा है, जहाँ से वापस लौटना असम्भव-सा होगा, कुछ अर्थों और क्षेत्रों में वह बिन्दु पहुँच भी चुका है। इसलिए आज जब हम प्रकृति के विनाश और प्रदूषण की बात कर रहे हैं तो मानव-जनित प्रक्रिया की बात कर रहे हैं। प्रकृति एवं पर्यावरण में फैलता प्रदूषण हर प्रकार से जीवों के लिए खतरा बन चुका है। प्राणियों एवं वनस्पतियों की समाप्ति का खतरा पैदा हो गया है।

प्रश्न 3.
जैव-विविधता पर्यावरण को स्वस्थ बनाए रखने में किस प्रकार सहायक है?
उत्तर:
जैसा कि हम जानते हैं कि पर्यावरण में मुख्यतः तीन घटक हैं-(1) भौतिक घटक, (2) जैविक घटक व (3) ऊर्जा । भूमि, जल, वायु, मुद्रा, तापमान, वर्षा, आर्द्रता आदि पर्यावरण के भौतिक घटक हैं जबकि पृथ्वी पर उपस्थित पादप व जीव जैव घटक का निर्माण करते हैं। सूर्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा से यह पर्यावरण चलायमान होता है। वस्तुतः ये तीनों घटक आपस में अन्तः सम्बन्धित और परस्पर निर्भर होते हैं। यदि जैविक पयाँवरण (घटक) में कुछ असामान्यता आती है तो उसका प्रतिकूल प्रभाव निश्चित। रूप से पर्यावरण के भौतिक घटकों पर भी पड़ता है। उदाहरण के लिए, वनों की अन्धाधुन्ध कटाई से, जल-चक्र, ऑक्सीजन की मात्रा, मृदा के उपजाऊपन आदि पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

इसी तरह वनों की कटाई से पृथ्वी के तापमान, वर्षा आदि भी प्रभावित होते हैं। वनों की कटाई से जीवों के आवास नष्ट होते हैं तथा प्रजातियाँ समाप्त होती हैं। पर्यावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ जाती हैं। इससे वायुमण्डल, जलमण्डल बुरी तरह से प्रभावित होते हैं। इसका मानव स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। यह भी उल्लेखनीय है कि मानव सहित सभी जीवों को ऊर्जा पादपों के माध्यम से ही प्राप्त होती है। संक्षेप में, वनस्पति व जीव जगत पर्यावरण का अभिन्न अंग है एवं उसे स्वस्थ बनाए रखने में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वस्तुतः इसी पर मानव का अस्तित्व भी निर्भर है।

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प्रश्न 4.
‘जैव-विविधता असीमित नहीं है।’ टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
जैव-विविधता मानव के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। मानव को भोजन, ऑक्सीजन व जीवन के लिए अन्य उपयोगी सामान जैव-विविधता से ही प्राप्त होता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मानव का अस्तित्व और उसकी समृद्धि पूरी तरह से जैव-विविधता पर निर्भर है। वनस्पति से एक ओर, जहाँ जीवनोपयोगी उपज प्राप्त होती है तो दूसरी ओर, समस्त जैविक व मानवीय विकास के लिए पादप, कल्याणकारी पर्यावरण की रचना करते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से मानवीय हस्तक्षेप के कारण आज. जैव-विविधता संकट में है, क्योंकि मानव ने इसे असीमित समझकर इसका अन्धाधुन्ध उपयोग करना शुरू कर दिया है।

इससे कई प्रजातियाँ आज विश्व-परिदृश्य से लुप्त हो चुकी हैं तथा कुछ लुप्त होने के कगार पर हैं। दूसरे शब्दों में, यदि कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि लाखों करोड़ों वर्षों में पृथ्वी पर पैदा हुआ ‘जीवन’ मौत के कगार पर है। विश्व पर्यावरण आयोग के अनुसार प्राचीनकाल में पृथ्वी पर पौधों व जीवों की कोई पाँच अरब प्रजातियाँ थीं, जो घटते-बढ़ते वर्तमान में कुछ लाख ही रह गई हैं। विश्व संसाधन संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र वनों की कटाई इस प्रकार निर्बाध रूप से जारी रही तो जल्द ही भूमण्डल के 5 से 10 प्रतिशत तक पादप व वन्य जीव विलुप्त हो जाएँगे।

1. वनस्पति प्रजातियों का कम होना-वनों के बड़े पैमाने पर काटे जाने के कारण कुछ वनस्पतियाँ और वृक्ष प्रजातियाँ आज विलुप्त होने के कगार पर हैं। एक अनुमान के मुताबिक वृक्षों की कम-से-कम 20 प्रजातियाँ आज विलोपन के खतरे से जूझ रही हैं।

