Haryana State Board HBSE 10th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 8 विचित्रः साक्षी Textbook Exercise Questions and Answers.
Haryana Board 10th Class Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 8 विचित्रः साक्षी
HBSE 10th Class Sanskrit विचित्रः साक्षी Textbook Questions and Answers
विचित्र साक्षी प्रश्न उत्तर HBSE 10th Class Shemushi प्रश्न 1.
अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत
(अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृतभाषा में लिखिए-)
(क) निर्धनः जनः कथं वित्तम् उपार्जितवान् ?
(ख) जनः किमर्थं पदातिः गच्छति ?
(ग) प्रसृते निशान्धकारे स किम् अचिन्तयत् ?
(घ) वस्तुतः चौरः कः आसीत् ?
(ङ) जनस्य क्रन्दनं निशम्य आरक्षी किमुक्तवान् ?
(च) मतिवैभवशालिनः दुष्कराणि कार्याणि कथं साधयन्ति ?
उत्तराणि
(क) निर्धनः जनः भूरिपरिश्रम्य वित्तम् उपार्जितवान्।
(ख) जनः परमर्थकार्येन पीडितः पदातिः गच्छति।
(ग) ‘प्रसृते निशान्धकारे विजने प्रदेशे पदयात्रा न शुभावहा’ स इति अचिन्तयत्।
(घ) वस्तुत: चौरः आरक्षी आसीत् ?
(ङ) जनस्य क्रन्दनं निशम्य आरक्षी उक्तवान्–’हे दुष्ट ! तस्मिन् दिने त्वयाऽहं चोरितायाः मञ्जूषायाः ग्रहणाद् वारितः । इदानीं निजकृत्यस्य फलं भुझ्व। अस्मिन् चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे।’
(च) मतिवैभवशालिन: दुष्कराणि कार्याणि नीतियुक्तिं समालम्ब्य लीलयैव साधयन्ति।
विचित्र साक्षी HBSE 10th Class Shemushi प्रश्न 2.
रेखाङ्कितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(रेखांकित पद के आधार पर प्रश्ननिर्माण कीजिए-)
(क) पुत्रं द्रष्टुं सः प्रस्थितः।
(ख) करुणापरो गृही तस्मै आश्रयं प्रायच्छत्।
(ग) चोरस्य पादध्वनिना अतिथिः प्रबुद्धः।
(घ) न्यायाधीशः बंकिमचन्द्रः आसीत्।
(ङ) स भारवेदनया क्रन्दति स्म।
(च) उभौ शवं चत्वरे स्थापितवन्तौ।
उत्तराणि-(प्रश्ननिर्माणम)
(क) कं द्रष्टुं सः प्रस्थितः ?
(ख) करुणापरो गृही कस्मै आश्रयं प्रायच्छत् ?
(ग) कस्य पादध्वनिना अतिथिः प्रबुद्धः ?
(घ) न्यायाधीशः कः आसीत्। ?
(ङ) स कया क्रन्दति स्म ?
(च) उभौ शवं कुत्र स्थापितवन्तौ ?
विचित्र साक्षी के प्रश्न उत्तर HBSE 10th Class Shemushi प्रश्न 3.
सन्धिछेदं/सन्धिविच्छेदं च कुरुत
(सन्धि/सन्धिविच्छेद कीजिए-)
(क) पदातिरेव – ………………….. + ………………………
(ख) निशान्धकारे – ………………….. + ………………………
(ग) अभि + आगतम् – ………………….. + ………………………
(घ) भोजन + अन्ते – ………………….. + ………………………
(ङ) चौरोऽयम् – ………………….. + ………………………
(च) गृह + अभ्यन्तरे – ………………….. + ………………………
(छ) लीलयैव – ………………….. + ………………………
(ज) यदुक्तम् – ………………….. + ………………………
(झ) प्रबुद्धः + अतिथिः – ………………….. + ………………………
उत्तराणि – ………………….. + ………………………
(क) पदातिरेव = पदाति: + एव
(ख) निशान्धकारे = निशा + अन्धकारे
(ग) अभि + आगतम् = अभ्यागतम्
(घ) भोजन + अन्ते = भोजनान्ते
(ङ) चौरोऽयम् = चौरः + अयम्
(च) गृह + अभ्यन्तरे = गृहाभ्यान्तरे
(छ) लीलयैव = लीलया + एव
(ज) यदुक्तम् = यद् + उक्तम्
(झ) प्रबुद्धः + अतिथिः = प्रबुद्धोऽतिथि:
प्रश्न 4.
अधोलिखितानि पदानि भिन्न-भिन्नप्रत्ययान्तानि सन्ति। तानि पृथक् कृत्वा निर्दिष्टानां प्रत्ययानामधः लिखत
(अधोलिखित पद भिन्न-भिन्न प्रत्यय वाले हैं। इन्हें पृथक् करके निर्दिष्ट प्रत्ययों के नीचे लिखिए-)
परिश्रम्य, उपार्जितवान्, दापयितुम्, प्रस्थितः, द्रष्टुम्, विहाय, पृष्टवान्, प्रविष्टः, आदाय, क्रोशितुम्, नियुक्तः, नीतवान्, निर्णेतुम्, आदिष्टवान्, समागत्य, निशम्य, प्रोच्य, अपसार्य।
उत्तराणि
प्रश्न 5.
भिन्नप्रकृतिकं पदं चिनुत
(भिन्न प्रकृति वाला पद चुनिए-)
(क) विचित्रा, शुभावहा, शङ्कया, मञ्जूषा
(ख) कश्चन, किञ्चित्, त्वरितं, यदुक्तम्
(ग) पुत्रः तनयः, व्याकुलः, तनूजः
(घ) करुणापरः, अतिथिपरायणः, प्रबुद्धः, जनः
उत्तराणि:
(क) शङ्कया।
(ख) त्वरितं ।
(ग) व्याकुलः।
(घ) जनः ।
प्रश्न 6.
(क) ‘निकषा’ ‘प्रति’ इत्यनयोः शब्दयोः योगे द्वितीया-विभक्तिः भवति। उदाहरणमनुसृत्य द्वितीया-विभक्तेः प्रयोगं कृत्वा रिक्तस्थानपूर्तिं कुरुत
(‘निकषा’ ‘प्रति’ इन दो शब्दों के योग में द्वितीया-विभक्ति होती है। उदाहरण के अनुसार द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करके रिक्तस्थान की पूर्ति कीजिए-)
यथा- राजमार्ग निकषा मृतशरीरं वर्तते।
(क) ……………. निकषा नदी वहति। (ग्राम)
(ख) ……….. निकषा औषधालयं वर्तते। (नगर)
(ग) तौ ……………… प्रति प्रस्थिती। (न्यायाधिकारिन्)
(घ) मौहनः …………. प्रति गच्छति। (गृह)
उत्तराणि
(क) ग्रामं निकषा नदी वहति।
(ख) नगरं निकषा औषधालयं वर्तते।
(ग) तौ न्यायाधिकारिणं प्रति प्रस्थितौ।
(घ) मोहनः गृहं प्रति गच्छति।
(ख) कोष्ठकेषु दत्तेषु पदेषु यथानिर्दिष्टां विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत
(कोष्ठक में दिए गए पदों में से यथानिर्दिष्ट विभक्ति का प्रयोग करके रिक्तस्थानों की पूर्ति कीजिए-)
(क) सः ……………. निष्क्रम्य बहिरगच्छत्। (गृह-शब्दे पञ्चमी)
(ख) चौरशंकया अतिथि: …………. अन्वधावत्। (चौरशब्दे द्वितीया)
(ग) गृहस्थः …………….. आश्रयं प्रायच्छत्। (अतिथि-शब्दे चतुर्थी)
(घ) तौ ………….. प्रति प्रस्थितौ। (न्यायाधीश-शब्दे द्वितीया)
उत्तराणि
(क) स: गृहात् निष्क्रम्य बहिरगच्छत्।
(ख) चौरशंकया अतिथिः चौरम् अन्वधावत्।
(ग) गृहस्थः अतिथये आश्रयं प्रायच्छत।
(घ) तौ न्यायाधीशं प्रति प्रस्थितौ।
प्रश्न 7.
