Haryana State Board HBSE 12th Class Hindi Solutions कैसे लिखें कहानी Questions and Answers, Notes.
Haryana Board 12th Class Hindi कैसे लिखें कहानी
प्रश्न 1.
कहानी के स्वरूप एवं परिभाषा पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
कहानी हमारे जीवन से अत्यधिक जुड़ी हुई है, बल्कि यह हमारे जीवन का अविभाज्य अंग है। जीवन में प्रत्येक व्यक्ति कहानी सुनता भी है और सुनाता भी है। हो सकता है उसके द्वारा सुनी या सुनाई गई कहानी का स्वरूप कुछ अलग हो। जब कोई व्यक्ति किसी बात को घुमा फिराकर कहता है तो सुनने वाला व्यक्ति कहता है कि मुझे कहानी मत सुनाओ। मुझे असली बात बताओ। जहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक होगा कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुभवों को बाँटना चाहता है और दूसरों के अनुभवों को सुनना चाहता है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि हम सब अपनी बातें अपने साथियों को सुनाना चाहते हैं और उनकी बातों को सुनना चाहते हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति में कहानी लिखने का भाव विद्यमान है। कुछ लोग इस भाव का विकास कर लेते हैं और कुछ नहीं कर पाते। अतः कहानी मानव मन की जिज्ञासा, उत्सुकता और कौतूहल को शांत करने में सहायक होती है।
आज भी कहानी साहित्य की लोकप्रिय विधा कही जा सकती है। कहानी की कहानी बहुत पुरानी है। विश्व की प्रत्येक भाषा में हमें कहानी साहित्य प्राप्त होता है। उदाहरण के रूप में भारत में पंचतंत्र की कहानियाँ काफी लोकप्रिय हैं। कहानी किसी एक की नहीं होती, कहानी कहने वालों और सुनने वालों की होती है। अकसर नानी, दादी से हम कहानियाँ सुनते रहते हैं परंतु कहानी क्या है? इसके बारे में विद्वानों ने अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं। कहानी के बारे में कोई सर्वसम्मत परिभाषा नहीं दी जा सकती। यहाँ एक-दो परिभाषाएँ दी जा रही हैं। एडगर एलियन के अनुसार-A short story is a narrative short enough to be read in a single sitting written to make an impression on the reader excluding all that does not forward that impression complete and final in itself. अर्थात् कहानी एक संक्षिप्त तथा प्रभावशाली आख्यान है। इसमें सीमित तथा प्रभावपूर्ण कथानक होता है और यह एक सीमित समय में पढ़ा जाता है।
हिंदी कहानीकार मुंशी प्रेमचंद के अनुसार-“गल्प ऐसी रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली, उसका कथा-विन्यास सब उस एक भाव को पुष्ट करता है।”
संक्षेप में, हम कह सकते हैं “किसी घटना, पात्र या समस्या का क्रमबद्ध ब्योरा जिसमें परिवेश हो, द्वंद्वात्मकता हो, कथा का क्रमिक विश्वास हो, चरम उत्कर्ष का बिंदु हो, उसे कहानी कहा जा सकता है।” अन्य शब्दों में, हम कह सकते हैं
- कहानी में एकतथ्यता होती है जिसका संबंध घटना से होता है।
- घटना का स्थान अनुभूति भी ले सकती है।
- कहानी मनोरंजन करती है परंतु वह भावों को जागृत भी करती है।
- कहानी घटना-प्रधान भी हो सकती है और चरित्र-प्रधान भी।
- कहानी में तीव्रता और ताज़गी होनी चाहिए।
- कहानी की भाषा सहज, सरल तथा बोधगम्य होनी चाहिए।
प्रश्न 2.