2. जीवों का कम होना-वनों की कटाई से वन्य जीवों के आवास स्थान नष्ट होते जा रहे हैं। साथ ही प्राणियों के अवैध शिकार व पारितन्त्रों में प्रदूषण के कारण वन्य तथा जलीय जीवों की संख्या कम होती जा रही है। भारत में भी अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं या लुप्त होने के कगार पर हैं। उदाहरण के लिए कश्मीरी हिरण, एशियाई शेर, भारतीय गोरखर, सोन चिड़ियाँ, चीता, हिमाचली बटेर, गलाबी सिर वाली बत्तख आदि पश-पक्षी विलुप्त होते जा रहे हैं। प्राकृतिक संग्रहालय, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तिका “वर्ल्ड ऑफ मैमल्स” के आँकड़ों के अनुसार लगभग 44 वन्य जीवों को संकटग्रस्त जीवों की सूची में रखा गया है, जिससे उपरोक्त पशु-पक्षियों के अलावा गगीय डॉल्फिन, लाल पाण्डा, जंगली भैंसा, एशियाई हाथी, सफेद सारस, चिंकारा, अजगर, गेंडा, हिम तेन्दुआ, बाघ, भूरा बारहसिंघा, भूरी बिल्ली आदि मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त सुनहरी बिल्ली, जंगली गधा, ओरंग ऊटान, चिम्पैंजी बबून आदि भी शामिल हैं।

प्रश्न 5.
विभिन्न प्रजातियाँ एक-दूसरे पर किस प्रकार अन्तःनिर्भर हैं? अथवा भोजन शृंखला व खाद्य जाल का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जैसा कि हम जानते हैं कि करोड़ों वर्षों के जैविक विकास के दौरान धरती पर विभिन्न पारितन्त्रों का विकास हुआ है। यह पारितन्त्र जीवों की विविधता व ऊर्जा प्रवाह के कारण स्वयं सन्तुलित और गतिमान है। इनमें एक जीव प्रजाति दूसरी प्रजाति पर निर्भर है। यह निर्भरता मुख्यतः उनकी भोजन की जरूरत से विकसित हुई है। सूर्य की ऊर्जा से पौधे अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। पौधों से जीव प्रजातियाँ अपना भोजन प्राप्त करती हैं। फिर जीव दूसरे जीवों को खाकर अपना पेट भरते हैं। इस प्रकार यह भोजन श्रृंखला सभी प्रजातियों को एक-दूसरे से जोड़ती है एवं अन्तः निर्भरता का निर्माण करती है। प्रजातियों में इस अन्तः निर्भरता को हम अग्रलिखित आहार श्रृंखलाओं व आहार जाल से भली-भाँति समझ सकते हैं-
1. भोजन शृंखला (Food Chain) जीवों में ऊर्जा का प्रवाह भोजन शृंखला के माध्यम से होता है। जीवों द्वारा ऊर्जायुक्त पदार्थ या भोजन ग्रहण करने की अपनी आदतें एवं आवश्यकताएँ होती हैं। इससे जीवों में पोषण-स्तर का निर्माण होता है। ऊर्जा का भोजन के माध्यम से एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में प्रवेश प्रकृति के नियमों के अनुसार होता है। इससे भोजन श्रृंखला का निर्माण होता है।

यह तो सब जानते हैं कि छोटी मछली को बड़ी मछली खाती है और बड़ी मछली को उससे बड़ी मछली खा जाती है, सार रूप में यही भोजन श्रृंखला है। दूसरे शब्दों में “किसी पारिस्थिति तन्त्र में एक जीवधारी से दूसरे जीवधारी में खाद्य ऊर्जा का प्रवाह ही भोजन श्रृंखला है।” हरे पौधे जमीन पोषित तत्त्वों (Nutrients) तथा सूर्य से प्रकाश प्राप्त कर प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन तैयार करते हैं। यह उनका अपना भोजन होता है। इस रूप में पौधे प्रथम पोषी तथा जैविक जगत् में उत्पादक कहे जाते हैं।