अधोलिखितानि वाक्यानि बहुवचने परिवर्तयत
(अधोलिखित वाक्यों का बहुवचन में परिवर्तन कीजिए-)
(क) स बसयानं विहाय पदातिरेव गन्तुं निश्चयं कृतवान्।
(ख) चौरः ग्रामे नियुक्तः राजपुरुषः आसीत्।
(ग) कश्चन चौरः गृहाभ्यन्तरं प्रविष्टः।
(घ) अन्येद्युः तौ न्यायालये स्व-स्व-पक्षं स्थापितवन्तौ।
उत्तराणि
(क) ते बसयानं विहाय पदातिरेव गन्तुं निश्चयं कृतवन्तः।
(ख) चौराः ग्रामे नियुक्ताः राजपुरुषाः आसन्।
(ग) केचन चौराः गृहाभ्यान्तरं प्रविष्टाः ।
(घ) अंन्येद्युः ते न्यायालये स्व-स्व पक्षं स्थापितवन्तः।
योग्यताविस्तारः
(क) विचित्रः साक्षी न्यायो भवति प्रमाणाधीनः। प्रमाणं विना न्यायं कर्तुं न कोऽपि क्षमः सर्वत्र । न्यायालयेऽपि न्यायाधीशाः यस्मिन् कस्मिन्नपि विषये प्रमाणाभावे न समर्थाः भवन्ति। अतएव, अस्मिन् पाठे चौर्याभियोगे न्यायाधीशः प्रथमतः साक्ष्यं (प्रमाणम्) विना निर्णेतुं नाशक्नोत्। अपरेद्यः यदा स शवः न्यायाधीशं सर्वं निवेदितवान् सप्रमाणं तदा सः आरक्षिणे कारादण्डमादिश्य तं जनं ससम्मानं मुक्तवान्। अस्य पाठस्य अयमेव सन्देशः।
विचित्र गवाह-न्याय प्रमाणों के अधीन होता है। सभी जगह प्रमाण (सबूत) के बिना कोई भी न्याय करने में समर्थ नहीं है। न्यायालय में भी न्यायाधीश प्रत्येक अभियोग में प्रमाणों के न मिलने पर (न्याय करने में) समर्थ नहीं हो पाते हैं। इसीलिए इस पाठ में चोरी के अभियोग में न्यायाधीश पहली ही दृष्टि में प्रमाण न मिलने पर निर्णय नहीं कर सका। दूसरे दिन जब उस शव ने न्यायाधीश को सब कुछ बता दिया, तब प्रमाण सहित उसने आरक्षक (चौकीदार) को जेल की सजा देकर उस व्यक्ति को सम्मान पूर्वक छोड़ दिया। इस पाठ का यही सन्देश है।
(ख) मतिवैभवशालिनः – बुद्धिसम्पत्ति-सम्पन्नाः ।
ये विद्वांसः बुद्धिस्वरूपविभवयुक्ताः ते मतिवैभवशालिन: भवन्ति।
ते एव बुद्धिचातुर्यबलेन असम्भवकार्याणि अपि सरलतया कर्वन्ति। बुद्धिवैभव से सम्पन्न-बुद्धिरूपी सम्पत्ति से सम्पन्न। जो विद्वान लोग बुद्धि रूपी सम्पत्ति से युक्त होते हैं। वे मतिवैभव-शाली कहलाते हैं। वे ही बुद्धि की चतुरता के बल पर असंभव कार्यों को भी सरलता से कर लेते हैं।
(ग) स शवः
न्यायाधीश बंकिमचन्द्रमहोदयैः अत्र प्रमाणस्य अभावे किमपि प्रच्छन्नः जनः साक्ष्यं प्राप्तुं नियुक्तः जातः। यद् घटितमासीत् सः सर्वं सत्यं ज्ञात्वा साक्ष्यं प्रस्तुतवान्। पाठेऽस्मिन् शवः एव ‘विचित्रः साक्षी’ स्यात्।
वह शव (लाश)-न्यायाधीश बंकिमचन्द्र महोदय के द्वारा यहाँ प्रमाण के अभाव में कोई गोपनीय व्यक्ति प्रमाण प्राप्त करने के लिए नियुक्त किया गया था। जो घटित हुआ था, उसने सब सत्य जानकर प्रमाण प्रस्तुत किया। इस पाठ में शव ही ‘विचित्र साक्षी’ है।
भाषिकविस्तारः
उपार्जितवान् – उप + √ अर्ज् + ल्युट्, युच् वा
दापयितुम् – √दा + णिच् + तुमुन्
HBSE 10th Class Sanskrit विचित्रः साक्षी शोभा Important Questions and Answers
प्रश्न 1.
अधोलिखितानां वाक्यानां/सूक्तीनां भावार्थ हिन्दीभाषायां लिखत
(अधोलिखित वाक्यों/सूक्तियों के भावार्थ हिन्दीभाषा में लिखिए-)
(क) “परमर्थकार्येन पीडितः स बसयानं विहाय पदातिरेव प्राचलत्।”
(धनाभाव से पीड़ित वह निर्धन व्यक्ति बस को छोड़कर पैदल ही चल पड़ा।)
भावार्थ :-उपर्युक्त पंक्ति हमारी संस्कृत की पाठ्यपुस्तक “शेमुषी भाग-2” में संकलित पाठ “विचित्रः साक्षी” से उद्धृत की गयी है। इसमें बताया गया है कि धनाभाव से पीड़ित व्यक्ति सुख-सुविधाओं की ओर ध्यान न देकर अपने कर्तव्य पालन में लगे रहते हैं।
कथा में वर्णित निर्धन व्यक्ति ने पुत्र को अच्छी शिक्षा देने के लिए कठोर परिश्रम से धन कमाया और अपने पुत्र को एक महाविद्यालय में प्रवेश दिलाया। एक बार छात्रावास में रहते हुए उसका पुत्र बीमार पड़ गया। पुत्र की बीमारी का समाचार पाकर उसे देखने के लिए वह घर से पैदल ही निकल पड़ा; क्योंकि धनाभाव के कारण वह बस का किराया नहीं दे सकता था।
उपर्युक्त पंक्ति का भाव यह है कि दरिद्रता सबसे बड़ा अभिशाप है। माता-पिता स्वयं कष्ट उठाकर भी सन्तान के भरण-पोषण और शिक्षण का उत्तरदायित्व निभाते हैं। वे व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं की ओर ध्यान न देकर अपने कर्तव्य पालन में लगे रहते हैं।
(ख) “निशान्धकारे प्रसृते विजनप्रदेशे पदयात्रा न शुभावहा।”
(रात्रि जनित अन्धकार के फैल जाने पर और मार्ग के निर्जन होने पर यात्रा करना हितकर नहीं होता है।)
भावार्थ :-निशान्धकारे प्रसृते —– इत्यादि सूक्ति हमारी संस्कृत की पाठ्यपुस्तक “शेमुषी भाग-2” में संकलित पाठ “विचित्र: साक्षी” से उद्धृत की गयी है। इसमें बताया गया है कि यात्रा से पूर्व उचित-अनुचित समय का विचार अवश्य कर लेना चाहिए।
उपर्युक्त सूक्ति का भाव यह है कि हम जब भी कोई कार्य आरम्भ करें तो पूर्वापर पर अवश्य विचार कर लें अर्थात् दिन-रात, सर्दी-गर्मी, लाभ-हानि आदि परिणामों पर अवश्य विचार कर लें क्योंकि ‘बिना विचारे जो काम होगा कभी न अच्छा परिणाम होगा’। यही सोचकर ‘विचित्रः साक्षी’ पाठ में यात्री ने यात्रा स्थगित करके रात को गाँव में ठहर जाने का निर्णय लिया था।