कहानी के इतिहास का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
कहानी का इतिहास बहुत पुराना है। यह उतना ही पुराना है जितना कि मानव का इतिहास। कारण यह है कि कहानी मानव-स्वभाव और प्रकृति का अंग है। कहानी कहने की कला प्राचीनकाल से चली जा रही है। धीरे-धीरे इस कला का विकास होने लगा। प्राचीनकाल में कथावाचक कहानियाँ सुनाते थे। अकसर किसी घटना अथवा युद्ध, प्रेम या बदले की भावना के किस्से या कहानियाँ सुनाई जाती थीं। परंतु कहानी सुनाने वाला अब घटनाओं पर आधारित कहानी सुनाता था तो उसमें वह अपनी कल्पना का भी मिश्रण कर देता था। अकसर यह देखने में आया है कि मनुष्य वही कुछ सुनना चाहता है जो उसे प्रिय लगता है। उदाहरण के रूप में, हम यह मान लें कि हमारा नायक युद्ध में हार गया, परंतु हम यह सुनना चाहते हैं कि वह नायक बड़ी वीरता से लड़ा और उसने एक महान उद्देश्य के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए तो कथावाचक अपनी कल्पना का प्रयोग करते हुए नायक की वीरता का बखान करेगा।
वह तथ्यता में कल्पना का मिश्रण करेगा। ऐसा करने से श्रोता न केवल कथावाचक की प्रशंसा करेंगे, बल्कि उसे इनाम भी देंगे। मौखिक कहानी की परंपरा हमारे देश में प्राचीनकाल से चली आ रही है। यह परंपरा देश के अनेक भागों में भी विद्यमान है। विशेषकर राजस्थान में मौखिक कहानी की परंपरा लंबे काल से चली आ रही है। प्राचीनकाल में मौखिक कहानियाँ काफी लोकप्रिय होती थीं। इसका प्रमुख कारण यह था कि उस समय संचार का कोई ओर माध्यम नहीं था। यही कारण है कि धर्म प्रचारकों ने अपने सिद्धांतों तथा विचारों का प्रचार करने के लिए कहानी का आश्रय लिया। यही नहीं, शिक्षा देने के लिए भी कहानी का सहारा लिया गया। उदाहरण के रूप में पंचतंत्र में शिक्षाप्रद कहानियाँ लिखी गई हैं। अतः हम कह सकते हैं कि आदिकाल में ही कहानी के साथ उद्देश्य जुड़ गया। आगे चलकर उद्देश्य कहानी का एक अनिवार्य तत्त्व बन गया।
प्रश्न 3.
कहानी के केंद्रीय बिंदु ‘कथानक’ पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वस्तुतः कथानक कहानी का केंद्र-बिंदु कहा जा सकता है। इसे हम कथावस्तु भी कहते हैं। एक परिभाषा के अनुसार कथानक वह तत्त्व है जिसमें कहानी का वह संक्षिप्त रूप जिसमें आरंभ से अंत तक कहानी की सभी घटनाओं और पात्रों का प्रयोग किया गया हो, उसे कथानक कहते हैं। कथानक कहानी का अनिवार्य तत्त्व है। इसके बिना कहानी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कहानीकार किसी एक मौलिक भाव या समस्याओं के लिए घटनाओं की योजना करता है।
इसी को हम कथानक कहते हैं। एक विद्वान ने कथानक को कहानी का प्रारंभिक नक्शा कहा है। जिस प्रकार मकान बनाने से पहले कागज़ पर एक नक्शा बनाया जाता है उसी प्रकार कहानी लिखने से पहले लेखक अपने मन में किसी घटना की जानकारी, अनुभव आदि का नक्शा तैयार कर लेता है। कभी तो कहानीकार पूरे कथानक की जानकारी पा लेता है और कभी कथानक के केवल एक सूत्र को ही प्राप्त कर पाता है।
उदाहरण के रूप में यदि कहानीकार को एक छोटा-सा प्रसंग या पात्र भा जाता है तो वह उसी को विस्तार देने में जुड़ जाता है। इसके लिए वह अपनी मौलिक कल्पना का प्रयोग करता है। पात्र कहानी की कल्पना कोरी कल्पना नहीं होती। यह ऐसी कल्पना नहीं होती जो असंभव हो बल्कि यह संभव कल्पना होती है। कल्पना का विस्तार करने के लिए कहानीकार के पास जो सूत्र होता है उसी के द्वारा वह कथानक को आगे बढ़ाता है। परिवेश, पात्र तथा समस्या से कहानीकार को यह सूत्र मिलता है।
इन तीनों के समन्वित आधार पर लेखक संभावनाओं के बारे में विचार करता है और एक संभव काल्पनिक ढाँचा तैयार करता है, लेकिन यह भी आवश्यक है कि लेखक का काल्पनिक ढाँचा उसके उद्देश्यों से मेल खाता हो। यहाँ एक मरीज का उदाहरण दिया जा सकता है जो पिछले एक सप्ताह से लगातार अस्पताल में आ रहा है परंतु डॉक्टर से मिलने के लिए उसकी बारी नहीं आती। यह सूत्र मिलने के बाद लेखक अस्पताल, वहाँ की व्यवस्था तथा पात्रों की गतिविधियों के बारे में सोचने लग जाएगा और साथ ही अपने उद्देश्य का भी निर्णय कर लेगा। यहाँ दो-तीन बातें हो सकती हैं। पहली बात यह है कि लेखक अस्पताल पर कहानी लिखना चाहता है अथवा वह मरीज की पीड़ा को आप तक पहुँचाना चाहता है अथवा वह मानवीय त्रासदी को सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों से जोड़ना चाहता है।
प्रश्न 4.