पौधे से ऊर्जा भोजन के माध्यम से आगे बढ़ती है। पौधों पर शाकाहारी जीव निर्भर हैं। इस प्रकार पौधों से ऊर्जा शाकाहारी जीवों में पहुँचती है। शाकाहारी जीवों से ऊर्जा शाकाहारी जीवों को खाने वाले माँसाहारी जीवों में पहुँचती है। अन्त में ऊर्जा सर्वाहारी जीवों में पहुँचती है। सर्वाहारी जीवों से अभिप्राय है, जो पेड़-पौधों से भी भोजन प्राप्त करते हैं तथा साथ ही शाकाहारी तथा माँसाहारी जीवों को भी ग्रहण करते हैं। एक पारिस्थितिक तन्त्र में भोजन शृंखला ऊर्जा के एकल मार्गीय प्रवाह मार्ग को दर्शाती है। कुछ भोजन शृंखलाओं के उदाहरण निम्नलिखित प्रकार से दर्शाए जा सकते हैं-
पौधे → शाकाहारी → माँसाहारी → सर्वाहारी
पादप → हिरण → शेर
घास → हिरण → मेंढक → सर्प → बाज

2. खाद्य जाल (Food Webs) भोजन श्रृंखला एक जटिल प्रक्रिया है, जो जीवों की खाद्य आदतों के अनुसार चलती है। प्रकृति में यह बहुत ही कम होता है कि खाद्य शृंखलाएँ सीधी ही चलें। एक जीव कई प्रकार से भोजन ग्रहण कर सकता है। यहाँ तक कि एक जीव को अनेक जीवों द्वारा भोजन के रूप में खाया जा सकता है। संक्षेप में, एक पारितन्त्र में भोजन शृंखलाएँ आपस में गुंथी होती हैं, जिससे इन भोजन श्रृंखलाओं का एक जाल बन जाता है। इस प्रकार खाद्य जाल का निर्माण होता है। स्पष्ट है कि भोजन श्रृंखला तथा खाद्य जाल से सभी जीव एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं।

प्रश्न 6.
जैव-विविधता के संरक्षण में ‘प्राकृतिक संरक्षण’ का तरीका कितना कारगर है? वर्णन कीजिए। अथवा प्राकृतिक संरक्षण के लाभ व दोषों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्राकृतिक संरक्षण (In-Situ Conservation) की प्रणाली के द्वारा प्रजातियों का संरक्षण उनके प्राकृतिक वातावरण में ही किया जाता है। इस प्रणाली में वातावरण में मौजूद उन कारकों को समाप्त करने का प्रयास किया जाता है, जिसके कारण जीवों को संकट पैदा होता है, बाकी सम्पूर्ण व्यवस्था प्राकृतिक ही होती है। इस विधि के तहत राष्ट्रीय पार्क (National Park), वन्य जीव अभ्यारण्य (Wild Life Sanctuary) एवं जैवमण्डल संरक्षित क्षेत्र (Biosphere Reserves) का निर्माण कर प्रजातियों को संरक्षण प्रदान किया जाता है। इस विधि से तराई क्षेत्रों (Wetland), मेंग्रोवस (Mangroves) तथा समुद्रों में प्रवाल भित्ति (Coral Reefs) की पहचान कर संरक्षण प्रदान किया जा रहा है।

प्राकृतिक संरक्षण के लाभ/महत्त्व/उपयोगिता-प्राकृतिक संरक्षण के लाभ निम्नलिखित हैं-

  • यह संरक्षण प्रणाली सरल एवं सस्ती है। इसमें मानव एक सहायक के रूप में कार्य करता है।
  • इस प्रणाली से एक साथ अनेक जीव-जन्तुओं की प्रजातियों का संरक्षण किया जा सकता है।
  • इस प्रकार संरक्षण से प्राणी न केवल जीवित रहते हैं, अपितु नए प्रकार के जीवों की उत्पत्ति की प्रक्रिया भी जारी रहती है।

प्राकृतिक संरक्षण के दोष-प्राकृतिक संरक्षण के दोष निम्नलिखित हैं-

  • स्वस्थाने या प्राकृतिक संरक्षण में बड़े भू-खण्ड की आवश्यकता होती है।
  • पारितन्त्र की विशाल जैव-विविधता के कारण संरक्षण के पैमानों को निश्चित करने में कठिनाई होती है।
  • इस प्रकार के संरक्षण से वन में रहने वाले मानव समुदाय को स्थानान्तरित करना पड़ता है।
  • ऐसे संरक्षित क्षेत्रों में चोरी छिपे मानव हस्तक्षेप की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं जिससे संकटापन्न प्रजातियों को खतरा बना रहता है।फिर भी यह स्वीकार किया जा सकता है कि प्राकृतिक संरक्षण प्रजातियों के संरक्षण का आदर्श तरीका है।