(ग) “प्रमाणाभावात् स निर्णेतुं नाशक्नोत्।”।
(प्रमाण के अभाव में वह न्यायाधीश निर्णय नहीं कर सकता था।)
भावार्थ:-प्रस्तुत पंक्ति हमारी संस्कृत की पाठ्यपुस्तक “शेमषी भाग-2” में संकलित पाठ “विचित्रः साक्षी” से उद्धृत की गयी है। इसमें बताया गया है कि प्रमाण के अभाव में सच्चे न्यायाधीश के लिए निर्णय करना कठिन होता है।
न्याय प्रमाणों के अधीन होता है। प्रमाण (सबूत) के बिना कोई भी व्यक्ति न्याय करने में समर्थ नहीं हो सकता। न्यायालय में भी न्यायाधीश किसी भी अभियोग में प्रमाणों के न मिलने पर न्याय करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। प्रस्तुत पाठ में चोरी के अभियोग में न्यायाधीश बंकिम चन्द्र पहली ही दृष्टि में प्रमाण न मिलने पर निर्णय नहीं कर सका। दूसरे दिन जब उस शव ने न्यायाधीश को सब कुछ बता दिया, तब प्रमाण सहित उसने आरक्षक (चौकीदार) को जेल की सजा देकर उस व्यक्ति को सम्मान पूर्वक छोड़ दिया। पंक्ति का भाव यही है कि ‘न्यायो भवति प्रमाणाधीनः’ न्याय प्रमाणों के अधीन होता है; क्योंकि सबूत के बिना न्याय नहीं किया जा सकता।
(घ) “विचित्रा दैवगतिः”।
(भाग्य के खेल न्यारे (अनोखे) होते हैं।)
भावार्थ:-“विचित्रा दैवगति” यह सूक्ति हमारी संस्कृत की पाठ्यपुस्तक “शेमुषी भाग-2” में संकलित पाठ “विचित्र: साक्षी” से उद्धृत की गयी है। इसमें भाग्य के आश्चर्यजनक होने की बात कही गयी है।
“विचित्रा दैवगतिः” इस सूक्ति के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि भाग्य कब किस करवट पलट जाए इसका कोई भरोसा नहीं है। क्षणभर में ही अपना पराया और पराया अपना बन जाता है। विपरीत भाग्य के चलते सच्चा झूठा प्रमाणित हो जाता है और झूठा सच्चा सिद्ध हो जाता है। ‘विचित्रः साक्षी’ इस कहानी में भी यह दिखाया गया है कि चोर को पकड़ने वाला ही चोर सिद्ध हो गया था। परन्तु भाग्य ने फिर करवट ली और न्यायाधीश के बुद्धिकौशल से दूध का दूध और पानी का पानी हो गया। सच है भाग्य की गति विचित्र है।
(ङ) दुष्कराण्यपि कर्माणि मतिवैभवशालिनः ।
नीतिं युक्तिं समालम्ब्य लीलयैव प्रकुर्वते ॥
(बुद्धिमान व्यक्ति नीति और युक्ति का आश्रय लेकर दुष्कर कार्यों को भी आसानी से ही सिद्ध कर लेते हैं।)
भावार्थ :-दुष्कराण्यपि कर्माणि —- इत्यादि सूक्ति “शेमुषी भाग-2” के “विचित्रः साक्षी” पाठ से उद्धृत की गयी है। इसमें बताया गया है कि बुद्धिमान व्यक्ति अपने बुद्धिकौशल से कठिन कार्यों को भी आसानी से ही कर लेते हैं।
उपर्युक्त सूक्ति का भाव यह है कि साधारण मनुष्यों के लिए जो कार्य असाध्य और दुष्कर होते हैं बुद्धिमान व्यक्ति नीति और युक्ति का सहारा लेकर उन्हें भी बड़ी सरलता से सिद्ध कर लेते हैं। जैसे “विचित्रः साक्षी” पाठ में ऐसा लग रहा था कि चोर बड़ी चालाकी से बच गया और चोर को पकड़ने वाला चोर सिद्ध हो गया परन्तु न्यायाधीश बंकिमचन्द्र चटर्जी ने युक्ति के सहारे से सही निर्णय करके सबको हतप्रभ कर दिया। इसीलिए तो कहा जाता है-“बुद्धिर्यस्य बलं तस्य”।
प्रश्न 2.
स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(स्थूलपदों के आधार पर प्रश्ननिर्माण कीजिए-)
(क) स बसयानं विहाय पदातिरेव प्राचलत्।
(ख) निशान्धकारे पदयात्रा न शुभावहा।
(ग) ग्रामस्य आरक्षी एव चौर आसीत्।
(घ) प्रमाणाभावात् स निर्णेतुं नाशक्नोत्।
(ङ) स भारवेदनया क्रन्दति स्म।
उत्तराणि-(प्रश्ननिर्माणम्)
(क) स किं विहाय पदातिरेव प्राचलत् ?
(ख) कदा पदयात्रा न शुभावहा ?
(ग) कस्य आरक्षी एव चौर आसीत् ?
(घ) कस्मात् स निर्णेतुं नाशक्नोत् ?
(ङ) स कया क्रन्दति स्म ?
प्रश्न 3.
अधोलिखित-प्रश्नानां प्रदत्तोत्तरविकल्पेषु शुद्धं विकल्पं विचित्य लिखत
(अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर के लिए दिए गए विकल्पों में से शुद्ध विकल्प चुनकर लिखिए-)
(क) ‘अभ्यागतम्’ पदस्य सन्धिविच्छेदोऽस्ति.
(i) अभि + आगतम्
(ii) अभ्या + आगतम्
(iii) अभि + यागतम्
(iv) अभी + आगतम्।
उत्तरम्:
(i) अभि + आगतम्।
(ख) ‘लीलया + एव’ अत्र सन्धियुक्तपदम्
(i) लीलयौव
(ii) लीलयैव
(iii) लीलयाव
(iv) लीलयेव।
उत्तरम्-
(ii) लीलयैव।
(ग) ‘निशान्धकारे’ अस्मिन् पदे कः समासोऽस्ति ?
(i) कर्मधारयः
(ii) तत्पुरुषः
(iii) अव्ययीभावः
(iv) द्वन्द्वः।
उत्तरम्:
(i) तत्पुरुषः
(घ) ‘सुपुष्टदेहः’ इति पदस्य समास-विग्रहः
(i) शोभनं पुष्टं देहम्
(ii) सुपुष्टः च देहः च तयोः समाहारः
(iii) सुपुष्टस्य देहः
(iv) सुपुष्ट: देहः यस्य सः।
उत्तरम्:
(iv) सुपुष्ट: देहः यस्य सः।
(ङ) ‘उक्तवान्’ इति पदे कः प्रत्ययः ?
(i) त्व .
(ii) तल्
(iii) क्त्वा
(iv) क्तवतु।
उत्तरम्:
(iv) क्तवतु।
(च) तौ न्यायाधीशं …….. प्रस्थितौ।
(रिक्तस्थानपूर्तिः अव्ययपदेन)
(i) एव
(ii) ह्यः
(iii) प्रति
(iv) च।
उत्तरम्
(iii) प्रति।
(छ) उपवने ………. युवकाः भ्रमणं कुर्वन्ति।
(रिक्तस्थानपूर्तिः उचितसंख्यापदेन)
(i) चतुरः
(ii) चत्वारः
(iii) चतस्रः
(iv) चत्वारि।
उत्तरम्:
(ii) चत्वारः।
(ज) जनः किमर्थं पदाति: गच्छति ?