कथानक में आरंभ, मध्य और अंत के महत्त्व को स्पष्ट करें।
उत्तर:
कथानक को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-आरंभ, मध्य और अंत, इन तीनों के समन्वित रूप को हम कथानक कह सकते हैं। कथानक का आरंभ आकर्षक होना चाहिए। मध्य स्वाभाविक और कुतूहलवर्धक होना चाहिए और अंत आकस्मिक होने पर भी अप्रत्याशित नहीं होना चाहिए। एक पाश्चात्य विद्वान ने कथानक की तुलना रेस कोर्स के घोड़े के साथ की हैं जिसमें आरंभ और अंत का विशेष महत्त्व है जो कहानी को रोचक बनाता है। द्वंद्व का मतलब है-बाधा अर्थात् कहानी में परिस्थितियाँ इस प्रकार उपस्थित होती हैं कि उनके रास्ते में बाधा उत्पन्न हो जाती है जिससे द्वंद्व की उत्पत्ति उत्पन्न होती है। कथानक की पूर्णता तभी होगी जब कहानी नाटकीय ढंग से अपने उद्देश्य को पूरा करके समाप्त हो जाएगी, परंतु कहानी में अंत तक रोचकता बनी रहनी चाहिए। द्वंद्व के कारण भी रोचकता बनी रह सकती है।
प्रश्न 5.
कहानी में देशकाल, स्थान और परिवेश का क्या महत्त्व है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
कहानी की प्रत्येक घटना, पात्र और समस्या का अपना देशकाल, स्थान और परिवेश होता है। जब कहानी के कथानक का स्वरूप बनकर तैयार हो जाता है तब कहानीकार कथानक के देशकाल और स्थान को अच्छी प्रकार समझ लेता है। यहाँ इस बात का उल्लेख करना उचित होगा कि कहानी को प्रामाणिक तथा रोचक बनाने के लिए देशकाल और स्थान का विशेष महत्त्व होता है। उदाहरण के लिए, जब किसी सरकारी कार्यालय से कथानक लिया जाता है तो उस कार्यालय के पूरे परिवेश, ध्वनियों, कार्य-व्यापार, वहाँ के लोग, उनके आपसी संबंध, नित घटने वाली घटनाओं की जानकारी जरूरी होती है। लेखक जब कथानक को आधार बनाकर कहानी का विकास करने लगता है तब ये जानकारियाँ उसके लिए सहायक होती हैं। अतः प्रत्येक कहानी में देशकाल अथवा वातावरण का अपना महत्त्व है। यह कहानी का आवश्यक तत्त्व माना गया है।
प्रश्न 6.
कहानी में पात्रों के चरित्र-चित्रण का क्या महत्त्व है?