HBSE 11th Class Geography Important Questions Chapter 16 जैव-विविधता एवं संरक्षण

प्रश्न 7.
जैव-विविधता के संरक्षण के किसी एक तरीके का वर्णन कीजिए।
अथवा
जैव विविधता संरक्षण के उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कृत्रिम संरक्षण के लाभ व दोषों को समझाइए।
अथवा
कृत्रिम संरक्षण क्या है? इसके लाभ व दोषों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जैव-विविधता पर मानव सहित सभी जीव-जन्तुओं, वनस्पति तथा अन्ततः हमारी पृथ्वी का भविष्य निर्भर है, परन्तु पिछली दो तीन शताब्दियों से (विशेष तौर पर औद्योगिक क्रान्ति के बाद) प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया गया है। इससे सभी प्राकृतिक संसाधनों, जिसमें वनस्पति और जीव-जन्तु भी शामिल हैं, को संकटापन्न की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। पृथ्वी से अनेक जीव विलुप्त हो चुके हैं तथा विलोपन की प्रक्रिया अत्यधिक तीव्र हो गई है। ऐसी स्थिति में विश्व में जैव-विविधता को बचाने तथा बनाए रखने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं।

जैव-विविधता संरक्षण के उद्देश्य-

  • जैव-विविधता का संरक्षण तथा संवर्द्धन।
  • पारिस्थितिकीय प्रक्रियाओं और जैव भू-रसायन चक्रों को बनाए रखना।
  • पारितन्त्रों की उत्पादकता एवं प्रजातियों के स्थायी उपयोग को निश्चित करना।

जैव-विविधता के संरक्षण के तरीके (Methods of Conservation of Biodiversity) वर्तमान में जैव-विविधता को संरक्षित करने के दो तरीके अपनाए जाते हैं

  • कृत्रिम संरक्षण (Ex-Situ Conservation)
  • स्वस्थाने या प्राकृतिक संरक्षण (In-Situ Conservation)।

इनमें से कृत्रिम संरक्षण का संक्षेप में विवरण निम्नलिखित प्रकार से दिया जा सकता है-
कृत्रिम संरक्षण (Ex-Situ Conservation)-इस विधि से विलुप्त हो सकने वाली प्रजातियों (वनस्पति एवं जीव-जन्तु) को नियन्त्रित दशाओं; जैसे बगीचे, नर्सरी, चिड़ियाघर या प्रयोगशाला आदि में रखकर संरक्षण प्रदान किया जाता है अर्थात् विलुप्त होने के खतरे से बचाने के लिए प्रजातियों को उनके प्राकृतिक आवास स्थान से हटाकर नियन्त्रित आवास स्थान पर रखा जाता है।

कृत्रिम संरक्षण प्रणाली में चिड़ियाघरों की स्थापना, वनस्पति, बगीचों की स्थापना या ऐक्वेरियम आदि की स्थापना की जाती है। चिड़ियाघरों में स्तनपायी जानवरों, पक्षियों, सरीसृपों आदि को रखा जाता है। वर्तमान में विश्व में चिड़ियाघरों में लगभग 5,00,000 इस प्रकार के विलुप्त हो सकने वाले प्राणियों को संरक्षण प्रदान किया जा रहा है।

कृत्रिम संरक्षण के लाभ (Merits of Ex-Situ Conservation) कृत्रिम संरक्षण के लाभ निम्नलिखित हैं-

  • संरक्षण स्थल पर जीवों की संख्या कम होने के कारण सभी जीवों का समान रूप से ध्यान रखा जा सकता है तथा उनका संरक्षण सुरक्षित ढंग से किया जा सकता है।
  • इस विधि में भोजन, धन व अन्य संसाधनों का सुनिश्चित तथा उचित उपयोग किया जा सकता है।
  • कभी-कभी संरक्षण प्रक्रिया के बाद जीवों को उनके प्राकृतिक आवासों में छोड़ना सफलतापूर्ण होता है।

कृत्रिम संरक्षण के दोष (Demerits of Ex-Situ Conservation)-प्राकृतिक वातावरण से दूर होने के कारण इस संरक्षण प्रणाली में जीवों को अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस संरक्षण प्रणाली के मुख्य दोष निम्नलिखित हैं

  • इस प्रणाली से विलुप्त होने का खतरा झेल रही बहुत कम प्रजातियों को ही संरक्षण प्रदान किया जा सकता है।
  • संरक्षित किए गए प्राणियों की क्षमता में परिवर्तन हो जाता है। वे प्राकृतिक आवासों में रहने की योग्यता खो देते हैं। उदाहरण के लिए शिकारी जीव की शिकार करने की क्षमता में कमी आ जाती है।
  • इस विधि को सुचारु रूप से चलाने के लिए अत्यधिक संसाधनों तथा धन की आवश्यकता होती है।
  • कभी-कभी संरक्षण स्थल पर त्रासदी (आग लगने, भूकम्प, बाढ़ आदि) होने पर बड़े पैमाने पर जानवरों की मृत्यु हो जाती है।

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