(i) धनाभावात्
(ii) धनक्षयात्
(ii) धनरक्षणार्थम्
(iv) अज्ञानात्।
उत्तरम्:
(i) धनाभावात्।
(झ) वस्तुतः चौरः कः आसीत् ?
(i) न्यायाधीशः
(ii) निर्धनः
(iii) गृहस्थः
(iv) आरक्षी।
उत्तरम्:
(iv) आरक्षी।
(अ) “दिने’ अत्र का विभक्तिः प्रयुक्ता ?
(i) प्रथमा
(ii) सप्तमी
(ii) तृतीया
(iv) चतुर्थी।
उत्तरम्:
(ii) सप्तमी।
यथानिर्देशम् उत्तरत
(ट) ‘प्रस्थितौ’ इति पदस्य प्रकृति-प्रत्ययौ लिखत।
(ठ) ‘चौरः उच्चैः क्रोशितुमारभत । (अत्र किम् अव्ययपदं प्रयुक्तम्)
(ड) ‘तस्य मृतशरीरं राजमार्ग निकषा वर्तते। (‘वर्तते’ अत्र कः लकारः प्रयुक्तः ?)
(ढ) नवम्बरमासे 30 दिनानि भवन्ति। (अङ्कस्थाने संस्कृतसंख्यावाचक-विशेषणं लिखत)
(ण) मम जननी प्रातः 4.45 वादने ध्यानं करोति। (अंकस्थाने समयवाचकं संस्कृतशब्दं लिखत।)
(त) ‘तच्छ्रुत्वा’ इति पदस्य सन्धिविच्छेदं कुरुत।
उत्तराणि
(ट) ‘प्रस्थितौ’ = प्र + स्था + क्त।
(ठ) ‘उच्चैः’ इति अव्ययपदं प्रयुक्तम्।
(ड) ‘वर्तते’ अत्र लट् लकारः प्रयुक्तः ।
(ढ) नवम्बरमासे त्रिंशत् दिनानि भवन्ति ।
(ण) मम जननी प्रातः पादोनचतुर्वादने ध्यानं करोति।
(त) ‘तच्छ्रुत्वा’ = तत् + श्रुत्वा।
विचित्रः साक्षी पठित-अवबोधनम्
1. निर्देश:-अधोलिखितं गद्यांशं पठित्वा एतदाधारितान् प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृत-पूर्णवाक्येन लिखत
(अधोलिखित गद्यांश को पढ़कर इन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत के पूर्ण वाक्य में लिखिए-)
कश्चन निर्धनो जनः भूरि परिश्रम्य किञ्चिद् वित्तमुपार्जितवान्। तेन स्वपुत्रम् एकस्मिन् महाविद्यालये प्रवेशं दापयितुं सफलो जातः। तत्तनयः तत्रैव छात्रावासे निवसन् अध्ययने संलग्नः समभूत्। एकदा स पिता तनूजस्य रुग्णतामाकर्ण्य व्याकुलो जातः पुत्रं द्रष्टुं च प्रस्थितः। परमर्थकार्येन पीडितः स बसयानं विहाय पदातिरेव प्राचलत्।
पदातिक्रमेण संचलन् सायं समयेऽप्यसौ गन्तव्याद् दूरे आसीत्। निशान्धकारे प्रसृते विजने प्रदेशे पदयात्रा न शुभावहा। एवं विचार्य स पार्श्वस्थिते ग्रामे रात्रिनिवासं कर्तुं कञ्चिद् गृहस्थमुपागतः। करुणापरो गृही तस्मै आश्रयं प्रायच्छत्।
पाठ्यांश प्रश्नोत्तर
(क) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) निर्धन: जनः परिश्रम्य किम् उपार्जितवान् ?
(ii) निर्धनः स्वपुत्रम् कुत्र प्रवेशं दापयितुं सफलः जातः ?
(ii) पिता कस्य रुग्णताम् आकर्ण्य व्याकुलः जातः ?
(iv) निर्धन: केन पीडितः आसीत् ?
(v) निशान्धकारे का न शुभावहा ?
उत्तराणि
(i) निर्धनः जनः परिश्रम्य क्वित्तम् उपार्जितवान्।
(ii) निर्धनः स्वपुत्रम् एकस्मिन् महाविद्यालये प्रवेशं दापयितुं सफलः जातः ।
(iii) पिता तनूजस्य (पुत्रस्य) रुग्णताम् आकर्ण्य व्याकुलः जातः ।
(iv) निर्धनः अर्थकार्येन पीडितः आसीत्।
(v) निशान्धकारे पदयात्रा न शुभावहा।
(ख) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘परिश्रम्य’ अत्र प्रकृति-प्रत्यय-निर्देशं कुरुत।
(ii) ‘निष्फलः’ इत्यस्य प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(iii) ‘तनूजः’ इत्यस्य अत्र कः पर्यायः प्रयुक्तः ?
(iv) ‘करुणापरो गृही’ अत्र विशेषणपदं किम् ?
(v) ‘स बसयानं विहाय पदातिरेव प्राचलत्’ अत्र क्रियापदं किम् ?
उत्तराणि:
(i) परि + श्रम् + ल्यप्।
(ii) सफलः ।
(iii) तनयः ।
(iv) करुणापरः ।
(v) प्राचलत् ।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
शब्दार्थाः-भूरि = (पर्याप्तम्) अत्यधिक। वित्तम् = (धनम्)धन। उपार्जितवान् = (अर्जितवान्) कमाया। दापयितुम् = (प्रापयितुम्) प्राप्त करने में। तनयः = (पुत्रः) पुत्र। निवसन् = (वासं कुर्वन्) रहते हुए। तनूजस्य = (पुत्रस्य) पुत्र की। प्रस्थितः = (गतः) चला गया। अर्थकार्येन = (धनस्य अभावेन) धनाभाव के कारण। पदातिरेव = (पादाभ्याम् एव) पैदल ही। प्रसृते = (विस्तृत) फैलने पर। विजने प्रदेशे = (एकान्तप्रदेशे) एकान्त प्रदेश में। शुभावहा = (कल्याणप्रदा) कल्याणकारी। गृही = (गृहस्वामी) गृहस्थ।।
प्रसंग:-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘विचित्रः साक्षी’ नामक पाठ से लिया गया है। कोई निर्धन व्यक्ति छात्रावास में अपने बीमार पुत्र को देखने के लिए गया। मार्ग में अंधेरा होने से एक दयालु गृहस्थ ने रात्रि-निवास के लिए उसे आश्रय दे दिया। इसी का वर्णन प्रस्तुत गद्यांश में है।
सरलार्थ:-किसी निर्धन व्यक्ति ने अत्यधिक परिश्रम करके कुछ धन अर्जित किया। उससे अपने पुत्र को एक महाविद्यालय में प्रवेश दिलाने में सफल हुआ। उसका पुत्र वहीं छात्रावास में रहकर अध्ययन में संलग्न हो गया। एक बार वह पिता पुत्र की बीमारी को सुनकर व्याकुल हुआ और पुत्र को देखने के लिए चल पड़ा। परन्तु धन की अत्यधिक कमी से पीड़ित वह बस को छोड़कर पैदल ही चल दिया। __ लगातार पैदल चलता हुआ शाम के समय भी वह गन्तव्य से दूर था। रात का अंधेरा फैलने पर एकान्त प्रदेश में पैदल-यात्रा कल्याणकारी नहीं है, इस प्रकार सोचकर वह पास में स्थित ग्राम में रात्रि-निवास करने के लिए किसी गृहस्थ के पास गया। करुणापरायण गृहस्थी ने उसको आश्रय प्रदान कर दिया।
भावार्थ:-भाव यह है कि निर्धन व्यक्ति ने पुत्र को अच्छी शिक्षा देने के लिए कठोर परिश्रम से धन कमाया और अपने पुत्र को एक महाविद्यालय में प्रवेश दिलाया। एक बार छात्रावास में रहते हुए उसका पुत्र बीमार पड़ गया। पुत्र की बीमारी का समाचार पाकर उसे देखने के लिए वह घर से पैदल ही निकल पड़ा; क्योंकि धनाभाव के कारण वह बस का किराया नहीं दे सकता था। माता-पिता स्वयं कष्ट उठाकर भी सन्तान के भरण-पोषण और शिक्षण का उत्तरदायित्व निभाते हैं।
2. विचित्रा दैवगतिः। तस्यामेव रात्रौ तस्मिन् गृहे कश्चन चौरः गृहाभ्यन्तरं प्रविष्टः। तत्र निहितामेकां मञ्जूषाम् आदाय पलायितः। चौरस्य पादध्वनिना प्रबुद्धोऽतिथि: चौरशङ्कया तमन्वधावत् अगृणाच्च, परं विचित्रमघटत। चौरः एव उच्चैः क्रोशितुमारभत “चौरोऽयं चौरोऽयम्” इति। तस्य तारस्वरेण प्रबुद्धाः ग्रामवासिनः स्वगृहाद् निष्क्रम्य तत्रागच्छन् वराकमतिथिमेव च चौरं मत्वाभर्त्सयन्। यद्यपि ग्रामस्य आरक्षी एव चौर आसीत्। तत्क्षणमेव रक्षापुरुषः तम् अतिथिं चौरोऽयम् इति प्रख्याप्य कारागृहे प्राक्षिपत्।
पाठ्यांश प्रश्नोत्तर
(क) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) गृहाभ्यन्तरं कः प्रविष्टः ?