अथवा
कहानी में पात्रों की भूमिका को स्पष्ट करें।
उत्तर:
पात्रों का चरित्र-चित्रण कहानी में दूसरा तत्त्व माना गया है। कहानीकार कथावस्तु की योजना पात्र के चरित्र विकास की दृष्टि से करता है। कहानी में प्रत्येक पात्र का अपना स्वरूप, स्वभाव तथा उद्देश्य होता है। कभी तो उसके चरित्र का विकास होता है तो कभी उसका चरित्र बदलता है। पात्रों का स्वरूप स्पष्ट होना चाहिए। यदि स्वरूप स्पष्ट होगा तो पात्रों का चरित्र-चित्रण सहज हो सकेगा और संवाद लिखने में भी सुविधा होगी। यही कारण है कि कहानीकार ने पात्रों के चरित्र-चित्रण को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है। इस तत्त्व के अंतर्गत पात्रों के आपसी संबंधों पर विचार करना जरूरी है। कहानीकार को इस बात का समुचित ज्ञान होना चाहिए कि किस स्थिति में किस पात्र की क्या प्रतिक्रिया होगी। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि कहानीकार और उसकी कहानी के पात्रों में समीपस्थ संबंध होना चाहिए।
पात्रों का चरित्र-चित्रण करने और उन्हें अधिक प्रभावशाली ढंग से लाने के अनेक तरीके हैं। चरित्र-चित्रण का सर्वाधिक सरल तरीका है कि कहानीकार स्वयं पात्रों के गुणों का वर्णन करे । जैसे-“मोहन बड़ा वीर सैनिक है, उसने युद्ध क्षेत्र में अनेक बार अपनी वीरता का परिचय दिया। वह अपनी जान की परवाह नहीं करता तथा शत्रुओं का डटकर सामना करता है।” परंतु यह तरीका प्रभावहीन होने के साथ-साथ पुराना पड़ चुका है। एक दूसरा तरीका भी है।
पात्रों का चरित्र-चित्रण उनके क्रियाकलापों, उनके संवादों तथा दूसरे लोगों द्वारा बोले गए संवादों से प्रभावशाली बन सकता है। उदाहरण देखिए-“मोहन ने युद्ध क्षेत्र में अपने एक जख्मी साथी को कँधे पर उठाकर सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया और उसके बाद वह पुनः शत्रुओं पर गोलियाँ बरसाने लगा। बाद में पता चला कि उसके साथी की जान बच गई थी।” इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि पात्र ने जो काम किया है, उससे उसके चरित्र का पता चलता है।
कभी-कभी जब अन्य पात्र किसी चरित्र का वर्णन करते हुए संवादों का जो प्रयोग करते हैं उससे भी पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का पता चलता है। जैसे-मोहन के बारे में एक सैनिक ने ग्रुप कमांडर को कहा, “सर! यह तो मोहन ही था जिसने अपनी जान की परवाह न करके बुरी तरह से घायल मुरलीधर को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और फिर पुनः युद्ध में शत्रुओं पर गोलियाँ बरसाने लगा।”
कभी-कभी पात्रों की अभिरुचियों द्वारा भी उनका चरित्र-चित्रण किया जाता है। उदाहरण के रूप में, कोई पात्र नदी में तैरने का बड़ा शौकीन है। वह उभरती नदी को एक किनारे से दूसरे किनारे तैरकर पार कर लेता है। इससे पता चलता है कि वह एक साहसी व्यक्ति है। एक अन्य पात्र है जो बात-बात पर झूठ बोलता है। मौका लगने पर चोरी भी कर लेता है। कर्ज़ वापिस नहीं करता। रिश्वत भी लेता है। इस प्रकार के पात्र का स्वरूप अलग ही प्रकार का होगा।
प्रश्न 7.