(ii) अतिथिः केन प्रबुद्धः ?
(ii) ‘चौरोऽयं चौरोऽयम्’ इति क्रोशितुं कः आरभत ?
(iv) के स्वगृहात् निष्क्रम्य तत्रागच्छन् ?
(v) वस्तुतः चौरः कः आसीत् ?
(vi) आरक्षी किम् अकरोत् ?
उत्तराणि
(i) गृहाभ्यन्तरं चौरः प्रविष्टः।
(ii) अतिथि: पादध्वनिना प्रबुद्धः।
(iii) ‘चौरोऽयं चौरोऽयम्’ इति क्रोशितुं चौरः आरभत।
(iv) ग्रामवासिनः स्वगृहात् निष्क्रम्य तत्रागच्छन्।
(v) वस्तुतः चौरः आरक्षी आसीत्।
(vi) आरक्षी तम् अतिथिं ‘चौरोऽयम्’ इति प्रख्याप्य कारागृहे प्राक्षिपत् ।
(ख) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘रक्षापुरुषः’ इत्यस्य पर्यायः अत्र कः ?
(ii) ‘विचित्रा दैवगतिः’ अत्र विशेष्यपदं किम् ?
(iii) ‘उच्चैः स्वरेण’ इत्यर्थे अत्र प्रयुक्तं पदं किम् ?
(iv) ‘चौरोऽयम्’ अत्र ‘अयम्’ इति सर्वनाम कस्मै प्रयुक्तम् ?
(v) ‘अभर्त्सयन्’ इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किम् ?
उत्तराणि:
(i) आरक्षी।
(ii) दैवगतिः ।
(iii) तारस्वरेण ।
(iv) अतिथये।
(v) ग्रामवासिनः ।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
शब्दार्थाः-दैवगतिः = (भाग्यस्थितिः) भाग्य की लीला। पलायितः = (वेगेन निर्गतः/पलायनमकरोत्) भाग गया, चला गया। प्रबुद्धः = (जागृतः) जागा हुआ। अन्वधावत् = (अन्वगच्छत्) पीछे-पीछे गया। क्रोशितुम् = (चीत्कर्तुम्) ज़ोर-ज़ोर से कहने/चिल्लाने। तारस्वरेण = (उच्चस्वरेण) ऊँची आवाज़ में। वराकः = (विवशः) बेचारा। अभर्त्सयन् = (भर्त्सनाम् अकुर्वन्) भला-बुरा कहा। पुंसः = (पुरुषस्य) मनुष्य का। निहिताम् = (स्थापिताम्) रखी हुई। प्रख्याप्य = (स्थाप्य) स्थापित करके।
प्रसंग:-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘विचित्रः साक्षी’ नामक पाठ से लिया गया है। रात्री में उस गृहस्थ के घर एक चोर घुस आया और उसके पैरों की आहट से जागे हुए उस अतिथि ने भागते हुए चोर को पकड़ लिया। चोर ने चतुराई दिखाई और अतिथि को ही चोर कहकर पकड़वा दिया। इसी का वर्णन प्रस्तुत गद्यांश में है।
सरलार्थः-भाग्य की गति विचित्र है। उसी रात्रि में उस घर में कोई चोर घर के भीतर घुस गया। वहाँ रखी एक सन्दूकची (पेटी) को लेकर भाग गया। चोर के पैरों की ध्वनि से जागा हुआ अतिथि चोर की आशंका से उसके पीछे दौड़ा और उसे पकड़ लिया, परन्तु विचित्र घटना घटी। चोर ने ही ऊँची आवाज़ में चिल्लाना आरम्भ किया “यह चोर है, यह चोर है।” उसके तेज़ स्वर से जागे ग्रामवासी अपने घर से निकलकर वहाँ आ गए और बेचारे अतिथि को ही चोर मानकर भला-बुरा कहने लगे। यद्यपि गाँव का चौकीदार ही चोर था। उसी क्षण रक्षा-पुरुष (चौकीदार) ने उस अतिथि को ‘यह चोर है’, ऐसा मानकर जेल में डाल दिया।
भावार्थ:-भाव यह है कि जब निर्धन व्यक्ति रात बिताने के लिए एक दयालु गृहस्थी के घर में ठहर गया तो दुर्भाग्यवश उसी रात्री गाँव का चौकीदार ही उस गृहस्थी के घर चोरी करने के लिए घुस आया। निर्धन व्यक्ति ने उसे पकड़ने का प्रयास भी किया परन्तु चौकीदार ने शोर मचाकर उस निर्धन को ही चोर बताकर कारावास भिजवा दिया। भाग्य की गति विचित्र है।
3. अग्रिमे दिने स आरक्षी चौर्याभियोगे तं न्यायालयं नीतवान्। न्यायाधीशो बंकिमचन्द्रः उभाभ्यां पृथक्पृथक् विवरणं श्रुतवान्। सर्वं वृत्तमवगत्य स तं निर्दोषम् अमन्यत आरक्षिणं च दोषभाजनम्। किन्तु प्रमाणाभावात् स निर्णेतुं नाशकतोत्। ततोऽसौ तौ अग्रिमे दिने उपस्थातुम् आदिष्टवान्। अन्येधुः तौ न्यायालये स्व-स्व-पक्षं पुनः स्थापितवन्तौ। तदैव कश्चिद् तत्रत्यः कर्मचारी समागत्य न्यवेदयत् यत् इतः क्रोशद्वयान्तराले कश्चिज्जनः केनापि
हतः। तस्य मृतशरीरं राजमार्ग निकषा वर्तते। आदिश्यतां किं करणीयमिति। न्यायाधीशः आरक्षिणम् अभियुक्तं च तं शवं न्यायालये आनेतुमादिष्टवान्।
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) न्यायाधीशः कः आसीत् ?
(ii) सर्वं वृत्तम् अवगम्य न्यायाधीशः दोषभाजनम् कम् अमन्यत ?
(i) न्यायाधीशः कस्मात् निर्णेतुं नाशक्नोत् ?
(iv) मृतशरीरं कं निकषा वर्तते ?
(v) न्यायाधीशः शवं कुत्र आनेतुम् आदिष्टवान् ?
उत्तराणि
(i) न्यायाधीशः बंकिमचन्द्रः आसीत्।
(ii) सर्वं वृत्तम् अवगम्य न्यायाधीश: दोषभाजनम् आरक्षिणम् अमन्यत।
(iii) न्यायाधीशः प्रमाणाभावात् निर्णेतुं नाशक्नोत्।
(iv) मृतशरीरं राजमार्ग निकषा वर्तते।
(v) न्यायाधीशः शवं न्यायालये आनेतुम् आदिष्टवान्।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) अग्रिमे दिने आरक्षी किम् अकरोत् ?
(ii) अन्येद्युः तौ न्यायालये किम् अकुरुताम् ?
(iii) कर्मचारी समागत्य किं न्यवेदयत् ?
(iv) न्यायाधीशः आरक्षिणम् अभियुक्तं च किं कर्तुम् आदिष्टवान् ?
उत्तराणि
(i) अग्रिमे दिने आरक्षी चौर्याभियोगे तम् अतिथिं न्यायालयं नीतवान्।
(ii) अन्येद्युः तौ न्यायालये स्व-स्व पक्षं पुनः स्थापितवन्तौ।
(iii) कर्मचारी समागत्य न्यवेदयत् यत् इतः क्रोशद्वयान्तराले कश्चिज्जनः केनापि हतः ।
(iv) न्यायाधीश: आरक्षिणम् अभियुक्तं च शवं न्यायालये आनेतुम् आदिष्टवान्।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘दोषभाजनम्’ इत्यस्य प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(ii) ‘निर्णेतुम्’ अत्र कः प्रत्ययः प्रयुक्तः ?
(iii) ‘अग्रिमे दिने’ इत्यर्थे प्रयुक्तं पदं किम् ?
(iv) ‘स निर्णेतुं नाशक्नोत्’ अत्र सः इति सर्वनाम कस्मै प्रयुक्तम् ?
(v) ‘न्यायाधीशः’ इति पदस्य विशेष्यपदं किम् ?
उत्तराणि:
(i) निर्दोषम्।
(ii) तुमुन्।
(iii) अन्येद्युः ।
(iv) न्यायाधीशाय।
(v) बंकिमचन्द्रः।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
शब्दार्थाः-चौर्याभियोगे = (चौरकर्मणि, चौर्यदोषारोपे) चोरी के आरोप में। नीतवान् = (अनयत्) ले गया। वृत्तम् = (वृत्तान्तम्) सब समाचार। अवगत्य = (ज्ञात्वा) जानकर। आरक्षिणम् = [(सैनिकम् (रक्षक पुरुष)] सैनिक। दोषभाजनम् = (दोषपात्रम्) दोषी। निर्णेतुम् = (निर्णयं कर्तुम्) निर्णय करने में। उपस्थातुम् = (उपस्थापयितुम्) उपस्थित होने के लिए। आदिष्टवान् = (आज्ञां दत्तवान्) आज्ञा दी। स्थापितवन्तौ = (स्थापनां कृतवन्तौ) स्थापना करके। तत्रत्यः = (तत्र भव:) वहाँ का। न्यवेदयत् = (प्रार्थयत्) प्रार्थना की। क्रोशद्वयान्तराले = (द्वयोः क्रोशयोः मध्ये) दो कोस के मध्य। आदिश्यताम् (आदेशं दीयताम्) आज्ञा दीजिए।
प्रसंग:-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘विचित्रः साक्षी’ नामक पाठ से लिया न्यायालय में लाने का आदेश दिया गया। इसी का वर्णन प्रस्तुत गद्यांश में है।
सरलार्थ:-अगले दिन वह चौकीदार चोरी के अभियोग में उसको न्यायालय ले गया। न्यायाधीश बंकिमचन्द्र ने उन दोनों से अलग-अलग विवरण सुना। सब समाचार जानकर उन्होंने उस (अतिथि) को निर्दोष माना और चौकीदार को अपराध का भागी, किन्तु प्रमाणों के अभाव में वे निर्णय न कर सके। तब उन्होंने दोनों को अगले दिन उपस्थित होने का आदेश दिया। दूसरे दिन उन दोनों ने न्यायालय में अपना-अपना पक्ष फिर से प्रस्तुत किया। तभी वहीं के किसी कर्मचारी ने आकर निवेदन किया कि यहाँ से दो कोश की दूरी पर कोई व्यक्ति किसी के द्वारा मार दिया गया है। उसका मृतशरीर राजमार्ग के समीप ही है। आदेश दें कि क्या किया जाए। न्यायाधीश ने चौकीदार और अभियुक्त को उस शव को न्यायालय में लेकर आने का आदेश दिया।
भावार्थ:-भाव यह है कि न्यायाधीश बंकिमचन्द्र ‘आरक्षी ही चोर है’ यह वास्तविकता जानते हुए भी प्रमाण के अभाव में अपना निर्णय देने में असमर्थ था। न्यायाधीश ने साक्ष्य जुटाने के लिए एक विवेकपूर्ण योजना बनाई।
4. आदेशं प्राप्य उभौ प्राचलताम्। तत्रोपेत्य काष्ठपटले निहितं पटाच्छादितं देहं स्कन्धेन वहन्तौ न्यायाधिकरणं प्रति प्रस्थितौ। आरक्षी सुपुष्टदेह आसीत, अभियुक्तश्च अतीव कृशकायः। भारवतः शवस्य स्कन्धेन वहनं तत्कृते दुष्करम् आसीत्। स भारवेदनया क्रन्दति स्म। तस्य क्रन्दनं निशम्य मुदित आरक्षी तमुवाच-रे दुष्ट! तस्मिन् दिने त्वयाऽहं चोरिताया मञ्जूषाया ग्रहणाद् वारितः। इदानीं निजकृत्यस्य फलं भुइक्ष्व। अस्मिन् चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे” इति प्रोच्य उच्चैः अहसत्। यथाकथञ्चिद् उभौ शवमानीय एकस्मिन् चत्वरे स्थापितवन्तौ।
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) काष्ठपटले कः निहितः आसीत् ?
(ii) आरक्षी कीदृशः आसीत् ?
(iii) अभियुक्तः कीदशः आसीत् ?
(iv) भारवेदनया कः क्रन्दति स्म ?
(v) उच्चैः कः अहसत् ?
उत्तराणि
(i) काष्ठपटले देहः निहितः आसीत्।
(ii) आरक्षी सुपुष्टदेहः आसीत्।
(iii) अभियुक्तः कृशकायः आसीत्।
(iv) भारवेदनया अभियुक्तः क्रन्दति स्म।
(v) उच्चैः आरक्षी अहसत्।
(ख) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) तो मृतदेहं स्कन्धेन वहन्ती कुत्र प्रस्थिती ?
(ii) अभियुक्तस्य कृते दुष्करं किम् आसीत् ?
(iii) आरक्षी किं निशम्य मुदितः आसीत् ?
(iv) उभौ शवम् आनीय कुत्र स्थापितवन्तौ ?
उत्तराणि
(i) तौ मृतदेहं स्कन्धेन वहन्तौ न्यायाधिकरणं प्रति प्रस्थितौ।
(ii) भारवतः शवस्य स्कन्धेन वहनम् अभियुक्तस्य कृते दुष्करम् आसीत्।
(iii) आरक्षी अभियुक्तस्य क्रन्दनं निशम्य मुदितः आसीत्।
(iv) उभौ शवम् आनीय एकस्मिन् चत्वरे स्थापितवन्तौ।
(ग) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘कृशकायः’ इत्यस्य प्रयुक्तं विलोमपदं किम् ?
(ii) ‘कठिनम्’ इत्यस्य प्रयुक्तं समानार्थकपदं किम् ?
(iii) ‘स भारवेदनया क्रन्दति स्म’ अत्र ‘स’ इति सर्वनाम कस्मै प्रयुक्तम् ?