कहानी में संवादों का क्या महत्त्व है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
कहानी में पात्रों के संवादों का विशेष महत्त्व है। संवाद के बिना पात्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कहानी में संवाद दो प्रकार के कार्य करते हैं। एक तो पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालते हैं दूसरा संवाद कथानक को गति प्रदान करते हैं, उसे आगे बढ़ाते हैं। कहानीकार जिस घटना अथवा प्रतिक्रिया को स्वयं नहीं दिखा पाता, वह उसे संवादों के माध्यम से दिखाता है। इसलिए संवाद कहानी के लिए अनिवार्य हैं, परंतु संवाद पात्रों के स्वभाव तथा उनकी पृष्ठभूमि के अनुकूल होने चाहिएँ।
यही नहीं, संवाद पात्रों के विश्वासों, आदर्शों तथा स्थितियों के अनुकूल भी होने चाहिएँ। कहानी में कहानीकार कभी सामने नहीं आता। संवादों के माध्यम से वह अपनी बात कहता है। जब कोई पात्र संवाद बोलता है तो उससे पात्र का परिचय मिल जाता है। उदाहरण के लिए, जब कोई शिक्षक संवाद बोलेगा तो संवादों को सुनकर ही उसके व्यवसाय का पता चल जाएगा। संक्षेप में, संवाद संक्षिप्त, स्वाभाविक और उद्देश्य से संबंधित होने चाहिएँ। अनावश्यक लंबे-लंबे दुरूह संवाद कहानी को जटिल बना देते हैं।
प्रश्न 8.
कहानी में चरम उत्कर्ष (क्लाइमेक्स) का क्या महत्त्व है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्रत्येक कहानी का एक चरम उत्कर्ष होता है, जिसे अंग्रेज़ी में Climax कहते हैं। कहानी में क्लाइमेक्स की स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब कहानी में वर्णित समस्या का उद्देश्य चरम-सीमा तक पहुँच जाता है। परंतु चरम उत्कर्ष का वर्णन बड़े ध्यान से करना चाहिए। चरम उत्कर्ष भावों तथा पात्रों से जुड़ा होना चाहिए। इस संदर्भ में एक विद्वान ने लिखा है, “सर्वोत्तम यह होता है कि चरम उत्कर्ष पाठक को स्वयं सोचने और लेखकीय पक्षधर की ओर आने के लिए प्रेरित करें लेकिन पाठक को यह भी लगे कि उसे स्वतंत्रता दी गई है और उसने जो निर्णय निकाले हैं, वे उसके अपने हैं।”
प्रश्न 9.
कथानक में द्वंद्व का क्या योगदान है?
उत्तर:
कथानक में मूलभूत तत्त्वों में द्वंद्व का विशेष महत्त्व होता है, क्योंकि द्वंद्व ही कथानक को गति प्रदान करता है। उदाहरण के रूप में यदि दो आदमियों के बीच किसी बात को लेकर कोई सहमति है तो उनके बीच कोई द्वंद्व नहीं होगा। इसका अभिप्राय यह हुआ कि उनकी बातचीत अब आगे नहीं बढ़ सकती। द्वंद्व दो विरोधी तत्त्वों के बीच टकराव या किसी की खोज में आने वाली बाधाओं, अंतर्द्वद्व आदि के कारण उत्पन्न होता है। यदि कहानीकार अपनी कहानी में द्वंद्व को स्पष्ट करेगा तो वह कहानी सफल मानी जाएगी।
अंत में कहानी लिखना भी एक कला है और इस कला को सीखने का सीधा एवं सरल उपाय है कि अच्छी कहानियाँ पढ़ी जाएँ और उनका विश्लेषण किया जाए। इससे कहानी लिखना सहज और कारगर होगा।