(iv) ‘त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे’ अत्र क्रियापदं किमस्ति ?
(v) ‘निशम्य’ अस्य प्रकृति-प्रत्यय-निर्देशं कुरुत।
उत्तराणि:
(i) सुपुष्टदेहः।
(ii) दुष्करम्।
(iii) अभियुक्ताय।
(iv) लप्स्यसे।
(v) नि + शम् + ल्यप् ।
हिन्दीभाषया पाठबोध:
शब्दार्थाः-उपेत्य = (समीपं गत्वा) पास जाकर। काष्ठपटले = (काष्ठस्य पटले) लकड़ी के तख्ते पर। निहितम् = (स्थापितम्) रखा गया। पटाच्छादितम् = (वस्त्रेणावृतम्) कपड़े से ढका हुआ। वहन्तौ = (धारयन्तौ) धारण करते हुए, वहन करते हुए। कृशकायः = (दुर्बलं शरीरम्) कमज़ोर शरीरवाला। भारवतः = (भारवाहिनः) भारवाही। भारवेदनया = (भारपीडया) भार की पीड़ा से। क्रन्दनम् = (रोदनम्) रोने को। निशम्य = (श्रुत्वा) सुन करके। मुदितः = (प्रसन्नः) प्रसन्न। वारितः = (निवारितः) रोका गया। भुक्ष्व = (अनुभवतु) अनुभव करो, भोगो। लप्स्यसे = (प्राप्स्यसे) प्राप्त करोगे। चत्वरे = (प्राङ्गणे) चबूतरे पर। __ प्रसंग:-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘विचित्रः साक्षी’ नामक पाठ से लिया गया है। न्यायाधीश ने चौकीदार और अभियुक्त को वह शव लाने के लिए भेज दिया। शव भारी था अभियुक्त शरीर से कमज़ोर था। अतः शव के भार के कारण वह रोने लगा और बड़ी कठिनता से वे दोनों उस शव को न्यायालय तक ला सके। इसी का वर्णन प्रस्तुत गद्यांश में हैं।
सरलार्थः-आदेश पाकर दोनों चल दिए। वहाँ पहुँचकर लकड़ी के तख्ते पर रखे कपड़े से ढके शरीर को कन्धे पर ढोते हुए दोनों न्यायालय की ओर चल दिए। चौकीदार शरीर से बहुत तन्दरुस्त था और अभियुक्त अत्यधिक दुबले शरीर वाला। भारी शव को कन्धे पर ढोना उसके लिए कठिन था। वह भार की पीड़ा से रो रहा था। उसका रोना सुनकर प्रसन्न चौकीदार ने उससे कहा-“अरे दुष्ट! उस दिन तूने मुझे चोरी की पेटी लेने से रोका था। इस समय अपनी करनी का फल भोग। इस चोरी के अभियोग में तू तीन वर्ष की जेल की सजा पाएगा।” ऐसा कहकर जोर से हँसा। जिस किसी प्रकार से दोनों ने शव को लाकर एक चबूतरे पर रख दिया।
भावार्थः-भाव यह है कि न्यायाधीश बंकिमचन्द्र के आदेश पर जब आरक्षी और निर्धन व्यक्ति शव को उठाकर न्यायालय की ओर ला रहे थे तो रास्ते में सुपुष्ट शरार वाले आरक्षी ने शव के भार से पीड़ित तथा कमजोर शरीर वाले निर्धन व्यक्ति पर कटाक्ष करते हुए कहा-“अरे दुष्ट! उस दिन तूने मुझे चोरी की पेटी लेने से रोका था। इस समय अपनी करनी का फल भोग। इस चोरी के अभियोग में तू तीन वर्ष की जेल की सजा पाएगा।” यह कहकर शव का नाटक कर रहे व्यक्ति के सामने आरक्षी ने चोरी करने की बात स्वीकार कर ली थी।
5. न्यायाधीशेन पुनस्तौ घटनायाः विषये वक्तुमादिष्टौ। आरक्षिणि निजपक्षं प्रस्तुतवति आश्चर्यमघटत स शवः प्रावारकमपसार्य न्यायाधीशमभिवाद्य निवेदितवान्-मान्यवर! एतेन आरक्षिणा अध्वनि यदुक्तं तद वर्णयामि ‘त्वयाऽहं चोरितायाः मञ्जूषायाः ग्रहणाद् वारितः, अतः निजकृत्यस्य फलं भुइक्ष्व। अस्मिन् चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे’ इति। न्यायाधीशः आरक्षिणे कारादण्डमादिश्य तं जनं ससम्मानं मुक्तवान्। अतएवोच्यते –
दुष्कराण्यपि कर्माणि मतिवैभवशालिनः।
नीतिं युक्तिं समालम्ब्य लीलयैव प्रकुर्वते॥
पाठ्यांश-प्रश्नोत्तर
(क) पूर्णवाक्येन उत्तरत
(i) आरक्षिणि निजपक्षं प्रस्तुतवति किम् अघटत ?
(ii) शवः कम् अभिवाद्य निवेदितवान् ?
(iii) कस्य फलं भुक्ष्व ?
(iv) न्यायाधीशः कस्मै कारादण्डम् आदिष्टवान् ?
(v) दुष्कराणि अपि कर्माणि के कुर्वन्ति ?
उत्तराणि
(i) आरक्षिणि निजपक्षं प्रस्तुतवति आश्चर्यम् अघटत।
(ii) शवः न्यायाधीशम् अभिवाद्य निवेदितवान्।
(iii) निजकृत्यस्य फलं भुझ्व।।
(iv) न्यायाधीशः आरक्षिणे कारादण्डम् आदिष्टवान्।
(v) दुष्कराणि अपि कर्माणि मतिवैभवशालिनः कुर्वन्ति।
(ख) निर्देशानुसारम् उत्तरत
(i) ‘आवरणम्’ इत्यर्थे अत्र प्रयुक्तं पदं किम् ?
(ii) ‘अध्वनि’ इति पदे का विभक्तिः प्रयुक्ता ?
(ii) ‘वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे’ अत्र कर्मपदं किमस्ति ?