जब मैंने पहली कहानी लिखी:
चाहिए तो यह था कि मेरी पहली कहानी प्रेम-कहानी होती। उम्र के एतबार से भी यही मुनासिब था और अदब के एतबार से भी। पर प्रेम के लिए (और प्रेम कहानी के लिए भी) अनुकूल परिस्थितियाँ हों तब काम बने।
मैंने वही लिखा जो मेरे जैसे माहौल में पलने वाले सभी भारतीय युवक लिखते हैं-अबला नारी की कहानी। हिंदी के अधिकांश लेखकों का तो साहित्य में पदार्पण अबला नारी की कहानी से ही होता है और यह दुखांत होनी चाहिए। मैंने भी वैसा ही किया। बड़ी बेमतलब, बेतुकी कहानी थी, न सिर, न पैर और शुरू से आखिर तक मनगढ़ंत, पर चूँकि अबला नारी के बारे में थी और दुखांत थी, इसलिए वानप्रस्थी जी को भी कोई एतराज नहीं हो सकता था, और पिताजी को भी नहीं, इसलिए कहानी, कालिज पत्रिका में स्थान पा गई।
पर इसके कुछ ही देर बाद एक प्रेम कहानी सचमुच कलम पर आ ही गई। नख-शिख से प्रेम-कहानी ही थी, पर किसी दूसरी दुनिया की कहानी, जिससे मैं परिचित नहीं था। तब मैं कालिज छोड़ चुका था, और पिताजी के व्यापार में हाथ बँटाने लगा था। कालिज के दिन पीछे छूटते जा रहे थे, और आगे की दुनिया बड़ी ऊटपटाँग और बेतुकी-सी नज़र आ रही थी।
हर दूसरे दिन कोई-न-कोई अनूठा अनुभव होता। कभी अपने घुटने छिल जाते, कभी किसी दूसरे को तिरस्कृत होते देखता। मन उचट-उचट जाता। तभी एक दिन बाज़ार में….मुझे दो प्रेमी नज़र आए। शाम के वक्त, नमूनों का पुलिंदा बगल में दबाए मैं सदर बाज़ार से शहर की ओर लौट रहा था, जब सरकारी अस्पताल के सामने, बड़े-से नीम के पेड़ के पास मुझे भीड़ खड़ी नज़र आई। भीड़ देखकर मैं यों भी उतावला हो जाया करता था, कदम बढ़ाता पास जा पहुँचा। अंदर झाँककर देखा तो वहाँ दो प्रेमियों का तमाशा चल रहा था। टिप्पणियाँ और ठिठोली भी चल रही थी। घेरे के अंदर एक युवती खड़ी रो रही थी और कुछ दूरी पर एक युवक ज़मीन पर बैठा, दोनों हाथों में अपना सिर थामे, बार-बार लड़की से कह रहा था, “राजो, दो दिन और माँग खा। मैं दो दिन में तंदुरुस्त हो जाऊँगा। फिर मैं मजूरी करने लायक हो जाऊँगा।”
और लड़की बराबर रोए जा रही थी। उसकी नीली-नीली आँखें रो-रोकर सूज रही थीं।
“मैं कहाँ से माँगूं? मुझे अकेले में डर लगता है।”
दोनों प्रेमी, आस-पास खड़ी भीड़ को अपना साक्षी बना रहे थे।
“देखो बाबूजी, मैं बीमार हूँ। इधर अस्पताल में पड़ा हूँ। मैं कहता हूँ दो दिन और माँग खा, फिर मैं चंगा हो जाऊगा।”
लड़की लोगों को अपना साक्षी बनाकर कहती, “यहाँ आकर बीमार पड़ गया, बाबूजी मैं क्या करूँ? इधर पुल पर मजूरी करती रही हूँ, पर यहाँ मुझे डर लगता है।”
इस पर लड़का तड़पकर कहता, “देख राजो, मुझे छोड़कर नहीं जा। इसे समझाओ बाबूजी, यह मुझे छोड़कर चली जाएगी तो इसे मैं कहाँ ढूंदूंगा।”
“यहाँ मुझे डर लगता है। मैं रात को अकेली सड़क पर कैसे रहूँ?”
पता चला कि दोनों प्रेमी गाँव से भागकर शहर में आए हैं, किसी फकीर ने उनका निकाह भी करा दिया है, फटेहाल गरीबी के स्तर पर घिसटने वाले प्रेमी! शहर पहुँचकर कुछ दिन तक तो लड़के को मज़दूरी मिलती रही। पास ही में एक पुल था। वह पुल के एक छोर से सामान उठाता और दूसरे छोर तक ले जाता, जिस काम के लिए उसे इकन्नी मिलती। कभी किसी की साइकल तो कभी किसी का गट्ठर। हनीमून पूरे पाँच दिन तक चला। दोनों ने न केवल खाया-पिया, बल्कि लड़के ने अपनी कमाई में से जापानी छींट का एक जोड़ा भी लड़की को बनवा कर दिया, जो उन दिनों अढ़ाई आने गज़ में बिका करती थी।
दोनों रो रहे थे और तमाशबीन खड़े हँस रहे थे। कोई लड़की की नीली आँखों पर टिप्पणी करता, कोई उनके ऐसे-वैसे’ प्रेम पर, और सड़क की भीड़ में खड़े लोग केवल आवाजें ही नहीं कसते, वे इरादे भी रखते हैं। और एक मौलवी जी लड़की की पीठ सहलाने लगे थे और उसे आश्रय देने का आश्वासन देने लगे थे। और प्रेमी बिलख-बिलख कर प्रेमिका से अपने प्रेम के वास्ते डाल रहा था।
तभी, पटाक्षेप की भाँति अँधेरा उतरने लगा था और पीछे अस्पताल की घंटी बज उठी थी जिसमें प्रेमी युवक भरती हुआ था, और वह गिड़गिड़ाता, चिल्लाता, हाथ बाँधता, लड़की से दो दिन और माँग खाने का प्रेमालाप करता अस्पताल की ओर सरकने लगा और मौलवी जी सरकते हुए लड़की के पास आने लगे, और घबराई, किंकर्तव्यविमूढ़ लड़की, मृग-शावक की भाँति सिर से पैर तक काँप रही थी…….
नायक भी था, नायिका भी थी, खलनायक भी था, भाव भी था, विरह भी कहानी का अंत अनिश्चय के धुंधलके में खोया हुआ भी था।
मैं यह प्रेम कहानी लिखने का लोभ संवरण नहीं कर सका। लुक-छिपकर लिख ही डाली, जो कुछ मुद्दत बाद ‘नीली आँखें शीर्षक से, अमृतरायजी के संपादकत्व में ‘हंस’ में छपी, इसका मैंने आठ रुपये मुआवज़ा भी वसूल किया जो आज के आठ सौ रुपये से भी अधिक था।
पाठ से संवाद
प्रश्न 1.
चरित्र-चित्रण के कई तरीके होते हैं ‘ईदगाह’ कहानी में किन-किन तरीकों का इस्तेमाल किया गया है? इस कहानी में आपको सबसे प्रभावशाली चरित्र किसका लगा और कहानीकार ने उसके चरित्र-चित्रण में किन तरीकों का उपयोग किया है?
उत्तर:
पात्रों का चरित्र-चित्रण कहानी का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। कथानक की आवश्यकतानुसार पात्र चरित्र-चित्रण के अनेक तरीके हैं। चरित्र-चित्रण का सबसे सरल तरीका तो यह है कि कहानीकार स्वयं किसी पात्र के गुणों का बखान करे, परंतु कहानी में यह तरीका प्रभावहीन और पुराना हो चुका है। इस पद्धति से कहानी प्रभावशाली नहीं होती। दूसरा तरीका यह है कि पात्रों का चरित्र-चित्रण उनके क्रिया-कलापों, संवादों तथा दूसरे लोगों के द्वारा बोले गए संवादों द्वारा करें। यह तरीका बड़ा प्रभावशाली व सफल माना गया है। उदाहरण के रूप में, “मुरलीधर ने एक गरीब आदमी को सरदी से ठिठुरते हुए देखा तो अपनी शाल उसे दे दी या। मुरलीधर का दोस्त स्कूल में फीस जमा कराने के लिए लाइन से बाहर निकल आया क्योंकि उसके पास पूरे पैसे नहीं थे। मुरलीधर ने दोस्त को बताए बिना फीस जमा करा दी।”
तीसरा तरीका है अन्य पात्र किसी पात्र का अपने संवादों के माध्यम से चरित्र-चित्रण करें। उदाहरण के रूप में, सदानंद अपने और मुरलीधर के मित्र कृष्ण से कहता है, “यार इतनी बड़ी प्रॉब्लम तो मुरलीधर ही ‘सॉल्व कर सकता है। चलो उसी के पास चलें।” जहाँ तक ‘ईदगाह’ कहानी का प्रश्न है वहाँ इसका चरित्र-चित्रण करते समय दूसरे और तीसरे तरीके का प्रयोग किया गया है, यद्यपि इस कहानी में अमीना, हामिद, महमूद, मोहसिन, नूरे, सम्मी आदि अनेक पात्र हैं, लेकिन इनमें हामिद का चरित्र सर्वाधिक प्रभावशाली हैं। उसका चरित्र-चित्रण करने में कहानीकार ने दूसरे और तीसरे तरीके का समन्वित प्रयोग किया है।
प्रश्न 2.