(iv) ‘लीलयैव’ अत्र सन्धिच्छेदं कुरूत।
(v) ‘समालम्ब्य’ अत्र प्रकृति-प्रत्यय-निर्देशं कुरुत।
उत्तराणि:
(i)प्रावारकम्।
(ii) सप्तमी विभक्तिः ।
(iii) कारादण्डम्।
(iv) लीलया + एव।
(v) सम् + आ + लज्ज् + ल्यप्।
हिन्दीभाषया पाठबोधः
शब्दार्थाः-प्रावारकम् = (उत्तरीयवस्त्रम्) ओढ़ने की चादर। अपसार्य = (अपवार्य) दूर करके। अभिवाद्य = (अभिवादनं कृत्वा) अभिवादन करके। अध्वनि = (मार्गे) रास्ते में। यदुक्तम् = (यत् कथितम्) जो कहा गया। आदिश्य = (आदेशं दत्वा) आदेश देकर। मुक्तवान् = (अत्यजत्) छोड़ दिया। मतिवैभवशालिनः = (बुद्धिसम्पत्ति सम्पन्नाः) बुद्धिरूपी सम्पत्ति से सम्पन्न। समालम्ब्य = (आश्रयं गृहीत्वा) सहारा लेकर। लीलयैव = [(कौतुकेन (सुगमतया)] खेल-खेल में।
प्रसंग:-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ के ‘विचित्रः साक्षी’ नामक पाठ से लिया गया है। न्यायाधीश ने शव के आ जाने पर चौकीदार के पक्ष को फिर से सुना। तभी अचानक शव उठ खड़ा हुआ और जो रास्ते में भार से रोते हुए अभियुक्त को चौकीदार ने कहकर उसकी हँसी उड़ाई थी वह ज्यों का त्यों शव ने न्यायाधीश के सामने कह दिया। जिसके आधार पर निर्णय सुनाया गया। इसी का वर्णन प्रस्तुत गद्यांश में है।
सरलार्थ:-न्यायाधीश ने दोनों को पुनः घटना के विषय में बताने का आदेश दिया। चौकीदार द्वारा अपना पक्ष प्रस्तुत करते आश्चर्य घटित हो गया, उस शव ने कफन को हटाकर न्यायाधीश को नमस्कार करके निवेदन किया-मान्यवर! इस चौकीदार द्वारा मार्ग में जो कहा गया, उसका वर्णन करता हूँ-मुझे तूने चोरी की पेटी लेने से रोका था; अतः अपनी करनी का फल भोग। इस चोरी के अभियोग में तू तीन वर्ष की जेल की सजा पाएगा।”
न्यायाधीश ने चौकीदार को जेल की सजा का आदेश देकर उस व्यक्ति को सम्मानपूर्वक मुक्त कर दिया। इसीलिए कहा गया है-बुद्धि की सम्पत्ति वाले व्यक्ति नीति और युक्ति का सहारा लेकर लीलापूर्वक दुष्कर कार्यों को भी कर लेते हैं।
भावार्थ:-न्यायालय में न्यायाधीश के सामने शव ने कफन को हटाकर चौकीदार ने मार्ग में जो कहा गया था वह सब सच-सच बता दिया। इसी गवाही के आधार पर अपराधी सिद्ध हुए आरक्षी को दण्डित किया गया और निर्धन व्यक्ति को सम्मान पूर्वक मुक्त कर दिया गया। भाव यह है कि ठीक निर्णय तक पहुँचने के लिए यदि योजनाबद्ध ढंग से प्रमाण जुटाने का कार्य किया जाए तो चालाक से चालाक अपराधी को भी दण्डित किया जा सकता है।
विचित्रः साक्षी Summary in Hindi
विचित्रः साक्षी (विचित्र गवाह) पाठ-परिचय
अनेक बार विवाद इस सीमा तक बढ़ जाता है कि उसके निवारण के लिए न्याय करने में निपुण, विवेकशील, पक्षपात से रहित किसी धैर्यवान् न्यायाधीश की आवश्यकता होती है। वह भी न्याय करते समय प्रत्यक्ष गवाहों की अपेक्षा रखता है। परन्तु अनेक बार गवाह ही सम्बन्धित विषय को इतना उलझा देते हैं कि निर्णय करना बड़ा कठिन हो जाता है। प्रसिद्ध बांगला साहित्यकार बंकिमचन्द्र चटर्जी ने साहित्य रचना के साथ-साथ न्यायाधीश के पद पर कार्य करते हुए ऐसे अनेक उचित निर्णय लिए जिनमें गवाही (साक्ष्य) इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थी, जितना महत्त्वपूर्ण चटर्जी का बुद्धिकौशल था। इन्हीं फैसलों पर आधारित निर्णयों को लेकर श्री ओमप्रकाश ठाकुर ने संस्कृत में अनेक आधुनिक कथाएँ लिखीं। उन्हीं में से एक कथा का सम्पादित अंश प्रस्तुत पाठ ‘विचित्रः साक्षी’ है।
सत्यासत्य के निर्णय के लिए न्यायाधीश कभी-कभी ऐसी युक्तियों का प्रयोग करते हैं जिससे साक्ष्य के अभाव में भी न्याय हो सके। इस कथा में भी विद्वान् न्यायाधीश ने ऐसी ही युक्ति का प्रयोग कर न्याय करने में सफलता पाई है।
विचित्रः साक्षी पाठस्य सारांश:
श्री ओमप्रकाश ठाकुर ने संस्कृत में अनेक आधुनिक कथाएँ लिखीं। उन्हीं में से एक कथा का सम्पादित अंश प्रस्तुत पाठ ‘विचित्रः साक्षी’ है। प्रसिद्ध बांगला साहित्यकार बंकिमचन्द्र चटर्जी ने साहित्य रचना के साथ-साथ न्यायाधीश
के पद पर कार्य करते हुए ऐसे अनेक उचित निर्णय लिए जिनमें गवाही (साक्ष्य) इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थी, जितना महत्त्वपूर्ण चटर्जी का बुद्धिकौशल. था। इस कथा में एक ऐसे ही विवेकपूर्ण निर्णय को चित्रित किया गया है।
किसी निर्धन व्यक्ति ने पुत्र को अच्छी शिक्षा देने के लिए कठोर परिश्रम से धन कमाया और अपने पुत्र को एक महाविद्यालय में प्रवेश दिलाया। एक बार छात्रावास में रहते हुए उसका पुत्र बीमार पड़ गया। पुत्र की बीमारी का समाचार पाकर उसे देखने के लिए वह घर से पैदल ही निकल पड़ा; क्योंकि धनाभाव के कारण वह बस का किराया नहीं दे सकता था। भाग्य की गति विचित्र है। जब निर्धन व्यक्ति रात बिताने के लिए एक दयालु गृहस्थी के घर में ठहर गया तो दुर्भाग्यवश उसी रात्री गाँव का चौकीदार ही उस गृहस्थी के घर चोरी करने के लिए घुस आया। निर्धन व्यक्ति ने उसे पकड़ने का प्रयास भी किया परन्तु चौकीदार ने शोर मचाकर उस निर्धन को ही चोर बताकर कारावास भिजवा दिया। विवाद न्यायालय तक पहुँचा। न्यायाधीश बंकिमचन्द्र ‘आरक्षी ही चोर है’ यह वास्तविकता जानते हुए भी प्रमाण के अभाव में अपना निर्णय देने में असमर्थ था। न्यायाधीश ने साक्ष्य जुटाने के लिए एक विवेकपूर्ण योजना बनाई। राजमार्ग के निकट एक शव रखवाकर उसे न्यायालय में लाने का आदेश उन दोनों को दिया गया।
न्यायाधीश बंकिमचन्द्र के आदेश पर जब आरक्षी और निर्धन व्यक्ति शव को उठाकर न्यायालय की ओर ला रहे थे तो रास्ते में सुपुष्ट शरार वाले आरक्षी ने शव के भार से पीड़ित तथा कमजोर शरीर वाले निर्धन्न व्यक्ति पर कटाक्ष करते हुए कहा-“अरे दुष्ट! उस दिन तूने मुझे चोरी की पेटी लेने से रोका था। इस समय अपनी करनी का फल भोग। इस चोरी के अभियोग में तू तीन वर्ष की जेल की सजा पाएगा।” यह कहकर शव का नाटक कर रहे व्यक्ति के सामने आरक्षी ने चोरी करने की बात स्वीकार कर ली। जिस किसी प्रकार से दोनों ने शव को लाकर एक चबूतरे पर रख दिया। न्यायाधीश के सामने शव ने कफन को हटाकर चौकीदार ने मार्ग में जो कहा गया था वह सब सचसच बता दिया। इसी गवाही के आधार पर अपराधी सिद्ध हुए आरक्षी को दण्डित किया गया और निर्धन व्यक्ति को सम्मान पूर्वक मुक्त कर दिया गया।
कथा का सार यह है कि यदि ठीक निर्णय तक पहुँचने के लिए योजनाबद्ध ढंग से प्रमाण जुटाने का कार्य किया जाए तो चालाक से चालाक अपराधी को भी दण्डित किया जा सकता है; क्योंकि अपराधी कोई न कोई गलती कर ही बैठता है और वह गलती ही उसे अपराधी सिद्ध करने के लिए प्रमाण बन जाती है। न्यायाधीश बंकिमचन्द्र चटर्जी ने युक्ति के सहारे सही निर्णय करके सबको हतप्रभ कर दिया। इसीलिए तो कहा जाता है-“बुद्धिर्यस्य बलं तस्य”।