संवाद कहानी में कई महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं निभाता है। महत्त्व के हिसाब से क्रमवार संवाद की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
संवाद कहानी का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसे कथोपकथन या वार्तालाप भी कहते हैं। कहानीकार कथानक की घटनाओं को गति प्रदान करने के लिए संवादों का प्रयोग करता है तथा वह पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं के लिए भी संवादों का प्रयोग करता है। संवादों का महत्त्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि कहानीकार स्वयं परोक्ष रहकर कहानी के पात्रों के माध्यम से अपनी बात कहता है, परंतु कहानी के संवादों में सरलता, स्वाभाविकता, प्रसंगानुकूलता तथा रोचकता होनी चाहिए। लंबे-लंबे और आलंकारिक संवाद कथा की गति और रोचकता में बाधा पहुँचाते हैं। कहानी के संवाद बोधगम्य एवं पात्रानुकूल होने चाहिएँ। यदि संवाद क्रमवार होंगे तो उनकी भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण होगी।
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि संवाद सरल, स्पष्ट और सरस होने चाहिएँ। उल्लेखनीय बात यह है कि संवाद पात्रानुकूल और प्रसंगानुकूल होने चाहिएँ, तभी वे अपनी सार्थकता सिद्ध कर पाएंगे।
प्रश्न 3.
नीचे दिए गए चित्रों के आधार पर चार छोटी-छोटी कहानियाँ लिखें।
उत्तर:
नोट-शिक्षक की सहायता से विद्यार्थी स्वयं लिखें।
प्रश्न 4.
एक कहानी में कई कहानियाँ छिपी होती हैं। किसी कहानी को किसी खास मोड़ पर रोककर नई स्थिति में कहानी को नया मोड़ दिया जा सकता है। नीचे दी गई परिस्थिति पर कहानी लिखने का प्रयास करें सिद्धेश्वरी ने देखा कि उसका बड़ा बेटा रामचंद्र धीरे-धीरे घर की तरफ आ रहा है। रामचंद्र माँ को बताता है कि उसे अच्छी नौकरी मिल गई। आगे की कहानी आप लिखिए।
उत्तर:
रामचंद्र के मुख से यह सुनकर कि उसे अच्छी नौकरी मिल गई है सिद्धेश्वरी की खुशी का ठिकाना न रहा। उसे लगा कि गरीबी के दिन अब लद गए हैं। वह घर के सभी प्राणियों को अब ठीक से खाना परोस सकेगी। दूसरा बेटा पढ़ाई को पूरा कर सकेगा और छोटे बेटे का ठीक से इलाज हो सकेगा। इस पर सिद्धेश्वरी ने अपने बेटे से पूछा, “बेटा! वेतन कितना मिलेगा।” रामचंद्र ने उत्तर दिया कि माँ मुझे पाँच सौ रुपए मासिक मिलेगा।
सिद्धेश्वरी-बेटा, यह तो बड़ी खुशी की बात है, हमारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे। तुम्हारे पिता मुंशी चंद्रिका प्रसाद को भरपेट भोजन मिलेगा। मोहन अपनी पढ़ाई पूरी कर सकेगा और अब मैं प्रमोद का पूरा इलाज करवाऊँगी।
यह सुनकर रामचंद्र ने अपनी माँ के हाथ में सौ रुपए रख दिए। माँ ने पूछा कि यह पैसे कहाँ से आए। रामचंद्र-माँ, यह सौ रुपए मुझे पेशगी में मिले हैं। मेरी मिल का मालिक बड़ा ही दयालु व्यक्ति है, उसने मेरी योग्यता देखकर ही मुझे नौकरी दी है। माँ ये सब आपके और पिताजी के आशीर्वाद का परिणाम है।